शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

वैष्णव- वर्णकी अवधारणा-

"गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग- तथा शक्ति" भक्ति" "सौन्दर्य और ज्ञान" की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म लेने का वर्णन- शास्त्रों में वर्णित है।

"स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में विराजमान हैं वही आभीरजाति में मानवरूप में सीधे 
अवतरित होने के लिए, इस पृथ्वी पर आते हैं;

गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और अपनी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा"गायत्री"और
उर्वशी आदि के रूप में अँशत:  इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं।
ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।  वस्तुत: वैदिक ऋचीओं मे ं सन्दर्भित  विष्णु गोप रूप में  जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं।

ये विशेषण शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु का कारण रूप ब्रह्माण्ड से परे और ऊपर गोलोक में विराजमान कृष्ण रूप ही है।

विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप  परम पद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं।

कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।

ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)

शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥

विशेष:- गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है । भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।

और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया।वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

दर- असल विष्णु शब्द तीन सात्विक सत्ताओं का वाचक है। स्वराट्- स्वयंप्रकाश सबकामूलकारण द्विभुजधारी गोलोक वासी कृष्ण रूप द्वितीय कृष्ण और और उनकी आधि प्राकृतिक शक्ति राधा दौंनों के संयोग से उत्पन्न विराट रूप जो अनन्त है। और तृतीय रूप जो इस विराट महाविष्णु के प्रत्येक रोमकूप में उत्पन्न ब्रह्माण्ड के देव त्रयी में क्षुद्र विराट्( छोटे विष्णु) नाम से हैं। इन्हीं की नाभि कमल से ब्रह्मा और फिर उनसे चातुर्वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र उत्पन्न होते है।  

और शिव लोक से आकर शिव  भी अंश रूप इन्हीं ब्रह्मा के ललाट से उत्पन्न होकर रुदन करने से रूद्र कहलाते हैं।

विष्णु के तीनों रूप सत्व गुण की ही क्रमश: विशिष्ट सत्व शुद्ध सत्व और सत्व ये तीन अवस्थाऐं हैं।

 

भले ही विभिन्न भाष्य कारों ने उसके

अर्थ बदलने की कोशिश की हो।
लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो

"पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक विशेष विचारणीय हैं।

१- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है !

इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर अहीरो को दिव्य लोको में निवास करने का अधिकारी बनाकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दी गयी है।

"आभीर लोग पूर्वकाल में भी धर्मतत्व वेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल कहकर सम्बोधित किए गये हैं।

तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन श्लोकों में निर्दशित है।

(क)"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।_______________________________
(ख)"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
(ग)अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद: -

विष्णु ने अहीरों से कहा ! मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नाम की कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है।
विशेष:- इसका कारण यही था (कि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का प्राचीन काल में पालन करती थीं।
भगवान् विष्णु बोले ! हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
और पुराण शास्त्रों में यह भी लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।

इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल निम्न ऋचा में

विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है।


"त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18)
"सायण भाष्य पर आधारित अर्थ-
.विष्णु जगत् के रक्षक हैं, उनको आघात करनेवाला कोई नहीं है। उन्होंने समस्त धर्मों का धारण कर तीन पैरों की परिक्रमा किया।18।

अर्थात्- इसमें भी कहा गया है कि किसी के द्वारा जिसकी हिंसा नहीं हो सकती, उस सर्वजगत के रक्षक विष्णु ने अग्निहोत्रादि कर्मों का पोषण करते हुए पृथिव्यादि स्थानों में अपने तीन पदों से क्रमण (गमन) किया।

इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान माना गया है -

"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं।

ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) का ऋचा संख्या (6)

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः ।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।


सायण- भाष्य-"हे यजमान और उसकी पत्नी ! तुम दोनों के लिए जाने योग्य उन प्रसिद्ध सुखपूर्वक निवास करने योग्य स्थानों की हम कामना करते हैं।
अर्थात तुम्हारे जाने के लिए विष्णु से प्रार्थना करते हैं। जिन स्थानों पर गायें अत्यन्त उन्नत और बहुतों के द्वारा आश्रयवाली होकर अति विस्तृत हैं। 
उन निवास स्थानों के आधारभूत द्युलोक में बहुत से महात्माओं के द्वारा स्तुति करने योग्य और कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु का गन्तव्य रूप में प्रसिद्ध निरतिशय स्थान गोलोक अपनी महिमा से अत्यधिक स्फुरित होता है।६।
हे पत्नीयजमानौ !

