स्त्रियों हेतु वेदाध्ययन एवं व्यासासन मत की धज्जियाँ-
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते | येन जातानि जीवन्ति |
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति | तद्विजिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति || – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३
इमानि भूतानि यतो जायन्ते, जातानि येन जीवन्ति, यदेव अभिसंविशन्ति प्रयन्ति, तदेव ब्रह्म,
तदेव विजिज्ञासस्व | अर्थात् – समस्तम् इदम् विश्वं यस्माद् उत्पद्यते, येनैव जीवति, यस्मिन्नेव च लीयते तदेव ब्रह्म | एवं समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थितिलयकारणभूतं तत्त्वं वेदान्तेषु ब्रह्मशब्देन गीयते | सकलस्यास्य विश्वस्य ब्रह्म उपादानं निमित्तं च कारणं भवति | अतः ब्रह्म नैव कार्यं भवेत् | जगत्कारणत्वेन ब्रह्मण एव प्रतिपादितत्वात् कापिलसांख्यदर्शने प्रतिपादितं प्रधानं वा वैशेषिकदर्शने प्रतिपादितः परमाणुर्वा जगतः कारणं नैव भवति इत्यभिप्रायः ||
अस्तु , अब प्रश्न ये है कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे होता है ? अब इसके उत्तर में आगे देखो –
वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ० १
अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियाँ वेद मन्त्रों का साक्षात्कार कर लेतीं थी, उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे पापदेहा स्त्रियाँ शुद्धता को प्राप्त होती हैं | (देवस्य द्विजस्य आचार्यस्य पण्डितस्य च अर्चनम्, शुद्धता, आर्जवम्, ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा च शारीरं तपः इत्युच्यते) –
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (-भगवद्गीता १४/१४ ) ऋषन्ति ज्ञानसंसारयोः पारं गच्छन्ति ऋषयः| ऋषी श गतौ नाम्नीति किः| रिषिर्हसादिश्च| विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः| इति प्रयोगात्| स्त्रियां ऋषी च| इत्यमरटीकायां भरतः इति हि श्रूयते |
अथवा ऋषन्ति अवगच्छन्ति इति ऋषयो मन्त्राः| · ऋषि दर्शनात् (नि०२|१९|१). · स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः| · तद् यद् एतांस्तपस्यमानान् ब्रह्म (वेदं) स्वयम्भवभ्यानर्षत्, त ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषिणामृषित्वम्| -निरुक्त २/१९/१ ऋषि गोत्र प्रवर्तक , दीर्घायु , मन्त्रसाक्षात्कर्ता, दिव्यद्रष्टा आदि हुए | दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः| बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये || (वायुपु० पूर्वार्ध ६१/९४ ) ऋषि शब्द का ही स्त्रीत्व विवक्षा में प्रयोग हुआ है ऋषिका , क्यों कहा है ऋषिका ? क्योंकि किसी एक समानधर्म से उसे वह कहा गया , यथा लोक में शौर्य या क्रौर्य आदि किसी सामान धर्म के आधार पर बालक को भी सिंह कह दिया जाता है (सिंहोsयं माणवकः) | क्या समानता है ? समानता है दीर्घायुत्व की , दिव्य-द्रष्टृत्व की , प्रत्यक्षा धर्मा होने की | स्त्रियाँ भी तो दिव्यदर्शिणी हो सकती हैं | किन्तु क्या कभी तुमने किसी ऋषिका के नाम से गोत्र सुना ? नहीं न ! क्यों ? क्या किसी शास्त्र में कभी स्त्रियों की शिष्या परम्परा सुनी ? कोई स्थान विशेष में पाठ शाला पढी , जहां उनको वेदाध्ययन कराया जाता था ? नहीं न ! वो इसलिए क्योंकि उनका ऋषिका होना ऋषियों के मार्ग की भांति न रहा | उनका सिद्धि प्राप्ति का मार्ग दूसरा है | इसी प्रकार वेदोक्त सीता , सावित्री आदि सभी शब्द लौकिक अर्थ तुल्य ग्राह्य नहीं , लौकिक शब्दों तथा वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत भेद होता है | जैसे लोक में कवि शब्द का अर्थ कविता करने वाला होता है किन्तु वेद में त्रिकालज्ञ , लोक में क्रतु का अर्थ यज्ञ होता है किन्तु वेद में इसी शब्द का अर्थ बुद्धि हो जाता है – अग्निर्होता कविक्रतु: (ऋग्वेद , अग्निसूक्त ५ ) वेद के एक ही शब्द का ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक अर्थ प्रकाशित करते हैं, विचक्षणता के बिना इसे नहीं समझा जा सकता | बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति | पृथिवी वैश्वानर:, संवत्सरो वैश्वानरो, ब्राह्मणो वैश्वानर इति” (- निरुक्त ७/७/२४ ) अस्तु ,
शास्त्रकारों का कथन है कि मनुस्मृति के विरुद्ध जो स्मृति वचन है वह प्रशस्त नहीं माना गया है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार निबद्ध होने से सर्वप्रथम मनु की मान्यता है (सर्वधर्ममयो मनु : ) , जैसा कि –
मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |
वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः | | तथाहि ——–>
यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)
मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)
अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः | ऋग्वे० १/८०/१६ अपि द्रष्टव्यम् |
……..ये तो हो गया पाराशर संहिता पर द्विविधा स्त्रियो ० और “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्ध ० आदि का उत्तर |
अब सुनिए ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् का उत्तर —>
ब्रह्मसूत्र शब्द विविध अर्थों वाला है , ब्रह्म शब्द के अर्थ तप , वेद , ब्रह्मा , विप्र , प्रजापति आदि माने गए हैं | अतः महाश्वेता स्वधर्म पालन रूप तपस्या से ही पवित्र काया हुई थी ऐसा सिद्ध होता है —->
ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः इति वचनेन अत्र ब्रह्मसूत्रशब्दस्य तपः सूत्रेण पवित्रीकृतकायामिति तात्पर्यं समीचीनम् | बह्वर्थको हि ब्रह्मसूत्रशब्दः, तथाहि यज्ञोपवीतभिन्नार्थे – ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैरिति गीतायाम् |
अब आगे देखिये –
स्त्री का पति ही उसका गुरु है | शास्त्र कहता है –
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः |
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ||
(-पद्मपुराण स्वर्ग॰५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७ )
‘अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है |’ स्त्रियों का जनेऊ संस्कार घोर पाखंड है , किं च –
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः |
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया || (मनुस्मृति २/६७ )
‘स्त्रियोँ के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है |’
इस महामूर्ख मालवीय का परम पूज्य धर्मसम्राट् स्वामि श्री करपात्री जी महाराज ने ऐसा भ्रम भंग किया था कि याद कर गया था | ऋषिकेश में तीन दिन तक अपने सुई से लेकर सब्बल तक के सारे तर्क शास्त्रार्थ में ( जिसके मध्यस्थ जयदयाल गोयन्दका आदि रहे ) इसने प्रस्तुत किये , अंततः इस पाखंडी का वही हाल हुआ जो सिंह की खाल पहने हुए सिंह के सम्मुख आकर उसे ललकारने वाले सियार का होता है | पर बेशर्मों का क्या है भला ! अस्तु ,
