शनिवार, 30 सितंबर 2017

बुद्ध के ईश्वर सम्बद्ध विचार -

भगवान् बुद्ध ने स्वयं के इश्वर होने,तथा किसी इश्वर का अवतार होने या किसी इश्वर का दूत होने से साफ़ इनकार किया है,उन्होंने स्वयं को मार्गदर्शक कहा है| किसी और के इश्वर होने के प्रश्न पर वे मौन हो कर गुजरते हुए समय की तरफ इशारा किया है ,जिसे समय गुजरने के साथ कुछ बौध सम्प्रदाए में इंकार या अनीश्वरवाद समझा गया, जबकि कुछ सम्प्रदायें में भगवान् बुद्ध को ही इश्वरिये शक्ति के रूप में स्वीकार कर लिए|
इस संसार को किसने बनाया? “इस संसार को किसने बनाया?” यह एक सामान्य प्रश्न है. “इस दुनिया को ईश्वर ने बनाया.” यह वैसा ही सामान्य सा उत्तर है. तथागत ने ईश्वर को कभी सृष्टिकर्त्ता के रुप में स्वीकार नहीं किया. बुद्ध ने कहा, ” धर्म -आधारित ईश्वर मात्र एक कल्पना है. इसलिये ऐसे धर्म का भी कोई उपयोग नहीं.” बुद्ध ने इस विषय को ऐसे ही नहीं छोड़ दिया. उन्होने इस विषय के अनेक पहलुओं पर विचार किया. बुद्ध का तर्क था कि ईश्वर का सिद्धान्त सत्य पर आश्रित नहीं है. उन्होंने इसे वासेठ्ठ और भारद्धाज के साथ हुई बातचीत में स्पष्ट किया है. एक बार वासेट्ठ और भारद्धाज में एक विवाद खड़ा हुआ कि सच्चा मार्ग कौन सा है और झूठा कौन सा? इस समय तथागत बुद्ध भिक्षु संघ के साथ कौशल जनपद में विहार कर रहे थे. वह मनसाकत नामक ब्राह्मण गाँव में अचिरवती नदी के तट पर एक बगीचे में ठहरे थे. वासेट्ठ और भारद्धाज दोनों मनसाकत नाम की बस्ती में ही रहते थे. जब उन्होंने सुना कि तथागत उनकी बस्ती में आये हैं तो वे उनके पास गये और दोनों ने भगवान्‌ बुद्ध से अपना दृष्टिकोण रखने का निवेदन किया. भारद्धाज ने कहा, “तरुक्ख का दिखाया मार्ग सीधा-साधा है, वह मुक्ति का सीधा मार्ग है और जो इसका अनुसरण कर लेता है उसे वह ब्रह्म से मिला देता है. ”वासेट्ठ ने कहा, “ हे गौतम, बहुत से ब्राह्मण बहुत से मार्ग सुझाते हैं – अध्वर्य ब्राह्मण, तैत्तिरिय ब्राह्मण, कंछोक ब्राह्मण तथा भीहुवर्गीय ब्राह्मण. वे सभी मानव, जो इनके बताये मार्ग का अनुकरण करते हैं, तो ये मार्ग उन्हें ब्रह्म से मिला देते हैं. जिस प्रकार किसी गाँव या नगर के पास अनेक रास्ते होते हैं, किन्तु वे सभी उसी गांव मे पहुंचा देते हैं, उसी तरह से ब्राह्मणों द्वारा दिखाये सभी पथ ब्रह्म से जा मिलते हैं.” तथागत ने प्रश्न किया, “तो वासेट्ठ तुम्हारा क्या यह कहना है कि वे सभी मार्ग सही हैं?” वासेट्ठ बोला, “श्रमण गौतम हाँ, मेरा यही मानना है” “लेकिन वासेट्ठ ! क्या तीनों वेदों के जानकार ब्राह्मणों के गुरुओं में कोई एक भी ऐसा है, जिसने ब्रह्म का आमने सामने दर्शन किया हो?” “गौतम ! निश्चित नही !” “तो ब्रह्म को किसी ने नहीं देखा? किसी को ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हुआ?” वासेट्ठ बोला, “हां ऐसा ही है.” “तब तुम कैसे यह मान सकते हो कि ब्राह्मणों का कथन सत्य-आश्रित है?” “वासेट्ठ ! जैसे कोई अंधे की कतार हो, न आगे चलने वाला अंधा देख सकता हो, न बीच में और न पीछे चलने वाला अंधा. इसी तरह वासेट्ठ ! मुझे लगता है कि ब्राह्मणों