गुरुवार, 21 सितंबर 2023

वेदों में राधा, वृषभानु , कृष्ण अर्जुन केशी दैत्य आदि का वर्णन-

ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के अतिरिक्त चौथे वेद ‌अथर्ववेद में भगवान कृष्ण का वर्णन केशी नामक दैत्य  का वध करने वाला बताकर वर्णन किया गया है।

अत: वेदों में भी कृष्ण होने की बात सिद्ध होती है।
नीचे स्पष्ट रूप से शौनक संहिता ,अथर्ववेद  और सामवेद आदि  में कृष्ण का स्पष्ट उल्लेख है।

(अथर्ववेद - काण्ड »8; सूक्त»6; ऋचा»5)
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१. ( यः कृष्ण:) = जो कृष्ण,२-(केशी) = केशी नामक  ३- (असुरः) =दैत्य  ४-(स्तम्बजः) जिसके केश गुच्छेदार हैं =  ५-(उत) = और ६- (तुण्डिक:) = कुत्सित मुखवाला है / थूथनवाला है। ७-(अरायान्) = निर्धन पुरुषों को ८-(अस्याः) = इस के ९-(मुष्काभ्याम्) = मुष्को से-अण्डकोषों से  तथा  १०-(भंसस:)भसत् कटिदेशः पृषो० । उपचारात् तत्सम्बन्धिनि पायौ ऋ० १० । १६३ ।  = कटिसन्धिप्रदेश  से  ११- (अपहन्मसि) = दूर करते हैं।
 "अनुवाद:- जो कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख उसके अण्डकोशों तथा इसकी कटि ( कमर)आदि भागों को निर्धन लोग दूर करते हैं।
उपर्युक्त ऋचा में वर्णन है कि कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख और अण्डकोशों तथा कटि प्रदेश (कमर,)आदि के स्पर्श से गरीब अथवा निर्धन लोगों को तथा  स्वयं को भी कृष्ण दूर करते हैं।

भागवत पुराण में वर्णन है कि कृष्ण-भगवान का अत्यन्त कोमल कर(हाथ) कमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो।

उसका स्पर्श होते ही केशी के दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देने पर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण का भुजदण्ड उसके मुँह में बढ़ने लगा। 
अचिन्त्यशक्ति भगवान श्रीकृष्ण का हाथ उसके मुँह में इतना बढ़ गया कि उसकी साँस के भी आने-जाने का मार्ग न रहा। 
अब तो दम घुटने के कारण वह पैर पीटने लगा। 

दशम स्कन्ध, अध्याय 36, श्लोक 16-26 तथा अध्याय 37, श्लोक 1-9

अथर्ववेद (दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व) में संकलित है जिसमें , केशी,= "बालों (केशों )वाले", दैत्य का  पहली बार वर्णन किया गया है     

अर्जुन द्वारा भगवत गीता में भी कृष्ण को तीन बार केशी का हत्यारा कहा गया है- केशव (1.30 और 3.1) और केशी-निषूदन (18.1)। पहले अध्याय (1.30) में, कृष्ण को केशी के हत्यारे के रूप में संबोधित करते हुए, अर्जुन युद्ध के बारे में अपना संदेह व्यक्त करते हैं।
ऋग्वेद १/१०/३/ तथा यजुर्वेद ८/३४ में केशिन् का वर्णन है ।
पदों अन्वयार्थ:-
युक्ष्वा हि= संयुक्त ही होओ। केशिना= केशी दैत्य के संहारक अथवा सुन्दर केशों वाले के द्वारा   । हरी = हरि भगवान कृष्ण के द्वारा। वृषणा= वृषणों के द्वारा। कक्ष्यप्रा= काँछ के साथ। अथा= और। इन्द्र=  इन्द्र। सोमपा= सोमपा। नः= हमारी।गिरामुप॑श्रुतिं= सुनी हुई वाणी को । चर = दूत ।
"अनुवाद:- केशी दैत्य का बध  करने वाले हरि के साथा जुड़ जाओ ! जिसने केशी दैत्य के अण्डकोष और काँख पकड़ कर फैंक दिया। हे सोमपान करने वाले इन्द्र ! हमारी सुनी हुई स्तुतिगीत को कृष्ण तक दूत के रूप में पहुचाऐं।३।
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पद पाठ
यस्मा॑त्। जा॒तम्। न। पु॒रा। किम्। च॒न। ए॒व। यः। आ॒ब॒भूवेत्या॑ऽऽ ब॒भूव॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ प्र॒जाऽप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जया॑ स॒ꣳर॒रा॒ण इति॑ सम्ऽररा॒णः। त्रीणि॑। ज्योती॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:-32» ऋचा -:5
पदों का अर्थ और अन्वय:- हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस  से (पुरा) पहिले (किम्, चन) कुछ भी (न जातम्) नहीं उत्पन्न हुआ, (यः) जो  (आबभूव) हुआ जिसमें (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक  वर्त्तमान हैं, (सः एव) वही (षोडशी) सोलह कलावाला (प्रजया) प्रजा के साथ (सम्, रराणः) सम्यक्  रमता हुआ (प्रजापतिः) प्रजा का पालक अधिष्ठाता (त्रीणि) तीन (ज्योतीषिं)ज्योतियों  को (सचते) संयुक्त करता है ॥५ ॥
"अनुवाद:-  हे मनुष्यों जिससे पहले कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ। जिससे सम्पूर्ण विश्व और सभी लेक उत्पन्न हुए वही ईश्वर !  सोलह कलाओं से युक्त प्रजा के साथ आनन्द करता हुआ। प्रजा पालक रूप में  तीन ज्योतियों में जुड़ता है।
उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण के सौलह कलाओं से सम्पन्न होने का वर्णन है। उस कृष्ण के परम् -ब्रह्म रूप का वर्णन है जो संसार के सृजक पालक और संहारक तीन रूपों की ज्योतियों समाहित होते हैं। और आगे इसी क्रम में 
निम्न ऋचा में भी वृष्णि नन्दन कृष्ण के चरित्र का अद्भुत वर्णन है।

