कुलदेवता के रूप में श्री कृष्ण के पुत्र सांब (लहुराबीर) जिनकी पूजा आज भी काशी के अहीरों में होती है।
शूरसेन प्रदेश यानी आज का व्रज मण्डल पहले आभाराें के अधिपत्य में था। इन अभीरोंं को कुषाणो ने हराकर इन्हें दूसरी जगहों पर प्रवास के लिए मजबूर कर दिया था।
भद्रसेन अभीर ने जब पहली बार कुषाणों पर विजई प्राप्त की थी तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि कुषाणो में अपने पूर्वजों को पूजने का प्रचलन है। अभीरों ने भी इसे अपनाया और पञ्चवृष्णी पूजा की शुरुआत की। जिसमें पांचवें वीर सांब (कृष्ण के पुत्र)थे जिनको उम्र में लघु होने के कारण लहुराबीर नाम मिला
इसका एक साक्ष्य वायु- पूरण में भी मिलता है।
वायुपुराण - अध्याय (97)
सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नः साम्ब एव च ।
अनिरुद्धश्च पञ्चैते वंशवीराः प्रकीर्त्तिताः।
अनिरुद्धश्च पञ्चैते वंशवीराः प्रकीर्त्तिताः।
गोपायनं यः कुरुते जगतां सार्व्वलौकिकम्।
स कथं गां गतो विष्णुर्गोपमन्वकरोत्प्रभुः ।। (वायुपुराण-३५.१२)
स कथं गां गतो विष्णुर्गोपमन्वकरोत्प्रभुः ।। (वायुपुराण-३५.१२)
गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देवो विष्णुर्गोपत्वमागतः ।। १२ ।।
स कथं गां गतो देवो विष्णुर्गोपत्वमागतः ।। १२ ।।
(हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व अध्याय-40)
गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ।
स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः ॥ २६ ॥
स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः ॥ २६ ॥
स्कन्द पुराण7/1/9/26
वायु पूरण का यह श्लोक भी इस बात का साक्ष्य है कि अभीरो के अधिपत्य में ब्रजमंडल में पंचवृष्णी वीरों की पूजा का प्रचलन था।
मथुरा के मोरा नामक ग्राम से मिले कुछ शिलालेखों में भी पंचवृष्णी वीरों की पूजा करने का वर्डन है।
"भगवतां वृष्णिनां पंचवीराणां प्रतिमाः शैल देव गृहे"।
यहां खुदाई के दौरान यहां से एक पंच वृश्णिवीर की खंडित मूर्ति भी प्राप्त हुई थी।
महाराजा भद्रासेन ने चतुर्व्युह में एक वृश्णिवीर जोड़कर यह पूजा शुरू करवाई थी। पांचवे वृश्णिवीर कृष्ण के पुत्र सांब थे जिनको लघु होने के कारण लहुराबीर कहा जाने लगा। पांच वृषणी वीरों में श्री कृष्ण, बलराम(बड़े होने के कारण बलवीर), अनिरुद्ध , प्रद्युम्न और सांब(लहुराबीर)।
पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार राजा भद्रासन और उनकी सेना सांब (कृष्ण के पुत्र) को "लहुराबीर" के नाम से ही पूजती थी।
बृजमंडल के जानेमाने इतिहासकार श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी जी ने भी अपने शोध में चतुर्व्युह में एक वीर जोकि लहुराबीर (सांब) और जोड़कर पंचवृष्णी वीर की पूजा चलवाने की बात से सहमति दिखाई है और कहते हैं कि यह पूजा आजभी बृजमंडल में प्रचलित है।
सन 1988 में जब एक विदेशी एंथ्रोपोलॉजिस्ट, D.M.Coccari अपनी थीसिस काशी पे लिख रही थीं तब उनकी नजर काशी में लहुराबीर के मंदिर पे गई। मंदिर के पुजारी ने उन्हें बताया कि लहुराबीर गोपाल श्रीकृष्ण जी के वंशज गवलवंशी अहीरों के कुलदेवता हैं और वो उन्हीं के कुल के हैं फिर उन्हें महाभारत से भी जोड़ा। ब्रज के अहीर (यादवों) के वंशज जहां जहां गए अपनी संस्तुतियों के साथ गए ।
काशी में जब कोई अहीर वीरगति को प्राप्त होता है तब उसको वीर/बीर के रूप में पूजा जाता है। अंग्रेजों के सन 1800 से लेकर 1980 तक के शोध ये बताते हैं कि कई अहीर वीरों को तो काशी की जनता महाभारत से भी जोडकर पूजती है।
काशी के इतिहासकार हीरालाल तिवारी जी व काशी के जानकार हेमंत शर्मा जी ने भी काशी के बीर/वीरों को अहीरों से जोड़ा है और लहुराबीर को अभीर बताया है।
पहले काशी क्षेत्र 12 खण्डों या आदित्यो में विभाजित था।काशी खंड के 12 आदित्य में से एक आदित्य का नाम साम्बादित्य है जो भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब यानी लहुराबीर के नाम पर रखा गया है।
लहुराबीर का मंदिर काशी के लहुराबीर स्थान पर ही विराजमान है। कुलदेवता के रूप में आज भी काशी के अहीर इनकी पूजा-अर्चना करते हैं।
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