श्रीकृष्ण और इन्द्र का वैचारिक विरोध ऋग्वेद और पुराणों में परिलक्षित होता है । वैदिक ऋचाओं में इसी प्रसंग में भगवान श्रीकृष्ण और इन्द्र का एक दार्शनिक संवाद विचारणीय है। जो कृष्ण के आध्यात्मिक, दार्शनिक व नैतिक मूल्यों का दिग्दर्शन है।
न्याय, नीति और धर्म की शाश्वत स्थापना के लिए जीवनभर संघर्ष कर्मयोगीरत भगवान श्रीकृष्ण का देवराज इन्द्र के साथ वैचारिक और सांस्कृतिक विरोध प्राचीन भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण अध्याय है।
यह विरोध केवल व्यक्तिगत या शक्तिशाली व्यक्तित्वों का टकराव ही नहीं, अपितु दो विचारधाराओं, दो संस्कृतियों और दो युगों के मध्य एक गहन दार्शनिक संवाद है।
श्रीमद्भागवतपुराण, देवीभागवतमहापुराण, हरिवंशपुराण जैसे पौराणिक ग्रन्थों में गोवर्धन लीला के रूप में इस विरोध की सुन्दर और प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति मिलती है।
तो प्राचीनतम वैदिक साहित्य, विशेष रूप से ऋग्वेद (8/96/13-15) और अथर्ववेद (20/137/7) में भी इस वैर-भाव का सांकेतिक वर्णन प्राप्त होता है। यहाँ प्रस्तुत है ऋग्वेद की ऋचाओं (मन्त्रों) का सुन्दर, सटीक और सत्यनिष्ठ व्याख्या युक्त अनुवाद, जो श्रीकृष्ण और इन्द्र के प्राचीन युद्ध को दर्शाता है। यहाँ प्रस्तुत है।
ऋग्वेद 8/96/13
मूल ऋचा-
अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त।।१३।।
पदपाठ-
अव। द्रप्सः। अंशुमतीम्। अतिष्ठत्। इयानः। कृष्णः। दशभिः। सहस्रैः।
आवत्। तम्। इन्द्रः। शच्या। धमन्तम्। अप। स्नेहितीः। नृमणाः। अधत्त।।१३।।
अनुवाद-
हे श्रीकृष्ण ! तुम यमुना के पावन तट पर, अंशुमती नदी के जल की रक्षा हेतु दृढ़तापूर्वक खड़े हो उसकी रक्षा करो। दश हजार गोपों से घिरे हुए, तुम मानव-मन की तरह विचारशील और धन-सम्पदा से युक्त हो। देवराज इन्द्र अपनी शक्ति और पत्नी शची के साथ, अग्नि के समान देदीप्यमान, कृष्ण के साथ युद्ध करने को तत्पर हुए। हे कृष्ण !- तुम, जो जल में स्निग्ध और मानव-मन के समान विचारों से युक्त हो, उस इन्द्र के समक्ष हुंकार करते हुए खड़े रहो। इन्द्र ने तुम्हें युद्ध में नीचे दबाने का प्रयास किया, किन्तु तुम अडिग रहे।१३।
भावार्थ-
इस ऋचा में श्रीकृष्ण को यमुना (अंशुमति) के तट पर गोपों के साथ दृढ़तापूर्वक स्थित हुए दर्शाया गया है। वे न केवल भौतिक धन-सम्पदा के प्रतीक हैं, बल्कि मानवीय विचारों और धर्म की रक्षा के प्रतीक भी हैं। इन्द्र, जो वैदिक काल में शक्ति और प्रभुत्व के प्रतीक हैं, अपनी पत्नी शचि के साथ युद्ध के लिए आते हैं। यह युद्ध केवल शारीरिक नहीं, बल्कि वैचारिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी है, जहाँ श्रीकृष्ण धर्म और नीति की स्थापना के लिए अडिग रहते हैं। वहीं इन्द्र कर्मकाण्ड के लिए पूर्वाग्रहीत ।
भाष्य-
कृष्ण, दश हजार गोपों से घिरे हुए, यमुना के तट पर खड़े हैं। इन्द्र, अपनी पत्नी शचि के साथ, इस स्निग्ध जल में स्थित गोप-कृष्ण और उनके अनुचरों को देखते हैं। युद्ध के उपरान्त इन्द्र उन्हें धन प्रदान करते हैं, जो यह दर्शाता है कि अन्ततः दोनों के मध्य समझौता या सामञ्जस्य की स्थिति भी स्थापित है।
ऋग्वेद- 8/96/14
मूल ऋचा -
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृष्णो युध्यताजौ।।१४।।
पदपाठ-
द्रप्सम्। अपश्यम्। विषुणे। चरन्तम्। उपह्वरे। नद्यः। अंशुमत्याः।
नभः। न। कृष्णम्। अवतस्थिवांसम्। इष्यामि। वः। वृषणः। युध्यत। आजौ।।१४।।
अनुवाद-
इन्द्र कहते हैं, “मैंने यमुना के जल में विभिन्न रूपों में विचरण करते हुए द्रप्स (जल-बिन्दुओं) को देखा। अंशुमती नदी के निर्जन तट पर, जहाँ न तो बादल हैं और न ही सूर्य की प्रखरता, वहाँ मैंने साँड़ (वीर्य्यान्वित ) के समान अडिग खड़े श्रीकृष्ण को देखा। मैं चाहता हूँ कि यह शक्तिशाली साँड़ युद्ध में मेरे समक्ष लड़े, ताकि उनकी शक्ति का मापन हो सके।१४।
भावार्थ-
यह ऋचा इन्द्र के दृष्टिकोण से श्रीकृष्ण की शक्ति और दृढ़ता का वर्णन करती है। श्रीकृष्ण को साँड़ ( वृषण ) के रूप में चित्रित किया गया है, जो उनकी अटलता और शक्ति का प्रतीक है। इन्द्र, जो वैदिक युग के सर्वोच्च देवता हैं, श्रीकृष्ण की शक्ति का परीक्षण करना चाहते हैं। यहाँ युद्ध का उल्लेख एक वैचारिक संग्राम के रूप में है, जिसमें श्रीकृष्ण धर्म और लोक-कल्याण की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
