शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव,गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था में शामिल नहीं हैं। विष्णु से उत्पन्न होने से इनका वर्ण वैष्णव है। मूल विष्णु स्वयं भगवान् कृष्ण का गोलोक वासी सनातन रूप है। और स्थूल विष्णु ही उनका विराट् रूप है।कृष्ण सदैव गोपों में ही अवतरित होते हैं। औरगो" गोलोक और गोप सदैव समन्वित (एकत्रित) रहते हैं।गोपों की उत्पत्ति गोपियों सहित कृष्ण और राधा से गोलोक धाम में ही होती है। कृष्ण की लीलाओं के सहायक बनने के लिए ही गोप गोलोक से सीधे पृथ्वी लोक में आते हैं। और जब तक पृथ्वी पर गोप जाति विद्यमान रहती है तब तक कृष्ण भी अपने लौकिक जीवन का अवसान होने पर भी निराकार रूप से विद्यमान रहते ही हैं।राम, परशुराम अथवा बुद्ध ये क्षुद्र वराट् (छोटे-विष्णु) के अवतार हो सकते हैं परन्तु कृष्ण जो विष्णु से से भी परे और उनके भी मूलकारण रूप हैं।जिनसे ही प्रत्येक ब्रह्माण्ड में पृथक-पृथक - ब्रह्मा, विष्णु और शिव की उत्पत्ति होती है। वे स्वयं सदैव जब कभी भी पृथ्वी पर अवतरित होते हैं । तो गोपों में ही अवतरित होते हैं। वे नित्य गोपालन और रास करते हैं। यह रास मूलत: हल्लीशम् नृत्य का रूपान्तरण है।हल्स्त्री हल्लं हलं ईशा हलदण्डं वत् समन्वित्वा गोपिकाणां स्त्रीणां गोपाम् सह नर्त्तनम् - इति हल्लीशम् (पुं उपरूपकविशेषः ।साहितदर्पण में जिसका लक्षण है। साहित्यदर्पण । ६ । ५५५ ।“ हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः । वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः । मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः ॥"याभिर्वृन्दावनमनुगतो नन्दसूनुः क्षपासु रेमे चन्द्राञ्शुकलितसमुद्योतभद्रे निकुञ्जे।
तासां दिष्टं किमहमधुना वर्णये बल्लवीनां यासां साक्षाच्चरणजरजः श्रीशविध्याद्यलभ्यम् ।८०-१०९।
यत्र प्राप्तास्तृणमृगखगा ये कृमिप्राणिवृन्दा वृन्दारण्ये विधिहररमाभ्यर्हणीया भवन्ति।
तत्संप्राप्याद्वयपदरतो ब्रह्मभूयं गतः कौ प्रेमस्निग्धो विहरति सुखांभोधिकल्लोलमग्नः।८०-११०।
अनुवाद:-वृन्दावन के कुँज में चन्द्रमा की किरणों से प्लावित रात्रि में नन्दपुत्र श्रीकृष्ण ने गोपीगण के साथ रास-नृत्य मूलक आनन्दक्रीड़ा की थीभला उन गोपी गण के भाग्य का गायन मैं कैसे कर सकता हूँ ? उन गोपी गण की चरण-रज लेने के लिए इन्द्र आदि देवता ही नहीं अपितु स्वयं देवत्रयी के प्रतिनिधि ब्रह्मा ,विष्णु और महेश भी व्यग्र रहते हैं ।वृन्दावन के तृण ,मृग पक्षी और कृमि पर्यन्त प्राणीगण भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पूज्यत्तम हैं ।वृन्दावन में जो कोई भी प्राणी भक्तिभाव से इन अद्वैत ब्रह्म की उपासना करेगा वह आनन्द-सिन्धु में प्लावित हो जायेगा ।सन्दर्भ:बृहद् नारद पुराण बृहद उपाख्यान में उत्तर-भागका वसु महिनी"संवाद के अन्तर्गत वृन्दावन महात्म्य नामक अस्सीवाँ अध्याय -इति श्रीबृन्नारदीयपुराणे बृहदुपाख्याने उत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे श्रीवृन्दावनमाहात्म्यं नामाशीतितमोऽध्यायः ।।८०।।____________________________________________यहाँ एक बात विचारणीय है कि , साधारण देव इन्द्र आदि की तो बात ही छोड़ो बल्कि सृष्टि के तीन काल और तीन गुणों ( सत,रज और तम के प्रतिनिथि ईश्वर के प्रतिरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गोप- गोपिकाओं के पैरों की धूल लेने के आकाँक्षी हैं।गोप गोपिकाओं की महानता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ?ब्रह्माण्ड में देवत्रयी में विद्यमान विष्णु क्षुद्र- विराट है। जो विराट के एक रोमकूप में उत्पन्न ब्रह्माण्ड के पालक विष्णु हैं। और इस विराट- विष्णु की उत्पत्ति स्वराट् (स्वयं प्रकाश विष्णु से हुई जिनका गोलोक में वास है। वैकुण्ठ लोक में विद्यमान नारायण भी स्वराट्- उत्पन्न उसका अकर्मक रूप है। _________________________________गोलोक और पृथ्वी लोक दोनों पर उनके समान व्यवहार ही हैं। गाये और गोपों का सानिध्य शाश्वत है।पृथ्वी पर जब तक गोपों का अस्तित्व हैं तब तक कृष्ण का भी अस्तित्व है। भले ही वह मानव शरीर से नहीं। वैष्णवों की यह मान्यता है।परशुराम अथवा बुद्ध या कहें राम कभी भी कृष्ण के अवतार नहीं हैं। ये सब छोटे विष्णु के अवतार हो सकते हैं जो कि प्रकृति स्वरूपा राधा से उत्पन्न विराट पुरुष (गर्भोदकशायी विष्णु) से उत्पन्न हुए हैं। विष्णु शब्द सत्वाधिकारी ईश्वरीय सत्ता के तीन रूपों या वाचक है १-स्वराट् २-विराट् और ३-क्षुद्र विराट्स्वराट्- कारणार्णवशायी विष्णु का वाचक है विराट गर्भोदक शायी विष्णु का वाचक है जो प्रकृति रूपी राधा और कृष्ण की प्रथम सन्तान हैं। इसके प्रत्येक रोम में एक एक ब्रह्माण्ड है।तृतीय विष्णु क्षुद्रविराट्- हैं जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में शिव और ब्रह्मा के कारण हैं।जिनका नाभि कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा से रूद्र उत्पन्न होते हैं।यही विष्णु कभी कश्यप ऋषि की सन्तान के रूप में वामन तो कभी इन्द्र के छोटे भाई विष्णु बनते हैं।कृष्ण का स्वरूप सबसे पृथक है वे सबके निमित्ति कारण और उपादान कारण भी हैं।ब्रह्म वैवर्त- पुराण में उनके निज धाम गोलोक का वर्णन निम्न प्रकार से है।___________________________________
- तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ३।
- सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते ।येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ४।
- क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ५।
- हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ६।
- तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः ।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः ७।
- धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ८।
- उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते ९।
- ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः १०।
- तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अंडजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ११।
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अनुवाद:-महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो ! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।
वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।
चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।
("विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ: उच्यते ।३।
जिनका आहार ( भोजन ) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।
उन वैष्णवों के दर्शन मात्र से पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५।
जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।
प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७।
जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)
विशेष:-विष्णोरस्य रोमकूपैर्भवति अण्सन्तति वाची- विष्णु+ अण् = वैष्णव= विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु से सम्बन्धित- जन वैष्णव हैं।
अर्थ- विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं। वैष्णव वर्ण की स्वतन्त्र जाति आभीर है। पद्म पुराण उत्तराखण्ड के अतिरिक्त इसका संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी है । प्रसंगानुसार वर्णित किया गया है।
श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्साहस्र्यां संहितायामुत्तरखंडे उमापतिनारदसंवादे वैष्णवमाहात्म्यंनाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ।६८।
गोलोकं यात यूयं च यामि पश्चाच्छ्रिया सह।
नरनारायणौ तौ द्वौ श्वेतद्वीपनिवासिनौ।६७।देवताओं की स्तुति सुनकर साक्षात श्रीहरि ने उनसे कहा– "तुम सब लोग गोलोक में जाओ। पीछे से मैं भी लक्ष्मी के साथ आऊँगा।६७।एते यास्यन्ति गोलोके तथा देवी सरस्वती।
अनन्ता मम माया च कार्त्तिकेयो गणाधिपः।
सावित्री वेदमाता च पश्चाद्यास्यन्ति निश्चितम् ।६८।श्वेतद्वीप निवासी वे नर और नारायण दौनों तथा सरस्वती देवी– ये गोलोक में जाएँगे।अनन्तशेषनाग, मेरी माया, कार्तिकेय, गणेश तथा वेदमाता सावित्री– ये सब पीछे से निश्चित ही वहाँ जाएँगे। ६८।
तत्राहं द्विभुजः कृष्णो गोपीभिर्राधया सह ।
अत्राहं कमलायुक्तः सुनन्दादिभिरावृतः।६९।
- आभीरों का वर्ण विष्णु से उत्पन्न होने के कारण ही वैष्णव है। विष्णु रूप में कृष्ण ही वैकुण्ठ वासी हैं। नारायण रूप में वही कृष्ण क्षीरसागर में शेष शय्या पर स्थित शयन करने वाले हैं। गोलोक धाम में वे स्वयं कृष्ण गोपों और गायों के साथ सनातन और शाश्वत रूप से सहचारी हैं। सात्ववत , भागवत, वैष्णव और पाञ्चरात्र सभी पर्याय वाची रूप में उन्हीं कृष्ण के विष्णु आदि रूपों के चरित्रों के प्रतिपादक हैं। गोपों के वैष्णव वर्ण का विवेचन करते हुए
- वर्ण व्यवस्था पर एक सारगर्भित आलेख-
- प्रस्तुतिकरण:-यादव योगेश कुमार रोहि -( अलीगढ़) एवं इ० माता प्रसाद यादव -( लखनऊ)
- गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह वर्णन है।
- यदि मान लिया जाए कि गोलोक में उत्पन्न गोप भिन्न और पृथ्वी लोक के गोप भिन्न हैं तो यह बात सही नहीं है।
- क्योंकि इसी विश्वजित्खण्डः के अध्याय एकादश ( ग्यारह) में पृथ्वी के सभी यादवों को कृष्ण ने अपने सनातन विष्णु रूप का अंश बताया है।
"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्ण की पूजा करके, उन्हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।
उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।
तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
विशेष:- कृष्ण के निर्देशन में जो भी पारम्परिक यज्ञ कराए गये वे सभी पशुओं की हिंसा से रहित थे। इसी लिए गर्गसंहिता में "अध्वर" शब्द का यज्ञ विशेषण के रूप में प्रयोग हुआ है।
- तब कृष्ण नें कहा था
- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
- "ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः। जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥
- "शब्दार्थ:-
- १-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न)
- २-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।
- ३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले।
- ४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले।
- ५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में +सन् भावे अ प्रत्यय ।= जयेच्छायां ।
- ६- जित्वा= जीतकर।
- ७-अरीन्= शत्रुओ को।
- ८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे।
- ९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।
- १०-बलिं = भेंट /उपहार।
- ११- दिशाम् = दिशाओं में।
अनुवाद:-सन्दर्भ:- गर्गसंहिता खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)
- कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: ! "आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१। सन्दर्भ:-(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक -41)
- अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण (विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
___________________________
- "नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥ गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
- "राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥ काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैःप्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
_______________
शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न होने से अञ्श रूप से वैष्णव ही थे। वैष्णव चातुर्य वर्ण-व्यवस्था से पृथक वर्ण है।
चातुर्य- वर्णव्यवस्था ब्रह्मा की सृष्टि है तो वैष्णव वर्ण विष्णु की सृष्टि है।
चातुर्य वर्ण व्यवस्था में ब्रह्मा की मुखज सन्तान होने से ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। व्याकरणीय नियम से (ब्रह्मन्+अण्)= ब्राह्मण शब्द तद्धित पद के रूप में सिद्ध होता है।
देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के नब्बे वें सूक्त की यह बारहवीं ऋचा इस विषय में कहती है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय बाहों से, वैश्य उरू ( नाभि और जंघा के मध्य भाग) से और शूद्र दोनों पैरों से उत्पन्न हुए।
- "ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12)
श्लोक का अनुवाद:- इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।(10/90/12)
इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की ही सृष्टि हैं। जबकि विष्णु स्वयं निराकार ईश्वर का अविनाशी साकार रूप भी हैं- विष्णु का ही सांसारिक रूप कृष्ण है।
विष्णु का गो तथा गोपो से सनातन सम्बन्ध है। वेदों में विष्णु लोक का वर्णन करते हुए अनेक ऋचाऐं उद्घोष करती हैं।
भारती वेदों में विष्णु का वर्णन "गोप" के रूप में है। देखे निम्न ऋचा -
- त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥ तृणि पदा वि चक्रमे विष्णुर गोपा अदाभ्य:। अतो धर्माणि धारायं।। (ऋग्वेद 1/22/18)
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल निम्न ऋचा में
- विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है।
- त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18)
"सायण भाष्य पर आधारित अर्थ-
.विष्णु जगत् के रक्षक हैं, उनको आघात करनेवाला कोई नहीं है। उन्होंने समस्त धर्मों का धारण कर तीन पैरों का परिक्रमा किया।18।
अर्थात्-______
इसमें भी कहा गया है कि किसी के द्वारा जिसकी हिंसा नहीं हो सकती, उस सर्वजगत के रक्षक विष्णु ने अग्निहोत्रादि कर्मों का पोषण करते हुए पृथिव्यादि स्थानों में अपने तीन पदों से क्रमण (गमन) किया।
इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है।
"विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान माना गया है -
- "तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥
अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं।
ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) का ऋचा संख्या (6)
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः ।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि"
ऋग्वेद-१/१५४/६।
- सायण- भाष्य-"हे यजमान और उसकी पत्नी ! तुम दोनों के लिए जाने योग्य उन प्रसिद्ध सुखपूर्वक निवास करने योग्य स्थानों पर हम कामना करते हैं।
- अर्थात तुम्हारे जाने के लिए विष्णु से प्रार्थना करते हैं। जिन स्थानों पर किरणें अत्यन्त उन्नत और बहुतों के द्वारा आश्रयवाली होकर अति विस्तृत हैं। अथवा न जाने वाली अर्थात् अत्यन्त प्रकाशवाली हैं।
- उन निवास स्थानों के आधारभूत द्युलोक में बहुत से महात्माओं के द्वारा स्तुति करने योग्य और कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु का गन्तव्य रूप में प्रसिद्ध निरतिशय स्थान अपनी महिमा से अत्यधिक स्फुरित होता है।६।
हे पत्नीयजमानौ !
- १-“वां =युष्मदर्थं।
- २-“ता= तानि {गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धानि}
- ३- “वास्तूनि =सुखनिवासयोग्यानि स्थानानि
- ४- “गमध्यै युवयोः = गमनाय ।
- ५-“उश्मसि= कामयामहे । तदर्थं विष्णुं प्रार्थयाम इत्यर्थः । ६- तानीत्युक्तं =कानीत्याह । “यत्र येषु वास्तुषु
- ७-"गावः धेनव: ।
- ८-भूरिशृङ्गाः = वृहच्छ्रंगा ।
- ९-“अयासः =
- यासो गन्तारः । अतादृशाः । अत्यन्तप्रकाशयुक्ता इत्यर्थः । “अत्राह अत्र खलु वास्त्वाधारभूतं द्युलोके
- १०-“उरुगायस्य= बहुभिर्महात्मभिर्गातव्यस्य स्तुत्यस्य ।
- ११-“वृष्णः = कामानां वर्षितुर्विष्णु:।
- १२-“पदं= स्थानं “भूरि =अतिप्रभूतम् स्वर्णं वा“
- १३-अव “भाति = प्रकाशयति।
अयं ऋचायां गोशब्दो धेनु वाचक इति ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 154 की ऋचा।
- "ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमवभाति भूरि ॥
पदों का अर्थ:-(यत्र) जहाँ (अयासः) प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः) स्वर्ण युक्त सींगों वाली (गावः) गायें हैं (ता) उन ।(वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम को (गमध्यै) जाने के लिए (उश्मसि)तुम चाहते हो। (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्) उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अव भाति) उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६॥_____________________________
उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है।
- जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे
- विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)।
- 'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। विष्णु का कृष्ण रूप शाश्वत गोपालक है ब्रह्मवैवर्त पुराण में देवों के स्थान स्वर्ग " वैकुण्ठ तथा गोलोकधाम का स्थिति मूलक वर्णन किया गया है।
- जिसमे गोलोकधाम सबसे उत्तम और ऊर्ध्व है।
- सप्तस्वर्ग धराधारं ज्योतिश्चकं ग्रहाश्रयम् । निराधारश्च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डेभ्य: परो वरः ।। १५ ।।
- तत्परश्चापि गोलोकः पञ्चाशत्को टियोजनात् । ऊर्ध्व निराश्रयश्चापि रत्नसारविनिर्मितः ।। १६ ।। ______________________
- पातालों से जल सुस्थिर है और जल के
- ऊपर पृथ्वी टिकी हुई है।
- पृथ्वी सात स्वर्गों की आधारभूमि है।
- ज्योतिश्चक्र अथवा नक्षत्रमण्डल ग्रहों के आधार पर स्थित हैं; परंतु वैकुण्ठ बिना किसी आधार के ही प्रतिष्ठित है। वह समस्त ब्रह्माण्डों से परे तथा श्रेष्ठ है। उससे भी परे गोलोकधाम है।
- वह वैकुण्ठधाम से पचास करोड़ योजन
- ऊपर बिना आधार के स्थित है।
- उसका निर्माण दिव्य चिन्मय रत्नों के सारतत्त्व से
- हुआ है। उसका सात दरवाजे हैं।
- सात सार हैं। वह सात खाइयों से घिरा हुआ है।
- उसका चारों ओर लाखो परकोटे हैं।
- वहाँ विरजा नदी बहती है।
- वह लोक मनोहरा रत्नमय पर्वत शतश्रृंग से आवेष्टित है।
- पुरा या कथिता तात ब्रह्मणे व्यक्तजन्मने । कृष्णोऽहं देवतानां च गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।। ५२ ।।
- चतुर्भुजोऽहं वैकुण्ठे शिवलोके शिवः स्वयम् । ब्रह्मलोके च ब्रह्माऽहं सूयस्तेजस्विनामहम् ।। ५३ ।।
- वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।। ७० ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तर नारदनाo नन्दादिणोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः । ७३ ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह) में चार वर्णों से पृथक पाँचवें वर्ण वैष्णव की एक स्वतंत्र आभीर जाति के अस्तित्व का वर्णन किया गया है।
__________
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।। ४३।।
ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।।
ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ ।।४४।।
सन्दर्भ:-श्रीब्रह्मवैवर्त्त महापुराण सौतिशौनकसंवाद ब्रह्मखण्ड विष्णुवैष्णव प्रशंसा नामैकादशोऽध्यायः।।११।।
अनुवाद- ब्राह्मण "क्षत्रिय "वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है गोप ( आभीर)।४३।
वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।४४।
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं।
वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है । पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय (68) में वर्णन है। कि सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ है।
"महेश्वर उवाच- ! शृणु नारद वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् ।१।
"यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रहत्यादिपातकात् । तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।२।
तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। ३।
सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते । येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज । तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः।६।
तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः। तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः ।७।
धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः।८।
उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः । तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते ।९।
ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः। एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः ।१०।
अनुवाद:-महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो ! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।
वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।
चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।
("विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ: उच्यते ।३।
जिनका आहार ( भोजन ) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।
उन वैष्णवों के दर्शन मात्र से पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५।
जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।
प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७।
जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।____________________
सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)
परन्तु हम आभीर लोग प्रक्षेप युक्त शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोपों का गोपालन " संग्राम में युद्ध कार्य" साधना व्रत और आध्यात्मिक ज्ञान और गो तथा दीन की सेवा करना ब्राह्मणीय वर्ण-व्यस्था के किसी एक वर्ण से सम्बन्धित नहीं है। और वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के निश्चित व्यवसाय होते हैं कोई भी एक वर्ण या व्यक्ति दूसरे के व्यवसाय को अधिग्रहण नहीं कर सकता है।
इस तथ्य के सन्दर्भ में मार्कण्डेय-पुराण का निम्न श्लोक प्रमाण है।
"मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय (130) के श्लोक (30 )पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा-!
