मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

- यापुसहलम्-





शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णन व्यवस्था में शामिल नहीं -
आभीरों का वर्ण  विष्णु से उत्पन्न होने के कारण  वैष्णव है।
वर्ण व्यवस्था पर सारगर्भित आलेख-

प्रस्तुतिकरण:- 
मूल लेखक-यादव योगेश कुमार रोहि -( अलीगढ़)
सह- लेखक- इ० माता प्रसाद यादव -( लखनऊ)
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देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के नब्बे वें सूक्त की यह बारहवीं ऋचा कहती है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए क्षत्रिय बाहों से वैश्य उरू( नाभि और जंघा ते मध्य भाग) से  और शूद्र दोनों पैरों से उत्पन्न हुए।
"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
स्पष्टीकरण व  अनुवाद:-
उपर्युक्त ऋचा ब्राह्मण आदि वर्णों की उत्पत्ति से सम्बन्धित है। 'ब्राह्मण' ब्रह्मा की सन्तान होने से ही ब्राह्मण  कहलाते हैं।

"ब्रह्मणो जाताविति ब्राह्मण= पाणिनीय अष्टाध्यायी न टिलोपः ब्रह्मणो मुखजातत्वात् ब्रह्मणोऽपत्यम् वा अण् । 
अर्थ:- ब्रह्मा से उत्पन्न होने से ब्राह्मण  ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न ब्रह्मा की सन्तान - ब्रह्मन्- पुल्लिंग शब्द में सन्तान वाची 'अण्' प्रत्यय  करने पर ब्राह्मण शब्द बनता है।
ब्राह्मो जातौ ।(६-४-१७१) पाणिनीय -अष्टाध्यायी
योगविभागोऽत्र कर्तव्यः । 'ब्राह्मः' इति निपात्यतेऽनपत्येऽणि । ब्राह्मं हविः । ततो जातौ । अपत्ये जातावणि ब्रह्मणष्टिलोपो न स्यात् । ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः।'
इस लिए उपर्युक्त ऋचा ब्रह्मा से सम्बन्धित है जबकि ब्रह्मा विराट पुरुष की नाभि से उत्पन्न होने से  विराट् पुरुष नहीं हैं। 
(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)

इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। जबकि विराट-विष्णु स्वयं निराकार ईश्वर का अविनाशी साकार रूप हैं।
परन्तु हम आभीर लोग यदि  इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । 

तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम-कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
दौंनों के उत्पत्ति-श्रोत और उत्पत्ति अंगों में भेद है।
इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।

इसका साक्ष्य पद्मपुराण उत्तर-खण्ड, गर्गसंहिता विश्वजित्-खण्ड आदि हैं।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड के निम्न श्लोक देखें !।
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"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
"आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक -41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।

यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
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"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।
"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैःप्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।
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इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
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शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न होने से  अञ्श रूप से  वैष्णव ही थे।
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अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही हैं ।

परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।

और ब्रह्मा के द्वारा निर्मित वर्णन व्यवस्था में शामिल कर उन्हें वैश्य तथा शूद्र बनाने का असफल प्रयास किया।

ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह) में चार वर्णों से पृथक पाँचवा वर्ण  वैष्णव की एक स्वतंत्र जाति आभीर का वर्णन किया है।

ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रोजातयोयथा। स्वतन्त्राजातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा-___________

सन्दर्भ:-(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय ग्यारह)-१/२/४३ 

अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।

वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है।
पद्मपुराण उत्तरखण्ड में इसका प्रमाण निम्न श्लोकों में है।
                "महेश्वर उवाच- !
शृणु नारद वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् ।१।
यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रहत्यादिपातकात् ।
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।२।
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तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। ३।
सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते ।
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः।४।
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क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।
तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।
शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।
तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः ।
तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः ।७।
धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।
वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ।८।
उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः ।
तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते ।९।
ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः।
एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः ।१०।

अनुवाद :- 
महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।
वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं।  उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।
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चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न  होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।
( "विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ:  उच्यते ।३।
जिनका आहार ( भोजन ) अत्यन्त पवित्र सकाहारी होता है।
उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।

उन वैष्णवों के दर्शन  मात्र से  पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और  अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगा रहता है।५।

विशेष:-
विष्णु  के रूप कृष्ण ने  देवों के लिए सम्पन्न होने वाली हिंसा मूलक यज्ञे बन्द कराईं।
जो सदा संख गदा चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है  गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।

प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७। 

जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।

ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९। 

जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है  हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
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 पद्मपुराण- उत्तर खण्ड अध्याय (68)
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प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।

"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥
"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी। विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥
"विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः। वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥"
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)

अनुवाद:-(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है। हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥

पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-

महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है

"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बाद में कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥

आभीर लोग सतयुग से ही  संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी ( अच्छे व्रत का पालन करने वाले!

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।

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अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।

युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।

विष्णु भगवान की अवधारणा प्राचीन मेसोपोटामिया की संस्कृतियों में भी है।

विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।

भारती वेदों में विष्णु का वर्णन 
 गोप के रूप में है। देखे निम्न ऋचा -

"त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः । अतो॒ धर्मा॑णि ध॒रय॑न् ॥
त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥
तृणि पदा वि चक्रमे विष्णुर गोपा अदाभ्य:। अतो धर्माणि धारायं।।
(ऋग्वेद 1/22/18)

वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है। जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुई है।

अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।

और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।

अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका कि अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को जिम्बाब्वे मेें था।

"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे सभी पशुपालक व चरावाहे थे।

भारतीय संस्कृत भाषा ग्रन्थों में अमीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं  परन्तु अमीर का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।

परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: वर्णन किया है। देखें नीचे क्रमश: विवरण-

१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है

- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।

अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोश कार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।

" अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुखकरके चारो-ओर  गायें चराता है उन्हें घेरता है।  वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।

जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय ( profation) को अभिव्यक्त करती है । और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति( व्यवसाय-)से निर्मित होती है। जैसे सभी "वकालत करने वाले अधिक बोलने वाले तथा अपने मुवक्किल की पहल-(lead the way) करने में वाणीकुशल होते हैं। जैसे डॉक्टर ,ड्राइवर आदि - अत: किसी भी समाज के दोचार व्यक्तियों सम्पूर्ण जाति या समाज की प्रवृति का आकलन करना बुद्धिसंगत नहीं है।

"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का प्रभाव-"

क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे यह वीरता इनकी पशुचारण अथवा गोचारण वृत्ति से पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी जातियों में समाविष्ट हो गयी !

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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है यह पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं। ।

जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ; जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।

अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही कालान्तर अधिक रूढ़ हो गया।

अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्-नहुष' और ययाति आदि का भी नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति  है । वही अहीर जाति का ही रूप है। वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है ।

 अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।
वैवाहिक मर्यादा के लिए  समाज में गोत्र अवधारणा सुनिश्चित की गयी ताकि सन्निकट रक्त सम्बन्धी  पति पत्नी न बन सकें  क्योंकि इससे तो भाई बहिन की मर्यादा ही दूषित हो जाएगी।


गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण- तथा "शक्ति" भक्ति" "सौन्दर्य" और क्रमश: "ज्ञान" की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म लेने का वर्णन भारतीय शास्त्रों में वर्णित हुआ है। दर- असल ये शास्त्र संस्कृत भाषा में थे और संस्कृत भाषा आज अधिक प्रचलित नहीं हैं। आधिकारिक रूप से इस भाषा के विशेषज्ञ भी बहुत कम हैं। कुछ पुरोहित वर्ग के जाति विशेष लोगों ने संस्कृत के उन उन अँशों का अनुवाद करना और समाज में उनका विज्ञापन करना उचित नहीं समझा जिससे उनकी प्रतिष्ठा अथवा वर्चस्व किसी अन्य जाति से कम आकलन हो -

शास्त्रों के हवाले से हम आपको बता दें कि  "स्वयं भगवान विष्णु 'आभीर' जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - "राधा" "दुर्गा"  "गायत्री" और "उर्वशी" आदि को भी इन्हीं अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषण-पद गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
विष्णु भगवान् का गोपों से अभिन्न सम्बन्ध रहा है। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी भगवान्- विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स (श्रोत) और भूरिश्रृंगा-(अनेक सींगों वाली गायों ) के होने का  भाव सूचित करता है। कदाचित इन गायों के पालक होने के नाते से ही भगवान्- विष्णु को गोप कहा गया है।

"त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
 (ऋग्वेद १/२२/१८)
भावार्थ-(अदाभ्यः) -सोमरस अथवा अन्न आदि रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्)- धारण करता हुआ । (गोपाः)- गोपालकों के रूप, (विष्णुः)- संसार के अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि)- तीन (पदानि)- क़दमो से (विचक्रमे)- गमन करते हैं। और ये ही (धर्माणि)- धर्मों को धारण करते हैं॥18॥
विशेष:- गोपों को  ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
 हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं। 
पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
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"अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो  आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं  ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक  सदाचारी और सुव्रतज्ञ ( अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी  ही अहीर जाति  में अवतरण करते हैं।
गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
 ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि  वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है। 
गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी  विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट     ( included ) किया गया है।

"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे ।
त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।
अनुवाद:-
तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो  सृष्टि का निर्माण किया।
ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी  रचना ब्रह्मा  ने नहीं की।

"सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे ।
उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो
गोपाङ्गनागणः। 
आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।
त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।
अनुवाद:-
वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।

मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।

ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१) 
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू- पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि  च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
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"ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। 
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-
ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में  हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।

उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
 
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥

देवता —        विष्णुः ;       छन्द —        गायत्री;      
स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः

(सूरयः) बहुत से सूर्य  (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् !  (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को !  (तत्) उसको  (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।

इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।

"तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।

पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।

इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।

उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-

(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ)  (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य  पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत-  वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥


ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥

(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं  (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम   (गमध्यै) जाने के लिए  (उश्मसि) इच्छा करते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) बैल हैं (परमम्) जो उत्कृष्ट (पदम्) स्थान  (भूरिः) अत्यन्त (अवभाति)  प्रकाशमान होता है (तत्) उस स्थान को (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥ ६ ॥

ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.१५४/५-६

(गोपाः)गायों के पालक (अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा:) कदम अथवा लोक   [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) गमन  किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों काे   (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥१८॥
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।      इतो धर्माणि धारयन् ॥
 ' (ऋग्वेद १/२२/१८)  अथर्वेद-७/२६/५

तात्पर्य:- तीनों लोकों में गमन करने वाले भगवान विष्णु  हिंसा से रहित और धर्म को धारण करने वाले हैं।

'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि     नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।   
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया यह यज्ञ हिंसा रहित है। - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें  त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या  भगवत्   कहा  जाता है।     

इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी      जाना जाता है -                                        जो भगवत् का भक्त है वह भागवत्।            श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है 'परब्रह्म तु कृष्णो हि'(सिद्धान्त मुक्तावलली-( ३ )वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।

भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम. से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं  और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति  परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।
वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि  और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ।

तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार  पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध.ये चार व्यूह( समूह) माने गये हैं।  
लौकिक मान्यताओं में राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं। 

और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह  दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में  वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है।
यह उसी परम्परा अवशेष हैं। 

गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है। 
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे 


 इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी 
 के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं । उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से सम्बन्धित रहीं हैं ।
मानवीय रूप में यह महाशक्ति अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की  कन्या के रूप में जन्म लेती हैं। और कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से जिन्हें सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद मिला और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी हुईं । 

विष्णु अथवा नारायण के उर जंघा अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण भी इन्हें उर्वशी कहा गया। प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं।
अत: उर्वशी इन तीनों मानवीय गुणों की अधिष्ठाठात्री हैं।
नारायण विष्णु का ही नामान्तरण है। और विष्णु से उत्पन्न होने से वैष्णव हैं।
"नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी । ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
उर्वरा एक अन्य अप्सरा का नाम है।
और उर्वशी एक अन्य दूसरी अप्सरा का नाम है।

"उर्वशी मेनका रंभा चन्द्रलेखा तिलोत्तमा ।
वपुष्मती कान्तिमती लीलावत्युपलावती ।९१।
अलम्बुषा गुणवती स्थूलकेशी कलावती ।
कलानिधिर्गुणनिधिः कर्पूरतिलक- उर्वरा ।९२।
सन्दर्भ:-
"श्रीस्कांदमहापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्धे अप्सरः सूर्यलोकवर्णनंनामनवमोऽध्यायः।९।

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सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है   इसी कारण स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को अप्सराओं की स्वामिनी के रूप में नियुक्त हुईं।

"अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।
"ततो गान्धर्वलोकश्च यत्र गन्धर्वचारणाः ।
ततो वैद्याधरो लोको विद्याध्रा यत्र सन्ति हि ।८३।
ततो धर्मपुरी रम्या धार्मिकाः स्वर्गवासिनः।
ततः स्वर्गं महत्पुण्यभाजां स्थानं सदासुखम् ।८४।
ततश्चाऽप्सरसां लोकः स्वर्गे चोर्ध्वे व्यवस्थितः ।
अप्सरसो महासत्यो यज्ञभाजां प्रियंकराः ।८५।
वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।
युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः ।८६।
दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।
दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।
कामकेलिकलाभिज्ञा द्यूतविद्याविशारदाः ।
रसज्ञा भाववेदिन्यश्चतुराश्चोचितोक्तिषु ।८८।
नानाऽऽदेशविशेषज्ञा नानाभाषासुकोविदा ।
संकेतोदन्तनिपूणाः स्वतन्त्रा देवतोषिकाः ।८९।
लीलानर्मसु साभिज्ञाः सुप्रलापेषु पण्डिताः ।
क्षीरोदस्य सुताः सर्वा नारायणेन निर्मिताः ।1.456.९०।
"स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्यायः 9
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इन देवीयो को पुराकाल में वैष्णवी शक्ति के नाम से जाना जाता था। विभिन्न ग्रंथों में इन देवीयो के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म आभीर जाति में हुआ है। 

विचारणीय है कि भारतीय संस्कृति में ये चार परम शक्तियाँ अपने नाम के अनुरूप कर्म करने वाली" विधाता की सार्थक परियोजना का अवयव सिद्ध हुईं ।

राधा:-राध्नोति साधयति पराणि कार्य्याणीति ।
जो दूसरे के अर्थात भक्त के कार्यों को सफल करती है।
राधा:-  राध + अच् ।  टाप् = राधा ) राध् धातु = संसिद्धौ/वृद्धौ 
राध्= भक्ति करना और प्रेम करना।

गायत्री:- गाय= ज्ञान + त्री= त्राण (रक्षा) करने वाली अर्थात जो ज्ञान से ही संसार का त्राण( रक्षा) गायन्तंत्रायतेइति। गायत्  + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः।)

विशेष:-
"दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री  नाद ब्राह्म ( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।

"न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं 
काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।
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गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्ताने उत्पन्न होती हैं।
गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई। 
(पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति।  “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः । “ ३।९०।२२ ।
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सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा।
पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्रयातः पुरूरवाः ।19।
महाभारत वन पर्व -/88/19
 इति महाभारतोक्तवचनात् पुरौ पर्व्वते रौतीति वा ।पुरु + रु +“ पुरूरवाः ।“ उणादिकोश ४ ।  २३१ ।  इति असिप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।)  बुधस्य पुत्त्रः । स तु चन्द्रवंशीयादिराजः।
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समाधान:-
"गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि  गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। ये मरण धर्मा सन्तानों का प्रसव नहीं करती हैं । सन्तान जनन और प्रजनन सांसारिक प्राणीयों का कर्म है।
देवी भागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा राधा गायत्री के ही नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्द पुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री नाम को सार्थक करता है।  खैर गायत्री शब्द का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही शास्त्र ते अनुरूप है।
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"ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः।
चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से  इन्द्र ने किसी  घूमते हुई  गोप कन्या को  देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली  हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
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युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
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परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
अनुवाद:- यदि तुम तक्र ग्रहण करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा ।

गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा !  हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।।

गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।

अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे  दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक  स्थान पर रहता है।।
गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् 
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
अनुवाद:- वह गाय के पेट से निकाली और ब्राह्मणों के पास लाई गई। उसका हाथ पकड़कर यज्ञा का सम्पादन करो।

रुद्रःप्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा।५१।
अनुवाद:- रूद्र ने कहा, "फिर  गाय-यन्त्र से बाहर होने से यह निश्चय ही गायत्री नाम से इस यज्ञ में सदा तुम्हारी पत्नी होगी "

निष्कर्ष:- 
"गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति - गायन्तं त्रायते त्रै+क, अथवा गीयतेऽनेन गै--घञ् यण् नि० ह्रस्वः गयः प्राणस्त त्रायते त्रै- क वा)
गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत  त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति 

"प्रातर्न तु तथा स्नायाद्धोमकाले विगर्हितः ।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥१०॥
अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने  स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।

गायन्तं त्रायते यस्माद्‌गायत्रीत्यभिधीयते।
प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥११॥
अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने  वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
१२.गायन्तं त्रायते यस्माद्-गायत्रीति ततः स्मृता।
(बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः४/३५)
,"अत: स्कन्दपुराण, लक्ष्मी-नारायणीसंहिता नान्दी पुराण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति  पूर्णत: प्रक्षिप्त व काल्पनिक है। जिसका कोई व्याकरणिक आधार नही है।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
अनुवाद तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो।

ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।

शास्त्रीय तथा वैदिक सिद्धान्तो के विपरीत होने से तथा परस्पर विरोधाभास होने से स्कन्द पुराण के नागर खण्ड से उद्धृत निम्नश्लोक प्रक्षिप्त हैं।

"युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।।४५।।
परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः ।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।

गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।।४९।।

गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् 
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।

लक्ष्मीनारायण संहिता अध्याय- 509 में भी यही बात है।।
गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः॥
यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ५५ ॥
पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः॥५६॥
अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता ॥
कन्यका "गोपजा" तन्वी चंद्रास्या पद्मलोचना।५७।
सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता ॥
सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने॥५८॥
कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि नः ॥५९॥
                ॥कन्योवाच ॥
गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता ॥
यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम् ॥ ६.१८१.६०॥

तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम् ॥
जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले ॥६१॥

अथ तां रुदतीं शक्रः समादाय त्वरान्वितः॥
गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः ॥६२॥
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एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३॥

ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे ॥६४॥

कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना ॥
तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता ॥६५॥

गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख ॥६६॥
निष्कर्ष:- गायों और गायत्री को ब्राह्मण बनाने के लिए पुरोहितों ने शास्त्रीय सिद्धान्तो नजर-अंदाज करके स्वयं दलदल में फँस न
 जैसा कार्य कर डाला। और कृष्ण के मुखारविन्द कहलवाया की गाय और ब्राह्मण एक ही कुल के हैं। जबकि यह बातें शास्त्रीय सिद्धान्त के पूर्णत विपरीत ही हैं कि गाय और ब्राह्मण एक कुल के हैं।
            "श्रीवासुदेव उवाच"
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम्॥
एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥६७॥

धेनूदराद्विनिष्क्रांता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये ॥६८।।
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः ॥६९॥
                " रुद्र उवाच" 
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
                 " ब्रह्मोवाच" 
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि॥
संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥७१॥
                "ब्राह्मणा ऊचुः" 
एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥
 _________
इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥१८१॥
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दुर्गा:-  विराटपर्व-8 महाभारतम्

       महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति" करना-

           वैशंपायन उवाच।

विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।

दुर्गात्तारयसे दुर्गे तत्त्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।
कान्तारेष्ववसन्नानां मग्रानां च महार्णवे।
दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।21।

षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-

विराटपर्व-8 महाभारतम्

            महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति"

           "वैशंपायन उवाच।

विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम्।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।
युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ । 
‘पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी ! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कह तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’। तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है।

महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35
षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद:-
देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कहीजाती हो।
जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पड़ गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय

उनके लिए बता दें कि दुर्गा के यादवी अर्थात् यादव कन्या होने के पौराणिक सन्दर्भ हैं
परन्तु महिषासुर के अहीर या यादव होने का कोई पौराणिक सन्दर्भ नहीं !

देवी भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा ही नंदकुल में अवतरित होती है--

हम आपको  मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण  से कुछ सन्दर्भ देते हैं जो दुर्गा को यादव या अहीर कन्या के रूप में वर्णन करते हैं...

देखें निम्न श्लोक ...
 "नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका ।
 नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया ॥ ८१ ॥
~देवीभागवतपुराण/स्कन्धः१२/अध्यायः-६

उपर्युक्त श्लोक में नन्द जी की प्रिय पुत्री होने से नन्द प्रिया दुर्गा का ही विशेषण है ...

नन्दजा नवरत्‍नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।
 नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिःस्वना॥८६
 ~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

उपर्युक्त श्लोक में भी नन्द की पुत्री होने से दुर्गा को नन्दजा (नन्देन सह यशोदायाञ् जायते  इति नन्दजा) कहा गया है ..

यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी ।
 यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्‍भवा॥१३१॥
 ~देवीभागवतपुराण/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

उपर्युक्त श्लोक में दुर्गा देवी यदुवंश में नन्द आभीर के  घर  यदुवंश में जन्म लेने से (यदुवंशसमुद्भवा) कहा गया है जो यदुवंश में अवतार लेती हैं 

नीचे मार्कण्डेय पुराण से श्लोक उद्धृत हैं
जिनमे दुर्गा को यादवी कन्या कहा है:-

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥३८॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥३९॥
~मार्कण्डेयपुराणम्/अध्यायः ९१

अट्ठाईसवें युग में वैवस्वत मन्वन्तर के प्रगट होने पर जब दूसरे शुम्भ निशुम्भ दैत्य उत्पन्न होंगे तब मैं नन्द गोप के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर उन दोनों(शुम्भ और निशुम्भ) का नाश करूँगी और विन्ध्याचल पर्वत पर रहूंगी।

मार्कण्डेय पुराण के मूर्ति रहस्य प्रकरण में आदि शक्ति की छः अंगभूत देवियों का वर्णन है उसमे से एक नाम नंदा का भी है:-
इस देवी की अंगभूता छ: देवियाँ हैं –१- नन्दा, २-रक्तदन्तिका, ३-शाकम्भरी, ४-दुर्गा, ५-भीमा और ६-भ्रामरी. ये देवियों की साक्षात मूर्तियाँ हैं, इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने से इस प्रकरण को मूर्तिरहस्य कहते हैं...

दुर्गा सप्तशती में देवी दुर्गा को स्थान स्थान पर नंदा और नंदजा कहकर संबोधित किया है जिसमे की नंद आभीर की पुत्री होने से देवी को नंदजा कहा है-
"नन्द आभीरेण जायते इति देवी नन्दा विख्यातम्"
                  ऋषिरुवाच
'नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा।
सा स्तुता पूजिता ध्याता वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥१॥
~श्रीमार्कण्डेय पुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मूर्तिरहस्यं

अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् ! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली है, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं|

आप को बता दें गर्ग संहिता, पद्मपुराण आदि ग्रन्थों में नन्द को आभीर कह कर सम्बोधित किया है:-

महाभारत के विराट पर्व में दुर्गा को शक्ति की अधिष्ठात्री देवता कह कर सम्बोधित तिया गया है।
 
महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14
(पाण्डवप्रवेश पर्व)
श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-
युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधिष्ठात्री दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।
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उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।  

"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है वह उर्वशी है।।

कवि पुरुरवा है रोहि !
     कविता उसके उर वसी 
हृदय सागर की अप्सरा ।
        संवेदन लहरों में विकसी।।
प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी ही है।
क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में  सबसे प्राचीन प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गयी हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का बस उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक ( गोष:-घोष) के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं। यही शास्त्रों के प्रक्षेप हैं।

इसी प्रकार गायत्री को ब्राह्मण कन्या सिद्ध करने के लिए कहीं उन्हें गाय के मुख में डालकर पिछबाड़े (गुदाद्वार) से निकालने की काल्पनिक कथा बनायी गयी तो कहीं गोविल और गोविला के नाम से उनके माता पिता को अहीरों के वेष में रहने वाला ब्राह्मण दम्पति बनाने की काल्पनिक कथा बनायी गयी।

लक्ष्मीनारायण संहिता में गायत्री के विषय में उपर्युक्त काल्पनिक कथा को बनाया गया है कि उनके माता पिता अभीर वेष में ब्राह्मण ही थे।
इसी क्रम में "लक्ष्मी-नारायणसंहिता कार ने अथवा किसी द्वेषवादी ने  अहीरों की कन्या उर्वशी की एक काल्पनिक कथा उसके पूर्व जन्म में "कुतिया" की यौनि में जन्म लेने से सम्बन्धित लिखकर जोड़ दी।

जबकि उर्वशी को मत्स्य पुराण में कठिन व्रतों का अनुष्ठान करनी वाली अहीर कन्या लिखा जो स्वर्ग और पृथ्वी लोक में सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बनी ।
इसी सन्दर्भ में हम यादव योगेश कुमार रोहि उर्वशी का मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं।
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"त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।५८।
अनुवाद:- भगवान कृष्ण ने भीम से कहा:-
वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८। बात उस समय की है जब 
एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक्- प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्तु स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है। 

"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते।
त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।५९।
अनुवाद:-प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में  इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।

यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६०।
अनुवाद:-इसका स्मरण और कीर्तन मात्र करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मनुष्य देवों के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त करता है।६०।
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कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।

जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
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मत्स्यपुराण अध्याय-★
   (भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
______________________
अनुवाद-
जन्मान्तरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस (कल्याणनी )व्रत अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की  देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई और  वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।

इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।

इस समस्त सृष्टि में व्रत तपस्या का एक कठिन रूपान्तरण है। तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है।तप ही सर्व सिद्धियों का कारक है।

भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में तप के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा-

                  मूल श्लोकः
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।
अनुवाद:-मनकी प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मनका निग्रह और भावोंकी शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
________
"अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।17.15।
अनुवाद:-
जो वचन किसी प्राणी के अन्तःकरण में उद्वेग दुःख उत्पन्न करने वाले नहीं हैं ? तथा जो सत्य ? प्रिय और हितकारक हैं अर्थात् इस लोक और परलोकमें सर्वत्र हित करने वाले हैं ? यहाँ उद्वेग न करने वाले इत्यादि लक्षणों से वाक्य को विशेषित किया गया है और "च" पद सब लक्षणों का समुच्चय बतलाने के लिये है (अतः समझना चाहिये कि ) दूसरे को किसी बात का ज्ञान कराने के लिये कहे हुए वाक्य में यदि सत्यता? प्रियता? हितकारिता और अनुद्विग्नता -- इन सबका अथवा इनमें से किसी एक? दो या तीनका अभाव हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है। जैसे सत्य वाक्य यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है? वैसे ही प्रिय वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है? तथा हितकारक वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है। 
"उद्वेग को जन्म न देनेवाले, यथार्थ, प्रिय और हितकारक वचन (बोलना), (शास्त्रों का) स्वाध्याय और अभ्यास करना, यह वाङमयीन तप है ।
______________________
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।10/5।
अनुवाद:-
अहिंसा -- प्राणियोंको किसी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना? समता -- चित्तका समभाव ? संतोष -- जो कुछ मिले उसी को यथेष्ट समझना? तप -- इन्द्रियसंयमपूर्वक शरीर को सुखाना( पवित्र करना ? दान -- अपनी शक्तिके अनुसार धनका विभाग करना ( दूसरोंको बाँटना ) जो वास्तव में दीन और हीन हैं।? यश -- धर्मके निमित्तसे होनेवाली कीर्ति? अपयश -- अधर्मके निमित्तसे होनेवाली अपकीर्ति। इस प्रकार जो प्राणियोंके अपने अपने कर्मों के अनुसार होने वाले बुद्धि आदि नाना प्रकारके भाव हैं ? वे सब मुझ ईश्वर से ही होते हैं।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।17/14।
अनुवाद:-
अब तीन प्रकार का तप कहा जाता है --, देव? द्विज ? गुरु और बुद्धिमान्ज्ञानी इन सबका पूजन ? शौच -- पवित्रता ? आर्जव -- सरलता? ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह सब शरीरसम्बन्धी -- शरीर द्वारा किये जानेवाले तप कहे जाते हैं ।

आभीर  लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही भगवान् विष्णु द्वारा सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक  हैं जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति के उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरोम को दी है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा( अवतारं करिष्येहं  ) और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
 शास्त्र में लिखा है कि  वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है। 
गायत्री  ज्ञान की अधिष्ठात्री हुईं तो इनके अतिरिक्त सौन्दर्य की अधिष्ठात्री उर्वशी जो अप्सराओं की अधिकारिणी थी।
आभीर कन्या हीं थी यह भी मत्स्यपुराण में वर्णन है।

"ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥
सायण-भाष्य"-
अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति= उस निषंग से वाण फैकने के लिए मैं समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं  (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् = नहीं होसकता। तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति  “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्।

पुरुरवा : हे उर्वशी ! कहीं बिछड़ने से मुझे इतना दु:ख होता है कि तरकश से एक तीर भी छूटता नहीं है। मैं अब सैकड़ों गायों की सेवा अथवा पालन के लिए सक्षम नहीं हूं। मैं राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया हूं और इसलिए मेरे योद्धाओं के पास भी अब कोई काम नहीं रहा।
विशेष: गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः । लोकस्य भाषायाम् घोष:इति शब्दरूप-
वैदिक ऋचाओं में उपलब्ध गोष: शब्द (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवक" गोपाल आदि-- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।

"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः ।
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥

सायण-भाष्य"-
“इत्था= इत्थं = इस प्रकार  इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह । हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि । "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।
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सतयुग में वर्णव्यवस्था नहीं थी परन्तु एक ही वर्ण था । जिसे हंस नाम से शास्त्रों में वर्णन किया गया है। परन्तु आभीर लोग सतयुग में भी विद्यमान थे 
जब ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ था । तब आभीर जाति के लोग उपस्थित थे।
कालान्तर में भी वर्णव्यवस्था का आधार गुण और मनुष्य का कर्म ही था।
गुणकर्मानुसार वर्णविभाग ही भगवान का जाननेका मार्ग है-
"चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।         तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥१६॥
( श्रीमद्भगवद्गीता- ४/१३)
अनुवाद:-
गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं। मैं सृष्टि आदिका कर्त्ता होने पर भी मुझे अकर्ता और अव्यय ही जानना अर्थात् वर्ण और आश्रम धर्म की रचना  मेरी बहिरङ्गा प्रकृति के द्वारा ही हुई है। मैं अपने आपमें इन सब कार्यों से तटस्थ रहता हूँ॥१६॥
गुण कर्म( वृत्ति) और स्वभाव( प्रवृत्ति)परस्पर विकसित जैविक सम्पदाऐं हैं।
व्यक्ति जो समान व्यवसाओं व्यस्त होतो हैं उनकी प्रवृत्ति भी उसी व्यवसाय के अनुरूप बन जाती है। इसमें जन्म से कोई सम्बन्ध नही होता है। जैसे सभी प्राइमरी के अध्यापक प्राय: कँजूस होते हैं। अथवा डॉक्टर समान प्रवृत्ति के होते है। 
दूसरी महत्वपूर्ण बात है। कि प्रवृत्तियों से ही प्राणी की यौनि (शरीर ) का निर्धारण होता है।कि उसे कुत्ता बनना हैं अथवा सूकर !
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प्राचीन युग का वर्णधर्म;
सत्ययुग में मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।

"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥

"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी।       विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥

विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।      वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)
अनुवाद:-
(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है।  हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों  के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥
विशेष:-
विदित हो की वर्ण-व्यवस्था ब्राह्मी- व्यवस्था है। और ब्रह्मा विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हैं।
परन्तु गोप अथवा आभीर लोग स्वयं विष्णु के रोम कूप अथवा शरीर से उत्पन्न हैं।

पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से  ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-

महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥

साहित्य और पुराण में उर्वशी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति रही है। स्वर्ग की इस अप्सरा की उत्पत्ति नारायण की जंघा से मानी जाती है।श्रीमद्भागवत के अनुसार यह स्वर्ग की सर्वसुंदर अप्सरा थी। एक बार इंद्र की राजसभा में नाचते समय वह राजा पुरुरवा के प्रति क्षण भर के लिए आकृष्ट हो गई। 
इस कारण उनके नृत्य का ताल बिगड़ गया। इस अपराध के कारण राजा इंद्र ने रुष्ट होकर उसे मृत्युलोक में रहने का अभिशाप दे दिया।
 मर्त्य लोक में उसने पुरु को अपना पति चुना किंतु शर्त यह रखी कि वह पुरु को नग्न अवस्था में देख ले या पुरुरवा उसकी इच्छा के प्रतिकूल समागम करे अथवा उसके दो मेष स्थानांतरित कर दिए जाएं तो वह उनसे संबंध विच्छेद कर स्वर्ग जाने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी। 
ऊर्वशी और पुरुरवा बहुत समय तक पति पत्नी के रूप में साथ-साथ रहे। 
इनके नौ पुत्र आयु, अमावसु, श्रुतायु, दृढ़ायु, विश्वायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए। 
दीर्घ अवधि बीतने पर गंधर्वों को ऊर्वशी की अनुपस्थिति अप्रिय प्रतीत होने लगी। गंधर्वों ने विश्वावसु को उसके मेष चुराने के लिए भेजा। उस समय पुरुरवा नग्नावस्था में थे।
आहट पाकर वे उसी अवस्था में विश्वाबसु को पकड़ने दौड़े। अवसर का लाभ उठाकर गंधर्वों ने उसी समय प्रकाश कर दिया।
 जिससे उर्वशी ने पुरुरवा को नंगा देख लिया। आरोपित प्रतिबंधों के टूट जाने पर ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा को छोड़कर स्वर्ग लोक चली गई।
महाकवि कालीदास के संस्कृत महाकाव्य विक्रमोर्वशीय नाटक की कथा का आधार यही प्रसंग है। 
कालान्तर में इन कथाओं में कवियों का पूर्वाग्रह और कल्पना का भी समावेश हुआ।

उर्वशी और पुरुरवा।
ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 41 सूक्त के 21वीं ऋचा में इस प्रकार वर्णन है
 -अभि न इला यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु । 
उर्वशी वा बृहदिवा गृणानाभ्यूण्वाना प्रभूथस्यायो: ॥१९ ॥ 

अर्थ - गौ समूह की पोषणकत्री आभीर स्त्री  इला और उर्वशी,  नदियों की गर्जना से संयुक्त होती हैं वे हमारी स्तुतियों को सुनें । अत्यन्त दीप्तिमती उर्वशी हमारी स्तुतियों से प्रशंसित होकर हमारे यज्ञादि कर्म को सम्यक्रूप से आच्छदित कर हमारी हवियों को ग्रहण करें।
 जिसमे इला और उर्वशी को अभि ( संस्कृत में अभीर का स्त्रीलिंग ) कहकर कर उच्चारित किया है। इस अभि शब्द का अनुवाद डॉ गंगा सहाय शर्मा और ऋग्वेद संहिता  ने गौ समूह को पालने वाली बताया है।
सन्दर्भ:-
हिंदी साहित्य कोश, भाग-२, पृष्ठ- ५५
पुराणों में उर्वशी के आभीर कन्या होने के सन्दर्भ हैं। यद्यपि पूर्व में हम सन्दर्भ दे चुके हैं 
परन्तु प्रासंगिक रूप से यहाँ भी प्रस्तुत है।
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"कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।

"जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
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मत्स्यपुराण अध्याय-★
   (भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
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   अनुवाद-
जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत ( कठिन आचरण) का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की  देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी ( स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।
इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ में स्पष्ट वर्णन है। इस पुराण में प्राचीन भारतीय समाज, परम्पराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थयात्राओं के पवित्र स्थानों अर्थात्‌ (तीर्थों) का विवरण दिया गया है।  पद्म पुराण के सृष्टि-खण्ड का सोलहवाँ अध्याय प्रस्तुत है।, 
"गायत्री माता के विवाह काल में सप्तर्षि  अत्रि, पुलस्त्य आदि तथा उनकी पत्नियां भी उपस्थित थीं।  अत्रि मरीचि के साथ उद्गाता के रूप में सहायक थे ।  जब सावित्री ने सभी देवताओं और देवपत्नीयों को शाप दिया था तब सप्तर्षि गण और उनकी पत्नीयाँ भी सावित्री के शाप का भाजन बनी थी तभी सावित्री द्वारा प्रदत्त शाप का निवारण  आभीर कन्या गायत्री माता ने किया था । और सबको इसके प्रतिकार में  वरदान भी दिया था।

अर्थात् शाप को वरदान में बदल दिया था।इसी दौरान गायत्री ने अत्रि को भी वरदान दिया कि वे यह आभीर जाति के गोत्रप्रवर्तक सिद्ध हों। गायत्री विवाह में उपस्थित सभी सभासद गायत्री के कृपा पात्र हुए थे यह शास्त्रों प्रसिद्ध ही है। 
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अत्रि गोत्र अहीरों का गायत्री माता को वरदान स्वरूप प्रसिद्ध हुआ था। क्योंकि अत्रि से चन्द्रमा और चन्द्रमा से बुध के उत्पन्न होने की परिकल्पना परवर्ती है । जो प्रक्षेप होने से प्रमाणित नहीं है।
यद्यपि अत्रि की उत्पत्ति किन्हीं ग्रन्थों में  विराट-पुरुष के दोनों कानों से हुई बतायी है। (श्रोत्राभ्यामत्रिं ।5।-श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।)
"सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायःका द्वितीय- तृतीय श्लोक)
अनुवाद:- ब्रह्मा से अत्रि उत्पन्न हुए और उनके दौनों नेत्रों से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ।
चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों में  कई सिद्धान्त हैं।
अत्रि की पत्नी  कर्दममुनिकन्या अनसूया थी ।
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श्लोक  9.14.3  भागवतपुराण-
"तस्य द‍ृग्भ्योऽभवत् पुत्र: सोमोऽमृतमय:किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पित: पति:॥३॥
 
शब्दार्थ:-तस्य—उस अत्रि के; दृग्भ्य:—नेत्रों से; अभवत्—उत्पन्न हुआ; पुत्र:—पुत्र; सोम:—चन्द्रमा; अमृत-मय:—अमृत से युक्त ; किल—निस्सन्देह; विप्र—ब्राह्मणों का; ओषधि—दवाओं का; और उडु-गणानाम्—तारों का; ब्रह्मणा—ब्रह्मा द्वारा; कल्पित:—नियुक्त किया गया; पति:—परम निदेशक, संचालक स्वामी( रक्षक) "पा--डति पाति रक्षयति इति पति- । १ भर्त्तरि ३ स्वामिनि ।.

अनुवाद:-अत्रि के नेत्रों से सोम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो अमृतयुक्त था । ब्रह्माजी ने उसे ब्राह्मणों, ओषधियों तथा नक्षत्रों (तारों) का पति  नियुक्त किया।
तात्पर्य:- वेदों के अनुसार सोम या चन्द्रदेव की उत्पत्ति भगवान् के मन से हुई (चन्द्रमा मनसोजात: ), किन्तु यहाँ पर सोम को अत्रि के अश्रुओं से उत्पन्न बतलाया गया है। यह वैदिक सिद्धान्त के विपरीत प्रतीत होता है,
"अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ् जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मसम्भवान् ।
इस श्लोक से पता चलता है कि अत्रि-पत्नी अनसूया के गर्भ से तीन पुत्र उत्पन्न हुए—सोम, दुर्वासा तथा दत्तात्रेय।
 
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वैश्वास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्भ्यां समुद्गताः ।
आक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ॥ १,१२.६२ ॥ 
विष्णुपुराण (प्रथमाञ्श बारहवाँ अध्याय-)
जबकि विष्णु पुराण में चन्द्रमा की उत्पत्ति ब्रह्मा के मन से बतायी है।
पद्मपुराण में ही वर्णन है कि चन्द्रमा का जन्म समुद्र से हुआ। 
ततः शीतांशुरभवद्देवानां प्रीतिदायकः।
ययाचे शंकरो देवो जटाभूषणकृन्मम।५२।
भविष्यति न संदेहो गृहीतोयं मया शशी।
अनुमेने च तं ब्रह्मा भूषणाय हरस्य तु।५३।

श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखण्डे लक्ष्म्युत्पत्तिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः४।

अक्ष्णोः सूर्योनिलः श्रोत्राच्चंद्रमा मनसस्तव।
प्राणोंतः सुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत।११९।

नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्त्तत।
दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम्।१२०। 
सन्दर्भ:- (पद्मपुराण प्रथमसृष्टिखण्ड अध्याय चतुर्थ) और 
विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १२ -में भी यही श्लोक 119-120 संख्या पर हैं।
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अनुवाद:-
तब देवताओं को प्रसन्न करने वाला चन्द्रमा उत्पन्न होकर ऊपर आ गया। भगवान शंकर ने याचना की: “(यह) चंद्रमा निस्संदेह मेरे जटाओं का आभूषण होगा; मैंने उसे ले लिया है''। ब्रह्मा ने उन का आभूषण होने पर सहमति व्यक्त की । ५२-५३।
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ततः शतसहस्रांशुर्मथ्यमानात्तु सागरात्।
प्रसन्नात्मा समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वलः।।48।
अनुवाद :-फिर तो उस महासागर से अनन्त किरणों बाले सूर्य के समान तेजस्वी, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेत वर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ।48।
श्रीमन्महाबारते आदिपर्वणि
आस्तीकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।।18 ।।
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शशिसूर्यनेत्रं इत्यपि अहं क्रतुः [9।16] 
इत्यादिवत्। तदङ्गजाः सर्वसुरादयोऽपि तस्मात्तदङ्गेत्यृषिभिः स्तुतास्ते इत्यृग्वेदखिलेषु।
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ऋग्वेद 10.90.13

च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षो॒: सूर्यो॑ अजायत । मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत॥

पद पाठ:-चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥

अनुवाद:-“चंद्रमा उनके मन से पैदा हुआ था; सूरज उसकी आँख से पैदा हुआ था; इन्द्र और अग्नि उसके मुख से उत्पन्न हुए, वायु उसकी श्वास से।"

च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षोः॒ सूर्यो॑ अजायत। मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥ अथर्ववेद- 9/6/7

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकान् अकल्पयन् यजुर्वेद- ३१।१२-१३ ॥

अर्थात् परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से अन्य सूर्य जैसे प्रकाश-युक्त तारागण, दो चरणों से भूमि, श्रोत्र से दिशाएं, और इसी प्रकार सब लोक उत्पन्न हुए।
 यहां एक बात विशेष है - श्रोत्र को तो बार कहा गया है । 
पहले मन्त्र में उससे वायु और प्राण की उत्पत्ति कही गयी है; दूसरे मन्त्र में उससे दिशाओं की उत्पत्ति बताई गयी है । यह एक संकेत है, कि यह उपमा केवल परमात्मा का आलंकारिक चित्र खींचने के लिए नहीं है, अपितु उससे कुछ महत्त्वपूर्ण विषय बताया जा रहा है
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परन्तु गायत्री माता का गोत्र अत्रि नहीं था ये भी आभीर कन्या थीं ।
सभी अहीरों ने जब विष्णु भगवान से अपनी जाति में अवतरित होने का वरदान माँगा था तब विष्णु तथास्तु कह कर उनके स्वीकृति की पुष्टि की -
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पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।

इस लिए अत्रि ऋषि के विषय में अवान्तर कथाऐं सृजन की गयी ं।

"गायत्री के विवाह काल में सप्तर्षियों में अत्रि आदि ऋषियों और उनकी पत्नी अनुसूया आदि की उपस्थिति से सम्बन्धित कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत करना अपेक्षित है। 
अत्रि और चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों में ही भिन्न भिन्न सन्दर्भ और प्रकरण हैं। इस लिये उपर्युक्त तीनों प्रक्षिप्त प्रकरण हैं।
इस लिए यादवों के प्रमाणभूत पूर्वज पुरुरवा  को माना जाता है। जिनका वर्णन ऋग्वेद में है। यद्यपि  गायत्री सबसे प्रचीन आभीर कन्या है।

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जब एक बार महात्मा (ब्रह्मा) ने भी यज्ञ के संचालन के लिए पुरोहितों को चुना। तो भृगु को ऋग्वेद की ऋचाओं को पढ़ने वाले आधिकारिक पुजारी के रूप में चयनित किया गया था ; पुलस्त्य को सर्वश्रेष्ठ अध्वर्यु  पुरोहित के रूप में चुना गया था। और मरीचि को उद्गाता के रूप में चुना गया था जो सामवेद के ऋचाओं का जाप करने वाला ) और नारद को चुना गया था ब्रह्मा( वेदविहित कर्मों का सम्पादक एक ऋत्विक ।
सनत्कुमार और अन्य सदस्य यज्ञ सभा के सदस्य थे। 
इसलिए दक्ष जैसे प्रजापति और ब्राह्मणों से पहले की जातियाँ (यज्ञ में शामिल हुए); ब्रह्मा के पास पुजारियों के (बैठने की) व्यवस्था की गई थी।
कुबेर ने उन्हें वस्त्र और आभूषणों से विभूषित किया. ब्राह्मणों को कंगन और पट्टिका के साथ-साथ अंगूठियों से सजाया गया था। ब्राह्मण चार, दो और दस (इस प्रकार कुल मिलाकर) सोलह थे। 

उन सभी को ब्रह्मा ने नमस्कार के साथ पूजा की थी। (उन्होंने उनसे कहा): “हे ब्राह्मणों, इस यज्ञ के दौरान तुम्हें मुझ पर अनुग्रह करना चाहिए; यह मेरी पत्नी गायत्री है; तुम मेरी शरण हो।
विश्वकर्मन को बुलाकर , ब्राह्मणों ने ब्रह्मा का सिर मुंडवा दिया, जैसा कि एक यज्ञ में (प्रारंभिक रूप में) निर्धारित किया गया था। ब्राह्मणों ने युगल (अर्थात् ब्रह्मा और गायत्री) के लिए चर्म के कपड़े भी (सुरक्षित) किए। ब्राह्मण वहीं रह गए (अर्थात् ब्राह्मणों ने वेदों के उच्चारण से) आकाश को गुञ्जायमान कर दिया; क्षत्रिय इस संसार की रक्षा करने वाले शस्त्रों के साथ वहीं उपस्थित हो गये ; वैश्य _विभिन्न प्रकार के भोजन तैयार किए उपस्थित हो गये।;
 उत्तम स्वाद से भरपूर भोजन और खाने की वस्तुएँ भी तब बनती थीं; जिसे  पहले अनसुना और अनदेखा माना जाता था उसे सुनकर और देखकर, ब्रह्मा प्रसन्न हुए; भगवान, निर्माता, ने वैश्यों को प्रागवाट नाम दिया। (ब्रह्मा ने इसे नीचे रखा:) 'यहाँ शूद्रों को हमेशा ब्राह्मणों के चरणों की सेवा करनी पड़ती है;।
उन्हें अपने पैर धोने होंगे, उनके द्वारा (अर्थात् ब्राह्मणों) से जो कुछ बचा है उसे खाना होगा और (जमीन आदि) को साफ करना होगा। उन्होंने भी वहाँ (ये बातें) कीं; फिर उनसे फिर कहा, “मैंने आपको ब्राह्मणों, क्षत्रिय भाइयों और आप जैसे (अन्य) भाइयों की सेवा के लिए चौथे स्थान पर रखा है ; आपको तीनों की सेवा करनी है ”। ऐसा कहकर ब्रह्मा ने शंकर को और इन्द्र को द्वार-अधीक्षक के रूप में, भी नियुक्त किया । पानी देने के लिए वरुण, धन बांटने के लिए कुबेर, सुगंध देने के लिए पवन , प्रकाश के लिए सूर्य और विष्णु (मुख्य) अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए ।
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(सोम के दाता चंद्रमा ने बाईं ओर के मार्ग का सहारा लिया।
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उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।
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गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुन्धती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।
_______________      
वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।
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अनुवाद:-
112-125। सावित्री, उनकी खूबसूरत पत्नी, जो अच्छी तरह से सम्मानित थीं, को अध्वर्यु ने आमंत्रित किया था : "श्रीमती, जल्दी आओ, सभी आग उगल चुकी हैं (अर्थात् अच्छी तरह से जल चुकी हैं), दीक्षा का समय आ गया है।" परन्तु किसी काम में मग्न वह फुर्ती से नहीं आई, जैसा कि आमतौर पर महिलाओं के साथ होता ही है। “ सावित्री ने कहा:- मैंने यहाँ, द्वार पर कोई साज-सज्जा नहीं की है; मैंने दीवारों पर चित्र भी नहीं बनाए हैं; मैंने प्रांगण में स्वस्तिक  नहीं बनाया है और यहां बर्तनों की सफाई तक नहीं की गई है।
 लक्ष्मी , जो नारायण की पत्नी हैं, वह भी अभी तक नहीं आई हैं। और अग्नि की पत्नी स्वाहा  धूम्रोर्णा, यम की पत्नी; वरुण की पत्नी गौरी; ऋद्धि जोकि कुबेर की पत्नी; गौरी, शंभु की पत्नी, अभी तक कोई नहीं आयी है।  इसी तरह मेधा , श्रद्धा , विभूति , अनसूया , धृति , क्षमा और गंगा तथा सरस्वती नदियाँ भी अभी तक नहीं आई हैं। इन्द्र पत्नी इन्द्राणी( शचि) , और चंद्रमा की पत्नी रोहिणी ,जो  चंद्रमा को प्रिय है।
 इसी तरह अरुंधती, वशिष्ठ की पत्नी; इसी तरह सात ऋषियों की पत्नियां, और अनसूया, अत्रि की पत्नी और अन्य स्त्रियाँ, बहुएँ, बेटियाँ, सहेलियाँ, बहनें अभी तक नहीं आई हैं। 
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मैं अकेला ही बहुत दिनों से यहां (उनकी प्रतीक्षा में) पड़ी हूं। मैं अकेली तब तक न जाऊँगी जब तक वे स्त्रियाँ न आ जाएँ।  जाओ और ब्रह्मा से थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कहो।

 मैं सब (उन देवियों) को लेकर शीघ्रता से आऊँगी ; हे उच्च बुद्धि वाले, आप देवताओं से घिरे हुए हैं, महान कृपा प्राप्त करेंगे; तो मैं भी करूंगी; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।" उसे इस तरह बात करते हुए छोड़कर अध्वर्यु वहाँ से  ब्रह्मा के पास पुन: आया।

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यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह।
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।
अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना।
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।
अनुवाद:-जैसे यह देवता, देवों का स्वामी, जो निश्चय ही अजर और अमर है, वैसे ही स्वर्ग भी उसके लिए अक्षय है। महान ने अन्य देवताओं को भी स्वर्ग (में स्थान) प्रदान किया है। वेद और जड़ी-बूटियाँ अग्नि में आहुति देने के लिए आई हैं।

तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्।
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।
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ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्।
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।
अनुवाद:-
वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि पृथ्वी पर जो भी अन्य जानवर हैं (देखे गए हैं) वे सभी इस भगवान द्वारा बलिदान ( यज्ञ) के लिए बनाए गए हैं। 
आपके इन वचनों को सुनकर मुझे इस विषय में एक जिज्ञासा हुई है। किस इच्छा, किस फल और किस विचार से उसने यज्ञ किया, वह सब मुझे बताओ।
कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि।
शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते।१०।
भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा।
पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापतीन्।११।
अनुवाद:-
यहाँ कहा गया है कि सौ रूपों वाली शतरूपा- महिला और  सावित्री उन्हें ब्रह्मा की पत्नी और ऋषियों की माता कहा जाता है।
 सावित्री ने पुलस्त्य और अन्य जैसे सात ऋषियों को जन्म दिया और सृजित प्राणियों के स्वामी जैसे दक्ष को भी जन्म दिया ।
नीचे शिवपुराण का वर्णन है कि

शिवपुराणम्‎  संहिता २ -(रुद्रसंहिता)‎ | खण्डः १- (सृष्टिखण्डः)
                   "ब्रह्मोवाच"
शब्दादीनि च भूतानि पंचीकृत्वाहमात्मना ।।
तेभ्यः स्थूलं नभो वायुं वह्निं चैव जलं महीम् ।१ ।

पर्वतांश्च समुद्रांश्च वृक्षादीनपि नारद।।
कलादियुगपर्येतान्कालानन्यानवासृजम् ।।२।।

सृष्ट्यंतानपरांश्चापि नाहं तुष्टोऽभव न्मुने ।।
ततो ध्यात्वा शिवं साम्बं साधकानसृजं मुने।३।

मरीचिं च स्वनेत्राभ्यां हृदयाद्भृगुमेव च ।।
शिरसोऽगिरसं व्यानात्पुलहं मुनिसत्तमम् ।४।
अनुवाद:-  ब्रह्मा ने कहा कि मेैंने मरीचि को अपने दोनों नेत्रों से भृगु को हृदय से अंगिरस को शिर से पुलह को व्यान ( नामक प्राण) से 
उदानाच्च पुलस्त्यं हि वसिष्ठञ्च समानतः ।।
क्रतुं त्वपानाच्छ्रोत्राभ्यामत्रिं दक्षं च प्राणतः।५।
अनुवाद:- उदान( वायु ) से पुलस्त्य और वशिष्ठ को समान वायु से उत्पन्न किया है। और क्रतु को अपान वायु (पाद) से दोनों कानों से अत्रि ऋषि को उत्पन्न किया और प्राणों से दक्षप्रजापति-।
असृजं त्वां तदोत्संगाच्छायायाः कर्दमं मुनिम् ।।
संकल्पादसृजं धर्मं सर्वसाधनसाधनम् ।।६।।
अनुवाद:- उत्संग ( गोद ) की छाया से कर्दममुनि संकल्प से धर्म और सब साधन उत्पन्न किए ।
एवमेतानहं सृष्ट्वा कृतार्थस्साधकोत्तमान् ।।
अभवं मुनिशार्दूल महादेवप्रसादतः ।।७।।
अनुवाद:- इस मैंने उत्तम- साधकों को यह सब रचकर उन्हें कृतार्थ किया। हे मुनि श्रेष्ठ यह सब महादेव की कृपा से हुआ।

ततो मदाज्ञया तात धर्मः संकल्पसंभवः ।।
मानवं रूपमापन्नस्साधकैस्तु प्रवर्तितः ।।८।।
तत्पश्चात मेरी आज्ञा से धर्म संकल्प उत्पन्न हुआ। और मानव रूप को प्राप्त साधक प्रवर्त हो गये 
ततोऽसृजं स्वगात्रेभ्यो विविधेभ्योऽमितान्सुतान् 
सुरासुरादिकांस्तेभ्यो दत्त्वा तां तां तनुं मुने ।९।
तत्पश्चात् अपने शरीर से विभिन्न सन्तानें उत्पन्न की सुर और असुर आदि को विभिन्न शरीर प्रदान किए गये ।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।
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परन्तु महाभारत के आदिपर्व के (66) वें अध्याय में वर्णन है 
ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा विदिताः षण्महर्षयः।
मरीचिरत्र्यह्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।1-66-10
अनुवाद:-कि ब्रह्मा के मन से छ: महर्षि पुत्र रूप में उत्पन्न हुए १-मरीचि २-अत्रि ३-अंगीरस ४-पुलस्त्य ५-पुलह और ६-क्रतु ।
मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः।
प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश।1-66-11
अनुवाद:- मरीचि से कश्यप पुत्र रूप में उत्पन्न हुए और कश्यप से ये सम्पूर्ण प्रजा उनकी तैरह पत्नीयों (दक्ष की पुत्रीयों ) से उत्पन्न हुई ।
महाभारत आदिपर्व 66 वाँ अध्याय-

श्रीमद्भागवतपुराण स्कन्धः 9-अध्यायः 14
चंद्रवंशवर्णनं, बुधस्य जन्म, तस्मान्मनुपुत्र्यामिलायां जातस्य पुरूरवस उपाख्यानं च -
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                श्रीशुक उवाच !
अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः। यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः॥१॥

सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात्।
जातस्यासीत् सुतो धातुःअत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥

तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल। 
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
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सोऽयजद् राजसूयेन विजित्य भुवनत्रयम् ।
पत्‍नीं बृहस्पतेर्दर्पात् तारां नामाहरद् बलात् ॥४॥

यदा स देवगुरुणा याचितोऽभीक्ष्णशो मदात् ।
नात्यजत् तत्कृते जज्ञे सुरदानवविग्रहः॥५॥

शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषाद् अग्रहीत् सासुरोडुपम् ।
हरो गुरुसुतं स्नेहात् सर्वभूतगणावृतः ॥६॥

सर्वदेवगणोपेतो महेन्द्रो गुरुमन्वयात् ।
सुरासुरविनाशोऽभूत् समरस्तारकामयः ॥७॥

निवेदितोऽथाङ्‌गिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत् ।
तारां स्वभर्त्रे प्रायच्छद् अन्तर्वत्‍नीमवैत् पतिः॥८॥

त्यज त्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रात् आहितं परैः।
नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सान्तानिकः सति॥९॥
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 तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम् ।
 स्पृहामाङ्‌गिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च ॥१०॥
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 ममायं न तवेत्युच्चैः तस्मिन् विवदमानयोः ।
 पप्रच्छुः ऋषयो देवा नैवोचे व्रीडिता तु सा ॥११॥
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 कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया ।
 किं न वोचस्यसद्‌वृत्ते आत्मावद्यं वदाशु मे ॥ १२।

ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सान्त्वयन् ।
सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत्॥१३॥

तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप ।
बुद्ध्या गम्भीरया येन पुत्रेणापोडुराण्मुदम् ।।
ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः।
तस्य रूपगुणौदार्य शीलद्रविणविक्रमान् ॥१५॥

 श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान् सुरर्षिणा ।
 तदन्तिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता ॥१६॥
__________   

नवम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्याय: अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद:-

सोम वंश का वर्णन
श्रीशुकदेव जी कहते हैं-
परीक्षित! अब मैं तुम्हें सोम के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंश में पुरुरवा आदि बड़े-बड़े पवित्र कीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है।
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सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात्।
जातस्यासीत् "सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
अनुवाद:-
सहस्रों सिर वाले विराट् पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। 
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उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानवों में घोर संग्राम छिड़ गया।

शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।

तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ‘दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे।
डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’। अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाये। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा- ‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमा का।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया।

परीक्षित! ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।

एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरुरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरुरवा के पास चली आयी।
ऋग्वेद में भी पुरुरवा उर्वशी का मिलन और संवाद है ।

ऋग्वेदः सूक्तं १०.९५
 ऋग्वेदः - मण्डल 10- सूक्त 95  एल- पुरुरवा और उर्वशी का मिलन की कथा- -१०

हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु ।
न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन् ॥१॥

किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
पुरूरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि॥२॥

(एता वाचा) इस  वाणी से (किं कृणव) क्या करें-क्या करेंगे (तव-अहम्) तेरी मैं हूँ (उषसाम्) प्रभात ज्योतियों की (अग्रिया-इव) पूर्व ज्योति जैसी (प्र अक्रमिषम्) चली जाती हूँ-तेरे शासन में चलती हूँ (पुरूरवः) हे बहुत प्रकार से उपदेश करने वाले पति (पुनः-अस्तम्-परा इहि) विशिष्ट सदन या शासन को प्राप्त कर (वातः-इव) वायु के समान (दुरापना) अन्य से दुष्प्राप्य (अहम्-अस्मि) मैं प्राप्त हूँ ॥२॥

इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥

पदार्थ

(इषुधेः) इषु कोश से (असना) फेंकने-योग्य-फेंका जानेवाला (इषुः) बाण (श्रिये न) विजयलक्ष्मी गृहशोभा के लिए समर्थ नहीं होता है, तुझ भार्या तुझ प्रजा के सहयोग के बिना, (रंहिः-न) मैं वेगवान् बलवान् भी नहीं बिना तेरे सहयोग के (गोषाः-शतसाः)सैकड़ो गायों का सेवक  (अवीरे) तुझ वीर पति से रहित  अबले! (उरा क्रतौ) विस्तृत यज्ञकर्म में (न विदविद्युतत्) मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता बिना तेरे सहयोग के (धुनयः) शत्रुओं को कंपानेवाले हमारे सैनिक (मायुम्) हमारे आदेश को (न चिन्तयन्त) नहीं मानते हैं बिना तेरे सहयोग के।३।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है  ।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।

वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है । 
ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा (१.२.४३) 
ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)

अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व  वैष्णव नाम से है  और  उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
विष्णु का  गोप के रूप में वेदों में वर्णन है।
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः । अतो॒ धर्मा॑णि ध॒रय॑न् ॥
त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥
तृणि पदा वि चक्रमे विष्णुर गोपा अदाभ्य:। अतो धर्माणि धारायं।।
ऋग्वेद 1/22/18

वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
विदित हो की  "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है।  
परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: 
१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है 
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार 

२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के  रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।

तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे ! 
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के  जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
क्योंकि अबीर का  मूल रूप  "बर / बीर"  है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 

अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।

अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ। अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि अफर"  जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को  जिम्बाब्वे नें था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में  यही लोग "अवर"  और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में  अफोर- आदि नामों  से विद्यमान थे ।
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।

जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।

अत: ययाति के पूर्व पुरुषों  की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। 

और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्
नहुष' और  ययाति आदि का नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।
वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है । 
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। 
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।
परन्तु वैवाहिक विधानों के सम्यक् निर्वहन हेतु गोत्र की महती आवश्यकता है । 
पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है ।

गोत्र की अवधारणा-
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं,।
_______
यद्यपि गायत्री वैष्णवी शक्ति  का अवतार हैं ।
दुर्गा भी इन्हीं का रूप है  जब ये नन्द की पुत्री बनती हैं तब इनका नाम.एकानंशा अथवा यदुवंश समुद्भवा भी होता है ।।

पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माता सावित्री है। 

इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं। 

कहा जाता है एक बार पुष्‍कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया। 

लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया। तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया और सभी शापित देवों तथा देवीयों को वरदान देकर प्रसन्न किया ये ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।
 
स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।

तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
देवी भागवत पुराण मे सहस्रनाम प्रकरण में यदुवंशसमद्भवा गायत्री सा ही नाम है।
_______________________________
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -
                -भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
             *-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।
रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
__________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
______
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

______
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।
अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
________________________ 
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
______________
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
___________________
भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
____________________________
ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५
वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
_________________________________
बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
 ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।
- भीष्‍म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्‍ठ ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्‍येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्‍म जी ने कहा– 

भरतश्रेष्‍ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।

एकमात्र सनातन भगवान स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के सात महात्‍मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्‍ठ।

ये सभी स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्‍त प्रजापतियों का वर्णन आरम्‍भ करता हूँ।

अत्रिकुल मे उत्‍पन्‍न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीनबर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्‍पन्‍न हुए।
पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था  दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।

उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं। 

उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’ मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
कुछ लोग उन्‍हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्‍हें कश्यप के नाम से जानते हैं। 
अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्‍होंने सहस्‍त्र दिव्‍य युगों तक भगवान की उपासना की थी।
प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्‍तम स्रष्टा) कहे गये हैं। 
धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्‍दु के दस हजार स्त्रियाँ थी। 
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अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥
मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥
धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।
यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥
कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ 
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।
                   "विदुर उवाच।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।
                  "मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७॥
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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।

उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। 
इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।
फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। 

छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। 

विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
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उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।

पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। 

ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।

जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। 

जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। 

इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
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तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। 
एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ।
इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।
इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
(भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
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उनमें से प्रत्‍येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। इस प्रकार उन महात्‍मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्‍छा नहीं करते थे।
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प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्‍पत्ति शशबिन्‍दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्‍पादक हुआ।
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संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे  १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र । 
६. समूह । जत्था । गरोह । ७. वृद्धि । बढ़ती । ८. संपत्ति । धन । दौलत । ९. पहाड़ । 
१०. बंधु । भाई । 
११. एक प्रकार का जातिविभाग । १२. वंश । कुल । खानदान । 
१३. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है । 
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विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु/ ऋषयों के नामों के अनुसार है ।
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सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा में यम के समय से निषिद्ध माना जाता है।
यम ने ही संसार में धर्म की स्थापना की यम का वर्णन विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में हुआ है 
जैसे कनानी संस्कृति ,नॉर्स संस्कृति ,मिश्र संस्कृति ,तथा फारस की संस्कृति और भारतीय संस्कृति आदि-में यम का वर्णन है ।
 
यम से पूर्व स्त्री और पुरुष जुड़वाँ  बहिन भाई के रूप में जन्म लेते थे ।
 
परन्तु यम ने इस विधान को मनुष्यों के लिए निषिद्ध कर दिया ।
केवल पक्षियों और कुछ अन्य जीवों में ही यह रहा । यही कारण है कि मनु और श्रद्धा भाई बहिन भी थे और पतिपत्नी भी ।

मनुष्यों के युगल स्तन ग्रन्थियाँ इसका प्रमाण हैं । 
ऋग्वेद में यम-यमी संवाद भी यम से पूर्व की दाम्पत्य व्यवस्था का प्रमाण है ।
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एक ही गोत्र के लड़का लड़की का भाई -बहन होने से  विवाह भी निषिद्ध ही है।
यद्यपि  गोत्र शब्द का प्रयोग वंश के अर्थ में  वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

ऋग्वेद में गोत्र शब्द का प्रयोग गायों को रखने के स्थान के एवं मेघ के अर्थ में हुआ है।
गोसमूह के अर्थ में गोत्र-
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त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् ।
ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥
— ऋग्वेद १/५१/३॥
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मेघ के अर्थ में ऋग्वेद में "गोत्र" के प्रयोग का भी उदाहरण :

'यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि ।
यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम् 
— ऋग्वेद ८/५०/१०॥

इसके अर्थ में समय के साथ विस्तार हुआ है।
गौशाला एक बाड़ अथवा परिसीमा में निहित स्थान है।
इस शब्द का क्रमिक विकास गौशाला से उसके साथ रहने वाले परिवार अथवा कुल  के रूप में हुआ।

इसमें विस्तार से गोत्र को विस्तार, वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।
गोत्र का अर्थ पौत्र तथा उनकी सन्तान के अर्थ में भी है । इस आधार पर यह वंश तथा उससे बने कुल-प्रवर की भी द्योतक है।
यह किसी व्यक्ति की पहचान, उसके नाम को भी बताती है तथा गोत्र के आधार पर कुल तथा कुलनाम बने हैं।

इसे समयोपरांत विभिन्न गुरुओं के कुलों (यथा कश्यप, षाण्डिल्य, भरद्वाज आदि) को पहचानने के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा। 

क्योंकि शिक्षणकाल में सभी शिष्य एक ही गुरु के आश्रम एवं गोत्र में ही रहते थे, अतः सगोत्र हुए।
यह इसकी कल्पद्रुम में दी गई व्याख्या से स्पष्ट होता है :

गोत्रम्, क्ली, गवते शब्दयति पूर्ब्बपुरुषान् यत् । इति भरतः ॥ (गु + “गुधृवीपतीति ।” उणादि । ४ । १६६ । इति त्रः ) तत्पर्य्यायः । सन्ततिः २ जननम् ३ कुलम् ४ अभिजनः ५ अन्वयः ६ वंशः ७ अन्ववायः ८ सन्तानः ९ । इत्यमरः । २ । ७ । १ ॥ आख्या । (यथा, कुमारे । ४ । ८ । “स्मरसि स्मरमेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् ॥”) सम्भावनीयबोधः । काननम् । क्षेत्रम् । वर्त्म । इति मेदिनी कोश । २६ ॥

छत्रम् । इति हेमचन्द्रःकोश ॥ संघः । वृद्धिः । इति शब्दचन्द्रिका ॥ वित्तम् । इति विश्वः ॥
यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।

गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश) 

तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
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गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।

तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।

इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।

तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका  एक अर्थ  छतरी( छत्र भी है।
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क्योंकि उस वैदिक समय  में गोत्र नहीं थे ।
गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर  14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में  उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।

यमी अपने सगे भाई यम से  संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। 
परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋग्वेद-10/10/2
अनुवाद:-(“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌

"न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
पदान्वय-
न । वै । ऊं इति । ते । तन्वा । तन्वम् । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहुः । यः । स्वसारम् । निऽगच्छात् ।
अन्येन । मत् । प्रऽमुदः । कल्पयस्व । न । ते । भ्राता । सुऽभगे । वष्टि । एतत् ॥१२।
सायण-भाष्य★-
यमो यमीं प्रत्युक्तवान् । हे यमि “ते तव “तन्वा शरीरेण “तन्वम् आत्मीयं शरीरं “न “वै “सं पपृच्यां नैव संपर्चयामि । नैवाहं त्वां संभोक्तुमिच्छामीत्यर्थः । “यः भ्राता “स्वसारं भगिनीं “निगच्छात् नियमेनोपगच्छति । संभुङ्त्श इत्यर्थः । तं “पापं पापकारिणम् “आहुः । शिष्टा वदन्ति । एतज्ज्ञात्वा हे “सुभगे सुष्ठु भजनीये हे यमि त्वं “मत् मत्तः “अन्येन त्वद्योग्येन पुरुषेण सह “प्रमुदः संभोगलक्षणान् प्रहर्षान् “कल्पयस्व समर्थय । “ते तव “भ्राता यमः “एतत् ईदृशं त्वया सह मैथुनं कर्तुं “न “वष्टि न कामयते । नेच्छति ॥

पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋग्वेद-10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)

इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “ एक पुर्वज अथवा पूर्वपुरुष  के पौत्र परपौत्र आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !! “
मनु स्मृति –5/60
(सपिण्डता) सहोदरता (सप्तमे पुरुषे) सातवीं पुरुष में (पीढ़ी में ) (विनिवर्तते) छूट जाती है।
(जन्म नाम्नोः) जन्म और नाम दोनों के (आवेदने)  जानने  से, (समान-उदक भावः तु) आपस में  (जलदान)का व्यवहार भी छूट जाता है।
इसलिये सूतक में सम्मिलित होना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
_____________________________________
सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) गुण - मानव के ।
गोत्र निर्धारण की व्याख्या करता है ।।

जीवविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता -उत्तराधिकारिता ( जेनेटिक्स हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है।

आनुवंशिकता के अध्ययन में' ग्रेगर जॉन मेंडेल "जैसे यूरोपीय जीववैज्ञानिकों  की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। 

विज्ञान की भाषा में प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। अत: कोशिका जीवन की शुक्ष्म इकाई है।

इन कोशिकाओं में कुछ  गुणसूूूूूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। 

इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ (डी .एन. ए .) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। 

यद्यपि  डी.एन.ए और आर.एन.ए दोनों ही न्यूक्लिक एसिड होते हैं।

इन दोनों की रचना "न्यूक्लिओटाइड्स"   से होती है जिनके निर्माण में कार्बन शुगर, फॉस्फेट और नाइट्रोजन बेस (आधार) की मुख्य भूमिका होती है।
डीएनए जहाँ आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है और कोशिकीय कार्यों के संपादन के लिए कोड प्रदान करता है वहीँ आर.एन.ए की भूमिका उस कोड  (संकेतावली)
को प्रोटीन में परिवर्तित करना होता है। दोेैनों ही तत्व जैनेटिक संरचना में अवयव हैं ।
_________________
आनुवंशिक कोड (Genetic Code) डी.एन.ए और बाद में ट्रांसक्रिप्शन द्वारा बने (M–RNA पर नाइट्रोजन क्षार का विशिष्ट अनुक्रम (Sequence) है,

जिनका अनुवाद प्रोटीन के संश्लेषण के लिए एमीनो अम्ल के रूप में किया जाता है। 

एक एमिनो अम्ल निर्दिष्ट करने वाले तीन नाइट्रोजन क्षारों के समूह को कोडन, कोड या प्रकुट (Codon) कहा जाता है।

और ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए  होते हैं।
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भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः।
तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः।९८।

सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्।
प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः।९९।

ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना।
वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते।१००। 1.16.100।

अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः।
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्।
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।

पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः।
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं।१०३

यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः।
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः।१०४।

ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्।
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः।१०५।

भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे।
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः।१०६।

अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः।
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः।१०७।

द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह।
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं।१०८।

तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः।
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः।१०९।

द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः।
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्।११०।

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्।
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्।१११।

उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः।
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना।
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः।
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया।
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह।
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु।
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया।
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः।
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः।
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।

वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा।
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः।
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता।
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः।
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।

सन्दर्भ:-(पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १६)
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यादव  योगेश कुमार रोहि-

सन्दर्भ :- आभीरसंहिता-

          "प्रस्तावना"👇 

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                  (प्रथम- चरण)👇
प्रचीन ऋषियों के ग्रन्थों में पूर्व काल में जो सत्य प्रतिष्ठित था ; जिससे समाज चारित्रिक रूप से सकारात्मक और स्वस्थ था ; पहले जैसा आज कुछ भी नहीं रहा है। पूर्वकाल में जब वह सत्य का युग था । लोग आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत और संयमी प्रवृत्तियों से समन्वित रहते थे ; जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों को आत्मसात् करना ही मनुष्यों का परम ध्येय और श्रेय कर्म था। परन्तु काल के सतत्-प्रवाह में आध्यात्मिक गंगाजल की स्वच्छ धाराओं के साथ धार्मिक कर्मकाण्ड जनित दम्भमयी गन्दगी भी प्रवाहित होती चली गयी, और उस गन्दिगी की बढ़ोतरी मिलाबट के जोड़-तोड़ के रूप में तब्दील होकर ; मिथकों की मिथ्या गाथा बनकर धर्म-शास्त्रों में विरोधाभास और कल्पनाओं का आभास कराने लगी। ऐसा इसलिये भी हुआ, क्यों कि संयम और आध्यात्मिक भावों के लोप होने से तत्कालीन पुरोहितों में भौतिकवाद की वृद्धि,भोग-लिप्सा, स्वार्थ,झूँठी शान-शौकत और समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की महत्वाकाँक्षा के रूप में उत्पन्न होकर लम्बे समय तक विद्यमान रही ! इसी लिए धर्म-शास्त्रों में भविष्यत् (आगे होने वाली) घटनाओं का मनीषीयों द्वारा कलियुग के प्रसंग-रूप में आनुमानिक वर्णन किया गया है : क्यों कि जिस समय ये शास्त्र लिपिबद्ध किये जा रहे थे तब तक इन घटनाओं का सूत्रपात( आगाज) हो गया था। और वर्तमान परिस्थितियों और घटना- क्रमों का आकलन करके ही कोई भी बुद्धि-जीवी भविष्य में होने वाली घटनीओं का सहज वर्णन कर सकता है । परन्तु पुराणों को लिखने वाले तो साधक, तपस्वी और आध्यात्मिक व्यक्ति रहे होंगे- इसी लिए उन्होंने आज की चारित्रिक और नैतिक पतन होने वाली बाते शास्त्रों में वर्णन कर दीं है। देवीभागवतपुराण स्कन्ध 6/11 में सत्य ही कहा है ।
पराम्बापूजनासक्ताःसर्वे वर्णाःपरेयुगे।
तथात्रेतायुगे किञ्चिन्न्यूना धर्मस्य संस्थितिः।४१।
द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् तेकलौब्राह्मणाःस्मृताः।४२।
अनुवाद:-उस सत्ययुगमें सभी वर्णों के लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे। उसके बाद, त्रेतायुग में धर्म की स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुग में जो धर्म की स्थिति थी, वह  स्थिति द्वापर में विशेष रूप से और कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे,   वे ही कलियुग में ब्राह्मण माने जाते हैं।41-42। और आज सभी वर्णों के मनुष्य लगभग समान आचरण के हो गये हैं। किसी भी वर्ण का व्यक्ति कोई भी कार्य कर सकता है।
(अध्याय-191-के महाभारत वनपर्व के निम्न श्लोक निर्णयसागर प्रेसमुम्बई संस्करण पर 191 अध्याय पर है। तथा गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण में यह 188 वें अध्याय पर है।
 अर्थ- निवृत्तयज्ञस्वाध्याया दण्डाजिनविवर्जिताः।
ब्राह्मणा सर्वभक्षाश्च भविष्यन्ति कलौयुगे।३२।
अर्थ- कलियुग में ब्राह्मण यज्ञ, स्वाध्याय, दण्ड़ और मृगचर्मका त्याग कर देंगे और ( भक्ष्याभक्ष्यका विचार छोड़कर )सब कुछ खानेवाले हो जायंगे।३२।
अजपा ब्राह्मणास्तात शूद्रा जपपरायणा:।
विपरीते तदा लोके पूर्वरूपं क्षयस्य तत् ।३३।
 अर्थ- तात ! ब्राह्मण तो ईश्वर का जप न करने वाले  और शूद्र  कहे जाने लोग  ईश्वर के मंत्रों के जप करने वाले होंगे। नरेश्वर ! इस प्रकार जब लोगोंके विचार और व्यवहार विपरीत हो जाते हैं, तब प्रलय का पूर्वरूप आरम्भ हो जाता है।३३।
बहवो म्लेच्छराजानः पृथिव्यां मनुजाधिप।
मृषानुशासिनः पापा मृषावादपरायणा:।३४।   
अर्थ-बहुत-से म्लेच्छ राजा उस समय इस पृथ्वी पर राज्य करने वाले होंगे । झूँठ बोलकर  शासन करने वाले, पापी और असत्यवादी होगे।।३४।।
आन्ध्राःशकाः पुलिन्दाश्च यवनाश्च नराधिपाः।
काम्भोजा बाह्लिकाः शूरास्तथाऽऽभीरा नरोत्तमा।३५।
अर्थ-आन्ध्र, शक, पुलिन्द, यवन, काम्बोज, बाहीक तथा शूरता से सम्पन्न आभीर लोग इस देश के शासक होंगे।३५।
न तदा ब्राह्मणः कश्चित्स्वधर्ममुपजीवति।
क्षत्रियाश्चापि वैश्याश्च विकर्मस्था नराधिप।३६।
अर्थ- नरश्रेष्ठ! उस समय कोई ब्राह्मण अपने धर्मके अनुसार जीविका चलानेवाला न होगा। नरेश्वर! क्षत्रिय और वैश्य भी अपना-अपना धर्म छोड़कर दूसरे वर्णोंके कर्म करने लगेंगे।
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तान् सर्वान् कीर्त्तयिष्यामि भविष्ये पठितान्नृपान्।
तेभ्यः परे च ये चान्ये उत्पत्स्यन्ते महीक्षितः। ३७.२६३।
अनुवाद:-मैं उन सभी राजाओं का उल्लेख करूंगा जिन्हें मैं भविष्य में होने वाले के रूप में पढ़ूँगा। और उनसे परे अन्य जो पृथ्वी के राजा  होंगे 37.263।।
क्षत्राः पारशवाः शूद्रास्तथा ये च द्विजातयः।
अन्धाः शकाः पुलिन्दाश्च तूलिका यवनैः सह । ३७.२६४।
अनुवाद:-क्षत्रिय, पारशव, और शूद्र तथा वे भी जो ब्राह्मण हैं।यवनों के साथ अन्ध, शक, पुलिन्द और तूलिक 37.264।
कैवर्त्ताभीरशबरा ये चान्ये म्लेच्छजातयः।
वर्षाग्रतः प्रवक्ष्यामि नामतश्चैव तान्नृपान् ।। ३७.२६५ ।।
अनुवाद:-कैवर्त, अभीर, शबर और म्लेच्छों की अन्य सभी जातियाँ कलियुग में शासक होगीं। वर्षा होने के पूर्व मैं उन राजाओं का नाम लेकर वर्णन करूँगा 37.265।
सप्तैव तु भविष्यन्ति दशाभीरास्ततो नृपाः।
सप्त गर्दभिनश्चापि ततोऽथ दश वै शकाः। ३७.३५३।अनुवाद:-तब सात राजा होंगे और दश अहीर होंगे।सात गर्दभ और फिर दस शक। 37.353।
वायुपुराण -  उत्तरार्द्ध  अध्यायः ३७ के श्लोक जिनमें भविष्यवाणी के रूप में कलियुग में होने वाले राजाओं का वर्णन है।

भविता सञ्जयश्चापि वीरो राजा रणञ्जयात्।
सञ्जयस्य सुतः शाक्यः शाक्याच्छुद्धोदनोऽभवत्।३७/२८४ । अनुवाद:-
संजय भी रणंजय से वीर राजा उत्पन्न होगा।
संजय का पुत्र शाक्य हुआ और शाक्य से शुद्धोधन उत्पन्न हुआ। 37.284।
शुद्धोदनस्य भविता शाक्यार्थे राहुलः स्मृतः।
प्रसेनजित्ततो भाव्यः क्षुद्रको भविता ततः। ३७.२८५।
राहुल को शाक्य के लिए याद किया जाता है जो शुद्धोदन का का पुत्र होगा
प्रसेनजित का जन्म होगा और फिर क्षुद्रक का जन्म होगा ।37.285।
क्षुद्रकात्क्षुलिको भाव्यः क्षुलिकात्सुरथः स्मृतः।
सुमित्रः सुरथस्यापि अन्त्यश्च भविता नृपः। ३७.२८६ ।
क्षुुद्रक से क्षुलिक हुआ और क्षुलिक से सुरथ हुआ और सुरथ का भी  अन्त्य नामक  पुत्र राजा  होगा 37.286।।
महानन्दिसुतश्चापि शूद्रायां कालसंवृतः।
उत्पत्स्यते महापद्मः सर्वक्षत्रान्तरे नृपः ।। ३७.३२० ।
महानंदी के पुत्र का जन्म भी एक शूद्र स्त्री से होगा
सभी क्षत्रियों के बाद में  37.320।
ततःप्रभृति राजानो भविष्याः शूद्रयोनयः।
एकराट् स महापद्म एकच्छत्रो भविष्यति । ३७.३२१।
तब से राजा शूद्र जाति के होंगे। वह महापद्म एक छत्र राजा बनेगा 37.321।।
अष्टा विंशतिवर्षाणि पृथिवीं पालयिष्यति।
सर्वक्षत्रहृतोद्धृत्य भाविनोऽर्थस्य वै बलात् ।। ३७.३२२ ।।
वह अट्ठाईस वर्ष तक पृथ्वी पर राज्य करेगा।
उसने उन सभी क्षत्रियों को जबरन उखाड़ फैंकेगा  जिन्होंने उसकी भविष्य की संपत्ति छीन ली थी 37.322।
सहस्रास्तत्सुता ह्यष्टौ समा द्वादश ते नृपाः।।
महापद्मस्य पर्याये भविष्यन्ति नृपाः क्रमात् ।। ३७.३२३ ।।
उस पद्म नन्द के वंश में  आठ राजाओं  ने  बारह  साल शासन किया जिनके हजारों पुत्र हुए। 37.323।
उद्धरिष्यति तान् सर्वान् कौटिल्यो वै द्विरष्टभिः।
भुक्त्वा महीं वर्षशतं नन्देन्दुः स भविष्यति ।। ३७.३२४ ।।
कौटिल्य उन सभी को अट्ठाईस  वें वर्ष  में उखाड़  फैंकेंगे । सौ वर्ष तक पृथ्वी को भोगने के बाद वह नन्देन्दु  बनेगा 37.324।

चन्द्रगुप्तं नृपं राज्ये कौटिल्यः स्थापयिष्यति।
चतुर्विंशत्समा राजा चन्द्रगुप्तो भविष्यति ।। ३७.३२५ ।।
कौटिल्य  चंद्रगुप्त को राज्य में स्थापित करेगा
राजा चंद्रगुप्त का शासन चौबीस वर्ष तक होगा 37.325।

भविता भद्र सारस्तु पञ्चविंशत्समा नृपः।
षड्विंशत्तु समा राजा ह्यशोको भविता नृषु ।। ३७.३२६ ।।
 भद्रसार  पच्चीस वर्ष तक राजा होगा।
राजा छब्बीस वर्ष तक अशोक राजा होगा 37.326।।
तस्य पुत्रः कुनालस्तु वर्षाण्यष्टौ भविष्यति।
कुनाल सूनुरष्टौ च भोक्ता वै बन्धुपालितः।३७.३२७।
उसका पुत्र कुनाल आठ वर्ष तक राजा होगा। और कुनाल का पुत्र बन्धुपालित भी आठ साल तक राजा होगा।

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"मत्स्य पुराण के  अध्याय 50 में भविष्य का वर्णन करते हुए लिखा है।।
तेभ्योऽपरेऽपि ये त्वन्ये ह्युत्पत्स्यन्ते नृपाः पुनः।
क्षत्राः पराशवाः शूद्रास्तथान्ये ये महीश्वराः। ५०.७५।
अनुवाद:-और अन्य राजा जो उनसे उत्पन्न होंगे वे फिर से जन्म लेंगे।क्षत्रिय, पारशव, शूद्र और अन्य। 50.75।
अन्धाः शकाः पुलिन्दाश्च चूलिका यवनास्तथा।
कैवर्त्ताभीरशवरा ये चान्यम्लेच्छसम्भवाः।
पर्य्यायतः प्रवक्ष्यामि नामतश्चैव तान्नृपान्।५०.७६
अनुवाद:-अन्ध, शक, पुलिन्द, चुलिक और यवन।
कैवर्त आभीर शबर और अन्य म्लेच्छों के वंशज  होंगे ।मैं उन राजाओं का नाम सहित विस्तार से वर्णन करूँगा ।50.76।

वास्तव में ब्राह्मण जिसके  प्रधान कर्तव्य पठन -पाठन, यज्ञ, ज्ञानोपदेश  ,यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ये छह  कहे गए हैं। इसीलिए उन ब्राह्मणों को षट्कर्मा भी कहा जाता था। परन्तु  अब सभी ब्राह्मण उपाधिधारक ऐसे नहीं रहे ब्राह्मण शब्द- ब्रह्मन् शब्द से उत्पन्न हुआ है। और ब्रह्मन् शब्द के शास्त्रों तीन प्रथान अर्थ हैं ब्र(व्र)ह्मन्' नपंसक (वृंह- मनिन्)= ब्रह्मन्।वृंहेर्नोऽच्चेति” उणा॰ नकारस्याकारे ऋतो रत्वम्। 
बृंह् अथवा वृंह्  धातु के  तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं  :- १- वृद्धि होना। २-शब्दकरना। ३- और उद्यम करना। ईश्वरीय सत्ता का वाचक ब्रह्मन् शब्द नपुंसक लिंग में  वृद्धि मूलक है । और (ब्रह्मन्+अण्)  से निर्मित ब्राह्मण ध्वनिसत्ता मूलक है। अत: भृङ्ग के समान निरन्तर मन्त्र का उच्चारण करने वाला  ब्राह्मण होता है। :- ब्रह्म= वेदं शुद्धं चैतन्यं वा वेत्त्यधीते वा अण् ब्रह्मणो) अर्थात् ब्राह्मण जो ब्रह्म (परम चैतन्य सत्ता) को जानता अथवा अध्ययन करता है। अथवा "ब्रह्मणो जातो इति ब्राह्मण- ब्रह्मा जी सन्तान भी  ब्राह्मण है। पाणिनीय सूत्र से  न टिलोपः (ब्रह्मन्+अण्=ब्राह्मण) अमरकोश में भी ब्रह्मन् शब्द के नपुंसक रूप में अर्थ-वेदतत्त्व (मन्त्र और तप आदि हैं अर्थात् 3/3/114/2/1  ब्राह्मण- ब्रह्म को जानने वाला, तप करने वाला,और वेदमन्त्रों का वक्ता, इन अर्थों का वाचक शब्द है।  परन्तु अब सब ब्राह्मण उपाधि धारण करने वाले ऐसे नहीं हैं अब ये अपने वर्णगत कर्मों को छोड़कर अन्य कर्म भी करने लगे हैं। अत: "कर्तव्यविहीनस्य किं अधिकारम्" अर्थात् जिसके कर्तव्य नहीं हैं तो उसके अधिकार कहाँ होगे इसी प्रकार स्वयं को क्षत्रिय कहने वाले भी आज शास्त्र-विहित क्षत्रिय के गुण धर्मों से रहित होकर अन्य वर्णगत कर्मों में रत हैं। क्षत्रिय शब्द भी व्युत्पत्ति कालिदास ने रघुवंशमहाकाव्य मे की है:- क्षतात् किल त्रायते इत्युग्रः क्षत्त्रस्य शब्दोभुवनेषु रूढः”= विनाश से रक्षा करता है जो वह क्षत्रिय है " संसार में इसका यह अर्थ रूढ़ (प्रचलित)है।- रघुःवंशमहाकाव्यम्) शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।18.43।(श्रीमद्भगवद्गीता) = शौर्य, तेज, धृति (धैर्य), दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) - ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। परन्तु जो अब स्वयं को क्षत्रिय अधिकतर लोग कहते हैं उनमें ये गुण और कर्म अनिवार्यत: नहीं होते हैं। अत: कर्तव्य हीन व्यक्ति के अधिकार नहीं होते है "कर्त्तव्यविहीनस्य किं अधिकारम्" अर्थात्  इसी क्रम में  वैश्य वर्ण की विवेचना भी अपेक्षित है। वैश्य शब्द संस्कृत की विश् धातु से निष्पन्न है। जिसका अर्थ :- प्रवेश करना  अर्थात्  वैश्य= जो अपने बलबुद्धि से कृषि और पशुपालन कर्म में प्रवेश करे" स्वयोर्बलबुद्धिभ्याम् कृषिपशुपालनेषु कर्मेषु" विशति-निविशति )विश--क्विप् -स्वार्थे ष्यञ् =वैश्य कृषि पशुपालन आदि कर्मों में अपनी बल-बुद्धि  का (निवेश-investment ) करने वाला होता है । इसके अतिरिक्त मनुस्मृति 9/327-328 तथा  महाभारत -शान्तिपर्व-60/23/26 में वैश्य के कर्तव्य बताते हुए उसे पशुपालक कहा  है । पशु ही प्रत्येक राष्ट्र की सम्पत्ति होते थे 
वैश्य का जो सनातन धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हुं। दान, अध्ययन, यज्ञ और पवित्रतापूर्वक धन का संग्रह ये वैश्य के कर्म हैं। वैश्यवर्ण का सदा  उद्योगशील रहकर पुत्रों की रक्षा करने वाले पिता के समान सब प्रकार के पशुओं का पालन करे। इन कर्मों के सिवा वह और जो कुछ भी करेगा, वह उसके लिये विपरीत कर्म होगा। पशुओं के पालन से वैश्य को महान सुख की प्राप्ति हो सकती है। प्रजापति ने पशुओं की सृष्टि करके उनके पालन का भार वैश्य को सौंप दिया था।
महाभारत के निम्न श्लोकों का उपर्युक्त भावानुवाद है। 
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्।ब्राह्मणायच राज्ञे च सर्वाःपरिददे प्रजाः।२३।
न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति।
वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याःकथंचन।२६। वैश्य वर्ण के लिए चार जीविका के आधार हैं।
वैश्यस्य चतस्रो जीविकाः १-कृषिः २- गोरक्षणम् ३- वाणिज्यम्  ४- कुशीदम् । 
कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विशः स्मृतम्शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा द्विजो यज्ञान्न हापयेत् ।96.28। श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः।96।
वैश्यों के जीविका उपार्जन व कर्तव्य शास्त्रों में चार कहे गये हैं। जैसे कृषि(खेती-बाड़ी) गोरक्षण (पशुपालन) व्यापार और (कुशीद-व्याज का लेन-देन) अब वैश्य शब्द आज  केवल वणिक( बनिया) के अर्थ में प्रचलित (रूढ़) हो गया है। जो कि सार्थक नहीं है क्यों कि वणिक लोग आज  पशुपालन और कृषि-वृत्ति  से पूर्णत: रहित ही हैं। अत: बनिया लोगों को आजकल कभी भी कहीं भी हल चलाते अथवा पशुओं का पालन करते नहीं देखा जाता  है। ये कार्य तो बल और पौरुष से ही किए जा सकते हैं।   जोकि क्षत्रिय का गुण है। विदित हो कि वणिक शब्द के पूर्वज वेदों में वर्णित "पणि शब्द है । ये पणि लोग समुद्री व्यापारी होते थे। फिनीशियन लोगों ने जहाँ बसेरा किया वह फिनीशिया कहलाया। वेदों मे इन्हें पणि कहा है । ये लोग सीरियनों के समकालिक तथा असीरियनों के मित्र जाति के लोग थे ।
फ़रात के समीप वर्ती आधुनिक लेवनान में ये  निवास करते थे । ऋग्वेद के "पणि" लोग "फोनेशियन" लोगों का रूपान्तरण है। रोमनों ने इन्हें प्यूनिक  कहा विदित हो कि ये प्राय व्यापार ही करते थे पशुपालन ये नहीं करते थे जबकि  आर्य पशु पालक और कृषक थे । यद्यपि इनके और देवसंस्कृतियों के लोगों के देवता कुछ भिन्न थे पणियों का देवता "बल" था  जोकि देवों का शत्रु  था पणि लोग केवल "व्यापारी" थे और विश्व इतिहास में इन्हें फॉनिशिसन कहा गया  फोनेशियन लोगों की भाषा " भारोपीय व सैमेटिक -हैमेटिक शब्दों से युक्त थी। इन्होंने ही दुनियाँ को भाषा और लिपियाँ प्रदान कीं  इनका व्यापर भूमध्यसागर तक फैला होता था। ऋग्वेद के दशम् मण्डल के १०८ वें सूक्त में एक से लेकर ग्यारह छन्दों तक इनका वर्णन है । कि इन्द्र की दूतिका देव शुनी( कुतिया) सरमा  दजला-फरात के जल प्रदेशों में पणियो को खोजती हुई पहुँचती है । तथा पणियों से इन्द्र की महान शक्ति का वर्णन करके भयाक्रान्त करने के उद्देश्य से बहुत सी गायों इन्द्र को देने के लिए बाध्य करती है । यह आख्यान  एक काव्यात्मक वर्णन है । वणिज् अथवा वणिक् शब्द का मूल वैदिक पणि शब्द है। जिसे विश्व इतिहास में फोनिशिय अथवा प्यूनिक  कहा गया ये पणि समुद्री व्यापारी हुआ करते थे जो "लेवनान "इजरायल और कनान में  रहते थे। यह घटना ईसापूर्व 1500 के समकालिक है। अमर कोश में वणिक के पर्याय  इस प्रकार से हैं।वैदेहकः सार्थवाहो नैगमो वाणिजो वणिक्। पण्याजीवो ह्यापणिकः क्रयविक्रयिकश्च सः
अत: वैश्य वृत्ति के अन्तर्गत पशुपालन और कृषि के अतिरिक्त वाणिज्य ( व्यापार) तथा कुशीद वृत्तियाँ  हैं। अब वाणिज्य और कुशीद( व्याज) वणिक वृत्ति हैं और पहले वाली दो कृषक वृति ही हैं अब चारों वैश्यवृत्ति के अन्तर्गत होकर भी परस्पर विपरीत हैं। क्योंकि कृषि और पशुपालन का काम तो वीर और क्षत्रियों का ही हो सकता है। वैदिक काल में  कृषि और पशुपालन करने वाले को ही "आर्य कहा जाता था। और आर्य शब्द केवल कृषक का वाचक हुआ करता था आर्य शब्द की व्युत्पत्ति ऋ(अर्) धातु मूलक है आर-हल का आला( फाल) उसे धारण करने वाला आर्य- (आर्य शब्द की व्युत्पत्ति के लिए देखें सप्तदश अध्याय) 
इस प्रकार वर्ण व्यवस्था गुण कर्म के आधार पर व्यवसायपरक न होकर, जाति आधारित हो गयी और ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के लोगों द्वारा अपने मूल गुणधर्म को छोड़कर स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों कीआपूर्ति के लिए नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों को तिलाञ्जलि देदी गयी !! परिणाम स्वरूप भारतीय समाज में विश्रृँखलता आयी पहले जैसी कर्मविभाजन व्यवस्था कुछ भी नहीं रही यह सामाजिक उपक्रम ईसा पूर्व सप्तम सदी के समकक्ष घटित हुआ।
शूद्र भी एक जाति विशेष का वाचक था परन्तु पुराणों के प्रकाशन काल में और लेखन काल में भी शूद्र वर्ण-विशेष का वाचक हो गया ।
अब शूद्र शब्द का पौराणिक व्युपत्ति पर बात करते हैं ।
भारतीय पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार शूद्र शब्द का व्युपत्ति पर वायुपुराण का कथन है कि
 " शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति को शूद्र कहते हैं ।
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"तो भविष्यपुराण में कहा गया कि " श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए" 
शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-
क्षत्रियास्तु क्षतत्राणाद्वैश्या वार्ताप्रवेशनात् ।
ये तु श्रुतेर्द्रुतिं प्राप्ताः शूद्रास्तेनेह कीर्तिताः।(1/44/10 भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व)
( शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-)

शोचन्तश्व द्रवन्तश्च परिचर्यासु ये नराः ।
निस्तेजसोऽल्पवीर्याश्च शूद्रांस्तानब्रवीत्तु सः।२३।
(1/44/23 भविष्यपुराण ब्रह्मपर्व ___________________
तथैव शूद्रैः शुचिभिस्त्रिवर्णपरिचारिभिः।
पृथुरेव नमस्कार्य्यः श्रेयः परमिहेप्सुभिः।४.१२१।
इति श्रीब्राह्मे महापुराणे पृथोर्जन्ममाहात्म्यकथनं नाम चतुर्थोऽध्यायः।४।
परन्तु शद्र शब्द यूरोपीय भाषाओं से आयात है।
शूद्र–" शुच--रक् पृषोदरात् चस्य दः दीर्घश्च । १ चतुर्थे वर्णे स्त्रियां टाप् । ______________ 
सेवक शब्द का मूल अर्थ भी देखें:--- सीव्यति सिव--ण्वुल् (अक) । १ सीवनकर्त्तरि (दरजी) सेव--ण्वुल् । २ भृत्ये ३ दासे ४ अनुचरे च त्रि० मेदिनी कोश ।

 यद्यपि शुच् धातु का एक अर्थ शूचिकर्मणि भी है 
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 *syu- syū-, also sū:-,(सू) Proto-Indo-European root meaning "to bind, sew." 
 It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit sivyati सीव्यति "sews," sutram "thread, string;" Greek hymen "thin skin, membrane," hymnos "song;" 
Latin suere स्वेयर-"to sew, sew together;" Old Church Slavonic šijo सीजो "to sew," šivu "seam;" Lettish siuviu, siuti "to sew," siuvikis "tailor;" Russian švec- "tailor;" Old English- siwian "to stitch, sew, mend, patch, knit together .. ___________________शुट्र लोग गॉल अथवा ड्रयूडों की ही एक शाखा थी जो परम्परागत से चर्म के द्वार वस्त्रों का निर्माण और व्यवसाय करती थी ।
 (.Shouter a race who had sewed Shoes and Vestriarium..for nordic Germen tribes is called Souter or shouter . souter souter "maker or mender of shoes, _______
 " O.E. sutere, from L. sutor "shoemaker," from suere "to sew, stitch" (see SEW (Cf. sew)). souteneursouth Look at other dictionaries: Souter — is a surname, and may refer to:* Alexander Souter, Scottish biblical scholar * Brian Souter, Scottish businessman * Camille Souter, Irish painter * David Souter, Associate Justice of the Supreme Court of the United States * David Henry Souter,… … Wikipedia souter — ● souter verbe transitif (de soute) Fournir ou recevoir à bord le combustible nécessaire aux chaudières ou aux moteurs d un navire. _______ 
⇒SOUTER, verbe trans. Souter — Sou ter, n. [AS. s?t?re, fr. It. sutor, fr. suere to sew.] A shoemaker; a cobbler. [Obs.] Chaucer. [1913 Webster] There is no work better than another to please God: .
  to wash dishes, to be a souter, or an apostle, all is one. Tyndale. [1913… 
… The Collaborative International Dictionary of English … English World dictionary Souter — This unusual and interesting name is of Anglo Saxon origin, and is an occupational surname for a shoemaker or a cobbler. The name derives from the Old English pre 7th Century word sutere , from the Latin sutor , shoemaker, a derivative of suere … Surnames reference souter — noun Etymology: Middle English, from Old English sūtere, from Latin sutor, from suere to sew more at sew Date: before 12th century chiefly Scottish shoemaker … New Collegiate Dictionary Souter — biographical name David 1939 American jurist … New Collegiate Dictionary souter — /sooh teuhrdd/, n. Scot. and North Eng. a person who makes or repairs shoes; cobbler; shoemaker. Also, soutter. [bef. 1000; ME sutor, OE sutere < L sutor, equiv. to su , var. s. of su(ere) to SEW1 tor TOR] * * * … Universalium Souter — /sooh teuhr/, , MODx. *eu-(vest) _________
 संस्कृत भाषा में वस्त्र शब्द का विकास - इयु (उ) व का सम्प्रसारण रूप है । Proto-Indo-European root meaning "to dress," with extended form *wes- (2) "to clothe." It forms all or part of: divest; exuviae; invest; revetment; transvestite; travesty; vest; vestry; wear. 
संस्कृत भाषा में भृ धारण करना । It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Hittite washshush "garments," washanzi "they dress;" Sanskrit vaste "he puts on," vasanam "garment;" Avestan vah-; 
वह (वस) Greek esthes "clothing," hennymi "to clothe," eima "garment;" Latin vestire "to clothe;" Welsh gwisgo, Breton gwiska; Old English werian "to clothe, put on, cover up," wæstling "sheet, blanket." ..... ... 
यूरोप की संस्कृति में वस्त्र बहुत बड़ी अवश्यकता और बहु- मूल्य सम्पत्ति थे .।़क्यों कि शीत का प्रभाव ही यहाँ अत्यधिक था।
 उधर उत्तरी-जर्मन के नार्वे आदि संस्कृतियों में इन्हें सुटारी (Sutari ) के रूप में सम्बोधित किया जाता था । यहाँ की संस्कृति में इनकी महानता सर्व विदित है यूरोप की प्राचीन सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह शब्द ...सुटॉर.(Sutor ) के रूप में है ।
 तथा पुरानी अंग्रेजी (एंग्लो-सेक्शन) में यही शब्द सुटेयर -Sutere -के रूप में है ।
 जर्मनों की प्राचीनत्तम शाखा गॉथिक भाषा में यही शब्द सूतर (Sooter )के रूप में है... विदित हो कि गॉथ जर्मन आर्यों का एक प्राचीन राष्ट्र है । जो विशेषतः बाल्टिक सागर के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है ।  
जब धर्म के व्याख्याताओं ने अपने स्वार्थ के अनुरूप धर्म शास्त्रों के विधान पारित किए तो धर्म में विकृति आयी दूसरी बात यह भी रही कि - इस समय यह वह दौर था ;जब धर्म के नाम पर देश में जुल्म घनघोर था । गिरने वाले उठ रहे थे; और उठने वाले गिर रहे थे । ऊँच-नीच और मानवीय भेद भाव अपनी पराकाष्ठाओं पर हर ओर व्याप्त हो गया था । और जो कालान्तरण में धर्मशास्त्रों स्मृति आदि ग्रन्थों में इतिहास की गाथाऐं सत्यरूप लिपिबद्ध की गयीं  थीं ; उन पर अपने स्वार्थ के अनुकूल कल्पनाओं की परतें भी पुरोहित वर्ग द्वार निरन्तर चढ़ाईं गयीं और सत्य  कल्पनाओं की इन परतों कि सघनता में विलुप्त ही हो गया। ____________________________________
भारतीय पौराणिक इतिहास ईसापूर्व-पञ्चम् सदी से ही स्पष्ट प्रकाशित होता है । जो विगत सहस्राब्दीयों के इतिहास को जन-श्रुतियों और किंवदन्तियों के रूप में संजोए हुए था।
यह महावीर और बुद्ध के जन्म का समय था । "बुद्ध" "महावीर" से प्रभावित हुए और यही 'बुद्ध भारतीय इतिहास के एक उत्स- बिन्दु के रूप में प्रतिष्ठित हुए। बुद्ध तथा बुद्ध के समकालीन राजाओं का वर्णन प्राय: पुराणों, महाभारत और रामायण आदि ग्रन्थों में भी भी  यत्र-तत्र मिलता है। चन्द्र गुप्त मौर्य के समय सिकन्दर ईसा पूर्व (323) के आस-पास भारत में सिन्धु क्षेत्र से प्रवेश करता हुआ पहुँचता है। परन्तु भारत को पूर्ण फ़तह नही कर पाता है। और अन्त में जख्मी होकर मिश्र के रास्ते निकल गया कुछ काल पश्चात् "शतधन्वन का पुत्र 'बृहद्रथ मौर्य साम्राज्य का अन्तिम शासक बनता है। जिसका शासन काल 187 ईसापूर्व से 180 ईसापूर्व तक स्थापित रहता है। बृहद्रथ बौद्ध धर्म का अनुयायी था। पुष्य मित्र द्वारा बृहद्रथ की मौत के बाद ! पुन: पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ही बौद्धों, जैनों और अन्य"भागवत" आदि धर्म संगठनों के विरोध स्वरूप फिर एक बार पुन: ब्राह्मणीय वर्चस्व के पुनरुत्थान के लिए  "पतञ्जलि आदि पुरोहितों के साथ वैदिक कर्म काण्डों की यथावत् प्रतिष्ठा हुई पाणिनि-व्याकरण  के भाष्यकार पतञ्जलि ही थे जिन्होंने योगशास्त्र पर सूत्र लिखे ये ही पुष्यमित्रसुँग के पुरोहित थे । महात्मा बुद्ध इतिहास में शाक्य मुनि नाम से प्रसिद्ध हुए ; और वे (563) ईसा पूर्व से (483) ईसा-पूर्व लगभग 80 वर्ष की अवस्था तक जीवित रहे। महावीर तथा बुद्ध ने उस समय हिंसापूर्ण यज्ञों का विरोध दृढ़ता से तर्ककी कषौटी पर  किया । अत: सभी पुराणों, महाभारत ,वाल्मीकि रामायण आदि में भी "तथागत बुद्ध" का वर्णन कहीं विष्णु अवतारों के रूप में है तो कहीं रामायण में वेद मार्ग के विध्वंसक के रूप में हुआ है । परन्तु 'वाल्मीकि रामायण और 'भविष्य पुराण में  तथा कुछ अन्य पुराणों में प्राय: बुद्ध की वेदमार्ग के विध्वन्सक के रूप में निन्दा ही की गयी है। यद्यपि पुरोहितों का एक धड़ा जो आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों का स्थापन अपने तप और साधना की परिणति के रूप में कर रहा था ; और जो आध्यात्मिक पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुए  उपनिषदों के रूप में ईश्वरीय सत्ताओं का सैद्धान्तिक विवेचन कर रहे था। जिनके लिए वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद तथा  'कर्म'काण्ड मूलक याज्ञिक -विधियों से कोई अधिक प्रयोजन नहीं था ! इनके लिए सदाचरण व तप ही और मन की शुद्धता के प्रतिमान के रूप में ही प्रतिष्ठित थे। और दूसरी ओर इसके विपरीत कुछ पुरोहित ऐसे भी थे जिन्हें धर्म में यह परिवर्तन और किसी अन्यवर्ण का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं था उन्होंने वर्णव्यवस्था को जातिमूलक बना दिया था। जिन्होंने  इस व्यवस्था के न मानने वाले  जैैैन , बौद्ध और भागवत आदि धर्म के अनुयायीयों से अपने -अपने स्तर से मुकाबला करने के लिए द्वेषवाद को आत्मसात् कर अनेेक धर्म- ग्रन्थों का लेखन पूूूूर्व्व -दुुराग्रह से युुुक्त होकर भी किया, और परिणाम स्वरूप सत्य में असत्य की मिलाबट पूर्वदुराग्रह युक्त होकर एक सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुई और इस प्रकार प्राय: ग्रन्थों की रचना की  गयी तथा कुछ धार्मिक ग्रन्थ उपन्यासात्मक रूप में भी लिखे गये।  जिनकी रचना-काव्यशैली में अलंकारों की सजावटों से समन्वित होकर सत्य का आभास मात्र ही रह गया और परिणाम स्वरूप अर्थ- दुर्बोध्य और भ्रान्तिमूलक हो गये और अन्य कारण ये भी थे कि जो तथ्य पूर्व कल में सत्य थे; "उनमें पूर्वाग्रह एक निष्कर्ष के तौर पर समाविष्ट होकर विपरीतार्थक हो गया जिन्हें शास्त्रों में सिद्धान्त की संज्ञा दे दी गयी   सत्य की धारा विपरीत गामी हुई वे तथ्य यथावत ही नहीं बने रहे अपितु उनमें कितनी जोड़-तोड़ हुई और कितनी आलंकारिता का प्राधान्य भी हुआ अब ये सब वक्त के खण्डरों में दफन हो गये है। जैसे कोई नवीन वस्त्र अपनी प्रारम्भिक क्रियाओं की अवस्थाओं में नवीन और अन्तिम क्रिया- अवस्था में जीर्ण और शीर्ण हो जाता ठीक इसी प्रकार का उपक्रम भारतीय पुराण ग्रन्थों में भी हुआ 'परन्तु मिलाबट के बावजूद भी बहुत सी बाते सत्य ही बनी रहीं ; जो केवल आध्यात्मिक मूल्यों पर प्रतिष्ठित थीं।  छल-कपट का समावेश उनमें नहीं हुआ। और हमने उनको ही स्वीकार किया है ! क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपनी कुत्सित निशानियाँ छोड़ने के उपरान्त भी कुछ सार-तथ्य तो छोड़ती ही है। "मधुमक्खीयाँ पुष्पों से सहजता से ही मधु (रस) निकाल कर पराग और मधु (रस)से उत्शिष्ट(उच्छिष्ट) मधूच्छिष्ट (मोम) को पृथक कर देती हैं ठीक उसी प्रवृत्ति का आश्रय लेकर हमने भी पुराणों, वेदों और अन्य स्मृति ग्रन्थों से सत्यानकूल तथ्य नि:सृत किए हैं
"जैसे किसी वस्तु की अच्छाइयों और बुराईयों को प्रस्तुत करना समीक्षात्मक शैली है। और केवल किसी की बुराई या माहिमा बखान करना क्रमश: खण्डन-मण्डन प्रवृत्ति हैं । हमने उसके मध्यम-मार्ग को ग्रहण करते हुए  समीक्षात्मक शैली को प्रस्तुत किया है। परन्तु  "हमने कभी भी कोई भी निर्णय या निष्कर्ष स्थापित नहीं किया क्योंकि निर्णय की मौलिकताओं मेंं केवल पूर्वाग्रह का समायोजन होता है । अधिकतर हमारे लेख इसी प्रकार विना-पूर्वाग्रह  के होते हैं क्योंकि पूर्वाग्रह ऐतिहासिक दृष्टि का मानक नहीं है।  कारण यह भी है कि हम निर्णय पाठकों से आमन्त्रित करते हैं। इसी लिए कुछ पाठक- वृन्द प्राय: हमसे शिकायत करते हैं कि आपकी पोष्टों के कोई निष्कर्ष नहीं होते हैं।
और वे पाठक हमारी पोष्ट( सन्देश) पढ़कर कन्फ्यूज होते हैं और कोई -कोई तो बैचारा फ्यूज ही हो जाता है क्योंकि पोष्ट दीर्घ-काय और पूर्णत्व से युक्त होती हैं। और इतना परिश्रम कोई करना नहीं चाहता , वास्तव में हमारी पोष्ट सब के लिए नहीं होती क्योंकि जिसका जैसा बौद्धिक स्तर है वह वहीं तक उसको ग्राह्य है और वह वहीं तक पहँच भी पाता है।                    
"जिसने बड़े सिद्दत से
       जज्वातों को संजोया है। 
            जो रातों में भी जागा है; 
हम भी इसी प्रकार के महानुभावों से अनुप्रेरित हैं 
क्योंकि ज्ञान एक "तपस्साधना" से प्रादुर्भूत अनुभवपुञ्ज है ! यादवों के इस ऐतिहासिक विवेचनात्मक सन्दर्भों के प्रस्तुतिकरण के शुभ अवसर  पर  आज के समय में यादवों के इतिहास के प्राचीन गूढ़ तथ्यों का अनावरण करने में हमारे सम्बल और अहीर जाति के स्वाभिमान के भविष्य का उज्ज्वल कल श्रीमान- माताप्रसाद जी  हमारे साथ वर्तमान हैं। इसके अतिरिक्त हमारे ऐतिहासिक अन्वेषण में सम्बल तो वे सभी लोग भी हैं जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से यादव इतिहास की ज्ञीप्सा और जिज्ञासाओं को समन्वित किए हुए समाज हित की गतिविधियों में सदैव संलग्न रहते हैं।आज हम पुन: यादव इतिहास के उन बिखरे हुए पन्नों को समेटने का और समाज में व्याप्त भ्रान्तियों को मेटने का यह उपक्रम एक अल्प प्रयास के रूप में ही क्रियान्वयन कर रहे हैं ; यद्यपि हमारी इस प्रारम्भिक श्रृंखला में तीन युगों के दीर्घ-काय यादव वंश के प्राचीनत्तम इतिहास को अथवा कहें तीन हजार वर्षों के अतीत वृत्त को  प्रदर्शित करने की योजना नहीं तो एक उद्यम अवश्य ही है परन्तु हमारा यह प्रयास जिज्ञासुओं के समक्ष भले ही "गागर में सागर" भरने के समान  सिद्ध न हो सके " फिर भी हम आशान्वित हैं। कि हम ऐसा कर एक दिन कर सकेंगे। परन्तु  फिर भी हम मान सकते हैं  कि यह उपक्रम यादवों के इतिहास की प्राचीन शास्त्रीय विवेचनाओं का सूत्रात्मक शैली में सम्पूर्ण सार गर्भित तथ्यों का अब तक का सबसे पृथक और  प्रथम प्रस्तुति करण है । यादव- इतिहास के पृष्ठ जो वर्तमान इतिहास कारों से भी छूट गये हैं। उन्हीं बिखरे हुए पृष्ठों को पुन: संकलित कर प्रस्तुत करने का एक उपक्रम है यह ग्रन्थ । और फिर आप किसी सागर को (लोटे) में तो भर नहीं सकते हो ? मैं "यादव योगेश कुमार "रोहि " अपनी इन भावनाओं से समन्वित होकर और यादव -स्वाभिमान से प्रेरित होकर जीने की दवा - जज्वा लेकर इस पथ पर  निरन्तर अग्रसर हूँ श्री"माताप्रसाद यादव" जी इस यात्रा में हमारे सहयात्री हैं। ।
____________________________________ "ज्ञात्याभीरम्महावीरम्"नामक शीर्षक से हम  आज इस अभियान का आगाज कर रहे हैं । इस अभियान को हमने लगभग (पच्चीस अध्यायों ) चरणों में पूर्ण किया है; जो एक अपवाद ही है "भारतीय समाज की यह सदीयों पुरानी विडम्बना ही रही कि धर्म और संस्कृति के कुछ तथाकथित   के 'ठेकेदार , कुछ रूढ़िवादी पुरोहितों ने धर्म के नाम भारतीय समाज पर कुछ प्रवञ्चनाऐं  कालान्तरण में आरोपित कीं "जिसके दुष्परिणाम स्वरूप भारतीयसमाज टूटा और परिणामत: विभाजित मानवता परस्पर विरोधी संस्कृतियों और मानवीय द्वेषों के रूप में दृष्टि-गोचर हुई !यदुवंश के इतिहास के सन्दर्भ में हम इन्हीं तथ्यों का व्याख्यान कर रहे हैं; जिसकी समाज के बहुसंख्यक लोगों को जानकारी नहीं है । और पिष्टपेषण करना हम्हें अपेक्षित नहीं है।
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-(प्राचीन -काल में विश्व सभ्यताओं में राजतन्त्र की लोक-परम्परा के अनुसार किसी राजा का बड़ा पुत्र ही उसके राज्य अथवा रियासत की-विरासत का वैध उत्तराधिकारी होता था।
परन्तु ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र "यदु" को इस विरासत का उत्तराधिकारी न बनाकर इस परम्परा को खण्डित कर किया भले ही  जिसके कुछ कारण रहे होंगे ! एक बार जब  शुक्राचार्य के शाप से ययाति पर युवा अवस्था में ही वृद्धावस्था आयी तो  उसके निवारण के लिए जब ययाति ने  अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से उसका यौवन माँगा तो "यदु ने पिता ययाति का यह प्रस्ताव को पापपूर्ण और अनैतिक मानकर अस्वीकार कर दिया था।             "क्योंकि यदु का का मानना था कि मेरे द्वारा प्रदत्त यौवन से पिता जी आप मेरी माताओं से ही साहचर्य-सम्बन्ध स्थापित करोगे और यह मेरे यौवन का कारण स्वरूप होने से मेरे लिए पाप ही है अत: मैं स्वयं यह पाप-कृत्य कदापि नहीं कर सकता परन्तु ययाति को वासनाओं के आवेग में 
पुत्र का यह धर्ममूलक प्रस्ताव रास नहीं आया;
"सर्वं तत्किल मत्परायणमहो कामी स्वतां पश्यति॥(अभिज्ञान शाकुन्तलम् २/२)
अर्थात् कामी स्वय को ही दृष्टिगत करता है अथवा कहें कामी स्व-केन्द्रित ही होता है।      
वासनाओं के वशीभूत होने के कारण कामान्ध होकर कुपित ययाति ने यदु को राज-पद के उत्तराधिकार से वञ्चित कर दिया और ययाति
 अपने जिस-जिस पुत्र पर यौवन न देने के कारण क्रुद्ध हुए उसी-उसी पुत्र के ये विरुद्ध भी हुए।
परन्तु पत्नी देवयानी के साथ दासी रूप में आयी शर्मिष्ठा के कनिष्ठ (सबसे छोटे ) पुत्र 'पुरु' द्वारा ययाति को यौवन देने के कारण ही उसे ही राजपद का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया।
यद्यपि महाभारत के आदिपर्व के अन्तर्गत एक आख्यान का वर्णन है जिसमें उपरिचर के पुत्र एक यदु का वर्णन है जो ययाति पुत्र न होने से वर्तमान यादवों के पूर्वज नहीं हैं। यह घटना तो बहुत बाद की है।
आगे हम महाभारत के उस उपाख्यान को भी मूल संस्कृत-पाठ सहित उद्धृत करते हैं ।
महाभारत के आदिपर्व के "अंशावतरण नामक उपपर्व में उपरिचर वसु जो चेदि-देश के राजा थे उनके एक पुत्र का नाम यदु है। 

उपरिचर कुरुवंश के एक प्रतापी राजा थे। इनका वास्तविक नाम 'वसु' था और 'उपरिचर' इनकी उपाधि थी। ये चंद्रवंशी सुधन्वा की शाखा में उत्पन्न कृती (मतांतर से कृतयज्ञ, कृतक) के ये पुत्र थे। इन्हें मृगया का व्यसन था, लेकिन बाद में यह व्यसन छूट गया और ये तपश्चर्या के प्रति विशेष अनुरक्त हो गए। इंद्र की आज्ञा से इन्होंने चेदि देश पर विजय प्राप्त की_

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"प्रसंग★ मृगयार्थं गतेनोपरिचरेण स्वपत्नीस्मरणात्स्कन्नस्य श्येनद्वरा प्रेषितस्य रेतसो यमुनाजले पतनम्। ब्रह्मशापान्मत्स्यभावं प्राप्तयाऽद्रिकया तद्रेतःपानम्तदुदरे मिथुनोत्पत्तिः तत्र पुत्रस्य उपरिचरवसुना ग्रहणम् कन्याया दाशगृहे स्थितिः नावं वाहयमानायां सत्यवतीनाम्न्यां दाशकन्यायां पराशराद्द्वैपायनस्योत्पत्तिः तस्य व्यासनामप्राप्तिश्च पाठान्तरे पराशरसत्यवतीविवाहादि
भीष्मादीनां संक्षेपतो जन्मवृत्तान्तकथनम्।।
               "वैशम्पायन उवाच। 
राजोपरिचरो नाम धर्मनित्यो महीपतिः।
बभूव मृगयाशीलःशश्वत्स्वाध्यायवाञ्छुचिः।1।
स चेदिविषयं रम्यं वसुः पौरवनन्दनः।
इन्द्रोपदेशाज्जग्राह रमणीयं महीपतिः।2।
तमाश्रमे न्यस्तशस्त्रं निवसन्तं तपोनिधिम्।
देवाः शक्रपुरोगा वै राजानमुपतस्थिरे।3।
इन्द्रत्वमर्हो राजायं तपसेत्यनुचिन्त्य वै।
तं सान्त्वेन नृपं साक्षात्तपसः संन्यवर्तयन्।4।
                  "देवा ऊचुः।
न संकीर्येत धर्मोऽयं पृथिव्यां पृथिवीपते।
त्वया हि धर्मो विधृतः कृत्स्नं धारयते जगत्।5।
                  "इन्द्र उवाच।
देवानहं पालयिता पालय त्वं हि मानुषान्।'
लोके धर्मं पालय त्वं नित्ययुक्तःसमाहितः।
धर्मयुक्तस्ततोलोकान्पुण्यान्प्राप्स्यसिशाश्वतान्।6।
दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं सखाभूतो मम प्रियः।
ऊधः पृथिव्या यो देशस्तमावस नराधिप।7।
पशव्यश्चैव पुण्यश्च प्रभूतधनधान्यवान्।
स्वारक्ष्यश्चैव सौम्यश्च भोग्यैर्भूमिगुणैर्युतः।8।
अर्थवानेष देशो हि धनरत्नादिभिर्युतः।
वसुपूर्णा च वसुधा वस चेदिषु चेदिप।9।
धर्मशीला जनपदाः सुसंतोषाश्च साधवः।
न च मिथ्याप्रलापोऽत्र स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा।10।
न च पित्रा विभज्यन्ते पुत्रा गुरुहिते रताः।
युञ्जते धुरि नो गाश्चकृशान्संधुक्षयन्ति च।11।
सर्वे वर्णाः स्वधर्मस्थाः सदा चेदिषु मानद।
न तेऽस्त्यविदितं किंचित्त्रिषु लोकेषु यद्भवेत्।12।
दैवोपभोग्यं दिव्यं त्वामाकाशे स्फाटिकं महत्।
आकाशगं त्वां मद्दत्तं विमानमुपपत्स्यते।13।
त्वमेकः सर्वमर्त्येषु विमानवरमास्थितः।
चरिष्यस्युपरिस्थो हि देवो विग्रहवानिव।14।
ददामि ते वैजयन्तीं मालामम्लानपङ्कजाम्।
धारयिष्यतिसङ्ग्रामे या त्वांशस्त्रैरविक्षतम्।15।
लक्षणं चैतदेवेह भविता ते नराधिप।
इन्द्रमालेति विख्यातं धन्यमप्रतिमं महत्।16।
यष्टिं च वैणवीं तस्मै ददौ वृत्रनिषूदनः।
इष्टप्रदानमुद्दिश्य शिष्टानां प्रतिपालिनीम्।17।
एवं संसान्त्व्य नृपतिं तपसःसन्यवर्तयत्।
प्रययौ दैवतैःसार्धंकृत्वा कार्यंदिवौकसाम्।18।
ततस्तु राजा चेदीनामिन्द्राभरणभूषितः।
इन्द्रदत्तं विमानं तदास्थाय प्रययौ पुरीम्।19।
तस्याःशक्रस्य पूजार्थं भूमौ भूमिपतिस्तदा।
प्रवेशं कारयामास सर्वोत्सववरं तदा।20।
मार्गशीर्षे महाराज पूर्वपक्षे महामखम्।
ततःप्रभृति चाद्यापि यष्टेः क्षितिपसत्तमैः।21।
प्रवेशःक्रियते राजन्यथा तेन प्रवर्तितः।
अपरेद्युस्ततस्तस्याःक्रियतेऽत्युच्छ्रयोनृपैः।22।
अलङ्कृताया पिटकैर्गन्धमाल्यैश्च भूषणैः।
माल्यदामपरिक्षिप्तां द्वात्रिंशत्किष्कुसंमिताम्।23।
उद्धृत्य पिटके चापि द्वादशारत्निकोच्छ्रये।
महारजनवासांसि परिक्षिप्य ध्वजोत्तमम्।24।
वासोभिरन्नपानैश्च पूजितैर्ब्राह्मणर्षभैः।
पुण्याहं वाचयित्वाथ ध्वज उच्छ्रियते तदा।25।
शङ्खभेरीमृदङ्गैश्च सन्नादः क्रियते तदा'।
भगवान्पूज्यते चात्र यष्टिरूपेण वासवः।26।
स्वयमेव गृहीतेन वसोः प्रीत्या महात्मनः।
माणिभद्रादयो यक्षाः पूज्यन्ते दैवतैःसह।27
नानाविधानि दानानि दत्त्वार्थिभ्यःसुहृज्जनैः।
अलङ्कृत्वा माल्यदामैर्वस्त्रैर्नानाविधैस्तथा।28।
दृतिभिः सजलैः सर्वैः क्रीडित्वा नृपशासनात्।
सभाजयित्वा राजानं कृत्वा नर्माश्रयाःकथाः।29।
रमन्ते नागराः सर्वे तथा जानपदैः सह।
सूताश्च मागधाश्चैव रमन्ते नटनर्तकाः।30।
प्रीत्या तु नृपशार्दूल सर्वे चक्रुर्महोत्सवम्।
सान्तःपुरःसहामात्यः सर्वाभरणभूषित:।31।
महारजनवासांसि वसित्वा चेदिराट् तदा।
जातिहिङ्गुलकेनाक्तः सदारो मुमुदे तदा।32।
एवं जानपदाः सर्वे चक्रुरिन्द्रमहं वसुः।
यथा चेदिपतिः प्रीतश्चकारेन्द्रमहं वसुः।33।
एतां पूजां महेन्द्रस्तु दृष्ट्वा वसुकृतां शुभाम्।
हरिभिर्वाजिभिर्युक्तमन्तरिक्षगतं रथम्।34।
आस्थाय सह शच्या च वृतो ह्यप्सरसां गणैः।
वसुना राजमुख्येन समागम्याब्रवीद्वचः।35।
_________ 
ये पूजयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृप:।
कारयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृपः।36।
तेषां श्रीर्विजयश्चैव सराष्ट्राणां भविष्यति।
तथा स्फीतो जनपदो मुदितश्च भविष्यति।37।
निरीतिकानि सस्यानि भवन्ति बहुधा नृप।
राक्षसाश्च पिशाचा श्च न लुम्पन्ते कथंचन।38।
              वैशम्पायन उवाच   
 एवं महात्मना तेन महेन्द्रेण नराधिप ।
वसुः प्रीत्या मघवता महाराजोऽभिसत्कृतः॥39 ।    
वसुः प्रीत्या मघवता महाराजोऽभिसत्कृतः।
एवं कृत्वा महेन्द्रस्तु जगाम स्वं निवेशनम्।39।
उत्सवं कारयिष्यन्ति सदा शक्रस्य ये नराः।
भूमिरत्नादिभिर्दानैस्तथा पूज्या भवन्ति ते।
वरदानमहायज्ञैस्तथा शक्रोत्सवेन च।40।
संपूजितो मघवता वसुश्चेदीश्वरो नृपः।
पालयामास धर्मेण चेदिस्थःपृथिवीमिमाम्।41।
इन्द्रपीत्या चेदिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः।
पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौजसः।42।
नानाराज्येषु च सुतान्स सम्राडभ्यषेचयत्।
महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथः।43।
प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम्।
मत्सिल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः।44।
एते तस्य सुता राजन्राजर्षेर्भूरितेजसः।
न्यवेशयन्नामभिः स्वैस्ते देशांश्च पुराणि च।45।
वासवाः पञ्च राजानः पृथग्वंशाश्च शास्वताः।
वसन्तमिन्द्रप्रासादे आकाशे स्फाटिके च तम्।46।
उपतस्थुर्महात्मानं गन्धर्वाप्सरसो नृपम्।
राजोपरिचरेत्येवं नाम तस्याथ विश्रुतम्।47।
पुरोपवाहिनीं तस्य नदीं शुक्तमतीं गिरिः।
अरौत्सीच्चेतनायुक्तः कामात्कोलाहलः किल।48।
गिरिं कोलाहलं तं तु पदा वसुरताडयत्।
निश्चक्राम ततस्तेन प्रहारविवरेण सा।49।
तस्यां नद्यां स जनयन्मिथुनं पर्वतः स्वयम्।
तस्माद्विमोक्षणात्प्रीता नदी राज्ञे न्यवेदयत्।50।
महिषी भविता कन्या पुमान्सेनापतिर्भवेत्।
शुक्तिमत्या वचःश्रुत्वा दृष्ट्वा तौ राजसत्तमः।51
यः पुमानभवत्तत्र तं स राजर्षिसत्तमः।
वसुर्वसुप्रदश्चक्रे सेनापतिमरिन्दमः।52।
चकार पत्नीं कन्यां तु तथा तां गिरिकां नृपः।
वसोः पत्नी तु गिरिका कामकालं न्यवेदयत्।53।
ऋतुकालमनुप्राप्ता स्नाता पुंसवने शुचिः।
तदहः पितरश्चैनपूचुर्जहि मृगानिति।54।
तं राजसत्तमं प्रीतास्तदा मतिमतां वरः।
स पितॄणां नियोगेन तामतिक्रम्य पार्थिवः।55।
चकार मृगयां कामी गिरिकामेव संस्मरन्।
अतीव रूपसंपन्नां साक्षाच्छ्रियमिवापराम्।56।
अशोकैश्चम्पकैश्चूतैरनेकैरतिमुक्तकैः।
पुन्नागैः कर्णिकारैश्च बकुलैर्दिव्यपाटलैः।57।
पनसैर्नारिकेलैश्च चन्दनैश्चार्जुनैस्तथा।
एतै रम्यैर्महावृक्षैःपुण्यैःस्वादुफलैर्युतम्।58।
कोकिलाकुलसन्नादं मत्तभ्रमरनादितम्।
वसन्तकाले तत्पश्यन्वनं चैत्ररथोपमम्।59।
मन्मथाभिपरीतात्मा नापश्यद्गिरिकां तदा।
अपश्यन्कामसंतप्तश्चरमाणो यदृच्छया।60।
पुष्पसंछन्नशाखाग्रं पल्लवैरुपशोभितम्।
अशोकस्तबकैश्छन्नं रमणीयमपश्यत।61।
अधस्यात्तस्य छायायां सुखासीनो नराधिपः।
मधुगन्धैश्च संयुक्तं पुष्पगन्धमनोहरम्।62।
वायुना प्रेर्यमाणस्तु धूम्राय मुदमन्वगात्।
भार्यां चिन्तयमानस्य मन्मथाग्निरवर्धत।
तस्य रेतःप्रचस्कन्द चरतो गहने वने।63।
स्कन्नमात्रं च तद्रेतो वृक्षपत्रेण भूमिपः।
प्रतिजग्राह मिथ्या मे न पतेद्रेत इत्युत।64।
अङ्गुलीयेन शुक्लस्य रक्षां च विदधे नृपः।
अशोकस्तबकै रक्तैःपल्लवैश्चाप्यबन्धयत्।65।
इदं मिथ्या परिस्कन्नं रेतो मे न भवेदिति।
ऋतुश्च तस्याःपत्न्या मे न मोघःस्यादिति प्रभुः।66।
संचिन्त्यैवं तदा राजा विचार्य च पुनःपुनः।
अमोघत्वं च विज्ञाय रेतसो राजसत्तमः।67।
शुक्रप्रस्थापने कालं महिष्या प्रसमीक्ष्य वै।
अभिमन्त्र्याथ तच्छुक्रमारात्तिष्ठन्तमाशुगम्।68।
सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्वज्ञो गत्वा श्येनं ततोऽब्रवीत्।
मत्प्रियार्थमिदं सौम्य शुक्रं मम गृहं नय।69।
गिरिकायाः प्रयच्छाशु तस्या ह्यार्तवमद्य वै।
              "वैशंपायन उवाच।
गृहीत्वा तत्तदा श्येनस्तूर्णमुत्पत्य वेगवान्।70।
जवं परममास्थाय प्रदुद्राव विहंगमः।
तमपश्यदथायान्तं श्येनं श्येनस्तथाऽपरः।71।
अभ्यद्रवच्च तं सद्यो दृष्ट्वैवामिषशङ्कया।
तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ संप्रचक्रतुः।72।
युद्ध्यतोरपतद्रेतस्तच्चापि यमुनाम्भसि।
तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सरा।73।
मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी।
श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वीर्यमथ वासवम्।74।
जग्राह तरसोपेत्य साऽद्रिका मत्स्यरूपिणी।
कदाचिदपि मत्सीं तां बबन्धुर्मत्स्यजीविनः।75।
मासे च दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम।
उज्जह्रुरुदरात्तस्याः स्त्रीं पुमांसं च मानुषौ।76।
आश्चर्यभूतं तद्गत्वा राज्ञेऽथ प्रत्यवेदयन्।
काये मत्स्या इमौ राजन्संभूतौ मानुषाविति।77।
तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा।
स मत्स्यो नाम राजासीद्धार्मिकःसत्यसङ्गरः।78।
साऽप्सरा मुक्तशापा च क्षणेन समपद्यत।
या पुरोक्ता भगवता तिर्यग्योनिगता शुभा।79।
मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि।
ततः साजनयित्वा तौ विशस्तामत्स्यघातिभि:।80।
संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च।
सिद्धर्षिचारणपथं जगामाथ वराप्सराः।81।
सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यसगन्धिनी।
राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति।82।
रूपसत्वसमायुक्ता सर्वैःसमुदिता गुणैः।
सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात्।83।
आसीत्सा मत्स्यगन्धैव कंचित्कालं शुचिस्मिता।
शुश्रूषार्थं पितुर्नावं वाहयन्तीं जले च ताम्।84।
तीर्थयात्रां परिक्रामन्नपश्यद्वै पराशरः।
अतीव रूपसंपन्नां सिद्धानामपि काङ्क्षिताम्।85।
दृष्ट्वैव स च तां धीमांश्चकमे चारुहासिनीम्।
दिव्यां तां वासवीं कन्यां रम्भोरूं मुनिपुङ्गवः।86।
संभवं चिन्तयित्वा तां ज्ञात्वा प्रोवाच शक्तिजः।
क्व कर्णधारो नौर्येन नीयते ब्रूहि भामिनि।87।
              "मत्स्यगन्धोवाच।
अनपत्यस्य दाशस्य सुता तत्प्रियकाम्यया।
सहस्रजनसंपन्ना नौर्मया वाह्यते द्विज।88।
              "पराशर उवाच।
शोभनं वासवि शुभे किं चिरायसि वाह्यताम्।
कलशं भविता भद्रे सहस्रार्धेन संमितम्।89।
अहं शेषो भिविष्यामि नीयतामचिरेण वै।
              "वैशम्पायन उवाच।
मत्स्यगन्धा तथेत्युक्त्वा नावं वाहयतां जले।90।
वीक्षमाणं मुनिं दृष्ट्वा प्रोवाचेदं वचस्तदा।
मत्स्यगन्धेति मामाहुर्दाशराजसुतां जनाः।91।
जन्मशोकाभितप्तायाःकथंज्ञास्यसिकथ्यताम्।92।
               "पराशर उवाच।
दिव्यज्ञानेन दृष्टं हि दृष्टमात्रेण ते वपुः।92।
प्रणयग्रहणार्थाय वक्ष्येव वासवि तच्छृणु।
बर्हिषद इति ख्याताः पितरः सोमपास्तुते।93।
तेषां त्वं मानसी कन्या अच्छोदा नाम विश्रुता।
अच्छोदं नाम तद्दिव्यं सरो यस्मात्समुत्थितम्।94।
त्वया न दृष्टपूर्वास्तु पितरस्ते कदाचन।
संभूता मनसा तेषां पितॄन्स्वान्नाभिजानती।95।
सा त्वन्यं पितरं वव्रे स्वानतिक्रम्य तान्पितॄन्।
नाम्ना वसुरिति ख्यातं मनुपुत्रं दिवि स्थितम्।96।
अद्रिकाऽप्सरसा युक्तं विमाने दिवि विष्ठितम्।
सा तेन व्यभिचारेण मनसा कामचारिणी।97।
पितरं प्रार्थयित्वाऽन्यं योगाद्भष्टा पपात सा।
अपश्यत्पतमाना सा विमानत्रयमन्तिकात्।98।
त्रसरेणुप्रमाणांस्तांस्तत्रापश्यत्स्वकान्पितॄन्।
सुसूक्ष्मानपरिव्यक्तानङ्गैरङ्गेष्विवाहितान्।99।
तातेति तानुवाचार्ता पतन्तीसा ह्यधोमुखी।
तैरुक्तासा तुमाभैषीस्तेन सा संस्थिता दिवि।100।
ततः प्रसादयामास स्वान्पितॄन्दीनया गिरा।
तामूचुःपितरःकन्यांभ्रैष्टश्वर्यां व्यतिक्रमात्।101।
भ्रष्टैश्वर्या स्वदोषेण पतसि त्वं शुचिस्मिते।
यैरारभन्ते कर्माणि शरीरैरिह देवताः।102
तैरेव तत्कर्मफलं प्राप्नुवन्ति स्म देवताः।
मनुष्यास्त्वन्यदेहेन शुभाशुभमिति स्थितिः।103।
सद्यःफलन्ति कर्माणि देवत्वे प्रेत्य मानुषे।
तस्मात्त्वं पतसेपुत्रि प्रेत्यत्वं प्राप्स्यसे फलम्।104।
पितृहीना तु कन्या त्वं वसोर्हि त्वं सुता मता।
मत्स्ययोनौ समुत्पन्ना सुताराज्ञो भविष्यसि।105।
अद्रिका मत्स्यरूपाऽभूद्गङ्गायमनुसङ्गमे।
पराशरस्य दायादं त्वं पुत्रं जनयिष्यसि।106।
यो वेदमेकं ब्रह्मर्षिश्चतुर्धा विबजिष्यति।
महाभिषक्सुतस्यैव शन्तनोः कीर्तिवर्धनम्।107।
ज्येष्ठं चित्राङ्गदं वीरं चित्रवीरं च विश्रुतम्।
एतान्सूत्वा सुपुत्रांस्त्वं पुनरेव गमिष्यसि।108।
व्यतिक्रमात्पितॄणां च प्राप्स्यसे जन्म कुत्सितम्।
अस्यैवराज्ञस्त्वं कन्या ह्यद्रिकायांभविष्यसि।109।
अष्टाविंशेभवित्री त्वं द्वापरे मत्स्ययोनिजा।
एवमुक्तापुरातैस्त्वं जातासत्यवती शुभा।110।
अद्रिकेत्यभिविख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सरा।
मीनभावमनुप्राप्ता त्वं जनित्वा गता दिवम्।111।
तस्यां जातासि सा कन्या राज्ञो वीर्येण चैवहि।
तस्माद्वासवि भद्रं ते याचे वंशकरं सुतम्।112।
संगमं मम कल्याणि कुरुष्वेत्यभ्यभाषत।113।
                "वैशंपायन उवाच।
विस्मयाविष्टसर्वाङ्गी जातिस्मरणतां गता।
साब्रवीत्पश्य भगवन्परपारे स्थितानृषीन्।114।
आवयोर्दृष्टयोरेभिः कथं नु स्यात्समागमः।
एवं तयोक्तो भगवान्नीहारमसृजत्प्रभुः।115।
येन देशः स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत्।
दृष्ट्वा सृष्टं तु नीहारं ततस्तं परमर्षिणा।116।
विस्मिता साभवत्कन्या व्रीडिता च तपस्विनी।
                "सत्यवत्युवाच।
विद्धि मां भगवन्कन्यां सदा पितृवशानुगाम्।117।
त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्याभावो ममाऽनघ।
कन्यात्वे दूषिते वापि कथं शक्ष्ये द्विजोत्तम।118।
गृह गन्तुमुषे चाहं धीमन्न स्थातुमुत्सहे।
एतत्संचिन्त्य भगवन्विधत्स्व यदनन्तरम्।119।
               "वैशंपायन उवाच।
एवमुक्तवतीं तीं तु प्रीतिमानुषिसत्तमः।
उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यति।120।
वृणीष्व च वरं भीरुं यं त्वमिच्छसि भामिनि।
वृथा हि न प्रसादो मे भूतपूर्वः शुचिस्मिते।121।
एवमुक्ता वरं वव्रे गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम्।
सचास्यै भगवान्प्रादान्मनः काङ्क्षितं प्रभुः।122।
ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुणभूषिता।
जगाम सह संसर्गमृषिणाऽद्भुतकर्मणा।123।
तस्यास्तु योजनाद्गन्धमाजिघ्रन्त नरा भुवि।124।
तस्या योजनगन्धेति ततो नामापरं स्मृतम्।
इति सत्यवती हृष्टा लब्ध्वा वरमनुत्तमम्।125।
पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भं सुषाव सा।
जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान्।126।
स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे।
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत्।127।
________________________    
(निर्णय सागर प्रेस संस्करण में आदिपर्व चतुष्षष्टितमोऽध्याय: 64)परन्तु
(गीताप्रेस संस्करण में आदिपर्व त्रिषष्टितमोऽध्याय: ।63।)
एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।
न्यस्तोद्वीपेयद्बालस्तस्माद्द्वैपायनःस्मृतः।128।
पादापसारिणं धर्मं स तु विद्वान्युगे युगे।
आयुः शक्तिं च मर्त्यानां युगावस्थामवेक्ष्यच।129।
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाङ्क्षया।
विव्यासवेदान्यस्मत्सतस्माद्व्यासइति स्मृतः।130।
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान्।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम्।131।
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिताः।132।
    "इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि"
अंशावतरणपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः।64। 
                "उपरिचर का चरित्र"
महाभारत आदि पर्व के ‘अंशावतरण पर्व’ के अन्तर्गत अध्याय 64 के अनुसार उपरिचर का चरित्र का वर्णन इस प्रकार है।
_________हिन्दी अनुवाद-★
वैशम्‍पायन जी कहते हैं - जनमेजय पहले उपरिचर नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं, जो नित्‍य-निरन्‍तर धर्म में ही लगे रहते थे।
साथ ही सदा हिंसक पशुओं के शिकार के लिये वन में जाने का उनका नियम था।
पौरवनन्‍दन! राजा उपरिचर वसु ने इन्‍द्र के कहने से अत्‍यन्‍त रमणीय चेदिदेश का राज्‍य स्‍वीकार किया था। एक समय की बात है, राजा वसु अस्त्र-शस्त्रों का त्‍याग करके आश्रम में निवास करने लगे। उन्‍होंने बड़ा भारी तप किया जिससे वे तपोनिधि माने जाने लगे। उस समय इन्‍द्र आदि देवता यह सोचकर कि यह राजा तपस्‍या के द्वारा इन्‍द्र पद प्राप्त करना चाहता है, उनके समीप गये। देवताओं ने राजा को प्रत्‍यक्ष दर्शन देकर उन्‍हें शांतिपूर्वक समझाया और तपस्‍या से निवृत्त कर दिया। देवता बोले- पृथ्‍वीपते ! तुम्‍हें ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये जिससे इस भूमि पर वर्ण-संकरता न फैलने पावे (तुम्‍हारे न रहने से अराजकता फैलने का भय है जिससे प्रजा स्‍वधर्म में स्थिर नहीं रह सकेगी। 
अत: तुम्‍हें तपस्‍या न करके इस वसुधा का संरक्षण करना चाहिये । राजन् ! तुम्‍हारे द्वारा सुरक्षित धर्म ही सम्‍पूर्ण जगत को धारण कर रहा है।इन्‍द्र ने कहा - राजन तुम इस लोक में सदा सावधान और प्रयत्‍नशील रहकर धर्म का पालन करो। धर्मयुक्त रहने पर तुम सनातन पुण्‍य लोकों को प्राप्त कर सकोगे। यद्यपि मैं स्‍वर्ग में रहता हूँ और तुम भूमिपर; तथापि आज से तुम मेरे प्रिय सखा हो गये। नरेश्वर इस पृथ्‍वी पर जो सबसे सुन्‍दर एवं रमणीय देश हो, उसी में तुम निवास करो। इस समय चेदिदेश पशुओं के लिये हितकर, पुण्‍यजनक, पुण्य धन-धान्‍य से सम्‍पन्न, स्‍वर्ग के समान सुखद होने के कारण रक्षणीय, सौम्‍य तथा भोग्‍य पदार्थों और भूमि सम्‍बन्‍धी उत्तम गुणों से युक्‍त हैं। यह देश अनेक पदार्थों से युक्‍त और धन रत्‍न आदि सम्‍पन्‍न है। यहाँ की वसुधा वास्‍तव में वसु (धन-संपत्ति) से भूरी-पूरी है। अत: तुम चेदि देश के पालक होकर उसी में निवास करो। यहाँ के जनपद धर्मशील, संतोषी और साधु हैं।
 यहाँ हास-परिहास में भी कोई झूठ नहीं बोलता, फि‍र अन्‍य अवसरों पर तो बोल ही कैसे सकता है ? पुत्र सदा गुरुजनों के हित में लगे रहते हैं, पिता अपने जीते-जी उनका बंटवारा नहीं करते।     
यहाँ के लोग बैलों को भार ढ़ोने में नहीं लगाते और दीनों एवं अनाथों का पोषण करते हैं। 
मानद ! चेदिदेश में सब वर्णों के लोग सदा अपने-अपने धर्म में स्थित रहते हैं। तीनों लोकों में जो कोई घटना होगी, वह सब यहाँ रहते हुए भी तुमसे छिपी न रहेगी- तुम सर्वज्ञ बने रहोगे। जो देवताओं के उपभोग में आने योग्‍य हैं, ऐसा स्फटिक मणि का बना हुआ एक दिव्‍य, आकाशचारी एवं विशाल विमान मैंने तुम्‍हें भेंट किया है।
वह आकाश में तुम्‍हारी सेवा के लिये सदा उपस्थित रहेगा। सम्‍पूर्ण मनुष्‍यों में एक तुम्‍हीं इस श्रेष्ट विमान पर बैठकर मूर्तिमान देवता की भाँति सबके ऊपर-ऊपर बिचरोगे।  मैं तुम्‍हें यह वैजयन्‍ती माला देता हूं, जिसमें पिरोये हुए कमल कभी कुम्‍हलाते नहीं हैं। इसे धारण कर लेने पर यह माला संग्राम में तुम्‍हें अस्त्र-शस्त्रों के आघात से बचायेगी। नरेश्वर यह माला ही इन्‍द्रमाला के नाम से विख्‍यात होकर इस जगत् में तुम्‍हारी पहचान कराने के लिए परम-धन्‍य एवं अनुपम चिह्न होगी। ऐसा कहकर वृत्रासुर का नाश करने वाले इन्‍द्र ने राजा को प्रमोपहार स्‍वरुप बांस की एक छड़ी दी, जो शिष्ट पुरुषों की रक्षा करने वाली थी। तदनन्‍तर एक वर्ष बीतने पर भूपाल उपरिचरवसु ने इन्‍द्र की पूजा के लिये उस छड़ी को भूमि में गाड़ दिया। राजन् ! तब से लेकर आज तक श्रेष्ठ राजाओं द्वारा छड़ी धरती में गाड़ी जाती है। वसु ने जो प्रथा चलयी थी, वह अब तक चली आती है। दूसरे दिन अर्थात नवीन संवत्‍सर के प्रथम दिन प्रतिपदा को वह छड़ी निकालकर बहुत ऊंचे स्‍थान में रखी जाती है; फि‍र कपड़े की पेटी, चन्‍दन, माला और आभूषणों से उसको सजाया जाता है। उसमें विधि पूर्वक फूलों के हार और सूत लपेटे जाते हैं। 
तत्‍पश्चात् उसी छड़ी पर देवेश्वर भगवान इन्‍द्र का हंस रुप से पूजन किया जाता है। 
इन्‍द्र ने महात्‍मा वसु के प्रेम वश स्‍वंय हंस का रुप धारण करके वह पूजा ग्रहण की। नृपश्रेष्ठ ! वसु के द्वारा की हुइ उस शुभ पूजा को देखकर प्रभावशाली भगवान महेन्‍द्र प्रसन्न हो गये और इस प्रकार बोले-‘चेदिदेश के अधिपति उपरिचर वसु जिस प्रकार मेरी पूजा करेंगे और मेरे इस उत्‍सव को रचायेंगे, उनको और उनके समूचे राष्ट्र को लक्ष्‍मी एवं विजय की प्राप्ति होगी। 
इतना ही नहीं, उनका सारा जनपद ही उत्तरोत्तर उन्नति शील और प्रसन्न होगा’ राजन ! इस प्रकार महात्मा महेन्‍द्र ने, जिन्‍हें मघवा भी कहते हैं, प्रेम पूर्वक महाराज वसु का भली- भाँति सत्‍कार किया।जो मनुष्‍य भूमि तथा रत्न आदि का दान करते हुए सदा देवराज इन्‍द्र का उत्‍सव रचायेंगे, वे इन्‍द्रोत्‍सव द्वारा इन्‍द्र का वरदान पाकर उसी उत्तम गति को प्राप्त करेंगे, जिसे भूमिदान आदि के पुण्‍यों से युक्त मानव प्राप्‍त करते हैं। इन्‍द्र के द्वारा उपर्युक्‍त रुप से सम्‍मानित चेदिराज वसु ने चेदि देश में ही रहकर इस पृथ्‍वी का धर्मपूर्वक पालन किया किया। इन्‍द्र की प्रसन्नता के लिये चेदिराज वसु प्रति वर्ष इन्‍द्रोत्‍सव मनाया करते थे। उनके अनन्‍त बलशाली महापराक्रमी पाँच पुत्र थे। सम्राट वसु ने विभिन्न राज्‍यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया।
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उनमें महारथी 'बृहद्रथ मगध देश का विख्‍यात राजा हुआ। दूसरे पुत्र का नाम 'प्रत्‍यग्रह था, तीसरा 'कुशाम्‍ब था, जिसे 'मणिवाहन भी कहते हैं। चौथा 'मावेल्ल था। पाँचवा राजकुमार 'यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था। राजा जनमेजय! महातेजस्‍वी राजर्षि वसु के इन पुत्रों ने अपने-अपने नाम से देश और नगर बसाये। पाँचो वसु पुत्र भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे और उन्‍होंने पृथक- पृथक अपनी सनातन वंश परम्‍परा चलायी चेदिराज वसु के इन्‍द्र के दिये हुए स्‍फटिक मणिमय विमान में रहते हुए आकाश में ही निवास करते थे। उस समय उन महात्‍मा नरेश की सेवा में गन्‍धर्व और अप्‍सराएं उपस्थित होती थीं। सदा ऊपर-ही-ऊपर चलने के कारण उनका नाम ‘राजा उपरिचर’ के रुप में विख्‍यात हो गया। उनकी राजधानी के समीप शुक्तिमती नदी बहती थी। एक समय कोलाहल नामक सचेतन पर्वत ने कामवश दिव्‍यरुप धारिणी नदी को रोक लिया। उसके रोकने से नदी की धारा रुक गयी।यह देख उपरिचर वसु ने कोलाहल पर्वत पर अपने पैर से प्रहार किया यह करते ही पर्वत में दरार पड़ गयी, जिससे निकल कर वह नदी पहले के समान बहने लगी। पर्वत ने नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्‍या, जुड़वी संतान उत्‍पन्न की थी। उसके अवरोध से मुक्त करने के कारण प्रसन्न हुई नदी ने राजा उपीरचर को अपनी दोनों संतानें समर्पित कर दीं। उनमें जो पुरुष था, उसे शत्रुओं का दमन करने वाले धनदाता राजर्षिप्रवर वसु ने अपना सेनापति बना लिया। और जो कन्‍या थी उसे राजा ने अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम था "गिरिका" था ! बुद्धिमानों में श्रेष्ठ जनमेजय ! एक दिन ॠतुकाल को प्राप्‍त हो स्‍नान के पश्चात् शुद्ध हुई वसु पत्नी गिरिका ने पुत्र उत्पन्न होने योग्‍य समय में राजा से समागम की इच्‍छा प्रकट की उसी दिन पितरों ने राजाओं में श्रेष्ठ वसु पर प्रसन्न हो उन्‍हें आज्ञा दी तुम हिंसक पशुओं का वध करो। तब राजा पितरों की आज्ञा का उल्‍लघंन न करके कामनावश साक्षात् दूसरी लक्ष्‍मी के समान अत्‍यन्‍त रुप और सौन्‍दर्य के वैभव से सम्‍पन्न गिरिका का ही चिन्‍तन करते हुए हिंसक पशुओं को मारने के लिये वन में गये। राजा का वह वन देवताओं के चैत्ररथ नामक वन के समान शोभा पा रही थी।वसन्‍त का समय था, अशोक, चम्‍पा, आम अतिमुक्तक अर्थात् माधवी कीलता), पुन्नाग (नागकेसर), कनेर, मौलसिरी, दिव्‍यपाटल, पाटल, नारियल, चन्‍दन तथा अर्जुन –ये स्‍वादिष्ट फलों से युक्त, रमणीय तथा पवित्र महावृक्ष उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। कोकिलाओं के कल-कूजन से समस्‍त वन गूंज उठा था। चारों ओर मतवाले भौंरे कल-कल नाद कर रहे थे। यह उद्दीपन-सामग्री पाकर राजा का हृदय काम वेदना से पीड़ित हो उठा। उस समय उन्‍हें अपनी रानी गिरीका का दर्शन नहीं हुआ। उसे न देखकर कामाग्नि से संतप्त हो वे इच्‍छानुसार इधर-उधर घूमने लगे। घूमते-घूमते उन्‍होंने एक रमणीय अशोक का वृक्ष देखा, जो पल्‍लवों से सुशोभित और पुष्‍प के गुच्‍छों से आच्‍छादित था। उसकी शाखाओं के अग्रभाग फूलों से ढके हुए थे। राजा उसी वृक्ष के नीचे उसकी छाया में सुखपूर्वक बैठ गये। वह वृक्ष मकरन्‍द और सुगन्‍ध से भरा था। फूलों की गंध से वह बरबस मन को मोह लेता था। उस समय कामोद्दीपक वायु से प्रेरित हो राजा के मन में रति के लिये स्‍त्रीविषयक प्रीति उत्‍पन्न हुईं " इस प्रकार वन में विचरने वाले राजा उपरिचर का वीर्य स्‍खलित हो गया। उसके स्‍खलित होते ही राजा ने यह सोचकर कि मेरा वीर्य व्‍यर्थ न जाय, उसे वृक्ष के पत्ते पर उठा लिया। उन्‍होंने विचार किया ‘मेरा यह स्‍खलित वीर्य व्‍यर्थ न हो साथ ही मेरी पत्नी गिरिका का ॠतुकाल भी व्‍यर्थ न जाये’ इस प्रकार बारम्‍बार विचार कर राजाओं में श्रेष्ठ वसु ने उस वीर्य को अमोघ बनाने का ही निश्‍चय किया।तदनन्‍तर रानी के पास अपना वीर्य भेजने का उपयुक्‍त अवसर देख उन्‍होंने उस वीर्य को पुत्रोत्‍पत्तिकारक मन्‍त्रों द्वारा अभिमन्त्रित किया। राजा वसु धर्म और अर्थ के सूक्ष्‍म तत्‍व को जानने वाले थे। उन्‍होंने अपने विमान के समीप ही बैठे हुए शीघ्रगामी श्‍वेन पक्षी (बाज) के पास जाकर कहा-‘सौम्‍य ! तुम मेरा प्रिय करने के लिये यह वीर्य मेरे घर ले जाओ और महारानी गिरका को शीघ्र दे दो; क्‍योंकि आज ही उनका ॠतु काल है। ‘बाज वह वीर्य लेकर बड़े वेग के साथ तुरन्‍त वहाँ से उड़ गया। वह आकाशचारी पक्षी सर्वोत्तम वेग का आश्रय लेकर उड़ा जा रहा था, इतने में एक दूसरे बाज ने उसे आते देखा।उस बाज को देखते ही उसके पास मांस होने की आशंका से दूसरा बाज तत्‍काल उस पर टूट पड़ा। फि‍र वे दोनों पक्षी आकाश में एक दूसरे को चोंच मारते हुए युद्ध करने लगे। उन दोनों के युद्ध करते समय वह वीर्य यमुना के जल में गिर पड़ा। वहाँ "अद्रिका" नाम से विख्‍यात एक सुन्‍दरी अप्‍सरा ब्रह्मा के शाप से मछली होकर वहीं यमुना के जल में रहती थी। बाज के पंजे से छूटकर गिरे हुए वसु सम्‍बन्‍धी उस वीर्य को मत्‍स्‍यरुपधारिणी अद्रिका ने वेग पूर्वक आकर निगल लिया। भरतश्रेष्ठ ! तत्‍पश्‍चात् दसवां मास( महीना) आने पर मत्‍स्‍यजीवी मल्लाहों ने उस मछली को जाल में बांध लिया और उसके उदर को चीर कर एक कन्‍या और एक पुरुष निकाला। यह आश्‍चर्यजन घटना देखकर मछेरों ने राजा के पास जाकर निवेदन किया- ‘महाराज मछली के पेट से ये दो मानवीय सन्तानें उत्‍पन्न हुई हैं। मछेरों की बात सुनकर राजा उपरिचर ने उस समय उन दोनों बालकों में से जो पुरुष था, उसे स्‍वयं ग्रहण कर ‍लिया। वही मत्‍स्‍य नामक धर्मात्‍मा एवं सत्‍यपतिज्ञ राजा ( सायद-मीणा जाति का पूर्वपुरुष) हुआ इधर वह शुभलक्षणा अप्‍सरा अद्रिका क्षण भर में शापमुक्त हो गयी। भगवान ब्रह्माजी ने पहले ही उससे कह दिया था कि तिर्यग् योनि में पड़ी हुई तुम दो मानव-संतानों को जन्‍म देकर शाप से छूट जाओगी। अत:मछली मारने वाले मल्‍लाह ने जब उसे काटा तो वह मानव-बालकों को जन्‍म देकर मछली का रुप छोड़ दिव्‍य रुप को प्राप्त हो गयी। इस प्रकार वह सुन्‍दरी अप्‍सरा सिद्ध म‍हर्षि और चारणों के पथ से स्‍वर्गलोक चली गयी। उन जुड़वाँ संतानों में जो कन्‍या थी, मछली की पुत्री होने से उसके शरीर से मछली की गन्‍ध आती थी। अत: राजा ने उसे मल्‍लाह को सौंप दिया और कहा- ‘यह तेरी पुत्री होकर रहे।’ वह रुप और सत्‍व (सत्‍य) से संयुक्त तथा समस्‍त सद्गुणों से सम्‍पन्न होने के कारण ‘सत्‍यवती’ नाम से प्रसिद्ध हुई। मछेरों के आश्रय में रहने के कारण वह पवित्र मुस्‍कान वाली कन्‍या कुछ काल तक मत्‍स्‍यगन्‍धा नाम से ही विख्‍यात रही। वह पिता की सेवा के लिये यमुना के जल में नाव चलाया करती थी। एक दिन तीर्थ यात्रा के उद्देश्‍य से सब ओर विचरने वाले म‍हर्षि पराशर ने उसे देखा। वह अतिशय रुप सौन्‍दर्य से सुशोभित थी। सिद्धों के हृदय में भी उसे पाने की अभिलाषा जाग उठती थी। उसकी हंसी बड़ी मोहक थी, उसकी जांघें कदली की सी शोभा धारण करती थीं। उस दिव्‍य वसुकुमारी को देखकर परम बुद्धिमान मुनिवर पराशर ने उसके साथ समागम की इच्‍छा प्रकट की। और कहा- कल्‍याणी ! मेरे साथ संगम करो। वह बोली- भगवन! देखिये नदी के आर-पार दोनों तटों पर बहुत से ऋषि खड़े हैं। ‘और हम दोनों को देख रहे हैं। ऐसी दशा में हमारा समागम कैसे हो सकता है ?’ 
उसके ऐसा कहने पर शक्तिशाली पराशर ने कुहरे की सृष्टि की। जिससे वहाँ का सारा प्रदेश अंधकार से आच्‍छादित-सा हो गया। महर्षि द्वारा कुहरे की सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्‍या आश्‍चर्यचकित एवं लज्जित हो गयी सत्‍यवती ने कहा- भगवन् ! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिता के अधीन रहने वाली कुमारी कन्‍या हूं । निष्‍पाप महर्षे ! आपके संयोग से मेरा कन्‍याभाग (कुमारीपन) दूषित हो जायेगा। द्विजश्रेष्ठ ! कन्‍याभाग दूषित हो जाने पर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूं। बुद्विमान मुनीश्वर ! अपने कन्‍यापन के कलंकित हो जाने पर मैं जीवित रहना नहीं चाहती। भगवन् ! इस बात पर भलिभां‍ति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये । सत्‍यवती के ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले- ‘भीरु ! मेरा प्रिय कार्य करके भी तुम कन्‍या ही रहोगी। भामिनी ! तुम जो चाहो, वह मुझसे वर मांग लो। शुचिस्मिते ! आज से पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्‍यर्थ नहीं गया है’ । महर्षि के ऐसा कहने पर सत्‍यवती ने अपने शरीर में उत्तम सुगन्‍ध होने का वरदान मांगा। भगवान् पराशर ने उसे इस भूतल पर वह मनोवाञ्छित वर दे दिया ।
निष्कर्ष-यद्यपि इन कथाओं में कल्पनाओं का पुट है शास्त्रीय मर्यादाओं से रहित ये कथाऐं समाज को दूषित करती हैं।
महाभारत: आदिपर्व: का (अंशावतरण नामक उपपर्व) त्रिषष्टितम 63 अध्‍याय:  का हिन्दी अनुवाद-★तदनन्‍तर वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्‍यवती नारीपन के समागमोचित गुण (सद्य: ॠतुस्‍नान आदि) से विभूषित हो गयी और उसने अद्भुतकर्मा महर्षि पराशर के साथ समागम( मैथुन) किया। उसके शरीर से उत्तम गन्‍ध फैलने के कारण पृथ्‍वी पर उसका"गन्‍धवती" नाम विख्‍यात हो गया। इस पृथ्‍वी पर एक योजन दूर के मनुष्य भी उसी दिव्य सुगन्ध का अनुभव करते थे इस कारण उसका दूसरा नाम "योजनगन्धा" हो गया। इस प्रकार परम उत्तम वर पाकर हर्षोल्लास के भरी हुई सत्यवती ने महर्षि पराशर का संयोग प्राप्त किया और तत्काल ही एक शिशु को जन्म दिया। यमुना के द्वीप में अत्यन्त शक्तिशाली पराशरनन्दन व्यास प्रकट हुए। उन्होंने माता से यह कहा-आवश्‍यकता पड़ने पर तुम मेरा स्मरण करना। मैं अवश्‍य दर्शन दूंगा।’ इतना कहकर माता की आज्ञा ले व्यासजी ने तपस्या में ही मन लगाया। इस प्रकार महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से द्वैपायन व्यासजी का जन्म हुआ। वे बाल्यावस्था में ही यमुना के द्वीप में छोड़ दिये गये, इसलिये द्वैपायन’ नाम से प्रसिद्व हुए। तदनन्तर सत्यवती प्रसन्नता पूर्वक अपने घर पर गयी। उस दिन से भूमण्डल के मनुष्य एक योजन दूर से ही उसकी दिव्य गन्ध का अनुभव करने लगे। उसका पिता दाशराज भी उसकी गन्ध सूंघकर बहुत प्रसन्न हुआ । दाशराज ने पूछा. बेटी ! तेरे शरीर से मछली की-सी दुर्गन्ध आने के कारण लोग तुझे ‘मत्स्यगन्धा’ कहा करते थे, फिर तुझमें यह सुगन्ध कहां से आ गयी? किसने यह मछली की दुर्गन्ध दूर कर तेरे शरीर को सुगन्ध प्रदान की है? सत्यवती बोली- पिताजी ! महर्षि शक्ति के पुत्र महाज्ञानी पराशर हैं, (वे यमुनाजी के तट पर आये थे; उस समय) मैं नाव खे रही थी। उन्होंने मेरी दुर्गन्धता की ओर लक्ष्य करके मुझ पर कृपा की और मेरे शरीर से मछली की गन्‍ध दूर करके ऐसी सुगन्ध दे दी, जो एक योजन दूर तक अपना प्रभाव रखती है। महर्षि का यह कृपा प्रसाद देखकर सब लोक बड़े प्रसन्न हुए। विद्वान द्वैपायनजी ने देखा कि प्रत्येक युग में धर्म का एक-एक पाद लुप्त होता जा रहा हैं। मनुष्यों की आयु और शक्ति क्षीण हो चली है और युग की ऐसी दुरवस्था हो गयी है। यह सब सुनकर उन्होंने वेद और ब्राम्हणों पर अनुग्रह करने की इच्छा से वेदों का व्यास (विस्तार) किया। इसलिये वे व्यास नाम से विख्यात हुए। सर्वश्रेष्ठ वरदायक भगवान व्यास ने चारों वेदों तथा पांचवे वेद महाभारत का अध्ययन सुमन्तु, जैमिनी, पैल, अपने पुत्र शुकदेव तथा मुझ वैशम्पायन को कराया। फिर उन सबने पृथक-पृथक महाभारत की संहिताऐं प्रकाशित की। "महाभारत की उपर्युक्त कथा यद्यपि कल्पाओं से रञ्जित है। जिनमें कोई शास्त्रीय मर्यादा का आदर्श रूप स्थापित नहीं हुआ है।  और यह कथाऐं स्वाभाविक न होकर बनावटी भाव तारतम्य पर अवलम्बित हैं।  यहाँ व्यभिचार को भी धर्मसंगत बनाने का उपक्रम तत्कालीन पुरोहित वर्ग द्वारा किया गया है विदित हो की "कामवासना ही सभी पापों की जननी है।
इसी प्रकार परशुराम की कथा भी शास्त्रीय सिद्धान्त की कषौटी पर खरी नहीं उतरती है । 
उपरिचर वसु के एक पुत्र को यदु बताना और एक पुत्र वृहद्रथ के पुत्र जरासन्ध के कुल में दमघोष को बताना अनेक विरोधाभासों की अभिव्यक्ति है। क्यों कि भारतकोश के अन्तर्गत  दमघोष( सुनीथ) चेदिनरेश हैहयवंश के यादव और कृष्ण के फूफा थे।
यादवों के पूर्वपुरुष यदु का चरित्र यद्यपि बहुत पवित्र था इसी लिए पुराणशास्त्रों और वेदों में यदु और तुर्वसु का वर्णन बहुतायत से हुआ है।
पुराणों में एक यदु को ही तीन रूपों में परवर्ती कथा कारों ने वर्णन किया ययातिपुत्र- यदु - हर्यश्वपुत्र- यदु और उपरिचर -पुत्र यदु    
यद्यपि  वेदों में ययाति पुत्र यदु की प्रशंसा की एक ही ऋचा है। अन्यथा यदु और तुर्वसु को जीतने के लिए पुरोहित इन्द्र से प्रार्थना करते हैं। 
यज्=देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु१-(यज्ञ करना २-संगतिकरना(न्याय करना) ३-दान करना। यज धातु के ये प्रधान अर्थ माधवीयधातुवत्ति धातुप्रदीप और क्षीरतरंगिणी में वर्णित है। यदु दानशील प्रवृति और सदैव न्यायसंगतबात करते थे । यद्यपि ये इन्द्र के आराधक नहीं थे परन्तु वरुण का यजन करते थे । 

सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना। रयिं समुद्रातुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ।6। भाष्य-
सुदासे- सुदासके लिए। दस्रा-दौनों अश्विनी कुमारों ने ।वसु -धन विभ्रता-भरने वाले।पृक्षे- संग्रामे । रयिम्-धन। समुद्रात्- समुद्र से  । उत् और । दिव:- स्वर्गात् ।  अस्मे-इसके लिए ।  बहुभि: स्पृहणीयं- बहुत सा इच्छित रयिम् -धन ।धत्तम्- धारण किया। इति -इस प्रकार।
भाष्य-
 हे नासत्या( अश्वनीद्वय) यत् ( जो) परावति (पारदेशे-  समुद्र पार के देश में) आस्थ:( वर्तेथे) रहते हैं । यदुतर्वुशे ( यदु और तुर्वशु दोनों को) अधि-अधीन करो । अत: अस्मात्-  इसलिए ।सूर्य रश्मिभि:साकं -सूर्य की किरणों के साथ तुमने रथ में आकर हमको सुवृत कर दिया ।।
हे ! उग्रकर्मा अश्वनि-द्वय तुमने रथ में धन धारण कर सुदास के लिए वहाँ वहन किया। उसी प्रकार यदु और तुर्वशु से उन्हें अधीन कर हम्हें उनका धन दो !
परन्तु यदु और तुर्वशु का अर्थ रूढ़िवादी पुरोहितों ने अन्तरिक्ष या आकाश किया है ।
वस्तुत यहाँं पुरोहित प्रार्थना करता है
वस्तुत यहाँं पुरोहित प्रार्थना करता है ; कि यदु और तुर्वशु जो दूर सुरक्षित रहते हैं उन्हें हमारे अधीन कर उनसे बहुत सा इच्छित धन हम्हें प्राप्त कराओ।
ऋग्वेद के मण्डल एक अध्याय नौ सूक्त सैंतालीस ऋग्वेद-(1/47/7)
तुर्वशु और यदु को पार करने के लिए अग्नि के द्वारा  हम उग्रदेव को आह्वान करते हैं ।
अग्नि ले जाते हुए रक्षा करे तुमको रक्षा करे ब्रहद्रथ और तुर्वीति को दस्युओं के लिए दमन करे वह उग्रदेव ।ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 36 ऋचा 18/ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है । अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक--इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है। वह भी "दास अथवा "असुर रूप में दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है। परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं । अत: दास शब्द दाता और त्राता का वाचक भी है। ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। वह भी गोपों को रूप में प्रशंसा करते हुए दास की प्रशंसा होना असुर अर्थ में असंगत है जब असुर देवों के प्रतिद्वन्द्वी हों! अत: दास का अर्थ इस ऋचा में ही दानी है।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत:है। 
गो-पालक ही गोप होते हैं ।
लक्ष्मी-नारायणी संहिता में यदु और यदु के वंशजों को पशुपालक होने का ययाति द्वारा शाप का वर्णन है। और पशु पालक का अर्थ गोप ही है।

एवं शप्त्वा तुरुं चापि निष्कास्य राज्यमण्डलात् ।
यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।।७२।।
यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप ।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।।७३।।
कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम् ।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।।७४।।

श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः ।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।।७५।। 


भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम ।
इत्युक्त्वा च कुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः ।।७६।।

"अनुवाद:-★इस प्रकार शाप देकर उसने तुरु को राज्य से निकाल दिया !
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उन्होंने यदु से कहा कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का आनंद लो।
यदु ने उत्तर दिया: हे राजा, मैं तुम्हें अपनी जवानी नहीं दे सकता।
वृद्धावस्था के पांच कारण *चिंता और वृद्ध महिलाएं हैं।*
खराब खानाखान (कदन्न )और रोजाना शराब पीने से पेट में (शीतजाठर की पीडा) होती है।(कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्
मुझे वह बुढ़ापा पसंद है और यह मेरे लिए इसका आनंद लेने का समय नहीं है।
यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपना राज्य और अपने वंश को खो दिया ।
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वह वैभव से रहित है और एक क्षत्रिय के कर्तव्यों से रहित है और एक चरवाहा ( अहीर)पशुपालक) है।
*निस्संदेह तुम राजा बनोगे,* मेरे राज्य से बाहर निकलो।
यह कहकर राजा ने शर्मिष्ठा के पुत्र  कुरु से कहा।

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श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने ययातेः स्वर्गतः पृथिव्यामधिकभक्त्यादिलाभ इति तस्य पृथिव्यास्त्यागार्थमिन्द्रकृतबिन्दुमत्याः प्रदानं पुत्रतो
यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।

ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है । 
"प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ 
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि 
(माघवन) हे धनवान इन्द्र ! (अभिष्टौ) सभी प्रकार की वांछनीययों में (नरः ) नेता ( ते इत्) केवल आपके (प्रियासः) प्रिय (सखायः) मित्रगण (शरणे) शरण में / घर में (मदेम) प्रसन्न हुए  (शंस्यं) प्रशंसनीय कार्य  ( कर्मिष्यन्) करते हुए तूर्वशं (तुर्वशु को)  (याद्वम्) यादवों को (अतिथिग्वाय) दिवोदासाय (नि) निश्चयपूर्वक (नि ) नित्य (शिशिहि) कमजोर करें ।8।.
"ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ८)हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले दिवोदास को सुखी करो । और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो। और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है।८।−(प्रियासः) प्रीताः (इत्) एव (ते) तव (मघवन्)  महाधनिन् इन्द्र: (अभिष्टौ)  पररूपम्। अभित इष्टसिद्धौ (नरः) नेतारः (मदेम) आनन्देम (शरणे) शरणागतपालने कर्मणि गृहे वा (सखायः) सुहृदः सन्तः (नि) निश्चयेन (तुर्वशम्) (नि) नित्यम् (याद्वम्) यदुम् (शिशीहि) अ०।२।७। शो तनूकरणे-श्यनः श्लुः, लोट्लकार बहुलं छन्दसि। पाणिनी सूत्र ७।४।७८। अभ्यासस्य इत्वम्। ई हल्यघोः। पा०६।४।११३। आत ईत्वम्। तीक्ष्णीकुरु (अतिथिग्वाय) दिवोदासाय  (शंस्यम्) प्रशंसनीयं कर्म (करिष्यन्) कुर्वन् ॥

अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इन्दो॒ मदे॒ष्वा । अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥1॥                                  भाष्य-(इन्दो)  सोम ! (यः) जो  (ते) तुम्हारे (मदेषु) मदों में (आ) विघ्न करे, उसको (अया वीती परिस्रव) अपनी क्रियाओं से बहाओ  और (अवाहन् नवतीः नव) निन्यानवे प्रकार के दुर्गों का भी ध्वंसन करो ॥१॥

पुर॑: स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शम्ब॑रम् ।       अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदु॑म् ॥2॥                          भाष्य-(इत्थाधिये दिवोदासाय) सत्य बुद्धिवाले (शम्बरम्) शत्रु हैं (त्यम् तुर्वशम् यदुम्) इन तुर्वशु  यदु को (अध) नीचे गिराओ (पुरः) पुर को  

(ऋग्वेद 9-61-2 की ऋचा 2) तथा सामवेद » - उत्तरार्चिकः » में  ऋचा संख्या - 1211 | (कौथोम) 5 » 1 » 6 » 2 | (रानायाणीय) 9 » 5 » 1 » 2
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हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ।1। शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन (वश) में किया।2।
ये उपर्युक्त ऋचाऐं काफी हैं यह बताने के लिए कि वैदिक काल में यदु और तुर्वशु की गिनती इन्द्रोपासक पुरोहित असुरों के साथ करते थे।
परन्तु लौकिक पुराण साहित्य में यदु के वंश को बहुत ही पवित्र और पापों का नाश करने वाला बताया है।(श्रीमद्भागवत पुराण सकन्ध 9 अध्याय 23)
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
 यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९॥
 यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
 यदोःसहस्रजित्क्रोष्टानलो रिपुरिति श्रुताः॥२०॥
अनुवाद-यदु का वंश परम पवित्र (पुण्यमयी) और मनुष्यों के समस्त पापों को हरण करने वाला है। जो मनुष्य इस यदुवंश का श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा।१९। इस वंश में स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु ऐसा सुना जाता है।२०। पुराणों में  यदुवंश और कृष्ण की महिमा बहुतायत से है। जबकि  इन्द्र को एक कामुकऔर चरित्रहीन देवता के रूप में वर्णित किया गया है।

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चतुःषष्टितम (64) अध्‍याय: आदिपर्व (अंशावतर पर्व)महाभारत: आदि पर्व: चतुःषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद-ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समय के धार्मिक राज्य का वर्णन; असुरों का जन्म और उनके भार से पीड़ित पृथ्वी का ब्रह्मा जी की शरण में जाना तथा ब्रह्मा जी का देवताओं को अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश देना। जनमेजय बोले- ब्रह्मन् ! आपने यहाँ जिन राजाओं के नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशों के नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओं का मैं भलि-भाँति परिचय सुनना चाहता हूँ। महाभाग ! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वी पर जिस उद्देश्‍य की सिद्धि के लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत वर्णन कीजिये। वैशम्पायन जी ने कहा- राजन ! यह देवताओं का रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है। स्वयंभू ब्रह्मा जी को नमस्कार करके आज उसी रहस्य का तुमने वर्णन करूंगा। पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। नररत्न ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; न तो कामवश न बिना ऋतुकाल के ही। राजन! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। 
इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थीं। तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए।उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नी समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।
भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे। भूपाल! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे। गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय ! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा। उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे।राजन ! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ ! ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। 
ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे।महाभारत:अनुशासन 
पर्व:सप्‍तचत्‍वारिंशअध्याय: इस सिद्धान्त के विपरीत है-देखें श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद★-ब्राह्मण आदि वर्णों की (दायभाग)-वह पैतृक या संबंधी का धन जिसका उत्तराधिकारियों में विभाग हो सके अथवा वारिसों में बाँटा जानेवाला धन) उसकी विधि का वर्णन
भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मास्य जायते| आनुपूर्व्याद्द्वयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयतः (महाभारत-|13/48/4)युधिष्ठिर ने पूछा- संपूर्ण शास्‍त्रों के विधान के ज्ञाता तथा राजधर्म के विद्वानों में श्रेष्‍ठ पितामह। आप इस भूमण्‍डल में सम्‍पूर्ण संशयों का सर्वथा निवारण करने के लिये प्रसिद्ध हैं।मेरे हृदय में एक संशय और है, उसका मेरे लिये समाधान कीजिये। राजन ! इस उत्‍पन्‍न हुए संशय के विषय में मैं दूसरे किसी से नहीं पूछूँगा।महाबाहो! धर्म मार्ग का अनुसरण करने वाले मनुष्‍य का इस विषय में जैसा कर्तव्‍य हो, इस सब की आप स्‍पष्‍ट रूप से व्‍याख्‍या करें। पितामह ! ब्राह्मण के लिये चार स्त्रियाँ शास्‍त्र-विहित हैं- ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्‍या और शूद्रा। इनमें से शूद्रा केवल रति की इच्‍छा वाले कामी पुरुष के लिये विहित है। कुरुश्रेष्‍ठ! किस पुत्र को पिता के धन में से कौन-सा भाग मिलना चाहिये ? उनके लिये जो भाग नियत किया गया है, उसका वर्णन मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ। भीष्‍म जी ने कहा युधिष्ठिर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीनों वर्ण द्विजाति( द्विज) कहलाते हैं, अत: इन तीन वर्णों में ही ब्राह्मण का विवाह धर्मत: विहित है। परन्तप नरेश ! अन्‍याय से, लोभ से अथवा कामना से शूद्र जाति की कन्या भी ब्राह्मण की भार्या हेाती है, परंतु शास्‍त्रों में इसका कहीं विधान नहीं मिलता है। शूद्र जाति की स्‍त्री को अपनी शय्‍या पर सुलाकर ब्राह्मण अधो‍गति को प्राप्‍त होता है। 
साथ ही शास्‍त्रीय विधि के अनुसार वह प्रायश्चित का भागी होता है। युधिष्ठिर! शूद्रा के गर्भ से संतान उत्‍पन्‍न करने पर ब्राह्मण को दूना पाप लगता है और उसे दूने प्रायश्चित का भागी होना पड़ता है। भरतनन्‍दन ! अब मैं ब्राह्मण आदि वर्णों की कन्‍याओं के गर्भ से उत्‍पन्‍न होने वाले पुत्रों को पैतृक धन का जो भाग प्राप्‍त होता है, उसका वर्णन करूँगा। ब्राह्मण की ब्राह्मणी पत्‍नी से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह उत्तम लक्षणों से सम्‍पन्‍न गृह आदि, बैल, सवारी तथा अन्‍य जो-जो श्रेष्‍ठतम पदार्थ हों, उन सबको  ग्रहण करता है।
इसी सन्दर्भ में महाभारत अनुशासन पर्व में अध्याय 48 का अध्ययन करें !

भीष्‍म का संवाद:-भीष्म ने कहा- बेटा ! पूर्वकाल में प्रजापति ने  यज्ञ के लिये केवल चार वर्णों और उनके पृथक-पृथक कर्मों की ही रचना की थी। ब्राह्मण की जो चार भार्याएँ बतायी गयी हैं, उनमें से दो स्त्रियाँ-ब्राह्मणी और क्षत्रिया के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्‍पन्‍न होता है।और शेष दो वैश्‍या और शूद्र स्त्रियों के गर्भ से जो  पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं, वे ब्राह्मण से हीन क्रमश: माता की जाति के समझे जाते हैं।  परन्तु परशुराम द्वारा जो 21बार हनन की कथाऐं रचीं गयी वे इस सिद्धान्त के विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही हैं। "आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः। वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रपः॥१४। गर्गसंहिता -(विश्वजित्खण्डः)/अध्यायः७ इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्व- जित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गुर्जरराष्ट्रा चेदिदेशगमनं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७। नारद और बहुलाक्ष ( मिथिला) के राजा में संवाद चलता है तब नारद बहुलाक्ष से  शिशुपाल और  उद्धव के संवाद का वर्णन करते हैं ।अर्थात् यहाँ संवाद में ही संवाद है।तथा द्वारिका खण्ड में यदुवंश के गोपों को आभीर कहा है। गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि  इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालों में और गुरु माता द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में "कृष्ण" आपको बारम्बार नमस्कार है ! ऐसा वर्णन है।      "यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे।गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः।१६।।

अर्थ:- दमघोष पुत्र शिशुपाल उद्धव जी से कहता हैं कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है।और जब वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी तब भी आभीर जाति उपस्थित थी।
"वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू तथा कहीं यादवी भी कहा है। ★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड  में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप "आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है । प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में  ‌ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के  लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया-परन्तु यज्ञ का  मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी  के होने के लिए किसी  अन्या- कन्या को ही लाने  के लिए कहा ! तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर  ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया !यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर  उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के     साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा    तो सभी ऋभु नामक देवों  विष्णु और शिव    नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर  उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ  कार्य के  सहयोगी समस्त देवताओं, शिव  और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री   को अपशब्द में कहा कि तू गोप,आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में  जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घकालीन वियोग हो जाय विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्रनाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा  कहा  जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम मैं गायत्री को यादवी, माधवी और गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक सन्दर्भ है।"यादव" गोप ही थे जैसा  कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है ।                                      "वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च ।     कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च।।10/23 (मनुस्मृति अध्याय १०

अर्थ- वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और "सात्वत" कहते हैं। अर्थात्  वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न व्रात्य पुत्र को सुधनवाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।जबकि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में सात्वत यदु के पुत्र माधव के "सत्त्व" नामक पुत्र  की सन्तानें थी।                          "स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे । त्रिविष्टपंगतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।36।बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतोराजाराजगुणेस्थित:।37।सत्त्वतस्य सुतो राजाभीमो नाम महानभूत् येन भैमा: सुसंवृत्ता:सत्त्वतात् सात्त्वता:स्मृता:।38।राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति। शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।39।।तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।  निवेशयामास विभु:सुमित्रानन्दवर्धन:।40। जब वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये। माधव का पराक्रमी पुत्र "सत्त्व नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्व सत आदि राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से  रहते थे।सत्त्व के पुत्र महान राजा "भीम" हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।"सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गयाहै। जब राजा भीम आनर्त देश के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे। अत: अहीर लोग त्रेतायुग में भी थे । और सतयुग में जब अन्य जातियाँ नहीं थीं तब गायत्री वेदों की  अधिष्ठात्री देवी हुई है और ब्रह्मा की पत्‍नी रूप  में वेद शक्ति है।       तो फिर आभीरजाति  ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या  में कैसे उत्पन्न हो गयी ?वास्तव में अहीरों को मनुस्मृति कार ने वर्णसंकर इसी लिए वर्णित किया ताकि इन्हें हेय सिद्ध करके इन पर शासन किया जा सके। कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु कहलाते थे। इतिहास-वेत्ता श्री श्रीराम साठे ने लिखा है कि हैहयवंशी  राजा दुर्दम से लेकर सहस्त्रार्जुन हैहय लोग काठियावाड से काशी तक के प्रदेश में उदण्ड  बनकर रहते थे। राजा दुर्दम के समय से ही उनका अपने भार्गव पुरोहितों से किसी कारण झगड़ा हुआ। इन पुरोहितों में से एक की पत्नी ने विन्ध्य वन में और्व को जन्म दिया। और्व का वंश इस प्रकार. चला - और्व --> ऋचिक --> जमदग्नि --> परशुराम। कार्तवीर्य अर्जुन ने इन्ही जमदग्नि की हत्या कर दी थी। तब जामदग्न्य परशुराम के नेतृत्व में वशिष्ठ और भार्गव पुरोहितों ने इक्कीस बार हैहयों को पराजित किया।अंततः सहस्त्रार्जुन की मृत्यु हुई। प्राचीन भारतीय इतिहास का यह प्रथम महायुद्ध था। श्री साठे ने ही लिखा है कि परशुराम का समय महाभारत युद्ध पूर्व 17 वीं पीढ़ी का है। धरती को  क्षत्रियविहीन करने के संकल्प के साथ परशुराम के लगातार 21 आक्रमणों से भयत्रस्त होकर अनेक क्षत्रिय पुरुष व स्त्रियाँ यत्र-तत्र छिप  कर रहने लगी थी। यद्यपि साठे का यह मत भी अर्ध-सत्य है।                        "जातं-जातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।            अरक्षंश्च सुतान कांश्चित तदा क्षत्रिययोषितः।63।"

परशुराम, एक-एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ  कुछ ही पुत्रों को बचा सकी थी। -पृथिव्युवाच-सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपुङ्गवाः।हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।८१।(बम्बई संस्करण)

 "सन्ति ब्रह्मन मया स्त्रीषु क्षत्रियपुंगवा।। हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।७४। (गीताप्रेस संस्करण) पृथ्वी बोली - ब्रह्मन! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियपुंगव छिपा रखे हैं।  मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए हैं जो मेरी रक्षा कर सकते हैं।

"अस्ति पौरवदायादो विदुरथसुतः प्रभो ।       ऋक्षै संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्यथ पर्वते। ७५। 

प्रभो ! उनके अलावा पुरुवंशी विदुरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान पर्वत पर रीक्षों ने पालकर बड़ा किया है 

"तथानुकम्पमानेन यज्वनाथमितौजसा ।76। पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः।   सर्वकर्माणिकुरुते शूद्रवत तस्य सद्विजः।77। सर्वकर्मेत्यभिख्यातःस मां रक्षतु पार्थिवः।77। 1/2। -इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रवत सब कर्म करता है, इसलिए 'सर्वकर्मा' नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करें।"वृह्द्रथों महातेजा भूरिभूतिपरिष्कृतः। गोलांगूलैर्महाभागो गृध्रकूटे अभिरक्षितः।८१।- महातेजस्वी वृहद्रथ महान ऐश्वर्य से संपन्न हैं।  उन्हें गृध्रकूट पर्वत पर गोलांगूलों ने बचाया था। मरुत्तस्यान्ववाये च रक्षिता:क्षत्रियात्मजा:। मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिता:।८२। -राजा मरुत के वंश के भी कई बालक सुरक्षित हैं, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है।उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है।

एते क्षत्रियदायादास्तत्र तत्र परिश्रुता:द्योकारहेमकारादिजातिंनित्यंसमाश्रिता:।83 1/2 -ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात हैं। वे शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते हैं।महाभारत के उसी प्रसंग में यह भी लिखा है की जब पृथ्वी ने कश्यपजी से राजाओं को बुलानो को कहा, तब-"ततःपृथिव्या निर्दिष्टास्तान  समानीय कश्यप:।अभ्यषीन्चन्मही पालां क्षत्रियां वीर्यसम्मतान। -अर्थात् तब पृथ्वी को बताये हुए पराक्रमी राजाओं को बुलाकर कश्यपजी ने उन महाबली राजाओं को फिर से राज्यों में अभिषिक्त किया।"कर्म आधारित भारतीय संस्कृति की रचना होने के कारण सहज ही, क्रियालोप होने के आधार पर क्षत्रियों के पतन का उल्लेख मनुस्मृति में भी किया गया है  परन्तु मनुस्मृति की प्राचीनता सन्दिग्ध है-

शनकैस्तुक्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातिय:।      वृषलत्वं गता जाके ब्रह्मणादर्शनेन च ।मनुस्मृति10/43.

पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविड़ा:काम्बोजा यवना:शका:। पारदा:पह्लवाश्चीना:किरातादरदा:खशा:।10/44"

अर्थात्, "पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दारद और खश - ये क्षत्रिय जातियाँ (उपनयनादि) क्रियालोप होने से एवं ब्राह्मण का दर्शन न होने के कारण (अध्ययन आदि के अभाव में) इस लोक में शूद्रत्व को प्राप्त होती हैं। - इससे क्षत्रियों के अधोपतन की बात सिद्ध होती है। यद्यपि असंख्य जनजातियों द्वारा स्वयं को क्षत्रिय घोषित किये जाने के प्रमाण मिलते हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा ।परन्तु, अत्यंत कालातीत होने के बावजूद कतिपय जातियाँ अपने को 'हैहयवंशी' भी कहती हैं| डा. बी. पी. केसरी ने घासीराम कृत 'नागवंशावली झूमर' के अध्याय 4, पृष्ठ 82 से संदर्भित निम्न दोहे के अनुसार कोराम्बे (राँची) के रक्सेल राजाओं को हैहयवंशी कहा है ।ब्रह्मवैवर्त पुराण( गणपति खण्ड) अध्याय (३५)  

         ★परशुराम उवाच ★ 

शृणु राजेन्द्र ! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव। विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।५४।

स्वयं विद्वांश्च वेदांश्च श्रुत्वा वेदविदो मुखात् ।      कथं दुर्बुद्धिरधुना सज्जनानां विहिंसना।५५।  

 त्वं पूर्वमहनो लोभान्निरीहं ब्राह्मणं कथम् ।ब्राह्मणीशोकसन्तप्ताभर्त्रा सार्द्धं गतासती।५६।

किं भविष्यति ते भूप परत्रैवानयोर्वधात् ।          सर्वं मिथ्यैव संसारं पद्मपत्रे यथा जलम् ।५७।

सत्कीर्त्तिश्चाथ दुष्कीर्तिः कथामात्रावशेषिता।विडम्बना वा किमतो दुष्कीर्त्तेश्च सतामहो।५८।

क्व गता कपिला त्वं क्व क्व विवादो मुनिः कुतः।यत्कृतं विदुषा राज्ञा न कृतं हालिकेन तत्।५९। 

त्वामुपोषितमीशं हि दृष्ट्वा तातो हि धार्मिकः। पारणां कारयामास दत्तं तस्य फलं त्वया।६०।

अधीतं विधिवद्दत्तं ब्राह्मणेभ्यो दिने दिने ।      जगते यशसा पूर्णमयशो वार्द्धके कथम्।६१।

दाता वरिष्ठो धर्म्मिष्ठो यशस्वी पुण्यवान्सुधीः।कार्त्तवीर्यार्जुनसमो न भूतो न भविष्यति।६२।

पुरातनावदन्तीति बन्दिनो धरणीतले ।              यो विख्यातःपुराणेषु तस्य दुष्कीर्त्तिरीदृशी।६३।

दुर्वाक्यं दुःसहं राजंस्तीक्ष्णास्त्रादपि जीविनाम् ।संकटेऽपि सतां वक्त्राद्द्विरुक्तिर्न विनिर्गता।६४। 

न ददामि द्विरुक्तिं ते प्रकृतं कथयाम्यहम् । उत्तरं देहि राजेन्द्र मह्यं राजेन्द्रसंसदि ।६५।सूर्य्यचन्द्रमनूनां च वंशजाः सन्ति संसदि।सत्यं वद सभायां च शृण्वन्तु पितरः सुराः।६६।

शृण्वन्तु सर्वे राजेन्द्राः सदसद्वक्तुमीश्वराः। पश्यन्तो हि समं सन्तः पाक्षिकं न वदन्ति च।६७। 

इत्युक्त्वा रैणुकेयश्च विरराम रणस्थले। राजा बृहस्पतिसमःप्रवक्तुमुपचक्रमे।६८।

 कार्त्तवीर्य्यार्जुन उवाच ! शृणु राम हरेरंशो हरिभक्तो जितेन्द्रियःश्रुतो धर्मो मुखाद्येषां त्वं च तेषां गुरोर्गुरुः।६९।

कर्म्मणा वाऽप्यसद्बुध्या करोति ब्रह्मभावनाम् स्वधर्मनिरतःशुद्धस्तस्माद्ब्राह्मण उच्चते।७०।अन्तर्बहिश्चमननात्कुरुत कर्म्म नित्यशः । मौनी शश्वद्वदेत्काले यो वै स मुनिरुच्यते। ७१।स्वर्णे लोष्टेगृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने। समताभावना यस्य स योगी परिकीर्त्तितः।। परशुराम ने कहा– हे! धर्मिष्ठ राजेन्द्र! तुम तो चन्द्ररवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु के   अंशभूत बुद्धिमान दत्तात्रेय के शिष्य हो। शृणु राजेन्द्र धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव।विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।५४।

तुम स्वयं विद्वान हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे  उत्पन्न हो गयी ?  तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ?जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक-संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी। भूपाल! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी? यह सारा संसार तो कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल की बूँद की तरह मिथ्या ही है। सुयश को अथवा अपयश, इसकी को कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है। अहो! सत्पुरुषों की दुष्कीर्ति हो, इससे बढ़कर और क्या विडम्बना होगी? कपिला कहाँ गयी, तुम कहाँ गये, विवाद कहाँ गया और मुनि कहाँ चले गये; परंतु एक विद्वान राजा ने जो कर्म कर डाला, वह हलवाहा भी नहीं कर सकता। मेरे धर्मात्मा पिता ने तो तुम-जैसे नरेश को उपवास करते देखकर भोजन कराया और तुमने उन्हें वैसा फल दिया! राजन? तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया है, तुम प्रतिदिन ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देते हो और तुम्हारे यश से सारा जगत व्याप्त है। फिर बुढ़ापे में तुम्हारी अपकीर्ति कैसे हुई ? (प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। जो पुराणों में विख्यात है, उसकी ऐसी अपकीर्ति! आश्चर्य है। राजन! प्राणियों के लिये दुर्वाक्य तीखे अस्त्र से भी बढ़कर दुस्सह होता है; इसीलिये संकट-काल में भी सत्पुरुषों के मुख से दुर्वचन नहीं निकलते। राजेन्द्र! मैं तुम पर दोषारोपण नहीं कर रहा हूँ, बल्कि सच्ची बात कह रहा हूँ; अतः इस राजसभा में तुम मुझे उत्तर दो। इस सभा में सूर्य, चन्द्र और मनु के वंशज विद्यमान हैं; अतः सभा में तुम ठीक-ठीक बतलाओ, जिसे तुम्हारे पितर और देवगण भी सुनें। साथ ही सत-असत को कहने में समर्थ ये सारे नरेश भी श्रवण करें; क्योंकि समदृष्टि रखने वाले सत्पुरुष लोग पक्षपात की बात नहीं कहते। युद्धस्थल में इतना कहकर परशुराम चुप हो गये। तब बृहस्पति के समान बुद्धिमान राजा ने कहना आरम्भ किया। कार्तवीर्यार्जुन ने कहा– हे राम! आप श्रीहरि के अंश, हरि के भक्त और जितेन्द्रिय हैं। मैंने जिनके मुख से धर्म श्रवण किया है, आप उनके गुरु के भी गुरु हैं। जो कर्मवश ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म-चिन्तन करता है और अपने धर्म में तत्पर एवं शुद्ध है, इसीलिये वह ब्राह्मण कहलाता है। जो मनन करने के कारण नित्य बाहर-भीतर कर्म करता रहता है, सदा मौन धारण किये रहता है और समय आने पर बोलता है, वह मुनि कहलाता है। जिसकी सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में, घर और जंगल में तथा कीचड़ और अत्यन्त चिकने चन्दन में समता की भावना है, वह योगी कहा जाता है।जो सम्पूर्ण जीवों में समत्व-बुद्धि से विष्णु के भावना करता है और श्रीहरि की भक्ति करता है, वह हरिभक्त कहा जाता है।
ब्राह्मणों का धन तप है। चूँकि तपस्या कल्पतरु और कामधेनु के समान है, इसीलिये उनकी निरन्तर तप  में इच्छा लगी रहती है। रजोगुणी पुरुष कर्मों के रागवश राजसिक कार्य करता है और रागान्ध होकर रजोगुणी कार्यों में लगा रहता है; इसी कारण वह राजा कहा जाता है। मुने! रागवश मैंने कामधेनु की याचना की थी; अतः मुझ अनुरागी क्षत्रिय का इसमें कौन-सा अपराध हुआ? फिर भी, आपके पिता ने महान बल-पराक्रम से सम्पन्न बहुत-से भूपालों का वध कर डाला।इस समय यहाँ शिशु-अवस्था वाले राजकुमार ही आये हैं। आपने सम्पूर्ण पृथ्वी को इक्कीस बार भूपालों से शून्य कर देने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसका पालन कीजिये। 
युद्ध करना तो क्षत्रियों का धर्म ही है। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो जाना उनके लिये निन्दित नहीं है; परंतु ब्राह्मणों की रण-स्पृहा लोक और वेद– दोनों में विडम्बना की पात्र है। वाणी ही जिनका बल और तप ही जिनका धन है, उन ब्राह्मणों की शान्ति ही प्रत्येक युग में स्वस्तिकारक कर्म है। युद्ध करना ब्राह्मण का धर्म नहीं है।
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शान्तिपरायण ब्राह्मण युद्ध के लिये उद्योगशील हो, ऐसा तो न देखने में ही आया है और न सुना ही गया है। भगवान नारायण के विद्यमान रहते यह दूसरी तरह का उलट-फेर कैसे हो गया? रणांगण में यों कहकर राजेन्द्र कार्तवीर्य शान्त हो गया। उसके उस वचन को सुनकर सभी लोग मौन हो गये। तदनन्तर परशुराम के सभी भाई, जो बड़े शूरवीर तथा हाथों में अत्यन्त तीखे शस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आज्ञा से युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। तब जो स्वयं मंगलस्वरूप तथा मंगलों का आश्रयस्थान था, उस महाबली मत्स्यराज ने भी उन सबको युद्धोन्मुख देखकर युद्ध करना आरम्भ किया। उस राजेन्द्र ने बाणों का जाल बिछाकर उन सभी को रोक दिया। तब जमदग्नि पुत्रों ने उस बाण-समूह को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुने! राजा ने सैकड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान दिव्यास्त्र चलाया; परंतु मुनियों ने माहेश्वर-अस्त्र के द्वारा खेल-ही-खेल में उसे काट दिया।एक स्थान पर ब्रह्मवैवर्तपुराण खणपति खण्ड में वर्णन है की सहस्रबाहु के आघात से परशुराम मूर्च्छित होकर रणभूमि में गिर पड़े-इसके साक्ष्य निम्न श्लोक हैं।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप स भृगुःपपात च हरिं स्मरन्।१८। 
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप स भृगुःपपात च हरिं स्मरन् ।१८।
उस सैकड़ों सूर्यों के समान प्रभाशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये। 
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 कार्तवीर्यार्जुन ने कहा– हे राम! आप श्रीहरि के अंश, हरि के भक्त और जितेन्द्रिय हैं। मैंने जिनके मुख से धर्म श्रवण किया है, आप उनके गुरु के भी गुरु हैं। जो कर्मवश ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म-चिन्तन करता है और अपने धर्म में तत्पर एवं शुद्ध है, इसीलिये वह ब्राह्मण कहलाता है। जो मनन करने के कारण नित्य बाहर-भीतर कर्म करता रहता है, सदा मौन धारण किये रहता है और समय आने पर बोलता है, वह मुनि कहलाता है। जिसकी सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में, घर और जंगल में तथा कीचड़ और अत्यन्त चिकने चन्दन में समता की भावना है, वह योगी कहा जाता है।
जो सम्पूर्ण जीवों में समत्व-बुद्धि से विष्णु के भावना करता है और श्रीहरि की भक्ति करता है, वह हरिभक्त कहा जाता है। ब्राह्मणों का धन तप है। चूँकि तपस्या कल्पतरु और कामधेनु के समान है, इसीलिये उनकी निरन्तर तप में इच्छा लगी रहती है। रजोगुणी पुरुष कर्मों के रागवश राजसिक कार्य करता है और रागान्ध होकर रजोगुणी कार्यों में लगा रहता है; इसी कारण वह राजा कहा जाता है। मुने! रागवश मैंने कामधेनु की याचना की थी; अतः मुझ अनुरागी क्षत्रिय का इसमें कौन-सा अपराध हुआ ? फिर भी, आपके पिता ने महान बल-पराक्रम से सम्पन्न बहुत-से भूपालों का वध कर डाला।
इस समय यहाँ शिशु-अवस्था वाले राजकुमार ही आये हैं। आपने सम्पूर्ण पृथ्वी को इक्कीस बार भूपालों से शून्य कर देने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसका पालन कीजिये। युद्ध करना तो क्षत्रियों का धर्म ही है। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो जाना उनके लिये निन्दित नहीं है; परंतु ब्राह्मणों की रण-स्पृहा लोक और वेद– दोनों में विडम्बना की पात्र है।
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वाणी ही जिनका बल और तप ही जिनका धन है, उन ब्राह्मणों की शान्ति ही प्रत्येक युग में स्वस्तिकारक कर्म है। युद्ध करना ब्राह्मण का धर्म नहीं है।शान्तिपरायण ब्राह्मण युद्ध के लिये उद्योगशील हो, ऐसा तो न देखने में ही आया है और न सुना ही गया है। भगवान नारायण के विद्यमान रहते यह दूसरी तरह का उलट-फेर कैसे हो गया? रणांगण में यों कहकर राजेन्द्र कार्तवीर्य शान्त हो गया। उसके उस वचन को सुनकर सभी लोग मौन हो गये। तदनन्तर परशुराम के सभी भाई, जो बड़े शूरवीर तथा हाथों में अत्यन्त तीखे शस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आज्ञा से युद्ध करने के लिए आगे बढ़े।तब जो स्वयंमंगल स्वरूप तथा मंगलों का आश्रयस्थान था, उस महाबली मत्स्यराज ने भी उन सबको युद्धोन्मुख देखकर युद्ध करना आरम्भ किया। उस राजेन्द्र ने बाणों का जाल बिछाकर उन सभी को रोक दिया। तब जमदग्नि पुत्रों ने उस बाण-समूह को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुने! राजा ने सैकड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान दिव्यास्त्र चलाया; परंतु मुनियों ने माहेश्वर-अस्त्र के द्वारा खेल-ही-खेल में उसे काट दिया।ब्रह्मवैवर्तपुराणम् (गणपतिखण्डः)
अध्यायः।।४०।। 
                ★नारायण उवाच★ 
तं गृहीत्वा तदा विष्णौ वैकुण्ठं च गते सति।
सपुत्रं च सहस्राक्षं जघान भृगुनन्दनः।१।
कृत्वा युद्धं तु सप्ताहं ब्रह्मास्त्रेण प्रयत्नतः।
राजा कवचहीनोऽपि सपुत्रश्च पपात ह।
पतिते तु सहस्राक्षे कार्तवीर्य्यार्जुनः स्वयम्।
आजगाम महावीरो द्विलक्षाक्षौहिणीयुतः।३।
सुवर्णरथमारुह्य रत्नसारपरिच्छदम् ।।
नानास्त्रं परितः कृत्वा तस्थौ समरमूर्द्धनि।४।
समरे तं परशुरामो राजेन्द्रं च ददर्श ह ।
रत्नालंकारभूषाढ्यै राजेन्द्राणां च कोटिभिः।५।
रत्नातपत्रभूषाढ्यं रत्नालंकारभूषितम् ।
चन्दनोक्षितसर्वांगं सस्मितं सुमनोहरम् । ६ ।
राजा दृष्ट्वा मुनीन्द्रं तमवरुह्म रथादहो ।
प्रणम्य रथमारुह्य तस्थौ नृपगणैः सह । ७ ।
ददौ शुभाशिषं तस्मै रामश्च समयोचितम् ।
प्रोवाच च गतार्थं तं स्वर्गं गच्छेति सानुगः।८।
उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद।
पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः।
क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः। ९ ।
नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः।
न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च।10 ।
चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।।
निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।११ ।
चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।
वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।
चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।
गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१३।
माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः।
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निर्वापयामासराजावैष्णवास्त्रेणलीलया।१४।ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद।
ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।१५। दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे।१६।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद।
मूर्च्छामवाप सभृगुःपपात च हरिं स्मरन् ।१८।
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पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।१९ ।
शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया।२०
भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान्।
प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः। २१।
राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।
प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान्।२२।
तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।
शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः।२३।
भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः।
दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः।२४।
ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।
नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ।२५।
सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।
सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः।२६।
गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा।
नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।२७।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।
दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः।२८।
राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम् ।
गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ।२९ ।
तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद।
श्रुत्वाऽशरीरिणींवाणींशङ्करोद्विजरूपधृक्।३०।
भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च।
शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ।३१।
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एतस्मिन्नन्तरे देवा जग्मुः स्वस्थानमुत्तमम् ।।
प्रत्युवाचापि परशुरामो वै समरे नृपम् ।३२।
अनुवाद-
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप सभृगुःपपात च हरिं स्मरन् ।१८ ।
उस सैकड़ों सूर्यों के समान प्रभाशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये। 
तदनन्तर भगवान शिव ने वहाँ आकर परशुराम को पुनर्जीवन दान दिया।
इसी समय वहाँ युद्धस्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय शिष्य की रक्षा करने के लिये आ पहुँचे। फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया; परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वे रणभूमि में स्तम्भित हो गये। 
तब रण के मुहाने पर स्तम्भित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कान्ति नूतन जलधर के सदृश है; जो हाथ में वंशी लिये बजा रहे हैं; सैकड़ों गोप जिनके साथ हैं; जो मुस्कराते हुए प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं और अनेकों पार्षदों से घिरे हुए हैं एवं ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं; वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्धक्षेत्र में राजा की रक्षा कर रहे हैं।
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इसी समय वहाँ यों आकाशवाणी हुई– ‘दत्तात्रेय द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्रीकृष्ण कवच उत्तम रत्न की गुटिका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बँधा हुआ है, अतःयोगियों के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को माँग लेंगे, तभी परशुराम राजा का वध करने में समर्थ हो सकेंगे। नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर ब्राह्मण का रूप धारण करके गये और राजा से याचना  करके उसका कवच माँग लाये। फिर शम्भु ने श्रीकृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया।इसके बाद देवगण अपने-अपने उत्तम स्थान को चले गये। तब परशुराम ने राजा सहस्रबाहु को युद्ध के लिए  प्रेरित करते हुए कहा।
                 "परशुराम उवाच"
राजेन्द्रोत्तिष्ठ समरं कुरु साहसपूर्वकम् ।
कालभेदे जयो नृणां कालभेदे पराजयः।३३।
अधीतं विधिवद्दत्तं कृत्स्ना पृथ्वी सुशासिता ।।
सम्यक्कृतश्चसंग्रामस्त्वयाऽहं मूर्च्छितोऽधुना।३४।जिताः सर्वे च राजेन्द्रा लीलया रावणो जितः।
जितोऽहंदत्तशूलेन शम्भुनाजीवितःपुनः।३५।
रामस्य वचनं श्रुत्वा राजा परमधार्मिकः।
मूर्ध्नाप्रणम्यतं भक्त्या यथार्थोक्तिमुवाच ह।३६।
                    "राजोवाच।
किमधीतं तथा दत्तं का वा पृथ्वी सुशासिता ।
गताः कतिविधा भूपा मादृशा धरणीतले ।३७ ।
बुद्धिस्तेजो विक्रमश्च विविधा रणमन्त्रणा ।।
श्रीरैश्वर्यं तथा ज्ञानं दानशक्तिश्च लौकिकम्। ३८।
आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा परमं तपः।
सर्वं मनोरमासंगे गतमेव मम प्रभो।३९।
सा च स्त्री प्राणतुल्या मे साध्वी पद्मांशसम्भवा ।
यज्ञेषु पत्नी मातेव स्नेहे क्रीडति संगिनी।४०।
आबाल्यात्संगिनी शश्वच्छयने भोजने रणे ।।
तां विना प्राणहीनोऽहं विषहीनो यथोरगः ।४१।
त्वया न दृष्टं युद्धं मे पुरेयं शोचना स्थिता ।
द्वितीया शोचना विप्र हतोऽहं ब्राह्मणेन च ।४२।
काले सिंहः सृगालं च सृगालः सिंहमेव च ।
काले व्याघ्रं हन्ति मृगो गजेन्द्रं हरिणस्तथा। ४३।
महिषं मक्षिका काले गरुडं च तथोरगः।
किङ्करःस्तौति राजेन्द्रं काले राजा च किंकरम्। ४४।इन्द्रं च मानवः काले काले ब्रह्मा मरिष्यति ।
तिरोभूत्वा सा प्रकृतिः काले श्रीकृष्णविग्रहे ।४९।
मरिष्यन्ति सुराः सर्वे त्रिलोकस्थाश्चराचराः।
सर्वे काले लयं यान्ति कालो हि दुरतिक्रमः।४६।
कालस्य कालः श्रीकृष्णः स्रष्टुः स्रष्टा यथेच्छया।।
संहर्ता चैव संहर्तुः पातुः पाता परात्परः।४७।
महास्थूलात्स्थूलतमः सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमः कृशः ।
परमाणुपरः कालः कालस्स्यात्कालभेदकः। ४८।
यस्य लोमानि विश्वानि स पुमांश्च महाविराट् ।
तेजसा षोडशांशश्च कृष्णस्य परमात्मनः ।४९।
ततः क्षुद्रविराड् जातः सर्वेषां कारणं परम् ।
यः स्रष्टा च स्वयं ब्रह्मा यन्नाभिकमलोद्भवः।५०।
नाभेः कमलदण्डस्य योऽन्तं न प्राप यत्नतः ।
भ्रमणाल्लक्षवर्षं च ततः स्वस्थानसंस्थितः।५१ ।
तपश्चक्रे ततस्तत्र लक्षवर्षं च वायुभुक् ।
ततो ददर्श गोलोकं श्रीकृष्णं च सपार्षदम् ।५२।
गोपगोपीपरिवृतं द्विभुजं मुरलीधरम् ।
रत्नसिंहासनस्थं च राधावक्षस्थलस्थितम् ।५३।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते तृतीये गणेशखण्डे नारदनारायणसंवादेभृगोःकैलासगमनोपदेशो नाम चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः।४०।
अनुवाद- श्रीनारायण कहते हैं–नारद! जब भगवान विष्णु महालक्ष्मी-कवच तथा दुर्गा-कवच को लेकर वैकुण्ठ को चले गये, तब भृगुनन्दन परशुराम ने पुत्रसहित राजा सहस्राक्ष पर प्रहार किया। यद्यपि राजा कवच-हीन था  तथापि  वह प्रयत्नपूर्वक ब्रह्मास्त्र द्वारा एक सप्ताह तक युद्ध करता रहा। अन्ततोगत्वा पुत्रसहित धराशायी हो गया। सहस्राक्ष के गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिये आया। वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथ पर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया। परशुराम ने राजराजेश्वर कार्तवीर्य को समरभूमि में उपस्थित देखा। वह रत्ननिर्मित आभूषणों से सुशोभित करोड़ों राजाओं से घिरा हुआ था। रत्ननिर्मित छत्र उसकी शोभा बढ़ा रहा था। वह रत्नों के गहनों से विभूषित था। उसके सर्वांग में चन्दन की खौर लगी हुई थी। उसका रूप अत्यन्त मनोहर था और वह मन्द-मन्द मुस्करा रहा था। राजा मुनिवर परशुराम को देखकर रथ से उतर पड़ा और उन्हें प्रणाम करके पुनः रथ पर सवार हो राज-समुदाय के साथ सामने खड़ा हुआ। तब परशुराम ने राजा को समयोचित शुभाशीर्वाद दिया और पुनः यों कहा– ‘अनुयायियोंसहित तुम स्वर्ग में जाओ।’
नारद! इसके बाद वहाँ दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा। तब परशुराम के शिष्य तथा उनके महाबली भाई कार्तवीर्य से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए। उस समय उनके सारे अंग घायल हो गये थे। राजा के बाण समूह से आच्छादित होने के कारण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना ही नहीं दीख रही थी। फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अन्त में राजा ने दत्तात्रेय के दिये हुए अमोघ शूल को यथाविधि मन्त्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।
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(ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय ३६)
"दृष्ट्वातं योद्धुमायान्तंराजानश्च महारथाः।
आययुःसमरं कर्त्तुंकार्त्तवीर्य्यंनिवार्य्यच।११
।।
कान्यकुब्जाश्च शतशः सौराष्ट्राः शतशस्तथा।
राष्ट्रीयाः शतशश्चैव वीरेन्द्राः शतशस्तथा।१२।
"सौम्या वाङ्गाश्च शतशो महाराष्ट्रास्तथा दश।
तथा गुर्जरजातीयाः कलिङ्गाः शतशस्तथा।१३।
कृत्वा तु शरजालं च भृगुश्चिच्छेद तत्क्षणम्।
तं छित्त्वाऽभ्युत्थितोरामोनीहारमिवभास्करः।१४।
त्रिरात्रं युयुधे रामस्तैः सार्द्धं समराजिरे।
द्वादशाक्षौहिणीं सेनां तथा चिच्छेद पर्शुना।१५।
रम्भास्तम्भसमूह च यथा खड्गेन लीलया।
छित्त्वा सेनां भूपवर्गं जघान शिवशूलतः।१६।
"सर्वांस्तान्निहतान्दृष्ट्वा सूर्य्यवंशसमुद्भवः।
आजगाम सुचन्द्रश्च लक्ष राजेन्द्रसंयुतः।१७।
द्वादशाक्षौहिणीभिश्च सेनाभिः सह संयुगे।
कोपेन युयुधे रामं सिंहं सिंहो यथा रणे।१८।
भृगुः शङ्करशूलेन नृपलक्षं निहत्य च ।
द्वादशाक्षौहिणीं सेनामहन्वै पर्शुना बली।१९।।
निहत्य सर्वाः सेनाश्च सुचन्द्रं युयुधे बली ।
नागास्त्रं प्रेरयामास निहृतं तं भृगुः स्वयम्।२०।
अनुवाद-गणपतिखण्ड: अध्याय 36 मत्स्यराज के वध के पश्चात अनेकों राजाओं का आना और परशुराम  द्वारा मारा जाना, पुनः राजा सुचन्द्र और परशुराम का युद्ध, परशुराम द्वारा कालीस्तवन, ब्रह्मा का आकर परशुराम को युक्ति बताना, परशुराम का  राजा सुचन्द्र से मन्त्र और कवच माँगकर उसका वध करना श्री नारायण कहते हैं– नारद ! युद्ध में मत्स्यराज के गिर जाने पर महाराज कार्तवीर्य के भेजे हुए बृहद्बल, सोमदत्त, विदर्भ, मिथिलेश्वर, निषधराज, मगधाधिपति एवं कान्यकुब्ज,  सौराष्ट्र,  राढीय, वारेन्द्र, सौम्य  बंगीय,  महाराष्ट्र,(गुर्जरजातीय )और कलिंग आदि के सैकड़ों-सैकड़ों राजा बारह अक्षौहिणी सेना के साथ आये; परन्तु परशुराम जी ने सबको रणभूमि में सुला डाला। यह देखकर एक लाख नरपतियों के साथ बारह अक्षौहिणी सेना  लेकर राजा सुचन्द्र रणस्थल में आये। सुचन्द्र के  साथ भयानक युद्ध हुआ, पर वे परशुराम परास्त न हो सके
यादवों के मूल पुरुष वैदिक ययाति पुत्र यदु      ही हैं परन्तु उपरिचर वसु  के एक पुत्र का भी नाम यदु था।  १- उपरिचर वसु का पुत्र बृहद्रथ जिसे मगध का राजा नियुक्त किया और दूसरे पुत्र कि नाम 'प्रत्यग्रह तीसरा 'कुशाम्ब जिसे (मणिवाहन) भी कहा गया , चतुर्थ पुत्र मावेल्स और पञ्चम पुत्र का नाम 'यदु था ।

"संपूजितो मघवता वसुश्चेदीश्वरो नृप:। पालयामास धर्मेणचेदिस्थ: पृथिवीमिमाम्।२८।"
अर्थ •-इन्द्र के द्वारा सम्मानित चेदिराज उपरिचरवसु ने चेदिदेश में रहकर इस पृथ्वी का धर्म पूर्वक पालन किया।२८।    
इन्द्रपीत्या चेदिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः।        पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौज:।२९।
अर्थ •-इन्द्र की प्रसन्नता के लिए उपरिचर वसु इन्द्र महोत्सव मनाया करते थे उनके अनन्त बलशाली पाँच पुत्र हुए।२९।
"नानाराज्येषु च सुतान्स सम्राडभ्यषेचयत्।महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथः।३०।।
अर्थ •-सम्राट उपरिचर वसु ने विभिन्न राज्यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का राजा हुआ।३०।
"प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम्। मावेल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः।।३१।
अर्थ •-द्वितीय पुत्र (प्रत्यग्रह) तृतीय (कुशाम्ब) जिसे (मणिवाहन) भी कहते थे चतुर्थ पुत्र (मावेल्ल)और पञ्चम पुत्र का नाम (यदु)था।३१।
"महाभारत आदिपर्व अञ्शावतरण नामक उपपर्व का तिरेसठवाँ अध्याय के श्लोक संख्या २९-३०-३१ -
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हरिवंशपुराण के अनुसार यादवों के पूर्वपुरुष 'यदु' के पाँच पुत्र थे यही वर्णन अधिकांश भारतीय पुराणों में भी वर्णित है । 
"पद्मपुराण में वर्णन है कि (अस्सी हजार) वर्षो तक ययाति ने शासन किया और उनके चार पुत्र थे। जिनमें ज्येष्ठ पुत्र ( रूरू:/तुरूरु:) और पुरु: उससे छोटा कुरु: तीसरे क्रम का और चतुर्थ क्रम में "यदु था। नीचे श्लोक संख्या ११-१२-१३ पर देखें-

 👇•
"श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थमाहात्म्येचतुःषष्टितमोऽध्यायः (६४) 
इस श्लोक में यदुवंश के पूर्व और परवर्ती पुरुषों का वर्णन है।  👇
★ययातिं सत्यसंपन्नं धर्मवीर्यं महामतिम् ।
एन्द्रंपदं गतो राजा तस्य पुत्रः पदे स्वके।७।
"ययातिः सत्यसंपन्नः प्रजा धर्मेण पालयेत्। स्वयमेव प्रपश्येत्स प्रजाकर्माणि तान्यपि।८।
याजयामास धर्मज्ञः श्रुत्वा धर्ममनुत्तमम्।            यज्ञतीर्थादिकं सर्वं दानपुण्यं चकार सः ।९।
राज्यं चकार मेधावी सत्यधर्मेण वै तदा।
(यावदशीतिसहस्राणि) वर्षाणां नृपनन्दनः।१०।   
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"तावत्कालं गतं तस्य ययातेस्तु महात्मनःतस्य पुत्राश्च चत्वारस्तद्वीर्यबलविक्रमाः।११।
 तेषां नामानि वक्ष्यामि शृणुष्वैकाग्रमानसः।तस्यासीज्ज्येष्ठपुत्रस्तु (रुरुर्नाम)महाबलः।१२।
पुरुर्नामद्वितीयोऽभूत्कुरुश्चान्यस्तृतीयकः। यदुर्नाम स धर्मात्मा चतुर्थो नृपतेःसुतः।१३।
एवं चत्वारःपुत्राश्च ययातेस्तु महात्मनः।        तेजसा पौरुषेणापि पितृतुल्यपराक्रमाः।१४। 
एवं राज्यं कृतं तेन धर्मेणापि ययातिना।      तस्य कीर्तिर्यशो भावस्त्रैलोक्ये प्रचुरोभवत्।१५।
अनुवाद-अध्याय 64 -वृद्धावस्था पर मातलि का प्रवचन

पिप्पल ने कहा :

 पिता की कृपा से यदु ने किस प्रकार सुख प्राप्त किया और किस प्रकार सुख भोगा , यह विस्तारपूर्वक बताओ । हे कुण्डल के पुत्र ! , मुझे यह भी विस्तार से बताओ कि रुरु को अपने पाप का फल कैसे भुगतना पड़ा, हे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण !

सुकर्मन ने कहा :सुनो, मैं तुम्हें अत्यंत मेधावी नहुष और श्रेष्ठ ययाति का वृत्तान्त सुनाता हूँ , जो पाप का नाश करने वाला है। नहुष, पृथ्वी के स्वामी सोम वंश से उत्पन्न हुए उसने कई अतुलनीय उपहार दिए। उन्होंने अश्वमेध यज्ञों का एक उत्कृष्ट सत्र किया (अर्थात् एक सौ उत्कृष्ट अश्वमेध यज्ञ किए)। उन्होंने सौ वाजपेय यज्ञ और अनेक प्रकार के (अन्य) यज्ञ भी किए। अपनी धार्मिक योग्यता के बल पर उसने इन्द्र पद को प्राप्त किया ।उन्होंने अपने अत्यंत बुद्धिमान पुत्र ययाति को, सत्यवादिता से संपन्न, अपनी वीरता के रूप में धर्मपरायण, अपनी प्रजा  राजा का रक्षक राजा बनाया (नहुष) इंद्र के पद पर ) गए।उनका पुत्र ययाति सत्यवादिता से संपन्न था, जिसने (अर्थात् सिंहासन पर) अधिग्रहण कर लिया था, वह धर्मपूर्वक प्रजा की  रक्षा करेगा। वह स्वयं अपनी प्रजा और संबंधित कर्तव्यों की देखभाल  करेगा। श्रेष्ठ कर्तव्य को जानकर धर्म को जानने वाले ने यज्ञ करवाए। उन्होंने यज्ञ करना, (पवित्र स्थानों पर जाना), उपहार देना (धार्मिक पुण्य देना) जैसा सब कुछ किया। राजा नहुष के बुद्धिमान पुत्र (ययाति) ने उन दिनों अस्सी हजार वर्षों तक सच्चाई से शासन किया। प्रतापी ययाति ने इतना समय (सच्चाई से अपनी प्रजा पर शासन करने में) व्यतीत किया। उसके चार पुत्र हुए जो उसके समान पराक्रमी और पराक्रमी थे। मैं (आपको) उनके नाम बताऊंगा। एकाग्रचित्त (अर्थात चौकस) मन से सुनो। उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम रुरु था, जो बहुत शक्तिशाली था। दूसरे पुत्र का नाम पुरु रखा गया ; तीसरा कुरु था ; राजा के चौथे पुत्र का नाम यदु था, जो धार्मिक प्रवृत्ति का था अर्थात् ( यजन करने वाला था)। इस प्रकार कुलीन ययाति के चार पुत्र हुए। वे अपने तेज और पुरुषार्थ से वीरता में अपने पिता के तुल्य थे। इस प्रकार ययाति ने अपने राज्य का न्यायपूर्वक शासन किया। तीनों लोकों में उनकी कीर्ति और ख्याति महान थी।

विष्णु ने कहा :

एक बार महानतम ब्राह्मण, ब्रह्मा के पुत्र नारद , इंद्र के लोक में इंद्र को देखने के लिए गए, हे राजा! हजार आंखों वाले भगवान  इंद्र ने ब्राह्मण नारद को देखा जो सर्वज्ञ थे, जो (सभी प्रकार के) ज्ञान में निपुण थे, जिनकी चमक आग की तरह थी, (जब) ​​वे वहां आए तो  इन्द्र  ने झुकी हुई गर्दन (अर्थात् भक्ति में झुककर) के साथ, उन्होंने एक शुभ आसन पर आदरणीय प्रसाद से सम्मानित सर्वश्रेष्ठ ऋषि को बिठाया, और उनसे पूछा:

इन्द्र ने कहा :

19. आज तुम कहाँ से आए हो ? तुम यहाँ किस प्रयोजन से आए हो ? हे ब्राह्मण, हे महान मुनि, आज मैं आपको क्या प्रिय करूँ ?

नारद ने कहा :

20-21। हे देवताओं के राजा, हे अति बुद्धिमान, जो कुछ तू ने भक्तिपूर्वक किया और जो कुछ तूने कहा उससे मैं प्रसन्न हूँ। मैं आपके सवालों का जवाब दूंगा। मैं अब पृथ्‍वी से सुरक्षित रूप से आपके घर आ गया हूं। नहुष के पुत्र (ययाति) को देखने के बाद, मैं तुम्हें खोजने आया हूँ।

इंद्र ने कहा :

22-23। कौन सा राजा विद्वान, बुद्धिमान, और सदाचारी होने के कारण अपनी प्रजा की सच्चाई से रक्षा करता है? पृथ्वी पर कौन राजा है, जो वेदों को जानता है, जो ब्राह्मणों को प्रिय है, जो पवित्र है, जो वेदों का ज्ञाता है, जो यज्ञकर्ता है, जो दानी है, और जो महान भक्त है ?

नारद ने कहा :

24-30। इन गुणों से नहुष का बलशाली पुत्र संपन्न हुआ, जिसकी सत्यता और वीरता के कारण सभी लोग प्रसन्न थे। नहुष के पुत्र ययाति पृथ्वी पर तुम्हारे समान हैं। जैसे आप स्वर्ग में हैं, (अपनी प्रजा की) समृद्धि को बढ़ा रहे हैं, वैसे ही वह पृथ्वी पर (अपनी प्रजा की) समृद्धि को बढ़ा रहे हैं। हे महान राजा, उस राजा ययाति ने, जो अपने पिता से श्रेष्ठ था, सौ अश्वमेध यज्ञ और सौ वाजपेय यज्ञ भक्तिपूर्वक किए  उन्होंने हजारों लाखों और सैकड़ों करोड़ गायों जैसे कई रूपों में उपहार दिए। इसी प्रकार उन्होंने एक करोड़ यज्ञ किए, इसी प्रकार लाखों यज्ञ भी किए।उसने ब्राह्मणों को भूमि के अनुदान जैसे उपहार भी दिए। उन्होंने धर्म की रक्षा की है अपने पूर्ण रूप में। जैसा कि आप यहाँ स्वर्ग में शासन कर रहे हैं, इसलिए ययाति, नहुष के पुत्र, सर्वश्रेष्ठ राजा, जो इन गुणों से संपन्न थे, ने अस्सी हजार वर्षों तक सच्चाई से शासन किया।

बुद्धिमान सुकर्मण ने कहा :

31-47। श्रेष्ठ मुनियों से ऐसा सुनकर देवताओं के स्वामी इन्द्र ने विचार किया और वे ययाति के  धर्म की रक्षा करने से डरते थे। (उन्होंने सोचा:) 'पूर्व में, सौ   यज्ञों के बल पर, बहादुर नहुष मेरे इंद्र के पद  को प्राप्त कर  गये  और देवताओं के राजा बन गए।  परन्तु शची की बुद्धि के कारण वह  स्वर्ग से नीचे गिर गया । यह महान राजा जो वीरता में अपने पिता के समान है, निस्संदेह इन्द्र के पद को प्राप्त होगा। इसमें तो कोई शक ही नहीं है।  इसे  जिस किसी उपाय से ( येन केनाप्युपायेन तं भूपं दिवमानये उस राजा को मैं राजा को स्वर्ग में लाऊंगा।' उससे भयभीत देवराज ने ऐसा विचार किया। तब देवताओं के राजा, इन्द्र ने उस राजा ययाति के महान भय के कारण उसे स्वर्ग लाने के लिए अपना दूत (मातलि)भेजा। नहुष का विमान सभी सुखों से संपन्न है, और उनके सारथी मातलि  विमान के साथ था। मातलि, जिसे देवताओं के स्वामी ने अत्यंत बुद्धिमान (ययाति) को लाने के लिए भेजा था, वह वहाँ गए जहाँ नहुष के पुत्र (ययाति) रुके हुए थे। जैसे इन्द्र अपनी सभा में चमकते हैं, वैसे ही धर्म-चित्त (राजा) ययाति अपनी सभा में चमकते हैं। देवताओं के राजा के सारथी ने उस उदार राजा से कहा:सत्य ही जिसका आभूषण  था,“हे राजा, मेरी बात सुनो! अब मुझे देवताओं के राजा ने तुम्हारे पास भेजा है। देवताओं के राजा जो कुछ भी कहते हैं, उसे सुनकर अच्छे (अर्थात् समर्पित) मन से करो। हे स्वामी, आपको इंद्र के लोक में आना चाहिए;  अपना राज्य अपने बेटे को सौंपकर, और सबसे अच्छा और अंतिम बलिदान करने के बाद। हे नहुष के पुत्र, अत्यंत तेजस्वी राजा वहाँ स्वर्ग में रहते हैं।

इला, पुरुरवा, विप्रचिति, शिबि ,इक्ष्वाकु, सगर ऋतवीर्य ,नहुष, शन्तनु ,भरत ,युवनाश्व , कार्तवीर्य ,यज्ञों का सम्पादन करके बहु प्रकार से आनन्द करते हुए स्वर्ग में रहते हैं ।

 पुरुरवा , एक महान शक्ति का, नेक दिमाग वाला था।विप्रचित्ती (वहाँ भी रहते हैं)। शिबि वहाँ वह भी रहते हैं, मनु , राजा इक्ष्वाकु , सगर नाम के बुद्धिमान (राजा) ,और तुम्हारे पिता नहुष भी वहाँ रहते हैं । कृतज्ञ तवीर्य , ​​और कुलीन शांतनु , और भरत , युवानाश्व , राजा कार्तवीर्य ​​- (ये सभी) राजा, विभिन्न यज्ञों का सम्पादन करने के बाद स्वर्ग में आनन्दित होकर रहते  हैं। कई अन्य राजा भी, जो यज्ञों के प्रदर्शन के लिए बहुत समर्पित व तत्पर थे, वे सभी इन्द्र के साथ स्वर्ग में अपने यज्ञ- कार्यों के परिणामस्वरूप आनंदित हैं; और आप फिर से सभी धर्मों को जानते हैं और धर्म में अच्छी तरह से स्थापित हैं।(इसलिए) हे राजन्! इन्द्र के साथ आनंद मनाते हुए तुम स्वर्ग में रहो।

ययाति ने कहा :

48. मैंने ऐसा कौन-सा कर्म किया है जिसके कारण आपने और देवताओं के स्वामी इन्द्र ने मुझसे यह निवेदन किया है? मुझे वह सब बताओ।

मातलि ने कहा :

49-52. चूँकि, हे राजा, आपने दान देने जैसे पुण्य कार्य किए, और अस्सी हज़ार वर्षों तक यज्ञ किए, (अतः) अपने कर्मों के कारण हे पृथ्वी के स्वामी,! तुम स्वर्ग में जाओ। देवताओं के स्वामी से दोस्ती करो। देवताओं के धाम (अर्थात् स्वर्ग) में जाओ।  तुम परम बुद्धिमान, अपने शरीर को पाँच (तत्वों) के अवयवों के रूप में, पृथ्वी पर छोड़ दो; और एक दिव्य रूप धारण करके, अपने मन चाहे  सुखों का आनंद लें (अर्थात जैसा आप चाहें)। हे पुरुषों के स्वामी, आपके द्वारा किए गए  (यज्ञों) के अनुसार, या आपके द्वारा दिए गए उपहारों या तपस्या जो आपके द्वारा पृथ्वी पर की जाती है, उसके अनुसार स्वर्ग में सुख मांगते हैं (अर्थात् प्रतीक्षा करें)।

ययाति ने कहा :

53. हे मातलि, जिस शरीर से अच्छे या बुरे कर्म पृथ्वी पर होते हैं (अर्थात् होते हैं) उस शरीर को त्याग कर (कर्मों के अनुसार) प्राप्त लोक में कैसे जाना चाहिए ?

मातलि ने कहा :

54-55। हे राजन, मनुष्य वहाँ (अर्थात् पृथ्वी पर) शरीर त्याग कर दैवीय (कर्मों के कारण) उसके पास जाते हैं, जहाँ उन्हें यह पाँच (तत्वों) प्रकृति का शरीर प्राप्त हुआ है। अन्य सभी पुरुष भी, जो पुण्य या अवगुण प्राप्त करते हैं, वे (यहाँ) शरीर त्याग कर नीचे (अर्थात् नरक में) या ऊपर (अर्थात् स्वर्ग में) जाते हैं।

ययाति ने कहा :

56-60। हे मातलि, पाँच (तत्वों) प्रकृति के शरीर के साथ गुण या अवगुण उत्पन्न करके, अन्य सभी पुरुष ऊपर या नीचे जाते हैं। क्या फर्क है जिसके कारण कोई शरीर को पृथ्वी पर छोड़ देगा (अर्थात् छोड़ देता है), हे नैतिक गुणों को जानने वाले ? (आप कैसे कहते हैं कि) शरीर (किसी के) पाप या धार्मिक योग्यता के परिणामस्वरूप  गिरता -उठताहै)? इस नश्वर क्षेत्र में, हे इन्द्र- सारथी (मातलि), एक उदाहरण प्रत्यक्ष देखा जाता है। मैं, (इसलिए), पाप या पुण्य कर्मों के बीच अधिक अंतर नहीं देखता। मनुष्य, एक नश्वर, शरीर क्यों छोड़ता है जिसके साथ वह सत्य व्यवहार जैसे कर्म करता है ? आत्मा और शरीर दोनों एक दूसरे के मित्र ) हैं। सुहृद आत्मा अपने मित्र शरीर को छोड़कर चली जाती है।

मातलि ने कहा :

61-65। हे राजा, आपने सच कहा है। जब प्राणी शरीर त्याग कर जाता है। उस शरीर के साथ आत्मा का (तब) कोई संबंध नहीं है। चूँकि यह पंचतत्व प्रकृति का (शरीर) जोड़ों में हमेशा घिस जाता है, बुढ़ापे से परेशान रहता है, और हमेशा बीमारियों से ग्रस्त रहता है, वह आत्मा यहाँ इसमें रहने की इच्छा नहीं करता है।  व्याकुल और व्याकुल होकर जीवात्मा उस  शरीर को छोड़कर चला जाता है। सुपुण्यैः सुकृतैश्चान्यैर्जरा नैव प्रधार्यते पातकैश्च महाराज द्रवते कायमेव सा ।६५। सत्य, धार्मिक कर्म, दान, धर्मपालन और संयम, अश्वमेध जैसे यज्ञ, तीर्थों के दर्शन और संयम के साथ-साथ महान धार्मिक पुण्य के अच्छे कर्मों के कारण भी बुढ़ापा नहीं आता है। सब कुछ हुआ। (दूसरी ओर,) हे महान राजा, यह बुढ़ापा तो  पापों के माध्यम से ही शरीर पर आक्रमण करता है।

ययाति ने कहा :

66. हे श्रेष्‍ठ, आप मुझे विस्‍तार से बताइये कि कौन-सा बुढ़ापा उत्‍पन्‍न हुआ है और यह शरीर को क्‍यों सताता है।

मातलि ने कहा :

67-95। मैं तुम्हें वृद्धावस्था का कारण बताऊँगा; और यह शरीर में क्यों उग आया है, हे श्रेष्ठ राजा। पाँच तत्वों की प्रकृति का शरीर, इन्द्रियों की पाँच वस्तुओं द्वारा सहारा लिया जाता है। हे राजा, जब आत्मा शरीर छोड़ती है, तो वह  शरीर जल जाता है। हे राजन, अग्नि से प्रज्वलित होने पर द्रव्यों सहित शरीर भी जल जाता है।उससे धुआँ उत्पन्न होता है, और धुएँ से बादल उत्पन्न होते हैं। पानी बादलों से ही निकलता है; पृथ्वी जल के लिए वैसे ही तैयार हो जाती है, जैसे पवित्र स्त्री अपने मासिक धर्म के समय जल ( वीर्य) की याचना करती है। उसी पृथ्वी से गन्ध उत्पन्न होती है, और गन्ध से द्रव उत्पन्न होता है, हे श्रेष्ठ राजा। द्रव से भोजन उत्पन्न होता है, और भोजन से वीर्य उत्पन्न होता है।

इसमें कोई संदेह नहीं है। वीर्य से शरीर उत्पन्न होता है; और शरीर निश्चय ही कुरूप है। जैसे पृथ्वी (तत्व) गंध उत्पन्न करेगी और वह द्रव्यों के द्वारा पृथ्वी पर गति करती है, वैसे ही शरीर सदैव गति करता रहेगा। यह सर्वत्र द्रव्यों का आधार है।उससे गंध उत्पन्न होती है और फिर गंध से द्रव (उत्पन्न) होता है। उससे बड़ी अग्नि उत्पन्न होती है; हे राजा, उपमा को चिन्हित करें। कि जिस प्रकार लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है और लकड़ी को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार शरीर में द्रव से अग्नि उत्पन्न होती है। यह वहाँ (शरीर में) चलता है और, हे राजा, यह हमेशा शरीर का पोषण करता है। जब तक (शरीर में) द्रव की प्रधानता है तब तक आत्मा शान्त है। अग्नि (शरीर में) इस प्रकार चलती है जैसे भूख के रूप में रहती है। तीक्ष्ण होने के कारण यह जल के साथ भोजन की इच्छा करता है; हे राजा, यह उपहार-भोजन और पानी भी प्राप्त करता है। अग्नि रक्त को भस्म करती है और वीर्य को भी वैसे ही; इसमें कोई शक नहीं है।

 उसके कारण पूरे शरीर को नष्ट करने वाला यह अग्नि उपभोक्ता होगा। हे राजा, जब द्रव की प्रधानता होती है, तब आग बुझा दी जाती है। द्रव से परेशान होकर, यह बुखार (ज्वर) के रूप में उत्पन्न होता है। अग्नि ने गर्दन, पीठ, कमर, गुदा सभी जोड़ों में जमा कर रखा है।

(इस प्रकार) शरीर में आग चलती रहती है। इसकी प्रधानता सदैव विद्यमान रहती है, और शरीर को सब ओर से पोषित करती है। (जब) द्रव को संयमित किया जाता है तो वह शक्तिशाली हो जाता है। शक्ति की अधिकता होने के कारण यह वीर्य के द्वारा शरीर के महत्वपूर्ण अंगों का संचालन कराता है। उससे कामवासना पैदा होती है; और हे राजा, यह एक तीर की प्रकृति का हो जाएगा। हे राजन्, इसे काम की अग्नि कहते हैं, जो बल का नाश करती है। 

सहवास की लत के कारण शरीर का विनाश हो जाता है।  वह वासना की अग्नि से पीड़ित एक स्त्री का सहारा लेगा। कामवासना के व्यसन के कारण जिस शरीर को कामवासना ने हिंसक और क्षीण बना दिया है, वह कान्तिहीन हो जाता है और उस शरीर की शक्ति का नाश हो जाता है।(पहले से ही) दुर्बल शरीर अग्नि द्वारा आकृष्ट किये जाने पर  और(अधिक) दुर्बल हो जाता है।वह अग्नि शरीर में रक्त और वीर्य को भी भस्म कर देगी। वीर्य और रक्त के क्षय होने से शरीर शिथिल हो जाता है। एक भयानक रूप की प्रचंड हवा उत्पन्न होती है; और फिर वह पीला पड़ जाएगा, दु: ख से तड़पेगा और खाली दिमाग का होगा। वह अपने मन में उस स्त्री को लेकर चलता है जिसे उसने देखा है या जिसके बारे में उसने सुना है। जब मन की गति  लालची होती है,तो शरीर में संतोष नहीं होता। जब कुरूप या रूपवान मनुष्य सोच-विचार और मांस और खून की कमी के कारण कमजोर हो जाता है, तो कामवासना की आग से भस्म होने वाले शरीर में बुढ़ापा आ जाता है। उसके कारण वह कामी होकर दिन-ब-दिन बूढ़ा होता जाता है। जैसा कि सूदखोर पैसे के बारे में सोचता है, इसलिए वह सहवास में एक महिला के बारे में सोचता है; वैसे ही, हे मनुष्यों के स्वामी, उसकी चमक खो जाती है। उसी से शरीर उत्पन्न होता है और वह नष्ट हो जाता है। तब निश्चय ही वृद्धावस्था रूपी अग्नि फिर उत्पन्न होती है; और तब प्राणियों में  सेवन की प्रकृति रूपी भयानक ज्वर होता है। ज्वर तथा अन्य अनेक कष्टों से पीड़ित सभी अचल और चलायमान नष्ट हो जाते हैं। यह सब मैंने तुम से कह दिया है; मुझे और क्या कहना चाहिए ?

