गुरुवार, 28 अगस्त 2025

कलिसन्तरणोपनिषद-



हरिः ॐ ।। द्वापरान्ते नारदो ब्रह्माणं जगाम कथं भगवन् गां पर्यटन्कलि संतरेयमिति । स होवाच ब्रह्मा साधु पृष्टोऽस्मि सर्वश्रुतिरहस्यं गोप्यं तच्छृणु येन कलिसंसारं तरिष्यसि । भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निर्धूतकलिर्भवति । नारदः पुनः पप्रच्छ तन्नाम किमिति । स होवाच हिरण्यगर्भः ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।1।।
अनुवाद:-

हरिः ॐ । (द्वापर जिसके अऩ्त में है, अर्थात्) कलियुग में देवर्षि नारद जी सभी जगह भ्रमण करते हुये ब्रह्मा जी के पास जाकर, पूछा कि किस प्रकार से कलियुग में जीव का तारण हो सकेगा । तब उन ब्रह्माजी ने कहा – मुझसे आपने बहुत ही अच्छा प्रश्न पूछा है । आप सारे वेदों के गुप्त सार को सुनें जिससे कि कलियुग में संसार से जीव तर जायेगा । भगवान आदिपुरुष नारायण के नाम उच्चारण मात्र से ही कलियुग के सारे दोष मिट जाते हैं । तब नारद जी ने दुबारा पूछा कि वह नाम क्या है ? तदनन्तर हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ने कहा –
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।1।


इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मषनाशनम् । नातः परतरोपायः सर्ववेदेषु दृश्यते ।।2।।

इस प्रकार से यही सोलह अक्षर का नाम है, जो कलियुग के दोषों का नाश करने वाला है । इससे श्रेष्ठ कोई भी उपाय सभी वेदों में देखने को नहीं मिलता है ।।2।।

इति षोडशकलावृत्तस्य जीवस्यावरणविनाशनम् । ततः प्रकाशते परं ब्रह्म मेघापाये रविरश्मीमण्डलीचेति । पुनर्नारदः पप्रच्छ भगवन्कोऽस्य विधिरिति । तं होवाच नास्य विधिरिति । सर्वदा शुचिरशुचिर्वा पठन्ब्राह्मणः सलोकतां समीपतां सरूपतां सायुज्यतामेति  । यदाऽस्य षोडशीकस्य सार्धत्रिकोटीर्जपति तदा ब्रह्महत्यां तरति । तरति वीरहत्याम् । स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति । पितृदेवमनुष्याणामपकारात्पूतो भवति । सर्वधर्मपरित्यागपापात्सद्यः शुचितामाप्नुयात् । सद्यो मुच्यते सद्यो मुच्यते इत्युपनिषत् ।।3।।

अनुवाद:-


 हरिः ॐ तत् सत् ।।
इस प्रकार से सोलह कलाओं से युक्त जीव के आवरण का विनाश हो जाता है ।  तब जीव को परम ब्रह्म उसी प्रकार से उद्भासित हो जाते हैं जैसे बादल के नष्ट हो जाने पर सूर्य के किरणों के मण्डली दृश्यमान हो जाते हैं ।

 तब नारद जी ने पूछा कि – हे भगवन् ! इसकी विधि क्या है । तब ब्रह्मा जी ने नारद जी से कहा कि – इसका कोई विशेष नियम नहीं है । जीव सभी अवस्था में चाहे शुद्ध हों या अशुद्ध हों, इस षोडशाक्षरी मंत्र का जाप करता हुआ परम ब्रह्म के सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति कर लेता हे ।

 जब इस षोडशाक्षरी मंत्र का साढ़े तीन करोड़ जप हो जाता है, तब जीव के ब्रह्महत्या के दोष का नाश हो जाता है । वीर के हत्या के दोष का नाश हो जाता है । स्वर्ण के चोरी का पाप नाश हो जाता है । पितरों, देवताओं और मनुष्यों के प्रति किये गये अपकार का भी नाश होकर वह पवित्र हो जाता है । सभी धर्मों के परित्याग करके वह सभी पापों से मुक्त हो कर पवित्र हो जाता है । 

तत्क्षण ही मुक्त हो जाता है । तत्क्षण ही मुक्त हो जाता है । ऐसा ही विज्ञान है ।।3।।

इति श्रीकलिसंतरणोपनिषत्समाप्ताः ।।
।। इस प्रकार से कलिसंतरणोपनिषद समाप्त होता है ।।

विशेष-

 कलिसन्तरणोपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में 'यथा नाम तथा गुण' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए 'कलियुग' के दुष्प्रभाव से मुक्त हो जाने का अति सुगम उपाय बताया गया है। 

इसमें 'हरि नाम' की महिमा का ही वर्णन है। इसीलिए इसे 'हरिनामोपनिषद' भी कहा जाता है। इसमें कुल तीन मन्त्र हैं। 

नारद और ब्रह्मा जी के संवाद-रूप में में इस उपनिषद की रचना हुई है।
इसमें बताया गया है कि आत्मा के ऊपर जो आवरण पड़ा हुआ है, उसे भेदने के लिए सुगम उपाय भगवान के नाम का स्मरण है। जिस प्रकार मेघाच्छन्न सूर्य, वायु के द्वारा मेघों को हटाने पर मुक्त आकाश में चमकने लगता है, वैसे ही भगवान नाम के कीर्तन से 'ब्रह्म' का दर्शन सम्भव हो जाता है। ब्रह्मा जी ने कहा-
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

इसमें राम सम्बोधन - भागवत धर्म के सह संस्थापक बलराम का सम्बोधन है। एकादश वैदिक उपनिषदों से पृथक कलि सन्तरण उपनिषद वैष्णवों का उपनिषद है।

इसमें वर्णित  सोलह नाम जपने से कलिकाल के महान् पापों का नाश हो जाता है।

मन से शुद्ध स्थिति में इस मन्त्र-नाम का सतत जप करने वाला भक्त, सभी तरह के बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है और 'मोक्ष' को प्राप्त होता है।

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