का कथन सिर्फ़ अंधा-कथन है. न आगे चलने वाला देखता है, न बीच वाला और न पीछे वाला देखता है. इन ब्राह्मणों की बातचीत केवल हास्यास्पद है, शब्द मात्र जिसमें कोई सार नही.” “वासेट्ठ क्या यह ऐसा नहीं है कि किसी आदमी का किसी स्त्री से प्रेम हो गया हो जिसे उसने देखा तक नही है?” “वासेट्ठ बोला, “हां यह ऐसा ही है.” “वासेट्ठ! तब तुम यह बताओ कि यह कैसा होगा कि जब लोग उस आदमी से पूछेंगे कि जिस सुन्दरतम स्त्री से तुम प्रेम करने की बात करते हो, वह अमुक स्त्री कौन है? कहां की है?” सृष्टि के तथाकथित रचयिता की चर्चा करते हुये तथागत ने भारद्धाज और वासेट्ठ से कहा, “मित्रों! जिस प्राणी ने पहले जन्म लिया था, वह अपने बारे मे सोचने लगा कि मै ब्रह्म हूँ, विजेता हूँ, निर्माता हूं, अविजित हूँ, सर्वाधिकारी हूँ, मालिक हूँ, निर्माता हूँ, रचयिता हूँ, व्यवस्थापक हूँ, आप ही अपना स्वामी हूँ और जो हैं तथा वे जो भविष्य में पैदा होने वाले हैं, उन सब का पिता हूँ, मैं ही इन सब प्राणियों को उत्पन्न करता हूँ.” “तो इसका यह मतलब हुआ न कि वे जो अभी है और जो भविष्य में उत्पन्न होने वाले हैं, ब्रह्म सबका पिता है?“ “तुम्हारा कहना है कि यह जो पूज्य, विजेता, अविजित, जो है तथा जो होगें उन सब का पिता, जिससे हमारी उत्पति हुई है – वह ब्रह्म है, वह स्थायी है, सतत् रहने वाला है, नित्य है, अपरिवर्तन-शील है और वह अनन्त काल तक ऐसा ही रहेगा, तो हम जिन्हें ब्रह्म ने उत्पन्न किया है, जो ब्रह्म के यहाँ से आये हैं, सभी अनित्य क्यों है? परिवर्तनशील क्यों हैं? अस्थिर क्यों हैं? अल्पजीवी क्यों हैं? और मरणाधर्मी क्यों हैं?” इसका वासेट्ठ के पास कोई उत्तर नही था. तथागत का तीसरा तर्क ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता से संबधित था. “यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान और सृष्टि का पर्याप्त कारण है, तो फ़िर आदमी के दिल मे कुछ करने की इच्छा ही उत्पन्न नही हो सकती, उसे कुछ करने की आवशयकता भी नही रह सकती, न उसके मन में कुछ करने का संकल्प ही पैदा हो सकता है. यदि वह ऐसा ही है तो ब्रह्म ने आदमी को पैदा ही क्यों किया?” इसका भी वासेट्ठ के पास कोई उत्तर नहीं था. तथागत का चौथा तर्क था, “यदि ईश्वर कल्याण-स्वरुप है तो आदमी हत्यारे, चोर, व्यभिचारी, झूठे, चुगलखोर, लोभी, द्वेषी, बकवादी और कुमार्गी क्यों हो जाते हैं? क्या किसी अच्छे, भले ईश्वर के रहते यह संभव है?” तथागत का पाँचवां तर्क ईश्वर के सर्वज्ञ, न्यायी, और दयालु होने से संम्बधित था. “यदि कोई ऐसा महान्‌ सृष्टि-कर्त्ता है, जो न्यायी भी है और दयालु भी है, तो संसार मे इतना अन्याय क्यों हो रहा है?” तथागत बुद्ध का प्रश्न था. उन्होने कहा, “जिसके पास भी आंख है, वह इस दर्दनाक हालत को देख सकता है. ब्रह्म अपनी रचना सुधारता क्यों नहीं है? यदि उसकी शक्ति इतनी असीम है कि उसे कोई रोकने वाला नही, तो उसके हाथ ही ऐसे न हों जो किसी का कल्याण करते हो? उसकी सारी की सारी सृष्टि दु:ख क्यों भोग रही है? वह सभी को सुखी क्यों नही रखता है? चारों ओर ठगी, झूठ, अज्ञान