रविवार, 10 सितंबर 2023

ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व निर्धारण-

चातुर्वर्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥13॥

(श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय/ श्लोक-4.13)

शब्दार्थ:-चातुः वर्ण्यम्-  चार वर्ग अथवा वर्ण ; मया= मेरे द्वारा; सृष्टम्=उत्पन्न हुए हैं।; गुण=महत्वपूर्ण विशेषता अथवा पहचान जिसके कारण एक वस्तु दूसरी से अलग मानी जाती है;

किसी वस्तु में पाई जानेवाली वह बात जिसके द्वारा वह दूसरी वस्तु से अलग पहचानी जाय।

 वह भाव जो किसी वस्तु के साथ उसके जन्म या उत्पत्ति से ही लगा हुआ हो।  

विशेष—सांख्याकार तीन गुण मानते हैं । सत्व, रज और तम; और इन्हीं की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं जिससे सृष्टि का विकास होता है  सत्वगुण हलका और प्रकाश करनेवाला, रजोगुण चंचल और प्रवृत्त करनेवाला और तमोगुण भारी और रोकनेवाला माना गया है । तीनों गुणों का स्वभाव है कि वे एक दूसरे के आश्रय से रहते तथा एक दूसरे को अभिभूत करते हैं । 

कर्म = आचरण अथवा चरित्र। योगससूत्र की वृत्ति में कर्म के तीन भेद । भोगने से  ये भेद किए गये हैं—

 (क)विहित, जिलके करने की शास्त्रों में आज्ञा है; 

ख) निषिद्ध, जिनके करने का निषेध है और

(ग) मिश्र अर्थात् मिले जुले कर्म। मनुष्य का जन्म आयु और भोग कर्म के फल कहे जाते है । जन्मभेद से कार्म के चार विभाग— संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण और भावी।

 विभागशः=-विभाजन के अनुसार; तस्य-=उसका; कर्तारम्-=सृष्टा; अपि-=यद्यपि; माम्=-मुझको; विद्धि-=जानो; अकर्तारम्-=अकर्ता; अव्ययम्-=अपरिवर्तनीय।

मनुष्यों के गुणों और कर्मों के अनुसार मेरे द्वारा चार वर्णों की रचना की गयी है। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का सृष्टा हूँ किन्तु तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी मानो।

कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना ।
नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥३॥ (ऋग्वेद-9/112/3)

(कारुः, अहं) =मैं शिल्पकार( कारीगर) हूँ (ततः)= तात: -पिता  (भिषक्)= वैद्य हैं। (नना)= माता   (उपलप्रक्षिणी)= चक्की पीसने वाली है।  (नानाधियः) अनेक कर्मों वाले (वसुयवः)भुने हुए जौ- (यव) को पीसकर तैयार किया हुआ आटा सक्तु ।   (अनु, गाः) गायों के पीछे स्थित हैं।  (तस्थिम) हैं,  (इन्दो)- सोम को  (इन्द्राय) इन्द्र के लिये (परि,स्रव) प्रवाहित करें ॥३॥

मन्त्रदृष्टा ऋषि ने सोमपान में लगे हुए होकर दशापवित्र से गिरते हुए सोम के प्रति बाधक पापों को नष्ट करने के लिए सम्मुख अपने चरित्र का वर्णन करने के साथ -यह निवेदन किया- मैं स्तुति करना वाला ! पिता वैद्य हैं माता उपलो( पाषाणों) से सक्तु पीसने वाली हैं। इस प्रकार का विभिन्न कर्मो के द्वारा हम धन अभिलाषी होकर हम संसार में स्थित हैं। जैसे गायें दूध देकर संसार का पोषण करती हैं।

ऐसा जानकर हे सोम ! तुम इन्द्र के लिए श्रवित होओ!

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कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना
नानाधियोवसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परिस्रव।(ब्रह्मपुराण अध्याय -१७४ श्लोक:- (१७)

वेदों में लोगों के वर्ण के अनुसार उन्हें चार श्रेणियों में विभक्त किया गया है। यह वर्गीकरण उनके जन्म के अनुसार न करके  उनकी प्रकृति या स्वभाव ( गुण-कर्म) के अनुरूप किया गया है।

 वर्गों में यह विविधता प्रत्येक समाज में होती है। 

साम्यवादी राष्ट्रों में जहाँ समानता का सिद्धान्त प्रमुख है वहाँ भी मानव समाज में विभिन्नताओं को नकारा नहीं जा सकता। वहाँ कुछ ऐसे दार्शनिक हैं जो साम्यवादी दल के प्रमुख योजनाकार हैं। कुछ लोग सैनिक के रूप में अपने देश की रक्षा करते हैं। वहाँ किसान भी हैं जो खेती-बाड़ी करते हैं  और वहाँ फैक्टरियों में कार्य करने वाले कर्मचारी भी हैं। और वहाँ वस्तुओं की खरीद-फरोख्त करने वाले लोग भी हैं।