"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप।30।
अनुवाद:- "परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आप क्षत्रियों का युद्ध करना नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है।30।
उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता अथवा वैश्य के साथ किसी क्षत्रिय के द्वारा युद्ध नहीं किया जा सकता है
तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे वे वैश्य कहाँ हुए ? जैसा कि कथित ब्राह्मण पुरोहित शास्त्रीय विधान पारित करते हैं। कि गोपालन और कृषि करने वाले को वैश्य कहते हैं।
क्योंकि वे गोप नारायण सेना का योद्धा बनकर तो नित्य युद्ध करते थे।
फिर अहीरों से बड़ा कोई धार्मिक" धर्म- वत्सल और सुव्रतज्ञ ( अच्छे व्रतों का ज्ञाता ) नहीं है।
आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी (अच्छे व्रत का पालन करने वाले और जानकार रहे हैं।!
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।___________________________________
"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद :-विष्णु भगवान् ने अहीरों से कहा ! मैंने तुमको धर्मज्ञ , धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
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अब विचारणीय तो यह भी है कि गोप अथवा यादव साक्षात् विष्णु के ही शरीर (रोम कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु के नाभि कमल की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं।
इस लिए गोप विष्णु के अंश से प्रत्यक्ष उत्पन्न होने से ब्राह्मण की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हैं।
जबकि ब्राह्मण विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्मा के मुख की सन्तान हैं। अत: गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं। यह बात शास्त्रीय विवेचना से सिद्ध होती है।
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अत: हमने शास्त्रीय सन्दर्भ से प्रमाणित किया कि यादव अथवा गोपगण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही हैं । वह वैष्णव वर्ण में समाहित विष्णु के सनातन उपासक सात्वत" पाञ्चरात्र और भागवत आदि विशेषणों से भी नामित हैं।
देवीभागवतपुराण /स्कन्धः (९)अध्यायः (३)ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनम्
- श्रीनारायण उवाच अथ डिम्भो जले तिष्ठन्यावद्वै ब्रह्मणो वयः । ततः स काले सहसा द्विधाभूतो बभूव ह ॥१॥
- तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः। क्षणं रोरूयमाणश्च स्तनान्धः पीडितः क्षुधा ॥२॥
- पित्रा मात्रा परित्यक्तो जलमध्ये निराश्रयः ।ब्रह्माण्डासंख्यनाथो यो ददर्शोर्ध्वमनाथवत् ॥३॥
- स्थूलास्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् । परमाणुर्यथा सूक्ष्मात्परः स्थूलात्तथाप्यसौ ॥ ४ ॥
- तेजसा षोडशांशोऽयं कृष्णस्य परमात्मनः । आधारः सर्वविश्वानां महाविष्णुश्च प्राकृतः ॥५॥
- प्रत्येकं लोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।अस्यापि तेषां संख्यां च कृष्णो वक्तुं न हि क्षमः॥ ६ ॥
- संख्या चेद्रजसामस्ति विश्वानां न कदाचन । ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा संख्या न विद्यते ॥ ७ ॥
- प्रतिविश्वेषु सन्त्येवं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।पातालाद् ब्रह्मलोकान्तं ब्रह्माण्डं परिकीर्तितम् ॥८॥
- तत ऊर्ध्वं च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः । तत ऊर्ध्वं च गोलोकः पञ्चाशत्कोटियोजनः ॥ ९ ॥
- नित्यः सत्यस्वरूपश्च यथा कृष्णस्तथाप्ययम् । सप्तद्वीपमिता पृध्वी सप्तसागरसंयुता ॥ १० ॥
- ऊनपञ्चाशदुपद्वीपासंख्यशैलवनान्विता ।ऊर्ध्वं सप्त स्वर्गलोका ब्रह्यलोकसमन्विताः ॥११॥
- पातालानि च सप्ताधश्चैवं ब्रह्माण्डमेव च ।ऊर्ध्वं धराया भूर्लोको भुवर्लोकस्ततः परम् ॥ १२ ॥
- ततः परश्च स्वर्लोको जनलोकस्तथा परः ।ततः परस्तपोलोकः सत्यलोकस्ततः परः ॥ १३ ॥
- ततः परं ब्रह्मलोकस्तप्तकाञ्चनसन्निभः ।एवं सर्वं कृत्रिमं च बाह्याभ्यन्तरमेव च ॥ १४ ॥
- तद्विनाशे विनाशश्च सर्वेषामेव नारद ।जलबुद्बुदवत्सर्वं विश्वसंघमनित्यकम् ॥ १५ ॥
- नित्यौ गोलोकवैकुण्ठौ प्रोक्तौ शश्वदकृत्रिमौ । प्रत्येकं लोमकूपेषु ब्रह्माण्डं परिनिश्चितम् ॥ १६ ॥
- एषां संख्यां न जानाति कृष्णोऽन्यस्यापि का कथा ।प्रत्येकं प्रतिब्रह्माण्डं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ १७ ॥
- तिस्रः कोट्यः सुराणां च संख्या सर्वत्र पुत्रक ।दिगीशाश्चैव दिक्पाला नक्षत्राणि ग्रहादयः ॥ १८ ॥
- भुवि वर्णाश्च चत्वारोऽप्यधो नागाश्चराचराः । अथ कालेऽत्र स विराडूर्ध्वं दृष्ट्वा पुनः पुनः ॥ १९ ॥
- डिम्भान्तरे च शून्यं च न द्वितीयं च किञ्चन । चिन्तामवाप क्षुद्युक्तो रुरोद च पुनः पुनः ॥ २० ॥
- ज्ञानं प्राप्य तदा दध्यौ कृष्णं परमपूरुषम् ।ततो ददर्श तत्रैव ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ॥ २१ ॥
- नवीनजलदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकातरम् ॥ २२ ॥
- जहास बालकस्तुष्टो दृष्ट्वा जनकमीश्वरम् ।वरं तदा ददौ तस्मै वरेशः समयोचितम् ॥ २३ ॥
- मत्समो ज्ञानयुक्तश्च क्षुत्पिपासादिवर्जितः ।ब्रह्माण्डासंख्यनिलयो भव वत्स लयावधि ॥ २४ ॥
- निष्कामो निर्भयश्चैव सर्वेषां वरदो भव ।जरामृत्युरोगशोकपीडादिवर्जितो भव ॥ २५ ॥
- इत्युक्त्वा तस्य कर्णे स महामन्त्रं षडक्षरम् । त्रिःकृत्वश्च प्रजजाप वेदाङ्गप्रवरं परम् ॥ २६ ॥
- प्रणवादिचतुर्थ्यन्तं कृष्ण इत्यक्षरद्वयम् ।वह्निजायान्तमिष्टं च सर्वविघ्नहरं परम् ॥ २७ ॥
- मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः ।श्रूयतां तद् ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ॥ २८ ॥
- प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः ।तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै ॥ २९ ॥
- निर्गुणस्यात्मनश्चैव परिपूर्णतमस्य च ।नैवेद्ये चैव कृष्णस्य न हि किञ्चित्प्रयोजनम् ॥ ३० ॥
- यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः । स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा ॥ ३१ ॥
- तं च मन्त्रवरं दत्त्वा तमुवाच पुनर्विभुः।वरमन्यं किमिष्टं ते तन्मे ब्रूहि ददामि च॥ ३२॥
- कृष्णस्य वचनं श्रुत्वा तमुवाच विराड् विभुः । कृष्णं तं बालकस्तावद्वचनं समयोचितम् ॥ ३३ ॥
- बालक उवाच वरो मे त्वत्पदाम्भोजे भक्तिर्भवतु निश्चला ।सततं यावदायुर्मे क्षणं वा सुचिरं च वा ॥ ३४ ॥
- त्वद्भक्तियुक्तलोकेऽस्मिञ्जीवन्मुक्तश्च सन्ततम् ।त्वद्भक्तिहीनो मूर्खश्च जीवन्नपि मृतो हि सः ॥ ३५ ॥
- किं तज्जपेन तपसा यज्ञेन पूजनेन च ।व्रतेन चोपवासेन पुण्येन तीर्थसेवया।३६॥
- कृष्णभक्तिविहीनस्य मूर्खस्य जीवनं वृथा ।येनात्मना जीवितश्च तमेव न हि मन्यते ॥ ३७॥
- यावदात्मा शरीरेऽस्ति तावत्स शक्तिसंयुतः । पश्चाद्यान्ति गते तस्मिन्स्वतन्त्राः सर्वशक्तयः॥३८॥
- स च त्वं च महाभाग सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।स्वेच्छामयश्च सर्वाद्यो ब्रह्मज्योतिः सनातनः ॥ ३९ ॥
- इत्युक्त्वा बालकस्तत्र विरराम च नारद ।उवाच कृष्णः प्रत्युक्तिं मधुरां श्रुतिसुन्दरीम् ॥ ४० ॥
- श्रीकृष्ण उवाच-सुचिरं सुस्थिरं तिष्ठ यथाहं त्वं तथा भव । ब्रह्मणोऽसंख्यपाते च पातस्ते न भविष्यति ॥ ४१ ॥
- अंशेन प्रतिब्रह्माण्डे त्वं च क्षुद्रविराड् भव ।त्वन्नाभिपद्माद् ब्रह्मा च विश्वस्रष्टा भविष्यति ॥ ४२ ॥
- ललाटे ब्रह्मणश्चैव रुद्राश्चैकादशैव ते ।शिवांशेन भविष्यन्ति सृष्टिसंहरणाय वै ॥ ४३ ॥
- कालाग्निरुद्रस्तेष्वेको विश्वसंहारकारकः ।पाता विष्णुश्च विषयी रुद्रांशेन भविष्यति ॥ ४४ ॥
- मद्भक्तियुक्तः सततं भविष्यसि वरेण मे ।ध्यानेन कमनीयं मां नित्यं द्रक्ष्यसि निश्चितम् ॥ ४५ ॥
- मातरं कमनीयां च मम वक्षःस्थलस्थिताम् । यामि लोकं तिष्ठ वत्सेत्युक्त्वा सोऽन्तरधीयत ॥ ४६ ॥
- गत्वा स्वलोकं ब्रह्माणं शङ्करं समुवाच ह । स्रष्टारं स्रष्टुमीशं च संहर्तुं चैव तत्क्षणम् ॥ ४७ ॥
- श्रीभगवानुवाच-सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव । महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ॥ ४८ ॥
- गच्छ वत्स महादेव ब्रह्मभालोद्भवो भव ।अंशेन च महाभाग स्वयं च सुचिरं तप ॥ ४९ ॥
- इत्युक्त्वा जगतां नाथो विरराम विधेः सुत ।जगाम ब्रह्मा तं नत्वा शिवश्च शिवदायकः ॥ ५० ॥
