भागवत धर्म वैष्णव धर्म का अत्यन्त प्रख्यात तथा लोकप्रिय स्वरूप है।'भागवत धर्म' का तात्पर्य उस धर्म से है जिसके उपास्य स्वयं भगवान् श्री कृष्ण हों ; वासुदेव कृष्ण ही 'भगवान्' शब्द के वाच्य हैं "कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् (भागवत पुराण-1/3/28 ) अत: भागवत धर्म में कृष्ण ही परमोपास्य तत्व हैं; जिनकी आराधना भक्ति के द्वारा सिद्ध होकर भक्तों को भगवान् का सान्निध्य तथा तद्रूपता ( -ब्रह्म स्वरूपत्व) प्राप्त कराती है। सामान्यत: यह नाम वैष्णव सम्प्रदायों के लिए व्यवहृत होता है, परन्तु यथार्थत: यह उनमें एक विशिष्ट सम्प्रदाय का बोधक है। भागवतों का महामन्त्र है । 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' जो द्वादशाक्षर मन्त्र की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। पाञ्चरात्र तथा वैखानसमत 'नारायण' को ही परम तत्व मानते हैं। परन्तु इनसे विपरीत भागवत मत कृष्ण वासुदेव को ही परमाराध्य मानता है। ______________________________
भागवत धर्म की प्राचीनता एवं उद्भव श्रोत के लिए द्रविड़ो के आध्यात्मिक सिद्धान्तों का दिग्दर्शन आवश्यक है । भागवत धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद् गीता थी --जो अब अधिकांशत: प्रक्षिप्त रूप में महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित है। क्यों कि वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की पुन:सम्पादित रचना है । 👇
"अधेष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:"
श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय- 18 के 70 वें श्लोक विवेचनीय हैं -- जिसकाअर्थ है " "जो हम दौनों के इस धर्म-संवाद को पढ़ेगा "यह पाठ है। इसके स्थान पर यहाँं यदि कृष्ण अर्जुुन को उपदेश देते ; तो इस प्रकार श्लोकाँश होता -- "श्रोष्यति च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:" जो हमारे इस संवाद को सुनेगा ! सत्य तो यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता के तथ्य विस्थापित हुए हैं। दूसरा प्रमाण यह भी है कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्र के पदों का उद्धरण है । जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है । योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और "वसुबन्धु" नामक बौद्ध भाईयों ने किया । और -ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं ईस्वी सदी में हुई। अत: आज मूल श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ आध्यात्मिक श्लोकों के रूप ही प्राचीन हैं । बाद में ब्राह्मणवाद के अनुमोदन हेतु अनेक प्रक्षिप्त श्लोक तो अलग से समायोजित है । यद्यपि कालान्तरण में वर्ण- व्यवस्था वादी ब्राह्मणों ने इसमें वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का समायोजन भी कर दिया है ; जो कि भागवत धर्म के सिद्धान्तों के विपरीत है।
भागवत धर्म के सस्थापक मूलत: बलराम ही थे और कृष्ण ने उसका सैद्धान्तिक विकास किया। भागवत धर्म का विकास क्रम रूढिवादिता और पुरोहितवाद और इन्द्रवाद के विरुद्ध ही था कृष्ण और इन्द्र का युद्ध पुराणों में ही नहीं अपितु वेदों में भी दृष्टिगोचर है।👇 __________________________________
श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं । जिनका सम्बन्ध कहीं न कहीं क्यों कि आत्मा और परमात्मा तथा सृष्टि रचना पर जो दार्शनिक सूत्र श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित हैं वे द्रविडों और असीरियन लोगों के भी थे। असीरियन ही भारतीय पुराणों में असुर के रूप में वर्णित हैं ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में कृष्ण को यमुना की तलहटी में गाय के साथ विचरण करते हुए (अदेव )विशेषण से सम्बोधित किया गया है।
और द्रविड (तमिल) रूप अय्यर अहीर से विकसित रूप है। अहीर शब्द संस्कृत अभीर से तद्भूत है । तथा अभीर का सम्बन्ध हिब्रू बाइबिल में वर्णित अबीर( Abeer)शब्द से है; और इसका भी सम्बन्ध सैमेटिक शब्द " बर " से और बर का अर्थ हिब्रू भाषा में शक्ति-शाली होता है। वस्तुत यह "बर" इण्डो-ईरानी और इण्डो- यूरोपीयन शब्द वीर (vir)से सम्बद्ध है और वीर सम्प्रसारित रूप है आर्य । अब आय्यर वस्तुत:आर्य्य: ही है । इस लिए कुछ निश्पक्ष इतिहास विदों ने अहीरों का मिलान आदि आर्य्य चरावाहों के रूप में किया --जो बाद में कृषि के जनक माने गये । ___________________________________
यद्यपि कुछ इतिहास कार अपने पूर्व दुराग्रहों से आर्य्य: शब्द को देव संस्कृति के अनुयायीयों के विशेषण रूप में मान्य करने पर तुले हैं । आर्य शब्द का अर्थ है अरि: से सम्बद्ध । वैदिक सन्दर्भों में अरि ईश्वर वाची है । मेसोपोटेमिया की पुरालिपियों में "अलि" "एल" अथवा "इलु" से है असीरियन असुर लोग थे । सैमेटिक जन-जातियों का सबसे बड़ा युद्ध का अधिष्ठात्री देवता "एल" है जिसके अवशेष ई०पू० 800 में यूनानीयों के पुराणों में "एरीज़" युद्ध देवता के रूप में सुरक्षित हैं । परन्तु आर्य्य शब्द असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का इतिहास में प्रथम प्रमाणित वाचक है ईरनीयों ने देव ( दएव ) शब्द का अर्थ "दुष्ट " और व्यभिचारी" किया है । आर्य, आयर जो केवल अहीरों का मूल रूप है । विश्व की सभी संस्कृतियों में प्राप्त है । ऋग्वेद-- में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं ।
(ऋग्वेद 8।85।1-9) आ मे हवं नासत्याश्विना गच्छतं युवम् । मध्व: सोमस्य पीतये॥ ऋग्वेद मण्डल 8; सूक्त 85; ऋचा 1
पद का अर्थ -(नासत्या).द्विवचन । नास्ति असत्यं यस्य नभ्राडित्यादिना पा० नञः प्रकृतिभावः । अश्विनीकुमार द्वय:) (युवम्) दोनों (अश्विनौ) अश्विनीकुमार द्वय: ) (मध्वः) मधु का (सोमस्य) सोम का (पीतये) पीने के ल्ए (मे) मेरे (हवम्) हवन को (आ गच्छतम्) दोनों आयें।१।
और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती (जमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। परन्तु पराभूत होने में अतिरञ्जना व पूर्व दुराग्रह है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की ऋचा संख्या (13,14,15,)पर असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ऐसी वर्णित है ।
जिस पर हम सम्यक् विवेचना व्याकरणीय आधार करेगे-
सायण ने इंस ऋचा पर भाष्य करते हुए कृष्ण को असुर माना है ।
"अत्रेतिहासमाचक्षते किल ।कृष्णो नामासुरो दशसहस्रसंख्यैरसुरैः परिवृतः सन्नंशुमतीनामधेयाया नद्यास्तीरेऽतिष्ठत् । तत्र तं कृष्णमुदकमध्ये स्थितमिन्द्रो बृहस्पतिना सहागच्छत् । आगत्य तं कृष्णं तस्यानुचरांश्च बृहस्पतिसहायो जघानेति
विवाद द्रप्स शब्द पर भी है परन्तु यह शब्द भारोपीय शब्दावली से सम्बन्धित है।
drip द्रप-drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.
mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).
अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
पदान्वय-अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।
शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण- १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर मध्यम पुरुष एकवचन।
२-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में ।
३- अंशुमतीम् = यमुनाम् –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
४-अवतिष्ठत् = अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश लङ्लकार रूप) स्थित हुए।
५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को। (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है ।
७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
८-नृमणां( धनानां)
९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने)
१०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान १८-वृद्धिषु।
११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप धन दिया।
भाष्य-कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै:परिवृत: सन् अँशुमतीनामधेयाया नद्या: यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।
हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।________________________________
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
पदान्वय-द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ । नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।
हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा और यह साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं चाहूगा ।अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़ कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा। जहाँ जल( नभ) बादल भी न हो (अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
"शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-"
१-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम् दृश् धातु का लङ्लकार (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप - मैंने देखा ।__________________
२- वि + सवन(सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)। षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ] सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादि सूत्र- ३।३५। इति (न:) स:च कित् )
शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है। परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________
विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्= चरते हुए साँड को।
४-आजौ = संग्रामे युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है ।तस्थिवस्= स्था--क्वसु स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
७-व:= युष्मान् - तुम सबको । युष्मभ्यम् । युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
१०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
११-आजौ= युद्ध में ।
१२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
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। द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
“अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य पूर्ण जल: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “( त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत् = धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम् ये न पूजयन्ति । कृष्णरूपा इत्यर्थः ।
यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः= गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22 तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखें
__________________________________ उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋग्वेद-१०/ ६२ /१०) ____________________________________ असुर शब्द दास का पर्याय वाची है। क्योंकि ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के २/३/६ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर वर्णित किया गया है । ____________________________________ उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् (ऋग्वेद-२ /३ /६) ____________________________________ असुर संस्कृति में "दास शब्द का अर्थ-- दाता श्रेष्ठ तथा कुशल होता है । ईरानी आर्यों ने "दास शब्द का उच्चारण दाहे के रूप में किया है । इसी प्रकार "असुर" शब्द को "अहुर" के रूप में वर्णित किया है। असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है । पाणिनीय ने असुर शब्द की व्युपत्ति की है ।👇 ____________________________________ पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु :-(प्राण-तत्व) से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है ____________________________________
परन्तु ये लोग असीरियन ही थे । जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन सभ्यताओं के निर्माता थे । मिश्र की पुरातन संस्कृति से भी असुर (असीरियन ) प्रभावित रहे हैं । 👇दास अथवा दस्यु तथा दक्ष जैसे शब्द परस्पर एक ही मूल से व्युत्पन्न हैं । ईरानी असुर संस्कृति के उपासक थे । और यहूदीयों के ये सहवर्ती थे । यहूदी जन-जाति प्राचीन पश्चिमीय एशिया की एक महान जन-जाति रही है । कृष्ट (Christ) अर्थात् यीशु मसीह का जन्म भी यहूदीयों की जन-जाति में हुआ था । अनेक स्तरों पर कृष्ट और कृष्ण के आध्यात्मिक चरित्र में साम्य परिलक्षित होता है ।👇 ____________________________________ जैसे दौनों का जन्म गोपालक परिवार में गायों के सानिध्य में होना ... यीशु मसीह को एञ्जिल (Angelus) फ़रिश्ता द्वारा ईश्वरीय ज्ञान प्रदान करना । तथा कृष्ण के गुरु घोर-आंगीरस होना कमसे कम उन दौनों के कुछ चरित्र गत समान बिन्दुओं को सूचित करता है। ____________________________________ आंगीरस तथा एञ्जिल (Angelus) शब्द भी मूलत:एक ही शब्द के रूपान्तरण हैं । यहुदह् और तुरबजु के रूप में वर्णित बाइबिल में पुरुष पात्र ... निश्चित रूप से यदु: और तुर्वसु नामक वैदिक पात्र हैं। यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति हिब्रू शब्दकोश में यद् क्रिया से दर्शायी है :-जिसका अर्थ है --धन्यवाद देना, स्तुति करना । संस्कृत भाषा में भी यदु शब्द यज् धातु से व्युत्पन्न है । जिसका अर्थ है --यज्ञ करना , ईश्वर स्तुति करना आदि। ____________________________________ अवेस्ता ए जेन्द़ में असुर शब्द का अर्थ = श्रेष्ठ तथा देव का अर्थ = दुष्ट है । ____________________________________ ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में प्रस्तुत है । कि यदु स्वयं गोप अथवा चरावाहे का जीवन व्यतीत कर रहे थे कृष्ण और कृष्ट दौनों का सम्बन्ध क्रमश: अभीर और अबीर जन-जातियों से रहा और --जो मूलत: एक ही थीं दौनों ने ईश्वर की एकरूपता तथा दुखीयों को एक सम्बल प्रदान किया। उपनिषदों का वर्ण्य- विषय श्रीमद्भगवद् गीता के सादृश्य ही भक्ति मूलक है । ____________________________________ कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 👇 ____________________________________ छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 ) कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्ते:👇 उपर्युक्त गद्यांश में कहा गया है कि " देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप भक्ति- उपासना की शिक्षा दी थी ! जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था ; और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। परन्तु वर्तमान में प्राप्त महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित श्रीमद्भगवद् गीता कृष्ण के सिद्धान्तों का आंशिक दिग्दर्शन तो है ही। परन्तु श्रीमद्भगवत् गीता का समायोजन शान्ति पर्व में होना चाहिए --जो तथ्यों अध्यात्म मूलक हैं वही कृष्ण के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन अवश्य करते हैं । परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण- वाद के समर्थन में कुछ बातें श्रीमद्भगवद् गीता में इस प्रकार से समायोजित की हैं या जोड़ दी हैं ; कि श्रृद्धा प्रवण भक्त उन्हें भी सहज स्वीकार कर लेता है । भक्ति सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव भागवत धर्म से हुआ है । और भक्ति की भी अनेक धाराऐं प्रस्फुटित हुईं 👇 ____________________________________ भक्तों के अनुसार भक्ति नौ प्रकार की होती है जिसे नवधा भक्ति कहते हैं। वे नौ प्रकार ये हैं— श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। १४. जैन मतानुसार वह ज्ञान जिसमें निरतिशय आनन्द हो और जो सर्वप्रिय, अनन्य, प्रयोजन विशिष्ट तथा वितृष्णा का उदयकारक हो भक्ति है । 👇 भागवत धर्म वस्तुत: निष्काम भक्ति का ही प्रतिपादन करने वाला प्रथम धर्म है । अर्थात् अहंकार शून्य होकर भगवान् के प्रति समर्पण भाव ही भक्ति है । दक्षिण भारत में द्रविड़ो के द्वारा भक्ति का प्रादुर्भाव निश्चित रूप से हुआ है । दक्षिण भारत के अय्यर सन्तों ने भक्ति को जन्म दिया और आलावार सन्तों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया आलवार शब्द का तमिल अर्थ:- भगवान में लीन 'आलावार तमिल भक्त-कवि एवं सन्त थे। इनका काल छठवीं से नौवीं शताब्दी के बीच रहा। उनके पदों का संग्रह "दिव्य प्रबन्ध" कहलाता है जो 'वेदों' के तुल्य माना जाता है। आलवार सन्त भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। विष्णु या नारायण की उपासना करने वाले भक्त 'आलवार' कहलाते हैं। इनकी संख्या 12 हैं। उनके नाम इस प्रकार है -👇👑 ____________________________________ (1) पोरगे आलवार (2) भूतत्तालवार (3) मैयालवार (4) तिरुमालिसै आलवार (5) नम्मालवार (6) मधुरकवि आलवार (7) कुलशेखरालवार (8) पेरियालवार (9) आण्डाल (10) तांण्डरडिप्पोड़ियालवार (11) तिरुरपाणोलवार (12) तिरुमगैयालवार। इन बारह आलवारों ने घोषणा की कि भगवान की भक्ति करने का सबको समान रूप से अधिकार प्राप्त है। ____________________________________ इन सन्तों द्वारा वर्ण-व्यवस्था और कर्मकाण्ड परक विधानों का निषेध कर दिया गया क्यों कि 'वह अनन्त आदि और अन्त से परे ईश्वर के भावों की शुद्धता और आत्म - समर्पण से अन्त:करण के स्वच्छ होने पर अनुभूति गम्य होता है । नकि कृत्रिम रूप से बनायी वर्ण-व्यवस्था के द्वारा यज्ञ , हवन ,कर्म काण्डों से स्वर्ग की प्राप्ति का प्रयत्न है । और भागवत धर्म स्वर्ग से भी उच्चत्तम स्थिति का प्रतिपादन करने वाला है । और तो और ब्राह्मणों की दृष्टि में निम्न समझी जाने वाली कतिपय जातियों के लोग भी इसमें स्वीकार हैं ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था गत मान्यताओं का खण्डन करते हुए इन आलावार सन्तों ने समस्त तमिल प्रदेश में पदयात्रा कर भक्ति का प्रचार किया। इनके भावपूर्ण लगभग 4000 गीत मालायिर दिव्य प्रबन्ध में संग्रहित हैं। दिव्य प्रबन्ध भक्ति तथा ज्ञान का अनमोल भण्डार है। ____________________________________ अनेक पुष्ट प्रमाणों के द्वारा प्रतिष्ठित है कि गुप्त सम्राट् अपने को 'परम भागवत' की उपाधि से विभूषित करने में गौरव का अनुभव करते थे। फलत: उनके शिला लेखों में यह उपाधि उनके नामों के साथ अनिवार्य रूप से उल्लिखित है। कृष्ण की मूर्तियों का निर्माण भी गुप्त काल में सबसे अधिक हुआ । विक्रमपूर्व प्रथम तथा द्वितीय शताब्दियों में भागवत धर्म की व्यापकता तथा लोकप्रियता शिलालेखों के साक्ष्य पर निर्विवाद सिद्ध होती है। ____________________________________ और ये कर्म-वाद में भी विश्वास करते थे । भारत में इस कर्म-वाद मूलक भागवत धर्म का उल्लेख सर्वप्रथम छठी ई.पू. के आस-पास के उपनिषदों में मिलता है। वासुदेव द्वारा प्रतिपादित यह धर्म व्यक्तिगत उपासना को महत्व देता है। महाभारत काल में कृष्ण का तादात्म्य विष्णु से कर दिये जाने के कारण भागवत धर्म वैष्णव धर्म भी कहलाया। वस्तुत विष्णु भी सुमेरियन माइथॉलॉजी में वर्णित " Pisk-nu=पिस्क- नु ) (Pisk-nu=पिस्क- नु ( से है ।👇 ____________________________________
भारतीय तथा सुमेरियन महरों ( उत्कीर्ण )तथ्यों पर अर्थ-वत्ता पूर्ण विश्लेषण) 👇 ____________________________________ डैगन ( फॉनीशियन भाषा में का शब्द है । तो दागुन ; हिब्रू : भाषा में और डेओजोगोन तिब्बती भाषा में रूपान्तरण है। देगन वस्तुत यह एक मेसोपोटामियन (सुमेरियन) और प्राचीन कनानी देवता है। ऐसा लगता है कि इसे एब्ला , अश्शूर (असुर), उगारिट और एमोरियों (मरुद्गण) जन-जातियों में से एक ने प्रजनन देवता के रूप में इसकी मान्यता की है। देगन का प्रारम्भिक क्षेत्र प्राचीन मेसोपोटामिया और प्राचीन कनान देश ही है । इसकी माता को शाला या अशेरा और पिता एल के रूप में स्वीकृत किया गया हैं।👇 शाला अनाज की प्राचीन सुमेरियन देवी और करुणा की भावना की प्रति मूर्ति थी। अनाज और करुणा के प्रतीकों ने सुमेर की पौराणिक कथाओं में कृषि के महत्व को प्रतिबिंबित करने के लिए गठबंधन किया है ! और यह विश्वास व्यक्त किया है । कि एक प्रचुर मात्रा में फसल देवताओं से करुणा का कार्य नि:सृत होता था। कुछ परम्पराऐं शाला, शिला या (श्री वैदिक रूप) को प्रजनन देवता देगन (विक्सनु )की पत्नी के रूप में पहचानती हैं! या तूफान देवता हदाद( हैड )के पत्नी को इश्तर भी कहा जाता है। प्राचीन चित्रणों में, वह शेर के सिर से सजाए गए डबल-हेड मैस या स्किमिटार रखती है। कभी-कभी उसे एक या दो शेरों के ऊपर पैदा होने के रूप में चित्रित किया जाता है। बहुत शुरुआती समय से, वह नक्षत्र कन्या से जुड़ी हुई है ;और उसके साथ जुड़े प्रतीकवाद के निवासी, वर्तमान समय के लिए नक्षत्र के प्रतिनिधित्व में बनते हैं। जैसे अनाज के कान देवता के नाम को संस्कृति में बदल गया हो। भारतीय पुराणों में श्री कृषि की अधिष्ठात्री देवी और विष्णु की पत्नी के रूप में वर्णित है । ( शिल्-क-टाप् ) = शिला । गृहीतशस्यात् क्षेत्रात्कणशोमञ्जर्य्या दानरूपायां । १ वृत्तौ उञ्छशब्दे १०७० पृष्ठ दृश्यम् । २ पाषाणे ३ द्वाराधःस्थितकाष्ठखण्डे च (गोवराट) स्त्री अमरः । ४ स्तम्भशीर्षे ५ मनःशिलायां स्त्री मेदिनी कोश । अर्थात् शिला का अर्थ अन्न जो खेतों में से बीना जाता है । वीनस पर एक पर्वत शाला मॉन्स का नाम उसके नाम पर रखा गया है। सुमेरियन माइथॉलॉजी में एल और अशेरा अथवा ईष्टर ( ईश्तर) जो कि वैदिक शब्द अरि-(ईश्वर) तथा स्त्री के प्रतिरूप हैं यद्यपि स्त्री ही कालान्तरण में श्री के रूप में उदित हुआ ____________________________________ जिसे ईसाईयों तथा यहूदियों में ईष्टर भी कहा गया। अथिरत एष्ट्रो (सम्भवतः) हिब्रू बाइबल में उन्हें अश्दोद और गाजा में कहीं और मन्दिरों के साथ पलिश्तियों या फलिस्तीनियों के राष्ट्रीय देवता के रूप में उल्लेख किया गया है। श्री' स्त्री या अशेरा प्रजनन , कृषि प्रेम आदि की अधिष्ठात्री देवी हैं । और अरि लौकिक संस्कृत भाषा में हरि तो कहीं अलि के रूप में प्रकट हुआ । "मछली" के लिए एक कनानी शब्द के साथ एक लम्बे समय से चलने वाला संगठन (जैसा कि हिब्रू में : दाग , तिब्ब । / Dɔːg / ), शायद लौह युग में वापस जा रहा है। इस शब्द ने "मछली-देवता" के रूप में एक व्याख्या की है। --जो विष्णु की मत्स्य अवतार की परिकल्पना का जन्म - सूत्र है । और अश्शूर कला में " मर्मन (मत्स्य -मानव) के " प्रारूपों का सहयोग (जैसे 1840 के दशक में ऑस्टेन हेनरी लेर्ड द्वारा पाया गया "डैगन" राहत से है ) यद्यपि, भगवान का नाम "अनाज (सेरियस)" के लिए एक शब्द से अधिक सम्भवतः प्राप्त हुआ हैं , जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि वह प्रजनन और कृषि से जुड़ा हुआ था। ____________________________________ इस प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन "पिस्क-नु" के बराबर माना जाता है, और " जल कीे बड़ी मछली (-गोड) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप के पाए जाने पर खोजा जाएगा।
"और ऐसा प्रतीत होता है कि "शुरुआती अवतार" के लिए विष्णु के इस शुरुआती "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी मत्स्य अवतार के रूप में ग्रहण किया। सूर्य-देवता को स्वर्ग में (पिक्स-नु)के रूप में लागू किया है।। वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल रूप पीश या पीस अभी भी संस्कृत में पिसीर "(मछली) के रूप में जीवित है। --जो यूरोपीय भाषाओं में फिश (Fish) से साम्य रखता है । "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है ! ) इस संकेत को" बड़ी हुई मछली "(कुआ-गनु, अर्थात, खाद-गनू, बी, (6925) कहा जाता है! जिसमें उल्लेखनीय रूप से सुमेरियन व्याकरणिक शब्द बंदू जिसका अर्थ है "वृद्धि" जैसा कि संयुक्त संकेतों पर लागू होता है, इसका साम्य संस्कृत व्याकरणिक शब्दों के साथ समान रूप से होता है। विसारः, पुंल्लिंग रूप (विशेषेण सरतीति विसार। सृ गतौ “व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् ”३।३।१७। इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् ) मत्स्यः (मछली)। इति अमर कोश ॥ ____________________________________ विसार शब्द ऋग्वेद में आया है । जो मत्स्य का वाचक है ।👇 ऋग्वेदे ।१।७९।१। “हिरण्यकेशो रजसो विसारेऽर्हिर्धुनिर्वात इव ध्रजीमान् ॥ “रजस उदकस्य विसारे विसरणे मेघार्न्निर्गमने ।” इति तद्भाष्ये - वासुदेव कृष्ण का सर्वप्रथम उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद् में देवकी के पुत्र एवं आंगिरस के शिष्य के रूप में हुआ। मेगस्थनीज ने कृष्ण को हेराक्लीज "हरिकृष्ण"नाम से उल्लेख किया है। 👇 विदित होना चाहिए कि जीजस क्राइष्ट को ज्ञान देने वाले फरिश्ते को बाइबिल में एञ्जीलस(Angelus) के रूप में वर्णित किया है । और बाइबिल नाम तो लैटिन और यूनानी है । अञ्जील नाम यहूदियों का- यह एञ्जीलस Angelus वस्तुत: वैदिक आंगीरस् का रूपान्तरण है । “येऽस्याङ्गाराआसंस्तेऽङ्गिरसोऽभवन्निति” (ऐतरेय ब्राह्मण) ____________________________________ भागवत धर्म भक्ति मूलक धर्म है । जहाँ वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मणों के क्लिष्ट रूढ़िवादी कर्म काण्डों को कोई स्थान नहीं है। गुप्त काल में इस धर्म की प्रतिष्ठा हुई गुप्त वस्तुत मिश्र में आवासित कॉप्ट (Copt) जन-जाति से सम्बद्ध हैं --जो यहूदियों की एक सोने-चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है। और विदित होना चाहिए कि गुप्त "गुप्ता" वणिकों का व्यवसाय गत विशेषण है । --जो गोप मूलक है । गुप्त या गुप्ता वणिकों का व्यवसाय गत विशेषण है। ये वणिक वैदिक पणियों से सम्बद्ध है । वैदिक धातु पाठ में पण् स्तुतौ व्यवहारे च पणित विशेषण स्तुतम् 👇 समानार्थक: रूप में निम्न रूप में अनेक शब्द हैं । ईलित,शस्त,पणायित,पनायित,प्रणुत,पणित, पनित,गीर्ण,वर्णित,अभिष्टुत,ईडित,स्तुत ।3।1।109।2।6 सङ्गीर्णविदितसंश्रुतसमाहितोपश्रुतोपगतम्. ईलितशस्तपणायितपनायितप्रणुतपणितपनितानि -- जो फोनेशियन थे वही द्रविड़ो के रूप में भी प्रकट हुए पणि का बहुवचन रूप - पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है। ऋग्वेद में पणि नाम से ऐसे व्यक्ति अथवा समूह का बोध होता है, जो कि धनी है किन्तु देवताओं का यज्ञ नहीं करते तथा पुरोहितों को दक्षिणा नहीं देता। देव संस्कृति के विरोधी हैं। पणियों के इष्ट "वल " तथा "मृलीक" थे । --जो देवों के प्रतिद्वन्द्वीयों मे परिगणित हैं। अतएव यह वेदमार्गियों की घृणा का पात्र है। देवों को पणियों के ऊपर आक्रमण करने के लिए कहा गया है। ऋग्वेद में दस्यु, मृधवाक् एवं ग्रथिन के रूप में भी इनका वर्णन है। पणि कौन थे इसको लिए फॉनिशियन जन-जाति की इतिहास बोध अपेक्षित है । राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता। इस मत का समर्थन "जिमर" तथा "लुड्विग" ने भी किया है। लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है। ये अपने समुद्रीय पोत अरब, पश्चिमी एशिया, तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे। लेबनान तथा कार्थेज में इनके उपनिवेष स्थापित थे । दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है। कि --जो दास या दस्यु ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था में निम्न व हेय माने गये वही दास शब्द भागवत धर्म में भक्त का वाचक बन गया । भागवत धर्म के अनेक सन्तों ने अपने नाम के साथ दास शब्द लगा लिया ____________________________________
द्रविड़ अथवा पणि एक थे ! आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं। वास्तव में आर्य और अनार्य कभी भी जन-जाति गत विशेषण नहीं रहे हैं। अत: आर्य किसी जन को मानना बड़ी भूल ही है। हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है। जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था। फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए। कुछ भी सही परन्तु भाषा लिपि और भक्ति का प्रादुर्भाव इन्हीं पणियों के द्वारा हुआ । इसी लिए भारत में वणिक समाज द्वारा कृष्ण की अत्यधिक मान्यताऐं हैं । विशेषत: वार्ष्णेय समाज --जो बरसाने से सम्बद्ध वैश्य वर्ग है। अत: बारहसैनी नाम भी बरसाने से सम्बद्ध होने के कारण पड़ा। वर्तमान में कृष्ण के चरित्र-उपक्रमों का वर्णन करने वाले ग्रन्थ भागवतपुराण में 👇 ____________________________________ एकादश स्कन्ध में (5.38-40) कावेरी, ताम्रपर्णी, कृतमाला आदि द्रविड़ देशीय नदियों के जल पीनेवाले व्यक्तियों को भगवान् वासुदेव का अमलाशय भक्त बतलाया गया है। इसे विद्वान् लोग तमिल देश के आलवारों (वैष्णवभक्तों) का स्पष्ट संकेत मानते हैं।
भागवत में दक्षिण देश के वैष्णव तीर्थों, नदियों तथा पर्वतों के विशिष्ट संकेत होने से कतिपय विद्वान् तमिलदेश को भागवत और भक्ति के उदय का स्थान मानते हैं। --जो यथार्थ की मीमांसा है । यद्यपि भागवतपुराण में 'बहुत से प्रक्षिप्त व विरोधाभासी तथ्यों का समायोजन इसकी प्रमाणिकता व प्राचीनता को सन्दिग्ध करता है । काल के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है। इतना निश्चित है कि बोपदेव (13वीं शताब्दी का उत्तरार्ध, जिन्होंने भागवत से संबद्ध 'हरिलीलामृत', 'मुक्ताफल' तथा 'परमहंसप्रिया' का प्रणयन किया तथा जिनके आश्रयदाता, देवगिरि के यादव राजा थे ), महादेव (सन् 1260-71) तथा राजा रामचन्द्र (सन् 1271-1309) के करणाधिपति तथा मंत्री, प्रख्यात धर्मशास्त्री हेमाद्रि ने अपने 'चतुर्वर्ग चिन्तामणि' में भागवत के अनेक वचन उधृत किए हैं।👇 ____________________________________
शंकराचार्य के दादा गुरु गौड़पादाचार्य ने अपने 'पञ्चीकरणव्याख्या' ग्रन्थ में 'जगृहे पौरुषं रूपम्' (भागवतपुराण 1.3.1) तथा 'उत्तरगीता टीका' में 'श्रेय: स्रुतिं भक्ति मुदस्य ते विभो' (भागवतपुराण 10.14.4) भागवत पुराण के दो श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत की रचना सप्तम शती से अर्वाचीन (बाद की) नहीं मानी जा सकती। 👇
महर्षि दयान्द सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया है, पर अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी का ग्रन्थ मानते हैं। इसे किसी दक्षिणात्य सन्त विद्वान की रचना माना जाता है। भागवत धर्म भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था और यह विदेशी यूनानियों के द्वारा समादृत होता था। पातञ्जल महाभाष्य से प्राचीनतर महर्षि पाणिनि के सूत्रों की समीक्षा भागवत धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए नि:संदिग्ध प्रमाण है। भागवत धर्म के संस्थापक आभीर जन-जाति के लोग हैं । जिन्हें दक्षिणी भारत में द्रविड़ो के रूप में अय्यर अथवा आयर नाम से जाना जाता है । अय्यर उपनाम का उद्भव तमिल के अय्या शब्द से हुआ है, और यह शब्द संस्कृत के आर्य से निकला है। आर्य का अर्थ होता है :- वीर अथवा यौद्धा परवर्ती अर्थ श्रेष्ठता को ध्वनित करने वाला हुआ । स्वयं आर्य शब्द संस्कृत भाषा के अतिरिक्त हिब्रू बाइबिल में भी अबर और बर से सम्बद्ध है।👇 आर्य और वीर शब्दों का विकास परस्पर सम्मूलक है । और पश्चिमीय एशिया तथा यूरोप की समस्त भाषाओं में ये दौनों शब्द प्राप्त हैं । परन्तु आर्य शब्द वीर शब्द का ही सम्प्रसारित रूप है । अत: शब्द ही प्रारम्भिक है । आभीर शब्द हिब्रू बाइबिल में अबीर (ईश्वरीय शक्ति) के रूप में है 👇
बाइबिल में अबीर नाम की उत्पत्ति मूलक अवधारणा । अबीर नाम जीवित अथवा अस्तित्वमान् ईश्वर के खिताब में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है (किसी कारण से सभी भगवान के नाम आमतौर पर अनुवादित होते हैं । और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होते हैं। और कुछ अपनी पसन्द का अनुवाद आमतौर पर ताकतवर होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। अवर (our )नाम बाइबिल में छह बार होता है लेकिन कभी अकेला नहीं होता; पांच बार यह जैकब नाम और एक बार इज़राइल के साथ मिलकर है। ____________________________________ यशायाह 1:24 में हमें तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम मिलते हैं क्योंकि यशायाह ने रिपोर्ट की: "इसलिए 1-अदन, 2-(यह्व )YHWH , 3-सबाथ , 4-अबीर इज़राइल घोषित करता है । यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण कॉर्ड होता है: सभी माँश (आदमी )यह जान लेंगे कि मैं, हे प्रभु, आपका उद्धारकर्ता और आपका उद्धारक, अबीर याकूब हूं, "और जैसा यशायाह 60:16 में समान है। पूरा नाम अबीर याकूब स्वयं पहली बार याकूब द्वारा बोला जाता था। अपने जीवन के अन्त में, याकूब ने अपने बेटों को आशीर्वाद दिया और जब यूसुफ की बारी थी तो उसने अबीर याकूब (उत्पत्ति खण्ड बाइबिल अध्याय 49:24) के हाथों से आशीर्वादों से बात की। कई सालों बाद, स्तोत्रवादियों ने राजा दाऊद को याद किया, जिन्होंने अबीर जैकब द्वारा शपथ ली थी कि वह तब तक सोएगा जब तक कि उसे (YHWH )के लिए जगह नहीं मिली; अबीर याकूब के लिए एक निवास स्थान (भजन 132: 2-5)। ____________________________________ अबीर नाम की भाषिक व्युपत्ति अबीर नाम हिब्रू धातु बर ('बर ) से आता है, जिसका मोटे तौर पर अर्थ होता है मजबूत सन्दर्भ:- देखें- बाइबिल हिब्रू शब्दकोश:-אבר रूट אבר ('br) एक उल्लेखनीय जड़ है ! जो सभी सेमिटिक भाषा स्पेक्ट्रम पर होती है। मूल रूप से बाइबल में क्रिया के रूप में नहीं होता है लेकिन अश्शूर (असीरियन भाषा )में इसका अर्थ मजबूत या दृढ़ होना है। हिब्रू में स्पष्ट रूप से कई शब्द हैं जिन्हें ताकत के साथ प्रयोग करना हुआ है, लेकिन यह एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति को दर्शाता है। ___________________________________
साध्य पक्ष :- कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है । ---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze) कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये । द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है । एक साम्य दौनों का कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।। जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है | (6) यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। 7।। किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।। उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18।
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आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं । जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे । जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean ____________________________________ The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है ,
-------------------------------------------- Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. __________________________________ कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis " Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say , which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 आत्मा के बारे में द्रुडों का दर्शन)👇 अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रविडों को दार्शनिकों के रूप में संदर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म या (मेटाम्प्सीकोसिस ) "पायथागॉरियन" की अमरता के अपने सिद्धान्त को कहा: "गौल्स (कोल)के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं । ____________________________________ कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।" सीज़र टिप्पणी: "उनके सिद्धांत का मुख्य बिन्दु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" अर्थात् नवीन शरीर धारण करती है ।( मेटेमस्पर्शिसिस)। सीज़र ने लिखा: अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के संबंध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशी होने में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है, जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है । जैसे एक मकान से दूसर मकान में; केवल इस तरह के सिद्धान्त द्वारा वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों की मृत्यु को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित किया जा सकता है । इस मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यान और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं। - जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, VI, 13 इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic) थे । ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे । जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है । परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी ईश्वर को एक मानते थे । तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है । और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है । सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत .
वस--निवासे आच्छादने वा आधारकर्मादौ घञ् । १ गृहे २ वस्त्रे ३ अवस्थाने हेमचन्द्र कोश। ____________________________________ भारतीय पुराणों की कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन् हुआ था । परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना है सम्भवतः इस समय कृष्ण का वर्णन भोज पत्रों आदि पर हुआ हो । परन्तु कृष्ण का युद्ध आर्यों के नेता इन्द्र से हुआ ऐसा ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९०वें सूक्त का वर्णन कहता है । और महाभारत में कृष्ण के दार्शिनिक तथा राजनैतिक रूप का वर्णन है। महाभारत का लेखन बुद्ध के बाद में हुआ है । क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है। ____________________________________ अब कृष्ण और 'द्रविड दर्शन का एक अद्भुत साम्य ____________________________________ एक साम्य दौनों का तुलनात्मक रूप से -- आत्मा शाश्वत तत्व है ; इस बात को ड्रयूड (Druids) अथवा द्रविड तत्व दर्शी भी कहते हैं ! और कृष्ण भी .. श्रीमद्भगवत् गीता में कठोपोनिषद भी कृष्ण विचार धारा से अनुप्रेरित कुछ साम्य के साथ यही उद्घोष करता है ।👇
"न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।(श्रीमद्भागवत् गीता तथा कठोपनिषद। वास्तव में सृष्टि का १/४ भाग ही दृश्यमान् ३/४ पौन भाग तो अदृश्य है । परिवर्तन शरीर और मन के स्तर पर निरन्तर होते रहते हैं, परन्तु आत्मा सर्व -व्यापक व अपरिवर्तनीय है । ऐसा कृष्ण और द्रविडों की मान्यताओं का दिग्दर्शन है। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करती है ।
"न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4। मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है ,और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है (4)
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है | प्राणी की श्वाँसों का चलना हृदय का धड़कना भी एक सतत् कर्मों का रूप ही तो है।
वस्तुत कर्म की ऐसा सुन्दर व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ ही है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)👇
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7 किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |7 नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।8।।उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है; और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |(8) आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं । जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)कहते थे। वही यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे ____________________________________ यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ; कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की रही है । आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं। जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)कहते थे। वही यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ; कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की कुछ एेसी ही मान्यताऐं हैं । जिसके कुछ उद्धरण जूलियस सीज़र के ग्रन्थ से निम्न उद्धृत हैं।👇 Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean " The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है , Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ____________________________________ Philosophy of Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death.. अलेक्जेंडर कुरनेलियस पॉलिहाइस्टर ने ड्रुइड्स (द्रविडों)को दार्शनिकों के रूप में सन्दर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म की शाश्वतता के सिद्धान्तों को "पायथागोरियन" कहा। यूनानी विद्वान् पाइथागोरस ने भी ये सिद्धान्त द्रविड (ड्रयूड- Druids) पुरोहितों से प्राप्त किये। पाथ्योगोरियन सिद्धान्त लक्ष्य के बीच में प्रचलित होकर यह सिखा रहा है कि पुरुषों की आत्माएं अमर हैं और एक निश्चित संख्या के बाद वे एक और शरीर में प्रवेश करेंगे " इसी सन्दर्भों को उद्धृत करते हुए ज्युलियस सीज़र आगे लिखता है। कि वास्तविक रूप में मृत्यु के बाद भी आत्माऐं मरती नहीं है । जूलियस सीज़र, डी बेल्लो ग्लॉलिक, Vl, 13 .. अब देखिए कृष्ण का यह उपदेश---👇 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करता है । संस्कृत भाषा में वास शब्द का अर्थ घर से भी और वस्त्रों से भी । यहाँ भी हम दौनों अर्थों में इसे सन्दर्भित कर सकते हैं। धर्म शब्द का प्रवेश हुआ मूल भारोपीय संस्कृतियों से मेसोपोटेमिया की पुरालिपियों में (तरेम) तथा दरिम के रूप में । और जिसका भी श्रोत कैल्टिक संस्कृति में सर्वमान्य द्रविड़ो के द्रुमा से है । जो संस्कृत भाषा में द्रुद्रुम: के रूप में वृक्ष का वाचक है वन्य संस्कृतियों के परिपोषक ये -द्रविड ही थे । जिन्होंने दुनियाँ को सर्वप्रथम धर्म की जीवन में उपादेयताऐं प्रतिपादित की । दुनियाँ को सर्वप्रथम जीवन और जगत् का ज्ञान देने वाले ये लोग थे वृक्ष स्थिर रहते हुए किस प्रकार सर्दी ,गर्मी और बरसात को सहन करता है । उसकी यह सहनशीलता उसकी तितिक्षा एक आदर्श है । धर्म का चोला रहने वालों के लिए । वृक्ष के इसी स्वभाव जन्य गुण से धर्म का विकास हुआ जिसको मूल में संयम का भाव सर्वोपरि था । वैदिक भाषाओं में धृ, दृ तृ परस्पर विकसित धातु रूप हैं धाञ् धारणपोषणयो: धृड्./धृञ् संयमे च १।६४१ उ० धरति धरते / धारयति धारयते । धरति लोकान् ध्रियते पुण्यात्मभिरिति वा । (धृ मन् )“अर्त्तिस्तुहुस्रिति ।” उणां १। १३९ । तत्पर्य्यायः ।१ पुण्यम् २ श्रेयः ३ सुकृतम् ४ वृषः ५ संयम इत्यमरः कोश। १ । ४ । २४ ॥ ६-न्यायः । ७-स्वभावः । ८-आचारः । ९- उपमा । १०क्रतुः । (यथा महाभारते । १४ । ८८ । २१ । “कृत्वा प्रवर्ग्यं धर्म्माख्यं यथावत् द्विजसत्तमाः । चक्रुस्ते विधिवद्राजंस्तथैवाभिषवं द्बिजाः) ११-अहिंसा । उपनिषत् । इति मेदिनी कोश। (यथा योगसार वेदान्त ग्रन्थ में धर्म का अर्थ👇 “प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोऽथ धारणा । स्मरणञ्चैव योगेऽस्मिन् पञ्च धर्म्माः प्रकीर्त्तिताः ।। और ओ३म् शब्द भी इन्हीं द्रविड़ो की अवधारणा थी जिसे भारतीय संस्कृति में संस्कृति के आधार स्तम्भ रूप में ग्रहण किया गया । द्रविड़ो की विरासत को रोमन तथा ग्रीस संस्कृतियों ने भी समानान्तरण ग्रहण किया । रोमन संस्कृति में पुरानी लैटिन में धर्मण /धर्म Latin (terminus) के रूप में है जिसका बहुवचन रूप termini) है । यह धर्म का ही प्रतिरूप है । यूरोपीय भाषाओं में टर्म "Term" शब्द के इतने अर्थ प्रचलित हैं ।👇 -1अवधि -2पद -3समय -4शर्त -5सत्र -6पारिभाषिक शब्द -7संबंध -8पारिभाषिक पद -9ढांचा -10सीमाएं -11बेला -12मेहनताना -13फ़ीस -14मित्रता अर्थ और भी हो सकते हैं । जो मूल ,आधार अथवा मर्यादा का भाव -बोधक है । यद्यपि संस्कृत भाषा में धृड्.(धृ ) धातु अवस्थाने - अर्थात् स्थिर करने में - तथा तॄ :- तारयति( तरति) आदि क्रिया-पद धर्म की कहीं न कहीं व्याख्या ही करते हैं ।👇 ________________________________________________ . आध्यात्मिक वैचारिकों ने धर्म का व्याख्या संसार रूपी दरिया में पतवार या तैरने की क्रिया के रूप में स्वीकार किया । क्यों कि स्वाभाविता के वेग में मानवीय प्रवृत्ततियाँ जल हैं । अपराध के बुलबले तो उठते ही हैं । तैरने के मानिंद है धर्म और स्वाभाविकता का दमन करना ही तो संयम है । और संयम करना तो अल्पज्ञानीयों की सामर्थ्य नहीं । सुमेरियन माइथॉलॉजी में भी धर्म के लिए तरमा शब्द है जिसका अर्थ है । दृढ़ता एकाग्रता स्थिरता आदि शील धर्म का वाचक इसलिए है कि उसमे जमाव या संयमन का भाव है । हिम जिस प्रकार स्थिरता अथवा एकाग्रता को अभिव्यक्त करता है । हिम ये यम और यम से यह्व अथवा यहोवा का सैमेटिक विकास हुआ । Hittite tarma- शीलक tarmaizzi "he limits; 'वह मर्यादित होता है "👇 ग्रीक भाषा में terma "boundary, end-point, limit," termon "border;" Gothic þairh, धैर्ह Old English þurh "through;" धरॉ Old English þyrel "hole;" Old Norse þrömr ध्रॉम "edge-धार chip -टुकड़ा splinter-किरच. "The Hittite noun and the usage in Latin suggest that the PIE word denoted a concrete object which came to refer to a boundary-stone."( आधार -शिला ) In ancient Rome, Terminus was the name of the deity who presided over boundaries and landmarks, focus of the important Roman festival of Terminalia ... singular of termer (“thermae, Roman baths”) (a facility for bathing in ancient Rome) रोमन धर्म में, टर्मिनस वह देवता था। जिसने सीमाओं की रक्षा की है । इसका प्रतिष्ठापन प्रत्येक सीमा पत्थर को पवित्र करने के लिए किया गया था। प्रारम्भिक अर्थों में धर्म शब्द का प्रयोग क्षेत्रीय सीमाओं के निर्धारित करने वाली दैवीय सत्ता के लिये किया गया । रोमन संस्कृति में धर्म या टर्म 'वह शिला है --जो सदैव एक स्थान पर स्थिर रहती है । धर्म को सदीयों से न्याय का प्रतिनिधि माना जाता रहा । सम्भवत इसकी प्रेरणा रोमनों ने ईसाईयों से ली । हजरत मूसा के दश-आदेशों की शिला से .. रोमन ओविद रोम से लॉरेंटिना के साथ छठे मील के पत्थर पर टर्मिनलिया के दिन एक भेड़ के बलिदान को संदर्भित करता है। सम्भावना है कि यह लॉरेंटम में प्रारम्भिक रोमनों और उनके पड़ोसियों के बीच सीमा को चिह्नित करने के लिए यह शब्द प्रयुक्त करने को सोचा गया था। और रेमुलस के समय दैवीय प्रतिष्ठान से विभूषित कर दिया गया इसके अलावा, टर्मिनस का एक पत्थर या वेदी रोम के कैपिटोलिन हिल पर बृहस्पति ऑप्टिमस मैक्सिमस के मंदिर में स्थित था। इस धारणा के कारण कि इस पत्थर को आकाश के संपर्क में आना था, इसके ठीक ऊपर की छत में एक छोटा सा छेद था। इस अवसर पर जुपिटर के साथ टर्मिनस के संबंध में उस देवता के एक पहलू के रूप में टर्मिनस के बारे में विस्तार किया गया; हैलिकार्नासस के डायोनिसियस का तात्पर्य "बृहस्पति टर्मिनलिस" से है, और एक शिलालेख में एक देवता का नाम "ज्यूपिटर टेर" है । यद्यपि रोमन मिथकों में ये परिकल्पनाऐं धर्म को लेकर अनेक प्रकार से की गयीं । प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस की पूजा सबीन मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के 753-17 ई०पू० के समकक्ष परम्परागत शासनकाल के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए। या रोमुलस के उत्तराधिकारी नुमा पोम्पिलियस के लिए थी। जिन लेखकों ने नुमा को श्रेय दिया, उन्होंने अपनी प्रेरणा को संपत्ति पर हिंसक विवादों की रोकथाम के रूप में समझाया। प्लूटार्क आगे कहते हैं कि शांति के गारंटर के रूप में टर्मिनस के चरित्र को ध्यान में रखते हुए, उनकी प्रारंभिक पूजा में रक्त बलिदान नहीं हुआ था। 19 वीं शताब्दी के अंत और 20 वीं सदी के अधिकांश समय के दौरान प्रमुख विद्वानों के अनुसार, रोमन धर्म मूल रूप से एनिमिस्टिक था, जो विशिष्ट वस्तुओं या गतिविधियों से जुड़ी आत्माओं की ओर निर्देशित था, जिन्हें बाद में स्वतंत्र व्यक्तिगत अस्तित्व वाले देवताओं के रूप में माना जाता था। टर्मिनस, पौराणिक कथाओं की कमी और एक भौतिक वस्तु के साथ उनके घनिष्ठ संबंध के साथ, एक ऐसे देवता का स्पष्ट उदाहरण प्रतीत होता है, जो इस तरह के मंच से बहुत कम विकसित हुए थे। ट र्मिनस का यह दृश्य कुछ हालिया अनुयायियों को बनाए रखता है। लेकिन अन्य विद्वानों ने इण्डो यूरोपीयन समानता से यह तर्क दिया है कि रोमन धर्म के व्यक्तिगत देवता शहर की नींव से पहले रहे होंगे। जॉर्जेस डुमेज़िल ने वैदिक मित्र, अर्यमन् और भग के रूप में क्रमशः रोमन देवताओं की तुलना करते हुए बृहस्पति, जुवेंटस और टर्मिनस को एक प्रोटो-इंडो-यूरोपीय ट्रायड का रोमन रूप माना। इस दृष्टि से संप्रभु देवता (बृहस्पति / मित्र) दो नाबालिग देवताओं से जुड़ा था, एक का सम्बन्ध समाज में पुरुषों (जुवेंटस / आर्यमन) से था और दूसरा उनके सामान (टर्मिनेट / भगा) के उचित विभाजन से था। प्राचीन रोम में, टर्मिनस (टर्मिनल) और स्थलों की अध्यक्षता करने वाले देवता का नाम था, जो टर्मिनल के महत्वपूर्ण रोमन त्योहार का ध्यान केंद्रित करता है। ________________________________________________ धर्म वस्तुत: जीवन जीने की उद्देश्य पूर्ण केवल 'वह पद्धति है । जो मानवता का चिर-शाश्वत आश्रय अथवा -आवास ! इस धर्म की आधार-शिलाऐं स्थित होती हैं । आध्यात्मिक के धरातलों पर ! जिसमें नैतिकता की ईंटैं संयम की सीमेण्ट और सदाचरण की बालू भी है । इन सबसे मिलकर बनती है । कर्तव्यों की एक सुदृढ़ (भित्ति) सत्य ही इस धर्म के आवास की छत है । समग्र मानवता का चिर-शाश्वत बसेरा है धर्म । दस धर्मादेश या दस फ़रमान जिनको अंग्रेज़ी अनुवादकों ने Ten Commandments, भी कहा इस्लाम धर्म,यहूदी धर्म और ईसाई धर्म के वह दस नियम हैं । वस्तुत यह यहूदियों के लिए जीवन- की पवित्र पद्धति के निमित्त ये दश व्रत या आदेश थे । जिस पर मजहब की नींब रखी गयी । मजहब जहोवा से सम्बद्ध है । परन्तु विद्वानों ने मदहव या "धाव" रास्ते से सम्बद्ध कर दिया । संस्कृत में धाव: रास्ता का वाचक है । यहोवा द्वारा प्रदत्त इन दश लक्षणों के बारे में उन धार्मिक परम्पराओं में यह माना जाता है कि वे धार्मिक नेता मूसा को ईश्वर ने स्वयं दिए थे। इन धर्मों के अनुयायिओं की मान्यता है; कि यह मूसा को सीनाई पर्वत के ऊपर दिए गए थे; जलती हुई झाड़ी में यहोवा ने ! पश्चिमी संस्कृति में अक्सर इन दस धर्मादेशों का ज़िक्र किया जाता है या इनके सन्दर्भ में बात की जाती है। कुछ परिवर्तित रूपों में ये नैतिक मूल्यों के आधार-स्तम्भ भी हैं 👇 हजरत मूसा के दस धर्मादेश---- ईसाई धर्मपुस्तक बाइबिल और इस्लाम की धर्मपुस्तक कुरान के अनुसार यह दस आदेश इस प्रकार थे👇 __________________________________________ 1. Thou shalt have no other Gods before me 2. Thou shalt not make unto thee any graven image 3. Thou shalt not take the name of the Lord thy God in vain 4. Remember the Sabbath day, to keep it holy 5. Honor thy father and thy mother 6. Thou shalt not kill 7. Thou shalt not commit adultery 8. Thou shalt not steal 9. Thou shalt not bear false witness 10. Thou shalt not covet __________________________________________ १. तुम मेरे अलावा किसी अन्य देवता को नहीं मानोगे २. तुम मेरी किसी तस्वीर या मूर्ती को नहीं पूजोगे ३. तुम अपने ईश्वर का नाम अकारण नहीं लोगे ४. सैबथ ( शनिवार) का दिन याद रखना, उसे पवित्र रखना ५. अपने माता और पिता का आदर करो ६. तुम हत्या नहीं करोगे ७. तुम किसी से नाजायज़ शारीरिक सम्बन्ध नहीं रखोगे ८. तुम चोरी नहीं करोगे ९. तुम झूठी गवाही नहीं दोगे १०. तुम दूसरे की चीज़ें ईर्ष्या से नहीं देखोगे टिपण्णी १ - हफ़्ते के सातवे दिन को सैबथ कहा जाता था जो यहूदी मान्यता में आधुनिक सप्ताह का शनिवार का दिन है। धर्म की कुछ ऐसी ही मान्यताऐं भारतीय ग्रन्थों में हैं । यम को विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में धर्म का प्रतिरूप माना गया है । यम कैनानायटी संस्कृतियों में एल ( El )या इलु का पुत्र है । जो सैमेटिक संस्कृतियों में अल-इलाह या इलॉही के रूप में विद्यमान है । यहूदियों की प्राचीनत्त लेखों में यम का भी वर्णन है परन ्तु बाद में यम से यहोवा का विकास हुआ --जो धर्म का मूल है । असुरों या असीरियन जन-जाति की भाषाओं में अरि: शब्द अलि अथवा इलु हो गया है । परन्तु इसका सर्व मान्य रूप एलॉह (elaoh) तथा एल (el) ही हो गया है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है । ____________________________________ "यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि:। तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:।९। ____________________________________ अर्थात्-- जो अरि इस सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है , जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है , वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है । ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१) देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है । ____________________________________विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम । जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।। ऋग्वेद--१०/२८/१ ____________________________________ ऋषि पत्नी कहती है ! कि सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,) परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम )यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ) प्रस्तुत सूक्त में अरि: देव वाचक है । देव संस्कृति के उपासकआर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के पूर्वजों के रूप में ड्रयूड (Druids )अथवा द्रविड संस्कृति से सम्बद्धता है । जिन्हें हिब्रू बाइबिल में द्रुज़ कैल्डीयन आदि भी कहा है ये असीरियन लोगों से ही सम्बद्ध है। ____________________________________ हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम को मानने वाली धार्मिक परम्पराओं में मान्यता है ,कि कुरान से पहले भी अल्लाह की तीन और किताबें थीं , जिनके नाम तौरेत , जबूर और इञ्जील हैं । इस्लामी मान्यता के अनुसार अल्लाह ने जैसे मुहम्मद साहब पर कुरान नाज़िल की थी ,उसी तरह हजरत मूसा को तौरेत , दाऊद को जबूर और ईसा को इञ्जील नाज़िल की थी . यहूदी सिर्फ तौरेत और जबूर को और ईसाई इन तीनों में आस्था रखते हैं ,क्योंकि स्वयं कुरान में कहा है , ------------------------------------------------------------1-कुरान और तौरेत का अल्लाह एक है:
"कहो हम ईमान लाये उस चीज पर जो ,जो हम पर भी उतारी गयी है , और तुम पर भी उतारी गयी है , और हमारा इलाह और तुम्हारा इलाह एक ही है . हम उसी के मुस्लिम हैं " (सूरा -अल अनकबूत 29:46) ""We believe in that which has been revealed to us and revealed to you. And our God and your God is one; and we are Muslims [in submission] to Him."(Sura -al ankabut 29;46 )"وَإِلَـٰهُنَا وَإِلَـٰهُكُمْ وَاحِدٌ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ " इलाहुना व् इलाहकुम वाहिद , व् नहनु लहु मुस्लिमून " ____________________________________ यही नहीं कुरान के अलावा अल्लाह की किताबों में तौरेत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कुरान में तौरेत शब्द 18 बार और उसके रसूल मूसा का नाम 136 बार आया है ! , यही नहीं मुहम्मद साहब भी तौरेत और उसके लाने वाले मूसा पर ईमान रखते थे , जैसा की इस हदीस में कहा है , "अब्दुल्लाह इब्न उमर ने कहा कि एक बार यहूदियों ने रसूल को अपने मदरसे में बुलाया और ,अबुल कासिम नामक व्यक्ति का फैसला करने को कहा , जिसने एक औरत के साथ व्यभिचार किया था . लोगों ने रसूल को बैठने के लिए एक गद्दी दी , लेकिन रसूल ने उस पर तौरेत रख दी । और कहा मैं तुझ पर और उस पर ईमान रखता हूँ और जिस पर तू नाजिल की गयी है , फिर रसूल ने कहा तुम लोग वाही करो जो तौरेत में लिखाहै . यानी व्यभिचारि को पत्थर मार कर मौत की सजा , (महम्मद साहब ने अरबी में कहा "आमन्तु बिक व् मन अंजलक - آمَنْتُ بِكِ وَبِمَنْ أَنْزَلَكِ " . " _____________________________________ I believed in thee and in Him Who revealed thee. सुन्नन अबी दाऊद -किताब 39 हदीस 4434 इन कुरान और हदीस के हवालों से सिद्ध होता है कि यहूदियों और मुसलमानों का अल्लाह एक ही है और तौरेत भी कुरान की तरह प्रामाणिक है . चूँकि लेख अल्लाह और उसकी पत्नी के बारे में है इसलिए हमें यहूदी धर्म से काफी पहले के धर्म और उनकी संस्कृति के बारे में जानना भी जरूरी है . लगे , और यहोवा यहूदियों के ईश्वर की तरह यरूशलेम में पूजा जाने लगा । यहोवा यह्व अथवा यम का रूपान्तरण है । भारतीय धरा पर महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित यम के पाँच रूप हैं 👇 1-अहिंसा 2-सत्य 3-अस्तेय 4-ब्रह्मचर्य 5-अपरिग्रह तो कुछ उपनिषदों में जैसे शाण्डिल्य उपनिषद में स्वात्माराम द्वारा वर्णित दश यम हैं 1-अहिंसा 2-सत्य 3-अस्तेय 4-ब्रह्मचर्य 5-क्षमा 6-धृति 7-दया 8-आर्जव 9-मितहार 10-शौच मनु स्मृति कार सुमित भार्गव ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं: ____________________________________ धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनु:स्मृति ६.९२) अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना ) याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं: अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।। (याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२) (अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति) श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं : सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:। अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।। संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:। नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।। अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:। तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।। श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:। सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।। नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:। त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ ) महाभारत में महात्मा विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं - महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग - इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ। उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है। ब्राह्मण पद्म-पुराण में _________________________________ ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते। दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।। अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते। एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।। (अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।) धर्मसर्वस्वम् नामक ग्रन्थ में जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल' या 'एथिक ऑफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब कुछ) कहा गया है: श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। (पद्म-पुराण, श्रृष्टि -खण्ड 19/357-358) (अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।) परन्तु क्या धर्म आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अपने इन सब प्रतिमानों पर मूल्यांकित है ? क्या इन मानते के अनुकूल है ? सायद नहीं परन्तु जहाँ सदाचरण न हो केवल भेद भाव और दुराचरण हो तब ! धर्म के ठेकेदार धर्म को केवल व्यभिचार संगत बनाकर भावुक और अल्पज्ञानीयों के सर्वांग शोषण का माध्यम बनाते हैं । आज धर्म के नाम पर दुश्मनी , हत्या, वैमनस्य ,भदभाव ऊँच-नीच अपने चरम पर है । सत्य तो यह है कि सदीयों से केवल कुछ विशेष वर्गों के लोगों ने समाज में अपने आपको अपने निज स्वार्थों से प्रेरित होकर धर्म को अपने स्वार्थों की ढा़ल बनाया । कुछ निश्चल जनजातियों के प्रति तथा कथित कुछ ब्राह्मणों के द्वारा द्वेष भाव का कपट पूर्ण नीति निर्वहन किया गया जाता रहा ।
पूजा - स्थलों को तब अपने धनोपार्जन का आरक्षित पीढ़ी दर पीढ़ी प्रतिष्ठान बनाया जाने लगा । कुछ भोली -भाली जन-जातियों को शूद्र वर्ण में प्रतिष्ठित कर उनके लिए शिक्षा और संस्कारों के द्वार भी पूर्ण रूप से बन्द कर दिए गये . . जैसा कि परिष्कार - दर्पण में वेणिमाधव शुक्ल लिखते हैं ।👇 ____________________________________ अत्रेदमुसन्धेयम्, निषादस्य संकरजातिविशेषस्य शूद्रान्तर्गततया "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्" इत्यनेन निषिद्धत्त्वाद् वेदसामान्यानधिकारेsपि "निषादस्थपतिं याजयेत्" इति विशेषश्रुतियाजनान्यथानुपपत्त्यैव यागमात्रोपयुक्तमध्ययनं निषादस्य कल्पयते । " अर्थात् स्त्री और शूद्र ज्ञान प्राप्त न करें यह कह कर उनके लिए वैदिक विधान का परिधान पहना कर इसे ईश्वरीय विधान भी सिद्ध किया गया । जबकि ईश्वरीय अनुभूति से ये लोग कोशों दूर थे । ये कर्मकाण्ड परक भूमिका का निर्वहन करते थे स्वर्ग की प्राप्ति के लिए ताकि सुन्दर सुन्दर अप्सराओं का काम उपभोग कर सकें यही रूढ़िवादी हिन्दुस्तान के पतन की इबारत अपने काल्पनिक असामाजिक व जाति-व्यवस्था के पोषक ग्रन्थों में लिखते हैं । क्यों कि वह तथाकथित समाज के स्वमभू अधिपति जानते थे ; कि शिक्षा अथवा ज्ञान के द्वारा संस्कारों से युक्त होकर ये लोग अपना उत्थान कर सकते हैं ! अतः इनके शिक्षा के द्वार ही बन्द कर दो । क्यों कि शिक्षा से वञ्चित व्यक्ति सदीयों तक गुलाम रहता है । और जब लोग धर्म से लाभान्वित होगये तो हमारी गुलामी कौन करेगा। इसीलिए हम्हें शिक्षित और जागरूक होकर देश की उन्नति और अपनी सद्गति के विषय में विचार करना चाहिए .. ..शिक्षा हमारी प्रवृत्तिगत स्वाभाविकतओं का संयम पूर्वक दमन करती है; अतः दमन संयम है और संयम यम अथवा धर्म है । यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता एक बहुतायत रूप में आध्यात्मिक सिद्धान्तों का दिग्दर्शन करने वाला ग्रन्थ है । परन्तु फिर भी उसकी प्रमाणिकता सन्दिग्ध है । इसके लिए यह श्लोक एक नमूना है ।👇 ____________________________________
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥ व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है। आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है। जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है। कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है। इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है। सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है। ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो। अब उपर्युक्त श्लोक पूर्ण-रूपेण वर्ण-व्यवस्था का अनुमोदन दृढ़ता पूर्वक करता है ।
--जो भागवत धर्म के सिद्धान्तों के पूर्णत: विपरीत है । क्यों कि यदु हम धर्म शब्द का अर्थ स्वभाव( प्रवृत्ति-मूलक) करते हैं तो इसका अर्थ अन्वय असंग हो जाता है । क्यों कि स्वभाव का कुल धर्म से क्या तात्पर्य ? क्यों कि एक ही कुल परिवार में भिन्न भिन्न स्वभाव के व्यक्ति पाए जाते हैं । और स्वभाव वस्तुत व्यक्ति के पूर्व जन्मों की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध होते हैं । और प्रवृत्ततियाँ यौनि अथवा प्राणी जाति मूलक जैसे सभी कुत्ते पश्चपाद उठाकर किसी वस्तु पर मित्र विसर्जित करते हैं । कौए काली वस्तु से प्रतिक्रिया करते हैं ये सभी प्रवृत्तयाँ प्राणीयों की श्रेणी या जाती गत होती हैं । धर्म शब्द का प्रयोग प्राचीनत्तम सन्दर्भों में धर्म पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग रूपों में भी हुआ है । जैसे गुप्त काल में रचित अमरकोश में धर्म के अर्थ हैं । 👇
धर्मःसमानार्थक:धर्म,पुण्य,श्रेयस्,सुकृत,वृष,उपनिषद्,उष्ण 1।4।24।1।1 स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः। मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः॥ धर्म पुं। आचारः समानार्थक:धर्म,समय 3।3।139।1।1 वस्तुत धर्म का अर्थ घर्म के संक्रमण से उष्ण या गर्म भी हुआ । समय भी धर्म का एक अर्थ है । न्याय तथा मर्यादा भी धर्म के अर्थ हैं। अमरकोश में धर्म पुंल्लिङ्ग रूप में कर्मकाण्डीय नियमों की वाचक है । भा.श्रौ.सू. 7.6.7 (ये उपभृतो धर्मापृषदाज्यधान्यामपि क्रियेरन्); रोमन संस्कृतियों में मर्यादा या क्षेत्रीय सीमाओं के अधिष्ठात्री देवता को तर्म "Term" तथा तरमिनस् " Terminus" कहा जाता है । तर्मन् नपुंसकलिङ्ग रूप है । यूपाग्रम् ( यज्ञ को प्राय इण्डो-यूरोपीय संस्कृतियों में धर्म मूलक अनुष्ठान माना गया । समानार्थक:यूपाग्र,तर्मन् 2।7।19।1।2 यूपाग्रं तर्म निर्मन्थ्यदारुणि त्वरणिर्द्वयोः। दक्षिणाग्निर्गार्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः॥ परन्तु परवर्ती साहित्य में धर्म का अर्थ स्वभाव ही निर्धारित किया गया । अर्थात् 👇 किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । प्रकृति । स्वभाव,। जैसे, आँख का धर्म देखना, सर्प का धर्म काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना । विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में ही आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है कि यज्ञ परक आचरण धर्म है। -- यज्ञ को प्राय इण्डो-यूरोपीय संस्कृतियों में धर्म मूलक अनुष्ठान माना गया । जो विशेषत:—मीमांसा के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान ही धर्म है । जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है । संहिता से लेकर सूत्र ग्रन्थों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । कर्मकाण्ड का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।
यद्यपि श्रुतियों में "'न हिस्यात्सर्वभूतानि'" आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड की ओर ही था । वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो । वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिये करना चाहिए । किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार ही भारतीय स्मृतियों में वर्णित धर्म है । 👇 जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म वैश्य का धर्म आदि विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिय़े पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना आदि क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद्र के लिये तीनों वणों की केवल नि:शुल्क सेवा करना ही धर्म है । जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्वारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद्धर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार केवल शूद्र को छोड़कर किसी भी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है, जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय— वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर ब्राह्मण को छोड़कर दूसरे वर्ग के लोग अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का उपक्रम नहीं कर सकते यह आपत्काल में भी निषेध है । यहाँं ब्राह्मण स्वत्रन्त्र है । कालान्तरण में धर्म को परिभाषित करने में कुछ उदात्त बिन्दुओं को दृष्टि गत रखा गया । "वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो । वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शान्ति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले । कल्याणकारी कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म । परन्तु रूढ़िवादी अन्ध-भक्तों ने विशेष—स्मृतिकारौ के द्वारा वर्ण आश्रम, गुण और निमित्त धर्म को ही धर्म माना जैसे समाज में किसी जाति, कुल, वर्ग आदि के लिए उचित ठहराया हुआ व्यवसाय, कर्त्तव्य; बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म के उदात्त रूप को शील कहा गया है । जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है ।
वस्तुत यह भागवत धर्म का प्रभाव रहा कि जिस "दास शब्द को असुर अथवा दस्यु का पर्याय मानकर अर्थ पतित कर दिया था । वह उच्चत्तम शिखर पर प्रतिष्ठित हो गया । ____________________________________
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