मंगलवार, 26 सितंबर 2023

यमलार्जुन अर्थात अर्जुन के दो पेड़ों की कथा महाभारत तथा अन्य पुराणों में है।

यमलार्जुन अर्थात अर्जुन के दो पेड़ों की कथा महाभारत तथा अन्य पुराणों में है। अर्जुन के दो पेड़ जिनके मध्य से अपने बाल्यकाल में कृष्ण ने  उखल फंसाया और लगे खींचने ! उनके खींचने से पेड़ उखड़ गए और दो गंधर्व नलकूबर और मणिग्रीव प्रकट हुए ।

दोनों गंधर्व शाप के कारण वृक्ष हो गए थे और कृष्ण ने उन्हें मुक्ति दे दी थी । 

ये किस्सा पौराणिक है, ऐतिहासिक नहीं है  एसी कुॉछ लोगों काफ़ी धारणा है।

आश्चर्यजनक रूप से ये घटनाओं से सम्बन्धित टैबलेट ( पत्थर की तख्ती) मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी पुरातत्व विद् - अरनेस्टमैके को  मिला है ।

डॉ. इ.जे.एच. मैक्के जब मोहनजोदड़ो की खुदाई कर रहे थे तो उन्हें एक साबुन पत्थर का बना टेबलेट मिला ।

ये लरकाना, सिंध में मिला पत्थर का टेबलेट यमलार्जुन प्रसंग दर्शाता है ।

बाद में प्रोफेसर वी.एस. अग्रवाल ने भी इसकी पहचान इसी रूप में की है ।

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प्लेट नंबर 90, ऑब्जेक्ट नंबर डी.के. 10237 के नाम से जाने जाने वाले इस टेबलेट का जिक्र कई किताबों में है 

वासुदेव शरण अग्रवाल सहित कई विद्वानों और इतिहासकारों की किताबों में (Mackay report Page 334-335 पर वर्णित plate no.90, object no. D.K.10237 का जिक्र आता है |

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ऐसा कहा जा सकता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों को कृष्ण सम्बन्धी कथाओं का पता था। बाकी आपको इस प्लेट के बारे में क्यों नहीं बताया गया ये तो कृष्ण ही जानें ! 

एक अन्य मुद्रा पर दो व्यक्ति अंकित हैं जिनमें से प्रत्येक के हाथ में एक-एक पेड़ है। ऐसी संभावना व्यक्त की गई है कि मुद्रा पर इस अंकन के 

पीछे महाभारत में उल्लिखित कृष्ण द्वारा यमलार्जुन वृक्ष को उखाड़ कर उनकी आत्मा मुक्त करने जैसी कहानी रही हो।

 यह भी हो सकता है कि वृक्षों को देवता की पूजा में रोपा जा रहा हो। वृक्षों की पूजा प्राकृतिक रूप में भी की जाती थी। इस मुद्रा के दूसरी ओर एक झुका व्यक्ति एक पेड़ (जो नीम-सा लगता है) की पूजा कर रहा है। कुछ वृक्षों (जैसे पीपल) को वेदिका से वेष्ठित दिखलाया गया है। ऐतिहासिक काल में सिक्‍कों पर वेदिका वेष्ठित वृक्ष का अंकन अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। पीपल की पवित्रता आज तक वर्तमान है। 

हरिवंशपुराणम्
अध्यायः ७

श्रीकृष्णबलरामाभ्यां व्रजे जानुभ्यां रिङ्गणम् एवं श्रीकृष्णेन आत्मानं उलूखले बद्ध्वा यमलार्जुनभङ्गकरणम्

सप्तमोऽध्यायः वैशम्पायन उवाच

काले गच्छति तौ सौम्यौ दारकौ कृतनामकौ ।
कृष्णसंकर्षणौ चोभौ रिङ्गिणौ समपद्यताम् ।। १।

तावन्योन्यगतौ बालौ बाल्यादेवैकतां गतौ ।
एकमूर्तिधरौ कान्तौ बालचन्द्रार्कवर्चसौ ।। २ ।।

एकनिर्माणनिर्मुक्तावेकशय्यासनाशनौ ।
एकवेषधरावेकं पुष्यमाणौ शिशुव्रतम् ।। ३ ।।

एककार्यान्तरगतावेकदेहौ द्विधाकृतौ ।
एकचर्यौ महावीर्यावेकस्य शिशुतां गतौ ।। ४ ।।

एकप्रमाणौ लोकानां देववृत्तान्तमानुषौ ।
कृत्स्नस्य जगतो गोपौ संवृत्तौ गोपदारकौ ।। ५ ।।