- महाविराड् लोमकूपे ब्रह्माण्डगोलके जले ।बभूव च विराट् क्षुद्रो विराडंशेन साम्प्रतम् ॥ ५१ ॥
- श्यामो युवा पीतवासाः शयानो जलतल्पके । ईषद्धास्यः प्रसन्नास्यो विश्वव्यापी जनार्दनः ॥ ५२ ॥
- तन्नाभिकमले ब्रह्मा बभूव कमलोद्भवः ।सम्भूय पद्मदण्डे च बभ्राम युगलक्षकम् ॥ ५३ ॥
- नान्तं जगाम दण्डस्य पद्मनालस्य पद्मजः ।नाभिजस्य च पद्मस्य चिन्तामाप पिता तव ॥ ५४ ॥
- स्वस्थानं पुनरागम्य दध्यौ कृष्णपदाम्बुजम् ।ततो ददर्श क्षुद्रं तं ध्यानेन दिव्यचक्षुषा ॥ ५५ ॥
- शयानं जलतल्पे च ब्रह्माण्डगोलकाप्लुते ।यल्लोमकूपे ब्रह्माण्डं तं च तत्परमीश्वरम् ॥ ५६ ॥
- श्रीकृष्णं चापि गोलोकं गोपगोपीसमन्वितम् । तं संस्तूय वरं प्राप ततः सृष्टिं चकार सः ॥ ५७ ॥
- बभूवुर्ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः सनकादयः ।ततो रुद्रकलाश्चापि शिवस्यैकादश स्मृताः ॥ ५८ ॥
- बभूव पाता विष्णुश्च क्षुद्रस्य वामपार्श्वतः ।चतुर्भुजश्च भगवान् श्वेतद्वीपे स चावसत् ॥ ५९ ॥
- क्षुद्रस्य नाभिपद्मे च ब्रह्मा विश्वं ससर्ज ह ।स्वर्गं मर्त्यं च पातालं त्रिलोकीं सचराचराम् ॥ ६० ॥
- एवं सर्वं लोमकूपे विश्वं प्रत्येकमेव च ।प्रतिविश्वे क्षुद्रविराड् ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ६१ ॥
- इत्येवं कथितं ब्रह्मन् कृष्णसङ्कीर्तनं शुभम् ।सुखदं मोक्षदं ब्रह्मन्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६२ ॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥____________________
(देवी भागवत महापुराण स्कन्ध 9, अध्याय 3 )-
परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
- श्रीनारायण बोले- वह बालक जो पहले जल में छोड़ दिया गया था, ब्रह्माजी की आयुपर्यन्त जलमें ही पड़ा रहा। उसके बाद वह समय आनेपर अचानक ही दो रूपों में विभक्त हो गया ॥1॥
- उनमें से एक बालक शतकोटि सूर्योकी आभा से क्षीण था; माताके स्तनपानसे रहित वह भूखसे व्याकुल होकर बार-बार रो रहा था ॥ 2 ॥
- माता-पितासे परित्यक्त होकर आश्रयहीन उस बालकने जलमें रहते हुए अनन्त ब्रह्माण्डनायक होते हुए भी अनाथ की भाँति ऊपरकी ओर दृष्टि डाली ॥ 3 ॥
- जैसे परमाणु सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म होता है, वैसे ही वह स्थूल से भी स्थूल था। स्थूल से भी स्थूलतम होनेसे वे देव महाविराट् नामसे प्रसिद्ध हुए परमात्मा श्रीकृष्णके तेजसे सोलहवें अंशके रूपमें तथा प्रकृतिस्वरूपा राधासे उत्पन्न होनेके कारण यह सभी लोकोंका आधार तथा महाविष्णु कहा गया ।। 4-5 ॥
- उसके प्रत्येक रोमकूपमें अखिल ब्रह्माण्ड स्थित थे, उनकी संख्या श्रीकृष्ण भी बता पाने में समर्थ नहीं हैं जैसे पृथिवी आदि लोकोंमें व्याप्त रजकणोंकी संख्या कोई निर्धारित नहीं कर सकता, उसी प्रकार -उसके रोमकूपस्थित ब्रह्मा, विष्णु, शिवादिकी संख्या भी निश्चित नहीं है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि विद्यमान हैं ॥ 6-73
- "पाताल से ब्रह्मलोकपर्यन्त ब्रह्माण्ड कहा गया है।
- उसके ऊपर वैकुण्ठलोक है; वह ब्रह्माण्डसे बाहर है। उसके ऊपर पचास करोड़ योजन विस्तारवाला गोलोक है जैसे श्रीकृष्ण नित्य और सत्यस्वरूप हैं, वैसे ही यह गोलोक भी है ll 8- 93 ॥
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- यह पृथ्वी सात द्वीपोंवाली तथा सात महासागरोंसे समन्वित है। इसमें उनचास उपद्वीप हैं और असंख्य वन तथा पर्वत हैं। इसके ऊपर सात स्वर्गलोक हैं, जिनमें ब्रह्मलोक भी सम्मिलित है। इसके नीचे सात पाताल लोक भी हैं; यह सब मिलाकर ब्रह्माण्ड कहा जाता है ॥ 10-113 ॥
- पृथ्वी से ऊपर भूलोक, उसके बाद भुवर्लोक, उसके ऊपर स्वर्लोक, तत्पश्चात् जनलोक, फिर तपोलोक और उसके आगे सत्यलोक है। उसके भी ऊपर तप्त स्वर्णकी आभावाला ब्रह्मलोक है। ब्रह्माण्ड के बाहर-भीतर स्थित रहने वाले ये सब कृत्रिम हैं। हे नारद! उस ब्रह्माण्डके नष्ट होनेपर उन सबका विनाश हो जाता है; क्योंकि जलके बुलबुले की तरह यह सब लोक-समूह अनित्य है ॥ 12-15
- गोलोक और वैकुण्ठ सनातन, अकृत्रिम और नित्य बताये गये हैं महाविष्णुके प्रत्येक रोमकूपमें ब्रह्माण्ड स्थित रहते हैं। इनकी संख्या श्रीकृष्ण भी नहीं जानते, फिर दूसरेकी क्या बात ? प्रत्येक ब्रह्माण्डमें अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि विराजमान रहते हैं। हे पुत्र ! देवताओंकी संख्या वहाँ तीस करोड़ है। दिगीश्वर, दिक्पाल, ग्रह, नक्षत्र आदि भी ब्रह्माण्डमें विद्यमान रहते हैं। पृथ्वीपर चार वर्णके लोग और उसके नीचे पाताललोकमें नाग रहते हैं; इस प्रकार ब्रह्माण्डमें चराचर प्राणी विद्यमान हैं । ll 16-18।
- तदनन्तर उस विराट्स्वरूप बालक ने बार-बार ऊपर की ओर देखा; किंतु उस गोलाकार पिण्डमें शून्यके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं था। तब वह चिन्तित हो उठा और भूखसे व्याकुल होकर बार बार रोने लगा ॥ 19-20 ॥
- चेतनायें आकर जब उसने परमात्मा श्रीकृष्णका ध्यान किया तब उसे सनातन ब्रह्मज्योतिके दर्शन हुए। नवीन मेघके समान श्याम वर्ण, दो भुजाओं वाले, पीताम्बर धारण किये, मुसकानयुक्त, हाथ में मुरली धारण किये, भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये व्याकुल पिता परमेश्वरको देखकर वह बालक प्रसन्न होकर हँस पड़ा ll 21-22॥
- तब वर के अधिदेव प्रभुने उसे यह समयोचित वर प्रदान किया- हे वत्स! तुम मेरे समान ही ज्ञानसम्पन्न, भूख-प्यास से रहित तथा प्रलयपर्यन्त असंख्य ब्रह्माण्डके आश्रय रहो। तुम निष्काम, निर्भय तथा सभी को वर प्रदान करनेवाले हो जाओ; जरा, मृत्यु, रोग, शोक, पीडा आदि से रहित हो जाओ ।। 23 - 25 ॥
- ऐसा कहकर उसके कानमें उन्होंने वेदोंके प्रधान अंगस्वरूप श्रेष्ठ षडक्षर महामन्त्रका तीन बार उच्चारण किया। आदिमें प्रणव तथा इसके बाद दो अक्षरोंवाले कृष्ण शब्दमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्त में स्वाहासे संयुक्त यह परम अभीष्ट मन्त्र (ॐ कृष्णाय स्वाहा ) सभी विघ्नोंका नाश करनेवाला है ।। 26-27 ॥
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- मन्त्र देकर प्रभुने उसके आहारकी भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोकमें वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णुका होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुषके होते हैं ।। 28-29 ॥
- उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्यसे कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभुको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे लक्ष्मीनाथ विराट् पुरुष ग्रहण करते हैं । 30-31 ॥
- उस बालक को श्रेष्ठ मन्त्र प्रदान करके प्रभुने उससे पुनः पूछा कि तुम्हें दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, उसे मुझे बताओ; मैं देता हूँ। श्रीकृष्णकी बात | सुनकर बालकरूप उन विराट् प्रभुने कृष्ण से समयोचित बात कही ll32-33 ll
- बालक बोला- मेरा वर है आपके चरणकमलमें | मेरी अविचल भक्ति आयुपर्यन्त निरन्तर बनी रहे। मेरी आयु चाहे क्षणभरकी ही हो या अत्यन्त दीर्घ । इस लोकमें आपकी भक्तिसे युक्त प्राणी जीवन्मुक्त ही है। | और जो आपकी भक्तिसे रहित है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है ।। 34-35 ॥
- उस जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य तथा तीर्थसेवनसे क्या लाभ है; जो आपकी भक्तिसे रहित है। कृष्णभक्तिसे रहित मूर्खका जीवन ही व्यर्थ है जो कि वह उस परमात्मा को ही नहीं भजता, | जिसके कारण वह जीवित है ॥ 36-37 ॥
- जबतक आत्मा शरीरमें है, तभीतक प्राणी शक्ति सम्पन्न रहता है। उस आत्माके निकल जानेके बाद वे सारी शक्तियाँ स्वतन्त्र होकर चली जाती हैं ॥ 38 ॥
- हे महाभाग ! वे आप सबकी आत्मारूप हैं तथा प्रकृतिसे परे हैं। आप स्वेच्छामय, सबके आदि, सनातन तथा ब्रह्मज्योतिस्वरूप हैं ॥ 39 ॥
- हे नारदजी ! यह कहकर वह बालक चुप हो गया। तब श्रीकृष्णने मधुर और कानोंको प्रिय लगनेवाली वाणीमें उसे प्रत्युत्तर दिया ॥ 40 ॥