१-“वां =युष्मदर्थं।
२-“ता= तानि {गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धानि}
३- “वास्तूनि =सुखनिवासयोग्यानि स्थानानि
४- “गमध्यै युवयोः = गमनाय ।
५-“उश्मसि= कामयामहे । तदर्थं विष्णुं प्रार्थयाम इत्यर्थः । ६- तानीत्युक्तं =कानीत्याह । “यत्र येषु वास्तुषु
७-"गावः धेनव: ।
८-भूरिशृङ्गाः = वृहच्छ्रंगा स्वर्णमण्डिता शृङ्गाः ।

९-“अयासः =यासो गन्तारः । अतादृशाः । अत्यन्तप्रकाशयुक्ता इत्यर्थः । “अत्राह अत्र खलु वास्त्वाधारभूतं द्युलोके
१०-“उरुगायस्य= बहुभिर्महात्मभिर्गातव्यस्य स्तुत्यस्य ।
११-“वृष्णः = कामानां वर्षितुर्विष्णु:।
१२-“पदं= स्थानं “भूरि =अतिप्रभूतम् स्वर्णं वा“
१३-अव “भाति = प्रकाशयति।
अयं ऋचायां गोशब्दो धेनु वाचक इति

ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 154 के मन्त्र

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि ॥
पदों का अर्थ:-(यत्र) जहाँ (अयासः) प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः) स्वर्ण युक्त सींगों वाली (गावः) गायें हैं (ता) उन ।(वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम को (गमध्यै) जाने को लिए (उश्मसि)तुम चाहते हो। (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्) उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अव भाति) उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६॥

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उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य ( अवध्य) है)।

'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी( बहुत अंशों वाला) रूप है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया - 'यज्ञो वै विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। "एवं पुरा विष्णुरभूच्च वामनो धुन्धुं विजेतुं च त्रिविक्रमोऽभूत्। यस्मिन् स दैत्येन्द्रसुतो जगाम महाश्रमे पुण्ययुतो महर्षे।।( ७८/९०)

इति श्रीवामनपुराण अध्याय।52।
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विष्णोरिदम् ।  विष्णु + अण् । )  विष्णुसम्बन्धी   वैष्णव!

विष्णु के उपासक, भक्त और विष्णु से सम्बंधित वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु के इन छै: गुणों से युक्त होने के कारण भगवत् - संज्ञा है। जो निम्नलिखित हैं।

 १-अनन्त ऐश्वर्य, २-वीर्य, ३-यश, ४-श्री, ५-ज्ञान और ६-वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण परमात्मा को भगवान् या भगवत् कहा जाता है।

"इस कारण वैष्णवों को भागवत नाम से भी जाना जाता है - भगवत्+अण्=भागवत।

जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत् है। श्रीमद् -वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत में 'भगवान्' कहा गया है।

उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है वल्लभाचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ में वर्णन है।

"श्रीमद्वल्लभाचार्य लिखित -सिद्धान्त मुक्तावलि "वैष्णव धर्म मूलत: भक्तिमार्ग है।"भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य भक्ति को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।



"वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ और वहीं से दक्षिण भारत में मधुरा शब्द ही चैन्नई का पुराना नाम मदुरैई है।।
तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध. ये चार व्यूह माने गये हैं।

राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं। और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं।

विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं।

इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्रों में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहा करती हैं।

यह उसी परम्परा भी उसी का अवशेष हैं। गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं।

इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है। गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे

इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं।
उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से सम्बन्धित रहीं हैं
मानवीय रूप में इस महाशक्ति ने अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की कन्या के रूप में जन्म लिया और कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से जिन्हें सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद मिला और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी हुईं । विष्णु अथवा नारायण के उर( जंघा ) अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण कारण भी इन्हें उर्वशी कहा गया । प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं। जैसे किसी पुष्प में समाहित गन्ध पराग और मकरन्द( पुष्प -रस) होता है।

कहीं कहीं पुराणों में उर्वशी को नारायण अथवा विष्णु" के जंघा से उत्पन्न बताकर भी उसकी वैष्णवी सृष्टि का समर्थन किया गया है।

"नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी । ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
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सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है इसी कारण स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को अप्सराओं की स्वामिनी के रूप में नियुक्त हुईं।

"अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।

इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।

वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः।८६।
दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।1.456.87।

सन्दर्भ-लक्ष्मीनारायणसंहिता-खण्डः १ (कृतयुगसन्तानः)-अध्यायः (४५६)तथा"स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्यायः 9 पर देखें-

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अध्याय 9 - दिव्य देवियों और सूर्य का क्षेत्र का वर्णन- शिवशर्मन ने कहा :-

-1. सौंदर्य, तेज और दांपत्य आनंद की भंडार, दिव्य आभूषण पहनने वाली और दिव्य सुखों का आनंद लेने वाली ये महिलाएं कौन हैं ?
शिव शर्मा ने कहा ! रूप -लावण्य से युक्त सौभाग्य शालिनी दिव्य अलंकार धारिणी दिव्य भोगों से युक्त ये स्त्रीयाँ कौन हैं?
परिचारकों ने कहा :
-2. ये सुन्दरी अप्सराऐं हैं जो देवताओं के लिए प्रिय हैं। । वे संगीत की जानकार, नृत्य में विशेषज्ञ और संगीत वाद्ययंत्र बजाने की कला में बहुत कुशल होती हैं।
तभी विष्णु भगवान् के पार्षदों कहते हैं ! ये अप्सराऐं हैं। ये अप्सराऐं इन्द्र आदि देवों की प्रियकारिणी और वारविलासिनी हैं।
-3. ये प्रेम करने की कला में माहिर और पासे के खेल में बहुत चतुर होती हैं।. वे चीज़ों की सुंदरता की सराहना करती हैं। वे दूसरों की अंतरतम भावनाओं को समझती हैं। वे उपयुक्त प्रत्युत्तर देने में बहुत चतुर होती हैं। अर्थात ्
रसिकता ,मनोविज्ञान- हाव-भाव की विशेषज्ञा और समय और प्रसंग के अनुसार वाणीप्रयोग इनका मौलिक गुण है। अनेक देशों की विशेष जानकार अनेक भाषाओं की जानकार तथा रहस्य कथन करने में ये पारंगता हैं। ये अप्सराऐं आनन्द युक्त हो दल दल में विचरण करती हैं। ये अकेले कभी नहीं रहती हैं। हाव-भाव प्रकाशन में चतुर और मधुरा आलाप करने में तो विदुषी ही हैं। ये अप्सराऐं अपने हावभाव से पुरुषों का मन हर लेती हैं।
ये संगीत गीत, नृत्य और वाद्य वादन में पारंगत है। और साथ ही काम कला की विषशज्ञा भी होती हैं। और दूतविद्या में पारदर्शिता इनकी विशेषता है।
-4. वे विभिन्न देशों की विशेषताओं को जानने में विशेषज्ञ होती हैं और विभिन्न देशों में बोली जाने वाली भाषाओं पर महारत रखती हैं। ये गुप्त समाचारों की जांच करने में कुशल होती हैं। वे अकेले नहीं बल्कि समूहों में अपनी इच्छानुसार आनंदपूर्वक विचरण करती हैं।
-5. वे कामुक इशारों, रोमांचक कामुक भावनाओं और प्रेम की अभिव्यक्ति और कामुक खेलों की विशेषज्ञ हैं। ये लगातार मधुर बातें करने में माहिर होते हैं। वे हमेशा अपने आकर्षक हाव-भाव और मोहक आकर्षण के माध्यम से युवाओं के मन को हरण करती हैं।
-6. पूर्व में ये दिव्य देवियाँ क्षीर-सागर से तब निकली थीं जब उसका मंथन किया जा रहा था। वे ये तीनों लोकों के विजेता, मन से उत्पन्न प्रेम के देवता (कामदेव) के आकर्षक हथियार हैं ।
7-12. वे हैं: उर्वशी , मेनका , रंभा, चंद्रलेखा , तिलोत्तमा, वपुष्मती, कांतिमती , लीलावती , उत्पलावती , अलंबुषा , गुणवती , स्थुलाकेशी, कलावती , कलानिधि, गुणनिधि, कर्पूरतिलका, उर्वरा, अनंगलाटिका , मदनमोहिनी ,चकोराक्षी , चंद्रकला , मुनिमनोहर, ग्रायद्रावा, तपोद्वेष्टि , चारुणसा, सुकर्णिका, दारुसंजीविनी, सुश्री , ( शुभानना).सुन्दर मुख वाली - क्रतुशुल्का, उपश्शुल्का, तीर्थशुद्धा, हिमावती पञ्चाश्वमेधा- राजसूखार्थिनी, अष्टाग्निहोमिका, वाजपेयश्शतोद्भवा इत्यादि. इन अप्सराओं की संख्या साठ हजार है।७-१२।
13. अप्सराओं की इस दुनिया में अन्य महिलाएं भी रहती हैं। उनकी चमक कभी फीकी या क्षीण नहीं होती। उनकी जवानी भी कभी कम नहीं होती.
14. उनके वस्त्र दिव्य हैं; उनकी मालाएँ दिव्य हैं; गंध दिव्य हैं; वे आनंद के स्वर्गीय साधनों से प्रचुर मात्रा में संपन्न हैं; वे अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। अर्थात्- इस अप्सरा लोक में स्थिरयौवना स्थिरलावण्या और भी अनेक स्त्रियाँ निवास करती हैं। वे भी दिव्यवस्त्र दिव्यगन्ध और दिव्यगन्ध के अनुलेप से युक्त हैं।
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इन देवीयों को पुराकाल में वैष्णवी शक्ति के नाम से जाना जाता था। विभिन्न ग्रंथों में इन देवीयों के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म आभीर जाति में हुआ है जहाँ स्वयं विष्णु अवतरण करते हैं।।

