सोमवार, 18 सितंबर 2023

केशी दैत्य और कृष्ण वैदिक सन्दर्भ-

ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के अतिरिक्त चौथे वेद ‌अथर्ववेद में भगवान कृष्ण का वर्णन केशी नामक दैत्य  का वध करने वाला बता कर किया गया है।

अत: वेदों में भी कृष्ण के होने की बात सिद्ध होती है।
नीचे स्पष्ट रूप से शौनक संहिता ,अथर्ववेद  और सामवेद आदि  में कृष्ण का स्पष्ट उल्लेख है।

"यः कृ॒ष्णः के॒श्यसु॑र स्तम्ब॒ज उ॒त तुण्डि॑कः। अ॒राया॑नस्या मु॒ष्काभ्यां॒ भंस॒सोऽप॑ हन्मसि ॥
(अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; ऋचा » 5)

१. ( यः कृष्ण:) = जो कृष्ण,२_५ (केशी) = केशी नामक   (असुरः) =दैत्य  (स्तम्बजः) जिसके केश गुच्छेदार हैं = [ (उत) = और (तुण्डिक:) = कुत्सित मुखवाला है / थूथनवाला है। (अरायान्) = निर्धन पुरुषों को (अस्याः) = इस के (मुष्काभ्याम्) = मुष्को से-अण्डकोषों से  तथा  (भंसस:)भसत् कटिदेशः पृषो० । उपचारात् तत्सम्बन्धिनि पायौ ऋ० १० । १६३ ।  = कटिसन्धिप्रदेश  से   (अपहन्मसि) = दूर करते हैं।

उपर्युक्त ऋचा में वर्णन है कि कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख और अण्डकोशों आदि  कटि प्रदेश (कमर) आदि को कृष्ण स्वयं के स्पर्श से  तथा जो गरीब अथवा धनहीन हैं उन सबको भी दूर करते हैं। 
भागवत आदि पुराणों में  कृष्ण द्रा केशी वध का प्रकरण का वर्णन है। कि भगवान का अत्यन्त कोमल करकमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो।
 उसका स्पर्श होते ही केशी के दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देने पर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण का भुजदण्ड उसके मुँह में बढ़ने लगा। 

अचिन्त्यशक्ति भगवान श्रीकृष्ण का हाथ उसके मुँह में इतना बढ़ गया कि उसकी साँस के भी आने-जाने का मार्ग न रहा। 
अब तो दम घुटने के कारण वह पैर पीटने लगा। 
सन्दर्भ:-
दशम स्कन्ध, अध्याय 36, श्लोक 16-26 तथा अध्याय 37, श्लोक 1-9

अथर्ववेद की रचना (दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व) में हुई है। 
उसमे , केशी,= केशो वाले", दैत्य का  पहली बार प्राचीन वर्णन किया गया है     

 

अर्जुन द्वारा भगवत गीता में भी कृष्ण को तीन बार केशी का हत्यारा कह कर सम्बोधित किया गया है- केशव (1.30 और 3.1) और केशी-निषूदन (18.1)। पहले अध्याय (1.30) में, कृष्ण को केशी के हत्यारे के रूप में संबोधित करते हुए,जिस  अर्जुन युद्ध के बारे में अपना संदेह व्यक्त करते हैं।

इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में भी केशी का प्रसंग है।युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा ।
अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिं चर ॥३॥
केशी दैत्य के संहारक हरि से जुड़ो उनको प्राप्त करो जिन्होंने उस केशी दैत्य के काँख और अण्ड कोश को पकड़ कर उसे पर्वत कन्दरा में पटक दिया था  कृष्ण से जुड़ो न कि सोमपान करने वाले इन्द्र से ।।३।




इसके अतिरिक्त राधा वृष्णि नन्दन कृष्ण, व्रज गो हरि केशिन् आदि शब्दावली कृष्ण लीला से सम्बन्धित हैं।

यत्सानोः सानुमारुहद्भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् 
तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥२॥
अनुवाद:-
जो एक  पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर बहुत सी  चढ़ाई करते हुए  इन्द्र को सावधान करने के लिए अथवा उसे बोध कराने के लिए वृष्णि शिरोमणि कृष्ण अपने यूथ ( गोप समूह ) के साथ वहाँ पहुँचते हैं।२।

यत्) यस्मात् = जिस (सानोः) पर्वतस्य शिखरात्= पर्वत शिखर से संविभागात्कर्मणः सिद्धेर्वा । दृसनिजनि० (उणा०१.३) अनेन सनेर्ञुण्प्रत्ययः । अथवा ‘षोऽन्तकर्मणि’ इत्यस्माद् बाहुलकान्नुः ।=
सफलता के विभाजन कर्म से-

 (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम् (आ) धात्वर्थे (अरुहत्) रोहति । अत्र लडर्थे लङ् । विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः । (भूरि)= बहु । भूरीति बहुनामसु पठितम् । (निघं०३.१) अदिसदिभू० (उणा०४.६६) अनेन भूधातोः क्तिन् प्रत्ययः । (अस्पष्ट) =स्पशते । अत्र लडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसीति शपो लुक् । (कर्त्त्वम्) कर्त्तुं योग्यं कार्य्यम् । अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः । (तत्) तस्मात् (इन्द्रः) इन्द्र:  (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा । उषिकुषिगार्त्तिभ्यः स्थन् । (उणा०२.४) अनेनार्त्तेः स्थन् प्रत्ययः । (चेतति)= संज्ञापयति प्रकाशयति वा । अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः । (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह । तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः । (उणा०२.१२) अनेन यूथशब्दो निपातितः । (वृष्णिः)  वृष्णे: वंशोद्भव:श्रीकृष्ण   (एजति) कम्पते ॥२॥


युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा ।
अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिं चर ॥३॥
केशी दैत्य के संहारक हरि से जुड़ो उनको प्राप्त करो जिन्होंने उस केशी दैत्य के काँख और अण्ड कोश को पकड़ कर उसे पर्वत कन्दरा में पटक दिया था  कृष्ण से जुड़ो न कि सोमपान करने वाले इन्द्र से ।।३।

सुविवृतं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः ।
गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः ॥७॥
अनुवाद :-जब इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रज की रज को डुबो दिया दिन रात वर्षा करके जिसमें गाये व्रज और सबकुछ था तब राधा जी ने इन्द्र को द्रव से रहित कर दिया।७।

 (अद्रिवः) जल रहित। (इन्द्रः) इन्द्र देव।(सुनिरजम्) रज (स्थल) को डुबो दिया ।  (त्वादातम्) तुम्हारे द्वारा दिए गये।  (यशः) जल । (सुविवृतम्) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो  (गवाम्)=  गायों के  (वज्रम्) आभीर वस्ती को  (अपवृधि) वृद्धि रहित   करता है ,  (राधः) राधा   (कृणुष्व) करती हैं,    (अद्रिवः)  जल रहित  (इन्द्र) इन्द्र।  (गवाम्) गायों को ।  (व्रजम्) गायों के बाड़े को (अपावृधि) क्षीण करके  (सुविवृतम्)  बड़े बड़े विवरों में। (सुनिरजम्) स्थल को   (यशः) जल को 
 (कृणुश्व) कम कीजिये॥७॥


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प्रस्तुतिकरण :- यादव योगेश कुमार रोहि  अलीगढ़ एवम् इ० श्री माता प्रसाद यादव (लखनऊ)

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