गुरुवार, 14 अगस्त 2025

{यदुवंश परिशिष्ट कथाकोश}१

      परिशिष्ट कथा-१-
"अत्रि की‌ उत्पत्ति और उनकी सन्तानों का परिचय 
"   


ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से ही सम्बन्धित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-

                 ★मत्स्य उवाच★
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये।।१।

उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये।।२।

अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः।।३।

तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।

छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।

परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।

वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।

अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।

आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।

धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।

इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।


अनुवाद- १-११
मत्स्य भगवान ने कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रि के वंश के उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्र कर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लौणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दो गेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
   
(विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का बताया गया है। )
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियों के अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंश में उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नाम संकीर्तनमात्र से मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥१-११।

इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से सम्बन्धित है। उससे गोपों अथवा यादवों का कोई आनुवांशिक सम्बन्ध नहीं है।

ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र "कार्ष्ण गोत्र" को विलुप्त करने के ही समान है।
ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चन्द्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चन्द्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों तो वे चन्द्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ?  चन्द्रमा आग्नेय पिण्ड अथवा उपग्रह नहीं है।अर्थात् यह सम्भव नहीं  जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चन्द्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।

(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा जाता है। इन्हीं गर्भोदकशायी विष्णु के अनन्त रोमकूपों से अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चन्द्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्माण्डों में ब्रह्मा जी ने उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है।

द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ? 

अर्थात यह सम्भव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति से बहुत पहले सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रन्थों  में ऋषि अत्रि से चन्द्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य  गोपों को ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
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विराट-विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चन्द्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि-  श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (११) के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराते हैं। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -

"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।

              (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)

अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूंँ।१९।
  
इसी प्रकार से विराट विष्णु से चन्द्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

"चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।

अनुवाद- महाविष्णु के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि  तथा प्राणों से वायु का प्राकट्य हुआ।१३।

अतः उपर्युक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट- विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।

और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चन्द्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।

 (विशेष) - किन्तु ध्यान रहे चन्द्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी महा मूर्खता होगी।

"चन्द्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं भारतीय पाञ्चांग में यह चान्द्रमास - चैत्र - वैशाख ज्येष्ठ आषाढ आदि महीनों का आधार है। तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर वैष्णव गोप चन्द्रमा की सांस्कृतिक पर्वों के अवसरों पर  पूजा  भी करते हैं। इसी परम्परा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चन्द्रवंश का उदय हुआ।

और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति  में ही अवतरित होते हैं।
      

गोप जाति में अवतरित होने के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में जन्म ग्रहण किया है।
 
इन उपर्युक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र कार्ष्ण  और वर्ण   "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त सम्बन्धों का संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पुरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना है।

अत्रि-चन्द्रमा बुध और इला के प्रक्षिप्त कथानक

               ★नारायण उवाच★
अनुवाद– ब्रह्मा के अत्रि हुए और अत्रि के निशाकर जिन्होंने राजसूय यज्ञ करके द्विजराज
की उपाधि पायी।४।
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अनुवाद– गुरु पत्नी तारा में जिन्होंने बुध ना
म का पुत्र उत्पन्न किया और बुध का पुत्र चैत्र हुआ और चैत्र का पुत्र सुरथ हुआ।५।
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ब्रह्म वैवर्तपुराण महापुराण द्वितीय प्रकृतिखण्ड नारदनारायणसंवाद दुर्गोपाख्याने ताराचन्द्रयोर्दोषनिवारणं नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५८।।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में के उपर्युक्त श्लोकों नें बुध की सन्तान चैत्र नाम का पुत्र बताया गया है।

विशेष:- बुध के पुत्र रूप में बह्मवैवर्त में  पुरूरवा का कोई वर्णन नहीं है।अत: पुरूरवा गोप है और गोपों की सृष्टि स्वराट विष्णु से हुई है।
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अत्रि और अनुसुया से चन्द्रमा की उत्पत्ति नहीं हुई इसका शास्त्रीय खण्डन-

वैदिक ऋचाओं में अत्रि अग्नि का नामान्तरण है। और आध्यात्मिक रूप से अत्रि की उत्पत्ति निम्न प्रकार - आत्मा की चतुरीय अवस्था अत्रि के रूप में है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में बताया गया है कि अत्रि वह साधक बालक है जो सम तत्व को प्राप्त प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। देखें निम्न श्लोक-

त्रिगुणायां प्रकृत्यां त्रिर्विष्णावश्च प्रवर्त्तते ।।
तयोर्भक्तिः समा यस्य तेन बालोऽत्रिरुच्यते ।। १५ ।।
अनुवाद:-
त्रिगुणात्मक प्रकृति का  वाचक "त्रि"  और  विष्णु का  "अ" है इन दोनों में समान भक्ति रखने वाले बालक को अत्रि कहा जाता है।15। 
ब्रह्मवैवर्तपुराण (ब्रह्मखणड) 
अध्याय ( 22)

                    अत्रि-

    टिप्पणी : जब तक हम मनोमय कोश तक सीमित रहते हैं, तब तक हमारी चेतना के तीन रूप होते हैं – भावनामय, क्रियामय और ज्ञानमय मनोमय से ऊपर उठने पर, विज्ञानमय कोश में पहुँचने पर चेतना सिमट कर एकाकार हो जाती है। वही अ+त्रि= अत्रि है। अत्रि को सबका अत्ता (खाने वाला) भी कहा जाता है और उसकी निष्पत्ति अद् धातु से की जाती है 

    ऋग्वेद के पाँचवें मण्डल के ऋषि अत्रि व उनके पुत्र हैं। अत्रि ऋषि की प्रकृति को समझने के लिए वैदिक व पौराणिक साहित्य में विभिन्न प्रयास किए गए हैं।
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    महाभारत अनुशासन पर्व ९३./८२ में अत्रि अपने नाम की निरुक्ति करते हुए कहते हैं कि जो अत्रि है, वही अत्रि है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे तुरीया अवस्था को अत्रि कह सकते हैं।

    तब यह तीन से परे की अवस्था अत्रि कहलाएगी। पुराणों में अरात्रि की इस अवस्था की व्याख्या अत्रि-पत्नी अनसूया के रूप में की गई है। अनसूया अर्थात् अन्-असूर्या। अत्रि को तुरीयावस्था से सम्बन्धित करने की कल्पना की पुष्टि ऋग्वेद .४०. की ऋचा से होती है जहाँ अत्रि तुरीय ब्रह्म द्वारा राहु/स्वर्भानु से विद्ध सूर्य को प्राप्त करते हैं।

    *********
    वेदों में अत्रि को अग्नि के रूप में वर्णन किया गया है-
    जो अवेस्ता ए जैंद में अतर" नाम से है।

    देखें वेदों की निम्नलिखित ऋचाऐं-

    यत्त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः।
    अक्षेत्रविद्यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः॥५॥

    स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्।
    गूळ्हं सूर्यं तमसापव्रतेन तुरीयेण ब्रह्मणाविन्ददत्रिः॥६॥

    ग्राव्णो ब्रह्मा युयुजानः सपर्यन्कीरिणा देवान्नमसोपशिक्षन् ।
    अत्रिः सूर्यस्य दिवि चक्षुराधात्स्वर्भानोरप माया अघुक्षत् ॥८॥

    यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः ।
    अत्रयस्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन् ॥९॥
    (ऋग्वेद 5/4/5-6-8-9)

    अनुवाद:

    अनुवाद:-जब असुर स्वर्भानु के द्वारा  सूर्यदेव तुम्हारे ऊपर अंधकार फैला दिया, तब सारे लोक ऐसे दिखाई देने लगे, जैसे कोई अपने बहुत से स्वरूपों न जानते हुए भी मोहग्रस्त हो गया हो।५।

    सायण-
    इन चार प्रारम्भिक ऋचाओं में अत्रि के कर्म की प्रशंसा कि गयी है।
    हे सूर्य ! तुमको असुर स्वर्भानु ने अन्धकार के द्वारा आच्छादित कर दिया ( ढ़क दिया) तब सभी लोक इस प्रकार दिखाई देने लगे जैसे सभी लोग अपने स्वरूपों को न जानते हुए मूढ़ता को प्राप्त हो गये हों५।

    जब असुर स्वर्भानु के पुत्र सूर्य ने तुम्हारे ऊपर अंधकार फैला दिया, तब सारे लोक ऐसे दिखाई देने लगे, जैसे कोई अपना बहुवचन स्वरूप न जानते हुए भी मोहग्रस्त हो गया हो।'५। 

    विशेष:-

    स्वर्भानु: राहु का एक नाम है , जो आरोही प्रवृत्ति का है, जो ग्रहण का कारण बनता है; वह कश्यप का पुत्र था, जो दानवों या असुरों की माता दनु से उत्पन्न हुआ था; एक अन्य संबंधपरक रूप से उसे हिरण्यकशिपु की बहन सिंहिका से उत्पन्न विप्रचिति का पुत्र माना जाता है।५।


    जब हे इन्द्र , आप सूर्य के नीचे फैले स्वर्भानु की माया को दूर कर रहे थे , तब अत्रि ने अपनी चौथी पवित्र प्रार्थना द्वारा अंधकार में छिपे सूर्य को खोज लिया, जिससे इन्द्र के कार्यों में बाधा उत्पन्न हो रही थी।६।_

    अनुवाद:- तब यज्ञ का एक ऋत्विक जो चार वेदों का जाननेवाला और पूरे कर्म का निरीक्षण करनेवाला होता उसके रूप में ( अत्रि ) ने मणियों को जोड़कर, देवताओं की स्तुति करके, उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करके, आकाश में सूर्य का नेत्र स्थापित किया; उन्होंने स्वर्भानु के मोह को नष्ट कर दिया ।८।

    अनुवाद:-सूर्य को, जिसे असुर स्वर्भानु ने अंधकार से ढक दिया था, बाद में अत्रि के पुत्रों ने पुनः प्राप्त कर लिया; अन्य कोई भी उसे मुक्त कराने में समर्थ नहीं हो सका।९।
    ____________________________

    अत्रि ऋषि की एक निरुक्ति शतपथ ब्राह्मण ...१३ में की गई है जिसका निहितार्थ विचारणीय है। यहाँ प्रजापति द्वारा मन और वाक् के बीच मन को श्रेष्ठ घोषित करने पर वाक् के गर्भ का पतन हो जाता है जो अत्रि बनता है।

    चूंकि वाक् मुख से निकलती है, अतः अत्रि को मुख से सम्बन्धित माना गया है जो सर्व प्रकार के अन्न का भक्षण करता है।

    जैमिनीय ब्राह्मण .२१९ में अत्रि व अन्य ऋषियों की प्रकृति की व्याख्या के प्रयास में कहा गया है कि अत्रि की कामना है कि उनकी प्रजा भूयिष्ठ हो। गोपथ ब्राह्मण ..१७ इत्यादि में उल्लेख है कि राहु द्वारा ग्रस्त सूर्य की रक्षा केवल अत्रि ही कर पाए, जिसके बदले में उन्होंने अपनी प्रजा को दक्षिणा प्राप्ति का अधिकार दिलाया।

    अतः यज्ञ में सर्वप्रथम आत्रेय को हिरण्य दिया जाता है।

    जैमिनीय ब्राह्मण .२८१ के अनुसार पहले चार(अन्नमय, प्राणमय, मनोमय व विज्ञानमय कोश?) मिथुन हैं। यह बृहद् और रथन्तर (बहिर्मुखी व अन्तर्मुखी चेतना?) के दिव्य मिथुन हैं। पांचवें हिरण्यय कोश का मिथुन नहीं होता। अत्रि की कामना है कि यह चार कोश में वीर्य बन जाएं। वही वीर्य है जो आत्मा के वीर्य के अनुदिश वीर्य है।

    ऋग्वेद .४० में अत्रि द्वारा राहु/स्वर्भानु से विद्ध( आच्छादित) सूर्य की रक्षा करने का उल्लेख है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस आख्यान का सार्वत्रिक उल्लेख है( जैमिनीय ब्राह्मण .८०, शतपथ ब्राह्मण ...२१, ताण्ड्य ब्राह्मण .. व १४.११.१५ इत्यादि)। इस आख्यान में अत्रि द्वारा सूर्य से तम( अन्धकार) का अपाहन (निवारण)  करने पर प्रथम बार कृष्णा अवि ,  दूसरी बार धूम्रा अवि और तीसरी बार फल्गु अवि की उत्पत्ति हुई। ताण्ड्य ब्राह्मण १४.११.१५ के अनुसार यज्ञ में जिन दिनों को छन्दोम कहा जाता है, वही तम का रूप हैं। यहां जिस अवि का उल्लेख है, उसकी व्याख्या उपनिषदों में अविमुक्त/वाराणसी के रूप में की गई है। जाबालोपनिषद २ व ५ तथा रामोत्तरतापिन्युपनिषद . में उल्लेख है कि अत्रि ने याज्ञवल्क्य से अनन्त, अव्यक्त, परिपूर्णानन्द आत्मा को जानने का उपाय पूछा। याज्ञवल्क्य ने उन्हें उत्तर के रूप में अविमुक्त क्षेत्र की महिमा के रूप में असि और वरणा नदियों के बीच भ्रूमध्य में स्थिति वाराणसी की महिमा बताई।

    ऋग्वेद .११६. इत्यादि में असुरों द्वारा ऋबीस? में बद्ध अत्रि की अश्विनौ द्वारा रक्षा करने का उल्लेख है। ऋग्वेद .११२., .११८. तथा .१८०. इत्यादि के उल्लेख के अनुसार अत्रि जिस घर्म से परितप्त हो रहे थे, अश्विनौ ने उस घर्म को ओमान, मधुमान् बना दिया, अथवा उसे शीतल बना दिया(घर्म का एक रूप मनुष्य के अन्दर सर्वदा सुनाई देने वाली घॄं प्रकार की ध्वनि है। यह ओम का रूप बन जाए, यही अभीष्ट है।

    ऋग्वेद की .. इत्यादि कईं ऋचाओं में अग्नि से अत्रिवत् होकर आने की कामना की गई है। जैसे अत्रि सब कुछ भक्षण कर जाते हैं, वैसे ही अग्नि भी सब कुछ भक्षण कर जाती है।

    ईरानी धर्मग्रन्थ अवेस्ता में अत्रि शब्द अतर के रूप में -अग्नि का वाचक है ।
    जो वैदिक ऋचाओं में उद्धृत अत्रि अंगि है और वशिष्ठ का सहवर्ती है।।
    वशिष्ठ को ईरानी धर्मग्रन्थ अवेस्ता में "वहिश्त" तथा अंगिरा को 'अंग्र' और यम को यिम कहा गय है।
    ब्रह्माण्ड पुराण में अत्रि की वंशावली ब्राह्मणों की वंशावली के रूप में वर्णित है।
    परन्तु अनुसूया नामक उनकी पत्नी का पता ही है 
    अनुसूया के माता पिता प्रजापति कर्दम और देवहूति थे।  जबकि अत्रि की दश पत्नीयाँ घृताक्षी अप्सरा और भद्राश्व गन्धर्व की कन्याऐं हैं। निम्नलिखित श्लोकों में उनका वर्णन है।
    अत्रि की मद्रा नाम की पत्नी से सोम उत्पन्न हुआ है।

    अध्याय- (8) अत्रि का वंश- ब्रह्माण्ड पुराण मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद

                                              

अत्रि का वंश- ब्रह्माण्ड पुराण मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद

अत्रेर्वशं प्रवक्ष्यामि तृतीयस्य प्रजापतेः॥२/८/७३॥

"अनुवाद:-

मैं तीसरे प्रजापति अत्रि के वंश का वर्णन करूँगा।७३।

तस्य पत्न्यस्तु सुन्दर्यों दशैवासन्पतिव्रताः।
भद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः॥ २/८/७४॥

"अनुवाद:-

उन अत्रि की दस सुन्दर पत्नियाँ थीं जो पतिव्रता थीं। वे सभी दस दिव्य कन्या घृतासी से उत्पन्न भद्राश्व की संतान थे।७४।

भद्रा शूद्रा च मद्रा च शालभा मलदा तथा ।
बला हला च सप्तैता या च गोचपलाः स्मृताः ॥ २/८/७५॥

"अनुवाद:-

१-भद्रा , २-शूद्रा , ३-मद्रा ४-, शालभा , ५-मलदा , ६-बला और ७- हला । ये सात (बहुत महत्वपूर्ण थीं) और उनके जैसे अन्य। ८-गोचपला ।७५।

तथा तामरसा चैव रत्नकूटा च तादृशः ।
तत्र यो वंशकृच्चासौ तस्य नाम प्रभाकरः ॥ २/८/७६ ॥

"अनुवाद:-

९-ताम्रसा और १०- रत्नकुटा भी उसी प्रकार से अत्रि की दश पत्नीयाँ थीं उनके वंश को कायम रखने वाले उनके पुत्रों में प्रभाकर नामका एक वंशज भी हुआ ।७६।

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मद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम् ।
स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमाने दिवो महीम् ॥ २/८/७७॥

"अनुवाद:-

उन प्रभाकर अत्रि ने मद्रा नामक पत्नी से प्रसिद्ध पुत्र सोम (चंद्रमा) को जन्म दिया। जब सूर्य पर स्वर्भानु ( राहु ) का प्रहार हुआ, जब वह सूर्य  स्वर्ग से पृथ्वी पर गिर रहे था।77। 

तमोऽभिभूते लोकेऽस्मिन्प्रभा येन प्रवर्त्तिता।
स्वस्ति तेस्त्विति चोक्तो वै पतन्निह दिवाकरः॥ २/८/७८॥

"अनुवाद:-

और जब यह संसार अंधकार से घिर गया, तब उन्हीं (अर्थात् अत्रि) के द्वारा ही प्रकाश (प्रभा) उत्पन्न हुआ। डूबते हुए सूरज को भी कहा गया “तुम्हारा कल्याण हो।78।

ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात दिवो महीम् ।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः॥ २/८/७९॥

"अनुवाद:-

उस ब्राह्मण ऋषि के कथन के कारण, वह (सूर्य) स्वर्ग से पृथ्वी पर नहीं गिरा।  जिनके द्वारा गोत्रों में श्रेष्ठ गोत्र अत्रि का प्रारम्भ हुआ।79।

यज्ञेष्वनिधनं चैव सुरैर्यस्य प्रवर्तितम् ।
स तासु जनयामास पुत्रानात्मसमानकान् ॥ २/८/८० ॥

"अनुवाद:-

उन्होंने ही यज्ञ के दौरान सुरों की मृत्यु का निवारण किया । उन्होंने उन प्रभाकर अत्रि ने (दस अप्सराओं) से अपने समान  अनेक पुत्र उत्पन्न किए।८०।

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दश तान्वै सुमहता तपसा भावितः प्रभुः ।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः ॥ २/८/८१।।

"अनुवाद:-

महान तप से पवित्र हुए भगवान ने दस पुत्र उत्पन्न किये। वे स्वस्त्यात्रेय नाम से विख्यात ऋषिगण वेदों में पारंगत थे।।८१।


तेषां द्वौ ख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ सुमहौजसौ ।
दत्तो ह्यनुमतो ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः ॥ २/८/८२॥

"अनुवाद:-

उनमें दो बहुत प्रसिद्ध थे। वे ब्रह्मज्ञान में बहुत रुचि रखते थे और महान आध्यात्मिक शक्ति वाले थे।दत्त को सबसे बड़ा माना जाता है, दुर्वासा उनके छोटे भाई थे। ८२।

यवीयसी सुता तेषामबला ब्रह्मवादिनी ।
अत्राप्युदाहरन्तीमं श्लोकं पौराणिकाः पुरा ॥ २/८/८३॥

"अनुवाद:-

सबसे छोटी एक पुत्री थी जिसने ब्रह्मज्ञान की व्याख्या की थी। इस सन्दर्भ में पुराणों के जानकार लोग इस श्लोक का हवाला देते हैं।८३।


अत्रेः पुत्रं महात्मानं शान्तात्मानमकल्मषम् ।
दत्तात्रेयं तनुं विष्णोः पुराणज्ञाः प्रचक्षते ॥२/८/८४॥

"अनुवाद:-

पुराणों के जानकार कहते हैं कि अत्रि के महान् पुत्र दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं। वे अपने हृदय में शान्त और पापों से मुक्त हैं।८४।

तस्य गोत्रान्वयाज्जाताश्चत्वारः प्रथिता भुवि ।
श्यावाश्वा मुद्गलाश्चैव वाग्भूतकगविस्थिराः ॥ २/८/८५॥

"अनुवाद:-

उनके (अत्रि) वंशजों में चार लोग पृथ्वी पर विख्यात हैं - श्यावाश्व , मुद्गल , वाग्भूतक और गविष्ठिर ।८५।


एतेऽत्रीणां तु चत्वारः स्मृताः पक्षा महौजसः।
काश्यपो नारदश्चैव पर्वतोऽरुन्धती तथा ॥ २/८/८६॥

"अनुवाद:- 

निम्नलिखित चार भी अत्रि वंश के ही माने जाते हैं । वे बहुत शक्तिशाली हैं। वे हैं कश्यप , नारद , पर्वत और अरुन्धति ।८६।

सन्दर्भ:-

श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यभागे तृतीय उपोद्धातपादे ऋषिवंशवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥

विशेष:-दुर्वासा और दत्तात्रेय अत्रि की बड़ी पत्नी भद्रा से उत्पन्न. हुए थे ।जबकि सोम मद्रा नामक पत्नी से हुए थे.....
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शिव के एक हजार नामों में अत्रि भी
उनका एक नाम है और चन्द्रमा उनके शिखर पर सुशोभित होने से  चन्दमा
 को अत्रि  से उत्पन्न करने की कल्पना की गयी।

परन्तु  चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन्न हुआ है अत: चन्द्रा़मा भी वैष्णव है।  सभी गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्‍न हैं। वह तो वैष्णव हैं ही ।

उपर्युक्त श्लोकों में कहीं भी अत्रि की पत्नी अनसूया का कहींं वर्णन नही है।
अनुसूय कर्दम और  देवहूति की पुत्री है।
ब्रह्माण्ड पुराण में अत्रि की पत्नी के रूप में अनुसूया का कोई वर्णन है।
अत: ये कथाऐं अनुसूया वाली बाद में जोड़ी गयी।

नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृदेवहूति त हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥

"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥ 
(ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त ९० ऋचा १३)

श्रीमद्भगवद्गीता में भी विष्णु के विराट रूप में चन्द्रमा उनसे उत्पन्न रूप है। 

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्। पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम् स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11.19।। 
"अनुवाद - 

आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोवाले, प्रज्वलित अग्नि के समान मुखोंवाले और अपने तेजसे संसारको संतप्त करते हुए देख रहा हूँ।

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१॥


पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥


एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥


त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥


तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥


यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥६॥


ऋग्वेदः सूक्तं १०.९०-५-६-७

तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥

सायण-भाष्य-

विष्वङ् व्यक्रामदिति यदुक्तं तदेवात्र प्रपञ्च्यते । “तस्मात् आदिपुरुषात् “विराट् ब्रह्माण्डदेहः “अजायत उत्पन्नः । विविधानि राजन्ते वस्तून्यत्रेति विराट् । “विराजोऽधि विराड्देहस्योपरि तमेव देहमधिकरणं कृत्वा “पुरुषः तद्देहाभिमानी कश्चित् पुमान् अजायत । सोऽयं सर्ववेदान्तवेद्यः परमात्मा स्वयमेव स्वकीयया मायया विराड्देहं ब्रह्माण्डरूपं सृष्ट्वा तत्र जीवरूपेण प्रविश्य ब्रह्माण्डाभिमानी देवतात्मा जीवोऽभवत् । एतच्चाथर्वणिका उत्तरतापनीये विस्पष्टमामनन्ति---- स वा एष भूतानीन्द्रियाणि विराजं देवताः कोशांश्च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढो मूढ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव' (नृ. ता. २. १, ९) इति । “स “जातः विराट् पुरुषः “अत्यरिच्यत अतिरिक्तोऽभूत् । विराड्व्यतिरिक्तो देवतिर्यङ्मनुष्यादिरूपोऽभूत् । “पश्चात् देवादिजीवभावादूर्ध्वं “भूमिं ससर्जेति शेषः । “अथो भूमिसृष्टेरनन्तरं तेषां जीवानां “पुरः ससर्ज । पूर्यन्ते सप्तभिर्धातुभिरिति पुरः शरीराणि ॥॥१७॥


यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥६॥

सायणभाष्य-

यत् यदा पूर्वोक्तक्रमेणैव शरीरेषुत्पन्नेषु सत्सु "देवाः उत्तरसृष्टिसिद्धयर्थं बाह्यद्रव्यस्यानुत्पन्नत्वेन हविरन्तरसंभवात् पुरुषस्वरूपमेव मनसा हविष्ट्वेन संकल्प्य “पुरुषेण पुरुषाख्येन “हविषा मानसं यज्ञम् “अतन्वत अन्वतिष्ठन् तदानीम् “अस्य यज्ञस्य “वसन्तः वसन्तर्तुरेव “आज्यम् “आसीत् अभूत् । तमेवाज्यत्वेन संकल्पितवन्त इत्यर्थः । एवं “ग्रीष्म “इध्मः आसीत्। तमेवेध्मत्वेन संकल्पितवन्त इत्यर्थः। तथा “शरद्धविः आसीत् । तामेव पुरोडाशादिहविष्ट्वेन संकल्पितवन्त इत्यर्थः । पूर्वं पुरुषस्य हविःसामान्यरूपत्वेन संकल्पः । अनन्तरं वसन्तादीनामाज्यादिविशेषरूपत्वेन संकल्प इति द्रष्टव्यम् ॥

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥७॥

सायणभाष्य-

विष्वङ् व्यक्रामदिति यदुक्तं तदेवात्र प्रपञ्च्यते । “तस्मात् आदिपुरुषात् “विराट् ब्रह्माण्डदेहः “अजायत उत्पन्नः । विविधानि राजन्ते वस्तून्यत्रेति विराट् । “विराजोऽधि विराड्देहस्योपरि तमेव देहमधिकरणं कृत्वा “पुरुषः तद्देहाभिमानी कश्चित् पुमान् अजायत । सोऽयं सर्ववेदान्तवेद्यः परमात्मा स्वयमेव स्वकीयया मायया विराड्देहं ब्रह्माण्डरूपं सृष्ट्वा तत्र जीवरूपेण प्रविश्य ब्रह्माण्डाभिमानी देवतात्मा जीवोऽभवत् । एतच्चाथर्वणिका उत्तरतापनीये विस्पष्टमामनन्ति---- स वा एष भूतानीन्द्रियाणि विराजं देवताः कोशांश्च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढो मूढ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव' (नृ. ता. २. १, ९) इति । “स “जातः विराट् पुरुषः “अत्यरिच्यत अतिरिक्तोऽभूत् । विराड्व्यतिरिक्तो देवतिर्यङ्मनुष्यादिरूपोऽभूत् । “पश्चात् देवादिजीवभावादूर्ध्वं “भूमिं ससर्जेति शेषः । “अथो भूमिसृष्टेरनन्तरं तेषां जीवानां “पुरः ससर्ज । पूर्यन्ते सप्तभिर्धातुभिरिति पुरः शरीराणि ॥॥१७॥

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अब प्रमाणित करेंगे कि-

बुध की चन्द्रमा से उत्पत्ति भी पूर्णत: कुछ पुराणों में  काल्पनिक थ्योरी पर  आधारित है जो बाद में जोड़ी गयी है।

जिसे उन्ही के थ्योरी के रूप में उद्धृत करते हैं।

 पुराणों में एक काल्पनिक  कहानी बनाकर जोड़ी गयी ---"चंद्रमा के गुरु थे देवगुरु बृहस्पति। बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्रमा की सुन्दरता पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगी।

 तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास भी कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ ही दिया। 

बृहस्पति के वापस बुलाने पर उसने वापस आने से मना कर दिया, जिससे बृहस्पति क्रोधित हो उठे तब बृहस्पति एवं उनके शिष्य चंद्र के बीच युद्ध आरंभ हो गया।

 इस युद्ध में असुर गुरु शुक्राचार्य चन्द्रमा की ओर हो गये और अन्य देवता बृहस्पति के साथ हो लिये। अब युद्ध बड़े स्तर पर होने लगा। 

क्योंकि यह युद्ध तारा की कामना से हुआ था, अतः यह तारकाम्यम कहलाया।

 इस वृहत स्तरीय युद्ध से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को भय हुआ कि ये कहीं पूरी सृष्टि को ही नष्ट न कर जाए, तो वे बीच बचाव कर इस युद्ध को रुकवाने का प्रयोजन करने लगे।

 उन्होंने तारा को समझा-बुझा कर चन्द्र से वापस लिया और बृहस्पति को सौंपा।

 इस बीच तारा के एक सुन्दर पुत्र जन्मा जो बुध कहलाया।

 चंद्र और बृहस्पति दोनों ही इसे अपना बताने लगे और स्वयं को इसका पिता बताने लगे यद्यपि तारा चुप ही रही।

माता की चुप्पी से अशांत व क्रोधित होकर स्वयं बुध ने माता से सत्य बताने को कहा। तब तारा ने बुध का पिता चन्द्र को बताया।

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"दूसरा पौराणिक मत-

दूसरे मत से तारा बृहस्पति की पत्नी थी। चंद्र उनके सौंदर्य से मोहित होकर विवाह प्रस्ताव दिया तो तारा ने उसे ठुकरा दिया। इससे चंद्र क्रोधित हो परे और बलपूर्वक उनका बलात्कार किया। इस बलात्कार के कारण तारा गर्भवती हुई और बुध का जन्म हुआ।


निष्कर्ष- चन्द्रमा पृथ्वी का एक उपग्रह है

इसका द्रव्यमान पृथ्वी के द्रव्यमान का 1.2% है और इसका व्यास 3,474 किमी (2,159 मील) है, जो पृथ्वी के व्यास का लगभग एक-चौथाई है


बुध का व्यास चंद्रमा के व्यास से लगभग 40% अधिक है। बुध का व्यास 4,879 किलोमीटर है, जबकि चंद्रमा का व्यास 3,475 किलोमीटर है. 