उपर्युक्त पुराण में (रुरु) ययाति का ज्येष्ठ पुत्र है।परन्तु "महाभारत "भागवत पुराण और देवी "भागवत पुराण आदि में यदु ही ययाति के ज्येष्ठ पुत्र हैं। पद्म पुराण के उपरोक्त श्लोक प्रक्षिप्त ही हैं । यद्यपि पद्मपुराण का सृष्टिखण्ड सब पुराणों से प्राचीन है। "क्योंकि वर्तमान पुराण आदि ग्रन्थों का लेखन किंवदन्तीयों पर ही हुआ है। जिन्हें विभिन्न ऋषियों के नाम पर सम्पादित किया गया।__________________________

अब विष्णु पुराण में देखें यदुवंश का वर्णन     (विष्णुपुराण चतुर्थांश अध्याय दश) 👇
"पूरोः सकाशादादाय जरां दत्त्वा च यौवनम् ।
राज्येऽभिषिच्य पूरुञ्च प्रययौ तपसे वनम् ।४-१०-१६।
अर्थ-अपने छोटे पुत्र जो शर्मिष्ठा से उत्पन्न था उस पुरु को पुन: वृद्धावस्था लेकर और यौवन देकर राज्य पद पर अभिषिक्त कर ययाति वन को तप करे चले गये ।४-१०-१६।
"दिशि दक्षिणपूर्व्वंस्यां तुर्व्वसुं प्रत्यथादिशत् । प्रतीच्याञ्च तथा द्रुह्यु दक्षिणापथतो यदुम् ।४-१०-१७।
अर्थ •- दक्षिणीपूर्व दिशा में तुर्वसु को पश्चिमदिशा में द्रुह्यु को और दक्षिणदिशा में यदु को जाने का आदेश दिया।४-१०-१७।
"उदीच्याञ्च तथैवानुं कृत्वा मण्डलिनोनृपान् सर्व्वपृथ्वीपतिं पूरु सोऽभिषिच्य वनं ययौ ।४-१०-१८।
अर्थ •- और उत्तर दिशा में अनु को माण्डलिक राजा बना कर सम्पूर्ण पृथ्वी को पुरु को राज्य अभिषिक्त कर ययाति वन को चले गये।४-१०-१८।__________________________________
भागवत पुराण में ययाति पुत्रों के निर्वासन का कुछ भिन्न वर्णन है कि 
"दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युं दक्षिणतो यदुम् ।प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम् ॥२२॥
अर्थ •- दक्षिणपूर्व दिशा में द्रुह्यु' दक्षिण दिशा में यदु' को पश्चिम दिशा में तुर्वसु' को और उत्तर दिशा में अनु' को राजा किया किया ।२२।-
(भागवत पुराण 9/19/12) परन्तु ब्रह्मपुराण के बारहवें अध्याय में 'यदु और तुर्वसु' की निर्वासित दिशाओं का वर्णन भिन्न है।  कि ययाति ने पूर्व दिशा में ज्येष्ठ पुत्र यदु को निर्वासित होने का शाप दिया और दक्षिणपूर्व में तुर्वसु को -👇 
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ब्रह्मपुराण द्वादश अध्याय में यदु-आख्यान  से सम्बंधित श्लोक निम्नलिखित हैं।
"ययातिर्दिशि पूर्व्वस्यां यदुं ज्येष्ठं न्ययोजयत्।
मध्येपुरुं च राजानमभ्यषिञ्चत्सनाहुषः।१९।
दिशि दक्षिणपूर्व्वस्यां तुर्व्वसुं मतिमान्नृपः। 
तैरियं पृथिवी सर्व्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।२०॥
यथाप्रदेशमद्यापि धर्म्मेण प्रतिपाल्यते।
प्रजास्तेषांपुरस्तात्तु वक्ष्यामि मुनिसत्तमाः।२१।
धनुर्न्यस्य पृषत्कांश्च पञ्चभिःपुरुषर्षभैः। जरावानभवद्राजा भारमावेश्य बन्धुषु।२२।
विक्षिप्तशस्त्रः पृथिवीं चचार पृथिवीपतिः।प्रीतिमानभवद्राजा ययातिरपराजितः।२३।
एवं विभज्य पृथिवीं ययातिर्यदुमब्रवीत्। 
जरां मे प्रतिगृह्णीष्व पुत्र कृत्यान्तरेण वै।२४।
तरुणस्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम।
जरां त्वयि समाधाय तं यदुः प्रत्युवाच ह।२५।
                    "यदुरुवाच"
"अनिर्दिष्टा मया भिक्षा ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुता।अनपाकृत्य तां ग्रहीष्यमि ते जराम् ॥२६ ॥
जरायां बहवो दोषाः पानभोजनकारिताः।तस्माज्जरां न ते राजन् ग्रहीतुमहमुत्सहे॥२७।
सन्ति ते बहवः पुत्रा मत्तः प्रियतरा नृप।
प्रतिग्रहीतुं धर्म्मज्ञ पुत्रमन्यं वृणीष्व वै॥२८॥
स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वितः।      उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्॥२९।।   
                     "यदुरुवाच"
"क आश्रयस्तवान्योऽस्ति को वा धर्म्मो विधीयत्।मामनादृत्य दुर्व्बुद्धे यदहं तव देशिकः॥३०॥
एवमुक्त्वा यदुं विप्राःशशापैनं स मन्युमान।अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति न संशयः॥३१॥
द्रुहयुं च तुर्व्वसुं चैवाप्यनुंच द्विजसत्तमाः।एवमेवाब्रवीद्राजा प्रत्याख्यातश्च तैरपि॥३२॥
शशेप तानतिक्रुद्धो ययातिरपराजितः।      यथावत् कथितं सर्व्वं मयास्यद्विजसत्तममाः।३३।
एवं शप्त्वा सुतान् सर्व्वाश्चतुरः पुरुपुर्व्वजान्।  तदेव वचनं राजा पुरुमप्याह भो द्विजाः।३४।
तरुणास्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम्। 
जरां त्वयि समाधाय त्वं पुरो यदि मन्यसे।३५।
स जरां प्रतिजग्राह पितुः पुरुः प्रतापवान्। ययातिरपि रूपेम पुरोःपर्य्यचरन् महीम्।३६।
स मार्गमाणःकामानामन्तं नृपतिसत्तमः।       विश्वाच्या सहितो रेमे वने चैत्ररथे प्रभुः।३७।
यदा स तृप्तः कामेषु भोगेषु च नराधिपः।        तदा पुरोः सकाशाद्वै स्वां जरां प्रत्यपद्यत।३८।
यत्र गाथा मुनिश्रेष्ठा गीताः किल ययातिना।  याभिःप्रत्याहरेत्कामान्सर्वशोऽङ्गानिकूर्म्मवत्।३९।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।  हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते।४०।
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पश्वः स्त्रियःनालं एकस्य तत्सर्वमिति कृत्वा नमुह्यति।४१।
यदा भावं न कुरुते सर्व्वभूतेषु पापकम्। 
कर्म्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा।४२।
यदा तेभ्यो न बिभेति यदा चास्मान्न बिब्यति। 
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा।४३।
या दुस्त्यजा दुर्म्मतिभिर्या न जीर्य्यति जीर्य्यतः। योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।४४।
श्लोक साम्य-
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
चक्षुः श्रोत्रे च जीर्येते तृष्णैका न तु जीर्यते।।

महाभारत अनुशासनपर्व-(२४)
जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः केशा दन्ता जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः।धनाशा जीजीविताशाचजीर्य्यतोऽपि न जीर्य्यति। ब्रह्मपुराण अध्याय (४५)
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हन्ति षोडशीं कलाम्।४६॥
यही श्लोक महाभारत शान्ति पर्व में है ।-👇
"यच्च कामसुखंलोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् तृष्णा क्षयसुखस्यैते नार्हत:षोडशीं कलाम्।।      (महाभारत शान्ति पर्व अध्याय-286) 
एवमुक्त्वा स राजर्षिःसदारः प्राविशद्वनम्।
कालेन महता नार्हन्ति षोडशीं कलाम्।४७।
भृगुतुङ्गे गतिं प्राप तपसोऽन्ते महायशाः।      अनश्नन् देहमुत्सृज्य सदारः स्वर्गमाप्तवान्।४८।
तस्य वंशे मुनिश्रेष्ठाः पञ्च राजर्षिसत्तमाः।यैर्व्याप्ता पृतिवीसर्व्वा सूर्य्यस्येव गभस्तिभिः।४९।
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"यदोस्तु वंशं वक्ष्यामि श्रुणुध्वं राजसत्कृतम् ।    यत्र नारायणो जज्ञे हरिर्वृष्णिकुलोद्वहः॥५०॥
सुस्तःप्रजावानायुष्मान् कीर्त्तिमांश्च भवेन्नरः। ययातिचरितं नित्यमिदं श्रुण्वन् द्विजोत्तमाः॥५१॥ 
 इति श्रीब्राह्मेमहापुराणे सोमवंशे ययातिचरितनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥ १२
ब्रह्मपुराणकार ने महाभारत से निम्न श्लोक उद्धृत कर लिया है । 
अन्तर केवल इतना है की क्रिया पद "नार्हन्ति के स्थान पर ब्रह्म पुराण में "नार्हतः क्रिया पद है।अर्हत: =(लट्लकार का परस्मैपदीय द्विवचन रूप है जबकि अर्हन्ति बहुवचन रूप है। अत: महाभारत का श्लोक सही है।
"यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम्।।६।12-282-6 (महाभारत शान्ति पर्व)
(मुम्बई संस्करण)"अर्थ"-सांसारिक काम अर्थात् वासना की तृप्ति होने से जो सुख होता है और जो सुख स्वर्ग में मिलता है, उन दोनों सुखों की योग्यता, तृष्णा के क्षय से होने वाले सुख के सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है’’
(गीताप्रेस संस्करण शान्ति पर्व.174.48
/177.49)
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इसी ब्रह्मपुराण में आगे वर्णन है कि यदु के पाँच पुत्र हुए 1-सहस्राद 2-पयोद 3- क्रोष्टा 4-नील और 5-अञ्जिक।  
सहस्राद के तीन पुत्र हुए 'हैहय' 'हय' और वेणुहय और इसी हैहय वंश में कृतवीर्य का पुत्र सहस्रार्जुन हुआ •👇
"प्रचेतसः सुचेतास्तु कीर्त्तितास्तुर्वसोर्मया।
बभूवुस्ते यदोः पुत्राःपञ्च देवसुतोपमाः।१५३।
सहस्रादःपयोदश्च क्रोष्टा नीलोऽञ्जिकस्तथा।
सहस्रादस्यदायादास्त्रयःपरमधार्म्मिकाः।१५४।
हैहयस्च हयश्चैव राजा वेणुहयस्तथा।
हैहयस्याभवत् पुत्रो धर्म्मनेत्र इति श्रुतः।१३.१५५।
धर्म्मनेत्रस्य कार्त्तस्तु साहञ्जस्तस्य चात्मजः।
साहञ्जनी नाम पुरी तेन राज्ञा निवेशिताः। १५६।
आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।
भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम विश्रुतः।१५७॥
दुर्दमस्य सुतो धीमान्कनको नाम नामतः। 
"कनकस्य तु  दायादाश्चतवारोलोकविश्रुता:।१५८।
कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः॥१५८॥
कृतवीर्य्यः कृतौजाश्च कृतधन्वा तथैव च।
कृताग्निस्तुचतुर्थोऽभूत्कृतवीर्य्यादथार्ज्जुनः।१५९॥
योऽसौ बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेस्वरोऽभवत्।
जिगाय पृथिवीमेको रथेनादित्यवर्च्चसा।.१६०।
स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः पमदुश्चरम्।
दत्तमाराधयामास कार्त्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।१६१॥
तस्मै दत्तो वरन् प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः।
पूर्व्वं बाहुसहस्रं तु प्रार्थितं सु महद्वरम्॥१३.१६२॥अधर्म्मोऽधीयमानस्य सद्भिस्तत्र निवारणम्।
उग्रेण पृथिवीं जित्वा धर्म्मेणैवानुरञ्जनम्।१६३।
संग्रामात् सुबहून् जित्वा हत्वा चारीन् सहस्रशः।
संग्रामे वर्त्तमानस्य वधं चाभ्यधिकाद्रणे॥१६४॥
तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल भो द्विजाः।
योगाद्योगीश्वरस्येव प्रादुर्भवति मायया॥१६५॥
तनेयं पृथिवी सर्र्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।
ससमुद्रा सनगरा उग्रेण विधिना जिता॥१६६॥
                       ★–👇
ययाति द्वारा यदु को दिये गये शाप का वर्णन  महाभारत के (आदिपर्व) के अन्तर्गत (सम्भवपर्व) के (82) बयासीवें अध्याय में भी एक आख्यान रूप में है। 
और समता परक यह आख्यान मत्स्य पुराण में भी दृष्टव्य है।
ययाति प्रकरण से सम्बंधित ये निम्न श्लोक दोनों ग्रन्थों में समान हैं। देखें
प्रथमत: महाभारत के अनुसार- 👇       
             "वैशम्पायन उवाच"
"जरां प्राप्य ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव हि।           पुत्रं ज्येष्ठं वरिष्ठं च यदुमित्यब्रवीद्वचः।।१/७८/१।
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और मत्स्य पुराण में तैतीसवें अध्याय में प्रथम श्लोक 👇शौनक उवाच।
"जरां प्राप्य ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव हि। पुत्रं ज्येष्ठं वरिष्ठं च यदुमित्यब्रवीद्वचः।।३३/१।।
और बुढ़ापा पाकर ययाति अपने नगर को पहुँचकरअपने बड़े पुत्र यदु से अवस्था विनिमय के यह वचन बोले ।।         
         👇
परन्तु यदु ने राजा के प्रस्ताव को अनुचित मानकर  अस्वीकार कर दिया
हरिवंश पुराण में भी यह वर्णन इस प्रकार से है 
"स एवम् उक्तो यदुना राजा कोप समन्वित:उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर् गर्हयन् सुतम्।27।
•-यदु के ऐसा कहने पर (अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले !
     👇
"क आश्रय: तव अन्योऽस्ति को वा धर्मो विधीयते।माम् अनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक:।।28।
•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है। मैं तो तेरा (देशिक)गुरु हूँ (फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।28।
किंतु महाराज ययाति ने भी परंपरा के विरुद्ध जाकर अपने बड़े पुत्र यदु को राजा न बनाकर अपने सबसे छोटे पुरु को राजा बना दिया।
और अन्त नें ज्येष्ठ पुत्र यदु को दक्षिण दिशा में जाकर रहने और  राज्य हीन होने का ययाति द्वारा शाप दे दिया गया जैसा कि आगामी श्लोक वर्णन करता है।
लगभग सभी पुराणों में कुछ अन्तर से यह प्रचीन आख्यान समान ही है ।
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निम्नलिखित रूप में देखें भागवत पुराण से ययाति प्रसंग में यदुवंश वर्णन-

"श्रीमद्भागवतपुराणम् -स्कन्धःनवम -अध्यायः (१८)"ययाति-चरितम्" 

                 (श्रीशुक उवाच ) 
"यतिर्ययातिःसंयातिःआयतिर्वियतिः कृतिः। 
षडिमे नहुषस्यासन् इन्द्रियाणीव देहिनः ॥१॥
राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित् । यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥२॥
पितरि भ्रंशिते स्थानाद् इन्द्राण्या धर्षणाद्‌ द्विजैः। प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः॥३॥
चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः। कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः॥४॥      
                "श्रीराजोवाच" 
ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः । राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः॥५॥ 
                  "श्रीशुकोवाच" 
"एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका।सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी ॥६॥
देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसंकुले। 
व्यचरत् कलगीतालि नलिनीपुलिनेऽबला।७।
ता जलाशयम आसाद्य कन्याः कमललोचनाः।
तीरे न्यस्य दुकूलानिविजह्रुःसिञ्चतीर्मिथः।८।
वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम्।सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताःस्त्रियः।९।
शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत्।
स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानी इदमब्रवीत् ।१०।
अहो निरीक्ष्यतामस्यादास्याःकर्म ह्यसाम्प्रतम्।अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे ।११।
यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये।
धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाः प्रदर्शितः।१२।
यान् वन्दन्ति उपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः।भगवानपि विश्वात्मा पावनःश्रीनिकेतनः।१३।
वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरःअस्मद्धार्यंधृतवतीशूद्रोवेदमिवासती।१४।
एवं क्षिपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीं अभाषत। 
रुषा श्वसन्ति उरंगीघ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा।१५।
आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि। 
किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा।१६।
एवंविधैःसुपरुषैः क्षिप्त्वाऽऽचार्यसुतां सतीम्।शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे वासे आदाय मन्युना॥१७॥
तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन्। 
प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह॥१८॥
दत्त्वा स्वमुत्तरं वासः तस्यै राजा विवाससे।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं उज्जहार दयापरः॥१९॥
तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा । 
राजन् त्वया गृहीतो मे पाणिःपरपुरञ्जय॥२०॥
हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे। 
एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः। 
यदिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम्।२१।
न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज। 
कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा।२२।
ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनःमनस्तु तद्‍गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः।२३।
गते राजनि सा धीरे तत्र स्म रुदती पितुः। न्यवेदयत् ततः सर्वं उक्तं शर्मिष्ठया कृतम्।२४।
दुर्मना भगवान् काव्यःपौरोहित्यं विगर्हयन् । स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात्।२५।
वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीक विवक्षितम् । 
गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि।२६।
क्षणार्ध मन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः। कामोऽस्याःक्रियतांराजन् नैनांत्यक्तुमिहोत्सहे।२७।
तथेति अवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम्। 
पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु॥२८।
"स्वानां तत् संकटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम् । देवयानीं पर्यचरत् स्त्रीसहस्रेण दासवत्॥२९॥
नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना। 
तमाहराजन् शर्मिष्ठांआधास्तल्पे न कर्हिचित्।३०।
विलोक्यौशनसीं राजन् शर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित्। तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती॥ ३१॥
राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित्।  स्मरन् शुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत ॥३२॥
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत, द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥३३॥
गर्भसंभवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी । 
देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्छिता॥३४॥
प्रियां अनुगतः कामी वचोभिः उपमन्त्रयन्। 
न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः॥३५॥
शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष।
 त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम्।३६।
              "श्रीययातिरुवाच"
अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते। व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति।३७।
इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत। 
यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः ॥३८॥
मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम् । 
वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः ॥३९॥   
                    "यदुरुवाच" 
नोत्सहे जरसा स्थातुं अन्तरा प्राप्तया तव ।अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः।४०।
तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत । प्रत्याचख्युरधर्मज्ञाह्यनित्ये नित्यबुद्धयः॥४१॥
अपृच्छत् तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम् ।          न त्वं अग्रजवद्वत्स मांप्रत्याख्यातुमर्हसि।४२।
                 "श्रीपूरुवाच"
"को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान्। प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम् ॥४३॥
उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी तु मध्यमः । अधमोऽश्रद्धया कुर्याद् अकर्तोच्चरितं पितुः॥४४॥
इति प्रमुदितः पूरुःप्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः।      सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप॥४५॥
सप्तद्वीपपतिःसम्यक् पितृवत् पालयन् प्रजाः। यथोपजोषं विषयान् जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः।४६।
देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग् देहवस्तुभिः। 
प्रेयसः परमां प्रीतिं उवाह प्रेयसी रहः॥४७॥
अयजद् यज्ञपुरुषं  क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः। 
सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम् ।४८॥
यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदालि:नानेव भाति नामाति स्वप्नमायामनोरथः॥४९॥ 
तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम् । नारायणमणीयांसं निराशीरयजत् प्रभुम् ॥५०॥
एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम्। विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमःकदिन्द्रियैः।५१
इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणेपारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः।१८।
अनुवाद-★ ययाति-चरित्र -श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जैसे शरीरधारियों के छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति,आयति, वियति और कृति। नहुष अपने बड़े पुत्र यति को राज्य देना चाहते थे। परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया;क्योंकि वह राज्य पाने का परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदि में भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूप को नहीं समझ सकता। 
जब इन्द्र पत्नी शची से सहवास करने की चेष्टा करने के कारण नहुष को ब्राह्मणों ने इन्द्रपद से गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजा के पद पर ययाति बैठे। ययाति ने अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगा। राजा परीक्षित ने पूछा-  'भगवन्! भगवान् शुक्राचार्य जी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वर का प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ ? श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन! दानवराज वृषपर्वा की एक बड़ी मानिनी कन्या थी।  उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ अपनी राजधानी के श्रेष्ठ उद्यान में टहल रही थी। उस उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवर में कमल खिले हुए थे और उन पर बड़े ही मधुर स्वर से भौंरे गुंजार कर रहे थे। उसकी ध्वनि से सरोवर का तट गूँज रहा था। जलाशय के पास पहुँचने पर उन सुन्दरी कन्याओं ने अपने-अपने वस्त्र तो घाट पर रख दिये और उस तालाब में प्रवेश करके वे एक-दूसरे पर जल उलीच-उलीचकर क्रीड़ा करने लगीं।उसी समय उधर से पार्वती जी के साथ बैल पर चढ़े हुए भगवान् शंकर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवर से निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। शीघ्रता के कारण शर्मिष्ठा ने अनजान में देवयानी के वस्त्र को अपना समझकर पहन लिया। इस पर देवयानी क्रोध के मारे आग-बबूला हो गयी। उसने कहा- अरे, देखो तो सही, इस दासी ने कितना अनुचित काम कर डाला! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञ का हविष्य उठा ले जाये, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं। जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है, जो परमपुरुष परमात्मा के मुखरूप हैं, जो अपने हृदय में निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्मा को धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिये वैदिक मार्ग का निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र-ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना और सेवा करते हैं-और तो क्या, लक्ष्मी जी के एकमात्र आश्रय परापावन विश्वात्मा भगवान् भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं-उन्हीं ब्राह्मणों में हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इस पर भी इस दुष्टा ने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ों को पहन लिया है’ जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिन के समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतों से होठ दबाकर कहा- 'भिखारिन! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बात का भी पता है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ों के लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरों की ओर नहीं ताकती रहतीं’। शर्मिष्ठा ने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानी का तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कुऐं में ढकेल दिया।शर्मिष्ठा के चले जाने के बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जल की आवश्यकता थी, इसलिये कुएँ में पड़ी हुई देवयानी को उन्होंने देख लिया। उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया। देवयानी ने प्रेम भरी वाणी से वीर ययाति से कहा- ‘वीरशिरोमणे राजन् ! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीर श्रेष्ठ ! कूएँ में गिर जाने पर मुझे जो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान् का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हम लोगों की या और किसी मनुष्य की कोई चेष्टा नहीं है। वीरश्रेष्ठ! पहले मैंने बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दे दिया था, इस पर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’।ययाति को शास्त्र प्रतिकूल होने के कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परन्तु उन्होंने देखा कि प्रारब्ध ने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है और मेरा मन भी इसकी ओर खिंच रहा है। इसलिये ययाति ने उसकी बात मान ली। वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्य के पास पहुँची और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया। शर्मिष्ठा के व्यवहार से भगवान् शुक्राचार्य जी का भी मन उचट गया। वे पुरोहिताई की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजार में से कबूतर की तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अतः अपनी कन्या देवयानी को साथ लेकर वे नगर से निकल पड़े। जब वृषपर्वा को यह मालूम हुआ तो उनके मन में यह शंका हुई कि गुरु जी कहीं शत्रुओं की जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करने के लिये पीछे-पीछे गये और रास्ते में उनके चरणों पर सिर के बल गिर गये। भगवान शुक्राचार्य जी का क्रोध तो आधे ही क्षण का था। उन्होंने वृषपर्वा से कहा- ‘राजन्! मैं अपनी पुत्री देवयानी को नहीं छोड़ सकता। 
इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलने में कोई आपत्ति न होगी’। जब वृषपर्वा ने ‘ठीक है’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानी ने अपने मन की बात कही। उसने कहा- ‘पिताजी मुझे जिस किसी को दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों के साथ मेरी सेवा के लिये वहीं चले’। शर्मिष्ठा ने अपने परिवार वालों का संकट और उनके कार्य का गौरव देखकर देवयानी की बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियों के साथ दासी के समान उसकी सेवा करने लगी। शुक्राचार्य जी ने देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया और शर्मिष्ठा को दासी के रूप में देकर उनसे कह दिया- ‘राजन! इसको अपनी सेज पर कभी न आने देना’।
परीक्षित! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठा ने भी अपने ऋतुकाल में देवयानी के पति ययाति से एकान्त में सहवास की याचना की। शर्मिष्ठा की पुत्र के लिये प्रार्थना धर्म संगत है- यह देखकर धर्मज्ञ राजा ययाति ने शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी यही निश्चय किया कि समय पर प्रारब्ध के अनुसार जो होना होगा, हो जायेगा।देवयानी के दो पुत्र हुए- यदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए- द्रुह्यु, अनु और पूरु। जब मानिनी देवयानी को यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठा को भी मेरे पति के द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोध से बेसुध होकर अपने पिता के घर चली गयी। कामी ययाति ने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदि के द्वारा देवयानी को मनाने की चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँ तक गये भी; परन्तु मना न सके। शुक्राचार्य जी ने भी क्रोध में भरकर ययाति से कहा- ‘तू अत्यन्त स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीर में वह बुढ़ापा आ जाये, जो मनुष्यों को कुरूप कर देता है’। ययाति ने कहा- ‘ब्रह्मन् ! आपकी पुत्री के साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप से तो आपकी पुत्री का भी अनिष्ट ही है।’ इस पर शुक्राचार्य जी ने कहा- ‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नता से तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो’। शुक्राचार्य  ने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानी में आकर ययाति ने अपने बड़े पुत्र यदु से कहा- ‘बेटा! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नाना का दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र! मैं अभी विषयों से तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षों तक और आनन्द भोगूँगा’।यदु ने कहा- ‘पिताजी! बिना समय के ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जब तक विषय-सुख का अनुभव नहीं कर लेता, तब तक उसे उससे वैराग्य नहीं होता’।परीक्षित! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु ने भी पिता की आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रों को धर्म का तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीर को ही नित्य मान बैठे थे। अब ययाति ने अवस्था में सबसे छोटे किन्तु गुणों में बड़े अपने पुत्र पूरु को बुलाकर पूछा और कहा- ‘बेटा! अपने बड़े भाइयों के समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये’। पूरु ने कहा- ‘पिताजी! पिता की कृपा से मनुष्य को परम पद की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में पुत्र का शरीर पिता का ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्था में ऐसा कौन है, जो इस संसार में पिता के उपकारों का बदला चुका सके? उत्तम पुत्र तो वह है जो पिता के मन की बात बिना कहे ही कर दे। कहने पर श्रद्धा के साथ आज्ञा पालन करने वाले पुत्र को मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होने पर भी अश्रद्धा से उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है और जो किसी प्रकार भी पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिता का मल-मूत्र ही है।परीक्षित! इस प्रकार कहकर पूरु ने बड़े आनन्द से अपने पिता का बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयों का सेवन करने लगे। वे सातों द्वीपों के एकच्छत्र सम्राट् थे। पिता के समान भलीभाँति प्रजा का पालन करते थे। उनकी इन्द्रियों में पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयों का यथेच्छ उपभोग करते थे।देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययाति को अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओं के द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्त में सुख देने लगी। राजा ययाति ने समस्त वेदों के प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान श्रीहरि का बहुत-से बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से यजन किया। जैसे आकाश में दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्मा के स्वरूप में यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्य के समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपों के रूप में प्रतीत होता है और कभी नहीं भी।वे परमात्मा सबके हृदय में विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान् श्रीनारायण को अपने हृदय में स्थापित करके राजा ययाति ने निष्काम भाव से उनका यजन किया। इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उन्होंने अपनी उच्छ्रंखल इन्द्रियों के साथ मन को जोड़कर उसके प्रिय विषयों को भोगा। परन्तु इतने पर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययाति की भोगों की तृप्ति न हो सकी।
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इस प्रकार यादवों के वंश प्रवर्तक यदु का वर्णन पुराणों में कुछ अस्त-व्यस्त सा होगया है।
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       (अध्याय तृतीय )

"श्रीराधा-माधव एवं उनके परिकरों (सेवकों) आदि का परिचय (व्रज-लीला के सन्दर्भ में तथा आभीर जाति के अन्तर्गत यादव-वंश के वृष्णि कुल में अवतरित "कृष्ण" का चरित्र वर्णन" 

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जैसे-(नन्द के पिता-पर्जन्य- और माता-वरीयसी पितामह- देवमीढ़ और पितामही - गुणवती-थीं। 
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
१-कृष्ण के पितामह—पर्जन्य।
२-पितामही–वरीयसी। 
कृष्ण की पालिका माता यशोदा के पिता- माता जिनके साथ कृष्ण के नाना नानी का सम्बन्ध होने पर -३-मातामह—-सुमुख-। ४-मातामही –पाटला-। 
(सुमुख और पाटला यशोदा के माता-पिता)
★-कृष्ण के ताऊ ( नन्द को पिता मानने पर)
५-तातगु-(ताऊ) — उपनन्द एवं अभिनन्द।
६-ताई— क्रमश: तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
७-पीवरी (अभिनन्द की पत्नी)।
८-चाचा — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन । 
९-चाची — क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), 
१०-अतुल्या (नन्दन की पत्नी) ।
११-फूफा (वपस्वसापति)-महानील एवं सुनील ।
१२-बुआ क्रमश:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), 
१३-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी)।
१४-कृष्ण के पिता—महाराज नन्द।
१५-बड़ी माता—महारानी रोहिणी-(वसुदेव की पत्नी एवं बलरामजी की जननी)। 
१६-माता—महारानी यशोदा । 
१७-मामा (यशोदा के चार भाई थे)—यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव।
१८-मौसा —मल्ल ( जिनकी पत्नी—यशस्विनी जो कृष्ण की मौसी ( मातृस्वसा थीं) (एक मत से मौसा का  दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
१९-मौसी—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा)। 
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२०-पितामह के समान पूज्य गोप —गोष्ठ, कल्लोल, करुण्ड, तुण्ड, कुटेर, पुरट आदि।
पितामही के समान पूजनीया वृद्धा गोपियाँ — शिलाभेरी, शिखाम्बरा, भारुणी, भंगुरा,भंगी, भारशाखा, शिखा आदि।
२१-पिता के समकक्ष पूज्य गोप–कपिल, मंगल, पिंगल, पिंग, माठर, पीठ, पट्टिश, शंकर, संगर, भृंग, घृणि, घाटिक, सारघ, पटीर, दण्डी, केदार, सौरभेय, कलांकुर, धुरीण, धुर्व, चक्रांग, मस्कर, उत्पल, कम्बल, सुपक्ष, सौधहारीत, हरिकेश, हर, उपनन्द आदि। 
२‍२-माता के समान पूजनीया गोपांगनागण — वत्सला, कुशला, ताली, मेदुरा, मसृणा, कृपा, शंकिनी, बिम्बिनी, मित्रा, सुभगा, भोगिनी, प्रभा, शारिका, हिंगुला, नीति, कपिला, धमनीधरा, पक्षति, पाटका, पुण्डी, सुतुण्डा, तुष्टि, अंजना, तरंगाक्षी, तरलिका, शुभदा, मालिका, अंगदा, विशाला, शल्लकी, वेणा, वर्तिका आदि। 
इनके घर प्रायः आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — सुलता, गौतमी, यामी, चण्डिका आदि थीं। 
२३-मातामह के तुल्य पूज्य गोप — किल, अन्तकेल, तीलाट, कृपीट, पुरट, गोण्ड, कल्लोट्ट, कारण्ड, तरीषण, वरीषण, वीरारोह, वरारोह आदि। २४-मातामही के तुल्य पूजनीया वृद्धा गोपियाँ — भारुण्डा, जटिला, भेला, कराला, करवालिका, घर्घरा, मुखरा, घोरा, घण्टा, घोणी, सुघण्टिका, ध्वांक्षरुण्टी हण्डि, तुण्डि, डिण्डिमा, मंजुवाणिका, चक्कि, चोण्डिका, चुण्डी, पुण्डवाणिका, डामणी, डामरी, डुम्बी, डंका आदि।
२५-स्तन्यपान करानेवाली धात्रियाँ—अम्बिका तथा किलिम्बा (अम्बा), धनिष्ठा आदि। 
२६-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम(रोहिणीजी के पुत्र) ।२७-ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
नित्य-सखा — 
(१) सुहृद्वर्ग के सखा—सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं । ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
 इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।
(२)सखावर्ग के सखा—सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। 
ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे। 
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि। 
(३)प्रियसखावर्ग के सखा—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।
ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
 इन सबमें मुख्य हैं —श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं।
इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण( छोटा कन्हैया)भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।
स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं। 
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
विदूषक सखा – मधुमंगल, पुष्पांक, हासांक, हंस आदि श्रीकृष्णके विदूषक सखा हैं। 
विट—कडार, भारतीबन्धु, गन्ध, वेद, वेध आदि श्रीकृष्ण के विट (प्रणय में सहायक सेवक) हैं। आयुध धारण करानेवाले सेवक—रक्तक, पत्रक, पत्री, मधुकण्ठ, मधुव्रत, शालिक, तालिक, माली, मान, मालाधर आदि श्रीकृष्ण के वेणु, श्रृंग, मुरली, यष्टि, पाश आदि की रचना करनेवाले एवं इन्हें धारण करानेवाले तथा श्रृंगारोचित विविध वनधातु जुटानेवाले दास हैं।
वेश-विन्यास की सेवा —प्रेमकन्द, महागन्ध, दय,मकरन्द प्रभृति श्रीकृष्ण को नाना वेशों में सजाने की अन्तरंग सेवामें नियुक्त हैं। ये पुष्परससार (इत्र)—से श्रीकृष्ण के वस्त्रों को सुरभित रखते हैं। इनकी सैरन्ध्री (केश सँवारनेवाली का)-का नाम है।
मधुकन्दला। 
वस्त्र-संस्कारसेवा — सारंग, बकुल आदि श्रीकृष्ण के वस्त्र-संस्कार की सेवा में नियुक्त रजक हैं। अंगराग तथा पुष्पालंकरण की सेवा —सुमना, कुसुमोल्लास, पुष्पहास, हर आदि तथा सुबन्ध, सुगन्ध आदि श्रीकृष्णचन्द्र की गन्ध, अंगराग, पुष्पाभरण आदि की सेवा करते रहते हैं।
भोजन-पात्र, आसनादि की सेवा —विमल, कमल आदि श्रीकृष्ण के भोजनपात्र, आसन (पीढ़ा) आदि की सँभाल रखनेवाले परिचारक हैं।
जल की सेवा – पयोद तथा वारिद आदि श्रीकृष्णचन्द्र के यहाँ जल छानने की सेवामें निरत रहते हैं।
ताम्बूल की सेवा — श्रीकृष्णचन्द्र लिये सुरभित ताम्बूल का बीड़ा सजानेवाले हैं —सुविलास, विशालाक्ष, रसाल, जम्बुल, रसशाली, पल्लव, मंगल, फुल्ल, कोमल, कपिल आदि।
ये ताम्बूल का बीड़ा बाँधने में अत्यन्त निपुण हैं। 
ये सब श्रीकृष्ण के पास रहनेवाले, विविध विचित्र चेष्टा करके, नाच—कूदकर, मीठी चर्चा सुनाकर मनोरंजन करनेवाले सखा हैं।
चेट—भंगुर, भृंगार, सान्धिक, ग्रहिल आदि श्रीकृष्ण के चेट (नियत काम करनेवाले सेवक) हैं। चेटी—कुरंगी, भृंगारी, सुलम्बा, लम्बिका आदि श्रीकृष्ण की चेटियाँ हैं। 
प्रमुख परिचारिकाएँ – नन्द—भवन की प्रमुख परिचारिकाएँ हैं—धनिष्ठा, चन्दनकला, गुणमाला, रतिप्रभा, तड़ित्प्रभा, तरुणी, इन्दुप्रभा, शोभा, रम्भा आदि। धनिष्ठा तो श्रीकृष्णचन्द की धात्री तथा व्रजरानी की अत्यन्त विश्वासपात्री भी हैं।
उपर्युक्त सभी पानी छिड़कने, गोबर से आँगन आदि लीपने, दूध औटाने आदि अन्तःपुर के कार्यों में अत्यन्त कुशला हैं। गुप्तचर और भीड़
खराग -चर—चतुर, चारण, धीमान्, पेशल आदि इनके उत्तम चर हैं। ये नानावेश बनाकर गोप—गोपियों में विचरण करते रहते हैं। 
दूत—केलि तथा विवाद में कुशल विशारद, तुंग, वावदूक, मनोरम, नीतिसार आदि इनके कुंज–सम्मेलन के उपयोगी दूत हैं। 
दूतिकाएँ — पौर्णमासी, वीरा, वृन्दा, वंशी, नान्दीमुखी, वृन्दारिका, मेना, सुबला तथा मुरली प्रभृति इनकी दूतिकाएँ हैं। 
ये सब—की—सब कुशला, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन कराने में दक्षा तथा कुंजादि को स्वच्छ रखने आदि में निपुणा हैं। ये वृक्षायुर्वेद का ज्ञान रखती हैं तथा प्रिया—प्रियतम के स्नेहसे पूर्ण हैं। इनमें वृन्दा सर्वश्रेष्ठ हैं।
वृन्दा तपाये हुए सोने की कान्ति के समान परम मनोहरा हैं। नील वस्त्र का परिधान धारण करती हैं तथा मुक्ताहार एवं पुष्पों से सुसज्जित रहती हैं।
ये सदा वृन्दावन में निवास करती हैं, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन चाहनेवाली हैं तथा उनके प्रेम से परिप्लुता हैं।
वंदीगण — नन्द-दरबार के वन्दीगणों में सुविचित्र — रव और मधुररव श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं। नर्तक —(नन्द-सभा के) इनके प्रिय नर्तक हैं — चन्द्रहास, इन्दुहास, चन्द्रमुख आदि। नट — (अभिनय करनेवाले) — इनके प्रिय नट हैं — सारंग, रसद, विलास आदि। गायक — इनके प्रिय गायक हैं — सुकण्ठ, सुधाकण्ठ आदि।
रसज्ञ तालधारी — भारत, सारद, विद्याविलास सरस आदि सर्व प्रकार की व्यवस्था में निपुण इनके तालधारी समाजीगण हैं। 
मृदंग-वादक — सुधाकर, सुधानाद एवं सानन्द — ये इनके गुणी मृदंग—वादक हैं। 
गृहनापित — क्षौरकर्म, तैल-मर्दन, पाद-संवाहन, दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहनापित।
सौचिक (दर्जी) — इनके कुल के निपुण दर्जी का नाम है — रौचिक। 
रजक (धोबी) — सुमुख, दुर्लभ, रंजन आदि इनके परिवार के धोबी हैं। हड्डिप ( मेहतर) — पुण्यपुंज तथा भाग्यराशि इनके परिवार के भंगी हैं। स्वर्णकार ( सुनार) — इनके तथा इनके परिवार के लिये विविध अलंकार-आभूषण आदि बनानेवाले रंगण तथा रंकण नामक दो सुनार हैं।
कुम्भकार (कुम्हार) — पवन तथा कर्मठ नाम से इनके दो कुम्हार हैं, जो इनके परिवार के लिये प्रयुक्त होनेवाले कलश, गागर, दधिभाण्डादि बनाते हैं। 
काष्ठशिल्पी ( बढ़ई) — वर्द्धक तथा वर्द्धमान नाम के इनके दो कुल—बढ़ई हैं, जो इनके लिये शकट, खाट आदि लकड़ी की चीजों का निर्माण करते हैं। अन्य निजी शिल्पी एवं कारुगण — कारव, कुण्ड, कण्ठोल, करण्ड, कटुल आदि ऐसे घरेलू शिल्पी कारुगण हैं, जो इनके गृह में काम आनेवाला — जेवड़ी, मथनिया, कुठार, पेटी आदि सामान बनाते रहते हैं। 
चित्रकार — सुचित्र एवं विचित्र नाम के दो पटु चित्र—शिल्पी इनके प्रिय पात्र हैं।
गायें — इनकी प्रिय गायों के नाम हैं-मंगला, पिंगेक्षणा, गंगा, पिशंगी, प्रपातशृंगी, मृदंगमुखी, धूमला, शबला, मणिकस्तनी, हंसी, वंशी—प्रिया आदि। 
बलीवर्द (बैल) — पद्यगन्ध तथा पिशंगाक्ष आदि इनके प्रिय बैल हैं।
हरिण ( मृग)-इनके प्रिय मृग का नाम है सुरंग । मर्कट — इनका एक प्रिय बन्दर भी है, उसका नाम है — दधिलोभ। श्वान — व्याघ्र और भ्रमरक नाम के दो कुत्ते भी श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं।
हंस — इनके पास एक अत्यन्त सुमनोहर हंस भी है, जिसका नाम है — कलस्वन।
मयूर — इनके प्रिय मयूरों के नाम हैं शिखी और ताण्डविक।
तोते — इनके दक्ष और विचक्षण नाम के दो प्रिय तोते हैं। 
महोद्यान — साक्षात् कल्याणरूप श्रीवृन्दावन ही इनका परम मांगलिक महोद्यान है। 
क्रीड़ापर्वत — श्रीगोवर्धनपर्वत इनकी रमणीय क्रीड़ास्थली है।
घाट — इनका प्रिय घाट नीलमण्डपिका नाम से विख्यात है। मानसगंगा का पारंगघाट भी इन्हें अतिशय प्रिय है।
इस घाट पर सुविलसतरा नाम की एक नौका श्रीकृष्णचन्द्र के लिये सदा प्रस्तुत रहती है। 
निभृत गुहा — ‘मणिकन्दली’ नामक कन्दरा इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
मण्डप — शुभ्र, उज्ज्वल शिलाखण्डों से जटित एवं विविध सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित ‘आमोदवर्धन’ नाम का इनका निज-मण्डप है। सरोवर – इनके निज—सरोवर का नाम ‘पावन सरोवर’ है, जिसके किनारे इनके अनेक क्रीड़ाकुंज शोभायमान हैं। 
कुंज — इनके प्रिय कुंज का नाम ‘काममहातीर्थ’ है। लीलापुलिन — इनके लीलापुलिन का नाम ‘अनंग-रंगभूमि’ है।
निज-मन्दिर — नन्दीश्वरपर्वत पर ‘स्फुरदिन्दिर’ नामक इनका निज-मन्दिर है।
दर्पण — इनके दर्पण का नाम ‘शरदिन्दु’ है।
पंखा (व्यञ्जन) — इनके पंखे को ‘मधुमारुत’ कहा जाता है। 
लीला — कमल तथा गेंद — इनके पवित्र लीला—कमल का नाम ‘सदास्मेर’ है एवं गेंद का नाम ‘चित्र—कोरक’ है।
धनुष—बाण — ‘विलासकार्म्मण’ नामक स्वर्ण से मण्डित इनका धनुष है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है। 

वीणा — इनकी वीणा ‘तरंगिणी’ नाम से विख्यात है।
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राग — गौड़ी तथा गुर्जरी नामकी रागिनियाँ श्रीकृष्णको अतिशय प्रिय हैं।
दण्ड ( वेत्र या यष्टिक) — इनके अंत (वेत्र या लड़ी) का नाम ‘मण्डन’ है।
दोहनी — इनकी दोहनी का नाम ‘ अमृत दोहनी’ है। आभूषण — श्रीकृष्णचन्द्र के नित्य प्रयोग में आनेवाले आभूषणों में से कुछ नाम निम्नोक्त हैं — (१) नौ रत्नों से जटित ‘महारक्षा’ नामक रक्षायन्त्र इनकी भुजा में बँधा रहता है। (२) कंकण — चंकन। (३) मुद्रिका – रत्नमुखी। (४) पीताम्बर — निगमशोभन। (५) किंकिणी — कलझंकारा। (६) मंजीर — हंसगंजन। (७) हार — तारावली। (८) मणिमाला — तड़ित्प्रभा। (९) पदक — हृदयमोहन (इसपर श्रीराधा की छवि अंकित है)। (१०) मणि — कौस्तुभ। (११) कुण्डल – रत्यधिदेव और रागाधिदेव (मकराकृत)। (१२) किरीट – रत्नपार। (१३) चूड़ा — चामरडामरी। (१४) मयूरमुकुट — नवरत्न-विडम्ब। (१५) गुंजाली – रागवल्ली। (१६) माला — दृष्टिमोहिनी। (१७) तिलक — दृष्टिमोहन। चरणों में चिह्न दाहिना चरण — अँगूठे के बीच में जौ, उसके बगल में ऊध्वरेखा, मध्यमा उँगली के नीचे कमल, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, जौ के नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, कमल के नीचे ध्वजा, अंकुश के नीचे वज्र, एड़ी के मध्यभाग में अष्टकोण, उसकी चारों दिशाओं में चार सथिये (स्वस्तिक) और उनके बीच में चारों कोनों में चार जामुन के फल — इस प्रकार कुल ग्यारह चिह्न हैं। बायाँ चरण —अँगूठे के नीचे शंख, उसके बगल में मध्यमा उँगली के नीचे दो घेरों का दूसरा शंख, उन दोनों के नीचे चरण के दोनों पार्श्व को छूता हुआ बिना डोरी का धनुष, धनुष के नीचे तलवे के ठीक मध्यम गाय का खुर, खुर के नीचे त्रिकोण, त्रिकोण के नीचे अर्धचन्द्र (जिसका मुख ऊपरकी ओर है), एड़ी में मत्स्य तथा खुर एवं मत्स्य के बीच चार कलश (जिनमें से दो त्रिकोण के आसपास और दो चन्द्रमा के नीचे अगल—बगल में स्थित हैं) —
इस प्रकार कुल आठ-चिह्न हैं।
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पिता — वृषभानु ।
माता — कीर्तिदा। 
पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु 
फूफा — काश।
बुआ — भानुमुद्रा। 
भ्राता — श्रीदामा।
कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी। 
मातामह — इन्दु।
मातामही — मुखरा।
मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
मौसा — कुश।
मौसी — कीर्तिमती।
धात्री — धातकी।
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(१) सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं। 
(२) नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं। 
(३) प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं। 
(४) प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं। 
(५) परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं।
विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। 
ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं। 
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी। 
वनवासिनी सखियाँ — मल्ली, भृंगी तथा मतल्ली नामकी पुलिन्द—कन्यकाएँ श्रीराधारानी की वनवासिनी सखियाँ हैं। चित्र बनानेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी के लिये भाँति-भाँति के चित्र बनाकर प्रस्तुत करनेवाली सखी का नाम चित्रिणी है।
कलाकार सखियाँ — रसोल्लासा, गुणतुंगा, स्मरोद्धरा आदि श्रीराधारानी की कला—मर्मज्ञ सखियाँ हैं।
वनादिकों में साथ जानेवाली सखियाँ — वृन्दा,कुन्दलता आदि सहचरियाँ श्रीराधा के साथ वनादिकों में आती—जाती हैं।
व्रजराज के घर पर रहनेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रियपात्री धनिष्ठा, गुणमाला आदि सखियाँ हैं, जो व्रजराज के घर पर ही रहती हैं।
मंजरियाँ — अनंगमंजरी, रूपमंजरी, रतिमंजरी, लवंगमंजरी, रागमंजरी, रसमंजरी, विलासमंजरी, प्रेममंजरी, मणिमंजरी, सुवर्णमंजरी, काममंजरी, रत्नमंजरी, कस्तूरीमंजरी, गन्धमंजरी, नेत्रमंजरी, पद्ममंजरी, लीलामंजरी, हेममंजरी आदि श्रीराधारानी की मंजरियाँ हैं।
इनमें रतिमंजरी श्रीराधाजी को अत्यन्त प्रिय हैं तथा वे रूप में भी इनके ही समान हैं।
धात्रीपुत्री — कामदा है। 
यह श्रीराधारानी के प्रति सखीभाव से युक्त है। सदा साथ रहनेवाली बालिकाएँ — तुंगी, पिशंगी, कलकन्दला, मंजुला, बिन्दुला, सन्धा, मृदुला आदि बालिकाएँ सदा सर्वदा इनके साथ रहती हैं।
मन्त्र—तन्त्र—परामर्शदात्री सखियाँ — श्रीराधारानी को यन्त्र—मन्त्र—तन्त्र क्रिया के सम्बन्ध में परामर्श देनेवाली सखियों का नाम है — दैवज्ञा एवं दैवतारिणी।
राधा के घर आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — गार्गी आदि। 
वृद्धादूती — कात्यायनी आदि।
मुख्यदूती — महीसूर्या।

चेटीगण — (बँधा काम करनेवाली दासिकाएँ)—श्रृंगारिका आदि। मालाकार-कन्याएँ — माणिकी, नर्मदा एवं प्रेमवती, नामकी मालाकार कन्याएँ श्रीराधारानी की सेवामें नियुक्त रहती हैं।
ये सुन्दर, सुरभित कुसुमों एवं पद्मों का संचयन करके प्रतिदिन प्रात:काल श्रीराधारानी को भेंट करती हैं। श्रीराधारानी प्रायः इन्हें हृदयसे लगाकर इनकी भेंट स्वीकार करती हैं। सैरन्ध्री — पालिन्द्री। दासीगण—रागलेखा, कलाकेलि, मंजुला, भूरिदा आदि इनकी दासियाँ हैं।
गृह-स्नापित-कन्याएँ — श्रीराधारानी के उबटन (अंगराग), अलक्तकदान एवं केश—विन्यास की सेवा सुगन्धा एवं नलिनी नाम की दो स्नापित—कन्याएँ करती हैं।यही इनको स्नान कराती हैं। अत: इस कारण से  स्नापिता संज्ञा इनकी सार्थक है। ये दोनों ही श्रीराधारानी को अतिशय प्यारी हैं।
गृह-रजक-कन्याएँ — मंजिष्ठा एवं रंगरागा श्रीराधारानी के वस्त्रों का प्रक्षालन करती हैं।
इन्हें श्रीराधारानी अत्यधिक प्यार करती हैं। 
हड्डिप-कन्याएँ — भाग्यवती एवं पुण्यपुंजा श्रीराधारानी के घर की मेहतर—कन्याएँ हैं।
 विटगण — सुबल, उज्ज्वल, गन्धर्व, मधुमंगल, रक्तक, विजय, रसाल, पयोद आदि इनके विट (श्रीकृष्ण से मिलन कराने में सहायक) हैं।
                 कुल-उपास्यदेव —
भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं। परन्तु सूर्यदेव को सृष्टि का प्रकाशक होने से उनकी भी अर्चना ये करती हैं।
गायें — सुनन्दा, यमुना, बहुला आदि इनकी प्रिय गायें हैं।    
गोवत्सा — तुंगी नाम की गोवत्सा इन्हें अत्यन् प्रिय है। 
हरिणी — रंगिणी। चकोरी — चारुचन्द्रिका। हंसिनी — तुण्डीकेरी (यह श्रीराधाकुण्ड में सदा विचरण करती रहती है)।
सारिकाएँ – सूक्ष्मधी और शुभा —ये इनकी प्रिय सारिकाएँ हैं। 
मयूरी — तुण्डिका। वृद्धा मर्कटी — कक्खटी। आभूषण — श्रीराधारानी के निम्नोक्त आभूषणों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त भी भाँति—भाँति के अनेक आभूषण उनके प्रयोग में आते हैं — तिलक — स्मरयन्त्र।
हार — हरिमनोहर। रत्नताटंक जोड़ी — रोचन। घ्राणमुक्ता (बुलाक) — प्रभाकरी । पदक — मदन (इसके भीतर वे श्रीकृष्ण की प्रतिच्छवि छिपाये रहती हैं)। कटक (कडूला)-जोड़ा — चटकाराव। केयूर (बाजूबन्द)-जोड़ा — मणिकर्बुर।
मुद्रिका — विपक्षमर्दिनी (इस पर श्रीराधा का नाम उत्कीर्ण है)। करधनी (कांची) — कांचनचित्रांगी। नूपुर-जोड़ी — रत्नगोपुर — इनकी शब्द—मंजरी से श्रीकृष्ण व्यामोहित—से हो जाते हैं। 
मणि — सौभाग्यमणि — यह मणि शंखचूड के मस्तक से छीनी गयी थी । 
यह एक साथ ही सूर्य एवं चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त है।
वस्त्र — मेघाम्बर तथा कुरुविन्दनिभ नाम के दो वस्त्र इन्हें अत्यन्त प्रिय हैं।
मेघाम्बर मेघकान्ति के सदृश है, वह श्रीराधारानी को अत्यन्त प्रिय है।
कुरुविन्दनिभ रक्तवर्ण है तथा श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है। दर्पण — मणिबान्धव (इसकी शोभा चन्द्रमा को भी लजाती है)। रत्नकंकती (कंघी) — स्वस्तिदा। सुवर्णशलाका — नर्मदा।
श्रीराधा की प्रिय सुवर्णयूथी (सोनजुही का पेड़) — तडिद्वल्ली।
 वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
(नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है। 
रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है। 
चरणों में चिह्न — बायाँ पैर — अंगुष्ठ—मूल में जौ, उसके नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, छत्र के नीचे कंकण, अंगुष्ठ के बगल में ऊर्ध्वरेखा, मध्यमा के नीचे कमल का फूल, कमल के फूल के नीचे फहराती हुई ध्वजा, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, एड़ी में अर्धचन्द्र–मुँह उँगलियों की ओर। अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा के ऊपर दायीं ओर पुष्प एवं बायीं ओर लता — इस प्रकार कुल ११ चिह्न हैं। दाहिना पैर —अँगूठे के नीचे शंख, अँगूठे के पार्श्व की दो उँगलियों के नीचे पर्वत, अन्तिम दो उँगलियों के नीचे यज्ञवेदी, शंख के नीचे गदा, यज्ञवेदी के नीचे कुण्डल, कुण्डल के नीचे शक्ति, एड़ी में मत्स्य और मत्स्य के ऊपर मध्यभाग में रथ — इस प्रकार कुल ८ चिह्न हैं। 
हाथों के चिह्न बायाँ हाथ —तीन रेखाएँ हैं।
पाँचों अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच नद्यावर्त, अनामिका के नीचे हाथी, ऊपर की दो रेखाओं के बीच में अनामिका के नीचे सीध में घोड़ा, जिसके पैर अँगुलियों की ओर हैं, 
उसके नीचे दूसरी और तीसरी रेखाओं के बीच में वृषभ, दूसरी रेखा के बगल में कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, अँगूठे के नीचे ताड़ का पंखा, हाथी और अंकुश के बीच में बेल का पेड़, अँगूठे के सामने पंखे के बगल में बाण, अंकुश के नीचे तोमर, वृषभ के नीचे माला। दाहिना हाथ — तीन रेखा वैसी ही।अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच शंख, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, तर्जनी के नीचे चँवर, हथेली के मध्य में महल, उसके नीचे नगाड़ा, अंकुश के नीचे वज्र, महल के आसपास दो छकड़े, नगाड़े के नीचे धनुष, धनुष के नीचे तलवार, अँगूठे के नीचे झारी है ।।  
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    "राधा परिवार परिचय प्रकरण समाप्त "
अहीरों में दुर्गुण जितने कटु रूप में दिखाए गये हैं 
सद्गुण भी उतने ही माधुर्य पूर्ण और और  
महिमामण्डित रूप नें दृष्टिगोचर हुए हैं।
एक और स्मृतियों तथा कहीं कहीं पुराणों रामायण तथा महाभारत मूसलपर्व आदि में अहीर जाति को  शूद्र " महाशूद्र ,अशुभदर्शी वर्णसङ्कर और विदेशी आदि तो दूसरी तरफ़ ही स्वयं  महाभारत के द्रोणपर्व और सभापर्व आदि में  अहीरों को ,आर्य ,शूराभीर, ईश्वरीय सत्ताओं के अंश रूप में वर्णित किया है। तथा जिसके चरणों की धूल लेने के लिए देवत्रयी के तीनों देवता ब्रह्मा " विष्णु और महेश चरण धूलि लेने के लिए व्याकुल रहते हैं।
विदित हो कि पद्म पुराण " स्कन्द पुराण और नान्दी पुराण आदि में  अहीरों की जाति में ही यदुवंश का प्रादुर्भाव होने कि वर्णन है और उसी यदुवंश के वृष्णि कुल( खानदान) में कृष्ण के अवतरण का वर्णन हैं। यह सत्य है कि पुराणों में  परस्पर विराधाभासी वर्णन ही है । वस्तुत: ये वैदिक साहित्य के इतर प्राचीन से लेकर आजतक  जिस किसी ने अहिरों पर लिख दिया-वह कृति अमर और कालजयी बन गई। संस्कृत के महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग के ४५ वें श्लोक में अहीरों को घोष  कह उन्हें घी-दूध से सम्पन्न बताया है ।
मार्ग में चलते गाँवों के अहीर गायों का तुरन्त 
निकाला हुआ मक्खन( हैयंगवीन)लेकर राजा को भैंट करने के लिए आगे आते थे।
उनसे बाते करते हुए राजा और रानी मार्ग के आसपास के वनों और उनमें उत्पन्न वृक्षों के नाम आदि उनसे पूछते हुए जाते थे।१/४५
कालिदास ने अहीरों को घोष रूप में वर्णन करते हुए उन्हें पशुधन से सम्पन्न तथा हैयंग (नवनीत)राजा के लिए उपहार रूप में 
देने वाला बताया।हिन्दी पद्य सहित्य के भक्ति काल में  तुलसीदास,सूरदास,मीराबाई सहित तथा अष्टछाप के अन्य  भक्त-कवियों ने तथा राजस्थान के लोक कवि "ईसरदास" ने भी अहीर जाति में भगवान के अवतरण कि बात कही है। 
भारतीय हिंदी साहित्याकाश के सूर्य सूरदास का 
सम्पूर्ण साहित्य ही अहीर जाति के रंग में सराबोर है। वे अहीर कृष्ण का परिचय इस प्रकार देते है-
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हम तौ नंद-घोष के बासी।
नाम गुपाल जाति कुल गोपक, गोप गुपाल उपासी॥
गिरवर धारी गोधन चारी, बृंदावन अभिलाषी।  राजा नंद जसोदा रानी, सजल नदी जमुना सी॥
ऊधौ कोउ नाहिं न अधिकारी।
लै न जाहु यह जोग आपनौ, कत तुम होत दुखारी॥
यह तौ बेद उपनिषद मत है, महा पुरुष ब्रतधारी।कम अबला अहीरि ब्रज-बासिनि, नाहीं परत सँभारी॥
को है सुनत कहत हौ कासौं, कौन कथा बिस्तारी।सूर स्याम कैं संग गयौ मन, अहि काँचुली उतारी॥6॥
वै बातैं जमुना-तीर की।कबहुँक सुरति करत हैं मधुकर, हरन हमारे चीर की॥
लीन्हे बसन देखि ऊँचे द्रुम, रबकि चढँन बलबीर की।देखि-देखि सब सखी पुकारतिं, अधिक जुड़ाई नीर की॥
दोउ हाथ जोरि करि माँगैं, ध्वाई नंद अहीर की।सूरदास प्रभु सब सुखदाता, जानत हैं पर पीर की॥7॥
जिसकी प्रशंसा मुनि ,देवता करते है उन अहिरो को सूरदास धन्य कहते हैं,-
सूर -सुर-मुनि मुखनि अस्तुति ,धन्य गोपी कान्ह।
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कबहुँ सुधि करत गुपाल 
हमारी-सूरदास
सूरसागर दशम स्कन्ध (राग मलार) नंद-बचन
"कबहुँ सुधि करत गुपाल हमारी।
पूछत पिता नंद ऊधौ सौ, अरु जसुदा महतारी।।
बहुतै चूक परी जनजानत, कहा अबकै पछिताने।वासुदेव घर भीतर आए, मैं अहीर करि जाने।।
पहिलै गर्ग कह्यौ हुतौ हमसौ, संग दुःख गयौ भूल।
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दूसरी महती साधिका
मीराबाई का जन्म सन 1498 ईस्वी में पाली के कुड़की गांव में में दूदा जी के चौथे पुत्र रतनसिंह के घर हुआ।ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। उदयपुर के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो में वाड़के महाराणा सांगा के पुत्र थे। मीराबाई ने अपनी पदावली में कहा है कृष्ण के विषय में कृष्ण की अनन्य साधिका राजस्थान को राजपूत घराने की कृष्ण-भक्ति साधिका "मीराबाई लिखती है-
(मीराँ प्रकाशन समिति भीलबाड़़ा राजस्थान)
"मीरा सुधा सिन्धु" पृष्ठ संख्या- (९५८)
(मुरली के पद १५-)
व्रजभाव-प्रभाव-
मुरलिया कैसे धरे जिया धीर।०।
मधुवन बाज वृन्दावन वाजी तट जमुना के तीर।
बैठ कदंब पर वंशी बजाई , फिर भयो जमुना नीर।१।
'मीराँ के प्रभू गिरिधर-नागर आखिर जात अहीर।
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राजस्थान के लोक कवि-भक्तकविमहात्मा- ईसरदास प्रणीत)महात्मा" इसरदास" १६वीं सदी के हिंदू संत-कवि थे, जिनकी पूजा पूरे गुजरात और भारत के राजस्थान राज्यों में की जाती है। 
वह चमत्कारी कार्य करने से जुड़े हैं, इसलिए इसे 'इसारा सो परमेसर' कहा जाता है।
देवियां और हरिरास और हला-झालारा कुंडलिया जैसी लोकप्रिय कृतियों का श्रेय इसरदास को दिया जाता है।ईसरदास ने कृष्ण को अहीर कहते हुए वर्णन किया 
"नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूँ चारण हरिगुण चवां , सागर भरियो क्षीर।।
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गोस्वामी  तुलसी दास भी अहिरो के निर्मल मन ,स्वतंत्र व्यक्तित्व,मनमौजी प्रवृति का बताया ।
जो तुलसीदास उत्तर काण्ड में एक स्थान पर अहीरों को पाप रूप कहते हैं।
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 129से आगे छंद चोपाई:
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भावार्थ: अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं,!
 उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।
वहीं तुलसीदास उत्तर काण्ड में अन्यत्र अहीरों के विषय में कहते हैं।
भावार्थ-उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। 
निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है॥6॥
       (राम चरित मानस-उत्तर काण्ड)
उन्हें अहीरों की सरलता,सहजता ने इस कदर आकर्षित किया कि उन्हें निर्मल मन का प्रतीक बनाना पड़ा।
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 गोप "आभीर  "यादव और "घोष जैसे शब्द प्राचीन काल से एक ही मानव-जाति के विभिन्न गुणों के आधार पर विशेषण  व पर्याय हैं। 
"गोपाभीरयादवा एकैव वंशजातीनाम् त्रतये।विशेषणा:वृत्तिभिश्च प्रवृत्तिभिर्वंशानां प्रकारा:सन्ति। च प्रवृतय: जातीनाम् मूले सन्ति !
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याभिर्वृंदावनमनुगतो नंदसूनुःक्षपासु रेमे चंद्रांशुकलितसमुद्योतभद्रे निकुञ्जे।
तासां दिष्टं किमहमधुना वर्णये बल्लवीनां यासां साक्षाच्चरणजरजः श्रीशविध्याद्यलभ्यम् ।८०-१०९।
यत्र प्राप्तास्तृणमृगखगा ये कृमिप्राणिवृन्दा वृन्दारण्ये विधिहररमाभ्यर्हणीया भवन्ति।
वृन्दावन के कुँज में चन्द्रमा की किरणों से प्लावित रात्रि में नन्दपुत्र श्रीकृष्ण ने गोपीगण के साथ रास-नृत्य मूलक(हल्लीशम्) आनन्दक्रीड़ा की थी ; भला उन गोपी गण के भाग्य का गायन मैं कैसे कर सकता हूँ ? 
उन गोपी गण की चरण-रज लेने के लिए इन्द्र आदि देवता ही नहीं अपितु स्वयं देवत्रयी के  प्रतिनिधि ब्रह्मा,विष्णु और महेश भी व्यग्र रहते हैं 
वृन्दावन के तृण ,मृग पक्षी और कृमि पर्यन्त प्राणीगण भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पूज्यत्तम हैं । वृन्दावन में जो कोई भी प्राणी भक्तिभाव से  इन अद्वैत ब्रह्म की उपासना करेगा वह आनन्द-सिन्धु में प्लावित हो जायेगा ।
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यहाँ एक बात विचारणीय है कि ,साधारण देव इन्द्र आदि की तो बात ही छोड़ो बल्कि सृष्टि के तीन काल और तीन गुणों ( सत,रज और तम के प्रतिनिथि ईश्वर के प्रतिरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गोप- गोपिकाओं के पैरों की धूल लेने के आकाँक्षी हैं। गोप गोपिकाओं की महानता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ?
सन्दर्भ:बृहद् नारद पुराण बृहद उपाख्यान में उत्तर-भागका वसु महिनीसंवाद के अन्तर्गत वृन्दावन महात्म्य नामक अस्सीवाँ अध्याय।
श्रीमद्भागवतपुराणम् - स्कन्धः (९)-अध्यायः (२४)
                   (श्रीशुक उवाच)
तस्यां विदर्भोऽजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ
तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम् ।१।
रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोः कृतिरजायत
उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृपाः ।२।
क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्वृष्णिस्तस्याथ निर्वृतिः
ततो दशार्हो नाम्नाभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः।३।
जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः
ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः ।४।
करम्भिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः
देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः ।५।
पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुःसात्वतस्ततः
भजमानोभजिर्दिव्योवृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः।६।
सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष
भजमानस्य निम्लोचिः किङ्कणो धृष्टिरेव च।७।
एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः
शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो ।८।
बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठन्त्यमू
यथैव शृणुमोदूरात्सम्पश्यामस्तथान्तिकात् ।९।
बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः
पुरुषाःपञ्चषष्टिश्चषट्सहस्राणि चाष्ट च।१०।
येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि
महाभोजोऽतिधर्मात्माभोजाआसंस्तदन्वये।११।
वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परन्तप
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निघ्नोऽभूदनमित्रतः।१२।
सत्राजितःप्रसेनश्च निघ्नस्याथासतुः सुतौ
अनमित्रसुतोयोऽन्यःशिनिस्तस्य च सत्यकः।१३।
युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः
युगन्धरोऽनमित्रस्यवृष्णिःपुत्रोऽपरस्ततः ।१४।
श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः
अक्रूरप्रमुखा आसन्पुत्रा द्वादश विश्रुताः।१५।
आसङ्गःसारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्गिरिः
धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः।१६।
शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश
तेषां स्वसा सुचाराख्या द्वावक्रूरसुतावपि ।१७
देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः
पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः ।१८।
कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः
कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः ।१९।
कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ।२०।
             (अरिद्योतः पाठभेदः)
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः।२१।
देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप।२२।
शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः।२३।
कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा।
राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः।२४।
कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः।२५।
शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः
शिनिस्तस्मात्स्वयंभोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः।२६।
देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ।२७।
तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ।२८।
सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम्
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि।२९।
वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः।३०।
राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः
कुन्तेःसख्युःपिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात् ।३१।
शाप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात्
तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिः।३२।
तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा
प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे।३३।
अमोघं देवसन्दर्शमादधे त्वयि चात्मजम्
योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे ।३४।
इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः
सद्यः कुमारः सञ्जज्ञे द्वितीय इव भास्करः।३५।
तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती
प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः।३६।
श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्
यस्यामभूद्दन्तवक्र ऋषिशप्तो दितेः सुतः।३७।
कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविन्दत
सन्तर्दनादयस्तस्यां पञ्चासन्कैकयाः सुताः।३८।
राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह
दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत् ।३९।
शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य सम्भवः
देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद्बलौ ।४०।
कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा
बकःकङ्कात्तुकङ्कायांसत्यजित्पुरुजित्तथा।४१।
सृञ्जयोराष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्हरिकेशहिरण्याक्षौ 
शूरभूम्यां च श्यामकः ।४२।
मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन्वत्सकस्तथा
तक्षपुष्करशालादीन्दुर्वाक्ष्यां वृक आदधे।४३।
सुमित्रार्जुनपालादीन्समीकात्तु सुदामनी
आनकः कर्णिकायां वै ऋतधामाजयावपि ।४४।
पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला
देवकीप्रमुखाश्चासन्पत्न्य आनकदुन्दुभेः।४५।
बलं गदं सारणं च दुर्मदं विपुलं ध्रुवम्
वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत् ।४६।
सुभद्रो भद्र बाहुश्च दुर्मदो भद्र एव च
पौरव्यास्तनया ह्येते भूताद्या द्वादशाभवन् ।४७।
नन्दोपनन्दकृतक शूराद्या मदिरात्मजाः
कौशल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।४८।
रोचनायामतो जाता हस्तहेमाङ्गदादयः
इलायामुरुवल्कादीन्यदुमुख्यानजीजनत्।४९।
विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुन्दुभेः
शान्तिदेवात्मजा राजन्प्रशमप्रसितादयः।५०।
राजन्यकल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश
वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट्सुताः।५१।
देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः
वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया।५२।
प्रवरश्रतमुख्यांश्च साक्षाद्धर्मो वसूनिव
वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत्।५३।
कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्र सेनमुदारधीः
ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं सङ्कर्षणमहीश्वरम्।५४।
अष्टमस्तु तयोरासीत्स्वयमेव हरिः किल
सुभद्रा च महाभागा तव राजन्पितामही।५५।
यदा यदा हि धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः
तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः।५६।
न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते
आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्र ष्टुरात्मनः।५७।
यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि
अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते।५८।
अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलाञ्छनैः
भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः।५९।
कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरेश्वरैः
सहसङ्कर्षणश्चक्रे भगवान्मधुसूदनः।६०।
कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्
अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद्यशः।६१।
यस्मिन्सत्कर्णपीयुषे यशस्तीर्थवरे सकृत्
श्रोत्राञ्जलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम् ।६२।
भोजवृष्ण्यन्धकमधु शूरसेनदशार्हकैः
श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः ।६३।
स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया
नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया ।६४।
यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम्
नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च।६५।
जातो गतः पितृगृहाद्व्रजमेधितार्थो हत्वा रिपून्सुतशतानि कृतोरुदारः
उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे आत्मानमात्मनिगमं प्रथयन्जनेषु ।६६।
पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणामन्तः समुत्थकलिना युधि भूपचम्वः
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ।६७।____________________________________

हिन्दी अर्थ-•नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद:- विदर्भ के वंश का वर्णन:-      
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! 
राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद। रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का पुत्र चेदि हुआ। राजन ! इस चेदि के वंश में ही दमघोष और शिशुपाल आदि हुए। क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि,धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम और व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ औरदशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से जन्म हुआ।  परीक्षित ! मधु
 सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य,( सात्वत-पुत्र वृष्णि प्रथम), देवावृध, अन्धक और महाभोज।  भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।
सात्वत पाँचवें पुत्र देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं। बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है। 
इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर (चौदह हजार पैंसठ) मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं।’
सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए। परीक्षित !   
वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के ( युधाजित् पुत्र शिनि प्रथम)  और अनमित्र-ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ । सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी "निम्न" के ही पुत्र थे। 
अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था (अनमित्र पुत्र शिनि द्वितीय) शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। 
सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम ( अनमित्र-पुत्र वृष्णि द्वितीय ) था। इन्हीं वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र और उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु।इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा।  अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव।श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं। सात्वत के पुत्र (अन्धक प्रथम)  के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि।  उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का ( कपोतरोमा पुत्र अनु द्वितीय) हुआ। तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र (अन्धक द्वितीय), अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इन चारों की सात बहिनें भी थीं- धृतदेवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव  ने इन सबके साथ विवाह किया था।  
परन्तु पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १३ में वसुदेव की देवक द्वारा प्रदत्ता कन्याओं का पत्नियों के रूप में वर्णन भिन्न है। देखें निम्न श्लोकों को-
देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा।              श्रीदेवा चोपद देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा।श्रीदेवा चोपदेवा च सुरूपा चेति सप्तमी।५७।।      
नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद:-उग्रसेन के नौ पुुत्र  थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान और उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं
-कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था। 
चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से (भजमान पुत्र शिनि तृतीय), शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए। हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और (नौबत) मंगलसूचक वाद्य जो पहर पहर भर पर देवमंदिरों, राजप्रसादों था बड़े आदमियों के द्वार पर बजता है।) वे स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए।
वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी । वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी।                    
पृथा ने दुर्वासा ऋषि को प्रसन्न करके उनसे देवताओं को बुलाने की विद्या सीख ली।            एक दिन उस विद्या के प्रभाव की परीक्षा लेने के लिये पृथा ने परम पवित्र भगवान् सूर्य का आवाहन किया।उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्ती का हृदय विस्मय से भर गया।उसने कहा- ‘भगवन! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करने के लिये ही इस विद्या का प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’। सूर्यदेव ने कहा- ‘देवि! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिय हे सुन्दरी! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा।' यह कहकर भगवान सूर्य ने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखने में दूसरे सूर्य के समान जान पड़ता था। पृथा लोकनिन्दा से डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःख से उस बालक को नदी के जल में छोड़ दिया। परीक्षित! उसी पृथा का विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डु से हुआ था, जो वास्तव में बड़े सच्चे वीर थे। परीक्षित! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था।उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए।
चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्ध में) कर चुका हूँ।
वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए। 
आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित। 
नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध:  
चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद)-सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये।  इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू)  नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष          नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए।    वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये।शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।आनकदुन्दुभि वसुदेव  की पौरवी, रोहिणी,    भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं।रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम,गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि। नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए वसुदेव के पुत्र थे।    कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न      किया था।उसका नाम था केशी; उसने रोचना     
से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से            उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को          जन्म दिया। परीक्षित ! वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और        शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि              कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए  और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए।  देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए. तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को          उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा    के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न  किये। परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से
भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के
नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी।
उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।   
इसके लिए देखें निम्न श्लोकों को
श्लोक -
प्रवरश्रुतमुख्यांश्च साक्षाद् धर्मो वसूनिव ।
वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत्॥५३ ॥
कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्रसेनमुदारधी: ।
ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं सङ्कर्षणमहीश्वरम्।५४ ॥
अष्टमस्तु तयोरासीत् स्वयमेव हरि: किल ।
सुभद्राच महाभागा तव राजन् पितामही।५५।
प्रवर—प्रवर या पौवर; श्रुत—श्रुत; मुख्यान्—प्रमुख, इत्यादि; च—तथा; साक्षात्—साक्षात्; धर्म:—धर्म रूप; वसून् इव—स्वर्ग लोक के प्रमुख वसुओं की तरह; वसुदेव:—कृष्ण के पिता वसुदेव ने; तु—निस्सन्देह; देवक्याम्—देवकी के गर्भ से; अष्ट—आठ; पुत्रान्—पुत्रों को; अजीजनत्—उत्पन्न किया; कीर्तिमन्तम्—कीर्तिमान को; सुषेणम् च—तथा सुषेण को; भद्रसेनम्—भद्रसेन को; उदार-धी:—सभी योग्य; ऋजुम्—ऋजु को; सम्मर्दनम्—सम्मर्दन को; भद्रम्—भद्र को; सङ्कर्षणम्—संकर्षण को; अहि-ईश्वरम्— परम नियन्ता एवं नाग के अवतार; अष्टम:—आठवाँ; तु—लेकिन; तयो:—दोनों के (देवकी तथा वसुदेव के); आसीत्—प्रकट हुए; स्वयम् एव—साक्षात्; हरि:—भगवान्; किल—क्या कहा जाय; सुभद्रा—सुभद्रा बहिन; च—तथा; महाभागा—सौभाग्यशालिनी; तव—तुम्हारी; राजन्—हे महाराज परीक्षित; पितामही—दादी ।.
सहदेवा से उत्पन्न प्रवर और श्रुत इत्यादि आठों पुत्र स्वर्ग के आठों वसुओं के हूबहू अवतार थे। वसुदेव ने देवकी के गर्भ से भी आठ योग्य पुत्र उत्पन्न किये। इनमें कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, सम्मर्दन, भद्र तथा शेषावतार संकर्षण सम्मिलित हैं। आठवें पुत्र साक्षात् भगवान् कृष्ण थे। परम सौभाग्यवती सुभद्रा एकमात्र कन्या तुम्हारी दादी थी।
 ५५ वें श्लोक में कहा गया है—स्वयमेव हरि: किल, जिससे सूचित होता है कि देवकी का आठवाँ पुत्र कृष्ण भगवान् हैं। कृष्ण अवतार नहीं हैं। यद्यपि भगवान् हरि एवं उनके अवतार में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु कृष्ण आदि परम पुरुष हैं, वे पूर्ण ईश्वर हैं। अवतारों में ईश्वर की कुछ ही प्रतिशत शक्तियाँ पाई जाती हैं, किन्तु कृष्ण तो स्वयं पूर्ण ईश्वर हैं जो देवकी के आठवें पुत्र के रूप में प्रकट हुए।
(परन्तु हरिवंशपुराण हरिवंशपर्व अध्याय -(३५) तथा महाभारत के अनुसार भी सुभद्रा रोहिणी की पुत्री है। 
पौरवी रोहिणी नाम बाह्लिकस्यात्मजाभवत्।
ज्येष्ठा पत्नी महाराज दयिताऽऽनकदुन्दुभेः।४।

लेभे ज्येष्ठं सुतं रामं सारणं शठमेव च।
दुर्दमं दमनं श्वभ्रं पिण्डारकमुशीनरम् ।५।
चित्रां नाम कुमारीं च रोहिणीतनया दश।
चित्रा सुभद्रेति पुनर्विख्याता कुरुनन्दन।६।           पुरुवंश की रोहिणी वाल्हिका की पुत्री थी । हे राजा वह वसुदेव की पहली और सबसे प्यारी पत्नी थी।४-।
वासुदेव ने रोहिणी से अपने ज्येष्ठ पुत्र बलराम, शारण , शठ , दुर्दम, दमन , स्वभ्र, पिंडारक , उशीनारा और चित्रा नाम की एक पुत्री को जन्म दिया। हे कुरु-वंशज, यह चित्रा थी जो सुभद्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई। ५-६।        जब संसार में धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं।परीक्षित! भगवान् सब के द्रष्टा और वास्तव में  असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का और कोई भी कारण नहीं है। (उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है)। और उनका अनुग्रह ही माया को अलग करके  आत्मस्वरूप को प्राप्त करने वाला है। जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वी को रौंदने लगे, तब पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान् मधुसूदन बलराम  के साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध में बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकते-शरीर से करने की बात तो अलग रही। पृथ्वी का भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुग में पैदा होने वाले भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान् ने ऐसे परम पवित्र यश का विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे।नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 62-67 का अनुवाद- उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करने वाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतों के कानों के लिये तो वहसाक्षात् -अमृत ही है। एक बार भी यदि कान की अंजलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं।
परीक्षित ! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे। उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोहर विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्य लोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था। भगवान् के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे।उनकी आभा से कपोलों का सौन्दर्य और भी खिल उठता था। 
जब वे विलास के साथ हँस देते, तो उनके मुख पर निरन्तर रहने वाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरने से उनके गिराने वाले निमि पर खीझते भी। 
लीला पुरुषोत्तम भगवान अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेव जी के घर, परन्तु वहाँ वे रहे नहीं, वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन-जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था-पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया। बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया। कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हलका कर दिया और युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया।फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधाम को सिधार गये। इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायःइति नवमः स्कन्धः समाप्तः
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भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम्यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् ।६।
गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्कृतम्रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुलेअन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।७।
देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाममामकम्तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे  सन्निवेशय ।८।
अथाहमंशभागेन देवक्याः पुत्रतां शुभे प्राप्स्या 
अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम्धूप: उपहार बलिभिः सर्वकामवरप्रदाम् ।१०।
नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुविदुर्गेति भद्र कालीति विजया वैष्णवीति च ।११।
कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च मायानारायणीशानीशारदेत्यम्बिकेति च ।१२।
गर्भसङ्कर्षणात्तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि रामेति लोकरमणाद्बलभद्रं बलोच्छ्रयात् ।१३।
सन्दिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचः प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाकरोत् ।१४।
गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणीं योगनिद्र या अहो विस्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः ।१५।
अर्थ •-दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय (पूर्वार्ध) श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय: 
श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद भगवान का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति 
विश्वात्मा भगवान ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाले यदुवंशी कंस के द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को यह आदेश दिया - 'देवि ! कल्याणी ! तुम ब्रज में जाओ ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओं से सुशोभित है। वहाँ नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी निवास करती है। उसकी और भी पत्नियाँ कंस से डरकर गुप्त स्थानों में रह रहीं हैं। 
इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकी के उदर में गर्भ रूप से स्थित है। 
उसे वहाँ से निकालकर तुम रोहिणी के पेट में रख दो, कल्याणी ! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना। तुम लोगों को मुँह माँगे वरदान देने में समर्थ हो ओगी।मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजाकरेंगे। पृथ्वी में लोग तुम्हारे लिए बहुत से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत से नामों से पुकारेंगे। 
देवकी के गर्भ से खींचे जाने के कारण शेष जी को लोग संसार में ‘संकर्षण’ कहेंगे, लोकरंजन करने के कारण ‘राम’ कहेंगे और बलवानों में श्रेष्ठ होने कारण ‘बलभद्र’ भी कहेंगे।' जब भगवान ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमाया ने ‘जो आज्ञा’, ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वी-लोक में चली आयीं तथा भगवान ने जैसा कहा था वैसे ही किया। जब योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणी के उदर में रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःख के साथ आपस में कहने लगे - 'हाय ! बेचारी देवकी का यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया।' भगवान भक्तों को अभय करने वाले हैं। वे सर्वत्र सब रूप में हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिए वे वसुदेव जी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गय।
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इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे गर्भगतिविष्णोर्ब्रह्मादिकृतस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः
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   👇-👇 "दशम स्कन्ध के पैंतालीसवें अध्याय में एक स्थान पर भागवत पुराणकार ने ययाति के यदु को दिए गये शाप का वर्णन तो किया परन्तु भागवतपुराणकार की बातों का समन्वयपरक प्रस्तुतिकरण संगत नहीं किया है। जो श्लोकों के प्रक्षिप्त होने का प्रमाण है । कदाचित् ये मिलाबटें कालान्तरण में हुईं क्यों कि यदुवंशी उग्रसेन भी थे और कृष्ण भी; परन्तु कृष्ण यदुवंशी होने से राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं परन्तु उग्रसेन यदुवंश के होने पर क्यों बैठते हैं जैसा कि भागवत के इन श्लोकों में दर्शाया है। देखिए निम्न श्लोकों को             
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(श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय)
अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए !"क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।१३।अब ---मैं पूँछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ? यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह शाप उन पर क्यों लागू नहीं हुआ ? यद्यपि यह श्लोक गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड अध्याय षष्ठम् में  वर्णन है कि ।👇-
उग्रसेनो यादवेन्द्रो राजराजेश्वरो महान् ॥जंबूद्वीपनृपाञ्जित्वा राजसूयं करिष्यति ॥४॥
•-यादवेन्द्र उग्रसेन ने जम्बूदीप के अनेक राजाओं को जीत कर राजसूय यज्ञ करेंगे । फिर तो यह तथ्य असंगत ही है ;कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। यही बात भागवत पुराण के समान ब्रह्म पुराण अध्याय १९४ में भी है 👇-
उग्रसेनं ततो बन्धान्मुमोच मधुसूदनः। अभ्यषिञ्चत्तथैवैनं निजराज्ये हतात्मजम्।९।
राज्येऽभिषिक्तः कृष्णेन यदुसिंहः सुतस्य हरिः।
चकार प्रेतकार्याणि ये चान्ये तत्र घातिताः।।१०।
कृतौर्ध्वदैहिकं चैनं सिंहासनगतं हरिः।
उवाचाऽऽज्ञापय विभो यत्कार्यमविशङ्कया।११।
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ययातिशापाद्वंशोऽयमराज्यार्होऽपि सांप्रतम्।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नृपैः।१२ ।
इत्युक्त्वा चोग्रसेनं तु वायुं प्रति जगाद ह।
नृवाचा चैव भगवान्केशवः कार्यमानुषः।१३ ।
अर्थात् ययाति का शाप होने से हम राज्य पद के योग्य नहीं हैं ।
( ब्रह्म पुराण अध्याय १९४)
"अत्रावतीर्णयोःकृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतःकस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।३२।
दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्। तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।३३
यद्यपि कालान्तरण में ग्रन्थों के प्रकाशन काल में भी अनेक मिलाबटों के रूप में जोड़ -तोड़ हो जाने पर भी अनेक प्रक्षेप व विरोधाभासी श्लोक देखने को मिलते हैं । जैसे भागवत पुराण में देखें ये कुछ विरोधाभासी श्लोक •👇
रोहिण्यास्तनय: प्रोक्तो राम: संकर्षस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्त विना।८।(भागवतपुराण दशम् स्कन्ध अध्याय प्रथम)
भगवन् आपने बताया कि बलराम रोहिणी के पुत्र थे ।इसके बाद देवकी के पुत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ? दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है ? ।८।
तब द्वित्तीय अध्याय के श्लोक संख्या (८) में शुकदेव परिक्षित् को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।👇-
भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम्यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् ।६।
गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्कृतम्रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुलेअन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।७।
देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम्तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ।८।
अथाहमंशभागेन देवक्याः पुत्रतां शुभेप्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।९।
अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम्धूपोपहारबलिभिः  सर्वकामवरप्रदाम्।१०।
नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुविदुर्गेतिभद्रकालीति विजया वैष्णवीति च ।११।
कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति चमाया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ।१२।
गर्भसङ्कर्षणात्तं वै प्राहुःसङ्कर्षणं भुविरामेतिलोकरमणाद्बलभद्रंबलोच्छ्रयात् ।१३।
सन्दिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचःप्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाकरोत् ।१४।
गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणीं योगनिद्र याअहो विस्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः ।१५।
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इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे गर्भगतिविष्णोर्ब्रह्मादिकृतस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः।
भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योग मायां समादिशत्।6।
गच्छ देवि व्रजंभद्रे गोप गोभिरलंकृतम्।          रोहिणी वसुदेवस्य भार्याऽऽस्ते नन्द गोकुले।अन्याश्च कंस संविग्ना विवरेषु वसन्ति हि।7।
देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय ।।8।
अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे !
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि।9।
अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सबकुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को आदेश दिया।6।  
"कि देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है ।वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं । उनकी और भी अन्य पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7। इस समय मेरा अंश जिसे 'शेष' कहते हैं।देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है ! उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8। कल्याणि !अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से पुत्री बन कर जन्म लेना ।9।
अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं  देखिए -👇
"गर्भ संकर्षणात् तं  वै प्राहु: संकर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13।
अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच जाने के कारण से (संकर्षणात्)  शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे । चलो ! ये संकर्षण की व्युत्पत्ति तो कुछ सही है ।👇-
(जैसा कि धातुपाठ क्षीरतरंगिणी आदि में 'कृष्' धातु का अर्थ है- खुरचना खींचना तथा हल-चलाना है और जो कृषि करता है वह कृष्ण या संकर्षण है - (कृष्- विलेखने हलोत्किरणम् कर्षति इति कृष्ण संकर्षण वा )
कृष्ण और संकर्षण दोनों शब्द कृषक और कृषि मूलक हैं। देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में संकृष्ट करने का आख्यान अनेक पुराणों में है परन्तु जो शब्द व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि से तो सही है परन्तु एक गर्भ से खींचकर दूसरे के गर्भ में स्थापित करना अतिरञ्जना पूर्ण है जो पूर्णत: प्रकृति के नियमों के विरुद्ध ही है ।।
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अब भागवत पुराण के दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में ही गर्गाचार्य संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण (Etymological Analization) दूूूसरी प्रकार से ही करते हैं; जो वस्तुत: व्याकरण सम्मत नहीं है। 👇
यह श्लोक परवर्ती काल में कुछ द्वेष वादीयों ने भागवत में जोड़ दिया है जो तथ्यों के विपरीत ही है। देखें वह श्लोक 
-१-अयं हि रोहिणी पुत्रो २-रमयन् सुहृदो गुणै:आख्यास्यते राम इति !३बलाधिक्याद् बलं विदु: ४-("यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत")।12)
गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा। यह अपने सगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा ! इसलिए इसका नाम राम भी होगा। इसके बल की कोई सीमा नहीं है इस लिए इसका नाम बल भी होगा। 
यहाँ तक तो रौहिणेय ,राम और बल शब्दों की व्युत्पत्ति सही हैं।परन्तु संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-ही यहाँ पूर्ण रूपेण काल्पनिक व असंगत है। -जो भागवतपुराण की प्रमाणिकता व प्राचीनता को संदिग्ध करती है ।👇
संकर्षण व्युत्पत्ति-के सन्दर्भों में भागवतपुराणकार ने दूसरी बार कहा कि इसका नाम संकर्षण इस लिए होगा कि "यह यादवों और गोपों में कोई भेदभाव नहीं करेगा ! और लोगों में फूट पड़ने पर मेल कराएगा इसीलिए इसका नाम संकर्षण भी होगा (👈)यहाँ संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरण सम्मत नहीं है । यद्यपि इस श्लोक का सही अर्थ भी इस प्रकार है।
कि 'यादवानाम्(यादवों में ही )अपृथग्भावात्-अपृथक के भाव से अर्थात एकीकरण करने से-यह संकर्षण कह लाएगा) परन्तु गीताप्रेस के अनुवादक ने गोप शब्द अनुवाद में कहाँ से उत्पन्न किया है यह पता नहीं।
जबकि पूर्व में देवकी के गर्भ से संकृष्ट (खीचें जाने होने से)संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति सही की गयी है।और दूसरा इस श्लोक के प्रक्षिप्त(नकली) होने का कारण गोप शब्द का अर्थ है ।
(यद्यपि यहाँ गोप शब्द वाच्य नही है फिर भी गीता प्रेस के अनुवादकों ने यह अर्थ अपने और से अर्थ में समाहित कर लिया है ।अत: यह श्लोक भी प्रक्षिप्त ही है। जबकि गोप भी गोपालक यादव ही थे जैसा कि गोपाल चम्पू में वर्णित है । गोपाल चम्पू भागवत पुराण का ही प्राचीन भाष्य है। 
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"गर्ग- उवाच":-भवन्तो (यदुवीजत्वेऽपि वैश्यततीज्य मातृवंशान्वयिता तद्गुरुपद व्यागतैरेव कर्म कारयितव्या:न तु मया )।६०।
"व्रजराजनन्द उवाच:-भवेदेवं किन्तु क्वचिदुत्सर्गेऽपि अपवादवर्ग वाधतेऽपि अधिकारीविशेषश्लेषमासाद्य यथैवहिंसाकर्मनिवृत्ति वद्धश्रृद्ध प्रति यज्ञेपि पशुहिंसा तस्माद् भवतां ब्राह्मणभावादुत्सर्ग सिद्धद्धा गुरुता श्रद्धाविशेषवतामस्माकं किले कथं लघुतामाप्रोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता: तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:।एतदुपरि निजपुरोहितानामपि हितमपि हितमहसा करिष्याम:।।६१।।
हे नन्द ! आप यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गण के पूज्य हैं। और मातृवंश का सम्बन्ध रहने के कारण  जो समस्त ब्राह्मण वैश्य गण के गुरु हैं। वे ही आपके इस संस्कार कर्म को सम्पादित करेंगे न कि मैं गर्गाचार्य ! ।।६०।।
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"गर्गसंहिता-गोलोकखण्ड" में वर्णन है कि एक बार जब मथुरा नगरी में शूरसेन के राजभवन में अचानक गर्गाचार्य पधारे तो लोगों द्वारा जब उनके विषय में ज्ञात हुआ कि गर्गाचार्य ज्योतिष शास्त्र के प्रमाणित विद्वान हैं उसी समय शूरसेन सभा के सभी यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें उसी समय अपने पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित किया। गर्ग संहिता गोलोकखण्ड अध्याय (नवम)
"गर्गसंहिता‎ | खण्डः (१) (गोलोकखण्डः)  इससे पहले ये यादवों के कुल गुरु नहीं थे।

वसुदेव-देवकी विवाहवर्णनम्

तत्रैकदा श्रीमथुरापुरे वरे
     पुरोहितः सर्वयदूत्तमैः कृतः ।
शूरेच्छया गर्ग इति प्रमाणिकः
     समाययौ सुन्दरराजमन्दिरम् ॥ १ ॥

श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! एक समय की बात है, श्रेष्ठ मथुरा पुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्गजी पधारे। वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े प्रामाणिक विद्वान थे ; सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें उसी समय अपने पुरोहित के पद पर प्रतिष्ठित किया था। गर्गसंहिता गोलोकखण्ड अध्याय(नवम)  गर्ग -आचार्य  का शूरसैन के पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित होना  सूचित करता है कि  की ये गर्गाचार्य शूरसेन के पिता  देवमीढ के पुरोहित नहीं रहे थे 
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"यस्मात् कंसात् सर्वे देवा  जुघुरुः। स: कंस एकेन गोपेन बालकेन अल्पायासेव ह जघान ।।५२।
जिस कंस से देव भी डरते थे उस कंस को एक गोप बालक ने मार डाला ।५२।
ततः सुरास्तेन निहन्यमाना
     विदुद्रुवुर्लीनधियो दिशान्ते ।
केचिद्‌रणे मुक्तशिखा बभूवु-
     र्भीताः स्म इत्थं युधि वादिनस्ते ॥५३॥
•-कंस की मार पड़ने से देवताओं के होश उड़ गये और वे चारों दिशाओं में भागने लगे।
कुछ देवताओं ने रणभूमि में अपनी शिखाएँ खोल दीं और ‘हम डरे हुए हैं (हमें न मारो)’- इस प्रकार कहने लगे। ५३।

केचित्तथा प्रांजलयोऽतिदीनव-
     त्संन्यस्तशस्त्रा युधि मुक्तकच्छाः ।
स्थातुं रणे कंसनृदेवसंमुखे
     गतेप्सिताः केचिदतीव विह्वलाः ॥ ५४ ॥
•-कुछ देवगण हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन की भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्र की (लाँग) भी खोल डाली। कुछ लोग अत्यंत व्याकुल हो युद्धस्थल में राजा कंस के सम्मुख खड़े होने तक का साहस न कर सके।५४। उसी महान योद्धा को गोपाल कृष्ण ने कम प्रयास में ही मार डला-
"गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च                 गंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः।२२।
अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।
इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं।  इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नामअष्टादशोऽध्यायः।१८
बलराम के गुणों का वर्णन करते हुए विष्णु पुराण हरिवंश पुराण और ब्रह्मपुराण में समान श्लोकों के द्वारा गोपालों के द्वारा ही डूबे हुए यदुवंश के जहाज का उद्धार करने का वर्णन बलराम को लक्ष्य करके हुआ है । देखें क्रमश: निम्न श्लोकों में यही तथ्य -
                (विष्णु पुराण)
अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रो ऽग्रतोऽग्रजः         प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननंदनः ।४८।
अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैः           गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ।४९।
श्रीविष्णुमहापुराणेपञ्चमाञ्शो! विञ्शोध्यायः।२०। 
                 (हरिवंश पुराण)
अक्रूरस्य व्रजे आगमनं, कृष्णस्य दर्शनंचिन्तनं च। पञ्चविंशोऽध्यायः(२५)
अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः।       गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति ।२८।श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमने पञ्चविंशोऽध्यायः। २५ ॥
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                  (ब्रह्म पुराण )
अयं चास्य महाबाहुर्बलदेवोऽग्रजोऽग्रतः।         प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननन्दनः ॥३६॥
अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थावलोकिभिः।गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्युद्धरिष्यति ॥३७॥
श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे बालचरितेकंसवधकथनं नाम त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥
गोपाल शब्द "यादवों" का गोपालन वृत्ति (व्यवसाय) मूलक विशेषण है ।
यह वंश मूलक विशेषण नहीं है; वंशमूलक विशेषण तो केवल यादव ही है 
ये गोपाल अथवा गोप प्राचीन एशिया में वीर और निर्भीक होने से आभीर अथवा अभीर या अभीरु:भी कहे गये परन्तु इस आभीर का उद्भव वीर अथवा आर्य शब्द से विकसित हुआ जो कृषक और यौद्धा का वाचक है और यौद्धा= युद्ध करने वाला क्षत्रिय ही होता है ।  "यादवों के पूर्वज यदु को ऋग्वेद १०/६२/१० में गायों से घिरा हुआ गोप रूप में उनके भाई तुरुवसु के साथ वर्णन किया है। 
परन्तु इन दोनों के साथ "दासा" शब्द का प्रयोग होने से कुछ विद्वान जो पाश्चात्य "आर्यन-थ्योरी से प्रभावित हैं "यदु" और "तुरवसु"  को अनार्य कह सकते हैं परन्तु आर्य शब्द मूलत: अपने प्रारम्भिक सन्दर्भों में "कृषि करने वाले 'कृषक" को कहा गया है। और दास शब्द वैदिक सन्दर्भों में "त्राता" और  "दाता" का अर्थक है ; अत: सायण का भाष्य भी इस ऋचा पर असंगत है 
महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी 
यदि "दास" शब्द का अर्थ "भक्त या "सेवक करते हैं तो "शम्बर और वृत्र के लिए "दास शब्द का प्रयोग वेदों में "भक्त और"सेवक क्यों नहीं हुआ ? 
क्योंकि शब्द का अर्थ भेद समय-अन्तराल में ही सम्भव है। एक  समय में एक स्थान पर एक शब्द के दो भिन्न अर्थ नहीं हो सकते हैं । 
अपितु दास का अर्थ- "दाता अथवा "दानशील है।क्योंकि वर्ण- व्यवस्था वैदिक विधान नहीं था ।
"दास शब्द का अर्थ "भक्त तो आज कई उतार-चढ़ावों के बाद हुआ है वह भी भक्तिकाल की बारहवीं तेरहवीं सदी से मात्र यदि सायण के अनुसार वैदिक सन्दर्भों में "दास का अर्थ "भक्त ही है तो वेदों की इन ऋचाओं में भी "शम्बर और "वृत्र के लिए भी "दास शब्द का अर्थ "भक्त ही होना चाहिए जिनका देवों के नेता इन्द्र से युद्ध हुआ था । परन्तु  वहाँ दास का अर्थ विनाशक कैसे हुआ ? महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी वेदो को ईश्वरीय रचना मानते हैं ऋषियों के द्वारा प्रकट और ये वेदों में इतिहास नहीं मानते हैं ।
'परन्तु ये सब अनर्थ ही है । क्योंकि प्रत्येक प्राचीन तथ्य स्वयं में इतिहास का मानक ही है ।
सबसे नीचे महर्षि दयान्द की -विचार धारा के अनुयायी पं० हरिश्चन्द्र सिद्धान्तालंकार दास  का अर्थ:-ऋग्वेद के दशम मण्डल की बासठवें सूक्त की दशवीं ऋचा में "भक्त" बता रहे हैं ।
जो कि पूर्ण रूप से असंगत अप्रासंगिक है ।
यह सब भाषा विज्ञान की जानकारी न होना ही है। उनका अनुवाद भी सायण के भाष्य-पर आधरितहै।
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 उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । 
"गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।(ऋग्वेद १०/६२/१०) 
सायण ने इस ऋचा का अर्थ किया " कल्याण कारी बात करने वाले गायें से युक्त "यदु और "तुर्वसु नामक राजा मनु के भोजन के लिए पशु देतें हैं (सायण अर्थ१०/६२)१०) 
"उत =अपि च "स्मद्दिष्टी= कल्याणादेशिनौ “गोपरीणसा =गोपरीणसौ =गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ “दासा =दासवत् प्रेष्यवत् स्थितौ= तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च= एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे  पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् 
विशेष:- लौकिक ग्रन्थों में दास शब्द का अर्थ 
प्रैष्यवत् ( नौकर) है । प्रैष्यः, पुं, (प्र + इष् + कर्म्मणि ण्यत् । “प्रादू- होढोढ्येषैष्येषु ।६। १। ८९ । इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या वृद्धिः।) प्रेष्यः । इत्यमरटीकायां भरतः॥(यथा, कुमारे । ६। ५८। “जङ्गमं प्रैष्यभावे वः स्थावरं चरणाङ्कितम् । विभक्तानुग्रहं मन्ये द्विरूपमपि मे वपुः ॥” क्ली, प्रेष्यस्य भावः । दासकर्म्म । यथा, कथा- सरित्सागरे ।३०। ९५ । “गवादिरक्षकान् पुत्त्रान् भार्य्यां कर्म्मकरीं निजाम् । तस्य कृत्वा गृहाभ्यर्णे प्रैष्यं कुर्व्वन्नुवास सः॥”)
अमरकोशःप्रैष्य पुं। दासः 
समानार्थक:भृत्य,दासेर,दासेय,दास,गोप्यक,चेटक,नियोज्य,किङ्कर,प्रैष्य,भुजिष्य,परिचारक 
2।10।17।2।3 
भृत्ये दासेरदासेयदासगोप्यकचेटकाः। नियोज्यकिङ्करप्रैष्यभुजिष्यपरिचारकाः॥ 
परन्तु अब विचारणीय यह है ;वेदों  मेें दास का अर्थ देवविरोधी और दानी  होकर भी गुुुुलाम और विनाशक क्यों हुआ ? 
वास्तव में उपर्युक्त ऋचा का अर्थ सायण द्वारा असंगत ही है क्यों की वैदिक सन्दर्भ में 'दास का अर्थ सेवा करने वाला 'गुलाम या भृत्य नहीं है👇और भक्त भी नहीं जैसे आज कल तुलसीदास या कबीरदास जैसे शब्दों में है ।
उत दासस्य वर्चिनः सहस्राणि शतावधीः ।
अधि पञ्च प्रधीँरिव ॥१५॥
सायण-भाष्य :-उत अपि च हे इन्द्र त्वं “प्रधीनिव चक्रस्य परितः स्थितान् शङ्कूनिव हिंसकान् "पञ्च “शता पञ्चशतानि पञ्चशतसंख्याकान् "सहस्राणि सहस्रसंख्याकान् "दासस्य लोकानामुपक्षपयितुः "वर्चिनः वर्चिनामकस्यासुरस्य संबन्धिनोऽनुचरान् पुरुषान् "अधि अधिकम् "अवधीः हतवानसि ॥२१ ॥
 शतमश्मन्मयीनां पुरामिन्द्रो व्यास्यत् ।
 दिवोदासाय दाशुषे ॥२०॥
 अस्वापयद्दभीतये सहस्रा त्रिंशतं हथैः ।
 दासानामिन्द्रो मायया ॥२१॥
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उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-४ /३० /१४.   
सायण ने इस १४वीं ऋचा में दास का अर्थ ही बदल दिया- 
उत । दासम् । कौलिऽतरम् । बृहतः । पर्वतात् । अधि ।अव । अहन् । इन्द्र । शम्बरम् ।१४। 
सायण-भाष्य“ उत अपि च हे "इन्द्र त्वं "दासम् 
(-उपक्षपयितारं -"कौलितरं कुलितरनाम्नोऽपत्यं “शम्बरम् असुरं "बृहतः महतः पर्वतात् अद्रेः "अधि उपरि "अव अवाचीनं कृत्वा "अहन् हतवानसि ॥
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उपर्युक्त ऋचा में  दास असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को "दास" कह कर ही वर्णित किया गया है । ____________________________________
कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे 
अर्थात् कुलितर यो कोलों की सन्तान होने से कौलितर 
“उत दासं कौलितरं वृहतः पर्व्वतादधि । 
अवाहान्निन्द्र” शम्बरम्” ऋ० ४ । ३०। १४ 
कुलितरनाम्नोऽपत्यं शम्बरमसुरम्” 
अर्थात्‌ इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए "कौलितर शम्बर" को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया ।
विदित हो कि असुर संस्कृति में 'दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ तथा 'कुशल' होता है । 
ईरानी आर्यों ने "दास' शब्द का उच्चारण "दाहे" के रूप में किया है ।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे 
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"क्षत्रिय गोपालक और क्षेत्रपालक( खेती करने वाले) होते थे। जैसा कि सहस्रबाहू अर्जुन को बताया गया है।
"स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव हिस एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोभवत्।११७।
टिप्पणी-भू =भूमि + वेञ्--क्त संप्रसारण॰ दीर्घश्च" ऊत+क्विप्=ऊत्= बीज वरन करने वाला- "अर्जयति सर्वान् ऋद्धीःस्वपराक्रमेण इति अर्जुन:=जो अपने पराक्रम से सभी ऋद्धियों सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है वह अर्जुन है। 117. वही (सहस्रबाहू) पशुओ का पालक (रक्षक) और भूमि में बीज वपन करने वाला हुआ; वही निश्चित रूप ही खेतों का रक्षक और कृषक था; वह अकेले ही अपने योगबल के माध्यम से वर्षा के लिए बादल बन गया सब कुछ अर्जन करने से अर्जुन बन गया।
(पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १२)-
इस प्रकार आर्य शब्द भी कृषि से सम्बन्धित था। जैसा कि वैदिक सन्दर्भों में अब भी है।
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परन्तु राजपूतों को कभी भी पशुपालन और खेती से सम्बन्धित नहीं माना गया  ये तो युद्धों में वेतन पर लड़ने का काम करते थे ।
आधुनिक राजपूत शब्द एक जाति से अब संघ का वाचक बन गया है। जबकि क्षत्रिय आज भी एक वर्णव्यवस्था का अंग है।"आभीर शब्द वीरता प्रवृत्ति का सूचक है।जो कि अपने पूर्व रूप में "वीर" रूप में प्रतिष्ठित है। और जातियों का निर्धारण भी प्रवृत्तियों से ही होता है। अत: आभीर एक जातिगत विशेषण है और जाति में वंश हुआ जैसा कि यदुवंश और वंश में कुल (खानदान) होते हैं। आभीर मूलक वीर शब्द आर्य शब्द का ही सम्प्रसारित रूप है। वेदों में आर्य शब्द भी मूलत: कृषक का वाचक है। आर्य शब्द संस्कृत की अर् (ऋ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन  सर्वमान्य अर्थ संस्कृत धातु पाठ में उल्लिखित हैं । १–गमन करना Togo  २– मारना tokill  ३– हल (अरम्  Harrow ) चलाना मध्य इंग्लिश में—रूप Harwe कृषि कार्य करना प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य चरावाहे ही थे  इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं।पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व  काशकृत्स्न धातुपाठ में ऋृ (अर्) धातु  तीन अर्थ "कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ ३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) के रूप में उद्धृत है।वास्तव में संस्कृत की "अर्" धातु का तादात्म्य (मेल) "identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर "Errare =to go से प्रस्तावित है। जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः(Araval)तथा (Aravalis) हैं । यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं। अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है =आर्य एक  पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने "वैैश्यों का समूह " किया है। संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी । २. ईश्वर और ३. वैश्य  है। संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है। समानार्थक:ऊरव्य,ऊरुज,अर्य,वैश्य,भूमिस्पृश्-विश् ।2।9।1।1।3
ऊरव्या ऊरुजा अर्या वैश्या भूमिस्पृशो विशः।आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने॥अर्य पुल्लिंग स्वामिःसमानार्थक:अर्य 3।3।147।1।2
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ऋग्वेद का वह ऋचा जिसमें कृषक पुत्री का मनोहारी स्वाभाविक वर्णन है ।
पदपाठ-पृ॒थुः। रथः॑। दक्षि॑णायाः। अ॒यो॒जि॒। आ। एन॑म्। दे॒वासः॑। अ॒मृता॑सः। अ॒स्थुः॒। कृ॒ष्णात्। उत्। अ॒स्था॒त्। अ॒र्या॑। विऽहा॑याः। चिकि॑त्सन्ती। मानु॑षाय। क्षया॑य ॥  ऋग्वेद-१/१२३/१
अर्थ-  (मानुषाय)- मनुष्यों के (क्षयाय) रोग के लिए (चिकित्सन्ती) -उपचार करती हुई (विहायः) -आकाश में  उषा उसी प्रकार व्यवहार करती है जैसे (अर्या) -कृषक की कन्या (कृष्णात्)- कृषि कार्य करने के उद्देश्य से  (उदस्थात्)- सुबह ही उठती है । (अयोजि)-अकेली (दक्षिणायाः)- कुशलता से (एनम्)- इस उषा को (पृथुः) -विशाल(रथः)- रथ(अमृतास:)-अमरता के साथ (देवासः)-देवगण(आ,अस्थुः)उपस्थित करते हैं।
देवों के विशाल रथ पर उपस्थित होकर मनुष्यों के रोगों का उपचार करती हुई उषा आकाश में उसी प्रकार का स्वाभाविक व्यवहार करती है। जिस प्रकार कोई कृषक ललना( पुत्री) कृषि कार्य के उद्देश्य से अकेली सुबह उठ जाती है।१।
मन्त्र -भागवत के लेखक नीलकण्ठ सूरि ऋग्वेद में कृष्ण विषयक घटनाओं के सन्दर्भ में वर्णन करते हैं। आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य  वीर ही थे ! उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि और गो -पालन था । जबकि ब्राह्मण कहता है "हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है। फिर ब्राह्मण आर्य्य किस प्रकार हुए।संस्कृत भाषा मे "आरा" और "आरि" शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है। 
सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण,"अर" है ।(और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर्  सम्प्रसारण होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" है।
यह भी सम्भव है कि 'हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो  
"ऋ" धातु के पश्चात् "यत्" प्रत्यय करने से कृदन्त शब्द  "अर्य्य  और आर्य  बनते हैं ।आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से  सिद्धि होता है। विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ "कृषि मूलक ही है। इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
अर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है। फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में भाष्य पाया जाता है। और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है। फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं। प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि- कार्य) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नहीं। कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं !गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण ( बलराम) दौनों नाम इस बात के प्रमाण हैं। ये दोनों  ही युगपुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे  इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे ।कालान्तरण में कृषि और गोपालन वृत्ति को पुरोहित वर्ग द्वार महत्व हीन मान लिया गया।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं ! कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।मनुस्मृति में वर्णन है कि "वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणःक्सत्रियोऽपि वा।हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।10/83 अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है। "परन्तु यही मनुस्मृति ब्राह्मणों हिंसा करके मांस खाने की आज्ञा देती है। मनुस्मृति के अध्याय तीन में श्लोक संख्या 122 से लेकर श्लोक संख्या 283 तक, यानी 162 श्लोकों में 'पितर श्राद्ध' से संबन्धित कर्मकाण्ड का विधान है। 
जिनमें ब्राह्मणों को सादर आमंत्रित करके, उनकी पूजा अर्चना के बाद उन्हें जिमाने की व्यवस्था है। जिसमें बताया गया है कि, ब्राह्मणों को क्या-क्या खिलाने से, पितरों को कितने-कितने समय तक की तृप्ति मिलती है 
प्रस्तुत हैं, उन्हीं में से अर्थ सहित कुछ चुने हुए श्लोक...
पित्रणां मासिकं
श्राद्धमन्वाहार्यं विदुर्बुधा।
       तच्चामिषेण कर्तव्यं
        प्रशस्तेन प्रयत्नतः।।
          मनुस्मृति 3/123
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भावार्थ- पितरों के मासिक श्राद्ध को, विद्वान 'पिण्डान्वाहार्यक' नामक श्राद्ध कहते हैं। और इसे यत्नपूर्वक उत्तम 'मांस' के द्वारा सम्पन्न करना चाहिए।
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पूर्वेद्युरपरेद्युर्वा
श्राद्धकर्मण्युपस्थिते।निमन्त्रयेत त्र्यवरान्
सम्यक् विप्रान् यथोदितान्।मनुस्मृति-3/187
भावार्थ- श्राद्ध का समय आने पर, पहले दिन अथवा अगले दिन उपरोक्त कथनानुसार कम से कम तीन ब्राह्मणों को अवश्य निमन्त्रण दे।
__________________________    
उपवेश्य तु तान्विप्रान्
       आसनेष्वजुगुप्सितान्।
गन्धमाल्यैः सुरभिभिः
          अर्चयेत् देवपूर्वकम्।।
          (मनुस्मृति 3/209)
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भावार्थ- उन अनिन्दित ब्राह्मणों को आसनों पर बिठाकर सुगंधियों से युक्त चन्दन, केशर आदि पदार्थों तथा मालाओं से देवताओं की तरह उनका पूजन करे।
पाणिभ्यां तूपसंगृह्य स्वयमन्नस्य वर्धितम्।
विप्रान्तिके पित्रन्ध्यायन् शनकैरुपनिक्षिपेत्।।
        मनुस्मृति 3/224
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भावार्थ- अन्न से भरे पात्रों को स्वयं पकड़कर, पितरों का ध्यान करते हुए धीरे से ब्राह्मणों के पास रखे।
भक्ष्यं भोज्यं च विविधं
           मूलानि च फलानि च।
ह्रद्यानि चैव मांसानि
            पानानि सुरभीणि च।।
      (मनुस्मृति 3/227)
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भावार्थ- विविध प्रकार के भोज्य पदार्थ, मूल और फल, उत्तम प्रकार के मांस तथा सुगन्धित पेय पदार्थ उनके सामने रखे।
हर्षयेद्ब्राह्मणांस्तुष्टो
           भोजयेच्च शनैः शनैः।
अन्नाद्येनासकृच्चैतान्गुणैश्च
          परिचोदयेत्।। (मनुस्मृति 3/233)
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भावार्थ- हर्ष पूर्वक, ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करते हुए उन्हें खिलावे। खाद्य पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए बार-बार और लेने का आग्रह करे।
या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।
अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।
योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।।
( मनुस्मृति-५.४४-४५)
भावार्थ –जिस हिंसा का वेदों में विधान किया गया है, वह हिंसा न होकर अहिंसा ही है, क्योंकि हिंसा, अहिंसा का निर्णय वेद करता है।
श्वभिर्हतस्य यन्मांसं शुचि तन्मनुरब्रवीत् ।
क्रव्याद्भिश्च हतस्यान्यैश्चण्डालाद्यैश्च दस्युभिः।
५.१३१[१२९ं] ।भावार्थ- मनु के अनुसार, कुत्तों द्वारा पकड़े गए मृग, ‘शेरों द्वारा खाया गया कच्चा मांस, चांडाल व चोरों द्वारा मारे गए मृग का मांस शुद्ध है।
बभूवुर्हि पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् ।पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च ।। (मनुस्मृति 5/23)
अर्थात् ब्राह्मण यज्ञ के लिए बडे़ मृग (चौपाए) पशु और पक्षियों का वध करें ! और ब्राह्मण अपनी इच्छा के अनुसार धुले हुए मांस को खाएं ।
परन्तु  कृषि करने में जीवों की हिंसा है। जीवों की हिंसा करके माँस खाने में हिंसा नहीं-
अर्थात् कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वाद का समर्थक वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है। महाभाष्यकार आर्यों के निवास का विधान करता हुआ कहता है।
आर्यों ( कृषकों) का निवास कहाँ है ?
ग्राम (ग्रास- क्षेत्र) घोष नगर  आदि में आर्य निवास करें विदित हो कि घोष-अहीरों की वस्ती को कहते  हैं जहाँ गायों का निवास होता है। देखें -( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।                जैसा कि नृसिंह पुराण में वर्णन करते विधान निश्चित किया है। 
दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे  विना कुछ माँगे हुए और अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे।।११। 
(नृसिंह पुराण अध्याय 58 का 11वाँ श्लोक)
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"परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है। इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है। परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के फिर भी व्यास स्मृति में वणिक और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है। उसको शूद्र धर्मी  कभी नहीं कहते !
सायद यही कारण है । किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
दृढ़ता और धैर्य पूर्वक  वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है ।  
किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला  सायद दूसरा कोई नहीं  इस संसार में
परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !और कोई मूल्य नहीं ! फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिकगतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक दोनों को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने  किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान तक बना डाले और  अन्तत: वणिक को शूद्र  वर्ण में समायोजित कर दिया है । पणि: अथवा फनीशी जिसके पूर्वज थे यह आश्चर्य ही है। किसानों के विधान बनाने वाले भी किसान की रोटी से ही पेट भरते हैं ।परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में वर्ण-व्यवस्था के मूल में नहीं हैं ऐसी व्राह्मण वर्ण-व्यवस्था निराधार ही थी ।
किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।"रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है 
वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।
१-व्यवहर्त्ता २- वार्त्तिकः ३- वणिकः ४- पणिकः  । इति राजनिर्घण्टः में ये वैश्य के पर्याय हैं ।

गौपालनेन गोपा निर्भीकेभ्यश्च आभीरा ।
यादवा लोकेषु वृत्तिभिर् प्रवृत्तिभिश्च ब्रुवन्ति।५।।
अर्थ:-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर यादव ही लोगों में गोप और आभीर कहलाते हैं 

आ समन्तात् भियं राति ददाति शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति ते गौश्चरा गोपा पाला गोैपाला गौपालनेन कथ्यन्ति।६। 
शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।
ये गौचारण, पालन करने से ये गोप , गौश्चर" पाल और गोपाल कहलाते हैं ।
अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।
वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर: बभूव ।७।
अरि ( वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर से आवीर और उससे ही आभीर शब्द हुआ।
ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे श्लोके अरेर्शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति। भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यन्तु  ।
अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है ।

"यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरिर्तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सो अज्यते रयि:।९।
अर्थात्– जो अरि इस  सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है ,
वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१)
देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है 
अपिच :- विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ,
ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्  स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।।
ऋग्वेद–१०/२८/१
ऋषि पत्नी कहती है !  कि  सभी अन्य  देवता  निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम)
परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम ) यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् ) और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )
प्रस्तुत सूक्त में अरि: युद्ध के देव वाचक है । परन्तु यहाँ सभी देवताओं से है।
आर्य ईश्वरपुत्रः। निरुक्त(६\२६ )
(विश्वः अन्यः अरिः=  सर्वोऽन्य ईश्वरः  हि =निश्चय)   “ईश्वरोऽप्यरिः” [ निरु० ५।७] “प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो
 [अथर्व० ११।४।१] 

आजगाम) प्राप्तः (अह= खेदः “अहः खेदे” [अव्ययार्थनिबन्धनम्] (मम-इत्) मम एव (श्वशुरः न आजगाम) श्वशुरः पत्युः पिता शु = क्षिप्रं सद्यः-प्रापणशील आत्मा
धानाः-जक्षीयात्-उत सोमं पपीयात्)

बाइबिल में "अबीर" नाम ईश्वर तथा ईश्वरीय सत्ताओं  का वाचक-

The name Abir: Summary

Meaning
Mighty One, Protector, Shield
Etymology
From the verb אבר ('br), to be strong or to protect.
Related names
• Via אבר ('br): AbrahamAbramShemeber

🔼 The name Abir in the Bible

The name Abir is one of the titles of the Living God. For some reason it's usually translated (for some reason all God's names are usually translated and usually not very accurate), and the translation of choice is usually Mighty One, which isn't very accurate. Our name occurs six times in the Bible but never alone; five times it's coupled with the name Jacob and once with Israel.

In Isaiah 1:24 we find four names of the Lord in rapid succession as Isaiah reports: "Therefore Adon YHWH Sabaoth Abir Israel declares..". Another full cord occurs in Isaiah 49:26: "All flesh will know that I, the Lord, am your Savior and your Redeemer, the Abir Jacob," and the identical is noted in Isaiah 60:16.

The full name Abir Jacob was first spoken by Jacob himself. At the end of his life, Jacob blessed his sons, and when it was Joseph's turn he spoke to him of blessings from the hands of Abir Jacob (Genesis 49:24). Many years later, the Psalmist remembered king David, who swore by Abir Jacob that he would not sleep until he had found a place for YHWH; a dwelling place for Abir Jacob (Psalm 132:2-5).

हिन्दी अनुवाद:-

अबीर नाम : सारांश

अर्थ
पराक्रमी, रक्षक, ढाल
शब्द-साधन
क्रिया אבר ( 'br ) से, मजबूत होना या रक्षा करना।
संबंधित नाम
• वाया אבר ( 'br ): इब्राहीम , अब्राम , शेमेबर

🔼 बाइबिल में अबीर नाम

अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है जैसे भगवान के नामों का आमतौर पर अनुवाद किया जाता है और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होता है। और पसंद का अनुवाद आमतौर पर रक्षक ही होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। हमारा यह अबीर नाम बाइबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले कभी नहीं; पांच बार इसे याकूब और एक बार इस्राएल के नाम से जोड़ा जाता है ।

यशायाह 1:24 में हम यशायाह की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम पाते हैं : "इसलिए अदोन   यह्व (YHWH) सबाथ और अबीर"  इज़राइल घोषित करता है ..."। यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी होती है: "सभी मनुष्य जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा छुड़ानेवाला, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।

अबीर जैकब का पूरा नाम सबसे पहले खुद जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीष दी, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति 49:24)। कई वर्षों बाद, भजन लिखने वाले को राजा दाऊद की याद आई , जिसने अबीर याकूब की शपथ खाई थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक उसे यहोवा के लिए जगह नहीं मिल जाती; वही  "अबीर" याकूब   का निवास स्थान या शरण है।(भजन संहिता 132:2-5)।

 उसे कई बार अबीर इज़राइल (यशायाह 1:24) या अबीर जैकब (उत्पत्ति 49:24, भजन 132:2 और 132:5, यशायाह 49:26 और 60:16) के रूप में जाना जाता है।

†-हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :----
(१)----अबीर (२)----अदॉन (३)---सबॉथ (४)--याह्व्ह्

तथा (५)----(इलॉही) अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से सभी भगवान के नामों का आमतौर पर अनुवाद किया जाता है और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होता है), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर  एक शक्तिशाली/ रक्षक (माइटी वन) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। अबीर नाम बाइबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले कभी नहीं; पांच बार इसे याकूब और एक बार इस्राएल के नाम से जोड़ा जाता है ।

यशायाह 1:24 में हम यशायाह की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम पाते हैं : "इसलिए अदोन YHWH सबाथ अबीर इज़राइल घोषित करता है "। यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी होती है: "सभी मनुष्य  जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा छुड़ानेवाला, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।

अबीर जैकब का पूरा नाम सबसे पहले स्वयं जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीष दी, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति खण्ड- 49:24)। कई वर्षों बाद, भजन लिखने वाले को राजा दाऊद की याद आई , जिसने अबीर याकूब की शपथ खाई थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक उसे यहोवा के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब का निवास स्थान (भजन संहिता- 132:2-5)।

अबीर नाम אבר ( 'br ) धातु से आया है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर मजबूत होना होता है:

स्वयं बाइबिल में क्रिया के रूप में नहीं आती है, लेकिन असीरियन भाषा में इसका अर्थ मजबूत या दृढ़ होना होता है। स्पष्ट रूप से इब्रानी भाषा में ऐसे कई शब्द हैं जिनका संबंध शक्ति से है, लेकिन यह एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति को दर्शाता है जो केवल अहीर जाति में होती है। इजराएल की यहूदीयों का अबीर कबीला मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ है जिसने दुनियाँ में यह कला प्रचारित और प्रसारित की अहीरों की लाठी आज भी उनके हाथ में सशक्त है। यहूदीयों का सम्बन्ध  यादवों से है इसमें कोई सन्देह नहीं प्राचीन यहूदीयों में गाय और बैल की मूर्ति बनाकर पूजा होती थी।

देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी ।
सैमेटिक संस्कृति में “एल ” एलोहिम तथा इलाह इसी के  विकसित है  जो मूलत: कनानी देवता है।
यूनानी पुराणों में अरीज् युद्ध का ही देवता है ।
हिब्रूू बाइबिल में यहुदह् “Yahuda” के पिता को अबीर कहा गया है और अबीर शब्द ईश्वर का  बाचक है हिब्रूू बाइबिल में भी  …
असीरियन लोग वेदों में वर्णित असुर ही हैं । संस्कृत भाषा में " र" वर्ण की प्रवृति असुरों की भाषा मे "ल" वर्ण के रूप में होती है ... "अरे अरे सम्बोधनं रूपं अले अले कुर्वन्त: तेsसुरा: पराबभूवु: " -----(यास्क निरुक्त ) -------------------ऋग्वेद १०/१३/८,३,४, तथा शतपथ ब्राह्मण में वर्णित किया गया है कि असुर देवताओं की वाणी का भिन्न रूप में उच्चारण करते थे । अर्थात् असीरियन लोग "र" वर्ण का उच्चारण "ल" के रूप में करते थे । शतपथ ब्राह्मण में वर्णित है " तेऽसुरा हे अलयो ! हे अलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु: पतञ्जलि ने महाभाष्य के पस्पशाह्निक अध्याय में शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ के इस वाक्य को उद्धृत किया है । ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के १२६वें सूक्त का पञ्चम छन्द में अरि शब्द आर्यों के सर्वोपरि ईश्वरीय सत्ता का वाचक है:।
 पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन् युक्ताँ अष्टौ-अरि(अष्टवरि) धायसो गा: । सुबन्धवो ये विश्वा इव व्रा अनस्वन्त:श्रव ऐषन्त पज्रा: ।।५।।
ऋग्वेद---२/१२६/५ तारानाथ वाचस्पति ने वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में सन्दर्भित करते हुए.. वर्णित किया है--अरिभिरीश्वरे:धार्य्यतेधा ---असुन् पृ० युट् च । ईश्वरधार्य्ये ।" अष्टौ अरि धायसो गा: " ऋग्वेद १/१२६/ ५/ अरिधायस: " अर्थात् अरिभिरीश्वरै: धार्य्यमाणा "भाष्य । ____________________________________ अरि शब्द के लौकिक संस्कृत मे कालान्तरण में अनेक अर्थ रूढ़ हुए --- अरि :---१---पहिए का अरा २---शत्रु ३-- विटखदिर ४-- छ: की संख्या ५--ईश्वर वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में अरि धामश्शब्दे ईश्वरे उ० विट्खरि अरिमेद:।" सितासितौ चन्द्रमसो न कश्चित बुध:शशी सौम्यसितौ रवीन्दु । रवीन्दुभौमा रविस्त्वमित्रा" इति ज्योतिषोक्तेषु रव्यादीनां ______________________________________ हिब्रू से पूर्व इस भू-भाग में फॉनिशियन और कनानी संस्कृति थी , जिनके सबसे बड़े देवता का नाम हिब्रू में "एल - אל‎ " था । जिसे अरबी में ("इल -إل‎ "या इलाह إله-" )भी कहा जाता था , और अक्कादियन लोग उसे "इलु - Ilu "कहते थे , इन सभी शब्दों का अर्थ "देवता -god " होता है । इस "एल " देवता को मानव जाति ,और सृष्टि को पैदा करने वाला और "अशेरा -" देवी का पति माना जाता था।
 ---------------------------------------------------------
 (El or Il was a god also known as the Father of humanity and all creatures, and the husband of the goddess Asherah (בעלה של אלת האשרה) .सीरिया के वर्तमान प्रमुख स्थलों में " रास अस शम -رأس‎, "शाम की जगह) करीब 2200 साल ईसा पूर्व एक मिटटी की तख्ती मिली थी , जिसने इलाह देवता और उसकी पत्नी. . अशेरा के बारे में लिखा था , पूरी कुरान में 269 बार इलाह - إله-" " शब्द का प्रयोग किया गया है , और इस्लाम के बाद उसी इलाह शब्द के पहले अरबी का डेफ़िनिट आर्टिकल "अल - ال" लगा कर अल्लाह ( ال+اله ) शब्द गढ़ लिया गया है , जो आज मुसलमानों का अल्लाह बना हुआ है ।
Abir in Biblical Hebrew
אביר
अबीर ईश्वर का नाम है ।
परस्पर सम्मूलक है । दौनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
_______________________
व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि कोण से आर्य शब्द हिब्रू बाइबिल में वर्णित "एबर से भी सम्बद्ध है ।
और जिसका मूल है 'बर / बीर आर्य तथा वीर दौनों शब्द भारत, ईरान तथा समस्त जर्मन वर्ग की भाषाओं में और सेमैेटिक और हेमेटिक वर्ग की भाषाओं में भी कुछ अल्प भिन्न रूपों में विद्यमान है ।
ऐसी इतिहास कारों की धारणा रही परन्तु ग्राम संस्कृतियों का प्रादुर्भाव चरावाहों (गोपों) की संस्कृति का व्यवस्थित रूप है ।
तथा नगर संस्कृति के जनक द्रविड अथवा ड्रयूड (Druids) लोग थे।तो द्रविडों की भी वन्य संस्कृति रही है । नगर संस्कृतियों का विकास द्रविडों ने ही किया उस के विषय में हम कुछ तथ्यों को उद्धृत करते हैं । विदित हो कि यह समग्र तथ्य भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ(primordial- Meaning) आरम् धारण करने वाला वीर या यौद्धा (आरं धारयते येन सोऽऽर्य -) संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् (Arrown = अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology)पुरानी अंग्रेजी से (arwan)पहले (earh) "तीर," संभवतः पुराने नॉर्स से उधार लिया गया था ।____________________________________
१–गमन करना Togo  २– मारना tokill  ३– हल (अरम्  Harrow ) चलाना 
मध्य इंग्लिश में—रूप "Harwe कृषि कार्य करना _______________________________
प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य चरावाहे ही थे ।
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व  कार्त्स्न्यायन धातुपाठ में "ऋृ (अर्) धातु  तीन अर्थ  कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) उद्धृत है
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य (मेल) identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है ! इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis हैं । 
यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं । ___________________________________
'अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है = आर्य एक  पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने "वैैश्यों का समूह " किया है 
संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी २. ईश्वर और ३. वैश्य  है।संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है। संस्कृत भाषा मे आरा और आरि शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है। सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, " अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हलचलाना" हो।
यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य  और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है। पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः"सूत्र इस बात का प्रमाण है।      फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
फिर, वाजसनेय (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मन्, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण ही था ।इन्ही का नाम "आर्य" है । 
गोप गो -चारण करते थे' और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास भी हुआ। ये आर्य चरावाहे ही थे ।अर्थात् कृषि कार्य.भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है। ये ड्रयूड दक्षिण भारत में द्रविड ( द्रव-विद) रूप में विद्यमान रहे और भगवद्-भक्ति के प्रसारक भी यही थे। 
'अरि' के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवनमूलक है और कृषि मूलक थी इस विद्या के जनक आर्य थे। परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का भी था।यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्धता सर्वविदित ही है। इस देव संस्कृति के उपासकों ने असीरियन( असुर) संस्कृति  से यह प्रेरणा ग्रहण की। सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य-एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था। ऐसा भी नहीं है । भारत देश में भी यह कार्य होने लगा था। देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे। घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे । परन्तु इनका मुकाविला सेमैेटिक असीरियन जन जाति से मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में परिलक्षित है ।
असीरियन जन-जाति के बान्धव यहूदीयों का जीवन चरावाहों का जीवन था। अत: आर्य शब्द का विकास "अरि" शब्द से हुआ जो सैमेटिक हिब्रू आदि भाषाओं में "एल" रूप में विकसित है। अत: आर्य जाति मूलक विशेषण नहीं रहा परन्तु सैमेटिक जन जातियाँ पशुपालक रहीं हैं।
ये कुशल चरावाहों के रूप में  सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करती थीं । यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे । उसी प्रक्रिया के तहत बाद में ग्राम शब्द (पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक  हो गया । ग्राम शब्द संस्कृत की (ग्रस्) धातु मूलक है—(ग्रस् मन् )प्रत्यय आदन्तादेश(ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ "खाने के लिए मिले वह घर है । इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप"गृभ्" है ; गृह ही ग्रास है ।
यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की  दृष्टि में निम्न व हेय ही है । इस आधार पर हिन्दू धर्म( ब्राह्मण-धर्म) की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ?  विचार कर ले श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है कि-
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।परिचर्यात्मकंकर्म शूद्रस्यापिस्वभावजम् ।44।
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवारूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
 Pracheen Bharat Ka Rajneetik Aur Sanskritik Itihas - Page 23 पर वर्णन है
'ऋ' धातु में ण्यत' प्रत्यय जोडने से 'आर्य' शब्द की उत्पत्ति होती है  ऋ="जोतना', अत: आर्यों को कृषक ही माना जाता है । पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ "आरि" धारण करने वाला है । वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में  गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया परन्तु फिर भी आर्य का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति समन्वित होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में रूढ़ होकर "कर्मवीर और "धर्मवीर' आदि रूपों में परिभाषित हुआ।दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही आज भी मौलिक गुण(प्रवृत्ति) है।श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न  विशेषत:—स्वामी, गुरु और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस शब्द का व्यवहार होने लगा । छोटे लोग बड़े को जैसे, —स्त्री पति को, छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं । नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को "आर्य या आर्यपुत्र कहती है । पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में "हीरो (Hero) आर्य का ही रूपान्तरण है । आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और "हल" दोनों का श्रोत ऋ-अर् धातु है जो हिंसा और गति में  -हिंसागतियो: अर्थ में  प्रसिद्ध ही है। पूर्व वैदिक काल का "अरि" का एक रूपान्तरण हरि भी हुआ। अत: वेदों का "अरि" पुराणों में हरि होकर विकास- क्रम को प्राप्त हुआ। (harry-भारोपीय शब्द है)
in Old English "hergian "make war, lay waste, ravage, " the word used in the Anglo-Saxon Chronicle for what the Vikings did to England, It word comes from Proto-Germanic *harjon (source also of Old Frisian urheria "lay waste, ravage,,"
________
Old Norse herja "to make a raid, to plunder,"
__________
Old Saxon and Old High German herion, 
_______
German verheeren "to destroy, lay waste, devastate").
This is literally "to overrun with an army," from Proto-Germanic *harjan "an armed force" 
(source also of Old English here, ______
Old Norse herr ", great number; army, troop," 
__________
Old Saxon and Old Frisian heri, 
Dutch heir, 
_______________
Old High German har
,________________
 German Heer
,__________________
 Gothic harjis "a host, army").
_______________
The Germanic words come from PIE root *korio- "war" also "war-band, host, army" 
It word too comes From(source also of Lithuanian -(karas) "war, quarrel,"( karias) "host, army;" 
__________
Old Church 
______________ 
Slavonic kara "strife;"
_____________
 Middle Irish cuire "troop;"
______________
 Old Persian kara "host, people, army;" 
___________  
Greek koiranos "ruler, leader, commander"). Weakened sense of "worry, goad, harass" is from c. 1400. Related: Harried; harrying.
पुरानी अंग्रेजी में "युद्ध करो, बर्बादी करो, तबाह करो,"
वाइकिंग्स( समुद्री-लुटेरों ने इंग्लैंड को क्या किया, इसके लिए एंग्लो-सैक्सन क्रॉनिकल में प्रयुक्त शब्द देखें।
यह शब्द प्रोटो-जर्मेनिक के * हर्जोन से आया है (स्रोत भी -ओल्डन वेस्टर्न उहेरिया "ले वेस्ट, रैवेट 
________
ओल्ड नॉर्स हर्जा "छापा मारने के लिए, लूटने के लिए,"
पुराने सैक्सन और पुराने उच्च जर्मन "हेरियन,
_______
जर्मन (verheeren) " नष्ट करना, बर्बाद करना, विनाशक")।आदि अर्थों का ग्राहक है।
यह वस्तुतः "एक सेना के साथ आगे बढ़ने के लिए रूढ़ हुआ है," प्रोटो-जर्मनिक * हरजन से तात्पर्य "एक सशस्त्र बल"
(पुरानी अंग्रेज़ी का स्रोत भी यही जर्मन है,
______
ओल्ड नॉर्स -हेर ", बड़ी संख्या; सेना, टुकड़ी,"
ओल्ड सैक्सन और ओल्डन -हेरी,
________
डच -वारिस,
_______________
पुराने उच्च जर्मन- हान,
________
जर्मन- हीर,
__________________
 गॉथिक- हर्जिस "एक मेजबान, सेना")।
_______________
जर्मन के शब्द  कोरियो- "युद्ध" से भी सम्बद्ध है, "युद्ध-बैंड, मेजबान, सेना"
रूसी परिवार की (लिथुआनियाई का स्रोत भी - (करस) "युद्ध, झगड़ा," (करियास) "मेजबान, सेना;" है।
______________
पुराना चर्च  स्लावोनिक -करा "संघर्ष;"
_____________
 मध्य आयरिश- क्यूयर "टुकड़ी;"
______________
 पुरानी फ़ारसी -करा "मेजबान, लोग, सेना;"
___________
ग्रीक कोरोरानोस "शासक, नेता, कमांडर")। ", उत्पीड़न" की कमजोर भावना  से है। संस्कृत भाषा में इसका साम्य कृष्- क्लष् से देखें
निम्नलिखित श्लोक भी गोपालों की इसी वीरता मूलक प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करता है ।  
अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः भवद्भिर्गोपजातीयैर्वीरवीर्यं विलोप्यते ।५।।
•- गोविन्द बोले ! हे गोपालों तुम्हारा भयभीत होने का कोई प्रयोजन नहीं है;  केशी से भयभीत होकर तुम लोग "गोप जाति के बल-पराक्रम" को क्यों विलुप्त करते हो।५।
इति श्रीविष्णुाहापुराणे पंचमांशो! षोडशोऽध्यायः ।१६।
                 (गोविन्द उवाच)
अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः ।भवद्‌भिर्गोपजातीयैर्वोरवीर्यं विलोप्यते ॥२६॥
अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रो ऽग्रतोऽग्रजः प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननंदनः ।४८।
अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैःगोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ।४९।श्रीविष्णुमहापुराणे पंचमांशो! विंशोध्यायः ।२०।
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अक्रूरस्य व्रजे आगमनं, कृष्णस्य दर्शनं चिन्तनं च।पञ्चविंशोऽध्यायः(२५) 
अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः। गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति।२८।
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श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमन नामक २५वाँ अध्याय-
इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे कृष्णबालचरिते केशिवधनिरूपणं नाम नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ।१९०।

                (गोविन्द उवाच)
अलं त्रासेन गोपालाःकेशिनःकिं भयातुरैः।भवद्‌भिर्गोपजातीयैर्वोरवीर्यं विलोप्यते।१९०/२६
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शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय)
श्रृँगाल ने कहा :- मैं ही वैकुण्ठ धाम में वासुदेव देवेश्वर चतुर्भुज जगत् का विधाता लक्ष्मीपति ब्रह्मा का भी पालन करता प्रभु हूँ । 
पूर्वकाल में मुझसे ब्रह्मा ने ही पृथ्वी का भार उतारने के लिए प्रार्थना की थी । तभी में भारत- वर्ष में आया हूँ ।
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नीचे उपरोक्त श्लोक का सही अर्थ है।  
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इस लिए वह मायावी और ठग है ।१६।।
 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय}
हरिवंश  ,पद्मपुराण,  देवीभागवत  आदि पुराणों  और गर्गसंहिता आदि में  वसुदेव को गोपों के घर में गोप रूप में जन्म लेना वर्णन किया है;।👇
और देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में वसुदेव को गोपालन और कृषि करने वाला अर्थात्  वैश्य वृत्ति को धारण करने वाला बताया देखें निम्न श्लोकों को ।👇
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे 
•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा  शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! 
तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति-कृषि और गोपालन) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे" उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! ये (शूरसेन और अग्रसेन दौंनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए ) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था। सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
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अथाष्टादशोऽध्यायः 10/18/11
गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणौ
ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप ।११।
गोप जाति में छुपे हुए कृष्ण और बलराम की देवगण "गोपालों के रूप में उसी प्रकार स्तुति करते हैं जैसे नट लोग अपने नायक की स्तुति करते हैं । ११।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रलम्बवधो नामाष्टादशोऽध्यायः -भागवत पुराण के उपर्युक्त श्लोक में गोपों को देव रूप कहा है ।परन्तु भागवत पुराण के प्रकाशन काल में द्वेषवश कुछ धूर्तों ने यादवों और गोपों को अलग दिखाने के लिए भी इन प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना की इसका प्रमाण दशम स्कन्ध के आठवें अध्याय का उपरोक्त बारहवाँ श्लोक है तथा इसके अतिरिक्त और भी अन्य श्लोक हैं । जिनका हम प्रसंग के अनुसार उल्लेख करेंगे।कुछ राजपूत समाज के लोग इन्हीं प्रक्षिप्त श्लोकों से भ्रान्त होकर गोपों(अहीरों) को यादवों से अलग करने की कोशिश करते हैं। इसी सन्दर्भ में भागवत पुराण में कुछ प्रक्षिप्त श्लोक हैं जिनको हम उद्धृत कर रहे हैं।भागवतपुराण में इसी प्रकार एक स्थान पर पूर्व में ही (पहले ही ) गोविन्द शब्द का प्रयोग है। दशम् स्कन्ध अध्याय( 6 ) के श्लोक 25 में  👇परन्तु उसकी व्युत्पत्ति और कृष्ण के लिए सम्बोधन होने की बात बाद में कही गयी है। जो कथा क्रमभंग दोष उत्पन्न करती है।
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धि मात्मानं भगवान् पर:।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द:शयानं पातु माधव ।25।
पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की,परमात्मा भगवान् तेरे अहंकार (मान) की रक्षा करे । खेलते समय गोविन्द रक्षा करें  ! लेटते समय माधव रक्षा करे !
भागवत पुराण स्कन्ध 10: अध्याय 6: पूतना वध  -श्लोक 25-26 श्लोक:- 
पृश्न‍िगर्भस्तु ते बुद्धिमात्मानं भगवान् पर: ।
क्रीडन्तंपातु गोविन्द:शयानं पातुमाधव:।२५॥
व्रजन्तमव्याद्वैकुण्ठ आसीनं त्वां श्रिय: पति:।
शब्दार्थ:-पृश्निगर्भ:—भगवान् पृश्निगर्भ; तु—निस्सन्देह; ते—तुम्हारी; बुद्धिम्—बुद्धि को; आत्मानम्—आत्मा को; भगवान्—भगवान; पर:—दिव्य; क्रीडन्तम्—खेलते हुए; पातु—रक्षा करें; गोविन्द:—गोविन्द; शयानम्—सोते समय; पातु—रक्षा करें; माधव:— भगवान् माधव; व्रजन्तम्—चलते हुए; अव्यात्—रक्षा करें; वैकुण्ठ:—भगवान् वैकुण्ठ; आसीनम्—बैठे हुए; त्वाम्—तुमको; श्रिय: पति:—लक्ष्मीपति, नारायण; भुञ्जानम्—जीवन का भोग करते हुए; यज्ञभुक्—यज्ञभुक; पातु—रक्षा करें; सर्व-ग्रह भयम्-कर:—जो सारे दुष्ट ग्रहों को भय देने वाले । 
अनुवाद-★भगवान् प्रश्निगर्भ तुम्हारी बुद्धि की तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तुम्हारे आत्मा की रक्षा करें। तुम्हारे खेलते समय गोविन्द तथा तुम्हारे सोते समय माधव तुम्हारी रक्षा करें। भगवान् वैकुण्ठ तुम्हारे चलते समय तथा लक्ष्मीपति नारायण तुम्हारे बैठते समय तुम्हारी रक्षा करें। इसी तरह भगवान् यज्ञभुक, जिनसे सारे दुष्टग्रह भयभीत रहते हैं तुम्हारे भोग के समय सदैव तुम्हारी रक्षा करें।परन्तु गोवर्धन पर्वत के प्रकरण में इन्द्र द्वारा गोविन्द शब्द का प्रथम सम्बोधन कृष्ण को देना बताया है जो इससे बहुत बाद की घटना है । अब प्रश्न यह भी उठता है कि कृष्ण को गोविन्द नाम का प्रथम सम्बोधन किस प्रकार  इन्द्र ने  दिया ? जैसा कि भागवत पुराण में वर्णित है , जबकि ऋग्वेद- खिलभाग में भी गोविन्द शब्द आया है । क्योंकि दशम् स्कन्ध के अध्याय (28) में  वर्णन है कि• 👇
                  -(शुकोवाच)-
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभि:पयसाऽऽत्मन:।जलैराकाशगंगाया एरावतकरोद्धृतै: ।22।
इन्द्र: सुरषिर्भि:साकं नोदितो देवमातृभि:।अभ्यषिञ्चितदाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात्।23।अर्थात्:- शुकदेव जी कहते हैं हे राजन् परिक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु ने अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणाओं से देव राज इन्द्र ने एरावत की सूँड़ के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उनको (गोविन्द) नाम प्रदान किया !
भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर वर्णन है कि 👇
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे।22।
•-दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे-मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ।22।
और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय: हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे मै आपको नमस्कार करता हूँ ।22।
बुद्ध का वर्णन तो सभी पुराणों ,गर्ग संहिता , रामायण तथा महाभारत आदि  में भी है ।
कालान्तरण में मिलाबट हो जाने से भागवतपुराण में अनेक प्रक्षिप्त (नकली) श्लोक समायोजित हो गये हैं यह हम स्पष्ट कर ही चुके हैं 
जैसे देखें अन्य  ये श्लोक- 👇___________________________________
सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसम्बन्धान् दिग्भ्य: कंसभयाकुलान् (पाठान्तरण-भयार्दितान्)।यदुवृष्णयन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान् ।15।सभाजितान् समाश्वास विदेशावासकर्शितान् न्यवायत् स्वगेगेषु वित्तै:संतर्प्य विश्वकृत् ।16।
•-अर्थात् श्रीकृष्ण ने --जो कंस के भय से  व्याकुल होकर इधर उधर भाग गये थे; उन यदुवंशी, वृष्णिवंशी, अन्धकवंशी, मधुवंशी, दाशार्हंवंशी और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़  ढूँढ़  कर बुलाया ! अब यहाँ भी विचारणीय तथ्य यह है कि क्या , वृष्णि, अन्धक ,मधु, दाशार्हं ,और कुकुर वंशी क्या  यादव नहीं थे? अर्थात् अवश्य थे। अधिकतर परवर्ती पुराणों में कृष्ण को द्वेष वश ही मर्यादा विध्वंसक के रूप में भी वर्णित किया गया है। अन्यथा श्रीमद्भगवद् गीता तो उन्हें आध्यात्मिक पुरुष के रूप में सिद्ध करती है एक स्थान पर काल्पनिक रूप से भागवतपुराणकार ने वर्णित किया है ; कि श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ श्रुतकीर्ति --जो वास्तव में केकय देश में ब्याही थी ; उनकी पुत्री 'भद्रा' थी उसका भाई सन्तर्दन आदि ने स्वयं ही कृष्ण के साथ भद्रा का विवाह कर दिया।ऐसी बातें नहीं लिखी जाती जबकि यादवों में यह परम्परा नहीं है।- 👇श्लोक
श्रुतकीर्ते:—श्रुतकीर्ति की; सुताम्—पुत्री; भद्राम्—भद्रा को; उपयेमे—ब्याहा; पितृ-स्वसु:—अपने पिता की बहन बुआ की; कैकेयीम्—कैकेय की राजकुमारी; भ्रातृभि:—उसके भाइयों द्वारा; दत्ताम्—दी हुई; कृष्ण:—कृष्ण; सन्तर्दन-आदिभि:— सन्तर्दन इत्यादि द्वारा ।.
"भद्रा" कैकेय राज्य की राजकुमारी तथा कृष्ण की बुआ श्रुतकीर्ति की पुत्री थी। जब सन्तर्दन इत्यादि उसके भाइयों ने उसे कृष्ण को भेंट किया, तो उन्होंने भद्रा से विवाह कर लिया।
भागवतपुराण में एकादश स्कन्ध के (31)वें अध्याय के (24) वें श्लोक में वर्णन है कि 
स्त्री बाल वृद्धानाय हतशेषान् धनञ्जय: ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ।।24।
अर्थात् पिण्डदान के अनन्तर बची कुची स्त्रीयों बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्र प्रस्थ आया। वहाँ सबको  यथास्थान बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक करके हिमालय की ओर यात्रा की ! कदाचित यहाँ गोपिकाओं को लूटने का प्रकरण नहीं है कदाचित् इसका वर्णन प्रथम स्कन्ध के पन्द्रह वें अध्याय  के बीसवें श्लोक मेंं हो ही गया है जिस पर विस्तृत विवेचन यथाक्रम आगे किया जाएगाावास्तव में भागवत पुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है; अथवा ये श्लोक प्रक्षिप्त ही हैं। वह कहता है कि" ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। तो फिर उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैं ! हरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं।  दोेैंनों ही क्रोष्टावंश के यादव थे। परन्तु भागवत पुराण के प्रक्षेपों की कोई सीमा नहीं है। भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व असंगत बातें और भी हैं ।
भागवतपुराण के बारहवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में कहा गया है कि👇___________________________________ 
"मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जि: पुरञ्जय।करष्यति अपरो वर्णान् पुलिन्द यदु मद्रकान् ।। १२/१/३६
•-मगध ( आधुनिक विहार) का राजा विश्वस्फूर्ति पुरुञ्जय होगा ; यह द्वित्तीय पुरञ्जय होगा ---जो ब्राह्मण आदि उच्च वर्णों को पुलिन्द ,यदु (यादव) और मद्र आदि म्लेच्छप्राय: जातियों में बदल देगा ।३६। क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ या शूद्र थे ? जैसा कि यादवों के प्रति आज तक यह व्यवहार किया जाता है। 
____________________________________
देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं । जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में वर्णित है ही और ये निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में 
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श्रीगर्ग उवाच
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वदा ।
सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम् ॥७॥
शब्दार्थ-श्री-गर्ग:उवाच—गर्गमुनि ने कहा; यदूनाम्—यदुकुल का; अहम्—मैं हूँ; आचार्य:—पुरोहित; ख्यात: च—पहले से यह ज्ञात है; भुवि—सर्वत्र; सर्वदा—सदैव; सुतम्—पुत्र को; मया—मेरे द्वारा; संस्कृतम्—संस्कार सम्पन्न; ते—तुम्हारे; मन्यते—माना जायेगा; देवकी-सुतम्—देवकी-पुत्र
अनुवाद- गर्गमुनि ने कहा : हे नन्द महाराज, मैं यदुकुल का पुरोहित हूँ। यह सर्वविदित है। अत: यदि मैं आपके पुत्रों का संस्कार सम्पन्न कराता हूँ तो कंस समझेगा कि वे देवकी के पुत्र हैं।
 आशय-गर्गमुनि ने अप्रत्यक्ष रूप से बतला दिया कि कृष्ण यशोदा के नहीं बल्कि देवकी के पुत्र हैं। चूँकि कंस पहले से ही कृष्ण की खोज में था, अत: यदि गर्गमुनि संस्कार कराते तो कंस को पता चल सकता था और इससे महान् संकट उत्पन्न हो जाता। यह तर्क किया जा सकता है कि यद्यपि गर्गमुनि यदुवंश के पुरोहित थे और नन्द महाराज भी यदुवंशी थे किन्तु नन्द महाराज क्षत्रिय कर्म नहीं कर रहे थे। इसीलिए गर्गमुनि ने कहा, “यदि मैं आपके पुरोहित के रूप में कर्म करूँ तो इससे पुष्टि होगी कि कृष्ण देवकी-पुत्र हैं।”यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है। अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर ही चुके हैं । 
(देवी भागवत पुराण)
और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है। अत: दौनों ही नन्द-वसुदेव एक ही परिवार के और यादव थे।परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में  इस प्रकार का वर्णन है ।
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९। वसुदेव ने गर्गाचार्य को गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा विदित हो कि गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी करते थे निम्न श्लोकों में यही तथ्य है। गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम्       -श्रीनारद उवाच -
सुविस्मिताःपूर्वकृतं विहायप्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम्॥१॥
नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजःसुतौ समानीय च रामकृष्णौ ।
श्री नारदजी कहते हैं–साक्षात् ! श्रीनन्‍दनन्‍दन की यह बात सुनकर श्रीनन्‍द और सन्नन्‍द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्‍होनें पहले का निश्‍चय त्‍यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया। मिथिलेश्‍वर ! नन्‍दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्‍ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्‍कण्ठित हो प्रसन्‍नातापूर्वक गये। उन बलराम और कृष्ण के साथ गर्गजी भी थे।
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गोपान् गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गत: ।
नन्द:कंसस्यवार्षिक्यं करं दातुंकुरूद्वह।१९।
गोपान्—ग्वालों को; गोकुल-रक्षायाम्—गोकुल मण्डल की रक्षा के लिए; निरूप्य—नियुक्त करके; मथुराम्—मथुरा; गत:— गए; नन्द:—नन्द महाराज; कंसस्य—कंस का; वार्षिक्यम्—वार्षिक कर; करम्—लाभांश; दातुम्—भुगतान करने के लिए; कुरु-उद्वह—हे कुरु वंश के रक्षक, महाराज परीक्षित ।
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंश के सर्वश्रेष्ठ रक्षक, उसके बाद नन्द महाराज ने स्थानीय ग्वालों को गोकुल की रक्षा के लिए नियुक्त किया और स्वयं राजा कंस को वार्षिक कर देने मथुरा चले गए।
चूँकि बालकों का वध किया जा रहा था और यह सबको ज्ञात हो चुका था अत: नन्द महाराज अपने नवजात शिशु के लिए अत्यधिक डरे हुए थे। इसलिए उन्होंने अपने घर तथा शिशु की रक्षा के लिए स्थानीय ग्वालों को नियुक्त कर दिया। वे तुरन्त ही मथुरा जाकर कर भुगतान करना चाह रहे थे और अपने नवजात शिशु के उपलक्ष्य में कुछ भेंट भी देना चाहते थे। वे शिशु के संरक्षण के लिए विभिन्न देवताओं तथा पितरों की पूजा कर चुके थे और सब को जी भर कर दान भी दे चुके थे। इसी तरह नन्द महाराज कंस को न केवल वार्षिक कर चुकता करना चाह रहे थे अपितु कुछ भेंट भी देना चाह रहे थे जिससे कंस भी तुष्ट हो जाए। उनकी एकमात्र चिन्ता यही थी कि अपने दिव्य शिशु कृष्ण की किस तरह रक्षा करें।
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् ।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
वसुदेव:—वसुदेव; उपश्रुत्य—सुनकर; भ्रातरम्—अपने मित्र तथा भाई; नन्दम्—नन्द महाराज को; आगतम्—मथुरा आया हुआ; ज्ञात्वा—जानकर; दत्त-करम्—पहले ही कर चुकता किया जा चुका था; राज्ञे—राजा के पास; ययौ—गया; तत्- अवमोचनम्—नन्द महाराज के डेरे तक ।
अनुवाद-जब वसुदेव ने सुना कि उनके अत्यन्त प्रिय मित्र तथा भाई नन्द महाराज मथुरा पधारे हैं और वे कंस को कर भुगतान कर चुके हैं, तो वे नन्द महाराज के डेरे में गए।
वसुदेव तथा नन्द महाराज का सम्बन्ध भाइयों के थे। यही नहीं, श्रीपादमध्वाचार्य की टिप्पणियों से ज्ञात होता है कि वसुदेव तथा नन्द महाराज सौतेले भाई थे। वसुदेव के पिता शूरसेन ने एक वैश्य वर्णा कन्या से विवाह किया जिससे नन्द महाराज उत्पन्न हुए। बाद में स्वयं नन्द महाराज ने  भी एक वैश्य लडक़ी यशोदा से शादी की। इसलिए उनका परिवार वैश्य परिवार के नाम से विख्यात है। कृष्ण ने उनके पुत्र के रूप में वैश्य कर्मों को सँभाला (कृषि गोरक्ष्य वाणिज्यम् )। बलराम कृषि के लिए भूमि जोतने का प्रतिनिधित्व करते हैं इसीलिए वे अपने हाथ में सदैव हल लिए रहते हैं। कृष्ण गौवें चराते हैं अतएव वे अपने हाथ में बाँसुरी लिए रहते हैं। इस तरह दोनों भाई कृषिरक्ष्य तथा गोरक्ष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस समय वर्ण-व्यवस्था जाति  अथवा जन्मगत नहीं थी अपितु व्यवसायगत ही थी स्वयं वसुदेव का कृषिकार्य और गोपालन इसका साक्ष्य है।   
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे ,तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण आदि में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। और कृष्ण का जन्म होना भी गोप (आभीर)के घर में बताया है ।
हरिवंश पुराण के सन्दर्भ से पहले हम इस बात को बता चुके हैं उसे यहाँ पुन: प्रस्तुत करना अपेक्षित है। 👇प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है। यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है।
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हरिवंशपुराणम्-पर्व -हरिवंशपर्व अध्यायः(५५)
भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्:
              (वैशम्पायन उवाच)
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः ।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद ।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः ।।२।।
विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः ।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।३।
जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि ।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।
नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।५।।
विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः ।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिता बलेः।६।।
कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत् ।।७।।
विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम् 
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।
मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।
दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।
सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः 
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया ।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम् ।११।
सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च ।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।१२।
कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान् 
तेन तेन विधानेन येन यःशान्तिमेष्यति।१३।।
अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया।
अमीषांहि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवोयुधि।१४।
जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः ।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम ।१५।।
विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया ।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।
यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन् ।
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह ।।१७
                 (ब्रह्मोवाच)
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।१८।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।।  
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पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।२२
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।।२३।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः ।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४ ।
मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याःकामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान्सर्वान्रक्षिताःस्वेन तेजसा।२५।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६ ।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः ।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः।२७।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम् ।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः।२८ ।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः ।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।३०।
त्रातव्याःप्रथमंगावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् 
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत्।३१।
इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम्।३२।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः ।।३४।।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते ।
स तस्यकश्यपस्यांशस्तेजसाकश्यपोपमः।३५।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः ।३६।।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः ।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।३७।।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभीरोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा।३९ ।।
 छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया । तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन ।1.55.४०।   
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२ ।
गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।४३।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।४४।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।४५।
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति तेत्वयि।४६।
जीवितं वसुदेवस्यभविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तःस पुत्र इति वक्ष्यति।४७।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्तात्वांविष्णोअदितिं विना।४८।
योगेनात्मसमुत्थेनगच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामोमधुसूदन।४९।           
               (वैशम्पायन उवाच)
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम्।५०।
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोःसुदुर्गमा।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसुपूजिता।५१।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।५२।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।५५।
हरिवंंश सम्पूर्ण
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर विशेषत:  देखें---अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय। उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१। 
कि हे कश्यप आपने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीर (गोप) का जन्म धारण करें ।२२। 
तथा दौनों देव माता 'अदिति' और 'सुरभि' तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों (ग्वालों) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे । हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं। मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।              (उद्धृत सन्दर्भ --)
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
विदित हो कि गायत्री परिवार के पुराणों के अध्याय और श्लोक संख्या में  गोरखपुर गीता प्रेस के पुराणों के अध्याय और श्लोक संख्या में भेद है। अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत:।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की 
रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? 
अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९। हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक (१९)वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (१४४) (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) 
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य | तथा
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी 'वराहोत्पत्ति' वर्णन"नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है; गोपों (अहीरों) को  देवीभागवतपुराण तथा महाभारत ,हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।
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"गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड अध्याय तृृृृृृृृत्तीय में नन्द और वसुदेव आदि रूपों में यदुकुलमें देवताओं को अपने साथ अवतार लेने के लिए विष्णु का आदेश एवं निर्देश"  श्रीब्रह्मोवाच  

अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि।
एते कुत्र भविष्यन्ति कैर्गृहैः कैश्च नामभिः॥३५॥श्रीभगवानुवाच वसुदेवस्य देवक्यांभविष्यामि परः स्वयम्।रोहिण्यांमत्कलाशेषोभविष्यति नसंशयः।३६। श्री साक्षाद्‌रुक्मिणी भैष्मी शिवा जांबवती तथा।सत्या च तुलसी भूमौ सत्यभामा वसुंधरा ॥३७॥

दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा।  भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवीपापनाशिनी।३८। रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः।भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि।३९ ॥नन्दोद्रोणो वसुःसाक्षाद्‌यशोदा सा धरा स्मृता ।वृषभानुःसुचन्द्रश्च तस्य भार्याकलावती॥४०। भूमौ कीर्तिरिति ख्याता तस्या राधा भविष्यति ।सदा रासं करिष्यामि गोपीभिर्व्रजमण्डले ॥ ४१ ॥इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥                            गर्गसहिता गोलोकखण्ड में नन्द और वसुदेव रूप में देवों को यदुवंश में अवतरित होने का विष्णु भगवान् आदेश देते हैं। अत: इससे यही सिद्ध होता कि समस्त व्रजवासी अहीर (गोप) यादव ही थे। नीचे इन श्लोकों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है।

                 "श्रीनारद उवाच।
इत्युक्तो भवान् साक्षाच्छ्रीकृष्णो गोकुलेश्वरः।
प्रत्याह प्रणतान्देवान्मेघगंभीरया गिरा॥२३॥
अर्थ-नारदजी कहते है- इस प्रकार स्तुति करने पर गोकुलेश्वर भगवान श्रीकृष्ण प्रणाम करते हुए देवताओं को सम्बोधित करके मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोले-।
               "श्रीभगवानुवाच।
"हे सुरज्येष्ठ हे शम्भो देवा: श्रृणुतु मदवच: यादवेषुजनध्वम्अंशै:स्त्रीभिर्मदाज्ञया।।२४।।
अर्थ :- श्री भगवान ने कहा- ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य) देवताओं ! तुम सब मेरी बात सुनो।
मेरे आदेशानुसार तुम लोग अपने अंशों से देवियों के साथ यदुकुल में जन्म धारण करो। 
अहं चअवतरिष्यामि हरिष्यामि भुवो भरम् ।करिष्यामिचवःकार्यंभविष्यामियदोःकुले।२५।
अर्थ:-मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वी का भार दूर होगा। मेरा वह अवतार यदुवंश के एक कुल वृष्णिकुल में होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा। 
                   "श्रीब्रह्मोवाच।। 
अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि।   एते कुत्रभविष्यन्तिकैर्गृहैःकैश्चनामभिः॥३५॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा- भगवन ! मेरे लिये कौन स्थान होगा ? आप कहाँ पधारेंगे ? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहों में रहेंगे और किन-किन नामों से इनकी प्रसिद्धि होगी ?
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                  ।।श्रीभगवानुवाच ।।
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यामि परः स्वयम् ।रोहिण्यांमत्कला शेषोभविष्यति न संशयः!३६।
श्रीभगवान ने कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकी के यहाँ प्रकट होऊँगा। मेरे कला स्वरूप ये ‘शेष’ रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे- इसमें संशय नहीं है।
श्रीसाक्षाद्‌रुक्मिणीभैष्मीशिवाजाम्बवती तथा  सत्या च तुलसीभूमौसत्यभामा वसुंधरा।३७॥
अर्थ:-साक्षात ‘लक्ष्मी’ राजा भीष्म के घर पुत्री रूप से उत्पन्न होंगी। इनका नाम ‘रुक्मणी’ हगा और ‘पार्वती’ ‘जाम्बवती’ के नाम से प्रकट होंगी। 
दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा ।
भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवीपापनाशिनी।३८।
अर्थ:- यज्ञ पुरुष की पत्नी ‘दक्षिणा देवी’ वहाँ ‘लक्ष्मणा’ नाम धारण करेंगी। यहाँ जो ‘विरजा’ नाम की नदी है, वही ‘कालिन्दी’ नाम से विख्यात होगी। भगवती ‘लज्जा’ का नाम ‘भद्रा’ होगा। समस्त पापों का प्रशमन करने वाली ‘गंगा’ ‘मित्रविन्दा’ नाम धारण करेगी।
रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः ।
भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि।३९।
अर्थ:- जो इस समय ‘कामदेव’ हैं, वे ही रुक्मणी के गर्भ से ‘प्रद्युम्न’ रूप में उत्पन्न होंगे।
प्रद्युम्न के घर तुम्हारा अवतार होगा।
उस समय तुम्हें ‘अनिरूद्ध’ कहा जायेगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। इसी उपर्युक्त तथ्य के पुष्टिकरण हेतु हम गोपालचम्पू  व भागवत पुराण के टीका ग्रन्थ वंशीधरी" टीका से साक्ष्य उद्धृत करते हैं।"👇"
नन्दगोपकुलमपि यदुकुलमेव तथाहि – सर्वश्रुतिपुराणादि कृतप्रशंसस्य यदुकुलस्यावतंस: श्रीदेवमीढ़नामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास। तस्यभार्याद्वयमासीत्।
"अर्थ- नन्दगोपकुलभी यदुकुल ही है वैसे ही सभी वेदोंपुराणों आदि में यदुकुल की प्रशंसा है यदुकुल शिरोमणि(अवतंस)श्रीदेवमीढ जो मधुरा नगरी के मध्य प्रतिष्ठित थे।उनकी दो पत्नीयाँ  थीं। _____________________________
"प्रथमा द्वितीयावर्णा द्वितीया तृतीयावर्णेति तयोश्च पुत्रद्वयं प्रथमम् बभूव शूर: पर्जन्य इति च। तत्र शूरस्य वसुदेवादय: अत एवोक्तं श्रीमुनिना " वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं" इति श्री पर्जन्यस्तु मातृवद्वर्णसंकर"– इति न्यायेन प्रायेण हि जना: सर्वे यान्ति मातामहीम् तनुम्"इति न्यायेन वैश्यतामेवाविश्य गोवृत्तिपूर्वकं वृहद्वनं एवासांचकार ।"
अर्थ –पहली पत्नी दूसरे वर्ण की, और दूसरी पत्नी तीसरे वर्ण की थी। देवमीढ के दो पुत्र थे; पहली पत्नी से शूर और दूसरी से पर्जन्य । 
वहाँ शूर के वसुदेव आदि हुए । इसी लिए मुनि द्वारा कहा गया- (वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं)" वसुदेव यह सुनकर की भाई नन्द आये हुए हैं"। इस प्रकार पर्जन्य के पुत्र नन्द आदि  मातामही (दादी) के वर्ण को  प्राप्त हैं। 
और ब्राह्मण न्याय के द्वारा वे वर्णसंकर हुए । और सभी भाई को मातामही के शरीर का प्राप्त होने से इस ब्राह्मण न्याय से भी वे वैश्यता को प्राप्त होकर गोवृत्ति पालन से "वृहदवनं" में रहने लगे।
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"स च बाल्यादेव ब्राह्मणदर्शै पूजयति। मनोरथ पूरं देयानि वर्षति । वैष्णववेदं स्नह्यति । यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वैशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशामवतंसतया परमशंसनीय एवमेव च गोपवशोपीति पाद्येसृष्टिखण्डे स्पष्टीकृत:। स च श्रीमान्पर्जन्यो वैश्यांतर साधारण्यं निजैश्वर्येणातीयाय । यस्य भार्या नाम्ना वरीयस्यासीत् यस्य च श्री उपनन्दादय: पञ्चात्मजा जगदेवनन्ददयामासु: तथा च वन्दिन उपमान्ति स्म" उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:। इति तस्य पुत्र सम्पत्तिस्तु परमरमणीयतामवाप मध्यमसुत सम्पत्तिस्तु सुतराम्। तदेव (सुमुखनाम्ना)केनचिद् गोपमुख्येन श्रीपर्जन्यमध्यंसुताय श्रीनन्दाय परमधन्या कन्या दत्ता। "
अर्थ- और वह बालकपन से ही ब्राह्मणों का दर्शन के द्वारा सम्मान करते थे । और सभी याचको का मनोरथ पूरा करते थे। वैष्णव जनों और वेदों को स्नेह करते थे । और जीवनपर्यन्त हरि की अर्चना करते थे। और माता के पक्ष का व्यवसाय करने से उनकी ख्याति  सभी दिशाओं हो गयी । ( गोप वेष में वे प्रसिद्ध हो गये "पद्मपुराण सृष्टि खण्ड भी उनके इस व्यवसाय की पुष्टि का स्पष्टी करण करता है । कि इनकी पत्नी भी वैश्य वर्ण की थी। जिनका नाम "वरीयसी" था और उससे उत्पन्न इनके नन्द आदि पाँच पुत्र थे। मध्यम पुत्र इनको अधिक प्रिय था और सभी की सहमति से उनका विवाह "सुमुख नामके किसी मुख्य गोप की पुत्री यशोदा से कर दिया। जो परम धन्या और सुन्दर कन्या थी
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या खलु स्वगुणवशीकृत स्वजना यशांसि ददाति श्रण्वद्भय: पश्यद्भय: किमुततराम् भक्तिमद्भय:
ततश्च तयोर्दोपत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत् किमुत् पित्रादीनाम् तदेवमानन्दितसर्वजन: पर्जन्यस्वमपि
किमुत"(सुखमनुभूय श्रीगोविन्दपदारविन्दभजनमात्रान्वितां देहयात्रामभीष्टां मन्यमान: सर्वज्यायसे सुताय स्वकुलतिलकतां दातुं । श्रीवसुदेवादिनरदेव गर्गादिभूदेवकृत प्रभायां सभायां स्वजनाहूतवान्।
 स च ज्यायांस्तत्र सदसि मध्यं निजानुजं नन्दनामानं पितुराज्ञया कृतकृत्य: सन् गोकुलराजतया  सभाजयामास अत्र संकुचिते तत्रानुजे सविस्मये सर्वजने पितरिक्षेत्रमानलोचने स च चोवास स्नेहसद्गुणपराधीनेनाचरितमिति राजायमास्माकम्। ततो देवेैस्तदोपरि पुष्पवृष्टिकारि सदस्यैश्च ततोऽसौ पर्जन्य: श्रीगोविन्दमाराधियतुं सभार्यो वृन्दावनं प्रविवेश
अर्थ –( जो निश्चय ही अपने गुणों से स्वजनों को वश में करने वाली और यश देने वाली थीं। सुनने वालों के द्वारा देखने वालों के द्वारा और भक्ति करने वालों द्वारा उसकी क्या कहने ! आदि शब्दों से प्रशंसा सी जाती थी)( तब पर्जन्य की सभी सन्तानों( अपत्यों) में ही सुख सम्पदा उत्पन्न हुई थी और पिता के लिए क्या चाहिए! तब सब लोग आनन्दित थे और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके  प्रभु के चरण-कमलों ध्यान लगाने वाले थे और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को  सभा में आमन्त्रित किया )(और वहाँ सभा में बड़ों के द्वारा मझले अपनेसे छोटे भाई जिनका नन्द नाम था उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति  सभा में नियुक्त कर दिया संकुचित नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये । स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं। तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की और तत्पश्चात पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए सभा को सम्पन्न कर वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
अध्याय एक दशम स्कन्ध पूर्वार्द्धे " श्रीमद्भागवत वंशीधरी" टीका पृष्ठ-संख्या (१६२४)
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"यादवेषु जनध्वम् अंशै: रूपैभिस्स्त्रीभिर्मदाज्ञया "नन्दो द्रोणो वसु: साक्षाद् यशोदा सा धरास्मृता।   
वृषभानु: सुचन्द्रश्च तस्य भार्या कलावती।४०।
यादवों में  अंश रूप में उत्पन्न  अपनी पत्नीयों  के साथ  प्रभु आज्ञा से ‘वसु’ जो ‘द्रोण’ के नाम से प्रसिद्ध हैं,  वे व्रज में ‘नन्द’ होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया ‘धरा देवी’ ‘यशोदा’ नाम धारण करेंगी। सुचन्द्र’ ‘वृषभानु’ बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी ‘कलावती’ धराधाम पर ‘कीर्ति’ के नाम से प्रसिद्ध होंगी। "विशेष-- यदि नन्द बाबा वृषभानु और यशोदा एवं राधा की माता कीर्ति और स्वयं राधा को यदुवंश के अन्तर्गत अवतरित होने का निर्देश श्री भगवान के द्वारा नहीं मिलता ! तो गर्गसंहिता/खण्डः १ (गोलोकखण्डः)-अध्यायः ०३ मेें यह वर्णन नही होता।
"भूमौ कीर्तिरिति ख्याता तस्या राधा भविष्यति।सदा रासं करिष्यामि गोपीभिर्व्रजमण्डले ॥४१॥
अर्थ:-फिर उन्हीं वृषभानु और कीर्ति के यहाँ इन श्रीराधिकाजी का प्राकट्य होगा। मैं व्रजमण्डल में गोपियों के साथ सदा रासविहार करूँगा।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘भूतल पर अवतीर्ण होने अथवा आगमन-उदयोग वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।
"इति गर्गसंहितायां गोलोक खण्डे  "नारदबहुलाश्वसंवादेआगमनोद्योगवर्णनंनामतृत्तीयोऽध्यायः।।३।।
भगवन ! आप वृन्दावन के स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रज के अधिनायक हैं,
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गोपाल के रूप में अवतार धारण करके अनेक प्रकार की नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं। 
श्रीराधिकाजी प्राणवल्ल्भ एवं श्रुतिधरों के भी आप स्वामी हैं।आप ही गोर्वधन धारी हैं, अब आप धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें॥ सभी देवता मेरे अंग हैं। साधुपुरुष तो हृदय में वास करने वाले मेरे प्राण ही हैं। अत: प्रत्येक युग में जब दम्भपूर्ण दुष्टों द्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ तथा दया पर भी भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको भूतल पर प्रकट करता हूँ। श्रीनारदजी कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी क्षण ‘अब प्राणनाथ से मेरा वियोग हो जायेगा’ यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानल से दग्ध लता की भाँतिमूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उनके शरीर में अश्रु, कम्प, रोमांच आदि सात्त्विक भावों का उदय हो गया।
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गर्ग संहिता गोलोक खण्ड:अध्याय।3।
श्रीराधिका जी ने कहा- आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये भूमण्डल पर अवश्य पधारें; परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन लें- प्राणनाथ ! 
आपके चले जाने पर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी। यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञा पर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ। अब मेरे प्राण अधर तक पहुँचने को अत्यंत विह्वल हैं। ये इस शरीर से वैसे ही उड़ जायँगे, जैसे कपूर के धूलिकण।श्रीभगवान बोले- राधिके ! तुम विषाद मत करो। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और पृथ्वी का भार दूर करूँगा। मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी। श्रीराधिकाजी ने कहा- (परंतु) प्रभो ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मन को सुख नहीं मिलता। नारदजी कहते हैं- (श्रीराधिकाजी के इस प्रकार कहने पर) भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा। उस समय सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजी ने परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार प्रणाम करके कहा। वसु देवताओं का ही एक गण है जिसके अन्तर्गत आठ देवता हैं। विशेष—वेदों में वसु शब्द का प्रयोग अग्नि, मरुद् गण, इंद्र, उषा, अश्वी, रुद्र और वायु के लिये मिलता है। वसु को आदित्य भी कहा है। बृहदारणयक में इस गण में पृथिवी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, द्यौ, अग्नि, चंद्रमा और नक्षत्र माने गए हैं।महाभारत के अनुसार आठ वसु ये हैं—घर, ध्रुव, सोम, विष्णु, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास।श्रीमद् भागवत में ये नाम हैं—द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष वास्तु और विभावसु।
अग्नि- पुराण में आप, घ्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास वसु कहे गए हैं।
भागवत के असुसार दक्ष प्रजापति की कन्या 'वसु' ने, जो धर्म को ब्याही थी, वसुओं को उत्पन्न किया। देवीभागवत में कथा है कि एक बार वसुओं ने वसिष्ठ की नंदिनी गाय चुरा ली थी; जिससे वसिष्ठ  ने शाप दिया था कि तुम लोग मनुष्य योनि में जन्म लोगे। उसी शाप के अनुसार वसुओं का जन्म शान्तनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ, जिनमें सात को तो गंगा जनमते ही गंगा में फेंक आई, पर अंतिम भीष्म बचा लिए गए। इसी से भीष्म वसु के अवतार माने जाते हैं।वसुश्रेष्ठ द्रोण और उनकी पत्नी धरा ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की -'देव! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें तो भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अविचल भक्ति हो।' ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहकर उन्हें वर दिया। इसी वर के प्रभाव से व्रज में सुमुख नामक गोप की पत्नी पाटला के गर्भ से धरा का जन्म यशोदा के रूप में हुआ।और उनका विवाह नन्द से हुआ। नन्द पूर्व जन्म के द्रोण नामक वसु थे।
भगवान श्री कृष्ण इन्हीं नन्द-यशोदा के पुत्र बने।
गर्गसंहिता -खण्डः प्रथम-(गोलोकखण्डः) अध्यायः तृतीय 
              "आगमनोद्योग वर्णनम्
मुने देवा महात्मानं कृष्णं दृष्ट्वा परात्परम् ।
अग्रे किं चक्रिरे तत्र तन्मे ब्रूहि कृपां कुरु ॥ १॥
                 नारद उवाच -
सर्वेषां पश्यतां तेषां वैकुंठोऽपि हरिस्ततः ।
उत्थायाष्टभुजः साक्षाल्लीनोऽभूत्कृष्णविग्रहे॥२।
तदैव चागतः पूर्णो नृसिंहश्चण्डविक्रमः ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशो लीनोऽभूत्कृष्णतेजसि।३।
रथे लक्षहये शुभ्रे स्थितश्चागतवांस्ततः ।
श्वेतद्वीपाधिपो भूमा सहस्रभुजमंडितः।४।
श्रिया युक्तः स्वायुधाढ्यः पार्षदैः परिसेवितः ।
संप्रलीनो बभूवाशु सोऽपि श्रीकृष्णविग्रहे॥५॥
तदैव चागतः साक्षाद्‌रामो राजीवलोचनः ।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥६
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे ।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥७॥
लक्षध्वजे लक्षहये शातकौंभे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः संप्रलीनो बभूव ह ॥८॥
तदैव चागतः साक्षाद्‌यज्ञो नारायणो हरिः ।
प्रस्फुरत्प्रलयाटोपज्वलदग्निशिखोपमः॥९॥
रथे ज्योतिर्मये दृश्यो दक्षिणाढ्यः सुरेश्वरः ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामविग्रहे॥१०॥
तदा चागतवान् साक्षान्नरनारायणः प्रभुः ।
चतुर्भुजो विशालाक्षो मुनिवेषो घनद्युतिः।११।
तडित्कोटिजटाजूटः प्रस्फुरद्दीप्तिमंडलः।
मुनीन्द्रमण्डलैर्दिव्यैर्मण्डितोऽखण्डितव्रतः॥१२॥
सर्वेषां पश्यतां तेषामाश्चर्य मनसा नृप ।
सोऽपिलीनो बभूवाशुश्रीकृष्णेश्यामसुंदरे।१३।
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं च स्वयं प्रभुम् ।
ज्ञात्वादेवाःस्तुतिं चक्रुःपरंविस्मयमागताः॥१४॥
                  "देवा ऊचुः!
कृष्णाय पूर्णपुरुषाय परात्पराय
     यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय ।
राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षा-
     द्‌गोलोकधाम धिषणाय नमः परस्मै ॥१५॥
योगेश्वराः किल वदन्ति महः परं त्वां
     तत्रैव सात्वतमनाः कृतविग्रहं च ।
अस्माभिरद्य विदितं यददोऽद्वयं ते
     तस्मै नमोऽस्तु महसां पतये परस्मै ॥१६॥
व्यङ्गेन वा न न हि लक्षणया कदापि
    स्फोटेन यच्च कवयो न विशंति मुख्याः।
निर्देश्यभावरहितः प्रकृतेः परं च
     त्वां ब्रह्म निर्गुणमलं शरणं व्रजामः ॥१७॥
त्वां ब्रह्म केचिदवयंति परे च कालं
     केचित्प्रशांतमपरे भुवि कर्मरूपम् ।
पूर्वे च योगमपरे किल कर्तृभाव-
    मन्योक्तिभिर्न विदितंशरणं गताःस्मः॥१८॥
श्रेयस्करीं भगवतस्तवपादसेवांहित्वाथ तीर्थयजनादि तपश्चरन्ति।
ज्ञानेन ये च विदिता बहुविघ्नसङ्घैः
 सन्ताडिताः किमु भवन्ति न ते कृतार्थाः।१९॥
विज्ञाप्यमद्य किमु देव अशेषसाक्षी
     यः सर्वभूतहृदयेषु विराजमानः।
देवैर्नमद्‌भिरमलाशयमुक्त देहै-
     स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥२०॥
यो राधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहारः
   श्रीगोपिकानयनजीवनमूलहारः।
गोलोकधामधिषणध्वज आदिदेवः
   स त्वं विपत्सु विबुधान् परिपाहि पाहि॥२१॥
वृन्दावनेश गिरिराजपते व्रजेश
     गोपालवेषकृतनित्यविहारलील ।
राधापते श्रुतिधराधिपते धरां त्वं
     गोवर्द्धनोद्धरण उद्धर धर्मधाराम् ॥२२॥
"हिन्दी अनुवाद सहित "
गर्ग संहिता गोलोक खण्ड :अध्याय 3 
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान करना श्री जनकजी ने पूछा-मुने ! परात्पर महात्मा भगवान  का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें। 
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। 
उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। 
इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे।वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में सीता और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी। उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये। फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे।देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।(गोलोकखण्ड-अध्याय 3)
उनका दीप्तिमण्डल सब ओर उद्भासित हो रहा था। दिव्य मुनीन्द्रमण्डलों से मण्डित वे भगवान नारायण अपने अखण्डित ब्रह्मचर्य से शोभा पाते थे। राजन ! सभी देवता आश्चर्ययुक्त मन से उनकी ओर देख रहे थे। किंतु वे भी श्याम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण में तत्काल लीन हो गये।इस प्रकार के विलक्षण दिव्य दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं को महान आश्चर्य हुआ। उन सबको यह भली-भाँति ज्ञात हो गया कि परमात्मा श्रीकृष्ण चन्द्र स्वयं परिपूर्णतम भगवान हैं। तब वे उन परमप्रभु की स्तुति करने लगे। देवता बोले- जो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र पूर्ण पुरुष, परसे भी पर, यज्ञों के स्वामी, कारण के भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात गोलोकधाम के अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं। योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप परम तेज:पुंज हैं; शुद्ध अंत:करण वाले भक्तजन ऐसा मानते हैं कि आप लीला विग्रह धारण करने वाले अवतारी पुरुष हैं; परंतु हम लोगों ने आज आपके जिस स्वरूप को जाना है, वह अद्वैत सबसे अभिन्न एक अद्वितीय है; अत: आप महत्तम तत्त्वों एवं महात्माओं के भी अधिपति हैं; आप परब्रह्म परमेश्वर को हमारा नमस्कार है। कितने विद्वानों ने व्यंजना, लक्षणा और स्फोट द्वारा आपको जानना चाहा; किंतु फिर भी वे आपको पहचान न सके; क्योंकि आप निर्दिष्ट भाव से रहित हैं। अत: माया से निर्लेप आप निर्गुण ब्रह्म की हम शरण ग्रहण करते हैं। किन्हीं ने आपको ‘ब्रह्म’ माना है, कुछ दूसरे लोग आपके लिये ‘काल’ शब्द का व्यवहार करते हैं।
कितनों की ऐसी धारणा है कि आप शुद्ध ‘प्रशांत’ स्वरूप हैं तथा कतिपय मीमांसक लोगों ने तो यह मान रखा है कि पृथ्वी पर आप ‘कर्म’ रूप से विराजमान हैं। कुछ प्राचीनों ने ‘योग’ नाम से तथा कुछ ने ‘कर्ता’ के रूप में आपको स्वीकार किया है।इस प्रकार सबकी परस्पर विभिन्न ही उक्तियाँ हैं। अतएव कोई भी आपको वस्तुत: नहीं जान सका। (कोई भी यह नहीं कह सकता कि आप यही हैं, ‘ऐसे ही’ हैं।) अत: आप (अनिर्देश्य, अचिंत्य, अनिर्वचनीय) भगवान की हमने शरण ग्रहण की है।भगवन ! आपके चरणों की सेवा अनेक कल्याणों के देने वाली है। उसे छोड़कर जो तीर्थ, यज्ञ और तप का आचरण करते हैं, अथवा ज्ञान के द्वारा जो प्रसिद्ध होगये हैं; उन्हें बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ता है; वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते।"गोलोक खण्ड :अध्याय 3
भगवन ! अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्र के भीतर विद्यमान हैं। 
जो शुद्ध अंत:करण वाले एवं देह बन्धन से मुक्त हैं, वे (हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को हमारा प्रणाम है। जो श्रीराधिकाजी के हृदय को सुशोभित करने वाले चन्द्रहार हैं, गोपियों के नेत्र और जीवन के मूल आधार हैं तथा ध्वजा की भाँति गोलोकधाम को अलंकृत कर रहे हैं, आदिदेव भगवान आप संकट में पड़े हुए हम देवताओं की रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन ! आप वृन्दावन के स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रज के अधिनायक हैं, गोपाल के रूप में अवतार धारण करके अनेक प्रकार की नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजी प्राणवल्ल्भ एवं श्रुतिधरों के भी आप स्वामी हैं। आप ही गोर्वधन धारी हैं, अब आप धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें।
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इसके अतिरिक्त"देवीभागवत पुराण में वर्णन है। "कश्यप और उनकी पत्नी अदिति 'सुरभि आदि का वसुदेव 'देवकी और रोहिणी आदि का गोप -गोपिका रूप में अंश-अवतरण भी "अहीर "गोप और "यादव रूपों की अभिन्नता का परिचायक है।
"अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले।भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥
(देवी भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्ध तृतीय अध्याय श्लोक संख्या १६)
•-अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म लोगे ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है । और भागवतपुराण में अभिवादन रीति से भी यही संकेत मिलता भी है। 
देखें निम्न भागवत पुराण के श्लोक-
"गोपान् गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः।नंदः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह।१९ ॥
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम्।             ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तद् अवमोचनम् ॥ २०॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम्।प्रीतःप्रियतमं दोर्भ्यां सस्वजे प्रेमविह्वलः॥२१॥
पूजितः सुखमासीनः पृष्ट्वा अनामयमादृतः।प्रसक्तधीःस्वात्मज योःइदमाह विशाम्पते।२२।
अनुवाद- -परीक्षित! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप कर , वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।  जब वसुदेवजी को यह सुनकर मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये।२०। वसुदेवजी को देखकर ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा कर प्रेम से विह्वल होगये।२१। 
राजन् परीक्षित! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत से -सत्कृत होकर अनामय शब्द से कुशल क्षेम पूछ कर वे आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्र में लग रहा था।२२।
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इस प्रसंग में भागवत पुराण दशम स्कन्ध के  १०/५/१९-२०-२१-२२  
निम्न श्लोक में विचारणीय है कि "अनामय" शब्द का प्रयोग क्षत्रिय की (कुशलता) पूछने में प्रयोग होता था ।
पूजितःसुखमासीनःपृष्ट्वा अनामयमादृतः।
प्रसक्तधीःस्वात्मजयोःइदमाह विशांपते।२२॥
यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार (अनामयं) शब्द से कुशल-क्षेम 'क्षत्रिय' जाति से ही पूछी जाती है । और नन्द से वसुदेव 'अनामय' शब्द से कुशल-क्षेम पूछते हैं ।
पूजितःसुखमासीनःपृष्ट्वा अनामयमादृतः।
 प्रसक्तधीःस्वात्मजयोःइदमाह विशांपते॥२२॥

भागवतपुराण१०/५/२२
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुं अनामयम्
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रं आरोग्यं एव च । ।  मनुस्मृति २/१२७
ब्राह्मण को 'कुशल  पूछें  और क्षत्रियबन्धु को  'अनामय वैश्य को 'क्षेम और पास जाकर शूद्र को 'आरोग्य पूँछें !
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अन्यत्र भी (कूर्म पुराण अध्याय १२का २५वाँ श्लोक नीचे देखें)-
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्रबन्धुमनामयम्। 
वैश्यंक्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव तु।१२.२५।
देखें निम्न भागवत पुराण के श्लोक
गोपान् गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः। 
नंदः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह।१९।
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम्।              ज्ञात्वा दत्तकरंराज्ञेययौतद् अवमोचनम्।२०।
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम्। प्रीतः प्रियतमं दोर्भ्यां सस्वजे प्रेमविह्वलः।२१।
पूजितः सुखमासीनः पृष्ट्वा अनामयमादृतः।प्रसक्तधीःस्वात्मजयोःइदमाह विशाम्पते।२२।
अनुवाद-परीक्षित! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप कर वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।जब वसुदेवजी को यह सुनकर मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये।२०।वसुदेवजी को देखकर ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा कर प्रेम से विह्वल होगये।२१। 
राजन् परीक्षित ! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत से -सत्कृत होकर अनामय शब्द से कुशल क्षेम पूछ कर वे आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्र में लग रहा था। -भागवत पुराण दशम स्कन्ध १०/५/१९-२०-२१-२२ अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका में भी इस तथ्य का वर्णन किया  है। भागवत के इस- (६२)वें श्लोक को देखे- "भारत ! (हे भरत वंशज जनमेजय -) कंसव्रजे (कंस के अधीन इस व्रज क्षेत्र में ) याश्च आमीषां  गोपानां योषित: यशोदाद्या:) नन्द आदि गोप और उनकी गोपीका रूप में जो स्त्रियाँ  यशोदा आदि हैं ) (ये च वसुदेवाद्या: वृष्णय: देवक्याद्या यदुस्त्रिय: सन्ति )-और ये वसुदेव आदि की स्त्रीयाँ हैं ये सभी यदुवंश के हैं। (सर्व इति ये च उभयोर् नन्दवसुदेवकुलयो: ज्ञातय: सकुल्या: बन्धव: सुहृदश्च )- ये सभी दोनों कुल यदुवंश के होने से जाति कुल से परस्पर बान्धव और सुहृद हैं। (ये च कसंम् अनुव्रता: ते निश्चितिम् देवताप्राय: प्रायेण देवताँशा:)- ये सब कंस की आज्ञा के अधीन रहने वाले निश्चित ही देवताओं के अँश हैं ! (प्रायग्रहणात् कंसादीनाम् दैत्याँशत्वम् ।-और कंस आदि दैत्यों के अँश हैं  (६३)  
अनामय शब्द आरोग्य का वाचक है।
अम्--घञ् आमं तापं यात्यनेन इति आमय  आमयो रोगः रोगाभावे आरोग्ये । “ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षात्रबन्धुमनामयमिति” 
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुं अनामयम् ।       वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रं आरोग्यं एव च । 
वर्णानुसार कुशल प्रश्नविधि-मिलने पर अभिवादन अथवा, नमस्कार के बाद ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् अर्थात ब्राह्मण से कुशलता पूँछे – क्षत्रबन्धुम् (अनामयम्) से क्षत्रिय से बल आदि की दृष्टि से स्वास्थ के विषय में और वैश्य से (क्षेमम् )शब्द  से क्षेम–धन आदि की सुरक्षा  के विषय में (च) और शूद्रम् आरोग्यम् एव शूद्र के स्वस्थता के विषय में (पृच्छेत्) -पूछे । अभिप्राय यह है कि वर्णानुसार उनके मुख्य उद्देश्यसाधक व्यवहारों की निर्विघ्नता के विषय में प्रधानता से पूँछे ।
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(ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्मखण्ड अध्याय )
                  "श्रीगर्ग उवाच। 
"सुधामयं ते वचनं लौकिकं च कुलोचितम् । 
यस्य यत्र कुले जन्म स एव तादृशो भवेत्।३७।
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः। 
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती।३८।
तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी। बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नंदश्च वल्लभः।३९।।
नंदो यस्त्वं च या भद्रे बालो यो येन वा गतः। जानामि निर्जने सर्वं वक्ष्यामि नंदसन्निधिम्।
अनुवाद - •-जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है।
और माता का नाम पद्मावती सती हैैं तुम नन्द जी को पति रूप में पाकर कृतकृत्य हो गईं हो ! 
 (ब्रह्म वैवर्त पुराण 4.13.४०)
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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 2 श्लोक 31-35
("सप्‍तमो देवकीगर्भो यांऽश: सौम्‍यो ममाग्रज:।     स संक्रामयितव्‍यस्‍ते सप्‍तमे मासि रोहिणीम्।31।
संकर्षणात्‍तु गर्भस्‍य स तु संकर्षणो युवा।भविष्‍यत्‍यग्रजो भ्राता मम शीतांशुदर्शन:।32।।
पतितो देवकीगर्भ: सप्‍तमोऽयं भयादिति।        अष्‍टमे मयि गर्भस्‍थे कंसो यत्‍नं करिष्‍यति ।33।।
या तु सा नन्‍दगोपस्‍य दयिता भुवि विश्रुता।    यशोदा नाम भद्रं ते भार्यां गोपकुलोद्वहा।34।।
तस्‍यास्‍त्‍वं नवमो गर्भ: कुलेऽस्‍माकं भविष्‍यसि।नवम्‍यामेव संजाता कृष्‍णपक्षस्‍य वै तिथौ।35। 
देवि ! तुम्हारा भला हो, इस समय भूतल पर ‘यशोदा’ नाम से विख्यात जो नन्द गोप की प्यारी पत्नी हैं, वे गोकुल की स्वामिनी हैं।
तुम उन्हीं के नवम गर्भ के रूप में हमारे कुल में उत्पन्न होगी।अर्थात नन्द और कृष्ण के पिता वसुदेव का (एक ही कुल वृष्णि-कुल था इसीलिए कृष्ण ने हमारे कुल में उत्पन्न होगी। ऐसा कहा)
कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को ही तुम्हारा जन्म होगा। परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेषभाव को ही इंगित करता है ।परन्तु स्वयं वही संस्कृत -ग्रन्थों महाभारत आदि  में गोपों को परम यौद्धा अथवा वीर के रूप में भागवत पुराण १०/४३/३४ में वर्णन किया है ।
हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसम्मतौ ।
नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाहूतौ दिद‍ृक्षुणा।३२।
हे नन्द-सूनो—अरे नन्द के पुत्र; हे राम—हे राम; भवन्तौ—तुम दोनों को; वीर—वीरों से; सम्मतौ—आदरित; नियुद्ध—कुश्ती में; कुशलौ—दक्ष; श्रुत्वा—सुनकर; राज्ञा—राजा द्वारा; आहूतौ—बुलाये गये; दिदृक्षुणा—देखने का इच्छुक ।.
चाणूर ने कहा हे नन्दपुत्र, हे राम, तुम दोनों ही साहसी पुरुषों द्वारा समादरित हो और दोनों ही कुश्ती लडऩे में दक्ष हो। तुम्हारे पराक्रम को सुनकर राजा ने स्वत: देखने के उद्देश्य से तुम दोनों को यहाँ बुलाया है।
भागवत पुराण  » स्कन्ध 10: पूर्वाद्ध  » अध्याय 43: कृष्ण द्वारा कुवलयापीड हाथी का वध के एक प्रसंग में  »  श्लोक 34। गोपबालकों की मल्लप्रवृति का वर्णन किया गया है।
नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथास्फुटम् ।
वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गा:।३४॥
शब्दार्थ:-नित्यम्—सदैव; प्रमुदिता:—अत्यन्त सुखी; गोपा:—ग्वाले; वत्सपाला:—बछड़े पालने वाले। चराते; यथा-स्फुटम्—स्पष्टत:; वनेषु—जंगलों में; मल्ल-युद्धेन—कुश्ती से; क्रीडन्त:—खेलते हुए; चारयन्ति—चराते हैं; गा:—गायें ।.यह सर्वविदित है कि अहीरों के बालक अपने गाय और बछड़ों को चराते हुए सदैव प्रमुदित रहते हैं और अनेक जंगलों में अपने पशुओं को चराते हुए खेल खेल में कुश्ती भी लड़ते रहते हैं। तात्पर्य-यहाँ चाणूर बतलाता है कि किस तरह दोनों भाई कुश्ती (मल्लयुद्ध) में दक्ष बने। इति श्रीमद्भागवते महापुराणे । संहितायांदशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥
भागवत पुराण का  यह श्लोक भी प्रक्षिप्त है।
हरिवंश पुराण में भी ययाति द्वारा यदु को दिये गये शाप का वर्णन इस प्रकार से है।
स एवम् उक्तो यदुना राजा कोप समन्वित: उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर् गर्हयन् सुतम्।27।
•-यदु के ऐसा कहने पर (अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।27।।
 तो ययाति का शाप उग्रसेन पर लागू क्यों नहीं हुआ ? देखें--- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं ! इसका प्रमाण भी प्रस्तुत है ।
👇हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व अध्याय सैंतीसवाँ  पर है कि 
सत्त्ववतात् सत्त्व सम्पन्नान् कौशल्या सुषुवे सुतान् ।भजिनं भजमानं च देवावृधं नृपम् ।१।
(अन्धकं च महाबाहु वृष्णिं च यदु नन्दनम् ,तेषां विसर्गाश्चत्वारो विस्तरेणेह ताञ्छृणु।२। 
वैशम्पायन जी कहते हैं ---जनमेजय ! सत्वान् उपनाम वाले  सत्तवत से कौशल्या ने १-भजिन , २-भजमान, ३-(दिव्य राजा देवावृध) ४-महाबाहु अन्धक  और ५- यदुनन्दन वृष्णि  नामक  पाँच सत्व-संपन्न पुत्रों को उत्पन्न किया उनके चार के वंश चले उनको आप विस्तार पूर्वक सुनिए !१-२ यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च अन्धकात्। काश्यदुहिता चतुरोऽलभतात्मजान्। कुकुरं भजमानं च शमिं कम्बलबर्हिषम्।।१७।
अन्धक से काशिराज (दृढाश्वव) की पुत्री द्वारा कुकुर ,भजमान,शमि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्र उत्पन्‍न हुए ।१७।
द्वितीय श्लोक 
कुकुरस्य सुतोधृष्णुर्धृष्णोस्तु तनयस्तथा।कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तनयोऽभवत्।१८।
कुकुर के पुत्र धृष्णु और धृष्णु के पुत्र कपोतरोमा हुए ।१८।                                   
जज्ञे पुनर्वसुस्तस्मादभिजिच्च पुनर्वसोः। तस्य वै पुत्रमिथुनं बभूवाभिजितः किल ।।१९।
तैत्तिरीय के पुत्र पुनर्वसु हुए पुनर्वसु के अभिजित् हुए और अभिजित के एक पुत्र और एक पुत्री ये दो सन्तानें जुड़वाँ रूप में हुईं ऐसी बात सुनी जाती है ।१९।
आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ”।इमांच उदाहरन्तिअत्रगाथांप्रतितमाहुकम्।२०।
ख्याति प्राप्त लोगों में वे  दोनों आहुक और आहुकी नाम से प्रसिद्ध हुए , इन आहुक के सम्बन्ध में मनुष्य इस गाथा को गाया करते हैं ।
आहुकीं चाप्यवन्तिभ्य: स्वसारं ददुर् अन्धका:। आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ सम्बभूवतु:।२६।
अन्धक वंशीयों ने आहुक की बहिन आहुकी को अवन्ति के राजवंश में व्याह दिया और आहुक के काशिराज की पुत्री से दो पुत्र उत्पन्न हुए ।२६।     
देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।देवकस्याभवन्पुत्राश्चत्वारस्त्रिदशोपमा:।२७।
देव कुमारों  के समान सुन्दर देवक और उग्रसेन नाम के पुत्रों के दौरान  उत्पन्न हुए देवक के देव- कुमारों जैसे १-देववान ,२-उपदेव ३-वसुदेव, और ४-देवरक्षित नामक के चार पुत्र उत्पन्न हुए ।।२७। 
नवोग्रसेनस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजःन्यग्रोधश्च सुनामा च कंक: शंकु:सुभूमिप।।३०।
उग्रसेन के नौ पुत्र थे उनमें कंस सबसे बड़ा (पूर्वज) पूर्व में जन्म लेने वाला था 
शेष के नाम इस प्रकार हैं १-न्यग्रोध , २-सुनामा, ३-कंक, ४-शंकु ,५-सुभूमिप ,६-राष्ट्रपाल, ७-सुतनु,, ८अनाधृष्टि,और ९-पुष्टिमान 
(हरिवंश  हरिवंश पर्व ३८ अध्याय) (पृष्ठ संख्या १७३ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)
यादवानां कुलकरान् स्थविरान् दश तत्र वै ।मतिमान् स्थापयामास सर्वकार्येष्वनन्तरान् ।८१।
रथेष्वतिरथो यन्ता दारुकःकेशवस्य वै ।योधमुख्यश्चयोधानांप्रवरः सात्यकिःकृतः।८२।
विधानमेवं कृत्वाथ कृष्णः पुर्यामनिन्दितः ।    मुमुदे यदुभिः सार्द्धं लोकस्रष्टा महीतले ।८३।
रेवतस्याथ कन्यां च रेवतीं शीलसम्मताम् ।प्राप्तवान् बलदेवस्तु कृष्णस्यानुमते तदा ।८४।______________
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि द्वारावतीनिर्माणेऽष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।५८।
विदित हो कि जहाँ "शूरसेन के पुरोहित गर्गाचार्य थे तो उग्रसेन के पुरोहित "काश्य सन्दीपन नाम के ऋषि थे  (उग्रसेनं नरपतिं काश्यं चापि पुरोहितम्)। निश्चित रूप से ये गर्गाचार्य से भिन्न थे । परन्तु शूरसेन और उग्रसेन  दौनों ही राजा यादव थे।
उग्रसेनं नरपतिं काश्यं चापि पुरोहितम् ।सेनापतिमनाधृष्टिं विकद्रुं मन्त्रिपुङ्गवम् ।2.58.८०।( हरिवंश पुराण विष्णुपर्व)
इसते अतिरिक्तततः सान्दीपनिं काश्यमवन्तीपुरवासिनम् ।
अस्त्रर्थं जग्मतुर्वीरौ ।५-२१-१९।
तस्य शिष्यत्त्वमभ्येत्य गुरुवृत्तपरौ हि तौ ।
दर्शयाञ्चक्रतुर्वीरावाचारमखिले जने।५-२१-२०।
विष्णुपुराण पञ्चमाञ्श 21 वाँ अध्याय  तथा 19-20वाँ श्लोक।
तदनन्तर समस्त विज्ञानोंको जानते हुए और सर्वज्ञान-सम्पन्न होते हुए भी वीरवर कृष्ण और बलराम गुरु-शिष्य सम्बन्ध को प्रकाशित करनेके लिये उपनयन-संस्कारके अनन्तर विद्यो पार्जनके लिये काशीमें उत्पन्न हुए अवन्तिपुर वासी सान्दीपनि मुनि के यहाँ गये ।१८-१९।
वीर संकर्षण और जनार्दन सान्दीपनि का शिष्यत्व स्वीकार कर वेदाभ्यासपरायण हो यथायोग्य गुरु शुश्रूषादिमें प्रवृत्त रह सम्पूर्ण लोकोंको यथोचित शिष्टाचार प्रदर्शित करने लगे।२०।
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ब्रह्मवैवर्त पुराण में "राधा के पिता वृषभानु को गोपालक होने के कारण पुराणकार ने वैश्य वर्ण में समाहित किया है ।👇 जोकि शास्त्र-विरुद्ध सिद्धान्त है।
राधा जगाम वाराहे गोकुलं भारतं सती।।वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह।।३६।
अयोनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती।।          सुषुवे मायया वायुं सा तत्राविर्बभूव ह ।।३७।।
अतीते द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम् ।।  सार्धं रायाणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः।३८।
छायां संस्थाप्य तद्गेहे साऽन्तर्द्धानमवाप ह ।।         बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहश्छायया सह ।३९ ।।
गते चतुर्दशाब्दे तु कंसभीतेश्छलेन च ।।          व जगाम गोकुलं कृष्णः शिशुरूपी जगत्पतिः। 2.49.४०।
कृष्णमाता यशोदा या रायाणस्तत्सहोदरः।    गोलोके गोपकृष्णांशः सम्बन्धात्कृष्णमातुलः।४१।
परन्तु अन्य वैष्णव ग्रन्थों में यशोदा चार भाई थे  रायाण नाम का कोई भाई नहीं था (यशोदा के चार भाई थे)—यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव। कहीं अभिमन्यु नाम का कोई अहीर जो जटिला नाम की गोपी का पुत्र था राधा जी का सांसारिक पति बताया जाता है। जो सत्य नहीं है।
कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने ।।      विवाहं कारयामासविधिना जगतां विधिः।४२

स्वप्ने राधापदाम्भोजं नहि पश्यन्ति बल्लवाः।।  स्वयं राधा हरेः क्रोडे छाया रायाणमन्दिरे।४३।
षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तेपे पुरा विधिः।।राधिकाचरणाम्भोजदर्शनार्थी च पुष्करे ।४४।।
भारावतरणे भूमेर्भारते नन्दगोकुले ।।              ददर्श तत्पदाम्भोजं तपसस्तत्फलेन च।४५।।
किञ्चित्कालं स वै कृष्णः पुण्ये वृन्दावने वने ।।    रेमे गोलोकनाथश्च राधया सह भारते।। ४६ ।।
ततः सुदामशापेन विच्छेदश्च बभूव ह ।             तत्र भारावतरणं भूमेः कृष्णश्चकार सः । ४७।
शताब्दे समतीते तु तीर्थयात्राप्रसंगतः ।                ददर्श कृष्णं सा राधा स च तां च परस्परम् ।४८।
ततो जगाम गोलोकं राधया सह तत्त्ववित् ।।    कलावती यशोदा च पर्यगाद्राधया सह ।४९।
वृषभानुश्च नन्दश्च ययौ गोलोकमुत्तमम् ।।            सर्वे गोपाश्च गोप्यश्च ययुस्ता याः समागताः ।५० ।
छाया गोपाश्च गोप्यश्च प्रापुर्मुक्तिं च सन्निधौ ।       रेमिरे ताश्च तत्रैव सार्द्धं कृष्णेन पार्वति ।५१ ।
षट्त्रिंशल्लक्षकोट्यश्च गोप्यो गोपाश्च तत्समाः।गोलोकं प्रययुर्मुक्ताःसार्धं कृष्णेन राधया।५२ ।
द्रोणः प्रजापतिर्नन्दो यशोदा तत्प्रिया धरा ।।        संप्राप पूर्वतपसा परमात्मानमीश्वरम् ।५३ ।।
वसुदेवः कश्यपश्च देवकी चादितिः सती ।        देवमाता देवपिता प्रतिकल्पे स्वभावतः ।५४ ।
पितॄणां मानसी कन्या राधामाता कलावती ।।वसुदामापि गोलोकाद् वृषभानुः समाययौ ।५५ ।
इत्येवं कथितं दुर्गे राधिकाख्यानमुत्तमम् ।।       सम्पत्करं पापहरं पुत्रपौत्रविवर्धनम् । ५६ ।
श्रीकृष्णश्च द्विधारूपो द्विभुजश्च चतुर्भुजः ।।        चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।५७।
चतुर्भुजस्य पत्नी च महालक्ष्मीः सरस्वती ।।     गंगा च तुलसी चैव देव्यो नारायणप्रियाः।५८।
श्रीकृष्णपत्नी सा राधा तदर्द्धाङ्गसमुद्भवा ।      तेजसा वयसा साध्वी रूपेण च गुणेन च ।५९ ।।
आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः।       व्यतिक्रमे ब्रह्महत्यां लभते नात्र संशयः।६०।
कार्त्तिकीपूर्णिमायां च गोलोके रासमण्डले ।        चकार पूजां राधायास्तत्सम्बन्धिमहोत्सवम् ।६१ 
सद्रत्नघुटिकायाश्च कृत्वा तत्कवचं हरिः।        दधारकण्ठे बाहौ च दक्षिणे सह गोपकैः।६२।
कृत्वा ध्यानं च भक्त्या च स्तोत्रमेतच्चकार सः ।।राधाचर्वितताम्बूलं चखाद मधुसूदनः ।६३ ।।
राधापूज्या च कृष्णस्य तत्पूज्योभगवान्प्रभुः। परस्पराभीष्टदेवे भेदकृन्नरकं व्रजेत् ।६४ ।
 पूजिता सा च धर्मेण ब्रह्मणा मया ।।अनन्तवासुकिभ्यां च रविणा शशिना पुरा ।६५।
महेन्द्रेण च रुद्रैश्च मनुना मानवेन च ।।            सुरेन्द्रैश्च मुनीन्द्रैश्च सर्वविश्वैश्च पूजिता।६६।
तृतीये पूजिता सा च सप्तद्वीपेश्वरेण च।            भारते च सुयज्ञेन पुत्रैर्मित्रैर्मुदाऽन्विद्वितीयेतैः।६७।
ब्राह्मणेनाभिशप्तेन देवदोषेण भूभृता ।         व्याधिग्रस्तेन हस्तेन दुःखिना च विदूयता ।६८।
संप्राप राज्यं भ्रष्टश्रीः स च राधावरेण च।।  स्तोत्रेण ब्रह्मदत्तेन स्तुत्वा च परमेश्वरीम् ।६९ ।।
अभेद्यं कवचं तस्याः कण्ठे बाहौ दधार सः।। ध्यात्वा चकार पूजां च पुष्करे शतवत्सरान् ।७० ।
अन्ते जगाम गोलोकं रत्नयानेन भूमिपः ।।          इति ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।७१।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गत हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने राधायाः सुदामशापादिकथनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ।४९ ।
पद्मपुराण पालाल खण्ड में अहीरों को शूद्रों  के साथ वर्णित किया गया है ।भ्रान्तिवश कुछ लोग अहीरों को शूद्र मान लेते हैं ।
"सुराष्ट्राश्च सबाह्लीकाश्शूद्राभीरास्तथैव च भोजाः पांड्याश्च वंगाश्च कलिंगास्ताम्रलिप्तकाः१६३।
तथैव पौंड्राः शुभ्राश्च वामचूडास्सकेरलाःक्षोभितास्तेन दैत्येन देवाश्चाप्सरसां गणाः१६४ ।
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे नरसिंहप्रादुर्भावोनामपंचचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः।४५।
गायत्री वैष्णवी शक्ती का नाम है जो कभी "दुर्गा कभी "राधा तो कभी ब्रह्मा की सहचरी बनकर सृष्टि का नियमन करती हैं ।
निम्न श्लोक में यह कृष्ण और बलराम की बहिन और नन्द की पुत्री  हैं।
भगिनी बलदेवस्य रजनी कलहप्रिया ।          आवासः सर्वभूतानां निष्ठा च परमा गतिः।१०।।
नन्दगोपसुता चैव देवानां विजयावहा।      चीरवासाःसुवासाश्च रौद्रीसंध्याचरीनिशा।११।
प्रकीर्णकेशी मृत्युश्च सुरामांसबलिप्रिया ।लक्ष्मीरलक्ष्मीरूपेण दानवानां वधाय च।१२। 
सावित्री चापि देवानां माता भूतगणस्य च ।कन्यानां ब्रह्मचर्यं त्वंसौभाग्यं प्रमदासु च।१३ ।
अन्तर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चैव दक्षिणा ।कर्षकाणां च सीतेति भूतानां धरणीति च।१   
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि स्वप्नगर्भविधाने आर्यास्तुतौ तृतीयोऽध्यायः।।३।                              
और भागवतपुराण में भी वर्णित है कि 
(उग्रा सेना यस्य स उग्रसेन) मथुरादेशस्य राजविशेषः स च आहुकपुत्त्रः । कंसराजपिता च  इति श्रीभागवतम पुराणम् --इस प्रकार यदु के पुत्र क्रोष्टा के वंश में कृष्ण और उग्रसेन का भी जन्म होने से दोनों यादव ही थे ।                      
हरिवंश पुराण में वर्णन है कि -एवमुक्त्वा यदुं तात शशाप ऐनं स मन्युमान्। अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९।
•-तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया–मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।
अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।वस्तुत:ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था जहाँ कामना होगी वहाँ काम का आवेग भी होगा कामनाऐं साँसारिक उपभोग की पिपासा या प्यास ही हैं कामनाओं के आवेग ही संसार रूपी सिन्धु की उद्वेलित लहरें हैं ; इनके आवेगों  से उत्पन्न मोह के भँवर और लोभ के गोते भी मनुष्य को अपने आगोश में समेटते और अन्त में मेटते ही हैं ! कामनाओं की वशीभूत ययाति अपने साथ यही किया ।
अन्त:करण चतुष्टय में अहंकार का शुद्धिकरण होने का अर्थ है उसका स्व के रूप में परिवर्तन स्व ही आत्मसत्ता की विश्व व्यापी अनुभूति है। और जब यही सीमित और एकाकी हो जाती है तो इसे ही अहंकार कहा जाता है। और यही अहंकार क्रोधभाव से समन्वित होकर संकल्प को उत्पन्न करता है और संकल्प से इच्छा का जन्म होता है ।यही इच्छा अज्ञानता से प्रेरित संसार का उपभोग करने के लिए उतावली होकर जीव को अनेक अच्छे बुरे कर्म करने को वाध्य करती है ! यही प्रवृत्तियों के साँचे में इच्छाऐं अपने को ढाल लेती हैं अहंकार से संकल्प की उत्पत्ति और यही संकल्प संवेगित होकर इच्छा का रूप धारण करता है। और इच्छाऐं अनन्त होकर कभी तृप्त न होने वाली हैं ।आध्यात्मिक वैचारिकों ने धर्म का व्याख्या संसार रूपी दरिया में  पतवार या तैरने की क्रिया के रूप में स्वीकार किया ।
क्यों कि स्वाभाविता के वेग में मानवीय प्रवृत्ततियाँ जल हैं । अपराध के बुलबले तो उठते ही हैं । तैरने के मानिंद है धर्म और स्वाभाविकता का दमन करना ही तो संयम है। और संयम करना तो अल्पज्ञानीयों की सामर्थ्य नहीं । सुमेरियन माइथॉलॉजी में भी धर्म के लिए,(तरमा) शब्द है जिसका अर्थ है  दृढ़ता एकाग्रता स्थिरता आदि शील धर्म का वाचक इसलिए है कि उसमे जमाव या संयमन का भाव है । हिम जिस प्रकार स्थिरता अथवा एकाग्रता को अभिव्यक्त करता है ।             
शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार शाप भी  वही दे सकता है; जो पीड़ित है और उसकेे द्वारा शाप उसी को दिया जा सकता है जो वस्तुत: पीड़क है 
परन्तु अनुचित कर्म करने वाला राजा ययाति ही जो वास्तव दोषी ही था ; जो अपने पुत्र के यौवन से ही पुत्र की माता का उपभोग करना चाहता है ।
और बात करता था धर्म कि अत: राजा ययातिका यौवन प्रस्ताव पुत्र की दृष्टि में धर्म विरुद्ध ही था ।अतः वह पिता के लिए अदेय ही था ।            
परन्तु मिथकों में ययाति की बात नैतिक बताकर  शाप देने और पाने के पात्र होने के सिद्धान्त की भी हवा निकाल दी गयी यदु का इस अन्याय पूर्ण राजतन्त्र व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह होने से ही कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को ही बदलकर लोक तन्त्र की व्यवस्था की  अपने समाज में स्थापना की ये ही यदुवंशी  कालान्तर में आभीर रूप में इतिहास में उदय हुए 

     (अध्याय -त्रयोदश) 

"वेदों में यदु और तुर्वसु का वर्णन एवं "असुर और "दास शव्दों व्याख्या वैदिक सन्दर्भों अनुरूप"वेदों के पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करना ही इस बात का प्रमाण अथवा साक्ष्य है कि  यादव देव संस्कृति और ययाति समर्थक पुरोहितों की समाज शोषक व्यवस्थाओं के खिलाफ थे।वैदिक ऋचाओं में पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना ...
अन्वय:- प्रि॒यासः॑। इत्। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भिष्टौ॑। नरः॑। म॒दे॒म॒। श॒र॒णे। सखा॑यः। नि। तु॒र्वश॑म्। नि। यादवम्। शि॒शी॒हि॒। अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑। शंस्य॑म्। क॒रि॒ष्यन् ॥८॥
  ( ऋग्वेद -मण्डल:-सूक्त: ऋचा : 7/19/8)
पदों का हिन्दी अन्वयार्थ -बहुत सा धन देनेवाले इन्द्र  मित्र होते हुए  प्रसन्न हुए हम लोग आपके लिए सब ओर से प्रिय आपकी सङ्गति में व शरणागत  में आनन्दित हों। 
 हे इन्द्र ! आप (तुर्वशम्). तुरवसु को (नि, शिशीहि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (याद्वम्) यादवों को भी (नि) (शिशीहि )निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (अतिथिग्वाय) अतिथिगु के लिए(शंस्यम्) प्रशंसनीय को (इत्) ही (करिष्यन्)  कार्य करते हुए बनिए  ॥८॥                     
यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७ पर है 
हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमानअपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो । और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! पण्डित श्रीरामशर्मा आचार्य ने इसका अर्थ सायण सम्मत इस प्रकार किया है ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना आज की ही नहीं अपितु वैदिक काल में भी थी इसी प्रकार की यह ऋचा भी है ।
देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अवत्सारः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः
अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ । अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥ (ऋग्वेद 9/61/1)अन्वायार्थ  -(इन्दो) हे सेनापते ! (यः) जो शत्रु (ते) तुम्हारे (मदेषु) सर्वसुखकारक प्रजापालन में (आ) विघ्न करे, उसको (अया वीती परिस्रव) अपनी क्रियाओं से अभिभूत करो और (अवाहन् नवतीः नव) निन्यानवे प्रकार के दुर्गों का भी ध्वंसन करो ॥१॥ हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
हे इन्द्र तुमने (इत्थाधिये दिवोदासाय) -सत्य बुद्धिवाले दिवोदास के लिए (शम्बर  और तुर्वशम् यदुम्) के पुरों को ध्वंसन (नाश)किया ॥२॥
अर्थात्  शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु तथा यदु को शासन(वश) में किया।२।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल में कुछ  ऋचाऐं हैं ।
हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्
 (ऋ० ८, ४५, २७ )
यदु को दास अथवा असुर कहना भी  सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सैमेटिक यहूदीयों के पूर्वज यहुदह् ही थे अथवा यहुद्ह इन्हीं का रूपान्तरण था।
क्योंकि असुर और दास जैसे शब्द देवों से भिन्न संस्कृतियों के उपासकों के वाहक थे यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है । ईरानी असुर संस्कृति में "दाहे" शब्द दाहिस्तान के सैमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है। अब इसी लिए देवोपासक पुरोहितों ने यदु और तुरवसु के विरोध में और इनके वंश को विश्रृंखल करने के लिए अनेक काल्पनिक प्रसंग जोड़ दिये जैसे और यह हमारे व्वहार जगत में सत्य ही है -कि
तुम्हारे शत्रु और विद्रोही तुम्हारे लिए कभी अच्छी कामनाऐं नहीं करेंगे । भारतीय पुराणों में वर्णित यदु को भी वेदों में गोप और गोपालक के रूप में वर्णन किया है। कालान्तरण में यदु के वंशज ही इतिहास में आभीर गोप अथवा गोपालकों के रूप में दृष्टिगोचर हुए।गायों का चारण और वन-विहारण और दुर्व्यवस्थाओं के पोषकों से निर्भीकता से रण ही इन आभीर वीरों  के संकल्प में समाहित थे । जिन लोगों ने इन पुरोहितों के समाजविरोधी कार्यों का विरोध किया वे ही इनके लिए विद्रोही कहलाए और जिन्होंने अनुरोध किया वे इनकी वर्ण व्यवस्था के निर्धारण में उच्च पायदान पर रखा गये । जब यदु को ही वेदों में दास कहा है। सायद तब तक दास का अर्थ पतित हो रहा था । और फिर कालान्तरण में  जब दास शब्द का दाता और दानी से पतित होते हुए गुलाम अर्थ हुआ तो शूद्रों को दास विशेषण का अधिकारी बना दिया ।और इसी लिए रूढ़िवादी पुरोहित यादवों असली रूप अहीर अथवा गोपों को शूद्र या दास के रूप में मान्य करते हैं।परन्तु यह दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाह" शब्द के रूप में उच्च अर्थों का ही द्योतक है ! परन्तु यह सब द्वेष की पराकाष्ठा या चरम-सीमा ही है ।कि अर्थ का अनर्थ कर कर दिया जाय ऋग्वेद में यदु के गोप होने के  विषय में लिखा है कि
"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी। गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं । हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;गो-पालक ही गोप होते हैं।उपरोक्त ऋचा में यदु और तुरवसु के लिए (मह्- पूजायाम् ) धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।क्योंकि कि देव- संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
परन्तु सम्भवतः दास का एक अर्थ दाता भी था वैदिक निघण्टु में यह निर्देश है ।  
 उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०।
उत अपि च "स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ “गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ “दासा दासवत् प्रेष्यवत् स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् ।  वैदिक सन्दर्भों में दास का अर्थ सेवक( प्रेष्यवत्) नहीं है । 
असुर शब्द का अर्थ भी दास शब्द की  शैली में किया गया। ऋग्वेद में प्राचीनतम ऋचाओं में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान भी है ऋग्वेद में ही वरुण को महद् असुर कहा ।
इन्द्र को भी असुर कहा है इन्द्र सूर्य और अग्नि भी असुर है और कृष्ण को भी असुर कहा गया है।
यह विशेषण उनके असु( प्राण) सम्पन्न होने से ही हुआ।ऋग्वेद में असुर का अर्थ "प्रज्ञावान और "बलवान भी है।ऋग्वेद में ही वरुण को महद् असुर कहा इन्द्र को भी असुर कहा है।
"मह् पूजायाम् धातु से महत् शब्द विकसित हुआ वह जो पूजा के योग्य है।
फारसी जो वैदिक भाषा की सहोदरा है वहाँ महत् का रूप मज्दा हो गया है। (मह्-पूजायाम्)
सूर्य को उसके प्रकाश और ऊर्जा के लिए वेदों में असुर कहा गया। कृष्ण भी प्रज्ञावान थे और बलवान भी और फिर इन्द्र और कृष्ण का पौराणिक सन्दर्भ भी है तो वैदिक सन्दर्भ भी है।
वेदों की रचना ईसा पूर्व बारहवीं सदी से लेकर ईसा पूर्व सप्तम सदी तक होती रही है
ऋग्वेद के कुछ मण्डल प्राचीन तो कुछ अर्वाचीन भी हैं। असुर शब्द एक रूप में न होकर दो रूपों में व्युपन्न है।
यज्=देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु१-(यज्ञ करना २-संगतिकरना(न्याय करना) ३-दान करना। यज धातु के ये प्रधान अर्थ माधवीयधातुवत्ति धातुप्रदीप और क्षीरतरंगिणी में वर्णित है। यदु दानशील प्रवृति और सदैव न्यायसंगतबात करते थे ।यद्यपि ये इन्द्र के आराधक नहीं थे परन्तु वरुण का यजन करते थे । 
असुर शब्द की व्युत्पत्ति-
प्रथम व्युत्पत्ति-
"-जो स्वयं के प्राणों में ही रमण करता है वह असुर है दूसरा परवर्ती अर्थ।
अर्थात् जो सुर के विरोध में है अथवा जिसकी सुरा नहीं है वह असुर है (वाल्मीकि रामायण बाल काण्ड )में देवों (सुरों) को सुरापायी बताया गया है देखें निम्न सन्दर्भों को- सुराप्रतिग्रहाद्देवाःसुरा इत्यभिश्रुताः ।अप्रतिग्रहणाच्चास्या दैतेयाश्चासुराःस्मृताः
कृष्ण का समय पुरातत्व -वेत्ता और संस्कृतियों के विशेषज्ञ (अरनेस्त मैके) ने ईसा पूर्व नवम सदी निश्चित की महाभारत भी तभी हुआ महाभारत में शक हूण और यवन आदि ईरानी यूनानी जातियों का वर्णन हुआ है। वेदों के पूर्ववर्ती सन्दर्भों में असुर और देव गुण वाची शब्द थे जाति वाची कदापि नहीं इसी लिए वृत्र को ऋग्वेद में एक स्थान पर देव कहा गया है। परन्तु असुर संज्ञा के धारक असुर फरात नदी के दु-आव में भी रहते थे जिसे प्रचीन ईराक और ईरान में मैसोपाटामिया के नाम से जाना जाता है ।भारतीय पुराणों में इन्हें असुर कहा गया देव उत्तरी ध्रुव के समीपवर्ती स्वीडन के हेमरपास्त में रहते थे। समय अन्तराल से तथ्यों के अवबोधन में भेद होना स्वाभाविक है
अब ऋग्वेद में के चतुर्थ मण्डल में वरुण को महद् असुर कहा है जो ईरानीयों के धर्म ग्रन्थ में अहुर मज्दा हो गया है । असुर का प्रारम्भिक वैदिक अर्थ प्रज्ञावान् और बलवान ही है परन्तु कालान्तरण में सुर के विपरीत व्यक्तियों के लिए भी असुर का प्रचलन हुआ अत: असुर नाम से दो शब्द थे निम्न ऋचा में असुर शब्द प्राचेतस् वरुण के अर्थ में है।पारसी ग्रंथ "शातीर" में व्यास जी का उल्लेख है-ये ईसापूर्व अष्टम सदी जुरथुस्त्र" के समकालीन थे। उनके जीवन काल का अनुमान विभिन्न विद्वानों द्वारा १४०० से ६०० ई.पू. है।
 “व्यास नाम का एक ब्राह्मण हिन्दुस्तान से आया  वह बड़ा ही चतुर था और उसके सामान अन्य कोई बुद्धिमान नहीं हो सकता ! 
तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस:। ऋग्वेद - ४/५३/१
हम उस प्रचेतस् असुर वरुण जो सबको जन्म देने वाला है ; उसका ही वरण करते हैं ।
निम्न ऋचा में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान् है।
अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।
हे मनुष्यों मेंअग्र पुरुष अग्ने ! तुम सज्जनों के पालन कर्ता ज्ञानवान -बलवान तथा ऐश्वर्य वान हो ।
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अब देखें महाभारत में असुरों का गुण भी प्रतिभा और बलशाली होना दर्शाया है ..👇
तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा ।
महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।
महाभारत आदिपर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय
इसी प्रकार उदार और उत्साह भरे हृदय वाले महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे।
उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर देवों को पीड़ित करने लगे ।
असुर शब्द बलशाली के अर्थ में महाभारत में भी है यह आपने आदि पर्व के उप पर्व आस्तीक के इस श्लोक में देखा।
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ऋग्वेद में असुर के अर्थ ..
देवता: सविता ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
तत्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। वार्य॑म्। म॒हत्। वृ॒णी॒महे॑।असु॑रस्य। प्रऽचे॑तसः। छ॒र्दिः। येन॑। दा॒शुषे॑। यच्छ॑ति। त्मना॑। तत्। नः॒। म॒हान्। उत्। अ॒या॒न्। दे॒वः।अ॒क्तुऽभिः॑ ॥१॥
ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:53» ऋचा :1 |
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पद का अर्थान्वय - हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (सवितुः) वृष्टि आदि की उत्पत्ति करने वाले सूर्य का (देवस्य) निरन्तर प्रकाशमान देव का (प्रचेतसः) जनानेवाले (असुरस्य) बलवान के (महत्) बड़े (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों वा जलों में उत्पन्न (छर्दिः) गृह का (वृणीमहे) वरण करते हैं। (तत्) उसका (येन) जिस कारण से विद्वान् जन (त्मना) आत्मा से (दाशुषे) दाता जन के लिये स्वीकार करने योग्यों वा जलों में उत्पन्न हुए बड़े गृह को (यच्छति) देता है (तत्) उसको (महान्) बड़ा (देवः) प्रकाशमान होता हुआ (अक्तुभिः) रात्रियों से (नः) हम लोगों के लिये (उत्, अयान्) उत्कृष्टता प्रदान करे ॥१॥
असुर महद् यहाँ वरुण का विशेषण है
देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं१॒॑ वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑। बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः ॥
1-अर्च॑। दि॒वे। बृ॒ह॒ते- बड़े देव लोक में प्रतिष्ठित स्तुति करने वालों को
2- शू॒ष्य॑म्। वचः॑। वाणी उत्पन्न करता है |
3- स्वऽक्ष॑त्रम्। यस्य॑। धृ॒ष॒तः। जो क्षत्र रूप मे स्वयं ही सबको आच्छादन अथवा वरण किये हुए है
4-धृ॒षत्। मनः॑। जिसका मन सहन करने वाला है सबकुछ
5- बृ॒हत्ऽश्र॑वाः। वह वरुण बहुत सुनने वाला है
6-असु॑रः। ब॒र्हणा॑। कृ॒तः। उस प्रज्ञा और बल प्रदान करने वाले वरुण की इसी कारण असुर संज्ञा भी है उसी ने विशालता को उत्पन्न किया है
7-पु॒रः। हरि॑ऽभ्याम्। वृ॒ष॒भः। रथः॑। हि। सः -
पहले समय में घोडे़ और बैलों ने वरुण के रथ को खींचा था ॥
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:54» ऋचा :3 |
इन्द्र के लिए भी असुर शब्द का प्रयोग हुआ है
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देवता: इन्द्र: ऋषि: अगस्त्यो मैत्रावरुणिः छन्द: निचृत्पङ्क्ति स्वर: पञ्चमः
त्वम्। राजा॑। इ॒न्द्र॒। ये। च॒। दे॒वाः। रक्ष॑। नॄन्। पा॒हि। अ॒सु॒र॒। त्वम्। अ॒स्मान्। त्वम्। सत्ऽप॑तिः। म॒घऽवा॑। नः॒। तरु॑त्रः। त्वम्। स॒त्यः। वस॑वानः। स॒हः॒ऽदाः ॥ १.१७४.१
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:174» ऋचा :1 पदार्थान्वय- -हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त !
(त्वम्) आप (सत्पतिः)  सज्जनों को पालनेवाले (मघवा)  धनवान् (नः) हम लोगों को (तरुत्रः) दुःखरूपी समुद्र से पार उतारनेवाले पतवार हैं (त्वम्) आप (सत्यः) सज्जनों में उत्तम (वसवानः)धन प्राप्ति कराने और (सहोदाः) बल के देनेवाले हैं तथा (त्वम्) आप (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा हैं इससे हे (असुर) शक्तिशाली  (त्वम्) आप (अस्मान्) हम (नॄन्) मनुष्यों को (पाहि) पालो रक्षा करो (ये, च) और जो (देवाः) देवगण की (रक्ष) रक्षा करो॥१॥
इस उपर्युक्त ऋचा में इन्द्र को असुर कहा गया है 
देवता: इन्द्र: ऋषि: प्रजापतिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः★
आ॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वऽरो॑चिः। म॒हत्। तत्। वृष्णः॑ (कृष्ण:)।असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि।त॒स्थौ॒॥
ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:38» मन्त्र:4 |
पदार्थान्वय-                                               हे मनुष्यो ! (विश्वरूपः) सम्पूर्ण रूप हैं जिससे वा जो (श्रियः) धनों वा पदार्थों की शोभाओं को (वसानः)ग्रहण करता हुआ या वसता हुआ और (स्वरोचिः) अपना प्रकाश जिसमें विद्यमान वह (कृष्णः)(असुरस्य) असुर का(अमृतानि) अमृतस्वरूप (नामा) नाम वाला (आ, तस्थौ) स्थित होता वा उसके समान जो (महत्) बड़ा है (तत्) उसको (चरति) प्राप्त होता है उस (आतिष्ठन्तम्) चारों ओर से स्थिर हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण(परि)सब प्रकार(अभूषन्) शोभित करैं।४।
ऋग्वेद की प्रचीन पाण्डु लिपियों में कृष्ण पद ही है परन्तु वर्तमान में वृष्ण पद कर दिया है !
उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण या वृष्ण को असुर कहा गया है।क्यों कि वे सुरा पान भी नहीं करते और प्रज्ञावान् भी हैं।अत: कृष्ण के असुरत्व को समझो
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देवता: इन्द्र: ऋषि: गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
इ॒मे। भो॒जाः। अङ्गि॑रसः। विऽरू॑पाः। दि॒वः। पु॒त्रासः॑। असु॑रस्य। वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय। दद॑तः। म॒घानि॑। स॒ह॒स्र॒ऽसा॒वे। प्र। ति॒र॒न्ते॒। आयुः॑॥
ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» ऋचा :।7 |
पदार्थान्वय:-हे राजन् ! जो (इमे) ये (अङ्गिरसः) अंगिरा (भोजाः) भोग करने वाले (विरूपाः) अनेक प्रकार के रूप वा विकारयुक्त रूपवाले और (दिवः) प्रकाशस्वरूप (असुरस्य) वरुण के (पुत्रासः) पुत्र के समान बलिष्ठ (वीराः) युद्धविद्या में परिपूर्ण (सहस्रसावे) संख्यारहित धन की उत्पत्ति जिसमें उस संग्राम में (विश्वामित्राय) संपूर्ण संसार मित्र है जिसका उन विश्वामित्र के लिये (मघानि) अतिश्रेष्ठ धनों को (ददतः) देते हुए जन (आयुः) जीवन का (प्र, तिरन्ते) उल्लङ्घन करते हैं वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा करने योग्य हैं।७|अर्थात्-हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं । देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्वमेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।
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देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा :1 |
देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
अ॒यम् । वा॒म् । कृष्णः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । हव॑ते । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.३
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :3 |
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देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा:4 |
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देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :4 |
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देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा:4 |
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देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा:ऋचा:1 |
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देवता: विश्वेदेवा, उषा ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
उ॒षसः॑। पूर्वाः॑। अध॑। यत्। वि॒ऽऊ॒षुः। म॒हत्। वि। ज॒ज्ञे॒। अ॒क्षर॑म्। प॒दे। गोः। व्र॒ता। दे॒वाना॑म्। उप॑। नु। प्र॒ऽभूष॑न्। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥(ऋग्वेद » मण्डल:3»सूक्त:55» ऋचा:1 )
पदार्थान्वय -(यत्) जो (उषसः) प्रातःकाल से (पूर्वाः) प्रथम हुए (व्यूषुः) विशेष करके वसते हैं वह (महत्) बड़ा (अक्षरम्) नहीं नाश होनेवाला (महत्) बड़ा तत्त्वनामक (गोः) पृथिवी के (पदे) स्थान में (वि, जज्ञे) उत्पन्न हुआ जो (एकम्) अद्वितीय और सहायरहित (देवानाम्) पृथिवी आदिकों में बड़े (असुरत्वम्) प्राणों में रमनेवाले को (प्र, भूषन्) शोभित करता हुआ (अध) उसके अनन्तर (देवानाम्) देवों को (व्रता) नियम में (उप) समीप में (नु) शीघ्र उत्पन्न हुए, उसको आप लोग जानिये ॥१॥
देवता: विश्वेदेवा, दिशः ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
आ। धे॒नवः॑। धु॒न॒य॒न्ता॒म्। अशि॑श्वीः। स॒बः॒ऽदुघाः॑। श॒श॒याः। अप्र॑ऽदुग्धाः। नव्याः॑ऽनव्याः। यु॒व॒तयः॑। भव॑न्तीः। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥
ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55»  ऋचा:16 |
पदार्थान्वय: -हे मनुष्यो ! आप लोगों के (सबदुर्घाः) सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली (शशयाः) शयन करती सी हुई (अप्रदुग्धाः) नहीं किसी करके भी बहुत दुही गई (धेनवः) गायें (अशिश्वीः) बालाओं से भिन्न (नव्यानव्याः) नवीन -नवीन (भवन्तीः) होती हुईं (युवतयः) यौवनावस्था को प्राप्त (देवानाम्) में महद् बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) असुरता को (आ, धुनयन्ताम्) अच्छे प्रकार अनुभव किया रोमांचित किया ॥१६॥
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उपर्युक्त ऋचा में असुरत्व भाव वाचक शब्द है।
संस्कृत कोशों में असुर के अनेक अर्थ और सन्दर्भ उपलब्ध हैं। 👇
असुरः, पुल्लिंग (अस्यति देवान् क्षिपति इति ।
असं उरन् । यद्वा न सुरः विरोधे नञ्तत्- पुरुषः । यद्वा नास्ति सुरा यस्य सः ।
सूर्य्यपक्षे असति दीप्यते इति उरन् ।) सुर विरोधी । स तु कश्यपात् दितिगर्भजातः । तत्पर्य्यायः । दैत्यः २ दैत्येयः ३ दनुजः ४ इन्द्रारिः ५ दानवः ६ शुक्रशिष्यः ७ दितिसुतः ८ पूर्ब्बदेवः ९ सुरद्विट् १० देवरिपुः ११ देवारिः १२ इत्यमरः ॥
 “सुराः प्रतिग्रहाद्देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः । अप्रतिग्रहणात्तस्य दैतेयाश्चासुराः स्मृताः” ॥ इति रामायणे । सूर्य्यः । इति मेदिनी । राहुः इति ज्योतिःशास्त्रम् ॥
अमरकोशःअसुर पुं।असुरः
समानार्थक:असुर,दैत्य,दैतेय,दनुज,इन्द्रारि,दानव, शुक्रशिष्य,दितिसुत,पूर्वदेव,सुरद्विष
1।1।12।1।1                            
परन्तु ऋग्वेद की प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।दास शब्द का यहांँ उच्चतम अर्थ दाता अथवा उदार भी है। समय के अन्तराल में अनुचित व्यवहार का विरोध करने वाले अथवा अपने मान्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वालों को समाज के रूढ़िवादी लोगों ने कहीं विद्रोही तो ; कहीं क्रान्तिकारी,  तो कहीं आन्दोलन -कारी तो कहीं कहीं आतंकवादी या दस्यु ,डकैत भी कहा है ।                         
क्योंकि जिन्होंने रूढ़िवादी लोगों की दासता को स्वीकार नहीं किया वही विद्रोही ही दस्यु कहलाए थे । वैदिक काल में दास और दस्यु शब्द समानार्थी ही थे और इनके अर्थ आज के गुलाम के अर्थो में नहीं थे 👇
यादवों से घृणा  रूढ़िवादी पुरोहित- समाज की अर्वाचीन (आजकल की ही सोच या दृष्टिकोण ही नहीं अपितु चिर-प्रचीन है। वैदिक ऋचाओं में इसके साक्ष्य विद्यमान  हैं ही 
ययाति पुत्र यदु को ही सूर्यवंशी इक्ष्वाकु पुत्र राजा हर्यश्व की पत्नी मधुमती में योग बल से पुन:जन्म  देने कि प्रकरण भी पुरोहित वर्ग ने निर्मित किया  
परन्तु लिंगपुराण के पूर्व भाग में शिव भक्त पुरुरवा को यमुना के तटवर्ती प्रयाग के समीप प्रतिष्ठान पुर(झूँसी )का राजा बताया है ;जिसके सात पुत्र थे आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य:ये सात पुत्र थे । आयुष् के पाँच पुत्र थे नहुष  इनका ज्येष्ठ पुत्र था ।नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति (विजाति)और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए ।              
(लिंग पुराण के अनुसार यदुवंश के पूर्वजों से लेकर यदु तक का वर्णन है इस प्रकार है ) 👇
पुराणों में नहुषः पुरुरवा के पुत्र आयुष् का पुत्र होने से सोमवंशी (चन्द्र वंशी) हैं )।
तो वाल्मीकि-रामायण में नहुषः सूर्यवंशी अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा थे 
जैसे (प्रशुश्रक के पुत्र अंबरीष का पुत्र का नाम नहुष और नहुष का पुत्र ययाति था) ।
वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड के सत्तर वें सर्ग के तीन श्लोकों में वर्णन है कि  👇
(वाल्मकि  रामायण बाल-काण्ड के सत्तर वें सर्ग में श्लोक संख्या ४१-४२-४३ पर देखें )     ____________________________________
अनुवाद :--अग्निवर्ण ये शीघ्रग हुए ,शीघ्रग को मरु हुए और मरु को प्रशुश्रक से अम्बरीष उत्पन्न हुए ।और अम्बरीष के पुत्र का नाम ही नहुष था।नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये राम और लक्ष्मण पुत्र हैं।
 यदु नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को भी दो अवतरणों में स्थापित करने की चेष्टा की ।उपरोक्त श्लोकों में नभगपुत्र नाभाग का वर्णन है ।
नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातर: कविम्। यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम्।।१।
मनु पुत्र नभग के पुत्र नाभाग का वर्णन है । जब वह दीर्घ काल तक ब्रह्म चर्च का पालन करके लोटे थे ।(भागवतपुराण ९/४/१)
(परन्तु पुराणों में एक दिष्ट के पुत्र नाभाग भी हुए थे ) क्यों कि यदुवंश उस समय विश्व में बहुत प्रभाव शाली था यदुवंश में ईश्वरीय सत्ता के अवतरण से ही तत्कालीन पुरोहित वर्ग की प्रतिष्ठा और वर्चस्व धूमिल होने लगा था । 
कृष्ण से लेकर जीजस कृीष्ट तक के लोग धर्म के नवीन संशोधित रूपों की व्याख्या करने के लिए प्रमाण पुरुष के रूप में आप्त पुरुष की भूमिका में प्रतिष्ठित हो गये थे। इसी लिए पुरोहितों ने इनके इतिहास के सम्पादन में घाल- मेल कर डाला ।यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ इस लिए उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है।दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी  निरन्तर  सक्रिय रहे । 
विश्व- इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित होकर समाजवाद पर आधारित ही थी ।द्वापर युग में कृष्ण ने कभी सूत बनकर शूद्र की भूमिका का निर्वहन किया जैसा कि शास्त्रों में सूत को शूद्र धर्मी बताया गया है । तो गोपाल रूप में वैश्य तथा क्षत्रिय वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया और श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया 
शास्त्रों में सूत को वर्णसंकर के रूप मे शूद्र-वर्ण कहा है जैसे कि मनुस्मृति में वर्णन है ।
क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः” “सूतानामश्वसारथ्यमम्यष्ठानां चिकित्सितम्”।
(क्षत्रिय से विप्र कन्या में सूत उत्न्न होता है जो सारथि का कार्य करता है )
सूतानां अश्वसारथ्यं अम्बष्ठानां चिकित्सनम् ।वैदेहकानां स्त्रीकार्यं मागधानां वणिक्पथः। 
(मनु स्मृति 10/47 )महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 48 में वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन हुआ है। जो पुष्यमित्र सुँग के समय सम्पादित हुआ । अर्थात्  सूत  सारथि का कर्म करें अम्बष्ठ चिकित्सा का कार्य करें और वैदहक स्त्रियों के श्रृंगार (प्रसाधन का कार्य करें और मागध वाणिज्य का कार्य करें )परन्तु मनुस्मृति में अन्यत्र यह एक प्राचीन जाति वैश्य के वीर्य से क्षत्रिय कन्या के गर्भ से उत्पन्न है।इस जाति के लोग वंशक्रम से विरुदावली का वर्णन करते हैं और प्रायः 'भाट' कहलाते हैं । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कृष्ण ने लोगों की उच्छिष्ठ पत्तल उठा कर भी एक सफाई कर्मचारी का कार्य किया ।
यह भी शूद्र की भूमिका थी ;यह सब उपक्रम कृष्ण का वर्ण व्यवस्था को न मानने का ही कारण था । जिसके वंशजों ने कभी भी वर्ण व्यवस्था का पालन नहीं किया जैसे कि कृष्ण ने भी स्वयं  सारथी (सूत )की भूमिका से शूद्र वर्ण की भूमिका कि पालन किया तो गोपालन से वैश्य वर्ण का था। परन्तु नारायणी सेना में भी गोप रूप में क्षत्रिय वर्ण का पालन किया ।और श्रीमद् भगवद् गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ।क्योंकि वर्ण- व्यवस्था का पालन तो जीवन पर्यन्त एक ही वर्ण में रहकर उसके अन्तर्गत विधान किये हुए कर्मों को ही करना सम्भव होता है ।परन्तु कृष्ण ने इस वर्ण-व्यवस्था परक विधान का पालन कभी नहीं किया।परन्तु श्रीमद भगवद् गीता के चतुर्थ अध्याय का यह तैरहवाँ श्लोक प्रक्षेप ही है ।
'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः,तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
चारों वर्ण मेरे द्वारा गुण कर्म के विभाग से सृजित किए हुए हैं;उसमें मैं अकर्ता के रूप में अव्यय हूं ऐसा मुझको जान (4/13)
वस्तुत: यहाँ इस श्लोक का मन्तव्य वर्ग या व्यवसाय व्यवस्था से ही है नकि जन्मजात मूलक वर्ण व्यवस्था से अन्यथा गोप यदि वैश्य होते तो नारायणी सेना के योद्धा क्यों हुए ? क्योंकि वैश्य का युद्ध करना तथा शस्त्र लेना भी शास्त्र- विरुद्ध ही है । ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों की उत्पत्ति कृष्ण के रोम कूपों से है। अत: ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण-व्यवस्था में समाविष्ट न होकर ये गोपगण (अहीर) ब्रह्मा का उत्पादन नहीं थे। गोप वैष्णवी सृष्टि थे। और ये ब्राह्मणों के भी पूज्य थे। 
तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः ।    आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।1.5.४०।।
लक्षकोटीपरिमितःशश्वत्सुस्थिरयौवनः।
संख्याविद्भिश्चसंख्यातो गोलोके गोपिकागणः।४१।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणोमुने ।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणःश्रुतौ।४३।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यःसद्यश्चाविर्बभूव ह ।
नानावर्णो गोगणश्च शशकृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः।४४।
बलीवर्दाः सुरभ्यश्च वत्सा नानाविधाः शुभाः ।।
अतीव ललिताः श्यामा बह्व्यो वै कामधेनवः।४५।
तेषामेकं बलीवर्दं कोटिसिंहसमं बले ।।
शिवाय प्रददौ कृष्णो वाहनाय मनोहरम्। ४६ ।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः।५ ।                        -
जैसा कि पुराणों में राजा नाभाग के वैश्य होने के विषय में वर्णन है:-(विशेष नाभाग सूर्यवंशी राजा दिष्ट के पुत्र थे)
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"मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक- 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए वर्णित है:- कि एक बार ( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है।30।
अत: इस प्रकार गोपों को वैश्य वर्ण सम्मलित करना शास्त्र विरुद्ध व पूर्व- दुराग्रह पूर्ण ही है।
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उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता ।अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है ।तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे तो वे वैश्य कहाँ हुए ? और इसके अतिरिक्त भी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपना पुरुषार्थ परिचय देते हुए कहा था जब
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;
तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
परन्तु आज कृष्ण से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया । ये भूत या पिशाच जनजाति के लोग थे 
यही आज भूटानी कहे जाते हैं । वर्तमान में भूटान (भूतस्थान)  ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था । ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे । क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ? 'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय देते हुए कहा कि शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय होने से मैं  क्षत्रिय हूँ । तब पिशाच और जिज्ञासा पूर्वक पूँछता है ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः

3/80/ 9।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
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क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः।3/80/10।
•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।10।।
लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।3/80/11।
•-मैं तीनों लोगों का पालक तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं राजाओं के समक्ष उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद:सदा।
गोप्तासर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ ,और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक (पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
"अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।१८५.३२।
दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।। १८५.३३(ब्रह्मपुराण अध्याय १८५)               
यदि कृष्ण शास्त्रों को आधार मानकर चलते तो गोपों की 'नारायणीसेना' का निर्माण क्यों करते ?____________________________________
महाभारत के द्रोण पर्व के उन्नीसवें अध्याय में वर्णन है नारायणी सेना के( शूरसेन वंशी आभीर ) और शूरसेन राज्य के अन्य  योद्धा अर्जुन के विरुद्ध लड़ रहे  थे ।
महाभारत के द्रोण पर्व के संशप्तक वध नामक उपपर्व के उन्नीस वें अध्याय तथा बीसवे अध्याय में यह वर्णन है ।
और इस अध्याय के श्लोक ‌सात में गोपों की नारायणी सेना के योद्धा गोपों को अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए वर्णन किया है ।
अथ नारायणा:क्रुद्धा:विविधा आयुध। पाणय:क्षोदयन्त:शरव्रातेै:परिवव्रुर्धनञ्जयम् ।७।
अर्थ:-तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।         
और आगे के श्लोक में वर्णन है कि 
अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।
 कृष्णेन सहितंयुद्धे कुन्ती पुत्रं धनञ्जय।८।।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।। और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छ:और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ;जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान् ।कलिङ्गाः सिंहलाः पराच्याः शूर आभीरा दशेरकाः।६।। 
शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः।७।।गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिता:।।
(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय। अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।६-७ ।
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और१९ पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है। 
मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत्। नारायणाइति ख्याता:सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों के क्षत्रियत्व को प्रमाणित भी करती हैं । इनकी वीरता की कोई समानता अथवा उपमा नहीं थी।
विदित हो कि नरायणी सेना और बलराम दुर्योधन के पक्ष में थे और तो क्या बलराम स्वयं दुर्योधन के गुरु ही थे । जैसा कि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड में वर्णन है।
अथ कदाचित्प्राड्‌विपाको नाम मुनींद्रो।
योगीन्द्रो दुर्योधनगुरुर्गजाह्वयं नाम पुरमाजगाम ॥६॥
सुयोधनेन संपूजितः परमादरेण।
सोपचारेण महार्हसिंहासने स्थितोऽभूत् ॥७॥
इति श्रीगर्गसंहितायां बलभद्रखण्डे दुर्योधनप्राड्‌विपाकसंवादे
बलदेवावतारकारणं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
प्राय: कुछ रूढ़िवादी कर्म-काण्डी  पुरोहित अथवा  भ्रान्त-मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए ! अहीरों द्वारा अर्जुन द्वारा लेजायी जा रही यदुवंश की स्त्रीयों को लूटने की बात करते रहते हैं। परन्तु ये सब इस प्रकार से नहीं हैं। गोप चोर या लुटेरे नहीं थे शास्त्रों में वर्णन है कि।
गोप सम्राट भी बनते थे।
गोपःकश्चिदमावास्यां दीपं प्रज्वाल्य शार्ङ्गिणः।
मुहुर्जयजयेत्युक्त्वा स च राजेश्वरोऽभवत्। १३४।
किसी  गोप ने  कार्तिक अमावस्या में  दीप जलाकर  शारङ्गिण भगवान विष्णु की बार-बार जय जय बोलने के द्वारा  राजेश्वर ( सम्राट) पद को प्राप्त किया था।
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राजेश्वर=राजाओं का राजा। राजेंद्र। महाराज। सम्राट ।
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इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे कार्तिकमासमाहात्म्ये दीपदानमाहात्म्यवर्णनंनाम सप्तमोऽध्यायः।७।                          
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से यह श्लोक उद्धृत करते हैं ।____________________________________
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस:।आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना:।४७।
अर्थात्  वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। अब इसी बात को  बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध पन्द्रह वें अध्याय  में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द  सम्बोधन द्वारा कहा गया है इसे भी देखें---____________________________________
"सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्याप्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।         गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०।
 (भागवत पुराण  1/15/20) 
शब्दार्थ:-स:—वह; अहम्—मैं; नृपेन्द्र—हे सम्राट; रहित:—विहीन; पुरुषोत्तमेन—परमेश्वर द्वारा; सख्या—अपने सखा द्वारा; प्रियेण—अपने  प्रिय के द्वारा; सुहृदा—शुभचिन्तक द्वारा; हृदयेन—हृदय से ; शून्य:– रहित; अध्वनि— मार्ग  में; उरुक्रम-परिग्रहम्—सर्वशक्तिमान विष्णु रूप कृष्ण की पत्नियाँ; अङ्ग—शरीर; रक्षन्—रक्षा करते हुए; गोपै:—ग्वालों द्वारा; असद्भि:— जो वास्तव में सद् नहीं थे उनके द्वारा; अबला इव—निर्बला स्त्री की तरह; विनिर्जित: अस्मि—पराजित हो चुका हूँ।.
अनुवाद:-हे राजन्, अब मैं अपने मित्र तथा सर्वाधिक प्रिय शुभचिन्तक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से विलग हो गया हूँ, अतएव मेरा हृदय हर तरह से शून्य-सा प्रतीत हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति में, जब मैं कृष्ण की तमाम पत्नियों की रखवाली कर रहा था, तो अनेक अविश्वस्त ग्वालों ने मुझे हरा दिया।

क्षत्रबन्धुं सदानार्यं रामः परमादुर्मतिः।          भक्तं भ्रातरमद्यैव त्वां द्रक्ष्यति मया हतम् । ६.८८.२४। 
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(युद्ध काण्ड - अध्याय 88 का श्लोक 24) में जब रावण जब लक्ष्मण को अनार्य और अधम क्षत्रिय कहता है तब क्या लक्ष्मण वास्तव में अनार्य थे ? वास्तव में इस प्रकार के अपशब्द अथवा गालि क्रोध में युद्ध की भाषा है गोपों अथवा अहीरों को अर्जुन के द्वारा दुष्ट और पापी कहना भी इसी प्रकार क्रोध और विरोध की भाषा थी यथार्थ परक नहीं ।                     
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 
परन्तु मार्ग में  अर्थात् पञ्चनद या पंजाब प्रदेश में  दुष्ट नारायणी सेना के गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया। और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका ! 
(श्रीमद्भगवद् पुराण प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह वाँ श्लोक संख्या (२० १/१५/२० )
(पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें--
सोऽहं नृपेन्द्र रहित:पुरुषोत्तमेन
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमङ्ग रक्षन्
गोपैरसद्भ‍िरबलेव विनिर्जितोऽस्मि ॥२०॥
शब्दार्थ :-स:—वह; अहम्—मैं; नृप-इन्द्र !—हे सम्राट; रहित:—विहीन; पुरुष-उत्तमेन— पुरुषों में उत्तम कृष्ण द्वारा; सख्या— मित्र द्वारा; प्रियेण—अपने सर्वाधिक प्रिय द्वारा; सुहृदा—शुभचिन्तक द्वारा; हृदयेन—हृदय तथा आत्मा के द्वारा/ से; शून्य:—शून्य, रहित; अध्वनि—हाल ही में; उरुक्रम-परिग्रहम्—सर्वशक्तिमान की पत्नियाँ; अङ्ग—शरीर; रक्षन्—रक्षा करते हुए; गोपै:—ग्वालों अथवा अहीरों द्वारा; असद्भि:—असदों , दुष्टों द्वारा; अबला इव—निर्बल स्त्री की तरह; विनिर्जित: अस्मि—पराजित हो चुका हूँ।
अनुवाद:-  हे राजन्, अब मैं अपने मित्र तथा सर्वाधिक प्रिय शुभचिन्तक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से विलग हो गया हूँ, अतएव मेरा हृदय हर तरह से शून्य-सा प्रतीत हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति में, जब मैं कृष्ण की तमाम पत्नियों की रखवाली कर रहा था, तो अनेक दुष्ट ग्वालों ने मुझे हरा दिया।
इस श्लोक की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्जुन किस तरह ग्वालों  द्वारा हरा दिये गये , जिनकी रखवाली अर्जुन कर रहे थे। 
विदित हो कि महाभारत के मूसल पर्व में "गोप के स्थान पर 'आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है।और फिर यादव जो वृष्णिवंशी थे उन्हें यादवों के अतिरिक्त कौन वश में कर सकता है ?
संहर्ता वृष्णिचक्रस्य नान्यो मद्विद्यते शुभे।अवध्यास्तेनरैरन्यैरपि वा देवदानवैः(11-25-49)परस्परकृतं नाशं यतः प्राप्स्यन्ति यादवाः।49 1/2।।                            
गान्धारी जब कृष्ण को शाप देती हैं तब कृष्ण उनके शाप को स्वीकार करते हुए कहते हैं 
शुभे ! वृष्णि कुल का संहार करने वाला मेरे सिवा दूसरा दुनियाँ में नहीं है ! ये यादव दूसरे मनुष्यों तथा देवताओं के लिए भी और दानवों के लिए भी अबध्य है ; इसी लिए ये आपस में ही लड़़कर नष्ट होंगे ।49 1/2।।
" इति श्रीमन्महाभारते स्त्रीपर्वणिस्त्रीविलापपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः।25 ।
 "अर्जुन और वृष्णि वंश के गोपों(यादवों) की शत्रुता" अर्जुन भी महान योद्धा था उन्हें नारायण सेना के यादव गोपों के अतिरिक्त कौन परास्त कर सकता था ?और जब वृष्णिकुल की कन्या सुभद्रा का अर्जुन ने काम पीडित होकर अपहरण किया था तब कृष्ण नें भी अर्जुन को इन शब्दों में धिक्कारा था 
(महाभारतआदिपर्व अध्याय-२१९।/१६
जब अर्जुन और कृष्ण रैवतक पर्वत पर वहाँ समायोजित उत्सव की शोभा के अवसर पर टहल रहे थे।तभी वहाँ  अपनी सहेलीयों के साथ आयी हुई।सुभद्रा को देखकर अर्जुन में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी "दृष्टिवा एव तामर्जुनस्य कन्दर्प: समजायत। तं तदैकाग्रमनसं कृष्ण: पार्थमलक्षयत्।।१५।
उसे देखते ही अर्जुन के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी उनका चित्त उसी के चिन्तन में एकाग्र हो गया कृष्ण ने अर्जुन की कामुकता को भाँप लिया।।१५। फिर वे पुरुषों में बाघ के समान कृष्ण हंसते हुए से बोले -अर्जुन यह क्या ? 
तुम जैसे वन वासी के मन भी काम से उन्मथित हो रहा है ? ।।१६।
(महाभारत आदिपर्वसुभद्राहरणपर्व दो सौ अठारहवाँ अध्याय)तब अर्जुन सुभद्रा का  करके ले जाता है तब वृष्णि कुल योद्धा उसको धिक्कारते हुए कहते हैं ।        
को हि तत्रैवभुक्त्वान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति।मन्यमान:कुलेजातमात्मानं पुरुष:क्वचित्।२७।
अपने को कुलीन मानने वाला कौन ऐसा मनुष्य है जो जिस बर्तन में खाये ,उसी में छेद करे ।।२७।
(महाभारत आदिपर्व हरणपर्व दो सो उन्सीवाँ अध्याय) कहीं बारहवाँ अध्याय
सुभद्रा के अपहरण की खबर सुनते ही युद्धोन्माद से लाल नेत्रों वाले वृष्णिवंशी वीर अर्जुन के प्रति क्रोध से भर गये और गर्व से उछल पड़े ।।१६।
वृष्णि सत्वत कुल के यादव थे ।
तच्छ्रुत्वा वृष्णिवीरा: ते मदसंरक्तलोचना:।अमृष्यमाणा: पार्थस्य  समुत्पेतुरहंकृता:।।१६।
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विदित  हो कि सुभद्रा वृष्णि कुल की कन्या थी और वसुदेव की बड़ी पत्नी रोहिणी की पुत्री थी और स्वयं रोहिणी पुरुवंशी भीष्म के पिता शन्तुनु के बड़े भाई बह्लीक की पुत्री थीं । और अर्जुन भी स्वयं पुरुवंशी था ।                
इस लिए भी सुभद्रा अर्जुन के लिए मानपक्ष की थी परन्तु कामुकता वश वह उसे अपहरण कर के ले गया । इसी लिए वृष्णिवंशी गोप योद्धाओं ने (पंचनद) पंजाब प्रदेश में वृष्णि वंश की अन्य हजारों स्त्रियों को द्वारका से इन्द्र प्रस्थान ले जाते हुए अर्जुन को अपने यादव कुल की स्त्रियों को अपने साथ लेने के लिए परास्त किया था।
यह बात भागवत पुराण के सन्दर्भ से उपरोक्त रूप में कह चुके हैं । सुभद्रा गोप कन्या के रूप में थी जैसा की अन्य गोप कन्याऐं उस काल में रहती थीं महाभारत के इस श्लोक में यही भाव -बोध है।
सुभद्रां त्वरमणाश्च रक्तकौशेयवासिनीम्।  पार्थ:प्रस्थापयामासकृत्वा गोपालिका वपु:।१९। 
(महाभारत आदिपर्व हरणाहरण पर्व दोसौ बीसवाँ अध्याय)-यह सुभद्रा रोहिणी की पुत्री और हद व सारण की सगी बहिन थी। देखें-(हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के श्रीकृष्णजन्म विषयअपहरणक पैंतीसवाँ अध्याय)के चतुर्थ श्लोक में देखें रोहिणी के पिता और वंश का वर्णन करते हुए लिखा हुआ है कि रोहिणी के ज्येष्ठ पुत्र बलराम और (उनसे छोटे) सारण, शठ दुर्दम ,दमन श्वभ्र,पिण्डारक,और उशीनर हुए और चित्रा नाम की पुत्री हुई ( यह चित्रा एक अप्सरा थी जो रोहिणी के गर्भ में उत्पन्न होते ही मर गयी ।मरते समय उसने धिक्कारा था स्वयं को कि मैं यादव कुल में जन्म धारण करके भी यदुवंश में उत्पन्न होने वाले भगवान की लीला न देख सकी इसी इच्छा के कारण ) यह चित्रा ही दूसरी वार सुभद्रा बनकर उत्पन्न हुई । इस प्रकार रोहिणी की दश सन्तानें उत्पन्न हुईं । वसुदेव की चौदह तो कहीं अठारह रानी वर्णित हैं ।जिनमें रोहिणी उनसे छोटी इन्दिरा वैशाखी भद्रा और पाँचवीं सुनामि। ये पाँचों पुरुवंश की थीं रोहिणी महाराज शान्तनु के बड़े भाई बाह्लीक की बड़ी पुत्री थी ये दोनों भाई प्रतीप के पुत्र थे ;यही रोहिणी वसुदेव की बड़ी पत्नी थीं।
पौरवी रोहिणी नाम बाह्लीकस्यात्मजाभवत्। ज्येष्ठा पत्नी महाराज दयिताऽऽनकदुन्दुभे:।४।
लेभे ज्येष्ठं सुतं रामं सारणी शठमेव च।         दुर्दमं दमनं श्वभ्रं पिण्डारकम् उशीनरम् ।५।
चित्रां नाम कुमारीं च रोहिणीतनया दश।    चित्रा सुभद्रा इति पुनर्विख्याता कुरु नन्दन।६।
हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व का पैंतीस वे ं अध्याय के चतुर्थ पञ्चम और षष्ठ श्लोक उपरोक्त रूप में वर्णित हैं।परन्तु भागवत पुराण के अनुसार सुभद्रा देवकी की पुत्री है।भागवत पुराण  नवम स्कन्ध के अनुसार सुभद्रा देवकी की पुत्री है। (२४)वें अध्याय के ५५वें श्लोक में वर्णन है कि >•
अष्टमस्तु तयोरासीत् स्वयमेव हरि:किल।सुभद्रा च महाभागा तव राजन् पितामही।५५।
अर्थ:-दौंनों के आठवें पुत्र स्वयं  हरि ही थे परीक्षित् ! तुम्हारी सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी  जी की कन्या थीं ।५५।
वस्तुत भागवत पुराण में वर्णित श्लोक हरिवंश पुराण के विरोधी व प्रक्षिप्त है। हरिवंश पुराण का कथन ही सही है कि सुभद्रा रोहिणी की पुत्री है ।
परस्पर गोत्र- विवाह सम्बन्ध पर समाधान करते हुए कहा-विशेष:- टिप्पणी:-हरिवंश पुराण में वर्णन है कि कृष्ण और उनकी पत्नी सत्यभामा  क्रोष्टा के वंश में उत्पन्न थे। परन्तु पुराण की इस पहेली का हल करते हुए कहा कि क्षत्रियों के एक कुल होने पर भी सात पीढ़ीयाँ बीत जाने के बाद पुरोहित के गोत्र से यजमान क्षत्रिय का भी गोत्र बदल जाता है।
और इस प्रकार गोत्र भेद से उनमें विवाह हो जाता है ;इसी क्रोष्टा के वंश में रुक्मिणी जी का जन्म भी हुआ था । आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।
आवर्ततां कार्मुकवेगवाता। हलायुधप्रग्रणा (मधूनाम्)। सेना तवार्थेषु नरेन्द्र यत्ता।ससादिपत्त्यश्वरथा सनागा।33।
अर्थ:- राजन् ! जिसके धनुष का वेग वायु-वेग के समान है वह सवारों सहित हाथी ,घोड़े रथ और पैदल सैनिकों से भरी हुई मथुरा-प्रान्त वासी नारायणी यादव गोपों की सेना सदा युद्ध के लिए तैयार हो आपकी अभीष्ट सिद्धि के लिए निरन्तर तत्पर रहती है !
 (वनपर्व-3-185-33)(मुम्बई निर्णय सागर प्रेस में १८५वाँ अध्याय है )तथा
गीताप्रेस की महाभारत प्रति में वनपर्व का मार्कण्डेय समस्या नामक उपपर्व का यह (१८३)वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (१४६३)-है।        
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान थे। इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग- पर्व में वर्णन अर्जुन और यादव गोपों की शत्रुता का है।  यह शत्रुता अर्जुन द्वारा सुभद्रा के अपहरण करने के कारण ही थी ।👇.
यादवों को गो पालक होंने से ही  गोप कहा गया है और  यही गोप संसार मेें कृषि संस्कृति के जनक हुए।  गर्ग संहिता में वर्णन है कि
गर्गसंहिता-खण्डः(३) (गिरिराजखण्डः) 
अध्यायः (१)
श्रीगर्गसंहितायां श्रीगिरिराजखण्डे श्रीनारद बहुलाश्व संवादे प्रथमोऽध्यायः
श्रीगिरिराजपूजाविधिवर्णनम्  नामक अध्याय में नारद बहुलाश्व से गोपों को ही कृषि उत्पादन करने वाला कहते हैं ।
                   "श्रीनारद उवाच !-
वार्षिकं हि करं राज्ञे यथा शक्राय वै तथा ।      बलिं ददुः प्रावृडन्ते गोपाः सर्वे कृषीवलाः।३।
; भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर  स्पष्ट वर्णित है। ये आभीर या गोप यादवों की शाखा नन्द बाबा आदि के भी वृष्णि कुल से सम्बंधित कहा है।
नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषित:।
वृष्णयोवसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रिय:।६२।
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत।
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रता:।६३।
नन्द-आद्या:—नन्द आदि अन्य लोग; ये—ये सभी; व्रजे—वृन्दावन में; गोपा:—ग्वाले; या:—जो; च—तथा; अमीषाम्—उन सबका (वृन्दावनवासियों का); च— और ।  योषित:—स्त्रियाँ; वृष्णय:—वृष्णिवंश के सदस्य; वसुदेव-आद्या:— वसुदेव इत्यादि; देवकी-आद्या:—देवकी इत्यादि; यदु-स्त्रिय:—यदुवंश की स्त्रियाँ; सर्वे—सभी; वै—निस्सन्देह; देवता प्राया:— देवता थे; उभयो:—नन्द महाराज तथा वसुदेव दोनों के; अपि—निस्सन्देह; भारत—हे महाराज परीक्षित; ज्ञातय:— सजातिसम्बन्धीगण; बन्धु—सारे मित्र; सुहृद:—शुभेच्छु जन; ये—जो; च—तथा; कंसम् अनुव्रता:—कंस के अनुयायी होते हुए भी हैं ।.
 हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित, नन्द महाराज तथा उनके संगी ग्वाले तथा उनकी स्त्रियाँ देव- देवियाँ थीं। इसी तरह वसुदेव आदि वृष्णिवंशी तथा देवकी एवं यदुवंश की अन्य स्त्रियाँ भी थीं। ये परस्पर सजातीय नन्द  तथा वसुदेव थे इनके मित्र, सम्बन्धी, शुभचिन्तक तथा ऊपर से कंस के अनुयायी लगने वाले व्यक्ति सभी देवता ही थे।
जैसा पहले बतलाया जा चुका है, भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी को बतला दिया था कि धरती का कष्ट हरने के लिए कृष्ण स्वयं  यादववंश के वृष्णिकुल अवतरित होंगे। भगवान् ने स्वर्ग लोंको के समस्त निवासियों को आदेश दिया था कि वे यदु तथा वृष्णि वंश के विभिन्न परिवारों में जन्म लें। इस श्लोक से पता चलता है कि यदुवंश, वृष्णिवंश, नन्द महाराज के सारे मित्र तथा गोप भगवान् की लीलाओं को देखने के लिए स्वर्गलोक से अवतरित हुए थे और ये सभी एक जाति के थे । 
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नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः।वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः।62।
●☆• नन्द आदि यदुवंशीयों की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी देवकी आदि स्त्रीयाँ ।62।
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत|ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रता:।63|| 
हे भरत के वंशज जनमेजय ! ये सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63||
 ( गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109).. ज्ञाति शब्द से ही जाति शब्द का विकास हुआ है; जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है।
भ्रातृपुत्रस्य  पुनर्ज्ञातय: स्मृता ।          गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्य: परम बान्धव:।१५८।    
अर्थ •-भाई के पुत्र के पुत्र आदि को पुन: ज्ञाति कहा जाता है गुरुपुत्र तथा भ्राता पोषण करने योग्य और परम बान्धव हैं ।१५८। 
(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड) अमर-कोश में भी वर्णन है।अमरकोशः ज्ञाति पुल्लिंग। सगोत्रःसमानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन, दायाद -2।6।34।2।3
समानोदर्यसोदर्यसगर्भ्यसहजाः समाः। सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः॥
(भागवत पुराण दशम स्कन्ध ४५वाँ अध्याय में वर्णन भी है ।)
यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्।    ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्।२३।
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"देवमीढस्य तिस्र:पत्न्यो बभूवु:महामता:।अश्मिकासतप्रभाश्चगुणवत्य:राज्ञ्योरूपाभि:।१।
अर्थ:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं । अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप ही हुईं थी।१।
"अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।
अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२।
"गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य:यशस्विना।३।
अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३।
"पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।।           ये गोपालनं कर्तृभ्यः लोके गोपा उच्यन्ते ।४।
अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।
"गौपालनैर्गोपा: निर्भीकेभ्यश्च आभीरा।           यादवालोकेषु वृत्तिभिर् प्रवृत्तिभिश्चब्रुवन्ति।५।
अर्थ•-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर यादव ही संसार में गोप और आभीर कहलाते हैं ।५।
"आ समन्तात् भियं राति ददाति  शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति।६।
अर्थ•-शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६।
"अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर:बभूव।७। 
अर्थ:-(अरि वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द उत्पन्न हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर  हुआ उससे "आवीर और आवीर  से ही "आभीर "शब्द हुआ।।७।
"ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति । भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत । अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है। देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।           
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा,विश्वगर्भो महायशा:।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए 
"तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।        चत्वारोजज्ञिरेपुत्र लोकपालोपमा: शुभा:।४९" 
देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।
देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे।जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के 
"वसु वभ्रु:सुषेणश्च ,सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।       यदु प्रवीण: प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।५०
सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए                        
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
"देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना।५२।
नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतांगत: ।     तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य हुआ जो गोकुल का रहने वाला था । 
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुःद्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।
सन्दर्भ-:-
 वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।  
अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। यह बात हम पूर्व में अनेक बार लिख चुके हैं। परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है।  स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक ही था। निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
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श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०।  में प्रस्तुत है वह वर्णन -
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशंगतः।      करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये 
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥
अर्थ•अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली॥५४ ॥ अर्थ •-प्राचीन  समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।        वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६।अर्थ•(उसके पिता का नाम मधु  था ) वह वरदान पाकर  पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई।
स तत्र पुष्कराक्षौद्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।      निवेश्यराज्येमतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ।५८ ॥अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८।    ____________________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥ ५९ ॥_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा।६०॥_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।   
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।    अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                      अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।६२।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥६३॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तुसुतःश्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति।६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥    
यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में "गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेनेवाला होने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।  पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं । फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा अथवा वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में  प्रचलित हुआ तो  ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये  ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया ! 
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है। और जातियों  का निर्धारण जीवविज्ञान में प्रवृतियों से ही होता  आर्य  शब्द  परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे;  इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकर ही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है जो  वास्तव में वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
पुराणों का लेखन कार्य काव्यात्मक शैली में पद्य के रूप में हुआ एक स्थान पर श्लेष अलंकार के माध्यम से लेखक ने पर्जन्य ' देवमीढ और वर्षीयसी जैसे द्वि-अर्थक शब्दों को वर्षा कालिक अवयवों सूर्य ,मेघ ,और घनघोर वर्षा के साथ साथ यदुवंश के वृष्णि कुल के पात्र जो कृष्ण के पूर्वज भी हैं उनका भी वर्णन कर दिया है । यद्यपि महिला पात्र वर्षीयसी का वाचक शब्द का वर्षा से कोई अर्थ व्युत्पत्ति सिद्ध नहीं होता है ...
फिर भी यह वर्षा का ही वाचक है यहाँ पर्जन्य की पत्नी वरीयसी थीं ..
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अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं(म्या उदमयं)वसु स्व गोभिर् मोक्तुम् आरेभे पर्जन्य: काल आगते ।5।
तडीत्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिता:|प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचु: करुणा इव ।6।
तप:कृशा देवमीढा आसीद् बर्षीयसी मही |यथैव काम्यतपसस्तनु: सम्प्राप्य तत्फलम् ।7।
भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के बीसवें अध्याय के ये  क्रमश: 5 ,6,7, वें श्लोक द्वयर्थक  अर्थों से समन्वित हैं अर्थात् ये दोहरे अर्थों को समेटे हुए हैं 
पर्जन्य, देवमीढ के पुत्र और वर्षीयसी (वरीयसी) उनकी पत्नी हैं पर्जन्य शब्द पृज् सम्पर्के धातु से पर्जन्य शब्द बना है 
मिलनसार और सहयोग की भावना रखने के कारण देवमीढ के पुत्र पर्जन्य नाम भी हुआ 
वरीयसी इनकी पत्नी का नाम था परन्तु ये परिवार और  प्रतिष्ठा में बड़ी तो थी हीं नामान्तरण से वर्षीयसी भी नाम है !
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अतिशयेन वृद्धः वृद्ध + इयसुन् वर्षादेशः । 
अतिवृद्धे अमरः स्त्रियां ङीप् । वस्तुत: वर्षीयसी शब्द का वर्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु यह वर्षामूलक आभासी है। जबकि यह शब्द "वृद्धतरा" का वाचक है मह् -पूजायाम् "या महति प्रतिष्ठायाम् इति मही वा महिला" ! महिला पूज्या स्त्रीयों का वाचक है। श्लोकों का व्यक्ति मूलक अर्थ:- राजा पर्जन्य  भूमि वासी प्रजा से आठ महीने तक ही कर लेते हैं ;वसु  भी अपनी गायों को बन्धन मुक्तकर देते हैं प्रजा के हित में समय आने पर प्रजा से कर भी बसूलते हैं।
और प्रजा को गलत दिशा में जाने पर ताडित भी करते हैं |5||
जैसे दयालु राजा जब देखते हैं कि भूमि की प्रजा बहुत पीडित हो रही है तो राजा अपने प्राणों को भी प्रजाहित में निसर्ग कर देता है 
जैसे बिजली गड़गड़ाहत और चमक से शोभित महामेघ प्रचण्ड हवाओं से प्रेरित स्वयं को तृषित प्राणीयों के लिए समर्पित कर देते हैं ||6||
तप से कृश शरीर वाले राजा देवमीढ के पुत्र पर्जन्य की वर्षीयसी नाम की पूजनीया रानी थीं उसी प्रकार जो कामना और तपस्या के शरीर से युक्त होकर तत्काल फल को पाप्त कर लेती थीं ।
जैसे देव =बादल । मीढ= जल।  देवमीढ -बादलों का जल । ज्येष्ठ -आषाढ  में ताप षे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी कृश हो गये ।
अब देवमीढ के द्वारा वह फिर से हरी फरी होगयी है । जैसे तपस्या करते समय  पहले तो तपस्वी का शरीर दुर्बल हो जाता है। परन्तु जब इच्छित फल मिल जाता है ; तो वह हृष्ट-पुष्ट हो जाता है |
और सत्य भी है कि  "सुन्दरता से काव्य का जन्म हुआ "वस्तुत यह एक आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है जिसकी भी हम्हें जितनी जरूरत है ; 'वह वस्तु हमारे लिए उसी अनुपात में ख़ूबसूरत भी होती जाती है।
परन्तु ये जरूरतें कभी भी पूर्णत: समाप्त नहीं होती हैं । जो भाव हमारे व्यक्तित्व में नहीं होता हम उसकी ही तो इच्छा करते हैं ; वही तो हमारे लिए ख़ूबसूरत है । इसी सौन्दर्य प्रेरणा ने ही काव्य की सृष्टि की । जैसे कि अपना  उद्गार प्रकट हुआ
श्लिष्ट अर्थ में  👇
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"नन्दगोपकुलमपि यदुकुलमेव तथाहि–" 👇
सर्वश्रुतिपुराणादि कृतप्रशंसस्य यदुकुलस्यावतंस: श्रीदेवमीढ़नामापरमगुणधामामथुरामध्यासामास। तस्यभार्याद्वयमासीत्। 
अर्थ-(नन्दगोपकुल भी यदुकुल ही है वैसे ही सभी वेदों पुराणों आदि में यदुकुल की प्रशंसा है।
यदुकुल शिरोमणि (अवतंस) श्रीदेवमीढ जो मधुरा नगरी के मध्य  रहते थे  । उनकी दो पत्नीयाँ थीं।
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"प्रथमा द्वितीयावर्णा द्वितीया तृतीयावर्णेति तयोश्च पुत्रद्वयं प्रथमम् बभूव शूर: पर्जन्य इति च। तत्र शूरस्य वसुदेवादय: अत एवोक्तं श्रीमुनिना " वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं" इति श्री पर्जन्यस्तु मातृवद्वर्णसंकर"– इति न्यायेन प्रायेण हि जना: सर्वे यान्ति मातामहीम् तनुम्" इति न्यायेन वैश्यतामेवाविश्य गोवृत्तिपूर्वकं वृहद्वनं एवासाञ्चकार ।"
अर्थ –वृष्णि कुलशिरोमणि देवमीढ की पहली पत्नी दूसरे वर्ण की अर्थात क्षत्रियवर्णा , और दूसरी पत्नी तीसरे वर्ण की अर्थात्‌ वैश्यवर्णा थीं। देवमीढ के दो पुत्र थे; पहली पत्नी से शूर और दूसरी से पर्जन्य । वहाँ शूर के वसुदेव आदि पुत्र हुए । इसी लिए मुनि(गर्गाचार्य) द्वारा भागवत में कहा गया  " वसुदेव यह सुनकर की भाई नन्द आये हुए हैं":–अत एवोक्तं श्रीमुनिना "वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं" )
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इस प्रकार पर्जन्य मातामही (दादी) के वर्ण को  प्राप्त हैं ; और ब्राह्मण स्मृति ग्रन्थों के– न्याय के द्वारा वे वर्णसंकर हुए। और सभी भाई  इस प्रकार  मातामही( दादी) के शरीर को प्राप्त होने से इस  न्याय से गोवृत्ति पालन से भी वे वैश्यवर्ण के को प्राप्त होकर  "वृहदवनं"(महावनम्/ गोकुलम्) में  ही स्थापित हुए ।
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(स च बाल्यादेव ब्राह्मणदर्शै पूजयति। मनोरथ पूरं देयानि वर्षति । वैष्णववेदं स्नह्यति । यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वैशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशामवतंसतया परमशंसनीय एवमेव च गोपवशोपीति पाद्येसृष्टिखण्डे स्पष्टीकृत:। स च श्रीमान्पर्जन्यो वैश्यांतर साधारण्यं निजैश्वर्येणातीयाय । यस्य भार्या नाम्ना वरीयस्यासीत् यस्य च श्री उपनन्दादय: पञ्चात्मजा जगदेवनन्ददयामासु: तथा च वन्दिन उपमान्ति स्म" उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।इति तस्य पुत्र सम्पत्तिस्तु परमरमणीयतामवाप मध्यमसुत सम्पत्तिस्तु सुतराम्। तदेव (सुमुखनाम्ना) केनचिद् गोपमुख्येन श्रीपर्जन्यमध्यंसुताय श्रीनन्दाय परमधन्या कन्या दत्ता।) "अर्थ"-और वह बालकपन से ही ब्राह्मणों का दर्शन और  सम्मान करते थे । और सभी याचकों का मनोरथ भी पूरा करते थे। 
ये वैष्णव जनों और वेदों का भी सम्मान करते थे। और जीवन पर्यन्त हरि की अर्चना करते थे। और माता के पक्ष का व्यवसाय ( गोपालन )करने से उनकी ख्याति सभी दिशाओं में हो गयी । 
गोपवेश( व्यवसाय) में वे प्रसिद्ध हो गये ।
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में भी उनके इस व्यवसाय की पुष्टि की गयी है। 
कि इनकी पत्नी भी वैश्य वर्ण की थी; जिनका नाम "वरीयसी" था।
और वरीयसी में उत्पन्न इनके नन्द आदि पाँच पुत्र थे। मध्यम पुत्र इनको अधिक प्रिय था ; और सभी की सहमति से उनका विवाह "सुमुख नामके किसी मुख्य गोप की पुत्री यशोदा से हुआ था; जो परम धन्या और सुन्दर कन्या थी।
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"या खलु स्वगुणवशीकृत स्वजना यशांसि ददाति श्रण्वद्भय:  पश्यद्भय: किमुततराम् भक्तिमद्भय:
।ततश्च तयोर्दोपत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत् किमुत् पित्रादीनाम् तदेवमानन्दितसर्वजन: पर्जन्यस्वमपि सुखमनुभूय श्रीगोविन्दपदारविन्दभजनमात्रान्वितां देहयात्रामभीष्टां मन्यमान: सर्वज्यायसे सुताय स्वकुलतिलकतां दातुं ।श्रीवसुदेवादिनरदेव गर्गादिभूदेवकृत प्रभायां सभायां स्वजनाहूतवान्।
स च ज्यायांस्तत्र सदसि मध्यं निजानुजं नन्दनामानं पितुराज्ञया कृतकृत्य: सन् गोकुलराजतया  सभाजयामास अत्र संकुचिते तत्रानुजे सविस्मये सर्वजने पितरिक्षेत्रमानलोचने स च चोवास स्नेहसद्गुणपराधीनेनाचरितमिति राजायमास्माकम्। ततो देवेैस्तदोपरि पुष्पवृष्टिकारि सदस्यैश्च ततोऽसौ पर्जन्य: श्रीगोविन्दमाराधियतुं सभार्यो वृन्दावनं प्रविवेश ।
"अर्थ"-"जो निश्चय ही अपने गुणों  से स्वजनों को वश में करने वाली, और यश देने वाली थीं। 
सुनने वालों के द्वारा और देखने वालों के द्वारा और भक्ति करनेवालों के द्वारा उसके क्या कहने! दूसरे शब्दों देखने सुनने वालों के द्वारा यशोदा की नाम और गुण के आधार सार्थकता सिद्ध हेतु इन लोगों द्वारा प्रशंसा की गयी । जब यशोदा का आगमन पर्जन्य के घर पुत्रवधू के रूप में हुआ; तो पर्जन्य की सभी सन्तानों (अपत्यों) में ही सुख सम्पदा वृद्धि हुई थी। (और एक पिता के लिए इससे बढ़़कर क्या उपलब्धि थी अर्थात् यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी।यशोदा नन्द के घर आने पर सब लोग आनन्दित थे।और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके  प्रभु के चरण-कमलों में ध्यान लगाने वाले हो गये और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढ़ाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को सभा में आमन्त्रित किया ।उस  सभा में उपनन्द के द्वारा मझले अर्थात् अपने से छोटे भाई जिनका नन्द नाम था ; उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति सभा में ही नियुक्त कर दिया। तब संकोच करते हुए नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये। अर्थात राजपद करते समय नन्द थोड़ा संकोच करने लगे। स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं ; यह कहते हुए तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की ।और उसके बाद  पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए उस सभा को सम्पन्न कर; वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
(अध्याय एक दशम स्कन्ध पूर्वार्द्धे " श्रीमद्भागवत वंशीधरी" टीका पृष्ठ-संख्या (१६२४)
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तत्काले शास्त्रसारं पृच्छत: पुत्रानुपदिदेश ।तथाहि–किं भयमूलमदृष्टं किं शरणं श्रीहरेर्भक्त: किं प्रार्थे तद्भक्ति: किं सौख्यं तत्परप्रेम। इति " श्रीमानुपनन्द: श्रीनन्दमहेन्द्रसदसि मन्त्रितया तस्थिवान् । तस्य च नन्दराजस्य श्रीगोलोकेशश्श्रीकृष्णो द्वादशीव्रतचर्यातुष्ट: पुत्रतामत्रापेति । इत्थं नन्दगोपकुलं यदुकुलमिति।)
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"अर्थ"- उस काल में ही  शास्त्रों के सार का    पर्जन्य ने अपने सभी  पुत्रों को उपदेश दिया ।
जीवन में भय का मूल  कौनसा अदृश्य तत्व है;  हरि के भक्त किसकी प्रार्थना अथवा भक्ति करे  कि उनका संसार भय से निवारण हो- है । और सुखी होने के लिए किस प्रकार प्रेम भाव की तत्परता है हो । आदि आध्यात्मिक और भक्ति मूलक सिद्धान्तों की पर्जन्य जी द्वारा व्याख्या  की गयी। इस प्रकार का पर्जन्य के द्वारा उपदेश - काल में श्रीमान उपनन्द और "श्रीमान नन्द आदि सभी व्रज मण्डल की सभा में मन्त्रियों के साथ खड़े हुए थे । और उस नन्द के राज्य में गोलोक के स्वामी अर्थात श्रीकृष्ण के मूलरूप विष्णु ने पर्जन्य के द्वादशी व्रत की चर्या (साधना) से प्रसन्न होकर पर्जन्य को पुत्ररत्न के रूप में इन उपनन्द' नन्द आदि पुत्रों को प्राप्त कराया। 
इस प्रकार यह नन्द का सम्पूर्ण परिवार ( समुदाय/ कुल ) वास्तव में यदुवंश का ही रूप है।
दूसरे शब्दों नन्द का कुल यदुवश से सम्बन्धित  था ।(इत्थं नन्दगोपकुलं यदुकुलमिति)।
संक्षेप में नन्द गोप कृष्ण को रक्तसम्बन्धी थे। अथवा सनाभि थे -एक ही पूर्वज से उत्पन्न पुरुष। सपिंड पुरुष
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सन्दर्भ:-(श्रीमद्भागवत पर आधारित वंशीधरी टीका दशम् स्कन्द पूर्वार्द्ध प्रथम अध्याय- पृष्ठ  संख्या -१६२५)
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     (अध्याय-पञ्चदश)

