शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

गुण्डा जी -----

          संयोजक -धनञ्जय प्रताप यादव
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गुंडा और नेता प्रा यः सभी भाषाओं में शब्दोंकी अर्थावनति की प्रवृत्ति होती है । प्रभाव और महिमा का बोध कराने वाले शब्द काल के प्रवाह में धीरे धीरे व्यग्यसूचक हो जाते हैं बाद में उनमें विपरीत भाव तक पैदा हो जाता है । शब्दों का सफ़र में ऐसे अनेक उदारहरण मिल जाएँगे जैसे ऐहदी, नौकर, चाकर, पाखण्डी, गुरु आदि। तथाकथित नेता इस बात से नाराज़ रहते हैं कि उन्हें गुण्डा कहा जाने लगा है । अब उन्हें कौन समझाए कि नेता वह है जो किसी समूह को राह दिखाए, अगुवाई करे । नेता शब्द की अभिव्यक्ति वाले न जाने कितने शब्द हैं जैसे-नायक, प्रमुख, प्रधान, सरदार, आक़ा, साहिब, गुरु वगैरह वगैरह । अब गुण्डों का सरदार भी नायक ही होता है । अब अगर गुण्डा शब्द के मूल में ही प्रधान और नेता जैसे भाव हों तो उसमें बुरा मानने की क्या बात है ! और बुरा ही मानना है तो खुद को नेता कहलवाना भी बंद कर दें क्योंकि नेता की अर्थवत्ता ने भी नकारात्मक रूप अपना लिया है । जब कोई व्यक्ति ज्यादा दंद-फद दिखाता है उसे नेता कहते हैं । नेतागीरी शब्द पूरी तरह से नकारात्मक है जिसका अर्थ है निजी स्वार्थ के लिए लोगों को बरगलाना । गुण्डा शब्द की व्याप्ति आर्यभाषा परिवार और द्रविड़ परिवार की भाषाओं में क़रीब क़रीब एक सी है । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि इसमें निहित नकारात्मक भाव भी सभी भाषाओं में है किन्तु दक्षिण की मराठी, तमिल जैसी भाषाओं से यह संकेत मिलता है कि मूलतः गुण्डा शब्द का आशय शक्तिशाली, प्रभावशाली, ताक़तवर, नायक जैसी अर्थवत्ता रखता था । आखिर गुण्डा शब्द में इन भावों का विकास किस तरह हुआ होगा ? सबसे पहले बात करते है इसके जन्मसूत्रों और रिश्तेदारियों की । संस्कृत के गुंड, गंड, गुड़, खण्ड, खांड, काण्ड जैसे शब्द एक ही सिलसिले की कड़ियाँ हैं । इन सबमें जो मूल भाव है वह है उभार । ध्यान रहे ये सभी शब्द एक वर्णक्रम में आते हैं अर्थात क-ख-ग आदि । एक ही वर्णक्रम के शब्द आपस में रूपान्तरित भी होते हैं । उभार के अर्थ पर ध्यान दें । समतल पर किसी उठाव का पैदा होना दरअसल उस समतल क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करता है । कोई भी पर्वत शृंखला दरअसल पार्थिव उभार है जिसके दोनो ओर के इलाके पृथक भूक्षेत्र होते हैं । संस्कृत के गण्ड में उभार का जो भाव है वह उसे विशिष्ट बनाता है । समतल सतह पर कोई भी उभार विशिष्ट है । समाज में किसी व्यक्तित्व का उभार उसे खास बनाता है । ऐसे लोग नायक कहलाते हैं । गण्ड का एक अर्थ नायक, योद्धा या शूरवीर भी है । संस्कृत के गण्ड का प्रभाव द्रविड़ भाषाओं पर भी है । तमिल में कण्डन का अर्थ भी योद्धा होता है । कन्नड़ में गुण्ड का अर्थ चाकर होता है जो किसी ज़माने में फौज की अग्रिम पंक्ति के नायक होते थे । जे पी फेब्रिसियस के तमिल लैक्सिकन के मुताबिक गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । तेलुगु में व्यक्तिवाचक संज्ञा के तौर पर गुंडूराव नाम खूब प्रचलित है । इसमें नायक का ही भाव है । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे । पर्वतशृंखलाएँ पृथ्वी का उभार ही हैं और पर्वत शिखरों में नायक भाव स्थापित है । उभार से ही गण्ड के गण्डि, गुण्डी, घुण्डी, गण्डा जैसे रूप सामने आते हैं जिसका अर्थ है कोई ग्नन्थि, गूमड़, रूई या कपड़े का गोला, गेंद या मन्त्र विद्ध ताबीज आदि । मराठी में एक शब्द है गांवगुंड जिसका अर्थ है ग्रामनायक या ग्रामयोद्धा । अथवा भांड-मीरासी जैसा कोई पात्र जो देखते ही देखते अपने करतबों से भीड़ जुटा लेता है । मराठी में गुंडा शब्द का अर्थ है एक गोल, चिकना पत्थर । यह सालिगराम भी हो सकता है । इसके अलावा एक दुष्ट या कमीन किस्म का व्यक्ति जो हर तरह की चालें चलना जानता है । कुल मिला कर “गुण्ड” जो किसी समूह का नायक था, बाद में अपनी उद्धत, अहंकारी वृत्ति के चलते खल-चरित्र बन गया । नायक शब्द की अर्थवत्ता तो कायम रही मगर नायक की अर्थवत्ता वाले गण्ड, गुण्ड जैसे शब्दों की अर्थावनति हुई । अशिष्ट, अशालीन, उदण्डतापूर्व व्यवहार करने वाले व्यक्ति को गुण्डा की संज्ञा मिली ।

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