"विचारणीय है कि भारतीय संस्कृति में ये चार परम शक्तियाँ अपने नाम के अनुरूप कर्म करने वाली" विधाता की सार्थक परियोजना का अवयव सिद्ध हुईं

राधा:-राध्नोति साधयति पराणि कार्य्याणीति ।
जो दूसरे के अर्थात भक्त के कार्यों को सफल करती है।
राधा:- राध + अच् । टाप् = राधा ) राध् धातु = संसिद्धौ/वृद्धौ
राध्= भक्ति करना और प्रेम करना।

गायत्री:- गाय= ज्ञान + त्री= त्राण (रक्षा) करने वाली अर्थात जो ज्ञान से ही संसार का त्राण( रक्षा) गायन्तंत्रायतेइति। गायत् + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः।)

विशेष:-"दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता । न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।

अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री नाद ब्राह्म ( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।

"न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।। न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।

"एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९।।

(स्कन्दपुराण (ना०ख०)-अध्यायः १९३-

यह दुष्टा( विगर्हिता) आभीर सुता जिसकारण से मेरे स्थान पर आयी है।इसके भविष्य में कभी सन्तान नहीं होगी।५९।

तो फिर गायत्री को ब्राह्मणप्रसु कहना शास्त्रीय विरोध होने से प्रक्षेप है।

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"एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९। "

अनुवाद:-सावित्री ने कहा:-"यह निन्दिता आभीर कन्या गायत्री जिसने मेरा स्थान छीन लिया है इसके सन्तान नहीं होगी।"

निम्न श्लोक इस उपर्युक्त कारण से प्रक्षिप्त है। कि जब गायत्री के सन्तान ही नहीं होगीं तो ब्राह्मण कहाँ से पैदा कर दिए-
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गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्ताने उत्पन्न होती हैं। यह अर्थ किया जाना चाहिए-

गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।

प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।

(पुरु प्रचुरं रौति कौति इति “ पुरूरवाः । “

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समाधान:-"गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। ये मरण धर्मा सन्तानों का प्रसव नहीं करती हैं । सन्तान जनन और प्रजनन सांसारिक प्राणीयों का कर्म है।

देवी भागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा राधा गायत्री के ही नामान्तरण हैं।

अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्द पुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री नाम को सार्थक करता है। खैर गायत्री शब्द का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही शास्त्र ते अनुरूप है।

निष्कर्ष:-"गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति - गायन्तं त्रायते त्रै+क, अथवा गीयतेऽनेन गै--घञ् यण् नि० ह्रस्वः गयः प्राणस्त त्रायते त्रै- क वा)

गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति

"प्रातर्न तु तथा स्नायाद्धोमकाले विगर्हितः । गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥१०॥

अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।

गायन्तं त्रायते यस्माद्‌गायत्रीत्यभिधीयते।प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥११॥

अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।

सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥

१२.गायन्तं त्रायते यस्माद्-गायत्रीति ततः स्मृता।(बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः४/३५)

,"अत: स्कन्दपुराण, लक्ष्मी-नारायणीसंहिता नान्दी पुराण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति पूर्णत: प्रक्षिप्त व काल्पनिक है। जिसका कोई व्याकरणिक आधार नही है।
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दुर्गा:- विराटपर्व-8 महाभारतम्महाभारतस्य पर्वाणि

विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति" करना-

           वैशंपायन उवाच।

विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः। अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
दुर्गात्तारयसे दुर्गे तत्त्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।कान्तारेष्ववसन्नानां मग्रानां च महार्णवे। दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।21।
षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-

      विराटपर्व-8 महाभारतम्

        महाभारतस्य पर्वाणि

विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति"

                

युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।

‘पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी ! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कह तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’। तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है।
महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35

षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद:-

‘देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कही

जाती हो। जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पडत्र गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय

उनके लिए बता दें कि दुर्गा के यादवी अर्थात् यादव कन्या होने के पौराणिक सन्दर्भ हैं

परन्तु महिषासुर के अहीर या यादव होने का कोई पौराणिक सन्दर्भ नहीं !

देवी भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा ही नंदकुल में अवतरित होती है--

हम आपको मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण से कुछ सन्दर्भ देते हैं जो दुर्गा को यादव या अहीर कन्या के रूप में वर्णन करते हैं...

देखें निम्न श्लोक ...नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया ॥ ८१ ॥

~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

उपर्युक्त श्लोक में नन्द जी की प्रिय पुत्री होने से नन्द प्रिया दुर्गा का ही विशेषण है ...

नन्दजा नवरत्‍नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिःस्वना ॥८६
~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

उपर्युक्त श्लोक में भी नन्द की पुत्री होने से दुर्गा को नन्दजा (नन्देन सह यशोदायाञ् जायते इति नन्दजा) कहा गया है ..

यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी  यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्‍भवा॥१३१॥
~देवीभागवतपुराण स्कन्ध १२-अध्यायः ६

उपर्युक्त श्लोक में दुर्गा देवी यदुवंश में नन्द आभीर के घर यदुवंश में जन्म लेने से (यदुवंशसमुद्भवा) कहा है जो यदुवंश में अवतार लेती हैं

नीचे मार्कण्डेय पुराण से श्लोक उद्धृत हैं जिनमे दुर्गा को यादवी कन्या कहा है:-

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥३८॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥३९॥
~मार्कण्डेयपुराणम्/अध्यायः ९१
अट्ठाईसवें युग में वैवस्वत मन्वन्तर के प्रगट होने पर जब दूसरे शुम्भ निशुम्भ दैत्य उत्पन्न होंगे तब मैं नन्द गोप के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर उन दोनों(शुम्भ और निशुम्भ) का नाश करूँगी और विन्ध्याचल पर्वत पर रहूंगी।

मार्कण्डेय पुराण के मूर्ति रहस्य प्रकरण में आदि शक्ति की छः अंगभूत देवियों का वर्णन है उसमे से एक नाम नंदा का भी है:-

इस देवी की अंगभूता छ: देवियाँ हैं –१- नन्दा, २-रक्तदन्तिका, ३-शाकम्भरी, ४-दुर्गा, ५-भीमा और ६-भ्रामरी. ये देवियों की साक्षात मूर्तियाँ हैं, इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने से इस प्रकरण को मूर्तिरहस्य कहते हैं...