विशेष टिप्पणी-
यहाँ सायणाचार्य ने अपने भाष्य में श्रीकृष्ण के लिए ‘असुर’ शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु मूल ऋचा में ‘अदेवीः’ शब्द है। जिसका अर्थ है - देवों की सत्ता को न मानने वाला।
और अपने लौकिक जीवन में भी कृष्ण ने किसी दैवीय सत्ता को नहीं माना।
श्रीमद्भगवद्गीता में इस सम्बन्ध में उनके अनेक सन्दर्भ प्रतिध्वनित हैं।
अदेवी: शब्द (पद) का भाष्यार्थ तो सायण ने असुर किया है परन्तु मूल ऋचा में अदेवी: शब्द ।
यद्यपि वैदिक काल के प्रारम्भ में ‘असुर’ शब्द शक्तिशाली और प्रज्ञावान व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त होता था। जैसा की वरुण के लिए, शिव के लिए और सूर्य के लिए भी असुर सम्बोधन हुआ है।
असुर लोग ईरान और ईराक (प्राचीन मेसोपोटामिया) की असीरियन सभ्यता के जनक थे । (21 वीं शताब्दी ई.पू. से 7 वीं शताब्दी ई.पू.) में उन्हें देखा जाता है। यह सभ्यता शक्ति और प्रज्ञा की प्रतीक थी, और इस सन्दर्भ में भी ‘असुर’ का प्रयोग श्रीकृष्ण की शक्ति और बुद्धिमत्ता को ही दर्शाता है।
ऋग्वेद- 8/96/15
मूल ऋचा-
अध द्रप्सो अंशुमत्याः उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेंद्रः ससाहे।।१५।।
पदपाठ-
अध। द्रप्सः। अंशुमत्याः। उपस्थे। अधारयत्। तन्वम्। तित्विषाणः।
विशः। अदेवीः। अभि। आचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा। इन्द्रः। ससाहे।।१५।।
अनुवाद-
यमुना नदी के गोद में, जल के मध्य, देदीप्यमान शरीर धारण किए हुए श्रीकृष्ण खड़े हैं। वे गोपों के समूह के साथ, जो देवों की अपेक्षा लोक-कल्याण का प्राथमिकता के आचरण करते हैं। इन्द्र, बृहस्पति के सहयोग से ही, इन गोपों और श्रीकृष्ण को अपने शासन के अधीन करने में सफल होता है।१५।
भावार्थ-
यह ऋचा श्रीकृष्ण की दैवीय और मानवीय शक्ति का सुन्दर चित्रण करती है। वे यमुना के तट पर, अपने अनुयायी गोपों के साथ, धर्म और नीति की रक्षा हेतु दृढ़ता से स्थित हैं। इन्द्र, बृहस्पति के सहयोग से, इस समूह को अपने प्रभुत्व में लाने का प्रयास करता हैं। यहाँ ‘अदेवीः’ शब्द श्रीकृष्ण और उनके अनुचरों की स्वतन्त्र विचारधारा को दर्शाता है, जो वैदिक देवताओं की पारम्परिक पूजा से भिन्न, लोक-केन्द्रित और धर्म-प्रधान परम्परा के पोषक है।
सुन्दर स्वरूप में यथार्थ वर्णन-
श्रीकृष्ण और इन्द्र का यह युद्ध केवल शारीरिक संग्राम नहीं, बल्कि एक गहन वैचारिक और सांस्कृतिक टकराव का प्रतीक है। श्रीकृष्ण, जो कर्मयोगी और धर्म के रक्षक हैं, यमुना के तट पर गोपों के साथ खड़े होकर लोक-कल्याण और नीति की स्थापना करते हैं। दूसरी ओर, इन्द्र वैदिक युग की प्रभुत्वशाली शक्ति और कर्मकाण्ड मूलक पशुओं की बलि से युक्त यज्ञ-परम्पराओं के प्रतीक हैं।
गोवर्धन लीला, जो पुराणों में वर्णित है, इसी वैचारिक संघर्ष का प्रतिक्रियात्मक प्रतीकात्मक स्वरूप है, जहाँ श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत को उठाकर गोप-गोपियों की रक्षा करते हैं और इन्द्र के प्रभुत्व को चुनौती देते हैं।
ऋग्वेद की ये ऋचा इस संघर्ष को एक प्राचीन और दार्शनिक ढाँचे में प्रस्तुत करते हैं। श्रीकृष्ण की अडिगता, उनकी मानवीय विचारधारा, और गोपसमुदाय के साथ उनकी एकता, धर्म और नीति के प्रति उनके समर्पण को दर्शाती है।
इन्द्र का प्रयास, जो शक्ति और प्रभुत्व का प्रतीक है, अंततः श्रीकृष्ण की नैतिक और आध्यात्मिक श्रेष्ठता के समक्ष झुक जाता है। पुराण इन्द्र की इस नैतिक पराजय का सुन्दर वर्णन करते हैं।
यह कथा न केवल वैदिक और पौराणिक साहित्य का संगम है, बल्कि मानवता के लिए एक शाश्वत संदेश भी है— जिससे सत्य, न्याय और धर्म की विजय अन्ततः सुनिश्चित होती है।
वस्तुत प्राचीन काल में अधिकतर यज्ञ पशुओं की हिंसा से पूर्ण थे।
और पशुपालकों (गोपों) के लिए पशुओं की बहुतायत हिंसा चिन्ता जनक और विरोध का कारण थी।
मत्स्य पुराण के निम्नलिखित अध्याय के अध्ययन से भी आप इन्द्र की यजन क्रियाओं को समझ सकते हो। जो बिना पशुओं की हिंसा के सम्पन्न नहीं होती थीं। इसका विस्तृत विवरण हम निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत करते हैं।
यज्ञ की प्रवृत्ति तथा विधि का वर्णन-
मत्स्यपुराण-अध्याय (143) -
(त्रेतायुगे यज्ञविधिप्रवृत्तिः)
"ऋषय ऊचुः !
