राज्य के ब्राह्मण तो कश्मीरी पंडित नाम से ही जाने जाते हैं क्योंकि यह उनके लिए समाज द्वारा तय किया शिष्टाचारी संबोधन है। आदिवासी लोक अंचलों में झाड-फूंक करनेवाले पुरोहित के लिए भी विभिन्न जातीय समाजों में पंडा शब्द प्रचलित है। सभी तीर्थस्थलों पर विभिन्न हिन्दू समाजों के कुलपुरोहितों की वंश परंपरा चली आ रही है जो अपने यजमानों की वंश परंपरा का लेखा-जोखा रखते हैं। इन्हें भी पंडा कहा जाता है। पंडित शब्द में पढ़े-लिखे विद्वान और शास्त्रज्ञ ब्राह्मण का भाव महत्वपूर्ण है। पंडा शब्द का अर्थ तीर्थ-पुरोहित, मंदिर का पुजारी भी होता है। ये अलग बात है कि तीर्थपुरोहित के तौर पर पंडा शब्द की अर्थवत्ता में कहीं न कहीं ठग का भाव भी समा गया है। तीर्थ यात्रा पर जानेवालों को उनके परिजन पंडों से सावधान रहने की हिदायत ज़रूर देते हैं। इस पंडा में रसोई बनानेवाले की अर्थवत्ता भी समाई है क्योंकि शुचिता-शुद्धता के लिहाज से श्रेष्ठिवर्ग में ब्राह्मण पाकशास्त्री ही होते थे। रसोइयों को महाराज भी कहा जाता है जिसमें भी सम्मान, आदर और जातीय श्रेष्ठता का भाव स्पष्ट है। पंडित का स्त्रीवाची पंडिता होता है जिसमें भी चतुराई, विद्वत्ता, कुशल और प्रवीणता का भाव है। यूं पंडित की पत्नी को देशी भाषा में पंडिताइन कहने का चलन है। पंडा की स्त्री पंडाइन, पंडितानी कहलाती है। पंडित शब्द की व्युत्पत्ति दिलचस्प है। हिन्दी-संस्कृत के ज्यादातर प्रसिद्ध कोश इसका जन्म संस्कृत के पंडः से बताते हैं जिसका अर्थ है बु्द्धिमत्ता, विद्वत्ता, अक्लमंदी और समझ। ज्ञान-विज्ञान का भाव इसमें निहित है। पंडः का अगला रूप है पंडा जिसका अर्थ है बुद्धिमान, समझदार, ज्ञानी। पंडित शब्द के मूल में पंडा है। पंडित से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जो चतुर, सूक्ष्मबुद्धि हो। शास्त्रों का ज्ञाता और विद्या में निष्णात हो। पांडित्य इस गुण को अभिव्यक्त करनेवाला शब्द है। पंडित दरअसल उन लोगों की उपाधि भी थी जो विद्वान, अध्येता और शास्त्रों के पारंगत हुआ करते थे। गुरुओं और अध्यापकों को आज भी पंडितजी कहने की परंपरा है यह ठीक उसी तरह है जैसे महाविद्यालयीन शिक्षकों को नाम लिए बिना सामान्यतौर पर डाक्टर साहब कह कर सम्बोधित कर लिया जाता है। पंडित शब्द का प्रयोग आचार्य की तरह भी होता है। संगीत गुरु अपने नाम के आगे पंडित लगाते हैं जैसे पंडित रविशंकर या पंडित हरिप्रसाद चौरसिया। यहां कला में निष्णात शिक्षक का भाव ही प्रमुख है ठीक वैसे ही जैसे गुरु के दर्जे पर पहुंच चुके मुस्लिम फनकार के नाम के आगे उस्ताद लगता है, जैसे उस्ताद अमज़दअली खां या उस्ताद ज़ाकिर हुसैन खां। प्राचीनकाल में ब्राह्मणों को विद्या का अधिकारी माना गया था, सो पंडित शब्द ब्राह्मणों के लिए रूढ़ हो गया। विद्वत्ता के आधार पर पंडित शब्द की जो ख्याति थी, वह एक जाति विशेष का बोध करानेवाला संबोधन बनकर रह गई। फलां व्यक्ति पंडित है का अर्थ यह हुआ कि वह ब्राह्मण है। विजातीय विवाह के संदर्भ में पंडितों से रिश्तेदारी जैसे वाक्य में पढ़े