मंगलवार, 12 सितंबर 2023

पद्मपुराण- सृष्टिखण्ड अध्याय(17)


पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का हिन्दी अनुवाद- 

यादव  योगेश कुमार रोहि ( अलीगढ़) एवं   इ० श्री माता प्रसाद यादव  ( लखनऊ )
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               पद्मपुराणम्- 
            (सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७)
   (पदान्वय अर्थसमन्विता सात्वती टीका)
        पद्मपुराणम्‎ -खण्डः प्रथम (सृष्टिखण्डम्)
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                         "भीष्म उवाच"
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१।
"शब्दार्थ-★
१-तस्मिन्यज्ञे= उस यज्ञ में ।  २-किमाश्चर्यम तदासीत् द्विजसत्तम = क्या आश्चर्य तब हुआ द्विजों मे श्रेष्ठ पुलस्त्य जी ३- कथंरूद्र: स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तम: = कैसे रूद्र और विष्णु भी जो देवों में उत्तम हैं वहाँ स्थित रहे  । 
अनुवाद:-
हे द्विज श्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ?  और वहाँ रूद्र और विष्णु जो देवों में उत्तम हैं कैसे बने रहे ? ।१।
_______________ऊं________________

गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
अनुवाद:-
ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ?  और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे मुनि !।२।

_______________ऊं________________
एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
अनुवाद:-
आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना जैसे हुई उसे भी बताइए मुझे यह भी जानने का महा कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने भी उसके बाद जो किया । ३।

_______________ऊं________________
                       पुलस्त्य उवाच
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।
अनुवाद:-
                ( पुलस्त्य ऋषि बोले -)
हे राजन्  उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित है  उसे मैं पूर्ण रूप से कहुँगा  । उस सब को आप एकमन होकर श्रवण करो ।४। 

_______________ ऊं________________
रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
अनुवाद:-
उस सभा में जाकर रूद्र ने तो निश्चय ही आश्चर्य मय कार्य किया  वहाँ वे महादेव निन्दित (घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये ।५।

_______________ऊं________________
विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
अनुवाद:-
इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की  वह वहीं स्थित रहे क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने  यह जानकर कि गोपकन्या गायब अथवा अदृश्य हो गयी  ।६।

_______________ऊं________________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
अनुवाद:-
और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो तो वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या कमर में मेखला ( करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में स्थित है।७।

_______________ऊं________________
हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
अनुवाद:-
यह देखकर उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे  उसके भाई ( बान्धव) स्वसा (बहिन) कहकर तथा सभी सखियाँ सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८। 

_______________ऊं________________
केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
अनुवाद:-
और किस के द्वारा तुम यहाँ लायी गयीं महावर ( अलक्तक) से अंकित तुम सुन्दर साड़ी उतारकर किस के द्वारा तुम कम्बल से युक्त कर दी गयीं ‌?
 ।९।

_______________ऊं________________
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।
१०।
अनुवाद:-
हे पुत्री ! किसके द्वारा तुम्हारे  केशों की जटा (जूड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया गया ? (अहीरों की) इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने स्वयं कहा ! ।१०।

_______________ऊं________________
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
अनुवाद:-
यहाँ यह  हमारे द्वारा लायी गयी हैं और इसे पत्नी के रूप के लिए नियुक्त  किया गया है । अर्थात ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है  अर्थात् यह बाला ब्रह्मा पर आश्रिता है 
अत: यहाँ प्रलाप अथवा दु:खपूर्ण रुदन मत करो! ।११।

_______________ऊं________________
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
अनुवाद:-
यह अत्यंत पुण्य शालिनी सौभाग्यवती तथा तुम्हारे सबके जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यशालिनी नहीं होती तो यह इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।

_______________ऊं________________
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३। 
अनुवाद:-
इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों  शोक करने के योग्य नहीं होते हो !
यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को( पति के रूप में) प्राप्त किया है ।१३  

_______________ऊं________________
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
अनुवाद:-
तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योगकरने वाले योगी और प्रार्थना करने वाले  वेद पारंगत  ब्राह्मण  भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।

_______________ऊं________________
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
अनुवाद:-
(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा  यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा  ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।

_______________ऊं________________
अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले  चापि  देवकार्यार्थसिद्धये अवतारं करिष्येहं ।१६।
अनुवाद:-
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(द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तारदिया  गया है  तम्हारे कुल में और भी देव कार्य की सिद्धि के लिए में मैं अवतरण करुँगा ।।१६। - 
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इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
अनुवाद:-
_______________ऊं________________
सा क्रीडा तु भविष्यति यदा   नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद:-
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।

_______________ऊं________________
करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
अनुवाद:-
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।

_______________ऊं________________
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
अनुवाद:-
उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा  उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।

_______________ऊं________________
न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।।२०।
अनुवाद:-
इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा 
भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीर उन विष्णु को प्रणाम कर तब सभी अपने घरों को चले गये ।२०।

_______________ऊं________________
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
अनुवाद:-
उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव ! आपने जो वरदान हम्हें दिया है वह निश्चय ही हमारा होकर रहे ! आपको हमारे जाति कुल ( वंश ) में धर्म के सिद्धिकरण के लिए आप अवतार करने योग्य ही है ।२१।

_______________ऊं________________
भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
अनुवाद:-
आपका दर्शन करके ही हम सब लोग दिव्य होकर स्वर्ग के निवासी बन गये हैं । शुभ देने वाली ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का तारण करने वाली बन गयी है ।२२।

_______________ऊं________________
एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
अनुवाद:-
हे देवों के स्वामी हे विभो ! आपका ऐसा वरदान हो ! इसके बाद में स्वयं भगवान विष्णु द्वारा अहीरों को  अनुनय पूर्वक आश्वस्त किया गया ।२३।

_______________ऊं________________

ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
अनुवाद:-
ब्रह्मा जी द्वारा भी अपने बाँये  हाथ से सूचित करते हुए कहा गया कि ऐसा ही हो !
उसके दौरान लज्जित होने के कारण वह वर का वरण करने वाली कन्या गायत्री अपने बान्धवों को भी नहीं देख पा रही  थी ।२४।

_______________ऊं________________

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।
अनुवाद:-
किस के द्वारा मैं बता दी गयी जिस कारण ये इस देश को गये  देख कर उन सब को गोपकन्या यह बोली २५।

_______________ऊं________________
वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
अनुवाद:-
बाँयें हाथ के द्वारा उन सबको  सामने से प्रणाम करती हुई उन अपने माता-पिता  के पास जाकर  कहा ! 

_______________ऊं________________
भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
अनुवाद:-
मैंने सर्वप्रथम पति रूप में देव ब्रह्मा को प्राप्त कर लिया है ; आप लोगों और मेरे माता- पिता  और बान्धवों । मेरे विषय में अब कोई चिन्ता नहीं करनी  चाहिए ।२७।

_______________ऊं________________
सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
अनुवाद:-
मेरी सखीयाँ' मेरी बहने और उनके पुत्र -पुत्रीयाँ सभी से मेरा कुशल आप लोग कहेंगे मैं देवताओं(देवीयों) के साथ हूँ। २८।

_______________ऊं________________
गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
अनुवाद:-
तत्पश्चात् उन सभी गोपों के अपने घर चले जाने पर अत्यन्ता सुन्दरी गायत्री देवी ब्रह्मा जी के साथ यज्ञ शाला में जाते हुए सुशोभित हुयीं ।२९।

_______________ऊं________________
याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
अनुवाद:-
इसके बाद यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों ने ब्रह्मा जी से कहा आप हम लोगों को इच्छित वरदान दें !
इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन सब आगत ब्राह्मणों को इच्छित वरदान दिया ।३०।

_______________ऊं________________
तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
अनुवाद:-
गायत्री देवी ने भी ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये वरदान का समर्थन किया वह साध्वी देवताओं के समीप बनी रहीं ।३१।

_______________ऊं________________
दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
अनुवाद:-
वह यज्ञ दिव्य सौ वर्षों से भी अधिक वर्षों तक चलता रहा उसी समय यज्ञ शाला में भगवान रूद्र भिक्षा प्राप्त करने के लिए आये ।३२।

_______________ऊं________________
बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।
अनुवाद:-
वे अपने हाथ में बहुत बड़ा कपाल लिए हुए और पाँच मुण्डों की माला धारण किए हुए थे उन्हें दूर से उठते हुए देखकर ऋत्विक् और सदस्य उनकी निन्दा करने लगे ३३।

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कथं त्वमिह संप्राप्तो निंदितो वेदवादिभिः
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निंद्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।
अनुवाद:-
अरे ! तुम यहाँ कैसे आ गये ? वेदज्ञ पुरुष तुम्हारे इस आचरण और स्वरूप की निन्दा करते हैं । इस उन पुरोहितों द्वारा  उनको दूर किये जाते हुए और निन्दा किये जाते हुए भी ।३४।

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उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।
अनुवाद:-
शंकर ने मुस्कराकर उन ब्राह्मणों के प्रति कहा यहाँ  सभी को सन्तुष्ट करने वाले  ब्रह्मा जी का यज्ञ है ।३५।
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कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः
उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज।३६।
अनुवाद:-
हे द्विज श्रेष्ठो ! तुम किसी के द्वारा मुझे ही दूर हटाया जा रहा है। अर्थात ्हे ब्राह्मण श्रेष्ठो ! केवल मुझको ही भगाया जा रहा है ? इसके पश्चात वे पुरोहित बोले ! ठीक है तुम भोजन करके चले जाना ।३६।

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कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।
अनुवाद:-
इसके प्रत्युत्तर में शंकर जी ने कहा – ब्राह्मणों ! मैं भोजन करके चला जाऊँगा इस तरह से कहकर शंकर जी अपने सामने कपाल रखकर बैठ गये ।३७।

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तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।
अनुवाद:-
उन ब्राह्मणों के उस कर्म को देखकर शंकर जी ने भी कुटिलता की कपाल को भूमि पर रखकर उन लोगों को देखते रहे ।३८।

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उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।
अनुवाद:-
उन्होंने कहा श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! मैं पुष्कर में स्नान करने के लिए जा रहा हूँ । ब्राह्मणों ने कहा शीघ्र जाओ ! यह सुनकर परमेश्वर शंकर वहाँ से चले गये  ।३९।

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वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।
अनुवाद:-
वे देवताओं को मोहित करके  आकाश में वहीं स्थित हो गये  कौतुक के साथ शंकर जी के पुष्कर चले जाने पर ब्राह्मणों ने परस्पर कहा ।४०। 

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कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते
कपालांतान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।
अनुवाद:-
जब इस यज्ञ सभा मेंं कपाल विद्यमान है ; तो फिर होम कैसे किया जा  सकता है ? कपाल के भीतर रहने वाली वस्तुएँ अपवित्र होती हैं ऐसा स्वयं ब्रह्मा जी ने पूर्व काल में कहा था

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विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।
अनुवाद:-
उस सभा में एक ब्राह्मण ने कहा कि मैं इस कपाल को उठाकर फैंक देता हूँ । और स्वयं सदस्य द्वारा अपने हाथ में उठाकर उसे फैंक दिए जाने पर ।४२।

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तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।   
अनुवाद:-
वहाँ दूसरा कपाल निकल आया फिर उसके भी फैंक दिये जाने पर तीसरा बींसवाँ तीसवाँ
भी कपाल ब्राह्मण द्वारा फैंका गया ।४३।

_______________ऊं________________
पञ्चाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा
एवं नान्तः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।
अनुवाद:-
पचासवाँ' सौंवाँ 'हजारवाँ 'दश हजारवाँ 'भी उसी तरह उठाकर फैंका गया इस तरह वे ब्राह्मण कपालों का अन्त नहीं कर पाते हैं 
 थे ।४४।

_______________ऊं________________
नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।

अनुवाद:-
इसके पश्चात शंकर जी को नमस्कार करके वे ब्राह्मण शंकर जी की शरण में उनके पास गये पुष्कर वन में जाकर वैदिक स्त्रोतों द्वारा उन ब्राह्मणों ने शंकर (रूद्र) की अत्यधिक स्तुति की।४५।

_______________ऊं________________
तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः।४६।
अनुवाद:-
परिणामस्वरूप शिव जी प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया ।४५-४६।

_______________ऊं________________
उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।
अनुवाद:-
उसके पश्चात शंकर की भक्ति से नम्र बने रहे ब्राह्मणों से शंकर जी ने कहा ! ब्राह्मणों कपाल के विना पुरोडास की सिद्धि अथवा निष्पत्ति नहीं होती है ।४७।

विशेष----
यव (जौ)आदि के आटे की बनी हुई टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी। 
विशेषत:— यह आकार में लंबाई लिए गोल और बीच में कुछ मोटी होती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिये मंत्र पढ़कर आहुति दी जाती थी।
अत: यह यज्ञ का अंग है। यही हवि है अर्थात वह हवि या पुरोडाश जो यज्ञ से बच रहे।
 वह वस्तु जो यज्ञ में होम की जाय। यज्ञभाग।. सोमरस को भी पुरोडाश कहा जाता था  आटे की चौंसी 

_______________ऊं________________
कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।
अनुवाद:-
हे ब्राह्मणों मेरी बात मानों स्विष्टकृत (अच्छे यज्ञ ) का भाग मेरा होता है ऐसा करने से मेरी सभी आज्ञाओं का पालन अथवा शास्त्रीय विधान हो जाता है ।४८। 

विशेष- सु+इष्ट= स्विष्ट इज्यते इष्यते वा यज इष वा + भावे क्त ।)  इष्ट– यज्ञादिकर्म्म ।

_______________ऊं________________
तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्
कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।४९।
अनुवाद:-
तब सभी द्विज बोले ! हे शम्भु  !आप जो भी आदेश दोगे हम करेगें। अर्थात् ब्राह्मणों ने तथास्तु ! कह कर शंकर जी से कहा कि हम आपकी आज्ञाओं का पालन करेंगे  हाथ में कपाल लेकर शिवजी ने ब्रह्मा जी से कहा ।।४९।