अग्रलिखित सन्दर्भों में हम  चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य " श्री गोपालचम्पू" में वर्णित नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन प्रस्तुत करेंगे।
यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है । निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-____________________________________
                    (अथ कथारम्भ:) 
"यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य  वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास । तस्य चार्याणां  शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति ।तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं  पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति । तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म । श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार । स चार्य  बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशांवतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।।
र्थ-• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; उन्हीं  क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो मुख्य पत्नीयाँ थीं , पहली  (पत्नी) क्षत्रिय वर्ण की,और  दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ; उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन( स्वीकार) कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो- प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे ।
और वे बाल्यकाल से ही ब्रह्मवेत्ता  ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे; वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था।  
★-अवतन्स= (अव--तन्स--घञ् )। १ कर्णपूरे, २ शिरोभूषाभेदे च । अवतन्स एक आभूषण भेद है यह शिरोमणि का वाचक है।
विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे; इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।
तथा च मनुस्मृति:-(१०/१५)-ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतोनाम जायते। आभीरोऽ म्बष्ठकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण:।। इति।। अम्बष्ठस्तु विश: पुत्र्यां ब्राह्ममणाज्जात उच्यते। इति चान्यत्र । अत: पाद्मे सृष्टि खण्डादौ यज्ञं कुर्वता ब्रह्मणापि आभीरपर्याय-गोपकन्याया: पत्नीत्वेन स्वीकार: प्रसिद्ध: । एष एव च गोप वंश:श्रीकृष्णलीलायां सवलनमाप्स्यतीति; सृष्टि खण्ड एव तत्र स्पष्टीकृतमस्ति । तस्मात् परमशंसनीय एवासौ वैश्यान्त:पाति महा-आभीर द्विज वंश: इति।।२४।।
यद्यपि चम्पूकार मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों को उद्धृत करते हैं जिनका खण्डन हम पूर्व में ही शास्त्रीय पद्धति से कर चुके हैं।
अर्थ•-इस विषय में मनुस्मृति भी कहती है। यथा (10/15) कि क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न  कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अम्बष्ठा के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं।
उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ  होता है ।
अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। 
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ में स्वयं हरि भगवान विष्णु ने अहीरों के कुल में अवतरण होने का वरदान दिया जिसका ब्रह्मा जी ने भी समर्थन किया। इस बात को चम्पूकार ने उद्धृत नहीं किया।★
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ताचैषा विरञ्चये।१५।
अनया आभीरकन्याया तारितोगच्छ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
अनुवाद-भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा  यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा  ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
_______________ऊं________________
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इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
_______________ऊं________________
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।
_______________ऊं________________
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।
_______________ऊं________________
उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा  उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।
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गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्  दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
अनुवाद-
आये हुए सभी गोपों ने ब्रह्मा के समीप गायत्री को देखकर उस मेखलाबँधी हुई यज्ञ के समीप में 
"हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
अनुवाद-हाय पुत्री इस प्रकार तब माता- पिता बहिन- बन्धु और उसकी सभी सखीयों ने कहा हाय सखी 
"केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी शाटीं  निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
अनुवाद-हे सखी तुम यहाँ किस के द्वारा लायी गयी हो और महावर ( लाक्षा) के द्वारा अंकित सुन्दर साड़ी से सजा दी गयी हो और तुम्हारी कम्बली को किसके द्वारा हटा दिया गया है ।
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केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
अनुवाद-किस के द्वारा तुम्हारी यह चोटी लाल धागे में बाँधी गयी है; इस प्रकार के उन आये हुए अहीरों के  विधान वाक्यों को सुनकर स्वयं हरि भगवान विष्णु बोले-
               (स्वयं हरिर् उवाच)
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
अनुवाद-स्वयं भगवान विष्णु ने कहा ! यहाँ यह कन्या हमारे द्वारा लायी गयी है  ! ब्रह्मा की पत्नी बनाने के लिए , यह बाला अब ब्रह्मा पर आश्रिता है इसलिए यहाँ अब तुम सब कोई प्रलाप ( दुःखपूर्ण रुदन) मत करो ।११।
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पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनन्दिनी पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
अनुवाद-यह कन्या पुण्यों वाली ,सौभाग्य वती और सब प्रकार से कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यों वाली न होती तो यह कैसे इस ब्रह्मा की सभा में आती ।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
अनुवाद-इस प्रकार जानकर महाभाग ! तुम सब शोक करने के योग्य नहीं हो  यह कन्या महाभाग्यवती है इसने देव ब्रह्मा को पति रूप में प्राप्त किया है ।१३।
"योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
अनुवाद- हे आभीरों ! इस कन्या ने वह गति प्राप्त की है ; जिसे ,योग में लगे हुए योगी, वेदों के पारंगत ब्राह्मण भी प्रार्थना करते हुए प्राप्त नहीं करते हैं ।
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धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम् मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चयेे।१५।
अनुवाद-धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल इस कन्या और आप सबको  जानकर ही मैने  ब्रह्मा को पत्नी रूप में  इस कन्या का दान किया है ।१५।
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इसी क्रम में विष्णु का गोपों को' उनके यदु के वृष्णि कुल में अवतार लेने  का वचन देना-
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अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अनुवाद –इस कन्या के द्वारा स्वर्ग को गये हुए महोदयगण तार दिए गये हैं ‌। (युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये)= और तुम्हारे कुल में भी देव कार्य की सिद्धि के लिए (अवतारं करिष्येहं)=मैं अवतरण करुँगा। 
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-अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद –मैं अवतरण करुँगा वह लीला भविष्य में होगी जब नन्द आदि भी पृथ्वी पर अवतरण करेंगे।१७।
-करिष्यंतितदाचाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः युष्माकंकन्यकाःसर्वा वसिष्यंतिमयासह।१८।
अनुवाद-आप लोगों के मध्य में रहकर मैं अनेक लीला करूँगा  और तुम्हारी कन्याऐं सभी मेरे साथ निवास करेंगीं ।१८।
देखें स्कन्दपुराण नागर खण्ड-
"तेनाकृत्येऽपि रक्तास्तेगोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ।
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः॥१४॥_
"सात्वतीयटीका-
तेन-=उस कृष्ण रूप के द्वारा अकृत्येऽपि- =( विना कुछ करते हुए भी) अर्थात न करने पर भी  रक्तास्ते-=तेरे रक्त( जाति)वाले गोपा=-  गोपगण.यास्यंति श्लाघ्यताम् =-प्रशंसा को प्राप्त करेंगे  सर्वेषामेव लोकानां =-समस्त लोकों में, देवानां च विशेषतः-= विशेषकर देवताओं में भी।१४।
 इस प्रकार वे गोप कुछ न करते हुए भी =  (अकृत्येऽपि) तेरी जाति वाले =(रक्तास्ते) प्रशंसा को प्राप्त करेंगे= यास्यंति श्लाघ्यताम्  ।१४। 
यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवा नराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति।१५॥
और जहाँ जहाँ भी मेरे गोप वंश में मनुष्य निवास करेंगे वहाँ वहाँ लक्ष्मी का निवास होगा भले ही वह  जंगल क्यों ही नहों।१५। 
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः।१७।
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इसी प्रकार स्कन्दपुराण नागर खण्ड में विष्णु का गोपों में अवतार लेने का वर्णन है।
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥
तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति॥११॥
तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि॥
यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः
तत्र त्वं पावनार्थायचिरं वृद्धिमवाप्स्यसि॥१२॥
एकःकृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः
तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्यसारथ्यंत्वं करिष्यसि।१३।
तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः॥१४ ॥
 च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५।
इतिश्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यांसंहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥१९३॥
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-तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।अनुवाद-वहाँ कोई दोष  नहीं होगा और ना ही द्वेष और ईर्ष्या कोई करेगें  वहाँ गोप मनुष्य भी कोई भय नहीं करेंगे-।१९।
-न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित् श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
अनुवाद-और न इसमें कर्म के द्वारा  कोई दोष होगा !  तब विष्णु का वचन सुनकर और  विष्णु भगवान को प्रणाम करके सभी आभीर( गोप) चले गये।२०।
-एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
अनुवाद-इस प्रकार यह वरदान जो दिया है वह निश्चय ही मेरा वरदान होगा। हे प्रभु ! आप  हमारे कुल में धर्म को साधने के लिए अवतरण करने योग्य ही है ।२१।
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-भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
अनुवाद-हे प्रभु ! आपके दर्शन से ही  हम सब लोग । स्वर्ग केेेे निवासी हुए हैं ; और शुभ ही शुुभ देेेेने वाली ये कन्या , साथ ही हम अहीरों के कुल (वंश) का भी तारण करने वाली हुई।२२।
-एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
अनुवाद- देवों के ईश्वर विभो ! तुम्हारा वरदान ऐसा ही हो ! (अनुनीता:- कृतानुनये यस्य सान्त्वनार्थं विनयादिकं क्रियते तस्मिन् अनुनीता:) अर्थात् गोपों को सान्त्वना देते हुए विनययुक्त स्वयं देव विष्णु के द्वारा इसका अनुमोदन किया गया।२३।
★-अनुनीत-विनयपूर्वक सत्कार जिनका किया गया वे गोप।
ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्।त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
अनुवाद-ब्रह्मा जी के द्वारा भी ऐसा ऐसा ही हो ! अपने बायें हाथ के द्वारा सूचित करते हुए कहा ; वह उत्तम कन्या अपने बान्धवों को देखने पर लज्जा युक्त होगयी।२४।
गोपालचम्पूकार के अनुसार- इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा-आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।। 
यद्यपि न तो अम्बष्ठ ही वैश्य होते हैं और न ही अभी गोपों की उत्पत्ति ब्राह्मणपुरुष और अम्बष्ठा स्त्री से ही हुई है । ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ जो वेदों की अधिष्ठात्री देवता है ।  यह सतयुग की घटना है जब कोई वर्णसंकर जाति नहीं थी।गोपों की उत्पत्ति विष्णु भगवान के रोमकूपों से हुई है । यह भी शास्त्रों में ही वर्णित है। और गायत्री का जन्म मनु से पूर्व सप्तर्षियों से पूर्व हुआ था। यह भी पद्मपुराण सृष्टिखण्ड'स्कन्दपुराण लक्ष्मीनारायणी संहिता और नान्दि आदि पुराणों में वर्णित ही है।
गायत्री माता को देवीभागवतपुराण में यदुवंश-समुद्भवा कहा गया है ।
हम आपको मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण  से कुछ सन्दर्भ देते हैं जो दुर्गा को यादव या अहीर कन्या के रूप में वर्णन करते हैं...
देखें निम्न श्लोक ...
 नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका ।
 नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया।८१।
देवीभागवतपुराण-स्कन्धः १२-अध्यायः६
उपर्युक्त श्लोक में नन्द जी की प्रिय पुत्री होने से नन्दप्रिया दुर्गा का ही विशेषण है ...
नन्दजा नवरत्‍नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।
नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिःस्वना।८६।
उपर्युक्त श्लोक में भी नन्द की पुत्री होने से दुर्गा को नन्दजा (नन्देन सह यशोदायाञ्जायते  इति नन्दजा) कहा गया है ..
यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी।
यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्‍भवा॥१३१॥
श्रोत-:-  इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे गायत्रीसहस्रनामस्तोत्रवर्णनं नाम अध्यायः।६
 ~देवीभागवतपुराणम्-स्कन्धः१२ अध्यायः६।
उपर्युक्त श्लोक में दुर्गा देवी यदुवंश में नन्द आभीर के  घर  यदुवंश में जन्म लेने से (यदुवंशसमुद्भवा) कहा है जो यदुवंश में अवतार लेती हैं 
नीचे मार्कण्डेय पुराण से भी श्लोक उद्धृत हैं
जिनमे दुर्गा को यादवी कन्या कहा है:-
यद्यपि गायत्री और दुर्गा वैष्णवी शक्तियाँ हैं जो आलौकिक दृष्टि से अभिन्न हैं।

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भोनिशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येतेमहासुरौ।३८।नन्दगोपगृहेजातायशोदागर्भसम्भवा।ततस्तौनाशयिष्यामिविन्ध्याचलनिवासिनी।३९।

श्रीमार्कण्डेयमहापुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहत्म्ये देवैः कृता नारायणो स्तुतिर्नामैकनवतितमोऽध्यायः।९१।मार्कण्डेयपुराण-अध्यायः ।९१।

अट्ठाईसवें युग में वैवस्वत मन्वन्तर के प्रगट होने पर जब दूसरे शुम्भ -निशुम्भ दैत्य उत्पन्न होंगे तब मैं नन्द गोप के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर उन दोनों(शुम्भ और निशुम्भ) का नाश करूँगी और विन्ध्याचल पर्वत पर रहूंगी।
मार्कण्डेय पुराण के मूर्ति रहस्य प्रकरण में आदि शक्ति की छः अंगभूत देवियों का वर्णन है उसमें से एक नाम नंदा का भी है:-
इस देवी की अंगभूता छ: देवियाँ हैं –१- नन्दा, २-रक्तदन्तिका, ३-शाकम्भरी, ४-दुर्गा, ५-भीमा और ६-भ्रामरी. ये देवियों की साक्षात मूर्तियाँ हैं, इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने से इस प्रकरण को मूर्तिरहस्य कहते हैं...
दुर्गा सप्तशती में देवी दुर्गा को स्थान- स्थान पर नंदा और नंदजा कहकर संबोधित किया है जिसमे की नंद -आभीर की पुत्री होने से देवी को नंदजा कहा है-"नन्द आभीरेण जायते इति देवी नन्दा विख्यातम्"
                  ऋषिरुवाच
नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा।
सा स्तुता पूजिता ध्याता वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥१॥
"श्रीमार्कण्डेय पुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये-मूर्तिरहस्यं"
अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् ! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली है, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं|
"जिसे पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में गोप" आभीर और और यदुवंश समुद्भवा कहा गया है । फिर तो यहाँ गोपालचम्पू की बातें अधूरी और असंगत ही हैं। कि गोप वैश्य होते हैं।  
अथ स्निग्धकण्ठेन चान्तश्चिन्तितम्-"एवमपि केचिदहो एषां द्विजतायां सन्देहमपि देहयिष्यन्ति- ये खलु श्रीमद्भागवते ( १०/८/१०) कुरु द्विजातिसंस्कारम् इति गर्ग प्रति श्रीव्रजराजवचने ( भागवत-पुराण-१०/२४/२०-२१)वैश्यस्तु वार्तया जीवेत्' इत्यारभ्य कृषि, वाणिज्य-गोरक्षा, कुसीदं तुर्यमुच्यते। वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।। इति व्रजराजं प्रति श्रीकृष्णवचने, तथैव, (भा०१०/४६/१२) अग्न्यर्कातिथिगो-विप्र' इति श्रीशुककृत-गोपावासवर्णने, व्यतिरेकस्तु धर्मराजचपतायामपि विदुरस्य शूद्रगर्भोद्भवतयान्यथाव्यवहार श्रवणेऽप्यधिकं वधिरायिष्यन्ते" इति  ।२५।।
अर्थ-• तदनंतर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी  द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि ,वाणिज्य ,गोरक्षा और कुसीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री शुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है !
इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज पद में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।  
संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।
अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।।              अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई !  मधुकण्ठ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।
मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा:सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।। 
अर्थ• मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों को आप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर' गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।
अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी  अधिक नाना(मातामह)  के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी  उपाध्याय के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे। उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या  स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।
अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने  जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)
अन्यस्तु  जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु।      सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।
पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत:।।२८।।
अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि  पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर  भूतल पर देखा जाता है ।
किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।
(उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु:पञ्चैवमूर्तय:। यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।।२९।।
अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि  पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९। 
उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोऽभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३०।।
अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।
मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ? तदनंतर उन दोनों के सुयोग्य  दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की  सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्तिका कौन वर्णन कर सकता है।३६।
तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।।
अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए  सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ
उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 
" स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।
अर्थ•-पश्चात  उन श्री उपनन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे  इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।
अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक  पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। 
तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 
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योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।  
अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है । दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो ।
तात्पर्य- ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।६५।।
गर्ग उवाच–भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।
अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।
व्रजराज उवाच- भवेदेवं किन्तु क्वचित्सर्गो ।प्यपवादवर्ग बाधतेऽधिकारिविशेषश्लेषमासाद्य।यथैवाहिंसानिवृत्तकर्मणि बद्धश्रद्धं प्रति यज्ञेऽपि पशुहिंसां तस्माद्भवतां ब्राह्मण-भावादुत्सर्गसिद्धा 
गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।।
अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे  अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है।         
अत:आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेषहित कर कार्य कर देंगे।६७।
(श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय)  कोश-ग्रन्थों में अम्बष्ठ का अर्थ- 
अम् +क्विप् =अम्रोग:- ब=वरुणनाम्नाचिकिसतसया देव:+ स्थ = तिष्ठन्ति । अम: निदानानय बं वरुणं ध्याने तिष्ठन्ति योऽम्बष्ठ: कथ्यते।
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अम्बष्ठ] [स्त्री० अम्बष्ठा] १. एक देश का नाम पंजाब के मध्य भाग का पुराना नाम था अंबष्ठ देश में बसनेवाला मनुष्य। ३. ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न एक जाति। इस जाति के लोग चिकित्सक होते थे। ४. महावत। हाथीवान। फीलवान। हस्तिपक। ५. कायस्थों का एक भेद
अम्बष्ठ गण (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व) चिनाब और सिन्धु नदी के आस-पास रहते थे। इनका निवास विशेष रूप से भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र था। सिकंदर ने जब पंजाब पर आक्रमण किया, तब अम्बष्ठ गण अपना क़बाइली जीवन सुचारु रूप से जी रहे थे। इनका, चिनाब और सिन्धु के उत्तरी हिस्से में रहने का उल्लेख सिकंदर के आक्रमण के समय का ही मिलता है। यह वह स्थान था, जो इन नदियों के संगम स्थल से उत्तर में पड़ता था। इनका उल्लेख 'अम्बष्ठनोई' भी मिलता है किन्तु यह नाम यूनानी इतिहासकारों का दिया हुआ है। यूनानियों द्वारा संस्कृत भाषा के अम्बष्ठ को ज्यों का त्यों लिख-बोल न पाने के कारण यह नाम बदल गया। संस्कृत भाषा के जिन ग्रंथों में इनका उल्लेख मिलता है, उनमें प्रमुख हैं-"ऐतरेय ब्राह्मण"महाभारत"बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र आदि ।'बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र' (टॉमस, पृ. २१) में अंबष्ठों के राष्ट्र का वर्णन कश्मीर, हूण देश और सिन्ध के साथ है।अलक्षेन्द्र के आक्रमण के समय अंबष्ठनिवासियों के पास शक्तिशाली सेना थी। टॉलमी ने इनको अंबुटाई कहा है। सिकन्दर के इतिहास से सम्बन्धित कतिपय ग्रीक और रोमन लेखकों की रचनाओं में भी अंबष्ठ जाति का वर्णन हुआ है। दिओदोरस, कुर्तियस, जुस्तिन तथा तालेमी ने विभिन्न उच्चारणों के साथ इस शब्द का प्रयोग किया है। प्रारम्भ में अंबष्ठ जाति युद्धोपजीवी थी। सिकन्दर के समय (३२७ ई. पू.) उसका एक गणतन्त्र था और वह चिनाब के दक्षिणी तट पर निवास करती थी। आगे चलकर अंबष्ठों ने सम्भवत चिकित्साशास्त्र को अपना लिया, जिसका परिज्ञान हमें 'मनुस्मृति' से होता है। परन्तु मनुस्मृति प्रमाणित ग्रन्थ नहीं है। महाभारत में अम्बष्ठों का वर्णन-
"पृष्ठे कलिङ्गा:साम्बष्ठा मागधा: पौण्ड्रमद्रास: ।  गान्धारा:शकुना:प्राच्या: पर्वतीयावसातय:।      अर्थ •-पृष्ठभाग में कलिंग ,अम्बष्ठ ,मगध, पौण्ड्र, मद्रास, गन्धारा: शकुन वीर तथा पूर्वदेश के और वसाति' आदि देशों के वीर थे।।१०-१/२।।
         (द्रोण पर्व बीसवाँ अध्याय)
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वशातय: शाल्वका: केकयाश्च.                      तथाम्बष्ठा ये त्रिगर्ताश्च मुख्या:।।२३।। 
प्राच्योदीच्या दाक्षिणात्याश्च शूरास्तथा            प्रतीच्या: पर्वतीयाश्च  सर्वे।                    अनुशंसा: शीलवृत्तोपपन्नास्तेषां                    सर्वेषां कुशलं सूत पृच्छे:।।२४।      
 (महाभारत उद्योगपर्व तीसवाँ अध्याय-३०).  
अर्थ•- दुर्योधन ने हम पाण्डवों के साथ युद्ध करने के लिए  जिन जिन राजाओं को बुलाया है वे ,वशाति, शाल्व ,केकय ,अम्बष्ठ, यौद्धा  तथा त्रिगर्तदेश के ये प्रधान वीर ही हैं पूर्व,  उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशा के शौर्य सम्पन्न योद्धा तथा समस्त पर्वतीय राजा वहाँ उपस्थित हैं वे लोग दयालु और शील तथा सदाचार से सम्पन्न हैं। संजय ! तुम मेरी ओर से उन सबका कुशल-मंगल पूछना।।२३-२४।      
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराटं मत्स्यमार्च्छताम्।
सहसैन्यौसहानीकंयथेन्द्राग्नी पुरा बलिम।20।
अर्थ•- अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द ने अपनी सेनाओं को साथलेकर विशाल वाहिनी सहितमत्स्यराज विराटपर उसी प्रकार आक्रमण किया।जैसे पूूूूव काल में अग्नि और इन्द्र ने बलि पर किया था
तदुत्पिञ्जलकं युद्धमासीद्देवासुरोपमम्।
मत्स्यानांकेकयैःसार्धमभीताश्वरथद्विपम्।21। 
अर्थ •-उस समय मत्स्यदेशीय सैनिकोंं ये कैकयीदेशीय यौद्धाओं के साथ देवासुर संग्राम के समान अत्यन्त घमासान युद्ध हुआ उसमें सभी निर्भीक होकर हाथी ,घोड़े रथसे युक्त एक दूसरे से लड़रहे थे।
श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि
द्वादशदिवसयुद्धे पञ्चविंशोऽध्यायः||25||
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आगे द्रोण पर्व में आभीर शूरमाओं का वर्णन किया गया है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे ।   
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्। कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६।   
शका यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।         ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।७।गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिताः।।                      (द्रोणपर्व बीसंवाँ अध्याय)
 यहाँ पारिपात्र निवासी वीरों का भी वर्णन है।
पूर्व्वदेशादिकाश्चैव कालरूपनिवासिनः।
पुण्ड्राःकलिङ्गा मगधादक्षिणात्याश्च सर्व्वशः।15 ।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभोरास्तथार्ब्बुदाः।
कारूषा माल्यवांश्चैवपारिपात्रनिवासिनः।16।

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।
मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।17।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा ह्टष्टपुष्टजनाकुलाः ।18 ।
(विष्णु पुराण द्वितीयाँश अध्याय तीन शूराभीर वर्णन
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महाभारत के सभापर्व के (३१)वें अध्याय में मत्स्य ( मीना) क्षत्रियों का वर्णन भी हुआ है ।
सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम् ।          तथैवापर मत्स्यांश्च व्यजयत् स पटच्चरान् ।४।  अर्थ•- इसके बाद राजा सुकुमार और सुमित्र को (सहदेव) ने वश में किया। इसी प्रकार मत्स्यों और पटच्चरों पर भी विजय प्राप्त की।४।
दशार्णान्स जित्वाचप्रतस्थे पाण्डुनन्दनः।शिबींस्त्रिगर्तानम्बष्ठान्मालवान्पञ्चकर्पटान्।7। 
अर्थ •- तत्पश्चात दशार्ण देशों पर विजय प्राप्त करके पाण्डुनन्दन नकुल ने शिबि ,त्रिगर्त, अम्बष्ठ मालव,पञ्चकर्पट ,एवं माध्यमिक देशों को प्रस्थान किया और उन सबको जीतकर वाटधानदेशके क्षत्रियों को भी हराया ।७-१/२(महाभारत सभापर्व)
गीताप्रेस के संस्करण में( ३२)वाँ अध्याय का सप्तम श्लोक 
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शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम्।    वर्तयन्तिच ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः।2-35-10
अर्थ•-समुद्र के किनारे पर रहने वाले महाबली ग्रामीण  सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले शूर -आभीर गण मत्यस्यगण (मीणा) के पास रहने वाले और पर्वतवासी इन सबको नकुल ने वश में कर लिया ।९-१०।   वर्तमान प्रतियों में किस प्रकार शूर को शूद्र बना दिया गया है।               ____________________________________
त्रीणि सादिसहस्राणि दुर्योधनपुरोगमाः।
शककाम्भोजबालह्लीका यवनाःपारदास्तथा।१३।
कुलिन्दास्तङ्कण अम्बष्ठाः पैशाचाश्च सबर्बराः।
पार्वतीयाश्च राजेन्द्र क्रुद्धाः पाषाणपाणयः।१४।
अभ्यद्रवन्त शैनेयं शलभाः पावकं यथा।।
(द्रोणपर्व का  १२१वाँ अध्याय)
अम्बष्ठ गण (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व) चिनाब और सिन्धु नदी के आस-पास रहते थे।
इनका निवास विशेष रूप से भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र था। सिकन्दर ने जब पंजाब पर आक्रमण किया, तब अम्बष्ठगण अपना क़बाइली जीवन सुचारु रूप से जी रहे थे। इनका, चिनाब और सिन्धु के उत्तरी हिस्से में रहने का उल्लेख सिकन्दर के आक्रमण के समय का ही मिलता है। यह वह स्थान था, जो इन नदियों के संगम स्थल से उत्तर में पड़ता था।
इनका उल्लेख 'अम्बष्ठनोई' भी मिलता है किन्तु यह नाम यूनानी इतिहासकारों का दिया हुआ है।
यूनानियों द्वारा संस्कृत भाषा के अम्बष्ठ को ज्यों का त्यों लिख-बोल न पाने के कारण यह नाम बदल गया। संस्कृत भाषा के जिन ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है, उनमें प्रमुख हैं-                  
ऐतरेयब्राह्मण, महाभारत और बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र।आदि हैं ।
अम्बष्ठ गण प्रारम्भिक समय में अपनी जीविका के लिए युद्धों पर निर्भर थे। इसलिए इन्हें एक युद्ध-प्रिय जाति माना गया है । कालान्तर में इन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों को अपनाया। धीरे-धीरे खेती को अपना कर इन्होंने स्वयम् को कृषक जाति के रूप में भी पारंगत कर लिया। वैद्यों के उल्लेख भी अम्बष्ठों के पाए जाते हैं। अम्बष्ठों ने जिस प्रकार समय-समय पर अपनी जीवन शैली को बदला वह बहुत विचित्र लगता है। लेखक का मत है कि देवमीढ़ की दो पत्नियाँ विशेष थीं एक चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती और दूसरी अशमक की पुत्री अश्मिका और गुणवती के पर्जन्य आदि तीन पुत्र हुए ।
महाभारतअनुशासन पर्व में वर्णन है कि।👇
तिस्र:क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का ही होता है ।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या( ५६२४) गीता प्रेस का संस्करण)
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अब प्रश्न यह भी उठता है  !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं । कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह  वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते ।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।।
(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व) वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान  होंगी  वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि 
तिस्र:क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है । तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
गोपों को गर्गसंहिता और ब्रह्मवैवर्तपुराण में विष्णु के शरीर से उत्पन्न बताया।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः । ४४ ।।
बलीवर्दाः सुरभ्यश्च वत्सा नानाविधाः शुभाः ।।
अतीव ललिताः श्यामा बह्व्यो वै कामधेनवः।४५।
तेषामेकं बलीवर्दं कोटिसिंहसमं बले ।
शिवाय प्रददौ कृष्णो वाहनाय मनोहरम् ।४६ ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५ ।
और दूसरी बात कि गोप क्षत्रियत्व से पूर्ण थे।           
जैसा कि पुराणों में वर्णन है:-राजा नाभाग के वैश्य होने के विषय में (विशेष नाभाग सूर्यवंशी राजा दिष्ट के पुत्र थे)
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"मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए । वर्णित है अर्थात् ( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि  ) हे राजन् आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।
"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।तवापि वैश्येनसह न युद्धं धर्मवन्नृप।30।
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उपर्युक्त श्लोक जो  मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता ।अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है ।
तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे तो वे वैश्य कहाँ हुए ? और इसके अतिरिक्त भी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपना पुरुषार्थ परिचय देते हुए कहा था जब
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;
तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
परन्तु आज कृष्ण से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया । ये भूत या पिशाच जनजाति के लोग थे 
यही आज भूटानी कहे जाते हैं ।वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था। ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे।क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय देते हुए कहा कि शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय होने से मैं  क्षत्रिय हूँ । तब पिशाच और जिज्ञासा पूर्वक पूँछता है ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टःपिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः।9।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ । उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
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क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः
यदुवंशे समुत्पन्नःक्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः।3/80/10।
•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं 
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।10।
लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।3/80/11।
•-मैं तीनों लोगों का पालक 
तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं राजाओं के समक्ष उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ ,और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
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अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
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"अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।१८५.३२।
दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।१८५.३३
(ब्रह्मपुराण अध्याय १८५)
यदि कृष्ण शास्त्रों को आधार मानकर चलते तो गोपों की 'नारायणीसेना' का निर्माण क्यों करते ?____________________________________
महाभारत के द्रोण पर्व के उन्नीसवें अध्याय में वर्णन है नारायणी सेना के( शूरसेन वंशी आभीर ) और शूरसेन राज्य के अन्य  योद्धा अर्जुन के विरुद्ध लड़ रहे थे। महाभारत के द्रोण पर्व के संशप्तक वध नामक उपपर्व के उन्नीस वें अध्याय तथा बीसवे अध्याय में यह वर्णन है । और इस अध्याय के श्लोक ‌सात में गोपों की नारायणी सेना के योद्धा गोपों को अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए वर्णन किया है ।
अथ नारायणा:क्रुद्धा:विविधा आयुध पाणय:क्षोदयन्त:शरव्रातेै:परिवव्रुर्धनञ्जयम्।७।
अर्थ:-तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।   
और आगे के श्लोक में वर्णन है कि 
अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।              कृष्णेन सहितं युद्धे कुन्ती पुत्रं धनञ्जय ।८।।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।। 
और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छ: और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ;जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान् ।      कलिङ्गाः सिंहलाः पराच्याःशूर आभीरा दशेरकाः।६।।
शका यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।
गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिताः।।८।
(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय) अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।६-७ ।          
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)
महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और१९ पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है।
मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता:सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों के क्षत्रियत्व को प्रमाणित भी करती हैं ।
विदित हो कि नरायणी सेना और बलराम दुर्योधन के पक्ष में थे और तो क्या बलराम स्वयं दुर्योधन के गुरु ही थे । जैसा कि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड में वर्णन है
अथ कदाचित्प्राड्‌विपाको नाम मुनींद्रो।
योगीन्द्रो दुर्योधनगुरुर्गजाह्वयं नाम पुरमाजगाम ॥६॥
सुयोधनेन संपूजितः परमादरेण।
सोपचारेण महार्हसिंहासने स्थितोऽभूत् ॥७॥____________
इति श्रीगर्गसंहितायां बलभद्रखण्डे दुर्योधनप्राड्‌विपाकसंवादे
बलदेवावतारकारणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
प्राय:  कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा  भ्रान्त-मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए !
गोप सम्राट भी बनते थे।
गोपः कश्चिदमावास्यां दीपं प्रज्वाल्य शार्ङ्गिणः।
मुहुर्जयजयेत्युक्त्वा स च ।१३४।।
किसी  गोप ने  कार्तिक अमावस्या में  दीप जलाकर  शारङ्गिण भगवान विष्णु की बार-बार जय जय बोलने के द्वारा  राजेश्वर ( सम्राट) पद को प्राप्त किया था।
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★-राजेश्वर=राजाओं का राजा। राजेंद्र। महाराज। सम्राट ।
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इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे कार्तिकमासमाहात्म्ये दीपदानमाहात्म्यवर्णनंनाम सप्तमोऽध्यायः । ७ ।                          
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से यह श्लोक उद्धृत करते हैं _______________________________

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस:।          आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना:।४७।
अर्थात्  वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। 
अब इसी बात को  बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध पन्द्रह वें अध्याय  में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द  सम्बोधन द्वारा कहा गया है इसे भी देखें---____________________________________
"सोऽहं नृपेन्द्र रहित:पुरुषोत्तमेन सख्याप्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।        गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०।
अर्जुन ने गोपों को दुष्ट कहा जोकि युद्ध में क्रोध की भाषा है। जैसा कि लक्ष्मण को रावण अनार्य कहता है।
क्षत्रबन्धुं सदानार्यं रामः परमादुर्मतिः।            भक्तं भ्रातरमद्यैव त्वां द्रक्ष्यति मया हतम् । ६.८८.२४ । 
ब्रह्म पुराण में इसी प्रकरण के लिए आभीर और गोपाल शब्दों का समानार्थक प्रयोग है।अचिन्तयत्तु कौन्तेय कृष्णस्यैव हि तद्बलम्।यन्मया शरसङ्घातै: सबला भूभृतो जिता:।२५।
मिषत: पाण्डुपुत्रस्य ततस्ता: प्रमदोत्तमा:।अपाकृष्यन्त चाऽऽभीरै: कामाच्चान्या: प्रवव्रजु:।२६। ब्रह्म पुराण- अध्याय- (२१२)
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उपर्युक्त श्लोकों में वर्णन है कि कुछ यदुवंश की स्त्रियाँ अपनी इच्छा से ही अहीरों के साथ चली गयीं।
यहाँ यह विचारणीय है यदि आभीर जन विजातीय अथवा दूसरे कुल जाति के होते तो वे यदुवंश की कुछ स्त्रीयाँ अहीरों के साथ अपनी स्वयं की इच्छा से गयीं ।

वह्निना चाक्षया दत्ताः शरास्तेऽपि क्षयं ययुः।युध्यतः सह गोपालैरर्जुनस्याभवत्क्षः।२१२.२४।

अचिन्तयत्तु कौन्तेय कृष्णस्यैव हि तद्‌बलम्।यन्मया शरसंघातैः सबला भूभृतो जिताः।२१२.२५ ।।
मिषतः पाण्डुपुत्रस्य ततस्ताः प्रमदोत्तमाः।अपाकृष्यन्त चाऽऽभीरैः सह कामाच्चान्याः प्रवव्रजुः।२१२.२६ ।

आभीर का पर्यायवाची गोपाल शब्द भी प्रयुक्त हुआ है इसी अध्याय- २१२ के श्लोक में(४९) वें में-
"यस्यानुभावाद्भीष्माद्यैर्मय्य ग्नौ शलभायितम्।विना तेनाद्य कृष्णेन गोपालैरस्मि निर्जितः।। २१२.४९ ।।
उनके अभाव में मुझे यह धरती विगतयौवना" श्रीहीन, और कान्तिहीन प्रतीत हो रही है। जिन कृष्ण के प्रभावप्रताप से भीष्म आदि परमवीर मुझ अग्नि रूप में पतंगों जैसे प्रतीत हो गये थे । उन कृष्ण के न रहने पर गोपालों से मैं पराजित हो गया ।।४९।

यस्यानुभावाद्भीष्माद्यैर्मय्यग्नौ शलभायितम्।विना तेनाद्य कृष्णेन गोपालैरस्मि निर्जितः।२१२.४९ ।।
गणाडीवं त्रिषु लोकेषु ख्यातं यदनुभावतः।मम तेन विनाऽऽभीरैर्लगुडैस्तु तिरस्कृतम्। २१२.५० ।।
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(युद्ध काण्ड - अध्याय 88 का श्लोक 24) में जब रावण जब लक्ष्मण को अनार्य और अधम क्षत्रिय कहता है तब क्या लक्ष्मण वास्तव में अनार्य थे ? 
वास्तव में इस प्रकार के अपशब्द अथवा गालि क्रोध में युद्ध की भाषा है गोपों अथवा अहीरों को अर्जुन के द्वारा दुष्ट और पापी कहना भी इसी प्रकार क्रोध और विरोध की भाषा थी यथार्थ परक नहीं आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।
आवर्ततां कार्मुकवेगवाता हलायुधप्रग्रणा मधूनाम्।
सेना तवार्थेषु नरेन्द्र यत्ता ससादिपत्त्यश्वरथासनागा।३३।
अर्थ:- राजन् ! जिसके धनुष का वेग वायु-वेग के समान है वह सवारों सहित हाथी ,घोड़े रथ और पैदल सैनिकों से भरी हुई मथुरा-प्रान्त वासी नारायणी यादव गोपों की सेना सदा युद्ध के लिए तैयार हो आपकी अभीष्ट सिद्धि के लिए निरन्तर तत्पर रहती है !
 ( वनपर्व-3-185-33)(मुम्बई निर्णय सागर प्रेस में १८५वाँ अध्याय है )
गीताप्रेस की महाभारत प्रति में वनपर्व का मार्कण्डेय समस्या नामक उपपर्व का यह (१८३)वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (१४६३)-         
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान था।इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग    
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
"देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना।५२।
नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतांगत: ।       तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि
नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतां गत:।
भलन्दन:सुतस्तस्य वत्सप्रीतिर्भलन्दनात्।२३
वत्सप्रीते: सुत: प्रांशुस्तत्सुतं प्रमतिं विदु:।
खनित्र:प्रमतेस्तस्माच्चाक्षुषोऽथ विविंशति:। २४।
शब्दार्थ :- नाभाग:—नाभाग; दिष्ट-पुत्र:—दिष्ट का पुत्र; अन्य:—दूसरा; कर्मणा—वृत्ति से; वैश्यताम्—वैश्य-आश्रम; गत:—प्राप्त किया; भलन्दन:—भलन्दन; सुत:—पुत्र; तस्य—उसका (नाभाग का); वत्सप्रीति:—वत्सप्रीति; भलन्दनात्—भलन्दन से; वत्सप्रीते:— वत्सप्रीति से; सुत:—पुत्र; प्रांशु:—प्रांशु; तत्-सुतम्—उसका (प्रांशु का) पुत्र; प्रमतिम्—प्रमति; विदु:—जानो; खनित्र:—खनित्र; प्रमते:—प्रमतिसे; तस्मात्—खनित्र से; चाक्षुष:—चाक्षुष; अथ—इस प्रकार (चाक्षुष से); विविंशति:—विविंशति ।.
 दिष्ट का पुत्र नाभाग हुआ। यह नाभाग जो आगे वर्णित होने वाले नाभाग से भिन्न था, वृत्ति से वैश्य बन गया। नाभाग का पुत्र भलन्दन हुआ, भलन्दन का पुत्र वत्सप्रीति हुआ और उसका पुत्र प्रांशु था। प्रांशु का पुत्र प्रमति था, प्रमति का पुत्र खनित्र और खनित्र का पुत्र चाक्षुष था जिसका पुत्र विविंशति हुआ।
मनु का एक पुत्र ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय और तीसरा वैश्य बना। इससे नारद मुनि के इस कथन की पुष्टि होती है—यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यंजकम् (भागवत ७.११.३५)। यह कभी नहीं मानना चाहिए कि ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जन्मजात हैं।  ब्राह्मण क्षत्रिय बन सकता है और क्षत्रिय ब्राह्मण। इसी प्रकार ब्राह्मण या क्षत्रिय वैश्य बन सकता है और वैश्य ब्राह्मण या क्षत्रिय में बदल सकता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है (चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: )। अतएव कोई जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य नहीं बनता अपितु गुण से बनता है। चूँकि ब्राह्मणों की नितान्त आवश्यकता है अतएव हम कृष्णभावनामृत आन्दोलन में कुछ ब्राह्मणों को मानव समाज का मार्गदर्शन कराने के लिए प्रशिक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। चूँकि इस समय ब्राह्मणों की कमी है इसलिए मानव समाज का मस्तिष्क नष्ट हो चुका है। अब ब्राह्मणों के रूप में  पूर्वकाल के राक्षस ही अधिक हैं। चूँकि व्यावहारिक रूप में प्रत्येक व्यक्ति शूद्र है अतएव इस समय समाज को सही पथ का मार्गदर्शन कराने वाला कोई नहीं है जिससे जीवन की सिद्धि प्राप्त की जा सके।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०।  में  वर्णन है।-
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुःशापवशंगतः।        करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२ ॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥
अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥ अर्थ •-प्राचीन  समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदःपापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।        वासिता (मथुरा) नाम पुरी 
  •(उसके पिता का नाम मधु  था ) वह वरदान पाकर   पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।
स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।        निवेश्य राज्येमतिमान्कालेप्राप्ते दिवंगतः।५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयःपुरा ।५८ ॥अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।।    ____________________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥५९ ॥_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१ ॥      
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।    अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                      अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥६३॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव  को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई 
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति॥ ६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
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वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है । यह उपर्युक्त रूप में वर्णित है। पण्डित  वल्देव शास्त्री ने भागवत- टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१।
शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं).    _______________
(विष्णु पुराण पञ्चमाँश २४वाँ अध्याय)
कृष्णोऽपि घातयित्वारिमुपायेन हि तदूबलम् ।
जग्राह मथुरामेत्य हस्त्यश्वस्यन्दनोज्जवलम् ।५-२४-६।
आनीय चोग्रसेनाय द्रारवत्यां न्यवेदयत् ।
पराभिभवनिः शङ्क बभूव च यदोः कुलम्
 ५-२४-७।
बलदेवोऽपि मैत्रेय! प्रशान्ताखिलविग्रह-।
ज्ञातिसन्दर्शनोतूकण्ठः प्रययौ नन्दगौकुलम्। ५-२४-८।
-अनुवाद:-इस प्रकार कृष्णचन्द्रने उपाय-पूर्वक शत्रुको कंस को नष्टकर फिर मथुरा में आ उसकी हाथी, घोड़े और रथादिसे सुशोभित सेनाको अपने वशीभूत किया और उसे द्वारका में लाकर राजा उग्रसेन को अर्पण कर दिया । तबसे यदुवंश शत्रुओंके दमनसे निःशंक हो गया ।६-७॥
हे मैत्रेय ! इस सम्पूर्ण विग्रह के शांत हो जानेपर बलदेवजी अपने  जाति-बान्धवोंके दर्शनकी उत्कण्ठासे नन्दजीके गोकुलको गये ।८॥
ययातिशापाद् वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नुपैः।
 ५-२१-१२।
ययाति का शाप होनेसे यद्यपि हमारा यदु-वंश राज्यका अधिकारी नहीं है तथापि इस समय मुझ दास के रहते हुए राजाओं को तो क्या, आप देवताओं को भी आज्ञा दे सकते हैं।१२॥
भागवतपुराण में भी इसी प्रकार का श्लोक है।
विष्णुपुराण पञ्चमाञ्श 21 वाँ अध्याय का 12वाँ श्लोक।
आह चास्मान् महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययातिशापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने।१३।
आह—उसने (कृष्ण ने) कहा; च—तथा; अस्मान्—हमको; महाराज—हे महान् राजा; प्रजा:—आपकी प्रजा; च—भी; आज्ञप्तुम् अर्हसि—आदेश दें; ययाति—प्राचीन राजा ययाति द्वारा; शापात्—शाप से; यदुभि:—यदुओं के द्वारा; न आसितव्यम्— नहीं बैठना चाहिए; नृप:- राज; आसने—सिंहासन पर ।.
भगवान् ने उनसे कहा : हे महाराज, हम आपकी प्रजा हैं, अत: आप हमें आदेश दें। दरअसल, ययाति के शाप के कारण कोई भी यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकता।
उग्रसेन ने भगवान् से कहा होगा, “हे प्रभु! सिंहासन पर तो आपको बैठना चाहिए।” ऐसे कथन का अनुमान करते हुए ही भगवान् कृष्ण ने उग्रसेन से कहा होगा कि ययाति के पहले के शाप के कारण वैधानिक रूप से कोई यदुवंशी राजकुमार राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकता, अत: कृष्ण तथा बलराम उसके अयोग्य थे। वस्तुत:, उग्रसेन को भी यदुवंश का ही अंग माना जा सकता था  किन्तु पुराणकारों की यह बात सत्यविरुद्ध है। 
क्योंकि इसी क्रोष्टाकुल में शशबिन्दु और सहस्रबाहु जैसे सम्राट भी हुए हैं।
हरिवंश
हरिवंशपुराण १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ३६ 
क्रोष्टोः वंशवर्णनम्, पुरोहितगोत्रेण क्षत्रियस्य गोत्रस्य
             वैशम्पायन उवाच !

 पुत्रो वृजिनीवान्महायशाः ।
वृजिनीवत्सुतश्चापि स्वाहिः स्वाहाकृतां वरः।१ ।
स्वाहिपुत्रोऽभवद् राजा रुषद्गुर्वदतां वरः ।
महाक्रतुभिरीजे यो विविधैभूरिदक्षिणैः ।२ ।
सुतप्रसूतिमन्विच्छन् रुषद्गुः सोऽग्र्यमात्मजम्।
जज्ञे चित्ररथस्तस्य पुत्रः कर्मभिरन्वितः । ३ ।
आसीच्चैत्ररथिर्वीरो यज्वा विपुलदक्षिणः ।
शशबिन्दुः परं वृत्तं राजर्षीणामनुष्ठितः ।४ ।

वैशम्पायन कहते हैं - मैं तुम्हें क्रोष्टा के कुल का दूसरा पहलू बताता हूँ। इस  क्रोष्टा का वृजिनिवाण नाम का एक महान पुत्र था। इस पुत्र का भी एक पुत्र हुआ, उसका नाम स्वाही था।आत्मत्याग का अध्ययन करने वालों में वह सर्वश्रेष्ठ थे। यह स्वाही रुषद्गु नामक एक महान वक्ता का पुत्र था। सूक्त प्राप्त करने की इच्छा से इन यादव- ऋषियों ने अनेक यज्ञ किए जिनमें ब्राह्मणों को भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ। उस योग से उन्हें चित्ररथ नाम का एक प्रतापी पुत्र हुआ। वह एक शानदार काम था। उसके बाद उनका शशबिन्दु नाम का एक उदार पुत्र हुआ जो एक महान वीर और उदार दक्षिणा का हिस्सेदार था।

राज्यों में आने वाले महान संतों में उनका आचरण सबसे प्रमुख था। शशबिन्दु के पृथुश्रवा नाम का एक पुत्र था जो एक महापुरुष था।४।
इसके अतिरिक्त यदु के पुत्र और क्रोष्टा बड़े भाई सहस्रजित  की शाखा में सम्राट सहस्रबाहु अर्जुन हुआ था।  
नन्द और वसुदेव सजातीय थे यह बात हम पूर्ववर्ती अध्याययों में सिद्ध कर चुके हैं।
संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇
यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । इति मेदिनी कोष:)
परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया । और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं अहीर द्वेषीयों द्वारा सृजित की गयीं । अहीर शब्द ंसंस्कृत अभीर का प्राकृतरूप है आभीर इसीका  तथा समूहवाची रूप है।
जैसे - अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
"आभीर "अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें 
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍

अभीर:=
अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः={अभि + ईरः अच् }।सामने मुख करके गाय हाँकने वाला गोप- "गोपे जातिवाचकादन्तशब्दत्वेन ततः स्त्रियां ङीप् इति अभीरी । सन्दर्भ :- वाचस्पत्यम् संस्कृतकोश-

आभीरः= पुंल्लिगपद (आ =समन्तात् भियं= भयं राति = ददाति। रा =दाने आत इति कः ) गोपः । इत्यमरःकोश ॥ आहिर इति भाषा । 

अमरकोशः आभीर पुं। गोपालः समानार्थक:गोप,गोपाल,गोसङ्ख्य,गोधुक्,आभीर,वल्लव,गोविन्द,गोप -2।9।57।2।5

कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥
पत्नी : आभीरी
सेवक : गोपग्रामः
वृत्ति : गौः
:गवां_स्वामिः
पदार्थ-विभागः : वृत्तिः, द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः

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      (अध्याय-षोडश)

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में  नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। हरिवंश पुराण से हमने पूर्व में सन्दर्भ दिए हैं । अब देवीभागवत पुराण से पुष्टिकरण हेतु सन्दर्भ प्रस्तुत हैं।  
देवीभागवतपुराण– स्कन्धः४ अध्याय द्वितीय-(२)
कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणम्।
                     सूत उवाच
एवं पृष्टः पुराणज्ञो व्यासः सत्यवतीसुतः ।
परीक्षितसुतं शान्तं ततो वै जनमेजयम् ॥१॥
सूत जी बोले – हे मुनियों  पुराणवेत्ता वाणीविशारद सत्यवतीपुत्र महर्षि व्यास ने शान्त स्वभाव वाले परीक्षित्- पुत्र जनमेजय से उनके सन्देहों को दूर करने वाले वचन बोले ।।१=१/२।।
उवाच संशयच्छेत्तृ वाक्यं वाक्यविशारदः ।
                     व्यास उवाच !
राजन् किमेतद्वक्तव्यं कर्मणां गहना गतिः॥२॥
दुर्ज्ञेया किल देवानां मानवानां च का कथा।
यदा समुत्थितं चैतद्ब्रह्माण्डं त्रिगुणात्मकम् ॥३॥
कर्मणैव समुत्पत्तिः सर्वेषां नात्र संशयः ।
अनादिनिधना जीवाःकर्मबीजसमुद्‌भवाः।४।
नानायोनिषु जायन्ते म्रियन्ते च पुनः पुनः।
कर्मणा रहितो देहसंयोगो न कदाचन ॥ ५॥
व्यास जी बोले- हे राजन इस विषय में क्या कहा जाय ! कर्मों की बड़ी गहन गति होती है। कर्मों की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं । तो मानवों की तो बात ही क्या! जब इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती चली आ रही है ।।
विशेष-★
( एक बार सबको एक समान स्थिति बिन्दु से गुजरना होता है - इस के पश्चात जो अपनी स्वाभिकता रूपी प्रवृत्तियों का दमन कर संयम से आचरण करता उसको सद्गति और दुराचरण करता है उसको दुर्गति मिलती है।) यही  ईश्वर का समतामूलक विधान है। इस विषय में कोई सन्देह नहीं है। आदि-(प्रारम्भ) और अन्त से रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्म रूपी बीज से संसार में जनमते- मरते हैं । वे प्राणी अनेक प्रकार की योनियों( शरीरों) में बार+बार पैंदा होते  और मरते हैं । कर्म से रहित जीव या देह संयोग कभी भी सम्भव नहीं है।।२-५।।
शुभाशुभैस्तथा मिश्रैः कर्मभिर्वेष्टितं त्विदम् ।
त्रिविधानि हि तान्याहुर्बुधास्तत्त्वविदश्च ये॥६॥
सञ्चितानि भविष्यन्ति प्रारब्धानि तथा पुनः।
वर्तमानानि देहेऽस्मिंस्त्रैविध्यं कर्मणां किल ॥ ७॥
शुभ- अशुभ और मिश्र - इन  कर्मों से यह संसार सदैव व्याप्त रहता है। तत्वों के ज्ञाता जो विद्वान हैं उन्होंने संचित प्रारब्ध और क्रियमाण(वर्तमान में किए गये कर्म) ये तीन प्रकार के कर्म हैं। इन कर्मों का त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है।६-७।।
ब्रह्मादीनां च सर्वेषां तद्वशत्वं नराधिप ।
सुखं दुःखं जरामृत्युहर्षशोकादयस्तथा ॥ ८ ॥
कामक्रोधौ च लोभश्च सर्वे देहगता गुणाः ।
दैवाधीनाश्च सर्वेषां प्रभवन्ति नराधिप ॥ ९ ॥
हे राजन् ! –ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्म के वशवती होते हैं । सुख-दु:ख और वृद्धावस्था मृत्यु हर्ष शोक काम( स्त्री मिलन की कामना) क्रोध लोभ आदि ये सभी शारीरिक गुण हैं। हे राजन् ! ये भाग्य के अधीन होकर सभी प्राणीयों को प्राप्त होते हैं ।८-९।।
रागद्वेषादयो भावाःस्वर्गेऽपि प्रभवन्ति हि ।
देवानां मानवानाञ्चतिरश्चां च तथापुनः॥१०॥
विकाराः सर्व एवैते देहेन सह सङ्गताः ।
पूर्ववैरानुयोगेन स्नेहयोगेन वै पुनः ॥११॥
उत्पत्तिःसर्वजन्तूनां विनाकर्म न विद्यते।
कर्मणाभ्रमते सूर्यःशशाङ्कःक्षयरोगवान्१२
राग-द्वेष भाव स्वर्ग में भी होते हैं । 
और इस प्रकार के भाव देवों मनुष्यों और पशु- पक्षीयों में भी विद्यमान रहते हैं ।१०।
पूर्वजन्म में किए गये वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार सदा ही शरीर के साथ लगे रहते हैं ।११। सभी जीवों की उत्पत्ति कर्म के विना तो हो ही नहीं सकती है। कर्म से ही सूर्य नियमित रूप से परिभ्रमण करता है।( विदित हो कि सूर्य भी आकाश गंगा का परिक्रमण करता है) चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त रहता है। १२।।
कपाली च तथा रुद्रः कर्मणैव न संशयः।
अनादिनिधनं चैतत्कारणं कर्म विद्यते ॥१३॥
तेनेह शाश्वतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
नित्यानित्यविचारेऽत्र निमग्ना मुनयः सदा॥१४॥
न जानन्ति किमेतद्वै नित्यं वानित्यमेव च ।
मायायां विद्यमानायां जगन्नित्यं प्रतीयते॥१५॥
कार्याभावः कथं वाच्यः कारणे सति सर्वथा।
माया नित्या कारणञ्च सर्वेषां सर्वदा किल॥१६॥
कर्मबीजं ततोऽनित्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः।
भ्रमत्येव जगत्सर्वं राजन्कर्मनियन्त्रितम् ॥१७॥
उपनिषदों में  वर्णन है कि उस निराकार परम- ब्रह्म ने एक बहुत होने की इच्छा प्रकट की
एकोहं बहुस्याम: तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत तत्तेज ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तदपोऽसृजत ।तस्माद्यत्र क्वच शोचति स्वेदते वा पुरुषस्तेजस एव तदध्यापो जायन्ते ॥ ( ६.२.३॥-छान्दोग्योपनिषद्) 
मैं एक अनेक रूप में हो जाऊँ  उस एक परब्रह्म ने यह संकल्प किया-। 
इस पृथक करण काल में अपने अस्तित्व का बोध अहंकार के रूप में उसे हुआ -( अहंकार से संकल्प उत्पन्न हुआ और  इस संकल्प से इच्छा उत्पन्न हुई और यह इच्छा ही कर्म की जननी है।) संसार में सकाम( इच्छा समन्वित कर्म ही ) फल दायक होता है। अपने कर्मो के प्रभाव से ही रूद्र को नरमुण्डों की माला धारण करनी पड़ती है। इसमें कोई सन्देह नहीं !!
आदि अन्त रहित वह कर्म ही जगत की उत्पत्ति का कारण है।१३।। (देवीभागवत)
स्थावर( अचल) और जंगम( चलायवान्) यह सम्पूर्ण शाश्वत जगत् उसी कर्म के प्रभाव में नियन्त्रित है। सभी मुनिगण इस कर्म मय जगत कि नित्यता और अनित्यता के विचार में सदैव डूबे रहते हैं ।।१४।फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत नित्य है अथवा अनित्य। जब तक माया ( अज्ञान) विद्यमान रहती है तब तक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है।१५।।
"कारण की सर्वथा सत्ता रहने पर  "कार्य का अभाव कैसे कहा जा सकता है ?
यह माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है।१६।।
इसलिए ही कर्म-बीज की अनित्यता पर विद्वान पुरुषों को सदैव विचार करना चाहिए!
हे राजन्! सम्पूर्ण जगत कर्म के द्वारा नियन्त्रित होकर परिवर्तित होता रहता है।१७।।
आगे देवीभागवतपुराण में कर्म की गति का व्याख्यान करते हुए वर्णन है।
नानायोनिषु राजेन्द्र नानाधर्ममयेषु च।
इच्छया च भवेञ्चन्म विष्णोरमिततेजसः॥१८॥
युगे युगेष्वनेकासु नीचयोनिषु तत्कथम्।
त्यक्त्वा वैकुण्ठसंवासं सुखभोगाननेकशः॥१९॥
विण्मूत्रमन्दिरे वासं संत्रस्तः कोऽभिवाञ्छति ।
पुष्पावचयलीलां च जलकेलिं सुखासनम् ॥२०॥
त्यक्त्वा गर्भगृहे वासं कोऽभिवाच्छति बुद्धिमान्।
तूलिकांमृदुसंयुक्तां दिव्यां शय्यां विनिर्मिताम्।२१॥
त्यक्त्वाधोमुखवासं च कोऽभिवाञ्छति पण्डितः।
गीतं नृत्यञ्च वाद्यञ्च नानाभावसमन्वितम्॥२२॥
मुक्त्वा को नरके वासं मनसापि विचिन्तयेत्।
सिन्धुजाद्‌भुतभावानांरसंत्यक्त्वासुदुस्त्वजम्।२३।
विण्मूत्ररसपानञ्ज क इच्छेन्मतिमान्नरः ।
गर्भवासात्परो नास्ति नरको भुवनत्रये ॥ २४ ॥
तद्‌भीताश्च प्रकुर्वन्ति मुनयो दुस्तरं तपः ।
हित्वा भोगञ्च राज्यञ्चवने यान्ति मनस्विनः।२५।
विशेष-★
विदित हो कि समय परिवर्तन का कारण  है और परिवर्तन का घनीभूत व स्थूल रूप कर्म है।
हे राजन् असीमित तेज वाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से पृथ्वी पर जन्म लेने में स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार की योनियों में अनेक प्रकार धर्म कर्म के अनुसार युगों में तथा अनेक प्रकार की। निम्न योनियों में जन्म क्यों लेते ? अनेक प्रकार के सुखभोगों तथा वैकुण्ठपुरी का  निवास त्याग कर मल मूत्र वाले स्थान ( उदर ) में भला कौन रहना चाहेगा ? फूल चुनने की। क्रीडा जल विहार और सुख दायक आसन का त्याग कर कौन बुद्धिमान गर्भगृह में वास करना चाहेगा ? कोमल रुई से निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्या को छोड़कर गर्भ में औंधे-(ऊर्ध्व-मुख) पड़ा रहना भला कौन विद्वान पुरुष पसन्द कर सकता है ? अनेक प्रकार के भावों से युक्त गीत वाद्य तथा नृत्य या परित्याग करके गर्भ रूपी नरक में रहने का मन में विचार तक भला कौन कर सकता है ? ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी के अद्भुत भावों के " अत्यंत कठिनाई से त्याग करने योग्य रस को छोड़कर मलमूत्र का कीचड़ ( दूषित रस) पीने की। इच्छा करेगा। इसलिए तीनों लोकों में गर्भवास से बढ़कर नरक रूप अन्य कोई स्थल नहीं है। गर्भ वास ( जन्ममरण) से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी जिस गर्भवास से डरकर राज्य और सुख कि परित्याग करके वन को चले जाते थे। ऐसा कौन मूर्ख होगा ? जो इसके सेवन की। इच्छा करेगा।।१८–२५=१/२।।
यद्‌भीतास्तु विमूढात्मा कस्तं सेवितुमिच्छति।
गर्भे तुदन्ति कृमयो जठराग्निस्तपत्यधः।२६॥
वपासंवेष्टनं कूरं किं सुखं तत्र भूपते ।
वरं कारागृहे वासो बन्धनं निगडैर्वरम् ।२७ ॥
अल्पमात्रं क्षणं नैव गर्भवासः क्वचिच्छुभः ।
गर्भवासे महद्दुःखं दशमासनिवासनम् ।२८ ॥
तथा निःसरणे दुःखं योनियन्त्रेऽतिदारुणे ।
बालभावे तदा दुःखं मूकाज्ञभावसंयुतम् ।२९॥
क्षुतृष्णावेदनाशक्तः परतन्त्रोऽतिकातरः ।
क्षुधिते रुदिते बाले माता चिन्तातुरा तदा।३०।
भेषजं पातुमिच्छन्ती ज्ञात्वा व्याधिव्यथां दृढाम् ।
नानाविधानि दुःखानि बालभावे भवन्ति वै ॥३१॥
किं सुखं विबुधा दृष्ट्वा जन्म वाञ्छन्ति चेच्छया ।
संग्रामममरैःसार्धं सुखंत्यक्त्वा निरन्तरम् ।३२।
कर्तुमिच्छेच्च को मूढः श्रमदं सुखनाशनम् ।
सर्वथैव नृपश्रेष्ठ सर्वे ब्रह्मादयः सुराः ॥३३॥
कृतकर्मविपाकेन प्राप्नुवन्ति सुखासुखे ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देहवद्‌भिर्नृभिर्देवैस्तिर्यग्भिश्च नृपोत्तम ॥३४॥
तपसा दानयज्ञैश्च मानवश्चेन्द्रतां व्रजेत् ।
क्षीणेपुण्येऽथ शक्रोऽपिपतत्येव नसंशयः॥३५॥
अनुवाद-गर्भ में कीड़े काटते हैं और नीचे से जठराग्नि कराती है। हे राजन् ! उस समय शरीर में अत्यंत दुर्गन्धयुक्त मज्जा( Marrow) लगा रहता है तो फिर वह कौनसा सुख है ? कारागार में रहना और बेड़ीयों में बँधे रहना अच्छा है किन्तु एक क्षण के अल्पकाल तक गर्भ में रहना कभी भी शुभ नहीं होता गर्भ वास में जीव को अत्यधिक पीड़ा होती है।‌वहाँ दस महीने तक रहना पड़ता है‌। इसके अतिरिक्त अत्यंत दारुण( भयंकर) योनियन्त्र से बाहर आने पर  महान यातना प्राप्त होती है। तत्पश्चात्  बाल्यावस्था में अज्ञान का तथा बोल न पाने के कारण बहुत कष्ट प्राप्त होता है । 
दूसरे के  अधीन अत्यंत भयभीत बालक  भूख-और प्यास की। पीड़ा के कारण बालक कमजोर रहता है। भूखे बालकों को रोता हुआ देखकर माता ( रोने काम कारण जानने के लिए) चिन्ता ग्रस्त हो उठती है।और पुन: किसी बड़े रोगजनित कष्ट कि अनुभव करके उसे औषधि पिलाने की। इच्छा करती है। इस प्रकार बाल्यकाल में अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं ।तब विवेकी पुरुष किस दु:ख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा करते हैं।२६-३१=१/२।।
कौन ऐसा मूर्ख होगा जो देवताओं के साथ रहते हुए सुख भोग का त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करने कि इच्छा करेगा। हे श्रेष्ठ राजन्! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी अपने किए हुए कर्मों के परिणाम स्वरूप दु:ख-सुख प्राप्त करते हैं। हे श्रेष्ठ राजन्! सभी देहधारी जीव चाहें वे मनुष्य देवता अथवा पशु पक्षी अपने अपने कर्मों का शुभ-अशुभ पाते हैं।।३२-३४।।
मनुष्य तप यज्ञ तथा दान के द्वारा इन्द्र पद को प्राप्त हो जाता है। और पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्र कि भी स्वर्ग से पतन हो जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं!३५।।
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गोप कुल में कश्यप और विष्णु का अवतरण-
रामावतारयोगेन देवा वानरतां गताः।
तथा कृष्णसहायार्थं देवा यादवतां गताः॥३६॥
एवं युगे युगे विष्णुरवताराननेकशः ।
करोति धर्मरक्षार्थं ब्रह्मणा प्रेरितोभृशम् ॥३७॥
पुनः पुनर्हरेरेवं नानायोनिषु पार्थिव।
अवतारा भवन्त्यन्ये रथचक्रवदद्‌भुताः॥३८॥
दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।
अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना॥३९॥
"तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम्।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोःकुले॥४०॥
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥
कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ।४३॥ 
                      राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४।
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुलेवासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥४५॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६॥
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥४७॥
प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि॥४८।
कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥४९॥
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम्।५०॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथाभावा मानुष्येसम्भवन्ति हि॥५१॥
स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥५२॥
किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर ।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्‌गर्भवासं करोति वै ॥५३॥
गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ।
दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः।५५।
प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥
सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना।५७।
तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥
कंसस्य हननं कष्टाद्‌ द्वारकागमनं पुनः ।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ॥५९॥
स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान्।
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६०॥
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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥
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रामावतार के समय देवता कर्म बन्धन के कारण  वानर. बन्दर/ वन के नर बने और कृष्णावतार में कृष्ण की सहायता के लिए देवता यादव बने थे।★३६।।
इस प्रकार प्रत्येक युग में धर्म सी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु ब्रह्मा जी अत्यंत प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं।।३७।।
हे राजन् ! इस प्रकार रथ चक्र की भाँति विविध प्रकार की योनियों में भगवान् विष्णु के अद्भुत अवतार बार-बार होते रहते हैं।३८।।
महात्मा भगवान विष्णु अपने अंशांश से पृथ्वी पक अवतार ग्रहण करके दैत्यों या वध रूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।इसलिए अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म कि पवित्र कथा मैं कह रहा हूँ; वे साक्षात् विष्णु ही यदुवंश में अवतरित हुए थे।३९-४०।।
हे राजन् ! कश्यप जी के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने  पूर्वजन्म के शापवश इस जन्म में गोप बनकर गोपालन का कार्य किया।४१।।★-हे राजन् हे पृथ्वीपति ! उन्हीं कश्यप मुनि की दो पत्नियाँ  अदित और सुरसा ने भी शाप वश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया । हे भरत श्रेष्ठ! उन दौनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहिनों के रूप में जन्म लिया। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने ही उन्हें यह शाप दिया था।।४२-४३।।राजा बोला! हे महामते! महर्षि कश्यप ने ऐसा कौनसा अपराध किया था। जिस कारण उन्हें स्त्रीयों सहित शाप मिला था।मुझे यह बताइए!४४।वैकुण्ठवासी अविनाशी रमापति भगवान् विष्णु को गोपकुल ( गोकुल) में क्यों अवतार लेना पड़ा?।। ४५।।भगवान विष्णु मानव शरीर धारण करके इस हीन मनुष्य शरीर में अनेक प्रकार की। लीलाऐं दिखाते हुए। और अनेक प्रपञ्च क्यों करते हैं?
काम- क्रोध अमर्ष शोक वैर प्रेम दु:ख-सुख भय दीनता सरलता पाप पुण्य वचन मारण पोषण चलन ताप विमर्श ताप आत्मश्लाघा लोभ दम्भ मोह कपट चिन्ता– ये तथा अन्य नाना प्रकार के भाव मनुष्य -जन्म में विद्यमान रहते हैं।४९-५१।।
वे  भगवान विष्णु शाश्वत सुख या त्याग करके इन भावों से ग्रस्त मनुष्य जन्म धारण किस लिए करते हैं। हे मुनीश्वर इस पृथ्वी पर मानव जन्म पाकर कौन सा अक्षय सुख प्राप्त होता है। वे साक्षात् - विष्णु किस कारण गर्भवास करते हैं ?।५२-५३।।गर्भवास में दु:ख जन्म ग्रहण में दुःख  बाल्यावस्था में दुःख यौवनावस्था में कामवासना जनित दुःख और गृहस्थ जीवन में तो बहुत बड़ा दुःख होता है।५४।।हे विप्र अनेक कष्ट मानव जीवन में प्राप्त होते हैं। तो वे भगवान विष्णु अवतार क्यों लेते हैं पृथ्वी पर।५५।।ब्रह्म योनि भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करते हुए अत्यंत दारुण वनवास काल में घोर कष्ट प्राप्त हुआ था। उन्हें माता सीता वियोग से उत्पन्न महान कष्ट हुआ था। तथा अनेक बार राक्षसों से युद्ध करना पड़ा अन्त में महान आभा वाले उन श्री राम को पत्नी आ त्याग कि असीम वेदना भी साहनी पड़ी।।५६-५७।। उसी प्रकार कृष्णावतार में भी बन्धीग्रह में जन्म गोकुल गमन गोचारण ,कंस वध और पुन: कष्ट पूर्वक द्वारिका के लिए प्रस्थान -इन अनेक विधि सांसारिक कष्टों को भगवान कृष्ण ने क्यों भोगा ?।।५८-५९।।ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छा से इन दु:खों की प्रतीक्षा करेगा? हे सर्वज्ञ मेरे मन की। शान्ति के लिए  इस सन्देह का निवारण कीजिए!!।।६०।।
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इस प्रकार देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के द्वितीय अध्याय या समापन।।
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और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था;  ऐसा वर्णन है । 
अब देखें देवी भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। परन्तु कृषि और गोपालन तो क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप 
स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक था 
निम्न रूप में -
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २०॥ 
इसमें प्रस्तुत है वह वर्णन -
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥
•-प्राचीन  समय की बात है यमुना नदी के सुंदर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौमहाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै॥५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६
•(उसके पिता का नाम मधु ) वरदान पाकर वह  पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।
स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।        निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७॥
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा।५८॥
•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु  और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।____________________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥५९॥_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
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वैश्यवृत्तिरतःसोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥
•तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ  ! 
•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेैश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से गोप (आभीर रूप में ) अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।
•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था। उग्रसेन के पुरोहित काशी में रहने वाले काश्य नाम से थे। और शूरसेन के पुरोहित उसी काल में एक बार सभी शूर के सभासदों द्वारा ज्योतिष् के जानकार गर्गाचार्य नियुक्त किए गये।
अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥
•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥
•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश कहकर वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।गोप कृषि, गो पालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है नकि वैश्य वृत्ति ; वैश्य वृत्ति तो केवल व्यापार तथा वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपित विपरीत ही हैं ।फिर सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है ये गोपालक के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं । परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में में प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प लाने का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया 
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करते थे आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे ; जो दोनों के गोप और यादवों के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।
देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें 
अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशःशापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातःशूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
वैश्यवृत्तिरतःसोऽभून्मृते पितरि माधवः।    उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्। ६१॥
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०। अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया ।
जिसका यथावत् प्रस्तुति करण करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।
निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-  ____________________________________
                   (अथ कथारम्भ:) 
"यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य  वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास ।
तस्य चार्याणां  शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति । तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं  पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति । 
तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म ।श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार । 
स चार्य  बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशां वतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।।
अर्थ-•★ समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; उन्हीं  क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो मुख्य पत्नीयाँ  थीं , पहली क्षत्रिय वर्ण की,  दूसरी वैश्य वर्ण की  थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ; उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो  (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; 
जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था। विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।
तथा च मनुस्मृति:-(१०/१५)-ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतोनाम जायते।आभीरोऽ म्बष्ठकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण:।। इति।। अम्बष्ठस्तु विश: पुत्र्यां ब्राह्ममणाज्जात उच्यते। इति चान्यत्र । अत: पाद्मे सृष्टि खण्डादौ यज्ञं कुर्वता ब्रह्मणापि आभीरपर्याय-गोपकन्याया: पत्नीत्वेन स्वीकार: प्रसिद्ध: । एष एव च गोप वंश:श्रीकृष्णलीलायां सवलनमाप्स्यतीति; सृष्टि खण्ड एव तत्र स्पष्टीकृतमस्ति । तस्मात् परमशंसनीय एवासौ वैश्यान्त:पाति महा-(आभीर द्विज वंश:) इति।।२४।।
इस विषय में मनुस्मृति कहती है यथा 10/15 क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न  कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अवस्था के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में 
उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ  होता है अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्णश्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा -आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।
अथ स्निग्धकण्ठेन चान्तश्चिन्तितम्-
"एवमपि केचिदहो एषां द्विजतायां सन्देहमपि देहयिष्यन्ति- ये खलु श्रीमद्भागवते( १०/८/१०)  कुरु द्विजातिसंस्कारम् इति गर्ग प्रति श्रीव्रजराजवचने ( भा०१०/२४/२०-२१) वैश्यस्तु वार्तया जीवेत्' इत्यारभ्य कृषि, वाणिज्य-गोरक्षा, कुसीदं तुर्यमुच्यते । वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।। इति व्रजराजं प्रति श्रीकृष्णवचने, तथैव, (भा०१०/४६/१२) अग्न्यर्कातिथिगो-विप्र' इति श्रीशुककृत-गोपावासवर्णने, व्यतिरेकस्तु धर्मराजचपतायामपि विदुरस्य शूद्रगर्भोद्भवतयान्यथाव्यवहार श्रवणेऽप्यधिकं वधिरायिष्यन्ते" इति ।२५।।
अर्थ-• तदनंतर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य !  का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी  द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि वाणिज्य गोरक्षा और कुशीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री सुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।
अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।। 
अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई !  मधुकण्ठ ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।
मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा: सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च  श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।। 
मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों कोआप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी  अधिक नाना (मातामह)  के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी उपाध्याय(वेद वेदांग का पढ़ानेवाला ) के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे। उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से  हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या  स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।
अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने  जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)
अन्यस्तु  जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु। सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।
पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत:।२८।।
अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि  पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर  भूतल पर देखा जाता है ।
किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।
( उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय:यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।२९।
अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं ।  उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि  पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९। 
उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोऽभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३० ।।
अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।
मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ?  तदनंतर  उन दोनों के सुयोग्य  दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की  सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्ति का कौन वर्णनकर सकता है।३६।
तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।।
अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए  सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ
उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 
" स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।
अर्थ•-पश्चात  उन श्री उप नन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कृत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 
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आगे इसी तृतीय पूरण में गोपों और यादव शब्दों एकरूपता परिलक्षित है।
तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे  इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।
अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक  पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। 
तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 
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योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।  
अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है  ।दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो । 
तात्पर्य-ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली  पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।।६५।।
गर्ग उवाच---भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।
अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। ।अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।
व्रजराज उवाच- भवेदेवं किन्तु क्वचित्सर्गो ।प्यपवादवर्ग बाधतेऽधिकारिविशेषश्लेषमासाद्य।यथैवाहिंसानिवृत्तकर्मणि बद्धश्रद्धं प्रति यज्ञेऽपि पशुहिंसां तस्माद्भवतां ब्राह्मण-भावादुत्सर्गसिद्धा 
गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।।
अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन  आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे  अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है। अत: आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार । होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेष हित कर कार्य कर देंगे।।६७।
(श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय)

अब देखें वंशीधरी टीका के कुछ साक्ष्य-
वंशीधरीटीका--- वादारभ्य नन्दस्य व्रजो धनपुत्रपश्वादि सर्वसमृद्धिमान् जात:।  यत: हरेर्निवासेन हेतुना ये आत्मनो व्रजस्य गुणा: सर्वप्रियत्वादयस्तै: रमाया: आक्रीडं विहारस्थानमभूत् ।।१८।
गोपान् इति । हे कुरुद्वह ! नन्द: एवं  श्रीकृष्णमहोत्सवं कृत्वा गोकुलरक्षायां गोपान् निरुप्य आदिश्य कंसस्य वार्षिक्यं प्रतिवर्षं देयं करं स्वामिग्राह्यं भागं वार्षिकं तत्र साधुरत्नाद्युपायनयुक्त दातुं मथुरां गत: ।।१९।।  
वसुदेव: इति वसुदेव: भ्रातरं  सन्मित्रं नन्दं आगतमुपश्रुत्य "राज्ञे करो दत्त येन " तथाभूतं ज्ञात्वा च तस्य नन्दस्यावमोचनं  अवमुच्यते शकटादि यत्र तत् स्थान ययौ ।
भ्रातरमित्यत्र वैश्यकन्यायां शूरपत्नीभ्रातृजातत्वेन मातुलपुत्रत्वात् । अतएवाग्रे भ्रातरिति मुहुरुक्ति: । मध्वाचार्यश्च वैश्यकन्यायां शूरवैमात्रेय भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च । तस्मै मया स वर: सन्निसृष्ट: स चास नन्दाख्य उतास्य भार्या ।। नाम्ना यशोदा स च शूरतातसुतस्य  वैश्यप्रभवोऽथ गोप: ।। इति प्राहु: एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेषा एव वैश्यकन्या उद्भवत्वाद् परं वैश्यत्वं । अतएव स्कान्दे मथुराखण्डे ।" रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणार्थ " इति । यादवानां  हितार्थाय धृतो गोवर्द्धनो  मया " इति च हरिवंशेऽपि " । " यादवेष्वपि सर्वेषु भवन्तो मम बान्धवा: "इति रामवाक्यम् ।२०।।
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अर्थ-नन्द का इस प्रकार कहना प्रारम्भ करके ब्रज ,धन ,पुत्र और पशु आदि सभी समृद्धिमान् जो कुछ हुआ था जहाँ  हरि निवास के कारण जो अपने ब्रज के गुण  और सब की प्रियता के पात्र रूप में   हरि का रमा ( लक्ष्मी) के साथ  लीला करने का वह ब्रज स्थान हुआ ।१८। 
गोपों को इस प्रकार यथाकार्य करते हुए कहकर नन्द इस प्रकार श्रीकृष्ण के महोत्सव को सम्पादन करके  गोकुल की रक्षा में गोपों को नियुक्त कर  और उन्हें आदेश देकर कंस का प्रतिवर्ष दिया जाने वाले वार्षिक कर के रूप में अच्छे अच्छे रत्न आदि उपहार देने के लिए  मथुरा गये ।।।१९। 
वसुदेव ने इस प्रकार भाई और सन्मित्र (अच्छे मित्र) का आगमन  सुनकर और " राजा कंस  को जिन्होंने कर दे दिया हो"  उन नन्द  के  आगमन-विषय में जानकर  वसुदेव नन्द  के पढ़ाव अर्थात् शिविर की ओर चले जहाँ नन्द जी ने अपने शकट ( बैलगाड़ी) आदि ढ़ील दिये थे ।
नन्द वसुदेव के भाई इस प्रकार थे कि "शूरसेन की पत्नी के भाई के पुत्र होने से तथा वैश्यकन्या से उत्पन्न होने से भी"  इसीलिए अग्र भ्रातृ इस प्रकार से उन्हें  पुन: कहा गया  और मध्याचार्य ने नन्द को वैश्यकन्या गुणवती से उत्पन्न (पर्जन्य) का भाई कहा गुणवती जो शूरसैन की सौतेली माता थीं उन गुणवती में उत्पन्न नन्द को पर्जन्य का पुत्र होने से  भाई कहा  यह ब्रह्मवाक्य है । 
और शूरसेन के पिता के पुत्र का वैश्य वर्ण की स्त्री में उत्पन्न होने  से भी गोप इस प्रकार से कहा गया इस प्रकार अन्य मत से गोप यादव विशेष थे जो जो वैश्य कन्या में उत्पन्न होने से वेैश्यता ( कृषि पशुपालन आदि की वृत्ति  ) को प्राप्त हुए । इसीलिए भी स्कन्द पुराण के मथुरा खण्ड में कहा गोपों के विषय में " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्र वृष्टि निवारणात्  इति = सभी यादवों की रक्षा की इन्द्र का वर्षा के निवारण करने से और हरिवंश पुराण में लिखा है कि यादवों के हित के लिए मेरे द्वारा गोवर्धन पर्वत श्रेष्ठ धारण किया गया यह हरिवंश पुराण में है । गोपों के लिए बलराम का यह कहना भी प्रसिद्ध है कि यादवों में आप (गोप ) मेरे लिए सबसे प्रिय हो "
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सन्दर्भ:-हरिवंशपुराणम्/पर्व २ (विष्णुपर्व)/अध्यायः ०३८।


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"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अनुवाद-
और दान करने वाले वे दोनों, कल्याण दृष्टि वाले गायों से घिरे हुए, गायों की परिचर्या करने करने वाले यदु और तुर्वसु की हम सब प्रशंसा करते हैं ।१०।
पदपाठ-
उत ।दासा। परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा। यदुः । तुर्वः । च ।मामहे ॥१०।।                         __________
"भाष्य"-
(स्मद्दिष्टी) =प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ “स्मद्दिष्टीन् प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा)= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ  “परीणसा बहुनाम” [निघण्टु ३।१]। (दासा)= दातारौ “दासृ दाने” [भ्वादि०] “दासं दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ ] ।
(उत्)= अपि तस्य ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष– सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे) स्तुमहे। ॥१०॥_________________________________
१-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४-“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना।अर्थ में है  अत: पूर्ववर्ती वैदिक संस्कृति में दास्= दाने(दान के अर्थ में) सम्प्रदाने + अच् परक होने से  दास: शब्द निष्पन्न हुआ= दाता। अच्' प्रत्यय का 'अ' वर्ण लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।
यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों के सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।
५-स्थितौ= तेनाधिष्ठितौ ।
६-“यदुः च “तुर्वश्च= एतन्नामकौ राजर्षी।
७- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।
८- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।
आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं। आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे क्रियापद बनते  हैं  अत: महामहे का ही (वेैदिक आत्मनेपदीय रूप "मामहे") है।
आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् "
एकवचनम्   द्विवचनम्    बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः  महते  महेते  महन्ते
मध्यमपुरुषः महसे  महेथे  महध्वे
उत्तमपुरुषः  महे   महावहे  महामहे
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कोन्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। (ऋग्वेद-१.१६५.१३)
दास्(भ्वादिःगण की धात)
परस्मैपदी
लट्(वर्तमान)
एकवचनम् - द्विवचनम्  - बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः -दासति - दासतः -दासन्ति
मध्यमपुरुषः -दाससि -दासथः -दासथ
उत्तमपुरुषः  दासामि -दासावः -दासामः      
____________________________________(आ यदश्वान्वनन्वतः श्रद्धयाहं रथे रुहम् । उत वामस्य वसुनश्चिकेतति यो अस्ति  (यादव:)याद्वः पशुः॥३१॥( ऋग्वेद ८/१/३१)
"य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः॥३२॥
"अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः।अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥
"अन्वस्य स्थूरं ददृशे पुरस्तादनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः 
शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं      बिभर्षि ॥३४॥
               ★"सायणभाष्यम्"★
                ॥अथाष्टमं मण्डलम्॥
अष्टमे मण्डले दशानुवाकाः । तत्र प्रथमेऽनुवाके पञ्च सूक्तानि । तेषु ‘मा चिदन्यत्' इति चतुस्त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अत्रानुक्रम्यते–' मा चिच्चतुस्त्रिंशन्मेधातिथिमेध्यातिथी ऐन्द्रं बार्हतं द्विप्रगाथादि द्वित्रिष्टुबन्तमाद्यं द्वृचं प्रगाथोऽपश्यत्स घौरः सन्भ्रातुः कण्वस्य पुत्रतामगात्(बृहद्देवता ६.३५ ) प्लायोगिश्चासङ्गो यः स्त्री भूत्वा पुमानभूत्स मेध्यातिथये दानं दत्त्वा स्तुहि स्तुहीति चतसृभिरात्मानं तुष्टाव पत्नी चास्याङ्गिरसी शश्वती पुंस्त्वमुपलभ्यैनं प्रीतान्त्यया तुष्टाव ' इति । 
अस्यायमर्थः । अस्य सूक्तस्य मेधातिथिमेध्यातिथिनामानौ द्वावृषी तौ च कण्वगोत्रौ । ऋषिश्चानुक्तगोत्रः प्राङ्मत्स्यात् काण्वः' इति परिभाषितत्वात् । आद्यस्य द्वृचस्य तु घोरस्य पुत्रः स्वकीयभ्रातुः कण्वस्य पुत्रतां प्राप्तत्वात् काण्वः प्रगाथाख्य ऋषिः । 
प्लयोगनाम्नो राज्ञः पुत्र आसङ्गाभिधानो राजा देवशापात् स्त्रीत्वमनुभूय पश्चात्तपोबलेन मेधातिथेः प्रसादात् पुमान् भूत्वा तस्मै बहु धनं दत्त्वा स्वकीयमन्तरात्मानं दत्तदानं स्तुहि स्तुहीत्यादिभिश्चतसृभिर्ऋग्भिरस्तौत् । अतस्तासामासङ्गाख्यो राजा ऋषिः । 
अस्यासङ्गस्य भार्याङ्गिरसः सुता शश्वत्याख्या भर्तुः पुंस्त्वमुपलभ्य प्रीता सती स्वभर्तारम् ‘अन्वस्य स्थूरम् ' इत्यनया स्तुतवती । 
अतस्तस्या ऋचः शश्वत्यृषिका । अन्त्ये द्वे त्रिष्टुभौ द्वितीयाचतुर्थ्यौ सतोबृहत्यौ शिष्टा बृहत्यः ।कृत्स्नस्य सूक्तस्येन्द्रो देवता । 
‘स्तुहि स्तुहि' इत्याद्याश्चतस्र आत्मकृतस्य दानस्य स्तूयमानत्वात्तद्देवताकाः । ‘ अन्वस्य ' इत्यस्या आसङ्गाख्यो राजा देवता । या तेनोच्यते सा देवता ' इति न्यायात् । महाव्रते निष्केवल्ये बार्हततृचाशीतावादित एकोनत्रिंशद्विनियुक्ताः।
तथैव पञ्चमारण्यके सूत्रितं-- ‘मा चिदन्यद्वि शंसतेत्येकया न त्रिंशत् ' (ऐतरेय.आरण्यक.- ५./ २./ ४) इति । चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने मैत्रावरुणस्य ‘मा चिदन्यत्' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियः प्रगाथः । सूत्रितं च---' मा चिदन्यद्वि शंसत यच्चिद्धि त्वा जना इम इति स्तोत्रियानुरूपौ ' ( आश्वलायन. श्रौतसूत्र- ७.४ ) इति । ग्रावस्तोत्रेऽप्याद्या विनियुक्ता । सूत्रितं च- आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं मा चिदन्यद्वि शंसत' (आश्व. श्रौ. ५.१२ ) इति । 
उपकरणोत्सर्जनयोः' मण्डलादिहोमेऽप्येषा। सूत्र्यते हि-' मा चिदन्यदाग्ने याहि स्वादिष्ठया ' इति 
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मम । त्वा । सूरे । उत्ऽइते । मम । मध्यन्दिने । दिवः ।मम । प्रऽपित्वे । अपिऽशर्वरे । वसो इति । आ । स्तोमासः । अवृत्सत ॥२९।।
“सूरे= सूर्ये "उदिते =उदयं प्राप्ते पूर्वाह्णसमये “मम “स्तोमासः स्तोत्राणि हे “(वसो= वासकेन्द्र) त्वाम् “आ “अवृत्सत =आवर्तयन्तु । अस्मदभिमुखं गमयन्तु । तथा “दिवः =दिवसस्य  “मध्यंदिने= मध्याह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु। तथा “प्रपित्वे= प्राप्ते दिवसस्यावसाने सायाह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ।“अपिशर्वरे । शर्वरीं रात्रिमपिगतः कालः अपिशर्वरः । शार्वरे कालेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ॥
अर्थ-
सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी ! यह स्तोत्र तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान (सायंकाल) में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।
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स्तुहि । स्तुहि । इत् । एते । घ । ते । मंहिष्ठासः । मघोनाम् ।निन्दितऽअश्वः । प्रऽपथी । परमऽज्याः । मघस्य । मेध्यऽअतिथे ॥३०
आसङ्गो राजर्षिर्मेध्यातिथये बहु धनं दत्त्वा तमृषिं दत्तदानस्य स्वस्य स्तुतौ प्रेरयति । हे “मेध्यातिथे यज्ञार्हातिथ एतत्संज्ञर्षे "स्तुहि "स्तुहीत् । पुनःपुनरस्मान् प्रशंसैव। मोदास्व औदासीन्यं मा कार्षीः । “एते “घ एते खलु वयं “मघोनां धनवतां मध्ये “ते तुभ्यं “मघस्य धनस्य “मंहिष्ठासः दातृतमाः । अतोऽस्मान् स्तुहीत्यर्थः । कासौ स्तुतिस्तामाह। “निन्दिताश्वः । यस्य वीर्येण परेषामश्वा निन्दिताः कुत्सिता भवन्ति तादृशः । “प्रपथी । प्रकृष्टः पन्थाः प्रपथः । तद्वान् । सन्मार्गवर्तीत्यर्थः । “परमज्याः उत्कृष्टज्यः । अनेन धनुरादिकं लक्ष्यते । उत्कृष्टायुध इत्यर्थः । यद्वा । परमानुत्कृष्टाञ्छत्रून् जिनाति हिनस्तीति परमज्याः । ज्या वयोहानौ' । अस्मात् ‘आतो मनिन्' इति विच् । एवंभूतोऽहमासङ्ग इति स्तुहीत्यर्थः ॥३०। 
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(आ यदश्वा॒न्वन॑न्वतः श्र॒द्धया॒हं रथे॑ रु॒हम् ।   उ॒त वा॒मस्य॒ वसु॑नश्चिकेतति॒ यो अस्ति॒ याद्व॑: प॒शुः ॥३१। 
ऋग्वेद (८/१/३०)
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(१-“वनन्वतः= वननवतः संभक्तवतः
२-“अश्वान्=तुरगान् "अहं प्रायोगिः 
३-“श्रद्धया आदरातिशयेन युक्तः सन् “यत् यदा हे मेध्यातिथे त्वदीये “रथे
४- “आ “रुहं आरोहयम्।रुहेरन्तर्भावितण्यर्थाल्लुङि ‘ कृमृदृरुहिभ्यः' इति च्लेरङादेशः । तदानीं मामेवं स्तुहि । 
५-“उत अपि च । प्रकृतस्तुत्यपेक्ष एव समुच्चयः ।
६-“वामस्य वननीयस्य 
७-“वसुनः धनस्य । पूर्ववत् कर्मणि षष्ठी । ईदृशं धनं “चिकेतति । एष आसङ्गो दातुं जानाति ।
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८- "याद्वः= यदुवंशोद्भवः। यद्वा । यदवो मनुष्याः। तेषु प्रसिद्धः।
९-“पशुः। लुप्तमत्वर्थमेतत् । पशुमान् । यद्वा । पशुः पश्यतेः । सूक्ष्मस्य द्रष्टा  अथवा यम् पाशेन बधेत( जिसको पाश( रस्सी) में बाँधा जाय वह पशु है) । 
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१०-“यः आसङ्गः “अस्ति विद्यते एष चिकेततीत्यन्वयः ॥
अनुवाद-
हे मेधातिथि ! प्रयोग(प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है । वह  तुमको दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
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"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा हैं जो पशुओं( गाय-महिषीआदि) से समन्वित (युक्त) हैं अर्थात् यादव वंश के लोग सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति और रोजीरोटी(( जीविका) के आधार हुआ करते थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार की सभी प्राचीन और प्राचीनत्तम भाषाओं में péḱu (पेकु) शब्द  रूप में विद्यमान है ।
पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का  विकास हुआ। पशु ही मनुष्यों कि धन ( पैसा) था अत: पशु शब्द से ही "पैसा" शब्द कि विकास हुआ।
(Etymology of pashu-
From Proto-Indo-Iranian *páću, from 1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).
2- Cognate with Avestan 𐬞𐬀𐬯𐬎‎ (pasu, “livestock”),
3-Latin pecū (“cattle”), 
4-Old English feoh (“livestock, cattle”),
5- Gothic 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).
पशु शब्द की व्युत्पत्ति★-
१-प्रोटो-इंडो-ईरानी में पाकु(páću) जोकि, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय *पेकु péḱu ("मवेशी, पशुधन") से।
 अवेस्ता में (पसु, "पशुधन"-pasu, “livestock”) के रूप में आया।
लैटिनमें  पेकु-pecū (“cattle” ("मवेशी") के अर्थ में तो  पुरानी अंग्रेज़ी में यही feoh फीह ("पशुधन, मवेशी"- (“livestock, cattle”) के रूप में जो 
(जर्मनी) गोथिक (faihu, "मवेशी") के साथ संगति 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”) स्थापित करता है।
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ऋग्वेद के दशम मण्डल के (62) वें सूक्त की दसवीं ऋचा में "यदु और तुर्वसु" को गायों की परिचर्या करते हुए और गायों से घिरा हुआ " वर्णन  करना यादवों के पूर्वजो की पशुपालन जीवन- चर्या को दर्शाता है। और उपर्युक्त ऋचा में यदु और तुर्वसु दोनों भाईयों को द्विवचन में दाता अथवा दानी होने से ही "दासा" विशेषण से सम्बोधित किया गया है। जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में "दासौ" द्विवचन  कर्ता और कर्म कारक में  विद्यमान है।
प्राचीनतम वैदिक सन्दर्भों  में दास: का अर्थ दाता अथवा दानी ही हेै। वैदिक निघण्टु इसका साक्ष्य है। उत्तर वैदिक काल और  लौकिक संस्कृत में आते आते  दास शब्द का अर्थ दाता से पतित होकर देव संस्कृतियों के विद्रोही अर्थ में  रूढ़ होकर धनसम्पन्नशाली असुरों का सम्बोधन होने लगा जैसे कि ऋग्वेद की कुछ परवर्ती ऋचाओं में  वृत्र शम्बर और नमुचि आदि असुरो के लिए  हुआ भी है। स्वयं असुर शब्द नें भी अपना अर्थ देव विरोधी जनजाति के लिए रूढ़ कर लिया । अत: वैदिक सन्दर्भ में "दास  शब्द का अर्थ "सेवा करने वाला गुलाम" या भृत्य नहीं है।👇 जैसा कि कुछ परवर्ती भाष्य कार करते रहते हैं। और दास का अर्थ भक्त भी नहीं था।
 जैसे कि आज कल तुलसी दास , कबीरदास अथवा मलूकदास जैसे नामवाची शब्दों में सुनाई देता है। वास्तव में  यह तो इस दास शब्द का विकसित अर्थ है। क्योंकि ये "दास के वैदिक कालीन सन्दर्भ प्राचीनत्तम होने से आधुनिक अर्थों से विपरीत ही हैं । अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ जो इन्द्र से युद्ध करता है।👇क्या वह भक्त था ? जैसा कि निम्न ऋचा में वर्णित है।
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"उत दासं कौलितरं बृहतः पर्वतादधि ।
अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥ ऋ० ४/३०/१४।
और वर्जिन दैत्य को लिए भी। दास शब्द का सम्बोधन है 👇क्या वह भी भक्त था ?
"उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-४ /३० /१४
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उपर्युक्त ऋचा में  दास शब्द असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर ही वर्णित किया गया है । ____________________________________
कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे 
अर्थात् कुलितर को कोलों की सन्तान होने से कौलितर कहा गया।
अर्थात्‌ इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए  दानी- (धन -सम्पन्न) कौलितर शम्बर को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया 
विदित हो कि  ईरानी संस्कृति में  असुर(अहुर) शब्द का अर्थ श्रेष्ठ और ईरानीयों के सर्वोच्च उपास्य का वाचक या सम्बोधन है। ईरानी संस्कृति में "दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ" कुशल और दाता" होता है । विदित हो कि ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण "दाहे के रूप में किया है।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे 
जिनका उपास्य अहुर-मज्दा ( असुर -महत्) था ।
फारसी में "स"वर्ण का उच्चारण "ह" वर्ण के रूप में होता है ।
जैसे असुर- अहुर !सोम -होम सप्ताह- हफ्ताह -हुर- हुर सिन्धु -हिन्दु आदि ..

'परन्तु भारतीय पुराणों या वेदों में ईरानी मिथकों के समान अर्थ नहीं है । अपितु इसके विपरीत ही अर्थ है क्योंकि शत्रु कभी भी शत्रुओं की प्रसंशा नहीं करता है भले ही वह कितना भी गुणसम्पन्न ही क्यों न हो। 
इसी प्रकार ईरान( फारस) में "असुर शब्द को अहुर के रूप में वर्णित किया है।
असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य और इन्द्र के शक्तिशाली के  विशेषण रूप में हुआ है  । ___________________________________
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु (प्राण-तत्व) से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है । 
(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥
पदपाठ-
यः । ऋज्रा । मह्यम् । मामहे । सह । त्वचा । हिरण्यया ।एषः । विश्वानि । अभि । अस्तु । सौभगा । आसङ्गस्य । स्वनत्ऽरथः ॥३२।
एवमेवं मां स्तुहीत्यासङ्गो मेध्यातिथिं ब्रूते । “यः आसङ्गस्यात्मा “ऋज्रा= गमनशीलानि धनानि। “हिरण्यया =हिरण्मय्या “त्वचा =चर्मणास्तरणेन “सह सहितानि “मह्यं= मेध्यातिथये अभि =सर्वत: अस्तु=भवतु। {“मामहे = स्तुमहे} । मंह्= पूजायाम् । “एषः आसङ्गस्यात्मा “स्वनद्रथः= शब्दायमानरथः सन्  “विश्वानि= व्याप्तानि सौभगानि धनानि शत्रूणां स्वभूतानि “॥
इस प्रकार मेरी स्तुति करो । आसङ्ग मेथातिथि से कहता है। "उस आसङ्ग का चलायवान धन  स्वर्ण-चर्म के विस्तर सहित मुझ मेधातिथि  लिए हो ।  वही आसङ्ग शब्दायवान रथ से युक्त होकर शत्रुओं से सम्पूर्ण सौभाग्य- पूर्ण धनों को विजित करे। इस प्रकार हम स्तुति करते हैं ।३२।
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"अध॒ प्लायो॑गि॒रति॑ दासद॒न्याना॑स॒ङ्गो अ॑ग्ने द॒शभि॑: स॒हस्रै: । अधो॒क्षणो॒ दश॒ मह्यं॒ रुश॑न्तो न॒ळा इ॑व॒ सर॑सो॒ निर॑तिष्ठन् ॥३३।
पदपाठ-
अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३।
(१-“अध =अपि च 
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 
४“अन्यान् =दातॄन् “
५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 
६-“अध= अनन्तरम् 
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
अनुवाद-
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो। निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। सेचन करने में समर्थ वे ओजस्वी दश हजार बैल उक्षण:-(Oxen) आसङ्ग राजा से निकलकर  मुझ मेधातिथि में उसी प्रकार समाहित होगये। जिस प्रकार तालाब में उत्पन्न तृणविशेष तालाब से निकल कर तालाब से समूह बद्ध होकर  बाहर निकल आते हैं; इन्हीं शब्दों के द्वारा तुम मेरी स्तुति करो ! ऐसा मेधातिथि से कहने वाले राजा आसङ्ग हैं।
 इन ३०-से ३३ ऋचाओं में इन चार ऋचाओं के वक्ता आसङ्ग हैं और वही देवता हैं यहाँ  यही भाव उत्पन्न होता है ।३०। 
{प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
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अन्वस्य स्थूरं ददृशे पुरस्तादनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः।
शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं बिभर्षि।३४।।
पदपाठ-
अनु । अस्य । स्थूरम् । ददृशे । पुरस्तात् । अनस्थः । ऊरुः । अवऽरम्बमाणः ।
अन्वय-
"शश्वती । नारी । अभिऽचक्ष्य । आह । सुऽभद्रम् । अर्य । भोजनम् । बिभर्षि ॥३४
अयमासङ्गो राजा कदाचिद्देवशापेन नपुंसको बभूव । तस्य पत्नी शश्वती भर्तुर्नपुंसकत्वेन खिन्ना सती महत्तपस्तेपे । तेन च तपसा स च पुंस्त्वं प्राप । प्राप्तपुंव्यञ्जनं ते रात्रावुपलभ्य प्रीता शश्वत्व मया तमस्तौत् । “अस्य आसङ्गस्य “पुरस्तात् पूर्वभागे गुह्यदेशे “स्थूरं =स्थूलं वृद्धं सत् पुंव्यञ्जनम् “अनु “ददृशे अनुदृश्यते । “अनस्थः अस्थिरहितः स चावयवः “ऊरुः =उरु=र्विस्तीर्णः “अवरम्बमाणः अतिदीर्घत्वेनावाङ्मुखं लम्बमानः । यद्वा । ऊरुः। सुपां सुलुक्' इति द्विवचनस्य सुः । ऊरू प्रत्यवलंबमानो भवति । { “शश्वती नामाङ्गिरसः सुता “नारी तस्यासङ्गस्य भार्या “अभिचक्ष्य एवंभूतमवयवं निशि दृष्ट्वा हे “अर्य स्वामिन् भर्तः} “सुभद्रम्= अतिशयेन कल्याणं “भोजनं =भोगसाधनं “बिभर्षि= धारयसीति “आह= ब्रूते ॥ ३४ ॥
अनुवाद-व अर्थ-★
ये आसङ्ग नामक राजा कभी देव- शाप से नपुंसकता को प्राप्त हो गये थे। तब उनकी पत्नी शाश्वती ने पति के नपुंसक होने से दु:खी होकर महान तप किया। उसी तप से उसके पति आसंग ने पुरुषत्व को प्राप्त किया। पुरुषत्व प्राप्त कर रात्रि काल में पति के सानिध्य में इस ऋचा से उसकी स्तुति की  तब आसंग के पूर्व भाग ( जननेन्द्रिय) में पुरुषत्व की वृद्धि हुई। अस्थि रहित यह अंग अत्यंत दीर्घ होकर वृद्धि से नीचे की ओर लटक गया (लम्बवान हो गया)
यही शाश्वती आंगिरस ऋषि की सुता (पुत्री) थी। और आसंग की भार्या। रात्रि काल में जब जनन अंग को देखकर कहा –हे ! आर्य ! स्वामी ! बहुत ही कल्याण कारी जननेन्द्रय को आप धारण करते हो।३४।
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उज्जेन में "श्रीकर" गोप शिवभक्त की कथा-

< शिवपुराणम्‎ | संहिता ४ (कोटिरुद्रसंहिता)
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                    अध्यायः १७
      
                    "ऋषय ऊचुः ।
महाकालसमाह्वस्थज्योतिर्लिंगस्य रक्षिणः।।
भक्तानां महिमानं च पुनर्ब्रूहि महामते।।१।।
                    "सूत उवाच।
शृणुतादरतो विप्रो भक्तरक्षाविधायिनः।
महाकालस्य लिंगस्य माहात्म्यं भक्तिवर्द्धनम्।। २ 
उज्जयिन्यामभूद्राजा चन्द्रसेनाह्वयो महान् ।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञश्शिवभक्तो जितेन्द्रियः।।३।।
तस्याभवत्सखा राज्ञो मणिभद्रो गणो द्विजाः।।
गिरीशगणमुख्यश्च सर्वलोकनमस्कृतः।४।।
एकदा स गणेन्द्रो हि प्रसन्नास्यो महामणिम् ।।
मणिभद्रो ददौ तस्मै चिंतामणिमुदारधीः ।।५।।
स वै मणिः कौस्तुभवद्द्योतमानोर्कसन्निभः ।।
ध्यातो दृष्टः श्रुतो वापि मंगलं यच्छति ध्रुवम् ।६ ।।
तस्य कांतितलस्पृष्टं कांस्यं ताम्रमयं त्रपु ।।
पाषाणादिकमन्यद्वा द्रुतं भवति हाटकम्।। ७ ।।
स तु चिन्तामणिं कण्ठे बिभ्रद्राजा शिवाश्रयः ।।
चन्द्रसेनो रराजाति देवमध्येव भानुमान्।।८।।
श्रुत्वा चिन्तामणिग्रीवं चन्द्रसेनं नृपोत्तमम् 
निखिलाः क्षितिराजानस्तृष्णाक्षुब्धहृदोऽभवन्।९ 
नृपा मत्सरिणस्सर्वे तं मणिं चन्द्रसेनतः ।।
नानोपायैरयाचन्त देवलब्धमबुद्धयः।4.17.१०
सर्वेषां भूभृतां याञ्चा चन्द्रसेनेन तेन वै ।।
व्यर्थीकृता महाकालदृढभक्तेन भूसुराः ।। ११ ।।
ते कदर्थीकृतास्सर्वे चन्द्रसेनेन भूभृता ।।
राजानस्सर्वदेशानां संरम्भं चक्रिरे तदा ।।१२।।
अथ ते सर्वराजानश्चतुरंगबलान्विताः ।।
चन्द्रसेनं रणे जेतुं संबभूवुः किलोद्यताः ।। १३ ।।
ते तु सर्वे समेता वै कृतसंकेतसंविदः ।।
उज्जयिन्याश्चतुर्द्वारं रुरुधुर्बहुसैनिकाः ।। १४ ।।
संरुध्यमानां स्वपुरीं दृष्ट्वा निखिल राजभिः ।।
तमेव शरणं राजा महाकालेश्वरं ययौ ।।१५।।
निर्विकल्पो निराहारस्स नृपो दृढनिश्चयः ।।
समानर्च महाकालं दिवा नक्तमनन्यधीः ।। १६ ।।
ततस्स भगवाञ्छंभुर्महाकालः प्रसन्नधीः ।।
तं रक्षितुमुपायं वै चक्रे तं शृणुतादरात् ।। १७ ।।

तदैव समये गोपि काचित्तत्र पुरोत्तमे।
चरन्ती सशिशुर्विप्रा महाकालान्तिकं ययौ।१८।
पञ्चाब्दवयसंबालं वहन्ती गतभर्तृका।

सा दृष्ट्वा सुमहाश्चर्यां शिवपूजां च तत्कृताम्प्र णिपत्य स्वशिविरं पुनरेवाभ्यपद्यत
4.17.२०।
तत्सर्वमशेषेण स दृष्ट्वा बल्लवीसुतः ।।
कुतूहलेन तां कर्त्तुं शिवपूजां मनोदधे ।।२१।।
आनीय हृद्यं पाषाणं शून्ये तु शिविरांतरे ।।
अविदूरे स्वशिविराच्छिवलिगं स भक्तितः।२२। 
गन्धालंकारवासोभिर्धूपदीपाक्षतादिभिः ।।
विधाय कृत्रिमैर्द्रव्यैर्नैवेद्यं चाप्यकल्पयत् ।। २३ ।।
भूयोभूयस्समभ्यर्च्य पत्रैः पुष्पैर्मनोरमैः ।।
नृत्यं च विविधं कृत्वा प्रणनाम पुनःपुनः ।। २४ ।।
एतस्मिन्समये पुत्रं शिवासक्तसुचेतसम् ।।
प्रणयाद्गोपिका सा तं भोजनाय समाह्वयत्।२५।
यदाहूतोऽपि बहुशश्शिवपूजाक्तमानसः ।।
बालश्च भोजनं नैच्छत्तदा तत्र ययौ प्रसूः ।।२६।।
तं विलोक्य शिवस्याग्रे निषण्णं मीलितेक्षणम् ।।
चकर्ष पाणिं संगृह्य कोपेन समताडयत् ।।२७।।
आकृष्टस्ताडितश्चापि नागच्छत्स्वसुतो यदा ।।
तां पूजां नाशयामास क्षिप्त्वा लिंगं च दूरतः।२८।
हाहेति दूयमानं तं निर्भर्त्स्य स्वसुतं च सा ।
पुनर्विवेश स्वगृहं गोपी क्रोधसमन्विता ।।२९।।
मात्रा विनाशितां पूजां दृष्ट्वा देवस्य शूलिनः।
देवदेवेति चुक्रोश निपपात स बालकः।4.17.३०।
प्रनष्टसंज्ञः सहसा स बभूव शुचाकुलः ।
लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन चक्षुषी उदमीलयत् ।३१ ।
तदैव जातं शिविरं महाकालस्य सुन्दरम् ।।
ददर्श स शिशुस्तत्र शिवानुग्रहतोऽचिरात् ।३२।
हिरण्मयबृहद्द्वारं कपाटवरतोरणम् ।।
महार्हनीलविमलवज्रवेदीविराजितम् ।३३ ।।
संतप्तहेमकलशैर्विचित्रैर्बहुभिर्युतम् ।।
प्रोद्भासितमणिस्तंभैर्बद्धस्फटिकभूतलैः ।। ३४ ।।
तन्मध्ये रत्नलिंगं हि शंकरस्य कृपानिधे।।
स्वकृतार्चनसंयुक्तमपश्यद्गोपिकासुतः ।।३५।।
स दृष्ट्वा सहसोत्थाय शिशुर्विस्मितमानसः ।।
संनिमग्न इवासीद्वै परमानन्दसागरे ।।३६।।
ततः स्तुत्वा स गिरिशं भूयोभूयः प्रणम्य च ।।
सूर्ये चास्तं गते बालो निर्जगाम शिवालयात्।३७।।
अथापश्यत्स्वशिविरं पुरंदरपुरोपमम्।।
सद्यो हिरण्मयीभूतं विचित्रं परमोज्ज्वलम्।।३८।।
सोन्तर्विवेश भवनं सर्वशोभासमन्वितम्।।
मणिहेमगणाकीर्ण मोदमानो निशामुखे ।। ३९ ।।
तत्रापश्यत्स्वजननीं स्वपंतीं दिव्यलक्षणाम्।।
रत्नालंकारदीप्तांगीं साक्षात्सुरवधूमिव।।4.17.४०।
अथो स तनयो विप्राश्शिवानुग्रहभाजनम्।।
जवेनोत्थापयामास मातरं सुखविह्वलः।।४१।।
सोत्थिताद्भुतमालक्ष्यापूर्वं सर्वमिवाभवत् ।।
महानंदसुमग्ना हि सस्वजे स्वसुतं च तम्।।४२।।
श्रुत्वा पुत्रमुखात्सर्वं प्रसादं गिरिजापतेः ।।
प्रभुं विज्ञापयामास यो भजत्यनिशं शिवम् ।।४३।।
स राजा सहसागत्य समाप्तनियमो निशि ।।
ददर्श गोपिकासूनोः प्रभावं शिवतोषणम् ।।४४।।
दृष्ट्वा महीपतिस्सर्वं तत्सामात्यपुरोहितः ।।
आसीन्निमग्नो विधृतिः परमानंदसागरे।।४५।।
प्रेम्णा वाष्पजलं मुञ्चञ्चन्द्रसेनो नृपो हि सः।।
शिवनामोच्चरन्प्रीत्या परिरेभे तमर्भकम् ।।४६।।
महामहोत्सवस्तत्र प्रबभूवाद्भुतो द्विजाः।।
महेशकीर्तनं चक्रुस्सर्वे च सुखविह्वलाः।।४७।।
एवमत्यद्भुताचाराच्छिवमाहात्म्यदर्शनात् ।।
पौराणां सम्भ्रमाच्चैव सा रात्रिः क्षणतामगात्।४८।
अथ प्रभाते युद्धाय पुरं संरुध्य संस्थिताः ।।
राजानश्चारवक्त्रेभ्यश्शुश्रुवुश्चरितं च तत् ।। ४९ ।।
ते समेताश्च राजानः सर्वे येये समागताः ।।
परस्परमिति प्रोचुस्तच्छ्रुत्वा चकित अति ।। 4.17.५०।।
                 "राजान ऊचुः।
अयं राजा चन्द्रसेनश्शिवभक्तोति दुर्जयः ।।
उज्जयिन्या महाकालपुर्याः पतिरनाकुलः।५१ ।।
ईदृशाश्शिशवो यस्य पुर्य्यां संति शिवव्रताः ।।
स राजा चन्द्रसेनस्तु महाशंकरसेवकः ।। ५२ ।।
नूनमस्य विरोधेन शिवः क्रोधं करिष्यति ।
तत्क्रोधाद्धि वयं सर्वे भविष्यामो विनष्टकाः।५३ ।।
तस्मादनेन राज्ञा वै मिलापः कार्य एव हि ।।
एवं सति महेशानः करिष्यति कृपां पराम्।५४ ।।
                   "सूत उवाच।।
इति निश्चित्य ते भूपास्त्यक्तवैरास्सदाशयाः ।।
सर्वे बभूवुस्सुप्रीता न्यस्तशस्त्रास्त्रपाणयः ।५५ ।।
विविशुस्ते पुरीं रम्यां महाकालस्य भूभृतः ।।
महाकालं समानर्चुश्चंद्रसेनानुमोदिताः ।। ५६ ।।
ततस्ते गोपवनिता गेहं जग्मुर्महीभृतः ।।
प्रसंशंतश्च तद्भाग्यं सर्वे दिव्यमहोदयम् ।। ५७ ।।
ते तत्र चन्द्रसेनेन प्रत्युद्गम्याभिपूजिताः ।।
महार्हविष्टरगताः प्रत्यनंदन्सुविस्मिताः ।।५८ ।।
गोपसूनोः प्रसादात्तत्प्रादुर्भूतं शिवालयम् ।।
संवीक्ष्य शिवलिंगं च शिवे चकुःपरां मतिम्।५९।।
ततस्ते गोपशिशवे प्रीता निखिलभूभुजः ।।
ददुर्बहूनि वस्तूनि तस्मै शिवकृपार्थिनः ।६०।
येये सर्वेषु देशेषु गोपास्तिष्ठंति भूरिशः ।।
तेषां तमेव राजानं चक्रिरे सर्वपार्थिवाः ।। ६१ ।।
अथास्मिन्नन्तरे सर्वैस्त्रिदशैरभिपूजितः ।।
प्रादुर्बभूव तेजस्वी हनूमान्वानरेश्वरः ।। ६२ ।।
ते तस्याभिगमादेव राजानो जातसंभ्रमाः ।।
प्रत्युत्थाय नमश्चकुर्भक्तिनम्रात्ममूर्तयः ।।६३ ।।
तेषां मध्ये समासीनः पूजितः प्लवगेश्वरः ।।
गोपात्मजं तमालिंग्य राज्ञो वीक्ष्येदमब्रवीत्।६४ ।।
                   हनूमानुवाच!
सर्वे शृण्वन्तु भद्रं वो राजानो ये च देहिनः ।।
ऋते शिवंनान्यतमो गतिरस्ति शरीरिणाम्।६५।
एवं गोपसुतो दिष्ट्या शिवपूजां विलोक्य च।
अमंत्रेणापिसंपूज्य शिवं शिवमवाप्तवान्।६६।
एष भक्तवरश्शंभोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः।
इह भुक्त्वाखिलान्भोगानंते मोक्षमवाप्स्यति। ६७।
★-अस्य वंशेऽष्टमो भावी नन्दो नाम महायशाः
प्राप्स्यतेतस्यपुत्रत्वं कृष्णोनारायणस्स्वयम्।६८।
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अद्यप्रभृतिलोकेस्मिन्नेष गोपकुमारकः।
नाम्नाश्रीकर इत्युच्चैर्लोकख्यातिं गमिष्यति।६९।
                    "सूत उवाच ।
एवमुक्त्वाञ्जनीसूनुः शिवरूपो हरीश्वरः।
सर्वान्राज्ञश्चन्द्रसेनं कृपादृष्ट्या ददर्श ह।4.17.७०।
अथ तस्मै श्रीकराय गोपपुत्राय धीमते।
उपादिदेश सुप्रीत्या शिवाचारं शिवप्रियम्।७१।
हनूमानथ सुप्रीतः सर्वेषां पश्यतां द्विजः।।
चन्द्रसेनं श्रीकरं च तत्रैवान्तरधी यत।।७२।।
तं सर्वे च महीपालास्संहृष्टाः प्रतिपूजिताः।।
चन्द्रसेनं समामंत्र्य प्रतिजग्मुर्यथागतम्।।७३।।
श्रीकरोपि महातेजा उपदिष्टो हनूमता।।
ब्राह्मणैस्सहधर्मज्ञैश्चक्रे शम्भोस्समर्हणम् ।।७४।।
चन्द्रसेनो महाराजः श्रीकरो गोपबालकः।।
उभावपि परप्रीत्या महाकालं च भेजतुः।। ७५ ।।
कालेन श्रीकरस्सोपि चन्द्रसेनश्च भूपतिः।।
समाराध्य महाकालं भेजतुः परमं पदम् ।।७६।।
एवंविधो महाकालश्शिवलिंगस्सतां गतिः ।।
सर्वथा दुष्टहंता च शंकरो भक्तवत्सलः।।७७।।
इदं पवित्रं परमं रहस्यं सर्वसौख्यदम् ।।
आख्यानंकथितं स्वर्ग्यंशिवभक्तिविवर्द्धनम्।७८।
इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां महाकालज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः।।१७।

अध्याय 17 - ज्योतिर्लिंग महाकाल का माहात्म्य

          मुनियों ने कहा :-

1. हे परम बुद्धिमान, कृपया अपने भक्तों के रक्षक ज्योतिर्लिंग महाकाल की महानता का फिर से उल्लेख करें ।

सूत ने कहा :-

2. हे ब्राह्मणों, भक्तों के रक्षक महाकाल की भक्ति वर्धक महिमा को रुचिपूर्वक सुनो।

3.उज्जयिनी में एक राजा चंद्रसेन था , जो शिव का भक्त था , जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था और जो सभी शास्त्रों के सिद्धांतों को जानता था ।

4. हे ब्राह्मणों, गण मणिभद्र , लोगों द्वारा सम्मानित, शिव के गणों के प्रमुख , उस राजा के मित्र थे।

5. एक बार उदार-दिमाग वाले गण-प्रमुखप्रसन्न-मुख मणिभद्र ने, उन्हें   महान गहना चिंतामणि दिया।

6. मणि सूर्य के समान तेजस्वी थी। यह कौस्तुभ की तरह चमक रहा थी । ध्यान करने, सुनने या देखने पर यह शुभ फल देती है।

7. बेल-धातु, तांबा, टिन या पत्थर से बनी कोई भी वस्तु उसकी चमकीली सतह से स्पर्श करने पर सोना बन जाती है।

8. उस मणि को अपने गले में धारण करने से शिव पर आश्रित राजा चंद्रसेन देवताओं के बीच में सूर्य की तरह अच्छी तरह से चमकने लगे।

9. श्रेष्ठ राजा चंद्रसेन के गले में चिंतामणि धारण किए हुए सुनकर पृथ्वी के राजा लोभ के मारे हृदय में व्याकुल हो उठे।

10. राजाओं ने अनजाने में उसके साथ प्रतिद्वंद्विता करने की कोशिश की, चंद्रसेन से भीख मांगी, वह गहना जो भगवान से प्राप्त हुआ था। रत्न प्राप्त करने के लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाते थे।

11.हे ब्राह्मणों, शिव के कट्टर भक्त चन्द्रसेन ने राजाओं के आग्रह को व्यर्थ कर दिया।

12. इस प्रकार उसके कारण सब देशोंके राजा निराश और क्रोधित हुए।

13. तब चारों प्रकार की सेनाओं से सुसज्जित राजाओं ने युद्ध में चंद्रसेन को जीतने का प्रयास किया।

14. वे आपस में मिले, सम्मति की, और आपस में षडयंत्र किया। एक विशाल सेना के साथ उन्होंने उज्जयिनी के चार मुख्य द्वारों को घेर लिया।

15. अपने नगर को राजाओं द्वारा इस प्रकार आक्रमण करते देख, राजा चंद्रसेन ने महाकालेश्वर की शरण ली।

16. बिना किसी संदेह और संकोच के, स्थिर संकल्प वाले उस राजा ने बिना किसी और चीज में मन लगाए दिन-रात महाकाल की पूजा की, ।

17. तब भगवान शिव ने, उसके मन में प्रसन्न होकर, उसे बचाने के लिए एक उपाय बनाया। इसे ध्यान से सुनें।

 18. हे ब्राह्मणों, उसी समय उस उत्कृष्ट नगर में एक गोप की पत्नी अहीराणी अपने बच्चे के साथ इधर-उधर घूमती हुई महाकाल के पास आई थी।

19. उसने अपने पति को खो दिया था {गतभर्तृका=गतो नष्टः प्रोषितो वा भर्त्ता यस्याः}  । उसने अपने पांच साल के बच्चे को गोद में लिया। बड़ी भक्ति के साथ उसने सम्राट द्वारा की जाने वाली महाकाल पूजा को देखा।

20. उसके द्वारा की गई अद्भुत शिव-पूजा को देखकर और झुककर वह अपने शिविर में लौट आई।

21. उस अहीर के पुत्र ने, जिसने सब कुछ कौतुहलवश देखा था, शिव की पूजा इसी प्रकार करने का विचार किया।

22-23. वह कहीं से एक अच्छा कंकड़ ले आया और उसे अपना शिवलिंग समझ लिया । उसने उसे अपने डेरे से दूर एक खाली जगह पर रख दिया। उन्होंने अपनी पूजा के दौरान विभिन्न वस्तुओं की कल्पना मीठी सुगंध, आभूषण, वस्त्र, धूप, दीपक, चावल के दाने और खाद्यान्न के रूप में की।

24. वह रमणीय पत्तों और पुष्पों से बार-बार पूजा करता हुआ नाना प्रकार से नाचता और बार-बार प्रणाम करता है।

25.जैसे ही उस अहीर बालक का मन  शिव की पूजा में लीन हुआ, उनकी माता ने उन्हें भोजन करने के लिए बुलाया।

26.जब पूजा में लीन पुत्र को बार-बार बुलाने पर भी भोजन करना अच्छा नहीं लगा तो माता वहाँ चली गई।

27.उसे शिव के सामने आंखें बंद किए बैठे देखकर उसने क्रोध से उसका हाथ पकड़ लिया, उसे घसीट कर पीटा।

28.जब पुत्र घसीटकर मारने पर भी न आया, तब उस ने  शिव-मूर्ति को दूर फेंककर उसकी पूजा बिगाड़ दी।

29.अपके पुत्र को जो अत्यन्त दयनीय विलाप करता था उसको, डांटती हुई कुपित गोपिका फिर अपने घर में घुस गई।

30. माता के द्वारा बिगाड़ी गई शिव पूजा को देखकर बालक गिरकर चिल्‍लाने लगा, हे स्‍वामी, हे स्‍वामी।

31.अपने अत्यधिक दु:ख में वह अचानक बेहोश हो गया। कुछ देर बाद होश आने पर उसने आंखें खोलीं।

32.तुरंत शिविर महाकाल का एक सुंदर मंदिर बन गया। शिव के आशीर्वाद से उस बालक ने यह सब देखा।

33.द्वार सोने का बना था  द्वार पर उत्तम तोरण थे। मंदिर में कीमती और शुद्ध नीले हीरों से जड़ा एक चमकदार मंच था।

34.मंदिर कई सुनहरे बर्तनों के गुंबदों, चमकते हुए रत्नों से सजे स्तंभों और  स्फटिक (क्रिस्टल)-।  ईंटों से बने फर्श से सुसज्जित था।

 विशेष:-एक प्रकार का सफेद बहुमूल्य पत्थर या रत्न। बिल्लौर

35 बीच में, उस अहीर के बेटे ने पूजा के लिए उपयोग की जाने वाली वस्तुओं के साथ-साथ दया के भंडार शिव का एक रत्न-विहीन लिंग देखा।

36. इन्हें देखकर लड़के के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। वह फौरन उठा। ऐसा लगता था जैसे वे परम आनंद के सागर में डूबे हुए हो।

37. उसन स्तुति की और बार-बार शिव को प्रणाम किया। जब सूरज ढल गया तो लड़का शिव मंदिर से बाहर आया।

38. तब उसको अपनी छावनी, जो इन्द्र के नगर के तुल्य शोभायमान थी, दिखाई पड़ी । यह अचानक सोने की, रंग-बिरंगी प्रकृति और बहुत चमक में तब्दील हो गया थी।

39. वह रात में सब कुछ चमकीला और जगमगाता हुए घर में दाखिल हुआ। जगह-जगह जेवरात और सोने के टुकड़े बिखरे पड़े थे। वह बहुत खुश था।

40. वहां उसने अपनी माता को सोते हुए देखा। वह सभी दिव्य गुणों वाली एक दिव्य महिला की तरह थी। उसके अंग अलंकृत गहनों से दमक रहे थे ।

41. हे ब्राह्मणों, तब उस पुत्र ने, जो शिव के आशीर्वाद का विशेष पात्र था, खुशी से उत्साहित होकर अपनी माँ को तुरन्त जगाया।

42. उठकर और सब कुछ अभूतपूर्व रूप से अद्भुत देखकर, वह मानो महान आनंद में डूबी हुई थी। उसने अपने बेटे को गले से लगा लिया।

43. अपने पुत्र से पार्वती के स्वामी शिव के कृपालु अनुग्रह के बारे में सब कुछ सुनकर उसने इसका संदेश सम्राट को भेजा जो लगातार शिव की पूजा कर रहा था।

44. जिस राजाचंद्रसेन ने रात के दौरान अनुष्ठानों का पालन किया था, वह तुरंत वहाँ आया और उसने शिव को प्रसन्न करने में अहीर के बेटे के प्रभाव को देखा।

45. सब कुछ अपने मन्त्रियों और महापुरोहितों के सानिध्य में देखकर राजा परम आनंद के सागर में डूब गया और उसका साहस बढ़ गया।

46. ​​राजा चंद्रसेन ने प्रेम के आंसू बहाते हुए और आनंद से शिव के नामों को दोहराते हुए लड़के को गले लगा लिया।

47. हे ब्राह्मणों, एक महान और अद्भुत उल्लास था। खुशी से उत्साहित होकर उन्होंने भगवान शिव के गौरवशाली कीर्तनगीत गाए।

48. इस अद्भुत घटना के कारण, शिव की महानता के इस प्रकटीकरण और नागरिकों के बीच  घूमाफिरी  के कारण, रात ऐसे बीत गई जैसे कि यह केवल एक क्षण हो।

49. जिन राजाओं ने चढ़ाई करने के लिये नगर को घेर रखा था, उन्होंने अपने गुप्तचरों के द्वारा भोर को इस चमत्कारिक घटना का समाचार सुना।

50. यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ कि जो राजा वहां आए थे वे आपस में मिले और आपस में विचार किया।

राजाओं ने कहा :-

51. यह राजा चंद्रसेन शिव का भक्त है और इसलिए अजेय है। महाकाल की नगरी उज्जयिनी के राजा कभी भी व्यथित नहीं होते।

52. राजा चंद्रसेन शिव के बहुत बड़े भक्त हैं क्योंकि उनके शहर के बच्चे भी शिव के संस्कारों का पालन करते हैं।

53. यदि हम उनका अपमान करते हैं तो निश्चित रूप से शिव क्रोधित होंगे। अगर शिव क्रोधित हुए तो हम बर्बाद हो जाएंगे।

54. अत: हम उसके साथ सन्धि कर लें  तो उस स्थिति में भगवान शिव हम पर दया करेंगे।

सूत ने कहा :-

55. इस प्रकार निश्चय करके राजाओं ने वैर का परित्याग कर दिया  उन्हें मन की पवित्रता प्राप्त हुई  वे प्रसन्न हुए उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र रख दिए।

56. चंद्रसेन द्वारा उन राजाओ को अनुमत और प्रोत्साहित किए जाने पर, उन्होंने महाकाल के सुंदर शहर उज्जयिनी में प्रवेश किया और  शिव की पूजा की।

57. तब वे सभ राजा अहीर बालक के घर गए।उन्होंने दिव्य आशीर्वाद देने के साथ उसके सौभाग्य की प्रशंसा की।

58. वहां चंद्रसेन द्वारा उनका स्वागत और सम्मान किया गया। एक बहुत योग्य  विष्टर (आसन) पर विराजमान होकर उन्होंने उसका अभिनंदन किया और वे चकित रह गए।

59. शिव के मंदिर और उठे हुए शिव-लिंग को देखकर, अहीर के पुत्र की शक्ति के कारण उन्होंने अपने मन को शिव में स्थिर कर लिया ।

60. प्रसन्न हुए राजाओं ने शिव की सहानुभूति मांगी और उस अहीर बालक को कई मूल्यवान वस्तुएँ भेंट कीं।

61. राजाओं ने उसको अपने सब देश के गोपों का प्रधान ठहराया।

62. इस बीच देवताओं द्वारा पूजित वानरों के तेजवान स्वामी हनुमान जी वहां प्रकट हुए।

63. उनके आगमन पर राजा हतप्रभ रह गए। वे श्रद्धा से उठे और उनको भक्ति से पूरी तरह से विनम्र होकर उन्हें प्रणाम किया।

64. उनके द्वारा पूजित और उनके बीच में बैठकर वानरों के स्वामी हनुमान ने उस गोप-पुत्र को गले लगाया और राजाओं की ओर देखा और कहा।

हनुमान् ने कहा :-

65. हे राजाओं और यहां की सब आत्माओं की ऋत( सत्य) सुनो। शिव के अतिरिक्त मनुष्य का और कोई लक्ष्य नहीं है।

66. इस गोप लड़के ने सौभाग्य से शिव की पूजा देखी और मंत्रों के प्रयोग के बिना ही उन्होंने  शवसु भक्ति का सुख प्राप्त किया।

67. शिव का परम भक्त, अहीरों की कीर्ति बढ़ाने वाला यह बालक यहीं सब सुख भोगेगा और आगे चलकर मोक्ष को प्राप्त होगा।

68. उसके वंश में आठवीं पीढ़ी में एक प्रसिद्ध गोप  नन्द नाम से होगें  विष्णु स्वयं उनके पुत्र कृष्ण के रूप में जन्म लेंगे ।

69. अब से यह गोप श्रीकर के नाम से पूरे विश्व में गौरव प्राप्त करेगा ।

सूत ने कहा :-

70. ऐसा कहने के बाद, अंजना के पुत्र शिव के रूप में वानरों के स्वामी ने कृपापूर्वक राजाओं और चंद्रसेन पर नज़र डाली।

71. तब उन्होंने भगवान को प्रसन्न करने वाले शिव के संस्कारों में प्रसन्न होकर बुद्धिमान चरवाहे श्रीकर को दीक्षित किया।

72. हे ब्राह्मणों जैसे ही वे सभी चंद्रसेन और श्रीकर को देख रहे थे, प्रसन्न हनुमान् वहीं गायब हो गए।

73. हर्षित राजाओं ने जिनका विधिवत सम्मान किया गया था, चंद्रसेन से विदा ली और जिस तरह से आए थे उसी तरह लौट गए।

74. हनुमत द्वारा दीक्षित तेजस्वी श्रीकर ने पवित्र संस्कारों में पारंगत ब्राह्मणों सहित शिव को प्रसन्न किया।

75. राजा चंद्रसेन और श्रीकर, चरवाहे लड़के, ने बड़ी भक्ति और आनंद के साथ महाकाल की पूजा की।

76. नियत समय में, श्रीकर और चंद्रसेन ने महाकाल को प्रसन्न करते हुए भगवान शिव के महान क्षेत्र को प्राप्त किया।

77. ऐसा शिव महाकाल का लिंग रूप है, जो अच्छे लोगों का लक्ष्य है, हर तरह से दुष्टों का संहार करने वाला है, जो अपने भक्तों के प्रति अनुकूल है।

78. इस प्रकार सब प्रकार के सुखों को देने वाली, स्वर्ग के लिए अनुकूल और शिव की भक्ति को बढ़ाने वाली महान रहस्य, पावन कथा आपको सुनाई गई है।_____________________________________

शिवपुराण संहिता (४) 
(कोटिरुद्रसंहिता) अध्यायः (२८)
                    "सूत उवाच।
रावणः राक्षसश्रेष्ठो मानी मानपरायणः ।।
आरराध हरं भक्त्या कैलासे पर्वतोत्तमे।।१।।
आराधितः कियत्कालं न प्रसन्नो हरो यदा।।
तदा चान्यत्तपश्चक्रे प्रासादार्थे शिवस्य सः।२।।
नतश्चायं हिमवतस्सिद्धिस्थानस्य वै गिरेः।।
पौलस्त्यो रावणश्श्रीमान्दक्षिणे वृक्षखंडके।३।
भूमौ गर्तं वर कृत्वातत्राग्निं स्थाप्य सद्विजाः।।
तत्सन्निधौ शिवं स्थाप्य हवनं स चकार ह।४।।
ग्रीष्मे पंचाग्निमध्यस्थो वर्षासु स्थंडिलेशयः।
शीते जलांतरस्थो हि त्रिधाचक्रे तपश्च सः।५।
चकारैवं बहुतपो न प्रसन्नस्तदापि हि ।
परमात्मा महेशानो दुराराध्यो दुरात्मभिः।६ ।
ततश्शिरांसि छित्त्वा च पूजनं शंकरस्य वै।
प्रारब्धं दैत्यपतिना रावणेन महात्मना ।७।
एकैकं च शिरश्छिन्नं विधिना शिवपूजने ।।
एवं सत्क्रमतस्तेन च्छिन्नानि नव वै यदा ।६ ।।
एकस्मिन्नवशिष्टे तु प्रसन्नश्शंकरस्तदा।।
आविर्बभूव तत्रैव संतुष्टो भक्तवत्सलः।।९।।
_____
जब रावण शिव के आराधना काल में नव वार अपने शिर का छेदन करके शिव को अर्पित करता है । तब शिव प्रसन्न होकर प्रकट होकर उसकी आराधना से संतुष्ट होते हैं।
_______________________    
शिरांसि पूर्ववत्कृत्वा नीरुजानि तथा प्रभुः।
मनोरथं ददौ तस्मादतुलं बलमुत्तमम् । 4.28.१०।
उसके सभी शिरो ं(मस्तकों)को पहले जैसा कर देते हैं और उसे अतुलित बल प्रदान करते हैं 
प्रसादं तस्यसंप्राप्य रावणस्स चराक्षसः।
प्रत्युवाचशिवंशम्भुं नतस्कंधःकृतांजलिः।११।
                  "रावण उवाच ।
प्रसन्नो भव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम् ।
सफलं कुरु मे कामं त्वामहं शरणं गतः।१२।
 रावण कहता है हे प्रभु प्रसन्न होइए और मैं तुमको लंका को ले जाऊँगा। मेरी कामना सफल करो मैं तुम्हारी शरण हूँ।              
                    "सूत उवाच ।
इत्युक्तश्च तदा तेन शम्भुर्वै रावणेन सः ।
प्रत्युवाच विचेतस्कःसंकटं परमं गतः।१३।
इस प्रकार  शिव कहा तब रावण के द्वारा  उत्तर देकर चेतना प्रदान की और उसके सब संकट मिट गये ।
                   " शिव उवाच ।
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया ।
नीयतांस्वगृहेमे हिसद्भक्त्यालिंगमुत्तमम्।१४।
अर्थशिव ने रावण से कहा सुन रावण मेरे श्रेष्ठ वचन सार रूप से अपने घर ये शिव लिंग सद् भक्ति से लेजाकर
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि तत्र वै ।।
स्थास्यत्यत्र नसंदेहो यथेच्छसि तथा कुरु।१५।
भूमि में जहाँ इसकी स्थापना करेगा जहाँ तेरी इच्छा होगी वह वहीं स्थापित होगा इसमें सन्देह नहीं ।
                    "सूत उवाच ।
इत्युक्तश्शंभुना तेन रावणो राक्षसेश्वरः।
तथेति तत्समादाय जगाम भवनं निजम्।१६।
इस प्रकार शम्भु के द्वारा रावण के प्रति कहा गया तब वह अपने घर की ओर गया।
____________   
आसीन्मूत्रोत्सर्गकामोमार्गे हि शिवमायया।।
तत्स्तंभितुंनशक्तोभूत्पौलस्त्योरावणःप्रभुः१७।
जब मार्ग में शिव की माया से उसे  रावण को मूत्र विसर्जन की इच्छा हुई  तब वह वहाँ कही शिवलिंग को कहीं रखना नहीं चाहता था।
दृष्ट्वैकं तत्र वै गोपं प्रार्थ्य लिंगं ददौ च तत्।
मुहूर्तके ह्यतिक्रांते गोपोभूद्विकलस्तदा।१८।
तब वहाँ एक गोप वाले से प्रार्थना करके वह शिव लिंग उसे पकड़ा दिया ताकि रावण लघुशंका कर सके और एक मुहूर्त वहीं बीत गया वह गोप है बैचेन हुआ।
भूमौ संस्थापयामास तद्भारेणातिपीडितः।
तत्रैव तत्स्थितं लिंगं वज्रसारसमुद्भवम्।
सर्वकामप्रदं चैव दर्शनात्पापहारकम् ।१९।
तब उसने उसे भूमि पर स्थापित कर दिया उस शिव लिंग के भार से पीड़ित होकर वहाँ ही वह स्थित लिंग वजसार से उत्पन्न सभी कामनाओं को प्रदान करने वाला और दर्शन मात्र सभी पापों का हरण करने वाला हुआ।
वैद्यनाथेश्वरं नाम्ना तल्लिंगमभवन्मुने।
प्रसिद्धं त्रिषु लोकेषु भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम्।4.28.२०।
वैद्यनाथेश्वर नाम के द्वारा संसार में उसे पहचान मिली और तीनों लोकों में  सज्जन पुरुषों को भुक्ति ( भोग) और मुक्ति प्रदान करने वाला  हुआ।
____________________
ज्योतिर्लिंगमिदं श्रेष्ठं दर्शनात्पूजनादपि ।
सर्वपापहरं दिव्यं भुक्तिवर्द्धनमुत्तमम् ।२१।
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इस  श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजन से ही सभी पाप हरण होते हैं और दिव्य भोग और उत्तम वृद्धि होती है।

तस्मिँलिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै ।
रावणः स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम् ।
प्रियायैसर्वमाचख्यौ सुखेनाति महासुरः।२२।
___
उस लिंग के  स्थित होनेपर उसे छोड़कर वहाँ सभी लोकों के हित के लिए रावण अपने घर जाकर  उत्तम वर पाकर सभी प्रिय कार्यों का सुख से सम्पादन  करता  ।
तच्छ्रुत्वासकला देवाश्शक्राद्या मुनयस्तथा।
परस्परंसमामन्त्र्य शिवासक्तधियोऽमलाः।२३।
तस्मिन्काले सुरास्सर्वे हरिब्रह्मादयो मुने।
आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषतः।२४।
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्ट्वा प्रतिष्ठाप्य च ते सुराः।
वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा नुत्वा दिवं ययुः।२५।
                   "ऋषय ऊचुः।।
तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र रावणे च गृहं गते।
किं किंचरित्रमभूत्तात ततस्तद्वदविस्तरात्।२६।
                   "सूत उवाच।।
रावणोपि गृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम्।।
प्रियायै सर्वमाचख्यौ मुमोदाति महासुरः।२७।
तच्छ्रुत्वा सकलं देवाश्शक्राद्या मुनयस्तथा ।
परस्परं सुमूचुस्ते समुद्विग्ना मुनीश्वरा:।२८ ।
                  "देवादय ऊचुः।
रावणोयं दुरात्मा हि देवद्रोही खलःकुधीः।
शिवाद्वरंचसंप्राप्यदुःखं दास्यतिनोऽपिसः।२९।
किं कुर्मःक्व च गच्छामःकिंभविष्यति वा पुनः।
दुष्टश्चदक्षतांप्राप्तःकिंकिं नो साधयिष्यति।३०।
इति दुःखं समापन्नाश्शक्राद्या मुनयस्सुराः।।
नारदं च समाहूय पप्रच्छुर्विकलास्तदा ।।३१।।
                   "देवा ऊचुः।।
सर्वं कार्य्यं समर्थोसि कर्तुं त्वं मुनिसत्तम ।
उपायं कुरु देवर्षे देवानां दुःखनाशने ।३२ ।।
रावणोयं महादुष्टः किंकि नैव करिष्यति ।
क्वयास्यामो वयंचात्रदुष्टेनापीडितावयम्।३३।
                    "नारद उवाच !
दुःखं त्यजतभो देवा युक्तिं कृत्वा च याम्यहम्।
देवकार्यं करिष्यामि कृपया शंकरस्य वै।३४।
                   "सूत उवाच।
इत्युक्त्वा स तु देवर्षिरगमद्रावणालयम् ।।
सत्कारंसमनुप्राप्यप्रीत्योवाचाखिलंचतत्। ३५।
                    "नारद उवाच ।।
राक्षसोत्तम धन्यस्त्वं शैववर्य्यस्तपोमनाः।
त्वां दृष्ट्वा च मनो मेद्य प्रसन्नमति रावण।३६।।
स्ववृत्तं ब्रूह्यशेषेण शिवाराधनसंभवम्।।
इति पृष्टस्तदा तेन रावणो वाक्यमब्रवीत्।३७।
                 "रावण उवाच ।
गत्वा मया तु कैलासे तपोर्थं च महामुने ।।
तत्रैव बहुकालं वै तपस्तप्तं सुदारुणम् ।३८।
यदा न शंकरस्तुष्टस्ततश्च परिवर्तितम् ।।
आगत्य वृक्षखंडे वैपुनस्तप्तं मया मुने।३९।
ग्रीष्मे पंचाग्निमध्ये तु वर्षासु स्थंडिलेशयः।
शीते जलांतरस्थो हि कृतं चैव त्रिधा तपः।४०।
एवं मया कृतं तत्र तपोत्युग्रं मुनीश्वर।
तथापिशंकरोमह्यंनप्रसन्नोऽभवन्मनाक्।४१।
तदा मया तु क्रुद्धेन भूमौ गर्तं विधाय च ।।
तत्राग्निं समाधाय पार्थिवं च प्रकल्प्य च।४२।
गंधैश्च चंदनैश्चैव धूपैश्च विविधैस्तदा ।।
नैवेद्यैः पूजितश्शम्भुरारार्तिकविधानतः।४३।
प्रणिपातैः स्तवैः पुण्यैस्तोषितश्शंकरो मया।
गीतैर्नृत्यैश्च वाद्यैश्च मुखांगुलिसमर्पणैः४४ ।
एतैश्च विविधैश्चान्यैरुपायैर्भूरिभिर्मुने।
शास्त्रोक्तेन विधानेनपूजितो भगवान् हरः।४५।
न तुष्टःसन्मुखो जातो यदा च भगवान्हरः।
तदाहं दुःखितोभूवंतपसोऽप्राप्यसत्फलम्।४६।
धिक् शरीरं बलं चैव धिक् तपःकरणं मम।
इत्युक्त्वातु मया तत्र स्थापितेग्नौ हुतं बहु।४७।
पुनश्चेतिविचार्यैवत्वक्षाम्यग्नौनिजां तनुम् ।
संछिन्नानिशिरांस्येवतस्मिन्प्रज्वलितेशुचौ।४८।
सुच्छित्वैकैकशस्तानि कृत्वाशुद्धानि सर्वशः।
शंकरायार्पितान्येव नवसंख्यानि वै मया।४९ ।
यावच्च दशमंछेत्तुं प्रारब्धमृषिसत्तम ।
तावदाविरभूत्तत्रज्योतीरूपोहरस्स्वयम्।५०।
मामेति व्याहरत् प्रीत्या द्रुतं वै भक्तवत्सलः।
प्रसन्नश्च वरं ब्रूहि ददामि मनसेप्सितम् ।५१।
इत्युक्ते चतदा तेनमया दृष्टो महेश्वरः।
प्राणतस्संस्तुतश्चैवकरौबद्ध्वा सुभक्तितः। ५२।
तदा वृतं मयैतच्च देहि मे ह्यतुलं बलम् ।
यदि प्रसन्नो देवेश दुर्ल्लभं किं भवेन्मम।५३।
शिवेन परितुष्टेन सर्वं दत्तं कृपालुना ।
मह्यंमनोभिलषितंगिरा प्रोच्यतथास्त्विति। ५४।
अमोघया सुदृष्ट्या वै वैद्यवद्योजितानि मे।
शिरांसि संधयित्वा तु दृष्टानि परमात्मना।५५।
एवंकृते तदा तत्र शरीरं पूर्ववन्मम।
जातंतस्यप्रसादाच्च सर्वं प्राप्तं फलं मया।५६।
तदा च प्रार्थितो मे संस्थितोसौ वृषभध्वजः।
वैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोभूज्जगत्त्रये।५७।
वहाँ शिव द्वारा वह कृपा युक्त शिवलिंग वैद्यवाथेश्वर नाम से तीनों लोकों में प्रसिद्ध होगा
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दर्शनात्पूजनाज्ज्योतिर्लिंगरूपो महेश्वरः।
भुक्तिमुक्तिप्रदो लोके सर्वेषां हितकारकः।५८।
ज्योतिर्लिंगमहं तद्वै पूजयित्वा विशेषतः ।।
प्रणिपत्यागतश्चात्र विजेतुं भुवनत्रयम्।। ५९ ।।
                    "सूत उवाच ।
तदीयं तद्वचः श्रुत्वा देवर्षिर्जातसंभ्रमः।।
विहस्य च मनस्येव रावणं नारदोऽब्रवीत्।६०।
                 "नारद उवाच।
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ कथयामि हितं तव।
त्वयातदेवकर्त्तव्यंमदुक्तं नान्यथाक्वचित्।६१।
त्वयोक्तं यच्छिवेनैव हितं दत्तं ममाधुना।
तत्सर्वं च त्वया सत्यं न मन्तव्यं कदाचन।६२।
अयं वै विकृतिं प्राप्तः किं किं नैव ब्रवीति च।।
सत्यं नैव भवेत्तद्वै कथं ज्ञेयं प्रियोस्ति मे।६३।
इति गत्वा पुनः कार्य्यं कुरु त्वं ह्यहिताय वै।
कैलासोद्धरणे यत्नः कर्तव्यश्च त्वया पुनः।६४।
यदि चैवोद्धृतश्चायं कैलासो हि भविष्यति।।
तदैव सफलं सर्वं भविष्यति न संशयः।६५।
पूर्ववत्स्थापयित्वा त्वं पुनरागच्छ वै सुखम् ।।
निश्चयं परमं गत्वा यथेच्छसि तथा कुरु।६६।।
                    "सूत उवाच।
इत्युक्तस्स हितं मेने रावणो विधिमोहित।।
सत्यं मत्वा मुनेर्वाक्यं कैलासमगमत्तदा।६७।
गत्वा तत्र समुद्धारं चक्रे तस्य गिरेस्स च।
तत्रस्थं चैव तत्सर्वं विपर्यस्तं परस्परम्।६८।।
गिरीशोपि तदा दृष्ट्वा किं जातमिति सोब्रवीत्।
गिरिजा च तदाशम्भुं प्रत्युवाच विहस्यतम्।६९।
                    "गिरिजोवाच।।
सच्छिश्यस्य फलंजातं सम्यग्जातं तु शिष्यतः।शान्तात्मने सुवीराय दत्तं यदतुलं बलम् ।७०।
                     "सूत उवाच ।।
गिरिजायाश्च साकूतं वचः श्रुत्वा महेश्वरः।
कृतघ्नं रावणं मत्वा शशाप बलदर्पितम्।७१।
                     "महादेव उवाच।।
रे रे रावण दुर्भक्त मा गर्वं वह दुर्मते ।।
शीघ्रं च तव हस्तानां दर्पघ्नश्च भवेदिह।७२।
                      "सूत उवाव।।
इति तत्र च यज्जातं नारदः श्रुतवांस्तदा।
रावणोपि प्रसन्नात्माऽगात्स्वधामयथागतम्।७३।
निश्चयं परमं कृत्वा बली बलविमोहितः।
जगद्वशं हि कृतवान्रावणः परदर्पहा ।७४।।
शिवाज्ञया च प्राप्तेन दिव्यास्त्रेण महौजसा।।
रावणस्य प्रति भटो नालं कश्चिदभूत्तदा।७५।।
इत्येतच्च समाख्यातं वैद्यनाथेश्वरस्य च ।
माहात्म्यंशृण्वतांपापं नृणां भवतिभस्मसात् ।७६।
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अध्याय 28 - ज्योतिर्लिंग वैद्यनाथेश्वर की महिमा

सूत ने कहा :-

1. राक्षसों के अहंकारी और प्रतिष्ठित दिमाग वाले नेता रावण ने  उत्कृष्ट कैलाश पर्वत पर भक्ति के साथ शिव को प्रसन्न किया ।

2. यद्यपि पूजा लंबे समय तक चलती रही, शिव प्रसन्न नहीं हुए। तब रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए एक और तपस्या की।

3-4  पुलस्त्य के वंश के गौरवशाली रावण ने हिमवत के दक्षिणी किनारे पर पेड़ों के झुरमुटों के बीच एक गहरी खाई खोदी , वह पर्वत जो आमतौर पर सिद्धि का स्थान है । हे ब्राह्मणों, उसने फिर उसके भीतर आग लगा दी। इसके पास उन्होंने शिव की मूर्ति स्थापित की और यज्ञ किया।

5. उन्होंने तीन प्रकार की तपस्या की। ग्रीष्मकाल में वे पाँच अग्नियों के बीच में स्थित रहता था, वर्षा के दिनों में खाली भूमि पर लेट जाता था और शीतकाल में जल के भीतर खड़े होकर तपस्या करता था।

6. इस प्रकार उसने घोर तपस्या की। फिर भी दुष्टों द्वारा प्रसन्न किए जाने वाले परम आत्मा शिव प्रसन्न नहीं हुए।

7. तब महत्वाकांक्षी रावण, दैत्यों का स्वामी , अपने सिर काटकर शिव की पूजा करने लगा।

8-9 पूजा के उचित प्रदर्शन में उसने एक-एक करके अपने सिर काट लिए। इस प्रकार जब उन्होंने अपने नौ सिर काट दिए और एक सिर रह गया, तो अपने भक्तों के प्रति अनुकूल भाव रखते हुए प्रसन्न होकर शिव उसके सामने प्रकट हुए।

10. प्रभु ने बिना किसी कष्ट के कटे हुए सिर को फिर से स्थापित कर दिया और उसे अपनी इच्छा के साथ-साथ अप्रतिम उत्कृष्ट शक्ति प्रदान की।

11. अपनी कृपा प्राप्त करने के लिए, राक्षस रावण ने शिव को उत्तर दिया, जिसमें उसकी दोनों हथेलियाँ श्रद्धा से जुड़ी हुई थीं और कंधे नीचे झुके हुए थे।

रावण ने कहा :-

12. हे देवों के देव, प्रसन्न होइए। मैं आपकी छवि शिवलिंग लंका ले जा रहा हूं ।कृपया मेरी इच्छा को फलीभूत करें मैं आपकी शरण लेता हूँ।

सूत ने कहा :-

13. रावण द्वारा इस प्रकार संबोधित किए जाने पर, शिव असमंजस में थे और थोड़ा अनिच्छुक थे। उन्होंने रावण को जवाब दिया।

शिव ने कहा :-

14. हे  राक्षस शिरोमणि रावण ! सुनो ! मेरे शब्द महत्वपूर्ण हैं। मेरी उत्कृष्ट लैंगिक छवि को आप अपने निवास स्थान पर ले जाओ।

15. जहां भी यह लैंगिक छवि जमीन पर रखी जाएगी, वह स्थिर हो जाएगी। इसमें तो कोई शक ही नहीं है। कृपया जैसे चाहे वैसा करो।

सूत ने कहा :-

16. इस प्रकार शिव द्वारा चेतावनी दी गई, राक्षसों के राजा रावण ने यह कहते हुए इसे ले लिया और अपने निवास स्थान की ओर  चल दिया।

17. शिव की माया से जब मार्ग में  रावण को मूत्र विसर्जन की इच्छा हुई  तब वह वहाँ कही शिवलिंग को  रखना नहीं चाहता था।१७।

18. वहां उसने एक गोप बालक को देखा, और उस से विनती की, कि वह  शिवलिंग की मूर्ति को पकड़े रहे। लगभग एक मुहूर्त बीत गया, जब रावण वापस नहीं आया, तो गोप बालक थक गया।

19-21. वह उसके भारी वजन से परेशान था। उसने इसे जमीन पर रख दिया  हीरे के सार से बनी लैंगिक मूर्ति वहीं जमीं रही । हे ऋषियो ! उस लैंगिक छवि को वैद्यनाथेश्वर के नाम से जाना संसार में जाता है। यह सभी इच्छाओं को पूरा करता है और इसके देखते ही यह पापों को दूर कर देता है। यह तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। यह यहाँ सांसारिक सुख और परलोक में मोक्ष प्रदान करता है।  यह ज्योतिर्लिंग सबसे श्रेष्ठ है। इसके दर्शन या पूजन से पापों का नाश होता है। यह भोग और मोक्ष के लिए अनुकूल है।

22. यह शिवलिंग दुनिया के लाभ के लिए वहाँ स्थापित होगया।  वरदान पाकर रावण अपने घर लौट आया।

"साराञ्श:-

तब वहाँ एक गोप बालक  से प्रार्थना करके वह शिव लिंग उसे पकड़ा दिया ताकि रावण लघुशंका कर सके और इस प्रकार एक मुहूर्त वहीं बीत गया वह गोप बालक उस शिवलिंग की प्रतिमा को पकड़े पकड़े  थक गया।१८।            तब उस बालक ने उसे वहीं भूमि पर स्थापित कर दिया उस शिव लिंग के भार से पीड़ित होकर वहाँ ही वह स्थित लिंग वज्रसार( हीरा) से उत्पन्न हुआ सभी कामनाओं को प्रदान करने वाला और दर्शन मात्र से सभीपापों का हरण करनेवाला हुआ।१९।वैद्यनाथेश्वर नाम के द्वारा संसार में उसे पहचान मिली और तीनों लोकों में वह  सज्जन पुरुषों क को भुक्ति (भोग) और मुक्ति(मोक्ष) प्रदान करने वाला  हुआ।२०।          इस  श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजन से ही सभी पापों का हरण होता हैं और दिव्य भोगों की उत्तम वृद्धि होती है।२१।                                  उस लिंग वहीं स्थापित छोड़कर सभी लोकों के हित के लिए रावण अपने घर जाकर वर पाकर महा उत्तम  सभी प्रिय कार्यों को सम्पादित कर सुख पूर्वक रहता था।२२।

23. यह सुनकर इन्द्र तथा अन्य देवता तथा शिव में स्थिर चित्त वाले पवित्र मुनियों ने आपस में परामर्श किया।

24. हे ऋषियों !, विष्णु , ब्रह्मा और अन्य देवता मौके पर पहुंचे और भक्तिपूर्वक शिव की पूजा की।

25. देवताओं ने व्यक्तिगत रूप से शिव को वहाँ देखा और छवि को प्रतिष्ठित करने के बाद वे वैद्यनाथ कहलाए । इसके बाद उन्होंने प्रतिमा को प्रणाम किया और उसकी स्तुति की  फिर वे स्वर्ग लौट गए।

मुनियों ने कहा :-

26. हे प्रिय, जब मूर्ति स्थापित की गई और रावण अपने निवास स्थान पर लौट आया, तो क्या हुआ? कृपया इसे विस्तार से बताएं।

सूत ने कहा :-

27. महान और उत्कृष्ट वरदान प्राप्त करने के बाद, महान असुर रावण अपने निवास पर लौट आया और अपनी प्यारी पत्नी को सब कुछ बताया। वह बहुत खुश हुआ।

28. हे महर्षियों, सब कुछ सुनकर इंद्र और अन्य देवता और ऋषि भी अत्यंत उदास हो गए। उन्होंने एक दूसरे से बात की।

देवताओं और मुनियों ने कहा :-

29. “रावण एक दुष्ट शिव का सेवक है। वह दुष्ट-चित्त और देवताओं से घृणा करने वाला है। शिव से वरदान प्राप्त करने के बाद, वे हमें और अधिक दुखी बना देगा।

30. हम क्या करें? हम कहाँ चलें? अब क्या होगा? यह दुष्ट अधिक कुशल होकर कौन-सा पाप कर्म नहीं करेगा ?”

31. इस प्रकार व्यथित होकर, इंद्र और अन्य देवता, और ऋषियों ने भी नारद को आमंत्रित किया और उनसे पूछा।

देवताओं ने कहा :-

32. हे श्रेष्ठ ऋषि, आप सब कुछ कर सकते हैं। हे देव ऋषि, देवताओं के शोक को दूर करने के लिए कोई उपाय खोजो।

33. अत्यंत दुष्ट रावण कौन-से पाप कर्म नहीं करेगा ? दुराचारी के द्वारा सताए जाने पर हम कहाँ जाएँ?

नारद जी ने कहा :-

34. हे देवताओं, अपना दुख त्याग दो। मैं योजना बनाकर जाऊंगा। शिव की कृपा से, मैं देवताओं का कार्य करूँगा।

सूत ने कहा :-

35. ऐसा कहकर देव ऋषि रावण के घर गए। औपचारिक स्वागत प्राप्त करने के बाद उन्होंने बहुत खुशी के साथ रावण से बात की।

नारद जी ने कहा :-

36. “हे उत्कृष्ट राक्षस, आप एक धन्य ऋषिपुत्र हैं, शिव के एक महान भक्त हैं। आज आपके दर्शन से मन बहुत हर्षित है।

37. कृपया विस्तार से बताएं कि आप शिव को कैसे प्रसन्न किया उनके द्वारा पूछे जाने पर रावण ने उत्तर दिया।

रावण ने कहा :-

38. हे महान ऋषि, तपस्या के लिए कैलास जाने के बाद, मैंने लंबे समय तक घोर तपस्या की।

39. हे ऋषि, जब शिव प्रसन्न नहीं हुए, तो मैं वहां से उपवन में लौट आया और तपस्या शुरू कर दी।

40. मैंने ग्रीष्म काल में पाँच अग्नियों के बीच में खड़े होकर, वर्षा में खाली भूमि पर लेटकर और शीतकाल में जल के अन्दर रहकर त्रिगुणात्मक तपस्या की।

41. हे महान मुनि, इस प्रकार मैंने वहाँ घोर तपस्या की  फिर भी शिव मुझ पर रत्ती भर भी प्रसन्न नहीं हुए थे।

42-43. तब मुझे गुस्सा आ गया। मैंने जमीन में खाई खोदी और आग लगा दी। मैंने मिट्टी की मूर्तियाँ बनाईं  पूजा के दौरान दीपों को लहराकर मैंने सुगंध, चंदन, धूप और अन्न-प्रसाद से शिव की पूजा की।

44. शिव को प्रणाम, स्तवन, गीत, नृत्य, संगीत वाद्ययंत्र और चेहरे और उंगलियों के रहस्यवादी इशारों द्वारा मेरे द्वारा अनेक प्रकार से प्रसन्न किया गया था।

45. इस तरह के विभिन्न तरीकों से मेरे द्वारा शास्त्रों में निर्धारित नियमों के अनुसार भगवान शिव की पूजा की गई थी ।

46. ​​जब भगवान शिव प्रसन्न नहीं हुए और मेरी उपस्थिति में प्रकट नहीं हुए तो मैं व्यथित था क्योंकि मुझे तपस्या का फल नहीं मिला।

47. “मेरे शरीर पर धिक्कार है। मेरे बल पर धिक्कार है। मेरी तपस्या पर धिक्कार है”। यह कहकर मैंने वहां रखी हुई अग्नि में अनेक यज्ञ किए।

48-49.तब मैंने सोचा - "मैं अपने शरीर को आग में झोंक दूँगा"। इसके बाद मैंने एक-एक करके अपने सिरों को काट डाला, उन्हें शुद्ध किया और उन्हें आग में अर्पित कर दिया। इस प्रकार मेरे द्वारा नौ शीश अर्पित किए गए।

50. हे उत्कृष्ट ऋषि, जब मैं अपना दसवां सिर काटने ही वाला था, तब शिव तेज के पुंज के रूप में मेरे सामने प्रकट हुए।

51. भगवान ने अपने भक्तों के प्रति अनुकूल व्यवहार करते हुए तुरंत मुझसे कहा, “मैं प्रसन्न हूं। आप जिस वरदान की कामना करते हैं उसका बताऐ । मैं तुम्हें वही वर दूंगा जो तुम अपने मन में चाहते हो, ”

52. जब भगवान शिव ने यह कहा तो मैंने उनकी स्तुति की और महान भक्ति में हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।

53. तब मैं ने शिव  से विनती की, हे देवों के स्वामी, यदि तुम प्रसन्न हो, तो कोई वस्तु मेरी पहुंच से बाहर न होगी ? कृपया मुझे अतुलनीय शक्ति प्रदान करें।

54. जो कुछ मैंने अपने मन में चाहा था, वह सब दयालु और संतुष्ट शिव द्वारा "ऐसा ही हो" शब्दों के साथ प्रदान किया गया था।

_______

अमोघया सुदृष्ट्या वै वैद्यवद्योजितानि मे।
शिरांसि संधयित्वा तु दृष्टानि परमात्मना।५५

55. एक वैद्य के रूप में मेरे सिर को फिर से स्थापित करते हुए, वे परम सौम्य दृष्टि वाले परमात्मा शिव देखे गए।५५।

56. जब यह कार्य किया गया, तो मेरे शरीर ने अपनी पूर्व अवस्था को पुनः प्राप्त कर लिया। उनकी कृपा से मुझे सभी लाभ प्राप्त हुए।

57. फिर, मेरे अनुरोध पर, शिव वहां स्थायी रूप से वैद्यनाथेश्वर के नाम से रहने लगे। वह अब तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गया है।

58. ज्योतिर्लिंग के रूप में भगवान शिव उनके दर्शन और पूजा से सांसारिक सुख और मोक्ष प्रदान करते हैं। वह ज्योतिर्लिंग संसार में सबका हितैषी है।

59. मैंने उस ज्योतिर्लिंग की विशेष रूप से पूजा की और उसे प्रणाम किया। मैं घर लौट आया हूं और तीनों लोकों को जीतने का इरादा रखता हूं।

सूत ने कहा :-

तदीयं तद्वचः श्रुत्वा देवर्षिर्जातसंभ्रमः।।
विहस्य च मनस्येव रावणं नारदोऽब्रवीत्।६०

60. उनकी ये बातें सुनकर देवर्षि हर्षित उद्भिग्न हे उठे। मन ही मन हँसते हुए नारद ने रावण से से बोले!।

नारद  ने कहा :-

61. इसे सुन ! हे राक्षसशिरोमण, मैं आपको बता दूंगा कि आपके लिए क्या फायदेमंद है। जैसा मैं कहता हूं वैसा ही तुम करो और अन्यथा किसी भी कीमत पर नहीं।

62. आपने अभी जो कहा कि शिव द्वारा प्रदान की गई हर चीज हित कारी है।तो उलको कभी भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

63. अपनी मानसिक विपथन की स्थिति में वह रावण क्या नहीं कहेगा? यह कभी सच नहीं निकलेगा। इसे कैसे सिद्ध किया जा सकता है? रावण तुम मेरे प्रिय हो।

64. अत: तुम फिर जाओ और अपने लाभ के लिए यह करो। आप कैलास को उठाने का प्रयास करो!

65. कैलाश के ऊपर उठने पर ही सब कुछ फलदायी होगा। निस्संदेह ऐसा ही है।

66. आप इसे पहले की तरह बदल दें और खुशी-खुशी लौट आएं। अंततः निर्णय लें और जैसा आप चाहते हैं वैसा करें।

सूत ने कहा :-

67. रावण, विधि (भाग्य) से भ्रमित हो, इस प्रकार सलाह देने पर इसे लाभकारी मानता था। ऋषि की सलाह मानकर वे कैलास चला गया।

68. वहां पहुंचकर उस ने केलास पर्वत को उठा लिया। पहाड़ पर सब कुछ उलटा हो गया और सब एक दूसरे के साथ मिल गया।

69. इसे देखकर, शिव ने कहा "क्या हुआ है ?" पार्वती हँसी और उत्तर दिया।

पार्वती ने कहा :-

70. आपको वास्तव में अपने शिष्य पर कृपा करने का प्रतिफल मिला है। इस शिष्य के माध्यम से कुछ अच्छा हुआ है, अब जब एक शांत आत्मा को एक महान शक्ति प्रदान की गई है जो एक महान नायक है।

सूत ने कहा :-

71. परोक्ष संकेत के साथ पार्वती के शब्दों को सुनकर, भगवान शिव ने रावण को कृतघ्न माना। और उन्होंने उसे अपनी ताकत का अहंकारी होने का श्राप दिया।

भगवान शिव ने कहा :-

72. हे रावण, हे नीच भक्त, हे दुष्ट-चित्त, अहंकारी मत बनो। तेरे पराक्रमी हाथों के अहंकार का नाश करनेवाला शीघ्र ही आएगा।सूत ने कहा :-

73. वहाँ जो कुछ हुआ वह नारद ने भी सुना। मन ही मन प्रसन्न होकर रावण अपने धाम को लौट गया।

74. पराक्रमी रावण ने दृढ़ निर्णय करके, अपने बल से मोहित होकर, अपने शत्रुओं के अहंकार को नष्ट कर दिया और पूरे ब्रह्मांड को अपने अधीन कर लिया।

75. शिव के इशारे पर प्राप्त दिव्य अस्त्रों और महान शक्ति के कारण, युद्ध में रावण का मुकाबला करने वाला कोई नहीं था।

76. भगवान वैद्यनाथ की इस महिमा को सुनने से पापियों के पाप भस्म हो जाते हैं।

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पुराणों में अनयत्र भी विष्णु-भक्ति करने से सम्बन्धित कथाऐं हैं ।श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे अन्तर्गते सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्मोऽध्याय: प्रारम्भ ॥४॥

सत्य नारायण व्रत कथा के पात्र अहीर लोग-

सत्यनारायण व्रत - सत्य नारायण व्रत कथा

                 सत्यनारायणव्रतकथाः विशेषव्रतपूजाः - बुधाष्टमीव्रताङ्गपूजाविधि:

                    ॥ अथ कथा ॥
                    "व्यास उवाच ॥ 

                     सूत उवाच॥ 

अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा: ॥ आसीत्तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥१॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप स:॥  एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्पशून् ॥२॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् ॥    गोपा:कुर्वन्ति सन्तुष्टा भक्तियुक्ता: सबान्धवा:।३॥राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स:॥      ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्या सर्वे यथेप्सितम् ॥ तत: प्रसादं सन्त्यज्य राजा दुःखमवाप स: ॥५॥तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् ॥ सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६॥अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम् ॥      मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह ॥ भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप:॥८॥
सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ॥        इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥९॥
य इदं कुरुने सत्यव्रतं परमदुर्लभम् ॥          श्रुणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तांफलप्रदाम्।१०।

धनधान्यादिकं तस्य भवेत्सत्यप्रसादत: ॥        दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात्॥११॥
भीतो भयात्प्रसुच्येत् सत्यमेव न संशय:॥    ईप्सितं च फलं भुक्त्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत्।१२।
इति व: कथितं विप्रा; सत्यनारायणव्रतम् ॥ यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥१३॥
विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा ॥ केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥
सत्यनारायणं केचित्सत्यदेवं तथापरे ॥ नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद: ॥१५॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:॥ श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥
य इदं पठते नित्यं श्रृणोति मुनिसत्तमा: ॥        तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादत:॥१७॥
व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च ॥          तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा:॥१८॥
शतानन्दो महाप्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणो ह्मभूत ॥ तम्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह।१९।
काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह ॥ तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै॥२०॥
उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत् ॥ श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥
धार्मिक: सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत् ॥ देहार्धं क्रकचैश्छित्वा दत्वा मोक्षमवाप ह ॥२२॥
तुङ्गध्वजो महाराज: स्वायम्भुरभवत्किल॥      सर्वान्भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्।२३।

सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँउसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख प्राप्त किया। एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा। अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया।

लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।

तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।

सूतजी बोले – जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा  कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।

 इति श्री स्कन्द पुराणे रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथायां पञ्चमोध्यायः समाप्तः ॥ 

          इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्याय:।५।  इति श्रीसत्यनारायणकथा समाप्त।।

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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्• खण्डः (१)- (ब्रह्मखण्डः)•अध्यायः (१०)-
                   सौतिरुवाच।
भृगोः पुत्रश्च च्यवनः शुक्रश्च ज्ञानिनां वर ।।
क्रतोरपि क्रिया भार्य्यां वालखिल्यानसूयत ।।१।।
त्रयः पुत्राश्चाङ्गिरसो बभूवुर्मुनिसत्तमाः ।।
बृहस्पतिरुतथ्यश्च शम्बरश्चापि शौनक ।।२।।
वसिष्ठस्य सुतः शक्तिः शक्तेः पुत्रः पराशरः ।।
पराशरसुतः श्रीमान्कृष्णद्वैपायनो हरिः ।।३।।
व्यासपुत्रः शिवांशश्च शुकश्च ज्ञानिनां वरः ।।
विश्वश्रवाः पुलस्त्यस्य यस्य पुत्रो धनेश्वरः ।।४।।
                 शौनक उवाच ।।
अहो पुराण विदुषामत्यन्तं दुर्गमं वचः ।।
न बुद्धं वचनं किंचिद्धनेशोत्पत्तिपूर्वकम् ।। ५ ।।
अधुना कथितं जन्म धनेशस्येश्वरादिदम् ।।
पुनर्भिंन्नक्रमं जन्म ब्रवीषि कथमेव माम् ।। ६ ।।
                  सौतिरुवाच ।।
बभूवुरेते दिक्पालाः पुरा च परमेश्वरात् ।।
पुनश्च ब्रह्मशापेन स च विश्वश्रवस्सुतः ।। ७ ।।
गुरवे दक्षिणां दातुमुतथ्यश्च धनेश्वरम् ।।
ययाचे कोटिसौवर्णं यत्नतश्च प्रचेतसे ।। ८ ।।
धनेशो विरसो भूत्वा तस्मै तद्दातुमुद्यतः ।।
चकार भस्मसाद्विप्र पुनर्जन्म ललाभ सः ।। ९ ।।
तेन विश्रवसः पुत्रः कुबेरश्च धनाधिपः ।।
रावणः कुम्भकर्णश्च धार्मिकश्च विभीषणः ।। 1.10.१० ।।
पुलहस्य सुतो वात्स्यः शाण्डिल्यश्च रुचेः सुतः ।।
सावर्णिर्गौतमाज्जज्ञे मुनिप्रवर एव सः ।। ११ ।।
काश्यपः कश्यपाज्जातो भरद्वाजो बृहस्पतेः ।।
(स्वयं वात्स्यश्च पुलहात्सावर्णिर्गौतमात्तथा।१२ ।।
शाण्डिल्यश्च रुचेः पुत्रो मुनिस्तेजस्विनां वरः ।।)
बभूवुः पञ्चगोत्राश्च एतेषां प्रवरा भवे ।। १३ ।।
बभूवुर्ब्रह्मणो वक्त्रादन्या ब्राह्मणजातयः।।
ताः स्थिता देशभेदेषु गोत्रशून्याश्च शौनक ।१४ ।।
चन्द्रादित्यमनूनां च प्रवराः क्षत्रियाः स्मृताः ।।
ब्रह्मणो बाहुदेशाच्चैवान्याः क्षत्रियजातयः ।१५ ।।
ऊरुदेशाच्च वैश्याश्च पादतः शूद्रजातयःे ।।
तासां सङ्करजातेन बभूवुर्वर्णसङ्कराः। १६।
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गोपनापितभिल्लाश्च तथा मोदककूबरौ ।।
ताम्बूलिस्वर्णकारौ च वणिग्जातय एव च ।। १७।
इत्येवमाद्या विप्रेन्द्र सच्छूद्राः परिकीर्त्तिताः ।।
शूद्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्यद्विजन्मनोः।१८।
विश्वकर्मा च शूद्रायां वीर्य्याधानं चकार सः ।।
ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः ।। १९ ।।
मालाकारः शङ्खकारः कर्मकारः कुविन्दकः ।।
कुम्भकारः कांस्यकारः षडेते शिल्पिनां वराः।1.10.२० ।।
सूत्रकारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च ।।
पतितास्ते ब्रह्मशापादयाज्या वर्णसङ्कराः।२१।।
                 शौनक उवाच ।।
कथं देवो विश्वकर्मा वीर्य्याधानं चकार सः ।।
शूद्रायामधमायां च कथं ते पतितास्त्रयः ।। २२ ।।
कथं तेषु ब्रह्मशापो ह्यभवत्केन हेतुना ।।
हे पुराणविदां श्रेष्ठ तन्नः शंसितुमर्हसि ।। २३ ।।
                 सौतिरुवाच ।।
घृताची कामतः कामं वेषं चक्रे मनोहरम् ।।
तामपश्यद्विश्वकर्मा गच्छन्तीं पुष्करे पथि ।२४ ।।
आगच्छत्तद्विलोकाच्च प्रसादोत्फुल्लमानमः ।।
तां ययाचे स शृङ्गारं कामेन हृतचेतनः ।। २५ ।।
रत्नालङ्कारभूषाढ्यां सर्वावयवकोमलाम् ।।
यथा षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।।२६।।
बृहन्नितम्ब भारार्तां मुनिमानसमोहिनीम्।
अतिवेगकटाक्षेण लोलां कामातिपीडिताम्।२७।।
तच्छ्रोणीं कठिनां दृष्ट्वा वायुनाऽपहृतांशुकाम् ।।
अतीवोच्चैः स्तनयुगं कठिनं वर्तुलं परम् ।। २८ ।।
सुस्मितं चारु वक्त्रं च शरच्चन्द्रविनिन्दकम् ।।
पक्वबिम्बफलारक्तस्वोष्ठाधरमनोहरम् ।। २९ ।।
सिन्दूरबिन्दुसंयुक्तं कस्तूरीबिन्दुसंयुतम् ।।
कपोलमुज्ज्वलं शश्वन्महार्हमणिकुण्डलम् ।1.10.३०।।
तामुवाच प्रियां शान्तां कामशास्त्रविशारदः।।
कामाग्निवर्द्धनोद्योगि वचनं श्रुतिसुन्दरम् ।।३१।।
                 विश्वकर्मोवाच।।
अयि क्व यासि ललिते मम प्राणाधिके प्रिये ।।
मम प्राणांश्चापहत्य तिष्ठ कान्ते क्षणं शुभे ।। ३२।
तवैवान्वेषणं कृत्वा भ्रमामि जगतीतलम् ।।
स्वप्राणांस्त्यक्तुमिष्टोऽहं त्वां न दृष्ट्वा हुताशने।३३।
त्वं कामलोकं यासीति श्रुत्वा रम्भामुखोदितम् ।।
आगच्छमहमेवाद्य चास्मिन्वर्त्मन्यवस्थितः ।३४।।
अहो सरस्वतीतीरे पुष्पोद्याने मनोहरे ।।
सुगन्धिमन्दशीतेन वायुना सुरभीकृते ।। ३५ ।।
यभ कान्ते मया सार्द्धं यूना कान्तेन शोभने।।
विदग्धाया विदग्धेन सङ्गमो गुणवान्भवेत् ।।३६।।
स्थिरयौवनसंयुक्ता त्वमेव चिरजीविनी।।
कामुकी कोमलाङ्गी च सुन्दरीषु च सुन्दरी।।३७।।
मृत्युंजयवरेणैव मृत्युकन्या जिता मया ।।
कुबेरभवनं गत्वा धनं लब्धं कुबेरतः।।३८।।
रत्नमाला च वरुणाद्वायोः स्त्रीरत्नभूषणम् ।।
वह्निशुद्धं वस्त्रयुगं वह्नेः प्राप्तं महौजस.।।३९।।
कामशास्त्रं कामदेवाद्योषिद्रञ्जनकारम्।।
शृङ्गारशिल्पं यत्किञ्चिल्लब्धं चन्द्राच्च दुर्लभम् ।। 1.10.४० ।।
रत्नमालां वस्त्रयुग्मं सर्वाण्याभरणानि च ।।
तुभ्यं दातुं हृदि कृतं प्राप्तं तत्क्षणमेव च ।। ४१ ।।
गृहे तानि च संस्थाप्य चागतोऽन्वेषणे भवे ।।
विरामे सुखसम्भोगे तुभ्यं दास्यामि साम्प्रतम्।४२।
कामुकस्य वचः श्रुत्वा घृताची सस्मिता मुने ।।
ददौ प्रत्युत्तरं शीघ्रं नीतियुक्तं मनोहरम् ।। ४३ ।।
                  घृताच्युवाच ।।
त्वया यदुक्तं भद्रं तत्स्वीकरोम्यधुना परम् ।। ।
किन्तु सामयिकं वाक्यं ब्रवीष्यामि स्मरातुर ।४४ ।
कामदेवालयं यामि कृतवेषा च तत्कृते ।।
यद्दिने यत्कृते यामो वयं तेषां च योषितः ।।४५।।
अद्याहं कामपत्नी च गुरुपत्नी तवाधुना ।।
त्वयोक्तमधुनेदं च पठितं कामदेवतः ।। ४६ ।।
विद्यादाता मन्त्रदाता गुरुर्लक्षगुणैः पितुः ।।
मातुः सहस्रगुणवान्नास्त्यन्यस्तत्समो गुरुः ।।४७।।
गुरोः शतगुणैः पूज्या गुरुपत्नी श्रुतौ श्रुता।।
पितुः शतगुणं पूज्या यथा माता विचक्षण ।।४८।।
मात्रा समागमे सूनोर्यावान्दोषः श्रुतौ श्रुतः ।।
ततो लक्षगुणो दोषो गुरुपत्नीसमागमे ।। ४९ ।।
मातरित्येव शब्देन यां च सम्भाषते नरः ।।
स मातृतुल्या सत्येन धर्मः साक्षी सतामपि ।।1.10.५०।।
तया हि संगतो यस्स्यात्कालसूत्रं प्रयाति सः।।
तत्र घोरे वसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ५१ ।।
मात्रा सह समायोगे ततो दोषश्चतुर्गुणः ।।
सार्द्धं च गुरुपत्न्या च तल्लक्षगुण एव च।।५२।।
कुम्भीपाके पतत्येव यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।।
प्रायश्चित्तं पापिनश्च तस्य नैव श्रुतौ श्रुतम् ।।५३।।
चक्राकारं कुलालस्य तीक्ष्णधारं च खङ्गवत् ।।
वसामूत्रपुरीषैश्च परिपूर्णं सुदुस्तरम् ।।५४ ।।
शूलवत्कृमिसंयुक्तं तप्तमग्निसमं द्रवत् ।।
पापिनां तद्विहारं च कुम्भीपाकप्रकीर्तितम् ।५५।।
यावान्दोषो हि पुंसां च गुरुपत्नीसमागमे ।।
तावांश्च गुरुपत्न्यां वै तत्र चेत्कामुकी यदि ।५६ ।।
अद्य यास्यामि कामस्य मन्दिरं तस्य कामिनी ।।
वेषं कृत्वा गमिष्यामि त्वत्कृतेऽहं दिनान्तरे ।५७।।
घृताचीवचनं श्रुत्वा विश्वकर्मा रुरोष ताम् ।।
शशाप शूद्रयोनिं च व्रजेति जगतीतले ।।५८।।
घृताची तद्वचः श्रुत्वा तं शशाप सुदारुणम् ।।
लभ जन्म भवे त्वं च स्वर्गभ्रष्टो भवेति च । ५९।।
घृताची कारुमुक्त्वा च साऽगच्छत्काममन्दिरम् ।।
कामेन सुरतं कृत्वा कथयामास तां कथाम्।।1.10.६०।।

सा भारते च कामोक्त्या गोपस्य मदनस्य च ।।
पत्न्यां प्रयागे नगरे लेभे जन्म च शौनक।६१।
जातिस्मरा तत्प्रसूता बभूव च तपस्विनी ।।
वरं न वव्रे धर्मिष्ठा तपस्यायां मनो दधौ ।। ६२ ।।
तपश्चकार तपसा तप्तकाञ्चनसन्निभा ।।
दिव्यं च शतवर्षं सा गङ्गातीरे मनोरमे ।। ६३ ।।
वीर्येण सुरकारोश्च नव पुत्रान्प्रसूय सा ।।
पुनः स्वलोकं गत्वा च सा घृताची बभूव ह ।। ६४।।
                   शौनक उवाच।।
कथं वीर्य्यं सा दधार सुरकारोस्तपस्विनी ।।
पुत्रान्नव प्रसूता च कुत्र वा कति वासरान्।। ६५ ।
                   सौतिरुवाच।।
विश्वकर्मा तु तच्छापं समाकर्ण्य रुषाऽन्वितः ।।
जगाम ब्रह्मणः स्थानं शोकेन हृतचेतनः ।।६६ ।।
नत्वा स्तुत्वा च ब्रह्माणं कथयामास तां कथाम् ।।
ललाभजन्म ब्राह्मण्यां पृथिव्यामाज्ञया विधेः।६७।
स एव ब्राह्मणो भूत्वा भुवि कारुर्बभूव ह ।
नृपाणां च गृहस्थानां नानाशिल्पं चकार ह ।।६८।।
शिल्पं च कारयामास सर्वेभ्यः सर्वतः सदा ।
विचित्रं विविधं शिल्पमाश्चर्य्यं सुमनोहरम् ।६९ ।।
एकदा तु प्रयागे च शिल्पं कृत्वा नृपस्य च ।।
स्नातुं जगाम गङ्गां स चापश्यत्तत्र कामिनीम्।1.10.७०।।
घृताचीं नवरूपां च युवतिं तां तपस्विनीम् ।।
जातिस्मरां तां बुबुधे स च जातिस्मरो द्विज।७१ ।।
दृष्ट्वा सकामः सहसा बभूव हृतचेतनः ।।
उवाच मधुरं शान्तःशान्तां तां च तपस्विनीम्।७२।।
                  ब्राह्मण उवाच ।।
अहोऽधुना त्वमत्रैव घृताचि सुमनोहरे ।।
मा मां स्मरसि रम्भोरु विश्वकर्माऽहमेव च।।७३।।
शापमोक्षं करिष्यामि भज मां तव सुन्दरि।।
त्वत्कृतेऽतिदहत्येव मनो मे स च मन्मथः।७४ ।।
द्विजस्य वचनं श्रुत्वा घृताची नवरूपिणी।।
उवाच मधुरं शान्ता नीतियुक्तं परं वचः ।।७५।।
                 "गोपिकोवाच
तद्दिने कामकान्ताऽहमधुना च तपस्विनी ।।
कथं त्वया संगता स्यां गंगातीरे च भारते ।। ७६ ।।
विश्वकर्मन्निदं पुण्यं कर्मक्षेत्रं च भारतम् ।।
अत्र यत्क्रियते कर्म भोगोऽन्यत्र शुभाशुभम् ।७७ ।
धर्मी मोक्षकृते जन्म प्रलभ्य तपसः फलात् ।।
निबद्धः कुरुते कर्म मोहितो विष्णुमायया ।७८ ।
माया नारायणीशाना परितुष्टा च यं भवेत् ।।
तस्मैददातिश्रीकृष्णोभक्तिंतन्मन्त्रमीप्सितम्।७९।
यो मूढो विषयासक्तो लब्धजन्मा च भारते ।
विहाय कृष्णं सर्वेशं स मुग्धो विष्णुमायया ।1.10.८०।       
सर्वं स्मरामि देवाहमहो जातिस्मरा पुरा ।।
घृताची सुरवेश्याऽहमधुना गोपकन्यका ।८१।।
तपः करोमि मोक्षार्थं गङ्गातीरे सुपुण्यदे ।।
नात्र स्थलं च क्रीडायाःस्थिरस्त्वं भव कामुक।८२ 
अन्यत्र यत्कृतं पापं गंगायां तद्विनश्यति ।।
गंगातीरे कृतं पापं सद्यो लक्षगुणं भवेत् ।। ८३ ।।
तत्तु नारायणक्षेत्रे तपसा च विनश्यति ।।        यद्येव कामतः कृत्वा निवृत्तश्च भवेत्पुनः ।। ८४ ।।
घृताचीवचनं श्रुत्वा विश्वकर्माऽनिलाकृतिः ।।
जगाम तां गृहीत्वा च मलयं चन्दनालयम् ।८५ ।।
रम्यायां मलयद्रोण्यां पुष्पतल्पे मनोरमे ।। ।
पुष्पचन्दनवातेन संततं सुरभीकृते।।८६।।
चकार सुखसम्भोगं तया स विजने वने ।।
पूर्णं द्वादशवर्षं च बुबुधे न दिवानिशम्।।८७।।
बभूव गर्भः कामिन्याः परिपूर्णः सुदुर्वहः।।
सा सुषाव च तत्रैव पुत्रान्नव मनोहरान्।।८८।।
कृतशिक्षितशिल्पांश्व ज्ञानयुक्तांश्च शौनक।।
पूर्णप्राक्तनतो युग्यान्बलयुक्तान्विचक्षणान् । ८९ ।।
मालाकारान्कर्मकाराञ्छङ्खकारान्कुविन्दकान् ।।
कुम्भकारान्सूत्रकारान्स्वर्णचित्रकरांस्तथा ।। 1.10.९० ।।
तौ च तेभ्यो वरं दत्त्वा तान्संस्थाप्य महीतले ।।
मानवीं तनुमुत्सृज्य जग्मतुर्निजमन्दिरम् ।। ९१ ।।
स्वर्णकारः स्वर्णचौर्याद्ब्राह्मणानां द्विजोत्तम ।।
बभूव पतितः सद्यो ब्रह्मशापेन कर्मणा ।। ९२ ।।
सूत्रकारो द्विजानां तु शापेन पतितो भुवि ।।
शीघ्रं च यज्ञकाष्ठानि न ददौ तेन हेतुना।।९३।।
व्यतिक्रमेण चित्राणां सद्यश्चित्रकरस्तथा ।।
पतितो ब्रह्मशापेन ब्राह्मणानां च कोपतः।।९४।
कश्चिद्वणिग्विशेषश्च संसर्गात्स्वर्णकारिणः ।।
स्वर्णचौर्य्यादिदोषेण पतितो ब्रह्मशापतः ।।९५।।
कुलटायां च शूद्रायां चित्रकारस्य वीर्य्यतः ।।
बभूवाट्टालिकाकारः पतितो जारदोषतः ।। ९६ ।।
अट्टालिकाकारबीजात्कुम्भकारस्य योषिति ।।
बभूव कोटकः सद्यः पतितो गृहकारकः ।। ९७।
कुम्भकारस्य बीजेन सद्यः कोटकयोषिति ।।
बभूव तैलकारश्च कुटिलः पतितो भुवि।९८।।
____________________________________
सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति ।।
बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः ।। ९९ ।।
तीवरस्य तु बीजेन तैलकारस्य योषिति।।
बभूव पतितो दस्युर्लेटश्च परिकीर्तितः ।। 1.10.१०० ।।
लेटस्तीवरकन्यायां जनयामास षट् सुतान् ।।
माल्लं मन्त्रंमातरं च भण्डं कोलं कलन्दरम् ।१०१।
ब्राह्मण्यां शूद्रवीर्य्येण पतितो जारदोषतः ।।
सद्यो बभूव चण्डालःसर्वस्मादधमोऽशुचिः।१०२।।
तीवरेण च चण्डाल्यां चर्मकारो बभूव ह ।।
चर्मकार्य्यांच चण्डालान्मांसच्छेदो बभूव ह।१०३।
मांसच्छेद्यां तीवरेण कोञ्चश्च परिकीर्तितः ।।
कोञ्चस्त्रियां तु कैवर्त्तात्कर्त्तारःपरिकीर्तितः।१०४।
सद्यश्चण्डालकन्यायां लेटवीर्य्येण शौनक ।
बभूवतुस्तौ द्वौ पुत्रौ दुष्टौ हड्डिडमौ तथा ।१०५।।
क्रमेण हड्डिकन्यायां सद्यश्चण्डालवीर्य्यतः।
बभूवुः पञ्च पुत्राश्च दुष्टा वनचराश्च ते ।। १०६ ।।
लेटात्तीवरकन्यायां गङ्गातीरे च शौनक ।।
बभूव सद्यो यो बालो गङ्गापुत्रः प्रकीर्तितः।१०७।।
गङ्गापुत्रस्य कन्यायां वीर्य्याद्वै वेषधारिणः ।।
बभूव वेषधारी च पुत्रो युङ्गी प्रकीर्तितः ।।१०८ ।।
वैश्यात्तीवरकन्यायां सद्यः शुण्डी बभूव ह ।
शुण्डीयोषिति वैश्यानु पौण्ड्रकश्च बभूव ह ।१०९।
________
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।1.10.११०।
क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायां कैवर्त्तः परिकीर्तितः।
कलौ तीवरसंसर्गाद्धीवरः पतितो भुवि ।१११।
___________________
तीवर्यां धीवरात्पुत्रो बभूव रजकः स्मृतः।।
रजक्यां तीवराच्चैव कोयालीति बभूव ह ।११२।
नापिताद्गोपकन्यायां सर्वस्वी तस्य योषिति ।।
क्षत्राद्बभूव व्याधश्च बलवान्मृगहिंसकः ।।११३ ।।
तीवराच्छुण्डिकन्यायां बभूवुः सप्त पुत्रकाः।
ते कलौ हड्डिसंसर्गाद्बभूवुर्दस्यवः सदा ।। ११४ ।।
ब्राह्मण्यामृषिवीर्य्येण ऋतोः प्रथमवासरे ।
कुत्सितश्चोदरे जातः कूदरस्तेन कीर्तितः ।११५ ।।
तदशौचं विप्रतुल्यं पतितश्चर्तुदोषतः ।।
सद्यः कोटकसंसर्गादधमो जगतीतले ।। ११६ ।।
क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायामृतोः प्रथमवासरे ।।
जातः पुत्रो महादस्युर्बलवांश्च धनुर्द्धरः ।। ११७ ।।
चकार वागतीतं च क्षत्रियेणापि वारितः।
तेन जात्याः स पुत्रश्च वागतीतः प्रकीर्तितः।११८ ।।
क्षत्त्रवीर्य्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापतः।।
बलवन्तो दुरन्ताश्च बभूवुर्म्लेच्छजातयः।११९ ।।
अविद्धकर्णाः क्रूराश्च निर्भया रणदुर्जयाः।
शौचाचारविहीनाश्च दुर्द्धर्षा धर्मवर्जिताः ।1.10.१२०।
म्लेच्छात्कुविन्दकन्यायां जोला जातिर्बभूव ह।
जोलात्कुविन्दकन्यायांशराङ्कःपरिकीर्तितः।१२१।
वर्णसङ्करदोषेण बह्व्यश्चाश्रुतजातय ।।
तासां नामानिसंख्याश्चको वा वक्तुंक्षमो द्विज।१२२।
वैद्योऽश्विनीकुमारेण जातो विप्रस्य योषिति ।।
वैद्यवीर्य्येण शूद्रायां बभूवुर्बहवो जनाः।१२३।
ते च ग्राम्यगुणज्ञाश्च मन्त्रौषधिपरायणाः ।।
तेभ्यश्च जाताःशूद्रायां ये व्यालग्राहिणो भुवि।१२४।
                    शौनक उवाच ।।
कथं ब्राह्मणपत्न्यां तु सूर्य्यपुत्रोऽश्विनीसुतः ।।
अहो केनाविवेकेन वीर्य्याधानं चकार ह ।।१२९।।
                    सौतिरुवाच।।
गच्छन्तीं तीर्थयात्रायां ब्राह्मणीं रविनन्दनः ।।
ददर्श कामुकः शान्तः पुष्पोद्याने च निर्जने ।१२६।
तया निवारितो यत्नाद्बलेन बलवान्सुरः ।।
अतीव सुन्दरीं दृष्ट्वा वीर्य्याधानं चकार सः।१२७।
द्रुतं तत्याज गर्भं सा पुष्पोद्याने मनोहरे ।।
सद्यो बभूव पुत्रश्च तप्तकाञ्चनस न्निभः।१२८ ।।
सपुत्रा स्वामिनो गेहं जगाम व्रीडिता सदा ।।
स्वामिनं कथयामास यन्मार्गे दैवसङ्कटम् ।१२९।
विप्रो रोषेण तत्याज तं च पुत्रं स्वकामिनीम् ।।
सरिद्बभूव योगेन सा च गोदावरी स्मृता ।। 1.10.१३०।।
पुत्रं चिकित्साशास्त्रं च पाठयामास यत्नतः ।।
नानाशिल्पं च मंत्रं च स्वयं स रविनन्दनः ।१३१ ।।
विप्रश्च वेतनाज्योतिर्गणनाच्च निरन्तरम् ।।
वेदधर्मपरित्यक्तो बभूव गणको भुवि ।। १३२ ।।
लोभी विप्रश्च शूद्राणामग्रे दानं गृहीतवान् ।।
ग्रहणे मृतदानानामग्रादानो बभूव सः ।। १३३ ।।
कश्चित्पुमान्ब्रह्मयज्ञे यज्ञकुण्डात्समुत्थितः ।।
स सूतो धर्मवक्ता च मत्पूर्वपुरुषः स्मृतः।१३४ ।।
पुराणं पाठयामास तं च ब्रह्मा कृपानिधिः ।।
पुराणवक्ता सूतश्च यज्ञकुण्डसमुद्भवः ।। १३९ ।।
वैश्यायां सूतवीर्य्येण पुमानेको बभूव ह ।।
स भट्टो वावदूकश्च सर्वेषां स्तुतिपाठकः ।१३६ ।।
एवं ते कथितःकिंचित्पृथिव्यां जातिनिर्णय ।
वर्णसङ्करदोषेणबह्व्योऽन्याःसन्तिजातयः।१३७।
सबन्धो येषु येषां यः सर्वजातिषु सर्वतः ।।
तत्त्वं ब्रवीमि वेदोक्तं ब्रह्मणा कथितं पुरा ।१३८ ।।
पिता तातस्तु जनको जन्मदाता प्रकीर्तितः ।।
अम्बा माता च जननी जनयित्री प्रसूरपि।१३९।।
पितामहः पितृपिता तत्पिता प्रपितापहः।
अत ऊर्ध्वं ज्ञातयश्च सगोत्राःपरिकीर्तितः।1.10.१४० ।।
मातामहः पिता मातुः प्रमातामह एव च ।।
मातामहस्य जनकस्तत्पिता वृद्धपूर्वकः ।१४१ ।।
पितामही पितुर्माता तच्छ्वश्रूः प्रपितामही ।।
तच्छ्वश्रूश्च परिज्ञेया सा वृद्धप्रपितामही ।१४२ ।।
मातामही मातृमाता मातृतुल्या च पूजिता ।।
प्रमातामहीति ज्ञेया प्रमातामहकामिनी ।१४३ ।।
वृद्धमातामही ज्ञेया पत्पितुः कामिनी तथा ।।
पितृभ्राता पितृ व्यश्च मातृभ्राता च मातुलः ।१४४।
पितृष्वसा पितुर्मातृष्वसा मातुस्स्वसा स्मृता ।।
सूनुश्च तनयः पुत्रो दायादश्चात्मजस्तथा।। १४५ ।।
धनभाग्वीर्य्यजश्चैव पुंसि जन्ये च वर्त्तते ।।
जन्यायां दुहिता कन्याचात्मजा परिकीर्तिता। १४६।
पुत्रपत्नी वधू ज्ञेया जामाता दुहितुः पतिः ।।
पतिः प्रियश्च भर्ता च स्वामीकान्ते च वर्तते।१४७।
देवरः स्वामिनो भ्राता ननांदा स्वामिनः स्वसा ।।
श्वशुरः स्वामिनस्तातः श्वश्रूश्च स्वामिनः प्रसूः।१४८।
भार्य्या जाया प्रिया कान्ता स्त्री व पत्नी प्रकीर्तिता।
पत्नीभ्राताश्यालकश्चस्वसापत्न्याश्चश्यालिका१४९
पत्नीमाता तथा श्वश्रूस्तत्पिता श्वशुरः स्मृतः ।।
सगर्भः सोदरो भ्राता सगर्भा भगिनी स्मृता ।।1.10.१५०।
भगिनीजो भागिनेयो भ्रातृजो भ्रातृपुत्रकः ।।
आवुत्तो भगिनीकान्तो भगिनीपतिरेव च ।१९१ ।।
श्यालीपतिस्तु भ्राता च श्वशुरैकत्वहेतुना ।।
श्वशुरस्तु पिता ज्ञेयो जन्मदातुः समो मुने ।।१९२।।
अन्नदाता भयत्राता पत्नीतातस्तथैव च ।।
विद्यादाता जन्मदाता पंचैते पितरो नृणाम्।१५३।।
अन्नदातुश्च या पत्नी भगिनी गुरुकामिनी
माता च तत्सपत्नीचकन्या पुत्रप्रिया तथा ।१५४।।
मातुर्माता पितुर्माता श्वश्रूपित्रोः स्वसा तथा।।
पितृव्यस्त्री मातुलानी मातरश्च चर्तुदश।।१५५।।
पौत्रस्तु पुत्रपुत्रे च प्रपौत्रस्तत्सुतेऽपि च ।।
तत्पुत्राद्याश्च येवंश्याःकुलजाश्च प्रकीर्तिताः।१५६।।
कन्यापुत्रश्च दौहित्रस्तत्पुत्राद्याश्च बांधवाः।।
भागिनेयसुताद्याश्च पुरुषा बांधवाः स्मृताः।।१५७।।
भ्रातृपुत्रस्य पुत्राद्यास्ते पुनर्ज्ञातयः स्मृताः ।।
गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्यः परमबान्धवः।।१५८।।
गुरुकन्या च भगिनी पोष्या मातृसमा मुने।।
पुत्रस्य च गुरुर्भ्रातापोष्यःसुस्निग्धबान्धवः।१५९।।
पुत्रस्य श्वशुरो भ्राता बन्धुर्वैवाहिकः स्मृतः।।
कन्यायाःश्वशुरे चैव तत्सम्बन्धः प्रकीर्तितः।।1.10.१६०।
गुरुश्च कन्यकायाश्च भ्राता सुस्निग्धबान्धवः ।।
गुरुश्वशुरभ्रातॄणां गुरुतुल्यः प्रकीर्तितः ।। १६१।।
बन्धुता येन सार्द्ध च तन्मित्रं परिकीर्तितम् ।।
मित्रं सुखप्रदं ज्ञेयं दुःखदो रिपुरुच्यते ।। १६२ ।।
बान्धवो दुःखदो दैवान्निस्सम्बन्धोऽसुखप्रदः ।।
सम्बन्धास्त्रिविधाः पुंसां विप्रेन्द्र जगतीतले ।१६३।
विद्याजो योनिजश्चैव प्रीतिजश्च प्रकीर्तितः ।।
मित्रं तु प्रीतिजं ज्ञेयं स सम्बधः सुदुर्लभः।१६४ ।।
मित्रमाता मित्रभार्य्या मातृतुल्या न संशयः।।
मित्रभ्राता मित्रपिता भ्रातृतातसमौ नृणाम् ।।१६५।।
चतुर्थं नामसम्बन्धमित्याह कमलोद्भवः।।
जारश्चोपपर्तिर्बन्धुर्दुष्टा सम्भोगकर्त्तरि ।। १६६ ।।
उपपत्न्यां नवज्ञा च प्रेयसी चित्तहारिणी ।।
स्वामितुल्यश्च जारश्च नवज्ञा गृहिणी समान।१६७।
सम्बन्धो देशभेदे च सर्वदेशे विगर्हितः ।।
अवैदिको निन्दितस्तु विश्वामित्रेण निर्मितः।१६८।
दुस्त्यजश्च महद्भिस्तु देशभेदे विधीयते ।।
अकीर्तिजनकः पुंसां योषितां च विशेषतः।१६९ ।।
तेजीयसां न दोषाय विद्यमाने युगे युगे ।1.10.१७० ।।
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ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 10
जाति और सम्बन्ध का निर्णय
तदनन्तर सौति ने मुनिश्रेष्ठ बालखिल्यादि, बृहस्पति, उतथ्य, पराशर, विश्रवा, कुबेर, रावण, कुम्भकर्ण, महात्मा विभीषण, वात्स्य, शाण्डिल्य, सावर्णि, कश्यप तथा भरद्वाज आदि की; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अनेकानेक वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति के प्रसंग सुनाकर कहा– अश्विनी कुमार के द्वारा एक ब्राह्मणी के गर्भ से पुत्र की उत्पत्ति हुई।
 इससे उस ब्राह्मणी के पति ने पुत्र सहित पत्नी का त्याग कर दिया। ब्राह्मणी दुःखित हो योग के द्वारा देह त्याग कर गोदावरी नाम की नदी हो गयी। सूर्यनन्दन अश्विनी कुमार स्वयं उस पुत्र को यत्नपूर्वक चिकित्सा-शास्त्र, नाना प्रकार के शिल्प तथा मन्त्र पढ़ाये, किंतु वह ब्राह्मण निरन्तर नक्षत्रों की गणना करने और वेतन लेने से वैदिक धर्म से भ्रष्ट हो इस भूतल पर गणक  (जोशी )हो गया। उस लोभी ब्राह्मण ने ग्रहण के समय तथा मृतकों के दान लेने के समय शूद्रों से भी अग्रदान ग्रहण किया था; इसलिये ‘अग्रदानी’ हुआ।
एक पुरुष किसी ब्राह्मण यज्ञ में यज्ञकुण्ड से प्रकट हुआ। वह धर्मवक्ता 'सूत' कहलाया। वही हम लोगों का पूर्वपुरुष माना गया है। कृपानिधान ब्रह्मा जी ने उसे पुराण पढ़ाया। इस प्रकार यज्ञकुण्ड से उत्पन्न सूत पुराणों का वक्ता हुआ। सूत के वीर्य और वैश्या के गर्भ से एक पुरुष की उत्पत्ति हुई, जो अत्यन्त वक्ता था। लोक में उसकी भट्ट (भाट) संज्ञा हुई। वह सभी के लिये स्तुति पाठ करता है।
यह मैंने भूतल पर जो जातियाँ हैं, उनके निर्णय के विषय में कुछ बातें बतायी हैं। वर्णसंकर-दोष से और भी बहुत-सी जातियाँ हो गयी हैं। सभी जातियों में जिनका जिनके साथ सर्वथा सम्बन्ध है, उनके विषय में मैं वेदोक्त तत्त्व का वर्णन करता हूँ– जैसा कि पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने कहा था। पिता, तात और जनक – ये शब्द जन्मदाता के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। अम्बा, माता, जननी और प्रसू – इनका प्रयोग गर्भधारिणी के अर्थ में होता है। पिता के पिता को पितामह कहते हैं और पितामह के पिता को प्रपितामह। इनसे ऊपर के जो कुटुम्बीजन हैं, उन्हें सगोत्र कहा गया है। माता के पिता को मातामह कहते हैं, मातामह के पिता की संज्ञा प्रमातामह है और प्रमातामह के पिता को वृद्धप्रमातामह कहा गया है। पिता की माता को पितामही और पितामही की सास को प्रपितामही कहते हैं। प्रपितामही की सास को वृद्धप्रपितामही जानना चाहिये।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 10
माता की माता मातामही कही गयी है। वह माता के समान ही पूजित होती है। प्रमातामह की पत्नी को प्रमातामही समझना चाहिये। प्रमातामह के पिता की स्त्री वृद्धप्रमातामही जानने योग्य है। पिता के भाई को पितृव्य (ताऊ, चाचा) और माता के भाई को मातुल (मामा) कहते हैं। पिता की बहिन पितृष्वसा (फुआ) कही गयी है और माता की बहिन मासुरी (मातृष्वसा या मौसी)। सूनु, तनय, पुत्र, दायाद और आत्मज– ये बेटे के अर्थ में परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं। अपने से उत्पन्न हुए पुरुष (पुत्र) के अर्थ में धनभाक और वीर्यज शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। उत्पन्न की गयी पुत्री के अर्थ में दुहिता, कन्या और आत्मजा शब्द प्रचलित हैं। पुत्र की पत्नी को वधू (बहू) जानना चाहिये और पुत्री के पति को जामाता (दामाद)।प्रियतम पति के अर्थ में पति, प्रिय, भर्ता और स्वामी आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं। पति के भाई को देवर कहा गया है और पति की बहिन को ननान्दा (ननद), पति के पिता को श्वसुर और पति की माता को श्वश्रु (सास) कहते हैं। भार्या, जाया, प्रिया, कान्ता और स्त्री– ये पत्नी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। पत्नी के भाई को श्यालक (साला) और पत्नी की बहिन को श्यालिका (साली) कहते हैं। पत्नी की माता को श्वश्रू (सास) तथा पत्नी के पिता को श्वसुर कहा गया है। सगे भाई को सोदर और सगी बहिन को सोदरा या सहोदरा कहते हैं। बहिन के बेटे को भागिनेय (भगिना या भानजा) कहते हैं और भाई के बेटे को भ्रातृज (भतीजा)बहनोई के अर्थ में आबुत्त (भगिनीकान्त और भगिनीपति) आदि शब्दों का प्रयोग होता है। साली का पति (साढू) भी अपना भाई ही है; क्योंकि दोनों के ससुर एक हैं। मुने! श्वसुर को भी पिता जानना चाहिये। वह जन्मदाता पिता के ही तुल्य है। अन्नदाता, भय से रक्षा करने वाला, पत्नी का पिता, विद्यादाता और जन्मदाता– ये पाँच मनुष्यों के पिता हैं। अन्नदाता की पत्नी, बहिन, गुरु-पत्नी, माता, सौतेली माँ, बेटी, बहू, नानी, दादी, सास, माता की बहिन, पिता की बहिन, चाची और मामी– ये चौदह माताएँ हैं। पुत्र के पुत्र के अर्थ में पौत्र शब्द का प्रयोग होता है तथा उसके भी पुत्र के अर्थ में प्रपौत्र शब्द का। प्रपौत्र के भी जो पुत्र आदि हैं, वे वंशज तथा कुलज कहे गये हैं।
पुत्री के पुत्र को दौहित्र कहते हैं और उसके जो पुत्र आदि हैं, वे बान्धव कहे गये हैं। भानजे के जो पुत्र आदि पुरुष हैं, उनकी भी बान्धव संज्ञा है। भतीजे के जो पुत्र आदि हैं, वे ज्ञाति माने गये हैं। गुरुपुत्र तथा भाई- इन्हें पोष्य एवं परम बान्धव कहा गया है। मुने! गुरुपुत्री और बहिन को भी पोष्या तथा मातृतुल्या माना गया है। पुत्र के गुरु को भी भ्राता मानना चाहिये। वह पोष्य तथा सुस्निग्ध बान्धव कहा गया है। पुत्र के श्वशुर को भी भाई समझना चाहिये।
वह वैवाहिक बन्धु माना गया है। बेटी के श्वशुर के साथ भी यही सम्बन्ध बताया गया है। कन्या का गुरु भी अपना भाई ही है। वह सुस्निग्ध बान्धव माना गया है। गुरु और श्वशुर के भाइयों का भी सम्बन्ध गुरुतुल्य ही कहा गया है। जिसके साथ बन्धुत्व (भाई का-सा व्यवहार) हो, उसे मित्र कहते हैं। जो सुख देने वाला है, उसे मित्र जानना चाहिये और जो दुःख देने वाला है, वह शत्रु कहलाता है।
दैववश कभी बान्धव भी दुःख देने वाला हो जाता है और जिससे कोई भी सम्बन्ध नहीं है, वह सुखदायक बन जाता है। विप्रवर! इस भूतल पर   विद्याजनितयोनिजनित और प्रीतिजनित–ये तीन प्रकार के सम्बन्ध कहे गये हैं। मित्रता के सम्बन्ध को प्रीतिजनित सम्बन्ध जानना चाहिये। वह सम्बन्ध परम दुर्लभ है। मित्र की माता और मित्र की पत्नी–ये माता के तुल्य हैं
मित्रमाता मित्रभार्य्या मातृतुल्या न संशयः।
मित्रभ्राता मित्रपिता भ्रातृतातसमौ नृणाम् ।१६५।।
इसमें संशय नहीं है। मित्र के भाई और पिता मनुष्यों के लिये चाचा, ताऊ के समान आदरणीय हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के उपर्युक्त जातिसबन्ध निर्णय अध्याय में आभीर जाति का वर्णन नहीं है जो मनुस्मृति के (१०-१५ )में वर्णित है 
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केवल कुछ शातिर व धूर्त पुरोहितों 'ने द्वेष वश आभीर के स्थान पर गोप लिखा और फिर  गोप के स्थान पर केवल यादव लिखा ऐसा ग्रन्थों के प्रकाशन काल में हुआ ।
स्मृतियों में द्वेष वश तत्कालीन पुरोहितों'ने गोपों अथवा अहीरों को वर्ण संकर (Hybrid) या शूद्र कहकर भी वर्णित किया है । जो पुराणों तथा महाभारत आदि में जो अहीर शूर थे  उन्हें अशुद्ध वर्तनी ओर प्रिंटिग में शूद्र कर दिया । 👇
देखें  व्यासस्मृति के निम्नलिखित श्लोकों में  गोप को शूद्र कहा गया है।
वर्द्धकी नापितो गोप:आशाप: कुम्भकारक: ।  वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि:चर्मकारो भटो भिल्लो रजक:पुष्करो नटोवरटोमेदचाण्डालदासश्वपचकोलका:।११।
एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२। (  देखें व्यास स्मृति)
वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , (गोप) , आशाप , कुम्हार ,(वणिक्) ,किरात , (कायस्थ), माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश, श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य:स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।४९।
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाऽन्न नैव दुष्यति ।      धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।  ( देखें व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं । तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते जिनके वंश का ज्ञान है ;ऐसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। 
 सन्दर्भ-(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२).                                               स्मृतियों की रचना काशी में हुई ,वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी।
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पुरोहितों के कुछ सिद्धान्त  तर्कविहीन और आधारविहीन ही थे। जैसे  वे दो स्त्रीयों में एक ही ही सन्तान उत्पन्न कर देते हैं।
तात्पर्यं दो स्त्रीयों में एक ही ब्राह्मण के द्वारा जो एक सन्तान हुई वह आभीर है ।
'परन्तु ये असम्भव है आज तक एक स्त्री में अनेक पुरुषों द्वारा सन्तानें उत्पन्न सुनी थी और सम्भवत भी थीं 'परन्तु यहाँ तो अम्बष्ठ कन्या और माहिष्य कन्या में एक ही सन्तान आभीर उत्पन्न हो गये । विदित हो की अम्बष्ठ और माहिष्य दौनों ही अलग अलग जनजातियाँ हैं माहिष्यजनजाति स्मृतियों के अनुसार एक संकर जाति है विशेष—याज्ञवल्क्य स्‍मृति इसे क्षत्रिय पिता और वैश्या माता की औरस संतान मानती है। तो आश्वलायन इसे सुवर्ण नामक जाति से करण जाति की माता खण्डमें उत्पन्न सन्तान मानते है । सह्याद्रि  में इसको यज्ञोपवीत आदि संस्कारों का वैश्यों के समान ही अधिकारी कहा हैं; । पर आश्वलायन इसे यज्ञ करने का निषेध करते हैं । इस जाति के लोग अब तक बालि द्वीप में मिलते हैं और अपने को माहिष्य क्षत्रिय कहते हैं । संभवत: ये लोग किसी समय महिष- मंडल (मैसूर) देश के रहनेवाले रहे होंगे । अब यही गड़बड़ है कि सभी स्मृतियों के विधान भी परस्पर विरोधाभासी व भिन्न-भिन्न हैं ।यद्यपि संस्कृत भाषा में आभीरः, पुल्लिंग विशेषण शब्द है ---जैसे कि वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में उद्धृत किया है। वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में इसकी व्युत्पत्ति- अमर कोश से  उद्धृत की गयी है। अमर कोश इस आभीर शब्द की निम्न उत्पत्ति है। (आ समन्तात् भियं राति रा दाने आत् इति कः आभीर:। अर्थात् चारो दिशाओं में भय प्रदान करने वाला है  वही आभीर है  परन्तु "अभीर अथवा "आभीर शब्द का एक प्रसिद्ध अर्थ है  " जो भीरु अथवा कायर न हो वह अभीर है वही वीर अहीर (अभीर ) है ; अभीरस्य समूह इति आभीर: प्रकीर्तता आभीरस्य पर्याय: गोपो गौश्चरश्च इत्यमरः कोश: ॥ 
आहिर इति भाषा तथा प्राकृत भाषा में अहीर --वस्तुतः अभीरस्य समूह इति आभीर: प्रकीर्तता अर्थात् अभीर: शब्द में अण् प्रत्यय समूह अथवा बाहुल्य प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होता है । और पाणिनीय तद्धिदान्त शब्दों में अण् प्रत्यय सन्तति वाचक भी है ।अतः आभीर और अभीर शब्द मूलत: समूह और व्यक्ति (इकाई) रूप को क्रमश:  प्रकट करते हैं ।आभीर जन-जाति का सनातन व्यवसाय गौ - चारण रहा है। और ये चरावाहे ही कालान्तरण में कृषि - वृत्ति के सूत्रधार रहे । अतएव  अभीर और आभीर शब्द  मूलत: एकवचन और बहुवचन  होते हुए भी संस्कृत के परवर्ती विद्वानों ने दो भिन्न  रूपों में यादवों की गोपानल वृत्ति ( व्यवसाय) और वीरता प्रवृत्ति (मूलस्वभाव) को दृष्टिगत करते हुए की है  दोैनों व्युत्पत्तियाँ प्रस्तुत हैं । 
वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश के अनुसार-- अभीर:–(अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरःअच्  गोप: का समानार्थक शब्द !  अर्थ•-सामने मुख करके घेरता है गायें जो वह अभीर है । वस्तुत: यह व्युत्पत्ति केवल आनुमानिक गोपों की गोपालन वृत्ति को आधार पर की गयी है ।
यद्यपि अभीर शब्द की अपेक्षा आभीर शब्द ही संस्कृत ग्रन्थों में बहुतायत रूप में मिलता है । न कि अभीर: 
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अभीर शब्द की व्युत्पत्ति:- तारानाथ वाचस्पत्यम् निम्न रूप में करते हैं -अभीर: - (अभि + ईर् +अच् ) और अमरकोशकार अमरसिंह:- ने आभीरः की व्युत्पत्ति:- पुल्लिंग रूप में की ;- (आ -समन्तात् भियं -भयं राति ददाति शत्रुणाम् हृत्सु  । रा दाने = देने में आत इति कः प्रत्यय )अर्थ -  गोपः । इत्यमरःकोश ॥ प्राकृत भाषा में आहिर रूप  । यदि अभीर की इस प्रकार भी व्युत्पत्ति मानी जाये तो भी आभीर: अभीर: का  बहुवचन रूप है ।
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१-• अभीर: - अभि + ईर् +अच् (अभि उपसर्ग +ईर् धातु+ तथा अच् कृदन्त प्रत्यय  = दीर्घ स्वर सन्धि से  अभीर:  रूप और इसी अभीर: में तद्धित. अण् प्रत्यय - सन्तान तथा (समूहवाची)  परक होकर (अभीर+ अण् ) = आभीर: (बहुवचन अथा समूह 
वाची रूप बनता ) अर्थात् अभीर: एकवचन तो आभीर: बहुवचन रूप  -
अहीरों को संस्कृत भाषा में अभीरः अथवा आभीरः  संज्ञा से इसलिए भी अभिहित किया गया कि संस्कृत भाषा में इस  शब्द  की व्युपत्ति "
अभित: ईरयति इति अभीरः" अर्थात् चारो तरफ घूमने वाली निर्भीक जनजाति के रूप में  इनका प्रवृत्ति मूलक स्वरूप रहा है।
अभि एक धातु ( क्रियामूल ) से पूर्व लगने वाला उपसर्ग (Prifix)..तथा ईर् एक धातु है ।
जिसका अर्थ :- गमन करना (जाना) है इसमें कर्तरिसंज्ञा भावे में "अच् प्रत्यय के द्वारा निर्मित विशेषण -शब्द अभीरः विकसित होता है। 
और इस अभीरः शब्द में भी श्लिष्ट अर्थ समाहित है।(जो पूर्णतः भाव सम्पूर्क है। ("अ" निषेधात्मक उपसर्ग तथा भीरः/ भीरु कृदन्त शब्द है जिसका अर्थ है कायर अर्थात् जो भीरः अथवा कायर न हो वीर पुरुष हो वह अभीर है। ईज़राएल के यहूदीयो की भाषा हिब्रू में भी अबीर (Abeer) शब्द का अर्थ  वीर तथा सामन्त है । इसके अतिरिक्त ईश्वर का एक नाम भी हिब्रू में अबीर है । तात्पर्य यह कि इजराईल के यहूदी वस्तुतः वीर "यदु की सन्तानें थीं जिनमें अबीर भी एक प्रधान युद्ध कौशल में पारंगत शाखा थी। यद्यपि आभीरः शब्द अभीरः शब्द का ही बहुवचन-( समूह वाचक )रूप है | 
अभीरः+ अण् अथवा अञ् प्रत्यय = आभीरः ।
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दर असल आभीर शब्द अपनी  -यात्रा के कई पढ़ावों से गुजरा  वीर से आवीर: तथा फिर तृतीय चरण में आभीर: हुआ जो अपनी मूल वीरता प्रवृत्ति को ध्वनित करता रहा- वीर का सम्प्रसारण (Propagation) होता है जिसमें  (व) का रूप (इ)  हो जाता है ।  वीर का आर्य हो जाता है।
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आभीर एक शूर वीर जनजाति थी यही प्रचीन ग्रन्थों में वर्णन है । गोपालन करने से ये ही गोपाल और गोप भी कहे गये महाभारत में यही वर्णन है
"ततस्ते सन्यवर्तन्त संशप्तकगणा: पुन: ।        नारायणाश्च गोपालामृत्युं कृत्वानिवर्तनम्।३१।(द्रोणपर्व उन्नीसवाँ अध्याय )                          अर्थ •-तब वे समस्त संशप्तकगण और नारायणी सेना के गोपाल(अहीर) मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्ति का अवसर मानकर पुन: युद्ध के लिए लौट आये ।।३१।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप भी है। गोपो की उत्पत्ति के विषय में ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है।👇
कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:      आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:। ४१।       (ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41).   
अर्थात् कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं की उत्पत्ति हुई है ,जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण के समान थे।
और जब भगवान की नंद राय से बात हुई है तब उन्होनें नन्द से कहा !"     
हे वैश्येन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुंधरा ।
पुनः सृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम् ।।३६।   (श्रीकृष्णजन्मखण्ड ब्रह्मवैवर्तपुराण )।     
हे वैश्यों के मुखिया ! कलि का आरम्भ होने से कलि धर्म प्रचलित होंगेे । पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी । इसमें नन्द जी का वैश्य होना पाया जाता है । परन्तु हरिवंश पुराण में तो 👇
और यह वैश्य  श्रेणि की उपाधि पुरोहितों ने गो-पालन वृत्ति के कारण दी थी तो ध्यान रखना चाहिए कि चरावाहे ही किसान हुए। तो क्या किसान क्षत्रिय न होकर वैश्य हुए। क्यों कि गाय-भैंस सभी किसान पालते हैं । क्या वे वैश्य हो गये ? परन्तु पालन रक्षण तो क्षत्रियों की प्रवृत्ति है ।
धूर्त पुरोहितों ने पूर्व दुराग्रह और  द्वेष वश यादवों का इतिहास विकृत किया है। अन्यथा विरोधाभास और भिन्नता का सत्य के रूप निर्धारण में स्थान हि कहाँ था ?
क्यों की झूँठ बहुरूपिया तो सत्य हमेशा एक रूप ही होता है। परन्तु कृष्ण जी जब नंद राय के घर थे तब उनके संस्कार को नंद जी के पुरोहित ना आए गर्ग को वसुदेव जी ने भेजा यह बड़े आश्चर्य की बात है ! नन्द के पुरोहित शाण्डिल्य भी गर्ग के शिष्य थे। और गर्ग को शूरसेन ने अपने समयमें पुरोहित पद परनियुक्त किया था जबकि यादव उग्रसेन के पुरोहित सन्दीपनमुनि थे डिनका जन्म काशी में और साधना उज्जैन में होती थी । सांदीपनि मुनिके माता का नाम पूर्णमासी था, जिनके गुरु नारद थे। देवी पूर्णमासीको नन्द महाराज आदर प्रदान करते थे और व्रजभूमीमे उनकी विशेष प्रतिष्ठा थी। सांदीपनि मुनिके पिताका नाम देवऋषि प्रबल है जो दिव्यज अग्निहोत्रके जनक थे। उनके चाचा देवप्रस्थ थे। उनके पितामह अर्थात दादाजी सुरंतदेव थे और पितामही श्रीमती चन्द्रकला थी। सांदीपनि मुनिके पत्नीका नाम श्रीमती सुमुखि देवी था। पुत्र मधुमंगल थे जो कृष्णके बालमित्र थे। बाल कृष्णकी बाललीलाओं में इनका संबोधन कई बार मिलता है। उनका वर्ण नीला है, और उन्हें स्वादिष्ट भोजन बहुत पसंद है। उनकी रोचक हरकतोंसे वह गोपमित्रों और कृष्णको हमेशा आनंदी रखनेका प्रयास करते है। सांदीपनि मुनिके कन्याका नाम नन्दीमुखी है जो राधा तथा ललिताकी सखी है। सांदीपनि मुनि मूलतः काशी से थे और अवंतीनगरी मे निवास करते थे।
शाण्डिल्य कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ के पुरोहित भी थे। तो इसमें भेद निरूपण नहीं होता कि यादवों के पुरोहित गर्गाचाय थे और अहीरों के शाण्डिल्य ! जैसा कि कुछ धूर्त अल्पज्ञानी भौंका करते हैं ।
परन्तु उसी ब्रह्म वैवर्त पुराण में लिखा है कि जब श्रीकृष्ण गोलोक को गए तब सब गोपोंं को साथ लेते गए और अमृत दृष्टि से दूसरे गोपो से गोकुल को पूर्ण किया जाता है। वस्तुत यहाँं सब विकृत पूर्ण कल्पना मात्र है ।👇



"यादवों के कुल पुरोहित एक  सौ चार कुलों के अनुसार ही   एक  चार ही थे।

हैहयवंश के सहस्रबाहू के पुरोहित भृगु के वंशज और्व शाखा में यमदग्नि थे  अंगिरा के वंशज गर्ग भी उसनी सभा में उपस्थित रहते थे। और भीष्मक के पुरोहित कश्यप के वंशज शतानन्द और कंस के पुरोहित तो भृगु के वंशज सान्दीपन का  वर्णन पुराणों में वर्णित है।
 और शूरसेन की सभा में उपस्थित गर्गाचार्य तत्कालीन पुरोहित नियुक्त हुए।
यादवों का साम्राज्य एक समय काशी में भी रहा 

"आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।

अनुवाद:-
महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम  प्रतापी यादव राजा थे यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।

उग्रसेनो महापत्यो विख्यातः कुकुरोद्भवः।कुकुराणामिमं वंशं धारयन्नमितौजसाम्।आत्मनो विपुलं वंशं प्रजावांश्च भवेन्नरः।३४.१३४।

कुलानि शत् चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले। ३४.२५५।

यादवों के एक सौ एक कुल हैं वह सब विष्णु के कुल में समाहित हैं विष्णु सबमें विद्यमान हैं।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।

३४.२५६।

विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध हैं।

इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४।

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"भीष्मक के कुल परोहित शताननद-गौतम और अहिल्या के पुत्र" 

"गोतमस्य शतानन्दो वेदवेदाङ्गपारगः। आप्तः प्रवक्ता विज्ञश्च धर्मी कुलपुरोहितः। पृथिव्यां सर्वतत्त्वज्ञो निष्णातः सर्वकर्मसु ।१८
अनुवाद:-
गौतम के पुत्र शतानंद  वेदों के अच्छे जानकार थे। वह कुल का एक धर्मी वाक्पटु और ज्ञानी पुरोहित थे
वह पृथ्वी के सभी सत्यों को जानता थे और सभी प्रकार की गतिविधियों में भी निपुण थे ।18। 

        "शतानन्द भीष्मक प्रति उवाच"
राजेन्द्र त्वं च धर्मज्ञो धर्मशास्त्रविशारदः। पूर्वाख्यानं च वेदोक्तं कथयामि निशामय ।१९।
         शतानंद ने भीष्मक से  कहा:
हे राजाओं में श्रेष्ठ, आप धार्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता और धार्मिक सिद्धांतों के शास्त्रों के भी विशेषज्ञ हैं।
मेरी बात सुनो मैं तुम्हें वेदों में वर्णित पूर्व आख्यान को सुनाता हूँ ।19।

भुवो भारावतरणे स्वयं नारायणो भुवि । वसुदेवसुतः श्रीमान्परिपूर्णतमः प्रभुः।२०।
भगवान नारायण स्वयं पृथ्वी के भार उतारने के लिए  पृथ्वी पर प्रकट हुए।
वे वासुदेव के पुत्र रूप में इस पृथ्वी पर सबसे समृद्ध और सबसे शक्तिशाली हैं।20।

वह ही निर्देशक और निर्माता हैं और शेष तथा भगवान ब्रह्मा द्वारा उनकी पूजा की जाती है।
वह प्रकाश के सर्वोच्च रूप हैं और अपने भक्तों की कृपा के लिए अवतरित हैं।21।


परमात्मा सभी जीवों की प्रकृति से परे है
वह निष्कलंक और निष्पाप हैं और समस्त कर्मों का साक्षी हैं ।22।

हे राजाओं में श्रेष्ठ, उसने उसे और उसकी पुत्री को सब से उत्तम वर  दिया।
उसे देकर तुम अपने सैकड़ों पूर्वजों के साथ गौलोक में जाओगे। 23।।

अपनी पुत्री को देकर और परलोक में समानता और मुक्ति प्राप्त करें।
विश्वगुरु के गुरु बनो और यहाँ सबके द्वारा पूजे जाओ।24।

सन्दर्भ-:-
इति श्रीब्रह्मवैवर्त श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध  रुक्मिण्युद्वाहे
पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।१०५।

आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।

अनुवाद:-
महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम  प्रतापी यादव राजा थे ! यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।

वायुपुराण-उत्तरार्धम् -अध्यायः (३२)   

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उग्रसेनो महापत्यो विख्यातः कुकुरोद्भवः।कुकुराणामिमं वंशं धारयन्नमितौजसाम्।आत्मनो विपुलं वंशं प्रजावांश्च भवेन्नरः।३४.१३४।

कुलानि शत् चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले। ३४.२५५।

यादवों के एक सौ एक कुल हैं वह सब विष्णु के कुल में समाहित हैं विष्णु सबमें विद्यमान हैं।२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।३४.२५६।

विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध हैं।२५६।

इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४।

___________________________________     मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।   अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च॥१७॥

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्॥१८॥
~महाभारत शान्ति पर्व(मोक्षधर्म पर्व) अध्याय २९६

पृथ्‍वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्‍यप, वसिष्ठ और भृगु -ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं।

विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में गुरु के नाम से ही गोत्र का नाम होता था
जैसे पुराणों में राहु केतु का गोत्र पैठिनस   पैठिनस ऋषि थे । लेकिन जैमिनी ऋषि के शिष्यत्व में केतु का गोत्र जैमिनी हो गया।

कुछ इतिहासकार मानते हैं गुरु,कुल गुरु या पुरोहित के नाम से ही गोत्र का नाम पड़ जाता था जैसा कि राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी उदयपुर राज्य का इतिहास भाग-१ के क्षत्रियों के गोत्र नामक तृतीय अध्याय की परिशिष्ट संख्या ४ में लिखते हैं कि प्राचीन काल में राजाओं का गोत्र वही माना जाता था जो उनका पुरोहित का होता था.

यादवों कुल अनेक थे । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है। इसी आधार पर उनके कुल पुरोहित भी अनेक गोत्रों से सम्बन्धित थे।             
कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।। ३४.२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः।। ३४.२५६।।

इति प्रसूतिर्वृष्णीनां समासव्यासयोगतः।
कीर्त्तिता कीर्त्तनाच्चैव कीर्त्तिसिद्धिमभीप्सिताम् ।। ३४.२५७ ।।

इति श्रीमहावायुपुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः । ३४ ।
__________________________________
तिस्रः कोट्यस्तु पौत्राणां यादवानां महात्मनाम् ।
सर्वमेव कुलं यच्च वर्त्तन्ते चैव ये कुले ॥ २,७१.२६१ ॥
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बध्यन्ते सुरमानुषाः ॥ २,७१.२६२ ॥
देवासुराहवहता असुरा ये महाबलाः ।
इहोत्पन्ना मनुष्येषु बाधन्ते ते तु मानवान् ॥ २,७१.२६३ ॥
तेषामुत्सादनार्थाय उत्पन्ना यादवे कुले ।
समुत्पन्नं कुलशतं यादवानां महात्मनाम् ॥ २,७१.२६४ ॥
इति प्रसूतिर्वृष्णीनां समासव्यासयोगतः ।
कीर्त्तिता कीर्त्तनीया स कीर्त्तिसिद्धिमभीप्सता ॥ २,७१.२६५ ॥
इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमभागे तृतीय उपोद्धातपदे वृष्णिवंशानुकीर्त्तनं नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१॥

यादवों के गर्गाचार्य के अतिरिक्त भी यदुवंश में अनेक कुल पुरोहित थे यह तथ्य हम उपर्युक्त रूप में वर्णित कर चुके हैं।
 - विशेषत: जो भृगु , कश्यप और अंगिरा वंश के ऋषि  थे ।

ये सभी  यादवों के  पुरोहित रहे हैं !  परन्तु केवल गर्गाचार्य को ही यादवों का कुल-पुरोहित जानना अल्प ज्ञान का दायरा ही है।
कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु  घोर आंगिरस भी अंगिरा वंश के थे। अङ्गिरस ऋषि के तीन पुत्र लोक प्रसिद्ध हैं १-बृहस्पति २- उतथ्य ३-और सम्वर्त
अङ्गिरसस्त्रयः पुत्राः लोके सर्व्वत्र विश्रुताः । वृहस्पतिरुतथ्यश्च संवर्त्तश्च धृतव्रतः।। 

और यादवों के पुरोहित कुछ भृगु वंश के भी थे।
भृगु - एक प्रसिद्ध ऋषि हैं  जो शिव के पुत्र माने जाते हैं।
विशेषत:—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की वक्षस्थल में लात मारी थी। 
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इन्हीं के वंश में परशुराम  हुए , कहते हैं, इन्हीं 'भृगु'  'अंगिरा' तथा 'कश्यप' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है। 
ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि वहाँ आई थीं। 
जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्या आदि को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया।  
सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया। 
उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी। अत: भृगु का अर्थ भी अग्नि ही है।
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परशुराम का जन्म इसी भृगु वंश में हुआ। यद्यपि ये शास्त्रीय कथानक काव्य और कल्पना के  गुणों से समन्वित होते हुए भी हैं। प्रागैतिहासिक मानवीय अस्तित्व के साक्ष्य है। अवश्य ही इस  नाम के व्यक्तियों का अस्तित्व तो रहा ही होगा।  

[अंगिरा-अङ्गिरस्]-एक प्राचीन ऋषि जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं। 
विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादुर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है।

इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है। 
कहीं इनके पिता को (उरु) और माता को (आग्नेयी)  कहा कहीं  इन्हें ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न भी  बतलाया गया है। 
स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी चार स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए ।
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इसी अंगिरा की  परम्परा में बृहस्पति  के पुत्र गौतम  के पुत्र  शतानन्द भी हुए जो कोष्टाकुल के यादव भीष्मक के कुलगुरु थे।

सान्दीपन ऋषि भी यादवो के पुरोहित थे और ये कश्यप गोत्रीय ऋषि थे जिनका जन्म काशी में हुआ, और जो कालान्तर में ये  उज्जैन को चले गये थे।
सान्दीपनि-(सन्दीपनस्यापत्यम् +इञ्)= सान्दीपन सन्दीपन ऋषि के पुत्र थे। जोकि बलराम और कृष्ण के गुरु रहे।
  
रामकृष्णयोराचार्य्ये अवन्तिपुरवासिनि मुनिभेदे। 
और ये  उग्रसेन के कुलपुरोहित थे । जबकि इसी समय शूरसेन के गर्गाचार्य  पुरोहित थे । उग्रसेन और शूरसेन दोनों ही यादव राजा थे।
विष्णु पुराण में सान्दीपन ऋषि के बारे में लिखा है।

विदिताखिलविज्ञानौ सर्व्वज्ञानमयावपि ।
शिष्याचार्य्यक्रमं वीरौ ख्यापयन्तौ यदूत्तमौ। ५-२१-१८।
ततः सान्दीपनिं काश्यमवन्तीपुरवासिनम् ।
अस्त्रर्थं जग्मतुर्वीरौ बलदेव-जनार्द्दनौ ।५-२१-१९।

तस्य शिष्यत्त्वमभ्येत्य गुरुवृत्तपरौ हि तौ ।
दर्शयाञ्चक्रतुर्वीरावाचारमखिले जने।५-२१-२०।

वे  दौनों  कृष्ण और बलराम सर्वज्ञ माने जाते हैं। फिर भी यदुश्रेष्ठ दोनों वीरों ने अपनी  शिष्य परम्परा में  गुरुजनों की आज्ञा का भी पालन किया।

फिर उनकी मुलाकात सान्दीपनी, काश्य से हुई, जो काशी में उत्पन्न होकर भी  अवन्ती नगर में रहते थे। वीर बलदेव और कृष्ण दौनों  शस्त्र ज्ञान के लिए उनके अन्तेवासी हुए।  अर्थात 
वे दोनों उनके शिष्य बन गए और अपने गुरु के व्यवहार के प्रति समर्पित थे।
उन्होंने सभी लोगों को वीरता का परिचय दिया 
(विष्णु पुराण पञ्चमाँश अध्याय 21वाँ)



सबसे पहले ये जानना आवश्यक है कि वसुदेव गोप ही थे। और  नन्द तो गोप थे ही यह सब जानते ही हैं।

वसुदेव के गोप जीवन के विषय में कुछ पुराणों में  वर्णन मिलता है। कि वे गोपालन और कृषि कार्य करते हुए वैश्य वृत्ति का भी जीवन निर्वहन करते थे।

"वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। 
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ 
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन का निर्वाह किया ।६१। 

शास्त्रों में  वसुदेव का गोप रूप में भी वर्णन है।-
 परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु वंश का वर्णन द्वेष दृष्टिकोण से लिखा।
उनकी द्वेष दृष्टि में  यदु म्लेच्छ  भी थे ? जैसा कि भागवत आदि पुराणों में कालान्तर में ये प्रक्षेप जोड़ दिया गया।

इतना ही नहीं  एक  समाज विशेष के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गोपालक न मानकर भी  परम्परागत रूप से कहा करते हैं  कि कृष्ण का पालन नन्द गोपों के घर और जन्म वसुदेव आदि क्षत्रिय  के घर हुआ। और यादवों के कुल गुरु गर्गाचार्य और गोपों के साण्डिल्य थे।

और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण, विष्णु पुराण आदि  में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक भी जोड़ दिए। 

परन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों में अध्ययन के पश्चात हमने द्वेष वादियों की मान्यता को खण्डित कर दिया है।
इस लिए कालान्तर में ग्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन काल में जो शास्त्रों में जोड़-तोड़ हआ उसी के परिणाम स्वरूप शास्त्रों में परस्पर विरोधाभास उत्पन्न हुआ।
अत: आज तर्क बुद्धि द्वारा निर्णय करना आवश्यक है ।
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देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।

विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में तथा विष्णु पुराण पञ्चम अंश को 21वें श्लोक में  वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में  जिनका खण्डन है
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यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।
अनुवाद:-
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । 
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है।७।
यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है । जो कालान्तर नें संलग्न किया गया है ।
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ययातिशापाद वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नुपैः ।
विष्णु पुराण पञ्चमांश अध्याय इक्कीस का बारहंवाँ श्लोक-(५-२१-१२)

जबकि गर्ग केवल शूरसेन के पुरोहित हुए बहुत बाद में शूरसेन के पिता देवमीढ़ के पुरोहित शाण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मण ही थे जो कश्यप ऋषि की परम्परा से सम्बद्ध हैं। 
गर्गाचार्य एक समय भ्रमण करते हुए अपने आश्रय हेतु शूरसेन की सभा में पहुचे थे । तब यादव सभासदों की सम्मति से ये शूरसेन के पुरोहित पद पर आसीन हुए।
वह भी बहुत बाद के समय में जब एक बार सभासदों ने इनका परिचय एक ज्योतिषी के रूप में दिया था। 
निराकरण-👇★
अत: यह स्पष्ट ही है कि सम्पूर्ण यादवों के कुल पुरोहित गर्गाचार्य ही नहीं थे।
गर्गाचार्य  शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य सभासद लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था।
सहस्रबाहू अर्जुन के कुल पुरोहित यद्यपि भृगु वंश से थे परन्तु उनकी सभा में गर्गाचार्य का भी वर्णन प्राप्त होता है ।     पुत्र उवाच.     गर्गाचार्य वर्णन

" सहस्रबाहू कुल पुरोहित-गर्गाचार्य वर्णन "

तस्य तन्निश्चयं ज्ञात्वा मन्त्रिमध्यस्थितोऽब्रवीत् 
गर्गो नाम महाबुद्धिर्मुनिश्रेष्ठो वयोऽतिगः॥१८.१०॥

अर्थ:-उसका वह निश्चय जानकर मन्त्रीयों 
के मध्य स्थित  गर्ग नाम के महाबुद्धिमान श्रेेष्ठ। और उम्रदराज  मुनि थे  बोले ।

यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन यादव भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे सन्दीपन ही थे । और उसी समय सूरसेन को पुरोहित गर्गाचार्य थे ।

यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र (शतानन्द) थे। 
ये अंगिरा के वंशज थे। 

गोतमपुत्र जो  अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और जो जनकराज के पुरोहितः भरद्वाज गोत्र के ही थे।
और सूरसेन के सौतेले  भाई  पर्जन्य के पुत्र नन्द के पुरोहित साण्डिल्य थे। ये शण्डिल ऋषि के पुत्र थे

अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है। यादवों कई पुरोहित थे।

परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।

अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं ।
 और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________

परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में  इस प्रकार का वर्णन है ।

गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।

वसुदेव ने गर्गाचार्य को
गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा

परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी  करते रहते थे  निम्न श्लोकों में यह भी स्पष्ट तथ्य है 

गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम् -श्रीनारद उवाच -

श्रुत्वा वचो नन्दसुतस्य साक्षाच्छ्रीनन्दसन्नन्दवरा व्रजेशाः ।
सुविस्मिताः पूर्वकृतं विहायप्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम् ॥ १ ॥

नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजःसुतौ समानीय च रामकृष्णौ ।
यशोदया श्रीगिरिपूजनार्थंसमुत्सको गर्गयुतःप्रसन्नः  ।२।

श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्‍दनन्‍दन की यह बात सुनकर श्रीनन्‍द और सन्नन्‍द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्‍होनें पहले का निश्‍चय त्‍यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया। 
मिथिलेश्‍वर ! नन्‍दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्‍ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्‍कण्ठित हो प्रसन्‍नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
__________________________________
            ( भागवत पुराण में वर्णन है कि )

गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत।नन्द:कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।१९।

वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।

अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।

जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।

और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।

देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के

अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।।    ___________________________________

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥____________________________________

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥६१॥             
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। 

अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                        

अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।

अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  

वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।

अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।

दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥

अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥

अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
_____________    
यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।

गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।

क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। 

पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है ।
 न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं 

कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।

फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? 

आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है;  ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के  रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं।

शाण्डिल्य- सा पौराणिक परिचय-
महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।

कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। और बज्रनाभ के भी पुरोहित ये ही बनते देखे हैं।
 इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।

कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे। ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं यदु वंशी नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है। 

सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान ऋित्विक थे। किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है।
शाण्डिल्य ऋषि की तपस्या करना
इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी। 
फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया। विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होता के रूप में वहां विद्यमान थे। 
भीष्म की सरसैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे। 
शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है।
कश्यप ऋषि के एक पुत्र असित थे। असित के पुत्र देवल हुए, जिनके द्वारा किये गये यज्ञ के यज्ञकुण्ड से ऋषि शाण्डिल्य का जन्म हुआ।
इन्होने अनेकों सूत्रग्रंथों की रचना की है। वेदों में भी इनका नाम आया है।
रघुवंशी राजा दिलीप के समय भी इनका उल्लेख मिलता है। ये राजा जनक को पुरोहित थे 




 योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: ।       गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णं चकार स:।।
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः) अध्यायः (१२९)
    

ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)

अथैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
                नारायण उवाच
श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः ।
दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम्। १।
उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।
ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा ।। २ ।।
अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।। ३ ।।
गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः ।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।। ४ ।।
गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः ।
उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम् ।। ५ ।।
              श्री भगवानुवाच
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।। ६ ।।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ७ ।।
तथा जगाम भाण्डीरं विधाता जगतामपि ।
स्वयं शेषश्च धर्मश्च भवान्या च भवःस्वयम् ।। ८ ।।
सूर्यश्चापि महेन्द्रश्च चन्द्रश्चापि हुनाशनः ।
कुबेरो वरुणश्चैव पवनश्च यमस्तथा ।। ९ ।।
ईशानश्चापि देवाश्च वसवोऽष्टौ तथैव च ।
सर्वे ग्रहाश्च रुद्राश्च मुनयो मनवस्तथा ।। १० ।।
त्वरिताश्चाऽऽययुः सर्वे यत्राऽऽस्ते भगवान्प्रभुः ।
प्रणम्य दण्डवद्भूभौ तमुवाच विधिः स्वयम् ।११ ।।
                    ब्रह्मवाच
परिबूर्णतम् ब्रह्मस्वरूप नित्यविग्रह ।
ज्योतिःस्वरूप परम नमोऽस्तु प्रकृतेः पर । १२ ।
सुनिर्लिप्त निराकार साकार ध्यानहेतुना ।
स्वेच्छामय परं धाम परमात्मन्नमोऽस्तु ते ।१३ ।।
सर्वकार्यस्वरूपेश कारणानां च कारण ।
ब्रह्मेशशेषदेवेश सर्वेश ते नo ।। १४ ।।
सरस्वतीश पद्मेश पार्वतीश परात्पर ।
हे सावित्रीश राधेश रासेश्वर नo ।। १५ ।।
सर्वेषामादिभूतर्स्त्वं सर्वः सर्वेश्वरस्तथा ।
सर्वपाता च संहर्ता सृष्टिरूप नo ।। १६ ।।
त्वत्पादपद्मरजसा धन्या पूता वसुंधरा ।
शून्यरूपा त्वयि गते हे नाथ परमं पदम् ।। १७ ।।
यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम्।१८ ।।
                 "महादेव उवाच"
ब्रह्मणा प्रार्थितस्त्वं च समागत्य वसुंधराम् ।
भूभारहरणं कृत्वा प्रयासि स्वपदं विभो ।। १९ ।।
त्रैलोक्ये पृथिवी धन्या सद्यः पूता पदाङ्किता ।
वयं च मुनयो धन्याः साक्षाद्दृष्ट्वा पदाम्बुजम् । २०
ध्यानासाध्यो दुराराध्यो मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ।
अस्माकमपि यश्चेशः सोऽधुना चाक्षुषो भुवि ।२१।
वासुः सर्वनिवासश्च विश्वनि यस्य लोमसु ।
देवस्तस्य महाविष्णुर्वासुदेवो महीतले । २२।
सुचिरं तपसा लब्धं सिद्धेन्द्राणां सुदुर्लभम् ।
यत्पादपद्ममतुलं चाक्षुषं सर्वजीविनाम् ।२३।।
अनन्त उवाच
त्वमनन्तो हि भगवन्नाहमेव कलांशकः ।
विश्वैकस्थे क्षुद्रकूर्मे मशकोऽहं गजे यथा ।२४।।

क्यों कि यदि गोप वैश्य ही होते तो कृष्ण की नारायणी सेना के यौद्धा कैसे बन गये। जिन्होनें अर्जुन-जैसे यौद्धा को परास्त कर दिया।
अब सत्य तो यह है कि जब धूर्त पुरोहितों ने किसी जन-जाति से द्वेष किया तो उनके इतिहास को निम्न व विकृत करने के लिए
कुछ काल्पनिक उनकी वंशमूलक उत्पत्ति कथाऐं ग्रन्थों में लिखा दीं ।क्यों कि जिनका वंश व उत्पत्ति का न ज्ञान होने पर ब्राह्मणों से उनकी गुप्त या अवैध उत्पत्ति कर डाली ।ताकि वे हमेशा हीन बने रहें !-जैसे यूनानीयों की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष और शूद्रा स्त्री  ( गौतम-स्मृति)
पोलेण्ड वासी (पुलिन्द) वैश्य पुरुष क्षत्रिय कन्या।(वृहत्पाराशर -स्मृति)
आभीर:- ब्राह्मण पुरुष-अम्बष्ठ कन्या।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायाम्( मनुस्मृति)।- 10/15
अब दूसरी ग्रन्थों में आभीरों की उत्पत्ति का भिन्न जन-जाति की कन्या से है कि
" माहिष्यसत्रयाम् ब्राह्मणेन  संगता जनयेत् सुतम् आभीर ! तथैव च आभीर पत्न्यामाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् (128-130) ( पं० ज्वाला प्रसाद मिश्र - (जातिभास्कर)
•-माहिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो पैदा हो वह आभीर है। तथा ब्राह्मण द्वारा आभीर पत्नी में भी आभीर ही उत्पन्न होता है । अब कल्पना भी मिथकों का आधार है।सत्य सदैव सम और स्थिर होता है जबकि असत्य बहुरूपिया और विषम होता है । यह तो सभी बुद्धिजीवियों को विदित ही है । अत: पं० ज्वाला प्रसाद के जाति भास्कर  नें वर्णन  एक -स्मृति से है जो कहती है की ब्राह्मण द्वारा माहिष्य स्त्री में आभीर उत्पन्न होता है। और दूसरी -स्मृति कहती है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न आभीर होता है ।
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अब देखिए माहिष्य और अम्बष्ठ अलग अलग जातियाँ हैं स्मृतियों और पुराणों में भी इनका वर्णन है। 👇
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ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठोनाम जायते मनुःस्मृति “-(ब्राह्मण द्वारा वैश्य कन्या में उत्पन्न अम्बष्ठ है ।
क्षत्रेण वैश्यायामुत्पादितेमाहिष्य:-( क्षत्रिय पुरुष और वैश्य कन्या में उत्पन्न माहिष्य है ।वैश्यात्ब्राह्मणीभ्यामुत्पन्नःमाहिष कथ्यते।
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ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15
अमर कोश में आभीर के अन्य पर्याय वाची रूपों में १-गोप २-गोपाल ३-गोसंख्य४-गोदुह ५-आभीर और ६- वल्लव ।५७।
बोपालित कोश कार ने अमर कोश की उपर्युक्त श्लोक की व्याख्या में स्पष्ट किया एवं गोमहिष्यादिकस्य गोमाहिष्यादिकं पादबन्धनम्।
गोमेति।गौश्च महिषी च गोमहिष्यौ आदि यस्य।तत् ।।*।। पादे बन्धनमस्य।।*।। यादवं धनम् इति पाने तु गोमहिष्यादिकं धनम् ।यदूनामिदम् । तस्येदम् ( ४/३/१२०/)  यदु इति अण् - यादव  गवादि यादवं  वित्तम् इति बोपालित: कोश।
(१)में गोप को ही आभीर और यादव कहा और स्पष्ट किया कि गाय आदि यादवों की सम्पत्ति है. जैसा कि बोपालित कोश में वर्णन है । 
"गवादि यादवं वित्तम्" इति बोपालित: कोश। अर्थात् गो आदि यादवों की सम्पत्ति या वित्त है । क्योंकि प्राचीन काल से ही यादव जाति गोसेवक और गोपालक रही है ।
विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश- तृतीय अध्याय- का श्लोक संख्या १६-१७ पर  भी शूर आभीरों का वर्णन है यहाँ शूराभीरों तथा अम्बष्ठों का साथ साथ वर्णन है । यहाँ पारिपात्र निवासी वीरों का भी वर्णन है।
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पतञ्जलि महाभाष्य में आभीरों को शूद्रों से विशेष बताया गया है "
सामान्यविशेषवाचिनोश्च द्वन्द्वाऽभावात्सिद्धम् 
सामान्य और विशेष वाची में दो शब्द होने पर भी द्वन्द्व समास का अभाव होता है ।
सामान्यविशेषवाचिनोश्च द्वन्द्वो न भवतीति वक्तव्यम्। यदि सामान्यविशेषवाचिनोर्द्वन्द्वो न भवतीत्युच्यते,यदि समान्य और विशेष वाचि हो तो उनमें द्वन्द्व समान की अवधारणा नहीं करनी चाहिए जैसे -शूद्राभीरम् गोबलीवर्दम् तृणोलपम् इति न सिध्यति। शूद्राभीर' गोबलीवर्द' औरतृणोलप में द्वन्द्व समास सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि शूद्र  सामान्य है और आभीर विशेष उसी प्रकार 'गो सामान्य पशु हैं और बलीवर्द. वृष बलवान होने से एक विशेष पशु है ।इसी प्रकार तृण ( तिनका जैसे दूर्वा-दूब सामान्य और उलप एक  विस्तीर्ण लता होने से विशेष है ।नैष दोषःइह = यहाँ यह दोष नहीं है ।
तावच्छूद्राभीरमिति,- आभीरा जात्यन्तराणि। तबतक शूद्र आभीर को जाति के अन्तर से समझे
"गोबलीवर्दम् इति,- गाव उत्कालितपुंस्का वाहाय च विक्रयाय च, स्त्रिय  एवावशिष्यन्ते।
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अर्थ- वृष (साँड) एक सामान्य गो( बैल) की अपेक्षा विशेष  पशु ही है जो उत्कलित( छुट्टा या मुक्त होकर वृद्धि को प्राप्त होता है । जबकि  बैल अण्डकोश रहित बैल या और कोई पशु जो अडकोश कुचल या लिकालकर' षंड' कर दिया गया हो। नपुसक किया हुआ चोपाया। खस्सी। आख्ता। चौपाया जो आँडू न हो।
विशेष 'गो' शब्द संस्कृत भाषा बहुतायत से पुल्लिंग है। और गौ शब्द स्त्री लिंग में परन्तु अपद रूप रूप में गो - गाय बैल दौंनों का वाचक है ।
अत: यहाँ द्वन्द्व समास का अभाव होता ये द्वन्द्व का अपवाद हैं क्योंकि इसमें समभाव नहीं होते हैं ।
विशेष - यहाँ अहीरों को शूद्रों से विशेष बताया गया है । आभीरों को शूद्र नहीं बताया गया है । क्योंकि यहाँ शूद्र और आभीर में विशेषण और विशेष्यभाव का सम्बन्ध नहीं है।
महाभाष्य तृतीय आह्निक  द्वितीय पाद का प्रथम अध्याय -.2.109>
विष्णु पुराण द्वितीयाँश अध्याय तीन शूराभीर वर्णन
पूर्व्वदेशादिकाश्चैव कालरूपनिवासिनः ।
पुण्ड्राःकलिङ्गामगधा दीक्षिणात्याश्चसर्व्वशः। 15।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभोरास्तथार्ब्बुदाः।
कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः।16।
सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः
मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा।17।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा ह्टष्टपुष्टजनाकुलाः।18 ।
(विष्णु पुराण द्वितीयाँश अध्याय तीन शूराभीर वर्णन) विदित हो कि विष्णुपुराण पाराशर की रचना है । जबकि अन्य पुराण कृष्ण द्वैपायन  की रचना हैं मनुस्मृति का १०/१५ पर वर्णित श्लोक जिसमें अभीर जाति को ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न बताया है जबकि विष्णु पुराण में आभीर और अम्बष्ठ का वर्णन यौद्धा वर्ग में सामानान्तर  रूप में किया है । फिर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में आभीर कब उत्पन्न हुए ? 
कोई पण्डित बता दे ! आर्य्य समाजी विद्वान मनुःस्मृति के इस श्लोक को प्रक्षिप्ति मानते हैं
जबकि हम तो सम्पूर्ण मनुःस्मृति को ही प्रक्षिप्त मानते हैं क्यों बहुतायत से मनुःस्मृति में प्रक्षिप्त रूप ही है तो शुद्ध रूप कितना है ?
क्यों कि मनुःस्मृति पुष्य-मित्र सुंग के परवर्ती काल खण्ड में जन्मे सुमित भार्गव की रचना है। यदि मनुःस्मृति मनु की रचना होती तो इसकी भाषा शैली केवल उपदेश मूलक विधानात्मक होती ; परन्तु इसमें ऐैतिहासिक शैली का प्रयोग सिद्ध करता है कि यह तत्कालीन उच्च और वीर यौद्धा जन-जातियों को निम्न व हीन या वर्ण संकर बनाने के लिए 'मनु के नाम पर लिखी गयी कृति है।
परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है ।'वह भी कल्पना प्रसूत जैसा कि आर्य्य समाज के कुछ बुद्धिजीवी इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देते रहते हैं 👇—
कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।।(10/34) मनुःस्मृति
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ।।(10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः  (10/44)मनुःस्मृति
द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः(10
पुष्यमित्र सुंग कालीन पुरोहितों को जब किसी जन जाति की वंशमूलक उत्पत्ति का ज्ञान 'न होता था तो वे उसे अजीब तरीके से उत्पन्न होने की कथा लिखते हैं। जैसा यह विवरण प्रस्तुत है ।
इतना ही नहीं रूढ़ि वादी अन्ध-विश्वासी ब्राह्मणों ने यूनान वासीयों हूणों,पारसीयों ,पह्लवों ,शकों ,द्रविडो ,सिंहलों तथा पुण्डीरों (पौंड्रों) की उत्पत्ति नन्दनी गाय की यौनि, मूत्र ,गोबर आदि से बता डाली है।👇
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असृजत् पह्लवान् पुच्छात्प्र. स्रवाद् द्रविडाञ्छकान् (द्रविडान् शकान्)।योनिदेशाच्च यवनान्शकृत:शबरान् बहून्।३६।
मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: ।पौण्ड्रान् किरातान् यवनान् सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७।
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यवन,शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व हेयतापूर्ण व्युत्पत्तियाँ अविश्वसनीय हैं ।
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•नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।
•तथा धनों से द्रविड और शकों को।
•यौनि से यूनानीयों को और गोबर से शबर उत्पन्न हुए। कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की सृष्टि ।३७।
ब्राह्मण -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनको विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते । अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇
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चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।ससरज फेनत:सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि।३८।
•-इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक ,पुलिन्द, चीन ,हूण ,केरल, आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।
(महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय)
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भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।         दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।।
•-तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है ।        
(महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय )
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इसी प्रकार का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड के चौवनवे (54 वाँ) सर्ग में वर्णन है कि 👇
इति उक्तः तु तया राम वसिष्ठः सुमहायशाः।
सृजस्व इतितदा उवाच बलम् पर बलअर्दनम्।१७।
तस्य तत् वचनम् श्रुत्वा सुरभिः सा असृजत् तदा ।
तस्या हुंभारव उत्सृष्टाःपह्लवाःशतशो नृप।१८।
नाशयन्ति बलम् सर्वम् विश्वामित्रस्य पश्यतः ।
स राजा परम क्रुद्धःक्रोध विस्फारित ईक्षणः॥१९॥
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैः उच्चावचैः अपि ।
विश्वामित्र अर्दितान् दृष्ट्वापह्लवान् शतशःतदा॥२०॥
भूय एव असृजत् घोरान् शकान् यवन मिश्रितान् ।
तैः आसीत् संवृता भूमिःशकैःयवन मिश्रितैः २१॥
प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिंजल्कसन्निभैः ।
यद्वा -
प्रभावद्भिः महावीर्यैः हेम किंजल्क संनिभैः।
दीर्घासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बराअवृतैः ॥
यद्वा -
दीर्घ असि पट्टिश धरैः हेम वर्ण अंबर आवृतैः ॥१-५४-२२॥
निर्दग्धम् तत् बलम् सर्वम् प्रदीप्तैः इव पावकैः।
ततो अस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।
तैः तैः यवन कांभोजा बर्बराः च अकुली कृताः ॥१-५४-२३॥
इति वाल्मीकि रामायणे आदि काव्ये बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥१-५४॥
•-जब विश्वामित्र का वशिष्ठ की गोै को बलपूर्वक ले जाने के सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण, किरात, शक और यवन आदि जन-जाति उत्पन्न होती हैं । अब इनके इतिहास को यूनान या चीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं।👴
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभि: सासृजत् तदा ।  तस्या हंभारवोत्सृष्टा: पह्लवा: शतशो नृप।18।
•-राजकुमार उनका 'वह आदेश सुनकर उस गाय ने उस समय वैसा ही किया उसकी हुँकार करते ही सैकड़ो पह्लव जाति के वीर (पहलवान)उत्पन्न हो गये।18।
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।  विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।20।
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रतान् ।। तैरासीत् संवृता भूमि: शकैर्यवनमिश्रतै:।21।।
•-उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबल गाय ने पुन: यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई ।20 -21।
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह।  तैस्ते यवन काम्बोजा
यवन,शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व हेयतापूर्ण व्युत्पत्तियाँ अविश्वसनीय हैं ।
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नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।
•तथा धनों से द्रविड और शकों को।
•यौनि से यूनानीयों को और गोबर से शबर उत्पन्न हुए। कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की सृष्टि ।३७।
 पुरोहित -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनको विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते ।
अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇
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चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८।
•-इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक ,पुलिन्द, चीन ,हूण केरल, आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।
(महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय)
भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।         दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।।
•-तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है ।        
(महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय )
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इसी प्रकार का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड के चौवनवे (54 वाँ) सर्ग में वर्णन है कि 👇
इति उक्तः तु तया राम वसिष्ठः सुमहायशाः ।
सृजस्व इति तदा उवाच बलम् पर बल अर्दनम् ॥१-५४-१७॥
तस्य तत् वचनम् श्रुत्वा सुरभिः सा असृजत् तदा ।
तस्या हुंभा रव उत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप ॥१-५४-१८॥
नाशयन्ति बलम् सर्वम् विश्वामित्रस्य पश्यतः ।
स राजा परम क्रुद्धः क्रोध विस्फारित ईक्षणः ॥१-५४-१९॥
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैः उच्चावचैः अपि ।
विश्वामित्र अर्दितान् दृष्ट्वा पह्लवान् शतशः तदा ॥१-५४-२०॥
भूय एव असृजत् घोरान् शकान् यवन मिश्रितान् ।
तैः आसीत् संवृता भूमिः शकैः यवन मिश्रितैः ॥१-५४-२१॥
प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिंजल्कसन्निभैः ।
यद्वा -प्रभावद्भिः महावीर्यैः हेम किंजल्क संनिभैः ।
दीर्घासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बराअवृतैः ॥
यद्वा -दीर्घ असि पट्टिश धरैः हेम वर्ण अंबर आवृतैः ॥१-५४-२२॥
निर्दग्धम् तत् बलम् सर्वम् प्रदीप्तैः इव पावकैः।
ततो अस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।
तैः तैः यवन कांभोजा
बर्बराः च अकुली कृताः ॥१-५४-२३॥
इति वाल्मीकि रामायणे आदि काव्ये बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥१-५४॥
•-जब विश्वामित्र का वशिष्ठ की गोै को बलपूर्वक ले जाने के सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण, किरात, शक और यवन आदि जन-जाति उत्पन्न होती हैं । अब इनके इतिहास को यूनान या चीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभि: सासृजत् तदा ।  तस्या हंभारवोत्सृष्टा: पह्लवा: शतशो नृप।18।
•-राजकुमार उनका 'वह आदेश सुनकर उस गाय ने उस समय वैसा ही किया उसकी हुँकार करते ही सैकड़ो पह्लव जाति के वीर (पहलवान)उत्पन्न हो गये।18।
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।  विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।20।
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रतान् ।। तैरासीत् संवृता भूमि: शकैर्यवनमिश्रतै:।21।।
•-उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबल गाय ने पुन: यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई ।।20 -21।।

ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह। तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृता ।23।

तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे श्लोक :-23 अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में देखें---कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं और गोबर से शक उत्पन्न हुए। 

"योनिदेशाच्च यवना: शकृतदेशाच्छका: स्मृता। रोमकूपेषु म्लेच्‍छाश्च हरीता सकिरातका:।3।

यौनि देश से यवन, शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए रोम कूपों से म्लेच्‍छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3।तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे ।23। अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में भी देखें---कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं और गोबर से शक उत्पन्न हुए थे । ऐसी काल्पनिक  उत्पत्ति हास्यास्पद  

यवना: शकृतदेशाच्छका: स्मृता।            रोमकूपेषु म्लेच्‍छाश्च हरीता सकिरातका:।3।

यौनि देश से यवन शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए रोम कूपों म्लेच्‍छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3।।
यह सर्व विदित है कि बारूद का आविष्कार चीन में हुआ बारूद की खोज के लिए सबसे पहला नाम चीन के एक व्यक्ति ‘वी बोयांग‘ का लिया जाता है। कहते हैं कि सबसे पहले उन्हें ही बारूद बनाने का आईडिया आया.माना जाता है कि चीन के "वी बोयांग" ने अपनी खोज के चलते तीन तत्वों को मिलाया और उसे उसमें से एक जल्दी जलने वाली चीज़ मिली.बाद में इसको ही उन्होंंने ‘बारूद’ का नाम दिया.300 ईसापूर्व में ‘जी हॉन्ग’ ने इस खोज को आगे बढ़ाने का फैसला किया और कोयला, सल्फर और नमक के मिश्रण का प्रयोग बारूद बनाने के लिए किया.
इन तीनों तत्वों में जब उसने पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया तो उसे मिला दुनिया बदल देने वाला ‘गन पाउडर‘ बन गया । बारूद का वर्णन होने से ये मिथक अर्वाचीन हैं ।अब ये काल्पनिक मनगड़न्त कथाऐं किसी का वंश इतिहास हो सकती हैं ।हम एसी नकली ,बेबुनियाद आधार हीन मान्यताओं का शिरे से खण्डन करते हैं ।
पश्चिमीय राजस्थान की भाषा की शैली (डिंगल' भाषा-शैली) का सम्बन्ध चारण बंजारों से था।
जो अब स्वयं को राजपूत कहते हैं।
जैसे जादौन ,भाटी आदि छोटा राठौर और बड़ा राठौर के अन्तर्गत समायोजित बंजारे समुदाय हैं 
राजपूतों का जन्म करण कन्या और क्षत्रिय पुरुष के द्वारा हुआ यह ब्रह्मवैवर्त पुराण के दशम् अध्याय में वर्णित है । परन्तु ये मात्र मिथकीय मान्यताऐं हैं जो अतिरञ्जना पूर्ण हैं ।👇
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है । जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇
"ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
←अध्यायः९) अध्यायः( १०)
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।       राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।(1/10।।)
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और करण लिखने का काम करते थे ।ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है । तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं 
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति है ।क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं । इसी लिए राजपूत शब्द शास्त्र की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है।
राजपूत संघ बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ। पर चारणों का वृषलत्व कम है ।
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।
चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं । करणी चारणों की कुल देवी है । 

"भारतीय धरा पर अनादि काल से अनेक जनजातियों का आगमन हुआ।

छठी सातवीं ईस्वी में भी अनेक जन-जातीयाँ का भारत में आगमन हुआ। जो या तो ये यहाँ व्यापार करने के लिए आये अथवा इस देश को लूटने के लिए आये। कुछ चले भी गये तो कुछ अन्त में यहीं के होकर यहीं की सरजमीं में रच- बस कर रह गये।

वास्तव में भारतीय प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों  के मिथकों के प्राचीनतम होने से उन आगन्तुक मानव जातियों का वर्णन भी नहीं मिलता है । कालान्तर में जब भारतीय संस्कृति में अनेक विजातीय तत्वों का समावेश हुआ तो परिणाम स्वरूप उनकी वंशावली का निर्धारण हुआ ताकि उन्हें  किसी प्रकार भारतीयता से सम्बद्ध किया जाये  ?  अथवा इन वंशों को प्राचीनता का पुट देने के लिए सूर्य और चन्द्र वंश की कल्पना इनके साथ कर दी गयी । जो  वास्तविक रूप से  हिब्रू संस्कृति के साम और हाम का ही भारतीय रूपान्तरण  है क्यों पाश्चात्य हैमेटिक सैमेटिक मिथकों के अनुसार दुनियाँ मेम केवल साम के वंशज हाम के वंशज और याफ्स के वंशज साम और राम भारतीय मिथकों में सोम वंश और सूर्यवंश का रूपान्तरण है।  भारतीय धरा पर उभरती नवीन जातियों ने भी राजपूतों के रूप में स्वयं  को कभी सूर्यवंश से जोड़ा तो कभी चन्द्रवंश से  यद्यपि यादवों को सोमवंश और राम के  वंशजो को सूर्यवंश से सम्बन्धित होना तो भारतीय पुराणों में वर्णित ही किया गया है । परन्तु राम का वंश और जीवन चरित्र प्रागैतिहासिकता के गर्त में समाविष्ट है । अत: भले ही जातीय स्वाभिमान के लिए कोई स्वयं को राम से जोड़ ले परन्तु राम का वर्णन अनेक संस्कृतियों में मिथकीय रूप में अल्प भिन्नता के साथ हुआ है।
राम के जीवन " जन्म तथा वंश का कोई कालक्रम भारतीय सन्दर्भ में समीचीन या सम्यक्‌  रूप से  उपलब्ध नहीं हैं ।
अनेक पूर्वोत्तर और पश्चिमी देशों की संस्कृति में राम का वर्णन उनकी सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुरूप  अवश्य हुआ है ।
मिश्र, थाइलैंड, खेतान, ईरान- ईराक (मेसोपोटामिया) दक्षिणी अमेरिका, इण्डोनेशिया तथा भारत में भी राम कथाओं का विस्तार अनेक रूपों में हुआ है। भले ही भारत में आज कुछ लोग स्वयं को राम का वंशज कह कर सूर्य वंश से जोड़े परन्तु यह सब निराधार ही है। हाँ चन्द्र वंश या कहें सोम वंश जिसके  सबसे प्राचीन वंश धारक यादव लोग हैं। भारत में अहीर जाति के रूप में वर्तमान हैं। साम से सोम शब्द का रूपांतरण हुआ जिसे दैवीय रूप देने को लिए सोम ( चन्द्र) बना दिया गया । वे आज भी अहीरों, गोपों और घोष आदि  गोपालकों के रूप में अब तक पशुपालन में संलग्न हैं। पौराणिक सन्दर्भों से विशेषत: पद्मपुराण सृष्टि- खण्ड स्कन्दपुराण (नागर-खण्ड ) तथा नान्दीपुराण से प्राप्त जानकारी के अनुसार वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री एक आभीर जाति के परिवार से सम्बन्धित कन्या थी। जिनका अस्तित्व सतयुग में भी था।


"स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव हि
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोभवत्।११७।

टिप्पणी-भू =भूमि + वेञ्--क्त संप्रसारण॰ दीर्घश्च" ऊत+क्विप्=ऊत्= बीज वरन करने वाला- अर्जयति सर्वान् ऋद्धीः स्वपराक्रमेण इति अर्जुन: कथ्यते =जो अपने पराक्रम से सभी ऋद्धियों सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है वह अर्जुन कहा जाता है। वही (सहस्रबाहू) पशुओ का पालक (रक्षक) और भूमि में बीज वपन करने वाला हुआ; वही निश्चित रूप ही खेतों का रक्षक और कृषक था; वह अकेले ही अपने योगबल के माध्यम से वर्षा के लिए बादल बन गया सब कुछ अर्जन करने से अर्जुन बन गया।117.।(पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १२)- इस प्रकार आर्य शब्द भी प्रारम्भिक रूप में कृषि से सम्बन्धित था। जैसा कि वैदिक सन्दर्भों में अब भी है।
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आधुनिक राजपूत शब्द एक जाति से अब संघ का वाचक बन गया है। जिसमें अनेक जातियों का समूह है। जबकि क्षत्रिय आज भी एक वर्णव्यवस्था का ही अंग है।  पुराणों में राजपूतों का वर्णन होने से ये छठी- सातवीं सदी के तो हैं ही अधिकतर पुराण इस काल तक लिखे जाते रहे हैं। परन्तु पद्मपुराण का सृष्टि खण्ड सबसे प्राचीन है। जिसमें वर्णन है कि अहीर (आभीर) जाति कि कन्या गायत्री का विवाह यज्ञ कार्य हेतु विष्णु भगवान द्वारा पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा से सम्पन्न कराया गया  और अन्त में सभी अहीरों को विदाई के समय विष्णु भगवान द्वारा आश्वस्त कर  अहीर जाति के यदुवंश में द्वापर युग में अपने अवतरण लेने की बात कहीं गयी। तथा अन्य पुराण देवीभागवत' मार्कण्डेय और हरिवंश पुराण आदि में वरुण प्रेरित ब्रह्मा के आदेश द्वारा कश्यप को वसुदेव गोप के रूप में मथुरा नगरी में जन्म लेने के लिए कहा - देवीभागवत पुराण के द्वादश स्कन्ध में वसुदेव स्वयं पिता कि मृत्यु के पश्चात कृषि और गोपालन से जीविका निर्वहन करते रहे हैं।
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परन्तु आज जो जनजातियाँ पौराणिक सन्दर्भों में वर्णित नहीं हैं । वे स्वयं को कभी सूर्य वंश से जोड़ती हैं तो कभी चन्द्र वंश से और  इस प्रकार पतवार विहीन नौका के समान इधर से उधर भटकते हुए किनारों से बहुत दूर ही रहती हैं। 
आज ये जनजातियाँ स्वयं को राजपूत मानती हैं। और अहीरों को पशुपालक वैश्औय या शूद्र ये स्वयं को यदुवंश से सम्बन्धित करने के लिए पूरा जोर लगा रहीं हैं । सम्भव है अहीरों से ही इनकी निकासी हुई हो ! परन्तु वे इस बात को मानने के पक्ष में कदापि नहीं हैं। हम आपके संज्ञान में यह तथ्य प्रेषित कर दें कि ययाति के शाप के परिणाम-स्वरूप यादवों में लोकतन्त्र शासन की व्यवस्था का परम्परागत स्थापन हुआ था  राजतन्त्र का नहीं । 
इस विषय में हरिवंशपुराण विष्णुपर्व अध्याय ३२। में एक उपाख्यान  है।
"प्रसन्नशुक्रवचनाज्व जरां संकामयितुं ज्येष्ठं पुत्रं यदुमुवाच,--त्वन्माता महशापादियमकालेनैव जरा मामुपस्थिता । तानहं तस्यैवानुग्रहादू भवतः सञ्च रायाम्येकं वर्षसहस्त्रम्, त तृप्तोऽस्मि विषयेषु, त्वदूयसा विषयानह भोक्तुमिच्छामि ।। ४-१०-४ ।।

नात्र भवता प्रत्याख्यानं कर्त्तव्यमित्युक्तः स नैच्छत् तां जरामादातुम ।तञ्चपि पिता शशाप,--त्वत प्रसूतिर्न राज्यार्हा भविष्यतीति ।। ४-१०-५ ।।                    (विष्णु पुराण 


न हि राज्येन मे कार्यं नाप्यहं नृप काङ्क्षितः।
न चापि राज्यलुब्धेन मया कंसो निपातितः।४८।
किं तु लोकहितार्थाय कीर्त्यर्थं च सुतस्तव।
व्यङ्गभूतः कुलस्यास्य सानुजो विनिपातितः।४९।
अहं स एव गोमध्ये गोपैः सह वनेचरः।
प्रीतिमान् विचरिष्यामि कामचारी यथा गजः। 2.32.५०।
एतावच्छतशोऽप्येवं सत्येनैतद् ब्रवीमि ते।
न मे कार्यं नृपत्वेन विज्ञाप्यं क्रियतामिदम्।५१ ।
भवान राजास्तु मान्यो मे यदूनामग्रणीः प्रभुः।
विजयायाभिषिच्यस्व स्वराज्ये नृपसत्तम ।५२।
यदि ते मत्प्रियं कार्यं यदि वा नास्ति ते व्यथा।
मया निसृष्टं राज्यं स्वं चिराय प्रतिगृह्यताम् ।५३ 
  (हरिवंशपुराण विष्णुपर्व अध्याय- ३२)
"नरेश्वर ! मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है। न तो मैं राज्य का अभिलाषी हूँ और न राज्य के लोभ से मैंने कंस को मारा ही है। मैंने तो केवल लोकहित के लिये और कीर्ति के लिये भाई सहित तुम्हारे पुत्र को मार गिराया है जो इस कुल का विकृत (सड़ा हुआ) अंग था।
मैं वही वनेचर होकर गोपों के साथ गौओं के बीच प्रसन्नतापूर्वक विचरूंगा, जैसे इच्छानुसार विचरने वाला हाथी वन में स्वच्छन्दक घूमता है मैं सत्य की शपथ खाकर इन बातों को सौ-सौ बार दुहराकर आप से कहता हूं, मुझे राज्य से कोई काम नहीं है, आप इसका विज्ञापन कर दीजिये आप यदुवंशियों के अग्रगण्य स्वामी तथा मेरे लिये भी माननीय हैं, अत: आप ही राजा हो। नृपश्रेष्ठ! अपने राज्यों पर अपना अभिषेक कराइये, आपकी विजय हो यदि आपको मेरा प्रिय कार्य करना हो अथवा आपके मन में मेरी ओर से कोई व्यथा न हो तो मेरे द्वारा लौटाये गये इस राज्य को दीर्घकाल के लिये ग्रहण करें।' ।श्रीमद्भागवतपुराण स्कन्ध १० पूर्वार्धः अध्यायः ४५
←  श्रीमद्भागवतपुराणम्
        अध्यायः ४५

वसुदेवदेवकी सान्त्वनम्; उग्रसेनस्य राज्याभिषेकः; रामकृष्णयोरुपनयनं विद्याध्ययनं, गुरुर्मृतपुत्रस्यानयनं च -अथ पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः
               श्रीशुक उवाच
पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः
मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम् ।१।
उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्वर्षभः
प्रश्रयावनतः प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम्। २।
नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि
बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्क्वचित् ।३।
न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके
यां बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम् ।४।
सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा। ५।
यस्तयोरात्मजः कल्प आत्मना च धनेन च
वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि ।६।
मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्
गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन्मृतः ।७।
तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः
मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः ।८।
तत्क्षन्तुमर्हथस्तात मातर्नौ परतन्त्रयोः
अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम् ।९।
                  श्रीशुक उवाच
इति मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा
मोहितावङ्कमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम् ।१०।
सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ
न किञ्चिदूचतू राजन्बाष्पकण्ठौ विमोहितौ।११।
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः
मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम्।१२।
आह चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि
ययातिशापाद्यदुभिर्नासितव्यं नृपासने।१३।
मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः
बलिं हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः।१४।
सर्वान्स्वान्ज्ञातिसम्बन्धान्दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्

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यदु वंश में कभी भी कोई पैत्रक या वंशानुगत रूप से राजा नहीं हुआ राजतन्त्र प्रणाली को यादवों ने कभी नही आत्मसात् किया चाहें वह त्रेता युग का सम्राट सहस्रबाहू अर्जुन हो अथवा शशिबिन्दु  ये सम्राट अवश्य बने परन्तु लोकतन्त्र प्रणाली से अथवा अपने पौरुषबल से ही बने ।
पिता की विरासत से नही इसी प्रकार वर्ण -व्यवस्था भी यादवों ने कभी नहीं स्वीकार की । अत: राजा सम्बोधन यादवों के लिए कभी नहीं रहा कृष्ण को कब राजा कहा गया ये कोई बताए 
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में कई मत प्रचलित हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत संस्कृत के राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है; राजपुत्र शब्द हिन्दू धर्म ग्रंथों में कई स्थानों पर देखने को मिल जायेगा लेकिन वह जातिसूचक के रूप में नही होता अपितु  किसी भी राजा के संबोधन सूचक शब्द के रूप में ही होता है । परन्तु  अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि पुराणों में कुछ स्थान पर राजपुत्र जातिसूचक शब्द के रूप में आया है जो कि इस प्रकार है-👇
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भावार्थ:- क्षत्रिय से करण-कन्या(वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से ) में राजपुत्र उत्पन्न और राजपुत्र की कन्या में करण द्वारा 'आगरी' उत्पन्न हुआ।
राजपुत्र के क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या के गर्भ में उत्पन्न होने का वर्णन (शब्दकल्पद्रुम संस्कृत कोश) में भी आया है- "करणकन्यायां क्षत्त्रियाज्जातश्च इति पुराणम् ॥" अर्थात:- क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या में उत्पन्न संतान राजपूत है। यूरोपीय विश्लेषक एवं संस्कृत भाषा विशेषज्ञ  मोनियर विलियमस् ने भी लिखा है कि-
"A rajpoot,the son of a vaisya by an ambashtha or the son of Kshatriya by a karan...
~A Sanskrit English Dictionary:Monier-Williams, page no. 873
 वाचस्पत्य में भी पाराशर सहिता  का उद्धरण है   जो कि इस प्रकार है:-
 ३- वर्णसङ्करभेदे राजपुत्र “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां
राजपुत्रस्य सम्भवः” इति पराशरः संहिता ।
अर्थात:- वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।
राजपूत सभा के अध्यक्ष श्री गिर्राज सिंह लोटवाड़ा जी के अनुसार राजपूत शब्द रजपूत शब्द से बना है जिसका अर्थ वे मिट्टी का पुत्र बतलाते हैं। थोड़ा अध्ययन करने के बाद ये रजपूत शब्द हमें स्कन्द पुराण के सह्याद्री खण्ड में देखने को मिलता है जो कि इस प्रकार एक वर्णसंकर जाति के अर्थ में है-

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 उपर्युक्त सन्दर्भ:-(स्कन्दपुराण- आदिरहस्य सह्याद्रि-खण्ड- व्यास देव व सनत्कुमार का संकर जाति विषयक संवाद नामक २६ वाँ अध्याय-श्लोक संख्या- ४७,४८,४९ पर राजपूतों की उत्पत्ति वर्णसंकर के रूप में है ।भावार्थ:-क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र- वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ) कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है। लेकिन अमरकोष में राजपूत और क्षत्रिय शब्द को परस्पर पर्यायवाची नही बतलाया है; स्वयं देखें-
अर्थात:मूर्धाभिषिक्त,राजन्य,बाहुज,क्षत्रिय,विराट्,राजा,राट्,पार्थिव,क्ष्माभृत्,नृप,भूप,और महिक्षित ये क्षत्रिय शब्द के पर्याय है।
इसमें 'राजपूत' शब्द या तदर्थक कोई अन्य शब्द नहीं आया है।
पुराणों के निम्न श्लोक को पढ़ें-
-ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः १ (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १० श्लोकः (९९)
भावार्थ:-क्षत्रिय के बीज से राजपुत्र की स्त्री में तीवर उतपन्न हुआ।वह भी व्याभिचार दोष के कारण पतित कहलाया। यदि क्षत्रिय और राजपूत परस्पर पर्यायवाची शब्द होते तो क्षत्रिय पुरुष और राजपूत स्त्री की संतान राजपूत या क्षत्रिय ही होती न कि तीवर या धीवर ! इसके अतिरिक्त शब्दकल्पद्रुम में राजपुत्र को वर्णसंकर जाति लिखा है जबकि क्षत्रिय वर्णसंकर नही हैं।.
Manohar Laxman  varadpande(1987). History of Indian theatre: classical theatre. Abhinav Publication. Page number 290
"The word kshatriya is not synonyms with Rajput."अर्थात- क्षत्रिय शब्द राजपूत का पर्यायवाची नहीं है। मराठी इतिहासकार कालकारंजन  ने अपनी पुस्तक (प्राचीन- भारताचा इतिहास) के हर्षोत्तर उत्तर भारत नामक विषय के प्रष्ठ संख्या ३३४ में राजपूत और वैदिक क्षत्रिय भिन्न भिन्न बतलाये हैं। वैदिक क्षत्रियों द्वारा पशुपालन करने का उल्लेख धर्म ग्रंथों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है जबकि राजपूत जाति पशुपालन को अत्यंत घृणित दृष्टि से देखती है और पशुपालन के प्रति संकुचित मानसिकता रखती है...
महाभारत में जरासंध पुत्र सहदेव द्वारा गाय भैंस भेड़ बकरी को युधिष्ठिर को भेंट करने का उल्लेख मिलता है;युधिष्ठिर जो कि एक क्षत्रिय थे पशु पालन करते होंगे तभी कोई भेंट में पशु देगा-
~महाभारत सभापर्व(जरासंध वध पर्व)अध्याय: २४श्लोक: ४१-सहदेव ने कहा- प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सवा के लिये आदेश दीजिये। इसके अतिरिक्त कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में क्षत्रिय को भेड़ पालने के लिए कहा गया है।
कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत एक संघ है। 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है-
Brajadulal Chattopadhyay 1994; page number 60- प्रारंभिक मध्ययुगीन साहित्य बताता है कि इस नवगठित राजपूत में कई जातियों के लोग शामिल थे। भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने इस ऐतिहासिक तथ्य का पूर्णतः पता लगा लिया है कि जिस काल में इस जाति का भारत के राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण हुआ था, उस काल में यह एक नवागन्तुक जाति समझती जाती थी। "परन्तु मेरा अपना विचार है कि राजपूत एक जातियों का संघ होते हुए भी भारतीय सरजमीं से उत्पादित हैं जिनके पूर्वज बहुतायत से जाट अहीर और गुर्जर जातियाँ ही हैं और ये भारतीय संस्कृति को सुरक्षित करने में तत्पर रहे हैं । भले ही कुछ लोग मुगलों से समझौता करके राजसत्ता पर आसीन हुए हों"
अहीरों के समान तत्कालीन द्वेषवादी पुरोहितों ने राजपूतों को भी वर्णसंकर और शूद्रधर्मी शास्त्रों लिख दिया ।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व अध्याय (38) में  यदु के पाँच पुत्रों का वर्णन है। देखें निम्न श्लोक-
                   ( देव्युवाच)
स तासु नागकन्यासु कालेन महता नृपः ।
जनयामास विक्रान्तान्पञ्चपुत्रान् कुलोद्वहान्।१।।
मुचुकुन्दं महाबाहुं पद्मवर्णं तथैव च ।
माधवं सारसं चैव हरितं चैव पार्थिवम् ।२।
एतान् पञ्चसुतान्राजा पञ्चभूतोपमान् भुवि।
ईक्षमाणो नृपः प्रीतिं जगामातुलविक्रमः।३ ।
ते प्राप्तवयसः सर्वे स्थिताः पञ्च यथाद्रयः ।
तेजिता बलदर्पाभ्यामूचुः पितरमग्रतः ।।४।।
तात युक्ताः स्म वयसा बले महति संस्थिताः ।
क्षिप्रमाज्ञप्तुमिच्छामःकिं कुर्मस्तव शासनात् । ५।।
स तान् नृपतिशार्दूलः शार्दूलानिव वैगितान् ।
प्रीत्या परमया प्राह सुतान् वीर्यकुतूहलात् ।६।
विन्ध्यर्क्षवन्तावभितो द्वे पुर्यौ पर्वताश्रये ।
निवेशयतु यत्नेन मुचुकुन्दः सुतो मम ।। ७ ।।
सह्यस्य चोपरिष्टात्तु दक्षिणां दिशमाश्रितः ।
पद्मवर्णोऽपि मे पुत्रो निवेशयतु मा चिरम् ।८।
तत्रैव परतः कान्ते देशे चम्पकभूषिते ।
सारसो मे पुरं रम्यं निवेशयतु पुत्रकः । ९ ।।
हरितोऽयं महाबाहुः सागरे हरितोदके ।
दीपं पन्नगराजस्य सुतो मे पालयिष्यति ।१०।
माधवो मे महाबाहुर्ज्येष्ठपुत्रश्च धर्मवित् ।
यौवराज्येन संयुक्तः स्वपुरं पालयिष्यति ।११ ।
सर्वे नृपश्रियं प्राप्ता अभिषिक्ताः सचामराः ।
पित्रानुशिष्टाश्चत्वारो लोकपालोपमा नृपाः।१२।
स्वं स्वं निवेशनं सर्वे भेजिरे नृपसत्तमाः ।
पुरस्थानानि रम्याणिमृगयन्तो यथाक्रमम्।१३।
मुचुकुन्दश्च राजर्षिर्विन्ध्यमध्यमरोचयत् ।
स्वस्थानं नर्मदातीरे दारुणोपलसंकटे ।१४ ।।
स च तं शोधयामास विविक्तं च चकार ह ।
सेतुं चैव समं चक्रे परिखाश्चामितोदकाः।१५ ।।
स्थापयामास भागेषु देवतायतनान्यपि ।
रथ्या वीथीर्नृणांमार्गाश्चत्वराणि वनानि च।१६।
स तां पुरीं धनवतीं पुरुहूतपुरीप्रभाम् ।
नातिदीर्घेण कालेन चकार नृपसत्तमः ।१७ ।।
नाम चास्याः शुभं चक्रे निर्मितं स्वेन तेजसा ।
तस्याः पुर्या नृपश्रेष्ठो देवश्रेष्ठपराक्रमः ।। १८।
महाश्मसंघातवती यथेयं विन्ध्यसानुगा ।
माहिष्मती नाम पुरी प्रकाशमुपयास्यति ।१९ ।
उभयोर्विन्ध्ययोः पादे नगयोस्तां महापुरीम् ।
मध्ये निवेशयामास श्रिया परमया वृताम्।२०।
पुरिकां नाम धर्मात्मा पुरीं देवपुरीप्रभाम् ।
उद्यानशतसम्बाधां समृद्धापणचत्वराम् ।२१।
ऋक्षवन्तं समभितस्तीरे तत्र निरामये ।
निर्मितासा पुरी राज्ञापुरिका नाम नामतः।२२।
स ते द्वे विपुले पुर्यौ देवभोग्योपमे शुभे ।
पालयामासधर्मात्मा राजाधर्मेव्यवस्थितः।२३।
पद्मवर्णोऽपि राजर्षिः सह्यपृष्ठे पुरोत्तमम् ।
चकार नद्या वेणायास्तीरे तरुलताकुले।२४।
विषयस्याल्पतां ज्ञात्वा सम्पूर्णं राष्ट्रमेव च ।
निवेशयामास नृपः स वप्रप्रायमुत्तमम् ।२५ ।
पद्मावतं जनपदं करवीरं च तत्पुरम् ।
निर्मितं पद्मवर्णेन प्राजापत्येन कर्मणा ।२६ ।
सारसेनापि विहितं रम्यं क्रौञ्चपुरं महत् ।
चम्पकाशोकबहुलं विपुलं ताम्रमृत्तिकम् ।२७।
वनवासीति विख्यातः स्फीतो जनपदो महान् ।
पुरस्य तस्य तु श्रीमान् द्रुमैः सार्वर्तुकैर्वृतः।२८।
हरितोऽपि समुद्रस्य द्वीपं समभिपालयत् ।
रत्नसंचयसम्पूर्णं नारीजनमनोहरम् ।२९ ।।
तस्य दाशा जले मग्ना मद्गुरा नाम विश्रुताः ।
ये हरन्ति सदा शङ्खान्समुद्रोदरचारिणः।३०।
तस्यापरे दाशजनाः प्रवालाञ्जलसम्भवान् ।
संचिन्वन्तिसदायुक्ताजातरूपं च मौक्तिकम्।३१।
जलजानि च रत्नानि निषादास्तस्य मानवाः।
प्रचिन्वन्तोऽर्णवेयुक्तानौभिःसंयातस्यापरेनगामिनः।३२।
हरितं तर्पयन्त्येकं यथैव धनदं तथा ।।३४।
एवमिक्ष्वाकुवंशात् तु यदुवंशो विनिःसृतः ।
चतुर्धा यदुपुत्रैस्तु चतुर्भिभिद्यते पुनः ।। ३५ ।।
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुङ्गवे ।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले ।३६।
बभूव माधवसुतः सत्त्वतो नाम वीर्यवान् ।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थितः।३७।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत् ।
येन भैमाः सुसंवृत्ताः सत्त्वतात् सात्त्वताः स्मृताः।३८।
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति ।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा चिच्छेद स मधोर्वनम्।३९।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम् ।
निवेशयामास विभुः सुमित्रानन्दवर्धनः ।। 2.38.४० ।
पर्यये चैव रामस्य भरतस्य तथैव च ।
सुमित्रासुतयोश्चैव स्थानं प्राप्तं च वैष्णवम्।४१।
भीमेनेयं पुरी तेन राज्यसम्बन्धकारणात् ।
स्ववशे स्थापिता पूर्वं स्वयमध्यासिता तथा।४२।_______
ततः कुशे स्थिते राज्ये लवे तु युवराजनि ।
अन्धको नाम भीमस्य सुतो राज्यमकारयत् । ४३।
अन्धकस्य सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिवः ।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जज्ञे रम्ये पर्वतमूर्धनि ।४४ ।
ततो रैवत उत्पन्नः पर्वतः सागरान्तिके ।
नाम्ना रैवतको नाम भूमौ भूमिधरः स्मृतः।४५।
(हृदीकस्य) रैवतस्यात्मजो राजा विश्वगर्भो (देवमीढो) महायशाः बभूव पृथिवीपालः पृथिव्यां प्रथितः प्रभुः।।४६।।
तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यरूपासु केशव ।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालोपमाःशुभाः।४७।।
(तस्य तिस्र: भार्या - सत्यप्रभा, अष्मिका और गुणवती)
वसुर्बभ्रुः सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान् ।
यदुप्रवीराः प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।।४८।
( वसु-शूरसेन) (वभ्रुू-पर्जन्य) (सुषेण-अर्जन्य) (सभाक्ष-राजन्य)
तैरयं यादवो वंशः पार्थिवैर्बहुलीकृतः।
यैः साकं कृष्णलोकेऽस्मिन् प्रजावन्तः प्रजेश्वराः।४९।
वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेवः सुतो विभुः।
ततः स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके। 2.38.५०।
कुन्तीं च पाण्डोर्महिषीं देवतामिव भूचरीम् ।
भार्यां च दमघोषस्य चेदिराजस्य सुप्रभाम्।५१।।
एष ते स्वस्य वंशस्य प्रभवः सम्प्रकीर्तितः ।
श्रुतो मया पुरा कृष्ण कृष्णद्वैपायनान्तिकात् ।५२।
त्वं त्विदानीं प्रणष्टेऽस्मिन् वंशे वंशभृतां वर ।
स्वयम्भूरिव सम्प्राप्तो भवायास्मज्जयाय च।५३।।
न तु त्वां पौरमात्रेण शक्ता गूहयितुं वयम् ।
देवगुह्येष्वपि भवान् सर्वज्ञः सर्वभावनः।५४ ।।
शक्तश्चापि जरासंधं नृपं योधयितुं विभो ।
त्वद्बुद्धिवशगाःसर्वे वयं योधव्रते स्थिताः।५५ ।।
जरासंधस्तु बलवान् नृपाणां मूर्ध्नि तिष्ठति ।
अप्रमेयबलश्चैव वयं च कृशसाधनाः ।५६ ।
न चेयमेकाहमपि पुरी रोधं सहिष्यति ।
कृशभक्तेन्धनक्षामा दुर्गैरपरिवेष्टिता ।५७।
असंस्कृताम्बुपरिखा द्वारयन्त्रविवर्जिता ।
वप्रप्राकारनिचया कर्तव्या बहुविस्तरा ।५८ ।।
संस्कर्तव्यायुधागारा योक्तव्या चेष्टिकाचयैः ।
कंसस्य बलभोग्यत्वान्नातिगुप्ता पुरा जनैः।५९ 
सद्यो निपतिते कंसे राज्येऽस्माकं नवोदये ।
पुरी प्रत्यग्ररोधेव न रोधं विसहिष्यति ।2.38.६०।
बलं सम्मर्दभग्नं च कृष्यमाणं परेण ह ।
असंशयमिदं राष्ट्रं जनैः सह विनङ्क्ष्यति।६१ ।
यादवानां विरोधेन ये जिता राज्यकामुकैः ।
ते सर्वे द्वैधमिच्छन्ति यत्क्षमं तद्विधीयताम्।६२।
वञ्चनीया भविष्यामो नृपाणां नृपकारणात्।
जरासंधभयार्तानां द्रवतां राज्यसम्भ्रमे ।६३ ।।
आर्ता वक्ष्यन्ति नः सर्वे रुध्यमानाः पुरे जनाः ।
यादवानां विरोधेन विनष्टाः स्मेति केशव ।६४ ।
एतन्मम मतं कृष्ण विस्रम्भात्समुदाहृतम्।
त्वं तु विज्ञापितः पूर्वं न पुनः सम्प्रबोधितः ।६५।
यदत्र वः क्षमं कृष्ण तच्च वै संविधीयताम् ।
त्वमस्य नेता सैन्यस्य वयं त्वच्छासने स्थिताः ।
त्वन्मूलश्च विरोधोऽयं रक्षास्मानात्मना सह ।६६ 
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि विकद्रुवाक्यं नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः।।३८।।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-17
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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद★–
विकद्रु द्वारा यदु की संतति का वर्णन तथा मथुरापुरी को जरासंध का आक्रमण सहने के अयोग्य बताना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यदु ने दीर्घकाल के पश्चात उन पांच नागकन्याओं के गर्भ से पांच पराक्रमी एवं कुल का भार वहन करने में समर्थ पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम इस प्रकार हैं- महाबाहु मुचुकुन्द, पद्यवर्ण, माधव, सारस तथा राजा हरित। ये पांचों पुत्र भूतल पर पांचभूतों के समान थे। अतुल पराक्रमी राजा यदु इन्हें देखकर बहुत प्रसन्न होते थे। जब वे वयस्क हुए, तब‍ पांच पर्वतों के समान प्रतीत होने लगे। एक दिन अपने बल और दर्प से प्रोत्साहित होकर वे अपने पिता के सामने खड़े होकर इस प्रकार बोले- ‘तात! अब हम बड़ी अवस्था के हो गये, महान बल में हमारी स्थिति है (हम महान बलवान हैं); अत: शीघ्र आपकी आज्ञा चाहते हैं, बताइये, आपके आदेश से हम कौनसा कार्य करें? नरेशों में सिंह के समान पराक्रमी यदु ने सिंहों की सदृश वेगशाली अपने उन पुत्रों से उनके बल-पराक्रम को जानने की उत्सुक्ता से अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘मेरा पुत्र मुचुकुन्द विन्य और ऋक्षवान पर्वतों के निकट पर्वतीय भूमि का ही आश्रय ले यत्नपूर्वक दो पुरियां बसाये।मेरा बेटा पद्यवर्ण भी दक्षिण दिशा का आश्रय ले सह्य पर्वत के शिखर पर शीघ्र एक नगर बसाये। वहीं पश्चिम दिशा की ओर चम्पा के वृक्षों से सुशोभित मनोरम प्रदेश में बेटा सारस एक रमणीय राजधानी की स्थापना करे। मेरा पुत्र यह महाबाहु माधव ज्येष्ठ तथा धर्मज्ञ है, वह युवराज होकर अपने इसी नगर का (जो रैवत के समीप है) का पालन करेगा।' उन सबको राजलक्ष्मी प्राप्त हुई। सबका विभिन्न राज्यों पर अभिषेक हुआ तथा सभी छत्र-चामर आदि राजोचित चिह्नों से अलंकृत हुए। तत्पश्चात पिता की आज्ञा पाकर लोकपालों के समान वे चारों नृपश्रेष्ठ राजकुमार अपने-अपने घर में गये।फि‍र उन्होंने क्रमश: सुरम्य राजधानी बनाने के लिये स्थान की खोज प्रारम्भ की। राजर्षि मुचुकुन्द ने विन्य पर्वत के मध्यवर्ती स्थान को पसंद किया। उन्होंने विषम प्रस्तर खण्डों से भरे हुए दुर्गम नर्मदा तट पर अपना स्थान बनाया। उन्होंने उस स्थान का शोधन किया और उसे एकान्तर एवं पवित्र बनाया। समसेतु का निर्माण किया और अथाह जल से भरी हुई खाइयां खुदवाईं। नगर के विभिन्न भागों में बहुत-से देव मन्दिर भी स्थापित किये। सड़कें, गलियां, जन साधारण के मार्ग तथा चौराहे बनवाये और वन भी लगवाये। उन नृपश्रेष्ठ मुचुकुन्द ने उस पुरी को थोड़े ही दिनों में धन-धान्य से सम्पन्न करके इन्द्रपुरी के समान प्रकाशित एवं सुशोभित कर दिया।१-१७। 
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 38 श्लोक 18-31
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद
देवताओं के समान श्रेष्ठ पराक्रमी नृपवर मुचुकन्द ने उस पुरी का अपने ही तेज से निर्मित शुभ सुन्दर नाम रखा- विन्य-गिरि के शिखर पर बसी हुई यह नगरी महान अश्मसंघात (प्रस्तर समूह) से युक्त है, इसलिये संसार में ‘माहिष्मतिपुरी’ के नाम से विख्यात होगी। राजा मुचुकुन्द ने उत्तम शोभा सम्पत्ति से सम्पन्न उस महापुरी को दोनों विन्य पर्वतों के बीच में बसाया था। तत्पश्चात उन धर्मात्मा नरेश ने एक ‘पुरिका’ नाम वाली पुरी बसायी, जो देवपुरी के समान प्रकाशित होती थी। उसके भीतर सैकड़ों उद्यान बने थे तथा वैभवपूर्ण हाट-बाजार और चौराहे भी उसकी शोभा बढ़ाते थे। ऋक्षवान पर्वत के समीप, रोग-शोक से रहित नर्मदा तट पर राजा ने पुरिका नामक पुरी का निर्माण कराया था। धर्म में स्थित हुए वे धर्मात्मा नरेश देवताओं के उपभोग में आने वाली स्वर्गीय पुरियों के समान उन दो सुन्दर नगरों का निर्माण करके उनका पालन करने लगे।
राजर्षि पद्मवर्ण ने भी सह्यपर्वत के पृष्ठ भाग में वृक्षों और लताओं से व्याप्त वेणा नदी के तट पर एक उत्तम नगर का निर्माण कराया अपनी राज्यभूमि का विस्तार दूसरों की अपेक्षा छोटा जानकर उन्होंने अपने सम्पूर्ण राष्ट्र को ही एक नगर के रूप में बसाया और उसे सब ओर से एक विशाल चहार दिवारी के द्वारा घेर दिया। उस उत्तम राष्ट्र में परकोटे की ही प्रधानता थी। उनका राज्य पद्मावत जनपद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनकी राजधानी का नाम करवीरपुर हुआ। पद्मवर्ण ने शिल्प शास्त्र के नियमों के अनुसार उस नगर का निर्माण कराया था। राजा सारस ने भी क्रौञ्चपुर नामक महान एवं रमणीय नगर का निर्माण कराया, जिसमें चम्पा और अशोक-वृक्षों की बहुलता थी। उसका विस्तार बड़ा था और वहाँ तांबे का कारोबार होता था, जिससे लोगों की जीविका चलती थी उस नगर का महान समृद्धिशाली एवं शोभायमान जनपद ‘वनवासी’ नाम से विख्यात हुआ। वहाँ सभी ॠतुओं में फूलने-फलने वाले वृक्ष सब ओर हरे-भरे दिखाई देते थे। हरित भी रत्न राशि से पूर्ण उस समुद्र-सम्बन्धी द्वीप का पालन करने लगे, जो नारीजनों के लिये मनोहर था (अथवा नारियों के कारण मनोहर प्रतीत होता था)। राजा हरित के द्वारा नियुक्त हुए धीवर, जो वहाँ ‘मद्गुर’ नाम से प्रसिद्ध थे, जल में डूबकर समुद्र के भीतर विचरने वाले शंखों का पकड़ लाते थे। उनके दूसरे-दूसरे मल्लाह सदा सावधान रहकर जल के भीतर होने वाले मूंगों तथा चमकीले मोतियों का संग्रह करते थे।।१८-३१।।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद-
हरित के कार्य-कर्ता निषाद बड़ी-बड़ी नौकाओं को साथ लिये छोटी नौकाओं द्वारा समुद्र में जाते और जल में उत्पन्न होने वाले रत्नों की खोज करते थे। (छोटी नावों से दूर-दूर तक जाकर वे रत्नों को संचय करते और एक जगह खड़ी हुई बड़ी नौका में रखते थे) उस रत्नद्वीप में निवास करने वाले वे मल्लाह जाति के लोग सब प्रकार के रत्नों का संग्रह करते और मछली मांस से जीवन-निर्वाह करते थे। नौकाओं में समुद्र से निकाले गये, जो द्रव्य संचित होते, उनके द्वारा दूर देशों की यात्रा करने वाले व्यवसायी वैश्य व्यापार करते और प्राप्त हुए धन से एकमात्र राजा हरित को ही तृप्त करते थे, जैसे यक्ष केवल कुबेर को ही अपने उपार्जित धन से संतुष्ट किया करते हैं। इस प्रकार यह यदुवंश इक्ष्वाकु वंश से निकला है। फि‍र यदु के चार छोटे पुत्रों द्वारा यह चार अन्य शाखाओं में विभक्त हुआ है। वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये। माधव का पराक्रमी पुत्र सत्त्व नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्वसत राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे। सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये। सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है। जब राजा भीम आनर्त देश के राज्य पर प्रतिष्ठित थे,
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 उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्ड के राज्य का शासन करते थे। उनके राज्यकाल में शत्रुघ्न ने मधुपुत्र लवण को मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला। उसी मधुवन के स्थान में सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले प्रभावशाली शत्रुघ्न ने इस मथुरापुरी को बसाया था। जब श्रीराम के अवतार का उपसंहार हुआ और श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न सभी परमधाम को पधारे, तब भीम ने इस वैष्णव स्थान (मथुरा) को प्राप्त किया; क्योंकि (लवण के) मारे जाने पर अब उस राज्य, से उन्हीं का लगाव रह गया था। (वे ही उत्तराधिकारी होने योग्य थे) भीम ने इस पुरी को अपने वश में किया और वे स्वयं भी यहीं आकर रहने लगे। तदनन्तर जब अयोध्या के राज्य पर कुश प्रतिष्ठित हुए और लव युवराज बन गये, तब मथुरा में भीम के पुत्र अन्धक राज्य करने लगे। अन्धक के पुत्र राजा रेवत हुए इस प्रकार उनसे रैवत (ऋक्ष) की उत्पत्ति हुई। उस समय समुद्र के तट की भूमि पर जो विशाल भूधर था, वह उसी रैवत के नाम पर रैवत पर्वत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।। ३२-४५।।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे। केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं। तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं। उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष। ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।
श्रीकृष्ण! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया। जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं। वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी। कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।
श्रीकृष्ण ! यह मैंने तुमसे अपने यादव वंश की उत्पत्ति बतायी है। इसे मैंने पहले श्रीकृष्णद्वैयापन व्यास जी से सुना था। वंशधारियों में श्रेष्ठ गोविन्द ! इस समय यह वंश नष्ट-सा हो चला था। परंतु तुम स्वयम्भू ब्रह्मा जी के समान इस वंश के उद्भव तथा हमारी विजय के लिये इसमें अवतीर्ण हुए हो। हम लोग तुम्हें साधारण पुरवासी बताकर छिपाने में असमर्थ हैं; क्योंकि तुम देवताओं के गुप्त रहस्यों से भी परिचित, सर्वज्ञ तथा सबको उत्पन्न करने वाले हो। प्रभो! तुम राजा जरासंध से युद्ध करने में समर्थ हो। हम सब लोग योद्धाओं के व्रत में स्थिर रहकर सदा तुम्हारी बुद्धि के वशीभूत रहेंगे। परंतु राजा जरासंध बड़ा बलवान है। वह राजाओं के सिर पर खड़ा है। उसके पास असंख्‍य सेना है और इधर हम लोगों के पास युद्ध की साधन-सामग्री बहुत थोड़ी है। यह मथुरापुरी शत्रुओं द्वारा ‍किये गये एक दिन के उपरोध (घेरे) को भी नहीं सह सकेगी; क्योंकि यहाँ खाने-पीने की सामग्री बहुत कम है। लकड़ियों का संचय भी स्वल्प ही है तथा यह पुरी विभिन्न प्रकार के दुर्गों से घिरी हुई नहीं है। इसके चारों ओर जो जल भरने के लिये खाइयां बनी हुई हैं, उनकी बहुत दिनों से मरम्मत और सफाई नहीं हुई है तथा नगर के द्वार पर रक्षा के लिये यन्त्र (तोप आदि) भी नहीं लगे हुए हैं। पुरी की रक्षा के लिये चारों ओर से मिट्टी की मोटी दीवारें तथा कई पक्के परकोटे बनवाने की आवश्यकता है, जिनका विस्तार बहुत बड़ा हो। हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 59-66 का हिन्दी अनुवाद:-
नगर के जितने आयुधागार हैं, उन सबका संस्कार (मरम्मत और सफाई) होना चाहिये। जगह-जगह ईंटों के ढेर जुटा लेने की आवश्यकता है। कंस की सेना के उपयोग में आने के कारण इस नगर की रक्षा के लिये लोगों ने पहले से कोई व्यवस्था नहीं रखी है। अभी हाल में कंस मारा गया है, अत: हमारे राज्य का अभी नवोदय (प्रभात) काल है। जैसे राजा के सिपाही कर वसूल करने के लिये गांव को घेर लेते हैं, उसी तरह यदि इस पुरी का भी अवरोध हुआ तो यह उसे सहन न कर सकेगी हमारी सेना अनेक युद्धों का सामना करने के कारण हताश हो गयी है।
शत्रु इसे बार-बार पीड़ा देकर क्षीण कर रहा है, अत: यह राष्ट्र यहाँ के निवासियों के साथ ही नष्ट हो जायगा। इसमें संदेह नहीं है। हम लोगों ने राज्य-प्राप्ति की इच्छा रखकर यादवों का विरोध करने के कारण जिन-जिन लोगों को पराजित किया है, वे सब लोग हममें फूट डालना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में उचित हो सो करो। राजा जरासंध के कारण दूसरे-दूसरे राजा भी हमें धोखा देंगे; क्योंकि वे जरासंध के भय से पीड़ित हैं और अपने राज्य में कोई विप्लव न मच जाय, इस के डर से सब-के-सब उसके पीछे दौड़ते हैं। केशव! यदि इस नगर के सब लोग शत्रुओं के घेरा डालने से अवरुद्ध हो जायेंगे तो ये पीड़ित होकर हमारे लिये यही कहेंगे कि हम यादवों के विरोध से नष्ट हो गये। श्रीकृष्ण! यह मेरा मत है, जिसे तुम पर विश्वास होने के कारण मैंने प्रकट किया है। तुम्हें इस बात की पहले-पहल सूचना दी गयी है। तुम्हें समझाने का प्रयत्न नहीं किया गया है। श्रीकृष्ण! इस परिस्थिति में जो उचित हो, वह करो। तुम इस यादव-सेना के नेता हो और हम तुम्हारे शासन में स्थित हैं। इस विरोध के मूल कारण तुम्हीं हो, इसलिये तुम अपने साथ ही हम लोगों की रक्षा करो।
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इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अंतर्गत विष्णु पर्व में विकद्रु का वाक्यविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ
गर्गसंहिता में भी अहीरों या गोपों को यादव ही कहा है । जैसे 
तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे ।    सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:।40।।
 अन्वयार्थ हे राजन्- (नृपेश्वर)जो -(ये) मनुष्य- (मनुजा) कलियुग में -(कलौयुगे ) वहाँ जाकर- ( गत्वा) उन द्वारकेश को- (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं- (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं- (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।
हे राजन्- जो  मनुष्य-कलियुग में वहाँ  उन द्वारकेश को कृष्ण को देखते हैं- वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं-।40।।
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे:।    मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41|| 
अन्वयार्थ ● जो कृष्ण और उनके साथ यादव गोपों के-गोलोक गमन - चरित्र को-  निश्चय ही- सुनता है-  वह मुक्ति को पाकर- सभी पापों से- मुक्त होता है-।41
(इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का राधाकृष्णगोलोकारोहणं नामक साठवाँ अध्याय )
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे अवतारव्यवस्था नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ 
कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरःप्राणोध्रुवःसोऽपि देवकोऽवतरिष्यति॥२३।
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श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇
ने भी अहीरों को यादव और गोप कहा जैसा कि राधा जी के सन्दर्भ में वर्णन है ⬇ आभीरसुतां (सुभ्रुवां ) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी अस्या:शख्यश्चललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।83।
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अर्थ:- अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ; जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ हैं |83|| 
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गर्ग संहिता का रचना  पुष्यमित्र सुँग के समकालीन है क्योंकि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड के त्रयोदश अध्याय में पतञ्जलि का वर्णन है।
संहारकद्रुर्द्रवयुः कालाग्निः प्रलयो लयः महाहिःपाणिनिःशास्त्रभाष्यकारःपतञ्जलिः२२
कात्यायनः पक्विमाभः स्फोटायन उरङ्गमः॥
वैकुंठो याज्ञिको यज्ञो वामनो हरिणो हरिः।२३।
इति श्रीगर्गसंहितायां बलभद्रखण्डे प्राड्‌विपाकदुर्योधनसंवादे
बलभद्रसहस्रनामवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥ __________
मरीची क्रतुश्चौर्वको लोमशश्च
     पुलस्त्यो भृगुर्ब्रह्मरातो वसिष्ठः ।
 नरश्चापि नारायणो दत्त एव
     तथा पाणिनिः पिङ्‌गलो भाष्यकारः ॥ ९१।
 सकात्यायनो विप्रपातञ्जलिश्चा-
     थ गर्गो गुरुर्गीष्पतिर्गौतमीशः ।
 मुनिर्जाजलिः कश्यपो गालवश्च
     द्विजः सौभरिश्चर्ष्यशृङ्‌गश्च कण्वः ॥ ९२ ॥
(गर्ग संहिता अश्वमेध खण्ड उनसठवाँ अध्याय)
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और  (गर्ग संहिता उद्धव -शिशुपालसंवाद विश्वजित खण्ड सप्तम अध्याय )  👇 
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।      वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप:।१४। ____________________________
शिशुपाल उद्धव से कहता है कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ;उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
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गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि  इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु माता' द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है ! ऐसा वर्णन है
यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे।    गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः।१६।।
जरासंधनिरोधार्त नृपाणां मोक्षकारिणे ।।
नृगस्योद्धारिणे साक्षात्सुदाम्नोदैन्यहारिणे ।। १७।।
वासुदेवाय कृष्णाय नमः संकर्षणाय च ।।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय चतुर्व्यूहाय ते नमः।।१८।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च 
सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।१९।।
इति श्रीमद्गर्गसंहितायां श्रीद्वारकाखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे शंखोद्धारमाहात्म्यं नाम द्वादशोऽध्यायः ।। १२ ।।  
रूप गोस्वामी ने अपने मित्र "श्री सनातन गोस्वामी" के आग्रह पर ही कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का पुराणों से संग्रह किया था"श्रीश्री राधा कृष्णगणोद्देश्यदीपिका" के नाम से परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा जिसमें परवर्ती रूढ़िवादी यदु -द्वेषक पुरोहितों की मान्यता को भी सन्दर्भित करते हुए इस पुरोहित वर्ग के गोपालन वृत्ति के विषय में परवर्ती दृष्टिकोण का समर्थन को बल देते हुए  स्मृतियों की मान्यता को ही पुष्ट किया है। 
यद्यपि यह रूप स्वामी का अपना  कोई मौलिक मत नहीं था परन्तु देव संस्कृति के इन्द्र उपासक पुरोहतों का ही मत था ।
जिसमें गोपों को पूर्व दुराग्रह वश वैश्य और शूद्र वर्ण में घसीटने की निरर्थक चेष्टा की है; परन्तु माना यादव ही है जैसे 👇________________________________
ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: । पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
भाषानुवाद–वे सब  व्रजवासी जन ही जो कृष्ण के परिवारी जन  हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल (गोपाल), विप्र, तथा बहिष्ठ (बाहर रहने वाले शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।                   
विप्र का अर्थ गोंड-आभीर ब्राह्मण ही समझना चाहिए। ज्वाला प्रसाद मिश्र ने जाति भास्कर ग्रन्थ में अहीरों को गोड ब्राह्मण ही लिखा है। श्री श्री राधाकृष्णगणोद्देश्यदीपिका" में आगे सातवें श्लोक में रूप स्वामी जी लिखते हैं ।
पशुपाल: त्रिधा वैश्य आभीर गुर्जरा: तथा।गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।
भाषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से ही हुई है ।
( इसी वणिकों में समाहित बरसाने के बारहसैनी बनिया भी अक्रूर यादव के वंशज हैं जो वस्तुत: वैश्यों की बारहवीं श्रेणि है। फिलहाल अहीरों और बनियों का कोई तालमेल नहीं है।
तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।  सैंतालीसवें परिच्छेद में २०१ पृष्ठ पर  अलबरूनी तहकीक ए हिन्द पुस्तक में लिखता है ।
 कृष्ण के विषय में " तब उस समय के राजा  कंस की बहिन के गर्भ से वसुदेव के यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ  वह वसुदेव एक पशुपालने वाला नीच शूद्र जट्ट परिवार था । 
कंस ने अपनी बहिन के विवाह के समय एक आकाशवाणी को सुना था । कि मेरी मृत्यु इसके पुत्र के हाथ से होगी इसलिए उसने आदमी तैनात कर दिये थे ताकि जिस समय उसके कोई सन्तान हो वे उसी समय उसको उठाकर कंस के पास ले आये और वह उसके सभी बच्चों को -क्या लड़के और क्या लड़की - मार डालता था । अन्त में वसुदेव के घर एक बलभद्र उत्पन्न हुआ और नन्द ग्वाले की स्त्री यशोदा उठाकर बालक को अपने घर ले गयी वहाँ उसने उस बालक को कंस के गुप्तचरों से छुपा लिया उसके बाद वसुदेव की पत्नी आठवीं बार गर्भवती हुई और भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के आठवें दिन बरसाती रात को  जब चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में चढ़ रहा था । 
 वसुदेव के पुत्र वासुदेव को जन्म दिया " (उद्धृत अंश अलबरूनी "तहकीके-हिन्द" २७वाँ परिच्छेद पृष्ठ २०१). 
यहाँ यह बात स्पष्ट हुई कि वसुदेव और नन्द दोनों पशुपालक गोप थे ।  दूसरी बात यह भी स्पष्ट हुई कि जाटों और जट्टों का सम्बन्ध गोप( आभीर) समाज से भी है । 
क्योंकि पुराणों में गोप आभीर के समानार्थक है ।
आगे रूप गोस्वामी जी ने वर्णन किया है
प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समीरिता: । अन्येऽनुलोमजा:केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।
भाषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है । और ये आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।। 
 विदित हो की पर्जन्य की माता गुणवती वैश्य वर्ण से सम्बद्ध थी जैसा कि (भागवतपुराण के दशम स्कन्द में वर्णन है 
जिसका भाष्य श्रीधर ने अपनी श्रीधरीटीका में किया है 
 वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " श्लोकांश की व्याख्या पर  श्रीधरीटीका का भाष्य पृष्ठ संख्या 910) पर स्पष्ट किया गया है। "भ्रातरं वैश्य कन्यां शूरवैमात्रेय भ्रातुर् जात्वात् अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति : 
गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं परं च ते यादवा एव " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणात् इति स्कान्दे इति ।
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 ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबंधुमनामयम्वैश्यं क्षेमं  समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ।२९।
(पद्म पुराण स्वर्ग खण्ड अध्याय 51)       
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सौलह के श्लोक
एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं।
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।।
आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।।
न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।१३३।।
संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित्।१३४।।
तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वाचिंतयामास यद्येषा कन्यकाभवेत्।१३५।।
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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा 
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक (नरेन्द्र सैन) आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर  दंग रह गये ।।
उसके समान सुन्दर  कोई देवी न कोई गन्धर्वी  न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी ।।।
इन्द्र ने तब  ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो  ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ।
उस के शरीर सौन्दर्य से चकित इन्द्र  देखा कि यही कन्या ब्रह्मा जी की यज्ञ सहचारिणी होनी चाहिए ।
और आगे इसी अध्याय में श्लोक संख्या १५६ व १५८ पर गायत्री को गोप कन्या कहा है ।
 👇
गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।।१५६।।
गोप कन्या ने कहा वीर मैं यहाँ गोरस बेचने के लिए उपस्थित हूँ यह नवनीत है यह शुद्ध दुग्ध मण्ड से रहित है ।१५६।।निम्न श्लोक में वर्णन है कि विशाल नेत्र वाली गौर वर्ण महान तेज वाली गोप कन्या गायत्री है ।
आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम् ।१६५।निम्न श्लोक में भी देखें ।
एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।।उस गोप कन्या को देख कर जो गौर वर्ण और महान तेज वाली थी वह गोप कन्या अपने पिता की आज्ञा के पराधीन होने से भी चिन्तित थी जब तक वह गोप कन्याअपने पिता से आज्ञा नही लेती है किसी की सहचारिणी नहीं बन सकती है                          
तब ब्रह्मा ने हरि ( इन्द्र) को कहा की यज्ञ के लिए शीघ्र कहो ।।१८४।
तब इन्द्र नरेन्द्र सेन अहीर के पास उनकी पुत्री कोब्रह्मा के लिए माँगने जाता है।
गायत्री जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं । परन्तु पुराणों गायत्री को आभीर कन्या ही लिखा है । 
गूजर और अहीर दोनों ही गोप हैं यदुवंश से भी उत्पन्न हैं । परन्तु आज गूजर एक संघ ही है जिसमें अनेक जातियों का समावेश है ।
गोपों के विषय में जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या  368 पर वर्णित है।👇
अस्त्र हस्ता: च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
मत्संहनन तुल्यानां  गोपानामर्बुदं महत्।      नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन:।18।।
(महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7)
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम- अथवा पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं। आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः का समानार्थक: जैसे १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ।
(2।9।57।2।5)(अमरकोशः) 
हरिवंश पुराण में यदुवंश के विषय में यदु को अपनी पुत्रीयाँ को पत्नी रूप में देने वाले नागराज धूम्रवर्ण 'ने भविष्य वाणी करते हुए कहा कि यदु तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇
"भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )
जैसे १-कुक्कुर, २-भोज, ३-अन्धक, ४-यादव ,५-दाशार्ह ,६-भैम  और ७-वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे । अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि  कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे क्या यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
क्योंकि ये भी यदु के वंश में जन्में थे ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से यहाँ आ गया सरे आम बकवास है ये तो !
आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।
राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
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परन्तु भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय तैईस के श्लोक संख्या १९ से  ३१ तक यदु के पुत्रों का वर्णन भिन्न नामों से और संख्या में भी भिन्न है 
जिसमें यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित थे ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु थे
सहस्रजित केे पुुुुुत्र शतजित थे जिनके तीन पुत्र महाहय, वेणुहय और हैहय हुए ।
दुष्यन्त: स पुनर्भेजे स्वंवंशं राज्यकामुक: ।ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८ ॥
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ १९ ॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता२० ॥
चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ॥ २१ ॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्र: कुन्ते: पिता तत: ।सोहञ्जिरभवत् कुन्तेर्महिष्मान् भद्रसेनक:२२।               
दुर्मदो भद्रसेनस्य धनक: कृतवीर्यसू: ।          कृताग्नि: कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजा: ॥ २३ अर्जुन: कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत् ।दत्तात्रेयाद्धरेरंशात् प्राप्तयोगमहागुण: ॥ २४ ॥
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवा: ।यज्ञदानतपोयोगै: श्रुतवीर्यदयादिभि: ॥ २५ ॥
पञ्चाशीतिसहस्राणि ह्यव्याहतबल: समा: ।अनष्टवित्तस्मरणो बुभुजेऽक्षय्यषड्‍वसु ॥२६॥
तस्य पुत्रसहस्रेषु पञ्चैवोर्वरिता मृधे ।            जयध्वज: शूरसेनो वृषभो मधुरूर्जित: ॥ २७॥
जयध्वजात् तालजङ्घस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत् ।क्षत्रं यत् तालजङ्घाख्यमौर्वतेजोपसंहृतम् ॥ २८ ॥
तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णि: पुत्रो मधो: स्मृत:।
तस्यपुत्रशतंत्वासीद् वृष्णिज्येष्ठं यत:कुलम्।२९।
माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिता: ।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टो: पुत्रो वृजिनवांस्तत: ।३०।।
स्वाहितोऽतो विषद्गुर्वै तस्य चित्ररथस्तत: ॥ 
शशबिन्दुर्महायोगी महाभागो महानभूत् ।३१।।
हरिवंश पुराण में आगे वर्णन है कि  सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । इनके वंशज भैम कहलाये जब राजा भीम आनर्त देश (गुजरात) पर राज्य करते थे और तब उस समय अयोध्या में राम का शासन था ।अब प्रश्न यह भी उदित होता है कि यदु के पुत्र अत: आभीर ही ययाति पुत्र यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित  ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु की सन्तानें कहाँ गये ?
वास्तव में वे आभीर नाम से ही इतिहास में वर्णन किए गये।ये ही यदु की शुद्धत्तम सन्तानें हैं ।
आभीर आज तक गोपालन वृत्ति और कृषि वृत्ति से जीवन यापन कर रहे हैं ।
कृष्ण और बलराम कृषि संस्कृति के सूत्रधार और प्रवर्तक थे । चरावाहों से ही कृषि संस्कृति का विकास हुआ ये ही गोप  गोपालन वृत्ति से और आभीर वीरता अथवा निर्भीकता प्रवृत्ति से और यादव  वंश मूलक रूप से हुए (यदोर्गोत्रो८पत्यम् ) से यदु में सन्तान वाचक 'अण्' प्रत्यय करने पर यादव बना  ,ये मानव जाति यादव कहलायी .
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।     स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।
•–गोप के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ  रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।गिरि गोवर्धनो नाम मधुपुरायास्त्वदूरत:।।३६।।
•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात होगोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेगा जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य  कर दायक:।तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्च ते।३७।
•-जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।अदिति और सुरभि नाम की उनकी दौनों पत्नीयाँ  होंगी ।३७।
देवकी रोहिणी च इमे वसुदेवस्य धीमत: ।सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।३८।
•–बुद्धिमान वसुदेव की  देवकी  और रोहिणी दो भार्याऐं होंगी ।उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।
तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृत लक्षण:।वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।
•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप  बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये । जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बड़ कर विराट् हो गये थे ।३९।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मनां मायया योगरूपया
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मनां मायया योगरूपया लोकानां भवाय मधुसूदन।४०।
•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप तत्रावतरलोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।४१।
•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।
देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।         गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।
•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए साथ ही यथासमय गोप कन्याओं आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।
गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत:। वनमालापरिक्षिप्तंधन्या द्रक्ष्यन्ति केवपु :।४३।
•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे। वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।  बाले त्वयि महाबाहो लोको बालकत्वं एष्यति।४४।
•–महाबाहो विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्व व्यापी परमेश्वर गोप बालक  के रूप में व्रज में निवास करेंगे ।
उस समय सब लोगो आपके हाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे ( बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे।४४।
त्वद्वक्ता: पुण्डरीकाक्ष तव चित्त वशानुगा:।गोषु गोपा भविष्यन्ति सहाया: सततं तव।।४५।
•–कमल नयन !आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ  गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावत:।        मज्जतोयमुनायां च रतिंप्राप्स्यन्ति के त्वयि ४६।
•–जब  आप वन गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे  ,तथा यमुना जी के जल में होते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
 जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।।यस्त्वया तात इत्युक्त: स पुत्र इति वक्ष्यति।४७।।
•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा तात कहकविष्णोर पुकारे जाने परआप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथा: कश्यपादृते।
का चधारयितुंशक्तात्वां विष्णो अदितिं विना।४८।
•–  विष्णो! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ?देवी अदिति अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।वयमप्यालयान् स्वान् स्वान् गच्छामो मधुसूदन।।४९।
-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।
                  "वैश्म्पायन उवाच"
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।जगामविष्णु:स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम्।५०।
•-वैशम्पायन बोले – जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर  क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरो:सुदुर्गमा।त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।
•– वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध  एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधी:।        आत्मानं योजयामास वसुदेव गृहे प्रभु : ।५२।
•– उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।           
इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवशंपर्वणि "पितामहवाक्ये" पञ्चपञ्चाशत्तमो८ध्याय:।।५५।
(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)    
रथारुढस्ततोऽक्रूरः क्षणान्नन्दपुरं गतः ।
घोषेषु सबलं कृष्णमागच्छंतं ददर्श ह ॥१०॥
(गर्ग संहिता  मथुरा खण्ड तृतीय अध्याय)
अर्थ-:रथ पर  सबार अक्रूर  उसके नन्द गाँव गये घोषों में बलवान कृष्ण को आते हुए  देखा !
घोषयोषिदनुगीतवैभवं कोमलस्वरितवेणुनिःस्वनम् ॥
सारभूतमभिरामसंपदां धाम तामरसलोचनं भजे ॥११॥ उपरोक्त श्लोक में घोष युवतियों का वर्णन किया है|
इति श्रीगर्गसंहितायां (हय )अश्वमेधखण्डे
रासक्रीडायां पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४५॥

शैलानां भूषणं घोषो घोषाणां भूषणं वनम् ।
वनानां भूषणं गावस्ताश्चास्माकं परा गतिः ।१७
श्लेष युक्त - शैलों का भूषण घोष(गायों का गोष्ठ और गोप है ) और घोषों का श्रृंगार वन हैं ।और वन की भूषण गायें वे गायें ही हम लोगों की परम गति हैं ।१७। 
हरिवंश पुराण  विष्णु पर्व के अष्टम अध्याय का 17वाँ श्लोक-
यस्मात् कंसात् सर्वे देवा  जुघुरुः। स: कंस एकेन गोपेन बालकेन अल्पायासेव ह जघान ।।५२।
जिस कंस से देव  भी डरते थे उस कंस को एक गोप बालक ने मार डाला ।५२।
ततः सुरास्तेन निहन्यमाना विदुद्रुवुर्लीनधियो दिशान्ते ।
केचिद्‌रणे मुक्तशिखा बभूवु-र्भीताः स्म इत्थं युधि वादिनस्ते ॥५३।
•-कंस की मार पड़ने से देवताओं के होश उड़ गये और वे चारों दिशाओं में भागने लगे।
 कुछ देवताओं ने रणभूमि में अपनी शिखाएँ खोल दीं और ‘हम डरे हुए हैं (हमें न मारो)’- इस प्रकार कहने लगे। ५३।
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केचित्तथा प्रांजलयोऽतिदीनव-युधि मुक्तकच्छाः।स्थातुं रणे कंसनृदेवसंमुखे
गतेप्सिताः केचिदतीवविह्वलाः।५४॥   
•-कुछ देवगण हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन की भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्र की (लाँग) भी खोल डाली। कुछ लोग अत्यंत व्याकुल हो युद्धस्थल में राजा कंस के सम्मुख खड़े होने तक काका साहस न कर सके।५४।
उसी महान योद्धा को गोपाल कृष्ण ने कम प्रयास में ही मार डला-
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च                   गंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च                    जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥२२॥
अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।
 इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं। इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः॥ १८॥
बलराम के गुणों का वर्णन करते हुए 
विष्णु पुराण ,हरिवंश पुराण और ब्रह्मपुराण में समान श्लोकों के द्वारा गोपालों के द्वारा ही डूबे हुए यदुवंश के जहाज का उद्धार करने का वर्णन बलराम को लक्ष्य करके हुआ है ।
देखें क्रमश: निम्न श्लोकों में यही तथ्य -
                  (विष्णु पुराण)
अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रो ऽग्रतोऽग्रजःप्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननंदनः ।४८।
अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैःगोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ।४९।
श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशो! विंशोध्यायः।२०।
_________________________ 
                 ( हरिवंश पुराण)
अक्रूरस्य व्रजे आगमनं, कृष्णस्य दर्शनं चिन्तनं च।
पञ्चविंशोऽध्यायः(२५)
अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः।गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति ।२८॥
श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
  ( ब्रह्म पुराण )
अयं चास्य महाबाहुर्बलदेवोऽग्रजोऽग्रतः ।प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननन्दनः ॥३६॥
अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थावलोकिभिः ।गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्युद्धरिष्यति ॥३७॥
श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे बालचरितेकंसवधकथनं नाम त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥
गोपाल शब्द  "यादवों" का गोपालन वृत्ति ( व्यवसाय) मूलक विशेषण है ।
यह वंश मूलक विशेषण नहीं है वंश मूलक विशेषण तो केवल यादव ही है
ये गोपाल अथवा गोप प्राचीन एशिया में वीर और निर्भीक होने से आभीर अथवा अभीर या अभीरु:भी कहे गये परन्तु इस आभीर का उद्भव वीर अथवा आर्य शब्द से हुआ जो कृषक और यौद्धा का वाचक है ।
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निम्नलिखित श्लोक गोपालों इसी वीरता मूलक प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करता है ।  
अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैःभवद्भिर्गोपजातीयैर्वीरवीर्यं विलोप्यते ।५।
•- गोविन्द बोले ! हे गोपालों तुम्हारा भयभीत होने का कोई प्रयोजन नहीं है;  केशी से भयभीत होकर तुम लोग गोप जाति के बल-पराक्रम को क्यों विलुप्त करते हो।५।
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इति श्रीविष्णुाहापुराणे पंचमांशो! षोडशोऽध्यायः ।१६।
                   (गोविन्द उवाच)
अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः ।भवद्‌भिर्गोपजातीयैर्वोरवीर्यं विलोप्यते ॥२६॥
अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रो ऽग्रतोऽग्रजःप्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननंदनः ।४८।
अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैःगोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ।४९।
श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमांशो! विंशोध्यायः।२०।
________________________ 
अक्रूरस्य व्रजे आगमनं, कृष्णस्य दर्शनं चिन्तनं च।
पञ्चविंशोऽध्यायः(२५)
अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः।          गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति॥२८॥
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श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥२५॥
अयं चास्य महाबाहुर्बलदेवोऽग्रजोऽग्रतः।प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननन्दनः॥३६॥
अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थावलोकिभिः । गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्युद्धरिष्यति ॥३७॥
श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे बालचरितेकंसवधकथनं नाम त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥
_____________________________________
इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे कृष्णबालचरिते कंसवधकथनं नाम त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥
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इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे कृष्णबालचरिते केशिवधनिरूपणं नाम नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥१९०॥
गोविन्द उवाच
अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः।भवद्‌भिर्गोपजातीयैर्वोरवीर्यंविलोप्यते।१९०.२६।
"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: आख्यास्यते राम इति।।                               बलाधिक्याद् बलं विदु:।  यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२।।
विशेष :- वश् =( कान्तौ चमकने में) धातु
लट्लकार के रूप निम्नलिखित हैं 
 (प्रथमपुरुषः वष्टि उष्टः उशन्ति)
  (मध्यमपुरुषः वक्षि उष्टः उष्ट)
  (उत्तमपुरुषः वश्मि उश्वः उश्मः)
और कृष् =विलेखने ( खींचने में )
अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है। 
इस लिए इसका नाम रौहिणेय होगा  यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा।
इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है।।
'परन्तु  यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२।
( यह सम्पूर्ण उपर्युक्त संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अंश प्रक्षिप्त है  और गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण का यह अनुवाद भी गलत है‌।
क्यों सङ्कर्षण शब्द की व्युत्पत्ति :-
सम् उपसर्ग में कृष् धातु में ल्युट्(अन) तद्धित करने पर होता है ।जिसका अर्थ है सम्यक् रूप से कर्षण ( जुताई करने वाला ) 
आपको पता ही है कि बलराम का  शस्त्र  जुताई का यन्त्र हल ही था और "हलधर नाम प्रसिद्ध ही है। । वस्तुतः कृष्ण और संकृष्ण ( संकर्षण) दौनों ही गोप या चरावाहे थे। और कृषि का विकास भी चरावाहों ने किया ।
हरिवंशपुराण में सम्यग् रूपेण संकृष्यते गर्भात् गर्भान्तरं नीयतेऽसौ इति. सङ्कर्षण ।
 (सम् + कृष्ल्युट् )= सङ्कर्षण
२ आकर्षणे ३ स्थानान्तरनयने च न० ।
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 हरिवश पुराण०  विष्णुपर्व  अध्याय 58 पर देखें👇
 “सप्तमो देवकीगर्भो योऽंशः सौम्यो  ।               स संक्रामयितव्यस्ते सप्तमे मासि रोहिणीम् ।३१।
 सङ्कर्षणात्तु गर्भस्य स तु सङ्कर्षणो युवा ।भविष्यत्यग्रजो भ्राता मम शीतांशुदर्शनः।३२।
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भागवत पुराण में "संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति काल्पनिक व मनगड़न्त रूप से जोड़ी गयी ताकि यादव और गोपों को अलग दर्शाया जा सके दूसरा प्रक्षेपों का निराकरण नीचें देखें 👇
भागवतपुराणकार की बातें इस आधार पर भी संगत नहीं हैं ।
यहाँ देखिए -- 💥
"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।    मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि । ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३।
श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५
वाँ अध्याय:-
अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए ! "क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
अब ---मैं पूछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ? यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। 

ऋग्वेद में  यदु और तुर्वशु का वर्णन है।त्वमाविथ नर्यं तुर्वशं यदुं त्वं तुर्वीतिं वय्यं शतक्रतो ।
त्वं रथमेतशं कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव ॥६॥
ऋग्वेद 1/54/6
-हे (शतक्रतो) इन्द्र !  (त्वम्) आप (नर्य्यम्) मनुष्यों को  आविथ रक्षा करो (तुर्वशम्)  (यदुम्) दौनों को और तुर्व- ई- इति  तुम  हिंसा करों  इस  (वय्यम्) ज्ञानवान् मनुष्य की रक्षा और (त्वम्) आप (कृत्व्ये)  करने योग्य नें  (धने) धन में  (एतशम्) वेगादि गुणवाले  (रथम्)  रथ को (आविथ) रक्षा करो और (त्वम्) आप दुष्टों के (नव) नौ संख्या युक्त (नवतिम्) नव्वे अर्थात् निन्नाणवे (पुरः) नगरों को (दम्भयः) नष्ट करते हो, ॥ ६ ॥

अ॒ग्निना॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ परा॒वत॑ उ॒ग्रादे॑वं हवामहे ।
अ॒ग्निर्न॑य॒न्नव॑वास्त्वं बृ॒हद्र॑थं तु॒र्वीतिं॒ दस्य॑वे॒ सह॑॥१८।

अग्नि के द्वारा  तुर्वशु और  यदु  इन पराऐ लोगों से रक्षा करो हे  उग्र देव हम  आपका आह्वान करते हैं।

अ॒ग्निः । न॒य॒त् । नव॑ऽवास्त्वम् । बृ॒हत्ऽर॑थम् । तु॒र्वीति॑म् । दस्य॑वे । सहः॑ ॥१८

“अग्निना सहावस्थितान् तुर्वशनामकं यदुनामकम् उग्रदेवनामकं च राजर्षीन् "परावतः दूरदेशात् "हवामहे आह्वयामः ।          स च "अग्निः नववास्तुनामकं बृहद्रथनामकं तुर्वीतिनामकं च राजर्षीन् "नयत् इहानयतु । कीदृशोऽग्निः । "दस्यवे "सहः अस्मदुपद्रवहेतोश्चोरस्याभिभविता ॥ नयत् । ‘णीञ् प्रापणे'। लेटि अडागमः । इतश्च लोपः' इति इकारलोपः । नववास्त्वम् । नवं वास्तु यस्यासौ नववास्तुः । ‘ वा छन्दसि' इत्यनुवृत्तेः अमि पूर्वत्वाभावे यणादेशः । बृहद्रथम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥

यादव सदियों से गोप थे।स्वयं उनके पूर्वज भी गोचारण करते थे।
उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥ (ऋग्वेद १०/६२/१०)
अनुवाद- और दान और रक्षा करने वाले वे दोनों , कल्याण दृष्टि वाले ,गायों से घिरे हुए,  हर प्रकार से गायों की परिचर्या करने  के लिए  यदु और तुर्वसु की हम सब प्रशंसा करते हैं ।१०।
भावार्थ:-
ऋग्वेद ऋचाओं  का वेद है जिसमें ईश्वरीय सत्ताओं का विभिन्न प्राकृतिक और दैवीय रूपों में स्तवन किया गया है। यह एक प्रकार से मुक्तक काव्य की शैली है । 
इसमें ऐतिहासिक पात्रों का वर्णन भी कहीं भी प्रबन्धात्मक शैली में नहीं है । 
इस लिए उपर्युक्त सूक्त में सायण द्वारा जो नौवीं (ninth ) ऋचा के सावर्णि मनु का अन्वय( सम्बन्ध) दसवीं ऋचा से को यदु और तुर्वसु सम्बन्धित करके  किया गया है; वह भी अर्थ की खींच-तान ही करना है।
देखें नवम् ऋचा-
न तम॑श्नोति॒ कश्च॒न दि॒व इ॑व॒ सान्वा॒रभ॑म् ।सा॒व॒र्ण्यस्य॒ दक्षि॑णा॒ वि सिन्धु॑रिव पप्रथे ॥९।।
मूलार्थ- नहीं उनको व्याप्त करता है कोई " स्वर्ग के समान सूर्य से आरम्भ होकर सावर्णि की दक्षिणा सिन्धु के समान विस्तारित होती है।९।
पदपाठ-
न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।
शब्दार्थ:-
“तं =सावर्णिं मनुं 
“कश्चन =कश्चिदपि “आरभम्= आरब्धुं स्वकर्मणा 
“न “अश्नोति =न व्याप्नोति ।
 यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् ।
“दिव इव= द्युलोकस्य “सानु =समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पा. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य “सावर्ण्यस्य =मनोरियं गवादिदक्षिणा “सिन्धुरिव =स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां “पप्रथे= विप्रथते । विस्तीर्णा भवति ॥
सायण का अर्थ-
कोई भी (व्यक्ति ) अपने कर्म के द्वारा आरम्भ करने के लिए उन सावर्णि मनु को व्याप्त नहीं करता है। अर्थात् जिस प्रकार मनु धन प्रदान करते हैं उस प्रकार धन देने में कोई अन्य समर्थ नहीं होता  वह किस प्रकार स्थित है ? वह द्युलोक को ऊँचे भाग में किसी को भी द्वारा पराजित न होने वाले सूर्य के समान स्थित हैं उन सावर्णि मनु की वह गायों आदि की दक्षिणा वहती हुई नदी के समान पृथ्वी पर फैली है ।
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उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०।
और दानी और त्राता वे दोनों चारो और से व्याप्त सौभाग्य शाली  स्मयन दृष्टि से देखने वाले सौभाग्य शाली । गायों से घिरे हुए जो यदु और तुर्वसु हैं-(वैदिक 'मामहे' का लौकिक रूप 'महामहे') -हम उनकी स्तुति अथवा पूजा करते हैं ।१०।
It is the hypothetical sourceof/evidence for its existence is provided by:
Sanskrit dic-दिश्- "point out, show;-इंगित करना, दिखाना;
" Greek  deiknynai (डिक्निनै)  "to show, to prove," dike "custom, usage;
" Latin dicere डाइसेरे  "speak, tell, say," digitus "finger," 
Old High German zeigon, 
German zeigen "to show,"
 Old English teon "to accuse," tæcan उपदेश- "to teach."
यह इसके अस्तित्व के लिए/साक्ष्य का अवधारणात्मक  स्रोत है:
संस्कृत दिक- "पॉइंट आउट, शो;
 ग्रीक deiknynai "दिखाने के लिए, साबित करने के लिए," डाइक "कस्टम, उपयोग;
"लैटिन डाइसेरे" बोलो, बताओ, कहो," डिजिटस "उंगली,"
ओल्ड हाई जर्मन ज़ीगॉन,
जर्मन ज़ीजेन "दिखाने के लिए,"
पुरानी अंग्रेज़ी तेन "आरोप लगाने के लिए," tæcan "सिखाने के लिए।"
सायण का अन्तर्विरोधी भाष्य-
१-“उत= अपि च 
२"स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ 
३“गोपरीणसा =गोपरीणसौ -गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४{“दासा =दासवत् प्रेष्यवत् }स्थितौ तेनाधिष्ठितौ 
५-“यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी  
६-“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय ( परिविष-का अर्थ सायण ने भोजन किया है जबकि विष्- धातु के अन्य प्रसिद्ध अर्थ भी धातु पाठ मैं हैं-
७-"ममहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् जबकि 'मामहे' क्रिया पद मूल ऋचा नें है जो लौकिक संस्कृत को मह-पूजायाम्-धातु से निष्पन्न आत्मनेपदी उत्तम परुष बहुवचन के 'महामहे'' का वैदिक रूप ''मामहे ही है। अत: कहीं कहीं ऋग्वेद या भाष्य सायण द्वारा सम्यक् और अपेक्षित नहीं हुआ है।
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" अपना-भाष्य"
(स्मद्दिष्टी) प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ “स्मद्दिष्टीन् प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा) गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ  “परीणसा बहुनाम” [निघ० ३।१] (दासा) दातारौ “दासृ दाने” [भ्वादि०] “दासं दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ ] 

(उत) अपि तस्य ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपाभ्याम् (मामहे) स्तुमहे। ॥१०॥
 सायण का अर्थ-
और भी कल्याण कारी कार्यों का आदेश देने वाले बहुत सी गायों से युक्त दास के समान (राजर्षि (राजर्षि मनु के) द्वारा अधिकृत (अधीन) यदु और तुर्वसु नामक दोनों इन सावर्णि मनु के लिए भोजन देते हैं।ऋग्वेद १०/६२/१०
उपर्युक्त ऋचा में सायण का भाष्य अन्तर्विरोध प्रकट करता है । दासा शब्द "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास या अर्थ दानी और रक्षक ( त्राता) है ।
सायण ने अन्यत्र इसी दास का अर्थ उसी काल क्रम में दास कि अर्थ उपक्षयितुर– विनाशक किया है -
 "य ऋक्षादंहसो मुचद्यो वार्यात्सप्त सिन्धुषु ।वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनमः ॥२७॥ ऋग्वेद ८/२४/२७ दास कि अर्थ "दासस्य= उपक्षपयितुरसुरस्य “ के रूप में उपक्षय= (नाश ) करने वाले असुर से किया है ।
यह भी सत्य नहीं कि असुर कि वैदिक अर्थ विनाशक अथवा नकारात्मक हो ।
(वैदिक निघण्टु में असुर:= १-सोम।२-वरुण।३-मेघ।४-दात्रारिव्याप्त्यम्।५प्रज्ञावान्।६-बलवान्-प्राणवान्। ७-ऋत्विज। अर्थ हैं ।)
य ऋक्षा॒दंह॑सो मु॒चद्यो वार्या॑त्स॒प्त सिन्धु॑षु।
वध॑र्दा॒सस्य॑ तुविनृम्ण नीनमः॥२७।।
ऋग्वेद ८/२४/२७/
पदपाठ-
यः।ऋक्षात् ।अंहसः।मुचत्।यः।वा।आर्यात्।सप्त। सिन्धुषु।वधः। दासस्य।तुविऽनृम्ण।नीनमः॥२७।।
पूर्वोऽर्धर्चः= परोक्षकृतः।
“यः= इन्द्रः “ऋक्षात् । ऋन् =मनुष्यान् क्षणोति । क्षणोतेरौणादिको डप्रत्ययः । तस्मात् रक्षसो जातात् 
“अंहसः= पापरूपादुपद्रवात् 
"मुचत्= मुञ्चति । राक्षस एनं न बाधते किं पुनस्तं हन्तीत्यर्थः । अपि च
 “यः= इन्द्रः “सप्त “सिन्धुषु गङ्गाद्यासु नदीषु । यद्वा । सप्त सर्पणशीलासु सिन्धुषु । तत्कूलेष्वित्यर्थः ।
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 गङ्गायां घोष इतिवत् । 
तेषु वर्तमानानां  आभीराणां  ( गंगा के किनारे अहीरों की वस्ती)“ (परन्तु सायण ने घोष या नया अर्थ स्त्रोता कर दिया है)  – स्तोतॄणाम् आर्यात् धनादिकं प्रेरयेत् ।' ऋ गतिप्रापणयोः '। आशीर्लिङि ‘गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः' (पा. सू. ७. ४. २९) इति गुणः । ‘बहुलं छन्दसि' इति लिङयप्याडागमः । अथ प्रत्यक्षः। हे "तुविनृम्ण बहुधनेन्द्र ("दासस्य उपक्षपयितुरसुरस्य )
 “वधः हननसाधनमायुधं “नीनमः नमय ॥
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सम्यग्भाष्य-
( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।
यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों ते सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।
५-स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।
६-“परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।
७- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।
आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैं महामहे का ही(वेैदिक रूप "मामहे" है।)

आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् "
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः महते महेते महन्ते
मध्यमपुरुषः महसे महेथे महध्वे
उत्तमपुरुषः महे महावहे महामहे
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को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। मन्मा॑नि चित्रा अपिवा॒तय॑न्त ए॒षां भू॑त॒ नवे॑दा म ऋ॒ताना॑म्॥(ऋग्वेद-१.१६५.१३)
पदपाठ-
कः। नु। अत्र॑। म॒रु॒तः॒। म॒म॒हे॒। वः॒। प्र। या॒त॒न॒। सखी॒न्। अच्छ॑। स॒खा॒यः॒। मन्मा॑नि। चि॒त्राः॒। अ॒पि॒ऽवा॒तय॑न्तः। ए॒षाम्। भू॒त॒। नवे॑दाः। मे॒। ऋ॒ताना॑म् ॥ १.१६५.१३
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हे मरुतः युष्मान् अत्र लोके “को "नु खलु मर्त्यः
(मामहे -पूजयामि)" । हे "सखायः सर्वस्य सखिवत्प्रियकारिणः सन्तः "सखीन् हविष्प्रदानेन सखिभूतान् यजमानान् "अच्छ आभिमुख्येन प्राप्तुं “प्र “यातन गच्छत । हे "चित्राः चायनीयाः यूयं "मन्मानि मननीयानि धनानि "अपिवातयन्तः संपूर्णं प्रापयन्तः "भूत भवत । किंच "मे मदीयानाम् "एषाम् “ऋतानाम् अवितथानां “नवेदाः भूत ज्ञातारो भवत ।।
हे (मरुतः)  ! (अत्र) इस स्थान में (वः) तुम लोगों को (कः) कौन (नु) शीघ्र (मामहे) वयं स्तुमहे  हम स्तुति करते हैं। हे (सखायः) मित्रो ! तुम (सखीन्) अपने मित्रों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, यातन) प्राप्त होओ। हे (चित्राः)  चेतनावानों (मन्मानि) मानों में (अपिवातयन्तः) शीघ्र पहुँचाते हुए तुम (मे) मेरे (एषाम्) इन (ऋतानाम्) सत्य व्यवहारों के बीच (नवेदाः) नवेद अर्थात् जिनमें दुःख नहीं है ऐसे (भूत) हूआ ॥ १३ ॥
दास्(भ्वादिः)
परस्मैपदी
लट्(वर्तमान)
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः दासति दासतः दासन्ति
मध्यमपुरुषः दाससि दासथः दासथ
उत्तमपुरुषः दासामि दासावः दासामः

येना॒व तु॒र्वशं॒ यदुं॒ येन॒ कण्वं॑ धन॒स्पृत॑म् ।
रा॒ये सु तस्य॑ धीमहि ॥१८। ऋग्वेद 8/7/18
 (येन)  (मरुता)-  जिस  मरुत के  द्वारा (तुर्वशम्) तुर्वशु को (यदुम्) यदु को (आव) रक्षा की गयी = अव् =रक्षणे - धातु का लिट्-लकार प्रथम पुरुष एकवचन) उसकी  रक्षा की गयी (येन) जिसके द्वारा  (धनस्पृतम्) धनाभिलाषी को (कण्वम्) कण्व को (तस्य) उसका  (राये) धन के लिये  हम  अच्छे प्रकार  से उस मरुत का ध्यान करते हैं।१८।
उपर्युक्त ऋचा में वर्णन कि जब यदु और तुर्वसु मरुस्थल में भटक रहे थे तब मरुत ने ही उनकी रक्षा की 
  • धीमहि- यह शब्द "ध्या" धातु के लिङ् लकार का बहुवचन में छान्दस(वैदिक) प्रयोग है।जिसका अर्थ है - ध्यायेमहि= हम सब ध्यान करते हैं।
  • हम उस मरुत का ध्यान करते हैं जिसके द्वारा (उन्हें धन प्रदान करने के लिए) तुर्वश, यदु और धन-इच्छुक कण्व की रक्षा की गयी 
१-"येन =आत्मीयेन रक्षणेन "तुर्वशम् एतत्संज्ञं "यदुम् एतत्संज्ञं च राजर्षिम् २-"आव तम्  रक्षितवान् स्थ । अवतेर्लिटि अन्य पुरुष एकवचने रूपमेतत् । “येन च ३- “धनस्पृतं= धनकामं "कण्वम् ऋषिं रक्षितवान् ४-“तस्य= युष्मदीयं रक्षणं ५-“राये धनार्थं ६- “सु “धीमहि= शोभनं ध्यायाम ॥
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मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत।
इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ।१॥
अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम् ।
विद्वेषणं संवननोभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम्।२॥
यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये ।
अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम्।३॥
वि तर्तूर्यन्ते मघवन्विपश्चितोऽर्यो विपो जनानाम् ।
उप क्रमस्व पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये।४॥
महे चन त्वामद्रिवः परा शुल्काय देयाम् ।
न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ।५॥
वस्याँ इन्द्रासि मे पितुरुत भ्रातुरभुञ्जतः ।
माता च मे छदयथः समा वसो वसुत्वनाय राधसे।६॥
क्वेयथ क्वेदसि पुरुत्रा चिद्धि ते मनः ।
अलर्षि युध्म खजकृत्पुरंदर प्र गायत्रा अगासिषुः।७॥
प्रास्मै गायत्रमर्चत वावातुर्यः पुरंदरः ।
याभिः काण्वस्योप बर्हिरासदं यासद्वज्री भिनत्पुरः ॥८॥
ये ते सन्ति दशग्विनः शतिनो ये सहस्रिणः ।
अश्वासो ये ते वृषणो रघुद्रुवस्तेभिर्नस्तूयमा गहि॥९॥
आ त्वद्य सबर्दुघां हुवे गायत्रवेपसम् ।
इन्द्रं धेनुं सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरंकृतम् ॥१०॥
यत्तु॒दत्सूर॒ एत॑शं व॒ङ्कू वात॑स्य प॒र्णिना॑ वह॒त्कुत्स॑मार्जुने॒यं श॒तक्र॑तु॒त्सर॑द्गन्ध॒र्वमस्तृ॑तम् 
यत्तुदत्सूर एतशं वङ्कू वातस्य पर्णिना ।
वहत्कुत्समार्जुनेयं शतक्रतुः।११।
य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः।
संधाता संधिं मघवा पुरूवसुरिष्कर्ता विह्रुतं पुनः॥१२॥
मा भूम निष्ट्या इवेन्द्र त्वदरणा इव।
वनानि न प्रजहितान्यद्रिवो दुरोषासो अमन्महि ॥१३॥
अमन्महीदनाशवोऽनुग्रासश्च वृत्रहन् ।
सकृत्सु ते महता शूर राधसा अनु स्तोमं मुदीमहि ॥१४॥
यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।
तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥१५॥
आ त्वद्य सधस्तुतिं वावातुः सख्युरा गहि ।
उपस्तुतिर्मघोनां प्र त्वावत्वधा ते वश्मि सुष्टुतिम् ॥१६॥
सोता हि सोममद्रिभिरेमेनमप्सु धावत ।
गव्या वस्त्रेव वासयन्त इन्नरो निर्धुक्षन्वक्षणाभ्यः ॥१७॥
अध ज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि ।
अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥१८॥
इन्द्राय सु मदिन्तमं सोमं सोता वरेण्यम् ।
शक्र एणं पीपयद्विश्वया धिया हिन्वानं न वाजयुम् ॥१९॥
मा त्वा सोमस्य गल्दया सदा याचन्नहं गिरा ।
भूर्णिं मृगं न सवनेषु चुक्रुधं क ईशानं न याचिषत् ॥२०॥
मदेनेषितं मदमुग्रमुग्रेण शवसा ।
विश्वेषां तरुतारं मदच्युतं मदे हि ष्मा ददाति नः ॥२१॥
शेवारे वार्या पुरु देवो मर्ताय दाशुषे ।
स सुन्वते च स्तुवते च रासते विश्वगूर्तो अरिष्टुतः ॥२२॥
एन्द्र याहि मत्स्व चित्रेण देव राधसा ।
सरो न प्रास्युदरं सपीतिभिरा सोमेभिरुरु स्फिरम् ॥२३॥
आ त्वा सहस्रमा शतं युक्ता रथे हिरण्यये ।
ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ॥२४॥
आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या ।
शितिपृष्ठा वहतां मध्वो अन्धसो विवक्षणस्य पीतये ॥२५॥
पिबा त्वस्य गिर्वणः सुतस्य पूर्वपा इव ।
परिष्कृतस्य रसिन इयमासुतिश्चारुर्मदाय पत्यते ॥२६॥
य एको अस्ति दंसना महाँ उग्रो अभि व्रतैः ।
गमत्स शिप्री न स योषदा गमद्धवं न परि वर्जति ॥२७॥
त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
त्वं भा अनु चरो अध द्विता यदिन्द्र हव्यो भुवः ॥२८॥
मम त्वा सूर उदिते मम मध्यंदिने दिवः ।
मम प्रपित्वे अपिशर्वरे वसवा स्तोमासो अवृत्सत ॥२९॥
स्तुहि स्तुहीदेते घा ते मंहिष्ठासो मघोनाम् ।
निन्दिताश्वः प्रपथी परमज्या मघस्य मेध्यातिथे ॥३०॥
____________________________________(आ यदश्वान्वनन्वतः श्रद्धयाहं रथे रुहम् ।  उत वामस्यवसुनश्चिकेतति यो अस्ति याद्वःपशुः॥३१॥
(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः॥३२॥
"अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः।अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥
"अन्वस्य स्थूरं ददृशे पुरस्तादनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः 
शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं बिभर्षि ॥३४॥
सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान  सायंकाल में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।
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हे मेधातिथि ! प्रयोग( प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं ( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है वह दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा है जो पशुओं से समन्वित हैं अर्थात यादव सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति हुआ करती थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार में  प्राचीनत्तम शब्द है । पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का  विकास हुआ
 ( Etymology of pashu-
From Proto-Indo-Iranian *páću, from1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).
पशुपालन और कृषि वैदिक ऋषियों की परम्परा-
क्योंकि जब परिकल्पना सत्यापित होकर सिद्धान्त बन जाये तब 
ऐसा ही है यह मानना उचित है।
और यह तब तक के लिए लिखा जा सकता है,जबतक इसे खण्डित करके इसके विरुद्ध कोई नया तथ्य न आ जाय-
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (
अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !
कृषि करना वैश्य का काम है तो 
कितने किसान अर्थ में क्षत्रिय है ?
श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
अष्टादश अध्याय पर वर्णित करते हैं ।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
भाष्य -
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः च गौरक्ष्यं च वाणिज्यं च कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः भूमेः विलेखनं गौरक्ष्यं गा रक्षति इति गोरक्षः तद्भावो गौरक्ष्यं पाशुपाल्यं वाणिज्यं वणिक्कर्म क्रयविक्रयादिलक्षणं वैश्यकर्म वैश्यजातेः कर्म वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं शुश्रूषास्वभावं कर्मम शूद्रस्य अपि स्वभावजम्।।44।।
___     
दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि ट
यवं वृकेण कर्षथः।
ता वामद्य सुमतिभिः शुभस्पती 
अश्विना प्र स्तुवीमहि।६।
पदपाठ-
दशस्यन्ता।मनवे।पूर्व्यम्।दिवि।यवम्।वृकेण। कर्षथः।ता।वाम्।अद्य।सुमतिऽभिः।शुभः।पती इति ।अश्विना।प्र।स्तुवीमहि।६।हे अश्विनौ 
१-"पूर्व्यं= पुरातनं २-“दिवि =द्युलोके स्थितमुदकं 
३-“मनवे =एतन्नामकाय राज्ञे ४-“दशस्यन्ता दशस्यन्तौ =प्रयच्छन्तौ युवां ५-“वृकेण= ' वृको लाङ्गलं भवति विकर्तनात्' (निरु. ६.२६) इति यास्कः। तेन लाङ्गलेन ६-"यवं यवनामकं धान्यं ७- "कर्षथः= पुनश्च तस्मै विलेखनं कुरुथः। ८- “शुभस्पती =उदकस्य पालयितारौ हे "अश्विना= अश्विनौ ।९-“ता =तौ पूर्वोक्तलक्षणयुक्तौ
१०"वां =युवाम् ११ “अद्य =अस्मिन् यज्ञदिने 
१२“सुमतिभिः =शोभनाभिः स्तुतिभिः प्रकर्षेण
१३ "स्तुवीमहि= वयं स्तुमः ॥
अर्थानुवाद-
हे अश्विनी कुमारों ! द्युलोक (स्वर्ग) में स्थित प्राचीन जल को  मनु नामक राजा को प्रदान करते हुए  जिन यज्ञ मार्गों से तुम दोनों ने लांगल (हल) से यव (जौ) नामक धान्य की खेती की थी। और फिर तुम दोनों ने उस मनु नामक राजा के लिए उस बोये हुए की गुड़ाई की (अर्थात् उन्हें खेती करना सिखाया था।  हे जल के पालक अश्विनी कुमारों ! उन्हीं पूर्वोक्त लक्षण युक्त तुम दोनों की हम इस यज्ञ दिवस पर सुन्दर स्त्रोतों से स्तुति करते हैं।६।
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उप नो वाजिनीवसू यातमृतस्य पथिभिः।
येभिस्तृक्षिं वृषणा त्रासदस्यवं महे क्षत्राय जिन्वथः।७।
पदपाठ-
उप॑ । नः॒ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । या॒तम् । ऋ॒तस्य॑ । प॒थिऽभिः॑ । येभिः॑। तृ॒क्षिम्। वृ॒ष॒णा॒ ।त्रा॒स॒द॒स्य॒वम्।म॒हे।क्ष॒त्राय॑ । जिन्व॑थः॥७।
सायण-भाष्य-
१-हे “वाजिनीवसू =अन्नधनवन्तौ।अन्नमेव धनं यथोस्तौ।अश्विनौ
२-"ऋतस्य= सत्यभूतस्य यज्ञस्य ३-“पथिभिः =मार्गैः ४-“नः =अस्मान् ५-“उप “यातम् =आगच्छतम् ।६-“वृषणा= वृषणौ धनानां सेक्तारौ हे अश्विनौ७-“त्रासदस्यवं= त्रसदस्योः पुत्रं
८-“तृक्षिम् =एतन्नामकं ९-"येभिः= यैर्यज्ञमार्गैः
१०"महे =महते ११-“क्षत्राय =धनाय १२"जिन्वथः= प्रीणयथ।एवं तैर्मार्गैरस्मान् धनादिभिः प्रीणयितुमागच्छतमित्यर्थः
अर्थानुवाद-
अन्न ही धन है  जिनका ऐसे वह दोनों अश्वनी-कुमार सत्य मार्गों से हमको प्राप्त हों। धन का सेचन (वर्षण) करने वाले हे अश्विनी कुमारों ! त्रसदस्यु के पुत्र तृक्षि नामक राजा को जिन यज्ञ मार्गों से तुम दोनों ने महान धन के लिए प्रसन्न किया था । अर्थात् उसी प्रकार उन यज्ञ मार्गों से धनादि के द्वारा हम्हें प्रसन्न करने के लिए तुम आओ।७।
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एतेषां जातिविहितानां कर्मणां सम्यगनुष्ठितानां स्वर्ग प्राप्तिः फलं स्वभावतः।
वर्ण आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफल मनुभूय ततः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलधर्मायुः श्रुतवृत्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते’ [1]
इत्यादिस्मृतिभ्यः पुराणे च वर्णिनाम् आश्रमिणां च लोकफलभेद विशेषस्मरणात्।
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- आर्यों त  कार्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
परन्तु वैदिक सन्दर्भों में प्रथम तीन आर्यो के कार्य थे ।
वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवरूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
क्योंकि ‘अपने कर्मों में तत्पर हुए वर्णाश्रमावलम्बी मरकर, परलोक में कर्मों का फल भोगकर, बचे हुए कर्मफल के अनुसार श्रेष्ठ देश, काल, जाति, कुल, धर्म, आयु, विद्या, आचार, धन, सुख और मेधा आदि से युक्त, जन्म ग्रहण करते हैं’ इत्यादि स्मृति वचन हैं और पुराण में भी वर्णाश्रमियों के लिए अलग-अलग लोक प्राप्तिरूप फलभेद बतलाया गया है।
जब प्रश्न यह बनता है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको मुहय्या कराता है वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?
इसी लिए कोई ब्राह्मण अलावा स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में नही  क्योंकि यह अब शूद्र ही है ।
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"आर्य्य शब्द की व्युत्पत्ति-★-)👇
-★ऋ = गति, प्रापण हिंसायाम्
 - ऋच्छति । आर । आरतुः । अर्त्ता । अरिष्यति । आरत् (95) । अर्पयति । ''अरित्रं केलिपातकः '' ।। 940 ।।
ऋ धातु का वर्तमान कालिक अर्थ गति और प्राप्त करना धातु प्रदीप में उपलब्ध है ।
परन्तु (अर् + इण्) अरि:= (शत्रु) और आर(आरि शस्त्र)  शब्द हिंसा मूलक है । संस्कृत भाषा में "अर्" "ऋ"  काम सम्प्रसारित रूप है। परन्तु आज  अर् धातु  लौकिक संस्कृत में उपलब्ध नहीं है।  सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही वैदिक काल में रही हो  जैसा कि ऋग्वेद के ६/५३/८ में आरं  शब्द (अर्) धातु मूलक है ।
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यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे।                तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥८॥
पदपाठ-
याम् । पूषन् । ब्रह्मऽचोदनीम् । आराम् । बिभर्षि । आघृणे ।तया । समस्य । हृदयम् । आ । रिख । किकिरा । कृणु ॥८।
हे १-“आघृणे =आगतदीप्ते “पूषन्।
२- “ब्रह्मचोदनीं= ब्रह्मणोऽन्नस्य प्रेरयित्रीं -“याम् 
३-“आरां =चर्मखण्डनशस्त्रम् ( आरा)
४- “बिभर्षि =हस्ते धारयसि “तया 
५“समस्य= सर्वस्य लुब्धजनस्य 
६“हृदयम्
७ “आ “रिख =आलिख। 
८“किकिरा= किकिराणि कीर्णानि प्रशिथिलानि च
 ९“कृणु =कुरु ॥
लौकिक संस्कृत में यह अर् धातु पीछे  से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तर, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो। 
यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो । "ऋ" धातु के उत्तर "यत्"  कृत् प्रत्यय करने से "अर्य "और उसमें तद्धित " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य" शब्द की सिद्धि होती है। 
विभिन्न भारोपीय भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है। इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है। 
"आर्य" शब्द का एक अर्थ कृषिकार्य करने के कारण वैश्य भी है परन्तु अब वैश्य केवल व्यापार करते देखे जाते हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः"  १/१/१०३ सूत्र इस बात का प्रमाण है।
इन्द्र॑म् । वर्ध॑न्तः । अ॒प्ऽतुरः॑ । कृ॒ण्वन्तः॑ । विश्व॑म् । आर्य॑म् ।अ॒प॒ऽघ्नन्तः॑ । अरा॑व्णः ॥५।
“इन्द्रं “वर्धन्तः =वर्धयन्तः “अप्तुरः =उदकस्य प्रेरकाः “विश्वं =सोममस्मदीयकर्मार्थम् “आर्यं= भद्रं कृषकं “कृण्वन्तः कुर्वन्तः "अराव्णः अदातॄन "अपघ्नन्तः विनाशयन्तः । अभ्यर्षन्तीत्युत्तरया संबन्धः ॥ ३०॥
 फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पली लिखा है । फिर, वाजस-नेय (१४-२८) और वैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्षों के नाम-ब्रह्मान, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण (कृषि) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। 
भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ primordial-Meaning .‡
आरम् (आरा )धारण करने वाला वीर …..
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः |
आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology ) संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के धातुपाठ मेंतीन अर्थ सर्व मान्य है ।
 १–गमन करना Togo 
२– मारना to kill
 ३– हल (अरम्) चलाना plough…. 
हल की क्रिया का वाहक हैरॉ (Harrow) शब्द मध्य इंग्लिश में  (Harwe) कृषि कार्य करना ..
प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
'परन्तु ये चरावाहे आभीर ,गुज्जर  और जाटों के पूर्व पुरुष ही थे । वर्तमान में हिन्दुस्तान के बड़े किसान भी यही लोग हैं । इन्हीं से अन्य राजपूतीय जनजातियों का विकास भी हुआ।
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! 
पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्तसन धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।
 वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया-रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है ।इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis भी हैं । अर्थात् कृषि कार्य भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है ! 
देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य थे ।
परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का था। 
यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इसदेव संस्कृति के उपासकों  ने यह प्रेरणा ग्रहण की। सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था। 
कृषि के जनक गोपालक चरावाहे थे।
देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे ।
ब्राह्मण केवल पुरोहित थे आर्य नहीं -आर्य शब्द मूलत: कृषक और पशुपालक का वाचक था।
घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे । 
'परन्तु इज़राएल और फलिस्तीन के यहूदियों के अबीर कबीलों के समानान्तरण ये भी कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे। भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायीयों 'ने गो' का सम्मान करना सुमेरियन लोगों से सीखा सुमेरियन भाषाओं में गु (Gu) गाय को कहते हैं ।यहूदियों के पूर्वज  जिन्हें कहीं ब्रह्मा कहीं एब्राहम भी कहा गया सुमेरियन नायक थे ।
 विष्णु  भी सुमेरियन बैबीलॉनियन देवता हैं ।
यहूदियों का तादात्म्य भारतीय पुराणों में वर्णित यदुवंशीयों से है यहूदियों का वर्णन भी चरावाहों के रूप में मिलता है ।
इसमें अबीर मार्शल आर्ट के जानकार हैं ।
राम कृष्ण गोपाल भण्डारकर जिनका तादात्म्य भारतीय अहीरों से करते हैं ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था
अपनी गायों के साथ साथ विचरण करते हुए जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे कालान्तरण में वही घास के मैदान ग्राम के रूप में रूढ़- (प्रचलित )  हो गया। संस्कृत भाषा में ग्राम शब्द की व्युत्पत्ति इसी व्यवहार मूलक प्रेरणा से हुई।
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कल्पद्रुमः
आरा, स्त्री, (आङ् + ऋ + अच् + टाप् ।).      चर्म्म-भेदकास्त्रं । तत्पर्य्यायः । चर्म्मप्रभेदिका २ । इत्यमरः ॥ “उद्यम्यारामग्रकायोत्थितस्य” । इति माघः । अमरकोशःआरा स्त्री।चर्मखण्डनशस्त्रम्
समानार्थक:आरा,चर्मप्रभेधिका
2।10।34।2।3
वृक्षादनी वृक्षभेदी टङ्कः पाषाणदारणः। क्रकचोऽस्त्री करपत्रमारा चर्मप्रभेदिका॥
पदार्थ-विभागः : उपकरणम्,आयुधम्
वाचस्पत्यम्
'''आरा'''= स्त्री आ + ऋ--अच्।
१ चर्म्मभेदकास्त्रभेदे।
२ लौहास्त्रे।
'आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टः' अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्मरूप वाला जीवात्मा देखा गया है।
३ प्रतोदे च “या पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां विभर्ष्यामृणे” ऋ॰६/५३/८
“उद्यम्यारामग्रकायोत्थितस्य” माघः।
“आरां प्रतोदम्” मल्लिनाथः।
Apte-
आरा [ārā], See under आर.
Monier-Williams-
आरा f. a shoemaker's (awl)आल- or knife आरा आरा-मुख, etc. See. 2. आर.
Vedic Index of Names and Subjects
'''Ārā,''' a word later Hillebrandt,
''Vedische Mythologie,'' 3, 365. n. 1. known as an ‘awl’ or ‘gimlet,’ occurs in the Rigveda vi. 53. 8. only to designate a weapon of Pūṣan, with whose pastoral character its later use for piercing leather is consistent. ''Cf.'' '''[वाशी|Vāśī]].'''
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awl ऑल- (n.)
"pointed instrument for piercing small holes in leather, wood, etc.
,Old English æl "awl, piercer," from Proto-Germanic *ælo (source also of Old Norse alr,  
- Dutch aal,  –
Middle Low German al, _
Old High German äla
German Ahle), which is of uncertain origin. संस्कृत "आरा"
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अवल अल- (सं.)"चमड़े, लकड़ी आदि में छोटे-छोटे छेद करने का नुकीला यंत्र।
,"पुरानी अंग्रेज़ी æl" awl, पियर्सर- छेद करने या " प्रोटो-जर्मेनिक * ælo से (पुराने नॉर्स alr का स्रोत भी,- डच आल, -मध्य निम्न जर्मन अल, _
ओल्ड हाई जर्मन अला,जर्मन में अहले), जो अनिश्चित मूल का है।
सारांश यह कि -आर्य का अर्थ कृषक और "आर्य्य" कृषक-सन्तान हैं। 
ऋग्वेद में ब्रह्मन् शब्द का एक अर्थ है मन्त्रकर्त्ता। इसी ब्रह्मन् ही से ब्राह्मण शब्द निकला है। ब्रह्मन् अर्थात् मन्त्रकर्त्ता के पुत्र का नाम ब्राह्मण है।  जो भ्रमर की तरह मन्त्र उचारण करे वह बाह्मण है ।
विश- शब्द का एक अर्थ है मनुष्य। इसी विश से वैश्य शब्द की उत्पत्ति है, जिसका अर्थ है मनुष्य-सन्तान। इसी नियम के अनुसार "आर्य्य" शब्द का अर्थ "अर्य्य-पुत्र" अर्थात् कृषक-सन्तान होता है। "आर्य्य" शब्द का अर्थ चाहे कृषक हो, चाहे कृषक सन्तान हो, परिणाम एक ही है।  अतएव आदि में "आर्य्य" शब्द कृषक-वाची था।
परन्तु इसमें लज्जा की कोई बात नहीं। कोई समाज ऐसा नहीं जिसमे जीवन धारण करने के लिए न मृगयासक्ति छोड़ कर कृषि करने की ज़रूरत न पड़ी हो और समाज के गौरवशाली महात्माओं ने कृषि न की हो। कोई भी नई बात करने के लिए समाज के मुखिया महात्माओं ही को अग्रगन्ता होना पड़ता है। 
क्योकि ऐसा किये बिना और लोग पुराने पन्थ को छोड़ कर नये पन्थ से जाते संकोच करते हैं। अतएव जिन्होंने कृषिकार्य की उद्भावना पहले पहले की उनको अपने ही हाथ से हल चलाना पड़ा। यही कारण है जो उन्होंने अर्य्य या आर्य्य नाम ग्रहण किया। वैदिक ऋषि इन्हीं कृषकों के वंशज थे। प्राचीन आर्य्यों की तरह वैदिक मन्त्रकर्त्ता ऋषि भी अपने हाथ से हल चलाते थे। इसके प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में "कृष्टी" शब्द अनेक बार आया है। जो "कृष्" धातु मूलक है ____________________________
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । 
(अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
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एक ओर मनु स्मृति यज्ञ के नाम पर निर्दोष पशुओं के वध का तो आदेश देती है। 
मनुस्मृति में वर्णन है कि-
वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा । हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83
ब्राह्मण व क्षत्रिय भी वैश्य के धर्म से निर्वाह करते हुये जहाँ तक सम्भव हो कृषि (खेती) ही न करें  जो कि हल के आधीन है अर्थात् हल आदि के बिना कुछ फल प्राप्त नहीं होता।
अर्थात कृषि कार्य वैश्य  ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है । निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार  ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के सायद यही कारण है  किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।
और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ।वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी  अनाज उत्पन्न करता है ।
उस किसान की शान में भी यह  शासन की गुस्ताखी है । किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला  सायद दूसरा कोई नहीं  इस संसार में परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !
फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है  कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को  वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने  किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाला और  अन्तत: शूद्र  वर्ण में समायोजित कर दिया है ।
यह आश्चर्य ही है । किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान कुी रोटी से पेट भरते हैं  ।
परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में  निराधार ही थे । किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है । किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है । रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है । वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर । यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता  ब्राह्मण की  दृष्टि में निम्न ही है ।
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले 
कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ?  विचार कर ले !
श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।परिचर्यात्मकं कर्मशूद्रस्यापि स्वभावजम्।44।
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है ।      कि कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवा रूपी कर्म स्वाभाविक है।।44।।
पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।परन्तु किसान के लिए यह दुर्भाग्य ही है।
किसान का जीवन आर्थिक रूप से सदैव से संकट में रहा उसकी फसल का मूल्य व्यापारी ही तय करता है ।उसके पास कठिन श्रम करने के उपरान्त भी उनका अभाव ही रहा !
परन्तु खाद और बीज का मूल्य भी व्यापारी उच्च दामों पर तय करता है ; और ऊपर से प्राकृतिक आपदा और ईति, के प्रकोप का भी किसान भाजन होता रहता है । ईति खेती को हानि पहुँचानेवाले वे उपद्रव है ।जो किसान का दुर्भाग्य बनकर आते हैं । इन्हें  शास्त्रों में छह प्रकार का बताया गया था :
अतिवृष्टिरनावृष्टि: शलभा मूषका: शुका:।प्रत्यासन्नाश्च राजान: षडेता ईतय: स्मृता:।।
(अर्थात् अतिवृष्टि,(अधिक वर्षा) अनावृष्टि(सूखा), टिड्डी पड़ना, चूहे लगना, पक्षियों की अधिकता तथा दूसरे राजा की चढ़ाई।)
परन्तु अब ईति का पैटर्न ही बदल गया है। गाय, नीलगाय और सूअर । माऊँ खर पतवार । खेती बाड़ी के चक्कर में कृषक आज बीमार !!यद्यपि गायों के लिए कुछ मूर्ख किसान ही दोषी हैं 
जो दूध पीकर गाय दूसरों के नुकसान के लिए छोड़ देते हैं । परन्तु सब किसान नहीं हर समाज वर्ग में कुछ अपवाद होते ही हैं ।
अब प्रश्न यह बनता है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको कहें कि  पूरे देश को मुहय्या कराता है; वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?
परन्तु वह शूद्र ही है । फिर भी उसका ही अन्न खाकर पाप नहीं लगता ,?
इसी लिए कोई ब्राह्मण अथवा जो  स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में साथ नहीं  होता है क्योंकि यह कृषक अब शूद्र ही है ।
और शूद्रों के अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता है । धर्म शास्त्रों के अनुसार !
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        ऋग्वेदः  मण्डल/सूक्तं ७/१९ ऋग्वेदः 
                मैत्रावरुणिर्वसिष्ठः।
देवता-. इन्द्रः। छन्द- त्रिष्टुप्।
यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम एकः                      कृष्टीश्च्यावयति प्र विश्वाः।
यः शश्वतो अदाशुषो गयस्य प्रयन्तासि सुष्वितराय वेदः ॥१॥
त्वं ह त्यदिन्द्र कुत्समावःशुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये।
दासं यच्छुष्णं कुयवं न्यस्मा अरन्धय आर्जुनेयाय शिक्षन् ॥२॥
त्वं धृष्णो धृषता वीतहव्यं प्रावो विश्वाभिरूतिभिः सुदासम् । प्र पौरुकुत्सिं त्रसदस्युमावः क्षेत्रसाता वृत्रहत्येषु पूरुम् ॥३॥
त्वं नृभिर्नृमणो देववीतौ भूरीणि वृत्रा हर्यश्व हंसि ।
त्वं नि दस्युं चुमुरिं धुनिं चास्वापयो दभीतये सुहन्तु ॥४॥
तव च्यौत्नानि वज्रहस्त तानि नव यत्पुरो नवतिं च सद्यः । निवेशने शततमाविवेषीरहञ्च वृत्रं नमुचिमुताहन् ॥५॥
सना ता त इन्द्र भोजनानि रातहव्याय दाशुषे सुदासे ।
वृष्णे ते हरी वृषणा युनज्मि व्यन्तु ब्रह्माणि पुरुशाक वाजम् ॥६॥
मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टावघाय भूम हरिवः परादै । त्रायस्व नोऽवृकेभिर्वरूथैस्तव प्रियासः सूरिषु स्याम ॥७॥
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प्रियास इत्ते मघवन्नभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः। 
नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥८॥
सद्यश्चिन्नु ते मघवन्नभिष्टौ नरःशंसन्त्युक्थशास उक्था ।
ये ते हवेभिर्वि पणीँरदाशन्नस्मान्वृणीष्व युज्याय तस्मै ॥९॥
एते स्तोमा नरां नृतम तुभ्यमस्मद्र्यञ्चो ददतो मघानि ।
तेषामिन्द्र वृत्रहत्ये शिवो भूः सखा च शूरोऽविता च नृणाम् ॥१०॥
नू इन्द्र शूर स्तवमान ऊती ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधस्व ।
उप नो वाजान्मिमीह्युप स्तीन्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥११॥
सायणभाष्यम् ★
‘यस्तिग्मशृङ्गः' इत्येकादशर्चं द्वितीयं सूक्तं वसिष्ठस्यार्षं त्रैष्टुभमैन्द्रम् । तथा चानुक्रान्तं’ यस्तिग्मशृङ्ग एकादश' इति । आभिप्लविके पञ्चमेऽहन्येतन्निविद्धानम् । सूत्रितं च---‘कया शुभा यस्तिग्मशृङ्ग इति मध्यंदिनः ' ( आश्व. श्रौ. ७. ७ ) इति । विषुवति निष्केवल्यशस्त्रेऽप्येतत् - सूक्तम् । सूत्रितं च--’ यस्तिग्मशृङ्गोऽभि त्यं मेषम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ६) इति । महाव्रते निष्केवल्येऽप्येतत् सूक्तम् । सूत्रितं च-’ यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम उग्रो जज्ञे वीर्याय स्वधावान्' (ऐ. आ. ५. २. २ ) इति । आयुष्कामेष्ट्यां ‘मा ते अस्याम्' इतीन्द्रस्य त्रातुर्याज्या । सूत्रितं च – ' मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टौ पाहि नो अग्ने पायुभिः' (आश्व. श्रौ. २. १०) इति ॥
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पदपाठ-
यः । तिग्मऽशृङ्गः । वृषभः । न । भीमः । एकः । कृष्टीः । च्यवयति । प्र । विश्वाः ।यः । शश्वतः । अदाशुषः । गयस्य । प्रऽयन्ता । असि । सुस्विऽतराय । वेदः ॥१।।
“१-यः= इन्द्रः
“२-तिग्मशृङ्गः= तीक्ष्णशृङ्गः
“३-वृषभो “ वृषभ 
“४-भीमः भयंकरः सन् 
“एकः =
 “५-विश्वाः सर्वान् “विश्वाः सर्वान्
 “६-कृष्टीः  कृषका: 
 “७-प्र “च्यावयति ।
 “८-यः चेन्द्रः 
“अदाशुषः अयजमानस्य 
“शश्वतः बहोः 
“गयस्य गृहस्य धनस्य वा । अपहर्ता भवतीति शेष: । हे इन्द्र स त्वं "सुष्वितराय अतिशयेन सोमाभि<वं कुर्वते जनाय "वेदः धनं “प्रयन्ता प्रदाता "असि ॥ तृन्नन्तत्वादत्र षष्ठ्या अभावः । असि इत्यस्याख्यातस्यानुदात्तत्वात् यद्वृत्तयोगाच्चानुदात्तत्वासंभवात् यद्वृत्तयुक्तमाख्यातान्तरमध्याहृत्य योजना कृता ।।
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त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑माव॒: शुश्रू॑षमाणस्त॒न्वा॑ सम॒र्ये। दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्य॑स्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥२।। 
पदपाठ-
त्वम् । ह । त्यत् । इन्द्र । कुत्सम् । आवः । शुश्रूषमाणः । तन्वा । सऽमर्ये ।दासम् । यत् । शुष्णम् । कुयवम् । नि । अस्मै । अरन्धयः । आर्जुनेयाय । शिक्षन् ॥२।।
हे “इन्द्र “त्वं “ह त्वं खलु “त्यत् तदा "तन्वा =शरीरेण “शुश्रूषमाणः उपचरन् "समर्ये मर्यैर्मर्त्यैर्योद्धभिः सहिते युद्धे “कुत्सम् "आवः अरक्षः । कदेत्यत्राह । "यत् यदा "आर्जुनेयाय अर्जुन्याः पुत्राय “अस्मै कुत्साय "शिक्षन् धनं प्रयच्छन् "दासं दासनामकमसुरं “शुष्णं च "कुयवं च “नि "अरन्धयः नितरां वशमानयः ॥
पदपाठ-
त्वम् । धृष्णो इति । धृषता । वीतऽहव्यम् । प्र । आवः । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । सुऽदासम् ।
प्र । पौरुऽकुत्सिम् । त्रसदस्युम् । आवः । क्षेत्रऽसाता । वृत्रऽहत्येषु । पूरुम् ॥३।।
हे “धृष्णो =शत्रूणां धर्षकेन्द्र
 "धृषता =धर्षकेण वज्रेण बलेन वा 
"वीतहव्यं= दत्तहविष्कं प्रजनितहविष्कं वा "सुदासं राजानं 
"विश्वाभिः= सर्वाभिः 
“ऊतिभिः= रक्षाभिः 
"प्रावः =प्रकर्षेणारक्षः । किंच 
“वृत्रहत्येषु =युद्धेषु 
"क्षेत्रसाता =क्षेत्रसातौ क्षेत्रस्य भूमेर्भजने निमित्ते पौरुकुत्सिं पुरुकुत्सस्यापत्यं 
“त्रसदस्युं “पूरुं च “प्र “आवः ॥
त्वम् । नृऽभिः । नृऽमनः । देवऽवीतौ । भूरीणि । वृत्रा । हरिऽअश्व । हंसि ।त्वम् । नि । दस्युम् । चुमुरिम् । धुनिम् । च । अस्वापयः । दभीतये । सुऽहन्तु ॥४।।
हे "नृमणः नृभिर्यज्ञानां नेतृभिः स्तोतृभिर्मननीय स्तोतव्येन्द्र । नृषु मनो यस्येति बहुव्रीहिर्वा । “देववीतौ यज्ञे क्रियमाणे सति संग्रामे वा । देवा विजिगीषवो यस्मिन् वियन्ति गच्छन्तीति संग्रामो देववीतिः। "नृभिः मरुद्भिः सह "भूरीणि बहूनि "वृत्रा वृत्राणि शत्रून् "हंसि मारितवानसि । किंच हे "हर्यश्व इन्द्र “त्वं “दभीतये दभीतिनामकाय राजर्षये । तदर्थमित्यर्थः । “दस्युं “चुमुरिं च “धुनिं च "सुहन्तु सुहन्तुना वज्रेण "नि नितराम् "अस्वापयः । मारितवानसीत्यर्थः ॥
तव । च्यौत्नानि । वज्रऽहस्त । तानि । नव । यत् । पुरः । नवतिम् । च । सद्यः ।निऽवेशने । शतऽतमा । अविवेषीः । अहन् । च । वृत्रम् । नमुचिम् । उत । अहन् ॥५।।
हे "वज्रहस्त “तव “च्यौत्नानि बलानि "तानि तादृशानि । "यत् यदा त्वं शम्बरस्य "नव “नवतिं "च “पुरः "सद्यः युगपदेव विदारितवानसीति शेषः । तदा "निवेशने निवेशनार्थं “शततमा शततमीं पुरम् "अविवेषीः व्याप्नोः । "वृत्रं "च "अहन् । "उत अपि च "नमुचिम् “अहन् ॥ ॥ २९ ॥

सना । ता । ते । इन्द्र । भोजनानि । रातऽहव्याय । दाशुषे । सुऽदासे ।वृष्णे । ते । हरी इति । वृषणा । युनज्मि । व्यन्तु । ब्रह्माणि । पुरुऽशाक । वाजम् ॥६।।

हे "इन्द्र "ते तव "रातहव्याय दत्तहव्याय "दाशुषे यजमानाय "सुदासे "ता तानि त्वया दत्तानि “भोजनानि भोग्यानि धनानि “सना सनानि सनातनानि बभूवुरिति शेषः । हे "पुरुशाक बहुकर्मन्निन्द्र "वृष्णे कामानां वर्षित्रे "ते तुभ्यम् । त्वामउत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥ (ऋग्वेद १०/६२/१०)
अनुवाद-
और दान और रक्षा करने वाले वे दोनों , कल्याण दृष्टि वाले ,गायों से घिरे हुए,  हर प्रकार से गायों की परिचर्या करने  के लिए  यदु और तुर्वसु की हम सब प्रशंसा करते हैं ।१०।
उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । मामहे ॥१०।।
ऋग्वेद ऋचाओं  का वेद है जिसमें ईश्वरीय सत्ताओं का विभिन्न प्राकृतिक और दैवीय रूपों में स्तवन किया गया है। यह एक प्रकार से मुक्तक काव्य की शैली है । 
इसमें ऐतिहासिक पात्रों का वर्णन भी कहीं भी प्रबन्धात्मक शैली में नहीं है । 
इस लिए उपर्युक्त सूक्त में सायण द्वारा जो नौवीं (ninth ) ऋचा के सावर्णि मनु का अन्वय( सम्बन्ध) दसवीं ऋचा से को यदु और तुर्वसु सम्बन्धित करके  किया गया है; वह भी अर्थ की खींच-तान ही करना है।
देखें नवम् ऋचा-
न तम॑श्नोति॒ कश्च॒न दि॒व इ॑व॒ सान्वा॒रभ॑म् ।सा॒व॒र्ण्यस्य॒ दक्षि॑णा॒ वि सिन्धु॑रिव पप्रथे ॥९।।
मूलार्थ- नहीं उनको व्याप्त करता है कोई " स्वर्ग के समान सूर्य से आरम्भ होकर सावर्णि की दक्षिणा सिन्धु के समान विस्तारित होती है।९।
पदपाठ-
न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।
“तं =सावर्णिं मनुं 
“कश्चन =कश्चिदपि 
“आरभम्= आरब्धुं स्वकर्मणा 
“न “अश्नोति =न व्याप्नोति ।
। यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् ।
“दिव इव= द्युलोकस्य 
“सानु =समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पाणिनीय. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य 
“सावर्ण्यस्य =मनोरियं गवादिदक्षिणा 
“सिन्धुरिव =स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां 
“पप्रथे= विप्रथते । विस्तीर्णा भवति ॥
 सायण का अर्थ-
कोई भी (व्यक्ति ) अपने कर्म के द्वारा आरम्भ करने के लिए उन सावर्णि मनु को व्याप्त नहीं करता है। अर्थात् जिस प्रकार मनु धन प्रदान करते हैं उस प्रकार धन देने में कोई अन्य समर्थ नहीं होता  वह किस प्रकार स्थित है ? वह द्युलोक को ऊँचे भाग में किसी को भी द्वारा पराजित न होने वाले सूर्य के समान स्थित हैं उन सावर्णि मनु की वह गायों आदि की दक्षिणा वहती हुई नदी के समान पृथ्वी पर फैली है ।
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उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०।
और दानी और त्राता वे दोनों चारो और से व्याप्त सौभाग्य शाली  स्मयन दृष्टि से देखने वाले सौभाग्य शाली । गायों से घिरे हुए जो यदु और तुर्वसु हैं-(वैदिक 'मामहे' का लौकिक रूप 'महामहे') -हम उनकी स्तुति अथवा पूजा करते हैं ।१०।
It is the hypothetical sourceof/evidence for its existence is provided by:
Sanskrit dic-दिश्- "point out, show;-इंगित करना, दिखाना;
" Greek  deiknynai (डिक्निनै)   "to show, to prove," dike "custom, usage;
" Latin dicere डाइसेरे  "speak, tell, say," digitus "finger," 
Old High German zeigon
German zeigen "to show,"
 Old English teon "to accuse," tæcan उपदेश- "to teach."
यह इसके अस्तित्व के लिए/साक्ष्य का काल्पनिक स्रोत है:
संस्कृत दिक- "पॉइंट आउट, शो;
"ग्रीक deiknynai "दिखाने के लिए, साबित करने के लिए," डाइक "कस्टम, उपयोग;
"लैटिन डाइसेरे" बोलो, बताओ, कहो," डिजिटस "उंगली,"
ओल्ड हाई जर्मन ज़ीगॉन,
जर्मन ज़ीजेन "दिखाने के लिए,"
पुरानी अंग्रेज़ी तेन "आरोप लगाने के लिए," tæcan "सिखाने के लिए।"
सायण का अन्तर्विरोधी भाष्य-
१-“उत= अपि च 
२"स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ 
३“गोपरीणसा =गोपरीणसौ -गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४{“दासा =दासवत् प्रेष्यवत् }स्थितौ तेनाधिष्ठितौ 
५-“यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी  
६-“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय ( परिविष-का अर्थ सायण ने भोजन किया है जबकि विष्- धातु के अन्य प्रसिद्ध अर्थ भी धातु पाठ मैं हैं-
७-"ममहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् जबकि 'मामहे' क्रिया पद मूल ऋचा नें है जो लौकिक संस्कृत को मह-पूजायाम्-धातु से निष्पन्न आत्मनेपदी उत्तम परुष बहुवचन के 'महामहे'' का वैदिक रूप ''मामहे ही है। अत: कहीं कहीं ऋग्वेद या भाष्य सायण द्वारा सम्यक् और अपेक्षित नहीं हुआ है।
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" अपना-भाष्य"
(स्मद्दिष्टी) प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ “स्मद्दिष्टीन् प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा) गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ  “परीणसा बहुनाम” [निघ० ३।१] (दासा) दातारौ “दासृ दाने” [भ्वादि०] “दासं दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ ] 
(उत) अपि तस्य ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे) स्तुमहे। ॥१०॥
 अब सायण का अर्थ-
और भी कल्याण कारी कार्यों का आदेश देने वाले बहुत सी गायों से युक्त दास के समान (राजर्षि (राजर्षि मनु के) द्वारा अधिकृत (अधीन) यदु और तुर्वसु नामक दोनों इन सावर्णि मनु के लिए भोजन देते हैं।ऋग्वेद १०/६२/१०
उपर्युक्त ऋचा में सायण का भाष्य अन्तर्विरोध प्रकट करता है । दासा शब्द "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास या अर्थ दानी और रक्षक ( त्राता) है ।
सायण ने अन्यत्र इसी दास का अर्थ उसी काल क्रम में दास कि अर्थ उपक्षयितुर– विनाशक किया है -
 "य ऋक्षादंहसो मुचद्यो वार्यात्सप्त सिन्धुषु ।वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनमः ॥२७॥ ऋग्वेद ८/२४/२७ दास कि अर्थ "दासस्य= उपक्षपयितुरसुरस्य “ के रूप में उपक्षय= (नाश ) करने वाले असुर से किया है ।
यह भी सत्य नहीं कि असुर कि वैदिक अर्थ विनाशक अथवा नकारात्मक हो ।
(वैदिक निघण्टु में असुर:= १-सोम।२-वरुण।३-मेघ।४-दात्रारिव्याप्त्यम्।५प्रज्ञावान्।६-बलवान्-प्राणवान्। ७-ऋत्विज। अर्थ हैं ।
य ऋक्षा॒दंह॑सो मु॒चद्यो वार्या॑त्स॒प्त सिन्धु॑षु।
वध॑र्दा॒सस्य॑ तुविनृम्ण नीनमः॥२७।।
ऋग्वेद ८/२४/२७/
पदपाठ-
यः।ऋक्षात् ।अंहसः।मुचत्।यः।वा।आर्यात्।सप्त। सिन्धुषु।वधः। दासस्य।तुविऽनृम्ण।नीनमः॥२७।।
पूर्वोऽर्धर्चः= परोक्षकृतः।
“यः= इन्द्रः “ऋक्षात् । ऋन् =मनुष्यान् क्षणोति । क्षणोतेरौणादिको डप्रत्ययः । तस्मात् रक्षसो जातात् 
“अंहसः= पापरूपादुपद्रवात् 
"मुचत्= मुञ्चति । राक्षस एनं न बाधते किं पुनस्तं हन्तीत्यर्थः । अपि च “यः= इन्द्रः “सप्त “सिन्धुषु गङ्गाद्यासु नदीषु । यद्वा । सप्त सर्पणशीलासु सिन्धुषु । तत्कूलेष्वित्यर्थः ।
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 गङ्गायां घोष इतिवत् । 
तेषु वर्तमानानां  आभीराणां  ( गंगा के किनारे अहीरों की वस्ती)“
(परन्तु सायण ने घोष या नया अर्थ स्त्रोता कर अनर्थ ही कर दिया है)  – स्तोतॄणाम् आर्यात् धनादिकं प्रेरयेत् ।' ऋ गतिप्रापणयोः '। आशीर्लिङि ‘गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः' (पाणिनीय सू. ७. ४. २९) इति गुणः । ‘बहुलं छन्दसि' इति लिङयप्याडागमः । अथ प्रत्यक्षः। हे "तुविनृम्ण बहुधनेन्द्र ("दासस्य उपक्षपयितुरसुरस्य )
 “वधः हननसाधनमायुधं “नीनमः नमय ॥
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सम्यग्भाष्य-
( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है । दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।
यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों ते सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।
५-स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।
६- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।
७- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।
आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैं महामहे का ही(वेैदिक रूप "मामहे" है।)
आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् "
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः महते महेते महन्ते
मध्यमपुरुषः महसे महेथे महध्वे
उत्तमपुरुषः महे महावहे महामहे
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को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। मन्मा॑नि चित्रा अपिवा॒तय॑न्त ए॒षां भू॑त॒ नवे॑दा म ऋ॒ताना॑म्॥(ऋग्वेद-१.१६५.१३)
पदपाठ-
कः। नु। अत्र॑। म॒रु॒तः॒। म॒म॒हे॒। वः॒। प्र। या॒त॒न॒। सखी॒न्। अच्छ॑। स॒खा॒यः॒। मन्मा॑नि। चि॒त्राः॒। अ॒पि॒ऽवा॒तय॑न्तः। ए॒षाम्। भू॒त॒। नवे॑दाः। मे॒। ऋ॒ताना॑म् ॥ १.१६५.१३
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हे मरुतः युष्मान् अत्र लोके “को "नु खलु मर्त्यः
(मामहे -पूजयामि)" । हे "सखायः सर्वस्य सखिवत्प्रियकारिणः सन्तः "सखीन् हविष्प्रदानेन सखिभूतान् यजमानान् "अच्छ आभिमुख्येन प्राप्तुं “प्र “यातन गच्छत । हे "चित्राः चायनीयाः यूयं "मन्मानि मननीयानि धनानि "अपिवातयन्तः संपूर्णं प्रापयन्तः "भूत भवत । किंच "मे मदीयानाम् "एषाम् “ऋतानाम् अवितथानां “नवेदाः भूत ज्ञातारो भवत ।।
शब्दार्थ:-
हे (मरुतः)  ! (अत्र) इस स्थान में (वः) तुम लोगों को (कः) कौन (नु) शीघ्र (मामहे) वयं स्तुमहे  हम स्तुति करते हैं। हे (सखायः) मित्रो ! तुम (सखीन्) अपने मित्रों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, यातन) प्राप्त होओ। हे (चित्राः)  चेतनावानों (मन्मानि) मानों में (अपिवातयन्तः) शीघ्र पहुँचाते हुए तुम (मे) मेरे (एषाम्) इन (ऋतानाम्) सत्य व्यवहारों के बीच (नवेदाः) नवेद अर्थात् जिनमें दुःख नहीं है ऐसे (भूत) हूआ ॥ १३ ॥
दास्(भ्वादिः)
परस्मैपदी
लट्(वर्तमान)
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः दासति दासतः दासन्ति
मध्यमपुरुषः दाससि दासथः दासथ
उत्तमपुरुषः दासामि दासावः दासामः
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मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत ।
इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥१॥
अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम् ।
विद्वेषणं संवननोभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम् ॥२॥
यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये ।
अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम्।३॥
वि तर्तूर्यन्ते मघवन्विपश्चितोऽर्यो विपो जनानाम् ।
उप क्रमस्व पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये ॥४॥
महे चन त्वामद्रिवः परा शुल्काय देयाम् ।
न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ॥५॥
वस्याँ इन्द्रासि मे पितुरुत भ्रातुरभुञ्जतः ।
माता च मे छदयथः समा वसो वसुत्वनाय राधसे ॥६॥
क्वेयथ क्वेदसि पुरुत्रा चिद्धि ते मनः ।
अलर्षि युध्म खजकृत्पुरंदर प्र गायत्रा अगासिषुः ॥७॥
प्रास्मै गायत्रमर्चत वावातुर्यः पुरंदरः ।
याभिः काण्वस्योप बर्हिरासदं यासद्वज्री भिनत्पुरः ॥८॥
ये ते सन्ति दशग्विनः शतिनो ये सहस्रिणः ।
अश्वासो ये ते वृषणो रघुद्रुवस्तेभिर्नस्तूयमा गहि ॥९॥
आ त्वद्य सबर्दुघां हुवे गायत्रवेपसम् ।
इन्द्रं धेनुं सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरंकृतम् ॥१०॥
यत्तुदत्सूर एतशं वङ्कू वातस्य पर्णिना ।
वहत्कुत्समार्जुनेयं शतक्रतुः त्सरद्गन्धर्वमस्तृतम् ॥११॥
य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः ।
संधाता संधिं मघवा पुरूवसुरिष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥१२॥
मा भूम निष्ट्या इवेन्द्र त्वदरणा इव ।
वनानि न प्रजहितान्यद्रिवो दुरोषासो अमन्महि ॥१३॥
अमन्महीदनाशवोऽनुग्रासश्च वृत्रहन् ।
सकृत्सु ते महता शूर राधसा अनु स्तोमं मुदीमहि ॥१४॥
यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।
तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥१५॥
आ त्वद्य सधस्तुतिं वावातुः सख्युरा गहि ।
उपस्तुतिर्मघोनां प्र त्वावत्वधा ते वश्मि सुष्टुतिम् ॥१६॥
सोता हि सोममद्रिभिरेमेनमप्सु धावत ।
गव्या वस्त्रेव वासयन्त इन्नरो निर्धुक्षन्वक्षणाभ्यः ॥१७॥
अध ज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि ।
अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥१८॥
इन्द्राय सु मदिन्तमं सोमं सोता वरेण्यम् ।
शक्र एणं पीपयद्विश्वया धिया हिन्वानं न वाजयुम् ॥१९॥
मा त्वा सोमस्य गल्दया सदा याचन्नहं गिरा ।
भूर्णिं मृगं न सवनेषु चुक्रुधं क ईशानं न याचिषत् ॥२०॥
मदेनेषितं मदमुग्रमुग्रेण शवसा ।
विश्वेषां तरुतारं मदच्युतं मदे हि ष्मा ददाति नः ॥२१॥
शेवारे वार्या पुरु देवो मर्ताय दाशुषे ।
स सुन्वते च स्तुवते च रासते विश्वगूर्तो अरिष्टुतः ॥२२॥
एन्द्र याहि मत्स्व चित्रेण देव राधसा ।
सरो न प्रास्युदरं सपीतिभिरा सोमेभिरुरु स्फिरम् ॥२३॥
आ त्वा सहस्रमा शतं युक्ता रथे हिरण्यये ।
ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ॥२४॥
आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या ।
शितिपृष्ठा वहतां मध्वो अन्धसो विवक्षणस्य पीतये ॥२५॥
पिबा त्वस्य गिर्वणः सुतस्य पूर्वपा इव ।
परिष्कृतस्य रसिन इयमासुतिश्चारुर्मदाय पत्यते ॥२६॥
य एको अस्ति दंसना महाँ उग्रो अभि व्रतैः ।
गमत्स शिप्री न स योषदा गमद्धवं न परि वर्जति ॥२७॥
त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
त्वं भा अनु चरो अध द्विता यदिन्द्र हव्यो भुवः ॥२८॥
मम त्वा सूर उदिते मम मध्यंदिने दिवः ।
मम प्रपित्वे अपिशर्वरे वसवा स्तोमासो अवृत्सत ॥२९॥
स्तुहि स्तुहीदेते घा ते मंहिष्ठासो मघोनाम् ।
निन्दिताश्वः प्रपथी परमज्या मघस्य मेध्यातिथे ॥३०॥
____________________________________(आ यदश्वान्वनन्वतः श्रद्धयाहं रथे रुहम् ।  उत वामस्य वसुनश्चिकेतति यो अस्ति याद्वः पशुः ॥३१॥
(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥

"आर्य्य शब्द की व्युत्पत्ति-★-)👇
-★ऋ = गति, प्रापण हिंसायाम् - 
 - ऋच्छति । आर । आरतुः । अर्त्ता । अरिष्यति । आरत् (95) । अर्पयति । ''अरित्रं केलिपातकः '' ।।940।।ऋ धातु का वर्तमान कालिक अर्थ गति और प्राप्त करना धातु प्रदीप में उपलब्ध है ।
परन्तु (अर् + इण्) अरि:= (शत्रु) और आर(आरि शस्त्र)  शब्द हिंसा मूलक है । संस्कृत भाषा में "अर्" "ऋ"  काम सम्प्रसारित रूप है। परन्तु आज  अर् धातु  लौकिक संस्कृत में उपलब्ध नहीं है।  सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही वैदिक काल में रही हो  जैसा कि ऋग्वेद के ६/५३/८ में आरं  शब्द (अर्) धातु मूलक है ।
___________________________________
यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे।                तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥८॥
पदपाठ-
याम् । पूषन् । ब्रह्मऽचोदनीम् । आराम् । बिभर्षि । आघृणे ।तया । समस्य । हृदयम् । आ । रिख । किकिरा । कृणु ॥८
हे १-“आघृणे =आगतदीप्ते “पूषन्
२- “ब्रह्मचोदनीं= ब्रह्मणोऽन्नस्य प्रेरयित्रीं -“याम् 
३-“आरां =चर्मखण्डनशस्त्रम् ( आरा)
४- “बिभर्षि =हस्ते धारयसि “तया 
५“समस्य= सर्वस्य लुब्धजनस्य 
६“हृदयम्
७ “आ “रिख =आलिख। 
८“किकिरा= किकिराणि कीर्णानि प्रशिथिलानि च
 ९“कृणु =कुरु ॥
लौकिक संस्कृत में यह अर् धातु पीछे  से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तर, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो। 
यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो । "ऋ" धातु के उत्तर "यत्"  कृत् प्रत्यय करने से "अर्य "और उसमें तद्धित " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य" शब्द की सिद्धि होती है। 
विभिन्न भारोपीय भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है। इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है। 
"आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य भी है। पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" १/१/१०३ सूत्र इस बात का प्रमाण है।
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।
अपघ्नन्तो अराव्ण:।।―(ऋ० ९/६३/५)
इन्द्र॑म् । वर्ध॑न्तः । अ॒प्ऽतुरः॑ ।   ।  । आर्य॑म् ।अ॒प॒ऽघ्नन्तः॑ । अरा॑व्णः। कृ॒ण्वन्तः॑ ।विश्व॑म् ॥५। 
“इन्द्रं “वर्धन्तः =वर्धयन्तः “अप्तुरः =उदकस्य प्रेरकाः “विश्वं =सोममस्मदीयकर्मार्थम् “आर्यं= भद्रं कृषकं “कृण्वन्तः कुर्वन्तः "अराव्णः अदातॄन "अपघ्नन्तः विनाशयन्तः । अभ्यर्षन्तीत्युत्तरया संबन्धः ॥ ॥ ३०॥ 
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पली लिखा है । फिर, वाजस-नेय (१४-२८) और वैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्षों के नाम-ब्रह्मान, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण (कृषि) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। 
भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ primordial-Meaning ..
आरम् (आरा )धारण करने वाला वीर …..
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः |
आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology ) संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के धातुपाठ मेंतीन अर्थ सर्व मान्य है ।
१–गमन करना Togo 
२– मारना to kill
३– हल (अरम्) चलाना plough…. 
हल की क्रिया का वाहक हैरॉ (Harrow) शब्द मध्य इंग्लिश में  (Harwe) कृषि कार्य करना ..
प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
'परन्तु ये चरावाहे आभीर ,गुज्जर  और जाटों के पूर्व पुरुष ही थे ।वर्तमान में हिन्दुस्तान के बड़े किसान भी यही लोग हैं ।इन्हीं से अन्य राजपूती जनजातियों का विकास भी हुआ। इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्त्स्यायन. धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया-रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है।
इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis भी हैं । परन्तु इसमें लज्जा की कोई बात नहीं। कोई समाज ऐसा नहीं जिसमे जीवन धारण करने के लिए न मृगयासक्ति छोड़ कर कृषि करने की ज़रूरत न पड़ी हो और समाज के गौरवशाली महात्माओं ने कृषि न की हो। कोई भी नई बात करने के लिए समाज के मुखिया महात्माओं ही को अग्रगन्ता होना पड़ता है। 
क्योकि ऐसा किये बिना और लोग पुराने पन्थ को छोड़ कर नये पन्थ से जाते संकोच करते हैं। अतएव जिन्होंने कृषिकार्य की उद्भावना पहले पहले की उनको अपने ही हाथ से हल चलाना पड़ा। यही कारण है जो उन्होंने अर्य्य या आर्य्य नाम ग्रहण किया।
वैदिक ऋषि इन्हीं कृषकों के वंशज थे। प्राचीन आर्य्यों की तरह वैदिक मन्त्रकर्त्ता ऋषि भी अपने हाथ से हल चलाते थे।
इसके प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में "कृष्टी" शब्द अनेक बार आया है। जो "कृष्" धातु मूलक है ____________________________
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । 
(अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
एक ओर मनु स्मृति यज्ञ के नाम पर निर्दोष पशुओं के वध का तो आदेश देती है। 
मनुस्मृति में वर्णन है कि
ब्राह्मण व क्षत्रिय भी वैश्य के धर्म से निर्वाह करते हुये जहाँ तक सम्भव हो कृषि (खेती) ही न करें  जो कि हल के आधीन है अर्थात् हल आदि के बिना कुछ फल प्राप्त नहीं होता।
"अर्थात कृषि कार्य वैश्य  ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार  ने कीनाशों को शूद्र बताया है।परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के सायद यही कारण है। किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी  अनाज उत्पन्न करता है ।
उस किसान की शान में भी यह  शासन की गुस्ताखी है ।किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला  सायद दूसरा कोई नहीं  इस संसार में परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है। कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को  वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने  किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाला और  अन्तत: शूद्र  वर्ण में समायोजित कर दिया है ।यह आश्चर्य ही है । किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान कुी रोटी से पेट भरते हैं  ।
परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में  निराधार ही थे ।किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।
किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।
वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर । यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता  ब्राह्मण की  दृष्टि में निम्न ही है । हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ?  विचार कर ले !

कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
 निष्केवल्यशस्त्रेऽप्येतत्सूक्तम् । सूत्रितं च--’ यस्तिग्मशृङ्गोऽभि त्यं मेषम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ६) इति । महाव्रते निष्केवल्येऽप्येतत् सूक्तम् । सूत्रितं च-’ यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम उग्रो जज्ञे वीर्याय स्वधावान्' (ऐ. आ. ५. २. २ ) इति । आयुष्कामेष्ट्यां ‘मा ते अस्याम्' इतीन्द्रस्य त्रातुर्याज्या । सूत्रितं च – ' मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टौ पाहि नो अग्ने पायुभिः' (आश्व. श्रौ. २. १०) इति ॥


"ठाकुर शब्द की उत्पत्ति व विकास-क्रम -

 "ठाकुर शब्द का जन्म.ठाकुर एक सम्मान सूचक शब्द है

जो परम्परागतगत रूप में आज राजपूतों का विशेषण बन गया है। यद्यपि ब्राह्मण समाज का भी यह विशेषण रहा है।
संस्कृत शब्द-कोशों में इसे ठाकुर नहीं अपितु "ठक्कुर" लिखा है जो देव मूर्ति के पर्याय के  रूप में है।  "ठाकुर" गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल  तथा मिथिला के ब्राह्मणों की एक उपाधि है ।

द्विजोपाधिभेदे च । यथा गोविन्द- ठक्कुरःकाव्यप्रदीपकर्त्ता इसका रचना काल चौदहवीं सदी"

अनंत संहिता एक हाल ही में निर्मित ग्रन्थ है, जिसे गौड़ीय मठ के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वतीठाकुर के शिष्य अनन्त वासुदेव ने लिखा है। यह एक पंचरात्र आगम माना जाता है , जो गौड़ीय वैष्णवों के बीच सामूहिक रूप से " नारद पंचरात्र" के रूप में जाना जाने वाला पंचरात्र कोष का हिस्सा है । जहां सारस्वत गौड़ीय मठ के श्रील श्रीधर देव गोस्वामी पुष्टि करते हैं कि यह पुस्तक उनके गुरु भाई अनंत वासुदेव द्वारा लिखी गई थी।

श्रीपाद अनंत वासुदेव परविद्याभूषण प्रभु

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के शिष्यों में व्यापक रूप से सबसे प्रतिभाशाली और निस्संदेह सबसे गूढ़ माना जाता है, अनंत वासुदेव परविद्याभूषण प्रभु का जन्म 1895 में हुआ।

अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठाकुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के संदर्भ में है।
ये संस्कृत भाषा में प्राप्त  अठारवीं सदी के उत्तरार्द्ध का विवरण है। ये संहिता बाद की है ।
इसलिए विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को ठाकुर कहते हैं ठाकुर नाम की उपाधि ब्राह्मण लेखकों की चौदहवीं सदी से हू प्राप्त होती है।
परन्तु बाद में  उच्च वर्ग के क्षत्रिय की प्राकृत उपाधि ठाकुर भी इसी से निकली है।यद्यपि किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठाकुर या ठक्कुर कहा जा सकता है।
__________________________________________
इन्हीं विशेषताओं और सन्दर्भों के रहते भगवान कृष्ण के लिए भक्त ठाकुर जी  सम्बोधन का उपयोग करते हैं विशेषकर श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायी  द्वारा हुआ। इसी सम्प्रदाय ने कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।
यद्यपि पुराणकारों ने कृष्ण के लिए ठाकुर सम्बोधन कभी प्रयुक्त नहीं किया है।
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"क्योंकि ठाकुर शब्द संस्कृत भाषा का नहीं अपितु  तुर्की , ईरानी तथा आरमेनियन मूल का है।

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पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रहवीं सदी में हुआ  है । परन्तु बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द का प्रवेश -तुर्कों के माध्यम से भारतीय धरा पर हुआ था ।
____________________________________
और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत में आया।  बंगाली वैष्णव सन्तों ने भी स्वयं को ठाकुर कहा गया। ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है । न कि जन-जाति विशेष के लिए  । कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा प्रमुखत: है।__________________________________

यहां के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है। यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी "हवेली" कहा जाता है।
विदित हो कि हवेली  (Mansion)और तक्वुर (ठक्कुर) दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है । कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये। पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान को ठाकुर जी ही कहने का परम्परा है।
____________________________________
ईरानी ,आरमेनियन तथा तुर्की भाषा से आयात "तगावोर" शब्द संस्कृत भाषा में तक्वुर: (ठक्कुर) हो गया इस शब्द के जन्म सूत्र- पार्थियन (पहलवी) और  आर्मेनियन व  तुर्की भाषा में ही प्राप्त हैं ।____________________________________

  मध्य-आर्मेनियाई-

 "शब्द-व्युत्पत्ति व विकास क्रम- 

 "यह मध्य आरमेनियन का "टैगवोर" शब्द पुराने  अर्मेनियाई के թագաւոր t'agawor ) से आया और यह पुरानी आर्मेनियन का "टगावोर शब्द भी  पार्थियन में  पुरानी आर्मेनियन का ।

संज्ञा 

թագւոր  ( t'agwor ), संबंधकारक एकवचन թագւորի t'agwori )

  1. राजा
  2. दूल्हा क्योंकि वह विवाह के दौरान एक मुकुट धारण करता है )

 "व्युत्पन्न शब्द- 

 वंशज शब्द-

 "सन्दर्भ:-

  • लाज़रीन, टी। एस ; एवेटिसियन , एचएम (2009), “ թագւոր ”, मिइन हायरेनी बारान [ डिक्शनरी ऑफ मिडिल अर्मेनियाई ] (अर्मेनियाई में), दूसरा संस्करण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस।
Etymology ( शब्द व्युत्पत्ति)
This Word too From Middle Armenian (թագւոր) (tʿagwor),This Word too from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor, “king”), And This Word too from  Parthian *tag(a)-bar (“king”, literally “crown bearing”), borrowed during the existence of the Armenian Kingdom of Cilicia-Cilicia (/sɪˈlɪʃə/) is a geographical region in southern Anatolia in Turkey, extending inland from the northeastern coasts of the Mediterranean Sea.
Noun-
تَكْفُور • (takfūr) 
Armenian king
Declension-
Declension of noun تَكْفُور -(takfūr)
Descendants-
→ Old Catalan:- tafur
Catalan: -tafur
→ Old Portuguese: -tafur, taful
Galician: -tafur
Portuguese: -taful
→ Old Spanish:- tafur
Spanish: -tahúr
→ Persian: تکفور‎ -(takfur)
References-
Ačaṙean, Hračʿeay (1971–1979), “թագ”, in Hayerēn armatakan baṙaran [Armenian Etymological Dictionary] (in Armenian), 2nd edition, a reprint of the original 1926–1935 seven-volume edition, Yerevan: University Press
हिन्दी भाषान्तरण-
यह "तगावोर" शब्द भी मध्य अर्मेनियाई भाषा (թագւոր) (tʿagwor) से है, यह शब्द भी पुराने अर्मेनियाई के  (թագաւոր)- (t'agawor, "राजा") से यहाँ आया है, और यह शब्द भी पार्थियन * टैग (ए) -बार (tag(a)-bar )="राजा /शासक", से व्युत्पन्न है शाब्दिक रूप से इसका अर्थ "क्राउन बियरिंग" मुकुटधारी) से है ”), सिलिसिया के अर्मेनियाई साम्राज्य के अस्तित्व के दौरान  इसे उधार लिया गया था।
सिलिसिया (/ sɪˈlɪʃə/) तुर्की के दक्षिणी अनातोलिया( एशिया माइनर) में एक भौगोलिक क्षेत्र है, जो भूमध्य सागर के उत्तरपूर्वी तटों से अंतर्देशीय तक फैला हुआ है। यहाँ लोगों की भाषा तुर्की आर्मेनिया और फारसी आदि हैं।

संज्ञा-
تَكْفُور • (तकफूर) 
अर्मेनियाई राजा
 संज्ञा का अवक्षेपण تَكْفُور (तकफूर)
वंशज-
→ पुराना कैटलन: तफूर।
कैटलन: तफूर
→ पुराने पुर्तगाली: तफूर, तफुल।
गैलिशियन्: तफूर।
पुर्तगाली:  तफुल (tafu)
→ पुरानी स्पेनिश: तफूर
स्पेनिश: तहूर
→ फारसी: تکفور‎ (तकफुर)
संदर्भ-
एकेन, ह्रेके (1971-1979), "թագ", हायरेन आर्मटाकन बरन [अर्मेनियाई व्युत्पत्ति संबंधी शब्दकोश] (अर्मेनियाई में), दूसरा संस्करण, मूल 1926-1935 सात-खंड संस्करण का पुनर्मुद्रण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस। ठाकुर शब्द के मूल सूत्र मूल भारोपीय स्थग् धातु में निहित हैं । इसी स्थगित से "ठग" शब्द भी विकसित हुआ है। दरअसल ठग सच्चाई को छुपा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है । और फारसी का तक्वोर शब्द    तगा=ताज + वर ( भर)= तगावर= फारसी का "तगा शब्द संस्कृत "स्थग (आवरण) का रूपान्तरण है। तुर्की भाषा में यह "टेक' है। भारोपीय और अन्य संक्रमित भाषाओं में यही संस्कृत का स्थग इन रूपों में है। अब स्थग् धातु भारोपीय और ईरानी वर्ग की है। जिसकी व्युत्पत्ति नीचे है।

From Parthian [script needed] (tāg), attested in 𐫟𐫀𐫡𐫤𐫀𐫃‎ (xʾrtʾg /xārtāg/crown of thorns), ultimately from Proto-Indo-European *(s)teg- स्थग्=संवरणे  स्थगति  सकता है / छुपाता है।(to cover) Related। अरबी देगा(ठगाई -छुपावशब्द संस्कृत स्थग-ठग का विकसित रूप है)  to Arabic تَخْت‎ (taḵt तख्त-bed, couch,..” भी इसी से सम्बन्धित है।), also an Iranian borrowing; and to Aramaic תָּגָא‎ (tāḡā).

Attested as 𐢞𐢄‎ (tjतज)crown) (Nabatean script) in the 4th-century Namara inscription.[1]

"Pronouciation-

"noun-

تَاج  (tājm (plural تِيجَان‎ (tījān)तजन)

  1. crown
    الصِّحَّةُ تَاجٌ عَلَى رُؤُوسِ الْأَصِحَّاءِ لَا يَرَاهُ إِلَّا الْمَرْضَى.‎‎
    aṣ-ṣiḥḥatu tājun ʿalā ruʾūsi l-ʾaṣiḥḥāʾi lā yarāhu ʾillā l-marḍā.
    Health is a crown on the heads of the healthy, that only the ill can see.

Declension

 ▼Declension of noun تَاج (tāj)

Descendants

References-


Baluchi-

Etymology-

From Persian تاج‎ (tâj).

Noun-

تاج  (táj)

  1. crown

Ottoman Turkish

Etymology-

From Arabic تَاج‎ (tāj).

Noun-

تاج  (tac, taç)

  1. crowndiadem
  2. regal power, the position of someone who bears a crown
  3. (figuratively) reign
  4. headdress worn by various orders of dervishes, a mitre
  5. corolla of a flower
  6. chapiteau of an alembic
  7. the تاج التواریخ (tac üt-tevarihCrown of Histories) by Sadeddin, a model for the ornatest style of literature

Descendants-


Persian-

تاج -ताज

Etymology-

From Arabic تَاج‎ (tāj), from Parthian [Manichaean needed] (tʾg /tāg/crown), attested in 𐫟𐫀𐫡𐫤𐫀𐫃‎ (xʾrtʾg /xārtāg/crown of thorns), from Old Iranian *tāga-, ultimately from Proto-Indo-European *(s)teg- (to cover).

Related to Persian تخت‎ (taxtbed, throne), and akin to Old Armenian թագ (tʿag)Arabic تاج‎ (tāj), and Aramaic תָּגָא‎ (tāḡā), Iranian borrowings.

Pronunciation-

    • (Dari): : /tɒːd͡ʒ/

    Noun

    Dariتاج
    Iranian Persian
    Tajikтоҷ (toj)

    تاج  (tâj) (plural تاج‌ها‎ (tâj-hâ))

    1. crown
    2. tuft

    Descendants-


    Urdu-

    Etymology-

    From Persian تاج‎ (tâj).

    Noun-

    تاج  (tājm (Hindi spelling ताज)

    1. crown

      " आद्य-भारोपीय -

      "मूल-

      *(रों)तेग- (अपूर्ण )

      1. कवर करने के लिए

      -व्युत्पन्न शब्द-

      प्रोटो-इंडो-यूरोपियन रूट()धातु *(s)teg-स्थग्-आवरण करना। 
      *(स)तेग-अ-ट( मूल उपस्थित )
      हेलेनिक:
      प्राचीन यूनानी: στέγω  ( स्टेगो )
      प्रोटो-इंडो-ईरानी: *stʰágati
      प्रोटो-इंडो-आर्यन: *स्तगति
      संस्कृत: स्थिरि ( स्थागति )
      प्रोटो-इटैलिक: *tego
      लैटिन: टेगो *stog-éye-ti ( प्रेरक )
      प्रोटो-इंडो-ईरानी: *स्टगायति
      प्रोटो-इंडो-आर्यन: *स्तगायति
      संस्कृत: स्थगयति ( स्थागयति )
      *तेग-दलेह₂
      इटैलिक:
      लैटिन: तेगुला (आगे के वंशजों के लिए वहां देखें )*तेग-मन
      इटैलिक:
      लैटिन: टेगमेन , टेगिमेन , टेगुमेन ( एपेंटेटिक -आई--यू- के साथ )
      *तेग-नहीं-
      प्रोटो-इटैलिक: * टेग्नोम
      लैटिन: टिग्नम
      *स्टेग-नो प्रोटो-हेलेनिक: *स्टेग्नोस प्राचीन यूनानी: στεγανός     ( स्टेग्नोस )
      ⇒ अंग्रेजी: स्टेग्नोग्राफ़ी
      *(रों)टेग-ओएस प्रोटो-अल्बानियाई: * टैगा
      अल्बानियाई: tog
      अल्बानियाई.  : toger
      प्रोटो-सेल्टिक: * टेगोस          
      प्रोटो-हेलेनिक: *(s)tégos
      Ancient Greek: στέγος (stégos), τέγος (tégos)
      ⇒ English: stegosaur, stegosaurus
      *teg-ur-yo-
      Italic:
      Latin: tugurium, tegurium, tigurium
      *tég-us (“thick”)
      *tog-eh₂-
      Italic:
      Latin: toga
      *tog-o-
      Proto-Celtic: *togos (“roof”)
      Brythonic:
      Breton: to
      Welsh: to
      Goidelic:
      From Old Irish tech, from Proto-Celtic *tegos, from Proto-Indo-European *(s)tég-os (“cover, roof”). Cognate with English thatch.
      Proto-Germanic: *þaką, *þakjaną, *þakinō (see there for further descendants)
      Unsorted formations:
      Proto-Balto-Slavic: *stāgas
      Old Prussian: stogis
      Latgalian: stogs
      Lithuanian: stogas
      Proto-Slavic: *stogъ (see there for further descendants)
      Proto-Indo-Iranian: *táktas
      Proto-Iranian: *táxtah
      Middle Persian: tʾht' (taxt) (see there for further descendants)
      Khotanese: 𐨟𐨿𐨟𐨁𐨌‎ (ttī, “abode, covered place, nest”)
      >? Proto-Indo-Iranian:
      Proto-Iranian: *tāgah (“arch, vault”)
      Middle Iranian: *tāk
      → Arabic: طَاق‎ (ṭāq)
      Middle Persian: tʾg (/tāg/)
      Persian: طاق‎, تاق‎ (tâq)→ Armenian: թաղ    (tʿał)→        
        ★Root-*(s)teg-
      pole, stick, beam
      "dDerved terms-
       Terms derived from theProto-Indo-European root *(s)teg- (pole)
      *stog-eh₂
      Proto-Germanic: *stakô (see there for further descendants)
      *stog-nos
      Proto-Germanic: *stakkaz (see there for further descendants)
      *teg-slom
      Proto-Italic: *texlom
      Latin: tēlum (see there for further descendants)
      *teg-nom
      Proto-Italic: *tegnom
      Latin: tīgnum

      Root-

      *(s)teg- (imperfective)

      1. to cover

      Derived terms- Terms derived from the Proto-Indo-European root *(s)teg- (cover) स्थग्=आवरणे

      *(s)tég-e-ti (root मूल क्रिया  present)Hellenic:
      Ancient Greek: στέγω (stégō)Proto-Indo-Iranian: *stʰágati स्थागति
      Proto-Indo-Aryan: *stʰágati
      Sanskrit: स्थगति(sthágati)
      Proto-Italic: *tegō
      Latin: tegō
      *stog-éye-ti (causative)
      Proto-Indo-Iranian: *stʰagáyati
      Proto-Indo-Aryan: *stʰagáyati
      Sanskrit:    स्थगयति"
      *teg-dʰleh₂
      Italic:
      Latin: tēgula (see there for further descendants)
      *tég-mn̥
      Italic:
      Latin: tegmen, tegimen, tegumen (with epenthetic -i- -u-)
      *teg-no-
      Proto-Italic: *tegnom
      Latin: tignum
      *steg-nós
      Proto-Hellenic: *stegnós
      Ancient Greek: στεγανός (steganós)
      ⇒ English: steganography
      *(s)tég-os
      Proto-Albanian: *tāga
      Albanian: tog
      Albanian: toger
      Proto-Celtic: *tegos (see there for further descendants)
      Proto-Hellenic: *(s)tégos
      Ancient Greek: στέγος (stégos), τέγος (tégos)
      ⇒ English: stegosaur, stegosaurus
      *teg-ur-yo-
      Italic:
      Latin: tugurium, tegurium, tigurium
      *tég-us (“thick”)
      *tog-eh₂-
      Italic:
      Latin: toga
      *tog-o-
      Proto-Celtic: *togos (“roof”)
      Brythonic:
      Breton: to
      Welsh: to
      Goidelic:

      From Old Irish tech, from Proto-Celtic *tegos, from Proto-Indo-European *(s)tég-os (“cover, roof”). Cognate with English thatch.

      Proto-Germanic: *þaką, *þakjaną, *þakinō (see there for further descendants) सन्तानें 

      Unsorted formations:

      Proto-Balto-Slavic: *stāgas- स्तागस्

      Old Prussian: stogis

      Latgalian: stogs

      Lithuanian: stogas

      Proto-Slavic: *stogъ (see there for further descendants)

      Proto-Indo-Iranian: *táktas

      Proto-Iranian: *táxtah

      Middle Persian: tʾht' (taxt) (see there for further descendants)

      Khotanese: 𐨟𐨿𐨟𐨁𐨌‎ (ttī, “abode, covered place, nest”)

      >? Proto-Indo-Iranian:

      Proto-Iranian: *tāgah (“arch, vault”)

      Middle Iranian: *tāk

      → Arabic: طَاق‎ (ṭāq)

      Middle Persian: tʾg (/tāg/) Persian: طاق‎, تاق‎ (tâq)

      → Armenian: թաղ (tʿał)

      → Azerbaijani: tağ

      Root-*(s)teg-

      1. polestickbeam

      Derived terms-

      • *stog-eh₂
        • Proto-Germanic: *stakô (see there for further descendants)
      • *stog-nos
        • Proto-Germanic: *stakkaz (see there for further descendants)
      • *teg-slom
        • Proto-Italic: *texlom
          • Latin: tēlum (see there for further descendants)
      • *teg-nom

      References-

      ___________________________________

      पार्थियन भाषा, जिसे अर्ससिड पहलवी और पहलवानीग के नाम से भी जाना जाता है, एक विलुप्त प्राचीन उत्तर पश्चिमी ईरानी भाषा है।  यह एक बार पार्थिया में बोली जाती थी, जो वर्तमान उत्तरपूर्वी ईरान और तुर्कमेनिस्तान में स्थित एक क्षेत्र है। परिणाम स्वरूप यह तुर्की  और फारसी शब्दों का भी साझा स्रोत है। पार्थियन अर्ससिड पार्थियन साम्राज्य (248 ईसा पूर्व - 224 ईस्वी)तक  की राज्य की भाषा थी, साथ ही अर्मेनिया भी अर्सेसिड वंश की नामांकित शाखाओं की भाषा थी। अत: तुर्की  उतर-पश्चिमी ईरानी   भाषा का अर्मेनियाई लोगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, जिसकी शब्दावली का एक बड़ा हिस्सा मुख्य रूप से पार्थियन से उधार लेने से बना था; इसकी व्युत्पन्न आकारिकी और वाक्य रचना भी भाषा संपर्क से प्रभावित थी, लेकिन कुछ हद तक।  इसमें कई प्राचीन पार्थियन (पहलवी) शब्द संरक्षित किए गए थे, और अब केवल अर्मेनियाई में ही जीवित हैं। ठाकुर शब्द भी यहीं निकल कर भारतीय भाषाओं  ठक्कुर; तो कहीं ठाकुर और कहीं ठाकरे तथा टैंगोर रूप में विस्तारित है। 

      वर्गीकरण-★

      टैक्सोनॉमिक(वर्गीकरण ) रूप से, पार्थियन, एक इंडो-यूरोपीय भाषा, उत्तर-पश्चिमी ईरानी भाषा समूह से संबंधित है, जबकि मध्य फ़ारसी दक्षिण-पश्चिमी ईरानी भाषा समूह से संबंधित है।  भारतीय भाषाओं का ठाकुर शब्द का जन्मस्थान यही पार्थियन भाषा है ।  परन्तु इस शब्द का विकास और विस्तार आर्मेनिया और तुर्की  और फारसी में  होते हुए हुआ अरबी भाषा तक हुआ। 

      तुर्किस्तान में यह ठाकुर  (तेकुर अथवा टेक्फुर ) के रूप में परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी । यहाँ पर ही इसका विस्तार शासकीय रूप में हुआ। यद्यपि संस्कृत भाषा में इसके जीवन अवयव उपलब्ध थे। परन्तु जन्म तुर्की आरमेनिया और फारसू भाषाओं में हुआ। यदि इसका जन्म  संस्कृत में  होता तो यह स्थग= आवरण भर=धारण करने वाला=स्थगभर= से  (ठगवर) हो जाता । आवरण धारण करने वाला अर्थ देने वाला शब्द पार्थियन भाषा में टगा (मुकुट) अथवा शिरत्राण तथा वर -धारक  का वाचक  हो गया है। 

      ____________________________________
      इसके सन्दर्भ में समीपवर्ती उस्मान खलीफा के समय का उल्लेख किया जा सकता है  जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे।
      ____________________________________
      तब निस्संदेह इस्लाम धर्म का आगमन इस समय तक तुर्की में  नहीं हो पाया था और मध्य एशिया में वहाँ सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी , केवल  जो छोटे ईसाई  राजा  होते थे। यही  स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक जिन्हें  तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर)  कहा जाता था। वहीं से तुर्कों के साथ भारत में आया । तुर्को का उल्लेख पुराण भी करते है।

      इस समय  एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही  इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी।
      ____________________________________

       तुर्की तैकफुर ओटोमन तुर्की में है जो  تكفور , अरबी से تَكْفُور ( तकफुर ) , मध्य अर्मेनियाई  में թագւոր  ( tʿagwor )  और  , पुराने अर्मेनियाई թագաւոր ( t'agawor , “ राजा ” ) है। ये  पार्थियन *टैग(ए) -बार ( “ राजा ” ) विकसित हुआ, शाब्दिक रूप से “  जिसकी ताज पेशी की गयी हो  ” ) यह उस समय शासकीय शब्दावली में, अर्मेनियाई साम्राज्य के सिलिसिया के दौरान उधार लिया गया । उच्चारण टेकफर संज्ञा टेकफुर ( निश्चित अभियोगात्मक टेकफुरु , बहुवचन टेकफुरलर )

      बीजान्टिन युग के दौरान अनातोलिया और थ्रेस में एक ईसाई समान्त का पद नाम  

      संदर्भ:-Ačaṙean, Hračʿeay (1973), “ թագ ”, Hayeren armatakan baṙaran [ अर्मेनियाई व्युत्पत्ति शब्दकोश ] (अर्मेनियाई में), खंड II, दूसरा संस्करण, मूल 1926-1935 सात-खंड संस्करण का पुनर्मुद्रण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 136

      डैंकॉफ़, रॉबर्ट (1995) अर्मेनियाई लोनवर्ड्स इन टर्किश (टरकोलॉजिका; 21), विस्बाडेन: हैरासोवित्ज़ वेरलाग, § 148, पृष्ठ 44

      पारलाटिर, इस्माइल एट अल। (1998), “ टेकफुर ”, तुर्की सोज़्लुक में , खंड I, 9वां संस्करण, अंकारा: तुर्क दिल कुरुमु, पृष्ठ 163बी।

      Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace.
      _____________________________________
      Origin and meaning - (व्युत्पत्ति- और अर्थ )
      The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown".  It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople. The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber".  It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and 1291.
      ____________
      From Middle- Armenian –թագւոր (tʿagwor), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor).

      Attested in Ibn Bibi's works......(Classical Persian)  /tækˈwuɾ/

      (Iranian Persian) /tækˈvoɾ/
      تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_ हिन्दी उच्चारण  ठक्कुरन) (takvorân) or تکورها (takvor-alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary    

      _______________________________
      tafur on the Anglo-Norman On-Line Hub
      Old Portuguese ( पुर्तगाल की भाषा)

      Alternative forms (क्रमिक रूप )
      taful
      Etymology (शब्द निर्वचन)
      From Arabic تَكْفُور‏ (takfūr, “Armenian king”), from Middle Armenian թագւոր (tʿagwor, “king”), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor, “king”), from Parthian. ( एक ईरानी भाषा का भेद) 

      Cognate with Old Spanish tafur (Modern tahúr).

      Pronunciation
      : /ta.ˈfuɾ/
      संज्ञा -
      tafurm
      gambler
      13th century, attributed to Alfonso X of Castile, Cantigas de Santa Maria, E codex, cantiga 154 (facsimile):
      Como un tafur tirou con hũa baeſta hũa seeta cõtra o ceo con ſanna p̈ q̇ pdera. p̃ q̃ cuidaua q̇ firia a deos o.ſ.M̃.
      How a gambler shot, with a crossbow, a bolt at the sky, wrathful because he had lost. Because he wanted it to wound God or Holy Mary.
      Derived terms
      tafuraria ( तफ़ुरिया )
      Descendants
      Galician: tafur
      Portuguese: taful Alternative forms
      թագվոր (tʿagvor) हिन्दी उच्चारण :- टेगुर. बाँग्ला टैंगॉर रूप...
      թագուոր (tʿaguor)
      Etymology( व्युत्पत्ति)
      From Old Armenian թագաւոր (tʿagawor).
      Noun
      թագւոր • (tʿagwor), genitive singular թագւորի(tʿagwori)
      king-
      bridegroom- (because he carries a crown during the wedding)
      Derived terms-
      թագուորանալ(tʿaguoranal)
      թագւորական(tʿagworakan)
      թագւորացեղ(tʿagworacʿeł)
      թագվորորդի(tʿagvorordi)
      Descendants-
      Armenian: թագվոր (tʿagvor)
      References
      Łazaryan, Ṙ. S.; Avetisyan, H. M. (2009), “թագւոր”, in Miǰin hayereni baṙaran [Dictionary of Middle Armenian] (in Armenian), 2nd edition, Yerevan: University Press !

      तेकफुर एक सेलेजुक के उत्तरार्ध में इस्तेमाल किया गया एक शीर्षक था। और ओटोमन (उस्मान) काल के प्रारम्भिक चरण या समय में स्वतंत्रत या अर्ध-स्वतंत्र नाबालिग (वयस्क)ईसाई शासकों या एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बायज़ान्टिन राज्यपालों का पदनाम का तक्वुर (ठक्कुर) रूप में उल्लेख किया गया था।
      ____________________________________
      उत्पत्ति और अर्थ - (व्युत्पत्ति- और अर्थ) 

      पुरानी अर्मेनियाई թագաւոր (ट'गवायर) रूप  से मध्य आर्मीनियाई में թագւոր (t'agwor) स्पष्ट भारती ठक्कुर; शब्द से साम्य रखता है।

      यह शब्द इतिहासकार इब्न-बीबी के ऐतिहासिक कार्यो में सत्यापित है। ...

      (शास्त्रीय फ़ारसी) में / त्केवुर /
      (ईरानी फारसी) / टएकवोर/
      تکور • (takvor ) (बहुवचन تکورا__n_ हिन्दी उच्चारण थाकुरन) (takvorân) या تکورها (takvor-hâ)

       सन्दर्भ:- फ़ारसी
      (Dehkhoda )शब्दकोश में उद्धृत-
      ______________________________

      taful शब्द भी अरबी में राजा या सामन्त का वाचक है।
      व्युत्पत्ति (शब्द निर्वचनता)
      पार्थियन से ओल्ड आर्मेनियाई թագաւոր (ट'गवायर= "राजा")  और यहाँ से अरबी तक्कीफुर (takfur, "अर्मेनियाई राजा") का वाचक , मध्य अर्मेनियाई թագւոր (t'agwor, "राजा") , ( आर्मेनियाई भाषा एक इरानी भाषा का  ही हिस्सा है।)

      पुरानी स्पैनिश में तफ़ूर (आधुनिक रूप तहुर) के साथ संज्ञानात्मक रूप दर्शनीय है। -

      उच्चारण
      : /ta.fuɾ/
      संज्ञा -
      tafurm
      (जुआरी )
      13 वीं शताब्दी, कैस्टिले के अल्फोंसो एक्स को जिम्मेदार ठहराया गया इस अर्थ रूप के लिए ,  सन्दर्भ:- कैंटिगास डी सांता मारिया, ई कोडेक्स, कैंटिगा 154 (प्रतिकृति):

      तक्वुर शब्द के अर्थ व्यञ्जकता में  एक अहंत्ता पूर्ण भाव ध्वनित है।
      व्युत्पन्न शर्तों के अनुसार-
      तफ़ूरिया (तफ़ूरिया)
      वंशज
      गैलिशियन: तफ़ूर
      पुर्तगाली: सख्त वैकल्पिक रूप
      թագվոր (t'agvor) हिन्दी: - टेगुँरु  तथा बाँग्ला- टैंगोर रूप ...
      թագուոր (t'aguor)
       (व्युत्पत्ति)
      ओल्ड आर्मीनियाई թագաւոր (टी'गवायर) से
      संज्ञा ।
      թագւոր • (t'agwor),  एकवचन शब्द (t'agwori)
      राजा के अर्थ में।
      दुल्हन (क्योंकि वह शादी के दौरान एक मुकुट पहना करती है)
      ______________________________
      թագուորանալ (t'aguoranal)
      թագւորական (t'agworakan)
      թագւորացեղ (t'agworac'eł)
      թագվորորդի (t'agvorordi)
      वंशज
      अर्मेनियाई: թագվոր (t'agvor)
      संदर्भ -----
      लज़ारियन, Ṙ एस .; Avetisyan, एच.एम. (200 9), "üyühsur", में Miine hayereni baaran
      [मध्य अर्मेनियाई के शब्दकोश] (अर्मेनियाई में), 2 संस्करण, येरेवन: विश्वविद्यालय प्रेस आर्मीनिया !
      ___________________
      टक्फुर (तक्वुर) शब्द एक तुर्की भाषा में रूढ़ माण्डलिक का विशेषण शब्द है.
      जिसका अर्थ होता है " किसी विशेष स्थान अथवा मण्डल का मालिक अथवा स्वामी ।
      तुर्की भाषा में भी यह ईरानी भाषा से आयात है ।
      इसका जडे़ भी वहीं पार्थीयन में है ।
      ईरानी संस्कृति में ताजपोशी जिसकी की जाती वही तेकुर अथवा टेक्फुर कहलाता था ।
      "A person who wearer of the crown is called Takvor "
      यह ताज केवल उचित प्रकार से संरक्षित होता था, केवल बाइजेण्टाइन गृह सम्बन्धित उत्सवों के अवसर पर भी पहनकर इसका प्रदर्शन होता था।सास्कृति परम्पराओं के निर्वहन करने हेतु बाइजेण्टाइन गृह सम्बन्धित उत्सवों के उदाहरण- के निमित्त विशेष अवसरों पर इसका प्रदर्शन भी होता था। पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों ने ये प्रमाणित कर दिया  की मुकुट धारक की उपाधि ठाकुर होती थी।

      उसका सिंहासन कक्ष एक उच्चाट्टालिका के रूप में होता था राजा की मुखाकृति को शौर्य शास्त्रीय प्रतीकों द्वारा. सुसज्जित किया जाता था । और
      शाही ( राजकीय) पुरालेखों में इस कक्ष को राजा के वंशज व्यक्तियों की धरोहरों से युक्त कर  संरक्षित किया जाता था ।
      और इसे पॉरफाइरो जेनेटॉस का कक्ष कह कर पुकारा जाता था ।
      जिसका अर्थ होता है :- बैंगनी कक्ष से उत्पन्न "
      इसे अनवरत रूप से माइकेल तृतीय के पुत्र द्वारा बनवया गया ।
      यद्यपि व्युत्पत्ति- की दृष्टि से तक्वुर  शब्द अज्ञात है परन्तु आरमेनियन ,अरेबियन (अरब़ी) तथा हिब्रू तथा तुर्की आरमेनियन भाषाओं में ही यह प्रारम्भिक चरण में उपस्थिति है
      जिसकी निकासी ईरानी भाषा पार्थियन से हुई है।
      ____________________________________
       बताया जा चुका है कि "आरमेनियन" भाषा में यह शब्द "तैगॉर" रूप में वर्णित है ।
      जिसका अर्थ होता है :- ताज पहनने वाला ।
      The origin of the title is uncertain. It has been suggested that it derives from the Byzantine imperial name Nikephoros, via Arabic Nikfor. It is sometimes also said that it derives from the Armenian taghavor,= "crown-bearer".
      The term and its variants (tekvurtekurtekir, etc.    
      ( History of Asia Minor)📍
      ____________________________________
       Identityfied  of This word  with Sanskrit Word Thakkur " ठक्कुर:
      It Etymological thesis  Explored by Yadav Yogesh kumar Rohi -
      began to be used by historians writing in Persian or Turkish in the 13 th century, to refer to "denote Byzantine lords or governors of towns and fortresses in Anatolia (Bithynia, Pontus) and Thrace.
      It often denoted Byzantine frontier warfare leaders, commanders of akritai, but also Byzantine princes and emperors themselves", e.g. in the case of the Tekfur Sarayı , the Turkish name of the Palace of the Porphyrogenitus in Constantino
      (मॉद इस्तानबुल " के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य )
      Thus Ibn Bibi refers to the Armenian kings of Cilicia as tekvur,(ठक्कुर )while both he and the Dede Korkut epic refer to the rulers of the Empire of Trebizond as "tekvur of Djanit".
      In the early Ottoman period, the term was used for both the Byzantine governors of fortresses and towns, with whom the Turks fought during the Ottoman expansion in northwestern Anatolia and in Thrace, but also for the Byzantine emperors themselves, interchangeably with malik ("king") and more rarely, fasiliyus (a rendering of the Byzantine title basileus).
      Hasan Çolak suggests that this use was at least in part a deliberate choice to reflect current political realities and Byzantium's decline, which between
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      1371–94 and again between 1424 and the Fall of Constantinople in 1453 made the rump Byzantine state a tributary vassal to the Ottomans. 15th-century Ottoman historian Enveri somewhat uniquely uses the term tekfur also for the Frankish rulers of southern Greece and the Aegean islands.

       References--( सन्दर्भ तालिका )
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      ^ a b c d Savvides 2000, pp. 413–414.
      ^ a b Çolak 2014, p. 9.
      ^ Çolak 2014, pp. 13ff..
      ^ Çolak 2014, p. 19.
      ^ Çolak 2014, p. 14.

      यद्यपि ठाकुर- शीर्षक का मूल अनिश्चित है । यह सुझाव दिया गया है कि यह बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस से निकला है, अरबी निकफोर के माध्यम से यह कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह अर्मेनियाई तागवर, "मुकुट-धारक" से निकला है। शब्द और इसके  विकसित प्रकार (tekvur, tekur, tekir, आदि हैं।)
      (एशिया माइनर का इतिहास) 📍
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      यह शब्द 13 वीं शताब्दी में फ़ारसी या तुर्की में लिख रहे इतिहासकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा था , जिसका अर्थ है "बीजान्टिन प्रभुओं या एनाटोलिया ( तुर्की) के बीथिनीया, पोंटस) और थ्रेस में कस्बों और किले के गवर्नरों (राजपालों )के निरूपण करना से था। यह शब्द प्रायः बीजान्टिन सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अकराति के कमांडरों, तथा बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों   को भी निरूपित करता है ", उदाहरण के लिए, कॉन्स्टेंटिनो में पोर्कफिरोजनीटस के पैलेस के तुर्की नाम, "टेक्फुर सराय" के मामले में
      ( देखें--- तुर्की लेखक "मोद इस्तानबूल "के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य) इस प्रकार इब्न बीबी ने भी सिल्किया के अर्मेनियाई राजाओं को (टेक्विर) के रूप में संदर्भित किया है।

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      सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ  भारत में आकर बसीं। इससे पहले यहाँ से पश्चिम में भारोपीय भाषी (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का पढ़ाब रहा था। विदित हो कि तुर्की में ईसा के लगभग ७५०० वर्ष पहले मानवीय आवास के प्रमाण मिल चुके हैं।अत: यहीं 
      हिट्टी साम्राज्य की स्थापना (१९००-१३००) ईसा पूर्व में हुई थी। ये भारोपीय वर्ग की भाषा बोलते थे । १२५० ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूद (नष्ट) कर दिया और आसपास के क्षेत्रों  पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।
      १२०० ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन भी आरम्भ हो गया।
      छठी-सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस (कुरुष) ने अनातोलिया पर अपना अधिकार कर लिया।
      इसके करीब २०० वर्षों के पश्चात ३३४ ई० पूर्व  में सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया। बस !
      ठक्कुर अथवा ठाकुर शब्द का इतिहास भारतीय संस्कृति में यहीं से प्रारम्भ होकर आज तक व्याप्त है ।
      कालान्तरण में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था।
      तब तुर्की और ईरानी सामन्त तक्वुर का लक़ब उपाधि(title) लगाने लग गये थे । 

      भारत में तुर्की शासनकाल में तुर्की शब्दावली से भारतीय शासन शब्दावली में यह तक्वोर शब्द  ठक्कुर: ठाकुर शब्द बनकर समाहित हो गया ।
      यहीं से भारतीय राजपूतों ने इसे अपने शाही रुतवे के लिए के ग्रहण किया ।
      ईसापूर्व १३० ईसवी सन्  में अनातोलिया  (एशिया माइनर अथवा तुर्की ) रोमन साम्राज्य का अंग बन गया था । ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई  धर्म का प्रचार किया और सन ३१३ में रोमन    साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया।
      इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई।
      सन्त शब्द भी भारोपीय मूल से सम्बद्ध है ।

      यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान (Saint) इसका प्रति रूप है ।
      रोमन इतिहास में सन्त की उपाधि उस मिसनरी missionary' को दी जाती है । जिसने कोई आध्यात्मिक चमत्कार कर दिया हो ।
      छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर १०० वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
      बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।
      सन् १२८८ में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ ,और सन् १४५३ में कस्तुनतुनिया का पतन।
      इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

      विशेष- कोन्स्तान्तीनोपोलिसबोस्पोरुस जलसन्धि और मारमरा सागर के संगम पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है, जो रोमनबाइज़ेंटाइन, और उस्मानी साम्राज्य की राजधानी थी। 324 ई. में प्राचीन बाइज़ेंटाइन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम द्वारा रोमन साम्राज्य की नई राजधानी के रूप में इसे पुनर्निर्मित किया गया, जिसके बाद इन्हीं के नाम पर इसे नामित किया गया।
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      वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे। जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए।
      लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे। नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई ये सल्जूक़ तुर्क ही जिनकी उपाधि (title) तेगॉर थी भारत में  लेकर आये। और ईरानियों में भी तेगुँर उपाधि नामान्तर भेद से प्रचलित थी।

      बाँग्ला देश में आज भी "टेंगौर शब्द के रूप में केवल ब्राह्मणों का वाचक है । मिथिला में भी ठाकुर ब्राह्मण समाज की उपाधि है।
      यद्यपि ठाकरे शब्द महाराष्ट्र के कायस्थों का वाचक है, जिनके पूर्वजों ने कभी मगध अर्थात् वर्तमान विहार से ही प्रस्थान किया था ।
      यद्यपि इस ठाकुर शब्द का साम्य तमिल शब्द (तेगुँर )से भी प्रस्तावित हैै  ।
      तमिल की  एक बलूच शाखा है बलूच ईरानी और मंगोलों के सानिध्य में भी रहे है । जो वर्तमान बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषी है ।
      संस्कृत स्था धातु का सम्बन्ध  भारोपीयमूल के स्था (Sta )धातु से है ।
      संस्कृत भाषा में इस धातु  प्रयोग --प्रथम पुरुष एक वचन का रूप तिष्ठति है ,
      तथा ईरानी असुर संस्कृति के उपासक आर्यों की भाषा में हिस्तेति तथा ग्रीक भाषा में हिष्टेमि ( Histemi ) लैटिन -Sistere ।
      तथा रूसी परिवार की लिथुअॉनियन भाषा में -Stojus जर्मन भाषा (Stall) गॉथिक- Standan ।
      स्थग् :--- हिन्दी रूप ढ़कना, आच्छादित करना आदि।  भारतीय इतिहास एक वर्ग विशेष के लोगों द्वारा पूर्व-आग्रहों (pre solicitations )से ग्रसित होकर ही लिखा गया । आज आवश्यकता है इसके यथा स्थिति पर  पुनर्लेखन की ।


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      "प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार "रोहि".   
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      मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १७ में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि का वर्णन है।

       "मन्त्रमहोदधिसप्तदश:तरङ्गः"

       मन्त्रमहोदधि – सप्तदश तरङ्ग(सत्रहवां तरंग) अरित्र---"अथेष्टदान् मनून वक्ष्ये कार्तवीर्यस्य गोपितान् । यःसुदर्शनचक्रस्यावतारः क्षितिमण्डले ॥१॥ 

      शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वारा अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीर्य के मन्त्रों का आख्यान करता  हूँ। जो कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शनचक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥

      अभीष्टसिद्धिदः कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रःवहिनतारयुतारौद्रीलक्ष्मीरग्नीन्दुशान्तियुक् ।वेधाधरेन्दुशान्त्याढ्यो निद्रा(शाग्निबिन्दुयुक् ॥२॥

      पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रेकार्तवीपदम् ।रेफो वाय्वासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ॥ ३॥

      मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदन्तिकः।ऊनविंशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ॥ ४ ॥

      अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं – वह्नि (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वह्नि (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् (ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥

      विमर्श – ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥

      अस्य मन्त्रस्य न्यासकथनपूर्वकपूजाप्रकारदत्तात्रेयो मुनिश्चास्य च्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजं शक्तिधुवश्च हृत् ॥ ५॥

      इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥

      शेषाद्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेद् बुधः ।शान्तियुक्त चतुर्थेन कामादयेन शिरोङ्गकम् ।६

      इन्द्वात्यवामकर्णाढ्य माययार्घीशयुक्तया ।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ॥ ७॥

      वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं चरेत् ।

      बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः  से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥_

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      विमर्श – न्यासविधि –  आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः,      ई क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा,

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      हुं शिखायै वषट्   क्रैं श्रैं कवचाय हुम्,    हुँ फट्‍ अस्त्राय फट् ।

      इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥

      हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशके ॥ ८॥

      दक्षपादे वामपादे सक्थिजानुनि जंघयोः।विन्यसेद् बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ॥ ९॥

      ताराद्यान् नवशेषार्णान् मस्तके च ललाटके ।भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंसके॥ १०॥

      अब वर्णन्यास कहते हैं – मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम, जठर, नाभि, गुह्य, दाहिने पैर बाँये पैर, दोनों सक्थि दोनों ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥

      सर्वमन्त्रेण सर्वाङ्गे कृत्वा व्यापकमद्वयः।सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत् कार्तवीर्य जनेश्वरम्॥ ११॥

      तदनन्तर सभी अङ्गों पर मन्त्र के सभी वर्णों का व्यापक न्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की सिद्धि हेतु राजा कार्तवीर्य का ध्यान करना चाहिए ॥११॥

      विमर्श – न्यास विधि – ॐ फ्रों ॐ हृदये,        ॐ व्रीं ॐ जठरे,

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      ॐ क्लीं ॐ नाभौ     ॐ भ्रूं ॐ गुह्ये,        ॐ आम ॐ दक्षपादे,

      ॐ ह्रीं ॐ वामपादे,   ॐ फ्रों ॐ सक्थ्नोः    ॐ श्रीं ॐ उर्वोः,

      ॐ हुं ॐ जानुनोः   ॐ फट्‌ ॐ जंघयोः    ॐ कां मस्तके,

      ॐ र्त्त ललाटें     ॐ वीं भ्रुवोः,        ॐ र्यां कर्णयोः

      ॐ र्जुं नेत्रयोः   ॐ नां नासिकायाम्    ॐ यं मुखे,

      ॐ नं गले,    ॐ मः स्कन्धे

      इस प्रकार न्यास कर – ॐ फ्रों श्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट्‍  कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे- से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥८-११॥

      उद्यत्सूर्यसहस्रकान्तिरखिलक्षोणीधवैर्वन्दितो

      हस्तानां शतपञ्चकेन च दधच्चापानिपूंस्तावता ।

      कण्ठे हाटकमालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेःपायात् स्यन्दनगोरुणाभवसनः श्रीकार्तवीर्यो नृपः ॥ १२ ॥

      अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं –

      उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथों में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥

      लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजेत्तु तम् ॥ १३॥

      वक्ष्यमाणे दशदले वृत्तभूपुरसंयुते ।           सम्पूज्य वैष्णवीः शक्तीस्तत्रावाद्यार्चयेन् नृपम् ॥१४॥

      इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥______

      विमर्श – कार्तवीर्य की पूजा षट्‌कोण युक्त यन्त्र में भी कही गई है । यथा – षट्‌कोणेषु षडङ्गानि… (१७. १६) तथ दशदल युक्त यन्त्र में भी यथा – दिक्पत्रें विलिखेत् (१७. २२) । इसी का निर्देश १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे दशदले’ में ग्रन्थकार करते हैं ।

      केसरों में पूर्व आदि ८ दिशाओं में एवं मध्य में वैष्णवी शक्तियों की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए-

      ॐ विमलायै नमः, पूर्वे        ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, आग्नेये

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      ॐ ज्ञानायै नमः, दक्षिणे,    ॐ क्रियायै नमः, नैऋत्ये,

      ॐ भोगायै नमः, पश्चिमे    ॐ प्रहव्यै नमः, वायव्ये

      ॐ सत्यायै नमः, उत्तरे,    ॐ ईशानायै नमः, ऐशान्ये

      ॐ अनुग्रहायै नमः, मध्ये

      इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्र से आसन दे कर मूल मन्त्र से उस पर कार्तवीर्य की मूर्ति की कल्पना कर आवाहन से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१३-१४॥

      मध्येग्नीशासुरमरुत्कोणेषु हृदयादिकान् ।चतुरङ्ग च सम्पूज्य सर्वतोऽस्त्रं ततो यजेत् ॥ १५॥

      मध्य में आग्नेय, ईशान, नैऋत्ये, और वायव्यकोणों में हृदयादि चार अंगो की पुनः चारों दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना चाहिए ॥१५॥

      खड्गचर्मधराध्येयाश्चन्द्राभा अङ्गमूर्तयः।षट्कोणेषु षडङ्गानि ततो दिक्षु विदिक्षु च ॥ १६ ॥

      चोरमदविभञ्जनं मारीमदविभञ्जनम् ।अरिमदविभञ्जनं दैत्यमदविभञ्जनम् ॥१७॥

      दुःखनाशं दुष्टनाशं दुरितामयनाशकौ ।दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिषु सितप्रभाः॥ १८॥

      तदनन्तर ढाल और तलवार लिए हुये चन्द्रमा की आभा वाले षडङ्ग मूर्तियों का ध्यान करते हुये षट्‌कोणों में षडङ्ग पूजा करनी चाहिए ।        इसके बाद पूर्वादि चारों दिशाओं में तथा आग्नेयादि चारों कोणो में १. चोरमदविभञ्जन, २. मारीमदविभञ्जन, ३. अरिमदविभञ्जन, ४. दैत्यमदविभञ्जन, ५. दुःख नाशक, ६. दुष्टनाशक, ७. दुरितनाशक, एवं ८. रोगनाशक का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्व आदि ८ दिशाओं में श्वेतकान्ति वाली ८ शक्तियों का पूजन करना चाहिए ॥१६-१८॥

      क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।आयुष्करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः ॥ १९ ॥

      धनकर्यष्टमी परचाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः।  एवं संसाधितो मन्त्रः प्रयोगार्हः प्रजायते॥ २०॥

      १. क्षेमंकरी, २. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यशस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. विद्याकारे, तथा ८. धनकरी ये ८ शक्तियाँ है । फिर आयुधों के साथ दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की साधना से मन्त्र के सिद्ध जो जाने पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥

      विमर्श – आवरण पूजा विधि – सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा – आं फ्रों श्रीं हृदयाय नमः आग्नेये,

      ई क्लीं भ्रूम शिरसे स्वाहा ऐशान्ये,   हु शिखायै  वषट्‍ नैऋत्ये,

      क्रैं श्रैं कंवचाय हुम् वायव्ये,      हुं फट्‌ अस्त्राय सर्वदिक्षु ।

      षडङ्गपूजा यथा –    ॐ फ्रां हृदयाय नमः,

      ॐ फ्रीं शिरसे स्वाहा,      ॐ फ्रां शिखाये वषट् ॐ फ्रै कवचाय हुम्,

      ॐ फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,        ॐ फ्रः अस्त्राय फट्,

      फिर अष्टदलों में पूर्वादि चारों दिशाओं में चोरविभञ्जन आदि का, तथा आग्नेयादि चारों कोणो में दुःखनाशक इत्यादि चार नाम मन्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चाहिए – यथा –

      ॐ चोरमदविभञ्जनाय नमः पूर्वे,      ॐ मारमदविभञ्जनाय नमः दक्षिणे,

      ॐ अरिमदविभञ्जनाय नमः पश्चिमे,   ॐ दैत्यमदविभञ्जनाय नमः उत्तरे,

      ॐ दुःखनाशाय नमः आग्नेये,       ॐ दुष्टनाशाय नमः नैऋत्ये,

      ॐ दुरितनाशानाय वायव्ये,       ॐ रोगनाशाय नमः ऐशान्ये ।

      तत्पश्चात्‍ पूर्वादि दिशाओं के दलों के अग्रभाग पर श्वेत आभा वाली क्षेमंकरी आदि ८ शक्तियों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा –

      ॐ क्षेमंकर्यै नमः,   ॐ वश्यकर्यै नमः,        ॐ श्रीकर्यै नमः,

      ॐ यशस्कर्यै नमः   ॐ आयुष्कर्यै नमः,        ॐ प्रज्ञाकर्यै नमः,

      ॐ विद्याकर्यै नमः,     ॐ धनकर्यै नमः,

      तदनन्तर भूपुर में अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा –

      ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे,    ॐ रं अग्नये नमः आग्नेये,

      ॐ मं यमाय नमः दक्षिणे    ॐ क्षं निऋतये नमः नैऋत्ये,

      ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमें   ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,

      ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे,  ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,

      ॐ आं ब्राह्यणे नमः पूर्वेअशानयोर्मध्ये, ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ।

      फिर भूपुर के बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए । यथा –

      ॐ शूं शूलाय नमः, ॐ पं पद्माय नमः,  ॐ चं चक्राय नमः, इत्यादि ।

      इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद धूप, दीप एवं नैवेद्यादि उपचारों से विधिवत् कार्तवीर्य का पूजन करना चाहिए ॥१५-२०॥

      कार्तवीर्यार्जुनस्याथ पूजार्थ यन्त्र उच्यते॥ २१।

      दशदलात्मके यन्त्रे बीजादिस्थापनम्दिक्पत्रंविलिखेत्स्वबीजमदनश्रुत्यादिवाक्कर्णिकंवर्मान्त प्रणवादिबीजदशकं शेषार्णपत्रान्तरम् 

      ऊष्माढ्यं स्वरकेसरं परिवृतं शेषैः स्वकोणोल्लसद्भूतार्णक्षितिमन्दिरावृतमिदं यन्त्रं धराधीशितुः ॥ २२ ॥

      अब कार्तवीय की पूजा के लिए यन्त्र कहता हूँ  काम्यप्रयोगों में कार्तवीर्यस्य काम्यप्रयोगार्थ पूजनयन्त्रम्  कार्तवीर्यपूजन यन्त्रः –

      वृत्ताकार कर्णिका में दशदल बनाकर कर्णिका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज (क्लीं), श्रुतिबीज (ॐ) एवं वाग्बीज (ऐं) लिखे, फिरे प्रणव से ले कर वर्मबीज पर्यन्त मूल मन्त्र के १० बीजों को दश दलों पर लिखना चाहिए । शेष सह सहित १६ स्वरों को केशर में तथा शेष वर्णों से दशदल को वेष्टित करना चाहिए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वर्णों को लिखना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन पूजा का यन्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥

      शलभमावष्टगन्धैलिखित्वा यन्त्रमादरात ।     तत्र कम्भं प्रतिष्ठाप्य तत्रावाह्यार्चयेन्नृपम ॥२३॥

      अब काम्य प्रयोग में अभिषेक विधि कहते है :-

      शुद्ध भूमि में श्रद्धा सहित अष्टगन्ध से उक्त यन्त्र लिखकर उस पर कुंभ की प्रतिष्ठा कर उसमें कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर विधिवत् पूजन करना चाहिए ॥२३॥

      स्पृष्ट्वा कुम्भं जपेन्मन्त्रं सहस्त्रं विजितेन्द्रियः ।अभिषिञ्चेत्तदम्भोभिः प्रियं सर्वेष्टसिद्धये ॥ २४॥

      फिर अपनी इन्द्रियों को वश में कर साधक कलश का स्पर्श कर उक्त मुख्य मन्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्तर उस कलश के जल से अपने समस्त अभीष्टों की सिद्धि हेतु अपना तथा अपने प्रियजनों का अभिषेक करे ॥२३-२४॥

      नानाप्रयोगसाधनम्पुत्रान्यशो रोगनाशमायुः स्वजनरञ्जनम् ।वाक्सिद्धिं सुदृशः कुम्भाभिषिक्तो लभते नरः ॥२५॥

      शत्रूपद्रवमापन्ने ग्रामे वा पुटभेदने ।संस्थापयेदिदं यन्त्रमरिभीतिनिवृत्तये ॥२६॥

      अब उस अभिषेक का फल कहते हैं – इस प्रकार अभिषेक से अभिषिक्त व्यक्ति पुत्र, यश, आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से प्रेम तथा उपद्रव्य होने पर उनके भय को दूर करने के लिए कार्तवीर्य के इस मन्त्र को संस्थापित करना चाहिए ॥२५-२६॥

      सर्षपारिष्टलशुनकार्पासैौर्यते रिपुः ।               धत्तूरैः स्तंभ्यते निम्बैढेष्यते वश्यतेऽम्बुजैः।२७।

      उच्चाट्यते विभीतस्य समिभिः खदिरस्य च ।कटुतैलमहिष्याज्य:मद्रव्याञ्जनं स्मृतम् ॥ २८॥

      यवर्हतैः श्रियः प्राप्तिस्तिलैराज्यैरघक्षयः।दिलतण्डुलसिद्धार्थलाजैर्वश्यो नृपो भवेत् ॥ २९ ॥

      विविध कामनाओं में होम द्रव्य इस प्रकार है – सरसों, लहसुन एवं कपास के होम से शत्रु का मारन होता है । धतूर के होम से शत्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर विद्वेषण, कमल के होम से वशीकरण तथा बहेडा एवं खैर की समिधाओं के होम से शत्रु का उच्चाटन होता है । जौ के होम से लक्ष्मी प्राप्ति, तिल एवं घी के होम से पापक्षय तथा तिल तण्डुल सिध्दार्थ (श्वेत सर्षप) एवं लाजाओं के होम से राजा वश में हो जाता है ॥२७-२९॥

      अपामार्गार्कदूर्वाणां होमो लक्ष्मीप्रदोऽघनुत् ।स्त्रीवश्यकृत्प्रियंगूणां पुराणां भूतशान्तिदः ॥ ३० ॥

      अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षवटबिल्ध्वसमुद्भवाः ।समिधो लभते हुत्वा पुत्रानायुर्धनं सुखम् ॥ ३१॥

      अपामार्ग, आक एवं दूर्वा का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नाशक होता है । प्रियंगु का होम स्त्रियों को वश में करता है । गुग्गुल का होम भूतों को शान्त करता है । पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की समिधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु, धन एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥

      निर्मोकहेमसिद्धार्थलवणैश्चोरनाशनम् ।रोचनागोमयैःस्तम्भोभूप्राप्तिः शालिभिर्हतैः।३२॥

      साँप की केंचुली, धतूरा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों ) तथा लवण के होम से चोरों का नाश होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम से स्तंभन होता है तथा शालि (धान) के होम से भूमि प्राप्त होती है ॥३२॥

      होमसंख्या तु सर्वत्र सहस्रादयुतावधि ।प्रकल्पनीया मन्त्रज्ञैः कार्यगौरवलाघवात् ॥ ३३॥

      मन्त्रज्ञ विद्वान् को कार्य की न्यूनाधिकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार तक निश्चित कर लेनी चाहिए । कार्य बाहुल्य में अधिक तथा स्वल्पकार्य में स्वल्प होम करना चाहिए ॥३३॥

      विमर्श – सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दश हजार तक कही गई है, विद्वान् जैसा कार्य देखे वैसा होम करे ॥३३॥

      दशमन्त्रभेदानां कथनम्

      कार्तवीर्यस्य मन्त्राणामुच्यन्ते सिद्धिदाभिदाः।कार्तवीर्यार्जुनं डेन्तमन्ते च नमसान्वितम् ॥ ३४॥

      स्वबीजात्यो दशार्णोऽसावन्ये नवशिवाक्षराः।

      अब सिद्धियों को देने वाले कार्तवीर्यार्जुन के मन्त्रों के भेद कहे जाते हैं –

      अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त कार्तवीर्यार्जुन का चतुर्थ्यन्त, उसके बाद नमः लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है । अन्य मन्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥

      आद्यबीजद्वयेनाऽसौ द्वितीयो मन्त्र ईरितः।३५॥

      स्वकामाभ्यां तृतीयोऽसौ स्वभ्रूभ्यां तु चतुर्थकः स्वपाशाभ्यां पञ्चमोंसौ षष्ठः स्वेन च मायया ॥ ३६॥

      स्वांकुशाभ्यां सप्तमः स्यात् स्वरमाभ्यामथाष्टमः । स्ववाग्भवाभ्यां नवमो वर्मास्त्राभ्यां तथान्तिमः ॥३७॥

      उक्त मन्त्र के प्रारम्भ में दो बीज (फ्रों व्रीं) लगाने से यह द्वितीय मन्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा कामबीज (क्लीं) सहित यह तृतीय मन्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सहित नवम मन्त्र और आदि में वर्म (हुं) तथा अन्त में अस्त्र (फट्) सहित दशम मन्त्र बन जाता है ॥३५-३७॥

      विमर्श – कार्तवीर्यार्जुन के दश मन्त्र – १, फ्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः २. फ्रों व्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ३. फ्रों क्लीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ४. फ्रों भ्रूं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ५. फ्रों आं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ६. फ्रों ह्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ७. फ्रों क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ८. फ्रों श्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ९. फ्रों ऐं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, १०. हुं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः फट् ॥३४-३७॥

      द्वितीयादि नवान्ते तु बीजयोः स्याद् व्यतिक्रमः। मन्त्रे तु दशमे वर्णा नववर्मास्त्रमध्यगाः ॥ ३८॥

      द्वितीय मन्त्र से लेकर नौवें मन्त्र तक बीजों का व्युत्क्रम से कथन है और दसवें मन्त्र में वर्म (हुं) और अस्त्र (फट्) के मध्य नौ वर्ण रख्खे गए हैं ॥३८॥

      एतेषु मन्त्रवर्येषु स्वानुकूलं मनुं भजेत् ।एषामाघे विराट्छन्दोऽन्येषु त्रिष्टुबुदाहृतम् ३९

      इन मन्त्रों मे से जो भी सिद्धादि शोधन की रिति से अपने अनुकूल मालूम पडे उसी मन्त्र की साधना करनी चाहिए ॥३९॥

      इन मन्त्रों में प्रथम दशाक्षर का विराट्‌ छन्द है तथा अन्यों का त्रिष्टुप छन्द है ॥३९॥

      विमर्श – दशाक्षर मन्त्र का विनियोग– अस्य श्रीकार्तवीर्यार्युनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिविराट्‌छन्दः कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः ।

      अन्य मन्त्रों क विनियोग –अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषि स्त्रिष्टुप छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

      दशमन्त्रा इमे प्रोक्ताः प्रणवादि पदानि च ।तदादिमःशिवार्णःस्यादन्ये तु द्वादशाक्षरा:।४०।एवं विंशति मन्त्राणां यजनं पूर्ववन्मतम् ।त्रिष्टुप्छन्दस्तदायेषु स्यादन्येषु जगतीमता।४१।

      पूर्वोक्त १० मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव लगा देने से प्रथम दशाक्षर मन्त्र एकादश अक्षरों का तथा अन्य ९ द्वादशाक्षर बन जाते है । इस प्रकार कार्तवीर्य मन्त्र के २० प्रकार के भेद बनते है । इनकी साधना पूर्वोक्त मन्त्रों के समान है । उक्त द्वितीय दश संख्यक मन्त्रों में पहले त्रिष्टुप तथा अन्यों का जगती छन्द है । इन मन्त्रों की साधना में षड्‌ दीर्घ सहित स्वबीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४०-४१॥

      विनियोग – अस्य श्रीएकादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः कार्तवीर्यार्जुनो देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जपे विनियोगः ।

      अन्य नवके – अस्य श्रीद्वादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिर्जगतीच्छदः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

      षडङ्गन्यास – फ्रां हृदयाय नमः,   फ्रीं शिरसे स्वाहा,    फ्रूं शिखायै वषट्,

      फ्रैं कवचाय हुम्,   फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,     फ्रः अस्त्राय फट् ॥४१॥

      दीर्घाढ्यमूलबीजेन कुर्यादेषां षडङ्गकम् ।     तारो हृत्कार्तवीर्यार्जुनाय वर्मास्त्रठद्वयम् ।चतुर्दशार्णो मन्त्रोऽयमस्येज्या पूर्ववन्मता ॥ ४२ ॥

      तार (ॐ), हृत् (नमः), फिर ‘कार्तवीर्यार्जुनाय’ पद, वर्म (हुं), अ (फट्), तथा अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का मन्त्र बनता है इसकी साधना पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥४२॥

      विमर्श – चतुर्दशार्ण मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ नमः कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१४) ॥४२॥

      भूनेत्र सप्तनेत्राक्षिवणैरस्याङ्गपञ्चकम् ।

      मन्त्र के क्रमशः १, २, ७, २, एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४३॥

      विमर्श – पञ्चाङ्गन्यास – ॐ हृदयाय नमः, नमः शिरसे स्वाहा,

      कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्,        हुं फट् कवचाय हुम्,        स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४३॥

      तारो हृद्भगवान्डेन्तः कार्तवीर्यार्जुनस्तथा ॥ ४३॥

      वर्मास्त्राग्निप्रियामन्त्रः प्रोक्तोष्टादशवर्णवान् ।त्रिवेदसप्तयुग्माक्षिवर्णैः पञ्चाङ्गक मनोः॥४४॥

      तार (ॐ), हृत् (नमः), तदनन्तर चतुर्थ्यन्त भगवत् (भगवते), एवं कार्तवीर्यार्जुन (कार्तवीर्यार्जुनाय), फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) उसमें अग्निप्रिया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्य मन्त्र बनता है ॥४३-४४॥

      विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ नमो भगवते कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१८) ॥४४॥

      इस मन्त्र के क्रमशः ३, ४, ७, २ एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४४॥

      पञ्चाङ्गन्यास – ॐ हृदयाय नमः, भगवते शिरसे स्वाहा, कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४४॥

      मन्त्रान्तरकथनम्

      नमो भगवते श्रीति कार्तवीर्यार्जुनाय च ।सर्वदुष्टान्तकायेति तपोबलपराक्रम ॥ ४५॥

      परिपालित सप्तान्ते द्वीपाय सर्वरापदम् ।जन्यचूडामणान्ते ये सर्वशक्तिमते ततः॥४६॥

      सहस्रबाहवे प्रान्ते वर्मास्त्रान्तो महामनुः।त्रिषष्टिवर्णवान्प्रोक्तः स्मरणात्सर्वविघ्नहृत् ॥ ४७॥

      नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय, फिर सर्वदुष्टान्तकाय, फिर ‘तपोबल पराक्रम परिपालिलसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सर्वराजन्य चूडामण्ये सर्वशक्तिमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्र बनता हैं , जो स्मरण मात्र से सारे विघ्नों को दूर कर देता है ॥४५-४७॥

      विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्वदुष्टान्तकाय तपोबलपराक्रमपरिपालितसप्तद्वीपाय सर्वराजन्यचूडाणये सर्वशक्तिमते सहस्त्रबाहवे हुं फट् (६३) ॥४५-४७॥

      राजन्यचक्रवर्ती च वीरः शूरस्तृतीयकः ।माहिष्मतीपतिः पश्चाच्चतुर्थः समुदीरितः ॥ ४८॥

      रेवाम्बुपरितृप्तश्च कारागेहप्रबाधितः।दशास्यश्चेति षड्भिः स्यात्पदैर्डेन्तैः षडङ्गकम् ॥ ४९ ॥

      १. राजन्यचक्रवर्ती, २. वीर, ३. शूर, ४. महिष्मपति, ५. रेवाम्बुपरितृप्त एवं, ६. कारागेहप्रबाधितदशास्य – इन ६ पदों के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४८-४९॥

      विमर्श – षडङ्गन्यास का स्वरुप – राजन्यचक्रवर्तिने हृदयाय नमः, वीराय शिरसे स्वाहा, शूराय शिखायै वषट्, महिष्मतीपतये कवचाय हुम्, रेवाम्बुपरितृप्ताय नेत्रत्रयाय वौषट्, कारागेहप्रबाधितशास्याय अस्त्राय फट्‌ ॥४८-४९॥

      सिंच्यमानं युवतिभिः क्रीडन्तं नर्मदाजले ।हस्तैर्जलौघं रुन्धन्तं ध्यायेन्मत्तं नृपोत्तमम् ॥ ५० ॥

      नर्मदा नदी में जलक्रीडा करते समय युवतियों के द्वारा अभिषिच्यमान तथा नर्मदा की जलधारा को अवरुद्ध करने वाले नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान करना चाहिए ॥५०॥

      एवं ध्यात्वायुतं मन्त्रं जपेदन्यत्तु पूर्ववत् ।पूर्ववत्सर्वमेतस्य समाराधनमीरितम् ॥ ५१॥

      इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए तथा हवन पूजन आदि समस्त कृत्य पूर्वोक्त कथित मन्त्र की विधि से करना चाहिए । इस मन्त्र साधना के सभी कृत्य पूर्वोक्त मन्त्र के समान कहे गये हैं॥५१॥

      हृतनष्टलाभदोऽन्यो मन्त्रः

      कार्तवीर्यार्जुनो वर्णान्नामराजापदं ततः।       उक्त्वा बाहुसहस्रान्ते वान्पदं तस्य संततः ॥ ५२ ॥

      स्मरणादेववर्णान्ते हृतं नष्टं च सम्पठेत् ।   लभ्यते मन्त्रवर्योऽयं द्वात्रिंशद्वर्णसंज्ञकः॥५३॥

      अब कार्तवीर्यार्जुन के अनुष्टुप मन्त्र का उद्धार कहता हूँ –

      ‘कार्तवीर्यार्जुनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’ तथा ‘वान्’ कहना चाहिए । फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चाहिए । यह ३२ अक्षर का मन्त्र है ।

      इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से, तथा सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए । इसका ध्यान एवं पूजन आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥५२-५३॥

      विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है –

      कार्तवीर्याजुनो नाम राजा बाहुसहस्त्रवान् ।तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते ॥

      विनियोग – अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीकार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

      पञ्चाङ्गन्यास – कार्तवीर्यार्जुनो नाम हृदयाय नमः, राजा बाहुसहस्त्रवान् शिरसे स्वाहा, तस्य संस्मरणणादेव शिखायै वषट्, हृतं नष्टं च लभ्यते कवचाय हुम्, कार्तवीर्यार्जुनी० अस्त्राय फट् ॥५२-५३॥

      पादैः सर्वेण पञ्चाङ्ग ध्यानयोगादिपूर्ववत् ।कार्तवीर्यार्जुनगायत्रीकार्तवीर्याय शब्दान्ते विद्महेपदमीरयेत् ॥ ५४॥

      महावीर्यायवर्णान्ते धीमहीति पदं वदेत् ।तन्नोऽर्जुनः प्रवर्णान्ते चोदयात्पदमीरयेत् ॥ ५५गायत्र्येषार्जुनस्योक्ता प्रयोगादौ जपेत्तु ताम् ।

      ‘कार्तवीर्याय’ पद दे बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महावीर्याय’ के बाद ‘धीमहि’ पद कहना चाहिए । फिर ‘तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात्’ बोलना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन का गायत्री मन्त्र है । कार्तवीर्य के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना चाहिए ॥५४-५६॥

      अनुष्टुभं मनुं रात्रौ जपतां चौरसञ्चयाः॥पालयन्ते गृहाद्दूरं तर्पणाद्वचनादपि ।५६।।

      रात्रि में इस अनुष्टुप् मन्त्र का जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्र से तर्पण करने पर अथवा इसका उच्चारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥

      अखिलेप्सितदीपविधानकथनम् अथो दीपविधिं वक्ष्ये कार्तवीर्यप्रियंकरम् ॥ ५७ ॥

      वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्तिकाश्विनपौषतः ।माघफाल्गुनयोर्मासे दीपारम्भः प्रशस्यते।५८॥अब दीपप्रियः आर्तवीर्यः’ इस विधि के अनुसार कार्तवीर्य को प्रसन्न करने वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक, आश्विन, पौष, माघ एवं फाल्गुन में दीपदान करना प्रशस्त माना गया है ॥५७-५८॥

      तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ विना ।हस्तोत्तराश्विरौद्रेषु पुष्यवैष्णववायुभे ॥ ५९ ॥द्विदैवते च रोहिण्यां दीपारम्भः प्रशस्यते।

      चौथ, नवमी तथा चतुर्दशी – इन (रिक्ता) तिथियों को छोडकर, दिनों में मङ्गल एवं शनिवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय, आश्विनी, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, स्वाती, विशाखा एवं रोहिणी नक्षत्र में कार्तवीर्य के लिए दीपदान का आरम्भ प्रशस्त कहा गया है ॥५९-६०॥

      चरमे च व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ सुकर्मणि॥६०॥

      प्रीतौ हर्षे च सौभाग्ये शोभनायुष्मतोरपि ।करणे विष्टिरहिते ग्रहणेोदयादिषु ॥६१॥      एषु योगेषु पूर्वाणे दीपारम्भः कृतः शुभः ।

      वैघृति, व्यतिपात, धृति, वृद्धि, सुकर्मा, प्रीति, हर्षण, सौभाग्य, शोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा विष्टि (भद्रा) को छोडकर अन्य करणों में दीपारम्भ करना चाहिए । उक्त योगों में पूर्वाह्ण के समय दीपारम्भ करना प्रशस्त है ॥६०-६२॥

      कार्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीवशोभनः ॥६२॥

      यदि तत्र रवेर्वारः श्रवणं भं तु दुर्लभम् ।अत्यावश्यककार्येषु मासादीनां न शोधनम्॥ ६३॥

      कार्तिक शुक्ल सप्तमी को निशीथ काल में इसका प्रारम्भ शुभ है । यदि उस दिन रविवार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत दुर्लभ है । आवश्यक कार्यो में महीने का विचार नहीं करना चाहिए ॥६२-६३॥

      आये ह्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी शयीत कौ ।प्रातः स्नात्वा शुद्धभूमौ लिप्तायां गोमयोदकैः ॥६४॥

      प्राणानायम्य संकल्प्य न्यासान्पूर्वोदितांश्चरेत् ।साधक दीपदान से प्रथम दिन उपवास कर ब्रह्यचर्य का पालन करते हुये पृथ्वी पर शयन करे । फिर दूसरे दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर गोबर और शुद्ध जल से हुई भूमि में प्राणायाम कर, दीपदान का संकल्प एवं पूर्वोक्त न्यासों को करे ॥६४-६५॥

      षट्कोणं रचयेद् भूमौ रक्तचन्दनतण्डुलैः ॥ ६५॥

      अन्तः स्मरं समालिख्य षट्कोणेषु समालिखेत् मन्त्रराजस्य षड्वर्णान्कामबीजविवर्जितान् ॥ ६६ ॥

      सणिं पद्मा वर्मचास्त्रं पूर्वाद्याशासु संलिखेत् ।वाणैर्वेष्टयेत्तच्च त्रिकोणं तबहिः पुनः ॥ ६७ ॥

      फिर पृथ्वी पर लाल चन्दन मिश्रित चावलों से षट्‍कोण का निर्माण करे । पुनः उसके भीतर काम बीज (क्लीं) लिख कर षट्‌कोणों में मन्त्रराज के कामबीज को छोडकर शेष बीजो को (ॐ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं) लिखना चाहिए । सृणि (क्रों) पद्म (श्रीं) वर्म (हुं) तथा अस्त्र (फट्) इन चारों बीजों को पूर्वादि चारों दिशाओं में लिखना चाहिए । फिर ९ वर्णों (कार्तवीर्यार्जुनाय नमः) से उन षड्‌कोणों को परिवेष्टित कर देना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर एक त्रिकोण निर्माण करना चाहिए ॥६५-६७॥

      एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद् दीपभाजनम् ।स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः॥६८॥

      कांस्यपात्रं मृण्मयं च कनिष्ठं लोहजं मृतौ ।शान्तये मुद्गचूर्णोत्थं सन्धौ गोधूमचूर्णजम् ॥ ६९ ॥

      अब दीपस्थापन एवं पूजन का प्रकार कहते हैं –

      इस प्रकार से लिखित मन्त्र पर दीप पात्र को स्थापित करना चाहिए । वह पात्र सोने, चाँदी या ताँबे का होना चाहिए । उसके अभाव में काँसे का अथवा उसके भी अभाव में मिट्टी का या लोहे का होना चाहिए । किन्तु लोहे का और मिट्टी का पात्र कनिष्ठ (अधम) माना गया है ॥६८-६९॥

      शान्ति के और पौष्टिक कार्यो के लिए मूँगे के आटे का तथा किसी को मिलाने के लिए गेहूँ के आँटे का दीप-पात्र बनाकर जलाना चाहिए ॥६९॥

      बुध्नेषूदर्ध्व समानं तु पात्रं कुर्यात्प्रयत्नतः ।अर्कदिग्वसुषट् पञ्चचतुराभांगुलैर्मितम्।७०॥

      ध्यान रहे कि दीपक का निचला भाग (मूल) एवं ऊपरी भाग आकृति में समान रुप का रहे । पात्र का परिमाण १२, १०, ८, ६, ५, या ४ अंगुल का होना चाहिए ॥७०॥

      आज्यपलसहस्रं तु पात्रं शतपलैः कृतम् ।आज्येयुतपले पात्रं पलपञ्चशतीकृतम् ॥ ७१॥

      पञ्चसप्ततिसंख्ये तु पात्रं षष्टिपलं मतम् ।त्रिसहसे घृतपले शरार्कपलभाजनम् ॥ ७२ ॥

      द्विसहस्रे शरशिवं शतार्द्ध त्रिंशता मतम् ।शतेक्षिशरसंख्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् ॥ ७३॥

      सौ पल के भार से बने पात्र में एक हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में १० हजार पल घी, ६० पल के भार से बनाये गये पात्र में ७५ पल घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी, ११५ पल भार से बनाये गये दीप-पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये पात्र में १०० पल घी डालना चाहिए । इस प्रकार जितना घी जलाना हो अनुसार पात्र के भार की कल्पना कर लेनी चाहिए ॥७१-७३॥

      नित्ये दीपे वह्निपलं पात्रमाज्यं पलं स्मृतम् ।एवं पात्रं प्रतिष्ठाप्य वर्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत् ॥ ७४ ॥

      एका तिस्रोऽथवा पञ्च सप्ताद्या विषमा अपि तिथिमानाद्य सहस्रं तन्तुसंख्याविनिर्मिताः॥ ७५॥

      नित्यदीप में ३ पल के भार का पात्र तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थापित कर सूत की बनी बत्तियाँ डालनी चाहिए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बत्तियाँ डालिनी चाहिए । ऐसे सामान्य नियमानुसार विषम सूतों की बनी बत्तियाँ होनी चाहिए ॥७४-७५॥

      गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् ।सहस्रपलसंख्यादिदशान्तं कार्यगौरवात् ।७६॥

      दीप-पात्र में शुद्ध-वस्त्र से छना हुआ गो घृत डालना चाहिए । कार्य के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १००० पल परिमाण पर्यन्त घी की मात्रा होनी चाहिए ॥७६॥

      सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशांगुलाम् ।तदा वा तदद्धां वा सूक्ष्मायां स्थूलमूलकाम् ॥ ७७॥

      विमुच्चेद् दक्षिणे भागे पात्रमध्ये कृताग्रकाम् ।पात्राद् दक्षिणदिग्देशे मुक्त्वांगुलचतुष्टयम् ॥ ७८ ॥

      अधोऽग्रां दक्षिणाधारां निखनेच्छुरिकां शुभाम् दीपं प्रज्वालयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्वकम् ॥७९।

      सुवर्ण आदि निर्मित्त पात्र के अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८ या ४ अंगुल की एक मनोहर शलाका बनाकार उक्त दीप पात्र के, भीतर दाहिनी ओर से शलाका का अग्रभाग कर डालना चाहिए । पुनः दीप पात्र से दक्षिण दिशा में ४ अंगुल जगह छोडकर भूमि में अधोमुख एक छुरी या चाकू गाडना चाहिए । फिर गणपति का स्मरण करते हुये दीप की जलाना चाहिए ॥७७-७९॥

      दीपात् पूर्वे तु दिग्भागे सर्वतोभद्रमण्डले ।तण्डुलाष्टदलेवाऽपिविधिवत्स्थापयेद्धटम्।८०।तत्रावाह्य नृपाधीशं पूर्ववत्पूजयेत् सुधीः।जलाक्षताःसमादाय दीपं संकल्पयेत्ततः।८१।दीपक से पूर्व दिशा में सर्वतोभद्र मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर मिट्टी का घडा विधिवत् स्थापित करना चाहिए । उस घट पर कार्तवीर्य का आवाहन कर साधक को पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन करना चाहिए । इतना कर लेने के बाद हाथ में जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चाहिए॥८०-८१॥

      दीपसंकल्पमन्त्रोऽथ कथ्यते द्वीषु भूमितः ।प्रणवःपाशमाये चशिखाकार्ताक्षराणि च।८२।

      वीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्र च।   बाहवे इति वर्णान्ते सहस्रपदमुच्चरेत् ।८३।

      क्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय च।आत्रेयायानुसूयान्ते गर्भरत्नाय तत्परम्।८४।

      नभोग्नीवामकर्णेन्दुस्थितौ पाशद्वयं ततः।     दीपं गृहाण त्वमुकं रक्ष रक्ष पदं पुनः।८५।

      दुष्टान्नाशय युग्मं स्यात्तथा पातय घातय ।शत्रूजहिद्वयं माया तारःस्वं बीजमात्मभूः।८६।

      वहिनजाया अनेनाथ दीपवर्येण पश्चिमा।भिमुखेनामुकं रक्ष अमुकान्ते वरप्रदा।८७।

      नायाकाश द्वयं वाम नेत्रचन्द्रयुतं शिवा ।वेदादिकामचामुण्डास्वाहा तुःपुःसबिन्दुकौ।८८

      प्रणवोऽग्नि प्रियामन्त्रो नेत्रबाणधराक्षरः।

      अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प मन्त्र कहते हैं – यह (द्वि २ इषु ५ भूमि १ अंकाना वामतो गतिः) एक सौ बावन अक्षरों का माला मन्त्र है । प्रणव (ॐ), पाश (आं), माया (ह्रीं), शिखा (वषट्), इसके बाद ‘कार्त्त’ इसके बाद ‘वीर्यार्जुनाय’ के बाद ‘माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे’ इन वर्णों के बाद ‘सहस्त्र’ पद बोलना चाहिए । फिर ‘क्रतुदीक्षितहस्त दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय’, फिर वाम कर्ण (ऊ), इन्दु(अनुस्वार) सहित नभ (ह) एवं अग्नि (र्) अर्थात् (हूँ) पाश आं, फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टानाशय नाशय’, फिर २ बार ‘पातय’ और २ बार ‘घातय’ (पातय पातय घातय घातय), ‘शत्रून जहि जहि’, फिर माया (ह्रीं) तार (ॐ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (क्लीं) और फिर वाहिनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर वामनेत्रे (ई), चन्द्र (अनुस्वार) सहित २ बार आकाश (ह) अर्थात् (हीं हीं), शिवा (ह्रीं), वेदादि (ॐ), काम (क्लीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’ फिर सानुस्वर तवर्ग एवं पवर्ग (तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं), फिर प्रणव (ॐ) तथा अग्निप्रिया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का दीपदान मन्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥

      विमर्शदीप संकल्प के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ आं ह्रीं वषट्‍ कार्तवीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे, सहस्त्रक्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय ह्रूं आं इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टान्नाशय नाशय पातय पातय घातय घातय शत्रून जहि जहि ह्रीं ॐ फ्रों क्लीं स्वाहा अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकवरप्रदानाय हीं हीं ह्रीं ॐ क्लीं व्रीं स्वाहा तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं ॐ स्वाहा (१५२)॥८२-८९।

      दत्तात्रेयो मुनिर्मालामन्त्रस्य परिकीर्तितः।८९।

      छन्दोमित कार्तवीर्यार्जुनो देवःशुभावहः।चामुण्डया षडङ्गानि चरेत्षड्दीर्घयुक्तया।९०।

      इस मालामन्त्र के दत्तात्रेय ऋषि, अमित छन्द तथा कार्तवीर्यार्जुन देवता हैं ।षड्‌दीर्घसहित चामुण्डा बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥८९-९०॥

      विमर्श विनियोग – अस्य श्रीकार्तवीर्यमालमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषिरमितच्छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

      षडङ्गन्यास – ॐ व्रां हृदयाय नमः, व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,

      व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्‍ व्रः अस्त्राय फट् ॥८९-९०॥

      ध्यात्वा देवं ततो मन्त्रं पठित्वान्ते क्षिपेज्जलम् ततो नवाक्षरं मन्त्रं सहस्रं तत्पुरो जपेत् ॥९१॥

      दीप संकल्प के पहले कार्तवीर्य का ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्र का उच्चारण कर जल नीचे भूमि पर गिरा देना चाहिए  । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥९१॥

      तारोऽनन्तो बिन्दुयुक्तो मायास्वं वामनेत्रयुक् ।कूर्माग्नी शान्तिचन्द्राढ्यौ वह्निनार्यकुशं ध्रुवः॥ ९२॥

      नवाक्षर मन्त्र का उद्धार – तार (ॐ), बिन्दु (अनुस्वार) सहित अनन्त (आ) (अर्थात् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र सहित स्वबीज (फ्रीं), फिर शान्ति (ई) और चन्द्र (अनुस्वार) सहित कूर्म (व) और अग्नि (र) अर्थात् (व्रीं), फिर वह्निनारी (स्वाहा), अंकुश (क्रों) तथा अन्त में ध्रुव (ॐ) लगाने से नवाक्षर मन्त्र बनता है । यथा – ॐ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा क्रों ॐ ॥९२॥

      ऋषिः पूर्वः स्मृतोऽनुष्टुप्छन्दो ह्यन्यत्तु पूर्ववत् ।सहस्रं मन्त्रराजं च जपित्वा कवचं पठेत् ॥९३॥

      इस मन्त्र के पूर्वोक्त दत्तात्रेय ऋषि हैं ।            अनुष्टुप छन्द है तथा इसके देवता और न्यास पूर्वोक्त मन्त्र के समान है। (द्र० १७. ८९-९०) इस मन्त्र का एक हजार जप कर कवच का पाठ करना चाहिए । (यह कवच डामर तन्त्र में हुं के साथ कहा गया है ) ॥९३॥

      विमर्श – विनियोग- अस्य नवाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिः अनुष्टुप्‌छन्दः कार्तवीर्यार्जुनो देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

      षडङ्गन्यास – व्रां हृदयाय नमः व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,

      व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥९३॥

      एवं दीपप्रदानस्य कर्ताऽऽप्नोत्यखिलेप्सितम् ।दीपप्रबोधकाले तु वर्जयेदशुभां गिरम् ॥ ९४ ॥

      इस प्रकर दीपदान करने वाला व्यक्ति अपना सारा अभीष्ट पूर्ण कर लेता है । दीप प्रज्वलित करते समय अमाङ्गलिक शब्दों का उच्चारण वर्जित है ॥९४॥

      विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं परिकीर्तितम् ।शूद्राणा मध्यम प्रोक्त म्लेच्छस्य बधबन्धदम ॥९५॥

      आख्वोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य सुखावहम् ।

      अब दीपदान के समय शुभाशुभ शकुन का निर्देश करते हैं –

      दीप प्रज्वलित करते समय ब्राह्मण का दर्शन शुभावह है । शूद्रों का दर्शन मध्यम फलदायक तथा म्लेच्छ दर्शन बन्धदायक माना गया है । चूहा और बिल्ली का दर्शन अशुभ तथा गौ एवं अश्व का दर्शन शुभकारक है ॥९४-९६॥

      दीपज्वालासमासिद्ध्यै वक्रा नाशविधायिनी ॥ ९६ ॥

      सशब्दा भयदा कर्तरुज्ज्वला सखदा मता ।कृष्णा तु शत्रुभयदा वमन्ती पशुनाशिनी।९७ ॥

      कृते दीपे यदा पात्रं भग्नं दृश्येत दैवतः।पक्षादक् तदागच्छेद्यजमानो यमालयम् ॥ ९८।

      दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो सिद्धि और टेढी मेढी हो तो विनाश करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का शब्द भय कारक होता है । ज्योतिपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कर्ता को सुख प्राप्त होता है । यदि काला हो तो शत्रुभयदायक तथा वमन कर रहा हो तो पशुओं का नाश करता है । दीपदान करन के बाद यदि संयोगवशात् पात्र भग्न हो जावे तो यजमान १५ दिन के भीतर यम लोक का अतिथि बन जाता है ॥९६-९८॥

      वर्त्यन्तरं यदा कुर्यात्कार्य सिद्धयेद्विलम्बतः।नेत्रहीनो भवेत्कर्ता तस्मिन्दीपान्तरे कृते।९९।

      अशुचिस्पर्शने त्वाधिर्दीपनाशे तु चौरभीः ।श्वमार्जाराखसंस्पर्श भवेद भूपतितो भयम् ॥ १०० ॥

      अब दीपदान के शुभाशुभ कर्तव्य कहते हैं – दीप में दूसरी बत्ती डालने से कार्य सिद्ध में विलम्ब है, उस दीपक से अन्य दीपक जलाने वाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है । अशुद्ध अशुचि अवस्था में दीप का स्पर्श करने से आधि व्याधि उत्पन्न होती है । दीपक के नाश होने पर चोरों से भय तथा कुत्ते, बिल्ली एवं चूहे आदि जन्तुओं के स्पर्श से राजभय उपस्थित होता है ॥९९-१००॥

      यात्रारम्भे वसुपलैः कृतो दीपोऽखिलेष्टदः।तस्माद्दीपः प्रयत्नेन रक्षणीयोऽन्तरायतः ॥ १०१॥

      यात्रा करते समय ८ पल की मात्रा वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूर्ण करता है । इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों से सावधानी पूर्वक दीप की रक्षा करनी चाहिए जिससे विघ्न न हो ॥१०१॥

      आ समाप्तेः प्रकुर्वीत ब्रह्मचर्य च भूशयम ।स्त्रीशूद्रपतितादीनां सम्भाषामपि वर्जयेत् ॥ १०२॥

      दीप की समाप्ति पर्यन्त कर्ता ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये भूमि पर शयन करे तथा स्त्री, शूद्र और पतितो से संभाषण भी न करे ॥१०२॥

      जपेत्सहस्रं प्रत्येक मन्त्रराजं नवाक्षरम ।तोत्रपाठ प्रतिदिन निशीथिन्यां विशेषतः ॥ १०३॥

      प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर समाप्ति पर्यन्त प्रतिदिन नवाक्षर मन्त्र (द्र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र का पाठ विशेष रुप से रात्रि के समय करना चाहिए ॥१०३॥

      एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो मन्त्रनायकम् ।सहस्त्रं प्रजपेद्रात्रौ सोऽभीष्टं क्षिप्रमाप्नुयात् ॥ १०४ ॥

      निशीथ काल में एक पैर से खडा हो कर दीप के संमुख जो व्यक्ति इस मन्त्रराज का १ हजार जप करता है वह शीघ्र ही अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥

      समाप्य शोभने घस्त्रे सम्भोज्य द्विजनायकान्।कुम्भोदकेन कर्तारमभिषिञ्चेन्मनु स्मरन् ॥ १०५॥

      इस प्रयोग को उत्तम दिन में समाप्त कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद कुम्भ के जल से मूलमन्त्र द्वारा कर्ता का अभिषेक करना चाहिए ॥१०५॥

      कर्ता तु दक्षिणां दद्यात् पुष्कलां तोषहेतवे ।गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्यसुतो नृपः॥ १०६ ॥

      कर्ता साधक अपने गुरु को संतोषदायक एवं पर्याप्त दक्षिणा दे कर उन्हें संतुष्ट करे । गुरु के प्रसन्न हो जाने पर कृतवीर्य पुत्र कार्तवीर्यार्जुन साधक के सभी अभीष्टों को पूर्ण करते हैं ॥१०६॥

      गुर्वाज्ञया स्वयं कुर्याद्यदि वा कारयेद् गुरुम् ।कृत्वा रत्नादिदानेन दीपदानं धरापतेः॥१०७ ॥

      गुर्वाज्ञामन्तरा कुर्याद्यो दीपं स्वेष्टसिद्धये ।प्रत्युतानुभवत्येष हानिमेव पदे पदे ॥ १०८ ॥

      यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं करना चाहिए अथवा गुरु को रत्नादि दान दे कर उन्हीं से कार्तवीर्याजुन को दीपदान कराना चाहिए । गुरु की आज्ञा लिए बिना जो व्यक्ति अपनी इष्टसिद्धि के लिए इस प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कार्यसिद्धि की बात तो दूर रही, प्रत्युत वह पदे पदे हानि उठाता है ॥१०७-१०८॥

      दीपदानविधिं ब्रूयात्कृतघ्नादिषु नो गुरुः ।दृष्टेभ्यः कथितो मन्त्रो वक्तुर्दुःखावहो भवेत् ॥ १०९॥

      उत्तमं गोघृतं प्रोक्तं मध्यमं महिषीभवम् ।तिलतैले तु तादृक्स्यात्कनीयोऽजादिज घृतम् ॥ ११० ॥

      आस्यारोगे सुगन्धेन दद्यात्तैलेन दीपकम् ।सिद्धार्थसम्भवनाथ द्विषतां नाशहेतवे ॥ १११॥

      फलैर्दशशतैर्दीपे विहिते चेन्न दृश्यते ।कार्यसिद्धिस्तदात्रिस्तु दीपः कार्यो यथाविधि ॥ ११२॥

      कृतघ्न आदि दुर्जनों को इस दीपदान की विधि नहीं बतानी चाहिए । क्योंकि यह मन्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने वाले को दुःख देता है । दीप जलाने के लिए गौ का घृत उत्तम कहा गया है, भैंस का घी मध्यम तथा तिल का तेल भी मध्यम कहा गया है । बकरी आदि का घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगन्धित तेलों से दीप दान करना चाहिए । शत्रुनाश के लिए श्वेत सर्वप के तेल का दीप दान करना चाहिए । यदि एक हजार पल वाले दीप दान करने से भी कार्य सिद्धि न हो तो विधि पूर्वक तीन दीपों का दान करना चाहिए । ऐसा करने से कठिन से भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाता है ॥१०९-११२॥तदा सुदुर्लभं कार्य सिद्ध्यत्येव न संशयः।यथाकथंचिद्यःकुर्याद् दीपदानं स्ववेश्मनि॥ ११३॥

      विघ्नाःसर्वेरिभिःसाकं तस्य नश्यन्तिदूरतः।सर्वदाजयमाप्नोतिपुत्रान् पौत्रान् धनंयशः।११४।

      यथाकथंचिद्योदीपंनित्यं गेहेसमाचरेत्।कार्तवीर्यार्जुनप्रीत्यै सोऽभीष्टंलभतेनरः।११५।

      किसी भी प्रकार से जो व्यक्ति अपने घर में कार्तवीर्य के लिए दीपदान करता है, उसके समस्त विघ्न और समस्त शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव विजय प्राप्त करता है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यश प्राप्त करता है । पात्र, घृत, आदि नियम किए बिना ही जो व्यक्ति किसी प्रकार से प्रतिदिन घर में कार्तवीर्यार्जुन की प्रसन्नता के लिए दीपदान करता है वह अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥११३-११५॥

      दीपप्रियः कार्तवीर्यों मार्तण्डो नतिवल्लभः।देवानां तोषकराणि नमस्कारादीनिस्तुतिप्रियो महाविष्णुर्गणेशस्तर्पणप्रियः॥११६॥

      दुर्गाऽर्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियःशिवः।तस्मात्तेषां प्रतोषाय विदध्यात्तत्तदादृतः।११७॥

      तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के लिए क्रियमाण कर्तव्य का निर्देश करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं –

      कार्तवीर्यार्जुन को दीप अत्यन्त प्रिय है, सूर्य को नमस्कार प्रिय है, महाविष्णु को स्तुति प्रिय है, गणेश को तर्पण, भगवती जगदम्बा को अर्चना तथा शिव को अभिषेक प्रिय है । इसलिए इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका प्रिय संपादन करना चाहिए ॥११६-११७॥

      ॥इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रकथनं नाम सप्तदशस्तरङ्गः ॥ १७॥

      "इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोवधि के सप्तदश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ० सुधाकर मालवीयकृत ‘अरित्र’ नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १७ ॥"   

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      वे भगवान् सहस्रबाहू विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे । और स्वयं दत्तात्रेय ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें स्वेक्षा से वरदान दिया था। 
      दस वरदान जिन भगवान् दत्तात्रेय ने  कार्तवीर्यार्जुन को प्रदान किये थे वे इस प्रकार है।
      1- ऐश्वर्य शक्ति प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।
      2- दूसरो के मन की बात जानने का ज्ञान हो।
      3- युद्ध में कोई सामना न कर सके।
      4- युद्ध के समय उनकी सहत्र भुजाये प्राप्त हो, उनका भार  न लगे 
      5- पर्वत 'आकाश" जल" पृथ्वी और पाताल में अविहत गति हो।
      6-मेरी मृत्यु अधिक श्रेष्ठ हाथो से हो।
      7-कुमार्ग में प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।
      8- श्रेष्ठ अतिथि की निरंतर प्राप्ति होती रहे।
      9- निरंतर दान से धन न घटे।
      10- स्मरण मात्र से धन का आभाव दूर हो जाऐं एवं भक्ति बनी रहे। 
      मांगे गए वरदानों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि सहस्त्रबाहु-अर्जुन अर्थात् कार्तवीर्यार्जुन-ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार आचरण करने  वाले, शत्रु के मन की बात जान लेने वाले, हमेशा सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथि सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने।
      पृथ्वी लोक मृत लोक है, यहाँ जन्म लेने वाला कोई भी अमरत्व को प्राप्त नहीं है, यहाँ तक की दुसरे समाज के लोग जो परशुराम को भगवान् की संज्ञा प्रदान करते है और सहस्त्रबाहु को कुछ और की संज्ञा प्रदान कर रहे है, परशुराम द्वारा निसहाय लोगों अथवा क्षत्रियों के अबोध शिशुओ का अनावश्यक बध करना जैसे कृत्यों से ही क्षुब्ध होकर त्रेतायुग में भगवान् राम ने उनसे अमोघ शक्ति वापस ले ली थी।
      और उन्हें तपस्या हेतु वन जाना पड़ा, वे भी अमरत्व को प्राप्त नहीं हुए। भगवान् श्री रामचंद्र द्वारा अमोघ शक्ति वापस ले लेना ही सिद्ध करता है की, परशुराम  सन्मार्ग पर स्वयं नहीं चल रहे थे। एक समाज द्वारा दुसरे समाज के लोगो की भावनाओं को कुरेदना तथा भड़काना सभ्य समाज के प्राणियों, विद्वानों को शोभा नहीं देता है। महाराज कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हमारे लिए पूज्यनीय थे, पूज्यनीय रहेंगे।            परशुराम ने केवल उनकी सहस्र भुजाओं का उच्छेदन भले ही कर दिया हो परन्तु उनका वध कभी नहीं हुआ महाराज सहस्रार्जुन का वध नही हुआ। अन्त समय में उन्होंने समाधि ले ली।
      इसकी व्याख्या कई पौराणिक कथाओ में की गयी है। साक्ष्य के रूप मे माहेश्वर स्थित श्री राजराजेश्वर समाधि मन्दिर, प्रामाणिक साक्ष्य है ; जो वर्तमान में है।
      "श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन मंदिर" में समाधि पर अनंत काल से (11) अखंड दीपक प्रज्ज्वलित  करने की पृथा है। यहाँ शिवलिंग स्थापित है जिसमें श्री कार्तवीर्यार्जुन की आत्म-ज्योति ने प्रवेश किया था। उनके पुत्र जयध्वज के राज्याभिषेक के बाद उन्होने यहाँ योग समाधि ली थी। "मन्त्रमहोदधि" ग्रन्थ के अनुसार श्री कार्तवीर्यार्जुन को दीपकप्रिय हैं इसलिए समाधि के पास 11अखंड दीपक जलाए जाते रहे हैं। दूसरी ओर दीपक जलने से यह भी सिद्ध होता है की यह समाधि श्री कार्तवीर्यार्जुन की है। भारतीय समाज में स्मारक को पूजने की परम्परा नही है परन्तु महेश्वर के मन्दिर में अनंत काल से पूजन परंपरा और अखंड दीपक जलते रहे हैं। अतएव कार्तवीर्यार्जुन के वध की मान्यता निरधार व मन:कल्पित है।
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      त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
      "महाभारत ग्रन्थ और भारतीय पुराणों में वर्णित जिन क्षत्रियों को परशुराम द्वारा मारने की बात हुई है वे मुख्यतः सहस्रबाहू के वंशज हैहय वंश के यादव ही थे । भार्गवों- जमदग्नि, परशुराम आदि और हैहयवंशी यादवों की शत्रुता का कारण बहुत गूढ़ है । जमदग्नि और सहस्रबाहू परस्पर हमजुल्फ( साढू संस्कृत रूप- श्यालिबोढ़्री ) थे।  जिनके परिवार सदृश सम्बन्ध थे। ब्रह्मवैवर्त- पुराण में एक प्रसंग के अनुसार सहस्रबाहू अर्जुन से -'परशुराम ने कहा-★  हे ! धर्मिष्ठ राजेन्द्र! तुम तो चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु के अंशभूत बुद्धिमान दत्तात्रेय के शिष्य हो। यद्पि विष्णु का अञ्शभूत"  उपर्युक्त श्लोक में दत्तात्रेय का सम्बोधन है।
       श्रुणु राजेन्द्र ! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव।   विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।५४। 
      सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपति खण्ड अध्याय (35) तुम स्वयं विद्वान हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ? 
      तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ? जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक-संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी। भूपाल! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी ? यह सारा संसार तो कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल की बूँद की तरह मिथ्या ही है। सुयश को अथवा अपयश, उसकी तो कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है। अहो ! सत्पुरुषों की दुष्कीर्ति हो, इससे बढ़कर और क्या विडम्बना होगी ? कपिला कहाँ गयी, तुम कहाँ गये, विवाद कहाँ गया और मुनि कहाँ चले गये; परन्तु एक विद्वान राजा ने जो कर्म कर डाला, वह हलवाहा भी नहीं कर सकता।
      मेरे धर्मात्मा पिता ने तो तुम-जैसे नरेश को उपवास करते देखकर भोजन कराया और तुमने उन्हें वैसा फल दिया ? राजन् ! तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया है, तुम प्रतिदिन ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देते हो और तुम्हारे यश से सारा जगत व्याप्त है। फिर बुढ़ापे में तुम्हारी अपकीर्ति कैसे हुई ? 
      _____________                                      
       एक स्थान पर परशुराम - कार्तवीर्य्य अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहते हैं।
      (प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। पुराणों अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान कि वर्णन करते हैं। निम्न संहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड को समान ही हैं।
          लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण़्डः प्रथम          (कृतयुगसन्तानः).अध्यायः ४५८ में परशुराम और सहस्रबाहू  युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।         
                   ★श्रीनारायण उवाच★
      शृणु लक्ष्मि! माधवांशः पर्शुराम उवाच तम् ।
      कार्तवीर्य रणमध्ये धर्मभृतं वचो यथा ।१।
      शृणु राजेन्द्र! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव ।
      विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।२।
      कथे दुर्बुद्धिमाप्तस्त्वमहनो वृद्धभूसुरम् ।
      ब्राह्मणी शोकसन्तप्ता भर्त्रा सार्धे गता सती।३।
      किं भविष्यति ते भूप परत्रैवाऽनयोर्वधात् ।
      क्वगता कपिलासा तेकीदृक्कूलंभविष्यति।४।
      यत्कृतं तु त्वया राजन् हालिको न करिष्यति।
      सत्कीर्तिश्चाथदुष्कीर्तिःकथामात्राऽवशेषिता।५।
      त्वया कृतो घोरतरस्त्वन्यायस्तत्फलं लभ ।
      उत्तरं देहि राजेन्द्र समाजे रणमूर्धनि ।६।
      कार्तवीर्याऽर्जुनः श्रुत्वा प्रवक्तुमुपचक्रमे।
      शृणु राम हरेरंशस्त्वमप्यसि न संशयः।७।
      सद्बुद्ध्या कर्मणा ब्रह्मभावनां करोति यः ।
      स्वधर्मनिरतः शुद्धो ब्राह्मणः स प्रकीर्त्यते ।८।
      अन्तर्बहिश्च मननात् कुरुते फलदां क्रियाम् ।
      मौनी शश्वद् वदेत् काले हितकृन्मुनिरुच्यते।९।
      स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने ।
      रामवृत्तिः समभावो योगी यथार्थ उच्यते ।। 1.458.10।
      सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत् समताधिया।
      हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स उच्यते।११।
      राष्ट्रीयाः शतशश्चापि महाराष्ट्राश्च वंगजाः।गौर्जराश्च कलिंगाश्च रामेण व्यसवः कृताः।५२।
      द्वादशाक्षौहिणीः रामो जघान त्रिदिवानिशम् ।
      तावद्राजा कार्तवीर्यः श्रीलक्ष्मीकवचं करे ।।५३।।
      बद्ध्वा शस्त्रास्त्रसम्पन्नो रथमारुह्य चाययौ ।
      युयुधे विविधैरस्त्रैर्जघान ब्राह्मणान् बहून्।५४
      तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
      ददौ शूलं हि रामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
      अर्थ-उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म( काला-कवच) प्रदान किया।५८।
      _____________________________   
      जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप रामकन्धरे।
      मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
      तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था  परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये ।।
      परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
      इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
      ब्राह्मणं जीवयामास शंभुर्नारायणाज्ञया ।
      चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा।८७।
      नारायण की आज्ञा से  शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक ब्राह्मण परशुराम को पुन: जीवित कर दिया चेतना पाकर परशुराम ने "पाशुपत" अस्त्र को ग्रहण किया।
      दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
      परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को कार्तवीर्य ने स्तम्भित( जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
      श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
      ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
      भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित  राजा को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण-कवच) को परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।
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      वैसे भी परशुराम का स्वभाव ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि से नहीं अपितु सहस्रबाहु से मेल खाता है विज्ञान की भाषा में इसे ही जेनेटिक अथवा आनुवंशिक गुण कहते हैं ।
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      विदित हो कि सहस्रबाहु की पत्नी "वेणुका और परशुराम की माता तथा पिता जमदग्नि की पत्नी "रेणुका सगी बहिनें थी।
      रेणुका सहस्रबाहू के पौरुष और पराक्रम पर आसक्त और उसकी भक्त थी । 
      जबकि जमदग्नि ऋषि निरन्तर साधना में संलग्न रहते थे। वे अपनी पत्नी को कभी पत्नी का सुख नहीं दे पाते थे ।
      राजा रेणु की पुत्री होने से रेणुका में रजोगुण की अधिकता होने के कारण से भी वह रजोगुण प्रधान रति- तृष्णा से पीड़ित रहती थी । और सहस्रबाहु से प्रणय निवेदन जब कभी करती रहती थी परन्तु सहस्रबाहू एक धर्मात्मा राजा  ही नहीं सम्राट भी था। परन्तु पूर्वज ययाति की कथाओं ने उन्हें भी सहमत कर दिया जब शर्मिष्ठा दासी ने उन ययाति से एकान्त में प्रणय निवेदन किया था और उसे पीड़ा निवारक बताया था । उसी के परिणाम स्वरूप रेणुका का एकान्त प्रणय निवेदन सहस्रबाहू ने भी स्वीकार कर लिया परिणाम स्वरूप परशुराम की उत्पत्ति हुई  "इस प्रकार की समभावनामूलक किंवदन्तियाँ भी प्रचलित हैं। परशुराम अपने चार भाईयों सबसे छोटे थे ।
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      रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या थीं जो क्षत्रिय राजा था । जो परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थीं, जिनके पाँच पुत्र थे।
      "रुमणवान "सुषेण "वसु "विश्वावसु "परशुराम
      विशेष—रेणुका विदर्भराज की कन्या और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी। एक बार ये गंगास्नान करने गई। वहा राजा चित्ररथ को स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा करते हुए देख रेणुका ने देख लिए तो रेणुका के मन में रति -पिपासा( मेैंथुन की इच्छा) जाग्रत हो गयी। चित्ररथ भी एक यदुवंश के राजा थे ; जो विष्णु पुराण के अनुसार (रुषद्रु) और भागवत के अनुसार (विशदगुरु) के पुत्र थे।
      एक बार ऋतु काल में सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने पर  जमदग्नि  मुनि को रेणुका और चित्ररथ की  समस्त घटना ज्ञात हो गयी। 
      उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ। 
      अन्त में परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा।
      जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह रेणुका (पद्म) कमल से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे। सन्दर्भ- (महाभारत-  अरण्यपर्व- अध्याय-११६ )
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      "परन्तु  उपर्युक्त आख्यानक के कुछ पहलू विचारणीय  हैं। जैसे कि रेणुका का कमल से उत्पन्न होना, और जमदग्नि के द्वारा उसका पुनर्जीवित करना ! दोनों ही घटनाऐं  प्रकृति के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से काल्पनिक हैं । जैसा की पुराणों में अक्सर किया जाता है ।
      और तृतीय आख्यानक यह है  कि "भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुराम का उत्पन्न होना  है।
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      "गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करना विष्णु के अवतारी का गुण नहीं हो सकता है।
      महाभारत शान्तिपर्व में परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ?
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      "मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
      "सा पुनःक्षत्रियशतैःपृथिवी सर्वतः स्तृता।परावसोर्वचःश्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।60।
      "ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः। ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।61।
      "स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।)
      "जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।        अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
      "त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
      सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ४८)
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      "अर्थ- मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये हैं।राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। 
      "नरेश्वर! उन्होंने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी।परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे।उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
       राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् ( स्रुवा)लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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      (ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
      में भी वर्णन है कि २१ बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी!
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      "एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् ।।
      रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३
      "गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
      जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४। __________________
      सन्दर्भ- कालिकापुराण अध्यायः (८३) मेेंं परशुराम जन्म की कथा वर्णित है।   
          "कालिकापुराणम्।  "त्र्यशीतितमोऽध्यायः।83।
                          "और्व्व उवाच"
      "अथ काले व्यतीते तु जमदग्निर्महातपाः।
      विदर्भराजस्य सुतां प्रयत्नेन जितां स्वयम्।१।
      "भार्यार्थं प्रतिजग्राह रेणुकां लक्षणान्विताम्।
      सा तस्मात् सुषुवे षत्रांश्चतुरो वेदसम्मितान्।2।"रुषण्वन्तं सुषेणां च वसुं विश्वावसुं तथा।पश्चात् तस्यां स्वयं जज्ञे भगवान् परशुराम:।३।
      "कार्तवीर्यवधायाशु शक्राद्यैः सकलैः सुरैः।
      याचितः पंचमः सोऽभूत् रामाह्वयस्तु सः।४।
      "भारावतरणार्थाय जातः परशुना सह।
      सहजं परशुं तस्य न जहाति कदाचन।५।
      ___________
      "अयं निजपितामह्याश्चरुभुक्तिविपर्ययात्।
      ब्राह्मणःक्षत्रियाचारो रामोऽभूतक्रूरकर्मकृत्।६।
      "स वेदानखिलान् ज्ञात्वा धनुर्वेदं च सर्वशः।
      सततं कृतकृत्योऽभूद् वेदविद्याविशारदः।७।
      ____________________________
      "एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।
      गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८।
      "भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।
      सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्।९।
      ________________________________
      "तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्।
      रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे।१०।
      "स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदःसमजायत।
      विचेतनाम्भसाक्लिन्ना त्रस्ता सास्वाश्रमं ययौ।११।
      ____________________________________
      "अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
      धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः।१२।
      "ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।
      रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।१३।
      ____________________________________
      "छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।
      ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।१४।
      "कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।
      गाधिं नृपतिशार्दूलं स चोवाच नृपो मुनिम्।१५।
      "भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिगर्धिताः।अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान्।। ८३.१६ ।।
      "तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।१७ ।    "पित्रा शप्तान् महातेजाःप्रसूं परशुनाच्छिनत्। रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वाविक्रोधनोऽभवत्।१८।
      "जमदग्निः प्रसन्नःसन्निति वाचमुवाच ह।
      प्रीतोऽस्मिपुत्रभद्र ते यत्त्वया मद्वचःकृतम्।१९।
      ____________________________________
      "तस्मादिष्टान् वरान् कामांस्त्वं वै वरय साम्प्रतम्।
      स तु रामो वरान् वव्रे मातुरुत्थानमादितः।२०।
      वधस्यास्मरणं तस्या भ्रातृणां शपमोचनम्।
      मातृहत्याव्यपनयं युद्धे सर्वत्र वै जयम्।२१।
      आयुः कल्पान्तपर्यन्तं क्रमाद् वै नृपसत्तम।
      सर्वान् वरान् स प्रददौ जमदग्निर्महातपाः।२२। 
      _______________
      "सुप्तोत्यितेव जननी रेणुका च तदाभवत्।
      वधं न चापि सस्मार सहजा प्रकृतिस्थिता।२३।
      युद्धे जयं चिरायुष्यं लेभे रामस्तदैव हि।
      मातृहत्याव्यपोहाय पिता तं वाक्यमव्रवीत्।२४।
      न पुत्र वरदानेन मातृहत्यापगच्छति।
      तस्मात् त्वं ब्रह्मकुण्डायगच्छस्नातुं च तज्जले।२५।
      तत्र स्नात्वा मुक्तपापो नचिरात् पुनरेष्यसि।
      जगद्धिताय पुत्र त्वं ब्रह्मकुण्डं व्रज द्रुतम्।२६।
      स तस्य वचन श्रुत्वा रामः परशुधृक् तदा।
      उपदेशात् पितुर्घातो ब्रह्मकुण्डं वृषोदकम्।२७।
      तत्र स्नानं च विधिवत् कृत्वा धौतपरश्वधः।
      शरीरान्निःसृतां मातृहत्यां सम्यग् व्यलोकयत्।२८।
      जातसंप्रत्ययः सोऽथ तीर्थमासाद्य तद्वरम्।
      वीथीं परशुना कृत्वा ब्रह्मपुत्रमवाहयत्।२९ ।
      ___________________________________
      ब्रह्मकुण्डात् सृतःसोऽथ कासारे लोहिताह्वये।
      कैलासोपत्यकायां तु न्यपतद् ब्रह्मणःसुतः।३०।
      तस्यापि सरसस्तीरे समुत्थाय महाबलः।
      कुठारेण दिशं पूर्वामनयद् ब्रह्मणः सुतम्।३१।
      ततः परत्रापि गिरिं हेमशृङ्गं विभिद्य च।
      कामरूपान्तरं पीठमावहद्यदमुं हरिः।३२।
      तस्य नाम स्वयं चक्रे विधिर्लोहितगङ्गकम्।
      लोहितात् सरसो जातो लोहिताख्यस्ततोऽभवत्।३३।
      स कामरूपमखिलं पीठमाप्लाव्य वारिणा।
      गोपयन् सर्वतीर्थानि दक्षिणं याति सागरम्।३४।
      प्रागेव दिव्ययमुनां स त्यक्त्वा ब्रह्मणः सुतः।
      पुनः पतति लौहित्ये गत्वा द्वादशयोजनम्।३५। चैत्रे मासि सिताष्टम्यां यो नरो नियतेन्द्रियः।        चैत्रं तु सकलं मासं शुचिः प्रयतमानसः।३६। स्नाति लौहित्यतोये तु स याति ब्रह्मणः पदम्।  लौहित्यतोये यः स्नाति स कैवल्यमवाप्नुयात्।३७ ।
      इति ते कथितं राजन् यदर्थं मातरं पुरा।अहन् वीरोजामदग्न्यो यस्माद् वाक्रूरकर्मकृत्।३८।
      इदं तु महदाख्यानं यः शृणोति दिने दिने।        स दीर्घायुः प्रमुदितो बलवानभिजायते।३९।      इति ते कथितं राजञ्छरीरार्धं यथाद्रिजा।शम्भोर्जहार वेतालभैरवौ च यथाह्वयौ।४०।       यस्य वा तनयौ जातौ यथा यातौ गणेशताम्।किमन्यत् कथये तुभ्यं तद्वदस्व नृपोत्तम।४१।
                   ★मार्कण्डेय उवाच★
      इत्यौर्व्वस्य च संवादः सगरेम महात्मना।
      योऽसौ कायार्धहरणं शम्भोर्गिरिजया कृतः।४२।
      सर्वोऽद्य कथितो विप्राः पृष्टं यच्चान्यदुत्तमम्।
      सिद्धस्य भैरवाख्यस्य पीठानां च विनिर्णयम्।४३।
      भृङ्गिणश्च यथोत्पत्तिर्महाकालस्य चैव हि।
      उक्तं हि वः किमन्यत् तु पृच्छन्तु द्विजसत्तमाः४४।
      इति सकलसुतन्त्रं तन्त्रमन्त्रावदातं बहुतरफलकारि  प्राज्ञविश्रामकल्पम्।
      उपनिषदमवेत्य ज्ञानमार्गेकतानं स्रवति स इह नित्यं यः पठेत् तन्त्रमेतत्।८३.४५ ।
      "इति श्रीकालिकापुराणेत्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।
      ____________________________________ 
      "महाभारत के अरण्यपर्व वनपर्व के अनुसार  परशुराम का जन्म"
                    ★वैशम्पायन उवाच★
      स तत्र तामुषित्वैकां रजनीं पृथिवीपतिः।             तापसानां परं चक्रे सत्कारं भ्रातृभिः सह।1।लोमशस्तस्य तान्सर्वानाचख्यौ तत्र तापसान्।भृगूनङ्गिरसश्चैव वसिष्ठानथ काश्यपान् ।2।तान्समेत्य सा राजर्षिरभिवाद्य कृताञ्जलिः।   रामस्यानुचरं वीरमपृच्छदकृतव्रणम् ।3।           कदा नु रामो भगवांस्तापसो दर्शयिष्यति।तमहं तपसा युक्तं द्रष्टुमिच्छामि भार्गवम् ।4।   
                        „अकृतव्रण उवाच„
      आयानेवासि विदितो रामस्य विदितात्मनः।         प्रीतिस्त्वयि च रामस्य क्षिप्रं त्वां दर्शयिष्यति ।5।चतुर्दशीमष्टमीं च रामं पश्यन्ति तापसाः।      अस्यां रात्र्यां व्यतीतायां भवित्री श्वश्चतुर्दशी।6।ततो द्रक्ष्यसि रामं त्वं कृष्णाजिनजटाधरम्'।7।
                        ★युधिष्ठिर उवाच★
      भवाननुगतो रामं जामदग्न्यं महाबलम्।           प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पूर्ववृत्तस्य कर्मणः ।7।         स भवान्कथयत्वद्य यथा रामेण निर्जिताः।       आहवे क्षत्रियाः सर्वे कथं केन च हेतुना ।8।                        अकृतव्रण उवाच
      [हन्त ते कथयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्।           भृगूणां राजशार्दूल वंशे जातस्य भारत ।9।   रामस्य जामदग्न्यस्य चरितं देवसम्मितम्।     हैहयाधिपतेश्चैव कार्तवीर्यस् भारत।10।        रामेण चार्जुनो नाम हैहयाधिपतिर्हतिः।                तस्य बाहुशतान्यासंस्त्रीणि सप्त च पाण्डव।11। दत्तात्रेयप्रसादेन विमानं काञ्चनं तथा।          ऐश्वर्यं सर्वभूतेषु पृथिव्यां पृथिवीपते ।12।अव्घाहतगतिश्चैव रथस्तस्य महात्मनः।            रथेन तेन तु सदावरदानेन वीर्यवान् ।13। 
      ममर्द देवान्यक्षांश्च ऋषींश्चैव समन्ततः।        भूतांश्चैव स सर्वांस्तु पीडयामास सर्वतः।14।     ततो देवाः समेत्याहुर्ऋषयश्च महाव्रताः।        देवदेवं सुरारिघ्नं विष्णुं सत्यपराक्रमम्।भगवन्भूतरार्थमर्जुनं जहि वै प्रभो ।15।
       विमानेन च दिव्येन हैहयाधिपतिः प्रभुः। शचीसहायं क्रीडन्तं धर्षयामास वासवम्।16।ततस्तु भगवान्देवः शक्रेण सहितस्तदा।कार्तवीर्यविनाशार्थं मन्त्रयामास भारत ।17।यत्तद्भूतहितं कार्यं सुरेन्द्रेण निवेदितम्।          संप्रतिश्रुत्य तत्सर्वं भगवाँल्लोकपूजितः।        जगाम बदरीं रम्यां स्वमेवाश्रममण्डलम् ।18।
      एतस्मिन्नेव काले तु पृथिव्यां पृथिवीपतिः।]
      कान्यकुब्जे महानासीत्पार्थिवः सुमहाबलः।    गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह ।19। वने तु तस्य वसतः कन्या जज्ञेऽप्सरःसमा। ऋचीको भार्गवस्तां च वरयामास भारत ।20।       तमुवाच ततो गाधिर्ब्राह्मणं संशितव्रतम्।         उचितं नः कुले किंचित्पूर्वैर्यत्संप्रवर्तितम् ।21।  एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।       सहस्रं वाजिनां शुक्लमिति विद्धि द्विजोत्तम ।22।
      न चापि भगवान्वाच्योदीयतामिति भार्गव।देया मे दुहिता चैव त्वद्विधाय महात्मने ।23।
                          "ऋचीक उवाच!                      एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।दास्याम्यश्वसहस्रं ते मम भार्या सुताऽस्तु ते ।24।
                         "गाधिरुवाच।                    ददास्यश्वसहस्रं मे तव भार्या सुताऽस्तु मे' ।-25।
                        "अकृतव्रण उवाच। 
      स तथेति प्रतिज्ञाय राजन्वरुणमब्रवीत्।          एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।सहस्रं वाजिनामेकं शुल्कार्थं प्रतिदीयताम्।26।तस्मै प्रादात्सहस्रं वै वाजिनां वरुणस्तदा।तदश्वतीर्थं विख्यातमुत्थिता यत्र ते हयाः।27।गङ्गायां कान्यकुब्जे वै ददौ सत्यवतीं तदा।          ततो गाधिः सुतां चास्मै जन्याश्चासन्सुरास्तदा।28।लब्धं हयसहस्रं तु तां च दृष्ट्वा दिवौकसः।     विस्मयं परमं जग्मुस्तमेव दिवि संस्तुवन्।29।
      धर्मेण लब्ध्वा तां भार्यामृचीको द्विजसत्तमः।यथाकामं यथाजोषं तया रेमे सुमध्यया ।30।        तं विवाहे कृतेराजन्सभार्यमवलोककः।      आजगाम भृगुश्रेष्ठः पुत्रं दृष्ट्वा ननन्द च ।31
      भार्यापती तमासीनं भृगुं सुरगणार्चितम्।    अर्चित्वा पर्युपासीनौ प्राञ्जली तस्थतुस्तदा ।32। ततः स्नुषां स भगवान्प्रहृष्टो भृगुरब्रवीत्।       वरं वृणीष्वसुभगे दाता ह्यस्मितवेप्सितम्।33।सा वै प्रसादयाभास तं गुरुं पुत्रकारणात्।आत्मनश्चैव मातुश्च प्रसादं च चकार सः ।34।                          "भृगुरुवाच".                          ऋतौ त्वं चैव माता च स्नाते पुंसवनाय वै।आलिङ्गेतां पृथग्वृक्षौ साऽस्वत्थं त्वमुदुम्बरम् ।35।चरुद्वयमिदं भद्रे जनन्याश्च तवैव च।विश्वमावर्तयित्वा तु मया यत्नेन साधितम् ।36।प्राशितव्यं प्रयत्नेन तेत्युक्त्वाऽदर्शनं गतः।आलिङ्गने चरौ चैव चक्रतुस्ते विपर्ययम् ।37।    ततः पुन स भगवान्काले बहुतिथे गते।     दिव्यज्ञानाद्विदित्वा तु भगवानागतः पुनः ।38।अथोवाच महातेजा भृगुःसत्यवतीं श्नुषाम्।39।
      उपयुक्तश्चरुर्भद्रे वृक्षे चालिङ्गनं कृतम्।             विपरीतेन ते सुभ्रूर्मात्रा चैवासि वञ्चिता ।40।
      क्षत्रियो ब्राह्मणाचारो मातुस्तव सुतो महान्।        भविष्यतिमहावीर्यःसाधूनां मार्गमास्थितः।41।
      ततः प्रसादयामास श्वशुरं सा पुनःपुनः।            न मे पुत्रो भवेदीदृक्कामं पौत्रो भवेदिति ।42।
      एवमस्त्विति सा तेनपाण्डव प्रतिनन्दिता।       कालं प्रतीक्षती गर्भं धारयामास यत्नतः।43।
      जमदग्निं ततः पुत्रं जज्ञे सा काल आगते।        तेजसा वर्चसा चैव युक्तं भार्गवनन्दनम् ।44।
      स वर्धमानस्तेजस्वी वेदस्याध्ययनेन च। बहूनृषीन्महातेजाः पाण्डवेयात्यवर्तत ।45।
      तं तु कृत्स्नो धनुर्वेदः प्रत्यभाद्भरतर्षभ। चतुर्विधानि चास्त्राणि भास्करोपमवर्चसम् ।46।  
             "इति श्रीमन्महाभारते           अरण्यपर्वणितीर्थयात्रापर्वणि      पञ्चादशाधिकशततमोऽध्यायः।115

      महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद देखे नीचें-
      अकृतव्रण के द्वारा युधिष्‍ठि‍र से परशुराम जी के उपाख्यान के प्रसंग में ऋचीक मुनि का गाधिकन्या के साथ विवाह और भृगु ऋषि‍ की कृपा से जमदग्नि की उत्पति का वर्णन ।।
      वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! उस पर्वत पर एक रात निवास करके भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने तपस्वी मुनियों का बहुत सत्कार किया। लोमश जी ने युधिष्ठिर से उन सभी तपस्वी महात्माओं का परिचय कराया।                    उनमें भृगु, अंगिरा, वसिष्ठ तथा कश्यप गोत्र के अनेक संत महात्मा थे। 
      उन सबसे मिलकर राजर्षि‍ युधिष्ठि‍र ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और परशुराम जी के सेवक वीरवर अकृतव्रण से पूछा- ‘भगवन परशुराम जी इन तपस्वी महात्माओं को कब दर्शन देंगे? उसी निमित्त से मैं भी उन भगवन भार्गव का दर्शन करना चाहता हूँ।'  अकृतव्रण ने कहा- राजन! आत्मज्ञानी परशुराम  को पहले ही यह ज्ञात हो गया था कि आप आ रहे हैं। आप पर उनका बहुत प्रेम है, अत: वे शीध्र ही आपको दर्शन देंगे। ये तपस्वी लोग प्रत्येक चतुर्दशी ओर अष्‍टमी को परशुराम जी का दर्शन करते हैं। आज की रात बीत जाने पर कल सबेरे चतुर्दशी हो जायेगी। युधिष्ठिर ने पूछा- मुने ! आप महाबली परशुराम जी के अनुगत भक्त हैं। उन्होंने पहले जो-जो कार्य किये हैं, उन सबको आपने प्रत्यक्ष देखा है। अत: हम आपसे जानना चाहते हैं कि परशुराम जी ने किस प्रकार ओर किस कारण से समस्त क्षत्रियों को युद्ध में पराजित किया था। आप वह वृत्तांत आज मुझे बताइये। अकृतव्रण ने कहा- भरतकुलभुषण नृपश्रेष्‍ट युधिष्ठिर! भृगुवंशी परशुराम जी की कथा बहुत बड़ी और उत्तम है, मैं आपसे उसका वर्णन करूँगा। भारत ! जमदग्रिकुमार परशुराम तथा हैहयराज कार्तवीर्य का चरित्र देवताओं के तुल्य है। पाण्डुनन्दन! परशुराम  ने अर्जुन नाम से प्रसिद्ध जिस हैहयराज कार्तवीर्य का वध किया था, उसके एक हजार भुजाएं थीं। पृथ्वीपते ! श्रीदत्तात्रेय  की कृपा से उसे एक सोने का विमान मिला था और भूतल के सभी प्राणीयों पर उसका प्रभुत्व था। महामना कार्तवीर्य के रथ की गति को कोई भी रोक नहीं सकता था। उस रथ और वर के प्रभाव से शक्ति सम्पन्न हुआ कार्तवीर्य अर्जुन सब ओर घूमकर सदा देवताओं, यक्षों तथा ऋषि‍यों को रौंदता फिरता था और सम्पूर्ण प्राणीयों को भी सब प्रकार से पीड़ा देता था।
      कार्तवीर्य का ऐसा अत्याचार देख देवता तथा महान व्रत का पालन करने वाले ऋषि‍ मिलकर दैत्यों का विनाश करने वाले सत्यपराक्रमी देवाधिदेव भगवान विष्णु के पास जा इस प्रकार बोले- ‘भगवन! आप समस्त प्राणीयों की रक्षा के लिए कृतवीर्यकुमार अर्जुन का वध कीजिये।‘ एक दिन शक्तिशाली हैहयराज ने दिव्य विमान द्वारा शची के साथ क्रीड़ा करते हुए देवराज इन्द्र पर आक्रमण किया। भारत! 
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      तब भगवान विष्‍णु ने कार्तवीर्य अर्जुन का नाश करने के सम्बंध में इन्द्र के साथ विचार-विनिमय किया।
      समस्त प्राणीयों के हित के लिये जो कार्य करना आवश्यक था, उसे देवेन्द्र ने बताया। तत्पश्चात विश्ववन्दित भगवान विष्‍णु ने वह सब कार्य करने की प्रतिज्ञा करके अत्यन्त रमणीय बदरीतीर्थ की यात्रा की जहाँ उनका विशाल आश्रम था।
      महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद
      इसी समय इस भूतल पर कान्यकुब्ज देश में एक महाबली महाराज शासन करते थे, जो गाधि के नाम से विख्यात थे। वे राजधानी छोड़कर वन में गये और वहीं रहने लगे। उनके वनवास काल में ही एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अप्सरा के समान सुन्दरी थी। भारत! विवाह योग्य होने पर भृगुपुत्र ऋचीक मुनि ने उसका वरण किया। उस समय राजा गाधि ने कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रह्मर्षि‍ ऋचीक से कहा- ‘दिजश्रेष्‍ठ! हमारे कुल में पूर्वजों ने जो कुछ शुल्क लेने का नियम चला रखा है, उसका पालन करना हम लोगों के लिए भी उचित है। अत: आप यह जान लें, इस कन्या के लिए एक सहस्र वेगशाली अश्व शुल्क रूप में देने पड़ेंगे, जिनके शरीर का रंग तो सफेद और पीला मिला हुआ-सा और कान एक ओर से काले रंग के हों। भृगुनन्दन! आप कोई निन्दनीय तो हैं नहीं, यह शुल्क चुका दीजिये, फिर आप जैसे महात्मा को में अवश्य अपनी कन्या ब्याह दूंगा’।
      ऋचीक बोले- राजन! मैं आपको एक ओर से श्याम कर्ण वाले पाण्डु रंग के वेगशाली अश्व एक हजार की संख्या में अर्पित करूँगा। आपकी पुत्री मेरी धर्मपत्नी बने।
      अकृतव्रण कहते हैं- राजन! इस प्रकार शुल्क देने की प्रतिज्ञा करके ऋचीक मुनि ने वरुण के पास जाकर कहा- देव! मुझे शुल्क में देने के लिए एक हजार ऐसे अश्व प्रदान करें, जिनके शरीर का रंग पाण्डुर और कान एक ओर से श्याम हों। साथ ही वे सभी अश्व तीव्रगामी होने चाहिये।‘ उस समय वरुण ने उनकी इच्छा के अनुसार एक हजार श्याम कर्ण के घोड़े दे दिये। जहाँ वे श्याम कर्ण के घोड़े प्रकट हुए थे, वह स्थान अश्वतीर्थ नाम से विख्यात हुआ। तत्पश्चात राजा गाधि ने शुल्क रूप में एक हजार श्याम कर्ण घोड़े प्राप्त करके गंगातट पर कान्यकुब्ज नगर में ऋचीक मुनि को अपनी पुत्री सत्यवती ब्याह दी। उस समय देवता बराती बने थे। देवता उन सबको देखकर वहाँ से चले गये।" विप्रवर ऋचीक ने धर्मपूर्वक सत्यवती को पत्नी के रूप में प्राप्त करके उस सुन्दरी के साथ अपनी इच्छा के अनुसार सुखपूर्वक रमण किया।
      राजन! विवाह करने के पश्चात पत्नी सहित ऋचीक को देखने के लिए महर्षि‍ भृगु उनके आश्रम पर आये अपने श्रेष्‍ठ पुत्र को विवाहित देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन दोनों पति-पत्नि ने पवित्र आसन पर विराजमान देववृन्दवन्दित गुरु (पिता एवं श्वसुर) का पूजन किया और उनकी उपासना में संलग्न हो वे हाथ जोड़े खड़े रहे। भगवान भृगु ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपनी पुत्रवधु से कहा- ‘सौभाग्यवती वधु ! कोई वर मांगो, मैं तुम्हारी इच्छा के अनुरूप वर प्रदान करूँगा’। सत्यवती ने श्वसुर को अपने और अपनी माता के लिये पुत्र-प्राप्ति का उद्देश्‍य रखकर प्रसन्न किया। तब भृगु जी ने उस पर कृपादृष्‍टि‍ की। भृगु जी बोले- 'वधु ! ऋतुकाल में स्नान करने के पश्चात तुम और तुम्हारी माता पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से दो भिन्न-भिन्न वृक्षों का आलिगंन करो। तुम्हारी माता पीपल का और तुम गूलर का आलिंगन करना।'
      महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद-
      'भद्रे ! मैंने विराट पुरुष परमात्मा का चिन्तन करके तुम्हारे और तुम्हारी माता के लिये यत्नपूर्वक दो चरु तैयार किये हैं। तुम दोनों प्रयन्तपूर्वक अपने-अपने चरु का भक्षण करना।' ऐसा कहकर भृगु अन्तर्धान हो गये। इधर सत्यवती और उसकी माता ने वृक्षों के आलिंगन और चरु-भक्षण में उलट-फेर कर दिया।
      तदनन्तर बहुत दिन बीतने पर भगवान भृगु अपनी दिव्य ज्ञानशक्ति से सब बातें जानकर पुन: वहाँ आये। उस समय महातेजस्वी भृगु अपनी पुत्रवधु सत्यवती से बोले- ‘भद्रे! तुमने चरु-भक्षण और वृक्षों का आलिगंन किया है, उसमें उलट-फेर करके तुम्हारी माता ने तुम्हें ठग लिया। सुभ्र ! इस भूल के कारण तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियोचित आचार-विचार वाला होगा और तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित आचार-विचार का पालन करने वाला होगा।
      वह पराक्रमी बालक साधु-महात्माओं के मार्ग का अवलम्बन करेगा’। तब सत्यवती ने बार-बार प्रार्थना करके पुन: अपने श्वसुर को प्रसन्न किया और कहा- ‘भगवन! मेरा पुत्र ऐसा न हो। भले ही, पौत्र क्षत्रिय स्वभाव का हो जाये’।
      पाण्डुनन्दन! तब ‘एवमस्तु’ कहकर भृगु  ने अपनी पुत्रवधु का अभिनन्दन किया। तत्पश्चात प्रसव का समय आने पर सत्यवती ने जमदग्नि नामक पुत्र को जन्म दिया। भार्गवनन्दन जमदग्रि तेज और ओज (बल) दोनों से सम्पन्न थे।
      युधिष्ठिर ! बड़े होने पर महातेजस्वी जमदग्रि मुनि‍ वेदाध्ययन द्वारा अन्य बहुत-से ऋषि‍यों से आगे बढ़ गये। भरतश्रेष्‍ठ ! सूर्य के समान तेजस्वी जमदग्रि की बुद्धि में सम्पूर्ण धनुर्वेद और चारों प्रकार के अस्त्र स्वत: स्फुरित हो गये।
      "इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान विषयक एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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                     "अकृतव्रण उवाच"
      स वेदाध्ययने युक्तो जमदग्निर्महातपाः।
      तपस्तेपे ततो देवान्नियमाद्वशमानयत् ।1।
      स प्रसेनजितं राजन्नधिगम्य नराधिपम्।
      रेणुकां वरयामास स च तस्मै ददौ नृपः।2।
      रेणुकां त्वथ संप्राप्य भार्यां भार्गवनन्दनः।
      आश्रमस्थस्तया सार्धं तपस्तेपेऽनुकूलया ।।3।
      तस्याः कुमाराश्चत्वारो जज्ञिरे रामपञ्चमाः।
      सर्वेषामजघन्यस्तु राम आसीञ्जघन्यजः ।4।
      फलाहारेषु सर्वेषु गतेष्वथ सुतेषु वै।
      रेणुका स्नातुमगमत्कदाचिन्नियतव्रता ।5।
      सा तु चित्ररथं नाम मार्तिकावतकं नृपम्।
      ददर्श रेणुका राजन्नागच्छन्ती यदृच्छया ।6।
      क्रीडन्तं सलिले दृष्ट्वा सभार्यं पद्ममालिनम्।
      ऋद्धिमन्तं ततस्तस्य स्पृहयामास रेणुका ।7।
      व्यभिचाराच्च तस्मात्सा क्लिन्नाम्भसि विचेतना।
      अन्तरिक्षान्निपतिता नर्मदायां महाह्रदे ।8।
      उतीर्य चापि सा यत्नाज्जगाम भरतर्षभ'।
      प्रविवेशाश्रमं त्रस्ता तां वै भर्तान्वबुध्यत ।9।
      स तां दृष्ट्वाच्युतांधैर्याद्ब्राह्म्या लक्ष्म्या विवर्जिताम्।
      श्रिक्‌शब्देन महातेजा गर्हयामास वीर्यवान्।10।
      ततो ज्येष्ठो जामदग्न्यो रुमण्वान्नाम नामतः।
      आजगाम सुषेणश्च वसुर्विश्वावसुस्तथा ।11।
      तानानुपूर्व्याद्भगवान्वधे मातुरचोदयत्।
      न च ते जातसंमोहाः किंचिदूचुर्विचेतसः ।12।
      ततः शशाप तान्क्रोधात्ते शप्ताश्चैतनां जहुः।
      मृगपक्षिसधर्माणः क्षिप्रमासञ्जडोपमाः ।13।
      ततो रामोऽभ्ययात्पश्चादाश्रमं परवीरहा।
      तमुवाच महामन्युर्जमदग्निर्महातपाः ।14।
      जहीमां मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृथाः।
      तत आदाय परशुं रामो मातु शिरोऽहरत् ।15।
      ततस्तस्य महाराज जमदग्नेर्महात्मनः।
      कोपोऽभ्यगच्छत्सहसा प्रसन्नश्चाब्रवीदिदम् ।16।
      ममेदं वचनात्तात कृतं ते कर्म दुष्करम्।
      वृणीष्व कामान्धर्मज्ञ यावतो वाञ्छसे हृदा ।17।
      स वव्रे मातुरुत्थानमस्मृतिं च वधस्य वै।
      पापेन तेन चास्पर्शं भ्रातॄणां प्रकृतिं तथा ।18।
      अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे दीर्घमायुश्च भारत।
      ददौ च सर्वान्कामांस्ताञ्जमदग्निर्महातपाः।19।
      कदाचित्तु तथैवास्य विनिष्क्रान्ताः सुताः प्रभो।
      अथानूपपतिर्वीरः कार्तवीर्योऽभ्यवर्तत ।20।
      तमाश्रमपदं प्राप्तमृषिरर्ध्यात्समार्चयत्।
      स युद्धमदसंमत्तो नाभ्यनन्दत्तथाऽर्चनम् ।21।
      प्रमथ्य चाश्रमात्तस्माद्धोमधेनोस्ततोबलात्।
      जहार वत्सं क्रोशन्त्या बभञ्ज च महाद्रुमान् 22।
      आगताय च रामाय तदाचष्ट पिता स्वयम्।
      गां च रोरुदतीं दृष्ट्वा कोपो रामं समाविशत्।
      स मन्युवशमापन्नः कार्तवीर्यमुपाद्रवत् ।23।
      तस्याथ युधि विक्रम्य भार्गवः परवीरहा।
      चिच्छेद निशितैर्भल्लैर्बाहून्परिघसंनिभान् ।24।
      सहस्रसंमितान्राजन्प्रगृह्य रुचिरं धनुः।
      अभिभूतः स रामेण संयुक्तः कालधर्मणा ।25।
      अर्जुनस्याथ दायादा रामेण कृतमन्यवः।
      आश्रमस्थं विना रामं जमदग्निमुपाद्रवन् ।26।
      ते तं जघ्नुर्महावीर्यमयुध्यन्तं तपस्विनम्।
      असकृद्रामरामेति विक्रोशन्तमनाथवत् ।27।
      कार्तवीर्यस्य पुत्रास्तु जमदग्निं युधिष्ठिर।
      घातयित्वा शरैर्जग्मुर्यथागतमरिंदमाः ।28।
      अपक्रान्तेषु वै तेषु जमदग्नौ तथा गते।
      समित्पाणिरुपागच्छदाश्रमं भृगुनन्दनः ।29।
      स दृष्ट्वा पितरं वीरस्तदा मृत्युवशं गतम्।
      अनर्हं तं तथाभूतं विललाप सुदुःखितः।30।
      इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
      तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ।117।
      यहाँ कुछ प्रतियों में ‘देवान् कर्मकारक द्वितीया विभक्ति बहुवचन’ की जगह ‘वेदान्पाकर्मकारक द्वितीया विभक्ति बहुवचन’ पाठ मिलता है। उस दशा में यह अर्थ होगा कि ‘वेदों को वश में कर लिया। परंतु वेदों को वश में करने की बात असंगत-सी लगती है।
       देवताओं को वश में करना ही सुसंगत जान पड़ता है, इसलिये हमने ‘देवान्’ यही पाठ रखा है। काश्मीर की देवनागरी लिपि वाली हस्त लिखित पुस्तक में यहाँ तीन श्लोक अधिक मिलते हैं। उनसे भी ‘देवान्’ पाठ का ही समर्थन होता है। वे श्लोक इस प्रकार हैं-
      तं तप्यमानं ब्रह्मर्षिमूचुर्देवा: सबांधवा:।
      किमर्थ तप्य से ब्रह्मन क: काम: प्रार्थितस्तव॥१।
      एवमुक्त: प्रत्युवाच देवान्‌ ब्रह्मर्षिसत्तम:।
      स्वर्गहेतोस्तपस्तप्ये लोकाश्व स्युर्ममाक्षया:॥२।
      तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य तदा देवास्तमूचिरे।
      नासंततेर्भवेल्लोक: कृत्वा धर्मशतान्यपि॥३।
      स श्रुत्वा वचनं तेषां त्रिदशानां कुरूद्वह॥
      इन श्लोकों द्वारा देवताओं के प्रकट होकर वरदान देने का प्रसंग सूचित होता है, अत: 'ततो देवान्‌ नियनाद्‌ वशमानयत्‌' वही पाठ ठीक है।
       (सन्दर्भ- गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)
                        महाभारत: वनपर्व:  सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद पिता की आज्ञा से परशुराम जी का अपनी माता का मस्तक काटना और उन्हीं के वरदान से पुन: जिलाना, परशुराम जी द्वारा कार्तवीर्य अर्जुन का वध और उसके पुत्रों द्वारा जमदग्नि मुनि की हत्या अकृतव्रण कहते हैं- राजन! महातपस्वी जमदग्नि ने वेदाध्ययन में तत्पर होकर तपस्या आरम्भ की। तदनन्तर शौच-संतोषदि नियमों का पालन करते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं को अपने वश में कर लिया।
      युधिष्ठिर ! फिर राजा प्रसेनजित के पास जाकर जमदग्नि मुनि ने उनकी पुत्री रेणुका के लिए याचना की ओर राजा ने मुनि को अपनी कन्या ब्याह दी। भृगुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले जमदग्नि राजकुमारी रेणुका को पत्नी रूप में पाकर आश्रम पर ही रहते हुए उसके साथ तपस्या करने लगे। रेणुका सदा सब प्रकार से पति के अनुकूल चलने वाली स्त्री थी। उसके गर्भ से क्रमश: चार पुत्र हुए, फिर पांचवें पुत्र परशुराम जी का जन्म हुआ। अवस्था की दृष्‍टि‍ से भाइयों में छोटे होने पर भी वे गुणों में उन सबसे बढ़े-चढ़े थे। एक दिन जब सब पुत्र फल लाने के लिये वन में चले गये, तब नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली रेणुका स्नान करने के लिए नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था। उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की। 
      उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये। उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि‍ ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की। इसी समय जमदग्नि के ज्येष्‍ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुशेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे। भगवान जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो', परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि‍ ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया। शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षि‍यों के समान जड़-बुद्धि हो गये।
      महाभारत: वनपर्व: अध्‍याय: ११६ वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
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      तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये।उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापीनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला। महाराज! इससे महात्मा जमदग्नि का क्रोध सहसा शान्त हो गया और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- ‘तात ! तुमने मेरे कहने पर वह कार्य किया है, जिसे करना दूसरों के लिये बहुत कठिन है। तुम धर्म के ज्ञाता हो। तुम्हारे मन में जो-जो कामनाऐं हों, उन सबको मांग लो।‘ तब परशुराम ने कहा-‘पिताजी, मेरी माता जीवित हो उठें, उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की बात याद न रहे, वह मानस पाप उनका स्पर्श न कर सके, मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जायें, युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न हो और मैं बड़ी आयु प्राप्त करूँ।‘ भारत ! महातेजस्वी जमदग्नि ने वरदान देकर उनकी वे सभी कामनाएं पूर्ण कर दीं । युधिष्ठिर ! एक दिन इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गये हुए थे। उसी समय (अनूपदेश) का वीर कार्तवीर्य अर्जुन उधर आ निकला। आश्रम में आने पर ऋषि‍-पत्नी रेणुका ने उसका यथोचित आथित्य सत्कार किया। कार्तवीर्य अर्जुन युद्ध के मद से उन्मत्त हो रहा था। उसने उस सत्कार को आदरपूर्वक ग्रहण नहीं किया। उल्टे मुनि के आश्रम को तहस-नहस करके वहाँ से डकराती हुई होमधेनु के बछड़े को बलपूर्वक हर लिया और आश्रम के बड़े-बड़े वृक्षों को भी तोड़ डाला। जब परशुराम आश्रम में आये, तब स्वयं जमदग्नि ने उनसे सारी बातें कहीं। बारंबार डकराती हुई होम की धेनु पर उनकी दृष्‍टि‍ पड़ी। इससे वे अत्यन्त कुपित हो उठे और काल के वशीभूत हुए कार्तवीर्य अर्जुन पर धावा बोल दिया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले भृगुनन्दन परशुराम  ने अपना सुन्दर धनुष ले युद्ध में महान पराक्रम दिखाकर पैने बाणों द्वारा उसकी परिघ सदृश सहस्र भुजाओं को काट डाला। इस प्रकार परशुराम  से परास्त हो कार्तवीर्य अर्जुन काल के गाल में चला गया।  पिता के मारे जाने से अर्जुन के पुत्र परशुराम पर कुपित हो उठे और एक दिन परशुराम की अनुपस्थिति में जब आश्रम पर केवल जमदग्नि ही रह गये थे, वे उन्हीं पर चढ़ आये। यद्यपि जमदग्नि महान शक्तिशाली थे तो भी तपस्वी ब्राह्मण होने के कारण युद्ध में प्रवृत्त नहीं हुए। इस दशा में भी कार्तवीर्य के पुत्र उन पर प्रहार करने लगे। युधिष्ठि‍र! वे महर्षि‍ अनाथ की भाँति ‘राम! राम!‘ की रट लगा रहे थे, उसी अवस्था में कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों ने उन्हें बाणों से घायल करके मार डाला। इस प्रकार मुनि की हत्या करके वे शत्रुसंहारक क्षत्रिय जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। जमदग्नि के इस तरह मारे जाने के बाद वे कार्तवीर्यपुत्र भाग गये। तब भृगुनन्दन परशुराम  हाथों में समिधा लिये आश्रम में आये। वहाँ अपने पिता को इस प्रकार दुर्दशापूर्वक मरा देख उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। उनके पिता इस प्रकार मारे जाने के योग्‍य कदापि नहीं थे, परशुराम  उन्हें याद करके विलाप करने लगे।
      इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान में जमदग्निवध विषयक एकसौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
      इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
      तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।117।
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      प्रथम स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद-
      चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब विष्णु ने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की।
      जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया। 
      बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया। 
      चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है। 
      पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी। सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया।
      इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति को देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं। अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं।
      उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। 
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      उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा। 
      इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे।
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      शौनकादि ऋषियों ! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं। 
      जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। 
      भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय-रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है। प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है। 
      जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं- वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं।
      सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया। जैसा कि महाभारत में वर्णित है
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      शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
      त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।
      जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
      •-पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। 4।
      तदा निःक्षत्रिये लोकेभार्गवेण कृते सति।
      ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।
      •-उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 5।
      ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
      ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।6।
      •-वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे;।राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया।6।
      तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
      ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।
       •-ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से  हजारों वीर्यवान् क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। 7।
      कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये।
      एवं तद्ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः।8।
      •-पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया।8।
      जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
      चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः।9।
      •-तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। ये सब दीर्घजीवी धर्म पूर्वक बुढ़ापे को प्राप्त करते ।9।
      अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतौ तथा।
      तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि।10।
      •-उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नि समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।
      10।
      ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तत्तथा भरतर्षभ।
      ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः।11।
      •-भरतश्रेष्ठ! उस ऋतुकाल में स्त्रीसंभोग समय के अनुरूप धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।11।
      ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः।
      आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः।12।
      •-भूपाल! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।12।
      अथेमां सागरोपान्तां गां गजेन्द्रगताखिलाम्।
      अध्यतिष्ठत्पुनः क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम्।13।
      •-गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। 13।
      प्रशासति पुनःक्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्।
      ब्राह्मणाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम्।14।
      जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। 14।
      कामक्रोधोद्भवान्दोषान्निरस्य च नराधिपाः।
      धर्मेण दण्डं दण्डेषु प्रणयन्तोऽन्वपालयन्।15।
      •-उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। 15।
      तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः।
      स्वादु देशे च काले च ववर्षाप्याययन्प्रजाः।16।
      •-इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा। 
      उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। 16।
      न बाल एव म्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप।
      नचस्त्रियंप्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनाम्।17।
      •-राजन! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था।17।
      एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ।
      इयं सागरपर्यन्ता ससापूर्यत मेदिनी।18।
      •-ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी।। 18।
      ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः।
      साङ्गोपनिषदान्वेदान्विप्राश्चाधीयते तदा।19।
      •-क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। 19।
      महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उपपर्व का(64) वाँ अध्‍याय: 
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      अब प्रश्न यह भी उठता है  !
      कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं 
      कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
      कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह  वर्णन है ।
      देखें निम्न श्लोक -
      भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
      आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
      कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
      और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी  वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
      इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
      अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
      (महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
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      मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक
      यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28
      अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
      न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते 3/14
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      महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व  से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई  दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही है ।
      मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---
      कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? 
      किस सिद्धांत की अवहेलना करके  क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?
      तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
      ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।
      ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
      ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।।6।
      तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
      ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।
      पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। 
      उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 
      नर- शार्दूल ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; " राजन" उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी। श्लोक - (5-6-7)
      प्रधानता बीज की होती है नकि खेत की 
      क्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--
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      प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार रोहि-
      सम्पर्क सूत्र :- 8077160219
      महाभारत आदिपर्व  अंशावतरण नामक उपपर्व का  (चतुःषष्टितम )(64) अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद :-
      जिसमें ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समय के धार्मिक राज्य का वर्णन है।असुरों का जन्म और उनके भार से पीड़ित पृथ्वी का ब्रह्मा जी की शरण में जाना तथा ब्रह्मा जी का देवताओं को अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश का वर्णन है ।
      जनमेजय बोले- ब्रह्मन् ! आपने यहाँ जिन राजाओं के नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशों के नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओं का मैं भलि-भाँति परिचय सुनना चाहता हूँ। महाभाग! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वी पर जिस उद्देश्‍य की सिद्धि के लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत वर्णन कीजिये।
      वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! यह देवताओं का रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है। 
      स्वयंभू ब्रह्मा जी  को नमस्कार करके आज उसी रहस्य का तुमने वर्णन करूंगा। 
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      पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। 
      उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 
      नररत्न ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; ! राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों के द्वार गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी।तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। 
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      उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नी समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। 
      इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे। भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।
      भूपाल ! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।
      गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय ! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। 
      जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। 
      उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। 
      इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा। 
      उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। 
      राजन ! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ! ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। १- से १९ तक का अनुवाद
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      "अब प्रश्न यह उठता है;  कि जब धर्म शास्त्रों जैसे मनुस्मृति आदि स्मृतियों और महाभारत में भी विधान वर्णित है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती हैं उनमें दो पत्नीयों क्रमश: ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है वह वर्ण से ब्राह्मण ही होती है तो परशुराम द्वारा मारे गये क्षत्रियों की विधवाऐं जब ऋतुकाल में सन्तान की इच्छा से आयीं तो वे सन्तानें क्षत्रिय क्यों हुई उन्हें तो ब्राह्मण होना चाहिए जैसे की शास्त्रों का वर्ण-व्यवस्था के विषय में सिद्धान्त भी है । देखें निम्न सन्दर्भों में
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      "भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते । आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।
      (महाभारत -अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
      "अर्थ:- कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती है उनमें क्रमश ब्राह्मणी और क्षत्राणी से उत्पन्न सन्तान वर्ण से ब्राह्मण ही होती है और शेष दो पत्नीयों क्रमश: वैश्याणी और शूद्राणी से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण तत्व से रहित माता के वर्ण या जाति की जानी जाती हैं " 
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      महाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दान धर्म नामक उपपर्व-  
      अब प्रश्न यह भी उठता है कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं कि  जैसा कि मनुस्मृति आदि में और  इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक(अड़तालीसवाँ अध्याय) में वर्णन है ।
      जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी नाईं उत्पन्न होता है उसी तरह अनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।(मनुस्मृति)
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      तिस्र:क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
      हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
      अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का होता है । तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
      (महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
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      ये श्लोक महाभारत के आदिपर्व के हैं ये क्या यह दावा कर सकते हैं कि ब्राह्मणों से क्षत्रियों की पत्नीयों में  क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? किस सिद्धांत के अनुसार  क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य है ?
      तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
      ब्राह्मणान्क्षत्रिया राजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।-5।
      ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
      ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा। 6।
      तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
      ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।।-7।
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      मनुस्‍मृति का सबसे ज्‍यादा आपत्तिजनक अध्याय
      मनुस्‍मृति का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसके अध्याय 10 के श्‍लोक संख्‍या 11 से 50 के बीच समस्‍त द्विज को छोड़कर समस्‍त हिन्‍दू जाति को नाजायज संतान बताया गया है। मनुस्मृति के अनुसार नाजायज जाति दो प्रकार की होती है।
      अनुलोम संतान – उच्‍च वर्णीय पुरूष का निम्‍न वर्णीय महिला से संभोग होने पर उत्‍पन्‍न संतान
      प्रतिलाेम संतान – उच्‍च वर्णीय महिला का निम्‍न वर्णीय पुरूष से संभोग होने पर उत्‍पन्‍न संतान
      मनुस्‍मति के अनुसार कुछ जाति की उत्‍पत्ति आप इस तालिका से समझ सकते हैं।
      पुरुष की जाति महिला की जाति संतान की जाति-
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      ब्राह्मण -क्षत्रिय- मुर्धवस्तिका१
      क्षत्रिय-वैश्‍य-माहिष्य २
      वैश्‍य- शूद्र -कायस्‍थ ३
      ब्राह्मण -वैश्‍य -अम्‍बष्‍ठ ४
      क्षत्रिय- ब्राह्मण -सूत ५
      वैश्‍य -क्षत्रिय -मगध ६
      शूद्र -क्षत्रिय -छत्‍ता ७
      वैश्‍य -ब्राह्मण -वैदह ८
      शूद्र -ब्राह्मण -चाण्‍डाल९
      निषाद -शूद्र -पुक्‍कस१०
      शूद्र -निषाद -कुक्‍कट११
      छत्‍ता -उग्र- श्‍वपाक१२
      वैदह -अम्‍बष्‍ठ -वेण१३
      ब्राह्मण -उग्र -आवृत१४
      ब्राह्मण- अम्‍बष्‍ठ-
      आभीर १५
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      वैश्य-  व्रात्य- सात्वत १६
      क्षत्र- करणी  राजपूत १७
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      क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
      राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।  (ब्रह्मवैवर्तपुराण - ब्रह्मखण्ड1.10.110) 
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      जो राजपूत स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं शास्त्रों में उन्हें भी वर्णसंकर और शूद्र धर्मी कहा है ।
      विशेष– यद्यपि सात्वत आभीर ही थे जो यदुवंश से सम्बन्धित थे। परन्तु मूर्खता की हद नहीं इन्हें भी वर्णसंकर बना दिया।
      इसी प्रकार औशनस एवं शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में भी जाति की उत्‍पत्ति का यही आधार बताया गया है जिसमें चामार, ताम्रकार, सोनार, कुम्‍हार, नाई, दर्जी, बढई धीवर एवं तेली शामिल है। 
      ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः।10/15 मनुस्मृति अध्याय १०)
      अर्थ- ब्राह्मण से उग्र जाति की कन्या में आवृत उत्पन्न होता है। और आभीर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न होता है और आयोगव्या में ब्राह्मण से धिग्वण उत्पन्न होता है ।
      विदित हो की भागवत धर्म के सूत्रधार सात्ववत जो  यदु के पुत्र माधव के पुत्र सत्वत् (सत्त्व) की सन्तान थे जिन्हें 
      इतिहास में आभीर रूप में भी जाना गया ये सभी वृष्णि कुल से सम्बन्धित रहे जैसा की नन्द को गर्ग सहिता में आभीर रूप में सम्बोधित किया गया है ।
      "क्रोष्टा के कुल  में आगे चलकर सात्वत का जन्म हुआ। उनके सात पुत्र थे उनमे से एक का नाम वृष्णि था। वृष्णि से  वृष्णिकुल  चला इस कुल में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुये।
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      "आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रःप्रकीर्तितः ॥
      वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रपः॥१४॥
      गर्गसंहिता -खण्डः ७ (विश्वजित्खण्डः)-अध्यायः ७
      इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गुर्जरराष्ट्राचेदिदेशगमनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
      ___________
      नारद और बहुलाक्ष(मिथिला) के राजा में संवाद चलता है तब नारद बहुलाक्ष से  शिशुपाल और उद्धव के संवाद का वर्णन करते हैं 
      अर्थात् यहाँ संवाद में ही संवाद है। 👇
      तथा द्वारिका खण्ड में यदुवंश के गोलों को आभीर कहा है।
      गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु- माता द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है !
      ऐसा वर्णन है
      यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे।         गुरुमातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः।।१६।।
      अर्थ:- दमघोष पुत्र  शिशुपाल  उद्धव जी से कहता हैं कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है । उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज (त्रप) नहीं आती है। और जब वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी तब भी आभीर जाति उपस्थित थी। -वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू तथा कहीं यादवी भी कहा है ।
      ★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड  में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है।  क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
      प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया - परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी  अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा ! तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया ! यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों  ,विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्द में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।
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      विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्रनाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा  कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम में गायत्री को "यादवी, "माधवी और "गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक साक्ष्य व सन्दर्भ हैं ।
      'यादव 'गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है ___________________
      सात्वतों को शूद्र व वर्णसंकर बनाने के लिए शास्त्रों में प्रक्षिप्त श्लोकों को समाविष्ट किया गया।
      वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च।    कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च।10/23 (मनुस्मृति अध्याय १०)
      अर्थ- वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष (करूष देश का निवासी तथा एक वर्णसंकर जाति जिसका पिता व्रात्य वैश्य और माता वैश्यवर्ण हो) " विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
      वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न व्रती पुत्र को सुधन्वाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।
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      विशेष-वह जिसके दस संस्कार न हुए हों। संस्कार-हीन। अथर्ववेद में मगध के निवासियों को व्रात्य कहा गाय हो तथा हिन्दुसभ्यता, पृष्ठ ९६। वह जिसका उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो। विशेष—ऐसा मनुष्य पतित और अनार्य समझा जाता है और उसे वैदिक कृत्य आदि करने का अधिकार नहीं होता। शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति के लिये प्रायाश्चित्त का विधान किया गया है। 
      प्राचीन वैदिक काल में 'व्रात्य' शब्द प्रायः परब्रह्म का वाचक माना जाता था; और अथर्ववेद में 'व्रात्य' की बहुत अधिक माहिमा कही गई है। उसमें वह वैदिक कार्यो का अधिकारी, देवप्रिय, ब्राह्मणों और क्षत्रियों का पूज्य, यहाँ तक की स्वयं देवाधिदेव कहा गया है।
      परंतु परवर्ती काल में यह शब्द संस्कारभ्रष्ट, पतित और निकृष्ट व्यक्ति का वाचक हो गया है।  
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      जबकि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में सात्वत -यदु के पुत्र माधव के 'सत्त्व' नामक पुत्र की सन्तानें थी  अर्थात यदु के प्रपौत्र थे सात्वत लोग-।
      स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।          त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।36।।
      बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
      सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।    येन भैमा:सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।
      राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति। शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।39।।
      तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।    निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
      भावार्थ-
      जब वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये। तब माधव का पराक्रमी पुत्र "सत्त्व" नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्व(सत) राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे।
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      सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।
      सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है।
      जब राजा भीम आनर्त देश ( द्वारिका - वर्तमान गुजरात)के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे।
      अत: इसके अतिरिक्त भी गायत्री वेदों की जब अधिष्ठात्री देवी है और ब्रह्मा की पत्‍नी रूप में वेद शक्ति है।
      तो आभीर लोग ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में कैसे उत्पन्न हो गये ?
      वास्तव में अहीरों को मनुस्मृति कार ने वर्णसंकर इसी लिए वर्णित किया ताकि इन्हें हेय सिद्ध करके वर्णसंकर बनाकर इन पर शासन  किया जा सके।

      विशेष-(मत्स्य पुराण- अध्याय १२)
      धृतकेतुश्चित्रनाथो रणधृष्टश्च वीर्य्यवान्।
      आनर्तो नाम शर्यातेः सुकन्याचैव दारिका।२१।
      आनर्तस्याभवत्पुत्रो रोचमानः प्रतापवान्।
      आनर्तो नाम देशोऽभून्नगरीच कुशस्थली।२२।
      रोचमानस्य पुत्रोऽभूदेवो रैवत एव च।
      ककुद्मीचापरान्नाम ज्येष्ठः पुत्रशतस्य च।२३।
      रेवती तस्य सा कन्या भार्या रामस्य विश्रुता।
      करूषस्य तु कारूषा बहवः प्रथिता भुवि।२४।
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      सहस्रबाहु और परशुराम की कथा-
      कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु कहलाते थे। श्री श्रीराम साठे ने लिखा है कि हैहयवंशी राजा दुर्दम से लेकर सहस्त्रार्जुन  हैहय लोग काठियावाड  से काशी तक के प्रदेश में उदण्ड  बनकर रहते थे।
      राजा दुर्दम के समय से ही उनका अपने भार्गव पुरोहितों से किसी कारण झगड़ा हुआ। 
      इन पुरोहितों में से एक की पत्नी ने विन्ध्यवन में और्व को जन्म दिया। 
      और्व का वंश इस प्रकार चला - और्व --> ऋचिक --> जमदग्नि --> परशुराम। कार्तवीर्य अर्जुन ने इन्ही जमदग्नि की हत्या कर दी थी।
      तब जामदग्न्य परशुराम के नेतृत्व में वशिष्ठ और भार्गव पुरोहितों ने इक्कीस बार हैहयों को पराजित किया। अंततः सहस्त्रार्जुन की मृत्यु हुई। 
      प्राचीन भारतीय इतिहास का यह प्रथम महायुद्ध था। श्री साठे ने ही लिखा है कि परशुराम का समय महाभारत युद्ध के पूर्व 17 वीं पीढ़ी का है।
      धरती को क्षत्रियविहीन करने के संकल्प के साथ परशुराम के लगातार 21 आक्रमणों से भयत्रस्त होकर अनेक क्षत्रिय पुरुष व स्त्रियाँ यत्र-तत्र छिप कर रहने लगी थी।                  
                      मनुस्मृति में लिखा है -
      कोचिद्याता मरूस्थल्यां सिन्धुतीरे परंगता।  
      महेन्द्रादि रमणकं देशं चानु गता परे ।1।।
      यथ दक्षिणतोभूत्वा विन्ध्य मुल्लंघ्यं सत्वरं।  
      ययो रमणकं देशं तत्रव्या क्षत्रिया अपि  ।।2।।
      सूर्यवंश्या भयो दिव्यानास्तं दृष्टवाभ्यवदन्मिथः।
      समा यातो यमधुनां जीवननः कथं भवेत् ।3।
      समेव्य निश्चितं सर्वैर्जीवनं वैश्य धर्मतः। 
       इत्यापणेसु राजन्यास्ते चक्रु क्रय विक्रयम।4।
      अर्थात, "कोई मरुस्थली में, कोई समुद्र के किनारे गए। कोई महेन्द्र पर्वत पर और कोई रमणक देश में पहुँचे, तब वहाँ के सूर्यवंशी क्षत्रिय भय से व्याकुल होकर बोले कि अब यहाँ भी परशुराम आ गए, अब हमारा जीवन कैसे बचेगा ? तब सबों ने घबरा कर तत्काल क्षत्रिय धर्म को छोड़ कर अन्य वैश्य वृत्तियों का अवलंबन किया। "
      परशुराम के भय के कारण क्षत्रियों के पतन का विवरण महाभारत में भी उपलब्ध है -
      जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।
      अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषित:।63।"
      परशुराम, एक-एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकी थी।
                           -पृथिव्युवाच -
      सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपुङ्गवाः।
      हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।48।
      पृथ्वी बोली - ब्रह्मन! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियपुंगव छिपा रखे हैं।  मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए हैं, जो मेरी रक्षा कर सकते हैं।
      अस्ति पौरवदायादो विदूरथसुतः प्रभो।
      ऋक्षैः संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्यथ पर्वते।82l

      (बम्बई संस्करण)
      - प्रभो ! उनके अलावा पुरुवंशी विदुरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान पर्वत पर रीक्षों ने पालकर बड़ा किया है।
      "तथानुकम्पमानेन यज्वनाथमितौजसा।76। पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः। 
      सर्वकर्माणिकुरुतेशूद्रवततस्य स द्विजः।77। 
      सर्वकर्मेत्यभिख्यातःस मांरक्षतुपार्थिवः।77 1/2। (गीताप्रेस संस्करण)
       -इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रवत सब कर्म करता है, इसलिए 'सर्वकर्मा' नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करें।
      "वृह्द्रथों महातेजा भूरिभूतिपरिष्कृतः । गोलांगूलैर्महाभागो गृध्रकूटे अभिरक्षितः।81
      - महातेजस्वी वृहद्रथ महान ऐश्वर्य से संपन्न हैं।  उन्हें गृध्रकूट पर्वत पर गोलांगूलों ने बचाया था।
      मरुत्तस्यान्ववाये च रक्षिता: क्षत्रियात्मजा:। मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिता:।82।
        -राजा मरुत के वंश के भी कई बालक सुरक्षित हैं, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है | उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है|
      एते क्षत्रियदायादास्तत्र तत्र परिश्रुता:।द्योकारहेमकारादिजातिं नित्यं  समाश्रिता:।83 1/2।।
      ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात हैं। वे शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते हैं|
      महाभारत के उसी प्रसंग  में यह भी लिखा है की जब पृथ्वी ने कश्यपजी से राजाओं को बुलानो को कहा, तब -
      ततः पृथिव्या निर्दिष्टांस्तान्समानीय कश्यपः।
      अभ्यषिञ्चन्महीपालान्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान्।94।

       -अर्थात् तब पृथ्वी को बताये हुए पराक्रमी राजाओं को बुलाकर कश्यपजी ने उन महाबली राजाओं को फिर से राज्यों में अभिषिक्त किया।
      कर्म आधारित भारतीय संस्कृति की रचना होने के कारण सहज ही, क्रियालोप होने के आधार पर क्षत्रियों के पतन का उल्लेख मनुस्मृति में भी किया गया है -
      "शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातिय:। वृषलत्वं गता जाके ब्रह्मणादर्शनेन च ।
      पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविड़ा: काम्बोजा यवना: शका: पारदा: पह्लवाश्चीना: किरातादरदा: खशा:।"
      अर्थात्, "पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दारद और खश ये क्षत्रिय जातियाँ (उपनयनादि) क्रियालोप होने से एवं ब्राह्मण का दर्शन न होने के कारण (अध्ययन आदि के अभाव में) इस लोक में शूद्रत्व को प्राप्त होती हैं" - इससे क्षत्रियों के अधोपतन की बात सिद्ध होती है।
      यद्यपि असंख्य जनजातियों द्वारा स्वयं को क्षत्रिय घोषित किये जाने के प्रमाण मिलते हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा । परन्तु, अत्यंत कालातीत होने के बावजूद कतिपय जातियाँ अपने को 'हैहयवंशी' भी कहती हैं|
      डा. बी. पी. केसरी ने घासीराम कृत 'नागवंशावली झूमर' के अध्याय 4, पृष्ठ 82 से संदर्भित निम्न दोहे के अनुसार कोराम्बे (राँची) के रक्सेल राजाओं को हैहयवंशी कहा है   -
      _________________________________
      ब्रह्म वैवर्त पुराण( गणपति खण्ड) अध्याय ३५- श्लोक।६०।
      अधीतं विधिवद्दत्तं ब्राह्मणेभ्यो दिने दिने ।।
      जगते यशसा पूर्णमयशो वार्द्धके कथम् ।।६१ ।।
      दाता वरिष्ठो धर्म्मिष्ठो यशस्वी पुण्यवान्सुधीः ।।
      कार्त्तवीर्यार्जुनसमो न भूतो न भविष्यति ।६२।
      पुरातना वदन्तीति बन्दिनो धरणीतले ।।
      यो विख्यातः पुराणेषु तस्य दुष्कीर्त्तिरीदृशी । ६३ ।
      _________________________________
      (ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय ३६)
      "दृष्ट्वा तं योद्धुमायान्तं राजानश्च महारथाः।
      आययुः समरं कर्त्तुं कार्त्तवीर्य्यं निवार्य्य च। ११।।
      कान्यकुब्जाश्च शतशः सौराष्ट्राः शतशस्तथा ।।
      राष्ट्रीयाः शतशश्चैव वीरेन्द्राः शतशस्तथा ।१२।।
      "सौम्या वाङ्गाश्च शतशो महाराष्ट्रास्तथा दश ।।
      तथा गुर्जरजातीयाः कलिङ्गाः शतशस्तथा।१३।
      कृत्वा तु शरजालं च भृगुश्चिच्छेद तत्क्षणम्।
      तं छित्त्वाऽभ्युत्थितो रामो नीहारमिव भास्करः। १४।
      त्रिरात्रं युयुधे रामस्तैःसार्द्धं समराजिरे।
      द्वादशाक्षौहिणीं सेनां तथा चिच्छेद पर्शुना।१५।
      रम्भास्तम्भसमूह च यथा खड्गेन लीलया।
      छित्त्वा सेनां भूपवर्गं जघान शिवशूलतः।१६।
      "सर्वांस्तान्निहतान्दृष्ट्वा सूर्य्यवंशसमुद्भवः।
      आजगाम सुचन्द्रश्च लक्ष राजेन्द्रसंयुतः।१७ ।।
      द्वादशाक्षौहिणीभिश्च सेनाभिः सह संयुगे।
      कोपेन युयुधे रामं सिंहं सिंहो यथा रणे ।१८।
      भृगुः शङ्करशूलेन नृपलक्षं निहत्य च ।।
      द्वादशाक्षौहिणीं सेनामहन्वै पर्शुना बली ।१९।
      निहत्य सर्वाः सेनाश्च सुचन्द्रं युयुधे बली ।
      नागास्त्रं प्रेरयामास निहृतं तं भृगुः स्वयम् ।२०।
      _______________________________
      उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद ।
      पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः।
      क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः ।९।
      नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः।
      न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च।१०।
      चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।
      निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।११।
      चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।
      वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।
      चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।
      गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१३।
      माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः।
      निर्वापयामासराजा वैष्णवास्त्रेण लीलया।१४।
      ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।
      ब्रह्मास्त्रेणचशान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।१५।
      दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम्।
      जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।१६।
      शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
      प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
      पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
      मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।१८ ।
      पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः।
      आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।१९।
      शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया।
      ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया।२०।
      स्रोत-(ब्रह्मवैवर्तपुराण- गणपतिखण्ड अध्यायय-४०)
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      अनुवाद- व भावार्थः-
      हे नारद ! अनन्तर दोनों ओर के सैनिको में भयंकर युद्ध. आरम्भ हुआ जिसमें परशुराम के शिष्यगण और महावली भ्राता गण भगवान कार्तवीर्य से अतिपीडित एवं छिन्नभिन्न होकर भाग निकले ।९।
      राजा कार्तवीर्य के बाणजाल से आछन्न होने के कारण परशुराम अपनी सेना और राजा कार्तवीर्य की सेना को नही देख सके।१०।
      पश्चात परशुराम ने युद्ध में आग्नेय बाण का प्रयोग किया , जिसमें सब कुछ अग्निमय हो गया , राजा कार्तवीर्य ने वारुणबाण द्वारा उसे लीला की भाँति
      शान्त कर दिया ।११। परशुराम ने पर्वत-सर्प युक्त गांन्धर्व अस्त्र का प्रयोग किया जिसे कार्तवीर्य अर्जुन ने वायव्य बाण द्वारा समाप्त कर दिया ।१२। फिर परशुराम ने अनिवार्य एंव भयंकर नागास्त्र का प्रयोग किया , जिसे महाराजा  सहस्रबाहु ने गरुडास्त्र द्वारा बिना यत्न के ही नष्ट कर दिया ।१३।भृगु नन्दन परशुराम ने माहेश्वर अस्त्र का प्रयोग किया जिसे महाराजा ने वैष्णव अस्त्र द्वारा लीलापूर्बक समाप्त कर दिया ।१४। हे नारद !! अनन्तर परशुराम ने कार्तवीर्य के विनाशार्थ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया , कार्तवीर्य महाराजा ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर उस प्राणनाशक को भी युद्ध में शान्त कर दिया ।१५। तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था ।१६। परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा।१७।           हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये ।१८।

      विशेष  
      परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये ,उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
      नारायण की आज्ञा से  शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक परशुराम को पुन: जीवित कर दिया ।२०।
      कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति परशुरामचरितकथनम्। 1।
                         "वासुदेव उवाच!
      शृणु कौन्तेय रामस्य प्रभावो यो मया श्रुतः।
      महर्षीणां कथयतां कारणं तस्य जन्म च।।1।
      यथा च जामदग्न्येन कोटिशः क्षत्रिया हताः।
      उद्भूता राजवंशेषु ये भूयो भारते हताः।2।
      जह्नोरजस्तु तनयो बलाकाश्चस्तु तत्सुतः।
      कुशिको नाम धर्मज्ञस्तस्य पुत्रो महीपति।3।
      अग्र्यं तपः समातिष्ठत्सहस्राक्षसमो भुवि।
      पुत्रं लभेयमजितं त्रिलोकेश्वरमित्युत।4।
      तमुग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरंदरः।
      समर्थं पुत्रजनने स्वयमेवैत्य भारत।5।
      पुत्रत्वमगमद्राजंस्तस्य लोकेश्वरेश्वरः।
      गाधिर्नामाभवत्पुत्रः कौशिकः पाकशासनः।6।
      तस्य कन्याऽभवद्राजन्नाम्ना सत्यवती प्रभो।
      तां गाधिर्भृगुपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः।7।
      ततस्तया हि कौन्तेय भार्गवः कुरुनदनः।
      पुत्रार्थं श्रपयामास चरुं गाधेस्तथैव च।8।
      आहूय चाह तां भार्यामृचीको भार्गवस्तदा।
      उपयोज्यश्चरुरयं त्वया मात्राऽप्ययं तव।9।
      तस्या जनिष्यते पुत्रो दीप्तिमान्क्षत्रियर्षभः।
      अजय्यः क्षत्रियैर्लोके क्षत्रियर्षभसूदनः।10।
      तवापि पुत्रं कल्याणि धृतिमन्तं शमात्मकम्।
      तपोन्वितं द्विजश्रेष्ठं चरुरेष विधास्यति।11।
      इत्येवमुक्त्वा तां भार्यां सर्चीको भृगुनन्दनः।
      तपस्यभिरतः श्रीमाञ्जगामारण्यमेव हि।12।
      एतस्मिन्नेव काले तु तीर्थयात्रापरो नृपः।
      गाधिः सदारः संप्राप्त ऋचीकस्याश्रमं प्रति।13।
      चरुद्वयं गृहीत्वा तु राजन्सत्यवती तदा।
      भर्त्रा दत्तं प्रसन्नेन मात्रे हृष्टा न्यवेदयत्।।14।
      माता तु तस्याः कौन्तेय दुहित्रे स्वं चरुं ददौ।
      तस्याश्ररुमथाज्ञातमात्मसंस्थं चकार ह।15।
      अथ सत्यवती गर्भं क्षत्रियान्तकरं तदा।
      धारयामास दीप्तेन वपुषा घोरदर्शनम्।16।
      तामृचीकस्तदा दृष्ट्वा ध्यानयोगेन भारत।
      अब्रवीद्भृगुशार्दूलः स्वां भार्यां देवरूपिणीम्।17।
      मात्राऽसि व्यंसिता भद्रे चरुव्यत्यासहेतुना।
      तस्माज्जनिष्यते पुत्रः क्रूरकर्माऽत्यमर्षणः।
      `जनयिष्यति माता ते ब्रह्मभूतं तपोधनम्।18।
      विश्वं हि ब्रह्म सुमहच्चरौ तव समाहितम्।
      क्षत्रवीर्यं च सकलं तव मात्रे समर्पितम्।19।
      विपर्ययेण ते भद्रे नैतदेवं भविष्यति।
      मातुस्ते ब्राह्मणो भूयात्तव च क्षत्रियः सुतः।20।
      सैवमुक्ता महाभागा भर्त्रा सत्यवती तदा।
      पपात शिरसा तस्मै वेपन्ती चाब्रवीदिदम्।21।
      नार्होऽसि भगवन्नद्य वक्तुमेवंविधं वचः।
      ब्राह्मणापशदं पुत्रं प्राप्स्यसीति हि मां प्रभो।22।
                       ऋचीक उवाच!
      नैष संकल्पितः कामो मया भद्रे तथा त्वयि।
      उग्रकर्मा भवेत्पुत्रश्चरुव्यत्यासहेतुना।23।
                        "सत्यवत्युवाच!
      इच्छँल्लोकानपि मुने सृजेथाः किं पुनः सुतम्।
      शमात्मकमृजुं पुत्रं दातुमर्हसि मे प्रभो।24।
                       "ऋचीक उवाच!
      नोक्तपूर्वं मया भद्रे स्वैरेष्वप्यनृतं वचः।
      किमुताग्निं समाधाय मन्त्रवच्चरुसाधने।25।
      [दृष्टमेतत्पुरा भद्रे ज्ञातं च तपसा मया।
      ब्रह्मभूतं हि सकलं पितुस्तव कुलं भवेत्।26।
                       "सत्यवत्युवाच।
      काममेवं भवेत्पौत्रो मामैवं तनयः प्रभो।
      शमात्मकमृजुं पुत्रं लभेयं जपतां वर।27।
                      "ऋचीक उवाच।
      पुत्रे नास्ति विशेषो मे पौत्रे च वरवर्णिनि।
      यथा त्वयोक्तं वचनं तथा भद्रे भविष्यति।28।
                       "वासुदेव उवाच।
      ततः सत्यवती पुत्रं जनयामास भार्गवम्।
      तपस्यभिरतं शान्तं जमदग्निं यतव्रतम्।29।
      विश्वामित्रं च दायादं गाधिः कुशिकनन्दनः।
      प्राप ब्रह्मर्षिसमितं विश्वेन ब्रह्मणा युतम्।30।
      ऋचीको जनयामास जमदग्निं तपोनिधिम्।
      सोऽपि पुत्रं ह्यजनयज्जमदग्निः सुदारुणम्।31
      सर्वविद्यान्तगं श्रेष्ठं धनुर्वेदस्य पारगम्।
      रामं क्षत्रियहन्तारं प्रदीप्तमिव पावकम्।32।
      [तेषयित्वा महादेवं पर्वते गन्धमादने।
      अस्त्राणि वरयामास परशुं चातितेजसम्।33।
      स तेनाकुण्ठधारेण ज्वलितानलवर्चसा।
      कुठारेणाप्रमेयेण लोकेष्वप्रतिमोऽभवत्।34।
      एतस्मिन्नेव काले तु कृतवीर्यात्मजो बली।
      अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियो हैहयाधिपः।35।
      दत्तात्रेयप्रसादेन राजा बाहुसहस्रवान्।
      चक्रवर्ती महातेजा विप्राणामाश्वमेधिके।36।
      ददौ स पृथिवीं सर्वां सप्तद्वीपां सपर्वताम्।
      सबाह्वस्त्रबलेनाजौ जित्वा परमधर्मवित्।37।
      तृषितेन च कौन्तेय भिक्षितश्चित्रभानुना।
      सहस्त्रबाहुर्विक्रान्तः प्रादाद्भिक्षामथाग्नये।38।
      ग्रामान्पुराणि राष्ट्राणि घोषांश्चैव तु वीर्यवान्।
      जज्वाल तस्य वाणेद्धचित्रभानुर्दिधक्षय।39।
      स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेण महौजसः।
      ददाह कार्तवीर्यस्य शैलानपि धरामपि।40।
      सशून्यमाश्रमारण्यमापवस्य महात्मनः।
      ददाह पवनेनेद्धश्चित्रभानुः सहैहयः।41।
      आपवस्तं ततो रोषाच्छशापार्जुनमच्युत।
      दग्धे श्रमे महाबाहो कार्तवीर्येण वीर्यवान्।42।
      त्वया न वर्जितं यस्मान्ममेदं हि महद्वनम्।
      दग्धं तस्माद्रणे रामो बाहूंस्ते च्छेत्स्यतेऽर्जुन।43।
      अर्जुनस्तु महातेजा बली नित्यं शमात्मकः।
      ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत।
      नाचिन्तयत्तदा शापं तेन दत्तं महात्मना।44।
      तस्य पुत्राः सुबलिनः शापेनासन्पितुर्वधे।
      निमित्तमवलिप्ता वै नृशंसाश्चैव नित्यदा।45।
      जमदग्नेस्तु धेन्वास्ते वत्समानिन्युरच्युत।
      अज्ञातं कार्तवीर्यस्य हैहयेन्द्रस्य धीमतः।46।
      तन्निमित्तमभूद्युद्धं जामदग्नेर्महात्मनः।
      ततोऽर्जुनस्य बाहून्स चिच्छेद रुषितोऽनघ।47।
      तं भ्रमन्तं ततो वत्सं जामदग्न्यः स्वमाश्रमम्।
      प्रत्यानयत राजेन्द्र तेषामन्तः पुरात्प्रभुः।48।
      अर्जुनस्य सुतास्ते तु संभूयाबुद्धयस्तदा।
      गत्वाऽऽश्रममसंबुद्धा जमदग्नेर्महात्मनः।
      अपातयन्त भल्लाग्रैः शिरः कायान्नराधिपति।49।
      समित्कुशार्थं रामस्य निर्यातस्य यशस्विनः।
      प्रत्यक्षं राममातुश्च तथैवाश्रमवासिनाम्।50।
      श्रुत्वा रामस्तमर्थं च क्रुद्धः कालानलोपमः।
      धनुर्वेदेऽद्वितीयो हि दिव्यास्त्रैः समलंकृतः।51।
      चन्द्रबिम्बार्धसंकाशं परशुं गृह्य भार्गवः।
      ततः पितृवधामर्षाद्रामः परममन्युमान्।
      निःक्षत्रियां प्रतिश्रुत्य महीं शस्त्रमगृह्णत।52।
      ततः स भृगुशार्दूलः कार्तवीर्यस्य वीर्यवान्।
      विक्रम्य निजघानाशु पुत्रान्पौत्रांश्च सर्वशः।53।
      स हैहयसहस्राणि हत्वा परममन्युमान्।
      महीं सागरपर्यन्तां चकार रुधिरोक्षिताम्।।54।
      स तथा सुमहातेजाः कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्।
      कृपया परयाऽऽविष्टो वनमेव जगाम ह।।55।
      ततो वर्षसहस्रेषु समतीतेषु केषुचित्।
      कोपं संप्राप्तवांस्तत्र प्रकृत्या कोपनः प्रभुः।56।
      विश्वामित्रस्य पौत्रस्तु रैभ्यपुत्रो महातपाः।
      परावसुर्महाराजक्षिप्त्वाऽऽह जनसंसदि।57।
      ये ते ययातिपतने यज्ञे सन्तः समागताः।प्रतर्दनप्रभृतयो राम किं क्षत्रिया न ते।58।
      मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।
      भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
      सा पुनः क्षत्रियशतैः पृथिवी सर्वतः स्तृता।
      परावसोर्वचः श्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।60।
      ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः।
      ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।61।
      स पुनस्ताञ्जघानाशु बालानपि नराधिप।
      गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ता पुनरेवाभवत्तदा।62।
      जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।
      अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषितः।63।
      त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
      दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
      स क्षत्रियाणां शेषार्थं करेणोद्दिश्य कश्यपः।
      स्रुक्प्रग्रहवता राजंस्ततो वाक्यमथाब्रवीत्।65।
      गच्छ पारं समुद्रस्य दक्षिणस्य महामुने।
      न ते मद्विषये राम वस्तव्यमिह कर्हिचित्।66।
      पृथिवी दक्षिणा दत्ता वाजिमेधे मम त्वया।
      पुनरस्याः पृथिव्या हि दत्त्वा दातुमनीश्वरः।67।
      ततः शूर्पाकरं देशं सागरस्तस्य निर्ममे।
      संत्रासाज्जामदग्न्यस्य सोऽपरान्तमहीतलम्।68।
      कश्यपस्तां महाराज प्रतिगृह्य वसुंधराम्।
      कृत्वा ब्राह्मणसंस्थां वै प्रविष्टः सुमहद्वनम्।69।
      ततः शूद्राश्च वैश्याश्च यथा स्वैरप्रचारिणः।
      अवर्तन्त द्विजाग्र्याणां दारेषु भरतर्षभ।70।
      अराजके जीवलोके दुर्बला बलवत्तरैः।
      वध्यन्ते न हि वित्तेषु प्रभुत्वं कस्यचित्तदा।71।
      `ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शृद्राश्चोत्पथगामिनः।
      परस्परं समाश्रित्य घातयन्त्यपथस्थिताः।72।
      स्वधर्मं ब्राह्मणास्त्यक्त्वा पाषण्‍डत्वं समाश्रिताः।
      चौरिकानृतमायाश्च सर्वे चैव प्रकुर्वते।73।
      स्वधर्मस्थान्द्विजान्हत्वा तथाऽऽश्रमनिवासिनः।
      वैश्याः सत्पथसंस्थाश्च शूद्रा ये चैव धार्मिकाः।74।
      तान्सर्वान्घातयन्ति स्म दुराचाराः सुनिर्भयाः।
      यज्ञाध्ययनशीलांश्च आश्रमस्थांस्तपस्विनिः।75।
      गोबालवृद्धनारीणां नाशं कुर्वन्ति चापरे।
      आन्वीक्षकी त्रयी वार्ता न च नीतिः प्रवर्तते।76।
      व्रात्यतां समनुप्राप्ता बहवो हि द्विजातयः।
      अधरोत्तरापचारेण म्लेच्छभूताश्च सर्वशः।77।
      ततः कालेन पृथिवी पीड्यमाना दुरात्मभिः।
      विपर्ययेण तेनाशु प्रविवेश पसातलम्।
      अरक्ष्यमाणा विधिवत्क्षत्रियैर्धर्मरक्षिभिः।78।
      _________________
      तां दृष्ट्वा द्रवतीं तत्र संत्रासात्स महामनाः।
      ऊरुणा धारयामास कश्यपः पृथिवीं ततः।
      निमज्जन्तीं ततो राजंस्तेनोर्वीति मही स्मृता।79।
      रक्षणार्थं समुद्दिश्य ययाचे पृथिवी तदा।
      प्रसाद्य कश्यपं देवी क्षत्रियान्बाहुशालिनः।
      80।
                         "पृथिव्युवाच!
      सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपुङ्गवाः।
      हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।81।
      अस्ति पौरवदायादो विदूरथसुतः प्रभो।
      ऋक्षैः संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्यथ पर्वते।82।
      तथाऽनुकम्पमानेन यज्वनाथामितौजसा।
      पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः। 83।
      सर्वकर्माणि कुरुते शूद्रवत्तस्य स द्विजः।
      सर्वकर्मेत्यभिख्यातः स मां रक्षतु पार्थिवः।84।
      शिबिपुत्रो महातेजा गोपतिर्नाम नामतः।
      वने संवर्धितो गोभिः सोऽभिरक्षतु मां मुने।85।
      प्रतर्दनस्य पुत्रस्तु वत्सो नाम महाबलः।
      वत्सैः संवर्धितो गोष्ठे स मां रक्षतु पार्थिवः।86।
      दधिवाहनपुत्रस्तु पौत्रो दिविरथस्य च।
      अङ्गः स गौतमेनासीद्गङ्गाकूलेऽभिरक्षितः।87।
      बृहद्रथो महातेजा भूरिभूतिपरिष्कृतः।
      गोलाङ्गूलैर्महाभागो गृध्रकूटेऽभिरक्षितः।88।
      मरुत्तस्यान्ववाये च रक्षिताः क्षत्रियात्मजाः।
      मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिताः।89।
      एते क्षत्रियदायादास्तत्रतत्र परिश्रुताः।
      व्योकारहेमकारादिजातिं नित्यं समाश्रिताः।90।
      यदि मामभिरक्षन्ति ततः स्थास्यामि निश्चला।
      एतेषां पितरश्चैव तथैव च पितामहाः।91।
      मदर्थं निहता युद्धे रामेणाक्लिष्टकर्मणा।
      तेषामपचितिश्चैव मया कार्या महामुने।92।
      न ह्यहं कामये नित्यमतिक्रान्तेन रक्षणम्।
      वर्तमानेन वर्तेयं तत्क्षिप्रं संविधीयताम्।93।
      वासुदेव उवाच! ततः पृथिव्या निर्दिष्टांस्तान्समानीय कश्यपः।
      अभ्यषिञ्चन्महीपालान्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान्।94।
      तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च येषां वंशाः प्रतिष्ठिताः।
      एवमेतत्पुरावृत्तं यन्मां पृच्छसि पाण्‍डव।95।
                    वैशम्पायन उवाच!
      एवं ब्रुवंस्तं च यदुप्रवीरो युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठम्। रथेन तेनाशु ययौ यथाऽर्को
      विशन्प्रभाभिर्भगवांस्त्रिलोकीम्।96।
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      इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणिराजधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।48।                                                                  
      महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-16 अष्टचत्वारिंश(48)अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

      महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद-
      परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में राजा युधिष्ठिर का प्रश्न
      वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण, राजा युधिष्ठिर, कृपाचार्य आदि सब लोग तथा शेष चारों पाण्डव ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित एवं शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा संचालित नगराकार विशाल रथों से शीघ्रतापूर्वक कुरुक्षेत्र की ओर बढ़े। वे सब लोग केश, मज्जा और हड्डियों से भरे हुए करुक्षेत्र में उतरे, जहाँ महामनस्वी क्षत्रियवीरों ने अपने शरीर का त्याग किया था। वहाँ हाथियों और घोड़ों के शरीरों तथा हड्डियों के अनेकानेक पहाड़ों जैसे ढेर लगे हुए थे। सब ओर शंख के समान सफेद नरमुण्डों की खोपडि़याँ फैली हुई थीं। उस भूमि में सहस्रों चिताएँ जली थीं, कवच और अस्त्र-शस्त्रों से वह स्थान ढका हुआ था। देखने पर ऐसा जान पड़ता था, मानों वह काल के खान-पान की भूमि हो और काल ने वहाँ खान-पान करके उच्छिष्ट करके छोड़ दिया हो। जहाँ झुंड-के-झुंड भूत विचर रहे थे और राक्षसगण निवास करते थे, उस कुरुक्षेत्र को देखते हुए वे सभी महारथी शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में चलते-चलते ही महाबाहु भगवान् यादवनन्दन श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को जमदग्निकुमार परशुरामजी का पराक्रम सुनाने लगे-। ‘कुन्तीनन्दन ! ये जो पाँच सरोवर कुछ दूर से दिखायी देते हैं, ‘राम-ह्रद’ के नाम से प्रसिद्ध हैं इन्हीं में उन्होंने क्षत्रियों के रक्त से अपने पितरों का तर्पण किया था। ‘शक्तिशाली परशुरामजी इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य करके यहीं आने के पश्चात् अब उस कर्म से विरक्त हो गये हैं’। युधिष्ठिर ने पूछा - प्रभो ! आपने यह बताया है कि पहले परशुराम ने इक्कीस बार यह पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी थी, इस विषय में मुझे बहुत बड़ा संदेह हो गया है। अमित पराक्रमी यदुनाथ! जब परशुराम ने क्षत्रियों का बीज तक दग्ध कर दिया, तब फिर क्षत्रिय जाति की उत्पति कैसे हुई ? यदुपुगंव ! महात्मा भगवान् परशुराम ने क्षत्रियों का संहार किस लिये किया और उसके बाद इस जाति की वृद्धि कैसे हुई? वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! महारथयुद्ध के द्वारा जब करोड़ो क्षत्रिय मारे गये होंगे, उस समय उनकी लाशों से यह सारी पृथ्वी ढक गयी होगी। यदुसिंह! भृगुवंशी महात्मा परशुराम ने पूर्वकाल में कुरुक्षेत्र में यह क्षत्रियों का संहार किस लिये किया? गरुड़ध्वज श्रीकृष्ण! इन्द्र के छोटे भाई उपेन्द्र ! आप मेरे संदेह का निवारण कीजिये; क्योंकि कोई भी शास्त्र आपसे बढ़कर नहीं हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर गदाग्रज भगवान् श्रीकृष्ण ने अप्रतिम तेजस्वी युधिष्ठिर से वह सारा वृत्तांत यथार्थ रूप से कह सुनाया कि किस प्रकार यह सारी पृथ्वी क्षत्रियों की लाशों से ढक गयी थी।
      इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में परशुराम के उपाख्यान का आरम्भविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
      एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
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      महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद-
      परशुराम जी के उपाख्यान में क्षत्रियों के विनाश और पुनः उत्पन्न होने की कथा भगवान श्रीकृष्ण बोले-कुन्तीनन्दन! मैंने महर्षियो के मुख से परशुराम  के प्रभाव, पराक्रम तथा जन्म की कथा जिस प्रकार सुनी है, वह सब आपको बताता हूँ, सुनिये। जिस प्रकार जमदग्निन्दन परशुराम ने करोड़ों क्षत्रियों का संहार किया था, पुनः जो क्षत्रिय राजवंशों में उत्पन्न हुए, वे अब फिर भारतयुद्ध में मारे गये। प्राचीन काल में जह्नुनामक एक राजा हो गये हैं, उनके पुत्र का नाम था अज। पृथ्वीनाथ! अज से बलाकाश्व नामक पुत्र का जन्म हुआ। बलाकाश्व के कुशिक नामक पुत्र हुआ। कुशिक बड़े धर्मज्ञ थे। वे इस भूतल पर सहनेत्रधारी इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैं एक ऐसा पुत्र प्राप्त करूँ, जो तीनों लोकों का शासक होने के साथ ही किसी से पराजित न हो, उत्तम तपस्या आरम्भ की। उनकी भयंकर तपस्या देखकर और उन्हें शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करनें में समर्थ जानकर "लोकपालों के स्वामी सहस्र नेत्रों( हजार-आँख) वाले पाकशासन इन्द्र स्वयं ही उनके पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए। राजन् ! कुशिक का वह पुत्र गाधि नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रभो! गाधि के एक कन्या थी, जिसका नाम था सत्यवती। राजा गाधि ने अपनी इस कन्या का विवाह भृगुपुत्र ऋचीक के साथ कर दिया।कुरुनन्दन! सत्यवती बड़े शुद्ध आचार-विचार से रहती थी। उसकी शुद्धता से प्रसन्न हो ऋचीक मुनि ने उसे तथा राजा गाधि को भी पुत्र देने के लिये चरू तैयार किया।भृगुवंशी ऋचीक ने उस समय अपनी पत्नी सत्यवती को बुलाकर कहा- यह चरू तो तुम खा लेना और यह दूसरा अपनी माँ को खिला देना। तुम्हारी माता के जो पुत्र होगा, वह अत्यन्त तेजस्वी एवं क्षत्रियशिरोमणि होगा। इस जगत् के क्षत्रिय उसे जीत नहीं सकेंगे। 
      वह बडे-बडे क्षत्रियों का संहार करने वाला होगा। कल्याणि! तुम्हारे लिये जो यह चरू तैयार किया है, यह तुम्हें धैर्यवान, शान्त एवं तपस्यापरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण पुत्र प्रदान करेगा। अपनी पत्नी से ऐसा कहकर भृगुनन्दन श्रीमान् ऋचीक मुनि तपस्या में तत्पर हो जंगल में चले गये। इसी समय तीर्थयात्रा करते हुए राजा गाधि अपनी पत्नी के साथ ऋचीक के मुनि के आश्रम पर आये। राजन्! उस समय सत्यवती वह दोनों चरू लेकर शान्तभाव से माता के पास गयी और बड़े हर्ष के साथ पति की कही हुई बात को उससे निवेदित किया। कुन्तीकुमार ! सत्यवती की माता ने अज्ञानवश अपना चरू तो पुत्री को दे दिया और उसका चरू लेकर भोजन द्वारा अपने में स्थित कर लिया। तदनन्तर सत्यवती ने अपने तेजस्वी शरीर से एक ऐसा गर्भ धारण किया, जो क्षत्रियों का विनाश करने वाला था और देखने में बडा भयंकर जान पड़ता था। सत्यवती के गर्भपात बालक को देखकर भृगुश्रेष्ठ ऋचीक ने अपनी उस देवरूपिणी पत्नी से कहा- भद्रे! तुम्हारी माता ने चुरू बदलकर तुम्हें ठग लिया। तुम्हारा पुत्र अत्यन्त क्रोधी और क्रूरकर्म करने वाला होगा। परंतु तुम्हारा भाई ब्राह्मणस्वरूप एवं तपस्या परायण होगा। तुम्हारे चरू में मैने सम्पूर्ण महान् तेज ब्रह्म की प्रतिष्ठा की थी और तुम्हारी माता के लिये जो चरू था, उसमें सम्पूर्ण क्षत्रियोचित बल पराक्रम का समावेश किया गया था, परंतु कल्याणि। चरू के बदल देने से अब ऐसा नहीं होगा। तुम्हारी माता का पुत्र तो ब्राह्मण होगा और तुम्हारा क्षत्रिय।

      महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद-
      पति के ऐसा कहने पर महाभागा सत्यवती उनके चरणों में सिर रखकर गिर पड़ी और काँपती हुई बोली- प्रभो! भगवन् !आज आप मुझसे ऐसी बात न कहें कि तुम ब्राह्मणाधम पुत्र उत्पन्न करोगी। ऋचीक बोले- कल्याणि! मैंने यह सकंल्प नहीं किया था कि तुम्हारे गर्भ से ऐसा पुत्र उत्पन्न हो। परंतु चरू बदल जाने के कारण तुम्हें भयंकर कर्म करने वाले पुत्र को जन्म देना पड़ रहा है। सत्यवती बोली- मुने! आप चाहें तो सम्पूर्ण लोकों की नयी सृष्टि कर सकते है; फिर इच्छानुसार पुत्र उत्पन्न करने की तो बात ही क्या है? अतः प्रभो! मुझे तो शान्त एवं सरल स्वभाव वाला पुत्र ही प्रदान कीजिये। ऋचीक बोले - भद्रे! मैंने कभी हास-परिहास में भी झूठी बात नहीं कही है; फिर अग्नि की स्थापना करके मन्त्रयुक्त चरू तैयार करते समय मैंने जो संकल्प किया है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है? कल्याणि! मैंने तपस्या द्वारा पहले ही यह बात देख और जान ली है कि तुम्हारे पिता का समस्त कुल ब्राह्मण होगा। सत्यवती बोली - प्रभो! आप जप करने वाले ब्राह्मणों में सबसे श्रेष्ठ है, आपका और मेरा पौत्र भले ही उग्र स्वभाग हो जायः परंतु पुत्र तो मुझे शान्तस्वभाव का ही मिलना चाहिये।
      ऋचीक बोले -सुन्दरी !मेरे लिये पुत्र और पौत्र में कोई अन्तर नहीं है। भद्रे! तुमने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। श्रीकृष्ण बोले- राजन् !तदन्तर सत्यवती ने शान्त, संयमपरायण और तपस्वी भृगुवंशी जमदग्रि को पुत्र के रूप में उत्पन्न किया। कुशिकनन्दन गाधि ने विश्वामित्र नामक पुत्र प्राप्त किया, जो सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों से सम्पन्न थे" और ब्रह्मर्षि पदवी को प्राप्त हुए। ऋचीक ने तपस्या के भंडार जमदग्नि को जन्म दिया और जमदग्न ने अत्यन्त उग्र स्वभाव वाले जिस पुत्र को उत्पन्न किया, वहीं ये सम्पूर्ण विद्याओं तथा धनुर्वेद के पारंगत विद्वान प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी क्षत्रियहन्ता परशुराम है। परशुराम ने गन्धमादन पर्वत पर महादेव जी को संतुष्ट करके उनसे अनेक प्रकार के अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये। उस कुठार की धार कभी कुण्ठित नहीं होती थीं। वह जलती हुई आग के समान उद्दीप्त दिखायी देता था। उस अप्रमेय शक्तिशाली कुठार के कारण परशुराम सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिम वीर हो गये। इसी समय राजा कृतवीर्य का बलवान पुत्र अर्जुन हैहयवंश का राजा हुआ, जो एक तेजस्वी क्षत्रिय था। दत्तात्रेयजी की कृपा से राजा अर्जुन ने एक हजार भुजाएँ प्राप्त की थीं। वह महातेजस्वी चक्रवर्ती नरेश था। उस परम धर्मज्ञ नरेश ने अपने बाहुबल से पर्वतों और द्वीपों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को युद्ध में जीतकर अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दिया था।
      कुन्तीनन्दन! एक समय भूखे-प्यासे हुए अग्निदेव ने पराक्रमी सहस्रबाहु अर्जुन से भिक्षा माँगी और अर्जुन ने अग्नि को वह भिक्षा दे दी। तत्पश्चात् बलशाली अग्निदेव कार्तवीर्य अर्जुन के बाणों के अग्रभाग से गाँवों, गोष्ठों, नगरों और राष्ट्रों को भस्म कर डालने की इच्छा से प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने उस महापराक्रमी नरेश कार्तवीर्य के प्रभाव से पर्वतों और वनस्पतियों को जलाना आरम्भ किया। हवा का सहारा पाकर उत्तरोत्तर प्रज्वलित होते हुए अग्निदेव ने हैहयराज को साथ लेकर महात्मा आपव के सूने एवं सुरम्य आश्रम को जलाकर भस्म कर दिया।
      महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 श्लोक 42-65 एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

      महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 42-65 का हिन्दी अनुवाद-महाबाहु अच्युत! कार्तवीर्य के द्वारा अपने आश्रम को जला दिये जाने पर शक्तिशाली आपव मुनि को बड़ा रोष हुआ। उन्होंने कृतवीर्य पुत्र अर्जुन को शाप देते हुए कहा। अर्जुन! तुमने मेरे इस विशाल वन को भी जलाये बिना नहीं छोडा, इसलिये संग्राम में तुम्हारी इन भुजाओं को परशुराम  काट डालेंगे। भारत ! अर्जुन महातेजस्वी, बलवान, नित्य शान्ति परायण, ब्राह्मण भक्त शरणागतों को शरण देने वाला, दानी और शूरवीर था। अतः उसने उस समय उन महात्मा के दिये हुए शाप पर कोई ध्यान नहीं दिया। शापवश उसके बलवान पुत्र ही पिता के वध में कारण बन गये। भरतश्रेष्ठ !उस शाप के कारण सदा क्रूरकर्म करने वाले वे घमंडी राजकुमार एक दिन जमदग्नि मुनि की होमधेनु के बछडे को चुरा ले आये। उस बछडे के लाये जाने की बात बुद्धिमान हैहयराज कार्तवीर्य को मालूम नहीं थी, तथापि उसी के लिये महात्मा परशुराम का उसके साथ घोर युद्ध छिड गया। राजेन्द्र! तब रोष में भरे हुए प्रभावशालीजमदग्निनन्दन परशुराम ने अर्जुन की उन भुजाओं को काट डाला और इधर-उधर घूमते हुए उस बछडे को वे हैहयों के अन्तःपुर से निकालकर अपने आश्रम में ले आये। नरेश्वर! अर्जुन के पुत्र बुद्धिहीन और मुर्ख थे। उन्होंने संगठित हो महात्मा जगदग्नि के आश्रम पर जाकर भल्लों के अग्रभाग से उनके मस्तक को धड़ से काट गिराया। उस समय यशस्वी परशुराम समिधा और कुशा लाने के लिये आश्रम से दूर चले गये थे। पिता के इस प्रकार मारे जाने से परशुराम के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने इस पृथ्वी को क्षत्रियों से सूनी कर देने की भीष्म प्रतिज्ञा करके हथियार उठाया। भृगुकुल के सिंह पराक्रमी परशुराम ने सहस्रों हैहयों का वध करके इस पृथ्वी पर रक्त की कीच मचा दी। इस प्रकार शीघ्र ही पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन करके महातेजस्वी परशुराम अत्यन्त दया से द्रवित हो वन में ही चले गये। तदनन्तर कई हजार वर्ष बीत जाने पर एक दिन वहाँ स्वभावतः क्रोधी परशुराम पर आक्षेप किया गया। महाराज! विश्वामित्र के पौत्र तथा रैभ्य के पुत्र महातेजस्वी परावसु ने भरी सभा में आक्षेप करते हुए कहाराम! राजा ययाति के स्वर्ग से गिरने के समय जो प्रतर्दन आदि सज्जन पुरुष यज्ञ में एकत्र हुए थे, क्या वे क्षत्रिय नहीं थे ? तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी है। तुम व्यर्थ ही जनता की सभा में डींग हाँका करते हो कि मैंने क्षत्रियों का अन्त कर दिया। मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये है।राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। नरेश्वर! उन्होंने पुनः उन सबके छोटे छोटे बच्चों तक को शीघ्र ही मार डाला। जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुरामजी एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी। राजन्! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्त्रुक लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- महामुने! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
      ____  
      महाभारतशान्तिपर्व अध्याय49श्लोक66-89
      एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
      महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 66-89 का हिन्दी अनुवाद-
      (यह सुनकर परशुराम चले गये ) समुद्र ने सहसा जमदग्निकुमार परशुराम के लिये जगह ख़ाली करके शूर्पारक देश का निर्माण किया; जिसे अपरान्त भूमि भी कहते है। महाराज! कश्यप ने पृथ्वी को दान में लेकर उसे ब्राह्मणों के अधीन कर दिया और वे स्वयं विशाल वन के भीतर चले गये। भरतश्रेष्ठ ! फिरतो स्वेच्छाचारी वैश्य और शूद्र श्रेष्ठ द्विजों की स्त्रियों के साथ अनाचार करने लगे। सारे जीवनजगत में अराजकता फैल गयी। बलवान मनुष्य दुर्बलों को पीडा देने लगे। उस समय ब्राह्मणों में से किसी की प्रभुता कायम न रही। कालक्रम से दुरात्मा मनुष्य अपने अत्याचारों से पृथ्वी को पीडित करने लगे। इस उलट फेर से पृथ्वी शीघ्र ही रसातल में प्रवेश करने लगी; क्योंकि उस समय धर्मरक्षक क्षत्रियों द्वारा विधिपूर्वक पृथ्वी की रक्षा नहीं की जा रही थी। भय के मारे पृथ्वी को रसातल की ओर भागती देख महामनस्वी कश्यप ने अपने ऊरूओं का सहारा देकर उसे रोक दिया। 
      "कश्यपजी ने ऊरू से इस पृथ्वी को धारण किया था; इसलिये यह उर्वी नाम से प्रसिद्ध हुई। उस समय पृथ्वी देवी ने कश्यपजी को प्रसन्न करके अपनी रक्षा के लिये यह वर माँगा कि मुझे भूपाल दीजिये।
      पृथ्वी बोली- ब्राह्मण! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियशिरोमणियों को छिपा रखा है। मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए है, जो मेरी रक्षा कर सकते है। प्रभो! उनके सिवा पुरूवंशी विदूरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान् पर्वत पर रीछों ने पालकर बडा किया है। इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रों के समान सब कर्म करता है, इसलिये सर्वकर्मा नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करे। राजा शिबिका एक महातेजस्वी पुत्र बचा हुआ है, जिसका नाम है गोपति। उसे वन में गौओं ने पाल पोसकर बड़ा किया है। मुने! आपकी आज्ञा हो तो वही मेरी रक्षा करे। प्रतर्दनका महाबली पुत्र वत्स भी राजा होकर मेरी रक्षा कर सकता है। उसे गोशाला में बछडों ने पाला था, इसलिये उसका नाम वत्स हुआ है। दधिवाहन का पौत्र और दिविरथ का पुत्र भी गंगातट पर महर्षि गौतम के द्वारा सुरक्षित है। महातेजस्वी महाभाग बृहद्रथ महान ऐश्वर्य से सम्पन्न है। उसे गृध्रकूट पर्वत पर लंगूरों ने बचाया था।
      राजा मरुत के वंश में भी कई क्षत्रिय बालक सुरक्षित है, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है। उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है। ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात है। वे सदा शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते है। यदि वे क्षत्रिय मेरी रक्षा करें तो मैं अविचल भाव से स्थिर हो सकूँगी। इन बेचारों के बाप दादे मेरे ही लिये युद्ध अनायास ही महान् कर्म करने वाले परशुराम के द्वारा मारे गये है। महामुने! मुझे उन राजाओं से उऋण होने के लिये उनके इन वंशजों का सत्कार करना चाहिये। मै धर्म की मर्यादा को लाँघने वाले क्षत्रिय के द्वारा कदापि अपनी रक्षा नहीं चाहती। जो अपने धर्म में स्थित हो, उसी के संरक्षण में रहूँ, यही मेरी इच्छा है; अतः आप इसकी शीघ्र व्यवस्था करें।
      श्रीकृष्ण कहते हैं-राजन्! तदनन्तर पृथ्वी के बताये हुए उन सब पराक्रमी क्षत्रिय भूपालों को बुलाकर कश्यपजी ने उनका भिन्न-भिन्न राज्यों पर अभिषेक कर दिया। उन्हीं के पुत्र-पौत्र बढे़, जिनके वंश इस समय प्रतिष्ठित हैं। पाण्डुनन्दन! तुमने जिसके विषय में मुझसे पूछा था, वह पुरातन वृतांत ऐसा ही हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं-राजन्! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से इस प्रकार वार्तालाप करते हुए यदुकुल-तिलक महात्मा श्रीकृष्ण उस रथ के द्वारा भगवान सूर्य के समान सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फैलाते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ते चले गये।
      निष्कर्ष- यद्यपि उपर्युक्त कथा भी स्वयं कृष्ण के द्वारा नहीं कही गयी परन्तु परवर्ती पुरोहितों इसका सृजन कर इसे कृष्ण पर आरोपित कर दिया । इसका साक्ष्य ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड का निम्न श्लोक है।
      श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
      ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
      अर्थात् स्वयं श्रीकृष्ण( विष्णु) जिस सहस्र बाहू की रक्षा में तत्पर हों और सुदर्शन जिसकी रक्षा में तत्पर हो उसे कौन मार सकता है ?
      __________
      इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में परशुरामोपाख्यानविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।
       
      मत्स्यपुराणम्-अध्यायः(४३)यदुवंशवर्णनम्।
                         सूत उवाच!
      इत्येतच्छौनकाद्राजा शतानीको निशम्य तु।
      विस्मितः परया प्रीत्या पूर्णचन्द्र इवा बभौ।१।।
      पूजयामास नृपति र्विधिवच्चाथ शौनकम्।
      रत्नैर्गोभिः सुवर्णैश्च वासोभिर्विविधैस्तथा।२।
      प्रतिगृह्य ततः सर्वं यद्राज्ञा प्रहितं धनम्।
      दत्वा च ब्राह्मणेभ्यश्च शौनकोऽन्तरधीयत।३।
                         ऋषय ऊचुः!
      ययाति र्वशमिच्छामः श्रोतुं विस्तरतो वद।
      यदु प्रभृतिभिः पुत्रैर्यदालोके प्रतिष्ठितः।४ ।
                         सूत उवाच!
      यदोर्वंशं प्रवक्ष्यामि ज्वेष्ठस्योत्तमतेजसः।
      विस्तरेणानुपूर्व्या च गदतो मे निबोधत ।५।
      यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः।
      महारथा महेष्वासा नमतस्तान्निबोधत।६।
      सहस्रजिरथो ज्येष्ठः क्रोष्टु र्नीलोऽन्तिकोलघुः।
      सहस्रजेस्तु दायादो शतजिर्नामपार्थिवः।७।
      शतजेरपि दायादास्त्रयः परमकीर्त्तयः।
      हैहयश्च हयश्चैव तथा वेणुहयश्च यः।८।
      हैहयस्य तु दायादौ धर्मनेत्रः प्रतिश्रुतः।
      धर्म्मनेत्रस्य कुन्तिस्तु संहतस्तस्य चात्मजः।९।
      संहतस्य तु दायादो महिष्मान्नामपार्थिवः।
      आसीन्महिष्मतः पुत्रो रुद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।१० ।।
      वाराणस्यामभूद्राजा कथितं पूर्वमेव तु।
      रुद्रश्रेणस्य पुत्रोऽभूद् दुर्दमो नाम पार्थिवः।११।
      दुर्द्दमस्य सुतो धीमान् कनको नाम वीर्य्यवान्।
      कनकस्य तु दायदा श्चत्वारो लोकविश्रुताः।१२ ।
      कृतवीर्य्यः कृताग्निश्च कृतवर्मा तथैव च।
      कृतोजाश्च चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यात्तु सोर्जुनः।१३।
      जातः करसहस्रेण सप्तद्वीपेश्वरो नृपः।
      वर्षायुतं तपस्तेपे दुश्चरं पृथिवीपतिः।१४ ।
      दत्तमाराधयामास कार्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।
      तस्मै दत्तावरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तम।१५ ।
      पूर्वं बाहुसहस्रन्तु स वव्रे राजसत्तमः।
      अधर्मं चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम्।१६।
      युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्।
      संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत्।१७ ।
      तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
      समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता।१८ ।
      जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
      रथो ध्वजश्च संजज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।१९ ।
      दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
      निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः।२०।
      सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
      सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः।२१।
      सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
      गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः।२२।
      तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
      कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः।२३।
      न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
      यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च।२४।
      स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
      रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।२५ ।
      पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
      स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।२६ ।
      स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
      सएववृष्ट्यापर्जन्योयोगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्२७।
      योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
      भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः।२८ ।
      एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः।
      कर्कोटकसुतंजित्वा पुर्य्यां तत्र न्यवेशयत्।२९ ।
      एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै।
      क्रीड़न्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्रोतो महीपतिः।३०।
      ललता क्रीड़ता तेन प्रतिस्रग्दाममालिनी।
      ऊर्मि भ्रुकुटिसन्त्रासा चकिताभ्येति नर्म्मदा।३१।
      एको बाहुसहस्रेण वगाहे स महार्णवः।
      करोत्युह्यतवेगान्तु नर्मदां प्रावृडुह्यताम्।३२।
      तस्य बाहुसहस्रेणा क्षोभ्यमाने महोदधौ।
      भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः।३३।
      चूर्णीकृतमहावीचि लीन मीन महातिमिम्।
      मारुता विद्धफेनौघ्ज्ञ मावर्त्ताक्षिप्त दुःसहम्।३४।
      करोत्यालोडयन्नेव दोःसहस्रेण सागरम्।
      मन्दारक्षोभचकिता ह्यमृतोत्पादशङ्किताः।३५ ।
      तदा निश्चलमूर्द्धानो भवन्ति च महोरगाः।
      सायाह्ने कदलीखण्डा निर्वात स्तिमिता इव।३६ ।
      एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
      लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।३७।
      निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
      ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।३८।
      मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।
      तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।३९ ।
      युगान्ताभ्र सहस्रस्य आस्फोट स्वशनेरिव।
      अहोबत विधे र्वीर्यं भार्गवोऽयं यदाच्छिनत्।४०।
      तद्वै सहस्रं बाहूनां हेमतालवनं यथा।
      यत्रापवस्तु संक्रुद्धो ह्यर्जुनं शप्तवान् प्रभुः।४१ ।
      यस्माद्वनं प्रदग्धं वै विश्रुतं मम हैहय।
      तस्मात्ते दुष्करं कर्म्म कृतमन्यो हरिष्यति।४२ ।
      छित्वा बाहुसहस्रन्ते प्रथमन्तरसा बली।
      तपस्वी ब्राह्मणश्च त्वां सवधिष्यति भार्गवः।४३।
                            "सूत उवाच!
      तस्य रामस्तदा त्वासीन् मृत्युः शापेन धीमता।
      वरश्चैवन्तु राजर्षेः स्वयमेव वृतः पुरा।४४ ।।
      तस्य पुत्रशतं त्वासीत् पञ्चपुत्र महारथाः।
      कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्म्मात्मानो महाबलाः।४५।
      शूरसेनश्च शूरश्च धृष्टः क्रोष्टुस्तथैव च।
      जयध्वजश्च वैकर्ता अवन्तिश्च विशाम्पते।४६ ।
      जयध्वजस्य पुत्रस्तु तालजङ्घो महाबलः।
      तस्य पुत्रशतान्येव तालजङ्घा इति श्रुताः।४७।
      तेषां पञ्चकुलाख्याताः हैहयानां माहत्मनाम्।
      वीतिहोत्राश्च शार्याता भोजाश्चावन्तयस्तथा।४८।
      कुण्डिकेराश्च विक्रान्तास्तालजङ्घा स्तथैव च।
      वीतिहोत्रसुतश्चापि आनर्तो नाम वीर्य्यवान्।।
      दुर्जेयस्तस्य पुत्रस्तु बभूवामित्रकर्शनः।४९ ।
      सद्भावेन महाराज! प्रजा धर्मेण पालयन्।
      कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।५०।
      येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
      यस्तस्य कीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थाय मानवः।५१।
      न तस्य वित्तनाशः स्यान्नष्टञ्च लभते पुनः।
      कार्त्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदिह धीमतः।।
      यथावत् स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महीयते।५२।

      अनुवाद-

           यदुवंश का वर्णन,                      (कार्तवीर्यार्जुन ) 

                   सूतजी ने कहा -- 

      शतानीक ! राजा ने शौनक से यह जब श्रवण किया था तो वह विस्मित हो गया था और परम प्रीति से पूर्ण चन्द्र की भाँति प्रकाशमान हो गया था ।१ । 

      फिर उस राजा ने पूर्ण विधान के साथ शौनक का पूजन किया था। पूजन के उपचारों में बहुमूल्य रत्न , गौ , सुवर्ण और अनेक भाँति के वस्त्र आदि सभी थे ।२ ।

      जो भी राजा के द्वारा धन प्रहित किया था उस सबका प्रतिग्रहण करके और ब्राह्मणों को दान करके फिर महर्षि शौनक वहीं पर अन्तर्हित हो गये थे ।३ । 

      विशेष- प्रहित= १. प्रेरित। २. फेंका हुआ। क्षिप्त। ३. फटका हुआ। निष्कासित। ४. उपयुक्त। ठीक (को०)। नियुक्त (को०)। आदि अर्थ हैं परन्तु यहाँ प्रसंगानुसार सारयुक्तधन" अर्थ ग्राह्य है।(श्लोक संख्या-३)

      ऋषियों ने कहा -

      हे भगवन् ! अब हम सब लोग राजा ययाति के वंश का विस्तारपूर्वक श्रवण करना चाहते हैं । आप परमानुकम्पा करके उसका सविस्तृत वर्णन कीजिये जिस समय में वह इस लोक में यदु प्रभृति पुत्रों से समन्वित होकर प्रतिष्ठित हुआ था ।४। 

                      श्री सूतजी ने कहा - 

      सबसे ज्येष्ठ और उत्तम तेज वाले यदु के वंश का मैं वर्णन करूंगा और विस्तार तथा आनुपूर्वी (क्रमानुसार) के साथ ही कहूंगा । आप लोग तब वक्ता-( कहने वाले) मुझसे सब कुछ समझ लीजिए ।५॥ 

      पाँच पुत्रों के नाम:- महाराज यदु के देवताओं के समान पाँच पुत्र सुमुत्पन्न हुए । ये पांचों ही महारथी और महान धुनुर्धर थे इनमें सबसे बड़ा जो था।

      सबसे बड़ा सहस्रजित था और सबसे छोटा जो अन्तिम पुत्र था  वह लघु था(सहस्रजित क्रोष्टा नील  अन्तिक और लघुः) । सहस्रजित का दायाद शतजित पार्थिव समुद्भूत हआ था ॥७ ॥

      ________________



      ____________

      विशेष-  संयुक्त रूप महेष्वास ( महा+ इषु+आस)का अर्थ है-  इषवोऽस्यन्तेऽनेन अस्-=क्षेपे करणे घञ् ( मह+इष्वास) महान शरक्षेपक( वाण चलाने वाला) क्रमश: गुण और यण् सन्धि द्वारा निष्पन्न सन्धिपद-महेष्वास= महान वाणों की बौछार करने वाला) 

      शतजित नाम वाले पुत्र के भी दायाद( पुत्र) परम कीर्ति वाले तीन हुए थे जिनके शुभ नाम १-हैहय - २-हय और ३-वेणुहय थे । हैहय का जो दायाद उत्पन्न हुआ था वह धर्मनेत्र इसशुभ नाम से विख्यात हुआ था । 

      धर्मनेत्र का दायाद कुन्ति हुआ और कुन्ति का आत्मज "संहत नाम वाला हुआ था ।६ । 

      संहत का पुत्र महिष्मान् नाम वाला पार्थिव हुआ था । महिष्मान् का पुत्र परम प्रतापधारी रुद्रश्रेण्य ने जन्म ग्रहण किया था । १०। 

      यह वाराणसी में राजा हुआ था जिसका वर्णन पूर्व में ही किया जा चुका है रुद्रश्रेण्य का पुत्र दुर्दम नाम वाला राजा हुआ था ।११॥ 

      फिर इस दुर्दम का पुत्र परम बुद्धिमान और बल वीर्य से संयुक्त कनक नामवाला हुआ था । इस कनक के चार दायाद लोक में परम-प्रसिद्ध हुए थे।१२।  

      इन चारों के नाम कृतवीर्य-कृताग्नि-कृतवर्मा और चौथा कृतौजा थे। कृतवीर्य से ही अर्जुन समुत्पन्न हुआ था।१३।

      इसके एक संहस्रहाथ थे यह सातों द्वीपोंका राजा हुआ था इस राजा ने दश हजार(सहस्र)वर्ष तक परम दुश्चर तपस्या की थी ।१४

      कार्तवीर्य का अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय से वरदान प्राप्त करना:-

      इस कार्तवीर्य ने अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय की समाराधना की थी। हे पुरुषोत्तम ! उसके द्वारा इसको चार वरदान दिये गये थे ।१५ ॥

      सबसे प्रथम उस राजश्रेष्ठ ने एक सहस्र बाहु प्राप्त करने का वरदान मांगा था । अधर्म का समाचरण करने वाले का सत्पुरुषों से निवारण करने का वरदान प्राप्त किया था ।१६ । 

      युद्ध के द्वारा सम्पूर्ण भूमण्डल पर विजय प्राप्त करके धर्म के ही द्वारा सब पृथिवी का अनुपालन करना प्राप्त किया था । सग्राम में वर्तमान का वध भी हो ती किसी अधिक से ही होवे ।१७ । 

      उस सहस्रबाहु ने इस पृथिबी को जो सम्पूर्ण सात द्वीपों से युक्त पर्वतों के सहित और समुद्र से घिरी हुई थी उस सबको क्षात्र -विधि के द्वारा ही जीत लिया था ।१८ । 

      उस धीमान् की जैसी इच्छा थी उसी के अनुसार एक सहस्रबाहु समुत्पन्न हो गई थीं । रथ और ध्वज भी समुत्पन्न हुए थे ऐसा ही अनुश्रवण करते हैं ।१९ । 

      उस राजा के द्वारा द्वीपों में दश सहस्र यज्ञ निर्गल(अवरोध रहित) होकर उस धीमान् के निवृत्त हुए थे ऐसा भी सुना जाता है।२० । 

      उस महान् राजा के सभी यज्ञ अत्यधिक दक्षिणा वाले सम्पन्न हुए थे ।उन सभी यज्ञों में सुवर्ण के युप थे और सभी सुवर्ण की वेदियों वाले थे।२१ ।

      सब विमानों में स्थित देवों के साथ प्राप्त हुए गन्धर्व और अप्सराओं से समलंकृत नित्य ही  उपशमित =(जिसका उपशमन कर दिया गया हो अथवा  निवारित)रहा करते थे ।२२ । 

      उससे यज्ञ में गन्धर्व तथा नारद ने कातवीर्य राजर्षि की महिमा को देखकर उनकी गाथा का गायन किया था ।२३ ।

      निश्चय ही क्षत्रिय गण कातवीर्य की गति को नहीं प्राप्त होंगे जिस प्रकार के इसके यज्ञ - दान - तप विक्रम और श्रुतेन (सुने हुए कथनों के द्वारा)आदि हैं इस तरह के सभी विधान अन्य क्षत्रियों के सर्वथा है ही नहीं ।२४ । 

      वह सहस्रबाहु राजा खड्ग धारण करने वाला तथा शरासन ग्रहण किए हुए रथी होकर" सातो द्वीपों में अनुचरण करते हुए योगी होकर तस्करों को देखा करता था ।२५ "वह नराधिपति पिचासी सहस्र वर्षों ( 85 हजार वर्ष)तक सम्पूर्ण रत्नों से सम्पन्न होता हुआ इस भूमण्डल का चक्रवर्ती सम्राट हुआ था ।२६ । वही पशुओं के पालन करने वाला (गोपाल)- हुआ था और वह ही क्षेत्रपाल( कृषक) भी हुआ था । बह वृष्टि के द्वारा पर्जन्य हुआ था और योगी होने के कारण से वही अर्जुन हो गया था।२७ ।

      यह सम्राट एकसहस्र(हजार) बाहुओं के द्वारा धनुष की डोरी के घातों से कठिन त्वचा से युक्त हो गया था जैसे शरदकाल का एकसहस्र रश्मियों से सम्पन्न सूर्य हो जाता है।२८। 

      महान् मति वाले इसने महिष्मती पुरी में मनुष्यों के मध्य में कर्कोटक के पुत्र नाग को जीतकर उसी पुरी को निवेशित कर दिया था।२६। 

      यह प्रावट् काल( वर्षाकाल ) में भी समुद्र के वेग का सेवन किया करता था । यह महामति प्रतिस्रोतों को सुख से (उद्भिन्न) करता हुआ क्रीडा(खेल)करता हुआ विचरण किया करता था।३० । 

      खेलते -उछलते उसके द्वारा जल में लहरों से  माला बना दी जाती थीं ।(स्रग्दाममालिनी] (वह माला जिसका दाम(सूत) फूलों का गुच्छा हो ) तब अपनी भृकुटी में भय लेकर नर्मदा चकित होकर राजा के समीप में आ गई  ।३१।
      वह अपनी सहस्रबाहुओं से महार्णव( जलसमूह) के अवगाहन करने पर उद्याम वेग वाली नर्मदा को प्रावृड कालीन ( वर्षाकालीन) कर देता है ।३२ ॥ 

      उसकी सहस्रबाहुओं से महोदधि के क्षोम्यमान होने पर पाताल में संस्थित महासुर अत्यन्त ही निश्चेष्ट हो जाते है ।३३ । 

      सहस्र हाथों में सागर का आलोड़न करता हुआ ही उसके द्वारा तोड़ी हुई महान् तरङ्गों में विलीन मीन ( मछली) और महातिमि( समुद्र में रहनेवाला मछली )के आकार का एक बड़ा भारी जंतु  ) को मारुत से आबिद्ध फेनों के ओघ( धारा) वाला तथा आवर्तो (भवरों )वाली नदी को समक्षिप्त होने से दुःसह करता है । जिस समय में मन्दार पर्वत के क्षोभ से चकित अमृत के उत्पादन को शङ्का वाले महान सर्प निश्चल मुख वाले हो जाते हैं । जिस प्रकार से सायंकाल में निर्वात से स्तिमित ( भीगे हुए) कदली खण्डों की दशा होती है वैसी दशा उन महान जलीय सर्पों की होती थी  ।३४- ३६ ।

      विशेष-महातिमि( समुद्र में रहनेवाला मछली )के आकार का एक बड़ा भारी जंतु । विशेष—लोगों का अनुमान है कि यह जंतु ह्वेल है।

      एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
      लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।३७।
      और धनुष् की डोरी मेंबाँधकर पाँच वाणों उत्सिक्त(जिसका उत्सेक हुआ हो)कर लंका में मोहित करके बलवान् रावण को जीत कर बाँधकर महिष्मती नगरी को लाया और उसे वहीं नगर में बाँध दिया। तब वहाँ जाकर पुलस्त्य ने अर्जुन को प्रसन्न किया।
      निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
      ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।३८।

      लङ्कापुरी में बलवान् रावण को बलपूर्वक मोहित करके पांच शरों से उत्सिक्त करके धनुष की ज्या से इस प्रकार से बांध दिया था और उसको जीत करके तथा बाँध करके माहिष्मती अपनी पुरी में ले आया था तथा बाँधकर रख छोड़ा था। इसके अनन्तर पुलस्त्य ऋषि वहाँ आये थे और उन्होने सहस्रार्जुन को प्रसन्न किया था।३७-३८ । 

      पुलस्त्य ऋषि ने यहाँ पर सान्त्वना दी थी और फिर पौलस्त्य ( रावण ) को छोड़ दिया था । उसकी सहस्र बाहुओं में ज्यातल का महान शब्द हुआ था ।३९।

      यह घोष उसी भांति हुआ था जैसा कि युगान्त के समय में होने वाले सहस्रों मेघों के आस्फोट से अग्नि का घोष हुआ करता है । अहोवत ! (बड़े ही आश्चर्य की बात) कि विधाता की वीरता को भार्गवने छिन्न कर दिया ।४०। 

      जिस समय में भार्गव प्रभु ने इसकी ' सहस्रबाहुओं का छेदन हेमताल वन की भांति किया था और जहाँ पर आप प्रभु ने सक्रुद्ध होकर अर्जुन को शाप दिया था-हे अर्जुन ! क्योंकि मेरा परम प्रसिद्ध  वन तुमने जला दिया इसलिए इस दुस्तर किए गये कर्म को अहंकार ही हरण करेगा।४१-४२। 

      बलवान तपस्वी और ब्राह्मण भार्गव पहिले वेग के साथ तेरी सहस्रबाहुओं का छेदन करके फिर तेरा वही वध भी कर देंगे।४३ । 

      सूतजी ने कहा - उस समय में उसकी मृत्यु शाप के द्वारा राम ही थे । धीमान ने राजर्षि से पहिले ही इस प्रकार का वरदान स्वयं ही वरण कर लिया था ।४४।

      उसके एक सौपुत्र हुए थे उनमें पांच तो महारथी थे । ये सब कृतास्त्र-(अस्त्र के प्रयोग में कुशल) बलशाली ,शूरवीर ,धर्मात्मा और महान् बलशाली थे ।४५।

      हे विशाम्पते ! शूरसेन,शूर,धृष्ट,क्रोष्टा , जयध्वज,वैकर्ता और अवन्ति ये उनके नाम थे ।४६ ।

      जयध्वज का पुत्र महान बलवान तालजंघ हुआ था  उसके भी एकसौ पुत्र थे जो पुत्र थे वो सर्व तालजंघ नाम से प्रसिद्ध थे ।४७ । 

      उन हैहय महात्माओं के पांच कुल विख्यात थे । वीतिहोत्र - शरयात - भोज - अवन्ति - कुण्डिकेरा विक्रान्त और तालजंध थे । वीतिहोत्र का पुत्र भी आनर्त नाम वाला महान् वीर्यवान् हुआ था उसका पुत्र दुर्जेय था जो शत्रुओं का कर्शन(दुर्बल) करने वाला था।४८-४६ ।

      सद्भावेन महाराज ! प्रजा धर्मेण पालयन्।
      कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।५०

      हे महाराज ! कातवीर्यार्जुन नाम वाला राजा एक सहस्रबाहुओं से समन्वित था और सद्भावना से धर्म के साथ प्रजा का परिपालन किया करता था ।५० ।  _________________

      येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
      यस्तस्य कीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थाय मानवः।५१।
      न तस्य वित्तनाशः स्यान्नष्टञ्च लभते पुनः।
      कार्त्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदिह धीमतः।।
      यथावत् स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महीयते।५२।

      वह ऐसा प्रतापी राजा हुआ था जिसने अपने धनुष के द्वारा सागर पर्यन्त भूमि को जीत लिया था । जो मानव प्रात: काल में ही उठकर उसके शुभ नाम का कीर्तन किया करता है उसके वित्त( धन) का कभी भी नाश नहीं होता है और जो किसी का वित्त नष्ट भी हो गया हो तो यह नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त हो जाया करता है । 

      परम धीमान् कीर्तवीर्य के जन्म की गाथा को कोई मनुष्य कहता है तो वह मानव यथावत् स्विष्ट पूतात्मा होकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त किया करता है।५१-५२।"

      इस प्रकार मत्स्य पुराण  के ४३ वाँ अध्यायः के अन्तर्गत "यदुवंशवर्णनम्नामक"  अध्याय समाप्त हुआ

      ______________    

      इसी प्रकार का वर्णन लिंग पुराण में है देखे निम्न श्लोकों को-

      श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे वंशानुवर्णनंनामाष्टषष्टितमोऽध्यायः।। ६८।

                         सूत उवाच!

      यदोर्वंशं प्रवक्ष्यामि ज्येष्ठस्योत्तमतेजसः।।संक्षेपेणानुपूर्व्याच्च गदतो मे निबोधत।१।

      यदोः पुत्रा बभूबुर्हि पञ्च देव सुतोपमाः।।सहस्रजित्सुतो ज्येष्ठः क्रोष्टुर्नीलोजको लघुः।२ ।

      सहस्रजित्सुतस्तद्वच्छतजिन्नाम पार्थिवः।        सुताः शतजितः ख्यातास्त्रयः परमकीर्तयः।३।

      हैहयश्च हयश्चैव राजा वेणुहयश्च यः।              हैहयस्य तु दायादो धर्म इत्यभिविश्रुतः।४।

      तस्य पुत्रोभवद्विप्रा धर्म नेत्र इति श्रुतः।।    धर्मनेत्रस्य कीर्तिस्तु संजयस्तस्य चात्मजः।५ ।

      सञ्जयस्य तु दायादो महिष्मान्नाम धार्मिकः।।आसीन्माहिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।६ ।

      भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम पार्थिवः।।     दुर्दमस्य सुतो धीमान्धनको नाम विश्रुतः।।७ ।।

      धनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकसंमताः।।कृतवीर्यः कृताग्निश्च कृतवर्मा तथैव च।८ ।

      कृतौजाश्च चतुर्थोभूत्कार्तवीर्यस्ततोर्जुनः।        जज्ञे बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेश्वरोत्तमः।६८.९ ।

      तस्य रामस्तदा त्वासीन्मृत्युर्नारायणात्मक।        तस्य पुत्रशतान्यासन्पंच तत्र महारथाः।१०।

      कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्मात्मानो मनस्विनः।    शूरश्च शूरसेनश्च धृष्टः कृष्णस्तथैव च। ६८.११ ।

      जयध्वजश्च राजासीदावन्तीनां विशाम्पतिः।।जयध्वजस्य पुत्रोभूत्तालजंघो महाबलः।१२। 

      शतं पुत्रास्तु तस्येह तालजंघाः प्रकीर्तिताः।।      तेषां ज्येष्ठो महावीर्यो वीतिहोत्रोऽभवन्नृपः।१३ ।

      वृषप्रभृतयश्चान्ये तत्सुताः पुण्यकर्मणः।।        वृषो वंशकरस्तेषां तस्य पुत्रोभवन्मधुः।१४।

      मधोःपुत्रशतं चासीद्वृष्णिस्तस्य तु वंशभाक्।।वृष्णेस्तु वृष्णयःसर्वे माधोर्वै माधवाःस्मृताः।।

      यादवा यदुवंशेन निरुच्यन्ते तु हैहयाः।१५।     तेषांपञ्चगणा ह्येते हैहयानां महात्मनाम्।१६ 

      वीतिहोत्राश्च हर्याता भोजाश्चावन्तयस्तथा।शूरसेनास्तु विख्यातास्तालजंघास्तथैव च।१७।

      शूरश्च शूरसेनश्च वृषः कृष्णस्तथैव च।।      जयध्वजः पंचमस्तु विख्याता हैहयोत्तमाः।१८।

      शूरश्च शूरवीरश्च शूरसेनस्य चानघाः।।          शूरसेना इति ख्याता देशास्तेषां महात्मनाम्।१९ ।

      वीतिहोत्रसुतश्चापि विश्रुतोऽनर्त इत्युत।।        दुर्जयः कृष्णपुत्रस्तु बभूवामित्रकर्शनः।२० ।

      क्रोष्टुश्च श्रृणु राजर्षे वंशमुत्तमपौरुषम्।        यस्यान्वये तु संभूतो विष्णुर्विष्णुकुलोद्वहः।२१।

      क्रोष्टोरेकोऽभवत्पुत्रो वृजिनीवान्महायशाः।।     तस्य पुत्रोभवत्स्वाती कुशंकुस्तत्सुतोभवत्।२२ ।

      अथ प्रसूतिमिच्छन्वै कुशंकुः सुमहाबलः।।महाक्रतुभिरीजेसौ विविधैराप्तदक्षिणैः।२३। 

      जज्ञे चित्ररथस्तस्य पुत्रः कर्मभिरन्वितः।।          अथ चैत्ररथो वीरो यज्वा विपुलदक्षिमः।२४।

      शशबिंदुस्तु वै राजा अन्वयाद्व्रतमुत्तमम्।।चक्रवर्ती महासत्त्वो महावीर्यो बहुप्रजाः।२५ ।

      शशबिंदोस्तु पुत्राणां सहस्राणामभूच्छतम्।।  शंसंति तस्य पुत्राणामनंतकमनुत्तमम्।२६ ।।

      अनंतकात्सुतो यज्ञो यज्ञस्य तनयो धृतिः।।उशनास्तस्य तनयः संप्राप्य तु महीमिमाम्।२७ ।।

      आजहाराश्वमेधानां शतमुत्तमधार्मिकः।।स्मृतश्चोशनसः पुत्रः सितेषुर्नाम पार्थिवः।२८ ।।

      मरुतस्तस्य तनयो राजर्षिर्वंशवर्धनः।              वीरः कंबलबर्हिस्तु मरुस्तस्यात्मजःस्मृतः।२९ ।

      पुत्रस्तु रुक्मकवचो विद्वान्कंबलबर्हिषः।।      निहत्य रुक्मकवचो रीरान्कवचिनो रणे।।३०।

      धन्विनो विशितैर्बाणैरवाप श्रियमुत्तमाम्।।      अश्वमेधे तु धर्मात्मा ऋत्विग्भ्यः पृथिवीं ददौ।३१।

      जज्ञे तु रुक्मकवचात्परावृत्परवीरहा।।            जज्ञिरे पंच पुत्रास्तु महासत्त्वाः परावृतः।३२ ।।

      रुक्मेषुः पृथुरुक्मश्च ज्यामघः परिघं हरिः।     परिघं च हरिं चैव विदेहेषु पिता न्यसत्।३३। 

      रुक्मेषुरभवद्राजा पृथुरुक्मस्तदाश्रयात्।।         तैस्तु प्रव्राजितो राजा ज्यामघोऽवसदाश्रमे।३४।

      प्रशांतः स वनस्थोपि ब्राह्मणैरेव बोधितः।।     जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी।३५ ।

      नर्मदातीरमेकाकी केवलं भार्यया युतः।।      ऋक्षवंतं गिरं गत्वा त्यक्तमन्यैरुवास सः।३६ ।

      ज्यामघस्याभवद्भार्या शैब्या शीलवती सती।।    सा चैव तपसोग्रेण शैब्या वै संप्रसूयत।।३७।।

      सुतं विदर्भ सुभगा वयःपरिणता सती।।राजपुत्रसुतायां तु विद्वांसौ क्रथकैशिकौ।३८। 

      पुत्रौ विदर्भराजस्य शूरौ रणविशारदौ।।रोमपादस्तृतीयश्च बभ्रुस्तस्यात्मजः स्मृतः।३९।।

      सुधृतिस्तनयस्तस्य विद्वान्परमधार्मिकः।।कौशिकस्तनयस्तस्मात्तस्माच्चैद्यान्वयः स्मृतः।४०।

      क्रथो विदर्भस्य सुतः कुंतिस्तस्यात्मजोऽभवत्।।कुंतेर्वतस्ततो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान्।४१ ।।

      रणधृष्टस्य च सुतो निधृतिः परवीरहा।।          दशार्हो नैधृतो नाम्ना महारिगणसूदनः।४२।

      दर्शार्हस्य सुतो व्याप्तो जीमूत इति तत्सुतः।।जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्य भीमरथः सुतः।४३। 

      अथ भीमरथस्यासीत्पुत्रो नवरथः किल।।दानधर्मरतो नित्यं सत्यशीलपरायणः।।४४।      तस्य चासीद्दृढरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।।तस्मात्करंभः संभूतो देवरातोऽभवत्ततः।४५। देवरातादभूद्राजा देवरातिर्महायशाः।।    देवगर्भोपमो जज्ञे यो देवक्षत्रनामकः।४६ ।देवक्षत्रसुतः श्रीमान् मधुर्नाम महायशाः।।      मधूनां वंशकृद्राजा मधोस्तु कुरुवंशकः।४७ ।कुरुवंशादनुस्तस्मात्पुरुत्वात्पुरुषोत्तमः।।    अंशुर्जज्ञे च वैदर्भ्यां भद्रवत्यां पुरुत्वतः।४८ ।।

      ऐक्ष्वाकीमवहच्चांशुः सत्त्वस्तस्मादजायत।।सत्त्वात्सर्वगुणोपेतः सात्त्वतः कुलवर्धनः।४९ ।

      ज्यामघस्य मया प्रोक्ता सृष्टिर्वै विस्तरेण वः।।       यः पठेच्छृणुयाद्वापि निसृष्टिंज्यामघस्य तु।५० ।

      प्रजीवत्येति वै स्वर्गं राज्यं सौख्यं च विंदति।५१।

      इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे वंशानुवर्णनंनामाष्टषष्टितमोऽध्यायः।। ६८।

      ____________       
                     (अध्याय (44)
      यदुवंशवर्णने क्रोष्टुवंशवर्णनम्।
                        ऋषय ऊचुः।
      किमर्थं तद्वनं दग्धमापवस्य महात्मनः।
      कार्तवीर्येण विक्रम्य सूत! प्रब्रूहि तत्वतः।१ ।।
      रक्षिता स तु राजर्षिः प्रजानामिति नः श्रुतम्।
      सकथं रक्षिता भूत्वा अदहत्तत्तपोवनम्।२।
                        "सूत उवाच?
      आदित्यो द्विजरूपेण कार्तवीर्यमुपस्थितः।
      तृप्तिमेकां प्रयच्छस्व आदित्योऽहं नरेश्वर।३।
                        "राजोवाच!
      भगवन्! केन तृप्तिस्ते भवत्येव दिवाकर।
      कीद्रृशं भोजनं दद्मि श्रुत्वा तु विदधाम्यहम्।४ ।
                         "आदित्य उवाच।
      स्थावरन्देहि मे सर्वमाहारं ददतां वर।
      तेन तृप्तो भवेयं वै सा मे तृप्तिर्हि पार्थिव।५।
                        "कार्तवीर्य उवाच।
      न शक्याः स्थावराः सर्वे तेजसा च बलेन च।
      निर्दग्धुं तपतां श्रेष्ठ! तेन त्वां प्रणमाम्यहम्।६ ।।
                         "आदित्य उवाच।
      तुष्टस्तेऽहं शरान् दद्मि अक्षयान् सर्वतो मुखान्।
      ये प्रक्षिप्ता ज्वलिष्यन्ति मम तेजः समन्।७ ।
      आविष्टा मम तेजोभिः शेषयिष्यन्ति स्थावरान्।
      शुष्कान् भस्मीकरिष्यन्ति तेन तृप्तिर्नराधिप।८ ।
                           "सूत उवाच।
      ततःशरांस्तदादित्य स्त्वर्जुनाय प्रयच्छत।
      ततो ददाह संप्राप्तान् स्थावरान् सर्वमेव च।९ ।
      ग्रामां स्तथाश्रमांश्चैव घोषाणि नगराणि च।
      तथा वनानि रम्याणि वनान्युपवनानि च।१०।
      एवं प्राचीं समदहत् ततः सर्वांश्च पक्षिणः।
      निर्वृक्षा निस्तृणा भूमिर्हता घोरेण तेजसा।११।
      एतस्मिन्नेव काले तु आपो वा जलमास्थितः।
      दश वर्षसहस्राणि तत्रास्ते समहानृषिः।१२ ।
      पूर्णे व्रते महातेजा उदतिष्ठं स्तपोधनः।
      सोऽपश्यदाश्रमं दग्धमर्जुनेन महामुनिः।१३।
      क्रोधाच्छशाप राजर्षि कीर्तितं वो यथा मया।
      क्रोष्टोः श्रृणुतराजर्षे र्वंशमुत्तमपौरुषम्।१४ ।
      यस्यान्ववाये सम्भूतो विष्णुर्वृष्णिकुलोद्वहः।
      क्रोष्टोरेवाभवत् पुत्रो वृजिनीवान् महारथः।१५।
      वृजनीवतश्च पुत्रोऽभूत् स्वाहो नाम महाबलः।
      स्वाह पुत्रोऽभवद्राजन्!रुषङ्गर्वदतां वरः।१६ ।
      स तु प्रसूतिमिच्छन् वैरुषङ्गुः सौम्यमात्मजम्।
      चित्रश्चित्ररथश्चास्य पुत्रः कर्मभिरन्वितः।१७।
      अथ चैत्ररथिर्वीरो जज्ञे विपुलदक्षिणः।
      शशबिन्दुरिति ख्यातश्चक्रवर्त्ती बभूव ह।१८।
      अत्रानुवंश श्लोकोऽयं गीतस्तस्मिन् पुराऽभवत्। शशबिन्दोस्तु पुत्राणां शत नामभवच्छतम्।१९।
      धीमतां चाभिरूपाणां भूरि द्रविण तेजसाम्।
      तोषां शतप्रधानानां पृथुसाह्वा महाबलाः।२०।
      पृथुश्रवाः पृथुयशाः पृथुधर्मा पृथुञ्जयः।
      पृथुकीर्त्तिः पृथुमना राजानः शशबिन्दवः।२१।
      शंसन्ति च पुराणज्ञाः पृथुश्रवसमुत्तमम्।
      अन्तरस्य सुयज्ञस्य सुयज्ञस्तनयोऽभवत्।२२ ।।
      उशना तु सुयज्ञस्य यो रक्षन् पृथिवीमिमाम्।
      आजहाराश्वमेधानां शतमुत्तमधार्मिकः।२३।
      तितिक्षुरभवत् पुत्र औशनः शत्रुतापनः।
      मरुत्तस्तस्य तनयो राजर्षीणामनुत्तमः।२४।
      आसीन् मरुत्त तनयो वीरः कम्बलबर्हिषः।
      पुत्रस्तु रुक्मकवचो विद्वान् कम्बलबर्हिषः।२५ ।
      निहत्य रुक्मकवचः परान् कवचधारिणः।
      धन्विनो विविधै र्बाणै रवाप्य पृथिवीमिमाम्।२६ ।
      अश्वमेधे ददौ राजा ब्राह्मणेभ्यस्तु दक्षिणाम्।
      यज्ञे तु रुक्मकवचः कदाचित् परवीरहा।२७ ।।
      जज्ञिरे पञ्चपुत्रास्तु महावीर्या धनुर्भृतः।
      रुक्मेषु पृथुरुक्मश्च ज्यामघः परिघो हरिः।२८।
      परिधं च हरिं चैव विदेहेऽस्थापयत् पिता।
      रुक्मेषुरभवद्राजा पृथुरुक्मस्तदाश्रयः।२९ ।
      तेभ्यः प्रव्राजितो राज्यात् ज्यामघस्तु तदाश्रमे।
      प्रशान्तश्चाश्रमस्थश्च ब्राह्मणेनावबोधितः।३० ।
      जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी।
      नर्म्मदां नृप एकाकी केवलं वृत्तिकामतः।३१ ।
      ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा भुक्तमन्यैरुपाविशत्।
      ज्यामघस्याभवद् भार्या चैत्रापरिणतासती।३२ ।।
      अपुत्रो न्यवसद्राजा भार्यामन्यान्नविन्दत।
      तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः।३३ ।।
      भार्यामुवाच सन्त्रासात् स्नुषेयं ते शुचिस्मिते।
      एव मुक्ताब्रवीदेन कस्य चेयं स्नुषेति च।३४ ।।
                           "राजोवाच।
      यस्तेजनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति।
      तस्मात् सा तपसोग्रेण कन्यायाः सम्प्रसूयत।३५।।
      पुत्रं विदर्भं सुभगा चैत्रा परिणता सती।
      राजपुत्र्यां च विद्वान् स स्नुषायां क्रथ कैशिकौ।
      लोमपादं तृतीयन्तु पुत्रं परमधार्मिकम्।३६।।
      तस्यां विदर्भोऽजनयच्छूरान् रणविशारदान्।
      लोमपादान्मनुः पुत्रो ज्ञातिस्तस्य तु चात्मजः।३७ ।
      कैशिकस्य चिदिः पुत्रो तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः।  क्रथो विदर्भपुत्रस्तु कुन्ति स्तस्यात्मजोऽभवत्।३८।
      कुन्ते र्धृतः सुतो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान्।
      धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा।३९ ।
      तदेको निर्वृतेः पुत्रो नाम्ना स तु विदूरथः।
      दशार्हिस्तस्य वै पुत्रो व्योमस्तस्य च वै स्मृतः।
      दाशार्हाच्चैव व्योमात्तु पुत्रो जीमूत उच्यते।४०।
      जीमूतपुत्रो विमलस्तस्य भीमरथः सुतः।
      सुतो भीमरथस्यासीत् स्मृतो नवरथः किल।४१ ।
      तस्य चासीद् दृढरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
      तस्मात् करम्भः कारम्भिर्देवरातो बभूव ह।४२ ।
      देवक्षत्रोऽभवद्राजा दैवरातिर्महायशाः।
      देवगर्भसमो जज्ञे देवनक्षत्रनन्दनः।४३।
      मधुर्नाम महातेजा मधोः पुरवसस्तथा।
      आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४ ।
      जन्तुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रसेन्यां पुरुद्वतः।
      ऐक्ष्वाकी चाभवद् भार्या जन्तोस्तस्यामजायत।४५।
      सात्वतः सत्वसंयुक्तः सात्वतां कीर्तिवर्द्धनः।
      इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।।
      प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।४६।
      सात्वतान् सत्वसम्पन्नान् कौसल्या सुषुवे सुतान्।
      भजिनं भजमानन्तु दिव्यं देवावृधं नृप!।४७ ।
      अन्धकञ्च महाभोजं वृष्णिं( प्रथम) च यदुनन्दनम्!तेषां तु सर्गा श्चत्वारो विस्तरेणैव तच्छृणु।४८।भजमानस्य सृञ्जय्यां बाह्यकायाञ्च बाह्यकाः। सृञ्जयस्य सुते द्वे तु बाह्यकास्तु तदाभवन्।४९।तस्य भार्ये भगिन्यौ द्वे सुषुवाते बहून् सुतान्।निमिंश्च कृमिलं श्चैववृष्णिं ( द्वितीय)परं पुरञ्जयम्। ते बाह्यकायां सृञ्जय्यां भजमानाद् विजज्ञिरे।५०।
      जज्ञे देवावृधो राजा बन्धूनां मित्रवर्द्धनः।
      अपुत्रस्त्वभवद्राजा चचार परमन्तपः।
      पुत्रः सर्वगुणोपेतो मम भूयादिति स्पृहन्।५१।
      संयोज्य मन्त्रमेवाथ पर्णाशा जलमस्पृशत्।
      तदोपस्पशेनात्तस्य चकार प्रियमापगा।५२।
      कल्याणत्वान्नरपते स्तस्मै सा निम्नगोत्तमा।
      चिन्तयाथ परीतात्मा जगामाथ विनिश्चयम्।५३।
      नाधिगच्छाम्यहं नारीं यस्यामेवं विधःसुतः।
      जायेत तस्माद्दद्याहं भवाम्यथ सहस्रशः।५४।
      अथ भूत्वा कुमारी सा बिभ्रती परमं वपुः।
      ज्ञापयामास राजानं तामियेष महाव्रतः।५५ ।
      अथ सा नवमे मासि सुषुवे सरितां वरा।
      पुत्रं सर्वगुणोपेतं बभ्रुं देवावृधान्नृपात्।५६।
      अनुवंशे पुराणज्ञा गायन्तीति परिश्रुतम्।
      गुणान् देवावृधस्यापि कीर्त्तयन्तो महात्मनः।५७।
      यथैवं श्रृणुमो दूरादपश्यामस्तथान्तिकात्।
      बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवै र्देवावृधः समः।५८ ।
      षष्टिश्च पूर्वपुरुषाः सहस्राणि च सप्ततिः।
      एतेऽमृतत्वं संप्राप्ता बभ्रो र्देवावृधान्नृप ।५९ ।
      यज्वा दान पतिर्वीरो ब्रह्मण्यश्च दृढव्रतः।
      रूपवान् सुमहातेजाः श्रुतवीर्य्य धरस्तथा।६०।
      अथ कङ्कस्य दुहिता सुषुवे चतुरः सुतान्।
      कुकुरं भजमानञ्च शशिं कम्बलबर्हिषम्।६१।
      कुकुरस्य सुतो वृष्णि (तृतीय) वृष्णेस्तु तनयो धृतिः। कपोत रोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तस्य चात्मजः।६२ ।
      तस्यासीत्तनुजा पुत्रो सखा विद्वान्नलः किल।
      ख्यायते तस्य नाम्ना च नन्दनोदरदुन्दुभिः।६३।
      तस्मिन्प्रवितते यज्ञे अभिजातः पुनर्वसुः।
      अश्वमेधं च पुत्रार्थमाजहार नरोत्तमः।६४।
      तस्य मध्येति रात्रस्य सभा मध्यात् समुत्थितः।
      अतस्तु विद्वान् कर्मज्ञो यज्वा दाता पुनर्वसु।६५ ।
      तस्यासीत् पुत्रमिथुनं बभूवाविजितं किल।
      आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातं मतिमतां वर!।६६।
      इमांश्चोदाहरन्त्यत्र श्लोकान् प्रतितमाहुकम्।
      सोपासङ्गानुकर्षाणां सध्वजाना वरूथिनाम्।६७।
      रथानां मेघघोषाणां सहस्राणि दशैव तु।
      नासत्यवादी नातेजा नायज्वा नासहस्रदः।६८।
      नाशुचिर्नाप्यविद्वान् हि यो भोजेष्वभ्यजायत।
      आहुकस्य भृतिं प्राप्ता इत्येतद्वै तदुच्यते।६९।
      आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
      आहुकात् काश्यदुहिता द्वौ पुत्रौ समसूयत।७०।
      देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ।
      देवकस्य सुता वीरा जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।७१।
      देवानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः।
      तेषां स्वसारः सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ।७२।
      देवकी श्रुतदेवी च यशोदा च यशोधरा।
      श्री देवी सत्यदेवी च सुतापी चेति सप्तमी।७३।
      नवोग्रसेनस्य सुताः कंसस्तेषां तु पूर्वज।
      न्यग्रोधश्च सुनामा च कङ्कः शङ्कश्च भूयसः।७४।
      सुतन्तू राष्ट्रपालश्च युद्धमुष्टिः सुमुष्टिदः।
      तेषां स्वसारः पञ्चासन् कंसा कंसवती तथा।७५।
      सुतलन्तू राष्ट्रपाली च कङ्का चेति वराङ्गनाः।
      उग्रसेनः सहापत्यो व्याख्यातः कुकुरोद्भवः।७६।
      भजमानस्य पुत्रोऽथ रथिमुख्यो विदूरथः।
      राजाधिदेवः शूरश्च विदूरथ सुतोऽभवत्।७७।
      राजाधिदेवस्य सुतौ जज्ञाते देवसंमितौ।
      नियमव्रतप्रधानौ शोणाश्वः श्वेतवाहनः।७८।
      शोणाश्वस्य सुताः पञ्च शूरा रणविशारदाः।
      शमीच वेदशर्मा च निकुन्तः शक्रशत्रुजित्।७९।
      शमिपुत्रः प्रतिक्षत्रः प्रतिक्षत्रस्य चात्मजः।
      प्रतिक्षेत्रः सुतो भोजो हृदीकस्तस्य चात्मजः।८०।
      हृदीकस्याभवन् पुत्रा दश भीमपराक्रमाः।
      कृतवर्माग्रजस्तेषां शतधन्वा च मध्यमः।८१।
      देवार्हश्चैव नाभश्च भीषणश्च महाबलः।
      अजातो वनजातश्च कनीयक करम्बकौ।८२।
      देवार्हस्य सुतो विद्वान् जज्ञे कम्बलबर्हिषः।
      असमञ्जाः सुतस्तस्य तमोजास्तस्य चात्मजः।८३।
      अजातपुत्रा विक्रान्ता स्त्रयः परमकीर्त्तयः।
      सुदंष्ट्रश्च सुनाभश्च कृष्ण इत्यन्धकामताः।८४।
      अन्धकानामिमं वंशं यः कीर्त्तयति नित्यशः।
      आत्मनो विपुलं वंशं प्रजावानाप्नुते नरः।८५ ।

      मत्स्यपुराणम्-अध्यायः4
      कृष्णोत्पत्तिवर्णनम्।

                          सूत उवाच।
      ऐक्ष्वाकी सुषुवे शूरं ख्यातमद्भुत मीढुषम्।
      पौरुषाज्जज्ञिरे शूरात् भोजायां पुत्रकादश।१।
      वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुन्दुभिः।
      देवमार्गस्ततो जज्ञे ततो देवश्रवाः पुनः।२।
      अनाधृष्टिः शिनिश्चैव नन्दश्चैव ससृञ्जयः।
      श्यामः शमीकः संयूपः पञ्च चास्य वराङ्गनाः।३।
      श्रुतकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवी श्रुतश्रवाः।
      राजाधि देवी च तथा पञ्चैता वीरमातरः।४।
      कृतस्य तु श्रुता देवी सुग्रहं सुषुवे सुतम्।
      कैकेय्यां श्रुतकीर्त्यान्तु जज्ञे सोऽनुव्रतो नृपः।५ ।
      श्रुत श्रवसि चैद्यस्य सुनीथः समपद्यत।
      वार्षिको धर्म्मशारीरः स बभूवारिमर्दनः।६ ।
      अथ सख्येन वृद्धेऽसौ कुन्तिभोजे सुतां ददौ।
      एवं कुन्ती समाख्याता वसुदेवस्वसा पृथा।७।
      वसुदेवेन सा दत्ता पाण्डोर्भार्या ह्यनिन्दिता।
      पाण्डो रर्थेन सा जज्ञे देवपुत्रान् महारथान्।८।
      धर्माद्युधिष्ठिरो जज्ञे वायोर्जज्ञे वृकोदरः।
      इन्द्राद्धनञ्जयश्चैव शक्रतुल्य पराक्रमः।९ ।
      माद्रवत्यान्तु जनितावश्विभ्यामिति शुश्रुमः।
      नकुलः सहेदवश्च रूपशीलगुणान्वितौ।१०।
      रोहिणी पौरवी सा तु ख्यातमानकदुन्दुभेः।
      लेभे ज्येष्ठसुंतं रामं सारणञ्च सुतं प्रियम्।। ४६.११ ।।
      दुर्दमं दमनं सुभ्रु पिण्डारक महाहनू।
      चित्राक्ष्यौ द्वे कुमार्य्यौ तु रोहिण्यां जज्ञिरे तदा।। ४६.१२ ।।
      देवक्यां जज्ञिरे शौरेः सुषेणः कीर्तिमानपि।
      उदासी बद्रसेनश्च ऋषिवासस्तथैव च।।
      षष्ठो भद्र विदेहश्च कंसः सर्वानघातयत्।४६.१३।
      प्रथमाया अमावास्या वार्षिकी तु भविष्यति।
      तस्यां जज्ञे महाबाहुः पूर्वकृष्णः प्रजापतिः।। ४६.१४ ।।
      अनुजात्वभवत् कृष्णात् सुभद्रा भद्रभाषिणी।
      देवक्यान्तु महातेजा जज्ञे शूरो महायशाः।। ४६.१५ ।
      सहदेवस्तु ताम्रायां जज्ञे शौरिकुलोद्वहः।
      उपासङ्गधरं लेभे तनयं देवरक्षिता।।
      एकां कन्याञ्च सुभगां कंसस्तामभ्यघातयत्।। ४६.१६ ।।
      विजयं रोचमानञ्च वर्द्धमानन्तु देवलम्।
      एते सर्वे महात्मानो ह्युपदेव्याः प्रजज्ञिरे।४६.१७ ।।
      अवगाहो महात्मा च वृकदेव्यामजायत।
      वृकदेव्यां स्वयं जज्ञे नन्दको नामनामतः।४६.१८।।
      सप्तमं देवकी पुत्रं मदनं सुषुवे नृप।
      गवेषमं महाभागं संग्रामेष्वपराजितम्। ४६.१९।।
      श्रद्धा देव्या विहारे तु वने हि विचरन् पुरा।
      वैश्यायामदधात् शौरिः पुत्रं कौशिकमग्रजम्।। ४६.२०।
      सुतनू रथराजी च शौरेरास्तां परिग्रहौ।
      पुण्ङ्रश्च कपिलश्चैव वसुदेवात्मजौ बलौ।४६.२१ ।।
      जरा नाम निषादोऽभूत् प्रथमः स धनुर्धरः।
      सौभद्रश्च भवश्चैव महासत्वौ बभूवतुः।। ४६.२२ ।।
      देवभाग सुतश्चापि नाम्नाऽसावुद्धवः स्मृतः।
      पण्डितं प्रथमं प्राहु र्देवश्रवः समुद्भवम्।४६.२३ ।।
      ऐक्ष्वाक्यलभतापत्य आनाधृष्टेर्यशस्विनी।
      निर्धूतसत्वं शत्रुघ्नं श्राद्धस्तस्मादजायत।४६.२४।
      करूषायानपत्याय कृष्णस्तुष्टः सुतन्ददौ।
      सुचन्द्रन्तु महाभागं वीर्यवन्तं महाबलम्।४६.२५ ।
      जाम्बवत्याः सुतावेतौ द्वौ च सत्कृतलक्षणौ।
      चारुदेष्णश्च साम्बश्च वीर्यवन्तौ महाबलौ।.२६ ।।
      तन्तिपालश्च तन्तिश्च नन्दनस्य सुतावुभौ।
      शमीकपुत्राश्चत्वारो विक्रान्ताः सुमहाबलाः।।
      विराजश्च धनुश्चैव श्याम्यश्च सृञ्जयस्तथा।। ४६.२७ ।।
      अनपत्योऽभवच्छ्यामः शमीकस्तु वनं ययौ।
      जुगुप्समानो भोजत्वं राजर्षित्वमवाप्तवान्।। ४६.२८ ।।
      कृष्णस्य जन्माभ्युदयं यः कीर्तयति नित्यशः।
      श्रृणोति मानवो नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते।४६/२९।
      कृष्ण वंशावली  
                          मत्स्य पुराण
      ऋषियों! (अब) आप लोग राजर्षि क्रोष्टु के उस उत्तम बल-पौरुष से सम्पन्न वंश का वर्णन सुनिये, जिस वंश में वृष्णिवंशावतंस भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) अवतीर्ण हुए थे। क्रोष्टु के पुत्र महारथी वृजिनीवान हुए। वृजिनीवान के स्वाह (पद्मपुराण में स्वाति) नामक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ। राजन्! वक्ताओं में श्रेष्ठ रुषंगु स्वाह के पुत्ररूप में पैदा हुए। रुषंगु ने संतान की इच्छा से सौम्य स्वभाव वाले पुत्र की कामना की। तब उनके सत्कर्मों से समन्वित एवं चित्र-विचित्र रथ से युक्त चित्ररथ नामक पुत्र हुआ। चित्ररथ के एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ जो शशबिन्दु नाम से विख्यात था। वह आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट हुआ। वह यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देने वाला था। पूर्वकाल में इस शशबिन्दु के विषय में वंशानुक्रमणिकारूप यह श्लोक गाया जाता रहा है कि शशबिन्दु के सौ पुत्र हुए। उनमें भी प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। वे सभी प्रचुर धन-सम्पत्ति एवं तेज़ से परिपूर्ण, सौन्दर्यशाली एवं बुद्धिमान थे। उन पुत्रों के नाम के अग्रभाग में 'पृथु' शब्द से संयुक्त छ: महाबली पुत्र हुए। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं- पृथुश्रवा, पृथुयशा, पृथुधर्मा, पृथुंजय, पृथुकीर्ति और पृथुमनां ये शशबिन्दु के वंश में उत्पन्न हुए राजा थे। पुराणों के ज्ञाता विद्वान् लोग इनमें सबसे ज्येष्ठ पृथुश्रवा की विशेष प्रशंसा करते हैं। उत्तम यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पृथुश्रवाका पुत्र सुयज्ञ हुआ। सुयज्ञ का पुत्र उशना हुआ, जो सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा था। उसने इस पृथ्वी की रक्षा करते हुए सौ अश्वमेध-यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उशना का पुत्र तितिक्षु हुआ जो शत्रुओं को संतप्त कर देने वाला था। राजर्षियों में सर्वश्रेष्ठ मरूत्त तितिक्षु के पुत्र हुए। मरूत्त का पुत्र वीरवर कम्बलवर्हिष था। कम्बलबर्हिष का पुत्र विद्वान् रूक्मकवच हुआ। रूक्मकवच ने अपने अनेकों प्रकार के बाणों के प्रहार से धनुर्धारी एवं कवच से सुसज्जित शत्रुओं को मारकर इस पृथ्वी को प्राप्त किया था। शत्रुवीरों का संहार करने वाले राजा रूक्मकवच ने एक बार बड़े (भारी) अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा प्रदान की थी ॥14-27॥
      इन (राजा रूक्मकवच)- के रूक्मेषु, पृथुरूक्म, ज्यामघ, परिघ और हरिनामक पाँच पुत्र हुए, जो महान् पराक्रमी एवं श्रेष्ठ धनुर्धर थे। पिता रूक्मकवच ने इनमें से परिघ और हरि- इन दोनों को विदेह देश के राज-पद पर नियुक्त कर दिया। रूक्मेषु प्रधान राजा हुआ और पृथुरूक्म उसका आश्रित बन गया। उन लोगों ने ज्यामघ को राज्य से निकल दिया। वहाँ एकत्र ब्राह्मण द्वारा समझाये- बुझाये जाने पर वह प्रशान्त-चित्त होकर वानप्रस्थीरूप से आश्रमों में स्थिररूप से रहने लगा। कुछ दिनों के पश्चात् वह (एक ब्राह्मण की शिक्षा से) ध्वजायुक्त रथ पर सवार हो हाथ में धनुष धारण कर दूसरे देश की ओर चल पड़ा। वह केवल जीविकोपार्जन की कामना से अकेले ही नर्मदातट पर जा पहुँचा। वहाँ दूसरों द्वारा उपभुक्त- ऋक्षवान् गिरि (शतपुरा पर्वत-श्रेणी)- पर जाकर निश्चितरूप से निवास करने लगा। ज्यामघकी सती-साध्वी पत्नी शैव्या प्रौढ़ा हो गयी थीं (उसके गर्भ से) कोई पुत्र न उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यद्यपि राजा ज्यामघ पुत्रहीन अवस्था में ही जीवनयापन कर रहे थे, तथापि उन्होंने दूसरी पत्नी नहीं स्वीकार की। एक बार किसी युद्ध में राजा ज्यामघ की विजय हुईं वहाँ उन्हें (विवाहार्थ) एक कन्या प्राप्त हुई। (पर) उसे लाकर पत्नी को देते हुए राजा ने उससे भयपूर्वक कहा- 'शुचिस्मिते ! यह (मेरी स्त्री नहीं,) तुम्हारी स्नुषा (पुत्रबधू) है।' इस प्रकार कहे जाने पर उसने राजा से पूछा- 'यह किसकी स्नुषा है?॥28-34॥
      शैव्या।प्राय: अठारह पुराणों तथा उपपुराणों में एवं भागवतादि की टीकाओं में 'ज्यामघ' की पत्नी शैव्या ही कही गयी है। कुछ मत्स्यपुराण की प्रतियों में 'चैत्रा' नाम भी आया है, परंतु यह अनुकृति में भ्रान्तिका ही परिणाम है। तब राजा ने कहा-(प्रिये) तुम्हारे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसी की यह पत्नी होगी। (यह आश्चर्य देख-सुनकर वह कन्या तप करने लगी।) तत्पश्चात् उस कन्या की उग्र तपस्या के परिणामस्वरूप वृद्धा प्राय: बूढ़ी होने पर भी शैव्याने (गर्भ धारण किया और) विदर्भ नामक एक पुत्र को जन्म दिया। उस विद्वान् विदर्भ ने स्त्रुषाभूता उस राजकुमारी के गर्भ से क्रथ, कैशिक तथा तीसरे परम धर्मात्मा लोमपाद नामक पुत्रों को उत्पन्न किया। ये सभी पुत्र शूरवीर एवं युद्धकुशल थे। इनमें लोमपाद से मनु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा मनु का पुत्र ज्ञाति हुआ। कैशिक का पुत्र चिदि हुआ, उससे उत्पन्न हुए नरेश चैद्य नाम से प्रख्यात हुए। विदर्भ-पुत्र क्रथ के कुन्ति नामक पुत्र पैदा हुआ। कुन्ति से धृष्ट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो परम प्रतापी एवं रणविशारद था। धृष्टका पुत्र निर्वृति हुआ जो धर्मात्मा एवं शत्रु-वीरों का संहारक था। निर्वृति के एक ही पुत्र था जो विदूरथ नाम से प्रसिद्ध था। विदूरथ का पुत्र दशार्ह  और दशार्ह का पुत्र व्योम बतलाया जाता है। दशार्हवंशी व्योम से पैदा हुए पुत्र को जीमूत नाम से कहा जाता है।35-40।
      तत्पश्चात् राजा देवावृध का जन्म हुआ, जो बन्धुओं के साथ सुदृढ़ मैत्री के प्रवर्धक थे। परंतु राजा (देवावृध) को कोई पुत्र न थां उन्होंने 'मुझे सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न पुत्र पैदा हो 'ऐसी अभिलाषा से युक्त हो अत्यन्त घोर तप किया। अन्त में उन्होंने मन्त्र को संयुक्त कर पर्णाशा  नदी के जल का स्पर्श किया। इस प्रकार स्पर्श करने के कारण पर्णाशा नदी राजा का प्रिय करने का विचार करने लगी। वह श्रेष्ठ नदी उस राजा के कल्याण की चिन्ता से व्याकुल हो उठी। अन्त में वह इस निश्चय पर पहुँची कि मैं ऐसी किसी दूसरी स्त्री को नहीं देख पा रही हूँ, जिसके गर्भ से इस प्रकार का (राजा की अभिलाषा के अनुसार) पुत्र पैदा हो सके, इसलिये आज मैं स्वयं ही हज़ारों प्रकार का रूप धारण करूँगी। तत्पश्चात् पर्णाशा ने परम सुन्दर शरीर धारण करके कुमारी रूप में प्रकट होकर राजा को सूचित किया। तब महान् व्रतशाली राजा ने उसे (पत्नीरूप से) स्वीकार कर लिया तदुपरान्त नदियों में श्रेष्ठ पर्णाशा ने राजा देवावृध के संयोग से नवें महीने में सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न बभ्रु नामक पुत्र को जन्म दिया। पुराणों के ज्ञाता विद्वान्लोगवंशानुकीर्तनप्रसंग में महात्मा देवावृध के गुणों का कीर्तन करते हुए ऐसी गाथा गाते हैं- उद्गार प्रकट करते हैं- 'इन (बभ्रु)- के विषय में हमलोग जैसा (दूर से) सुन रहे थे, उसी प्रकार (इन्हें) निकट आकर भी देख रहे हैं। बभ्रु तो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं और देवावृध (साक्षात्) देवताओं के समान हैं। राजन्  बभ्रु और देवावृध के प्रभाव से इनके छिहत्तर हज़ार पूर्वज अमरत्व को प्राप्त हो गयें राजा बभ्रु यज्ञानुष्ठानी, दानशील, शूरवीर, ब्राह्मणभक्त, सुदृढ़व्रती, सौन्दर्यशाली, महान् तेजस्वी तथा विख्यात बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। तदनन्तर (बभ्रु के संयोग से) कंक की कन्या ने कुकुर, भजमान, शशि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्रों को जन्म दिया। कुकुर का पुत्र वृष्णि, वृष्णि का पुत्र धृति, उसका पुत्र कपोतरोमा, उसका पुत्र तैत्तिरि, उसका पुत्र सर्प, उसका पुत्र विद्वान् नल था। नल का पुत्र दरदुन्दुभि नाम से कहा जाता था ॥51-63॥ नरश्रेष्ठ दरदुन्दुभि पुत्रप्राप्ति के लिये अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे उस विशाल यज्ञ में पुनर्वसु नामक पुत्र प्रादुर्भूत हुआ। पुनर्वसु अतिरात्र के मध्य में सभा के बीच प्रकट हुआ था, इसलिये वह विदान्, शुभाशुभ कर्मों का ज्ञाता, यज्ञपरायण और दानी था। वसुदेव-देवकी-बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजन्  पुनर्वसु के आहुक नामक पुत्र और आहुकी नाम की कन्या- ये जुड़वीं संतान पैदा हुई। इनमें आहुक अजेय और लोकप्रसिद्ध था। उन आहुक के प्रति विद्वान् लोग इन श्लोकों को गाया करते हैं- 'राजा आहुक के पास दस हज़ार ऐसे रथ रहते थे, जिनमें सुदृढ़ उपासंग (कूबर) एवं अनुकर्ष (धूरे) लगे रहते थे, जिन पर ध्वजाएँ फहराती रहती थीं, जो कवच से सुसज्जित रहते थे तथा जिनसे मेघ की घरघराहट के सदृश शब्द निकलते थे। उस भोजवंश में ऐसा कोई राजा नहीं पैदा हुआ जो असत्यवादी, निस्तेज, यज्ञविमुख, सहस्त्रों की दक्षिणा देने में असमर्थ, अपवित्र और मूर्ख हो।' राजा आहुक से भरण-पोषण की वृत्ति पाने वाले लोग ऐसा कहा करते थे। आहुक ने अपनी बहन आहुकी को अवन्ती-नरेश को प्रदान किया था। आहुक के संयोग से काश्य की कन्या ने देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। वे दोनों देव-पुत्रों के सदृश कान्तिमान एवं पराक्रमी चार शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम हैं- देववान, उपदेव, सुदेव और देवरक्षित। इनके सात बहनें भी थीं, जिन्हें देवक ने वसुदेव को समर्पित किया था। उनके नाम हैं- देवकी, श्रुतदेवी, मित्रदेवी, यशोधरा, श्रीदेवी, सत्यदेवी और सातवीं सुतापी ॥64-73॥ 
      कंस उग्रसेन के नौ पुत्र थे, उनमें कंस ज्येष्ठ था। उनके नाम हैं- न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद। उनके कंसा, कंसवती, सतन्तू, राष्ट्रपाली और कंका नाम की पाँच बहनें थीं, जो परम सुन्दरी थीं। अपनी संतानों सहित उग्रसेन कुकुर-वंश में उत्पन्न हुए कहे जाते हैं भजमान का पुत्र महारथी विदूरथ और शूरवीर राजाधिदेव विदूरथ का पुत्र हुआ। राजाधिदेव के शोणाश्व और श्वेतवाहन नामक दो पुत्र हुए, जो देवों के सदृश कान्तिमान और नियम एवं व्रत के पालन में तत्पर रहने वाले थे। शोणाश्व के शमी, देवशर्मा, निकुन्त, शक्र और शत्रुजित नामक पाँच शूरवीर एवं युद्धनिपुण पुत्र हुए। शमी का पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र का पुत्र प्रतिक्षत्र, उसका पुत्र भोज और उसका पुत्र हृदीक हुआ। हृदीक के दस अनुपम पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें कृतवर्मा ज्येष्ठ और शतधन्वा मँझला था। शेष के नाम (इस प्रकार) हैं- देवार्ह, नाभ, धिषण, महाबल, अजात, वनजात, कनीयक और करम्भक। देवार्ह के कम्बलबर्हिष नामक विद्वान् पुत्र हुआ। उसका पुत्र असोमजा और असोमजा का पुत्र तमोजा हुआ। इसके बाद सुदंष्ट, सुनाभ और कृष्ण नाम के तीन राजा और हुए जो परम पराक्रमी और उत्तम कीर्तिवाले थे। इनके कोई संतान नहीं हुई। ये सभी अन्धकवंशी माने गये हैं। जो मनुष्य अन्धकों के इस वंश का नित्य कीर्तन करता है वह स्वयं पुत्रवान होकर अपने वंश की वृद्धि करता है।74-85।

      टीका टिप्पणी और संदर्भ-
      ↑ भागवत 9।23।31 तथा विष्णु पुराण4।12।2 में 'रूशंगु' एवं पद्म पुराण 1।13।4 में 'कुशंग' पाठ है।
      ↑ अन्यत्र शिमेयु, रूचक या शितपु पाठ भी मिलता है।
      ↑ इन्हीं से श्रीकृष्ण आदि दाशार्हवंशीरूप में प्रसिद्ध हुए हैं।
      ↑ भारत में पर्णाशा नाम की दो नदियाँ हैं ये दोनों राजस्थान की पूर्वी सीमापर स्थित हैं और पारियात्र पर्वत से निकली हैं। (द्रष्टव्य मत्स्य0 12।50 तथा वायुपुराण 38।176
      ↑ अधिकांश अन्य पुराणसम्मत यहाँ 'धृष्णु' पाठ मानना चाहिये, या इन्हें द्वितीय वृष्णि मानना चाहिये।
      ↑ पद्मपुराण 1।13।40 में चन्दनोदकदुंदुभि नाम है।
      साभार भारतकोश-
      "कार्त्तवीर्य्यार्ज्जुनोद्देशेन दीयमाने दीपे । तद्दानविधानादि विधानपारिजाते उड्डामेश्वरतन्त्रे उक्तं यथा“गोमयेनोपलिप्तायां शुद्धभूमौ समाहितः। तन्मध्ये मण्डलं कार्य्यं त्रिकोणं विन्दुसंयुतम् । षट्कोणं तद्बहिः कार्यं मध्ये मूलं समालिखेत् । तण्डुलैःकुङ्कुमाक्तैर्वा रक्तचन्दनमिश्रितैः। तस्योपरि न्यसेद्दापं घृतपूरितवर्त्तिकम् । तं दीपं विधिनायुज्य पश्चात्सङ्कल्पयेत्ततः। कार्त्तवीर्य ! महाबाहो! भक्तानामभयप्रद ! गृहाण दीपं मद्दत्तं कल्याणं कुरु सर्वदा। अनेन दीपदानेन कार्तवीर्यस्तु प्रीयताम् । पश्चिमाभिमुखं दीपं कारयेत् शुभकर्मणि । अभिचारे तु त्रितयं दक्षिणोत्तरपश्चिमे । नष्टप्राप्तौ च कुर्वीत पञ्चादिविषमान् पुनः । वश्याभिकाक्षी कुर्वीत गुर्वाज्ञां प्राप्य साधकः । चतुर्वर्गफलायैव शतदीपाबलिं ततः । मारणे तु सहस्रं स्याद्द शासाहस्रमेव च । दीपावलिं प्रकुवीर्त गुर्वाज्ञां प्राप्य साधकः । चतुर्वर्गफलावाप्त्यै कुर्वीत प्रतिवासरम् । अनेन दीपदानेन कार्त्तवीर्यः प्रसीदति । एवं दीपं सुरेशानि! कुर्वीत गुरुशासनात्! । महाभये समुत्पन्ने चिन्ताव्याकुलितेक्षणे । लवणं स्वर्णसंयुक्तं देयं रात्रौ विचक्षणैः । पूर्णमासीदिने कुर्यान्नगरैका प्रदक्षिणा । ग्रामे पुरे गोव्रजे वा साधकः सर्वकालतः । एतत् सारतरं देवि ! न देयं यस्य कस्यचित् । गुरुभक्ताय शान्ताय साधकाय प्रकाशयेत् । नास्तिकाय न दातव्यं परशिष्याय नो वदेदिति” । तद्दीपपात्रादिविवृतिःतत्रैव “राजचोरादिपीडासु ग्रहरोगभयेषु च । नाना-  दु स्वेषु देवेशि ! सुखप्राप्त्यै तथैव च । दीपं कुर्वीत विधिव- दुगुरुदर्शितमार्गतः । दीपपात्रं नवं कार्यं महाकार्ये विशेषतः । सौवर्णं राजतं ताम्रं कांस्यं लौहं च मृण्मयम् । गोधूममाषमुद्गानां चूर्णेन घटितेऽथवा । सौवर्णे कार्य-सिद्धिः स्यात् रौप्ये वश्य जगत् भवेत् । ताम्रे रिपोभयाभावः कांस्ये विद्वेषणं भवेत् । मारणे लोहपात्रं च उच्चाटे मृण्मयं तथा । गोधूमचूर्ण्घटिते विवादे विजयो घ्रुवम् ।माषे शत्रुमुखस्तम्भो मुद्गे स्याच्छान्तिरुत्तमा सन्धिकार्ये नदीकूलद्वयोर्मृत्स्नां तु कारयेत् । अलाभे सर्वपात्राणां ताम्रे कुर्याद्विचक्षणः। सप्त पञ्च तथा तिस्र एका वा वर्तिका भवेत् । अयुग्मा वर्त्तिका ग्राह्या एकोत्तरशतावधिः । गुरुकार्येऽधिका कार्या स्वल्पे स्वल्पतमा प्रिये ! । सूत्रं श्वेतं तथा पीतं माञ्जिष्ठञ्च कुसुम्भजम् । कृष्णञ्च कर्वुरञ्चैव क्रमतो विनियोजयेत् । सर्वाभावे सितेनैव कुर्याद्वर्त्तीः पृथक् भवेत् । दणपञ्चाधिकाश्चैव विंशत्रिंशा स्तथैव च । चत्वारिंशत्तथा कार्याः पञ्चाशदपि वा भवेत् । अष्टोत्तरसहस्रं वा शतं पञ्चाशदेव च । तत्तत्कार्यवशाद् देवि ! कुर्यात्तन्तून् समाहितः । षट्कर्म्माणि तथा कुर्यात् साधकश्च सुबुद्धिमान् । चत्वारिंशदधिकांश्च नित्यदीपे तु कारयेत् । तदर्द्धमपि च प्रोक्तं देवि! विश्वार्तिहारिणि! । गोघृतेन प्रकर्त्तव्यो दीपः सर्वार्थसिद्धये । गोमयेनोपलिप्तायां भूमौ यन्त्रं समालिखेत् । कपिलागोमयेनैव षट्कोणञ्च लिखेत्ततः । मारवीजं (क्लाँ) कर्णिकायां षट्पात्रे वोजषट्ककम् । दिक्षुवीजचतुष्कञ्च शेषैः संवेष्टयेद्धि तत् । तत्र प्रत्यड्मुखो दीपः स्थाप्यः सर्वाङ्गसुन्द्ररि! । प्राणानायन्य विधिवन्मूलेनाङ्गं समाचरेत् । मन्त्रराजं लिखित्वा तु ताम्रपात्रेऽष्टगन्धकैः। स्थापयेत्पूर्वतस्तस्य कुर्यात्सङ्कल्पमादरात्” । “अनेन विधिना देवि! कार्त्तवीर्यस्य गोपतेः । दीपोदेयः प्रयत्नेन सर्वकार्यमभीप्सता । गुरोराज्ञां पुरस्कृत्य कुर्यादुदेवि! प्रयत्नतः । अन्यथा तु कृतं लोके विपरीतफलं भवेत् । विधानं दीपदानस्य कृतघ्नपिशुनाय च । ब्रह्म- कर्मविहीनाय न वक्तव्यं कदाचन । सुभक्ताय सुशिष्याय- साधकाय विशेषतः । वक्तव्यं देवि ! विधिना मम प्रीतिकरं शिवम् । किं बहूक्तेन भो देवि! कल्पोऽयमखिलार्थदः । अथाभिधीयते मानमाज्यस्य वरवर्णिनि! । साधकानां हितार्थाय सर्वार्थस्य च सिद्धये । पलानां पञ्चविंशस्तु दीपो देयोऽर्थसिद्धये । पञ्चाशता घोरशान्त्यै शत्रुवश्याय चेष्यते । पञ्चसप्ततिर्देवेशि! शत्रूणां स्यात् पराजये । एतेन रोगनाशः स्यात् सहस्रेणाखिलाः क्रियाः । सिध्यन्ति साधकानां हि प्रयोगा येऽतिदुष्कराः । नित्यदीपे न मानं हि कार्यः सोऽत्र स्वशक्तितः । यथाकथञ्चिद्देवेशि! नित्यं दीपं प्रकल्पयेत् । कार्त्तवीर्याय देवेशि ! सर्वकल्पाण सिद्धये । गुरुकार्य्येऽधिकं मानं कर्त्तव्यं देवि! सर्व्वदशि लघुद्रव्यैः प्रकर्तव्यः लघुकार्ये वरानने! । विना मानं न कुर्वीत कार्तवीर्यस्य गोपतेः” । अधिकं तत्र दृश्यम् ।  (मन्त्रमहोदधौ १७ तरङ्गे )।
       कार्त्तवोर्य्यमन्त्रादिकमुक्त्वा विशेषो दर्शितो यथा “अथ दीपविधिं वक्ष्ये कार्त्तवीर्य्यप्रियङ्करम् । वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्त्तिकाश्विनपौषतः । माघफाल्गुनयोर्मासोर्दी- पारम्भ समाचरेत् । 
      तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ विना । हस्तोत्तराश्विरौद्रेषु ६ पुष्पवैष्णव २२ वायुभॆ५ । द्विदैवते १६ च रोहिण्यां दीपारम्भो हितार्थिनाम् । चरमे २७ च, व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ सुकर्म्मणि । प्रीतौ हर्षे च सौभाग्ये शोभनायुष्मतोरपि ।       करणे विष्टिरहिते ग्रहणेऽर्द्धोदयादिषु ।          योगेषु रात्रौ पूर्व्वाह्णे दीपारम्भः कृतः शुभः । कार्त्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीव शोभनः । यदि तत्र रवेर्व्वारः श्रवणं तत्र दुर्लभम् । अत्यावश्यक- कार्य्यषु मासादीनां न शोधनम् । आद्येऽह्न्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी शयीत कौ । प्रातः स्नात्वा शुद्धभूभौ लिप्तायां गोमयोदकैः । प्राणानायम्य सङ्कल्प्य न्यासान् पूर्ब्बोदितां- श्चरेत्  षट्कोणं रचयेद्भूमौ रक्तचन्दनतण्डुलैः । अन्तःस्मरं (क्लाँ) समालिख्य षट्कोणेषु समालिखेत् । मन्त्रराजस्य षड्वर्ण्णान् कामवीजविवर्ज्जितान् । सृणि पद्मं वर्म्म चास्त्रं पूर्व्वाद्याशास्तु संलिखेत् । नवार्णै- र्वेष्टयेत्तच्च त्रिकोणं तद्बहिः पुनः । एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद्दीपभाजनम् । स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः । कांस्यपात्रं मृण्मयञ्च कनिष्ठं लौहजं मृतौ । शान्तये मुद्गचूर्णोत्थं सन्धौ गोधूमचूर्णजम् । बुध्नेषूर्द्ध्वं समानं तु पात्रं कुर्य्यात् प्रयत्नतः । अर्कदिग्वसुषट् पञ्चचतूरामाङ्गुलैर्मितम् । आज्य पलसहस्रे तु पात्रं शतपलैः कृतम् । आज्येऽयुतपले पात्रं पलपञ्चशती- कृतम् । पञ्चसप्रतिसंख्ये तु पात्रं षष्टिपलं मतम् । त्रिसहस्रीकृतपले शरार्क १२५ पलभाजनम् । द्वि- सहस्र्यां शरशिवं ११५ शतार्द्धे त्रिंशता मितम् । शठेऽक्षिशर ५५ संख्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् । नित्यदीपे वह्निपलं पात्रमाज्ये स्मृतं पलम् । एवं पात्रं प्रति- ष्ठाप्य वर्त्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत् । एका तिस्रोऽथ वा पञ्च सप्ताद्या विषमाअपि । तिथि १५ माद्या ऽऽसह स्रन्तु तन्तुसंख्या विनिर्म्मिता ।                 गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् । सहस्रपलसंख्यादि दशान्तं कार्य्यगौरवात् । सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशा- ङ्गुलाम् । तदर्द्धां वा तदर्द्धां वा सूक्ष्माग्रां स्थूल- मूलिकाम् । विसुञ्चेद्दक्षिणे भागे पात्रमध्ये कृताग्रकाम् । पात्राद्दक्षिणदिग्भागे मुक्त्वाऽङ्गुलचतुष्टयम् । अधोऽग्रां दक्षिणाधारां निखनेच्छुरिकां शुभाम् । दीपं प्रज्वा- लयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्ब्बकम् ।  दीपात् पूर्ब्बत्र दि ग्भागे सर्व्वतो भद्रमण्डले । तण्डुलाष्टदले वापि विधिवत् स्थापयेद्घटम् । तत्रावाह्य नृपाधीशं पूर्व्ववत् पूजयेत् सुधीः । लाजाक्षतान् समादाय दीपं सङ्कल्प- येत्ततः । दीपसङ्कल्पमन्त्रोऽथ कथ्यते द्वीषु ५२ भूमितः” । ततस्तन्मन्त्रादिकमुक्त्वा शेषविधिर्दर्शितो यथा “एवं दीपप्रदानस्य कर्त्ताप्नोत्यखिलेप्सितम् । दीपप्रबोध काले तु वर्ज्जयेदशुभाङ्गिरम् । विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं परिकीर्त्तितम् । शूद्राणां मध्यमं प्रोक्तं म्लेच्छस्य बधबन्धनम् । आखोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य सुखावहम् । दीपज्वाला समा सिद्ध्यै, वका नाशविधायिनी । कृते दीपे यदा पात्र भग्नं दृश्येत दैवतः । पक्षादर्व्वाक् तदा गच्छे दुयजमानोयमालयम् । वर्त्त्यन्तरं यदा कुर्य्यात् कार्य्यं सिध्येद्विलम्बतः । नेत्रहीनो भवेत् कर्त्ता तस्मिन् दीपान्तरे कृते । अशुचिस्पर्शने व्याधिर्दीपनाशे तु चौरभीः । श्वमार्जाराखुसंस्पर्शे भवेद्भूपतितोभयम् । यात्रारम्भे वसुपलेः कृतोदीपोऽखिलेष्टदः । तस्माद्दीपः प्रयत्नेन रक्षणीयोऽन्तरायतः । आ समाप्तेः प्रकुर्व्वीत ब्रह्मचर्य्यञ्च भूशयः । स्त्रीशूद्रपतितादीनां सम्भाषामपि वर्जयेत् । जपेत् सहस्रं प्रत्यह्नि मन्त्रराजं नवाक्षरम् । स्त्रोत्र- पाठं प्रतिदिनं निशीथिन्यां विशेषतः । एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो मन्त्रनायकम् । सहस्रं प्रजपेद्रात्रौ सोऽभीष्टं क्षिप्रमाप्नुयात् । समाप्य शोभने घस्रे संभोज्य द्विजनायकान् । कुम्भोदकेन कर्त्तारमभिषिञेन्मनुं स्मरन् । कर्त्ता तु दक्षिणां दद्यात् पुष्कलां तोषहेतवे । गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्य्यसुतोनृपः । गुर्व्वाज्ञया स्वयं कुर्य्याद्यदि वा कारयेद्गुरुम् । कृत्वा रत्नादिदानेन दीपदानं धरापतेः । गुर्व्वाज्ञामन्तरा कुर्य्याद्यो दीपं स्वेष्टसिद्धये । प्रत्युतानुभवत्येष हानिमेव पदे पदे । दीपदानविधिं ब्रूयात् कृतघ्नादिषु नो गुरुः । दुष्टेभ्यः कथितोमन्त्रो वक्तु र्दुःखावहो भवेत् । उत्तमं गोघृतं, प्रोक्तं मध्यमं महिषीभवम् । तिलतैलन्तु तादृक् स्यात् कनीयोऽजादिजं घृतम् । आस्यरोगे सुगन्धेन दद्यात्तैलेन दीपकम् । सिद्धार्थसम्भवेनाथ द्विषतां नाशसिद्धये । सहस्रेण पलर्दीपे विहिते चेन्न दृश्यते । कार्य्यसिद्धिस्तदा कुर्य्याद्द्विवारं दीपजं विधिम् । तदा सुदुर्लभं कार्य्यं सिध्यत्येव न संशयः । यथा कथञ्चिद्यः कुर्य्याद्दीपदानं स्ववेश्मनि । विघ्नाः सर्व्वेऽरिभिः साकं तस्य नश्यन्ति द्वरतः । सर्व्वदा जयमाप्नोति पुत्रान् पौत्रान् धनं यशः । यथा कथञ्चि- द्यो गेहे नित्यं दीपं समाचरेत् । कार्त्तवीर्य्यार्जुनप्रीत्यै सोऽभीष्टं लभते नरः । दीपप्रियः कार्त्तवीर्य्योमार्त्तण्डो नतिवल्लभः । स्तुतिप्रियो महाविष्णुर्गणेशस्तर्पणप्रियः । दुर्गाऽर्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियः शिवः” । कार्त्तवीर्य्यस्य च दत्तात्रेयलब्धयोगप्रभावात् हरेश्चक्रावताराच्च उपास्यत्वम् । यथा चास्य हरेश्चक्रांवतारत्वं तथा तस्य ध्याने वर्णिर्त यथा “उद्यत्सूर्य्यसहस्रकान्तिरखिलक्षौणी- धवैर्वन्दितो हस्तानां शतपञ्चकेन च दधच्चापानिषूं- स्तावता । कण्ठेहाटकमालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेः पायात् स्यन्दनगोऽरुणाभवसनः   ।

      श्री कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र-प्रयोग आज के धन-प्रधान युग में यदि किसी का परिश्रम से कमाया हुआ धन किसी जगह फँस जाए तथा उसकी पुनः प्राप्ति की सम्भावना भी दिखाई न पड़े, तो श्रीकार्तवीर्यार्जुन का प्रयोग अचूक तथा सद्यः फल-दायी होता है ।
      श्रीकार्तवीर्यार्जुन का प्रयोग ‘तन्त्र’-शास्त्र की दृष्टि से बड़े गुप्त बताए जाते हैं । इस प्रयोग से साधक गत-नष्ट धन को तो प्राप्त कर ही सकता है, साथ ही षट्-कर्म-साधन यहाँ तक कि प्रत्येक अभिलषित-प्राप्ति में भी सफल हो सकता है । पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार भगवान् विष्णु के अमित तेजस्वी ‘सुदर्शन चक्र’ अथवा विष्णु के अवतार – हैहय-वंशी राजा कार्तवीर्यार्जुन को हजार भुजाएँ होने के कारण ‘सहस्रार्जुन’ भी कहा जाता था । 
      प्रयोग हेतु आवश्यक निर्देश 
      १॰ प्रयोग की सफलता एवं निर्विघ्नता हेतु सर्व-प्रथम भू-शुद्धि, आसन-शुद्धि, भूत-शुद्धि, भूतोपसंहार, स्व-प्राण-प्रतिष्ठा आदि आवश्यक कर्म कर ‘श्रीविघ्न-विनाशक’ गणेश का पूजन एवं ‘कलश-स्थापन’ करें ।
       स्वयं न कर सकें, तो विद्वान ब्राह्मण का सहयोग प्राप्त करें । 
      २॰ फिर वैष्णव अष्ट-गन्ध (चन्दन, अगर, कर्पूर, चोर, कुंकुम, रोचना, जटामांसी तथा मुर) से कार्तवीर्य-यन्त्र की रचना करें । 
      ३॰ यन्त्र में प्राण-प्रतिष्ठा कर आवरण पूजा करें । 
      ४॰ कामना-भेद के अनुसार निश्चित संख्या में जप करें । जप पूरा होने पर दशांश ‘हवन‘, तद्दशांश ‘तर्पण, मार्जन व ब्राह्मण-भोज करावें । 
      ५॰ प्रयोग की सफलता के लिए दस सहस्र ‘गायत्री-जप’ परमावश्यक है ।
       ६॰ जप की पूर्ण-संख्या को इस प्रकार बाँटें कि वह सम-संख्या के आधार पर प्रतिदिन किया जा सके । किसी दिन कम और किसी दिन अधिक ‘जप’ नहीं किया जाना चाहिए ।
       ७॰ प्रतिदिन जितनी देर जप चले, उतने समय तक अखण्ड-दीपक अवश्य ही प्रज्जवलित रहना आवश्यक है । ८॰ जब तक प्रयोग चले, तब तक शास्त्रोक्त नियमों का पालन करें । ९॰ प्रयोग करने से पूर्व मन्त्र को पुरश्चरण द्वारा सिद्ध कर लेना चाहिए । साधना-क्रम १॰ शुद्ध होकर, संकल्प करें – देश-कालौ सङ्कीर्त्य अमुक-कामना सिद्धयर्थं मम श्रीकार्तवीर्यार्जुन-देवता-प्रीति-पुरस्सरं क्षिप्रममुक-जनस्य बुद्धि-हरण-पूर्वकं स्व-धन-प्राप्तये मनोऽभिलषित-कार्य-सिद्धये वा दीप-दान-पूर्वकं अमुकामुक-संख्यात्मकं जप-रुप-प्रयोगमहं करिष्यामि । – इस प्रकार सङ्कल्प करने के बाद श्रीगणेशादि-पूजन करें । २॰ गोबर से लेपन कर शुद्ध स्थान (पक्का फर्श हो, तो धोकर पञ्च-गव्य से प्रोक्षण करें) पर ताँबे का बर्तन रखें तथा उसमें लाल चन्दन अथवा रोली से षट्-कोण बनाकर, उसके बीच में “ॐ फ्रों” लिखें । फिर उसमें एक ताँबे का दीप-पात्र (सरसों के तेल, मौली या लाल रंग से रँगी रुई की बत्ती सहित) निम्न मन्त्र पढ़ते हुए स्थापित करें – शुद्ध तैल-दीपमयं, स्थापयामि जगत्पते ! कार्तवीर्य, महा-वीर्य ! कार्यं सिद्धयतु मे हि तत् ।। ३॰ दीप-पात्र के दाहिने भाग में (अर्थात् साधक के बाँई ओर) एक नई छुरी – निम्न मन्त्र पढ़कर स्थापित करें । छुरी की धार ‘दक्षिण’- दिशा की ओर रहे और उसकी नोक (अग्र-भाग) साधक की ओर रहे – “ॐ नमः सुदर्शनास्त्राय फट् ।” ४॰ ‘दीपक’ का मुख पश्चिम की ओर या साधक की ओर रखें । निम्न मन्त्र से उसे प्रज्जवलित करें – “ॐ कार्तवीर्य नृपाधीश ! योग-ज्वलित-विग्रह ! भव सन्निहितो देव ! ज्वाला-रुपेण दीपके ।।” ५॰ मन्त्रोच्चार-पूर्वक ‘दीपक’ की ज्योति में प्राण-प्रतिष्ठा करें । यथा – पहले प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र का विनियोग पढ़ें – विनियोगः- ॐ अस्य श्रीप्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्रस्य अजेश-पद्मजाः ऋषयः, ऋग्-यजुः-सामानि छन्दांसि, प्राण-शक्तिर्देवता, आं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्रों कीलकं, श्रीकार्तवीर्यार्जुन-देव-दीपे प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः । ‘श्रीकार्तवीर्यार्जुन-दीप-देवतायै नमः’ से लाल चन्दन एवं पुष्पादि से दीपक की पूजा करें । पूजा करने के बाद निम्न मन्त्र पढ़कर ‘दीप-समर्पण’ करें – कार्तवीर्य महावीर्य ! भक्तानामभयं-कर ! दीपं गृहाण मद्-दत्तं, कल्याणं कुरु सर्वदा ।। अनेन दीप-दानेन, ममाभीष्टं प्रयच्छ च । फिर ‘दीपक’ की सन्निधि में निम्न-लिखित मन्त्र ‘प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र’ का जप करें – मन्त्रः- “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ हंसः ।” फिर श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र का विनियोगादि कर जप करें – श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र का विनियोगः- ॐ अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुन (स्तोत्रस्य) मन्त्रस्य दत्तात्रेय ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीकार्तवीर्यार्जुनो देवता, फ्रों बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- दत्तात्रेय ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीकार्तवीर्यार्जुनो देवतायै नमः हृदि, फ्रों बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, क्लीं कीलकाय नमः नाभौ ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । कर-न्यासः- ॐ आं फ्रों ब्रीं अंगुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ईं क्लीं भ्रूं तर्जनीभ्यां नमः, ॐ हुं आं ह्रीं मध्यमाभ्यां नमः, ॐ क्रैं क्रौं श्रीं अनामिकाभ्यां नमः, ॐ हुं फट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ कार्तवीर्यार्जुनाय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । हृदयादि-न्यासः- ॐ आं फ्रों ब्रीं हृदयाय नमः, ॐ ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, ॐ हुं आं ह्रीं शिखायै वषट्, ॐ क्रैं क्रौं श्रीं कवचाय हुम्, ॐ हुं फट् अस्त्राय फट्, ॐ कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे । टिप्पणी – नेत्रों का ‘न्यास’ नहीं होगा अर्थात् षडङ्ग के स्थान पर ‘पञ्चाङ्ग-न्यास’ का ही विधान है । मन्त्र-न्यासः- ॐ फ्रों ॐ हृदये । ॐ ब्रीं ॐ जठरे । ॐ क्लीं ॐ नाभौ । ॐ भ्रूं ॐ जठरे । ॐ आं ॐ गुह्ये । ॐ ह्रीं ॐ दक्ष-चरणे । ॐ क्रों ॐ वाम-चरणे । ॐ श्रीं ॐ ऊर्वोः । ॐ हुं ॐ जानुनो । ॐ फट् ॐ जङ्घयोः । ॐ कां मस्तके । ॐ तं ललाटे । ॐ वीं भ्रुवोः । ॐ यां कर्णयो । ॐ जुं नेत्रयोः । ॐ नां नासिकायां । ॐ यं मुखे । ॐ नं गले । ॐ मः स्कन्धयोः । व्यापक-न्यासः- मूल-मन्त्र से सर्वाङ्ग-न्यास करें । ध्यानः- उद्यत्-सूर्य-सहस्र्कान्तिरखिल-क्षोणी-धवैर्वन्दितः । हस्तानां शत-पञ्चकेन च दधच्चापानिषूंस्तावता ।। कण्ठे हाटक-मालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेः । पायात् स्यन्दनगोऽरुणाभ-वसनाः श्रीकार्तवीर्यो नृपः ।। मूल-मन्त्रः- “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ।” जप-संख्या एवं हवनादि – एक लाख । तद्दशांश हवन, तर्पण, मार्जन या अभिषेक, ब्राह्मण-भोजन । हवन-सामग्री- चावल, खीर तथा तिल-मिश्रित घृत । कामना-भेद से हवन-सामग्री – सरसों-रीठा-लहसुन-कपास —मारण । धतूरा या गोरोचन-गोबर —स्तम्भन । नीम-पत्र —विद्वेषण । कमल या कमल-बीज —आकर्षण । हल्दी या चम्पा-चमेली —वशीकरण । बहेड़ा व खैर-समिधा —उच्चाटन । कस्तूरी-गोरोचन —घर से भागे व्यक्ति की वापसी । कमल-मक्खन-कस्तूरी —गत धन की प्राप्ति । यव (जौ) —लक्ष्मी-प्राप्ति । तिल-घी —पाप-नाश । तिल-चावल-साँवक-लाजा —राज-वशीकरण । अपामार्ग-आक-दूर्वा —पाप-नाश व लक्ष्मी-प्राप्ति । गुग्गुल —प्रेत-शान्ति । पीपल-गूलर-पाकड़-बड़-बेल-समिधा –क्रमशः सन्तान, आयु, धन, सुख, शान्ति । साँप की केँचुली-धतूरा-पीली सरसों-नमक —चोर-नाश । धान —भूमि-प्राप्ति । टिप्पणी – सामान्य रुप से किसी भी काम्य कर्म की सफलता के लिए, जितनी संख्या ‘जप’ की होगी, उसका दशांश ‘हवन’ होगा, परन्तु जब कार्य-समस्या जटिल हो या सद्यः फल-प्राप्ति की इच्छा हो, तो हवन-संख्या एक सहस्र से दस सहस्र तक । कामना-भेद से जप-संख्याः- बन्दी-मोक्ष- १२०००, वाद-विवाद (मुकदमे में) जय- १५०००, दबे या नष्ट-धन की पुनः प्राप्ति- १३०००, वाणी-स्तम्भन-मुख-मुद्रण- १००००, राज-वशीकरण- १००००, शत्रु-पराजय- १००००, नपुंसकता-नाश/पुनः पुरुषत्व-प्राप्ति- १७०००, भूत-प्रेत-बाधा-नाश- ३७०००, सर्व-सिद्धि- ५१०००, सम्पूर्ण साफल्य हेतु- १२५००० । प्रत्येक प्रयोग में “दीप-दान” परमावश्यक है । हवन के पश्चात् ‘तर्पण’ करना होता है । वैसे तो तर्पण हवन का दशांश होता है, किन्तु कार्य की आवश्यकतानुसार हवन के अनुसार ही तर्पण भी एक हजार से दस हजार तक किया जा सकता है । कामना-भेद से तर्पणीय जल में हवन-सम्बन्धी सामग्री को आंशिक रुप में मिश्रित कर सकते हैं । तर्पण-विधिः- ताम्र-पात्र में कार्तवीर्यार्जुन-यन्त्र या ‘फ्रों’ बीज लिखें । उसी पात्र में निम्न मन्त्र से तर्पण करें – “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः कार्तवीर्यार्जुनं तर्पयामि नमः ।” अभिषेक-विधिः- ‘अभिषेक’ के सम्बन्ध में दो मत हैं – (१) देवता का मार्जन तथा (२) यजमान का मार्जन । दोनों के मन्त्र निम्न प्रकार हैं – (१) “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः कार्तवीर्यार्जुनं अभिषिञ्चामि ।” (२) “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः आत्मानं अमुकं वा अभिषिञ्चामि ।” ‘कार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र-प्रयोग’ में यजमान के मार्जन/अभिषेक की एक विशिष्ट विधि निम्न प्रकार है – शुद्ध भूमि पर गोबर/पञ्च-गव्य का लेपन/प्रोक्षण करें । उस पर अष्ट-गन्ध या लाल चन्दन से कार्तवीर्यार्जुन-यन्त्र बनावें । उस यन्त्र पर विधि-पूर्वक कलश स्थापित करें । कलश में कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर यथा-विधि पूजन करें । पूर्वोक्त विधि के अनुसार दीपक जलावें । बाँएँ हाथ से कुम्भ को स्पर्श करते हुए मूल-मन्त्र की दस माला जप करें । इस अभिमन्त्रित जल से स्वयं तथा स्व-जनों का अभिषेक करें । ऐसा करने से पुत्र, यश, आयु, स्व-जन-प्रेम, वाक-सिद्धि, गृहस्थ-सुख की प्राप्ति होती है तथा जटिल रोगों से मुक्ति मिलती है । मारण/कृत्यादि अभिचार-कर्म से प्रभावित तथा पीड़ित व्यक्ति को उस प्रभाव से मुक्ति मिलती है । श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र के जपानुष्ठान में आसन आदि लाल रंग के होते हैं । शङ्ख की माला सर्वोत्तम, रक्त-चन्दन की मध्यम तथा अन्य मालाएँ भी ठीक मानी गई है । अनुष्ठान की सफलता हेतु मूल-मन्त्र के आवश्यक जप के साथ दस गायत्री जप आवश्यक बतलाया गया है । कुछ विद्वानों का मत है कि जिस देवता के मन्त्र का जप किया जाए, उसी देवता की ‘गायत्री’ का ही जप होना चाहिए । अस्तु “श्रीकार्तवीर्यार्जुन-गायत्री” इस प्रकार है – 
      ॐ कार्तवीर्याय विद्महे महा-वीर्याय धीमहि तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात् ।”   साधन-माला  कार्तवीर्यार्जुन, प्रयोग, मन्त्र
      मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रों का समावेश है, जो आद्य माना जाता है। इसमें सहस्रबाहू का मन्त्र भी है।

      मंत्रमन्त्रमहोदधि
      सप्तदश तरङ्ग
       भाषांतरण-अरित्र-शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वार अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीय के मन्त्रों का आख्यान करत हूँ । जे कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥
      अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं - वहिन (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी; पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वहिन (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् )(ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥

      विमर्श - ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥

      इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥

      बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः - से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥

      विमर्श - न्यासविधि -  आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः,    ई क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा,
      हुं शिखायै वषट्  क्रैं श्रैं कवचाय हुम्,  हुँ फट्‍ अस्त्राय फट् ।

      इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥
      अब वर्णन्यास कहते हैं - मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम, जठर, नाभि, गुह्य, दाहिने पैर बाँये पैर, दोनो सक्थि दोनो ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥
      तदनन्तर सभी अङ्गो पर मन्त्र के सभी वर्णों का व्यापक न्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की सिद्धि हेतु राज कार्तवीर्य का ध्यान करना चाहिए ॥११॥
      विमर्श - न्यास विधि - ॐ फ्रों ॐ हृदये,        ॐ व्रीं ॐ जठरे,
      ॐ क्लीं ॐ नाभौ        ॐ भ्रूं ॐ गुह्ये,        ॐ आम ॐ दक्षपादे,
      ॐ ह्रीं ॐ वामपादे,        ॐ फ्रों ॐ सक्थ्नोः    ॐ श्रीं ॐ उर्वोः,
      ॐ हुं ॐ जानुनोः        ॐ फट्‌ ॐ जंघयोः    ॐ कां मस्तके,
      ॐ र्त्त ललाटें          ॐ वीं भ्रुवोः,       ॐ र्यां कर्णयोः
      ॐ र्जुं नेत्रयोः          ॐ नां नासिकायाम्    ॐ यं मुखे,
      ॐ नं गले,        ॐ मः स्कन्धे
      इस प्रकार न्यास कर - ॐ फ्रों श्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट्‍  कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे- से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥८-११॥
      अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं -
      उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथो में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥
      इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥
      विमर्श - कार्तवीर्य की पूजा षट्‌कोण युक्त यन्त्र में भी कही गई है । यथा - षट्‌कोणेषु षडङ्गानि... (१७. १६) तथ दशदल युक्त यन्त्र में भी यथा - दिक्पत्रें विलिखेत् (१७. २२) । इसी का निर्देश १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे दशदले’ में ग्रन्थकार करते हैं ।
      केसरों में पूर्व आदि ८ दिशाओं में एवं मध्य में वैष्णवी शक्तियोम की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए-
      ॐ विमलायै नमः, पूर्वे        ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, आग्नेये
      ॐ ज्ञानायै नमः, दक्षिणे,    ॐ क्रियायै नमः, नैऋत्ये,
      ॐ भोगायै नमः, पश्चिमे    ॐ प्रहव्यै नमः, वायव्ये
      ॐ सत्यायै नमः, उत्तरे,    ॐ ईशानायै नमः, ऐशान्ये
      ॐ अनुग्रहायै नमः, मध्ये
      इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्र से आसन दे कर मूल मन्त्र से उस पर कार्तवीर्य की मूर्ति की कल्पना कर आवाहन से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१३-१४॥
      मध्य में आग्नेय, ईशान, नैऋत्ये, और वायव्यकोणों में हृदयादि चार अंगो की पुनः चारों दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना चाहिए ॥१५॥
      तदनन्तर ढाल और तलवार लिए हुये चन्द्रमा की आभा वाले षडङ्ग मूर्तियों का ध्यान करते हुये षट्‌कोणों में षडङ पूजा करनी चाहिए ।
      इसके बाद पूर्वादि चारोम दिशाओं में तथा आग्नेयादि चारों कोणो में १. चोरमदविभञ्जन, २. मारीमदविभञ्जन, ३. अरिमदविभञ्जन, ४. दैत्यमदविभञ्जन, ५. दुःख नाशक, ६. दुष्टनाशक, ७. दुरितनाशक, एवं ८. रोगनाशक का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्व आदि ८ दिशाओं में श्वेतकान्ति वाली ८ शक्तियोम का पूजन करना चाहिए ॥१६-१८॥
      १. क्षेमंकरी, २. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यशस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. विद्याकारे, तथा ८. धनकरी ये ८ शक्तियाँ है । फिर आयुधों के साथ दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की साधना से मन्त्र के सिद्ध जो जाने पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥
      विमर्श - आवरण पूजा विधि - सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा - आं फ्रों श्रीं हृदयाय नमः आग्नेये,
      ई क्लीं भ्रूम शिरसे स्वाहा ऐशान्ये,        हु शिखायै  वषट्‍ नैऋत्ये,
      क्रैं श्रैं कंवचाय हुम् वायव्ये,            हुं फट्‌ अस्त्राय सर्वदिक्षु ।
      षडङ्गपूजा यथा -    ॐ फ्रां हृदयाय नमः,
      ॐ फ्रीं शिरसे स्वाहा,            ॐ फ्रां शिखाये वषट् ॐ फ्रै कवचाय हुम्,
      ॐ फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,        ॐ फ्रः अस्त्राय फट्,
      फिर अष्टदलों में पूर्वादि चारों दिशाओं में चोरविभञ्जन आदि का, तथा आग्नेयादि चारों कोणो में दुःखनाशक इत्यादि चार नाम मन्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चाहिए - यथा -
      ॐ चोरमदविभञ्जनाय नमः पूर्वे,       ॐ मारमदविभञ्जनाय नमः दक्षिणे,
      ॐ अरिमदविभञ्जनाय नमः पश्चिमे,  ॐ दैत्यमदविभञ्जनाय नमः उत्तरे,
      ॐ दुःखनाशाय नमः आग्नेये,       ॐ दुष्टनाशाय नमः नैऋत्ये,
      ॐ दुरितनाशानाय वायव्ये,       ॐ रोगनाशाय नमः ऐशान्ये 
      तत्पश्चात्‍ पूर्वादि दिशाओं के दलोम अग्रभाग पर श्वेत आभा वाली क्षेमंकरी आदि ८ शक्तियोम का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
      ॐ क्षेमंकर्यै नमः,  ॐ वश्यकर्यै नमः, ॐ श्रीकर्यै नमः,
      ॐ यशस्कर्यै नमः ॐ आयुष्कर्यै नमः,ॐ प्रज्ञाकर्यै नमः,
      ॐ विद्याकर्यै नमः,  ॐ धनकर्यै नमः,        
      तदनन्तर भूपुर में अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
      ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे, ॐ रं अग्नये नमः आग्नेये,
      ॐ मं यमाय नमः दक्षिणे  ॐ क्षं निऋतये नमः नैऋत्ये,
      ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमें ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,
      ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे,  ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,
      ॐ आं ब्राह्यणे नमः पूर्वेअशानयोर्मध्ये, ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ।
      फिर भूपुर के बाहर उनके वज्रादि आयुधोम की पूजा करनी चाहिए । यथा -
      ॐ शूं शूलाय नमः,  ॐ पं पद्माय नमः, ॐ चं चक्राय नमः, इत्यादि ।
      इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद धूप, दीप एवं नैवेद्यादि उपचारों से विधिवत् कार्तवीर्य का पूजन करना चाहिए ॥१५-२०॥
      अब कार्तवीय की पूजा के लिए यन्त्र कहता हूँ । काम्यप्रयोगों में कार्तवीर्यस्य काम्यप्रयोगार्थ पूजनयन्त्रम्  कार्तवीर्यपूजन यन्त्रः -
      वृत्ताकार कर्णिका में दशदल बनाकर कर्णिका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज (क्लीं), श्रुतिबीज (ॐ) एवं वाग्बीज (ऐं) लिखे, फिरे प्रणव से ले कर वर्मबीज पर्यन्त मूल मन्त्र के १० बीजों को दश दलों पर लिखना चाहिए । शेष सह सहित १६ स्वरों को केशर में तथा शेष वर्णों से दशदल को वेष्टित करना चाहिए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वर्णों को लिखना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन पूजा का यन्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥
      अब काम्य प्रयोग में अभिषेक विधि कहते है :-
      शुद्ध भूमि में श्रद्धा सहित अष्टगन्ध से उक्त यन्त्र लिखकर उस पर कुभ की प्रतिष्ठा कर उसमें कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर विधिवत् पूजन करना चाहिए ॥२३॥
      फिर अपनी इन्द्रियों ओ वश में कर साधक कलश का स्पर्श कर उक्त मुख्य मन्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्तर उस कलश के जल से अपने समस्त अभीष्टों की सिद्धि हेतु अपना तथा अपने प्रियजनों का अभिषेक करे ॥२३-२४॥
      अब उस अभिषेक का फल कहते हैं - इस प्रकार अभिषेक से अभिषिक्त व्यक्ति पुत्र, यथ, आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से प्रेम तथा उपद्रव्य होने पर उनके भय को दूर करने के लिए कार्तवीर्य के इस मन्त्र को संस्थापित करना चाहिए ॥२५-२६॥
      विविध कामनाओं में होम द्रव्य इस प्रकार है - सरसों, लहसुन एवं कपास के होम से शत्रु का मारन होता है । धतूर के होम से शत्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर विद्वेषण, कमल के होम से वशीकरण तथा बहेडा एवं खैर की समिधाओं के होम से शत्रु का उच्चाटन होता है । जौ के होम से लक्ष्मी प्राप्ति, तिल एवं घी के होम से पापक्षय तथा तिल तण्डुल सिध्दार्थ (श्वेत सर्षप) एवं लाजाओं के होम से राजा वश में हो जाता है ॥२७-२९॥
      अपामार्ग, आक एवं दूर्वा का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नाशक होता है । प्रियंतु का होम स्त्रियों को वश में करता है । गुग्गुल का होम भूतों को शान्त करता है । पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की समिधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु, धन एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥
      साँप की केंचुली, धतूरा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों ) तथा लवण के होम से चोरों का नाश होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम से स्तंभन होता है तथा शालि (धान) के होम से भूमि प्राप्त होती है ॥३२॥
      मन्त्रज्ञ विद्वान् को कार्य की न्यूनाधिकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार तक निश्चित कर लेनी चाहिए । कार्य बाहुल्य में अधिक तथा स्वल्पकार्य में स्वल्प होम करना चाहिए ॥३३॥
      विमर्श - सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दश हजार तक कही गई है, विद्वान् जैसा कार्य देखे वैसा होम करे ॥३३॥
      अब सिद्धियों को देने वाले कार्तवीर्यार्जुन के मन्त्रों के भेद कहे जाते हैं -
      अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त कार्तवीर्यार्जुन का चतुर्थ्यन्त, उसके बाद नमः लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है । अन्य मन्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥
      उक्त मन्त्र के प्रारम्भ में दो बीज (फ्रों व्रीं) लगाने से यह द्वितीय मन्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा कामबीज (क्लीं) सहित यह तृतीय मन्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सहित नवम मन्त्र और आदि में वर्म (हुं) तथा अन्त में अस्त्र (फट्) सहित दशम मन्त्र बन जाता है ॥३४-३७॥
      विमर्श - कार्तवीर्यार्जुन के दश मन्त्र - १, फ्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः २. फ्रों व्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ३. फ्रों क्लीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ४. फ्रों भ्रूं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ५. फ्रों आं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ६. फ्रों ह्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ७. फ्रों क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ८. फ्रों श्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ९. फ्रों ऐं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, १०. हुं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः फट् ॥३४-३७॥
      द्वितीय मन्त्र से लेकर नौवें मन्त्र तक बीजों का व्युत्क्रम से कथ है और दसवें मन्त्र में वर्म (हुं) और अस्त्र (फट्) के मध्य नौ वर्ण रख्खे गए हैं ॥३८॥
      इन मन्त्रों मे से जो भी सिद्धादि शोधन की रिति से अपने अनुकूल मालूम पडे उसी मन्त्र की साधना करनी चाहिए ॥३९॥
      इन मन्त्रों में प्रथम दशाक्षर का विराट्‌ छन्द है तथा अन्यों का त्रिष्टुप छन्द है ॥३९॥
      विमर्श - दशाक्षर मन्त्र का विनियोग- अस्य श्रीकार्तवीर्यार्युनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिविराट्‌छन्दः कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः ।
      अन्य मन्त्रों क विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषि स्त्रिष्टुप छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
      पूर्वोक्त १० मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव लगा देने से प्रथम दशाक्षर मन्त्र एकादश अक्षरों का तथा अन्य ९ द्वादशाक्षर बन जाते है । इस प्रकार कार्तवीर्य मन्त्र के २० प्रकार के भेद बनते है । इनकी साधना पूर्वोक्त मन्त्रों के समान है । उक्त द्वितीय दश संख्यक मन्त्रों में पहले त्रिष्टुप तथा अन्यों का जगती छन्द है । इन मन्त्रों की साधना में षड्‌ दीर्घ सहित स्वबीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४०-४१॥
      विनियोग - अस्य श्रीएकादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः कार्तवीर्यार्जुनों देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जपे विनियोगः ।
      अन्य नवके - अस्य श्रीद्वादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिर्जगतीच्छदः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
      षडङ्गन्यास - फ्रां हृदयाय नमः,  फ्रीं शिरसे स्वाहा,   फ्रूम शिखायै वषट्,
      फ्रैं कवचाय हुम्,  फ्र्ॐ नेत्रत्रयाय वौषट्,  फ्रः अस्त्राय फट् ॥४१॥

      तार (ॐ), हृत् (नमः), फिर ‘कार्तवीर्यार्जुनाय’ पद, वर्म (हुं), अ (फट्), तथा अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का मन्त्र बनता है इसकी साधना पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥४२॥

      विमर्श - चतुर्दशार्ण मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमः कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१४) ॥४२॥
      मन्त्र के क्रमशः १, २, ७, २, एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४३॥
      विमर्श - पञ्चाङ्गन्यास - ॐ हृदयाय नमः, नमः शिरसे स्वाहा,
      कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्,    हुं फट् कवचाय हुम्,   स्वाहा अस्त्राय फट ॥४३॥
      तार (ॐ), हृत् (नमः), तदनन्तर चतुर्थ्यन्त भगवत् (भगवते), एवं कार्तवीर्यार्जुन (कार्तवीर्यार्जुनाय), फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) उसमें अग्निप्रिया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्य मात्र बनता है ॥४३-४४॥
      विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमो भगवते कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१८) ॥४४॥
      इस मन्त्र के क्रमशः ३, ४, ७, २ एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४४॥
      पञ्चाङ्गन्यास - ॐ हृदयाय नमः, भगवते शिरसे स्वाहा, कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४४॥
      नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय, फिर सर्वदुष्टान्तकाय, फिर ‘तपोबल पराक्रम परिपालिलसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सर्वराजन्य चूडामण्ये सर्वशक्तिमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्र बनता हैं , जो स्मरण मात्र से सारे विध्नों को दूर कर देता है ॥४५-४७॥
      विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्वदुष्टान्तकाय तपोबलपराक्रमपरिपालितसप्तद्वीपाय सर्वराजन्यचूडाणये सर्वशक्तिमते सहस्त्रबाहवे हुं फट् (६३) ॥४५-४७॥

      १. राजन्यचक्रवर्ती, २. वीर, ३. शूर, ४. महिष्मपति, ५. रेवाम्बुपरितृप्त एवं, ६. कारागेहप्रबाधितदशास्य - इन ६ पदों के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४८-४९॥

      विमर्श - षडङ्गन्यास का स्वरुप - राजन्यचक्रवर्तिने हृदयाय नमः, वीराय शिरसे स्वाहा, शूराय शिखायै वषट्, महिष्मतीपतये कवचाय हुम्, रेवाम्बुपरितृप्ताय नेत्रत्रयाय वौषट्, कारागेहप्रबाधितशास्याय अस्त्राय फट्‌ ॥४८-४९॥

      नर्मदा नदी में जलक्रीडा करते समय युवतियों के द्वारा अभिषिच्यमान तथा नर्मदा की जलधारा को अवरुद्ध करने वाले नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान करना चाहिए ॥५०॥
      इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए तथा हवन पूजन आदि समस्त कृत्य पूर्वोक्त कथित मन्त्र की विधि से करना चाहिए । इस मन्त्र साधना के सभी कृत्य पूर्वोक्त मन्त्र के समान कहे गये हैं ॥५१॥
      अब कार्तवीर्यार्जुन के अनुष्टुप मन्त्र का उद्धार कहता हूँ -‘कार्तवीर्यार्जुनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’ तथा ‘वान्’ कहना चाहिए । फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चाहिए । यह ३२ अक्षर का मन्त्र है ।
      इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से, तथा सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए । इसका ध्यान एवं पूजन आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥५२-५३॥
      विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -
      कार्तवीर्याजुनी नाम राजा बाहुसहस्त्रावान् ।
      तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते ॥
      विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीकार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
      पञ्चाङ्गन्यास - कार्तवीर्यार्जुनो नाम हृदयाय नमः, राजा बाहुसहस्त्रवान् शिरसे स्वाहा, तस्य संस्मरणणादेव शिखायै वषट्, हृतं नष्टं च लभ्यते कवचाय हुम्, कार्तवीर्यार्जुनी० अस्त्राय फट् ॥५२-५३॥
      ‘कार्तवीर्याय’ पद दे बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महावीर्याय’ के बाद ‘धीमहि’ पद कहना चाहिए । फिर ‘तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात्’ बोलना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन का गायत्री मन्त्र है । कार्तवीर्य के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना चाहिए ॥५४-५६॥
      रात्रि में इस अनुष्टुप् मन्त्र का जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्र से तर्पण करने पर अथवा इसका उच्चारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥
      अब दीपप्रियः आर्तवीर्यः’ इस विधि के अनुसार कार्तवीर्य को प्रसन्न करने वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक, आश्विन, पौष, माघ एवं फाल्गुन में दीपदान करना प्रशस्त माना गया है ॥५७-५८॥
      चौथ, नवमी तथा चतुर्दशी - इन (रिक्ता) तिथियों को छोडकर, दिनों में मङ्गल एवं शनिवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय, आश्विनी, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, स्वाती, विशाखा एवं रोहिणी नक्षत्र में कार्तवीर्य के लिए दीपदान का आरम्भ प्रशस्त कहा गया है ॥५९-६०॥
      वैघृति, व्यतिपात, धृति, वृद्धि, सुकर्मा, प्रीति, हर्षण, सौभाग्य, शोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा विष्टि (भद्रा) को छोडकर अन्य करणों में दीपारम्भ करना चाहिए । उक्त योगों में पूर्वाहण के समय दीपारम्भ करना प्रशस्त है ॥६०-६२॥
      कार्तिक शुक्ल सप्तमी को निशीथ काल में इसका प्रारम्भ शुभ है । यदि उस दिन रविवार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत दुर्लभ है । आवश्यक कार्यो में महीने का विचार नहीं करना चाहिए ॥६२-६३॥
      साधक दीपदान से प्रथम दिन उपवास कर ब्रह्यचर्य का पालन करते हुये पृथ्वी पर शयन करे । फिर दूसरे दिन प्रातः काल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर गोबर और शुद्ध जल से हुई भूमि में प्राणायाम कर, दीपदान का संकल्प एवं पूर्वोक्त न्यासोम को करे ॥६४-६५॥
      फिर पृथ्वी पर लाल चन्दन मिश्रित चावलों से षट्‍कोण का निर्माण करे । पुनः उसके भीतर काम बीज (क्लीं) लिख कर षट्‌कोणों में मन्त्रराज के कामबीज को छोडकर शेष बीजो को (ॐ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं) लिखना चाहिए । सृणि (क्रों) पद्म (श्रीं) वर्म (हुं) तथा अस्त्र (फट्) इन चारों बीजों को पूर्वादि चारों दिशाओं में लिखना चाहिए । फिर ९ वर्णों (कार्तवीर्यार्जुनाय नमः) से उन षड्‌कोणों को परिवेष्टित कर देना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर एक त्रिकोण निर्माण करना चाहिए ॥६५-६७॥
      अब दीपस्थापन एवं पूजन का प्रकार कहते हैं -
      इस प्रकार से लिखित मन्त्र पर दीप पात्र को स्थापित करना चाहिए । वह पात्र सोने, चाँदी या ताँबे का होना चाहिए । उसके अभाव में काँसे का अथवा उसके भी अभाव में मिट्टी का या लोहे का होना चाहिए । किन्तु लोहे का और मिट्टी का पात्र कनिष्ठ (अधम) माना गया है ॥६८-६९॥
      शान्ति के और पौष्टिक कार्यो के लिए मूँगे के आटे का तथा किसी को मिलाने के लिए गेहूँ के आँटे का दीप-पात्र बनाकर जलाना चाहिए ॥६९॥
      ध्यान रहे कि दीपक का निचला भाग (मूल) एवं ऊपरी भाग आकृति में समान रुप का रहे । पात्र का परिमाण १२, १०, ८, ६, ५, या ४ अंगुल का होना चाहिए ॥७०॥
      सौ पल के भार से बने पात्र में एक हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में १० हजार पल घी, ६० पल के भार से बनाये गये पात्र में ७५ पल घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी, ११५ पल भार से बनाये गये दीप-पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये पात्र में १०० पल घी डालना चाहिए । इस प्रकार जितना घी जलाना हो अनुसार पात्र के भार की कल्पना कर लेनी चाहिए ॥७१-७३॥
      नित्यदीप में ३ पल के भार का पात्र तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थापित कर सूत की बनी बत्तियाँ डालनी चाहिए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बत्तियाँ डालिनी चाहिए । ऐसे सामान्य नियमानुसार विषम सूतों की बनी बत्तियाँ होनी चाहिए ॥७४-७५॥
      दीप-पात्र में शुद्ध-वस्त्र से छना हुआ गो घृत डालना चाहिए । कार्य के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १००० पल परिमाण पर्यन्त घी की मात्रा होनी चाहिए ॥७६॥
      सुवर्ण आदि निर्मित्त पात्र के अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८ या ४ अंगुल की एक मनोहर शलाका बनाकार उक्त दीप पात्र के, भीतर दाहिनी ओर से शलाका का अग्रभाग कर डालना चाहिए । पुनः दीप पात्र से दक्षिण दिशा में ४ अंगुल जगह छोडकर भूमि में अधोमुख एक छुरी या चाकू गाडना चाहिए । फिर गणपति का स्मरण करते हुये दीप की जलाना चाहिए ॥७७-७९॥
      दीपक से पूर्व दिशा में सर्वतोभद्र मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर मिट्टी का घडा विधिवत् स्थापित करना चाहिए । उस घट पर कार्तवीर्य का आवाहन कर साधक को पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन करना चाहिए । इतना कर लेने के बाद हाथ में जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चाहिए ॥८०-८१॥
      अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प मन्त्र कहते हैं - यह (द्वि २ इषु ५ भूमि १ अंकाना वामतो गतिः) एक सौ बावन अक्षरों का माला मन्त्र है ।
      प्रणव (ॐ), पाश (आं), माया (ह्रीं), शिखा (वषट्), इसके बाद ‘कार्त्त’ इसके बाद ‘वीर्यार्जुनाय’ के बाद ‘माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे’ इन वर्णों के बाद ‘सहस्त्र’ पद बोलना चाहिए । फिर ‘क्रतुदीक्षितहस्त दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय’, फिर वाम कर्ण (ऊ), इन्दु(अनुस्वार) सहित नभ (ह) एवं अग्नि (र्) अर्थात् (हूँ) पाश आं, फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टानाशय नाशय’, फिर २ बार ‘पातय’ और २ बार ‘घातय’ (पातय पातय घातय घातय), ‘शत्रून जहि जहि’, फिर माया (ह्रीं) तार (ॐ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (क्लीं) और फिर वाहिनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर वामनेत्रे (ई), चन्द्र (अनुस्वार) सहित २ बार आकाश (ह) अर्थात् (हीं हीं), शिवा (ह्रीं), वेदादि (ॐ), काम (क्लीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’ फिर सानुस्वर तवर्ग एवं पवर्ग (तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं), फिर प्रणव (ॐ) तथा अग्निप्रिया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का दीपदान मन्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥
      विमर्श - दीप संकल्प के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ आं ह्रीं वषट्‍ कार्तवीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे, सहस्त्रक्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय ह्रूं आं इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टान्नाशय नाशय पातय पातय घातय घातय शत्रून जहि जहि ह्रीं ॐ फ्रों क्लीं स्वाहा अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकवरप्रदानाय हीं हीं ह्रीं ॐ क्लीं व्रीं स्वाहा तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं ॐ स्वाहा (१५२) ॥८२-८९॥
      इस मालामन्त्र के दत्तात्रेय ऋषि, अमित छन्द तथा कार्तवीर्यार्जुन देवता हैं । षड्‌दीर्घसहित चामुण्डा बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥८९-९०॥
      विमर्श विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यमालमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषिरमितच्छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
      षडङ्गन्यास - ॐ व्रां हृदयाय नमः, व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
      व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्‍ व्रः अस्त्राय फट् ॥८९-९०॥
      दीप संकल्प के पहले कार्तवीर्य का ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्र का उच्चारण कर जल नीचे भूमि पर गिरा देना चाहिए  । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥९१॥
      नवाक्षर मन्त्र का उद्धार - तार (ॐ), बिन्दु (अनुस्वार) सहित अनन्त (आ) (अर्थात् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र सहित स्वबीज (फ्रीं), फिर शान्ति (ई) और चन्द्र (अनुस्वार) सहित कूर्म (व) और अग्नि (र) अर्थात् (व्रीं), फिर वहिननारी (स्वाहा), अंकुश (क्रों) तथा अन्त में ध्रुव (ॐ) लगाने से नवाक्षर मन्त्र बनता है । यथा - ॐ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा क्रों ॐ ॥९२॥

      इस मन्त्र के पूर्वोक्त दत्तानेत्र ऋषि हैं । अनुष्टुप्‍ छन्द है तथा इसके देवता और न्यास पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ।(द्र० १७. ८९-९०) इस मन्त्र का एक हजार ज्प कर कवच का पाठ करना चाहिए । (यह कवच डामर तन्त्र में हुं के साथ कहा गया है ) ॥९३॥
      विमर्श - विनियोग- अस्य नवाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तानेत्रऋषिः अनुष्टुप्‌छन्दः कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
      षडङ्गन्यास - व्रां हृदयाय नमः व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
      व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥९३॥
      इस प्रकर दीपदान करने वाला व्यक्ति अपना सारा अभीष्ट पूर्ण कर लेता है । दीप प्रज्वलित करते समय अमाङ्गलिक शब्दों का उच्चारण वर्जित है ॥९४॥
      अब दीपदान के समय शुभाशुभ शकुन का निर्देश करते हैं -दीप प्रज्वलित करते समय ब्राह्मण का दर्शन शुभावह है । शूद्रों का दर्शन मध्यम फलदायक तथा म्लेच्छ दर्शन बन्धदायक माना गया है । चूहा और बिल्ली का दर्शन अशुभ तथा गौ एवं अश्व का दर्शन शुभकारक है ॥८४-८६॥
      दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो सिद्धि और टेढी मेढी हो तो विनाश करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का शब्द भय कारक होता है । ज्योतिपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कर्ता को सुख प्राप्त होता है । यदि काला हो तो शत्रुभयदायक तथा वमन कर रहा हो तो पशुओं का नाश करता है । दीपदान करन के बाद यदि संयोगवशात् पात्र भग्न हो जावे तो यजमान १५ दिन के भीतर यमलोक का अतिथि बन जाता है ॥९६-९८॥
      अब दीपदान के शुभाशुभ कर्तव्य कहते हैं - दीप में दूसरी बत्ती डालने से कार्य सिद्ध में विलम्ब है, उस दीपक से अन्य दीपक जलाने वाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है । अशुद्ध अशुचि अवस्था में दीप का स्पर्श करने से आधि व्याधि उत्पन्न होती है । दीपक के नाश होने पर चोरों से भय तथा कुत्ते, बिल्ली एवं चूहि आदि जन्तुओं के स्पर्श से राजभय उपस्थित होता है ॥९९-१००॥
      यात्रा करत समय ८ पल की मात्रा वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूर्ण करता है । इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों से सावधानी पूर्वक दीप की रक्षा करनी चाहिए जिससे विघ्न न हो ॥१०१॥
      दीप की समाप्ति पर्यन्त कर्ता ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये भूमि पर शयन करे तथा स्त्री, शूद्र और पतितो से संभाषण भी न करे ॥१०२॥
      प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर समाप्ति पर्यन्त प्रतिदिन नवाक्षर मन्त्र (द्र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र का पाठ विशेष रुप से रात्रि के समय करना चाहिए ॥१०३॥
      निशीथ काल में एक पैर से खडा हो कर दीप के संमुख जो व्यक्ति इस मन्त्रराज का १ हजार जप करता है वह शीघ्र ही अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥
      इस प्रयोग को उत्तम दिन में समाप्त कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद कुम्भ के जल से मूलमन्त्रद्वारा कर्ता का अभिषेक करना चाहिए।।१०५।
      कर्ता साधक अपने गुरु को संतोषदायक एवं पर्याप्त दक्षिणा दे कर उन्हें संतुष्ट करे । गुरु के प्रसन्न हो जाने पर कृतवीर्य पुत्र कार्तवीर्यार्जुन साधक के सभी अभीष्टों को पूर्ण करते हैं॥१०६॥
      यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं करना चाहिए अथवा गुरु को रत्नादि दान दे कर उन्हीं से कार्तवीर्याजुन को दीपदान कराना चाहिए । गुरु की आज्ञा लिए बिना जो व्यक्ति अपनी इष्टसिद्धि के लिए इस प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कार्यसिद्धि की बात तो दूर रही, प्रत्युत वह पदे पदे हानि उठाता है ॥१०७-१०८॥
      कृतघ्न आदि दुर्जनों को इस दीपदान की विधि नहीं बतानी चाहिए । क्योंकि यह मन्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने वाले को दुःख देता है । दीप जलाने के लिए गौ का घृत उत्तम कहा गया है, भैंस का घी मध्यम तथा तिल का तेल भी मध्यम कहा गया है । बकरी आदि का घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगन्धित तेलों से दीप दान करना चाहिए । शत्रुनाश के लिए श्वेत सर्वप के तेल का दीप दान करना चाहिए । यदि एक हजार पल वाले दीओ दान करने से भी कार्य सिद्धि न हो तो विधि पूर्वक तीन दीपों का दान करना चाहिए । ऐसा करने से कठिन से भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाता है ॥१०९-११२॥
      जिस किसी भी प्रकार से जो व्यक्ति अपने घर में कार्तवीर्य के लिए दीपदान करता है, उसके समस्त विघ्न और समस्त शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव विजय प्राप्त करता है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यश प्राप्त करता है । पात्र, घृत, आदि नियम किए बिना ही जो व्यक्ति किसी प्रकार से प्रतिदिन घर में कार्तवीर्यार्जुन की प्रसन्नता के लिए दीपदान करता है वह अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है॥११३-११५॥
      तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के लिए क्रियमाण कर्तव्य का निर्देश करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं -
      कार्तवीर्यार्जुन को दीप अत्यन्त प्रिय है, सूर्य को नमस्कार प्रिय है, महाविष्णु को स्तुति प्रिय है, गणेश को तर्पण, भगवती जगदम्बा को अर्चना तथा शिव को अभिषेक प्रिय है । इसलिए इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका प्रिय संपादन करना चाहिए ॥११६-११७॥
      मन्त्रमहोदधि  आचार्य महीधर विरचित- (सप्तदशतरंग)


      "गोप" "गो" और "गायत्री"  का शास्त्रों में वर्ण व जातीय निर्धारण-  

      वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः कर्मानुसारेण फलं लभन्ते॥
      वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति॥१७॥
      (मैत्रेय्युपनिषत्)
      सरलार्थ:-वर्ण एवं आश्रम धर्म का पालन करने वाले अज्ञानी जन ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं; लेकिन वर्ण आदि के धर्मों को त्यागकर आत्मा में ही स्थिर रहने वाले मनुष्य अन्तः के आनन्द से ही पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं।।
      इसी लिए भगवान  कृष्ण ने कहा "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आजा "
      कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन है जिसमें विराट पुरुष के विभिन्न अंगों से सृष्टि हुई है। 

      " शास्त्रों के अनुसार  "ब्राह्मण "बकरे के सजातीय है  "वैश्य "गाय के सजातीय "क्षत्रिय "भेड़े (मेढ़ा)के सजीय और शूद्र घोड़े के सजातीय जन हैं। अब बताओ सबसे श्रेष्ठ पशु कौन है ?

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      एक वैदिक श्रोता- ऋषि से  प्रश्न किया " यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ? मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादा उच्येते ? 
      (ऋग्वेद▪10/90/11 )जिस पुरुष का विधान किया गया ? उसका कितने प्रकार विकल्पन( रचना) की गयी अर्थात् प्रजापति द्वारा जिस समय पुरुष विभक्त हुए तो उनको कितने भागों में विभक्त किया गया, इनके मुख ,बाहू उरु और चरण क्या कहे गये ? तो ऋषि ने इस प्रकार 👇 उत्तर दिया 
       ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य:कृत: उरू तदस्य यदवैश्य: पद्भ्यां शूद्रोऽजायत|। 
      ऋग्वेद -10/90/11-12》 
      उत्तर–इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण जाति भुजा से क्षत्रिय जाति,और  वैश्य जाति ऊरु से तथा शूद्र जाति दौनों पैरों से उत्पन्न हुई। 
      पुरुष सूक्त में जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण है ।
      इस लिए यहाँ कल्पना शब्द से उत्पत्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाएगा नकि अलंकार की कल्पना का अर्थ । क्योंकि अन्यत्र भी अकल्पयत् क्रियापद रचना करने के अर्थ में है।
      "सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" ऋग्वेद- १०/ १९१/३ अर्थात् सूर्य चन्द्र विधाता ने पूर्व रचना में बनाए थे वैसे ही अन्य इस रचना में बनाए हैं । सृष्टि उत्पत्ति के विषय में कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में वर्णन है कि 
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      प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत । 
      तमग्निर्देवान्लवसृजत गायत्रीछन्दो रथन्तरं साम । 
      ब्राह्मणोमनुष्याणाम् अज: पशुनां तस्मात्ते मुख्या मुखतो। ह्यसृज्यन्तोरसो बाहूभ्यां पञ्चदशं निरमिमीत ।। 
      तमिन्द्रो देवतान्वसृज्यतत्रष्टुपछन्दो बृहत् साम राजन्यो मनुष्याणाम् अवि: पशुनां तस्मात्ते वीर्यावन्तो वीर्याध्यसृज्यन्त ।। 
      मध्यत: सप्तदशं निरमिमीत तं विश्वे देवा देवता अनवसृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपं साम वैश्यो मनुष्याणां गाव: पशुनां तस्मात्त आद्या अन्नधानाध्यसृज्यन्त तस्माद्भूयां सोन्योभूयिष्ठा हि देवता। अन्वसृज्यन्तपत्त एकविंशं निरमिमीत तमनुष्टुप्छन्द: अन्वसृज्यत वैराजे साम शूद्रो मनुष्याणां अश्व: पशुनां तस्मात्तौ भूतसंक्रमिणावश्वश्च शूद्रश्च तसमाच्छूद्रो । यज्ञेनावक्ऌप्तो नहि देवता अन्वसृज्यत तस्मात् पादावुपजीवत: पत्तो ह्यसृज्यताम्।।
       (तैत्तिरीयसंहिता--७/१/४/९/)।👇
      तैत्तिरीयसंहिता काण्ड 7 प्रपाठकः 1अनुवाक- 4-5-6

      (4) प्रजापतिर् वाव ज्येष्ठः स ह्य् एतेनाग्रे ऽयजत प्रजापतिर् अकामयत प्र जायेयेति स मुखतस् त्रिवृतं निर् अमिमीत तम् अग्निर् देवतान्व् असृज्यत गायत्री छन्दो रथंतरꣳ साम ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम् । तस्मात् ते मुख्याः । मुखतो ह्य् असृज्यन्त । उरसो बाहुभ्याम् पञ्चदशं निर् अमिमीत तम् इन्द्रो देवतान्व् असृज्यत त्रिष्टुप् छन्दो बृहत्
      (5) साम राजन्यो मनुष्याणाम् अविः पशूनाम् । तस्मात् ते वीर्यावन्तः । वीर्याद् ध्य् असृज्यन्त मध्यतः सप्तदशं निर् अमिमीत तं विश्वे देवा देवता अन्व् असृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपꣳ साम वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् । तस्मात् त आद्याः । अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त तस्माद् भूयाꣳसो ऽन्येभ्यः । भूयिष्ठा हि देवता अन्व् असृज्यन्त पत्त एकविꣳशं निर् अमिमीत तम् अनुष्टुप् छन्दः
      (6)अन्व् असृज्यत वैराजꣳ साम शूद्रो मनुष्याणाम् अश्वः पशूनाम् । तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः । न हि देवता अन्व् असृज्यत तस्मात् पादाव् उप जीवतः पत्तो ह्य् असृज्येताम् प्राणा वै त्रिवृत् । अर्धमासाः पञ्चदशः प्रजापतिः सप्तदशस् त्रय इमे लोकाः । असाव् आदित्य एकविꣳशः । एतस्मिन् वा एते श्रिता एतस्मिन् प्रतिष्ठिताः । य एवं वेदैतस्मिन्न् एव श्रयत एतस्मिन् प्रति तिष्ठति॥____________________________________
      अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं । 
      ( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए । 
      _______ 
      हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ। (भेढ़ क्षत्रियों की सजातीय है। इन्हें भेढ़  पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए।  इसी लिए मेढ्र ( सिंचन करने वाला / गर्भाधान करने वाला ) कहा जाता है मेढ़े को । मेढ्रः, पुल्लिंग (मेहत्यनेनेति । मिह सेचने + “दाम्नी- शसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः करणे ।”३।२।१८२। इति ष्ट्रन् ) =शिश्नः । (यथा, मनौ । ८ । २८२ । “अवमूत्रयतो मेढ्रमवशर्द्धयतो गुदम् ।) स तु गर्भस्थस्य सप्तभिर्मासैर्भवति । इति सुख- बोधः ॥
      _________ 
      मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये। उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य और पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए। 
      इनकी संख्या बहुत है । 
      कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए। 
      उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।
      पीछे अनुष्टुप छन्द, वैराज, साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए । यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है । क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ। प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण "अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए। 
      ________________________
      ब्राह्मण बकरे के सजातीय और वैश्य गाय के सजातीय क्षत्रिय भेड़े (मेढ़ा)के तथा शूद्र घोड़े के सजातीय है । अब बताओ सबसे श्रेष्ठ पशु कौन सा है ?
      छन्द 4
      _     
      प्रजापतिर् वाव ज्येष्ठः
      स ह्य् एतेनाग्रे ऽयजत
      प्रजापतिर् अकामयत
      प्र जायेयेति
      स मुखतस् त्रिवृतं निर् अमिमीत
      तम् अग्निर् देवतान्व् असृज्यत गायत्री छन्दो रथंतर म्साम ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम् 
      तस्मात् ते मुख्याः ।

      मुखतो ह्य् असृज्यन्त ।
      उरसो बाहुभ्याम् पञ्चदशं निर् अमिमीत
      तम् इन्द्रो देवतान्व् असृज्यत त्रिष्टुप् छन्दो बृहत्
      कृष्ण यजुर्वेद ७/१/१/ में भी इस वैदिक  उत्पत्ति का वर्णन है। 
      छन्द 5-
      साम राजन्यो मनुष्याणाम् अविः पशूनाम् ।
      तस्मात् ते वीर्यावन्तः ।
      वीर्याद् ध्य् असृज्यन्त
      मध्यतः सप्तदशं निर् अमिमीत
      तं विश्वे देवा देवता अन्व् असृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपम्साम वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् 
      तस्मात् त आद्याः ।
      अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त
      तस्माद् भूयाम्सोम ऽन्येभ्यः ।
      भूयिष्ठा हि देवता अन्व् असृज्यन्त
      पत्त एकविंश निर् अमिमीत
      तम् अनुष्टुप् छन्दः
      छन्द-6-
      अन्व् असृज्यत वैराजम् साम शूद्रो मनुष्याणाम्
      अश्वः पशूनाम् ।
      तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च
      तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः ।
      न हि देवता अन्व् असृज्यत
      तस्मात् पादाव् उप जीवतः
      पत्तो ह्य् असृज्येताम्
      प्राणा वै त्रिवृत् ।
      अर्धमासाः पञ्चदशः
      प्रजापतिः सप्तदशस्
      त्रय इमे लोकाः ।
      असाव् आदित्य एकविंशः ।
      एतस्मिन् वा एते श्रिता एतस्मिन् प्रतिष्ठिताः ।
      य एवं वेदैतस्मिन्न् एव श्रयत एतस्मिन् प्रति तिष्ठति।

      तैत्तिरीय संहिता ७.१.१.४ में उल्लेख आता है कि प्रजापति के मुख से अजा ( बकरी)उत्पन्न हुईउर से अवि (भेड़)उदर से गौ तथा पैर  से अश्व । अज गायत्र है । जैमिनीय ब्राह्मण १.६८ में यह उल्लेख थोडे भिन्न रूप में मिलता है । वहां उर से अश्व की उत्पत्ति और पद  से अवि की उत्पत्ति का उल्लेख है जो कि प्रक्षेप ही है। प्रश्न उठता है कि मुख से अजा उत्पन्न होने का क्या निहितार्थ हो सकता है ? जैसा कि गौ शब्द की टिप्पणी में छान्दोग्य उपनिषद २.१०-२.२० के आधार पर कहा गया हैअज अवस्था सूर्य के उदित होने से पहले कीतप की अवस्था हो सकती है । अवि अवस्था सूर्य उदय के समय की अवस्था हैगौ अवस्था मध्याह्न काल की अवस्था है जब पृथिवी सूर्य की ऊर्जा को अधिकतम रूप में ग्रहण करने में सक्षम होती है । अपराह्न काल की अवस्था अश्व की और सूर्यास्त की अवस्था पुरुष की अवस्था होती है । सामों की भक्तियों के संदर्भ में अज को हिंकारअवि को प्रस्तावगौ को उद्गीथअश्व को प्रतिहार और पुरुष को निधन कह सकते हैं( रैवत पृष्ठ्य साम के संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद २.१८ ) ।

      शतपथ ब्राह्मण ४.५.५.२ में अजा आदि पशुओं के लिए पात्रों का निर्धारण किया गया है । अजा उपांशु पात्र के अनुदिश उत्पन्न होती हैंअवि अन्तर्याम पात्र केगौ आग्रयणउक्थ्य व आदित्य पात्रों केअश्व आदि एकशफ पशु ऋतु पात्र के और मनुष्य शुक्र पात्र के अनुदिश उत्पन्न होते हैं । अजा के उपांशु पात्र से सम्बन्ध को इस प्रकार उचित ठहराया गया है कि यज्ञ में प्राण उपांशु होते हैं( शतपथ ब्राह्मण ४.१.१.१)बिना शरीर केतिर: प्रकार के होते हैं( ऐतरेय आरण्यक २.३.६) । अतः इन पात्रों को उपांशु या चुपचाप रहकर ग्रहण किया जाता है । इस कथन को अजा के इस गुण के आधार पर समझा जा सकता है कि अजा के तप से शरीर के अविकसित अङ्गों काज्ञानेन्द्रियों का क्रमशः विकास होता है । मुख तक विकास होने पर ही वह व्यक्त हो पाते हैं । कहा गया है कि अजा की प्रवृति ऊपर की ओर मुख करके गमन करने की होती है जबकि अवि की नीचे की ओरभूमि का खनन करते हुए चलने जैसी । अवि के साथ अन्तर्याम पात्र सम्बद्ध करने का न्याय यह है कि उदान अन्तरात्मा है जिसके द्वारा यह प्रजाएं नियन्त्रित होती हैंयमित होती हैं । अतः इस पात्र का नाम अन्तर्याम है ( शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.२) । यह अवि के नीचा मुख करके चलने की व्याख्या भी हो सकती है क्योंकि उदान अधोमुखी होने पर ही प्रजाओं का नियन्त्रण हो पाता है । मनुष्य के शुक्र पात्र के संदर्भ में शुक्र श्वेत ज्योति को कहते हैं । अश्व और गौ के संदर्भ में पात्रों की प्रकृति के निहितार्थ अन्वेषणीय हैं ।

      परन्तु ब्राह्मण गाय पाले तों उनके लिए हेय ही है क्यों की गाय ब्रह्मा के उदर से ही उत्पन्न हुई थी 
      और बकरी (अजा) ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण के साथ उनके यज्ञों के साधन रूप में उत्पन्न हुई स्वयं अग्नि देव ने अज( बकरे ) को अपना वाहन स्वीकार किया।
       ____________
      अब ऋग्वेद में मनुष्यों की उत्पत्ति विराट पुरुष के इन अंगों से हुई।
      ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
      ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः॥
      (ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)

      (ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ) अर्थात ब्राह्मण इस विराट पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए। बाहों से क्षत्रिय ,उरू से वैश्य और  दौनों पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ।
      यदि दूसरे शब्दों के अनुसार कहे  तो इस ऋचा का अर्थ इस प्रकार समझा जा सकता है। सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्म के मुख से ब्राह्मण हुए, बाहु क्षत्रिय का कारण बने, उसकी जंघाएं वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
      वर्ण-व्यवस्था मानने वाले ब्राह्मण लोग वैदिक
      विधानों के अनुसार गाय के स्थान पर बकरी ही पालें यही वेदों का विधान है। क्यों गाय वैश्य वर्ण के साथ ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुई।
      अत: गाय को  वैश्य से सम्बन्धित कर दिया गया -
      जैसा कि पुराणों तथा वेदों का कथन है । पुराण भी वेदों के ही लौकिक व्याख्याता हैं ।
      पुराणों में और वेदान्त ग्रन्थों (तैत्तिरीय संहिता, सतपथ ब्राह्मण आदि) में वर्णन है कि -
      सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा ने अपने मुख से बकरियाँ उत्पन्न कीं और वक्ष से भेड़ों को तथा उदर से गायों को उत्पन्न किया तथा पैरों से घोड़ा उत्पन्न हुआ था ।
      ___________
      ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने को कारण ही बकरियाँ पशुओं में मुख्या =(मुख+यत्+टाप्) मुख से उत्पन्न हैं । मुख्य शब्द मुख से व्युत्पन्न तद्धितान्त पद है जो अब श्रेष्ठ अर्थ का सूचक है।
      "मुखे आदौ भवः यत् प्रथमकल्पे अमरःकोश -श्रेष्ठे च ।
      _____________
      श्रीविष्णुधर्मोत्तर पुराण प्रथमखण्ड ग्रहर्क्षादिसंभवाध्यायो नाम(107)वाँ अध्याय इस वैदिक सन्दर्भ पर प्रकाश  डालता है। देखें नीचे ये दो श्लोक-
      मुखतोऽजाःसृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत्।
      गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पुनरन्याँश्च निर्ममे।३०।
      उस जगत्सृष्टा ब्रह्मा ने मुख से अजा (बकरी) और  वक्ष से अवि( भेड़)  उत्पन्न की और गायें को उस ब्रह्मा ने उदर से पैदा किया और पुन: भी ये इसी प्रकार उत्पन्न हुए।३०।
      पादतोऽश्वांस्तुरङ्गांश्च रासभान्गवयान्मृगान् ।
      उष्ट्रांश्चैव वराहांश्च श्वानानन्यांश्च जातयः।३१।
      पैरों से अश्व और तुरंग ,रासभ ,गवय ,मृग, ऊँट वराह ( सूकर) ,कुत्ता ,और अन्य  अन्य जो जाति के जीव है वे उत्पन्न किए।३१।
      अष्टास्वेतासु सृष्टासु देवयोनिषु स प्रभुः ।
      छन्दतश्चैवछन्दासि वयांसि वयसासृजत्।४२।
      पक्षिणस्तु स सृष्ट्वा वै ततःपशुगणान्सृजन् ।
      मुखतोऽजाऽसृजन्सोऽथ वक्षसश्चाप्यवीःसृजन् ४३।
      गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्यां च विनिर्ममे ।
      पादतोऽश्वान्समातङ्गान् रासभान्गवयान्मृगान्।४४
      अनुवाद:- इन आठ दिव्य प्राणियों को बनाने के बाद, उस सृष्टा ने इच्छा करते हुए *छन्दों का सृजन किया । उन्होंने अपनी वयस् (बल - यौवन ) के माध्यम से पक्षियों का निर्माण किया।42।
      विशेष:- छन्द:-छदि+अच्-संवरणे धातोरनेकार्थत्वात् इह इच्छायाम् अच्  अभिलाषे,
      . पक्षियों को बनाने के बाद उसने पशुओं के समूह बनाए। उसने अपने मुँह से बकरियाँ और अपनी छाती से भेड़ें पैदा कीं।43
       ब्रह्मा ने अपने उदर(पेट)से गायों और पैरों से घोड़ों, गदहों, गवयों (नील गाय की एक प्रजाति), हिरण, ऊँट, सूअर और कुत्तों के साथ-साथ हाथियों को भी पैरों से पैदा किया। ब्रह्मा द्वारा जानवरों की अन्य प्रजातियाँ भी बनाई गईं।44-45
      श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते पूर्वभागे द्वितीयेऽनुषङ्गपादे मानससृष्टिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः में भी यही वर्णन 
      ____
      और उस विराट ने दोनों पैरों से घोड़े और तुरंगो, गदहों और नील गवय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार सूकर(वराह),कुत्ता जैसी अन्य जानवरों की जातियाँ उत्पन्न की ।
      ____________________________
      "बकरी ब्राह्मणों की सजातीय इसीलिए है कि ब्राह्मण भी ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुए और बकरा -बकरी भी मुख से उत्पन्न हुए हैं।अग्नि, इन्द्र ,ब्राह्मण और अजा ये सभी पहले उत्पन्न हुए और विराट पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए इसी लिए इन्हें  लोक में मुख्य कहा गया।
       "अग्रजायते ब्रह्मण:मुखात् इति अजा।
      _________________________
      (ऋग्वेद मण्डल दश सूक्त नवति और ऋचा एक से द्वादश) (१०/९०/ १ से १२ )पर्यन्त ऋग्वेद में सृष्टि रचना का वर्णन है कि
      "सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
      स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१॥
      पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
      उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥
      एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।
      पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥
      त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
      ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥
      तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
      स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥५॥
      यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
      वसन्तोअस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मःशरद्धवि:॥६॥
      तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः।
      तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥७॥
      तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
      पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥८॥
      तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
      छन्दान्सिजज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥९॥
      _____________________________
      तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
      गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजा अवयः।१०।
      तस्मात्) उस विराट पुरुष ब्रह्मा से (अश्वाः-अजायन्त) अश्व (घोड़े) उत्पन्न हुए (ये के च उभयादतः) और जो कोई ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँतवाले हैं, वे भी उत्पन्न हुए (तस्मात्-गावः-ह जज्ञिरे) उस परमात्मा से गाय  उत्पन्न हुईं  (तस्मात्-अजा-अवयः-जाताः) और  उसी विराटपुरुष से बकरियाँ और भेड़ें उत्पन्न हुईं।१०।
      ________________________________
      यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
      मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते।११।
      ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः।
      ऊरू तदस्य यद्वैश्यःपद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१२
      विष्णु धर्मोत्तरपुराण में निम्न श्लोक विचारणीय हैं। 
      मुखतोऽजाः सृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत् गावश्चैवोदराद्ब्रह्मापुनरन्याँश्च निर्ममे।1.107.३०।
      पादतोऽश्वांस्तुरङ्गांश्च रासभान्गवयान्मृगान् ।उष्ट्रांश्चैव वराहांश्च श्वानानन्यांश्च जातयः 1.107.३१।
      ________________
      ब्रह्मा ने मुख से बकरियाँ उत्पन्न कीं ।
      वक्ष से भेड़ों को और उदर से गायों को उत्पन्न किया ।३०।
      और दोनों पैरों से घोड़ो और तुरंगो , गदहों और नील-गाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार ब्रह्मा द्वारा सूकर (वराह) कुत्ता जैसी अन्य जातियाँ उत्पन्न की गयीं ।३१। यह तथ्य विष्णुधर्मोत्तर पुराण खण्ड प्रथम अध्याय (१०७) में भी है। और अन्य बहुतायत पुराणों में भी वेदों के इन्हीं सन्दर्भों का ही हवाला दिया गया है।
      _______________________________
      "अवयो वक्षसश्चक्रे मुखत: अजाःस सृष्टवान्।
      सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वभ्यां च प्रजापतिः।४८।
      पद्भ्यां चाश्वान्समातङ्गान्रासभान्गवयान्मृगान्।
      उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कूनन्याश्च जातयः।४९।
       (विष्णुपुराण प्रथमाञ्श पञ्चमोऽध्याय (५) 
      __________________
      विष्णु पुराण पञ्चमाञ्श पञ्चम् अध्याय में भी वर्णन है कि अवि (भेढ़) ब्रह्मा नें वक्ष से। और विराट-पुरुष( ब्रह्मा)  के मुख से अजा बकरी) उत्पन्न हुई हैं । उदर से गौ और अगल-बगल से प्रजापति उत्पन्न हुए ।
      तुलना करें- वायुपुराण
      मुखतोऽजान् ससर्ज्जाथ वक्षसश्चवयोऽसृजत्।
      गाश्चैवाथोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।३९।
       वायुपुराण पूर्वार्ध नवम अध्याय श्लोक ३९ वाँ।
      रजस्तमोभ्यामाविष्टांस्ततोऽन्यानसृजत् प्रभुः।।
      वयांसि वयसः सृष्ट्वा अवीन्वै वक्षसोऽसृजत् ।७.५४
      ________
      कूर्मपुराण-
      मुखतोऽजान् ससर्जान्यान् उदराद्‌गाश्चनिर्ममे ।
      पद्भ्यांचाश्वान् समातङ्गान् रासभान् गवयान् मृगान्।७.५५।
      इति श्रीकूर्मपुराणे षट्‌साहस्त्र्यां संहितायां पूर्वविभागे सप्तमोऽध्यायः।७।
      कूर्मपुराणपूर्वभाग सप्तम अध्याय -
      __________
      ततःस्वदेहतोऽन्यानि वयांसि पशवोऽसृजत्।
      मुखतोऽजाः ससर्जाथ वक्षसश्चावयोऽसृजत्।४८/२५।
      गावश्चैवोदराद् ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे।
      पद्भ्याञ्चाश्वान् स मातङ्गान् रासभान् शशकान् मृगान्।४८/२६।
      मार्कण्डेयपुराण अध्याय- ४८-०५० - 
      _____________ 
      अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्
      सृष्टवान् उदराद् गा: च महिषांश्चप्रजापतिः।१०५।
      पद्भ्यां चाश्वान्स मातंगान्रासभान्गवयान्मृगान्
      उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यंकूनन्याश्च जातयः ।१०६।
      पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय(३)का १०५ वाँ श्लोक
      _________________
      अब शिवपुराण में भी देखें-
      वयांसि पक्षतः सृष्टाः पक्षिणो वक्षसोऽसृजत् ॥
      मुखतोजांस्तथा पार्श्वादुरगांश्च विनिर्ममे ॥५६।
      पद्भ्यां चाश्वान्समातंगान् शरभान् गवयान्मृगान्॥
      उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कुनन्याश्च जातयः।५७।
      अनुवाद-
      56.उसके वक्ष( छाती) के दौनों पक्षों(ओरों) से पक्षी, मुख से बकरियाँ और हर तरफ से सर्प उत्पन्न हो गए थे।
      57. उनके पैरों से घोड़े, हाथी,शरभ, जंगली बैल, हिरण, ऊँट, खच्चर, हरिण और अन्य जानवर पैदा हुए।


      वक्त्रात्तस्य ब्रह्मणास्संप्रसूतास्तद्वक्षसःक्षत्रियाः 
      पूर्वभागात् ॥
      वैश्या उरुभ्यां तस्य पद्भ्यां च शूद्राः सर्वे वर्णा गात्रतः संप्रसूताः॥७७॥
      अनुवाद:-
      ब्राह्मण  ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं: उसकी छाती से क्षत्रिय , उसकी जांघों से वैश्य ; उनके चरणों के शूद्र सभी जातियाँ उन्हीं से उत्पन्न हुई हैं।७७।
      इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे सृष्टिवर्णनं नाम द्वादशो ऽध्यायः।
      शिवपुराण (वायवीयसंहिता)पूर्व भागःअध्यायः( १२)
      ___________________

      गायन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वाप्सरसश्च ये।
      स्वर्गं द्यौर्वक्षसश्चक्रे मुखतोऽजाः स सृष्टवान्।4.30।
      ★-सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः।
      पद्भ्यांचैवांत्यमातङ्गान्महिषोष्ट्राविकांस्तथा।4.31।
      ओषध्यः फलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे।
      गौरजःपुरुषो मेध्यो ह्यश्वाश्वतरगर्दभाः।4.32 ।
      एतान् ग्राम्यान्पशून्प्राहुरारण्यांश्च निबोध मे।
      श्वापदं द्विखुरं हस्तिवानराःपक्षिपञ्चमाः।4.33।
      औदकाःपशवःषष्ठाःसप्तमाश्च सरीसृपाः।
      पूर्वादिभ्यो मुखेभ्यस्तु ऋग्वेदाद्याःप्रजज्ञिरे। 4.34।
      आस्याद्वै ब्राह्मणा जाता बाहुभ्यां क्षत्त्रियाः स्मृताः। ऊरुभ्यां तु विशः सृष्टाः शूद्रः पद्भ्यां जायत । 4.35।
      श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे सृष्टिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः।4।
      __________________________________

      ★-सृष्टवानुदराद्‌गाश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः
      ( साम्य विष्णु पुराण प्रथमाँश पञ्चम् अध्याय)
      _____________________
      बकरी को शास्त्रों में सर्वाधिक श्रेष्ठ पशु माना गया है ब्राह्मण भी प्रारम्भिक काल में बकरी ही पालते थे।  बकरी ही उनके यजन का साधन थीं ।
      क्यों कि सृष्टि रचना में बकरी ब्रह्मा के मुख से निकली है जो ब्राह्मणों की सजातीय है। 
      परन्तु वैश्य वर्ण की गाय को ब्राह्मण द्वारा पाला जाना वेदशास्त्रों के विधान की तौहीन है। वैसे भी यादवों (गोपों)को गोपालन के कारण ही वैश्य वर्ण में करने के विधान बनाए गये ।
      गाय वैश्य वर्णा पशु है इसी लिए आज तक शंकराचार्य गण अहीरों को मात्र गोपालन करने के कारण वैश्य ही मानते हैं ।
      परन्तु अपने ऊपर ये ब्राह्मण  कोई विधान लागू ही नहीं होने देते यही इनकी शास्त्रीय तानाशाही है। जैसा ब्राह्मण अनुवादक ने वराह पुराण में वर्णित सूकर महात्म्य के एक प्रसंगकथा में "अभीराणां जनेश्वर" इस पद का अर्थ "वेैश्यों का नेता" या राजा कर दिया है। 
      गतः स पद्मपत्राक्ष आभीराणां जनेश्वरः।
      गावो विंशसहस्राणि प्रेषयत्यग्रतो द्रुतम् ।५६।
      अर्थ:- अभीरों (वैश्यों) का  राजा पद्मपत्राक्ष" चला गया और वह जल्दी में बीस हजार गायें आगे भेज देता है। 56।
      श्रीवराहपुराणे खञ्जरीटोपाख्यानं नामाष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।१३८।
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      पद्म पुराण में गाय को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न कराना और ब्राह्मण की सजातीय बनाकर ब्राह्मण को धर्म और वर्ण संकट में डालना ही है। क्यों कि गाय पालने मात्र से अहीर वैश्य हो गये और अधिकतर पुराणों शास्त्रों में गो विराट पुरुष के उदर से उत्पन्न होने से वैश्यवर्णा पशु है।
      अत: पद्म पुराण सृष्टि खण्ड का 48 वाँ अध्याय नवीनतर है क्यों इस अध्याप में ब्राह्मण को कृषि करवाने का भी शास्त्र विरोधी विधान पारित करते जाना गया है।
      कदाचित इसी विधान की आढ़ में स्कन्द पुराण की गोमुख से गायत्री उत्पादन की कथा कल्पित की गयी । 


      अहीरों को ही गोपालन वृत्ति (व्यवसाय) के कारण ही समाज में गोप नाम से सम्बोधित किया गया है। गोप सनातन हैं। और ये गोप सदैव गोपों में ही जन्म लेते हैं। जबकि ब्राह्मी सृष्टि क्रमानुसार जातीय व्युत्क्रम भी होता है । यद्यपि कर्म सिद्धांत के अधीन तो गोप भी संसार में होतो हैं। और इसके मूल में उनकी मनोवृत्ति ( इच्छा ऐ ही कारण होती है । परन्तु केवल अहीर या गोपों की जाति में ही इस कर्मानुसार उनके जन्म उच्च निम्न और मध्य सांस्कारिक स्तरों के अनुरूप ही होतो हैं। अहीर कभी ब्राह्मण अथवा वैश्य अथवा क्षत्रिय अथवा शूद्र होने की नहीं करेगा जो गोपों की सर्वश्रेष्ठता को जान लेगा।
      और गोपो की उत्पत्ति के विषय में भी ब्रह्मवैवर्त पुराण  और गर्गसंहिता  में लिखा है कि वे विष्णु अथवा कृष्ण के रोमकूपों से (क्लोनविधि) द्वारा कृष्ण के समान रूप वाले उत्पन्न हुए थे। परन्तु संसार में कर्म प्रभाव से उनके स्वरूप और स्तर बदलते रहे‌।

       यद्यपि उतन्न होने की प्राणी जगत में अनेक विधियाँ हैं प्राचीन काल में भी विज्ञान रहा होगा -जिसके अनेक साक्ष्य परोक्ष रूप से प्राप्त होते हैं। 

      यह समग्र संसार स्वयं में पूर्ण की इकाई (समष्टि) रूप है। जैसी उपनिषद का वचन है ।

      पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्ण मुदच्यते।          पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा वशिष्यते।

      शब्दार्थ - 
       अदः = वह परब्रह्म। पूर्णम् = सब प्रकार से पूर्ण है।  इदम = यह (जगत् भी)
      पूर्णम् = पूर्ण (ही) है। पूर्णात् = उस पूर्ण (परम्ब्रह्म ) से । पूर्णम् =यह पूर्ण।  उदच्यते = उत्पन्न होता है।
      पूर्णस्य = पूर्ण से।  पूर्णम् = पूर्ण को। आदाय = निकाल देने पर ।  पूर्णम् = पूर्ण। एव = ही।
      अवशिष्यते = शेष रहता है।
      अर्थ - वह (परब्रह्म ) सब प्रकार से पूर्ण है।  यह  (जगत् ) भी पूर्ण ही है ; क्योंकि यह उस पूर्ण (परब्रह्म ) से ही उत्पन्न  हुआ है।  पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। जैसे गणित में शून्य से शून्य निकलने पर केवल शून्य ही रह जाता है।
      परमात्मा ने अपनी लीलाओं के लिए कर्म सिद्धान्त का विधान संसार में किया जिनके मूल में इच्छाऐं व्याप्त हैं।
       गोपों की उत्पत्ति ब्रह्मा से नहीं अपितु गोप रूप सनातन विष्णु या नारायण अथवा कृष्ण से गी हुई है। गोलोक में कर्मफल के प्रभाव से रहित गोप कृष्ण के ही समान हैं परन्तु संसार में कर्म फल के प्रभाव से विभिन्न रूप और छोटे बड़े स्तरों वाले हैं।

      किसी मनुष्य अथवा प्राणी के समान रूप की उत्पन्न होने की जैविक विधि का एक प्रकार क्लोन( Clon) प्रतिरूप-भी है।

      क्लोनिंग एक जैविक उत्पादन (विधि) अथवा तकनीक है जिसका उपयोग वैज्ञानिक प्राणीयों की सटीक अनुवांशिक प्रतियां बनाने के लिए आज करते हैं।
      जीन, कोशिकाओं, ऊतकों और यहां तक ​​कि पूरे प्राणी को भी क्लोन विधि द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है। परन्तु स्वभाव और और प्रवृत्ति स्तर भिन्न हो सकते हैं क्लोन के केवल शारीरिक रूप ही समान होता है।

      कुछ क्लोन पहले से ही इस प्रकृति में उपस्थित हैं। बैक्टीरिया जैसे एकल-कोशिका वाले जीव हर बार पुनरुत्पादन करते समय अपनी सटीक ( यथावत सम प्रतिरूप बनाते हैं।

      मनुष्यों में, समान जुड़वाँ क्लोन के समान ही होते हैं। वे लगभग समान जीन साझा करते हैं। जब एक निषेचित अण्ड दो रूप में विभाजित होता है तो समान जुड़वाँ (यमन) पैदा होते हैं।

      वैज्ञानिक लैब में क्लोन भी बनाते हैं। वे अक्सर जीन का अध्ययन करने और उन्हें बेहतर ढंग से समझने के लिए क्लोन करते हैं।

      एक जीन को क्लोन करने के लिए, शोधकर्ता एक जीवित प्राणी से डी.एनए लेते हैं और इसे बैक्टीरिया या खमीर जैसे वाहक में डालते हैं।डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल

      DNA


      डी॰ एन॰ ए॰ जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तंतुनुमा अणु को डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल या डी॰ एन॰ ए॰ कहते हैं। इसमें अनुवांशिक कूट निबद्ध रहता है। डी एन ए अणु की संरचना घुमावदार सीढ़ी की तरह होती है। 

      हर बार जब वह वाहक प्रजनन करता है। तो जीन की एक नई प्रति बनाई जाती है। यह भी एक जैविक उत्पादन विधि है।

      प्राणीयो को दो तरीकों में से एक में क्लोन किया जाता है।
      पहले को एम्ब्रियो ट्विनिंग ( द्वितीयकरण) कहा जाता है।
      वैज्ञानिकों ने पहले एक भ्रूण को आधे में विभाजित किया।
      इसके बाद उन दोनों हिस्सों को मां के गर्भाशय में स्थापित किया जाता है।
      भ्रूण का प्रत्येक भाग एक अद्वितीय जानवर के रूप में विकसित होता है।

      और दोनों जानवर एक ही जीन साझा करते हैं।
      दूसरी विधि को सोमैटिक सेल ( कायिक- कोशिका)] न्यूक्लियर ट्रांसफर कहा जाता है। दैहिक कोशिकाएं वे सभी कोशिकाएं हैं जो एक जीव को बनाती हैं, लेकिन यह शुक्राणु या अंडाणु नहीं हैं।

      शुक्राणु और अंडे की कोशिकाओं में गुणसूत्रों का केवल एक सेट होता है ! जो मैथुनी सृष्टि के कारक है और प्रेरक हैं।
      और जब वे निषेचन के दौरान जुड़ते हैं, तो माता के गुणसूत्र पिता के साथ मिल जाते हैं।
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      दूसरी ओर, दैहिक कोशिकाओं में पहले से ही गुणसूत्रों के दो पूर्ण सेट होते हैं।

      एक क्लोन बनाने के लिए, वैज्ञानिक एक जानवर के दैहिक कोशिका से डीएनए को एक अंडे की कोशिका में स्थानांतरित करते हैं जिसका नाभिक और डीएनए हटा दिया गया है।
      अंडा एक भ्रूण में विकसित होता है जिसमें कोशिका दाता के समान जीन होते हैं।
      फिर भ्रूण को बढ़ने के लिए एक वयस्क महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है।

      क्लोन का अर्थ होता है जैविक प्रतिरूप  जीवविज्ञान में क्लोन का अपना एक स्वतन्त्र इतिहास है । गोरों की विष्णु से उत्पत्ति समझने के लिए क्लोन पद्धति को भी स्थूल दृष्टि से समझ लें
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      1996 में, स्कॉटिश वैज्ञानिकों ने पहले जानवर, एक भेड़ का क्लोन बनाया, जिसका नाम उन्होंने डॉली रखा। एक वयस्क भेड़ से ली गई उदर कोशिका का उपयोग करके उसे क्लोन किया गया था। तब से, वैज्ञानिकों ने क्लोन किए हैं- गाय, बिल्ली, हिरण, घोड़े और खरगोश।

      हालांकि, उन्होंने अभी भी एक मानव का क्लोन नहीं बनाया है। आंशिक रूप से, इसका कारण यह है कि एक व्यवहार्य क्लोन का उत्पादन करना मुश्किल है।
      प्रत्येक प्रयास में, आनुवंशिक गलतियाँ हो सकती हैं जो क्लोन को जीवित रहने से रोकती हैं।

      डॉली को सही साबित करने में वैज्ञानिकों को 276 कोशिशें करनी पड़ीं।
      मानव की क्लोनिंग के बारे में नैतिक चिंताएँ भी हैं।

      शोधकर्ता कई तरह से क्लोन का उपयोग कर सकते हैं।
      क्लोनिंग से बने भ्रूण को स्टेम सेल फैक्ट्री में बदला जा सकता है।
      स्टेम कोशिकाएँ कोशिकाओं का एक प्रारंभिक रूप हैं जो कई अलग-अलग में विकसित हो सकती हैं। कोशिकाओं और ऊतकों के प्रकार।

      मधुमेह के इलाज के लिए क्षतिग्रस्त रीढ़ की हड्डी या इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं को ठीक करने के लिए वैज्ञानिक उन्हें तंत्रिका कोशिकाओं में बदल सकते हैं।
      जानवरों के क्लोनिंग का उपयोग कई अलग-अलग अनुप्रयोगों में किया गया है।

      जानवरों को जीन म्यूटेशन के लिए क्लोन किया गया है जो वैज्ञानिकों को जानवरों में विकसित होने वाली बीमारियों का अध्ययन करने में मदद करता है। अधिक दूध उत्पादन के लिए गायों और सूअरों जैसे पशुओं का क्लोन बनाया गया है।
      क्लोन एक प्यारे पालतू जानवर को "पुनर्जीवित" भी कर सकते हैं जो मर चुका है।

      2001 में, सीसी नाम की एक बिल्ली क्लोनिंग के माध्यम से बनाई जाने वाली पहली पालतू जानवर थी। क्लोनिंग एक दिन ऊनी मैमथ या जायंट पांडा जैसी विलुप्त प्रजातियों को वापस ला सकती है।
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      1-गुणसूत्र संज्ञा:- कोशिकाओं के केंद्रक में डीएनए और संबद्ध प्रोटीन की लड़ी जो जीव की आनुवंशिक जानकारी को वहन करती है।
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      2-क्लोन संज्ञा:-कोशिका या कोशिकाओं का समूह जो आनुवंशिक रूप से अपने पूर्वज कोशिका या कोशिकाओं के समूह के समान है।
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      3-डीएनए संज्ञा:-(डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) प्रत्येक जीवित जीव में अणु जिसमें उस जीव पर विशिष्ट आनुवंशिक जानकारी होती है।
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      4-भ्रूणसंज्ञा:-विकास के प्रारंभिक चरण में अजन्मा जानवर।
      5-जीनसंज्ञा:-डीएनए का वह भाग जो आनुवंशिकता की मूल इकाई है।
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      6-प्रतिकृतिसंज्ञा:-
      एक सटीक समानप्रति या प्रजनन।
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      7-दैहिक कोशिकासंज्ञा:-कोशिकाएं जो जीव के हर हिस्से को बनाती हैं; शुक्राणु या अंडाणु नहीं
      8-स्टेम सेलसंज्ञा:-प्रारंभिक कोशिका जो शरीर में किसी भी प्रकार की कोशिका या ऊतक में विकसित हो सकती है।

      गोप केवल विष्णु के क्लोन उत्पादन हो सकते हैं जबकि चातुर्वर्ण  का उत्पादन क्लोन विधि नही है।  क्योंकि शास्त्रो में गोपों को प्रारम्भ नें विष्णु रूप में वर्णित किया गया ।

      Cloning is a technique scientists use to make exact genetic copies of living things.

      Genes, cells, tissues, and even whole animals can all be cloned.

      Some clones already exist in nature. Single-celled organisms like bacteria make exact copies of themselves each time they reproduce.
      In humans, identical twins are similar to clones.
      They share almost the exact same genes. Identical twins are created when a fertilized egg splits in two.

