गर्गसंहिता-
(प्रथम गोलोकखण्डः)
अध्यायः(१६)
-अनया आराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः। यत् नो विहाय गोविन्दः प्रीतो याम् अनयत् रहः ॥ (भागवत पुराण -10/30/028)
श्रीकृष्ण-राधिका विवाहवर्णनम्
-श्रीनारद उवाच -
गाश्चारयन् नन्दनमङ्कदेशे
संलालयन् दूरतमं सकाशात् ।
कलिंदजातीरसमीरकंपितं
नंदोऽपि भांडीरवनं जगाम ॥ १ ॥
श्री नारद जी कहते हैं- राजन् ! एक दिन नन्द जी अपने नन्दन को अंक (गोद)में लेकर लाड़ लड़ाते और गौएँ चराते हुए खिरक (गोशाला) के पास से बहुत दूर निकल गये । धीरे-धीरे भाण्डीर वन जा पहुँचे, जो कालिन्दी-नीर का स्पर्श करके बहने वाले तीरवर्ती शीतल समीर के झोंके से कम्पित हो रहा था।।१।
कृष्णेच्छया वेगतरोऽथ वातो
घनैरभून्मेदुरमंबरं च ।
तमालनीपद्रुमपल्लवैश्च
पतद्भिरेजद्भिरतीव भाः कौ ॥ २ ॥
थोड़ी ही देर में श्रीकृष्ण की इच्छा से वायु का वेग अत्यंत प्रखर हो उठा और आकाश मेघों की घटा से आच्छादित हो गया। तमाल और कदम्ब वृक्षों के पल्लव टूट-टूटकर गिरने, उड़ने और अत्यंत भय का उत्पादन करने लगे।२।
तदांधकारे महति प्रजाते
बाले रुदत्यंकगतेऽतिभीते ।
नंदो भयं प्राप शिशुं स बिभ्र-
द्धरिं परेशं शरणं जगाम ॥ ३ ॥
उस समय महान अन्धकार छा गया। नन्द नन्दन रोने लगे। वे पिता की गोद में बहुत भयभीत दिखायी देने लगे। नन्द को भी भय हो गया। वे शिशु को गोद में लिये परमेश्वर श्री हरि की शरण में गये।३।
तदैव कोट्यर्कसमूहदीप्ति-
रागच्छतीवाचलती दिशासु ।
बभूव तस्यां वृषभानुपुत्रीं
ददर्श राधां नवनंदराजः ॥ ४ ॥
उसी क्षण करोड़ों सूर्यों के समूह की सी दिव्य दीप्ति उदित हुई, जो सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त थी; वह क्रमश: निकट आती-सी जान पड़ी उस दीप्ति राशि के भीतर नौ नन्दों के राजा ने वृषभानु नन्दनी श्रीराधा को देखा।४।
कोटींदुबिंबद्युतिमादधानां
नीलांबरां सुंदरमादिवर्णाम् ।
मंजीरधीरध्वनिनूपुराणा-
माबिभ्रतीं शब्दमतीव मंजुम् ॥ ५ ॥
वे करोड़ों चन्द्र मण्डलों की कांति धारण किये हुए थी। उनके श्री अंगों पर आदिवर्ण नील रंग के सुन्दर वस्त्र शोभा पा रहे थे। चरण प्रांत में मंजीरों की धीर-ध्वनि से युक्त नूपुरों का अत्यंत मधुर शब्द हो रहा था। ५।
कांचीकलाकंकणशब्दमिश्रां
हारांगुलीयांगदविस्फुरंतीम् ।
श्रीनासिकामौक्तिकहंसिकीभिः
श्रीकंठचूडामणिकुंडलाढ्याम् ॥ ६ ॥
उस शब्द में कांचीकलाप और कंकणों की झनकार भी मिली थी। रत्नमय हार, मुद्रिका और बाजूबन्दों की प्रभा से वे और भी उद्भासित हो रही थी।
नाक में मोती की बुलाक और नकबेसर की अपूर्व शोभा हो रही थी। कण्ठ में कंठा, सीमंत पर चूड़ामणि और कानों में कुण्डल झलमला रहे थे।६।
तत्तेजसा धर्षित आशु नंदो
नत्वाथ तामाह कृतांजलिः सन् ।
अयं तु साक्षात्पुरुषोत्तमस्त्वं
प्रियास्य मुख्यासि सदैव राधे ॥ ७ ॥
गुप्तं त्विदं गर्गमुखेन वेद्मि
गृहाण राधे निजनाथमंकात् ।
एनं गृहं प्रापय मेघभीतं
वदामि चेत्थं प्रकृतेर्गुणाढ्यम् ॥ ८ ॥
नमामि तुभ्यं भुवि रक्ष मां त्वं