प्रकृति की शक्ति द्वारा तीन गुण निर्मित होते हैं-सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण। ब्राह्मणों  सत्वगुण की प्रधानता से  बनते हैं। वे विद्या और ईश्वर स्तुति की ओर प्रवृत्त होते हैं। क्षत्रिय वे हैं जिनमें रजोगुण की प्रमुखता और कुछ मात्रा में सत्वगुण मिश्रित होता है। उनकी रुचि प्रशासन और प्रबंधन संबंधी कार्यों में होती है। वैश्यों में रजोगुण और तमोगुण मिश्रित होते हैं। तदानुसार वे व्यावसायिक और कृषि संबंधी कार्य करते हैं। समाज में शुद्र लोग भी होते हैं। उनमें तमोगुण की प्रबलता होती हैं, इन्हें श्रमिक वर्ग कहा जाता है। इस वर्गीकरण का संबंध न तो जन्म से था और न ही यह अपरिवर्तनीय था। 

श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में स्पष्ट किया है कि इस वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्गीकरण लोगों के गुणों और कर्मों के अनुसार था।

यद्यपि भगवान संसार के सृष्टा हैं किन्तु फिर भी वे अकर्ता हैं। जैसे कि वर्षा का जल वनों में समान रूप से गिरता है किन्तु कुछ बीजों से बरगद के वृक्ष उगते हैं, कुछ बीजों से सुन्दर पुष्प खिलते हैं और कहीं पर कांटेदार झाड़ियाँ निकल आती हैं। 

वर्षा बिना पक्षपात के जल प्रदान करती है और इस भिन्नता के लिए उत्तरदायी नहीं होती। इसी प्रकार से भगवान जीवात्माओं को कर्म करने के लिए शक्ति प्रदान करते हैं और वे अपनी इच्छानुसार इसका प्रयोग करने का निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं किन्तु भगवान उनके कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते।

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सर्वप्रथम चारों वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है, इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं !

क्या ब्राह्मण जीव है ? शरीर है, जाति है, ज्ञान है, कर्म है, या धार्मिकता है ?
इन सब संभावनाओं का समाधान कोई ना कोई कारण बताकर कर दिया गया है , अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है !

चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न  मनुष्य को ही ब्राह्मण कहा जा सकता है !
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           ॥वज्रसूचिका उपनिषत्॥ 
           ।श्री गुरुभ्यो नमः हरिः ॐ। 
 
यज्ञ्ज्ञानाद्यान्ति मुनयो ब्राह्मण्यं परमाद्भुतम् ।          तत्रैपद्ब्रह्मतत्त्वमहमस्मीति चिन्तये  ॥ 
    "ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ! 
 
 चित्सदानन्दरूपाय सर्वधीवृत्तिसाक्षिणे । 
 नमो वेदान्तवेद्याय ब्रह्मणेऽनन्तरूपिणे ॥ 
ॐ वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रमज्ञानभेदनम्  । 
दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञानचक्षुषाम्  ॥ १॥ 
अज्ञान नाशक, ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के भूषण रूप वज्रसूची उपनिषद को कहता हूँ !!

ब्राह्मक्षत्रियवैष्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव 
प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम्  । 
तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं 
ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है !
अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? क्या वह जीव है ? अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?

तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेत् तन्न । अतीतानागतानेकदेहानां 
जीवस्यैकरूपत्वात् एकस्यापि कर्मवशादनेकदेहसम्भवात् सर्वशरीराणां 
जीवस्यैकरूपत्वाच्च । तस्मात् न जीवो ब्राह्मण इति ॥ 
इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को ही ब्राह्मण मानें ( कि ब्राह्मण जीव है), तो यह संभव नहीं है; क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगें ! उन सबका स्वरुप भी एक जैसा ही होता है ! जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते !

"तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत् तन्न । आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां 
पञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वात् 
जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनत् ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो 
रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्णः इति नियमाभावात् । 
पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसम्भवाच्च  
तस्मात् न देहो ब्राह्मण इति ॥ 
क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है? नहीं, यह भी नहीं हो सकता ! चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं,

उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी सामान होते हैं ! ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण , वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो,
परन्तु ऐसा कोई नियम लोक दृष्टि में देखने में नहीं आता तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो ) पिता, भाई के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या का दोष भी लग सकता है !
अस्तु, केवल शरीर का ब्राह्मण होना भी संभव नहीं है !!
क्यों सभी मनुष्यों का शरीर समान अंगों से बनता है। किसी के कोई अंग विशेष नहीं होता।

"तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न । तत्र 
जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसम्भवात् महर्षयो बहवः सन्ति । 
ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको 
वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः, 
वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात् । एतेषां 
जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मात् 
न जाति ब्राह्मण इति ॥ 
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क्या जाति ब्राह्मण है?
(अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है ) ? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है ! जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वल्मीक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है ! इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए हैं। और ब्राह्मण कहलाए इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है !

तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत् तन्न । क्षत्रियादयोऽपि 
परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति । तस्मात् न ज्ञानं ब्राह्मण इति ॥ 
क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाये?
ऐसा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (रजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं) ! अस्तु, केवल ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !

तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेत् तन्न । सर्वेषां प्राणिनां 
प्रारब्धसञ्चितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः सन्तो जनाः 
क्रियाः कुर्वन्तीति । तस्मात् न कर्म ब्राह्मण इति ॥ 
"तो क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाये?
नहीं ऐसा भी संभव नहीं है; क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है
तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं ! अतः केवल कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है !!

तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत् तन्न । क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः 
सन्ति । तस्मात् न धार्मिको ब्राह्मण इति ॥ 
क्या धार्मिक, ब्राह्मण हो सकता है?
यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान-पुण्य करते रहते हैं !
अतः केवल धार्मिक भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है!

तर्हि को वा ब्रह्मणो नाम । यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं 
षडूर्मिषड्भावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं 
स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन 
वर्तमानमन्तर्यहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखण्डानन्दस्वभावमप्रमेयं 
अनुभवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतळामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य 
कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भाव मात्सर्य 
तृष्णा आशा मोहादिरहितो दम्भाहङ्कारदिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत 
एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मणेति शृतिस्मृतीतिहासपुराणाभ्यामभिप्रायः 
अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव । 
सच्चिदानान्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ॥ 
  ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः इति वज्रसूच्युपनिषत्समाप्ता ॥ 
"भारतीरमणमुख्यप्राणन्तर्गत श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ "अनुवाद:-
तब ब्राह्मण किसे माना जाये?
(इसका उत्तर देते हुए उपनिषत्कार कहते हैं ) –

जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त न  हो; छ: उर्मियों और छ: भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला , अशेष कल्पों का आधार रूप , समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला , अन्दर-बाहर आकाशवत् संव्याप्त ; अखंड आनन्द, अप्रमेय, अनुभवगम्य , अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ; शम-दम आदि से संपन्न ; मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पूरण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अर्थात किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता ! आत्मा सत-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है ! इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है ! यही उपनिषद का मत है ! (वज्रसूचिकोपनिषद)
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कौन है असली ब्राह्मण
पूर्वकाल में ब्राह्मण होने के लिए शिक्षा, दीक्षा और कठिन तप करना होता था। इसके बाद ही उसे ब्राह्मण कहा जाता था। गुरुकुल की अब वह परंपरा नहीं रही। जिन लोगों ने ब्राह्मणत्व अपने प्रयासों से हासिल किया था उनके कुल में जन्मे लोग भी खुद को ब्राह्मण समझने लगे। ऋषि-मुनियों की वे संतानें खुद को ब्राह्मण मानती हैं, जबकि उन्होंने न तो शिक्षा ली, न दीक्षा और न ही उन्होंने कठिन तप किया। वे जनेऊ का भी अपमान करते देखे गए हैं। और ब्रह्म ज्ञान तो बहुत दूर उनको अपना भी ज्ञान नहीं है।

आजकल के तथाकथित ब्राह्मण लोग शराब पीकर, मांस खाकर और असत्य वचन बोलकर भी खुद को ब्राह्मण समझते हैं। उनमें से कुछ तो धर्मविरोधी हैं, कुछ धर्म जानते ही नहीं, कुछ गफलत में जी रहे हैं, कुछ ने धर्म को धंधा बना रखा और कुछ पोंगा-पंडित और कथावाचक बने बैठे हैं। ऐसे ही सभी कथित ब्राह्मणों के लिए हमने कुछ जानकारी इकट्ठा की है।

किसे ब्राह्मण कहलाने का हक…
ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या :

जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक भिखारी है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी भाट है और जो कथा बैचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं।
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पाली भाषा में बुद्ध ने अपने उपदेश में कहा -

न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥
अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।

तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥
अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।

न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥
अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।



जाति के आधार के कथित ब्राह्मण के प्रकार…
जाति के आधार पर तथाकथित ब्राह्मणों के हजारों प्रकार हैं। उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के प्रकार अलग तो दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के अलग प्रकार। लेकिन हम यहां जाति के आधार के प्रकार की बात नहीं कर रहे हैं।

उत्तर भारत में जहां सारस्वत, सरयुपा‍रि, गुर्जर गौड़, सनाठ्य, औदिच्य, पराशर आदि ब्राह्मण मिल जाएंगे तो दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन संप्रदाय हैं- स्मार्त संप्रदाय, श्रीवैष्णव संप्रदाय तथा माधव संप्रदाय। इनके हजारों उप संप्रदाय हैं।
वैष्णव सम्प्रदाय सात्वतो अथवा गोपों को पूज्य मानती है। गोप साक्षात विष्णु के रोम कूप अथवा शरीर से उत्पन्‍न हुए हैं।
 
पुराणों के अनुसार पहले विष्‍णु के नाभि कमल से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके एक पुत्र था। उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुए। उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीख समाज बना, दूसरे पुत्र सारस्‍वत के सारस्‍वत समाज, तीसरे ग्‍वाला ऋषि से गौड़ समाज , चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ समाजा, पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल समाजा, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच समाज बना।…इस तरह ‍पुराणों में हजारों प्रकार मिल जाएंगे।
स्कंदपुराण के सह्याद्रि खंड़ के अनुसार ब्राम्हणों की एककोटि जिसमें सारस्वत, कान्यकुब्ज, उत्कल, मैथिल और गौड़ सम्मिलित हैं  ब्राम्हणों की एकजाति जो पश्चिमी उत्तरप्रदेश, दिल्ली के आसपास तथा राजपूताने में पाई जाती है । 
इसके अलावा माना जाता है कि सप्तऋषियों की संतानें हैं ब्राह्मण।