अर्थात 1,404 किलोमीटर व्यास बुध का ज्यादा होने से भी वह चन्द्रमा से बड़ा है।

अत:चन्दमा से बुध की उत्पत

_ भी सम्भव नहीं है।_______________________________ 

"अब इला की काल्पनिक सिद्धान्त हीन थ्योरी भी सुने


 जो उसे सैद्धान्तिक रूप से इला को बुध की पत्नी नहीं बनाती हैं क्योंकि गर्भवास की पूर्ण अवधि नौ महीने होती है । और नौ महीनों तक इला का स्त्री बने रहना सम्भव नहीं- क्यों कि उन्हें एक महीना स्त्री और एक महीना पुरुष होना पड़ता है। *********************

इस प्रकार उनका न तो स्त्रीत्व ही सुरक्षित है और न पुरुषत्व ही ।

पुराणों के इसी आख्यान को हम निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत करते हैं जो मनगड़न्त है।

वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा


अध्याय एक – राजा सुद्युम्न का स्त्री बनना (9.1)

राजा परीक्षित ने कहाहे प्रभु श्रील शुकदेव गोस्वामीआप विभिन्न मनुओं से सारे कालों का विस्तार से वर्णन कर चुके हैं और उनमें असीम शक्तिमान पूर्ण भगवान के अद्भुत कार्यकलापों का भी वर्णन कर चुके हैं। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने आपसे ये सारी बातें सुनीं।

2-3 द्रविड़ देश के साधु सदृश राजा सत्यव्रत को भगवतकृपा से गत कल्प के अन्त में आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और वह अगले मन्वन्तर में विवस्वान का पुत्र वैवस्वत मनु बना। मुझे इसका ज्ञान आपसे प्राप्त हुआ है। मैंने यह भी जाना कि इक्ष्वाकु इत्यादि राजा उसके पुत्र थेजैसा कि आप पहले बतला चुके हैं।

हे परम भाग्यशाली श्रील शुकदेव गोस्वामीहे महान ब्राह्मणकृपा करके हमको उन सारे राजाओं के वंशों तथा गुणों का पृथक-पृथक वर्णन कीजियेक्योंकि हम आपसे ऐसे विषयों को सुनने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं।

कृपा करके हमें वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न उन समस्त विख्यात राजाओं के पराक्रम के विषय में बतलायें जो पहले हो चुके हैंजो भविष्य में होंगे तथा जो इस समय विद्यमान हैं।

सूत गोस्वामी ने कहाजब वैदिक ज्ञान के पण्डितों की सभा में सर्वश्रेष्ठ धर्मज्ञ श्रील शुकदेव गोस्वामी से महाराज परीक्षित ने इस प्रकार से प्रार्थना कीतो वे इस प्रकार बोले।

श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहाहे शत्रुओं का दमन करने वाले राजाअब तुम मुझसे मनु के वंश के विषय में विस्तार से सुनो। मैं यथासम्भव तुम्हें बतलाऊँगायद्यपि सौ वर्षों में भी उसके विषय में पूरी तरह नहीं बतलाया जा सकता।

जीवन की उच्च तथा निम्न अवस्थाओं में पाये जाने वाले जीवों के परमात्मा दिव्य परम पुरुष कल्प के अन्त में विद्यमान थेजब न तो यह ब्रह्माण्ड थान अन्य कुछ था। तब केवल वे ही विद्यमान थे।

हे राजा परीक्षितपूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की नाभि से एक सुनहला कमल उत्पन्न हुआजिस पर चार मुखों वाले ब्रह्माजी ने जन्म लिया।

10 ब्रह्माजी के मन से मरीचि ने जन्म लिया। दक्ष महाराज की कन्या और मरीचि के संयोग से कश्यप प्रकट हुए। कश्यप द्वारा अदिति के गर्भ से विवस्वान ने जन्म लिया।

11-12 हे भारतवंश के श्रेष्ठ राजासंज्ञा के गर्भ से विवस्वान को श्राद्धदेव मनु प्राप्त हुए। श्राद्धदेव मनु ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था। उन्हें अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र प्राप्त हुए। इन पुत्रों के नाम थे – इक्ष्वाकुनृगशर्यातिदिष्टधृष्टकरुषक,   पृषध्रनभग तथा कवि।

13 आरम्भ में मनु को एक भी पुत्र नहीं था। अतएव आध्यात्मिक ज्ञान में अत्यन्त शक्ति सम्पन्न महर्षि वसिष्ठ ने (उसको पुत्र प्राप्ति के लिएमित्र तथा वरुण देवताओं को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ सम्पन्न किया।

14 उस यज्ञ के दौरान मनु की पत्नी श्रद्धाजो केवल दूध पीकर जीवित रहने का व्रत कर रही थीयज्ञ करने वाले पुरोहित के निकट गईउन्हें प्रणाम किया और उनसे एक पुत्री की याचना की।

15 प्रधान पुरोहित द्वारा यह कहे जाने पर "अब आहुति डालोआहुति डालने वाले (होताने आहुति डालने के लिए घी लिया। तब उसे मनु की पत्नी की याचना स्मरण हो आई और उसने वषट शब्दोच्चार करते हुए यज्ञ सम्पन्न किया।

16 मनु ने वह यज्ञ पुत्र प्राप्ति के लिए प्रारम्भ किया थाकिन्तु मनु की पत्नी के अनुरोध पर पुरोहित के विपथ होने से इला नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। इस पुत्री को देखकर मनु अधिक प्रसन्न नहीं हुए। अतएव वे अपने गुरु वसिष्ठ से इस प्रकार बोले।

17 हे प्रभुआप लोग वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पटु हैं। तो फिर वांछित फल से विपरीत फल क्यों निकलायही मेरे लिए शोक का विषय है। वैदिक मंत्रों का ऐसा उल्टा प्रभाव नहीं होना चाहिए था।

18 आप सभी संयमितमन से संतुलित तथा परम सत्य से परिचित हो। आप सबने अपनी तपस्याओं के द्वारा सारे भौतिक कल्मषों से अपने आप को पूरी तरह स्वच्छ कर लिया है। आप सबके वचन देवताओं के वचनों की तरह कभी मिथ्या नहीं होते। तो फिर यह कैसे सम्भव हुआ कि आप सबका संकल्प विफल हो गया?

19 मनु के इन वचनों को सुनकर अत्यन्त शक्तिसम्पन्न प्रपितामह वसिष्ठ पुरोहित की त्रुटि को समझ गए। अतः वे सूर्यपुत्र से इस प्रकार बोले।

20 तुम्हारे पुरोहित द्वारा मूल उद्देश्य में विचलन के कारण लक्ष्य में यह त्रुटि हुई है। फिर भी मैं अपने पराक्रम से तुम्हें एक अच्छा पुत्र प्रदान करूँगा।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहाहे राजा परीक्षितअत्यन्त सुविख्यात एवं शक्तिसम्पन्न वसिष्ठ ने यह निर्णय लेने के बादपरम पुरुष भगवान विष्णु से इला को पुरुष में परिणत करने के लिए प्रार्थना की।

22 परम नियन्ता परमेश्वर ने वसिष्ठ से प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वरदान दिया। इस तरह इला सुद्युम्न नामक एक सुन्दर पुरुष में परिणत हो गई।

23-24 हे राजा परीक्षितएक बार वीर सुद्युम्न अपने कुछ मंत्रियों और साथियों के साथसिंधुप्रदेश से लाये गये घोड़े पर सवार होकर शिकार करने जंगल में गया। वह कवच पहने था और धनुष-बाण से सुसज्जित था। वह अत्यन्त सुन्दर था। वह पशुओं का पीछा करते हुए तथा उनको मारते हुए जंगल के उत्तरी भाग में पहुँच गया।

25 वहाँ उत्तर में मेरु पर्वत की तलहटी में सुकुमार नामक एक वन है जहाँ शिवजी सदैव उमा के साथ आनन्द-विहार करते हैं। सुद्युम्न उस वन में प्रविष्ट हुआ।

26 हे राजा परीक्षितज्योंही अपने शत्रुओं को दमन करने में निपुण सुद्युम्न उस जंगल में प्रविष्ट हुआत्योंही उसने देखा कि वह एक स्त्री में और उसका घोड़ा एक घोड़ी में परिणत हो गये हैं।

27 जब उसके साथियों ने भी अपने स्वरूपों एवं अपने लिंग को विपरीत लिंग में परिणत हुआ देखातो वे सभी अत्यन्त खिन्न हो गये और एक दूसरे की ओर देखते रह गये।

28 महाराज परीक्षित ने कहाहे सर्वश्रेष्ठ शक्तिसम्पन्न ब्राह्मणयह स्थान इतना शक्तिशाली क्यों था और किसने इसे इतना शक्तिशाली बनाया थाकृपा करके इस प्रश्न का उत्तर दीजियेक्योंकि मैं इसके विषय में जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।

29 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार आध्यात्मिक अनुष्ठानों का दृढ़ता से पालन करने वाले महान साधु पुरुष उस जंगल में शिवजी का दर्शन करने आए। उनके तेज से समस्त दिशाओं का सारा अंधकार दूर हो गया।

30-31 जब देवी अम्बिका ने इन महान साधु पुरुषों को देखातो वे अत्यधिक लज्जित हुईं। साधु पुरुषों ने देखा कि गौरीशंकर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिए वे वहाँ से लौट गए और नर-नारायण आश्रम की ओर चल पड़े।

32 तत्पश्चात अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए शिवजी ने कहा, “कोई भी पुरुष इस स्थान में प्रवेश करते ही तुरन्त स्त्री बन जाएगा।”

33 उस समय से कोई भी पुरुष ने उस जंगल में प्रवेश नहीं किया था। किन्तु अब राजा सुद्युम्न स्त्री रूप में परिणत होकर अपने साथियों समेत एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमने लगा।

34 सुद्युम्न सर्वोत्तम सुन्दर स्त्री रूप में परिणत कर दिया गया था और वह अन्य स्त्रियों से घिरी हुई थी। चन्द्रमा के पुत्र बुध को इस सुन्दरी को अपने आश्रम के निकट विचरण करते देखकर उसके साथ भोग करने की चाहत हुई।

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35 उस सुन्दर स्त्री ने भी चन्द्रमा के राजकुमार बुध को अपना पति बनाना चाहा। इस तरह बुध ने उसके गर्भ से पुरूरवा नामक एक पुत्र प्राप्त किया।

36 मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि मनु-पुत्र सुद्युम्न ने इस प्रकार स्त्रीत्व प्राप्त करके अपने कुलगुरु वसिष्ठ का स्मरण किया।

37 सुद्युम्न की इस शोचनीय स्थिति को देखकर वसिष्ठ अत्यधिक दुखी हुए। उन्होंने सुद्युम्न को उसका पुरुषत्व वापस दिलाने की इच्छा से फिर से शिवजी की पूजा प्रारम्भ कर दी।

38-39 हे राजा परीक्षितशिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हुए। अतएव शिवजी ने उन्हें संतुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन को रखने के उद्देश्य से उस सन्त पुरुष से कहा, “

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आपका शिष्य सुद्युम्न एक मास तक नर रहेगा और दूसरे मास नारी होगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।

मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः ।
 इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥ ३९ ॥

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40 इस प्रकार गुरु की कृपा पाकर शिवजी के वचनों के अनुसार सुद्युम्न को प्रत्येक दूसरे मास में उसका इच्छित पुरुषत्व फिर से प्राप्त हो जाता था और इस तरह उसने राज्य पर शासन चलायायद्यपि नागरिक इससे संतुष्ट नहीं थे।


तस्योत्कलो गयो राजन् विमलश्च सुतास्त्रयः ।
 दक्षिणापथराजानो बभूवुः धर्मवत्सलाः ॥ ४१॥

41 हे राजनसुद्युम्न के तीन अत्यन्त पवित्र पुत्र हुए जिनके नाम थे उत्कलगय तथा विमलजो दक्षिणा-पथ के राजा बने।

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 ( पुरूरवा या गोप रूप में वर्णन-)

ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
 पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम् ॥ ४२॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे प्रथमोध्याऽयः ॥१॥

42 तत्पश्चातसमय आने पर जब जगत का राजा सुद्युम्न काफी वृद्ध हो गयातो उसने अपने गो समुदाय को अपने पुत्र पुरूरवा को सौंपकर और स्वयं जंगल में चला गया।

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वेदाभ्यासरतस्यास्य प्रजाकामस्य मानसाः।
मनसः पूर्वसृष्टा वै जातायत्तेन मानसाः।। ३.५ ।।

मरीचिरभवत्‌ 
पूर्व ततोऽत्रिर्भगवान् ऋषिः।
अङिगराश्चाभवत्पश्चात् पुलस्त्यस्तदनन्तरम्।३.६।

मत्स्यपुराण /अध्यायः (३)

बह्मा के मन से केवल मरीचि उत्पन्न हुए है। इस लिए वे ही मानस पुत्र कहलाए!

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परावरेषां भूतानां आत्मा यः पुरुषः परः।
 स एवासीद् इदं विश्वं कल्पान्ते अन्यत् न किञ्चन ॥८॥


 तस्य नाभेः समभवत् पद्मकोषो हिरण्मयः ।
 तस्मिन् जज्ञे महाराज स्वयंभूः चतुराननः ॥९॥

मरीचिः मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः ।
दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वान् अभवत् सुतः ॥१०॥

(भागवत पुराण स्कन्ध 9/1-अध्याय )

अनुवाद-

जीवन की उच्च तथा निम्न अवस्थाओं में पाये जाने वाले जीवों के परमात्मा दिव्य परम पुरुष कल्प के अन्त में विद्यमान थेजब न तो यह ब्रह्माण्ड थान अन्य कुछ था। तब केवल वे ही विद्यमान थे।

हे राजा परीक्षितपूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की नाभि से एक सुनहला कमल उत्पन्न हुआजिस पर चार मुखों वाले ब्रह्माजी ने जन्म लिया।

ब्रह्माजी के मनसे मरीचि और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदितिसे विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ॥ 10।

इला शब्द के वैदिक अर्थ हैं।

इला - पृथ्वी । बुद्धिमती स्त्री । गाय। वाणी- (काव्यत्व शक्ति)। आदि-

कृत्वा स्त्रीरूपमात्मानमुमेशो गोपतिध्वजः ।

देव्याः प्रियचिकीर्षुः संस्तस्मिन्पर्वतनिर्झरे । ७.८७.१२ ।


ये तु तत्र वनोद्देशे सत्त्वाः पुरुषवादिनः ।

वृक्षाः पुरुषनामानस्तेऽभवन् स्त्रीजनास्तदा । ७.८७.१३ ।


यच्च किञ्चन तत्सर्वं नारीसञ्ज्ञं बभूव ह ।एतस्मिन्नन्तरे राजा स इलः कर्दमात्मजः ।निघ्नन्मृगसहस्राणि तं देशमुपचक्रमे । ७.८७.१४।

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स दृष्ट्वा स्त्रीकृतं सर्वं सव्यालमृगपक्षकम् ।आत्मनं स्त्रीकृतं चैव सानुगं रघुनन्दन ।। ७.८७.१५ ।।




( वाल्मीकि रामायण में इला की अन्य पुराणों से भिन्न कथा-  )  


वाल्मीकि  रामायणम्‎ - उत्तरकाण्ड सर्गः (87 इला और पुरुरवा की कहानी) भागवत पुराण से भिन्न है।

तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणेनोक्तं वाक्यं वाक्य विशारदः।
प्रत्युवाच महातेजाः प्रहसन्राघवो वचः।। ७.८७.१।

एवमेव नरश्रेष्ठ यथा वदसि लक्ष्मण ।
वृत्रघातमशेषेण वाजिमेध फलं च यत् । ७.८७.२।

श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापतेः।
पुत्रो बाह्लीश्वरः श्रीमान्-इलो नाम महाशयाः।७.८७.३।

स राजा पृथिवीं सर्वां वशे कृत्वा सुधार्मिकः ।
राज्यं चैव नरव्याघ्र पुत्रवत्पर्यपालयत् । ७.८७.४।

सुरैश्च परमोदारैर्दैतेयैश्च महाधनैः ।
नागराक्षसगन्धर्वैर्यक्षैश्च सुमहात्मभिः।७.८७.५।


पूज्यते नित्यशः सौम्य भयार्तै रघुनन्दन ।
अविभ्यंश्च त्रयो लोकाः सरोषस्य महात्मनः। ७.८७.६ ।

स राजा तादृशो ह्यासीद्धर्मे वीर्ये च निष्ठितः ।
बुद्ध्या च परमोदारो बाह्लीकेशो महायशाः । ७.८७.७ ।

स प्रचक्रे महाबाहुर्मृगयां रुचिरे वने ।
चैत्रे मनोरमे मासि सभृत्यबलवाहनः । ७.८७.८ ।

प्रजघ्ने च नृपोऽरण्ये मृगाञ्छतसहस्रशः।
हत्वैव तृप्तिर्नाभूच्च राज्ञस्तस्य महात्मनः। ७.८७.९।


नानामृगाणामयुतं वध्यमानं महात्मना।
यत्र जातो माहासेनस्तं देशमुपचक्रमे । ७.८७.१०।


तस्मिन्प्रदेशे देवेश शैलराजसुतां हरः।
रमयामास दुर्धर्षः सर्वैरनुचरैः सह । ७.८७.११ ।

कृत्वा स्त्रीरूपमात्मानमुमेशो गोपतिध्वजः।
देव्याः प्रियचिकीर्षुः संस्तस्मिन्पर्वतनिर्झरे । ७.८७.१२ ।


ये तु तत्र वनोद्देशे सत्त्वाः पुरुषवादिनः।
वृक्षाः पुरुषनामानस्ते ऽभवन् स्त्रीजनास्तदा । ७.८७.१३।


यच्च किञ्चन तत्सर्वं नारीसञ्ज्ञं बभूव ह ।
एतस्मिन्नन्तरे राजा स इलः कर्दमात्मजः।

निघ्नन्मृगसहस्राणि तं देशमुपचक्रमे । ७.८७.१४।
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स दृष्ट्वा स्त्रीकृतं सर्वं सव्यालमृगपक्षकम् ।
आत्मनं स्त्रीकृतं चैव सानुगं रघुनन्दन ।। ७.८७.१५ ।।


तस्य दुःखं महच्चासीद्दृष्ट्वा ऽऽत्मानं तथागतम् ।
उमापतेश्च तत्कर्म ज्ञात्वा त्रासमुपागमत् ।। ७.८७.१६ ।।


ततो देवं महात्मानं शितिकण्ठं कपर्दिनम् ।
जगाम शरणं राजा सभृत्यबलवाहनः।। ७.८७.१७।।

ततः प्रहस्य वरदः सह देव्या महेश्वरः ।
प्रजापतिसुतं वाक्यमुवाच वरदः स्वयम् ।७.८७.१८।


उत्तिष्ठोत्तिष्ठ राजर्षे कार्दमेय महाबल ।
पुरुषत्वमृते सौम्य वरं वरय सुव्रत ।।७.८७.१९।।


ततः स राजा दुःखार्तः प्रत्याख्यातो महात्मना।
न च जग्राह स्त्रीभूतो वरमन्यं सुरोत्तमात् ।। ७.८७.२०।।


ततः शोकेन महता शैलराजसुतां नृपः ।
प्रणिपत्य ह्युमां देवीं सर्वेणैवान्तरात्मना ।। ७.८७.२१ ।।


ईशे वराणां वरदे लोकानामसि भामिनी।
अमोघदर्शने देवी भज सौम्येन चक्षुषा।। ७.८७.२२ ।।


हृद्गतं तस्य राजर्षेर्विज्ञाय हरसन्निधौ।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं देवी रुद्रस्य संमता ।७.८७.२३।


अर्धस्य देवो वरदो वरार्धस्य तव ह्यहम् ।
तस्मादर्धं गृहाण त्वं स्त्रीपुंसोर्यावदिच्छसि ।। ७.८७.२४ ।।


तदद्भुततरं श्रुत्वा देव्या वरमनुत्तमम् ।
सम्प्रहृष्टमना भूत्वा राजा वाक्यमथाब्रवीत् ।। ७.८७.२५ ।।


यदि देवि प्रसन्ना मे रूपेणाप्रतिमा भुवि ।
मासं स्त्रीत्वमुपासित्वा मासं स्यां पुरुषः पुनः ।। ७.८७.२६ ।।


ईप्सितं तस्य विज्ञाय देवी सुरुचिरानना ।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यमेवमेव भविष्यति ।। ७.८७.२७ ।।

राजन्पुरुषभूतस्त्वं स्त्रीभावं न स्मरिष्यसि ।
स्त्रीभूतश्च परं मासं न स्मरिष्यसि पौरुषम् ।। ७.८७.२८।।


एवं स राजा पुरुषो मासं भूत्वाथ कार्दमिः ।
त्रैलोक्यसुन्दरी नारी मासमेकमिला ऽभवत् ।। ७.८७.२९ ।।

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमदुत्तरकाण्डे सप्ताशीतितमः सर्गः ।। ८७ ।।

अनुवाद:-


लक्ष्मण की बात सुनकर हैरान रह गए ,
 वाक्पटु और ताकतवर राघव ने उत्तर दिया:-

“हे पुरुषश्रेष्ठ, लक्ष्मण, तूम ने वृत्र के वध और अश्वबली के फल के बारे में जो कुछ कहा है, वह पूर्णतया सत्य है, हे सज्जन ! ऐसा कहा जाता है कि पूर्व में अत्यंत पुण्यात्मा और धन्य ( इल,) नाम से  प्रजापति कर्दम के पुत्र, बाहलिका प्रांत में राज्य करते थे । 

विशेष:- भागवत पुराण के अनुसार कर्दम ऋषि की पत्नी का नाम देवहूति था। देवहूति स्वयंभुव मनु की कन्या थी और भगवान कपिल की माता थी. 
____________________
हे नरेश, उस परम प्रतापी राजा ने सारी पृथ्वी को अपने अधीन करके, अपनी प्रजा पर अपने पुत्रों के समान शासन किया।

“उदार  और धनी देवताओं  , नागों , राक्षसों  गंधर्वों  और  यक्षों ने, भय से प्रेरित होकर, निरंतर उसकी पूजा की, हे प्रिय मित्र,  और हे रघु के आनंद  त्रिलोक ने क्रोधी शक्तिशाली के सामने कांप उठे। ऐसा वह राजकुमार था, 

बहलीकों का प्रतापी शासक , ऊर्जा से भरपूर, अत्यधिक बुद्धिमान और अपनी कर्तव्यनिष्ठा में दृढ़।

"चैत्र के खूबसूरत महीने के दौरान , वह लंबे समय तक अपने पर्वतारोहियों, पैदल सेना और घुड़सवार सेना के साथ आकर्षक जंगलों में शिकार करने गया, और उस जंगल में उस उदार राजकुमार ने सैकड़ों और हजारों की संख्या में जंगली मृगों को मारा, फिर भी उसका पेट नहीं भरा। जब वह उस देश में पहुंचा, जहां कार्तिकेय का जन्म हुआ था, जहाँ सभी प्रकार के अनगिनत जानवर पहले ही नष्ट हो गए थे। वहाँ के देवताओं में सबसे प्रमुख, अजेय शिव, पहाड़ों के राजा की बेटी  पार्वती के साथ काम- क्रीडा कर  रहे थे, और, खुद को एक महिला में बदल कर, उमा के भगवान, जिसका प्रतीक बैल है, ने देवी का मनोरंजन करने की कोशिश की।

 झरनों के बीच। जंगल में जहां भिन्न प्राणी थे या पेड़ थे, जो कुछ भी था, उसने नारी का रूप धारण कर लिया। 
*********************************
कर्दम के पुत्र राजा इल ने उस स्थान पर प्रवेश किया और उन्होंने देखा कि वे सभी महिलाएँ वहाँ थीं, उन्हें बाद में पता चला कि वह भी एक महिला में परिवर्तित  हो गये है।,

 साथ ही उनके कार्यस्थल पर भी और  इस कायापलट पर उन्हें बहुत परेशान किया गया और उन्होंने पहचान लिया कि यह उमा की पति का काम  हैं और वे विश्वसनीय हो गई ।

तब वह , अपने सेवकों, अपनी सेना और अपने रथों के साथ, उस शक्तिशाली नीले गले वाले देवता, कपालिन  की शरण में गयी  और उदार महेश्वर ने उस देवी के साथ हँसते हुए, कृपा के दाता, प्रजापति के पुत्र इल से  कहा: -

''उठो, उठो, हे राजऋषि, हे कर्दम के वीर पुत्र, मर्दानगी को ठीक करो, जो चाहो मांग लो!'

उदार शिव के इस उत्तर से राजा अत्यंत निराश हो गये । एक महिला के रूप में परिवर्तित वीर , वह देवताओं के प्रमुखों से कोई अन्य आभूषण स्वीकार नहीं करना चाहती थी और, अपने गहन संकट में, वह राजकुमार, पहाड़ों के राजा की बेटी, उमा के चरणों में पूरे दिल से गिर गई। ये विनती करते हुए कहा:-

"'क्या आप सभी लोगों में अपनी-अपनी उपकार बाँटती हैं, हे आराध्या देवी, दृष्टि कभी निष्फल नहीं होती, मुझे अपनी-अपनी प्रतिष्ठा दृष्टि में स्थान मिलता है!'

"यह जानकर कि राजर्षि के दिल में क्या चल रहा था, वह देवी, जो शिव  के सामने खड़ी थी, उस,रुद्र की पत्नी ने यह उत्तर दिया:-

'''तुम हम दोनों से जो शोभा मांगोगे उसका आधा भाग।'महादेव के द्वारा दिया जाएगा और आधा भाग मेरे द्वारा दिया जाएगा, इसलिए यह आधा भाग अपनी इच्छा के अनुसार स्त्री और पुरुष रूप  प्राप्त करें!'

" देवी द्वारा बताए गए उस अद्भुत और अद्वितीय आभूषण को देखकर राजा ने खुशी से स्वीकार करते हुए कहा:-
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"वह देवी, वास्तुशिल्प और पृथ्वी पर अद्वितीय है, अगर मुझ पर आपकी कृपा है, तो क्या मैं एक महीने के लिए एक महिला बन सकती हूं,

और दूसरे महीने में एक पुरुष का रूप धारण कर सकती हूं!"

"तब कृपालु देवी ने अपनी इच्छा को मूलभूत, पूर्ण रूप से उत्तर दिया: -

'हे राजा, ऐसा ही होगा, और जब तुम पुरुष हो, तो यह याद नहीं रहेगा कि तुम कभी एक स्त्री थे और, अगले महीने, एक स्त्री बन कर, तुम भूल गए कि तुम कभी एक पुरुष थे!'

"इस प्रकार कर्दम से वह राजा उत्पन्न हुआ इल, एक महीने के लिए पुरुष अगले महीने इला के नाम पर एक महिला बन गया, 

जो त्रिलोक की सबसे प्रिय महिला थी।"

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अध्याय 88 - बुध का सामना इला से हुआ

 उत्तर काण्ड( 7) - 
 
राम ने  कहा लक्ष्मण भरत इला की कहानी में बहुत से चमत्कार  है।

 दोनों ने हाथ जोड़कर उदार राजा और उनके चित्रों के बारे में बताया और उनका वर्णन करते हुए कहा:-

"उस दुष्ट राजा ने तब क्या किया जब वह एक स्त्री बनी और जब वह एक बार फिर पुरुष बनी तो उसने क्या व्यवहार किया?"

जिज्ञासा से प्रेरित इन शब्दों को सुनकर,ककुत्स्थ ने उन्हें बताया कि उस राजा के साथ क्या हुआ, और कहा:-

"एक महिला के रूप में परिवर्तित होने के बाद, उन्होंने पहली बार अपनी महिला परिचार कक्ष में प्रवेश किया, अपने पूर्व दरबारियों और उस महिला के बीच की समृद्धि, जो पृथ्वी पर सबसे सुंदर थी, जैसे कि  कमल की संगति जैसी जगह, एक घने जंगल में प्रवेश किया,  संरक्षक के बीच यात्रा पर गए, झाड़ियाँ और लताएँ सभी शेष बचे जंगल में रहते हैं। अब उस जंगली इलाके में, पहाड़ से बहुत दूर नहीं, एक आकर्षक झील है जिसमें हर तरह के पक्षी आते हैं; वहाँ इला ने चाँद के पुत्र बुद्ध[यानी, बुध ग्रह को  देखा, जो उगने पर उस गोले के समान दीप्तिमान था।

"बुद्ध, जो जल में दुर्गम रहते थे, ने स्वयं को कठोर तपस्या के लिए समर्पित किया था, और वह ऋषि परोपकारी और परम दयालु थे।" 

अपने आश्चर्य में, इला ने अपने साथियों के साथ पानी को उबाल कर दिया, और उसे देखकर, बुद्ध अपने बाणों से प्रेम के देवता के प्रभाव में आ गए और, अब आत्म-नियंत्रित नहीं रहे, झील में अनुयायी बने रहे।

इला को देखकर, आर्किटेक्चरल तीनों लोकोंअनोखी थी, उसने सोचा:-

'यह महिला कौन है, आकाशीय देवताओं से भी अधिक मित्र?'मैंने पहले कभी देवों,नागों,असुरोंयाअप्सराओंकी मूर्ति में ऐसी चमक नहीं देखी । अगर उसकी शादी पहले से किसी और से नहीं हुई है, तो उसने मुझ से उधार लिया है!'

