वे भगवान् सहस्र बाहू विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे । और स्वयं दत्तात्रेय ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें स्वेक्षा से वरदान दिया था।
दस वरदान जिन्हें भगवान् दत्तात्रेय ने कार्तवीर्यार्जुन को प्रदान किये
1- ऐश्वर्य शक्ति प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।2- दूसरो में मन की बात जानने का ज्ञान हो।3- युद्ध में कोई सामना न कर सके।4- युद्ध के समय उनकी सहत्र भुजाये प्राप्त हो, उनका भार न लगे 5- पर्वत, आकाश। जल। प्रथ्वी और पाताल में अब्याहत गति हो।6-मेरी मृत्यु अधिक श्रेष्ठ हाथो से हो।7-कुमार्ग में प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।8- श्रेष्ठ अतिथि की निरंतर प्राप्ति होती रहे।9- निरंतर दान से धन न घटे।10- स्मरण मात्र से धन का आभाव दूर हो जावे एवं भक्ति बनी रहे।
मांगे गए वरदानों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि सहस्त्रबाहु अर्जुन अर्थात कार्तवीर्यार्जुन ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार आचरण करने वाले, शत्रु में मन की बात जान लेने वाले, हमेशा सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथि सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने।
पृथ्वी लोक मृत लोक है, यहाँ जन्म लेने वाला कोई भी अमरत्व को प्राप्त नहीं है, यहाँ तक की दुसरे समाज के लोग जो परशुराम को भगवान् की संज्ञा प्रदान करते है और सहस्त्रबाहु को कुछ और की संज्ञा प्रदान कर रहे है, परशुराम द्वारा निसहाय लोगों/क्षत्रियों का अनावश्यक बध करना जैसे कृत्यों से ही क्षुब्ध होकर त्रेतायुग में भगवान् राम जी ने उनसे अमोघ शक्ति वापस ले ली थी।
और उन्हें तपस्या हेतु बन जाना पड़ा, वे भी अमरत्व को प्राप्त नहीं हुए। भगवान् श्री रामचंद्र जी द्वारा अमोघ शक्ति वापस ले लेना ही सिद्ध करता है की, परशुराम जी सन्मार्ग पर स्वयं नहीं चल रहे थे।एक समाज द्वारा दुसरे समाज के लोगो की भावनाओं को कुरेदना तथा भड़काना सभ्य समाज के प्राणियों, विद्वानों को शोभा नहीं देता है। महाराज कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हमारे लिए पूज्यनीय थे, पूज्यनीय रहेगे।
परशुराम ने केवल उनकी सहस्र भुजाओं का उच्छेदन भले ही कर दिया हो परन्तु उनका बध कभी नहीं हुआ -
महाराज सहस्रार्जुन जी का वध नही हुआ। अंत समय मे उन्होने समाधि ले ली।इसकी व्याख्या कई पौराणिक कथाओ में की गयी है।
साक्ष्य के रूप मे माहेश्वर स्थित श्री राजराजेश्वर समाधि मंदिर, प्रामाणिक साक्ष्य है।श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन मंदिर मे समाधि मंदिर मे अनंत काल से 11 अखंड दीपक प्रज्ज्वलित है।
यहाँ शिवलिंग स्थापित है जिसमे श्री कार्तवीर्यार्जुन जी की आत्म-ज्योति ने प्रवेश किया था। उनके पुत्र जयध्यज की राज्याभिषेक के बाद उन्होने यहाँ योग समाधि ली थी। मंत्र महोदधि के अनुसार श्री कार्तवीर्यार्जुन को दीपक प्रिय है इसलिए समाधि के पास 11 अखंड दीपक जल रहे है।दूसरी ओर दीपक जलने से यह भी सिद्ध होता है की यह समाधि श्री कार्तवीर्यार्जुन की है।
हिन्दू समाज मे स्मारक को पूजने की परंपरा नही है परंतु महेश्वर मे अनंत काल से पूजन परंपरा और अखंड दीपक जलते रहे है।अतएव कार्तवीर्यार्जुन के वध की मान्यता निरधार व कपोल कल्पित है।
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"महाभारत ग्रन्थ और भारतीय पुराणों में वर्णित जिन क्षत्रियों को परशुराम द्वारा मारने की बात हुई है वे सहस्रबाहू के वंशज हैहय वंश के यादव ही थे ।
भार्गवों- जमदग्नि, परशुराम आदि और हैहयवंशी यादवों की शत्रुता का कारण बहुत गूढ़ है । जमदग्नि और सहस्र बाहू परस्पर हमजुल्फ( साढू संस्कृत रूप- श्यालिबोढ़्री ) थे । परशुराम की माता रेणुका और सहस्रबाहू की पत्नी वेणुका सगी बहिनें थी
और स्वयं परशुराम की उत्पत्ति सहस्रबाहु के द्वारा गुप्त यौन-सम्बन्ध से हुई थी।
परशुराम की अवैध सम्बन्धों से हुई उत्पत्ति को छुपाने के लिए इसके विपरीत सहस्रबाहू के वंशजों की काल्पनिक कथाऐं का सृजन शास्त्रीय सिद्धान्तों की तिलाञ्जलि देकर किया गया।
इसी तथ्य की पड़ताल में हम शास्त्रीय विश्लेषण करेंगे-
वैसे भी परशुराम का स्वभाव ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि से नहीं अपितु सहस्रबाहु से मेल खाता है विज्ञान की भाषा में इसे ही जेनेटिक अथवा आनुवंशिक गुण कहते हैं ।
रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या थीं जो परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थीं, जिनके पाँच पुत्र थे।
एक बार ऋतु काल में सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने पर जमदग्नि मुनि को रेणुका और चित्ररथ की समस्त घटना ज्ञात हो गयी।
उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ।
अन्त में परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा।
जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह रेणुका (पद्म) कमल से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे।
सन्दर्भ- (महाभारत- अरण्यपर्व- अध्याय-११६ )