 जैन धर्म के ग्रंथों को पढ़ें तो वहां ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन अलग मिल जाएगा। बौद्धों के धर्मग्रंथ पढ़ें तो वहां अलग वर्णन है। लेकिन सबसे उत्तम तो वेद और स्मृतियों में ही मिलता है।

ब्राह्मणों के असली प्रकार…
कोई भी बन सकता है ब्राह्मण :

ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो। लेकिन ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है।

स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:-

मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।

1. मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह के तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी हैं।

2. ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।

3. श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।

4. अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।

5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।

6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।

7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।

8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध और निरन्तर मनन में ही संलग्न रहता है।  ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं।

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किसी वेदपाठी परम्परा में
यदि कोई बालक / बालिका जन्म ले
तो उसके “ब्राह्मणत्व को प्राप्त होने की सम्भावना” बढ़ जाती हैं

लेकिन इसका इसका ये मतलब नहीं नहीं हैं कि
ऐसा बालक / बालिका “ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण” हो ही जाए

“निरुक्त शास्त्र” के प्रणेता यास्क मुनि इसीलिए कहते हैं
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।
अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।

(स्कन्द पुराण०, नागर खण्ड अ० २३९ श्लो० ३१). के अंतर्गत भी यही तथ्य हैं
6.239.३१-३५ ॥
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते ॥
शापानुग्रहसामर्थ्यं तथा क्रोधः प्रसन्नता ॥३१॥

त्रैलोक्यप्रवरत्वं च ब्राह्मणादेव जायते ॥
न ब्राह्मणसमो बन्धुर्न ब्राह्मणसमा गतिः ॥ ३२ ॥

न ब्राह्मणसमः कश्चित्त्रैलोक्ये सचराचरे ॥
दत्तोपवीते ब्रह्मण्ये सुप्ते देवे जनार्दने ॥ ॥ ३३ ॥

सर्वजगद्ब्रह्ममयं संजातं नात्र संशयः ॥
नवम्या च सुलेपश्च कर्तव्यो यज्ञमूर्तये ॥ ३४ ॥

सुयक्षकर्दमैर्लिप्तो विष्णुर्येन जगद्गुरुः ॥
तेना प्यायितमेतद्धि वासितं यशसा जगत् ॥ ३५ ॥
अतएव “वर्ण निर्धारण” …गुण और कर्म के आधार पर ही सुनिश्चित होता हैं

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विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥
अर्थात- ”विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जायँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है,  (पतंजलि भाष्य 51-115)।
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महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार
“जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – महाभारत)

महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार
“जो निष्कारण (कुछ भी मिले ऐसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण हे.”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति)

भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार
“शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हे”
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-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार
“ब्राह्मण वही हे जो “पुंस्त्व” से युक्त हे. जो “मुमुक्षु” हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन हे. जो सरल हे. जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता हे, जो तेजस्वी हे, ज्ञानी हे, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदोका अध्ययन और अध्यापन कार्य हे, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हे”

(सन्दर्भ ग्रन्थ – शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक)
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सत्य यह हे कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे.
कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता हे यह सत्य हे.
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जेसे…..

(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|

(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद मेंउन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |

(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)

(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथेतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |

(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |

(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |

(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |

(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया |
विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |

(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए
और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
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मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक हे कि नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी हे उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी. वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कारों की ओर लौटें।
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अब रूढ़िवादी ब्राह्मण कहते हैं कि ब्राह्मण जाति बिना ज्ञान और तप को भी श्रेष्ठ है।
यह बड़ी मूर्खता पूर्ण बात है।

मनुष्य की जाति एक ही है क्योंकि प्रवृत्तियों से जातियों का निर्धारण होता है। और वृत्तियों ( व्यवसाय) से वर्ण का निर्धारण होता है। 
 

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्विज उच्यते।
श्रापानुग्रहसामर्थ्यं तथा क्रोधः संकेत ॥ 31 ॥
(स्कन्द पुराण- 6.1.239.31)
31-34ए. एक मनुष्य अपने जन्म के समय शूद्र से बेहतर नहीं होता। अभिषेक के कारण उन्हें द्विज (दो बार जन्मा) कहा जाता है।




Mauryavaadमुख्यपृष्ठवर्ण व्यवस्थावैदिक वर्णव्यवस्था का स्वरूप

वैदिक वर्णव्यवस्था का स्वरूप-

 



【 जन्म से सभी शूद्र  तथा द्विज बनना 】


🍁स्मृति के अनुसार -


मातुरग्रेSधिजननं द्वितीय मौञ्जिबन्धने। 

(मनुस्मृति 2 :169)

अर्थात-‘प्रथम जन्म माता से, दूसरा यज्ञोपवीत के समय होता है। 


शूद्रेण हि समस्तावद् यावत् वेदे न जायते। 

(मनुस्मृति 2:172)