      Scientists also make clones in the lab. They often clone genes in order to study and better understand them.
      To clone a gene, researchers take DNA from a living creature and insert it into a carrier like bacteria or yeast. Every time that carrier reproduces, a new copy of the gene is made.

      Animals are cloned in one of two ways.
      The first is called embryo twinning.
      Scientists first split an embryo in half.
      Those two halves are then placed in a mother’s uterus.
      Each part of the embryo develops into a unique animal, and the two animals share the same genes.
      The second method is called somatic cell nuclear transfer. Somatic cells are all the cells that make up an organism, but that are not sperm or egg cells.

      Sperm and egg cells contain only one set of chromosomes !
      and when they join during fertilization, the mother’s chromosomes merge with the father’s.
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      Somatic cells, on the other hand, already contain two full sets of chromosomes.

      To make a clone, scientists transfer the DNA from an animal’s somatic cell into an egg cell that has had its nucleus and DNA removed.
      The egg develops into an embryo that contains the same genes as the cell donor.
      Then the embryo is implanted into an adult female’s uterus to grow.

      In 1996, Scottish scientists cloned the first animal, a sheep they named Dolly. She was cloned using an udder cell taken from an adult sheep. Since then, scientists have cloned- cows, cats, deer, horses, and rabbits.

      They still have not cloned a human, though. In part, this is because it is difficult to produce a viable clone.
      In each attempt, there can be genetic mistakes that prevent the clone from surviving.

      It took scientists 276 attempts to get Dolly right.
      There are also ethical concerns about cloning a human being.
      Researchers can use clones in many ways.
      An embryo made by cloning can be turned into a stem cell factory.
      Stem cells are an early form of cells that can grow into many different. types of cells and tissues.

      Scientists can turn them into nerve cells to fix a damaged spinal cord or insulin-making cells to treat diabetes.
      The cloning of animals has been used in a number of different applications.
      Animals have been cloned to have gene mutations that help scientists study diseases that develop in the animals. Livestock like cows and pigs have been cloned to produce more milk .
      Clones can even “resurrect” a beloved pet that has died. In 2001, a cat named CC was the first pet to be created through cloning. Cloning might one day bring back extinct species like the woolly mammoth or giant panda.
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      1-chromosome
      Noun
      strand of DNA and associated proteins in the nucleus of cells that carries the organism's genetic information.
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      2-clone
      Noun
      cell or group of cells that is genetically identical to its ancestor cell or group of cells.
      ___________

      3-DNA
      Noun
      (deoxyribonucleic acid) molecule in every living organism that contains specific genetic information on that organism.
      __________

      4-embryo
      Noun
      unborn animal in the early stages of development.

      5-gene
      Noun
      part of DNA that is the basic unit of heredity.
      _________

      6-replica(प्रतिकृति) 

      Noun
      an exact copy or reproduction. replica is an exact copy of an object, made out of the same raw materials, whether a molecule, a work of art, or a commercial product.

      The term is also used for copies that closely resemble the original, without claiming to be identical. 

      Also has the same weight and size as original.

      प्रतिकृति किसी वस्तु की एक सटीक प्रति है, जो एक ही कच्चे माल से बनी है, चाहे वह अणु हो, कला का काम हो या व्यावसायिक उत्पाद हो।

      इस शब्द का प्रयोग उन प्रतियों के लिए भी किया जाता है जो समान होने का दावा किए बिना मूल के समान दिखती हैं।इसका वजन और आकार मूल के समान ही है।

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      7-somatic cell
      Noun
      cells that make up every part of an organism; not a sperm or egg cell

      8-stem cell
      Noun
      early cell that can develop into any type of cell or tissue in the body

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      और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो  चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि-
      यही ऋचा यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
      _________________________________________
      ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
      ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।

      (ऋग्वेद 10/90/12)
      श्लोक का अनुवाद:-  इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के  मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से  क्षत्रिय लोग हुए एवं  उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
      अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। परन्तु हम इन  शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं ।जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
      इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूजय हैं।
      👇
      "कृष्णस्य  लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
      "आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।

      (ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
      अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
      यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में  यथावत् वर्णित है।
      "नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपिसः॥  
      गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

      "राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
      काश्चित्पुण्यैःकृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैःपरैः॥२२॥

      इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
      _______________
      शास्त्रों में  वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।
      _________
      ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।।
      ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
      अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में  वैष्णव नाम से है  और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
      उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।
      _____   
      जैसे ब्राह्मा की शारीरिक सृष्टि को ब्राह्मण कहा गया उसी प्रकार विष्णु की शारीरिक सृष्टि को वैष्णव कहा गया ।
      जिस प्रकार  शास्त्रों में ब्राह्मण वर्ण है उसी प्रकार वैष्णव भी ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्ण लिखा गया है ।
      अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप  है।
      अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है। वेदों में इसी लिए  विष्णु भगवान को गोप कहा गया है।
      _______
      त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
      अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥

      (ऋग्वेद १/२२/१८)
      (अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्) धारण करता हुआ ।  (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करता है । और ये ही
      (धर्माणि) धर्मों को धारण करता है ॥18॥
      गोप ही इस लौकिक जगत् में सबसे पवित्र और धर्म के प्रवर्तक तथा धारक थे। और इस लिए गोपों अथवानआभीरों की सृष्टि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था से पूर्णत: पृथक है।

      अत: ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के माननेवालों ने अहीरों को शूद्र तो कहीं वैश्य वर्णन कर उनके व्यक्तित्व का निर्धारण न करें ।
      परन्तु इनके कार्य सभी चारों वर्णों के होने पर भी ये वैष्णव वर्ण के थे। वैष्णव के अन्य नाम शास्त्रों में भागवत, सात्वत, और पाञ्चरात्र, भी है।
      वैष्णवों की महानता का वर्णन तो शास्त्र भी करते हैं।
      ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ ।४४।।
      अनुवाद:-वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।[४४]

      वे पेशे से गोपालक थे। तथा गोप नाम से प्रसिद्ध थे। लेकिन साथ ही उन्होंने कुरुक्षेत्र की लड़ाई में भाग लेते हुए क्षत्रियों का दर्जा हासिल किया। इसका प्रमाण निम्न श्लोक है।
      ____________________________________
      "मत्सहननं तुल्यानाँ , गोपानामर्बुद महत् ।
      नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107।

      ____________________________________
      संग्राम में गोप यौद्धा नारायणी सेना के रूप में अरबों की महान संख्या में हैं ---जो  शत्रुओं का तीव्रता से हनन करने वाले हैं ।
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      "नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु ।
      सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि ।108।

      (स्वनाम- ख्याता श्रीकृष्णसम्बन्धिनी सेना ।        इयं हि भारतयुद्धे दुर्य्योधनपक्षमाश्रितवती"
      महाभारत के उद्योगपर्व अध्याय 7,18,22,में
      वर्तमान ये गोप अहीर भी वैष्णव वर्ण के हैं।

      अहीर या यादव महान योद्धा हैं, अहीर नारायणी/यादव सेना में थे।
      द्वारका साम्राज्य के भगवान कृष्ण की यादव सेना को सर्वकालिक सर्वोच्च सेना कहा जाता है। महाभारत में इस पूरी नारायणी सेना को अहीर जाति के रूप में वर्णित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि अहीर, गोप और यादव अलग अलग लोग नहीं थे, अपितु सभी पर्यायवाची हैं।

      आभीर पुं।

      गोपालः

      समानार्थक:गोप,गोपाल,गोसङ्ख्य,गोधुक्,आभीर,वल्लव,गोविन्द,गोप

      2।9।57।2।5

      कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥

      पत्नी : आभीरी

      सेवक : गोपग्रामः

      वृत्ति : गौः

      : गवां_स्वामिः

      पदार्थ-विभागः : वृत्तिः, द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः



      यद्यपि ब्रह्मवैवर्त पुराण में गायों और भैंसों की आदि जननी सुरभि के अतिरिक्त कृष्ण के रोपकूपों से गोप और गोपिकाओं को भी उत्पन्न दर्शाया है। वस्तुत:यह उस समय की की क्लोन विधि  थी यह  एक ऐसी जैविक रचना है जो एकमात्र जनक (माता अथवा पिता) से अलैंगिक विधि द्वारा उत्पन्न होता है. उत्पादित 'क्लोन' अपने जनक से शारीरिक और आनुवंशिक रूप से पूर्णत: समरूप होता है. यानी क्लोन के DNA का हर एक भाग मूल प्रति के बिलकुल समान होता है. इस प्रकार किसी भी जीव का प्रतिरूप बनाना ही क्लोनिंग कहलाता है. सभी गोप और गोपिकाऐं स्वरूप में राधा और कृष्ण( विष्णु) के समान 
      महाभारत के अनुशासन पर्व में भी गायों की माता सुरभि को प्रजापति के मुख से बताकर गाय को ब्राह्मण वर्ण की तो बना दिया परन्तु उसी दक्ष प्रजापति की उत्पत्ति ब्रह्मा के दाहिने पैर के अंगूठे से हुई और इस कारण वे शूद्र वर्णीय प्रजापति हुए। 

      भागवत पुराण / तृतीय स्कन्ध /बारहवाँ अध्याय।

                       सृष्टिका विस्तार

      अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे।
      भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः।२१।
      मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।
      भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः।२२।
      उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः।
      प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।
      पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयो: ऋषिः।
      अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत्।२४।
      धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
      अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५।
      हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
      आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः।२६।
      छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः।
      मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत्।२७।
      अनुवाद:-
      इसके पश्चात् जब भगवान्‌ की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्माजी ने सृष्टि के लिये सङ्कल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए।
      _________________
      उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई ।२१।उनके नाम मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे ।२२। इनमें नारद जी प्रजापति ब्रह्माजी की गोद से, (दक्ष अँगूठे से,उत्पन्न हुए) वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अङ्गिरा मुख से, अत्रि नेत्रोंसे  और मरीचि मन से उत्पन्न हुए ।२३-२४।फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिसकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करनेवाला मृत्यु उत्पन्न हुआ ।२५। इसी प्रकार ब्रह्माजीके हृदयसे काम, भौंहों से क्रोध, नीचे के होठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिङ्ग से समुद्र, गुदा से पापका निवासस्थान (राक्षसोंका अधिपति) निर्ऋति।२६।छाया से देवहूति के पति भगवान्‌ कर्दम जी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्-कर्ता ब्रह्माजी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ।२७।

      "उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः" भागवतपुराण-3/12/23

                     श्रीमैत्रेय उवाच
      अङ्गुष्ठाद्दक्षिणाद्दक्षः पूर्वं जातो मया श्रुतः।
      कथं प्राचेतसो भूयः समुत्पन्नो महामुने।
       १,१५.८०। (विष्णुपुराण-1/15/80)

      अङ्गुष्ठाद् ब्रह्मणो जातो दक्षःप्रोक्तस्त्वयानघ।
      वामाङ्गुष्ठात् तथा चैव तस्य पत्नी व्यजायत।५२।
       (हरिवंशपर्व  द्वितीय अध्याय)

      अंगूठा पैर का ही अंग है और इस आधार पर दक्ष शूद्र वर्ण के हुए । और दक्ष के मुख से सुरभि की उत्पत्ति बतलाने से भी  गाय को ब्राह्मण कुल का होने की बात सिद्ध नहीं होती क्यों कृष्ण के रोमकूपों से गोपों के साथ सुरभि की उत्पत्ति भी ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्गसंहिता में प्रमाण हैं । कि गाय आभीर कुल का पशु है और इसी लिए  गोपालक होने से गोपों को वैश्य वर्ण में परिगणित किया गये। परन्तु ये भी सिद्धान्त विहीन बात ही है।
       वास्तव में महाभारत के श्लोक ही अन्य ग्रन्थों में उद्धृत किया गया है । अब सुरभि गाय ब्रह्मा के मुख से   प्रत्यक्ष तो उत्पन्न नहीं हुई। फिर गाय और ब्राह्मण का कुल एक कैसे हुआ।

                    वैशम्पायन उवाच। 
      ततो युधिष्ठिरे राजा भूयः शान्तनवं नृपम्।
      गोदानविस्तरं धीमान्पप्रच्छ विनयान्वितः 112-1।

      गोप्रदानगुणान्सम्यक् पुनर्मे ब्रूहि भारत।
      न हि तृप्याम्यहं वीर शृण्वानोऽमृतमीदृशम्।112-2
      इत्युक्तो धर्मराजेन तदा शान्तनवो नृपः।
      सम्यगाह गुणांस्तस्मै गोप्रदानस्य केवलान्।112-3

                        भीष्म उवाच।
      वत्सलां गुणसम्प्रन्ना तरुणीं वस्त्रसंयुताम्।
      दत्त्वेदृशीं गां विप्राय सर्वपापैः प्रमुच्यते।112-4

      असुर्या नाम ते लोका गां दत्त्वा तान्न गच्छति।112-5

      पीतोदकां जग्धतृणां नष्टक्षीरां निरिन्द्रियाम्।
      जरारोगोपसम्पन्नां जीर्णां वापीमिवाजलाम्।
      दत्त्वा तमः प्रविशति द्विजं क्लेशेन योजयेत्।
      13-112-6

      रुष्टा दुष्टा व्याधिता दुर्बला वा
      नो दातव्या याश्च मूल्यैरदत्तैः।
      क्लेशैर्विप्रं योऽफलैः संयुनक्ति
      तस्याऽवीर्याश्चाफलाश्चैव लोकाः।112-7,

      बलान्विताः शीलवीर्योपपन्नाः
      सर्वे प्रशंसन्ति सुगन्धवत्यः।
      यथा हि गङ्गा सरितां वरिष्ठा
      तथाऽर्जुनीनां कपिला वरिष्ठा।112-8

             युधिष्ठिर उवाच।
      कस्मात्समाने बहुलाप्रदाने
      सद्भिः प्रशस्तं कपिलाप्रदानम्।
      विशेषमिच्छामि महाप्रभावं
      श्रोतुं समर्थोस्मि भवान्प्रवक्तुम्।112-9।
                      भीष्म उवाच।
      वृद्धानां ब्रुवतां श्रुत्वा कपिलानामथोद्भवम्।
      वक्ष्यामि तदशेषेण रोहिण्यो निर्मिता यथा।112-10

      प्रजाः सृजेति चादिष्टः पूर्वं दक्षः स्वयंभुवा।
      नासृजद्वृत्तिमेवाग्रे प्रजानां हितकाम्यया।।112-11

      यथा ह्यमृतमाश्रित्य वर्तयन्ति दिवौकसः।
      तथा वृत्तिं समाश्रित्य वर्तयन्ति प्रजा विभो।112-12
      अचरेभ्यश्च भूतेभ्यश्चराः श्रेष्ठास्ततो नराः।
      ब्राह्मणाश्च ततः श्रेष्ठास्तषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः।112-13
      यज्ञैराप्यायते सोमः स च गोषु प्रतिष्ठितः।
      ताभ्यो देवाःप्रमोदन्ते प्रजानां वृत्तिरासु च।112-14
      ततः प्रजासु सृष्टासु दक्षाद्यैःक्षुधिताःप्रजाः।
      प्रजापतिमुपाधावन्विनिश्चित्य चतुर्मखम्।112-15

      प्रजातान्येव भूतानि प्राक्रोशन्वृत्तिकाङ्क्षया।
      वृत्तिदं चान्वपद्यन्त तृषिताः पितृमातृवत्।।112-16
      इतीदं मनसा गत्वा प्रजासर्गार्थमात्मनः।
      प्रजापतिर्बलाधानममृतं प्रापिबत्तदा।
      शंसतस्तस्य तृप्तिं तु गन्धात्सुरभिरुत्थिता।112-17

      मुखजा साऽसृजद्धातुः सुरभिर्लोकमातरम्।
      दर्शनीयरसं वृत्तिं सुरभिं मुखजां सुताम्।।112-18
      ____________

      बम्बई संस्करण अध्याय 112 परन्तु 
      गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण
      महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-18 तक

      महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 77 में कपिला गौओं की उत्पत्ति का वर्णन हुआ है। - युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर  वैशम्पायन देते हुए कहते हैं- जनमेजय! तदन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः शान्तनुनन्दन भीष्म से गोदान की विस्तृत विधि तथा तत्सम्बन्धी धर्मों के विषय में विनय पर्वूक जिज्ञासा की।

      युधिष्ठिर बाले- भारत। आप गोदान के उत्तम गुणों का भलीभाँति पुनः मुझ से वर्णन कीजिये। वीर ऐसा अमृतमय उपदेश सुनकर मैं तृप्त नहीं हो रहा हूँ। वैशम्पायन  कहते हैं- राजन्। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म केवल गोदान-सम्बन्धी गुणों का भलिभाँति (विधिवत) वर्णन करने लगे। भीष्म द्वारा गोदान-सम्बन्धी गुणों का भीष्म  ने कहा- पुत्र। वात्सल्य भाव से युक्त, गुणवती और जवान गाय को वस्त्र उढ़ाकर उसका दान करें। ब्राह्मण को ऐसी गाय का दान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। असुर्य नाम के जो अन्धकारमय लोक (नरक) हैं उनमें गोदान करने वाले पुरुष को नहीं जाना पड़ता, जिसका घास खाना और पानी पीना प्रायः समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया है, जिसकी इन्द्रियाँ का न दे सकती हों, जो बुढ़ापा और रोग से आक्रान्त होने के कारण शरीर से जीर्ण-षीर्ण हो बिना पानी की बावड़ी समान व्यर्थ हो गयी हो, ऐसी गौ का दान करके मनुष्य ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है और स्वयं भी घोर नरक में पड़ता है। जो क्रोध करने वाली दुष्टा, रोगिनी और दुबली-पतली हो तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौ का दान करना कदापि उचित नहीं है। जो इस तरह की गाय देकर ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है उसे निर्बल और निष्फल लोक ही प्राप्त होते हैं। हुष्ट-पुष्ट, सुलक्षणा, जवान तथा उत्तम गन्ध वाली गाय की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही गौओं में कपिला गौ उत्तम मानी गयी है।
      _____________________
      कपिला गौओं की उत्पत्ति का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। किसी भी रंग की गाय का दान किया जाये, गोदान तो एक-सा ही होगा ? फिर सत्पुरुषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है ? मैं कपिला के महान प्रभाव को विशेष रूप से सुनना चाहता हूँ। मैं सुनने में समर्थ हूँ और आप कहने में। भीष्म  ने कहा- बेटा। मैंने बड़े-बूढ़ों के मुंह से रोहिणी (कपिला) की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृतान्त सुना है, वह सब तुम्हे बता रहा हूँ। सृष्टि के प्रारंभ में स्वयम्भू *ब्रह्मा जी ने प्रजापति दक्ष को यह आज्ञा दी ‘तुम प्रजा की सृष्टि करो किंतु प्रजापति दक्ष ने प्रजा के हित की इच्छा से सर्वप्रथम उनकी आजीविका का ही निर्माण किया।*
      प्रभु। जैसे देवता अमृत का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा आजीविका के सहारे जीवन धारण करती है। *स्थावर प्राणियों से जंगम प्राणी सदा श्रेष्ठ हैं।* *उनमें भी मनुष्य और मनुष्यों में भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है; क्यांकि उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित है। यज्ञ से सोम की प्राप्ति होती है और वह यज्ञ गौओं में प्रतिष्ठित है,* जिससे देवता आनन्दित होते हैं अतः पहले पहले आजीविका है फिर प्रजा। समस्त प्राणी उत्पन्न होते ही जीविका के लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने मां-बाप के पास जाते हैं, *उसी प्रकार समस्त जीव जीविका दाता दक्ष के पास गये। प्रजाजनों की इस स्थिति पर मन-ही-मन विचार करके भगवान प्रजापति ने प्रजावर्ग की आजीविका के लिये उस समय अमृत का पान किया। अमृत पीकर जब वे पुर्ण तृप्त हो गये, तब उनके मुख से सुरभि (मनोहर) गंध निकलने लगी। सुरभि गंध के निकलने के साथ ही ‘सुरभि’ नामक गौ प्रकट हो गयी जिसे प्रजापति ने अपने मुख से प्रकट हुई* *पुत्री के रूप में देखा। उस सुरभि ने बहुत-सी ‘सौरभेयी’ नाम वाली गौओं को उत्पन्न किया, जो सम्पूर्ण जगत के लिये माता समान थी। उन सब का रंग सुवर्ण के समान उद्दीप्त हो रहा था।* वे कपिला गौऐं प्रजाजनों के लिये आजीविका रूप दूध देने वाली थी।

      (गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
      (महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 77 श्लोक1-18 )


      गो पालक गोपों को शूद्र और वैश्य बना दिया है ।


      कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।।
      नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४ ।
      बलीवर्दाः सुरभ्यश्च वत्सा नानाविधाः शुभाः।।
      अतीव ललिताः श्यामा बह्व्यो वै कामधेनवः।४५।
      उस परम् ब्रह्म विष्णु के रोम रूपों से गोप और गाय भैंस की आदि जननी  सुरभि भी उत्पन्न हुई। यह सन्दर्भ -ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्म खण्ड पञ्चम अध्याय में देखें

      यथा विप्रस्तथा गौश्च द्वयोः पूजाफलं समम्।
      विचारे ब्राह्मणो मुख्यो नृणां गावःपशौ तथा।१२२।

                          नारद उवाच-।
      विप्रो ब्रह्ममुखे जातःकथितो मे त्वयानघ।
      कथं गोभिःसमो नाथ विस्मयो मेविधे ध्रुवम्।१२३।

                          ब्रह्मोवाच-।
      शृणु चात्र यथातथ्यं ब्राह्मणानां गवां यथा।
      एकपिण्डक्रियैक्यं तु पुरुषैर्निर्मितं पुरा।१२४।

      पुरा ब्रह्ममुखोद्भूतं कूटं तेजोमयं महत्।
      चतुर्भागप्रजातं तद्वेदोग्निर्गौर्द्विजस्तथा।।१२५।

      प्राक्तेजः संभवो वेदो वह्निरेव तथैव च।
      परतो गौस्तथा विप्रो जातश्चैव पृथक्पृथक्।१२६।

      इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गोमाहात्म्यं नामाष्टचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः४८।

      "अनुवाद:-

                         नारद ने कहा :

      123. हे निर्दोष, तुमने मुझे बताया था कि ब्रह्मा के मुख से  ब्राह्मण का जन्म हुआ है ।  हे भगवान, हे निर्माता, फिर वह गाय  के बराबर कैसे है ? मुझे सन्देह है।

      ब्रह्मा ने कहा :

      124-125।  हे नारद! ब्राह्मणों और गायों के बारे में सत्य सुनो। पूर्व में पुरुषों ने उन्हें अंतिम संस्कार के लिए चावल की गेंद भेंट करके (दोनों के बीच) एकता लाई। पूर्व में ब्रह्मा के मुख से एक महान तेजोमय  पुंज उत्पन्न हुआ। यह पुँज चार भागों में विभाजित हो गया: वेद, अग्नि , गाय‌ और ब्राह्मण।

      126. तेज से वेद पहले उठे, और अग्नि भी। तब ब्राह्मण और बैल अलग-अलग उत्पन्न हुए।

      128. अग्नि, और ब्राह्मण को भी देवताओं के लिए हव्य का आनंद लेना चाहिए। जान लें कि घी गाय का उत्पाद है। इसलिए वे (एक ही स्रोत से) उत्पन्न हुए हैं।

      परन्तु स्वयं इसी पद्म पुराण में गाय के ब्रह्मा के उदर से उत्पन्न होने का कथन  होने से यह तथ्य सत्य के विपरीत ही है।अत: उपर्युक्त श्लोक क्षेपक है।

       राजा नहुष का एक गौ के मोल पर च्‍यवन मुनि को खरीदना, मुनि के द्वारा गौओं का महात्‍म्‍य कथन तथा मत्‍स्‍यों और मल्‍लाहों की सद्गति 
      भीष्‍म जी कहते हैं- भरतनन्‍दन! च्‍यवन मुनि को ऐसी अवस्‍था में अपने नगर के निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियों को साथ ले शीघ्र वहाँ आ पहुँचे। उन्‍होंने पवित्रभाव से हाथ जोड़कर मन को एकाग्र रखते हुए न्‍यायोचित रीति से महात्‍मा च्‍यवन को अपना परिचय दिया। प्रजानाथ! राजा के पुरोहित ने देवताओं के समान तेजस्‍वी सत्‍यव्रती महात्‍मा च्‍यवन मुनि का विधिपूर्वक पूजन किया। तत्‍पश्‍चात राजा नहुष बोले- द्विजश्रेष्‍ठ! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? भगवन! आपकी आज्ञा से कितना ही कठिन कार्य क्‍यों न हो, मैं सब पूरा करूँगा। च्‍यवन ने कहा- राजन! मछलियों से जीविका चलाने वाले इन मल्‍लाहों ने बड़े परिश्रम से मुझे अपने जाल में फँसाकर निकाला है, अत: आप इन्‍हें इन मछलियों के साथ-साथ मेरा भी मूल्‍य चुका दीजिये। तब नहुष ने अपने पुरोहित से कहा- पुरोहित जी! भृगुनन्‍दन च्यवन जी जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्‍यपाद महर्षि के मूल्‍य के रूप में मल्‍लाहों को एक हज़ार अशर्फियाँ दे दीजिये। च्‍यवन ने कहा- नरेश्‍वर! मैं एक हज़ार मुद्राओं पर बेचने योग्‍य नहीं हूँ। क्‍या आप मेरा इतना ही मूल्‍य समझते हैं, मेरे योग्‍य मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य कितना होना चाहिये, वह अपनी ही बुद्धि से विचार करके निश्चित कीजिये। नहुष बोले- व्रिपवर! इन निषादों को एक लाख मुद्रा दीजिये। यों पुरोहित को आज्ञा देकर वे मुनि से बोले- भगवन! क्‍या यह आपका उचित मूल्‍य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चा‍हते हैं? च्‍यवन ने कहा- नृपश्रेष्‍ठ! मुझे एक लाख रुपये के मूल्‍य में ही सीमित मत कीजिये। उचित मूल्‍य चुकाइये। इस विषय में अपने मन्त्रियों के साथ विचार कीजिये। नहुष ने कहा- पुरोहित जी! आप इन विषादों को एक करोड़ मुद्रा के रूप में दीजिये और यदि यह भी ठीक मूल्‍य न हो तो और अधिक दीजिये। च्‍यवन ने कहा- महातेजस्‍वी नरेश! मैं एक करोड़ या उससे भी अधक मुद्राओं में बेचने योग्‍य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्‍य दीजिये और इस विषय में ब्राह्मणों के साथ विचार कीजिये। नहुष बोले- ब्रह्मन! यदि ऐसी बात है तो इन मल्‍लाहों को मेरा आधा या सारा राज्‍य दे दिया जाये। इसे ही मैं आपके लिए उचित मूल्‍य मानता हूँ। आप इसके अतिरिक्‍त और क्‍या चाहते हैं। च्‍यवन ने कहा- पृथ्‍वीनाथ! आपका आधा या सारा राज्‍य भी मेरा उचित मूल्‍य नहीं है। आप उचित मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य आपके ध्‍यान में न आता हो तो ऋषियों के साथ विचार कीजिये। भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! म‍हर्षि का यह वचन सुनकर राजा दु:ख से कातर हो उठे और मंत्री तथा पुरोहित के साथ इस विषय में विचार करने लगे। इतने ही में फल-मूल का भोजन करने वाले एक वनवासी मुनि, जिनका जन्‍म गाय के पेट से हुआ था, राजा नहुष के समीप आये और वे द्विजश्रेष्‍ठ उन्‍हें सम्‍बोधित करके कहने लगे- 'राजन! ये मुनि कैसे संतुष्‍ट होंगे, इस बात को मैं जानता हूँ। मैं इन्‍हें शीघ्र संतुष्‍ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहास में भी झूठ नहीं कहा है, फिर ऐसे समय मे असत्‍य कैसे बोल सकता हूँ? मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको नि:शंक होकर करना चाहिये।' नहुष ने कहा- भगवन! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्‍यवन का मूल्‍य, जो इनके योग्‍य हो बता दीजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुल का तथा समस्‍त राज्‍य का संकट से उद्धार कीजिये। वे भगवान च्‍यवन मुनि यदि कुपित हो जायें तो तीनों लोकों को जलाकर भस्‍म कर सकते हैं, फिर मुझ जैसे तपोबल शून्‍य केवल बाहुबल का भरोसा रखने वाले नरेश को नष्‍ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है? महर्षे! मैं अपने मन्‍त्री और पुरोहित के साथ संकट के अगाध महासागर में डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्‍य मूल्‍य का निर्णय कर दीजिये।
      भीष्‍म जी कहते हैं-राजन! नहुष की बात सुनकर गाय के पेट से उत्‍पन्‍न हुए वे प्रतापी महर्षि राजा तथा उनके समस्‍त मन्त्रियों को आनन्दित करते हुए बोले- ‘महाराज! ब्राह्मणों और गौओं का एक कुल है, पर ये दो रूपों में विभक्‍त हो गये हैं। एक जगह मन्‍त्र स्थित होते हैं और दूसरी जगह हविष्‍य। ब्राह्मण सब प्राणियों में उत्तम है। उनका और गौओं का कोई मूल्‍य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमत में एक गौ प्रदान कीजिये।'
      नरेश्‍वर! महर्षि का यह वचन सुनकर मन्‍त्री और पुरोहित सहित राजा नहुष को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। राजन! वे कठोर व्रत का पालन करने वाले भृगुपुत्र महर्षि च्यवन के पास जाकर उन्‍हें अपनी वाणी द्वारा तृप्‍त करते हुए-से बोले। नहुष ने कहा- धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ ब्रह्मर्षे! भृगुनन्‍दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया, अत: उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्‍य मानता हूँ।
      च्‍यवन ने कहा- निष्‍पाप राजेन्‍द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्‍य देकर मुझे खरीदा है। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले नरेश! मैं इस संसार में गौओं के सामन दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ। वीर भूपाल! गौओं के नाम और गुणों का कीर्तन तथा श्रवण करना, गौओें का दान देना और उनका दर्शन करना- इनकी शास्‍त्रों में बड़ी प्रशंसा की गयी है। ये सब कार्य सम्‍पूर्ण पापों को दूर करके परम कल्‍याण की प्राप्ति कराने वाले हैं। गौएँ सदा लक्ष्‍मी जी की जड़ हैं। उनमें पाप का लेशमात्र भी नहीं है। गौएँ ही मनुष्‍यों को सर्वदा अन्‍न और देवताओं को हविष्‍य देने वाली हैं। स्‍वाहा और वषट्कार सदा गौओं में ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञ का संचालन करने वाली तथा उसका मुख हैं। वे विकार रहित दिव्‍य अमृत धारण करती और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत की आधारभूत हैं। सारा संसार उनके सामने नतमस्‍तक होता है। इस पृथ्‍वी पर गौएँ अपनी काया और कान्ति से अग्नि के समान हैं। वे महान तेज की राशि और समस्‍त प्राणियों को सुख देने वाली हैं। गौओं का समुदाय जहाँं बैठकर निर्भयतापूर्वक साँस लेता है, उस स्‍थान की शोभा बढ़ा देता है और वहाँ के सारे पापों को खींच लेता है। गौएँ स्‍वर्ग की सीढ़ी हैं। गौएँ स्‍वर्ग में भी पूजी जाती हैं। गौएँ समस्‍त कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवियाँ हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है।
      भरतश्रेष्‍ठ! यह मैंने गौओं का माहात्‍म्‍य बताया है। इसमें उनके गुणों का दिग्‍दर्शन मात्र कराया गया है। गौओं के सम्‍पूर्ण गुणों का वर्णन तो कोई कर नहीं सकता। इसके बाद निषादों ने कहा- मुने! सज्‍जनों के साथ सात पग चलने मात्र से मित्रता हो जाती है। हमने तो आपका दर्शन किया और हमारे साथ आपकी इतनी देर तक बातचीत भी हुई; अत: प्रभो! आप हम लोगों पर कृपा कीजिये। धर्मात्‍मन! जैसे अग्निदेव सम्‍पूर्ण हविष्‍यों को आत्‍मसात कर लेते हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे दोष-दुगुर्णों को दग्‍ध करने वाले प्र‍तापी अग्निरूप हैं।
      विद्वन! हम आपके चरणों में मस्‍तक झुकाकर आपको प्रसन्‍न करना चाहते हैं। आप हम लोगों पर अनुग्रह करने के लिये हमारी दी हुई यह गौ स्‍वीकार कीजिये। अत्‍यन्‍त आपत्ति में डूबे हुए जीवों का उद्धार करने वाले पुरुषों को जो उत्तम गति प्राप्‍त होती है, वह आपको विदित है। हम लोग नरक में डूबे हुए हैं। आज आप ही हमें शरण देने वाले हैं।
      ___________________
       बम्बई संस्करण- और गीताप्रेसगोरखपुर संस्करण " दोनों में अध्याय भेद ही है।
      नहुषस्य वचःश्रुत्वा गविजातः प्रतापवान्।
      उवाच हर्षयन्सर्वानमात्यान्पार्थिवं च तम्।86-22।
      ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
      एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।86-23।

      (गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
      महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 51 श्लोक (1-20)

      ________________________________
      नहुष का एक गौ के मूल्य पर च्यवन मुनि को खरीदना
      महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय (51) में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
      नहुष की च्यवन ऋषि से भेट
      भीष्‍म  कहते हैं- भरतनन्‍दन ! च्‍यवन मुनि को ऐसी अवस्‍था में अपने नगर के निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियों को साथ ले शीघ्र वहाँ आ पहुँचे। उन्‍होंने पवित्रभाव से हाथ जोड़कर मन को एकाग्र रखते हुए न्‍यायोचित रीति से महात्‍मा च्‍यवन को अपना परिचय दिया। प्रजानाथ! राजा के पुरोहित ने देवताओं के समान तेजस्‍वी सत्‍यव्रती महात्‍मा च्‍यवनमुनि का विधिपूर्वक पूजन किया। तत्‍पश्‍चात राजा नहुष बोले- द्विजश्रेष्‍ठ! बताइये, मैं आपको कौन-सा प्रिय कार्य करुँ? भगवन! आपकी आज्ञा से कितना ही कठिन कार्य क्‍यों न हो, मैं सब पूरा करुँगा। च्‍यवन ने कहा- राजन! मछलियों से जीविका चलाने वाले इन मल्‍लाहों ने बड़े परिश्रम से मुझे अपने जाल में फँसाकर निकाला है, अत: आप इन्‍हें इन मछलियों के साथ-साथ मेरा भी मूल्‍य चुका दीजिये। तब नहुष ने अपने पुरोहित से कहा- पुरोहित  भृगुनन्‍दन च्यवन जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्‍यपाद महर्षि के मूल्‍य के रुप में मल्‍लाहों को एक हजार अशफियॉ दे दीजिये।

      च्‍यवन द्वारा नहुष से मल्‍लाहों को मुल्य देने का अनुरोध
      च्‍यवन ने कहा- नरेश्‍वर! मैं एक हजार मुद्राओं पर बेचने योग्‍य नहीं हूँ। क्‍या आप मेरा इतना ही मूल्‍य समझते है, मेरे योग्‍य मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य कितना होना चाहिये- वह अपनी ही बुद्धि से विचार करके निश्चित कीजिये। नहुष बोले- व्रिपवर! इन निषादों को एक लाख मुद्रा दीजिये। (यों पुरोहितको आज्ञा देकर वे मुनि से बोले-) भगवन्! क्‍या यह आपका उचित मूल्‍य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चा‍हते हैं? च्‍यवन ने कहा- नृपश्रेष्‍ठ! मुझे एक लाख रुपये के मूल्‍य में ही सिमित मत कीजिये। उचित मूल्‍य चुकाइये। इस विषय में अपने मन्त्रियों के साथ विचार कीजिये। नहुष ने कहा- पुरोहित आप इन विषादों को एक करोड़ मुद्रा के रुप में दीजिये और यदि यह भी यह भी ठीक मूल्‍य न हो तो और अधिक दीजिये। च्‍यवन ने कहा- महातेजस्‍वी नरेश! मैं एक करोड़ या उससे भी अधक मुद्राओं में बेचने योग्‍य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्‍य दीजिये और इस विषय में ब्राह्मणों के साथ विचार कीजिये।

      नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना
      नहुष बोले- ब्रहान! यदि ऐसी बात है तो इन मल्‍लाहों को मेरा आधा या सारा राज्‍य दे दिया जाय! इस ही मैं आपके लिए उचित मूल्‍य मानता हूँ। आप इसके अतिरिक्‍त और क्‍या चाहते हैं। च्‍यवन ने कहा- पृथ्‍वीनाथ! आपका आधा या सारा राज्‍य भी मेरा उचित मूल्‍य नही है। आप उचित मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य आपके ध्‍यान में न आता हो तो ऋषियों के साथ विचार कीजिये।
      भीष्‍म  कहते हैं- युधिष्ठिर! म‍हर्षि का यह वचन सुनकर राजा दु:ख से कातर हो उठे और मंत्री तथा पुरोहित के साथ इस विषय में विचार करने लगे। इतने ही में फल-मूल का भोजन करने वाले एक वनवासी मुनि, जिनका जन्‍म गाय के पेट से हुआ था, राजा नहुष के समीप आये और वे द्विज श्रेष्‍ठ उन्‍हें सम्‍बोधित करके कहने लगे- ‘राजन! ये मुनि कैसे संतुष्‍ट होंगे- इस बात को मैं जानता हूँ। मैं इन्‍हें शीघ्र संतुष्‍ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहास में भी झूठ नहीं कहा हैं, फिर ऐसे समय मे असत्‍य कैसे बोल सकता हूँ? मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको नि:शंक होकर करना चाहिये।’
      नहुष ने कहा- भगवन! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्‍यवन का मूल्‍य, जो इनके योग्‍य हो बता दिजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुल का तथा समस्‍त राज्‍य का संकट से उद्धार कीजिये। वे भगवान च्‍यवन मुनि यदि कुपित हो जायँ तो तीनों लोकों को जलाकर भस्‍म कर सकते हैं, फिर मुझ- जैसे तपोबल शून्‍य केवल बाहुबल का भरोसा रखने वाले नरेश को नष्‍ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है?। महर्षे! मैं अपने मन्‍त्री और पुरोहित के साथ संकट के अगाध महासागर मे डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्‍य मूल्‍य का निर्णय कर दीजिये।
      भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! नहुष की बात सुनकर
      राजा तथा उनके समस्‍त मन्त्रियों को आनन्दित करते हुए -गाय के पेट से उत्पन्न हुए ऋषि बोले:–  
       महाराज! ब्राह्मणों और गौओं का एक कुल है, पर ये दो रुपों में विभक्‍त हो गये हैं। एक जगह मन्‍त्र स्थित होते हैं। और दूसरी जगह हविष्‍य ! ब्राह्मण सब प्राणियों में उत्तम है। उनका और गौओं का कोई मूल्‍य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमत में एक गौ प्रदान कीजिये।’
      ‘नरेश्‍वर! महर्षि का यह वचन सुनकर मन्‍त्री और पुरोहित सहित राजा नहुष को बडी प्रसन्‍नता हुई। राजन! वे कठोर व्रत का पालन करने वाले भृगुपुत्र महर्षि च्‍यवन के पास जाकर उन्‍हें अपनी वाणी द्वारा तृप्‍त करते हुए-से बोले। नहुष ने कहा- धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ ब्रहार्षे! भृगुनन्‍दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया, अत: उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्‍य मानता हूँ। च्‍यवन ने कहा- निष्‍पाप राजेन्‍द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्‍य देकर मुझे खरीदा हैं। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले नरेश! मैं इस संसार में गौओं के सामन दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ।
      अन्यत्र भी महाभारत के इसी श्लोक को उद्धृत किया गया है। 

      अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्।सृष्टवानुदराद्गाश्च महिषांश्च प्रजापतिः।१०५।पद्भ्यां चाश्वान्स मातंगान्रासभान्गवयान्मृगान्।उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यंकूनन्याश्च जातयः।१०६।ओषध्यःफलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे।त्रेतायुगमुखे ब्रह्मा कल्पस्यादौ नृपोत्तम।१०७।सृष्ट्वा पश्वोषधीस्सम्यक्युयोज स तदाध्वरे।  गामजं महिषम्मेषमश्वाश्वतरगर्दभान्।१०८।

      एतान्ग्राम्यपशूनाहुरारण्यांश्च निबोध मे।
      श्वापदो द्विखुरो हस्ती वानरः पञ्चमः खगः।१०९।

      उष्ट्रकाः पशवष्षष्ठास्सप्तमास्तु सरीसृपाः।
      गायत्रं च ऋचश्चैव त्रिवृत्सोमं रथन्तरम् ।११०।
      अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात्।
      यजूंषि त्रैष्टुभं छन्दःस्तोमं पञ्चदशं तथा ।१११।
      बृहत्साम तथोक्थं च दक्षिणादसृजन्मुखात्।
      सामानि जगतीच्छन्दःस्तोमं सप्तदशं तथा।११२।
      वैरूपमतिरात्रं च पश्चिमादसृजन्मुखात्।
      एकविंशमथर्वाणमप्तोर्यामाणमेव च।११३।
      आनुष्टुभं सवैराजमुत्तरादसृजन्मुखात्।
      उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे।११४।
      सुरासुरपितॄन्सृष्ट्वा मनुष्यांश्च प्रजापतिः।
      ततः पुनः ससर्जासौ स कल्पादौ पितामहः।११५।
      यक्षान्पिशाचान्गंधर्वांस्तथैवाप्सरसां गणान्।
      सिद्धकिन्नररक्षांसि सिंहान्पक्षिमृगोरगान्११६।
      अव्ययं च व्ययं चैव यदिदं स्थाणुजंगमम्।
      तत्ससर्ज तदा ब्रह्मा भगवानादिकृद्विभुः।११७।
      तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे।
      तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः।११८।

      अनुवाद

      105-114- उसने अपनी वक्ष (छाती) से भेड़ें, और अपने मुंह से बकरी उत्पन्न की। उसने अपने उदर (पेट) से गायों और भैंसों को बनाया; और अपने पैरों से (उसने ) हाथियों, गधों, गवय , हिरण, ऊंट, खच्चर, मृग और अन्य प्रजातियों के साथ घोड़े; आदि  अन्य अन्य जातियाँ को  बनाया। और उसके रोमों (बालों)से फल और जड़ वाली जड़ी-बूटियाँ (औषधियाँ) और फल मूल उत्पन्न हुए । कल्प की शुरुआत में ,और त्रेता युग के  मुख में  ब्रह्मा ने जानवरों और जड़ी-बूटियों को विधिवत बनाया, स्वयं को यज्ञ में लगा दिया। गाय, बकरा  भैंस, भेड़, घोड़े, खच्चर और गधे- इन्हें पालतू जानवर कहा जाता है। हे नारद ! मुझसे जंगली जानवरों को सुनो :श्वापद:- शुन इवापदस्मात्  हिंसपशौ )हिंसक जानवर, दो खुर वाले जानवर, हाथी, बंदर, पक्षी, पाँचवीं (प्रजाति), ऊंट जैसे जानवर छठे के रूप में, और साँप सातवें के रूप में। अपने पहले मुख से (अर्थात् पूर्व की ओर मुख करके) उन्होंने यज्ञों की गायत्रों  , ऋचा ,  त्रिवृत्सोम और रथान्तर रथन्तर( रथङ्कर] के तीन अर्थ हैं -एक कल्प का नाम। एक प्रकार का साम। एक प्रकार की अग्नि। परन्तु यहाँ प्रसंग के  अनुसार साम अर्थ ग्राह्य है और अग्निष्टोम की रचना की। दक्षिण की ओर मुँह करके उन्होंने यजुस-सूत्र, त्रिष्टुभ छन्द , और पंचदशा (पन्द्रह) स्तोम  , और बृहत्साम की रचना की। और उत्तर -पश्चिम की ओर मुंह करके उन्होंने साम , जगती छंद, सप्तदश स्तोम ,  वैरूप और अतिरात्र की रचना की । उत्तर दिशा की ओर मुख करके उन्होंने एकविंश अथर्व , आप्तोर्याम , अनुष्टुभ और वैराज की रचना की । उसके शरीर के अंगों से ऊँचे-नीचे  भूत उत्पन्न हुए।

      115-116 देवताओं, राक्षसों, पितरों और मनुष्यों को बनाने के बाद, सृष्टिकर्ता ने फिर से कल्प के प्रारम्भ में आत्माओं, भूतों, गन्धवों और आकाशीय अप्सराओं, सिद्धों , किन्नरों , राक्षसों, शेरों, पक्षियों, जानवरों और सरीसृपों के समूहों का निर्माण किया।

      117. तब ब्रह्मा, सर्वोच्च शासक, प्राथमिक कारण, ने जो कुछ भी अपरिवर्तनीय और परिवर्तनशील, जंगम और अचल है, उसे बनाया।

      118. वे प्राणी बार-बार उत्पन्न होकर उन कर्मों में प्रवेश करते हैं जो उन्होंने (इस) सृष्टि से पहले (अर्थात् पिछली सृष्टि में) किए थे उस प्रारब्ध के  प्रभाव से।

      _________________________________

      लक्ष्मीनारायण-संहिता-खण्डः(१) (कृतयुगसन्तानः)-अध्यायः (५०९) में भी कुछ वैदिक सिदान्तों के विपरीत क्षेपक (नकली तथ्य) संलग्न कर दिए गये हैं जो स्कन्द पुराण नागर खण्ड के समान ही जिन्हें निम्न श्लोकों प्रस्तुत करते हैं ।        
                  -श्रीनारायण उवाच-
      शृणु लक्ष्म्यैकदा सत्ये ब्रह्माणं प्रति नारदः।
      दर्शनार्थं ययौ भ्रान्त्वा लोकत्रयं ननाम तम् ।१।
      ब्रह्मा पप्रच्छ च कुतः पुत्र आगम्यते, वद ।
      नारदःप्राह मर्त्यानां मण्डलानि विलोक्य च ।२।
      तव पूजाविधानाय विज्ञापयितुं हृद्गतम्।
      समागतोऽस्मि च पितःश्रुत्वा कुरु यथोचितम्।३।
      अनुवाद:-सुनो लक्ष्मी ! एकबार  सत्युग में तीनों लोकों में घूमकर  ब्रह्मा के दर्शन के लिए  नारद  उनके पास गये और उनको नमस्कार किया।१।
      और ब्रह्मा ने पूछा पुत्र कहाँ से आपका आगमन हुआ है। कहो ! तब नारद ने कहा मनुष्य मण्डल में देखकर तुम्हारे पूजा विधान के लिए विज्ञापन करने को लिए हृदय में गये हुए समागत हूँ। पिता यह सुनकर जो भी उचित हो करो!
      दैत्यानां हि बलं लोके सर्वत्राऽस्ति प्रवर्तितम् ।
      यज्ञाश्च सत्यधर्माश्च सत्कर्माणि च सर्वथा।४।
      सह्य तैर्विनाश्यन्ते देवा भक्ताश्च दुःखिनः।
      तस्माद् यथेष्टं भगवन् कल्याणं कर्तुमर्हसि।५।
      अनुवाद:-
      दैत्यों का बल संसार में सब जगह  विद्यमान है।यज्ञ सत्यधर्म और सतकर्म सब प्रकार से दबाकर उनके द्वारा विनाश किया जाता है। देव और भगतगण दु:खी हैं  इसलिए यथेष्ट कल्याण करने में भगवन आप सर्वसमर्थ हो ।
      इत्येवं विनिवेद्यैव नत्वा सम्पूज्य संययौ ।
      ब्रह्मा वै चिन्तयामास यज्ञार्थं शुभभूतलम् ।६।
      अनुवाद:-
      इस प्रकार नारद ब्रह्मा से निवेदन" नमस्कार और पूजा करके गये तब ब्रह्मा ने निश्चय ही भूतल पर यज्ञ के लिए चिन्तन किया।
      निर्विघ्नं तत्स्थलं क्वास्तीत्याज्ञातुं पद्मपुष्पकम् ।
      करस्थं स समुवाच पत स्थले तु पावने ।७।
      अनुवाद:-
      विघ्न रहित उस स्थल पर क्या आज्ञा है? पद्म
      पुष्प हाथ में लेकर वह ब्रह्मा उससे बोले पावन स्थल पर गिरो।
      ततश्चिक्षेप पुष्पं तद् भ्रान्त्वा लोकान् समन्ततः
      निर्लततश्चिक्षेप पुष्पं तद् भ्रान्त्वा लोकान् समन्ततः।हाटकेश्वरजे क्षेत्रे सम्पपात सुपावने ।८।
      अनुवाद:-
      जहाँ कोई वृक्ष लता आदि  नहीं उस पुष्प को सभी  लोकों में घुमाकर चारो ओर हाटकेश्वर पावन रज- क्षेत्र में डाला-
      ___________________________________
      एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः पश्चात् तस्य पितामहः।
      क्षेत्रं दृष्ट्वा प्रसन्नोऽभूद् यज्ञार्थं प्रपितामहः।९।
      अनुवाद:-
      इसी अन्तर को प्राप्त बाद में उस  क्षेत्र को यज्ञ के लिए देखकर पितामह ब्रह्मा प्रसन्न हुए।
      आदिदेश ततो वायुं समानय पुरन्दरम्।
      आदित्यैर्वसुभिःसार्धं रुद्रैश्चैव मरुद्गणैः।
       1.509.१०।
      अनुवाद:-
      और वायु को आदेश दिया हे वायु ! तुम इन्द्र के साथ आदित्य ,वसु और रूद्र के साथ मरुद गणों को भी लाओ।
      गन्धर्वैर्लोकपालैश्च सिद्धैर्विद्याधरैस्तथा ।
      ये च मे स्युः सहायास्तैः समस्ते यज्ञकर्मणि।११।
      अनुवाद:-
      गन्धर्व, लोकपाल, सिद्ध, विद्याधर, तथा ये सब यज्ञ कर्म में हमारे सहायक हों ।
      वायुश्चेन्द्रं देवगणैर्युतं समानिनाय च ।
      ब्रह्मा प्राह महेन्द्रं च वैशाख्यामग्निष्टोमकम्।१२।
      अनुवाद:-और वायु  इन्द्र आदि देवगणो के साथ लौट आये ब्रह्मा बोले इन्द्र वैशाख में अग्नष्टोम करो।
      यज्ञं कर्तुं समीहेऽत्र सम्भारानाहरस्व वै।
      ब्राह्मणाँश्च तदर्हान् वै योग्योपस्कारकाँस्तथा।१३।
      अनुवाद:-
      यज्ञ करने के लिए यहाँ आओ सभी सजावट की  सामग्रीयों को जुटाओ। और उन योग्य ब्राह्मणों को भी यहाँ बुलाओ। 
      इन्द्रस्तानानयामास संभाराँश्च द्विजोत्तमान् ।
      आरेभे च ततो यज्ञं विधिवत् प्रपितामहः ।१४।
      अनुवाद:-
      तब इन्द्र ने  उत्तम ब्राह्मणो को बुलाया और सभ यज्ञ सामग्री जुटाकर ब्रह्मा ने विधिवत् यज्ञ प्रारम्भ कर दिया
      शम्भुर्देवगणैः सार्ध तत्र यज्ञे समागतः ।
      देवान् ब्रह्मा समुवाच स्वस्वस्थानेषु तिष्ठत।१५।
      अनुवाद:-
      वहाँ शम्भु भी देवगणों के साथ लेकर यज्ञ में पधारे सभी देवों को ब्रह्मा जी ने सम्बोधित करते हुए कहा सभी देवगण अपने अपने स्थान पर खड़े हो जाऐं ।
      ________________________________
      विश्वकर्मन् कुरु यज्ञमण्डपं यज्ञवेदिकाः।
      पत्नीशालाःसदश्चापि कुण्डान्यावश्यकानि च।
      ।६६।
      अनुवाद:-
      हे विश्व कर्मा ! यज्ञ मण्डप, यज्ञवेदी, पत्नीशाला और आसनों  तथा आवश्यक कुण्डों का भी  निर्माण करो !
      यज्ञपात्राणि च गृहान् चमसाँश्च चषालकान् ।
      यूपान् शयनगर्तांश्च स्थण्डिलानि प्रकारय ।१७।
      "अनुवाद और यज्ञपात्र,  यज्ञगृह, चमस(सोमपान करने का चम्मच के आकार का एक यज्ञपात्र जो पलाश आदि की लकड़ी का बनता था )  चषाल-यज्ञ के यूप में लगी हुई पशु बाँधने की गराड़ी । यूप- ( यज्ञ में वह खंभा जिसमें बलि का पशु बाँधा जाता है। शयनगर्त स्थण्डिल-यज्ञ के लिये साफ की हुई भूमि आदि प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करो।
      हिरण्मयं सुपुरुषं कारय त्वं सुरूपिणाम् ।
      बृहस्पते त्वमानीहि यज्ञार्हानृत्विजोऽखिलान् । १८।
      हिरण्यमय पुरुष अच्छे स्वरूपों का बनाओ तुम  बृहस्पति तुम  यज्ञ योग्य सम्पूर्ण ऋत्विजो को  आओ !
      यावत् षोडशसंख्याकान् शुश्रूषां कुरु देवराड् ।
      कुबेर च त्वया देया दक्षिणा कालसंभवा ।१९।
      अनुवाद:- हे देवराज इन्द्र ! तुम सोलह संख्या वाली शुश्रुषा करो  कुबेर ! तुम्हारे द्वारा कालसम्भव दक्षिणा देने योग्य है।
       सत्वया विधे विधौ कार्यं कृत्याऽकृत्यपरीक्षणम् ।
      लोकपालाः प्ररक्षन्तु त्वैन्द्र्यादिका दिशस्तथा ।।1.509.२०।
      अनुवाद:- शीघ्रता के द्वारा विधि-विधान से कार्य करो ! क्या करने योग्य है और क्या न करने योग्य है। इसका भलीभाँति परीक्षण करो। लोकपाल दिशाओं की रक्षा करें ।
      भूतप्रेतपिशाचानां प्रवेशो दैत्यरक्षसाम् ।
      मा भूदित्यथ यज्ञेन दीयतां दानमुत्तमम् ।२१।
      अनुवाद:- भूतप्रेत, पिशाचों, दैत्यों और राक्षसों का इस यज्ञ में प्रवेश निषिद्ध हो और इस यज्ञ के द्वारा उत्तम दान दिया जाए।
      आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।
      भवन्तु परिवेष्टारो भोक्तुकामजनस्य तु ।२२।
      अनुवाद:-  इस यज्ञ में  जैसी -जैसी जिसकी भोजन करने की इच्छा है उन सबके लिए  आदित्य, वसु रूद्र, विश्वदेवा, और मरुद्गण ये सभी भोजन परोसने वाले नियुक्त हों ।
      यज्ञार्हा ब्राह्मणा वृत्तास्तिष्ठन्तु यज्ञमण्डपे ।
      मैत्रावरुणश्च्यवनोऽथर्वाको गालवस्तथा।२३।
      अनुवाद:- मैत्रावरुण च्यवन अथर्वा  और गालव ये यज्ञ में समर्थ ब्राह्मण धन लेकर यज्ञमण्डप में खड़े हो। २३।
      ______
      मरीचिर्मार्कवश्चैते सर्वकर्मविशारदाः।
      प्रस्थानकर्ता चाध्वर्युः पुलस्त्यस्तत्र तिष्ठतु ।२४।
       अनुवाद:-  मरीचि और आर्कव ये सभी यजनकर्मों के विशेषज्ञ हैं। प्रस्थानकर्ता और अध्वर्यु पुलस्त्य वहां खड़े हों ।२४।
      रैभ्यो मुनिस्तथोन्नेता तिष्ठतु यज्ञमण्डपे ।
      ब्रह्मा भवतु नारदो गर्गोऽस्तु सत्रवीक्षकः ।२५।
       अनुवाद:-  रेभ्य मुनि तथा और भी नेता यज्ञमण्डप में खड़े हों और  नारद ब्रह्मा बने गर्ग सत्रनिरीक्षक बनें।२५।
      होतारोऽग्नीध्रभरद्वाजपराशरास्त्रयः ।
      बृहस्पतिस्तथाऽऽचार्य उद्गाता गोभिलो मुनिः।२६।
       अनुवाद:-  होता- भरद्वाज अग्नीध्र और पराशर बनें बृहस्पति आचार्य बने और गोभिल उद्गाता बने।
      ________________________________
      शाण्डिल्यः प्रतिहर्ता च सुब्रह्मण्यस्तथाऽङ्गिराः।
      अस्य यज्ञस्य सिद्ध्यर्थं सन्त्वृत्विजस्तु षोडश।२७।
      अनुवाद:- शाण्डिल्य प्रतिहर्ता सुब्रह्मण्य तथा अङ्गिरा आदि  इस यज्ञ की सफलता के लिए सौलह ऋत्विज बनें ।२७।
      ब्रह्मा तान् पूजयामास दीक्षितस्तैस्तु विश्वसृट् ।
      यजमानोऽभवद् यज्ञकार्यं ततः प्रवर्तितम् ।२८।
      अनुवाद:- ब्रह्मा विश्वसृष्टा ने उनको पूजन किया और वे दीक्षितों  यजमान होकर उस यज्ञ कार्य में जुट गये।२८।
      _________________________________
      ब्रह्मा च नारदं प्राह सावित्रीं क्षिप्रमानय ।
      वाद्यमानेषु वाद्येषु सिद्धकिन्नरगुह्यकैः ।२९।
      अनुवाद:- और तत्पश्चात् ब्रह्मा जी ने नारद से कहा ! सावित्री को शीघ्र लाओ।
      गन्धर्वैर्वाद्यसंयुक्तैरुच्चारणपरैर्द्विजैः ।
      अरणिं समुपादाय पुलस्त्यो वाक्यमब्रवीत् ।।1.509.३०।
      अनुवाद:- गन्धर्व वाद्ययन्त्रों से युक्त हो गये और ब्राह्मण लोग मन्त्रों का  जोर से उच्चारण करने लगे  अरणि हाथ में लेकर पुलस्त्य ने कहा ! 
      पत्नीपत्नीतिविप्रेन्द्राः प्रोच्चैस्तत्र व्यवस्थितः ।
      ब्रह्मा पुनर्नारदं संज्ञया करस्य वै द्रुतम् ।३१।
      अनुवाद:- पत्नी पत्नी इस प्रकार उनके द्वार जोर कहा गया  तब ब्रह्मा ने दुबारा नारद से हाथ लगाकर शीघ्र जानकारी के लिए कहा  ।
      ____________________________
      गृहं सम्प्रेषयामास पत्नी चानीयतामिति ।
      सोऽपि गत्वाऽऽह सावित्रीं पित्रा सम्प्रेषितोऽस्म्यहम् ।३२।
      अनुवाद:- घर को नारद भेजे और पत्नी को लाने के लिए कहा वह भी जाकर कहों कि मैं पिता जी ने मुझको माते ! आपको बुलाने के लिए भेजा है।
      आगच्छ मण्डपं देवि यज्ञकार्यं प्रवर्तते ।
      परमेकाकिनी कीदृग्रूपा सदसि दृश्यसे ।३३।
      अनुवाद:- आप मण्डप को चलो देवि यज्ञ कार्य प्रारम्भ हो गया है। यहाँ अकेली किस रूप रहोगीं तुम सभा में दिखाई दो। 
      आनीयन्तां ततो देव्यस्ताभिर्वृत्ता प्रयास्यसि
      इत्युक्त्वा प्रययौ यज्ञे नारदोऽजमुवाच ह ।३४।
      अनुवाद:- उन्हें आने दो। तब तुम उनके साथ हम पहँचेगे हे देवी। यह कहकर नारद यज्ञ में चले गए और  नारद ने ब्रह्मा से कहा।
      देवीभिः सह सावित्री समायास्यति सुक्षणम् ।
      पुनस्तं प्रेषयामास ब्रह्माऽथ नारदो ययौ ।३५।
      अनुवाद:- सावित्री जल्द ही देवीयों के साथ पहुंचेंगी तब ब्रह्मा ने नारद को फिर भेज दिया और नारद चले गए।
      _________  
      मातः शीघ्रं समायाहि देवीभिः परिवारिता ।
      सावित्र्यपि तदा प्राह यामि केशान्प्रसाध्य वै ।३६।
      अनुवाद:- माँ, जल्दी आओ, देवियों के साथ।
      सावित्री ने भी तब कहा कि मैं अपने केशों को संवारकर जाऊँगी।

      नारदोऽजं प्राह केशान् प्रसाध्याऽऽयाति वै ततः ।
      सोमपानमुहूर्तस्याऽवशेषे सत्वरं तदा ।३७।
      अनुवाद:- नारद ने तब ब्रह्मा से कहा ! केशों को संवार कर वे निश्चित ही आती हैं  अभी सोमपान कि समय शेष है शीघ्र ।37।
      पुलस्त्यश्च ययौ तत्र सावित्री त्वेकलाऽस्ति हि ।
      किं देवि सालसा भासि गच्छ शीघ्रं क्रतोःस्थलम्।३८।
      अनुवाद:- पुलस्त्य भी उस स्थान पर गए जहाँ सावित्री अकेली थीं। हे देवी आप आलसी प्रतीत होती हो जल्दी से यज्ञस्थल में चलो ! 
      सावित्र्युवाच तं ब्रूहि मुहूर्तं परिपाल्यताम् 
      यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथाऽपराः ।३९।
      अनुवाद:- सावित्री ने कहा: उन्हें (ब्रह्मा को) एक मुहूर्त (१२ क्षण का समय) प्रतीक्षा करने को कहो। जब तक इंद्राणी, गौरी ,लक्ष्मी, और अन्य देवियों भी पास आती हैं  ।
      विशेष:-अमरकोश के अनुसार तीस कला या मुहूर्त के बारहवें भाग का एक क्षण होता है। और इस प्रकार १२ क्षण का समय एक मुहूर्त हुआ।देवकन्याः समाजेऽत्र ताभिरेष्यामि संहिता ।
      सोऽपि गत्वा द्रुतं प्राह सोमभाराऽर्दितं विधिम् ।1.509.४०।
      अनुवाद:- मैं इस समाज में देवकन्याओ को साथ लाऊँगी। उसने भी जल्दी-जल्दी जाकर सोम  के बोझ से पीड़ित हो  ब्रह्मा से कहा !
      एवं ज्ञात्वा सुरश्रेष्ठ कुरु यत्ते सुरोचते ।
      अतिक्रामति कालश्च यज्ञपानक्षणात्मकः ।४२।
      अनुवाद:- इस प्रकार जानकर  देवों श्रेष्ठ ब्रह्मन् ! जो तुमको अच्छा लगता वह करो । यज्ञ में सोमपान का समय और क्षण बीता जाता है।
      ____________________
      सा मां प्राह च देवीभिः सहिताऽऽयामि वै मखे ।
      अहं यास्यामि सहिता न त्वेकला कथंचन।४१।
      अनुवाद:- उसने मुझे बताया कि मैं देवीयों के साथ यज्ञ में आती हूँ। मैं उनके ही साथ ही आऊँगी अकेली बिल्कुल नहीं।
      ___________________
      श्रुत्वा ब्रह्मा महेन्द्रं च प्राह सा शिथिलात्मिका 
      नाऽऽयात्येवाऽन्यया पत्न्या यज्ञःकार्यो भवत्विति।४३।
      अनुवाद:- यह सुनकर ब्रह्मा इन्द्र से कहा ! वह आलसी है वह यहाँ नहीं आएगी इसलिए अन्य पत्नी के द्वारा यज्ञ कार्य होगा ।
      _______________________________
      ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः ।
      चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
      अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से  इन्द्र ने किसी  घूमते हुई  गोप कन्या को  देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली  हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
      _______
      युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
      गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
      अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
      ______________
      परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
      इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
      अनुवाद:- यदि तुम तक्र करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा 
      गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः ।
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
      अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर ।
      सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
      आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
      अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा !  हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।
      गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
      एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।
      अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे  दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक  स्थान पर रहता है।।
      गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् ।
      पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
      अनुवाद:- वह गाय के पेट से निकाली और ब्राह्मणों के पास लाई गई। उसका हाथ पकड़कर यज्ञा का सम्पादन करो ।
      रुद्रःप्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
      गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा।५१।
      अनुवाद:- रूद्र ने कहा, "फिर  गाय-यन्त्र से बाहर होने से यह निश्चय ही गायत्री नाम से इस यज्ञ में सदा तुम्हारी पत्नी होगी "
      गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत  त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति 

      अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने  स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।
      अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने  वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
      सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
      ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
      गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
      अनुवाद तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो ।
      ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
      गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
      अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।
      गायत्री ने भी उस अरणि को खुशी-खुशी अपने सिर पर धारण कर लिया।
      वाद्यमानेषु वाद्येषु सम्प्राप्ता यज्ञमण्डपम् ।
      विधिश्चक्रे स्वकेशानां क्षौरकर्म ततः परम् ।।५४।।
      अनुवाद:-बजाए जाते हुए वाद्ययन्त्रों में , यज्ञ मंडप में गायत्री पहुँची और ब्रह्मा ने अपने केशों का क्षौरकर्म कराया।
      विश्वकर्मा तु गायत्रीनखच्छेदं चकार ह ।
      औदुम्बरं ततो दण्डं पौलस्त्यो ब्रह्मणे ददौ ।।५५।।
      अनुवाद:-विश्वकर्मा ने गायत्री के नाखूनों को काट दिया। तब पौलस्त्य ने औदुम्बर की छड़ी ब्रह्मा को दे दी।
      एणशृंगान्वितं चर्म समन्त्रं प्रददौ तथा ।
      पत्नीं शालां गृहीत्वा च गायत्रीं मौनधारिणीम् ।।
      ५६।।
      अनुवाद:-उसने उसे एण हिरन के सींग जो चमड़े से मड़े हुए और अभिमन्त्रित थे गायत्री को  दिए ।और पत्नी शाला में जाकर गायत्री ने मौन धारण कर लिया।
      मेखलां निदधे त्वन्यां कट्यां मौञ्जीमयीं शुभाम् ।
      ततो ब्रह्मा च ऋत्विग्भिः सह चक्रे क्रतुक्रियाम् ।५७।।
      अनुवाद:-उसने अपनी कमर के चारों ओर एक और मेखला( करधनी) धारण की, जो शुभ मूँज से बनी हुई थी। तब ऋतुजों  के साथ ब्रह्मा ने यज्ञ अनुष्ठान किया।
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      कर्मणि जायमाने च तत्राऽऽश्चर्यमभून्महत् ।
      जाल्मरूपधरः कश्चिद् दिग्वासा विकृताननः।। ५८।।
      अनुवाद:-यज्ञकार्य होतो हुए वहाँ महान आश्चर्य हुआ कार्रवाई हो रही थी तो बड़ा आश्चर्य हुआ।
      विकृत मुख वाला कोई जालिम नग्न (दिशात्मक वस्त्र पहने हुए ) बिगड़े हुए मुख वाला ।58।
      कपालपाणिरायातो भोजनं दीयतामिति ।
      निषिध्यमानोऽपि विप्रैः प्रविष्टो यज्ञमण्डपम् ।।
      ५९।।
      अनुवाद:-वह हाथ में खोपड़ी लेकर आया और उसे खाना देने को कहा। ब्राह्मणों द्वारा मना किए जाने पर भी वह यज्ञ मंडप में प्रवेश कर गया।
      सदस्यास्तु तिरश्चक्रुः कस्त्वं पापः समागतः ।
      कपाली नग्नरूपश्चाऽपवित्रखर्परान्वितः ।।1.509.६ ०।।
      अनुवाद:-सदस्यों ने मुड़कर कहा, "तुम कौन हो, पापी जो यहाँ आए हो ?" कपाली और अपवित्र खप्पर के  साथ इस नग्न रूप में ।
      यज्ञभूमिरशुद्धा स्याद् गच्छ शीघ्रमितो बहिः ।
      जाल्मःप्राहकथं चास्मि ह्यशुद्धो भिक्षुकोव्रती।६१।
      अनुवाद:-यज्ञ स्थल अशुद्ध हो जाय, शीघ्र यहां से बाहर चले जाओ। जालिम  बोला ! कि मैं व्रत रखने वाला  भिक्षुक  अशुद्ध  कैसे हूँ ? 

      विशेष:- उपर्युक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं क्योंकि जब शिव गायत्री कि नाम करण करते है वह भी व्याकरण सम्मत न होकर नियम विरुद्ध होता है । और वही शिव कपाली भी हैं फिर वे दूसरे रूप में कैसे आ गये ?
      _________
      ब्रह्मयज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः ।
      गोपालकन्या नित्यं या शूद्री त्वशुद्धजातिका।६२।
      अनुवाद:-इस ब्रह्मयज्ञ का पता चलने पर वह स्नान करके वापस आ गया। गोप की कन्या होती है हमेशा शूद्री होती है। वह एक अशुद्ध जाति की होती है।

      स्थापिताऽत्र नु सा शुद्धा विप्रोऽहं पावनो न किम् ।
      तावत् तत्र समायातो ब्राह्मणो वृद्धरूपवान् ।।६३।।
      ______________ 
      अनुवाद:-उसे यहाँ यज्ञ स्थल में बैठाया  वह शुद्धा है  और मैं एक  ब्राह्मण होकर भी अशुद्ध कैसे  हूँ ? इतने में एक वृद्ध रूपवान् ब्राह्मण वहाँ आ पहुँचा।

      श्रीकृष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
      जाल्म नैषाऽस्ति शूद्राणी ब्राह्मणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।
      अनुवाद:-तब भगवान कृष्ण ने उन्हें इस प्रकार संबोधित किया: मेरी प्रिय पत्नी, कृपया मेरा उत्तर सुनें। जाल्म ये ऐसी नहीं है बल्कि जाति से ब्राह्मणी ही  है।
      शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्यतद्विदः ।
      पुरा सृष्टे समारम्भे श्रीकृष्णेन परात्मना ।।६५।।
      अनुवाद:-सुनो, मुझे पता है कि क्या हुआ, लेकिन कोई और नहीं जानता कि क्या हुआ।
      अतीत में भगवान कृष्ण द्वारा सर्वोच्च आत्मा द्वारा सृष्टि की शुरुआत में।
      स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता ।
      अथ द्वितीया कन्या च पतिव्रताऽभिधा कृता ।।६६।।
      अनुवाद:-सावित्री, ने स्वयं को अपने रूप में प्रकट किया है। और दूसरी को पतिव्रता नाम से है।।
      कुमारश्च कृतः पत्नीव्रताख्यो ब्राह्मणस्ततः ।
      ब्रह्मा वैराजदेहाच्च कृतस्तस्मै समर्पिता ।।६७।।
      अनुवाद:-तब दूसरी पुत्री का नाम पतिव्रता रखा गया।
      फिर उन्हें एक युवक और पत्नीव्रत नाम का एक ब्राह्मण बनाया गया।
      ब्रह्मा को वैराजा के शरीर से बनाया गया था और उन्हें अर्पित किया गया था।
      सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
      अथ यज्ञप्रवाहार्थं ब्रह्मा यज्ञं करिष्यति ।।६८।।
      अनुवाद:-सावित्री गोलोक में भगवान श्री हरि की उपस्थिति में है। तब ब्रह्मा यज्ञ के प्रवाह के लिए यज्ञ करेंगे।
      पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
      पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता भविष्यति ।।६९।।
      अनुवाद:-पृथ्वी पर एक नश्वर के रूप में, एक मानव शरीर वाली यज्ञ के कार्य के लिए उसकी पत्नी की आवश्यकता होगी।
      हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
      द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह ।।1.509.७०।।
      अनुवाद:-इस कारण से, भगवान कृष्ण ने तब गायत्री को ऐसा करने की आज्ञा दी।
      आपको दूसरे रूप में जाना चाहिए।
      हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
      द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह ।।
      1.509.७०।।
      अनुवाद:-जिसके  कारण कृष्ण थे तब उनके द्वारा उस सावित्री को आज्ञा दी गयी कि अपने दूसरे रूप के द्वारा तुम्हें पृथ्वी पर जाना चाहिए।
      प्रागेव भूतले कन्यारूपेण ब्रह्मणः कृते।
      सावित्री श्रीकृष्णमाह कौ तत्र पितरौ मम।७१।
      अनुवाद:-पहले से ही ब्रह्मा के लिए कन्या के रूप में पृथ्वी पर। सावित्री ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि वहां मेरे माता पिता कौन हैं ?
      श्रीकृष्णस्तांतदा सन्दर्शयामास शुभौ तु तौ ।
      इमौ पत्नीव्रतो विप्रो विप्राणी च पतिव्रता ।७२।
      अनुवाद:-तब भगवान कृष्ण ने उसे दो शुभ ( नर नारियों) को दिखाया।
      ये दोनों ब्राह्मण हैं जो अपनी पत्नी के प्रति विश्वसनीय हैं वह और वह महिला है जो अपने पति के प्रति विश्वसनीय है।
      मदंशौ मत्स्वरूपौ चाऽयोनिजौ दिव्यविग्रहौ ।
      पृथ्व्यां कुंकुमवाप्यां वै क्षेत्रेऽश्वपट्टसारसे ।७३ ।
      अनुवाद:-वे दोनों मेरे अंश और मेरे रूप हैं  वे दौनों गर्भ से  उत्पन्न नहीं  हुए हैं। इनके दिव्य शरीर हैं। धरती केसर से भर गई थी अश्वपट्टसारस में  खेतों में ।
      सृष्ट्यारम्भे विप्ररूपौ वर्तिष्येतेऽतिपावनौ ।
      वैश्वदेवादियज्ञादिहव्याद्यर्थं गवान्वितौ ।७४। 
      अनुवाद:-सृष्टि के आरंभ में ये दोनों( पति पत्नी) अति पवित्र ब्राह्मणों के रूप में रहेंगे। उनके साथ वैश्वदेव आदि यज्ञादि हव्य के लिए गायें होंगी।
      सौराष्ट्रे च यदा ब्रह्मा यज्ञार्थं संगमिष्यति ।
      तत्पूर्वं तौ गोभिलश्च गोभिला चेति संज्ञिता।
      ७२।
      अनुवाद:-और जब भगवान ब्रह्मा  यज्ञ करने के उद्देश्य से सौराष्ट्र में जाएंगे। इससे पहले ही वे दोनों गोभिल और गोभिला नाम से जाने जाएंगे ।
      गवा प्रपालकौ भूत्वाऽऽनर्तदेशे गमिष्यतः ।
      यत्राऽऽभीरा निवसन्ति तत्समौ वेषकर्मभिः ।।७६।।
      अनुवाद:-वे गोपाल होकर और आनर्त देश (गुजरात) जाएंगे। जहाँ अभीर लोग रहते हैं वहाँ उन दोनों के पहनावे और कार्य अहीरों के समान होंगे ।
      दैत्यकृतार्दनं तेन प्रच्छन्नयोर्न वै भवेत् ।
      इतिःहेतोर्यज्ञपूर्वं दैत्यक्लेशभिया तु तौ ।।७७।।
      अनुवाद:- दैत्यों के उत्पीडन से वे दोनों छुपे हुए रहते हैं इस कारण उन दोनों को यज्ञ के पूर्व दैत्यो की क्लेश का भय रहता है।
      __________
      श्रीहरेराज्ञयाऽऽनर्ते जातावाभीररूपिणौ ।
      गवां वै पालकौ विप्रौ पितरौ च त्वया हि तौ ।७८।
      अनुवाद:-भगवान श्री हरि की आज्ञा से,उन दोनों ने अहीरों  के रूप में जन्म लिया। वे गायों को पालने वाले ब्राह्मण -ब्राह्मणी तुम्हारे माता-पिता हैं।
      कर्तव्यौ गोपवेषौ वै वस्तुतो ब्राह्मणावुभौ ।
      मदंशौ तत्र सावित्रि ! त्वया द्वितीयरूपतः।७९।
      अनुवाद:-वास्तव में, उन दोनों को गोपवेष में कर्म करने चाहिए  वास्तव में वे दौनों ब्राह्मण ही हैं। मेरे अंशों से  वहाँ सावित्री आप दूसरे रूप में होगीं।
      अयोनिजतया पुत्र्या भाव्यं वै दिव्ययोषिता ।
      दधिदुग्धादिविक्रेत्र्या गन्तव्यं तत्स्थले तदा ।।1.509.८०।।
      अनुवाद:-एक दिव्य नारी  मानवीय जन्म से रहित  दही -दूध विक्रेता की पुत्री के रूप में  तुम्हे उस स्थल पर चला जाना चाहिए।
      यदा यज्ञो भवेत् तत्र तदा स्मृत्वा सुयोगतः ।
      मानुष्या तु त्वया नूत्नवध्वा क्रतुं करिष्यति।८१ ।
      अनुवाद:-जब वहां यज्ञ हो तो उसका भली भांति स्मरण करके । एक मानुषी रूप में  नयी वधु  के रूप में तुम  यज्ञ करोगीं।
      _____________________________
      सहभावं गतो ब्रह्मा गायत्री त्वं भविष्यसि ।
      ब्राह्मणयोः सुता गूढा गोपमध्यनिवासिनोः ।।८२।।

      अनुवाद:-ब्रह्मा का साहचर्य प्राप्त तुम गायत्री नाम से होगी ब्राह्मण( माता-पिता) की पुत्री छुपे हई तुम गोपों के बीच में रहने वाली होंगी।
      "विशेष:- उपर्युक्त 82 वाँ श्लोक भी प्रक्षिप्त है। क्यों की गायत्री अहीरों की ही कन्या थी । यदि यह ब्राह्मण कन्या होती तो गोमुख में प्रवेशकराकर मूत्र द्वार से निकालने के विधान की कथा नहीं बनती जो स्वयं ही सिद्धान्त हीन और मूर्खता-पूर्ण थी।। इस कथन को कृष्ण के मुख से कहलवाना उसे सत्य बनाने का प्रयास ही है। वैसे भी गाय वर्ण-व्यवस्था में वैश्य स्थानीय है। जबकि अजा( बकरी ) ब्राह्मण स्थानीय है।  दोपों को संसार में सबसे पवित्र बताने वाले शास्त्र हैं तो गोप अशुद्ध किस बना दिए! 
      गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
          गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम् ।
      प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
         जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः॥२२॥
      अनुवाद:-अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।
      इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं। इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
      श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
      ब्रह्माणी च ततो भूत्वा सत्यलोकं गमिष्यसि ।
      ब्राह्मणास्त्वां जपिष्यन्ति मर्त्यलोकगतास्ततः।८३।
      अनुवाद:-तब तुम ब्राह्मणी होकर  सत्यलोक को गमन करोगीं। और सब ब्राह्मण लोग पृथ्वी लोक में स्थित आपका नाम जपेंगे।
      इत्येवं जायमानैषा गायत्री ब्राह्मणी सुता ।
      वर्तते गोपवेषीया नाऽशुद्धा जातितो हि सा ।।८४।।
      "विशेष:-इस प्रकार एक ब्राह्मणी की पुत्री गायत्री का जन्म हुआ। जो एक चरवाहे (अहीर)के वेष में व्यवहार करती है और इस लिए वह (गोपकन्या न होने के कारण) जन्म से अशुद्ध नहीं होती है। 
      गोपों को अशुद्ध मानना लेखक की पूर्वदाराग्रह से उतपन्न भ्रान्ति ही है।
      उपर्युक्त श्लोक भी प्रक्षिप्त ही है। लक्ष्मीनारायण संहिता के लेखक कोई श्वेतायन व्यास हैं परन्तु सम्भव है कि ये श्लोक प्रकाशन काल में  बाद संलग्न कर दिए हों क्योंकि पुराण शास्त्रों में गायत्री के ब्राह्मण कुल में जन्म लेने की कहीं पर चर्चा नहीं है केवल इसे अहीरों के कुल को पवित्र करने वाली और यदुवंशसमुद्भवा ही बताया है ।  और यदि गायत्री ब्राह्मण कुल में जन्मी कन्या थी तो गाय के मुख में डालकर गुदा( मलद्वार) से बाहर निकाला भी मूर्खता ही है। और गाय भी तो वैश्यवर्णा पशु है। जैसा की वेदों तथा पुराणों में वर्णन है ।

      एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा ।
      तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा ।।८५।।
      अनुवाद: तब भगवान कृष्ण ने जाल्मा को इस प्रकार उत्तर दिया। तबतक इस बीच गोभिला और गोभिल  खुशी-खुशी वहां आ पहुंचे।
      अस्मत्पुत्र्या महद्भाग्यं ब्रह्मणा या विवाहिता ।
      आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते ।।८६।।
      अनुवाद:-हमारी पुत्री बहुत भाग्यशाली है कि उसका विवाह भगवान ब्रह्मा से हुआ है।
      यह हम दोनों का महा सौभाग्य है कि दैत्य के द्वारा हुए कष्टों को हमारी पुत्री द्वारा रोका गया है।
      यज्ञद्वारेण देवानां ब्राह्मणानां सतां तथा ।
      इत्युक्त्वा तौ गोपवेषौ त्यक्त्वा ब्राह्मणरूपिणौ।८७।
      अनुवाद:-यज्ञ द्वारा देवताओं, ब्राह्मणों और पुण्यात्माओं की रक्षा होती है। ऐसा कहकर वे दोनों (पति- पत्नी) ग्वालों का वेश छोड़कर ब्राह्मण का रूप धारण कर गए।
      पितामहौ हि विप्राणां परिचितौ महात्मनाम् ।
      सर्वेषां पूर्वजौ तत्र जातौ दिव्यौ च भूसुरौ।८८।
      अनुवाद:-महात्मा ब्राह्मणों के  दौनों दादा -दादी  अच्छी तरह से सब ब्राह्मणों के परिचित उन दोनों के दिव्य रूप  हो गये ।
      उन सभी के पूर्वज वहाँ दिव्य और सांसारिक
      दोनों तरह से पैदा हुए थे।
      ब्रह्माद्याश्च तदा नेमुश्चक्रुः सत्कारमादरात् ।
      यज्ञे च स्थापयामासुः सर्वं हृष्टाःसुरादयः ।८९।
      अनुवाद:-तब ब्रह्मा और अन्य लोगों ने उन दौनों को नतमस्तक होकर उनका आदरपूर्वक आतिथ्य सत्कार किया।और देवताओं तथा अन्य लोगों ने प्रसन्न होकर सब कुछ यज्ञ में अर्पित कर दिया।
      ब्रह्माणं मालया कुंकुमाक्षतैः कुसुमादिभिः ।
      वर्धयित्वा सुतां तत्र ददतुर्यज्ञमण्डपे ।। 1.509.९०।।
      अनुवाद:-ब्राह्मण को केसर, अखंड अनाज और फूलों की माला से वर्द्धापन( बधाई) देकर  
      उन्होंने अपनी बेटी को वहीं यज्ञ मंडप में ब्रह्मा को दे दिया। 1.509.90।
      वृद्धो वै ब्राह्मणस्तत्र कृष्णरूपं दधार ह ।
      सर्वैश्च वन्दितः साधु साध्वित्याहुः सुरादयः।९१।
      अनुवाद:-वृद्ध ब्राह्मण ने वहाँ भगवान कृष्ण का रूप धारण किया। वे सभी के द्वारा पूजे गये और देवताओं तथा अन्य लोगों ने कहा, साधु-साधु का उद्घोष किया।
      जाल्मः कृष्णं हरिं दृष्ट्वा गायत्रीपितरौ तथा ।
      दृष्ट्वा ननाम भावेन प्राह भिक्षां प्रदेहि मे।९२।
      अनुवाद:-जाल्म ने भगवान कृष्ण, हरि और गायत्री के माता-पिता दोनों  को देखकर  स्नेह से प्रणाम किया और कहा कि मुझे भिक्षा दो !
      बुभुक्षितोऽस्मि विप्रेन्द्रा गर्हयन्तु न मां द्विजाः ।
      दीनान्धैः कृपणैः सर्वैस्तर्पितैरिष्टिरुच्यते ।।९३।।
      अनुवाद:-हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, मैं बहुत भूखा हूँ, कृपया मुझे धिक्कारें नहीं हे द्विजो !
      दरिद्र, अन्धे और दीन-हीन सभी तृप्त हो जाते हैं और वे तुम्हे अधिक रुचते (अच्छे लगते ) हैं।93।
      अन्यथा स्याद्विनाशाय क्रतुर्युष्मत्कृतोऽप्ययम् ।
      अन्नहीनो दहेद् राष्ट्रं मन्त्रहीनस्तु ऋत्विजः ।।९४।।
      अनुवाद:-अन्यथा आपके द्वारा किया गया यह यज्ञ भी विनाश के लिए ही होगा।
      अन्न के बिना राष्ट्र जलेगा और मन्त्रों के बिना ऋत्विज (पुरोहित)।
      याज्ञिकं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।
      श्रीकृष्णश्च तदा प्राह जाल्मे ददतु भोजनम्।९५।
      अनुवाद:-याज्ञिक( यजमान) की यज्ञ बिना दान-दक्षिणा के नहीं मानी जाती और ये सब शत्रु के समान बन जाते हैं।विरीत फल देने वाले -तब भगवान कृष्ण ने कहा, "जल्मा को भोजन दो।
      विप्राः प्राहुः खप्परं ते त्वशुद्धं विद्यते ततः ।
      बहिर्निःसर दास्यामो भिक्षां पार्श्वमहानसे ।।९६।।
      एतस्यामन्नशालायां भुञ्जन्ति यत्र तापसाः।
      दीनान्धाः कृपणाश्चैव तथा क्षुत्क्षामका द्विजाः।९७।
      अशुद्धं ते कपालं वै यज्ञभूमेर्बहिर्नय ।
      गृहाणाऽन्यच्छुद्धपात्रं दूरं प्रक्षिप्य खप्परम् ।।९८।।
      एवमुक्तश्च जाल्मः स रोषाच्चिक्षेप खप्परम् ।
      यज्ञमण्डपमध्ये च स्वयं त्वदृश्यतां गतः ।।९९।।
      सर्वेप्याश्चर्यमापन्ना विप्रा दण्डेन खप्परम् ।
      चिक्षिपुस्तद्बहिस्तावद् द्वितीयं समपद्यत ।। 1.509.१००।।
      तस्मिन्नपि परिक्षिप्ते तृतीयं समपद्यत ।
      एवं शतसहस्राणि समपद्यन्त वै तदा ।। १०१ ।।
      परिश्रान्ता ब्राह्मणाश्च यज्ञवाटः सखप्परः ।
      समन्ततस्तदा जातो हाहाकरो हि सर्वतः।१०२।।
      ब्रह्मा वै प्रार्थयामास सन्नत्वा तां दिशं मुहुः ।
      किमिदं युज्यते देव यज्ञेऽस्मिन् कर्मणः क्षतिः। १०३।
      तस्मात् संहर सर्वाणि कपालानि महेश्वर ।
      यज्ञकर्मविलोपोऽयं मा भूत् त्वयि समागते।१०४।
      ततः शब्दोऽभवद् व्योम्नः पात्रं मे मेध्यमस्ति वै ।
      भुक्तिपात्रं मम त्वेते कथं निन्दन्ति भूसुराः।१०५।।
      तथा न मां समुद्दिश्य जुहुवुर्जातवेदसि ।
      यथाऽन्या देवतास्तद्वन्मन्त्रपूतं हविर्विधे।१ ०६।
      अतोऽत्र मां समुद्दिश्य विशेषाज्जातवेदसि ।
      होतव्यं हविरेवात्र समाप्तिं यास्यति क्रतुः । १०७।।
      ब्रह्मा प्राह तदा प्रत्युत्तरं व्योम्नि च तं प्रति ।
      तव रूपाणि वै योगिन्नसंख्यानि भवन्ति हि।१०८।
      कपालं मण्डपे यावद् वर्तते तावदेव च ।
      नात्र चमसकर्म स्यात् खप्परं पात्रमेव न ।१ ०९।
      यज्ञपात्रं न तत्प्रोक्तं यतोऽशुद्धं सदा हि तत् ।
      यद्रूपं यादृशं पात्रं यादृशं कर्मणः स्थलम् ।। 1.509.११०।।
      तादृशं तत्र योक्तव्यं नैतत्पात्रस्य योजनम् ।
      मृन्मयेषु कपालेषु हविःपाच्यं क्रतौ मतम् ।१११ ।
      तस्मात् कपालं दूरं वै नीयतां यत् क्रतुर्भवेत् ।
      त्वया रूपं कपालिन् वै यादृशं चात्र दर्शितम् ।१ १२।
      तस्य रूपस्य यज्ञेऽस्मिन् पुरोडाशेऽधिकारिता ।
      भवत्वेव च भिक्षां संगृहाण तृप्तिमाप्नुहि।११ ३।
      अद्यप्रभृति यज्ञेषु पुरोडाशात्मकं द्विजैः ।
      तवोद्देशेन देवेश होतव्यं शतरुद्रिकम् ।११४।
      विशेषात् सर्वयज्ञेषु जप्यं चैव विशेषतः ।
      अत्र यज्ञं समारभ्य यस्त्वा प्राक्पूजयिष्यति।११५।
      अविघ्नेन क्रतुस्तस्य समाप्तिं प्रव्रजिष्यति ।
      एवमुक्ते तदाश्चर्यं जातं शृणु तु पद्मजे ।११६।
      यान्यासँश्च कपालानि तानि सर्वाणि तत्क्षणम् ।
      रुद्राण्यश्चान्नपूर्णा वै देव्यो जाताः सहस्रशः।११७।
      सर्वास्ताः पार्वतीरूपा अन्नपूर्णात्मिकाः स्त्रियः ।
      भिक्षादात्र्यो विना याभिर्भिक्षा नैवोपपद्यते।११८।
      तावच्छ्रीशंकरश्चापि प्रहृष्टः पञ्चमस्तकः ।
      यज्ञमण्डपमासाद्य संस्थितो वेदिसन्निधौ ।११ ९।
      ब्राह्मणा मुनयो देवा नमश्चक्रुर्हरं तथा ।
      रुद्राणीःपूजयामासुरारेभिरे क्रतुक्रियाम्।1.509.१ २०।
      सहस्रशः क्रतौ देव्यो निषेदुः शिवयोषितः ।
      शिवेन सहिताश्चान्याः कोटिशो देवयोषितः।१२१।
      एवं शंभुः क्रतौ भागं स्थापयामास सर्वदा ।
      पठनाच्छ्रवणाच्चास्य यज्ञस्य फलमाप्नुयात् । १२२।
      इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने नाम्ना नवाऽधिकपञ्चशततमोऽध्यायः ।।५०९।।
      (लक्ष्मी नारायण संहिता-)

      "विशेष:- अग्निष्टोम-एक यज्ञ जो ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का रूपान्तर है । विशेष—इसका काल वसंत है । इसके करने का अधिकार अग्निहोत्री ब्राह्मण को है और द्रव्य इसका सोम है  देवता इसके इन्द्र और वायु आदि हैं और इसमें ऋत्विजों की संख्या १६ है । यह यज्ञ पाँच दिन में समाप्त होता है ।

      ____________

      ब्रह्मा( यज्ञ का एक ऋत्विज।  ) नारद हों और गर्ग यज्ञ के दृष्टा हों ।25।

       "विशेष:- ऋत्विज  यज्ञ करनेवाला वह जिसका यज्ञ में वरण किया जाय । विशेषत:—ऋत्विजों की संख्या(16) होती है जिसमें चार मुख्य हैं—(क)  होतृ-होता:- (ऋग्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ख) अध्वर्यु:- (यजुर्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ग) उद्गाता:- (सामवेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (घ) ब्रह्मा:- (चार वेदों का जाननेवाला और पूरे  यजन-कर्म का निरीक्षण करनेवाला । इनके अतिरिक्त बारह और ऋत्विजों के नाम ये हैं— मैत्रावरुण, प्रतिप्रस्थाता, ब्राह्मणच्छंसी, प्रस्तोता, अच्छावाक्, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रतिहर्त्ता, ग्रवस्तुत्, उन्नेता, पोता और सुब्रह्मण्य ।

      होता- भरद्वाज अग्नीध्र और पराशर बनें बृहस्पति आचार्य बने और गोभिल उद्गाता बने ।२६।

      मैत्रावरुण च्यवन अथर्वा और गालव ये यज्ञ में समर्थ ब्राह्मण धन लेकर यज्ञमण्डप में खड़े हो। २३।
      ______
      अब देखें नीचे स्कन्दपुराण कि वर्णन-
      श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहेगायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः॥१८१॥ 
      निम्न श्लोकों को देखें-            
                            ॥ ब्रह्मोवाच ॥
      शक्र नायाति सावित्री सापि स्त्री शिथिलात्मिका ॥
      अनया भार्यया यज्ञो मया कार्योऽयमेव तु ॥५४ ॥
      गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः।
      यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ५५ ॥
      पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः ॥
      शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः।५६॥
      अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता॥
      कन्यका गोपजा तन्वी चंद्रास्या पद्मलोचना।५७॥
      ____________
      सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता ॥
      सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने॥५८॥
      कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि न:।५९॥
                           ॥कन्योवाच॥
      गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता ॥
      यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम् ॥ ६.१८१.६०॥
      तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम् ॥
      जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले ॥ ६१ ॥
      _________
      अथ तां रुदतीं शक्रः समादाय त्वरान्वितः॥
      गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः ॥ ६२ ॥
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
      ज्येष्ठकुण्डस्यविप्रेन्द्राःपरिधाय्यसुवाससी।६३।
      ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
      द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे ॥ ६४ ॥
      कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना ॥
      तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता ॥ ६५॥
                       "श्रीवासुदेव उवाच॥ 
      यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ६९ ॥
                           "रुद्र उवाच॥
      प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
      गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
                         ॥ब्रह्मोवाच॥
      वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि ॥
      संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥७१॥
                          ॥ब्राह्मणा ऊचुः॥ 
      एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
      ___________________
      अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम्।।७२॥
                            ॥सूत उवाच॥
      ततः पाणिग्रहं चक्रे तस्या देवः पितामहः॥
      कृत्वा सोमं ततो मूर्ध्नि गृह्योक्तविधिना द्विजाः।७३।
      संतिष्ठति च तत्रस्था महादेवी सुपावनी ॥
      अद्यापि लोके विख्याता धनसौभाग्यदायिनी।७४।
      यस्तस्यां कुरुते मर्त्यः कन्यादानं समाहितः ॥
      समस्तं फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ।७९।
      कन्या हस्तग्रहं तत्र याऽऽप्नोति पतिना सह ॥
      सा स्यात्पुत्रवती साध्वी सुखसौभाग्यसंयुता।७६।
      पिंडदानं नरस्तस्यां यः करोति द्विजोत्तमाः॥
      पितरस्तस्य संतुष्टास्तर्पिताः पितृतीर्थवत् ॥७७॥
      __________________________________
      इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥ १८१ ॥

      इसी कथा को विस्तार से हम यहाँ  नीचे प्रस्तुत करते हैं यह कथा पूर्णतया प्रक्षिप्त व शास्त्रीय- सिद्धान्त विहीन है

                        ॥सूत उवाच॥
      एतस्मिन्नन्तरे सर्वेर्नागरैर्ब्राह्मणोत्तमैः॥
      प्रेषितो मध्यगस्तत्र गर्तातीर्थसमुद्भवः॥१॥
      अनुवाद:- इस बीच, सभी उत्कृष्ट नागर ब्राह्मणों द्वारा गर्तातीर्थ  एक मध्यस्थ को भेजा गया ।१। 
      रेरे मध्यग गत्वा त्वं ब्रूहि तं कुपितामहम्॥
      विप्रवृत्ति प्रहन्तारं नीतिमार्गविवर्जितम्॥२॥
      अनुवाद:- "हे मध्यम जाओ और बताओ कि कुपितामह (दुष्ट पितामह ) जिसने हम ब्राह्मणों की जीविका के साधनों को नष्ट कर दिया है। और जिन्होंने न्याय और निष्पक्षता के मार्ग को त्याग दिया है।२।
      एतत्क्षेत्रं प्रदत्तं नःपूर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥
      महेश्वरेण तुष्टेन पूरिते सर्पजे बिले॥३॥
      अनुवाद:-यह क्षेत्र  महेश्वर द्वारा हमारे पूर्वजों ब्राह्मणों को दिया गया था -नागों से उत्पन्न विल में।३।
      तस्य दत्तस्य चाद्यैव पितामहशतं गतम्॥
      पंचोत्तरमसन्दिग्धं यावत्त्वं कुपितामह ॥४॥
      अनुवाद:-तुम्हारे साथ समाप्त, हे दुष्ट पितामह, एक सौ पांच अलग -अलग पितामह उस महेश्वर द्वारा दिए गये क्षेत्र के  समय से चले गए हैं। इसमें तो कोई शक ही नहीं है।४।
      न केनापि कृतोऽस्माकं तिरस्कारो यथाऽधुना॥
      त्वां मुक्त्वा पापकर्माणं न्यायमार्गविवर्जितम्॥५॥
      अनुवाद:-किसी के भी द्वारा आजतक हमारा तिरस्कार नहीं किया गया तुम्हें छोड़कर तुम पापकर्म करते हुए न्याय मार्ग से हटे हुए हो।५।
       
      नागरैर्ब्राह्मणैर्बाह्यं योऽत्र यज्ञं समाचरेत्॥
      श्राद्धं वा स हि वध्यःस्यात्सर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥६॥
      अनुवाद:-वह जो नागर (गुजरात में रहने वाले ब्राह्मणों की एक जाति।) के वंश से बाहर है और यहाँ श्राद्ध या यज्ञ करता है, उसे अन्य सभी ब्राह्मणों द्वारा मार दिया जाना चाहिए।६।
      न तस्य जायते श्रेयस्तत्समुत्थं कथञ्चन।
      एतत्प्रोक्तं तदा तेन यदा स्थानं ददौ हि नः।७।
      अनुवाद:-जब  शिव ने  हमें यह पवित्र स्थान प्रदान किया तो उनके द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि उन्हें (बाहरी व्यक्ति) को इस क्षेत्र से बिल्कुल भी लाभ नहीं मिलेगा।७।
      तस्माद्यत्कुरुषे यज्ञं ब्राह्मणैर्नागरैः कुरु ॥
      नान्यथा लप्स्यसे कर्तुं जीवद्भिर्नागरैर्द्विजैः॥८॥
      अनुवाद:-इसलिए, आप जो भी यज्ञ करते हैं, वही नागर ब्राह्मणों से करवाएं ; अन्यथा, जब तक नागर ब्राह्मण जीवित हैं, आपको इसे करने का अवसर नहीं मिलेगा।८।
      एवमुक्तस्ततो गत्वा मध्यगो यत्र पद्मजः॥
      यज्ञमण्डपदूरस्थो ब्राह्मणैः परिवारितः॥९॥
      अनुवाद:-इस प्रकार कहने पर, मध्यग यज्ञ मंडप से कुछ दूर, ब्राह्मणों से घिरे उस स्थान पर गए, जहाँ ब्रह्मा जी थे।९।
      यत्प्रोक्तं नागरैः सर्वैः सविशेषं तदा हि सः॥
      तच्छ्रुत्वा पद्मजः प्राह सांत्वपूर्वमिदं वचः॥
      अनुवाद:-उन सब नागरों ने जो कहा, वह विशेष बल देकर उसे कह सुनाया। यह सुनकर ब्रह्मा ने मैत्रीपूर्ण स्वर में ये शब्द कहे:।१०।
      (स्कन्द पुराण अध्याय-।१८१.१०॥

       
      मानुषं भावमापन्न ऋत्विग्भिः परिवारितः॥
      त्वया सत्यमिदं प्रोक्तं सर्वं मध्यगसत्तम॥११॥
      अनुवाद:-ब्रह्मा ने मानव रूप धारण किया था और ऋत्विकों से घिरे हुए थे।(उन्होंने कहा:) "हे उत्कृष्ट मध्यग ,आपके द्वारा कही गई सभी बातें सत्य हैं।११।
      किं करोमि वृताः सर्वे मया ते यज्ञकर्मणि॥
      ऋत्विजोऽध्वर्यु पूर्वा ये प्रमादेन न काम्यया॥१२॥
      अनुवाद:-मैं क्या करूँगा ? इन सभी को मेरे द्वारा पहले से ही यज्ञ संस्कारों के प्रदर्शन के लिए चुना गया है - ये सभी ऋत्विक, अध्वर्यु और अन्य। उन्हें जानबूझकर नहीं गलती से चुने गये है।१२।
      तस्मादानय तान्सर्वानत्र स्थाने द्विजोत्तमान्॥
      अनुज्ञातस्तु तैर्येन गच्छामि मखमण्डपे॥१३॥
      अनुवाद:-इसलिए उन सभी उत्कृष्ट ब्राह्मणों को यहाँ इस पवित्र स्थान पर ले आओ, ताकि उनकी अनुमति से मैं यज्ञ-मण्डप में जा सकूँ ।१३।
                        "मध्यग उवाच॥
      त्वं देवत्वं परित्यज्य मानुषं भावमाश्रितः॥
      तत्कथं ते द्विजश्रेष्ठाःसमागच्छंति तेंऽतिकम्॥ १४॥
                         मध्यग ने कहा-
      अनुवाद:-तूमने अपनी दिव्यता को त्यागकर मनुष्य भाव (भेष और रूप) अपना लिया है। अतएव वे श्रेष्ठ ब्राह्मण तुम्हारे निकट कैसे आ सकते हैं ?१४।
      श्रेष्ठा गावः पशूनां च यथा पद्मसमुद्भव॥
      विप्राणामिह सर्वेषां तथा श्रेष्ठा हि नागराः॥१५॥
      अनुवाद:-हे ब्रह्मा ! जैसे  गाय सभी जानवरों में सबसे उत्कृष्ट हैं, वैसे ही ब्राह्मणों में नागर भी सबसे उत्कृष्ट हैं।१५।

      तत्माच्चेद्वांछसि प्राप्तिं त्वमेतां यज्ञसंभवाम्॥
      तद्भक्त्यानागरान्सर्वान्प्रसादय पितामह॥१६॥
      अनुवाद:-इसलिए, यदि आप इस यज्ञ से उत्पन्न होने वाले लाभ की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, तो हे पितामह, सभी नागरों को उनकी भक्ति के साथ प्रसन्न करें।१६।
                          "सूत उवाच॥
      ★-तच्छ्रुत्वा पद्मजो भीत ऋत्विग्भिः परिवारितः ॥
      जगाम तत्र यत्रस्था नागराः कुपिता द्विजाः॥१७॥
                            सूत ने कहा :
      अनुवाद:-यह सुनकर कमल में उत्पन्न ब्रह्मा डर गए। ऋत्विकों से घिरे हुए वे उस स्थान पर गए जहाँ क्रुद्ध नागर ब्राह्मण उपस्थित थे।१७।
      प्रणिपत्य ततः सर्वान्विनयेन समन्वितः॥
      प्रोवाच वचनं श्रुत्वा कृताञ्जलिपुटःस्थित:॥१८॥
      अनुवाद:-ब्रह्मा ने बड़ी दीनता से उन सभों को दण्डवत किया। अनुनय-विनय पूर्वक हाथ जोड़कर खड़े होकर उन्होंने नागर ब्राह्मणों से ये शब्द कहे:।१८।                                    

      जानाम्यहं द्विजश्रेष्ठाः क्षेत्रेऽस्मिन्हाटकेश्वरे॥
      युष्मद्बाह्यं वृथा श्राद्धं यज्ञकर्म तथैव च॥१९॥
      अनुवाद:-हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, मुझे पता है कि हाटकेश्वर के इस पवित्र स्थान में आप सभी को छोड़कर अन्य व्यक्ति द्वारा किए गए श्राद्ध और यज्ञ अनुष्ठान व्यर्थ हैं।१९।
      कलिभीत्या मयाऽऽनीतं स्थानेऽस्मिन्पुष्करं निजम्॥
      तीर्थं च युष्मदीयं च निक्षेपोऽयंसमर्पितः॥२०॥
      अनुवाद:-कलि के भय से मेरे तीर्थ पुष्कर को मेरे द्वारा इस पवित्र स्थान पर लाया गया है। यह आप सभी को यह यह पुष्कर और तुम्हारा हाटकेशवर मेरे द्वारा समर्पित किया गया है।२०।
      ऋत्विजोऽमी समानीता गुरुणा यज्ञसिद्धये ॥
      अजानता द्विजश्रेष्ठा आधिक्यं नागरात्मकम्॥ २१॥
      अनुवाद:-ये ऋत्विक बृहस्पति के साथ यज्ञ की सिद्धि के लिए लाये गये नागरों की श्रेष्ठता को जाने बिना ।२१।
      तस्माच्च क्षम्यतां मह्यं यतश्च वरणं कृतम् ॥
      एतेषामेव विप्राणामग्निष्टोमकृते मया ॥२२॥
      अनुवाद:-इसलिए, अग्निष्टोम के प्रदर्शन के लिए, मेरे द्वारा इन ब्राह्मणों को चुने जाने के लिए मुझे क्षमा करो !।२२।
      एतच्च मामकं तीर्थं युष्माकं पापनाशनम्॥
      भविष्यति न सन्देहःकलिकालेऽपि संस्थिते॥२३॥
      अनुवाद:-मेरा यह तीर्थ निस्संदेह कलियुग के आगमन के दौरान भी आपके पापों का नाश करने वाला होगा।२३।
                        "ब्राह्मणा ऊचुः॥
      यदि त्वं नागरैर्बाह्यं यज्ञं चात्र करिष्यसि॥
      तदन्येऽपि सुराः सर्वे तव मार्गानुयायिनः॥
      भविष्यन्ति तथा भूपास्तत्कार्यो न मखस्त्वया॥
      २४॥
                         ब्राह्मणों ने कहा !
      अनुवाद:-यदि आप नागरों को छोड़कर यहां यज्ञ करते हैं, तो अन्य सुरों के भी आपके मार्ग का अनुसरण करने की संभावना है। वैसे ही पृथ्वी के राजा भी। इसलिए आपको यज्ञ नहीं करना चाहिए।२४।
      यद्येवमपि देवेश यज्ञकर्म करिष्यसि॥
      अवमन्य द्विजान्सर्वाक्षिप्रं गच्छास्मदंतिकात्॥२५।            
      अनुवाद:-इसके बावजूद, हे देवों के देव , यदि आप हम सभी ब्राह्मणों की अवहेलना करते हुए यज्ञ अनुष्ठान करने पर तुले हुए हैं, तो हमारे क्षेत्र से दूर चले जाइए।२५।
                          ॥ब्रह्मोवाच॥
      अद्यप्रभृति य: कश्चिद्यज्ञमत्र करिष्यति॥
      श्राद्धं वा नागरैर्बाह्यं वृथा तत्संभविष्यति॥२६॥
                            ब्रह्मा ने कहा :
      अनुवाद:-अब से यदि कोई नागरों को छोड़कर यहां यज्ञ या श्राद्ध करता है, तो वह व्यर्थ हो जाएगा।२६।

      नागरोऽपि च योऽन्यत्र कश्चिद्यज्ञं करिष्यति॥
      एतत्क्षेत्रं परित्यज्य वृथा तत्संभविष्यति॥२७॥
      अनुवाद:-और नागर भी दूसरी जगह कोई यज्ञ करेगा इस क्षेत्र को छोड़कर तो वह सब व्यरथ ही हो जाएगा।२७।
      मर्यादेयं कृता विप्रा नागराणां मयाऽधुना॥
      कृत्वा प्रसादमस्माकं यज्ञार्थं दातुमर्हथ॥
      अनुज्ञां विधिवद्विप्रा येन यज्ञं करोम्यहम् ॥२८॥
      अनुवाद:-हे ब्राह्मणों, यह सीमांकन की रेखा( मर्यादा) नगरों के लिए बनाई गई है। इसलिए, हे ब्राह्मणों, हमें उचित अनुमति देने की कृपा करें, ताकि मैं विधिवत् यज्ञ कर सकूँ।२८।
                        ॥सूत उवाच ॥
      ततस्तैर्ब्राह्मणैस्तुष्टैरनुज्ञातः पितामहः॥
      चकार विधिवद्यज्ञं ये वृता ब्राह्मणाश्च तैः॥२९॥
                           सूत ने कहा 
      अनुवाद:-तत्पश्चात, प्रसन्न हुए उन ब्राह्मणों द्वारा पितामह को अनुमति दी गई  तब  ब्रह्मा ने पहले से ही चुने गए ब्राह्मणों के माध्यम से विधिवत यज्ञ किया ।२९।
      विश्वकर्मा समागत्य ततो मस्तकमण्डनम्॥
      चकार ब्राह्मणश्रेष्ठा नागराणां मते स्थितः॥ ६.१८१.३०॥
      अनुवाद:-हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! और  विश्वकर्मा ने वहाँ आकर(ब्रह्मा के सिर को अलंकृत किया जो नागरों के निर्णय के साथ खड़ा था ।३०।

      ब्रह्मापि परमं तोषं गत्वा नारदमब्रवीत्॥
      सावित्रीमानय क्षिप्रं येन गच्छामि मण्डपे ॥३१॥
      अनुवाद:-ब्रह्मा अत्यंत प्रसन्न होकर  नारद से बोले : "सावित्री को जल्दी लाओ ताकि मैं यज्ञ के मंडप में जा सकूं।"३१।

      वाद्यमानेषु वाद्येषु सिद्धकिन्नरगुह्यकैः॥
      गन्धर्वैर्गीतसंसक्तैर्वेदोच्चारपरैर्द्विजैः॥
      अरणिं समुपादाय पुलस्त्यो वाक्यमब्रवीत्।३२॥
      अनुवाद:-जैसे ही सिद्ध, किन्नर और गुह्यकों द्वारा वाद्य यंत्र बजाए जाते थे , जब गंधर्व अपने गीतों में लीन थे और ब्राह्मण वेदों के जाप में लगे हुए थे , तब पुलस्त्य ने अरणि को उठाकर और जोर से ये शब्द बोले:।३२।
      काष्ठ( लकड़ी) का बना हुआ एक यन्त्र जो यज्ञों में अग्नि उत्पन्न करने के काम आता है-अग्निमन्थ।
      विशेष—इसके दो भाग होते हैं— अधरारणि और उत्तरारणि । यह शमीगर्भ अश्वत्थ से बनाया जाता है । अधराराणि नीचे होती है और इसमें एक छेद होता है । इस छेद पर उत्तरारणि खड़ी करके रस्सों से मथानी के समान मथी जाती है । छेद के नीचे कुश या कपास रख देते हैं जिसमें आग लग जाती है । इसके मथने के समय वैदिक मन्त्र पढ़ते हैं और ऋत्विक् लोग ही इसके मथने आदि का काम करते हैं । यज्ञ में प्रायः अरणि से निकली हुई आग ही काम में लाई जाती हैं ।
      पत्नी३(प्लुतस्वर )पत्नीति विप्रेन्द्राः प्रोच्चैस्तत्र व्यवस्थिताः॥३३॥                    
      “पत्नी ? पत्नी ? पत्नी ” (यजमान की पत्नी कहाँ है ?) और प्रमुख ब्राह्मण अपने-अपने स्थान पर विराजमान थे।३३।

      एतस्मिन्नंतरे ब्रह्मा नारदं मुनिसत्तमम्॥
      संज्ञया प्रेषयामास पत्नी चानीयतामिति ॥३४॥
      अनुवाद-इस बीच, ब्रह्मा ने इशारे से उत्कृष्ट ऋषि नारद को सुझाव दिया कि उनकी पत्नी को वहाँ लाया जाए।३४।
      सोऽपि मंदं समागत्य सावित्रीं प्राह लीलया॥
      युद्धप्रियोंऽतरं वांछन्सावित्र्या सह वेधसः॥३५॥
      नारद (स्वभाव से) कलह प्रिय थे। वह सावित्री और भगवान ब्रह्मा के बीच संबंधों में एक अंतर पैदा करना चाहते हुए । तो वह धीरे-धीरे (इत्मीनान से) सावित्री के पास आकर सावित्री से बोले।३५।
      अहं संप्रेषितः पित्रा तव पार्श्वे सुरेश्वरि ॥
      आगच्छ प्रस्थितःस्नातःसांप्रतं यज्ञमण्डपे॥३६॥
      “हे देवों की स्वामिनी मुझे पिता ने आपके पास  भेजा है कि आप माता चलो; पिता ने  स्नान कर लिया  है और यज्ञ के मंडप में जा रहा हूँ ऐसा कह कर  चले गयें हैं।३६।
      परमेकाकिनी तत्र गच्छमाना सुरेश्वरि॥
      कीदृग्रूपा सदसि वै दृश्यसे त्वमनाथवत्॥३७॥
      लेकिन, हे देवों की स्वामिनी, यदि आप वहां अकेले जाती हैं, तो आप वहां कैसे सभा में दिखोगीं ?  निश्चय ही आप एक अनाथ के समान महिला की तरह दिखाई देंगी।३७।
      तस्मादानीयतां सर्वा याः काश्चिद्देवयोषितः॥
      याभिः परिवृता देवि यास्यसि त्वं महामखे॥३८॥
      इसलिए सभी देवियों को बुलाया जाए। हे देवी, आप उन देवियों से घिरी हुई महा यज्ञ में जाओगीं।३८।
      एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठो नारदो मुनिसत्तमः ॥
      अब्रवीत्पितरं गत्वा तातांबाऽऽकारिता मया॥ ३९॥
      यह कहकर श्रेष्ठ मुनि नारद अपने पिता के पास गए और बोले: “पिताजी, माता को मैंने बुलाया गया है।३९।

      परं तस्याः स्थिरो भावः किंचित्संलक्षितो मया ॥
      तस्य तद्वचनं श्रुत्वा ततो मन्युसमन्वितः॥६.१८१.४०॥
      लेकिन मैंने उसकी मानसिक प्रवृत्ति को थोड़ा ध्यान से देखा है कि वह स्थिर सी रहती है। नारद के वह वचन सुनकर पिता क्रोधित हो गये।४०।

      पुलस्त्यं प्रेषयामास सावित्र्या सन्निधौ ततः॥
      गच्छ वत्स त्वमानीहि स्थानं सा शिथिलात्मिका॥
      सोमभारपरिश्रांतं पश्य मामूर्ध्वसंस्थितम्॥४१॥
      उन्होंने पुलस्त्य को सावित्री के पास भेजा: "प्रिय पुत्र, जाओ  वह स्वभाव से  शिथिल(धीमी)  है। उसे इस स्थान पर ले आओ। देखो, मैं अपने ऊपर रखे हुए सोम के भार को सहते-सहते कितना थक गया हूँ।४१। 
      एष कालात्ययो भावि यज्ञकर्मणि सांप्रतम्॥
      यज्ञपानमुहूर्तोऽयं सावशेषो व्यवस्थितः॥४२॥
      अब यज्ञ अनुष्ठान करने में बहुत अधिक विलंब होगा। यज्ञपान (यज्ञ की प्रक्रिया) के लिए मुहूर्त (शुभघड़ी) के लिए अब बहुत कम समय बचा है।४२। 

      तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पुलस्त्यः सत्वरं ययौ॥
      सावित्री तिष्ठते यत्र गीतनृत्यसमाकुला॥४३॥
      उनके शब्दों को सुनकर पुलस्त्य उस स्थान पर पहुँचे जहाँ  सावित्री समाकुला हो गीत और नृत्य में तल्लीन थी।४३।
      समाकुला=जिसकी अक्ल ठिकाने न हो। 
      ततः प्रोवाच किं देवि त्वं तिष्ठसि निराकुला॥
      यज्ञयानोचितः कालःसोऽयं शेषस्तु तिष्ठति॥४४॥
      उन्होंने तब कहा: "हे देवी, तुम इस प्रकार स्थिर क्यों खड़ी हो? यज्ञयान की प्रक्रिया के लिए उचित मुहूर्त में बहुत कम समय बचा है।४४।


      तस्मादागच्छ गच्छामस्तातः कृच्छ्रेण तिष्ठति॥
      सोमभारार्द्दितश्चोर्ध्वं सर्वैर्देवैः समावृतः॥४५॥
      इसलिए आओ (जल्दी करो)।हम जाएंगे। सिर पर रखे सोम के भार से पिता अत्यधिक व्याकुल और पीड़ित हैं। वह सभी देवों से घिरा हुए हैं।४५।
                        ॥सावित्र्युवाच॥
      सर्वदेववृतस्तात तव तातो व्यवस्थितः॥
      एकाकिनी कथं तत्र गच्छाम्यहमनाथवत्॥४६॥
                         सावित्री ने कहा !
       ​​प्रिय पुत्र, तुम्हारे पिता सभी देवताओं से घिरे होने के कारण अच्छी तरह से बसे हुए हैं। मैं एक अनाथ  की तरह अकेले वहां कैसे जाऊँगी ? ।४६।
      तद्ब्रूहि पितरं गत्वा मुहूर्तं परिपाल्यताम्॥४७॥
      जाकर पिता जी से कहना कि थोड़ी देर धैर्य रखें।४७।
      यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथा पराः॥
      देवकन्याःसमाजेऽत्र ताभिरेष्याम्यहऽद्रुतम्॥ ४८॥
      (वह प्रतीक्षा करने में प्रसन्न हो सकते हैं) जब तक कि इन्द्राणी, गौरी , लक्ष्मी और अन्य देव-पत्नियाँ आती हैं।देव कन्या हमारी सभा में एकत्रित  हो जाएं। तब  मैं उनके साथ शीघ्र आऊँगी।४८।

      सर्वासां प्रेषितो वायुनिमन्त्रेण कृते मया॥
      आगमिष्यन्ति ताःशीघ्रमेवं वाच्यःपिता त्वया।४९।
      तुम्हारे पिता को सूचित किया जाए कि वायु को मेरे द्वारा उन सभी को आमंत्रित करने के लिए भेजा गया है। वे इसी समय आएंगीं।४९।
                         "सूत उवाच॥
      सोऽपि गत्वा द्रुतं प्राह सोमभारार्दितं विधिम्॥
      नैषाभ्येति जगन्नाथ प्रसक्ता गृहकर्मणि॥६.१८१.५०॥
      सा मां प्राह च देवानां पत्नीभिः सहिता मखे॥
      अहं यास्यामि तासां च नैकाद्यापि प्रदृश्यते॥५१॥
      वह मुझसे कहती है, 'मैं देवों की पत्नियों के साथ यज्ञ में जाऊँगी। लेकिन अभी तक इनमें से कोई भी नजर नहीं आया है.।५१।
      एवं ज्ञात्वा सुरश्रेष्ठ कुरु यत्ते सुरोचते॥
      अतिक्रामति कालोऽयं यज्ञयानसमुद्रवः॥
      तिष्ठते च गृहव्यग्रा सापि स्त्री शिथिलात्मिका॥
      ५२।
      इस प्रकार जानकर, हे सुरों में सबसे उत्कृष्ट, और वही करो जो तुम्हें अच्छा लगे । यज्ञ- अनुष्ठान की प्रक्रिया के लिए बहुत देर हो रही है। वह स्त्री  आलसी है  अपने घरेलू कामों में लगी है।५२।
                      
      तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य पुलस्त्यस्य पितामहः॥
      समीपस्थं तदा शक्रं प्रोवाच वचनं द्विजाः॥५३॥                    
      पुलस्त्य के वचन को सुनकर, पितामह ने पास में खड़े हुए  इन्द्र और ब्राह्मणो से कहा।५३।
                         ॥ब्रह्मोवाच॥
      शक्र नायाति सावित्री सापि स्त्री शिथिलात्मिका॥
      अनया भार्यया यज्ञो मया कार्योऽयमेव तु॥५४॥
                         ब्रह्मा ने कहा !
      हे इन्द्र ! सावित्री नहीं आती है। वह  एक आलसी स्त्री है। लेकिन, क्या मुझे ऐसी पत्नी के साथ यह यज्ञ करना चाहिए ?।५४।

      गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः॥
      यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥५५॥
                        
      हे शक्र( इन्द्र) जाओ और जल्दी से किसी दूसरी कन्या को ले आओ ताकि यज्ञ के लिए शुभ मुहूर्त निकल न जाए।५५।

      पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
      शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः।
       ५६।
      हे ब्राह्मणों, पितामह के वचनों को सुनकर, इन्द्र - उनके लिए कन्या की  खोज में गये । जल्द ही वह उससे मिले, क्योंकि वह पास में घूम रही थी ।५६।
      अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता॥
      कन्यका गोपजा तन्वी चन्द्रास्या पद्मलोचना।५७।
      सिर पर मट्ठे का घड़ा रखे इन्द्र द्वारा एक कन्या देखी गयी  जो  एक दुबली-पतली अहीर की कन्या, कमलनयन और चंद्रमुखी थी। ५७।
      सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता॥
      सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने ॥५८॥
      वह यौवन की दहलीज पर थी। वह सभी शुभ गुणों पूर्ण  थी। उनसे इन्द्र!  ने पूछा: "हे कमल-नेत्री, तुम कौन हो ?।५८। 
      कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि नः॥५९॥
      क्या आप कुंवारी हैं या  विवाहित हो ? बताओ हमको तुम किसकी पुत्री हो ?”।५९।
                         "कन्योवाच ॥
      गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता॥
      यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम्॥ ६.१८१.६०॥
                         कन्या ने कहा :
      मैं एक अहीर की बेटी हूँ। आपका कल्याण हो। मैं यहां छाछ बेचने आयी हूं। यदि आप इसे चाहते हैं, तो मुझे इसकी लागत का मूल्य भुगतान करें। देरी ना करें।६०।  
      तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम्॥
      जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले॥६१॥
      यह सुनकर, स्वर्ग के देव इन्द्र भी  उसे  गोप कन्या मानकर मट्ठा की मटकी वहीं छोड़कर भूतल पर पकड़कर तेजी से  ।६१। 
      अथ तां रुदतीं शक्रःसमादाय त्वरान्वितः॥
      गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः॥६२॥
      रोती हुई उस कन्या को इन्द्र ने लाकर शीघ्र ही  एक गाय के मुंह में प्रवेश करा कर उसे गुदा से बाहर खींच लिया।६२।
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
      ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३॥
      इस प्रकार यज्ञ के योग्य करके और बड़े कुण्ड के शुभ जलों से से स्नान कराकर सुन्दर वस्त्र पहनाकर।६३।
      ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
      द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे॥६४॥
      तब उसने प्रसन्नतापूर्वक चतुर्भुज से कहा जो उसके पास जाकर और उसे सभी देवों की सभा के सामने खड़ा कर दिया:।६४।
      कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना॥
      तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता॥६५॥
      हे सुरों में श्रेष्ठ, यह कन्या अब मेरे द्वारा आपके लिए लाई गई है। वह सुन्दर अंगों  वाली है और सभी शुभ लक्षणों से चिह्नित है।६५।
      गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
      आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख॥६६॥
       हे चतुर्भुज ब्रह्मा ! गोप कन्या जानकर और इसको गाय के मुख से प्रवेश कराके तथा पवित्र करने के लिए गाय के गुदा द्वार  से निकाला गया है ।६६।

      हे चतुर्भुज, यह जानकर कि वह एक अहीर की बेटी है, उसे पवित्र करने के उद्देश्य से एक गाय के मुंह में प्रवेश करा दिया किया गया और फिर गुदा( मलद्वार) से बाहर निकाला गया।

                   ॥श्रीवासुदेव उवाच॥
      गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ॥
      एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥ ६७ ॥
                   श्री वासुदेव ने कहा !
       गाय और ब्राह्मण एक ही कुल  के हैं। यह दो भागों में विभक्त है, जैसे एक में मन्त्रों का वास है, जबकि दूसरे में हवि का वास है।६७।
      धेनूदराद्विनिष्क्रान्ता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
      अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये॥६८
      गाय के पेट से निकलकर यह कन्या ब्राह्मणों की कन्या बनी है। मख ( यज्ञ)की पूर्ति के लिए, हे भगवान आप इसका हाथ पकड़ लो।६८।
      यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥६९॥
       इससे यज्ञ के प्रदर्शन के लिए शुभ मुहूर्त से पहले ही पाणि ग्रहण करो ।६९।
      ★                 ॥रुद्र -उवाच॥ 
      प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता ॥
      गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति ॥ ६.१८१.७०॥
                         रुद्र ने कहा :
       वह गाय के मुख में प्रविष्ट होकर गुदाद्वार से बाहर निकाली गई। इसलिए इनका नाम गायत्री रखा गया है । वह तुम्हारी पत्नी बनेगी।७०।
                          ॥ब्रह्मोवाच॥
      वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि ॥
      संभूय ब्राह्मणी श्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम॥७१॥
                           ब्रह्मा ने कहा :
      सभी ब्राह्मण सामूहिक रूप से कहें कि यद्यपि वह एक अहीर की बेटी है, अब वह एक उत्कृष्ट ब्राह्मण लड़की बन गई है ताकि वह मेरी पत्नी बन सके।७१।
      ★              ॥ ब्राह्मणा ऊचुः॥
      एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
      अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥
                                          
                       ब्राह्मणों ने कहा :
      वह एक उत्कृष्ट ब्राह्मण स्त्री होगी जो एक  अहीराणी के जन्म से मुक्त होगी। हमारे कहने पर, हे चतुर्मुखी, उससे शीघ्र विवाह करो।७२।
                        ॥सूत उवाच॥
      ततः पाणिग्रहं चक्रे तस्या देवः पितामहः॥
      कृत्वा सोमन्ततो मूर्ध्निगृह्योक्तविधिना द्विजाः।७३।
                       सूत जी  बोले :
      तब भगवान पितामह ने उनसे विवाह किया। फिर, हे ब्राह्मणों, उन्होंने सोम को सिर के ऊपर धारण किया, जिस तरह गृह्य सूत्र में इसका आदेश दिया गया है ।७३।
      सन्तिष्ठति च तत्रस्था महादेवी सुपावनी॥
      अद्यापि लोके विख्याता धनसौभाग्यदायिनी।७४।
      पवित्र महान देवी आज भी वहां विराजमान हैं। वह धन और दाम्पत्य सुख की दाता के रूप में प्रसिद्ध है।७४।
      ___________________
      यस्तस्यां कुरुते मर्त्यः कन्यादानं समाहितः॥
      समस्तं फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः॥७५॥
       जो मनुष्य बड़ी एकाग्रता से वहाँ कन्या का दान करता है, वह राजसूय और अश्व-यज्ञ का पूरा लाभ प्राप्त करता है ।७५।
      कन्या हस्तग्रहं तत्र याऽऽप्नोति पतिना सह॥
      सा स्यात्पुत्रवती साध्वी सुखसौभाग्यसंयुता॥७६॥
      वहां विवाह करने वाली कन्या को पुत्र, सुख और वैवाहिक सौभाग्य की प्राप्ति होती है।७६।
      पिण्डदानं नरस्तस्यां यः करोति द्विजोत्तमाः॥
      पितरस्तस्य संतुष्टास्तर्पिताः पितृतीर्थवत् ॥७७॥
      हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, यदि कोई व्यक्ति वहाँ  (पिण्डदान) करता है तो पितृ उससे प्रसन्न होते हैं जैसे कि पितृतीर्थ में तर्पण किया गया हो ।७७।
      __                     
      इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्ययवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः॥१८१
      ____________________________________

      यह स्कंद पुराण के नागर-खंड के तीर्थ-महात्म्य का एक सौ इकयासी अध्याय है।
      अध्याय 181 - गायत्री तीर्थ की महिमा
      माता-पिता: खंड 1 - गर्तातीर्थ-महात्म्य
             
                            सूत ने कहा!         
                        
      निम्न श्लोक सकन्द पुराण  के विचारणीय हैं कि ये विरोधाभासी और वैदिक सिद्धान्तों के विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही हैं इस सबका हम खण्डन वेद शास्त्र सम्मत विधि से यथाक्रम करेंगे।
      गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः 
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैःशुभैः।४७।
      सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
      आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।४८।
      यह श्लोक जो गोप कन्या को गोमुख मे प्रवेश कराकर गुह्य मार्ग से निकालने पर शुद्धि करण बताने वाले हैं  तो ये  वस्तुत: वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध ही है क्योंकि गाय विराट पुरुष के ऊरु  अथवा उदर से उत्पन्न होने को कारण वैश्य वर्णा है ऊरु घुटनों से उपर को भाग को  कहते हैं जैसा कि ऊरु शब्द कि व्युत्पत्ति की गयी है ।
       (ऊर्णूयते आच्छाद्यते ऊर्णु--कर्मणि कु नुलोपश्च।जानूपरिभागे तस्य वस्त्रादिभिराच्छादनीयत्वात् तथात्वम् ( घुटनों का ऊपरी और नाभि के नीचे का भाग- अर्थात्  उदर इसके अन्तर्गत ही है)
      _____
      अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्
      सृष्टवानुदराद्गाश्च महिषांश्च प्रजापतिः।१०५।
      भेड़ विराट पुरुष के वक्ष से  और अजा( बकरी) की उत्पत्ति मुख से तथा  विराट पुरुष के उदर से गाय और भैंस की सृष्टि हुई ।
      (पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अध्याय-३)
      ___________________
      सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा।
      सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चितम्।१७।पक्षीयों कि माता विनिता
      सर्पों कि माता कद्रु- और सुरभि- गाय और भैंस दोनों कि माता है।
        (ब्रह्मवैवर्त-पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय-9)
      _______________
      गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
      एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।४९।
      अर्थ:-ब्राह्मण और गाय एक ही कुल के दो भाग हैं। एक में सभी मन्त्र विद्यमान हैं तो  दूसरे में हवि( घृत) स्थित है। 
      परन्तु-चतुराई करते हुए ब्राह्मण भूल कर दी और  कि वसुदेव के पुत्र वासुदेव के मुखार-बिन्दु से यह कहलवाने में वे भूल ही गये कि वसुदेव द्वापर युग में हुए और उनका पुत्र होने से कृष्ण का ही नाम वासुदेव है। ( वसुदेवस्यापत्यमिति । (वसुदेव + अण्)=वासुदेव- ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च । ४ ।  १ ।११४ । इति अण्। और गायत्री सतयुग में ।
      ब्राह्मण और गाय एक ही कुल के दो भाग हैं ; यह बात वैदिक सिद्धान्त के विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही है। यह कन्या गाय के उदर से निकलने या जनमने के कारण यह इसका दूसरा जन्म होने से यह द्विजा है।
      हे देव यज्ञ मुहूर्त बीतने से पहले ही आप इससे पाणि- ग्रहण करलें-।६७-६९।
      और सबसे बड़ी गलती इन लोगों से गायत्री शब्द कि व्युत्पत्ति करते समय हुई जिसको (गा+यन्त्र) से कर दिया  यन्त्र का अर्थ यौनि तो होता नहीं  हैं। जबकि गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति  -गायत्रं स्तोत्रमस्त्यास्ति इनि।१। रूप से हुई  अर्थात् जिसके स्तोत्र हैं वह गायत्री है। उद्गाता= सामगायक -
      गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः। ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥१।
       (ऋग्वेद - १/१०/१) 
       पदों का अर्थ :-
      हे (शतक्रतो)  इन्द्र!  (ब्रह्माणः) जैसे वेदों के मन्त्रों से   (वंशम्)  वंश को (उद्येमिरे)  उद्यमवान् करते हैं, वैसे ही (गायत्रिणः) जो गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य  पुरुष (त्वा) आपकी (गायन्ति) सामवेदादि के गानों से प्रशंसा करते हैं, तथा (अर्किणः) अर्क  अर्थात् जो कि वेद के मन्त्र (ऋचा) पढ़ने वाले।  (त्वा) आपको (अर्चन्ति) नित्य पूजन करते हैं॥१॥
      अन्यत्र भी  गायत्री शब्द 
      गायन्तं त्रायते इति। अर्थात गाते हुए को जो त्राण करती है वह देवी गायत्री हैं।(  गायत्  + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः) 
      _____
      परन्तु मूर्खों ने पता नहीं किस प्रकार गोमुख में प्रवेश कराके अपान  ( गुह्यदेश-)  से निकाल कर गायत्री शब्द कि व्युत्पत्ति कर डाली। जैसे नीचे उद्धृत वह श्लोकाँश है 

      प्रविष्टा गोमुखे यस्माद् अपानेन विनिर्गता। गायत्री नाम ते पत्नी तस्माद् एषा भविष्यति-।।

      परन्तु इन्द्र को अपना परिचय देते समय भी गोप कन्या ने अपना नाम गायत्री  ही बताया था।
      ____________________________________

      गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्।
      पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
       अनुवाद:-गाय के उदर से निकली ये कन्या अब ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो गयी । इसलिए हे ब्रह्मा इसका पाणिग्रहणकरो  और यज्ञ का समाचरण करो !
      रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
      गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।

      ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
      गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।
      __________
      ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
      एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।२३।
      यह श्लोक अनेक पुराणों में बनाकर जोड़ा गया जैसे नान्दी उपपुराण-  महाभारत -अनुशासनपर्व, स्कन्दपुराणनागर -खण्ड ,लक्ष्मी नारायण संहिता आदि परन्तु पद्मपुराण में यह गाय और ब्राह्मण एक कुल हैं  ऐसा नहीं कहा गया है।

      कालान्तरण में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों नें  वैश्यवर्णीय गाय को ब्राह्मण कुल की बताने के लिए वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध विना विचारे ही उपर्युक्त श्लोक को तो रच दिया परन्तु वर्णव्यवस्था के उद्घोषक  यह भूल गये कि वेदों में गो विराट पुरुष के उदर अथवा ऊरु से उत्पन्न होने के कारण वैश्य की सजातीय  वैश्य वर्णा है। 
      मैं इस स्थल पर ऋग्वेद की उस ऋचा का उल्लेख कर रहा हूं जिसमें चारों वर्णों की बात की गई है:
      'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यःकृतः ।     ऊरूतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यांशूद्रोऽजायतः।१२।
      (ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)
      अन्वय-(ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ।
      यदि शब्दों के अनुसार देखें तो इस ऋचा का अर्थ यों समझा जा सकता है:
      सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्मा का मुख से ब्राह्मण हुआ।, बाहु से क्षत्रिय  बने, उसकी जंघाओ से वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
      क्या उक्त ऋचा की व्याख्या इतने सरल एवं नितांत शाब्दिक तरीके से किया जाना चाहिए 
      मनुस्मृति में भी कहा है ।
      लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः।      ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥(मनुस्मृति, अध्याय 1, श्लोक 31)
      (लोकानां तु विवृद्धि-अर्थम् मुख-बाहू-ऊरू-पादतः ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्-अवर्तयत् ।)
      शाब्दिक अर्थ: समाज की वृद्धि के उद्येश्य से उसने (ब्रह्म ने) मुख, बाहुओं, जंघाओं एवं पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का निर्माण किया ।
      (महाभारत अनुशासन पर्व (86) वाँ अध्याय)
      ब्रह्मा के मुख से बकरी और ब्राह्मण उत्पन्न होने से दौनों सजातीय ही हैं। परन्तु नीचे विष्णु धर्मोत्तर इसके विपरीत ही कहता है।
      "मुखतोऽजाः सृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत् गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पुनरन्याँश्च निर्ममे।1.107.३०
      (विष्णु धर्मोत्तरपुराण खण्ड प्रथम अध्याय (१०७)

      ब्रह्मा ने मुख से बकरियाँ उत्पन्न कीं और वक्ष से भेड़ों को और उदर से गायों को उत्पन्न किया ।
      और दोनों पैरों से घोड़ो और तुरंगो' गदहों और नीलगाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार सूकर(वराह)कुत्ता जैसी अन्य जातियाँ उत्पन्न कीं ।
      "बकरी ब्राह्मणों की सजातीय अथवा उनके ही कुल की है। न कि गाय "
      इसीलिए है कि ब्राह्मण भी ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुए हैं नकि उदर अथवा ऊरु से ऊरु से तो वैश्य वर्ण के लोग उत्पन्न हुए हैं।
      वेद-सम्मत शास्त्रों की तो यही वैधानिक मान्यता है।
      _________________________
      (ऋग्वेद मण्डल- दश सूक्त- नवति ऋचा -एकतो द्वादश पर्यन्त यही वर्णन है )
      १०/९०/ १ से १२ तक ऋग्वेद
      सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
      स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१॥
      पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
      उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥
      एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
      पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥
      त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
      ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥
      तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
      स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥
      यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
      वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मःशरद्धविः॥६॥
      तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः।
      तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥७॥
      तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
      पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥८॥
      तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
      छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥९॥
      _____________________________
      तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
      गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः।१०॥
      ________________________________
      यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
      मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते।११।
      ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः।
      ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१२॥
      ___________________
      तस्मा॒दश्वा॑ अजायन्त॒ ये के चो॑भ॒याद॑तः ।
      गावो॑ ह जज्ञिरे॒ तस्मा॒त्तस्मा॑ज्जा॒ता अ॑जा॒वयः॑,।१०।
      “तस्मात् =पूर्वोक्ताद्यज्ञात् “अश्वा “अजायन्त= उत्पन्नाः। तथा “ये ="के “च अश्वव्यतिरिक्ता गर्दभा अश्वतराश्च उभयादतः ऊर्ध्वाधोभागयोरुभयोः दन्तयुक्ताः सन्ति तेऽप्यजायन्त। तथा “तस्मात् यज्ञात् "गावः च “जज्ञिरे । किंच “तस्मात् यज्ञात् "अजावयः च "जाताः।१०।

      “सर्वहुतः । सर्वात्मकः पुरुषः यस्मिन् यज्ञे हूयते सोऽयं सर्वहुत् । तादृशात् “तस्मात् पूर्वोक्तात् मानसात् "यज्ञात् “पृषदाज्यं दधिमिश्रमाज्यं “संभृतं संपादितम् । दधि चाज्यं चेत्येवमादिभोग्यजातं सर्वं संपादितमित्यर्थः । तथा “वायव्यान् वायुदेवताकाँल्लोकप्रसिद्धान् “आरण्यान् “पशून “चक्रे उत्पादितवान् । आरण्या हरिणादयः । तथा “ये “च “ग्राम्याः गवाश्वादयः तानपि चक्रे। पशूनामन्तरिक्षद्वारा वायुदेवत्यत्वं यजुर्ब्राह्मणे समाम्नायते-- वायवः स्थेत्याह वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षाः । अन्तरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वायव एवैनान्परिददाति ' ( तै. ब्राह्मण ३. २. १. ३) इति ।

      तस्मा॑द्य॒ज्ञात्स॑र्व॒हुत॒ ऋच॒: सामा॑नि जज्ञिरे ।
      छन्दां॑सि जज्ञिरे॒ तस्मा॒द्यजु॒स्तस्मा॑दजायत ॥९।
      "सर्वहुतः “तस्मात् पूर्वोक्तात् यज्ञात् “ऋचः “सामानि च जज्ञिरे उत्पन्नाः। “तस्मात् यज्ञात् “छन्दांसि गायत्र्यादीनि “जज्ञिरे। “तस्मात् यज्ञात् "यजुः अपि अजायत ॥
      तस्मा॒दश्वा॑ अजायन्त॒ ये के चो॑भ॒याद॑तः ।
      गावो॑ ह जज्ञिरे॒ तस्मा॒त्तस्मा॑ज्जा॒ता अ॑जा॒वयः॑ ॥
      तस्मात् । अश्वाः । अजायन्त । ये । के। च । उभयादतः ।
      गाव: । ह । जज्ञिरे । तस्मात् । तस्मात् । जाताः । अजावयः ॥ १० ॥
      “तस्मात् पूर्वोक्ताद्यज्ञात् “अश्वा “अजायन्त उत्पन्नाः। तथा “ये "के “च अश्वव्यतिरिक्ता गर्दभा अश्वतराश्च उभयादतः ऊर्ध्वाधोभागयोरुभयोः दन्तयुक्ताः सन्ति तेऽप्यजायन्त। तथा “तस्मात् यज्ञात् "गावः च “जज्ञिरे । किंच “तस्मात् यज्ञात् "अजावयः च "जाताः ॥ ॥ १८ ॥
      _____________
      यत्पुरु॑षं॒ व्यद॑धुः कति॒धा व्य॑कल्पयन् ।
      मुखं॒ किम॑स्य॒ कौ बा॒हू का ऊ॒रू पादा॑ उच्येते॥११।
      प्रश्नोत्तररूपेण ब्राह्मणादिसृष्टिं वक्तुं ब्रह्मवादिनां प्रश्ना उच्यन्ते । प्रजापतेः प्राणरूपा देवाः “यत् यदा “पुरुषं विराड्रूपं “व्यदधुः संकल्पेनोत्पादितवन्तः तदानीं “कतिधा कतिभिः प्रकारैः “व्यकल्पयन् विविधं कल्पितवन्तः । “अस्य पुरुषस्य “मुखं “किम् आसीत्। “कौ “बाहू अभूताम् “का “ऊरू। कौ च “पादावुच्येते । प्रथमं सामान्यरूपः प्रश्नः पश्चात् मुखं किमित्यादिना विशेष विषयाः प्रश्नाः॥
      ___________
      ब्रा॒ह्म॒णो॑ऽस्य॒ मुख॑मासीद्बा॒हू रा॑ज॒न्यः॑ कृ॒तः ।
      ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ प॒द्भ्यां शू॒द्रो अ॑जायत ॥१२।
      इदानीं पूर्वोक्तानां प्रश्नानामुत्तराणि दर्शयति । “अस्य प्रजापतेः “ब्राह्मणः=ब्राह्मणत्वजातिविशिष्टः पुरुषः “मुखमासीत=मुखादुत्पन्न इत्यर्थः । योऽयं “राजन्यः =क्षत्रियत्वजातिमान् पुरुषः सः "बाहू “कृतः =बाहुत्वेन निष्पादितः । बाहुभ्यामुत्पादित इत्यर्थः । तत् तदानीम् अस्य प्रजापतेः “यत् यौ “ऊरू तद्रूपः= "वैश्यः संपन्नः । ऊरुभ्यामुत्पन्न इत्यर्थः । तथास्य “पद्भ्यां पादाभ्यां "शूद्रः शूद्रत्वजातिमान् पुरुषः "अजायत । इयं च मुखादिभ्यो ब्राह्मणादीनामुत्पत्तिर्यजुःसंहितायां सप्तमकाण्डे ‘स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत' (तै. सं. ७. १. १. ४ ) इत्यादौ विस्पष्टमाम्नाता। अतः प्रश्नोत्तरे उभे अपि तत्परतयैव योजनीये

      च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षो॒: सूर्यो॑ अजायत ।
      मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥१३।
      यथा दध्याज्यादिद्रव्याणि गवादयः पशव ऋगादिवेदा ब्राह्मणादयो मनुष्याश्च तस्मादुत्पन्ना एवं चन्द्रादयो देवा अपि तस्मादेवोत्पन्ना इत्याह । प्रजापतेः “मनसः सकाशाद् “चन्द्रमाः “जातः । “चक्षोः च चक्षुषः “सूर्यः अपि “अजायत । अस्य “मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च देवावुत्पन्नौ । अस्य “प्राणाद्वायुरजायत ॥
      __________________________
      मुखतोऽजाः सृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत् गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा  पुनरन्याँश्च निर्ममे ।1.107.३० । 
      पादतोऽश्वांस्तुरङ्गांश्च रासभान्गवयान्मृगान् ।उष्ट्रांश्चैव वराहांश्च श्वानानन्यांश्च जातयः 1.107.३१।
      व्याकरणिक पद विवेचना अर्थ समन्विता।
      __________
      पदों के व्याकरण-सम्मत अर्थ-
      १-मुखत: - मुख से अपादान कारक पञ्चमीविभक्ति एकवचन। 
      २-अजा:- बहुत सी बकरीं अजा का बहुवचन कर्म कारक द्वितीय विभक्ति रूप ।
      ३-सृज्+शतृप्रत्यय-सृजन्
      (उत्पन्न करता हुआ ।
      ४-वक्षसः -वक्ष से ( बखा- छाती से) 
      पञ्चमीविभक्ति एक वचन अपादानकारक नपुंसक लिंग रूप।
      पेट और गले के बीच में पड़नेवाला भाग जिसमें स्त्रियों के स्तन और पुरुषों के स्तन के से चिह्न होते हैं  अर्थात छाती।
      ५-च -और ।
      ६-अवय:-बहुत सी भेड़े़। अवि का बहुवचन रूप कर्ताकारक । 
      ७-असृजत्- उसने उत्पन्न किया। सृज् धातु का लङ्लकार प्रथम पुरुष एकवचन का रूप।
      ८-गावः-गो पद का  प्रथमा विभक्ति बहुवचन  =बहुत सी गायें।
       ९-चैव( च+एव) और ही ।
      १०-उदरात्- उदर से - उदर पद का पञ्चमी विभक्ति अपादान कारक एकवचन।
      ११-ब्रह्मा- ब्रह्मा जी ने।
      १२-पुनः ( पुनर्)- दुवारा।
      १३-च अन्यान्( चान्याँ)
      १४-निर्ममे (निर्+ मा-निर्माणेधातु का आत्मनेपदीय -लङ्लकार रूप -अन्यपुरुष एकवचन= निर्माण किया।।
      १५-पादतो ( पादाभ्याम्- दोनों पैरों से।            १६-अश्वान्- घोड़ों को और 
      १७ तुरङ्गान् - तुरङ्गाें को और 
      १८-रासभान्- गदहों को और 
      १९-गवयान्- गवयों( नीलगायों) को तथा 
      २०-उष्ट्रान्- ऊँटों को । और इसी प्रकार 
      २१-वराहान् -वराहों और ।
      २२-शवान्-अन्यान्- कुत्ता जैसी अन्य ।
      २३-जातय:- जातियों को  उत्पन्न किया ।
      __________________
      ब्रह्मा ने मुख से बकरियाँ उत्पन्न हुई । वक्ष से भेड़ों को और उदर से गायों को उत्पन्न किया ।३०।
      और दोनों पैरों से घोड़ो तथा तुरंगो 'गदहों और नील गाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार सूकर(वराह) कुत्ता जैसी अन्य जातियाँ उत्पन्न हुईं ।३१।
      सन्दर्भ-(विष्णु धर्मोत्तर पुराण खण्ड प्रथम अध्याय (१०७)
      _______________    
      अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजाः स सृष्टवान् ।
      सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वभ्यां च प्रजापतिः ।४८।
      पद्भ्यां चाश्वान्समातङ्गान्रासभान्गवयान्मृगान्।
      उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कूनन्याश्च जातयः। ४९।
      (विष्णु पुराण प्रथमाँश पञ्चमो८ध्याय (५)
      ततः स्वदेहतोऽन्यानि वयांसि पशवोऽसृजत् ।
      __________________
      मुखतोऽजाः ससर्जाथ वक्षसश्चावयोऽसृजत्॥४८.२५॥
      गावश्चैवोदराद् ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।
      पद्भ्याञ्चाश्वान् स मातङ्गान् रासबान् शशकान् मृगान्॥४८.२६॥
      ____________________
      इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सृष्टिप्रकारणनामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
      ____________
      ऊनपञ्चाशोऽध्यायः-( ४९)
      मार्कण्डेय पुराण में भी देखें कि ब्रह्मा के मुख से बकरी और ब्राह्मण उत्पन्न होते हैं।
      अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजाः स सृष्टवान् ।
      सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वभ्यां च प्रजापतिः।४८।
      पद्भ्यां चाश्वान्समातङ्गान्रासभान्गवयान्मृगान्।
      उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कूनन्याश्च जातयः। ४९।
      विष्णु पुराण प्रथमाँश पञ्चमोध्याय (५)
      में भी बकरी और ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुए। हैं ।
      "ततःस्वदेहतोऽन्यानि वयांसि पशवोऽसृजत् ।
      __________________
      मुखतोऽजाः ससर्जाथ वक्षसश्चावयोऽसृजत्॥४८.२५॥
      गावश्चैवोदराद् ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।
      पद्भ्याञ्चाश्वान् स मातङ्गान् रासबान् शशकान् मृगान्॥४८.२६॥
      इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सृष्टिप्रकारणनामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
      _____
      सदाशिवो भवो विष्णुर्ब्रह्मा सर्वात्मको यतः।।
      एकदण्डे तथा लोका इमे कर्ता पितामहः।।३.३८ 
      प्राकृतः कथितस्त्वेष पुरुषाधिष्ठितो मया।।
      सर्गश्चाबुद्धिपूर्वस्तु द्विजाः प्राथमिकः शुभः।। ३.३९ ।

      इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे प्राकृतप्राथमिकसर्गकथनं नामतृतीयोऽध्यायः।३।
      अव्यक्तादिविशेषांतं विश्वं तस्याःसमुच्छ्रितम्।
      विश्वधात्री त्वजाख्या च शैवी सा प्रकृतिः स्मृता।३.१२।
      तामजां लोहितां शुक्लां कृष्णामेका बहुप्रजाम्।।
      जनित्रीमनुशेते स्म जुषमाणः स्वरूपिणीम्।। ३.१३ ।।
      _______________________________
      तामेवाजामजोऽन्यस्तु भुक्तभोगां जहाति च।।
      अजा जनित्री जगतां साजेन समधिष्ठिता।३.१४ 
      _________________________
      पक्षिणस्तु स सृष्ट्वा वै ततः पशुगणान्सृजन् ।
      मुखतोजाः सृजन्सोऽथ वक्षसश्चाप्यवीः सृजन्॥ १,८.४३॥
      गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पाश्वीभ्यां च विनिर्ममे ।
      पादतोऽश्वान्समातङ्गान् रासभान् गवयान्मृगान् ॥ १,८.४४॥
      इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते पूर्वभागे द्वितीयेऽनुषङ्गपादे मानससृष्टिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः
      _________
      गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पाश्वीभ्यां च विनिर्ममे ।
      पादतोऽश्वान्समातङ्गान् रासभान् गवयान्मृगान् ॥ १,८.४४ ॥
      ब्रह्माण्डपुराण पूर्वभाग अष्टम अध्याय का ४४ वाँ श्लोक-
      शिवपुराणम्/संहिता ७ (वायवीयसंहिता)/पूर्व भागः/अध्यायः १२
      इसे भी देखें
      मुखतोऽजान् ससर्जान्यान् उदराद्‌गाश्चनिर्ममे।
      पद्भ्यांचाश्वान् समातङ्गान् रासभान् गवयान् मृगान्।७.५५।
      (कूर्मपुराण पूर्व भाग सप्तम अध्याय )

      अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्
      सृष्टवान्  उदराद् गा: च महिषांश्च प्रजापतिः ।१०५।
      पद्भ्यां चाश्वान्स मातंगान्रासभान्गवयान्मृगान्
      उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यंकूनन्याश्च जातयः ।१०६।
      पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय (३) का १०५ वाँ श्लोक
      शिवपुराण संहिता ७ (वायवीयसंहिता)पूर्व भागः अध्यायः(१२) में भी है।

      इसे भी  देखें विष्णुधर्मोत्तर पुराण अध्याय-107 में भी और  नीचे गरुडपुराण चतर्थ अध्याय  में देखें समान श्लोक
      वयांसि पक्षतः सृष्टाः पक्षिणो वक्षसो ऽसृजत्॥ 
      मुखतोजांस्तथा पार्श्वादुरगांश्च विनिर्ममे। 56।।
      गायन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वाप्सरसश्च ये।
      स्वर्गं द्यौर्वक्षसश्चक्रे सुखतोऽजाः स सृष्टवान्।4.30।
      सृष्टवानुदराद्राश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः।
      पद्भ्यां चैवांत्यमातङ्गान्महिषोष्ट्राविकांस्तथा ।4.31।
      ओषध्यः फलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे।
      गौरजः पुरुषो मेध्यो ह्यश्वाश्वतरगर्दभाः।4.32 ।
      एतान् ग्राम्यान्पशून्प्राहुरारण्यांश्च निबोध मे ।।
      श्वापदं द्विखुरं हस्तिवानराः पक्षिपञ्चमाः ।4.33।
      औदकाः पशवः षष्ठाः सप्तमाश्च सरीसृपाः।
      पूर्वादिभ्यो मुखेभ्यस्तु ऋग्वेदाद्याः प्रजज्ञिरे। 4.34।
      आस्याद्वै ब्राह्मणा जाता बाहुभ्यां क्षत्त्रियाः स्मृताः।
      ऊरुभ्यां तु विशः सृष्टाः शूद्रः पद्भ्यां जायत । 4.35।
      इति श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे सृष्टिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः।4।
      ___________________
                             
       श्रीविष्णुधर्मोत्तर द्वितीयखण्ड मार्कण्डेय पुराण में -वज्रनाभ संवाद राम के प्रति पुष्करोपाख्यान में अश्वप्रशंसा नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः।४५।
      राम के समय भी गोप-लोग गाय और भैंस दौनों पशुओं साथ साथ ही पालते थे। निम्न श्लोक इसका साक्ष्य हैं।
      नौस्थैरेव परैः शीघ्रं तुरगा नृपबाहुभिः ।    महिषीणां च सङ्घानि गवां च यदुनन्दन । 1.206.३०।
      जग्मुर्गोपालकैः सार्धं परं पारं च बाहुभिः।उष्ट्रगर्दभसंघानि तार्यमाणानि बाहुभिः।३१।
      अनुवाद :-
      घोड़ों को शत्रुओं द्वारा शीघ्रता से राजा की भुजाओं से नाव में सवार कर ले जाया गया
      हे यादव वज्रनाभ! भैंसों और गायों के झुंड भी थे 1.206.30।
       (विष्णु धर्मोत्तर पुराण अध्याय 206.)
      वे ग्वालों के साथ शस्त्र लेकर उस पार चले गए।
      ऊँटों और गधों के झुण्ड हाथों से उठाये जा रहे थे ।31।

      (अध्याय ११० विष्णु धर्मोंत्तर पुराण)
      ________
      मुखतोऽजान् ससर्ज्जाथ वक्षसश्चवयोऽसृजत्।
      गाश्चैवाथोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।।३९।
      __________
      पद्भ्याञ्चाश्चान् समातङ्गान् शरभान् गवयान् मृगान्।
      उष्ट्रानश्चतरांश्चैव ताश्वान्याश्चैव जातयः।४०।

      ओषध्यः फलमूलानि रोमतस्तस्य जज्ञिरे।
      एवं पश्वोषधीः सृष्ट्वा न्ययुञ्जत्सोऽध्वरे प्रभुः ।।४१।।
      ____________________
      तस्मादादौ तु कल्पस्य त्रेतायुगमुखे तदा।
      गौरजः पुरुषो मेषो ह्यश्वोऽश्वतरगर्द्दभौ
      एतान् ग्राम्यान् पशूनाहुरारण्यांश्च निबोधत ।४२।
      श्वापदा द्विखुरो हस्ती वानरः पक्षिपञ्चमाः।
      उन्दकाः पशवः सृष्टाः सप्तमास्तु सरीसृपाः ।४३।
      ________________
      गायत्रं वरुणञ्चैव त्रिवृत्सौम्यं रथन्तरम्।
      अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात् ।४४।
      छन्दांसि त्रैष्टुभङ्कर्म स्तोमं पञ्चदशन्तथा।
      बृहत्साममथोक्थञ्च दक्षिणात्सोऽसृजन्मुखात्।४५।
      सामानि जगती च्छन्दस्तोमं पञ्चदशन्तथा।
      वैरूप्यमतिरात्रञ्च पश्चिमादसृजन्मुखात् ।४६।।
      एकविंशमथर्वाणमाप्तोर्यामाणमेव च।
      अनुष्टुभं सवैराजमुत्तरादसृजन्मुखात् ।४७।।
      विद्युतोऽशनिमेघांश्च रोहितेन्द्रधनूंषि च।
      वयांसि च ससर्ज्जादौ कल्पस्य भगवान् प्रभुः।४८।
      विश्वरूपमथार्यायाः पृथग्देहविभावनात्।
      श्रृणु संक्षेपतस्तस्या यथावदनुपूर्वशः।८०।
      ____________________________
      प्रकृतिर्नियता रौद्री दुर्गा भद्रा प्रमाथिनी।
      कालरात्रिर्महामाया रेवती भुतनायिका।८१।
      ___________________
      द्वापरान्तविकारेषु देव्या नामानि मे श्रृणु।
      गौतमी कौशिकी आर्या चण्डी कात्यायनी सती।८२।
      ___________________
      कुमारी यादवी देवी वरदा कृष्णपिङ्गला।
      बर्हिर्ध्वजा शूलधरा परमब्रह्मचारिणी।८३।
      माहेन्द्री चेन्द्रभगिनी वृषकन्यैकवाससी।
      अपराजिता बहुभुजा प्रगल्भा सिंहवाहिनी ।।८४।
      एकानसा दैत्यहनी माया महिषमर्द्दिनी।
      अमोघा विन्ध्यनिलया विक्रान्ता गणनायिका ।८५।
      देवीनामविकाराणि इत्येतानि यथाक्रमम्।
      भद्रकाल्यास्तवोक्तानि देव्या नामानि तत्त्वतः।८६।

      इति श्रीमहापुरणे वायुप्रोक्ते देवादिसृष्टिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ।।९।।
      ___________________

      तुलना करें-
      वायुपुराण-
      मुखतोऽजान् ससर्ज्जाथ वक्षसश्चवयोऽसृजत्।
      गाश्चैवाथोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।३९।
      वायुपुराण पूर्वार्ध नवम अध्याय श्लोक ३९ वाँ।
      ________

      वायुपुराण-
      रजस्तमोभ्यामाविष्टांस्ततोऽन्यानसृजत् प्रभुः।।
      वयांसि वयसः सृष्ट्वा अवीन्वै वक्षसोऽसृजत् ।७.५४
      ________

      कूर्मपुराण-
      मुखतोऽजान् ससर्जान्यान् उदराद्‌गाश्चनिर्ममे ।
      पद्भ्यांचाश्वान् समातङ्गान् रासभान् गवयान् मृगान् ।७.५५
      ______________
      इति श्रीकूर्मपुराणे षट्‌साहस्त्र्यां संहितायां पूर्वविभागे सप्तमोऽध्यायः।।७।।
      कूर्मपुराणपूर्वभाग सप्तम अध्याय -
      ____________________________  
       
      लक्ष्मीनारायण-संहिता-खण्डः(१)        (कृतयुगसन्तानः)-अध्यायः (५०९)

                      -श्रीनारायण उवाच-
      शृणु लक्ष्म्यैकदा सत्ये ब्रह्माणं प्रति नारदः।
      दर्शनार्थं ययौ भ्रान्त्वा लोकत्रयं ननाम तम् ।१।
      ब्रह्मा पप्रच्छ च कुतः पुत्र आगम्यते, वद ।
      नारदःप्राह मर्त्यानां मण्डलानि विलोक्य च ।२।
      तव पूजाविधानाय विज्ञापयितुं हृद्गतम् ।
      समागतोऽस्मि च पितः श्रुत्वा कुरु यथोचितम् ।३।
      दैत्यानां हि बलं लोके सर्वत्राऽस्ति प्रवर्तितम् ।
      यज्ञाश्च सत्यधर्माश्च सत्कर्माणि च सर्वथा ।४।
      प्रसह्य तैर्विनाश्यन्ते देवा भक्ताश्च दुःखिनः।
      तस्माद् यथेष्टं भगवन् कल्याणं कर्तुमर्हसि।५।
      इत्येवं विनिवेद्यैव नत्वा सम्पूज्य संययौ ।
      ब्रह्मा वै चिन्तयामास यज्ञार्थं शुभभूतलम् ।६।
      निर्विघ्नं तत्स्थलं क्वास्तीत्याज्ञातुं पद्मपुष्पकम् ।
      करस्थं स समुवाच पत स्थले तु पावने ।७।
      ततश्चिक्षेप पुष्पं तद् भ्रान्त्वा लोकान् समन्ततः।
      हाटकेश्वरजे क्षेत्रे सम्पपात सुपावने ।८।
      ___________________________________
      एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः पश्चात् तस्य पितामहः।
      क्षेत्रं दृष्ट्वा प्रसन्नोऽभूद् यज्ञार्थं प्रपितामहः।९।
      आदिदेश ततो वायुं समानय पुरन्दरम् ।
      आदित्यैर्वसुभिः सार्धं रुद्रैश्चैव मरुद्गणैः। 1.509.१०।
      गन्धर्वैर्लोकपालैश्च सिद्धैर्विद्याधरैस्तथा ।
      ये च मे स्युः सहायास्तैः समस्ते यज्ञकर्मणि।११।
      वायुश्चेन्द्रं देवगणैर्युतं समानिनाय च ।
      ब्रह्मा प्राह महेन्द्रं च वैशाख्यामग्निष्टोमकम्।१२।
      यज्ञं कर्तुं समीहेऽत्र सम्भारानाहरस्व वै ।
      ब्राह्मणाँश्च तदर्हान् वै योग्योपस्कारकाँस्तथा।१३।
      इन्द्रस्तानानयामास संभाराँश्च द्विजोत्तमान् ।
      आरेभे च ततो यज्ञं विधिवत् प्रपितामहः।१४।
      शंभुर्देवगणैः सार्ध तत्र यज्ञे समागतः ।
      देवान् ब्रह्मा समुवाच स्वस्वस्थानेषु तिष्ठत।१५।
      ______________
      विश्वकर्मन् कुरु यज्ञमण्डपं यज्ञवेदिकाः ।
      पत्नीशालाःसदश्चापि कुण्डान्यावश्यकानि च। ६६।
      यज्ञपात्राणि च गृहान् चमसाँश्च चषालकान् ।
      यूपान् शयनगर्तांश्च स्थण्डिलानि प्रकारय ।१७।
      हिरण्मयं सुपुरुषं कारय त्वं सुरूपिणाम् ।
      बृहस्पते त्वमानीहि यज्ञार्हानृत्विजोऽखिलान्। १८।
      यावत् षोडशसंख्याकान् शुश्रूषां कुरु देवराड् ।
      कुबेर च त्वया देया दक्षिणा कालसंभवा ।१९।
      त्वया विधे विधौ कार्यं कृत्याऽकृत्यपरीक्षणम् ।
      लोकपालाः प्ररक्षन्तु त्वैन्द्र्यादिका दिशस्तथा ।1.509.२०।
      भूतप्रेतपिशाचानां प्रवेशो दैत्यरक्षसाम् ।
      मा भूदित्यथ यज्ञेन दीयतां दानमुत्तमम् ।२१।
      आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।
      भवन्तु परिवेष्टारो भोक्तुकामजनस्य तु ।२२।
      यज्ञार्हा ब्राह्मणा वृत्तास्तिष्ठन्तु यज्ञमण्डपे ।
      मैत्रावरुणश्च्यवनोऽथर्वाको गालवस्तथा।२३।
      ______
      मरीचिर्मार्कवश्चैते सर्वकर्मविशारदाः ।
      प्रस्थानकर्ता चाध्वर्युः पुलस्त्यस्तत्र तिष्ठतु ।२४।
      रैभ्यो मुनिस्तथोन्नेता तिष्ठतु यज्ञमण्डपे ।
      ब्रह्मा भवतु नारदो गर्गोऽस्तु सत्रवीक्षकः ।२५।
      होतारोऽग्नीध्रभरद्वाजपराशरास्त्रयः ।
      बृहस्पतिस्तथाऽऽचार्य उद्गाता गोभिलो मुनिः।२६।
      ________________________________
      शाण्डिल्यः प्रतिहर्ता च सुब्रह्मण्यस्तथाऽङ्गिराः।
      अस्य यज्ञस्य सिद्ध्यर्थं सन्त्वृत्विजस्तु षोडश।२७।
      ब्रह्मा तान् पूजयामास दीक्षितस्तैस्तु विश्वसृट्।
      यजमानोऽभवद् यज्ञकार्यं ततः प्रवर्तितम् ।२८।
      _________________________________
      ब्रह्मा च नारदं प्राह सावित्रीं क्षिप्रमानय ।
      वाद्यमानेषु वाद्येषु सिद्धकिन्नरगुह्यकैः ।२९।
      गन्धर्वैर्वाद्यसंयुक्तैरुच्चारणपरैर्द्विजैः ।
      अरणिं समुपादाय पुलस्त्यो वाक्यमब्रवीत्।1.509.३०।
      पत्नीपत्नीतिविप्रेन्द्राः प्रोच्चैस्तत्र व्यवस्थितः ।
      ब्रह्मा पुनर्नारदं संज्ञया करस्य वै द्रुतम् ।३१।
      ____________________________
      गृहं सम्प्रेषयामास पत्नी चानीयतामिति ।
      सोऽपि गत्वाऽऽह सावित्रीं पित्रा सम्प्रेषितोऽस्म्यहम् ।३२।
      आगच्छ मण्डपं देवि यज्ञकार्यं प्रवर्तते ।
      परमेकाकिनी कीदृग्रूपा सदसि दृश्यसे ।३३।
      आनीयन्तां ततो देव्यस्ताभिर्वृत्ता प्रयास्यसि 
      इत्युक्त्वा प्रययौ यज्ञे नारदोऽजमुवाच ह ।३४।
      देवीभिः सह सावित्री समायास्यति सुक्षणम् ।
      पुनस्तं प्रेषयामास ब्रह्माऽथ नारदो ययौ ।३५।
      मातः शीघ्रं समायाहि देवीभिः परिवारिता ।
      सावित्र्यपि तदा प्राह यामि केशान् प्रसाध्य वै ।३६।
      नारदोऽजं प्राह केशान् प्रसाध्याऽऽयाति वै ततः ।
      सोमपानमुहूर्तस्याऽवशेषे सत्वरं तदा ।।३७।
      पुलस्त्यश्च ययौ तत्र सावित्री त्वेकलाऽस्ति हि ।
      किं देवि सालसा भासि गच्छ शीघ्रं क्रतोः स्थलम् ।३८।
      सावित्र्युवाच तं ब्रूहि मुहूर्तं परिपाल्यताम् 
      यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथाऽपराः ।३९।
      देवकन्याः समाजेऽत्र ताभिरेष्यामि संहिता ।
      सोऽपि गत्वा द्रुतं प्राह सोमभाराऽर्दितं विधिम् ।1.509.४०।
      सा मां प्राह च देवीभिः सहिताऽऽयामि वै मखे ।
      अहं यास्यामि सहिता न त्वेकला कथंचन ।४१।
      एवं ज्ञात्वा सुरश्रेष्ठ कुरु यत्ते सुरोचते ।
      अतिक्रामति कालश्च यज्ञपानक्षणात्मकः ।४२।
      श्रुत्वा ब्रह्मा महेन्द्रं च प्राह सा शिथिलात्मिका 
      नाऽऽयात्येवाऽन्यया पत्न्या यज्ञः कार्यो भवत्विति ।४३।
      _________________________________
      ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः ।
      चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
      युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
      गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
      परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
      इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
      ____________________________________

      श्रीस्कान्दमहापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥ १८१ ॥ निम्न श्लोकों को देखें-              
                           'ब्रह्मोवाच॥
      शक्र नायाति सावित्री सापि स्त्री शिथिलात्मिका ॥
      अनया भार्यया यज्ञो मया कार्योऽयमेव तु ॥५४॥
      गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः।
      यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः।५५॥
      पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
      शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः ।५६॥
      अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता ॥
      कन्यका गोपजा तन्वी चंद्रास्या पद्मलोचना।५७॥
      सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता ॥
      सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने ॥ ५८ ॥
      कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि न:।५९ ॥
                           "कन्योवाच॥
      गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता ॥
      यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम् ॥ ६.१८१.६० ॥
      तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम् ॥
      जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले ॥६१।
      अथ तां रुदतीं शक्रः समादाय त्वरान्वितः ॥
      गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः ॥६२॥
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
      ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३।
      ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
      द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे ॥६४॥
      कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना ॥
      तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता ॥६५॥
      गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
      आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख ॥६६॥
      ____________________________________
                        "श्रीवासुदेव उवाच ॥ 
      गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम्॥
      एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥६७॥
      धेनूदराद्विनिष्क्रांता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
      अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये॥ ६८।
      यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः ॥ ६९ ॥
                            "रुद्र उवाच ॥
      प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
      गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
                           "ब्रह्मोवाच॥
      वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि ॥
      संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥ ७१ ॥

                           "ब्राह्मणा ऊचुः॥ 
      एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता ॥
      अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम्। ७२॥
                          "सूत उवाच ॥
      ततः पाणिग्रहं चक्रे तस्या देवः पितामहः ॥
      कृत्वा सोमं ततो मूर्ध्नि गृह्योक्तविधिना द्विजाः ।७३।
      संतिष्ठति च तत्रस्था महादेवी सुपावनी ॥
      अद्यापि लोके विख्याता धनसौभाग्यदायिनी ।७४।
      यस्तस्यां कुरुते मर्त्यः कन्यादानं समाहितः ॥
      समस्तं फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ॥ ७९।
      कन्या हस्तग्रहं तत्र याऽऽप्नोति पतिना सह॥
      सा स्यात्पुत्रवती साध्वी सुखसौभाग्यसंयुता।७६।
      पिण्डदानं नरस्तस्यां यः करोति द्विजोत्तमाः ॥
      पितरस्तस्य संतुष्टास्तर्पिताः पितृतीर्थवत् ॥७७॥
      __________________________________
      इति श्रीस्कान्दमहापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः॥१८१॥
      ____________________________________

      गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः 
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः।४७।
      सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
      आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।४८।

      यह उपर्युक्त श्लोक वस्तुत: वैदिक सिद्धान्त के विरुद्ध ही है क्योंकि गाय विराट पुरुष के ऊरु से  उत्पन्न है जो उदर-भाग ही है । ऊरु-(ऊर्णूयते आच्छाद्यते ऊर्णु--कर्मणि कु नुलोपश्च । जानूपरिभागे तस्य वस्त्रादिभिराच्छादनीयत्वात् तथात्वम् ( घुटनों का ऊपरी भाग- जिसे वस्त्रों से आच्छादित करना होता है।)
      _____
      अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्।
      सृष्टवानुदराद्गाश्च महिषांश्च प्रजापतिः।१०५।
      (पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अध्याय-३)

      सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा।
      सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चितम्।१७।
       (ब्रह्मवैवर्त-पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय -9)
      _______________
      गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
      एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।४९।
      ____________________________________
      गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्।
      पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।1.509.५०।
      रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
      गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।५१ ।
      ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
      गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु।५२।
      ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
      गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।५३।
      वाद्यमानेषु वाद्येषु सम्प्राप्ता यज्ञमण्डपम् ।
      विधिश्चक्रे स्वकेशानां क्षौरकर्म ततः परम् ।५४।
      विश्वकर्मा तु गायत्रीनखच्छेदं चकार ह ।
      औदुम्बरं ततो दण्डं पौलस्त्यो ब्रह्मणे ददौ ।५५।
      एणशृंगान्वितं चर्म समन्त्रं प्रददौ तथा ।
      पत्नीं शालां गृहीत्वा च गायत्रीं मौनधारिणीम्।५६।
      मेखलां निदधे त्वन्यां कट्यां मौञ्जीमयीं शुभाम् ।
      ततो ब्रह्मा च ऋत्विग्भिः सह चक्रे क्रतुक्रियाम्।५७।
      कर्मणि जायमाने च तत्राऽऽश्चर्यमभून्महत् ।
      जाल्मरूपधरःकश्चिद् दिग्वासा विकृताननः।५८।
      कपालपाणिरायातो भोजनं दीयतामिति ।
      निषिध्यमानोऽपि विप्रैः प्रविष्टो यज्ञमण्डपम्।५९।
      सदस्यास्तु तिरश्चक्रुः कस्त्वं पापः समागतः ।
      कपाली नग्नरूपश्चाऽपवित्रखर्परान्वितः।६०।
      यज्ञभूमिरशुद्धा स्याद् गच्छ शीघ्रमितो बहिः ।
      जाल्मः प्राह कथं चास्मि ह्यशुद्धो भिक्षुको व्रती ।६१ ।
      _______________________________
      ब्रह्मयज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः ।
      गोपालकन्या नित्यं या शूद्री त्वशुद्धजातिका।६२।
      स्थापिताऽत्र नु सा शुद्धा विप्रोऽहं पावनो न किम् ।
      तावत् तत्र समायातो ब्राह्मणो वृद्धरूपवान् ।६३।
      श्रीकृष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
      जाल्म नैषाऽस्ति शूद्राणी ब्राह्मणी जातितोऽस्ति वै ।६४।।
      शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्यतद्विदः ।
      पुरा सृष्टे समारम्भे श्रीकृष्णेन परात्मना ।६५।।
      स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता ।
      अथ द्वितीया कन्या च पतिव्रताऽभिधा कृता।६६।
      कुमारश्च कृतः पत्नीव्रताख्यो ब्राह्मणस्ततः ।
      ब्रह्मा वैराजदेहाच्च कृतस्तस्मै समर्पिता ।६७।
      __________
      सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
      अथ यज्ञप्रवाहार्थं ब्रह्मा यज्ञं करिष्यति।६८।
      पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
      पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता भविष्यति ।६९।
      हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
      द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह ।1.509.७०।
      प्रागेव भूतले कन्यारूपेण ब्रह्मणः कृते ।
      सावित्री श्रीकृष्णमाह कौ तत्र पितरौ मम ।।७ १।
      श्रीकृष्णस्तां तदा सन्दर्शयामास शुभौ तु तौ ।
      इमौ पत्नीव्रतो विप्रो विप्राणी च पतिव्रता।७२।
      मदंशौ मत्स्वरूपौ चाऽयोनिजौ दिव्यविग्रहौ ।
      पृथ्व्यां कुंकुमवाप्यां वै क्षेत्रेऽश्वपट्टसारसे ।७३ ।
      सृष्ट्यारंभे विप्ररूपौ वर्तिष्येतेऽतिपावनौ ।
      वैश्वदेवादियज्ञादिहव्याद्यर्थं गवान्वितौ ।७४।
      _____________________
      सौराष्ट्रे च यदा ब्रह्मा यज्ञार्थं संगमिष्यति ।
      तत्पूर्वं तौ गोभिलश्च गोभिला चेति संज्ञिता।७२।
      गवा प्रपालकौ भूत्वाऽऽनर्तदेशे गमिष्यतः ।
      यत्राऽऽभीरा निवसन्ति तत्समौ वेषकर्मभिः।७६
      दैत्यकृतार्दनं तेन प्रच्छन्नयोर्न वै भवेत् ।
      इतिःहेतोर्यज्ञपूर्वं दैत्यक्लेशभिया तु तौ ।७७।
      श्रीहरेराज्ञयाऽऽनर्ते जातावाभीररूपिणौ ।
      गवां वै पालकौ विप्रौ पितरौ च त्वया हि तौ।७८।
      कर्तव्यौ गोपवेषौ वै वस्तुतो ब्राह्मणावुभौ ।
      मदंशौ तत्र सावित्रि ! त्वया द्वितीयरूपतः ।७९।
      अयोनिजतया पुत्र्या भाव्यं वै दिव्ययोषिता ।
      दधिदुग्धादिविक्रेत्र्या गन्तव्यं तत्स्थले तदा ।1.509.८०।
      यदा यज्ञो भवेत् तत्र तदा स्मृत्वा सुयोगतः ।
      मानुष्या तु त्वया नूत्नवध्वा क्रतुं करिष्यति।८१।
      सहभावं गतो ब्रह्मा गायत्री त्वं भविष्यसि ।
      ब्राह्मणयोः सुता गूढा गोपमध्यनिवासिनोः।८२।
      ब्रह्माणी च ततो भूत्वा सत्यलोकं गमिष्यसि ।
      ब्राह्मणास्त्वां जपिष्यन्ति मर्त्यलोकगतास्ततः।८३।
      इत्येवं जायमानैषा गायत्री ब्राह्मणी सुता ।
      वर्तते गोपवेषीया नाऽशुद्धा जातितो हि सा।८४।
      एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा।
      तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा।८५।
      अस्मत्पुत्र्या महद्भाग्यं ब्रह्मणा या विवाहिता ।
      आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते।८६।
      यज्ञद्वारेण देवानां ब्राह्मणानां सतां तथा ।
      इत्युक्त्वा तौ गोपवेषौ त्यक्त्वा ब्राह्मणरूपिणौ।८७। 
      पितामहौ हि विप्राणां परिचितौ महात्मनाम् ।
      सर्वेषां पूर्वजौ तत्र जातौ दिव्यौ च भूसुरौ।८८।
      ब्रह्माद्याश्च तदा नेमुश्चक्रुः सत्कारमादरात् ।
      यज्ञे च स्थापयामासुः सर्वं हृष्टाः सुरादयः ।८९।
      ब्रह्माणं मालया कुंकुमाक्षतैः कुसुमादिभिः।
      वर्धयित्वा सुतां तत्र ददतुर्यज्ञमण्डपे। 1.509.९०।
      वृद्धो वै ब्राह्मणस्तत्र कृष्णरूपं दधार ह ।
      सर्वैश्च वन्दितः साधु साध्वित्याहुः सुरादयः।९१।
      जाल्मः कृष्णं हरिं दृष्ट्वा गायत्रीपितरौ तथा ।
      दृष्ट्वा ननाम भावेन प्राह भिक्षां प्रदेहि मे।९२।
      _______
      बुभुक्षितोऽस्मि विप्रेन्द्रा गर्हयन्तु न मां द्विजाः ।
      दीनान्धैः कृपणैः सर्वैस्तर्पितैरिष्टिरुच्यते ।९३।
      अन्यथा स्याद्विनाशाय क्रतुर्युष्मत्कृतोऽप्ययम्।
      अन्नहीनो दहेद् राष्ट्रं मन्त्रहीनस्तु ऋत्विजः।९४।
      याज्ञिकं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।
      श्रीकृष्णश्च तदा प्राह जाल्मे ददतु भोजनम् ।९५।
      विप्राः प्राहुः खप्परं ते त्वशुद्धं विद्यते ततः ।
      बहिर्निःसर दास्यामो भिक्षां पार्श्वमहानसे ।९६।।़
      एतस्यामन्नशालायां भुञ्जन्ति यत्र तापसाः।
      दीनान्धाः कृपणाश्चैव तथा क्षुत्क्षामका द्विजाः ।९७।
      अशुद्धं ते कपालं वै यज्ञभूमेर्बहिर्नय ।
      गृहाणाऽन्यच्छुद्धपात्रं दूरं प्रक्षिप्य खप्परम्।९८।
      एवमुक्तश्च जाल्मः स रोषाच्चिक्षेप खप्परम् ।
      यज्ञमण्डपमध्ये च स्वयं त्वदृश्यतां गतः ।९९।
      सर्वेप्याश्चर्यमापन्ना विप्रा दण्डेन खप्परम् ।
      चिक्षिपुस्तद्बहिस्तावद् द्वितीयं समपद्यत । 1.509.१००।
      तस्मिन्नपि परिक्षिप्ते तृतीयं समपद्यत ।
      एवं शतसहस्राणि समपद्यन्त वै तदा ।१०१।
      परिश्रान्ता ब्राह्मणाश्च यज्ञवाटः सखप्परः।
      समन्ततस्तदा जातो हाहाकरो हि सर्वतः।१०२।
      ब्रह्मा वै प्रार्थयामास सन्नत्वा तां दिशं मुहुः।
      किमिदं युज्यते देव यज्ञेऽस्मिन् कर्मणः क्षतिः। १०३।
      तस्मात् संहर सर्वाणि कपालानि महेश्वर ।
      यज्ञकर्मविलोपोऽयं मा भूत् त्वयि समागते।१०४।
      ततः शब्दोऽभवद् व्योम्नः पात्रं मे मेध्यमस्ति वै ।
      भुक्तिपात्रं मम त्वेते कथं निन्दन्ति भूसुराः।१०५।
      तथा न मां समुद्दिश्य जुहुवुर्जातवेदसि ।
      यथाऽन्या देवतास्तद्वन्मन्त्रपूतं हविर्विधे।१ ०६।
      अतोऽत्र मां समुद्दिश्य विशेषाज्जातवेदसि ।
      होतव्यं हविरेवात्र समाप्तिं यास्यति क्रतुः ।। १०७।।
      ब्रह्मा प्राह तदा प्रत्युत्तरं व्योम्नि च तं प्रति ।
      तव रूपाणि वै योगिन्नसंख्यानि भवन्ति हि।१०८
      कपालं मण्डपे यावद् वर्तते तावदेव च ।
      नात्र चमसकर्म स्यात् खप्परं पात्रमेव न ।१०९।
      यज्ञपात्रं न तत्प्रोक्तं यतोऽशुद्धं सदा हि तत् ।
      यद्रूपं यादृशं पात्रं यादृशं कर्मणः स्थलम् ।। 1.509.११ ०।।
      तादृशं तत्र योक्तव्यं नैतत्पात्रस्य योजनम् ।
      मृन्मयेषु कपालेषु हविः पाच्यं क्रतौ मतम् ।१११।
      तस्मात् कपालं दूरं वै नीयतां यत् क्रतुर्भवेत् ।
      त्वया रूपं कपालिन् वै यादृशं चात्र दर्शितम्।११२।
      तस्य रूपस्य यज्ञेऽस्मिन् पुरोडाशेऽधिकारिता ।
      भवत्वेव च भिक्षां संगृहाण तृप्तिमाप्नुहि ।११३।
      अद्यप्रभृति यज्ञेषु पुरोडाशात्मकं द्विजैः ।
      तवोद्देशेन देवेश होतव्यं शतरुद्रिकम् ।११४।
      विशेषात् सर्वयज्ञेषु जप्यं चैव विशेषतः।
      अत्र यज्ञं समारभ्य यस्त्वा प्राक् पूजयिष्यति।११५।
      अविघ्नेन क्रतुस्तस्य समाप्तिं प्रव्रजिष्यति ।
      एवमुक्ते तदाश्चर्यं जातं शृणु तु पद्मजे।११६।
      यान्यासँश्च कपालानि तानि सर्वाणि तत्क्षणम् ।
      रुद्राण्यश्चान्नपूर्णा वै देव्यो जाताः सहस्रशः।११७।
      सर्वास्ताःपार्वतीरूपा अन्नपूर्णात्मिकाःस्त्रियः।
      भिक्षादात्र्यो विना याभिर्भिक्षा नैवोपपद्यते।११८।
      तावच्छ्रीशंकरश्चापि प्रहृष्टः पञ्चमस्तकः ।
      यज्ञमण्डपमासाद्य संस्थितो वेदिसन्निधौ ।११९।
      ब्राह्मणा मुनयो देवा नमश्चक्रुर्हरं तथा ।
      रुद्राणीःपूजयामासुरारेभिरे क्रतुक्रियाम्।१२०।
      सहस्रशः क्रतौ देव्यो निषेदुः शिवयोषितः ।
      शिवेन सहिताश्चान्याः कोटिशो देवयोषितः।१२१।
      एवं शंभुः क्रतौ भागं स्थापयामास सर्वदा ।
      पठनाच्छ्रवणाच्चास्य यज्ञस्य फलमाप्नुयात् । १२२।
      _____________________ 
      इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने नामको नवाऽधिकपञ्चशततमोऽध्यायः।५०९।     
      ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
      एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।२३।
      यह श्लोक अनेक पुराणों तथा ग्रन्थो में बनाकर जोड़ा गया जैसे नान्दी-उपपुराण-  महाभारत -अनुशासनपर्व, स्कन्दपुराणनागर-खण्ड ,लक्ष्मी नारायणीसंहिता ़तथा पाराशर स्मृति और भविष्यपुराण में "ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं द्विधा कृतम्।
      एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।५। श्लोक बनाकर संलग्न कर दिया।

      इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे गोसहस्रप्रदानविधिव्रतवर्णनं नामैकोनषष्ट्युत्तरशततमोऽध्यायः।१५९।
      _______________________________
      कालान्तरण में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों नें  वैश्यवर्णीया गाय को ब्राह्मण कुल की बताने के लिए वैदिक सिद्धान्त के विरुद्ध विना विचारे ही उपर्युक्त श्लोकों को तो रच दिया परन्तु वर्णव्यवस्था के उद्घोषक वेद में वर्णित विधान भूल ही गये  ।
      मैं इस स्थल पर ऋग्वेद की उस ऋचा का उल्लेख कर रहा हूं जिसमें चारों वर्णों की उत्पत्ति की  बात की गई है:
      ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः।        ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।।ऋ०10/90/12

      उपर्युक्त विवेचनाओं में एक समान श्लोक विभिन्न ग्रन्थों से केवल इस तथ्य की पुष्टिकरण के लिए उद्धृत किए गये हैं।

      श्रीमद्भागवतपुराणम्‎ | स्कन्धः १०‎ | पूर्वार्धः

      "मुञ्जाटव्यां गवां गोपानां च दावानलाद् रक्षम्।

                      श्रीशुक उवाच ।
                      (अनुष्टुप् छन्द)

      "क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्‍गावो दूरचारिणीः ।
      स्वैरं चरन्त्यो विविशुः तृणलोभेन गह्वरम् ॥१।।

      "अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद् वनम् ।
      ईषीकाटवीं निर्विविशुःक्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः॥२॥

       तेऽपश्यन्तः पशून् गोपाः कृष्णरामादयस्तदा।
       जातानुतापा न विदुःविचिन्वन्तो गवां गतिम्॥३॥तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैः गोष्पदैः अंकितैर्गवाम् ।मार्गं अन्वगमन् सर्वे नष्टाजीव्या विचेतसः॥४॥मुञ्जाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रन्दमानं स्वगोधनम् ।  सम्प्राप्य तृषिताःश्रान्ताःततस्ते संन्यवर्तयन्॥५॥  ता आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा।      स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः॥६॥

                   ( मिश्र छन्द। )
      ततः समन्ताद् वनधूमकेतुः
           यदृच्छयाभूत् क्षयकृत् वनौकसाम्।
       समीरितः सारथिनोल्बणोल्मुकैः
           विलेलिहानः स्थिरजङ्‌गमान् महान्॥७॥

       तं आपतन्तं परितो दवाग्निं
           गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः।
       ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना
           यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः॥८॥         
                            (अनुष्टुप्)

      कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामित विक्रम।
      दावाग्निना दह्यमानान् प्रपन्नान् त्रातुमर्हथः॥९॥नूनं त्वद्‍बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसीदितुम्।  वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथाः त्वत्परायणाः॥१०॥

                          श्रीशुक उवाच।
       वचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः।
       निमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत॥११॥ तथेति मीलिताक्षेषु भगवान् अग्निमुल्बणम् ।पीत्वामुखेनतान्कृच्छ्राद्योगाधीशोव्यमोचयत्‌।१२।ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः। निशाम्यविस्मितासन्-आत्मानं गाश्चमोचिताः।१३।

       कृष्णस्य योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम्।
       दावाग्नेरात्मनःक्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम्।१४।

       गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः।
       वेणुं विरणयन् गोष्ठं अगाद् गोपैरभिष्टुतः॥१५॥

       गोपीनां परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने।
       क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत्॥१६॥


      इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
      संहितायांदशमस्कन्धेपूर्वार्धे एकोनविंशोऽध्यायः।१९।      

      श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित ! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूद में लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गयीं। ____________________________________

      "अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद् वनम् ।
      ईषीकाटवीं निर्विविशुःक्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः॥२॥

      उसकी बकरियाँ, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्त में डकराती हुई मुंजाटवी में घुस गयीं। जब श्रीकृष्णबलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके।

      - महर्षि पुलस्त्य भीष्म को सतयुग के प्राचीन इतिहास की बात बताते हैं । इसी ऐतिहासिक संवाद को सूत जी राजा जनमेजय को सुनाते हैं । अतः यहाँ नृपते ! इस पद का सम्बोधन कारक में प्रयोग हुआ है -और इस श्लोक मेंं गाय के साथ महिषी शब्द भी विचारणीय है कि सतयुग में भी आभीर जनजाति के लोग गाय-भैंस दोनों ही सजातीय पशुओं को पालते थे ।
      अर्थ– गाय भैंस जो कुछ भी है वह सब वस्त्रादि से सुसज्जित करके तोरण के बाहर स्थित करें –अर्थात् तोरण- (बहिर्द्वार) विशेषतः वह द्वार जिसका ऊपरी भाग मंडपाकार तथा मालओं और पताकाओं आदि से सजाया गया हो । 
      प्राय: शोभा या सजावट के लिए बनाए जाने वाला अस्थायी स्वागत-द्वार होते थे। 
      पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का दो सौ पचासवाँ श्लोक ) गाय और भैंस की समान रूप से प्रशंसा करता है ।
      _____________________________________
       गाय और भैंस सदैव यादवों की पाल्या थीं और भारतीय पुराणों में दोैनों पशुओं को सजातीय और सुरभि गाय की सन्तान कहा गया है जो सुरभि भगवान कृष्ण के वाम भाग से ही गोलोकधाम उत्पन्न हुई थीं ।
      महाभारत का खिलभाग (हरिवंशपुराण) में भी गोवर्धन प्रकरण में गोवर्धन- यजन समारोह के अवसर पर जो पशु महिषी आदि भोजन करने योग्य थे  उनका पूजन किया और समस्त गोप समुदाय को उनकी पूजा में जुट जने का आदेश कृष्ण के द्वारा  दिया गया था । देखें हरिवंश पुराण का निम्न श्लोक-
      अर्थ-भोजन कराने योग्य जो भैंस-गाय आदि व्रज के पशु हैं, उनकी बड़ी अभ्यर्चना करे और साथ ही उत्तमोत्तम पदार्थ खिलाये जायँ और इस प्रकार समस्त गोपों के सहयोग से सम्पन्न होने वाले इस यज्ञ का आरम्भ किया जाये।१५।
      ______________________
      महिषी की कभी पूज्या रही होगी इसी कारण से प्राचीन काल में पौराणिक ऋषियों ने इसको "महिषी" संज्ञा दी होगी -क्योंकि "महिषी" "महिला" 'महिमा" और 'महिमान्य' जैसे शब्द (मह्=पूजा करना)धातु से व्युत्पन्न हैं।
      मंहति पूजयति लोका तस्या: इति महिषी शब्द की व्युत्पत्ति ( महि + “ अधिमह्योष्टिषच् / ड़ीष् )  “ उणादि सूत्र से मह्=पूजायाम् धातु में "टिषच्" और स्त्रीलिंग में "ड़ीष्" प्रत्यय लगाने से सिद्ध होती है   ।  १ ।  ४६ । 
       इति टिषच् । )  स्वनामख्यातपशुविशेषः । सन्दर्भ(हरिवंशपुराण हरिवंशपर्व के १७ वाँ अध्याय )
      ____________________________________
      और अन्यत्र भी ब्रह्मपुराण के अध्याय(190) के अन्तर्गत कंस -अक्रूर संवाद में कंस अक्रूर जी को गोकुल में नन्द के पास कृष्ण और बलराम को अपने साथ लाने के लिए तथा गोपों से महिषी ( भैंस) के उत्तम घृत और दधि को उपहार स्वरूप पाने की बात कहता है ।
      ब्रह्मपुराण अध्याय 190के निम्न श्लोक विचारणीय हैं।
      त्वामृते( त्वाम्-ऋते) यादवाश्चेमे दुष्टा दानपते मम। एतेषां च वधायाहं प्रयतिष्याम्यनुक्रमात्। १९०.१७।
      ततो निष्कण्टकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
      प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्या वीर गम्यताम्।१९०.१८।

      यथा च महिषं सर्पिर्दधि चाप्युपहार्य वै।
      गोपाः समानयन्त्याशु त्वया वाच्यास्तथा तथा। १९०.१९।
      अनुवाद:-आपके बिना ये यादव मेरे लिए दुष्ट हैं, हे दानपति अक्रूर! और मैं इन लोगों को एक के बाद एक करके मारने की कोशिश करूंगा।190.17।
      तब यह सारा राज्य कांटों से मुक्त हो जाएगा।
      मैं तुम्हारे द्वारा इन्हें मारने की  व्यवस्था करूंगा हे वीर  इसलिए मेरी प्रीति के लिए जाओ।190.18।
      जैसे भैंस के घी(अर्चि)  और दही के साथ उपहार भी लेते  आना है । जैसे तुम कहोगे वैसे ही गोपाल लोग शीघ्र ही तुमको उपहार देंगे ।190.19।
      विष्णु पुराण के निम्न श्लोक भी विचारणीय हैं।
      त्वामृते यादवाश्चैते द्विषो दानपते मम।
      एतेषां च वधायाहं यतिष्येऽनुक्रमात्ततः।२०।
      यथा च महिषीं सर्पदधि चाप्युपहार्य वै ।              गोपास्समानयन्त्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते।२२।
                      श्रीपराशर उवाच !
      इत्याज्ञप्तस्तदाऽक्रूरो महाभागवतो द्विज।
      प्रीतिमानभवत्कृष्णं श्वो द्रक्ष्यामीति सत्वरः।२३ ।
      तथेत्युक्त्वा च राजानं रथमारुह्य शोभनम् ।
      निश्चक्राम ततः पुर्य्या मथुराया मधुप्रियः ।२४।
      इति श्रीविष्णुमहापुराणे पंचमांशे पञ्चदशोऽध्यायः १५।
      अनुवाद:-तुम्हारे बिना, ये यादव मेरे दुश्मन हैं, हे दानपति अक्रूर। मैं एक के बाद एक इन को मारने का प्रयास करूंगा।20।
      उस समय सारा राज्य संकट से मुक्त हो जाएगा
      मैं तुम्हारे लिए व्यवस्था करूंगा, इसलिए हे वीर, कृपया मुझे प्रसन्न करने के लिए मेरे पास जाओ। 21। भैंस के घी(अर्चि)  और दही के साथ उपहार भी लेते आना है । जैसे तुम कहोगे वैसे ही गोपाल लोग शीघ्र ही तुमको उपहार देंगे।22।
      श्री पराशर ने कहा ! हे ब्राह्मण, जब महान भक्त अक्रूर को इस प्रकार आदेश दिया गया तो वह बहुत प्रसन्न हुए और कल भगवान कृष्ण को देखुँगा यह विचार कर  शीघ्रता  की।23।
      ऐसा कहकर अक्रूर जी अपने सुन्दर रथ पर आरूढ़ हो गये फिर वह मधु के प्रिय मथुरा नगर की ओर चल पड़े।24।
      यह श्रीविष्णु महापुराण के पांचवें भाग का पन्द्रहवां अध्याय (15) है।
       ________________________
      ये ही श्लोक ब्रह्म पुराण के १९०वें अध्याय में कुछ अन्तर के साथ हैं ।
      ततो निष्कण्टकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
      प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्या वीर गम्यताम्। १९०.१८ ।
      यथा च महिषं सर्पिर्दधि चाप्युपहार्य वै।
      गोपाः समानयन्त्याशु त्वया वाच्यास्तथा तथा। १९०.१९ ।
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      अर्थ-तत्पश्चात आपके अतिरिक्त ( अक्रूर) समस्त गोकुल वासी यादवों के वध का उपक्रम करुँगा । तब सम्पूर्ण राज्य का शासन आप की कृपा से निष्कण्टक होकर कर भोग सकुँगा । हे वीर मेरी प्रसन्नता के लिए आप गोकुल जायें और वे गोप जल्दी ही भैंस का सर्पि (घी) और दहि आदि उपहार स्वरूप लेकर आयें  आप उनसे ऐसा कहना।१९।
      ______________________
      विष्णु पुराण में पाराशर वक्ता हैं तो ब्रह्म पुराण में व्यास जी को वक्ता बना दया गया है ।               
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      ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय नवम का १७ वें श्लोक में गाय और भैंस दौनों बहिनों की उत्पत्ति एक ही माता से हुई है। अत: गाय और भैंस परस्पर बहिने हैं ।
      ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय नवम का १७ वाँ श्लोक  तथा इसी अध्याय नवम का ४६ वाँ श्लोक भी है इसी तथ्य को सूचित करता है।
      कश्यपस्य प्रियाणां च नामानि शृणु धार्मिक ।
      अदितिर्देवमाता वै दैत्यमाता दितिस्तथा।१६।
      सारमेयादिजन्तूनां सरमा सूश्चतुष्पदाम् ।
      दनुः प्रसूर्दानवानामन्याश्चेत्येवमादिकाः ।१८।
      अनुवाद:-हे धर्मात्मा ! अब कश्यप और उनके प्रिय लोगों के नाम सुनो !अदिति देवताओं की माता हैं और दिति दैत्यों की माता हैं।16।
      विशेष:-उपर्युक्त श्लोक सिद्ध करते हैं की गाय और भैंस सजातीय और सहोदरा( सगी) बहिनें हैं 
      ब्रह्मवैवर्तपुराण अध्याय-(9) श्लोक16-17
      अन्यत्र भी इसी पुराण में कहा गया है।
      गावश्च महिषाश्चैव सुरभिप्रवरा इमे।
      सर्वे वै सारमेयाश्च बभूवुः सरमासुताः।४६।

      अनुवाद:-ये गाय-भैंस सुरभि की श्रेष्ठा पुत्री यहा  हैं । वे सभी सरमेयस और सरमा ( देवों की कुतिया) के पुत्र बने।46।
      ब्रह्मवैवर्तपुराण अध्याय-(9) श्लोक 46-
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      और चमत्कार तो तब हुआ जब भैंस की प्रतिष्ठा गाय से भी बढ़कर हुई नारद पुराण का निम्न श्लोक यही प्रकाशित करता है ।
      _____
      महिषीदो जयत्येव ह्यपमृत्युं न संशयः
      गवां तृणप्रदानेन रुद्र
       लोकमवाप्नुयात्।११२।
      (नारद पुराण पूर्वार्ध १३ वाँ अध्याय)
      अर्थ-:महिषी दान करने से अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है इसमें कोई संशय नहीं और गाय को चारा देने से रूद्र(शिव) लोक की प्राप्ति होती है ।
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      ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (प्रकृतिखण्डः) अध्यायः ४६ में वर्णन है कि सुरभि गाय जो विश्व की समस्त गाय और गैसों की माता है उसका प्रादुर्भाव ( जन्म) भी कृष्ण के गो लोक धाम में कृष्ण के वामांग (बायें अंग ) से हुई है विस्तृत जानकारी के लिए   देखें निम्न सभी  श्लोक-   
                    ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

                  खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)                    ।                   नारद उवाच ।।

      का वा सा सुरभी देवी गोलोका दागता च या ।।
      तज्जन्मचरितं ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।१।
                        नारायण उवाच ।।
      गवामधिष्ठातृदेवी गवामाद्या गवां प्रसूः।
      गवां प्रधाना सुरभी गोलोके च समुद्भवा।२।

      सर्वादिसृष्टेः कथनं कथयामि निशामय ।।
      बभूव तेन तज्जन्म पुरा वृन्दावने वने ।। ३ ।।

      एकदा राधिकानाथो राधया सह कौतुकात् ।।
      गोपांगनापरिवृतः पुण्यं वृन्दावनं ययौ ।। ४ ।।

      सहसा तत्र रहसि विजहार च कौतुकात् ।।
      बभूव क्षीरपानेच्छा तदा स्वेच्छापरस्य च।। ५ ।।

      ससृजे सुरभीं देवीं लीलया वामपार्श्वतः ।।
      वत्सयुक्तां दुग्धवतीं वत्सानां च मनोरमाम् ।। ६ ।।

      दृष्ट्वा सवत्सां सुरभीं रत्नभाण्डे दुदोह सः ।।
      क्षीरं सुधातिरिक्तं च जन्ममृत्युहरं परम्।। ७।।

      तदुष्णं च पयः स्वादु पपौ गोपीपतिः स्वयम् ।।
      सरो बभूव पयसा भाण्डविस्रंसनेन च ।।८।।

      दीर्घे च विस्तृते चैव परितः शतयोजनम् ।।
      गोलोकेषु प्रसिद्धं तद्रम्यं क्षीरसरोवरम् ।। ९ ।।

      गोपिकानां च राधायाः क्रीडावापी बभूव सा ।।
      रत्नेन रचिता तूर्णं भूता वापीश्वरेच्छया ।। 2.47.१० ।।

      बभूव कामधेनूनां सहसा लक्षकोटयः ।।
      तावत्यो हि सवत्साश्च सुरभीलोमकूपतः ।। ११ ।।

      तासां पुत्राश्च पौत्राश्च संबभूवुरसंख्यकाः ।
      कथिता च गवां सृष्टिस्तया संपूरितं जगत् ।१२।

      पूजां चकार भगवान्सुरभ्याश्च पुरा मुने ।।
      ततो बभूव तत्पूजा त्रिषु लोकेषु दुर्लभा ।१३।

      दीपान्विता परदिने श्रीकृष्णस्याज्ञया भवे ।।
      बभूव सुरभीपूजा धर्मवक्त्रादिति श्रुतम् ।। १४ ।।

      ध्यानं स्तोत्रं मूलमन्त्रं यद्यत्पूजाविधिक्रमम् ।।
      वेदोक्तं च महाभाग निबोध कथयामि ते ।। १५ ।।

      ॐ सुरभ्यै नम इति मन्त्रोऽयं तु षडक्षरः ।।
      सिद्धो लक्षजपेनैव भक्तानां कल्पपादपः ।।१६।।

      स्थितं ध्यानं यजुर्वेदे पूजनं सर्वसम्मतम् ।।
      ऋद्धिदां वृद्धिदां चैव मुक्तिदो सर्वकामदाम् ।१७।

      लक्ष्मीस्वरूपां परमां राधासहचरीं पराम् ।।
      गवामधिष्ठातृदेवीं गवामाद्यां गवां प्रसूम् ।।१८।।

      पवित्ररूपां पूज्यां च भक्तानां सर्वकामदाम् ।।
      यया पूतं सर्वविश्वं तां देवीं सुरभीं भजे ।। १९ ।।

      घटे वा धेनुशिरसि बद्धस्तंभे गवां च वा ।।
      शालग्रामे जलेऽग्नौ वा सुरभी पूजयेद्द्विजः ।। 2.47.२० ।।

      _____________
      दीपान्विता परदिने पूर्वाह्णे भक्तिसंयुतः ।।
      यः पूजयेच्च सुरभीं स च पूज्यो भवेद्भुवि ।२१ ।।

      एकदा त्रिषु लोकेषु वाराहे विष्णुमायया ।।
      क्षीरं जहार सहसा चिन्तिताश्च सुरादयः।२२।

      ते गत्वा ब्रह्मणो लोकं ब्रह्माणं तुष्टुवुस्तदा ।
      तदाज्ञया च सुरभीं तुष्टुवे पाकशासनः।२३।         

      आविर्बभूव तत्रैव ब्रह्मलोके सनातनी ।।
      महेन्द्राय वरं दत्त्वा वाञ्छितं सर्वदुर्लभम् ।। २८ ।।

      जगाम सा च गोलोकं ययुर्देवादयो गृहम् ।।
      बभूव विश्वं सहसा दुग्धपूर्णं च नारद ।। २९ ।।

      दुग्धाद् घृतं ततो यज्ञस्ततः प्रीतिः सुरस्य च ।।
      इदं स्तोत्रं महापुण्यं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् ।        स गोमान् धनवांश्चैव कीर्तिमान्पुत्रवांस्तथा।३१।

      इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सुरभ्युपाख्याने तदुत्पत्ति तत्पूजादिकथनं नाम सप्तचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ।। ४७ 

      ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय (47).   
      आदि गौ सुरभी देवी का उपाख्यान।

      हिन्दी अनुवाद:-नारद जी ने पूछा– ब्रह्मन् ! वह सुरभी देवी कौन थी, जो गोलोक से आयी थी ? *मैं उसके जन्म और चरित्र सुनना चाहता हूँ।*

      भगवान नारायण बोले– नारद! देवी सुरभी गोलोक में प्रकट हुई है । वह गौओं की अधिष्ठात्री देवी, गौओं की आदि, गौओं की जननी तथा सम्पूर्ण गौओं में प्रमुख है। मुने! मैं सबसे पहली सृष्टि का प्रसंग सुना रहा हूँ, जिसके अनुसार *पूर्वकाल में वृन्दावन में उस सुरभी का ही जन्म हुआ था।*
      एक समय की बात है। गोपांगनाओं से घिरे हुए राधापति भगवान श्रीकृष्ण कौतूहलवश श्रीराधा के साथ पुण्य-वृन्दावन में गये। वहाँ वे विहार करने लगे। उस समय कौतुकवश उन स्वेच्छामय प्रभु के मन में सहसा दूध पीने की इच्छा जाग उठी। *तब भगवान ने अपने वामपार्श्व से लीलापूर्वक सुरभी गौ को प्रकट किया।* उसके साथ बछड़ा भी था। वह दुग्धवती थी। उस सवत्सा गौ को सामने देख सुदामा ने एक रत्नमय पात्र में उसका दूध दुहा। वह दूध सुधा से भी अधिक मधुर तथा जन्म और मृत्यु को दूर करने वाला था। स्वयं गोपीपति भगवान श्रीकृष्ण ने उस गरम-गरम स्वादिष्ट दूध को पीया। फिर हाथ से छूटकर वह पात्र गिर पड़ा और दूध धरती पर फैल गया। उस दूध से वहाँ एक सरोवर बन गया। उसकी लंबाई और चौड़ाई सब ओर से सौ-सौ योजन थी। गोलोक में वह सरोवर ‘क्षीरसरोवर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ है। गोपिकाओं और श्रीराधा के लिये वह क्रीड़ा-सरोवर बन गया। भगवान की इच्छा से उस क्रीड़ावापी के घाट तत्काल अमूल्य दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित हो गये। उसी समय अकस्मात असंख्य कामधेनु प्रकट हो गयीं। जितनी वे गौएँ थीं, उतने ही बछड़े भी उस सुरभी गौ के रोमकूप से निकल आये। फिर उन गौओं के बहुत-से पुत्र-पौत्र भी हुए, जिनकी संख्या नहीं की जा सकती। यों उस सुरभी देवी से गौओं की सृष्टि कही गयी, जिससे सम्पूर्ण जगत व्याप्त है।
      मुने! *पूर्वकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने देवी सुरभी की पूजा की थी। तत्पश्चात् त्रिलोकी में उस देवी की दुर्लभ पूजा का प्रचार हो गया।*
      दीपावली के दूसरे दिन भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से देवी सुरभी की पूजा सम्पन्न हुई थी। *यह प्रसंग मैं अपने पिता धर्म के मुख से सुन चुका हूँ।* महाभाग! देवी सुरभी का ध्यान, स्तोत्र, मूलमन्त्र तथा पूजा की विधि वेदोक्त क्रम मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो। ‘ऊँ सुरभै नमः’ सुरभी देवी का यह षडक्षर-मन्त्र है। एक लाख जप करने पर मन्त्र सिद्ध होकर भक्तों के लिये कल्पवृक्ष का काम करता है। ध्यान और पूजन यजुर्वेद में सम्यक प्रकार से वर्णित हैं। जो ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति और सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली हैं; जो लक्ष्मीस्वरूपा, श्रीराधा की सहचरी, गौओं की अधिष्ठात्री, गौओं की आदि जननी, पवित्ररूपा, पूजनीया, भक्तों के अखिल मनोरथ सिद्ध करने वाली हैं तथा जिनसे यह सारा विश्व पावन है उन भगवती सुरभि की मैं उपासना करता हूँ।           

      कलश, गाय के मस्तक, गौओं के बाँधने के खंभे, शालग्राम की मूर्ति, जल अथवा अग्नि में देवी सुरभी की भावना करके द्विज इनकी पूजा करें। जो दीपमालिका के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में भक्तिपूर्वक भगवती सुरभी की पूजा करेगा, वह जगत में पूज्य हो जाएगा।
      एक बार वाराहकल्प में देवी सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय त्रिलोकी में दूध का अभाव हो गया था।  तब देवता अत्यन्त चिन्तित होकर ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्मा जी की स्तुति करने लगे। तदनन्तर ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर इन्द्र ने देवी सुरभी की स्तुति आरम्भ की।
      पुरन्दर उवाच– नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नमः। गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके।24
      नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नमः। नमःकृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नमः।25।
      कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परम्।  श्रीदायै धनदायै च वृद्धिदायै नमो नमः।26।
      शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नमः। यशोदायै कीर्तिदायै धर्मज्ञायै नमो नमः।27। (प्रकृतिखण्ड 47। 24-27)
      अनुवाद:-इन्द्र ने कहा– देवी एवं महादेवी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। जगदम्बिके! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो; तुम्हें नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हें बार-बार नमस्कार है। श्रीकृष्ण-प्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है। जो सबके लिये कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी देवी को बार-बार नमस्कार है। यश और कीर्ति प्रदान करने वाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है। इस प्रकार स्तुति सुनते ही सनातनी जगज्जननी भगवती सुरभी संतुष्ट और प्रसन्न हो उस ब्रह्मलोक में ही प्रकट हो गयीं। देवराज इन्द्र को परम दुर्लभ मनोवांछित वर देकर वे पुनः गोलोक को चली गयीं। देवता भी अपने-अपने स्थानों को चले गये। नारद! फिर तो सारा विश्व सहसा दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ सम्पन्न होने लगे तथा उनसे देवता संतुष्ट हुए। जो मानव इस महान पवित्र स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करेगा, वह गोधन से सम्पन्न, प्रचुर सम्पत्ति वाला, परम यशस्वी और पुत्रवान हो जाएगा।यही श्लोक यथावत देवीभागवत पुराण में भी यथा रूप में  में प्राप्त होते हैं देखें निम्न श्लोक
      ______
      देवीभागवतपुराण  स्कन्धः(9) अध्यायः (49)

                सुरभ्युपाख्यानवर्णनम्

                       नारद उवाच।
      का वा सा सुरभिर्देवी गोलोकादागता च या ।
      तज्जन्मचरितं ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि यत्‍नतः ॥१॥

                    श्रीनारायणाय उवाच।
      गवामधिष्ठातृदेवी गवामाद्या गवां प्रसूः ।
      गवां प्रधाना सुरभिर्गोलोके सा समुद्‍भवा ॥ २ ॥सर्वादिसृष्टेश्चरितं कथयामि निशामय ।            बभूव तेन तज्जन्म पुरा वृन्दावने वने ॥३ ॥

      एकदा राधिकानाथो राधया सह कौतुकी ।
      गोपाङ्‌गनापरिवृतः पुण्यं वृन्दावनं ययौ ॥४॥सहसा तत्र रहसि विजहार स कौतुकात् ।        बभूव क्षीरपानेच्छा तस्य स्वेच्छामयस्य च ॥ ५ ॥ससृजे सुरभिं देवीं लीलया वामपार्श्वतः ।    वत्सयुक्तां दुग्धवतीं वत्सो नाम मनोरथः ॥ ६ ॥दृष्ट्वा सवत्सां श्रीदामा नवभाण्डे दुदोह च ।      क्षीरं सुधातिरिक्तं च जन्ममृत्युजराहरम् ॥ ७ ॥तदुत्थं च पयः स्वादु पपौ गोपीपतिः स्वयम् ।    सरो बभूव पयसां भाण्डविस्रंसनेन च ॥ ८ ॥    दीर्घं च विस्तृतं चैव परितः शतयोजनम् ।गोलोकेऽयं प्रसिद्धश्च सोऽपि क्षीरसरोवरः ॥९॥गोपिकानां च राधायाः क्रीडावापी बभूव सा ।रत्‍नेन्द्ररचिता पूर्णं भूता चापीश्वरेच्छया ।।१०।।  (देवीभागवतपुराणनवम स्कन्ध उनपचास वाँ अध्याय)

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      ततः सर्वदशार्हाणामाहुकस्य 
      च याः स्त्रियः।
      नन्दगोपस्य महिषी यशोदा लोकविश्रुता।।
      इतना ही नहीं नन्द की पत्नी का भी नाम यशोदा था और उनकी एक भैंस का नाम भी यशोदा था जो संसार में प्रसिद्ध थी इसका यह अर्थ भी हो सकता है।
      (2-59-1 महाभारत सभापर्व )
      ____________________
      जघान सहितान्सर्वानङ्गराजं च माधवः।।
      एष चैव शतं हत्वा रथेन क्षत्रपुङ्गवान्।
      गान्धारीमवहत्कृष्णो महिषीं यादवर्षभः।
      गाँधारी ने कृष्ण को शाप दिया कदाचित् श्लिष्ट अर्थ में भैसों और उनकी मुख्य रानीयों को लक्ष्य करके महिषी शब्द का प्रयोग किया-
      ( 2-61-13 महाभारत सभापर्व इकसठवाँ अध्याय)
      _______________
      महिष्या वासुदेवस्य भूषणं सर्ववेश्मनाम्।
      यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र विहितः सर्वशिल्पिभिः।।
      (2-57-31)महाभारत सभापर्व
      _______________
      महिष्या वासुदेवस्य केतुमानिति विश्रुतः।
      प्रसादो विरजो नाम विरजस्को महात्मनः।।
      (2-57-32 ) महाभारत सभापर्व
      ______________
      वासुदेव राजा अवश्य थे परन्तु लोकतान्त्रिक प्रणाली से इसी लिए राजा शब्द का प्रयोग उनके लिए हुआ अन्यथा ययाति के शाप के परिणाम स्वरूप यदु वंश में कभी किसी ने पैत्रिक राजसत्ताको अधिग्रहण किया हो ? अत: राजा शब्द यदुवंश के शासकों को एक दो बार ही प्रयुक्त है देखें वराह पुराण का ४६ वाँ अध्याय का  छठवाँ श्लोक-
      _________________________________

      वसुदेवोऽभवद् राजा यदुवंशविवर्द्धनः।
      देवकी तस्य भार्या तु समानव्रतधारिणी ।४६.६।
      अनुवाद:-राजा वासुदेव यदु वंश के राजा बने। उनकी पत्नी देवकी भी उनके समान  व्रत करने वाली थीं। 46.6।।
      श्रीवराह-पुराण में भगवत्-शास्त्र का छियालीसवाँ अध्याय है। 46।।
      ______________________________
       द्वारिका में  भैंसें  पालने का वर्णन
      महाभारत के सभापर्व के प्रथम अध्याय में दक्षिणात्य प्रति में एक श्लोक है जो द्वारिका में यादवों द्वारा गाय-भैंस पालने का विवरण देता है ।
      __________
      बभूवु: परमोपेता: सर्वे जगति पर्वता: तत्रैव  गजयूथानि तत्र  गोमहिषास्तथा निवाश्च कृतास्तत्र वराह मृगपक्षिणाम् ।
      उस गृहोद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अँशत: संग्रहीत हुए हैं । 
      वहाँ हाथियों यूथ तथा गाय भैंसों के समूह भी रहते हैं वहीं वराह और मृग तथा पक्षियों के रहने योग्य निवास भी बनाये गये ।
      तत्रैव गजयूथानि तत्र गोमहिषास्तथा।
      निवासाश्च कृतास्तत्र वराहा मृगपक्षिणाम्।61।
      (महाभारत सभापर्व 57 _वाँ अध्याय)
      _______
      तथा हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (98)
      "तत्रैव गजयूथानि पुरे गोमहिषास्तथा ।
      निवासश्च कृतस्तत्र वराहमृगपक्षिभिः।७४।
      अनुवाद:-
      उस द्वारकापुरी में ही हाथियों के यूथ और गाय-भैंसों के झुंड भी रहते थे। वराहों, मृगों और पक्षियों ने भी वहाँ अपना निवास बना रखा था।
      श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में द्वारका का विशेष रूप से निर्माण विषयक अट्ठानबेवाँ अध्‍याय।
      वास्तव में वराह सूकर से भिन्न होता है इसे विष्णु का रूप मानकर पूजा भी की जाती है ।
      परन्तु सूकर पूजा का कहीं विधान नहीं हैं 
      देखे वरापुराण-
      और ये उद्यान को रखाने के लिए रखे जाते थे ।
      _____________
      नारद पुराण में वर्णन है कि पात्र व्यक्ति को महिषी( भैंस) दान करने से मृत्यु काम संकट टल जाता है।
      महिषीदो जयत्येव ह्यपमृत्युं न संशयः
      गवां तृणप्रदानेन रुद्र
      लोकमवाप्नुयात्।११२।
      नारद पुराण पूर्वार्ध १३ वाँ अध्याय
      _______
      महिषी दान करने से अकाल मृत्यु ( कुसमय मुत्यु जैसे, बिजली के गिरने, बिष खाने, साँप आदि के काटने से मरना) पर विजय मिलती है इसमें कोई संशय नहीं और गाय को चारा देने से रूद्र लोक की प्राप्ति होती है  ।। यह तथ्य पूर्व में वर्णन कर चुके ही हैं 
      नारद पुराण पूर्वार्ध १३ वाँ अध्याय
      ____________________
      महाभारत के सभापर्व के प्रथम अध्याय में दक्षिणात्य प्रति में श्लोक है ।
      बभूवु: परमोपेता: सर्वे जगति पर्वता: तत्रैव  गजयूथानि तत्र  गोमहिषास्तथा निवाश्च कृतास्तत्र वराह मृगपक्षिणाम् ।।
      अर्थ:-
      उस गृहोद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अँशत: संग्रहीत हुए हैं । वहाँ हाथियों यूथ तथा गाय भैंसों के समूह भी रहते हैं वहीं वराह और मृग तथा पक्षियों के रहने योग्य निवास भी बनाये गये ।
      _________________
      वास्तव में वराह सूकर से भिन्न होता है इसे विष्णु का रूप मानकर  वराह की पूजा भी की जाती है 
      परन्तु सूकर पूजा का कहीं विधान नहीं हैं 
      देखे वरापुराण-
      और ये उद्यान को रखाने के लिए ही रखे जाते थे ।
      ______________
      अब लक्ष्मीनारायणसंहिता‎
      खण्डः १(सतयुगसन्तानः)अध्यायः ४३१  में वर्णन है कि - श्रीनारायण उवाच-
      गोमहिष्यादि यच्छ्रेष्ठं नष्टं पशुधनं हि तत् ।
      अजाविकं समस्तं च वन्यं मृगादिकं तथा ।५।
      ________________________     
      गाय- महिषी आदि जो श्रेष्ठ पशु धन है । उसमें बकरी भेड़ और हिरण आदि भी थे ।  वह सब लुप्त हो गये
      ________    
      भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में  भी गाय और भैंस की पूजा करते हुए वर्णन किया गया है ।
      दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशनम् ।
      गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं भूषयेन्नृप ।२५।
      (भविष्य पुराण ब्रह्म पर्व का अठारह वाँ अध्याय)
      राजन् ! गाय भैंस को सज्जित करके तथा दिव्य- दीप-आरती करने से जो कुछ भी रोग आदि है वह सब नष्ट हो जाता है ।
      पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में वर्णन है।
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      (पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का 250वाँ श्लोक)
      गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप
      तेन वस्त्रादिभिःसर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत्।२५०। 
      अनुवाद:-गाय ,भैंस (महिषी) जो कुछ भी है वह सब ले चलना चाहिए हे राजन् ! उसे तोरण  के बाहर रखना या स्थापित करना चाहिए  उसके द्वारा  तोरण को सभी  वस्त्र आदि से  उसे सजाना चाहिए ।। (1.17.250 पद्म पुराण सृष्टि खण्ड)
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      ब्राह्मण अजा के सजातीय और सहजन्मा होने से  बकरी परिवार के ही हैं इसी लिए प्राचीनतम ग्रन्थों में ब्राह्मण बकरी ही पालते थे गाय तो वैश्य वर्ण के लोग पालते थे 
      ___________   रूद्रोवाच- 
      तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासम् अजा अविकम्
      कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
      उन ब्राह्मणों के यहाँ धन' पुत्र' दासी' दास' बकरी भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४। 
      पद्म पुराण सृष्टि खण्ड (अध्याय सत्रह)
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      रसलिंगं ब्राह्मणानां सर्वाभीष्टप्रदं भवेत्
      बाणलिंगं क्षत्रियाणां महाराज्यप्रदं शुभम् ।४८।
      स्वर्णलिंगं तु वैश्यानां महाधनपतित्वदम्
      _____________________
      ऋग्वेद में भी‌ महिषी का वर्णन है।
      कमेतं त्वं युवते कुमारं पेषी बिभर्षि महिषी जजान।
      पूर्वीर्हि गर्भः शरदो ववर्धापश्यं जातं यदसूत माता ॥२॥
      हिरण्यदन्तं शुचिवर्णमारात्क्षेत्रादपश्यमायुधा मिमानम् ।
      ददानो अस्मा अमृतं विपृक्वत्किं मामनिन्द्राः कृणवन्ननुक्थाः॥३॥
      क्षेत्रादपश्यं सनुतश्चरन्तं सुमद्यूथं न पुरु शोभमानम्।
      न ता अगृभ्रन्नजनिष्ट हि षः पलिक्नीरिद्युवतयो भवन्ति ॥४॥
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      के मे मर्यकं वि यवन्त गोभिर्न( गोभि:) येषां गोपा अरणश्चिदास ।
      य ईं जगृभुरव ते सृजन्त्वाजाति पश्व उप नश्चिकित्वान् ॥५॥
      उपरोक्त ऋचाओं महिषी और गोप शब्द सूचित करते हैं कि यहा प्रकरण पशुपालक गोपों से ही सम्बन्धित है ।
      भले सायण ने इसका भाष्य करते हुए महिष को राक्षस रूप में मान्य किया हो परन्तु हम सायण के प्रत्येक ऋचा के भाऑस्य से सन्तुष्ट नहीं हैं।
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      कम् । एतम् । त्वम् । युवते । कुमारम् । पेषी । बिभर्षि । महिषी । जजान ।
      पूर्वीः । हि । गर्भः । शरदः । ववर्ध । अपश्यम् । जातम् । यत् । असूत । माता ॥२।
      भाष्य-अत्राग्नेरुत्पाद्यमानत्वात् कुमारशब्देन व्यवहारः । हे "युवते “त्वं "कमेतं "कुमारं "पेषी हिंसिका पिशाचिका सती “बिभर्षि । एवं वृशाख्यो महर्षिः कशिपुनाच्छन्नम् अग्नेर्हरो ब्रूते । त्वयानुत्पादितत्वात् धारणमनुचितमित्यर्थः। "महिषी महती पूजनीयारणिः एनं "जजान अजनयत् । तदेवाह। "गर्भः शिशोर्ग्राहकोऽरण्याः संबन्धी गर्भः “हि यस्मात् "पूर्वीः "शरदः गताननेकान् संवत्सरान् "ववर्ध ववृधे । अहं च ततो "जातम् "अपश्यम् । "यत् यस्मात् "माता अरणिः "असूत उदपादयत् । राजकुमारपक्षे हे युवते भूदेवि कमेतं कुमारं पेषी सती बिभर्षि । अवशिष्टं कुमारजननपरतया योज्यम् । एवमुत्तरत्रापि कुमाराग्निहरसोः परत्वेन यथोचितं व्याख्येयम् ॥ ऋग्वेद ५/२/२   सूक्त/ऋचा
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      वधूरियं पतिमिच्छन्त्येति य ईं वहाते महिषीमिषिराम् ।
      आस्य श्रवस्याद्रथ आ च घोषात्पुरू सहस्रा परि वर्तयाते ॥३॥
      वधूः । इयम् । पतिम् । इच्छन्ती । एति । यः । ईम् । वहाते । महिषीम् । इषिराम् ।
      आ । अस्य । श्रवस्यात् । रथः । आ । च । घोषात् । पुरु । सहस्रा । परि । वर्तयाते ॥ ३ ॥
      भाष्य:-
      "इयं “वधूः इन्द्रस्य पत्नी पतिमिच्छन्ती स्वप्रियं यज्ञगमनाय प्रवृत्तमिच्छन्ती “ऐति अनुगच्छति । “यः “इन्द्रः "ईम् एनां 
      ______
      महिषीं “महाते =वहति “इषिरां =गमनवतीम् “अस्य= इन्द्रस्य “रथः इन्द्र के गमन करते हुए रथ को वहन करने वाली महिषी  को
      अर्वागस्मदभिमुखं “श्रवस्यात् अन्नमिच्छति । “आ “च “घोषात् आघुष्यति । शब्दयति । “पुरु अत्यधिकं “सहस्रा सहस्राणि धनानि “परि परितः "वर्तयाते वर्तयति । प्रापयति । श्रवस्यादा च घुष्यादिति वा ॥
      ऋग्वेद-संहिता
      ५/३७/३
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      महिषी - महिषी शब्द संस्कृत भाषा में मह् = पूजायाम् (पूजन के अर्थ में) है धातु पाठ में (१/४८५ तथा १०/२९२ यह धातु उभयपदीय है ।
       उ० महयति अर्थात् मह् धातु में संज्ञा भाव में "टिषच् " प्रत्यय तथा स्त्री लिड़्ग भाव में "टाप् "प्रत्यय लगाने से बनता है ।
      जिसकी पूजा या महिमा सर्वत्र है अर्थात्
      ( महयति पूजयति यस्माय सा महिषी )और हम सब आज भी भैंस का सबसे अधिक दूध पीते हैं ! और हमने जिसका एक बार दूध पी लिया वह हमारी वस्तुतः माता ही है। इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं क्योंकि "माता निर्माता भवति "भैंस दूध से ही शरीर का पोषण होता है । हमने रूढ़िवादी लोगों की कुसंगति करके सत्य का कभी मूल्यांकन ही नहीं किया
      सरे आम हम एहसान फरामोश और आँखों पर परदा डाले खामोश बने रहे ।
      परन्तु तेरा सत्यानाश हो ! स्वार्थ
      आज भौतिकता की चकाचोंध अन्धा व स्वार्थ प्रवण होकर हम कितने भ्रान्त,क्लान्त अशान्त व ,रोगी और अल्प आयु होते चले आ रहे हैं ! 
      क्योंकि अब भैंस के मस्तिष्क वर्धक मस्तुम( मट्ठा) को सेवन नहीं कर पाते हैं ।
      परन्तु फिर भी हमने कभी एक क्षण भी रुक कर,धैर्य पूर्वक अपने इस जीवन की विकृत प्रवृत्तियों का तनिक भी निश्पक्ष दृष्टि से आत्म कल्याण की भावना से ,निरीक्षण नहीं किया है ? और हम अपनी अन्तरात्मा की सात्विकता के साथ निरन्तर व्यभिचार करते रहे ,जीवन के समग्र नैतिक मूल्यों का भौतिकता की ध्वान्त वेदी पर हमने हवन कर दिया है ,और आज भी" " अज्ञान की दीर्घ कालिक तमस् निशा में समय के पथ पर कभी मूर्छित हो और कभी ठोकरें खाकर जीवन की गाड़ी को घसीट रहे हैं !
       हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतनाऐं " " अन्धविश्वास और रूढि वादिता की गिरफ्त में आज दम तोड़ रहीं है ।
      आज हम धनवान् होते हुए भी निर्धन हैं क्यों ? कि हमारी संस्कृति की फ़सल उजड़ गयी ,हमारा चरित्र रूपी वित्त(धन)भी लुट गया ,हमारे पास अब कोई अक्षय सम्पत्ति नहीं बची है।
      हमने अपने आप को लुटने दिया ,मिटने दिया !! इतना ही नहीं हमने अपनी उस माता को भी नीलाम कर दिया ,जिसने हम्हें जीवन दिया था।
      वह माता जो निर्माण करती है ,जीवन के हर पक्ष का "माता निर्माता भवति" के पवित्र भाव को हम विस्मृत कर बैठे , गो और भैंस हमारी माताएें हैं माता (माँ) माननीय ,सम्माननीय ही नहीं,हमारे जीवन का सर्वथा आधार भी है | 
      प्राचीन काल में गौ (cow ) विश्व संस्कृति की आत्मा थी प्राचीन मैसो-पोटामिया अर्थात् आज का ईराक की सुमेरियन संस्कृति में (गौ) एक पवित्र पशु था और सुमेरियन गाय की पूजा करते थे | आर्य संस्कृति की सम्वाहक भी गाय थी ; परन्तु गौ की महानता को आधार मानकर आर्यों मैं ही पश्चिमीय एशिया के धरातल पर एक विभेदक रेखा खिंच गयी यद्यपि पवित्र तो गाय को दौनों शाखाऔं ने माना ,परन्तु पवित्रता के मानक भिन्न भिन्न थे | 
      भारतीय ऋषियो के ग्रन्थ ऋग्वेद (rigved ) १०/८६/१४ पर तथा १०/९१/१४पर भी तथा १०/७२/०६ पर भी देवों की वलि के लिए गौ वध के उद्धरण हैं वाजसनेयी संहित्ता तथा तैत्तीरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में ब्राह्मणों के द्वारा गौ-मेध के पश्चात् गौ मांस भक्षण का उल्लेख भी है इतना ही नहीं बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये ग्रन्थ मनुस्मृति में भी ब्राह्मणों द्वारा बलि के पश्चात् बहुतायत से मांस खाने का उल्लेख है | 
      यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याःप्रशस्ता मृगपक्षिणाः मनुस्मृति (५/२३ ) अर्थात् ब्राह्मण यज्ञ के लिए बडे़ मृग (चौपाए) पशु और पक्षियों का वध करें ! और ब्राह्मण अपनी इच्छा के अनुसार धुले हुए मांस को खाएं!
      अतःमनुस्मृति में ब्राह्मणों द्वारा पशुओ का वध करके मांस खाने का जिक्र बहुत से स्थलों पर है | परन्तु फिर भी ब्राह्मणों में ही परस्पर पशुओं की बलि (मेध) को लेकर वैचारिक भिन्नताऐं थी उपनिषद कालीन ब्राह्मण यज्ञ के नाम पर पशु वध के सशक्त विरोधी भी थे ।
      वस्तुतः वह गौः ही थी जो हमारे जीवन के भौतिक (सभ्यता परक )और आध्यात्मिक व सांस्कृतिक दौनो ही पक्षौं को गति प्रदान करने बाली थी और आज भी है! 
      यह तथ्य अब भी प्रासंगिक है स्वयं गौः शब्द का व्युत्पत्ति परक ( etymologically) विश्लेषण इसी तथ्य का प्रकासन करता है "गच्छति निर्भयेन अनेन इति गौः " गम् धातु में संज्ञा करण में " डो" प्रत्यय करने पर गौः शब्द बनता है ।
      गाय प्राचीन काल मैं निर्भय होकर गमन करती थी आज गाय की इस प्रवृत्ति के अनुकूल परिस्थतियाँ नहीं रह गयीं हैं ।
      आज गाय का जीवन संकट ग्रस्त है।
      महाभारत के आश्वमेधिकपर्व में वृषभ को संसार का पिता और गाय को माता माना गया है।
      पितरो वृषभा ज्ञेयो गावो लोकस्य मातरः।
      तासां तु पूजया राजन्पूजिताःपितृदेवताः।109-28
      श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
      वैष्णवधर्मपर्वणि नवाधिकशततमोऽध्यायः। 109।
      आज विपत्ति में भटक रही है गौः सृष्टि का प्रथम पाल्य पशु है !! 
      भारोपीय ( भारत और यूरोप ) वर्ग की सभी भाषाओं में गौः शब्द अल्प परिवर्तन के साथ विद्यमान् है। 
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       संस्कृत गौः ईरानी भाषा में "गाव" के रूप में है तो जर्मन भाषा में यह  कुह (kuh) पुरानी अंग्रेजी में कु( ku )जिसका  बहुवचन रूप काइ (cy) या काँइनस्( coins) है  = सिक्के को भी  फ्राँस भाषा में काँइन coin कहते हैं कॉइन = बिल्ला - वेज़ जिससे सटाम्प मनी( money )को रंगा जाता था यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में क्वनियस् ( cuneus) = wedge बिल्ला , जर्मन भाषा से निकली हुई मध्य इंग्लिश में भी  यह शब्द क्येन( kyen)  है और आयर्लेण्ड की भाषा में यह शब्द बहुवचन रूप में काँइन है।
        अर्थात् बहुत सी गायें काँइन coin शब्द आज धन ,मुद्रा पैसा आदि के अर्थ में रूढ़ है। 
      Coin कॉइन अंग्रेजी शब्द पाइस ( piece) समान अर्थक है ।
      और यह इतिहास का एक प्रमाणित तथ्य है कि प्राचीन विश्व में हमारी व्यापारिक गतिविधियों का माध्यम प्रत्यक्ष वस्तु प्रणाली थी अर्थात् वस्तुओं की आपस में अदला -बदली (विनिमय) प्रणाली थी। यह गौः नामक पशु ही हमारी धन सम्पदा थी 🐃🐂 संस्कृत पशु शब्द का ग्रीक (यूनानी) भाषा में पाउस ( pouch) रूप है पुरानी अंग्रेजी में यह शब्द फ्यू ( feoh) पोए है जर्मन भाषा में यह शब्द वीह( vieh) है पुरानी नॉर्स में ,फी, रूप है जो बाद में फ़ीस ( शुल्क) होगया थी वास्तव में गाय और भैंस दूर के रिश्ते में सगी वहिनें थी अतः दौनो ही पूज्या मौसी और माताऐं है यह कोई उपहास नहीं वल्कि सत्य कथन है।
      यह शोध भाषा विज्ञान ( philology) और प्राचीन विश्व संस्कृति के विशेषज्ञ योगेश कुमार रोहि के द्वारा किया गया है जो कि प्रमाणौं के दायरे में है उन्होने प्रमाणित किया कि भूमध्य रेखीय दक्षिणा वर्ती भूस्थलों में जब आर्यों का स्कैण्डीनेविया ( बाल्टिक सागर) की ओर से प्रथम आगमन हुआ तब उन्होने गाय के समान जिस काले विशाल पशु को देखा उसे महिषः🐃कहा अर्थात् महि = गाय क्यों कि गाय पूजनीया थी मह् = पूजा करना धातु मूलक शब्द है महि और महि के समान होने से भैंस भी महिषी कह लायी थी महिषी रूप प्राचीन मैसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा असीरी संस्कृति का सम्वाहक था जिसे पुराणों में असुर कहा है |
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      ग्रीक ( यूनान) के आर्यों ने महिषी ( भैंस को बॉबेलॉस ( Boubalos) कहा ,तथा इटालियन भाषा में यह शब्द बुफैलॉ ( buffalo) है जिसका अर्थ होता है गाय के समान ग्रीक भाषा में बॉस् 
      ( bous ) का अर्थ है गौः भारोपीय भाषा ओं म, "ब," वर्ण कभी कभी " ग" रूप म में परिवर्तित होता है ,जैसे जर्मन में वॉडेन woden से गॉडेन शब्द बना और फिर गॉडेन से गॉड god शब्द बना है। सांस्कृतिक द्वेष के कारण भी गौः शब्द का अर्थ पूज्य व भगवती के रूप में रूढ़ भी हुआ।  और महिषी का भोग परक अर्थ हुआ जैसे राजा की पटरानी, दासी ,सैरन्ध्री तथा व्यभि चारिणी स्त्रीयों को महिषी की संज्ञा दी गयी इतिहास में प्रमाण है कि पुराने समय में पारसी जरत्उष्ट्रः के अनुयायी भी गाय की पूजा करते थे 
       इतना ही नही इस्लामीय शरीयत में भी गाय के पूज्य व महान होने का प्रमाण है।
       ...देखें बुख़ारी की हदीसकंसुलअम्बिया पृष्ठ १५/ हदीसी व़ाकयात इस प्रकार है ।
      कि जिब्राईल फरिश्ता ख़लीक़ सलल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत मोहम्मद बताते हैं कि फिरदौस( paradise ) 
      जिसे वेदों में प्रद्यौस् भी कहा है उस फिरदौस में एक गाय जिसके सत्तर हजार सींग हैं ,जिसके सींग ज़मीन में गढे हुए हैं और वह गाय( वकर) मछली की पीठ पर खड़ी है अगर वह तनिक हिल जाय तो सारी का़यनात नेस्तनाबूद हो जाय।
      भारतीय पौराणिक मान्यता के अनुसार पाताल के जल पर खडी़ हुई जिस गौ के सींग पर पृथ्वी खण्ड टिका है वस्तुतः यह वर्णन प्रतीकात्मक ही है। और इन धारणाओं का श्रोत प्राचीन सुमेरियन संस्कृति है। इस्लामीय शरीयत मैं जो ""व़कर ईद़"" शब्द है वह सुमेरियन है जैसे आदम ,तथा नूह और नवी शब्द भी है अरबी भाषा में पहले बक़र ईद़ का अर्थ गाय की पूजा था अरबी में वक़र शब्द का एक अर्थ है "" महान "" संस्कृत भाषा में वर्करः गाय तथा बकरी का वाचक है। 
      कृष्ण हों, अथवा ईसा या ,फिर मोहम्मद गाय की महानता का सभी ने वख़ान किया है परन्तु प्राक् इतिहास के कुछ काले पन्ने भी थे गौ की महत्ता को आधार मान कर पश्चिमीय एशिया में आर्यों की दो विरोधी संस्कृतियाँ अस्तित्व में आयीं त्र-टग् वेद अतिथि का वाचक गौघ्न =गां हन्ति तस्मै उसके लिए गाय मारी जाय जो अतिथि आया हुआ है।
      आरे ते गौघ्नयुत पुरूषघ्नं क्षयत्वीरं सुम्न भस्मेते अस्तु त्रग्वेद ० १/११४/१० इतना ही नहीं वेद में अतिथि का वाचक गविष्टः शब्द भी आया है प्रचिकित्सा गविषटौः (ऋग्वेग ६/३१/३) तथा युध्यं कुयवं गविष्टोः अग्रेजी में यही शब्द गैष्ट ( guest) बन गया है।
      अर्थात् गाय जिसके लिए इष्ट (इच्छित) वास्तव में शब्द संस्कृतियों के सम्प्रेषक होते हैं।
       अथर्ववेद में गौ वध करने बालों को कि यदि गौ हन्ता कहीं मिलजाय तो उसे मार दो ! यदि नो "गाम् हंसि तम् त्वा सीसेन वध्यामो (ऋग्वेद-१/१५/५ )
      "कलि काल देखकर हँसा गौमाता की दुर्दशा व्याकुल क्षुदा से"

      (तैत्तिरीयसंहिता--७/१/१/४/) में सृष्टि रचना का वर्णन है ।👇

      प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत । 
      तमग्निर्देवान्लवसृजत गायत्रीछन्दो रथन्तरं साम । 
      ब्राह्मणोमनुष्याणाम् अज: पशुनां तस्मात्ते मुख्या मुखतो। ह्यसृज्यन्तोरसो बाहूभ्यां पञ्चदशं निरमिमीत ।। 
      तमिन्द्रो देवतान्वसृज्यतत्रष्टुपछन्दो बृहत् साम राजन्यो मनुष्याणाम् अवि: पशुनां तस्मात्ते वीर्यावन्तो वीर्याध्यसृज्यन्त ।। 
      मध्यत: सप्तदशं निरमिमीत तं विश्वे देवा देवता अनवसृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपं साम वैश्यो मनुष्याणां गाव: पशुनां तस्मात्त आद्या अन्नधानाध्यसृज्यन्त तस्माद्भूयां सोन्योभूयिष्ठा हि देवता। 
      अन्वसृज्यन्तपत्त एकविंशं निरमिमीत तमनुष्टुप्छन्द: अन्वसृज्यत वैराजे साम शूद्रो मनुष्याणां अश्व: पशुनां तस्मात्तौ भूतसंक्रमिणावश्वश्च शूद्रश्च तसमाच्छूद्रो । यज्ञेनावक्ऌप्तो नहि देवता अन्वसृज्यत तस्मात् पादावुपजीवत: पत्तो ह्यसृज्यताम्।।
       (तैत्तिरीयसंहिता--७/१/१/४/)।👇 ____________________________________
      अनुवाद:-अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं। 
      ( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए । ये उनके पारिवारिक सदस्य हैं।
      _______ 
      हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ। (भेड़ क्षत्रियों की सजातीय है इन्हें भेढ़  पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए। इसी लिए भेड़ मेढ्र कहा जाता है मेढ़े को । 
      _________ 
      मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए इनकी संख्या बहुत है । 
      कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए। 
      उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।
      पीछे अनुष्टुप छन्द वैराज साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए ।
      यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है ।
      क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए। 
      ________________________
      ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१) में  चारों वर्णों से अलग वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति है।
      ___________________
      ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। 
      स्वतन्त्रा जातिरेका च  विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
      ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं और वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति भी है इस संसार में है ।४३।
      उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है ।
      क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है। गोपों को ही पुराणों में आभीर और यादव कहा गया है परन्तु आभीर एक जनजातीय नाम है अहीर जाति का वर्णन सतयुग त्रेता और द्वापर तथा कलियुग तक मिलता है सबसे बड़े और प्राचीन पुराण पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में अध्याय द्वादश से लेकर सप्तदश अध्याय तक यदुवंश का वर्णन है परन्तु अध्याय सप्तदश में उस प्राचीन काल का वर्णन है जब जातीयों का भी प्रादुर्भाव नहीं हुआ था परन्तु वेदों की अधिष्ठात्री देवी माता गायत्री को आभीर या गोप कन्या के रूप में वर्णन किया गया है तथा जब इसी समय ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री विवाह यज्ञ के आयोजन कर्ता देवता शिव विष्णु और देवताओं की पत्नियों को क्रोधित होकर शाप देती है तो इन्द्र की पत्नी शचि को पुरुरवा के पौत्र आयुस् के पुत्र नहुष की पत्नी बन जाने का शाप देती हैं तो इसका कारण तो यही है कि उस समय तो नहुष के पुत्र ययाति के पुत्र यदु भी जन्म नहीं होता है और ये भविष्य के गर्त में समाहित है। परन्तु आभीर जाति उस समय भी अच्छे व्रत और आचरणो की ज्ञाता( सुवृतज्ञ) रूप में वर्णित है और विष्णु गायत्री का कन्या दान करने वाले हैं । 
      तभी सभी अहीरों को वरदान देते हैं कि मैं देव कार्य की सिद्धि के लिए तुम्हारी जाति के यदुवंश में नन्दा दि के अवतरण ते समय जन्म लुँगा और इसी कारण से योगमाया को यादवी तथा गायत्री माता को यदुवंशसमुद्भवा ( यदुवंश में उत्पन्न होने वाली) कहा गया है देवीभागवतपुराण में गायत्रीसहस्र नामों में वास्तव में दुर्गा गायत्री राधा आदि सभी वैष्णव शक्तियाँ ही थी। 
      वेदों में विष्णु को गोप ' गोविद / गोविन्द रूप में वर्णन यही सिद्ध करता है कि विष्णु गोपों के ही सनातन देवता हैं और इनका अवतरण भी गोपों के उद्धार के लिए ही होता है ।
      और फिर गोपों की किसी से तुलना वर्चस्व के स्तर पर कदापि नहीं क्यों कि नारद पुराण में वर्णन है कि  ब्रह्मा विष्णु और महेश जैसे देव त्रयी के देवता भी गोपों की चरणधूलि को प्राप्त करना अपना सौभाग्य मानते हैं ।
      क्या ब्राह्मण की चरणधूलि भी ये देवता लेते हैं सायद नहीं !  गाय भैंस सजातीय पशु हैं जिन्हें आदि काल से आभीर लोग पालते रहे हैं ।
      _______________
       भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्यायः (१६२)

               महिषीदानव्रतविधिवर्णनम्

                      श्रीकृष्ण उवाच ।। 
      महिषीदानमाहात्म्यं कथयामि युधिष्ठिर ।।
      पुण्यं पापविनाशं च आयुष्यं सर्वकामदम् ।।१।।चन्द्रसूर्यग्रहे पुण्ये कार्त्तिक्यामयने तथा।शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां सूर्यसंक्रान्तिवासरे ।।२।।यदा वा जायते चित्तं वित्तं च कुरुनन्दन।        तदैव देया महिषी संसार भयभीरुणा ।।३।।

      सुपयोधरशोभाढ्या सुशृंगी सुखुरा तथा ।
      प्रथमप्रसूता तरुणी सुशीला दोषवर्जिता ।।४।

      सुवर्णशृङ्गतिलका घंटाभरणभूषिता ।।
      रक्तवस्त्रावृता रम्या कांस्यदोहनकान्विता ।। ५ ।

      पिण्याकपिटिकोपेता सहिरण्या च शक्तितः ।।
      सप्तधान्ययुता देया ब्राह्मणे वेदपारगे ।। ६ ।।

      पुराणपाठके तद्वज्ज्योतिःशास्त्रविदे तथा ।।
      देया न वेदरहिते न च कुव्रतिने क्वचित् ।। ७ ।।

      द्रव्यैरेभिः समायुक्तां पुण्येऽह्नि विधिपूर्वकम् ।।
      दद्यान्मंत्रेण राजेन्द्र पुराणपठितेन तु ।। ८ ।।

      इन्द्रादिलोकपालानां या राजमहिषी शुभा ।।
      महिषी दानमाहात्म्यात्सास्तु मे सर्वकामदा ।९ ।

      धर्मराजस्य साहाय्ये यस्याः पुत्रः प्रतिष्ठितः ।।
      महिषासुरस्य जननी या सास्तु वरदा मम ।।4.162.१०।। (इति दानमंत्रः)

      दद्यात्प्रदक्षिणीकृत्य ब्राह्मणे तां पयस्विनीम्।।
      प्रतिग्रहः स्मृतस्तस्याः पृष्ठदेशे स्वयंभुवा।।११।।

      एवं दत्त्वा विधानेन ब्राह्मणस्य गृहं नयेत् ।।
      वस्त्रैराभरणैः पूज्य भक्त्या च कुरुनन्दन ।। १२ ।।

      संपादिता मया तुभ्यं संतुष्टो मे भव द्विज ।। १३ ।।

      अनेन विधिना दत्त्वा महिषीं द्विजपुङ्गवे ।।
      सर्वान्कामानवाप्नोति इह लोके परत्र च ।। १४ ।।

      या सा ददाति महिषीं सा राजमहिषी भवेत् ।।
      महाराजः पुमान्राजन्व्यासस्य वचनं यथा ।। १५ ।।

      यज्ञयाजी भवेद्विप्रः क्षत्रियो विजयी भवेत् ।।
      भवेद्वैश्यस्तु धनवाञ्छूद्रः सर्वार्थसंयुतः ।। १६ ।।

      तस्मान्नरेण दातव्या महिषी विभवे सति ।।
      पुत्रपौत्रप्रपौत्रार्थमात्मनः शुभमिच्छता ।। १७ ।।

      दशधेनुसमां राजन्महिषीं नारदोऽब्रवीत् ।।
      विंशतिगोसमां व्यासः सर्वदानोत्तमं रविः ।। १८ ।।

      सगरेण ककुत्स्थेन धुंधुमारेण गाधिना ।।
      दत्ताः संपूज्य विप्रेभ्यो महिष्यः सर्वकामदाः।१९।

      महिषी दानमाहात्म्यं यः शृणोति सदा नरः ।।
      स सर्वपापनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते। 4.162.२० ।।

      दुग्धाधिकां हि महिषीं जलमेघवर्णां सपुष्टपट्टकवतीं जघनाभिरामाम् ।।

      दत्त्वा सुवर्णतिलकां द्विजपुंगवाय लोकद्वयं विजयते किमु तत्र चित्रम् ।। २१ ।।

      _________________________________
      इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे महिषीदानव्रतविधिवर्णनं नाम द्विषष्टयुत्तरशततमोऽध्यायः ।। १६२ ।।

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      अग्नि पुराण अध्याय(२११)

      इन्द्रादिलोकपालानां या राजमहिषी शुभा ॥४

      महिषीदानमाहात्म्यादस्तु मे सर्वकामदा(१)५

      धर्मराजस्य साहाय्ये(२)यस्याः पुत्रः प्रतिष्ठितः।५

      महिषासुरस्य जननी या सास्तु वरदा मम ।६

      महिषीदानाच्च सौभाग्यं वृषदानाद्दिवं व्रजेत् ।६

      संयुक्तहलपङ्क्त्याख्यं दानं सर्वफलप्रदं।७

      पङ्क्तिर्दशहला प्रोक्ता दारुजा वृषसंयुता।७

      सौवर्णपट्टसन्नद्धान्दत्त्वा स्वर्गे महीयते ।८

      देखें  पूर्ण प्रकरण-(अग्निपुराण महिषी दान माहात्म्य-२११ अध्याय में)


      _________________________________ 


      भागवत धर्म वैष्णव धर्म का अत्यन्त प्रख्यात तथा लोकप्रिय स्वरूप है।'भागवत धर्म' का तात्पर्य उस धर्म से है जिसके उपास्य स्वयं भगवान्‌ श्री कृष्ण हों ; वासुदेव कृष्ण ही 'भगवान्‌' शब्द के वाच्य हैं "कृष्णस्तु भगवान्‌ स्वयम्‌ (भागवत पुराण-1/3/28 ) अत: भागवत धर्म में कृष्ण ही परमोपास्य तत्व हैं; जिनकी आराधना भक्ति के द्वारा सिद्ध होकर भक्तों को भगवान्‌ का सान्निध्य तथा तद्रूपता ( -ब्रह्म स्वरूपत्व) प्राप्त कराती है। सामान्यत: यह नाम वैष्णव सम्प्रदायों के लिए व्यवहृत होता है, परन्तु यथार्थत: यह उनमें एक विशिष्ट सम्प्रदाय का बोधक है। भागवतों का महामन्त्र है । 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' जो द्वादशाक्षर मन्त्र की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। पाञ्चरात्र तथा वैखानसमत 'नारायण' को ही परम तत्व मानते हैं। परन्तु इनसे विपरीत भागवत मत कृष्ण वासुदेव को ही परमाराध्य मानता है।  ______________________________

      भागवत  धर्म की प्राचीनता एवं उद्भव श्रोत के लिए द्रविड़ो के आध्यात्मिक सिद्धान्तों का दिग्दर्शन आवश्यक है । भागवत धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद् गीता थी --जो अब अधिकांशत: प्रक्षिप्त रूप में महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित है। क्यों कि वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की पुन:सम्पादित रचना है । 👇

      "अधेष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:"

      श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय- 18 के 70 वें श्लोक विवेचनीय हैं -- जिसकाअर्थ है " "जो हम दौनों के इस धर्म-संवाद को पढ़ेगा "यह पाठ है। इसके स्थान पर यहाँं यदि कृष्ण अर्जुुन को उपदेश देते ; तो इस प्रकार श्लोकाँश होता -- "श्रोष्यति च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:" जो हमारे इस संवाद को सुनेगा ! सत्य तो यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता के तथ्य विस्थापित हुए हैं।  दूसरा प्रमाण यह भी है  कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्र के पदों का उद्धरण है । जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है । योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और "वसुबन्धु" नामक बौद्ध भाईयों ने किया । और -ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं ईस्वी सदी में हुई। अत: आज मूल श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ आध्यात्मिक श्लोकों के रूप ही प्राचीन हैं । बाद में  ब्राह्मणवाद के अनुमोदन हेतु अनेक प्रक्षिप्त श्लोक तो अलग से समायोजित है । यद्यपि कालान्तरण में वर्ण- व्यवस्था वादी ब्राह्मणों ने  इसमें वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का समायोजन भी कर दिया है ; जो कि भागवत धर्म के सिद्धान्तों के विपरीत है।

       भागवत धर्म के सस्थापक मूलत: बलराम ही थे और कृष्ण ने उसका सैद्धान्तिक विकास किया। भागवत धर्म का विकास क्रम रूढिवादिता और पुरोहितवाद और इन्द्रवाद के विरुद्ध ही था कृष्ण और इन्द्र का युद्ध पुराणों में ही नहीं अपितु वेदों में भी दृष्टिगोचर है।👇 __________________________________

      श्री कृष्ण  एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं । जिनका सम्बन्ध कहीं न कहीं क्यों कि आत्मा और परमात्मा तथा सृष्टि रचना पर जो दार्शनिक सूत्र श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित हैं वे द्रविडों और  असीरियन  लोगों के भी थे।  असीरियन ही भारतीय पुराणों में असुर के रूप में वर्णित हैं ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में कृष्ण को यमुना की तलहटी में गाय के साथ  विचरण  करते हुए  (अदेव )विशेषण से सम्बोधित किया गया है। 

      और द्रविड (तमिल) रूप अय्यर अहीर से विकसित रूप है। अहीर  शब्द संस्कृत अभीर से तद्भूत है । तथा अभीर का सम्बन्ध हिब्रू बाइबिल में वर्णित अबीर( Abeer)शब्द से है; और इसका भी सम्बन्ध सैमेटिक  शब्द " बर " से और बर का अर्थ हिब्रू भाषा में शक्ति-शाली होता है। वस्तुत यह "बर" इण्डो-ईरानी और इण्डो- यूरोपीयन शब्द वीर (vir)से सम्बद्ध है और वीर  सम्प्रसारित रूप है आर्य । अब आय्यर वस्तुत:आर्य्य: ही है । इस लिए कुछ निश्पक्ष इतिहास विदों ने अहीरों का मिलान आदि आर्य्य चरावाहों के रूप में किया --जो बाद में कृषि के जनक माने गये । ___________________________________

      यद्यपि कुछ इतिहास कार अपने पूर्व दुराग्रहों से आर्य्य: शब्द को देव संस्कृति के अनुयायीयों के विशेषण रूप में मान्य करने पर तुले हैं । आर्य शब्द का अर्थ है अरि: से सम्बद्ध । वैदिक सन्दर्भों में अरि ईश्वर वाची है । मेसोपोटेमिया की पुरालिपियों में "अलि" "एल" अथवा "इलु" से है  असीरियन असुर लोग थे । सैमेटिक जन-जातियों का सबसे बड़ा युद्ध का अधिष्ठात्री देवता "एल" है जिसके अवशेष ई०पू० 800 में यूनानीयों के पुराणों में "एरीज़" युद्ध देवता के रूप में सुरक्षित हैं । परन्तु आर्य्य शब्द असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का इतिहास में प्रथम प्रमाणित वाचक है ईरनीयों ने  देव ( दएव ) शब्द का अर्थ "दुष्ट " और व्यभिचारी" किया है । आर्य, आयर जो केवल अहीरों का मूल रूप है । विश्व की सभी संस्कृतियों में प्राप्त है । ऋग्वेद-- में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं ।

      (ऋग्वेद 8।85।1-9) आ मे हवं नासत्याश्विना गच्छतं युवम् । मध्व: सोमस्य पीतये॥ ऋग्वेद  मण्डल  8; सूक्त  85; ऋचा 1

      पद का अर्थ -(नासत्या).द्विवचन । नास्ति असत्यं यस्य नभ्राडित्यादिना पा० नञः प्रकृतिभावः । अश्विनीकुमार द्वय:) (युवम्) दोनों (अश्विनौ) अश्विनीकुमार द्वय: ) (मध्वः)  मधु का  (सोमस्य) सोम का (पीतये) पीने के ल्ए  (मे) मेरे (हवम्) हवन को (आ गच्छतम्) दोनों आयें।१।

      और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती (जमुना नदी  के तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। परन्तु पराभूत होने में अतिरञ्जना व पूर्व दुराग्रह है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की  ऋचा संख्या (13,14,15,)पर असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ऐसी वर्णित है ।

      जिस पर हम सम्यक् विवेचना व्याकरणीय आधार करेगे-

      सायण ने इंस ऋचा पर भाष्य करते हुए कृष्ण को असुर माना है ।

      "अत्रेतिहासमाचक्षते किल ।कृष्णो नामासुरो दशसहस्रसंख्यैरसुरैः परिवृतः सन्नंशुमतीनामधेयाया नद्यास्तीरेऽतिष्ठत् । तत्र तं कृष्णमुदकमध्ये स्थितमिन्द्रो बृहस्पतिना सहागच्छत् । आगत्य तं कृष्णं तस्यानुचरांश्च बृहस्पतिसहायो जघानेति

      "यहाँ निश्चित ही इतिहास कहा गया है कृष्ण नाम का "असुर"  दशहजार संख्या में असुरों से घिरा हुआ अञ्शुमती नाम वाली नदी के किनारे स्थित है! वहाँ उस कृष्ण को जल के बीच में स्थित इन्द्र बृहस्पति के साथ आये है आकर उस कृष्ण को उसके अनुचरो को बृहस्पति के साथ इन्द्र ने मारा इस प्रकार अर्थ है और कुछ दूसरे प्रकासे ही अर्थ कहते हैं उस कथा के लिए द्रप्स= जलबिन्दु  मूल अर्थ वह सोम का "जलबिन्दु"कहा जाता है। 

      विवाद द्रप्स शब्द पर भी है परन्तु यह शब्द भारोपीय शब्दावली से सम्बन्धित है।

      drip द्रप-drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Drippeddripping.

      drip (n.)

      mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

      "विषुण--अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।

      अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः।
      आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

      द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
      नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

      अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
      विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥

      ____________________________________

      अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः।
      आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

      पदान्वय-अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

      शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।

      २-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।

      ३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।

      ४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।

      ५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।

      ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।

      ७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।

      ८-नृमणां( धनानां) 

      ९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 

      -"विशेषटिप्पणी-

      १०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
      ११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
      प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
      आवत् =प्राप्त किया । 

      हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।

      भाष्य-कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै:परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य  जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

      हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।________________________________

      द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
      नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

      पदान्वय-द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ । नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

      हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और यह साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं चाहूगा ।अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा। जहाँ जल( नभ) बादल भी न हो (अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )    

      "शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-" 

      १-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

      २- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]                                  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।”      उणादि सूत्र- ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

      पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।“सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
      "षत्व विधान सन्धि- :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•) 'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

      शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है। परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

      विषुण-विभिन्न रूपी।

      ३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।

      ४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।

      ५-अ॒व॒ = उपसर्ग

      ६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है ।तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।

      ७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥

      ८-उपह्वरे= निर्जन देशे।

      ९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।

      १०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।

      ११-आजौ= युद्ध में ।

      १२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।

      ___________________________________

      अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
      विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
      ______________
      अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों            (गोपालन आदि करने वाले 
      वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति के साथ दमन किया ।
      पदपाठ-विच्छेदन 

      । द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।

      “अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य पूर्ण जल: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(   त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति । कृष्णरूपा इत्यर्थः । 

      यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः= गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।

       सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

      ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है ।जैसे 
      अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
      कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखें 
      हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
       
      तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
      हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

      १-तस्मिन् -उसमें ।
       २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
      ३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
      स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
      परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

      हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
      तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
      भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
      ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
      भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
      वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
      चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
      विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
      शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
      शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

      कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
      सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते थे। परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
      जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  
      वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
      सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
      “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
      सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
      (वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
      उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
      चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
      इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।
      परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ "प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को  कहा गया है ।
      इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
      ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है । परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
      परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
      राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
      सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है । भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
      स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।
      कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
      और करोड़ो देवों की पूजा करना।
      ______
      जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
      येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
      तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
      _______________
      श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
      अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
      कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
      श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
      __________
      सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
      अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
      सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।

      __________________________________ उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।   (ऋग्वेद-१०/ ६२ /१०) ____________________________________ असुर शब्द दास का पर्याय वाची है। क्योंकि ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के २/३/६ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर वर्णित किया गया है । ____________________________________ उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् (ऋग्वेद-२ /३ /६)

       ____________________________________ असुर संस्कृति में "दास शब्द का अर्थ-- दाता श्रेष्ठ तथा कुशल होता है । ईरानी आर्यों ने "दास शब्द का उच्चारण दाहे के रूप में  किया है । इसी प्रकार "असुर" शब्द को "अहुर" के रूप में वर्णित किया है। असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है । पाणिनीय ने असुर शब्द की व्युपत्ति की है ।👇 _________________________________ पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु :-(प्राण-तत्व) से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है

       ___________________________________ 

      परन्तु ये लोग असीरियन ही थे । जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन सभ्यताओं के निर्माता  थे । मिश्र की पुरातन संस्कृति से भी असुर (असीरियन ) प्रभावित रहे हैं । 👇दास अथवा दस्यु तथा दक्ष जैसे शब्द परस्पर एक ही मूल से व्युत्पन्न हैं । ईरानी असुर संस्कृति के उपासक थे । और यहूदीयों के ये सहवर्ती थे । यहूदी जन-जाति प्राचीन पश्चिमीय एशिया की एक महान जन-जाति रही है । कृष्ट (Christ) अर्थात् यीशु मसीह का जन्म भी यहूदीयों की जन-जाति में हुआ था । अनेक स्तरों पर कृष्ट और कृष्ण के आध्यात्मिक चरित्र में साम्य परिलक्षित होता है ।👇 ____________________________________ जैसे दौनों का जन्म गोपालक परिवार में गायों के सानिध्य में होना ... यीशु मसीह को एञ्जिल (Angelus) फ़रिश्ता द्वारा ईश्वरीय ज्ञान प्रदान करना । तथा कृष्ण के गुरु घोर-आंगीरस होना कमसे कम उन दौनों के कुछ चरित्र गत समान बिन्दुओं को सूचित करता है। ____________________________________ आंगीरस तथा एञ्जिल (Angelus) शब्द भी मूलत:एक ही शब्द के रूपान्तरण हैं । यहुदह् और तुरबजु के रूप में वर्णित बाइबिल में पुरुष पात्र निश्चित रूप से यदु: और तुर्वसु नामक वैदिक पात्र हैं। यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति हिब्रू शब्दकोश में यद् क्रिया से दर्शायी है :-जिसका अर्थ है --धन्यवाद देना, स्तुति करना । संस्कृत भाषा में भी यदु शब्द यज् धातु से व्युत्पन्न है । जिसका अर्थ है --यज्ञ करना , ईश्वर स्तुति करना आदि। ____________________________________ अवेस्ता ए जेन्द़ में असुर शब्द का अर्थ = श्रेष्ठ तथा देव का अर्थ = दुष्ट है । ____________________________________ ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में प्रस्तुत है । कि यदु स्वयं गोप अथवा चरावाहे का जीवन व्यतीत कर रहे थे कृष्ण और कृष्ट दौनों का सम्बन्ध क्रमश: अभीर और अबीर जन-जातियों से रहा और --जो मूलत: एक ही थीं दौनों ने ईश्वर की एकरूपता तथा दुखीयों को एक सम्बल प्रदान किया। उपनिषदों का वर्ण्य- विषय श्रीमद्भगवद् गीता के सादृश्य ही भक्ति मूलक है । ____________________________________ कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 👇 ____________________________________ छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 )कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्ते:👇 उपर्युक्त गद्यांश में कहा गया है कि " देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप भक्ति- उपासना की शिक्षा दी थी ! जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था ; और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। परन्तु वर्तमान में प्राप्त महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित श्रीमद्भगवद् गीता कृष्ण के सिद्धान्तों का आंशिक दिग्दर्शन तो है ही। परन्तु श्रीमद्भगवत् गीता का समायोजन शान्ति पर्व में होना चाहिए --जो तथ्यों अध्यात्म मूलक हैं वही कृष्ण के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन अवश्य करते हैं । परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण- वाद के समर्थन में  कुछ बातें श्रीमद्भगवद् गीता में इस प्रकार से समायोजित की हैं या जोड़ दी हैं ; कि श्रृद्धा प्रवण भक्त उन्हें भी सहज स्वीकार कर लेता है । भक्ति सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव भागवत धर्म से हुआ है  । और भक्ति की भी अनेक धाराऐं प्रस्फुटित हुईं 👇 ____________________________________ भक्तों के अनुसार भक्ति नौ प्रकार की होती है जिसे नवधा भक्ति कहते हैं। वे नौ प्रकार ये हैं— श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। १४. जैन मतानुसार वह ज्ञान जिसमें निरतिशय आनन्द हो और जो सर्वप्रिय, अनन्य, प्रयोजन विशिष्ट तथा वितृष्णा का उदयकारक हो भक्ति है । 👇 भागवत धर्म वस्तुत: निष्काम भक्ति का ही प्रतिपादन करने वाला प्रथम धर्म है ।   अर्थात्‌ अहंकार शून्य होकर भगवान् के प्रति समर्पण भाव ही भक्ति है । दक्षिण भारत में द्रविड़ो के द्वारा भक्ति का प्रादुर्भाव निश्चित रूप से हुआ है । दक्षिण भारत के अय्यर सन्तों ने भक्ति को जन्म दिया और आलावार सन्तों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया आलवार शब्द का तमिल अर्थ:- भगवान में लीन 'आलावार तमिल भक्त-कवि एवं सन्त थे। इनका काल छठवीं  से नौवीं शताब्दी के बीच रहा। उनके पदों का संग्रह "दिव्य प्रबन्ध" कहलाता है जो 'वेदों' के तुल्य माना जाता है। आलवार सन्त भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। विष्णु या नारायण की उपासना करने वाले भक्त 'आलवार' कहलाते हैं। इनकी संख्या 12 हैं। उनके नाम इस प्रकार है -👇👑 ____________________________________ (1) पोरगे आलवार (2) भूतत्तालवार (3) मैयालवार (4) तिरुमालिसै आलवार (5) नम्मालवार (6) मधुरकवि आलवार (7) कुलशेखरालवार (8) पेरियालवार (9) आण्डाल (10) तांण्डरडिप्पोड़ियालवार (11) तिरुरपाणोलवार (12) तिरुमगैयालवार। इन बारह आलवारों ने घोषणा की कि भगवान की भक्ति  करने का सबको समान रूप से अधिकार प्राप्त है। ____________________________________ इन सन्तों द्वारा वर्ण-व्यवस्था और कर्मकाण्ड परक विधानों का निषेध कर दिया गया क्यों कि 'वह अनन्त आदि और अन्त से परे ईश्वर के भावों की शुद्धता और आत्म - समर्पण से अन्त:करण के स्वच्छ होने पर अनुभूति गम्य होता है । नकि कृत्रिम रूप से बनायी वर्ण-व्यवस्था के द्वारा    यज्ञ , हवन ,कर्म काण्डों से स्वर्ग की प्राप्ति का प्रयत्न है । और भागवत धर्म स्वर्ग से भी उच्चत्तम स्थिति का प्रतिपादन करने वाला है । और तो और ब्राह्मणों की दृष्टि में निम्न समझी जाने वाली कतिपय  जातियों के लोग भी इसमें स्वीकार हैं  ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था गत मान्यताओं का खण्डन करते हुए  इन आलावार सन्तों ने समस्त तमिल प्रदेश में पदयात्रा कर भक्ति का प्रचार किया। इनके भावपूर्ण लगभग 4000 गीत मालायिर दिव्य प्रबन्ध में संग्रहित हैं। दिव्य प्रबन्ध भक्ति तथा ज्ञान का अनमोल भण्डार है। ____________________________________ अनेक पुष्ट प्रमाणों के द्वारा प्रतिष्ठित है कि  गुप्त सम्राट् अपने को 'परम भागवत' की उपाधि से विभूषित करने में गौरव का अनुभव करते थे। फलत: उनके शिला लेखों में यह उपाधि उनके नामों के साथ अनिवार्य रूप से उल्लिखित है। कृष्ण की मूर्तियों का निर्माण भी गुप्त काल में सबसे अधिक हुआ । विक्रमपूर्व प्रथम तथा द्वितीय शताब्दियों में भागवत धर्म की व्यापकता तथा लोकप्रियता शिलालेखों के साक्ष्य पर निर्विवाद सिद्ध होती है। ____________________________________ और ये कर्म-वाद में भी विश्वास करते थे । भारत में इस कर्म-वाद मूलक भागवत धर्म का उल्लेख सर्वप्रथम छठी ई.पू. के आस-पास के उपनिषदों में मिलता है। वासुदेव द्वारा प्रतिपादित यह धर्म व्यक्तिगत उपासना को महत्व देता है। महाभारत काल में कृष्ण का तादात्म्य विष्णु से कर दिये जाने के कारण भागवत धर्म वैष्णव धर्म भी कहलाया। वस्तुत विष्णु भी सुमेरियन माइथॉलॉजी में वर्णित Pisk-nu=पिस्क- नु ) (Pisk-nu=पिस्क- नु  ( से है ।👇 ____________________________________ 

       "Vish-nu " is seen to be the equivalent of the Sumerian Pisk-nu,(पिस्क- नु ) and to mean " The reclining Great Fish (-god) of the Waters " (हिष्ट्री ऑफ सुमेरियन माइथॉलॉजी) विष्णु का सुमेरियन संस्कृति में वर्णन --- 82 Number. .... ( INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED)

      भारतीय तथा सुमेरियन महरों ( उत्कीर्ण )तथ्यों पर अर्थ-वत्ता पूर्ण विश्लेषण) 👇 ____________________________________ डैगन ( फॉनीशियन भाषा में का शब्द है । तो  दागुन ; हिब्रू : भाषा में और डेओजोगोन  तिब्बती  भाषा में रूपान्तरण है। देगन वस्तुत यह एक मेसोपोटामियन (सुमेरियन) और प्राचीन कनानी देवता है। ऐसा लगता है कि इसे एब्ला , अश्शूर (असुर), उगारिट और एमोरियों (मरुद्गण) जन-जातियों में से एक ने प्रजनन देवता के रूप में इसकी मान्यता की है। देगन का प्रारम्भिक क्षेत्र प्राचीन मेसोपोटामिया और प्राचीन कनान देश ही  है । इसकी माता को शाला या अशेरा और पिता एल के रूप में स्वीकृत किया गया हैं।👇 शाला अनाज की प्राचीन सुमेरियन देवी और करुणा की भावना की  प्रति मूर्ति थी। अनाज और करुणा के प्रतीकों ने सुमेर की पौराणिक कथाओं में कृषि के महत्व को प्रतिबिंबित करने के लिए गठबंधन किया है ! और यह विश्वास व्यक्त किया है । कि एक प्रचुर मात्रा में फसल देवताओं से करुणा का कार्य नि:सृत होता था। कुछ परम्पराऐं शाला, शिला या (श्री वैदिक रूप) को प्रजनन देवता देगन  (विक्सनु )की पत्नी के रूप में पहचानती हैं! या तूफान देवता हदाद( हैड )के पत्नी को इश्तर भी कहा जाता है। प्राचीन चित्रणों में, वह शेर के सिर से सजाए गए डबल-हेड मैस या स्किमिटार रखती है। कभी-कभी उसे एक या दो शेरों के ऊपर पैदा होने के रूप में चित्रित किया जाता है। बहुत शुरुआती समय से, वह नक्षत्र कन्या से जुड़ी हुई है ;और उसके साथ जुड़े प्रतीकवाद के निवासी, वर्तमान समय के लिए नक्षत्र के प्रतिनिधित्व में बनते हैं। जैसे अनाज के कान देवता के नाम को संस्कृति  में बदल गया हो। भारतीय पुराणों में श्री कृषि की अधिष्ठात्री देवी और विष्णु की पत्नी के रूप में वर्णित है । ( शिल्-क-टाप् ) = शिला । गृहीतशस्यात् क्षेत्रात्कणशोमञ्जर्य्या दानरूपायां  । १ वृत्तौ उञ्छशब्दे १०७० पृष्ठ दृश्यम् । २ पाषाणे ३ द्वाराधःस्थितकाष्ठखण्डे च (गोवराट) स्त्री अमरः । ४ स्तम्भशीर्षे ५ मनःशिलायां स्त्री मेदिनी कोश । अर्थात् शिला का अर्थ  अन्न जो खेतों में से बीना जाता है । वीनस पर एक पर्वत शाला मॉन्स का नाम उसके नाम पर रखा गया है। सुमेरियन माइथॉलॉजी में एल और अशेरा अथवा ईष्टर ( ईश्तर) जो कि वैदिक शब्द अरि-(ईश्वर) तथा स्त्री के प्रतिरूप हैं यद्यपि स्त्री ही कालान्तरण में श्री के रूप में उदित हुआ   ____________________________________ जिसे ईसाईयों तथा यहूदियों में ईष्टर भी कहा गया।  अथिरत एष्ट्रो  (सम्भवतः) हिब्रू बाइबल में उन्हें अश्दोद और गाजा में कहीं और मन्दिरों के साथ पलिश्तियों या फलिस्तीनियों के राष्ट्रीय देवता के रूप में उल्लेख किया गया है। श्री'  स्त्री या अशेरा प्रजनन , कृषि प्रेम आदि की अधिष्ठात्री देवी हैं । और अरि लौकिक संस्कृत भाषा में हरि तो कहीं अलि के रूप में प्रकट हुआ । "मछली" के लिए एक कनानी शब्द के साथ एक लम्बे  समय से चलने वाला संगठन (जैसा कि हिब्रू में : दाग , तिब्ब । / Dɔːg / ), शायद लौह युग में वापस जा रहा है। इस  शब्द  ने "मछली-देवता" के रूप में एक व्याख्या की है। --जो विष्णु की मत्स्य अवतार की परिकल्पना का जन्म - सूत्र है । और अश्शूर कला में " मर्मन (मत्स्य -मानव) के  " प्रारूपों का सहयोग (जैसे 1840 के दशक में ऑस्टेन हेनरी लेर्ड द्वारा पाया गया "डैगन" राहत से है ) यद्यपि, भगवान का नाम "अनाज (सेरियस)" के लिए एक शब्द से अधिक सम्भवतः प्राप्त हुआ हैं , जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि वह प्रजनन और कृषि से जुड़ा हुआ था। ____________________________________ इस प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन "पिस्क-नु" के बराबर माना जाता है, और " जल कीे बड़ी मछली (-गोड) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप के पाए जाने पर खोजा जाएगा।

      "और ऐसा प्रतीत होता है कि "शुरुआती अवतार" के लिए विष्णु के इस शुरुआती "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी मत्स्य अवतार के रूप में ग्रहण किया। सूर्य-देवता को स्वर्ग में (पिक्स-नु)के रूप में लागू किया है।। वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल रूप पीश या पीस अभी भी संस्कृत में पिसीर "(मछली) के रूप में जीवित है। --जो यूरोपीय भाषाओं में फिश (Fish) से साम्य रखता है । "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है ! ) इस संकेत को" बड़ी हुई मछली "(कुआ-गनु, अर्थात, खाद-गनू, बी, (6925) कहा जाता है! जिसमें उल्लेखनीय रूप से सुमेरियन व्याकरणिक शब्द बंदू जिसका अर्थ है "वृद्धि" जैसा कि संयुक्त संकेतों पर लागू होता है, इसका साम्य संस्कृत व्याकरणिक शब्दों के साथ समान रूप से होता है। विसारः, पुंल्लिंग रूप (विशेषेण सरतीति विसार। सृ गतौ “व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् ”३।३।१७। इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् ) मत्स्यः (मछली)। इति अमर कोश ॥ ____________________________________ विसार शब्द ऋग्वेद में आया है । जो मत्स्य का वाचक है ।👇 ऋग्वेदे ।१।७९।१। “हिरण्यकेशो रजसो विसारेऽर्हिर्धुनिर्वात इव ध्रजीमान् ॥ “रजस उदकस्य विसारे विसरणे मेघार्न्निर्गमने ।” इति तद्भाष्ये - वासुदेव कृष्ण का सर्वप्रथम उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद् में देवकी के पुत्र एवं आंगिरस के शिष्य के रूप में हुआ। मेगस्थनीज ने कृष्ण को हेराक्लीज "हरिकृष्ण"नाम से उल्लेख किया है। 👇 विदित होना चाहिए कि जीजस क्राइष्ट को ज्ञान देने वाले फरिश्ते को बाइबिल में एञ्जीलस(Angelus) के रूप में वर्णित किया है । और बाइबिल नाम तो लैटिन और यूनानी है । अञ्जील नाम यहूदियों का- यह एञ्जीलस Angelus वस्तुत: वैदिक आंगीरस् का रूपान्तरण है । “येऽस्याङ्गाराआसंस्तेऽङ्गिरसोऽभवन्निति” (ऐतरेय ब्राह्मण)  ____________________________________ भागवत धर्म भक्ति मूलक धर्म है । जहाँ वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मणों के क्लिष्ट रूढ़िवादी कर्म काण्डों को कोई स्थान नहीं है। गुप्त काल में इस धर्म की प्रतिष्ठा हुई गुप्त वस्तुत मिश्र में आवासित कॉप्ट (Copt) जन-जाति से सम्बद्ध हैं --जो यहूदियों की एक सोने-चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है। और विदित होना चाहिए कि गुप्त "गुप्ता" वणिकों का व्यवसाय गत विशेषण है । --जो गोप मूलक है । गुप्त या गुप्ता वणिकों का व्यवसाय गत विशेषण है। ये वणिक वैदिक पणियों से सम्बद्ध है । वैदिक धातु पाठ में पण् स्तुतौ व्यवहारे च पणित विशेषण स्तुतम् 👇 समानार्थक: रूप में निम्न रूप में अनेक शब्द हैं । ईलित,शस्त,पणायित,पनायित,प्रणुत,पणित, पनित,गीर्ण,वर्णित,अभिष्टुत,ईडित,स्तुत ।3।1।109।2।6  सङ्गीर्णविदितसंश्रुतसमाहितोपश्रुतोपगतम्. ईलितशस्तपणायितपनायितप्रणुतपणितपनितानि -- जो फोनेशियन थे वही द्रविड़ो के रूप में भी प्रकट हुए पणि का बहुवचन रूप - पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है। ऋग्वेद में पणि नाम से ऐसे व्यक्ति अथवा समूह का बोध होता है, जो कि धनी है किन्तु देवताओं का यज्ञ नहीं करते तथा पुरोहितों को दक्षिणा नहीं देता। देव संस्कृति के विरोधी हैं। पणियों के इष्ट "वल " तथा "मृलीक" थे । --जो देवों के प्रतिद्वन्द्वीयों मे परिगणित हैं। अतएव यह वेदमार्गियों की घृणा का पात्र है। देवों को पणियों के ऊपर आक्रमण करने के लिए कहा गया है।  ऋग्वेद में दस्यु, मृधवाक् एवं ग्रथिन के रूप में भी इनका वर्णन है। पणि कौन थे इसको लिए फॉनिशियन जन-जाति की इतिहास बोध अपेक्षित है । राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता। इस मत का समर्थन "जिमर" तथा "लुड्विग" ने भी किया है। लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है। ये अपने समुद्रीय पोत अरब, पश्चिमी एशिया, तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे। लेबनान तथा कार्थेज में इनके उपनिवेष स्थापित थे । दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है। कि --जो दास या दस्यु ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था में निम्न व हेय माने गये वही दास शब्द भागवत धर्म में भक्त का वाचक बन गया । भागवत धर्म के अनेक सन्तों ने अपने नाम के साथ दास शब्द लगा लिया  ____________________________________ 

      द्रविड़ अथवा पणि एक थे ! आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं। वास्तव में आर्य और अनार्य कभी भी जन-जाति गत विशेषण   नहीं रहे हैं। अत: आर्य किसी जन को मानना बड़ी भूल ही है। हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है। जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था। फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए। कुछ भी सही परन्तु भाषा लिपि और भक्ति का प्रादुर्भाव इन्हीं पणियों के द्वारा हुआ । इसी लिए भारत में वणिक समाज द्वारा कृष्ण की अत्यधिक मान्यताऐं हैं । विशेषत: वार्ष्णेय समाज --जो बरसाने से सम्बद्ध वैश्य वर्ग है। अत: बारहसैनी नाम भी बरसाने से सम्बद्ध होने के कारण पड़ा। वर्तमान में कृष्ण के चरित्र-उपक्रमों का वर्णन करने वाले ग्रन्थ भागवतपुराण में 👇 ____________________________________ एकादश स्कन्ध में (5.38-40) कावेरी, ताम्रपर्णी, कृतमाला आदि द्रविड़ देशीय नदियों के जल पीनेवाले व्यक्तियों को भगवान्‌ वासुदेव का अमलाशय भक्त बतलाया गया है। इसे विद्वान्‌ लोग तमिल देश के आलवारों  (वैष्णवभक्तों) का स्पष्ट संकेत मानते हैं। 

      भागवत में दक्षिण देश के वैष्णव तीर्थों, नदियों तथा पर्वतों के विशिष्ट संकेत होने से कतिपय विद्वान्‌ तमिलदेश को भागवत और भक्ति के उदय का स्थान मानते हैं। --जो यथार्थ की मीमांसा है । यद्यपि भागवतपुराण में 'बहुत से प्रक्षिप्त व विरोधाभासी तथ्यों का समायोजन इसकी प्रमाणिकता व प्राचीनता को सन्दिग्ध करता है । काल के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है। इतना निश्चित है कि बोपदेव (13वीं शताब्दी का उत्तरार्ध, जिन्होंने भागवत से संबद्ध 'हरिलीलामृत', 'मुक्ताफल' तथा 'परमहंसप्रिया' का प्रणयन किया तथा जिनके आश्रयदाता, देवगिरि के यादव राजा थे ), महादेव (सन्‌ 1260-71) तथा राजा रामचन्द्र (सन्‌ 1271-1309) के करणाधिपति तथा मंत्री, प्रख्यात धर्मशास्त्री हेमाद्रि ने अपने 'चतुर्वर्ग चिन्तामणि' में भागवत के अनेक वचन उधृत किए हैं।👇 ____________________________________

      शंकराचार्य के दादा गुरु गौड़पादाचार्य ने अपने 'पञ्चीकरणव्याख्या' ग्रन्थ में 'जगृहे पौरुषं रूपम्‌' (भागवतपुराण 1.3.1) तथा 'उत्तरगीता टीका' में 'श्रेय: स्रुतिं भक्ति मुदस्य ते विभो' (भागवतपुराण 10.14.4) भागवत पुराण के दो श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत की रचना सप्तम शती से अर्वाचीन (बाद की) नहीं मानी जा सकती। 👇 

      महर्षि दयान्द सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया है, पर अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी का ग्रन्थ मानते हैं। इसे किसी दक्षिणात्य सन्त विद्वान की रचना माना जाता है। भागवत धर्म भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था और यह विदेशी यूनानियों के द्वारा समादृत होता था। पातञ्जल महाभाष्य से प्राचीनतर महर्षि पाणिनि के सूत्रों की समीक्षा भागवत धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए नि:संदिग्ध प्रमाण है। भागवत धर्म के संस्थापक आभीर जन-जाति के लोग हैं । जिन्हें दक्षिणी भारत में द्रविड़ो के रूप में अय्यर अथवा आयर नाम से जाना जाता है । अय्यर उपनाम का उद्भव तमिल के अय्या शब्द से हुआ है, और यह शब्द संस्कृत के आर्य से निकला है। आर्य का अर्थ होता है :- वीर अथवा यौद्धा परवर्ती अर्थ श्रेष्ठता को ध्वनित करने वाला हुआ । स्वयं आर्य शब्द संस्कृत भाषा के अतिरिक्त हिब्रू बाइबिल में भी अबर और बर से सम्बद्ध है।👇 आर्य और वीर शब्दों का विकास परस्पर सम्मूलक है । और पश्चिमीय एशिया तथा यूरोप की  समस्त भाषाओं में ये दौनों  शब्द प्राप्त हैं । परन्तु  आर्य शब्द वीर  शब्द का ही सम्प्रसारित रूप है । अत: शब्द ही  प्रारम्भिक है । आभीर शब्द हिब्रू बाइबिल में अबीर (ईश्वरीय शक्ति) के रूप में है 👇 

      बाइबिल में अबीर नाम की उत्पत्ति मूलक अवधारणा । अबीर नाम  जीवित अथवा अस्तित्वमान्  ईश्वर के खिताब में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है (किसी कारण से सभी भगवान के नाम आमतौर पर अनुवादित होते हैं । और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होते हैं। और कुछ अपनी पसन्द का अनुवाद आमतौर पर ताकतवर होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। अवर (our )नाम बाइबिल में छह बार होता है लेकिन कभी अकेला नहीं होता; पांच बार यह जैकब नाम और एक बार इज़राइल के साथ मिलकर है। ____________________________________ यशायाह 1:24 में हमें तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम मिलते हैं क्योंकि यशायाह ने रिपोर्ट की: "इसलिए 1-अदन, 2-(यह्व )YHWH , 3-सबाथ , 4-अबीर इज़राइल घोषित करता है । यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण कॉर्ड होता है: सभी माँश (आदमी )यह जान लेंगे कि मैं, हे प्रभु, आपका उद्धारकर्ता और आपका उद्धारक, अबीर याकूब हूं, "और जैसा यशायाह 60:16 में समान है। पूरा नाम अबीर याकूब स्वयं पहली बार याकूब द्वारा बोला जाता था। अपने जीवन के अन्त में, याकूब ने अपने बेटों को आशीर्वाद दिया  और जब यूसुफ की बारी थी तो उसने अबीर याकूब (उत्पत्ति खण्ड बाइबिल अध्याय 49:24) के हाथों से आशीर्वादों से बात की। कई सालों बाद, स्तोत्रवादियों ने राजा दाऊद को याद किया, जिन्होंने अबीर जैकब द्वारा शपथ ली थी कि वह तब तक सोएगा जब तक कि उसे (YHWH )के लिए जगह नहीं मिली; अबीर याकूब के लिए एक निवास स्थान (भजन 132: 2-5)। ____________________________________ अबीर नाम की भाषिक व्युपत्ति अबीर नाम हिब्रू धातु बर ('बर ) से आता है, जिसका मोटे तौर पर अर्थ होता है मजबूत सन्दर्भ:- देखें- बाइबिल हिब्रू शब्दकोश:-אבר रूट אבר ('br) एक उल्लेखनीय जड़ है ! जो सभी सेमिटिक भाषा स्पेक्ट्रम पर होती है। मूल रूप से बाइबल में क्रिया के रूप में नहीं होता है लेकिन अश्शूर (असीरियन भाषा )में इसका अर्थ मजबूत या दृढ़ होना है। हिब्रू में स्पष्ट रूप से कई शब्द हैं जिन्हें ताकत के साथ प्रयोग करना हुआ है, लेकिन यह एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति को दर्शाता है।  ___________________________________                    

      साध्य पक्ष :- कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है । ---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze) कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये । द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है । एक साम्य दौनों का कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।। जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है | (6) यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। 7।। किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।। उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18।

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      आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं । जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे । जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी  इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।

      Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean ____________________________________ The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal     , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है , 

      --------------------------------------------      Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. __________________________________ कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis " Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. —  Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say , which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 आत्मा के बारे में द्रुडों का दर्शन)👇 अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रविडों को दार्शनिकों के रूप में संदर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म या (मेटाम्प्सीकोसिस ) "पायथागॉरियन" की अमरता के अपने सिद्धान्त को कहा: "गौल्स (कोल)के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं । ____________________________________ कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।" सीज़र टिप्पणी: "उनके सिद्धांत का मुख्य बिन्दु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" अर्थात् नवीन शरीर धारण करती है ।( मेटेमस्पर्शिसिस)। सीज़र ने लिखा: अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के संबंध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशी होने में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है, जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है । जैसे एक मकान से दूसर मकान में; केवल इस तरह के सिद्धान्त द्वारा वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों की मृत्यु को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित किया जा सकता है । इस मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यान और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं। - जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, VI, 13 इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती  द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic) थे । ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे । जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है । परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी ईश्वर को एक मानते थे । तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है । और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है । सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा  एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत .

       वस--निवासे आच्छादने वा आधारकर्मादौ घञ् । १ गृहे २ वस्त्रे ३ अवस्थाने हेमचन्द्र कोश। ____________________________________ भारतीय पुराणों की कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन्  हुआ था । परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना है सम्भवतः इस समय कृष्ण का वर्णन भोज पत्रों आदि पर हुआ हो । परन्तु कृष्ण का युद्ध आर्यों के नेता इन्द्र से हुआ ऐसा ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९०वें सूक्त का वर्णन कहता है । और महाभारत में कृष्ण के दार्शिनिक तथा राजनैतिक रूप का वर्णन है। महाभारत का लेखन बुद्ध के बाद में हुआ है । क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है। ____________________________________ अब कृष्ण और 'द्रविड दर्शन का एक अद्भुत साम्य ____________________________________

       एक साम्य दौनों का तुलनात्मक रूप से -- आत्मा शाश्वत तत्व है ; इस बात को ड्रयूड (Druids) अथवा द्रविड तत्व दर्शी भी कहते हैं ! और कृष्ण भी .. श्रीमद्भगवत् गीता में कठोपोनिषद भी कृष्ण विचार धारा से अनुप्रेरित कुछ साम्य के साथ यही उद्घोष करता है ।👇 

      "न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।(श्रीमद्भागवत् गीता तथा कठोपनिषद। वास्तव में सृष्टि का १/४ भाग ही दृश्यमान् ३/४ पौन भाग तो अदृश्य है । परिवर्तन शरीर और मन के स्तर पर निरन्तर होते रहते हैं, परन्तु आत्मा सर्व -व्यापक व अपरिवर्तनीय है । ऐसा कृष्ण और द्रविडों की मान्यताओं का दिग्दर्शन है। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी  पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करती है ।

      "न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4। मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है ,और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है (4) 

      न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।। 

      निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है | प्राणी की श्वाँसों का चलना हृदय का धड़कना भी एक सतत् कर्मों का रूप ही तो है। 

      वस्तुत कर्म की ऐसा सुन्दर व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ ही है। 

      कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।

       जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)👇

      यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7     किन्तु हे  अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |7 नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।             न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।8।।उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है; और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |(8) आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं । जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)कहते थे। वही यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे  ____________________________________ यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ; कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की रही है । आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं। जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)कहते थे। वही यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ; कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की कुछ एेसी ही मान्यताऐं हैं । जिसके कुछ उद्धरण जूलियस सीज़र के ग्रन्थ से निम्न उद्धृत हैं।👇 Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean " The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal  , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है , Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ____________________________________ Philosophy of Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death.. अलेक्जेंडर कुरनेलियस पॉलिहाइस्टर ने  ड्रुइड्स (द्रविडों)को दार्शनिकों के रूप में सन्दर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म  की शाश्वतता  के सिद्धान्तों को "पायथागोरियन" कहा। यूनानी विद्वान् पाइथागोरस ने भी ये सिद्धान्त द्रविड (ड्रयूड- Druids) पुरोहितों से प्राप्त किये। पाथ्योगोरियन सिद्धान्त लक्ष्य के बीच में प्रचलित होकर यह सिखा रहा है कि पुरुषों की आत्माएं अमर हैं और एक निश्चित संख्या के बाद वे एक और शरीर में प्रवेश करेंगे " इसी सन्दर्भों को उद्धृत करते हुए ज्युलियस सीज़र आगे लिखता है। कि वास्तविक रूप में मृत्यु के बाद भी आत्माऐं मरती नहीं है । जूलियस सीज़र, डी बेल्लो ग्लॉलिक, Vl, 13 .. अब देखिए कृष्ण का यह उपदेश---👇 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी  पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करता है । संस्कृत भाषा में वास शब्द का अर्थ घर से भी और वस्त्रों से भी । यहाँ भी हम दौनों अर्थों में इसे सन्दर्भित कर सकते हैं। धर्म शब्द का प्रवेश हुआ मूल भारोपीय संस्कृतियों से मेसोपोटेमिया की पुरालिपियों में (तरेम) तथा दरिम  के रूप में । और जिसका भी श्रोत कैल्टिक संस्कृति में सर्वमान्य द्रविड़ो के द्रुमा से है । जो संस्कृत भाषा में द्रुद्रुम: के रूप में वृक्ष का वाचक है वन्य संस्कृतियों के परिपोषक ये -द्रविड ही थे । जिन्होंने दुनियाँ को सर्वप्रथम धर्म  की जीवन में उपादेयताऐं प्रतिपादित की । दुनियाँ को सर्वप्रथम जीवन और जगत् का ज्ञान देने वाले ये लोग थे वृक्ष स्थिर रहते हुए किस प्रकार सर्दी ,गर्मी और बरसात को सहन करता है । उसकी यह सहनशीलता उसकी तितिक्षा एक आदर्श है ।  धर्म का चोला रहने वालों के लिए । वृक्ष के इसी स्वभाव जन्य गुण से धर्म का विकास हुआ जिसको मूल में संयम का भाव सर्वोपरि था । वैदिक भाषाओं में धृ, ,दृ ,तृ परस्पर विकसित धातु रूप हैं धाञ् धारणपोषणयो: धृड्./धृञ् संयमे च १।६४१ उ० धरति धरते / धारयति  धारयते । धरति लोकान् ध्रियते पुण्यात्मभिरिति वा । (धृ मन् )“अर्त्तिस्तुहुस्रिति ।” उणां १। १३९ । तत्पर्य्यायः ।१ पुण्यम् २ श्रेयः ३ सुकृतम् ४ वृषः ५ संयम इत्यमरः कोश। १ । ४ । २४ ॥ ६-न्यायः । ७-स्वभावः । ८-आचारः । ९- उपमा । १०क्रतुः । (यथा  महाभारते । १४ । ८८ । २१ । “कृत्वा प्रवर्ग्यं धर्म्माख्यं यथावत् द्विजसत्तमाः । चक्रुस्ते विधिवद्राजंस्तथैवाभिषवं द्बिजाः) ११-अहिंसा । उपनिषत् । इति मेदिनी कोश। (यथा   योगसार वेदान्त ग्रन्थ में धर्म का अर्थ👇 “प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोऽथ धारणा । स्मरणञ्चैव योगेऽस्मिन् पञ्च धर्म्माः प्रकीर्त्तिताः ।।            और ओ३म्  शब्द भी इन्हीं द्रविड़ो की अवधारणा थी  जिसे भारतीय संस्कृति में संस्कृति के आधार स्तम्भ रूप में ग्रहण किया गया ।     द्रविड़ो की विरासत को  रोमन तथा ग्रीस संस्कृतियों ने भी समानान्तरण ग्रहण किया । रोमन संस्कृति में  पुरानी लैटिन में धर्मण /धर्म Latin (terminus) के रूप में है  जिसका बहुवचन रूप   termini) है । यह धर्म का ही प्रतिरूप है । यूरोपीय भाषाओं में टर्म "Term" शब्द के इतने अर्थ प्रचलित हैं ।👇 -1अवधि -2पद -3समय -4शर्त -5सत्र -6पारिभाषिक शब्द -7संबंध -8पारिभाषिक पद -9ढांचा -10सीमाएं -11बेला -12मेहनताना -13फ़ीस -14मित्रता अर्थ और भी हो सकते हैं ।    जो मूल ,आधार अथवा मर्यादा का भाव -बोधक है । यद्यपि संस्कृत भाषा में धृड्.(धृ ) धातु अवस्थाने - अर्थात्‌ स्थिर करने में - तथा तॄ :- तारयति( तरति) आदि क्रिया-पद धर्म की कहीं न कहीं व्याख्या ही करते हैं ।👇 ________________________________________________

       . आध्यात्मिक वैचारिकों ने धर्म का व्याख्या संसार रूपी दरिया में  पतवार या तैरने की क्रिया के रूप में स्वीकार किया । क्यों कि स्वाभाविता के वेग में मानवीय प्रवृत्ततियाँ जल हैं । अपराध के बुलबले तो उठते ही हैं । तैरने के मानिंद है धर्म और स्वाभाविकता का दमन करना ही तो संयम है । और संयम करना तो अल्पज्ञानीयों की सामर्थ्य नहीं । सुमेरियन माइथॉलॉजी में भी धर्म के लिए तरमा शब्द है जिसका अर्थ है । दृढ़ता एकाग्रता स्थिरता आदि शील धर्म का वाचक इसलिए है कि उसमे जमाव या संयमन का भाव है । हिम जिस प्रकार स्थिरता अथवा एकाग्रता को अभिव्यक्त करता है । हिम ये यम और यम से यह्व अथवा यहोवा का सैमेटिक विकास हुआ । Hittite tarma- शीलक  tarmaizzi "he limits; 'वह मर्यादित होता है "👇 ग्रीक भाषा में  terma  "boundary, end-point, limit," termon "border;" Gothic þairh, धैर्ह Old English þurh "through;" धरॉ Old English þyrel "hole;" Old Norse þrömr ध्रॉम "edge-धार chip -टुकड़ा splinter-किरच. "The Hittite noun and the usage in Latin suggest that the PIE word denoted a concrete object which came to refer to a boundary-stone."( आधार -शिला ) In ancient Rome, Terminus was the name of the deity who presided over boundaries and landmarks, focus of the important Roman festival of Terminalia ... singular of termer (“thermae, Roman baths”) (a facility for bathing in ancient Rome) रोमन धर्म में, टर्मिनस वह देवता था। जिसने सीमाओं की रक्षा की है । इसका प्रतिष्ठापन प्रत्येक सीमा पत्थर को पवित्र करने के लिए किया गया था। प्रारम्भिक अर्थों में धर्म शब्द का प्रयोग क्षेत्रीय सीमाओं के निर्धारित करने वाली दैवीय सत्ता के लिये किया गया । रोमन संस्कृति में धर्म या टर्म 'वह शिला है --जो सदैव एक स्थान पर स्थिर रहती है । धर्म को सदीयों से न्याय का प्रतिनिधि माना जाता रहा । सम्भवत इसकी प्रेरणा रोमनों ने ईसाईयों से ली । हजरत मूसा के दश-आदेशों की शिला से .. रोमन  ओविद रोम से लॉरेंटिना के साथ छठे मील के पत्थर पर टर्मिनलिया के दिन एक भेड़ के बलिदान को संदर्भित करता है। सम्भावना है कि यह लॉरेंटम में प्रारम्भिक रोमनों और उनके पड़ोसियों के बीच सीमा को चिह्नित करने के लिए  यह शब्द प्रयुक्त करने को  सोचा गया था। और रेमुलस के समय दैवीय प्रतिष्ठान से विभूषित कर दिया गया इसके अलावा, टर्मिनस का एक पत्थर या वेदी रोम के कैपिटोलिन हिल पर बृहस्पति ऑप्टिमस मैक्सिमस के मंदिर में स्थित था। इस धारणा के कारण कि इस पत्थर को आकाश के संपर्क में आना था, इसके ठीक ऊपर की छत में एक छोटा सा छेद था।   इस अवसर पर जुपिटर के साथ टर्मिनस के संबंध में उस देवता के एक पहलू के रूप में टर्मिनस के बारे में विस्तार किया गया;  हैलिकार्नासस के डायोनिसियस का तात्पर्य "बृहस्पति टर्मिनलिस" से है, और एक शिलालेख में एक देवता का नाम "ज्यूपिटर टेर" है । यद्यपि रोमन मिथकों में ये परिकल्पनाऐं धर्म को लेकर अनेक प्रकार से की गयीं । प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस की पूजा सबीन मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के 753-17 ई०पू० के समकक्ष परम्परागत शासनकाल के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए। या रोमुलस के उत्तराधिकारी नुमा पोम्पिलियस के लिए थी। जिन लेखकों ने नुमा को श्रेय दिया, उन्होंने अपनी प्रेरणा को संपत्ति पर हिंसक विवादों की रोकथाम के रूप में समझाया। प्लूटार्क आगे कहते हैं कि शांति के गारंटर के रूप में टर्मिनस के चरित्र को ध्यान में रखते हुए, उनकी प्रारंभिक पूजा में रक्त बलिदान नहीं हुआ था। 19 वीं शताब्दी के अंत और 20 वीं सदी के अधिकांश समय के दौरान प्रमुख विद्वानों के अनुसार, रोमन धर्म मूल रूप से एनिमिस्टिक था, जो विशिष्ट वस्तुओं या गतिविधियों से जुड़ी आत्माओं की ओर निर्देशित था, जिन्हें बाद में स्वतंत्र व्यक्तिगत अस्तित्व वाले देवताओं के रूप में माना जाता था। टर्मिनस, पौराणिक कथाओं की कमी और एक भौतिक वस्तु के साथ उनके घनिष्ठ संबंध के साथ, एक ऐसे देवता का स्पष्ट उदाहरण प्रतीत होता है, जो इस तरह के मंच से बहुत कम विकसित हुए थे। टर्मिनस का यह दृश्य कुछ हालिया अनुयायियों को बनाए रखता है। लेकिन अन्य विद्वानों ने इण्डो यूरोपीयन समानता से यह तर्क दिया है कि रोमन धर्म के व्यक्तिगत देवता शहर की नींव से पहले रहे होंगे। जॉर्जेस डुमेज़िल ने वैदिक मित्र, अर्यमन् और भग के रूप में क्रमशः रोमन देवताओं की तुलना करते हुए बृहस्पति, जुवेंटस और टर्मिनस को एक प्रोटो-इंडो-यूरोपीय ट्रायड का रोमन रूप माना। इस दृष्टि से संप्रभु देवता (बृहस्पति / मित्र) दो नाबालिग देवताओं से जुड़ा था, एक का सम्बन्ध समाज में पुरुषों (जुवेंटस / आर्यमन) से था और दूसरा उनके सामान (टर्मिनेट / भगा) के उचित विभाजन से था।   प्राचीन रोम में, टर्मिनस (टर्मिनल) और स्थलों की अध्यक्षता करने वाले देवता का नाम था, जो टर्मिनल के महत्वपूर्ण रोमन त्योहार  का ध्यान केंद्रित करता है। ________________________________________________

       धर्म वस्तुत: जीवन जीने की उद्देश्य पूर्ण केवल 'वह पद्धति है । जो  मानवता का चिर-शाश्वत आश्रय अथवा -आवास ! इस धर्म की आधार-शिलाऐं स्थित  होती हैं । आध्यात्मिक के धरातलों पर ! जिसमें नैतिकता की ईंटैं संयम की सीमेण्ट और सदाचरण की बालू भी है । इन सबसे मिलकर बनती है । कर्तव्यों की एक सुदृढ़ (भित्ति) सत्य ही इस धर्म के आवास की छत है । समग्र मानवता का चिर-शाश्वत बसेरा है धर्म । दस धर्मादेश या दस फ़रमान जिनको अंग्रेज़ी अनुवादकों ने  Ten Commandments,  भी कहा इस्लाम धर्म,यहूदी धर्म और ईसाई धर्म के वह दस नियम हैं । वस्तुत यह यहूदियों के लिए जीवन- की पवित्र पद्धति के निमित्त ये दश व्रत या आदेश थे । जिस पर मजहब की नींब रखी गयी । मजहब जहोवा से सम्बद्ध है । परन्तु विद्वानों ने मदहव या "धाव" रास्ते से सम्बद्ध कर दिया । संस्कृत में धाव: रास्ता का वाचक है । यहोवा द्वारा प्रदत्त इन दश लक्षणों के बारे में उन धार्मिक परम्पराओं में यह माना जाता है कि वे धार्मिक नेता मूसा को ईश्वर ने स्वयं दिए थे। इन धर्मों के अनुयायिओं की मान्यता है; कि यह मूसा को सीनाई पर्वत के ऊपर दिए गए थे; जलती हुई झाड़ी में यहोवा  ने ! पश्चिमी संस्कृति में अक्सर इन दस धर्मादेशों का ज़िक्र किया जाता है या इनके सन्दर्भ में बात की जाती है। कुछ परिवर्तित रूपों में ये नैतिक मूल्यों के आधार-स्तम्भ भी हैं 👇 हजरत मूसा के दस धर्मादेश---- ईसाई धर्मपुस्तक बाइबिल और इस्लाम की धर्मपुस्तक कुरान  के अनुसार यह दस आदेश इस प्रकार थे👇 __________________________________________ 1. Thou shalt have no other Gods before me 2. Thou shalt not make unto thee any graven image 3. Thou shalt not take the name of the Lord thy God in vain 4. Remember the Sabbath day, to keep it holy 5. Honor thy father and thy mother 6. Thou shalt not kill 7. Thou shalt not commit adultery 8. Thou shalt not steal 9. Thou shalt not bear false witness 10. Thou shalt not covet __________________________________________ १. तुम मेरे अलावा किसी अन्य देवता को नहीं मानोगे २. तुम मेरी किसी तस्वीर या मूर्ती को नहीं पूजोगे ३. तुम अपने ईश्वर का नाम अकारण नहीं लोगे ४. सैबथ ( शनिवार) का दिन याद रखना, उसे पवित्र रखना ५. अपने माता और पिता का आदर करो ६. तुम हत्या नहीं करोगे ७. तुम किसी से नाजायज़ शारीरिक सम्बन्ध नहीं रखोगे ८. तुम चोरी नहीं करोगे ९. तुम झूठी गवाही नहीं दोगे १०. तुम दूसरे की चीज़ें ईर्ष्या से नहीं देखोगे टिपण्णी १ - हफ़्ते के सातवे दिन को सैबथ कहा जाता था जो यहूदी मान्यता में आधुनिक सप्ताह का शनिवार का दिन है। धर्म की कुछ ऐसी ही मान्यताऐं भारतीय ग्रन्थों में हैं । यम को विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में धर्म का प्रतिरूप माना गया है । यम कैनानायटी संस्कृतियों में एल ( El )या इलु का पुत्र है । जो सैमेटिक संस्कृतियों में अल-इलाह या इलॉही के रूप में विद्यमान है । यहूदियों की प्राचीनत्त लेखों में यम का भी वर्णन है परन ्तु बाद में यम से यहोवा का विकास हुआ --जो धर्म का मूल है । असुरों या असीरियन जन-जाति  की भाषाओं में अरि: शब्द अलि अथवा इलु हो गया है । परन्तु इसका सर्व मान्य रूप एलॉह (elaoh) तथा एल (el) ही हो गया है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है । ____________________________________ "यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि:। तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:।९। ____________________________________ अर्थात्-- जो अरि इस  सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है , जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है , वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है । ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१) देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है । ____________________________________विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम । जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्        स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।। ऋग्वेद--१०/२८/१ ____________________________________ ऋषि पत्नी कहती है !  कि  सब देवता  निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,) परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम )यदि वे आ जाते तो भुने हुए  जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ) प्रस्तुत सूक्त में अरि: देव वाचक है । देव संस्कृति के उपासकआर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के पूर्वजों के रूप में ड्रयूड (Druids )अथवा द्रविड संस्कृति से सम्बद्धता है । जिन्हें हिब्रू बाइबिल में द्रुज़ कैल्डीयन आदि भी कहा है ये असीरियन लोगों से ही सम्बद्ध है। ____________________________________ हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम को मानने वाली धार्मिक परम्पराओं में मान्यता है ,कि कुरान से पहले भी अल्लाह की तीन और किताबें थीं , जिनके नाम तौरेत , जबूर और इञ्जील हैं । इस्लामी मान्यता के अनुसार अल्लाह ने जैसे मुहम्मद साहब पर कुरान नाज़िल की थी ,उसी तरह हजरत मूसा को तौरेत , दाऊद को जबूर और ईसा को इञ्जील नाज़िल की थी . यहूदी सिर्फ तौरेत और जबूर को और ईसाई इन तीनों में आस्था रखते हैं ,क्योंकि स्वयं कुरान में कहा है , ------------------------------------------------------------1-कुरान और तौरेत का अल्लाह एक है:

      "कहो हम ईमान लाये उस चीज पर जो ,जो हम पर भी उतारी गयी है , और तुम पर भी उतारी गयी है , और हमारा इलाह और तुम्हारा इलाह एक ही है . हम उसी के मुस्लिम हैं " (सूरा -अल अनकबूत 29:46) ""We believe in that which has been revealed to us and revealed to you. And our God and your God is one; and we are Muslims [in submission] to Him."(Sura -al ankabut 29;46 )"وَإِلَـٰهُنَا وَإِلَـٰهُكُمْ وَاحِدٌ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ " इलाहुना व् इलाहकुम वाहिद , व् नहनु लहु मुस्लिमून " ____________________________________ यही नहीं कुरान के अलावा अल्लाह की किताबों में तौरेत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कुरान में तौरेत शब्द 18 बार और उसके रसूल मूसा का नाम 136 बार आया है ! , यही नहीं मुहम्मद साहब भी तौरेत और उसके लाने वाले मूसा पर ईमान रखते थे , जैसा की इस हदीस में कहा है , "अब्दुल्लाह इब्न उमर ने कहा कि एक बार यहूदियों ने रसूल को अपने मदरसे में बुलाया और ,अबुल कासिम नामक व्यक्ति का फैसला करने को कहा , जिसने एक औरत के साथ व्यभिचार किया था . लोगों ने रसूल को बैठने के लिए एक गद्दी दी , लेकिन रसूल ने उस पर तौरेत रख दी । और कहा मैं तुझ पर और उस पर ईमान रखता हूँ और जिस पर तू नाजिल की गयी है , फिर रसूल ने कहा तुम लोग वाही करो जो तौरेत में लिखाहै . यानी व्यभिचारि को पत्थर मार कर मौत की सजा , (महम्मद साहब ने अरबी में कहा "आमन्तु बिक व् मन अंजलक -‏ آمَنْتُ بِكِ وَبِمَنْ أَنْزَلَكِ ‏" ‏.‏ " _____________________________________ I believed in thee and in Him Who revealed thee. सुन्नन अबी दाऊद -किताब 39 हदीस 4434 इन कुरान और हदीस के हवालों से सिद्ध होता है कि यहूदियों और मुसलमानों का अल्लाह एक ही है और तौरेत भी कुरान की तरह प्रामाणिक है . चूँकि लेख अल्लाह और उसकी पत्नी के बारे में है इसलिए हमें यहूदी धर्म से काफी पहले के धर्म और उनकी संस्कृति के बारे में जानना भी जरूरी है . लगे , और यहोवा यहूदियों के ईश्वर की तरह यरूशलेम में पूजा जाने लगा । यहोवा यह्व अथवा यम का रूपान्तरण है । भारतीय धरा पर महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित  यम के पाँच रूप हैं 👇 1-अहिंसा 2-सत्य 3-अस्तेय 4-ब्रह्मचर्य 5-अपरिग्रह तो कुछ उपनिषदों में जैसे शाण्डिल्य उपनिषद में  स्वात्माराम द्वारा वर्णित दश यम हैं 1-अहिंसा 2-सत्य 3-अस्तेय 4-ब्रह्मचर्य 5-क्षमा 6-धृति 7-दया 8-आर्जव 9-मितहार 10-शौच मनु स्मृति कार सुमित भार्गव ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं: ____________________________________ धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनु:स्‍मृति ६.९२) अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना ) याज्ञवल्क्य स्मृति में  धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं: अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:। दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌।। (याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२) (अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति) श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं : सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:। अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।। संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:। नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।। अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।  तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।। श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:। सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।। नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:। त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ ) महाभारत में महात्मा विदुर ने धर्म के आठ अंग  बताए हैं - महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग - इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ। उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है। ब्राह्मण पद्म-पुराण में _________________________________ ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते। दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।। अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते। एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।। (अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।) धर्मसर्वस्वम् नामक ग्रन्थ में जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल' या 'एथिक ऑफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब कुछ) कहा गया है: श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। (पद्म-पुराण, श्रृष्टि -खण्ड 19/357-358) (अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।) परन्तु क्या धर्म आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अपने इन सब प्रतिमानों पर मूल्यांकित है ? क्या इन मानते के अनुकूल है ? सायद नहीं परन्तु जहाँ सदाचरण न हो  केवल भेद भाव और दुराचरण  हो तब ! धर्म के ठेकेदार धर्म को  केवल व्यभिचार संगत बनाकर भावुक और अल्पज्ञानीयों के सर्वांग शोषण का माध्यम बनाते हैं  । आज धर्म के नाम पर दुश्मनी , हत्या,  वैमनस्य ,भदभाव ऊँच-नीच अपने चरम पर है । सत्य तो यह है कि सदीयों से केवल कुछ विशेष वर्गों के लोगों ने समाज में अपने आपको अपने निज स्वार्थों से प्रेरित होकर धर्म को अपने स्वार्थों की ढा़ल बनाया । कुछ निश्चल जनजातियों  के प्रति तथा कथित कुछ ब्राह्मणों के द्वारा द्वेष भाव का कपट पूर्ण नीति निर्वहन किया गया जाता रहा ।       

      पूजा - स्थलों को तब अपने धनोपार्जन का आरक्षित पीढ़ी दर पीढ़ी प्रतिष्ठान बनाया जाने लगा ।    कुछ भोली -भाली जन-जातियों को शूद्र वर्ण में प्रतिष्ठित कर उनके लिए शिक्षा और संस्कारों के द्वार भी पूर्ण रूप से बन्द कर दिए गये . . जैसा कि परिष्कार - दर्पण में वेणिमाधव शुक्ल लिखते हैं ।👇 ____________________________________ अत्रेदमुसन्धेयम्, निषादस्य संकरजातिविशेषस्य शूद्रान्तर्गततया "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्" इत्यनेन निषिद्धत्त्वाद् वेदसामान्यानधिकारेsपि "निषादस्थपतिं याजयेत्" इति विशेषश्रुतियाजनान्यथानुपपत्त्यैव यागमात्रोपयुक्तमध्ययनं निषादस्य कल्पयते । " अर्थात् स्त्री और शूद्र ज्ञान प्राप्त न करें  यह कह कर  उनके लिए वैदिक विधान का परिधान पहना कर इसे ईश्वरीय विधान भी सिद्ध किया गया । जबकि ईश्वरीय अनुभूति से ये लोग कोशों दूर थे । ये कर्मकाण्ड परक भूमिका का निर्वहन करते थे  स्वर्ग की प्राप्ति के लिए ताकि सुन्दर सुन्दर अप्सराओं का काम उपभोग कर सकें यही रूढ़िवादी हिन्दुस्तान के पतन की इबारत अपने काल्पनिक असामाजिक व जाति-व्यवस्था के पोषक ग्रन्थों में लिखते हैं । क्यों कि वह तथाकथित समाज के स्वमभू अधिपति जानते थे ; कि शिक्षा अथवा ज्ञान के द्वारा संस्कारों से युक्त होकर ये  लोग अपना उत्थान कर सकते हैं  ! अतः इनके शिक्षा के द्वार ही बन्द कर दो । क्यों कि  शिक्षा से वञ्चित व्यक्ति सदीयों तक गुलाम रहता है । और जब लोग धर्म से लाभान्वित होगये तो हमारी गुलामी कौन करेगा। इसीलिए हम्हें शिक्षित और जागरूक होकर देश की उन्नति और अपनी सद्गति के विषय में विचार करना चाहिए .. ..शिक्षा हमारी प्रवृत्तिगत स्वाभाविकतओं का संयम पूर्वक दमन करती है; अतः दमन संयम है और संयम यम अथवा धर्म है । यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता एक बहुतायत रूप में आध्यात्मिक सिद्धान्तों का दिग्दर्शन करने वाला ग्रन्थ है । परन्तु फिर भी उसकी प्रमाणिकता सन्दिग्ध है । इसके लिए यह श्लोक एक नमूना है ।👇 ____________________________________

      श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ 

      भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥ व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है। आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है। जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है। कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है।    इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है। सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है। ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो। अब उपर्युक्त श्लोक पूर्ण-रूपेण वर्ण-व्यवस्था का अनुमोदन दृढ़ता पूर्वक करता है ।

       --जो भागवत धर्म के सिद्धान्तों के पूर्णत: विपरीत है । क्यों कि यदु हम धर्म शब्द का अर्थ स्वभाव( प्रवृत्ति-मूलक) करते हैं तो इसका अर्थ अन्वय असंग हो जाता है । क्यों कि स्वभाव का कुल धर्म से क्या तात्पर्य ? क्यों कि एक ही कुल परिवार में भिन्न भिन्न स्वभाव के व्यक्ति पाए जाते हैं । और स्वभाव वस्तुत व्यक्ति के पूर्व जन्मों की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध होते हैं । और प्रवृत्ततियाँ यौनि अथवा प्राणी जाति मूलक जैसे सभी कुत्ते पश्चपाद उठाकर किसी वस्तु पर मित्र विसर्जित करते हैं । कौए काली वस्तु से प्रतिक्रिया करते हैं ये सभी प्रवृत्तयाँ प्राणीयों की श्रेणी या जाती गत होती हैं । धर्म शब्द का प्रयोग प्राचीनत्तम सन्दर्भों में धर्म पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग रूपों में भी हुआ है । जैसे गुप्त काल में रचित अमरकोश में धर्म के अर्थ हैं । 👇

       धर्मःसमानार्थक:धर्म,पुण्य,श्रेयस्,सुकृत,वृष,उपनिषद्,उष्ण  1।4।24।1।1  स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः। मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः॥  धर्म पुं।  आचारः  समानार्थक:धर्म,समय  3।3।139।1।1  वस्तुत धर्म का अर्थ घर्म के संक्रमण से उष्ण या गर्म भी हुआ । समय भी धर्म का एक अर्थ है । न्याय तथा मर्यादा भी धर्म के अर्थ हैं। अमरकोश में धर्म पुंल्लिङ्ग रूप में कर्मकाण्डीय नियमों की वाचक है । भा.श्रौ.सू. 7.6.7 (ये उपभृतो धर्मापृषदाज्यधान्यामपि क्रियेरन्); रोमन संस्कृतियों में मर्यादा या क्षेत्रीय सीमाओं के अधिष्ठात्री देवता को तर्म "Term" तथा तरमिनस् " Terminus" कहा जाता है । तर्मन् नपुंसकलिङ्ग रूप है  । यूपाग्रम् ( यज्ञ को प्राय इण्डो-यूरोपीय संस्कृतियों में धर्म मूलक अनुष्ठान माना गया । समानार्थक:यूपाग्र,तर्मन्  2।7।19।1।2 यूपाग्रं तर्म निर्मन्थ्यदारुणि त्वरणिर्द्वयोः। दक्षिणाग्निर्गार्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः॥  परन्तु परवर्ती साहित्य में धर्म का अर्थ स्वभाव ही निर्धारित किया गया । अर्थात् 👇 किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । प्रकृति । स्वभाव,। जैसे, आँख का धर्म देखना, सर्प का धर्म काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना । विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में ही आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है कि यज्ञ परक आचरण धर्म है। -- यज्ञ को प्राय इण्डो-यूरोपीय संस्कृतियों में धर्म मूलक अनुष्ठान माना गया । जो विशेषत:—मीमांसा के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान ही धर्म है । जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है । संहिता से लेकर सूत्र ग्रन्थों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । कर्मकाण्ड का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।

      यद्यपि श्रुतियों में "'न हिस्यात्सर्वभूतानि'" आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड की ओर ही था । वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो । वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिये करना चाहिए । किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार ही भारतीय स्मृतियों में वर्णित धर्म है । 👇 जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म वैश्य का धर्म आदि विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिय़े पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना आदि क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद्र के लिये तीनों वणों की केवल नि:शुल्क सेवा करना ही धर्म है । जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्वारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद्धर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार केवल शूद्र को छोड़कर किसी भी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है, जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय— वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर ब्राह्मण को छोड़कर दूसरे वर्ग के लोग अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का उपक्रम नहीं कर सकते यह आपत्काल में भी निषेध है । यहाँं ब्राह्मण स्वत्रन्त्र है । कालान्तरण में धर्म को परिभाषित करने में कुछ उदात्त बिन्दुओं को दृष्टि गत रखा गया । "वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो । वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शान्ति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले । कल्याणकारी कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म । परन्तु रूढ़िवादी अन्ध-भक्तों ने विशेष—स्मृतिकारौ के द्वारा वर्ण आश्रम, गुण और निमित्त धर्म को ही धर्म माना जैसे समाज में किसी जाति, कुल, वर्ग आदि के लिए उचित ठहराया हुआ व्यवसाय, कर्त्तव्य; बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म के उदात्त रूप को शील कहा गया है । जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है । 

      वस्तुत यह भागवत धर्म का प्रभाव रहा कि जिस "दास शब्द को असुर अथवा दस्यु का पर्याय मानकर अर्थ पतित कर दिया था । वह उच्चत्तम शिखर पर प्रतिष्ठित हो गया । ____________________________________



      वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण हैं।
      हरि बोल!         हरि बोल!           हरि बोल!

      राधा ,दुर्गा और गायत्री जिनका अवतरण आभीर जाति में हुआ 
      शुद्ध आदि वैष्णवी शक्तियाँ थीं जिनकी कोई भौतिक सन्तान नहीं थी यह भी शास्त्रीय प्रमाण है।
      सन्तानें तो मानवीय उत्पादन है फिर जो शद्ध वैष्णवीय आदि शक्तियाँ हैं। वह कभी भी प्रजनन आदि क्रियाओं से समन्वित नहीं होती हैं।
      अहीरों को ही गोपालन वृत्ति ( व्यवसाय) के कारण समाज में गोप नाम से सम्बोधित किया गया है। 
      और गोपो की उत्पत्ति के विषय में भी ब्रह्मवैवर्त पुराण  और गर्गसंहिता  में लिखा है कि वे विष्णु के रोमकूपों से (क्लोनविधि) द्वारा उत्पन्न हुए थे।

      क्लोनिंग एक तकनीक है जिसका उपयोग वैज्ञानिक जीवित चीजों की सटीक अनुवांशिक प्रतियां बनाने के लिए करते हैं।
      जीन, कोशिकाओं, ऊतकों और यहां तक ​​कि पूरे जानवरों को भी क्लोन किया जा सकता है।

      कुछ क्लोन पहले से ही प्रकृति में मौजूद हैं। बैक्टीरिया जैसे एकल-कोशिका वाले जीव हर बार पुनरुत्पादन करते समय अपनी सटीक प्रतियां बनाते हैं।
      मनुष्यों में, समान जुड़वाँ क्लोन के समान होते हैं।
      वे लगभग समान जीन साझा करते हैं। जब एक निषेचित अंडा दो में विभाजित होता है तो समान जुड़वाँ पैदा होते हैं।

      वैज्ञानिक लैब में क्लोन भी बनाते हैं। वे अक्सर जीन का अध्ययन करने और उन्हें बेहतर ढंग से समझने के लिए क्लोन करते हैं।
      एक जीन को क्लोन करने के लिए, शोधकर्ता एक जीवित प्राणी से डीएनए लेते हैं और इसे बैक्टीरिया या खमीर जैसे वाहक में डालते हैं। हर बार जब वह वाहक प्रजनन करता है, तो जीन की एक नई प्रति बनाई जाती है।

      जानवरों को दो तरीकों में से एक में क्लोन किया जाता है।
      पहले को एम्ब्रियो ट्विनिंग कहा जाता है।
      वैज्ञानिकों ने पहले एक भ्रूण को आधे में विभाजित किया।
      इसके बाद उन दोनों हिस्सों को मां के गर्भाशय में रख दिया जाता है।
       भ्रूण का प्रत्येक भाग एक अद्वितीय जानवर के रूप में विकसित होता है, और दोनों जानवर एक ही जीन साझा करते हैं।
      दूसरी विधि को सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर कहा जाता है। दैहिक कोशिकाएं वे सभी कोशिकाएं हैं जो एक जीव को बनाती हैं, लेकिन यह शुक्राणु या अंडाणु नहीं हैं।

      शुक्राणु और अंडे की कोशिकाओं में गुणसूत्रों का केवल एक सेट होता है!
      और जब वे निषेचन के दौरान जुड़ते हैं, तो माता के गुणसूत्र पिता के साथ मिल जाते हैं।
      _______
      दूसरी ओर, दैहिक कोशिकाओं में पहले से ही गुणसूत्रों के दो पूर्ण सेट होते हैं।

      एक क्लोन बनाने के लिए, वैज्ञानिक एक जानवर के दैहिक कोशिका से डीएनए को एक अंडे की कोशिका में स्थानांतरित करते हैं जिसका नाभिक और डीएनए हटा दिया गया है।
      अंडा एक भ्रूण में विकसित होता है जिसमें कोशिका दाता के समान जीन होते हैं।
      फिर भ्रूण को बढ़ने के लिए एक वयस्क महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है।

      1996 में, स्कॉटिश वैज्ञानिकों ने पहले जानवर, एक भेड़ का क्लोन बनाया, जिसका नाम उन्होंने डॉली रखा। एक वयस्क भेड़ से ली गई उदर कोशिका का उपयोग करके उसे क्लोन किया गया था। तब से, वैज्ञानिकों ने क्लोन किए हैं- गाय, बिल्ली, हिरण, घोड़े और खरगोश।

      हालांकि, उन्होंने अभी भी एक मानव का क्लोन नहीं बनाया है। आंशिक रूप से, इसका कारण यह है कि एक व्यवहार्य क्लोन का उत्पादन करना मुश्किल है।
      प्रत्येक प्रयास में, आनुवंशिक गलतियाँ हो सकती हैं जो क्लोन को जीवित रहने से रोकती हैं।

      डॉली को सही साबित करने में वैज्ञानिकों को 276 कोशिशें करनी पड़ीं।
      मानव की क्लोनिंग के बारे में नैतिक चिंताएँ भी हैं।

      शोधकर्ता कई तरह से क्लोन का उपयोग कर सकते हैं।
      क्लोनिंग से बने भ्रूण को स्टेम सेल फैक्ट्री में बदला जा सकता है।
      स्टेम कोशिकाएँ कोशिकाओं का एक प्रारंभिक रूप हैं जो कई अलग-अलग में विकसित हो सकती हैं। कोशिकाओं और ऊतकों के प्रकार।

      मधुमेह के इलाज के लिए क्षतिग्रस्त रीढ़ की हड्डी या इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं को ठीक करने के लिए वैज्ञानिक उन्हें तंत्रिका कोशिकाओं में बदल सकते हैं।
      जानवरों के क्लोनिंग का उपयोग कई अलग-अलग अनुप्रयोगों में किया गया है।

      जानवरों को जीन म्यूटेशन के लिए क्लोन किया गया है जो वैज्ञानिकों को जानवरों में विकसित होने वाली बीमारियों का अध्ययन करने में मदद करता है। अधिक दूध उत्पादन के लिए गायों और सूअरों जैसे पशुओं का क्लोन बनाया गया है।
      क्लोन एक प्यारे पालतू जानवर को "पुनर्जीवित" भी कर सकते हैं जो मर चुका है। 2001 में, सीसी नाम की एक बिल्ली क्लोनिंग के माध्यम से बनाई जाने वाली पहली पालतू जानवर थी। क्लोनिंग एक दिन ऊनी मैमथ या जायंट पांडा जैसी विलुप्त प्रजातियों को वापस ला सकती है।
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      1-गुणसूत्र
      संज्ञा
      कोशिकाओं के केंद्रक में डीएनए और संबद्ध प्रोटीन की लड़ी जो जीव की आनुवंशिक जानकारी को वहन करती है।
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      2-क्लोन
      संज्ञा
      कोशिका या कोशिकाओं का समूह जो आनुवंशिक रूप से अपने पूर्वज कोशिका या कोशिकाओं के समूह के समान है।
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      3-डीएनए
      संज्ञा
      (डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) प्रत्येक जीवित जीव में अणु जिसमें उस जीव पर विशिष्ट आनुवंशिक जानकारी होती है।
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      4-भ्रूण
      संज्ञा
      विकास के प्रारंभिक चरण में अजन्मा जानवर।
      5-जीन
      संज्ञा
      डीएनए का वह भाग जो आनुवंशिकता की मूल इकाई है।
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      6-प्रतिकृति
      संज्ञा
      एक सटीक प्रति या प्रजनन।
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      7-दैहिक कोशिका
      संज्ञा
      कोशिकाएं जो जीव के हर हिस्से को बनाती हैं; शुक्राणु या अंडाणु नहीं
      8-स्टेम सेल
      संज्ञा
      प्रारंभिक कोशिका जो शरीर में किसी भी प्रकार की कोशिका या ऊतक में विकसित हो सकती है

      Cloning is a technique scientists use to make exact genetic copies of living things.
      Genes, cells, tissues, and even whole animals can all be cloned.

      Some clones already exist in nature. Single-celled organisms like bacteria make exact copies of themselves each time they reproduce.
      In humans, identical twins are similar to clones. 
      They share almost the exact same genes. Identical twins are created when a fertilized egg splits in two.
      Scientists also make clones in the lab. They often clone genes in order to study and better understand them.
      To clone a gene, researchers take DNA from a living creature and insert it into a carrier like bacteria or yeast. Every time that carrier reproduces, a new copy of the gene is made.

      Animals are cloned in one of two ways. 
      The first is called embryo twinning.
      Scientists first split an embryo in half.
      Those two halves are then placed in a mother’s uterus.
       Each part of the embryo develops into a unique animal, and the two animals share the same genes. 
      The second method is called somatic cell nuclear transfer. Somatic cells are all the cells that make up an organism, but that are not sperm or egg cells.

      Sperm and egg cells contain only one set of chromosomes ! 
      and when they join during fertilization, the mother’s chromosomes merge with the father’s.
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      Somatic cells, on the other hand, already contain two full sets of chromosomes. 

      To make a clone, scientists transfer the DNA from an animal’s somatic cell into an egg cell that has had its nucleus and DNA removed. 
      The egg develops into an embryo that contains the same genes as the cell donor.
      Then the embryo is implanted into an adult female’s uterus to grow.

      In 1996, Scottish scientists cloned the first animal, a sheep they named Dolly. She was cloned using an udder cell taken from an adult sheep. Since then, scientists have cloned- cows, cats, deer, horses, and rabbits. 

      They still have not cloned a human, though. In part, this is because it is difficult to produce a viable clone.
      In each attempt, there can be genetic mistakes that prevent the clone from surviving.

      It took scientists 276 attempts to get Dolly right.
      There are also ethical concerns about cloning a human being.
      Researchers can use clones in many ways.
      An embryo made by cloning can be turned into a stem cell factory.
      Stem cells are an early form of cells that can grow into many different. types of cells and tissues.

      Scientists can turn them into nerve cells to fix a damaged spinal cord or insulin-making cells to treat diabetes.
      The cloning of animals has been used in a number of different applications. 
      Animals have been cloned to have gene mutations that help scientists study diseases that develop in the animals. Livestock like cows and pigs have been cloned to produce more milk .
      Clones can even “resurrect” a beloved pet that has died. In 2001, a cat named CC was the first pet to be created through cloning. Cloning might one day bring back extinct species like the woolly mammoth or giant panda.
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      1-chromosome
      Noun
      strand of DNA and associated proteins in the nucleus of cells that carries the organism's genetic information.
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      2-clone
      Noun
      cell or group of cells that is genetically identical to its ancestor cell or group of cells.
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      3-DNA
      Noun
      (deoxyribonucleic acid) molecule in every living organism that contains specific genetic information on that organism.
      __________

      4-embryo
      Noun
      unborn animal in the early stages of development.

      5-gene
      Noun
      part of DNA that is the basic unit of heredity.
      _________

      6-replica
      Noun
      an exact copy or reproduction.
      _______

      7-somatic cell
      Noun
      cells that make up every part of an organism; not a sperm or egg cell

      8-stem cell
      Noun
      early cell that can develop into any type of cell or tissue in the body

      _____________
      और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो  चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि-
      यही ऋचा यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
      _________________________________________
      ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
      ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
      (ऋग्वेद 10/90/12)
      श्लोक का अनुवाद   इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के  मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से  क्षत्रिय लोग हुए एवं  उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
       अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। परन्तु हम इन  शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं । 
      जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
      इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूजय हैं।
      👇
      "कृष्णस्य  लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
      "आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
      (ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
      अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
      यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में  यथावत् वर्णित है।
      "नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपिसः॥   
      गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।
      "राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
      काश्चित्पुण्यैःकृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैःपरैः॥२२॥
      इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
      _______________
      शास्त्रों में  वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।
      _________
      ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।। 
      ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
      अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में  वैष्णव नाम से है  और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३) 
      उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।
      _____    
      जैसे ब्राह्मा की शारीरिक सृष्टि को ब्राह्मण कहा गया उसी प्रकार विष्णु की शारीरिक सृष्टि को वैष्णव कहा गया । 
      जिस प्रकार  शास्त्रों में ब्राह्मण वर्ण है उसी प्रकार वैष्णव भी ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्ण लिखा गया है ।
      अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप  है।
      अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है। वेदों में इसी लिए  विष्णु भगवान को गोप कहा गया है।
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      त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
      अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
       (ऋग्वेद १/२२/१८)
      (अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्) धारण करता हुआ ।  (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करता है । और ये ही 
      (धर्माणि) धर्मों को धारण करता है ॥18॥
      गोप ही इस लौकिक जगत् में सबसे पवित्र और धर्म के प्रवर्तक तथा धारक थे। और इस लिए गोपों अथवानआभीरों की सृष्टि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था से पूर्णत: पृथक है। 

      अत: ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के माननेवालों ने अहीरों को शूद्र तो कहीं वैश्य वर्णन कर उनके व्यक्तित्व का निर्धारण न करें ।
       परन्तु इनके कार्य सभी चारों वर्णों के होने पर भी ये वैष्णव वर्ण के थे। वैष्णव के अन्य नाम शास्त्रों में भागवत, सात्वत, और पाञ्चरात्र, भी है।
      वैष्णवों की महानता का वर्णन तो शास्त्र भी करते हैं।
      ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ ।४४।।
      अनुवाद:-वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।[४४]

      वे पेशे से गोपालक थे। तथा गोप नाम से प्रसिद्ध थे। लेकिन साथ ही उन्होंने कुरुक्षेत्र की लड़ाई में भाग लेते हुए क्षत्रियों का दर्जा हासिल किया। इसका प्रमाण निम्न श्लोक है।
      ____________________________________
      "मत्सहननं तुल्यानाँ , गोपानामर्बुद महत् ।
      नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107।
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      संग्राम में गोप यौद्धा नारायणी सेना के रूप में अरबों की महान संख्या में हैं ---जो  शत्रुओं का तीव्रता से हनन करने वाले हैं ।
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      "नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु ।
      सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि ।108।
      (स्वनाम- ख्याता श्रीकृष्णसम्बन्धिनी सेना ।        इयं हि भारतयुद्धे दुर्य्योधनपक्षमाश्रितवती"
      महाभारत के उद्योगपर्व अध्याय 7,18,22,में
      वर्तमान ये गोप अहीर भी वैष्णव वर्ण के हैं।
      अहीर या यादव महान योद्धा हैं, अहीर नारायणी/यादव सेना में थे। 
      द्वारका साम्राज्य के भगवान कृष्ण की यादव सेना को सर्वकालिक सर्वोच्च सेना कहा जाता है। महाभारत में इस पूरी नारायणी सेना को अहीर जाति के रूप में वर्णित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि अहीर, गोप और यादव अलग अलग लोग नहीं थे, अपितु सभी पर्यायवाची हैं।

      मिथकीय घटनाओं  का पारस्परिक व्युत्क्रम होते हुए भी ऐतिहासिक घटनाओं की पुष्टि तो करता  ही है। अत: हमने सटीक  व सप्रमाण विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए  समस्त मिथकीय पूर्वाग्रहों का क्रमागत ढंग से बहुत ही  तर्कसंगत, स्पष्ट व व्यवस्थित और शास्त्रीय शैली में समाधान प्रस्तुत किया है। हमारा यह शोध-ग्रन्थ आभीर जाति की उत्पत्ति के साथ भाषा-विज्ञान प्राचीन-इतिहास व धर्म शास्त्र का अध्ययन करने वाले जिज्ञासु पाठकों, शोधार्थियों और भाषाशास्त्रियों के लिए निश्चित ही एक महत्त्वपूर्ण अवदान सिद्ध होगा ऐसा हमारा विश्वास है।

      ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के अतिरिक्त चौथे वेद ‌अथर्ववेद में भगवान कृष्ण का वर्णन केशी नामक दैत्य  का वध करने वाला बताकर वर्णन किया गया है।

      अत: वेदों में भी कृष्ण होने की बात सिद्ध होती है।
      नीचे स्पष्ट रूप से शौनक संहिता ,अथर्ववेद  और सामवेद आदि  में कृष्ण का स्पष्ट उल्लेख है।

      (अथर्ववेद - काण्ड »8; सूक्त»6; ऋचा»5)
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      १. ( यः कृष्ण:) = जो कृष्ण,२-(केशी) = केशी नामक  ३- (असुरः) =दैत्य  ४-(स्तम्बजः) जिसके केश गुच्छेदार हैं =  ५-(उत) = और ६- (तुण्डिक:) = कुत्सित मुखवाला है / थूथनवाला है। ७-(अरायान्) = निर्धन पुरुषों को ८-(अस्याः) = इस के ९-(मुष्काभ्याम्) = मुष्को से-अण्डकोषों से  तथा  १०-(भंसस:)भसत् कटिदेशः पृषो० । उपचारात् तत्सम्बन्धिनि पायौ ऋ० १० । १६३ ।  = कटिसन्धिप्रदेश  से  ११- (अपहन्मसि) = दूर करते हैं।
       "अनुवाद:- जो कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख उसके अण्डकोशों तथा इसकी कटि ( कमर)आदि भागों को निर्धन लोग दूर करते हैं।
      उपर्युक्त ऋचा में वर्णन है कि कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख और अण्डकोशों तथा कटि प्रदेश (कमर,)आदि के स्पर्श से गरीब अथवा निर्धन लोगों को तथा  स्वयं को भी कृष्ण दूर करते हैं।

      भागवत पुराण में वर्णन है कि कृष्ण-भगवान का अत्यन्त कोमल कर(हाथ) कमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो।

      उसका स्पर्श होते ही केशी के दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देने पर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण का भुजदण्ड उसके मुँह में बढ़ने लगा। 
      अचिन्त्यशक्ति भगवान श्रीकृष्ण का हाथ उसके मुँह में इतना बढ़ गया कि उसकी साँस के भी आने-जाने का मार्ग न रहा। 
      अब तो दम घुटने के कारण वह पैर पीटने लगा। 

      दशम स्कन्ध, अध्याय 36, श्लोक 16-26 तथा अध्याय 37, श्लोक 1-9

      अथर्ववेद (दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व) में संकलित है जिसमें , केशी,= "बालों (केशों )वाले", दैत्य का  पहली बार वर्णन किया गया है     

      अर्जुन द्वारा भगवत गीता में भी कृष्ण को तीन बार केशी का हत्यारा कहा गया है- केशव (1.30 और 3.1) और केशी-निषूदन (18.1)। पहले अध्याय (1.30) में, कृष्ण को केशी के हत्यारे के रूप में संबोधित करते हुए, अर्जुन युद्ध के बारे में अपना संदेह व्यक्त करते हैं।
      ऋग्वेद १/१०/३/ तथा यजुर्वेद ८/३४ में केशिन् का वर्णन है ।
      पदों अन्वयार्थ:-
      युक्ष्वा हि= संयुक्त ही होओ। केशिना= केशी दैत्य के संहारक अथवा सुन्दर केशों वाले के द्वारा   । हरी = हरि भगवान कृष्ण के द्वारा। वृषणा= वृषणों के द्वारा। कक्ष्यप्रा= काँछ के साथ। अथा= और। इन्द्र=  इन्द्र। सोमपा= सोमपा। नः= हमारी।गिरामुप॑श्रुतिं= सुनी हुई वाणी को । चर = दूत ।
      "अनुवाद:- केशी दैत्य का बध  करने वाले हरि के साथा जुड़ जाओ ! जिसने केशी दैत्य के अण्डकोष और काँख पकड़ कर फैंक दिया। हे सोमपान करने वाले इन्द्र ! हमारी सुनी हुई स्तुतिगीत को कृष्ण तक दूत के रूप में पहुचाऐं।३।
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      पद पाठ
      यस्मा॑त्। जा॒तम्। न। पु॒रा। किम्। च॒न। ए॒व। यः। आ॒ब॒भूवेत्या॑ऽऽ ब॒भूव॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ प्र॒जाऽप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जया॑ स॒ꣳर॒रा॒ण इति॑ सम्ऽररा॒णः। त्रीणि॑। ज्योती॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥५ ॥

      यजुर्वेद » अध्याय:-32» ऋचा -:5
      पदों का अर्थ और अन्वय:- हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस  से (पुरा) पहिले (किम्, चन) कुछ भी (न जातम्) नहीं उत्पन्न हुआ, (यः) जो  (आबभूव) हुआ जिसमें (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक  वर्त्तमान हैं, (सः एव) वही (षोडशी) सोलह कलावाला (प्रजया) प्रजा के साथ (सम्, रराणः) सम्यक्  रमता हुआ (प्रजापतिः) प्रजा का पालक अधिष्ठाता (त्रीणि) तीन (ज्योतीषिं)ज्योतियों  को (सचते) संयुक्त करता है ॥५ ॥
      "अनुवाद:-  हे मनुष्यों जिससे पहले कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ। जिससे सम्पूर्ण विश्व और सभी लेक उत्पन्न हुए वही ईश्वर !  सोलह कलाओं से युक्त प्रजा के साथ आनन्द करता हुआ। प्रजा पालक रूप में  तीन ज्योतियों में जुड़ता है।
      उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण के सौलह कलाओं से सम्पन्न होने का वर्णन है। उस कृष्ण के परम् -ब्रह्म रूप का वर्णन है जो संसार के सृजक पालक और संहारक तीन रूपों की ज्योतियों समाहित होते हैं। और आगे इसी क्रम में 
      निम्न ऋचा में भी वृष्णि नन्दन कृष्ण के चरित्र का अद्भुत वर्णन है।

      जो एक  पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर बहुत सी  चढ़ाई चढ़ते हुए  इन्द्र को सावधान करने के लिए अथवा उसे  चेताने के लिए या कहें  चैलेंज करने के लिए  वृष्णि शिरोमणि कृष्ण अपने यूथ (गोप समूह ) के साथ वहाँ पहुँचते हैं।२।
      यत्) यस्मात् = जिससे (सानोः) पर्वतस्य शिखरात्= पर्वत शिखर से । 
       (सानुम्) =शिखरम् । (अरुहत्) रोहति । अत्र लडर्थे लङ् । विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः । (भूरि)= बहुत ।  (अस्पष्ट) =स्पशते । अत्र लडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसीति शपो लुक् । (कर्त्त्वम्) कर्त्तुं योग्यं /कार्य्यम् । अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः । (तत्) तस्मात् (इन्द्रात्)  (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा । उषिकुषिगार्त्तिभ्यः स्थन् । (उणादि सूत्र०२.४) अनेनार्त्तेः स्थन् प्रत्ययः । (चेतति)= संज्ञापयति प्रकाशयति वा । अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः । (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह । तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः । (उणा०२.१२) अनेन यूथ शब्दो निपातितः । (वृष्णिः) वृष्णे: वंशोद्भव:श्रीकृष्ण   (एजति) कम्पते गम्यते वा ॥२॥


      बकरा आदि की बलि से रहित इन्द्रदेव जल रहित हो गया। । तेरे द्वारा दिया गया  जल  अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो गया जिसमें   गायों के बाड़े और आभीर वस्ती  वृद्धि रहित  हो गये  ,  ( हे राधा तुम इन्द्र को जल रहित करती हो।  (इन्द्र) इन्द्र। गायों  को ,व्रज  को क्षीण करके  बड़े बड़े विवरों में जल को  कर रहा है।॥७॥

      (अद्रिवः) जल रहित। (इन्द्रः) इन्द्र देव।(सुनिरजम्) सु+ निर्+अजम्= बकरा आदि की बलि से रहित इन्द्र को । (त्वादातम्) तु + आदातम्= अथवा त्वा- दातम्। तेरे द्वारा दिया गया ।  (यशः) जल । (सुविवृतम्) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो  (गवाम्)=  गायों के  (व्रजम्) आभीर वस्ती को  (अपवृधि) वृद्धि रहित   करता है ,  (राधः) राधा   (कृणुष्व) करती हैं,    (अद्रिवः)  जल रहित  (इन्द्र) इन्द्र।  (गवाम्) गायों को ।  (व्रजम्) गायों के बाड़े को (अपावृधि) क्षीण करके  (सुविवृतम्)  बड़े बड़े विवरों में। (सुनिरजम्) सु+ निर्+ अजम् =  (यशः) जल को 
       (कृणुश्व) कम कीजिये॥७॥

      _________________________________
      अनुवाद:-
      अर्थात् :-हे प्रभो! गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करो । जन्म से ही नित्य  तुम  विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो  तुम अग्नि के समान सर्वत्र विस्तार को प्राप्त हो ।२।

      _____________________________________
      अर्थात्  हे वृषभानु !  तुम मनुष्यों को देखो पूर्व काल में  कृष्ण अग्नि के सदृश्- उद्भासित होने  वाले है । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे !
      इस  दोनों ऋचाओं में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप  का उल्लेख किया गया है । जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है , क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं।



      _____________________
      पद पाठ-
      इ॒दम्। हि। अनु॑। ओज॑सा। सु॒तम्। रा॒धा॒ना॒म्। प॒ते॒। पिब॑। तु। अ॒स्य। गि॒र्व॒णः॒॥

      १- (गिर्वणः) स्तुति किये हुए२- (राधानाम्) राधा के षष्ठी विभक्ति बहुवचन सम्बन्ध कारक रूप में  ३-(पते) पति  ! सम्बोधन रूप में हे राधा के पति।  ४-(ओजसा) = बल  के द्वारा  ५-(अस्य) इसके ६-(इदम्) इस ७-(सुतम्) सु + क्त = निचोड़ा हुआ। ८- (पिब)- पीजिए ९-(हि) निश्चय ही ॥१०॥
      १-गिर्वणः=
      गिरा स्तुत्या वन्यते वन--कर्म्मणि असुन् संज्ञात्वात् णत्वं पृषो० नोपपददीर्घः। १- स्तोतरि च ।
      __________


      अनुवाद:- हे प्रभु परमात्मन् ! तुम सभी धर्मों के स्वरूप हो। यज्ञ में "होता- यज्ञ में आहुति देनेवाला अथवा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालनेवाला।  जैसे तमस से घृतधाराओं से होमाग्नि को सिञ्चित करता है। उसी प्रकार वह परमात्मा आनन्द में निमग्न होकर सान्त्वना सम्पदा लेकर बोलने की इच्छा से अथवा वाणी की शक्ति से  विश्व कल्याण के लिए लोक का आश्रय करते हैं।

      पदपाठ- त्वे इति । धर्माणः । आसते । जुहूभिः । सिञ्चतीःऽइव । कृष्णा । रूपाणि । अर्जुना । वि । वः । मदे । विश्वाः । अधि । श्रियः । धिषे । विवक्षसे ॥३

      (त्वे) हे प्रभो ! परमात्मन् ! (धर्माणः-आसते) तुम सभी धर्मों के स्वरूप हो (जुहूभिः-सिञ्चतीः-इव) होता- होम के चम्मच( चमस) से जैसे घृत-धाराएँ सींची जाती हुई होमाग्नि में आश्रय लेती हैं, उसी भाँति (कृष्णा अर्जुना रूपाणि) तुम कृष्ण और अर्जुन आदि रूपों में (मदे) आनन्द में  (वः) और सान्त्वना सम्पदा के लिए  उतरते हो (विश्वाः श्रियः-अधि धिषे)विश्व - कल्याण के लिए । (विवक्षसे) बोलने की इच्छा से वाणी की शक्ति से॥३।।
      ___________________________    
      श्रीमद्भगवदगीता में भगवान कृष्ण इस प्रकार कहते हैं:
      "वेदैश्च च सर्वैर अहं एव वेद्यो
      "सभी वेदों के द्वारा, मुझे जाना जाएगा।" (गीता 15.15)

      कृष्ण और राधा जी का वर्णन ऋक्-परिशिष्ट-श्रुति के निम्नलिखित कथन में किया गया है:
      "राधाय माधवो देवो, माधवेन च राधिका, विभ्रजन्ते जनेसु च

      श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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      परिशिष्ट

      श्रीराधा, श्रीराधा-नाम और राधा-उपासना सनातन है

      इसके अतिरिक्त दक्षिण के बहुत-से प्राचीन ग्रन्थों में राधा का उल्लेख है। भक्त कवि बिल्वमगंल का ‘कृष्णकर्णामृत’ तो श्रीराधा-कृष्णलीला से ही ओतप्रात है।

      वेद में ‘राधम्’ आदि शब्द बहुत जगह आये हैं। इसके विभिन्न अर्थ किये गये हैं। हो सकता है कि वेद के कोई विशिष्ट विद्वान इसका स्पष्ट ‘राधा’ ही अर्थ करें।

      महाभारत के प्रसिद्ध टीकाकार महान् श्रीनीलकण्ठजी ने ऋग्वेद के बहुत-से मन्त्रों के भगवान श्रीकृष्ण के लीला परक अर्थ किये हैं। उनका इस विषय पर एक ग्रन्थ ही है- जिसका नाम है ‘मन्त्रभागवत’। इसमें नीलकण्ठ जी ने निम्रलिखित मन्त्र में राधा के दर्शन किये हैं-
      मन्त्र है-

      "अतारिषुर्भरता गव्ययः समभक्त विप्रः सुमतिं नदीनाम्।
      प्रपिन्वध्वभिषयन्ती सुराधा आवक्षाणाः पृणध्वं यात शीभम्।।

       (गव्यवः) गायों का  (भरताः) भरण करने वाली (सुराधाः)  हे सुन्दर राधा जी   (नदीनाम्) नदियों को (अतारिषुः) तारण करें   (विप्रः) विद्याया: वपति इति विप्र-  (सुमतिम्) उत्तम मति को (सम -भक्त) समान भक्ति करने वाले।  (इषयन्तीः) इच्छा करती हुई 
      (वक्षणाः) बछड़ो को। 
       (बहुवचन) (प्र, पिन्वध्वम्) लोट लकार बहुवचन आत्मने पदीय सिञ्चन करों /दूध पिलाओ  (आ) (पृणध्वम्) प्रसन्न करो  (शीभम्) शीघ्र (यात) जाओ ॥१२॥
      "अनुवाद:- गायों का भरण करने वाली हे सुन्दर राधे ! शीघ्र हम्हें प्रसन्न करो ।
      जैसे गायें बछड़ों को अपने मातृत्व से प्रसन्न करती हैं। जैसे नदियाँ अपने जल से भक्तों को समान जल प्रदान करती हैं। उन्हें तृप्त करती हैं।

      राधा  गोपागंनाओं में सर्वोपरि महत्त्व रखती हैं- इसलिये यहाँ उन्हें ‘सुराधा’ कहा गया है। इस मन्त्र का नीलकण्ठ जी कृत अर्थ मन्त्र-भागवत में देखना चाहिये।
      1. ऋग्वेद 3/33/12
      2.  यह "मन्त्र भागवत" ग्रन्थ खेमराज श्रीकृष्णदास के वेकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित है।

      इसके अतिरिक्त ऋक्-परिशिष्ट के नाम से निम्रलिखित श्रुति निम्बार्क-सम्प्रदाय के उदुम्बरसंहिता, वेदान्तरत्नमंजूषा, सिद्धान्तरत्न आदि ग्रन्थों में तथा श्रीश्रीजीवगोस्वामी के प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीकृष्णसंदर्भ अनुच्छेद (189) में उद्धत की हुई मिलती है-

      ‘राधया माधवो देवो माधवेन च राधिका। विभ्राजते जनेषु। योऽनयोर्भेदं पश्यति स मुक्तः स्यान्न संसृतेः।’

      अर्थात् ‘भगवान श्रीमाधव श्रीराधा के साथ और श्रीराधा श्रीमाधव के साथ सुशोभित रहती हैं। मनुष्यों में जो कोई इनमें अन्तर देखता है तो वह संसार से मुक्त नहीं होता।’

      राधा जी की एक प्रय सखी विशाखा नाम से थीं। 
      पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु ।
      राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम् ॥३॥

      ______________________________

      "पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, भविष्यपुराण, श्रीमद्देवीभागवत, मत्स्यपुराण, आदिपुराण, वायु पुराण, वराह पुराण, नारदीय पुराण, गर्गसंहिता, सनत्कुमारसंहिता, नारदपाच्चरात्र, राधातन्त्र आदि अनेकों ग्रन्थों में ‘राधा-महिमा’ का स्पष्ट उल्लेख है।



      (ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; ऋचा » 31)
      (अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 11)

      गोपाम्) गोपाल कृष्ण को।  अनिपद्यमानम्) न गिरनेवाले [अचल], (पथिभिः) मार्गों से (आ, च) आगे और (परा, च) पीछे (चरन्तम्) - आ चरन्तम्) समीप आते हुए को  (अपश्यम्) देखता हूँ (सः) वह गोप (सध्रीचीः) साथी रूप में  (सः)  (विषूचीः) अनेक प्रकार की गतियों में स्वयं को (वसानः) ढाँपता हुआ (भुवनेषु) लोकलोकान्तरों के (अन्तः) बीच में (आ, वरीवर्त्ति) निरन्तर प्रकार वर्त्तमान है ॥ ३१

      “मैंने एक  गोपाल  ( गोप ) को देखा। वह कभी अपने पद से नहीं गिरता; कभी वह निकट होता है, कभी दूर, विभिन्न पथों पर गमन करता रहता है। वह मित्र साथी है, नाना प्रकार के वस्त्रों से सुसज्जित है। वह बार-बार भौतिक दुनिया के मध्य में आता है।
      __________    
      उपर्युक्त श्लोक में सभी गोपों में सबसे प्रमुख कृष्ण का वर्णन किया गया है। इसमें कृष्ण को अवतारी पुरुष और सर्वोच्च भगवान के रूप में भी वर्णित किया गया है।

      प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि (अलीगढ़) एवम् इ० माताप्रसाद सिंह यादव (
      छान्दोग्य उपनिषद में कृष्ण का वर्णन-
      छांदोग्य उपनिषद् सामवेदीय छान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। यह उपनिषद ब्रह्मज्ञान के लिये प्रसिद्ध है।
      इसका समय 8 वीं से 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व है।

      तद्धैताद्घोर अंगिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रयोक्तवोवाचापिपास एव स बभुव सोऽन्तवेलायमेतत्रयं प्रतिपद्येताक्षितमास्युतमसि प्राणसंशितमासीति तत्रैते दवे ऋचौ भवतः || 3.17.6 ||

      अनुवाद:-

      6.  घोर अंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र कृष्ण को यह सत्य सिखाया था । परिणामस्वरूप, कृष्ण सभी इच्छाओं से मुक्त हो गए। तब घोर ने कहा: 'मृत्यु के समय व्यक्ति को ये तीन मंत्र दोहराने चाहिए: आत्मा का कभी नाश नहीं होता, आत्मा कभी नहीं बदलता, और आत्मा जीवन का स्वरूप हैं।" इस संबंध में यहां दो ऋक मंत्र दिए गए हैं:

      राधाय माधवो देवो, माधवेन च राधिका, विभ्रजन्ते जनेसु च



      पद्म पुराण:

      पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
      ,
      पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
      पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
      ,"यदक्षरं वेदगुह्यं यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।
      यस्तन्नो वेद किमृचा करिष्यति ये तद्विदुस्त इमे समासते ।६७।
      अनुवाद:-
      जो अक्षर { अविनाशी) तथा वेद में गोपनीय है। जिसमें सम्पूर्ण देव निवास करते हैं। वे देव ही यदि उसको नहीं जानते तो  इसमें वेद की ऋचा क्या करेगी? जो लोग इसके जानते हैं वे उसी को में रहते हैं।६७।

      तद्विष्णोः परमं धाम सदा पश्यन्ति सूरयः ।
      अक्षरं शाश्वतं दिव्यं देवि चक्षुरिवाततम् ।६८।
      अनुवाद:-उन विष्णु के परम धाम का सूरजन(साधक-ज्ञानी ) सदा दर्शन करते हैं। अक्षर शाश्वत तथा दिव्य वह नेत्र के समान विस्तृत है।६८।

      तत्प्रवेष्टुमशक्यं च ब्रह्मरुद्रादिदैवतैः।
      ज्ञानेन शास्त्रमार्गेण वीक्ष्यते योगिपुंगवैः ।६९।
      अनुवाद:-उसमे प्रवेश करने के लिए ब्रह्मा रूद्र आदि देवगण भी  असमर्थ हैं। ज्ञान और शास्त्रीय पद्धति से श्रेष्ठ योगी उनका दर्शन करते हैं।६९।

      अहं ब्रह्मा च देवाश्च न जानन्ति महर्षयः ।
      सर्वोपनिषदामर्थं दृष्ट्वा वक्ष्यामि सुव्रते ।७०।
      अनुवाद:-हे सुव्रते! मैं ( शंकर) ,ब्रह्मा और देवगण  और महर्षि लोग भी उसे नहीं जानते । मैं तो सभी उपनिषदों के अर्थ को देखकर ही कहता हूँ।७०।

      विष्णोः पदे हि परमे पदे तत्सशुभाह्वयेः ।
      यत्र गावो भूरिशृंगा आसते सुसुखाः प्रजाः ।७१।
      अनुवाद:- भगवान विष्णु के परम पद में  शुभ आह्वान है । वहाँ पर  बहुत अधिक सींगो वाली गायें तथा प्रजाऐं सुखपूर्वक रहती हैं।७१।

      अत्राह तत्परं धाम गोपवेषस्य शार्ङ्गिणः ।
      तद्भाति परमं धाम गोभिर्गोपैस्सुखाह्वयैः ।७२।
      अनुवाद:- अब परम धाम का वर्णन करता हूँ। जहाँ  सुख से सम्पन्न गायें तथा वह लोक गोपों से  युक्त है।७२।

      सामान्या विभिते भूमिन्तेऽस्मिन्शाश्वते पदे ।
      तस्थतुर्जागरूकेस्मिन्युवानौ श्रीसनातनौ ७४।
      अनुवाद:-इस शाश्वत धाम में सामान्य भूमि है। इसमें सदा जवान रहने वाले  भदेवी और नीला देवी के साथ  सनातन भगवान रहते हैं।७४।

      यतः स्वसारौ युवती भू-नीले विष्णुवल्लभे ।
      अत्र पूर्वे ये च साध्या विश्वेदेवास्सनातनाः ।७५।
      यतः स्वसारौ युवती भू-नीले विष्णुवल्लभे ।
      अत्र पूर्वे ये च साध्या विश्वेदेवास्सनातनाः ।७५।
      अनुवाद:-जहाँ से दौनो बहिनें इसमें सदा जवान रहने वाले  भूदेवी और नीला देवी के साथ  सनातन भगवान रहते हैं।७५।

      ''गोलोक के निवास में, बड़े-उत्कृष्ट सींगों वाली कई गायें हैं और जहां सभी निवासी अत्यंत आनंद में रहते हैं।'' -पद्म पुराण उत्तर खंड अध्याय-( 227) में इसी प्रकार का वर्णन है।

      इसके अलावा, पद्म पुराण, भूमि खंड, अध्याय 4.1 में वर्णन है - गतेषु तेषु गोलोकं वैष्णवं तमसः परम् 
      शिवशर्मा महाप्राज्ञः कनिष्ठं वाक्यमब्रवीत् १।
      'सोम शर्मा की पितृ भक्ति' वाला अध्याय - गोलोक का वर्णन फिर से सुत गोस्वामी द्वारा इस प्रकार किया गया है: 

      4. ब्रह्म वैवर्त पुराण
      ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खंड, अध्याय 54.15-16 में इस प्रकार बताया गया है

      ऊर्ध्वं वैकुण्ठ लोक च पञ्चशत कोटि योजनात्
      गोलोक वर्तुलकारो वृद्ध स सर्वलोकः

      "गोलोक का सर्वोच्च निवास वैकुंठ के निवास से करोड़ योजन (1 योजन-8 किमी) ऊपर स्थित है। यह सभी लोकों में सबसे ऊंचा है।"- ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खंड 54.15-16

      इसके अलावा, गोलोक वृन्दावन की श्रेष्ठ स्थिति का वर्णन ब्रह्म वैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खंड, अध्याय 4.188 में भी इस प्रकार है:

      ब्रह्माण्ड बहिर ऊर्ध्वं च न अस्ति लोकास्ता ऊर्ध्वकः

      ऊर्ध्वं सूर्यमयं सर्वं तदन्त सृस्तिर एव च
      ''गोलोक का यह निवास ब्रह्माण्ड के बाहर स्थित है। यह सबसे ऊँचा स्थान है. इससे कोई दूसरा लोक नहीं है। इसका पूर्ण शून्यता (अनन्त शून्यता एवं अंधकार) है। वास्तव में, यह गोलोक राक्षसी राक्षस का अंत है।''- ब्रह्म वैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खंड 4.188

      वैकुण्ठ च शिवलोक च गोलोक च तयो परः

      ''गोलोक शिवलोक और वैकुंठ लोक के ऊपर स्थित है।'' - ब्रह्म वैवर्त पुराण 1.7.20

      5. बृहत् ब्रह्म संहिता (पंचरात्र)

      बृहत् ब्रह्म संहिता- 3.1.122 में इस प्रकार कहा गया है:
      उर्ध्वं तु सर्वलोकेभ्यो गोलोके प्रकृतिः परे

      “गोलोक का निवास सभी स्थानों के ऊपर स्थित है। यह पूरी तरह से पदार्थ से परे (अनुवांशिक) है।" बृहत् ब्रह्म संहिता 3.1.122
      __________________
      6. वायु पुराण:-
      वायु पुराण में, गोलोक का सर्वोच्च निवास, जिसमें भगवान कृष्ण और श्रीमती राधारानी शाश्वत रूप से निवास करते हैं, का वर्णन इस प्रकार किया गया है।

      धावतोऽन्यानतिक्रान्तं वदतो वागगोचरम् ।
      वेदवेदान्तसिद्धान्तैर्विनिर्णीतं तदक्षरम् ।४२.४२ ।

      अक्षरान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः ।
      इत्येवं श्रूयते वेदे बहुधापि विचारिते ।। ४२.४३ ।।

      अक्षरस्यात्मनश्चापि स्वात्मरूपतया स्थितम्।
      परमानन्दसन्दोहरूपमानन्द विग्रहम् ।। ४२.४४।

      लीलाविलासरसिकं बल्लवीयूथमध्यगम्।
      शिखिपिच्छकिरीटेन बास्वद्रत्नचितेन च ।४२.४५।

      उल्लसद्विद्युदाटोपकुण्डलाभ्यां विराजितम्।
      कर्णोपान्तचरन्नेत्रखञ्जरीटमनोहरम् ।।४२.४६।।

      कुञ्जकुञ्जप्रियावृन्दविलासरतिलम्पटम्।
      पीताम्बरधरं दिव्यं चन्दनालेपमण्डितम् ।।४२.४७।

      अधरामृत संसिक्तवेणुनादेन वल्लवीः।
      मोहयन्तञ्चिदानन्दमनङ्गमदभञ्जनम् ।४२.४८ ।

      कोटिकामकलापूर्णं कोटिचन्द्रांशुनिर्मलम्।
      त्रिरेखकम्ठविलसद्रत्नगुञ्जामृगा कुलम् ।४२.४९ 

      यमुनापुलिने तुङ्गे तमालवनकानने।
      कदम्बचम्पकाशोकपारिजातमनोहरे ।। ४२.५० ।।

      शिखिपारावतशुकपिककोलाहलाकुले।
      निरोधार्थं गवामेव धावमानमितस्ततः ।। ४२.५१।

      राधाविलासरसिकं कृष्णाख्यं पुरुषं परम्।
      श्रुतवानस्मि वेदेभ्यो यतस्तद्गोचरोऽभवत् ।। ४२.५२ ।।

      एवं ब्रह्मणि चिन्मात्रे निर्गुणे भेदवर्जिते।
      गोलोकसंज्ञिके कृष्णो दीव्यतीति श्रुतं मया ।। ४२.५३ ।।

      नातः परतरं किञ्चिन्निगमागमयोरपि।
      तथापि निगमो वक्ति ह्यक्षरात् परतः परः।४२.५४।

      गोलोकवासी भगवानक्षरात्पर उच्यते।
      तस्मादपि परः कोऽसौ गीयते श्रुतिभिः सदा । ४२.५५ ।

      उद्दिष्टो वेद वचनैर्विशेषो ज्ञायते कथम्।
      श्रुतेर्वार्थोऽन्यथा बोध्यः परतस्त्वक्षरादिति ।। ४२.५६ ।।

      श्रुत्यर्थे संशयापन्नो व्यासः सत्यवतीसुतः।
      विचारयामास चिरं न प्रपेदे यथातथम् ।४२.५७।

                       "सूत उवाच।।
      विचारयन्नपि मुनिर्नाप वेदार्थनिश्चयम्।
      वेदो नारायणः साक्षाद्यत्र मुह्यन्ति सूरयः।४२.५८।

      तथापि महतीमार्त्तिं सतां हृदयतापिनीम्।
      पुनर्विचारयामास कं व्रजामि करोमि किम् । ४२.५९ ।

      पश्यामि न जगत्यस्मिन्सर्वज्ञं सर्वदर्शनम्।
      अज्ञात्वाऽन्यतमं लोके सन्देहविनिवर्त्तकम् । ४२.६० ।

      सन्दर्भ :-वायुपुराण 104(42) वें अध्याय के ( 42-60 )  तक के श्लोक- 
      _______________
      “भगवान कृष्ण, जो पत्नी राधा जी के प्रेमी हैं, वेदों में सर्वोच्च पुरुष कहलाते हैं।” जिनसे  यह सारा संसार प्रकट होता है। उन्होंने वास्तविक वेदों में अद्वैत निर्गुण ब्रह्म का वर्णन किया है, जो गोलोक के अपने शाश्वत निवास में रहता है। “-वायु पुराण 104 ( 42).52-55
      ________. 
      श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे/
      श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके राधिकाश्रमे । रासमण्डल-मध्ये च मह्यं वृन्दावने वने ॥ ९॥
      श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे/नारद-नारायणसंवादे परशुरामाय श्रीकृष्णकवच-प्रदानं नाम एकत्रिंशत्तमोऽध्ययः ॥
      _____________

      8. स्कंद पुराण
      स्कंद पुराण के वासुदेव महात्म्य (वैश्व खंड) के प्रसिद्ध खंड में भगवान कृष्ण के गोलोक निवास का विस्तृत वर्णन है।

      "वासुदेवस्याङ्गतया भावयित्वा सुरान्पितॄन् ।।
      अहिंसपूजाविधिना यजन्ते चान्वहं हि ते ।। ३१ ।।

      अहिंसया च तपसा स्वधर्मेण विरागतः ।। वासुदेवस्य माहात्म्यज्ञानेनैवात्मनिष्ठया ।। २५।।

      संमानिता सुरगणैः पाद्यार्घ्यस्वागतादिभिः ।।
      ते बृहन्मुनयोऽपश्यन्मेध्यांस्तान्क्रोशतः पशून् ।७।

      सात्त्विकानामपि च तं देवानां यज्ञविस्तरम् ।।
      हिंसामयं समालोक्य तेऽत्याश्चर्यं हि लेभिरे ।। ८ ।

      धर्मव्यतिक्रमं दृष्ट्वा कृपया ते द्विजोत्तमाः ।।
      महेन्द्रप्रमुखानूचुर्देवान्धर्मधियस्ततः ।। ९ ।।

      सात्त्विकानां हि वो देवः साक्षाद्विष्णू रमापतिः ।।
      अहिंसयज्ञेऽस्ति ततोऽधिकारस्तस्य तुष्टये ।१९ ।

      प्रत्यक्षपशुमालभ्य यज्ञस्याचरणं तु यत् ।।
      धर्मः स विपरीतो वै युष्माकं सुरसत्तमाः ।। 2.9.6.२० ।।

      ________ 
      सन्दर्भ:- स्कन्दपुराणम्‎ - खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)‎ वासुदेवमाहात्म्यम्
                   " सावर्णिरुवाच ।।
      स हि भक्तो भगवत आसीद्राजा महान्वसुः ।।
      किं मिथ्याऽभ्यवदद्येन दिवो भूविवरं गतः ।। १ ।।

      केनोद्धृतः पुनर्भूमेः शप्तोऽसौ पितृभिः कुतः ।।
      कथं मुक्तस्ततो भूप इत्येतत्स्कन्द मे वद् ।। २ ।।
                        "स्कन्द उवाच ।।
      शृणु ब्रह्मन्कथामेतां वसोर्वास वरोचिषः ।।
      यस्याः श्रवणतः सद्यः सर्वपापक्षयो भवेत् ।। ३ ।।

      स्वायम्भुवान्तरे पूर्वमिन्द्रो विश्वजिदाह्वयः ।।
      आररम्भे महायज्ञमश्वमेधाभिधं मुने ।। ४ ।।

      निबद्धाः पशवोऽजाद्याः क्रोशन्तस्तत्र भूरिशः ।।
      सर्वे देवगणाश्चापि रसलुब्धास्तदासत ।। ५ ।।

      क्षेमाय सर्वलोकानां विचरन्तो यदृच्छया ।।
      महर्षय उपाजग्मुस्तत्र भास्करवर्च्चसः ।। ६।।

      संमानिता सुरगणैः पाद्यार्घ्यस्वागतादिभिः ।।
      ते बृहन्मुनयोऽपश्यन्मेध्यांस्तान्क्रोशतः पशून् ।७।

      सात्त्विकानामपि च तं देवानां यज्ञविस्तरम् ।।
      हिंसामयं समालोक्य तेऽत्याश्चर्यं हि लेभिरे ।। ८ ।।

      धर्मव्यतिक्रमं दृष्ट्वा कृपया ते द्विजोत्तमाः ।।
      महेन्द्रप्रमुखानूचुर्देवान्धर्मधियस्ततः ।। ९ ।।
                          "महर्षय ऊचुः ।।
      देवैश्च ऋषिभिः साकं महेन्द्राऽस्मद्वचः शृणु ।।
      यथास्थितं धर्मतत्त्वं वदामो हि सनातनम् ।। 2.9.6.१० ।।

      यूयं जगत्सर्गकाले ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।।
      सत्त्वेन निर्मिताः स्थो वै चतुष्पाद्धर्मधारकाः । ११।

      रजसा तमसा चासौ मनूंश्चैव नराधिपान् ।।
      असुराणां चाधिपतीनसृजद्धर्मधारिणः ।। १२ ।।

      सर्वेषामथ युष्माकं यज्ञादिविधिबोधकम् ।।
      ससर्ज श्रेयसे वेदं सर्वाभीष्टफलप्रदम् ।। १३ ।।

      अहिंसैव परो धर्मस्तत्र वेदेऽस्ति कीर्त्तितः ।।
      साक्षात्पशुवधो यज्ञे नहि वेदस्य संमतः ।। १४ ।।

      चतुष्पादस्य धर्मस्य स्थापने ह्येव सर्वथा ।।
      तात्पर्यमस्ति वेदस्य न तु नाशेऽस्य हिंसया ।१५ ।

      रजस्तमोदोषवशात्तथाप्यसुरपा नृपाः ।।
      मेध्येनाजेन यष्टव्यमित्यादौ मतिजाड्यतः ।।
      छागादिमर्थं बुबुधुर्व्रीह्यादिं तु न ते विदुः ।। १६ ।।

      सात्त्विकानां तु युष्माकं वेदस्यार्थो यथा स्थितः ।।
      ग्रहीतव्योन्यथा नैव तादृशी च क्रियोचिता ।१७।

      यादृशो हि गुणो यस्य स्वभावस्तस्य तादृशः ।।
      स्वस्वभावानुसारेण प्रवृत्तिः स्याच्च कर्मणि ।१८ ।।
      सात्त्विकानां हि वो देवः साक्षाद्विष्णू रमापतिः ।।
      अहिंसयज्ञेऽस्ति ततोऽधिकारस्तस्य तुष्टये ।१९ ।

      प्रत्यक्षपशुमालभ्य यज्ञस्याचरणं तु यत् ।।
      धर्मः स विपरीतो वै युष्माकं सुरसत्तमाः ।। 2.9.6.२० ।।

      रजस्तमोगुणवशादासुरीं संपदं श्रिताः ।।
      युष्माकं याजका ह्येते सन्त्यवेदविदो यथा ।। २१।।

      तत्सङ्गादेव युष्माकं साम्प्रतं व्यत्ययो मतेः ।।
      जातस्तेनेदृशं कर्म प्रारब्धमिति निश्चितम् ।। २२ ।।

      राजसानां तामसानामासुराणां तथा नृणाम् ।।
      यथागुणं भैरवाद्या उपास्याः सन्ति देवताः ।। २३।

      स्वगुणानुगुणात्मीयदेवतातुष्टये भुवि ।।
      हिंस्रयज्ञविधानं यत्तेषामेवोचितं हि तत् ।। २४ ।।

      तत्रापि विष्णुभक्ता ये दैत्यरक्षोनरादयः ।।
      तेषामप्युचितो नास्ति हिंस्रयज्ञः कुतस्तु वः ।२५ ।

      यज्ञशेषो हि सर्वेषां यज्ञकर्मानुतिष्ठताम् ।।
      अनुज्ञातो भक्षणार्थं निगमेनैव वर्तते ।। २६ ।।

      सात्त्विकानां देवतानां सुरामांसाशनं क्वचित् ।।
      अस्माभिस्त्वीक्षितं नैव न श्रुतं च सतां मुखात् ।। २७ ।।

      तस्माद्व्रीहिभिरेवासौ यज्ञः क्षीरेण सर्पिषा ।।
      मेध्यैरन्नरसैश्चाऽन्यैः कार्यो न पशुहिंसया ।।२८।।

      तत्रापि बीजैर्यष्टव्यमजसंज्ञामुपागतैः ।।
      त्रिवर्षकालमुषितैर्न्न येषां पुनरुद्गमः ।। २९ ।।
      अद्रोहश्चायलोभश्च दमो भूतदया तपः ।।
      ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमदम्भश्च क्षमा धृतिः ।। 2.9.6.३० ।।

      सनातनस्य धर्मस्य रूपमेतदुदीरितम् ।।
      तदतिक्रम्य यो वर्तेद्धर्मघ्नः स पतत्यधः ।। ३१ ।।
                 ।। स्कन्द उवाच ।।
      इत्थं वेदरहस्यज्ञैर्महामुनिभिरादरात् ।।
      बोधिता अपि सन्नीत्या स्वप्रतिज्ञाविघाततः ।।

      तद्वाक्यं जगृहुर्नैव तत्प्रामाण्यविदोपि ते ।। ३२ ।।

      महद्व्यतिक्रमात्तर्हि मानक्रोधमदादयः ।।
      विविशुस्तेष्वधर्मस्य वंश्याश्छिद्रगवेषिणः ।। ३३ ।।
      अजश्छागो न बीजानीत्यादि वादिषु तेष्वथ ।।
      विमनस्स्वृषिवर्येषु पुनस्तान्बोधयत्सु च ।। ३४ ।।
      राजोपरिचरः श्रीमांस्तत्रैवागाद्यदृच्छया ।।
      तेजसा द्योतयन्नाशा इन्द्रस्य परमः सखा ।। ३५ ।।
      तं दृष्ट्वा सहसायान्तं वसुं ते त्वन्तरिक्षगम् ।।
      ऊचुर्द्विजातयो देवानेष च्छेत्स्यति संशयम् ।। ३६ ।।
      एष भूमिपतिः पूर्वं महायज्ञान्सहस्रशः ।।
      चक्रे सात्वततन्त्रोक्तविधिनारण्यकेन च ।। ३७ ।।
      येषु साक्षात्पशुवधः कस्मिंश्चिदपि नाऽभवत् ।।
      न दक्षिणानुकल्पश्च नाप्रत्यक्षसुरार्च्चनम् ।। ३८ ।।
      अहिंसाधर्मरक्षाभ्यां ख्यातोसौ सर्वतो नृपः ।।
      अग्रणीर्विष्णुभक्तानामेकपत्नीमहाव्रतः ।। ३९ ।।
      ईदृशो धार्मिकवरः सत्यसन्धश्च वेदवित् ।।
      कथंचिन्नान्यथा ब्रूयाद्वाक्यमेष महान्वसुः ।। 2.9.6.४० ।।
      एवं ते संविदं कृत्वा विबुधा ऋषयस्तथा ।।
      अपृच्छन्सहसाऽभ्येत्य वसुं राजानमुत्सुकाः ।। ४१ ।।
      देवमहर्षय ऊचुः ।।
      भो राजन्केन यष्टव्यं पशुना होस्विदौषधैः ।।
      एतं नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान्मतः ।। ४२ ।।
      स्कन्द उवाच ।।
      स तान्कृताञ्जलिर्भूत्वा परिपप्रच्छ वै वसुः ।।
      कस्य वः को मतः पक्षो ब्रूत सत्यं समाहिताः ।। ४३ ।।
      महर्षय ऊचुः ।।
      धान्यैर्यष्टव्यमित्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप ।।
      देवानां तु पशुः पक्षो मतं राजन्वदात्मनः ।। ४४ ।।
      स्कन्द उवाच ।।
      देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुस्तत्पक्षसंश्रयात् ।।
      छागादिपशुनैवेज्यमित्युवाच वचस्तदा ।। ४५ ।।
      एवं हि मानिनां पक्षमसन्तं स उपाश्रितः ।।
      धर्मज्ञोप्यवदन्मिथ्या वेदं हिंसापरं नृपः ।।४६।।
      तस्मिन्नैव क्षणे राजा वाग्दोषादन्तरिक्षतः ।।
      अधः पपात सहसा भूमिं च प्रविवेश सः।।
      महतीं विपदं प्राप भूमिमध्यगतो नृपः।।
      स्मृतिस्त्वेनं न प्रजहौ तदा नारायणाश्रयात्।।४८।।
      मोचयित्वा पशून्त्सर्वांस्ततस्ते त्रिदिवौकसः ।।
      हिंसाभीता दिवं जग्मुः स्वाश्रमांश्च महर्षयः।।४९।।
      इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णव खण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये वेदस्यहिंसापरत्वोक्त्या उपरिचरवसोरधःपातवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ।।६।।


      एकान्तधर्मसिद्यर्थं वासुदेवस्य पूजनम् ।।
      करिष्य इति संकल्प्य कुर्यान्न्यासविधिं ततः ।। २ ।।
      न्यासे मन्त्रा द्वादशार्णो गायत्री वैष्णवी तथा।।
      नारायणाष्टाक्षरश्च ज्ञेया विष्णुषडक्षरः ।। ३ ।।
      एते द्विजानां विहितास्तदन्येषां त्विह त्रयः ।।
      वासुदेवाष्टाक्षरश्च हरिपञ्चाक्षरस्तथा ।।
      षडर्णः केशवस्येति न्यासे होमे च संमताः ।। ४
      ततोऽक्षरब्रह्मरूपो राधाकृष्णं हृदि प्रभुम् ।।
      ध्यायेदव्यग्रमनसा प्राणायामं समाचरन्।।९।।
      अधोमुखं नाभिपद्मं कदलीपुष्पवत्स्थितम्।।
      विभाव्यापानपवनं प्राणेनैक्यमुपानयेत्।।2.9.28.१०।।
      पद्मनाले तमानीय सह तेन तदम्बुजम्।।
      आकर्षेदूर्ध्वमथ तन्नदत्तीव्रमुपैति हृत् ।।
      प्रफुल्लति च तत्रैतद्धृदयाकाश उल्लसत् ।। ११ ।।
      तेजोराशिमये तत्र ततोप्यधिकतेजसा ।।
      दर्शनीयतमं शान्तं ध्यायेच्छ्रीराधिकापतिम् ।। १२ ।।
      उपविष्टं स्थितं वा तं दिव्यचिन्मयविग्रहम् ।।
      ध्यायेत्किशोरवयसं कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ।। १३ ।।
      रूपानुरूपसंपूर्णदिव्यावयवलक्षितम् ।।
      शरच्चन्द्रावदातांगं दीर्घचारुभुजद्वयम् ।। १४ ।।
      आरक्तकोमलतलरम्यांगुलिपदाम्बुजम् ।।
      तुंगारुणस्निग्धनखद्युतिलज्जायितोडुपम् ।। १५ ।।
      स्कन्द पुराण28वाँ अध्याय ।
      प्राप्ता ये वैष्णवीं दीक्षां वर्णाश्चत्वार आश्रमाः ।।
      चातुर्वर्ण्यस्त्रियश्चैते प्रोक्ता अत्राधिकारिणः ।। ७ ।।
      वेदतन्त्रपुराणोक्तैर्मन्त्रैर्मूलेन च द्विजाः ।।
      पूजेयुर्दीक्षिता योषाः सच्छूद्रा मूलमन्त्रतः ।।
      मूलमन्त्रस्तु विज्ञेयः श्रीकृष्णस्य षडक्षरः ।।८।।
      स्वस्वधर्मं पालयद्भिः सर्वेरेतैर्यथाविधि ।।
      पूजनीयो वासुदेवो भक्त्या निष्कपटान्तरैः ।। ९ ।।
      आदौ तु वैष्णवीं दीक्षां गृह्णीयात्सद्वरोः पुमान् ।।
      सदैकान्तिकधर्मस्थाद्ब्रह्मजातेर्दयानिधेः ।। 2.9.26.१० ।।


      स्कन्द पुराण गोलोक वर्णन
      भूम्यप्तेजोनिलाकाशाहम्महत्प्रकृतीः क्रमात् ।।
      क्रान्त्वा दशोत्तरगुणाः प्राप गोलोकमद्भुतम् ।।१२।।
      धाम तेजोमयं तद्धि प्राप्यमेकान्तिकैर्हरेः।।
      गच्छन्ददर्श विततामगाधां विरजां नदीम्।।१३।।
      गोपीगोपगणस्नानधौतचन्दनसौरभाम्।।
      पुण्डरीकैः कोकनदै रम्यामिन्दीवरैरपि।।१४।।
      तस्यास्तटं मनोहारि स्फटिकाश्ममयं महत्।।
      प्राप श्वेतहरिद्रक्तपीतसन्मणिराजितम्।।१५।।
      कल्पवृक्षालिभिर्ज्जुष्टं प्रवालाङ्कुरशोभितम्।।
      स्यमन्तकेन्द्रनीलादिमणीनां खनिमण्डितम् ।। १६ ।।
      नानामणीन्द्रनिचितसोपानततिशोभनम् ।।
      कूजद्भिर्मधुरं जुष्टं हंसकारण्डवादिभिः ।। १७ ।।
      वृन्दैः कामदुघानां च गजेन्द्राणां च वाजिनाम् ।।
      पिबद्भिर्न्निर्मलं तोयं राजितं स व्यतिक्रमत् ।। १८ ।।
      उत्तीर्याऽथ धुनी दिव्यां तत्क्षणादीश्वरेच्छया ।।
      तद्धामपरिखाभूतां शतशृङ्गागमाप सः ।। १९ ।।
      हिरण्मयं दर्शनीयं कोटियोजनमुच्छ्रितम् ।।
      विस्तारे दशकोट्यस्तु योजनानां मनोहरम् ।। 2.9.16.२० ।।
      ______________________________
      गोपानां गोपिकानां च कृष्णसंकीर्त्तनैर्मुहुः ।।
      गोवत्स पक्षिनिनदैर्न्नानाभूषणनिस्वनैः ।।
      दधिमन्थनशब्दैश्च सर्वतो नादितं मुने ।। ३८ ।।

      फुल्लपुष्पफलानम्रनानाद्रुमसुशोभनैः ।।
      द्वात्रिंशतवनैरन्यैर्युक्तं पश्यमनोहरैः ।। ३९ ।।

      तद्वीक्ष्य हृष्टः स प्राप गोलोकपुरमुज्वलम् ।।
      वर्तुलं रत्नदुर्गं च राजमार्गोपशोभितम् ।। 2.9.16.४० ।।
      ____________
      गोपस्य वृषभानोस्तु सुता राधा भविष्यति ।।
      वृन्दावने तया साकं विहरिष्यामि पद्मज ।। ३४ ।।

      लक्ष्मीश्च भीष्मकसुता रुक्मिण्याख्या भविष्यति ।
      उद्वहिष्यामि राजन्यान्युद्धे निर्जित्य तामहम् । ३५।

      स्कंद देव (कार्तिकेय) ने नारद मुनि की श्वेतद्वीप से गोलोक तक की संपूर्ण यात्रा का वर्णन किया है। मैं इसमें से केवल कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत  हूैं।

      ''पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ब्रह्मा, महत और प्रकृति के क्षेत्रों (कोशों) को एक के बाद एक पार करते गए, जिनमें से हर पिछले एक से दस गुना बड़ा है, नारद अखिल दिव्य निवास तक पहुँचते हैं। गोलोक का. यह भगवान हरि का एक जीवंत निवास है, जिसे केवल भगवान हरि की प्रति समर्पित शुद्ध भक्तों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।'' - विष्णु खंड, वासुदेव महात्म्य, स्कंद पुराण 16.12-13


      ''हर ब्रह्मांड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड पाताल से ब्रह्मलोक तक फैला हुआ है। वैकुण्ठ का धाम उससे भी ऊँचा है (अर्थात् ब्रह्माण्ड के बाहर स्थित है)। पुनः गोलोक का निवास वैकुण्ठ से पचास करोड़ योजन ऊँचा है।''- (देवी भागवत 9.3.8-9)

      17. सनतकुमार संहिता
      यमुनायन निमग्न प्रकाश सं गोकुलस्य च
      गोलोकं प्राप्य तत्रभूत संयोग-रस-पेजल

      ''उसे (श्री राधा ने) यमुना में डूबकर अपना जीवन त्याग दिया (सांसारिक लीलाओं से लापता हो गई)। इस प्रकार वह आध्यात्मिक दुनिया में गोलोक लौट आए जहां उन्होंने फिर से भगवान कृष्ण की सती का आनंद लिया।'' - सनतकुमार संहिता, पाठ 309
      _   




      ___________________________

          

      अध्याय-पञ्च विञ्शति (25)

      "शास्त्रों में प्रक्षेप तब से हुआ जब शास्त्रों के प्रकाशन काल में कुछ जोड़- तोड़, द्वेष वश किया गया और ऐसा हो जाने तथा परम्परागत ज्ञान और आचरण से विमुख होने से नव पीढ़ी के युवकों के मन में विशेषत: आर्य समाज से प्रभावित व्यक्तियों के मन में निर्णायकता समाप्त हुई और परवर्ती संस्कृत कवियों द्वारा कृष्ण चरित्र में श्रृँगारिकता का व्यतिरेक करने से कृष्ण आराधिका और सहचरी एक महान गोपी के अस्तित्व को नकारा जाने लगा उस आराधिका का नाम राधिका था।
      सत्य पूछा जाए तो वह आराधिका  और आराध्या भी थी।
      इसका प्रमाण स्वयं शास्त्र व पौराणिक उद्धरण हैं।
      कृष्ण का आध्यात्मिक सम्बन्ध पुराणों में जिस गोपी के साथ बताया गया है। वह देवत्रयी के देव ब्रह्मा विष्णु और महेश की पत्नीयों की‌ भी आराध्या हैं।

      "दुर्गाराध्या रमाराध्या विश्वाराध्या चिदात्मिका।
      देवाराध्या पराराध्या ब्रह्माराध्या परात्मिका।१५१।
      अनुवाद:- जो दुर्गा और लक्ष्मी के द्वारा आराधना करने योग्य ,तथा जो सम्पूर्ण विश्व की आराध्या चेतना की अधिष्ठात्री और देवों की परम -आराध्या हैं। और जगत्-सृष्टा ब्रह्मा भी जिसकी आराधना करते है  वही परमात्मा स्वरूपा ईश्वरीय सत्ता राधा जी हैं।
      "शिवाराध्या प्रेमसाध्या भक्ताराध्या रसात्मिका।
      कृष्णप्राणार्पिणी भामा शुद्धप्रेमविलासिनी।१५२।

      अनुवाद:- जो शिव जी द्वारा आराधना करने योग्य हैं जिन्हें केवल प्रेम (भक्ति) द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है जो सभी भक्तों के लिए आराधना करने योग्य हैं परम-रस की आत्मा हैं। और कृष्ण जिनके प्रति अपने प्राणों का अर्पण करते हैं तथा दुष्टों के लिए जो क्रोध रूप हैं। जो शुद्ध प्रेम का विलास (लीला) करने वाली हैं। वही राधा हैं।
      "कृष्णाराध्या भक्तिसाध्या भक्तवृन्दनिषेविता।
      विश्वाधारा कृपाधारा जीवधारातिनायिका। 
      १५३।
      अनुवाद:- कृष्ण की जो आराध्या  एवं भक्ति द्वारा ही साध्य हैं भक्त-समुदाय नित्य जिनके भक्ति रस का सेवन करते ,और सेवा करते हैं जो विश्व रूपी समुद्र की धारा है। जो कृपा की धारा हैं जो जीवन की धारा तथा संसार की नायिका हैं। वही ईश्वरीय सत्ता राधा जी हैं।
      सन्दर्भ-स्रोत-★
      बृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहपाख्याने तृतीयपदे राधाकृष्ण सहस्त्रनामकथनं नाम    द्वाशीतितमोऽध्यायः॥८२॥
      ____________________________________
      साधकों की सिद्धि और भक्ति की अधिष्ठात्री राधा जी हैं। जो मलिन हृदय और सांसारिक वासनाओं में परिवेष्टित (बँधे हुए) व्यक्ति हैं वे मूढमति राधा नाम के महत्व से सदैव अनभिज्ञ ही रहते हैं। मनुष्य के जन्म- जन्मान्तरों का संचित अहंकार ही नास्तिकता का रूपान्तरण है। नास्तिक व्यक्ति संवेदना हीन नीरस होता है जिसे कभी शान्ति नहीं मिलती है।
      कामी मनोवृत्ति के व्यक्तियों ने राधा और कृष्ण के चरित्रों पर अपनी उन्मुक्त वासनाओं की अभिव्यक्ति का आरोपण किया । और राधाकृष्ण के युगल रूप को अपने श्रृँगार परक काव्य का आधार बनाया है। बस इसी वासना मूलक परिदृश्य को देखकर 
      आर्य-समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द तथा उन के अनुयायी कहने लगे कि राधा के चरित्र की कृष्ण के साथ कल्पना बाद के कवियों या विधर्मियों ने श्रीकृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए की है।

      इस कुतर्क के पक्ष में वे यह कहते हैं भी कि यदि राधा का कोई अस्तित्व होता तो क्या श्रीमद्भागवत जैसे महत्वपूर्ण वैष्णव ग्रन्थ में उनका उल्लेख नहीं होता ? परन्तु वस्तुतः आर्यसमाजीयों का यह  कहना भी उनका वितण्डावाद ही है ! कोई सैद्धान्तिक तर्क नहीं है।  क्योंकि भागवत पुराण के भी कई प्रकरण प्रक्षिप्त व  परस्पर विरुद्ध हैं। अत: भागवत पुराण भी जोड़-तोड़ के अपवाद से रहित नहीं है।
      भागवत पुराण के दशम स्कन्ध में ही जब कृष्ण के यौगिक चरित्र को रासलीला की आड़ में  व्यभिचार मूलक रूप में प्रस्तुत करते समय राधा जी भागवत पुराण में राधा जी का वर्णन न होना भी अच्छा ही है।
       
      समाधान- के रूप में हम भागवत पुराण के कुछ असंगत श्लोक  प्रक्षेपों को प्रमाण सहित लिखते हैं। जबकि
      भागवतपुराण में भी अनेक प्रक्षेप हैं।
      प्रथम तो वह श्लोकांश जिसमें संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति भिन्न रूपों में वर्णित है। वैसे भी विकल्प अनुमान का ही आधेय होता है । सत्य  का तो कदापि नहीं।
      देखें भागवत पुराण के स्कन्ध/अध्याय/श्लोक
      10/8/12  में निम्नलिखित श्लोक का तृतीयाञ्श  
                       "श्रीगर्ग उवाच"
      "अयं हि रोहिणीपुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: ।
      आख्यास्यते राम इति !
      बलाधिक्याद्बलं विदु: ।
      "यदूनामपृथग्भावातसंकरषणमुशन्त्यपि ।१२।"
      शब्दार्थ
      श्री-गर्ग: उवाच—गर्गमुनि ने कहा; अयम्—यह; हि—निस्सन्देह; रोहिणी-पुत्र:—रोहिणी का पुत्र; रमयन्—प्रसन्न करते हुए; सुहृद:—अपने सारे मित्रों तथा सम्बन्धियों को; गुणै:— गुणों से; आख्यास्यते—कहलायेगा; राम:—रमण करने वाला, राम नाम से; इति—इस तरह; बल-आधिक्यात्—असाधारण बल होने से; बलम् विदु:—बलराम नाम से विख्यात होगा; यदूनाम्—यदुवंश का; अपृथक्-भावात्— पृथक् न हो सकने के कारण; (एक जुटता) के कारण सङ्कर्षणम्—संकर्षण नाम से । उशन्ति- कामना  करते हैं; उशन्ति वश धातु या सन् प्रसारित लट्लकार अन्य पुरूष बहुवचन रूप है। धातुः √वश् (वशँ= कान्तौ, अदादि-गणः, धातु-पाठः २. ७५)   अपि—भी ।.
      'अनुवाद:  
      गर्गमुनि ने कहा : यह रोहिणी-पुत्र अपने दिव्य गुणों से अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों को सभी तरह का सुख प्रदान करेगा। अत: यह राम कहलायेगा। और असाधारण शारीरिक बल का प्रदर्शन करने के कारण यह बलराम भी कहलायेगा। यहाँ तक तो श्लोक सही हैं परन्तु 
      चूँकि यह दो परिवारों—वसुदेव तथा नन्द महाराज के परिवारों—को जोडऩे वाला है, अत: यह संकर्षण भी कहलायेगा।  इन श्लोकांश में संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरणीय सिद्धान्तों के विपरीत होने से तथा भागवत पुराण के अनुवादको द्वारा पूर्वदुराग्रहसे ग्रस्त अर्थ करने से यह श्लोकाँश  प्रक्षिप्त ही है।
      जबकि भागवत पुराण में अन्यत्र संकर्षण की व्युत्पत्ति से सम्बद्ध श्लोक इसके विपरीत है। 10.2.13  
      गर्भसङ्कर्षणात् तं वै प्राहु:सङ्कर्षणं भुवि।
      रामेति लोकरमणाद् बलभद्रं बलोच्छ्रयात् ॥१३। 
      शब्दार्थ:-गर्भ-सङ्कर्षणात्—देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाये जाने के कारण; तम्—उसको (रोहिणीनन्दन को); वै—निस्सन्देह; प्राहु:—लोग कहेंगे; सङ्कर्षणम्—संकर्षण को; भुवि—संसार में; राम इति—राम इस प्रकार; लोक-रमणात्— लोक आनन्द कराने से; बलभद्रम्—बलभद्र कहलाएगा; बल-उच्छ्रयात्—प्रचुर बल के कारण।
      अनुवाद:-देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में भेजे जाने के कारण रोहिणी का पुत्र संकर्षण भी कहलाएगा।
      वह गोकुल के सारे निवासियों को प्रसन्न रखने की क्षमता होने के कारण राम कहलाएगा और अपनी प्रचुर शारीरिक शक्ति के कारण बलभद्र कहलाएगा।
      समाधान:-
      नन्द और वसुदेव दोनों का कुल वृष्णि ही था दोनों एक पितामह देवमीढ़ के पौत्र (नाती) थे। और 
      हरिवंश पुराण और अन्य पुराणों में संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति समान और व्याकरण संगत है।
      सम्यक् कर्षतीति इति सङ्कर्षण-(सम् + कृष् +ल्युट्। हरिवंश विष्णु पर्व अध्याय-4 श्लोक-6) में संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति समीचीन है।
      अनुवाद:- निद्रा ने उससे कहा- ‘शुभे ! तुम्हारे उदर में स्थापित हुआ जो यह गर्भ है, इसका आकर्षण हुआ है, इस कारण यह पुत्र संकर्षण नाम से प्रसिद्ध होगा।
      बुद्धिमान वसुदेव की पत्नी रोहिणी चन्द्रमा की प्यारी भार्या रोहिणी के समान दिखायी देती थी। वह उस गर्भ के लिये उद्विग्नि हो रही थी। उस समय उस समय की निद्रा की अधिष्ठात्री देवी ने उनसे यह कहा था। 
      "त्रिदेवजननी चण्डी शिवा सर्वार्तिनाशिनी।।
      सर्वमाता महानिद्रा सर्वस्वजनतारिणी ।।५।।
      सन्दर्भ:-
      श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखंडे देवसान्त्वनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ।।४।।
      उसी को उपर्युक्त श्लोक में वर्णित किया गया है।
      __________ 
      विष्णु पुराण में भी इससे प्रकरण से सम्बन्धित श्लोक हरिवंश पुराण के समान हैं।
      संज्ञामवाप्स्यते वीरः श्वेताद्रिशिखरोपमः॥७६॥
      ततोऽहं सम्भविष्यामि देवकीजठरे शुभे।
      भर्गं त्वया यशोदाया गन्तव्यमविलम्बितम्॥७७॥
      ____________________
      और ब्रह्म पुराण अध्याय  में भी यह समानता दर्शनीय है।
      "सप्तमो भोजराजस्य भयाद्रोधोपरोधतः।
      देवक्याःपतितो गर्भ इति लोको वदिष्यति।। १८१.४१।।
      संज्ञामवाप्स्यते वरीः श्वेताद्रिशिखरोपमः।। १८१.४२ ।।
      सन्दर्भ:-
      गर्गजी ने कहा- ये जो रोहिणी के पुत्र हैं, इनका नाम बताता हूँ- सुनो। इनमें योगीजन रमण करते हैं अथवा ये सब में रमते हैं या अपने गुणों द्वारा भक्त जनों के मन को रमाया करते हैं, इन कारणों से उत्कृष्ट ज्ञानीजन इन्हें ‘राम’ नाम से जानते हैं।
      योगमाया द्वारा गर्भ का संकर्षण होने से इनका प्रादुर्भाव हुआ है, अत: ये ‘संकर्षण’ नाम से प्रसिद्ध होंगे।
      अशेष जगत का संहार होने पर भी ये शेष रह जाते हैं, अत: इन्हें लोग ‘शेष’ नाम से जानते हैं। सबसे अधिक बलवान होने से ये ‘बल’ नाम से भी विख्यात होंगे।
      नीचे गर्गसंहिता में भी यह समानता हरिवंश पुराण के समान है।
       -रमन्ते योगिनी ह्यस्मिन् सर्वत्र रमतीति वा ।। 
      सर्वावशेषाद् यं शेषं बलाधिक्यांद् बलं विदु:

      गर्गसंहितामें क्रमिक श्लोक निम्नांकित हैं।
      रोहिणीनन्दनस्यास्य नामोच्चारं शृणुष्व च।
      रमन्ते योगिनो ह्यस्मिन्सर्वत्र रमतीति वा॥२५॥
      गुणैश्च रमयन् भक्ताण्स्तेन रामं विदुः परे।
      सर्वावशेषाद्यं शेषं बलाधिक्याद्‌बलं विदुः।
      स्वपुत्रस्यापि नामानि शृणुनन्द ह्यतन्द्रितः।२७।
      सद्यः प्राणिपवित्राणि जगतां मंगलानि च।
      ककारःकमलाकान्त ऋकारो राम इत्यपि।२८।
      षकारः षड्‍गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत् ।
      णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक्।२९।
      विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी।
      संप्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छुद्धे महात्मनि। ३०।
      परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः।
      शुक्लो रक्तस्तथा पीतो वर्णोऽस्यानुयुगं धृतः।३१।
      द्वापरान्ते कलेरादौ बालोऽयं कृष्णतां गतः।
      तस्मात्कृष्ण इति ख्यातो नाम्नायं नन्दनन्दनः।३२।
      वसवश्चेंद्रियाणीति तद्देवश्चित्तमेव हि।
      तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः।३३।
      वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमन्दिरे।
      तस्याःपतिरयं साक्षात्तेन राधापतिःस्मृतः॥३४॥
      (गर्गसंहिता- गोलोकखण्ड अध्याय-(15-)
      __________________
      एक श्लोक भागवतपुराण दशम स्कन्ध में अष्टम अध्याय का सप्तम श्लोक जिसे अन्य ग्रन्थों में भी जोड़ा गया है। शास्त्रीय सिद्धान्त से पूर्णत: रहित और प्रक्षिप्त ही है। जिसका प्रस्तुति करण हम नीचे खण्डन सहित कर रहे हैं।
      भागवत पुराण- (10/8/7 ) 
                       श्रीगर्ग उवाच
      शब्दार्थ:-श्री-गर्ग:उवाच—गर्गमुनि ने कहा; यदूनाम्—यादवों का; अहम्—मैं हूँ; आचार्य:—पुरोहित; ख्यात: च—पहले से यह ज्ञात है; भुवि—सर्वत्र; सर्वदा—सदैव; सुतम्—पुत्र को; मया—मेरे द्वारा; संस्कृतम्—संस्कार सम्पन्न; ते—तुम्हारे; मन्यते—माना जायेगा; देवकी-सुतम्—देवकी-पुत्र।
      अनुवाद:- गर्गमुनि ने कहा : हे नन्द महाराज, मैं यदुकुल का पुरोहित हूँ। 
      यह सर्वविदित है। अत: यदि मैं आपके पुत्रों का संस्कार सम्पन्न कराता हूँ तो कंस समझेगा कि वे देवकी के पुत्र हैं। 
      तात्पर्य:-
      रूढिवादी भागवत टीकाकार भी उपर्युक्त श्लोक को सही मानकर उसकी टीका इस प्रकार कर देते हैं।" गर्गमुनि ने अप्रत्यक्ष रूप से बतला दिया कि कृष्ण यशोदा के नहीं बल्कि देवकी के पुत्र हैं। चूँकि कंस पहले से ही कृष्ण की खोज में था, अत: यदि गर्गमुनि संस्कार कराते तो कंस को पता चल सकता था और इससे महान् संकट उत्पन्न हो जाता। यह तर्क किया जा सकता है कि यद्यपि गर्गमुनि यदुवंश के पुरोहित थे और नन्द महाराज भी यदुवंशी थे किन्तु नन्द महाराज क्षत्रिय कर्म नहीं कर रहे थे। इसीलिए गर्गमुनि ने कहा, “यदि मैं आपके पुरोहित के रूप में कर्म करूँ तो इससे पुष्टि होगी कि कृष्ण देवकी-पुत्र हैं।”
      समाधान:-यादवों के गर्गाचार्य के अतिरिक्त भी अनेक कुल पुरोहित थे - विशेषत: जो भृगु ,कश्यप और अंगिरा वंश के ऋषि थे  -
      ये यादवों के  पुरोहित रहे हैं !  कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु  घोर-आंगिरस भी अंगिरा वंश के थे। और यादवों पुरोहित कुछ भृगु वंश के भी थे। भृगु-एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र माने जाते हैं। अत: ये शैव हैं नकि ब्रह्मा के पुत्र होने से ब्राह्मण -
      विशेष—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की छाती में लात मारी थी। 
      इन्हीं के वंश में परशुराम जी हुए थे। कहते हैं, इन्हीं 'भृगु' और 'अगिरा' तथा 'कश्यप' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है। 
      ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि वहाँ आई थीं। 
      जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्या आदि को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया।  
      सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया। 
      उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी। यद्यपि भृगु की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक ही है।
      _________________
      परशुराम जन्म इसी भृगु वंश में हुआ। यद्यपि ये कथानक काव्य और कल्पना के गुणों से समन्वित हैं । परन्तु इस नाम के व्यक्तियों का अस्तित्व तो रहा ही होगा ।  भले ही कथानक में व्यतिक्रमण ही क्यों न हो।
      अंगिरा-अङ्गिरस् ]-एक प्राचीन ऋषि जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं। 
      विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादुर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है।
      इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है। 
      कहीं इनके पिता को उरु और माता को आग्नेयी लिखा है । और कहीं इनको ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न बतलाया गया है। 
      स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए ।
      वृहस्पति  के पुत्र गौतम और उनके पुत्र शतानन्द भी "कोष्टाकुल" के यादव "भीष्मक" के कुलगुरु थे।
      सान्दीपन ऋषि भी यादवो के पुरोहित थे और ये कश्यप गोत्रीय ऋषि थे जिनका जन्म काशी में हुआ। और जो कालान्तर में ये उज्जैन चले गये थे। काशी में उत्पन्न होने से इन्हें काश्य भी कहा जाता था।
      सान्दीपनि-(सन्दीपनस्यापत्यम् +इञ्)= सान्दीपन  रामकृष्णयोराचार्य्ये अवन्तिपुरवासिनि मुनिभेदे। 
      विदिताखिलविज्ञानौ सर्व्वज्ञानमयावपि।
      शिष्याचार्य्यक्रमं वीरौ ख्यापयन्तौ यदूत्तमौ। ५-२१-१८। 
      ततः सान्दीपनिं काश्यमवन्तीपुरवासिनम् ।
      अस्त्रर्थं जग्मतुर्वीरौ बलदेव-जनार्द्दनौ ।५-२१-१९ ।
      तस्य शिष्यत्त्वमभ्येत्य गुरुवृत्तपरौ हि तौ।
      दर्शयाञ्चक्रतुर्वीरावाचारमखिले जने।५-२१-२० ।
      उग्रसेन का पुन: राज्याभिषेक भी सान्दीपन ऋषि ने  किया । अत: उग्रसेन के कुल पुरोहित सान्दीपन मुनि ही थे न कि गर्गाचार्य।
       सन्दर्भ:-(विष्णु पुराण पञ्चमाँश अध्याय 21वाँ)
      सबसे पहले ये जानना भी आवश्यक है कि वसुदेव भी गोप ही थे। और  नन्द तो गोप थे ही यह सब जानते ही हैं। वसुदेव को गोप जीवन के विषय में पुराणों लिखा है।
      निम्नलिखित श्लोक देवीभागवत पुराण से उद्धृत हैं।
      "वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। 
      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ 
      अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव भी वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१। 
      शास्त्रों मैं  वसुदेव का गोप रूप में  वर्णन है भी इसका उद्धरण हम यथास्थान आगे करेंगे।-
      यादवों को पतित दर्शाने के लिए यदु को भी पतित और म्लेच्छ तक बताया गया।
      क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ  भी थे ? जैसा कि भागवत आदि पुराणों में कालान्तर में एक श्लोर जोड़ दिया गया।
      यद्यपि म्लेच्छ शब्द वैदिक म्रेच्छम्लिष्ट''' न॰ म्लेच्छ--क्त नि॰।
      १ अविस्पष्टवाक्ये
      २ तद्वाक्ययुक्ते
      ३ म्लाने च त्रि॰ मेदिनीकोश।

      अपशब्दे वा चु० उभ० पक्षे भ्वा० पर० अक० सेट् म्लेच्छयति ते म्लेच्छति अमम्लेच्छत् त अम्लेच्छीत्-
      मल्का  (संस्कृत: म्लेक, "गैर-वैदिक") विदेशियों के लिए एक प्राचीन भारतीय शब्द है, मूल रूप से यह विदेशियों के अनजान भाषणों को इंगित करता है, उनके अपरिचित और अनगिनत व्यवहार को बढ़ाया जाता है, और " अशुद्ध या अवर "लोग

      भारतीयों ने सभी विदेशी संस्कृतियों का उल्लेख किया, जिन्हें प्राचीन काल में मल्का के रूप में कम सभ्य माना जाता था।

      इसका इस्तेमाल आमतौर पर "किसी भी जाति या रंग के बाहरी बड़ों" के लिए किया गया था और प्राचीन भारतीय राज्यों द्वारा विदेशियों को विशेषकर विशेष रूप से फारसियों को लागू किया गया था। अन्य समूहों में कहा जाता है कि मल, साक, हुन, यावानस, कामबोज, पहलवा, बहलिक और ऋषिकस थे।

      अमरकोष ने किरता और पुलिंदों को म्चचा-जातियों के रूप में वर्णित किया। इंडो-ग्रीक, सिथियन, भी म्लेकैस थे।  म्लेच्छ का शुद्ध रूप म्रक्ष है। माधवीयधातुवृत्ति तथा क्षीरतरंगिणी में म्रक्ष  धातु य उल्लेख है।

      म्रक्ष=म्लेच्छने
      म्लेच्छनमपशब्दनम्"म्लेञ्छो हवा एष यदपशब्द'' इति श्रुतेः ( म्रक्षयित ) म्रक्षतीति संघाते शपिम्लक्ष म्रक्ष अदन इत्यपि क्वचित्पठयेते (126)

      यदु के वंशजों को परवर्ती पुरोहितों ने अपर वर्ण लिखा है।

      भागवतपुराण स्कन्ध द्वादश अध्याय प्रथम श्लोक चौंत्तीस श्लोक ( 12.1.34 ) 

      "मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जि: पुरञ्जय:।करिष्यत्यपरो वर्णान् पुलिन्दयदुमद्रकान् ॥३४॥ 

      शब्दार्थ:-मागधानाम्—मगध प्रान्त के; तु—तो ; भविता—होंगे; विश्वस्फूर्जि:—विश्वस्फूर्जि; पुरञ्जय:—राजा पुरञ्जय; करिष्यति— बनायेगा /करेगा; अपर:—दूसरे; वर्णान्— सभी वर्णों ( जातियों) को पुलिन्द-यदु-मद्रकान्—पुलिन्द, यदु तथा मद्रक जैसे अछूतों में।

      अनुवाद:- तब मागधों का राजा विश्वस्फूर्जि प्रकट होगा जो दूसरे पुरञ्जय के समान होगा।

      वह समस्त सभ्य वर्णों को निम्न श्रेणी के असभ्य मनुष्यों में बदल देगा, जिस तरह पुलिन्द, यदु तथा मद्रक होते हैं।

      इतना ही नहीं  एक  समाज विशेष के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गोपालक न मानकर भी  परम्परागत रूप से कहा करते हैं  कि कृष्ण का पालन नन्द गोपों के घर और जन्म वसुदेव आदि क्षत्रिय के घर हुआ।
      और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण "विष्णु पुराण  में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक जोड़ दिए भी। 

      परन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों में द्वेष वादियों की इस विभेदक मान्यता को खण्डित ही कर दिया।
      इस लिए कालान्तर में ग्रन्थों को सम्पादन और प्रकाशन काल में जोड़ तोड़ तो होता ही रहा है। अत: तर्क बुद्धि तथा प्रकरण द्वारा निर्णय करना आवश्यक है ।
      ___________________________________
      देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं।
      विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में तथा विष्णु पुराण पञ्चम अंश को 21वें श्लोक में वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में  जिनका खण्डन है
      ____________________________________ 👇
      यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
      सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।
      अनुवाद:-
      अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ।
      यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । 
      तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है।७।
      यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है। जो कालान्तर नें संलग्न किया गया है ।
      परन्तु ये श्लोक शास्त्रीय सिद्धान्त को विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही हैं।
      ययातिशापाद् वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
      मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नुपैः ।।    विष्णु पुराण पञ्चमांश अध्याय इक्कीश का बारहंवाँ श्लोक-(५-२१-१२)
      जबकि गर्ग केवल शूरसेन के पुरोहित थे वह भी बहुत बाद के समय में जब एक बार शूरसेन की सभा लगी थी तभी ये घूमते हुए कहीं से आये और सभासदों ने इनका परिचय एक ज्योतिषी के रूप में दिया था। 
      गर्गसंहिता खण्डः १-(गोलोकखण्डः /अध्यायः(९) वसुदेव-देवकी विवाहवर्णनम्
      तत्रैकदा श्रीमथुरापुरे वरे।
           पुरोहितः सर्वयदूत्तमैः कृतः।
      शूरेच्छया गर्ग इति प्रमाणिकः
            समाययौ सुन्दरराजमन्दिरम्।१।
      हीराखचिद्धेमलसत्कपाटकं
           द्विपेन्द्रकर्णाहतभृङ्गनादितम्।
      इभस्रवन्निर्झरगण्डधारया
           समावृतं मण्डपखण्डमण्डितम्॥२॥
      महोद्‌भटैर्धीरजनैः सकञ्चुकै-
           र्धनुर्धरैश्चर्म कृपाणपाणिभिः।
      रथद्विपाश्वध्वजिनीबलादिभिः
           सुरक्षितं मण्डलमण्डलीभिः॥३॥
      ददर्श गर्भो नृपदेवमाहुकं
           श्वाफल्किना देवककंससेवितम्।
      श्रीशक्रसिंहासन उन्नते परे
           स्थितं वृतं छत्रवितानचामरैः॥४॥
      दृष्ट्वा मुनिं तं सहसाऽऽसनाश्रया-
           दुत्थाय राजा प्रणनाम यादवैः।
      संस्थाप्य सम्पूज्य सुभद्रपीठके
           स्तुत्वा परिक्रम्य नतःस्थितोऽभवत् ॥५॥
      दत्त्वाऽऽशिषं गर्गमुनिर्नृपाय वै
              पप्रच्छ सर्वं कुशलं नृपादिषु।
      श्रीदेवकं प्राह महामना ऋषिर्महौजसं नीतिविदं यदूत्तमम् ॥६॥
                     श्रीगर्ग उवाच -
      शौरीं विना भुवि नृपेषु वरस्तु नास्ति
      चिन्त्यो मया बहुदिनैः किल यत्र तत्र ।
      तस्मान्नृदेव वसुदेववराय देहि
      श्रीदेवकीं निजसुतां विधिनोद्‌वहस्व ॥७॥
                   श्रीनारद उवाच -
      कृत्वा तदैव पुरि निश्चयनागवल्लीं
      श्रीदेवकं सकलधर्मभृतां वरिष्ठः ।
      गर्गेच्छया तु वसुदेववराय पुत्रीं कृत्वाथ मङ्गलमलं प्रददौ विवाहे ॥८॥

      कृतोद्‌वहः शौरिरतीव सुन्दरं
      रथं प्रयाणे समलङ्कृतं हयैः ।
      सार्द्धं तया देवकराज कन्यया समारुहत्कांचन रत्‍नशोभया ॥ ९॥
      स्वसुः प्रियं कर्तुमतीव कंसो
           जग्राह रश्मींश्चलतां हयानाम् ।
      उवाह वाहांश्चतुरंगिणीभि-
           र्वृतःकृपास्नेहपरोऽथ शौरौ ॥ १० ॥
      दासीसहस्रं त्वयुतं गजानां
           सत्पारिबर्हं नियुतं हयानाम् ।
      लक्षं रथानां च गवां द्विलक्षं
           प्रादाद्‌दुहित्रे नृप देवको वै॥११॥
      भेरीमृदंगोद्धरगोमुखानां
           धुन्धुर्यवीणानकवेणुकानाम्।
      महत्स्वनोऽभूच्चलतां यदुनां
           प्रयाणकाले पथि मङ्गलं च ॥१२॥
      आकाशवागाह तदैव कंसं
           त्वामष्टमो हि प्रसवोऽञ्जसास्याः।
      हन्ता न जानासि च यां रथस्थां
           रश्मीन् गृहीत्वा वहसेऽबुधस्त्वम् ॥१३॥
      कुसंगनिष्ठोऽतिखलो हि कंसो हंतुं स्वसारं धिषणां चकार ।
      कचे गृहीत्वा शितखड्‍गपाणिर्गतत्रपो निर्दय उग्रकर्मा॥ १४ ॥
      वादित्रकारा रहिता बभूवु-
      रग्रे स्थिताः स्युश्चकिता हि पश्चात् ।
      सर्वेषु वा श्वेतमुखेषु सत्सु
      शौरिस्तमाहाऽऽशु सतां वरिष्ठः॥१५॥
      श्रीवसुदेव उवाच -
      भोजेन्द्र भोजकुलकीर्तिकरस्त्वमेव भौमादिमागधबकासुरवत्सबाणैः।
      श्लाघ्या गुणास्तव युधि प्रतियोद्धुकामैः
      स त्वं कथं तु भगिनीमसिनात्र हन्याः ॥१६॥
      ज्ञात्वा स्त्रियं किल बकीं प्रतियोद्धुकामां
      युद्धं कृतं न भवता नृपनीतिवृत्त्या ।
      सा तु त्वयापि भगिनीव कृता प्रशांत्यै
      साक्षादियं तु भगिनी किमु ते विचारात्।१७।
      उद्‌वाहपर्वणि गता च तवानुजा च
      बाला सुतेव कृपणा शुभदा सदैषा।
      योग्योऽसि नात्र मथुराधिप हंतुमेनां
       त्वं दीनदुःखहरणे कृतचित्तवृत्तिः॥१८॥
      श्रीनारद उवाच -
      नामन्यतेत्थं प्रतिबोधितोऽपि
      कुसङ्गनिष्ठोऽतिखलो हि कंसः।
      तदा हरेः कालगतिं विचार्य
      शौरिः प्रपन्नं पुनराह कंसम् ॥१९॥
      श्रीवसुदेव उवाच -
      नास्यास्तु ते देव भयं कदाचि-द्यद्‌देववाण्या कथितं च तच्छृणु ।
      पुत्रान् ददामीति यतो भयं स्यान्मा ते व्यथाऽस्याः प्रसवप्रजातात् ॥२०॥
                    श्रीनारद उवाच -
      श्रुत्वा स निश्चित्य वचोऽथ शौरेः
      कंसः प्रशंस्याऽऽशु गृहं गतोऽभूत् ।
      शौरिस्तदा देवकराजपुत्र्याभयावृतः सन् गृहमाजगाम ॥ २१ ॥
      इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे वसुदेवविवाहवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
      __________________
      अनुवाद:-गोलोक खण्ड : अध्याय 9
      गर्गजी की आज्ञा से देवक का वसुदेव जी के साथ देवकी का विवाह करना; विदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत होना और वसुदेव जी की शर्त पर जीवित छोड़ना
      __________________
      श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! एक समय की बात है, श्रेष्ठ मथुरा पुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्ग जी प्रथम बार पधारे। वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े प्रामाणिक विद्वान थे। सम्पूर्ण श्रेष्ठ  शूरसेन के सभासद यादवों की इच्छा से शूरसेन ने उन्हें अपने पुरोहित के पद पर प्रतिष्ठित किया था। 
      मथुरा से उस राजभवन में सोने के किवाड़ लगे थे, उन किवाड़ों में हीरे भी जड़े गये थे। राजद्वार पर बड़े-बड़े गजराज झूमते थे। उनके मस्तक पर झुंड़-के-झुंड़ भौंरें आते और उन हाथियों के बड़े-बड़े कानों से आहत होकर गुंजारव करते हुए उड़ जाते थे। 
      इस प्रकार वह राजद्वार उन भ्रमरों के नाद से कोलाहल पूर्ण हो रहा था। 
      गजराजों के गण्ड स्थल से निर्झर की भाँति झरते हुए मद की धारा से वह स्थान समावृत था। अनेक मण्डप समूह उस राजमन्दिर की शोभा बढ़ाते थे। बड़े-बड़े उद्भट वीर कवच, धनुष, ढ़ाल और तलवार धारण किये राजभवन की सुरक्षा में तत्पर थे। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल- इस चतुरंगिणी सेना तथा माण्डलिकों की मण्डली द्वारा भी वह राजमन्दिर सुरक्षित था।
      मुनिवर गर्ग ने उस राजभवन में प्रवेश करके इन्द्र के सदृश उत्तम और ऊँचे सिन्हासन पर विराजमान राजा उग्रसेन को देखा। 
      अक्रूर, देवक तथा कंस उनकी सेवा में खड़े थे और राजा छत्र चँदोवे से सुशोभित थे तथा उन पर चँवर ढुलाये जा रहे थे। मुनि को उपस्थित देख राजा उग्रसेन सहसा सिन्हासन से उठकर खड़े हो गये। 
      उन्होंने अन्यान्य यादवों के साथ उन्हें प्रणाम किया और सुभद्र पीठ पर बिठाकर उनकी सम्यक प्रकार से पूजा की। 
      फिर स्तुति और परिक्रमा करके वे उनके सामने विनीत भाव से खड़े हो गये। गर्ग मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर समस्त राज परिवार का कुशल-मंगल पूछा। फिर उन महामना महर्षि ने नीतिवेत्ता यदुश्रेष्ठ देवक से कहा।

      श्री गर्गजी बोले- राजन ! मैंने बहुत दिनों तक इधर-उधर ढूँढ़ा और सोचा-विचारा है। मेरी दृष्टि में वसुदेवजी को छोड़कर भूमण्डल के नरेशों में दूसरा कोई देवकी के योग्य वर नहीं है। इसलिये नरदेव ! वसुदेव को ही वर बनाकर उन्हें अपनी पुत्री देवकी को सौंप दो और विधिपूर्वक दोनों का विवाह कर दो।

      निराकरण-👇★
      विदित हो कि  गर्ग आचार्य  शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य सभासद लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था। उससे पहले तो घोर आंगिरस कुल के पुरोहित थे।
      यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन यादव भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे सन्दीपन ही थे । और उसी समय सूरसेन को पुरोहित गर्गाचार्य थे ।
      यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र (शतानन्द) थे। ये अंगिरा को वंशज थे। 
      गोतमपुत्र जो  अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और जो जनकराज के पुरोहितः भरद्वाज गोत्र के ही थे। और सूरसेन के सौतेले  भाई  पर्जन्य के पुत्र नन्द के पुरोहित साण्डिल्य थे। ये शण्डिल ऋषि के पुत्र थे।
      अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है। यादवों कई पुरोहित थे।
      परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।
      अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं ।
      और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________
      परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४ वें) अध्याय में  इस प्रकार का वर्णन है ।
      गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
      प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।
      वसुदेव ने गर्गाचार्य को
      गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा
      परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी  करते रहते थे  निम्न श्लोकों में यह भी स्पष्ट तथ्य है 
      गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम् -श्रीनारद उवाच -
      श्रुत्वा वचो नन्दसुतस्य साक्षाच्छ्रीनन्दसन्नन्दवरा व्रजेशाः ।
      सुविस्मिताःपूर्वकृतं विहायप्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम् ॥१॥

      नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजःसुतौ समानीय च रामकृष्णौ।
      यशोदया श्रीगिरिपूजनार्थंसमुत्सको गर्गयुतःप्रसन्नः।२।
      अनुवाद:-
      श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्‍दनन्‍दन की यह बात सुनकर श्रीनन्‍द और सन्नन्‍द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्‍होनें पहले का निश्‍चय त्‍यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया। 
      मिथिलेश्‍वर ! नन्‍दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्‍ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्‍कण्ठित हो प्रसन्‍नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
      __________________________________
                (भागवत पुराण में वर्णन है कि )
      गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत।      नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।१९।
      वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
      ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
      अनुवाद:- कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
      जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
      तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
      और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
      देवीभागवत "गर्गसंहिता और महाभारत के
      अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति-पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८।    ___________________________________
      शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
      माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥____________________________________
      तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥६१॥             
      अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। 
      अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                        
      अर्थ •और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।
      अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  
      वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
      "अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा।      शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
      अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
      दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
      विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥
      अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

      कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः।
      अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
      अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।
      इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
      _____________    
      यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है।
      गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं। जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
      क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है। राजा दिलीप ने नन्दिनी गाय की नित्य सेवा और पालन किया क्या वे वैश्य हो गये। न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद" व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।
      कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं।
      फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? 
      आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है;  ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के  रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं।
      शाण्डिल्य- का पौराणिक परिचय-
      महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।
      कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। और बज्रनाभ के भी पुरोहित ये ही बनते देखे हैं।
      इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।
      कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे।
      ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है। 
      कहीं-कहीं यदु वंशी नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है। सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान ऋित्विक थे।
      किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है।
      शाण्डिल्य ऋषि की तपस्या करना
      इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी। 
      फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया। 
      विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होता के रूप में वहां विद्यमान थे। भीष्म की सर-सैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे। 
      शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
      एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है।
      कश्यप ऋषि के एक पुत्र असित थे। असित के पुत्र देवल हुए, जिनके द्वारा किये गये यज्ञ के यज्ञकुण्ड से ऋषि शाण्डिल्य का जन्म हुआ।
      इन्होने अनेकों सूत्रग्रंथों की रचना की है। वेदों में भी इनका नाम आया है।
      रघुवंशी राजा दिलीप के समय भी इनका उल्लेख मिलता है। ये राजा जनक को पुरोहित थे।वायुपुराण , मार्कण्डेय और हरिवंश पुराण में यादवों के कुल और कुलपुरोहित- भी अनेक हैं।हैहय-वंश के सहस्रबाहू के पुरोहित अंगिरा के वंशज गर्ग और भीष्मक के पुरोहित कश्यप के वंशज शतानन्द और कंस के पुरोहित भृगु के वंशज सान्दीपन का वर्णन पुराणों में वर्णित है।
      यादवों के महाभारत काल में हीं एक सौ एक कुल थे ; और प्रत्येक कुल के पृथक पृथक ही कुल गुरू थे। इस प्रकार यादवों के एक सौ एक कुल गुरू होते हैं। जिनमें से दो- चार नाम ऊपर लिखित हैं।

      "कुलानि शत् चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
      सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले। ३४.२५५।

      अनुवाद:-यादवों के एक सौ एक कुल हैं वह सब विष्णु के कुल में समाहित हैं विष्णु सबमें विद्यमान हैं।

      "विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
      निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः।
      २५६।

      अनुवाद:-विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध हैं।

      इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४।___________________________________

      "भीष्मक के कुल परोहित शताननद-गौतम और अहिल्या के पुत्र थे" 

      "गोतमस्य शतानन्दो वेदवेदाङ्गपारगः।
      आप्तः प्रवक्ता विज्ञश्च धर्मी कुलपुरोहितःपृथिव्यां सर्वतत्त्वज्ञो निष्णातः सर्वकर्मसु ।१८
      अनुवाद:-
      गौतम के पुत्र शतानन्द  वेदों के अच्छे जानकार थे। वह कुल का एक धर्मी वाक्पटु और ज्ञानी पुरोहित थे वह पृथ्वी के सभी सत्यों को जानते थे और सभी प्रकार की गतिविधियों में भी निपुण थे ।18। 
              "शतानन्द भीष्मक प्रति उवाच"
      राजेन्द्र त्वं च धर्मज्ञो धर्मशास्त्रविशारदः। पूर्वाख्यानं च वेदोक्तं कथयामि निशामय ।१९।
               "शतानंद ने भीष्मक से  कहा:"
      हे राजाओं में श्रेष्ठ, आप धार्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता और धार्मिक सिद्धांतों के शास्त्रों के भी विशेषज्ञ हैं।
      मेरी बात सुनो मैं तुम्हें वेदों में वर्णित पूर्व आख्यान को सुनाता हूँ ।19।
      भुवो भारावतरणे स्वयं नारायणो भुवि । वसुदेवसुतः श्रीमान्परिपूर्णतमः प्रभुः।२०।
      भगवान नारायण स्वयं पृथ्वी के भार उतारने के लिए  पृथ्वी पर प्रकट हुए।
      वे वासुदेव के पुत्र रूप में इस पृथ्वी पर सबसे समृद्ध और सबसे शक्तिशाली हैं।20।
      वह ही निर्देशक और निर्माता हैं और शेष तथा भगवान ब्रह्मा द्वारा उनकी पूजा की जाती है।
      वह प्रकाश के सर्वोच्च रूप हैं और अपने भक्तों की कृपा के लिए अवतरित हैं।21।

      परमात्मा सभी जीवों की प्रकृति से परे है
      वह निष्कलंक और निष्पाप हैं और समस्त कर्मों का साक्षी हैं ।22।
      हे राजाओं में श्रेष्ठ, उसने उसे और उसकी पुत्री को सब से उत्तम वर  दिया।
      उसे देकर तुम अपने सैकड़ों पूर्वजों के साथ गौलोक में जाओगे। 23।।
      अपनी पुत्री को देकर और परलोक में समानता और मुक्ति प्राप्त करें।
      विश्वगुरु के गुरु बनो और यहाँ सबके द्वारा पूजे जाओ।24।
      सन्दर्भ-:-
      इति श्रीब्रह्मवैवर्त श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध  रुक्मिण्युद्वाहे
      पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।१०५।

      ___________________________________    मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।  अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च॥१७॥

      कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
      नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्॥१८॥
      ~महाभारत शान्ति पर्व(मोक्षधर्म पर्व) अध्याय २९६
      अनुवाद:-पृथ्‍वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्‍यप, वसिष्ठ और भृगु -ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधु-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं।
      विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में गुरु के नाम से ही गोत्र का नाम होता था
      जैसे पुराणों में राहु केतु का गोत्र पैठिनस  पैठिनस ऋषि थे । लेकिन जैमिनी ऋषि के शिष्यत्व में केतु का गोत्र जैमिनी हो गया।

      कुछ इतिहासकार मानते हैं गुरु, कुलगुरु या पुरोहित के नाम से ही गोत्र का नाम पड़ जाता था जैसा कि राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा  उदयपुर राज्य का इतिहास भाग-१ के क्षत्रियों के गोत्र नामक तृतीय अध्याय की परिशिष्ट संख्या ४ में लिखते हैं कि प्राचीन काल में राजाओं का गोत्र वही माना जाता था जो उनका पुरोहित का होता था.
      यादवों कुल अनेक थे । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है। इसी आधार पर उनके कुल पुरोहित भी अनेक गोत्रों से सम्बन्धित थे। केवल एक गर्गाचार्य को ही सम्पूर्ण यादव कुलों का गुरू मानना क्षेपक है।          
      कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
      सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।। ३४.२५५।
      __________________________________
      तिस्रः कोट्यस्तु पौत्राणां यादवानां महात्मनाम् ।
      सर्वमेव कुलं यच्च वर्त्तन्ते चैव ये कुले ॥ २,७१.२६१ ॥
      विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
      निदेशस्थायिभिस्तस्य बध्यन्ते सुरमानुषाः ॥ २,७१.२६२ ॥

      देवासुराहवहता असुरा ये महाबलाः।
      इहोत्पन्ना मनुष्येषु बाधन्ते ते तु मानवान्॥ २,७१.२६३॥
      तेषामुत्सादनार्थाय उत्पन्ना यादवे कुले।
      समुत्पन्नं कुलशतं यादवानां महात्मनाम्॥ २,७१.२६४॥
      इति प्रसूतिर्वृष्णीनां समासव्यासयोगतः ।
      कीर्त्तिता कीर्त्तनीया स कीर्त्तिसिद्धिमभीप्सता॥ २,७१.२६५॥
      इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमभागे तृतीय उपोद्धातपदे वृष्णिवंशानुकीर्त्तनं नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ॥७१॥
       

      यादवों के गर्गाचार्य के अतिरिक्त भी अनेक कुल पुरोहित थे - विशेषत: जो भृगु  कश्यप और अंगिरा वंश के ऋषि थे  -
      ये यादवों के  पुरोहित रहे हैं !  कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु  घोर आंगिरस भी अंगिरा वंश के थे।और यादवों पुरोहित कुछ भृगु वंश को भी थे। भृगु - एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र माने जाते हैं।
      विशेष—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की छाती में लात मारी थी। 
      इन्हीं के वंश में परशुराम जी हुए थे। कहते हैं, इन्हीं 'भृगु' और 'अगिरा' तथा 'कश्यप' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है। 
      ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि वहाँ आई थीं। 
      जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्या आदि को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया।  
      सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया। 
      उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी।
      _________________
      परशुराम जन्म इसी भृगु वंश में हुआ। यद्यपि ये कथानक काव्य और कल्पना के  गुणों से समन्वित हैं। 
      परन्तु इस नाम के व्यक्तियों का अस्तित्व तो रहा ही हुए थे।  
      अंगिरा-अङ्गिरस्]-एक प्राचीन ऋषि जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं। 
      विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादुर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है।
      इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है। 
      कहीं इनके पिता को उरु और माता को आग्नेयी लिखा है । और कहीं इनको ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न बतलाया गया है। 
      स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए ।
      वृहस्पति  के पुत्र गौतम के शतानन्द भी कोष्टाकुल के यादव भीष्मक के कुलगुरु थे।

      सान्दीपन ऋषि भी यादवो के पुरोहित थे और ये कश्यप गोत्रीय  ऋषि थे जिनका जन्म काशी में हुआ। और जो कालान्तर में ये उज्जैन चले गये थे।
      सान्दीपनि-(सन्दीपनस्यापत्यम् +इञ्)= सान्दीपन  रामकृष्णयोराचार्य्ये अवन्तिपुरवासिनि मुनिभेदे। 
      विदिताखिलविज्ञानौ सर्व्वज्ञानमयावपि।
      शिष्याचार्य्यक्रमं वीरौ ख्यापयन्तौ यदूत्तमौ। ५-२१-१८। 
      ततः सान्दीपनिं काश्यमवन्तीपुरवासिनम् ।
      अस्त्रर्थं जग्मतुर्वीरौ बलदेव-जनार्द्दनौ ।५-२१-१९ ।
      तस्य शिष्यत्त्वमभ्येत्य गुरुवृत्तपरौ हि तौ।
      दर्शयाञ्चक्रतुर्वीरावाचारमखिले जने।५-२१-२० ।
      उग्रसेन का पुन: राज्याभिषेक भी सान्दीपन ऋषि ने  किया । अत: उग्रसेन के कुल परोहित सान्दीपन मुनि ही थे।
      (विष्णु पुराण पञ्चमाँश अध्याय 21 वाँ)
      सबसे पहले ये जानना आवश्यक है कि वसुदेव गोप ही थे। और  नन्द तो गोप थे ही यह सब जानते ही हैं।
      वसुदेव को गोप जीवन के विषय में पुराणों लिखा है।
      "वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। 
      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ 
      अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१। 
      शास्त्रों मैं  वसुदेव का गोप रूप में भी  वर्णन है।-
      क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ या शूद्र भी थे ? जैसा कि भागवत आदि पुराणों मैं कालान्तर में जोड़ दिया गया।
      इतना ही नहीं  एक  समाज विशेष के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गोपालक न मानकर भी  परम्परागत रूप से कहा करते हैं  कि कृष्ण का पालन नन्द गोपों के घर  और जन्म वसुदेव आदि क्षत्रिय  के घर हुआ।
      और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण विष्णु पुराण  में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक जोड़ दिए भी। 
      परन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों में द्वेष वादियों की मान्यता को खण्डित ही कर दिया।
      इस लिए कालान्तर में ग्रन्थों को सम्पादन और प्रकाशन काल में जोड़ तोड़ तो होता ही रहा है।
      अत: तर्क बुद्धि द्वारा निर्णय करना आवश्यक है ।
      ___________________________________

      देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।
      विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में तथा विष्णु पुराण पञ्चम अंश को 21वें श्लोक में  वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में  जिनका खण्डन है
      ____________________________________ 👇
      यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
      सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।

      अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ।
      यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । 
      तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है।७।

      यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है । जो कालान्तर नें संलग्न किया गया है ।
      परन्तु ये श्लोक शास्त्रीय सिद्धान्त को विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही हैं।

      ययातिशापाद् वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
      मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नुपैः ।।    विष्णु पुराण पञ्चमांश अध्याय इक्कीश का बारहंवाँ श्लोक-(५-२१-१२)
      जबकि गर्ग केवल शूरसेन के पुरोहित थे वह भी बहुत बाद के समय में जब एक बार शूरसेन की। सभा लगी थी तभी ये घूमते हुए कहीं से आये  और सभासदों ने इनका परिचय एक ज्योतिषी के रूप में दिया था। 

      निराकरण-👇★
      विदित हो कि  गर्ग आचार्य  शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य सभासद लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था। उससे पहले तो घोर आंगिरस कुल के पुरोहित थे।
      यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन यादव भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे सन्दीपन ही थे । और उसी समय सूरसेन को पुरोहित गर्गाचार्य थे ।

      यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र (शतानन्द) थे। ये अंगिरा को वंशज थे। 
      गोतमपुत्र जो  अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और जो जनकराज के पुरोहितः भरद्वाज गोत्र के ही थे। और सूरसेन के सौतेले  भाई  पर्जन्य के पुत्र नन्द के पुरोहित साण्डिल्य थे। ये शण्डिल ऋषि के पुत्र थे।
      अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है। यादवों कई पुरोहित थे।
      परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।
      अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं ।
      और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________
      परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में  इस प्रकार का वर्णन है ।
      गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
      प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।

      वसुदेव ने गर्गाचार्य को
      गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा
      परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी  करते रहते थे  निम्न श्लोकों में यह भी स्पष्ट तथ्य है 

      गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम् -श्रीनारद उवाच -
      श्रुत्वा वचो नन्दसुतस्य साक्षाच्छ्रीनन्दसन्नन्दवरा व्रजेशाः ।
      सुविस्मिताः पूर्वकृतं विहायप्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम् ॥ १ ॥
      नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजःसुतौ समानीय च रामकृष्णौ ।
      यशोदया श्रीगिरिपूजनार्थंसमुत्सको गर्गयुतःप्रसन्नः  ।२।
      अनुवाद:-
      श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्‍दनन्‍दन की यह बात सुनकर श्रीनन्‍द और सन्नन्‍द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्‍होनें पहले का निश्‍चय त्‍यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया। 
      मिथिलेश्‍वर ! नन्‍दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्‍ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्‍कण्ठित हो प्रसन्‍नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
      __________________________________
              (भागवत पुराण में वर्णन है कि )

      "गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत।नन्द:कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।१९।
      वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
      ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
      अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
      जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
      और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
      देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के
      अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।।    ___________________________________

      शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
      माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥____________________________________
      तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥६१॥             
      अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। 
      अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                        
      अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।
      अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  
      वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
      "अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा।      शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
      अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
      दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
      विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥
      अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

      कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः।
      अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
      अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।
      इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
      _____________    
      यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
      गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
      क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। 
      पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है ।
      न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं 
      कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
      फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? 
      आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है;  ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के  रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं।
      शाण्डिल्य- का पौराणिक परिचय-
      महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।
      कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। और बज्रनाभ के भी पुरोहित ये ही बनते देखे हैं।
      इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।
      कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे। ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं यदु वंशी नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है। 
      सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान ऋित्विक थे। किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है।
      शाण्डिल्य ऋषि की तपस्या करना
      इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी। 
      फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया। 
      विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होता के रूप में वहां विद्यमान थे। 
      भीष्म की सर-सैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। 
      शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे। 
      शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
      एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है।
      कश्यप ऋषि के एक पुत्र असित थे। असित के पुत्र देवल हुए, जिनके द्वारा किये गये यज्ञ के यज्ञकुण्ड से ऋषि शाण्डिल्य का जन्म हुआ।
      इन्होने अनेकों सूत्रग्रंथों की रचना की है। वेदों में भी इनका नाम आया है।
      रघुवंशी राजा दिलीप के समय भी इनका उल्लेख मिलता है। ये राजा जनक को पुरोहित थे।

      वायुपुराण , मार्कण्डेय और हरिवंश पुराण में यादवों के कुल और कुलपुरोहित- भी अनेक हैं ।

      हैहयवंश के सहस्रबाहू के पुरोहित अंगिरा के वंशज गर्ग और भीष्मक के पुरोहित कश्यप के वंशज शतानन्द और कंस के पुरोहित  भृगु के वंशज सान्दीपन का वर्णन पुराणों में वर्णित है।
      यादवों के महाभारत काल में हीं एक सौ एक कुल थे ; और प्रत्येक कुल के पृथक पृथक ही कुल गुरू थे। इस प्रकार यादवों के एक सौ एक कुल गुरू होते हैं। जिनमें से दो- चार नाम ऊपर लिखित हैं।

      "आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।

      अनुवाद:-महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम  प्रतापी यादव राजा थे यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।

      कुलानि शत् चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
      सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले। ३४.२५५।

      अनुवाद:-यादवों के एक सौ एक कुल हैं वह सब विष्णु के कुल में समाहित हैं विष्णु सबमें विद्यमान हैं।

      विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
      निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।
      ३४.२५६।

      अनुवाद:-विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध हैं।

      इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४।

      ___________________________________

      "भीष्मक के कुल पुरोहित शताननद-गौतम और अहिल्या के पुत्र" 

      "गोतमस्य शतानन्दो वेदवेदाङ्गपारगः। आप्तः प्रवक्ता विज्ञश्च धर्मी कुलपुरोहितः। पृथिव्यां सर्वतत्त्वज्ञो निष्णातः सर्वकर्मसु ।१८
      अनुवाद:-गौतम के पुत्र शतानंद  वेदों के अच्छे जानकार थे। वह कुल का एक धर्मी वाक्पटु और ज्ञानी पुरोहित थे
      वह पृथ्वी के सभी सत्यों को जानता थे और सभी प्रकार की गतिविधियों में भी निपुण थे ।18। 
              "शतानन्द भीष्मक प्रति उवाच"
      राजेन्द्र त्वं च धर्मज्ञो धर्मशास्त्रविशारदः। पूर्वाख्यानं च वेदोक्तं कथयामि निशामय ।१९।
               शतानंद ने भीष्मक से  कहा:
      हे राजाओं में श्रेष्ठ, आप धार्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता और धार्मिक सिद्धांतों के शास्त्रों के भी विशेषज्ञ हैं।
      मेरी बात सुनो मैं तुम्हें वेदों में वर्णित पूर्व आख्यान को सुनाता हूँ।19।
      भुवो भारावतरणे स्वयं नारायणो भुवि । वसुदेवसुतः श्रीमान्परिपूर्णतमः प्रभुः।२०।
      भगवान नारायण स्वयं पृथ्वी के भार उतारने के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए।
      वे वासुदेव के पुत्र रूप में इस पृथ्वी पर सबसे समृद्ध और सबसे शक्तिशाली हैं।20।
      वह ही निर्देशक और निर्माता हैं और शेष तथा भगवान ब्रह्मा द्वारा उनकी पूजा की जाती है।
      वह प्रकाश के सर्वोच्च रूप हैं और अपने भक्तों की कृपा के लिए अवतरित हैं।21।

      परमात्मा सभी जीवों की प्रकृति से परे है
      वह निष्कलंक और निष्पाप हैं और समस्त कर्मों का साक्षी हैं ।22।
      हे राजाओं में श्रेष्ठ, उसने उसे और उसकी पुत्री को सब से उत्तम वर  दिया।
      उसे देकर तुम अपने सैकड़ों पूर्वजों के साथ गौलोक में जाओगे। 23।।
      अपनी पुत्री को देकर और परलोक में समानता और मुक्ति प्राप्त करें।
      विश्वगुरु के गुरु बनो और यहाँ सबके द्वारा पूजे जाओ।24।
      सन्दर्भ-:-
      इति श्रीब्रह्मवैवर्त श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध  रुक्मिण्युद्वाहे
      पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।१०५।
      आसीन्महिष्मतःपुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।
      अनुवाद:-महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम  प्रतापी यादव राजा थे ! यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।वायुपुराण-उत्तरार्धम् -अध्यायः (३२)   

      ___________________________________     मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।   अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च॥१७॥

      कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
      नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्॥१८॥
      ~महाभारत शान्ति पर्व(मोक्षधर्म पर्व) अध्याय २९६
      पृथ्‍वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्‍यप, वसिष्ठ और भृगु -ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं।

      विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में गुरु के नाम से ही गोत्र का नाम होता था
      जैसे पुराणों में राहु केतु का गोत्र पैठिनस  पैठिनस ऋषि थे । लेकिन जैमिनी ऋषि के शिष्यत्व में केतु का गोत्र जैमिनी हो गया।

      कुछ इतिहासकार मानते हैं गुरु,कुल गुरु या पुरोहित के नाम से ही गोत्र का नाम पड़ जाता था जैसा कि राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी उदयपुर राज्य का इतिहास भाग-१ के क्षत्रियों के गोत्र नामक तृतीय अध्याय की परिशिष्ट संख्या ४ में लिखते हैं कि प्राचीन काल में राजाओं का गोत्र वही माना जाता था जो उनका पुरोहित का होता था.
      यादवों कुल अनेक थे । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है। इसी आधार पर उनके कुल पुरोहित भी अनेक गोत्रों से सम्बन्धित थे।             
      कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
      सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।। ३४.२५५।

      विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
      निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः।। ३४.२५६।।
      इति प्रसूतिर्वृष्णीनां समासव्यासयोगतः।
      कीर्त्तिता कीर्त्तनाच्चैव कीर्त्तिसिद्धिमभीप्सिताम् ।। ३४.२५७ ।।
      इति श्रीमहावायुपुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः । ३४ ।
      __________________________________
      तिस्रः कोट्यस्तु पौत्राणां यादवानां महात्मनाम् ।
      सर्वमेव कुलं यच्च वर्त्तन्ते चैव ये कुले ॥ २,७१.२६१ ॥
      विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
      निदेशस्थायिभिस्तस्य बध्यन्ते सुरमानुषाः ॥ २,७१.२६२ ॥
      देवासुराहवहता असुरा ये महाबलाः ।
      इहोत्पन्ना मनुष्येषु बाधन्ते ते तु मानवान् ॥ २,७१.२६३ ॥
      तेषामुत्सादनार्थाय उत्पन्ना यादवे कुले ।
      समुत्पन्नं कुलशतं यादवानां महात्मनाम् ॥ २,७१.२६४ ॥
      इति प्रसूतिर्वृष्णीनां समासव्यासयोगतः ।
      कीर्त्तिता कीर्त्तनीया स कीर्त्तिसिद्धिमभीप्सता ॥ २,७१.२६५ ॥
      इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमभागे तृतीय उपोद्धातपदे वृष्णिवंशानुकीर्त्तनं नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ॥७१॥
       

      श्री श्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇में राधा को आभीर सुता  लिखा है।
      _____________________________________
      आभीरसुतां (सुभ्रुवां)श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
      अस्या: शख्यश्च ललिता विशाखाद्या:
       सुविश्रुता:।।83।।
      _____________________________________
      अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ;  
      जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ  हैं |83||

      उद्धरण ग्रन्थ:- "श्रीश्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूप गोस्वामी
      ___________________________________
      आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
       वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४।
      ____________________________
      कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
      उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
      (गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
      ___________________________________
      रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का संग्रह किया  श्री श्री राधा कृष्ण गणोद्देश्य दीपिका के नाम से परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा .
      "ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: ।
      पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
      भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ ( शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।
      पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
      गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।
      भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
      इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
      तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।
      प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता:।
      अन्येऽनुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।८।
      भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
      और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं 
      अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।
      आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
      आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
      घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।
      भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं ।
      तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
      इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।
      किञ्चिदाभीरतो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
      गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।
      भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले   तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं  ये प्राय: हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।
      वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं।
      शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में  वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।

      जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है। यद्यपि लक्ष्मीनारायणीसंहिता में गायात्री के माता पिता गोविल-गोविला नाम से हैं जो कि संहिताकार की नवीन कल्पना ही है। 
      जब शास्त्रों में ये बात है तो फिर 
      अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं ।

      पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग से ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
      जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
      जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।
      पद्म पुराण को निम्न श्लोक ही इनकी प्राचीनता और महानता को साक्ष्य हैं ।
      धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
      मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
      अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
      युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
      अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
      यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
      अनुवाद -
      विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
      हे अहीरो ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य-सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला(क्रीडा) होगी जब उसी समय धरातल पर नन्द आदि  का अवतरण होगा।
      ____________________
      इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः१७।

      हरिवंश पुराण हरिवंशपर्व में कश्यप का ब्रह्मा के आदेश से व्रज में वसुदेव गोप के रूप में अवतरण होना भी वसुदेव के गोप रूप को सूचित करता है।-यद्यपि कश्यप का यह प्रकरण गर्गसंहिता,मार्कण्डेय पुराण,गर्गसंहिता,ब्रह्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण तथा देवीभागवत पुराण आदि में भी आया है। संक्षेप में -

                        (ब्रह्मोवाच)
      नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
      भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।१८।

      यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
      यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९ ।

      तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
      स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।।  

       ________________________

      पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
      जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।

      अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
      प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै । २२।

      ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।
      उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।। २३ ।।

      कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः ।
      अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।। २४ ।।

      मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
      चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।। २५।

      कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
      अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।। २६ ।

      प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
      त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः।२७।।

      यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम् ।
      न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।। २८ ।।

      यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः ।
      मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।।

      या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
      लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।।

      त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
      गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१ ।

      इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
      गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।

      येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
      स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।

      या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः ।
      तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः ।।३४।।

      ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते ।
      स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः ।।३५।।

      वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
      गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः ।। ३६।।

      तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः ।
      तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।।३७।।

      देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः।
      सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।। ३८।।

      तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः।
      वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९ ।।

      छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
      तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन ।1.55.४०।

      उपर्युक्त श्लोकों में वर्णन है कि जब एक बार कश्यप ऋषि अपने पुत्र वरुण की गायों को उससे लेकर भी गायों के अत्यधिक दुग्ध देने से कश्यप की नीयत में आयी खोट के कारण वरुण की गायें पुन: वापस नहीं करते तब ब्रह्मा के पास आकर वरुण कश्यप और उनकी पत्नीयो अदिति और सुरभि की गायों को इन देने की शिकायत करते हैं।

      तब ब्रह्मा कश्यप और उनकी पत्नीयों को गोप गोपी रूप में व्रज में  गोपालन करते रहने के लिए जन्म लेने का शाप देते हैं । 

      जो वसुदेव और उनकी दो पत्नी अदिति और सुरभि ही  क्रमश देवकी और रोहिणी बनती हैं ।और वसुदेव कश्यप के अंश हैं ।

      तो गोप तो वसुदेव भी थे नन्द ही नहीं ये यादवों के गोपालन वृत्ति परक विशेषण थे ।

       (हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व- 55वाँ अध्याय

      इतना विस्तृत प्रमाण भागवत के प्रक्षिप्त श्लोकों के खण्डन हेतु प्रस्तुत किया गया। ये प्रमाण- यादव योगेश कुमार रोहि के शोधो पर आधारित हैं।
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      भागवत पुराण में राधा या वर्णन न होना उचित ही है क्यों कि कृष्ण चरित्र का सबसे अधिक हनन तो भागवत पुराण कार ने भी कसर नहीं छोड़ी
      विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय -१३
      ____________________
      श्लोक ५७,५८,५९,६० में लिखा हैं :-
      स तथा सह गोपीभीरराम मघुसूदनः।
      यथाब्दकोटिप्रमितः क्षणस्तेन विनामवत्।। ५-१३-५७।।
      ता वार्य्यमाणाःपतिभिः पितृभिर्भ्रातृभिस्तथा।
      कृष्णां गोपाङ्गना रात्रौ रमयन्ति रतिप्रियाः ।। ५-१३-५८ ।।
      सोऽपि कैशोरकवयो मानयन् मधुसूदनः ।
      रेमे ताभिरमेयात्मा क्षपासु क्षपिताहितः ।५-१३-५९ ।
      अनुवाद:-
      "गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी "
      कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे. कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं। ऐसा लगता कि कृष्ण को रमण काल में ये कागज और कलम लेकर उनके साथ चलते थे‌।
      भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं – कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे. जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीडा ‘विषय भोग’ किया. भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :- 
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      "नद्या:पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्। रेमे तत्तरलान्दकुमुदा मोदवायुना।४५। 
      श्लोक  10.29.45-46  
      बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु-
      नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातै: ।
      क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणा-
      मुत्तम्भयन् रतिपतिं रमयां चकार ॥ ४६ ॥
      शब्दार्थ:-
      नद्या:—नदी के; पुलिनम्—तट पर; आविश्य—प्रवेश करके; गोपीभि:—गोपियों के साथ; हिम—शीतल; वालुकम्—बालू को ; जुष्टम्—सेवा की; तत्—उसका; तरल—लहरों से; आनन्दि—आनन्दित बनाया; कुमुद—कमलों की; आमोद— सुगन्ध लिये हुए; वायुना—वायु के द्वारा; बाहु—अपनी भुजाओं का; प्रसार—फैलाना; परिरम्भ—आलिंगन कर ; कर—उनके हाथों के; अलक—बाल; ऊरु—जाँघें; नीवी— नारा सूतनी ;निव्ययंति निवीयते वा नि + व्ये--इन् यलोप दोर्घौ डिच्च वा ङीप् । १- बणिजा मूलधन २ स्त्रीकटीवस्त्र-बन्ध अमरःकोश।
      स्तन—तथा स्तन; आलभन—स्पर्श से; नर्म—खेल में; नख—अँगुलियों के नाखूनों की; अग्र-पातै:—चिऊँटी से; क्ष्वेल्या—विनोद, खेलवाड़ से भरी बातचीत; अवलोक—चितवन; हसितै:—तथा हँसी से; व्रज-सुन्दरीणाम्—व्रज की सुन्दरियों की; उत्तम्भयन्—उत्तेजित करते हुए; रति-पतिम्—कामदेव को; रमयाम् चकार—आनन्दित किया ।.
      अनुवाद:- श्रीकृष्ण गोपियों समेत यमुना के किनारे गये जहाँ बालू ठंडी पड़ रही थी और नदी की तरंगों के स्पर्श से वायु में कमलों की महक थी। वहाँ कृष्ण ने गोपियों को अपनी बाँहों में समेट लिया और उनका आलिंगन किया। उन्होंने लावण्यमयी व्रज-बालाओं के हाथ, बाल, जाँघें, नाभि एवं स्तन छू छू कर तथा खेल खेल में अपने नाखूनों से चिकोटते हुए उनके साथ विनोद करते, उन्हें तिरछी नजर से देखते और उनके साथ हँसते हुए उनमें कामदेव जागृत कर दिया। इस तरह भगवान् ने अपनी लीलाओं का आनन्द लूटा।
      श्लोक  10.29.47  
      एवं भगवत: कृष्णाल्लब्धमाना महात्मन: ।
      आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्यो ह्यधिकं भुवि ॥४७॥
      शब्दार्थ:-एवम्—इस प्रकार से; भगवत:—भगवान्; कृष्णात्—कृष्ण से; लब्ध—प्राप्त हुई; माना:—विशेष आदर; महा-आत्मन:— परमात्मा से; आत्मानम्—अपने आपको; मेनिरे—माना; स्त्रीणाम्—स्त्रियों में; मानिन्य:—मानिनी, गर्वित; हि—निस्सन्देह; अधिकम्—सर्वश्रेष्ठ; भुवि—पृथ्वी पर
      अनुवाद:-पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा विशेष आदर पाकर गोपियाँ अपने पर गर्वित हो उठीं और उनमें से हरएक ने अपने को पृथ्वी की सर्वश्रेष्ठ स्त्री समझा।
      श्लोक  10.33.18 
      कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहु: खेचरस्त्रिय: ।
      कामार्दिता: शशाङ्कश्च सगणो विस्मितोऽभवत् ॥ १८ ॥
      शब्दार्थ:-कृष्ण-विक्रीडितम्—कृष्ण की क्रीड़ा; वीक्ष्य—देखकर; मुमुहु:—मोहित हो गईं; खे-चर—आकाश में यात्रा करतीं; स्त्रिय:— स्त्रियाँ (देवियाँ); काम—काम वासना से; अर्दिता:—चलायमान; शशाङ्क:—चन्द्रमा; च—भी; स-गण:—अपने अनुचर तारों सहित; विस्मित:—चकित; अभवत्—हुआ ।.
      अनुवाद:- देवताओं की पत्नियाँ अपने विमानों से कृष्ण की क्रीड़ाएँ देखकर सम्मोहित हो गईं और कामवासना से विचलित हो उठीं। वस्तुत: चन्द्रमा तक भी अपने पार्षद तारों समेत चकित हो उठा।
      _____________
      यह अच्छा ही हुआ कि भागवत पुराण में राधा जी का वर्णन प्रत्यक्ष नहीं हैं। 
      इतना ही नही चीरहरणलीला की आड़ में भी भागवत कार ने अपनी कामुक प्रवृत्तियों का प्रदर्शन किया है।
      कुछ विवेचना इस पर भी उल्लेखनीय है।
      श्लोक  10.22.9 
      तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वर: ।
      हसद्भ‍ि: प्रहसन् बालै: परिहासमुवाच ह ॥ ९ ॥

      शब्दार्थ:-तासाम्—उन कन्याओं के; वासांसि—वस्त्रों को; उपादाय—लेकर; नीपम्—कदम्ब वृक्ष में; आरुह्य—चढक़र; सत्वर:—फुर्ती से; हसद्भि:—हँसते हुए; प्रहसन्—स्वयं जोर से हँसते; बालै:—बालकों के साथ; परिहासम्—मजाक में; उवाच ह—कहा ।. 
      अनुवाद:-लड़कियों के वस्त्र उठाकर वे तेजी से कदम्ब वृक्ष की चोटी पर चढ़ गये। तत्पश्चात् जब वे जोर से हँसे तो उनके साथी भी हँस पड़े और उन्होंने उन लड़कियों से ठिठोली करते हुए कहा।
      श्लोक  10.22.10  
      अत्रागत्याबला: कामं स्वं स्वं वास: प्रगृह्यताम्।
      सत्यं ब्रुवाणि नो नर्म यद् यूयं व्रतकर्शिता: ॥ १० ॥ 
      शब्दार्थ:-अत्र—यहाँ; आगत्य—आकर; अबला:—हे लड़कियो; कामम्—यदि चाहती हो; स्वम् स्वम्—अपने अपने; वास:—वस्त्र; प्रगृह्यताम्—ले जाओ; सत्यम्—सच; ब्रुवाणि—मैं सच कह रहा हूँ; न—नहीं; उ—प्रत्युत; नर्म—मजाक; यत्—क्योंकि; यूयम्—तुम; व्रत—तपस्या के व्रत से; कर्शिता:—थकी हुई ।.

      अनुवाद:- [भगवान् कृष्ण ने कहा]: हे लड़कियो, तुम चाहो तो एक एक करके यहाँ आओ और अपने वस्त्र वापस ले जाओ। मैं तुम लोगों से सच कह रहा हूँ। 
      मैं नर्म नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि तुम लोग तपस्यापूर्ण व्रत करने से थक गई हो।
      श्लोक  10.22.12 
      तस्य तत् क्ष्वेलितं द‍ृष्ट्वा गोप्य: प्रेमपरिप्लुता:।
      व्रीडिता: प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययु:।१२।
      शब्दार्थ:-तस्य—उसका; तत्—वह; क्ष्वेलितम्—मजाकिया व्यवहार; दृष्ट्वा—देखकर; गोप्य:—गोपियाँ; प्रेम-परिप्लुता:—भगवत्प्रेम में पूरी तरह निमग्न; व्रीडिता:—सकुचाई; प्रेक्ष्य—देखकर; च—तथा; अन्योन्यम्—एक-दूसरे को; जात-हासा:—हँसी आने के कारण; न निर्ययु:—नहीं निकलीं ।.
      अनुवाद:-यह देखकर कि कृष्ण उनसे किस तरह ठिठोली कर रहे हैं, गोपियाँ उनके प्रेम में पूरी तरह निमग्न हो गईं और उलझन में होते हुए भी एक दूसरे की ओर देख-देखकर हँसने तथा परस्पर परिहास करने लगीं। लेकिन तो भी वे जल से बाहर नहीं आईं।
      श्लोक  10.22.16 
                     "श्रीभगवानुवाच"
      भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ ।
      अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छत शुचिस्मिता: ।
      नो चेन्नाहं प्रदास्ये किं क्रुद्धो राजा करिष्यति॥१६।
       
      शब्दार्थ:-श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; भवत्य:—तुम सब; यदि—यदि; मे—मेरी; दास्य:—दासियाँ; मया—मेरे द्वारा; उक्तम्—कहा गया; वा—अथवा; करिष्यथ—तुम करोगी; अत्र—यहाँ; आगत्य—आकर; स्व-वासांसि—अपने अपने वस्त्र; प्रतीच्छत—चुन लो; शुचि—ताजी; स्मिता:—हँसी; न उ—नहीं तो; चेत्—यदि; न—नहीं; अहम्—मैं; प्रदास्ये—दे दूँगा; किम्—क्या; क्रुद्ध:—नाराज; राजा—राजा; करिष्यति—कर लेगा ।.
       
      अनुवाद:-भगवान् ने कहा : यदि तुम सचमुच मेरी दासियाँ हो और मैं जो कहता हूँ उसे वास्तव में करोगी तो फिर अपनी अबोध भाव से मुस्कान भरकर यहाँ आओ और अपने अपने वस्त्र चुन लो। यदि तुम मेरे कहने के अनुसार नहीं करोगी तो मैं तुम्हारे वस्त्र वापस नहीं दूँगा। और यदि राजा नाराज भी हो जाये तो वह मेरा क्या बिगाड़ सकता है?

      श्लोक  10.22.17 
      ततो जलाशयात् सर्वा दारिका: शीतवेपिता: ।
      पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेरु: शीतकर्शिता:॥१७।
      शब्दार्थ:-तत:—तत्पश्चात्; जल-आशयात्—नदी में से बाहर; सर्वा:—सभी; दारिका:—युवतियाँ; शीत-वेपिता:—जाड़े से काँपती; पाणिभ्याम्—अपने हाथों से; योनिम्—अपने गुप्त अंग को; आच्छाद्य—ढककर; प्रोत्तेरु:—बाहर आगईं; शीत-कर्शिता:— जाड़े से पीड़ित.
      अनुवाद:-तत्पश्चात् कड़ाके की शीत से काँपती सारी युवतियाँ अपने अपने हाथों से अपने गुप्तांग ढके हुए जल के बाहर निकलीं।

      पुराणकार ने कामशास्त्रीय विवेचना का आरोपण कृष्ण के चरित्र पर करके स्वयं अपनी मनोवृत्ति की तुष्टि की है। अत:  उपर्युक्त श्लोक प्रक्षिप्त है।

      श्लोक  10.22.19 
      यूयं विवस्त्रा यदपो धृतव्रता
      व्यगाहतैतत्तदु देवहेलनम् ।
      बद्ध्वाञ्जलिं मूध्‍‍‍‍‍‍‍‍‌‌र्न्यपनुत्तयेऽहस:
      कृत्वा नमोऽधोवसनं प्रगृह्यताम् ॥१९॥
       
      शब्दार्थ:-यूयम्—तुम लोगों ने; विवस्त्रा:—नंगी; यत्—क्योंकि; अप:—जल में; धृत-व्रता:—वैदिक अनुष्ठान करते हुए; व्यगाहत— स्नान किया; एतत् तत्—यह; उ—निस्सन्देह; देव-हेलनम्—वरुण तथा अन्य देवताओं के प्रतिअपराध; बद्ध्वा अञ्जलिम्— हाथ जोडक़र; मूर्ध्नि—अपने अपने सिरों पर; अपनुत्तये—निराकरण के लिए; अंहस:—अपने अपने पाप कर्म के; कृत्वा नम:—नमस्कार करके; अध:-वसनम्—अपने अपने अधोवस्त्र; प्रगृह्यताम्—वापस लेलो ।.
      अनुवाद:- [भगवान् कृष्ण ने कहा]: तुम सबों ने अपना व्रत रखते हुए नग्न होकर स्नान किया है, जो कि देवताओं के प्रति अपराध है। अत: अपने पाप के निराकरण के लिए तुम सबों को अपने अपने सिर के ऊपर हाथ जोडक़र नमस्कार करना चाहिए। तभी तुम अपने अधोवस्त्र वापस ले सकती हो।
      अब इस बात का उत्तर देने के चक्कर में आज के कुछ अभिनव कथावाचक बिना सम्प्रदायानुगमन के ही श्रीमद्भागवत में कहीं भी (र) और (ध) शब्द की संगति देखकर वहीं हठपूर्वक राधा  को सिद्ध करने बैठ जाते हैं। 
      राधा को भागवत पुराण में सिद्ध करने के लिए कुछ रूढिवादी कथावाचक अनिरुद्धाचार्य जैसे 
      वर्तमान में आधावन्तः/राधावन्तः शब्द में वितण्डापूर्वक राधा शब्द को सिद्ध करने का कुप्रयास करते हैं। 
      वे राधावन्त और राधावान् शब्द के अर्थ करते हैं जो राधा से युक्त है अथवा राधा का भक्त ! 
      और राधावान् बताया भी किसे जा रहा है ? कबन्धों (शिर रहित धड़) को।
      देवता तो अमृतपान कर चुके थे, सो उनका कबन्धीकरण सम्भव नहीं, वैसे भी कबन्ध तो सुरों के नहीं, असुरों के ही बने हैं 
      -कबन्धा युयुधुर्देव्याः। तो कुछ महानुभाव कबन्धों को ही राधाभक्त सिद्ध करने लग गए। 

      व्याकरण से राधावन्तः शब्द तो बन जाएगा।  शब्द बनने पर भी उस शब्द को प्रसङ्ग( प्रकरण) का समर्थन मिलना चाहिए और यहाँ शब्द को प्रसङ्ग का समर्थन नहीं है। 

      सिद्ध अर्थ मात्र व्याकरणव्यवहार से नहीं, अपितु प्रसङ्गानुरूप से भी होना चाहिए
      ऐसे तो सभी अर्थ सिद्ध ही हो जाएंगे। जहाँ रावण के लिए वाल्मीकिजी या विश्वामित्रजी ने श्रीमान् शब्द का प्रयोग किया है, वहाँ श्री का अर्थ लक्ष्मी लेने से व्याकरण उसे सिद्ध करके लक्ष्मीपति बना देगा किन्तु प्रसङ्गविरोध उस शब्दसिद्धि के साधु होने पर भी अग्राह्य बताएगा, वहाँ श्रीमान् शब्द का अर्थ ऐश्वर्यसम्पन्न ही लगाएंगे।
      तात शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ पिता होगा और कहाँ पुत्र, यह प्रसङ्ग ही बताएगा।
      तातः= पुंल्लिंग (तनोति विस्तारयति गोत्रादिकमिति । तन + “दुतनिभ्यां दीर्घश्च ।” उणादि सूत्र ।३ ।९० । इति क्तः दीर्घश्च। अनुदात्तेति नलोपः) पिता पुत्र चाचा दादा आदि पारिवारिक जन ।
      हरि शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ विष्णु होगा और कहाँ बन्दर, यह प्रकरण द्वारा ही बताया जाएगा।
      पञ्चानन शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ शिव होगा और कहाँ सिंह, यह भी प्रकरण  ही बताएगा। पञ्चं विस्तीर्णमाननमस्य पञ्चानन:- पाँच मुख वाला सिंह के चार मुख तो पंजे ही होते है और पाँचवाँ उसका स्वयं का मुख-

      राधावन्तः शब्द को सिद्ध कर सकते हैं किन्तु प्रसङ्गसम्मत न होने से शब्द की वृषभानुजा राधा के सन्दर्भ में अर्थसिद्धि नहीं हो सकती।
      प्रसिद्धहानिः शब्दानामप्रसिद्धे च कल्पना।
      न कार्या वृत्तिकारेण सति सिद्धार्थसम्भवे॥
      (श्लोकवार्त्तिक, प्रतिज्ञासूत्र, श्लोक ३५)
      परम्परालब्ध प्रसङ्गसम्मत सिद्ध अर्थ के उपलब्ध होने पर भी अपारम्परिक प्रसङ्गविरुद्ध अर्थग्रहण सैन्धवं आनय के समान विभ्रमकारक और दोषपूर्ण है। पर्याय और लक्षण भी प्रसङ्ग से सम्मत ही होकर ग्राह्य होते हैं, विरुद्ध जाकर नहीं।
      श्रीराधाजी के भजनप्रताप से वे लोग खड़े होकर बिना मस्तक के ही लड़ते थे, यह अर्थ है।
      आश्चर्य है कि इतना अद्भुत विशेषण जो कि इतना महत्वपूर्ण है कि मस्तक कटने पर भी श्रीराधाप्रताप से वे कबन्धरूप से पुनः उठ खड़े हुए, फिर भी पूर्व के तत्ववेत्ता श्रीधराचार्य, श्रीवल्लभाचार्य, श्रीवीराघवाचार्य, श्रीवंशीधराचार्य, श्रीजीवगोस्वामीजीप्रभृति, श्रीविश्वनाथचक्रवर्ती आदि सबों ने इसमें कहीं श्रीराधाजी की इस अद्भुत महिमा का उल्लेख तक करना उचित नहीं समझा, अपितु धावन्तो आदि ही अर्थ किया।

      श्रीराधाजी के इस अप्रकाशित माहात्म्य को अब जाकर इस विवाद के बाद प्रकाशित करने हेतु आप सभी गुरुजनों का आभार।
      श्रीवेदव्यास के नाम से लिखने वाले धन्य हैं कि उन्होंने पूरे दशम स्कन्ध के पूर्वार्द्ध में जहाँ कदम कदम पर श्रीराधाजी का प्रत्यक्ष नाम आ सकता था, रासपञ्चाध्यायी आदि में, वहाँ लिखा ही नहीं और अष्टम स्कन्ध के देवासुरसंग्राम में जाकर लिख दिया। 

      भागवत में राधा नाम न आने पर भक्तों द्वारा यह अनुमान किया गया कि 
      स्वयं श्रीकृष्णरूप होने से शुकदेवजी ब्रह्मभावावेश के कारण 'राधा' शब्द के उच्चारणमात्र से छः महीनों के लिए मूर्च्छित हो जाते थे, और परीक्षित् की आयु सप्तदिनावधि ही शेष थी, अतः उनके हित की कामना से शुकदेवजी ने राधाजी का प्रत्यक्ष नाम नहीं लिया है।
       कौशिकी संहिता के प्रमाण से गुरुजन कहते हैं
       -कौशिकी संहिता मे भी आया है - 
      "अवैष्णव मुखाद् गाथा न श्रोतव्या कदाचन्।
      शुक शास्त्र विशेषेण न श्रोतव्य वैष्णवात्।।वैष्णवोऽत्र सविज्ञेयो यौ विष्णोर्मुखमुच्यते।ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीत श्रुतेः ब्राह्मण एव सः।।(कौशिकी-संहिता -6/19-30)।
      मुख्यतः पुराणों की कथा भागवत्
      की कथा किसी वैष्णववर्ण अथवा ब्राहमण वर्ण के मुख से ही सुनना चाहिए। वे वैष्णव जो भगवान् विष्णु के रोमकूपों से निर्गत हुए हैं, आभीर गोप वैष्णव लोग हैं। भगवान् विष्णु के मुख ब्राह्मण भी हैं।

      ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो  चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि-
      यही ऋचा यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
      ____________________________________
      ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
      ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
      (ऋग्वेद 10/90/12)
      श्लोक का अनुवाद:-  इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के  मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से  क्षत्रिय लोग हुए एवं  उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
      अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। परन्तु हम इन  शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं ।जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
      इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूजय हैं।
      👇
      "कृष्णस्य  लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
      "आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
      (ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
      अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
      यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में  यथावत् वर्णित है।
      "नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपिसः॥  
      गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।
      "राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
      काश्चित्पुण्यैःकृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैःपरैः॥२२॥
      इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
      _______________
      शास्त्रों में  वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।
      _________
      ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।।
      ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
      अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में  वैष्णव नाम से है  और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
      उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।
      _____   
      जैसे ब्रह्मा की शारीरिक सृष्टि को ब्राह्मण कहा गया उसी प्रकार विष्णु की शारीरिक सृष्टि को वैष्णव कहा गया ।
      जिस प्रकार  शास्त्रों में ब्राह्मण वर्ण है उसी प्रकार वैष्णव भी ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्ण लिखा गया है ।
      अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप  है।
      अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है। वेदों में इसी लिए  विष्णु भगवान को गोप कहा गया है।
      _______
      ऋग्‍वेद में एक ऋचा व्रज के सम्‍बन्‍ध में मिलती है जो इस प्रकार है –
      "ता वां वास्‍तून्‍युश्‍मसि गमध्‍यै यत्र गावो भूरिश्रृंगा अयास: अत्राह तदुरुगायस्‍य वृष्‍णे: परमं पदमवभाति भूरि।
      ता तानि वां युवयो रामकृष्‍णयोर्वास्‍तूनि निरम्‍य स्‍थानानि गमध्‍यै गन्‍तुम्‍ उश्‍मसि उष्‍म: कामयामहे न तु तत्र गन्‍तुं प्रभवाम:। यत्र (वृन्‍दावनेषु) वास्‍तुषु भूरिश्रृंगा गाव: अयास: संचरन्ति अत्र भूलोके अह निश्चितं तत्‍ गोलोकाख्‍यं परमं पदं भूरि अत्‍यन्‍तं मुख्‍यम्‍ उरुभिर्बहुभिर्गीयते स्‍तूयत इत्‍युरुगायस्‍तस्‍य वृष्‍णेर्यादवस्‍य पदमभवति प्रकाशते इति।

      अर्थात इन्‍द्र स्‍तुति करते हैं कि ‘हे भगवन् श्री बलराम और श्रीकृष्‍ण ! आपके वे अति रमणीक स्‍थान हैं। उनमें हम जाने की इच्‍छा करते हैं, पर जा नहीं सकते (कारण, ‘अहो मधुपुरी धन्‍या वैकुण्‍ठाच्‍च गरीयसी। 
      विना कृष्‍ण प्रसादेन क्षणमेकं न तिष्‍ठति’ ।। यानी यह मधुपुरी धन्‍य और वैकुण्‍ठ से भी श्रेष्‍ठ है, क्‍योंकि वैकुण्‍ठ में तो मनुष्‍य अपने पुरुषार्थ से पहुँच सकता है, पर यहाँ श्रीकृष्‍ण की कृपा के बिना कोई एक क्षण भी नहीं ठहर सकता।) 
      यदुकुल में अवतार लेने वाले, उरुगाय (यानी बहुत प्रकार से गाये जाने वाले) भगवान वृष्णि का गोलोक नामक वह परमपद (व्रज) निश्चित ही भूलोक में प्रकाशित हो रहा है’।
      तब फिर बतलाइये व्रजभूमि की बराबरी कौन स्‍थान कर सकता है ?
      ॠग्वेद में विष्णु-सम्बन्धी जो  ऋचनाएँ मिलती हैं, उनमें उनका अत्यन्त भव्य वर्णन हुआ है।
      वे त्रिविक्रम है तीन पाद-प्रक्षेपों में समग्र संसार को नाप लेते हैं ऋग्वेद- १/१५४/५-६/
      उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
      ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
      अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि॥६॥
      इसीलिए वे उरूगाय (विस्तीर्ण  ) और उरूक्रम(विस्तीर्णपाद-प्रक्षेप वाले) कहे गये हैं। उनका तीसरा पद-क्रम सबसे ऊँचा है। उनके परमपद में मधु का उत्स है (मधुपुरी) है। 
      विष्णु पृथ्वी पर लोकों के निर्माता हैं, ऊर्ध्वलोक में आकाश को स्थिर करने वाले हैं तथा तीन डगों से सर्वस्व  नापने वाले है। ऋग्वेद में विष्णु को अजेय "गोप विष्णुर्गोपा अदाभ्य: " ऋग्वेद (1 / 22/ 18) भी कहा गया है। उनके परमपद में भूरिश्रृंगा चंचल गायों का निवास है। ऋग्वेद(1 / 154 / 6)"  उनका वह सर्वोच्च लोक गोलोक कहलाता है।
      "त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
      अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
      (ऋग्वेद १/२२/१८)
      (अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करता है । और ये ही
      (धर्माणि) धर्मों को धारण करता है ॥18॥
      गोप ही इस लौकिक जगत् में सबसे पवित्र और धर्म के प्रवर्तक तथा धारक थे।
      और इस लिए गोपों  की सृष्टि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था से पूर्णत: पृथक है।

      अत: ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के मानने वालों ने अहीरों को शूद्र तो कहीं वैश्य वर्णन कर उनके व्यक्तित्व का निर्धारण  करने का प्रयास किया है। 
      परन्तु इनके कार्य सभी चारों वर्णों के होने पर भी ये वैष्णव वर्ण के थे। वैष्णव के अन्य नाम शास्त्रों में भागवतसात्वत, और पाञ्चरात्र, भी है।वैष्णवों की महानता का वर्णन तो शास्त्र भी करते हैं।
      ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ ।४४।।
      अनुवाद:- वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।४४।
      आगे कौशिकी-संहिता में वर्णन है कि 
      श्रीराधानाममात्रेण मूर्च्छा षाण्मासिकी भवेत्।
      अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षित्हितकृन्मुनिः॥
      __________________________
      उपर्युक्त श्लोक का तृतीय और चतुर्थ पाद विचारणीय है -
      "परीक्षित्हितकृन्मुनि: नोच्चारितं"। यहां परीक्षित्हितकृन्मुनिना स्पष्टं (श्रीराधानाम) नोच्चारितम् - ऐसा प्रयोग न करके "अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षित्हितकृन्मुनि:" यह प्रथमान्त प्रयोग कैसे ?
       तो आप कहना होगा  कि आधावन्तः को राधावन्तः और उसका अन्वय कबन्धाः के साथ करके असिद्ध को सिद्ध करने वाले महानुभाव "अतो नोच्चारितं स्पष्टं, (यस्मात्स) मुनिः परीक्षित्हितकृत्" ऐसा अर्थाध्याहार क्यों नहीं करते, जबकि ऐसे श्लोकप्रयोग बहुतायत से उपलब्ध भी  हैं।
      वैसे भी स्पष्ट कर ही दिया -
      यथा प्रियङ्गुपत्रेषु गूढमारुण्यमिष्यते।
      श्रीमद्भागवते शास्त्रे राधिकातत्त्वमीदृशम्॥
      जैसे मेहन्दी के पत्तों में (बाहर से हरा होने पर भी) लालिमा अन्दर छिपी हुई, सर्वत्र व्याप्त रहती है वैसे ही श्रीमद्भागवत में राधिकातत्त्व बाहर से न दिखने पर भी अन्दर सर्वत्र निहित है। 
      _______________    
      श्रीमद्भागवत क्या है ? श्रीकृष्ण की साक्षात् वाङ्मयी मूर्ति है। पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कहा - तेनेयं वाङ्‌मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः। और स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में भगवती कालिन्दी ने  कहा है - आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका। 
      आत्माराम कृष्ण की आत्मा निश्चय ही राधिकाजी हैं। 
      __________________________________    
      तो देह में आत्मा होती हुई भी, जैसे नहीं दिखती है, अदृश्यभाव से निहित होती है, मेहन्दी के पत्तों में लालिमा छिपी होती है, वैसे ही श्रीकृष्णरूपी शब्दकलेवर श्रीमद्भागवत में आत्मारूपी राधिका अदृश्यरूप से निहित हैं।
      उनका प्रत्यक्ष नहीं, सांकेतिक वर्णन शुकदेवजी ने किया है। 
      "यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने।
      सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम्॥
      (श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय - ३०) उसी अध्याय में यह भी कहा - देखे नीचे-
      _______________________________
      "अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः।
      यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः॥
      इस श्लोक में श्रीराधिकाजी का संकेत है जो उचित भी है। रासक्रीड़ा के मध्य अन्य गोपियों को छोड़कर एक वरिष्ठ गोपी को भगवान् ले गए थे।

      वेदों ने कहा कि वे गोपिका श्रीराधाजी ही तो हैं। ऋग्वेद के राधोपनिषत् ने कहा - वृषभानुसुता गोपी मूलप्रकृतिरीश्वरी। वह गोपी मूलप्रकृति, ईश्वरी, वृषभानु की पुत्री हैं।
      कुछ लोग कहते हैं कि दूसरे स्कन्ध में निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः, इस श्लोक से भी राधाजी का संकेत होता है। अन्यजन कहते हैं कि 'एवं पुरा धारणयात्मयोनिः' श्लोक में पु'रा-धा'रणया शब्द को जोड़ने से राधाजी दिखती हैं। किन्तु अनयाराधितो वाले श्लोक के समान इनमें प्रसङ्गबल प्राप्त नहीं होता।
      अब हम इसपर चर्चा करते हैं कि श्रीराधाजी का जन्म जिन वृषभानुगोप और माता कलावती/कीर्तिदा/कीर्ति के घर हुआ, वे कौन हैं ? पूरा प्रसङ्ग तो बताना विस्तारभय से सम्भव नहीं, मात्र प्रधान घटनाक्रम और श्लोकों को सन्दर्भित करते हैं।
      ब्रह्मवैवर्तपुराण एवं गर्गसंहिता-से उद्धृत श्लोक-
                     "श्रीबहुलाश्व उवाच
      वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत्।
      कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि॥
                     "श्रीनारद उवाच
      नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः।
      चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः॥
      पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः।
      कलावती रत्‍नमाला मेनका नाम नामतः॥
      कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते।
      वैदेहाय रत्‍नमालां मेनकां च हिमाद्रये॥
      पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः।
      सीताभूद्रत्‍नमालायां मेनकायां च पार्वती॥
      द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते।
      अनुवाद:-
      राजा बहुलाश्व ने पूछा - वृषभानु का कितना बड़ा सौभाग्य था कि राधाजी उनकी बेटी के रूप में आयीं। कलावती और सुचन्द्र ने पिछले जन्म में ऐसा क्या पुण्य किया था ? देवर्षि नारद बोले - महाराज नृग ने पुत्र के सुचन्द्र हुए जो विष्णु भगवान् के ही अंश और अत्यन्त सुन्दर थे।
      पितरों की तीन मनोहर मानस पुत्रियाँ थीं - रत्नमाला, मेनका और कलावती। इसमें कलावती का विवाह बुद्धिमान् सुचन्द्र से हुआ। रत्नमाला का विवाह विदेहराज जनक से और मेनका का हिमालय से हुआ।

      इसमें रत्नमाला की पुत्री के रूप में सीताजी और मेनका की पुत्री पार्वती हुईं जिनका चरित्र विस्तार से पुराणों में बताया गया है। 
      फिर इतनी बात कहकर नारद जी ने सुचन्द्र और कलावती की तपस्या का वर्णन किया और बताया कि कैसे ब्रह्मदेव उन्हें वरदान देने आए। 
      उन्होंने प्रसन्न होकर मात्र सुचन्द्र को मोक्ष देने का प्रस्ताव रखा तो कलावती ने कहा कि मेरे पति का मोक्ष हो जाएगा तो मेरा क्या होगा ?
      तब ब्रह्मदेव ने कहा कि मोक्ष का कोई दूसरा उपाय देखते हैं -
      __________________________________
      युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया ।
      भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः॥
                      "श्रीनारद उवाच -
      इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा।
      कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः॥
      कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च।
      जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्भवा॥
      सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत्।
      जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः॥
      सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः।
      तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः॥
      वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः।
      सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात्॥
      (गर्गसंहिताखण्ड, गोलोकखण्ड, अध्याय -8)
      अनुवाद:-
      ब्रह्मदेव ने कहा - परिपूर्णत्तम श्रीकृष्ण की प्रिया राधा जब तुम्हारी पुत्री के रूप में आएंगी तब तुम दोनों मोक्ष को प्राप्त कर जाओगे। नारद मुनि कहते हैं - ब्रह्मदेव के दिव्य और अमोघरूपी वरदान के कारण सुचन्द्र और कलावती ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया। 
      इसमें कन्नौज के राजा भलन्दन के यज्ञ में अग्निकुण्ड से कलावती (कीर्तिदा के नाम से) दिव्यरूप से प्रकट हुईं और सुरभानु के यहाँ सुचन्द्र ने वृषभानु के नाम से जन्म लिया। 
      तात्पर्य यह कि यज्ञ करते समय इनका जन्म हुआ।
      वे दूसरे कामदेव के समान सुन्दर थे और उन दोनों को अपने पूर्वजन्म की बातें जातिस्मरसिद्धि के कारण स्मरण थीं। इन दोनों से बुद्धिमान् नन्दराय जी ने अपना रिश्ता जोड़ लिया। 
      वृषभानु और कलावती का यह आख्यान सुनने वाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त होकर श्रीकृष्ण के सायुज्य को प्राप्त कर लेता है। 
                    "सनत्कुमार उवाच"
      पितॄणां तनयास्तिस्रःशृणुत प्रीतमानसाः।
      वचनं मम शोकघ्नं सुखदं सर्वदैव वः ।।२७।।
      विष्णोरंशस्य शैलस्य हिमाधारस्य कामिनी ।।
      ज्येष्ठा भवतु तत्कन्या भविष्यत्येव पार्वती ।।२८।
      धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च ।।
      तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति।। २९।।
      वृषभानस्य वैश्यस्य कनिष्ठा च कलावती।
      भविष्यति प्रिया राधा तत्सुता द्वापरान्ततः।३०।
      मेनका योगिनी पत्या पार्वत्याश्च वरेण च ।।
      तेन देहेन कैलासं गमिष्यति परम्पदम् ।। ३१ ।।
      धन्या च सीतया सीरध्वजो जनकवंशजः ।।
      जीवन्मुक्तो महायोगी वैकुण्ठं च गमिष्यति।३२।
      कलावती वृषभानस्य कौतुकात्कन्यया सह ।
      जीवन्मुक्ता च गोलोकं गमिष्यति न संशयः।३३।
      विना विपत्तिं महिमा केषां कुत्र भविष्यति ।।
      सुकर्मिणां गते दुःखे प्रभवेद्दुर्लभं सुखम् ।३४।
      यूयं पितॄणां तनयास्सर्वास्स्वर्गविलासिकाः ।।
      कर्मक्षयश्च युष्माकमभवद्विष्णुदर्शनात् ।। ३५ ।।
      इत्युक्त्वा पुनरप्याह गतक्रोधो मुनीश्वरः ।।
      शिवं संस्मृत्य मनसा ज्ञानदं भुक्तिमुक्तिदम् ।। ३६।
      अपरं शृणुत प्रीत्या मद्वचस्सुखदं सदा ।।
      धन्या यूयं शिवप्रीता मान्याः पूज्या ह्यभीक्ष्णशः।३७।
      मेनायास्तनया देवी पार्वती जगदम्बिका ।।
      भविष्यति प्रिया शम्भोस्तपः कृत्वा सुदुस्सहम्।। ३८।
      धन्या सुता स्मृता सीता रामपत्नी भविष्यति ।।
      लौकिकाचारमाश्रित्य रामेण विहरिष्यति ।३९ ।
      कलावतीसुता राधा साक्षाद्गोलोकवासिनी ।।
      गुप्तस्नेहनिबद्धा सा कृष्णपत्नी भविष्यति।४०।
                          "ब्रह्मोवाच" 
      इत्थमाभाष्य स मुनिर्भ्रातृभिस्सह संस्तुतः।
      सनत्कुमारो भगवाँस्तत्रैवान्तर्हितोऽभवत् ।४१।

      तिस्रो भगिन्यस्तास्तात पितॄणां मानसीः सुताः।।
      गतपापास्सुखं प्राप्य स्वधाम प्रययुर्द्रुतम्।४२।।
      _________________
      इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखंडे पूर्वगतिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।
      (शिवपुराण, रुद्रसंहिता, पार्वतीखण्ड, अध्याय - २)
      अनुवाद:-
      यह वृत्तान्त शिवपुराण में निम्न प्रकार से वर्णित है। जो सबसे बड़ी मेनका है, वह विष्णु के अंशभूत हिमालय(हिमवत) की पत्नी बनेगी, जिसकी पुत्री पार्वती होंगी। जो दूसरी धन्या नाम की योगसम्पन्न कन्या है, वह सीरध्वज जनक की पत्नी बनेगी जिसकी पुत्री के रूप में महालक्ष्मी सीताजी का रूप धारण करके आएंगी।

      जो सबसे छोटी कन्या कलावती है, वह वृषभानु वैश्य (गोप) की पत्नी बनेगी और द्वापरयुग के अन्त में उसकी पुत्री राधा बनेगी।
      पार्वती के वरदान से मेनका अपने पति के साथ सदेह परमधाम कैलास जाएगी। धन्या के साथ महायोगी विदेह जनक अपनी पुत्री सीता के कारण जीवन्मुक्त होकर वैकुण्ठलोक को जाएंगे।अपनी पुत्री राधा के साथ वृषभान और कलावती गोलोक जाएंगे, इसमें संशय नहीं है। 
      श्रीराधाजी के जन्म का एक सुन्दर वृत्तान्त पद्मपुराण में वर्णित राधाष्टमी व्रतकथा के अन्तर्गत भी मिलता है।

       "पद्मपुराण - (ब्रह्मखण्डः अध्यायः -८
                   -शौनक उवाच-
      "कथयस्व महाप्राज्ञ गोलोकं याति कर्मणा ।
      सुमते दुस्तरात्केन जनःसंसारसागरात् ।
      राधायाश्चाष्टमी सूत तस्या माहात्म्यमुत्तमम्।१।
                     -सूत उवाच-
      ब्रह्माणं नारदोऽपृच्छत्पुरा चैतन्महामुने।
      तच्छृणुष्व समासेन पृष्टवान्स इति द्विज।२।
                      नारद उवाच-
      पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविदां वर।
      राधाजन्माष्टमी तात कथयस्व ममाग्रतः।३।
      तस्याःपुण्यफलं किंवा कृतं केन पुराविभो।
      अकुर्वतां जनानां हि किल्बिषं किं भवेद्द्विज।४।
      केनैव तु विधानेन कर्त्तव्यं तद्व्रतं कदा ।
      ____________________
      कस्माज्जाता च सा राधा तन्मे कथय मूलतः।५।
                         "ब्रह्मोवाच-"
      राधाजन्माष्टमीं वत्स शृणुष्व सुसमाहितः ।
      कथयामि समासेन समग्रं हरिणा विना ।६।
      कथितुं तत्फलं पुण्यं न शक्नोत्यपि नारद।
      कोटिजन्मार्जितं पापं ब्रह्महत्यादिकं महत्।७।
      कुर्वंति ये सकृद्भक्त्या तेषांनश्यति तत्क्षणात्।
      एकादश्याः सहस्रेण यत्फलं लभते नरः।८।
      राधाजन्माष्टमी पुण्यं तस्माच्छतगुणाधिकम् ।
      मेरुतुल्यसुवर्णानि दत्वा यत्फलमाप्यते।९।
      सकृद्राधाष्टमीं कृत्वा तस्माच्छतगुणाधिकम् ।
      कन्यादानसहस्रेण यत्पुण्यं प्राप्यते जनैः ।१०।
      _________________
      वृषभानुसुताष्टम्या तत्फलं प्राप्यते जनैः।
      गंगादिषु च तीर्थेषु स्नात्वा तु यत्फलं लभेत् ।११।
      ________________
      कृष्णप्राणप्रियाष्टम्याः फलं प्राप्नोति मानवः ।
      एतद्व्रतं तु यः पापी हेलया श्रद्धयापि वा ।१२।
      करोति विष्णुसदनं गच्छेत्कोटिकुलान्वितः।
      पुरा कृतयुगे वत्स वरनारी सुशोभना।१३।
      सुमध्या हरिणीनेत्रा शुभांगी चारुहासिनी।
      सुकेशी चारुकर्णी च नाम्ना लीलावती स्मृता।१४।
      तया बहूनि पापानि कृतानि सुदृढानि च।
      एकदा साधनाकांक्षी निःसृत्य पुरतः स्वतः।१५।
      गतान्यनगरं तत्र दृष्ट्वा सुज्ञ जनान्बहून् ।
      राधाष्टमीव्रतपरान्सुंदरे देवतालये ।१६।
      गंधपुष्पैर्धूपदीपैर्वस्त्रैर्नानाविधैः फलैः।
      भक्तिभावैः पूजयन्तो राधाया मूर्तिमुत्तमाम् ।१७।
      केचिद्गायंति नृत्यंति पठंति स्तवमुत्तमम् ।
      तालवेणुमृदंगांश्च वादयंति च के मुदा ।१८।
      तांस्तांस्तथाविधान्दृष्ट्वा कौतूहलसमन्विता।
      जगाम तत्समीपं सा पप्रच्छ विनयान्विता ।१९।
      भो भोः पुण्यात्मानो यूयं किं कुर्वंतो मुदान्विताः।
      कथयध्वं पुण्यवंतो मां चैव विनयान्विताम् ।२०।
      तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा परकार्यहितेरताः।
      आरेभिरे तदा वक्तुं वैष्णवा व्रततत्पराः ।२१।
                       "राधाव्रतिन ऊचु"
      भाद्रे मासि सिताष्टम्यां जाता श्रीराधिका यतः।
      अष्टमी साद्य संप्राप्ता तांकुर्वाम प्रयत्नतः।२२।
      गोघातजनितं पापं स्तेयजं ब्रह्मघातजम् ।
      परस्त्रीहरणाच्चैव तथा च गुरुतल्पजम् ।२३।
      विश्वासघातजं चैव स्त्रीहत्याजनितं तथा ।
      एतानि नाशयत्याशु कृता या चाष्टमी नृणाम् ।२४।
      तेषां च वचनं श्रुत्वा सर्वपातकनाशनम् ।
      करिष्याम्यहमित्येव परामृष्य पुनः पुनः ।२५।
      तत्रैव व्रतिभिः सार्द्धं कृत्वा सा व्रतमुत्तमम् ।
      दैवात्सा पंचतां याता सर्पघातेन निर्मला ।२६।
      ततो यमाज्ञया दूताः पाशमुद्गरपाणयः ।
      आगतास्तां समानेतुं बबन्धुरतिकृच्छ्रतः ।२७।
      यदा नेतुं मनश्चक्रुर्यमस्य सदनं प्रति ।
      तदागता विष्णुदूताः शंखचक्रगदाधराः ।२८।
      हिरण्मयं विमानं च राजहंसयुतं शुभम् ।
      छेदनं चक्रधाराभिः पाशं कृत्वा त्वरान्विताः।२९।
      रथे चारोपयामासुस्तां नारीं गतकिल्बिषाम्।
      निन्युर्विष्णुपुरं ते च गोलोकाख्यं मनोहरम्।३०।
      ___________________
      कृष्णेन राधया तत्र स्थिता व्रतप्रसादतः।
      राधाष्टमीव्रतं तात यो न कुर्य्याच्च मूढधीः ।३१।
      ________
      नरकान्निष्कृतिर्नास्ति कोटिकल्पशतैरपि ।
      स्त्रियश्च या न कुर्वंति व्रतमेतच्छुभप्रदम् ।३२।
      राधाविष्णोः प्रीतिकरं सर्वपापप्रणाशनम् ।
      अंते यमपुरीं गत्वा पतंति नरके चिरम् ।३३।
      __________
      "कदाचिज्जन्मचासाद्य पृथिव्यां विधवाध्रुवम् ।
      एकदा पृथिवी वत्स दुष्टसंघैश्च ताडिता ।३४।
      गौर्भूत्वा च भृशं दीना चाययौ सा ममांतिकम् ।
      निवेदयामास दुःखं रुदंती च पुनः पुनः ३५।
      तद्वाक्यं च समाकर्ण्य गतोऽहं विष्णुसंनिधिम् 
      कृष्णे निवेदितश्चाशु पृथिव्या दुःखसंचयः ३६।
      तेनोक्तं गच्छ भो ब्रह्मन्देवैः सार्द्धं च भूतले।
      अहं तत्रापि गच्छामि पश्चान्ममगणैः सह।३७।
      तच्छ्रुत्वा सहितो दैवैरागतः पृथिवीतलम् ।
      ततः कृष्णः समाहूय राधां प्राणगरीयसीम् ।३८।
      उवाच वचनं देवि गच्छेहं पृथिवीतलम् ।
      पृथिवीभारनाशाय गच्छ त्वं मर्त्त्यमंडलम्।३९।
      इति श्रुत्वापि सा राधाप्यागता पृथिवीं ततः ।
      भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमीसंज्ञिके तिथौ।४०।
      ________________
      वृषभानोर्यज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिवा ।
      यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी ।।४१।
      राजानं दमना भूत्वा तां प्राप्य निजमंदिरम् ।
      दत्तवान्महिषीं नीत्वा सा च तां पर्यपालयत् ।४२।
      इति ते कथितं वत्स त्वया पृष्टं च यद्वचः ।
      गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः।४३।
                       -सूत उवाच-
      य इदं शृणुयाद्भक्त्या चतुर्वर्गफलप्रदम् ।
      सर्वपापविनिर्मुक्तश्चांतेयातिहरेर्गृहम् ।४४।
      इति श्रीपाद्मे महापुराणे ब्रह्मखंडे ब्रह्मनारदसंवादे श्रीराधाष्टमीमाहात्म्यंनाम सप्तमोऽध्यायः ।७।
      अनुवाद:-
      अध्याय 7 - राधाष्टमी का माहात्म्य-
                   शौनका ने कहा :
      1. हे परम ज्ञानी, हे अति बुद्धिमान, मुझे बताओ कि मनुष्य किस कर्म के कारण संसार रूपी समुद्र से, जिसे पार करना मुश्किल है, गायों की दुनिया( गोलोक) में जाता है और, हे सूत, राधाष्टमी और उसके उत्कृष्ट महत्व के बारे में बताऐं ।
                      " सूत ने कहा :
      2. हे ब्राह्मण , हे महान ऋषि, पूर्व में नारद ने ब्रह्मा से यह पूछा था । संक्षेप में सुनिए, उसने उससे क्या पूछा था।
                      " नारद ने कहा :
      3-5। हे प्रपौत्र, हे परम ज्ञानी, हे सर्व पवित्र ग्रंथों को जानने वालों में श्रेष्ठ, हे प्रिय, मुझे (के बारे में) राधाजन्माष्टमी बताओ। हे स्वामी इसका धर्म फल क्या है ?
      पुराने दिनों में इसे किसने देखा ? 
      हे ब्राह्मण , जो लोग इसका पालन नहीं करते हैं उनका क्या पाप होगा ? 
      व्रत का पालन किस प्रकार करना चाहिए ? 
      इसे कब मनाया जाना है ? मुझे (सब) बताओ कि आदि से, जिससे राधा का जन्म हुआ।
      ब्रह्मा ने कहा :

      6-12। हे बालक, राधाजन्माष्टमी (के व्रत का वर्णन) को बहुत ध्यान से सुनो। सारा हिसाब संक्षेप में बताता हूँ।

      हे नारद, विष्णु के अतिरिक्त इसके पुण्य फल के बारे में बताना (किसी के लिए) संभव नहीं है। वह ब्राह्मण की हत्या जैसा पाप, जिन्होंने इसे एक करोड़ जन्मों के माध्यम से अर्जित किया है, एक क्षण में नष्ट हो जाता है, (जब) ​​वे भक्तिपूर्वक (यानी व्रत) का पालन करते हैं। राधाजन्माष्टमी का धार्मिक फल उस फल से सौ गुना अधिक है जो मनुष्य एक हजार एकादशी (दिनों का व्रत) रखने से प्राप्त करता है। राधाष्टमी का पुण्य एक बार करने से जो फल मिलता है, वह मेरु के बराबर सोना देने से सौ गुना अधिक होता है।(पर्वत)। लोग राधाष्टमी से वह फल प्राप्त करते हैं, जो (पुण्य) वे एक हजार कन्याओं (विवाह में) देकर प्राप्त करते हैं। मनुष्य को कृष्ण की प्रिय अष्टमी (अर्थात् राधाष्टमी) का वह फल प्राप्त होता है, जो उसे गंगा जैसे पवित्र स्थानों में स्नान करने से प्राप्त होता है । (यहाँ तक कि) एक पापी जो इस व्रत का आकस्मिक रूप से या श्रद्धापूर्वक पालन करता है, वह अपने परिवार के एक करोड़ सदस्यों के साथ विष्णु के स्वर्ग में जाएगा।

      13-20। हे बालक, पूर्व में कृतयुग में एक उत्कृष्ट, बहुत सुंदर स्त्री, एक सुंदर (यानी पतली) कमर वाली, एक मादा हिरण की तरह आँखें वाली, एक सुंदर रूप वाली, सुंदर केश वाली, सुंदर कान वाली, लीलावती के नाम से जानी जाती थी. उसने बहुत घोर पाप किया था। एक बार वह धन की लालसा में अपने नगर से निकलकर दूसरे नगर में चली गई। वहाँ, एक सुंदर मंदिर में, उसने कई बुद्धिमान लोगों को राधाष्टमी व्रत का पालन करते हुए देखा। 

      वे चंदन, पुष्प, धूप, दीप, वस्त्र के टुकड़े और नाना प्रकार के फलों से राधा की उत्कृष्ट प्रतिमा की भक्तिपूर्वक पूजा कर रहे थे। कुछ ने गाया, नृत्य किया, स्तुति के उत्कृष्ट भजन का पाठ किया। 
      कुछ (अन्य) खुशी से वीणा बजाते थे और ढोल पीटते थे।
      उन्हें इस प्रकार देखकर कौतूहल से भरी हुई वह उनके पास गई और विनयपूर्वक उनसे बोलीः “हे धार्मिक मनवालो, तुम आनंद से भरे हुए क्या कर रहे हो? हे गुणवानों, मुझे बताओ कि कौन विनम्रता से भरा हुआ है (जो तुम कर रहे हो)।

      21-24। वे भक्त व्रत का पालन करने वाले और दूसरों को उपकार करने और उनका भला करने में रुचि रखते हुए बोलने लगे।

      जिन लोगों ने राधा (-अष्टमी) व्रत का पालन किया था, उन्होंने कहा: "आज वह आठवां दिन आया है - यानी शुक्ल पक्ष के आठवें दिन - राधा का जन्म हुआ था।
       हम इसे ध्यान से देख रहे हैं। गाय की हत्या, चोरी या ब्राह्मण की हत्या से उत्पन्न पाप या किसी दूसरे की पत्नी को हरण करने से उत्पन्न होने वाले पाप के समान यह अष्टमी (इस प्रकार) मनुष्य के पापों को शीघ्र नष्ट कर देती है।
      ________________
      व्यक्ति, या (एक पुरुष के) अपने शिक्षक के बिस्तर (यानी पत्नी) का उल्लंघन करने के कारण।

      25-42। उनकी बातें सुनकर और बार-बार मन ही मन सोचती हुई, 'मैं (इस व्रत का) पालन करूँगी, जो सभी पापों को नष्ट कर देता है' उसने वहाँ उपस्थित लोगों के साथ उस उत्तम व्रत का पालन किया। उस पवित्र स्त्री की मृत्यु सर्प द्वारा चोट लगने (अर्थात् डसने) के कारण हुई। तब ( यम के) दूत हाथों में पाश और हथौड़े लिए हुए यम की आज्ञा से वहाँ आए और उसे बहुत ही दर्दनाक तरीके से बाँध दिया।

      जब उन्होंने उसे यम के निवास पर ले जाने का फैसला किया, तो विष्णु के दूत शंख और गदा लेकर आए (वहाँ)। (वे अपने साथ लाए थे) सोने का बना हुआ एक शुभ वायुयान, जिसमें राजकीय हंस जुते हुए थे। उन्होंने शीघ्र ही चक्रों के किनारों को काटकर उस स्त्री को जिसका पाप दूर हो गया था, रथ पर बिठा दिया। 

      वे उसे विष्णु के आकर्षक नगर गोलोक में ले गए, जहाँ वह मन्नत की अनुकूलता के कारण कृष्ण और राधा के साथ रही।

      हे प्रिय, जो मूर्ख राधाष्टमी के व्रत का पालन नहीं करता है, उसे सैकड़ों करोड़ कल्पों के लिए भी नरक से मुक्ति नहीं मिलती है ।

      वे स्त्रियाँ भी जो कल्याणकारी, राधा और विष्णु को प्रसन्न करने वाले, समस्त पापों का नाश करने वाले इस व्रत का पालन नहीं करतीं, वे अंत में यम के नगर में जाती हैं
      और दीर्घकाल के लिए नरक में गिरती हैं।

      यदि वे संयोग से पृथ्वी पर जन्म लेते हैं, तो वे निश्चित रूप से विधवा हो जाती हैं। हे बालक, एक बार (इस) पृथ्वी पर दुष्टों के दल ने आक्रमण कर दिया। 
      वह अत्यंत असहाय होकर गाय बन गई और मेरे पास आ गई। वह बार-बार रो-रोकर अपनी व्यथा मुझसे कह रही थी। उसकी बातें सुनकर मैं विष्णु के सान्निध्य में गया।
       मैंने जल्दी से कृष्ण (अर्थात् विष्णु) को उसके दुःख की तीव्रता बता दी। उसने (मुझसे) कहा: "हे ब्राह्मण, देवताओं के साथ पृथ्वी पर जाओ। 

      बाद में मैं भी अपने सेवकों के साथ वहाँ जाऊँगा।” यह सुनकर मैं देवताओं सहित पृथ्वी पर आ गया। 
      तब कृष्ण ने राधा (जो उनके लिए थीं) को अपने प्राणों से भी बड़ा बताते हुए (ये) शब्द (उन्हें) कहे; “हे देवी, मैं पृथ्वी के बोझ को नष्ट करने के लिए पृथ्वी पर जा रहा हूँ। तुम (भी) पृथ्वी पर जाओ। उन (शब्दों) को सुनकर, राधा भी तब पृथ्वी पर चली गईं।

      वह राधिका भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में अष्टमी नामक दिन को वृषभानु की यज्ञ भूमि पर दिन के समय प्रकट हुईं । 

      यज्ञ के लिए शुद्ध होने पर वह दिव्य रूप धारण करके (वहाँ) प्रकट हुई। 

      राजा ने मन ही मन प्रसन्न होकर उसे अपने घर ले जाकर अपनी रानी को सौंप दिया। 
      उसने उसका पालन-पोषण भी किया।

      43. इस प्रकार हे बालक, जो बातें मैं ने तुझ से कही हैं वे गुप्त रहें, गुप्त रहें, और सावधानी से गुप्त रहें।

      सूता ने कहा :
      44. जो मनुष्य (मनुष्य जीवन के) चारों लक्ष्यों का फल देने वाले इस (व्रत का लेखा-जोखा) श्रद्धापूर्वक सुनेगा, वह सब पापों से मुक्त होकर अन्त में विष्णु के घर जाता है।
      _______________________

      हिंसायज्ञैश्च भगवान्स च तृप्तिमवाप्नुयात् ।
      स च यज्ञपशुर्वह्नौ ब्रह्मभूयाय कल्पते । ।
      तस्य मोक्षप्रभावेन महत्पुण्यमवाप्नुयात् । ५८।

      विधिहीनो नरः पापी हिंसायज्ञं करोति यः ।
      अन्धतामिस्रनरकं तद्दोषेण वसेच्चिरम् ।५९।

      महत्पुण्यं महत्पापं हिंसायज्ञेषु वर्तते ।
      अतस्तु भगवान्कृष्णो हिंसायज्ञं कलौ युगे। 3.4.19.६०

      समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके ।
      अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले । ६१।

      देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः ।
      वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । ।
      प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।

      तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
      राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्य चागता ।६३।

      तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्।
      नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।

      राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः ।
      अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः । ६५।

      इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः ।
      शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः । । ६६
      _____________________
      इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः । १९।।

      कल्पभेद से एक मत मानता है कि वृषभानु को यज्ञ के समय अन्तरिक्ष से आयी हुई दिव्यरूप वाली राधाजी मिली थीं -

      "भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमीसंज्ञिके तिथौ।
      वृषभानोर्यज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिवा॥
      यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी॥
      (पद्मपुराण, ब्रह्मखण्ड, अध्याय- ७, श्लोक - ४१)
      अस्तु, यह सिद्ध है कि कलावती और उनकी पुत्री राधिकाजी, दोनों अयोनिजा हैं। 
      मानवों के समान गर्भ से इनका जन्म नहीं हुआ है। और इन्होंने भी कभी गर्भ धारण नहीं किया यही इनकी अमानवीयता को सूचित करता है।
      ___________________________________
      अयोनिसंभवश्चायमाविर्भूतो महीतले ।
      वायुपूर्णं मातृगर्भे कृत्वा च मायया हरिः ।५२।
      आविर्भूय वसुं मूर्तिं दर्शयित्वा जगाम ह।
      युगेयुगे वर्णभेदो नामभेदोऽस्य बल्लव।५३।
      ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)
      _____
      नित्याऽनित्या सर्वरूपा सर्वकारणकारणम् ।।
      बीजरूपा च सर्वेषां मूलप्रकृतिरीश्वरी ।२४ ।।
      पुण्ये वृन्दावने रम्ये गोलोके रासमण्डले।।
      राधा प्राणाधिकाऽहं च कृष्णस्य परमात्मनः।२५।
      अहं दुर्गा विष्णुमाया बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता ।
      अहं लक्ष्मीश्च वैकुण्ठे स्वयं देवी सरस्वती।२५ ।।
      सावित्री वेदमाताऽहं ब्रह्माणी ब्रह्मलोकतः ।।
      अहं गङ्गा च तुलसी सर्वाधारा वसुन्धरा । २७ ।।
      नानाविधाऽहं कलया मायया सर्वयोषितः ।।
      साऽहं कृष्णेन संसृष्टा नृप भ्रूभंगलीलया ।२८।।
      भ्रूभंगलीलया सृष्टो येन पुंसा महान्विराट्।।
      लोम्नां कूपेषु विश्वानि यस्य सन्ति हि नित्यशः
      ____________________________
      इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने दुर्गास्तोत्रं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ।।६६।।

      श्रीदामशापाद्दैवेन गोपी राधा च गोकुले ।।
      वृषभानुसुता सा च माता तस्याः कलावती ।९२।
      कृष्णस्यार्द्धांगसंभूता नाथस्य सदृशी सती ।
      गोलोकवासिनी सेयमत्र कृष्णाज्ञयाऽधुना ।९३।
      अयोनिसंभवा देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
      मातुर्गर्भं वायुपूर्णं कृत्वा च मायया सती ।। ९४।

      वायुनिःसरणे काले धृत्वा च शिशुविग्रहम् ।।
      आविर्बभूव मायेयं पृथ्व्यां कृष्णोपदेशतः।९५।

      वर्धते सा व्रजे राधा शुक्ले चंद्रकला यथा।
      श्रीकृष्णतेजसोऽर्द्धेन सा च मृर्तिमती सती।९६।

      एका मूर्तिर्द्विधाभूता भेदो वेदे निरूपितः 
      इयं स्त्री सा पुमान् किंवा सा वा कांता पुमानयम्।९७।।(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)
      अनुवाद:- अर्थ यह है कि मूलप्रकृति राधाजी अयोनिजा हैं। माता के गर्भवती अवस्था में मात्र वायु से उनका उदर बढ़ रहा था। प्रसव के समय बस योनि से वायु का ही निःसरण हुआ, उसके बाद श्रीकृष्ण भगवान् के (गोलोक में) कहे अनुसार बाहर ही शिशु के रूप में तत्काल राधिका प्रकट हो गयी थीं।
      शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन वे बढ़ने लगीं। श्रीकृष्ण की मूर्ति ही दो रूपों में राधा-कृष्णमय है। 
      एक का ही दो होना, यह मूर्तिभेद वेदों में वर्णित है। (वैदिक प्रमाण आगे दृष्टव्य है।)

      भगवान् श्रीकृष्ण ने भी बताया है कि राधा और उनकी माता, सीता और उनकी माता, दुर्गा (पार्वती) और उनकी माता, यह सब अयोनिजा ही हैं।

      "अयोनिसम्भवा राधा राधामाता कलावती।
      यास्यत्येव हि तेनैव नित्यदेहेन निश्चितम्॥
      पितृणां मानसी कन्या धन्या मान्या कलावती।
      धन्या च सीतामाता च दुर्गामाता च मेनका॥
      अयोनिसम्भवा दुर्गा तारा सीता च सुन्दरी।
      अयोनिसम्भवास्ताश्च धन्या मेना कलावती॥
      (ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ८९)

      सनत्कुमारीय योगरहस्योपनिषत् में सनकादि कुमारों ने श्रीनारदजी को कहा था कि राधा के साथ स्वामी श्रीकृष्ण की तीनों काल में पूजा करनी चाहिए - त्रिकालं पूजयेत्कृष्णं राधया सहितं विभुम्।

      नारदजी के पूछने पर सनत्कुमारों ने श्रीराधाजी का जो तात्त्विक परिचय दिया था, वह इस प्रकार है -
      प्रेमभक्त्युपदेशाय राधाख्यो वै हरिः स्वयम्।
      वेदे निरूपितं तत्त्वं तत्सर्वं कथयामि ते॥
      उत्सर्जने तु रा शब्दो धारणे पोषणे च धा।
      विश्वोत्पत्तिस्थितिलयहेतू राधा प्रकीर्तिता॥
      वृषभं त्वादिपुरुषं सूयते या तु लीलया।
      वृषभानुसुता तेन नाम चक्रे श्रुतिः स्वयम्॥
      गोपनादुच्यते गोपी गो भूवेदेन्द्रियार्थके।
      तत्पालने तु या दक्षा तेन गोपी प्रकीर्तिता॥
      गोविन्दराधयोरेवं भेदो नार्थेन रूपतः।
      श्रीकृष्णो वै स्वयं राधा या राधा स जनार्दनः॥
      (सनत्कुमारीय योगरहस्योपनिषत् ०७/४-८

      आदर्श प्रेम तथा भक्ति का अपनी जीवन के माध्यम से उपदेश देने के लिये श्रीहरि स्वयं ही 'राधा' नामसे प्रसिद्ध हुए।
      वेद में इनके तत्त्व का जिस प्रकार निरूपण हुआ है, वह सब प्रस्तुत करते हैं। 'रा' शब्द  समर्पण या त्याग के अर्थ में प्रयुक्त होता है और 'धा' शब्द धारण एवं पोषण के अर्थ में।
      इसके अनुसार राधा इस विश्व की उत्पत्ति, पालन तथा लय की हेतुभूता कही गयी गयी हैं। 
      आदिपुरुष विराट् ही वृषभ है, उसको निश्चय ही वे लीलापूर्वक उत्पन्न करती हैं; अतः स्वयं श्रुतिने उनका नाम 'वृषभानुसुता' रख दिया है। वे सबका गोपन (रक्षण) करनेसे 'गोपी' कहलाती हैं।
      'गो' शब्द गौ, भूमि, वेद तथा इन्द्रियों के अर्थ में प्रसिद्ध है। राधा इन 'गो' शब्दवाच्य सभी  का श्लिष्टार्थ में पालन करने में सक्षम हैं, इसलिये भी 'गोपी' कही गयी हैं। इस प्रकार गोविन्द तथा श्रीराधामें केवल बाह्य रूप का अन्तर है, अर्थ की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है।

      श्रीकृष्ण स्वयं राधा हैं और जो राधा हैं, वे साक्षात् श्रीकृष्ण हैं। अब हम राधाकृष्ण शब्द के शास्त्रोक्त अर्थ पर विचार करेंगे।

      "राशब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम्।
      धाशब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम्॥
      कृष्णवामांशसम्भूता राधा रासेश्वरी पुरा।
      तस्याश्चांशांशकलया बभूवुर्देवयोषितः॥
      रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचकः।
      ततोऽवाप्नोति मुक्तिं च तेन राधा प्रकीर्तिता॥
      बभूव गोपीसङ्घश्च राधाया लोमकूपतः।
      श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः॥
      (ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ४८)
      अनुवाद:-
      रा शब्द के उच्चारणमात्र से भक्त अत्यन्त दुर्लभ मुक्ति को प्राप्त करता है और धा शब्द के उच्चारण होने पर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के धाम की ओर वह बढ़ने लगता है। पूर्वकाल में रासेश्वरी राधाजी श्रीकृष्ण के बाएं भाग से प्रकट हुई थीं और उनके अंशों के अंश से अन्य देवताओं की स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं।
      रा शब्द का अर्थ आदान है, धा शब्द का अर्थ मुक्ति है। उनके माध्यम से व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होती है, अतः उन्हें राधा कहते है। श्रीराधाजी के रोमकूप से समस्त गोपियाँ और श्रीकृष्ण के रोमकूप से सभी गोपजन उत्पन्न हुए हैं, ऐसा समझना चाहिए।
      भगवान् कहते हैं -

      जानामि विश्वं सर्वार्थं ब्रह्मानन्तो महेश्वरः।
      धर्मः सनत्कुमारश्च नरनारायणावृषी।।
      कपिलश्च गणेशश्च दुर्गा लक्ष्मीः सरस्वती।
      वेदाश्च वेदमाता च सर्वज्ञा राधिका स्वयम्।।
      एते जानन्ति विश्वार्थं नान्यो जानाति कश्चन॥
      (ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ८४, श्लोक - ५५-५७)
      अनुवाद:-
      इस पूरे ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण रहस्य मैं जानता हूँ, ब्रह्माजी जानते हैं, शेषनाग जानते हैं, भगवान् शिव जानते हैं, धर्मराज जानते हैं, सनत्कुमार और नरनारायण ऋषि जानते हैं, कपिलदेव और भगवान् गणेश जानते हैं, देवी दुर्गा जानती हैं, लक्ष्मीजी और देवी सरस्वती जानती हैं, सभी वेद जानते हैं, वेदमाता गायत्री और सर्वज्ञा राधिका जानती हैं। ये सब विश्व को सम्पूर्णता से जानते हैं, इनके अतिरिक्त कोई नहीं। 
      पुनः आगे कहा -
      "रासे सम्भूय रामा सा दधार पुरतो मम।
      तेन राधा समाख्याता पुरा विद्भिः प्रपूजिता॥
      प्रहृष्टा प्रकृतिश्चास्यास्तेन प्रकृतिरीश्वरी।
      शक्ता स्यात्सर्वकार्येषु तेन शक्तिः प्रकीर्तिता॥
      अनुवाद:-
      रास में आकर उन्होंने मुझे पकड़ लिया, धारण कर लिया था, अतः उन्हें विद्वानों ने राधा कहकर पूजन किया। उनका स्वभाव प्रसन्न रहने का है, अतः प्रकृति और ईश्वरी कहते हैं। सभी कार्यों में समर्थ होने के कारण शक्ति कहलाती हैं।

      "गोपनादुच्यते गोपी राधिका कृष्णवल्लभा।
      देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता॥
      (पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ८१)
      अनुवाद:-
      सबों की रक्षा करने से कृष्ण की वल्लभा राधा को गोपी कहते हैं। वह परम देवता राधा कृष्णमयी हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में सामवेद की परम्परा के अनुसार राधा शब्द का अर्थ ब्रह्मदेव को भगवान् नारायण ने बताया है।
      राधाशब्दस्य व्युत्पत्तिः सामवेदे निरूपिता।
      नारायणस्तामुवाच ब्रह्माणं नाभिपङ्कजे॥
      राधा का गूढार्थ क्या है ?