_______________ऊं________________
वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५०। 
1.17.50
अनुवाद:-
हे ब्रह्मा ! आपके हृदय में जो वरदान की प्रिय इच्छा हो वह माँग लीजिए आपको अदेय कुछ भी नहीं है प्रभो !।।५०।

_______________ऊं________________
                           ब्रह्मोवाच
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।
अनुवाद:-
ब्रह्मा जी ने कहा हे शंकर मैं आपसे वरदान नहीं मागूँगा मैं दीक्षा लेकर इस सभा में उपस्थित हूँ ।
 यहाँ कोई भी मुझसे जो याचना करता है मैं उसकी सारी कामनाऐं पूर्ण कर देता हूँ।५१।

_______________ऊं________________
एवं वदंतं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।
अनुवाद:-
उस यज्ञ में इस प्रकार कहने वाले और वरदान देने वाले ब्रह्मा जी से शंकर ने वरदान माँगा ।५२।

_______________ऊं________________
ततो मन्वंतरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना।५३।
अनुवाद:-
इसके बाद मन्वन्तर बीत जाने पर स्वयं प्रभु शिव ने ब्रह्मोत्तर स्थान पर स्वयं का स्थान बनाया ।।५३।

_______________ऊं________________
चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।
अनुवाद:-
चारों वेदोंं के जानकार  ब्राह्मण उस समय  निश्चय ही वे  तब देव नगरों को देखने के लिए गये ।५४। 

_______________ऊं________________
संभाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।
अनुवाद:-
शिवजी को सभा में उन्मत्त वेष में गया हुआ देखकर ब्राह्मणों को शिव जी ने कौतूहल से बात करत देखा।५५।

_______________ऊं________________
प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः
प्रहसंति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।
अनुवाद:-
शंकर जी उस उन्मत्त वेष से ब्राह्मणों के घर में घुस गये। उस समय ब्राह्मणों ने  उनको देखकर कुछ ने उनका उपहास किया तो कुछ ने निन्दा की ।५६।

_______________ऊं________________
अपरे पांसुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।
अनुवाद:-
दूसरे ब्राह्मण उन्मत्त शंकर के ऊपर धूल फेंकने लगे । बल के गर्व से कुछ ब्राह्मण प्रचण्ड बने थे  कुछ ब्राह्मण शंकर को ढ़ेले और लकुटी से मारने लगे ।५७।

_______________ऊं________________
प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चांतिकम्।५८।
अनुवाद:-
कुछ उपहास करते हुए शंकर पर मुक्कों से  प्रहार करते हैं तत्पश्चात कुछ अन्य ब्रह्म चारी (वटव) वहाँ  उनकी जटा पकड़कर उनके पास जाते हैं।
 ।५८। 

_______________ऊं________________
पृच्छंति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः।५९।
अनुवाद:-
यह व्रतचर्या किससे तुमने पूछी और किसके द्वारा इसको निर्देशित किया गया है यहाँ सुन्दर स्त्रियाँ हैं उनको पाने के लिए तुम यहाँ आये हो।५९।

_______________ऊं________________
केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०।
अनुवाद:-
तुम्हें यह वृतचर्या किस पाप दर्शी गुरु के द्वारा दिखाई गयी है ?  किस पापी गुरु ने तुमको यह आचरण बताया है किसके कहने से पागल के समान  बोलते हुए तुम सबके बीच में दौड़ रहे हो ।६०।

_______________ऊं________________
शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१।
अनुवाद:-
शंकर ने कहा मेरा लिंग ब्रह्म स्वरूप है और भग (योनि) भी जनार्दन है  अन्यथा यह संसार बीज वपन करते हुए कष्ट अनुभव करता ।६१।
विशेष-
जनान् लोकान् अर्द्दति गच्छति प्राप्नोति  रक्षणार्थं पालकत्वादिति जनार्द्दनः । ” इत्यमरटीकायां भरतः
(जन: जननं अर्द्दति प्राप्नोति इति जनार्दन-यौनि)

_______________ऊं________________
मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२। 
अनुवाद:-
मैने इसे पुत्र रूप से उत्पन्न किया और इसने मुझे उत्पन्‍न किया है महादेव के द्वारा सृष्टि किये जाने पर उसकी पत्नी की सृष्टि हिमालय से हुई ।६२।

_______________ऊं________________
उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।
अनुवाद:-
उमा का विवाह शंकर से हुआ  बताओ यह किस की पुत्री है । तुम लोग मूर्ख हो नहीं जानते हो जाकर इस बात को ब्राह्मा जी से पूछो ।६३।
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ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृते न तु।६४।
अनुवाद:-
इस आचरण को ब्रह्मा ने नहीं किया यह आचरण विष्णु के द्वारा भी नहीं दर्शाया गया है । पर्वत पर सोने वाले  देव के द्वारा यह ब्रह्म हत्या करने के निमित्त तो नहीं! ।६४।

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कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः।६५।
अनुवाद:-
अरे तुम लोग ब्रह्मा जी की निन्दा कर रहे हो आज तुम हम लोगों के बाध्य हो इस तरह से उन ब्राह्मणों द्वारा कहकर मारे जाते हुए है वहाँ शंकर । ६५। 

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स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।
अनुवाद:-
हे नृप श्रेष्ठ शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों से कहा ब्राह्मणों ! क्या तुम लोग अज्ञानी और उन्मत्त मुझको नहीं जानते हो ।६६।

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यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।
अनुवाद:-
आप लोग दयालु और मेरे मित्र हैं  इस तरह से कहते हुए बनाबटी ब्रह्म-रूपधारी शंकर  को ।६७।

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मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाः
कपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।
अनुवाद:-
शंकर की माया से मोहित वे ब्राह्मण शंकर को  हाथ' पैैर' मुुुक्कोंं से मारते हैं ।६८। 

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दंडैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्
पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९।
अनुवाद:-
 उन्मत्त वेष धारी शंकर को वे डण्डों और कीलों से पीडित करने लगे  तब  उन सबके द्वारा पीटे  जातेे हुए शंकर क्रोधित हो गये । ६९। 

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ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताः
ऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।
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अनुवाद:-
इसके बाद  ने उन ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि तुम
 सब वेदज्ञान विहीन ऊपर की ओर जटा रखने वाले  यज्ञाधिकार से रहित परस्त्रीगामी हो जाओ । ७०। 

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वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताः
न पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।
अनुवाद:-
वेश्या प्रेमी' द्यूतक्रीडाप्रेमी और माता-पिता से रहित हो जाओगे तुम लोगों का पुत्र पिता की सम्पत्ति अथवा विद्या को नहीं प्राप्त कर पायेगा।७१।

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सर्वे च मोहिताः संतु सर्वेंद्रियविवर्जिताः
रौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिंडोपजीविनः।७२।
अनुवाद:-

तुम सब लोग अज्ञानी तथा शिथिल इन्द्रिय हो जाओगे रूद्र की भिक्षा को खाने के लिए दूसरों के द्वारा दिये गये अन्न पर ही जीवन धारण करोगे। ७२। 

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आत्मानं वर्तयंतश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्।७३।
अनुवाद:-
केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले निर्मम और अधार्मिक हो जाओगे जिन ब्राह्मणों ने मुझ उन्मत्त के ऊपर इस समय कृपा की है।७३। 
 

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तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासम् अजा अविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
अनुवाद:-
उन ब्राह्मणों के यहाँ धन पुत्र दासी 'दास बकरी" भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४। 

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एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।
इस तरह से ब्राह्मणों को शाप और वरदान देकर अर्द्ध नारीश्वर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये उनके चले जाने पर ब्राह्मणों ने जाना कि ये तो भगवान शंकर थे ।७५। 

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अन्विष्यंतोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।
उनका अन्वेषण करते हुए यत्न के द्वारा भी ब्राह्मण जब उन्हें वहाँ नहीं देखा पाया तो वे सब नियम का पालन करते हुए पुष्कर क्षेत्र में आये। ।७६।

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स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।
वहाँ उन ब्राह्मणों ने ज्येष्ठ सरोवर में स्नान करके  शतरूद्रीय सूक्त का जप किया जपकरके  अन्त में शंकर जी ने आकाशवाणी के रूप में उन ब्राह्मणों से कहा ।७७।

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अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।
 मेरे द्वारा   असत्य नहीं कहा गया और स्वैच्छाचारीयों के प्रति तो कहना ही क्या निग्रह का विषय बन जाने पर मैं  दुबारा क्षमा करता हूँ ‌।७८।

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शान्ता दान्ता द्विजा ये तु भक्तिमन्तो मयि स्थिराःन तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि संततिः।७९।
जो ब्राह्मण शान्त दान्त हैं उनकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति है उन सभी के वेद ज्ञान' धन और सन्तान आदि का नाश नहीं होगा।७९।

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अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमंतो जनार्दने
पूजयंति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्।८०।
अग्निहोत्रकरने वाले भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले ब्रह्मा जी पूजा करने वाले तथा तेजोराशि सूर्य की पूजा करने वाले ।८०। 

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नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।
 जिनकी साम्य में बुद्धि स्थित है उन लोगों का कभी अशुभ नहीं होता है  इतना  कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी ।८१। 

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लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः।८२।
अनुवाद:-
देवाराध्य भगवान् शंकर से प्रसन्नता पूर्वक वर प्राप्त कर के वहीं आगये सभी के साथ जहाँ ब्रह्माजी पहले विद्यमान थे ।८२। 

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विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतः स्थिताः
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।
अनुवाद:-
वेैदिकसंहिता की ऋचाओं से ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनके समक्ष खड़े ब्राह्मणों से ब्रह्मा जी ने कहा आप लोग मुझसे भी वरदान माँगे ।८३। 

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ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।
अनुवाद:-
ब्रह्मा जी के इस वाक्य को सुनकर सभी ब्राह्मण प्रसन्न हो गये  उन्होंने कहा ब्राह्मणों ! प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से कौन सा वरदान माँगा जाय! ।८४।



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ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः।
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।
अग्निहोत्राणि वेदाश्च शास्त्राणि विविधानि च।
सांतानिकाश्च ये लोका वरदानाद्भवंतु नः।८५।
एवं प्रजल्पतां तत्र विप्राणां कोपमाविशत्।
के यूयं केत्र प्रवरा वयं श्रेष्ठास्तथापरे।८६।
नेतिनेति तथा विप्रा द्विजांस्तांस्तत्र संस्थितान्।
ब्रह्मोवाचाभिसंप्रेक्ष्य ब्राह्मणान्क्रोधपूरितान्।८७।
यस्माद्यूयं त्रिभिर्भागैः सभायां बाह्यतः स्थिताः।
तस्मादामूलिको गुल्मो ह्येको भवतु वोद्विजाः।८८।
उदासीनाः स्थिता ये तु उदासीना भवंतु ते।
सायुधाबद्धनिस्त्रिंशा योद्धुकामा व्यवस्थिताः।८९।
कौशिकीति गणो नाम तृतीयो भवतु द्विजाः।
त्रिधाबद्धमिदं स्थानं सर्वं युष्मद्भविष्यति।९०।
बाह्यतो लोकशब्देन प्रोच्यमानाः प्रजास्त्विह।
अविज्ञेयमिदं स्थानं विष्णुः पालयिता ध्रुवम्।९१।
मया दत्तं चिरस्थायि अभंगं चभविष्यति।
एवमुक्त्वा तदा ब्रह्मा समाप्तिंतामवैक्षत।९२।
ब्राह्मणाः सहितास्ते तु क्रोधामर्षसमन्विताः।
अतिथिं भोजयानाश्च वेदाभ्यासरतास्तु ते।९३।
एतच्च परमं क्षेत्रं पुष्करं ब्रह्मसंज्ञितम्।
तत्रस्था ये द्विजाः शांता वसंति क्षेत्रवासिनः।९४।
न तेषां दुर्लभं किंचिद्ब्रह्मलोके भविष्यति।
कोकामुखे कुरुक्षेत्रे नैमिषे ऋषिसंगमे।९५।
वाराणस्यां प्रभासे च तथा बदरिकाश्रमे।
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।९६।
रुद्रकोट्यां विरूपाक्षे मित्रस्यापि तथा वने।
तीर्थेष्वेतेषु सर्वेषु सिद्धिर्या द्वादशाब्दिका।९७।
प्राप्यते मानवैर्लोके षण्मासाद्राजसत्तम।
पुष्करे तु न संदेहो ब्रह्मचर्यमना यदि।९८।
तीर्थानां परमं तीर्थं क्षेत्राणामपि चोत्तमम्।
सदा तु पूजितं पूज्यैर्भक्तियुक्तैः पितामहे।९९।
अतः परं प्रवक्ष्यामिसावित्र्या ब्रह्मणा सह।
वादो यथानुभूतस्तु परिहासकृतो महान्।१००। 1.17.100।
सावित्रीगमने सर्वाआगता देवयोषितः।
भृगोःख्यात्यां समुत्पन्नाविष्णुपत्नी यशस्विनी।१०१।
आमन्त्रिता सदा लक्ष्मीस्तत्रायाता त्वरान्विता।
मदिराच महाभागा योगनिद्रा विभूतिदा।१०२।
श्रीःकमलालयाभूतिः कीर्तिः श्रद्धा मनस्विनी।
पुष्टितुष्टिप्रदा या तु देव्या एताः समागताः।१०३।
सती या दक्षतनया उमेति पार्वती शुभा।
त्रैलोक्यसुंदरी देवी स्त्रीणां सौभाग्यदायिनी।१०४।
जया च विजया चैव मधुच्छंदामरावती।
सुप्रिया जनकांता च सावित्र्या मंदिरे शुभे।१०५।
गौर्या सह समायातास्सुवेषा भरणान्विताः।
पुलोमदुहिता चैव शक्राणी च सहाप्सराः।१०६।
स्वाहा चापि स्वधाऽऽयाता धूमोर्णा च वरानना।
यक्षी तु राक्षसी चैव गौरी चैव महाधना।१०७।
मनोजवा वायुपत्नी ऋद्धिश्च धनदप्रिया।
देवकन्यास्तथाऽऽयाता दानव्यो दनुवल्लभाः।१०८।
सप्तर्षीणां महापत्न्य ऋषीणां च वरांगनाः।
एवं भगिन्यो दुहिता विद्याधरीगणास्तथा।१०९।