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।1।
अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।2।
औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।3।
वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः। संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।4।
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-
"सूत उवाच !
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु। तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।5।
दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः। तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।6।
यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः। हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।7।
सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।8।
आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।9।
य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।10।
अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।11।
*******
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।
अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव। नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।12।
अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।13।
*******
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।। ।
विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु। यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।.14।
एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः। एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।15।
*******
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।।
तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्। जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।।16 ।
___________________________________
ते तु खिन्ना विवादेन शक्त्या युक्ता महर्षयः।सन्धाय सममिन्द्रेण पप्रच्छुः खचरं वसुम्।।.17 ।
"ऋषय ऊचुः।
महाप्राज्ञ! त्वया द्रृष्टः कथं यज्ञविधिर्नृप!।औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं नस्तुद प्रभो!18।
"सूत उवाच।
श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह।19।
यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः।यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ मूलफलैरपि।20।
हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः। तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।21।
दीर्घेण तपसा युक्तैस्तारकादिनिदर्शिभिः।तत्प्रमाणं मया चोक्तं तस्माच्छमितुमर्हथ।22 ।
यदि प्रमाणं स्वान्येव मन्त्रवाक्यानि वो द्विजाः!।तथा प्रवर्त्ततां यज्ञो ह्यन्यथा मानृतं वचः।23।
एवं कृतोत्तरास्ते तु युञ्ज्यात्मानं ततो धिया।अवश्यम्भाविनं द्रृष्ट्वा तमधोह्यशपंस्तदा।24।
इत्युक्तमात्रो नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।ऊद्र्ध्वचारी नृपो भूत्वा रसातलचरोऽभवत्।25 ।
वसुधातलचारी तु तेन वाक्येन सोऽभवत्। धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुधरो गतः।26।
तस्मान्नवाच्यो ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशयः।बहुधारस्य धर्म्मस्य सूक्ष्मा दुरनुगागातिः।27।
तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्म्मः शक्तो हि केनचित्।देवानृषीनुपादाय स्वायम्भुवमृते मनुम्।28।
तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद्यदुक्तमृषिभिः पुरा।ऋषिकोटिसहस्राणि स्वैस्तपोभिर्दिवङ्गताः।.29।
तस्मान्न हिंसा यज्ञञ्च प्रशंसन्ति महर्षयः।उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपात्रे तपोधनाः।.30।
एतद्दत्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः।अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमोभूतदया शमः।31।
ब्रह्मचर्यं तपः शौचमनुक्रोशं क्षमा धृतिः। सनातनस्य धर्म्मस्य मूलमेव दुरासदम्।32।
द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।33।
ब्रह्मणः कर्म्मसंन्यासाद् वैराग्यात्प्रकृतेर्लयम्।ज्ञानात् प्राप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृताः।34।
एवं विवादः सुमहान् यज्ञस्यासीत् प्रवर्त्तते।ऋषीणां देवतानाञ्च पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे।35।
ततस्ते ऋषयो द्रृष्ट्वा हृतं धर्मं बलेन ते।वसोर्वाक्यमनाद्रृत्य जग्मुस्ते वै यथागतम्।36।
गतेषु ऋषिसङ्घेषु देवायज्ञमवाप्नुयुः। श्रूयन्ते हि तपः सिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयो नृपाः।37।
प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः। सुधामा विरजाश्चैव शङ्कपाद्राजसस्तथा।38।
प्राचीनबर्हिः पर्ज्जन्यो हविर्धानादयो नृपाः।एते चान्ये च बहवस्ते तपोभिर्दिवङ्गताः।39।
राजर्षयो महात्मानो येषां कीर्त्तिः प्रतिष्ठिताः।तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणैः।40।
ब्रह्मणा तपसा सृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा।तस्मान्नाप्नोति तद्यज्ञात्तपो मूलमिदं स्मृतम्।4।
यज्ञप्रवर्तनं ह्येवमासीत् स्वायम्भुवेऽन्तरे।तदा प्रभृति यज्ञोऽयं युगैः सार्द्धं प्रवर्तितः।42।
अनुवाद:-