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"परन्तु उपर्युक्त आख्यानक के कुछ पहलू विचारणीय हैं। जैसे कि रेणुका का कमल से उत्पन्न होना, और जमदग्नि के द्वारा उसका पुनर्जीवित करना ! दोनों ही घटनाऐं प्रकृति के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से काल्पनिक हैं ।जैसा की पुराणों में अक्सर किया जाता है ।
और तृतीय आख्यानक यह है कि "भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुराम का उत्पन्न होना है।
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"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करना विष्णु अवतारी का गुण नहीं हो सकता है।
"मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।12-48-59
"सा पुनः क्षत्रियशतैः पृथिवी सर्वतः स्तृता। परावसोर्वचः श्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।12-48-60
"ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः। ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।12-48-61
"स पुनस्ताञ्जघानाशु बालानपि नराधिप। गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ता पुनरेवाभवत्तदा।12-48-62
"जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषितः।12-48-63
"त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।12-48-64
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"अर्थ- मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये है।
राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया।
पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। नरेश्वर ! उन्होंने पुनः उन सबके छोटे छोटे बच्चों तक को शीघ्र ही मार डाला।_______________________________________
जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी।
परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे।
उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी। राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् ( स्रुवा)लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं।
उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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परशुराम के जन्म की कथा _
सन्दर्भ- कालिकापुराण अध्यायः (८३) मेेंं वर्णित है
।। त्र्यशीतितमोऽध्यायः ।।83।।
।।और्व्व उवाच।।
"अथ काले व्यतीते तु जमदग्निर्महातपाः।
विदर्भराजस्य सुतां प्रयत्नेन जितां स्वयम्।। ८३.१ ।।
अर्थ-
"भार्यार्थं प्रतिजग्राह रेणुकां लक्षणान्विताम्।
सा तस्मात् सुषुवे षत्रांश्चतुरो वेदसम्मितान्।। ८३.२ ।।अर्थ-
"रुषण्वन्तं सुषेणां च वसुं विश्वावसुं तथा।
पश्चात् तस्यां स्वयं जज्ञे भगवान् परशुराम:।८३.३ ।।
अर्थ-
"कार्तवीर्यवधायाशु शक्राद्यैः सकलैः सुरैः।
याचितः पंचमः सोऽभूत् रामाह्वयस्तु सः।। ८३.४ ।।
"भारावतरणार्थाय जातः परशुना सह।
सहजं परशुं तस्य न जहाति कदाचन।। ८३.५ ।।
___________
"अयं निजपितामह्याश्चरुभुक्तिविपर्ययात्।
ब्राह्मणःक्षत्रियाचारो रामोऽभूत क्रूरकर्मकृत्।८३.६ ।।
"स वेदानखिलान् ज्ञात्वा धनुर्वेदं च सर्वशः।
सततं कृतकृत्योऽभूद् वेदविद्याविशारदः।। ८३.७ ।।
____________________________
"एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।
गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।। ८३.८ ।।
"भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।
सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्।। ८३.९ ।।
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"तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्।
रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे।। ८३.१० ।।
"स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदः समजायत।
विचेतनाम्भसा क्लिन्ना त्रस्ता सा स्वाश्रमं ययौ।८३.११।।
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"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः।। ८३.१२ ।।
"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।
रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।। ८३.१३ ।।
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"छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।
ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।। ८३.१४ ।।
"कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।
गाधिं नृपतिशार्दूलं स चोवाच नृपो मुनिम्।८३.१५ ।।
"भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिगर्धिताः।अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान्।। ८३.१६ ।।
"तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।। ८३.१७ ।।
"पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वा विक्रोधनोऽभवत्।। ८३.१८ ।।
"जमदग्निः प्रसन्नः सन्निति वाचमुवाच ह।
प्रीतोऽस्मि पुत्र भद्र ते यत् त्वया मद्वचः कृतम्।८३.१९
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"तस्मादिष्टान् वरान् कामांस्त्वं वै वरय साम्प्रतम्।
स तु रामो वरान् वव्रे मातुरुत्थानमादितः।। ८३.२० ।।
वधस्यास्मरणं तस्या भ्रातृणां शपमोचनम्।
मातृहत्याव्यपनयं युद्धे सर्वत्र वै जयम्।। ८३.२१ ।।
आयुः कल्पान्तपर्यन्तं क्रमाद् वै नृपसत्तम।
सर्वान् वरान् स प्रददौ जमदग्निर्महातपाः।। ८३.२२ ।।
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"सुप्तोत्यितेव जननी रेणुका च तदाभवत्।
वधं न चापि सस्मार सहजा प्रकृतिस्थिता।८३.२३।।
युद्धे जयं चिरायुष्यं लेभे रामस्तदैव हि।
मातृहत्याव्यपोहाय पिता तं वाक्यमव्रवीत्।। ८३.२४ ।।
न पुत्र वरदानेन मातृहत्यापगच्छति।
तस्मात् त्वं ब्रह्मकुण्डाय गच्छ स्नातुं च तज्जले।८३.२५।
तत्र स्नात्वा मुक्तपापो नचिरात् पुनरेष्यसि।
जगद्धिताय पुत्र त्वं ब्रह्मकुण्डं व्रज द्रुतम्।। ८३.२६ ।।
स तस्य वचन श्रुत्वा रामः परशुधृक् तदा।
उपदेशात् पितुर्घातो ब्रह्मकुण्डं वृषोदकम्।। ८३.२७ ।।
तत्र स्नानं च विधिवत् कृत्वा धौतपरश्वधः।
शरीरान्निःसृतां मातृहत्यां सम्यग् व्यलोकयत्।। ८३.२८ ।।
जातसंप्रत्ययः सोऽथ तीर्थमासाद्य तद्वरम्।
वीथीं परशुना कृत्वा ब्रह्मपुत्रमवाहयत्।। ८३.२९ ।।
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ब्रह्मकुण्डात् सृतः सोऽथ कासारे लोहिताह्वये।
कैलासोपत्यकायां तु न्यपतद् ब्रह्मणः सुतः।८३.३०।
तस्यापि सरसस्तीरे समुत्थाय महाबलः।
कुठारेण दिशं पूर्वामनयद् ब्रह्मणः सुतम्।। ८३.३१ ।।
ततः परत्रापि गिरिं हेमशृङ्गं विभिद्य च।
कामरूपान्तरं पीठमावहद्यदमुं हरिः।। ८३.३२ ।।
तस्य नाम स्वयं चक्रे विधिर्लोहितगङ्गकम्।
लोहितात् सरसो जातो लोहिताख्यस्ततोऽभवत्।८३.३३।
स कामरूपमखिलं पीठमाप्लाव्य वारिणा।
गोपयन् सर्वतीर्थानि दक्षिणं याति सागरम्।। ८३.३४ ।।
प्रागेव दिव्ययमुनां स त्यक्त्वा ब्रह्मणः सुतः।
पुनः पतति लौहित्ये गत्वा द्वादशयोजनम्।। ८३.३५ ।।
चैत्रे मासि सिताष्टम्यां यो नरो नियतेन्द्रियः।
चैत्रं तु सकलं मासं शुचिः प्रयतमानसः।। ८३.३६ ।।
स्नाति लौहित्यतोये तु स याति ब्रह्मणः पदम्।
लौहित्यतोये यः स्नाति स कैवल्यमवाप्नुयात्।। ८३.३७ ।।
इति ते कथितं राजन् यदर्थं मातरं पुरा।
अहन् वीरो जामदग्न्यो यस्माद् वा क्रूरकर्मकृत्।८३.३८।।
इदं तु महदाख्यानं यः शृणोति दिने दिने।
स दीर्घायुः प्रमुदितो बलवानभिजायते।। ८३.३९ ।।
इति ते कथितं राजञ्छरीरार्धं यथाद्रिजा।
शम्भोर्जहार वेतालभैरवौ च यथाह्वयौ।।८३.४० ।।
यस्य वा तनयौ जातौ यथा यातौ गणेशताम्।
किमन्यत् कथये तुभ्यं तद्वदस्व नृपोत्तम।८३.४१ ।।
।।मार्कण्डेय उवाच।।
इत्यौर्व्वस्य च संवादः सगरेम महात्मना।
योऽसौ कायार्धहरणं शम्भोर्गिरिजया कृतः।। ८३.४२ ।।
सर्वोऽद्य कथितो विप्राः पृष्टं यच्चान्यदुत्तमम्।
सिद्धस्य भैरवाख्यस्य पीठानां च विनिर्णयम्।। ८३.४३ ।।
भृङ्गिणश्च यथोत्पत्तिर्महाकालस्य चैव हि।
उक्तं हि वः किमन्यत् तु पृच्छन्तु द्विजसत्तमाः।८३.४४ ।
इति सकलसुतन्त्रं तन्त्रमन्त्रावदातं बहुतरफलकारि प्राज्ञविश्रामकल्पम्।
उपनिषदमवेत्य ज्ञानमार्गेकतानं स्रवति स इह नित्यं यः पठेत् तन्त्रमेतत्।८३.४५ ।।
। इति श्रीकालिकापुराणे त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।
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"महाभारत के अरण्यपर्व अनुसार परशुराम का जन्म"
वैशंपायन उवाच। 3-116-1x
स तत्र तामुषित्वैकां रजनीं पृथिवीपतिः। तापसानां परं चक्रे सत्कारं भ्रातृभिः सह । 3-116
लोमशस्तस्य तान्सर्वानाचख्यौ तत्र तापसान्।भृगूनङ्गिरसश्चैव वसिष्ठानथ काश्यपान् ।3-116-2।
तान्समेत्य सा राजर्षिरभिवाद्य कृताञ्जलिः। रामस्यानुचरं वीरमपृच्छदकृतव्रणम् ।। 3-116-3।
कदा नु रामो भगवांस्तापसो दर्शयिष्यति। तमहं तपसा युक्तं द्रष्टुमिच्छामि भार्गवम् ।। 3-116-4
अकृतव्रण उवाच।
आयानेवासि विदितो रामस्य विदितात्मनः। प्रीतिस्त्वयि च रामस्य क्षिप्रं त्वां दर्शयिष्यति ।3-116-5
चतुर्दशीमष्टमीं च रामं पश्यन्ति तापसाः। अस्यां रात्र्यां व्यतीतायां भवित्री श्वश्चतुर्दशी।3-116-6
`ततो द्रक्ष्यसि रामं त्वं कृष्णाजिनजटाधरम्'। 3-116-7
युधिष्ठिर उवाच। 3-116-7
भवाननुगतो रामं जामदग्न्यं महाबलम्। प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पूर्ववृत्तस्य कर्मणः ।। 3-116-7
स भवान्कथयत्वद्य यथा रामेण निर्जिताः। आहवे क्षत्रियाः सर्वे कथं केन च हेतुना ।। 3-116-8
अकृतव्रण उवाच। 3-116-9
[हन्त ते कथयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्। भृगूणां राजशार्दूल वंशे जातस्य भारत ।। 3-116-9
रामस्य जामदग्न्यस्य चरितं देवसंमितम्। हैहयाधिपतेश्चैव कार्तवीर्यस् भारत ।। 3-116-10
रामेण चार्जुनो नाम हैहयाधिपतिर्हतिः। तस्य बाहुशतान्यासंस्त्रीणि सप्त च पाण्डव ।3-116-11
दत्तात्रेयप्रसादेन विमानं काञ्चनं तथा। ऐश्वर्यं सर्वभूतेषु पृथिव्यां पृथिवीपते ।। 3-116-12
अव्घाहतगतिश्चैव रथस्तस्य महात्मनः। रथेन तेन तु सदावरदानेन वीर्यवान् ।। 3-116-13
ममर्द देवान्यक्षांश्च ऋषींश्चैव समन्ततः। भूतांश्चैव स सर्वांस्तु पीडयामास सर्वतः।। 3-116-14
ततो देवाः समेत्याहुर्ऋषयश्च महाव्रताः। देवदेवं सुरारिघ्नं विष्णुं सत्यपराक्रमम्।भगवन्भूतरार्थमर्जुनं जहि वै प्रभो ।। 3-116-15
विमानेन च दिव्येन हैहयाधिपतिः प्रभुः। शचीसहायं क्रीडन्तं धर्षयामास वासवम् ।। 3-116-16
ततस्तु भगवान्देवः शक्रेण सहितस्तदा।कार्तवीर्यविनाशार्थं मन्त्रयामास भारत ।। 3-116-17
यत्तद्भूतहितं कार्यं सुरेन्द्रेण निवेदितम्। संप्रतिश्रुत्य तत्सर्वं भगवाँल्लोकपूजितः।जगाम बदरीं रम्यां स्वमेवाश्रममण्डलम् ।। 3-116-18