अन्योन्यव्यतिषक्ताभिः क्रीडाभिरभिशोभितौ ।
अन्योन्यकिरणग्रस्तौ चन्द्रसूर्याविवाम्बरे ।। ६ ।।

विसर्पन्तौ तु सर्वत्र सर्पभोगभुजावुभौ ।
रेजतुः पांसुदिग्धाङ्गौ दृप्तौ कलभकाविव ।। ७ ।।

क्वचिद् भस्मप्रदीप्ताङ्गौ करीषप्रोक्षितौ क्वचित्।
तौ तत्र पर्यधावेतां कुमाराविव पावकी ।। ८ ।।

क्वचिज्जानुभिरुद्घृष्टैः सर्पमाणौ विरेजतुः ।
क्रीडन्तौ वत्सशालासु शकृद्दिग्धाङ्गमूर्धजौ ।। ९ ।।

शुशुभाते श्रिया जुष्टावानन्दजननौ पितुः ।
जनं च विप्रकुर्वाणौ विहसन्तौ क्वचित्क्वचित्।। 2.7.१० ।।

तौ तत्र कौतूहलिनौ मूर्धजव्याकुलेक्षणौ ।
रेजतुश्चन्द्रवदनौ दारकौ सुकुमारकौ ।। ११ ।।

अतिप्रसक्तौ तौ दृष्ट्वा सर्वव्रजविचारिणौ ।
नाशकत् तौ वारयितुं नन्दगोपः सुदुर्मदौ ।। १२ ।।

ततो यशोदा संक्रुद्धा कृष्णं कमललोचनम् ।
आनाय्य शकटीमूले भर्त्सयन्ती पुनः पुनः ।१३ ।।

दाम्ना चैवोदरे बद्ध्वा प्रत्यबन्धदुलूखले ।
यदि शक्तोऽसि गच्छेति तमुक्त्वा कर्म साकरोत्।।१४।।


व्यग्रायां तु यशोदायां निर्जगाम ततोऽङ्गणात् ।
शिशुलीलां ततः कुर्वन्कृष्णो विस्मापयन्व्रजम्।
सोऽङ्गणान्निःसृतः कृष्णः कर्षमाण उलूखलम्।। १५ ।।


यमलाभ्यां प्रवृद्धाभ्यामर्जुनाभ्यां चरन् वने ।
मध्यान्निश्चक्राम तयोः कर्षमाण उलूखलम् ।। १६।

तत्तस्य कर्षतो बद्धं तिर्यग्गतमुलूखलम् ।
लग्नं ताभ्यां समूलाभ्यामर्जुनाभ्यां चकर्ष च ।१७। 

तावर्जुनौ कृष्यमाणौ तेन बालेन रंहसा ।
समूलविटपौ भग्नौ स तु मध्ये जहास वै ।। १८ ।।

निदर्शनार्थं गोपानां दिव्यं स्वबलमास्थितः ।
तद्दाम तस्य बालस्य प्रभावादभवद् दृढम् ।१९ ।।

श्रीमहाभारते खिलमागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि शिशुचर्यायां यमलार्जुनभङ्गो नाम सप्तमोऽध्यायः ।। ७ ।।

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घार्मिक विश्वास और अरुष्टान : 54 

इसकी परिक्रमा की जाती है। बहरीन द्वीप की खुदाई में प्राचीन संस्कृतियों के 

सदर्भ में प्राप्त पत्थर के वृत्ताकार अवशेषों को कुछ विद्वानों मे खज़र वृक्ष के 

लिए बनाया गया घेरा माना है। उनका मत है कि मध्य पूर्व और कुछ अन्य 

क्षेत्रों में भी खजूर के वृक्ष का पर्याप्त घार्निक महत्व था। मोहेंजोदड़ों के "एच . 