राक्षस्यः पितृकन्याश्च तथान्या लोकमातरः।
वधूभिः सस्नुषाभिश्च सावित्री गंतुमिच्छति।११०।
अदित्याद्यास्तथा सर्वा दक्षकन्यास्समागताः।
ताभिः परिवृता साध्वी ब्रह्माणी कमलालया।१११।
काचिन्मोदकमादाय काचिच्छूर्पं वरानना।
फलपूरितमादाय प्रयाता ब्रह्मणोंतिकम्।११२।
आढकीः सह निष्पावा गृहीत्वान्यास्तथापरा।
दाडिमानि विचित्राणि मातुलिंगानि शोभना।११३।
करीराणि तथा चान्या गृहीत्वा कमलानि च।
कौसुंभकं जीरकं च खर्जूरमपरा तथा।११४।
उत्तमान्यपरादाय नालिकेराणि सर्वशः।
द्राक्षयापूरितं काचित्पात्रंश्रृँगाटकंतथा।११५।
कर्पूराणि विचित्राणि जंबूकानि शुभानि च।
अक्षोटामलकान्गृह्य जम्बीराणि तथापरा।११६।
बिल्वानि परिपक्वानि चिपिटानि वरानना।
कार्पासतूलिकाश्चान्या वस्त्रं कौसुम्भकं तथा।११७।
एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः।
सावित्र्यासहिताःसर्वाः संप्राप्ताःसहसाशुभाः।११८।
सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरन्दरः।
अधोमुखः स्थितोब्रह्मा किमेषा मांवदिष्यति।११९।
त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः।
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।
पुत्राःपौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा।
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।
वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति।
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।
मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः।
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।
शक्रेणान्याहृताआभीरादत्ता सा विष्णुनास्वयम्।
अनुमोदिताचरुद्रेणपित्राऽदत्तास्वयं तथा।१२४।
कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्।
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया।१२५।
वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा।
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।
पत्नीशालास्थिता गोपी सैणश्रृँगा समेखला।
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।
पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता।
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।
द्योतयन्ती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा।
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयन्ते ऋत्विजस्तथा।१२९।
पशूनामिह गृह्णानाभागं स्वस्व चरोर्मुदा।
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।१३०।
कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः।
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टःसर्वैर्मनीषिभिः।१३१।
प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः।
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।१३२।
उपहूतेनागते नचाहूतेषु द्विजन्मसु।
क्रियमाणे तथाभक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।१३३।

उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्।
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्।१३४।
मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्।
नतुल्यापादरजसा ममैषा या शिरः कृता।१३५।
यद्वदन्ति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः।
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।
भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्।
पुत्रेषु नकृतालज्जा पौत्रेषुचन तेप्रभो।१३७।
कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्।
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।
कथं न ते त्रपा जाता आत्मनःपश्यतस्तनुम्।
लोकमध्येकृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।
यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते।
अहंकथंसखीनांतु दर्शयिष्यामि वैमुखम्।१४०।
भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे।
।ब्रह्मोवाच।
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।१४१।
पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय।
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना।१४२।
गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्।
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।१४३।
पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते।
।पुलस्त्य उवाच।
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।
यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः।
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।१४५।
नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन।
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।१४६।
करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले।
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।१४७।
भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोन्तिकम्।
यस्मात्ते क्षुद्रकंकर्मतस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।१४८।
यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि।
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।
अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः।
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।१५०।1.17.150।
शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्।
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।१५१।
भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे।
हृतातेशत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।
न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः।
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।१५३।
यदा यदुकुले जातः•★कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि।१५४।
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः।
तदा त ॠषयः क्रुद्धाःशापं दास्यंतिवै हर।१५५।
भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि।
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगंपतिष्यति।१५६।
विहीनः पौरुषेण त्वं मुनिशापाच्च पीडितः।
गंगाद्वारेस्थिता पत्नी सा त्वामाश्वासयिष्यति।१५७।

अग्ने त्वं सर्वभक्षोसि पूर्वं पुत्रेण मे कृतः।
भृगुणा धर्मनित्येन कथं दग्धं दहाम्यहम्।१५८।
जातवेदस्स रुद्रस्त्वां रेतसा प्लावयिष्यति।
अमेध्येषु च तेजिह्वा अधिकं प्रज्वलिष्यति।१५९।
ब्राह्मणानृत्विजः सर्वान्सावित्रीवैशशाप ह।
प्रतिग्रहार्थाग्निहोत्रोवृथाटव्याश्रयास्तथा।१६०।
सदा तीर्थानि क्षेत्राणि लोभादेव भजिष्यथ।
परान्नेषु सदातृप्ता अतृप्तास्स्वगृहेषु च।१६१।
अयाज्ययाजनं कृत्वा कुत्सितस्य प्रतिग्रहम्।
वृथाधनार्जनं कृत्वा व्ययं चैव तथा वृथा।१६२।
प्रेतानां तेन प्रेतत्वं भविष्यति न संशयः।
एवं शक्रं तथा विष्णुं रुद्रं वै पावकं तथा।१६३।
ब्रह्माणं ब्राह्मणांश्चैव सर्वांस्तानाशपद्रुषा।
शापं दत्वा तथातेषां निष्क्रांता सदसस्तथा।१६४।
ज्येष्ठं पुष्करमासाद्य तदासा च व्यवस्थिता।
लक्ष्मींप्राह सतीं तां चशक्रभार्यां वराननाम्।१६५।
युवतीस्तास्तथोवाच नात्र स्थास्यामि सन्सदि।
तत्रचाहं गमिष्यामि यत्रश्रोष्ये न च ध्वनिम्।१६६।
ततस्ताः प्रमदाः सर्वाः प्रयाताः स्वनिकेतनम्।
सावित्री कुपिता तासामपि शापाय चोद्यता।१६७।
यस्मान्मां तु परित्यज्य गतास्ता देवयोषितः।
तासामपि तथा शापंप्रदास्येकुपिता भृशम्।१६८।
नैकत्रवासो लक्ष्म्यास्तु भविष्यतिकदाचन।
क्षुद्रा सा चलचित्ता चमूर्खेषु चवसिष्यति।१६९।
म्लेच्छेषु पार्वतीयेषु कुत्सिते कुत्सिते तथा।
मूर्खेषु चावलिप्तेषु अभिशप्ते दुरात्मनि।१७०।
एवंविधे नरे स्यात्ते वसतिःशापकारिता।
शापं दत्वाततस्तस्या इंद्राणीमशपत्ततदा।१७१।
ब्रह्महत्या गृहीतेंद्रे पत्यौ तेदुःखभागिनि।
नहुषापहृते राज्ये दृष्ट्वा त्वांयाचयिष्यति।१७२।
अहमिंद्रः कथं चैषा नोपस्थास्यति बालिशा।
सर्वान्देवान्हनिष्यामि न लप्स्येहं शचीं यदि।१७३।
नष्टा त्वं च तदा त्रस्ता वाक्पतेर्दुःखिता गृहे।
वसिष्यसे दुराचारे मम शापेन गर्विते।१७४।
देवभार्यासु सर्वासु तदा शापमयच्छत।
न चापत्यकृतां प्रीतिमेताः सर्वा लभिष्यथ।१७५।
दह्यमाना दिवारात्रौ वंध्याशब्देन दूषिताः।
गौर्य्यप्येवं तदा शप्ता सावित्र्या वरवर्णिनी।१७६।
रुदमाना तु सा दृष्टा विष्णुना च प्रसादिता।
मा रोदीस्त्वंविशालाक्षि एह्यागच्छ सदाशुभे।१७७।
प्रविश्य च सभां देहि मेखलां क्षौमवाससी।
गृहाण दीक्षां ब्रह्माणिपादौ च प्रणमामि ते।१७८।
एवमुक्ताऽब्रवीदेनं न करोमि वचस्तव।
तत्रचाहं गमिष्यामि यत्रश्रोष्ये न वै ध्वनिम्।१७९।
एतावदुक्त्वा सारुह्य तस्मात्स्थानद्गिरौ स्थिता।
विष्णुस्तदग्रतःस्थित्वाबध्वा च करसम्पुटं।१८०।
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भक्त्या परमया स्थितः।
।विष्णुरुवाच।
सर्वगा सर्वभूतेषु द्रष्टव्या सर्वतोद्भुता।१८१।
सदसच्चैव यत्किंचिद्दृश्यं तन्न विना त्वया
तथापियेषु स्थानेषु द्रष्टव्या सिद्धिमीप्सुभिः।१८२।
स्मर्तव्या भूमिकामैर्वा तत्प्रवक्ष्यामि तेग्रतः।
सावित्री पुष्करेनाम तीर्थानां प्रवरे शुभे।१८३।
वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी।
प्रयागे ललितादेवी कामुका गंधमादने।१८४।
मानसे कुमुदा नाम विश्वकाया तथाम्बरे।
गोमन्ते गोमती नाम मन्दरेकामचारिणी।१८५।
मदोत्कटा चैत्ररथे जयन्ती हस्तिनापुरे।
कान्यकुब्जे तथा गौरीरम्भा मलयपर्वते।१८६।
एकाम्रके कीर्तिमती विश्वा विश्वेश्वरी तथा।
कर्णिके पुरुहस्तेति केदारे मार्गदायिका।१८७।
नन्दा हिमवतः पृष्टे गोकर्णे भद्रकालिका।
स्थाण्वीश्वरे भवानी तु बिल्वकेबिल्वपत्रिका।१८८।
श्रीशैले माधवीदेवी भद्राभद्रेश्वरी तथा।
जया वराहशैले तु कमलाकमलालये।१८९।
रुद्रकोट्यां तुरुद्राणी काली कालन्जरे तथा।
महालिंगे तु कपिला कर्कोटे मंगलेश्वरी।१९०।
शालिग्रामे महादेवी शिवलिंगेजलप्रिया।
मायापुर्यां कुमारीतु सन्तानेललितातथा।१९१।
उत्पलाक्षी सहस्राक्षे हिरण्याक्षे महोत्पला।
गयायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे।१९२।
विपाशायाममोघाक्षी पाटला पुण्यवर्द्धने।
नारायणी सुपार्श्वे तु त्रिकूटे भद्रसुंदरी।१९३।
विपुले विपुला नाम कल्याणी मलयाचले।
कोटवी कोटितीर्थे तु सुगंधा माधवीवने।१९४।
कुब्जाम्रके त्रिसन्ध्या तु गंगाद्वारे हरिप्रिया।
शिवकुंडे शिवानंदा नंदिनी देविकातटे।१९५।
रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृन्दावने तथा।
देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी।१९६।
चित्रकूटे तथा सीता विंध्ये विंध्यनिवासिनी।
सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चन्द्रे तु चन्द्रिका।१९७।
रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती।
करवीरे महालक्ष्मी रुमादेवी विनायके।१९८।
अरोगा वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी।
अभया पुष्पतीर्थे तु अमृता विंध्यकंदरे।१९९।
माण्डव्ये माण्डवी देवी स्वाहा माहेश्वरे पुरे।
वेगले तु प्रचण्डाथ चण्डिकामरकण्टके।२००। 1.17.200।
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती।
देवमाता सरस्वत्यांपारापारे तटे स्थिता।२०१।
महालये महापद्मापयोष्ण्यां पिंगलेश्वरी।
सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिकेये तु शंकरी।२०२।
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा सिंधुसंगमे।
उमा सिद्धवने लक्ष्मीरनंगा भरताश्रमे।२०३।
जालंधरे विश्वमुखी तारा किष्किंधपर्वते।
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले।२०४।
भीमा देवी हिमाद्रौ च तुष्टिर्वस्त्रेश्वरे तथा।
कपालमोचने श्रद्धा माता कायावरोहणे।२०५।
शंखोद्धारे ध्वनिर्नाम धृतिःपिण्डारके तथा।
काला तु चंद्रभागायामच्छोदे सिद्धिदायिनी।२०६।
वेणायाममृता देवी बदर्यामूर्वशी तथा।
औषधी चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका।२०७।
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी।
अश्वत्थेवंदनीया तु निधिर्वै श्रवणालये।२०८।
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ।
देवलोके तथेंद्राणी ब्रह्मास्ये तु सरस्वती।२०९।
सूर्यबिंबे प्रभानाम मातॄणां वैष्णवी तथा।
अरुन्धती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।२१०।
चित्रे ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणां।
एतद्भक्त्या मया प्रोक्तं नामाष्टशतमुत्तमं।२११।
अष्टोत्तरं च तीर्थानां शतमेतदुदाहृतं।
यो जपेच्छ्रुणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।२१२।
येषु तीर्थेषु यः कृत्वा स्नानं पश्येन्नरोत्तमः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कल्पं ब्रह्मपुरे वसेत्।२१३।
नामाष्टकशतं यस्तु श्रावयेद्ब्रह्मसन्निधौ पौर्णमास्याममायां वा बहुपुत्रो भवेन्नरः।२१४।
गोदाने श्राद्धदाने वा अहन्यहनि वा पुनः।
देवार्चनविधौ शृण्वन्परं ब्रह्माधिगच्छति।२१५।
एवं स्तुवंतं सावित्री विष्णुं प्रोवाच सुव्रता।
सम्यक्स्तुता त्वया पुत्र त्वमजय्योभविष्यसि।२१६।
अवतारे सदारस्त्वं पितृमातृषु वल्लभः।
इह चागत्य यो मांतु स्तवेनानेन संस्तुयात्।२१७।
सर्वपापविनिर्मुक्तः परं स्थानं गमिष्यति।
गच्छयज्ञं विरिञ्चस्य समाप्तिं नय पुत्रक।२१८।
कुरुक्षेत्रे प्रयागे च भविष्ये चान्नदायिनी।
समीपगा स्थिता भर्त्तुःकरिष्ये तव भाषितम्।२१९।
एवमुक्तो गतो विष्णुर्ब्रह्मणः सद उत्तम्।
गतायामथ सावित्र्यां गायत्री वाक्यमब्रवीत्।२२०।
शृण्वन्तु वाक्यमृषयो मदीयं भर्तृसन्निधौ।
यदिदं वच्म्यहं तुष्टा वरदानाय चोद्यता।२२१।
ब्रह्माणं पूजयिष्यंति नरा भक्तिसमन्विताः।
तेषां वस्त्रं धनंधान्यं दाराःसौख्यं धनानि च।२२२।
अविच्छिन्नं तथा सौख्यं गृहे वै पुत्रपौत्रकम्।
भुक्त्वासौ सुचिरं कालमंते मोक्षं गमिष्यति।२२३।
।पुलस्त्य उवाच।
ब्रह्माणं च प्रतिष्ठाप्य सर्वयत्नैर्विधानतः।
यत्पुण्यफलमाप्नोति तदेकाग्रमनाः शृणु।२२४।
सर्वयज्ञ तपो दान तीर्थ वेदेषु यत्फलम्।
तत्फलं कोटिगुणितं लभेतैतत्प्रतिष्ठया।२२५।
पौर्णमास्युपवासं तु कृत्वा भक्त्या नराधिप।
अनेन विधिना यस्तु विरिंचिं पूजयेन्नरः।२२६।
प्रतिपदि महाबाहो स याति ब्रह्मणः पदम्।
विरिंचिं वासुदेवं तु ऋत्विग्भिश्च विशेषतः।२२७।
कार्तिके मासि देवस्य रथयात्रा प्रकीर्तिता।
यांकृत्वावामानवाभक्त्यासंयान्तिब्रह्मलोकताम्।२२८।
कार्तिके मासि राजेंद्र पौर्णमास्यां चतुर्मुखम्।
मार्गेण ब्रह्मणा सार्द्धं सावित्र्या च परंतप।२२९।
भ्रामयेन्नगरं सर्वं नानावाद्यसमन्वितः।
स्नपयेद्भ्रमयित्वा तु सलोकं नगरं नृप।२३०।
ब्राह्मणान्भोजयित्वाग्रे शाण्डिलेयं प्रपूज्य च।
आरोपयेद्रथे देवं पुण्यवादित्रनिःस्वनैः।२३१।
रथाग्रे शाण्डिलीपुत्रं पूजयित्वा विधानतः।
ब्राह्मणान्वाचयित्वातु कृत्वा पुण्याहमङ्गलम्।२३२।
देवमारोपयित्वा च रथे कुर्यात्प्रजागरं।
नानाविधैः प्रेक्षणिकैर्ब्रह्मघौषैश्च पुष्कलैः।२३३।
कृत्वा प्रजागरं देवं प्रभाते ब्राह्मणान्नृप।
भोजयित्वा यथाशक्ति भक्ष्यभोज्यैरनेकशः।२३४।
पूजयित्वा जनं धीर मंत्रेण विधिवन्नृप।
आज्येन तु महाबाहो पयसा पायसेन च।२३५।
ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु स्वस्त्या तु विधिवन्नृप।
कृत्वा पुण्याहशब्दं च तद्रथं भ्रामयेत्पुरे।२३६।
विप्रैश्चतुर्वेदविद्भिर्भ्रामयेद्ब्रह्मणो रथम्।
बह्वृवृचाथर्वणैर्वीरछंदोगाध्वर्युभिस्तथा।२३७।
भ्रामयेद्देवदेवस्य सुरश्रेष्ठस्य तं रथं।
प्रदक्षिणं पुरं सर्वं मार्गेण सुसमेन तु।२३८।