- श्रीकृष्ण बोले- तुम बहुत कालतक स्थिर भाव से रहो, जैसे मैं हूँ वैसे ही तुम भी हो जाओ। असंख्य ब्रह्माके नष्ट होनेपर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्डमें तुम अपने अंशसे क्षुद्रविराट्रूपमें स्थित रहोगे। तुम्हारे नाभिकमलसे उत्पन्न होकर ब्रह्मा विश्वका सृजन करनेवाले होंगे। सृष्टिके संहारकार्यक लिये ब्रह्माके ललाटमें शिवांशसे वे ग्यारह रुद्र प्रकट होंगे। उनमेंसे एक कालाग्नि नामक रुद्र विश्वका संहार करनेवाले होंगे। तत्पश्चात् विश्वका पालन करनेवाले भोक्ता विष्णु भी रुद्रांशसे प्रकट होंगे। मेरे वरके प्रभावसे तुम सदा ही मेरी भक्तिसे युक्त रहोगे। तुम मुझ परम सुन्दर [जगत्पिता) तथा मेरे वक्ष:स्थल में निवास करनेवाली मनोहर जगन्माताको ध्यानके द्वारा निश्चितरूपसे निरन्तर देख सकोगे। हे वत्स! अब तुम यहाँ रहो, मैं अपने लोकको जा रहा हूँ-ऐसा कहकर वे प्रभु श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। अपने लोक में जाकर उन्होंने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को सृष्टि करने के लिये तथा [संहारकर्ता] शंकरजीको संहार करनेके लिये आदेश दिया ।41-47l
- श्रीभगवान् बोले- हे वत्स ! सृष्टिकी रचना करनेके लिये जाओ हे विधे! सुनो, महाविराट्के एक रोमकूपमें स्थित क्षुद्रविराट्के नाभिकमलसे प्रकट होओ। हे वत्स! (हे महादेव !) जाओ, अपने अंशसे ब्रह्मा के ललाटसे प्रकट होओ। हे महाभाग ! स्वयं भी दीर्घ कालतक तपस्या करो ।। 48-49 ।।
- हे ब्रह्मपुत्र नारद! ऐसा कहकर जगत्पति श्रीकृष्ण चुप हो गये। तब उन्हें नमस्कार करके ब्रह्मा तथा कल्याणकारी शिवजी चल पड़े ॥ 50 ॥
- महाविराट्के रोमकूपमें स्थित ब्रह्माण्डगोलकके जलमें वे विराट्पुरुष अपने अंशसे ही अब क्षुद्रविराट् पुरुषके रूपमें प्रकट हुए। श्याम वर्ण, युवा, पीताम्बर धारण किये वे विश्वव्यापी जनार्दन जलकी शय्यापर शयन करते हुए मन्द मन्द मुसकरा रहे थे। उनका मुखमण्डल प्रसन्नतासे युक्त था॥ 51-52।
- उनके नाभिकमलसे ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्डमें एक लाख युगोंतक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनालके अन्ततक नहीं जा सके, [ हे नारद!]तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।। 53-54॥
- तब अपने पूर्वस्थानपर आकर उन्होंने श्रीकृष्णके चरणकमलका ध्यान किया। तत्पश्चात् ध्यानद्वारा दिव्य चक्षुसे उन्होंने ब्रह्माण्डगोलकमें आप्लुत जलशय्यापर शयन करते हुए उन क्षुद्रविराट् पुरुषको देखा, साथ ही जिनके रोमकूपमें ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट् पुरुषको तथा उनके भी परम प्रभु श्रीकृष्णको और गोप-गोपियोंसे समन्वित गोलोकको भी देखा। तत्पश्चात् श्रीकृष्णकी स्तुति करके उन्होंने उनसे वर प्राप्त किया और सृष्टिका कार्य प्रारम्भ कर दिया ।। 55-57॥
- सर्वप्रथम ब्रह्माजीके सनक आदि मानस पुत्र उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् शिवकी सुप्रसिद्ध ग्यारह | रुद्रकलाएँ प्रादुर्भूत हुईं। तदनन्तर क्षुद्रविराट्के वामभाग से | लोकों की रक्षा करनेवाले चतुर्भुज भगवान् विष्णु प्रकट हुए, वे श्वेतद्वीपमें निवास करने लगे ।।58-59॥
- क्षुद्रविराट्के नाभिकमलमें प्रकट हुए ब्रह्माजीने सारी सृष्टि रची। उन्होंने स्वर्ग, मृत्युलोक, पाताल, चराचरसहित तीनों लोकोंकी रचना की। इस प्रकार महाविराट्के सभी रोमकूपोंमें एक-एक ब्रह्माण्डकी सृष्टि हुई। प्रत्येक ब्रह्माण्डमें क्षुद्रविराट्, ब्रह्मा, विष्णु एवंशिव आदि भी हैं। हे ब्रह्मन् ! मैंने श्रीकृष्णका शुभ चरित्र कह दिया, जो सुख और मोक्ष देनेवाला है। हे ब्रह्मन् ! आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ।। 60-62 ॥
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गोप, गो और गोलोकधाम भगवान् कृष्ण से शाश्वत सम्बन्धित हैं।
परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में उनका मूल इतिहास छुपा कर ब्राह्मण वर्ण- व्यवस्था में मिलाकर इन्हें वैश्य तथा शूद्र वर्ण में सम्मिलित करने की बातें लिखीं।
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड तथा स्कन्द पुराणनागरखण्ड में वर्णन है कि ब्रह्मा का विवाह
भगवान् विष्णु ने आभीर कन्या गायत्री से सम्पन्न कराया । और गायत्री ब्रह्मा की पहली सावित्री की सौत बनकर उपस्थित होती हैं।
और जिन सावित्री से स्वायंभुव मनु - ब्रह्मा द्वारा सावित्री के गर्भ में गर्भाधान करने से उत्पन्न होते हैं। और तब बहुत बाद में वे मनुस्मृति की रचना करते हैं। जिसमे कुछ रूढवादी पुरोहितों नें द्वेषवश अहीरों को अम्बष्ठ कन्या और ब्राह्मण से उत्पन्न कर दिया ।
अत: दोनों बाते परस्पर विरोधी हैं स्वयं मनु गायत्री मन्त्र का नित्य पाठ करते हैं।
अत: यदि हम मनुस्मृति को मनु की रचना भी मान लें तो यह श्लोक प्रक्षिप्त ही है।
तो ब्रह्मवैवर्तपुराण - (ब्रह्मखण्डः एक: /अध्यायः (8)
"सौतिरुवाच"
ब्रह्मा विश्वं विनिर्माय सावित्र्यां वरयोषिति। चकार वीर्य्याधानं च कामुक्यां कामुको यथा ।१।
सा दिव्यं शतवर्षं च धृत्वा गर्भं सुदुस्सहम् ।।सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरान् ।२।
विविधाञ्शास्त्रसंघांश्च तर्कव्याकरणादिकान् ।षट्त्रिंशत्संख्यका दिव्या रागिणीः सुमनोहराः।३।
षड्रागान्सुन्दरांश्चैव नानाताल समन्वितान् ।सत्यत्रेताद्वापरांश्च कलिं च कलहप्रियम् । ४ ।
वर्षमासमृतुं चैव तिथिं दण्डक्षणादिकम् ।। दिनं रात्रिं च वारांश्च सन्ध्यामुषसमेव च ।५ ।
पुष्टिं च देवसेनां च मेधां च विजयां जयाम् ।षट्कृत्तिकाश्च योगांश्च करणं च तपो धनः। ६ ।
देवसेनां महाषष्ठीं कार्त्तिकेयप्रियां सतीम् ।मातृकासु प्रधाना सा बालानामिष्टदेवता । ७ ।
ब्राह्मं पाद्मं च वाराहं कल्पत्रयमिदं स्मृतम् । नित्यं नैमित्तिकं चैव द्विपरार्द्धं च प्राकृतम् । ८ ।
चतुर्विधं च प्रलयं कालं वै मृत्युकन्यकाम् ।।सर्वान्व्याधिगणांश्चैव सा प्रसूय स्तनं ददौ । ९ ।
अथ धातुः पृष्ठदेशादधर्मः समजायत।अलक्ष्मीस्तद्वामपार्श्वाद्बभूवात्यन्तकामिनी ।1.8.१०।
नाभिदेशाद्विश्वकर्मा जातो वै शिल्पिनां गुरुः ।।महान्तौ वसवोऽष्टौ च महाबलपराक्रमाः ।११।
अथ धातुश्च मनस आविर्भूताः कुमारकाः ।चत्वारः पञ्चवर्षीया ज्वलन्तो ब्रह्मतेजसा ।१२।
सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः ।।सनत्कुमारो भगवांश्चतुर्थो ज्ञानिनां वरः ।१३।
आविर्बभूव मुखतः कुमारः कनकप्रभः ।दिव्यरूपधरः श्रीमान्सस्त्रीकः सुन्दरो युवा ।१४ ।
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क्षत्त्रियाणां बीजरूपो नाम्ना स्वायम्भुवो मनुः ।। या स्त्री सा शतरूपा च रूपाढ्या कमला कला।१५।।
सस्त्रीकश्च मनुस्तस्थौ धात्राज्ञा परिपालकः ।। स्वयं विधाता पुत्रांश्च तानुवाच प्रहर्षितान् ।१६।
"श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराण ब्रह्मखण्डे अष्टमोऽध्यायः(8)
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अनुवाद:-
ब्रह्मा विश्वम् विनिर्माणाय सावित्र्यां वर योषिति। चकार वीर्यधानम् च कामुक्या कामुको यथा।। सा दिव्यं शतवर्ष च धृत्वा गर्भं सुदुःसहम् ।। सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरात् ।।
(ब्रह्मखण्ड अध्याय-9/1-2) अर्थात-ब्रह्मा ने विश्व का निर्माण करने के लिए सावित्री में उसी प्रकार वीर्यस्थापन किया जैसे एक कामुक पुरुष कामुक स्त्री में करता है, तब सावित्री ने दिव्य सौ वर्षो के बाद चारो वेदों को जन्म दिया ! ___________________________________________
इस पुराण में वेद भी सावित्री के गर्भ से पैदा हुआ है ! जबकि अन्यत्र वैदों की अधिष्ठात्री गायत्री को कहा है ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड : अध्याय( 8) में सावित्री से वेद आदि की सृष्टि, ब्रह्मा जी से सनकादि की, सस्त्रीक स्वायम्भुव मनु की, रुद्रों की, पुलस्त्यादि मुनियों की तथा नारद की उत्पत्ति, नारद को ब्रह्मा का और ब्रह्मा जी को नारद का शाप आदि प्रकरण।
सौति कहते हैं – तदनन्तर सावित्री ने चार मनोहर वेदों को प्रकट किया। साथ ही न्याय और व्याकरण आदि नाना प्रकार के शास्त्र-समूह तथा परम मनोहर एवं दिव्य छत्तीस रागिनियाँ उत्पन्न कीं।
नाना प्रकार के तालों से युक्त छः सुन्दर राग प्रकट किये। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलहप्रिय कलियुग; वर्ष, मास, ऋतु, तिथि, दण्ड, क्षण आदि; दिन, रात्रि, वार, संध्या, उषा, पुष्टि, मेधा, विजया, जया, छः कृत्तिका, योग, करण, कार्तिकेय प्रिया सती महाषष्ठी देवसेना– जो मातृकाओं में प्रधान और बालकों की इष्ट देवी हैं, इन सबको भी सावित्री ने ही उत्पन्न किया।