क्यों फ़ैला हुआ है? सत्य पर झूठ क्यों बाजी मार ले जाता है? सत्य और न्याय क्यों पराजित हो जाते है? मैं तुम्हारे ब्रह्म को परम अन्यायी मानता हूँ, जिसने केवल अन्याय करने के लिये इस जगत की रचना की है.” “यदि सभी प्राणियों में कोई ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर व्याप्त है, जो उन्हें सुखी और दुखी बनाता है और जो उनसे पाप पुण्य कराता है तो ऐसा ईश्वर भी पाप से सनता है, या तो आदमी ईश्वर की आज्ञा में नही है या ईश्वर नेक और न्यायी नही है अथवा ईश्वर अन्धा है.” ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त के विरुद्ध उनका अगला तर्क यह था कि ईश्वर की चर्चा से कोई प्रयोजन सिद्ध नही होता. बुद्ध के अनुसार धर्म की धुरी ईश्वर और आदमी का सम्बन्ध नहीं है बल्कि आदमी का आदमी के साथ संम्बन्ध है. धर्म का प्रयोजन यही है कि वह आदमी को शिक्षा दे कि वह दूसरे आदमी के साथ कैसे व्यवहार करे ताकि सभी आदमी प्रसन्न रह सकें. तथागत की दृष्टि में ईश्वर विश्वास सम्यक्‌ दृष्टि के मार्ग मे अवरोधक है. यही कारण था कि वह रीति-रिवाजों, प्रार्थना और पूजा के आडंबरों के सख्त खिलाफ़ थे. तथागत का मानना था कि प्रार्थना करने की जरुरत ने ही पुरोहित को जन्म दिया और पुरोहित ही वह शरारती दिमाग था जिसने इतने अन्धविशवास को जन्म दिया और सम्यक दृष्टि के मार्ग को अवरुद्ध किया. तथागत का ईश्वर अस्तित्व के विरुद्ध आखिरी तर्क प्रतीत्य-समुत्पाद के अन्तर्गत आता है. इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व है या नही, यह मुख्य प्रश्न नहीं है और न ही ये कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है या नहीं? असल प्रश्न है कि ईश्वर ने सृष्टि किस प्रकार रची? प्रश्न महत्वपूर्ण यह है कि ईश्वर ने सृष्टि किसी पदार्थ से उत्पन्न की या शून्य से? यह तो एकदम विश्वास नहीं किया जा सकता कि ‘कुछ नही‘ में से कुछ की रचना की गई. यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना कुछ से की है तो वह कुछ – जिसमें से नया कुछ उत्पन्न किया गया है, ईश्वर के किसी भी चीज के उत्पन्न करने के पहले से ही चला आया है. इसलिये ईश्वर को उस कुछ का रचयिता नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि वह कुछ पहले से ही अस्तित्व में चला आ रहा है. यदि ईश्वर के किसी भी चीज की रचना करने से पहले ही किसी ने कुछ में से उस चीज की रचना कर दी है, जिससे ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है तो ईश्वर सृष्टि का आदि-कारण नहीं कहला सकता. तथागत बुद्ध के इन सभी तर्कों का वासेट्ठ और भारद्धाज के पास कोई जबाब नही था ।