न चारोहेद्रथं प्राज्ञो मुक्त्वैकं भोजकं नृपः।२३९।
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे गायत्रीं स्थापयेन्नृप।
भोजकं वामपार्श्वे तुपुरतःपंङ्कजं न्येसेत्।२४०।
एवं तूर्यनिनादैस्तु शंखशब्दैश्च पुष्कलैः।
भ्रामयित्वा रथं वीर पुरं सर्वं प्रदक्षिणम्।२४१।
स्वस्थाने स्थापयेद्देवं दत्वा नीराजनं बुधः।
यएवं कुरुते यात्रां यो वा भक्त्यापिपश्यति।२४२।
रथं वा कर्षयेद्यस्तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदं।
कार्तिके मास्यमावास्यां यश्च दीपप्रदीपनं।२४३।
शालायां ब्रह्मणःकुर्यात्स गच्छेत्परमं पदम्।
गंधपुष्पैर्नवैर्वस्त्रैरात्मानं पूजयेत्तु यः।२४४।
तस्यां प्रतिपदायां तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदम्।
महापुण्यातिथिरियं बलिराज्यप्रवर्तिनी।२४५।
ब्रह्मणः सुप्रिया नित्यं बालेयी परिकीर्तिता।
ब्रह्माणं पूजयेद्योऽस्यामात्मानं च विशेषतः।२४६।
स याति परमं स्थानं विष्णोरमिततेजसः।
चैत्रे मासि महाबाहो पुण्या प्रतिपदां वरा।२४७।
तस्यां यः श्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यान्नरोत्तमः।
न तस्य दुरितं किंचिन्नाधयो व्याधयो नृप।२४८।
भवंति कुरुशार्दूल तस्मात्स्नानं समाचरेत्।
दिव्यं नीराजनंतद्धि सर्वरोगविनाशनं।२४९।
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप।
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणंबाह्यतो न्यसेत्।२५०।1.17.250।
ब्राह्मणानां तथा भोज्यं कुर्यात्कुरुकुलोद्वह।
तिस्रो ह्येताः पुरा प्रोक्तास्तिथयः कुरुनंदन।२५१।
कार्तिकाश्वयुजे मासि चैत्रेमासि तथा नृप।
स्नानं दानं शतगुणं कार्त्तिके या तिथिर्नृप।२५२।
बलिराज्ञस्तु शुभदा पशूनां हितकारिणी।
।गायत्र्युवाच।
यदुक्तं तु तया वाक्यं सावित्र्या कमलोद्भवं।२५३।
न तु ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यन्ति कदाचन।
मदीयं तु वचःश्रुत्वा ये करिष्यंति चार्चनं।२५४।
इह भुक्त्वा तु भोगांस्ते परत्र मोक्षभागिनः।
एतां ज्ञात्वा परां दृष्टिं वरं तुष्टः प्रयच्छति।२५५।
शक्राहं ते वरं दास्ये संग्रामे शत्रुनिग्रहे।
तदा ब्रह्मा मोचयिता गत्वा शत्रुनिकेतनम्।२५६।
स्वपुरं लप्स्यसे नष्टं शत्रुनाशात्परां मुदं।
अकंटकं महद्राज्यं त्रैलोक्ये ते भविष्यति।२५७।
मर्त्यलोके यदा विष्णो अवतारं करिष्यसि।
भ्रात्रा सह परं दुःखं स्वभार्याहरणादिजं।२५८।
हत्वा शत्रुं पुनर्भार्यां लप्स्यसे सुरसन्निधौ।
गृहीत्वातां पुनाराज्यं कृत्वा स्वर्गंगमिष्यसि।२५९।
एकादशसहस्राणि वर्षाणां च पुनर्दिवं।
ख्यातिस्ते विपुला लोके अनुरागं जनैस्सह।२६०।
सान्तानिकानाम तेषां लोका स्थास्यंति भाविताः।
त्वया ते तारिता देव रामरूपेण मानवाः।२६१।
गायत्री तु तदा रुद्रंवरदा प्रत्यभाषत।
पतितेपिच ते लिंगे पूजां कुर्वंति ये नराः।२६२।
ते पूताः पुण्यकर्माणः स्वर्गलोकस्य भागिनः।
न तां गतिं चाग्निहोत्रे न क्रतौ हुतपावके।२६३।
यां गतिं मनुजा यांति तव लिंगस्य पूजनात्।
गंगातीरे सदा लिंगं बिल्बपत्रेण ये तव।२६४।
पूजयिष्यंति सुप्राता रुद्रलोकस्य भागिनः।
प्राप्यापि शर्वभक्तत्वमग्ने त्वं भव पावनः।२६५।
त्वयि प्रीते सुराः सर्वे प्रीता वै नात्र संशयः।
त्वन्मुखेन हविर्देवैः प्रीताः प्रीते त्वयिध्रुवम्।२६६।
भुंजते नात्र संदेहो वेदोक्तं वचनं यथा।
गायत्री ब्राह्मणांस्तांश्च सर्वांश्चैवाब्रवीदिदं।२६७।
युष्माकं प्रीणनं कृत्वा सर्वतीर्थेषु मानवाः।
पदं सर्वे गमिष्यंति वैराजाख्यं न संशयः।२६८।
अन्नप्रकारान्विविधान्दत्वा दानान्यनेकशः।
श्राद्धेषु प्रीणनं कृत्वा देवदेवा भवंति ते।२६९।
ये च वै ब्राह्मणश्रेष्ठास्तेषामास्ये दिवौकसः।
भुंजते च हविः क्षिप्रं कव्यं चैवपितामहाः।२७०।
यूयं हि धारणे शक्तास्त्रैलोक्यस्य न संशयः।
प्राणायामेन चैकेन सर्वे पूता भविष्यथ।२७१।
विशेषात्पुष्करे स्नात्वा मां जप्त्वा वेदमातरं।
प्रतिग्रहकृतान्दोषान्न प्राप्स्यथ द्विजोतमाः।२७२।
पुष्करे चान्नदानेन प्रीताः स्युः सर्वदेवताः।
एकस्मिन्भोजिते विप्रेकोट्याः फलमवाप्स्यते।२७३।
ब्रह्महत्यादिपापानि दुष्कृतानि कृतानि च।
करिष्यंति नरास्सर्वे दत्वा युष्मत्करे धनम्।२७४।
मदीयेन तु जाप्येन पूजनीयस्त्रिभिः कृतैः।
ब्रह्महत्यासमं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।२७५।
दशभिर्जन्मभिर्जातं शतेन च पुरा कृतं।
त्रियुगेन सहस्रेण गायत्री हन्ति किल्बिषं।२७६।
एवं ज्ञात्वा सदा पूता जाप्ये तु मम वै कृते।
भविष्यध्वं न संदेहो नात्र कार्या विचारणा।२७७।
प्रणवेन त्रिमात्रेण सार्द्धंजप्त्वा विशेषतः।
पूताः सर्वे न संदेहो जप्त्वामां शिरसा सह।२७८।
अष्टाक्षरा स्थिता चाहं जगद्व्याप्तं मया त्त्विदं।
माताहं सर्ववेदानां पदैः सर्वेरलंकृता।२७९।
जप्त्वा मां भक्तितः सिद्धिं यास्यंति द्विजसत्तमाः।
प्राधान्यं मम जाप्येन सर्वेषां वो भविष्यति।२८०।
गायत्रीसारमात्रोपि वरं विप्रः सुसंयतः।
नायंत्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी।२८१।
यस्माद्विप्रेषु सावित्र्या शापो दत्तःसदस्यथ।
अत्र दत्तं हुतं चापि सर्वमक्षयकारकम्।२८२।
दत्तो वरो मया तेन युष्माकं द्विजसत्तमाः।
अग्निहोत्रपरा विप्रास्त्रिकालं होमदायिनः।२८३।
स्वर्गं ते तु गमिष्यंति सैकविंशतिभिः कुलैः।
एवं शक्रस्य विष्णोश्च रुद्रस्य पावकस्य च।२८४।
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गायत्रीवरमुत्तमम्।
तस्मिन्वै पुष्करे दत्त्वा ब्रह्मणःपार्श्वगाऽभवत्।२८५।
चारणैस्तु तदाऽऽख्यातं लक्ष्म्या वै शापकारणम्।
युवतीनाञ्च सर्वासां शापाञ्ज्ञात्वापृथक्पृथक्।२८६।
लक्ष्म्याश्चैव वरं प्रादाद्गायत्री ब्रह्मणः प्रिया।
अकुत्सितान्सदा सर्वान्कुर्वन्ती धनशोभना।२८७।
शोभिष्यसे न संदेहः सर्वेभ्यः प्रीतिदायिनी।
ये त्वया वीक्षिताःपुत्रि सर्वेते पुण्यभोजनाः।२८८।
परित्यक्तास्त्वया ये तु सर्वे ते दुःखभागिनः।
तेषां जातिः कुलं शीलं धर्मश्चैव वरानने।२८९।
सभायां ते च शोभंते दृश्यंते चैव पार्थिवैः।
अर्थित्वं चैव तेषां तु करिष्यंति द्विजोत्तमाः।२९०।
सौजन्यं तेषु कुर्वंति त्वं नो भ्राता पिता गुरुः।
बांधवोपि न संदेहो न जीवेयं त्वया विना।२९१।
त्वयि दृष्टे प्रसन्ना मे दृष्टिर्भवति शोभना।
मनः प्रसीदतेत्यर्थं सत्यं सत्यं वदामि ते।२९२।
एवंविधानि वाक्यानि त्वद्दृष्ट्या ये निरीक्षिताः।
सज्जनास्ते तु श्रोष्यंति जनानां प्रीतिदायकाः।२९३।
इन्द्रत्वं नहुषः प्राप्य दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति।
त्वद्दृष्ट्या तु हतःपापो ह्यगस्त्यवचनाद्ध्रुवम्।२९४।
सर्पत्वं समनुप्राप्य प्रार्थयिष्यति तं तु सः।
दर्पेणाहं विनष्टोस्मि शरणं मे मुने भव।२९५।
वाक्येन तेन तस्यासौ नृपस्य भगवानृषिः।
कृत्वा मनसि कारुण्यमिदं वाक्यं वदिष्यति।२९६।
उत्पत्स्यते कुले राजा त्वदीये कुलनन्दनः।
सर्परूपधरं दृष्ट्वा स ते शापं हि भेत्स्यति।२९७।
तदा त्वं सर्पतां त्यक्त्वा पुनः स्वर्गं गमिष्यसि।
अश्वमेधकृतेन त्वं भर्त्रा सह पुनर्दिवम्।२९८।
प्राप्स्यसे वरदानेन मदीयेन सुलोचने।
।पुलस्त्य उवाच।
देवपत्न्यस्तदा सर्वास्तुष्टया परिभाषिताः।२९९।
अपत्यैरपि हीनानां नैव दुःखं भविष्यति।
गौरी चैव तु गायत्र्या तदा सापि विबोधिता।३००। 1.17.300।
बृंहिता परितोषेण वरान्दत्त्वा मनस्विनी।
समाप्तिंतस्य यज्ञस्य काञ्क्षन्तीब्रह्मणःप्रिया।३०१।
वरदां तां तथा दृष्ट्वा गायत्रीं वेदमातरम्।
प्रणिपत्य तदा रुद्रः स्तुतिमेतां चकार ह।३०२।
।रुद्र उवाच।
नमोस्तु ते वेदमातरष्टाक्षरविशोधिते।
गायत्री दुर्गतरणी वाणी सप्तविधा तथा।३०३।
सर्वाणि स्तुतिशास्त्राणि गाथाश्च निखिलास्तथा।
अक्षराणि च सर्वाणि लक्षणानि तथैव च।३०४।
भाष्यादि सर्वशास्त्राणि ये चान्ये नियमास्तथा।
अक्षराणि च सर्वाणि त्वं तु देवि नमोस्तुते।३०५।
श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशांकेन समानना।
बिभ्रती विपुलौ बाहू कदलीगर्भकोमलौ।३०६।
एणश्रृँगं करे गृह्य पंकजं च सुनिर्मलम्।
वसाना वसने क्षौमे रक्तेनोत्तरवाससा।३०७।
शशिरश्मिप्रकाशेन हारेणोरसि राजिता।
दिव्यकुंडलपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां सुविभूषिता।३०८।
चंद्रसापत्न्यभूतेन मुखेन त्वं विराजसे।
मकुटेनातिशुद्धेन केशबंधेन शोभिता।३०९।
भुजंगाभोगसदृशौ भुजौ ते भूषणन्दिवः।
स्तनौ ते रुचिरौ देवि वर्तुलौ समचूचुकौ।३१०।
जघनेनातिशुभ्रेण त्रिवलीभंगदर्पिता।
सुमध्यवर्त्तिनी नाभिर्गंभीरा शुभदर्शिनी।३११।
विस्तीर्णजघना देवी सुश्रोणी च वरानने।
सुजातवृत्तोरुयुगा सुजानु चरणा तथा।३१२।
त्रैलोक्यधारिणी सा त्वं भुवि सत्योपयाचना।
भविष्यसि महाभागे वरदा वरवर्णिनी।३१३।
पुष्करे च कृता यात्रा दृष्ट्वा त्वां संभविष्यति।
ज्येष्ठे मासेपौर्णमास्यामग्र्यांपूजां च लप्स्यसे।३१४।
ये च वा त्वत्प्रभावज्ञाः पूजयिष्यंति मानवाः।
न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा।३१५।
कान्तारेषु निमग्नानामटव्यां वा महार्णवे।
दस्युभिर्वानिरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।३१६।
त्वं सिद्धिःश्रीर्धृतिः कीर्तिर्ह्रीर्विद्या सन्नतिर्मतिः।
संध्या रात्रिःप्रभा निद्रा कालरात्रिस्त्वमेव च।३१७।