ऋषियों ने पूछ—सूत जी पूर्वकाल में स्वायम्भुवमनु के कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञकी प्रवृत्ति हुई थी ?।१।
जब कृतयुगके साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुगकी संधि प्राप्त हुई।२।
उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्तिकी स्थापना हो गयी।३।
यज्ञ की प्रवृत्ति तथा विधि का वर्णन हिन्दी अनुवाद:--
उसके बाद वर्णाश्रम की स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्रकर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई? हमलोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आप लोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये।४।
सूत जी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।५।
उनके उस अश्वमेध यज्ञ के आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए।६।
उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे।७।
सामगान करने वाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वर से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे।८।
पशुओंका समूह मण्डपके मध्यभागमें लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था।९।
जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे। और जो प्रत्येक कल्प के आदि में उत्पन्न होने वाले अजान देव थे, देव गण उनका यजन कर रहे थे।१०।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवन कर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओं को देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ?।११।
आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है।१२।
ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याज से धर्मका विनाश करने के लिये अधर्म करनेपर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगम विधि से धर्मका अनुष्ठान कीजिये।१३।
सुरश्रेष्ठ! वेदविहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालनसे यज्ञके बीजभूत शिववर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है।१४।
इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्माने इसीको महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातोंको अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोहसे भरे हुए थे।१५।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियोंके बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ ।१६।
यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवाद से खिन्न होकर इन्द्र के साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसु से प्रश्न किया।१७।
ऋषियोंने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकारकी यज्ञ विधि देखो है, उसे बतलाइये और हम लोगोंका संशय दूर कीजिये।१८।
सूतजी कहते हैं। उन ऋषियोंका प्रश्न | सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रोंका अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे।१९।
उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये। पवित्र पशुओं और मूल फलों से भी यज्ञ किया जा सकता है।२०।
हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः।
तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।। 143.21 ।।
मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञका स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रोंके ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियों ने हिंसासूचक मन्त्रोंको उत्पन्न किया है।२१।
दीर्घ तपस्या के द्वारा पाप्त युक्ति से उसीको प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आपलोग मुझे क्षमा कीजियेगा। २२।***
द्विजवरो! यदि आप लोगोंको वेदों के मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।'२३।
वसु द्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षियनि अपनी बुद्धिसे विचार किया और अवश्यम्भावी विषय को जानकर राजा वसु को विमान से नीचे गिर जानेका तथा पातालमें प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया।२४।
ऋषियों के ऐसा कहते ही राजा वसु रसातलमें चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये।२५।
ऋषियोंके शाप से उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयों का निवारण करने वाले राजा वसु इस प्रकार अधोगति को प्राप्त हुए ।२६॥
इसलिये बहुज्ञ (अत्यन्त विद्वान्) होते हुए भी अकेले किसी धार्मिक संशयका निर्णय नहीं करना चाहिये; -क्योंकि अनेक द्वार (मार्ग) वाले धर्मकी गति अत्यन्त सूक्ष्म और दुर्गम है।२७।
अतः देवताओं और ऋषियोंके साथ-साथ, स्वायम्भुव मनुके अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्मके विषयमें निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता।२८।
इसलिये पूर्वकालमें जैसा ऋषियोंने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये। हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबल से स्वर्गलोक को गये हैं।२९।
इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञकी प्रशंसा नहीं करते। वे तपस्वी अपनी सम्पत्ति के अनुसार उच्छवृत्ति से प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित हुए हैं।३०।
ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता,।३१।
ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा| और धैर्य— ये सनातन धर्म के मूल ही हैं,जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं।३२।
यज्ञ द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्या की सहायिका समता है। यज्ञों से देवताओं की तथा तपस्या से विराट् ब्रह्म(परमेश्वर )की प्राप्ति होती है।३३।**
कर्म (फल) का त्याग कर देनेसे ब्रह्म-पदकी प्राप्ति होती है, वैराग्यसे प्रकृतिमें लय होता है और ज्ञानसे कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं।३४।
पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञ की प्रथा प्रचलित होनेके अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकारका महान् विवाद हुआ था।३५।
तदनन्तर जब ऋषियों ने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्मका विनाश किया जा रहा है, तब वसु के कथनकी उपेक्षा कर वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।३६।
उन ऋषियोंके चले जानेपर देवताओं ने यज्ञ की सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। इसके अतिरिक्त इस विषयमें ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रिय नरेश तपस्या के प्रभाव से ही सिद्धि प्राप्त की थी।३७।
प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस।३८।
प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं।३९।
जिन महात्मा राजर्षियों की कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणों से सभी प्रकार यज्ञ से बढ़कर है।४०।
पूर्वकाल में ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्को सृष्टि की थी, अतः यज्ञ द्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्ति का मूल कारण तप ही कहा गया है।४१।
इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तर में यज्ञ की प्रथा प्रारम्भ हुई थी। तबसे यह यज्ञ सभी युगों तक साथ प्रवर्तित हुआ । ४२।
भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व)/खण्डः ४) अध्याय (19) में भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सभी पशुओं की यज्ञ बोध होने पर रोक लगायी गयी।
देखें
विष्णुस्वामीमध्वाचार्यवर्णनम्
इत्युक्त्वा भगवाञ्जीवो देवमाहात्म्यमुत्तमम्।स्वमुखात्स्वांशमुत्पाद्य ब्रह्मयोनौ बभूव ह।१।
इष्टिका नगरी रम्या गुरुदत्तस्य वै सुतः। रोपणो नाम विख्यातो ब्रह्ममार्गप्रदर्शकः।२।
सूत्रग्रन्थमयीं मालां तिलकं जलनिर्मितम् ।वासुदेवेति तन्मन्त्रे कलौ कृत्वा जनेजने ।३।
अनुवाद:-इस प्रकार उत्तम देव -महात्म्य का वर्णन करने के पश्चात् बृहस्पति ने अपने मुख से अपना अंश ब्राह्मण की यौनि में उत्पन्न होने के लिए प्रक्षेपित किया। उस अंश से वे रमणीक इष्टिकानगर( ईटानगर) निवासी गुरुदत्त के यहाँ रोपण" नाम से पुत्र रूप में उत्पन्न हो गये। ब्राह्मणों के मार्गदर्शक रोपण ने सूत्र ग्रन्थ मयी माला" जल से बना तिलक" और वासुदेव मन्त्र अनेक लोगों में प्रचारित किया ।१-३।
कृष्णचैतन्यमागम्य कम्बलं च तदाज्ञया । गृहीत्वा स्वपुरीं प्राप्य कृष्णध्यानपरोभवत् ।४।
अतः परं शृणु मुने चरित्रं च हरेर्मुदा । यच्छ्रुत्वा च कलौ घोरे जनो नैव भयं व्रजेत् ।५।
पञ्चाब्दे कृष्णचैतन्ये यज्ञांशे यज्ञकारिणि ।वङ्गदेशभवो विप्र ईश्वरः शारदाप्रियः।६।
प्राप्तः शान्तिपुरे ग्रामे वाग्देवीवरदर्पितः । सतां दिग्विजयं कृत्वा सर्वशास्त्रविशारदः।७।
अनुवाद:-रोपण ने कृष्ण चैतन्य के पास आकर उनकी आज्ञा से कम्बल धारण किया वे और अपने नगर आकर कृष्ण ध्यान में संलग्न हो गये।
सूत जी बोले :-हे मुने! और भी भगवान चैतन्य के चरित्र कहता हूँ । उन्हें सुनो ! उनका श्रवण करने वाला घोर कलियुग में भी निर्भीक (निडर) होकर रहता है। जब यज्ञाञ्श यज्ञकर्ता ( चैतन्य महाप्रभु) पाँच वर्ष के थे। तब उस समय बंगाल का शारदा ( सरस्वती) का भक्त ईश्वर नामक ब्राह्मण उनके पास आया। वह ब्राह्मण सुन्दर शान्तिपुर नामक गाँव में ज्ञान की देवी सरस्वती द्वारा प्रदत्त वरदान से गर्वित होकर आया। वह ब्राह्मण सभी शास्त्रों का ज्ञाता और दिग्विजयी था।।४-७।।
गङ्गाकूले स्तवं दिव्यं रचित्वा सोऽपठद्द्विजः।एतस्मिन्नन्तरे तत्र यज्ञांशस्समुपागतः। उवाच वचनं रम्यमीश्वरं स्तुतिकारिणम्।८।
सुकृतं पूर्तमर्णं च श्रुतीनां सारमेव हि । इत्युक्तं भवता स्तोत्रे दूषणं भूषणं वद ।९।
तथाह चेश्वरो धीमान्दूषणं नैव दृश्यते। इत्युक्त्या प्राह भगवान्भूषणं नैव दृश्यते। 3.4.19.१०।
अनुवाद:- वह ईश्वर नामक ब्राह्मण गंगा के किनारे अपने द्वारा निर्मित श्लोक से कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की आराधना कर रहा था। तभी यज्ञांश देव ने उस ईश्वर नामक ब्राह्मण से सौम्य वाणी में कहा- सुकृत, पूर्त, और अर्ण को श्रुतिसार कहा गया है। इसलिए वह आपके स्तोत्र (स्तुति-श्लोक) का दोष है। इसमें भूषण क्या है ? कहें।
तब ईश्वर ने कहा इसमें दोष लक्षित नहीं होता। अर्ण- वीर्य को कहते हैं सुकृत -धर्म को और पूर्त चैतन्य को कहा गया है यही श्रुति(वेद) का सार तत्व हैं। जो गंगाजल में दूषण है वही देह में भूषण है।
यह सुनकर वह सरस्वती प्रिय- ब्राह्मण भिक्षुक विस्मित हो गया । तब सर्वमंगला शारदा (सरस्वती) देवी ने अपने भक्त ईश्वर ब्राह्मण को लज्जित देखकर उससे कहा- वत्स ये स्वयं भगवान् यज्ञांश (चैतन्य महाप्रभु) हैं।