आर' क्षेत्र के एक भवन के पास 1.22 मीटर व्यास का घेरा मिला। अन्यत्र थी है 

इस सभ्यता मे इस तरह के घेरे मिले हैं जो वृक्षों की पवित्रता के साक्ष्य प्रस्‍त करते हैं। पुत्र-प्राप्ति हेतु इसकी पूजा आज भी की जाती है।

 पितरों के तर्पण के लिए इन पर मिट्टी के बर्तनों में पानी रखा जाता है। पीपल के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। प्राचीन मेसोपोटामिया में ज्ञान-तरु और जीवन-तरू की धारणा विद्यमान थी। 

आज वृक्षों को जीवन्त मानने का बड़ा साक्ष्य वह हैं कि लोग प्रतीक रूप में उनका विवाह भी करते हैं, और कभी तो प्रतीक रूप में कुछ जातियों कन्या का विवाह किसी पुरुष से करने से पहले उसका वृक्ष से विवाह रचाते हैं। 

सिघु सभ्यता 

सतह से .37 मीटर की गहराई पर मिला है और इसलिए ऐसा विदित होता 

है कि यह सिंधु सभ्यता के अंतिम चरण का है। इसकी ऊँचाई लगभग 19

सेण्टी मी. है। नेत्र कुछ लम्बे तथा अधखुले हैं। 

दृष्टि नासाग्र पर केन्द्रित लगती है। 

होंठ मोटे हैं। नासिका मध्यम आकार की है। 

माथा छोटा तथा ढलुआ है। ग्रीव 

साधारण से कुछ अधिक मोटी है। 

मेसोपीटामिया की प्राचीन शिल्प कृतियों में भी 

अक्सर मोटी गर्दन बनाने का चलन था। 

मार्शल का विचार है कि इन विशेषताओं 

से यह किसी व्यक्ति विशेष की रूपाकृति नहीं लगती है, और न ही इसे किमी 

जाति विशेष का द्योतक मान सकते हैं।

 किन्तु मकाइ इसे कलाकार द्वारा किप्ती 

व्यक्ति के वधार्थ रूपांकन की चेष्टा का उदाहरण मानते हैं। 


इस मूर्ति का केश विन्यास विशेष रोचक है।

 पीछे काढ़ी गयी केश राशि 

मस्तक पर एक फीते से बंधी है। 

पर कान कुछ विचित्र ढंग से बनाये गये हैं 

दाढ़ी भली प्रकार कटी है, किन्तु ऊपरी ओंठ पर मूछें मुड़ी हैं। उल्लेखनीय है 

कि प्राचीन मेसोपोटामिया की कलाकृतियों में भी मुंडी मुंछों वाली आकृतियाँ ही 

अधिकांशतया बनायी गयी थीं। 

वह एक शाल ओढ़े है जो बाएं कंधे को ढके 

हुए हैं; दायां हाथ खुला है।

 परवर्ती काल की कला में भी इसी शैली में शाल 

ओढ़े मूर्तियाँ, विशेषतया बुद्ध और बोधिसत्व की, मिलती हैं। 

शाल का उभरा हुआ तिपतिया अलंकरण है। इस अलंकरण के भीतर वाले भाग को लाल पेस्ट 

से भरा गया था। तिपतिया अलंकरण सिंधु संस्कृति के कुछ मनकों पर भी 

मिलता है। मिश्र, मेसोप्रेटामिया और क्रीट में प्राचीन संस्कृति के संदर्भ में इस 

तरह का अलंकरण देवताओं की आकृतियों पर विशेष रूप से मिलता है।


 कुछ विद्वानों के अनुसार यह अलंकरण सिंधु सभ्यता के लोगों ने किसी दूसरे प्रोत 

से सीखा। आँखें सीप की बनाकर अलग से जड़ी गयी थीं, एक आँख पर 

सीप के स्पष्ट चिह्न बने मिलते हैं। इस तरह आँख को जड़ कर बनाने का 

प्राचीन मित्र और सुमेर में काफी प्रचलन था। आकृति की दाहिनी भुजा पर 

भुजबंध है। 


उपर्युक्त मूर्ति को सतर्कता तथा सावधानी से गढ़ा गया था। किन्तु 

इसकी बनावट में हड़प्पा से प्राप्त लाल पत्थर के धड़ और मोहेंजोदड़ों की 

कांस्य नर्तकी जैसी स्वाभाविकता का अभाव है। नेत्रगहर संकरे बनाये गये हैं। 

