मंगलवार, 26 सितंबर 2017

ईश्वर ...

नी और भाषाशास्त्री मोहम्मद हैदरी मल्येरी ने इश्क शब्द के इंडो-ईरानी होने के महत्वपूर्ण कारण गिनाए हैं। इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में एश, इश, जैसे शब्द हैं जिनका ताल्लुक इच्छा, कामना अथवा चाहने से है। प्राचीन ईरान की प्रमुख भाषा अवेस्ता जो वेदों जितनी ही पुरातन है, में इष शब्द है जिसका अर्थ है इच्छा, कामना, खोज आदि। इसके कुछ अन्य रूपों पर गौर करें। इशति यानी वह चाहता है, इश्त यानी जिसे चाहा जाए अर्थात आराध्य, इश्ती यानी प्रेरणा, उद्धेश्य आदि है। इसका ही एक रूप है इश्क जिसमें प्रेम, समर्पण, कामना के भाव हैं। गौरतलब है कि एश, इश के करीब-करीब यही सारे रूप संस्कृत में भी उपस्थित हैं जैसे एष, एषा, एषणा, इष आदि में कामना, इच्छा, चयन, प्रयास, चाह आदि भाव हैं। इसी क्रम में आते हैं इष्ट अर्थात इच्छित, चाहा गया, जिसकी कामना की जाए, वर, प्यारा, प्रेमी आदि। इसी मूल से उपजा है ईश्वर शब्द जिसमें परमशक्तिवान, ताकतवर, गुरू, भगवान, प्रेमी आदि भाव हैं। यह भी साफ है कि प्रेम ही ईश्वर है या इश्क खुदा है जैसी बातें महज़ दार्शनिक नहीं हैं। इश्क खुदा है कि बजाय ईश्वर ही इश्क कहने में भाषावैज्ञानिक आधार भी है। हैदरी का मानना है कि अरबी मूल का इश्क मूलतः फारसी से ही गया है इसलिए यह सेमेटिक भाषा परिवार का शब्द नहीं हैं। भारतीय-ईरानी परिवार की धातु इष् में चलना, फिरना, प्राप्त करना, लक्ष्य पाना, अनुसरण करना, तलाश करना, ढूंढना आदि भाव हैं। इश्क शब्द में ये तमाम क्रियाएं और अवस्थाएं साफ नज़र आती हैं। इसीलिए फारसी में एक प्रसिद्ध वल्लरी के लिए इश्क-पेचाँ अर्थात प्रेमलता या प्रेमवल्लरी जैसा शब्द सामने आया क्योंकि यह किसी वृक्ष का सहारा लेकर, उसके इर्दगिर्द वलयगति से आगे बढ़ती है और शीर्ष तक पहुंचती है। जिस वृक्ष को इश्क-पेचाँ आधार बनाती है, वह कुछ समय बाद सूख जाता है। अर्थात उसका अस्तित्व सिर्फ उस बेल के लिए ही सुरक्षित हो जाता है। भाव यही कि प्रेम में किसी एक को समर्पण करना ही होता है। लिपटने, चाहने, समर्पित करने का यह दर्शन ही अरबी समाज में भी लोकप्रिय हुआ और इस तरह अवेस्ता का इश्क चला आया अरबी में। हैदरी के पास इश्क शब्द के भारतीय-ईरानी मूल का होने के पीछे इसकी संस्कृत से रिश्तेदारी है और दूसरा महान फारसी कवि फिरदौसी द्वारा इस शब्द का इस्तेमाल करना है। फ़िरदौसी (935-1020ई) ईरान के प्रखर राष्ट्रवादी कवि थे। इनकी कृति शाहनामा ईरान पर अरबों के आक्रमण से पहले के काल से जुड़ी है। शाहनामा Shahnameh को ईरान की आत्मा भी कहा जा सकता है। यह वह महत्वपूर्ण कृति है जिसने भाषाविज्ञानियों, साहित्यकारों, इतिहासकारों को हमेशा प्राचीन सभ्यताओं को समझने के संदर्भ में सहायक सामग्री प्रदान की है। ..फ़िरदौसी जानते थे कि इश्क शब्द ईरानी मूल का है और इसीलिए इश्क का , प्रयोग उनके काव्य में है ... शाहनामा के जरिये ही रुस्तम-सोहराब जैसे पात्र दुनियाभर में मशहूर हुए। हैदरी का मानना है कि चूंकि फिरदौसी ईरानी संस्कृति को प्यार करते थे और अरब के बढ़ते प्रभाव को ईरानी संस्कृति के लिए खतरा मानते थे। फिरदौसी की भाषा पर अरबी प्रभाव नहीं है। शाहनामा में उन्होंने इश्क शब्द और उसके अन्य रूपों का खूब इस्तेमाल किया है। अरबी विरोधी छवि देखते हुए यह मानना मुश्किल है कि उन्होंने इश्क जैसे अरबी शब्द का इस्तेमाल किया होगा। दूसरी बात यह कि अरबी साहित्य में और बोलचाल में भी इश्क़ शब्द से ज्यादा मुहब्बत शब्द का प्रयोग होता है। जाहिर है, फिरदौसी इश्क शब्द को ईरानी मूल का ही मानते थे। यह बहुत बड़ा साक्ष्य है। हैदरी तर्क देते हैं कि फारसी का क(k) वर्ण अरबी में जाकर क़(q) में बदल जाता है। इस तरह फारसी का इश्क (isk) अरबी में इश्क़ (isq) हो जाता है। हिन्दी का इच्छा शब्द भी इष् धातु से ही बना है। ईश्वर, ऐश्वर्य, इष्ट जैसे शब्दों के मूल में भी यही धातु है। वैदिककाल में इष्ट का अर्थ यज्ञ भी होता था। सीधी सी बात है, आर्यजन अग्निपूजक थे और ईश्वर-आराधना के लिए, इच्छापूर्ति की कामना में यज्ञ का आयोजन करते थे। चूंकि यज्ञों का संबंध ईष् यानी कामना से जुड़ा है इसलिए इसे भी इष्ट कहा जाने लगा। भवन निर्माण की प्रमुख इकाई को ईंट कहते हैं जो इष्ट से ही बना है। इसका संस्कृत रूप था इष्टिका या इष्टका। यज्ञवेदी का निर्माण मिट्टी से होता था। यज्ञाग्नि से तपकर यह वेदिका काफी मज़बूत हो जाती थी। यहीं से आर्यजनों ने मिट्टी पकाने की तकनीक जानी और कालांतर में मिट्टी के पिंडों को आग पर तपा-पका कर उससे भवन निर्माण शुरू किया जिसे इष्टका या इष्टिका नाम दिया। पौराणिक संदर्भों में तीन प्रमुख आर्य-एषणाओं अर्थात इच्छाओं में लोकैषणा (ख्याति की चाह), वित्तैषणा (धन की चाह) और पुत्रैषणा (पुत्र की चाह) का उल्लेख है। आधुनिक युग की तीन प्रमुख इच्छाओं में रोटी-कपड़ा और मकान हैं(बाकी तीन खत्म नहीं हुईं हैं बल्कि और भी विकराल होकर हमारे मन-मस्तिष्क में

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