अंबा च कमला मातुर्ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी।
जननी सर्वदेवानां गायत्री परमांगना।३१८।
जया च विजया चैव पुष्टिस्त्वं च क्षमा दया।
सावित्र्यवरजा चासि सदा चेष्टा पितामहे।३१९।
बहुरूपा विश्वरूपा सुनेत्रा ब्रह्मचारिणी।
सुरूपा त्वं विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी।३२०।
नगरेषु च पुण्येषु आश्रमेषु वरानने।
वासस्तव महादेवि वनेषूपवनेषु च।३२१।
ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु ब्रह्मणो वामतः स्थिता।
दक्षिणेन तु सावित्री मध्ये ब्रह्मा पितामहः।३२२।
अंतर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चापि दक्षिणा।
सिद्धिस्त्वंहि नृपाणांच वेला सागरजा मता।३२३।
ब्रह्मचारिणि या दीक्षा शोभा च परमा मता।
ज्योतिषांच प्रभा देवीलक्ष्मीर्नारायणे स्थिता।३२४।
क्षमा सिद्धिर्मुनीनां च नक्षत्राणां च रोहिणी।
राजद्वारेषु तीर्थेषु नदीनां संगमेषु च।३२५।
पूर्णिमा पूर्णचंद्रे च बुद्धिर्नीत्यां क्षमा धृतिः।
उमादेवी च नारीणां श्रूयसे वरवर्णिनी।३२६।
इन्द्रस्य चारुदृष्टिस्त्वं सहस्रनयनोपगा।
ॠषीणां धर्मबुद्धिस्त्वं देवानां च परायणा।३२७।
कर्षकाणां च सीता त्वं भूतानां धरणी तथा।
स्त्रीणामवैधव्यकरी धनधान्यप्रदा सदा।३२८।
व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता शमयिष्यसि।
तथा तु कार्तिके मासि पौर्णमास्यांसुपूजिता।३२९।
सर्वकामप्रदा देवी भविष्यसि शुभप्रदे।
यश्चेदं पठते स्तोत्रं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।३३०।
सर्वार्थसिद्धिं लभते नरो नास्त्यत्र संशयः।
।गायत्र्युवाच।
भविष्यत्येवमेवं तु यत्त्वया पुत्र भाषितम्३३१।
विष्णुना सहितः सर्वस्थानेष्वेव भविष्यसि।


इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः१७।

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75-93. इस प्रकार शाप और वरदान देकर भगवान अन्तर्धान हो गये। जब वह चला गया, तो ब्राह्मणों ने उसे भगवान शंकर समझकर उसकी तलाश करने की कोशिश की; लेकिन जब उन्हें वह नहीं मिला, तो वे आत्म-निर्धारित धार्मिक अनुष्ठानों से संपन्न होकर, पुष्कर वन में आये। प्रमुख सरोवर में स्नान करके ब्राह्मणों ने रुद्र के सैकड़ों (नामों) का उच्चारण किया। प्रार्थना के बुदबुदाने के अंत में, भगवान (अर्थात शिव) ने उनसे दिव्य वाणी में कहा: “यहां तक ​​कि मुक्त बातचीत में भी मैंने कभी झूठ नहीं बोला; फिर जब मैंने अपनी इंद्रियों पर अंकुश लगा लिया है तो मैं ऐसा कैसे करूंगा? मैं तुम्हें फिर से खुशियाँ प्रदान करूँगा। वेद (अर्थात् वैदिक ज्ञान), उन ब्राह्मणों का धन और संतान नहीं छीनी जाएगी जो शांत, संयमित, मेरे प्रति समर्पित और मुझमें स्थिर हैं। उन (ब्राह्मणों) के लिए कुछ भी अशुभ नहीं है जो पवित्र अग्नि को बनाए रखने में लगे हुए हैं,   जनार्दन. (अर्थात विष्णु),के प्रति समर्पित हैं ब्रह्मा (और) सूर्य की पूजा करें - चमक का ढेर, और जिनके मन संतुलन में स्थिर हैं। यह कहकर वह चुप हो गये। सभी (ब्राह्मण) महान देवता (अर्थात शिव) से वरदान और अनुग्रह प्राप्त करके एक साथ (उस स्थान पर) गए जहां ब्रह्मा (रहते थे)। वे सब मिलकर ब्रह्मा को प्रसन्न करते हुए उनके सामने रुके। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर उनसे कहा, "मुझसे भी कोई वर मांग लो।" ब्रह्मा के इन वचनों से वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रसन्न हुए। (उन्होंने एक-दूसरे से कहा:) “हे ब्राह्मणों, ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर हमें कौन सा वरदान माँगना चाहिए? आइए, इस वरदान के अनुदान के परिणामस्वरूप, पवित्र अग्नि, वेदों, विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और संतानों से संबंधित (अर्थात) लोकों का रखरखाव करें। जब ब्राह्मण इस प्रकार बात कर रहे थे (आपस में) तो वे क्रोधित हो गये; "आप कौन हैं? यहाँ प्रमुख कौन हैं? हम यहां श्रेष्ठ हैं।” अन्य ब्राह्मणों ने कहा: "नहीं, (ऐसा नहीं है)।" ब्रह्मा ने वहां मौजूद ब्राह्मणों को क्रोध से भरा हुआ देखकर उनसे कहा, "चूंकि आप यज्ञ सभा से बाहर तीन समूहों में रह गए हैं, इसलिए, ब्राह्मण, आप में से एक समूह को बुलाया जाएगा।"अमूलिका ; जो तटस्थ रहे, वे उदासीन कहलाएँगे ; हे ब्राह्मणों, तीसरा समूह उन लोगों का होगा जिनके पास हथियार हैं और उन्होंने खुद को तलवारों से सुसज्जित किया है और उन्हें कौशिकी कहा जाएगा । इस प्रकार तीन प्रकार से (तीनों समूहों द्वारा) कब्ज़ा किया गया यह स्थान पूर्णतः आपका होगा। यहाँ की प्रजा (जीवित) को बाहर से (अर्थात बाहरी लोगों द्वारा) 'संसार' कहा जायेगा; विष्णु निश्चित ही इस अज्ञात स्थान की देखभाल करेंगे। मेरे द्वारा दिया गया यह स्थान अनन्त काल तक रहेगा और पूर्ण रहेगा।” ऐसा कहकर ब्रह्मा ने यज्ञ के समापन के बारे में सोचा। ये सभी ब्राह्मण (कुछ समय पहले) क्रोध और ईर्ष्या से भरे हुए थे, उन्होंने मिलकर मेहमानों को भोजन कराया और वैदिक अध्ययन में तल्लीन हो गए।

94-99. यह पुष्कर, जिसे ब्रह्मा भी कहा जाता है, एक महान पवित्र स्थान है। उस पवित्र स्थान पर रहने वाले शान्त ब्राह्मणों के लिए ब्रह्मा की दुनिया में कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं है। हे श्रेष्ठ राजा, जो वस्तु अन्य पवित्र स्थानों पर बारह वर्षों के बाद होती है वह इन पवित्र स्थानों पर छह महीने के भीतर ही हो जाती है। कोकामुख , कुरूक्षेत्र , नैमिषा जहां ऋषियों की मंडली है, वाराणसी , प्रभास , बदरिकाश्रम भी, और गंगाद्वार , प्रयाग , और वह स्थान जहां गंगा सागर से मिलती है, रुद्रकोटि , विरूपाक्ष, इसी प्रकार मित्रवन [4] ; (मनुष्य के उद्देश्य की पूर्ति के विषय में) यदि मनुष्य धार्मिक अध्ययन का इच्छुक है तो इसमें कोई संदेह नहीं है। पुष्कर सभी पवित्र स्थानों में सबसे महान और सबसे अच्छा है; यह हमेशा पोते (अर्थात ब्रह्मा) को समर्पित सम्मानित लोगों द्वारा पूजनीय है।

100-118. इसके बाद मैं आपको सावित्री और ब्रह्मा के बीच (सावित्री और ब्रह्मा के बीच) मजाक के कारण हुए महान विवाद के बारे में बताऊंगा ।

सावित्री के जाने के बाद सभी दिव्य देवियाँ वहाँ आईं। भृगु की पुत्री ख्याति से उत्पन्न हुई । लक्ष्मी , (हमेशा) सफल, हमेशा (सावित्री) द्वारा आमंत्रित, जल्दी से वहाँ आई। अत्यंत गुणी मदिरा , योगनिद्रा (नींद और जागने के बीच की स्थिति) और समृद्धि की दाता ; श्री, कमल में रहने वाली, भूति , कीर्ति और उच्च-मन वाली श्रद्धा : पोषण और संतुष्टि देने वाली ये सभी देवियाँ (वहाँ) आ गई थीं; सती , दक्ष की पुत्री, शुभ पार्वतीया उमा, तीनों लोकों में सबसे सुंदर महिला, महिलाओं को सौभाग्य (विधवापन का अभाव) देती है; जया और विजया , मधुछंदा, अमरावती , सुप्रिया , जनककांता (सभी एकत्रित हुए थे) सावित्री के शुभ निवास में। वे, जिन्होंने बढ़िया पोशाकें और आभूषण पहन रखे थे, गौरी के साथ आये थे । (ऐसी देवियाँ थीं) मकरानी, ​​पुलोमन की बेटी, दिव्य अप्सराओं के साथ; स्वाहा , स्वधा और धुमोर्ना , सुंदर चेहरे वाली; यक्षी और राक्षसी और अत्यंत धनी गौरी; मनोजवा , वायु की पत्नी, और ऋद्धि , कुबेर की प्रेमिका (पत्नी) ; इसी प्रकार देवताओं की पुत्रियाँ और दनु की प्रिय दानव देवियाँ भी वहाँ आई थीं। सप्तर्षियों की महान सुंदर पत्नियाँ, [5] उसी प्रकार बहनें, बेटियाँ और विद्याधारियों की सेनाएँ ; राक्षसियाँ , पितरों की बेटियाँ और अन्य विश्व-माताएँ । सावित्री युवा विवाहित महिलाओं और बहुओं के साथ (यज्ञ स्थल पर) जाना चाहती थी; अदिति की तरह दक्ष की सभी पुत्रियाँ भी इसी प्रकार हैंऔर अन्य आये थे. पवित्र महिला अर्थात. ब्रह्मा की पत्नी (सावित्री), जिनका निवास स्थान कमल था, उनसे घिरी हुई थीं। कोई सुन्दर स्त्री हाथ में मिठाइयाँ लिये थी, कोई फलों से भरी टोकरी लिये ब्रह्मा के पास पहुँची। इसी प्रकार अन्य लोग फटे अनाज का उपाय कर रहे हैं; इसी प्रकार एक सुन्दर स्त्री भी नाना प्रकार के अनार, नींबू आदि ले कर आई; दूसरे ने बाँस की कोंपलें, और कमल, केसर, जीरा, खजूर भी लिये; दूसरे ने सारे नारियल ले लिये; (दूसरे) ने अंगूर (-रस) से भरा बर्तन लिया; इसी तरह शृंगाटक पौधा, विभिन्न प्रकार के कपूर-फूल और शुभ गुलाब; इसी तरह किसी और ने अखरोट, एम्ब्लिक हरड़ और नींबू भी लिया; एक सुन्दर स्त्री ने पके हुए बिल्व -फल और चपटे चावल लिए; किसी और ने कपास ले ली-बाती और केसरिया रंग का वस्त्र। सभी शुभ और सुन्दर स्त्रियाँ ये सब वस्तुएँ टोकरी में रखकर सावित्री के साथ वहाँ पहुँचीं।