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ब्रह्मा, पाद्म और वाराह– ये तीन कल्प माने गये हैं। नित्य, नैमित्तिक, द्विपरार्ध और प्राकृत – ये चार प्रकार के प्रलय हैं। इन कल्पों और प्रलयों को तथा काल, मृत्युकन्या एवं समस्त व्याधिगणों को उत्पन्न करके सावित्री ने उन्हें अपना स्तन पान कराया। तदनन्तर ब्रह्मा जी के पृष्ठ देश से अधर्म उत्पन्न हुआ। अधर्म से वामपार्श्व से अलक्ष्मी उत्पन्न हुई, जो उसकी पत्नी थी। ब्रह्मा जी के नाभि देश से शिल्पियों के गुरु विश्वकर्मा हुए। साथ ही आठ महावसुओं की उत्पत्ति हुई, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। तत्पश्चात् विधाता के मन से चार कुमार आविर्भूत हुए, जो पाँच वर्ष की अवस्था के-से जान पड़ते थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उनमें से प्रथम तो सनक थे, दूसरे का नाम सनन्दन था, तीसरे सनातन और चौथे ज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान सनत्कुमार थे। इसके बाद ब्रह्मा जी के मुख से सुवर्ण के समान कान्तिमान कुमार उत्पन्न हुआ, जो दिव्य रूपधारी था। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी। वह श्रीमान एवं सुन्दर युवक था। क्षत्रियों का बीजस्वरूप था। उसका नाम था स्वायम्भुव मनु। जो स्त्री थी, उसका नाम शतरूपा था। वह बड़ी रूपवती थी और लक्ष्मी की कलास्वरूपा थी। पत्नी सहित मनु विधाता की आज्ञा का पालन करने के लिये उद्यत रहते थे। स्वयं विधाता ने हर्ष भरे पुत्रों से, जो बड़े भगवद्भक्त थे, सृष्टि करने के लिये कहा। परंतु वे श्रीकृष्ण परायण होने के कारण ‘नहीं’ करके तपस्या करने के लिये चले गये। इससे जगत्पति विधाता को बड़ा क्रोध हुआ।
श्रीनारायण उवाच-
"शृणु लक्ष्मि ! कथां दिव्यां सर्वथा पापनाशिनीम्।ब्रह्मा विश्वं विनिर्माय सावित्र्यां गृहधर्मतः।२।
चकार वीर्याधानं च शतवर्षोत्तरं तु सा । सुषुवे चतुरो वेदान् तदंगानि च सर्वथा । ३।
षट्त्रिंशद्रागिणीश्चैव षड्रागान् तालसंयुतान् ।चतुर्युगाँश्च कालश्च योगाँश्च षट्सुकृत्तिकाः । ४।
देवसेनां महाषष्ठीं कार्तिकेयप्रियां सतीम् ।मातृकासु प्रधानां तां बालानामिष्टदेवताम् ।५ ।
चतुर्विधं लयं मृत्युकन्यां व्याधिगणाँस्तथा ।पृष्ठादधर्मं चालक्ष्मीं वामपार्श्वत एव च ।६।
नाभेस्तु विश्वकर्माणं वसूनष्टौ महाबलान् ।मानसात् चतुरः पुत्रान् कुमारान् सनकादिकान् ।७।
मुखात् स्वायंभुवं पुत्रं शतरूपासमन्वितम् ।तान्सर्वान् सृष्टिकृद्ब्रह्मा सृष्टिं कर्तुमुवाच ह ।८।
जग्मुस्ते च नहीत्युक्त्वा तप्तुं कृष्णपरायणाः ।चुकोप हेतुना तेन ब्रह्मा तस्य ललाटतः ।९।
रुद्रा एकादशोत्पन्नास्तेषामेको विनाशकृत् ।पुलस्त्यो दक्षकर्णाच्च पुलहो वामकर्णतः ।। 1.200.१० ।
लक्ष्मीनारायणीयसंहिता प्रथम कृतयुगसन्तान ब्रह्मणा सावित्र्यां मानसपुत्रा उत्पादिताः, द्विशततमोऽध्यायः।२००।
वास्तव जब ब्रह्मा जी सावित्री के साथ मैथुन क्रिया द्वारा गर्भाधान से सृष्टि करते हैं तो मानस पुत्रों की अवधारणा मिथ्या ही है। क्यो संसार की मैथुनी उत्पत्ति की बात स्वयं शास्त्र कहता है।
प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।-
भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।
"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥
"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी। विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥
"विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः। वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥"
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)
अनुवाद:-(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है। हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥
पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-
महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बाद में कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
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विष्णु भगवान की अवधारणा प्राचीन मेसोपोटामिया की संस्कृतियों में भी है।
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है। जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुई है।
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका कि अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को जिम्बाब्वे मेें था।
"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे सभी पशुपालक व चरावाहे थे।
भारतीय संस्कृत भाषा ग्रन्थों में अमीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं परन्तु अमीर का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।
परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: वर्णन किया है। देखें नीचे क्रमश: विवरण-
१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है
-यह उत्पत्ति अमरसिंह के शब्द कोश अमरकोश पर आधारित है ।
अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोश कार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।
" अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुखकरके चारो-ओर गायें चराता है उन्हें घेरता है। वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय ( profation) को अभिव्यक्त करती है । और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति( व्यवसाय-)से निर्मित होती है। जैसे सभी "वकालत करने वाले अधिक बोलने वाले तथा अपने मुवक्किल की पहल-(lead the way) करने में वाणीकुशल होते हैं। जैसे डॉक्टर ,ड्राइवर आदि - अत: किसी भी समाज के दोचार व्यक्तियों सम्पूर्ण जाति या समाज की प्रवृति का आकलन करना बुद्धिसंगत नहीं है।
"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का प्रभाव-"
क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे यह वीरता इनकी पशुचारण अथवा गोचारण वृत्ति से पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी जातियों में समाविष्ट हो गयी !
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है यह पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं। ।
जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ; जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।
इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही कालान्तर अधिक रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्-नहुष' और ययाति आदि का भी नाम नहीं था।
तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें "अवर" जाति है । वही अहीर जाति का ही रूप है। वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है ।
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।
वैवाहिक मर्यादा के लिए समाज में गोत्र अवधारणा सुनिश्चित की गयी ताकि सन्निकट रक्त सम्बन्धी पति पत्नी न बन सकें क्योंकि इससे तो भाई बहिन की मर्यादा ही दूषित हो जाएगी।"
"अहीरों को शूद्र तो कहीं वैश्य बनाने वाले निश्चय नहीं कर पाए कि अहीरों को ब्राह्मणी व्यवस्था के किस वर्ण में सम्मिलित करें ।
क्योंकि अहीरों का ब्राह्मणीय वर्ण- व्यवस्था में समायोजन नहीं हो सकता ये विष्णु की सनातन सृष्टि होने से वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं।
नारदपुराण उत्तरखण्ड अध्याय 68 तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्म खण्ड और गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड में अहीरों को विष्णु से उत्पन से वैष्णव वर्ण में माना है। अहीरों की वीरता को भुला ने के लिए जो शब्द. प्रारम्भ में शूराभीर था उसे बाद में शूद्राभीर बना कर प्रमाणित किया जाने लगा ।
अब अहीरों को गोपालन के कारण वराहपुराण में वैश्य लिखा है ।
परन्तु शूद्र तो बाद के ग्रन्थों में बनाया गया।
"शूराभीराश्च दरदाः काश्मीराः पशुभिः सह ।६२।खाण्डीकाश्च तुषाराश्च पद्मगा गिरिगह्वराः
आद्रेयाः सभिरादाजास्तथैव स्तनपोषकाः ६३।(पद्म पुराण स्वर्ग खण्ड अध्याय (6)
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सौराष्ट्राः शूद्राभीरास्तथाऽर्बुदाः ।। ४७.४२ कूर्मपुराणे पूर्वविभाग सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ! ४७ ।
महाभारत के 19.7 में भी शूराभीर है।
विष्णु पुराण द्वितीयाँश अध्याय तीन में शूराभीर ही वर्णन है।
आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी (अच्छे व्रत का पालन करने वाले और जानकार रहे हैं।!