यथेप्सितं सर्वजनैर्दुरापम् ।
श्रीराधोवाव -
अहं प्रसन्ना तव भक्तिभवा-
न्मद्दर्शनं दुर्लभमेव नंद ॥ ९ ॥
-श्रीनंद उवाच -
यदि प्रसन्नासि तदा भवेन्मे
भक्तिर्दृढा कौ युवयोः पदाब्जे ।
सतां च भक्तिस्तव भक्तिभाजां
संगः सदा मेऽथ युगे युगे च ॥ १० ॥
-श्रीनारद उवाच -
तथास्तु चोक्त्वाथ हरिं कराभ्यां
जग्राह राधा निजनाथमंकात् ।
गतेऽथ नंदे प्रणते व्रजेशे
तदा हि भांडीरवनं जगाम ॥ ११ ॥
गोलोकलोकाच्च पुरा समागता
भूमिर्निजं स्वं वपुरादधाना ।
या पद्मरागादिखचित्सुवर्णा
बभूव सा तत्क्षणमेव सर्वा ॥ १२ ॥
वृंदावनं दिव्यवपुर्दधानं
वृक्षैर्वरैः कामदुघैः सहैव ।
कलिंदपुत्री च सुवर्णसौधैः
श्रीरत्नसोपानमयी बभूव ॥ १३ ॥
गोवर्धनो रत्नशिलामयोऽभू-
त्सुवर्णशृङ्गैः परितः स्फुरद्भिः ।
मत्तालिभिर्निर्झरसुंदरीभि-
र्दरीभिरुच्चांगकरीव राजन् ॥ १४ ॥
तदा निकुंजोऽपि निजं वपुर्दध-
त्सभायुतं प्रांगणदिव्यमंडपम् ।
वसंतमाधुर्यधरं मधुव्रतै-
र्मयूरपारावतकोकिलध्वनिम् ॥१५॥
सुवर्णरत्नादिखचित्पटैर्वृतं
पतत्पताकावलिभिर्विराजितम् ।
सरः स्फुरद्भिर्भ्रमरावलीढितै-
र्विचर्चितं कांचनचारुपंकजैः ॥१६॥
तदैव साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तमो
बभूव कैशोरवपुर्घनप्रभः ।
पीतांबरः कौस्तुभरत्नभूषणो
वंशीधरो मन्मथराशिमोहनः ॥१७॥
भुजेन संगृह्य हसन्प्रियां हरि-
र्जगाम मध्ये सुविवाहमंडपम् ।
विवाहसंभारयुतः समेखलं
सदर्भमृद्वारिघटादिमंडितम् ॥१८॥
तत्रैव सिंहासन उद्गते वरे
परस्परं संमिलितौ विरेजतुः ।
परं ब्रुवंतौ मधुरं च दंपती
स्फुरत्प्रभौ खे च तडिद्घनाविव ॥१९॥
तदांबराद्देववरो विधिः प्रभुः
समागतस्तस्य परस्य संमुखे ।
नत्वा तदंघ्री ह्युशती गिराभिः
कृताञ्जलिश्चारु चतुर्मुखो जगौ ॥२०॥
-श्रीब्रह्मोवाच -
अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१॥
गोलोकनाथस्त्वमतीव लीलो
लीलावतीयं निजलोकलीला ।
वैकुंठनाथोऽसि यदा त्वमेव
लक्ष्मीस्तदेयं वृषभानुजा हि ॥२२॥
त्वं रामचंद्रो जनकात्मजेयं
भूमौ हरिस्त्वं कमलालयेयम् ।
यज्ञावतारोऽसि यदा तदेयं
श्रीदक्षिणा स्त्री प्रतिपत्निमुख्या ॥२३॥
त्वं नारसिंहोऽसि रमा तदेयं
नारायणस्त्वं च नरेण युक्तः ।
तदा त्वियं शांतिरतीव साक्षा-
च्छायेव याता च तवानुरूपा ॥२४॥
त्वं ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था
कालो यदेमां च विदुः प्रधानाम् ।
महान्यदा त्वं जगदंकुरोऽसि
राधा तदेयं सगुणा च माया ॥२५॥
यदांतरात्मा विदितश्चतुर्भि-
स्तदा त्वियं लक्षणरूपवृत्तिः ।
यदा विराड्देहधरस्त्वमेव
तदाखिलं वा भुवि धारणेयम् ॥२६॥
श्यामं च गौरं विदितं द्विधा मह-
स्तवैव साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तम ।
गोलोकधामाधिपतिं परेशं
परात्परं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२७॥
सदा पठेद्यो युगलस्तवं परं
गोलोकधामप्रवरं प्रयाति सः ।
इहैव सौंदर्यसमृद्धिसिद्धयो
भवंति तस्यापि निसर्गतः पुनः ॥२८॥
यदा युवां प्रीतियुतौ च दंपती
परात्परौ तावनुरूपरूपितौ ।
तथापि लोकव्यवहारसङ्ग्रहा-