119-120. पुरन्दर , सावित्री को वहाँ देखकर भयभीत हो गया; ब्रह्मा भी मुँह लटकाये वहीं बैठे रहे (सोचते रहे) 'अब वह मुझसे क्या कहेगी?' विष्णु और रुद्र शर्मिंदा थे, वैसे ही अन्य सभी ब्राह्मण भी; (यज्ञ सभा के) सदस्य और अन्य देवता भयभीत हो गये।

121-122. पुत्र, पौत्र, भतीजे, मामा, भाई, इसी प्रकार ऋभु तथा अन्य देवता भी - सभी इस बात से लज्जित रहे कि सावित्री (तब) क्या कहेगी।

123-124. चरवाहे की बेटियाँ ब्रह्मा के पास चुपचाप बैठी रहीं और वहां बात कर रहे सभी लोगों की बातें सुनती रहीं। 'सबसे अच्छे रंग-रूप वाली महिला, हालांकि (मुख्य) पुजारी द्वारा बुलाई गई थी, नहीं आई; (इसलिए) इंद्र एक और चरवाहा लाए (और) विष्णु ने स्वयं उसे ब्रह्मा के सामने प्रस्तुत किया।

125-129. वह बलिदान के समय कैसा (व्यवहार) कर रही होगी? यज्ञ कैसे पूरा होगा?' जब वे इस प्रकार सोच रहे थे, तो कमल में रहने वाली (ब्रह्मा की पत्नी) ने प्रवेश किया। ब्रह्मा उस समय (यज्ञ सभा के), पुजारियों और देवताओं से घिरे हुए थे। वेदों में पारंगत ब्राह्मण अग्नि में आहुति दे रहे थे। चरवाहा, कक्ष में रहकर (बलिदान की गई पत्नी के लिए) और हिरण का सींग और करधनी पहने हुए, और रेशमी वस्त्र पहने हुए, सर्वोच्च पद पर ध्यान कर रही थी। वह अपने पति के प्रति वफादार थी, उसका पति ही उसका जीवन था; वह प्रमुखता से बैठी थी; वह सौन्दर्य से सम्पन्न थी; चमक में वह सूर्य के समान थी: उसने वहां की सभा को सूर्य की चमक के समान प्रकाशित किया।

130. याजक बलि के पशुओं के धधकते हुए अग्नि (भेंट) भाग की भी पूजा करते थे।

131-136. तब यज्ञ में आहुति का अंश प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले देवताओं ने कहा: “(बलि) में देरी नहीं करनी चाहिए; (किसी कार्य के लिए) देर से किया हुआ, उसका (वांछित) फल नहीं देता; यही नियम वेदों में सभी विद्वानों द्वारा देखा गया है।” जब दो दूध के बर्तन तैयार हो गए, तो भोजन संयुक्त रूप से पकाया गया, और जब ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया, तो अध्वर्युजिसे आहुति दी गई थी, वह वहां आया था, और प्रवर्ग्य वेदों में कुशल ब्राह्मणों द्वारा किया गया था; खाना बन रहा था. देवी (सावित्री) ने यह देखकर क्रोध से ब्रह्मा से कहा, जो (यज्ञ) सत्र में चुपचाप बैठे थे: “तुम यह क्या दुष्कर्म करने जा रहे हो, कि वासना के कारण तुमने मुझे त्याग दिया और पाप किया? वह, जिसे तुमने अपने सिर पर रखा है (अर्थात जिसे तुमने इतना महत्व दिया है) वह मेरे पैर की धूल से भी तुलनीय नहीं है। (यज्ञ-सभा में एकत्र हुए लोग यही कहते हैं।) यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा हो तो उन देवताओं की आज्ञा का पालन करो।

137-141. सौन्दर्य की अभिलाषा के द्वारा तू ने वह किया है, जिसकी लोग निन्दा करते हैं; हे प्रभु, तू न तो अपने बेटों से लज्जित हुआ और न अपने पोतों से; मैं समझता हूं कि तुमने आवेश में आकर यह निंदनीय कार्य किया है; आप देवताओं के पौत्र और ऋषियों के प्रपौत्र हैं! जब तुमने अपना शरीर देखा तो तुम्हें शर्म कैसे नहीं आई? तुम लोगों के लिए हास्यास्पद बन गये हो और तुमने मुझे हानि पहुंचायी है। यदि यह तुम्हारी दृढ़ भावना है, तो हे भगवान, (अकेले) जियो; तुम्हें नमस्कार (अलविदा); मैं अपने दोस्तों को अपना चेहरा कैसे दिखा पाऊंगा? मैं लोगों को कैसे बताऊं कि मेरे पति ने (दूसरी महिला को) अपनी पत्नी बना लिया है?”

ब्रह्मा ने कहा :
142-144. दीक्षा के तुरंत बाद, पुजारियों ने मुझसे कहा: पत्नी के बिना यज्ञ नहीं किया जा सकता; अपनी पत्नी को जल्दी लाओ. यह (दूसरी) पत्नी इंद्र द्वारा लाई गई थी, और विष्णु द्वारा मुझे प्रदान की गई थी; (तो) मैंने उसे स्वीकार कर लिया; हे सुंदर भौहों वाले, मैंने जो किया उसके लिए मुझे क्षमा करें। हे उत्तम प्रतिज्ञा करने वाले, मैं फिर तुझ पर ऐसा अन्याय न करूंगा। मुझे क्षमा करना, जो तुम्हारे चरणों पर गिर पड़ा हूं; आपको मेरा प्रणाम.

पुलस्त्य ने कहा :
इस प्रकार संबोधित करने पर वह क्रोधित हो गयी और ब्रह्मा को श्राप देने लगी:

145-148. "यदि मैंने तपस्या की है, यदि मैंने ब्राह्मणों के समूहों में और विभिन्न स्थानों पर अपने गुरुओं को प्रसन्न किया है, तो ब्राह्मण कभी भी आपकी पूजा नहीं करेंगे, सिवाय कार्तिक के महीने में आपकी वार्षिक पूजा (जो कि ब्राह्मणों द्वारा की जाती है) को छोड़कर (अकेले) ) पेशकश करें, लेकिन पृथ्वी पर किसी अन्य स्थान पर अन्य पुरुषों को नहीं।” ब्रह्मा से ये शब्द कहते हुए, उसने पास में मौजूद इंद्र से कहा: "हे शक्र , आप चरवाहे को ब्रह्मा के पास ले आए। चूँकि यह नीच कर्म था इसलिए तुम्हें इसका फल मिलेगा।

149. जब तुम युद्ध में खड़े होगे (लड़ने को तैयार होगे) तो शत्रुओं द्वारा बाँध दिये जाओगे और बहुत (दयनीय) दुर्दशा में पहुँच जाओगे।

150. बिना किसी संपत्ति के होने के कारण, अपनी ऊर्जा खोकर, आप एक बड़ी हार का सामना करने के बाद, अपने दुश्मन के शहर में रहेंगे, (लेकिन) जल्द ही रिहा कर दिए जाएंगे।

151-153. इंद्र को (इस प्रकार) शाप देने के बाद देवी ने विष्णु से (ये शब्द) बोले: "जब, भृगु के शाप के कारण तुम नश्वर संसार में जन्म लोगे, तो तुम्हें वहां (अर्थात उस अस्तित्व में) अलगाव की पीड़ा का अनुभव होगा।" अपनी पत्नी से. तेरी पत्नी को तेरा शत्रु महान महासागर के पार ले जाएगा; दुःख से व्याकुल मन के कारण तुम्हें पता नहीं चलेगा (किसके द्वारा उसे ले जाया गया है) और तुम एक महान विपत्ति का सामना करने के बाद अपने भाई के साथ दुखी होगे।

154-156. जब तुम यदु -कुल में जन्म लोगे तो तुम्हारा नाम कृष्ण रखा जायेगा ; और पशुओं का सेवक होकर बहुत दिन तक भटकता रहेगा।” तब क्रोधित होकर उसने रुद्र से कहा: “हे रुद्र, जब तुम दारुवन में रहोगे , तब क्रोधित ऋषि तुम्हें शाप देंगे; हे खोपड़ीवाले, नीच, तू हमारे बीच में से एक स्त्री को छीन लेना चाहता है; अत: तुम्हारा यह अभिमानी जनन अंग आज भूमि पर गिर पड़ेगा।

157-160. पुरुषत्व से रहित होकर तुम ऋषियों के शाप से पीड़ित होओगे। गंगाद्वार पर रहने वाली आपकी पत्नी आपको सांत्वना देगी। “हे अग्नि , तुम्हें पहले मेरे पुत्र भृगु ने सर्वभोक्ता बनाया था, जो सदैव धर्मात्मा था। मैं (तुम्हें) कैसे जलाऊँगा जो पहले ही उसके द्वारा जल चुके हैं? हे अग्नि, वह रुद्र तुम्हें अपने वीर्य से डुबा देगा, और यज्ञ के योग्य न होने वाली वस्तुओं का सेवन करते समय तुम्हारी जीभ (अर्थात तुम्हारी लौ) और अधिक भड़क उठेगी।'' सावित्री ने उन सभी ब्राह्मणों और पुजारियों को श्राप दिया, जो उसके पति को लूटने के लिए यज्ञ-याजक बन गए थे, और जो बिना कुछ लिए जंगल में चले गए थे:

161. “केवल लालच के कारण ही सभी पवित्र और पवित्र स्थानों का सहारा लें; तुम सदैव दूसरों का भोजन पाकर ही संतुष्ट होगे; परन्तु अपने घर में बने भोजन से सन्तुष्ट न होगे।

162-164. जो त्यागने योग्य नहीं है उसका त्याग करने से और जो तुच्छ है उसे स्वीकार करने से, धन कमाने और उसे निरुद्देश्य खर्च करने से - इससे (तुम्हारे) मृत शरीर केवल बिना किसी संस्कार के दिवंगत आत्माएं (उन्हें अर्पित की जा रही) होंगी। इस प्रकार क्रोधित (सावित्री) ने इंद्र को, विष्णु, रुद्र, अग्नि, ब्रह्मा और सभी ब्राह्मणों को भी शाप दे दिया।

165-166. इस प्रकार उन्हें शाप देकर वह (यज्ञ) सभा से बाहर चली गयी। वह सर्वोच्च पुष्कर पहुँचकर (वहाँ) बस गयी। उसने लक्ष्मी से, जो हंस रही थी, और इंद्र की सुंदर पत्नी से और युवतियों से भी (वहां) कहा: "मैं वहां जाऊंगी जहां मुझे कोई आवाज नहीं सुनाई देगी।"

167. फिर वे सब स्त्रियां अपने अपने निवास को चली गईं। क्रोधित होकर सावित्री ने उन्हें भी शाप देने की ठानी।

168. “चूँकि ये दिव्य स्त्रियाँ मुझे त्यागकर चली गई हैं, मैं, जो अत्यंत क्रोधित हूँ, मैं भी उन्हें शाप दूँगा :

169-171. लक्ष्मी कभी एक स्थान पर नहीं टिकेंगी. वह, नीच और चंचल मन वाली, मूर्खों के बीच, बर्बर लोगों और पर्वतारोहियों के बीच, मूर्खों और घमंडियों के बीच रहेगी; इसी प्रकार (मेरे) श्राप के परिणामस्वरूप, आप (अर्थात लक्ष्मी) शापित और दुष्ट जैसे नीच व्यक्तियों के साथ रहेंगी।

172-174. इस प्रकार (लक्ष्मी को) श्राप देने के बाद, उन्होंने इंद्राणी को श्राप दिया: "जब तुम्हारा पति इंद्र, एक ब्राह्मण की हत्या के (पाप के) कारण दुखी होगा, दुखी होगा, और जब उसका राज्य नहुष द्वारा छीन लिया जाएगा, तो वह , तुम्हें देखकर, तुमसे पूछता हूँ। (वह कहेगा) 'मैं इंद्र हूं; ऐसा कैसे है कि यह बचकानी (महिला) मेरी प्रतीक्षा नहीं करती? यदि मुझे शची (अर्थात इन्द्राणी) प्राप्त नहीं हुई तो मैं सभी देवताओं को मार डालूँगा ।' तब तुम्हें भागना होगा, और भयभीत और शोकित होना होगा, मेरे शाप के परिणामस्वरूप, हे दुष्ट आचरण और अभिमानी (एक) तुम बृहस्पति के घर में रहोगे।

175-1 78. तब उसने देवताओं की सभी पत्नियों को श्राप दिया: “इन सभी (महिलाओं) को बच्चों से स्नेह नहीं मिलेगा; वे दिन-रात (दुख से) झुलसते रहेंगे और उनका अपमान किया जाएगा और उन्हें 'बांझ' कहा जाएगा। उत्कृष्ट रंग वाली गौरी को भी सावित्री ने शाप दिया था। वह, जो रो रही थी, विष्णु ने देखा और उन्होंने उसे शांत किया: “हे बड़ी आँखों वाली, मत रोओ; आप सदैव शुभ हैं, (कृपया) आइए; (बलि) सभा में प्रवेश करते हुए, अपनी करधनी और रेशमी वस्त्र सौंप दो; हे ब्रह्मा की पत्नी, दीक्षा प्राप्त करें, मैं आपके चरणों को नमस्कार करता हूँ।