बाशम तो -इसे मंगाोल जाति के व्यक्ति की आकृति का स्वरूपांकन होने की 

संभावना मानते हैं। लेकिन अरनेस्त-मेके- का कहना है कि आँखें मंगोलियन प्रकार की 

नहीं हैं। केशराशि और चेहरा बाकी भाग के अनुपात में बड़े दिखलाये गये हैं। 

मोटी औवा. ऊपरी होंठ मुंडा होना नेत्र गहर दिखाना वस्त्र के तिपतिया 


पापाण तथा धातु की मूर्तिया : 67 


ऐसे बर्तन भी हैं जिन पर विभिन्‍न सामग्री रखने के लिए अलग-अलग 

खाने बने हैं। आज भी इस तरह अलग-अलग खाने वाली थालियों का प्रचलन 

है। कुछ कुल्हड़ के तरह के पानपत्र मिले हैं। इनका पेंदा नुकीला है और यहे 

संभवत: उलटे रखे जाते थे। इनका प्रयोग कुल्हड़ की तरह पानी पीने के लिए 

होता रहा होगा। यह संभावना व्यक्त की गई है कि इनका उपयोग रहट की 

भाँति कुओं से पानी निकालने के लिए होता रहा होगा। इनका अपेक्षाकृत छोटा 

आकार इस कार्य के लिए उपयुक्त नहीं लगता और साथ ही उत्खनन में जिस 

सदर्भ में ये अधिकांशतः मिले हैं उसे कहीं-कीं तो प्याऊ जैसे स्थलों में पानी 

पिलाने के लिए इनका उपयोग होने लगता है। इनमें कुछ पर ठप्पे भी मिलते हैं 

जो संभवतः कुंभकारों के अधवा उनकी फर्म के नाम हो सकते हैं। वास्तव में 

सिंधु सभ्यता से प्राप्त भाण्डों में यही एक मात्र ऐसा प्रकार है जिस पर ठप्पे 

मिलते हैं। हड़प्पा के दस ऐसे बर्तनों पर एक ही तरह के लेख वाले ठप्पे मिले 


8. शतधार उत्स, ऋग्वेद 9-206-9॥ शतधारकलश का उल्लेख वैदिक साहित्य में 

सोमरस के निर्माण के संदर्भ में आया है; इससे छन-छन कर सोमरस निकाला जाता 

धाः


घार्मिक विश्वास और अनुष्ठान : !45 


ऐतिहासिक शिव पशुपति के प्राग्‌ रूप की संज्ञा दी! उस युग में यह देवता किस 

नाम से जाना जाता थां, यह ज्ञात चहीं। 


यद्यपि अधिकांश विद्धानों ने मार्शन की धारणाओं से सहमति प्रकट की 

है तथापि कुछ ने इससे भिन्न मत भी प्रकट किये हैं। सैलेतोरे ने इस आकृति 

को अग्नि पहचाना है। राय चौधरी का कहना है कि पशुओं में शिव के दाहन 

वृषभ की अनुपस्थिति के कारण इस आकृति की पहचान शिव (पशुपति) से 

करना समुचित नहीं है। उनके अनुसार शिव-पशुपति दम प्राय रूप हिताइत 

देव-मंडली में प्राप्त है। हिताइत लोगों के प्रमुख देवता तैशुव वैदिक रुद्र की 

आॉति ही हैं; वह आंधी से संबंधित हैं, वृषभारढ़ और जिशूल-धारी है। उनकी 

पतली हेयत, शिव-पत्ली दुर्गा की भाँति त्रिशुलधारिणी और सिंहवाहिनी हैं। 


इस आकृति की पहचान के संबंध में केदारताथ शास्त्री का मत सर्वधी 

भिन्‍न है। उनके अनुसार मुद्रा पर जो आकृति उभारी गई है वह टीन मु्खी तो 

है ही नहीं मानवमुखी भी नहीं है। उनके अनुसार यह महिष-क्िर वाला देवता 

है। इसके अंग अलग-अलग पशुओं के हैं। इसकी भुजाएं कनखजूरे और पैर 

सर्प से बने हैं। इनका धड़ बाघ का और सिर महिष का है। उनके अनुसार 

इस देवता को विभिन्‍न पशुओं के अंगों से बनाने की कल्पना का आधार यह 

था कि भक्‍त लोग देवता को इन सभी पशुओं की विशेषताओं से युक्त देखना 

चाहते थे और उससे उन गुणों की प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते थे। वे इस संदर्भ में 

यह भी उल्लेख करते हैं कि ऐतरेय ब्राह्मण में रुद्व को अत्यन्त भयानक तत्त्वों 

से बना हुआ बताया गया है। टी.एन. रामचन्द्रन ऋवेद के एक मंत्र के आधार 

पर इसे सोम की आकृति के रूप में पहचानते हैं। ऋग्वेद में सोम के विषय में 

लिखा है कि यह देवताओं में ब्रह्मा है, कवियों में ओष्ठ, ऋषियों में ऋषि, पशुओं 

में महिष और पक्षियों में बाज हैं। रामचन्द्रन के अनुसार मेहेंजोइड़ों की इस 

मुद्रा पर अंकित देवता को ऋग्वेद में पशुपति, अधिक मुख वाले होने के कारण 

ब्रह्मा और मैंस के सींग के कारण महिष कहा है। हर्बर्ट सुल्लिवान का कहना है 

कि संभवत: आकृति पुरुष की नहीं, चारी की है। उनके अनुप्तार इस मुद्रा पर 

नारी आकृति को पशुओं से घिरे दिखाने का उद्देश्य संभवतः मातृदेवी को 

पशु-जगत की स्वामिनी दिखाना था। लेकिन यदि उनका यह तर्क मान लिया 

जाय कि इसमें आकृति ऊर्ध्वलिंग नहीं दिखायी गयी है, तो यह भी स्वीकार 

करना पड़ेगा कि नारी के विशिष्ट अंग भी इसमें स्पष्ट रूप से नहीं दिखलाये 

गये हैं कुछ विद्धानों ने इसकी «< . विश्वरूप ल्वाष्द से वी ” जिसका 


]46. सिधु सभ्यता 


विवरण ऋग्वेद (0.99.6) में है और जिसमें उसे तीन सिर और छह आंब 

वाला बताया गया है। दीनवन्धु पाण्डेय ने इस आकृति को ऋग्वेद में संदर्धित 

श्ृंग शिरोभूषण धारण करने वाले विषाणिनों का देवता मानने का सुझाव दिया 

है । 


50. सिध सभ्यता 


मुद्रा का विवरण इस प्रकार है - दायें एक श्रृंग युक्त आकृति है जो हाथ में कंगन पहने है। यह आकृति दो पीपल के वृक्षों के मध्य है। बायीं ओर माताओं 

से अलंकृत बकरा है। इसके पीछे एक दूसरी खुंगयुक्त आकृति है जो हाथ कंगन पहने है। यह आकृति दो पीपलके वृक्षों के मध्य हैं। बार्यी ओर मालाओं से अलकृत बकरा है। इसके पीछे एक दूसरी श्रृंगयुक्त देवता (देवी?) की 

आकृति है। शायद इस अंकन में दृक्ष देवता का ही निरूपण है। 


मेसोपोटमिया  को संस्कृति में पशुओं के देवता और उपासक के बीच मध्यस्थ होने की धारणा 

प्रचलित थी। कुछ का यह भी मत है कि उसे पशु को बलि दिये जाने के संदर्श 

में पह्चानना चाहिए; लेकिन जैसा वत्स ने कहा है, यदि पशु को बलि के 

निमित्त दिखाना होता तो उसे बंधा हुआ दिखाया गया होता। एक अन्य मुद्रा 

(आ. 9, ॥) पर पीपल वृक्ष के दो तनों के संगम स्थान से एक अश्रृंगी पशु का 

सिर निकलते दिखाया गया है। ऊपर सात नारी आकृतियों के संदर्भ में पीपल 

वृक्ष का उल्लेख आ चुका है। अन्य मुद्राओं तथा मृद्भाण्डों पर भी पीपल वृद्ष 

दिखाया गया है। 


एक मृष्मुद्रा पर एक वृक्ष है जी पदार्थ के साथ संबद्ध है, 

जिसके सिरे पर पशु का सिर है और सींगों के बीच से वनस्पति निकलती 

दिखायी गयी है। वृक्ष ऊँचे चबूतरे पर दिखाया गया है। यहाँ पर एक भैंसे द्वारा 

एक मनुष्य उछाला जाता दिखाया गया है। शायद यह भैंसा इस वृक्ष का रक्षक 

था। एक दूसरी मुद्रा पर भी उसी तरह का पूजा पदार्थ है जो वृक्ष और नुकीले 

स्तंभ से संबद्ध है। इसके साथ ही दो बकरे हैं और दो व्यक्ति भी दिखाये गये 

हैं। हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा-छाप पर पीपल की टहनी को मेहराब की आकृति 