एतस्मिन्नेव काले तु पृथिव्यां पृथिवीपतिः।]कान्यकुब्जे महानासीत्पार्थिवः सुमहाबलः।गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह ।। 3-116-19
वने तु तस्य वसतः कन्या जज्ञेऽप्सरःसमा।ऋचीको भार्गवस्तां च वरयामास भारत ।। 3-116-20
तमुवाच ततो गाधिर्ब्राह्मणं संशितव्रतम्।उचितं नः कुले किंचित्पूर्वैर्यत्संप्रवर्तितम् ।। 3-116-21
एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्। सहस्रं वाजिनां शुक्लमिति विद्धि द्विजोत्तम | 3-116-22
न चापि भगवान्वाच्योदीयतामिति भार्गव। देया मे दुहिता चैव त्वद्विधाय महात्मने ।। 3-116-23
ऋचीक उवाच। 3-116-24×
एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।दास्याम्यश्वसहस्रं ते मम भार्या सुताऽस्तु ते ।। 3-116-24
।।गाधिरुवाच। 3-116-25x
ददास्यश्वसहस्रं मे तव भार्या सुताऽस्तु मे' ।। 3-116-25
अकृतव्रण उवाच। 3-116-26xस तथेति प्रतिज्ञाय राजन्वरुणमब्रवीत्।
एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।सहस्रं वाजिनामेकं शुल्कार्थं प्रतिदीयताम् ।। 3-116-26
तस्मै प्रादात्सहस्रं वै वाजिनां वरुणस्तदा।तदश्वतीर्थं विख्यातमुत्थिता यत्र ते हयाः ।। 3-116-27
गङ्गायां कान्यकुब्जे वै ददौ सत्यवतीं तदा।ततो गाधिः सुतां चास्मै जन्याश्चासन्सुरास्तदा।3-116-28
लब्धं हयसहस्रं तु तां च दृष्ट्वा दिवौकसः।विस्मयं परमं जग्मुस्तमेव दिवि संस्तुवन्' ।3-116-29a
धर्मेण लब्ध्वा तां भार्यामृचीको द्विजसत्तमः।यथाकामं यथाजोषं तया रेमे सुमध्यया ।। 3-116-30
तं विवाहे कृतेराजन्सभार्यमवलोककः।आजगाम भृगुश्रेष्ठः पुत्रं दृष्ट्वा ननन्द च ।। 3-116-31
भार्यापती तमासीनं भृगुं सुरगणार्चितम्।अर्चित्वा पर्युपासीनौ प्राञ्जली तस्थतुस्तदा ।। 3-116-32
ततः स्नुषां स भगवान्प्रहृष्टो भृगुरब्रवीत्।वरं वृणीष्व सुभगे दाता ह्यस्मि तवेप्सितम् ।। 3-116-33
सा वै प्रसादयाभास तं गुरुं पुत्रकारणात्।आत्मनश्चैव मातुश्च प्रसादं च चकार सः ।। 3-116-34
भृगुरुवाच। 3-116-35x
ऋतौ त्वं चैव माता च स्नाते पुंसवनाय वै।आलिङ्गेतां पृथग्वृक्षौ साऽस्वत्थं त्वमुदुम्बरम् ।3-116-35
चरुद्वयमिदं भद्रे जनन्याश्च तवैव च।विश्वमावर्तयित्वा तु मया यत्नेन साधितम् ।। 3-116-36
प्राशितव्यं प्रयत्नेन तेत्युक्त्वाऽदर्शनं गतः।आलिङ्गने चरौ चैव चक्रतुस्ते विपर्ययम् ।। 3-116-37
ततः पुन स भगवान्काले बहुतिथे गते। दिव्यज्ञानाद्विदित्वा तु भगवानागतः पुनः ।। 3-116-38
अथोवाच महातेजा भृगुः सत्यवतीं श्नुषाम् ।। 3-116-39
उपयुक्तश्चरुर्भद्रे वृक्षे चालिङ्गनं कृतम्। विपरीतेन ते सुभ्रूर्मात्रा चैवासि वञ्चिता ।। 3-116-40
क्षत्रियो ब्राह्मणाचारो मातुस्तव सुतो महान्। भविष्यति महावीर्यः साधूनां मार्गमास्थितः। 3-116-41
ततः प्रसादयामास श्वशुरं सा पुनःपुनः। न मे पुत्रो भवेदीदृक्कामं पौत्रो भवेदिति ।। 3-116-42
एवमस्त्विति सा तेन पाण्डव प्रतिनन्दिता। कालं प्रतीक्षती गर्भं धारयामास यत्नतः ।3-116-43
जमदग्निं ततः पुत्रं जज्ञे सा काल आगते। तेजसा वर्चसा चैव युक्तं भार्गवनन्दनम् ।। 3-116-44
स वर्धमानस्तेजस्वी वेदस्याध्ययनेन च। बहूनृषीन्महातेजाः पाण्डवेयात्यवर्तत ।। 3-116-45
तं तु कृत्स्नो धनुर्वेदः प्रत्यभाद्भरतर्षभ। चतुर्विधानि चास्त्राणि भास्करोपमवर्चसम् ।। 3-116-46
।।इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
तीर्थयात्रापर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ।। 116 ।।
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सूत उवाच ।
(अनुष्टुप्)
जगृहे पौरुषं रूपं भगवान् महदादिभिः ।
संभूतं षोडशकलं आदौ लोकसिसृक्षया ॥। १ ॥
यस्याम्भसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतः ।
नाभिह्रदाम्बुजादासीद् ब्रह्मा विश्वसृजां पतिः ॥ २ ॥
यस्यावयवसंस्थानैः कल्पितो लोकविस्तरः ।
तद् वै भगवतो रूपं विशुद्धं सत्त्वमूर्जितम् ॥। ३ ॥
(इंद्रवंशा)
पश्यन्त्यदो रूपमदभ्रचक्षुषा
सहस्रपादोरुभुजाननाद्भुतम् ।
सहस्रमूर्धश्रवणाक्षिनासिकं
सहस्रमौल्यम्बरकुण्डलोल्लसत् ॥ ४ ॥
(अनुष्टुप्)
एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् ।
यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यङ्नरादयः ॥ ५ ॥
स एव प्रथमं देवः कौमारं सर्गमाश्रितः ।
चचार दुश्चरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ॥ ६ ॥
द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम् ।
उद्धरिष्यन् उपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः ॥ ७ ॥
तृतीयं ऋषिसर्गं वै देवर्षित्वमुपेत्य सः ।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः ॥ ८ ॥
तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणौ ऋषी ।
भूत्वात्मोपशमोपेतं अकरोद् दुश्चरं तपः ॥ ९ ॥
पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् ।
प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ॥ १० ॥
षष्ठे अत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया ।
आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान् ॥ ११ ॥
ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत ।
स यामाद्यैः सुरगणैः अपात् स्वायंभुवान्तरम् ॥ १२ ॥
अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः ।
