श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमदभागवत पुराण तथा अन्य ग्रन्थों से उद्धृत निम्नलिखित श्लोक इस विचारधारा को दर्शाते हैं, कि जहाँ ज्ञान और गुणों को जन्म से अधिक महत्व दिया गया है वहाँ वर्ण जन्म से सुनिश्चित नहीं होता है।।
और वर्ण का निर्धारण भी व्यक्ति के गुण ( विशेषता) और कर्म , स्वभाव तथा प्रवृत्ति से सुनिश्चित होता है।
यह विचारधारा भगवद्गीता (4.13) में भी परिलक्षित होती है, जहाँ कर्म और गुण के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था की बात कही गई है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
अनुवाद:-इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं। ये वर्ण कर्म और गुण के हिसाब से बांटे गए हैं। यानि जो व्यक्ति जिस कर्म को करना जानता है वह उस वर्ण का ही माना जाएगा । वर्ण किसी खान्दान या पूर्वज के कर्म पर नहीं चलेगा।
यह तो आपके अपने कर्म के हिसाब से तय होगा।
भगवान श्रीकृष्ण इसी उपर्युक्त श्लोक में ही कहते हैं कि इस सृष्टि का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा( लगाव) नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है वह कभी कर्मों से नहीं बँधता है।
श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट कर दिया कि वर्ण व्यवस्था किस स्तम्भ पर आधारित है। इसमें कहीं ऊंँच -नींच की बात नहीं है।
वर्ण तो मनुष्य के कर्म के हिसाब से सुनिश्चित होते थे लेकिन वर्तमान में हमने इस पूरी व्यवस्था को अपने हिसाब से तोड़- मरोड़ दिया है।
-आधुनिक परिप्रेक्ष्य-
आधुनिक सन्दर्भ में इन श्लोकों को जातिगत भेदभाव के बजाय योग्यता और ज्ञान के महत्व के रूप में देखा जा सकता है। ये श्लोक इस बात पर बल देते हैं कि किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके ज्ञान, कौशल, और कर्म से होना चाहिए।
यह पद्धति शिक्षा और आत्म-विकास के महत्व को रेखांकित करती है, जो आज के समाज में भी प्रासंगिक है।
उपर्युक्त विचार ही सुव्यवस्थित समाजिक व राष्ट्रीय उन्नति का आधार है।
वे सड़ी -गली तथा रूढ़िवादी मानसिकता के लोग ही हैं जो इन उपर्युक्त शास्त्रीय विचारों का विरोध करते हैं- वे विरोध इस लिए करते हैं क्योंकि उनके स्वार्थ सहज ही विना किसी परिश्रम और योग्यता के ही सिद्ध हो रहे हो- तो वे धूर्त ही इन शास्त्रीय मतों का विरोध करेंगे- यह घोर सामाजिक विसंगति है।
पहले भी देश में इसी प्रकार व्यक्ति के ज्ञान और कर्म -कौशल से व्यक्ति महानता का मूल्यांकन होता था-
भागवत पुराण के कुछ निम्नलिखित श्लोक भी इसके साक्ष्य हैं
जब व्यक्ति का वर्ण उसके गुण कर्म और व्यवसाय चुनाव से तत्काल बदल जाता था।
"धृष्टाद् धार्ष्टमभूत् क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
नृगस्य वंशः सुमतिः भूतज्योतिः ततो वसुः॥१७॥
अनुवाद:-
राजा धृष्ट के धार्ष्ट नामक क्षत्रिय हुए और अन्त में वे इसी क्षत्रिय शरीर से ब्राह्मण बन गये। नृग का पुत्र सुमति और सुमति का पुत्र भूतज्योति हुआ और उसका पुत्र वसु हुआ ।१७।
नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्यः कर्मणा वैश्यतां गतः।
भलन्दनः सुतस्तस्य वत्सप्रीतिः भलन्दनात् ।२३ ॥
अनुवाद:-
राजा दिष्ट का पुत्र नाभाग था जो पहले क्षत्रिय था परन्तु जो कर्म से वह बाद में वैश्य हो गया
इसका पुत्र हुआ भलन्दन और भलन्दन का पुत्र वत्सप्रीति हुआ।२३।
सन्दर्भ-
भागवत पुराण नवम स्कन्ध अध्याय (2)
वेदों में भी इस प्रकार के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं।
ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा इसका साक्ष्य है।
कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना ।
नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥३॥ ऋग्वेद- (9/112/3 )
नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥३॥ ऋग्वेद- (9/112/3 )
ऋग्वेद के (9) वें मण्डल के (112)वें सूक्त के तीसरी ऋचा का अंश है। इसका अर्थ है, "मैं एक कारीगर हूँ, मेरे पिता एक वैद्य हैं, और मेरी माता अनाज पीसने का काम करती हैं।" यह ऋचा ऋग्वेद के 9 वें मंडल के (112)वें सूक्त की है। ।इस ऋचा में एक व्यक्ति अपनी आजीविका के विभिन्न साधनों के बारे में बताता है। वह कहता है-
कारुरहं: इसका मतलब है "मैं एक कारीगर हूँ"।
- ततो: इसका मतलब है "पिता"।
- भिषग्- वैद्य(चिकित्सक)।
- उपलप्रक्षिणी: इसका मतलब है" "अनाज पीसने वाली महिला"।
- नना: इसका मतलब है "माता" है।
- नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव: इसका मतलब है "विभिन्न बुद्धि वाले, धन चाहने वाले, गायों के समान हम [सोम] के लिए [तुम्हारे] पास खड़े हैं, हे सोम, इन्द्र के लिए तुम प्रवाहित हो।"
ऋगवेद की यह ऋचा एक ही परिवार में विभिन्न व्यवसायों और धन की इच्छा का वर्णन करती है, जो उस समय के समाज में मौजूद सामाजिक व्यवस्था थी।
स्पष्टीकरण-
उपर्युक्त श्लोकों को प्रस्तुत करने का उद्देश्य यही है कि प्राचीन काल नें वर्ण व्यक्ति के गुण- स्वभाव और प्रवृत्ति के आधार पर उसके अनुरूप व्यवसाय ( कर्म) के चुनाव से था।
जिसमें किसी जाति में जन्म लेने से वर्ण का कोई सम्बन्ध नहीं था। आज की सामाजिक व्यवस्थाऐं उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार नहीं हैं। इसी लिए समाज में विसंगति औ विघटन है।
प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार रोहि-
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