यह सुनकर उस ईश्वर ब्राह्मण ने यज्ञाञ्श चैतन्य महाप्रभु का शिष्यत्व स्वीकार कर कृष्ण मन्त्रोपासना प्रारम्भ कर दी। और वह कृष्ण चैतन्य का उत्तम वैष्णव भक्त हो गया।।१२-१३।।
इति श्रुत्वा स वै भिक्षुर्विस्मितोऽभूच्च गीः प्रियः।लज्जितं स्वजनं दृष्ट्वा शारदा सर्वमङ्गला।विहस्येश्वरमित्याह कृष्णश्चैतन्यसंज्ञकः।१२।
इति श्रुत्वा तु तच्छिष्यः कृष्णमन्त्रउपासकः। बभूव वैष्णवश्रेष्ठः कृष्णचैतन्यसेवकः।१३।
सूत उवाच
श्रीधरो नाम विख्यातो ब्राह्मणःशिवपूजकः। पत्तने नगरे रम्ये तस्य सप्ताहमुत्तमम्।१४।
राज्ञा भागवतं तत्र कारितं सधनं बहु। गृहीत्वा श्रीधरो विप्रो जगाम श्वशुरालये ।१५।
तत्रोष्य मासमात्रं च स्वपत्न्या सह वै द्विजः।स्वगेहमगमन्मार्गे चौराः सप्त तु तं प्रति। शपथं रामदेवस्य कृत्वा सार्द्धमुपाययुः।१६।
अनुवाद:-सूत जी बोले-श्रीधर नामक ब्राह्मण सदैव शिवोपासना किया करता था। एक बार वहाँ के राजा ने सुन्दर पत्तन-नगर- में भागवत का सप्ताह पाठ आयोजित किया। वहाँ से दक्षिणा रूपी धन लेकर वह श्रीधर नामक ब्राह्मण अपनी ससुराल गया। वहाँ एक महीना ठहरने के बाद श्रीधर पत्नी को अपने साथ लेकर अपने घर गया मार्ग में इसे सात चौर मिले। उन सातों ने राम की शपथ ली की हम सज्जन हैं। तथा श्रीधर के साथ होकर चलने लगे।।१२-१६।
समाप्ते विपिने रम्ये हत्वा ते श्रीधरं द्विजम् । गोरथं सधनं तत्र सभार्यं जगृहुस्तदा ।१७।
एतस्मिन्नन्तरे रामः सच्चिदानन्दविग्रहः। सप्त तांश्च शरैर्हत्वा पुनरुज्जीव्य तं द्विजम् ।१८।
प्रेषयामास भगवांस्तदा वृन्दावने प्रभुः । तदा प्रभृति वै विप्रः श्रीधरो वैष्णवोऽभवत् ।१९।
सप्ताब्दे चैव यज्ञांशे गत्वा शान्तिपुरीं शुभाम् ।ब्रह्मज्ञानमुपागम्य यज्ञांशाच्छिष्यतां गतः। टीका भागवतस्यैव कृता तेन महात्मना । 3.4.19.२०।
वे वन के अन्त में श्रीधर को मार कर उसकी बैलगाड़ी तथा धन लेकर जाने की योजना बना रहे थे। तभी सच्चिदानंद राम ने अपने वाणों से उन चोरों का बध कर दिया। और श्रीधर को पुन: जीवित कर दिया। और भगवान् ने उस श्रीधर ब्राह्मण को वृन्दावन भेज दिया। तभी से वह ब्राह्मण वैष्णव हो गया ! उस समय यज्ञाञ्श चैतन्य महाप्रभु की आयु मात्र सात वर्ष की थी। श्रीधर ने कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर वहीं रहकर श्रीधरी नाम से भागवत-टीका लिखी।।१७-२०।।
सूत उवाच
रामशर्मा स्थितः काश्यां शङ्करार्चनतत्परः।शिवरात्रे द्विजो धीमानविमुक्तेश्वरस्थले । एकाकी जागरन्ध्यानी जप्त्वा पञ्चाक्षरं शुभम्। २१।
तदा प्रसन्नो भगवाञ्छङ्करो लोकशङ्करः। वरं ब्रूहीति वचनं तमाह द्विजसत्तमम् ।२२।
रामशर्मा शिवं नत्वा वचनं प्राह नम्रधीः। भवान्यस्य समाधिस्थो ध्याने यस्य परो भवान्।२३।
स देवो हृदये मह्यं वसेत्तव वरात्प्रभो। इत्युक्तवचने तस्मिन्विहस्याह महेश्वरः।२४।
अनुवाद:-सूत जी बोले - एक बार रामशर्मा नामक ब्राह्मण काशीधाम में शिवार्चन में संलग्न था; वह ब्राह्मण शिवरात्रि के समय काशी के अविमुक्तेश्वर मन्दिर में अकेला रहकर रात्रि जागरण करता हुआ। शुभपञ्चाक्षर मन्त्र का जाप कर रहा था। तभी भगवान् लोक-शंकर उस पर प्रसन्न हो गये। उन्होंने उस द्विज-श्रेष्ठ से वर माँगने के लिए कहा। तब नम्रता पूर्वक प्रणाम करने के बाद देवशर्मा ने कहा-प्रभो आप समाधिस्थ होकर जिसका ध्यान एकाग्रता और तन्मयता से करते रहते हैं वही देव मेरे हृदय में निवास करें।उस ब्राह्मण का यह वाक्य सुनकर भगवान् शिव हँसकर कहने लगे।।२१-१४।
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महेश्वर कहते हैं:-वह एक प्रकृति माया ही ब्रह्मस्वरूपा तीन भागों में शून्यभूत अव्यय पुरुष के आधे तेज को ग्रहण करती है। वह लोक जननी पुरुष और नपुंसक ( क्लीब) दो और सन्तानों का सृजन करती है। जो पुरुषांश है वह साक्षात् गौरवर्ण और आठ भुजाओं वाला नारायण है वही विश्वरक्षक नारायण स्वेच्छा से तीन प्रकार से विभाजित हो जाते हैं। वे अपने आधे तेज से विष्णु वनमाली चतुर्भुज होते हैं। जो क्षीरशायी आदित्य स्वयं सद्गुण देव हैं।।२५-२७।।
बाकी आधा तेज नर-नारायण ऋषि के रूप में अवतीर्ण हो गया जो गन्धमादन पर्वत पर विष्णु और जिष्णु रूप हैं। क्लीब ही साक्षात् ब्रह्म रूप संकर्षण हैं। वह तीन प्रकार से विभक्त हो जाता है। पूर्वाद्ध है गौरवर्णी शेषनाग और परार्द्ध है राम और लक्ष्मण। ये गौरवर्ण शेष ही द्वापरान्त कलियुग में बलराम के रूप में अवतार लेते हैं। इसी कारण मैं सदैव राम-लक्ष्मण का ध्यान तथा बलभद्र का पूजन करता हूँ। तुम भी यही करके सुखी हो जाओ ।।२५-३०।।
यह कहने के बाद भगवान शिव तिरोहित(गायब) हो गये। वे रामानन्द के यहाँ जन्म लेकर चैतन्य महाप्रभु के भक्त हो गये और कृष्ण चैतन्य की आज्ञा से अध्यात्म-रामायण की रचना की।३१-३२।।
सूत उवाच
जीवानन्दस्स वै विप्रो रूपानन्दसमन्वितः ।
श्रुत्वा चैतन्यचरितं पुरीं शान्तिमयीं गतः । ३३।
चैतन्ये षोडशाब्दे च नत्वा तं तौ समास्थितौ ।
ऊचतुः कृष्णचैतन्यं भवता किं मतं स्मृतम् ।३४।
विहस्याह स चैतन्यः शाक्तोऽहं शक्तिपूजकः।
शैवोऽहं वै द्विजौ १ नित्यं लोकार्थे शङ्करव्रती।
वैष्णवोऽहं ध्यानपरो देवदेवस्य भक्तिमान् ।३५।
अहं भक्तिमदं पीत्वा पापपुंसो बलिं शुभम् ।
शक्त्यै समर्प्य होमान्ते ज्ञानाग्नौ यज्ञतत्परः ।३६।
इति श्रुत्वा द्विजौ तौ तु तस्य शिष्यत्वमागतौ ।
आचारमार्गमागम्य सर्वपूज्यौ बभूवतुः ।३७।