179. इस प्रकार सम्बोधित करके उस ने उस से कहा, तू जैसा कहेगा मैं वैसा ही करूंगी; और मैं वहां जाऊंगा जहां मैं (कोई) आवाज नहीं सुनूंगा।

180-215. इतना कहकर वह वहाँ से (जाकर) एक पर्वत पर चढ़ गयी और वहीं रह गयी। विष्णु ने बड़ी भक्ति से उसके सामने रहकर हाथ जोड़कर और झुककर उसकी स्तुति की।

[ सावित्री के 108 नाम देखें ]

216-219. अच्छे व्रत वाली सावित्री ने विष्णु से, जो इस प्रकार उसकी स्तुति कर रहे थे, कहा: “पुत्र, तुमने मेरी उचित स्तुति की है; तुम अजेय रहोगे; तेरे कार्नेशन में तू अपनी पत्नी समेत, अपने पिता और माता का प्रिय होगा; और जो यहाँ आकर इस स्तवन से मेरी स्तुति करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त होगा। हे पुत्र, ब्रह्मा के यज्ञ में जाओ और इसे पूरा करो। कुरूक्षेत्र और प्रयाग में मैं अन्नदाता बनूँगा; और अपने पति के पास रह कर जो कुछ तू ने कहा है वैसा ही करूंगी।

220. इस प्रकार संबोधित करके विष्णु, ब्रह्मा की उत्कृष्ट (यज्ञ) सभा में गए। जब सावित्री चली गई। गायत्री ने (ये) शब्द कहे:

221. “मेरे पति की उपस्थिति में बोले गए मेरे शब्दों को ऋषि सुनें - मैं प्रसन्न होकर और वरदान देने के लिए तैयार होकर जो भी कहूं।

222-223. (वे) मनुष्य (जो) भक्ति से युक्त होकर ब्रह्मा की पूजा करते हैं, उनके पास वस्त्र, धान्य, पत्नी, सुख और धन होगा; इसी प्रकार (उनके) घर में अखण्ड सुख रहेगा तथा (उनके) पुत्र-पौत्र होंगे। लंबे समय तक (सुख) भोगने के बाद, वे (अपने जीवन के) अंत में मोक्ष प्राप्त करेंगे।

पुलस्त्य ने कहा :
224-225. पूरी सावधानी से और पवित्र नियम के अनुसार ब्रह्मा की (छवि) स्थापित करने के बाद जो फल मिलता है, उसे एकाग्र मन से सुनो। इस स्थापना से मनुष्य को वह फल प्राप्त होता है, जो समस्त यज्ञों, समस्त तप, दान, तीर्थों तथा वेदों के फल से करोड़ गुना अधिक है।

226-227. हे राजन, जो मनुष्य भक्तिपूर्वक पूर्णिमा के दिन व्रत करता है और पहले दिन (अर्थात पूर्णिमा के अगले दिन) ब्रह्मा की पूजा करता है, वह हे महाबाहु (अर्थात् पराक्रमी) लोक में जाता है। ब्राह्मण ; और जो पुजारियों के माध्यम से उनकी पूजा करता है वह विशेष रूप से विरिञ्ची (या) वासुदेव (अर्थात् आत्माओं के स्वामी) के पास जाता है।

228-239. कार्तिक माह में भगवान की रथयात्रा का विधान है; जिसे करने से (अर्थात लेने से) भक्तिपूर्वक मनुष्य ब्रह्मा के लोक को प्राप्त होते हैं। हे श्रेष्ठ राजा, कार्तिक की पूर्णिमा के दिन अनेक वाद्ययंत्रों के साथ रास्ते में सावित्री सहित ब्रह्मा की बारात निकालनी चाहिए। उसे लोगों (यानी नागरिकों) के साथ पूरे शहर में घूमना चाहिए (अर्थात ब्रह्मा की प्रतिमा का जुलूस निकालना चाहिए)। फिर इस प्रकार बारात निकालकर उसे नहलाना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराकर और सबसे पहले अग्नि की पूजा करके, उसे मंगल वाद्ययंत्रों की ध्वनि के साथ भगवान की छवि को रथ पर स्थापित करना चाहिए। पवित्र नियम के अनुसार, रथ के सामने अग्नि की पूजा करके, और ब्राह्मणों का आशीर्वाद लेकर, और 'यह एक शुभ दिन है' तीन बार दोहराते हुए, और भगवान की (प्रतिमा) को रथ में रखकर, उसे रात्रि में अनेक कार्यक्रमों तथा वेदों की ध्वनि के द्वारा जागरण करना चाहिए। हे राजा, भगवान का जागरण करके, प्रातःकाल अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन की बहुत-सी सामग्री खिलाई, और हे राजा, पवित्र सूत्र का पाठ करके और घी से पूजा की। और दूध, और पवित्र नियमों के अनुसार; इसी प्रकार, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान करके, और इसे एक शुभ दिन घोषित करके उसे शहर के माध्यम से रथ चलाना चाहिए (यानी जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता है अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन की बहुत-सी वस्तुएँ खिलाईं और, हे राजा, पवित्र सूत्र का पाठ करके, घी और दूध से, और पवित्र नियमों के अनुसार पूजा करके; इसी प्रकार, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान करके, और इसे एक शुभ दिन घोषित करके उसे शहर के माध्यम से रथ चलाना चाहिए (यानी जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता है अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन की बहुत-सी वस्तुएँ खिलाईं और, हे राजा, पवित्र सूत्र का पाठ करके, घी और दूध से, और पवित्र नियमों के अनुसार पूजा करके; इसी प्रकार, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान करके, और इसे एक शुभ दिन घोषित करके उसे शहर के माध्यम से रथ चलाना चाहिए (यानी जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता है और उसे शुभ दिन घोषित करके रथ को नगर में घुमाना चाहिए (अर्थात् जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता है और उसे शुभ दिन घोषित करके रथ को नगर में घुमाना चाहिए (अर्थात् जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता हैअथर्ववेद , जिसमें कई छंद हैं (अर्थात जानने वाले) और सामवेद के मंत्रोच्चार करने वाले पुरोहितों द्वारा । इस प्रकार उसे सर्वोच्च देवता के रथ को बहुत ही समतल रास्ते से शहर के चारों ओर ले जाना चाहिए। हे वीर, अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले शूद्र द्वारा रथ को नहीं चलाया जाना चाहिए; और भोजक को छोड़ कर कोई बुद्धिमान पुरूष रथ पर न चढ़े।

240-253. हे राजा, उसे ब्रह्मा के दाहिनी ओर सावित्री, बाईं ओर भोजक और अपने सामने कमल रखना चाहिए। इस प्रकार हे वीर, तुरहियों और शंखों की अनेक ध्वनियों के साथ, बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह रथ को पूरे शहर में घुमाकर, आराधना के रूप में उसके आगे रोशनी लहराकर (भगवान की छवि) को उचित स्थान पर स्थापित करे। जो ऐसा जुलूस निकालता है, या जो उसे भक्तिभाव से देखता है या जो रथ खींचता है, वह ब्रह्मा के स्थान पर जाता है। जो व्यक्ति कार्तिक माह की अमावस्या के दिन ब्रह्मा के कक्ष (अर्थात मंदिर) में रोशनी करता है और पहले दिन (कार्तिक के) चंदन, फूल और नए वस्त्रों से स्वयं की पूजा करता है, वह ब्रह्मा के स्थान पर पहुंचता है। यह बहुत ही पवित्र दिन है, जिस दिन बाली का [6]राज्य की स्थापना हुई. ब्रह्मा को दिन सदैव अत्यंत प्रिय है। इसे बालेयी कहा जाता है . जो इस दिन ब्रह्मा और विशेष रूप से स्वयं की पूजा करता है, वह असीमित तेज वाले विष्णु के सर्वोच्च स्थान पर जाता है। हे पराक्रमी भुजाओं, चैत्र का पहला दिन शुभ और सर्वोत्तम है। वह श्रेष्ठ मनुष्य, जो इस दिन चांडाल को छूकर स्नान करता है, उसे कोई पाप नहीं होता, उसे कोई मानसिक कष्ट या शारीरिक रोग नहीं होता; इसलिए व्यक्ति को (इस दिन) स्नान करना चाहिए या किसी मूर्ति के सामने दिव्य रोशनी लहरानी चाहिए, जो सभी रोगों को नष्ट कर देती है। हे राजा, सारी गाय-भैंसें निकाल ले; फिर (घर के) बाहर उसे सभी वस्त्रों आदि से युक्त एक धनुषाकार द्वार बनाना चाहिए। इसी प्रकार, हे कुरु के पालनकर्ता-परिवार को ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। हे कुरु-परिवार के वंशज, हे राजा, मैंने पहले कार्तिक, आश्विन और चैत्र महीनों में इन तीन दिनों के बारे में बताया था ; इन दिनों स्नान, दान देने से सौ गुना पुण्य मिलता है। हे राजन, कार्तिक का (पहला) दिन राजा बलि के लिए शुभ और जानवरों के लिए लाभदायक है!

गायत्री ने कहा :
254-255. हे कमल से जन्मे, (यद्यपि) सावित्री ने ऐसे शब्द कहे कि ब्राह्मण कभी भी आपकी पूजा नहीं करेंगे, (फिर भी) मेरे शब्दों को सुनकर वे आपकी पूजा करेंगे; वे यहां (अर्थात् इस लोक में) सुख भोगकर परलोक में मोक्ष प्राप्त करेंगे। वह इसे श्रेष्ठ दृष्टि (-बिंदु) जानकर प्रसन्न होकर उन्हें वर देगा।

256. हे इंद्र, मैं तुम्हें वरदान दूंगा: जब तुम अपने शत्रुओं द्वारा गिरफ्तार कर लिये जाओगे, तब ब्रह्मा, शत्रु के लोक में जाकर तुम्हें मुक्त कर देंगे।

257. शत्रु के नाश से तुम्हें बड़ा हर्ष होगा और तुम्हारा खोया हुआ (राजधानी) नगर तुम्हें वापस मिल जायेगा। तीनों लोकों में तुम्हारा बिना किसी द्वेष के एक महान राज्य होगा।

258-259. हे विष्णु, जब आप पृथ्वी पर अवतार लेंगे, तो आप अपने भाई के साथ अपनी पत्नी के अपहरण आदि के कारण महान दुःख का अनुभव करेंगे। आप अपने शत्रु को मारकर देवताओं की उपस्थिति में अपनी पत्नी को बचाएंगे। उसे स्वीकार करके और फिर से राज्य पर शासन करके, तुम स्वर्ग जाओगे।

260. तुम ग्यारह हजार वर्ष तक (शासन) करोगे और (फिर) स्वर्ग जाओगे। तुम संसार में बहुत प्रसिद्धि पाओगे और लोगों से प्रेम करोगे।

261. हे भगवान, जिन पुरुषों को राम के रूप में (अर्थात अवतार) आपके द्वारा मुक्ति मिलेगी , वे संतानिका नामक प्रसिद्ध लोक को प्राप्त करेंगे (अर्थात् जाएंगे) ।

262-265. तब वरदान देने वाली गायत्री ने रुद्र से कहा: “जो मनुष्य तुम्हारे गुप्तांग (लिंग के रूप में) की पूजा करेंगे, भले ही वह गिर गया हो, शुद्ध होकर पुण्य अर्जित करेंगे, वे स्वर्ग में भाग लेंगे (यानी आनंद लेंगे)। वह स्थिति जो पुरुषों को आपके जननांग अंग (फाल्लस के रूप में) की पूजा करने से मिलती है, वह पवित्र अग्नि को बनाए रखने या उसमें आहुति देने से नहीं मिल सकती है। जो लोग प्रातःकाल बिल्वपत्र से आपके जननेन्द्रिय (फाल्लस के रूप में) की पूजा करेंगे, वे रूद्र लोक का आनन्द उठायेंगे।”

266-267. “हे अग्नि, तुम भी शिवभक्त का दर्जा प्राप्त कर पतितपावन बनो। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब आप प्रसन्न होते हैं तो देवता भी प्रसन्न होते हैं। आपके द्वारा ही देवताओं को प्रसाद प्राप्त होता है। निश्चय जब तू प्रसन्न होगा, तो वे प्रसन्न होकर (प्रसाद का) भोग करेंगे; इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि वैदिक कथन यही है।''

तब गायत्री ने उन सभी ब्राह्मणों से ये शब्द कहे :