में झुका दिखाया गया है और इस मेहराब के भीतर देवता दिखाया गया है जो 

जांघिया जैसा वस्त्र पहने हैं और जिसके सिर से मोर की कलगी की तरह तीन 

नुकीली वस्तुएँ निकली दिखाई गई हैं। 


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एक अन्य मुद्रा पर दो व्यक्ति अंकित हैं जिनमें से प्रत्येक के हाथ में 

एक-एक पेड़ है। ऐसी संभावना व्यक्त की गई है कि मुद्रा पर इस अंकन के 

पीछे महाभारत में उल्लिखित कृष्ण द्वारा यमलार्जुन वृक्ष को उखाड़ कर उनकी 

आत्मा मुक्त करने जैसी कहानी रही हो।


 यह भी हो सकता है कि वृक्षों को 

देवता की पूजा में रोपा जा रहा हो। वृक्षों की पूजा प्राकृतिक रूप में भी की 

जाती थी। इस मुद्रा के दूसरी ओर एक झुका व्यक्ति एक पेड़ (जो नीम-सा 

लगता है) की पूजा कर रहा है। कुछ वृक्षों (जैसे पीपल) को वेदिका से वेष्ठित 

दिखलाया गया है। ऐतिहासिक काल में सिक्‍कों पर वेदिका वेष्ठित वृक्ष का 

अंकन अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। पीपल की पवित्रता आज तक वर्तमान है। 


घार्मिक विश्वास और अरुष्टान : 54 


इसकी परिक्रमा की जाती है। बहरीन द्वीप की खुदाई में प्राचीन संस्कृतियों के 

सदर्भ में प्राप्त पत्थर के वृत्ताकार अवशेषों को कुछ विद्वानों मे खज़र वृक्ष के 

लिए बनाया गया घेरा माना है। उनका मत है कि मध्य पूर्व और कुछ अन्य 

क्षेत्रों में भी खजूर के वृक्ष का पर्याप्त घार्निक महत्व था। मोहेंजोदड़ों के "एच . 

आर' क्षेत्र के एक भवन के पास 1.22 मीटर व्यास का घेस मिला। अन्यत्र थी है 

इस सभ्यता मे इस तरह के घेरे मिले हैं जो वृक्षों की पवित्नता के साक्ष्य प्रस्‍त 


करते हैं। पुत्र-प्राप्ति हेतु इसकी पूजा आज भी की जाती है।


 पितरों के तर्पण के 

लिए इन पर मिट्टी के बर्तनों में पानी रखा जाता है। पीपल के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। प्राचीन मेसोपोटामिया में ज्ञान-तरु और जीवन-तरू की 

धारणा विद्यमान थी। 


आज वृक्षों को जीवन्त मानने का बड़ा साक्ष्य वह हैं कि लोग प्रतीक रूप में उनका विवाह भी करते हैं, और कभी तो प्रतीक रूप में कुछ जातियों कन्या का विवाह किसी पुरुष से करने से पहले उसका वृक्ष से विवाह रचाते हैं। 


यह कहना कठिन है कि यही धारणा सिंधु सभ्यत के काल में भी थी। जिस पारंपरिक शैली में पीपल का चित्रण सिंधु सभ्यता के काल में 

हुआ है। वह बेबीलोन में प्राप्त 'जीवन-तरू” के चित्रण की शैली से मिलती-जुलती 

है। इस संदर्भ में एक मुद्रा (मार्शल, संख्या 387) में किये गये अंकन का 

उल्लेख समीचीन होगा जिसमें कि पीपल के वृक्ष की रहनी को दो एक-खूंगी 

पशुओं के संयुक्त सिर से निकलता हुआ दिखलाया गया है। मार्शल ने सुझाव 

दिया है कि शायद एक खुंगी पशु उस समय पीपल देवता का वाहन माना जाता 

था। मृद्भाण्डों पर पीपल की पत्तियों का चित्रण मिला है। जिन अन्य वृक्ष के 

चित्रण बर्तनों और मुद्राओं पर मिले हैं उनमें नीम और बबूल उल्लेखनीय हैं। 


पशु-पूजा 


वृक्ष-पूजा की अपेक्षा सिंधु सभ्यता में पशु-पुजा के अधिक साक्ष्य उपलब्ध लगते हैं। यह साक्ष्य मुद्राओं और उनकी छापों, मिट्टी, कांचली मिट्टी और 