द्विधिं विवाहस्य तु कारयाम्यहम् ॥२९॥
- श्रीनारद उवाच -
तदा स उत्थाय विधिर्हुताशनं
प्रज्वाल्य कुंडे स्थितयोस्तयोः पुरः ।
श्रुतेः करग्राहविधिं विधानतो
विधाय धाता समवस्थितोऽभवत् ॥३०॥
स वाहयामास हरिं च राधिकां
प्रदक्षिणं सप्तहिरण्यरेतसः ।
ततश्च तौ तं प्रणमय्य वेदवित्तौ-
पाठयामास च सप्तमंत्रकम् ॥३१॥
ततो हरेर्वक्षसि राधिकायाः
करं च संस्थाप्य हरेः करं पुनः ।
श्रीराधिकायाः किल पृष्ठदेशके
संस्थाप्य मंत्रांश्च विधिः प्रपाठयन् ॥३२॥
राधा कराभ्यां प्रददौ च मालिकां
किंजल्किनीं कृष्णगलेऽलिनादिनीम् ।
हरेः कराभ्यां वृषभानुजा गले ।
ततश्च वह्निं प्रणमय्य वेदवित् ॥३३॥
संवासयामास सुपीठयोश्च तौ
कृतांजली मौनयुतौ पितामहः ।
तौ पाठयामास तु पंचमंत्रकं
समर्प्य राधां च पितेव कन्यकाम् ॥३४॥
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे श्रीराधिकाविवाहवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
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श्री राधा के दिव्य तेज अभिभूत हो नन्द ने तत्काल उनके सामने मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा- ‘राधे ! ये साक्षात पुरुषोत्तम हैं और तुम इनकी मुख्य प्राणवल्लभा हो।७। यह गुप्त रहस्य मैं गर्गजी के मुख से सुनकर जानता हूँ। राधे ! अपने प्राणनाथ को मेरे अंक से ले लो। ये बादलों की गर्जना से डर गये हैं। इन्होंने लीलावश यहाँ प्रकृति के गुणों को स्वीकार किया है।८। इसीलिये इनके विषय में इस प्रकार भयभीत होने की बात कही गयी है। देवि ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम इस भूतल पर मेरी यथेष्ट रक्षा करो। तुमने कृपा करके ही मुझे दर्शन दिया है, वास्तव में तो तुम सब लोगों के लिये दुर्लभ हो’। ८-१/२। श्री राधा ने कहा- नन्द जी ! तुम ठीक कहते हो। मेरा दर्शन दुर्लभ ही है। आज तुम्हारे भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर ही मैंने तुम्हें दर्शन दिया है। ९। श्री नन्द बोले- देवि ! यदि वास्तव में तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो तुम दोनों प्रिया-प्रियतम के चरणारविन्दों में मेरी सुदृढ भक्ति बनी रहे। साथ ही तुम्हारी भक्ति से भरपूर साधु-संतों का संग मुझे सदा मिलता रहे। प्रत्येक युग में उन संत-महात्माओं के चरणों में मेरा प्रेम बना रहे। ।१०। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! तब ‘तथास्तु’ कहकर श्रीराधा ने नन्द जी को गोद से अपने प्राणनाथ को दोनों हाथों में ले लिया। फिर जब नन्दराय जी उन्हें प्रणाम करके वहाँ से चले गये, तब श्री राधिका जी भाण्डीर वन में गयीं। ।११। पहले गोलोकधाम से जो ‘पृथ्वी देवी’ इस भूतल पर उतरी थी, वे उस समय अपना दिव्य रूप धारण करके प्रकट हुई। उक्त धाम में जिस तरह पद्भराग मणि से जटित सुवर्णमयी भूमि शोभा पाती है, उसी तरह इस भूतल पर भी व्रजमण्डल में उस दिव्य भूमिका तत्क्षण अपने सम्पूर्ण रूप से आविर्भाव हो गया।