“जैसे ही उसने देर की, ऐसा सोच में पड़ गया, कंपनी ने पानी छोड़ दिया और बुद्ध, विचार करते हुए, वहाँ से निकले।”

इसके बाद उन्होंने महिलाओं को अपने आश्रय स्थल पर जाकर बुलाया और उनकी पूजा की, जिसके बाद धर्मात्मा तपस्वी ने उनसे पूछताछ करते हुए कहा:-

“यह महिला, जो पूरी दुनिया में सबसे प्यारी है, किसकी है?” वह यहाँ क्यों आया है? 'मुझे बिना किसी हिचकिचाहट के सब बताओ।'

नम्र स्वर में बोले गए इन शब्दों को सुनकर सभी महिलाओं ने मधुर आवाज में उत्तर दिया, कहा:-

'''वह महिला कंपनी हमारी रहती है, उसका कोई पति नहीं है और वह हमारी जंगल में घूमती है।'

"उनकी महिलाओं के उत्तर आश्चर्य की बात है, वह द्विज ने उस विज्ञान को याद किया जिसे सभी ने कुछ न कुछ देखा होगा[1], उसके बाद राजा इला के संबंध में जो कुछ हुआ था, वह अज्ञात हो गया, और ऋषियों ने सबसे प्रमुख उन महिलाओं से कहा: -

“'यहाँ पर्वतीय क्षेत्र पर तुम किम्पुरुषियोंके रूप में निवास करोगे ![2]

इसी पर्वत पर अपना निवास बनाओ;तुम जड़, पत्ते और फल खाओगे और किम्पुरुषों को अपनी पत्नी के रूप में पाओगे!'

" सोम के पुत्र के आदेश पर , वे स्त्रियाँ, जो पुरुष थे, किम्पुरुषिशियों में परिवर्तित हो गए, उन्होंने पहाड़ के घाटों पर अपना निवास स्थान बना लिया।''

फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :

आवर्तनी का पवित्र सूत्र।

[2] :

-किंपुरुषों की मादाएं, जो इंसान हैं, कभी-कभी किन्नरों के साथ पहचानी जाती हैं।



अध्याय 89 - पुरूरवा का जन्म
माता-पिता:  - उत्तर-काण्ड

किंपुरुषियोंकी उत्पत्ति के बारे में जानकर आश्चर्य हुआ ,लक्ष्मण और भरत दोनों ने पुरुषों के भगवान रामसे कहा , "कितना अद्भुत है!"

इसके बाद यशस्वी और धर्मात्मा राम ने प्रजापति के बेटे इला की कहानी जारी करते  हुए कहा:-

"जब उन्होंने देखा कि किन्नरियों की सारी सेना चली गयी है, तो ऋषियों में अग्रणी ने कहा होए सुंदर इला :-

"'मैं सोमा का प्रिय पुत्र हूँ , वह कृपालु देवी, क्या आप मुझ पर कृपालु देवी लिखते हैं!'

"उसने लेखों से सुने उस एकांत जंगल में इस प्रकार की बात की, और उस दयालु और सुंदर एकांत निवासी ने उसे उत्तर देते हुए कहा:-

"'हे सोमा प्रिय पुत्र, मैं वहां पहुंचना चाहता हूं, मैं आपकी सेवा में हूं, जो भी आपको अच्छा लगेगा!'

“यह मनमोहक उत्तर चकित चंद्रमा की तस्वीर बहुत पसंद आई और उसका प्रेम बंधन में बंध गया।

इसके बाद असक्तबुद्ध ने मधुका महीना पार हो गया (अर्थात, वह महीना जो फरवरी और मार्च का हिस्सा है), वह इला के साथ रमण करता है एक क्षण की तरह मर गया, और, महीना खत्म होने पर, वह चंद्रमुखी अपने सपने से निकला।

 और सोमा के बेटे को पानी में तपस्वी के लिए समर्पित देखा, वह बिना किसी के नाम के, अपनी भुजाओं को फैलाए थी, और उसने कहा:-

'हे धन्य, मैं अपने सेवकों की टोली के साथ इस दुर्गम पर्वत पर आया था, मुझे वे कहीं दिखाई नहीं दिए, वे कहाँ चले गए?'

“अतीत का सारा ज्ञान खो चुके राजर्षिकी बातें हैरान कर देने वाली बुद्ध ने उन्हें प्रतिमान बनाने के लिए मैत्रीपूर्ण स्वर में कहा:-

“'जब आप हवा और बारिश के बीच आश्रम में शरण लेकर सो रहे थे, तब आपके सेवकों पर भारी ओलावृष्टि हुई थी। ख़ुश रहो, सभी सुविधाओं को दूर करो और खुद को शांत करो! हे वीर, यहां शांति से रहो, पत्ते और वृक्षों पर अपना पोषण करो।'

"इन शब्दों में से सूर्योदय से पहले राजा ने, अपनी प्रजा के दुःख के कारण परेशान होकर, यह उत्तर दिया:-

“मैं अपने नौकरों से मूल्य निर्धारण भी अपना राज्य नहीं छोड़ सकता; हे महातपस्वी, मुझे एक क्षण भी देर न करनी पड़े, मुझे प्रस्थान करने की अनुमति दे दो। हे ब्राह्मण, मेरा एक ज्येष्ठ पुत्र है जो अपनी कर्तव्यनिष्ठा में दृढ़ है और अत्यंत जवान है, नाम शशबिंदु  है ; वह मेरा उत्तराधिकारी होगा. नहीं, मैं अपने साथियों और अपने अच्छे सेवकों का त्याग नहीं कर सकता, हे महातपस्वी, मेरी निंदा मत करो।'

"इस प्रकार राजाओं के बीच इंद्र और बुद्ध ने कहा , पहले उन्हें बेहोश कर दिया, फिर उन्हें ये आश्चर्यजनक शब्द सुनाते हुए कहा:-

“'यहाँ रहने की कृपा करो; शोक मत करो, हे संभावित करदमेय; वर्ष के अंत में मैं 'शराबी सजावट दूँगा।'

वेदके ज्ञाता निवास अविनाशी कर्मयोगी बुध की ये बातें सुनकर इला ने कहीं का निश्चय किया। अगले महीने, एक महिला प्रकट होती है, वह बुद्ध के साथ प्रेम प्रसंगों में व्याख्या करती है और उसके बाद, एक बार फिर पुरुष प्रकट होती है, वह निष्ठा पालन में समय की परिभाषा देती है।
___________
 नौवें महीने में दैत्य इला ने एक पुत्र, शक्तिशाली बनाया पुरुरवाको जन्म दिया और उसके जन्म के बाद, वह बच्चे को बुद्ध के पिता के हाथों में सौंप दिया, जो दिखने में बुद्ध जैसा दिखता था।
__________________



अध्याय 90 - इला को प्राकृतिक  स्थिति मिली
<पिछला
: पुस्तक 7 - उत्तर-काण्ड

[पूरा शीर्षक: इला ने अश्वमेधयज्ञ के माध्यम से अपनी प्राकृतिक स्थिति पुनः प्राप्त करें]।
________________
राम ने पुरुरवा के अद्भुत जन्म की कथा , तो यशस्वी लक्ष्मण और भरत ने एक बार फिर पूछा, और कहा:-

इला ने चंद्रमा-देवता के पुत्र के साथ एक वर्ष के अंतराल के बाद क्या किया? हे पृथ्वी के भगवान, हम सबको बताओ!”

इस प्रकार अपने दोनों भाइयों द्वारा स्नेहपूर्ण स्वर में पूछे जाने पर, राम ने प्रजापति के बेटे इला की कहानी सुनाना जारी रखी और कहा:-

"नायक ने, अपनी मर्दानगी को पुनः प्राप्त करने के बाद, बेहद बुद्धिमान और शानदार बुद्ध ने ऋषियों, अत्यंत महानसंवर्त, भृगु के पुत्रच्यवन, तपस्वी अरिष्टनेमि , रामोण, मोदकर और तपस्वी दुर्वासा को एक साथ बुलाया जाता है।

जब वे सभी शास्त्रीय हो गए, तो सत्य को समझने में सक्षम, वाकटु बुद्ध ने उन ऋषियों, अपने मित्रों, जो महान शक्ति से प्रिय थे, से कहा:-

''जानें कि कर्दम'के बेटे, वह लंबे समय तक भुजाओं वाले राजा के साथ क्या हुआ , ताकि उसकी खुशी फिर से स्थापित हो सके!'

“जब वे द्विज इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, कर्दम पौलस्त्य,क्रतु,वषट-काराऔर महान तेज वालेओमकार के साथ उस जंगल में आए।

वे सभी तपस्वी, खुद को एक साथ खुश थे और बहलीक के भगवान की सेवा करना चाहते थे, हर किसी ने अपने बारे में अपने विचार व्यक्त किये; हालाँकि,
________

 कर्दम ने अपने बेटे के लिए महान महान व्यक्तित्व की पेशकश की और कहा:-

“हे द्विजों, सुनो कि राजकुमार की खुशी के लिए मुझे क्या कहना है। मैं उस ईश्वर के अलावा कोई उपाय नहीं देखता जिसका प्रतीक चिन्ह है।

अश्वमेध से बढ़कर कोई यज्ञ नहीं है, जो शक्तिशाली रुद्र के दिल को प्रिय है । इसलिए आइए हम ये महान बलिदान दें।'

“इस प्रकार कर्दम ने कहा और सभी प्रमुख ऋषियों ने रुद्र को मंत्रमुग्ध कर दिया।

"इसके बाद एकराज ऋषि, संवर्त के शिष्य, शत्रुतापूर्ण गढ़ों के विजेता, उपनाम मरुत्त था, उस महान यज्ञ को संपन्न किया गया था जो बुध के आश्रम के पास हुआ था, जिसमें गौरवशाली रुद्र अत्यंत अवतरित हुए थे और, उत्सव पूरा होने पर, उमा की पत्नी बनीं। खुशी के अतिरेक में उन्होंने इला की उपस्थिति में सभी ऋषियों का वर्णन करते हुए कहा:-

“मैं अश्वमेध यज्ञ में विवाह भक्ति से प्रसन्न हूं। हे प्रतिष्ठित ब्राह्मणों, मैं इस राजा के लिए क्या करूँ?'

देवताओं के देवताओं ने इस प्रकार कहा, और ऋषियों ने कहा, गहरी याद में, देवताओं के देवताओं को एक कृपया दृष्टि रखने के लिए प्रेरित किया ताकि वे अपना पुरुषत्व पुनः प्राप्त कर सकें।

 तब आख़री बाज़ी  महादेव ने उसे उसका पौरुष वापस दे दिया गया और इला पर उसने प्रार्थना करते हुए कहा, शक्तिशाली भगवान गायब हो गए।

“अश्व-यज्ञ पूरा हो गया और।”शिव  नेखुद को अदृश्य कर लिया, वे सभी द्विज, मर्म दृष्टि वाले, जहां से आए थे, जहां लौट आए। हालाँकि, राजा ने अपनी राजधानी को त्यागकर, मध्य क्षेत्र में रखा था प्रतिष्ठान पुर  की स्थापना की, जो वैभव में अद्वितीय था, जबकि शशबिंदु, राजर्षि, शत्रुतापूर्ण शहर के विजेता, बहलीक
 में रहते थे। उस समय से पुरोहित और वैद्य पुत्र, राजा इला का निवास स्थान बन गया, अपना समय आने पर, वह ब्रह्माके निवास पर पता चला।

“इला के पुत्र, राजा पुररवा प्रतिष्ठा में उनके उत्तराधिकारी बने। इस सिद्धांत में बैल, अश्वमेध यज्ञ का यही गुण है। इला, जो पहले एक महिला थी, फिर से एक पुरुष बनी, जो किसी अन्य तरीके से असंभव थी।"




अध्याय 87 - इला की कहानी

यच्च किञ्चन तत्सर्वं नारीसञ्ज्ञं बभूव ह ।एतस्मिन्नन्तरे राजा स इलः कर्दमात्मजः।निघ्नन्मृगसहस्राणि तं देशमुपचक्रमे । ७.८७.१४।

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स दृष्ट्वा स्त्रीकृतं सर्वं सव्यालमृगपक्षकम् ।आत्मनं स्त्रीकृतं चैव सानुगं रघुनन्दन ।। ७.८७.१५ ।।

इला ( संस्कृत : इल ) या इला (  किंवदंतियों में एक देवता है , जो अपनी लिंग परिवर्तन के लिए जाना जाता है। पुरुष के रूप में उन्हें इला या सुद्युम्न के नाम से जाना जाता है और महिला के रूप में उन्हें इला कहा जाता है। इला को भारतीय राजवंश के चंद्र वंश का मुख्य पूर्वज माना जाता है - जिसे इला ("इला के वंशज") के रूप में भी जाना जाता है।

इला/इला
बुध (बुध) पत्नी इला के साथ
देवनागरीइल/इला
संस्कृत लिप्यंतरणइला/इला
संबंधदेवी
धामबुधलोक
मंत्रॐ इल्ली नमः
व्यक्तिगत जानकारी
अभिभावक
भाई-बहनइक्ष्वाकु और 9 अन्य
बातचीत करनाबुद्ध (एक महिला के रूप में)
बच्चापुरुरवा (स्त्री के रूप में पुत्र)
उत्कल, गया और विनताश्व (पुरुष के रूप में पुत्र)



जबकि कहानी के कई संस्करण मौजूद हैं, इला को आम तौर पर वैवस्वत मनु की बेटी या बेटे के रूप में वर्णित किया गया है और इस प्रकार सौर राजवंश के संस्थापक इक्ष्वाकु के भाई-बहन के रूप में वर्णित किया गया है। जिन वर्जन में इला का जन्म महिला के रूप में हुआ है, वह अपने जन्म के तुरन्त बाद दैवीय प्रभाव से पुरुष के रूप में परिवर्तित हो गई है। गलती से एक वयस्क के रूप में पवित्र उपवन में प्रवेश करने के बाद, इला को या तो हर महीने लिंग निर्धारण या एक महिला बनने का शाप दिया जाता है। एक महिला के रूप में, इला ने बुध ग्रह के देवता और चंद्र देवता चंद्र (सोम) के पुत्र बुध से विवाह किया, और उनके चंद्र वंश के पिता पुरुरवा ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुरुरवा के जन्म के बाद इला ने फिर एक पुरुष की जगह ले ली और तीन बेटों को जन्म दिया।

वेदों में , इला की इदा ( संस्कृत : इड़ा ), वाणी की देवी के रूप में प्रशंसा की गई है, और इसे पुरुरवा की माँ के रूप में वर्णित किया गया है।

इला के महाकाव्य की कहानी पुराणों के साथ-साथ भारतीय महाकाव्यों , रामायण और महाभारत में भी वर्णित है।

जन्म

लिंग पुराणऔरमहाभारतके अनुसार , इला का जन्म मानव जाति के पूर्वज वैवस्वत मनु और उनकी पत्नी श्रद्धा की सबसे बड़ी बेटी के रूप में हुआ था। हालाँकि, माता-पिता एक बेटे की इच्छा रखते थे और इसलिए मित्रऔरवरुणदेवताओं को प्रणाम करने के लिए प्रार्थना और तपस्या की मांग की गई , इला का लिंग बदल दिया गया। लड़के का नाम सुद्युम्मन रखा गया। [1] [2] भागवतपुराण,देवी-भागवत पुराण[3] कूर्मपुराण,हरिवंश,मार्कंडेय पुराणऔरपद्म पुराण(आदि भागवत पुराण आदि ग्रंथों के रूप में) एक प्रकार का वर्णन करते हैं : इला के माता-पिता को लंबे समय तक कोई सन्तान नहीं हुआ और उन्होंने समाधान के लिएअगस्त्य ऋषि के पास पहुंचे। ऋषि ने दंपत्ति के लिए पुत्रप्राप्ति के लिए मित्रा और वरुण ने एक को समर्पित किया यज्ञ (अग्नि यज्ञ) किया। या तो अनुष्ठान में त्रुटि के कारण या बलिदान में विफलता के कारण, मित्रा और वरुण ने एक बेटी को भेजा। एक संस्करण में, इसमें देवताओं से प्रार्थना की, प्रार्थना इला का लिंग बदल दिया गया। दूसरे संस्करण में, यह परिवर्तन तब होता है जब त्रुटिपूर्ण मंत्रों में सुधार किया जाता है और पुत्र को दोष दिया जाता है। [2] [4] [5] [6] एक प्रकार के अनुसार, श्रद्धा एक बेटी की कामना करती थी; यज्ञ समयवशिष्ठ ने उनकी इच्छा पर ध्यान दिया और इस प्रकार, एक बेटी का जन्म हुआ। हालाँकि, मनु एक बेटे की इच्छा रखते थे इसलिए श्रद्धा ने विष्णु से अपनी बेटी के लिंग परिवर्तन की अपील की। इला का नाम महिमा सुद्युम्न रखा गया। [7] वृत्तांतों में इला को मनु की सबसे बड़ी या सबसे छोटी संतान के बारे में बताया गया है। मनु के संत के रूप में इला के नौ भाई थे, जिनमें सबसे उल्लेखनीय सौर वंश के संस्थापक इक्ष्वाकुथे। [8] [9] [10] मनु के पुत्र के रूप में इला सूर्य के स्थान हैं । [11] वायु पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण में एक अन्य वृत्तान्त के अनुसार इला का जन्म स्त्री से हुआ था और वह स्त्री ही बनी रही। [10]

रामायण इला का जन्म भगवान ब्रह्मा की छाया से हुए प्रजापति कर्दम के पुत्र के रूप में हुआ है।  इला की कहानी रामायण के उत्तर कांड अध्याय में अश्वमेध -घोड़े के बलिदान की महिमा का वर्णन बताया गया है। [5] [12]

बुध को श्राप और विवाह

बुध के साथ नर इला.

रामन ,लिंग पुराणऔरमहाभारतमें , इला बहलिका का राजा बन जाता है । एक जंगल में शिकार करते समय, इला ने गलती से श्रवण ("नरकट का जंगल"), जो भगवान शिव की पत्नी देवी थीपार्वती का पवित्र उपवन था, में व्यवस्था कर ली । श्रवण में प्रवेश करने पर, शिव को ठीक करने के लिए सभी पुरुष, जिनमें पेड़ और जानवर भी शामिल हैं, महिलाओं को बदल दिया जाता है। [टिप्पणियाँ 1] 

एक किंवदंती है कि एक मादा यक्षिणी ने अपने पति को राजा से बचाने के लिए खुद को हिरण के रूप में प्रच्छन्न किया और इला को उपवन में ले लिया। [11] लिंग पुराण और महाभारत में इल के लिंग परिवर्तन से चंद्र वंश प्रारंभ होने के लिए शिव का एक रेखांकित कार्य बताया गया है। [1] भागवत पुराण और अन्य। पाठ हैं कि इला के पूरे दल ने, साथ ही उसके घोड़ों ने भी अपना लिंग बदल लिया। [4]

रामायणके अनुसार , जब इला मदद के लिएशिवके पास समुद्री डाकू, तो शिव ने हँसी उड़ाई, लेकिन प्यारी पार्वती ने श्राप को कम कर दिया और इला को हर महीने लिंग परिवर्तन की लंबाई दी। हालाँकि, एक पुरुष के रूप में, वह एक महिला के रूप में अपने जीवन को याद नहीं करती और इसके विपरीत। जब इला अपनी महिला परिचारिका के साथ अपने नए रूप में जंगल में घूम रही थी,बुध ग्रहचंद्रमा और देव के देवताचंद्रके पुत्र बुद्ध ने उस पर ध्यान दिया।हालाँकि वह तपस्याकर रहा था , लेकिन इला की स्वाभाविकता के कारण उसकी पहली नजर उसी से प्यार हो गई। बुद्ध ने इला के परिचारकों कोकिम्पुरुष (उभयलिंगी, अर्थात् "क्या यह एक आदमी है?") में बदल दिया गया और उन्हें भाग जाने का आदेश दिया गया, यह वादा करता है कि वे इला के समान मित्र की तलाश करते हैं। [14]

इला ने बुध से विवाह किया और उसके साथ पूरा एक महीना बिताया और विवाह संपन्न किया। हालाँकि, इला एक सुबह सुद्युम्न के रूप में उठी और उसे पिछले महीने के बारे में कुछ भी याद नहीं था। बुद्ध ने इला को बताया कि उसके अनुचर पत्थरों की बारिश में मारे गए हैं और इला को एक साल तक उसके साथ रहने के लिए मना लिया। एक महिला के रूप में बिताए प्रत्येक महीने के दौरान, इला ने बुद्ध के साथ अच्छा समय बिताया। एक पुरुष के रूप में प्रत्येक महीने के दौरान, इला ने पवित्र तरीकों की ओर रुख किया और बुद्ध के मार्गदर्शन में तपस्या की। नौवें महीने में इला ने पुरुरवा को जन्म दिया , जो बड़े होकर चंद्र वंश के पहले राजा बने। तब, बुध और इला के पिता कर्दम की सलाह के अनुसार, इला ने शिव को प्रसन्न किया और शिव ने इला का पुरुषत्व स्थायी रूप से बहाल कर दिया। [5] [14]

विष्णु पुराण की एक अन्य किंवदंती में विष्णु को सुद्युम्मा के रूप में इला की मर्दानगी बहाल करने का श्रेय दिया गया है। [2] [15] भागवत पुराण और अन्य। ग्रंथों से पता चलता है कि पुरुरवा के जन्म के बाद, इला के नौ भाइयों - घोड़े की बलि से - या ऋषि वशिष्ठ - इला के पारिवारिक पुजारी - ने शिव को प्रसन्न किया और उन्हें इला को एक महीने के पुरुषत्व का वरदान देने के लिए मजबूर किया, जिससे वह किम्पुरुष में बदल गया। . [3] [4] [9] लिंग पुराण और महाभारत में पुरुरवा के जन्म का वर्णन है, लेकिन इला की वैकल्पिक लिंग स्थिति के अंत का वर्णन नहीं किया गया है। वास्तव में, महाभारत में इला को पुरुरवा की माता और पिता दोनों बताया गया है। [16] वायु पुराण और ब्रह्मांड पुराण में पाए गए एक अन्य वृत्तांत के अनुसार , इला का जन्म महिला से हुआ था, उसने बुध से शादी की, फिर सुद्युम्न नामक एक पुरुष में बदल गई। तब सुद्युम्न को पार्वती ने श्राप दिया और वह एक बार फिर स्त्री में बदल गया, लेकिन शिव के वरदान से वह एक बार फिर पुरुष बन गया। [10]

कहानी के लगभग सभी संस्करणों में, इला एक पुरुष के रूप में रहना चाहती है, लेकिन स्कंद पुराण में , इला एक महिला बनना चाहती है। राजा इला (इला) ने सहया पर्वत पर पार्वती के उपवन में प्रवेश किया और इला स्त्री बन गयी। इला एक महिला बनकर रहना चाहती थी और गंगा नदी की देवी पार्वती (गौरी) और गंगा की सेवा करना चाहती थी। हालाँकि, देवी-देवताओं ने उसे मना कर दिया। इला ने एक पवित्र कुंड में स्नान किया और इला के रूप में लौट आई, दाढ़ी वाली और गहरी आवाज वाली। [5] [17]

बाद का जीवन और वंशज 

पुरुरवा के माध्यम से इला के वंशजों को इला के बाद ऐलास या चंद्र-देवता चंद्र के पुत्र बुद्ध से उनके वंश को चंद्र वंश (चंद्रवंश) के रूप में जाना जाता है। [18] [5] कहानी के अधिकांश संस्करण इला को ऐलास के पिता और माता भी कहते हैं। [19] लिंगपुराणऔरमहाभारत, जिसमें सुद्युम्मा का श्राप समाप्त नहीं हुआ है, में कहा गया है कि एक पुरुष के रूप में, सुद्युम्मा ने उत्कल दिया, औरविनताश्व(जिन्हें हरितश्व और विनता के नाम से भी जाना जाता है) तीन पुत्रों को जन्म दिया। [10] त्रिपुत्रों ने अपने पिता के लिए राज्य पर शासन किया क्योंकि सुद्युम्मा अपने बाल लिंग के कारण स्वयं ऐसा करने में अक्षम थी। पुत्रों और रियासतों को सौद्युम्न कहते हैं। उत्कल, गया और विनाश ने क्रमशःउत्कलदेश,गयाऔर उत्तरकौरवों सहित पूर्वी क्षेत्रों पर शासन किया। [20] [21] पारिवारिक पुजारी वसिष्ठ की सहायता से सुद्युम्मा ने पूरे राज्य पर फिर से नियंत्रण हासिल कर लिया। उनका उत्तराधिकारी पुरुरवा ने किया। [1]

मत्स्य पुराणमें , इला को स्त्री या किंपुरुष बनने के बाद वंशावली से शुरू किया गया था। इला के पिता ने अपनी विरासत सीधे पुरुरवा को दे दी, इला-सुद्युम्मा के पुरुष के रूप में जन्मे तीन पुत्रियों को जन्म दिया गया। पुरुरवा ने प्रतिष्ठानपुरा (वर्तमान)इलाहाबाद) से शासित, जहां इला उनके साथ रही। [9] [22] रामायण में कहा गया है कि मर्दानगी में वापसी के बाद, इला ने प्रतिष्ठा पर शासन किया, जबकि उनके पुत्र शशबिंदु ने बहलिका पर शासन किया ।किया।। [14] देवी -भागवत पुराण में बताया गया है कि एक पुरुष के रूप में सुद्युम्मा ने राज्य पर शासन किया था और एक महिला के रूप में वह घर के अंदर रहती थी। उनका पेज उनके लिंग परिवर्तन से संबंधित था और उनका अब पहले जैसा सम्मान नहीं था। जब पुरुरवा वयस्क हो गया, तो सुद्युम्मा ने अपना राज्य पुरुरवा पर विजय प्राप्त कर ली और तपस्या के लिए जंगल में चली गई। ऋषिनारदने सुद्युम्मा को नौ पेपर वालामंत्रनवाक्षर , निर्देशित , जोसर्वोच्च देवी कोइच्छा । उनकी तपस्या से अभिनीत, देवी सुद्युम्मा के रूप में प्रकट हुईं, जो उनकी महिला के रूप में इला में थीं। सुद्युम्मा ने देवी की स्तुति की, राजा की आत्मा को अपने साथ मिला लिया और इस प्रकार, इला को मोक्ष प्राप्त हुआ। [3]

भागवत पुराण , देवी-भागवत पुराण और लिंग पुराण में यह घोषणा की गई है कि इला पुरुष और महिला दोनों की शारीरिक रचना के साथ स्वर्ग में व्याख्या की गई है। [19] इला को पुरुरवा के माध्यम से चंद्र राजवंश का और उनके भाई इक्ष्वाकु और पुत्रों का उत्कल, और विन्तश्व के माध्यम से सौर राजवंश का मुख्य पूर्वज माना जाता है। [9] [23] सूर्य की संतान इला और चंद्रमा के पुत्र बुद्ध का विवाह, शास्त्रों में दर्ज सूर्य और चंद्र के पुत्र का पहला मिलन है। [11]

 "वैदिक साहित्य में इला-

वैदिक साहित्य इला को इदा के नाम से भी जाना जाता है।ऋग्वेद इदा में भोजन और जलपान का प्रतीक है, जिसे वाणी की देवी के रूप में जाना जाता है। [24] इला-इदा का संबंध ज्ञान की देवी से हैसरस्वती से भी है। [6] इला-इदा का उल्लेखऋग्वेदमें कई बार किया गया है, ज्यादातरअप्रसूक्त नामकभजनों में । उनका उल्लेख अक्सर सरस्वती और भारती (या माही) के साथ किया जाता है और पुरुरवा को उनके पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। [25] इडा अनुष्ठानिक यज्ञ करने में मनु के प्रशिक्षक हैं। वेदों के भाष्यकारसयानाके अनुसार - वह पृथ्वी की राजधानी है। [24] ऋग्वेद 3.123.4 में उल्लेख है कि "इला की भूमि" सरस्वती नदी के किनारे स्थित थी। [26] ऋग्वेद 3.29.3 में अग्नि को इला का पुत्र बताया गया है। [27]

शतपथ ब्राह्मणमें ,मनु नेसंतमूर्ति के लिए अग्नि-यज्ञ किया गया था। इदा यज्ञ से प्रकट हुई। उस परमित्र-वरुणने दावा किया था, लेकिन वह मनु के साथ रहे और उन्होंने मनु की रचना की शुरुआत की। [24] [28] इस पाठ में, इडा बलि के भोजन की देवी है। उन्हें मानवी (मनु की बेटी) और घृतपदी (घीटपकाने वाले पैर वाली) के रूप में वर्णित है और एक यज्ञ के दौरान उनके प्रतिनिधि एक गायक द्वारा किया जाता है, जिसे इडा भी कहा जाता है। [29] [30] पाठ में पुरुरवा का उल्लेख इला के पुत्र के रूप में किया गया है। [31]


उपर्युक्त रूप से इला की कथाऐं पूर्णत: प्रक्षिप्त हैं।

यादवों की गोप जाति की उत्पत्ति गोप सम्राट पुरूरवा और आभीर कन्या उर्वशी से हुई-
सन्दर्भ- मत्स्य पुराण , पद्म पुराण और ऋग्वेद-

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सृष्टि सर्जन खण्ड)
"यादवों के आदि पूर्वज पुरूरवा गोप और गोप जातीय कन्या उर्वशी का वैदिक तथा पौराणिक विवरण और उनकी सन्तानों का परिचय-

सर्वप्रथम ऋग्वेद के मण्डल (१०) सूक्त (९०) की ऋचा संख्या- १३-१४ में पुरूरवा के आदि श्रोत चन्द्रमा(  ) की उत्पत्ति विराट विष्णु ( विराट पुरुष  ) से कही गयी है।

📚: उधर इसी ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥ (ऋग्वेद-10/95/3)

गोषा -गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु विट् प्रत्यय। अर्थात्‌ --जो गाय की सेवा करता है वह गोष: है। । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” “ शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः”
ऋग्वेद- ६।३३ ।५। अत्र “घरूपेत्यादि” पाणिनि- सूत्र गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
गोषन् (गोष:)गां सनोति सन--विच् । “सनोतेरनः” पा० नान्तस्य नित्यषत्वनिषेधेऽपि पूर्वपदात् वा षत्वम् । गोदातरि “शंसामि गोषणो नपात्” (ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।)

गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् ।  अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।

उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा शब्द गोसेवक के वाचक हैं। लौकिक भाषा में यही घोष रूप में यादवों की गोपालन वृत्ति को सूचित करने लगा ।
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पुरूरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।

यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।

वही उर्वशी जिसे पुराणों में ललित कलाओं की विशेषज्ञा अप्सराओं ( संगीत विशेषज्ञ गन्धर्वों की सहवर्ती ) की स्वामिनी बताया गया है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में अपनी विभूति भगवान श्रीकृष्ण ने  उर्वशी को बताया है।

पुरूरवा यदि कवि है तो उसके काव्य की प्रेरणा उर्वशी है। उर्वशी के लिए समभाषी शब्द उरणवशी भी मिलता है । यह भेड़ों को अधिक प्रिया थी।

यदि पुरूरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो ग्रह और स्त्री का मिलन  बेमेल होने से   इला नाम कि स्त्री की ऐतिहासिकता भी सन्दिग्ध है।

इला का उल्लेख वाणी के रूप में  ऋग्वेद में वर्णित है।
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ऋग्वेद में इला को अन्न और पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी माना गया है, साथ ही उन्हें ज्ञान और वाणी की देवी सरस्वती से भी जोड़ा गया है। ऋग्वेद में इला को इडा के नाम से भी जाना जाता है और अक्सर सरस्वती और भारती के साथ उनका उल्लेख किया जाता है. इला को मनु को यज्ञ का मार्गदर्शन करने वाली और पृथ्वी पर यज्ञ को व्यवस्थित करने वाली भी कहा गया है।

इला का उल्लेख ऋग्वेद में कई बार हुआ है, खासकर श्री सूक्तों में, जो भजनों का एक समूह है. वह मनु की यज्ञ में मदद करने वाली और पृथ्वी की अध्यक्षता करने वाली मानी जाती हैं.

इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद 3.123.4 में, "इला की भूमि" को सरस्वती नदी के तट पर स्थित बताया गया है. इला का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्हें बुध की पत्नी और पुरूरवा की माता माना जाता है.

कुछ ग्रन्थों में, इला को मनु की पुत्री के रूप में भी दर्शाया गया है, जिसे मित्रावरुण के आशीर्वाद से प्राप्त किया गया था. बाद में, वह पुरुष बन जाती है और सुद्युम्न के नाम से जानी जाती है, और तीन पुत्रों को जन्म देती है.
परन्तु पुराणों में वैदिक इला को ही  अनेक रूपकों में व्याख्यायित  करने का ही प्रयास किया गया है।

*इला गोलोके राधायाः कलेवराद् भूता  प्रसूता । बुधेन सह  पुरूरवसित नाम्ना बुधः स्वरात: बुद्धिपतेः प्रजायते  लौकिकोपमासु बुधेले च ज्ञानवाक्शक्तेश्च प्रतिनिधे *।

इला गोलोक में राधा जी की अंशरूपा गोपी है।और बुध को बुद्धि का अधिष्ठाता स्वराट से उत्पन्न बताया गया है। लौकिक उपमानों में  बुध और इला ज्ञान और वाक्शक्ति के प्रतिनिधि हैं।

इन दोनों से पुरूरवा का प्रादुर्भाव एक आदि कवि के रूप में हुआ ।

इला पिन्वते विश्वदानीम् ( ऋग्वेद4/50/8)

इला विश्व का पोषण करती है।

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इस प्रकार, ऋग्वेद में इला का एक बहुआयामी चरित्र है, जो अन्न, पृथ्वी, ज्ञान, और वाणी से संबंधित है, साथ ही यज्ञों और पारिवारिक सम्बन्धों में भी उनकी भूमिका है. ।

परन्तु पुरूरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरूरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।
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"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥

अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरूरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्‍भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥

वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरूरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
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वेदों में भी पुरूरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- विदित ही  हैं । पुरूरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष (घोष) अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।

इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य  पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।अनुवाद:-
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।

(पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।

अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के  गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

इतिहास में दर्ज है कि आर्य पशु-पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण(बलराम) कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। स्वयं आभीर शब्द  "आर्य के सम्प्रसारण "वीर का परवर्ती सम्प्रसारण है।

उर्वशी:- उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुत सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।

"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।

"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
       हृदय सागर की अप्सरा ।
       संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस
सृष्टि नहीं कोई काव्य सी !

"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरूरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के (95) वें सूक्त में (18) ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।

सत्य पूछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।

इस प्रकार  पुरूरवा  पृथ्वी के सबसे बुद्धि सम्पन्न अत्यधिक स्तुति करने वाले,  प्रथम सम्राट थे जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य था।

इनकी पत्नी का नाम उर्वशी था जो अत्यधिक सुन्दर थीं। उनकी सुन्दता से  प्रभावित अथवा प्रेरित होकर  प्रेम के  सौन्दर्य मूलक काव्य की प्रथम सृष्टि  उर्वशी को आधार मानकर की गयी
उर्वशी का शाब्दिक अर्थ- निरूपित किया जाय तो उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति (उरसे वष्टि इति उर्वशी)- जो हृदय में इच्छा उत्पन्न करती है। और ये उर्वशी भी यथार्थ उन पुरुरवा के हृदय में काव्य रूप वसती थी।
किन्तु वह उर्वशी वास्तव में मानवीय रूप में भी विद्यमान थी जिनका जन्म एक आभीर परिवार में हुआ था जिनके पिता "पद्मसेन" आभीर ही थे जो  वद्रिका वन के पास  आभीरपल्लि में रहते थे।
इस बात कि पुष्टि मत्स्य पुराण तथा लक्ष्मी, नारायणीय- संहिता से होती है। इसके अतिरिक्त
उर्वशी के विषय में शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ प्राप्त हैं कि ये स्वर्ग की समस्त अप्सराओं की स्वामिनी और सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी थी। और जानकारी के अनुसार सौन्दर्य ही कविता का जनक है । इसका विस्तृत विवरण उर्वशी प्रकरण में दिया गया है।
अब इसी क्रम में में पुरूरवा जो उर्वशी के पति हैं। उनका भी गोप होने की पुष्टि ऋग्वेद
तथा भागवत पुराण से होती है।
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इस प्रकार से देखा जाए तो प्रथम गोप सम्राट और उनकी पत्नी उर्वशी  आभीर जाति सम्बन्धित थे। और इन दोनों से सृष्टि सञ्चालित हुई जिसमें इन दोनों से छ: पुत्र-आयुष् (आयु ),मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु आदि  उत्पन्न हुए । इसकी पुष्टि भागवत पुराण हरिवंश हरिवंश पर्व महाभारत आदिपर्व  और अन्य शास्त्रों में मिलती है।

पुरूरवा के छ: पुत्र उत्‍पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं-
आयु, धीमान, अमावसु, दृढ़ायु, वनायु और शतायु।
ये सभी उर्वशी के पुत्र हैं।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।

सन्दर्भ:-
महाभारत आदि पर्व अध्याय -(75)
" और हरिवंश पुराण हरिवंशपर्व-
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।११।
अर्थ:- धर्मात्मा विश्वायु और श्रुतायु,तथा और अन्य दृढायु, वनायुऔर शतायु उर्वशी द्वारा उत्पन्न उर्वशी के पुत्र थे।११।

सन्दर्भ:- हरिवंश पुराण( हरिवंश - पर्व) अध्याय - (27)
अध्याय- 26 - पुरूरवा का विवरण-
पुरूरवसः चरित्र एवं वंश वर्णनम्, राज्ञा पुरूरवसेन त्रेताग्नेः सर्जनम्, गन्धर्वाणां लोकप्राप्तिः।
               षडविंशोऽध्यायः

             "वैशम्पायन उवाच
बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः।
तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः।१।

अनुवाद:-
1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।

ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।

अनुवाद:-
2. वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।

सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।३।
अनुवाद:-
3. वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन भूख पर पूरा नियंत्रण था।उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।

तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ।४।

अनुवाद:-
4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति  के रूप में चुना।

तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ।५।

वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे ।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।

उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् ।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।

एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च ।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।

अनुवाद:-
5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे

सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक   जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।

8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।

देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।

अनुवाद:-
9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।

तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।

अनुवाद:-
10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।

विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।

अनुवाद:-

11-धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु, वनायु और शतायु थे । इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।

सन्दर्भ:-(श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ऐलोत्पत्तिर्नाम षड्विंशोऽध्यायः।। २६ ।।)
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं।

                "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।

सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।

                        ★
             (सृष्टि सर्जन खण्ड)
पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष और आयुष पुत्र नहुष का वैष्णव धर्म के उत्थान में योगदान करना-व  स्वयं भगवान विष्णु का नहुष के रूप में गोपों में अंशावतार लेना" तथा यदु का वैष्णव धर्म  के प्रचार -प्रसार के लिए लोक भ्रमण और गोपालन करना" 

पुरूरवा के  ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे जो गोप जाति में उत्पन्न होकर वैष्णव धर्म का संसार में प्रचार प्रसार करने वाले  हुए,  जिसके वैष्णव धर्म के संसार में प्रचार का वर्णन पद्मपुराण के भूमि- खण्ड में विस्तृत रूप से दिया गया ।
पद्म पुराण के उन अध्यायों को पुस्तक में अध्याय के ( श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।  नामक प्रकरण में समायोजित किया गया ।

फिर इसी गोप  आयुष से वैष्णव वंश परम्परा आगे चली आयुष‌ और उनकी पत्नी इन्दुमती से कालान्तर में अनेक सन्तानें उत्पन्न हुईं जो वैष्णव धर्म का प्रचान करने वाली हुईं।

पुरूरवा और उर्वशी दोनों ही आभीर (गोष:) घोष जाति से सम्बन्धित थे। जिनके विस्तृत साक्ष्य यथा स्थान हम आगे देंगे।

पुरूरवा के छह पुत्रों में से एक सबसे बड़ा आयुष  था, आयुष का ही ज्येष्ठ पुत्र नहुष था।
नहुष की माता इन्दुमती स्वर्भानु गोप की पुत्री थी परन्तु कुछ परवर्ती पुराण स्वर्भानु नामक दानव को इन्दुमती का पिता वर्णन करते हैं जो सत्य नहीं है । नहुष के अन्य कुल चार भाई क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रम्भ, रजि और अनेनस् (विषाप्मन्) थे , जो वैष्णव धर्म का पालन करते थे।।

कुछ पुराणों में 'आयुष और 'नहुष तथा 'ययाति की सन्तानों में कुछ भिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार
आयु का विवाह स्वर्भानु की पुत्री  इन्दुमती से हुआ था परन्तु इन्दुमती का अन्य नाम  मत्स्यपुराण अग्निपुराण लिंग पुराण आदि में  "प्रभा" भी मिलता है। इन्दुमती से आयुष के पाँच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृद्धशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना।

प्रथम पुत्र नहुष का विवाह पार्वती की पुत्री  अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में मिलता है। परन्तु अशोक सुन्दरी ही अधिक उपयुक्त है। नहुष के अशोक सुन्दरी में  अनेक पुत्र हुए जिसमें- सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और (कृति) अथवा (ध्रुव) थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1

ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव ( कृति) प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे।
पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार नहुष की पत्नी अशोक सुन्दरी  पार्वती और शिव की पुत्री थी। जिससे ययाति आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई है।

सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और कृति थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1

नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं। और आयुष की पत्नी पद्मपुराण भूमिखण्ड में इन्दुमती नाम से है और लिंगपुराण में स्वर्भानु की पुत्री प्रभा के नाम से है। लिंगपुराण में नहुष की पत्नी  पितृकन्या विरजा को बताया है। जबकि पद्मपुराण में पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी को बताया है।

               "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपःश्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गन्धर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः।६६।

विशेष:- विरजा एक गोलोक की गोपी है और स्वर्भानु गोलोक के गोप हैं। जिनकी पुत्री प्रभा है। वही स्वर्भानु गोप जाति में समयानुसार अवतरण लेते है।

श्रीमद-भागवतम् (भागवत पुराण) » स्कन्ध 9:  » अध्याय सत्रह
             "श्रीवादरायणिरुवाच
य: पुरुरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुता:।
नहुषः क्षत्रियवृद्धश्च रजि राभश्च वीर्यवान्॥1।

अनेना इति राजपुत्र श्रृणु क्षत्रियवृधोऽन्वयम्।
क्षत्रियवृद्धसुतस्यसं सुहोत्रस्यात्मजस्त्रयः॥2॥
अनुवाद:-
शुकदेव  ने कहा: पुरुरवा से आयु उत्पन्न हुआ, जिससे अत्यंत शक्तिशाली पुत्र नहुष, क्षत्रियवृद्ध, रजि, राभ और अनेना उत्पन्न हुए थे। हे परिक्षित, अब क्षत्रिय वंश के बारे में सुनो।
क्षत्रियवृद्ध के पुत्र सुहोत्र थे, काश्य, कुश और गृत्समद नाम के तीन पुत्र थे। गृत्समद से शुनक पैदा हुए, और उनके शुनक, महान संत, ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता, पैदा हुए।   
पुरूरवा के पुत्र और नहुष के पिता . आयुष की गाथा-

वंशावली-
विराट विष्णु के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ   उस  क्रम में उतरते हुए -चंद्र-बुध- पुरूरवा -'आयुष-।

आयुष का जन्म उर्वशी में  पुरूरवा से हुआ था . नहुष का जन्म  आयुष की पत्नी स्वर्भानवी से हुआ इसका नाम इन्दुमती भी था।

आयुस वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त हुई की। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).

पुरुरवा के छ: पुत्र-
१-आयुष् (आयु), मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु हम पूर्व में ही दे चुके हैं । पुरुरवा स्वयं परम वैष्णव था।

आयुष की पत्नी  स्वर्भानु  गोप की पुत्री  प्रभा -( इन्दुमती)  और नहुष की पत्नी पितर कन्या विरजा  अथवा पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी का होना-
नीचे लिंगपुराण में पुरूरवा के आयु,: मायु:, अमायु,: विश्वायु:, श्रुतायु: ,शतायु: ,और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।

               "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गन्धर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।

नहुष का विष्णु के अवतार- रूप में  वर्णन-

📚:        " दत्तात्रेय उवाच-।
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।
राजा च सार्वभौमश्च इंद्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।

नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।

नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म -गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-

पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार  (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।

पुरुरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान है कि आयुष के नहुष नाम से विष्णु का अंशावतार पुत्र होगा।  नीचे के श्लोकों में यही वर्णन है।

देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन् ! यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
"विष्णु का नहुष के रूप में अवतरित होना"

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
___________
श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०३।

📚: नहुष और  ययाति का गोपालक होना -और
नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का महाभारत में प्राचीन प्रसंग है।

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय -(51) में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
सन्दर्भ:-
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय -(51) श्लोक- 1-20
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-38

एकाशीतितम (81) अध्याय अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद-
गौओं का माहात्म्‍य तथा व्‍यासजी के द्वारा शुकदेव से गौओं की, गोलोक की और गोदान की महत्‍ता का वर्णन करना:-

                  "युधिष्ठिर उवाच।
पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत्।
पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।।1

               "भीष्म उवाच।
गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्।
धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।2।

न हि पुण्यतमं किञ्चिद्गोभ्यो भरतसत्तम।
एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः।3।

देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै।
दत्त्वा चैतास्तारयते यान्ति स्वर्गं मनीषिणः।4।

मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।5।

गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।6।
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। संसार में जो वस्तु पवित्रों में भी पवित्र तथा लोक में पवित्र कहकर अनुमोदित एवं परम पावन हो, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।

भीष्म जी नें कहा- राजन। गौऐं महान प्रयोजन सिद्ध करने वाली तथा परम पवित्र हैं। ये मनुष्यों को तारने वाली हैं और अपने दूध-घी से प्रजावर्ग के जीवन की रक्षा करती हैं। भरतश्रेष्ठ !गौओ से बढ़कर परम पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ये पुण्यजनक, पवित्र तथा तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ है। गौऐं देवताओ से भी ऊपर के लोकों में निवास करती हैं। जो मनीषी पुरुष इनका दान करते हैं, वे अपने-आपको तारते हैं और स्वर्ग में जाते हैं।

युवनाश्‍व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये।

महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 81 श्लोक 21-47 में गोलोक का भी वर्णन है।
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकाशीतितमो अध्याय: श्लोक 21-47 का हिन्दी अनुवाद:-

गोलोक का वर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्मपितामह ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर से करते हुए कहते हैं।
वहां के जलाशय लाल कमल और वनों से तथा प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रकाशमान मणिजनित सुवर्णमय सोपानों से सुशोभित होते हैं। वहां की भूमि कितने ही सरावरों से शोभा पाती है। उन सरावरों में नीलोत्पल मिश्रित बहुत से कमल खिले रहते हैं। उन कमलों के दल बहुमूल्य मणि में होते हैं और उनके केसर अपनी सुवर्णमयी प्रभा से प्रकाशित होते हैं। उस लोक में बहुत-सी नदियां हैं, जिनके तटों पर खिले हुए कनेरों के वन तथा विकसित संतानक (कल्पवृक्ष विशेष) के वन एवं अनान्य वृक्ष उनकी शोभा बढ़ाते हैं। वे वृक्ष और वन अपने मूल भाग में सहस्रो आवर्तों से घिरे हुए हैं। उन नदियों के तटों पर निर्मल मोती, अत्यन्त प्रकाशमान मणिरत्न तथा सुवर्ण प्रकट होते हैं । कितने ही उत्तम वृक्ष अपने मूलभाग के द्वारा उन नदियों के जल में प्रविष्‍ट दिखाई देते हैं। वे सर्वरत्नमय विचित्र देखे जाते हैं। कितने ही सुवर्णमय होते हैं और दूसरे बहुत से वृक्ष प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित होते हैं। वहां सोने पर्वत तथा मणि और रत्नों के शैल समूह हैं, जो अपने मनोहर, ऊंचे तथा सर्व रत्नमय शिखरों से सुशोभित होते हैं। भरतश्रेष्ठ। वहां के वृक्षों में सदा ही फूल और फल लगे रहते हैं। वे वृक्ष पक्षियों से भरे होते हैं तथा उनके फूलों और फलों में दिव्य सुगंध और दिव्य रस होते हैं। युधिष्ठिर। वहां पुण्यात्मा पुरुष ही सदा निवास करते हैं। गोलोकवासी शोक और क्रोध से रहित, पूर्ण काम एवं सफल मनोरथ होते हैं। भरतनन्दन ! वहां के यशस्‍वी एवं पुण्यकर्मा मनुष्य विचित्र एवं रमणीय विमानों में बैठकर यथेष्ठ विहार करते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं। राजन ! उनके साथ सुन्दर अप्सराऐं क्रीड़ा करती हैं। युधिष्ठिर ! गोपालन  करके मनुष्य इन्हीं लोकों में जाते हैं। नरेन्द्र! शक्तिशाली सूर्य और वलवान वायु जिन लोकों के अधिपति हैं, एवं राजा वरुण जिन लोकों के एश्‍वर्य पर प्रतिष्ठित हैं, मनुष्य गोदान करके उन्हीं लोकों में जाता है।

गायें (सुरभी की सन्तानें)  युगन्धरा एवं स्वरूपा, बहुरूपा, विश्‍वरूपा तथा सबकी माताऐं हैं। शुकदेव। मनुष्य संयम-नियम के साथ रहकर गौओं के इन प्रजापति कथित नामों का प्रतिदिन जप करे।
जो पुरुष गौओं की सेवा और सब प्रकार से उनका अनुगमन करता है, उस पर संतुष्ट होकर गौऐं उसे अत्यन्त दुर्लभ वर प्रदान करती हैं। गौओं के साथ मन से कभी द्रोह न करें, उन्हें सदा सुख पहुंचाऐं उनका यथोचित सत्कार करें और नमस्कार आदि के द्वारा उनका पूजन करते रहें। जो मनुष्य जितेन्द्रिय और प्रसन्नचित्त होकर नित्य गौओं की सेवा करता है, वह समृद्वि का भागी होता है।

मनुष्य तीन दिनों तक गरम गोमूत्र का आचमन कर रहे, फिर तीन दिनों तक गरम गोदुग्ध पीकर रहे । गरम गोदुग्ध पीने के पश्चात तीन दिनों तक गरम-गरम गोघृत पीयें। तीन दिन तक गरम घी पीकर फिर तीन दिनों तक वह वायु पीकर रहे।
देवगण भी जिस पवित्र घृत के प्रभाव से उत्तम-उत्तम लोक का पालन करते हैं तथा जो पवित्र वस्तुओं में सबसे बढ़कर पवित्र है,  यह है कि गौओं की आराधना करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है।

गौऐं मनुष्यों द्वारा सेवित और संतुष्ट होकर उन्हें सबकुछ देती हैं, इसमें संशय नहीं है।
इस प्रकार ये महाभाग्यशालिनी गौऐं यज्ञ का प्रधान अंग हैं और सबको सम्पूर्ण कामनाऐं देने वाली हैं।
तुम इन्हें रोहिणी समझो।
इनसे बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है।

युधिष्ठिर! अपने महात्मा पिता व्यासजी के ऐसा कहने पर महातेजस्वी शुकदेवजी प्रतिदिन गौ की सेवा-पूजा करने लगे; इसलिये तुम भी गौओं की सेवा-पूजा करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें गौओं की उत्पत्ति व गोदान विषयक गीता प्रेस  संस्करण महाभारत के  अनुशासन पर्व का इक्यासीवाँ( बम्वई संस्करण में 116 वाँ अध्याय

आयुष ने गोपालन द्वारा दीर्घ आयु को प्राप्त किया और उसके नाम की सार्थकता सिद्ध हुई।

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 51

में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है

गायों का दान। एक बार जब राजा ययाति अपनी प्रजा के साथ थे, तो एक ब्राह्मण उनके पास गुरुदक्षिणा मांगने आया । ययाति ने तुरन्त उसे 1,000 गायों का दान दिया। (महाभारत वन पर्व, अध्याय 195)

अहिर्बुध्न्यसंहिता के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लम्बे जीवन" से है, जो पञ्चरात्र परम्परा से सम्बन्धित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है। -तदनुसार, "राजा को क्षेत्र, विजय, धन प्राप्त होगा।" लम्बी आयुष और रोगों से मुक्ति। जो राजा नियमित रूप से पूजा करता है, वह सातों खंडों और समुद्र के वस्त्र सहित इस पूरी पृथ्वी को जीत लेगा।

पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।

गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।

पुरुरवा को अपनी पत्नी उर्वशी से आयुस, श्रुतायुस,सत्यायुस,राया,विजयाऔर जया छह पुत्र कहे गए ।

नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।

               "सूत उवाच।।

ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।

सन्दर्भ:-श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।

उनमें से सबसे बड़े पुत्र आयुस के भी पांच पुत्र थे जिनका नाम है नहुष,क्षत्रवृद्ध,रजि,रम्भ और अनेनास थे। नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन  पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंशऔरपुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।

नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।

नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-
श्रीपार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार  (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।

पुरूरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान कि आषुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश और अवतार होगा।  नीचे के श्लोकों में यही है।

देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन ् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।


"दत्तात्रेय उवाच-

एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
"अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दोनों माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति ने यदु को शाप दिया ।

आगे की वंशावली  -++


" टिप्पणियाँ-

  1. ^ श्रवण ("नरकट का जंगल") को उस स्थान के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ शिव के पुत्र हैं स्कंद का जन्म हुआ था। देवी -भागवत पुराण में बताया गया है कि एक बार ऋषियों ने शिव और पार्वती के प्रेम-प्रसंग में हस्तक्षेप किया, इसलिए शिव ने जंगल को शाप दिया कि इसमें प्रवेश करने वाले सभी पुरुष महिलाएं बदल जाएंगी।

 ( सन्दर्भ-)

    • ऋग्वेद I.13.9, I.142.9, I.188.8, II.3.8, III.4.8, VII.2.8, X.70.8 और X.110.8 के लिए भजन देखें
    • पुरुरवा की माता के लिए, ऋग्वेद X.95,18
  1. ^ "इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः 
    बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः ॥९॥ऋग्वेद I.13.9,
शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती ।
इळा सरस्वती मही बर्हिः सीदन्तु यज्ञियाः ॥९॥ I.142.9,









पुरूरवा और (उर्वशी) उरणवशी-

यादवों की गोप जाति की उत्पत्ति गोप सम्राट पुरूरवा और आभीर कन्या उर्वशी से भूलोक पर दृष्टिगोचर  होती है। परन्तु आनर्त  देश ( गुजरात) में जन्मी आभीर कन्या गायत्री  तथा इनके पूर्वज॒ गोप लोग सत्युग के प्रारम्भ ही  दृगोचर होते गोपों की उत्पति से ब्रह्मा अनभिज्ञ ही थे।

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 पृथ्वी पर यादवों के ज्ञात आदि पूर्वज पुरूरवा गोप और गोप जातीय कन्या उर्वशी का वैदिक तथा पौराणिक विवरण और परिचय-

सर्वप्रथम ऋग्वेद के मण्डल (१०) सूक्त (९०) की ऋचा संख्या- १३-१४ में पुरूरवा के आदि श्रोत चन्द्रमा(सोम  ) की उत्पत्ति विराट विष्णु ( विराट पुरुष  ) से कही गयी है।

📚: उधर इसी ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥ (ऋग्वेद-10/95/3)

गोषा -गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु विट् प्रत्यय। अर्थात्‌ --जो गाय की सेवा करता है वह गोष: है। । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” “ शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः”
ऋग्वेद- ६।३३ ।५। अत्र “घरूपेत्यादि” पाणिनि- सूत्र गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
गोषन् (गोष:)गां सनोति सन--विच् । “सनोतेरनः” पा० नान्तस्य नित्यषत्वनिषेधेऽपि पूर्वपदात् वा षत्वम् । गोदातरि “शंसामि गोषणो नपात्” (ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।)

गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् ।  अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।

उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा शब्द गोसेवक के वाचक हैं। लौकिक भाषा में यही घोष रूप में यादवों की गोपालन वृत्ति को सूचित करने लगा ।
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पुरूरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।

यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।

वही उर्वशी जिसे पुराणों में ललित कलाओं की विशेषज्ञा अप्सराओं ( संगीता विशेषज्ञ गन्धर्वों की सहवर्ती ) की स्वामिनी बताया गया है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में अपनी विभूति भगवान श्रीकृष्ण ने  उर्वशी को बताया है।

पुरूरवा यदि कवि है तो उसके काव्य की प्रेरणा उर्वशी है। उर्वशी के लिए समभाषी शब्द उरणवशी भी मिलता है । यह भेड़ों को अधिक प्रिया थी।

यदि पुरूरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो ग्रह और स्त्री का मिलन  बेमेल होने से   इला नाम कि स्त्री की ऐतिहासिकता भी सन्दिग्ध है।

इला का उल्लेख वाणी के रूप में  ऋग्वेद में वर्णित है।
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ऋग्वेद में इला को अन्न और पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी माना गया है, साथ ही उन्हें ज्ञान और वाणी की देवी सरस्वती से भी जोड़ा गया है। ऋग्वेद में इला को इडा के नाम से भी जाना जाता है और अक्सर सरस्वती और भारती के साथ उनका उल्लेख किया जाता है. इला को मनु को यज्ञ का मार्गदर्शन करने वाली और पृथ्वी पर यज्ञ को व्यवस्थित करने वाली भी कहा गया है।

इला का उल्लेख ऋग्वेद में कई बार हुआ है, खासकर श्री सूक्तों में, जो भजनों का एक समूह है. वह मनु की यज्ञ में मदद करने वाली और पृथ्वी की अध्यक्षता करने वाली मानी जाती हैं.

इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद 3.123.4 में, "इला की भूमि" को सरस्वती नदी के तट पर स्थित बताया गया है. इला का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्हें बुध की पत्नी और पुरूरवा की माता माना जाता है.

कुछ ग्रन्थों में, इला को मनु की पुत्री के रूप में भी दर्शाया गया है, जिसे मित्रावरुण के आशीर्वाद से प्राप्त किया गया था. बाद में, वह पुरुष बन जाती है और सुद्युम्न के नाम से जानी जाती है, और तीन पुत्रों को जन्म देती है.
परन्तु पुराणों में वैदिक इला को ही  अनेक रूपकों में व्याख्यायित  करने का ही प्रयास किया गया है।


इस संसार में सभी गोप गोलोक से ही आते हैं। ये ब्रह्मा की सृष्टि नहीं है।

यूयं सर्वेऽपि गोपाला गोलोकादागता भुवि । तथा गोपीगणा गोपा गोलोके राधिकेच्छया॥ ६३॥

अनुवाद :-आप सभी गोप तथा गोपियाँ इस पृथ्वी पर गोलोक से आये हुए हो यह सब राधा जी की ही इच्छा थी।६३।

सन्दर्भ- गर्गसंहिता (गोलोकखण्डः)अध्यायः (१५)

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यूयं सर्वेऽपि गोपाला गोलोकादागता भुवि । तथा गोपीगणा गावो गोकुले राधिकेच्छया॥ ३७॥

अनुवाद :-आप सभी गोप तथा गोपियाँ इस पृथ्वी पर गोलोक से आये हुए हो यह सब राधा जी की ही इच्छा थी।३७।

गर्गसंहिता  (गिरिराजखण्डः) अध्यायः (५)


*इला गोलोके राधायाः कलेवराद् भूता  प्रसूता । बुधेन सह  पुरूरवसित नाम्ना बुधः स्वरात: बुद्धिपतेः प्रजायते  लौकिकोपमासु बुधेले च ज्ञानवाक्शक्तेश्च प्रतिनिधे *।

इला गोलोक में राधा जी की अंशरूपा गोपी है।और बुध को बुद्धि का अधिष्ठाता स्वराट से उत्पन्न बताया गया है। लौकिक उपमानों में  बुध और इला ज्ञान और वाक्शक्ति के प्रतिनिधि हैं।

इन दोनों से पुरूरवा का प्रादुर्भाव एक आदि कवि के रूप में हुआ ।

इला पिन्वते विश्वदानीम् ( ऋग्वेद4/50/8)

इला विश्व का पोषण करती है।

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इस प्रकार, ऋग्वेद में इला का एक बहुआयामी चरित्र है, जो अन्न, पृथ्वी, ज्ञान, और वाणी से संबंधित है, साथ ही यज्ञों और पारिवारिक सम्बन्धों में भी उनकी भूमिका है. ।

परन्तु पुरूरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरूरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।
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"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥

अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरूरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्‍भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥

वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरूरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
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वेदों में भी पुरूरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- विदित ही  हैं । पुरूरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष (घोष) अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।

इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य  पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।अनुवाद:-
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।

(पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।

अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के  गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

इतिहास में दर्ज है कि आर्य पशु-पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण(बलराम) कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। स्वयं आभीर शब्द  "आर्य के सम्प्रसारण "वीर का परवर्ती सम्प्रसारण है।

उर्वशी:- उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुत सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।

"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।

"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
       हृदय सागर की अप्सरा ।
       संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस
सृष्टि नहीं कोई काव्य सी !

"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरूरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के (95) वें सूक्त में (18) ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।

सत्य पूछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।

इस प्रकार  पुरूरवा  पृथ्वी के सबसे बुद्धि सम्पन्न अत्यधिक स्तुति करने वाले,  प्रथम सम्राट थे जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य था।

इनकी पत्नी का नाम उर्वशी था जो अत्यधिक सुन्दर थीं। उनकी सुन्दता से  प्रभावित अथवा प्रेरित होकर  प्रेम के  सौन्दर्य मूलक काव्य की प्रथम सृष्टि  उर्वशी को आधार मानकर की गयी
उर्वशी का शाब्दिक अर्थ- निरूपित किया जाय तो उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति (उरसे वष्टि इति उर्वशी)- जो हृदय में इच्छा उत्पन्न करती है। और ये उर्वशी भी यथार्थ उन पुरुरवा के हृदय में काव्य रूप वसती थी।
किन्तु वह उर्वशी वास्तव में मानवीय रूप में भी विद्यमान थी जिनका जन्म एक आभीर परिवार में हुआ था जिनके पिता "पद्मसेन" आभीर ही थे जो  वद्रिका वन के पास  आभीरपल्लि में रहते थे।
इस बात कि पुष्टि मत्स्य पुराण तथा लक्ष्मी, नारायणीय- संहिता से होती है। इसके अतिरिक्त
उर्वशी के विषय में शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ प्राप्त हैं कि ये स्वर्ग की समस्त अप्सराओं की स्वामिनी और सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी थी। और जानकारी के अनुसार सौन्दर्य ही कविता का जनक है । इसका विस्तृत विवरण उर्वशी प्रकरण में दिया गया है।
अब इसी क्रम में में पुरूरवा जो उर्वशी के पति हैं। उनका भी गोप होने की पुष्टि ऋग्वेद
तथा भागवत पुराण से होती है।
******

इस प्रकार से देखा जाए तो प्रथम गोप सम्राट और उनकी पत्नी उर्वशी  आभीर जाति सम्बन्धित थे। और इन दोनों से सृष्टि सञ्चालित हुई जिसमें इन दोनों से छ: पुत्र-आयुष् (आयु ),मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु आदि  उत्पन्न हुए । इसकी पुष्टि भागवत पुराण हरिवंश हरिवंश पर्व महाभारत आदिपर्व  और अन्य शास्त्रों में मिलती है।

पुरूरवा के छ: पुत्र उत्‍पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं-
आयु, धीमान, अमावसु, दृढ़ायु, वनायु और शतायु।
ये सभी उर्वशी के पुत्र हैं।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।

सन्दर्भ:-
महाभारत आदि पर्व अध्याय -(75)
" और हरिवंश पुराण हरिवंशपर्व-
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।११।
अर्थ:- धर्मात्मा विश्वायु और श्रुतायु,तथा और अन्य दृढायु, वनायुऔर शतायु उर्वशी द्वारा उत्पन्न उर्वशी के पुत्र थे।११।

सन्दर्भ:- हरिवंश पुराण( हरिवंश - पर्व) अध्याय - (27)
अध्याय- 26 - पुरूरवा का विवरण-
पुरूरवसः चरित्र एवं वंश वर्णनम्, राज्ञा पुरूरवसेन त्रेताग्नेः सर्जनम्, गन्धर्वाणां लोकप्राप्तिः।
               षडविंशोऽध्यायः

             "वैशम्पायन उवाच
बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः।
तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः।१।

अनुवाद:-
1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।

ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।

अनुवाद:-
2. वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।

सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।३।
अनुवाद:-
3. वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन भूख पर पूरा नियंत्रण था।उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।

तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ।४।

अनुवाद:-
4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति  के रूप में चुना।

तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ।५।

वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे ।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।

उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् ।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।

एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च ।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।

अनुवाद:-
5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे

सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक   जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।

8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।

देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।

अनुवाद:-
9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।

तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।

अनुवाद:-
10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।

विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।

अनुवाद:-

11-धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु, वनायु और शतायु थे । इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।

सन्दर्भ:-(श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ऐलोत्पत्तिर्नाम षड्विंशोऽध्यायः।। २६ ।।)
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं।

                "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।

सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।

                        ★
             (सृष्टि सर्जन खण्ड)
पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष और आयुष पुत्र नहुष का वैष्णव धर्म के उत्थान में योगदान करना-व  स्वयं भगवान विष्णु का नहुष के रूप में गोपों में अंशावतार लेना" तथा यदु का वैष्णव धर्म  के प्रचार -प्रसार के लिए लोक भ्रमण और गोपालन करना" 

पुरूरवा के  ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे जो गोप जाति में उत्पन्न होकर वैष्णव धर्म का संसार में प्रचार प्रसार करने वाले  हुए,  जिसके वैष्णव धर्म के संसार में प्रचार का वर्णन पद्मपुराण के भूमि- खण्ड में विस्तृत रूप से दिया गया ।
पद्म पुराण के उन अध्यायों को पुस्तक में अध्याय के ( श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।  नामक प्रकरण में समायोजित किया गया ।

फिर इसी गोप  आयुष से वैष्णव वंश परम्परा आगे चली आयुष‌ और उनकी पत्नी इन्दुमती से कालान्तर में अनेक सन्तानें उत्पन्न हुईं जो वैष्णव धर्म का प्रचान करने वाली हुईं।

पुरूरवा और उर्वशी दोनों ही आभीर (गोष:) घोष जाति से सम्बन्धित थे। जिनके विस्तृत साक्ष्य यथा स्थान हम आगे देंगे।

पुरूरवा के छह पुत्रों में से एक सबसे बड़ा आयुष  था, आयुष का ही ज्येष्ठ पुत्र नहुष था।
नहुष की माता इन्दुमती स्वर्भानु गोप की पुत्री थी परन्तु कुछ परवर्ती पुराण स्वर्भानु नामक दानव को इन्दुमती का पिता वर्णन करते हैं जो सत्य नहीं है । नहुष के अन्य कुल चार भाई क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रम्भ, रजि और अनेनस् (विषाप्मन्) थे , जो वैष्णव धर्म का पालन करते थे।।

कुछ पुराणों में 'आयुष और 'नहुष तथा 'ययाति की सन्तानों में कुछ भिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार
आयु का विवाह स्वर्भानु की पुत्री  इन्दुमती से हुआ था परन्तु इन्दुमती का अन्य नाम  मत्स्यपुराण अग्निपुराण लिंग पुराण आदि में  "प्रभा" भी मिलता है। इन्दुमती से आयुष के पाँच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृद्धशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना।

प्रथम पुत्र नहुष का विवाह पार्वती की पुत्री  अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में मिलता है। परन्तु अशोक सुन्दरी ही अधिक उपयुक्त है। नहुष के अशोक सुन्दरी में  अनेक पुत्र हुए जिसमें- सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और (कृति) अथवा (ध्रुव) थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1

ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव ( कृति) प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे।
पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार नहुष की पत्नी अशोक सुन्दरी  पार्वती और शिव की पुत्री थी। जिससे ययाति आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई है।

सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और कृति थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1

नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं। और आयुष की पत्नी पद्मपुराण भूमिखण्ड में इन्दुमती नाम से है और लिंगपुराण में स्वर्भानु की पुत्री प्रभा के नाम से है। लिंगपुराण में नहुष की पत्नी  पितृकन्या विरजा को बताया है। जबकि पद्मपुराण में पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी को बताया है।

               "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपःश्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गन्धर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः।६६।

विशेष:- विरजा एक गोलोक की गोपी है और स्वर्भानु गोलोक के गोप हैं। जिनकी पुत्री प्रभा है। वही स्वर्भानु गोप जाति में समयानुसार अवतरण लेते है।

श्रीमद-भागवतम् (भागवत पुराण) » स्कन्ध 9:  » अध्याय सत्रह
             "श्रीवादरायणिरुवाच
य: पुरुरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुता:।
नहुषः क्षत्रियवृद्धश्च रजि राभश्च वीर्यवान्॥1।

अनेना इति राजपुत्र श्रृणु क्षत्रियवृधोऽन्वयम्।
क्षत्रियवृद्धसुतस्यसं सुहोत्रस्यात्मजस्त्रयः॥2॥
अनुवाद:-
शुकदेव  ने कहा: पुरुरवा से आयु उत्पन्न हुआ, जिससे अत्यंत शक्तिशाली पुत्र नहुष, क्षत्रियवृद्ध, रजि, राभ और अनेना उत्पन्न हुए थे। हे परिक्षित, अब क्षत्रिय वंश के बारे में सुनो।
क्षत्रियवृद्ध के पुत्र सुहोत्र थे, काश्य, कुश और गृत्समद नाम के तीन पुत्र थे। गृत्समद से शुनक पैदा हुए, और उनके शुनक, महान संत, ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता, पैदा हुए।   
पुरूरवा के पुत्र और नहुष के पिता . आयुष की गाथा-

वंशावली-
विराट विष्णु के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ   उस  क्रम में उतरते हुए -चंद्र-बुध- पुरूरवा -'आयुष-।

आयुष का जन्म उर्वशी में  पुरूरवा से हुआ था . नहुष का जन्म  आयुष की पत्नी स्वर्भानवी से हुआ इसका नाम इन्दुमती भी था।

आयुस वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त हुई की। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).

पुरुरवा के छ: पुत्र-
१-आयुष् (आयु), मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु हम पूर्व में ही दे चुके हैं । पुरुरवा स्वयं परम वैष्णव था।

आयुष की पत्नी  स्वर्भानु  गोप की पुत्री  प्रभा -( इन्दुमती)  और नहुष की पत्नी पितर कन्या विरजा  अथवा पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी का होना-
नीचे लिंगपुराण में पुरूरवा के आयु,: मायु:, अमायु,: विश्वायु:, श्रुतायु: ,शतायु: ,और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।

               "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गन्धर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।

नहुष का विष्णु के अवतार- रूप में  वर्णन-

📚:        " दत्तात्रेय उवाच-।
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।
राजा च सार्वभौमश्च इंद्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।

नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।

नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म -गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-

पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार  (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।

पुरुरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान है कि आयुष के नहुष नाम से विष्णु का अंशावतार पुत्र होगा।  नीचे के श्लोकों में यही वर्णन है।

देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन् ! यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
"विष्णु का नहुष के रूप में अवतरित होना"

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
___________
श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०३।

📚: नहुष और  ययाति का गोपालक होना -और
नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का महाभारत में प्राचीन प्रसंग है।

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय -(51) में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
सन्दर्भ:-
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय -(51) श्लोक- 1-20
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-38

एकाशीतितम (81) अध्याय अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद-
गौओं का माहात्म्‍य तथा व्‍यासजी के द्वारा शुकदेव से गौओं की, गोलोक की और गोदान की महत्‍ता का वर्णन करना:-

                  "युधिष्ठिर उवाच।
पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत्।
पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।।1

               "भीष्म उवाच।
गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्।
धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।2।

न हि पुण्यतमं किञ्चिद्गोभ्यो भरतसत्तम।
एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः।3।

देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै।
दत्त्वा चैतास्तारयते यान्ति स्वर्गं मनीषिणः।4।

मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।5।

गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।6।
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। संसार में जो वस्तु पवित्रों में भी पवित्र तथा लोक में पवित्र कहकर अनुमोदित एवं परम पावन हो, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।

भीष्म जी नें कहा- राजन। गौऐं महान प्रयोजन सिद्ध करने वाली तथा परम पवित्र हैं। ये मनुष्यों को तारने वाली हैं और अपने दूध-घी से प्रजावर्ग के जीवन की रक्षा करती हैं। भरतश्रेष्ठ !गौओ से बढ़कर परम पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ये पुण्यजनक, पवित्र तथा तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ है। गौऐं देवताओ से भी ऊपर के लोकों में निवास करती हैं। जो मनीषी पुरुष इनका दान करते हैं, वे अपने-आपको तारते हैं और स्वर्ग में जाते हैं।

युवनाश्‍व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये।

महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 81 श्लोक 21-47 में गोलोक का भी वर्णन है।
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकाशीतितमो अध्याय: श्लोक 21-47 का हिन्दी अनुवाद:-

गोलोक का वर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्मपितामह ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर से करते हुए कहते हैं।
वहां के जलाशय लाल कमल और वनों से तथा प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रकाशमान मणिजनित सुवर्णमय सोपानों से सुशोभित होते हैं। वहां की भूमि कितने ही सरावरों से शोभा पाती है। उन सरावरों में नीलोत्पल मिश्रित बहुत से कमल खिले रहते हैं। उन कमलों के दल बहुमूल्य मणि में होते हैं और उनके केसर अपनी सुवर्णमयी प्रभा से प्रकाशित होते हैं। उस लोक में बहुत-सी नदियां हैं, जिनके तटों पर खिले हुए कनेरों के वन तथा विकसित संतानक (कल्पवृक्ष विशेष) के वन एवं अनान्य वृक्ष उनकी शोभा बढ़ाते हैं। वे वृक्ष और वन अपने मूल भाग में सहस्रो आवर्तों से घिरे हुए हैं। उन नदियों के तटों पर निर्मल मोती, अत्यन्त प्रकाशमान मणिरत्न तथा सुवर्ण प्रकट होते हैं । कितने ही उत्तम वृक्ष अपने मूलभाग के द्वारा उन नदियों के जल में प्रविष्‍ट दिखाई देते हैं। वे सर्वरत्नमय विचित्र देखे जाते हैं। कितने ही सुवर्णमय होते हैं और दूसरे बहुत से वृक्ष प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित होते हैं। वहां सोने पर्वत तथा मणि और रत्नों के शैल समूह हैं, जो अपने मनोहर, ऊंचे तथा सर्व रत्नमय शिखरों से सुशोभित होते हैं। भरतश्रेष्ठ। वहां के वृक्षों में सदा ही फूल और फल लगे रहते हैं। वे वृक्ष पक्षियों से भरे होते हैं तथा उनके फूलों और फलों में दिव्य सुगंध और दिव्य रस होते हैं। युधिष्ठिर। वहां पुण्यात्मा पुरुष ही सदा निवास करते हैं। गोलोकवासी शोक और क्रोध से रहित, पूर्ण काम एवं सफल मनोरथ होते हैं। भरतनन्दन ! वहां के यशस्‍वी एवं पुण्यकर्मा मनुष्य विचित्र एवं रमणीय विमानों में बैठकर यथेष्ठ विहार करते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं। राजन ! उनके साथ सुन्दर अप्सराऐं क्रीड़ा करती हैं। युधिष्ठिर ! गोपालन  करके मनुष्य इन्हीं लोकों में जाते हैं। नरेन्द्र! शक्तिशाली सूर्य और वलवान वायु जिन लोकों के अधिपति हैं, एवं राजा वरुण जिन लोकों के एश्‍वर्य पर प्रतिष्ठित हैं, मनुष्य गोदान करके उन्हीं लोकों में जाता है।

गायें (सुरभी की सन्तानें)  युगन्धरा एवं स्वरूपा, बहुरूपा, विश्‍वरूपा तथा सबकी माताऐं हैं। शुकदेव। मनुष्य संयम-नियम के साथ रहकर गौओं के इन प्रजापति कथित नामों का प्रतिदिन जप करे।
जो पुरुष गौओं की सेवा और सब प्रकार से उनका अनुगमन करता है, उस पर संतुष्ट होकर गौऐं उसे अत्यन्त दुर्लभ वर प्रदान करती हैं। गौओं के साथ मन से कभी द्रोह न करें, उन्हें सदा सुख पहुंचाऐं उनका यथोचित सत्कार करें और नमस्कार आदि के द्वारा उनका पूजन करते रहें। जो मनुष्य जितेन्द्रिय और प्रसन्नचित्त होकर नित्य गौओं की सेवा करता है, वह समृद्वि का भागी होता है।

मनुष्य तीन दिनों तक गरम गोमूत्र का आचमन कर रहे, फिर तीन दिनों तक गरम गोदुग्ध पीकर रहे । गरम गोदुग्ध पीने के पश्चात तीन दिनों तक गरम-गरम गोघृत पीयें। तीन दिन तक गरम घी पीकर फिर तीन दिनों तक वह वायु पीकर रहे।
देवगण भी जिस पवित्र घृत के प्रभाव से उत्तम-उत्तम लोक का पालन करते हैं तथा जो पवित्र वस्तुओं में सबसे बढ़कर पवित्र है,  यह है कि गौओं की आराधना करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है।

गौऐं मनुष्यों द्वारा सेवित और संतुष्ट होकर उन्हें सबकुछ देती हैं, इसमें संशय नहीं है।
इस प्रकार ये महाभाग्यशालिनी गौऐं यज्ञ का प्रधान अंग हैं और सबको सम्पूर्ण कामनाऐं देने वाली हैं।
तुम इन्हें रोहिणी समझो।
इनसे बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है।

युधिष्ठिर! अपने महात्मा पिता व्यासजी के ऐसा कहने पर महातेजस्वी शुकदेवजी प्रतिदिन गौ की सेवा-पूजा करने लगे; इसलिये तुम भी गौओं की सेवा-पूजा करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें गौओं की उत्पत्ति व गोदान विषयक गीता प्रेस  संस्करण महाभारत के  अनुशासन पर्व का इक्यासीवाँ( बम्वई संस्करण में 116 वाँ अध्याय

आयुष ने गोपालन द्वारा दीर्घ आयु को प्राप्त किया और उसके नाम की सार्थकता सिद्ध हुई।

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 51

में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है

गायों का दान। एक बार जब राजा ययाति अपनी प्रजा के साथ थे, तो एक ब्राह्मण उनके पास गुरुदक्षिणा मांगने आया । ययाति ने तुरन्त उसे 1,000 गायों का दान दिया। (महाभारत वन पर्व, अध्याय 195)

अहिर्बुध्न्यसंहिता के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पंचरात्र परम्परा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है। -तदनुसार, "राजा को क्षेत्र, विजय, धन प्राप्त होगा।" लम्बी आयुष और रोगों से मुक्ति। जो राजा नियमित रूप से पूजा करता है, वह सातों खंडों और समुद्र के वस्त्र सहित इस पूरी पृथ्वी को जीत लेगा।

पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।

गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।

पुरुरवा को अपनी पत्नी उर्वशी से आयुस, श्रुतायुस,सत्यायुस,राया,विजयाऔर जया छह पुत्र कहे गए ।

नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।

               "सूत उवाच।।

ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।

सन्दर्भ:-श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।

उनमें से सबसे बड़े पुत्र आयुस के भी पांच पुत्र थे जिनका नाम है नहुष,क्षत्रवृद्ध,रजि,रम्भ और अनेनास थे। नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन  पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंशऔरपुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।

नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।

नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-
श्रीपार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार  (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।

पुरूरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान कि आषुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश और अवतार होगा।  नीचे के श्लोकों में यही है।

देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।


"अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दोनों माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति ने यदु को शाप दिया ।

आगे की वंशावली  -++


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अब इसके अगले परिशिष्ट क्रम द्वितीय में  गोपजाति में वसुदेव के जन्म लेने का प्रकरण है।


देवमीढ़ से नन्द तक की प्रमाणित वंशावली- -

  

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वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परन्तप।
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निघ्नोऽभूदनमित्रतः ।१२।

अनुवाद:-परीक्षित ! वृष्णि के दो पुत्र हुए  - सुमित्र और युधाजित। वृष्णि के पुत्र युधाजित के भी दो पुत्र हुए - शिनि और अनमित्र-अनमित्र  से   निघ्न नाम का पुत्र हुआ।१२।

सत्राजितः प्रसेनश्च निघ्नस्याथासतुः सुतौ।
अनमित्रसुतो योऽन्यः शिनिस्तस्य च सत्यकः। १३।

अनुवाद---सत्राजित और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निघ्न के ही पुत्र थे । अनमित्र का  एक अन्य पुत्र भी शिनि नाम से हुआ (अनमित्र का एक भाई तो शिनि नाम से था ही)। इसी द्वितीय शिनि से सत्यक का जन्म हुआ।१३।

युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः।
युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः ।१४।

अनुवाद--इसी सत्यक का  पुत्र  युयुधान नाम से हुआ जिसका अन्य नाम सात्यकी भी था। सात्यकी का पुत्र जय हुआ। जय का पुत्र कुणि हुआ और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। वृष्णि के पौत्र ( नाती) अनमित्र  के तीसरे पुत्र का नाम  भी वृष्णि ही था।१४।

श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः।
अक्रूरप्रमुखा आसन्पुत्रा द्वादश विश्रुताः ।१५।

अनुवाद-इस प्रकार अनमित्र का पुत्र वृष्णि सात्वत के पुत्र वृष्णि का प्रपौत्र ( परपोता) ही था। 

इसी वृष्णि के परपोते-  (वृष्णि ) के दो पुत्र हुए- श्वफलक और चित्ररथ । श्वफलक की पत्नी का नाम गान्दिनी था। श्वफलक से गान्दिनी के ज्येष्ठ पुत्र अक्रूर के अतिरिक्त  बारह पुत्र और उत्पन्न हुए।१५।

आसङ्गः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्गिरिः।
धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः ।१६।

अनुवाद- आसंग २-सारमेय ३- मृदुर४- मृदुविद-५- गिरि -६ धर्मवृद्ध ७-सुकर्मा ८- क्षेत्रोपेक्ष ९- अरिदमन।१६।

शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश।
तेषां स्वसा सुचीराख्या द्वावक्रूरसुतावपि ।१७

अनुवाद-१०- शतुघ्न ११-गन्धमादन १२- प्रतिबाहु। इन सबकी एक बहिन भी थी सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र भी थे।१७।

देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः।
पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः ।१८।

अनुवाद---देववान और उपदेव। स्वफलक के भाई चित्ररथ के पुत्र पथ ,विदूरथ आदि कई पुत्र हुए । जो वृष्णि वंशीयों में श्रेष्ठ थे।१८।

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शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः।
शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः ।२६।

अनुवाद---चित्ररथ के पुत्र विदुरथ से एक शूर नामक पुत्र हुआ। इसी शूर से भजमान नामक पुत्र हुआ और इस भजमान से  तृतीय -शिनि नामक पुत्र हुआ। शिनि का पुत्र स्वयंभोज हुआ। और इसी स्वयंभोज से हृदीक नामक पुत्र हुआ।२६।

देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः।
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ।२७

अनुवाद---इस हृदीक के तीन पुत्र हुए-देवमीढ( देवबाहु) शतधन्वा और कृतवर्मा। हृदीक के पुत्र देवमीढ के पुत्र शूरसेन नाम से हुआ। देवमीढ़ के पुत्र शूरसेन की पत्नी का नाम "मारिषा" था।२७।

तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्।
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ।२८।

अनुवाद उन शूरसेन ने उस मारिषा के गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये -वसुदेवदेवभागदेवश्रवा, आनक।२८।

सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम्।
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि ।२९।

अनुवाद :-सृञ्जयश्यामककङ्कशमीकवत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अत: वे आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये ।२९।

वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्।
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः ।३०।

अनुवाद:-वे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदिकी पाँच बहनें भी थींपृथा (कुन्ती)श्रुतदेवाश्रुतकीर्तिश्रुतश्रवा।३०। 

राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः।
कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात्।३१।

अनुवाद:-और राजाधिदेवी ।  इस प्रकार वसुदेव की पाँच बहिनें  शूरसेन की पाँच कन्याऐं हीं  थीं ।वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थेकुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी ॥३१।

सन्दर्भ-

श्रीमद्भागवतपुराण /स्कन्धः (9)अध्यायः-24

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शूरस्यापि मारीषा नाम पत्न्यभवत् ॥  ॥ विष्णु पुराण-(४,१४.२६)

भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के (23) वें अध्याय में चार वृष्णियों विवरण प्राप्त होता है।

"तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णिः पुत्रो मधोः स्मृतः।
तस्य पुत्रशतं त्वासीद् वृष्णिज्येष्ठं यतः कुलम्॥
अनुवाद :-(हिन्दी)
उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि॥ २९॥

माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥
अनुवाद :-(हिन्दी)
परीक्षित् ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।३०।
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(भागवत पुराण - 9/23/30)

क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्वृष्णिस्तस्याथ निर्वृतिः।
ततो दशार्हो नाम्नाभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः ।३।
क्रथ  का पुत्र किन्तु हुआ और कुन्ति का पुत्र वृष्णि हुआ। और वृष्णि का पुत्र निवृत्ति हुआ और निवत्ति का पुत्र दशार्ह हुआ और उस दशार्ह का पुत्र व्योम हुआ।।३।
विशेष:-
कुन्ति का पुत्र वृष्णि क्रोष्टा वंश का द्वितीय वृष्णि था। और यदुवंश का तृतीय वृष्णि था।

" पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः।
भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः।६।
अनुवाद
 क्रोष्टा की  इसी शाखा में आगे चलकर अनु का पुत्र पुरुहोत्र हुआ और पुरुहोत्र का पुत्र आयु हुआ आयु के पुत्र सात्वत थे । जिनके कौशल्या नामक पत्नी से सात पुत्र हुए। भजमान- भजि - दिव्य - वृष्णि-देवावृध- अन्धक और महाभोज।६।

विशेष:- सात्वत पुत्र वृष्णि यदुवंश की क्रोष्टा शाखा के कुन्ति के पुत्र वृष्णि के बाद द्वितीय वृष्णि थे। परन्तु यदुवंश के सहस्रबाहु शाखा के मधु के पुत्र वृष्णि के बाद ये तीसरे  वृष्णि थे।

वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परन्तप।
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निघ्नोऽभूदनमित्रतः ।१२।
सात्वत पुत्र वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित । युधाजित के शिनि और अनमित्र ये दो पुत्र हुए। अनमित्र से निघ्न का जन्म हुआ।१२।

युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः ।१४।
(भागवत पुराण - 9/24/14)

अनमित्र के ही तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि था- (भागवत पुराण - 9/24/14)

भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(23) तथा (24) में वृष्णि नाम से  चार यादवों ( यदुवंशज ) पुरुषों का वर्णन उपर्युक्त रूप से दर्शाया गया है।

सहस्रबाहु अर्जुन के पुत्र जयध्वज का पुत्र तालजंघ तालजंघ का पुत्र वीतिहोत्र हुआ - इसी वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र का नाम वृष्णि था। यह यदुवंश का प्रथम वृष्णि था।
(ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णिः पुत्रो मधोः स्मृतः।
तस्य पुत्रशतं त्वासीद् वृष्णिज्येष्ठं यतः कुलम्)
{भागवत पुराण - 9/23/30}


अनमित्र के पुत्र वृष्णि के दो  पुत्र श्वफलक और चित्ररथ नाम से थे।  


चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर उत्पन्न हुए और शूर से भजमान नामक पुत्र हुआ भजमान से शिनि उत्पन्‍न हुआ । और शिनि से स्वयंभोज हुए इन्हीं स्वयंभोज के पुत्र हृदीक  थे।२६।

"देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः ।
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ॥२७॥
हृदीक के तीन पुत्र थे- देवमीढ़ शतधनु और कृतवर्मा । देवमीढ के एक पुत्र शूर की पत्नी का नाम मारिषा था।२७।

जैसा कि भागवत पुराण में वर्णन प्राप्त होता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः 

देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।

 ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- 
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। 
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी


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अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत सात्वत शाखा के अनमित्र पुत्र वृष्णि ही   देवमीढ के पूर्व पितामह थे और देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे ।

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शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौ पुत्र तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी में दण्डर और कण्डर नामक दो पुत्र हुए ।
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और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।

 पर्जन्य की पत्नी का (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने  जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- 
( तृतीय पूरण) गोपाल चम्पू पूर्वार्द्ध)
_______________
वरीयसीनामासीत्;। यस्य च  श्रीमदुपनन्दादय: पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।।

📚: 
"नन्द के परिवारीय जन"
नन्द ★-
जैसे-(नन्द के पिता-पर्जन्य- और माता-वरीयसी पितामह- देवमीढ़ और पितामही - गुणवती-थीं। 
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।

नन्द के अन्य  नौ भाई थे -धरानंद, ध्रुवानंद, उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, नंद और वल्लभ।
परन्तु गोपाल चम्पू में पाँच नन्दों का उल्लेख है।
- नन्द के पिता पर्जन्य, माता वरीयसी, पितामाह( दादा) देवमीढ और पितामही(दादी) गुणवती थीं।



नन्द के बड़े भाई — उपनन्द एवं अभिनन्द दो मुख्य थे तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
पीवरी (अभिनन्द की पत्नी) थीं।

नन्द छोटे भाई  — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन थे जिनकी पत्नी क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), और अतुल्या (नन्दन की पत्नी) का नाम था ।
इसके अतिरिक्त नन्द बहिनें सुनन्दा और नन्दिनी भीं थी जिनके पतियों का नाम क्रमश:
-महानील एवं सुनील ।

:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), और-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी) थी।
-कृष्ण के पालक पिता—महाराज नन्द।

-यशोदा के पिता—-सुमुख-( भानुगिरि)। माता–पाटला- और भाई यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव आदि नाम चार थे।
यशस्विनी यशोदा की बहिन जिनके पति —मल्ल ना से थे। (एक मत से मौसा का  दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
इसके अतिरिक्त यशोदा की अन्य बहिनें—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा) भी थीं।
📚: 

   "मथुरा शब्द की उत्पत्ति तथा विकास"
 
 तस्यनाम्ना  मधोः पुर वसस्तथा। आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४। 
 (मत्स्य-पुराण अध्याय -44 श्लोक -44) 

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शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥_________
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै । वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०
_____     
                                          
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।     
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।

अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।   
                          
 अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                                                       
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव  वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।

अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥

अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।

दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥

अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥

अर्थ-•कंस ! कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
_____    

यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप के अँश रूप में वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।

गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।

क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति भी है।  पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति !  वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद( व्याज) , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं 

कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।


फिर  दोनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? वेदों की पूर्ववर्ती  ऋचाओं में आर्य कृषक का वाचक है। आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है;  ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के  रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।

परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में  प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये !
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अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया ! 

गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था।
और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है।

जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।

भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे;  इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकरही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।

देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥

अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।

अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।

अग्रलिखित सन्दर्भों में हम  चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य " श्री गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन प्रस्तुत करेंगे 

यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-
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                  (अथ कथारम्भ:) 
"यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास ।

तस्य चार्याणां  शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति ।

तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं  पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति । 

तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म ।श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार । 

स चार्य  बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं 

व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशां वतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।।

अर्थ-• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; 

उन्हीं क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो पत्नीयाँ  थीं , पहली  (पत्नी) क्षत्रिय वर्ण की,  दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ;

उन दोनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो  (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो- प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे ।

और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे; वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; 

जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था।  

विज्ञपण्डित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे; इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।

 पाद्मे सृष्टि खण्डादौ यज्ञं कुर्वता ब्रह्मणापि आभीरपर्याय-गोपकन्याया: पत्नीत्वेन स्वीकार: प्रसिद्ध: । एष एव च गोप वंश: श्रीकृष्णलीलायां सवलनमाप्स्यतीति; सृष्टि खण्ड एव तत्र स्पष्टीकृतमस्ति । तस्मात् परमशंसनीय एवासौ वैश्यान्त:पाति महा-आभीर द्विज वंश: इति।।२४।।

अर्थ•-
पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश  परं  ब्रह्म  श्री कृष्ण से सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। 

इस कारण से गोपों के अन्तर्गत यह महा-आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।

अथ स्निग्धकण्ठेन चान्तश्चिन्तितम्-"एवमपि केचिदहो एषां द्विजतायां सन्देहमपि देहयिष्यन्ति- ये खलु श्रीमद्भागवते ( १०/८/१०) कुरु द्विजातिसंस्कारम् इति गर्ग प्रति श्रीव्रजराजवचने ( भा०१०/२४/२०-२१)वैश्यस्तु वार्तया जीवेत्' इत्यारभ्य कृषि, वाणिज्य-गोरक्षा, कुसीदं तुर्यमुच्यते। वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।।
 इति व्रजराजं प्रति श्रीकृष्णवचने, तथैव, (भा०१०/४६/१२) अग्न्यर्कातिथिगो-विप्र' इति श्रीशुककृत-गोपावासवर्णने, व्यतिरेकस्तु धर्मराजचपतायामपि विदुरस्य शूद्रगर्भोद्भवतयान्यथाव्यवहार श्रवणेऽप्यधिकं वधिरायिष्यन्ते" इति  ।२५।।

अर्थ-• तदनन्तर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य !  का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी  द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि ,वाणिज्य ,गोरक्षा और कुसीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री शुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है !

इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।  

संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।

अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।।               
अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई !  मधुकण्ठ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।

मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा: सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च  श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।। 

अर्थ• मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों कोआप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।

अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी  अधिक नाना(मातामह)  के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी  उपाध्याय के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे।

उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से  हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या  स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।

अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने  जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)

अन्यस्तु  जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु। सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।

पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत: ।।२८।।

अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि  पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी  के द्वारा दृष्टिगोचर होकर  भूतल पर देखा जाता है ।

किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।

(उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: ।यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।।२९।।

अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि  पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९। 

उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोऽभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३० ।।

अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।

मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।।

अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनन्तर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान

करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ?  तदनंतर  उन दोनों के सुयोग्य  दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की  सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्ति का कौन वर्णन कर सकता है ? ।।३६ ।

तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।।

अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए  सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ

उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 

"स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।

अर्थ•-पश्चात  उन श्री उपनन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।

(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 
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'तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे  इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।

अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक  पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। 

तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 
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योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।  

अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है  ।दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो ।तात्पर्य-ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वाली पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजी ने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।।६५।।

गर्ग उवाच---भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।

अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। ।अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।

व्रजराज उवाच- भवेदेवं किन्तु क्वचित्सर्गो ।प्यपवादवर्ग बाधतेऽधिकारिविशेषश्लेषमासाद्य।यथैवाहिंसानिवृत्तकर्मणि बद्धश्रद्धं प्रति यज्ञेऽपि पशुहिंसां तस्माद्भवतां ब्राह्मण-भावादुत्सर्गसिद्धा 

गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।

अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे  अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है। अत: आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार । होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेष हित कर कार्य कर देंगे।।६७।

(श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय)   

प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये । द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा 

तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।

देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।

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देवमीढात्शूरो नाम्ना पुत्रोऽजायदश्मिकां पत्न्यां  तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।। तस्या ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना उपनन्द:।।
"अनुवाद:- देवमीढ़ से अश्मिका रानी में शूर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार अन्य रानी गुणवती में पर्जन्य या वभ्रु  नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उस गुणवती का ज्येष्ठ पुत्र उप नन्द था।।

नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी । पर्जन्य के नौ पुत्र थे।

धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानन्द , धर्मानंद , नन्द और वल्लभ ।             गोपाल चम्पू में पर्जन्य के पाँच पुत्रों का विवरण है।          
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माधवाचार्य ने भागवत पुराण की टीका में लिखा :-माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायां वैमात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमोऽथ गोप इति प्राहु:।५७।

एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेष: एव वैश्योद् भवत्वात् अतएव स्कन्दे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)

अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्दपुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वंशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका आदि में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के सौतेले भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।
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वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।

हरिवंशपुराण, देवीभागवत के चतुर्थ स्कन्ध में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है । पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :- 

"भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१।

शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं).    ___

(विष्णु पुराण पञ्चमाँश २४वाँ अध्याय)

आनीय चोग्रसेनाय द्रारवत्यां न्यवेदयत् ।
पराभिभवनिः शङ्क बभूव च यदोः कुलम् ।।५-२४-७ ।।

बलदेवोऽपि मैत्रेय! प्रशान्ताखिलविग्रह- ।
ज्ञातिसन्दर्शनोतूकण्ठः प्रययौ नन्दगौकुलम् । ५-२४-८ ।।

ततो गोपीश्व गोपांश्व यथापूर्व्वममित्रजित् ।
तथैवाभ्यवदत् प्रेमूणा बहुमानपुरःसरम् ।। ५-२४-९ ।।
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अनुवाद:-
इस युक्ति से अपने शत्रु का नाश करके कृष्ण मथुरा लौटे और उसकी सेना को, जो घोड़ों, हाथियों और रथों से समृद्ध थी, बन्दी बनाकर द्वारका ले गये और उग्रसेन को सौंप दिया , और यदुवंश को आक्रमण के भय से मुक्त कर दिया। जब शत्रुता पूर्णतया समाप्त हो गयी, तब बलदेव अपने सम्बन्धियों से मिलने की इच्छा से नन्द की गोशाला में गये और वहाँ पुनः ग्वालों और उनकी गोमाताओं से प्रेम और आदर के साथ बातचीत की।
विशेष:- बलराम की व्रज यात्रा को हरिवंश ने मथुरा के पतन से पहले का बताया है; तथा भागवत ने इसे द्वारका में यदुओं के बसने के बहुत बाद का बताया है।
                            
संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇

"यदो: कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च। यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । इति मेदिनी कोष:)

परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।

और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।

जैसे -अभीर शब्द में "अण्" तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।

आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें 

आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में  नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 

और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था;  ऐसा वर्णन है । 
 
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ ।

जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करते थे आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।

भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे जो दोनों के गोप और यादवों के रूप में अलग अलग- वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।

देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें 

अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६० ॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥

अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।

अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।

चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया ।

जिसका यथावत् प्रस्तुति करण करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।

निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-
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उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 

"स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।

अर्थ•-पश्चात  उन श्री उपनन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक 

अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।

(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 

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तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे  इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।

अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूख गया है चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन( गोकुल) में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक  पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न हो गया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। 

तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 

अनुवाद:-
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ  रहते हुए  वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।

तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्।        पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।

तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी  भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।

कृष्णस्य पितामही  महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीति वर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी( पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली  और अधिक वृद्धा थीं।५।

भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६। 
"अनुवाद:- नन्द के पिता  पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध गोप थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।

गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।

उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ  व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे  और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।

वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का  वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये  द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये 
बहुश्रुतम् । वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजनम् ॥) वृद्धौषधम् । श्यामम् । इति मेदिनीकोश ।  हाटकम् । इति विश्वःकोश ॥ जलम् । इति सिद्धान्त- कौमुद्यामुणादिवृत्तिः ॥
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नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।
"अनुवाद:- नन्द के ये नाम गरुडपुराण के मथुरा महात्म्य में कहे गये हैं। व्रज में विख्यात श्री वृषभानु जी नन्द के परम मित्र हैं।१०।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।

"गर्गसंहिता- ३/५/७     

हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।

*****
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

"विशेष-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।

परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।

प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह  गोलोक  से नीचेवैकुण्ठ मे द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से  भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा आता है और वह उस श्रृगाल  मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति  श्रृँगाल ने कहा :- 
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"      
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
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 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय


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आदिपुराणे प्रोक्तं देने नाम्नी नन्द भार्याया यशोदा देवकी -इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।

उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा आनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य( ताऊ-चाचा)हैं।१३।

"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण( उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
 
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।।१५ ।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।

सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सन नन्द है। इनकी अंग कान्ति पीला पन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल  दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।

सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।
"अनुवाद:-सनन्द की पत्नी का नाम कुवलया है।
जो कुवलय( नीले और हल्के लाल  के मिश्रण जैसे ) वस्त्रों को धारण करने वाली तथा  कुवलय अंक कान्ति वाली हैं।१७।  

नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।१८।
"अनुवाद:- नंदन की अंग कान्ति मयूर के
कण्ठ  जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।

सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।

सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च  तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।
२०।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये  दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा  अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।

पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के  कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
 दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।

राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई  जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु  है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।


महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।

"श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्याये यशोदया: पित्रोर्नामनी  पद्मावतीगिरिभानू उक्तौ।२४। 
अनुवाद:-  ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और  गिरिभानु है।२४।
  
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।
अनुवाद:-  गोप रूपी कमलों के गिरिभानु सूर्य हैं।
और उनकी पत्नी पद्मावती लक्ष्मी के समान सती है।२५।

तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।

अनुवाद:-  उस पद्मावती की कन्या यशोदा तुम यश को बढ़ाने वाली हो। गोपों में श्रेष्ठ नन्द तुमको पति रूप में प्राप्त हुए हैं।२६।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।

"गर्गसंहिता- ३/५/७     

हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।

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श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

"विषेश-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।

परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।


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मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के  समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।

प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२८।
"अनुवाद:-  मातामही( नानी) पाटला की मुखरा
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी 
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।

सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९

गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही( नानी ) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र( ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।

दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्क्ष वर्णा महोदरी।३१।
"अनुवाद:-  दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम  स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला  कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।

यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु। 
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।

येषां  धूम्रपटा भार्या  कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम  क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।

यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे  इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।

चाटुवाटुकयोर्भार्ये  ते राजन्यतनुजयो: 
सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: पुत्र: सुचारुनाम्।३५ । 
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
 
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।

पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।

मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां।    नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३८।
"अनुवाद:- पौर्णमसी व्रज में नन्द आदि सभी व्रजवासियों की पूज्या और देवर्षि नारद की प्रिया शिष्या है नारद के उपदेश के अनुसार जिसने।३८।

सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३९।
"अनुवाद:- अपने सबसे प्रिय पुत्र सान्दीपनि को उज्जैन(अवन्तीपरी) में छोड़कर अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत होकर गोकुल में गयी।३९।

राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च  रङ्गदेवी सुदेविका।४०।

"अनुवाद:- राधा जी की आठ सखीयाँ ललिता, विशाखा,चित्रा,चम्पकलता, तुंगविद्या,इन्दुलेखा,रंग देवी,और सुदेवी हैं।४०।
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तत्राद्या ललितादेवी  स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।४१
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।

अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के  गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
 
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा  विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक  है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।

सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती  श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।

श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं 
से सुशोभित हैं।४५।
  
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।

पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:-  पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।

पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे सिद्धा शिरोमणि: । नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४८।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।

आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।

चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।५०
"अनुवाद:- चन्दावलि, पद्मा, श्यामा,शैव्या,भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपली, पालिका ,चन्द्रशालिका,

ङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्पो मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।।५१
"अनुवाद:-मंगला ,विमला, नीला,तरलाक्षी,मनोरमा,कन्दर्पमञजरी, मञ्जुभाषिणी, खञ्जनेक्षणा

कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा,। शङ्करी, कुङ्कुङ्मा,कृष्णासारङ्गीन्द्रावलि, शिवा।।५२।
"अनुवाद:-कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा, शंकरी, कुंकुमा,कृष्णा, सारंगी,इन्द्रावलि, शिवा आदि ।

तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी।
हारावली,चकोराक्षी, भारती,  कमलादय:।।५३।
"अनुवाद:तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी,हारावली,चकोराक्षी, भारती, और कमला आदि गोपिकाऐं कृष्ण की उपासिका व आराधिका हैं।

आसां यूथानि शतश: ख्यातान्याभीर सुताम्।
लक्षसङ्ख्यातु कथिता  यूथे- यूथे वराङ्गना।।५४।
"अनुवाद:- इन आभीर कन्याओं के सैकड़ों यूथ( समूह) हैं और इन यूथों में बंटी हुई वरागंनाओं की संख्या भी लाखों में है।५४।

अब इसी प्रकरण की समानता के लिए  देखें नीचे 


"अनुवाद:-  श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान  उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)

श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)

राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा  है।१७०।(क)



"अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।

"अनुवाद:-  श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की  प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दा के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या134-से लगातार 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है। 

रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री । इयं केदारस्य सुता  कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।

ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य        षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।

******************
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
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मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी 
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-

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तब भगवान कृष्ण  जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।

श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है। 

वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ। 

वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में  हे वृन्दे !  तुम  पुन:  राधा की  वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता  होओगी। 
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।

फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।

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स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था।  जो राधाच्छाया के रूप में  व्रज में उपस्थित थी।

जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।

हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही  पाणि-ग्रहण करेंगे;

परन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे। 
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उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी  हृदय स्थल में रहती हैं !

इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।

उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को  श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
_____________    
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ )
राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमन्युक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।

और निम्न श्लोक में राधा रानी सहित अन्य गोपियों को भी आभीर ही लिखा है...

और चैतन्श्रीय परम्परा के सन्त  श्रीलरूप गोस्वामी  द्वारा रचित श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश-दीपिका नामक ग्रन्थ में श्लोकः १३४ में राधा जी को आभीर कन्या कहा ।
/लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/श्लोकः १३४
__________________________________
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : सख्यश्च ललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।।

भावार्थ:- सुंदर भ्रुकटियों वाली ब्रज की आभीर कन्याओं में वृंदावनेश्वरी श्री राधा और इनकी प्रधान सखियां ललिता और विशाखा सर्वश्रेष्ठ व विख्यात हैं।

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: 
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप।
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)

रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""

करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं

500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में  श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--

दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"

अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(सर्जक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है।

भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत 1515 में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।

 यह आजसे 500 साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दुहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर(यादव) कुल में हुआ था।

सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
तिरुपति बालाजी मंदिर का पुनर्निर्माण विजयनगर नगर के शासक वीर नरसिंह देव राय यादव और राजा कृष्णदेव राय ने किया था।

विजयनगर के राजाओं ने बालाजी मंदिर के शिखर को स्वर्ण कलश से सजाया था। 
विजयनगर के यादव राजाओं ने मंदिर में नियमित पूजा, भोग, मंदिर के चारों ओर प्रकाश तथा तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालुओं के लिए मुफ्त प्रसाद की व्यवस्था कराई थी।तिरुपति बालाजी (भगवान वेंकटेश) के प्रति यादव राजाओं की निःस्वार्थ सेवा के कारण मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार यादव जाति को दिया गया है।

तब ऐसे में आभीरों को शूद्र कहना युक्तिसंगत नहीं

गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या  368 पर वर्णित है👇

अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

और गर्ग सहिता
 में लिखा है !

 यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।

अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।

जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।
________________________________
विरोधीयों का दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु 
"गावो विश्वस्य मातरो मातर: सर्वभूतानां गाव: सर्वसुखप्रदा:।।
महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है

सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण-  रूपादिकम्-

  _______________०_______________

_______
वसुदेव के गोपालक रूप को इन दोनों पुराणों में 
बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। 
भारतीय समाज में नन्द के गोपालक होने की बातें अधिकतर प्रचलित है  
परन्तु वसुदेव के गोपालक स्वरूप को कथाकारों की अनभिज्ञता के कारण  अथवा जान बूझकर भी प्रस्तुत न करना दु:खद है।

____
यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन् 
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।१७।
____
                  "ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो। 
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य  वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।
__
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।   प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।
____

"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।२७।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः।२८।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
____
"इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत 
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।३२ ।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।३४।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः। ३६।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा। ३९।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन। 1.55.४०।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः 
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय 
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२।

"गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः 
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।४३।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते 
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।४५।

"वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ।४६।

जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।४७।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।४८।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।४९।

वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये 
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।1.55.५०।

"तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा 
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ।५१।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।५२।


"इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
हरिवंशपर्व सम्पूर्ण ।
अध्याय 55 - 

"अनुवाद:-
17. हे पितामह, क्या तुम्हे कुछ भी मालूम है, कि मैं किस प्रकार, किस देश में उत्पन्न होकर, किस घर में रहकर उनको मार डालूँगा।

18. ब्रह्मा ने कहा: - हे भगवान, हे नारायण , मुझसे सफलता की कुंजी सुनो और पृथ्वी पर तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे य।

19. उनके कुल का यश बढ़ाने के लिये तुम्हें यादव कुल में जन्म लेना पड़ेगा ।

20. तुम भलाई के लिये इन असुरों का नाश करके और अपने महान कुल को बढ़ाकर मानवजाति की व्यवस्था स्थापित करोगे। इस विषय में मुझसे सुनो.

21 हे नारायण, प्राचीन काल में, महाबली वरुण के महान यज्ञ में , कश्यप ने यज्ञ के लिए दूध देने वाली सभी गायों को चुरा लिया था।

24. कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, अदिति और सुरभि , जो वरुण से गायों को स्वीकार नहीं करना चाहती थीं।

23 तब वरुण मेरे पास आये और सिर झुकाकर प्रणाम करके बोले, “हे श्रद्धेय, गुरु ने मेरी सारी गायें अपहरण कर ली हैं।

24. हे पिता, उस ने अपना काम पूरा करके भी उन गायोंको लौटाने की आज्ञा न दी।। वह अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभि के नियंत्रण में हैं।
25. हे प्रभु, मेरी वे सब गायें जब चाहें तब स्वर्गीय और अनन्त दूध देती हैं। अपनी शक्ति से सुरक्षित होकर वे समुद्र में विचरण करते हैं।
26. वे देवताओं के अमृत के समान सदा दूध उगलते रहते हैं। कश्यप के अलावा कोई और नहीं है जो उन्हें मोहित कर सके।
27. हे ब्रह्मा, गुरु, उपदेशक या कोई भी हो यदि कोई भटक जाता है तो आप उसे नियंत्रित करते हैं। आप हमारे परम आश्रय हैं।
28. हे संसार के गुरु, यदि उन शक्तिशाली व्यक्तियों को दंड नहीं दिया जाएगा जो अपना काम नहीं जानते हैं, तो संसार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं रहेगी।
29. आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। क्या तुम मुझे मेरी गायें दे दो, मैं फिर समुद्र में चला जाऊंगा।
30. ये गायें मेरी आत्मा हैं , वे मेरी अनन्त शक्ति हैं। आपकी समस्त सृष्टि में गाय और ब्राह्मण ऊर्जा के शाश्वत स्रोत हैं।
31. सबसे पहले गाय को बचाना चाहिए. जब वे बच जाते हैं तो वे ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं। गौ-ब्राह्मणों की रक्षा से ही संसार कायम है।''
32. हे अच्युत , जल के राजा वरुण द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर और गायों की चोरी के बारे में वास्तव में सूचित होने पर मैंने कश्यप को श्राप दे दिया।
33. जिस अंश से महामनस्वी कश्यप ने गायों को चुराया था, उस अंश से वह पृथ्वी पर ग्वाले के रूप में जन्म लेगा।
34. उनकी दोनों पत्नियाँ सुरभि और अदिति, जो देवताओं के जन्म के लिये लकड़ी के टुकड़ों के समान हैं, भी उनके साथ जायेंगी।

35-36. वह उनके यहां ग्वाले के रूप में जन्म लेकर वहां सुखपूर्वक रहेगा। उन्हीं के समान शक्तिशाली कश्यप का वह अंश वासुदेव के नाम से जाना जाएगा और पृथ्वी पर गायों के बीच रहेगा। मथुरा के पास गोवर्धन नाम का एक पर्वत है ।
37-42. कंस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वह गायों से आसक्त होकर वहां रहता है। उनकी दो पत्नियाँ अदिति और सुरभि वासुदेव की देवकी और रोहिणी नाम की दो पत्नियों के रूप में पैदा हुईं । वहाँ दूधवाले के सभी गुणों से युक्त एक लड़के के रूप में जन्म लेने के कारण वह वहीं बड़ा हुआ जैसा कि आप पहले अपने तीन कदमों वाले रूप में करते थे।

फिर अपने आप को (योग के) रूप से कवर करके, हे मधुसूदन, क्या आप दुनिया के कल्याण के लिए वहां जाते हैं। ये सभी देवता आपकी विजय और आशीर्वाद के उद्घोष से आपका स्वागत कर रहे हैं। तुम पृथ्वी पर उतरकर रोहिणी और देवकी से अपना जन्म लेकर उन्हें प्रसन्न करो। सहस्रों दुग्ध दासियाँ भी पृथ्वी पर छा जायेंगी।

43. हे विष्णु , जब आप जंगल में गायों को चराते हुए घूमेंगे तो वे जंगली फूलों की मालाओं से सुशोभित आपके सुंदर रूप को देखेंगे।
44. हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाले, हे विशाल भुजाओं वाले नारायण, जब आप बालक बनकर ग्वालबालों के गांवों में जाएंगे तो सभी लोग बालक बन जाएंगे।
45-46. हे कमल नेत्रों वाले, आपके प्रति समर्पित मन वाले ग्वालबाल होने के नाते आपके सभी भक्त आपकी सहायता करेंगे; जंगल में गायें चराते, चरागाहों में दौड़ते और यमुना के जल में स्नान करते हुए वे तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह प्राप्त कर लेंगे। और वासुदेव का जीवन धन्य हो जाएगा।
47. तू उसे अपना पिता कहेगा, और वह तुझे अपना पुत्र कहेगा। कश्यप को बचाइये और किसे आप अपने पिता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं?
48. हे विष्णु, अदिति को बचाएं और कौन आपको गर्भ धारण कर सकता है? इसलिए, हे मधुसूदन, आप अपने स्वनिर्मित योग द्वारा विजय के लिए आगे बढ़ें। हम भी अपनी-अपनी बस्तियों की मरम्मत करते हैं।

49. वैशम्पायन ने कहा: - देवताओं को दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करने का आदेश देकर भगवान विष्णु दूध के सागर के उत्तरी किनारे पर अपने निवास स्थान पर चले गए।
50. इस क्षेत्र में सुमेरु पर्वत की एक गुफा है जिसे क्रान्त( रौंदना) कठिन है, जिसकी पूजा संक्रांति के दौरान उनके तीन चरण चिन्हों से की जाती है।
51. वहाँ गुफा में, अपने पुराने शरीर को छोड़कर, सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान हरि ने उसकी आत्मा को वासुदेव के घर भेज दिया।
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भगवान् हरि  अपने अंशांश से पृथ्वी पर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं। 
इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् स्वराट्- विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।
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हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41।

हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा ( नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।
हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।

राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यप ने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।44 ll

वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।।45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47। 

भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 । 

काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ ।49-51।

दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९।

तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥

"कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते॥४२॥
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देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३॥           

                  "राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४ ॥

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६ ॥

स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥४७ ॥

प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥

कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥

दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥

लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१।
 
"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन  और प्राचीन है।

 "पिता के मृत्यु के पश्चात  -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए  जीवन यापन किया"
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥
अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं   नाम विंशोऽध्यायः।२०।
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कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः॥४१॥

कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२ ॥

देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।

                    "राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते॥ ४४॥

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः॥४५ ॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।

श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ 
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।



"देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-
स्कन्ध 4, अध्याय 3 - 
वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा
"देवीभागवतपुराणम्‎  स्कन्धः (४)
दित्या अदित्यै शापदानम्
             "व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥

वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥

किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥

भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥६॥

मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥७॥

                  "व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥८॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥९॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥१०॥

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥

अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥

                   "व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥

तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥

                 "जनमेजय उवाच
कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥

                    "सूत उवाच
पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥

                   "व्यास उवाच
राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥

अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥

पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥

तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥

सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥

भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥

एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।

मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः।
दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।

इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥

उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥३०॥

वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्‍नीभावमास्थिताम् ।
दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥३१ ॥

राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्‌रिपुः ।
तस्मादङ्कुरितं हन्याद्‌बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥

लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥

सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।

                    "व्यास उवाच
श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥

ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥

                      "इन्द्र उवाच
मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥

पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥

न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥

संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।

तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥

उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः॥ ४२ ॥

रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥

शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥

तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥

भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥

यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥

यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥

तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।

अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
                  "व्यास उवाच
इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥

उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१॥

भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥

अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥

उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
                    "व्यास उवाच
पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥

नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥

अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥

 इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः॥२॥

अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान  वृषभ  तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।
______
हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः  “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण=  स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥

(वाम्) युवाम्  (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति    (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां  (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥
 हिन्दी अनुवाद:-
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥

एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्य के लिये वरुणदेव की गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनि में जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोक में जन्म लेने पर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥5-7॥

व्यासजी बोले- जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण का यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने मुनि कश्यप को वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥8-9॥

हे महाभाग ! न्याय को जानते हुए भी आपने दूसरे के धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ?॥ 10॥

अहो ! लोभ की ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥11॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदा से सबसे प्रबल है ॥12॥

शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥13॥

संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥14॥

अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥

जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥

सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥

व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥

जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥

उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥

तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥

कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। 
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥

[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥

इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।

मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥

जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥

हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपर से मधुर किंतु भीतर से विषभरी वाणी में विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।

इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ों की सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आप में कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।

पादसंवाहन का सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दिति को नींद आने लगी। वह परमा सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥

दिति को नींद के वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दिति के शरीर में प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥

इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥42 ॥

उस समय वज्राघात से दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्र ने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥43॥

तत्पश्चात् इन्द्र ने पुनः उन सातों टुकड़ों के सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥44 ॥

उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥

यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनों को शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्र ने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। 

जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पाप के द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और  मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोक से अत्यन्त चिन्तित होकर कारागार में रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यप ने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। 
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुग में तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनि में जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी। 

इसी प्रकार दुःखित वरुण ने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यप के | आश्वासन देने पर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥
 जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम- 
     
 "हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -अध्याय - (55) 
"भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य
गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय-
हिन्दी-अनुवाद-सहित- 

               "वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।

त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।।

विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।३।।

जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।

नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।

विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।।

कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।।

विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।

मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।

दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।

सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।।

सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।।

कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।।

अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया ।
अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।

जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।।

विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।।

"यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्।  तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।।
                  "ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।।

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।   त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।      न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।।


इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।।

गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।

वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।

जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।

             "वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।।

तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।

              
*हिन्दी अनुवाद:-★        
________
             हरिवंशपर्व सम्पूर्ण।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय !भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं।
वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१।

'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।

अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।

मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेन पुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।

कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।

विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।

यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।

मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।

भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है। जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।

तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।

मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।

मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।


जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।

मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।

नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
____
ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।

ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- 
तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।

विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।

यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।

तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।

यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।

प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।

देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।

ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।

लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।

इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।

इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।

गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।

अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।

महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।

वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।

गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।

जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।

हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।

मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।


ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।

'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे  ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।

महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।

कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।

हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।

वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा  ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।

विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।

मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।

वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।

वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
__________
 "इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।५५।
 





"नन्द के  परिवार का परिचय-
"वृष्णे: कुले उत्पन्नस्य देवमीणस्य पर्जन्यो नाम्न: सुतो। वरिष्ठो बहुशिष्टो व्रजगोष्ठीनां स कृष्णस्य पितामह।१।
अनुवाद:-
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
"पुरा काले नन्दीश्वरे प्रदेशे  वसन्सह गोपै:।
स्वराटो विष्णो: तपयति स्म पर्जन्यो यति।।२।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ  रहते हुए  वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।

तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्।        पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।

तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी  भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।

कृष्णस्य पितामही  महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीति वर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी( पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली  और अधिक वृद्धा थीं।५।

भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६। 
"अनुवाद:- नन्द के पिता  पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध घोष (गोप) थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।

गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।

उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ  व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे  और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।

वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का  वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये  द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये 
बहुश्रुतम् । वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजनम् ॥) वृद्धौषधम् । श्यामम् । इति मेदिनीकोश ।  हाटकम् । इति विश्वःकोश ॥ जलम् । इति सिद्धान्त- कौमुद्यामुणादिवृत्तिः ॥
__________

नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।
"अनुवाद:- नन्द के ये नाम गरुडपुराण के मथुरा महात्म्य में कहे गये हैं। व्रज में विख्यात श्री वृषभानु जी नन्द के परम मित्र हैं।१०।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।


गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
अन्तर्विरोध-
"गर्गसंहिता- ३/५/७     
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
"विशेष-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।

शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
"वसुदेवसुतो वैश्यःक्षत्रियश्चाप्यहंकृतः।
आत्मानं भक्तविष्णुश्चमायावी च प्रतारकः।६।"(ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय)
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह  गोलोक  से नीचेवैकुण्ठ मे द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से  भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा आता है और वह उस श्रृगाल  मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति  श्रृँगाल ने कहा :- 
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"      
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
________
 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय


_________
आदिपुराणे प्रोक्तं द्वे नाम्नी नन्द भार्याया यशोदा देवकी -इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।

उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा आनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य( ताऊ-चाचा)हैं।१३।

"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण (उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
 
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।।१५ ।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।

सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सनन्द है। इनकी अंग कान्ति पीलापन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल  दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।

सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।
"अनुवाद:-सनन्द की पत्नी का नाम कुवलया है।
जो कुवलय( नीले और हल्के लाल  के मिश्रण जैसे ) वस्त्रों को धारण करने वाली तथा  कुवलय अंक कान्ति वाली हैं।१७।  

नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।१८।
"अनुवाद:- नंदन की अंग कान्ति मयूर के
कण्ठ  जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।

सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।

सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च  तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।
२०।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये  दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा  अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।

पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के  कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
 दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।

राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई  जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु  है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।



   "कृष्ण की माता के परिवार का परिचय"
"यशोदा के  परिवार का परिचय-
महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।

"श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्याये यशोदया: पित्रोर्नामनी  पद्मावतीगिरिभानू उक्तौ।२४। 
अनुवाद:-  ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और  गिरिभानु है।२४।
  
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।

अनुवाद:-  गोप रूपी कमलों के गिरिभानु सूर्य हैं।
और उनकी पत्नी पद्मावती लक्ष्मी के समान सती है।२५।

तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।

अनुवाद:-  उस पद्मावती की कन्या यशोदा तुम यश को बढ़ाने वाली हो। गोपों में श्रेष्ठ नन्द तुमको पति रूप में प्राप्त हुए हैं।२६।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- ३/५/७     
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
"विषेश-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।


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मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के  समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।

प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२८।
"अनुवाद:-  मातामही(नानी) पाटला की मुखरा
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी 
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।

सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९

गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही( नानी ) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र( ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।

दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्क्ष वर्णा महोदरी।३१।
"अनुवाद:-  दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम  स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला  कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।

यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु। 
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।

येषां  धूम्रपटा भार्या  कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम  क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।

यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे  इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।

चाटुवाटुकयोर्भार्ये  ते राजन्यतनुजयो: 
सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: पुत्र: सुचारुनाम्।३५ । 
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
 
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।

पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।

मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां।    नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३८।
"अनुवाद:- पौर्णमसी व्रज में नन्द आदि सभी व्रजवासियों की पूज्या और देवर्षि नारद की प्रिया शिष्या है नारद के उपदेश के अनुसार जिसने।३८।

सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३९।
"अनुवाद:- अपने सबसे प्रिय पुत्र सान्दीपनि को उज्जैन(अवन्तीपरी) में छोड़कर अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत होकर गोकुल में गयी।३९।

राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च  रङ्गदेवी सुदेविका।४०।

"अनुवाद:- राधा जी की आठ सखीयाँ ललिता, विशाखा,चित्रा,चम्पकलता, तुंगविद्या,इन्दुलेखा,रंग देवी,और सुदेवी हैं।४०।
**
तत्राद्या ललितादेवी  स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।४१
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।

अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के  गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
 
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा  विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक  है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।

सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती  श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।

श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं 
से सुशोभित हैं।४५।
  
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।

पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:-  पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।

पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे सिद्धा शिरोमणि: । नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४८।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।

आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।

चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।५०
"अनुवाद:- चन्दावलि, पद्मा, श्यामा,शैव्या,भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपली, पालिका ,चन्द्रशालिका,

ङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्पो मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।।५१
"अनुवाद:-मंगला ,विमला, नीला,तरलाक्षी,मनोरमा,कन्दर्पमञजरी, मञ्जुभाषिणी, खञ्जनेक्षणा

कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा,। शङ्करी, कुङ्कुङ्मा,कृष्णासारङ्गीन्द्रावलि, शिवा।।५२।
"अनुवाद:-कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा, शंकरी, कुंकुमा,कृष्णा, सारंगी,इन्द्रावलि, शिवा आदि ।

तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी।
हारावली,चकोराक्षी, भारती,  कमलादय:।।५३।
"अनुवाद:तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी,हारावली,चकोराक्षी, भारती, और कमला आदि गोपिकाऐं कृष्ण की उपासिका व आराधिका हैं।

आसां यूथानि शतश: ख्यातान्याभीर सुताम्।
लक्षसङ्ख्यातु कथिता  यूथे- यूथे वराङ्गना।।५४।
"अनुवाद:- इन आभीर कन्याओं के सैकड़ों यूथ( समूह) हैं और इन यूथों में बंटी हुई वरागंनाओं की संख्या भी लाखों में है।५४।

अब इसी प्रकरण की समानता के लिए  देखें नीचे 
      "श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका-
 में वर्णित राधा जी के पारिवारिक सदस्यों की सूची वासुदेव- रहस्य- राधा तन्त्र नामक ग्रन्थ के ही समान हैं परन्तु श्लोक विपर्यय ( उलट- फेर) हो गया है। और कुछ शब्दों के वर्ण- विन्यास ( वर्तनी) में भी परिवर्तन वार्षिक परिवर्तन हुआ है।


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"राधा के  परिवार का परिचय-
 "वृषभानु: पिता तस्या राधाया वृषभानरिवोज्ज्जवल:।१६८।(ख)
 रत्नगर्भाक्षितौ ख्याति कीर्तिदा जननी भवेत्।।१६९।(क) 

"अनुवाद:-  श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान  उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)

श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)

"पितामहो महीभानुरिन्दुर्मातामहो मत:।१६९(ख) मातामही पितामह्यौ मुखरा सुखदे  उभे।१७०(क) 
"अनुवाद:-
राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा  है।१७०।(क)

रत्नभानु:, सुभानुश्च भानुश्च भ्रातर: पितु:"१७०(ख)
 भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्रश्च मातुला:। मातुल्यो मेनका , षष्ठी , गौरी,धात्री और धातकी।।१७१। 

अनुवाद:-भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्र मामा:। और मेनका , षष्ठी , गौरी धात्री और धातकी   ये राधा की पाँच मामीयाँ हैं।१७१/।

"स्वसा कीर्तिमती  मातुर्भानुमुद्रा पितृस्वसा। पितृस्वसृपति: काशो मातृस्वसृपति कुश:।‌१७२।।
"अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।

 श्रीराधाया:  पूर्वजो भ्राता श्रीदामा कनिष्ठा  भगिन्यानङ्गमञ्जरी।१७३।(क)
"अनुवाद:-  श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की  प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दा के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या-134-से लगातार- 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है। 

"रायाण  की पत्नी वृन्दा का परिचय-
रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री । इयं केदारस्य सुता  कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।

ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य        षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।

******
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
"वृन्दे ! त्वं वृषभानसुता  च राधाच्छाया भविष्यसि।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।

*****
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी 
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-

*******
"अनुवाद:-
तब भगवान कृष्ण  जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।

श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है। 

वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ। 

वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में  हे वृन्दे !  तुम  पुन:  राधा की  वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता  होओगी। 
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।

फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।

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स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था।  जो राधाच्छाया के रूप में  व्रज में उपस्थित थी।

जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।

हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही  पाणि-ग्रहण करेंगे;

परन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे। 
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उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरे  हृदय स्थल में रहती हैं !

इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।

उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौन्दर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को  श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
_____    
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः


राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमन्युक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।

और निम्न श्लोक में राधा रानी सहित अन्य गोपियों को भी आभीर ही लिखा है...

और चैतन्श्रीय परम्परा के सन्त  श्रीलरूप गोस्वामी  द्वारा रचित श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश-दीपिका नामक ग्रन्थ में श्लोकः (१३४) में राधा जी को आभीर कन्या कहा ।
/लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/

लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/श्लोकः (१३४)
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आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : सख्यश्च ललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।।


भावार्थ:- सुंदर भ्रुकटियों वाली व्रज  की आभीर कन्याओं में वृन्दावनेश्वरी श्रीराधा और इनकी प्रधान सखियां ललिता और विशाखा सर्वश्रेष्ठ व विख्यात हैं।

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: 
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप।
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)

रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""
करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं

500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में  श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--

दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"

अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्रीकृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(उद्धारक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, आपका चरित्र रूपी सागर (समुन्दर) गुणों के दूध से भरा हुआ है।

भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- 1515 में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।

यह आज से (500) साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया !!
तिरुपति बालाजी मंदिर का पुनर्निर्माण विजयनगर नगर के शासक वीर नरसिंह देव राय यादव और राजा कृष्णदेव राय ( यादव) ने किया था।

विजयनगर के राजाओं ने बालाजी मंदिर के शिखर को स्वर्ण कलश से सजाया था। 
विजयनगर के यादव राजाओं ने मंदिर में नियमित पूजा, भोग, मंदिर के चारों ओर प्रकाश तथा तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालुओं के लिए मुफ्त प्रसाद की व्यवस्था कराई थी। तिरुपति बालाजी (भगवान वेंकटेश ) के प्रति यादव राजाओं की निःस्वार्थ सेवा के कारण मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार यादव जाति को दिया गया है।
तिरुपति बालाजी मंदिर, भारत में आंध्र प्रदेश के तिरुमला पर्वत पर स्थित भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है. यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वेंकटेश्वर को समर्पित है और इसे तिरुमाला-तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) द्वारा प्रबंधित किया जाता है. 


तब ऐसे में आभीरों को शूद्र कहना युक्तिसंगत नहीं

गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं 
जैसा की संस्कृत-साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक में पृष्ठ संख्या  (368) पर वर्णित है👇


अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

और गर्ग सहिता में लिखा है !

यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।


अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।

जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।
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विरोधीयों का दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु 
"गावो विश्वस्य मातरो मातर: सर्वभूतानां गाव: सर्वसुखप्रदा:।।
महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है

सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण-  रूपादिकम्-
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परिशिष्ट कथा-४-

"नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-


दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम्। ८०-५८।

एवं सम्पूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।। ८०-५९ ।।

पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।

दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।।८०-६१।।

सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।

ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्।
नन्दगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।

गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपाण्डुरौ।८०-६४।


दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।

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पद्मपुराण के इस अध्याय में श्लोकों की संख्या(३३१ ) के लगभग है। विस्तार भय से सम्पूर्ण श्लोकों को यहाँ प्रस्तुत नहीं किया गया है 
केवल कुछ  गायत्री चरित्र मूलक श्लोकों को ही उद्धृत किया गया है।

परिशिष्ट कथा- (५-)

पद्मपुराण सृष्टि खण्ड से गायत्री का परिचय-- 



  • पद्मपुराणम्-
  • (सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७)
  • (पदान्वय अर्थसमन्विता सात्वती टीका)
  • पद्मपुराणम्‎ -खण्डः प्रथम (सृष्टिखण्डम्)
  • ___________________________________                                                          "भीष्म उवाच"
  • तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१।                
  • अनुवाद:- हे द्विजश्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ ? और वहाँ रूद्र और विष्णु जो देवों में उत्तम हैं कैसे बने रहे ? ।१।     _______________ऊं________________
  • गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।    
  • अनुवाद:-ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ? और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे
  • मुनि !।२।         _______________ऊं________________
  • एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्।आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
  • अनुवाद:-आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना जैसे हुई उसे भी बताइए मुझे यह भी जानने का महा कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने भी उसके बाद जो किया । ३.  _______________ऊं________________       पुलस्त्य उवाच
  • तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप।कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।
  • अनुवाद:- ( पुलस्त्य ऋषि बोले -)            हे राजन् ! उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित हुई है उसे मैं पूर्ण रूप से कहुँगा । उस सब को आप एकमन होकर श्रवण करो ।४।                        _______________________________
  • रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः निन्द्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
  • अनुवाद:-उस सभा में जाकर रूद्र ने तो निश्चय ही आश्चर्यमयी कार्य किया वहाँ वे महादेव निन्दित (घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये।५।______________ऊं________________
  • विष्णुना न कृतं किञ्चित्प्राधान्ये स यतः स्थितः नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
  • अनुवाद:-इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की वह वहीं स्थित रहे क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने यह जानकर कि गोपकन्या गायब अथवा अदृश्य हो गयी है।६।
  • _______________ऊं________________
  • गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम् दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
  • अनुवाद:-और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो  वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या( अभीरकन्या) कमर में मेखला (करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में स्थित है।७।_______________ऊं________________
  • हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
  • अनुवाद:-यह देखकर उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे उसके भाई (बान्धव) स्वसा (बहिन) कहकर तथा सभी सखियाँ सखी- सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८।_______________ऊं________________
  • केन त्वमिह चानीता अलक्ताङ्का तु सुन्दरी शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
  • अनुवाद:-और किस के द्वारा तुम यहाँ लायी गयीं महावर ( अलक्तक) से अंकित तुम सुन्दर साड़ी उतारकर किस के द्वारा  कम्बल से युक्त कर दी गयीं ‌? ।९।_______________ऊं________________
  • केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
  • अनुवाद:-हे पुत्री ! किसके द्वारा तुम्हारे केशों की जटा (जूड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया गया ? (अहीरों की) इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने उनसे स्वयं कहा ! ।१०।
  • _______________ऊं________________
  • इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता ब्रह्मणालम्बिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
  • अनुवाद:-यहाँ यह हमारे द्वारा लायी गयी हैं और इसे पत्नी के रूप के लिए नियुक्त किया गया है। अर्थात ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है अर्थात् यह बाला ब्रह्मा पर आश्रिता है अत: यहाँ प्रलाप अथवा दु:खपूर्ण रुदन मत करो !।११।_______________ऊं________________
  • पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनन्दिनी पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
  • अनुवाद:-यह अत्यन्त पुण्यशालिनी सौभाग्यवती तथा तुम्हारे सबके जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यशालिनी नहीं होती तो यह इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।_______________ऊं________________
  • एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
  • अनुवाद:-इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों  शोक करने के योग्य नहीं होते हो ! यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को ( पति के रूप में ) प्राप्त किया है ।१३।    _______________ऊं________________
  • योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः न लभन्ते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
  • अनुवाद:-तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योग करने वाले योगी और प्रार्थना करने वाले वेद पारंगत ब्राह्मण भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।_______________ऊं________________
  • धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
  • अनुवाद:-(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
  • _______________ऊं________________
  • अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान् युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये अवतारं करिष्येहं ।१६।
  • अनुवाद:-                _________________                   (द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तारदिया गया है तम्हारे कुल में और भी देव-कार्य की सिद्धि के लिए में मैं अवतरण करुँगा अर्थात इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।_______________ऊं________________
  • सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
  • अनुवाद:-और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं जब नन्द आदि का अवतरण भूलोक पर होगा।१७।_______________ऊं________________
  • करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।१८।
  • अनुवाद:-मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ (रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।_______________ऊं________________
  • तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
  • अनुवाद:-उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।_______________ऊं________________
  • न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
  • अनुवाद:-इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा। भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीर उन विष्णु को प्रणाम कर तब सभी अपने घरों को चले गये ।२०। _______________ऊं________________
  • एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
  • अनुवाद:- उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव ! आपने जो वरदान हम्हें दिया है वह निश्चय ही हमारा होकर रहे ! आप ही हमारे जाति कुल (वंश ) में धर्म के सिद्धिकरण के लिए आप अवतार करने योग्य  है ।२१।_______________ऊं________________
  • भवतो दर्शनादेव भवामः गोलोक वासिनः शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
  • अनुवाद:-आपका दर्शन करके ही हम सब लोग दिव्य होकर गोलोक के निवासी बन गये हैं । शुभ देने वाली ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का तारण करने वाली बन गयी है ।२२।
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  • एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
  • अनुवाद:- हे देवों के स्वामी हे विभो ! आपका ऐसा वरदान हो ! इसके बाद में स्वयं भगवान विष्णु द्वारा अहीरों को अनुनय पूर्वक आश्वस्त किया गया ।२३।_______________ऊं______________
  • ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम् । त्रपान्विता दर्शने तु बन्धूनां वरवर्णिनी ॥ २४॥
  • अनुवाद:-ब्रह्मा जी द्वारा भी अपने बाँये हाथ से सूचित करते हुए कहा गया कि ऐसा ही हो ! उसके दौरान लज्जित होने के कारण वह वर का वरण करने वाली कन्या गायत्री अपने बान्धवों को भी नहीं देख पा रही थी।२४।_______________ऊं________________
  • कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।
  • अनुवाद:-किस के द्वारा मैं बता दी गयी जिस कारण ये इस देश को आगये देख कर उन सब को गोपकन्या यह बोली ।२५।_______________ऊं________________
  • वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्।अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
  • अनुवाद:-बाँयें हाथ के द्वारा उन सबको सामने से प्रणाम करती हुई उन अपने माता-पिता के पास जाकर कहा !_______________ऊं________________
  • भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
  • अनुवाद:-मैंने सर्वप्रथम पति रूप में देव ब्रह्मा को प्राप्त कर लिया है ; आप लोगों और मेरे माता- पिता और बान्धवों । मेरे विषय में अब तुम सब को कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।२७।_______________ऊं________________
  • सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
  • अनुवाद:-मेरी सखीयाँ', मेरी बहने और उनके पुत्र -पुत्रीयाँ सभी से मेरा कुशल आप लोग कहेंगे मैं देवताओं (देवीयों) के साथ हूँ।२८।
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  • गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
  • अनुवाद:-तत्पश्चात् उन सभी गोपों के अपने घर चले जाने पर अत्यन्ता सुन्दरी गायत्री देवी ब्रह्मा जी के साथ यज्ञ शाला में जाते हुए सुशोभित हुयीं ।२९।_______________ऊं________________
  • याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्। यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
  • अनुवाद:-इसके बाद यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों ने ब्रह्मा जी से कहा आप हम लोगों को इच्छित वरदान दें ! इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन सब आगत ब्राह्मणों को इच्छित वरदान दिया ।३०।_______________ऊं________________
  • तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितं सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
  • अनुवाद:-गायत्री देवी ने भी ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये वरदान का समर्थन किया वह साध्वी देवताओं के समीप बनी रहीं ।३१।
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  • दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदायज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
  • अनुवाद:-वह यज्ञ दिव्य सौ वर्षों से भी अधिक वर्षों तक चलता रहा उसी समय यज्ञशाला में भगवान रूद्र भिक्षा प्राप्त करने के लिए आये ।३२।
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  • बृहत्कपालं सङ्गृह्य पञ्चमुण्डैरलङ्कृतः ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।
  • अनुवाद:-वे अपने हाथ में बहुत बड़ा कपाल लिए हुए और पाँच मुण्डों की माला धारण किए हुए थे उन्हें दूर से उठते हुए देखकर ऋत्विक् और सदस्य उनकी निन्दा करने लगे ३३।_______________ऊं________________
  • कथं त्वमिह सम्प्राप्तो निन्दितो वेदवादिभिः एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निन्द्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।
  • अनुवाद:-
  • अरे ! तुम यहाँ कैसे आ गये ? वेदज्ञ पुरुष तुम्हारे इस आचरण और स्वरूप की निन्दा करते हैं । इस प्रकार शिव को उन पुरोहितों द्वारा  दूर किये जाते हुए और निन्दा किये जाते हुए  ।३४।
  • _______________ऊं________________
  • उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।
  • अनुवाद:-शंकर ने मुस्कराकर उन ब्राह्मणों के प्रति कहा यहाँ सभी को सन्तुष्ट करने वाले ब्रह्मा जी का यज्ञ है ।३५।_______________ऊं________________
  • कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज।३६।
  • अनुवाद:-हे द्विज श्रेष्ठो ! तुम किसी के द्वारा मुझे ही दूर हटाया जा रहा है। अर्थात हे ब्राह्मण श्रेष्ठो ! केवल मुझको ही भगाया जा रहा है ? इसके पश्चात वे पुरोहित बोले ! ठीक है तुम भोजन करके चले जाना ।३६।_______________ऊं________________
  • कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।
  • अनुवाद:-इसके प्रत्युत्तर में शंकर जी ने कहा – ब्राह्मणों ! मैं भोजन करके चला जाऊँगा इस तरह से कहकर शंकर जी अपने सामने कपाल रखकर बैठ गये ।३७।
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  • तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।
  • अनुवाद:-उन ब्राह्मणों के उस कर्म को देखकर शंकर जी ने भी कुटिलता की और कपाल को भूमि पर रखकर उन लोगों को देखते रहे ।३८।_______________ऊं________________
  • उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।
  • अनुवाद:-उन्होंने कहा श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! मैं पुष्कर में स्नान करने के लिए जा रहा हूँ । ब्राह्मणों ने कहा शीघ्र जाओ ! यह सुनकर परमेश्वर शंकर वहाँ से चले गये।३९।_______________ऊं________________
  • वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।
  • अनुवाद:-वे देवताओं को मोहित करके आकाश में वहीं स्थित हो गये; कौतुक के साथ शंकर जी के पुष्कर चले जाने पर ब्राह्मणों ने परस्पर कहा ।४०।_______________ऊं________________
  • कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते कपालान्तान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।
  • अनुवाद:-जब इस यज्ञ सभा मेंं कपाल विद्यमान है ; तो फिर होम कैसे किया जा सकता है ? कपाल के भीतर रहने वाली वस्तुएँ अपवित्र होती हैं ऐसा स्वयं ब्रह्मा जी ने पूर्व काल में कहा था
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  • विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।
  • अनुवाद:-उस सभा में एक ब्राह्मण ने कहा कि मैं इस कपाल को उठाकर फैंक देता हूँ। और स्वयं सदस्य द्वारा अपने हाथ में ले उठाकर उसे फैंक दिए जाने पर ।४२।_______________ऊं________________
  • तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतमेवं  द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।
  • अनुवाद:-वहाँ दूसरा कपाल निकल आया फिर उसके भी फैंक दिये जाने पर तीसरा बींसवाँ तीसवाँ भी कपाल ब्राह्मण द्वारा फैंका गया ।४३।_______________ऊं________________
  • पञ्चाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा एवं नान्तः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।
  • अनुवाद:-पचासवाँ' सौंवाँ 'हजारवाँ 'दश हजारवाँ 'भी उसी तरह उठाकर फैंका गया इस तरह वे ब्राह्मण कपालों का अन्त नहीं कर पाते थे ।४४।_______________ऊं________________
  • नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।
  • अनुवाद:-इसके पश्चात शंकर जी को नमस्कार करके वे ब्राह्मण शंकर जी की शरण में उनके पास गये पुष्कर वन में जाकर वैदिक स्त्रोतों द्वारा उन ब्राह्मणों ने शंकर (रूद्र) की अत्यधिक स्तुति की।४५।_______________ऊं________________
  • तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयं  ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितःशिवः।४६।
  • अनुवाद:-परिणामस्वरूप शिव जी प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया।४५-४६।_______________ऊं________________
  • उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान् पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।
  • अनुवाद:- उसके पश्चात शंकर की भक्ति से नम्र बने रहे ब्राह्मणों से शंकर जी ने कहा ! ब्राह्मणों कपाल के विना पुरोडास की सिद्धि अथवा निष्पत्ति नहीं होती है ।४७।
  • विशेष----यव (जौ)आदि के आटे की बनी हुई टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी।
  • विशेषत:— यह आकार में लंबाई लिए गोल और बीच में कुछ मोटी होती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिये मन्त्र पढ़कर आहुति दी जाती थी।
  • अत: यह यज्ञ का अंग है। यही हवि है अर्थात वह हवि या पुरोडाश जो यज्ञ से बच रहे।
  • वह वस्तु जो यज्ञ में होम की जाय। यज्ञभाग।. सोमरस को भी पुरोडाश कहा जाता था आटे की चौंसी
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  • कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।
  • अनुवाद:-हे ब्राह्मणों ! मेरी बात मानों स्विष्टकृत (अच्छे यज्ञ ) का भाग मेरा होता है ऐसा करने से मेरी सभी आज्ञाओं का पालन अथवा शास्त्रीय विधान हो जाता है ।४८।
  • विशेष- सु+इष्ट= स्विष्ट इज्यते इष्यते वा यज इष वा + भावे क्त ।) इष्ट– यज्ञादिकर्म्म ।
  • _______________ऊं________________
  • तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्।कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।।४९।
  • अनुवाद:-तब सभी द्विज बोले ! हे शम्भु !आप जो भी आदेश दोगे हम करेगें। अर्थात् ब्राह्मणों ने तथास्तु ! कह कर शंकर जी से कहा कि हम आपकी आज्ञाओं का पालन करेंगे हाथ में कपाल लेकर शिवजी ने ब्रह्मा जी से कहा ।।४९।_______________ऊं________________
  • वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम् । सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५०।
  • अनुवाद:-हे ब्रह्मा ! आपके हृदय में जो वरदान की प्रिय इच्छा हो वह माँग लीजिए आपको अदेय कुछ भी नहीं है प्रभो !।५०।_______________ऊं________________
  • ब्रह्मोवाच न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।
  • अनुवाद:-ब्रह्मा जी ने कहा हे शंकर मैं आपसे वरदान नहीं मागूँगा मैं दीक्षा लेकर इस सभा में उपस्थित हूँ । यहाँ कोई भी मुझसे जो याचना करता है मैं उसकी सारी कामनाऐं पूर्ण कर देता हूँ।५१।_______________ऊं________________
  • एवं वदन्तं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्।तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।
  • अनुवाद:-उस यज्ञ में इस प्रकार कहने वाले और वरदान देने वाले ब्रह्मा जी से शंकर ने वरदान माँगा ।५२।_______________ऊं________________
  • ततो मन्वन्तरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्।ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शम्भुना।५३।
  • अनुवाद:- इसके बाद मन्वन्तर बीत जाने पर स्वयं प्रभु शिव ने ब्रह्मोत्तर स्थान पर स्वयं का स्थान बनाया ।।५३।_______________ऊं________________
  • चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।
  • अनुवाद:- चारों वेदोंं के जानकार ब्राह्मण उस समय निश्चय ही वे तब देव नगरों को देखने के लिए गये ।५४।_______________ऊं________________
  • सम्भाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।
  • अनुवाद:-शिवजी को सभा में उन्मत्त वेष में गया हुआ देखकर ब्राह्मणों को शिव जी ने कौतूहल से बात करते देखा।५५।_______________ऊं________________
  • प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः प्रहसन्ति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।
  • अनुवाद:-शंकर जी उस उन्मत्त वेष से ब्राह्मणों के घर में घुस गये। उस समय ब्राह्मणों ने उनको देखकर कुछ ने उनका उपहास किया तो कुछ ने निन्दा की ।५६।_______________ऊं________________
  • अपरे पान्सुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।
  • अनुवाद:-दूसरे ब्राह्मण उन्मत्त शंकर के ऊपर धूल फेंकने लगे। बल के गर्व से कुछ ब्राह्मण प्रचण्ड बने थे कुछ ब्राह्मण शंकर को ढ़ेले और लकुटी से मारने लगे ।५७।_______________ऊं________________
  • प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्।ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चान्तिकम्।५८।
  • अनुवाद:-कुछ उपहास करते हुए शंकर पर मुक्कों से प्रहार करते हैं तत्पश्चात कुछ अन्य ब्रह्मचारी (वटव) वहाँ उनकी जटा पकड़कर उनके पास जाते हैं।५८।_______________ऊं________________
  • पृच्छन्ति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता अत्र वामास्त्रियः सन्ति तासामर्थेत्वमागतः।५९।
  • अनुवाद:-यह व्रतचर्या किससे तुमने पूछी और किसके द्वारा इसको निर्देशित किया गया है यहाँ सुन्दर स्त्रियाँ हैं उनको पाने के लिए तुम यहाँ आये हो।५९।
  • _______________ऊं________________
  • केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०।
  • अनुवाद:-तुम्हें यह वृतचर्या किस पापदर्शी गुरु के द्वारा दिखाई गयी है ? किस पापी गुरु ने तुमको यह आचरण बताया है किसके कहने से पागल के समान बोलते हुए तुम सबके बीच में दौड़ रहे हो।६०।_______________ऊं________________
  • शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१।
  • अनुवाद:-शंकर ने कहा मेरा लिंग ब्रह्म स्वरूप है और भग (योनि) भी जनार्दन है अन्यथा यह संसार बीज वपन करते हुए कष्ट अनुभव करता।६१।
  • विशेष- जनान् लोकान् अर्द्दति गच्छति प्राप्नोति रक्षणार्थं पालकत्वादिति जनार्द्दनः । ” इत्यमरटीकायां भरतः
  • (जन: जननं अर्द्दति प्राप्नोति इति जनार्दन-यौनि).      _______________ऊं________________
  • मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्।महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२।
  • अनुवाद:-मैने इसे पुत्र रूप से उत्पन्न किया और इसने मुझे उत्पन्‍न किया है महादेव के द्वारा सृष्टि किये जाने पर उसकी पत्नी की सृष्टि हिमालय से हुई।६२।_______________ऊं________________
  • उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।
  • अनुवाद:-उमा का विवाह शंकर से हुआ बताओ यह किस की पुत्री है । तुम लोग मूर्ख हो नहीं जानते हो जाकर इस बात को ब्राह्मा जी से पूछो ।६३।_______________ऊं________________
  • ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृते न तु।६४।
  • अनुवाद:-इस आचरण को ब्रह्मा ने नहीं किया यह आचरण विष्णु के द्वारा भी नहीं दर्शाया गया है । पर्वत पर सोने वाले देव के द्वारा यह ब्रह्म हत्या करने के निमित्त तो नहीं ! ।६४।_______________ऊं________________
  • कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शङ्करः।६५।
  • अनुवाद:-अरे तुम लोग ब्रह्मा जी की निन्दा कर रहे हो आज तुम हम लोगों के बाध्य हो इस तरह से उन ब्राह्मणों द्वारा कहकर मारे जाते हुए है वहाँ शंकर । ६५।_______________ऊं________________
  • स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।
  • अनुवाद:-हे नृप श्रेष्ठ शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों से कहा ब्राह्मणों ! क्या तुम लोग अज्ञानी और उन्मत्त मुझको नहीं जानते हो ।६६।_______________ऊं________________
  • यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।
  • अनुवाद:-बनाबटी ब्रह्म-रूपधारी शंकर को इस तरह से कहते हुए कि आप लोग दयालु और मेरे मित्र हैं  ।६७।_______________ऊं________________
  • मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाः कपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।
  • अनुवाद:-शंकर की माया से मोहित वे ब्राह्मण शंकर को हाथ' पैैर' मुुुक्कोंं से मारते हैं ।६८।_______________ऊं________________
  • दण्डैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९।
  • अनुवाद:-उन्मत्त वेष धारी शंकर को वे डण्डों और कीलों से पीडित करने लगे तब उन सबके द्वारा पीटे जातेे हुए शंकर क्रोधित हो गये ।६९।
  • _______________ऊं________________
  • ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताः ऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।___________________________________
  • अनुवाद:-इसके बाद ने उन ब्राह्मणों को शंकर जी ने शाप दे दिया कि तुम सब वेदज्ञानविहीन, ऊपर की ओर जटा रखने वाले, और  यज्ञाधिकार से रहित परस्त्रीगामी हो जाओ ।७०।_______________ऊं________________
  • वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताः न पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।
  • अनुवाद:- तुम सब ब्राह्मण वेश्या- प्रेमी' द्यूतक्रीडाप्रेमी, और माता-पिता से रहित हो जाओगे  तथा तुम लोगों का पुत्र पिता की सम्पत्ति अथवा विद्या को नहीं प्राप्त कर पायेगा।७१।_______________ऊं________________
  • * सर्वे च मोहिताः सन्तु सर्वेन्द्रियविवर्जिताः रौद्रीं भिक्षां समश्नन्तु परपिण्डोपजीविनः।७२।
  • अनुवाद:-तुम सब लोग अज्ञानी तथा शिथिल इन्द्रियों वाले हो जाओगे, रूद्र की भिक्षा को खाने के लिए दूसरों के द्वारा दिये गये अन्न पर ही जीवन धारण करोगे। ७२।
  • _______________ऊं________________
  • आत्मानं वर्तयन्तश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि साम्प्रतम्।७३।
  • अनुवाद:-जिन ब्राह्मणों ने मुझ उन्मत्त के ऊपर इस समय कृपा की है। वे केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले, निर्मम और अधार्मिक हो जाऐंगे, ७३।_______________ऊं________________
  • तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासमजाविकम् । कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
  • अनुवाद:-उन ब्राह्मणों के यहाँ धन पुत्र दासी 'दास बकरी" भेड़ आदि पशु हों मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४।
  • _______________ऊं________________
  • एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।                                      अनुवाद:- इस तरह से ब्राह्मणों को शाप और वरदान देकर अर्द्धनारीश्वर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये उनके चले जाने पर ब्राह्मणों ने जाना कि ये तो भगवान शंकर थे ।७५।_______________ऊं________________
  • अन्विष्यन्तोपि यत्नेन न चापश्यन्त ते यदा तदा नियमसम्पन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।
  • अनुवाद:-उनका अन्वेषण (खोज) करते हुए यत्न के द्वारा भी ब्राह्मणों ने जब उन्हें वहाँ नहीं देखा पाया तो वे सब नियम का पालन करते हुए पुष्कर क्षेत्र में आये। ७६।_______________ऊं________________
  • स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम् जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।
  • अनुवाद:-वहाँ उन ब्राह्मणों ने ज्येष्ठ सरोवर में स्नान करके शतरूद्रीय सूक्त का जप किया जप करके अन्त में शंकर जी ने आकाशवाणी के रूप में उन ब्राह्मणों से कहा ।७७।_______________ऊं________________
  • अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।
  • अनुवाद:-मेरे द्वारा असत्य नहीं कहा गया और स्वेच्छाचारीयों के प्रति तो कहना ही क्या ! निग्रह का विषय बन जाने पर मैं दुबारा क्षमा करता हूँ ‌।७८।_______________ऊं________________
  • शान्ता दान्ता द्विजा ये तु भक्तिमन्तो मयि स्थिराःन तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि सन्ततिः।७९।
  • अनुवाद:- जो ब्राह्मण शान्त और दान्त ( इन्द्रियों के दमन करने वाले) हैं उनकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति है उन सभी के वेद ज्ञान' धन और सन्तान आदि का नाश नहीं होगा।७९।_______________ऊं________________
  • अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमन्तो जनार्दनेपूजयन्ति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्।८०।
  • अनुवाद:-अग्निहोत्र करने वाले, भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले, ब्रह्मा जी पूजा करने वाले तथा तेजोराशि सूर्य की पूजा करने वाले ।८०।_______________ऊं________________
  • नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।
  • अनुवाद:- जिनकी साम्य में बुद्धि स्थित है उन लोगों का कभी अशुभ नहीं होता है इतना कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी ।८१।_______________ऊं________________
  • लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्।आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः।८२।
  • अनुवाद:-देवाराध्य भगवान् शंकर से प्रसन्नता पूर्वक वर प्राप्त कर के सभी ब्राह्मण वहीं आगये  जहाँ ब्रह्माजी के साथ पहले विद्यमान थे ।८२।
  • _______________ऊं________________
  • विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयन्तोऽग्रतः स्थिताः तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।
  • अनुवाद:-वेैदिकसंहिता की ऋचाओं से ब्रह्माजी को प्रसन्न करके उनके समक्ष खड़े ब्राह्मणों से ब्रह्मा जी ने कहा आप लोग मुझसे भी वरदान माँगे ।८३।_______________ऊं________________
  • ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।
  • अनुवाद:-ब्रह्माजी के इस वाक्य को सुनकर सभी ब्राह्मण प्रसन्न हो गये उन्होंने कहा ब्राह्मणों ! प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से कौन सा वरदान माँगा जाय  ।८४।