अनुवाद:-सूत जी कहते हैं :- इस प्रकार यज्ञाञ्शदेव( चैतन्य महाप्रभु) का चरित्र सुनकर जीवानन्द और रूपानन्द ने एक साथ शान्तिपुरी की यात्रा की तब चैतन्य महाप्रभु की अवस्था सोलह(१६ ) वर्ष की थी। वहाँ उन दोनों ने चैतन्य देव से पूछा:-आपका कौनसा मत है? तब हँसकर चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया हे द्विज देव! मैं शाक्तमत से शक्ति का पूजक हूँ।लोक को लिए मैं शंकर व्रती शैव हूँ।देव देव की भक्ति को लिए मैं ध्यानतत्पर वैष्णव हूँ। मैं भक्ति रूपी मदिरा का पान करता हूँ।पाप-पुण्य की शुभ बलि प्रदान करता हूँ। ज्ञानाग्नि रूपी यज्ञ में तत्पर शक्ति के उद्देश्य से होम करता हूँ। यह सुनकर दौंनों ब्राह्मणों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।और वैष्णव मार्ग का वरण कर वे सबके पूज्य हो गये।।३३-३४-३५-३६-३७।।
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उन यज्ञाञ्श (कृष्ण चैतन्य) की आज्ञा पाकर जीवानन्द ने षड्सन्दर्भ ग्रन्थ की रचना की और जीवानन्द प्रभु उपासना में निरत रहते थे तथा महामनीषी रूपानन्द ने भी गुरु की आज्ञा से पुराणांग दस हजार(१००००) श्लोकात्मक कृष्ण खण्ड की रचना की उन्होंने गुरु-सेवा में संलग्न रहकर राधाकृष्ण की उपासना द्वारा अपना जीवन व्यतीत किया।।३८-३९।।
सूतजी बोले:-विप्रवर विष्णु स्वामी ने भी एक बार उस शान्ति पुरी में आकर उन उन्नीस वर्षीय यज्ञाञ्श देव से कहा:- इस ब्रह्माण्ड में कौन देव सभी देवों में पूज्य है।? इसके उत्तर में यज्ञाञ्शदेव ने कहा:-भक्तों पर अनुग्रह करने वाले महादेव ही सर्व पूज्य हैं।वे ही विष्णु रूद्र और ब्रह्मेश हैं। इनका पूजा को बिना सब पदार्थ निष्फल हो जाते हैं।जो विष्णु भक्त नित्य शंकर की पूजा करता है। उसे लोकशंकर भगवान शिव की कृपा से उत्तम वैष्णव भक्ति प्राप्त हो जाती है। वही वैष्णव है।।४०-४४।।
जो कर्मभूमि में जन्म लेकर भगवान शंकर की पूजा नहीं करता है वह नरकगामी है।यह सुनकर विष्णु स्वामी ने उन यज्ञाञ्श देव की शिष्यता स्वीकार करली ।उन्होंने कृष्ण मन्त्र की आराधना द्वारा शिव पूजा में तत्पर होकर जीवन व्यतीत किया गुरु आज्ञा पाकर विष्णु भक्त तथा कृष्ण चैतन्य सेवक विष्णु स्वामी वैष्णवीसंहिता की रचना की।।४५-४७।।
"सूत उवाच"
मध्वाचार्यः कृष्णपरो ज्ञात्वा यज्ञांशमुत्तमम् ।
गत्वा शान्तिपुरीं रम्यां नत्वा तं प्राह स द्विजः।४८।
कृष्ण भक्त मध्वाचार्य ने भगवान् यज्ञाञ्श के अवतरित होने का संवाद पाकर सुन्दर शान्तिपुरी नाम की नगरी जाकर भगवान यज्ञाञ्शदेव को प्रणाम करके पूछा:- ४८।
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कृष्णोऽयं भगवान्साक्षात्तदन्ये विश्वकारकाः ।
देवा धात्रादयो ज्ञेयास्तर्हि तत्पूजनेन किम् ।४९।
अनुवाद:-
कृष्ण ही साक्षात् भगवान् हैं। वे सम्पूर्ण विश्व के निर्माता हैं। अन्य ब्रह्मा आदि देवता तो उनके ही निर्देशन में सृष्टि रचना करते हैं। फिर उनके पूजन का का क्या प्रयोजन ?।४८।
शक्तिमार्गतत्परा विप्रा वृथा हिंसामयैर्मखैः ।
अश्वमेधादिभिर्देवान्पूजयन्ति महीतले ।( 3.4.19.५० भविष्य पुराण )
अनुवाद:-
शक्ति मार्ग पर चलने वाले ब्राह्मण व्यर्थ ही हिंसायुक्त यज्ञों अश्वमेध आदि से देवाताओं का इस नही तल पर पूजन करते हैं।
इति श्रुत्वा विहस्याह यज्ञांशश्च शचीसुतः ।
न कृष्णो भगवान्साक्षात्तामसोऽयं च शक्तिजः । । ५१।
मध्वाचार्य द्वारा कही गयी- कृष्ण मत की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश (चैतन्य महाप्रभु) ने उनकी परीक्षण को उद्देश्य से हंसकर कहा -कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।५१।
चौरोऽयं सर्वभोगी च हिंसको मांसभक्षकः ।
परस्त्रियं भजेद्यो वै स गच्छेद्यममन्दिरम् ।५२।
अनुवाद:-वह चौर सर्वभोगी मांसभक्षक पर स्त्री का भाग करने वाला और यम गृह में गमन करने वाला है।५२।
चौरो यमालयं गच्छेज्जीवहन्ता विशेषतः ।
एभिश्च लक्षणैर्हीनो भगवान्प्रकृतेः परः । । ५३।
अनुवाद:-"चोर यमालय गामी-जीवहन्ता विशेषतया जो इन सब लक्षणों से परे है वही प्रकृति से परे भगवान् है।53।।
यस्य बुद्धिः स वै ब्रह्माऽहङ्कारो यस्य वै शिवः ।
शब्दमात्रा गणेशश्च स्पर्शमात्रा यमः स्वयम् ।५४।
अनुवाद:-जिसकी बुद्धि ब्रह्मा, अहंकार शिव, जिसकी शब्द मात्रा गणेश, और स्पर्श मात्रा साक्षात् यम है। ५४।
रूपमात्रा कुमारो वै रसमात्रा च यक्षराट् ।
गन्धमात्रा विश्वकर्मा श्रवणं भगवाञ्छनिः । ५५।
अनुवाद:-रूप मात्रा कुमार और रसमात्रा यक्षराज कुबेर है। गन्धमात्रा विश्वकर्मा और श्रवण शनि है।५५।
यस्य त्वक्स बुधो ज्ञेयश्चक्षुस्सूर्यः सनातनः ।
यज्जित्वा भगवाञ्छुक्रो घ्राणस्तस्याश्विनीसुतौ । ५६।
अनुवाद:-और त्वक्- बुध हैं और चक्षु साक्षात् सूर्य है। जिह्वा शुक्र - और घ्राण अश्विनीकुमार-।।५६।
यन्मुखं भगवाञ्जीवो यस्य हस्तस्तु देवराट् ।
कृष्णोऽयं तस्य चरणौ लिङ्गं दक्षः प्रजापतिः । ।
गुदं तद्भगवान्मृत्युस्तस्मै भगवते नमः । । ५७।
अनुवाद:-मुख बृहस्पति हाथ देवेन्द्र और कृष्ण जिनके चरण हैं। जिनका लिंग है दक्ष प्रजापति- तथा मृत्यु जिनका गुदा है। उन भगवान को प्रणाम है।57।
हिंसायज्ञैश्च भगवान्स च तृप्तिमवाप्नुयात् ।
स च यज्ञपशुर्वह्नौ ब्रह्मभूयाय कल्पते । ।
तस्य मोक्षप्रभावेन महत्पुण्यमवाप्नुयात् । ५८।
अनुवाद:- यह भगवान हिंसायुक्त यज्ञ से तृप्त होते हैं। वह पशु जिनकी अग्नि में आहुति प्रदान की जाति है। वह परम पद गमन करता है उसे मोक्ष मिलता है। इसमें यज्ञ कर्ता का पुण्य ओर भी बढ़ जाता है।५८।