जो एक  पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर बहुत सी  चढ़ाई चढ़ते हुए  इन्द्र को सावधान करने के लिए अथवा उसे  चेताने के लिए या कहें  चैलेंज करने के लिए  वृष्णि शिरोमणि कृष्ण अपने यूथ (गोप समूह ) के साथ वहाँ पहुँचते हैं।२।
यत्) यस्मात् = जिससे (सानोः) पर्वतस्य शिखरात्= पर्वत शिखर से । 
 (सानुम्) =शिखरम् । (अरुहत्) रोहति । अत्र लडर्थे लङ् । विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः । (भूरि)= बहुत ।  (अस्पष्ट) =स्पशते । अत्र लडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसीति शपो लुक् । (कर्त्त्वम्) कर्त्तुं योग्यं /कार्य्यम् । अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः । (तत्) तस्मात् (इन्द्रात्)  (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा । उषिकुषिगार्त्तिभ्यः स्थन् । (उणादि सूत्र०२.४) अनेनार्त्तेः स्थन् प्रत्ययः । (चेतति)= संज्ञापयति प्रकाशयति वा । अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः । (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह । तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः । (उणा०२.१२) अनेन यूथ शब्दो निपातितः । (वृष्णिः) वृष्णे: वंशोद्भव:श्रीकृष्ण   (एजति) कम्पते गम्यते वा ॥२॥


बकरा आदि की बलि से रहित इन्द्रदेव जल रहित हो गया। । तेरे द्वारा दिया गया  जल  अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो गया जिसमें   गायों के बाड़े और आभीर वस्ती  वृद्धि रहित  हो गये  ,  ( हे राधा तुम इन्द्र को जल रहित करती हो।  (इन्द्र) इन्द्र। गायों  को ,व्रज  को क्षीण करके  बड़े बड़े विवरों में जल को  कर रहा है।॥७॥

(अद्रिवः) जल रहित। (इन्द्रः) इन्द्र देव।(सुनिरजम्) सु+ निर्+अजम्= बकरा आदि की बलि से रहित इन्द्र को । (त्वादातम्) तु + आदातम्= अथवा त्वा- दातम्। तेरे द्वारा दिया गया ।  (यशः) जल । (सुविवृतम्) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो  (गवाम्)=  गायों के  (व्रजम्) आभीर वस्ती को  (अपवृधि) वृद्धि रहित   करता है ,  (राधः) राधा   (कृणुष्व) करती हैं,    (अद्रिवः)  जल रहित  (इन्द्र) इन्द्र।  (गवाम्) गायों को ।  (व्रजम्) गायों के बाड़े को (अपावृधि) क्षीण करके  (सुविवृतम्)  बड़े बड़े विवरों में। (सुनिरजम्) सु+ निर्+ अजम् =  (यशः) जल को 
 (कृणुश्व) कम कीजिये॥७॥

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अनुवाद:-
अर्थात् :-हे प्रभो! गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करो । जन्म से ही नित्य  तुम  विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो  तुम अग्नि के समान सर्वत्र विस्तार को प्राप्त हो ।२।

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अर्थात्  हे वृषभानु !  तुम मनुष्यों को देखो पूर्व काल में  कृष्ण अग्नि के सदृश्- उद्भासित होने  वाले है । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे !
इस  दोनों ऋचाओं में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप  का उल्लेख किया गया है । जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है , क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं।


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पद पाठ-
इ॒दम्। हि। अनु॑। ओज॑सा। सु॒तम्। रा॒धा॒ना॒म्। प॒ते॒। पिब॑। तु। अ॒स्य। गि॒र्व॒णः॒॥

१- (गिर्वणः) स्तुति किये हुए२- (राधानाम्) राधा के षष्ठी विभक्ति बहुवचन सम्बन्ध कारक रूप में  ३-(पते) पति  ! सम्बोधन रूप में हे राधा के पति।  ४-(ओजसा) = बल  के द्वारा  ५-(अस्य) इसके ६-(इदम्) इस ७-(सुतम्) सु + क्त = निचोड़ा हुआ। ८- (पिब)- पीजिए ९-(हि) निश्चय ही ॥१०॥
१-गिर्वणः=
गिरा स्तुत्या वन्यते वन--कर्म्मणि असुन् संज्ञात्वात् णत्वं पृषो० नोपपददीर्घः। १- स्तोतरि च ।
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अनुवाद:- हे प्रभु परमात्मन् ! तुम सभी धर्मों के स्वरूप हो। यज्ञ में "होता- यज्ञ में आहुति देनेवाला अथवा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालनेवाला।  जैसे तमस से घृतधाराओं से होमाग्नि को सिञ्चित करता है। उसी प्रकार वह परमात्मा आनन्द में निमग्न होकर सान्त्वना सम्पदा लेकर बोलने की इच्छा से अथवा वाणी की शक्ति से  विश्व कल्याण के लिए लोक का आश्रय करते हैं।

पदपाठ- त्वे इति । धर्माणः । आसते । जुहूभिः । सिञ्चतीःऽइव । कृष्णा । रूपाणि । अर्जुना । वि । वः । मदे । विश्वाः । अधि । श्रियः । धिषे । विवक्षसे ॥३

(त्वे) हे प्रभो ! परमात्मन् ! (धर्माणः-आसते) तुम सभी धर्मों के स्वरूप हो (जुहूभिः-सिञ्चतीः-इव) होता- होम के चम्मच( चमस) से जैसे घृत-धाराएँ सींची जाती हुई होमाग्नि में आश्रय लेती हैं, उसी भाँति (कृष्णा अर्जुना रूपाणि) तुम कृष्ण और अर्जुन आदि रूपों में (मदे) आनन्द में  (वः) और सान्त्वना सम्पदा के लिए  उतरते हो (विश्वाः श्रियः-अधि धिषे)विश्व - कल्याण के लिए । (विवक्षसे) बोलने की इच्छा से वाणी की शक्ति से॥३।।
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श्रीमद्भगवदगीता में भगवान कृष्ण इस प्रकार कहते हैं:
"वेदैश्च च सर्वैर् अहं एव वेद्यो
"सभी वेदों के द्वारा, मुझे जाना जाएगा।" (गीता 15.15)

कृष्ण और राधा जी का वर्णन ऋक्-परिशिष्ट-श्रुति के निम्नलिखित कथन में किया गया है:
"राधाय माधवो देवो, माधवेन च राधिका, विभ्रजन्ते जनेसु च

श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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परिशिष्ट

श्रीराधा, श्रीराधा-नाम और राधा-उपासना सनातन है

इसके अतिरिक्त दक्षिण के बहुत-से प्राचीन ग्रन्थों में राधा का उल्लेख है। भक्त कवि बिल्वमगंल का ‘कृष्णकर्णामृत’ तो श्रीराधा-कृष्णलीला से ही ओतप्रात है।