268-284. इसमें कोई संदेह नहीं है कि सभी पवित्र स्थानों पर आपको प्रसन्न करने वाले पुरुष वैराज नामक स्थान पर जाएंगे।(अर्थात् ब्रह्मा का)। नाना प्रकार के भोजन और नाना प्रकार के दान देकर तथा (पित्तों को) प्रसन्न करके वे देवताओं के देवता बन जाते हैं। देवता तुरंत प्रसाद का आनंद लेते हैं और पितर उन सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मणों के मुख से (अर्थात्) प्रसाद का तुरंत आनंद लेते हैं, क्योंकि आप अकेले ही तीनों लोकों को बनाए रखने में सक्षम हैं - इसमें कोई संदेह नहीं है। श्वास के संयम से तुम सब शुद्ध हो जाओगे; हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, विशेष रूप से पुष्कर में स्नान करने और वेदों की माता (अर्थात गायत्री) का (नाम) जपने के बाद उपहार प्राप्त करने से आपको पाप नहीं लगेगा। पुष्कर में (ब्राह्मणों को) भोजन कराने से सभी देवता प्रसन्न होते हैं। यदि (कोई मनुष्य) एक ब्राह्मण को भी भोजन कराता है, तो उसे एक करोड़ (भोजन कराने) का फल प्राप्त होता है। मनुष्य ब्राह्मण के हाथ में धन देकर अपने सभी पापों जैसे ब्राह्मण की हत्या और अपने द्वारा किए गए अन्य बुरे कर्मों को नष्ट कर देते हैं। मेरे सम्मान में बुदबुदाते हुए प्रार्थनाओं का उपयोग करके उनकी तीन बार पूजा की जानी है। उसी क्षण ब्राह्मण हत्या जैसा पाप भी नष्ट हो जाता है। गायत्री दस अस्तित्वों के दौरान (या) हजारों अस्तित्वों और तीन युगों के हजारों समूहों के दौरान भी किए गए पाप को नष्ट कर देती है। इस प्रकार जानने और मेरे सम्मान में प्रार्थना करने से तुम सदैव के लिए शुद्ध हो जाओगे। इसमें कोई संदेह या झिझक नहीं है. गुनगुनाते हुए, सिर झुकाकर, (मेरी) प्रार्थना विशेषकर तीन अक्षरों वाले 'ओम' के उच्चारण के साथ, आप निस्संदेह शुद्ध हो जाएंगे। मैं (गायत्री छंद के) आठ अक्षरों में रह चुका हूं। यह संसार मुझसे व्याप्त है। समस्त शब्दों से सुशोभित मैं वेदों की जननी हूं। श्रेष्ठ ब्राह्मण भक्तिपूर्वक मेरे नामों का जप करके सफलता प्राप्त करेंगे। मेरे नाम का उच्चारण करने से आप सभी को श्रेष्ठता प्राप्त होगी। एक संयमित ब्राह्मण जिसके पास केवल गायत्री का सार है, वह चारों वेदों को जानने वाले, सब कुछ खाने और सब कुछ बेचने वाले से बेहतर है। चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, अत: यहाँ जो कुछ भी दिया या चढ़ाया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है। जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रख-रखाव में समर्पित रहते हैं और तीन समय (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) बलिदान देते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग जाएंगे। एक संयमित ब्राह्मण जिसके पास केवल गायत्री का सार है, वह चारों वेदों को जानने वाले, सब कुछ खाने और सब कुछ बेचने वाले से बेहतर है। चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, अत: यहाँ जो कुछ भी दिया या चढ़ाया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है। जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रख-रखाव में समर्पित रहते हैं और तीन समय (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) बलिदान देते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग जाएंगे। एक संयमित ब्राह्मण जिसके पास केवल गायत्री का सार है, वह चारों वेदों को जानने वाले, सब कुछ खाने और सब कुछ बेचने वाले से बेहतर है। चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, अत: यहाँ जो कुछ भी दिया या चढ़ाया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है। जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रख-रखाव में समर्पित रहते हैं और तीन समय (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) बलिदान देते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग जाएंगे।

285-293. इस प्रकार, पुष्कर में इंद्र, विष्णु, रुद्र, अग्नि, ब्रह्मा और ब्राह्मणों को एक उत्कृष्ट वरदान देकर, गायत्री ब्रह्मा के पक्ष में रहीं। तब भाटों ने लक्ष्मी को श्राप का कारण बताया। ब्रह्मा की प्रिय पत्नी गायत्री को जब इन सभी युवतियों और लक्ष्मी को दिए गए कई शापों के बारे में पता चला, तो उन्होंने उन्हें वरदान दिया: "सभी को हमेशा प्रशंसनीय बनाने वाली, और धन से आकर्षक दिखने वाली, आप सभी को प्रसन्न करती हैं।" , चमकेगा. हे बेटी, तुम जिसे भी देखोगी, वे सभी धार्मिक गुण साझा करेंगे (अर्थात उनमें) होंगे; परन्तु तुम्हारे द्वारा त्याग दिए जाने पर वे सब दुःख भोगेंगे। केवल वे ही (जिन पर आप कृपा करते हैं) (अर्थात उच्च) जाति और (कुलीन) परिवार में जन्म लेंगे, (उनके पास) धार्मिकता होगी, हे आकर्षक चेहरे वाले! वे ही सभा में चमकेंगे और (उन्हीं की) राजाओं की (अनुकूल दृष्टि) होगी॥ श्रेष्ठ ब्राह्मण केवल उन्हीं की याचना करेंगे और उन्हीं के प्रति विनम्र रहेंगे। 'आप हमारे भाई, पिता, गुरु और रिश्तेदार भी हैं। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. जब मैं तुम्हें देखता हूं तो मेरी दृष्टि स्पष्ट और सुंदर हो जाती है; मेरा मन बहुत प्रसन्न है, मैं तुमसे सत्य-सत्य ही कहता हूं।' ऐसी बातें लोगों को प्रसन्न करती हैं, क्या वे अच्छे लोग सुनेंगे, जिन पर आपकी दृष्टि (अनुकूल दृष्टि से) पड़ी है।

294-299. नहुष ने इन्द्रपद प्राप्त करके तुमसे याचना की है। आपके द्वारा अगस्त्य के शब्दों में वर्णित पापी , सर्प में परिवर्तित होने के बाद, उनसे अनुरोध करेगा: 'हे ऋषि, मैं अहंकार के कारण नष्ट हो गया हूं; मेरा आश्रय बनो (अर्थात् मेरी सहायता करो)'। तब पूज्य ऋषि, उसके (अर्थात् नहुष के) शब्दों से हृदय में दया करके (प्रेरित होकर) उससे ये शब्द कहेंगे: 'तुम्हारे परिवार का सम्मान करने वाला एक राजा, तुम्हारे परिवार में पैदा होगा। वह तुम्हें (अर्थात्) सर्प के रूप में देखकर तुम्हारे शाप को नष्ट कर देगा। तब तुम सर्प का राज्य त्याग कर पुनः स्वर्ग को जाओगे।' हे सुन्दर आँखों वाली, मेरे वरदान के फलस्वरूप तुम अपने पति के साथ, जिसने अश्व-यज्ञ किया होगा, पुनः स्वर्ग पहुँचोगी।

पुलस्त्य बोले :
300-302. तब देवताओं की सभी पत्नियों (गायत्री) ने प्रसन्न होकर उन्हें संबोधित किया: "भले ही आपके कोई संतान नहीं होगी, फिर भी आप दुखी नहीं होंगी"। तब गायत्री ने प्रसन्न होकर गौरी को भी सलाह दी। ब्रह्मा की उच्च विचारधारा वाली प्रिय पत्नी ने वरदान देते हुए यज्ञ की सिद्धि की कामना की। वर देने वाली गायत्री को इस प्रकार देखकर रुद्र ने उन्हें नमस्कार किया और इन शब्दों से उनकी स्तुति की-

रुद्र ने कहा :
303-317. वेदों की माता तथा आठ अक्षरों से पवित्र, आपको मेरा नमस्कार है। आप मनुष्यों को संकटों से पार कराने वाली गायत्री तथा सात प्रकार की वाणी हैं।, सभी ग्रंथों में स्तुतियाँ हैं, इसी तरह सभी छंद हैं, इसी तरह सभी अक्षर और संकेत हैं, सभी ग्रंथ जैसे शब्दावलियाँ हैं, इसलिए सभी उपदेश भी हैं, और सभी अक्षर भी हैं। हे देवी, तुम्हें मेरा नमस्कार है। आप गोरे और गौर वर्ण के हैं तथा आपका मुख चंद्रमा के समान है। आपकी भुजाएँ बड़ी हैं, केले के पेड़ों के अंदरूनी भाग की तरह नाजुक; आपके हाथ में हिरण का सींग और अत्यंत निर्मल कमल है; तू ने रेशमी वस्त्र पहिने हैं, और ऊपरी वस्त्र लाल है। आपके गले में चन्द्रमा की किरणों के समान तेजस्वी हार सुशोभित है। आप दिव्य कुण्डलों से युक्त कानों से सुशोभित हैं। आप चंद्रमा के प्रतिद्वंदी मुख से चमकते हैं। आप अत्यंत शुद्ध मुकुट वाले हेयर-बैंड के साथ आकर्षक दिखते हैं। आपकी भुजाएँ साँपों के फनों के समान स्वर्ग को सुशोभित करती हैं। आपके आकर्षक और गोलाकार स्तनों के निपल्स भी एक समान हैं। पेट पर ट्रिपल गुना बेहद निष्पक्ष कूल्हों और कमर के साथ विभाजन पर गर्व है। आपकी नाभि गोलाकार है, गहरी है और शुभता का संकेत देती है। आपके विशाल कूल्हे और कमर और आकर्षक नितंब हैं; आपकी जोड़ी जाँघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं। आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों का पालन करते हैं, और आपके लिए अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से अनुग्रहपूर्ण हैं)। तुम अत्यंत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण वाले होगे। आपके दर्शन से पुष्कर की यात्रा फलदायी होगी। आपको पहली आराधना इस महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगी आपके विशाल कूल्हे और कमर और आकर्षक नितंब हैं; आपकी जोड़ी जाँघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं। आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों का पालन करते हैं, और आपके लिए अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से अनुग्रहपूर्ण हैं)। तुम अत्यंत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण वाले होगे। आपके दर्शन से पुष्कर की यात्रा फलदायी होगी। आपको पहली आराधना इस महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगी आपके विशाल कूल्हे और कमर और आकर्षक नितंब हैं; आपकी जोड़ी जाँघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं। आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों का पालन करते हैं, और आपके लिए अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से अनुग्रहपूर्ण हैं)। तुम अत्यंत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण वाले होगे। आपके दर्शन से पुष्कर की यात्रा फलदायी होगी। आपको पहली आराधना इस महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगीज्येष्ठा ; और जो मनुष्य तुम्हारे पराक्रम को जानकर तुम्हारी पूजा करेंगे, उन्हें पुत्र और धन की कोई कमी नहीं रहेगी। जो लोग जंगल में या विशाल समुद्र में डूबे हुए हैं, उनके लिए आप ही सर्वोच्च सहारा हैं; या जिन्हें डाकुओं ने पकड़ रखा है। आप ही सफलता, धन, साहस, यश, लज्जा, विद्या, नमस्कार, बुद्धि, संध्या, प्रकाश, निद्रा और संसार के अंत में विनाश की रात भी हैं। आप अम्बा , कमला , माता, ब्रह्माणी और दुर्गा हैं ।

318-331. आप सभी देवताओं की माता, गायत्री और एक उत्कृष्ट महिला हैं। आप जया, विजया (अर्थात दुर्गा), और पुष्टि (पोषण) और तुष्टि हैं(संतुष्टि), क्षमा और दया। तुम सावित्री से छोटी हो और ब्रह्मा को सदैव प्रिय रहोगी। आपके अनेक रूप हैं, एक विश्वरूप; आपकी आंखें आकर्षक हैं और आप ब्रह्मा के साथ विचरण करते हैं; आप सुन्दर रूप वाली, बड़ी-बड़ी आँखों वाली और अपने भक्तों की महान रक्षक हैं। हे महान देवी, आप शहरों में, पवित्र आश्रमों में और जंगलों और पार्कों में रहती हैं। आप उन सभी स्थानों पर जहां ब्रह्मा रहते हैं, उनके बाईं ओर रहते हैं। ब्रह्मा के दाहिनी ओर सावित्री है, और ब्रह्मा (सावित्री और आपके) बीच में है। तुम ही यज्ञवेदी में हो, और याजकों के बलिदान का शुल्क भी तुम ही हो; आप राजाओं की विजय और समुद्र की सीमा हैं। हे ब्रह्मचारिणी!, आप (वह जो कि) दीक्षा हैं, और महान सुंदरता के रूप में देखी जाती हैं; आप प्रकाशकों की चमक हैं और नारायण में रहने वाली देवी लक्ष्मी हैं । आप ऋषियों की क्षमा शक्ति हैं और रोहिणी हैंनक्षत्रों के बीच. तुम राजद्वारों, पवित्र स्थानों और नदियों के संगम पर रहते हो। आप पूर्णमासी में पूर्णिमा के दिन हैं, और विवेक में बुद्धि हैं, और क्षमा और साहस हैं। आपका रंग अत्यंत उत्तम है, आप देवियों के बीच देवी उमा के नाम से विख्यात हैं। तुम इन्द्र की मनोहर दृष्टि हो और इन्द्र के निकट हो। आप ऋषियों के धर्मात्मा और देवताओं के प्रति समर्पित हैं। आप कृषकों की भूमि हैं और प्राणियों की भूमि हैं। आप (विवाहित) स्त्रियों को वैधव्य से वंचित कर देते हैं तथा सदैव धन-धान्य देते हैं। जब आपकी पूजा की जाती है, तो आप बीमारी, मृत्यु और भय को समाप्त कर देते हैं। हे मंगल प्रदान करने वाली देवी, यदि कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन आपकी विधिपूर्वक पूजा की जाए तो आप सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। जो मनुष्य इस स्तुति को बार-बार पढ़ता या सुनता है। अपने सभी उपक्रमों में सफलता पाता है; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

गायत्री ने कहा :
हे पुत्र, तूने जो कहा है वह अवश्य पूरा होगा। आप विष्णु के साथ सभी स्थानों पर उपस्थित रहेंगे।
___________________
फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :

यज्ञवत : यज्ञ के लिए तैयार और घिरा हुआ स्थान।

[2] :

कपार्डिन : शंकर का एक विशेषण। कपरदा: गूंथे हुए और उलझे हुए बाल, विशेषकर शंकर के।

[3] :

पुरोधाशा : पिसे हुए चावल से बनी एक बलि जो कपाल या बर्तन में दी जाती है।

[4] :

मित्रवन : एक जंगल का नाम.

[5] :

सप्तर्षि : सात ऋषि अर्थात् मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ।

[6] :

बाली : प्रसिद्ध राक्षस, विरोचन का पुत्र, प्रह्लाद का पुत्र। जब विष्णु, कश्यप और अदिति के पुत्र के रूप में, बाली के पास आए, तो उसकी उदारता पर ध्यान दिया, और उससे प्रार्थना की कि वह तीन कदमों में जितनी धरती कवर कर सके उतनी पृथ्वी दे दे, और जब उसने पाया कि तीसरे कदम रखने के लिए कोई जगह नहीं है। कदम, उन्होंने इसे बाली के सिर पर स्थापित किया और उसे अपनी सभी सेनाओं के साथ पाताल भेज दिया और उसे वहां का शासक बनने की अनुमति दी।

[7] :

सप्तविधा वाणी : भारतीय सरगम ​​के सात स्वरों का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती है।


 
  

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