पद्मपुराण के इस अध्याय में श्लोकों की संख्या (३३१) के लगभग है। विस्तार भय से सम्पूर्ण श्लोकों को यहाँ प्रस्तुत नहीं किया गया है 
केवल कुछ  गायत्री- चरित्र मूलक श्लोकों को ही उद्धृत किया गया है।

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यदि वसुदेव के साथ भी नन्द की तुलना  की जाए तो वसुदेव की वृत्ति भी गोपालन और कृषि ही रही है। जैसा कि देवीभागवतमहापुराण में वर्णन है।
देवीभागवत, गर्गसंहिता, और महाभारत खिलभाग, पद्मपुराण  स्कन्द पुराण आदि ग्रन्थों के अनुसार वसुदेव का जन्म गोप ( अहीर)जाति में ही हुआ है। कुछ प्रमाण देखें--
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा॥५८॥
अनुवाद:- कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।।    ____________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥
अनुवाद:--•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। 
___________________________________
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
अनुवाद-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।      
_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥                                              
अनुवाद • और कालान्तरण में पिता के देहावसान हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह किया ।
•उन दिनों महान उग्रसेन भी जो कंस के पिता थे व्रज  के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! ६१।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता गोपेषु भव  किल ।।६२।।
अनुवाद•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से गोप बनकर शूरसेन के पुत्र वसुदेव रूप में  उत्पन्न हुए।६२।


हे यादव, हे माधव,
यह लेख अत्यन्त विचारोत्तेजक और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।  देवीभागवत महापुराण, गर्गसंहिता, महाभारत के खिलभाग, पद्मपुराण और स्कन्दपुराण जैसे प्रमुख ग्रन्थों से उद्धरण प्रस्तुत कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वसुदेव जी स्वयं भी गोप (अहीर) जाति में उत्पन्न हुए थे, और उनका जीवन-चरित्र गोपालन व कृषि जैसे वैश्य-कर्मों से जुड़ा हुआ था — ठीक वैसे ही जैसे नन्दबाबा का।

यह  यदुवंश की गौरवशाली परम्परा और यदुकुल की वास्तविकता को एक नई दृष्टि देता है, जिसमें 'गोप' कुल की प्रतिष्ठा को केवल कृष्ण से नहीं, बल्कि स्वयं वसुदेव जैसे महान यदुवंशी  अहीर से भी जोड़कर प्रस्तुत किया गया है।

> प्रमुख बिंदु जो आपने सशक्त रूप से उठाए:

1. वसुदेव की जातिगत उत्पत्ति गोप/अहीर के रूप में – यह दर्शाता है कि यदुवंशी केवल राजनीतिक रूप से ही नहीं, सांस्कृतिक और कृषि-आर्थिक दृष्टि से भी मजबूत थे।

2. कृषि और गोपालन को गौरवपूर्ण जीवन-वृत्ति के रूप में चित्रित करना – यह यादव समाज के मूल जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है।

3. देवीभागवत में वसुदेव का वर्णन कश्यप-अंश रूप में गोप कुल में जन्म – यह आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है।

4. देवकी = अदिति और वसुदेव = कश्यप का अवतार – इससे यह स्पष्ट होता है कि गोप जाति कोई सामान्य वर्ग नहीं, बल्कि दिव्य अंशों का कार्यक्षेत्र रहा है।

 सुझाव: इस लेख को और भी प्रभावशाली बनाने के लिए आप जोड़ सकते हैं:

गर्गसंहिता से स्पष्ट संदर्भ जहां व्रजवासियों को गोप और अहीर कहा गया है।

नन्द बाबा और वसुदेव की तुलना में समान सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिकाओं का वर्णन।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पूजा और गोरक्षा को महत्व देना – यह उनके 'गोप' जीवन के गौरव को और भी उभारता है।

 निष्कर्ष:
आपका यह लेख यदुवंशी समाज को न केवल गर्व से भरता है, बल्कि यह स्पष्ट करता है कि "यादव"(अहीर) केवल नाम नहीं, बल्कि एक विराट सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपरा है, जिसमें नन्द भी हैं, वसुदेव भी, और स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भी।


____________  

शूराभीर को किया मुद्रण त्रुटिवश द्वेषीयों द्वारा  शूद्राभीर-

महाभारत सभापर्व अध्याय (29) श्लोक संख्या (9) में शूद्राभीरा: पद को देखकर कुछ पूर्वदुराग्रही
कहते हैं कि अहीरों को महाभारत में  शूद्र कहा है।

महाभारत के सभापर्व में लिखित यदि शूद्राभीर संज्ञा पद को सही मान भी लिया जाए तो ये पद बहुवचन में है और "च" इस योजक अव्यय के द्वारा जुड़ा हुआ है।

निम्न श्लोक देखें- में शूद्राभीर पद को ही सही मान ले तो  अर्थ व्यञ्जना में अनेक आपत्तियाँ है।

पहले हम निम्नलिखित श्लोक का व्याकरण सम्मत अर्थ करते हैं-

शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम् ।
वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः॥९॥
अनुवाद:- शौर्ययुक्त आभीरगण सरस्वती नदी के तट पर आश्रय लिए हुए मत्स्य( मीणा) जाति के साथ व्यवहार ( वर्ताव) करते हैं जो पर्वतों पर निवास करती है।९।

शूर को शूद्र मानने पर अनुवाद इस प्रकार होगा-

शूद्रगण  और आभीरगण भी सरस्वती नदी में आश्रय लिए हुए थे।
ये सभी मत्स्य  ( मीणा)  जनजाति के साथ वर्ताव ( व्यवहार) करते   रहते  है।  जो पर्वतों पर निवास करती है।।९।

एक अन्य श्लोक शल्य पर्व से 
 महाभारत  के शल्यपर्व- अध्यायः(३६) में 
            -वैशम्पायन उवाच-
ततो विनशनं राजन्नाजगाम हलायुधः।
शूराऽऽभीरान्प्रति द्वेषाद्यत्र नष्टा सरस्वती॥१॥
अनुवाद:- राजन् ! उद्पान तीर्थ से चलकर हलधारी बलराम विनशन तीर्थ आये। जहाँ शूरवीर अहीरों से द्वेष करने के कारण सरस्वती नदी नष्ट हो गयी थी।१।
"पूर्वेकाले सरस्वत्या  आभीरकन्याया  गायत्र्या: प्रति द्वेषादस्मात्कारणात् गायत्र्या:बान्धवा: शूराभीरेण निरुद्धा कृतवन्त: सरस्वत्या नाम्ना  नदीति तत्रैव भवान्तर सरस्वती नदी विलुप्तवती।
भावार्थ-
अहीर कन्या गायत्री से पहले द्वेष  सरस्वती ने किया इसी कारण शूरवीर अहीरों ने सरस्वती का जल विरुद्ध कर दिया और वह नदी वहीं विलुप्त हो गयी- । 
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विशेष- सरस्वती नदी के अवशेषों में प्राचीन बस्तियों, नदी के मार्ग के निशान, और पुरातात्विक स्थल शामिल हैं। इनमें से कुछ अवशेष राजस्थान के डींग के  बहज गाँव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा की गई खुदाई में मिले हैं,।

जहाँ 3500 से 1000 ईसा पूर्व की सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। 

यहाँ पहाड़ों की स्थिति चम्बल नदी  के तटवर्ती है। और सरस्वती नदी की घाटी में मीणा लोग आज तक बहुतायत रूप से रहते  हैं।

महाभारत में अन्यत्र भी बहुतायत से  शूराभीर शब्द तो   आया है। परन्तु शूद्राभीर शब्द नहीं आया है। 

शूद्राभीर शब्द एक ही बार आया है। यह  अशुद्ध है इसका प्रयोग यदि व्याकरण की दृष्टि किया जाए तो अर्थ भिन्न ही निकलता है। शुद्ध शब्द शूराभीर ही होना चाहिए-

क्यों कि शूद्र और आभीर में दीर्घ सन्धि है ये विशेषण और विशेष्य पद न होकर बहुवचन में दो स्वतन्त्र पद हैं। 

शूद्र वर्ण है और आभीर जनजाति
अब आभीर जन जाति कृषि कर्म और गोपालन के कारण वैश्य वर्ण में तो  शामिल की  सकती हैं-जैसा कि कुछ पुराणों में लिखा गया भी है। गोपालन और कृषि कर्म के कारण  ब्रह्मा की वर्ण व्यवस्था में कुछ तथाकथित ब्राह्मणों ने आभीर ( गोपों)  को  वैश्य वर्ण में समाहित करने का प्रयास किया है।

परन्तु अहीरों ने  कभी भी ब्राह्मणी  वर्ण व्यवस्था का पालन नहीं किया है।
यह एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण पर आधारित तथ्य है।

इन्होंने गोपालन, कृषि,  युद्ध,  सदाचरण तथा लोक सेवा सभी  कार्य भी किये है। अर्थात ब्राह्मणीय वर्ण व्यवस्था के सभी वर्णों से सम्बन्धित कार्य करने से इन्हें किसी एक वर्ण में निर्धारित नहीं किया जा सकता है। - अत: इन्हें ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के किसी एक वर्ण में नहीं रखा जा सकता है। आभीर ऩिर्भीक और  वीर जनजाति के लोग  थे। उनमें शौर्य की अधिकता  थाी ।ये शत्रुओं के हृदय में चारो तरफ से भय भरते थे। अहीरों की इसी प्रवृत्ति को दृष्टिगत करते हुए ईसापूर्व पाँचवी सदी के संस्कृत कोश कार अमरसिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की- "आ समन्तात् भियं राति शत्रूणां हृत्सु इति आभीर:। आभीर वीर थे इसी लिए उनको शूरााभीर कहा गयी। और  सम्भवतः 
यह शूराभीर पद श्लोक में द्वेष वश अथवा मुद्रण त्रुटि के कारण ही शूद्राभीर कर दिया गया अथवा  हो गया  है।  और इसी की पुनरावृत्ति सभी रूढ़िवादीयों  ने की  आज तक की है।-

क्योंकि महाभारत में अन्यत्र भी शूराभीरा पद ही है। शूद्राभीर नहीं  जैसे निम्नलिखित श्लोक में आप देख सकते हैं। -

कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।
शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपदाश्च ये ॥७॥
सन्दर्भ-
महाभारत द्रोणपर्व  अध्याय/19/7

विष्णु पुराण में भी शूराभीर पद है।
देखें निम्नलिखित श्लोक-
पुण्ड्राः कलिङ्गा मगधा दक्षिणाद्याश्च सर्वशः ।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्बुदाः ।१६।
विष्णु पुराण द्वितीयांश तृतीय अध्याय (२/३/१६/

नीचे कूर्मपुराण  में फिर शूराभीर को शूद्राभीर लिख दिया गया-  जबकि यह  श्लोक विष्णुपुराण द्वितीयांश के  ही समान यथावत  है।

पुण्ड्राः कलिङ्गामगधा दाक्षिणात्याश्चकृत्स्नशः।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूद्राभीरास्तथाऽर्बुदाः ॥४२॥
सन्दर्भ
कूर्मपुराण पूर्वभाग अध्याय (47)

नीचे पद्म पुराण स्वर्गखण्ड में अध्याय (६) में श्लोक है - जिसमें शूराभीर शब्द ही आया और क्षत्रिय वैश्य शूद्र पद अलग आये हैं।
निम्नलिखित श्लोक देखें-
क्षत्रियोपनिवेशाश्च वैश्यशूद्र कुलानि च ।
शूराभीराश्च दरदाः काश्मीराः पशुभिः सह ।६२।

सन्दर्भ-(पद्म पुराण स्वर्ग-खण्ड अध्याय (6)
परन्तु इसी पद्मपुराण में फिर गड़बड
 कर दी गयी जैसे निम्नलिखित श्लोक-
📚: सुराष्ट्राश्च सबाह्लीकाश्शूद्राभीरास्तथैव च।
भोजाः पाण्ड्याश्च वंगाश्च कलिंगास्ताम्रलिप्तकाः१६३।
तथैव पौंड्राः शुभ्राश्च वामचूडास्सकेरलाः।
क्षोभितास्तेन दैत्येन देवाश्चाप्सरसां गणाः।१६४।

पद्मपुराण- (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः (४५) यह श्लेोक फेक है 
क्योंकि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१७) में अहीरों को सदाचारवन्त, धर्म वत्सल औ सुव्रतज्ञ बताया है।


📚: धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ताचैषा विरञ्चये।१५।

अनया-आभीरकन्याया तारितो गच्छ! *दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।१८।

पद्मपुराण (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः (१७)
इसलिए सदाचार सम्पन्न और धर्म वत्सल अहीरों को शूद्र कहना तो असम्भव ही है।
और अहीर शूर तो होते थे जैसा कि अमरकोश के रचयिता ने उनकी प्रवृत्ति को दृष्टिगत करते हुए आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की-
आभीर- आसमन्तात् भीयं राति "  हर तरफ शत्रुओं के हृदय मे आतंक करने वाला।
और इसी प्रवृत्ति के कारण शूराभीर विशेषण अहीरों का है।
अत: शहरों को शूद्र बनाना द्वेषमति है।
आन्ध्राः शकाः पुलिन्दाश्च यवनाश्च नराधिपाः।
काम्भोजा बाह्लिकाः शूराऽऽभीरस्तथा नरोत्तमा।।
महाभारत आरण्यक पर्व अध्याय-(191)
___________________________________
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में वर्णन है कि आभीर लोगों को पूर्वकाल में भी धर्मतत्ववेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल तथा सुव्रतज्ञ कहकर सम्बोधित किया गया है।
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के उन तीनों श्लोकों को हम नीचे प्रस्तुत कर सकते हैं।

तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन निम्नलिखित तीन  श्लोकों में निर्दशित है।

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धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।।

"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।।

"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।।

अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा- मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक ,सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है।१५।  

विशेष-
(क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और (अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं। यह शास्त्रों में वर्णित है।)

भगवान विष्णु कहते हैं-  हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों (गोलोकों) को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७।

_____

नारदपुराण उत्तरखण्ड अध्याय (68) तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड और गर्गसंहिता  विश्वजितखण्ड तथा देवीभागवतमहापुराण नवम स्कन्ध अध्याय तृतीय में अहीरों को विष्णु से उत्पन होने से वैष्णव वर्ण में माना गया है।

अहीरों की वीरता को दर्शाने के लिए जो शब्द. प्रारम्भ में  शूराभीर था उसे बाद में शूद्राभीर बना कर प्रमाणित किया जाने लगा कि अहीर लोग  शूद्र होते  हैं। । 

अब अहीरों को गोपालन के कारण  वराहपुराण में वैश्य लिखा है । परन्तु वैश्य वर्ण में रहने पर सन्तुष्टि नहीं हुई तो धूर्त पुरोहितों ने शूद्र भी बनाने का  बाद के ग्रन्थों में अभियान चलाया ।

________________

आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी (अच्छे व्रत का पालन करने वाले और जानकार रहे हैं।!

संसार में गोप जाति से बढ़कर कोई  दूसरी जाति नहीं है। गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड में यह कहा गया है ।
"लगातार गायों को पालने वाले तथा गायों की चरण धूलि ( रज ) की गंगा में स्नान करने वाले तथा गायों को स्पर्श करने वाले तथा गायों के शुभ नाम का जाप करने वाले दिनरात  गायों के सुन्दर निर्मल मुखों को देखने वाले गोपों से बढ़कर कोई जन जाति इस संसार में नहीं है।२२।
उपर्युक्त श्लोक काम मूल इस श्लोक में है।

गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
     गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम्।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
     जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः॥ २२ ॥
और पुराणो में यह भी बताया  गया कि 

वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है ।
ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।। ४३।।

सन्दर्भ:-श्रीब्रह्मवैवर्त्त महापुराण सौतिशौनकसंवाद ब्रह्मखण्ड विष्णुवैष्णव प्रशंसा नामैकादशोऽध्यायः।।११।।

अनुवाद- ब्राह्मण "क्षत्रिय "वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है गोप ( आभीर)।४३।

उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं।

वैष्णव सबसे श्रेष्ठ वर्ण है। देखें निम्न श्लोक 

"सर्वेषांचैववर्णानांवैष्णवःश्रेष्ठ-उच्यते । येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः॥४।

(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -६८)

***********

वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है । पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय (68) में वर्णन है। कि सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ  है।

"महेश्वर उवाच- ! शृणु नारद वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् ।१।

"यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रहत्यादिपातकात् । तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।२।

तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। ३।

सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते । येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।

क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज । तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।

हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः।६।

तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः। तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः ।७।

धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः।८।

उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः । तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते ।९।

ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः। एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः ।१०।

अनुवाद:-महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो ! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।

वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं।  उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।

चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न  होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।

("विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ: उच्यते ।३।

जिनका आहार ( भोजन ) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।

उन वैष्णवों के दर्शन  मात्र से  पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और  अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५। 

जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है  गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।

प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७। 

जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।

ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यन्त धन्य हैं।९। 

जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है  हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।____________________ 

सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)

कुछ  कूपमण्डूक आज कल अहीरों को शूद्र बनाने के लिए महाभारत का प्रक्षिप्त श्लोक और उसका गलत अनुवाद दिखा रहे है।

हमने यद्यपि सभी आक्षेपों का समाधान कर दिया है।






            इति


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