अर्थात-‘जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के समान है, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो।’ 


एक अन्य स्मृति में भी मनुस्मृति की बात को दोहराया है -

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः

तेषां जन्म द्वितीयस्तु विज्ञेयं मौञ्जिबन्धनम् ।६

प्राचार्यस्तु पिता प्रोक्तः सावित्री जननी तथा

ब्रह्मक्षत्रविशाञ्चैव मौञ्जिबन्धनजन्मनि ।७

वृत्त्या शूद्रसमास्तावद्विज्ञेयास्ते विचक्षणै:

यावद्वेदेन जायन्ते द्विजा ज्ञेयास्ततः परम् ।८

(शंख स्मृति 1:6-8)

अर्थात -ब्राम्हण,क्षत्रिय और वैश्य द्विज कहे गये हैं |उपनयन के बाद दूसरा जन्म बताया गया है| उपनयन से होने वाले जन्म में आचार्य पिता तथा सावित्री (गायत्री) माता कही गयी है | बुद्धिमानों के द्वारा सभी जन्म से शूद्र के समान ही समझे जाते हैं  ,परन्तु  जब वेदाध्ययन से उनका दूसरा जन्म हो जाता है ,तो उन्हे द्विज जानना चाहिए |


🍁धर्मसूत्रों के अनुसार -


चत्वारो वर्णा ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः ।१

त्रयो वर्णा द्विजातयो ब्राह्मणक्ञत्रियवैश्या: ।२

तेषाम्‌ मातुरग्रे विजनन द्वितीयं मौज्लिबन्धने

अत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।३

वेदप्रदानात्पितेत्याचार्यमाचत्ञते ।४

( वशिष्ठ धर्मसूत्र 2 : 1-4 )

अर्थात- ‘चार वर्ण , ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं।  तीन वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज कहा जाता है। उनका पहला जन्म उनकी मां से होता है ; गुरु से यगोपवीत धारण करके उनका  दूसरा जन्म होता है इस ब्रह्मजनम (दूसरा जन्म) में सावित्री  उनकी माता तथा गुरु  पिता  कहा गया है।   शिक्षक को पिता कहते हैं, क्योंकि वे वेद की शिक्षा देते हैं।


न ह्यस्मिन्विद्यते कर्म किंचिदा मौज्ञिबन्धनात्‌

वृत्त्या शूद्रसमो ह्येष यावद्वेदे न जायत इति ।६

( वशिष्ठ धर्मसूत्र 2 : 6 )

अर्थात-‘' सभी वेदाध्यन से नए जन्म (ब्रह्मजन्म) से पहले एक शूद्र के स्तर पर है। जब तक कोई संतान गुरु से यगोपवीत धारण न कर ले वह वैदिक अनुष्ठान करने योग्य नहीं होता क्यूंकि वेदाध्ययन से पूर्व सभी जन्मतः शुद्र होते है .


इसके अतिरिक्त बौधायन धर्मसूत्र में भी इसी बात को दोहराया गया है-

नास्य कर्म नयच्छिन्त किंचिदा मौज्ञिबन्धनात्‌

वृत्त्या शूद्रसमो ह्येष यावद्वेदे न जायत इति ।

(बोधायन धर्मसूत्र 1:3: 6) 


*दूसरा जन्म ‘‘ब्रह्मजन्म’’= ‘विद्याध्ययन जन्म’ कहाता है। पहला जन्म उनका माता-पिता से हुआ, दूसरा विद्याध्ययन से, अतः वे ‘द्विज’ और ‘द्विजाति’ कहे गये।


🍁महाभारत के अनुसार-


तावच्छूद्रसमो ह्येष यावद् वेदे न जायते।

तस्मिन्नेवं मतिद्वैधे मनु: स्वायम्भुवोब्रवीत्॥ 

(महाभारत वनपर्व 180 : 35)

अर्थात - जब तक बच्चे का संस्कार करके उसे वेद का स्वाध्याय न कराया जाय, तब तक वह शुद्र होता है। यह नियम स्वयंभू मनु द्वारा ही बनाया गया है।


सत्यम दमस्तपो दानमहिंसा धर्मनित्यता।

साधकानि सदा पुंसा जातिर्न कुलं नृप॥

(महाभारत वनपर्व 181 : 43)

अर्थात - "हे राजा! सत्य, आत्म-संयम, अनुशासन, दान, अहिंसा और धार्मिकता - ये ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य को समाज में  उच्च सम्मान दिलाती हैं, न कि जाति या कुल।"


जब भी किसी का जन्म होता है तो वो गुणहीन और अशिक्षित  होता है इसलिए हर एक मनुष्य जन्म से  शुद्र ही होता है ।






🍁शुक्राचार्य वर्णव्यवस्था के कर्माधारित व्यवस्था का समर्थन करते हुवे कहते है -

न जात्या ब्राह्मणश्चात्र क्षत्रियो वैश्य एव न ।

न शुद्रो न च वै म्लेच्छो भेदिता गुणकर्मभि: ॥ ३८ ॥

(शुक्रनीति -1:38)

