मनुस्मृति में पोशाक पर लिखा है:-
वयस: कर्मणोऽर्थस्य श्रुतस्याऽभिजनस्य च।
वेष-वाग्-बुद्धिसारूप्यमाचरन् विचरेदिह ।।4.18।।
इसकी आचार्य कौण्डिन्नयायन ने व्याख्या करते हुए कहा:- "मनुष्य अपने वय (उम्र), अपने काम का, अपनी संपत्ति का, अपने अध्ययन का और अपने कुल के भी अनुकूल रूप में वेष को (परिधान को), वाक् को (बोलचाल को) और बुद्धि को (भावना को, विचार को) अपनाकर इस लोक में विचरण करे।"
मेधातिथि ने पोशाक पर इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है:-
"पोशाक भी व्यक्ति के व्यवसाय के अनुरूप होनी चाहिए, धन के अनुरूप भी और व्यक्ति के परिवार के अनुरूप भी होनी चाहिए।"
अतः मनुस्मृति के अनुसार भी निग्रहाचार्य जी का मिश्र जी के पोशाक पर विवाद व्यर्थ है और मिश्र जी का पोशाक उनके वकालत पेशे के अनुरूप है।
वयसः कर्मणोऽर्थस्य श्रुतस्याभिजनस्य च ।
वेषवाग्बुद्धिसारूप्यमाचरन् विचरेत् सदा ।। १५.१८
वेषवाग्बुद्धिसारूप्यमाचरन् विचरेत् सदा ।। १५.१८
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