वेद में ‘राधम्’ आदि शब्द बहुत जगह आये हैं। इसके विभिन्न अर्थ किये गये हैं। हो सकता है कि वेद के कोई विशिष्ट विद्वान इसका स्पष्ट ‘राधा’ ही अर्थ करें।

महाभारत के प्रसिद्ध टीकाकार महान् श्रीनीलकण्ठजी ने ऋग्वेद के बहुत-से मन्त्रों के भगवान श्रीकृष्ण के लीला परक अर्थ किये हैं। उनका इस विषय पर एक ग्रन्थ ही है- जिसका नाम है ‘मन्त्रभागवत’। इसमें नीलकण्ठ जी ने निम्रलिखित मन्त्र में राधा के दर्शन किये हैं-
मन्त्र है-

"अतारिषुर्भरता गव्ययः समभक्त विप्रः सुमतिं नदीनाम्।
प्रपिन्वध्वभिषयन्ती सुराधा आवक्षाणाः पृणध्वं यात शीभम्।।

 (गव्यवः) गायों का  (भरताः) भरण करने वाली (सुराधाः)  हे सुन्दर राधा जी   (नदीनाम्) नदियों को (अतारिषुः) तारण करें   (विप्रः) विद्याया: वपति इति विप्र-  (सुमतिम्) उत्तम मति को (सम -भक्त) समान भक्ति करने वाले।  (इषयन्तीः) इच्छा करती हुई 
(वक्षणाः) बछड़ो को। 
 (बहुवचन) (प्र, पिन्वध्वम्) लोट लकार बहुवचन आत्मने पदीय सिञ्चन करों /दूध पिलाओ  (आ) (पृणध्वम्) प्रसन्न करो  (शीभम्) शीघ्र (यात) जाओ ॥१२॥
"अनुवाद:- गायों का भरण करने वाली हे सुन्दर राधे ! शीघ्र हम्हें प्रसन्न करो ।
जैसे गायें बछड़ों को अपने मातृत्व से प्रसन्न करती हैं। जैसे नदियाँ अपने जल से भक्तों को समान जल प्रदान करती हैं। उन्हें तृप्त करती हैं।

राधा  गोपागंनाओं में सर्वोपरि महत्त्व रखती हैं- इसलिये यहाँ उन्हें ‘सुराधा’ कहा गया है। इस मन्त्र का नीलकण्ठ जी कृत अर्थ मन्त्र-भागवत में देखना चाहिये।
  1. ऋग्वेद 3/33/12
  2.  यह "मन्त्र भागवत" ग्रन्थ खेमराज श्रीकृष्णदास के वेकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित है।

इसके अतिरिक्त ऋक्-परिशिष्ट के नाम से निम्रलिखित श्रुति निम्बार्क-सम्प्रदाय के उदुम्बरसंहिता, वेदान्तरत्नमंजूषा, सिद्धान्तरत्न आदि ग्रन्थों में तथा श्रीश्रीजीवगोस्वामी के प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीकृष्णसंदर्भ अनुच्छेद (189) में उद्धत की हुई मिलती है-

‘राधया माधवो देवो माधवेन च राधिका। विभ्राजते जनेषु। योऽनयोर्भेदं पश्यति स मुक्तः स्यान्न संसृतेः।’

अर्थात् ‘भगवान श्रीमाधव श्रीराधा के साथ और श्रीराधा श्रीमाधव के साथ सुशोभित रहती हैं। मनुष्यों में जो कोई इनमें अन्तर देखता है तो वह संसार से मुक्त नहीं होता।’

राधा जी की एक प्रय सखी विशाखा नाम से थीं। 
पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु ।
राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम् ॥३॥

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"पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, भविष्यपुराण, श्रीमद्देवीभागवत, मत्स्यपुराण, आदिपुराण, वायु पुराण, वराह पुराण, नारदीय पुराण, गर्गसंहिता, सनत्कुमारसंहिता, नारदपाच्चरात्र, राधातन्त्र आदि अनेकों ग्रन्थों में ‘राधा-महिमा’ का स्पष्ट उल्लेख है।



(ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; ऋचा » 31)
(अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 11)

गोपाम्) गोपाल कृष्ण को।  अनिपद्यमानम्) न गिरनेवाले [अचल], (पथिभिः) मार्गों से (आ, च) आगे और (परा, च) पीछे (चरन्तम्) - आ चरन्तम्) समीप आते हुए को  (अपश्यम्) देखता हूँ (सः) वह गोप (सध्रीचीः) साथी रूप में  (सः)  (विषूचीः) अनेक प्रकार की गतियों में स्वयं को (वसानः) ढाँपता हुआ (भुवनेषु) लोकलोकान्तरों के (अन्तः) बीच में (आ, वरीवर्त्ति) निरन्तर प्रकार वर्त्तमान है ॥ ३१

“मैंने एक  गोपाल  ( गोप ) को देखा। वह कभी अपने पद से नहीं गिरता; कभी वह निकट होता है, कभी दूर, विभिन्न पथों पर गमन करता रहता है। वह मित्र साथी है, नाना प्रकार के वस्त्रों से सुसज्जित है। वह बार-बार भौतिक दुनिया के मध्य में आता है।
__________    
उपर्युक्त श्लोक में सभी गोपों में सबसे प्रमुख कृष्ण का वर्णन किया गया है। इसमें कृष्ण को अवतारी पुरुष और सर्वोच्च भगवान के रूप में भी वर्णित किया गया है।

प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि (अलीगढ़) एवम् इ० माताप्रसाद सिंह यादव (
छान्दोग्य उपनिषद में कृष्ण का वर्णन-
छांदोग्य उपनिषद् सामवेदीय छान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। यह उपनिषद ब्रह्मज्ञान के लिये प्रसिद्ध है।
इसका समय 8 वीं से 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व है।

तद्धैताद्घोर अंगिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रयोक्तवोवाचापिपास एव स बभुव सोऽन्तवेलायमेतत्रयं प्रतिपद्येताक्षितमास्युतमसि प्राणसंशितमासीति तत्रैते दवे ऋचौ भवतः || 3.17.6 ||

अनुवाद:-

6.  घोर अंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र कृष्ण को यह सत्य सिखाया था । परिणामस्वरूप, कृष्ण सभी इच्छाओं से मुक्त हो गए। तब घोर ने कहा: 'मृत्यु के समय व्यक्ति को ये तीन मंत्र दोहराने चाहिए: आत्मा का कभी नाश नहीं होता, आत्मा कभी नहीं बदलता, और आत्मा जीवन का स्वरूप हैं।" इस संबंध में यहां दो ऋक मंत्र दिए गए हैं:

राधाय माधवो देवो, माधवेन च राधिका, विभ्रजन्ते जनेसु च



पद्म पुराण:

पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
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पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
,"यदक्षरं वेदगुह्यं यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्नो वेद किमृचा करिष्यति ये तद्विदुस्त इमे समासते ।६७।
अनुवाद:-
जो अक्षर { अविनाशी) तथा वेद में गोपनीय है। जिसमें सम्पूर्ण देव निवास करते हैं। वे देव ही यदि उसको नहीं जानते तो  इसमें वेद की ऋचा क्या करेगी? जो लोग इसके जानते हैं वे उसी को में रहते हैं।६७।

तद्विष्णोः परमं धाम सदा पश्यन्ति सूरयः ।
अक्षरं शाश्वतं दिव्यं देवि चक्षुरिवाततम् ।६८।
अनुवाद:-उन विष्णु के परम धाम का सूरजन(साधक-ज्ञानी ) सदा दर्शन करते हैं। अक्षर शाश्वत तथा दिव्य वह नेत्र के समान विस्तृत है।६८।
तुलना करें -इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान माना गया है -
  • "तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् -(ऋग्वेद १/२२/२०)।


सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं।

ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) का ऋचा संख्या (6)

  • "ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः ।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।

सायण- भाष्य-"हे यजमान और उसकी पत्नी ! तुम दोनों के लिए जाने योग्य उन प्रसिद्ध सुखपूर्वक निवास करने योग्य स्थानों पर हम कामना करते हैं।
अर्थात तुम्हारे जाने के लिए विष्णु से प्रार्थना करते हैं। जिन स्थानों पर किरणें अत्यन्त उन्नत और बहुतों के द्वारा आश्रयवाली होकर अति विस्तृत हैं। अथवा न जाने वाली अर्थात् अत्यन्त प्रकाशवाली हैं।
उन निवास स्थानों के आधारभूत द्युलोक में बहुत से महात्माओं के द्वारा स्तुति करने योग्य और कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु का गन्तव्य रूप में प्रसिद्ध निरतिशय स्थान अपनी महिमा से अत्यधिक स्फुरित होता है।६।


तत्प्रवेष्टुमशक्यं च ब्रह्मरुद्रादिदैवतैः।
ज्ञानेन शास्त्रमार्गेण वीक्ष्यते योगिपुंगवैः ।६९।
अनुवाद:-उसमे प्रवेश करने के लिए ब्रह्मा रूद्र आदि देवगण भी  असमर्थ हैं। ज्ञान और शास्त्रीय पद्धति से श्रेष्ठ योगी उनका दर्शन करते हैं।६९।

अहं ब्रह्मा च देवाश्च न जानन्ति महर्षयः ।
सर्वोपनिषदामर्थं दृष्ट्वा वक्ष्यामि सुव्रते ।७०।
अनुवाद:-हे सुव्रते! मैं ( शंकर) ,ब्रह्मा और देवगण  और महर्षि लोग भी उसे नहीं जानते । मैं तो सभी उपनिषदों के अर्थ को देखकर ही कहता हूँ।७०।

विष्णोः पदे हि परमे पदे तत्सशुभाह्वयेः ।
यत्र गावो भूरिशृंगा आसते सुसुखाः प्रजाः ।७१।
अनुवाद:- भगवान विष्णु के परम पद में  शुभ आह्वान है । वहाँ पर  बहुत अधिक सींगो वाली गायें तथा प्रजाऐं सुखपूर्वक रहती हैं।७१।

अत्राह तत्परं धाम गोपवेषस्य शार्ङ्गिणः ।
तद्भाति परमं धाम गोभिर्गोपैस्सुखाह्वयैः ।७२।
अनुवाद:- अब परम धाम का वर्णन करता हूँ। जहाँ  सुख से सम्पन्न गायें तथा वह लोक गोपों से  युक्त है।७२।

सामान्या विभिते भूमिन्तेऽस्मिन्शाश्वते पदे ।
तस्थतुर्जागरूकेस्मिन्युवानौ श्रीसनातनौ ७४।
अनुवाद:-इस शाश्वत धाम में सामान्य भूमि है। इसमें सदा जवान रहने वाले  भदेवी और नीला देवी के साथ  सनातन भगवान रहते हैं।७४।

यतः स्वसारौ युवती भू-नीले विष्णुवल्लभे ।
अत्र पूर्वे ये च साध्या विश्वेदेवास्सनातनाः ।७५।
यतः स्वसारौ युवती भू-नीले विष्णुवल्लभे ।
अत्र पूर्वे ये च साध्या विश्वेदेवास्सनातनाः ।७५।
अनुवाद:-जहाँ से दौनो बहिनें इसमें सदा जवान रहने वाले  भूदेवी और नीला देवी के साथ  सनातन भगवान रहते हैं।७५।

''गोलोक के निवास में, बड़े-उत्कृष्ट सींगों वाली कई गायें हैं और जहां सभी निवासी अत्यंत आनंद में रहते हैं।'' -पद्म पुराण उत्तर खंड अध्याय-( 227) में इसी प्रकार का वर्णन है।

इसके अलावा, पद्म पुराण, भूमि खंड, अध्याय 4.1 में वर्णन है - गतेषु तेषु गोलोकं वैष्णवं तमसः परम् 
शिवशर्मा महाप्राज्ञः कनिष्ठं वाक्यमब्रवीत् १।
'सोम शर्मा की पितृ भक्ति' वाला अध्याय - गोलोक का वर्णन फिर से सुत गोस्वामी द्वारा इस प्रकार किया गया है: 

4. ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खंड, अध्याय 54.15-16 में इस प्रकार बताया गया है

ऊर्ध्वं वैकुण्ठ लोक च पञ्चशत कोटि योजनात्
गोलोक वर्तुलकारो वृद्ध स सर्वलोकः

"गोलोक का सर्वोच्च निवास वैकुंठ के निवास से करोड़ योजन (1 योजन-8 किमी) ऊपर स्थित है। यह सभी लोकों में सबसे ऊंचा है।"- ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खंड 54.15-16

इसके अलावा, गोलोक वृन्दावन की श्रेष्ठ स्थिति का वर्णन ब्रह्म वैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खंड, अध्याय 4.188 में भी इस प्रकार है:

ब्रह्माण्ड बहिर् ऊर्ध्वं च न अस्ति लोकास्ता ऊर्ध्वकः

ऊर्ध्वं सूर्यमयं सर्वं तदन्त सृस्तिर एव च
''गोलोक का यह निवास ब्रह्माण्ड के बाहर स्थित है। यह सबसे ऊँचा स्थान है. इससे कोई दूसरा लोक नहीं है। इसका पूर्ण शून्यता (अनन्त शून्यता एवं अंधकार) है। वास्तव में, यह गोलोक राक्षसी राक्षस का अंत है।''- ब्रह्म वैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खंड 4.188

वैकुण्ठ च शिवलोक च गोलोक च तयो परः

''गोलोक शिवलोक और वैकुंठ लोक के ऊपर स्थित है।'' - ब्रह्म वैवर्त पुराण 1.7.20

5. बृहत् ब्रह्म संहिता (पंचरात्र)

बृहत् ब्रह्म संहिता- 3.1.122 में इस प्रकार कहा गया है:
उर्ध्वं तु सर्वलोकेभ्यो गोलोके प्रकृतिः परे

“गोलोक का निवास सभी स्थानों के ऊपर स्थित है। यह पूरी तरह से पदार्थ से परे (अनुवांशिक) है।" बृहत् ब्रह्म संहिता 3.1.122
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6. वायु पुराण:-
वायु पुराण में, गोलोक का सर्वोच्च निवास, जिसमें भगवान कृष्ण और श्रीमती राधारानी शाश्वत रूप से निवास करते हैं, का वर्णन इस प्रकार किया गया है।

धावतोऽन्यानतिक्रान्तं वदतो वागगोचरम् ।
वेदवेदान्तसिद्धान्तैर्विनिर्णीतं तदक्षरम् ।४२.४२ ।

अक्षरान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः ।
इत्येवं श्रूयते वेदे बहुधापि विचारिते ।। ४२.४३ ।।

अक्षरस्यात्मनश्चापि स्वात्मरूपतया स्थितम्।
परमानन्दसन्दोहरूपमानन्द विग्रहम् ।। ४२.४४।

लीलाविलासरसिकं बल्लवीयूथमध्यगम्।
शिखिपिच्छकिरीटेन बास्वद्रत्नचितेन च ।४२.४५।

उल्लसद्विद्युदाटोपकुण्डलाभ्यां विराजितम्।
कर्णोपान्तचरन्नेत्रखञ्जरीटमनोहरम् ।।४२.४६।।

कुञ्जकुञ्जप्रियावृन्दविलासरतिलम्पटम्।
पीताम्बरधरं दिव्यं चन्दनालेपमण्डितम् ।।४२.४७।

अधरामृत संसिक्तवेणुनादेन वल्लवीः।
मोहयन्तञ्चिदानन्दमनङ्गमदभञ्जनम् ।४२.४८ ।

कोटिकामकलापूर्णं कोटिचन्द्रांशुनिर्मलम्।
त्रिरेखकम्ठविलसद्रत्नगुञ्जामृगा कुलम् ।४२.४९ 

यमुनापुलिने तुङ्गे तमालवनकानने।
कदम्बचम्पकाशोकपारिजातमनोहरे ।। ४२.५० ।।

शिखिपारावतशुकपिककोलाहलाकुले।
निरोधार्थं गवामेव धावमानमितस्ततः ।। ४२.५१।

राधाविलासरसिकं कृष्णाख्यं पुरुषं परम्।
श्रुतवानस्मि वेदेभ्यो यतस्तद्गोचरोऽभवत् ।। ४२.५२ ।।

एवं ब्रह्मणि चिन्मात्रे निर्गुणे भेदवर्जिते।
गोलोकसंज्ञिके कृष्णो दीव्यतीति श्रुतं मया ।। ४२.५३ ।।

नातः परतरं किञ्चिन्निगमागमयोरपि।
तथापि निगमो वक्ति ह्यक्षरात् परतः परः।४२.५४।

गोलोकवासी भगवानक्षरात्पर उच्यते।
तस्मादपि परः कोऽसौ गीयते श्रुतिभिः सदा । ४२.५५ ।

उद्दिष्टो वेद वचनैर्विशेषो ज्ञायते कथम्।
श्रुतेर्वार्थोऽन्यथा बोध्यः परतस्त्वक्षरादिति ।। ४२.५६ ।।

श्रुत्यर्थे संशयापन्नो व्यासः सत्यवतीसुतः।
विचारयामास चिरं न प्रपेदे यथातथम् ।४२.५७।

                 "सूत उवाच।।
विचारयन्नपि मुनिर्नाप वेदार्थनिश्चयम्।
वेदो नारायणः साक्षाद्यत्र मुह्यन्ति सूरयः।४२.५८।

तथापि महतीमार्त्तिं सतां हृदयतापिनीम्।
पुनर्विचारयामास कं व्रजामि करोमि किम् । ४२.५९ ।

पश्यामि न जगत्यस्मिन्सर्वज्ञं सर्वदर्शनम्।
अज्ञात्वाऽन्यतमं लोके सन्देहविनिवर्त्तकम् । ४२.६० ।

सन्दर्भ :-वायुपुराण 104(42) वें अध्याय के ( 42-60 )  तक के श्लोक- 
_______________
“भगवान कृष्ण, जो पत्नी राधा जी के प्रेमी हैं, वेदों में सर्वोच्च पुरुष कहलाते हैं।” जिनसे  यह सारा संसार प्रकट होता है। उन्होंने वास्तविक वेदों में अद्वैत निर्गुण ब्रह्म का वर्णन किया है, जो गोलोक के अपने शाश्वत निवास में रहता है। “-वायु पुराण 104 ( 42).52-55
________. 
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे/
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके राधिकाश्रमे । रासमण्डल-मध्ये च मह्यं वृन्दावने वने ॥ ९॥
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे/नारद-नारायणसंवादे परशुरामाय श्रीकृष्णकवच-प्रदानं नाम एकत्रिंशत्तमोऽध्ययः ॥
_____________

8. स्कंद पुराण
स्कंद पुराण के वासुदेव महात्म्य (वैश्व खंड) के प्रसिद्ध खंड में भगवान कृष्ण के गोलोक निवास का विस्तृत वर्णन है।

"वासुदेवस्याङ्गतया भावयित्वा सुरान्पितॄन् ।।
अहिंसपूजाविधिना यजन्ते चान्वहं हि ते ।। ३१ ।।

अहिंसया च तपसा स्वधर्मेण विरागतः ।। वासुदेवस्य माहात्म्यज्ञानेनैवात्मनिष्ठया ।। २५।।

संमानिता सुरगणैः पाद्यार्घ्यस्वागतादिभिः ।।
ते बृहन्मुनयोऽपश्यन्मेध्यांस्तान्क्रोशतः पशून् ।७।

सात्त्विकानामपि च तं देवानां यज्ञविस्तरम् ।।
हिंसामयं समालोक्य तेऽत्याश्चर्यं हि लेभिरे ।। ८ ।

धर्मव्यतिक्रमं दृष्ट्वा कृपया ते द्विजोत्तमाः ।।
महेन्द्रप्रमुखानूचुर्देवान्धर्मधियस्ततः ।। ९ ।।

सात्त्विकानां हि वो देवः साक्षाद्विष्णू रमापतिः ।।
अहिंसयज्ञेऽस्ति ततोऽधिकारस्तस्य तुष्टये ।१९ ।

प्रत्यक्षपशुमालभ्य यज्ञस्याचरणं तु यत् ।।
धर्मः स विपरीतो वै युष्माकं सुरसत्तमाः ।। 2.9.6.२० ।।

________ 
सन्दर्भ:- स्कन्दपुराणम्‎ - खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)‎ वासुदेवमाहात्म्यम्
                 " सावर्णिरुवाच ।।
स हि भक्तो भगवत आसीद्राजा महान्वसुः ।।
किं मिथ्याऽभ्यवदद्येन दिवो भूविवरं गतः ।। १ ।।

केनोद्धृतः पुनर्भूमेः शप्तोऽसौ पितृभिः कुतः ।।
कथं मुक्तस्ततो भूप इत्येतत्स्कन्द मे वद् ।। २ ।।
                  "स्कन्द उवाच ।।
शृणु ब्रह्मन्कथामेतां वसोर्वास वरोचिषः ।।
यस्याः श्रवणतः सद्यः सर्वपापक्षयो भवेत् ।। ३ ।।

स्वायम्भुवान्तरे पूर्वमिन्द्रो विश्वजिदाह्वयः ।।
आररम्भे महायज्ञमश्वमेधाभिधं मुने ।। ४ ।।

निबद्धाः पशवोऽजाद्याः क्रोशन्तस्तत्र भूरिशः ।।
सर्वे देवगणाश्चापि रसलुब्धास्तदासत ।। ५ ।।

क्षेमाय सर्वलोकानां विचरन्तो यदृच्छया ।।
महर्षय उपाजग्मुस्तत्र भास्करवर्च्चसः ।। ६।।

संमानिता सुरगणैः पाद्यार्घ्यस्वागतादिभिः ।।
ते बृहन्मुनयोऽपश्यन्मेध्यांस्तान्क्रोशतः पशून् ।७।

सात्त्विकानामपि च तं देवानां यज्ञविस्तरम् ।।
हिंसामयं समालोक्य तेऽत्याश्चर्यं हि लेभिरे ।। ८ ।।

धर्मव्यतिक्रमं दृष्ट्वा कृपया ते द्विजोत्तमाः ।।
महेन्द्रप्रमुखानूचुर्देवान्धर्मधियस्ततः ।। ९ ।।
                    "महर्षय ऊचुः ।।
देवैश्च ऋषिभिः साकं महेन्द्राऽस्मद्वचः शृणु ।।
यथास्थितं धर्मतत्त्वं वदामो हि सनातनम् ।। 2.9.6.१० ।।

यूयं जगत्सर्गकाले ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।।
सत्त्वेन निर्मिताः स्थो वै चतुष्पाद्धर्मधारकाः । ११।

रजसा तमसा चासौ मनूंश्चैव नराधिपान् ।।
असुराणां चाधिपतीनसृजद्धर्मधारिणः ।। १२ ।।

सर्वेषामथ युष्माकं यज्ञादिविधिबोधकम् ।।
ससर्ज श्रेयसे वेदं सर्वाभीष्टफलप्रदम् ।। १३ ।।

अहिंसैव परो धर्मस्तत्र वेदेऽस्ति कीर्त्तितः ।।
साक्षात्पशुवधो यज्ञे नहि वेदस्य संमतः ।। १४ ।।

चतुष्पादस्य धर्मस्य स्थापने ह्येव सर्वथा ।।
तात्पर्यमस्ति वेदस्य न तु नाशेऽस्य हिंसया ।१५ ।

रजस्तमोदोषवशात्तथाप्यसुरपा नृपाः ।।
मेध्येनाजेन यष्टव्यमित्यादौ मतिजाड्यतः ।।
छागादिमर्थं बुबुधुर्व्रीह्यादिं तु न ते विदुः ।। १६ ।।

सात्त्विकानां तु युष्माकं वेदस्यार्थो यथा स्थितः ।।
ग्रहीतव्योन्यथा नैव तादृशी च क्रियोचिता ।१७।

यादृशो हि गुणो यस्य स्वभावस्तस्य तादृशः ।।
स्वस्वभावानुसारेण प्रवृत्तिः स्याच्च कर्मणि ।१८ ।।
सात्त्विकानां हि वो देवः साक्षाद्विष्णू रमापतिः ।।
अहिंसयज्ञेऽस्ति ततोऽधिकारस्तस्य तुष्टये ।१९ ।

प्रत्यक्षपशुमालभ्य यज्ञस्याचरणं तु यत् ।।
धर्मः स विपरीतो वै युष्माकं सुरसत्तमाः ।। 2.9.6.२० ।।

रजस्तमोगुणवशादासुरीं संपदं श्रिताः ।।
युष्माकं याजका ह्येते सन्त्यवेदविदो यथा ।। २१।।

तत्सङ्गादेव युष्माकं साम्प्रतं व्यत्ययो मतेः ।।
जातस्तेनेदृशं कर्म प्रारब्धमिति निश्चितम् ।। २२ ।।

राजसानां तामसानामासुराणां तथा नृणाम् ।।
यथागुणं भैरवाद्या उपास्याः सन्ति देवताः ।। २३।

स्वगुणानुगुणात्मीयदेवतातुष्टये भुवि ।।
हिंस्रयज्ञविधानं यत्तेषामेवोचितं हि तत् ।। २४ ।।

तत्रापि विष्णुभक्ता ये दैत्यरक्षोनरादयः ।।
तेषामप्युचितो नास्ति हिंस्रयज्ञः कुतस्तु वः ।२५ ।

यज्ञशेषो हि सर्वेषां यज्ञकर्मानुतिष्ठताम् ।।
अनुज्ञातो भक्षणार्थं निगमेनैव वर्तते ।। २६ ।।

सात्त्विकानां देवतानां सुरामांसाशनं क्वचित् ।।
अस्माभिस्त्वीक्षितं नैव न श्रुतं च सतां मुखात् ।। २७ ।।

तस्माद्व्रीहिभिरेवासौ यज्ञः क्षीरेण सर्पिषा ।।
मेध्यैरन्नरसैश्चाऽन्यैः कार्यो न पशुहिंसया ।।२८।।

तत्रापि बीजैर्यष्टव्यमजसंज्ञामुपागतैः ।।
त्रिवर्षकालमुषितैर्न्न येषां पुनरुद्गमः ।। २९ ।।
अद्रोहश्चायलोभश्च दमो भूतदया तपः ।।
ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमदम्भश्च क्षमा धृतिः ।। 2.9.6.३० ।।

सनातनस्य धर्मस्य रूपमेतदुदीरितम् ।।
तदतिक्रम्य यो वर्तेद्धर्मघ्नः स पतत्यधः ।। ३१ ।।
           ।। स्कन्द उवाच ।।
इत्थं वेदरहस्यज्ञैर्महामुनिभिरादरात् ।।
बोधिता अपि सन्नीत्या स्वप्रतिज्ञाविघाततः ।।

तद्वाक्यं जगृहुर्नैव तत्प्रामाण्यविदोपि ते ।। ३२ ।।

महद्व्यतिक्रमात्तर्हि मानक्रोधमदादयः ।।
विविशुस्तेष्वधर्मस्य वंश्याश्छिद्रगवेषिणः ।। ३३ ।।
अजश्छागो न बीजानीत्यादि वादिषु तेष्वथ ।।
विमनस्स्वृषिवर्येषु पुनस्तान्बोधयत्सु च ।। ३४ ।।
राजोपरिचरः श्रीमांस्तत्रैवागाद्यदृच्छया ।।
तेजसा द्योतयन्नाशा इन्द्रस्य परमः सखा ।। ३५ ।।
तं दृष्ट्वा सहसायान्तं वसुं ते त्वन्तरिक्षगम् ।।
ऊचुर्द्विजातयो देवानेष च्छेत्स्यति संशयम् ।। ३६ ।।
एष भूमिपतिः पूर्वं महायज्ञान्सहस्रशः ।।
चक्रे सात्वततन्त्रोक्तविधिनारण्यकेन च ।। ३७ ।।
येषु साक्षात्पशुवधः कस्मिंश्चिदपि नाऽभवत् ।।
न दक्षिणानुकल्पश्च नाप्रत्यक्षसुरार्च्चनम् ।। ३८ ।।
अहिंसाधर्मरक्षाभ्यां ख्यातोसौ सर्वतो नृपः ।।
अग्रणीर्विष्णुभक्तानामेकपत्नीमहाव्रतः ।। ३९ ।।
ईदृशो धार्मिकवरः सत्यसन्धश्च वेदवित् ।।
कथंचिन्नान्यथा ब्रूयाद्वाक्यमेष महान्वसुः ।। 2.9.6.४० ।।
एवं ते संविदं कृत्वा विबुधा ऋषयस्तथा ।।
अपृच्छन्सहसाऽभ्येत्य वसुं राजानमुत्सुकाः ।। ४१ ।।
देवमहर्षय ऊचुः ।।
भो राजन्केन यष्टव्यं पशुना होस्विदौषधैः ।।
एतं नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान्मतः ।। ४२ ।।
स्कन्द उवाच ।।
स तान्कृताञ्जलिर्भूत्वा परिपप्रच्छ वै वसुः ।।
कस्य वः को मतः पक्षो ब्रूत सत्यं समाहिताः ।। ४३ ।।
महर्षय ऊचुः ।।
धान्यैर्यष्टव्यमित्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप ।।
देवानां तु पशुः पक्षो मतं राजन्वदात्मनः ।। ४४ ।।
स्कन्द उवाच ।।
देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुस्तत्पक्षसंश्रयात् ।।
छागादिपशुनैवेज्यमित्युवाच वचस्तदा ।। ४५ ।।
एवं हि मानिनां पक्षमसन्तं स उपाश्रितः ।।
धर्मज्ञोप्यवदन्मिथ्या वेदं हिंसापरं नृपः ।।४६।।
तस्मिन्नैव क्षणे राजा वाग्दोषादन्तरिक्षतः ।।
अधः पपात सहसा भूमिं च प्रविवेश सः।।
महतीं विपदं प्राप भूमिमध्यगतो नृपः।।
स्मृतिस्त्वेनं न प्रजहौ तदा नारायणाश्रयात्।।४८।।
मोचयित्वा पशून्त्सर्वांस्ततस्ते त्रिदिवौकसः ।।
हिंसाभीता दिवं जग्मुः स्वाश्रमांश्च महर्षयः।।४९।।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णव खण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये वेदस्यहिंसापरत्वोक्त्या उपरिचरवसोरधःपातवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ।।६।।


एकान्तधर्मसिद्यर्थं वासुदेवस्य पूजनम् ।।
करिष्य इति संकल्प्य कुर्यान्न्यासविधिं ततः ।। २ ।।
न्यासे मन्त्रा द्वादशार्णो गायत्री वैष्णवी तथा।।
नारायणाष्टाक्षरश्च ज्ञेया विष्णुषडक्षरः ।। ३ ।।
एते द्विजानां विहितास्तदन्येषां त्विह त्रयः ।।
वासुदेवाष्टाक्षरश्च हरिपञ्चाक्षरस्तथा ।।
षडर्णः केशवस्येति न्यासे होमे च संमताः ।। ४
ततोऽक्षरब्रह्मरूपो राधाकृष्णं हृदि प्रभुम् ।।
ध्यायेदव्यग्रमनसा प्राणायामं समाचरन्।।९।।
अधोमुखं नाभिपद्मं कदलीपुष्पवत्स्थितम्।।
विभाव्यापानपवनं प्राणेनैक्यमुपानयेत्।।2.9.28.१०।।
पद्मनाले तमानीय सह तेन तदम्बुजम्।।
आकर्षेदूर्ध्वमथ तन्नदत्तीव्रमुपैति हृत् ।।
प्रफुल्लति च तत्रैतद्धृदयाकाश उल्लसत् ।। ११ ।।
तेजोराशिमये तत्र ततोप्यधिकतेजसा ।।
दर्शनीयतमं शान्तं ध्यायेच्छ्रीराधिकापतिम् ।। १२ ।।
उपविष्टं स्थितं वा तं दिव्यचिन्मयविग्रहम् ।।
ध्यायेत्किशोरवयसं कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ।। १३ ।।
रूपानुरूपसंपूर्णदिव्यावयवलक्षितम् ।।
शरच्चन्द्रावदातांगं दीर्घचारुभुजद्वयम् ।। १४ ।।
आरक्तकोमलतलरम्यांगुलिपदाम्बुजम् ।।
तुंगारुणस्निग्धनखद्युतिलज्जायितोडुपम् ।। १५ ।।
स्कन्द पुराण28वाँ अध्याय ।
प्राप्ता ये वैष्णवीं दीक्षां वर्णाश्चत्वार आश्रमाः ।।
चातुर्वर्ण्यस्त्रियश्चैते प्रोक्ता अत्राधिकारिणः ।। ७ ।।
वेदतन्त्रपुराणोक्तैर्मन्त्रैर्मूलेन च द्विजाः ।।
पूजेयुर्दीक्षिता योषाः सच्छूद्रा मूलमन्त्रतः ।।
मूलमन्त्रस्तु विज्ञेयः श्रीकृष्णस्य षडक्षरः ।।८।।
स्वस्वधर्मं पालयद्भिः सर्वेरेतैर्यथाविधि ।।
पूजनीयो वासुदेवो भक्त्या निष्कपटान्तरैः ।। ९ ।।
आदौ तु वैष्णवीं दीक्षां गृह्णीयात्सद्वरोः पुमान् ।।
सदैकान्तिकधर्मस्थाद्ब्रह्मजातेर्दयानिधेः ।। 2.9.26.१० ।।


स्कन्द पुराण गोलोक वर्णन
भूम्यप्तेजोनिलाकाशाहम्महत्प्रकृतीः क्रमात् ।।
क्रान्त्वा दशोत्तरगुणाः प्राप गोलोकमद्भुतम् ।।१२।।
धाम तेजोमयं तद्धि प्राप्यमेकान्तिकैर्हरेः।।
गच्छन्ददर्श विततामगाधां विरजां नदीम्।।१३।।
गोपीगोपगणस्नानधौतचन्दनसौरभाम्।।
पुण्डरीकैः कोकनदै रम्यामिन्दीवरैरपि।।१४।।
तस्यास्तटं मनोहारि स्फटिकाश्ममयं महत्।।
प्राप श्वेतहरिद्रक्तपीतसन्मणिराजितम्।।१५।।
कल्पवृक्षालिभिर्ज्जुष्टं प्रवालाङ्कुरशोभितम्।।
स्यमन्तकेन्द्रनीलादिमणीनां खनिमण्डितम् ।। १६ ।।
नानामणीन्द्रनिचितसोपानततिशोभनम् ।।
कूजद्भिर्मधुरं जुष्टं हंसकारण्डवादिभिः ।। १७ ।।
वृन्दैः कामदुघानां च गजेन्द्राणां च वाजिनाम् ।।
पिबद्भिर्न्निर्मलं तोयं राजितं स व्यतिक्रमत् ।। १८ ।।
उत्तीर्याऽथ धुनी दिव्यां तत्क्षणादीश्वरेच्छया ।।
तद्धामपरिखाभूतां शतशृङ्गागमाप सः ।। १९ ।।
हिरण्मयं दर्शनीयं कोटियोजनमुच्छ्रितम् ।।
विस्तारे दशकोट्यस्तु योजनानां मनोहरम् ।। 2.9.16.२० ।।
______________________________
गोपानां गोपिकानां च कृष्णसंकीर्त्तनैर्मुहुः ।।
गोवत्स पक्षिनिनदैर्न्नानाभूषणनिस्वनैः ।।
दधिमन्थनशब्दैश्च सर्वतो नादितं मुने ।। ३८ ।।

फुल्लपुष्पफलानम्रनानाद्रुमसुशोभनैः ।।
द्वात्रिंशतवनैरन्यैर्युक्तं पश्यमनोहरैः ।। ३९ ।।

तद्वीक्ष्य हृष्टः स प्राप गोलोकपुरमुज्वलम् ।।
वर्तुलं रत्नदुर्गं च राजमार्गोपशोभितम् ।। 2.9.16.४० ।।
____________
गोपस्य वृषभानोस्तु सुता राधा भविष्यति ।।
वृन्दावने तया साकं विहरिष्यामि पद्मज ।। ३४ ।।

लक्ष्मीश्च भीष्मकसुता रुक्मिण्याख्या भविष्यति ।
उद्वहिष्यामि राजन्यान्युद्धे निर्जित्य तामहम् । ३५।

स्कंद देव (कार्तिकेय) ने नारद मुनि की श्वेतद्वीप से गोलोक तक की संपूर्ण यात्रा का वर्णन किया है। मैं इसमें से केवल कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत  हूैं।

''पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ब्रह्मा, महत और प्रकृति के क्षेत्रों (कोशों) को एक के बाद एक पार करते गए, जिनमें से हर पिछले एक से दस गुना बड़ा है, नारद अखिल दिव्य निवास तक पहुँचते हैं। गोलोक का. यह भगवान हरि का एक जीवंत निवास है, जिसे केवल भगवान हरि की प्रति समर्पित शुद्ध भक्तों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।'' - विष्णु खंड, वासुदेव महात्म्य, स्कंद पुराण 16.12-13

  
''हर ब्रह्मांड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड पाताल से ब्रह्मलोक तक फैला हुआ है। वैकुण्ठ का धाम उससे भी ऊँचा है (अर्थात् ब्रह्माण्ड के बाहर स्थित है)। पुनः गोलोक का निवास वैकुण्ठ से पचास करोड़ योजन ऊँचा है।''- (देवी भागवत 9.3.8-9)

17. सनतकुमार संहिता
यमुनायन निमग्न प्रकाश सं गोकुलस्य च
गोलोकं प्राप्य तत्रभूत संयोग-रस-पेजल

''उसे (श्री राधा ने) यमुना में डूबकर अपना जीवन त्याग दिया (सांसारिक लीलाओं से लापता हो गई)। इस प्रकार वह आध्यात्मिक दुनिया में गोलोक लौट आए जहां उन्होंने फिर से भगवान कृष्ण की सती का आनंद लिया।'' - सनतकुमार संहिता, पाठ 309
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