अर्थात - इस संसार में जाति विशेष के कारण कोई भी ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र और म्लेच्छ नहीं होता बल्कि गुण और कर्म के भेद से होते है।


ब्रह्मणस्तु समुत्पना: सर्वे ते किं नु ब्राह्मणा ।

न वर्णतो न जनकाद् ब्राह्मतेज: प्रपध्यते ॥ ३९ ॥

(शुक्रनीति -1:39)

अर्थात - संपूर्ण जीव ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण अब ब्राह्मण होते है क्या ? नहीं क्युकी ब्राह्मण पिता से ब्रह्मतेज की प्राप्ति नहीं हो सकती अर्थात ब्राह्मण के घर जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता ।

 कर्मशीलगुणाः पूज्यास्तथा जातिकुले न हि ।
 न जात्या न कुलेनैव श्रेष्ठत्वं प्रतिपद्यते ।

(शुक्रनीति -2:55)

अर्थात -मनुष्य कर्मशीलता और गुणो से सम्मानीय और पूज्यनीया होता है किसी विशेष जाति और कुल में जन्म लेने से नहीं । किसी भी जाति कुल में पैदा होने से कोई श्रेष्ट नहीं होता है।


इसीलिए संहिताओं में कहा है -

किमप्यत्राभिजायन्ते योगिनः . सर्वयोनिषु ।
प्रत्यक्षितात्मनाथानां नैषां चिन्त्यं कुलादिकम्‌ ॥४४॥

(भारद्वाज संहिता 1: 44)

अर्थात - इस संसार में योगीजन अनेक  निष्कृष्ट तथा उत्तम योनि तथा जातियों में जन्म ले लेते हैं अतः जिसने अपनी साधनाओं के कारण ब्रह्म-तत्त्व का साक्षात्कार प्राप्त कर लिया हो ऐसे योगीजन के लिये कुलादि का विचार नहीं माना जाता है। अतः ऐसे किसी भी योगी से मन्त्रदीक्षा लेना निषिद्ध नहीं है।


सर्वे समानास :  चतवारो गोत्रप्रवरवर्जिता : ।
उत्कर्षो न-अपाकर्ष: च जातितस तेषु सम्मत:॥

( ईश्वर संहिता 21:40)

अर्थात - गोत्र  , वंश, या नस्ल ऐसे कोई भेद नहीं होता है ; चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) चारों समान हैं। जाति का कोई उच्च और निम्न नहीं है।


पुराण भी यही वचन कहते है-

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते ।
(स्कन्दपुराण- नागरखण्ड 239:31)
अर्थात्-प्रत्येक बालक, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो, जन्म से शूद्र ही होता है। उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने के बाद ही द्विज बनता है।

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【 वेदाध्यन के बाद वर्ण धारण की क्रिया 】


🍁वेदों के अनुसार -


त्वꣳ ह्या३ङ्ग दैव्य पवमान जनिमानि द्युमत्तमः । 

अमृतत्वाय घोषयन् ॥९३८॥

(सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 938 )


पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अङ्ग) भद्र, (दैव्य) विद्वान् गुरु के शिष्य, (पवमान) चित्तशुद्धिप्रदाता आचार्य ! (द्युमत्तमः) अतिशय ज्ञानप्रकाश से युक्त (त्वं हि) आप (अमृतत्वाय) सुख के प्रदानार्थ (जनिमानि) शिष्यों के ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य रूप द्वितीय जन्मों की (घोषयन्) घोषणा किया करो ॥१॥


भावार्थभाषाः -

माता-पिता से एक जन्म मिलता है, दूसरा जन्म (ब्रह्मजन्म) आचार्य से प्राप्त होता है। जब शिष्य विद्याव्रतस्नातक होते हैं उस समय आचार्य गुणकर्मानुसार यह ब्राह्मण है, यह क्षत्रिय है, यह वैश्य है इस प्रकार स्नातकों को वर्ण देते हैं। उस काल में प्रथम जन्म का कोई ब्राह्मण भी गुण कर्म की कसौटी से क्षत्रिय या वैश्य बन सकता है,क्षत्रिय भी ब्राह्मण या वैश्य बन सकता है और वैश्य या शूद्र भी ब्राह्मण या क्षत्रिय बन सकता है ॥१॥


🍁मनुस्मृति के अनुसार -


आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद् वेदपारगः। 

उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या सा जराऽमरा॥ 

(मनुस्मृति 2:148)     

अर्थ-‘वेदों में पारंगत आचार्य सावित्री=गायत्री मन्त्रपूर्वक उपनयन संस्कार करके, विधिवत् पूरी वैदिक शिक्षण देकर जो बालक के वर्ण का निर्धारण करता है, वही वर्ण उसका वास्तविक वर्ण है ।


 इस प्रकार बालक-बालिका का वर्णनिधारण होता था।


🍁ज्यादा से ज्यादा लोगो को शिक्षा मिल सके और अधिक लोग द्विज बन सके  वैदिक युग आने पर वर्ण व्यवस्था में कुछ नए और लाभकारी विधान जोड़े गए थे इसके लिए उपनयन कराने का अधिकार सभी द्विज वर्णों को दिया गया था -