पत्थर के उपकरणों के माध्यम से हम तक पहुँचे हैं। पशु की तरह के दिखाये 

गये हैं - वास्तविक और काल्पनिक। 

केवल एक खूंगी पशु का चित्रण ही ऐसा 

है जिसके बारे में विद्वानों में मतभेद है कि यह वास्तविक पशु का अंकन है या 

काल्पनिक पशु का। 


कल्लेल्लेजनि सर- प्राचीन संस्कृति में मानव-मुखी सिंहों को देवता का 

रूप माना जाता था कीलाकार अभिलेखों में इन्हें देवता कहा गया है ।


52 सिंधु सभ्यता 


सभ्यता की कुछ मुद्राओं पर मिश्र जीवों का अंकन है 95 - 4, 5, 6) कि * 

पशुओं के अंगों के समाकलन से मिश्र पशु आकृंतियों वनायी गयी हैं जो * 

मेढ़ा, बकरा, बैल, बाघ और हाथी प्रमुख हैं। इनमें से कुछ मिश्र-जीवें के * 

मुखाकूति मानवीय लगती ढैँं॥ 

हो सकता है कि इसमें दो या अधिक शक्तियों 

का समन्वित रूप दिखाने का आशय रहा हो # यह भी संभव है कि जि 


मुद्राओं पर इस तरह के जानवर रुपांकिते हैं ये लाचीज की तरह भी प्रयोग पाये जाते रहे हों। शायद मिश्र पशुओं की मूर्तियों को प्रृजा-ठीर पर रबक 


उनकी पूजा की जाती रही होगी। संभवत: मिश्र पशु आकृतियोँ पहले अलग-थी 


इस रूप में पूजे जाने वाले पशुओं का धार्मिक सहिष्णुता एवं धार्मिक एकता के फलस्वरूप बाद में सम्मिलित रूप से पूजे जाने का प्रमाण प्रस्तुत करती है! 


मुखाकृति को मानवीय दिखाना इस बात को इंगित करता है कि देवताओं के पशु रूप में दिखाने की परम्परा से उन्हें मानव रूप में दिखाने का विकास होने लगा था। 


एक मुद्रा (मार्शल सं. 382) में एक शूंगी पशु के तीन सिर दिखाये गये हैं। इसमें सबसे नीचे के सींग भैंसे के और वीच और ऊपर के सिर संग 

बकरे के हैं। एक दूसरे उदाहरण में एक थृंगी पशु के शरीर से निकले तीन 

सिरों में सबसे नीचे वाला भैंसे का, उसके ऊपर वाला एक-अंगी पशु का और 

उसके ऊपर बकरे का है। एक अन्य मुद्रा में तीन बाघों के शरीर एक दूसरे में 

गुंथे हुए दिखाए गए है।


मोहेंजोदड़ों से मैके-को एक ऐसी मुद्रा मिली ढै। जिस पर एक-श्रृँगी 

पशु और गैंडे के शरीर के अवयवों का समाकलित रूप है। इसका शरीर के

एक-ु श्रृँगी पशु का है किन्तु कान, सींग और पैर गैंडे के हैं। इनके आगे भी 

उसी तरह का अभिप्राय दिखाया गया है जैसे एक-श्रृंगी पशु के आगे मिलता है। 


मोहेनजोदड़ों की कुछ मुद्राओं पर अर्ध-मानव अर्ध-पशु आकृति को श्रृंगयुक्त 


[. इस संदर्भ में ऐतिहासिक काल के साहित्य एवं कला में शिव के  अनुवर्तियों और 

गणों का उल्लेख करना समीचीन होगा जिन्हें कभी मानवमुखी और पशु शरीर बाला 

दिखाया जाता है।


 इसी तरह गरुड़, गंधर्व, किन्नर, कुम्भाण्ड आदि को भी मानव और पशु के समाकलित रूप में साहित्य में वर्णित और कला में अंकित किया गया है। 


2. ऊपर उस मुद्रा के संबंध में, जिसे मार्शल ने 'शिव-पशुपति” की संज्ञा दी है, 

केदार नाथ शास्त्री की इस धारणा का उल्लेख किया जा चुका है कि इस मुद्रा पर 

अंकित आकृति एक ऐसी मिश्र आकृति है जिसके अवयर्थों को भिन्‍न भिन्न पशुओं 

अथवा उनके अवयर्वों जैसा बनाया गया है



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