बौध धम्म पूर्णतः वैज्ञानिकता पर आधारित धर्म है जहाँ प्रमाणिकता के बिना कुछ भी स्वीकार्य नहीं, जबकि अन्य सभी धर्मों के सिद्धांत केवल आस्था और परंपरा के बल पर चल रहे हैं| अब भी दुनियां में ऐसा बहुत कुछ है जो वैज्ञानिकता और इंसान के समझ के परे है जिसे अन्य धर्म अपने धर्म से जोड़कर जनता को अपने साथ मिलाये रखते हैं| बुद्ध धम्म में ऐसा नहीं है, भगवान् बुद्ध ने इस विषय में कहा है की “सर्वोच्च सत्य अवर्णननिये है” | पर ये भी एक सच्चाई है की जब किसी व्यक्ति के जीवन में भीषण दुःख या परालौकिक घटनाएँ होतीं हैं तब केवल इश्वर रुपी काल्पनिक सहारा ही उसे ढाढस बंधता है| बौध धम्म की सभी बातें सभी को अच्छी लगती हैं पर अनीश्वरवाद की बात से पीछे हट जाता है , 10% बुद्धिजीवी वर्ग तो अनीश्वरवाद को समझ सकता है पर मानते वे भी नहीं हैं |इसपर 90% आम आदमी को तो अटूट विशवास है की कोई न कोई सर्वशक्तिमान तो है जो दुनियां चलता है|आम आदमी चमत्कार को नमस्कार करता है,उसे कोई ऐसा चाहिए ही चाहिए जिसके आगे वो अपने सुख दुःख रख सके| वो सच्चाई जानना ही नहीं चाहता ऐसे में उन तक भगवान् बुद्ध का सन्देश कैसे पहुंचेगा? यही कारण रहा की ये महा-कल्याणकारी धर्म हर आदमी तक आज भी नहीं पहुँच पा रहा है | असल में व्यापक प्रचार न होने के कारण बौध धम्म को समझने के लिए थोडा अध्यन करना पड़ता है इसलिए ये केवल बुद्धि-जीवी वर्ग तक ही सीमित होकर रह गया है|उन्हें बाकि बातें समझने के लिए जीवित गुरु के प्रवचनों की आवश्यकता होती है, मौलवी,पादरी,पुरोहित,सत्संग अदि इसी जरुरत का एक उदाहरण है | इसी बात का फायदा उठाकर अन्य धर्म बहुसंख्यक आम जनता को काल्पनिक आस्था,चमत्कार और कर्मकांडों में फसाकर सत्य से दूर कर देते हैं |शायद इसी इश्वरिये कल्पना की जरूरत के चलते सभी धर्म किसी इश्वरिये नाम पर केन्द्रित होते हैं,यहाँ तक की कुछ अभिनज्ञ अनुयाई भगवान् बुद्ध को ही इश्वरिये शक्ति के रूप में पूजते हैं | हम केवल समय को ही इश्वर मानते हैं |
पूर्णिमा धम्म संघायन पर समयबुद्धा कि विशेष धम्म देशना:- "हमें अपने आप को कहीं भी सीमित नहीं करना चाहिए वर्ना हम कुए के मेडक कि भांति सत्य से अपरिचित रह जायेंगे,परिणाम हमें नुक्सान उठाना पड़ेगा|"  गुजरात में 13-अक्टूबर-2013 को एक लाख बहुजन लोगों ने हिन्दू/ब्राह्मण धर्म को छोड़कर वापस अपने बौद्ध धम्म में लौटने की संगठित दीक्षा ली|…राकेश प्रियेदर्शीबौध धर्म के कुछ जाने माने महान अनुयायीे ईरान का शासक बनने से बहुत पहले खुसरो एक गुरुकुल में रहता था और उसके गुरु उसे समस्त शास्त्र और विद्या में पारंगत करने के लिए प्रतिबद्ध थे. एक दिन खुसरो के गुरु ने अकारण ही उसे कठोर शारीरिक दंड दे दिया. कई वर्ष बाद जब खुसरो राजगद्दी पर बैठा तो उसने सबसे पहले अपने गुरु को महल में बुलवाया और पूछा कि उन्होंने सालों पहले किस अपराध के लिए उसे कठोर दंड दिया था. “आपने मुझे अकारण ही कठोर दंड क्यों दिया? आप भलीभांति जानते थे कि मैंने कोई भी गलती या अपराध नहीं किया था”. “जब मैंने तुम्हारी बुद्धिमता देखी तब में यह जान गया कि एक-न-एक दिन तुम अपने पिता के साम्राज्य के उत्तराधिकारी अवश्य बनोगे,” गुरु ने कहा. “तब मैंने यह निश्चय किया कि तुम्हें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि किसी व्यक्ति के साथ किया गया अन्याय उसके हृदय को आजीवन मथता रहता है. मैं आशा करता हूं कि तुम किसी भी व्यक्ति को बिना किसी कारण के कभी प्रताड़ित नहीं करोगे।
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