‘‘ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यस्य, शूद्रमपि कुल-गुण-सपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीतमध्यापये-दित्येके।’’ 

(सुश्रुत संहिता - सूत्रस्थान : 2) 

अर्थात -‘ब्राह्मण अपने सहित तीन ( क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र ) वर्णों का, क्षत्रिय अपने सहित दो (वैश्य , शुद्र ) का, वैश्य अपने सहित  एक वर्ण  (शुद्र ) का उपनयन करा सकता है। यह (यगोपवीत ) संस्कार यज्ञपूर्वक ही होता है।


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【वर्णवरण पश्चात चारो वर्णो के कर्मो】


🍁ब्राह्मण वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्तव्य – 


तैत्तिरीय संहिता का वचन है कि "ब्राह्मणो व्रतभृत् ।"1:6:7:2  अर्थात् ब्राह्मण वह है जो व्रत कर्मों का अधिष्ठाता है ।

*ब्रह्मन्* प्रातिपदिक से "तदधीते तद्वेद"(अष्टाध्यायी 4:2:59)  अर्थ में "अण्" प्रत्यय के योग से "ब्राह्मण " शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति है- "ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि उत्तमगुणः युक्त पुरुषः " अर्थात्  वेद और परमात्मा के अध्ययन और उपासना में तल्लीन रहते हुये विद्यादि उत्तमगुणों को धारण करने से व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है। अतः यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना जाति से नहीं अपितु  गुण कर्म से निर्धारित होता है। 

ब्राह्मण ग्रंथों के वचनों में भी वर्णों के कर्मों का वर्णन पाया जाता है।  निम्न वचनों में ब्राह्मण के कर्म उद्दिष्ट हैं। - 

1. आग्नेयो ब्राह्मणः।(तांड्य ब्राह्मण 15.4.8) 

आग्नेयो हि ब्राह्मणः। (काठक ब्राह्मण 29:10) 

अर्थात् - यज्ञाग्नि(पवित्र कर्म) से संबंध रखने वाला अर्थात् यज्ञकर्ता ब्राह्मण होता है । 

2. ब्राह्मणो व्रतभृत्। ( तैतरीय संहिता 1:6:7:2)  

व्रतस्य रूपं यत् सत्यम्। (शतपथ ब्राह्मण12:8:2:4)  

 अर्थात् - ब्राह्मण श्रेष्ठ व्रतों कर्मों को धारण करने वाला होता हैं। सत्य बोलना व्रत का एक रूप है। 


अध्यापनमध्ययनं यजनं याजन तथा।       

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥     

(मनुस्मृति 1: 88)     

अर्थात -ब्राह्मण वर्ण में दीक्षा लेने के इच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए ये कर्तव्य और आजीविका के कर्म निर्धारित किये हैं-‘विधिवत् पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना।’ 


इन कर्मों के बिना कोई ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहीं हो सकता।


🍁क्षत्रिय वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्रियों-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म- 

क्षणु(हिंसा अर्थ वाली {तनादि } धातु से 'क्त: ' प्रत्यय के योग से क्षत: शब्द सिद्ध होता है और इसके उपपद 'क्षत' में त्रैङ् (पालन करने के अर्थ में) भ्वादि धातु से 'अन्येष्वपि दृश्यते ' (अष्टाध्याई 3:2:101)  सूत्र से 'ड:' प्रत्यय, पूर्वपदान्त्यकारलोप होकर 'क्षत्र' और 'क्षत्र एव क्षत्रिय: ' स्वार्थ में 'इय:' होने से 'क्षत्रिय: या क्षत्रस्य अपत्यम् वा , क्षत्राद् घ: ' (अष्टाध्याई 4:1:1:138:) सूत्र से घ: प्रत्यय होकर क्षत्रिय बना।

क्षदति रक्षति जनान् क्षत्र:। क्षण्यते हिंस्यते नस्यते पदार्थो येन स 'क्षत: ', ततस्त्रायते रक्षतीति क्षत्र:।

अर्थात् - जो लोगों का पालन और रक्षा करे, क्षत(जो क्षीण हो गया हो, हिंसात्मक घटना हो या नष्ट किया गया हो वो पदार्थ) की रक्षा या त्राण करने वाला क्षत्रिय कहा जाता है।

क्षत्रस्य वा एतद्रूपं यद् राजन्य:।(शतपथ- 13:1:5:3) 

अर्थात - क्षत्रिय जो राजा की भांति पालन रक्षण करे।


प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।       

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥     

(मनुस्मृति 1:89)     

अर्थात - विधिवत् पढ़ना, यज्ञ करना, प्रजाओं का पालन-पोषण और रक्षा करना, सुपात्रों को दान देना, धन-ऐश्वर्य में लिप्त न होकर जितेन्द्रिय रहना, ये संक्षेप में क्षत्रिय वर्ण को धारण करने वाले स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य हैं।


🍁वैश्य वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्तव्य – 


विश: मनुष्यानाम।(निघंटु 2:3) के भावार्थ में यत् और उसके स्वार्थ में 'अण्' अथवा विश् प्रातिपदिक से अप्रत्यार्थ में 'यञ्' छान्दस प्रत्यय से 'वैश्य' शब्द की निष्पत्ति होती है। 