दर्शयन्वर्त्म धीराणां सर्वाश्रम नमस्कृतम् ॥ १३ ॥
ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः ।
दुग्धेमामोषधीर्विप्राः तेनायं स उशत्तमः ॥ १४ ॥
रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसंप्लवे ।
नाव्यारोप्य महीमय्यां अपाद् वैवस्वतं मनुम् ॥ १५ ॥
सुरासुराणां उदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् ।
दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः ॥ १६ ॥
धान्वन्तरं द्वादशमं त्रयोदशममेव च ।
अपाययत् सुरान् अन्यान् मोहिन्या मोहयन् स्त्रिया ॥ १७ ॥
चतुर्दशं नारसिंहं बिभ्रद् दैत्येन्द्रमूर्जितम् ।
ददार करजैरुरौ एरकां कटकृत् यथा ॥ १८ ॥
पञ्चदशं वामनकं कृत्वागादध्वरं बलेः ।
पदत्रयं याचमानः प्रत्यादित्सुस्त्रिविष्टपम् ॥ १९ ॥
अवतारे षोडशमे पश्यन् ब्रह्मद्रुहो नृपान् ।
त्रिःसप्तकृत्वः कुपितो निःक्षत्रां अकरोन् महीम् ॥ २० ॥
ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात् ।
चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधसः ॥ २१ ॥
नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया ।
समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम् ॥ २२ ॥
एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।
रामकृष्णाविति भुवो भगवान् अहरद् भरम् ॥ २३ ॥
ततः कलौ संप्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।
बुद्धो नाम्नांजनसुतः कीकटेषु भविष्यति ॥ २४ ॥
अथासौ युगसंध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु ।
जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः ॥ २५ ॥
अवतारा ह्यसङ्ख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः ।
यथाविदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः ॥ २६ ॥
ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः ।
कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयः तथा ॥ २७ ॥
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८ ॥
जन्म गुह्यं भगवतो य एतत्प्रयतो नरः ।
सायं प्रातर्गृणन् भक्त्या दुःखग्रामाद् विमुच्यते ॥ २९ ॥
एतद् रूपं भगवतो ह्यरूपस्य चिदात्मनः ।
मायागुणैर्विरचितं महदादिभिरात्मनि ॥ ३० ॥
यथा नभसि मेघौघो रेणुर्वा पार्थिवोऽनिले ।
एवं द्रष्टरि दृश्यत्वं आरोपितं अबुद्धिभिः ॥ ३१ ॥
अतः परं यदव्यक्तं अव्यूढगुणबृंहितम् ।
अदृष्टाश्रुतवस्तुत्वात् स जीवो यत् पुनर्भवः ॥ ३२ ॥
यत्रेमे सदसद् रूपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा ।
अविद्ययाऽऽत्मनि कृते इति तद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ ३३ ॥
यद्येषोपरता देवी माया वैशारदी मतिः ।
संपन्न एवेति विदुः महिम्नि स्वे महीयते ॥ ३४ ॥
एवं जन्मानि कर्माणि ह्यकर्तुरजनस्य च ।
वर्णयन्ति स्म कवयो वेदगुह्यानि हृत्पतेः ॥ ३५ ॥
(उपेंद्रवज्रा)
स वा इदं विश्वममोघलीलः
सृजत्यवत्यत्ति न सज्जतेऽस्मिन् ।
भूतेषु चान्तर्हित आत्मतंत्रः
षाड्वर्गिकं जिघ्रति षड्गुणेशः ॥ ३६ ॥
न चास्य कश्चिन्निपुणेन धातुः
अवैति जन्तुः कुमनीष ऊतीः ।
नामानि रूपाणि मनोवचोभिः
सन्तन्वतो नटचर्यामिवाज्ञः ॥ ३७ ॥
स वेद धातुः पदवीं परस्य
दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणेः ।
योऽमायया सन्ततयानुवृत्त्या
भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ॥ ३८ ॥
अथेह धन्या भगवन्त इत्थं
यद्वासुदेवेऽखिललोकनाथे ।
कुर्वन्ति सर्वात्मकमात्मभावं
न यत्र भूयः परिवर्त उग्रः ॥ ३९ ॥
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवान् ऋषिः ॥ ४० ॥
(अनुष्टुप्)
निःश्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत् ।
तदिदं ग्राहयामास सुतं आत्मवतां वरम् ॥ ४१ ॥
सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्धृतम् ।
स तु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम् ॥ ४२ ॥
प्रायोपविष्टं गङ्गायां परीतं परमर्षिभिः ।
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ॥ ४३ ॥
कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्कोऽधुनोदितः ।
तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रर्षेर्भूरितेजसः ॥ ४४ ॥
अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तद् अनुग्रहात् ।
सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाधीतं यथामति ॥ ४५ ॥
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इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
प्रथम स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद-
चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब विष्णु ने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की।
जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया।
बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया।
चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है।
पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी।
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सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया।
इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति को देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं।
अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं।
उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा।
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उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा।
इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे।
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शौनकादि ऋषियों ! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं।
ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं।
जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं।
भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय-रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है।
प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है।
जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं- वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं।
सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया। जैसा कि महाभारत में वर्णित है
शास्त्रों के गले और दोगले विधान -
"अब प्रश्न यह उठता है; कि जब धर्म शास्त्रों जैसे मनुस्मृति आदि स्मृतियों और महाभारत में भी विधान वर्णित है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती हैं उनमें दो पत्नीयों क्रमश: ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है वह वर्ण से ब्राह्मण ही होती है तो परशुराम द्वारा मारे गये क्षत्रियों की विधवाऐं जब ऋतुकाल में सन्तान की इच्छा से आयीं तो वे सन्तानें क्षत्रिय क्यों हुई उन्हें तो ब्राह्मण होना चाहिए जैसे की शास्त्रों का वर्ण-व्यवस्था के विषय में सिद्धान्त भी है । देखें निम्न सन्दर्भों में
"भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते । आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।।
(महाभारत -अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
महाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दान धर्म नामक उपपर्व-
मनुस्मृति का सबसे ज्यादा आपत्तिजनक अध्याय
मनुस्मृति का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसके अध्याय 10 के श्लोक संख्या 11 से 50 के बीच समस्त द्विज को छोड़कर समस्त हिन्दू जाति को नाजायज संतान बताया गया है। मनु के अनुसार नाजायज जाति दो प्रकार की होती है।
- अनुलोम संतान – उच्च वर्णीय पुरूष का निम्न वर्णीय महिला से संभोग होने पर उत्पन्न संतान
- प्रतिलाेम संतान – उच्च वर्णीय महिला का निम्न वर्णीय पुरूष से संभोग होने पर उत्पन्न संतान
मनुस्मति के अनुसार कुछ जाति की उत्पत्ति आप इस तालिका से समझ सकते हैं।
पुरुष की जाति | महिला की जाति | संतान की जाति |
---|---|---|
ब्राम्हण | क्षत्रिय | मुर्धवस्तिका १ |
क्षत्रिय | वैश्य | महिश्वा २ |
वैश्य | शूद्र | कायस्थ ३ |
ब्राम्हण | वैश्य | अम्बष्ठ ४ |
क्षत्रिय | ब्राम्हण | सूत ५ |
वैश्य | क्षत्रिय | मगध ६ |
शूद्र | क्षत्रिय | छत्ता ७ |
वैश्य | ब्राम्हण | वैदह ८ |
शूद्र | ब्राम्हण | चाण्डाल९ |
निषाद | शूद्र | पुक्कस१० |
शूद्र | निषाद | कुक्कट११ |
छत्ता | उग्र | श्वपाक१२ |
वैदह | अम्बष्ठ | वेण१३ |
ब्राम्हण | उग्र | आवृत१४ |
ब्राम्हण | अम्बष्ठ | आभीर१५ |
वैश्य- व्रात्य- सात्वत १६
क्षत्र- करणी राजपूत १७
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः। (ब्रह्मवैवर्तपुराण - ब्रह्मखण्ड1.10.110)
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जो राजपूत स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं शास्त्रों में उन्हें भी वर्णसंकर और शूद्र धर्मी कहा है ।
विशेष– यद्यपि सात्वत आभीर ही थे जो यदुवंश से सम्बन्धित थे। परन्तु मूर्खता की हद नहीं इन्हें भी वर्णसंकर बना दिया।
इसी प्रकार औशनस एवं शतपथ ब्राम्हण ग्रंथ में भी जाति की उत्पत्ति का यही आधार बताया गया है जिसमें चामार, ताम्रकार, सोनार, कुम्हार, नाई, दर्जी, बढई धीवर एवं तेली शामिल है।
ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः।10/15 मनुस्मृति अध्याय १०)
अर्थ- ब्राह्मण से उग्र जाति की कन्या में आवृत उत्पन्न होता है । और आभीर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न होता है और आयोगव्या में ब्राह्मण से धिग्वण उत्पन्न होता है ।
विदित हो की भागवत धर्म के सूत्रधार सात्ववत जो यदु के पुत्र माधव के पुत्र सत्वत् (सत्त्व) की सन्तान थे जिन्हें
इतिहास में आभीर रूप में भी जाना गया ये सभी वृष्णि कुल से सम्बन्धित रहे । जैसा की नन्द को गर्ग सहिता में आभीर रूप में सम्बोधित किया गया है ।
"क्रोष्टा के कुल में आगे चलकर सात्वत का जन्म हुआ। उनके सात पुत्र थे उनमे से एक का नाम वृष्णि था। वृष्णि से वृष्णिवंश चला। इस वंश में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुये।
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यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे।गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः ।।१६।।
-वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू तथा कहीं यादवी भी कहा है ।
★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया - परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा !
तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया !
यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों ,विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्द में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी
तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।
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विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्रनाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम मैं गायत्री को यादवी, माधवी और गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक सन्दर्भ है ।
यादव गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है ।
वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च । कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च ।।10/23 (मनुस्मृति अध्याय १०)
अर्थ- वैश्य वर्ण के ब्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न ब्रती पुत्र को सुधनवाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।
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जबकि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में सात्ववत यदु के पुत्र माधव के सत्त्व नामक पुत्र की सन्तानें थी ।
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे। त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।
बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्। येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति। शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्। निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
जब वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये।
माधव का पराक्रमी पुत्र सत्त्व नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्वसत राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे।
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सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।
सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है।
जब राजा भीम आनर्त देश के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे।
अत: गायत्री वेदों की जब अधिष्ठात्री देवी है और ब्रह्मा की पत्नी रूप में वेद शक्ति है ।
तो आभीर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में कैसे उत्पन्न हो गये ?
वास्तव में अहीरों को मनुस्मृति कार ने वर्णसंकर इसी लिए वर्णित किया ताकि इन्हें हेय सिद्ध करके इन पर शासन किया जा सके ।
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कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु कहलाते थे। श्री श्रीराम साठे ने लिखा है कि हैहयवंशी राजा दुर्दम से लेकर सहस्त्रार्जुन हैहय लोग काठियावाड से काशी तक के प्रदेश में उदण्ड बनकर रहते थे।
राजा दुर्दम के समय से ही उनका अपने भार्गव पुरोहितों से किसी कारण झगड़ा हुआ।
इन पुरोहितों में से एक की पत्नी ने विन्ध्य वन में और्व को जन्म दिया।
और्व का वंश इस प्रकार चला - और्व --> ऋचिक --> जमदग्नि --> परशुराम। कार्तवीर्य अर्जुन ने इन्ही जमदग्नि की हत्या कर दी थी।
तब जामदग्न्य परशुराम के नेतृत्व में वशिष्ठ और भार्गव पुरोहितों ने इक्कीस बार हैहयों को पराजित किया। अंततः सहस्त्रार्जुन की मृत्यु हुई।
प्राचीन भारतीय इतिहास का यह प्रथम महायुद्ध था। श्री साठे ने ही लिखा है कि परशुराम का समय महाभारत युद्ध पूर्व 17 वीं पीढ़ी का है।
धरती को क्षत्रियविहीन करने के संकल्प के साथ परशुराम के लगातार 21 आक्रमणों से भयत्रस्त होकर अनेक क्षत्रिय पुरुष व स्त्रियाँ यत्र-तत्र छिप कर रहने लगी थी।
मनुस्मृति में लिखा है -
अर्थात, "कोई मरुस्थली में, कोई समुद्र के किनारे गए। कोई महेन्द्र पर्वत पर और कोई रमणक देश में पहुँचे, तब वहाँ के सूर्यवंशी क्षत्रिय भय से व्याकुल होकर बोले कि अब यहाँ भी परशुराम आ गए, अब हमारा जीवन कैसे बचेगा? तब सबों ने घबरा कर तत्काल क्षत्रिय धर्म को छोड़ कर अन्य वैश्य वृत्तियों का अवलंबन किया। "
परशुराम के भय के कारण क्षत्रियों के पतन का विवरण महाभारत में भी उपलब्ध है -
परशुराम, एक-एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकी थी।
-पृथिव्युवाच -
पृथ्वी बोली - ब्रह्मन! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियपुंगव छिपा रखे हैं। मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए हैं, जो मेरी रक्षा कर सकते हैं।