१२। वृन्दावन काम पूरक दिव्य वृक्षों के साथ अपन दिव्य रूप धारण करके शोभा पाने लगा। कलिन्दनन्दिनी यमुना भी तट पर सुवर्णनिर्मित प्रासादी तथा सुन्दर रत्नमय सोपानों से सम्पन्न हो गयी।१३। गोवर्धन पर्वत रत्नमयी शिलाओं से परिपूर्ण हो गया। उसके स्वर्णमय शिखर सब ओर से उद्भासित होने लगे। राजन ! मतवाले भ्रमरों तथा झरनों से सुशोभित कन्दराओं द्वारा वह पर्वतराज अत्यंत ऊँचे अंग वाले गजराज की भाँति सुशोभित हो रहा था।१४। उस समय वृन्दावन के निकुंज ने भी अपना दिव्य रूप प्रकट किया। उसमें सभाभवन, प्रांगण तथा दिव्य मण्डप शोभा पाने लगे। वसंत ऋतु की सारी मधुरिमा वहाँ अभिवयक्त हो गयी। मधुपों, मयूरों, कपोतों तथा कोकिलों के कलरव सुनायी देने लगे।१५। |
निकुंजवर्ती दिव्य मण्डपों के शिखर सुवर्ण-रत्नादि से खचित कलशों से अलंकृत थे। सब ओर फहराती हुई पताकाएँ उनकी शोभा बढ़ाती थी। वहाँ एक सुन्दर सरोवर प्रकट हुआ, जहाँ सुवर्णमय सुन्दर सरोज खिले हुए थे और उन सरोजों पर बैठी हुई मधुपावलियाँ उनके मधुर मकरन्द का पान कर रही थी।१६।
दिव्यधाम की शोभा का अवतरण होते ही साक्षात पुरुषोत्तमोत्तम घनश्याम भगवान श्रीकृष्ण किशोरावस्था के अनुरूप दिव्य देह धारण करके श्री राधा के सम्मुख खड़े हो गये।
उनके श्री अंगों पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। कौस्तुभ मणि से विभूषित हो, हाथ में वंशी धारण किये वे नन्दनन्दन राशि-राशि मन्मथों (कामदेवों) को मोहित करने लगे। १७।
उन्होंने हँसते हुए प्रियतमा का हाथ अपने हाथ में थाम लिया और उनके साथ विवाह-मण्डप में प्रविष्ट हुए। उस मण्ड़प में विवाह की सब सामग्री संग्रह करके रखी गयी थी। मेखला, कुशा, सप्तमृत्तिका और जल से भरे कलश आदि उस मण्ड़प की शोभा बढ़ा रहे थे। १८।
वहीं एक श्रेष्ठ सिंहासन प्रकट हुआ, जिस पर वे दोनों प्रिया-प्रियतम एक-दूसरे से सटकर विराजित हो गये और अपनी दिव्य शोभा का प्रसार करने लगे। वे दोनों एक-दूसरे से मीठी-मीठी बातें करते हुए मेघ और विधुत की भाँति अपनी प्रभा से उद्दीप्त हो रहे थे। १९।
उसी समय देवताओं में श्रेष्ठ विधाता-भगवान ब्रह्मा आकाश से उतर कर परमात्मा श्रीकृष्ण के सम्मुख आये और उन दोनों के चरणों में प्रणाम करके, हाथ जोड़ कमनीय वाणी द्वारा चारों मुखों से मनोहर स्तुति करने लगे।२०।
श्री ब्रह्मा जी बोले- प्रभो ! आप सबके आदिकारण हैं, किंतु आपका कोई आदि-अंत नहीं है। आप समस्त पुरुषोत्तमों में उत्तम हैं। अपने भक्तों पर सदा वात्सल्य भाव रखने वाले और ‘श्रीकृष्ण’ नाम से विख्यात हैं। अगणित ब्रह्माण्ड के पालक-पति हैं। ऐसे आप परात्पर प्रभु राधा-प्राणवल्लभ श्रीकृष्णचन्द्र की मैं शरण लेता हूँ। ।२१।
आप गोलोकधाम के अधिनाथ है, आपकी लीलाओं का कहीं अंत नहीं है। आपके साथ ये लीलावती श्रीराधा अपने लोक (नित्यधाम) में ललित लीलाएँ किया करती हैं। जब आप ही ‘वैकुण्ठनाथ’ के रूप में विराजमान होते हैं, तब ये वृषभानु नन्दिनी ही ‘लक्ष्मी’ रूप से आपके साथ सुशोभित होती हैं। २२।
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