इसका साक्ष्य पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के निम्न श्लोक हैं।
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।___________________
"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद :-विष्णु भगवान् ने अहीरों से कहा ! मैंने तुमको धर्मज्ञ , धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
कालान्तर अहीरों से द्वेष कर बहुत सी अनर्गल बाते जोड़ने वाले आज भी अपना पुराना राग रैंहकिया अलापते ही रहते हैं।
अहीरों को ही गोपालन वृत्ति (व्यवसाय) के कारण ही समाज में गोप नाम से सम्बोधित किया गया है। गोप सनातन हैं। और ये गोप सदैव गोपों में ही जन्म लेते हैं। जबकि ब्राह्मी सृष्टि में क्रमानुसार जातीय व्युत्क्रम भी होता है । यद्यपि कर्म सिद्धांत के अधीन तो गोप भी संसार में होते हैं। और इसके मूल में उनकी मनोवृत्ति ( इच्छाऐं ही कारण होती है । परन्तु केवल अहीर या गोपों की जाति में ही इस कर्मानुसार उनके जन्म उच्च निम्न और मध्य सांस्कारिक स्तरों के अनुरूप ही होतो हैं। अहीर कभी ब्राह्मण अथवा वैश्य अथवा क्षत्रिय अथवा शूद्र होने की बात नहीं करेगा क्योंकि इनमें सभी चारों वर्णों के गुण विद्यमान हैं। शास्त्रों में इनको वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत निश्चित किया गया है। जो गोपों की सर्वश्रेष्ठता को जान लेगा वही ज्ञान सम्पन्न है।।
और गोपो की उत्पत्ति के विषय में भी ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्गसंहिता में लिखा है कि वे विष्णु अथवा कृष्ण के रोमकूपों से (क्लोनविधि) द्वारा गोप गण कृष्ण के समान रूप वाले उत्पन्न हुए थे। परन्तु संसार में कर्म प्रभाव से उनके स्वरूप और स्तर निरन्तर बदलते रहते हैं।
यद्यपि उत्पन्न होने की प्राणी जगत में अनेक विधियाँ हैं प्राचीन काल में भी विज्ञान रहा होगा -जिसके अनेक साक्ष्य परोक्ष रूप से प्राप्त होते हैं।
यह समग्र संसार स्वयं में पूर्ण की इकाई (समष्टि) रूप है। जैसी उपनिषद का वचन है ।
"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्ण मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।
शब्दार्थ - अदः = वह परब्रह्म। पूर्णम् = सब प्रकार से पूर्ण है। इदम् = यह (जगत् भी)
पूर्णम् = पूर्ण (ही) है। पूर्णात् = उस पूर्ण (परम्ब्रह्म ) से । पूर्णम् =यह पूर्ण। उदच्यते = उत्पन्न होता है। पूर्णस्य = पूर्ण से। पूर्णम् = पूर्ण को। आदाय = निकाल देने पर । पूर्णम् = पूर्ण। एव = ही।
अवशिष्यते = शेष रहता है।
अर्थ - वह (परब्रह्म ) सब प्रकार से पूर्ण है। यह (जगत् ) भी पूर्ण ही है ; क्योंकि यह उस पूर्ण (परब्रह्म ) से ही उत्पन्न हुआ है। पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। जैसे गणित में शून्य से शून्य निकलने पर केवल शून्य ही रह जाता है। शून्य अनन्त का भी प्रतीक है। जैसे शून्य की आकाशय
किसी मनुष्य अथवा प्राणी के समान रूप की उत्पन्न होने की जैविक विधि का एक प्रकार क्लोन( Clon) प्रतिरूप-भी है।
क्लोनिंग एक जैविक उत्पादन (विधि) अथवा तकनीक है जिसका उपयोग वैज्ञानिक प्राणीयों की सटीक अनुवांशिक प्रतियां बनाने के लिए किया जा सकता है।
जीन, कोशिकाओं, ऊतकों और यहां तक कि पूरे प्राणी को भी क्लोन विधि द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है।
परन्तु इस प्रक्रिया में भी स्वभाव और और प्रवृत्ति स्तर भिन्न हो सकते हैं क्योंकि क्लोन सृष्टि में केवल शारीरिक रूप ही समान होता है।
कुछ क्लोन पहले से ही इस प्रकृति में उपस्थित हैं। बैक्टीरिया जैसे एकल-कोशिका वाले जीव हर बार पुनरुत्पादन करते समय अपनी सटीक ( यथावत सम प्रतिरूप बनाते हैं।
मनुष्यों में, समान जुड़वाँ क्लोन के समान ही होते हैं। वे लगभग समान जीन साझा करते हैं। जब एक निषेचित अण्ड दो रूप में विभाजित होता है तो समान जुड़वाँ (यमन) पैदा होते हैं।
वैज्ञानिक लैब में क्लोन भी बनाते हैं। वे अक्सर जीन का अध्ययन करने और उन्हें बेहतर ढंग से समझने के लिए क्लोन करते हैं।
एक जीन को क्लोन करने के लिए, शोधकर्ता एक जीवित प्राणी से डी.एनए लेते हैं और इसे बैक्टीरिया या खमीर जैसे वाहक में डालते हैं।
डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल(DNA)
डी॰ एन॰ ए॰- जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तन्तुनुमा अणु को डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल या डी॰ एन॰ ए॰ कहते हैं। इसमें अनुवांशिक कूट निबद्ध रहता है। डी० एन० ए० अणु की संरचना घुमावदार सीढ़ी की तरह होती है।
हर बार जब वह वाहक प्रजनन करता है। तो जीन की एक नई प्रति बनाई जाती है। यह भी एक जैविक उत्पादन विधि है।
प्राणीयो को दो तरीकों में से एक में क्लोन किया जाता है।
पहले को एम्ब्रियो ट्विनिंग ( द्वितीयकरण) कहा जाता है।
वैज्ञानिकों ने पहले एक भ्रूण को आधे में विभाजित किया।
इसके बाद उन दोनों हिस्सों को मां के गर्भाशय में स्थापित किया जाता है।
भ्रूण का प्रत्येक भाग एक अद्वितीय प्राणी के रूप में विकसित होता है।
और दोनों प्राणी एक ही जीन साझा करते हैं।
दूसरी विधि को सोमैटिक सेल ( कायिक- कोशिका)] न्यूक्लियर ट्रांसफर कहा जाता है। दैहिक कोशिकाएं वे सभी कोशिकाएं हैं जो एक जीव को बनाती हैं, लेकिन यह शुक्राणु या अण्डाणु नहीं हैं।
शुक्राणु और अण्डाणु की कोशिकाओं में गुणसूत्रों का केवल एक सेट होता है ! जो मैथुनी सृष्टि के कारक है और प्रेरक हैं।
और जब वे निषेचन के दौरान जुड़ते हैं, तो माता के गुणसूत्र पिता के साथ मिल जाते हैं।
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दूसरी ओर, दैहिक कोशिकाओं में पहले से ही गुणसूत्रों के दो पूर्ण सेट होते हैं।
एक क्लोन बनाने के लिए, वैज्ञानिक एक पशु अथवा प्र के दैहिक कोशिका से डीएनए को एक अंडे की कोशिका में स्थानांतरित करते हैं जिसका नाभिक और डीएनए हटा दिया गया है।
अंडा एक भ्रूण में विकसित होता है जिसमें कोशिका दाता के समान जीन होते हैं।
फिर भ्रूण को बढ़ने के लिए एक वयस्क महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है।
"क्लोन का अर्थ होता है जैविक प्रतिरूप जीवविज्ञान में क्लोन का अपना एक स्वतन्त्र इतिहास है । गोपों की स्वराट्- विष्णु से उत्पत्ति समझने के लिए क्लोन पद्धति को भी स्थूल दृष्टि से समझ लें
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1996 में, स्कॉटिश वैज्ञानिकों ने पहले जानवर, एक भेड़ का क्लोन बनाया, जिसका नाम उन्होंने डॉली रखा। एक वयस्क भेड़ से ली गई उदर कोशिका का उपयोग करके उसे क्लोन किया गया था। तब से, वैज्ञानिकों ने क्लोन किए हैं- गाय, बिल्ली, हिरण, घोड़े और खरगोश।
हालांकि, उन्होंने अभी भी एक मानव का क्लोन नहीं बनाया है।
आंशिक रूप से, इसका कारण यह है कि एक व्यवहार्य क्लोन का उत्पादन करना मुश्किल है।
प्रत्येक प्रयास में, आनुवंशिक गलतियाँ हो सकती हैं जो क्लोन को जीवित रहने से रोकती हैं।
डॉली को सही साबित करने में वैज्ञानिकों को 276 कोशिशें करनी पड़ीं।
मानव की क्लोनिंग के बारे में नैतिक चिंताएँ भी हैं।
शोधकर्ता कई तरह से क्लोन का उपयोग कर सकते हैं।
क्लोनिंग से बने भ्रूण को स्टेम सेल फैक्ट्री में बदला जा सकता है।
स्टेम कोशिकाएँ कोशिकाओं का एक प्रारम्भिक रूप हैं जो कई अलग-अलग रूप में विकसित हो सकती हैं। कोशिकाओं और ऊतकों के प्रकार।
मधुमेह के इलाज के लिए क्षतिग्रस्त रीढ़ की हड्डी या इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं को ठीक करने के लिए वैज्ञानिक उन्हें तंत्रिका कोशिकाओं में बदल सकते हैं।
पशु के क्लोनिंग का उपयोग कई अलग-अलग अनुप्रयोगों में किया गया है।
पशुओं को जीन म्यूटेशन के लिए क्लोन किया गया है जो वैज्ञानिकों को पशुओ में विकसित होने वाली बीमारियों का अध्ययन करने में मदद करता है। अधिक दूध उत्पादन के लिए गायों और सूअरों जैसे पशुओं का क्लोन बनाया गया है।
क्लोन एक प्यारे पालतू जानवर को "पुनर्जीवित" भी कर सकते हैं जो मर चुका है। परन्तु यह सम्भव नहीं लगत
2001 में, सीसी नाम की एक बिल्ली क्लोनिंग के माध्यम से बनाई जाने वाली पहली पालतू जानवर थी। क्लोनिंग एक दिन ऊनी मैमथ या जायंट पांडा जैसी विलुप्त प्रजातियों को वापस ला सकती है।
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1-गुणसूत्र संज्ञा:- कोशिकाओं के केंद्रक में डीएनए और संबद्ध प्रोटीन की लड़ी जो जीव की आनुवंशिक जानकारी को वहन करती है।
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2-क्लोन संज्ञा:-कोशिका या कोशिकाओं का समूह जो आनुवंशिक रूप से अपने पूर्वज कोशिका या कोशिकाओं के समूह के समान है।
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3-डीएनए संज्ञा:-(डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) प्रत्येक जीवित जीव में अणु जिसमें उस जीव पर विशिष्ट आनुवंशिक जानकारी होती है।
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4-भ्रूणसंज्ञा:-विकास के प्रारंभिक चरण में अजन्मा जानवर।
5-जीनसंज्ञा:-डीएनए का वह भाग जो आनुवंशिकता की मूल इकाई है।
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6-प्रतिकृतिसंज्ञा:-
एक सटीक समानप्रति या प्रजनन।
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7-दैहिक कोशिकासंज्ञा:-कोशिकाएं जो जीव के हर हिस्से को बनाती हैं; शुक्राणु या अंडाणु नहीं
8-स्टेम सेलसंज्ञा:-प्रारंभिक कोशिका जो शरीर में किसी भी प्रकार की कोशिका या ऊतक में विकसित हो सकती है।
गोप केवल विष्णु के क्लोन उत्पादन हो सकते हैं जबकि चातुर्वर्ण का उत्पादन क्लोन विधि नहीं है। क्योंकि शास्त्रो में गोपों को प्रारम्भ में विष्णु रूप में वर्णित किया गया ।
यह एक प्राकृतिक और वैज्ञानिक मानव सृष्टि प्रक्रिया भी है।
"Cloning is a technique scientists use to make exact genetic copies of living things.