- प्रभो ! उनके अलावा पुरुवंशी विदुरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान पर्वत पर रीक्षों ने पालकर बड़ा किया है।
- महातेजस्वी वृहद्रथ महान ऐश्वर्य से संपन्न हैं। उन्हें गृध्रकूट पर्वत पर गोलांगूलों ने बचाया था।
- राजा मरुत के वंश के भी कई बालक सुरक्षित हैं, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है | उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है|
- ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात हैं| वे शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते हैं|
महाभारत के उसी प्रसंग में यह भी लिखा है की जब पृथ्वी ने कश्यपजी से राजाओं को बुलानो को कहा, तब -
- अर्थात् तब पृथ्वी को बताये हुए पराक्रमी राजाओं को बुलाकर कश्यपजी ने उन महाबली राजाओं को फिर से राज्यों में अभिषिक्त किया |"
कालान्तर में ये क्षत्रिय उपनिवेश कहलाए, जिनका किंचित् वर्णन मत्स्यपुराण में है।
इनके क्रमशः कुरु, पांचाल, शाल्व, सजांगल, शूरसेन, भद्रकार, बाह्य, सहपठाच्चर, मत्स्य, किरात, कुन्ती, कुन्तल, काशी, काशल, आवंत, कलिंग, मूक, अन्धक, बाह्लीक, बाढ़धान, आभीर, कालयोतक, पुरन्ध्र, शूद्र, पल्लव, आत्तखंडिक, गांधार, यवन, सिन्धु, सौवीर, भद्रक, शक, द्रुह्य, पुलिंद, पारद, आहारमूर्त्तिक, रामठ, कंठकार, कैकेय, दशनायक, कम्बोज, दरद, बर्बर, पह्लव, अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल, कसेरक, बहिर्गिरी, प्लवंग, मातंग, यमक, मालवर्णक, सुह्म, पुण्डर, विदेह, ताम्रलिप्तक, शाल्व, मागध, गोनर्द, पाण्ड्य, केरल, चोल, कुल्य, सेतुक, भूषिक, कुपथ, शबर, पुलिन्द, विदर्भ, विन्ध्यमुलिक, दण्डक, कुलीय, विराल, अश्मक, भोगवर्धन, तैतिरिक, नासिक्य, भारूकच्छ, माहेय, सरस्वत, काच्छीक,सौराष्ट्र, आनर्त्त, अर्बुद, मालव, करुष, मेकल, उत्कल, औंड्र, माष, दशार्ण, भोज, किष्किंधक,तोशल, कोशल, त्रैपुर, वैदिश, तुभूर, तुम्बर, पद्गम, नैषध, अरूप, शौण्डीकेर, वितिहोत्र, अवन्ति, निराहार, सर्वग, अपथ, कुथप्रावरण, ऊर्णादर्व, समुद्रक, त्रिगर्त, मंडल और चमार - इस प्रकार कुल 129 प्रदेशों के नाम आये हैं |
कर्म आधारित भारतीय संस्कृति की रचना होने के कारण सहज ही, क्रियालोप होने के आधार पर क्षत्रियों के पतन का उल्लेख मनुस्मृति में भी किया गया है -
अर्थात्, "पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दारद और खश - ये क्षत्रिय जातियाँ (उपनयनादि) क्रियालोप होने से एवं ब्राह्मण का दर्शन न होने के कारण (अध्ययन आदि के अभाव में) इस लोक में शूद्रत्व को प्राप्त होती हैं|" - इससे क्षत्रियों के अधोपतन की बात सिद्ध होती है|
यद्यपि असंख्य जनजातियों द्वारा स्वयं को क्षत्रिय घोषित किये जाने के प्रमाण मिलते हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा ।परन्तु, अत्यंत कालातीत होने के बावजूद कतिपय जातियाँ अपने को 'हैहयवंशी' भी कहती हैं|
डा. बी. पी. केसरी ने घासीराम कृत 'नागवंशावली झूमर' के अध्याय 4, पृष्ठ 82 से संदर्भित निम्न दोहे के अनुसार कोराम्बे (राँची) के रक्सेल राजाओं को हैहयवंशी कहा है -
अधीतं विधिवद्दत्तं ब्राह्मणेभ्यो दिने दिने ।।
जगते यशसा पूर्णमयशो वार्द्धके कथम् ।। ।। ६१ ।।
दाता वरिष्ठो धर्म्मिष्ठो यशस्वी पुण्यवान्सुधीः ।।
कार्त्तवीर्यार्जुनसमो न भूतो न भविष्यति ।। ६२ ।।
पुरातना वदन्तीति बन्दिनो धरणीतले ।।
यो विख्यातः पुराणेषु तस्य दुष्कीर्त्तिरीदृशी ।। ६३ ।
आययुः समरं कर्त्तुं कार्त्तवीर्य्यं निवार्य्य च ।। ११।।
कान्यकुब्जाश्च शतशः सौराष्ट्राः शतशस्तथा ।।
राष्ट्रीयाः शतशश्चैव वीरेन्द्राः शतशस्तथा ।। १२।।
"सौम्या वाङ्गाश्च शतशो महाराष्ट्रास्तथा दश ।।
तथा गुर्जरजातीयाः कलिङ्गाः शतशस्तथा ।। ।। १३ ।।
कृत्वा तु शरजालं च भृगुश्चिच्छेद तत्क्षणम् ।।
तं छित्त्वाऽभ्युत्थितो रामो नीहारमिव भास्करः ।। १४ ।।
त्रिरात्रं युयुधे रामस्तैः सार्द्धं समराजिरे ।।
द्वादशाक्षौहिणीं सेनां तथा चिच्छेद पर्शुना ।। १५ ।।
रम्भास्तम्भसमूह च यथा खड्गेन लीलया ।।
छित्त्वा सेनां भूपवर्गं जघान शिवशूलतः ।।१६।।
"सर्वांस्तान्निहतान्दृष्ट्वा सूर्य्यवंशसमुद्भवः ।।
आजगाम सुचन्द्रश्च लक्ष राजेन्द्रसंयुतः ।। १७ ।।
द्वादशाक्षौहिणीभिश्च सेनाभिः सह संयुगे ।।
कोपेन युयुधे रामं सिंहं सिंहो यथा रणे ।। १८ ।।
भृगुः शङ्करशूलेन नृपलक्षं निहत्य च ।।
द्वादशाक्षौहिणीं सेनामहन्वै पर्शुना बली ।।१९।।
निहत्य सर्वाः सेनाश्च सुचन्द्रं युयुधे बली ।।
नागास्त्रं प्रेरयामास निहृतं तं भृगुः स्वयम् ।। 3.36.२० ।।
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