लिखे विद्वत समाज से नातेदारी का भाव न होकर ब्राह्मण वर्ग का ही संकेत है। कालांतर में जब जातिवाद की छाया इस देश में बहुत गहरी हुई, धर्मभीरुता, ज्ञान के दायरे को सिर्फ अनुष्ठान-कर्म तक सीमित मानने और मनवाने की ज़िद और पुरखों के अर्जित ज्ञान के झूठे दिखावे के चलते ब्राह्मणों की क़द्र समाज में घटी। सामान्य ब्राह्मण कूपमंडूकता होता गया। नवाचार और नए विचारों को स्वीकार न करने की वजह से उनके भीतर का खोखलापन धीरे धीरे अन्य वर्गों पर प्रकट होना शुरू हुआ नतीजतन दीगर वर्गों में ब्राह्मणों के लिए पोंगा पंडित जैसा परिहासपूर्ण सम्बोधन प्रचलित हो गया। पंडित शब्द की व्युत्पत्ति पंडा से अगर मानी जाए तब प्रश्न उठता है कि पंड या पंडा के मायने क्या? इसमें निहित ज्ञान, विद्या, समझ जैसे भाव कहां से आए। इसका जवाब देते हैं कृ.पा.कुलकर्णी मराठी व्युत्पत्तिकोश में। दरअसल पंडा शब्द एक अच्छा उदाहरण है यह समझने का, जिससे सिद्ध होता है कि संस्कृत के पूर्ववैदिक रूप से जन्मी प्राकृत के कई शब्दों का संस्कृतिकरण उपनिषदकाल और उसके भी बाद तक जारी रहा। पंडित शब्द का उल्लेख उपनिषदों में हुआ है। पंडित शब्द दरअसल प्राकृत के पण्णित का संस्कारी रूप है। यह सर्वसिद्ध है कि ज्ञा धातु भारोपीय भाषा परिवार की आदि धातुओं में एक है जिसकी व्याप्ति ज्ञान, समझ, विद्या के अर्थ में दुनियाभर की भाषाओं में हुई है। अंग्रेजी के नो (know), नालेज, जैसे कई शब्द इसी मूल से बने हैं। रूसी का ज्नान, संस्कृत का ज्ञान और अंग्रेजी का नोन दरअसल एक ही मूल के हैं। ज्ञा से बना ज्ञान। इस श्रंखला में कई शब्द आते हैं। प्रज्ञा का अर्थ है समझ, बुद्धि या ज्ञान। गौरतलब है संस्कृत के ज्ञ वर्ण में ज्+ञ् ध्वनियां हैं। मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है। शुद्धता के पैरोकार ग्न्य, ग्न , द्न्य को अपने अपने स्तर पर चलाते रहे हैं। पंडित का ण्ड, दरअसल ज्ञ > ज्+ञ् > ण्ण > ण्ड, इस क्रम में प्राकृत ण्ण से सामने आया। प्रज्ञा से बना प्रज्ञित अर्थात जो विज्ञ हो, विद्वान हो। प्रज्ञित > पण्णित यही है पंडित का पूर्वरूप। उपनिषदों में पहली बार पंडित शब्द मिलता है। खरोष्ठी धम्मपद में पंडित के लिए पणिदो या पणिदु जैसे रूप मिलते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि पंडित का पंडा से नहीं, प्रज्ञा से संबंध है। पाण्डित्य का गुण ही किसी व्यक्ति को पंडित साबित करता है। आज भजन कीर्तन और हवन करानेवाले तोता रटंत पुरोहित को पंडित कहा जाता है। तिलकधारी होना पंडित की निशानी है जबकि किसी ज़माने में उन्नत ललाट पर टीका लगाने के पीछे प्रतीकात्मक रूप से मस्तिष्क में स्थित मेधा का अभिषेक करने का भाव था। आज खुद को पंडित कहलाने के लिए कई पोंगा पंडित टीकाराम गली गली में अपने अशुद्ध उच्चारणों के साथ संस्कीरत भाख रहे हैं। ये सफर आपको कैसा लगा ? 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अद्भुत लेख, उम्दा जानकारी साझा करने के लिए साधुवाद....
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