Genes, cells, tissues, and even whole animals can all be cloned.
Some clones already exist in nature. Single-celled organisms like bacteria make exact copies of themselves each time they reproduce.
In humans, identical twins are similar to clones.
They share almost the exact same genes. Identical twins are created when a fertilized egg splits in two.
Scientists also make clones in the lab. They often clone genes in order to study and better understand them.
To clone a gene, researchers take DNA from a living creature and insert it into a carrier like bacteria or yeast. Every time that carrier reproduces, a new copy of the gene is made.
Animals are cloned in one of two ways.
The first is called embryo twinning.
Scientists first split an embryo in half.
Those two halves are then placed in a mother’s uterus.
Each part of the embryo develops into a unique animal, and the two animals share the same genes.
The second method is called somatic cell nuclear transfer. Somatic cells are all the cells that make up an organism, but that are not sperm or egg cells.
Sperm and egg cells contain only one set of chromosomes !
and when they join during fertilization, the mother’s chromosomes merge with the father’s.
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Somatic cells, on the other hand, already contain two full sets of chromosomes.
To make a clone, scientists transfer the DNA from an animal’s somatic cell into an egg cell that has had its nucleus and DNA removed.
The egg develops into an embryo that contains the same genes as the cell donor.
Then the embryo is implanted into an adult female’s uterus to grow.
In 1996, Scottish scientists cloned the first animal, a sheep they named Dolly. She was cloned using an udder cell taken from an adult sheep. Since then, scientists have cloned- cows, cats, deer, horses, and rabbits.
They still have not cloned a human, though. In part, this is because it is difficult to produce a viable clone.
In each attempt, there can be genetic mistakes that prevent the clone from surviving.
It took scientists 276 attempts to get Dolly right.
There are also ethical concerns about cloning a human being.
Researchers can use clones in many ways.
An embryo made by cloning can be turned into a stem cell factory.
Stem cells are an early form of cells that can grow into many different. types of cells and tissues.
Scientists can turn them into nerve cells to fix a damaged spinal cord or insulin-making cells to treat diabetes.
The cloning of animals has been used in a number of different applications.
Animals have been cloned to have gene mutations that help scientists study diseases that develop in the animals. Livestock like cows and pigs have been cloned to produce more milk .
Clones can even “resurrect” a beloved pet that has died. In 2001, a cat named CC was the first pet to be created through cloning. Cloning might one day bring back extinct species like the woolly mammoth or giant panda.
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1-chromosome
Noun
strand of DNA and associated proteins in the nucleus of cells that carries the organism's genetic information.
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2-clone
Noun
cell or group of cells that is genetically identical to its ancestor cell or group of cells.
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3-DNA
Noun
(deoxyribonucleic acid) molecule in every living organism that contains specific genetic information on that organism.
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4-embryo
Noun
unborn animal in the early stages of development.
5-gene
Noun
part of DNA that is the basic unit of heredity.
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6-replica(प्रतिकृति)
Noun
an exact copy or reproduction. replica is an exact copy of an object, made out of the same raw materials, whether a molecule, a work of art, or a commercial product.
The term is also used for copies that closely resemble the original, without claiming to be identical.
Also has the same weight and size as original.
प्रतिकृति किसी वस्तु की एक सटीक प्रति है, जो एक ही कच्चे माल से बनी है, चाहे वह अणु हो, कला का काम हो या व्यावसायिक उत्पाद हो।
इस शब्द का प्रयोग उन प्रतियों के लिए भी किया जाता है जो समान होने का दावा किए बिना मूल के समान दिखती हैं।इसका वजन और आकार मूल के समान ही है।
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7-somatic cell
Noun
cells that make up every part of an organism; not a sperm or egg cell
8-stem cell
Noun
early cell that can develop into any type of cell or tissue in the body
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और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि-
यही ऋचा यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
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"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
श्लोक का अनुवाद:- इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं ।जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूजय हैं।
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"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
"आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपिसः॥
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
"राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
काश्चित्पुण्यैःकृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैःपरैः॥२२॥
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
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शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।
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ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।।
ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।
इसी बात का साक्ष्य हमें पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय 16 में प्राप्त होता है ।जब ब्रह्मा पुष्कर क्षेत्र में यज्ञ करते हैं तब वे उस महायज्ञ में चारों वर्णों के मनुष्यों तथा देवों और ऋषियों और शिव और विष्णु के क्षुद्र विराट रूप को भी आमन्त्रित करते हैं परन्तु गोपों को आमन्त्रित नहीं करते हैं क्योंकि गोप उनकी सृष्टि नहीं हैं।
परन्तु गायत्री गोप कन्या हैं और गोप गायत्री को खोजते हुए ही ब्रह्मा के महायज्ञ में पहुँचते हैं तब विष्णु जो कि गोलोकवासी स्वराट् ( विष्णु/ कृष्ण के एकल ब्रह्माण्डीय क्षुद्र विराट रूप हैं । गोपों को आश्वासन देते हैं। यही विष्णु अपनी पुत्री के समान दत्ता- बनकर गायत्री का कन्यादान करते है। परन्तु गायत्री वैष्णवी शक्ति होने से केवल ब्रह्मा यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए ही उनकी पत्नी रूप में नियुक्त होती हैं। वास्तविक पत्नी नहीं जिससे सृष्टि या सन्तान उत्पादन हो-
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जैसे ब्रह्मा की शारीरिक सृष्टि को ब्राह्मण कहा गया उसी प्रकार विष्णु की शारीरिक सृष्टि को भी वैष्णव कहा गया ।
जिस प्रकार शास्त्रों में ब्राह्मण वर्ण है उसी प्रकार वैष्णव भी ब्रह्मवैवर्त पुराण और नारद पुराण में वर्ण लिखा गया है ।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप है।
अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है।
वेदों में इसी लिए विष्णु भगवान को गोप कहा गया है जहाँ पर स्वर्ण पण्डित सींगों वाली गाय रहती हैं।
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त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
(अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करता है । और ये ही
(धर्माणि) धर्मों को धारण करता है ॥18॥
गोप ही इस लौकिक जगत् में सबसे पवित्र और धर्म के प्रवर्तक तथा धारक थे। और इस लिए गोपों अथवानआभीरों की सृष्टि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था से पूर्णत: पृथक है।
अत: ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के माननेवाले पुरोहित! अहीरों को शूद्र तो कहीं वैश्य वर्णन कर उनके व्यक्तित्व का निर्धारण न करें । क्योंकि गोप ब्राह्मी चातुर्वर्ण व्यवस्था से पृथक ही हैं।
परन्तु इनके कार्य सभी चारों वर्णों के होने पर भी ये वैष्णव वर्ण के थे। वैष्णव के अन्य नाम शास्त्रों में भागवत, सात्वत, और पाञ्चरात्र, आदि भी हैं।
वैष्णवों की महानता का वर्णन तो शास्त्र भी करते हैं।
"ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ ।४४।
अनुवाद:-वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।।४४।
( सन्दर्भ:- ब्रह्मवैवर्तपुराण -खण्डः अध्याय -११)
वे पेशे से गोपालक थे। तथा गोप नाम से प्रसिद्ध थे। लेकिन साथ ही उन्होंने कुरुक्षेत्र की लड़ाई में भाग लेते हुए क्षत्रियों का दर्जा हासिल किया। इसका प्रमाण निम्न श्लोक है।
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"मत्सहननं तुल्यानाँ , गोपानामर्बुद महत् ।
नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107।
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संग्राम में गोप यौद्धा नारायणी सेना के रूप में अरबों की महान संख्या में हैं ---जो शत्रुओं का तीव्रता से हनन करने वाले हैं ।
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"नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु ।
सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि ।108।
(स्वनाम- ख्याता श्रीकृष्णसम्बन्धिनी सेना । इयं हि भारतयुद्धे दुर्य्योधनपक्षमाश्रितवती"
महाभारत के उद्योगपर्व अध्याय 7,18,22,में
वर्तमान ये गोप अहीर भी वैष्णव वर्ण के हैं।
अहीर या यादव महान योद्धा हैं, अहीर नारायणी/यादव सेना में थे।
द्वारका साम्राज्य के भगवान कृष्ण की यादव सेना को सर्वकालिक सर्वोच्च सेना कहा जाता है। महाभारत में इस पूरी नारायणी सेना को अहीर जाति के रूप में वर्णित किया गया है।
इससे सिद्ध होता है कि अहीर, गोप और यादव अलग अलग लोग नहीं थे, अपितु सभी पर्यायवाची हैं।
"कुलानि शत् चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।सर्व्वमेककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले।३४.२५५।
अनुवाद:-यादवों के एक सौ एक कुल हैं वह सब विष्णु के कुल में समाहित हैं विष्णु सबमें विद्यमान हैं।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः।३४.२५६।
अनुवाद:-विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध हैं।
इति श्रीमहावायुपुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४।
प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार रोहि-
चतुर्विद्यस्य यो वेत्ता चतुराश्रमसंश्रयः।३३।
यः परं श्रूयते ज्योतिर्यः परं श्रूयते तपः।
यः परं परतः प्राह परं यः परमात्मवान्।३४।
ब्रह्मा ने यज्ञादि कर्म करने की सृष्टि से सांसारिक व्यवस्था की और उसके बाद उत्तम रूप से निवास करने की सृष्टि की है।
ब्रह्माजी वहाँ स्थित होकर सम्पूर्ण दिशाओंको अपने तेजसे प्रकाशित कर रहे थे तथा भगवान् श्रीविष्णु भी श्रीवत्स-चिह्नसे सुशोभित एवं सुन्दर सुवर्णमय यज्ञोपवीतसे देदीप्यमान हो रहे थे। उनका एक-एक रोम परम पवित्र है
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