दुर्गा सप्तशती में देवी दुर्गा को स्थान स्थान पर नंदा और नंदजा कहकर संबोधित किया है जिसमे की नंद आभीर की पुत्री होने से देवी को नंदजा कहा है-

"नन्द आभीरेण जायते इति देवी नन्दा विख्यातम्"
ऋषिरुवाच 'नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा। सा स्तुता पूजिता ध्याता वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥१॥
~श्रीमार्कण्डेय पुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मूर्तिरहस्यं 

अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् ! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली है, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं|

आप को बता दें गर्ग संहिता, पद्म पुराण आदि ग्रन्थों में नन्द को आभीर कह कर सम्बोधित किया है:-

महाभारत के विराट पर्व में दुर्गा को शक्ति की अधिष्ठात्री देवता कह कर सम्बोधित तिया गया है।महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14(पाण्डवप्रवेश पर्व)

श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधिष्ठात्री दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।
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उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है। "उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है।

कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी ही है।

क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में सबसे प्राचीन प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।

सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गयी हो।

"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है। कवि बनने का बस उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।

और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (घोष) के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।

"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं।

इसी प्रकार गायत्री को ब्राह्मण कन्या सिद्ध करने के लिए कहीं उन्हें गाय के मुख में डालकर पिछबाड़े ( गुदाद्वार) से निकालने की काल्पनिक कथा बनायी गयी तो कहीं गोविल और गोविला के नाम से उनके माता पिता को अहीरों के वेष में रहने वाला ब्राह्मण दम्पति बनाने की काल्पनिक कथा बनायी गयी ।

लक्ष्मीनारायण संहिता में गायत्री के विषय में उपर्युक्त काल्पनिक कथा को बनाया गया है कि उनके माता पिता अभीर वेष में ब्राह्मण ही थे।

इसी क्रम में "लक्ष्मी-नारायणसंहिता कार नें अहीरों की कन्या उर्वशी की एक काल्पनिक कथा उसके पूर्व जन्म में "कुतिया" की यौनि में जन्म लेने से सम्बन्धित लिखकर जोड़ दी।

जबकि उर्वशी को मत्स्य पुराण में कठिन व्रतों का अनुष्ठान करनी वाली अहीर कन्या लिखा जो स्वर्ग और पृथ्वी लोक में सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बनी

इसी सन्दर्भ में हम यादव योगेश कुमार रोहि उर्वशी का मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं।

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"त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।५८।
अनुवाद:- भगवान कृष्ण ने भीम से कहा:-

वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८।

बात उस समय की है जब एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्तु स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है।

"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते।त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।५९।
अनुवाद:-प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।

यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६०।
अनुवाद:-इसका स्मरण और कीर्तन मात्र करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मनुष्य देवों के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त करता है।६०।

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कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु। आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।
जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
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मत्स्यपुराण -★(भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-

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अनुवाद:-जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस (कल्याणनी )व्रत का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।

इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।

इस समस्त सृष्टि में व्रत तपस्या का एक कठिन रूपान्तरण है। तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है।

भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में तप के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा-

                     मूल श्लोकः

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।
अनुवाद:-मनकी प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मनका निग्रह और भावोंकी शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

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"आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही भगवान् विष्णु द्वारा सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।

और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक हैं जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति के उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरोम को दी है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।           मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।

शास्त्र में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।

सम्पूर्ण गोप अथवा यादव विष्णु अथवा कृष्ण के अंश अथवा उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हुए है।

गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह वर्णन है।

"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्‍ण की पूजा करके, उन्‍हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।

उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्‍ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्‍य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।

तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोको में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।

क्योंकि सभी यादव मेरे ही अंश है।

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः ॥ जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥

"शब्दार्थ:-१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न) २-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले। ४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले।५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में +सन् भावे अ प्रत्यय ।= जयेच्छायां ।६- जित्वा= जीतकर।७-अरीन्= शत्रुओ को।८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे। ९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।१०-बलिं = भेंट /उपहार।११- दिशाम् = दिशाओं में।

अनुवाद:-समस्‍त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं।

वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता‎ खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)

"गोप अथवा यादव एक ही थे क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।"

जब ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन हो सकते हैं।

और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् विष्णु के शरीर से उत्पन्न हैं।

इस लिए गोप अथवा यादव ब्राह्मणों से श्रेष्ठ हैं। पूज्य हैं।

परन्तु उन्हें इसके अनुरूप चरित्र स्थापित करने की आवश्यकता है।

देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के द्वादश सूक्त की यह नब्बे वी ऋचा।

"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
श्लोक का अनुवाद:- इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं।


परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं 

इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।
👇"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:" आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।

(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
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"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।
"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२॥
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इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
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शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।
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अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही होने से रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं। 

इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।

गायत्री ज्ञान की अधिष्ठात्री हुईं तो इनके अतिरिक्त सौन्दर्य की अधिष्ठात्री उर्वशी जो अप्सराओं की अधिकारिणी थी।

आभीर कन्या हीं थी यह भी मत्स्यपुराण में वर्णन है।

"ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।

इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥
सायण-भाष्य"-

अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति= उस निषंग से वाण फैकने के लिए मैं समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् = नहीं होसकता। तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्।

पुरुरवा :- हे उर्वशी ! कहीं बिछड़ने से मुझे इतना दु:ख होता है कि तरकश से एक तीर भी छूटता नहीं है। मैं अब सैकड़ों गायों की सेवा अथवा पालन के लिए सक्षम नहीं हूं। मैं राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया हूं और इसलिए मेरे योद्धाओं के पास भी अब कोई काम नहीं रहा।

विशेष:- गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवक" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।

"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥
सायण-भाष्य"-

“इत्था= इत्थं = इस प्रकार इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह । हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि । "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।

                   "मत्स्य उवाच।

शृणु कर्म्मविपाकेन येन राजा पुरूरवाः।अवाप ताद्रृशं रूपं सौभाग्यमपि चोत्तमम्। ११५.६।
"अतीते जन्मनि पुरा योऽयं राजा पुरूरवाः। पुरूरवा इति ख्यातो मद्रदेशाधिपो हि सः।११५.७।
चाक्षुषस्यान्वये राजा चाक्षुषस्यान्तरे मनोः।स वै नृपगुणैर्युक्तः केवलं रूपवर्जितः।११५.८ ।
पुरूरवा मद्रपतिः कर्म्मणा केन पार्थिवः।बभूव कर्म्मणा केन रूपवांश्चैव सूतज!। ११५.९।
अनुवाद:-शास्त्रों में पुरुरवा के जन्म की विभिन्न कथाऐं हैं।

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्। राजा पुरुरवाको जिस कर्मके फलस्वरूप वैसे सुन्दर रूप और उत्तम सौभाग्यकी प्राप्ति हुई थी, वह बतला रहा हूँ, सुनो। यह राजा पुरूरवा पूर्वजन्ममें भी पुरूरवा नामसे ही विख्यात था। यह चाक्षुष मन्वन्तरमें चाक्षुष मनुके वंशमें उत्पन्न होकर मद्र देश (पंजाबका पश्चिमोत्तर भाग) का अधिपति था (जहाँका राजा शल्य तथा पाण्डुपत्त्री माद्री थी। उस समय इसमें राजाओंके सभी गुण तो विद्यमान थे, पर वह केवल रूपरहित अर्थात् कुरूप था (मत्स्यभगवान्द्वारा आगे कहे जानेवाले प्रसङ्गको ऋषियोंके पूछने पर सूतजीने वर्णन किया है, अतः इसके आगे पुनः वही प्रसङ्ग चलाया गया है।)।6-8।

(मत्स्यपुराण अध्याय-115)

सतयुग में वर्णव्यवस्था नहीं थी परन्तु एक ही वर्ण था । जिसे हंस नाम से शास्त्रों में वर्णन किया गया है। परन्तु आभीर लोग सतयुग में भी विद्यमान थे

जब ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ था । तब आभीर जाति के लोग उपस्थित थे।

कालान्तर में भी वर्णव्यवस्था का आधार गुण और मनुष्य का कर्म ही था।

गुणकर्मानुसार वर्णविभाग ही भगवान का जाननेका मार्ग है-

"चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥१६॥( श्रीमद्भगवद्गीता- ४/१३)

अनुवाद:- गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं। मैं सृष्टि आदिका कर्त्ता होने पर भी मुझे अकर्ता और अव्यय ही जानना अर्थात् वर्ण और आश्रम धर्म की रचना मेरी बहिरङ्गा प्रकृति के द्वारा ही हुई है।

प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।

"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥
"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी। विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥
विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः। वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)

अनुवाद:-(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है। हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥

पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-

श्रोत:-आभीरसंहिता,‌ यदुवंशसंहिता एवं यदुवंशसमुद्भवा राधिका" 

प्रस्तुति करण:-

(यादव योगेश कुमार रोहि (अलीगढ़) एवं इ० माता प्रसाद यादव ( लखनऊ)

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