लक्ष्मी ने भागवत विष्णु को सुनाई तो भला इससे स्त्रियों के व्यासासन पर भागवत की सिद्धि कैसे हो गयी लक्ष्मी कोइ स्त्री देह धारिणी मानव तो हैं नही , वे तो सबके हृदय मे व्याप्त स्वयं परमात्मतत्त्व हैं, और आत्मा को लौकिक स्त्रियों के तुल्य किसी एक जाति विशेष से जोड़ लेना ही मूर्खता है, ( त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारीति श्वेताश्वतरोप० ४/३ ) दूसरी बात ये है कि लक्ष्मी भी व्यासासन पर बैठकर विष्णु को भागवत नहीं सुनातीं अपितु भागवती वार्त्ता वे करती हैं , जिसका अभिप्राय है , भगवान की लीला कथाओं का परस्पर संवाद करना | संवाद अलग चीज है और व्यासासन पूर्वक भागवत अनुष्ठान संपन्न करना अलग | स्वयं श्री भगवान् गीता में कहते हैं कि – येषां चित्तं मयि संलग्नं भवति, येषाम् इन्द्रियाणि मयि सन्ति तादृशाः बुधाः भावसमन्विताः अन्योन्यं मां बोधयन्तः कीर्तयन्तः च सदा सन्तोषं प्राप्नुवन्ति, मय्येव च विहरन्ति यथा – –
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || (-श्रीमद्भागवद्गीता १०/९ )
वे दृढ निश्चयवाले मेरे भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं |
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || (-श्रीमद्भागवद्गीता ९/१४)
स्वयं को वेद की अधिकारिणी बना कर जिस भागवत को ये स्त्रियां व्यासासन से सुनाना चाहती है, वह किस मुख से उसका पारायण करती हैं ? क्योंकि स्वयं श्रीमद्भागवत ही उनको अनधिकारिणी बता रही है यथा – स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा| (- श्रीमद्भागवत १/४/२५) महर्षि वेदव्यास से अधिक जानकार तो होंगे नहीं आप !
प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं| इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया| पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए| इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए| समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है| कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद पढ़ाये—
(१) मुनि पैल को ॠग्वेद
(२) वैशंपायन को यजुर्वेद
(३) जैमिनि को सामवेद
(४) सुमन्तु को अथर्ववेद
महर्षि वेदव्यास के ये उत्तराधिकारी पुरुष ही थे , स्त्री नहीं और इनकी जो परम्परा चली वह भी पुरुषों में ही चली , जो अद्यावधि पर्यन्त स्व-स्व शाखाध्यायी ब्राह्मण पुरुषों में विस्तार को प्राप्त होकर व्याप्त है | केवल महर्षि वेदव्यास के साक्षात् शिष्यों अथवा उनकी शिष्य परम्परा में आने वाले पुरुषों को ही व्यास आसन पर बैठने का अधिकार है |
मनुस्मृति ने स्पष्ट किया है कि स्त्रियाँ निरिन्द्रिय, मन्त्ररहिता, असत्यस्वरूपिणी हैं- निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति स्थिति:| —मनु० ९/१८
स्त्री पापयोनि है , उसके जन्म का कारण पाप है , इस विषय में गीता का यह श्लोक स्पष्ट प्रमाण है –
हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र या पापयोनि- चाण्डालादि चाहे जो कोई भी हों, वे यदि मेरे आश्रित हो, तो परमगतिको ही प्राप्त होते हैं –
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || (- श्रीमद्भगवद्गीता९/ ३२)
आक्षेप – यहाँ ‘पापयोनि’ –यह शब्द स्त्रियों वैश्यों आदि का विशेषण मानना आयुक्त है क्योंकि छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है |
समाधान – “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )
……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |
अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –
प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |
उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?
पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?
पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |
अस्तु , आगे चलिए –
क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३
यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |
बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –
///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही की है , स्वयं पढ़ना उठाकर ,तुम्हारे लिए इतना संकेत ही बहुत है |
स्त्रियश्चरति संसर्गे श्वामृग ग्रहणे शुचिः। वसिष्ठ स्मृति-28/8 तथा ब्राह्मणाः पादतोमेध्याः स्त्रियोमेध्यस्तु सर्वतः।वसिष्ठ स्मृति-28/9
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थाष्टांवेशो५घ्याय: (अठ्ठाइसौं अध्याय)
(स्त्री की पवित्रता)
न स्त्री दुष्यति जारेण न विप्रो देवकर्मणा ।
नापो मूत्रपुरीषिण नामिर्दहनकर्मणा ॥१॥
स्वयं विप्रतिपन्ना वा यदि वा विप्रवासिता । बलात्कारोपभुक्ता वा चोरहस्तगतापि वा ॥२॥
न त्याज्या दूषिता नारी नास्यास्त्यागो विघीयते । पुष्पकालमुपासीत क्रतुकालेन शुध्यति ॥3॥
खियः: पवित्रमतुल नैता दुष्यन्ति कर्हिचित् ।मासि मासि रजो द्यासां दुष्कृतान्यपकर्षति॥४॥
पूर्व खिय: सुरैभुक्ता: सोमगन्घर्ववह्विमि: । गच्छन्ति मानुषान्पश्चान्नैता दुष्यन्ति घर्मतः ॥५॥
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अग्नि पुराण-
न स्त्री दुष्यति जारेण न विप्रो वेदकर्मणा ।१६५.००६
बलात्कारोपभुक्ता चेद्वैरिहस्तगतापि वा[२](१) ॥१६५.००६
सन्त्यजेद्दूषितान्नारीमृतुकाले न शुद्ध्यति ।१६५.००७
य आत्मव्यतिरेकेण द्वितीयं नात्र पश्यति[३](२) ॥१६५.००७
ब्रह्मभूतः स एवेह योगी चात्मरतोऽमलः ।१६५.००८
विषयेन्द्रियसंयोगात्केचिद्योगं वदन्ति वै ॥१६५.००८
अधर्मो धर्मबुद्ध्या तु गृहीतस्तैरपण्डितैः ।१६५.००९
आत्मनो मनसश्चैव संयोगञ्च तथा परे ॥१६५.००९
वृत्तिहीनं मनः कृत्वा क्षेत्रज्ञं परमात्मनि ।१६५.०१०
एकीकृत्य विमुच्येत बन्धाद्योगोऽयमुत्तमः ॥१६५.०१०
कुटुम्बैः पञ्चभिर्यामः षष्ठस्तत्र महत्तरः ।१६५.०११
देवासुरमनुष्यैर्वा स जेतुं नैव शक्यते[४](३) ॥१६५.०११
बहिर्मुखानि सर्वाणि कृत्वा चाभिमुखानि वै ।१६५.०१२
मनस्येवेन्द्रियग्रामं मनश्चात्मनि योजयेत् ॥१६५.०१२
सर्वभावविनिर्मुक्तं क्षेत्रज्ञं ब्रह्मणि न्यसेत् ।१६५.०१३
एतज्ज्ञानञ्च ध्यानञ्च शेषोऽन्यो ग्रन्थविस्तरः[५](४) ॥१६५.०१३
यन्नास्ति सर्वलोकस्य तदस्तीति विरुध्यते ।१६५.०१४
कथ्यमानं तथान्यस्य हृदये नावतिष्ठते ॥१६५.०१४
असंवेद्यं हि तद्ब्रह्म[६](१) कुमारी स्त्रीमुखं यथा ।१६५.०१५
अयोगी नैव जानाति जात्यन्धो हि घटं यथा ॥१६५.०१५
पूर्वं स्त्रियः सुरैर्भुक्ताः सोमगन्धर्ववह्निभिः ।१६५.०१९
भुञ्जते मानुषाः पश्चान्नैता दुष्यन्ति केनचित् ॥१६५.०१९
असवर्णेन यो गर्भः स्त्रीणां योनौ निषिच्यते ।१६५.०२०
अशुद्धा तु भवेन्नारी यावत्छल्यं न मुञ्चति ॥१६५.०२०
निःसृते तु ततः शल्ये रजसा शुद्ध्यते ततः ।१६५.०२१
इत्याग्नेये महापुराणे नानाधमा नाम पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
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