यो यत्र तत्र व्यवहारविद्यासु प्रविशति स: वैश्य: व्यवहारविद्याकुशल: जनो वा। 

अर्थात् -जो यहां वहां आने जाने के लिए व्यवहार विद्या में निपुण हो।


 एतद् वै वैश्यस्य समृद्धं यत् पशव:।

( ताण्डय ब्राह्मण- 18:4:6) 

अर्थात - वैश्य की समृद्धि पशुओं इत्यादि के पालन रक्षण से है।


पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥   

(मनुस्मृति 1:90)     

अर्थात - पशुओं का पालन-पोषण एवं संवर्धन करना, सुपात्रों को दान देना, यज्ञ करना, विधिवत् अध्ययन करना, व्यापार करना, याज से धन कमाना, खेती करना, ये वैश्य वर्ण को ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म हैं।


🍁शूद्र वर्ण धारक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म- 

शुच् शोकार्थक (भ्वादि) धातु से शुचेर्दश्च (उणा० 2:19) सूत्र से रक् प्रत्यय उकार को दीर्घ, च को द होकर शूद्र शब्द बनता है।

शूद्र: शोचनीय: शोच्याम् स्थितिमापन्नो वा, सेवायां साषुर् अविद्यादिगुणसहितो मनुष्यो वा।

अर्थात् - शूद्र वो है जिसकी दशा शोचनीय हो, अथवा जिसकी स्थिति अच्छी न हो और उसके विषय में शोक करता हो अथवा सेवा इत्यादि से युक्त और विद्यादि गुणों से रहित मनुष्य।

असतो वा एष सम्भृतो यत् शूद्रः 

(तैतिरीय ब्रहमण 3 : 2: 3:9)

अर्थात् - अज्ञान के कारण जो अशिक्षित जीवन स्थिति हो, वह शूद्र कहलाता है। 


तपसे शूद्रम' 

(यजुर्वेद 30:5)

तपो वै शूद्रः” 

(शत्पथ ब्राह्मण 13:6:2:10) 

अर्थात् - जो श्रम से अपना जीवन निर्वाह करता हो, वह शूद्र है।


एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।       

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥ 

(मनुस्मृति 1: 91)     

अर्थात - परमात्मा ने वेदों में शूद्र वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए एक ही कर्म निर्धारित किया है, वह यह है कि ‘इन्हीं चारों वर्णों के व्यक्तियों के यहां सेवा या श्रम का कार्य करके जीविका करना।’ 


क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है अतः वह सेवा या श्रम का कार्य ही कर सकता है, अतः उसके लिए यही एक निर्धारित कर्म है।

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 [ वर्ण व्यवस्था के  विधान ]


🍁वर्णनिर्धारण - गुरुकुल में साथ-साथ दो प्रकार की शिक्षाएं चलती थीं- एक, वेदादिशास्त्रों एवं भाषा प्रशिक्षण की शिक्षा । दूसरी, अपने-अपने स्वीकृत वर्ण की व्यावसायिक शिक्षा थी। कम से कम एक वेद की आध्यात्मिक शिक्षा अर्जित करने तक की शिक्षा सबके लिए अनिवार्य थी। आयु के अनुसार, पुरुषों के लिए 25 वर्ष तक और बालिकाओं के लिए 16 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करनी अनिवार्य थी। उसे पूर्ण न करने वाला शूद्र घोषित हो जाता था।गुरुकुल से स्नातक बनते समय आचार्य बालक-बालिका के वर्ण का निर्धारण करके उसकी घोषणा करता था, जो बालक प्राप्त वर्ण शिक्षा के अनुसार होता था।


🍁वर्णपरिवर्तन - एक बार वर्णनिर्धारण के बाद भी यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता था तो उसको उसकी स्वतन्त्रता थी और परिवर्तन के अवसर प्राप्त थे। जैसे, आज कोई कलास्नातक पुनः वाणिज्य की आवश्यक शिक्षा अर्जित करके, वाणिज्य की उपाधि प्राप्त कर व्यवसायी हो सकता है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में अभीष्ट वर्ण का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करके व्यक्ति वर्णपरिवर्तन कर सकता था।

🍁वर्णपतन - एक बार वर्णग्रहण करने के बाद यदि व्यक्ति अपने वर्ण, पद, या व्यवसाय के निर्धारित कर्त्तव्यों और आचार-संहिता का पालन नहीं करता था तो उसको राजा या अधिकार प्राप्त धर्मसभा वर्णावनत या वर्ण से पतित कर देते थे। अपराध करने पर भी वर्ण से पतित हो जाते थे। जैसे, आजकल नौकरी, व्यवसाय या निर्धारित कार्यों में कर्त्तव्य या कानून का पालन न करने पर, नियमों का पालन न करने पर, अथवा अपराध करने पर उस नौकरी या व्यवसाय का कुछ समय तक अधिकार छीन लिया जाता है, या उससे हटा दिया जाता है, या पदावनत कर दिया जाता है। ऐसे ही वर्णव्यवस्था में प्रावधान था।



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