विधिहीनो नरः पापी हिंसायज्ञं करोति यः ।
अन्धतामिस्रनरकं तद्दोषेण वसेच्चिरम् ।
महत्पुण्यं महत्पापं हिंसायज्ञेषु वर्तते।५९।
अनुवाद:-
जो पापी हिंसारहित यज्ञ विधि रहित रूप से यज्ञ करता है। वह उस दोष के कारण अन्धतामिस्र नरक में चिरकाल तक व्यथित होता है। इस लिए हिंसा युक्त यज्ञ विधि सहित करने से महापुण्य और विधि रहित करने से महा पाप की प्राप्ति होती है।५९।
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अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।
अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र के यज्ञों पर रोक लगा दी क्यों कि यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।
समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके ।
अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले । । ६१।
अनुवाद:-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट का भूतल पर विधान किया।61।
देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः ।
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । ।
प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गये तब उन्होंने व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण को लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।
तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्य चागता ।६३।
अनुवाद:-तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्।
नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।
अनुवाद:-तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।__________________________
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं।वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है। वे सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः। शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:-यह सुनकर कृष्ण प्रियमध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।-६६।।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।
इस प्रकार श्री भविष्य पुराण को प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त-★
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विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा( कत्ल) हो रहे थे और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा को नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञ को समस्त गोप-यादव समाज में रोक दिया था।
पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित किया ही है।
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है। कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश ने हंसकर कहा -कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।
वह चौर सर्वभोगी मांसभक्षक पर स्त्री का भाग करने वाला यम गृह करने वाला है।
जीवहन्ता विशेषतया यम के सदन में जाता है। जो इन सब लक्षणों से परे है वही प्रकृति से परे भगवान् है।।48-53।।
जिसकी बुद्धि ब्रह्मा अहंकार शिव जिसकी शब्द मात्रा गणेश और स्पर्श मात्रा साक्षात् यम है।
रूप मात्रा कुमार और रसमात्रा यक्षराज कुबेर है। गन्धमात्रा विश्वकर्मा ।
श्रवण शनि और त्वक्- बुध हैं और चक्षु साक्षात् सूर्य है। जिह्वा शुक्र - और घ्राण अश्विनीकुमार- मुख बृहस्पति हाथ देवेन्द्र और कृष्ण जिनके चरण हैं। जिनका लिंग है दक्ष प्रजापति- तथा मृत्यु जिनका गुदा है। उन भगवान को प्रणाम है ।54-57
यह भगवान हिंसायुक्त यज्ञ से तृप्त होते हैं। वह पशु जिनकी अग्नि में आहुति प्रदान की जाति है। वह परम पद गमन करता है उसे मोक्ष मिलता है। इसमें यज्ञ कर्ता का पुण्य ओर भी बढ़ जाता है।
जो पापी हिंसारहित यज्ञ विधि रहित रूप से करता है। वह उस दोष के कारण अन्धतामिस्र नरक में चिरकाल तक व्यथित होता है। इस लिए हिंसा युक्त यज्ञ विधि सहित करने से महा पुण्य और विधि रहित करने से महा पाप की प्राप्ति होती है।
इसी कारण से कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र को यज्ञों पर रोक लगा दी ।
कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर दिया ।और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट या विधान किया।58-6।
इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गया तब उसने व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया।
तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति प्रसन्न हो गयीं तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं। तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया ।
तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।।62-64।।
निष्कर्ष:-
वस्तुत: इस शचिपुत्र यज्ञांश में श्लेष पद द्वारा पुराण कार इन्द्र आदि देवों के कृष्ण द्वारा किए गये निषेध को इंगित कर रहा है। मध्वाचार्य और चैतन्य महाप्रभु के संवाद रूप में है।
संदर्भ-
ऋग्वेद- 8/96/13-15
अथर्ववेद- 20/137/7
श्रीमद्भागवत, देवीभागवत, हरिवंश पुराण मत्स्य पुराण आदि तथा भविष्यपुराण प्रतिसर्गपर्व
'प्राचीन मेसोपोटामिया की असीरियन सभ्यता का ऐतिहासिक सन्दर्भ।
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