'जन्माष्टमी पर विशेष'
"ऋग्वेदीय कृष्ण"
*************
अन्याय, अनीति और अधर्म के विरुद्ध सम्पूर्ण जीवन संघर्षरत रहकर न्याय, नीति और धर्म की संस्थापना करनेवाले कर्मयोगी श्रीकृष्ण का देवराज इन्द्र से वैचारिक विरोध सर्वविदित है। जो श्रीमद्भागवत में गोवर्धन लीला के नाम से ख्याति प्राप्त है। इसके साथ ही प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में भी इन्द्र और कृष्ण के बैरभाव का वर्णन है। प्रश्न यह है कि, क्या श्रीमद्भागवत व ऋग्वेद का कृष्ण एक ही है अथवा अलग अलग? इस शोधिय विषय पर आप मनीषियों के विचार सादर आमंत्रित हैं ताकि हम अपने आदर्श आराध्य के सम्बंध में और अधिक जान सकें।
ऋग्वेद-मण्डल-८ सूक्त-८५
★कृष्ण और इन्द्र का द्वंद्व
अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः.
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त.. ।१३।
शीघ्रगति वाला एवं दस हजार सेनाओं को साथ लेकर चलने वाला कृष्ण नामक असुर अंशुमती नदी के किनारे रहता था. इंद्र ने उस चिल्लाने वाले असुर को अपनी बुद्धि से खोजा एवं मानव हित के लिए उसकी वधकारिणी सेनाओं का नाश किया.१३
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृष्णो युध्यताजी..।१४
इंद्र ने कहा- "मैंने अंशुमती नदी के किनारे गुफा में घूमने वाले कृष्ण असुर को देखा है. वह दीप्तिशाली सूर्य के समान जल में स्थित है, है अभिलाषापूरक मरुतो ! में युद्ध के लिए तुम्हें चाहता हूं. तुम युद्ध में उसे मारो. १४
अथ द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः. विशो अदेवीरभ्या३ चरन्ती बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे.१५
तेज चलने वाला कृष्ण असुर अंशुमती नदी के किनारे दीप्तिशाली बनकर रहता था। इंद्र ने बृहस्पति की सहायता से काली एवं आक्रमण हेतु आती हुई सेनाओं का वध किया.१५
त्वं ह त्यत्सप्तभ्यो जायमानोऽशत्रुभ्यो अभवः शत्रुरिन्द्र. गूळ्हे द्यावापृथिवी अन्वविन्दो विभुमद्भ्यो भुवनेभ्यो रणं धाः... (१६)
इंद्र! वह कार्य तुम्हीं ने किया था. तुम्हीं जन्म लेकर सात शत्रुओं को नष्ट करने वाले बने थे. तुमने अंधकारपूर्ण द्यावापृथिवी को प्राप्त किया था. तुमने महान् भवनों के लिए आनंद दिया था. (१६)
त्वं ह त्यदप्रतिमानमोजो वज्रेण वज्रिन्धृषितो जघन्थ, त्वं शुष्णस्यावातिरो वधत्रैस्त्वं गा इन्द्र शच्येदविन्दः (१७)
हे वज्रधारी इंद्र! तुमने वह कार्य किया है. तुमने अद्वितीय योद्धा बनकर अपने वज्र से शुष्ण का बल नष्ट किया था. तुमने अपने आयुधों से राजर्षि कुत्स के कल्याण के लिए कृष्ण असुर को नीचे की ओर मुंह करके मारा था तथा अपनी शक्ति से शत्रुओं की गाएं प्राप्त की थीं१७
त्वं ह त्यद्वृषभ चर्षणीनां घनो वृत्राणा तविषो बभूथ.
त्वं सिन्धूंरसृजस्तस्तभानान् त्वमपो अजयो दासपत्नी:(१८)
हे इंद्र! तुमने वह कार्य किया है. हे अभिलाषापूरक इंद्र! तुम मनुष्यों के भावी उपद्रवों को नष्ट करने वाले हो तुम शक्तिशाली हुए थे. तुमने रुकी हुई नदियों को बहाया था एवं दास द्वारा अधिकार में किए गए जल को जीता था. (१८)
सन्दर्भ- ऋग्वेद
डा. गंगा सहाय शर्मा
एम.ए. (हिंदी-संस्कृत) पी-एच.डी. व्याकरणाचार्य
संस्कृत साहित्य प्रकाशन.
______________
अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे । चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की सहायता से दमन किया ।१५।
पदपाठ-विच्छेदन :-
। द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
“अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “( त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत् = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम् ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः ।
यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः=गोपालका: "अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार (अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) । शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22 तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥
ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे
हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।
१-तस्मिन् -उसमें ।
२-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
स्त्रीभि:= तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।
हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण ,बिजायठ बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं आदि के द्वारा ।
तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति कर्म कारक पद रूप ।
कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
सुर संस्कृति से प्रभावित कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते थे। परन्तु सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में
वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
उपर्युक्त श्लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
इस कारण देवोपासक पुरोहितों के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।
परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों से है ।
इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।
भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
स्त्रियों के साथ दिन में रमण (संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है । जो सरासर कृष्ण चरित्र की धज्जीयाँ पीटना है
कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा करना। धर्म के नाम पर सुरापान करना कृष्ण ने नहीं किया।
______
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
_______________
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
🙏जन्माष्टमी की शुभकामनाएं🙏
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें