"प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार "रोहि".
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मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १७ में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि का वर्णन है।
मन्त्रमहोदधि – सप्तदश तरङ्ग(सत्रहवां तरंग) अरित्र---"अथेष्टदान् मनून वक्ष्ये कार्तवीर्यस्य गोपितान् । यःसुदर्शनचक्रस्यावतारः क्षितिमण्डले सुदर्शन: स्वमेव विष्णु:॥१॥
शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वारा अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीर्य के मन्त्रों का आख्यान करता हूँ।जो कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शनचक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥
अभीष्टसिद्धिदः कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रःवहिनतारयुतारौद्रीलक्ष्मीरग्नीन्दुशान्तियुक् ।वेधाधरेन्दुशान्त्याढ्यो निद्रा(शाग्निबिन्दुयुक् ॥२॥
पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रेकार्तवीपदम् ।रेफो वाय्वासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ॥ ३॥
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदन्तिकः।ऊनविंशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ॥ ४ ॥
अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं – वह्नि (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वह्नि (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् (ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥
विमर्श – ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥
अस्य मन्त्रस्य न्यासकथनपूर्वकपूजाप्रकारदत्तात्रेयो मुनिश्चास्य च्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजं शक्तिधुवश्च हृत् ॥ ५॥
इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥
शेषाद्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेद् बुधः ।शान्तियुक्त चतुर्थेन कामादयेन शिरोङ्गकम् ।६
इन्द्वात्यवामकर्णाढ्य माययार्घीशयुक्तया ।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ॥ ७॥
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं चरेत् ।
बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥_
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विमर्श – न्यासविधि – आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, ई क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा,
हुं शिखायै वषट् क्रैं श्रैं कवचाय हुम्, हुँ फट् अस्त्राय फट् ।
इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशके ॥ ८॥
दक्षपादे वामपादे सक्थिजानुनि जंघयोः।विन्यसेद् बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ॥ ९॥
ताराद्यान् नवशेषार्णान् मस्तके च ललाटके ।भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंसके॥ १०॥
अब वर्णन्यास कहते हैं – मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम, जठर, नाभि, गुह्य, दाहिने पैर बाँये पैर, दोनों सक्थि दोनों ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥
सर्वमन्त्रेण सर्वाङ्गे कृत्वा व्यापकमद्वयः।सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत् कार्तवीर्य जनेश्वरम्॥ ११॥
तदनन्तर सभी अङ्गों पर मन्त्र के सभी वर्णों का व्यापक न्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की सिद्धि हेतु राजा कार्तवीर्य का ध्यान करना चाहिए ॥११॥
विमर्श – न्यास विधि – ॐ फ्रों ॐ हृदये, ॐ व्रीं ॐ जठरे,
ॐ क्लीं ॐ नाभौ ॐ भ्रूं ॐ गुह्ये, ॐ आम ॐ दक्षपादे,
ॐ ह्रीं ॐ वामपादे, ॐ फ्रों ॐ सक्थ्नोः ॐ श्रीं ॐ उर्वोः,
ॐ हुं ॐ जानुनोः ॐ फट् ॐ जंघयोः ॐ कां मस्तके,
ॐ र्त्त ललाटें ॐ वीं भ्रुवोः, ॐ र्यां कर्णयोः
ॐ र्जुं नेत्रयोः ॐ नां नासिकायाम् ॐ यं मुखे,
ॐ नं गले, ॐ मः स्कन्धे
इस प्रकार न्यास कर – ॐ फ्रों श्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे- से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥८-११॥
उद्यत्सूर्यसहस्रकान्तिरखिलक्षोणीधवैर्वन्दितो
हस्तानां शतपञ्चकेन च दधच्चापानिपूंस्तावता ।
कण्ठे हाटकमालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेःपायात् स्यन्दनगोरुणाभवसनः श्रीकार्तवीर्यो नृपः ॥ १२ ॥
अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं –
उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथों में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥
लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजेत्तु तम् ॥ १३॥
वक्ष्यमाणे दशदले वृत्तभूपुरसंयुते । सम्पूज्य वैष्णवीः शक्तीस्तत्रावाद्यार्चयेन् नृपम् ॥१४॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥______
विमर्श – कार्तवीर्य की पूजा षट्कोण युक्त यन्त्र में भी कही गई है । यथा – षट्कोणेषु षडङ्गानि… (१७. १६) तथ दशदल युक्त यन्त्र में भी यथा – दिक्पत्रें विलिखेत् (१७. २२) । इसी का निर्देश १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे दशदले’ में ग्रन्थकार करते हैं ।
केसरों में पूर्व आदि ८ दिशाओं में एवं मध्य में वैष्णवी शक्तियों की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए-
ॐ विमलायै नमः, पूर्वे ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, आग्नेये
ॐ ज्ञानायै नमः, दक्षिणे, ॐ क्रियायै नमः, नैऋत्ये,
ॐ भोगायै नमः, पश्चिमे ॐ प्रहव्यै नमः, वायव्ये
ॐ सत्यायै नमः, उत्तरे, ॐ ईशानायै नमः, ऐशान्ये
ॐ अनुग्रहायै नमः, मध्ये
इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्र से आसन दे कर मूल मन्त्र से उस पर कार्तवीर्य की मूर्ति की कल्पना कर आवाहन से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१३-१४॥
मध्येग्नीशासुरमरुत्कोणेषु हृदयादिकान् ।चतुरङ्ग च सम्पूज्य सर्वतोऽस्त्रं ततो यजेत् ॥ १५॥
मध्य में आग्नेय, ईशान, नैऋत्ये, और वायव्यकोणों में हृदयादि चार अंगो की पुनः चारों दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना चाहिए ॥१५॥
खड्गचर्मधराध्येयाश्चन्द्राभा अङ्गमूर्तयः।षट्कोणेषु षडङ्गानि ततो दिक्षु विदिक्षु च ॥ १६ ॥
चोरमदविभञ्जनं मारीमदविभञ्जनम् ।अरिमदविभञ्जनं दैत्यमदविभञ्जनम् ॥१७॥
दुःखनाशं दुष्टनाशं दुरितामयनाशकौ ।दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिषु सितप्रभाः॥ १८॥
तदनन्तर ढाल और तलवार लिए हुये चन्द्रमा की आभा वाले षडङ्ग मूर्तियों का ध्यान करते हुये षट्कोणों में षडङ्ग पूजा करनी चाहिए । इसके बाद पूर्वादि चारों दिशाओं में तथा आग्नेयादि चारों कोणो में १. चोरमदविभञ्जन, २. मारीमदविभञ्जन, ३. अरिमदविभञ्जन, ४. दैत्यमदविभञ्जन, ५. दुःख नाशक, ६. दुष्टनाशक, ७. दुरितनाशक, एवं ८. रोगनाशक का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्व आदि ८ दिशाओं में श्वेतकान्ति वाली ८ शक्तियों का पूजन करना चाहिए ॥१६-१८॥
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।आयुष्करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः ॥ १९ ॥
धनकर्यष्टमी परचाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः। एवं संसाधितो मन्त्रः प्रयोगार्हः प्रजायते॥ २०॥
१. क्षेमंकरी, २. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यशस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. विद्याकारे, तथा ८. धनकरी ये ८ शक्तियाँ है । फिर आयुधों के साथ दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की साधना से मन्त्र के सिद्ध जो जाने पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥
विमर्श – आवरण पूजा विधि – सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा – आं फ्रों श्रीं हृदयाय नमः आग्नेये,
ई क्लीं भ्रूम शिरसे स्वाहा ऐशान्ये, हु शिखायै वषट् नैऋत्ये,
क्रैं श्रैं कंवचाय हुम् वायव्ये, हुं फट् अस्त्राय सर्वदिक्षु ।
षडङ्गपूजा यथा – ॐ फ्रां हृदयाय नमः,
ॐ फ्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ फ्रां शिखाये वषट् ॐ फ्रै कवचाय हुम्,
ॐ फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ फ्रः अस्त्राय फट्,
फिर अष्टदलों में पूर्वादि चारों दिशाओं में चोरविभञ्जन आदि का, तथा आग्नेयादि चारों कोणो में दुःखनाशक इत्यादि चार नाम मन्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चाहिए – यथा –
ॐ चोरमदविभञ्जनाय नमः पूर्वे, ॐ मारमदविभञ्जनाय नमः दक्षिणे,
ॐ अरिमदविभञ्जनाय नमः पश्चिमे, ॐ दैत्यमदविभञ्जनाय नमः उत्तरे,
ॐ दुःखनाशाय नमः आग्नेये, ॐ दुष्टनाशाय नमः नैऋत्ये,
ॐ दुरितनाशानाय वायव्ये, ॐ रोगनाशाय नमः ऐशान्ये ।
तत्पश्चात् पूर्वादि दिशाओं के दलों के अग्रभाग पर श्वेत आभा वाली क्षेमंकरी आदि ८ शक्तियों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा –
ॐ क्षेमंकर्यै नमः, ॐ वश्यकर्यै नमः, ॐ श्रीकर्यै नमः,
ॐ यशस्कर्यै नमः ॐ आयुष्कर्यै नमः, ॐ प्रज्ञाकर्यै नमः,
ॐ विद्याकर्यै नमः, ॐ धनकर्यै नमः,
तदनन्तर भूपुर में अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा –
ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे, ॐ रं अग्नये नमः आग्नेये,
ॐ मं यमाय नमः दक्षिणे ॐ क्षं निऋतये नमः नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमें ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,
ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे, ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,
ॐ आं ब्राह्यणे नमः पूर्वेअशानयोर्मध्ये, ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ।
फिर भूपुर के बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए । यथा –
ॐ शूं शूलाय नमः, ॐ पं पद्माय नमः, ॐ चं चक्राय नमः, इत्यादि ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद धूप, दीप एवं नैवेद्यादि उपचारों से विधिवत् कार्तवीर्य का पूजन करना चाहिए ॥१५-२०॥
कार्तवीर्यार्जुनस्याथ पूजार्थ यन्त्र उच्यते॥ २१।
दशदलात्मके यन्त्रे बीजादिस्थापनम्दिक्पत्रंविलिखेत्स्वबीजमदनश्रुत्यादिवाक्कर्णिकंवर्मान्त प्रणवादिबीजदशकं शेषार्णपत्रान्तरम्
ऊष्माढ्यं स्वरकेसरं परिवृतं शेषैः स्वकोणोल्लसद्भूतार्णक्षितिमन्दिरावृतमिदं यन्त्रं धराधीशितुः ॥ २२ ॥
अब कार्तवीय की पूजा के लिए यन्त्र कहता हूँ काम्यप्रयोगों में कार्तवीर्यस्य काम्यप्रयोगार्थ पूजनयन्त्रम् कार्तवीर्यपूजन यन्त्रः –
वृत्ताकार कर्णिका में दशदल बनाकर कर्णिका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज (क्लीं), श्रुतिबीज (ॐ) एवं वाग्बीज (ऐं) लिखे, फिरे प्रणव से ले कर वर्मबीज पर्यन्त मूल मन्त्र के १० बीजों को दश दलों पर लिखना चाहिए । शेष सह सहित १६ स्वरों को केशर में तथा शेष वर्णों से दशदल को वेष्टित करना चाहिए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वर्णों को लिखना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन पूजा का यन्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥
शलभमावष्टगन्धैलिखित्वा यन्त्रमादरात । तत्र कम्भं प्रतिष्ठाप्य तत्रावाह्यार्चयेन्नृपम ॥२३॥
अब काम्य प्रयोग में अभिषेक विधि कहते है :-
शुद्ध भूमि में श्रद्धा सहित अष्टगन्ध से उक्त यन्त्र लिखकर उस पर कुंभ की प्रतिष्ठा कर उसमें कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर विधिवत् पूजन करना चाहिए ॥२३॥
स्पृष्ट्वा कुम्भं जपेन्मन्त्रं सहस्त्रं विजितेन्द्रियः ।अभिषिञ्चेत्तदम्भोभिः प्रियं सर्वेष्टसिद्धये ॥ २४॥
फिर अपनी इन्द्रियों को वश में कर साधक कलश का स्पर्श कर उक्त मुख्य मन्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्तर उस कलश के जल से अपने समस्त अभीष्टों की सिद्धि हेतु अपना तथा अपने प्रियजनों का अभिषेक करे ॥२३-२४॥
नानाप्रयोगसाधनम्पुत्रान्यशो रोगनाशमायुः स्वजनरञ्जनम् ।वाक्सिद्धिं सुदृशः कुम्भाभिषिक्तो लभते नरः ॥२५॥
शत्रूपद्रवमापन्ने ग्रामे वा पुटभेदने ।संस्थापयेदिदं यन्त्रमरिभीतिनिवृत्तये ॥२६॥
अब उस अभिषेक का फल कहते हैं – इस प्रकार अभिषेक से अभिषिक्त व्यक्ति पुत्र, यश, आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से प्रेम तथा उपद्रव्य होने पर उनके भय को दूर करने के लिए कार्तवीर्य के इस मन्त्र को संस्थापित करना चाहिए ॥२५-२६॥
सर्षपारिष्टलशुनकार्पासैौर्यते रिपुः । धत्तूरैः स्तंभ्यते निम्बैढेष्यते वश्यतेऽम्बुजैः।२७।
उच्चाट्यते विभीतस्य समिभिः खदिरस्य च ।कटुतैलमहिष्याज्य:मद्रव्याञ्जनं स्मृतम् ॥ २८॥
यवर्हतैः श्रियः प्राप्तिस्तिलैराज्यैरघक्षयः।दिलतण्डुलसिद्धार्थलाजैर्वश्यो नृपो भवेत् ॥ २९ ॥
विविध कामनाओं में होम द्रव्य इस प्रकार है – सरसों, लहसुन एवं कपास के होम से शत्रु का मारन होता है । धतूर के होम से शत्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर विद्वेषण, कमल के होम से वशीकरण तथा बहेडा एवं खैर की समिधाओं के होम से शत्रु का उच्चाटन होता है । जौ के होम से लक्ष्मी प्राप्ति, तिल एवं घी के होम से पापक्षय तथा तिल तण्डुल सिध्दार्थ (श्वेत सर्षप) एवं लाजाओं के होम से राजा वश में हो जाता है ॥२७-२९॥
अपामार्गार्कदूर्वाणां होमो लक्ष्मीप्रदोऽघनुत् ।स्त्रीवश्यकृत्प्रियंगूणां पुराणां भूतशान्तिदः ॥ ३० ॥
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षवटबिल्ध्वसमुद्भवाः ।समिधो लभते हुत्वा पुत्रानायुर्धनं सुखम् ॥ ३१॥
अपामार्ग, आक एवं दूर्वा का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नाशक होता है । प्रियंगु का होम स्त्रियों को वश में करता है । गुग्गुल का होम भूतों को शान्त करता है । पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की समिधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु, धन एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥
निर्मोकहेमसिद्धार्थलवणैश्चोरनाशनम् ।रोचनागोमयैःस्तम्भोभूप्राप्तिः शालिभिर्हतैः।३२॥
साँप की केंचुली, धतूरा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों ) तथा लवण के होम से चोरों का नाश होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम से स्तंभन होता है तथा शालि (धान) के होम से भूमि प्राप्त होती है ॥३२॥
होमसंख्या तु सर्वत्र सहस्रादयुतावधि ।प्रकल्पनीया मन्त्रज्ञैः कार्यगौरवलाघवात् ॥ ३३॥
मन्त्रज्ञ विद्वान् को कार्य की न्यूनाधिकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार तक निश्चित कर लेनी चाहिए । कार्य बाहुल्य में अधिक तथा स्वल्पकार्य में स्वल्प होम करना चाहिए ॥३३॥
विमर्श – सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दश हजार तक कही गई है, विद्वान् जैसा कार्य देखे वैसा होम करे ॥३३॥
दशमन्त्रभेदानां कथनम्
कार्तवीर्यस्य मन्त्राणामुच्यन्ते सिद्धिदाभिदाः।कार्तवीर्यार्जुनं डेन्तमन्ते च नमसान्वितम् ॥ ३४॥
स्वबीजात्यो दशार्णोऽसावन्ये नवशिवाक्षराः।
अब सिद्धियों को देने वाले कार्तवीर्यार्जुन के मन्त्रों के भेद कहे जाते हैं –
अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त कार्तवीर्यार्जुन का चतुर्थ्यन्त, उसके बाद नमः लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है । अन्य मन्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥
आद्यबीजद्वयेनाऽसौ द्वितीयो मन्त्र ईरितः।३५॥
स्वकामाभ्यां तृतीयोऽसौ स्वभ्रूभ्यां तु चतुर्थकः स्वपाशाभ्यां पञ्चमोंसौ षष्ठः स्वेन च मायया ॥ ३६॥
स्वांकुशाभ्यां सप्तमः स्यात् स्वरमाभ्यामथाष्टमः । स्ववाग्भवाभ्यां नवमो वर्मास्त्राभ्यां तथान्तिमः ॥३७॥
उक्त मन्त्र के प्रारम्भ में दो बीज (फ्रों व्रीं) लगाने से यह द्वितीय मन्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा कामबीज (क्लीं) सहित यह तृतीय मन्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सहित नवम मन्त्र और आदि में वर्म (हुं) तथा अन्त में अस्त्र (फट्) सहित दशम मन्त्र बन जाता है ॥३५-३७॥
विमर्श – कार्तवीर्यार्जुन के दश मन्त्र – १, फ्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः २. फ्रों व्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ३. फ्रों क्लीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ४. फ्रों भ्रूं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ५. फ्रों आं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ६. फ्रों ह्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ७. फ्रों क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ८. फ्रों श्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ९. फ्रों ऐं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, १०. हुं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः फट् ॥३४-३७॥
द्वितीयादि नवान्ते तु बीजयोः स्याद् व्यतिक्रमः। मन्त्रे तु दशमे वर्णा नववर्मास्त्रमध्यगाः ॥ ३८॥
द्वितीय मन्त्र से लेकर नौवें मन्त्र तक बीजों का व्युत्क्रम से कथन है और दसवें मन्त्र में वर्म (हुं) और अस्त्र (फट्) के मध्य नौ वर्ण रख्खे गए हैं ॥३८॥
एतेषु मन्त्रवर्येषु स्वानुकूलं मनुं भजेत् ।एषामाघे विराट्छन्दोऽन्येषु त्रिष्टुबुदाहृतम् ३९
इन मन्त्रों मे से जो भी सिद्धादि शोधन की रिति से अपने अनुकूल मालूम पडे उसी मन्त्र की साधना करनी चाहिए ॥३९॥
इन मन्त्रों में प्रथम दशाक्षर का विराट् छन्द है तथा अन्यों का त्रिष्टुप छन्द है ॥३९॥
विमर्श – दशाक्षर मन्त्र का विनियोग– अस्य श्रीकार्तवीर्यार्युनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिविराट्छन्दः कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः ।
अन्य मन्त्रों क विनियोग –अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषि स्त्रिष्टुप छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
दशमन्त्रा इमे प्रोक्ताः प्रणवादि पदानि च ।तदादिमःशिवार्णःस्यादन्ये तु द्वादशाक्षरा:।४०।एवं विंशति मन्त्राणां यजनं पूर्ववन्मतम् ।त्रिष्टुप्छन्दस्तदायेषु स्यादन्येषु जगतीमता।४१।
पूर्वोक्त १० मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव लगा देने से प्रथम दशाक्षर मन्त्र एकादश अक्षरों का तथा अन्य ९ द्वादशाक्षर बन जाते है । इस प्रकार कार्तवीर्य मन्त्र के २० प्रकार के भेद बनते है । इनकी साधना पूर्वोक्त मन्त्रों के समान है । उक्त द्वितीय दश संख्यक मन्त्रों में पहले त्रिष्टुप तथा अन्यों का जगती छन्द है । इन मन्त्रों की साधना में षड् दीर्घ सहित स्वबीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४०-४१॥
विनियोग – अस्य श्रीएकादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः कार्तवीर्यार्जुनो देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जपे विनियोगः ।
अन्य नवके – अस्य श्रीद्वादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिर्जगतीच्छदः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास – फ्रां हृदयाय नमः, फ्रीं शिरसे स्वाहा, फ्रूं शिखायै वषट्,
फ्रैं कवचाय हुम्, फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, फ्रः अस्त्राय फट् ॥४१॥
दीर्घाढ्यमूलबीजेन कुर्यादेषां षडङ्गकम् । तारो हृत्कार्तवीर्यार्जुनाय वर्मास्त्रठद्वयम् ।चतुर्दशार्णो मन्त्रोऽयमस्येज्या पूर्ववन्मता ॥ ४२ ॥
तार (ॐ), हृत् (नमः), फिर ‘कार्तवीर्यार्जुनाय’ पद, वर्म (हुं), अ (फट्), तथा अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का मन्त्र बनता है इसकी साधना पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥४२॥
विमर्श – चतुर्दशार्ण मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ नमः कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१४) ॥४२॥
भूनेत्र सप्तनेत्राक्षिवणैरस्याङ्गपञ्चकम् ।
मन्त्र के क्रमशः १, २, ७, २, एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४३॥
विमर्श – पञ्चाङ्गन्यास – ॐ हृदयाय नमः, नमः शिरसे स्वाहा,
कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट् कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४३॥
तारो हृद्भगवान्डेन्तः कार्तवीर्यार्जुनस्तथा ॥ ४३॥
वर्मास्त्राग्निप्रियामन्त्रः प्रोक्तोष्टादशवर्णवान् ।त्रिवेदसप्तयुग्माक्षिवर्णैः पञ्चाङ्गक मनोः॥४४॥
तार (ॐ), हृत् (नमः), तदनन्तर चतुर्थ्यन्त भगवत् (भगवते), एवं कार्तवीर्यार्जुन (कार्तवीर्यार्जुनाय), फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) उसमें अग्निप्रिया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्य मन्त्र बनता है ॥४३-४४॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ नमो भगवते कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१८) ॥४४॥
इस मन्त्र के क्रमशः ३, ४, ७, २ एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४४॥
पञ्चाङ्गन्यास – ॐ हृदयाय नमः, भगवते शिरसे स्वाहा, कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४४॥
मन्त्रान्तरकथनम्
नमो भगवते श्रीति कार्तवीर्यार्जुनाय च ।सर्वदुष्टान्तकायेति तपोबलपराक्रम ॥ ४५॥
परिपालित सप्तान्ते द्वीपाय सर्वरापदम् ।जन्यचूडामणान्ते ये सर्वशक्तिमते ततः॥४६॥
सहस्रबाहवे प्रान्ते वर्मास्त्रान्तो महामनुः।त्रिषष्टिवर्णवान्प्रोक्तः स्मरणात्सर्वविघ्नहृत् ॥ ४७॥
नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय, फिर सर्वदुष्टान्तकाय, फिर ‘तपोबल पराक्रम परिपालिलसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सर्वराजन्य चूडामण्ये सर्वशक्तिमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्र बनता हैं , जो स्मरण मात्र से सारे विघ्नों को दूर कर देता है ॥४५-४७॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्वदुष्टान्तकाय तपोबलपराक्रमपरिपालितसप्तद्वीपाय सर्वराजन्यचूडाणये सर्वशक्तिमते सहस्त्रबाहवे हुं फट् (६३) ॥४५-४७॥
राजन्यचक्रवर्ती च वीरः शूरस्तृतीयकः ।माहिष्मतीपतिः पश्चाच्चतुर्थः समुदीरितः ॥ ४८॥
रेवाम्बुपरितृप्तश्च कारागेहप्रबाधितः।दशास्यश्चेति षड्भिः स्यात्पदैर्डेन्तैः षडङ्गकम् ॥ ४९ ॥
१. राजन्यचक्रवर्ती, २. वीर, ३. शूर, ४. महिष्मपति, ५. रेवाम्बुपरितृप्त एवं, ६. कारागेहप्रबाधितदशास्य – इन ६ पदों के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४८-४९॥
विमर्श – षडङ्गन्यास का स्वरुप – राजन्यचक्रवर्तिने हृदयाय नमः, वीराय शिरसे स्वाहा, शूराय शिखायै वषट्, महिष्मतीपतये कवचाय हुम्, रेवाम्बुपरितृप्ताय नेत्रत्रयाय वौषट्, कारागेहप्रबाधितशास्याय अस्त्राय फट् ॥४८-४९॥
सिंच्यमानं युवतिभिः क्रीडन्तं नर्मदाजले ।हस्तैर्जलौघं रुन्धन्तं ध्यायेन्मत्तं नृपोत्तमम् ॥ ५० ॥
नर्मदा नदी में जलक्रीडा करते समय युवतियों के द्वारा अभिषिच्यमान तथा नर्मदा की जलधारा को अवरुद्ध करने वाले नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान करना चाहिए ॥५०॥
एवं ध्यात्वायुतं मन्त्रं जपेदन्यत्तु पूर्ववत् ।पूर्ववत्सर्वमेतस्य समाराधनमीरितम् ॥ ५१॥
इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए तथा हवन पूजन आदि समस्त कृत्य पूर्वोक्त कथित मन्त्र की विधि से करना चाहिए । इस मन्त्र साधना के सभी कृत्य पूर्वोक्त मन्त्र के समान कहे गये हैं॥५१॥
हृतनष्टलाभदोऽन्यो मन्त्रः
कार्तवीर्यार्जुनो वर्णान्नामराजापदं ततः। उक्त्वा बाहुसहस्रान्ते वान्पदं तस्य संततः ॥ ५२ ॥
स्मरणादेववर्णान्ते हृतं नष्टं च सम्पठेत् । लभ्यते मन्त्रवर्योऽयं द्वात्रिंशद्वर्णसंज्ञकः॥५३॥
अब कार्तवीर्यार्जुन के अनुष्टुप मन्त्र का उद्धार कहता हूँ –
‘कार्तवीर्यार्जुनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’ तथा ‘वान्’ कहना चाहिए । फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चाहिए । यह ३२ अक्षर का मन्त्र है ।
इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से, तथा सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए । इसका ध्यान एवं पूजन आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥५२-५३॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है –
कार्तवीर्याजुनो नाम राजा बाहुसहस्त्रवान् ।तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते ॥
विनियोग – अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीकार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
पञ्चाङ्गन्यास – कार्तवीर्यार्जुनो नाम हृदयाय नमः, राजा बाहुसहस्त्रवान् शिरसे स्वाहा, तस्य संस्मरणणादेव शिखायै वषट्, हृतं नष्टं च लभ्यते कवचाय हुम्, कार्तवीर्यार्जुनी० अस्त्राय फट् ॥५२-५३॥
पादैः सर्वेण पञ्चाङ्ग ध्यानयोगादिपूर्ववत् ।कार्तवीर्यार्जुनगायत्रीकार्तवीर्याय शब्दान्ते विद्महेपदमीरयेत् ॥ ५४॥
महावीर्यायवर्णान्ते धीमहीति पदं वदेत् ।तन्नोऽर्जुनः प्रवर्णान्ते चोदयात्पदमीरयेत् ॥ ५५
गायत्र्येषार्जुनस्योक्ता प्रयोगादौ जपेत्तु ताम् ।
‘कार्तवीर्याय’ पद दे बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महावीर्याय’ के बाद ‘धीमहि’ पद कहना चाहिए । फिर ‘तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात्’ बोलना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन का गायत्री मन्त्र है । कार्तवीर्य के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना चाहिए ॥५४-५६॥
अनुष्टुभं मनुं रात्रौ जपतां चौरसञ्चयाः॥पालयन्ते गृहाद्दूरं तर्पणाद्वचनादपि ।५६।।
रात्रि में इस अनुष्टुप् मन्त्र का जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्र से तर्पण करने पर अथवा इसका उच्चारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥
अखिलेप्सितदीपविधानकथनम् अथो दीपविधिं वक्ष्ये कार्तवीर्यप्रियंकरम् ॥ ५७ ॥
वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्तिकाश्विनपौषतः ।माघफाल्गुनयोर्मासे दीपारम्भः प्रशस्यते।५८॥
अब दीपप्रियः आर्तवीर्यः’ इस विधि के अनुसार कार्तवीर्य को प्रसन्न करने वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक, आश्विन, पौष, माघ एवं फाल्गुन में दीपदान करना प्रशस्त माना गया है ॥५७-५८॥
तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ विना ।हस्तोत्तराश्विरौद्रेषु पुष्यवैष्णववायुभे ॥ ५९ ॥द्विदैवते च रोहिण्यां दीपारम्भः प्रशस्यते।
चौथ, नवमी तथा चतुर्दशी – इन (रिक्ता) तिथियों को छोडकर, दिनों में मङ्गल एवं शनिवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय, आश्विनी, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, स्वाती, विशाखा एवं रोहिणी नक्षत्र में कार्तवीर्य के लिए दीपदान का आरम्भ प्रशस्त कहा गया है ॥५९-६०॥
चरमे च व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ सुकर्मणि॥६०॥
प्रीतौ हर्षे च सौभाग्ये शोभनायुष्मतोरपि ।करणे विष्टिरहिते ग्रहणेोदयादिषु ॥ ६१॥ एषु योगेषु पूर्वाणे दीपारम्भः कृतः शुभः ।
वैघृति, व्यतिपात, धृति, वृद्धि, सुकर्मा, प्रीति, हर्षण, सौभाग्य, शोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा विष्टि (भद्रा) को छोडकर अन्य करणों में दीपारम्भ करना चाहिए । उक्त योगों में पूर्वाह्ण के समय दीपारम्भ करना प्रशस्त है ॥६०-६२॥
कार्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीवशोभनः ॥ ६२॥
यदि तत्र रवेर्वारः श्रवणं भं तु दुर्लभम् ।अत्यावश्यककार्येषु मासादीनां न शोधनम् ॥ ६३ ॥
कार्तिक शुक्ल सप्तमी को निशीथ काल में इसका प्रारम्भ शुभ है । यदि उस दिन रविवार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत दुर्लभ है । आवश्यक कार्यो में महीने का विचार नहीं करना चाहिए ॥६२-६३॥
आये ह्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी शयीत कौ ।प्रातः स्नात्वा शुद्धभूमौ लिप्तायां गोमयोदकैः ॥ ६४॥
प्राणानायम्य संकल्प्य न्यासान्पूर्वोदितांश्चरेत् ।
साधक दीपदान से प्रथम दिन उपवास कर ब्रह्यचर्य का पालन करते हुये पृथ्वी पर शयन करे । फिर दूसरे दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर गोबर और शुद्ध जल से हुई भूमि में प्राणायाम कर, दीपदान का संकल्प एवं पूर्वोक्त न्यासों को करे ॥६४-६५॥
षट्कोणं रचयेद् भूमौ रक्तचन्दनतण्डुलैः ॥ ६५॥
अन्तः स्मरं समालिख्य षट्कोणेषु समालिखेत् मन्त्रराजस्य षड्वर्णान्कामबीजविवर्जितान् ॥ ६६ ॥
सणिं पद्मा वर्मचास्त्रं पूर्वाद्याशासु संलिखेत् ।वाणैर्वेष्टयेत्तच्च त्रिकोणं तबहिः पुनः ॥ ६७ ॥
फिर पृथ्वी पर लाल चन्दन मिश्रित चावलों से षट्कोण का निर्माण करे । पुनः उसके भीतर काम बीज (क्लीं) लिख कर षट्कोणों में मन्त्रराज के कामबीज को छोडकर शेष बीजो को (ॐ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं) लिखना चाहिए । सृणि (क्रों) पद्म (श्रीं) वर्म (हुं) तथा अस्त्र (फट्) इन चारों बीजों को पूर्वादि चारों दिशाओं में लिखना चाहिए । फिर ९ वर्णों (कार्तवीर्यार्जुनाय नमः) से उन षड्कोणों को परिवेष्टित कर देना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर एक त्रिकोण निर्माण करना चाहिए ॥६५-६७॥
एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद् दीपभाजनम् ।स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः॥६८॥
कांस्यपात्रं मृण्मयं च कनिष्ठं लोहजं मृतौ ।शान्तये मुद्गचूर्णोत्थं सन्धौ गोधूमचूर्णजम् ॥ ६९ ॥
अब दीपस्थापन एवं पूजन का प्रकार कहते हैं –
इस प्रकार से लिखित मन्त्र पर दीप पात्र को स्थापित करना चाहिए । वह पात्र सोने, चाँदी या ताँबे का होना चाहिए । उसके अभाव में काँसे का अथवा उसके भी अभाव में मिट्टी का या लोहे का होना चाहिए । किन्तु लोहे का और मिट्टी का पात्र कनिष्ठ (अधम) माना गया है ॥६८-६९॥
शान्ति के और पौष्टिक कार्यो के लिए मूँगे के आटे का तथा किसी को मिलाने के लिए गेहूँ के आँटे का दीप-पात्र बनाकर जलाना चाहिए ॥६९॥
बुध्नेषूदर्ध्व समानं तु पात्रं कुर्यात्प्रयत्नतः ।अर्कदिग्वसुषट् पञ्चचतुराभांगुलैर्मितम्।७०॥
ध्यान रहे कि दीपक का निचला भाग (मूल) एवं ऊपरी भाग आकृति में समान रुप का रहे । पात्र का परिमाण १२, १०, ८, ६, ५, या ४ अंगुल का होना चाहिए ॥७०॥
आज्यपलसहस्रं तु पात्रं शतपलैः कृतम् ।आज्येयुतपले पात्रं पलपञ्चशतीकृतम् ॥ ७१॥
पञ्चसप्ततिसंख्ये तु पात्रं षष्टिपलं मतम् ।त्रिसहसे घृतपले शरार्कपलभाजनम् ॥ ७२ ॥
द्विसहस्रे शरशिवं शतार्द्ध त्रिंशता मतम् ।शतेक्षिशरसंख्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् ॥ ७३॥
सौ पल के भार से बने पात्र में एक हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में १० हजार पल घी, ६० पल के भार से बनाये गये पात्र में ७५ पल घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी, ११५ पल भार से बनाये गये दीप-पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये पात्र में १०० पल घी डालना चाहिए । इस प्रकार जितना घी जलाना हो अनुसार पात्र के भार की कल्पना कर लेनी चाहिए ॥७१-७३॥
नित्ये दीपे वह्निपलं पात्रमाज्यं पलं स्मृतम् ।एवं पात्रं प्रतिष्ठाप्य वर्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत् ॥ ७४ ॥
एका तिस्रोऽथवा पञ्च सप्ताद्या विषमा अपि तिथिमानाद्य सहस्रं तन्तुसंख्याविनिर्मिताः॥ ७५॥
नित्यदीप में ३ पल के भार का पात्र तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थापित कर सूत की बनी बत्तियाँ डालनी चाहिए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बत्तियाँ डालिनी चाहिए । ऐसे सामान्य नियमानुसार विषम सूतों की बनी बत्तियाँ होनी चाहिए ॥७४-७५॥
गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् ।सहस्रपलसंख्यादिदशान्तं कार्यगौरवात् ।७६॥
दीप-पात्र में शुद्ध-वस्त्र से छना हुआ गो घृत डालना चाहिए । कार्य के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १००० पल परिमाण पर्यन्त घी की मात्रा होनी चाहिए ॥७६॥
सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशांगुलाम् ।तदा वा तदद्धां वा सूक्ष्मायां स्थूलमूलकाम् ॥ ७७॥
विमुच्चेद् दक्षिणे भागे पात्रमध्ये कृताग्रकाम् ।पात्राद् दक्षिणदिग्देशे मुक्त्वांगुलचतुष्टयम् ॥ ७८ ॥
अधोऽग्रां दक्षिणाधारां निखनेच्छुरिकां शुभाम् दीपं प्रज्वालयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्वकम् ॥७९।
सुवर्ण आदि निर्मित्त पात्र के अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८ या ४ अंगुल की एक मनोहर शलाका बनाकार उक्त दीप पात्र के, भीतर दाहिनी ओर से शलाका का अग्रभाग कर डालना चाहिए । पुनः दीप पात्र से दक्षिण दिशा में ४ अंगुल जगह छोडकर भूमि में अधोमुख एक छुरी या चाकू गाडना चाहिए । फिर गणपति का स्मरण करते हुये दीप की जलाना चाहिए ॥७७-७९॥
दीपात् पूर्वे तु दिग्भागे सर्वतोभद्रमण्डले ।तण्डुलाष्टदले वाऽपि विधिवत्स्थापयेद्धटम् ॥ ८०॥
तत्रावाह्य नृपाधीशं पूर्ववत्पूजयेत् सुधीः ।जलाक्षताः समादाय दीपं संकल्पयेत्ततः ॥ ८१॥
दीपक से पूर्व दिशा में सर्वतोभद्र मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर मिट्टी का घडा विधिवत् स्थापित करना चाहिए । उस घट पर कार्तवीर्य का आवाहन कर साधक को पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन करना चाहिए । इतना कर लेने के बाद हाथ में जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चाहिए ॥८०-८१॥
दीपसंकल्पमन्त्रोऽथ कथ्यते द्वीषु भूमितः ।प्रणवः पाशमाये च शिखाकार्ताक्षराणि च ॥ ८२॥
वीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्र च ।बाहवे इति वर्णान्ते सहस्रपदमुच्चरेत् ॥ ८३॥
क्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय च ।आत्रेयायानुसूयान्ते गर्भरत्नाय तत्परम् ॥ ८४॥
नभोग्नीवामकर्णेन्दुस्थितौ पाशद्वयं ततः । दीपं गृहाण त्वमुकं रक्ष रक्ष पदं पुनः ॥ ८५॥
दुष्टान्नाशय युग्मं स्यात्तथा पातय घातय ।शत्रूजहि द्वयं माया तारः स्वं बीजमात्मभूः ॥ ८६ ॥
वहिनजाया अनेनाथ दीपवर्येण पश्चिमा ।भिमुखेनामुकं रक्ष अमुकान्ते वरप्रदा ॥ ८७॥
नायाकाश द्वयं वाम नेत्रचन्द्रयुतं शिवा ।वेदादिकामचामुण्डा स्वाहा तुःपुःसबिन्दुकौ ॥ ८८ ॥
प्रणवोऽग्नि प्रियामन्त्रो नेत्रबाणधराक्षरः।
अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प मन्त्र कहते हैं – यह (द्वि २ इषु ५ भूमि १ अंकाना वामतो गतिः) एक सौ बावन अक्षरों का माला मन्त्र है ।
प्रणव (ॐ), पाश (आं), माया (ह्रीं), शिखा (वषट्), इसके बाद ‘कार्त्त’ इसके बाद ‘वीर्यार्जुनाय’ के बाद ‘माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे’ इन वर्णों के बाद ‘सहस्त्र’ पद बोलना चाहिए । फिर ‘क्रतुदीक्षितहस्त दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय’, फिर वाम कर्ण (ऊ), इन्दु(अनुस्वार) सहित नभ (ह) एवं अग्नि (र्) अर्थात् (हूँ) पाश आं, फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टानाशय नाशय’, फिर २ बार ‘पातय’ और २ बार ‘घातय’ (पातय पातय घातय घातय), ‘शत्रून जहि जहि’, फिर माया (ह्रीं) तार (ॐ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (क्लीं) और फिर वाहिनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर वामनेत्रे (ई), चन्द्र (अनुस्वार) सहित २ बार आकाश (ह) अर्थात् (हीं हीं), शिवा (ह्रीं), वेदादि (ॐ), काम (क्लीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’ फिर सानुस्वर तवर्ग एवं पवर्ग (तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं), फिर प्रणव (ॐ) तथा अग्निप्रिया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का दीपदान मन्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥
विमर्श –दीप संकल्प के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ आं ह्रीं वषट् कार्तवीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे, सहस्त्रक्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय ह्रूं आं इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टान्नाशय नाशय पातय पातय घातय घातय शत्रून जहि जहि ह्रीं ॐ फ्रों क्लीं स्वाहा अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकवरप्रदानाय हीं हीं ह्रीं ॐ क्लीं व्रीं स्वाहा तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं ॐ स्वाहा (१५२) ॥८२-८९॥
दत्तात्रेयो मुनिर्मालामन्त्रस्य परिकीर्तितः॥ ८९।
छन्दोमित कार्तवीर्यार्जुनो देवःशुभावहः ।चामुण्डया षडङ्गानि चरेत्षड्दीर्घयुक्तया ॥ ९०॥
इस मालामन्त्र के दत्तात्रेय ऋषि, अमित छन्द तथा कार्तवीर्यार्जुन देवता हैं । षड्दीर्घसहित चामुण्डा बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥८९-९०॥
विमर्श विनियोग – अस्य श्रीकार्तवीर्यमालमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषिरमितच्छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास – ॐ व्रां हृदयाय नमः, व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥८९-९०॥
ध्यात्वा देवं ततो मन्त्रं पठित्वान्ते क्षिपेज्जलम् ततो नवाक्षरं मन्त्रं सहस्रं तत्पुरो जपेत् ॥९१॥
दीप संकल्प के पहले कार्तवीर्य का ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्र का उच्चारण कर जल नीचे भूमि पर गिरा देना चाहिए । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥९१॥
तारोऽनन्तो बिन्दुयुक्तो मायास्वं वामनेत्रयुक् ।कूर्माग्नी शान्तिचन्द्राढ्यौ वह्निनार्यकुशं ध्रुवः ॥ ९२॥
नवाक्षर मन्त्र का उद्धार – तार (ॐ), बिन्दु (अनुस्वार) सहित अनन्त (आ) (अर्थात् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र सहित स्वबीज (फ्रीं), फिर शान्ति (ई) और चन्द्र (अनुस्वार) सहित कूर्म (व) और अग्नि (र) अर्थात् (व्रीं), फिर वह्निनारी (स्वाहा), अंकुश (क्रों) तथा अन्त में ध्रुव (ॐ) लगाने से नवाक्षर मन्त्र बनता है । यथा – ॐ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा क्रों ॐ ॥९२॥
ऋषिः पूर्वः स्मृतोऽनुष्टुप्छन्दो ह्यन्यत्तु पूर्ववत् ।सहस्रं मन्त्रराजं च जपित्वा कवचं पठेत् ॥ ९३॥
इस मन्त्र के पूर्वोक्त दत्तात्रेय ऋषि हैं । अनुष्टुप् छन्द है तथा इसके देवता और न्यास पूर्वोक्त मन्त्र के समान है। (द्र० १७. ८९-९०) इस मन्त्र का एक हजार जप कर कवच का पाठ करना चाहिए । (यह कवच डामर तन्त्र में हुं के साथ कहा गया है ) ॥९३॥
विमर्श – विनियोग- अस्य नवाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिः अनुष्टुप्छन्दः कार्तवीर्यार्जुनो देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास – व्रां हृदयाय नमः व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥९३॥
एवं दीपप्रदानस्य कर्ताऽऽप्नोत्यखिलेप्सितम् ।दीपप्रबोधकाले तु वर्जयेदशुभां गिरम् ॥ ९४ ॥
इस प्रकर दीपदान करने वाला व्यक्ति अपना सारा अभीष्ट पूर्ण कर लेता है । दीप प्रज्वलित करते समय अमाङ्गलिक शब्दों का उच्चारण वर्जित है ॥९४॥
विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं परिकीर्तितम् ।शूद्राणा मध्यम प्रोक्त म्लेच्छस्य बधबन्धदम ॥९५॥
आख्वोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य सुखावहम् ।
अब दीपदान के समय शुभाशुभ शकुन का निर्देश करते हैं –
दीप प्रज्वलित करते समय ब्राह्मण का दर्शन शुभावह है । शूद्रों का दर्शन मध्यम फलदायक तथा म्लेच्छ दर्शन बन्धदायक माना गया है । चूहा और बिल्ली का दर्शन अशुभ तथा गौ एवं अश्व का दर्शन शुभकारक है ॥९४-९६॥
दीपज्वालासमासिद्ध्यै वक्रा नाशविधायिनी ॥ ९६ ॥
सशब्दा भयदा कर्तरुज्ज्वला सखदा मता ।कृष्णा तु शत्रुभयदा वमन्ती पशुनाशिनी।९७ ॥
कृते दीपे यदा पात्रं भग्नं दृश्येत दैवतः।पक्षादक् तदागच्छेद्यजमानो यमालयम् ॥ ९८।
दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो सिद्धि और टेढी मेढी हो तो विनाश करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का शब्द भय कारक होता है । ज्योतिपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कर्ता को सुख प्राप्त होता है । यदि काला हो तो शत्रुभयदायक तथा वमन कर रहा हो तो पशुओं का नाश करता है । दीपदान करन के बाद यदि संयोगवशात् पात्र भग्न हो जावे तो यजमान १५ दिन के भीतर यम लोक का अतिथि बन जाता है ॥९६-९८॥
वर्त्यन्तरं यदा कुर्यात्कार्य सिद्धयेद्विलम्बतः।नेत्रहीनो भवेत्कर्ता तस्मिन्दीपान्तरे कृते।९९।
अशुचिस्पर्शने त्वाधिर्दीपनाशे तु चौरभीः ।श्वमार्जाराखसंस्पर्श भवेद भूपतितो भयम् ॥ १०० ॥
अब दीपदान के शुभाशुभ कर्तव्य कहते हैं – दीप में दूसरी बत्ती डालने से कार्य सिद्ध में विलम्ब है, उस दीपक से अन्य दीपक जलाने वाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है । अशुद्ध अशुचि अवस्था में दीप का स्पर्श करने से आधि व्याधि उत्पन्न होती है । दीपक के नाश होने पर चोरों से भय तथा कुत्ते, बिल्ली एवं चूहे आदि जन्तुओं के स्पर्श से राजभय उपस्थित होता है ॥९९-१००॥
यात्रारम्भे वसुपलैः कृतो दीपोऽखिलेष्टदः।तस्माद्दीपः प्रयत्नेन रक्षणीयोऽन्तरायतः ॥ १०१॥
यात्रा करते समय ८ पल की मात्रा वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूर्ण करता है । इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों से सावधानी पूर्वक दीप की रक्षा करनी चाहिए जिससे विघ्न न हो ॥१०१॥
आ समाप्तेः प्रकुर्वीत ब्रह्मचर्य च भूशयम ।स्त्रीशूद्रपतितादीनां सम्भाषामपि वर्जयेत् ॥ १०२॥
दीप की समाप्ति पर्यन्त कर्ता ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये भूमि पर शयन करे तथा स्त्री, शूद्र और पतितो से संभाषण भी न करे ॥१०२॥
जपेत्सहस्रं प्रत्येक मन्त्रराजं नवाक्षरम ।तोत्रपाठ प्रतिदिन निशीथिन्यां विशेषतः ॥ १०३॥
प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर समाप्ति पर्यन्त प्रतिदिन नवाक्षर मन्त्र (द्र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र का पाठ विशेष रुप से रात्रि के समय करना चाहिए ॥१०३॥
एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो मन्त्रनायकम् ।सहस्त्रं प्रजपेद्रात्रौ सोऽभीष्टं क्षिप्रमाप्नुयात् ॥ १०४ ॥
निशीथ काल में एक पैर से खडा हो कर दीप के संमुख जो व्यक्ति इस मन्त्रराज का १ हजार जप करता है वह शीघ्र ही अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥
समाप्य शोभने घस्त्रे सम्भोज्य द्विजनायकान्।कुम्भोदकेन कर्तारमभिषिञ्चेन्मनु स्मरन् ॥ १०५॥
इस प्रयोग को उत्तम दिन में समाप्त कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद कुम्भ के जल से मूलमन्त्र द्वारा कर्ता का अभिषेक करना चाहिए ॥१०५॥
कर्ता तु दक्षिणां दद्यात् पुष्कलां तोषहेतवे ।गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्यसुतो नृपः॥ १०६ ॥
कर्ता साधक अपने गुरु को संतोषदायक एवं पर्याप्त दक्षिणा दे कर उन्हें संतुष्ट करे । गुरु के प्रसन्न हो जाने पर कृतवीर्य पुत्र कार्तवीर्यार्जुन साधक के सभी अभीष्टों को पूर्ण करते हैं ॥१०६॥
गुर्वाज्ञया स्वयं कुर्याद्यदि वा कारयेद् गुरुम् ।कृत्वा रत्नादिदानेन दीपदानं धरापतेः॥१०७ ॥
गुर्वाज्ञामन्तरा कुर्याद्यो दीपं स्वेष्टसिद्धये ।प्रत्युतानुभवत्येष हानिमेव पदे पदे ॥ १०८ ॥
यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं करना चाहिए अथवा गुरु को रत्नादि दान दे कर उन्हीं से कार्तवीर्याजुन को दीपदान कराना चाहिए । गुरु की आज्ञा लिए बिना जो व्यक्ति अपनी इष्टसिद्धि के लिए इस प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कार्यसिद्धि की बात तो दूर रही, प्रत्युत वह पदे पदे हानि उठाता है ॥१०७-१०८॥
दीपदानविधिं ब्रूयात्कृतघ्नादिषु नो गुरुः ।दृष्टेभ्यः कथितो मन्त्रो वक्तुर्दुःखावहो भवेत् ॥ १०९॥
उत्तमं गोघृतं प्रोक्तं मध्यमं महिषीभवम् ।तिलतैले तु तादृक्स्यात्कनीयोऽजादिज घृतम् ॥ ११० ॥
आस्यारोगे सुगन्धेन दद्यात्तैलेन दीपकम् ।सिद्धार्थसम्भवनाथ द्विषतां नाशहेतवे ॥ १११॥
फलैर्दशशतैर्दीपे विहिते चेन्न दृश्यते ।कार्यसिद्धिस्तदात्रिस्तु दीपः कार्यो यथाविधि ॥ ११२॥
कृतघ्न आदि दुर्जनों को इस दीपदान की विधि नहीं बतानी चाहिए । क्योंकि यह मन्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने वाले को दुःख देता है । दीप जलाने के लिए गौ का घृत उत्तम कहा गया है, भैंस का घी मध्यम तथा तिल का तेल भी मध्यम कहा गया है । बकरी आदि का घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगन्धित तेलों से दीप दान करना चाहिए । शत्रुनाश के लिए श्वेत सर्वप के तेल का दीप दान करना चाहिए । यदि एक हजार पल वाले दीप दान करने से भी कार्य सिद्धि न हो तो विधि पूर्वक तीन दीपों का दान करना चाहिए । ऐसा करने से कठिन से भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाता है ॥१०९-११२॥
तदा सुदुर्लभं कार्य सिद्ध्यत्येव न संशयः।यथाकथंचिद्यः कुर्याद् दीपदानं स्ववेश्मनि॥ ११३॥
विघ्नाः सर्वेरिभिः साकं तस्य नश्यन्ति दूरतः।सर्वदा जयमाप्नोति पुत्रान् पौत्रान् धनं यशः॥ ११४॥
यथाकथंचिद्यो दीपं नित्यं गेहे समाचरेत्।कार्तवीर्यार्जुनप्रीत्यै सोऽभीष्टं लभते नरः॥ ११५॥
जिस किसी भी प्रकार से जो व्यक्ति अपने घर में कार्तवीर्य के लिए दीपदान करता है, उसके समस्त विघ्न और समस्त शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव विजय प्राप्त करता है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यश प्राप्त करता है । पात्र, घृत, आदि नियम किए बिना ही जो व्यक्ति किसी प्रकार से प्रतिदिन घर में कार्तवीर्यार्जुन की प्रसन्नता के लिए दीपदान करता है वह अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥११३-११५॥
दीपप्रियः कार्तवीर्यों मार्तण्डो नतिवल्लभः।देवानां तोषकराणि नमस्कारादीनिस्तुतिप्रियो महाविष्णुर्गणेशस्तर्पणप्रियः॥११६॥
दुर्गाऽर्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियःशिवः।तस्मात्तेषां प्रतोषाय विदध्यात्तत्तदादृतः।११७॥
तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के लिए क्रियमाण कर्तव्य का निर्देश करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं –
कार्तवीर्यार्जुन को दीप अत्यन्त प्रिय है, सूर्य को नमस्कार प्रिय है, महाविष्णु को स्तुति प्रिय है, गणेश को तर्पण, भगवती जगदम्बा को अर्चना तथा शिव को अभिषेक प्रिय है । इसलिए इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका प्रिय संपादन करना चाहिए ॥११६-११७॥
॥इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रकथनं नाम सप्तदशस्तरङ्गः ॥ १७॥
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वे भगवान् सहस्रबाहू विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे । और स्वयं दत्तात्रेय ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें स्वेक्षा से वरदान दिया था।
दस वरदान जिन भगवान् दत्तात्रेय ने कार्तवीर्यार्जुन को प्रदान किये थे वे इस प्रकार है।
1- ऐश्वर्य शक्ति प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।
2- दूसरो के मन की बात जानने का ज्ञान हो।
3- युद्ध में कोई सामना न कर सके।
4- युद्ध के समय उनकी सहत्र भुजाये प्राप्त हो, उनका भार न लगे
5- पर्वत 'आकाश" जल" पृथ्वी और पाताल में अविहत गति हो।
6-मेरी मृत्यु अधिक श्रेष्ठ हाथो से हो।
7-कुमार्ग में प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।
8- श्रेष्ठ अतिथि की निरंतर प्राप्ति होती रहे।
9- निरंतर दान से धन न घटे।
10- स्मरण मात्र से धन का आभाव दूर हो जाऐं एवं भक्ति बनी रहे।
मांगे गए वरदानों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि सहस्त्रबाहु-अर्जुन अर्थात् कार्तवीर्यार्जुन-ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार आचरण करने वाले, शत्रु के मन की बात जान लेने वाले, हमेशा सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथि सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने।
पृथ्वी लोक मृत लोक है, यहाँ जन्म लेने वाला कोई भी अमरत्व को प्राप्त नहीं है, यहाँ तक की दुसरे समाज के लोग जो परशुराम को भगवान् की संज्ञा प्रदान करते है और सहस्त्रबाहु को कुछ और की संज्ञा प्रदान कर रहे है, परशुराम द्वारा निसहाय लोगों अथवा क्षत्रियों के अबोध शिशुओ का अनावश्यक बध करना जैसे कृत्यों से ही क्षुब्ध होकर त्रेतायुग में भगवान् राम ने उनसे अमोघ शक्ति वापस ले ली थी।
और उन्हें तपस्या हेतु वन जाना पड़ा, वे भी अमरत्व को प्राप्त नहीं हुए। भगवान् श्री रामचंद्र द्वारा अमोघ शक्ति वापस ले लेना ही सिद्ध करता है की, परशुराम सन्मार्ग पर स्वयं नहीं चल रहे थे। एक समाज द्वारा दुसरे समाज के लोगो की भावनाओं को कुरेदना तथा भड़काना सभ्य समाज के प्राणियों, विद्वानों को शोभा नहीं देता है। महाराज कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हमारे लिए पूज्यनीय थे, पूज्यनीय रहेंगे। परशुराम ने केवल उनकी सहस्र भुजाओं का उच्छेदन भले ही कर दिया हो परन्तु उनका वध कभी नहीं हुआ महाराज सहस्रार्जुन का वध नही हुआ। अन्त समय में उन्होंने समाधि ले ली।
इसकी व्याख्या कई पौराणिक कथाओ में की गयी है। साक्ष्य के रूप मे माहेश्वर स्थित श्री राजराजेश्वर समाधि मन्दिर, प्रामाणिक साक्ष्य है ; जो वर्तमान में है।
"श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन मंदिर" में समाधि पर अनंत काल से (11) अखंड दीपक प्रज्ज्वलित करने की पृथा है। यहाँ शिवलिंग स्थापित है जिसमें श्री कार्तवीर्यार्जुन की आत्म-ज्योति ने प्रवेश किया था। उनके पुत्र जयध्वज के राज्याभिषेक के बाद उन्होने यहाँ योग समाधि ली थी। "मन्त्रमहोदधि" ग्रन्थ के अनुसार श्री कार्तवीर्यार्जुन को दीपकप्रिय हैं इसलिए समाधि के पास 11अखंड दीपक जलाए जाते रहे हैं। दूसरी ओर दीपक जलने से यह भी सिद्ध होता है की यह समाधि श्री कार्तवीर्यार्जुन की है। भारतीय समाज में स्मारक को पूजने की परम्परा नही है परन्तु महेश्वर के मन्दिर में अनंत काल से पूजन परंपरा और अखंड दीपक जलते रहे हैं। अतएव कार्तवीर्यार्जुन के वध की मान्यता निरधार व मन:कल्पित है।
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त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
"महाभारत ग्रन्थ और भारतीय पुराणों में वर्णित जिन क्षत्रियों को परशुराम द्वारा मारने की बात हुई है वे मुख्यतः सहस्रबाहू के वंशज हैहय वंश के यादव ही थे । भार्गवों- जमदग्नि, परशुराम आदि और हैहयवंशी यादवों की शत्रुता का कारण बहुत गूढ़ है । जमदग्नि और सहस्रबाहू परस्पर हमजुल्फ( साढू संस्कृत रूप- श्यालिबोढ़्री ) थे। जिनके परिवार सदृश सम्बन्ध थे। ब्रह्मवैवर्त- पुराण में एक प्रसंग के अनुसार सहस्रबाहू अर्जुन से -'परशुराम ने कहा-★ हे ! धर्मिष्ठ राजेन्द्र! तुम तो चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु के अंशभूत बुद्धिमान दत्तात्रेय के शिष्य हो। यद्पि विष्णु का अञ्शभूत" उपर्युक्त श्लोक में दत्तात्रेय का सम्बोधन है।
श्रुणु राजेन्द्र ! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव। विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।५४।
सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपति खण्ड अध्याय (35) तुम स्वयं विद्वान हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ?
तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ? जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक-संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी। भूपाल! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी ? यह सारा संसार तो कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल की बूँद की तरह मिथ्या ही है। सुयश को अथवा अपयश, उसकी तो कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है। अहो ! सत्पुरुषों की दुष्कीर्ति हो, इससे बढ़कर और क्या विडम्बना होगी ? कपिला कहाँ गयी, तुम कहाँ गये, विवाद कहाँ गया और मुनि कहाँ चले गये; परन्तु एक विद्वान राजा ने जो कर्म कर डाला, वह हलवाहा भी नहीं कर सकता।
मेरे धर्मात्मा पिता ने तो तुम-जैसे नरेश को उपवास करते देखकर भोजन कराया और तुमने उन्हें वैसा फल दिया ? राजन् ! तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया है, तुम प्रतिदिन ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देते हो और तुम्हारे यश से सारा जगत व्याप्त है। फिर बुढ़ापे में तुम्हारी अपकीर्ति कैसे हुई ?
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एक स्थान पर परशुराम - कार्तवीर्य्य अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहते हैं।
(प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। पुराणों अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान कि वर्णन करते हैं। निम्न संहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड को समान ही हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण़्डः प्रथम (कृतयुगसन्तानः).अध्यायः ४५८ में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।
★श्रीनारायण उवाच★
शृणु लक्ष्मि! माधवांशः पर्शुराम उवाच तम् ।
कार्तवीर्य रणमध्ये धर्मभृतं वचो यथा ।१।
शृणु राजेन्द्र! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव ।
विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।२।
कथे दुर्बुद्धिमाप्तस्त्वमहनो वृद्धभूसुरम् ।
ब्राह्मणी शोकसन्तप्ता भर्त्रा सार्धे गता सती।३।
किं भविष्यति ते भूप परत्रैवाऽनयोर्वधात् ।
क्वगता कपिलासा तेकीदृक्कूलंभविष्यति।४।
यत्कृतं तु त्वया राजन् हालिको न करिष्यति।
सत्कीर्तिश्चाथदुष्कीर्तिःकथामात्राऽवशेषिता।५।
त्वया कृतो घोरतरस्त्वन्यायस्तत्फलं लभ ।
उत्तरं देहि राजेन्द्र समाजे रणमूर्धनि ।६।
कार्तवीर्याऽर्जुनः श्रुत्वा प्रवक्तुमुपचक्रमे।
शृणु राम हरेरंशस्त्वमप्यसि न संशयः।७।
सद्बुद्ध्या कर्मणा ब्रह्मभावनां करोति यः ।
स्वधर्मनिरतः शुद्धो ब्राह्मणः स प्रकीर्त्यते ।८।
अन्तर्बहिश्च मननात् कुरुते फलदां क्रियाम् ।
मौनी शश्वद् वदेत् काले हितकृन्मुनिरुच्यते।९।
स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने ।
रामवृत्तिः समभावो योगी यथार्थ उच्यते ।। 1.458.10।
सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत् समताधिया।
हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स उच्यते।११।
राष्ट्रीयाः शतशश्चापि महाराष्ट्राश्च वंगजाः।गौर्जराश्च कलिंगाश्च रामेण व्यसवः कृताः।५२।
द्वादशाक्षौहिणीः रामो जघान त्रिदिवानिशम् ।
तावद्राजा कार्तवीर्यः श्रीलक्ष्मीकवचं करे ।।५३।।
बद्ध्वा शस्त्रास्त्रसम्पन्नो रथमारुह्य चाययौ ।
युयुधे विविधैरस्त्रैर्जघान ब्राह्मणान् बहून्।५४।
तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
ददौ शूलं हि रामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
अर्थ-उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म( काला-कवच) प्रदान किया।५८।
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जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप रामकन्धरे।
मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये ।।
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
ब्राह्मणं जीवयामास शंभुर्नारायणाज्ञया ।
चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा।८७।
नारायण की आज्ञा से शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक ब्राह्मण परशुराम को पुन: जीवित कर दिया चेतना पाकर परशुराम ने "पाशुपत" अस्त्र को ग्रहण किया।
दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को कार्तवीर्य ने स्तम्भित( जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण-कवच) को परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।
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वैसे भी परशुराम का स्वभाव ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि से नहीं अपितु सहस्रबाहु से मेल खाता है विज्ञान की भाषा में इसे ही जेनेटिक अथवा आनुवंशिक गुण कहते हैं ।
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विदित हो कि सहस्रबाहु की पत्नी "वेणुका और परशुराम की माता तथा पिता जमदग्नि की पत्नी "रेणुका सगी बहिनें थी।
रेणुका सहस्रबाहू के पौरुष और पराक्रम पर आसक्त और उसकी भक्त थी ।
जबकि जमदग्नि ऋषि निरन्तर साधना में संलग्न रहते थे। वे अपनी पत्नी को कभी पत्नी का सुख नहीं दे पाते थे ।
राजा रेणु की पुत्री होने से रेणुका में रजोगुण की अधिकता होने के कारण से भी वह रजोगुण प्रधान रति- तृष्णा से पीड़ित रहती थी । और सहस्रबाहु से प्रणय निवेदन जब कभी करती रहती थी परन्तु सहस्रबाहू एक धर्मात्मा राजा ही नहीं सम्राट भी था। परन्तु पूर्वज ययाति की कथाओं ने उन्हें भी सहमत कर दिया जब शर्मिष्ठा दासी ने उन ययाति से एकान्त में प्रणय निवेदन किया था और उसे पीड़ा निवारक बताया था । उसी के परिणाम स्वरूप रेणुका का एकान्त प्रणय निवेदन सहस्रबाहू ने भी स्वीकार कर लिया परिणाम स्वरूप परशुराम की उत्पत्ति हुई "इस प्रकार की समभावनामूलक किंवदन्तियाँ भी प्रचलित हैं। परशुराम अपने चार भाईयों सबसे छोटे थे ।
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रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या थीं जो क्षत्रिय राजा था । जो परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थीं, जिनके पाँच पुत्र थे।
"रुमणवान "सुषेण "वसु "विश्वावसु "परशुराम
विशेष—रेणुका विदर्भराज की कन्या और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी। एक बार ये गंगास्नान करने गई। वहा राजा चित्ररथ को स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा करते हुए देख रेणुका ने देख लिए तो रेणुका के मन में रति -पिपासा( मेैंथुन की इच्छा) जाग्रत हो गयी। चित्ररथ भी एक यदुवंश के राजा थे ; जो विष्णु पुराण के अनुसार (रुषद्रु) और भागवत के अनुसार (विशदगुरु) के पुत्र थे।
एक बार ऋतु काल में सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने पर जमदग्नि मुनि को रेणुका और चित्ररथ की समस्त घटना ज्ञात हो गयी।
उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ।
अन्त में परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा।
जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह रेणुका (पद्म) कमल से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे। सन्दर्भ- (महाभारत- अरण्यपर्व- अध्याय-११६ )
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"परन्तु उपर्युक्त आख्यानक के कुछ पहलू विचारणीय हैं। जैसे कि रेणुका का कमल से उत्पन्न होना, और जमदग्नि के द्वारा उसका पुनर्जीवित करना ! दोनों ही घटनाऐं प्रकृति के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से काल्पनिक हैं । जैसा की पुराणों में अक्सर किया जाता है ।
और तृतीय आख्यानक यह है कि "भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुराम का उत्पन्न होना है।
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"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करना विष्णु के अवतारी का गुण नहीं हो सकता है।
महाभारत शान्तिपर्व में परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ?
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"मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
"सा पुनःक्षत्रियशतैःपृथिवी सर्वतः स्तृता।परावसोर्वचःश्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।60।
"ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः। ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।61।
"स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।)
"जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
"त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ४८)
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"अर्थ- मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये हैं।राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे।
"नरेश्वर! उन्होंने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी।परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे।उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् ( स्रुवा)लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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(ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
में भी वर्णन है कि २१ बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी!
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"एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् ।।
रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३
"गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४। __________________
सन्दर्भ- कालिकापुराण अध्यायः (८३) मेेंं परशुराम जन्म की कथा वर्णित है।
"कालिकापुराणम्। "त्र्यशीतितमोऽध्यायः।83।
"और्व्व उवाच"
"अथ काले व्यतीते तु जमदग्निर्महातपाः।
विदर्भराजस्य सुतां प्रयत्नेन जितां स्वयम्।१।
"भार्यार्थं प्रतिजग्राह रेणुकां लक्षणान्विताम्।
सा तस्मात् सुषुवे षत्रांश्चतुरो वेदसम्मितान्।2।"रुषण्वन्तं सुषेणां च वसुं विश्वावसुं तथा।पश्चात् तस्यां स्वयं जज्ञे भगवान् परशुराम:।३।
"कार्तवीर्यवधायाशु शक्राद्यैः सकलैः सुरैः।
याचितः पंचमः सोऽभूत् रामाह्वयस्तु सः।४।
"भारावतरणार्थाय जातः परशुना सह।
सहजं परशुं तस्य न जहाति कदाचन।५।
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"अयं निजपितामह्याश्चरुभुक्तिविपर्ययात्।
ब्राह्मणःक्षत्रियाचारो रामोऽभूतक्रूरकर्मकृत्।६।
"स वेदानखिलान् ज्ञात्वा धनुर्वेदं च सर्वशः।
सततं कृतकृत्योऽभूद् वेदविद्याविशारदः।७।
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"एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।
गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८।
"भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।
सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्।९।
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"तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्।
रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे।१०।
"स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदःसमजायत।
विचेतनाम्भसाक्लिन्ना त्रस्ता सास्वाश्रमं ययौ।११।
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"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः।१२।
"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।
रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।१३।
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"छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।
ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।१४।
"कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।
गाधिं नृपतिशार्दूलं स चोवाच नृपो मुनिम्।१५।
"भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिगर्धिताः।अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान्।। ८३.१६ ।।
"तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।१७ । "पित्रा शप्तान् महातेजाःप्रसूं परशुनाच्छिनत्। रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वाविक्रोधनोऽभवत्।१८।
"जमदग्निः प्रसन्नःसन्निति वाचमुवाच ह।
प्रीतोऽस्मिपुत्रभद्र ते यत्त्वया मद्वचःकृतम्।१९।
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"तस्मादिष्टान् वरान् कामांस्त्वं वै वरय साम्प्रतम्।
स तु रामो वरान् वव्रे मातुरुत्थानमादितः।२०।
वधस्यास्मरणं तस्या भ्रातृणां शपमोचनम्।
मातृहत्याव्यपनयं युद्धे सर्वत्र वै जयम्।२१।
आयुः कल्पान्तपर्यन्तं क्रमाद् वै नृपसत्तम।
सर्वान् वरान् स प्रददौ जमदग्निर्महातपाः।२२।
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"सुप्तोत्यितेव जननी रेणुका च तदाभवत्।
वधं न चापि सस्मार सहजा प्रकृतिस्थिता।२३।
युद्धे जयं चिरायुष्यं लेभे रामस्तदैव हि।
मातृहत्याव्यपोहाय पिता तं वाक्यमव्रवीत्।२४।
न पुत्र वरदानेन मातृहत्यापगच्छति।
तस्मात् त्वं ब्रह्मकुण्डायगच्छस्नातुं च तज्जले।२५।
तत्र स्नात्वा मुक्तपापो नचिरात् पुनरेष्यसि।
जगद्धिताय पुत्र त्वं ब्रह्मकुण्डं व्रज द्रुतम्।२६।
स तस्य वचन श्रुत्वा रामः परशुधृक् तदा।
उपदेशात् पितुर्घातो ब्रह्मकुण्डं वृषोदकम्।२७।
तत्र स्नानं च विधिवत् कृत्वा धौतपरश्वधः।
शरीरान्निःसृतां मातृहत्यां सम्यग् व्यलोकयत्।२८।
जातसंप्रत्ययः सोऽथ तीर्थमासाद्य तद्वरम्।
वीथीं परशुना कृत्वा ब्रह्मपुत्रमवाहयत्।२९ ।
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ब्रह्मकुण्डात् सृतःसोऽथ कासारे लोहिताह्वये।
कैलासोपत्यकायां तु न्यपतद् ब्रह्मणःसुतः।३०।
तस्यापि सरसस्तीरे समुत्थाय महाबलः।
कुठारेण दिशं पूर्वामनयद् ब्रह्मणः सुतम्।३१।
ततः परत्रापि गिरिं हेमशृङ्गं विभिद्य च।
कामरूपान्तरं पीठमावहद्यदमुं हरिः।३२।
तस्य नाम स्वयं चक्रे विधिर्लोहितगङ्गकम्।
लोहितात् सरसो जातो लोहिताख्यस्ततोऽभवत्।३३।
स कामरूपमखिलं पीठमाप्लाव्य वारिणा।
गोपयन् सर्वतीर्थानि दक्षिणं याति सागरम्।३४।
प्रागेव दिव्ययमुनां स त्यक्त्वा ब्रह्मणः सुतः।
पुनः पतति लौहित्ये गत्वा द्वादशयोजनम्।३५। चैत्रे मासि सिताष्टम्यां यो नरो नियतेन्द्रियः। चैत्रं तु सकलं मासं शुचिः प्रयतमानसः।३६। स्नाति लौहित्यतोये तु स याति ब्रह्मणः पदम्। लौहित्यतोये यः स्नाति स कैवल्यमवाप्नुयात्।३७ ।
इति ते कथितं राजन् यदर्थं मातरं पुरा।अहन् वीरोजामदग्न्यो यस्माद् वाक्रूरकर्मकृत्।३८।
इदं तु महदाख्यानं यः शृणोति दिने दिने। स दीर्घायुः प्रमुदितो बलवानभिजायते।३९। इति ते कथितं राजञ्छरीरार्धं यथाद्रिजा।शम्भोर्जहार वेतालभैरवौ च यथाह्वयौ।४०। यस्य वा तनयौ जातौ यथा यातौ गणेशताम्।किमन्यत् कथये तुभ्यं तद्वदस्व नृपोत्तम।४१।
★मार्कण्डेय उवाच★
इत्यौर्व्वस्य च संवादः सगरेम महात्मना।
योऽसौ कायार्धहरणं शम्भोर्गिरिजया कृतः।४२।
सर्वोऽद्य कथितो विप्राः पृष्टं यच्चान्यदुत्तमम्।
सिद्धस्य भैरवाख्यस्य पीठानां च विनिर्णयम्।४३।
भृङ्गिणश्च यथोत्पत्तिर्महाकालस्य चैव हि।
उक्तं हि वः किमन्यत् तु पृच्छन्तु द्विजसत्तमाः४४।
इति सकलसुतन्त्रं तन्त्रमन्त्रावदातं बहुतरफलकारि प्राज्ञविश्रामकल्पम्।
उपनिषदमवेत्य ज्ञानमार्गेकतानं स्रवति स इह नित्यं यः पठेत् तन्त्रमेतत्।८३.४५ ।
"इति श्रीकालिकापुराणेत्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।
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"महाभारत के अरण्यपर्व वनपर्व के अनुसार परशुराम का जन्म"
★वैशम्पायन उवाच★
स तत्र तामुषित्वैकां रजनीं पृथिवीपतिः। तापसानां परं चक्रे सत्कारं भ्रातृभिः सह।1।लोमशस्तस्य तान्सर्वानाचख्यौ तत्र तापसान्।भृगूनङ्गिरसश्चैव वसिष्ठानथ काश्यपान् ।2।तान्समेत्य सा राजर्षिरभिवाद्य कृताञ्जलिः। रामस्यानुचरं वीरमपृच्छदकृतव्रणम् ।3। कदा नु रामो भगवांस्तापसो दर्शयिष्यति।तमहं तपसा युक्तं द्रष्टुमिच्छामि भार्गवम् ।4।
„अकृतव्रण उवाच„
आयानेवासि विदितो रामस्य विदितात्मनः। प्रीतिस्त्वयि च रामस्य क्षिप्रं त्वां दर्शयिष्यति ।5।चतुर्दशीमष्टमीं च रामं पश्यन्ति तापसाः। अस्यां रात्र्यां व्यतीतायां भवित्री श्वश्चतुर्दशी।6।ततो द्रक्ष्यसि रामं त्वं कृष्णाजिनजटाधरम्'।7।
★युधिष्ठिर उवाच★
भवाननुगतो रामं जामदग्न्यं महाबलम्। प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पूर्ववृत्तस्य कर्मणः ।7। स भवान्कथयत्वद्य यथा रामेण निर्जिताः। आहवे क्षत्रियाः सर्वे कथं केन च हेतुना ।8। अकृतव्रण उवाच
[हन्त ते कथयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्। भृगूणां राजशार्दूल वंशे जातस्य भारत ।9। रामस्य जामदग्न्यस्य चरितं देवसम्मितम्। हैहयाधिपतेश्चैव कार्तवीर्यस् भारत।10। रामेण चार्जुनो नाम हैहयाधिपतिर्हतिः। तस्य बाहुशतान्यासंस्त्रीणि सप्त च पाण्डव।11। दत्तात्रेयप्रसादेन विमानं काञ्चनं तथा। ऐश्वर्यं सर्वभूतेषु पृथिव्यां पृथिवीपते ।12।अव्घाहतगतिश्चैव रथस्तस्य महात्मनः। रथेन तेन तु सदावरदानेन वीर्यवान् ।13।
ममर्द देवान्यक्षांश्च ऋषींश्चैव समन्ततः। भूतांश्चैव स सर्वांस्तु पीडयामास सर्वतः।14। ततो देवाः समेत्याहुर्ऋषयश्च महाव्रताः। देवदेवं सुरारिघ्नं विष्णुं सत्यपराक्रमम्।भगवन्भूतरार्थमर्जुनं जहि वै प्रभो ।15।
विमानेन च दिव्येन हैहयाधिपतिः प्रभुः। शचीसहायं क्रीडन्तं धर्षयामास वासवम्।16।ततस्तु भगवान्देवः शक्रेण सहितस्तदा।कार्तवीर्यविनाशार्थं मन्त्रयामास भारत ।17।यत्तद्भूतहितं कार्यं सुरेन्द्रेण निवेदितम्। संप्रतिश्रुत्य तत्सर्वं भगवाँल्लोकपूजितः। जगाम बदरीं रम्यां स्वमेवाश्रममण्डलम् ।18।
एतस्मिन्नेव काले तु पृथिव्यां पृथिवीपतिः।]
कान्यकुब्जे महानासीत्पार्थिवः सुमहाबलः। गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह ।19। वने तु तस्य वसतः कन्या जज्ञेऽप्सरःसमा। ऋचीको भार्गवस्तां च वरयामास भारत ।20। तमुवाच ततो गाधिर्ब्राह्मणं संशितव्रतम्। उचितं नः कुले किंचित्पूर्वैर्यत्संप्रवर्तितम् ।21। एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्। सहस्रं वाजिनां शुक्लमिति विद्धि द्विजोत्तम ।22।
न चापि भगवान्वाच्योदीयतामिति भार्गव।देया मे दुहिता चैव त्वद्विधाय महात्मने ।23।
"ऋचीक उवाच! एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।दास्याम्यश्वसहस्रं ते मम भार्या सुताऽस्तु ते ।24।
"गाधिरुवाच। ददास्यश्वसहस्रं मे तव भार्या सुताऽस्तु मे' ।-25।
"अकृतव्रण उवाच।
स तथेति प्रतिज्ञाय राजन्वरुणमब्रवीत्। एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।सहस्रं वाजिनामेकं शुल्कार्थं प्रतिदीयताम्।26।तस्मै प्रादात्सहस्रं वै वाजिनां वरुणस्तदा।तदश्वतीर्थं विख्यातमुत्थिता यत्र ते हयाः।27।गङ्गायां कान्यकुब्जे वै ददौ सत्यवतीं तदा। ततो गाधिः सुतां चास्मै जन्याश्चासन्सुरास्तदा।28।लब्धं हयसहस्रं तु तां च दृष्ट्वा दिवौकसः। विस्मयं परमं जग्मुस्तमेव दिवि संस्तुवन्।29।
धर्मेण लब्ध्वा तां भार्यामृचीको द्विजसत्तमः।यथाकामं यथाजोषं तया रेमे सुमध्यया ।30। तं विवाहे कृतेराजन्सभार्यमवलोककः। आजगाम भृगुश्रेष्ठः पुत्रं दृष्ट्वा ननन्द च ।31
भार्यापती तमासीनं भृगुं सुरगणार्चितम्। अर्चित्वा पर्युपासीनौ प्राञ्जली तस्थतुस्तदा ।32। ततः स्नुषां स भगवान्प्रहृष्टो भृगुरब्रवीत्। वरं वृणीष्वसुभगे दाता ह्यस्मितवेप्सितम्।33।सा वै प्रसादयाभास तं गुरुं पुत्रकारणात्।आत्मनश्चैव मातुश्च प्रसादं च चकार सः ।34। "भृगुरुवाच". ऋतौ त्वं चैव माता च स्नाते पुंसवनाय वै।आलिङ्गेतां पृथग्वृक्षौ साऽस्वत्थं त्वमुदुम्बरम् ।35।चरुद्वयमिदं भद्रे जनन्याश्च तवैव च।विश्वमावर्तयित्वा तु मया यत्नेन साधितम् ।36।प्राशितव्यं प्रयत्नेन तेत्युक्त्वाऽदर्शनं गतः।आलिङ्गने चरौ चैव चक्रतुस्ते विपर्ययम् ।37। ततः पुन स भगवान्काले बहुतिथे गते। दिव्यज्ञानाद्विदित्वा तु भगवानागतः पुनः ।38।अथोवाच महातेजा भृगुःसत्यवतीं श्नुषाम्।39।
उपयुक्तश्चरुर्भद्रे वृक्षे चालिङ्गनं कृतम्। विपरीतेन ते सुभ्रूर्मात्रा चैवासि वञ्चिता ।40।
क्षत्रियो ब्राह्मणाचारो मातुस्तव सुतो महान्। भविष्यतिमहावीर्यःसाधूनां मार्गमास्थितः।41।
ततः प्रसादयामास श्वशुरं सा पुनःपुनः। न मे पुत्रो भवेदीदृक्कामं पौत्रो भवेदिति ।42।
एवमस्त्विति सा तेनपाण्डव प्रतिनन्दिता। कालं प्रतीक्षती गर्भं धारयामास यत्नतः।43।
जमदग्निं ततः पुत्रं जज्ञे सा काल आगते। तेजसा वर्चसा चैव युक्तं भार्गवनन्दनम् ।44।
स वर्धमानस्तेजस्वी वेदस्याध्ययनेन च। बहूनृषीन्महातेजाः पाण्डवेयात्यवर्तत ।45।
तं तु कृत्स्नो धनुर्वेदः प्रत्यभाद्भरतर्षभ। चतुर्विधानि चास्त्राणि भास्करोपमवर्चसम् ।46।
"इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणितीर्थयात्रापर्वणि पञ्चादशाधिकशततमोऽध्यायः।115
महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद देखे नीचें-
अकृतव्रण के द्वारा युधिष्ठिर से परशुराम जी के उपाख्यान के प्रसंग में ऋचीक मुनि का गाधिकन्या के साथ विवाह और भृगु ऋषि की कृपा से जमदग्नि की उत्पति का वर्णन ।।
वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! उस पर्वत पर एक रात निवास करके भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने तपस्वी मुनियों का बहुत सत्कार किया। लोमश जी ने युधिष्ठिर से उन सभी तपस्वी महात्माओं का परिचय कराया। उनमें भृगु, अंगिरा, वसिष्ठ तथा कश्यप गोत्र के अनेक संत महात्मा थे।
उन सबसे मिलकर राजर्षि युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और परशुराम जी के सेवक वीरवर अकृतव्रण से पूछा- ‘भगवन परशुराम जी इन तपस्वी महात्माओं को कब दर्शन देंगे? उसी निमित्त से मैं भी उन भगवन भार्गव का दर्शन करना चाहता हूँ।' अकृतव्रण ने कहा- राजन! आत्मज्ञानी परशुराम को पहले ही यह ज्ञात हो गया था कि आप आ रहे हैं। आप पर उनका बहुत प्रेम है, अत: वे शीध्र ही आपको दर्शन देंगे। ये तपस्वी लोग प्रत्येक चतुर्दशी ओर अष्टमी को परशुराम जी का दर्शन करते हैं। आज की रात बीत जाने पर कल सबेरे चतुर्दशी हो जायेगी। युधिष्ठिर ने पूछा- मुने ! आप महाबली परशुराम जी के अनुगत भक्त हैं। उन्होंने पहले जो-जो कार्य किये हैं, उन सबको आपने प्रत्यक्ष देखा है। अत: हम आपसे जानना चाहते हैं कि परशुराम जी ने किस प्रकार ओर किस कारण से समस्त क्षत्रियों को युद्ध में पराजित किया था। आप वह वृत्तांत आज मुझे बताइये। अकृतव्रण ने कहा- भरतकुलभुषण नृपश्रेष्ट युधिष्ठिर! भृगुवंशी परशुराम जी की कथा बहुत बड़ी और उत्तम है, मैं आपसे उसका वर्णन करूँगा। भारत ! जमदग्रिकुमार परशुराम तथा हैहयराज कार्तवीर्य का चरित्र देवताओं के तुल्य है। पाण्डुनन्दन! परशुराम ने अर्जुन नाम से प्रसिद्ध जिस हैहयराज कार्तवीर्य का वध किया था, उसके एक हजार भुजाएं थीं। पृथ्वीपते ! श्रीदत्तात्रेय की कृपा से उसे एक सोने का विमान मिला था और भूतल के सभी प्राणीयों पर उसका प्रभुत्व था। महामना कार्तवीर्य के रथ की गति को कोई भी रोक नहीं सकता था। उस रथ और वर के प्रभाव से शक्ति सम्पन्न हुआ कार्तवीर्य अर्जुन सब ओर घूमकर सदा देवताओं, यक्षों तथा ऋषियों को रौंदता फिरता था और सम्पूर्ण प्राणीयों को भी सब प्रकार से पीड़ा देता था।
कार्तवीर्य का ऐसा अत्याचार देख देवता तथा महान व्रत का पालन करने वाले ऋषि मिलकर दैत्यों का विनाश करने वाले सत्यपराक्रमी देवाधिदेव भगवान विष्णु के पास जा इस प्रकार बोले- ‘भगवन! आप समस्त प्राणीयों की रक्षा के लिए कृतवीर्यकुमार अर्जुन का वध कीजिये।‘ एक दिन शक्तिशाली हैहयराज ने दिव्य विमान द्वारा शची के साथ क्रीड़ा करते हुए देवराज इन्द्र पर आक्रमण किया। भारत!
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तब भगवान विष्णु ने कार्तवीर्य अर्जुन का नाश करने के सम्बंध में इन्द्र के साथ विचार-विनिमय किया।
समस्त प्राणीयों के हित के लिये जो कार्य करना आवश्यक था, उसे देवेन्द्र ने बताया। तत्पश्चात विश्ववन्दित भगवान विष्णु ने वह सब कार्य करने की प्रतिज्ञा करके अत्यन्त रमणीय बदरीतीर्थ की यात्रा की जहाँ उनका विशाल आश्रम था।
महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद
इसी समय इस भूतल पर कान्यकुब्ज देश में एक महाबली महाराज शासन करते थे, जो गाधि के नाम से विख्यात थे। वे राजधानी छोड़कर वन में गये और वहीं रहने लगे। उनके वनवास काल में ही एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अप्सरा के समान सुन्दरी थी। भारत! विवाह योग्य होने पर भृगुपुत्र ऋचीक मुनि ने उसका वरण किया। उस समय राजा गाधि ने कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रह्मर्षि ऋचीक से कहा- ‘दिजश्रेष्ठ! हमारे कुल में पूर्वजों ने जो कुछ शुल्क लेने का नियम चला रखा है, उसका पालन करना हम लोगों के लिए भी उचित है। अत: आप यह जान लें, इस कन्या के लिए एक सहस्र वेगशाली अश्व शुल्क रूप में देने पड़ेंगे, जिनके शरीर का रंग तो सफेद और पीला मिला हुआ-सा और कान एक ओर से काले रंग के हों। भृगुनन्दन! आप कोई निन्दनीय तो हैं नहीं, यह शुल्क चुका दीजिये, फिर आप जैसे महात्मा को में अवश्य अपनी कन्या ब्याह दूंगा’।
ऋचीक बोले- राजन! मैं आपको एक ओर से श्याम कर्ण वाले पाण्डु रंग के वेगशाली अश्व एक हजार की संख्या में अर्पित करूँगा। आपकी पुत्री मेरी धर्मपत्नी बने।
अकृतव्रण कहते हैं- राजन! इस प्रकार शुल्क देने की प्रतिज्ञा करके ऋचीक मुनि ने वरुण के पास जाकर कहा- देव! मुझे शुल्क में देने के लिए एक हजार ऐसे अश्व प्रदान करें, जिनके शरीर का रंग पाण्डुर और कान एक ओर से श्याम हों। साथ ही वे सभी अश्व तीव्रगामी होने चाहिये।‘ उस समय वरुण ने उनकी इच्छा के अनुसार एक हजार श्याम कर्ण के घोड़े दे दिये। जहाँ वे श्याम कर्ण के घोड़े प्रकट हुए थे, वह स्थान अश्वतीर्थ नाम से विख्यात हुआ। तत्पश्चात राजा गाधि ने शुल्क रूप में एक हजार श्याम कर्ण घोड़े प्राप्त करके गंगातट पर कान्यकुब्ज नगर में ऋचीक मुनि को अपनी पुत्री सत्यवती ब्याह दी। उस समय देवता बराती बने थे। देवता उन सबको देखकर वहाँ से चले गये।" विप्रवर ऋचीक ने धर्मपूर्वक सत्यवती को पत्नी के रूप में प्राप्त करके उस सुन्दरी के साथ अपनी इच्छा के अनुसार सुखपूर्वक रमण किया।
राजन! विवाह करने के पश्चात पत्नी सहित ऋचीक को देखने के लिए महर्षि भृगु उनके आश्रम पर आये अपने श्रेष्ठ पुत्र को विवाहित देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन दोनों पति-पत्नि ने पवित्र आसन पर विराजमान देववृन्दवन्दित गुरु (पिता एवं श्वसुर) का पूजन किया और उनकी उपासना में संलग्न हो वे हाथ जोड़े खड़े रहे। भगवान भृगु ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपनी पुत्रवधु से कहा- ‘सौभाग्यवती वधु ! कोई वर मांगो, मैं तुम्हारी इच्छा के अनुरूप वर प्रदान करूँगा’। सत्यवती ने श्वसुर को अपने और अपनी माता के लिये पुत्र-प्राप्ति का उद्देश्य रखकर प्रसन्न किया। तब भृगु जी ने उस पर कृपादृष्टि की। भृगु जी बोले- 'वधु ! ऋतुकाल में स्नान करने के पश्चात तुम और तुम्हारी माता पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से दो भिन्न-भिन्न वृक्षों का आलिगंन करो। तुम्हारी माता पीपल का और तुम गूलर का आलिंगन करना।'
महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद-
'भद्रे ! मैंने विराट पुरुष परमात्मा का चिन्तन करके तुम्हारे और तुम्हारी माता के लिये यत्नपूर्वक दो चरु तैयार किये हैं। तुम दोनों प्रयन्तपूर्वक अपने-अपने चरु का भक्षण करना।' ऐसा कहकर भृगु अन्तर्धान हो गये। इधर सत्यवती और उसकी माता ने वृक्षों के आलिंगन और चरु-भक्षण में उलट-फेर कर दिया।
तदनन्तर बहुत दिन बीतने पर भगवान भृगु अपनी दिव्य ज्ञानशक्ति से सब बातें जानकर पुन: वहाँ आये। उस समय महातेजस्वी भृगु अपनी पुत्रवधु सत्यवती से बोले- ‘भद्रे! तुमने चरु-भक्षण और वृक्षों का आलिगंन किया है, उसमें उलट-फेर करके तुम्हारी माता ने तुम्हें ठग लिया। सुभ्र ! इस भूल के कारण तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियोचित आचार-विचार वाला होगा और तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित आचार-विचार का पालन करने वाला होगा।
वह पराक्रमी बालक साधु-महात्माओं के मार्ग का अवलम्बन करेगा’। तब सत्यवती ने बार-बार प्रार्थना करके पुन: अपने श्वसुर को प्रसन्न किया और कहा- ‘भगवन! मेरा पुत्र ऐसा न हो। भले ही, पौत्र क्षत्रिय स्वभाव का हो जाये’।
पाण्डुनन्दन! तब ‘एवमस्तु’ कहकर भृगु ने अपनी पुत्रवधु का अभिनन्दन किया। तत्पश्चात प्रसव का समय आने पर सत्यवती ने जमदग्नि नामक पुत्र को जन्म दिया। भार्गवनन्दन जमदग्रि तेज और ओज (बल) दोनों से सम्पन्न थे।
युधिष्ठिर ! बड़े होने पर महातेजस्वी जमदग्रि मुनि वेदाध्ययन द्वारा अन्य बहुत-से ऋषियों से आगे बढ़ गये। भरतश्रेष्ठ ! सूर्य के समान तेजस्वी जमदग्रि की बुद्धि में सम्पूर्ण धनुर्वेद और चारों प्रकार के अस्त्र स्वत: स्फुरित हो गये।
"इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान विषयक एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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"अकृतव्रण उवाच"
स वेदाध्ययने युक्तो जमदग्निर्महातपाः।
तपस्तेपे ततो देवान्नियमाद्वशमानयत् ।1।
स प्रसेनजितं राजन्नधिगम्य नराधिपम्।
रेणुकां वरयामास स च तस्मै ददौ नृपः।2।
रेणुकां त्वथ संप्राप्य भार्यां भार्गवनन्दनः।
आश्रमस्थस्तया सार्धं तपस्तेपेऽनुकूलया ।।3।
तस्याः कुमाराश्चत्वारो जज्ञिरे रामपञ्चमाः।
सर्वेषामजघन्यस्तु राम आसीञ्जघन्यजः ।4।
फलाहारेषु सर्वेषु गतेष्वथ सुतेषु वै।
रेणुका स्नातुमगमत्कदाचिन्नियतव्रता ।5।
सा तु चित्ररथं नाम मार्तिकावतकं नृपम्।
ददर्श रेणुका राजन्नागच्छन्ती यदृच्छया ।6।
क्रीडन्तं सलिले दृष्ट्वा सभार्यं पद्ममालिनम्।
ऋद्धिमन्तं ततस्तस्य स्पृहयामास रेणुका ।7।
व्यभिचाराच्च तस्मात्सा क्लिन्नाम्भसि विचेतना।
अन्तरिक्षान्निपतिता नर्मदायां महाह्रदे ।8।
उतीर्य चापि सा यत्नाज्जगाम भरतर्षभ'।
प्रविवेशाश्रमं त्रस्ता तां वै भर्तान्वबुध्यत ।9।
स तां दृष्ट्वाच्युतांधैर्याद्ब्राह्म्या लक्ष्म्या विवर्जिताम्।
श्रिक्शब्देन महातेजा गर्हयामास वीर्यवान्।10।
ततो ज्येष्ठो जामदग्न्यो रुमण्वान्नाम नामतः।
आजगाम सुषेणश्च वसुर्विश्वावसुस्तथा ।11।
तानानुपूर्व्याद्भगवान्वधे मातुरचोदयत्।
न च ते जातसंमोहाः किंचिदूचुर्विचेतसः ।12।
ततः शशाप तान्क्रोधात्ते शप्ताश्चैतनां जहुः।
मृगपक्षिसधर्माणः क्षिप्रमासञ्जडोपमाः ।13।
ततो रामोऽभ्ययात्पश्चादाश्रमं परवीरहा।
तमुवाच महामन्युर्जमदग्निर्महातपाः ।14।
जहीमां मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृथाः।
तत आदाय परशुं रामो मातु शिरोऽहरत् ।15।
ततस्तस्य महाराज जमदग्नेर्महात्मनः।
कोपोऽभ्यगच्छत्सहसा प्रसन्नश्चाब्रवीदिदम् ।16।
ममेदं वचनात्तात कृतं ते कर्म दुष्करम्।
वृणीष्व कामान्धर्मज्ञ यावतो वाञ्छसे हृदा ।17।
स वव्रे मातुरुत्थानमस्मृतिं च वधस्य वै।
पापेन तेन चास्पर्शं भ्रातॄणां प्रकृतिं तथा ।18।
अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे दीर्घमायुश्च भारत।
ददौ च सर्वान्कामांस्ताञ्जमदग्निर्महातपाः।19।
कदाचित्तु तथैवास्य विनिष्क्रान्ताः सुताः प्रभो।
अथानूपपतिर्वीरः कार्तवीर्योऽभ्यवर्तत ।20।
तमाश्रमपदं प्राप्तमृषिरर्ध्यात्समार्चयत्।
स युद्धमदसंमत्तो नाभ्यनन्दत्तथाऽर्चनम् ।21।
प्रमथ्य चाश्रमात्तस्माद्धोमधेनोस्ततोबलात्।
जहार वत्सं क्रोशन्त्या बभञ्ज च महाद्रुमान् 22।
आगताय च रामाय तदाचष्ट पिता स्वयम्।
गां च रोरुदतीं दृष्ट्वा कोपो रामं समाविशत्।
स मन्युवशमापन्नः कार्तवीर्यमुपाद्रवत् ।23।
तस्याथ युधि विक्रम्य भार्गवः परवीरहा।
चिच्छेद निशितैर्भल्लैर्बाहून्परिघसंनिभान् ।24।
सहस्रसंमितान्राजन्प्रगृह्य रुचिरं धनुः।
अभिभूतः स रामेण संयुक्तः कालधर्मणा ।25।
अर्जुनस्याथ दायादा रामेण कृतमन्यवः।
आश्रमस्थं विना रामं जमदग्निमुपाद्रवन् ।26।
ते तं जघ्नुर्महावीर्यमयुध्यन्तं तपस्विनम्।
असकृद्रामरामेति विक्रोशन्तमनाथवत् ।27।
कार्तवीर्यस्य पुत्रास्तु जमदग्निं युधिष्ठिर।
घातयित्वा शरैर्जग्मुर्यथागतमरिंदमाः ।28।
अपक्रान्तेषु वै तेषु जमदग्नौ तथा गते।
समित्पाणिरुपागच्छदाश्रमं भृगुनन्दनः ।29।
स दृष्ट्वा पितरं वीरस्तदा मृत्युवशं गतम्।
अनर्हं तं तथाभूतं विललाप सुदुःखितः।30।
इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ।117।
यहाँ कुछ प्रतियों में ‘देवान् कर्मकारक द्वितीया विभक्ति बहुवचन’ की जगह ‘वेदान्पाकर्मकारक द्वितीया विभक्ति बहुवचन’ पाठ मिलता है। उस दशा में यह अर्थ होगा कि ‘वेदों को वश में कर लिया। परंतु वेदों को वश में करने की बात असंगत-सी लगती है।
देवताओं को वश में करना ही सुसंगत जान पड़ता है, इसलिये हमने ‘देवान्’ यही पाठ रखा है। काश्मीर की देवनागरी लिपि वाली हस्त लिखित पुस्तक में यहाँ तीन श्लोक अधिक मिलते हैं। उनसे भी ‘देवान्’ पाठ का ही समर्थन होता है। वे श्लोक इस प्रकार हैं-
तं तप्यमानं ब्रह्मर्षिमूचुर्देवा: सबांधवा:।
किमर्थ तप्य से ब्रह्मन क: काम: प्रार्थितस्तव॥१।
एवमुक्त: प्रत्युवाच देवान् ब्रह्मर्षिसत्तम:।
स्वर्गहेतोस्तपस्तप्ये लोकाश्व स्युर्ममाक्षया:॥२।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य तदा देवास्तमूचिरे।
नासंततेर्भवेल्लोक: कृत्वा धर्मशतान्यपि॥३।
स श्रुत्वा वचनं तेषां त्रिदशानां कुरूद्वह॥
इन श्लोकों द्वारा देवताओं के प्रकट होकर वरदान देने का प्रसंग सूचित होता है, अत: 'ततो देवान् नियनाद् वशमानयत्' वही पाठ ठीक है।
(सन्दर्भ- गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)
महाभारत: वनपर्व: सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद पिता की आज्ञा से परशुराम जी का अपनी माता का मस्तक काटना और उन्हीं के वरदान से पुन: जिलाना, परशुराम जी द्वारा कार्तवीर्य अर्जुन का वध और उसके पुत्रों द्वारा जमदग्नि मुनि की हत्या अकृतव्रण कहते हैं- राजन! महातपस्वी जमदग्नि ने वेदाध्ययन में तत्पर होकर तपस्या आरम्भ की। तदनन्तर शौच-संतोषदि नियमों का पालन करते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं को अपने वश में कर लिया।
युधिष्ठिर ! फिर राजा प्रसेनजित के पास जाकर जमदग्नि मुनि ने उनकी पुत्री रेणुका के लिए याचना की ओर राजा ने मुनि को अपनी कन्या ब्याह दी। भृगुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले जमदग्नि राजकुमारी रेणुका को पत्नी रूप में पाकर आश्रम पर ही रहते हुए उसके साथ तपस्या करने लगे। रेणुका सदा सब प्रकार से पति के अनुकूल चलने वाली स्त्री थी। उसके गर्भ से क्रमश: चार पुत्र हुए, फिर पांचवें पुत्र परशुराम जी का जन्म हुआ। अवस्था की दृष्टि से भाइयों में छोटे होने पर भी वे गुणों में उन सबसे बढ़े-चढ़े थे। एक दिन जब सब पुत्र फल लाने के लिये वन में चले गये, तब नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली रेणुका स्नान करने के लिए नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था। उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की।
उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये। उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की। इसी समय जमदग्नि के ज्येष्ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुशेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे। भगवान जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो', परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया। शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षियों के समान जड़-बुद्धि हो गये।
महाभारत: वनपर्व: अध्याय: ११६ वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
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तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये।उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापीनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला। महाराज! इससे महात्मा जमदग्नि का क्रोध सहसा शान्त हो गया और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- ‘तात ! तुमने मेरे कहने पर वह कार्य किया है, जिसे करना दूसरों के लिये बहुत कठिन है। तुम धर्म के ज्ञाता हो। तुम्हारे मन में जो-जो कामनाऐं हों, उन सबको मांग लो।‘ तब परशुराम ने कहा-‘पिताजी, मेरी माता जीवित हो उठें, उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की बात याद न रहे, वह मानस पाप उनका स्पर्श न कर सके, मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जायें, युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न हो और मैं बड़ी आयु प्राप्त करूँ।‘ भारत ! महातेजस्वी जमदग्नि ने वरदान देकर उनकी वे सभी कामनाएं पूर्ण कर दीं । युधिष्ठिर ! एक दिन इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गये हुए थे। उसी समय (अनूपदेश) का वीर कार्तवीर्य अर्जुन उधर आ निकला। आश्रम में आने पर ऋषि-पत्नी रेणुका ने उसका यथोचित आथित्य सत्कार किया। कार्तवीर्य अर्जुन युद्ध के मद से उन्मत्त हो रहा था। उसने उस सत्कार को आदरपूर्वक ग्रहण नहीं किया। उल्टे मुनि के आश्रम को तहस-नहस करके वहाँ से डकराती हुई होमधेनु के बछड़े को बलपूर्वक हर लिया और आश्रम के बड़े-बड़े वृक्षों को भी तोड़ डाला। जब परशुराम आश्रम में आये, तब स्वयं जमदग्नि ने उनसे सारी बातें कहीं। बारंबार डकराती हुई होम की धेनु पर उनकी दृष्टि पड़ी। इससे वे अत्यन्त कुपित हो उठे और काल के वशीभूत हुए कार्तवीर्य अर्जुन पर धावा बोल दिया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले भृगुनन्दन परशुराम ने अपना सुन्दर धनुष ले युद्ध में महान पराक्रम दिखाकर पैने बाणों द्वारा उसकी परिघ सदृश सहस्र भुजाओं को काट डाला। इस प्रकार परशुराम से परास्त हो कार्तवीर्य अर्जुन काल के गाल में चला गया। पिता के मारे जाने से अर्जुन के पुत्र परशुराम पर कुपित हो उठे और एक दिन परशुराम की अनुपस्थिति में जब आश्रम पर केवल जमदग्नि ही रह गये थे, वे उन्हीं पर चढ़ आये। यद्यपि जमदग्नि महान शक्तिशाली थे तो भी तपस्वी ब्राह्मण होने के कारण युद्ध में प्रवृत्त नहीं हुए। इस दशा में भी कार्तवीर्य के पुत्र उन पर प्रहार करने लगे। युधिष्ठिर! वे महर्षि अनाथ की भाँति ‘राम! राम!‘ की रट लगा रहे थे, उसी अवस्था में कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों ने उन्हें बाणों से घायल करके मार डाला। इस प्रकार मुनि की हत्या करके वे शत्रुसंहारक क्षत्रिय जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। जमदग्नि के इस तरह मारे जाने के बाद वे कार्तवीर्यपुत्र भाग गये। तब भृगुनन्दन परशुराम हाथों में समिधा लिये आश्रम में आये। वहाँ अपने पिता को इस प्रकार दुर्दशापूर्वक मरा देख उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। उनके पिता इस प्रकार मारे जाने के योग्य कदापि नहीं थे, परशुराम उन्हें याद करके विलाप करने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान में जमदग्निवध विषयक एकसौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।117।
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प्रथम स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद-
चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब विष्णु ने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की।
जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया।
बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया।
चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है।
पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी। सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया।
इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति को देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं। अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं।
उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा।
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उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा।
इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे।
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शौनकादि ऋषियों ! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं।
जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं।
भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय-रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है। प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है।
जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं- वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं।
सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया। जैसा कि महाभारत में वर्णित है
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तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।117।
शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
•-पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। 4।
तदा निःक्षत्रिये लोकेभार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।
•-उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।6।
•-वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे;।राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया।6।
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।
•-ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से हजारों वीर्यवान् क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। 7।
कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये।
एवं तद्ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः।8।
•-पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया।8।
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः।9।
•-तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। ये सब दीर्घजीवी धर्म पूर्वक बुढ़ापे को प्राप्त करते ।9।
अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतौ तथा।
तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि।10।
•-उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नि समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।
10।
ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तत्तथा भरतर्षभ।
ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः।11।
•-भरतश्रेष्ठ! उस ऋतुकाल में स्त्रीसंभोग समय के अनुरूप धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।11।
ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः।
आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः।12।
•-भूपाल! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।12।
अथेमां सागरोपान्तां गां गजेन्द्रगताखिलाम्।
अध्यतिष्ठत्पुनः क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम्।13।
•-गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। 13।
प्रशासति पुनःक्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्।
ब्राह्मणाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम्।14।
जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। 14।
कामक्रोधोद्भवान्दोषान्निरस्य च नराधिपाः।
धर्मेण दण्डं दण्डेषु प्रणयन्तोऽन्वपालयन्।15।
•-उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। 15।
तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः।
स्वादु देशे च काले च ववर्षाप्याययन्प्रजाः।16।
•-इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा।
उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। 16।
न बाल एव म्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप।
नचस्त्रियंप्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनाम्।17।
•-राजन! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था।17।
एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ।
इयं सागरपर्यन्ता ससापूर्यत मेदिनी।18।
•-ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी।। 18।
ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः।
साङ्गोपनिषदान्वेदान्विप्राश्चाधीयते तदा।19।
•-क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। 19।
महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उपपर्व का(64) वाँ अध्याय:
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अब प्रश्न यह भी उठता है !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
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मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक
यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28
अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते 3/14
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महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही है ।
मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---
कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ?
किस सिद्धांत की अवहेलना करके क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।।6।
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।
पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी।
उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी।
नर- शार्दूल ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; " राजन" उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी। श्लोक - (5-6-7)
प्रधानता बीज की होती है नकि खेत की
क्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--
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प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार रोहि-
सम्पर्क सूत्र :- 8077160219
महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उपपर्व का (चतुःषष्टितम )(64) अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद :-
जिसमें ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समय के धार्मिक राज्य का वर्णन है।असुरों का जन्म और उनके भार से पीड़ित पृथ्वी का ब्रह्मा जी की शरण में जाना तथा ब्रह्मा जी का देवताओं को अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश का वर्णन है ।
जनमेजय बोले- ब्रह्मन् ! आपने यहाँ जिन राजाओं के नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशों के नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओं का मैं भलि-भाँति परिचय सुनना चाहता हूँ। महाभाग! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वी पर जिस उद्देश्य की सिद्धि के लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत वर्णन कीजिये।
वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! यह देवताओं का रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है।
स्वयंभू ब्रह्मा जी को नमस्कार करके आज उसी रहस्य का तुमने वर्णन करूंगा।
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पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी।
उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी।
नररत्न ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; ! राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों के द्वार गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी।तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए।
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उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नी समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे।
इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे। भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।
भूपाल ! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।
गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय ! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया।
जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।
उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे।
इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा।
उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे।
राजन ! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ! ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। १- से १९ तक का अनुवाद
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"अब प्रश्न यह उठता है; कि जब धर्म शास्त्रों जैसे मनुस्मृति आदि स्मृतियों और महाभारत में भी विधान वर्णित है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती हैं उनमें दो पत्नीयों क्रमश: ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है वह वर्ण से ब्राह्मण ही होती है तो परशुराम द्वारा मारे गये क्षत्रियों की विधवाऐं जब ऋतुकाल में सन्तान की इच्छा से आयीं तो वे सन्तानें क्षत्रिय क्यों हुई उन्हें तो ब्राह्मण होना चाहिए जैसे की शास्त्रों का वर्ण-व्यवस्था के विषय में सिद्धान्त भी है । देखें निम्न सन्दर्भों में
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"भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते । आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।।
(महाभारत -अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
"अर्थ:- कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती है उनमें क्रमश ब्राह्मणी और क्षत्राणी से उत्पन्न सन्तान वर्ण से ब्राह्मण ही होती है और शेष दो पत्नीयों क्रमश: वैश्याणी और शूद्राणी से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण तत्व से रहित माता के वर्ण या जाति की जानी जाती हैं "
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महाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दान धर्म नामक उपपर्व-
अब प्रश्न यह भी उठता है कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं कि जैसा कि मनुस्मृति आदि में और इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक(अड़तालीसवाँ अध्याय) में वर्णन है ।
जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी नाईं उत्पन्न होता है उसी तरह अनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।(मनुस्मृति)
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तिस्र:क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का होता है । तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
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ये श्लोक महाभारत के आदिपर्व के हैं ये क्या यह दावा कर सकते हैं कि ब्राह्मणों से क्षत्रियों की पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? किस सिद्धांत के अनुसार क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य है ?
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणान्क्षत्रिया राजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।-5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा। 6।
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।।-7।
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मनुस्मृति का सबसे ज्यादा आपत्तिजनक अध्याय
मनुस्मृति का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसके अध्याय 10 के श्लोक संख्या 11 से 50 के बीच समस्त द्विज को छोड़कर समस्त हिन्दू जाति को नाजायज संतान बताया गया है। मनुस्मृति के अनुसार नाजायज जाति दो प्रकार की होती है।
अनुलोम संतान – उच्च वर्णीय पुरूष का निम्न वर्णीय महिला से संभोग होने पर उत्पन्न संतान
प्रतिलाेम संतान – उच्च वर्णीय महिला का निम्न वर्णीय पुरूष से संभोग होने पर उत्पन्न संतान
मनुस्मति के अनुसार कुछ जाति की उत्पत्ति आप इस तालिका से समझ सकते हैं।
पुरुष की जाति महिला की जाति संतान की जाति-
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ब्राह्मण -क्षत्रिय- मुर्धवस्तिका१
क्षत्रिय-वैश्य-माहिष्य २
वैश्य- शूद्र -कायस्थ ३
ब्राह्मण -वैश्य -अम्बष्ठ ४
क्षत्रिय- ब्राह्मण -सूत ५
वैश्य -क्षत्रिय -मगध ६
शूद्र -क्षत्रिय -छत्ता ७
वैश्य -ब्राह्मण -वैदह ८
शूद्र -ब्राह्मण -चाण्डाल९
निषाद -शूद्र -पुक्कस१०
शूद्र -निषाद -कुक्कट११
छत्ता -उग्र- श्वपाक१२
वैदह -अम्बष्ठ -वेण१३
ब्राह्मण -उग्र -आवृत१४
ब्राह्मण- अम्बष्ठ-
आभीर १५
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वैश्य- व्रात्य- सात्वत १६
क्षत्र- करणी राजपूत १७
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः। (ब्रह्मवैवर्तपुराण - ब्रह्मखण्ड1.10.110)
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जो राजपूत स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं शास्त्रों में उन्हें भी वर्णसंकर और शूद्र धर्मी कहा है ।
विशेष– यद्यपि सात्वत आभीर ही थे जो यदुवंश से सम्बन्धित थे। परन्तु मूर्खता की हद नहीं इन्हें भी वर्णसंकर बना दिया।
इसी प्रकार औशनस एवं शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में भी जाति की उत्पत्ति का यही आधार बताया गया है जिसमें चामार, ताम्रकार, सोनार, कुम्हार, नाई, दर्जी, बढई धीवर एवं तेली शामिल है।
ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः।10/15 मनुस्मृति अध्याय १०)
अर्थ- ब्राह्मण से उग्र जाति की कन्या में आवृत उत्पन्न होता है। और आभीर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न होता है और आयोगव्या में ब्राह्मण से धिग्वण उत्पन्न होता है ।
विदित हो की भागवत धर्म के सूत्रधार सात्ववत जो यदु के पुत्र माधव के पुत्र सत्वत् (सत्त्व) की सन्तान थे जिन्हें
इतिहास में आभीर रूप में भी जाना गया ये सभी वृष्णि कुल से सम्बन्धित रहे जैसा की नन्द को गर्ग सहिता में आभीर रूप में सम्बोधित किया गया है ।
"क्रोष्टा के कुल में आगे चलकर सात्वत का जन्म हुआ। उनके सात पुत्र थे उनमे से एक का नाम वृष्णि था। वृष्णि से वृष्णिकुल चला इस कुल में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुये।
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"आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रःप्रकीर्तितः ॥
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रपः॥१४॥
गर्गसंहिता -खण्डः ७ (विश्वजित्खण्डः)-अध्यायः ७
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गुर्जरराष्ट्राचेदिदेशगमनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
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नारद और बहुलाक्ष(मिथिला) के राजा में संवाद चलता है तब नारद बहुलाक्ष से शिशुपाल और उद्धव के संवाद का वर्णन करते हैं
अर्थात् यहाँ संवाद में ही संवाद है। 👇
तथा द्वारिका खण्ड में यदुवंश के गोलों को आभीर कहा है।
गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु- माता द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है !
ऐसा वर्णन है
यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे। गुरुमातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः।।१६।।
अर्थ:- दमघोष पुत्र शिशुपाल उद्धव जी से कहता हैं कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है । उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज (त्रप) नहीं आती है। और जब वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी तब भी आभीर जाति उपस्थित थी। -वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू तथा कहीं यादवी भी कहा है ।
★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया - परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा ! तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया ! यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों ,विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्द में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।
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विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्रनाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम में गायत्री को "यादवी, "माधवी और "गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक साक्ष्य व सन्दर्भ हैं ।
'यादव 'गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है ___________________
सात्वतों को शूद्र व वर्णसंकर बनाने के लिए शास्त्रों में प्रक्षिप्त श्लोकों को समाविष्ट किया गया।
वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च। कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च।10/23 (मनुस्मृति अध्याय १०)
अर्थ- वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष (करूष देश का निवासी तथा एक वर्णसंकर जाति जिसका पिता व्रात्य वैश्य और माता वैश्यवर्ण हो) " विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न व्रती पुत्र को सुधन्वाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।
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विशेष-वह जिसके दस संस्कार न हुए हों। संस्कार-हीन। अथर्ववेद में मगध के निवासियों को व्रात्य कहा गाय हो तथा हिन्दुसभ्यता, पृष्ठ ९६। वह जिसका उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो। विशेष—ऐसा मनुष्य पतित और अनार्य समझा जाता है और उसे वैदिक कृत्य आदि करने का अधिकार नहीं होता। शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति के लिये प्रायाश्चित्त का विधान किया गया है।
प्राचीन वैदिक काल में 'व्रात्य' शब्द प्रायः परब्रह्म का वाचक माना जाता था; और अथर्ववेद में 'व्रात्य' की बहुत अधिक माहिमा कही गई है। उसमें वह वैदिक कार्यो का अधिकारी, देवप्रिय, ब्राह्मणों और क्षत्रियों का पूज्य, यहाँ तक की स्वयं देवाधिदेव कहा गया है।
परंतु परवर्ती काल में यह शब्द संस्कारभ्रष्ट, पतित और निकृष्ट व्यक्ति का वाचक हो गया है।
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जबकि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में सात्वत -यदु के पुत्र माधव के 'सत्त्व' नामक पुत्र की सन्तानें थी अर्थात यदु के प्रपौत्र थे सात्वत लोग-।
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे। त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।36।।
बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्। येन भैमा:सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति। शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।39।।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्। निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
भावार्थ-
जब वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये। तब माधव का पराक्रमी पुत्र "सत्त्व" नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्व(सत) राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे।
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सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।
सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है।
जब राजा भीम आनर्त देश ( द्वारिका - वर्तमान गुजरात)के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे।
अत: इसके अतिरिक्त भी गायत्री वेदों की जब अधिष्ठात्री देवी है और ब्रह्मा की पत्नी रूप में वेद शक्ति है।
तो आभीर लोग ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में कैसे उत्पन्न हो गये ?
वास्तव में अहीरों को मनुस्मृति कार ने वर्णसंकर इसी लिए वर्णित किया ताकि इन्हें हेय सिद्ध करके वर्णसंकर बनाकर इन पर शासन किया जा सके।
विशेष-(मत्स्य पुराण- अध्याय १२)
धृतकेतुश्चित्रनाथो रणधृष्टश्च वीर्य्यवान्।
आनर्तो नाम शर्यातेः सुकन्याचैव दारिका।२१।
आनर्तस्याभवत्पुत्रो रोचमानः प्रतापवान्।
आनर्तो नाम देशोऽभून्नगरीच कुशस्थली।२२।
रोचमानस्य पुत्रोऽभूदेवो रैवत एव च।
ककुद्मीचापरान्नाम ज्येष्ठः पुत्रशतस्य च।२३।
रेवती तस्य सा कन्या भार्या रामस्य विश्रुता।
करूषस्य तु कारूषा बहवः प्रथिता भुवि।२४।__________________
"अध्याय !
सहस्रबाहु और परशुराम की कथा-
कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु कहलाते थे। श्री श्रीराम साठे ने लिखा है कि हैहयवंशी राजा दुर्दम से लेकर सहस्त्रार्जुन हैहय लोग काठियावाड से काशी तक के प्रदेश में उदण्ड बनकर रहते थे।
राजा दुर्दम के समय से ही उनका अपने भार्गव पुरोहितों से किसी कारण झगड़ा हुआ।
इन पुरोहितों में से एक की पत्नी ने विन्ध्यवन में और्व को जन्म दिया।
और्व का वंश इस प्रकार चला - और्व --> ऋचिक --> जमदग्नि --> परशुराम। कार्तवीर्य अर्जुन ने इन्ही जमदग्नि की हत्या कर दी थी।
तब जामदग्न्य परशुराम के नेतृत्व में वशिष्ठ और भार्गव पुरोहितों ने इक्कीस बार हैहयों को पराजित किया। अंततः सहस्त्रार्जुन की मृत्यु हुई।
प्राचीन भारतीय इतिहास का यह प्रथम महायुद्ध था। श्री साठे ने ही लिखा है कि परशुराम का समय महाभारत युद्ध के पूर्व 17 वीं पीढ़ी का है।
धरती को क्षत्रियविहीन करने के संकल्प के साथ परशुराम के लगातार 21 आक्रमणों से भयत्रस्त होकर अनेक क्षत्रिय पुरुष व स्त्रियाँ यत्र-तत्र छिप कर रहने लगी थी।
मनुस्मृति में लिखा है -
कोचिद्याता मरूस्थल्यां सिन्धुतीरे परंगता।
महेन्द्रादि रमणकं देशं चानु गता परे ।1।।
यथ दक्षिणतोभूत्वा विन्ध्य मुल्लंघ्यं सत्वरं।
ययो रमणकं देशं तत्रव्या क्षत्रिया अपि ।।2।।
सूर्यवंश्या भयो दिव्यानास्तं दृष्टवाभ्यवदन्मिथः।
समा यातो यमधुनां जीवननः कथं भवेत् ।3।
समेव्य निश्चितं सर्वैर्जीवनं वैश्य धर्मतः।
इत्यापणेसु राजन्यास्ते चक्रु क्रय विक्रयम।4।
अर्थात, "कोई मरुस्थली में, कोई समुद्र के किनारे गए। कोई महेन्द्र पर्वत पर और कोई रमणक देश में पहुँचे, तब वहाँ के सूर्यवंशी क्षत्रिय भय से व्याकुल होकर बोले कि अब यहाँ भी परशुराम आ गए, अब हमारा जीवन कैसे बचेगा ? तब सबों ने घबरा कर तत्काल क्षत्रिय धर्म को छोड़ कर अन्य वैश्य वृत्तियों का अवलंबन किया। "
परशुराम के भय के कारण क्षत्रियों के पतन का विवरण महाभारत में भी उपलब्ध है -
जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।
अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषित:।63।"
परशुराम, एक-एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकी थी।
-पृथिव्युवाच -
सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपुङ्गवाः।
हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।48।
पृथ्वी बोली - ब्रह्मन! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियपुंगव छिपा रखे हैं। मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए हैं, जो मेरी रक्षा कर सकते हैं।
अस्ति पौरवदायादो विदूरथसुतः प्रभो।
ऋक्षैः संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्यथ पर्वते।82l
(बम्बई संस्करण)
- प्रभो ! उनके अलावा पुरुवंशी विदुरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान पर्वत पर रीक्षों ने पालकर बड़ा किया है।
"तथानुकम्पमानेन यज्वनाथमितौजसा।76। पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः।
सर्वकर्माणिकुरुतेशूद्रवततस्य स द्विजः।77।
सर्वकर्मेत्यभिख्यातःस मांरक्षतुपार्थिवः।77 1/2। (गीताप्रेस संस्करण)
-इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रवत सब कर्म करता है, इसलिए 'सर्वकर्मा' नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करें।
"वृह्द्रथों महातेजा भूरिभूतिपरिष्कृतः । गोलांगूलैर्महाभागो गृध्रकूटे अभिरक्षितः।81
- महातेजस्वी वृहद्रथ महान ऐश्वर्य से संपन्न हैं। उन्हें गृध्रकूट पर्वत पर गोलांगूलों ने बचाया था।
मरुत्तस्यान्ववाये च रक्षिता: क्षत्रियात्मजा:। मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिता:।82।
-राजा मरुत के वंश के भी कई बालक सुरक्षित हैं, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है | उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है|
एते क्षत्रियदायादास्तत्र तत्र परिश्रुता:।द्योकारहेमकारादिजातिं नित्यं समाश्रिता:।83 1/2।।
ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात हैं। वे शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते हैं|
महाभारत के उसी प्रसंग में यह भी लिखा है की जब पृथ्वी ने कश्यपजी से राजाओं को बुलानो को कहा, तब -
ततः पृथिव्या निर्दिष्टांस्तान्समानीय कश्यपः। अभ्यषिञ्चन्महीपालान्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान्।94। |
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-अर्थात् तब पृथ्वी को बताये हुए पराक्रमी राजाओं को बुलाकर कश्यपजी ने उन महाबली राजाओं को फिर से राज्यों में अभिषिक्त किया।
कर्म आधारित भारतीय संस्कृति की रचना होने के कारण सहज ही, क्रियालोप होने के आधार पर क्षत्रियों के पतन का उल्लेख मनुस्मृति में भी किया गया है -
"शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातिय:। वृषलत्वं गता जाके ब्रह्मणादर्शनेन च ।
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविड़ा: काम्बोजा यवना: शका: पारदा: पह्लवाश्चीना: किरातादरदा: खशा:।"
अर्थात्, "पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दारद और खश ये क्षत्रिय जातियाँ (उपनयनादि) क्रियालोप होने से एवं ब्राह्मण का दर्शन न होने के कारण (अध्ययन आदि के अभाव में) इस लोक में शूद्रत्व को प्राप्त होती हैं" - इससे क्षत्रियों के अधोपतन की बात सिद्ध होती है।
यद्यपि असंख्य जनजातियों द्वारा स्वयं को क्षत्रिय घोषित किये जाने के प्रमाण मिलते हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा । परन्तु, अत्यंत कालातीत होने के बावजूद कतिपय जातियाँ अपने को 'हैहयवंशी' भी कहती हैं|
डा. बी. पी. केसरी ने घासीराम कृत 'नागवंशावली झूमर' के अध्याय 4, पृष्ठ 82 से संदर्भित निम्न दोहे के अनुसार कोराम्बे (राँची) के रक्सेल राजाओं को हैहयवंशी कहा है -
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ब्रह्म वैवर्त पुराण( गणपति खण्ड) अध्याय ३५- श्लोक।६०।
अधीतं विधिवद्दत्तं ब्राह्मणेभ्यो दिने दिने ।।
जगते यशसा पूर्णमयशो वार्द्धके कथम् ।।६१ ।।
दाता वरिष्ठो धर्म्मिष्ठो यशस्वी पुण्यवान्सुधीः ।।
कार्त्तवीर्यार्जुनसमो न भूतो न भविष्यति ।६२।
पुरातना वदन्तीति बन्दिनो धरणीतले ।।
यो विख्यातः पुराणेषु तस्य दुष्कीर्त्तिरीदृशी । ६३ ।
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( वैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय ३६)
"दृष्ट्वा तं योद्धुमायान्तं राजानश्च महारथाः।
आययुः समरं कर्त्तुं काब्रह्मर्त्तवीर्य्यं निवार्य्य च। ११।।
कान्यकुब्जाश्च शतशः सौराष्ट्राः शतशस्तथा ।।
राष्ट्रीयाः शतशश्चैव वीरेन्द्राः शतशस्तथा ।१२।।
"सौम्या वाङ्गाश्च शतशो महाराष्ट्रास्तथा दश ।।
तथा गुर्जरजातीयाः कलिङ्गाः शतशस्तथा।१३।
कृत्वा तु शरजालं च भृगुश्चिच्छेद तत्क्षणम्।
तं छित्त्वाऽभ्युत्थितो रामो नीहारमिव भास्करः। १४।
त्रिरात्रं युयुधे रामस्तैःसार्द्धं समराजिरे।
द्वादशाक्षौहिणीं सेनां तथा चिच्छेद पर्शुना।१५।
रम्भास्तम्भसमूह च यथा खड्गेन लीलया।
छित्त्वा सेनां भूपवर्गं जघान शिवशूलतः।१६।
"सर्वांस्तान्निहतान्दृष्ट्वा सूर्य्यवंशसमुद्भवः।
आजगाम सुचन्द्रश्च लक्ष राजेन्द्रसंयुतः।१७ ।।
द्वादशाक्षौहिणीभिश्च सेनाभिः सह संयुगे।
कोपेन युयुधे रामं सिंहं सिंहो यथा रणे ।१८।
भृगुः शङ्करशूलेन नृपलक्षं निहत्य च ।।
द्वादशाक्षौहिणीं सेनामहन्वै पर्शुना बली ।१९।
निहत्य सर्वाः सेनाश्च सुचन्द्रं युयुधे बली ।
नागास्त्रं प्रेरयामास निहृतं तं भृगुः स्वयम् ।२०।
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उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद ।
पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः।
क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः ।९।
नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः।
न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च।१०।
चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।
निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।११।
चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।
वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।
चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।
गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१३।
माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः।
निर्वापयामासराजा वैष्णवास्त्रेण लीलया।१४।
ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।
ब्रह्मास्त्रेणचशान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।१५।
दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम्।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।१६।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।१८ ।
पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।१९।
शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया।२०।
स्रोत-(ब्रह्मवैवर्तपुराण- गणपतिखण्ड अध्यायय-४०)
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अनुवाद- व भावार्थः-
हे नारद ! अनन्तर दोनों ओर के सैनिको में भयंकर युद्ध. आरम्भ हुआ जिसमें परशुराम के शिष्यगण और महावली भ्राता गण भगवान कार्तवीर्य से अतिपीडित एवं छिन्नभिन्न होकर भाग निकले ।९।
राजा कार्तवीर्य के बाणजाल से आछन्न होने के कारण परशुराम अपनी सेना और राजा कार्तवीर्य की सेना को नही देख सके।१०।
पश्चात परशुराम ने युद्ध में आग्नेय बाण का प्रयोग किया , जिसमें सब कुछ अग्निमय हो गया , राजा कार्तवीर्य ने वारुणबाण द्वारा उसे लीला की भाँति
शान्त कर दिया ।११। परशुराम ने पर्वत-सर्प युक्त गांन्धर्व अस्त्र का प्रयोग किया जिसे कार्तवीर्य अर्जुन ने वायव्य बाण द्वारा समाप्त कर दिया ।१२। फिर परशुराम ने अनिवार्य एंव भयंकर नागास्त्र का प्रयोग किया , जिसे महाराजा सहस्रबाहु ने गरुडास्त्र द्वारा बिना यत्न के ही नष्ट कर दिया ।१३।भृगु नन्दन परशुराम ने माहेश्वर अस्त्र का प्रयोग किया जिसे महाराजा ने वैष्णव अस्त्र द्वारा लीलापूर्बक समाप्त कर दिया ।१४। हे नारद !! अनन्तर परशुराम ने कार्तवीर्य के विनाशार्थ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया , कार्तवीर्य महाराजा ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर उस प्राणनाशक को भी युद्ध में शान्त कर दिया ।१५। तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था ।१६। परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा।१७। हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये ।१८।
विशेष-
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये ,उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
नारायण की आज्ञा से शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक परशुराम को पुन: जीवित कर दिया ।२०।
कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति परशुरामचरितकथनम्। 1।
"वासुदेव उवाच!
शृणु कौन्तेय रामस्य प्रभावो यो मया श्रुतः।
महर्षीणां कथयतां कारणं तस्य जन्म च।।1।
यथा च जामदग्न्येन कोटिशः क्षत्रिया हताः।
उद्भूता राजवंशेषु ये भूयो भारते हताः।2।
जह्नोरजस्तु तनयो बलाकाश्चस्तु तत्सुतः।
कुशिको नाम धर्मज्ञस्तस्य पुत्रो महीपति।3।
अग्र्यं तपः समातिष्ठत्सहस्राक्षसमो भुवि।
पुत्रं लभेयमजितं त्रिलोकेश्वरमित्युत।4।
तमुग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरंदरः।
समर्थं पुत्रजनने स्वयमेवैत्य भारत।5।
पुत्रत्वमगमद्राजंस्तस्य लोकेश्वरेश्वरः।
गाधिर्नामाभवत्पुत्रः कौशिकः पाकशासनः।6।
तस्य कन्याऽभवद्राजन्नाम्ना सत्यवती प्रभो।
तां गाधिर्भृगुपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः।7।
ततस्तया हि कौन्तेय भार्गवः कुरुनदनः।
पुत्रार्थं श्रपयामास चरुं गाधेस्तथैव च।8।
आहूय चाह तां भार्यामृचीको भार्गवस्तदा।
उपयोज्यश्चरुरयं त्वया मात्राऽप्ययं तव।9।
तस्या जनिष्यते पुत्रो दीप्तिमान्क्षत्रियर्षभः।
अजय्यः क्षत्रियैर्लोके क्षत्रियर्षभसूदनः।10।
तवापि पुत्रं कल्याणि धृतिमन्तं शमात्मकम्।
तपोन्वितं द्विजश्रेष्ठं चरुरेष विधास्यति।11।
इत्येवमुक्त्वा तां भार्यां सर्चीको भृगुनन्दनः।
तपस्यभिरतः श्रीमाञ्जगामारण्यमेव हि।12।
एतस्मिन्नेव काले तु तीर्थयात्रापरो नृपः।
गाधिः सदारः संप्राप्त ऋचीकस्याश्रमं प्रति।13।
चरुद्वयं गृहीत्वा तु राजन्सत्यवती तदा।
भर्त्रा दत्तं प्रसन्नेन मात्रे हृष्टा न्यवेदयत्।।14।
माता तु तस्याः कौन्तेय दुहित्रे स्वं चरुं ददौ।
तस्याश्ररुमथाज्ञातमात्मसंस्थं चकार ह।15।
अथ सत्यवती गर्भं क्षत्रियान्तकरं तदा।
धारयामास दीप्तेन वपुषा घोरदर्शनम्।16।
तामृचीकस्तदा दृष्ट्वा ध्यानयोगेन भारत।
अब्रवीद्भृगुशार्दूलः स्वां भार्यां देवरूपिणीम्।17।
मात्राऽसि व्यंसिता भद्रे चरुव्यत्यासहेतुना।
तस्माज्जनिष्यते पुत्रः क्रूरकर्माऽत्यमर्षणः।
`जनयिष्यति माता ते ब्रह्मभूतं तपोधनम्।18।
विश्वं हि ब्रह्म सुमहच्चरौ तव समाहितम्।
क्षत्रवीर्यं च सकलं तव मात्रे समर्पितम्।19।
विपर्ययेण ते भद्रे नैतदेवं भविष्यति।
मातुस्ते ब्राह्मणो भूयात्तव च क्षत्रियः सुतः।20।
सैवमुक्ता महाभागा भर्त्रा सत्यवती तदा।
पपात शिरसा तस्मै वेपन्ती चाब्रवीदिदम्।21।
नार्होऽसि भगवन्नद्य वक्तुमेवंविधं वचः।
ब्राह्मणापशदं पुत्रं प्राप्स्यसीति हि मां प्रभो।22।
ऋचीक उवाच!
नैष संकल्पितः कामो मया भद्रे तथा त्वयि।
उग्रकर्मा भवेत्पुत्रश्चरुव्यत्यासहेतुना।23।
"सत्यवत्युवाच!
इच्छँल्लोकानपि मुने सृजेथाः किं पुनः सुतम्।
शमात्मकमृजुं पुत्रं दातुमर्हसि मे प्रभो।24।
"ऋचीक उवाच!
नोक्तपूर्वं मया भद्रे स्वैरेष्वप्यनृतं वचः।
किमुताग्निं समाधाय मन्त्रवच्चरुसाधने।25।
[दृष्टमेतत्पुरा भद्रे ज्ञातं च तपसा मया।
ब्रह्मभूतं हि सकलं पितुस्तव कुलं भवेत्।26।
"सत्यवत्युवाच।
काममेवं भवेत्पौत्रो मामैवं तनयः प्रभो।
शमात्मकमृजुं पुत्रं लभेयं जपतां वर।27।
"ऋचीक उवाच।
पुत्रे नास्ति विशेषो मे पौत्रे च वरवर्णिनि।
यथा त्वयोक्तं वचनं तथा भद्रे भविष्यति।28।
"वासुदेव उवाच।
ततः सत्यवती पुत्रं जनयामास भार्गवम्।
तपस्यभिरतं शान्तं जमदग्निं यतव्रतम्।29।
विश्वामित्रं च दायादं गाधिः कुशिकनन्दनः।
प्राप ब्रह्मर्षिसमितं विश्वेन ब्रह्मणा युतम्।30।
ऋचीको जनयामास जमदग्निं तपोनिधिम्।
सोऽपि पुत्रं ह्यजनयज्जमदग्निः सुदारुणम्।31
सर्वविद्यान्तगं श्रेष्ठं धनुर्वेदस्य पारगम्।
रामं क्षत्रियहन्तारं प्रदीप्तमिव पावकम्।32।
[तेषयित्वा महादेवं पर्वते गन्धमादने।
अस्त्राणि वरयामास परशुं चातितेजसम्।33।
स तेनाकुण्ठधारेण ज्वलितानलवर्चसा।
कुठारेणाप्रमेयेण लोकेष्वप्रतिमोऽभवत्।34।
एतस्मिन्नेव काले तु कृतवीर्यात्मजो बली।
अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियो हैहयाधिपः।35।
दत्तात्रेयप्रसादेन राजा बाहुसहस्रवान्।
चक्रवर्ती महातेजा विप्राणामाश्वमेधिके।36।
ददौ स पृथिवीं सर्वां सप्तद्वीपां सपर्वताम्।
सबाह्वस्त्रबलेनाजौ जित्वा परमधर्मवित्।37।
तृषितेन च कौन्तेय भिक्षितश्चित्रभानुना।
सहस्त्रबाहुर्विक्रान्तः प्रादाद्भिक्षामथाग्नये।38।
ग्रामान्पुराणि राष्ट्राणि घोषांश्चैव तु वीर्यवान्।
जज्वाल तस्य वाणेद्धचित्रभानुर्दिधक्षय।39।
स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेण महौजसः।
ददाह कार्तवीर्यस्य शैलानपि धरामपि।40।
सशून्यमाश्रमारण्यमापवस्य महात्मनः।
ददाह पवनेनेद्धश्चित्रभानुः सहैहयः।41।
आपवस्तं ततो रोषाच्छशापार्जुनमच्युत।
दग्धे श्रमे महाबाहो कार्तवीर्येण वीर्यवान्।42।
त्वया न वर्जितं यस्मान्ममेदं हि महद्वनम्।
दग्धं तस्माद्रणे रामो बाहूंस्ते च्छेत्स्यतेऽर्जुन।43।
अर्जुनस्तु महातेजा बली नित्यं शमात्मकः।
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत।
नाचिन्तयत्तदा शापं तेन दत्तं महात्मना।44।
तस्य पुत्राः सुबलिनः शापेनासन्पितुर्वधे।
निमित्तमवलिप्ता वै नृशंसाश्चैव नित्यदा।45।
जमदग्नेस्तु धेन्वास्ते वत्समानिन्युरच्युत।
अज्ञातं कार्तवीर्यस्य हैहयेन्द्रस्य धीमतः।46।
तन्निमित्तमभूद्युद्धं जामदग्नेर्महात्मनः।
ततोऽर्जुनस्य बाहून्स चिच्छेद रुषितोऽनघ।47।
तं भ्रमन्तं ततो वत्सं जामदग्न्यः स्वमाश्रमम्।
प्रत्यानयत राजेन्द्र तेषामन्तः पुरात्प्रभुः।48।
अर्जुनस्य सुतास्ते तु संभूयाबुद्धयस्तदा।
गत्वाऽऽश्रममसंबुद्धा जमदग्नेर्महात्मनः।
अपातयन्त भल्लाग्रैः शिरः कायान्नराधिपति।49।
समित्कुशार्थं रामस्य निर्यातस्य यशस्विनः।
प्रत्यक्षं राममातुश्च तथैवाश्रमवासिनाम्।50।
श्रुत्वा रामस्तमर्थं च क्रुद्धः कालानलोपमः।
धनुर्वेदेऽद्वितीयो हि दिव्यास्त्रैः समलंकृतः।51।
चन्द्रबिम्बार्धसंकाशं परशुं गृह्य भार्गवः।
ततः पितृवधामर्षाद्रामः परममन्युमान्।
निःक्षत्रियां प्रतिश्रुत्य महीं शस्त्रमगृह्णत।52।
ततः स भृगुशार्दूलः कार्तवीर्यस्य वीर्यवान्।
विक्रम्य निजघानाशु पुत्रान्पौत्रांश्च सर्वशः।53।
स हैहयसहस्राणि हत्वा परममन्युमान्।
महीं सागरपर्यन्तां चकार रुधिरोक्षिताम्।।54।
स तथा सुमहातेजाः कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्।
कृपया परयाऽऽविष्टो वनमेव जगाम ह।।55।
ततो वर्षसहस्रेषु समतीतेषु केषुचित्।
कोपं संप्राप्तवांस्तत्र प्रकृत्या कोपनः प्रभुः।56।
विश्वामित्रस्य पौत्रस्तु रैभ्यपुत्रो महातपाः।
परावसुर्महाराजक्षिप्त्वाऽऽह जनसंसदि।57।
ये ते ययातिपतने यज्ञे सन्तः समागताः।प्रतर्दनप्रभृतयो राम किं क्षत्रिया न ते।58।
मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।
भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
सा पुनः क्षत्रियशतैः पृथिवी सर्वतः स्तृता।
परावसोर्वचः श्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।60।
ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः।
ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।61।
स पुनस्ताञ्जघानाशु बालानपि नराधिप।
गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ता पुनरेवाभवत्तदा।62।
जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।
अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषितः।63।
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
स क्षत्रियाणां शेषार्थं करेणोद्दिश्य कश्यपः।
स्रुक्प्रग्रहवता राजंस्ततो वाक्यमथाब्रवीत्।65।
गच्छ पारं समुद्रस्य दक्षिणस्य महामुने।
न ते मद्विषये राम वस्तव्यमिह कर्हिचित्।66।
पृथिवी दक्षिणा दत्ता वाजिमेधे मम त्वया।
पुनरस्याः पृथिव्या हि दत्त्वा दातुमनीश्वरः।67।
ततः शूर्पाकरं देशं सागरस्तस्य निर्ममे।
संत्रासाज्जामदग्न्यस्य सोऽपरान्तमहीतलम्।68।
कश्यपस्तां महाराज प्रतिगृह्य वसुंधराम्।
कृत्वा ब्राह्मणसंस्थां वै प्रविष्टः सुमहद्वनम्।69।
ततः शूद्राश्च वैश्याश्च यथा स्वैरप्रचारिणः।
अवर्तन्त द्विजाग्र्याणां दारेषु भरतर्षभ।70।
अराजके जीवलोके दुर्बला बलवत्तरैः।
वध्यन्ते न हि वित्तेषु प्रभुत्वं कस्यचित्तदा।71।
`ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शृद्राश्चोत्पथगामिनः।
परस्परं समाश्रित्य घातयन्त्यपथस्थिताः।72।
स्वधर्मं ब्राह्मणास्त्यक्त्वा पाषण्डत्वं समाश्रिताः।
चौरिकानृतमायाश्च सर्वे चैव प्रकुर्वते।73।
स्वधर्मस्थान्द्विजान्हत्वा तथाऽऽश्रमनिवासिनः।
वैश्याः सत्पथसंस्थाश्च शूद्रा ये चैव धार्मिकाः।74।
तान्सर्वान्घातयन्ति स्म दुराचाराः सुनिर्भयाः।
यज्ञाध्ययनशीलांश्च आश्रमस्थांस्तपस्विनिः।75।
गोबालवृद्धनारीणां नाशं कुर्वन्ति चापरे।
आन्वीक्षकी त्रयी वार्ता न च नीतिः प्रवर्तते।76।
व्रात्यतां समनुप्राप्ता बहवो हि द्विजातयः।
अधरोत्तरापचारेण म्लेच्छभूताश्च सर्वशः।77।
ततः कालेन पृथिवी पीड्यमाना दुरात्मभिः।
विपर्ययेण तेनाशु प्रविवेश पसातलम्।
अरक्ष्यमाणा विधिवत्क्षत्रियैर्धर्मरक्षिभिः।78।
_________________
तां दृष्ट्वा द्रवतीं तत्र संत्रासात्स महामनाः।
ऊरुणा धारयामास कश्यपः पृथिवीं ततः।
निमज्जन्तीं ततो राजंस्तेनोर्वीति मही स्मृता।79।
रक्षणार्थं समुद्दिश्य ययाचे पृथिवी तदा।
प्रसाद्य कश्यपं देवी क्षत्रियान्बाहुशालिनः।
80।
"पृथिव्युवाच!
सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपुङ्गवाः।
हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।81।
अस्ति पौरवदायादो विदूरथसुतः प्रभो।
ऋक्षैः संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्यथ पर्वते।82।
तथाऽनुकम्पमानेन यज्वनाथामितौजसा।
पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः। 83।
सर्वकर्माणि कुरुते शूद्रवत्तस्य स द्विजः।
सर्वकर्मेत्यभिख्यातः स मां रक्षतु पार्थिवः।84।
शिबिपुत्रो महातेजा गोपतिर्नाम नामतः।
वने संवर्धितो गोभिः सोऽभिरक्षतु मां मुने।85।
प्रतर्दनस्य पुत्रस्तु वत्सो नाम महाबलः।
वत्सैः संवर्धितो गोष्ठे स मां रक्षतु पार्थिवः।86।
दधिवाहनपुत्रस्तु पौत्रो दिविरथस्य च।
अङ्गः स गौतमेनासीद्गङ्गाकूलेऽभिरक्षितः।87।
बृहद्रथो महातेजा भूरिभूतिपरिष्कृतः।
गोलाङ्गूलैर्महाभागो गृध्रकूटेऽभिरक्षितः।88।
मरुत्तस्यान्ववाये च रक्षिताः क्षत्रियात्मजाः।
मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिताः।89।
एते क्षत्रियदायादास्तत्रतत्र परिश्रुताः।
व्योकारहेमकारादिजातिं नित्यं समाश्रिताः।90।
यदि मामभिरक्षन्ति ततः स्थास्यामि निश्चला।
एतेषां पितरश्चैव तथैव च पितामहाः।91।
मदर्थं निहता युद्धे रामेणाक्लिष्टकर्मणा।
तेषामपचितिश्चैव मया कार्या महामुने।92।
न ह्यहं कामये नित्यमतिक्रान्तेन रक्षणम्।
वर्तमानेन वर्तेयं तत्क्षिप्रं संविधीयताम्।93।
वासुदेव उवाच! ततः पृथिव्या निर्दिष्टांस्तान्समानीय कश्यपः।
अभ्यषिञ्चन्महीपालान्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान्।94।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च येषां वंशाः प्रतिष्ठिताः।
एवमेतत्पुरावृत्तं यन्मां पृच्छसि पाण्डव।95।
वैशम्पायन उवाच!
एवं ब्रुवंस्तं च यदुप्रवीरो युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठम्। रथेन तेनाशु ययौ यथाऽर्को
विशन्प्रभाभिर्भगवांस्त्रिलोकीम्।96।
______________________
इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणिराजधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।48।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-16 अष्टचत्वारिंश(48)अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद-
परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में राजा युधिष्ठिर का प्रश्न
वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण, राजा युधिष्ठिर, कृपाचार्य आदि सब लोग तथा शेष चारों पाण्डव ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित एवं शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा संचालित नगराकार विशाल रथों से शीघ्रतापूर्वक कुरुक्षेत्र की ओर बढ़े। वे सब लोग केश, मज्जा और हड्डियों से भरे हुए करुक्षेत्र में उतरे, जहाँ महामनस्वी क्षत्रियवीरों ने अपने शरीर का त्याग किया था। वहाँ हाथियों और घोड़ों के शरीरों तथा हड्डियों के अनेकानेक पहाड़ों जैसे ढेर लगे हुए थे। सब ओर शंख के समान सफेद नरमुण्डों की खोपडि़याँ फैली हुई थीं। उस भूमि में सहस्रों चिताएँ जली थीं, कवच और अस्त्र-शस्त्रों से वह स्थान ढका हुआ था। देखने पर ऐसा जान पड़ता था, मानों वह काल के खान-पान की भूमि हो और काल ने वहाँ खान-पान करके उच्छिष्ट करके छोड़ दिया हो। जहाँ झुंड-के-झुंड भूत विचर रहे थे और राक्षसगण निवास करते थे, उस कुरुक्षेत्र को देखते हुए वे सभी महारथी शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में चलते-चलते ही महाबाहु भगवान् यादवनन्दन श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को जमदग्निकुमार परशुरामजी का पराक्रम सुनाने लगे-। ‘कुन्तीनन्दन ! ये जो पाँच सरोवर कुछ दूर से दिखायी देते हैं, ‘राम-ह्रद’ के नाम से प्रसिद्ध हैं इन्हीं में उन्होंने क्षत्रियों के रक्त से अपने पितरों का तर्पण किया था। ‘शक्तिशाली परशुरामजी इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य करके यहीं आने के पश्चात् अब उस कर्म से विरक्त हो गये हैं’। युधिष्ठिर ने पूछा - प्रभो ! आपने यह बताया है कि पहले परशुराम ने इक्कीस बार यह पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी थी, इस विषय में मुझे बहुत बड़ा संदेह हो गया है। अमित पराक्रमी यदुनाथ! जब परशुराम ने क्षत्रियों का बीज तक दग्ध कर दिया, तब फिर क्षत्रिय जाति की उत्पति कैसे हुई ? यदुपुगंव ! महात्मा भगवान् परशुराम ने क्षत्रियों का संहार किस लिये किया और उसके बाद इस जाति की वृद्धि कैसे हुई? वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! महारथयुद्ध के द्वारा जब करोड़ो क्षत्रिय मारे गये होंगे, उस समय उनकी लाशों से यह सारी पृथ्वी ढक गयी होगी। यदुसिंह! भृगुवंशी महात्मा परशुराम ने पूर्वकाल में कुरुक्षेत्र में यह क्षत्रियों का संहार किस लिये किया? गरुड़ध्वज श्रीकृष्ण! इन्द्र के छोटे भाई उपेन्द्र ! आप मेरे संदेह का निवारण कीजिये; क्योंकि कोई भी शास्त्र आपसे बढ़कर नहीं हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर गदाग्रज भगवान् श्रीकृष्ण ने अप्रतिम तेजस्वी युधिष्ठिर से वह सारा वृत्तांत यथार्थ रूप से कह सुनाया कि किस प्रकार यह सारी पृथ्वी क्षत्रियों की लाशों से ढक गयी थी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में परशुराम के उपाख्यान का आरम्भविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद-
परशुराम जी के उपाख्यान में क्षत्रियों के विनाश और पुनः उत्पन्न होने की कथा भगवान श्रीकृष्ण बोले-कुन्तीनन्दन! मैंने महर्षियो के मुख से परशुराम के प्रभाव, पराक्रम तथा जन्म की कथा जिस प्रकार सुनी है, वह सब आपको बताता हूँ, सुनिये। जिस प्रकार जमदग्निन्दन परशुराम ने करोड़ों क्षत्रियों का संहार किया था, पुनः जो क्षत्रिय राजवंशों में उत्पन्न हुए, वे अब फिर भारतयुद्ध में मारे गये। प्राचीन काल में जह्नुनामक एक राजा हो गये हैं, उनके पुत्र का नाम था अज। पृथ्वीनाथ! अज से बलाकाश्व नामक पुत्र का जन्म हुआ। बलाकाश्व के कुशिक नामक पुत्र हुआ। कुशिक बड़े धर्मज्ञ थे। वे इस भूतल पर सहनेत्रधारी इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैं एक ऐसा पुत्र प्राप्त करूँ, जो तीनों लोकों का शासक होने के साथ ही किसी से पराजित न हो, उत्तम तपस्या आरम्भ की। उनकी भयंकर तपस्या देखकर और उन्हें शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करनें में समर्थ जानकर "लोकपालों के स्वामी सहस्र नेत्रों( हजार-आँख) वाले पाकशासन इन्द्र स्वयं ही उनके पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए। राजन् ! कुशिक का वह पुत्र गाधि नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रभो! गाधि के एक कन्या थी, जिसका नाम था सत्यवती। राजा गाधि ने अपनी इस कन्या का विवाह भृगुपुत्र ऋचीक के साथ कर दिया।कुरुनन्दन! सत्यवती बड़े शुद्ध आचार-विचार से रहती थी। उसकी शुद्धता से प्रसन्न हो ऋचीक मुनि ने उसे तथा राजा गाधि को भी पुत्र देने के लिये चरू तैयार किया।भृगुवंशी ऋचीक ने उस समय अपनी पत्नी सत्यवती को बुलाकर कहा- यह चरू तो तुम खा लेना और यह दूसरा अपनी माँ को खिला देना। तुम्हारी माता के जो पुत्र होगा, वह अत्यन्त तेजस्वी एवं क्षत्रियशिरोमणि होगा। इस जगत् के क्षत्रिय उसे जीत नहीं सकेंगे।
वह बडे-बडे क्षत्रियों का संहार करने वाला होगा। कल्याणि! तुम्हारे लिये जो यह चरू तैयार किया है, यह तुम्हें धैर्यवान, शान्त एवं तपस्यापरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण पुत्र प्रदान करेगा। अपनी पत्नी से ऐसा कहकर भृगुनन्दन श्रीमान् ऋचीक मुनि तपस्या में तत्पर हो जंगल में चले गये। इसी समय तीर्थयात्रा करते हुए राजा गाधि अपनी पत्नी के साथ ऋचीक के मुनि के आश्रम पर आये। राजन्! उस समय सत्यवती वह दोनों चरू लेकर शान्तभाव से माता के पास गयी और बड़े हर्ष के साथ पति की कही हुई बात को उससे निवेदित किया। कुन्तीकुमार ! सत्यवती की माता ने अज्ञानवश अपना चरू तो पुत्री को दे दिया और उसका चरू लेकर भोजन द्वारा अपने में स्थित कर लिया। तदनन्तर सत्यवती ने अपने तेजस्वी शरीर से एक ऐसा गर्भ धारण किया, जो क्षत्रियों का विनाश करने वाला था और देखने में बडा भयंकर जान पड़ता था। सत्यवती के गर्भपात बालक को देखकर भृगुश्रेष्ठ ऋचीक ने अपनी उस देवरूपिणी पत्नी से कहा- भद्रे! तुम्हारी माता ने चुरू बदलकर तुम्हें ठग लिया। तुम्हारा पुत्र अत्यन्त क्रोधी और क्रूरकर्म करने वाला होगा। परंतु तुम्हारा भाई ब्राह्मणस्वरूप एवं तपस्या परायण होगा। तुम्हारे चरू में मैने सम्पूर्ण महान् तेज ब्रह्म की प्रतिष्ठा की थी और तुम्हारी माता के लिये जो चरू था, उसमें सम्पूर्ण क्षत्रियोचित बल पराक्रम का समावेश किया गया था, परंतु कल्याणि। चरू के बदल देने से अब ऐसा नहीं होगा। तुम्हारी माता का पुत्र तो ब्राह्मण होगा और तुम्हारा क्षत्रिय।
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद-
पति के ऐसा कहने पर महाभागा सत्यवती उनके चरणों में सिर रखकर गिर पड़ी और काँपती हुई बोली- प्रभो! भगवन् !आज आप मुझसे ऐसी बात न कहें कि तुम ब्राह्मणाधम पुत्र उत्पन्न करोगी। ऋचीक बोले- कल्याणि! मैंने यह सकंल्प नहीं किया था कि तुम्हारे गर्भ से ऐसा पुत्र उत्पन्न हो। परंतु चरू बदल जाने के कारण तुम्हें भयंकर कर्म करने वाले पुत्र को जन्म देना पड़ रहा है। सत्यवती बोली- मुने! आप चाहें तो सम्पूर्ण लोकों की नयी सृष्टि कर सकते है; फिर इच्छानुसार पुत्र उत्पन्न करने की तो बात ही क्या है? अतः प्रभो! मुझे तो शान्त एवं सरल स्वभाव वाला पुत्र ही प्रदान कीजिये। ऋचीक बोले - भद्रे! मैंने कभी हास-परिहास में भी झूठी बात नहीं कही है; फिर अग्नि की स्थापना करके मन्त्रयुक्त चरू तैयार करते समय मैंने जो संकल्प किया है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है? कल्याणि! मैंने तपस्या द्वारा पहले ही यह बात देख और जान ली है कि तुम्हारे पिता का समस्त कुल ब्राह्मण होगा। सत्यवती बोली - प्रभो! आप जप करने वाले ब्राह्मणों में सबसे श्रेष्ठ है, आपका और मेरा पौत्र भले ही उग्र स्वभाग हो जायः परंतु पुत्र तो मुझे शान्तस्वभाव का ही मिलना चाहिये।
ऋचीक बोले -सुन्दरी !मेरे लिये पुत्र और पौत्र में कोई अन्तर नहीं है। भद्रे! तुमने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। श्रीकृष्ण बोले- राजन् !तदन्तर सत्यवती ने शान्त, संयमपरायण और तपस्वी भृगुवंशी जमदग्रि को पुत्र के रूप में उत्पन्न किया। कुशिकनन्दन गाधि ने विश्वामित्र नामक पुत्र प्राप्त किया, जो सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों से सम्पन्न थे" और ब्रह्मर्षि पदवी को प्राप्त हुए। ऋचीक ने तपस्या के भंडार जमदग्नि को जन्म दिया और जमदग्न ने अत्यन्त उग्र स्वभाव वाले जिस पुत्र को उत्पन्न किया, वहीं ये सम्पूर्ण विद्याओं तथा धनुर्वेद के पारंगत विद्वान प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी क्षत्रियहन्ता परशुराम है। परशुराम ने गन्धमादन पर्वत पर महादेव जी को संतुष्ट करके उनसे अनेक प्रकार के अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये। उस कुठार की धार कभी कुण्ठित नहीं होती थीं। वह जलती हुई आग के समान उद्दीप्त दिखायी देता था। उस अप्रमेय शक्तिशाली कुठार के कारण परशुराम सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिम वीर हो गये। इसी समय राजा कृतवीर्य का बलवान पुत्र अर्जुन हैहयवंश का राजा हुआ, जो एक तेजस्वी क्षत्रिय था। दत्तात्रेयजी की कृपा से राजा अर्जुन ने एक हजार भुजाएँ प्राप्त की थीं। वह महातेजस्वी चक्रवर्ती नरेश था। उस परम धर्मज्ञ नरेश ने अपने बाहुबल से पर्वतों और द्वीपों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को युद्ध में जीतकर अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दिया था।
कुन्तीनन्दन! एक समय भूखे-प्यासे हुए अग्निदेव ने पराक्रमी सहस्रबाहु अर्जुन से भिक्षा माँगी और अर्जुन ने अग्नि को वह भिक्षा दे दी। तत्पश्चात् बलशाली अग्निदेव कार्तवीर्य अर्जुन के बाणों के अग्रभाग से गाँवों, गोष्ठों, नगरों और राष्ट्रों को भस्म कर डालने की इच्छा से प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने उस महापराक्रमी नरेश कार्तवीर्य के प्रभाव से पर्वतों और वनस्पतियों को जलाना आरम्भ किया। हवा का सहारा पाकर उत्तरोत्तर प्रज्वलित होते हुए अग्निदेव ने हैहयराज को साथ लेकर महात्मा आपव के सूने एवं सुरम्य आश्रम को जलाकर भस्म कर दिया।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 श्लोक 42-65 एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 42-65 का हिन्दी अनुवाद-महाबाहु अच्युत! कार्तवीर्य के द्वारा अपने आश्रम को जला दिये जाने पर शक्तिशाली आपव मुनि को बड़ा रोष हुआ। उन्होंने कृतवीर्य पुत्र अर्जुन को शाप देते हुए कहा। अर्जुन! तुमने मेरे इस विशाल वन को भी जलाये बिना नहीं छोडा, इसलिये संग्राम में तुम्हारी इन भुजाओं को परशुराम काट डालेंगे। भारत ! अर्जुन महातेजस्वी, बलवान, नित्य शान्ति परायण, ब्राह्मण भक्त शरणागतों को शरण देने वाला, दानी और शूरवीर था। अतः उसने उस समय उन महात्मा के दिये हुए शाप पर कोई ध्यान नहीं दिया। शापवश उसके बलवान पुत्र ही पिता के वध में कारण बन गये। भरतश्रेष्ठ !उस शाप के कारण सदा क्रूरकर्म करने वाले वे घमंडी राजकुमार एक दिन जमदग्नि मुनि की होमधेनु के बछडे को चुरा ले आये। उस बछडे के लाये जाने की बात बुद्धिमान हैहयराज कार्तवीर्य को मालूम नहीं थी, तथापि उसी के लिये महात्मा परशुराम का उसके साथ घोर युद्ध छिड गया। राजेन्द्र! तब रोष में भरे हुए प्रभावशालीजमदग्निनन्दन परशुराम ने अर्जुन की उन भुजाओं को काट डाला और इधर-उधर घूमते हुए उस बछडे को वे हैहयों के अन्तःपुर से निकालकर अपने आश्रम में ले आये। नरेश्वर! अर्जुन के पुत्र बुद्धिहीन और मुर्ख थे। उन्होंने संगठित हो महात्मा जगदग्नि के आश्रम पर जाकर भल्लों के अग्रभाग से उनके मस्तक को धड़ से काट गिराया। उस समय यशस्वी परशुराम समिधा और कुशा लाने के लिये आश्रम से दूर चले गये थे। पिता के इस प्रकार मारे जाने से परशुराम के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने इस पृथ्वी को क्षत्रियों से सूनी कर देने की भीष्म प्रतिज्ञा करके हथियार उठाया। भृगुकुल के सिंह पराक्रमी परशुराम ने सहस्रों हैहयों का वध करके इस पृथ्वी पर रक्त की कीच मचा दी। इस प्रकार शीघ्र ही पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन करके महातेजस्वी परशुराम अत्यन्त दया से द्रवित हो वन में ही चले गये। तदनन्तर कई हजार वर्ष बीत जाने पर एक दिन वहाँ स्वभावतः क्रोधी परशुराम पर आक्षेप किया गया। महाराज! विश्वामित्र के पौत्र तथा रैभ्य के पुत्र महातेजस्वी परावसु ने भरी सभा में आक्षेप करते हुए कहा- राम! राजा ययाति के स्वर्ग से गिरने के समय जो प्रतर्दन आदि सज्जन पुरुष यज्ञ में एकत्र हुए थे, क्या वे क्षत्रिय नहीं थे ? तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी है। तुम व्यर्थ ही जनता की सभा में डींग हाँका करते हो कि मैंने क्षत्रियों का अन्त कर दिया। मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये है।राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। नरेश्वर! उन्होंने पुनः उन सबके छोटे छोटे बच्चों तक को शीघ्र ही मार डाला। जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुरामजी एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी। राजन्! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्त्रुक लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- महामुने! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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महाभारतशान्तिपर्व अध्याय49श्लोक66-89
एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 66-89 का हिन्दी अनुवाद-
(यह सुनकर परशुराम चले गये ) समुद्र ने सहसा जमदग्निकुमार परशुराम के लिये जगह ख़ाली करके शूर्पारक देश का निर्माण किया; जिसे अपरान्त भूमि भी कहते है। महाराज! कश्यप ने पृथ्वी को दान में लेकर उसे ब्राह्मणों के अधीन कर दिया और वे स्वयं विशाल वन के भीतर चले गये। भरतश्रेष्ठ ! फिरतो स्वेच्छाचारी वैश्य और शूद्र श्रेष्ठ द्विजों की स्त्रियों के साथ अनाचार करने लगे। सारे जीवनजगत में अराजकता फैल गयी। बलवान मनुष्य दुर्बलों को पीडा देने लगे। उस समय ब्राह्मणों में से किसी की प्रभुता कायम न रही। कालक्रम से दुरात्मा मनुष्य अपने अत्याचारों से पृथ्वी को पीडित करने लगे। इस उलट फेर से पृथ्वी शीघ्र ही रसातल में प्रवेश करने लगी; क्योंकि उस समय धर्मरक्षक क्षत्रियों द्वारा विधिपूर्वक पृथ्वी की रक्षा नहीं की जा रही थी। भय के मारे पृथ्वी को रसातल की ओर भागती देख महामनस्वी कश्यप ने अपने ऊरूओं का सहारा देकर उसे रोक दिया।
"कश्यपजी ने ऊरू से इस पृथ्वी को धारण किया था; इसलिये यह उर्वी नाम से प्रसिद्ध हुई। उस समय पृथ्वी देवी ने कश्यपजी को प्रसन्न करके अपनी रक्षा के लिये यह वर माँगा कि मुझे भूपाल दीजिये।
पृथ्वी बोली- ब्राह्मण! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियशिरोमणियों को छिपा रखा है। मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए है, जो मेरी रक्षा कर सकते है। प्रभो! उनके सिवा पुरूवंशी विदूरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान् पर्वत पर रीछों ने पालकर बडा किया है। इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रों के समान सब कर्म करता है, इसलिये सर्वकर्मा नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करे। राजा शिबिका एक महातेजस्वी पुत्र बचा हुआ है, जिसका नाम है गोपति। उसे वन में गौओं ने पाल पोसकर बड़ा किया है। मुने! आपकी आज्ञा हो तो वही मेरी रक्षा करे। प्रतर्दनका महाबली पुत्र वत्स भी राजा होकर मेरी रक्षा कर सकता है। उसे गोशाला में बछडों ने पाला था, इसलिये उसका नाम वत्स हुआ है। दधिवाहन का पौत्र और दिविरथ का पुत्र भी गंगातट पर महर्षि गौतम के द्वारा सुरक्षित है। महातेजस्वी महाभाग बृहद्रथ महान ऐश्वर्य से सम्पन्न है। उसे गृध्रकूट पर्वत पर लंगूरों ने बचाया था।
राजा मरुत के वंश में भी कई क्षत्रिय बालक सुरक्षित है, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है। उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है। ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात है। वे सदा शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते है। यदि वे क्षत्रिय मेरी रक्षा करें तो मैं अविचल भाव से स्थिर हो सकूँगी। इन बेचारों के बाप दादे मेरे ही लिये युद्ध अनायास ही महान् कर्म करने वाले परशुराम के द्वारा मारे गये है। महामुने! मुझे उन राजाओं से उऋण होने के लिये उनके इन वंशजों का सत्कार करना चाहिये। मै धर्म की मर्यादा को लाँघने वाले क्षत्रिय के द्वारा कदापि अपनी रक्षा नहीं चाहती। जो अपने धर्म में स्थित हो, उसी के संरक्षण में रहूँ, यही मेरी इच्छा है; अतः आप इसकी शीघ्र व्यवस्था करें।
श्रीकृष्ण कहते हैं-राजन्! तदनन्तर पृथ्वी के बताये हुए उन सब पराक्रमी क्षत्रिय भूपालों को बुलाकर कश्यपजी ने उनका भिन्न-भिन्न राज्यों पर अभिषेक कर दिया। उन्हीं के पुत्र-पौत्र बढे़, जिनके वंश इस समय प्रतिष्ठित हैं। पाण्डुनन्दन! तुमने जिसके विषय में मुझसे पूछा था, वह पुरातन वृतांत ऐसा ही हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं-राजन्! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से इस प्रकार वार्तालाप करते हुए यदुकुल-तिलक महात्मा श्रीकृष्ण उस रथ के द्वारा भगवान सूर्य के समान सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फैलाते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ते चले गये।
निष्कर्ष- यद्यपि उपर्युक्त कथा भी स्वयं कृष्ण के द्वारा नहीं कही गयी परन्तु परवर्ती पुरोहितों इसका सृजन कर इसे कृष्ण पर आरोपित कर दिया । इसका साक्ष्य ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड का निम्न श्लोक है।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थात् स्वयं श्रीकृष्ण( विष्णु) जिस सहस्र बाहू की रक्षा में तत्पर हों और सुदर्शन जिसकी रक्षा में तत्पर हो उसे कौन मार सकता है ?
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इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में परशुरामोपाख्यानविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।
मत्स्यपुराणम्-अध्यायः(४३)यदुवंशवर्णनम्।
सूत उवाच!
इत्येतच्छौनकाद्राजा शतानीको निशम्य तु।
विस्मितः परया प्रीत्या पूर्णचन्द्र इवा बभौ।१।।
पूजयामास नृपति र्विधिवच्चाथ शौनकम्।
रत्नैर्गोभिः सुवर्णैश्च वासोभिर्विविधैस्तथा।२।
प्रतिगृह्य ततः सर्वं यद्राज्ञा प्रहितं धनम्।
दत्वा च ब्राह्मणेभ्यश्च शौनकोऽन्तरधीयत।३।
ऋषय ऊचुः!
ययाति र्वशमिच्छामः श्रोतुं विस्तरतो वद।
यदु प्रभृतिभिः पुत्रैर्यदालोके प्रतिष्ठितः।४ ।
सूत उवाच!
यदोर्वंशं प्रवक्ष्यामि ज्वेष्ठस्योत्तमतेजसः।
विस्तरेणानुपूर्व्या च गदतो मे निबोधत ।५।
यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः।
महारथा महेष्वासा नमतस्तान्निबोधत।६।
सहस्रजिरथो ज्येष्ठः क्रोष्टु र्नीलोऽन्तिकोलघुः।
सहस्रजेस्तु दायादो शतजिर्नामपार्थिवः।७।
शतजेरपि दायादास्त्रयः परमकीर्त्तयः।
हैहयश्च हयश्चैव तथा वेणुहयश्च यः।८।
हैहयस्य तु दायादौ धर्मनेत्रः प्रतिश्रुतः।
धर्म्मनेत्रस्य कुन्तिस्तु संहतस्तस्य चात्मजः।९।
संहतस्य तु दायादो महिष्मान्नामपार्थिवः।
आसीन्महिष्मतः पुत्रो रुद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।१० ।।
वाराणस्यामभूद्राजा कथितं पूर्वमेव तु।
रुद्रश्रेणस्य पुत्रोऽभूद् दुर्दमो नाम पार्थिवः।११।
दुर्द्दमस्य सुतो धीमान् कनको नाम वीर्य्यवान्।
कनकस्य तु दायदा श्चत्वारो लोकविश्रुताः।१२ ।
कृतवीर्य्यः कृताग्निश्च कृतवर्मा तथैव च।
कृतोजाश्च चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यात्तु सोर्जुनः।१३।
जातः करसहस्रेण सप्तद्वीपेश्वरो नृपः।
वर्षायुतं तपस्तेपे दुश्चरं पृथिवीपतिः।१४ ।
दत्तमाराधयामास कार्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।
तस्मै दत्तावरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तम।१५ ।
पूर्वं बाहुसहस्रन्तु स वव्रे राजसत्तमः।
अधर्मं चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम्।१६।
युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्।
संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत्।१७ ।
तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता।१८ ।
जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
रथो ध्वजश्च संजज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।१९ ।
दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः।२०।
सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः।२१।
सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः।२२।
तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः।२३।
न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च।२४।
स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।२५ ।
पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।२६ ।
स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
सएववृष्ट्यापर्जन्योयोगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।२७।
योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः।२८ ।
एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः।
कर्कोटकसुतंजित्वा पुर्य्यां तत्र न्यवेशयत्।२९ ।
एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै।
क्रीड़न्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्रोतो महीपतिः।३०।
ललता क्रीड़ता तेन प्रतिस्रग्दाममालिनी।
ऊर्मि भ्रुकुटिसन्त्रासा चकिताभ्येति नर्म्मदा।३१।
एको बाहुसहस्रेण वगाहे स महार्णवः।
करोत्युह्यतवेगान्तु नर्मदां प्रावृडुह्यताम्।३२।
तस्य बाहुसहस्रेणा क्षोभ्यमाने महोदधौ।
भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः।३३।
चूर्णीकृतमहावीचि लीन मीन महातिमिम्।
मारुता विद्धफेनौघ्ज्ञ मावर्त्ताक्षिप्त दुःसहम्।३४।
करोत्यालोडयन्नेव दोःसहस्रेण सागरम्।
मन्दारक्षोभचकिता ह्यमृतोत्पादशङ्किताः।३५ ।
तदा निश्चलमूर्द्धानो भवन्ति च महोरगाः।
सायाह्ने कदलीखण्डा निर्वात स्तिमिता इव।३६ ।
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।३७।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।३८।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।
तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।३९ ।
युगान्ताभ्र सहस्रस्य आस्फोट स्वशनेरिव।
अहोबत विधे र्वीर्यं भार्गवोऽयं यदाच्छिनत्।४०।
तद्वै सहस्रं बाहूनां हेमतालवनं यथा।
यत्रापवस्तु संक्रुद्धो ह्यर्जुनं शप्तवान् प्रभुः।४१ ।
यस्माद्वनं प्रदग्धं वै विश्रुतं मम हैहय।
तस्मात्ते दुष्करं कर्म्म कृतमन्यो हरिष्यति।४२ ।
छित्वा बाहुसहस्रन्ते प्रथमन्तरसा बली।
तपस्वी ब्राह्मणश्च त्वां सवधिष्यति भार्गवः।४३।
"सूत उवाच!
तस्य रामस्तदा त्वासीन् मृत्युः शापेन धीमता।
वरश्चैवन्तु राजर्षेः स्वयमेव वृतः पुरा।४४ ।।
तस्य पुत्रशतं त्वासीत् पञ्चपुत्र महारथाः।
कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्म्मात्मानो महाबलाः।४५।
शूरसेनश्च शूरश्च धृष्टः क्रोष्टुस्तथैव च।
जयध्वजश्च वैकर्ता अवन्तिश्च विशाम्पते।४६ ।
जयध्वजस्य पुत्रस्तु तालजङ्घो महाबलः।
तस्य पुत्रशतान्येव तालजङ्घा इति श्रुताः।४७।
तेषां पञ्चकुलाख्याताः हैहयानां माहत्मनाम्।
वीतिहोत्राश्च शार्याता भोजाश्चावन्तयस्तथा।४८।
कुण्डिकेराश्च विक्रान्तास्तालजङ्घा स्तथैव च।
वीतिहोत्रसुतश्चापि आनर्तो नाम वीर्य्यवान्।।
दुर्जेयस्तस्य पुत्रस्तु बभूवामित्रकर्शनः।४९ ।
सद्भावेन महाराज! प्रजा धर्मेण पालयन्।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।५०।
येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
यस्तस्य कीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थाय मानवः।५१।
न तस्य वित्तनाशः स्यान्नष्टञ्च लभते पुनः।
कार्त्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदिह धीमतः।।
यथावत् स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महीयते।५२।
अनुवाद-
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(अध्याय (44)
यदुवंशवर्णने क्रोष्टुवंशवर्णनम्।
।ऋषय ऊचुः।
किमर्थं तद्वनं दग्धमापवस्य महात्मनः।
कार्तवीर्येण विक्रम्य सूत! प्रब्रूहि तत्वतः।१ ।।
रक्षिता स तु राजर्षिः प्रजानामिति नः श्रुतम्।
सकथं रक्षिता भूत्वा अदहत्तत्तपोवनम्।२।
"सूत उवाच?
आदित्यो द्विजरूपेण कार्तवीर्यमुपस्थितः।
तृप्तिमेकां प्रयच्छस्व आदित्योऽहं नरेश्वर।३।
"राजोवाच!
भगवन्! केन तृप्तिस्ते भवत्येव दिवाकर।
कीद्रृशं भोजनं दद्मि श्रुत्वा तु विदधाम्यहम्।४ ।
"आदित्य उवाच।
स्थावरन्देहि मे सर्वमाहारं ददतां वर।
तेन तृप्तो भवेयं वै सा मे तृप्तिर्हि पार्थिव।५।
"कार्तवीर्य उवाच।
न शक्याः स्थावराः सर्वे तेजसा च बलेन च।
निर्दग्धुं तपतां श्रेष्ठ! तेन त्वां प्रणमाम्यहम्।६ ।।
"आदित्य उवाच।
तुष्टस्तेऽहं शरान् दद्मि अक्षयान् सर्वतो मुखान्।
ये प्रक्षिप्ता ज्वलिष्यन्ति मम तेजः समन्।७ ।
आविष्टा मम तेजोभिः शेषयिष्यन्ति स्थावरान्।
शुष्कान् भस्मीकरिष्यन्ति तेन तृप्तिर्नराधिप।८ ।
"सूत उवाच।
ततःशरांस्तदादित्य स्त्वर्जुनाय प्रयच्छत।
ततो ददाह संप्राप्तान् स्थावरान् सर्वमेव च।९ ।
ग्रामां स्तथाश्रमांश्चैव घोषाणि नगराणि च।
तथा वनानि रम्याणि वनान्युपवनानि च।१०।
एवं प्राचीं समदहत् ततः सर्वांश्च पक्षिणः।
निर्वृक्षा निस्तृणा भूमिर्हता घोरेण तेजसा।११।
एतस्मिन्नेव काले तु आपो वा जलमास्थितः।
दश वर्षसहस्राणि तत्रास्ते समहानृषिः।१२ ।
पूर्णे व्रते महातेजा उदतिष्ठं स्तपोधनः।
सोऽपश्यदाश्रमं दग्धमर्जुनेन महामुनिः।१३।
क्रोधाच्छशाप राजर्षि कीर्तितं वो यथा मया।
क्रोष्टोः श्रृणुतराजर्षे र्वंशमुत्तमपौरुषम्।१४ ।
यस्यान्ववाये सम्भूतो विष्णुर्वृष्णिकुलोद्वहः।
क्रोष्टोरेवाभवत् पुत्रो वृजिनीवान् महारथः।१५।
वृजनीवतश्च पुत्रोऽभूत् स्वाहो नाम महाबलः।
स्वाह पुत्रोऽभवद्राजन्!रुषङ्गर्वदतां वरः।१६ ।
स तु प्रसूतिमिच्छन् वैरुषङ्गुः सौम्यमात्मजम्।
चित्रश्चित्ररथश्चास्य पुत्रः कर्मभिरन्वितः।१७।
अथ चैत्ररथिर्वीरो जज्ञे विपुलदक्षिणः।
शशबिन्दुरिति ख्यातश्चक्रवर्त्ती बभूव ह।१८।
अत्रानुवंश श्लोकोऽयं गीतस्तस्मिन् पुराऽभवत्। शशबिन्दोस्तु पुत्राणां शत नामभवच्छतम्।१९।
धीमतां चाभिरूपाणां भूरि द्रविण तेजसाम्।
तोषां शतप्रधानानां पृथुसाह्वा महाबलाः।२०।
पृथुश्रवाः पृथुयशाः पृथुधर्मा पृथुञ्जयः।
पृथुकीर्त्तिः पृथुमना राजानः शशबिन्दवः।२१।
शंसन्ति च पुराणज्ञाः पृथुश्रवसमुत्तमम्।
अन्तरस्य सुयज्ञस्य सुयज्ञस्तनयोऽभवत्।२२ ।।
उशना तु सुयज्ञस्य यो रक्षन् पृथिवीमिमाम्।
आजहाराश्वमेधानां शतमुत्तमधार्मिकः।२३।
तितिक्षुरभवत् पुत्र औशनः शत्रुतापनः।
मरुत्तस्तस्य तनयो राजर्षीणामनुत्तमः।२४।
आसीन् मरुत्त तनयो वीरः कम्बलबर्हिषः।
पुत्रस्तु रुक्मकवचो विद्वान् कम्बलबर्हिषः।२५ ।
निहत्य रुक्मकवचः परान् कवचधारिणः।
धन्विनो विविधै र्बाणै रवाप्य पृथिवीमिमाम्।२६ ।
अश्वमेधे ददौ राजा ब्राह्मणेभ्यस्तु दक्षिणाम्।
यज्ञे तु रुक्मकवचः कदाचित् परवीरहा।२७ ।।
जज्ञिरे पञ्चपुत्रास्तु महावीर्या धनुर्भृतः।
रुक्मेषु पृथुरुक्मश्च ज्यामघः परिघो हरिः।२८।
परिधं च हरिं चैव विदेहेऽस्थापयत् पिता।
रुक्मेषुरभवद्राजा पृथुरुक्मस्तदाश्रयः।२९ ।
तेभ्यः प्रव्राजितो राज्यात् ज्यामघस्तु तदाश्रमे।
प्रशान्तश्चाश्रमस्थश्च ब्राह्मणेनावबोधितः।३० ।
जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी।
नर्म्मदां नृप एकाकी केवलं वृत्तिकामतः।३१ ।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा भुक्तमन्यैरुपाविशत्।
ज्यामघस्याभवद् भार्या चैत्रापरिणतासती।३२ ।।
अपुत्रो न्यवसद्राजा भार्यामन्यान्नविन्दत।
तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः।३३ ।।
भार्यामुवाच सन्त्रासात् स्नुषेयं ते शुचिस्मिते।
एव मुक्ताब्रवीदेन कस्य चेयं स्नुषेति च।३४ ।।
"राजोवाच।
यस्तेजनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति।
तस्मात् सा तपसोग्रेण कन्यायाः सम्प्रसूयत।३५।।
पुत्रं विदर्भं सुभगा चैत्रा परिणता सती।
राजपुत्र्यां च विद्वान् स स्नुषायां क्रथ कैशिकौ।
लोमपादं तृतीयन्तु पुत्रं परमधार्मिकम्।३६।।
तस्यां विदर्भोऽजनयच्छूरान् रणविशारदान्।
लोमपादान्मनुः पुत्रो ज्ञातिस्तस्य तु चात्मजः।३७ ।
कैशिकस्य चिदिः पुत्रो तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः। क्रथो विदर्भपुत्रस्तु कुन्ति स्तस्यात्मजोऽभवत्।३८।
कुन्ते र्धृतः सुतो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान्।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा।३९ ।
तदेको निर्वृतेः पुत्रो नाम्ना स तु विदूरथः।
दशार्हिस्तस्य वै पुत्रो व्योमस्तस्य च वै स्मृतः।
दाशार्हाच्चैव व्योमात्तु पुत्रो जीमूत उच्यते।४०।
जीमूतपुत्रो विमलस्तस्य भीमरथः सुतः।
सुतो भीमरथस्यासीत् स्मृतो नवरथः किल।४१ ।
तस्य चासीद् दृढरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भः कारम्भिर्देवरातो बभूव ह।४२ ।
देवक्षत्रोऽभवद्राजा दैवरातिर्महायशाः।
देवगर्भसमो जज्ञे देवनक्षत्रनन्दनः।४३।
मधुर्नाम महातेजा मधोः पुरवसस्तथा।
आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४ ।
जन्तुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रसेन्यां पुरुद्वतः।
ऐक्ष्वाकी चाभवद् भार्या जन्तोस्तस्यामजायत।४५।
सात्वतः सत्वसंयुक्तः सात्वतां कीर्तिवर्द्धनः।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।४६।
सात्वतान् सत्वसम्पन्नान् कौसल्या सुषुवे सुतान्।
भजिनं भजमानन्तु दिव्यं देवावृधं नृप!।४७ ।
अन्धकञ्च महाभोजं वृष्णिं( प्रथम) च यदुनन्दनम्!तेषां तु सर्गा श्चत्वारो विस्तरेणैव तच्छृणु।४८।भजमानस्य सृञ्जय्यां बाह्यकायाञ्च बाह्यकाः। सृञ्जयस्य सुते द्वे तु बाह्यकास्तु तदाभवन्।४९।तस्य भार्ये भगिन्यौ द्वे सुषुवाते बहून् सुतान्।निमिंश्च कृमिलं श्चैववृष्णिं ( द्वितीय)परं पुरञ्जयम्। ते बाह्यकायां सृञ्जय्यां भजमानाद् विजज्ञिरे।५०।
जज्ञे देवावृधो राजा बन्धूनां मित्रवर्द्धनः।
अपुत्रस्त्वभवद्राजा चचार परमन्तपः।
पुत्रः सर्वगुणोपेतो मम भूयादिति स्पृहन्।५१।
संयोज्य मन्त्रमेवाथ पर्णाशा जलमस्पृशत्।
तदोपस्पशेनात्तस्य चकार प्रियमापगा।५२।
कल्याणत्वान्नरपते स्तस्मै सा निम्नगोत्तमा।
चिन्तयाथ परीतात्मा जगामाथ विनिश्चयम्।५३।
नाधिगच्छाम्यहं नारीं यस्यामेवं विधःसुतः।
जायेत तस्माद्दद्याहं भवाम्यथ सहस्रशः।५४।
अथ भूत्वा कुमारी सा बिभ्रती परमं वपुः।
ज्ञापयामास राजानं तामियेष महाव्रतः।५५ ।
अथ सा नवमे मासि सुषुवे सरितां वरा।
पुत्रं सर्वगुणोपेतं बभ्रुं देवावृधान्नृपात्।५६।
अनुवंशे पुराणज्ञा गायन्तीति परिश्रुतम्।
गुणान् देवावृधस्यापि कीर्त्तयन्तो महात्मनः।५७।
यथैवं श्रृणुमो दूरादपश्यामस्तथान्तिकात्।
बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवै र्देवावृधः समः।५८ ।
षष्टिश्च पूर्वपुरुषाः सहस्राणि च सप्ततिः।
एतेऽमृतत्वं संप्राप्ता बभ्रो र्देवावृधान्नृप ।५९ ।
यज्वा दान पतिर्वीरो ब्रह्मण्यश्च दृढव्रतः।
रूपवान् सुमहातेजाः श्रुतवीर्य्य धरस्तथा।६०।
अथ कङ्कस्य दुहिता सुषुवे चतुरः सुतान्।
कुकुरं भजमानञ्च शशिं कम्बलबर्हिषम्।६१।
कुकुरस्य सुतो वृष्णि (तृतीय) वृष्णेस्तु तनयो धृतिः। कपोत रोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तस्य चात्मजः।६२ ।
तस्यासीत्तनुजा पुत्रो सखा विद्वान्नलः किल।
ख्यायते तस्य नाम्ना च नन्दनोदरदुन्दुभिः।६३।
तस्मिन्प्रवितते यज्ञे अभिजातः पुनर्वसुः।
अश्वमेधं च पुत्रार्थमाजहार नरोत्तमः।६४।
तस्य मध्येति रात्रस्य सभा मध्यात् समुत्थितः।
अतस्तु विद्वान् कर्मज्ञो यज्वा दाता पुनर्वसु।६५ ।
तस्यासीत् पुत्रमिथुनं बभूवाविजितं किल।
आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातं मतिमतां वर!।६६।
इमांश्चोदाहरन्त्यत्र श्लोकान् प्रतितमाहुकम्।
सोपासङ्गानुकर्षाणां सध्वजाना वरूथिनाम्।६७।
रथानां मेघघोषाणां सहस्राणि दशैव तु।
नासत्यवादी नातेजा नायज्वा नासहस्रदः।६८।
नाशुचिर्नाप्यविद्वान् हि यो भोजेष्वभ्यजायत।
आहुकस्य भृतिं प्राप्ता इत्येतद्वै तदुच्यते।६९।
आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
आहुकात् काश्यदुहिता द्वौ पुत्रौ समसूयत।७०।
देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ।
देवकस्य सुता वीरा जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।७१।
देवानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः।
तेषां स्वसारः सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ।७२।
देवकी श्रुतदेवी च यशोदा च यशोधरा।
श्री देवी सत्यदेवी च सुतापी चेति सप्तमी।७३।
नवोग्रसेनस्य सुताः कंसस्तेषां तु पूर्वज।
न्यग्रोधश्च सुनामा च कङ्कः शङ्कश्च भूयसः।७४।
सुतन्तू राष्ट्रपालश्च युद्धमुष्टिः सुमुष्टिदः।
तेषां स्वसारः पञ्चासन् कंसा कंसवती तथा।७५।
सुतलन्तू राष्ट्रपाली च कङ्का चेति वराङ्गनाः।
उग्रसेनः सहापत्यो व्याख्यातः कुकुरोद्भवः।७६।
भजमानस्य पुत्रोऽथ रथिमुख्यो विदूरथः।
राजाधिदेवः शूरश्च विदूरथ सुतोऽभवत्।७७।
राजाधिदेवस्य सुतौ जज्ञाते देवसंमितौ।
नियमव्रतप्रधानौ शोणाश्वः श्वेतवाहनः।७८।
शोणाश्वस्य सुताः पञ्च शूरा रणविशारदाः।
शमीच वेदशर्मा च निकुन्तः शक्रशत्रुजित्।७९।
शमिपुत्रः प्रतिक्षत्रः प्रतिक्षत्रस्य चात्मजः।
प्रतिक्षेत्रः सुतो भोजो हृदीकस्तस्य चात्मजः।८०।
हृदीकस्याभवन् पुत्रा दश भीमपराक्रमाः।
कृतवर्माग्रजस्तेषां शतधन्वा च मध्यमः।८१।
देवार्हश्चैव नाभश्च भीषणश्च महाबलः।
अजातो वनजातश्च कनीयक करम्बकौ।८२।
देवार्हस्य सुतो विद्वान् जज्ञे कम्बलबर्हिषः।
असमञ्जाः सुतस्तस्य तमोजास्तस्य चात्मजः।८३।
अजातपुत्रा विक्रान्ता स्त्रयः परमकीर्त्तयः।
सुदंष्ट्रश्च सुनाभश्च कृष्ण इत्यन्धकामताः।८४।
अन्धकानामिमं वंशं यः कीर्त्तयति नित्यशः।
आत्मनो विपुलं वंशं प्रजावानाप्नुते नरः।८५ ।
मत्स्यपुराणम्-अध्यायः4
कृष्णोत्पत्तिवर्णनम्।
सूत उवाच।
ऐक्ष्वाकी सुषुवे शूरं ख्यातमद्भुत मीढुषम्।
पौरुषाज्जज्ञिरे शूरात् भोजायां पुत्रकादश।१।
वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुन्दुभिः।
देवमार्गस्ततो जज्ञे ततो देवश्रवाः पुनः।२।
अनाधृष्टिः शिनिश्चैव नन्दश्चैव ससृञ्जयः।
श्यामः शमीकः संयूपः पञ्च चास्य वराङ्गनाः।३।
श्रुतकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवी श्रुतश्रवाः।
राजाधि देवी च तथा पञ्चैता वीरमातरः।४।
कृतस्य तु श्रुता देवी सुग्रहं सुषुवे सुतम्।
कैकेय्यां श्रुतकीर्त्यान्तु जज्ञे सोऽनुव्रतो नृपः।५ ।
श्रुत श्रवसि चैद्यस्य सुनीथः समपद्यत।
वार्षिको धर्म्मशारीरः स बभूवारिमर्दनः।६ ।
अथ सख्येन वृद्धेऽसौ कुन्तिभोजे सुतां ददौ।
एवं कुन्ती समाख्याता वसुदेवस्वसा पृथा।७।
वसुदेवेन सा दत्ता पाण्डोर्भार्या ह्यनिन्दिता।
पाण्डो रर्थेन सा जज्ञे देवपुत्रान् महारथान्।८।
धर्माद्युधिष्ठिरो जज्ञे वायोर्जज्ञे वृकोदरः।
इन्द्राद्धनञ्जयश्चैव शक्रतुल्य पराक्रमः।९ ।
माद्रवत्यान्तु जनितावश्विभ्यामिति शुश्रुमः।
नकुलः सहेदवश्च रूपशीलगुणान्वितौ।१०।
रोहिणी पौरवी सा तु ख्यातमानकदुन्दुभेः।
लेभे ज्येष्ठसुंतं रामं सारणञ्च सुतं प्रियम्।। ४६.११ ।।
दुर्दमं दमनं सुभ्रु पिण्डारक महाहनू।
चित्राक्ष्यौ द्वे कुमार्य्यौ तु रोहिण्यां जज्ञिरे तदा।। ४६.१२ ।।
देवक्यां जज्ञिरे शौरेः सुषेणः कीर्तिमानपि।
उदासी बद्रसेनश्च ऋषिवासस्तथैव च।।
षष्ठो भद्र विदेहश्च कंसः सर्वानघातयत्।४६.१३ ।।
प्रथमाया अमावास्या वार्षिकी तु भविष्यति।
तस्यां जज्ञे महाबाहुः पूर्वकृष्णः प्रजापतिः।। ४६.१४ ।।
अनुजात्वभवत् कृष्णात् सुभद्रा भद्रभाषिणी।
देवक्यान्तु महातेजा जज्ञे शूरो महायशाः।। ४६.१५ ।
सहदेवस्तु ताम्रायां जज्ञे शौरिकुलोद्वहः।
उपासङ्गधरं लेभे तनयं देवरक्षिता।।
एकां कन्याञ्च सुभगां कंसस्तामभ्यघातयत्।। ४६.१६ ।।
विजयं रोचमानञ्च वर्द्धमानन्तु देवलम्।
एते सर्वे महात्मानो ह्युपदेव्याः प्रजज्ञिरे।४६.१७ ।।
अवगाहो महात्मा च वृकदेव्यामजायत।
वृकदेव्यां स्वयं जज्ञे नन्दको नामनामतः।४६.१८।।
सप्तमं देवकी पुत्रं मदनं सुषुवे नृप।
गवेषमं महाभागं संग्रामेष्वपराजितम्।। ४६.१९।।
श्रद्धा देव्या विहारे तु वने हि विचरन् पुरा।
वैश्यायामदधात् शौरिः पुत्रं कौशिकमग्रजम्।। ४६.२०।
सुतनू रथराजी च शौरेरास्तां परिग्रहौ।
पुण्ङ्रश्च कपिलश्चैव वसुदेवात्मजौ बलौ।४६.२१ ।।
जरा नाम निषादोऽभूत् प्रथमः स धनुर्धरः।
सौभद्रश्च भवश्चैव महासत्वौ बभूवतुः।। ४६.२२ ।।
देवभाग सुतश्चापि नाम्नाऽसावुद्धवः स्मृतः।
पण्डितं प्रथमं प्राहु र्देवश्रवः समुद्भवम्।४६.२३ ।।
ऐक्ष्वाक्यलभतापत्य आनाधृष्टेर्यशस्विनी।
निर्धूतसत्वं शत्रुघ्नं श्राद्धस्तस्मादजायत।४६.२४।
करूषायानपत्याय कृष्णस्तुष्टः सुतन्ददौ।
सुचन्द्रन्तु महाभागं वीर्यवन्तं महाबलम्।४६.२५ ।
जाम्बवत्याः सुतावेतौ द्वौ च सत्कृतलक्षणौ।
चारुदेष्णश्च साम्बश्च वीर्यवन्तौ महाबलौ।.२६ ।।
तन्तिपालश्च तन्तिश्च नन्दनस्य सुतावुभौ।
शमीकपुत्राश्चत्वारो विक्रान्ताः सुमहाबलाः।।
विराजश्च धनुश्चैव श्याम्यश्च सृञ्जयस्तथा।। ४६.२७ ।।
अनपत्योऽभवच्छ्यामः शमीकस्तु वनं ययौ।
जुगुप्समानो भोजत्वं राजर्षित्वमवाप्तवान्।। ४६.२८ ।।
कृष्णस्य जन्माभ्युदयं यः कीर्तयति नित्यशः।
श्रृणोति मानवो नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते।४६.२९।
कृष्ण वंशावली
मत्स्य पुराण
ऋषियों! (अब) आप लोग राजर्षि क्रोष्टु के उस उत्तम बल-पौरुष से सम्पन्न वंश का वर्णन सुनिये, जिस वंश में वृष्णिवंशावतंस भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) अवतीर्ण हुए थे। क्रोष्टु के पुत्र महारथी वृजिनीवान हुए। वृजिनीवान के स्वाह (पद्मपुराण में स्वाति) नामक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ। राजन्! वक्ताओं में श्रेष्ठ रुषंगु स्वाह के पुत्ररूप में पैदा हुए। रुषंगु ने संतान की इच्छा से सौम्य स्वभाव वाले पुत्र की कामना की। तब उनके सत्कर्मों से समन्वित एवं चित्र-विचित्र रथ से युक्त चित्ररथ नामक पुत्र हुआ। चित्ररथ के एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ जो शशबिन्दु नाम से विख्यात था। वह आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट हुआ। वह यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देने वाला था। पूर्वकाल में इस शशबिन्दु के विषय में वंशानुक्रमणिकारूप यह श्लोक गाया जाता रहा है कि शशबिन्दु के सौ पुत्र हुए। उनमें भी प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। वे सभी प्रचुर धन-सम्पत्ति एवं तेज़ से परिपूर्ण, सौन्दर्यशाली एवं बुद्धिमान थे। उन पुत्रों के नाम के अग्रभाग में 'पृथु' शब्द से संयुक्त छ: महाबली पुत्र हुए। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं- पृथुश्रवा, पृथुयशा, पृथुधर्मा, पृथुंजय, पृथुकीर्ति और पृथुमनां ये शशबिन्दु के वंश में उत्पन्न हुए राजा थे। पुराणों के ज्ञाता विद्वान् लोग इनमें सबसे ज्येष्ठ पृथुश्रवा की विशेष प्रशंसा करते हैं। उत्तम यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पृथुश्रवाका पुत्र सुयज्ञ हुआ। सुयज्ञ का पुत्र उशना हुआ, जो सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा था। उसने इस पृथ्वी की रक्षा करते हुए सौ अश्वमेध-यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उशना का पुत्र तितिक्षु हुआ जो शत्रुओं को संतप्त कर देने वाला था। राजर्षियों में सर्वश्रेष्ठ मरूत्त तितिक्षु के पुत्र हुए। मरूत्त का पुत्र वीरवर कम्बलवर्हिष था। कम्बलबर्हिष का पुत्र विद्वान् रूक्मकवच हुआ। रूक्मकवच ने अपने अनेकों प्रकार के बाणों के प्रहार से धनुर्धारी एवं कवच से सुसज्जित शत्रुओं को मारकर इस पृथ्वी को प्राप्त किया था। शत्रुवीरों का संहार करने वाले राजा रूक्मकवच ने एक बार बड़े (भारी) अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा प्रदान की थी ॥14-27॥
इन (राजा रूक्मकवच)- के रूक्मेषु, पृथुरूक्म, ज्यामघ, परिघ और हरिनामक पाँच पुत्र हुए, जो महान् पराक्रमी एवं श्रेष्ठ धनुर्धर थे। पिता रूक्मकवच ने इनमें से परिघ और हरि- इन दोनों को विदेह देश के राज-पद पर नियुक्त कर दिया। रूक्मेषु प्रधान राजा हुआ और पृथुरूक्म उसका आश्रित बन गया। उन लोगों ने ज्यामघ को राज्य से निकल दिया। वहाँ एकत्र ब्राह्मण द्वारा समझाये- बुझाये जाने पर वह प्रशान्त-चित्त होकर वानप्रस्थीरूप से आश्रमों में स्थिररूप से रहने लगा। कुछ दिनों के पश्चात् वह (एक ब्राह्मण की शिक्षा से) ध्वजायुक्त रथ पर सवार हो हाथ में धनुष धारण कर दूसरे देश की ओर चल पड़ा। वह केवल जीविकोपार्जन की कामना से अकेले ही नर्मदातट पर जा पहुँचा। वहाँ दूसरों द्वारा उपभुक्त- ऋक्षवान् गिरि (शतपुरा पर्वत-श्रेणी)- पर जाकर निश्चितरूप से निवास करने लगा। ज्यामघकी सती-साध्वी पत्नी शैव्या प्रौढ़ा हो गयी थीं (उसके गर्भ से) कोई पुत्र न उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यद्यपि राजा ज्यामघ पुत्रहीन अवस्था में ही जीवनयापन कर रहे थे, तथापि उन्होंने दूसरी पत्नी नहीं स्वीकार की। एक बार किसी युद्ध में राजा ज्यामघ की विजय हुईं वहाँ उन्हें (विवाहार्थ) एक कन्या प्राप्त हुई। (पर) उसे लाकर पत्नी को देते हुए राजा ने उससे भयपूर्वक कहा- 'शुचिस्मिते ! यह (मेरी स्त्री नहीं,) तुम्हारी स्नुषा (पुत्रबधू) है।' इस प्रकार कहे जाने पर उसने राजा से पूछा- 'यह किसकी स्नुषा है?॥28-34॥
शैव्या।प्राय: अठारह पुराणों तथा उपपुराणों में एवं भागवतादि की टीकाओं में 'ज्यामघ' की पत्नी शैव्या ही कही गयी है। कुछ मत्स्यपुराण की प्रतियों में 'चैत्रा' नाम भी आया है, परंतु यह अनुकृति में भ्रान्तिका ही परिणाम है। तब राजा ने कहा-(प्रिये) तुम्हारे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसी की यह पत्नी होगी। (यह आश्चर्य देख-सुनकर वह कन्या तप करने लगी।) तत्पश्चात् उस कन्या की उग्र तपस्या के परिणामस्वरूप वृद्धा प्राय: बूढ़ी होने पर भी शैव्याने (गर्भ धारण किया और) विदर्भ नामक एक पुत्र को जन्म दिया। उस विद्वान् विदर्भ ने स्त्रुषाभूता उस राजकुमारी के गर्भ से क्रथ, कैशिक तथा तीसरे परम धर्मात्मा लोमपाद नामक पुत्रों को उत्पन्न किया। ये सभी पुत्र शूरवीर एवं युद्धकुशल थे। इनमें लोमपाद से मनु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा मनु का पुत्र ज्ञाति हुआ। कैशिक का पुत्र चिदि हुआ, उससे उत्पन्न हुए नरेश चैद्य नाम से प्रख्यात हुए। विदर्भ-पुत्र क्रथ के कुन्ति नामक पुत्र पैदा हुआ। कुन्ति से धृष्ट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो परम प्रतापी एवं रणविशारद था। धृष्टका पुत्र निर्वृति हुआ जो धर्मात्मा एवं शत्रु-वीरों का संहारक था। निर्वृति के एक ही पुत्र था जो विदूरथ नाम से प्रसिद्ध था। विदूरथ का पुत्र दशार्ह और दशार्ह का पुत्र व्योम बतलाया जाता है। दशार्हवंशी व्योम से पैदा हुए पुत्र को जीमूत नाम से कहा जाता है।35-40।
तत्पश्चात् राजा देवावृध का जन्म हुआ, जो बन्धुओं के साथ सुदृढ़ मैत्री के प्रवर्धक थे। परंतु राजा (देवावृध) को कोई पुत्र न थां उन्होंने 'मुझे सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न पुत्र पैदा हो 'ऐसी अभिलाषा से युक्त हो अत्यन्त घोर तप किया। अन्त में उन्होंने मन्त्र को संयुक्त कर पर्णाशा नदी के जल का स्पर्श किया। इस प्रकार स्पर्श करने के कारण पर्णाशा नदी राजा का प्रिय करने का विचार करने लगी। वह श्रेष्ठ नदी उस राजा के कल्याण की चिन्ता से व्याकुल हो उठी। अन्त में वह इस निश्चय पर पहुँची कि मैं ऐसी किसी दूसरी स्त्री को नहीं देख पा रही हूँ, जिसके गर्भ से इस प्रकार का (राजा की अभिलाषा के अनुसार) पुत्र पैदा हो सके, इसलिये आज मैं स्वयं ही हज़ारों प्रकार का रूप धारण करूँगी। तत्पश्चात् पर्णाशा ने परम सुन्दर शरीर धारण करके कुमारी रूप में प्रकट होकर राजा को सूचित किया। तब महान् व्रतशाली राजा ने उसे (पत्नीरूप से) स्वीकार कर लिया तदुपरान्त नदियों में श्रेष्ठ पर्णाशा ने राजा देवावृध के संयोग से नवें महीने में सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न बभ्रु नामक पुत्र को जन्म दिया। पुराणों के ज्ञाता विद्वान्लोगवंशानुकीर्तनप्रसंग में महात्मा देवावृध के गुणों का कीर्तन करते हुए ऐसी गाथा गाते हैं- उद्गार प्रकट करते हैं- 'इन (बभ्रु)- के विषय में हमलोग जैसा (दूर से) सुन रहे थे, उसी प्रकार (इन्हें) निकट आकर भी देख रहे हैं। बभ्रु तो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं और देवावृध (साक्षात्) देवताओं के समान हैं। राजन् बभ्रु और देवावृध के प्रभाव से इनके छिहत्तर हज़ार पूर्वज अमरत्व को प्राप्त हो गयें राजा बभ्रु यज्ञानुष्ठानी, दानशील, शूरवीर, ब्राह्मणभक्त, सुदृढ़व्रती, सौन्दर्यशाली, महान् तेजस्वी तथा विख्यात बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। तदनन्तर (बभ्रु के संयोग से) कंक की कन्या ने कुकुर, भजमान, शशि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्रों को जन्म दिया। कुकुर का पुत्र वृष्णि, वृष्णि का पुत्र धृति, उसका पुत्र कपोतरोमा, उसका पुत्र तैत्तिरि, उसका पुत्र सर्प, उसका पुत्र विद्वान् नल था। नल का पुत्र दरदुन्दुभि नाम से कहा जाता था ॥51-63॥ नरश्रेष्ठ दरदुन्दुभि पुत्रप्राप्ति के लिये अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे उस विशाल यज्ञ में पुनर्वसु नामक पुत्र प्रादुर्भूत हुआ। पुनर्वसु अतिरात्र के मध्य में सभा के बीच प्रकट हुआ था, इसलिये वह विदान्, शुभाशुभ कर्मों का ज्ञाता, यज्ञपरायण और दानी था। वसुदेव-देवकी-बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजन् पुनर्वसु के आहुक नामक पुत्र और आहुकी नाम की कन्या- ये जुड़वीं संतान पैदा हुई। इनमें आहुक अजेय और लोकप्रसिद्ध था। उन आहुक के प्रति विद्वान् लोग इन श्लोकों को गाया करते हैं- 'राजा आहुक के पास दस हज़ार ऐसे रथ रहते थे, जिनमें सुदृढ़ उपासंग (कूबर) एवं अनुकर्ष (धूरे) लगे रहते थे, जिन पर ध्वजाएँ फहराती रहती थीं, जो कवच से सुसज्जित रहते थे तथा जिनसे मेघ की घरघराहट के सदृश शब्द निकलते थे। उस भोजवंश में ऐसा कोई राजा नहीं पैदा हुआ जो असत्यवादी, निस्तेज, यज्ञविमुख, सहस्त्रों की दक्षिणा देने में असमर्थ, अपवित्र और मूर्ख हो।' राजा आहुक से भरण-पोषण की वृत्ति पाने वाले लोग ऐसा कहा करते थे। आहुक ने अपनी बहन आहुकी को अवन्ती-नरेश को प्रदान किया था। आहुक के संयोग से काश्य की कन्या ने देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। वे दोनों देव-पुत्रों के सदृश कान्तिमान एवं पराक्रमी चार शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम हैं- देववान, उपदेव, सुदेव और देवरक्षित। इनके सात बहनें भी थीं, जिन्हें देवक ने वसुदेव को समर्पित किया था। उनके नाम हैं- देवकी, श्रुतदेवी, मित्रदेवी, यशोधरा, श्रीदेवी, सत्यदेवी और सातवीं सुतापी ॥64-73॥
कंस उग्रसेन के नौ पुत्र थे, उनमें कंस ज्येष्ठ था। उनके नाम हैं- न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद। उनके कंसा, कंसवती, सतन्तू, राष्ट्रपाली और कंका नाम की पाँच बहनें थीं, जो परम सुन्दरी थीं। अपनी संतानों सहित उग्रसेन कुकुर-वंश में उत्पन्न हुए कहे जाते हैं भजमान का पुत्र महारथी विदूरथ और शूरवीर राजाधिदेव विदूरथ का पुत्र हुआ। राजाधिदेव के शोणाश्व और श्वेतवाहन नामक दो पुत्र हुए, जो देवों के सदृश कान्तिमान और नियम एवं व्रत के पालन में तत्पर रहने वाले थे। शोणाश्व के शमी, देवशर्मा, निकुन्त, शक्र और शत्रुजित नामक पाँच शूरवीर एवं युद्धनिपुण पुत्र हुए। शमी का पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र का पुत्र प्रतिक्षत्र, उसका पुत्र भोज और उसका पुत्र हृदीक हुआ। हृदीक के दस अनुपम पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें कृतवर्मा ज्येष्ठ और शतधन्वा मँझला था। शेष के नाम (इस प्रकार) हैं- देवार्ह, नाभ, धिषण, महाबल, अजात, वनजात, कनीयक और करम्भक। देवार्ह के कम्बलबर्हिष नामक विद्वान् पुत्र हुआ। उसका पुत्र असोमजा और असोमजा का पुत्र तमोजा हुआ। इसके बाद सुदंष्ट, सुनाभ और कृष्ण नाम के तीन राजा और हुए जो परम पराक्रमी और उत्तम कीर्तिवाले थे। इनके कोई संतान नहीं हुई। ये सभी अन्धकवंशी माने गये हैं। जो मनुष्य अन्धकों के इस वंश का नित्य कीर्तन करता है वह स्वयं पुत्रवान होकर अपने वंश की वृद्धि करता है।74-85।
टीका टिप्पणी और संदर्भ-
↑ भागवत 9।23।31 तथा विष्णु पुराण4।12।2 में 'रूशंगु' एवं पद्म पुराण 1।13।4 में 'कुशंग' पाठ है।
↑ अन्यत्र शिमेयु, रूचक या शितपु पाठ भी मिलता है।
↑ इन्हीं से श्रीकृष्ण आदि दाशार्हवंशीरूप में प्रसिद्ध हुए हैं।
↑ भारत में पर्णाशा नाम की दो नदियाँ हैं ये दोनों राजस्थान की पूर्वी सीमापर स्थित हैं और पारियात्र पर्वत से निकली हैं। (द्रष्टव्य मत्स्य0 12।50 तथा वायुपुराण 38।176
↑ अधिकांश अन्य पुराणसम्मत यहाँ 'धृष्णु' पाठ मानना चाहिये, या इन्हें द्वितीय वृष्णि मानना चाहिये।
↑ पद्मपुराण 1।13।40 में चन्दनोदकदुंदुभि नाम है।
साभार भारतकोश-
"कार्त्तवीर्य्यार्ज्जुनोद्देशेन दीयमाने दीपे । तद्दानविधानादि विधानपारिजाते उड्डामेश्वरतन्त्रे उक्तं यथा“गोमयेनोपलिप्तायां शुद्धभूमौ समाहितः। तन्मध्ये मण्डलं कार्य्यं त्रिकोणं विन्दुसंयुतम् । षट्कोणं तद्बहिः कार्यं मध्ये मूलं समालिखेत् । तण्डुलैःकुङ्कुमाक्तैर्वा रक्तचन्दनमिश्रितैः। तस्योपरि न्यसेद्दापं घृतपूरितवर्त्तिकम् । तं दीपं विधिनायुज्य पश्चात्सङ्कल्पयेत्ततः। कार्त्तवीर्य ! महाबाहो! भक्तानामभयप्रद ! गृहाण दीपं मद्दत्तं कल्याणं कुरु सर्वदा। अनेन दीपदानेन कार्तवीर्यस्तु प्रीयताम् । पश्चिमाभिमुखं दीपं कारयेत् शुभकर्मणि । अभिचारे तु त्रितयं दक्षिणोत्तरपश्चिमे । नष्टप्राप्तौ च कुर्वीत पञ्चादिविषमान् पुनः । वश्याभिकाक्षी कुर्वीत गुर्वाज्ञां प्राप्य साधकः । चतुर्वर्गफलायैव शतदीपाबलिं ततः । मारणे तु सहस्रं स्याद्द शासाहस्रमेव च । दीपावलिं प्रकुवीर्त गुर्वाज्ञां प्राप्य साधकः । चतुर्वर्गफलावाप्त्यै कुर्वीत प्रतिवासरम् । अनेन दीपदानेन कार्त्तवीर्यः प्रसीदति । एवं दीपं सुरेशानि! कुर्वीत गुरुशासनात्! । महाभये समुत्पन्ने चिन्ताव्याकुलितेक्षणे । लवणं स्वर्णसंयुक्तं देयं रात्रौ विचक्षणैः । पूर्णमासीदिने कुर्यान्नगरैका प्रदक्षिणा । ग्रामे पुरे गोव्रजे वा साधकः सर्वकालतः । एतत् सारतरं देवि ! न देयं यस्य कस्यचित् । गुरुभक्ताय शान्ताय साधकाय प्रकाशयेत् । नास्तिकाय न दातव्यं परशिष्याय नो वदेदिति” । तद्दीपपात्रादिविवृतिःतत्रैव “राजचोरादिपीडासु ग्रहरोगभयेषु च । नाना- दु स्वेषु देवेशि ! सुखप्राप्त्यै तथैव च । दीपं कुर्वीत विधिव- दुगुरुदर्शितमार्गतः । दीपपात्रं नवं कार्यं महाकार्ये विशेषतः । सौवर्णं राजतं ताम्रं कांस्यं लौहं च मृण्मयम् । गोधूममाषमुद्गानां चूर्णेन घटितेऽथवा । सौवर्णे कार्य-सिद्धिः स्यात् रौप्ये वश्य जगत् भवेत् । ताम्रे रिपोभयाभावः कांस्ये विद्वेषणं भवेत् । मारणे लोहपात्रं च उच्चाटे मृण्मयं तथा । गोधूमचूर्ण्घटिते विवादे विजयो घ्रुवम् ।माषे शत्रुमुखस्तम्भो मुद्गे स्याच्छान्तिरुत्तमा सन्धिकार्ये नदीकूलद्वयोर्मृत्स्नां तु कारयेत् । अलाभे सर्वपात्राणां ताम्रे कुर्याद्विचक्षणः। सप्त पञ्च तथा तिस्र एका वा वर्तिका भवेत् । अयुग्मा वर्त्तिका ग्राह्या एकोत्तरशतावधिः । गुरुकार्येऽधिका कार्या स्वल्पे स्वल्पतमा प्रिये ! । सूत्रं श्वेतं तथा पीतं माञ्जिष्ठञ्च कुसुम्भजम् । कृष्णञ्च कर्वुरञ्चैव क्रमतो विनियोजयेत् । सर्वाभावे सितेनैव कुर्याद्वर्त्तीः पृथक् भवेत् । दणपञ्चाधिकाश्चैव विंशत्रिंशा स्तथैव च । चत्वारिंशत्तथा कार्याः पञ्चाशदपि वा भवेत् । अष्टोत्तरसहस्रं वा शतं पञ्चाशदेव च । तत्तत्कार्यवशाद् देवि ! कुर्यात्तन्तून् समाहितः । षट्कर्म्माणि तथा कुर्यात् साधकश्च सुबुद्धिमान् । चत्वारिंशदधिकांश्च नित्यदीपे तु कारयेत् । तदर्द्धमपि च प्रोक्तं देवि! विश्वार्तिहारिणि! । गोघृतेन प्रकर्त्तव्यो दीपः सर्वार्थसिद्धये । गोमयेनोपलिप्तायां भूमौ यन्त्रं समालिखेत् । कपिलागोमयेनैव षट्कोणञ्च लिखेत्ततः । मारवीजं (क्लाँ) कर्णिकायां षट्पात्रे वोजषट्ककम् । दिक्षुवीजचतुष्कञ्च शेषैः संवेष्टयेद्धि तत् । तत्र प्रत्यड्मुखो दीपः स्थाप्यः सर्वाङ्गसुन्द्ररि! । प्राणानायन्य विधिवन्मूलेनाङ्गं समाचरेत् । मन्त्रराजं लिखित्वा तु ताम्रपात्रेऽष्टगन्धकैः। स्थापयेत्पूर्वतस्तस्य कुर्यात्सङ्कल्पमादरात्” ।
“अनेन विधिना देवि! कार्त्तवीर्यस्य गोपतेः । दीपोदेयः प्रयत्नेन सर्वकार्यमभीप्सता । गुरोराज्ञां पुरस्कृत्य कुर्यादुदेवि! प्रयत्नतः । अन्यथा तु कृतं लोके विपरीतफलं भवेत् । विधानं दीपदानस्य कृतघ्नपिशुनाय च । ब्रह्म- कर्मविहीनाय न वक्तव्यं कदाचन । सुभक्ताय सुशिष्याय- साधकाय विशेषतः । वक्तव्यं देवि ! विधिना मम प्रीतिकरं शिवम् । किं बहूक्तेन भो देवि! कल्पोऽयमखिलार्थदः । अथाभिधीयते मानमाज्यस्य वरवर्णिनि! । साधकानां हितार्थाय सर्वार्थस्य च सिद्धये । पलानां पञ्चविंशस्तु दीपो देयोऽर्थसिद्धये । पञ्चाशता घोरशान्त्यै शत्रुवश्याय चेष्यते । पञ्चसप्ततिर्देवेशि! शत्रूणां स्यात् पराजये । एतेन रोगनाशः स्यात् सहस्रेणाखिलाः क्रियाः । सिध्यन्ति साधकानां हि प्रयोगा येऽतिदुष्कराः । नित्यदीपे न मानं हि कार्यः सोऽत्र स्वशक्तितः । यथाकथञ्चिद्देवेशि! नित्यं दीपं प्रकल्पयेत् । कार्त्तवीर्याय देवेशि ! सर्वकल्पाण सिद्धये । गुरुकार्य्येऽधिकं मानं कर्त्तव्यं देवि! सर्व्वदशि लघुद्रव्यैः प्रकर्तव्यः लघुकार्ये वरानने! । विना मानं न कुर्वीत कार्तवीर्यस्य गोपतेः” । अधिकं तत्र दृश्यम् । (मन्त्रमहोदधौ १७ तरङ्गे )।
कार्त्तवोर्य्यमन्त्रादिकमुक्त्वा विशेषो दर्शितो यथा “अथ दीपविधिं वक्ष्ये कार्त्तवीर्य्यप्रियङ्करम् । वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्त्तिकाश्विनपौषतः । माघफाल्गुनयोर्मासोर्दी- पारम्भ समाचरेत् ।
तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ विना । हस्तोत्तराश्विरौद्रेषु ६ पुष्पवैष्णव २२ वायुभॆ५ । द्विदैवते १६ च रोहिण्यां दीपारम्भो हितार्थिनाम् । चरमे २७ च, व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ सुकर्म्मणि । प्रीतौ हर्षे च सौभाग्ये शोभनायुष्मतोरपि । करणे विष्टिरहिते ग्रहणेऽर्द्धोदयादिषु । योगेषु रात्रौ पूर्व्वाह्णे दीपारम्भः कृतः शुभः । कार्त्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीव शोभनः । यदि तत्र रवेर्व्वारः श्रवणं तत्र दुर्लभम् । अत्यावश्यक- कार्य्यषु मासादीनां न शोधनम् । आद्येऽह्न्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी शयीत कौ । प्रातः स्नात्वा शुद्धभूभौ लिप्तायां गोमयोदकैः । प्राणानायम्य सङ्कल्प्य न्यासान् पूर्ब्बोदितां- श्चरेत् षट्कोणं रचयेद्भूमौ रक्तचन्दनतण्डुलैः । अन्तःस्मरं (क्लाँ) समालिख्य षट्कोणेषु समालिखेत् । मन्त्रराजस्य षड्वर्ण्णान् कामवीजविवर्ज्जितान् । सृणि पद्मं वर्म्म चास्त्रं पूर्व्वाद्याशास्तु संलिखेत् । नवार्णै- र्वेष्टयेत्तच्च त्रिकोणं तद्बहिः पुनः । एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद्दीपभाजनम् । स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः । कांस्यपात्रं मृण्मयञ्च कनिष्ठं लौहजं मृतौ । शान्तये मुद्गचूर्णोत्थं सन्धौ गोधूमचूर्णजम् । बुध्नेषूर्द्ध्वं समानं तु पात्रं कुर्य्यात् प्रयत्नतः । अर्कदिग्वसुषट् पञ्चचतूरामाङ्गुलैर्मितम् । आज्य पलसहस्रे तु पात्रं शतपलैः कृतम् । आज्येऽयुतपले पात्रं पलपञ्चशती- कृतम् । पञ्चसप्रतिसंख्ये तु पात्रं षष्टिपलं मतम् । त्रिसहस्रीकृतपले शरार्क १२५ पलभाजनम् । द्वि- सहस्र्यां शरशिवं ११५ शतार्द्धे त्रिंशता मितम् । शठेऽक्षिशर ५५ संख्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् । नित्यदीपे वह्निपलं पात्रमाज्ये स्मृतं पलम् । एवं पात्रं प्रति- ष्ठाप्य वर्त्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत् । एका तिस्रोऽथ वा पञ्च सप्ताद्या विषमाअपि । तिथि १५ माद्या ऽऽसह स्रन्तु तन्तुसंख्या विनिर्म्मिता । गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् । सहस्रपलसंख्यादि दशान्तं कार्य्यगौरवात् । सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशा- ङ्गुलाम् । तदर्द्धां वा तदर्द्धां वा सूक्ष्माग्रां स्थूल- मूलिकाम् । विसुञ्चेद्दक्षिणे भागे पात्रमध्ये कृताग्रकाम् । पात्राद्दक्षिणदिग्भागे मुक्त्वाऽङ्गुलचतुष्टयम् । अधोऽग्रां दक्षिणाधारां निखनेच्छुरिकां शुभाम् । दीपं प्रज्वा- लयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्ब्बकम् । दीपात् पूर्ब्बत्र दि ग्भागे सर्व्वतो भद्रमण्डले । तण्डुलाष्टदले वापि विधिवत् स्थापयेद्घटम् । तत्रावाह्य नृपाधीशं पूर्व्ववत् पूजयेत् सुधीः । लाजाक्षतान् समादाय दीपं सङ्कल्प- येत्ततः । दीपसङ्कल्पमन्त्रोऽथ कथ्यते द्वीषु ५२ भूमितः” । ततस्तन्मन्त्रादिकमुक्त्वा शेषविधिर्दर्शितो यथा “एवं दीपप्रदानस्य कर्त्ताप्नोत्यखिलेप्सितम् । दीपप्रबोध काले तु वर्ज्जयेदशुभाङ्गिरम् । विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं परिकीर्त्तितम् । शूद्राणां मध्यमं प्रोक्तं म्लेच्छस्य बधबन्धनम् । आखोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य सुखावहम् । दीपज्वाला समा सिद्ध्यै, वका नाशविधायिनी । कृते दीपे यदा पात्र भग्नं दृश्येत दैवतः । पक्षादर्व्वाक् तदा गच्छे दुयजमानोयमालयम् । वर्त्त्यन्तरं यदा कुर्य्यात् कार्य्यं सिध्येद्विलम्बतः । नेत्रहीनो भवेत् कर्त्ता तस्मिन् दीपान्तरे कृते । अशुचिस्पर्शने व्याधिर्दीपनाशे तु चौरभीः । श्वमार्जाराखुसंस्पर्शे भवेद्भूपतितोभयम् । यात्रारम्भे वसुपलेः कृतोदीपोऽखिलेष्टदः । तस्माद्दीपः प्रयत्नेन रक्षणीयोऽन्तरायतः । आ समाप्तेः प्रकुर्व्वीत ब्रह्मचर्य्यञ्च भूशयः । स्त्रीशूद्रपतितादीनां सम्भाषामपि वर्जयेत् । जपेत् सहस्रं प्रत्यह्नि मन्त्रराजं नवाक्षरम् । स्त्रोत्र- पाठं प्रतिदिनं निशीथिन्यां विशेषतः । एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो मन्त्रनायकम् । सहस्रं प्रजपेद्रात्रौ सोऽभीष्टं क्षिप्रमाप्नुयात् । समाप्य शोभने घस्रे संभोज्य द्विजनायकान् । कुम्भोदकेन कर्त्तारमभिषिञेन्मनुं स्मरन् । कर्त्ता तु दक्षिणां दद्यात् पुष्कलां तोषहेतवे । गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्य्यसुतोनृपः । गुर्व्वाज्ञया स्वयं कुर्य्याद्यदि वा कारयेद्गुरुम् । कृत्वा रत्नादिदानेन दीपदानं धरापतेः । गुर्व्वाज्ञामन्तरा कुर्य्याद्यो दीपं स्वेष्टसिद्धये । प्रत्युतानुभवत्येष हानिमेव पदे पदे । दीपदानविधिं ब्रूयात् कृतघ्नादिषु नो गुरुः । दुष्टेभ्यः कथितोमन्त्रो वक्तु र्दुःखावहो भवेत् । उत्तमं गोघृतं, प्रोक्तं मध्यमं महिषीभवम् । तिलतैलन्तु तादृक् स्यात् कनीयोऽजादिजं घृतम् । आस्यरोगे सुगन्धेन दद्यात्तैलेन दीपकम् । सिद्धार्थसम्भवेनाथ द्विषतां नाशसिद्धये । सहस्रेण पलर्दीपे विहिते चेन्न दृश्यते । कार्य्यसिद्धिस्तदा कुर्य्याद्द्विवारं दीपजं विधिम् । तदा सुदुर्लभं कार्य्यं सिध्यत्येव न संशयः । यथा कथञ्चिद्यः कुर्य्याद्दीपदानं स्ववेश्मनि । विघ्नाः सर्व्वेऽरिभिः साकं तस्य नश्यन्ति द्वरतः । सर्व्वदा जयमाप्नोति पुत्रान् पौत्रान् धनं यशः । यथा कथञ्चि- द्यो गेहे नित्यं दीपं समाचरेत् । कार्त्तवीर्य्यार्जुनप्रीत्यै सोऽभीष्टं लभते नरः । दीपप्रियः कार्त्तवीर्य्योमार्त्तण्डो नतिवल्लभः । स्तुतिप्रियो महाविष्णुर्गणेशस्तर्पणप्रियः । दुर्गाऽर्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियः शिवः” । कार्त्तवीर्य्यस्य च दत्तात्रेयलब्धयोगप्रभावात् हरेश्चक्रावताराच्च उपास्यत्वम् । यथा चास्य हरेश्चक्रांवतारत्वं तथा तस्य ध्याने वर्णिर्त यथा “उद्यत्सूर्य्यसहस्रकान्तिरखिलक्षौणी- धवैर्वन्दितो हस्तानां शतपञ्चकेन च दधच्चापानिषूं- स्तावता । कण्ठेहाटकमालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेः पायात् स्यन्दनगोऽरुणाभवसनः ।
श्री कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र-प्रयोग आज के धन-प्रधान युग में यदि किसी का परिश्रम से कमाया हुआ धन किसी जगह फँस जाए तथा उसकी पुनः प्राप्ति की सम्भावना भी दिखाई न पड़े, तो श्रीकार्तवीर्यार्जुन का प्रयोग अचूक तथा सद्यः फल-दायी होता है ।
श्रीकार्तवीर्यार्जुन का प्रयोग ‘तन्त्र’-शास्त्र की दृष्टि से बड़े गुप्त बताए जाते हैं । इस प्रयोग से साधक गत-नष्ट धन को तो प्राप्त कर ही सकता है, साथ ही षट्-कर्म-साधन यहाँ तक कि प्रत्येक अभिलषित-प्राप्ति में भी सफल हो सकता है । पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार भगवान् विष्णु के अमित तेजस्वी ‘सुदर्शन चक्र’ अथवा विष्णु के अवतार – हैहय-वंशी राजा कार्तवीर्यार्जुन को हजार भुजाएँ होने के कारण ‘सहस्रार्जुन’ भी कहा जाता था ।
प्रयोग हेतु आवश्यक निर्देश
१॰ प्रयोग की सफलता एवं निर्विघ्नता हेतु सर्व-प्रथम भू-शुद्धि, आसन-शुद्धि, भूत-शुद्धि, भूतोपसंहार, स्व-प्राण-प्रतिष्ठा आदि आवश्यक कर्म कर ‘श्रीविघ्न-विनाशक’ गणेश का पूजन एवं ‘कलश-स्थापन’ करें ।
स्वयं न कर सकें, तो विद्वान ब्राह्मण का सहयोग प्राप्त करें ।
२॰ फिर वैष्णव अष्ट-गन्ध (चन्दन, अगर, कर्पूर, चोर, कुंकुम, रोचना, जटामांसी तथा मुर) से कार्तवीर्य-यन्त्र की रचना करें ।
३॰ यन्त्र में प्राण-प्रतिष्ठा कर आवरण पूजा करें ।
४॰ कामना-भेद के अनुसार निश्चित संख्या में जप करें । जप पूरा होने पर दशांश ‘हवन‘, तद्दशांश ‘तर्पण, मार्जन व ब्राह्मण-भोज करावें ।
५॰ प्रयोग की सफलता के लिए दस सहस्र ‘गायत्री-जप’ परमावश्यक है ।
६॰ जप की पूर्ण-संख्या को इस प्रकार बाँटें कि वह सम-संख्या के आधार पर प्रतिदिन किया जा सके । किसी दिन कम और किसी दिन अधिक ‘जप’ नहीं किया जाना चाहिए ।
७॰ प्रतिदिन जितनी देर जप चले, उतने समय तक अखण्ड-दीपक अवश्य ही प्रज्जवलित रहना आवश्यक है । ८॰ जब तक प्रयोग चले, तब तक शास्त्रोक्त नियमों का पालन करें । ९॰ प्रयोग करने से पूर्व मन्त्र को पुरश्चरण द्वारा सिद्ध कर लेना चाहिए । साधना-क्रम १॰ शुद्ध होकर, संकल्प करें – देश-कालौ सङ्कीर्त्य अमुक-कामना सिद्धयर्थं मम श्रीकार्तवीर्यार्जुन-देवता-प्रीति-पुरस्सरं क्षिप्रममुक-जनस्य बुद्धि-हरण-पूर्वकं स्व-धन-प्राप्तये मनोऽभिलषित-कार्य-सिद्धये वा दीप-दान-पूर्वकं अमुकामुक-संख्यात्मकं जप-रुप-प्रयोगमहं करिष्यामि । – इस प्रकार सङ्कल्प करने के बाद श्रीगणेशादि-पूजन करें । २॰ गोबर से लेपन कर शुद्ध स्थान (पक्का फर्श हो, तो धोकर पञ्च-गव्य से प्रोक्षण करें) पर ताँबे का बर्तन रखें तथा उसमें लाल चन्दन अथवा रोली से षट्-कोण बनाकर, उसके बीच में “ॐ फ्रों” लिखें । फिर उसमें एक ताँबे का दीप-पात्र (सरसों के तेल, मौली या लाल रंग से रँगी रुई की बत्ती सहित) निम्न मन्त्र पढ़ते हुए स्थापित करें – शुद्ध तैल-दीपमयं, स्थापयामि जगत्पते ! कार्तवीर्य, महा-वीर्य ! कार्यं सिद्धयतु मे हि तत् ।। ३॰ दीप-पात्र के दाहिने भाग में (अर्थात् साधक के बाँई ओर) एक नई छुरी – निम्न मन्त्र पढ़कर स्थापित करें । छुरी की धार ‘दक्षिण’- दिशा की ओर रहे और उसकी नोक (अग्र-भाग) साधक की ओर रहे – “ॐ नमः सुदर्शनास्त्राय फट् ।” ४॰ ‘दीपक’ का मुख पश्चिम की ओर या साधक की ओर रखें । निम्न मन्त्र से उसे प्रज्जवलित करें – “ॐ कार्तवीर्य नृपाधीश ! योग-ज्वलित-विग्रह ! भव सन्निहितो देव ! ज्वाला-रुपेण दीपके ।।” ५॰ मन्त्रोच्चार-पूर्वक ‘दीपक’ की ज्योति में प्राण-प्रतिष्ठा करें । यथा – पहले प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र का विनियोग पढ़ें – विनियोगः- ॐ अस्य श्रीप्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्रस्य अजेश-पद्मजाः ऋषयः, ऋग्-यजुः-सामानि छन्दांसि, प्राण-शक्तिर्देवता, आं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्रों कीलकं, श्रीकार्तवीर्यार्जुन-देव-दीपे प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः । ‘श्रीकार्तवीर्यार्जुन-दीप-देवतायै नमः’ से लाल चन्दन एवं पुष्पादि से दीपक की पूजा करें । पूजा करने के बाद निम्न मन्त्र पढ़कर ‘दीप-समर्पण’ करें – कार्तवीर्य महावीर्य ! भक्तानामभयं-कर ! दीपं गृहाण मद्-दत्तं, कल्याणं कुरु सर्वदा ।। अनेन दीप-दानेन, ममाभीष्टं प्रयच्छ च । फिर ‘दीपक’ की सन्निधि में निम्न-लिखित मन्त्र ‘प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र’ का जप करें – मन्त्रः- “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ हंसः ।” फिर श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र का विनियोगादि कर जप करें – श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र का विनियोगः- ॐ अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुन (स्तोत्रस्य) मन्त्रस्य दत्तात्रेय ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीकार्तवीर्यार्जुनो देवता, फ्रों बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- दत्तात्रेय ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीकार्तवीर्यार्जुनो देवतायै नमः हृदि, फ्रों बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, क्लीं कीलकाय नमः नाभौ ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । कर-न्यासः- ॐ आं फ्रों ब्रीं अंगुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ईं क्लीं भ्रूं तर्जनीभ्यां नमः, ॐ हुं आं ह्रीं मध्यमाभ्यां नमः, ॐ क्रैं क्रौं श्रीं अनामिकाभ्यां नमः, ॐ हुं फट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ कार्तवीर्यार्जुनाय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । हृदयादि-न्यासः- ॐ आं फ्रों ब्रीं हृदयाय नमः, ॐ ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, ॐ हुं आं ह्रीं शिखायै वषट्, ॐ क्रैं क्रौं श्रीं कवचाय हुम्, ॐ हुं फट् अस्त्राय फट्, ॐ कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे । टिप्पणी – नेत्रों का ‘न्यास’ नहीं होगा अर्थात् षडङ्ग के स्थान पर ‘पञ्चाङ्ग-न्यास’ का ही विधान है । मन्त्र-न्यासः- ॐ फ्रों ॐ हृदये । ॐ ब्रीं ॐ जठरे । ॐ क्लीं ॐ नाभौ । ॐ भ्रूं ॐ जठरे । ॐ आं ॐ गुह्ये । ॐ ह्रीं ॐ दक्ष-चरणे । ॐ क्रों ॐ वाम-चरणे । ॐ श्रीं ॐ ऊर्वोः । ॐ हुं ॐ जानुनो । ॐ फट् ॐ जङ्घयोः । ॐ कां मस्तके । ॐ तं ललाटे । ॐ वीं भ्रुवोः । ॐ यां कर्णयो । ॐ जुं नेत्रयोः । ॐ नां नासिकायां । ॐ यं मुखे । ॐ नं गले । ॐ मः स्कन्धयोः । व्यापक-न्यासः- मूल-मन्त्र से सर्वाङ्ग-न्यास करें । ध्यानः- उद्यत्-सूर्य-सहस्र्कान्तिरखिल-क्षोणी-धवैर्वन्दितः । हस्तानां शत-पञ्चकेन च दधच्चापानिषूंस्तावता ।। कण्ठे हाटक-मालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेः । पायात् स्यन्दनगोऽरुणाभ-वसनाः श्रीकार्तवीर्यो नृपः ।। मूल-मन्त्रः- “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ।” जप-संख्या एवं हवनादि – एक लाख । तद्दशांश हवन, तर्पण, मार्जन या अभिषेक, ब्राह्मण-भोजन । हवन-सामग्री- चावल, खीर तथा तिल-मिश्रित घृत । कामना-भेद से हवन-सामग्री – सरसों-रीठा-लहसुन-कपास —मारण । धतूरा या गोरोचन-गोबर —स्तम्भन । नीम-पत्र —विद्वेषण । कमल या कमल-बीज —आकर्षण । हल्दी या चम्पा-चमेली —वशीकरण । बहेड़ा व खैर-समिधा —उच्चाटन । कस्तूरी-गोरोचन —घर से भागे व्यक्ति की वापसी । कमल-मक्खन-कस्तूरी —गत धन की प्राप्ति । यव (जौ) —लक्ष्मी-प्राप्ति । तिल-घी —पाप-नाश । तिल-चावल-साँवक-लाजा —राज-वशीकरण । अपामार्ग-आक-दूर्वा —पाप-नाश व लक्ष्मी-प्राप्ति । गुग्गुल —प्रेत-शान्ति । पीपल-गूलर-पाकड़-बड़-बेल-समिधा –क्रमशः सन्तान, आयु, धन, सुख, शान्ति । साँप की केँचुली-धतूरा-पीली सरसों-नमक —चोर-नाश । धान —भूमि-प्राप्ति । टिप्पणी – सामान्य रुप से किसी भी काम्य कर्म की सफलता के लिए, जितनी संख्या ‘जप’ की होगी, उसका दशांश ‘हवन’ होगा, परन्तु जब कार्य-समस्या जटिल हो या सद्यः फल-प्राप्ति की इच्छा हो, तो हवन-संख्या एक सहस्र से दस सहस्र तक । कामना-भेद से जप-संख्याः- बन्दी-मोक्ष- १२०००, वाद-विवाद (मुकदमे में) जय- १५०००, दबे या नष्ट-धन की पुनः प्राप्ति- १३०००, वाणी-स्तम्भन-मुख-मुद्रण- १००००, राज-वशीकरण- १००००, शत्रु-पराजय- १००००, नपुंसकता-नाश/पुनः पुरुषत्व-प्राप्ति- १७०००, भूत-प्रेत-बाधा-नाश- ३७०००, सर्व-सिद्धि- ५१०००, सम्पूर्ण साफल्य हेतु- १२५००० । प्रत्येक प्रयोग में “दीप-दान” परमावश्यक है । हवन के पश्चात् ‘तर्पण’ करना होता है । वैसे तो तर्पण हवन का दशांश होता है, किन्तु कार्य की आवश्यकतानुसार हवन के अनुसार ही तर्पण भी एक हजार से दस हजार तक किया जा सकता है । कामना-भेद से तर्पणीय जल में हवन-सम्बन्धी सामग्री को आंशिक रुप में मिश्रित कर सकते हैं । तर्पण-विधिः- ताम्र-पात्र में कार्तवीर्यार्जुन-यन्त्र या ‘फ्रों’ बीज लिखें । उसी पात्र में निम्न मन्त्र से तर्पण करें – “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः कार्तवीर्यार्जुनं तर्पयामि नमः ।” अभिषेक-विधिः- ‘अभिषेक’ के सम्बन्ध में दो मत हैं – (१) देवता का मार्जन तथा (२) यजमान का मार्जन । दोनों के मन्त्र निम्न प्रकार हैं – (१) “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः कार्तवीर्यार्जुनं अभिषिञ्चामि ।” (२) “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः आत्मानं अमुकं वा अभिषिञ्चामि ।” ‘कार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र-प्रयोग’ में यजमान के मार्जन/अभिषेक की एक विशिष्ट विधि निम्न प्रकार है – शुद्ध भूमि पर गोबर/पञ्च-गव्य का लेपन/प्रोक्षण करें । उस पर अष्ट-गन्ध या लाल चन्दन से कार्तवीर्यार्जुन-यन्त्र बनावें । उस यन्त्र पर विधि-पूर्वक कलश स्थापित करें । कलश में कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर यथा-विधि पूजन करें । पूर्वोक्त विधि के अनुसार दीपक जलावें । बाँएँ हाथ से कुम्भ को स्पर्श करते हुए मूल-मन्त्र की दस माला जप करें । इस अभिमन्त्रित जल से स्वयं तथा स्व-जनों का अभिषेक करें । ऐसा करने से पुत्र, यश, आयु, स्व-जन-प्रेम, वाक-सिद्धि, गृहस्थ-सुख की प्राप्ति होती है तथा जटिल रोगों से मुक्ति मिलती है । मारण/कृत्यादि अभिचार-कर्म से प्रभावित तथा पीड़ित व्यक्ति को उस प्रभाव से मुक्ति मिलती है । श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र के जपानुष्ठान में आसन आदि लाल रंग के होते हैं । शङ्ख की माला सर्वोत्तम, रक्त-चन्दन की मध्यम तथा अन्य मालाएँ भी ठीक मानी गई है । अनुष्ठान की सफलता हेतु मूल-मन्त्र के आवश्यक जप के साथ दस गायत्री जप आवश्यक बतलाया गया है । कुछ विद्वानों का मत है कि जिस देवता के मन्त्र का जप किया जाए, उसी देवता की ‘गायत्री’ का ही जप होना चाहिए । अस्तु “श्रीकार्तवीर्यार्जुन-गायत्री” इस प्रकार है –
“ॐ कार्तवीर्याय विद्महे महा-वीर्याय धीमहि तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात् ।” साधन-माला कार्तवीर्यार्जुन, प्रयोग, मन्त्र
मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रों का समावेश है, जो आद्य माना जाता है। इसमें सहस्रबाहू का मन्त्र भी है।
मंत्रमन्त्रमहोदधि
सप्तदश तरङ्ग
भाषांतरण-
अरित्र
शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वार अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीय के मन्त्रों का आख्यान करत हूँ । जे कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥
अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं - वहिन (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी; पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वहिन (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् )(ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥
विमर्श - ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥
इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥
बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः - से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥
विमर्श - न्यासविधि - आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, ई क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा,
हुं शिखायै वषट् क्रैं श्रैं कवचाय हुम्, हुँ फट् अस्त्राय फट् ।
इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥
अब वर्णन्यास कहते हैं - मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम, जठर, नाभि, गुह्य, दाहिने पैर बाँये पैर, दोनो सक्थि दोनो ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥
तदनन्तर सभी अङ्गो पर मन्त्र के सभी वर्णों का व्यापक न्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की सिद्धि हेतु राज कार्तवीर्य का ध्यान करना चाहिए ॥११॥
विमर्श - न्यास विधि - ॐ फ्रों ॐ हृदये, ॐ व्रीं ॐ जठरे,
ॐ क्लीं ॐ नाभौ ॐ भ्रूं ॐ गुह्ये, ॐ आम ॐ दक्षपादे,
ॐ ह्रीं ॐ वामपादे, ॐ फ्रों ॐ सक्थ्नोः ॐ श्रीं ॐ उर्वोः,
ॐ हुं ॐ जानुनोः ॐ फट् ॐ जंघयोः ॐ कां मस्तके,
ॐ र्त्त ललाटें ॐ वीं भ्रुवोः, ॐ र्यां कर्णयोः
ॐ र्जुं नेत्रयोः ॐ नां नासिकायाम् ॐ यं मुखे,
ॐ नं गले, ॐ मः स्कन्धे
इस प्रकार न्यास कर - ॐ फ्रों श्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे- से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥८-११॥
अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं -
उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथो में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥
विमर्श - कार्तवीर्य की पूजा षट्कोण युक्त यन्त्र में भी कही गई है । यथा - षट्कोणेषु षडङ्गानि... (१७. १६) तथ दशदल युक्त यन्त्र में भी यथा - दिक्पत्रें विलिखेत् (१७. २२) । इसी का निर्देश १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे दशदले’ में ग्रन्थकार करते हैं ।
केसरों में पूर्व आदि ८ दिशाओं में एवं मध्य में वैष्णवी शक्तियोम की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए-
ॐ विमलायै नमः, पूर्वे ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, आग्नेये
ॐ ज्ञानायै नमः, दक्षिणे, ॐ क्रियायै नमः, नैऋत्ये,
ॐ भोगायै नमः, पश्चिमे ॐ प्रहव्यै नमः, वायव्ये
ॐ सत्यायै नमः, उत्तरे, ॐ ईशानायै नमः, ऐशान्ये
ॐ अनुग्रहायै नमः, मध्ये
इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्र से आसन दे कर मूल मन्त्र से उस पर कार्तवीर्य की मूर्ति की कल्पना कर आवाहन से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१३-१४॥
मध्य में आग्नेय, ईशान, नैऋत्ये, और वायव्यकोणों में हृदयादि चार अंगो की पुनः चारों दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना चाहिए ॥१५॥
तदनन्तर ढाल और तलवार लिए हुये चन्द्रमा की आभा वाले षडङ्ग मूर्तियों का ध्यान करते हुये षट्कोणों में षडङ पूजा करनी चाहिए ।
इसके बाद पूर्वादि चारोम दिशाओं में तथा आग्नेयादि चारों कोणो में १. चोरमदविभञ्जन, २. मारीमदविभञ्जन, ३. अरिमदविभञ्जन, ४. दैत्यमदविभञ्जन, ५. दुःख नाशक, ६. दुष्टनाशक, ७. दुरितनाशक, एवं ८. रोगनाशक का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्व आदि ८ दिशाओं में श्वेतकान्ति वाली ८ शक्तियोम का पूजन करना चाहिए ॥१६-१८॥
१. क्षेमंकरी, २. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यशस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. विद्याकारे, तथा ८. धनकरी ये ८ शक्तियाँ है । फिर आयुधों के साथ दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की साधना से मन्त्र के सिद्ध जो जाने पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥
विमर्श - आवरण पूजा विधि - सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा - आं फ्रों श्रीं हृदयाय नमः आग्नेये,
ई क्लीं भ्रूम शिरसे स्वाहा ऐशान्ये, हु शिखायै वषट् नैऋत्ये,
क्रैं श्रैं कंवचाय हुम् वायव्ये, हुं फट् अस्त्राय सर्वदिक्षु ।
षडङ्गपूजा यथा - ॐ फ्रां हृदयाय नमः,
ॐ फ्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ फ्रां शिखाये वषट् ॐ फ्रै कवचाय हुम्,
ॐ फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ फ्रः अस्त्राय फट्,
फिर अष्टदलों में पूर्वादि चारों दिशाओं में चोरविभञ्जन आदि का, तथा आग्नेयादि चारों कोणो में दुःखनाशक इत्यादि चार नाम मन्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चाहिए - यथा -
ॐ चोरमदविभञ्जनाय नमः पूर्वे, ॐ मारमदविभञ्जनाय नमः दक्षिणे,
ॐ अरिमदविभञ्जनाय नमः पश्चिमे, ॐ दैत्यमदविभञ्जनाय नमः उत्तरे,
ॐ दुःखनाशाय नमः आग्नेये, ॐ दुष्टनाशाय नमः नैऋत्ये,
ॐ दुरितनाशानाय वायव्ये, ॐ रोगनाशाय नमः ऐशान्ये
तत्पश्चात् पूर्वादि दिशाओं के दलोम अग्रभाग पर श्वेत आभा वाली क्षेमंकरी आदि ८ शक्तियोम का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ क्षेमंकर्यै नमः, ॐ वश्यकर्यै नमः, ॐ श्रीकर्यै नमः,
ॐ यशस्कर्यै नमः ॐ आयुष्कर्यै नमः, ॐ प्रज्ञाकर्यै नमः,
ॐ विद्याकर्यै नमः, ॐ धनकर्यै नमः,
तदनन्तर भूपुर में अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे, ॐ रं अग्नये नमः आग्नेये,
ॐ मं यमाय नमः दक्षिणे ॐ क्षं निऋतये नमः नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमें ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,
ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे, ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,
ॐ आं ब्राह्यणे नमः पूर्वेअशानयोर्मध्ये, ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ।
फिर भूपुर के बाहर उनके वज्रादि आयुधोम की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ शूं शूलाय नमः, ॐ पं पद्माय नमः, ॐ चं चक्राय नमः, इत्यादि ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद धूप, दीप एवं नैवेद्यादि उपचारों से विधिवत् कार्तवीर्य का पूजन करना चाहिए ॥१५-२०॥
अब कार्तवीय की पूजा के लिए यन्त्र कहता हूँ । काम्यप्रयोगों में कार्तवीर्यस्य काम्यप्रयोगार्थ पूजनयन्त्रम् कार्तवीर्यपूजन यन्त्रः -
वृत्ताकार कर्णिका में दशदल बनाकर कर्णिका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज (क्लीं), श्रुतिबीज (ॐ) एवं वाग्बीज (ऐं) लिखे, फिरे प्रणव से ले कर वर्मबीज पर्यन्त मूल मन्त्र के १० बीजों को दश दलों पर लिखना चाहिए । शेष सह सहित १६ स्वरों को केशर में तथा शेष वर्णों से दशदल को वेष्टित करना चाहिए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वर्णों को लिखना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन पूजा का यन्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥
अब काम्य प्रयोग में अभिषेक विधि कहते है :-
शुद्ध भूमि में श्रद्धा सहित अष्टगन्ध से उक्त यन्त्र लिखकर उस पर कुभ की प्रतिष्ठा कर उसमें कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर विधिवत् पूजन करना चाहिए ॥२३॥
फिर अपनी इन्द्रियों ओ वश में कर साधक कलश का स्पर्श कर उक्त मुख्य मन्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्तर उस कलश के जल से अपने समस्त अभीष्टों की सिद्धि हेतु अपना तथा अपने प्रियजनों का अभिषेक करे ॥२३-२४॥
अब उस अभिषेक का फल कहते हैं - इस प्रकार अभिषेक से अभिषिक्त व्यक्ति पुत्र, यथ, आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से प्रेम तथा उपद्रव्य होने पर उनके भय को दूर करने के लिए कार्तवीर्य के इस मन्त्र को संस्थापित करना चाहिए ॥२५-२६॥
विविध कामनाओं में होम द्रव्य इस प्रकार है - सरसों, लहसुन एवं कपास के होम से शत्रु का मारन होता है । धतूर के होम से शत्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर विद्वेषण, कमल के होम से वशीकरण तथा बहेडा एवं खैर की समिधाओं के होम से शत्रु का उच्चाटन होता है । जौ के होम से लक्ष्मी प्राप्ति, तिल एवं घी के होम से पापक्षय तथा तिल तण्डुल सिध्दार्थ (श्वेत सर्षप) एवं लाजाओं के होम से राजा वश में हो जाता है ॥२७-२९॥
अपामार्ग, आक एवं दूर्वा का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नाशक होता है । प्रियंतु का होम स्त्रियों को वश में करता है । गुग्गुल का होम भूतों को शान्त करता है । पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की समिधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु, धन एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥
साँप की केंचुली, धतूरा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों ) तथा लवण के होम से चोरों का नाश होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम से स्तंभन होता है तथा शालि (धान) के होम से भूमि प्राप्त होती है ॥३२॥
मन्त्रज्ञ विद्वान् को कार्य की न्यूनाधिकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार तक निश्चित कर लेनी चाहिए । कार्य बाहुल्य में अधिक तथा स्वल्पकार्य में स्वल्प होम करना चाहिए ॥३३॥
विमर्श - सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दश हजार तक कही गई है, विद्वान् जैसा कार्य देखे वैसा होम करे ॥३३॥
अब सिद्धियों को देने वाले कार्तवीर्यार्जुन के मन्त्रों के भेद कहे जाते हैं -
अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त कार्तवीर्यार्जुन का चतुर्थ्यन्त, उसके बाद नमः लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है । अन्य मन्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥
उक्त मन्त्र के प्रारम्भ में दो बीज (फ्रों व्रीं) लगाने से यह द्वितीय मन्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा कामबीज (क्लीं) सहित यह तृतीय मन्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सहित नवम मन्त्र और आदि में वर्म (हुं) तथा अन्त में अस्त्र (फट्) सहित दशम मन्त्र बन जाता है ॥३४-३७॥
विमर्श - कार्तवीर्यार्जुन के दश मन्त्र - १, फ्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः २. फ्रों व्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ३. फ्रों क्लीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ४. फ्रों भ्रूं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ५. फ्रों आं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ६. फ्रों ह्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ७. फ्रों क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ८. फ्रों श्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ९. फ्रों ऐं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, १०. हुं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः फट् ॥३४-३७॥
द्वितीय मन्त्र से लेकर नौवें मन्त्र तक बीजों का व्युत्क्रम से कथ है और दसवें मन्त्र में वर्म (हुं) और अस्त्र (फट्) के मध्य नौ वर्ण रख्खे गए हैं ॥३८॥
इन मन्त्रों मे से जो भी सिद्धादि शोधन की रिति से अपने अनुकूल मालूम पडे उसी मन्त्र की साधना करनी चाहिए ॥३९॥
इन मन्त्रों में प्रथम दशाक्षर का विराट् छन्द है तथा अन्यों का त्रिष्टुप छन्द है ॥३९॥
विमर्श - दशाक्षर मन्त्र का विनियोग- अस्य श्रीकार्तवीर्यार्युनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिविराट्छन्दः कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः ।
अन्य मन्त्रों क विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषि स्त्रिष्टुप छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
पूर्वोक्त १० मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव लगा देने से प्रथम दशाक्षर मन्त्र एकादश अक्षरों का तथा अन्य ९ द्वादशाक्षर बन जाते है । इस प्रकार कार्तवीर्य मन्त्र के २० प्रकार के भेद बनते है । इनकी साधना पूर्वोक्त मन्त्रों के समान है । उक्त द्वितीय दश संख्यक मन्त्रों में पहले त्रिष्टुप तथा अन्यों का जगती छन्द है । इन मन्त्रों की साधना में षड् दीर्घ सहित स्वबीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४०-४१॥
विनियोग - अस्य श्रीएकादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः कार्तवीर्यार्जुनों देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जपे विनियोगः ।
अन्य नवके - अस्य श्रीद्वादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिर्जगतीच्छदः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - फ्रां हृदयाय नमः, फ्रीं शिरसे स्वाहा, फ्रूम शिखायै वषट्,
फ्रैं कवचाय हुम्, फ्र्ॐ नेत्रत्रयाय वौषट्, फ्रः अस्त्राय फट् ॥४१॥
तार (ॐ), हृत् (नमः), फिर ‘कार्तवीर्यार्जुनाय’ पद, वर्म (हुं), अ (फट्), तथा अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का मन्त्र बनता है इसकी साधना पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥४२॥
विमर्श - चतुर्दशार्ण मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमः कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१४) ॥४२॥
मन्त्र के क्रमशः १, २, ७, २, एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४३॥
विमर्श - पञ्चाङ्गन्यास - ॐ हृदयाय नमः, नमः शिरसे स्वाहा,
कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट् कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय फट ॥४३॥
तार (ॐ), हृत् (नमः), तदनन्तर चतुर्थ्यन्त भगवत् (भगवते), एवं कार्तवीर्यार्जुन (कार्तवीर्यार्जुनाय), फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) उसमें अग्निप्रिया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्य मात्र बनता है ॥४३-४४॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमो भगवते कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१८) ॥४४॥
इस मन्त्र के क्रमशः ३, ४, ७, २ एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४४॥
पञ्चाङ्गन्यास - ॐ हृदयाय नमः, भगवते शिरसे स्वाहा, कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४४॥
नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय, फिर सर्वदुष्टान्तकाय, फिर ‘तपोबल पराक्रम परिपालिलसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सर्वराजन्य चूडामण्ये सर्वशक्तिमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्र बनता हैं , जो स्मरण मात्र से सारे विध्नों को दूर कर देता है ॥४५-४७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्वदुष्टान्तकाय तपोबलपराक्रमपरिपालितसप्तद्वीपाय सर्वराजन्यचूडाणये सर्वशक्तिमते सहस्त्रबाहवे हुं फट् (६३) ॥४५-४७॥
१. राजन्यचक्रवर्ती, २. वीर, ३. शूर, ४. महिष्मपति, ५. रेवाम्बुपरितृप्त एवं, ६. कारागेहप्रबाधितदशास्य - इन ६ पदों के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४८-४९॥
विमर्श - षडङ्गन्यास का स्वरुप - राजन्यचक्रवर्तिने हृदयाय नमः, वीराय शिरसे स्वाहा, शूराय शिखायै वषट्, महिष्मतीपतये कवचाय हुम्, रेवाम्बुपरितृप्ताय नेत्रत्रयाय वौषट्, कारागेहप्रबाधितशास्याय अस्त्राय फट् ॥४८-४९॥
नर्मदा नदी में जलक्रीडा करते समय युवतियों के द्वारा अभिषिच्यमान तथा नर्मदा की जलधारा को अवरुद्ध करने वाले नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान करना चाहिए ॥५०॥
इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए तथा हवन पूजन आदि समस्त कृत्य पूर्वोक्त कथित मन्त्र की विधि से करना चाहिए । इस मन्त्र साधना के सभी कृत्य पूर्वोक्त मन्त्र के समान कहे गये हैं ॥५१॥
अब कार्तवीर्यार्जुन के अनुष्टुप मन्त्र का उद्धार कहता हूँ -
‘कार्तवीर्यार्जुनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’ तथा ‘वान्’ कहना चाहिए । फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चाहिए । यह ३२ अक्षर का मन्त्र है ।
इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से, तथा सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए । इसका ध्यान एवं पूजन आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥५२-५३॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -
कार्तवीर्याजुनी नाम राजा बाहुसहस्त्रावान् ।
तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते ॥
विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीकार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
पञ्चाङ्गन्यास - कार्तवीर्यार्जुनो नाम हृदयाय नमः, राजा बाहुसहस्त्रवान् शिरसे स्वाहा, तस्य संस्मरणणादेव शिखायै वषट्, हृतं नष्टं च लभ्यते कवचाय हुम्, कार्तवीर्यार्जुनी० अस्त्राय फट् ॥५२-५३॥
‘कार्तवीर्याय’ पद दे बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महावीर्याय’ के बाद ‘धीमहि’ पद कहना चाहिए । फिर ‘तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात्’ बोलना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन का गायत्री मन्त्र है । कार्तवीर्य के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना चाहिए ॥५४-५६॥
रात्रि में इस अनुष्टुप् मन्त्र का जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्र से तर्पण करने पर अथवा इसका उच्चारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥
अब दीपप्रियः आर्तवीर्यः’ इस विधि के अनुसार कार्तवीर्य को प्रसन्न करने वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक, आश्विन, पौष, माघ एवं फाल्गुन में दीपदान करना प्रशस्त माना गया है ॥५७-५८॥
चौथ, नवमी तथा चतुर्दशी - इन (रिक्ता) तिथियों को छोडकर, दिनों में मङ्गल एवं शनिवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय, आश्विनी, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, स्वाती, विशाखा एवं रोहिणी नक्षत्र में कार्तवीर्य के लिए दीपदान का आरम्भ प्रशस्त कहा गया है ॥५९-६०॥
वैघृति, व्यतिपात, धृति, वृद्धि, सुकर्मा, प्रीति, हर्षण, सौभाग्य, शोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा विष्टि (भद्रा) को छोडकर अन्य करणों में दीपारम्भ करना चाहिए । उक्त योगों में पूर्वाहण के समय दीपारम्भ करना प्रशस्त है ॥६०-६२॥
कार्तिक शुक्ल सप्तमी को निशीथ काल में इसका प्रारम्भ शुभ है । यदि उस दिन रविवार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत दुर्लभ है । आवश्यक कार्यो में महीने का विचार नहीं करना चाहिए ॥६२-६३॥
साधक दीपदान से प्रथम दिन उपवास कर ब्रह्यचर्य का पालन करते हुये पृथ्वी पर शयन करे । फिर दूसरे दिन प्रातः काल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर गोबर और शुद्ध जल से हुई भूमि में प्राणायाम कर, दीपदान का संकल्प एवं पूर्वोक्त न्यासोम को करे ॥६४-६५॥
फिर पृथ्वी पर लाल चन्दन मिश्रित चावलों से षट्कोण का निर्माण करे । पुनः उसके भीतर काम बीज (क्लीं) लिख कर षट्कोणों में मन्त्रराज के कामबीज को छोडकर शेष बीजो को (ॐ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं) लिखना चाहिए । सृणि (क्रों) पद्म (श्रीं) वर्म (हुं) तथा अस्त्र (फट्) इन चारों बीजों को पूर्वादि चारों दिशाओं में लिखना चाहिए । फिर ९ वर्णों (कार्तवीर्यार्जुनाय नमः) से उन षड्कोणों को परिवेष्टित कर देना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर एक त्रिकोण निर्माण करना चाहिए ॥६५-६७॥
अब दीपस्थापन एवं पूजन का प्रकार कहते हैं -
इस प्रकार से लिखित मन्त्र पर दीप पात्र को स्थापित करना चाहिए । वह पात्र सोने, चाँदी या ताँबे का होना चाहिए । उसके अभाव में काँसे का अथवा उसके भी अभाव में मिट्टी का या लोहे का होना चाहिए । किन्तु लोहे का और मिट्टी का पात्र कनिष्ठ (अधम) माना गया है ॥६८-६९॥
शान्ति के और पौष्टिक कार्यो के लिए मूँगे के आटे का तथा किसी को मिलाने के लिए गेहूँ के आँटे का दीप-पात्र बनाकर जलाना चाहिए ॥६९॥
ध्यान रहे कि दीपक का निचला भाग (मूल) एवं ऊपरी भाग आकृति में समान रुप का रहे । पात्र का परिमाण १२, १०, ८, ६, ५, या ४ अंगुल का होना चाहिए ॥७०॥
सौ पल के भार से बने पात्र में एक हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में १० हजार पल घी, ६० पल के भार से बनाये गये पात्र में ७५ पल घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी, ११५ पल भार से बनाये गये दीप-पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये पात्र में १०० पल घी डालना चाहिए । इस प्रकार जितना घी जलाना हो अनुसार पात्र के भार की कल्पना कर लेनी चाहिए ॥७१-७३॥
नित्यदीप में ३ पल के भार का पात्र तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थापित कर सूत की बनी बत्तियाँ डालनी चाहिए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बत्तियाँ डालिनी चाहिए । ऐसे सामान्य नियमानुसार विषम सूतों की बनी बत्तियाँ होनी चाहिए ॥७४-७५॥
दीप-पात्र में शुद्ध-वस्त्र से छना हुआ गो घृत डालना चाहिए । कार्य के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १००० पल परिमाण पर्यन्त घी की मात्रा होनी चाहिए ॥७६॥
सुवर्ण आदि निर्मित्त पात्र के अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८ या ४ अंगुल की एक मनोहर शलाका बनाकार उक्त दीप पात्र के, भीतर दाहिनी ओर से शलाका का अग्रभाग कर डालना चाहिए । पुनः दीप पात्र से दक्षिण दिशा में ४ अंगुल जगह छोडकर भूमि में अधोमुख एक छुरी या चाकू गाडना चाहिए । फिर गणपति का स्मरण करते हुये दीप की जलाना चाहिए ॥७७-७९॥
दीपक से पूर्व दिशा में सर्वतोभद्र मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर मिट्टी का घडा विधिवत् स्थापित करना चाहिए । उस घट पर कार्तवीर्य का आवाहन कर साधक को पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन करना चाहिए । इतना कर लेने के बाद हाथ में जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चाहिए ॥८०-८१॥
अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प मन्त्र कहते हैं - यह (द्वि २ इषु ५ भूमि १ अंकाना वामतो गतिः) एक सौ बावन अक्षरों का माला मन्त्र है ।
प्रणव (ॐ), पाश (आं), माया (ह्रीं), शिखा (वषट्), इसके बाद ‘कार्त्त’ इसके बाद ‘वीर्यार्जुनाय’ के बाद ‘माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे’ इन वर्णों के बाद ‘सहस्त्र’ पद बोलना चाहिए । फिर ‘क्रतुदीक्षितहस्त दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय’, फिर वाम कर्ण (ऊ), इन्दु(अनुस्वार) सहित नभ (ह) एवं अग्नि (र्) अर्थात् (हूँ) पाश आं, फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टानाशय नाशय’, फिर २ बार ‘पातय’ और २ बार ‘घातय’ (पातय पातय घातय घातय), ‘शत्रून जहि जहि’, फिर माया (ह्रीं) तार (ॐ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (क्लीं) और फिर वाहिनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर वामनेत्रे (ई), चन्द्र (अनुस्वार) सहित २ बार आकाश (ह) अर्थात् (हीं हीं), शिवा (ह्रीं), वेदादि (ॐ), काम (क्लीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’ फिर सानुस्वर तवर्ग एवं पवर्ग (तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं), फिर प्रणव (ॐ) तथा अग्निप्रिया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का दीपदान मन्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥
विमर्श - दीप संकल्प के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ आं ह्रीं वषट् कार्तवीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे, सहस्त्रक्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय ह्रूं आं इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टान्नाशय नाशय पातय पातय घातय घातय शत्रून जहि जहि ह्रीं ॐ फ्रों क्लीं स्वाहा अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकवरप्रदानाय हीं हीं ह्रीं ॐ क्लीं व्रीं स्वाहा तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं ॐ स्वाहा (१५२) ॥८२-८९॥
इस मालामन्त्र के दत्तात्रेय ऋषि, अमित छन्द तथा कार्तवीर्यार्जुन देवता हैं । षड्दीर्घसहित चामुण्डा बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥८९-९०॥
विमर्श विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यमालमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषिरमितच्छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - ॐ व्रां हृदयाय नमः, व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥८९-९०॥
दीप संकल्प के पहले कार्तवीर्य का ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्र का उच्चारण कर जल नीचे भूमि पर गिरा देना चाहिए । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥९१॥
नवाक्षर मन्त्र का उद्धार - तार (ॐ), बिन्दु (अनुस्वार) सहित अनन्त (आ) (अर्थात् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र सहित स्वबीज (फ्रीं), फिर शान्ति (ई) और चन्द्र (अनुस्वार) सहित कूर्म (व) और अग्नि (र) अर्थात् (व्रीं), फिर वहिननारी (स्वाहा), अंकुश (क्रों) तथा अन्त में ध्रुव (ॐ) लगाने से नवाक्षर मन्त्र बनता है । यथा - ॐ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा क्रों ॐ ॥९२॥
इस मन्त्र के पूर्वोक्त दत्तानेत्र ऋषि हैं । अनुष्टुप् छन्द है तथा इसके देवता और न्यास पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ।(द्र० १७. ८९-९०) इस मन्त्र का एक हजार ज्प कर कवच का पाठ करना चाहिए । (यह कवच डामर तन्त्र में हुं के साथ कहा गया है ) ॥९३॥
विमर्श - विनियोग- अस्य नवाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तानेत्रऋषिः अनुष्टुप्छन्दः कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - व्रां हृदयाय नमः व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥९३॥
इस प्रकर दीपदान करने वाला व्यक्ति अपना सारा अभीष्ट पूर्ण कर लेता है । दीप प्रज्वलित करते समय अमाङ्गलिक शब्दों का उच्चारण वर्जित है ॥९४॥
अब दीपदान के समय शुभाशुभ शकुन का निर्देश करते हैं -
दीप प्रज्वलित करते समय ब्राह्मण का दर्शन शुभावह है । शूद्रों का दर्शन मध्यम फलदायक तथा म्लेच्छ दर्शन बन्धदायक माना गया है । चूहा और बिल्ली का दर्शन अशुभ तथा गौ एवं अश्व का दर्शन शुभकारक है ॥८४-८६॥
दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो सिद्धि और टेढी मेढी हो तो विनाश करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का शब्द भय कारक होता है । ज्योतिपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कर्ता को सुख प्राप्त होता है । यदि काला हो तो शत्रुभयदायक तथा वमन कर रहा हो तो पशुओं का नाश करता है । दीपदान करन के बाद यदि संयोगवशात् पात्र भग्न हो जावे तो यजमान १५ दिन के भीतर यमलोक का अतिथि बन जाता है ॥९६-९८॥
अब दीपदान के शुभाशुभ कर्तव्य कहते हैं - दीप में दूसरी बत्ती डालने से कार्य सिद्ध में विलम्ब है, उस दीपक से अन्य दीपक जलाने वाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है । अशुद्ध अशुचि अवस्था में दीप का स्पर्श करने से आधि व्याधि उत्पन्न होती है । दीपक के नाश होने पर चोरों से भय तथा कुत्ते, बिल्ली एवं चूहि आदि जन्तुओं के स्पर्श से राजभय उपस्थित होता है ॥९९-१००॥
यात्रा करत समय ८ पल की मात्रा वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूर्ण करता है । इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों से सावधानी पूर्वक दीप की रक्षा करनी चाहिए जिससे विघ्न न हो ॥१०१॥
दीप की समाप्ति पर्यन्त कर्ता ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये भूमि पर शयन करे तथा स्त्री, शूद्र और पतितो से संभाषण भी न करे ॥१०२॥
प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर समाप्ति पर्यन्त प्रतिदिन नवाक्षर मन्त्र (द्र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र का पाठ विशेष रुप से रात्रि के समय करना चाहिए ॥१०३॥
निशीथ काल में एक पैर से खडा हो कर दीप के संमुख जो व्यक्ति इस मन्त्रराज का १ हजार जप करता है वह शीघ्र ही अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥
इस प्रयोग को उत्तम दिन में समाप्त कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद कुम्भ के जल से मूलमन्त्र द्वारा कर्ता का अभिषेक करना चाहिए ॥१०५॥
कर्ता साधक अपने गुरु को संतोषदायक एवं पर्याप्त दक्षिणा दे कर उन्हें संतुष्ट करे । गुरु के प्रसन्न हो जाने पर कृतवीर्य पुत्र कार्तवीर्यार्जुन साधक के सभी अभीष्टों को पूर्ण करते हैं ॥१०६॥
यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं करना चाहिए अथवा गुरु को रत्नादि दान दे कर उन्हीं से कार्तवीर्याजुन को दीपदान कराना चाहिए । गुरु की आज्ञा लिए बिना जो व्यक्ति अपनी इष्टसिद्धि के लिए इस प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कार्यसिद्धि की बात तो दूर रही, प्रत्युत वह पदे पदे हानि उठाता है ॥१०७-१०८॥
कृतघ्न आदि दुर्जनों को इस दीपदान की विधि नहीं बतानी चाहिए । क्योंकि यह मन्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने वाले को दुःख देता है । दीप जलाने के लिए गौ का घृत उत्तम कहा गया है, भैंस का घी मध्यम तथा तिल का तेल भी मध्यम कहा गया है । बकरी आदि का घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगन्धित तेलों से दीप दान करना चाहिए । शत्रुनाश के लिए श्वेत सर्वप के तेल का दीप दान करना चाहिए । यदि एक हजार पल वाले दीओ दान करने से भी कार्य सिद्धि न हो तो विधि पूर्वक तीन दीपों का दान करना चाहिए । ऐसा करने से कठिन से भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाता है ॥१०९-११२॥
जिस किसी भी प्रकार से जो व्यक्ति अपने घर में कार्तवीर्य के लिए दीपदान करता है, उसके समस्त विघ्न और समस्त शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव विजय प्राप्त करता है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यश प्राप्त करता है । पात्र, घृत, आदि नियम किए बिना ही जो व्यक्ति किसी प्रकार से प्रतिदिन घर में कार्तवीर्यार्जुन की प्रसन्नता के लिए दीपदान करता है वह अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥११३-११५॥
तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के लिए क्रियमाण कर्तव्य का निर्देश करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं -
कार्तवीर्यार्जुन को दीप अत्यन्त प्रिय है, सूर्य को नमस्कार प्रिय है, महाविष्णु को स्तुति प्रिय है, गणेश को तर्पण, भगवती जगदम्बा को अर्चना तथा शिव को अभिषेक प्रिय है । इसलिए इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका प्रिय संपादन करना चाहिए ॥११६-११७॥
मन्त्रमहोदधि आचार्य महीधर विरचित- (सप्तदशतरंग)
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