      रेफो हि कोटिजन्माघं कर्मभोगं शुभाशुभम्।
      आकारो गर्भवासञ्च मृत्युञ्च रोगमुत्सृजेत्॥
      धकारमायुषो हानिमाकारो भवबन्धनम्।
      श्रवणस्मरणोक्तिभ्यः प्रणश्यति न संशयः॥
      रेफो हि निश्चलां भक्तिं दास्यं कृष्णपदाम्बुजे।
      सर्वेप्सितं सदानन्दं सर्वसिद्धौघमीश्वरम्॥
      धकारः सहवासञ्च तत्तुल्यकालमेव च।
      ददाति सार्ष्णिं सारूप्यं तत्त्वज्ञानं हरेः स्वयम्॥
      आकारस्तेजसो राशिं दानशक्तिं हरौ यथा।
      योगशक्तिं योगमतिं सर्वकालहरिस्मृतिम्॥
      (ब्रह्मवैवर्त्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)
      अनुवाद:-
      'र'कार करोड़ों जन्मों के पापसमूह और शुभाशुभ कर्मभोग को कहते हैं। 'आ'कार गर्भवास और मृत्यु आदि को व्यक्त करता है। 'ध'कार आयु की हानि और 'आ'कार संसाररूपी बन्धन को दर्शाता है। राधानाम के श्रवण और स्मरण से यह सब अर्थ और विकार नष्ट हो जाते हैं और नवीन अर्थ हो जाता है।
      'र'कार से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में निश्चल भक्ति और सेवाभाव की उपलब्धि हो जाती है। सभी प्रकार के आनन्द और सिद्धियों का समूह द्योतित होता है। 'ध'कार से श्रीकृष्ण के साथ नित्य रहना होता है और उनके सायुज्य तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है।
      आ'कार से उनके ही समान तेजस्विता और दानशक्ति का बोध होता है। योगबल और सदैव श्रीकृष्णचिन्तन प्राप्त होता है। 
      अब श्रीकृष्ण कौन हैं ?
      ककारः कमलाकान्त ऋकारो राम इत्यपि।
      षकारः षड्‍गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत्॥
      णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक्।
      विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी॥
      सम्प्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छुद्धे महात्मनि।
      परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः॥
      (गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड, अध्याय - १५)
      अनुवाद:-
      'कृष्णः' शब्द में 'क्' का अर्थ है, कमला अर्थात् लक्ष्मीदेवी का स्वामी। 'ऋ' का अर्थ है सबों को चित्त को अपने मे रमण कराने वाले राम। 'ष्' का अर्थ है श्वेतद्वीप में निवास करने वाले बल, तेज, ज्ञानादि षडैश्वर्य के अधिपति विष्णु। 'ण्' का अर्थ है, सभी नरसंज्ञक जीवों में सिंह के समान अग्रणी नरसिंह। 'अ' का अर्थ कभी नष्ट न होने वाला अक्षरपुरुष, जो अग्निभोजी (सर्वयज्ञानां भोक्ता) है। कृष्ण शब्द में प्राणसञ्चारक विसर्ग साक्षात् जीवात्मा एवं परमात्मारूपी नर एवं नारायण ऋषि हैं। जिस शुद्धस्वरूप महान् आत्मा (चेतन) में यह छः अर्थ पूर्ण रूप से लीन हैं, उस परिपूर्णतम तत्त्व को 'कृष्ण' कहा जाता है।
      श्रीधरस्वामी महाभारत के आश्रय से व्यक्त करते हैं -
      कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्चनिर्वृतिवाचकः।  कृष्णस्तद्भावयोगाच्च कृष्णो भवति सात्त्वतः॥
      कृषि शब्द से पृथ्वी (जगत्) का वाचन होता है और ण अक्षर निर्वृत्ति का वाचक है। इस प्रकार से सत्वगुण का विस्तार करने वाले विष्णु संसार से मुक्त करने के कारण कृष्ण कहलाते हैं। आकृष्ट करने से भी कृष्ण हैं - कर्षणात्कृष्णः। और कृष् विलेखने- से कृषक और पशुपालक भी कृष्ण को श्लेषमयी अर्थ हैं ।
      ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
      जगन्माता च प्रकृतिः पुरुषश्च जगत्पिता।
      गरीयसीति जगतां माता शतगुणैःपितुः॥
      राधाकृष्णेति गौरीशेत्येवं शब्दःश्रुतौ श्रुतः।
      कृष्णराधेशगौरीति लोके न च कदा श्रुतः॥
      अनुवाद:-
      प्रकृति संसार की माता है और पुरुष संसार का पिता है। जगत्पिता की अपेक्षा जगन्माता सौ गुणा महान् है। वेदों में राधाकृष्ण, गौरीश आदि शब्द ही सुनने में आते हैं, कृष्णराधा या ईशगौरी नहीं। फिर आगे स्पष्ट कहा -
                          "नारद उवाच"
      आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं विदुर्बुधाः।।
      निमित्तमस्य मां भक्तं वद भक्तजनप्रिय ।।३३।
      (ब्रह्मवैवर्त पुराण )
      आदौ पुरुषमुच्चार्य पश्चात्प्रकृतिमुच्चरेत्।
      स भवेन्मातृगामी च वेदातिक्रमणे मुने॥
      अनुवाद:-
      जो पहले पुरुष का नाम लेकर बाद में प्रकृति का नाम लेता है, हे नारद ! उसे वेद की मर्यादा का अतिक्रमण करने के कारण माता से सम्भोग करने का पाप लगता है। एक और प्रमाण देखें -
      गौरतेजो विना यस्तु श्यामतेजस्समर्चयेत्।
      जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत्पातकी शिवे॥
      सन्दर्भ-ग्रन्थ:-(सम्मोहनतन्त्र)

      भगवान् शिव भी कहते हैं - हे शिवे ! गौरतेज (श्रीराधा) के बिना जो श्यामतेज (श्रीकृष्ण) की पूजा, जप अथवा ध्यान करता है, वह पातकी होता है। 

      स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में वर्णन है -
      "आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ ।
      आत्मारामतया प्राज्ञैः प्रोच्यते गूढवेदिभिः॥२२॥
      कामास्तु वाञ्छितास्तस्य गावो गोपाश्च गोपिकाः।
      नित्यां सर्वे विहाराद्या आप्तकामस्ततस्त्वयम्॥ २३॥

      श्रीस्कान्दे महापुराणे एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे
      श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये शाण्डील्योपदिष्ट व्रजभूमिमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथोमोऽध्यायः॥१॥

      अनुवाद:-
      उन श्रीकृष्ण की आत्मा राधिका हैं और उनके साथ ही रमण करने से इस रहस्य को जानने वाले बुद्धिमान् उन्हें आत्माराम कहते हैं। आत्मा से युक्त होकर ही देह सार्थक है। शक्ति से युक्त शक्तिमान् की सार्थकता है, अतः कहा -

      आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः।
      व्यतिक्रमे ब्रह्महत्यां लभते नात्र संशयः॥
      (ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ४९, श्लोक - ६०)
      अनुवाद:-
      बुद्धिमान् को चाहिए कि पहले राधा और फिर कृष्ण का उच्चारण करे। विपरीत करने से उसे ब्रह्महत्या लगती है, इसमें संशय नहीं है।

      कथाविस्तार के भय से  वृत्तान्त का सार ही प्रस्तुत है । वैष्णव परम्परा में शुकदेव-परीक्षित् संवादात्मक श्रीमद्भागवत और उपपुराणभूत अनुभागवत है जिसे आदिपुराण अथवा सनत्कुमार पुराण भी कहते हैं। 

      शाक्त परम्परा में वेदव्यास-जनमेजय संवादात्मक देवीभागवत और उसका उपपुराणभूत महाभागवत है, जिसे देवीपुराण भी कहते हैं। इस दौनों के अतिरिक्त एक अन्य देवीपुराण भी है। हेमाद्रि आदि के वचनों से कालिकापुराण की मूलभागवत संज्ञा है। 
      श्रीशुकदेवजी के निजी भाववश श्रीमद्भागवत में राधानाम प्रत्यक्ष नहीं आया है किन्तु जहाँ ऐसी परिस्थिति नहीं थी, ऐसे देवीभागवत और महाभागवत आदि में श्रीराधाजी का प्रत्यक्ष नाम और चरित्र वर्णित है।
      तान्त्रिक परम्परा में तो कहते हैं कि जहाँ श्रीराधाजी का नाम आ जाए और गायत्री का आख्यान हो, वही ग्रन्थ श्रीमद्भागवतसंज्ञक हो जाता है। पञ्चभागवतों का सङ्केत यहाँ भी प्राप्त है -
      _______________
      एतद्धि पद्मिनीतन्त्रं श्रीमद्भागवतं स्मृतम्।
      येषु येषु च शास्त्रेषु गायत्री वर्तते प्रिये॥
      पञ्चविष्णोरुपाख्यानं यत्र तन्त्रेषु दृश्यते।
      पद्मिन्याश्च गुणाख्यानं तद्धि भागवतं स्मृतम्॥
      (वासुदेवरहस्य, राधातन्त्र, अष्टादश पटल)
      अनुवाद:-
      राधातन्त्र के इसी पटल में कात्यायनी देवी का व्रत करने वाली कृष्ण की कामना करने वाली कन्याओं को  कृष्णप्राप्ति का वरदान मिलने का वर्णन है -
      "कात्यायन्युवाच
      मा भयं कुरुषे पुत्रि कृष्णं प्राप्स्यसि साम्प्रतम्।
      आगे कहते हैं -
      संस्थिता पद्मिनी राधा यावत्कृष्णसमागमः।
      अन्याभिर्गोपकन्याभिर्वर्द्धमाना गृहे गृहे॥
      अनुवाद:-
      राधातन्त्र में श्रीकृष्ण को कालिकारूप भी कहा है।
      कृष्णस्तु कालिका साक्षात् राधाप्रकृतिपद्मिनी।
      हे कृष्ण राधे गोविन्द इदमुच्चार्य यत्नतः॥
      (वासुदेवरहस्य, राधातन्त्र, उनतीस -(29)पटल)

      महाभागवत में भी श्रीशिव का राधावतार और देवी का श्रीकृष्णावतार सन्दर्भित है -
      कदाचिद्राधिका शम्भुश्चारुपञ्चमुखाम्बुजः।
      कृष्णो भूत्वा स्वयं गौरी चक्रे विहरणं मुने॥
      (महाभागवत उपपुराण, अध्याय - ५३, श्लोक - १५)
      मुण्डमाला तन्त्र में भगवती कहती हैं -
      गोलोके चैव राधाहं वैकुण्ठे कमलात्मिका।
      ब्रह्मलोके च सावित्री भारती वाक्स्वरूपिणी॥
      (मुण्डमालातन्त्र, सप्तम पटल, श्लोक - ७४)
      अनुवाद:-
      मैं गोलोक में राधा हूँ, वैकुण्ठ में लक्ष्मी हूँ, ब्रह्मलोक में सावित्री, भारती और सरस्वती के रूप से रहती हूँ।
       नारदपुराण का भी यही मत है -
      कृष्णो वा मूलप्रकृतिः शिवो वा राधिका स्वयम्।
      एवं वा मिथुनं वापि न केनापीति निश्चितम्॥
      (नारदपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ५९)
      "पुरा सृष्टिक्रमे जाताः समुद्राः सप्त मोहिनि।
      राधिका गर्भसम्भूता दिव्यदेहाः पृथग्विधाः॥
      ते सप्त सागरा बालाः स्तन्यपानकृतक्षणाः।
      ततस्ते सर्वतो दृष्ट्वा मातरं तां जगत्प्रसूम्॥
      मा भैष्ट पुत्रास्तिष्ठामि समीपे भवतामहम्।
      द्रवरूपा भवन्तस्तु पृथग्रूपचराः सदा॥
      वर्तध्वं क्षारतां यातु कनिष्ठोऽभ्यन्तरे स्थितः।
      एवमुक्त्वा जगन्नाथो बालकान्विससर्ज ह॥
      तेषां तु सान्त्वनोर्थाय समीपस्थः सदाभवत्॥
      यः प्रविष्टो रतिगृहं स क्षारोदो बभूव ह।
      अन्ये तु द्रवरूपा वै क्षीरोदाद्याः पृथक् स्थिताः॥
      (नारदपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ५८)

      शिवपुराण, देवीभागवत आदि के अनुसार राधाजी के शाप के कारण सुदामा गोप को दैत्ययोनि में शङ्खचूड के रूप में जन्म लेना पड़ा था अतः बदले में राधाजी को उन्होंने शाप दिया कि आपको सौ वर्षों का श्रीकृष्णवियोग होगा। अतः संसार की दृष्टि से श्रीराधाकृष्ण का प्रत्यक्ष मिलन नहीं हुआ। उनका गुप्त विवाह ब्रह्मा जी ने भाण्डीरवट के समीप कराया था। 

      प्रधान श्लोक प्रस्तुत हैं पूरा प्रसङ्ग सम्बन्धित ग्रन्थ के प्रकरण में स्वयं परिश्रम करके पढ़ें। श्लोक २१ देखें, ब्रह्मदेव ने विवाह कराने से पूर्व कहा -

      गर्गसंहिता‎  खण्डः १ (गोलोकखण्डः)
      श्रीकृष्ण-राधिका विवाहवर्णनम्

      श्रीनारद उवाच -
      गाश्चारयन् नन्दनमङ्कदेशे संलालयन्            दूरतमं सकाशात् ।
      कलिंदजातीरसमीरकंपितं
           नंदोऽपि भांडीरवनं जगाम ॥१॥
      कृष्णेच्छया वेगतरोऽथ वातो
           घनैरभून्मेदुरमंबरं च।
      तमालनीपद्रुमपल्लवैश्च
           पतद्‌भिरेजद्‍‌भिरतीव भाः कौ ॥२॥
      तदांधकारे महति प्रजाते
           बाले रुदत्यंकगतेऽतिभीते।
      नंदो भयं प्राप शिशुं स बिभ्र-
           द्धरिं परेशं शरणं जगाम॥ ३॥
      तदैव कोट्यर्कसमूहदीप्ति-
           रागच्छतीवाचलती दिशासु।
      बभूव तस्यां वृषभानुपुत्रीं
           ददर्श राधां नवनंदराजः॥ ४॥
      कोटींदुबिंबद्युतिमादधानां
           नीलांबरां सुंदरमादिवर्णाम् ।
      मंजीरधीरध्वनिनूपुराणा-
           माबिभ्रतीं शब्दमतीव मंजुम्॥५॥
      कांचीकलाकंकणशब्दमिश्रां
           हारांगुलीयांगदविस्फुरंतीम् ।
      श्रीनासिकामौक्तिकहंसिकीभिः
           श्रीकंठचूडामणिकुंडलाढ्याम् ॥६॥
      तत्तेजसा धर्षित आशु नंदो
           नत्वाथ तामाह कृतांजलिः सन् ।
      अयं तु साक्षात्पुरुषोत्तमस्त्वं
           प्रियास्य मुख्यासि सदैव राधे ॥७॥
      गुप्तं त्विदं गर्गमुखेन वेद्मि
           गृहाण राधे निजनाथमंकात् ।
      एनं गृहं प्रापय मेघभीतं
           वदामि चेत्थं प्रकृतेर्गुणाढ्यम् ॥८॥
      नमामि तुभ्यं भुवि रक्ष मां त्वं
           यथेप्सितं सर्वजनैर्दुरापम् ।
      श्रीराधोवाव -
      अहं प्रसन्ना तव भक्तिभवा-
           न्मद्दर्शनं दुर्लभमेव नंद ॥९॥
      श्रीनंद उवाच -
      यदि प्रसन्नासि तदा भवेन्मे
           भक्तिर्दृढा कौ युवयोः पदाब्जे।
      सतां च भक्तिस्तव भक्तिभाजां
           संगः सदा मेऽथ युगे युगे च ॥१०॥
      श्रीनारद उवाच -
      तथास्तु चोक्त्वाथ हरिं कराभ्यां
           जग्राह राधा निजनाथमंकात् ।
      गतेऽथ नंदे प्रणते व्रजेशे
           तदा हि भांडीरवनं जगाम ॥११॥
      गोलोकलोकाच्च पुरा समागता
           भूमिर्निजं स्वं वपुरादधाना।
      या पद्मरागादिखचित्सुवर्णा
           बभूव सा तत्क्षणमेव सर्वा ॥१२॥
      वृंदावनं दिव्यवपुर्दधानं
           वृक्षैर्वरैः कामदुघैः सहैव।
      कलिंदपुत्री च सुवर्णसौधैः
           श्रीरत्‍नसोपानमयी बभूव ॥१३॥
      गोवर्धनो रत्‍नशिलामयोऽभू-
           त्सुवर्णशृङ्गैः परितः स्फुरद्‌भिः।
      मत्तालिभिर्निर्झरसुंदरीभि-
           र्दरीभिरुच्चांगकरीव राजन् ॥१४॥
      तदा निकुंजोऽपि निजं वपुर्दध-
           त्सभायुतं प्रांगणदिव्यमंडपम् ।
      वसंतमाधुर्यधरं मधुव्रतै-
           र्मयूरपारावतकोकिलध्वनिम् ॥१५॥
      सुवर्णरत्‍नादिखचित्पटैर्वृतं
           पतत्पताकावलिभिर्विराजितम् ।
      सरः स्फुरद्‌भिर्भ्रमरावलीढितै-
           र्विचर्चितं कांचनचारुपंकजैः ॥१६॥
      तदैव साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तमो
           बभूव कैशोरवपुर्घनप्रभः।
      पीतांबरः कौस्तुभरत्‍नभूषणो
           वंशीधरो मन्मथराशिमोहनः ॥१७॥
      भुजेन संगृह्य हसन्प्रियां हरि-
           र्जगाम मध्ये सुविवाहमंडपम् ।
      विवाहसंभारयुतः समेखलं
           सदर्भमृद्‌वारिघटादिमंडितम् ॥१८॥
      तत्रैव सिंहासन उद्‌गते वरे
           परस्परं संमिलितौ विरेजतुः।
      परं ब्रुवंतौ मधुरं च दंपती
           स्फुरत्प्रभौ खे च तडिद्‌घनाविव ॥१९॥
      तदांबराद्‌देववरो विधिः प्रभुः
           समागतस्तस्य परस्य संमुखे।
      नत्वा तदंघ्री ह्युशती गिराभिः
           कृताञ्जलिश्चारु चतुर्मुखो जगौ ॥२०॥
      श्रीब्रह्मोवाच -
      अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
           श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
      स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
           राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१॥
      गोलोकनाथस्त्वमतीव लीलो
           लीलावतीयं निजलोकलीला ।
      वैकुंठनाथोऽसि यदा त्वमेव
           लक्ष्मीस्तदेयं वृषभानुजा हि ॥ २२॥
      त्वं रामचंद्रो जनकात्मजेयं
           भूमौ हरिस्त्वं कमलालयेयम् ।
      यज्ञावतारोऽसि यदा तदेयं
           श्रीदक्षिणा स्त्री प्रतिपत्‍निमुख्या ॥२३॥
      त्वं नारसिंहोऽसि रमा तदेयं
           नारायणस्त्वं च नरेण युक्तः ।
      तदा त्वियं शांतिरतीव साक्षा-
           च्छायेव याता च तवानुरूपा ॥२४॥
      त्वं ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था
           कालो यदेमां च विदुः प्रधानाम् ।
      महान्यदा त्वं जगदंकुरोऽसि
           राधा तदेयं सगुणा च माया ॥२५॥
      इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे श्रीराधिकाविवाहवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः।१६।

      अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
           श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
      स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
           राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१ ॥
      अनुवाद:-
      जो अनादि हैं, सबके आदि हैं, पुरुषोत्तमों के भी पुरुषोत्तम हैं, अपने भक्तों पर कृपा करने वाले ऐसे परात्पर ब्रह्म, असंख्य ब्रह्माण्डों के स्वामी, राधा के पति आप श्रीकृष्णचन्द्र की मैं शरण में जाता हूँ। फिर आगे बहुत लम्बी स्तुति है, विवाह के विधानों का वर्णन करने के बाद श्लोक ३४ में देखें -
      संवासयामास सुपीठयोश्च तौ
      कृताञ्जली मौनयुतौ पितामहः।
      तौ पाठयामास तु पञ्चमन्त्रकं
      समर्प्य राधां च पितेव कन्यकाम्॥
      अनुवाद:-
      मौन होकर पितामह ब्रह्माजी ने उन दोनों को उत्तम आसन पर बैठाकर हाथ जोड़कर विवाहसम्बन्धी पांच मन्त्र पढ़वाकर, पिता के समान राधाजी का कन्यादान करके उन्हें श्रीकृष्ण को सौंप दिया।
      इस समय राधाकृष्ण का शरीर किशोरावस्था के समान था। विवाह के बाद उनकी दाम्पत्यलीला का वर्णन है, फिर श्लोक ५० में देखें -

      "हरेश्च शृङ्गारमलं प्रकर्तुं
      समुद्यता तत्र यदा हि राधा।
      तदैव कृष्णस्तु बभूव बालो
      विहाय कैशोरवपुः स्वयं हि॥
      अनुवाद:-
      जब श्रीहरि की शृङ्गारलीला पूर्ण हुई तो श्रीराधाजी ने विश्राम का विचार किया और श्रीकृष्ण अपने किशोरस्वरूप को छोड़कर छोटे बच्चे बन गए। इसके बाद उनके बालकों के समान भूमि पर लोटने और रोने का वर्णन है, जिससे वियोगवश राधाजी व्यथित हो गयीं किन्तु शाप को स्मरण करके उन्होंने श्रीकृष्ण को गोद मे उठाया और वन से उनके घर ले गयीं। तब श्रीकृष्ण को सकुशल देखकर यशोदाजी ने कहा -

      "उवाच राधां नृप नन्दगेहिनी
      धन्यासि राधे वृषभानुकन्यके
      त्वया शिशुर्मे परिरक्षितो भया-
      न्मेघावृते व्योम्नि भयातुरो वने॥
      (गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड, अध्याय - १६, श्लोक - ५४)
      अनुवाद:-नन्दपत्नी यशोदाजी ने अपने पुत्र को देखकर राधाजी से कहा - हे वृषभानु की पुत्री राधिके ! तुम धन्य हो। आज बहुत तेज वर्षा होने वाली है और मेरा बालक वन की ओर चला गया था, सो तुमने उसे यहाँ वापस लाकर बड़े भय से उसकी रक्षा की। 

      राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र,यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है।
      अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं..
      परन्तु यदि शास्त्रीय आधार पर ही राधा जी के अस्तित्व का विवेचन किया जा तो राधा जी का वर्णन सभी प्रसिद्ध वैष्णव पुराणों में है। भागवत पुराण और महाभारत में वर्णन एक इन ग्रन्थों का प्रक्षेप ही है। नन्द के पिता पर्जन्य और माता  वरीयसी(वर्षीयसी) का वर्णन भी पुराणों मे नहीं है परन्तु भविष्य पुराण में वर्णित चैतन्य महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वीमी के वैष्णव ग्रन्थों में वर्णित है।
      तो क्या नन्द की वंशावली और उनके माता पिता के अस्तित्व को नकारा जा सकता है।
      कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। जो कि व्रज का ऐतिहासिक गाँव है। यहाँ राधा का मंदिर भी है।
      राधारानी का विश्वप्रसिद्ध मंदिर बरसाना( बहत्सानु) ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। जहाँ बृषभानु आभीर गोप मुखिया रहते थे। 
      यह आश्चर्य की बात हे कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता, यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य है। 
      भागवत और महाभारत का सम्पादन महात्मा तथागत बुद्ध के परवर्ती काल तक हुआ
      इसी लिए दौनों ग्रन्थों  में महात्मा बुद्ध का वर्णन है।
      भागवत पुराण-श्लोक  10.40.22 
      "नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
      म्‍लेच्छप्रायक्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्किरूपिणे ॥२२॥
      शब्दार्थ:-नम:—नमस्कार; बुद्धाय—बुद्ध को; शुद्धाय—शुद्ध; दैत्य-दानव—दिति तथा दानु की सन्तानों के; मोहिने—मोहने वाले को; म्लेच्छ—मांस-भक्षक अछूत के; प्राय—समान; क्षत्र—राजाओं; हन्त्रे—मारने वाले को; नम:—नमस्कार; ते—तुम्हें; कल्कि- रूपिणे—कल्कि के रूप में ।.
      अनुवाद:-आपके शुद्ध रूप भगवान् तथागत बुद्ध को नमस्कार है, जो दैत्यों तथा दानवों को मोह लेगें। आपके कल्कि रूप को नमस्कार है, जो राजा बनने वाले अशुद्ध बोलने वालों का संहार करने वाले होंगे।
      दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर वर्णन है कि 👇
      "नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्य दानवमोहिने"।            म्लेच्छ प्राय: क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे"।२२।
      अनुवाद:-
      दैत्य और दानवों को  मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।        और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे !  मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।
      "महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व के  भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में स्वयं भीष्म पितामह भगवान कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में ही उनके भविष्य में होने वाले अन्य अवतारों बुद्ध और कल्कि की स्तुति भी करते हैं ।  
      भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇
      भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार का स्तुति करते हैं ।
      जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
      उसी प्रकार यहाँं भी -
      👇अब बुद्ध का समय ई०पू० (566)वर्ष है । फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं ? 
      नि:सन्देह सत्य के दर्शन के लिए  हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।
      पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है ।
      वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा  बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।
      इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।

      नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
      क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन  इस प्रकार है। देखें👇
      ___________________
      दानवांस्तु वशे कृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागतः।
      सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नमः।। 12-46-107
      हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहनः।
      धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नमः।12-46-108
      👇
      अनुवाद:-
      अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन:  बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।
      👇
      हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्‍छांस्तुरगवाहन:।धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।
      अनुवाद:-
      जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्‍छों का वध करेंगे उन कल्कि  रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।
      इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
      राजधर्मपर्वणि षट्‌चत्वारिंशोऽध्यायः।।
      👇
      आशय यह कि 
      "जो सृष्टि की रक्षा के लिये दानवों को अपने अधीन करके पुनः बुद्धभाव को प्राप्त हो गये, उन बुद्धस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।

      जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिये म्लेच्छों का वध करेंगे, उन कल्किरूप श्रीहरि को नमस्कार है। 
      ( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है।
      "इसके अतिरिक्त इसी शान्ति पर्व अध्याय -(348) निर्णय सागर प्रेस मुम्बई के महाभारत में हैं भी हैं। बुद्ध भीष्म से बहुत बाद में हुए परन्तु भीष्म से बुद्ध की स्तुति कराकर महाभारत के क्षेपक(बाद में मिलाया हुआ मिश्रित श्लोक) को स्वयं प्रमाणित कर दिया है।
      जय देव ने गीतगोविन्द श्रृँगारिक गीत् काव्य द्वारा राधा और कृष्ण को काम शास्त्री नायिका और नायक बना कर उनके चरित्र का हनन ही किया है।

      वसन्ते वासन्ती कुसुम सुकुमारैः अवयवैः
      भ्रमन्तीम् कान्तारे बहु विहित कृष्ण अनुसरणाम् |
      अमन्दम् कन्दर्प ज्वर जनित चिन्त आकुलतया
      वलद् बाधाम् राधाम् स रसम् इदम् उचे सह चरी ||१-७||
      अनुवाद:-
      किसी समय वसन्त ऋतूकी सुमधुर बेलामें विरह-वेदनासे अत्यन्त कातर होकर राधिका एक विपिनसे दूसरे विपिनमें श्रीकृष्णका अन्वेषण करने लगी, माधवी लताके पुष्पोंके समान उनके सुकुमार अंग अति क्लान्त हो गये, वे कन्दर्पपीड़ाजनित चिन्ताके कारण अत्यन्त विकल हो उठीं, तभी कोई एक सखी उनको अनुरागभरी बातोंसे सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी ||१-७||

      निन्दति यज्ञ विधेः अ ह ह श्रुति जातम् |        सदय हृदय दर्शित पशु  घातम् ||
      केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे ||         (अध्याय प्रथम १-९) ||
      अनुवाद:-
      हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देखकर श्रुति समुदाय की निन्दा की है। आपकी जय हो ||
        १-९ ||
      म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम्।          धूम केतुम् इव किम् अपि करालम् ||
      केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे ||      अ प १-१० ||
      अनुवाद:-
      हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || अ प १-१० ||

      श्लिष्यति काम् अपि चुंबति काम् अपि काम् अपि रमयति रामाम् |
      पश्यति सः स्मित चारु तराम् अपराम् अनु गच्छति वामाम् |
      हरिरिह केलिपरे ॥ अ प ४-७ ||
      अनुवाद:-
      श्रृंगार-रसकी लालसामें श्रीकृष्ण कहीं किसी रमणीका आलिंगन करते हैं, किसीका चुम्बन करते हैं, किसीके साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधाका अवलोकन कर किसीको निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनीके पीछे-पीछे चल रहे हैं ॥अ प ४-७ || 
      (सन्दर्भ:- गीत-गोविन्द)

                      "भीष्म उवाच"
      नारदः परिप्रपच्छ भगवन्तं जनार्दनम्।
      एकार्णवे महाघोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे।१।
                      "श्रीगवानुवाच"
      शृणु नारद तत्वेन प्रादुर्भावान्महामुने।
      मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
      रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्कीति ते दश।।२।
      __________________
      ततःकलियुगस्यादौ द्विजराजतरुं श्रितः।
      भीषया मागधेनैव धर्मराजगृहे वसन्।४२।
      काषायवस्रसंवीतो मुण्डितः शुक्लदन्तवान्।
      शुद्धोदनसुतो बुद्धो मोहयिष्यामि मानवान्।४३।
      शूद्राः सुद्धेषु भुज्यन्ते मयि बुद्धत्वमागते।
      भविष्यन्ति नराः सर्वे बुद्धाः काषायसंवृताः।४४।
      अनध्याया भविष्यन्ति विप्रा यागविवर्जिताः।
      अग्निहोत्राणि सीदन्ति गुरुपूजा च नश्यति।४५।
      न शृण्वन्ति पितुः पुत्रा न स्नुषा नैव भ्रातरः।
      न पौत्रा न कलत्रा वा वर्तन्तेऽप्यधमोत्तमाः।४६।
      एवंभूतं जगत्सर्वं श्रुतिस्मृतिविवर्जितम्।
      भविष्यति कलौ पूर्णे ह्यशुद्धो धर्मसंकरः।४७।
      तेषां सकाशाद्धर्मज्ञा देवब्रह्मविदो नराः।
      भविष्यन्ति ह्यशुद्धाश्च न्यायच्छलविभाषिणः।४८।
      ये नष्टधर्मश्रोतारस्ते समाः पापनिश्चये।
      तस्मादेता न संभाष्या न स्पृश्या च हितार्थिभिः।
      उपवासत्रयं कुर्यात्तत्संसर्गविशुद्धये।४९।
      ततः कलियुगस्यान्ते ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः।
      कल्किर्विष्णुयशःपुत्रो याज्ञवल्क्यःपुरोहितः।५०।
      तस्मिन्नाशे वनग्रामे तिष्ठेत्सोन्नासिमो हयः।
      सहया ब्राह्मणाः सर्वे तैरहं सहितः पुनः।
      म्लेच्छानुत्सादयिष्यामि पाषण्‍डांश्चैव सर्वशः।५१।
      पाषण्डश्च कलौ तत्र माययैव विनश्यते।
      पाषण्‍डकांश्चैव हत्वा तत्रान्तं प्रलये ह्यहम्।५२।
                ("शान्ति पर्व अध्याय-348 
      ___________________

      राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया।
      कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है।
      जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे।
      यहाँ पर हम वस्तुतः राधा शब्द व चरित्र कहाँ से आया इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
       यद्यपि यह भी एक धृष्टता ही है क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण व श्री राधाजी दोनों  अभिन्न स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं। 
      राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता वेद-उपनिषद में तो राधा का उल्लेख  है परन्तु आर्यसमाजीयों के यौगिक धातुज अर्थ ही इण्टनेट वेवसाइटों पर अपलोड हैं।
      राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है परन्तु श्रँगारपरक रूप में ही है।

      "मह्यं प्रोवाच देवर्षे भविष्यच्चरितं हरेः ।।
      सुखमास्तेऽधुना देवः कृष्णो गधासमन्वितः ।। ८१-२५ ।।


      गोलोकेऽस्मिन्महेशान गोपगोपीसुखावहः।।
      स कदाचिद्धरालोके माथुरे मंडले शिव ।८१-२६।
      आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृंदाग्ण्ये करिष्यति ।।
      वृपभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ ।।

      सखायं विरजागेहद्वाःस्थं क्रुद्धा शपिष्यति ।।
      ततः सोऽपि महाभाग राधां प्रतिशपिष्यति ।। ८१-२८ ।।
      याहि त्वं मानुषं लोकं मिथः शापाद्धरां ततः ।।
      प्राप्स्यत्यथ हरिः पश्चाद्ब्रह्मणा प्रार्थितः क्षितौ ।। ८१-२९ ।।
      भूभारहरणायैव वासुदेवो भविष्यति।
      वसुदेवगृहे जन्म प्राप्य यादवनंदनः । ८१-३०।
      कंसासुरभिया पश्चाद्व्रजं नन्दस्य यास्यति।
      तत्र यातो हरिः प्राप्तां पूतनां बालघातिनीम्। ८१-३१।
      वियोजयिष्यति प्राणैश्चक्रवातं च दानवम् ।
      वत्सासुरं महाकायं हनिष्यति सुरार्द्दनम् ।८१-३२।
      दमित्वा कालियं नागं यम्या उच्चाटयिष्यति।
      दुःसहं धेनुकं हत्वा वकं नद्वदघासुरम्।८१-३३।

      दावं प्रदावं च तेथा प्रलंबं च हनिष्यति ।
      ब्रह्मणमिंद्रं वरुणं प्रमत्तौ धनदात्मजो। ८१-३४।
      विमदान्स विधायेषो हनिष्यति वृपासुरम् ।
      शंखचू डंकेशिनं च व्योमं हत्वा व्रजे वसन् । ८१-३५।
      एकादश समास्तत्र गोपीभिः क्रीडायिष्यति ।।
      ततश्च मथुरां प्राप्य रजकं संनिहत्य च ।८१-३६।
      कुब्जामृज्वीं ततः कृत्वा धनुर्भंक्त्वा गजोत्तमम् ।।
      हत्वा कुवलयापीडं मल्लांश्चाणूरकादिकान् । ८१-३७।
      कंसं स्वमातुलं कृष्णो हनिष्यति ततः परम् ।।
      विमुच्य पितरौ बद्धौ यवनेशं निहत्य च।८१-३८।
      जरासंध भयात्कृष्णो द्वारकायां समुष्यति ।।
      रुक्मिणीं सत्यभामां च सत्यां जाम्बवतीं तथा । ८१-३९ ।
      कैकेयीं लक्ष्मणां मित्रविंदां कालिंदिकां विभुः ।।
      दारान्षोडशसाहस्रान्भौमं हत्वोद्वहिष्यति ।। ८१-४० ।।
      पौंड्रकं शिशुपालं च दंतवक्त्रं विदूरथम् ।।
      शाल्वं च हत्वा द्विविदं बल्वलं घातयिष्यति ।। ८१-४१ ।।
      वज्रनाभं सुनाभं च सार्द्धं वै षट्पुरालयैः ।।
      त्रिशरीरं ततो दैत्यं हनिष्यति वरोर्ज्जितम् ।। ८१-४२ ।।
      कौखान्पांडवांश्चापि निमित्तमितरेतरम् ।।
      कृत्वा हनिष्यति शिव भूभारहरमोत्सुकः ।। ८१-४३ ।।
      यदून्यदुभिग्न्योन्यं संहबृत्य स्वकुलं हरिः ।।
      पुनरेतन्निजं धाम समेष्यति च सानुगः ।८१-४४।
      एतत्तेऽभिहितं शंभो भविष्यच्चरितं हरेः ।।
      गच्छ द्रक्ष्यसि तत्सर्वं जगतीतलगे हरौ ।८१-४५।
      तच्छ्रुत्वां सुरभेर्वाक्यं भृशं प्रीतो विधातृज ।।
      स्वस्थानं पुनरायातस्तुभ्यं चापि मयोदितम् ।। ८१-४६ ।।
      त्वं च द्रक्ष्यसि कालेन चरितं गोकुलेशितुः ।।
      तच्छ्रुत्वा शूलिनो वाक्यं वसुर्दृष्टतनूरुहः ।८१-४७।
      गायन्माद्यन् विभुं तंत्र्या रमयाम्यातुरं जगत् ।।
      एतद्भविष्यत्कथितं मया तुभ्यं द्विजोत्तम ।८१-४८।
      यथा तु गौतमस्तद्वदहं चापि हिते रतः ।।

                       "सूत उवाच।
      इत्युक्त्वा नारदस्तस्मै वसवे स द्विजन्मने ।। ८१-४९ ।।
      जगाम वीणा रणयंश्चिन्तयन्यदनंदनम् ।।
      स वसुस्तद्वचः श्रुत्वा व्रजे सुप्रीतमानसः ।। ८१-५० ।।
      उवास सर्वदा विप्राः कृष्णक्रीडेक्षणोत्सुकः ।। ८१-५१ ।।
      इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे बृहदुपाख्याने उत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे वसुचरित्रनिरूपणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः।८१।
      ____________________________________

      सुविवृतं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः ।
      गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः ॥७॥ऋग्वेद-१/१०/७

      इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते ।
      पिबा त्वस्य गिर्वणः ॥१०॥
      (ऋग्वेद ३/५१/१० )
      –ओ राधापति वेदमन्त्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो।
      विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस: सवितारं नृचक्षसं .. (ऋग्वेद १ २ २.७).

      विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम्॥7॥

      देवता —      सविता ;       छन्द —        गायत्री;      
      स्वर —         षड्जः;       

      ऋषि —      मेधातिथिः काण्वः

      (सायण भाष्य के आधार पर)

      निवास के कारणभूत, अनेक प्रकार के धनों के विभाजनकर्ता और मनुष्य के प्रकाश-कर्ता सूर्य का हम आह्वान करते हैं।

      ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो।

      यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्ध्नि रहस् प्रेमयुक्त:
      राधिकातापनीयोपनिषत्} में वर्णन है कि  "यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरणे मूर्ध्नि रहसि प्रेमयुक्तः। यस्या अङ्के विलुण्ठन् कृष्णदेवो गोलोकाख्यं नैव सस्मार धामपदं सांशा कमला शैलपुत्री तां राधिकां शक्तिधात्रीं नमाम:।
      अनुवाद:- जिनकी चरणधूलि भगवान अपने शिर पर धारण करते हैं। जिनके अंक में लेट ने पर भगवान अपने गोलोक को भूल जाते हैं जिन राधा सी ही अंश हैं करोड़ो लक्ष्मी करोड़ो ब्रह्माणी और करोड़ो पार्वती वह हैं राधा।
      राधा शब्द के दो अर्थ सम्पूरक व श्लिष्ट  है--
        1--आराधिका(  कृष्ण की आराधना करने वाली सा राधा )
      2--आराध्या ( जिसकी सब आराधना करे सा राधा)
       --- जब भगवान रास के समय अंतर्धान हो गये थे तो तब गोपियो ने देखा की भगवान अकेले ही अंतर्धान नही हुए थे बल्कि साथ मे एक गोपी को भी लेकर चले गये थे --
      तब गोपियो ने कहा था की-- अन्यान् आराधितो नूनम् भगवान हरिर्रिश्वर:-- अर्थात् जिस गोपी को कृष्ण लेकर चले गये है उस गोपी ने जरुर हमसे ज्यादा आराधना की होगी तभी तो हमे छोड गये ओर उसे ले गये-- जिस गोपी को भगवान लेकर गये वही राधा थी-- पहला अर्थ आराधिका स्पष्ट हुआ--
      दुसरा अर्थ आराध्या यानि जिसकी कृष्ण भी भक्ति करते है वो राधा--
      राधैवाराध्यते मया--ब्रह्मवैवर्त पुराण-- इसलिए राधा शब्द के दोनो अर्थ है-- कृष्ण की आराधना करने वाली ओर कृष्ण की आराध्या यानि कृष्ण जिसकी आराधना करते है---
      ब्रह्म वैवर्त पुराण मे भगवान किशोरी जी से क्षमा मांगते है की राधे सर्वापराधम् क्षमस्व सर्वेश्वरी---
      उपनिषदो मे प्रश्न किया गया की कस्मात् राधिकाम् उपासते अर्थात् राधा रानी की उपासना क्यो की जाती है ??
      तब उत्तर दिया गया की-- यस्या रेणुं   पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त--- अर्थात् जिसकी चरण धुलि को कृष्ण अपने सिर पर रखते है ओर जिसकी गोद मे सिर रखकर कृष्ण अपने गोलोक को भी भुल जाते है वो राधा है--(सामवेदीय राधोपनीषद्)--
      उसके बाद फिर राधा उपनिषद कहता है की वृषभानु सुता देवी मुलप्रकृतिश्वरी:-- वृषभानु की राधा ही मुल प्रकृति है--
      ये भी कहा गया है की राधा ओर कृष्ण दोनो एक है --इनमें भेद करने वाला कालसुत्र नर्क मे जाता है ईसलिए भेद मत करना पर रस की दृष्टि से ओर हास परिहास मे श्री राधा ही सर्वश्रेष्ठ है लेकिन  भेदभाव नही करना---

      श्रीराधा माधव चिन्तन पृ. 83 श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
      सामरहस्योपनिषद में कहा गया है—
      "अनादिरयं पुरुष एक एवास्ति। तदेव रूपं द्विधा विधाय
      समाराधनतत्परोऽभूत्। तस्मात तां राधां रसिकानन्दां वेदविदो वदन्ति।।
      वह अनादि पुरुष एक ही है, पर अनादि काल से ही वह अपने को दो रूपों में बनाकर अपनी ही आराधना के लिये तत्पर है। इसलिये वेदज्ञ पुरुष श्रीराधा को रसिकानन्दरूपा बतलाते हैं।
      "राधातापनी-उपनिषद्‌ में आता है—ये यं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहश्चैक क्रीडनार्थ द्विधाभूत।
      अनुवाद:-
      ‘जो ये राधा और जो ये कृष्ण रस के सागर हैं वे एक ही हैं, पर खेल के लिये दो रूप बने हुए हैं।

      ब्रह्माण्डपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—

      "राधा कृष्णात्मिका नित्यं कृष्णो राधात्मको ध्रुवम्। वृन्दावनेश्वरी राधा राधैवाराध्यते मया।
      अनुवाद:-
      ‘राधा की आत्मा सदा मैं श्रीकृष्ण हूँ और मेरी (श्रीकृष्ण की) आत्मा निश्चय ही राधा है। श्रीराधा वृन्दावन की ईश्वरी हैं, इस कारण मैं राधा की ही आराधना करता हूँ।’
      श्रीराधा माधव चिन्तन पृष्ठ संख्या- 84

      श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
       की प्रेम-साधना और उनका अनिर्वचनीय स्वरूप
      यः कृष्णः सापि राधा च या राधाकृष्ण एव सः।
      एकं ज्योतिर्द्विधा भिन्नं राधामाधवरूपकम।।
      ‘जो श्रीकृष्ण हैं, वही श्रीराधा हैं और जो श्रीराधा हैं, वही श्रीकृष्ण हैं; श्रीराधा-माधव के रूप में एक ही ज्योति दो प्रकार से प्रकट है।’

      ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान के वचन हैं—
      "आवयोर्बुद्धिभेदं च यः करोति नराधमः। तस्य वासः कालसूत्रे यावच्चन्द्रदिवाकरौ।।
      ‘मुझमें (श्रीकृष्ण में) और तुम में (श्रीराधा में) जो अधम मनुष्य भेद मानता है, वह जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, तब तक ‘कालसूत्र’ नामक नरक में रहेगा।’ भगवान श्रीकृष्ण ने राधा से कहा है— ‘प्राणाधिके राधिके! वास्तव में हम-तुम दो नहीं हैं; जो तुम हो, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही तुम हो। जैसे दूध में धवलता है, अग्नि में दाहिका शक्ति है, पृथ्वी में गन्ध है, उसी प्रकार मेरा-तुम्हारा अभिन्न सम्बन्ध है। 
      सृष्टि की रचना में भी तुम्हीं उपादान बनकर मेरे साथ रहती हो।  मिट्टी न हो तो कुम्हार घड़ा कैसे बनाये; सोना न हो तो सुनार गहना कैसे बनाये। वैसे ही यदि तुम न रहो तो मैं सृष्टिरचना नहीं कर सकता। तुम सृष्टि की आधार रूपा हो और मैं उसका अच्युत बीज हूँ।

      अन्य पुराणो से भी राधा जी के प्रमाण देखिये--
      यथा राधाप्रियाविष्णो : (पद्म पुराण )
      राधा वामांशसंभूतामहालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण )
      तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण )

      "शिवकुण्डे सुनन्दा तु नन्दिनी देविका तटे।
      रुक्मिणी द्वारवत्यान्तु राधा वृन्दावने वने ॥ १३.३८ ॥
      अनुवाद:- शिवकुण्ड में सुनन्दा तो नन्दिनी नाम देविका तट पर रुक्मणि नाम द्वारिका में है तो वृन्दावन में यही राधा जी हैं।।
      देवकी मथुरायान्तु पाताले परमेश्वरी।
      चित्रकूटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्यनिवासिनी॥ १३.३९ ॥
      अनुवाद:-मथुरा में देवकी तो पालाल में  परमेश्वरी। चित्रकूट में सीता तो विन्ध्याँचल पर 
      विन्ध्यनिवासिनी हैं।
      (मत्स्यपुराण अध्याय -१३)
      राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवीभागवत पुराण )
      तमिलनाडू की गाथा के अनुसार–दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह,उत्तर के यादव के समकक्ष हैं| एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे| उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया -श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था| तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का २.
      अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्रीय संहिता के अनुसार-विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति–दिशाओं की देवी भी कहते हैं| नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं–अदिति |
      श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है जो दक्षिण की राधा है| एक कथा के अनुसार राधा के कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी |
      पुराणों में श्रीराधा :
      वेदव्यास जी ने श्रीमदभागवतम के अलावा १७ और पुराण रचे हैं इनमें से छ:में श्री राधारानी का उल्लेख है।

      "राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवी भागवत पुराण )
      यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमदभागवतम १०.३०.३५ )
      –श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर हो गए। महारास से विलग हो गए। गोपी राधा का ही एक नाम है |
      अन्याअ अराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर:-(श्रीमद भागवतम )
      –इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है। इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं ) संग ले गए, इसीलिये वह आराधिका …राधिका है |
      वस्तुतः ऋग्वेदिक व यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति = रयि (संसार, ऐश्वर्य, श्री, वैभव) +धा (धारक, धारण करने वालीशक्ति) से हुई है; अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तोब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तो तो समस्त संसार की धारक चितशक्ति, ह्लादिनी शक्ति, परमेश्वरी राधा का आविर्भाव हुआ|
      भविष्य पुराण में–जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा गया तो उनकी मूल कृतित्व – काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए—कालरूप- कृष्ण व उनकी सहोदरी (साथ-साथ उदभूत) राधा-परमेश्वरीकर्म रूप – ब्रह्मा व नियति (सहोदरी) , धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा (सहोदरी) एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ( सहोदरी ) इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी, चिच्छित-शक्ति है (ब्रह्मसंहिता)।
      वही परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण का लीला-रमण व लौकिक रूप के अविर्भाव के साथ उनकी साथी, प्रेमिका, पत्नी हुई व ब्रजबासिनी रूप में जन-नेत्री।
      भागवत पुराण में-एक अराधिता नाम की गोपी का उल्लेख है, किसी एक प्रिय गोपी को भग्वान श्री कृष्ण महारास के मध्य में लोप होते समय साथ ले गये थे ,जिसे ’मान ’ होने पर छोडकर अन्तर्ध्यान हुए थे; संभवतः यह वही गोपी रही होगी जिसे गीत-गोविन्द के रचयिता , विद्यापति,व सूरदास आदि परवर्ती कवियों, भक्तों ने श्रंगारभूति श्री कृष्ण (पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) रूप में कल्पित व प्रतिष्ठित किया।
      वस्तुतः गीत गोविन्द व भक्ति काल के समय स्त्रियों के सामाज़िक(१ से १० वीं शताब्दी) अधिकारों में कटौती होचुकी थी, उनकी स्वतंत्रता ,स्वेच्छा, कामेच्छा अदि पर अंकुश था। अत राधा का चरित्र महिला उत्थान व उन्मुक्ति के लिये रचित हुआ। पुरुष-प्रधान समाज में कृष्ण उनके अपने हैं,जो उनकी उंगली पर नाचते है, स्त्रियों के प्रति जवाब देह हैं,नारी उन्मुक्ति ,उत्थान के देवता हैं। इस प्रकार बृन्दावन-अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री राधाजी का ब्रज में , जन-जन में, घर-घर में ,मन-मन में, विश्व में, जगत में प्राधान्य हुआ। वे मातृ-शक्ति हैं, भगवान श्रीकृष्ण के साथ सदा-सर्वदा संलग्न, उपस्थित, अभिन्न–परमात्म-अद्यात्म-शक्ति; | अतः वे लौकिक-पत्नी नहीं होसकतीं, उन्हें बिछुडना ही होता है, गोलोक के नियमन के लिये । अथर्ववेदीय राधोपनिषद में श्री राधा रानी के २८ नामों का उल्लेख है। गोपी ,रमा तथा “श्री “राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं।
      ३. श्रीमद्भागवत में –कृष्ण की रानियाँ का कथन है —
      कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरज: श्रिय:
      कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत: (श्रीमदभागवतम् )
      —हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसका कुंकुम श्रीकृष्ण के पैरों से चस्पां है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ). यहाँ “श्री “राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है महालक्ष्मी के लिए नहीं। क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेळ हैं। वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी।

      महाभारत में राधा का उल्लेख उस समय आ सकता था जब शिशुपाल श्रीकृष्ण की लम्पटता का बखान कर रहा था। परन्तु भागवतकार निश्चय ही राधा जैसे पावन चरित्र को इसमें घसीटना नहीं चाहता होगा, अतः शिशुपाल से केवल सांकेतिक भाषा में कहलवाया गया, अनर्गल बात नहीं कहलवाई गयी|

      कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत में तत्व रूप में राधा का नाम सर्वत्र है क्योंकि उसमें कृष्ण को सदैव श्रीकृष्ण कहा गया है। श्री का अर्थ राधा ही है जो आत्मतत्व की भांति सर्वत्र अन्तर्गुन्थित है, श्रीकृष्ण = राधाकृष्ण |
      श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए ‘वृषभानु पत्नी‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। राधा वृषभानु की पुत्री थी। पद्म पुराणने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। यह भी कथा मिलती है कि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेते समय अपने परिवार के सभी देवताओं से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा। तभी राधा भी जो चतुर्भुज विष्णु की अर्धांगिनी और लक्ष्मी के रूप में वैकुंठलोक में निवास करती थीं, राधा बनकर पृथ्वी पर आई।
      ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उसका विवाह रापाण अथवा रायाण नामक व्यक्ति के साथ हुआ था। अन्यत्र राधा और कृष्ण के विवाह का भी उल्लेख मिलता है। कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी।
      यह भी किम्बदन्ती है कि जन्म के समय राधा अन्धी थी और यमुना में नहाते समय जाते हुए राजा वृषभानु को सरोवर में कमल के पुष्प पर खेलती हुई मिली। शिशु अवस्था में ही श्री कृष्ण की माता यशोदा के साथ बरसाना में प्रथम मुलाक़ात हुई, पालने में सोते हुए राधा को कृष्ण द्वारा झांक कर देखते ही जन्मांध राधा की आँखें खुल गईं ।
      महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी। दे भी क्यूँ न ? राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें, वृन्दावन की वे कुंज गलियाँ वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी।
      राधा जो वनों में भटकती, कृष्ण कृष्ण पुकारती, अपने प्रेम को अमर बनाती, उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नहीदेखा, तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए ।
      कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। यहाँ राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ की लट्ठामार होली सारी दुनियाँ में मशहूर है।
      ४.
      श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए ‘वृषभानु पत्नी‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। पद्मपुराण ने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया।
      राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया। 
      कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे।
      किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना। स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात मन की बात सुन सकें। जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास–क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब ‘जरा’ के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई। उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए ‘राधा’ शब्द का उच्चारण किया। जिसे ‘जरा’ ने सुना और ‘उद्धव’ को जो उसी समय वहां पहुंचे उन्हें सुनाया। उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे। सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद जब उद्धव राधा के पास पहुँचे तो वे केवल इतना ही कह सके राधा- कान्हा तो सारे संसार के थे |
      किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी…कान्हा के ह्रदय में केवल राधा थीं
      समस्त भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को शाश्वत प्रेम की श्रेणी में रखते हैं। 
      इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।
      बरसाना के श्रीजी के मंदिर में ठाकुर जी भी रहते हैं। भले ही चूनर ओढ़ा देते हैं सखी वेष में रहते हैं ताकि कोई जान न पाये | महात्माओं से सुनते हैं कि ऐसा संसार में कहीं नहीं है जहाँ कृष्ण सखी वेश में रहते हैं।
      जो पूर्ण पुरुषोत्तम पुरुष सखी बने ऐसा केवल बरसाने में है ।
      अति सरस्यौ बरसानो जू |
      राजत रमणीक रवानों जू ||
      जहाँ मनिमय मंदिर सोहै जू |
      वस्तुतः गीत गोविन्द व भक्ति काल के समय स्त्रियों के सामाज़िक(१ से १० वीं शताब्दी) अधिकारों में कटौती होचुकी थी, उनकी स्वतंत्रता ,स्वेच्छा, कामेच्छा अदि पर अंकुश था। अत राधा का चरित्र महिला उत्थान व उन्मुक्ति के लिये रचित हुआ। 
      पुरुष-प्रधान समाज में कृष्ण उनके अपने हैं, जो उनकी उंगली पर नाचते है, स्त्रियों के प्रति जवाब देह हैं, नारी उन्मुक्ति, उत्थान के देवता हैं। इस प्रकार बृन्दावन-अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री राधाजी का ब्रज में, जन-जन में, घर-घर में ,मन-मन में, विश्व में, जगत में प्राधान्य हुआ। वे मातृ-शक्ति हैं, भगवान श्रीकृष्ण के साथ सदा-सर्वदा संलग्न, उपस्थित, अभिन्न–परमात्म-अद्यात्म-शक्ति; अतः वे लौकिक-पत्नी नहीं होसकतीं, उन्हें बिछुडना ही होता है, गोलोक के नियमन के लिये ।
      "राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी । 
      यह शब्द वेदों में भी आया है । 
      वैसे भी व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा शब्द - स्त्रीलिंग रूप में है जैसे- (राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् +अच्+ टाप् ):- राधा । 
      अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है । वह शक्ति राधा है ।
      वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है । और कृष्ण राधा के पति हैं । __________________
      "इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
       पिबा त्वस्य गिर्वण : ।(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
      वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो।
       ___________________
      विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ .२ २. ७) ___________________
      सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! जो राधा को गोपियों मध्य में से ले गए ; वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें। ___________________
      "त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) ___________________
      अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें । जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो । 
      वेदों में ही अन्यत्र कृष्ण के विषय में लिखा । 

      "त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि ।
       वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) ___________________
      अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण अग्नि के सदृश् गमन करने वाले हैं । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , 
      ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे ।
      इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है । 
      जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही तो राधा के पिता थे। वेदों के अतिरिक्त उपनिषदों में राधा और कृष्ण का पवित्र वर्णन है । यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : -(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद ) राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत् चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं।

      ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में वासुदेव कृष्ण का वर्णन:- ___________________
      ऋग्वेद के प्रथम मण्डल अध्याय दश सूक्त चौउवन 1/54/ 6-7-8-9- वी ऋचाओं तक यदु और तुर्वशु का वर्णन है । 
      और इसी सूक्त में राधा तथा वासुदेव कृष्ण आदि का वर्णन है । 
      परन्तु यहाँ भी परम्परागत रूप से देव संस्कृतियों के पुरोहितों ने गलत भाष्य किया है । 
      पेश है एक नमूना - 👇
      "त्वमाविथ नर्यं तुर्वशुं यदुं त्वं तुर्वीतिं(तूर्वति इति तुर्वी )वय्यं शतक्रतो। 
      त्वं रथमेतशं कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव ।16। 
      अन्वय:- त्वं नर्यं आविथ शतक्रतो ; त्वं यदु और तुर्वशु को मारने वाले (तुर्वी ) (इति :- इस प्रकार हो वय्यं (गति को) । त्वं रथमेतशं (तुम रथ को गति देने वाले )शम् ( कल्याण) कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव अर्थ:- हे सौ कर्म करने वाले इन्द्र ! तुम नरौं के रक्षक हो तुम तुर्वशु और यदु का तुर्वन ( दमन ) करने वाले तुर्वी इति - इस प्रकार से हो ! तुम वय्यं ( गति को ) भी दमन करने वाले हो । तुम रथ और एतश ( अश्व) को बचाने वाले हो तुम शम्बर के निन्यानवै पुरो को नष्ट करने वाले हो ।6। 
      "स घा राजा सत्पति : शूशुवज्जनो रातहव्य: प्रति य: शासमिन्वति। 
      उक्था वायो अभिगृणाति राधसा दानुरस्मा उपरा पिन्वते दिव: ।।7। 
      साहसी राजा सत् का स्वामी होता है । वह राधा मेरे उरस् (हृदय में ) ज्ञान देती हैं (अभिगृणाति- ज्ञान देती हैं । 
      सा- वह राधा । (दान - उरस् -मा ) तब ऊपर प्रकाश पिनहता है । विशेष:- यहाँं राधस्-अन्न अर्थ न होकर राधा सा रूप है (वह राधा) असमं क्षत्रमसमा मनीषा प्र सोमपा अपसा सन्तु नेमे । ये त इन्द्र ददुषो वर्धयन्ति मही क्षत्रं स्थविरं वृष्ण्यं च ।8।
      सोम पायी इन्द्र हमारे पास सीमा रहित -बल और बुद्धि हो हम तुम्हें नमन करते हैं । 
      हे इन्द्र उषा काल में जो दान देते हैं वे बढ़ते हैं । उनकी पृथ्वी और शक्ति बढ़ती है। 
      जैसे वृद्ध वृष्णि वंशीयों की शक्ति और बल बढ़ा था । तुभ्येत् एते बहुला अद्रि दुग्धाश्च चमूषदश्चमसा इन्द्रपाना: व्यश्नुहि तर्पया काममेषा मथा मनो वसुदेवाय कृष्व(वासुदेवाय कृष्ण)।।8। 
      हे वासुदेव कृष्ण ! पाषाणों से कूटकर और छानकर यह पेय सोम इन्द्र के लिए था । परन्तु हे कृष्ण इसका भोग आप करो यह तुम्हारे ही निमित्त हैं !
      अपनी इच्छा तृप्त करने के पश्चात् फिर हमको देने की बात सोचो।8।
      विशेष :-यद्यपि कृष्ण सोम पान नहीं करते थे । परन्तु मन्त्रकार कृष्ण के शक्ति प्रभाव से प्रभावित होकर उन्हें भी इन्द्र के समान सोम समर्पण करना प्रलोभित करना चाहता है। 
      वन्दे वृन्दावनानन्दा राधिका परमेश्वरी ।
      गोपिकां परमां श्रेष्ठां ह्लादिनीं शक्तिरूपिणीम् ॥
      श्रीराधां परमाराज्यां कृष्णसेवापरायणाम् ।
      श्रीकृष्णाङ्ग सदाध्यात्री नवधाभक्तिकारिणी ॥
      येषां गुणमयी-राधा वृषभानुकुमारिका ।
      दामोदरप्रिया-राधा मनोभीष्टप्रदायिनी ॥
      तस्या नामसहस्रं त्वं श्रुणु भागवतोत्तमा ॥
      मानसतन्त्रे अनुष्टुप्छन्दसे अकारादि क्षकारान्तानि
                     श्रीराधिकासहस्रनामानि ॥

                        "अथ स्तोत्रम् ।
      ॐ अनन्तरूपिणी-राधा अपारगुणसागरा ।
      अध्यक्षरा आदिरूपा अनादिराशेश्वरी॥१॥
      अणिमादि सिद्धिदात्री अधिदेवी अधीश्वरी ।
      अष्टसिद्धिप्रदादेवी अभया अखिलेश्वरी ॥२॥
      अनङ्गमञ्जरीभग्ना अनङ्गदर्पनाशिनी ।
      अनुकम्पाप्रदा-राधा अपराधप्रणाशिनी ॥३॥

      अन्तर्वेत्री अधिष्ठात्री अन्तर्यामी सनातनी ।
      अमला अबला बाला अतुला च अनूपमा ॥४॥

      अशेषगुणसम्पन्ना अन्तःकरणवासिनी ।
      अच्युता रमणी आद्या अङ्गरागविधायिनी ॥५॥

      अरविन्दपदद्वन्द्वा अध्यक्षा परमेश्वरी ।
      अवनीधारिणीदेवी अचिन्त्याद्भुतरूपिणी ॥६॥

      अशेषगुणसाराच अशोकाशोकनाशिनी ।
      अभीष्टदा अंशमुखी अक्षयाद्भुतरूपिणी ॥७॥

      अवलम्बा अधिष्ठात्री अकिञ्चनवरप्रदा ।
      अखिलानन्दिनी आद्या अयाना कृष्णमोहिनी॥८॥

      अवधीसर्वशास्त्राणामापदुद्धारिणी शुभा ।
      आह्लादिनी आदिशक्तिरन्नदा अभयापि च ॥ ७॥

      अन्नपूर्णा अहोधन्या अतुल्या अभयप्रदा ।
      इन्दुमुखी दिव्यहासा इष्टभक्तिप्रदायिनी ॥१०॥

      इच्छामयी इच्छारूपा इन्दिरा ईश्वरीऽपरा ।
      इष्टदायीश्वरी माया इष्टमन्त्रस्वरूपिणी ॥११॥

      ओङ्काररूपिणीदेवी उर्वीसर्वजनेश्वरी ।
      ऐरावतवती पूज्या अपारगुणसागरा ॥१२॥

      कृष्णप्राणाधिकाराधा कृष्णप्रेमविनोदिनी ।
      श्रीकृष्णाङ्गसदाध्यायी कृष्णानन्दप्रदायिनी॥१३॥

      कृष्णाऽह्लादिनीदेवी कृष्णध्यानपरायणा ।
      कृष्णसम्मोहिनीनित्या कृष्णानन्दप्रवर्धिनी ॥१४॥

      कृष्णानन्दा सदानन्दा कृष्णकेलि सुखास्वदा ।
      कृष्णप्रिया कृष्णकान्ता कृष्णसेवापरायणा॥१५॥

      कृष्णप्रेमाब्धिसभरी कृष्णप्रेमतरङ्गिणी ।
      कृष्णचित्तहरादेवी कीर्तिदाकुलपद्मिनी ॥१६॥

      कृष्णमुखी हासमुखी सदाकृष्णकुतूहली ।
      कृष्णानुरागिणीधन्याकिशोरीकृष्णवल्लभा॥१७॥

      कृष्णकामा कृष्णवन्द्या कृष्णाब्धे सर्वकामना ।
      कृष्णप्रेममयी-राधा कल्याणी कमलानना ॥१८॥

      कृष्णसून्मादिनी काम्या कृष्णलीला शिरोमणी।
      कृष्णसञ्जीवनी राधाकृष्णवक्षस्थलस्थिता॥ १९॥

      कृष्णप्रेमसदोन्मत्ता कृष्णसङ्गविलासिनी ।
      श्रीकृष्णरमणीराधा कृष्णप्रेमाऽकलङ्किणी॥ २०॥

      कृष्णप्रेमवतीकर्त्री कृष्णभक्तिपरायणा ।
      श्रीकृष्णमहिषी पूर्णा श्रीकृष्णाङ्गप्रियङ्करी ॥ २१॥

      कामगात्रा कामरूपा कलिकल्मषनाशिनी ।
      कृष्णसंयुक्तकामेशी श्रीकृष्णप्रियवादिनी ॥ २२॥

      कृष्णशक्ति काञ्चनाभा कृष्णाकृष्णप्रियासती ।
      कृष्णप्राणेश्वरी धीरा कमलाकुञ्जवासिनी ॥२३॥

      कृष्णप्राणाधिदेवी च किशोरानन्ददायिनी ।
      कृष्णप्रसाध्यमाना च कृष्णप्रेमपरायणा ॥२४॥

      कृष्णवक्षस्थितादेवी श्रीकृष्णाङ्गसदाव्रता ।
      कुञ्जाधिराजमहिषी पूजन्नूपुररञ्जनी ॥२५॥

      कारुण्यामृतपाधोधी कल्याणी करुणामयी ।
      कुन्दकुसुमदन्ता च कस्तूरिबिन्दुभिः शुभा ॥२६॥

      कुचकुटमलसौन्दर्या कृपामयी कृपाकरी ।
      कुञ्जविहारिणी गोपी कुन्ददामसुशोभिनी ॥२७॥

      कोमलाङ्गी कमलाङ्घ्री कमलाऽकमलानना ।
      कन्दर्पदमनादेवी कौमारी नवयौवना ॥ २८॥

      कुङ्कुमाचर्चिताङ्गी च केसरीमध्यमोत्तमा ।
      काञ्चनाङ्गी कुरङ्गाक्षी कनकाङ्गुलिधारिणी ॥ २९॥

      करुणार्णवसम्पूर्णा कृष्णप्रेमतरङ्गिणी ।
      कल्पदृमा कृपाध्यक्षा कृष्णसेवा परायणा ॥ ३०॥

      खञ्जनाक्षी खनीप्रेम्णा अखण्डिता मानकारिणी ।
      गोलोकधामिनी-राधा गोकुलानन्ददायिनी ॥ ३१॥

      गोविन्दवल्लभादेवी गोपिनी गुणसागरा ।
      गोपालवल्लभा गोपी गौराङ्गी गोधनेश्वरी ॥ ३२॥

      गोपाली गोपिकाश्रेष्ठा गोपकन्या गणेश्वरी ।
      गजेन्द्रगामिनीगन्या गन्धर्वकुलपावनी ॥ ३३॥

      गुणाध्यक्षा गणाध्यक्षा गवोन्गती गुणाकरा ।
      गुणगम्या गृहलक्ष्मी गोप्येचूडाग्रमालिका ॥। ३४॥

      गङ्गागीतागतिर्दात्री गायत्री ब्रह्मरूपिणी ।
      गन्धपुष्पधरादेवी गन्धमाल्यादिधारिणी ॥ ३५॥

      गोविन्दप्रेयसी धीरा गोविन्दबन्धकारणा ।
      ज्ञानदागुणदागम्या गोपिनी गुणशोभिनी ॥ ३६॥

      गोदावरी गुणातीता गोवर्धनधनप्रिया ।
      गोपिनी गोकुलेन्द्राणी गोपिका गुणशालिनी ॥ ३७॥

      गन्धेश्वरी गुणालम्बा गुणाङ्गी गुणपावनी ।
      गोपालस्य प्रियाराधा कुञ्जपुञ्जविहारिणी ॥ ३८॥

      गोकुलेन्दुमुखी वृन्दा गोपालप्राणवल्लभा ।
      गोपाङ्गनाप्रियाराधा गौराङ्गी गौरवान्विता ॥ ३९॥

      गोवत्सधारिणीवत्सा सुबलावेशधारिणी ।
      गीर्वाणवन्द्या गीर्वाणी गोपिनी गणशोभिता ॥ ४०॥

      घनश्यामप्रियाधीरा घोरसंसारतारिणी ।
      घूर्णायमाननयना घोरकल्मषनाशिनी ॥ ४१॥

      चैतन्यरूपिणीदेवी चित्तचैतन्यदायिनी ।
      चन्द्राननी चन्द्रकान्ती चन्द्रकोटिसमप्रभा ॥ ४२॥

      चन्द्रावली शुक्लपक्षा चन्द्राच कृष्णवल्लभा ।
      चन्द्रार्कनखरज्योती चारुवेणीशिखारुचिः ॥ ४३॥

      चन्दनैश्चर्चिताङ्गी च चतुराचञ्चलेक्षणा ।
      चारुगोरोचनागौरी चतुर्वर्गप्रदायिनी ॥ ४४॥

      श्रीमतीचतुराध्यक्षा चरमागतिदायिनी ।
      चराचरेश्वरीदेवी चिन्तातीता जगन्मयी ॥ ४५॥

      चतुःषष्टिकलालम्बा चम्पापुष्पविधारिणी ।
      चिन्मयी चित्शक्तिरूपा चर्चिताङ्गी मनोरमा॥४६॥

      चित्रलेखाच श्रीरात्री चन्द्रकान्तिजितप्रभा ।
      चतुरापाङ्गमाधुर्या चारुचञ्चललोचना ॥ ४७॥

      छन्दोमयी छन्दरूपा छिद्रछन्दोविनाशिनी ।
      जगत्कर्त्री जगद्धात्री जगदाधाररूपिणी ॥ ४८॥

      जयङ्करी जगन्माता जयदादियकारिणी ।
      जयप्रदाजयालक्ष्मी जयन्ती सुयशप्रदा ॥ ४९॥

      जाम्बूनदा हेमकान्ती जयावती यशस्विनी ।
      जगहिता जगत्पूज्या जननी लोकपालिनी ॥ ५०॥

      जगद्धात्री जगत्कर्त्री जगद्बीजस्वरूपिणी ।
      जगन्माता योगमाया जीवानां गतिदायिनी ॥५१॥

      जीवाकृतिर्योगगम्या यशोदानन्ददायिनी ।
      जपाकुसुमसङ्काशा पादाब्जामणिमण्डिता॥ ५२॥

      जानुद्युतिजितोत्फुल्ला यन्त्रणाविघ्नघातिनी ।
      जितेन्द्रिया यज्ञरूपा यज्ञाङ्गी जलशायिनी ॥ ५३॥

      जानकीजन्मशून्याच जन्ममृत्युजराहरा ।
      जाह्नवी यमुनारूपा जाम्बूनदस्वरूपिणी ॥५४॥

      झणत्कृतपदाम्भोजा जडतारिनिवारिणी ।
      टङ्कारिणी महाध्याना दिव्यवाद्यविनोदिनी॥ ५५॥

      तप्तकाञ्चनवर्णाभा त्रैलोक्यलोकतारिणी ।
      तिलपुष्पजितानासा तुलसीमञ्जरीप्रिया ॥ ५६॥

      त्रैलोक्याऽकर्षिणी-राधा त्रिवर्गफलदायिनी ।
      तुलसीतोषकर्त्री च कृष्णचन्द्रतपस्विनी ॥ ५७॥

      तरुणादित्यसङ्काशा नखश्रेणिसमप्रभा ।
      त्रैलोक्यमङ्गलादेवी दिग्धमूलपदद्वयी ॥ ५८॥

      त्रैलोक्यजननी-राधा तापत्रयनिवारिणी ।
      त्रैलोक्यसुन्दरी धन्या तन्त्रमन्त्रस्वरूपिणी ॥ ५९॥

      त्रिकालज्ञा त्राणकर्त्री त्रैलोक्यमङ्गलासदा ।
      तेजस्विनी तपोमूर्ती तापत्रयविनाशिनी ॥६०॥

      त्रिगुणाधारिणी देवी तारिणी त्रिदशेश्वरी ।
      त्रयोदशवयोनित्या तरुणीनवयौवना ॥ ६१॥

      हृत्पद्मेस्थितिमति स्थानदात्री पदाम्बुजे ।
      स्थितिरूपा स्थिरा शान्ता स्थितसंसारपालिनी ॥ ६२॥

      दामोदरप्रियाधीरा दुर्वासोवरदायिनी ।
      दयामयी दयाध्यक्षा दिव्ययोगप्रदर्शिनी ॥ ६३॥

      दिव्यानुलेपनारागा दिव्यालङ्कारभूषणा ।
      दुर्गतिनाशिनी-राधा दुर्गा दुःखविनाशिनी ॥ ६४॥

      देवदेवीमहादेवी दयाशीला दयावती ।
      दयार्द्रसागराराधा महादारिद्र्यनाशिनी ॥ ६५॥

      देवतानां दुराराध्या महापापविनाशिनी ।
      द्वारकावासिनी देवी दुःखशोकविनाशिनी ॥ ६६॥

      दयावती द्वारकेशा दोलोत्सवविहारिणी ।
      दान्ता शान्ता कृपाध्यक्षा दक्षिणायज्ञकारिणी॥ ६७॥

      दीनबन्धुप्रियादेवी शुभा दुर्घटनाशिनी ।
      ध्वजवज्राब्जपाशाङ्घ्री धीमहीचरणाम्बुजा॥ ६८॥

      धर्मातीता धराध्यक्षा धनधान्यप्रदायिनी ।
      धर्माध्यक्षा ध्यानगम्या धरणीभारनाशिनी ॥६९॥

      धर्मदाधैर्यदाधात्री धन्यधन्यधुरन्धरी ।
      धरणीधारिणीधन्या धर्मसङ्कटरक्षिणी ॥ ७०॥

      धर्माधिकारिणीदेवी धर्मशास्त्रविशारदा ।
      धर्मसंस्थापनाधाग्रा ध्रुवानन्दप्रदायिनी ॥ ७१॥

      नवगोरोचना गौरी नीलवस्त्रविधारिणी ।
      नवयौवनसम्पन्ना नन्दनन्दनकारिणी ॥ ७२॥

      नित्यानन्दमयी नित्या नीलकान्तमणिप्रिया ।
      नानारत्नविचित्राङ्गी नानासुखमयीसुधा ॥ ७३॥

      निगूढरसरासज्ञा नित्यानन्दप्रदायिनी ।
      नवीनप्रवणाधन्या नीलपद्मविधारिणी ॥ ७४॥

      नन्दाऽनन्दा सदानन्दा निर्मला मुक्तिदायिनी ।
      निर्विकारा नित्यरूपा निष्कलङ्का निरामया ॥ ७५॥

      नलिनी नलिनाक्षी च नानालङ्कारभूषिता ।
      नितम्बिनि निराकाङ्क्षा नित्यासत्या सनातनी॥ ७६॥

      नीलाम्बरपरीधाना नीलाकमललोचना ।
      निरपेक्षा निरूपमा नारायणी नरेश्वरी ॥ ७७॥

      निरालम्बा रक्षकर्त्री निगमार्थप्रदायिनी ।
      निकुञ्जवासिनी-राधा निर्गुणागुणसागरा ॥ ७८॥

      नीलाब्जा कृष्णमहिषी निराश्रयगतिप्रदा ।
      निधूवनवनानन्दा निकुञ्जशी च नागरी ॥ ७९॥

      निरञ्जना नित्यरक्ता नागरी चित्तमोहिनी ।
      पूर्णचन्द्रमुखी देवी प्रधानाप्रकृतिपरा ॥ ८०॥

      प्रेमरूपा प्रेममयी प्रफुल्लजलजानना ।
      पूर्णानन्दमयी-राधा पूर्णब्रह्मसनातनी ॥ ८१॥

      परमार्थप्रदा पूज्या परेशा पद्मलोचना ।
      पराशक्ति पराभक्ति परमानन्ददायिनी ॥ ८२॥

      पतितोद्धारिणी पुण्या प्रवीणा धर्मपावनी ।
      पङ्कजाक्षी महालक्ष्मी पीनोन्नतपयोधरा ॥ ८३॥

      प्रेमाश्रुपरिपूर्णाङ्गी पद्मेलसदृषानना ।
      पद्मरागधरादेवी पौर्णमासीसुखास्वदा ॥ ८४॥

      पूर्णोत्तमो परञ्ज्योती प्रियङ्करी प्रियंवदा ।
      प्रेमभक्तिप्रदा-राधा प्रेमानन्दप्रदायिनी ॥ ८५॥

      पद्मगन्धा पद्महस्ता पद्माङ्घ्री पद्ममालिनी ।
      पद्मासना महापद्मा पद्ममाला-विधारिणी ॥ ८६॥

      प्रबोधिनी पूर्णलक्ष्मी पूर्णेन्दुसदृषानना ।
      पुण्डरीकाक्षप्रेमाङ्गी पुण्डरीकाक्षरोहिनी ॥ ८७॥

      परमार्थप्रदापद्मा तथा प्रणवरूपिणी ।
      फलप्रिया स्फूर्तिदात्री महोत्सवविहारिणी ॥ ८८॥

      फुल्लाब्जदिव्यनयना फणिवेणिसुशोभिता ।
      वृन्दावनेश्वरी-राधा वृन्दावनविलासिनी ॥ ८९॥

      वृषभानुसुतादेवी व्रजवासीगणप्रिया ।
      वृन्दा वृन्दावनानन्दा व्रजेन्द्रा च वरप्रदा ॥ ९०॥

      विद्युत्गौरी सुवर्णाङ्गी वंशीनादविनोदिनी ।
      वृषभानुराधेकन्या व्रजराजसुतप्रिया ॥ ९१॥

      विचित्रपट्टचमरी विचित्राम्बरधारिणी ।
      वेणुवाद्यप्रियाराधा वेणुवाद्यपरायणा ॥ ९२॥

      विश्वम्भरी विचित्राङ्गी ब्रह्माण्डोदरीकासती ।
      विश्वोदरी विशालाक्षी व्रजलक्ष्मी वरप्रदा ॥ ९३॥

      ब्रह्ममयी ब्रह्मरूपा वेदाङ्गी वार्षभानवी ।
      वराङ्गना कराम्भोजा वल्लवी वृजमोहिनी ॥ ९४॥

      विष्णुप्रिया विश्वमाता ब्रह्माण्डप्रतिपालिनी ।
      विश्वेश्वरी विश्वकर्त्री वेद्यमन्त्रस्वरूपिणी ॥ ९५॥

      विश्वमाया विष्णुकान्ता विश्वाङ्गी विश्वपावनी ।
      व्रजेश्वरी विश्वरूपा वैष्णवी विघ्ननाशिनी ॥ ९६॥

      ब्रह्माण्डजननी-राधा वत्सला व्रजवत्सला ।
      वरदा वाक्यसिद्धा च बुद्धिदा वाक्प्रदायिनी ॥ ९७॥

      विशाखाप्राणसर्वस्वा वृषभानुकुमारिका ।
      विशाखासख्यविजिता वंशीवटविहारिणी ॥ ९८॥

      वेदमाता वेदगम्या वेद्यवर्णा शुभङ्करी ।
      वेदातीता गुणातीता विदग्धा विजनप्रिया ॥ ९९।
      भक्तभक्तिप्रिया-राधा भक्तमङ्गलदायिनी ।
      भगवन्मोहिनी देवी भवक्लेशविनाशिनी ॥ १००॥

      भाविनी भवती भाव्या भारती भक्तिदायिनी ।
      भागीरथी भाग्यवती भूतेशी भवकारिणी ॥१०१॥

      भवार्णवत्राणकर्त्री भद्रदा भुवनेश्वरी ।
      भक्तात्मा भुवनानन्दा भाविका भक्तवत्सला ॥ १०२॥

      भुक्तिमुक्तिप्रदा-राधा शुभा भुजमृणालिका ।
      भानुशक्तिच्छलाधीरा भक्तानुग्रहकारिणी ॥ १०३॥
      ______________________
      माधवी माधवायुक्ता मुकुन्दाद्यासनातनी ।
      महालक्ष्मी महामान्या माधवस्वान्तमोहिनी ॥ १०४॥

      महाधन्या महापुण्या महामोहविनाशिनी ।
      मोक्षदा मानदा भद्रा मङ्गलाऽमङ्गलात्पदा ॥ १०५॥

      मनोभीष्टप्रदादेवी महाविष्णुस्वरूपिणी ।
      माधव्याङ्गी मनोरामा रम्या मुकुररञ्जनी ॥ १०६॥

      मनीशा वनदाधारा मुरलीवादनप्रिया ।
      मुकुन्दाङ्गकृतापाङ्गी मालिनी हरिमोहिनी ॥ १०७॥

      मानग्राही मधुवती मञ्जरी मृगलोचना ।
      नित्यवृन्दा महादेवी महेन्द्रकृतशेखरी ॥ १०८॥

      मुकुन्दप्राणदाहन्त्री मनोहरमनोहरा ।
      माधवमुखपद्मस्या मथुपानमधुव्रता ॥ १०९॥

      मुकुन्दमधुमाधुर्या मुख्यावृन्दावनेश्वरी ।
      मन्त्रसिद्धिकृता-राधा मूलमन्त्रस्वरूपिणी ॥ ११०॥

      मन्मथा सुमतीधात्री मनोज्ञमतिमानिता ।
      मदनामोहिनीमान्या मञ्जीरचरणोत्पला ॥ १११॥

      यशोदासुतपत्नी च यशोदानन्ददायिनी ।
      यौवनापूर्णसौन्दर्या यमुनातटवासिनी ॥ ११२॥

      यशस्विनी योगमाया युवराजविलासिनी ।
      युग्मश्रीफलसुवत्सा युग्माङ्गदविधारिणी ॥ ११३॥

      यन्त्रातिगाननिरता युवतीनांशिरोमणी ।
      श्रीराधा परमाराध्या राधिका कृष्णमोहिनी ॥ ११४॥

      रूपयौवनसम्पन्ना रासमण्डलकारिणी ।
      राधादेवी पराप्राप्ता श्रीराधापरमेश्वरी ॥ ११५॥

      राधावाग्मी रसोन्मादी रसिका रसशेखरी ।
      राधारासमयीपूर्णा रसज्ञा रसमञ्जरी ॥ ११६॥

      राधिका रसदात्री च राधारासविलासिनी ।
      रञ्जनी रसवृन्दाच रत्नालङ्कारधारिणी ॥ ११७॥

      रामारत्नारत्नमयी रत्नमालाविधारिणी ।
      रमणीरामणीरम्या राधिकारमणीपरा ॥ ११८॥

      रासमण्डलमध्यस्था राजराजेश्वरी शुभा ।
      राकेन्दुकोटिसौन्दर्या रत्नाङ्गदविधारिणी ॥ ११९॥

      रासप्रिया रासगम्या रासोत्सवविहारिणी ।
      लक्ष्मीरूपा च ललना ललितादिसखिप्रिया ॥ १२०॥

      लोकमाता लोकधात्री लोकानुग्रहकारिणी ।
      लोलाक्षी ललिताङ्गी च ललिताजीवतारका ॥ १२१॥

      लोकालया लज्जारूपा लास्यविद्यालताशुभा ।
      ललिताप्रेमललितानुग्धप्रेमलिलावती ॥ १२२॥

      लीलालावण्यसम्पन्ना नागरीचित्तमोहिनी ।
      लीलारङ्गीरती रम्या लीलागानपरायणा ॥ १२३॥

      लीलावती रतिप्रीता ललिताकुलपद्मिनी ।
      शुद्धकाञ्चनगौराङ्गी शङ्खकङ्कणधारिणी ॥ १२४॥

      शक्तिसञ्चारिणी देवी शक्तीनां शक्तिदायिनी ।
      सुचारुकबरीयुक्ता शशिरेखा शुभङ्करी ॥ १२५॥

      सुमती सुगतिर्दात्री श्रीमती श्रीहरिपिया ।
      सुन्दराङ्गी सुवर्णाङ्गी सुशीला शुभदायिनी ॥ १२६॥

      शुभदा सुखदा साध्वी सुकेशी सुमनोरमा ।
      सुरेश्वरी सुकुमारी शुभाङ्गी सुमशेखरा ॥ १२७॥

      शाकम्भरी सत्यरूपा शस्ता शान्ता मनोरमा ।
      सिद्धिधात्री महाशान्ती सुन्दरी शुभदायिनी ॥ १२८॥

      शब्दातीता सिन्धुकन्या शरणागतपालिनी ।
      शालग्रामप्रिया-राधा सर्वदा नवयौवना ॥ १२९॥

      सुबलानन्दिनीदेवी सर्वशास्त्रविशारदा ।
      सर्वाङ्गसुन्दरी-राधा सर्वसल्लक्षणान्विता ॥ १३०॥

      सर्वगोपीप्रधाना च सर्वकामफलप्रदा ।
      सदानन्दमयीदेवी सर्वमङ्गलदायिनी ॥ १३१॥

      सर्वमण्डलजीवातु सर्वसम्पत्प्रदायिनी ।
      संसारपारकरणी सदाकृष्णकुतूहला ॥ १३२॥

      सर्वागुणमयी-राधा साध्या सर्वगुणान्विता ।
      सत्यस्वरूपा सत्या च सत्यनित्या सनातनी ॥ १३३॥

      सर्वमाधव्यलहरी सुधामुखशुभङ्करी ।
      सदाकिशोरिकागोष्ठी सुबलावेशधारिणी ॥ १३४॥

      सुवर्णमालिनी-राधा श्यामसुन्दरमोहिनी ।
      श्यामामृतरसेमग्ना सदासीमन्तिनीसखी ॥ १३५॥

      षोडशीवयसानित्या षडरागविहारिणी ।
      हेमाङ्गीवरदाहन्त्री भूमाता हंसगामिनी ॥ १३६॥

      हासमुखी व्रजाध्यक्षा हेमाब्जा कृष्णमोहिनी ।
      हरिविनोदिनी-राधा हरिसेवापरायणा ॥ १३७॥

      हेमारम्भा मदारम्भा हरिहारविलोचना ।
      हेमाङ्गवर्णारम्या श्रेषहृत्पद्मवासिनी ॥ १३८॥

      हरिपादाब्जमधुपा मधुपानमधुव्रता ।
      क्षेमङ्करी क्षीणमध्या क्षमारूपा क्षमावती ॥ १३९॥

      क्षेत्राङ्गी श्रीक्षमादात्री क्षितिवृन्दावनेश्वरी ।
      क्षमाशीला क्षमादात्री क्षौमवासोविधारिणी ।
      क्षान्तिनामावयवती क्षीरोदार्णवशायिनी ॥ १४०॥

      राधानामसहस्राणि पठेद्वा श्रुणुयादपि ।
      इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्या मन्त्रसिद्धिर्भवेत् ध्रुवम् ॥ १४१॥

      धर्मार्थकाममोक्षांश्च लभते नात्र संशयः ।
      वाञ्छासिद्धिर्भवेत्तस्य भक्तिस्यात् प्रेमलक्षण ॥ १४२॥

      लक्ष्मीस्तस्यवसेत्गेहे मुखेभातिसरस्वती ।
      अन्तकालेभवेत्तस्य राधाकृष्णेचसंस्थितिः ॥ १४३॥
      ______________________
      इति श्रीराधामानसतन्त्रे श्रीराधासहस्रनामस्तोत्रान्तर्गतानामावलिःसम्पूर्णा।

      उपर्युक्त राधासहस्रनामावलि के 104 वें श्लोक का है।

      माधवी माधवायुक्ता मुकुन्दाद्यासनातनी ।
      महालक्ष्मी महामान्या माधवस्वान्तमोहिनी ॥ १०४॥
                   
                   नारदपुराणम्- पूर्वाद्ध"

      राधा च राधिका चैव आनंदा वृषभानुजा ।।
      वृन्दावनेश्वरी पुण्या कृष्णमानसहारिणी ।१२८।


      प्रगल्भा चतुरा कामा कामिनी हरिमोहिनी ।।
      ललिता मधुरा माध्वी किशोरी कनकप्रभा।१२९।

      जितचन्द्रा जितमृगा जितसिंहा जितद्विपा ।।
      जितरम्भा जितपिका गोविंदहृदयोद्भवा ।१३० ।।

      जितबिंबा जितशुका जितपद्मा कुमारिका ।।
      श्रीकृष्णाकर्षणा देवी नित्यं युग्मस्वरूपिणी।१३१।

      नित्यं विहारिणी कांता रसिका कृष्णवल्लभा ।।
      आमोदिनी मोदवती नंदनंदनभूषिता।८२-१३२ ।।

      दिव्यांबरा दिव्यहारा मुक्तामणिविभूषिता ।।
      कुञ्जप्रिया कुञ्जवासा कुञ्जनायकनायिका।१३३।

      चारुरूपा चारुवक्त्रा चारुहेमांगदा शुभा ।।
      श्रीकृष्णवेणुसंगीता मुरलीहारिणी शिवा।१३४।

      भद्रा भगवती शांता कुमुदा सुन्दरी प्रिया ।।
      कृष्णरतिः श्रीकृष्णसहचारिणी ।१३५ ।।

      वंशीवटप्रियस्थाना युग्मायुग्मस्वरूपिणी ।।
      भांडीरवासिनी शुभ्रा गोपीनाथप्रिया सखी।१३६।


      श्रुतिनिःश्वसिता दिव्या गोविंदरसदायिनी ।।
      श्रीकृष्णप्रार्थनीशाना महानन्दप्रदायिनी ।१३७ ।।

      वैकुण्ठजनसंसेव्या कोटिलक्ष्मी सुखावहा ।।
      कोटिकन्दर्पलावण्या रतिकोटिरतिप्रदा।१३८।

      भक्तिग्राह्या भक्तिरूपा लावण्यसरसी उमा ।।
      ब्रह्मरुद्रादिसंराध्या नित्यं कौतूहलान्विता ।१३९ ।।

      नित्यलीला नित्यकामा नित्यश्रृंगारभूषिता ।।
      नित्यवृन्दावनरसा नन्दनन्दनसंयुता।१४० ।।

      गोपगिकामण्डलीयुक्ता नित्यं गोपालसंगता ।।
      गोरसक्षेपणी शूरा सानन्दानन्ददायिनी ।। ८२-१४१ ।।

      महालीला प्रकृष्टा च नागरी नगचारिणी ।।
      नित्यमाघूर्णिता पूर्णा कस्तूरीतिलकान्विता ।। ८२-१४२ ।।

      पद्मा श्यामा मृगाक्षी च सिद्धिरूपा रसावहा ।।
      कोटिचन्द्रानना गौरी कोटिकोकिलसुस्वरा ।। ८२-१४३ ।।

      शीलसौंदर्यनिलया नन्दनन्दनलालिता ।।
      अशोकवनसंवासा भांडीरवनसङ्गता।१४४।

      कल्पद्रुमतलाविष्टा कृष्णा विश्वा हरिप्रिया ।।
      अजागम्या भवागम्या गोवर्द्धनकृतालया ।। ८२-१४५ ।।

      यमुनातीरनिलया शश्वद्गोविंदजल्पिनी ।।
      शश्वन्मानवती स्निग्धा श्रीकृष्णपरिवन्दिता ।। ८२-१४६ ।।

      कृष्णस्तुता कृष्णवृता श्रीकृष्णहृदयालया ।।
      देवद्रुमफला सेव्या वृन्दावनरसालया।८२-१४७ ।।

      कोटितीर्थमयी सत्या कोटितीर्थफलप्रदा ।।
      कोटियोगसुदुष्प्राप्या कोटियज्ञदुराश्रया ।। ८२-१४८ ।।

      मनसा शशिलेखा च श्रीकोटिसुभगाऽनघा ।।
      कोटिमुक्तसुखा सौम्या लक्ष्मीकोटिविलासिनी ।। ८२-१४९ ।।

      तिलोत्तमा त्रिकालस्था त्रिकालज्ञाप्यधीश्वरी ।।
      त्रिवेदज्ञा त्रिलोकज्ञा तुरीयांतनिवासिनी ।। ८२-१५० ।।

      दुर्गाराध्या रमाराध्या विश्वाराध्या चिदात्मिका।
      देवाराध्या पराराध्या ब्रह्माराध्या परात्मिका।१५१।


      शिवाराध्या प्रेमसाध्या भक्ताराध्या रसात्मिका।
      कृष्णप्राणार्पिणी भामा शुद्धप्रेमविलासिनी।१५२।


      कृष्णाराध्या भक्तिसाध्या भक्तवृन्दनिषेविता।
      विश्वाधारा कृपाधारा जीवधारातिनायिका। 
      १५३।

      शुद्धप्रेममयी लज्जा नित्यसिद्धा शिरोमणिः।
      दिव्यरूपा दिव्यभोगा दिव्यवेषा मुदान्विता।१५४।

      दिव्यांगनावृन्दसारा नित्यनूतनयौवना ।।
      परब्रह्मावृता ध्येया महारूपा महोज्ज्वला।१५५ ।।

      कोटिसूर्यप्रभा कोटिचन्द्रबिंबाधिकच्छविः।
      कोमलामृतवागाद्या वेदाद्या वेददुर्लभा।१५६।

      कृष्णासक्ता कृष्णभक्ता चन्द्रावलिनिषेविता ।।
      कलाषोडशसंपूर्णा कृष्णदेहार्द्धधारिणी ।१५७ ।।

      कृष्णबुद्धिः कृष्णसाराकृष्णरूपविहारिणी ।
      कृष्णकान्ता कृष्णधना कृष्णमोहनकारिणी ।१५८।

      कृष्णदृष्टिः कृष्णगोत्री कृष्णदेवी कुलोद्वहा ।।
      सर्वभूतस्थितावात्मा सर्वलोकनमस्कृता ।१५९ ।

      कृष्णदात्री प्रेमधात्री स्वर्णगात्री मनोरमा ।।
      नगधात्री यशोठात्री महादेवी शुभंकरी।१६०।

      श्रीशेषदेवजननी अवतारगणप्रसूः ।।
      उत्पलांकारविंदांका प्रसादांका द्वितीयका।१६१ ।।

      रथांका कुंजरांका च कुंडलांकपदस्थिता ।।
      छत्रांका विद्युदंका च पुष्पमालांकितापि च ।१६२।

      दंडांका मुकुटांका च पूर्णचन्द्रा शुकांकिता ।।
      कृष्णात्रहारपाका च वृन्दाकुंजविहारिणी ।१६३।

      कृष्णप्रबोधनकरी कृष्णशेषान्नभोजिनी ।।
      पद्मकेसरमध्यस्था संगीतागमवेदिनी।१६४।

      कोटिकल्पांतभ्रूभंगा अप्राप्तप्रलयाच्युता ।।
      सर्वसत्त्वनिधिः पद्मशंखादिनिधिसेविता।१६५ ।

      अणिमादिगुणैश्वर्या देववृन्दविमोहिनी ।।
      सस्वानन्दप्रदा सर्वा सुवर्णलतिकाकृतिः ।१६६ ।।

      कृष्णाभिसारसंकेता मालिनी नृत्यपण्डिता ।।
      गोपीसिंधुसकाशाह्वां गोपमण्डपशोभिनी।१६७ ।।

      श्रीकृष्णप्रीतिदा भीता प्रत्यंगपुलकांचिता ।।
      श्रीकृष्णालिंगनरता गोविंदविरहाक्षमा।१६८।

      अनंतगुणसंपन्ना कृष्णकीर्तनलालसा ।।
      बीजत्रयमयी मूर्तिः कृष्णानुग्रहवांछिता।१६९ ।।

      विमलादिनिषेव्या च ललिताद्यार्चिता सती ।।
      पद्मवृन्दस्थिता हृष्टा त्रिपुरापरिसेविता।१७०।

      वृन्तावत्यर्चिता श्रद्धा दुर्ज्ञेया भक्तवल्लभा ।।
      दुर्लभा सांद्रसौख्यात्मा श्रेयोहेतुः सुभोगदा।१७१।।

      सारंगा शारदा बोधा सद्वृंदावनचारिणी ।।
      ब्रह्मानन्दा चिदानन्दा ध्यानान्दार्द्धमात्रिका।१७२।

      गंधर्वा सुरतज्ञा च गोविंदप्राणसंगमा ।।
      कृष्णांगभूषणा रत्नभूषणा स्वर्णभूषिता।१७३।

      श्रीकृष्णहृदयावासमुक्ताकनकनालि (सि) का।
      सद्रत्नकंकणयुता श्रीमन्नीलगिरिस्थिता ।१७४ ।।

      स्वर्णनूपुरसंपन्ना स्वर्णकिंकिणिमंडिता ।।
      अशेषरासकुतुका रंभोरूस्तनुमध्यमा ।१७५।

      पराकृतिः पररानन्दा परस्वर्गविहारिणी ।।
      प्रसूनकबरी चित्रा महासिंदूरसुन्दरी।१७६।

      कैशोरवयसा बाला प्रमदाकुलशेखरा ।।
      कृष्णाधरसुधा स्वादा श्यामप्रेमविनोदिनी।१७७।

      शिखिपिच्छलसच्चूडा स्वर्णचंपकभूषिता ।।
      कुंकुमालक्तकस्तूरीमंडिता चापराजिता।१७८ ।।

      हेमहरान्वितापुष्पा हाराढ्या रसवत्यपि ।।
      माधुर्य्यमधुरा पद्मा पद्महस्ता सुविश्रुता।१७९ ।।

      भ्रूभंगाभंगकोदंडकटाक्षशरसंधिनी ।।
      शेषदेवाशिरस्था च नित्यस्थलविहारिणी।१८०।

      कारुण्यजलमध्यस्था नित्यमत्ताधिरोहिणी ।।
      अष्टभाषवती चाष्टनायिका लक्षणान्विता।१८१ ।।

      सुनूतिज्ञा श्रुतिज्ञा च सर्वज्ञा दुःखहारिणी ।।
      रजोगुणेश्वरी चैव जरच्चंद्रनिभानना।१८२ ।।

      केतकीकुसुमाभासा सदा सिंधुवनस्थिता ।।
      हेमपुष्पाधिककरा पञ्चशक्तिमयी हिता।१८३ ।।

      स्तनकुभी नराढ्या च क्षीणापुण्या यशस्वनी ।।
      वैराजसूयजननी श्रीशा भुवनमोहिनी।१८४ ।।

      महाशोभा महामाया महाकांतिर्महास्मृतिः ।।
      महामोहा महाविद्या महाकीर्तिंर्महारतिः।१८५ ।।

      महाधैर्या महावीर्या महाशक्तिर्महाद्युतिः ।।
      महागौरी महासंपन्महाभोगविलासिनी।१८६ ।।

      समया भक्तिदाशोका वात्सल्यरसदायिनी ।।
      सुहृद्भक्तिप्रदा स्वच्छा माधुर्यरसवर्षिणी।१८७ ।।

      भावभक्तिप्रदा शुद्धप्रेमभक्तिविधायिनी ।।
      गोपरामाभिरामा च क्रीडारामा परेश्वरी।१८८ ।

      नित्यरामा चात्मरामा कृष्णरामा रमेश्वरी ।।
      एकानैकजगद्व्याप्ता विश्वलीलाप्रकाशिनी।१८९।

      सरस्वतीशा दुर्गेशा जगदीशा जगद्विधिः ।।
      विष्णुवंशनिवासा च विष्णुवंशसमुद्भवा।१९०।


      विष्णुवंशस्तुता कर्त्री विष्णुवंशावनी सदा ।।
      आरामस्था वनस्था च सूर्य्यपुत्र्यवगाहिनी।१९१।

      प्रीतिस्था नित्ययंत्रस्था गोलोकस्था विभूतिदा ।।
      स्वानुभूतिस्थिता व्यक्ता सर्वलोकनिवासिनी।१९२।

      अमृता ह्यद्भुता श्रीमन्नारायणसमीडिता ।।
      अक्षरापि च कूटस्था महापुरुषसंभवा।१९३।

      औदार्यभावसाध्या च स्थूलसूक्ष्मातिरूपिणी ।।
      शिरीषपुष्पमृदुला गांगेयमुकुरप्रभा।१९४ ।।

      नीलोत्पलजिताक्षी च सद्रत्नकवरान्विता ।।
      प्रेमपर्यकनिलया तेजोमंडलमध्यगा।१९५ ।।

      कृष्णांगगोपनाऽभेदा लीलावरणनायिका ।।
      सुधासिंधुसमुल्लासामृतास्यंदविधायिनी।१९६ ।।

      कृष्णचित्ता रासचित्ता प्रेमचित्ता हरिप्रिया ।।
      अचिंतनगुणग्रामा कृष्णलीला मलापहा।१९७ ।।

      राससिंधुशशांका च रासमंडलमंडीनी ।।
      नतव्रता सिंहरीच्छा सुमीर्तिः सुखंदिता।१९८ ।।

      गोपीचूडामणिर्गोपीगणेड्या विरजाधिका ।।
      गोपप्रेष्ठा गोपकन्या गोपनारी सुगोपिका।१९९।


      गोपधामा सुदामांबा गोपाली गोपमोहिनी ।।
      गोपभूषा कृष्णभूषा श्रीवृन्दावनचंद्रिका।२०० ।।

      वीणादिघोषनिरता रासोत्सवविकासिनी ।।
      कृष्णचेष्टा परिज्ञाता कोटिकंदर्पमोहिनी।२०१ ।।

      श्रीकृष्ण गुणनागाढ्या देवसुंदरिमोहिनी ।।
      कृष्णचंद्रमनोज्ञा च कृष्णदेवसहोदरी।२०२ ।।

      कृष्णाभिलाषिणी कृष्णप्रेमानुग्रहवांछिता ।।
      क्षेमा च मधुरालापा भ्रुवोमाया सुभद्रिका।२०३।

      प्रकृतिः परमानन्दा नीपद्रुमतलस्थिता ।।
      कृपाकटाक्षा बिम्बोष्टी रम्भा चारुनितम्बिनी।
      २०४।

      स्मरकेलिनिधाना च गंडताटंकमंडिता ।।
      हेमाद्रिकांतिरुचिरा प्रेमाद्या मदमंथरा।२०५ ।।

      कृष्णचिंता प्रेमचिंता रतिचिन्ता च कृष्णदा ।।
      रासचिंता भावचिंता शुद्धचंता महारसा।२०६ ।

      कृष्णादृष्टित्रुटियुगा दृष्टिपक्ष्मिविनिंदिनी ।।
      कन्दर्पजननी मुख्या वैकुंठगतिदायिनी।२०७ ।।

      रासभावा प्रियाश्लिष्टा प्रेष्ठा प्रथमनायिका ।।
      शुद्धादेहिनी च श्रीरामा रसमञ्जरी।२०८ ।।

      सुप्रभावा शुभाचारा स्वर्णदी नर्मदांबिका।।
      गोमती चंद्रभागेड्या सरयूस्ताम्रपर्णिसूः।२०९ ।।

      निष्कलंकचरित्रा च निर्गुणा च निरंजना ।।
      एतन्नामसहस्रं तु युग्मरूपस्य नारद।२१०।।

      पठनीयं प्रयत्नेन वृन्दावनरसावहे ।।
      महापापप्रशमनं वंध्यात्वविनिवर्तकम्।२११।।

      दारिद्र्य शमनं रोगनाशनं कामदं महत् ।।
      पापापहं वैरिहरं राधामाधवभक्तिदम् ।२१२।

      नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुंठमेधसे।।
      राधासंगसुधासिंधौ नमो नित्यविहारिणे।२१३ ।।

      राधादेवी जगत्कर्त्री जगत्पालनतगत्परा ।।
      जगल्लयविधात्री च सर्वेशी सर्वसूतिका।२१४।


      तस्या नामसहस्रं वै मया प्रोक्तं मुनीश्वर ।।
      भुक्तिमुक्तिप्रदं दिव्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।२१५।

      "इतिश्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे राधाकृष्ण सहस्रनामकथनं नामद्वयशीतितमोऽध्यायः।।८२।। 

      ________   

       

      पितृवंशानुकथनं सृष्टवंशानुकीर्तनम् ।।
      भृगुशापस्तथा विष्णोर्दशधा जन्मने क्षितौ ।। १०७-७ ।।

      कीर्त्तनं पूरुवंशस्य वंशो हौताशनः परम् ।।
      क्रियायोगस्ततः पश्चात्पुराणपरिकीर्तनम् ।। १०७-८ ।।
      _____       
      एतद्विघ्नेशखंडं हि सर्वविघ्नविनाशनम् ।।
      श्रीकृष्णजन्मसंप्रश्नो जन्माख्यानं ततोऽद्भुतम् ।। १०१-१५ ।।

      गोकुले गमनं गश्चात्पूतनादिवदाद्भूताः ।।
      बाल्यकौमारजा लीला विविधास्तत्र वर्णिताः ।। १०१-१६ ।।
      "रासक्रीडा च गोपीभिः शारदी समुदाहृता ।।
      रहस्ये राधया क्रीडा वर्णिता बहुविस्तरा। १०१-१७।।

      सहाक्रूरेण तत्पश्चान्मथुरागमनं हरेः ।।
      कंसादीनां वधे वृत्ते कृष्णस्य द्विजसंस्कृतिः ।। १०१-१८ ।।

      काश्यसांदीपनेः पश्चाद्विद्योपादानमद्भुतम् ।।
      यवनस्य वधः पश्चाद्द्वारकागमनं हरे;।१०१-१९।


      नरकादिवधस्तत्र कृष्णेन विहितोऽद्भुतः ।।
      कृष्णखंडमिदं विप्र नृणां संसारखंडनम् ।। १०१-२० ।।

      पठितं च श्रुतं ध्यातं पूजितं चाभिवंदितम् ।।
      इत्येतद्ब्रह्मवैवर्तपुराणं चात्यलौकिकम् ।। १०१-२१ ।।

      व्यासोक्तं चादि संभूतं पठञ्छृण्वन्विमुच्यते ।।
      विज्ञानाज्ञानशमनाद्धोरात्संसारसागरात् ।। १०१-२२ ।।

      लिखित्वेदं च यो दद्यान्माध्यां धेनुसमन्वितम् ।।
      ब्रह्मलोकमवाप्नोति स मुक्तोऽज्ञानबंधनात् ।। १०१-२३ ।।

      यश्चानुक्रमणीं चापि पठेद्वा श्रृणुयादपि ।।
      सोऽपि कृष्णप्रसादेन लभते वांछितं फलम् ।। १०१-२४ ।।

      इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने ब्रह्मवैवर्तपुराणानुक्रमणीनिरूपणं नामैकोत्तरशततमोऽध्यायाः ।। १०१ ।।

                       सूत उवाच ॥

      धन्योऽस्मिकृतकृत्योऽस्मि जातोऽहं त्वत्प्रसादतः ॥
      पज्जगन्मातृमंत्राणां वैभवं श्रुतवान्मुने ॥ ८८-३ ॥
      यथा लक्ष्मीमुखानां तु अवताराः प्रकीर्तिताः ॥
      तथा राधावताराणां श्रोतुमिच्छामि वैभवम् ॥ ८८-४ ॥

      यत्संख्याकाश्च यद्रूपा यत्प्रभावा विदांवर ॥
      राधावतारास्तान्सत्यं कीर्तयाशेषसिद्धिदान् ॥
       ८८-५ ॥
      एतच्छुत्वा वचस्तस्य नारदस्य विधेः सुतः ॥
      सनत्कुमारः प्रोवाच ध्यात्वा राधापदांबुजम् ॥
       ८८-६ ॥
                   "सनत्कुमार उवाच॥
      श्रृणु विप्र प्रवक्ष्यामि रहस्यातिरहस्यकम् ॥
      राधावतारचरितं भजतामिष्टिसिद्धिदम् ॥ ८८-७ ॥
      चन्द्रावली च ललिता द्वे सख्यौ सुप्रिये सदा ॥
      मालावतीमुखाष्टानां चन्द्रावल्यधिपास्मृता॥ ८८-८।
      कलावतीमुखाष्टानामीश्वरी ललिता मता ॥
      राधाचरणपूजायामुक्ता मालावतीमुखाः ॥८८-९।
      ललिताधीश्वरीणां तु नामानि श्रृणु सांप्रतम् ॥
      कलावती मधुमती विशाखा श्यामलाभिधा ॥ ८८-१० ॥
      शैब्या वृन्दा श्रीधराख्या सर्वास्तुत्तुल्यविग्रहाः॥
      सुशीलाप्रमुखा श्चान्याः सख्यो द्वात्रिंशदीरिताः ॥८८-११॥

      ताःश्रृणुष्व महाभाग नामतः प्रवदामि ते ॥
      सुशीलां शशिलेखा च यमुना माधवी रतिः ॥ ८८-१२॥
      कदम्बमाला कुन्ती च जाह्नवी च स्वयंप्रभा ॥
      चन्द्रानना पद्ममुखी सावित्री च सुधामुखी ॥ ८८-१३ ॥
      शुभा पद्मा पारिजाता गौरिणी सर्वमंगला ॥
      कालिका कमला दुर्गा विरजा भारती सुरा ॥ ८८-१४ ॥
      गंगा मधुमती चैव सुन्दरी चन्दना सती ॥
      अपर्णा । द्वात्रिंशद्राधिकाप्रियाः ॥ ८८-१५ ॥
      कदाचिद्छलिला देवी पुंरूपा कृष्णविग्रहा ॥
      ससर्ज षोडशकलास्ताः सर्वास्तत्समप्रभाः ॥ ८८-१६ ॥
      तासा मन्त्रं तथा ध्यानं यन्त्रार्चादिक्रमं तथा ॥
      वर्णये सर्वतंत्रेषु रहस्यं मुनिसत्तम ॥ ८८-१७ ॥

      वातो मरुच्चाग्रिवह्नी धराक्ष्मे जलचारिणी ॥
      विमुखं चरशुचिविभू वनस्वशक्तयः स्वराः ॥ ८८-१८ ॥

      प्राणस्तेजः स्थिरा वायुर्वायुश्चापि प्रभा तथा ॥
      ज्यकुमभ्रं तथा नादो दावकः पाथ इत्यथ ॥ ८८-१९ ॥

      व्योमरयः शिखी गोत्रा तोयं शून्यजवीद्युतिः ॥
      भूमी रसो नमो व्याप्तं दाहश्चापि रसांबु च ॥ ८८-२० ॥

      वियत्स्पर्शश्च हृद्धंसहलाग्रासो हलात्मिकाः ॥
      चन्द्रावली च ललिता हंसेला नायके मते।८८-२१॥

      ग्रासस्थिता स्वयं राधा स्वयं शक्तिस्वरूपिणी ॥
      शेषास्तु षोडशकला द्वात्रिंशत्तत्कलाः स्मृताः ॥ ८८-२२ ॥
      वाङ्मयं निखिलं व्याप्तमाभिरेव मुनीश्वर ॥
      ललिताप्रमुखाणां तु षोडशीत्वमुपागता।८८-२३ ॥

      श्रीराधा सुन्दरी देवी तांत्रिकैः परिकीर्त्यते ॥
      कुरुकुल्ला च वाराही चन्द्रालिललिते उभे ॥ ८८-२४॥

      संभूते मन्त्रवर्गं तेऽभिधास्येऽहं यथातथम् ॥
      हृत्प्राणेलाहंसदावह्निस्वैर्ललितेरिता ॥ ८८-२५ ॥

      त्रिविधा हंसभेदेव श्रृणु तां च यथाक्रमम् ॥
      हंसाद्ययाऽद्या मध्या स्यादादिमध्यस्थहंसया ॥ ८८-२६ ॥

      तृतीया प्रकृतिः सैव तुर्या तैरंत्यमायया ॥
      आसु तुर्याभवन्मुक्त्यै तिस्रोऽन्याः स्युश्चसंपदे ॥ ८८-२७ ॥

      इति त्रिपुरसुंदर्या विद्या सरुमतसमीरिता ॥
      दाहभूमीरसाक्ष्मास्वैर्वशिनीबीजमीरितम्।८८-२८॥

      प्राणो रसाशक्तियुतः कामेश्वर्यक्षरं महत् ॥
      शून्यमंबुरसावह्निस्वयोगान्मोहनीमनुः ॥ ८८-२९॥

      व्याप्तं रसाक्ष्मास्वयुतं विमलाबीजमीरितम् ॥
      ज्यानभोदाहवह्निस्वयोगैः स्यादरुणामनुः ॥ ८८-३० ॥

      जयिन्यास्तु समुद्दिष्टः सर्वत्र जयदायकः ॥
      कं नभोदाहसहितं व्याप्तक्ष्मास्वयुतं मनुः ॥ ८८-३१ ॥

      सर्वेश्वर्याः समाख्यातः सर्वसिद्धिकरः परः ॥
      ग्रासो नभोदाहवह्निस्वैर्युक्तः कौलिनीमनुः ॥ ८८-३२॥

      एतैर्मनुभिरष्टाभिः शक्तिभिर्वर्गसंयुक्तैः ॥
      वाग्देवतांतैर्न्यासः स्याद्येन देव्यात्मको भवेत् ॥ ८८-३३ ॥

      रंध्रे भाले तथाज्ञायां गले हृदि तथा न्यसेत् ॥
      नाभावाधारके पादद्वये मूलाग्रकावधि।८८-३४ ॥

      षड्दीर्घाढ्येन बीजेन कुर्याश्चैव षडंगकम् ॥
      लोहितां ललितां बाणचापपाशसृणीः करैः ॥ ८८-३५ ॥
      दधानां कामराजांके यन्त्रीतां मुदुतां स्मरेत्॥
      मध्यस्थदेवी त्वेकैव षोडशाकारतः स्थाता ॥ ८८-३६ ॥
      यतस्तस्मात्तनौ तस्यास्त्वन्याः पंचदशार्चयेत्॥
      ऋषिः शिवश्छंद उक्ता देवता ललितादिकाः ॥ ८८-३७ ॥
      सर्वासामपि नित्यानामावृतीर्नामसंचये ॥
      पटले तु प्रयोगांश्च वक्ष्याम्यग्रे सविस्तरम् ॥८८-३८।
      अथ षोडशनित्यासु द्वितीया या समीरिता ॥
      कामेश्वरीति तां सर्वकामदां श्रृणु नारद ॥८८-३९॥

      शुचिः स्वेन युतस्त्वाद्यो ललिता स्याद्द्वितीयकः॥
      शून्यमग्नियुतं पश्चाद्रयोव्याप्तेन संयुतम्॥८८-४०।

      प्राणो रसाग्निसहितः शून्ययुग्मं चरान्वितम् ॥
      नभोगोत्रा पुनश्चैषां दाहेन समयोजिता ॥८८-४१ ॥

      अंबु स्याच्चरसंयुक्तं नवशक्तियुतं च हृत् ॥
      एषा कामेश्वरी नित्या कामदैकादशाक्षरी ॥ ८८-४२।

      मूलविद्याक्षरैरेव कुर्यादंगानि षट् क्रमात् ॥
      एकेन हृदयं शीर्षं तावताथो द्वयं द्वयात्॥८८-४३ ॥

                     "नारद उवाच"
      ब्रह्मंस्त्वया समाख्याता विधयस्तंत्रचोदिताः ।।
      तत्रापि कृष्णमंत्राणां वैभवं ह्युदितं महत् ।८३-५।

      या तत्र राधिकादेवी सर्वाद्या समुदाहृता ।
      तस्या अंशावताराणां चरितं मंत्रपूर्वकम् ।८३-६ ।

      तंत्रोक्तं वद सर्वज्ञ त्वामहं शरणं गतः ।
      शक्तेस्तंत्राण्यनेकानि शिवोक्तानि मुनीश्वर ।८३-७।

      यानि तत्सारमुद्धृत्य साकल्येनाभिधेहि नः।
      तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य नारदस्य महात्मनः।८३-८।

      सनत्कुमारः प्रोवाच स्मृत्वा राधापदांबुजम् ।
                     सनत्कुमार उवाच ।
      श्रृणु नारद वक्ष्यामि राधांशानां समुद्भवम् ।८३-९।

      शक्तीनां परमाश्चर्यं मंत्रसाधनपूर्वकम् ।
      या तु राधा मया प्रोक्ता कृष्णार्द्धांगसमुद्भवा। ८३-१०।

      गोलोकवासिनी सा तु नित्या कृष्णसहायिनी।
      तेजोमंडलमध्यस्था दृश्यादृश्यस्वरूपिणी।८३-११।

      कदाचित्तु तया सार्द्धं स्थितस्य मुनिसत्तम ।
      कृष्णस्य वामभागात्तु जातो नारायणः स्वयम् । ८३-१२।

      राधिकायाश्च वामांगान्महालक्ष्मीर्बभूव ह।
      ततः कृष्णो महालक्ष्मीं दत्त्वा नारायणाय च । ८३-१३।

      वैकुंठे स्थापयामास शश्वत्पालनकर्मणि।
      अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने।८३-१४।

      जातुश्चासंख्यगोपालास्तेजसा वयसा समाः।
      प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः। ८३-१५।
      ______________________
      राधांगलोमकूपेभ्ये बभूवुर्गोपकन्यकाः।
      राधातुल्याः सर्वतश्च राधादास्यः प्रियंवदाः।८३-१६।

      एतस्मिन्नंतरे विप्र सहसा कृष्णदेहतः।
      आविर्बभूव सा दुर्गा विष्णुमाया सनातनी।८३-१७।

      देवीनां बीजरूपां च मूलप्रकृतिरीश्वरी।
      परिपूर्णतमा तेजः स्वरूपा त्रिगुणात्मिका।८३-१८।

      सहस्रभुजसंयुक्ता नानाशस्त्रा त्रिलोचना ।
      या तु संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी।८३-१९ ।

      रत्नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः।
      एतस्मिन्नंतरे तत्र सस्त्रीकस्तु चतुर्मुखः।८३-२०।

      ज्ञानिनां प्रवरः श्रीमान् पुमानोंकारमुच्चरन् ।
      कमंडलुधरो जातस्तपस्वी नाभितो हरेः।८३-२१।

      स तु संस्तूय सर्वेशं सावित्र्या भार्यया सह।
      निषसादासने रम्ये विभोस्तस्याज्ञया मुने।८३-२२।

      अथ कृष्णो महाभाग द्विधारूपो बभूव ह ।।
      वामार्द्धांगो महादेवो दक्षार्द्धो गोपिकापतिः ।। ८३-२३ ।।

      पंचवक्त्रस्त्रिनेत्रोऽसौ वामार्द्धागो मुनीश्वः।
      स्तुत्वा कृष्णं समाज्ञप्तो निषसाद हरेः पुरः। ८३-२४।

      अथ कृष्णश्चतुर्वक्त्रं प्राह सृष्टिं कुरु प्रभो।
      सत्यलोके स्थितो नित्यंगच्छ मांस्मर सर्वदा। ८३-२५।
      एवमुक्तस्तु हरिणा प्रणम्य जगदीश्वरम् ।।
      जगाम भार्यया साकं स तु सृष्टिं करोति वै ।। ८३-२६ ।।

      पितास्माकं मुनिश्रेष्ठ मानसीं कल्पदैहिकीम् ।।
      ततः पश्चात्पंचवक्त्रं कृष्णं प्राह महामते।८३-२७।

      दुर्गां गृहाण विश्वेश शिवलोके तपश्वर ।।
      यावत्सृष्टिस्तदंते तु लोकान्संहर सर्वतः।८३-२८ ।।

      सोऽपि कृष्णं नमस्तृत्य शिवलोकं जगाम ह ।।
      ततः कालांतरे ब्रह्मन्कृष्णस्य परमात्मनः ।। ८३-२९ ।।

      वक्त्रात्सरस्वती जाता वीणापुस्तकधारिणी ।।
      तामादिदेश भगवान् वैकुंठं गच्छ मानदे।८३-३०।

      लक्ष्मीसमीपे तिष्ठ त्वं चतुर्भुजसमाश्रया ।।
      सापि कृष्णं नमस्कृत्य गता नारायणांतिकम् ।। ८३-३१ ।।

      एवं पञ्चविधा जाता सा राधा सृष्टिकारणम् ।।
      आसां पूर्णस्वरूपाणां मंत्रध्यानार्चनादिकम् ।। ८३-३२ ।।

      वदामि श्रृणु विप्रेद्रं लोकानां सिद्धिदायकम् ।।
      तारः क्रियायुक् प्रतिष्ठा प्रीत्याढ्या च ततः परम् ।। ८३-३३ ।।

      ज्ञानामृता क्षुधायुक्ता वह्निजायांतकतो मनुः ।।
      सुतपास्तु ऋषिश्छन्दो गायत्री देवता मनोः ।। ८३-३४ ।।

      राधिका प्रणवो बीजं स्वाहा शक्तिरुदाहृता ।।
      षडक्षरैः षडंगानि कुर्याद्विन्दुविभूषितैः ।। ८३-३५ 

      ततो ध्यायन्स्वहृदये राधिकां कृष्णभामिनीम् ।।
      श्वेतचंपकवर्णाभां कोटिचन्द्रसमप्रभाम् ।८३-३६ 

      शरत्पार्वणचन्द्रास्यां नीलेंदीवरलोचनाम् ।।
      सुश्रोणीं सुनितंबां च पक्वबिंबाधरांबराम् ।। ८३-३७ ।।

      मुक्ताकुंदाभदशनां वह्निशुद्धांशुकान्विताम् ।।
      रत्नकेयूरवलयहारकुण्डलशोभिताम् ।। ८३-३८ ।।

      गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।।
      रासमंडलमध्यस्थां रत्नसिंहासनस्थिताम् ।। ८३-३९ ।।

      ध्यात्वा पुष्पांजलिं क्षिप्त्वा पूजयेदुपचारकैः ।।
      लक्षषट्कं जपेन्मंत्रं तद्दशांशं हुनेत्तिलैः ।८३-४० ।।

      आज्याक्तैर्मातृकापीठे पूजा चावरणैः सह ।।
      षट्कोणेषु षडंगानि तद्बाह्येऽष्टदले यजेत् ।। ८३-४१ ।।
      मालावतीं माधवीं च रत्नमालां सुशीलिकाम् ।।
      ततः शशिकलां पारिजातां पद्मावतीं तथा ।। ८३-४२ ।।

      सुंदरीं च क्रमात्प्राच्यां दिग्विदिक्षु ततो बहिः ।।
      इन्द्राद्यान्सायुधानिष्ट्वा विनियोगांस्तु साधयेत् ।। ८३-४३ ।।

      राधा कृष्णप्रिया रासेश्वरी गोपीगणाधिपा ।।
      निर्गुणा कृष्णपूज्या च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।। ८३-४४ ।।

      सर्वेश्वरी सर्वपूज्या वैराजजननी तथा ।।
      पूर्वाद्याशासु रक्षंतु पांतु मां सर्वतः सदा।८३-४५।

      त्वं देवि जगतां माता विष्णुमाया सनातनी ।।
      कृष्णमायादिदेवी च कृष्णप्राणाधिके शुभे ।। ८३-४६ ।।

      कष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मंगलप्रदे ।।
      इति सम्प्रार्थ्य सर्वेशीं स्तुत्वा हृदि विसर्जयेत् ।। ८३-४७ ।।

      एवं यो भजते राधां सर्वाद्यां सर्वमंगलाम् ।।
      भुक्त्वेह भोगानखिलान्सोऽन्ते गोलोकमाप्नुयात् ।। ८३-४८ ।।

      अथ तुभ्यं महालक्ष्म्या विधानं वच्मि नारद ।।
      यदाराधनतो भूयात्साधको भुक्तिमुक्तिमान् ।। ८३-४९ ।।

      लक्ष्मीमायाकामवाणीपूर्वा कमलवासिनी ।।
      ङेंता वह्निप्रियांतोऽयं मंत्रकल्पद्रुमः परः।८३-५०।

      ऋषिर्नारायणश्चास्य छन्दो हि जगती तथा ।।
      देवता तु महालक्ष्मीर्द्विद्विवर्णैः षडंगकम् ।। ८३-५१ ।।

      श्वेतचंपकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् ।।
      ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकातराम् ।। ८३-५२ ।।

      बिभ्रतीं रत्नमालां च कोटिचंद्रसमप्रभाम् ।।
      ध्यात्वा जपेदर्कलक्षं पायसेन दशांशतः।८३-५३ ।।

      जुहुयादेधिते वह्नौ श्रीदृकाष्टैः समर्चयेत् ।।
      नवशक्तियुते पीठे ह्यंगैरावरणैः सह ।। ८३-५४।

      विभूतिरुन्नतिः कांतिः सृष्टिः कीर्तिश्च सन्नतिः।
      व्याष्टिरुत्कृष्टिर्ऋद्धिश्च संप्रोक्ता नव शक्तयः। ८३-५५ ।।

      अत्रावाह्य च मूलेन मूर्तिं संकल्प्य साधकः ।।
      षट् कोणेषु षडंगानि दक्षिणे तु गजाननम् ।। ८३-५६ ।।

      वामे कुसुमधन्वानं वसुपत्रे ततो यजेत् ।।
      उमां श्रीं भारतीं दुर्गां धरणीं वेदमातरम् ।८३-५७।

      देवीमुषां च पूर्वादौ दिग्विदिक्षु क्रमेण हि ।।
      जह्नुसूर्यसुते पूज्ये पादप्रक्षालनोद्यते।८३-५८ ।।

      शंखपद्मनिधी पूज्यौ पार्श्वयोर्घृतचामरौ ।।
      धृतातपत्रं वरुणं पूजयेत्पश्चिमे ततः।८३-५९ ।।

      संपूज्य राशीन्परितो यथास्थानं नवग्रहान् ।।
      चतुर्दन्तैरावतादीन् दिग्विदिक्षु ततोऽर्चयेत् ।। ८३-६० ।।

      तद्बहिर्लोकपालांश्च तदस्त्राणि च तद्बहिः ।।
      दूर्वाभिराज्यसिक्ताभिर्जुहुयादायुषे नरः।८३-६१।

      गुडूचीमाज्यसंसिक्तां जुहुयात्सप्तवासरम् ।।
      अषअटोत्तरसहस्रं यः स जीवेच्छरदां शतम् ।। ८३-६२ ।।

      हुत्वा तिलान्घृताभ्यक्तान्दीर्घमायुष्यमाप्नुयात् ।।
      आरभ्यार्कदिनं मंत्री दशाहं घृतसंप्लुतः।८३-६३ ।।

      जुहुयादर्कसमिधः शरीरारोग्यसिद्धये ।।
      शालिभिर्जुह्वतो नित्यमष्टोत्तरसहस्रकम्।८३-६४।

      अचिरादेव महती लक्ष्मी संजायते ध्रुवम् ।।
      उषाजा जीनालिकेररजोभिर्गृतमिश्रितैः।८३-६५ ।।

      हुनेदष्टोत्तरशतं पायसाशी तु नित्यशः ।।
      मण्डलाज्जायते सोऽपि कुबेर इव मानवः ।। ८३-६६ ।।

      हविषा गुडमिश्रेण होमतो ह्यन्नवान्भवेत् ।।
      जपापुष्पाणि जुहुयादष्टोत्तरसहस्रकम्।८३-६७ ।।

      तांबूलरससंमिश्रं तद्भस्मतिलकं चरेत् ।।
      चतुर्णामपि वर्णानां मोहनाय द्विजोत्तमः ।। ८३-६८ ।।

      एवं यो भजते लक्ष्मीं साधकेंद्रो मुनीश्वर ।।
      सम्पदस्तस्य जायंते महालक्ष्मीः प्रसीदति ।। ८३-६९ ।।

      देहांते वैष्णवं धाम लभते नात्र संशयः ।।
      या तु दुर्गा द्विजश्रेष्ठ शिवलोकं गता सती ।। ८३-७० ।।

      सा शिवाज्ञामनुप्राप्य दिव्यलोकं विनिर्ममे ।।
      देवीलोकेति विख्यातं सर्वलोकविलक्षणम् ।। ८३-७१ ।।

      तत्र स्थिता जगन्माता तपोनियममास्थिता ।।
      विविधान् स्वावतारान्हि त्रिकाले कुरुतेऽनिशम् ।। ८३-७२ ।।

      मायाधिका ह्लादिनीयुक् चन्द्राढ्या सर्गिणी पुनः ।।
      प्रतिष्ठा स्मृतिसंयुक्ता क्षुधया सहिता पुनः ।। ८३-७३ ।।

      ज्ञानामृता वह्निजायांतस्ताराद्यो मनुर्मतः ।।
      ऋषिः स्याद्वामदेवोऽस्य छंदो गायत्रमीरितम् ।। ८३-७४ ।।

      देवता जगतामादिर्दुर्गा दुर्गतिनाशिनी ।।
      ताराद्येकैकवर्णेन हृदयादित्रयं मतम् ।। ८३-७५ ।।

      त्रिभिर्वर्मेक्षण द्वाभ्यां सर्वैरस्त्रमुदीरितम् ।।
      महामरकतप्रख्यां सहस्रभुजमंडिताम् ।८३-७६ ।।

      नानाशस्त्राणि दधतीं त्रिनेत्रां शशिशेखराम् ।।
      कंकणांगदहाराढ्यां क्वणन्नूपुरकान्विताम् ।। ८३-७७ ।।

      किरीटकुंडलधरां दुर्गां देवीं विचिंतयेत् ।। ८३-७८।

      वसुलक्षं जपेन्मंत्रं तिलैः समधुरैर्हुनेत ।।
      पयोंऽधसा वा सहस्रं नवपद्मात्मके यजेत् ।। ८३-७९ ।।

      प्रभा माया जया सूक्ष्मा विशुद्धानं दिनी पुनः ।।
      सुप्रभा विजया सर्वसिद्धिदा पीठशक्तयः ।। ८३-८० ।।

      अद्भिर्ह्रस्वत्रयक्लीबरहितैः पूजयेदिमाः ।।
      प्रणवो वज्रनखदंष्ट्रायुधाय महापदात् ।। ८३-८१ ।।

      सिंहाय वर्मास्त्रं हृञ्च प्रोक्तः सिंहमनुर्मुने ।।
      दद्यादासनमेतेन मूर्तिं मूलेन कल्पयेत् ।। ८३-८२ ।।

      अङ्गावृर्त्तिं पुराभ्यार्च्य शक्तीः पत्रेषु पूजयेत् ।।
      जया च विजया कीर्तिः प्रीतिः पश्चात्प्रभा पुनः ।। ८३-८३ ।।

      श्रद्धा मेधा श्रुतिश्चैवस्वनामाद्यक्षरादिकाः ।।
      पत्राग्रेष्वर्चयेदष्टावायुधानि यथाक्रमात् ।। ८३-८४ ।।

      शंखचक्रगदाखङ्गपाशांकुशशरान्धनुः ।।
      लोकेश्वरांस्ततो बाह्ये तेषामस्त्राण्यनंतरम् ।। ८३-८५ ।।

      इत्थं जपादिभिर्मंत्री मंत्रे सिद्धे विधानवित् ।।
      कुर्यात्प्रयोगानमुना यथा स्वस्वमनीषितान् ।। ८३-८६ ।।

      प्रतिष्ठाप्य विधानेन कलशान्नवशोभनान् ।।
      रत्नहेमादिसंयुक्तान्घटेषु नवसु स्थितान् ।। ८३-८७ 
      प्रतिष्ठाप्य विधानेन कलशान्नवशोभनान् ।।
      रत्नहेमादिसंयुक्तान्घटेषु नवसु स्थितान् ।। ८३-८७ ।।

      मध्यस्थे पूजयेद्देवीमितरेषु जयादिकाः ।।
      संपूज्य गन्धपुष्पाद्यैरभिषिंचेन्नराधिपम् ।८३-८८।

      राजा विजयते शत्रून्योऽधिको विजयश्रियम् ।।
      प्राप्नोत्रोगो दीर्घायुः सर्वव्याधिविवर्जितः।८३-८९।

      वन्ध्याभिषिक्ता विधिनालभते तनयं वरम् ।।
      मन्त्रेणानेन संजप्तमाज्यं क्षुद्रग्रहापहम् ।८३-९०।

      गर्भिणीनां विशेषेण जप्तं भस्मादिकं तथा ।।
      जृंभश्वासे तु कृष्णस्य प्रविष्टेराधिकामुखम् ।। ८३-९१।

      या तु देवी समुद्भूता वीणापुस्तकधारिणी ।।
      तस्या विधानं विप्रेंद्र श्रृणु लोकोपकारकम् । ८३-९२।

      प्रणवो वाग्भवं माया श्रीः कामः शक्तिरीरिता ।।
      सरस्वती चतुर्थ्यंता स्वाहांतो द्वादशाक्षरः ।। ८३-९३ ।।

      मनुर्नारायण ऋषिर्विराट् छन्दः समीरितम् ।।
      महासरस्वती चास्य देवता परिकीर्तिता।८३-९४।

      वाग्भवेन षडंगानि कृत्वा वर्णान्न्यसेद् बुधः।
      ब्रह्मरंध्रे न्यसेत्तारं लज्जां भ्रूमध्यगां न्यसेत् ।। ८३-९५ ।।

      मुखनासादिकर्णेषु गुदेषु श्रीमुखार्णकान् ।।
      ततो वाग्देवतां ध्यायेद्वीणापुस्तकधारिणीम् ।। ८३-९६ ।।

      कर्पूरकुंदधवलां पूर्णचंद्रोज्ज्वलाननाम् ।।
      हंसाधिरूढां भालेंदुदिव्यालंकारशोभिताम् ।। ८३-९७ ।।

      जपेद्द्वादशलक्षाणि तत्सहस्रं सितांबुजैः ।।
      नागचंपकपुष्पैर्वा जुहुयात्साधकोत्तमः।८३-९८।

      मातृकोक्ते यजेत्पीठे वक्ष्यमाणक्रमेण ताम् ।।
      वर्णाब्जेनासनं दद्यान्मूर्तिं मूलेन कल्पयेत् ।। ८३-९९ ।।

      देव्या दक्षिणतः पूज्या संस्कृता वाङ्मयी शुभा ।।
      प्राकृता वामतः पूज्या वाङ्मयीसर्वसिद्धिदा ।। ८३-१०० ।।

      पूर्वमंगानि षट्कोणे प्रज्ञाद्याः प्रयजेद्बहिः ।।
      प्रज्ञा मेधा श्रुतिः शक्तिः स्मृतिर्वागीश्वरी मतिः। ८३-१०१।

      स्वस्तिश्चेति समाख्याता ब्रह्माद्यास्तदनंतरम् ।।
      लोकेशानर्चयेद्भूयस्तदस्त्राणि च तद्बहिः।८३-१०२।

      एवं संपूज्य वाग्देवीं साक्षाद्वाग्वल्लभो भवेत् ।।
      ब्रह्मचर्यरतः शुद्धः शुद्धदंतनखा दिकः।८३-१०३।

      संस्मरन् सर्ववनिताः सततं देवताधिया ।
      कवित्वं लभते धीमान् मासैर्द्वादशभिर्ध्रुवम् ।। ८३-१०४ ।।

      पीत्वा तन्मंत्रितं तोयं सहस्रं प्रत्यहं मुने।
      महाकविर्भवेन्मंत्री वत्सरेण न संशयः।८३-१०५।

      उरोमात्रोदके स्थित्वा ध्यायन्मार्तंडमंडले ।
      स्थितां देवीं प्रतिदिनं त्रिसहस्रं जपेन्मनुम् । ८३-१०६ ।।

      लभते मंडलात्सिद्धिं वाचामप्रतिमां भुवि।
      पालाशबिल्वकुसुमैर्जुहुयान्मधुरोक्षितैः।८३-१०७।

      समिद्भिर्वा तदुत्थाभिर्यशः प्राप्नोति वाक्पतेः ।।
      राजवृक्षसमुद्भूतैः प्रसूनैर्मधुराप्लुतैः।८३-१०८ ।।

      सत्समिद्भिश्च जुहुयात्कवित्वमतुलं लभेत् ।।
      अथ प्रवक्ष्ये विप्रेंद्र सावित्रीं ब्रह्मणः प्रियाम् ।। ८३-१०९ ।।

      यां समाराध्य ससृजे ब्रह्मा लोकांश्चराचरान् ।।
      लक्ष्मी माया कामपूर्वा सावित्री ङेसमन्विता ।। ८३-११० ।।

      स्वाहांतो मनुराख्यातः सावित्र्या वसुवर्णवान् ।।
      ऋषिर्ब्रह्मास्य गायत्री छंदः प्रोक्तं च देवता ।। ८३-१११ ।।

      सावित्री सर्वदेवानां सावित्री परिकीर्तिता ।।
      हृदंतिकैर्ब्रह्म विष्णुरुद्रेश्वरसदाशिवैः।८३-११२ ।।

      सर्वात्मना च ङेयुक्तैरंगानां कल्पनं मतम् ।
      तप्तकांचनवर्णाभां ज्वलंतीं ब्रह्मतेजसा।८३-११३।

      ग्रीष्ममध्याह्नमार्तंडसहस्रसमविग्रहाम् ।।
      ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्नभूषणभूषिताम् ।। ८३-११४ ।।

      बह्निशुद्धांशुकाधानां भक्तानुग्रहकातराम् ।।
      सुखदां मुक्तिदां चैव सर्वसंपत्प्रदां शिवाम् ।। ८३-११५ ।।

      वेदबीजस्वरूपां च ध्यायेद्वेदप्रसूं सतीम् ।।
      ध्यात्वैवं मण्डले विद्वान् त्रिकोणोज्ज्वलकर्णिके ।। ८३-११६ ।।

      सौरे पीठे यजेद्देवीं दीप्तादिनवशक्तिभिः ।।
      मूलमंत्रेण क्लृप्तायां मूर्तौ देवीं प्रपूजयेत् ।। ८३-११७ ।।
      कोणेषु त्रिषु संपूज्या ब्राहृयाद्याः शक्तयो बहिः ।।
      आदित्याद्यास्ततः पूज्या उषादिसहिताः क्रमात् ।। ८३-११८ ।।

      ततः षडंगान्यभ्यर्च्य केसरेषु यथाविधि ।।
      प्रह्लादिनीं प्रभां पश्चान्नित्यां विश्वंभरां पुनः ।। ८३-११९ ।।

      विलासिनीप्रभावत्यौ जयां शांतां यजेत्पुनः ।।
      कांतिं दुर्गासरस्वत्यौ विद्यारूपां ततः परम् ।। ८३-१२० ।।

      विशालसंज्ञितामीशां व्यापिनीं विमलां यजेत् ।।
      तमोपहारिणीं सूक्ष्मां विश्वयोनिं जयावहाम् ।। ८३-१२१ ।।

      पद्नालयां परां शोभां ब्रह्मरूपां ततोऽर्चयेत् ।।
      ब्राह्ययाद्याः शारणा बाह्ये पूजयेत्प्रोक्तलक्षणाः। ८३-१२२।।

      ततोऽभ्यर्च्येद् ग्रहान्बाह्ये शक्राद्यानयुधैः सह।।
      इत्थमावरणैर्देवीः दशभिः परिपूजयेत् ।८३-१२३।

      अष्टलक्षं जपेन्मंत्रं तत्सहस्रं हुनेत्तिलैः ।।
      सर्वपापुविनिर्मुक्तो दीर्घमायुः स विंदति।। ८३-१२४ ।।

      अरुणाब्जैस्त्रिमध्वक्तैर्जुहुयादयुतं ततः ।।
      महालक्ष्मीर्भवेत्तस्य षण्मासान्नात्र संशयः।। ८३-१२५ ।।

      ब्रह्मवृक्षप्रसूनैस्तु जुहुयाद्बाह्यतेजसे ।।
      बहुना किमिहोक्तेन यथावत्साधिता सती।। ८३-१२६ ।।

      साधकानामियं विद्या भवेत्कामदुधा मुने ।।
      अथ ते संप्रवक्ष्यामि रहस्यं परमाद्भुतम् ।। ८३-१२७ ।।

      सावित्रीपंजरं नाम सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।।
      व्योमकेशार्लकासक्तां सुकिरीटविराजिताम् ।। ८३-१२८ ।।

      मेघभ्रुकुटिलाक्रांतां विधिविष्णुशिवाननाम् ।।
      गुरुभार्गवकर्णांतां सोमसूर्याग्निलोचनाम् ।। ८३-१२९ ।।

      इडापिंगलिकासूक्ष्मावायुनासापुटान्विताम् ।।
      संध्याद्विजोष्ठपुटितां लसद्वागुपजिह्विकाम् ।। ८३-१३० ।।

      संध्यासूर्यमणिग्रीवां मरुद्बाहुसमन्वितान् ।।
      पर्जन्यदृदयासक्तां वस्वाख्यप्रतिमंडलाम् ।। ८३-१३१ ।।

      आकाशोदरविभ्रांतां नाभ्यवांतरवीथिकाम् ।।
      प्रजापत्याख्यजघनां कटींद्राणीसमाश्रिताम् ।। ८३-१३२ ।।
      ऊर्वोर्मलयमेरुभ्यां शोभमानां सरिद्वराम् ।।
      सुजानुजहुकुशिकां वैश्वदेवाख्यसंज्ञिकाम् ।। ८३-१३३ ।।

      पादांघ्रिनखलोमाख्यभूनागद्रुमलक्षिताम् ।।
      ग्रहराश्यर्क्षयोगादिमूर्तावयवसंज्ञिकाम्।८३-१३४।

      तिथिमासर्तुपक्षाख्यैः संकेतनिमिषात्मिकाम् ।।
      मायाकल्पितवैचित्र्यसंध्याख्यच्छदनावृताम्। ८३-१३५ ।।

      ज्वलत्कालानलप्रख्यों तडित्कीटिसमप्रभाम् ।।
      कोटिसूर्यप्रतीकाशां शशिकोटिसुशीतलाम्। ८३-१३६ ।।

      सुधामंडलमध्यस्थां सांद्रानंदामृतात्मिकाम् ।।
      वागतीतां मनोऽगर्म्या वरदां वेदमातरम् ।। ८३-१३७ ।।

      चराचरमयीं नित्यां ब्रह्माक्षरसमन्विताम् ।।
      ध्यात्वा स्वात्माविभेदेन सावित्रीपंजरं न्यसेत् ।। ८३-१३८ ।।

      पञ्चरस्य ऋषिः सोऽहं छंन्दो विकृतिरुच्यते ।।
      देवता च परो हंसः परब्रह्मादिदेवता ।८३-१३९ ।।

      धर्मार्थकाममोक्षाप्त्यै विनियोग उदाहृतः ।।
      षडंगदेवतामन्त्रैरंगन्यासं समाचरेत् ।८३-१४० ।।

      त्रिधामूलेन मेधावी व्यापकं हि समाचरेत् ।।
      पूर्वोक्तां देवातां ध्यायेत्साकारां गुणसंयुताम् ।। ८३-१४१ ।।

      त्रिपदा हरिजा पूर्वमुखी ब्रह्मास्त्रसंज्ञिका ।।
      चतुर्विशतितत्त्वाढ्या पातु प्राचीं दिशं मम ।। ८३-१४२ ।।

      चतुष्पदा ब्रह्मदंडा ब्रह्माणी दक्षिणानना ।।
      षड्विंशतत्त्वसंयुक्ता पातु मे दक्षिणां दिशम् ।। ८३-१४३ ।।

      प्रत्यङ्मुखी पञ्चपदी पञ्चाशत्तत्त्वरूपिणी ।।
      पातु प्रतीचीमनिशं मम ब्रह्मशिरोंकिता ।। ८३-१४४ ।।

      सौम्यास्या ब्रह्मतुर्याढ्या साथर्वांगिरसात्मिका ।।
      उदीचीं षट्पदा पातु षष्टितत्त्वकलात्मिका ।। ८३-१४५ ।।

      पञ्चाशद्वर्णरचिता नवपादा शताक्षरी ।।
      व्योमा संपातु मे वोर्द्ध्वशिरो वेदांतसंस्थिता ।। ८३-१४६ ।।

      विद्युन्निभा ब्रह्मसन्ध्या मृगारूढा चतुर्भुजा ।।
      चापेषुचर्मासिधरा पातु मे पावकीं दिशम् ।। ८३-१४७ ।।

      ब्रह्मी कुमारी गायत्री रक्तांगी हंसवाहिनी ।।
      बिभ्रत्कमंडलुं चाक्षं स्रुवस्रुवौ पातु नैर्ऋतिम् ।। ८३-१४८ ।।

      शुक्लवर्णा च सावित्री युवती वृषवाहना ।
      कपालशूलकाक्षस्रग्धारिणी पातु वायवीम् ।। ८३-१४९ ।।

      श्यामा सरस्वती वृद्धा वैष्णवी गरुडासना ।।
      शंखचक्राभयकरा पातु शैवीं दिशं मम ।। ८३-१५० ।।

      चतुर्भुजा देवमाता गौरांगी सिंहवाहना ।।
      वराभयखङ्गचर्मभुजा पात्वधरां दिशम् ।। ८३-१५१ ।।

      तत्तत्पार्श्वे स्थिताः स्वस्ववाहनायुधभूषणाः ।।
      स्वस्वदिक्षुस्थिताः पातुं ग्रहशक्त्यंगसंयुताः ।। ८३-१५२ ।।

      मंत्राधिदेवतारूपा मुद्राधिष्ठातृदेवताः ।।
      व्यापकत्वेन पांत्वस्मानापादतलमस्तकम् ।। ८३-१५३ ।।

      इदं ते कथितं सत्यं सावित्रीपंजरं मया ।।
      संध्ययोः प्रत्यहं भक्त्या जपकाले विशेषतः ।। ८३-१५४ ।।

      पठनीयं प्रयत्नेन भुक्तिं मुक्तिं समिच्छता ।।
      भूतिदा भुवना वाणी महावसुमती मही ।। ८३-१५५ ।।

      हिरण्यजननी नन्दा सविसर्गा तपस्विनी ।।
      यशस्विनी सती सत्या वेदविच्चिन्मयी शुभा ।। ८३-१५६ ।।

      विश्वा तुर्या वरेण्या च निसृणी यमुना भुवा ।।
      मोदा देवी वरिष्ठा च धीश्च शांतिर्मती मही ।। ८३-१५७ ।।

      धिषणा योगिनी युक्ता नदी प्रज्ञाप्रचोदनी ।।
      दया च यामिनी पद्मा रोहिणी रमणी जया ।। ८३-१५८ ।।

      सेनामुखी साममयी बगला दोषवार्जिता ।।
      माया प्रज्ञा परा दोग्ध्री मानिनी पोषिणी क्रिया ।। ८३-१५९ ।।

      ज्योत्स्ना तीर्थमयी रम्या सौम्यामृतमया तथा ।।
      ब्राह्मी हैमी भुजंगी च वशिनी सुंदरी वनी ।। ८३-१६० ।।

      ॐकारहसिनी सर्वा सुधा सा षड्गुणावती ।।
      माया स्वधा रमा तन्वी रिपुघ्नी रक्षणणी सती ।। ८३-१६१ ।।

      हैमी तारा विधुगतिर्विषघ्नी च वरानना ।।
      अमरा तीर्थदा दीक्षा दुर्धर्षा रोगहारिणी ।। ८३-१६२ ।।

      नानापापनृशंसघ्नी षट्पदी वज्रिणी रणी ।।
      योगिनी वमला सत्या अबला बलदा जया ।। ८३-१६३ ।।

      गोमती जाह्नवी रजावी तपनी जातवेदसा ।।
      अचिरा वृष्टिदा ज्ञेया ऋततंत्रा ऋतात्मिका ।। ८३-१६४ ।।

      सर्वकामदुधा सौम्या भवाहंकारवर्जिता ।।
      द्विपदा या चतुष्पदा त्रिपदा या च षट्पदा ।। ८३-१६५ ।।
      सर्वकामदुधा सौम्या भवाहंकारवर्जिता ।।
      द्विपदा या चतुष्पदा त्रिपदा या च षट्पदा ।। ८३-१६५ ।।

      अष्टापदी नवपदी सहस्राक्षाक्षरात्मिका ।।
      अष्टोत्तरशतं नाम्नां सावित्र्या यः पठेन्नरः ।। ८३-१६६ ।।

      स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ।।
      एतत्ते कथितं विप्र पंचप्रकृतिलक्षणम् ।८३-१६७।

      मंत्राराधनपूर्वं च विश्वकामप्रपूरणम् ।८३-१६८ ।

      इति श्रीबृहन्नारदीय पुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे पञ्चप्रकृतिमन्त्रादिनिरूपणं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः ।८३।

      अनुवादक एवं व्याख्याकार-यादव योगेश कुमार रोहि"★

      हिंसायज्ञैश्च भगवान्स च तृप्तिमवाप्नुयात् ।
      स च यज्ञपशुर्वह्नौ ब्रह्मभूयाय कल्पते । ।
      तस्य मोक्षप्रभावेन महत्पुण्यमवाप्नुयात् । ५८।

      अनुवाद:- यह भगवान हिंसायुक्त यज्ञ से तृप्त होते हैं। वह पशु जिनकी अग्नि में आहुति प्रदान की जाति है। वह परम पद गमन करता है उसे मोक्ष मिलता है। इसमें यज्ञ कर्ता का पुण्य ओर भी बढ़ जाता है।५८।

      विधिहीनो नरः पापी हिंसायज्ञं करोति यः ।
      अन्धतामिस्रनरकं तद्दोषेण वसेच्चिरम् ।
      महत्पुण्यं महत्पापं हिंसायज्ञेषु वर्तते ।५९
      अनुवाद:-
      जो पापी हिंसारहित यज्ञ विधि रहित रूप से करता है। वह उस दोष के कारण अन्धतामिस्र नरक में चिरकाल तक व्यथित होता है। इस लिए हिंसा युक्त यज्ञ विधि सहित करने से महा पुण्य और विधि रहित करने से महा पाप की प्राप्ति होती है। ५९।

      _____________________________________
      अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे 
      समाप्य नवीनमतो विधीयते3.4.19.६०।

      अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र के यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।

      समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके ।
      अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले । । ६१।

      अनुवाद:-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट का भूतल पर विधान किया।61।

      देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः ।
      वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । ।
      प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।

      अनुवाद:-इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गये तब उन्होंने व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण को लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।

      तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
      राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्य चागता । ६३।

      अनुवाद:-तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।

      तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम् ।
      नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह । ६४।

      अनुवाद:-तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।__________________________

      राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।
      अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।

      अनुवाद:-वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं।वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है। वे सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।

      इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।

      अनुवाद:-यह सुनकर कृष्ण प्रियमध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।-६६।।

      इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

      इस प्रकार श्री भविष्य पुराण को प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त-★

      ___________

      विचार विश्लेषण-

      इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।

      जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर  असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा( कत्ल) हो रहे थे और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
      पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा को नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञ को समस्त गोप-यादव समाज में  रोक दिया था। 

      पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित किया ही है।
      जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।
      कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है। कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश ने हंसकर कहा -कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।

      वह चौर सर्वभोगी मांसभक्षक पर स्त्री का भाग करने वाला यम गृह करने वाला है। 
      जीवहन्ता विशेषतया यम के सदन में जाता है। जो इन सब लक्षणों से परे है वही प्रकृति से परे भगवान् है।।48-53।।
      जिसकी बुद्धि ब्रह्मा अहंकार शिव जिसकी शब्द मात्रा गणेश और स्पर्श मात्रा साक्षात् यम है। रूप मात्रा कुमार और रसमात्रा यक्षराज कुबेर है। गन्धमात्रा विश्वकर्मा ।
      श्रवण शनि और त्वक्- बुध हैं और चक्षु साक्षात् सूर्य है। जिह्वा शुक्र - और घ्राण अश्विनीकुमार- मुख बृहस्पति हाथ देवेन्द्र और कृष्ण जिनके चरण हैं। जिनका लिंग है दक्ष प्रजापति- तथा मृत्यु जिनका गुदा है। उन भगवान को प्रणाम है ।54-57।

      यह भगवान हिंसायुक्त यज्ञ से तृप्त होते हैं। वह पशु जिनकी अग्नि में आहुति प्रदान की जाति है। वह परम पद गमन करता है उसे मोक्ष मिलता है। इसमें यज्ञ कर्ता का पुण्य ओर भी बढ़ जाता है।
       जो पापी हिंसारहित यज्ञ विधि रहित रूप से करता है। वह उस दोष के कारण अन्धतामिस्र नरक में चिरकाल तक व्यथित होता है। इस लिए हिंसा युक्त यज्ञ विधि सहित करने से महा पुण्य और विधि रहित करने से महा पाप की प्राप्ति होती है।
      इसी कारण से कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र को यज्ञों पर रोक लगा दी । 

      कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर दिया । कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट या विधान किया।58-61।

      इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गया तब उसने व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया।
      तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति प्रसन्न हो गयीं तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं। तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । 
      तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।।62-64।।
      निष्कर्ष:-
      वस्तुत इस शचीपुत्र यज्ञांश में श्लेष पद द्वारा पुराण कार इन्द्र आदि देवों के कृष्ण द्वारा किए गये निषेध को इंगित कर रहा है। मध्वाचार्य और चैतन्य महाप्रभु के संवाद रूप में है।


      गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग
      तथा शक्ति" भक्ति "सौन्दर्य और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म का वर्णन-

      स्वयं भगवान विष्णु आभीर जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - राधा" दुर्गा "गायत्री" और उर्वशी आदि को भी इन अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

      राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं। 

      और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह  दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में  वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है।
      यह उसी परम्परा अवशेष हैं। 

      गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए
      स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।  इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी 
       के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं । उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से वे  सम्बन्धित रहीं हैं ।
      मानवीय रूप में यह महाशक्ति अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की  कन्या के रूप में जन्म लिया और कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से जिन्हें सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद मिला और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी हुईं ।  विष्णु अथवा नारायण के उर जंघा अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण कारण भी इन्हें उर्वशी कहा गया । प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं।

      "नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी । ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
      उर्वरा एक अन्य अप्सरा का नाम है।
      और उर्वशी एक अन्य दूसरी अप्सरा का नाम है।

      "उर्वशी मेनका रंभा चन्द्रलेखा तिलोत्तमा ।
      वपुष्मती कान्तिमती लीलावत्युपलावती ।९१।
      अलम्बुषा गुणवती स्थूलकेशी कलावती ।
      कलानिधिर्गुणनिधिः कर्पूरतिलक- उर्वरा ।९२।
      सन्दर्भ:-
      "श्रीस्कांदमहापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्धे अप्सरः सूर्यलोकवर्णनंनामनवमोऽध्यायः।९।

      __________________________________

      सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है   इसी कारण 
      स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को  अप्सराओं की स्वामिनी के रूप में नियुक्त हुईं।

      "अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
      इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।

      "ततो गान्धर्वलोकश्च यत्र गन्धर्वचारणाः ।
      ततो वैद्याधरो लोको विद्याध्रा यत्र सन्ति हि ।८३।

      ततो धर्मपुरी रम्या धार्मिकाः स्वर्गवासिनः।
      ततः स्वर्गं महत्पुण्यभाजां स्थानं सदासुखम् ।८४।

      ततश्चाऽप्सरसां लोकः स्वर्गे चोर्ध्वे व्यवस्थितः ।
      अप्सरसो महासत्यो यज्ञभाजां प्रियंकराः ।८५।

      वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।
      युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः ।८६।

      दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।
      दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।

      कामकेलिकलाभिज्ञा द्यूतविद्याविशारदाः ।
      रसज्ञा भाववेदिन्यश्चतुराश्चोचितोक्तिषु ।८८।

      नानाऽऽदेशविशेषज्ञा नानाभाषासुकोविदा ।
      संकेतोदन्तनिपूणाः स्वतन्त्रा देवतोषिकाः ।८९।

      लीलानर्मसु साभिज्ञाः सुप्रलापेषु पण्डिताः ।
      क्षीरोदस्य सुताः सर्वा नारायणेन निर्मिताः ।1.456.९०।
      "स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्यायः 9
      ______________________

      इन देवीयो को पुराकाल में वैष्णवी शक्ति के नाम से जाना जाता था। विभिन्न ग्रंथों में इन देवीयो के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म आभीर जाति में हुआ है। 

      विचारणीय है कि भारतीय संस्कृति में ये चार परम शक्तियाँ अपने नाम के अनुरूप कर्म करने वाली" विधाता की सार्थक परियोजना का अवयव सिद्ध हुईं ।
      राधा:-राध्नोति साधयति पराणि कार्य्याणीति ।
      जो दूसरे के अर्थात भक्त के कार्यों को सफल करती है।
      राधा:-  राध + अच् ।  टाप् = राधा ) राध् धातु = संसिद्धौ/वृद्धौ 
      राध्= भक्ति करना और प्रेम करना।

      गायत्री:- गाय= ज्ञान + त्री= त्राण (रक्षा) करने वाली अर्थात जो ज्ञान से ही संसार का त्राण( रक्षा) गायन्तंत्रायतेइति। गायत् + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः।)

      विशेष:-
      "दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
      न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
      अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री  नाद ब्राह्म( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।

      न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
      न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
      अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं 
      काशी (वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।
      ___________________
      गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
      गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
      अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्ताने उत्पन्न होती हैं।
      गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
      प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई। 
      (पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति।  “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः । “ ३।९०।२२ ।
      _______________
      सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा।
      पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्रयातः पुरूरवाः ।19।
      महाभारत वन पर्व -/88/19
       इति महाभारतोक्तवचनात् पुरौ पर्व्वते रौतीति वा ।  पुरु + रु + “ पुरूरवाः ।“ उणादिकोश ४ ।  २३१ ।  इति असिप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।)  बुधस्य पुत्त्रः । स तु चन्द्रवंशीयादिराजः।
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      समाधान:-
       "गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि  गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। देवी भागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा राधा गायत्री के ही       नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्द पुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री खैर गायत्री शब्द  का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही है।

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      "ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः।
      चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
      अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से  इन्द्र ने किसी  घूमते हुई  गोप कन्या को  देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली  हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
      _______
      युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
      गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
      अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
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      परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
      इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
      अनुवाद:- यदि तुम तक्र ग्रहण करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा ।

      गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः।
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
      अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर।
      सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
      आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
      अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा !  हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।।

      गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
      एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।

      अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे  दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक  स्थान पर रहता है।।
      गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् 
      पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
      अनुवाद:- वह गाय के पेट से निकाली और ब्राह्मणों के पास लाई गई। उसका हाथ पकड़कर यज्ञा का सम्पादन करो।

      रुद्रःप्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
      गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा।५१।
      अनुवाद:- रूद्र ने कहा, "फिर  गाय-यन्त्र से बाहर होने से यह निश्चय ही गायत्री नाम से इस यज्ञ में सदा तुम्हारी पत्नी होगी "

      निष्कर्ष:- 
      "गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति - गायन्तं त्रायते त्रै+क, अथवा गीयतेऽनेन गै--घञ् यण् नि० ह्रस्वः गयः प्राणस्त त्रायते त्रै- क वा)
      गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत  त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति 

      "प्रातर्न तु तथा स्नायाद्धोमकाले विगर्हितः ।
      गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥१०॥
      अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने  स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।

      गायन्तं त्रायते यस्माद्‌गायत्रीत्यभिधीयते।
      प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥११॥
      अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने  वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
      सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
      १२.गायन्तं त्रायते यस्माद्-गायत्रीति ततः स्मृता।
      (बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः४/३५)
      ,"अत: स्कन्दपुराण, लक्ष्मी-नारायणीसंहिता नान्दी पुराण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति  पूर्णत: प्रक्षिप्त व काल्पनिक है। जिसका कोई व्याकरणिक आधार नही है।

      ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
      गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
      अनुवाद तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो।

      ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
      गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
      अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।

      शास्त्रीय तथा वैदिक सिद्धान्तो के विपरीत होने से तथा परस्पर विरोधाभास होने से स्कन्द पुराण के नागर खण्ड से उद्धृत निम्नश्लोक प्रक्षिप्त हैं।

      "युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
      गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।।४५।।
      परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
      इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
      गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः ।
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
      सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
      आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।

      गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
      एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।।४९।।

      गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् 
      पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
      रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
      गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।
      ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
      गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।

      लक्ष्मी नारायण संहिता अध्याय 509 ने भी यही बात है।।
      गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः॥
      यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ५५ ॥

      पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
      शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः॥५६॥

      अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता ॥
      कन्यका "गोपजा" तन्वी चंद्रास्या पद्मलोचना।५७।

      सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता ॥
      सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने॥५८॥

      कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि नः ॥५९॥
                      ॥ कन्योवाच ॥
      गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता ॥
      यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम् ॥ ६.१८१.६०॥

      तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम् ॥
      जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले ॥६१॥

      अथ तां रुदतीं शक्रः समादाय त्वरान्वितः॥
      गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः ॥६२॥
      __________________
      एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
      ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३॥

      ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
      द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे ॥६४॥

      कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना ॥
      तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता ॥६५॥

      गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
      आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख ॥६६॥
      निष्कर्ष:- गायों और गायत्री को ब्राह्मण बनाने के लिए पुरोहितों ने शास्त्रीय सिद्धान्तो नजर-अंदाज करके स्वयं दलदल में फँस न
       जैसा कार्य कर डाला। और कृष्ण के मुखारविन्द कहलबाया की गाय और ब्राह्मण एक ही कुल के हैं। जबकि यह बातें शास्त्रीय सिद्धान्त के पूर्णत विपरीत ही हैं।

                  "श्रीवासुदेव उवाच"
      गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम्॥
      एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥६७॥

      धेनूदराद्विनिष्क्रांता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
      अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये ॥६८।।
      यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः ॥६९॥
                      " रुद्र उवाच" 
      प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
      गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
                       " ब्रह्मोवाच" 
      वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि॥
      संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥७१॥
                      "ब्राह्मणा ऊचुः" 
      एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
      अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥
       _________
      इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥१८१॥
      _________________ 

      दुर्गा:-  विराटपर्व-8 महाभारतम्

             महाभारतस्य पर्वाणि
      विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति" करना-

                 वैशंपायन उवाच।

      विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
      अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
      यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
      नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
      कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
      शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
      वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
      दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।

      दुर्गात्तारयसे दुर्गे तत्त्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।
      कान्तारेष्ववसन्नानां मग्रानां च महार्णवे।
      दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।21।

      षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
      महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-

      विराटपर्व-8 महाभारतम्

                  महाभारतस्य पर्वाणि
      विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति"

                 "वैशंपायन उवाच।

      विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
      अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
      यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
      नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
      कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
      शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
      वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
      दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
      भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
      तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5

      स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
      आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।
      युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

      वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ । 
      ‘पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी ! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कह तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’। तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है।

      महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35
      षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
      महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद:-
      देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कही

      जाती हो। जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पडत्र गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय

      उनके लिए बता दें कि दुर्गा के यादवी अर्थात् यादव कन्या होने के पौराणिक सन्दर्भ हैं
      परन्तु महिषासुर के अहीर या यादव होने का कोई पौराणिक सन्दर्भ नहीं !

      देवी भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा ही नंदकुल में अवतरित होती है--

      हम आपको  मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण  से कुछ सन्दर्भ देते हैं जो दुर्गा को यादव या अहीर कन्या के रूप में वर्णन करते हैं...

      देखें निम्न श्लोक ...

       नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका ।
       नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया ॥ ८१ ॥
      ~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

      उपर्युक्त श्लोक में नन्द जी की प्रिय पुत्री होने से नन्द प्रिया दुर्गा का ही विशेषण है ...

      नन्दजा नवरत्‍नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।
       नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिःस्वना ॥८६
       ~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

      उपर्युक्त श्लोक में भी नन्द की पुत्री होने से दुर्गा को नन्दजा (नन्देन सह यशोदायाञ् जायते  इति नन्दजा) कहा गया है ..

      यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी ।
       यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्‍भवा॥१३१॥
       ~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

      उपर्युक्त श्लोक में दुर्गा देवी यदुवंश में नन्द आभीर के  घर  यदुवंश में जन्म लेने से (यदुवंशसमुद्भवा) कहा है जो यदुवंश में अवतार लेती हैं 

      नीचे मार्कण्डेय पुराण से श्लोक उद्धृत हैं
      जिनमे दुर्गा को यादवी कन्या कहा है:-

      वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
      शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥३८॥
      नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
      ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥३९॥
      ~मार्कण्डेयपुराणम्/अध्यायः ९१

      अट्ठाईसवें युग में वैवस्वत मन्वन्तर के प्रगट होने पर जब दूसरे शुम्भ निशुम्भ दैत्य उत्पन्न होंगे तब मैं नन्द गोप के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर उन दोनों(शुम्भ और निशुम्भ) का नाश करूँगी और विन्ध्याचल पर्वत पर रहूंगी।

      मार्कण्डेय पुराण के मूर्ति रहस्य प्रकरण में आदि शक्ति की छः अंगभूत देवियों का वर्णन है उसमे से एक नाम नंदा का भी है:-
      इस देवी की अंगभूता छ: देवियाँ हैं –१- नन्दा, २-रक्तदन्तिका, ३-शाकम्भरी, ४-दुर्गा, ५-भीमा और ६-भ्रामरी. ये देवियों की साक्षात मूर्तियाँ हैं, इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने से इस प्रकरण को मूर्तिरहस्य कहते हैं...

      दुर्गा सप्तशती में देवी दुर्गा को स्थान स्थान पर नंदा और नंदजा कहकर संबोधित किया है जिसमे की नंद आभीर की पुत्री होने से देवी को नंदजा कहा है-
       "नन्द आभीरेण जायते इति देवी नन्दा विख्यातम्"
                        ऋषिरुवाच
      'नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा।
      सा स्तुता पूजिता ध्याता वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥१॥
      ~श्रीमार्कण्डेय पुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
      मूर्तिरहस्यं

      अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् ! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली है, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं|

      आप को बता दें गर्ग संहिता, पद्म पुराण आदि ग्रन्थों में नन्द को आभीर कह कर सम्बोधित किया है:-

      महाभारत के विराट पर्व में दुर्गा को शक्ति की अधिष्ठात्री देवता कह कर सम्बोधित तिया गया है।
       
      महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14
      (पाण्डवप्रवेश पर्व)
      श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-
      युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

      वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधिष्ठात्री दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।
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      उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।  "उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है।
      कवि पुरुरवा है रोहि !
           कविता उसके उरवशी
      हृदय सागर की अप्सरा ।
              संवेदन लहरों में विकसी।।
      प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी ही है।
      क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
      ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में  सबसे प्राचीन प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
      सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गयी हो।
      "प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
      कवि बनने का बस उसका ही सौभाग्य है।।
      उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
      और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (घोष) के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
      "कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं।

      इसी प्रकार गायत्री को ब्राह्मण कन्या सिद्ध करने के लिए कहीं उन्हें गाय के मुख में डालकर पिछबाड़े ( गुदाद्वार) से निकालने की काल्पनिक कथा बनायी गयी तो कहीं गोविल और गोविला के नाम से उनके माता पिता को अहीरों के वेष में रहने वाला ब्राह्मण दम्पति बनाने की काल्पनिक कथा बनायी गयी ।
      लक्ष्मीनारायण संहिता में गायत्री के विषय में उपर्युक्त काल्पनिक कथा को बनाया गया है कि उनके माता पिता अभीर वेष में ब्राह्मण ही थे।
      इसी क्रम में "लक्ष्मी-नारायणसंहिता कार नें  अहीरों की कन्या उर्वशी की एक काल्पनिक कथा उसके पूर्व जन्म में "कुतिया" की यौनि में जन्म लेने से सम्बन्धित लिखकर जोड़ दी।
      जबकि उर्वशी को मत्स्य पुराण में कठिन व्रतों का अनुष्ठान करनी वाली अहीर कन्या लिखा जो स्वर्ग और पृथ्वी लोक में सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बनी ।
      इसी सन्दर्भ में हम यादव योगेश कुमार रोहि उर्वशी का मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं।
      _____________________________________                    "कृष्ण उवाच"
      "त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
      सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।५८।
      अनुवाद:- भगवान कृष्ण ने भीम से कहा:-
      वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८। बात उस समय की है जब 
      एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्तु स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है। 

      "या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते।
      त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।५९।
      अनुवाद:-प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में  इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।

      यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६०।
      अनुवाद:-इसका स्मरण और कीर्तन मात्र करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मनुष्य देवों के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त करता है।६०।
      ______________________________
      कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
      आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।

      जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
      तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
      _______________________________
      मत्स्यपुराण अध्याय-★
         (भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
      ______________________
      अनुवाद-
      जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस  (कल्याणनी )व्रत अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की  देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।

      इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।

      इस समस्त सृष्टि में व्रत तपस्या का एक कठिन रूपान्तरण है। तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है।

      भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में तप के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा-

                        मूल श्लोकः
      मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
      भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।
      अनुवाद:-मनकी प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मनका निग्रह और भावोंकी शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
      ________
      "अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।17.15।
      जो वचन किसी प्राणी के अन्तःकरण में उद्वेग दुःख उत्पन्न करने वाले नहीं हैं ? तथा जो सत्य ? प्रिय और हितकारक हैं अर्थात् इस लोक और परलोकमें सर्वत्र हित करने वाले हैं ? यहाँ उद्वेग न करने वाले इत्यादि लक्षणों से वाक्य को विशेषित किया गया है और "च" पद सब लक्षणों का समुच्चय बतलाने के लिये है (अतः समझना चाहिये कि ) दूसरेको किसी बात का ज्ञान कराने के लिये कहे हुए वाक्य में यदि सत्यता? प्रियता? हितकारिता और अनुद्विग्नता -- इन सबका अथवा इनमें से किसी एक? दो या तीनका अभाव हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है। जैसे सत्य वाक्य यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है? वैसे ही प्रिय वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है? तथा हितकारक वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है। 
      "उद्वेग को जन्म न देनेवाले, यथार्थ, प्रिय और हितकारक वचन (बोलना), (शास्त्रों का) स्वाध्याय और अभ्यास करना, यह वाङमयीन तप है ।
      ______________________
      अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
      भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।10/5।
      अहिंसा -- प्राणियोंको किसी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना? समता -- चित्तका समभाव ? संतोष -- जो कुछ मिले उसी को यथेष्ट समझना? तप -- इन्द्रियसंयमपूर्वक शरीर को सुखाना( पवित्र करना ? दान -- अपनी शक्तिके अनुसार धनका विभाग करना ( दूसरोंको बाँटना ) जो वास्तव में दीन और हीन हैं।? यश -- धर्मके निमित्तसे होनेवाली कीर्ति? अपयश -- अधर्मके निमित्तसे होनेवाली अपकीर्ति। इस प्रकार जो प्राणियोंके अपने अपने कर्मों के अनुसार होने वाले बुद्धि आदि नाना प्रकारके भाव हैं ? वे सब मुझ ईश्वर से ही होते हैं।

      देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
      ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।17/14।
      अनुवाद:-
      अब तीन प्रकार का तप कहा जाता है --, देव? द्विज ? गुरु और  बुद्धिमान  इन सबका पूजन ? शौच -- पवित्रता ? आर्जव -- सरलता ? ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह सब शरीरसम्बन्धी -- शरीर द्वारा किये जानेवाले तप कहे जाते हैं ।

      आभीर  लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही भगवान् विष्णु द्वारा सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
      और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
      पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक  हैं जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति के उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरोम को दी है।

      "धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
      मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
      ___________________________________
      अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
      युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

      अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
      यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
      अनुवाद -
      विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
      हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा( अवतारं करिष्येहं  ) और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
       शास्त्र में लिखा है कि  वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है। 
      गायत्री  ज्ञान की अधिष्ठात्री हुईं तो इनके अतिरिक्त सौन्दर्य की अधिष्ठात्री उर्वशी जो अप्सराओं की अधिकारिणी थी।
      आभीर कन्या हीं थी यह भी मत्स्यपुराण में वर्णन है।

      "ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
      इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

      "इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
      अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥
      सायण-भाष्य"-
      अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति= उस निषंग से वाण फैकने के लिए मैं समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं  (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् = नहीं होसकता। तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति  “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्।

      पुरुरवा : हे उर्वशी ! कहीं बिछड़ने से मुझे इतना दु:ख होता है कि तरकश से एक तीर भी छूटता नहीं है। मैं अब सैकड़ों गायों की सेवा अथवा पालन के लिए सक्षम नहीं हूं। मैं राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया हूं और इसलिए मेरे योद्धाओं के पास भी अब कोई काम नहीं रहा।
      विशेष:-गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
      वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवक" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।

       "जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः ।
      अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥

      सायण-भाष्य"-
      “इत्था= इत्थं = इस प्रकार  इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह । हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि । "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।
      ___________
      सतयुग में वर्णव्यवस्था नहीं थी परन्तु एक ही वर्ण था । जिसे हंस नाम से शास्त्रों में वर्णन किया गया है। परन्तु आभीर लोग सतयुग में भी विद्यमान थे 
      जब ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ था ।
      कालान्तर में भी वर्णव्यवस्था का आधार गुण और मनुष्य का कर्म ही था।
      गुणकर्मानुसार वर्णविभाग ही भगवान का जाननेका मार्ग है-
      "चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।         तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥१६॥
      ( श्रीमद्भगवद्गीता- ४/१३)
      अनुवाद:-
      गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं। मैं सृष्टि आदिका कर्त्ता होने पर भी मुझे अकर्ता और अव्यय ही जानना अर्थात् वर्ण और आश्रम धर्म की रचना  मेरी बहिरङ्गा प्रकृति के द्वारा ही हुई है। मैं अपने आपमें इन सब कार्यों से तटस्थ रहता हूँ॥१६॥
      ________________________________

      प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।
      "आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥

      "त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी।       विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥

      विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।      वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥
      (श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)
      अनुवाद:-
      (भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है।  हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों  के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥

      पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से  ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-

      महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है
      "न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
      अनुवाद:-
      भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥

      साहित्य और पुराण में उर्वशी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति रही है। स्वर्ग की इस अप्सरा की उत्पत्ति नारायण की जंघा से मानी जाती है। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह स्वर्ग की सर्वसुंदर अप्सरा थी। एक बार इंद्र की राजसभा में नाचते समय वह राजा पुरुरवा के प्रति क्षण भर के लिए आकृष्ट हो गई। 
      इस कारण उनके नृत्य का ताल बिगड़ गया। इस अपराध के कारण राजा इंद्र ने रुष्ट होकर उसे मृत्युलोक में रहने का अभिशाप दे दिया।
       मर्त्य लोक में उसने पुरु को अपना पति चुना किंतु शर्त यह रखी कि वह पुरु को नग्न अवस्था में देख ले या पुरुरवा उसकी इच्छा के प्रतिकूल समागम करे अथवा उसके दो मेष स्थानांतरित कर दिए जाएं तो वह उनसे संबंध विच्छेद कर स्वर्ग जाने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी। 
      ऊर्वशी और पुरुरवा बहुत समय तक पति पत्नी के रूप में साथ-साथ रहे। 
      इनके नौ पुत्र आयु, अमावसु, श्रुतायु, दृढ़ायु, विश्वायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए। 
      दीर्घ अवधि बीतने पर गंधर्वों को ऊर्वशी की अनुपस्थिति अप्रिय प्रतीत होने लगी। गंधर्वों ने विश्वावसु को उसके मेष चुराने के लिए भेजा। उस समय पुरुरवा नग्नावस्था में थे।
      आहट पाकर वे उसी अवस्था में विश्वाबसु को पकड़ने दौड़े। अवसर का लाभ उठाकर गंधर्वों ने उसी समय प्रकाश कर दिया।
       जिससे उर्वशी ने पुरुरवा को नंगा देख लिया। आरोपित प्रतिबंधों के टूट जाने पर ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा को छोड़कर स्वर्ग लोक चली गई।
      महाकवि कालीदास के संस्कृत महाकाव्य विक्रमोर्वशीय नाटक की कथा का आधार यही प्रसंग है। 
      कालान्तर में इन कथाओं में कवियों का पूर्वाग्रह और कल्पना का भी समावेश हुआ।

      उर्वशी और पुरुरवा।

      ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 41 सूक्त के 21वीं ऋचा में इस प्रकार वर्णन है
       - अभि न इला यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु । 
      उर्वशी वा बृहदिवा गृणानाभ्यूण्वाना प्रभूथस्यायो: ॥१९ ॥ 

      अर्थ - गौ समूह की पोषणकत्री इला और उर्वशी,  नदियों की गर्जना से संयुक्त होती है वे हमारी स्तुतियों को सुनें । अत्यन्त दीप्तिमती उर्वशी हमारी स्तुतियों से प्रशंसित होकर हमारे यज्ञादि कर्म को सम्यक्रूप से आच्छदित कर हमारी हवियों को ग्रहण करें।
       जिसमे इला और उर्वशी को अभि ( संस्कृत में अभीर का स्त्रीलिंग ) कहकर कर उच्चारित किया है। इस अभि शब्द का अनुवाद डॉ गंगा सहाय शर्मा और ऋग्वेद संहिता  ने गौ समूह को पालने वाली बताया है।
      सन्दर्भ
      हिंदी साहित्य कोश, भाग-२, पृष्ठ- ५५
      पुराणों में उर्वशी के आभीर कन्या होने के सन्दर्भ हैं। यद्यपि पूर्व में हम सन्दर्भ दे चुके हैं 
      परन्तु प्रासंगिक रूप से यहाँ भी प्रस्तुत है।
      ___________________________
      "कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
      आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।

      "जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
      तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
      _______________________________
      मत्स्यपुराण अध्याय-★
         (भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
      ______________________
         अनुवाद-
      जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत ( ) का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की  देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी ( स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।
      इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।

      पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ में स्पष्ट वर्णन है। इस पुराण मेंप्राचीन भारतीय समाज, परम्पराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थयात्राओं के पवित्र स्थानों अर्थात्‌ (तीर्थों) का विवरण दिया गया है।  पद्म पुराण के सृष्टि-खण्ड का सोलहवाँ अध्याय प्रस्तुत है।, 
      गायत्री माता के विवाह काल में सप्तर्षि  अत्रि, पुलस्त्य आदि तथा उनकी पत्नियां भी उपस्थित थीं।  अत्रि मरीचि के साथ उद्गाता के रूप में सहायक थे ।  जब सावित्री ने सभी देवताओं और देवपत्नीयों को शाप दिया था तब सप्तर्षि गण और उनकी पत्नीयाँ भी सावित्री के शाप का भाजन बनी थी तभी सावित्री द्वारा प्रदत्त शाप का निवारण  आभीर कन्या गायत्री माता ने किया था । और सबको इसके प्रतिकार में  वरदान भी दिया था।

      अर्थात् शाप को वरदान में बदल दिया था। इसी दौरान गायत्री ने अत्रि को भी वरदान दिया कि वे यह आभीर जाति के गोत्रप्रवर्तक सिद्ध हों। गायत्री विवाह में उपस्थित सभी सभासद गायत्री के कृपा पात्र हुए थे यह शास्त्रों प्रसिद्ध ही है। 
      _____
      अत्रि गोत्र अहीरों का गायत्री माता को वरदान स्वरूप प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि अत्रि से चन्द्रमा और चन्द्रमा से बुध के उत्पन्न होने की परिकल्पना परवर्ती है । जो प्रक्षेप होने से प्रमाणित नहीं है।
      यद्यपि अत्रि की उत्पत्ति किन्हीं ग्रन्थों में दोनों कानों से ( श्रोत्राभ्यामत्रिं ।5।-श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।)
      "सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
      तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
      विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायःका द्वितीय- तृतीय श्लोक)
      अनुवाद:- ब्रह्मा से अत्रि उत्पन्न हुए और उनके दौनों नेत्रों से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ।
      चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों कई सिद्धान्त हैं।
      अत्रि की पत्नी  कर्दममुनिकन्या अनसूया थी ।
      _______________________
      श्लोक  9.14.3  भागवतपुराण-
      "तस्य द‍ृग्भ्योऽभवत् पुत्र: सोमोऽमृतमय: किल ।
      विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पित: पति: ॥३॥
       
      शब्दार्थ:-तस्य—उस अत्रि के; दृग्भ्य:—नेत्रों से; अभवत्—उत्पन्न हुआ; पुत्र:—पुत्र; सोम:—चन्द्रमा; अमृत-मय:—अमृत से युक्त ; किल—निस्सन्देह; विप्र—ब्राह्मणों का; ओषधि—दवाओं का; और उडु-गणानाम्—तारों का; ब्रह्मणा—ब्रह्मा द्वारा; कल्पित:—नियुक्त किया गया; पति:—परम निदेशक, संचालक स्वामी( रक्षक) "पा--डति पाति रक्षयति इति पति- । १ भर्त्तरि ३ स्वामिनि ।.

      अनुवाद:-अत्रि के नेत्रों से सोम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो अमृतयुक्त था । ब्रह्माजी ने उसे ब्राह्मणों, ओषधियों तथा नक्षत्रों (तारों) का पति  नियुक्त किया।
      तात्पर्य:- वेदों के अनुसार सोम या चन्द्रदेव की उत्पत्ति भगवान् के मन से हुई (चन्द्रमा मनसोजात: ), किन्तु यहाँ पर सोम को अत्रि के अश्रुओं से उत्पन्न बतलाया गया है। यह वैदिक सिद्धान्त के विपरीत प्रतीत होता है,
      "अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ् जज्ञे सुयशस: सुतान्।
      दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मसम्भवान् ।
      इस श्लोक से पता चलता है कि अत्रि-पत्नी अनसूया के गर्भ से तीन पुत्र उत्पन्न हुए—सोम, दुर्वासा तथा दत्तात्रेय।
       
      ____________
      वैश्वास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्भ्यां समुद्गताः ।
      आक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ॥ १,१२.६२ ॥ 
      विष्णुपुराण (प्रथमाञ्श बारहवाँ अध्याय-)
      विष्णु पुराण में चन्द्रमा की उत्पत्ति ब्रह्मा के मन से बतायी है।
      पद्मपुराण में ही वर्णन है कि चन्द्रमा का  जन्म  समुद्र से हुआ। 
      ततः शीतांशुरभवद्देवानां प्रीतिदायकः।
      ययाचे शंकरो देवो जटाभूषणकृन्मम।५२।
      भविष्यति न संदेहो गृहीतोयं मया शशी।
      अनुमेने च तं ब्रह्मा भूषणाय हरस्य तु।५३।

      श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखण्डे लक्ष्म्युत्पत्तिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः४।

      अक्ष्णोः सूर्योनिलः श्रोत्राच्चंद्रमा मनसस्तव।
      प्राणोंतः सुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत।११९।

      नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्त्तत।
      दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम्।१२०। 
      सन्दर्भ:- (पद्मपुराण प्रथमसृष्टिखण्ड अध्याय चतुर्थ) और 
      विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १२ -में भी यही श्लोक 119-120 संख्या पर हैं।
      __________________
      अनुवाद:-
      तब देवताओं को प्रसन्न करने वाला चन्द्रमा उत्पन्न होकर ऊपर आ गया। भगवान शंकर ने याचना की: “(यह) चंद्रमा निस्संदेह मेरे जटाओं का आभूषण होगा; मैंने उसे ले लिया है''। ब्रह्मा ने उन का आभूषण होने पर सहमति व्यक्त की । ५२-५३।
      _________    
      ततः शतसहस्रांशुर्मथ्यमानात्तु सागरात्।
      प्रसन्नात्मा समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वलः।।48।
      अनुवाद :-फिर तो उस महासागर से अनन्त किरणों बाले सूर्य के समान तेजस्वी, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेत वर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ।48।
      श्रीमन्महाबारते आदिपर्वणि
      आस्तीकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।।18 ।।
      _______________________________
      शशिसूर्यनेत्रं इत्यपि अहं क्रतुः [9।16] 
      इत्यादिवत्। तदङ्गजाः सर्वसुरादयोऽपि तस्मात्तदङ्गेत्यृषिभिः स्तुतास्ते इत्यृग्वेदखिलेषु।
      ______ 

      ऋग्वेद 10.90.13

      च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षो॒: सूर्यो॑ अजायत । मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत॥

      पद पाठ:-चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥

      अनुवाद:

      “चंद्रमा उनके मन से पैदा हुआ था; सूरज उसकी आँख से पैदा हुआ था; इन्द्र और अग्नि उसके मुख से उत्पन्न हुए, वायु उसकी श्वास से।"

      च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षोः॒ सूर्यो॑ अजायत। मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥ अथर्ववेद- 9/6/7

      नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
      पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकान् अकल्पयन् ॥ यजुर्वेद- ३१।१२-१३ ॥

      अर्थात् परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से अन्य सूर्य जैसे प्रकाश-युक्त तारागण, दो चरणों से भूमि, श्रोत्र से दिशाएं, और इसी प्रकार सब लोक उत्पन्न हुए।
       यहां एक बात विशेष है - श्रोत्र को तो बार कहा गया है । 
      पहले मन्त्र में उससे वायु और प्राण की उत्पत्ति कही गयी है; दूसरे मन्त्र में उससे दिशाओं की उत्पत्ति बताई गयी है । यह एक संकेत है, कि यह उपमा केवल परमात्मा का आलंकारिक चित्र खींचने के लिए नहीं है, अपितु उससे कुछ महत्त्वपूर्ण विषय बताया जा रहा है

      परन्तु गायत्री माता का गोत्र अत्रि नहीं था ये भी आभीर कन्या थीं ।
      सभी अहीरों ने जब विष्णु भगवान से अपनी जाति में अवतरित होने का वरदान माँगा था तब विष्णु तथास्तु कह कर उनके स्वीकृति की पुष्टि की -
      ______________
      पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
      जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
      जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।

      इस लिए अत्रि ऋषि के विषय में अवान्तर कथाऐं सृजन की गयी ं।

      "गायत्री के विवाह काल में सप्तर्षि में अत्रि आदि ऋषियों और उनकी पत्नी अनुसूया आदि की उपस्थिति से सम्बन्धित कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत करना अपेक्षित है। 
      अत्रि और चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों में ही भिन्न भिन्न सन्दर्भ और प्रकरण हैं । इस लिए यादवों के प्रमाणभूत पूर्वज पुरुरवा  को माना जाता है। जिनका वर्णन ऋग्वेद में है।

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      जब एक बार महात्मा (ब्रह्मा) ने भी यज्ञ के संचालन के लिए पुरोहितों को चुना। तो भृगु को ऋग्वेद की ऋचाओं को पढ़ने वाले आधिकारिक पुजारी के रूप में चयनित किया गया था ; पुलस्त्य को सर्वश्रेष्ठ अध्वर्यु  पुरोहित के रूप में चुना गया था। और मरीचि को उद्गाता के रूप में चुना गया था जो सामवेद के ऋचाओं का जाप करने वाला ) और नारद को चुना गया था ब्रह्मा( वेदविहित कर्मों का सम्पादक एक ऋत्विक ।
      सनत्कुमार और अन्य सदस्य यज्ञ सभा के सदस्य थे। 
      इसलिए दक्ष जैसे प्रजापति और ब्राह्मणों से पहले की जातियाँ (यज्ञ में शामिल हुए); ब्रह्मा के पास पुजारियों के (बैठने की) व्यवस्था की गई थी।
      कुबेर ने उन्हें वस्त्र और आभूषणों से विभूषित किया. ब्राह्मणों को कंगन और पट्टिका के साथ-साथ अंगूठियों से सजाया गया था। ब्राह्मण चार, दो और दस (इस प्रकार कुल मिलाकर) सोलह थे। 

      उन सभी को ब्रह्मा ने नमस्कार के साथ पूजा की थी। (उन्होंने उनसे कहा): “हे ब्राह्मणों, इस यज्ञ के दौरान तुम्हें मुझ पर अनुग्रह करना चाहिए; यह मेरी पत्नी गायत्री है; तुम मेरी शरण हो।
       विश्वकर्मन को बुलाकर , ब्राह्मणों ने ब्रह्मा का सिर मुंडवा दिया, जैसा कि एक यज्ञ में (प्रारंभिक रूप में) निर्धारित किया गया था। ब्राह्मणों ने युगल (अर्थात् ब्रह्मा और गायत्री) के लिए चर्म के कपड़े भी (सुरक्षित) किए। ब्राह्मण वहीं रह गए (अर्थात् ब्राह्मणों ने वेदों के उच्चारण से) आकाश को गुञ्जायमान कर दिया; क्षत्रिय इस संसार की रक्षा करने वाले शस्त्रों के साथ वहीं उपस्थित हो गये ; वैश्य _विभिन्न प्रकार के भोजन तैयार किए उपस्थित हो गये।;
       उत्तम स्वाद से भरपूर भोजन और खाने की वस्तुएँ भी तब बनती थीं; जिसे  पहले अनसुना और अनदेखा माना जाता था उसे सुनकर और देखकर, ब्रह्मा प्रसन्न हुए; भगवान, निर्माता, ने वैश्यों को प्रागवाट नाम दिया। (ब्रह्मा ने इसे नीचे रखा:) 'यहाँ शूद्रों को हमेशा ब्राह्मणों के चरणों की सेवा करनी पड़ती है;।
      उन्हें अपने पैर धोने होंगे, उनके द्वारा (अर्थात् ब्राह्मणों) से जो कुछ बचा है उसे खाना होगा और (जमीन आदि) को साफ करना होगा। उन्होंने भी वहाँ (ये बातें) कीं; फिर उनसे फिर कहा, “मैंने आपको ब्राह्मणों, क्षत्रिय भाइयों और आप जैसे (अन्य) भाइयों की सेवा के लिए चौथे स्थान पर रखा है ; आपको तीनों की सेवा करनी है ”। ऐसा कहकर ब्रह्मा ने शंकर को और इन्द्र को द्वार-अधीक्षक के रूप में, भी नियुक्त किया । पानी देने के लिए वरुण, धन बांटने के लिए कुबेर, सुगंध देने के लिए पवन , प्रकाश के लिए सूर्य और विष्णु (मुख्य) अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए ।
      _______
      (सोम के दाता चंद्रमा ने बाईं ओर के मार्ग का सहारा लिया।
      ______
      उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
      सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

      सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
      अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

      उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
      व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

      इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
      भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

      प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
      लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

      अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
      वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

      ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
      मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।
      ___________________    
      गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
      इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

      अरुन्धती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
      अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।
      _______________      
      वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
      नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

      नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
      ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

      सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
      सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

      भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
      वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।
      ______________________

      अनुवाद:-
      112-125। सावित्री, उनकी खूबसूरत पत्नी, जो अच्छी तरह से सम्मानित थीं, को अध्वर्यु ने आमंत्रित किया था : "श्रीमती, जल्दी आओ, सभी आग उगल चुकी हैं (अर्थात् अच्छी तरह से जल चुकी हैं), दीक्षा का समय आ गया है।" परन्तु किसी काम में मग्न वह फुर्ती से नहीं आई, जैसा कि आमतौर पर महिलाओं के साथ होता ही है। “ सावित्री ने कहा:- मैंने यहाँ, द्वार पर कोई साज-सज्जा नहीं की है; मैंने दीवारों पर चित्र भी नहीं बनाए हैं; मैंने प्रांगण में स्वस्तिक  नहीं बनाया है और यहां बर्तनों की सफाई तक नहीं की गई है।
       लक्ष्मी , जो नारायण की पत्नी हैं, वह भी अभी तक नहीं आई हैं। और अग्नि की पत्नी स्वाहा  धूम्रोर्णा, यम की पत्नी; वरुण की पत्नी गौरी; ऋद्धि जोकि कुबेर की पत्नी; गौरी, शंभु की पत्नी, अभी तक कोई नहीं आयी है।  इसी तरह मेधा , श्रद्धा , विभूति , अनसूया , धृति , क्षमा और गंगा तथा सरस्वती नदियाँ भी अभी तक नहीं आई हैं। इन्द्र पत्नी इन्द्राणी( शचि) , और चंद्रमा की पत्नी रोहिणी ,जो  चंद्रमा को प्रिय है।
       इसी तरह अरुंधती, वशिष्ठ की पत्नी; इसी तरह सात ऋषियों की पत्नियां, और अनसूया, अत्रिकी पत्नी और अन्य स्त्रियाँ, बहुएँ, बेटियाँ, सहेलियाँ, बहनें अभी तक नहीं आई हैं। 
      _________________
      मैं अकेला ही बहुत दिनों से यहां (उनकी प्रतीक्षा में) पड़ी हूं। मैं अकेली तब तक न जाऊँगी जब तक वे स्त्रियाँ न आ जाएँ।  जाओ और ब्रह्मा से थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कहो।

       मैं सब (उन देवियों) को लेकर शीघ्रता से आऊँगी ; हे उच्च बुद्धि वाले, आप देवताओं से घिरे हुए हैं, महान कृपा प्राप्त करेंगे; तो मैं भी करूंगी; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।" उसे इस तरह बात करते हुए छोड़कर अध्वर्यु वहाँ से  ब्रह्मा के पास पुन: आया।

      ________
      यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह।
      तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।
      अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना।
      अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।
      अनुवाद:-जैसे यह देवता, देवों का स्वामी, जो निश्चय ही अजर और अमर है, वैसे ही स्वर्ग भी उसके लिए अक्षय है। महान ने अन्य देवताओं को भी स्वर्ग (में स्थान) प्रदान किया है। वेद और जड़ी-बूटियाँ अग्नि में आहुति देने के लिए आई हैं।

      तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्।
      यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।
      _____________________________________
      ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्।
      सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।
      अनुवाद:-
      वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि पृथ्वी पर जो भी अन्य जानवर हैं (देखे गए हैं) वे सभी इस भगवान द्वारा बलिदान ( यज्ञ) के लिए बनाए गए हैं। 
      आपके इन वचनों को सुनकर मुझे इस विषय में एक जिज्ञासा हुई है। किस इच्छा, किस फल और किस विचार से उसने यज्ञ किया, वह सब मुझे बताओ।
      कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि।
      शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते।१०।
      भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा।
      पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापतीन्।११।
      अनुवाद:-
      यहाँ कहा गया है कि सौ रूपों वाली शतरूपा- महिला और  सावित्री उन्हें ब्रह्मा की पत्नी और ऋषियों की माता कहा जाता है।
       सावित्री ने पुलस्त्य और अन्य जैसे सात ऋषियों को जन्म दिया और सृजित प्राणियों के स्वामी जैसे दक्ष को भी जन्म दिया ।
      नीचे शिवपुराण का वर्णन है कि

      शिवपुराणम्‎  संहिता २ -(रुद्रसंहिता)‎ | खण्डः १- (सृष्टिखण्डः)
                         "ब्रह्मोवाच"
      शब्दादीनि च भूतानि पंचीकृत्वाहमात्मना ।।
      तेभ्यः स्थूलं नभो वायुं वह्निं चैव जलं महीम् ।१ ।

      पर्वतांश्च समुद्रांश्च वृक्षादीनपि नारद।।
      कलादियुगपर्येतान्कालानन्यानवासृजम् ।।२।।

      सृष्ट्यंतानपरांश्चापि नाहं तुष्टोऽभव न्मुने ।।
      ततो ध्यात्वा शिवं साम्बं साधकानसृजं मुने।३।

      मरीचिं च स्वनेत्राभ्यां हृदयाद्भृगुमेव च ।।
      शिरसोऽगिरसं व्यानात्पुलहं मुनिसत्तमम् ।४।
      अनुवाद:-  ब्रहमा ने कहा कि मेैंने मरीचि को अपने दोनों नेत्रों से भृगु को हृदय से अंगिरस को शिर से पुलह को व्यान ( नामक प्राण) से 
      उदानाच्च पुलस्त्यं हि वसिष्ठञ्च समानतः ।।
      क्रतुं त्वपानाच्छ्रोत्राभ्यामत्रिं दक्षं च प्राणतः।५।
      अनुवाद:- उदान( वायु ) से पुलस्त्य और वशिष्ठ को समान वायु से उत्पन्न किया है। और क्रतु को अपान वायु (पाद) से दोनों कानों से अत्रि ऋषि को उत्पन्न किया और प्राणों से दक्षप्रजापति-।
      असृजं त्वां तदोत्संगाच्छायायाः कर्दमं मुनिम् ।।
      संकल्पादसृजं धर्मं सर्वसाधनसाधनम् ।।६।।
      अनुवाद:- उत्संग ( गोद ) की छाया से कर्दममुनि संकल्प से धर्म और सब साधन उत्पन्न किए ।
      एवमेतानहं सृष्ट्वा कृतार्थस्साधकोत्तमान् ।।
      अभवं मुनिशार्दूल महादेवप्रसादतः ।।७।।
      अनुवाद:- इस मैंने उत्तम- साधकों को यह सब रचकर उन्हें कृतार्थ किया। हे मुनि श्रेष्ठ यह सब महादेव की कृपा से हुआ।

      ततो मदाज्ञया तात धर्मः संकल्पसंभवः ।।
      मानवं रूपमापन्नस्साधकैस्तु प्रवर्तितः ।।८।।
      तत्पश्चात मेरी आज्ञा से धर्म संकल्प उत्पन्न हुआ। और मानव रूप को प्राप्त साधक प्रवर्त हो गये 
      ततोऽसृजं स्वगात्रेभ्यो विविधेभ्योऽमितान्सुतान् 
      सुरासुरादिकांस्तेभ्यो दत्त्वा तां तां तनुं मुने ।९।
      तत्पश्चात् अपने शरीर से विभिन्न सन्तानें उत्पन्न की सुर और असुर आदि को विभिन्न शरीर प्रदान किए गये ।
      इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।
      _______________     

      परन्तु महाभारत के आदिपर्व के 66वें अध्याय में वर्णन है 
      ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा विदिताः षण्महर्षयः।
      मरीचिरत्र्यह्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।1-66-10
      अनुवाद:-कि ब्रह्मा के मन से छ: महर्षि पुत्र रूप में उत्पन्न हुए १-मरीचि २-अत्रि ३-अंगीरस ४-पुलस्त्य ५-पुलह और ६-क्रतु ।
      मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः।
      प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश।1-66-11
      अनुवाद:- मरीचि से कश्यप पुत्र रूप में उत्पन्न हुए और कश्यप से ये सम्पूर्ण प्रजा उनकी तैरह पत्नीयों (दक्ष की पुत्रीयों ) से उत्पन्न हुई ।
      महाभारत आदिपर्व 66 वाँ अध्याय-

      श्रीमद्भागवतपुराण स्कन्धः 9-अध्यायः 14
      चंद्रवंशवर्णनं, बुधस्य जन्म, तस्मान्मनुपुत्र्यामिलायां जातस्य पुरूरवस उपाख्यानं च -
      _______________________________
                      श्रीशुक उवाच !
      अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः। यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः॥१॥

      सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात्।
      जातस्यासीत् सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥

      तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल। 
      विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
      ____________________
      सोऽयजद् राजसूयेन विजित्य भुवनत्रयम् ।
      पत्‍नीं बृहस्पतेर्दर्पात् तारां नामाहरद् बलात् ॥४॥

      यदा स देवगुरुणा याचितोऽभीक्ष्णशो मदात् ।
      नात्यजत् तत्कृते जज्ञे सुरदानवविग्रहः॥५॥

      शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषाद् अग्रहीत् सासुरोडुपम् ।
      हरो गुरुसुतं स्नेहात् सर्वभूतगणावृतः ॥६॥

      सर्वदेवगणोपेतो महेन्द्रो गुरुमन्वयात् ।
      सुरासुरविनाशोऽभूत् समरस्तारकामयः ॥७॥

      निवेदितोऽथाङ्‌गिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत् ।
      तारां स्वभर्त्रे प्रायच्छद् अन्तर्वत्‍नीमवैत् पतिः॥८॥

      त्यज त्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रात् आहितं परैः।
      नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सान्तानिकः सति॥९॥
      ___________________
       तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम् ।
       स्पृहामाङ्‌गिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च ॥१०॥
      __________
       ममायं न तवेत्युच्चैः तस्मिन् विवदमानयोः ।
       पप्रच्छुः ऋषयो देवा नैवोचे व्रीडिता तु सा ॥११॥
      ______________________
       कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया ।
       किं न वोचस्यसद्‌वृत्ते आत्मावद्यं वदाशु मे ॥ १२।

      ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सान्त्वयन् ।
      सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत्॥१३॥

      तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप ।
      बुद्ध्या गम्भीरया येन पुत्रेणापोडुराण्मुदम् ।।
      ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः।
      तस्य रूपगुणौदार्य शीलद्रविणविक्रमान् ॥१५॥

       श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान् सुरर्षिणा ।
       तदन्तिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता ॥१६॥
      __________   

      नवम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्याय: अध्याय

      श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद:-

      चन्द्र वंश का वर्णन
      श्रीशुकदेव जी कहते हैं-
      परीक्षित! अब मैं तुम्हें चन्द्रमा के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंश में पुरुरवा आदि बड़े-बड़े पवित्र कीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है।
      ____________________________________

      सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात्।
      जातस्यासीत् "सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
      तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
      विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
      अनुवाद:-
      सहस्रों सिर वाले विराट् पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। 
      ____________________
      उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानवों में घोर संग्राम छिड़ गया।

      शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।

      तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ‘दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे।
      डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’। अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाये। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा- ‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमा का।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया।

      परीक्षित! ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।

      एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरुरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरुरवा के पास चली आयी।
      ऋग्वेद में भी पुरुरवा उर्वशी का मिलन और संवाद है ।

      ऋग्वेदः सूक्तं १०.९५
       ऋग्वेदः - मण्डल 10- सूक्त 95  एल- पुरुरवा और उर्वशी का मिलन की कथा- -१०

      हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु ।
      न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन् ॥१॥

      किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
      पुरूरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि॥२॥

      पदार्थ

      (एता वाचा) इस मन्त्रणा वाणी से (किं कृणव) क्या करें-क्या करेंगे (तव-अहम्) तेरी मैं हूँ (उषसाम्) प्रभात ज्योतियों की (अग्रिया-इव) पूर्व ज्योति जैसी (प्र अक्रमिषम्) चली जाती हूँ-तेरे शासन में चलती हूँ (पुरूरवः) हे बहुत प्रकार से उपदेश करनेवाले पति (पुनः-अस्तम्-परा इहि) विशिष्ट सदन या शासन को प्राप्त कर (वातः-इव) वायु के समान (दुरापना) अन्य से दुष्प्राप्य (अहम्-अस्मि) मैं प्राप्त हूँ ॥२॥

      इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
      अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥

      पदार्थ

      (इषुधेः) इषु कोश से (असना) फेंकने-योग्य-फेंका जानेवाला (इषुः) बाण (श्रिये न) विजयलक्ष्मी गृहशोभा के लिए समर्थ नहीं होता है, तुझ भार्या तुझ प्रजा के सहयोग के बिना, (रंहिः-न) मैं वेगवान् बलवान् भी नहीं बिना तेरे सहयोग के (गोषाः-शतसाः)सैकड़ो गायों का सेवक  (अवीरे) तुझ वीर पति से रहित  अबले! (उरा क्रतौ) विस्तृत यज्ञकर्म में (न विदविद्युतत्) मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता बिना तेरे सहयोग के (धुनयः) शत्रुओं को कंपानेवाले हमारे सैनिक (मायुम्) हमारे आदेश को (न चिन्तयन्त) नहीं मानते हैं बिना तेरे सहयोग के।३।

      धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्
      मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
      ___________________________________
      अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
      युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

      अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
      यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
      अनुवाद -
      विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है  ।

      हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।

      वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है । 
      ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
      स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा (१.२.४३) 
      ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)

      अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व  वैष्णव नाम से है  और  उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

      विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
      विष्णु का  गोप के रूप में वेदों में वर्णन है।
      त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः । अतो॒ धर्मा॑णि ध॒रय॑न् ॥
      त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥
      तृणि पदा वि चक्रमे विष्णुर गोपा अदाभ्य:। अतो धर्माणि धारायं।।
      ऋग्वेद 1/22/18

      वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
      विदित हो की  "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है।  
      परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: 
      १- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है 
      - यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
      अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार 

      २-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के  रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।

      तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

      क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे ! 
      अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के  जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
      और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

      हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
      क्योंकि अबीर का  मूल रूप  "बर / बीर"  है ।
      भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 

      अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

      चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।

      अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ।
      अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
      जो अफ्रीका कि अफर"  जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को  जिम्बाब्वे नें था।
      तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में  यही लोग "अवर"  और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में  अफोर- आदि नामों  से विद्यमान थे ।
      ________
      प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।

      जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।

      इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।

      अत: ययाति के पूर्व पुरुषों  की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। 

      और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
      अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्
      नहुष' और  ययाति आदि का नाम नहीं था।

      तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है  है ।
      वही अहीर जाति का ही रूप है।
      वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है । 
      अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। 
      और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं 
      पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है ।

      गोत्र की अवधारणा-
      पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं,।
      _______
      यद्यपि गायत्री वैष्णवी शक्ति  का अवतार हैं ।
      दुर्गा भी इन्हीं का रूप है  जब ये नन्द की पुत्री बनती हैं तब इनका नाम.एकानंशा अथवा यदुवंश समुद्भवा भी होता है ।।

      पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माता सावित्री है। 

      इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं। 

      कहा जाता है एक बार पुष्‍कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया। 

      लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया। तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया और सभी शापित देवों तथा देवीयों को वरदान देकर प्रसन्न किया ये ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।
       
      स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।

      तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
      पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
      देवी भागवत पुराण मे सहस्रनाम प्रकरण में यदुवंशसमद्भवा गायत्री सा ही नाम है।
      _______________________________
      पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -
                      -भीष्म उवाच–
      तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
      कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
      गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
      आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
      एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
      आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
                   *-पुलस्त्य उवाच–
      तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
      कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।
      रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
      निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
      विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
      नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
      __________
      गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
      दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
      हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
      स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
      केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
      शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
      केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
      एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
      इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
      ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
      ______
      पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
      पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
      एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
      कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
      योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
      न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

      ______
      धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
      मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।
      अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
      युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
      ________________________ 
      अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
      यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
      करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
      युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
      ______________
      तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
      करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
      न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
      श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०
      एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
      अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
      ___________________
      भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
      शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
      एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
      अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
      ____________________________
      ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
      त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
      कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
      दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५
      वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
      अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
      भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
      नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
      सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
      सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
      गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
      ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
      याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
      यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
      तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
      सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
      दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
      यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
      _________________________________
      बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
      ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३

      ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
       ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।
      - भीष्‍म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्‍ठ ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्‍येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्‍म जी ने कहा– 

      भरतश्रेष्‍ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।

      एकमात्र सनातन भगवान स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
      स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के सात महात्‍मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्‍ठ।

      ये सभी स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्‍त प्रजापतियों का वर्णन आरम्‍भ करता हूँ।

      अत्रिकुल मे उत्‍पन्‍न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्‍पन्‍न हूँ।
      पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था  दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।

      उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं। 

      उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’ मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
      कुछ लोग उन्‍हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्‍हें कश्यप के नाम से जानते हैं। 
      अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्‍होंने सहस्‍त्र दिव्‍य युगों तक भगवान की उपासना की थी।
       प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्‍तम स्रष्टा) कहे गये हैं। 
      धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्‍दु के दस हजार स्त्रियाँ थी। 
      _______________

      अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
      अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
      भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥
      मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
      भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥
      उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
      प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।
      पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
      अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥
      धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
      अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥
      हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
      आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥
      छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
      मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥
      वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
      अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥
      तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
      मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥
      नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
      यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥
      तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।
      यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥
      तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
      आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥
      स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
      प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
      तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥
      कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
      कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ 
      चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
      धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।
                         ।।विदुर उवाच ।।
      स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
      यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।
                       ।।मैत्रेय उवाच ।।
      ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
      शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
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      तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -

      इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।

      उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। 
      इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।
      फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।

      इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। 

      छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। 

      विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
      हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
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      उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।

      पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। 

      ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।

      जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। 

      जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। 

      इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
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       तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
       वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। 

      एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ।
      इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।
      इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
      (भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
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      उनमें से प्रत्‍येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। इस प्रकार उन महात्‍मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्‍छा नहीं करते थे।
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      प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्‍पत्ति शशबिन्‍दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्‍पादक हुआ।
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      संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे  १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र । 
      ६. समूह । जत्था । गरोह । ७. वृद्धि । बढ़ती । ८. संपत्ति । धन । दौलत । ९. पहाड़ । 
      १०. बंधु । भाई । 
      ११. एक प्रकार का जातिविभाग । १२. वंश । कुल । खानदान । 
      १३. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है । 
      _________________________________   
      विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषयों के नामों के अनुसार है ।
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      सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा में यम के समय से निषिद्ध माना जाता है।
      यम ने ही संसार में धर्म की स्थापना की यम का वर्णन विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में हुआ है 
      जैसे कनानी संस्कृति ,नॉर्स संस्कृति ,मिश्र संस्कृति ,तथा फारस की संस्कृति और भारतीय संस्कृति आदि-में यम का वर्णन है ।
       
      यम से पूर्व स्त्री और पुरुष जुड़वाँ  बहिन भाई के रूप में जन्म लेते थे ।
       
      परन्तु यम ने इस विधान को मनुष्यों के लिए निषिद्ध कर दिया ।
      केवल पक्षियों और कुछ अन्य जीवों में ही यह रहा । यही कारण है कि मनु और श्रद्धा भाई बहिन भी थे और पतिपत्नी भी ।

      मनुष्यों के युगल स्तन ग्रन्थियाँ इसका प्रमाण हैं । 
      ऋग्वेद में यम-यमी संवाद भी यम से पूर्व की दाम्पत्य व्यवस्था का प्रमाण है ।
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      एक ही गोत्र के लड़का लड़की का भाई -बहन होने से  विवाह भी निषिद्ध ही है।
      यद्यपि  गोत्र शब्द का प्रयोग वंश के अर्थ में  वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

      ऋग्वेद में गोत्र शब्द का प्रयोग गायों को रखने के स्थान के एवं मेघ के अर्थ में हुआ है।
      गोसमूह के अर्थ में गोत्र-
      ____
      त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् ।
      ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥
      — ऋग्वेद १/५१/३॥
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      मेघ के अर्थ में ऋग्वेद में "गोत्र" के प्रयोग का भी उदाहरण :

      'यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि ।
      यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम् 
      — ऋग्वेद ८/५०/१०॥

      इसके अर्थ में समय के साथ विस्तार हुआ है।
      गौशाला एक बाड़ अथवा परिसीमा में निहित स्थान है।
      इस शब्द का क्रमिक विकास गौशाला से उसके साथ रहने वाले परिवार अथवा कुल  के रूप में हुआ।

      इसमें विस्तार से गोत्र को विस्तार, वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।
      गोत्र का अर्थ पौत्र तथा उनकी सन्तान के अर्थ में भी है । इस आधार पर यह वंश तथा उससे बने कुल-प्रवर की भी द्योतक है।
      यह किसी व्यक्ति की पहचान, उसके नाम को भी बताती है तथा गोत्र के आधार पर कुल तथा कुलनाम बने हैं।

      इसे समयोपरांत विभिन्न गुरुओं के कुलों (यथा कश्यप, षाण्डिल्य, भरद्वाज आदि) को पहचानने के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा। 

      क्योंकि शिक्षणकाल में सभी शिष्य एक ही गुरु के आश्रम एवं गोत्र में ही रहते थे, अतः सगोत्र हुए।
      यह इसकी कल्पद्रुम में दी गई व्याख्या से स्पष्ट होता है :

      गोत्रम्, क्ली, गवते शब्दयति पूर्ब्बपुरुषान् यत् । इति भरतः ॥ (गु + “गुधृवीपतीति ।” उणादि । ४ । १६६ । इति त्रः ) तत्पर्य्यायः । सन्ततिः २ जननम् ३ कुलम् ४ अभिजनः ५ अन्वयः ६ वंशः ७ अन्ववायः ८ सन्तानः ९ । इत्यमरः । २ । ७ । १ ॥ आख्या । (यथा, कुमारे । ४ । ८ । “स्मरसि स्मरमेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् ॥”) सम्भावनीयबोधः । काननम् । क्षेत्रम् । वर्त्म । इति मेदिनी कोश । २६ ॥

      छत्रम् । इति हेमचन्द्रःकोश ॥ संघः । वृद्धिः । इति शब्दचन्द्रिका ॥ वित्तम् । इति विश्वः ॥
      यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।

      गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश) 

      तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
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      गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।

      तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।

      इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।

      तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका  एक अर्थ  छतरी( छत्र भी है।
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      क्योंकि उस वैदिक समय  में गोत्र नहीं थे ।
      गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर  14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में  उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।

      यमी अपने सगे भाई यम से  संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। 
      परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
      और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
      “सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌
      सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌
      न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
      अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
      पदान्वय-
      न । वै । ऊं इति । ते । तन्वा । तन्वम् । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहुः । यः । स्वसारम् । निऽगच्छात् ।
      अन्येन । मत् । प्रऽमुदः । कल्पयस्व । न । ते । भ्राता । सुऽभगे । वष्टि । एतत् ॥१२।
      सायण-भाष्य★-
      यमो यमीं प्रत्युक्तवान् । हे यमि “ते तव “तन्वा शरीरेण “तन्वम् आत्मीयं शरीरं “न “वै “सं पपृच्यां नैव संपर्चयामि । नैवाहं त्वां संभोक्तुमिच्छामीत्यर्थः । “यः भ्राता “स्वसारं भगिनीं “निगच्छात् नियमेनोपगच्छति । संभुङ्त्श इत्यर्थः । तं “पापं पापकारिणम् “आहुः । शिष्टा वदन्ति । एतज्ज्ञात्वा हे “सुभगे सुष्ठु भजनीये हे यमि त्वं “मत् मत्तः “अन्येन त्वद्योग्येन पुरुषेण सह “प्रमुदः संभोगलक्षणान् प्रहर्षान् “कल्पयस्व समर्थय । “ते तव “भ्राता यमः “एतत् ईदृशं त्वया सह मैथुनं कर्तुं “न “वष्टि न कामयते । नेच्छति ॥

      “पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)

      इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
      अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “ एक पुर्वज अथवा पूर्वपुरुष  के पौत्र परपौत्र आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
      यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
      “ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
      समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !! “
      मनु स्मृति –5/60
      (सपिण्डता) सहोदरता (सप्तमे पुरुषे) सातवीं पुरुष में (पीढ़ी में ) (विनिवर्तते) छूट जाती है।
      (जन्म नाम्नोः) जन्म और नाम दोनों के (आवेदने)  जानने  से, (समान-उदक भावः तु) आपस में  (जलदान)का व्यवहार भी छूट जाता है।
      इसलिये सूतक में सम्मिलित होना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
      _____________________________________
      सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) गुण - मानव के ।
      गोत्र निर्धारण की व्याख्या करता है ।।

      जीवविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता -उत्तराधिकारिता ( जेनेटिक्स हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है।

      आनुवंशिकता के अध्ययन में' ग्रेगर जॉन मेंडेल "जैसे यूरोपीय जीववैज्ञानिकों  की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। 

      विज्ञान की भाषा में प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। अत: कोशिका जीवन की शुक्ष्म इकाई है।

      इन कोशिकाओं में कुछ  गुणसूूूूूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। 

      इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ (डी .एन. ए .) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। 

      यद्यपि  डी.एन.ए और आर.एन.ए दोनों ही न्यूक्लिक एसिड होते हैं।

      इन दोनों की रचना "न्यूक्लिओटाइड्स"   से होती है जिनके निर्माण में कार्बन शुगर, फॉस्फेट और नाइट्रोजन बेस (आधार) की मुख्य भूमिका होती है।
      डीएनए जहाँ आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है और कोशिकीय कार्यों के संपादन के लिए कोड प्रदान करता है वहीँ आर.एन.ए की भूमिका उस कोड  (संकेतावली)
      को प्रोटीन में परिवर्तित करना होता है। दोेैनों ही तत्व जैनेटिक संरचना में अवयव हैं ।
      _________________
      आनुवंशिक कोड (Genetic Code) डी.एन.ए और बाद में ट्रांसक्रिप्शन द्वारा बने (M–RNA पर नाइट्रोजन क्षार का विशिष्ट अनुक्रम (Sequence) है,

      जिनका अनुवाद प्रोटीन के संश्लेषण के लिए एमीनो अम्ल के रूप में किया जाता है। 

      एक एमिनो अम्ल निर्दिष्ट करने वाले तीन नाइट्रोजन क्षारों के समूह को कोडन, कोड या प्रकुट (Codon) कहा जाता है।

      और ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए  होते हैं।
      _____

      भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः।
      तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः।९८।

      सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्।
      प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः।९९।

      ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना।
      वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते।१००। 1.16.100।

      अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः।
      चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।

      ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्।
      अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।

      पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः।
      विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं।१०३

      यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः।
      आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः।१०४।

      ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्।
      पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः।१०५।

      भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे।
      रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः।१०६।

      अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः।
      प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः।१०७।

      द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह।
      पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं।१०८।

      तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः।
      शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः।१०९।

      द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः।
      त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्।११०।

      द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्।
      वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्।१११।

      उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः।
      सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

      सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना।
      अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

      उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः।
      व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

      इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया।
      भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

      प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह।
      लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

      अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु।
      वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

      ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया।
      मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।

      गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः।
      इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

       अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः।
      अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।

      वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा।
      नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

      नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः।
      ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

      सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता।
      सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

      भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः।
      वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।

      सन्दर्भ:-(पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १६)



                      शौनक उवाच-
      कथयस्व महाप्राज्ञ गोलोकं याति कर्मणा।
      सुमते दुस्तरात्केन जनः संसारसागरात् ।
      राधायाश्चाष्टमी सूत तस्या माहात्म्यमुत्तमम् ।१।
                        सूत उवाच-
      ब्रह्माणं नारदोऽपृच्छत्पुरा चैतन्महामुने ।
      तच्छृणुष्व समासेन पृष्टवान्स इति द्विज ।२।
                       नारद उवाच-
      पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविदां वर ।
      राधाजन्माष्टमी तात कथयस्व ममाग्रतः ।३।
      तस्याः पुण्यफलं किंवा कृतं केन पुरा विभो ।
      अकुर्वतां जनानां हि किल्बिषं किं भवेद्द्विज ।४।
      केनैव तु विधानेन कर्त्तव्यं तद्व्रतं कदा ।
      कस्माज्जाता च सा राधा तन्मे कथय मूलतः ।५।
                       ब्रह्मोवाच-
      राधाजन्माष्टमीं वत्स शृणुष्व सुसमाहितः।
      कथयामि समासेन समग्रं हरिणा विना ।६।
      कथितुं तत्फलं पुण्यं न शक्नोत्यपि नारद ।
      कोटिजन्मार्जितं पापं ब्रह्महत्यादिकं महत् ।७।
      कुर्वन्ति ये सकृद्भक्त्या तेषां नश्यति तत्क्षणात् ।
      एकादश्याः सहस्रेण यत्फलं लभते नरः ।८।
      राधाजन्माष्टमी पुण्यं तस्माच्छतगुणाधिकम् ।
      मेरुतुल्यसुवर्णानि दत्वा यत्फलमाप्यते ।९।
      सकृद्राधाष्टमीं कृत्वा तस्माच्छतगुणाधिकम् ।
      कन्यादानसहस्रेण यत्पुण्यं प्राप्यते जनैः ।१०।
      वृषभानुसुताष्टम्या तत्फलं प्राप्यते जनैः ।
      गंगादिषु च तीर्थेषु स्नात्वा तु यत्फलं लभेत् ।११।
      कृष्णप्राणप्रियाष्टम्याः फलं प्राप्नोति मानवः ।
      एतद्व्रतं तु यः पापी हेलया श्रद्धयापि वा ।१२।
      करोति विष्णुसदनं गच्छेत्कोटिकुलान्वितः ।
      पुरा कृतयुगे वत्स वरनारी सुशोभना ।१३।
      सुमध्या हरिणीनेत्रा शुभांगी चारुहासिनी ।
      सुकेशी चारुकर्णी च नाम्ना लीलावती स्मृता ।१४।
      तया बहूनि पापानि कृतानि सुदृढानि च ।
      एकदा साधनाकाङ्क्षी निःसृत्य पुरतः स्वतः ।१५।
      गतान्यनगरं तत्र दृष्ट्वा सुज्ञ जनान्बहून् ।
      राधाष्टमीव्रतपरान्सुन्दरे देवतालये ।१६।
      गन्धपुष्पैर्धूपदीपैर्वस्त्रैर्नानाविधैः फलैः ।
      भक्तिभावैः पूजयन्तो राधाया मूर्तिमुत्तमाम् ।१७।
      केचिद्गायंति नृत्यंति पठन्ति स्तवमुत्तमम् ।
      तालवेणुमृदंगांश्च वादयन्ति च के मुदा ।१८।
      तांस्तांस्तथाविधान्दृष्ट्वा कौतूहलसमन्विता ।
      जगाम तत्समीपं सा पप्रच्छ विनयान्विता। १९।
      भोभोः पुण्यात्मानो यूयं किं कुर्वंतो मुदान्विताः ।
      कथयध्वं पुण्यवन्तो मां चैव विनयान्विताम् ।२०।
      तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा परकार्यहितेरताः ।
      आरेभिरे तदा वक्तुं वैष्णवा व्रततत्पराः। २१।
                     राधाव्रतिन ऊचुः-
      भाद्रे मासि सिताष्टम्यां जाता श्रीराधिका यतः ।
      अष्टमी साद्य संप्राप्ता तां कुर्वाम प्रयत्नतः ।२२।
      गोघातजनितं पापं स्तेयजं ब्रह्मघातजम् ।
      परस्त्रीहरणाच्चैव तथा च गुरुतल्पजम् ।२३।
      विश्वासघातजं चैव स्त्रीहत्याजनितं तथा ।
      एतानि नाशयत्याशु कृता या चाष्टमी नृणाम् ।२४।
      तेषां च वचनं श्रुत्वा सर्वपातकनाशनम् ।
      करिष्याम्यहमित्येव परामृष्य पुनः पुनः ।२५।
      तत्रैव व्रतिभिः सार्द्धं कृत्वा सा व्रतमुत्तमम् ।
      दैवात्सा पञ्चतां याता सर्पघातेन निर्मला ।२६।
      ततो यमाज्ञया दूताः पाशमुद्गरपाणयः ।
      आगतास्तां समानेतुं बबन्धुरतिकृच्छ्रतः ।२७।
      यदा नेतुं मनश्चक्रुर्यमस्य सदनं प्रति ।
      तदागता विष्णुदूताः शंखचक्रगदाधराः ।२८।
      हिरण्मयं विमानं च राजहंसयुतं शुभम् ।
      छेदनं चक्रधाराभिः पाशं कृत्वा त्वरान्विताः ।२९।
      रथे चारोपयामासुस्तां नारीं गतकिल्बिषाम् ।
      निन्युर्विष्णुपुरं ते च गोलोकाख्यं मनोहरम्।३०।
      कृष्णेन राधया तत्र स्थिता व्रतप्रसादतः ।
      राधाष्टमीव्रतं तात यो न कुर्य्याच्च मूढधीः ।३१।
      नरकान्निष्कृतिर्नास्ति कोटिकल्पशतैरपि ।
      स्त्रियश्च या न कुर्वन्ति व्रतमेतच्छुभप्रदम् ।३२।
      राधाविष्णोः प्रीतिकरं सर्वपापप्रणाशनम् ।
      अन्ते यमपुरीं गत्वा पतन्ति नरके चिरम् ।३३।
      कदाचिज्जन्मचासाद्य पृथिव्यां विधवा ध्रुवम् ।
      एकदा पृथिवी वत्स दुष्ट सङ्घैश्च ताडिता ।३४।
      गौर्भूत्वा च भृशं दीना चाययौ सा ममान्तिकम् 
      निवेदयामास दुःखं रुदन्ती च पुनः पुनः ।३५।
      तद्वाक्यं च समाकर्ण्य गतोऽहं विष्णुसन्निधिम् ।
      कृष्णे निवेदितश्चाशु पृथिव्या दुःखसञ्चयः।३६।
      तेनोक्तं गच्छ भो ब्रह्मन्देवैः सार्द्धं च भूतले ।
      अहं तत्रापि गच्छामि पश्चान्ममगणैः सह ।३७।
      तच्छ्रुत्वा सहितो दैवैरागतः पृथिवीतलम् ।
      ततः कृष्णः समाहूय राधां प्राणगरीयसीम् ।३८।
      उवाच वचनं देवि गच्छेहं पृथिवीतलम् ।
      पृथिवीभारनाशाय गच्छ त्वं मर्त्त्यमण्डलम् ।३९।
      ________________
      इति श्रुत्वापि सा राधाप्यागता पृथिवीं ततः ।
      भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमीसंज्ञिके तिथौ ।४०।
      वृषभानोर्यज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिवा ।
      यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी ।४१।
      राजानं दमना भूत्वा तां प्राप्य निजमन्दिरम् ।
      दत्तवान्महिषीं नीत्वा सा च तां पर्यपालयत् ।४२।
      ____________________
      इति ते कथितं वत्स त्वया पृष्टं च यद्वचः ।
      गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ।४३।
                       "सूत उवाच-
      य इदं शृणुयाद्भक्त्या चतुर्वर्गफलप्रदम् ।
      सर्वपापविनिर्मुक्तश्चांतेयातिहरेर्गृहम्। ४४।
      इति श्रीपाद्मे महापुराणे ब्रह्मखण्डे ब्रह्मनारदसंवादे श्रीराधाष्टमीमाहात्म्यम्नाम सप्तमोऽध्यायः ।७।                      
                         "अनुवाद:-
                       शौनका ने कहा :
      1. हे अत्यंत बुद्धिमान, मुझे बताएं कि किस कर्म के कारण मनुष्य  संसार के सागर से गोलोक में जाता है, जिसे पार करना मुश्किल है और, हे सूत, राधाष्टमी और उसके उत्कृष्ट महत्व के बारे में बताएं .।१।
                      "अनुवाद:-
                      सूत  ने कहा :
      2. हे ब्राह्मण , हे महर्षि, पहले नारद ने ब्रह्मा से यह पूछा था । संक्षेप में सुनो कि उसने उससे क्या पूछा था?
                     "अनुवाद:-
                       नारद ने कहा :
      3-5. हे पोते, हे अत्यंत बुद्धिमान, हे सभी पवित्र ग्रंथों को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ, हे प्रिय, मुझे (राधाजन्माष्टमी के बारे में) बताओ। हे प्रभु, इसका धर्म फल क्या है? पुराने दिनों में इसे किसने किया था? हे ब्राह्मण , जो मनुष्य इसका पालन नहीं करते, उनका क्या पाप होगा? व्रत का पालन किस प्रकार करना चाहिए? इसे कब मनाया जाना है? मुझे (सब) आदि से अन्त तक वह बताओ, जिससे राधा का जन्म हुआ।
                          "अनुवाद:-
                        ब्रह्मा ने कहा :
      6-12. हे बालक, राधाजन्माष्टमी व्रत का वर्णन ध्यानपूर्वक सुनो। मैं तुम्हें संक्षेप में सारा (वृत्तांत) बताऊंगा। हे नारद, विष्णु को छोड़कर इसके पुण्य फल को बताना (किसी के लिए भी) संभव नहीं है।  ब्रह्म ज्ञानी की हत्या जैसा पाप उन लोगों का एक क्षण में नष्ट हो जाता है, जिन्होंने इसे करोड़ों जन्मों के माध्यम से अर्जित किया है, (जब) ​​वे श्रद्धापूर्वक इस  व्रत का पालन करते हैं। राधाजन्माष्टमी का धार्मिक पुण्य उस फल से सौ गुना अधिक है जो एक व्यक्ति एक हजार एकादशियों  का उपवास करके प्राप्त करता है। राधाष्टमी का एक बार व्रत करने से जो पुण्य मिलता है, वह मेरु पर्वत के बराबर सोना देने से मिलने वाले फल से सौ गुना अधिक होता है।

      राधाष्टमी से लोगों को वह फल प्राप्त होता है, जो (पुण्य) उन्हें एक हजार कुंवारियों का (विवाह करके) प्राप्त होता है। मनुष्य को कृष्ण की प्रिय अष्टमी (अर्थात् राधाष्टमी) का वह फल मिलता है, जो गंगा आदि तीर्थों में स्नान करने से मिलता है । (यहां तक ​​कि) जो पापी इस व्रत को लापरवाही से या श्रद्धापूर्वक करता है, वह अपने परिवार के एक करोड़ सदस्यों के साथ विष्णु के गोलोक धाम में जाता है।
                             "अनुवाद:-
      13-20. हे बालक, पूर्वकाल में कृतयुग (सतयुग) में एक उत्कृष्ट, अत्यंत सुंदर स्त्री, सुंदर (अर्थात् पतली) कमर वाली, मादा हिरणी जैसी आंखें वाली, सुंदर रूप वाली, सुंदर बाल वाली, सुंदर कान वाली, लीलावती नाम से जानी जाती थी ।

      उसने बहुत गंभीर पाप किये थे. एक बार वह धन की लालसा में अपने शहर को छोड़कर दूसरे शहर में चली गई। वहाँ, एक सुंदर मंदिर में, उसने कई बुद्धिमान लोगों को राधाष्टमी व्रत का पालन करने के इरादे से देखा। 

      वे चंदन, फूल, धूप, दीप, कपड़े के टुकड़े और विभिन्न प्रकार के फलों के साथ राधा की उत्कृष्ट छवि की भक्तिपूर्वक पूजा कर रहे थे। कुछ ने गाया, नृत्य किया,और  उत्कृष्ट स्तुति स्तोत्र का पाठ किया। कुछ (अन्य) खुशी से वीणा बजाते थे और ढोल बजाते थे। उन्हें इस प्रकार देखकर वह उत्सुकता से भरी हुई उनके पास गई और विनम्रता से उनसे पूछा: "हे धार्मिक विचारों वाले, आप आनंद से भरे हुए क्या कर रहे हैं ?" हे धर्मात्माओं, मुझे बताओ कि तुम क्या कर रहे हो ?
                            "अनुवाद:-
      21-24. वे भक्त जो व्रत के पालन में रुचि रखते थे और दूसरों को उपकृत करने तथा उनका भला करने में रुचि रखते थे, उन्होने उस ।

      जिन लोगों ने राधा (-अष्टमी) व्रत का पालन किया था, उन्होंने उस लीलावती से  कहा:
       "आज वह आठवां दिन आ गया है, जिस दिन - यानी शुक्ल पक्ष के आठवें दिन - राधा  जी का जन्म हुआ था।
      हम इसे ध्यान से देख रहे हैं.' अष्टमी का यह (इस प्रकार का व्रत) मनुष्य के पापों को शीघ्र ही नष्ट कर देता है जैसे गाय की हत्या से उत्पन्न पाप, या चोरी से उत्पन्न पाप, या किसी ब्रह्म ज्ञानी की हत्या से उत्पन्न पाप, या जो दूसरे की पत्नी को ले जाने के कारण जो पाप होता है। व्यक्ति, या (एक आदमी के) अपने गुरु के बिस्तर (यानी पत्नी) का उल्लंघन करने के कारण। है "
                             "अनुवाद:-
      25-42. उनकी बातें सुनकर और बार-बार (अपने मन में) सोचती हुई कि 'मैं सभी पापों को नष्ट करने वाले इस व्रत को करूंगी', उसने वहां केवल व्रत करने वालों के साथ ही उस उत्तम व्रत को किया। वह पवित्र स्त्री सर्प द्वारा कष्ट देने (अर्थात् डसने) के कारण मर गई। तभी यम के आदेश से यम के दूत हाथों में पाश और हथौड़े लेकर वहां आये और उसे अत्यंत पीड़ादायक तरीके से बांध दिया। जब उन्होंने उसे यम के निवास पर ले जाने का फैसला किया, तो शंख और गदा लिए विष्णु के दूत (वहां) आए। (वे अपने साथ सोने का बना हुआ एक शुभ विमान लाये थे, जिसमें राजहंस जुते हुए थे।) उन्होंने शीघ्रता से अपने चक्रों के किनारों से (फंदों को) काटकर उस स्त्री को, जिसका पाप दूर हो गया था, रथ में बैठा लिया। वे उसे विष्णु की आकर्षक नगरी, जिसे गोलोक कहा जाता है,  वहाँ ले गये जहां वह व्रत की शुभता के कारण कृष्ण और राधा के साथ रहती हैं।
      हे प्रिय, जो मूर्ख राधाष्टमी का व्रत नहीं करता, उसे करोड़ों कल्पों तक भी नरक से मुक्ति नहीं मिलती. जो स्त्रियाँ मंगलकारी, राधा और विष्णु को प्रसन्न करने वाले, समस्त पापों का नाश करने वाले इस व्रत को नहीं करतीं, वे अंत में यम की नगरी में जाती हैं और दीर्घकाल तक नरक में गिरती हैं।
      यदि संयोगवश उन्हें पृथ्वी पर जन्म मिलता है, तो वे निश्चित रूप से विधवा हो जाती हैं। हे बालक, एक बार (यह) पृथ्वी दुष्टों के समूहों द्वारा प्रभावित हुई थी।
      वह अत्यंत असहाय होकर गाय बन गई और मेरे पास आई। वह बार-बार रोते हुए मुझसे अपना दुःख कहती थी। उसकी बातें सुनकर मैं विष्णु के समीप गया। मैंने तुरंत कृष्ण (अर्थात विष्णु) को उसके दुःख की तीव्रता के बारे में बताया। उन्होंने (मुझसे) कहा: “हे ब्राह्मण, देवताओं के साथ पृथ्वी पर जाओ। बाद में मैं भी अपने सेवकों के साथ वहाँ जाऊँगा।” यह सुनकर मैं देवताओं सहित पृथ्वी पर आया। तब कृष्ण ने राधा (जो उनके लिए थी) को अपने जीवन से भी बढ़कर बताया, (ये) शब्द (उससे) कहे; “हे देवी, मैं पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए पृथ्वी पर जा रहा हूँ। तुम भी पृथ्वी पर जाओ।”
      उन शब्दों को सुनकर राधा भी पृथ्वी पर चली गयीं। वह भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को दिन में वृषभानु की यज्ञभूमि पर राधा जी का जन्म हुआ था । यज्ञ के लिए शुद्ध होने पर वह दिव्य रूप धारण कर (वहां) दिखाई पड़ी। 
      राधा जी प्रसव क्रिया से न तो उत्पन्न हुईं और नही उन्होंने सांसारिक प्रजनन किया । वह आदि वैष्णवी शक्ति थी जैसे दुर्गा और गायत्री थी अत: राधा आदि वैष्णवी शक्ति हैं।
                        "अनुवाद:-
      43. इस प्रकार हे वत्स!, जो बातें मैं ने तुझ से कही हैं वे गुप्त रखी जाएं,  
                          "अनुवाद:-
                          सूत ने कहा :
      44. जो मनुष्य (मानव जीवन के) चारों पुरुषार्थों का फल देने वाली इस (व्रत की कथा) को भक्तिपूर्वक सुनता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और अंततः विष्णु के लोक गोलोक को जाता है।
      कलावतीसुता राधा साक्षाद्गोलोकवासिनी ।।
      गुप्तस्नेहनिबद्धा सा कृष्णपत्नी भविष्यति ।।2.3.2.४० ।।
                          अनुवाद:-
      ब्रह्मोवाच ।। इत्थमाभाष्य स मुनिर्भ्रातृभिस्सह संस्तुतः ।।
      सनत्कुमारो भगवाँस्तत्रैवान्तर्हितोऽभवत् ।४१ ।।                        अनुवाद:-
      तिस्रो भगिन्यस्तास्तात पितॄणां मानसीः सुताः ।।
      गतपापास्सुखं प्राप्य स्वधाम प्रययुर्द्रुतम् ।।४२।।
                            अनुवाद:-
      " (राधा) कृष्ण की पत्नी हैं और उनका जन्म कलावती की बेटी के रूप में हुआ था, कलावती को सनत्कुमार ने श्राप दिया था। -तदनुसार, जैसा कि सनत्कुमार ने स्वधा की तीन बेटियों (यानी मेना) से कहा था , धन्या, कलावती) उन्हें शाप देने के बाद: - हे पितरों की तीन बेटियों (यानी, कलावती), मेरे शब्दों को खुशी से सुनो जो तुम्हारे दुःख को दूर कर देगा और तुम्हें खुशी प्रदान करेगा। 
      सबसे छोटी कलावती वैश्य-वृषभानु की पत्नी होगी। द्वापर के अंत में राधा उनकी पुत्री होंगी। 
      वृषभानु के गुण से कलावती एक जीवित मुक्त आत्मा बन जाएगी और अपनी बेटी के साथ गोलोक प्राप्त करेगी। इसमें कोई शक नहीं है इसके बारे में।तुम पूर्वजों की पुत्रियाँ (अर्थात, कलावती) स्वर्ग में चमकेंगी। विष्णु के दर्शन से तुम्हारे बुरे कर्मपिरभाव शान्त हो गए हैं। कलावती की बेटी राधा, गोलोक की निवासी (अर्थात, गोलोकवासी) कृष्ण के साथ गुप्त प्रेम में एकजुट होकर उनकी पत्नी बनेगी"।






      1) राधा (राधा).—श्रीकृष्ण की सबसे प्रिय पत्नी। राधा को लक्ष्मीदेवी के दो रूपों में से एक माना जाता है। जब कृष्ण दो हाथों वाले व्यक्ति के रूप में गोकुल में रहते थे तो राधा उनकी सबसे प्रिय पत्नी थी। लेकिन जब वह वैकुंठ में चार हाथों वाले विष्णु के रूप में रहते हैं, तो लक्ष्मी उनकी सबसे प्रिय पत्नी हैं। (देवी भागवत 9, 1; ब्रह्मवैवर्त पुराण, 2, 49 और 56-57 और आदि पर्व अध्याय 11)।

      ___________________________________

      राधा के जन्म के बारे में पुराणों में अलग-अलग कथाएँ दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं:-

      (i) उनका जन्म गोकुल में वृषभानु और कलावती की बेटी के रूप में हुआ था।

      सन्दर्भ:- (ब्रह्मवैवर्त पुराण, 2, 49; 35-42; नारद पुराण, 2. 81)।

      (ii) वह भूमि-कन्या  के रूप में मिली थी जब राजा वृषभानु यज्ञ आयोजित करने के लिए जमीन तैयार कर रहे थे। सन्दर्भ:-(पद्म पुराण; ब्रह्म पुराण 7)।

      (iii) उनका जन्म कृष्ण के बायीं ओर से हुआ था। (ब्रह्मवैवर्त पुराण )।

      _____    

      (iv) कृष्ण के जन्म के समय विष्णु ने अपने सेवकों को पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए कहा। तदनुसार, कृष्ण की प्रिय पत्नी राधा ने भाद्रपद महीने में शुक्लष्टमी की सुबह ज्येष्ठा नक्षत्र में गोकुल में जन्म लिया। (आदिपर्व 11),

      (v) कृष्ण एक बार विराजा, गोपी महिला के साथ  (रसमंडलम) में गए थे। यह जानकर राधा उनके पीछे-पीछे वहाँ तक गई, लेकिन वे दोनों नजर नहीं आए। एक अन्य अवसर पर जब राधा ने विराजा को कृष्ण और सुदामा की संगति में पाया, तो उसने बड़े क्रोध में कृष्ण का अपमान किया, जिसके बाद सुदामा ने उसे मानव गर्भ में जन्म लेने और कृष्ण से अलगाव की पीड़ा का अनुभव करने का शाप दिया। सन्दर्भ:-(नारद पुराण 2.8; ब्रह्मवैवर्त पुराण 2.49) 

      और राधा ने उन्हें दानव वंश में शंखचूर्ण के रूप में जन्म लेने का श्राप दिया। राधा के श्राप के कारण ही सुदामा का जन्म शंखचूड़ नामक असुर के रूप में हुआ। 

      सन्दर्भ (ब्रह्म वैवर्त पुराण, 2.4.9.34)।

      (vi) राधा को उन पांच शक्तियों में से एक माना जाता है जो सृजन की प्रक्रिया में विष्णु की सहायता करती हैं।

      सन्दर्भ (देवीभागवत 9.1; नारद पुराण 2.81)।

      (vii) राधा श्री कृष्ण की मानसिक शक्ति हैं। (विवरण के लिए पंचप्राण के अंतर्गत देखें)।

       (राधा जी)। -परशुराम और विनायक (गणेश) के बीच मध्यस्थता करने के लिए कृष्ण के साथ आई थी; शिव और विष्णु के गैर-भेदभाव पर बात की; गणेश एक वैष्णव थे और परशुराम शैव थे। 

      राधा वृन्दावन में प्रतिष्ठित देवी हैं। 

      शिवपुराण 2.3.2 

      वृषभानस्य वैश्यस्य कनिष्ठा च कलावती ।।।
      भविष्यति प्रिया राधा तत्सुता द्वापरान्ततः ।। 2.3.2.३० ।।
      कलावती वृषभानस्य कौतुकात्कन्यया सह ।।
      जीवन्मुक्ता च गोलोकं गमिष्यति न संशयः।३३ ।।

      कलावतीसुता राधा साक्षाद्गोलोकवासिनी ।।गुप्तस्नेहनिबद्धा सा कृष्णपत्नी भविष्यति ।।2.3.2.४० ।।

      इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखंडे पूर्वगतिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।

      राधा के जन्म के बारे में पुराणों में अलग-अलग कथाएँ दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं:-

      (i) उनका जन्म गोकुल में वृषभानु और कलावती की बेटी के रूप में हुआ था। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, 2, 49; 35-42; नारद पुराण,

      गोलोकेऽस्मिन्महेशान गोपगोपीसुखावहः।    स कदाचिद्धरालोके माथुरे मंडले शिव।८१-२६।

      आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृन्दाग्ण्ये करिष्यन्ति ।।
      वृषभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ ।।

      सखायं विरजागेहद्वाःस्थं क्रुद्धा शपिष्यति ।।
      ततः सोऽपि महाभाग राधां प्रतिशपिष्यति ।। ८१-२८।

         प्रकृतिचरित्रवर्णनम्

               श्रीनारायण उवाच

      गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती । सावित्री च सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता ॥ १ ॥

      रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः ।रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता ॥ ४७ ॥

      रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी ।गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका ॥ ४८ ॥

      परमाह्लादरूपा च सन्तोषहर्षरूपिणी ।         निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी ॥ ४९ ॥

      निरीहा निरहङ्‌कारा भक्तानुग्रहविग्रहा ।वेदानुसारिध्यानेन विज्ञाता मा विचक्षणैः ॥ ५० ॥

      दृष्टिदृष्टा न सा चेशैः सुरेन्द्रैर्मुनिपुङ्‌गवैः ।वह्निशुद्धांशुकधरा नानालङ्‌कारभूषिता ॥ ५१ ॥

      कोटिचन्द्रप्रभा पुष्टसर्वश्रीयुक्तविग्रहा ।श्रीकृष्णभक्तिदास्यैककरा च सर्वसम्पदाम् ॥ ५२।

      अवतारे च वाराहे वृषभानुसुता च या ।यत्पादपद्मसंस्पर्शात्पवित्रा च वसुन्धरा ॥ ५३ ॥

      ब्रह्मादिभिरदृष्टा या सर्वैर्दृष्टा च भारते ।स्त्रीरत्‍नसारसम्भूता कृष्णवक्षःस्थले स्थिता ॥५४।

      यथाम्बरे नवघने लोला सौदामनी मुने ।षष्टिवर्षसहस्राणि प्रतप्तं ब्रह्मणा पुरा ॥ ५५ ॥

      यत्पादपद्मनखरदृष्टये चात्मशुद्धये ।                   न च दृष्टं च स्वप्नेऽपि प्रत्यक्षस्यापि का कथा ॥ ५६ ॥

      तेनैव तपसा दृष्टा भुवि वृन्दावने वने ।         कथिता पञ्चमी देवी सा राधा च प्रकीर्तिता ॥ ५७ ॥

      श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे प्रकृतिचरित्रवर्णनं नाम प्रथमोध्यायः ॥ १ ॥

      मह्यं प्रोवाच देवर्षे भविष्यच्चरितं हरेः ।।सुखमास्तेऽधुना देवः कृष्णो गधासमन्वितः ।। ८१-२५ ।।

      गोलोकेऽस्मिन्महेशान गोपगोपीसुखावहः ।।       स कदाचिद्धरालोके माथुरे मंडले शिव ।। ८१-२६ 

      आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृंदाग्ण्ये करिष्यति ।।वृपभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ 

      श्रीबृहन्नारदीयपुराणे बृहदुपाख्याने उत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे वसुचरित्रनिरूपणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः ।। ८१ ।।

      कलावतीसुता राधा साक्षाद्गोलोकवासिनी ।।गुप्तस्नेहनिबद्धा सा कृष्णपत्नी भविष्यति ।।2.3.2.४० ।।

      ब्रह्मोवाच ।। इत्थमाभाष्य स मुनिर्भ्रातृभिस्सह संस्तुतः ।।    सनत्कुमारो भगवाँस्तत्रैवान्तर्हितोऽभवत् ।। ४१ ।।

      तिस्रो भगिन्यस्तास्तात पितॄणां मानसीः सुताः ।।गतपापास्सुखं प्राप्य स्वधाम प्रययुर्द्रुतम् ।।४२।।_____

      इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखंडे पूर्वगतिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।

      गर्गसंहिता/खण्डः १ (गोलोकखण्डः)/अध्यायः ०८

               श्रीराधिकाजन्मवर्णनं

      श्रुत्वा तदा शौनक भक्तियुक्तः
           श्रीमैथिलो ज्ञानभृतां वरिष्ठः ।
      नत्वा पुनः प्राह मुनिं महाद्‌भुतं
           देवर्षिवर्यं हरिभक्तिनिष्ठः ॥१॥
      बहुलाश्व उवाच -
      त्वया कुलं कौ विशदीकृतं मे
           स्वानंददोर्यद्यशसामलेन ।
      श्रीकृष्णभक्तक्षणसंगमेन
           जनोऽपि सत्स्याद्‌बहुना कुमुस्वित् ॥२॥

      श्रीराधया पूर्णतमस्तु साक्षा-
           द्‌गत्वा व्रजे किं चरितं चकार ।
      तद्‌ब्रूहि मे देवऋषे ऋषीश
           त्रितापदुःखात्परिपाहि मां त्वम् ॥३॥

      श्लोक 1.8.3 का हिन्दी अनुवाद:

                         "अनुवाद"

      जब भगवान कृष्ण  श्री राधा जी के साथ व्रज आये तो उन्होंने क्या किया ? हे भगवन्, हे महान ऋषि, कृपया मुझे यह सब बताएं। हे ऋषियों के शिरोमणि , कृपया मुझे तीन दुखों तापों आधि दैविक आधिभौतिक और आध्यात्मिक   से बचाएं।

      ____________________________
      श्रीनारद उवाच -
      धन्यं कुलं यन्निमिना नृपेण
           श्रीकृष्णभक्तेन परात्परेण ।
      पूर्णीकृतं यत्र भवान्प्रजातो
           शुक्तौ हि मुक्ताभवनं न चित्रम् ॥ ४ ॥
      अथ प्रभोस्तस्य पवित्रलीलां
           सुमङ्गलां संशृणुतां परस्य ।
      अभूत्सतां यो भुवि रक्षणार्थं
           न केवलं कंसवधाय कृष्णः ॥ ५ ॥

      ___
      अथैव राधां वृषभानुपत्‍न्या-
           मावेश्य रूपं महसः पराख्यम् ।
      कलिन्दजाकूलनिकुञ्जदेशे
           सुमन्दिरे सावततार राजन् ॥ ६ ॥

      अथ – तब; । ईव - वास्तव में;। राधा – राधा; वृषभानु-पत्न्याम् - वृषभानु की पत्नी में; ।आवेष्य – प्रवेश करके ; रूपम् – रूप को; महसः – महिमा का; परा - पारलौकिक; आख्यम् - नामित; ।कालिन्दजा – यमुना का; कूल – किनारा; निकुञ्ज -देशे - वन उपवन में; । सुमन्दिर – एक विशाल महल में; सा- वह; अवतार – अवतरित; राजन - हे राजा ।

      श्लोक 1.8.6 का हिन्दी अनुवाद:

      फिर, अपने गौरवशाली दिव्य रूप को राजा वृषभानु की पत्नी (के गर्भ) में रखकर, श्री राधा यमुना के तट के पास एक बगीचे में एक महान महल में अवतरित हुईं।

      _____________________________

      राधा अवतरण दिवस-

      "घनावृते व्योम्नि दिनस्य मध्ये
           भाद्रे सिते नागतिथौ च सोमे ।
      अवाकिरन्देवगणाः स्फुरद्‌भि-
           स्तन्मन्दिरे नन्दनजैः प्रसूनैः ॥ ७ ॥

      घनावृते-– बादलों के साथ; ढका हुआ; व्योम्नि – आकाश में ; दिनस्य - दिन का; मध्ये – बीच में; भाद्रे– भाद्र मास में;  स्थल- शुक्ल पक्ष के दौरान; नागा -तिथौ - आठवें दिन; च - भी। सोमे-- चंद्रमा के दिन में  (सोमवार); अवाकिरण – बिखरा हुआ; देव -गणाः  देवता; स्फुरद्भिस– खिलने के साथ; तत्-मन्दिरे- उस महल में ; नंदनजैः - नन्दन में उत्पन्न । नंदना उद्यान; प्रसूनैः- पुष्पों सें 

      श्लोक 1.8.7 का अंग्रेजी अनुवाद:

      "अनुवाद:-

      भाद्र (अगस्त-सितंबर) के महीने में , सोमवार को, जो चंद्रमा के शुक्ल पक्ष की आठवीं तिथि थी, दोपहर के समय, जब आकाश बादलों से ढका हुआ था, (राधा के अवतरण का जश्न मनाने के लिए) देवताओं ने फूल बिखेरे जो नंदना के बगीचों में खिल गये थे।

      __________________________
      राधावतारेण तदा बभूवु-
           र्नद्योऽमलाभाश्च दिशः प्रसेदुः ।
      ववुश्च वाता अरविन्दरागैः
           सुशीतलाः सुन्दरमन्दयानाः ॥ ८ ॥

      राधा – श्री राधा का; अवतरेण - अवतरण द्वारा; तदा – तब; बभुवुर – बन गया; नाद्यो – नदियाँ; अमल - शुद्ध; अम्बस - जल; सीए- और; दिशाः – दिशाएँ; प्रसेदुः – प्रसन्न एवं मंगलमय हो गया; ववुस- उड़ा दिया; सीए- भी; वात्स – हवा के झोंके; अरविन्द – कमल पुष्पों का ; रागैः – पराग के साथ; सु- शीतलः - अत्यंत शीतल;सुन्दर – सुन्दर; मन्द – धीरे-धीरे; यानाः- जा रहा हूँ।

      श्लोक 1.8.8 का हिन्दी अनुवाद:

      राधा के अवतरण के कारण नदियाँ अत्यंत निर्मल और स्वच्छ हो गईं, दिशाएँ शुभ और प्रसन्न हो गईं, और सुंदर, कोमल, ठंडी हवाएँ कमल के फूलों के पराग को अपने साथ ले गईं।

      _____________

      सुतां शरच्चन्द्रशताभिरामां
           दृष्ट्वाऽथ कीर्तिर्मुदमाप गोपी ।
      शुभं विधायाशु ददौ द्विजेभ्यो द्विलक्षमानन्दकरं गवां च ॥ ९ ॥

      सुताम् – पुत्रीको; शरत् – शरद ऋतु ; चन्द्र – चन्द्रमा; शत – सौ; अभिरामम् – सुन्दर; दृष्ट्वा – देखकर ; अथ – तब; कीर्तिर्- कीर्ति ; मुदम् – ख़ुशी; आप – प्राप्त; गोपी –आभीरिणी- गोपी; शुभम् – शुभ; विधाय – देकर; आशु – तुरन्त; ददौ – दिया; द्विजेभ्यो – ब्राह्मणों को; द्वि-लक्षम् - दो लाख;आनंद – आनंद; करं – दान; गवान् – गायें; च - भी.

      श्लोक 1.8.9 का हिन्दी अनुवाद:

      सैकड़ों चंद्रमाओं के समान सुंदर अपनी पुत्री को देखकर कीर्ति गोपी प्रसन्न हो गईं। शुभता लाने के लिए उसने ब्राह्मणों को प्रसन्न करने के लिए दो लाख गायें दान में दीं।

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      प्रेङ्‍खे खचिद्‌रत्‍नमयूखपूर्णे
           सुवर्णयुक्ते कृतचन्दनाङ्‌गे ।
      आन्दोलिता सा ववृधे सखीजनै-
           र्दिने दिने चंद्रकलेव भाभिः ॥ १० ॥

      यद्दर्शनं देववरैः सुदुर्लभं
           यज्ञैरवाप्तं जनजन्मकोटिभिः ।
      सविग्रहां तां वृषभानुमन्दिरे
           ललन्ति लोका ललनाप्रलालनैः ॥ ११ ॥
      श्रीरासरङ्‌गस्य विकासचन्द्रिका
           दीपावलीभिर्वृषभानुमन्दिरे ।
      गोलोकचूडामणिकण्ठभूषणां
           ध्यात्वा परां तां भुवि पर्यटाम्यहम् ॥ १२ ॥

      श्रीबहुलाश्व उवाच -
      वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत् ।
      कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि ॥ १३ ॥

      श्रीनारद उवाच -
      नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः ।
      चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः ॥ १४ ॥

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      पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः ।
      कलावती" रत्‍नमाला मेनका नाम नामतः॥ १५॥

      कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते ।
      वैदेहाय रत्‍नमालां मेनकां च हिमाद्रये ।
      __________________________

      पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः ॥१६॥

      सीताभूद्‌रत्‍नमालायां मेनकायां च पार्वती ।
      द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते ॥ १७ ॥

      सुचन्द्रोऽथ कलावत्या गोमतीतीरजे वने ।
      दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैस्तताप ब्रह्मणस्तपः ॥ १८ ॥

      अथ विधिस्तमागत्य वरं ब्रूहीत्युवाच ह ।
      श्रुत्वा वल्मीकदेशाच्च निर्ययौ दिव्यरूपधृक् ॥१९।

      तं नत्वोवाच मे भूयाद्दिव्यं मोक्षं परात्परम् ।
      तच्छ्रुत्वा दुःखिता साध्वी विधिं प्राह कलावती॥ २० ॥

      पतिरेव हि नारीणां दैवतं परमं स्मृतम् ।
      यदि मोक्षमसौ याति तदा मे का गतिर्भवेत् ॥२१॥

      एनं विना न जीवामि यदि मोक्षं प्रदास्यसि ।
      तुभ्यं शापं प्रदास्यामि पतिविक्षेपविह्वला ॥ २२ ॥

      श्रीब्रह्मोवाच -
      त्वच्छापाद्‌भयभीतोऽहं मे वरोऽपि मृषा न हि ।
      तस्मात्त्वं प्राणपतिना सार्धं गच्छ त्रिविष्टपम् ॥२३।

      भुक्त्वा सुखानि कालेन युवां भूमौ भविष्यथः ।
      गंगायमुनयोर्मध्ये द्वापरान्ते च भारते ॥ २४ ॥

      युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया ।
      भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः ॥ २५ ॥

      श्रीनारद उवाच -
      इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा ।
      कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः ॥ २६ ॥

      कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च ।
      जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्‌भवा ॥२७॥

      सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत् ।
      जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः ॥ २८ ॥

      सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः ।
      तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः ॥ २९ ॥

      वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः ।
      सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ३० ॥

      इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे श्रीराधिकाजन्मवर्णनं नाम अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥



      ( प्रश्न- १-) कृष्ण केवल पौराणिक एवं महाभारत ग्रन्थ सम्बन्धी अवधारणा है  साइन्स जर्नी यूट्यूब चैनल ने कृष्ण को आठ वीं सदी की उत्पत्ति माना और उन्हे कुषाण वंशीय वासुदेव का से सम्बन्धित कर दिया  जिसका समय कनिष्क के काल के वर्ष 64 से 98 वर्ष तक है  वासुदेव नामांकित शिलालेखों से पता चलता है कि उसका शासनकाल कम से कम 191 से 232 ईस्वी तक था।

       भारत में कुषाण वंश की स्थापना "कुजुल कडफिसेस" ने की। 
      कुजुल कडफिसेस एक कुषाण राजकुंवर था जिसने पहली सदी ईसवी में युएझ़ी परिसंघ को संगठित किया और पहला कुषाण सम्राट बना। अफ़ग़ानिस्तान के बग़लान प्रान्त में सुर्ख़ कोतल नामक पुरातन स्थल में पाए गए रबातक शिलालेख के अनुसार कुजुल कडफिसेस प्रसिद्ध कुषाण सम्राट कनिष्क का पर-दादा था। 

      कुषाण चीन की यू-ची जाति से थे और तुषारी लोग कहे जाते थे। तुषारों का वर्णन भारतीय पुराणों में है।

       यूची  कुछ इतिहास कार कुषाणों को यूची कबीले का कहते हैं। जिनका मिलान इतिहास कारो ने गूजर "अहीर और जाटों से किया गया। 

      पौराणिक कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 वर्ष पूर्व हुआ था। 

      कई वैज्ञानिकों तथा पुराणों का यही मानना है, जो महाभारत युद्ध की कालगणना से मेल खाता है। भगवान कृष्ण के जन्म का सटीक अंदाजा शायद ही कोई लगा पाए। इस विषय पर कई मतभेद हैं परंतु सारगर्भित तथ्यों पर ध्यान डालें तो सारे परिणाम अपने स्थान पर सत्य हैं।

      भागवत महापुराण के द्वादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरंभ के संदर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारंभ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकंड पर हुआ था। 

      पुराणों में बताया गया है कि जब श्रीकृष्ण का देहावसान हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ। इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ईसा पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा।

       इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। 
      अर्नेस्ट मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो हमें भागवत आदि पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है।

      _______    
      इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 3000 ईसा पूर्व हुआ होगा, जो पुराणों की गणना में सटीक बैठता है।

      श्रीकृष्ण का रूपवर्णन
      श्रीकृष्ण की बारंबार वर्णित छवि के अनुसार उनकी अंगकांति श्याम (सांवली)थी। वे नित्य तरुण पीताम्बरधारी और विभिन्न् वनमालाओं से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन भुजाओं में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान थे। 

      वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। शारंगधनुष धारण किए हुए थे। कौस्तुभ मणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में लक्ष्मी का निवास था। शरत्काल की पूर्णिमा के चंद्रमा की प्रभा से वे मनोहर जान पड़ते थे।

      इतिहास और पुरातत्त्व में श्रीकृष्ण
      सुविख्यात इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उनका पारंपरिक शस्त्र : चक्र।

       यह शस्त्र वैदिक नहीं है और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से दैत्यों पर  (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है।

       अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई पू, जबकि मोटे तौर पर, वाराणसी में पहली बस्ती की नींव पड़ी थी। दूसरी ओर, ऋग्वेद में कृष्ण को इंद्र का शत्रु बताया गया है, 

      और उनका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वे एक वीर योद्धा थे और यदु कबीले के नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पांच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है, उनमें से यदु कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है।
      ____________    

      अंत का इतिहास वास्तव में यादव गणतंत्र के अंत का इतिहास है।
       महाभारत का एक पर्व है-भीष्म पर्व। भीष्म पर्व का अध्याय पच्चीस से लेकर अध्याय बयालीस तक वस्तुत: गीता का क्रमश: अध्याय एक से लेकर अध्याय अठारह है। महाभारत में भीष्म पर्व और भीष्म पर्व में रखी हुई है गीता। ऐसा लगता है वेदव्यास गीता रत्न को महाभारत के अंतर्गत बहुत सहेजकर रखना चाहते थे। संदूक के अंदर छोटा संदूक और छोटे संदूक में रखा गया मूल्यवान रत्न।

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      जैन और बौद्ध साहित्य में कृष्ण
      कम ही लोगों को जानकारी होगी कि तीर्थंकर नेमिनाथ श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। संन्यास लेने से पूर्व उनका नाम अरिष्टनेमि था। जैन साहित्य एवं आगमिक कृतियों में कृष्ण को अति विशिष्ट पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है।

       'उत्तराध्ययन' के अनुसार कृष्ण का जन्मनाम केशव था। उन्हें 'कण्ह' या कृष्ण संभवत: श्यामवर्णी होने के कारण कहा जाता रहा होगा।

       उनके पितामह का नाम अंधकवृष्णि बताया गया है, जिनके पुत्र हुए वसुदेव और उन्हीं के पुत्र वासुदेव कहलाए। 

      कृष्ण की नगरी का नाम उत्तराध्ययन में (वारगापुरी) मिलता है, जो नौ योजन पर्यंत थी। नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में रैवतक पर्वत था, जिस पर नंदनवन था। कृष्ण की सभा का नाम सुधर्मा था। दूसरे महत्वपूर्ण जैनागम 'निरयावलिका' में आए वर्णन के अनुसार कृष्ण की इस सभा में तीन तरह की भेरियां थीं : कौमुदी, सामुदायिन और सन्‍नाहिका, जिन्हें विभिन्न् अवसरों पर बजाया जाता था। कृष्ण का राज्य वैताढ्य पर्वत से लेकर द्वारावती तक फैला हुआ बताया गया है। इसी प्रकार कण्ह जातक नाम से एक बौद्ध ग्रंथ उपलब्ध है। उसमें कृष्‍ण कुमार का विवाह महरूपी नामक कन्या से करवाया गया है। यहां कृष्ण कुमार को ओक्काक यानी इक्ष्वाकु वंशी कहा गया है। 
      घतजातक में कृष्ण की कहानी दूसरे ढंग से कही गई है। कृष्ण चर्चा बौद्ध गाथाओं में भी है, मगर बिलकुल अपनी निजी भंगिमा के साथ।



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           "उत्तर- समाधान -

      उत्तर-१ 

      सबसे पहले तो यह मानना भी युक्ति युक्त नहीं कि कुषाण वंशी वासुदेव ही कृष्ण का रूपान्तरण है। हाँ इतना कहा जा सकता है कि सम्भवत: वासुदेव कनिष्क के उत्तराधकारी मध्य एशिया( तुर्की और  चीनी यू-ची कबीले के थे जो चरावाहे थे। कृष्ण का स्वतन्त्र उल्लेख ऋग्वेद से लेकर छान्दोग्य
      उपनिषद में भी मिलता है जो पुराणों और रामायण, महाभारत से प्राचीनतम हैं। 

      सिन्धु सभ्यता की मोहन-जादारो की खुदाई में भी कृष्ण चरित्र से सम्बंधित ओखल बन्धन और यमलार्जुन वृक्षों के दृश्य अंकित पत्थर मिले हैं।

      मोहनजो-दारो  सिंधी : जिसका अर्थ है 'मृतकों का टीला'  और कभी-कभी इसका अर्थ  'मोहन का टीला' होता है। 
       पाकिस्तान के सिंध प्रांत में एक पुरातात्विक स्थल है । लगभग 2500 ईसा पूर्व निर्मित, यह प्राचीन काल की सबसे बड़ी बस्ती थी सिंधु घाटी सभ्यता , और दुनिया के शुरुआती प्रमुख शहरों में से एक, प्राचीन मिस्र , मेसोपोटामिया ,  यूनान की मिनोअन क्रेते और नॉर्टे चिको की सभ्यताओं के समकालीन है । 
      कम से कम 40,000 लोगों की अनुमानित आबादी के साथ, मोहनजो-दारो लगभग 1700 ईसा पूर्व तक समृद्ध रहा। 

      सिन्धु घाटी की सभ्यता सम्भवतः ईसा पूर्व नवम सदी तक जीवन्त रही होगी ।
      कृष्ण शिव दुर्गा जैसे पौराणिक पात्रों की प्रतिमाएँ यहाँ मिली हैं।

      यह मोहनजो-दारो, लरकाना जिले, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से खोदी गई एक साबुन की गोली है। यह भगवान कृष्ण के जीवन की एक महत्वपूर्ण कहानी के साथ अद्भुत समानता दर्शाता है।

      टैबलेट में एक युवा लड़के को दो पेड़ों को उखाड़ते हुए दिखाया गया है। इन दोनों पेड़ों से दो मानव आकृतियाँ निकल रही हैं और कुछ पुरातत्वविदों ने इसे भगवान कृष्ण से जुड़ी तारीखें तय करने के लिए एक दिलचस्प पुरातात्विक खोज करार दिया है।

      यह छवि यमलार्जुन प्रकरण (भागवत और हरिवंश पुराण दोनों में उल्लिखित) से मिलती जुलती है। टैबलेट पर मौजूद युवा लड़के के भगवान कृष्ण होने की बहुत संभावना है, और पेड़ों से निकलने वाले दो इंसान दो शापित गंधर्व हैं, जिन्हें नलकुबारा और मणिग्रीव के रूप में पहचाना जाता है।

      ऊपर: मोहेंजो-दारो, लरकाना जिला, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से सोपस्टोन टैबलेट की खुदाई की गई। स्रोत - मैके की रिपोर्ट, भाग 1, पृष्ठ 344-45, भाग 2, प्लेट 90, वस्तु संख्या। डीके 10237.

      दिलचस्प बात यह है कि मोहनजो-दारो में खुदाई करने वाले डॉ. ईजेएच मैके ने भी इस छवि की तुलना यमलार्जुन प्रकरण से की है। इस विषय के एक अन्य विशेषज्ञ प्रो. वीएस अग्रवाल ने भी इस पहचान को स्वीकार किया है। इसलिए, यह काफी संभव है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भगवान कृष्ण की कहानियों से अवगत थे। बेशक, इस तरह का एक और पृथक साक्ष्य तथ्यों को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। हालाँकि, सबूतों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस सन्दर्भ में और अधिक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है।

      द्वारका के साथ सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों (पूरे उपमहाद्वीप में) की भौगोलिक निकटता को देखते हुए, इस कोण को भी ध्यान में रखते हुए अनुसंधान किया जाना चाहिए। जबकि मोहनजो-दारो शब्द का आम तौर पर स्वीकृत अर्थ 'मुर्दों का टीला' है, इसके समानांतर अर्थ - 'मोहन का टीला' की जांच की भी कुछ गुंजाइश है। समानता एक संयोग से भी अधिक हो सकती है!

      रुचि रखने वालों के लिए मोहनजो-दारो की पृष्ठभूमि की जानकारी (स्रोत:www.harappa.com)
      मोहनजो-दारो की खोज मूल रूप से 1922 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक अधिकारी आरडी बनर्जी ने की थी, हड़प्पा में प्रमुख खुदाई शुरू होने के दो साल बाद। बाद में, 1930 के दशक के दौरान जॉन मार्शल, केएन दीक्षित, अर्नेस्ट मैके और कई अन्य लोगों के निर्देशन में साइट पर बड़े पैमाने पर खुदाई की गई।
      हालाँकि उनके तरीके उतने वैज्ञानिक या तकनीकी रूप से अच्छे नहीं थे जितने होने चाहिए थे, फिर भी वे बहुत सारी जानकारी लेकर आए जिसका अभी भी विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है।
      इस स्थल पर अंतिम प्रमुख उत्खनन परियोजना 1964-65 में स्वर्गीय डॉ. जीएफ डेल्स द्वारा की गई थी, जिसके बाद मौसम से उजागर संरचनाओं को संरक्षित करने की समस्याओं के कारण खुदाई रोक दी गई थी।
      1964-65 के बाद से साइट पर केवल बचाव उत्खनन, सतह सर्वेक्षण और संरक्षण परियोजनाओं की अनुमति दी गई है। इनमें से अधिकांश बचाव अभियान और संरक्षण परियोजनाएं पाकिस्तानी पुरातत्वविदों और संरक्षकों द्वारा संचालित की गई हैं।
      1980 के दशक में व्यापक वास्तुशिल्प दस्तावेज़ीकरण, विस्तृत सतह सर्वेक्षण, सतह स्क्रैपिंग और जांच के साथ मिलकर जर्मन और इतालवी सर्वेक्षण टीमों द्वारा डॉ. माइकल जानसन (आरडब्ल्यूटीएच) और डॉ. मौरिज़ियो तोसी (आईएसएमईओ) के नेतृत्व में किया गया था।

      हड़प्पा सभ्यता की तिथि कार्बन डेटिंग पद्धति द्वारा 2500 ई०पूर्व से (1750) ई० पूर्व तक निर्धारित की जती है।




      शिलापट पर श्रीकृष्ण जन्म के प्रमाण

      भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा में जन्म लेने को लेकर यूं कोई संदेह नहीं। धर्मग्रंथों में उनकी न जाने कितनी लीलाओं का वर्णन है। इसके पुरातात्विक प्रमाण भी मौजूद हैं, लेकिन आमतौर पर जानकारी में नहीं हैं। सत्तानवे साल पहले गताश्रम टीला से मिली मूर्ति को भगवान कृष्ण के जन्म का पुरातत्व में पहला प्रमाण है। धर्मग्रं

      Publish:Sun, 17 Aug 2014 02:37 PM (IST)Updated:Sun, 17 Aug 2014 02:58 PM (IST)






       इस क्रम में पहले  हम तमिलनाडु के ऐतिहासिक नगर महाबलिपुरम् से सम्बन्धित तथ्यों का विश्लेषण करते हैं।

      जिसमें प्राप्त शिलाओं पर कृष्ण बांसुरी बजाते हुए अंकित हैं।
      यह ऐतिहासिक सन्दर्भ है-


      महाबलिपुरम के तट मन्दिर को दक्षिण भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में माना जाता है जिसका संबंध आठवीं शताब्दी से है। 

      महाबलिपुरम् (Mahabalipuram) या कहें  मामल्लपुरम् (Mamallapuram) भारत के तमिलनाडु राज्य के चेंगलपट्टु ज़िले में स्थित एक प्राचीन नगर (शहर) है।

      यह मंदिरों का शहर राज्य की राजधानी, चेन्नई, से 55 किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी से तटस्थ है।
      चैन्नई का पुराना नाम मदुरैई है जिसका शुद्ध रूप मथुरा है।
       स्थानीय लोग इसे (तेन मदुरा) कहते हैं, यानि दक्षिणी मथुरा - उत्तर भारत के मथुरा की उपमा में यह नाम है।
      क्योंकि यहाँ ऐतिहासिक रूप से पांड्य राजाओं का शासन रहा है, चोळों के साम्राज्य में भी यहाँ पांड्यों की उपस्थिति रही है। 
      याद रहे कि तमिळ लिखावट को देखकर यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि इसका नाम और उच्चारण मथुरा था या मतुरा या मदुरा या मधुरा - तमिळ उच्चारण में भी यह अंतर स्पष्ट नहीं होता।
      ________
      पल्लव राजाओ की विरासत 
      महाबलिपुरम प्राचीन शहर अपने भव्य मंदिरों, स्थापत्य और सागर-तटों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। सातवीं शताब्दी में यह शहर पल्लव राजाओं की राजधानी था। 

      द्रविड वास्तुकला की दृष्टि से यह शहर अग्रणी स्थान रखता है। यहाँ पर पत्थरो को काट कर मन्दिर बनाया गया। पल्लव वंश के अंतिम शासक अपराजित थे।

      यह मंदिर द्रविड वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। यहां तीन मंदिर हैं। बीच में भगवान विष्णु का मंदिर है जिसके दोनों तरफ से शिव मंदिर हैं। मंदिर से टकराती सागर की लहरें एक अनोखा दृश्य उपस्थित करती हैं। 
      इसे महाबलीपुरम् का रथ मंदिर भी कहते है। इसका निर्माण "नरसिंह वर्मन्" प्रथम ने कराया था। 

      प्रांरभ में इस शहर को "मामल्लपुरम" कहा जाता था।
      महाबलिपुरम के लोकप्रिय रथ दक्षिणी सिर पर स्थित हैं। महाभारत के पांच पांडवों के नाम पर इन रथों को पांडव रथ कहा जाता है। पांच में से चार रथों को एकल चट्टान पर उकेरा गया है। द्रौपदी और अर्जुन रथ वर्ग के आकार का है जबकि भीम रथ रेखीय आकार में है। 
      धर्मराज रथ सबसे ऊंचा है। इसमे दौपदी के पांच रथमंदिर हुए। क्योंकि उसके पांच पति थे। इस लिए उसके पांच रथमंदिर हुए।
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      कृष्ण मंडपम्-
      यह मंदिर महाबलिपुरम के प्रारंभिक पत्थरों को काटकर बनाए गए मंदिरों में एक है। मंदिर की दीवारों पर ग्रामीण जीवन की झलक देखी जा सकती है। एक चित्र में भगवान कृष्ण को गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाए तथा बाँसुरी बजाते हुए दिखाया गया है।


      यमुना में कृष्ण और गोपिकाओं का सबसे पहला उल्लेख-

      निम्नलिखित पंक्तियों का अनुवाद डॉ. कामिल ज़्वेलेबिल द्वारा किया गया है।

      नर हाथी अपनी मादा के खाने के लिए कोमल टहनियों को नष्ट कर देता है, उसकी तुलना "माल" से की जाती है, जो कपड़े पहनने के लिए पेड़ों की शाखाओं (यानी कुरुंतमारम, कन्नन द्वारा काटा गया जंगली चूना) पर चलते हुए रौंदता (चलता, कूदता, मिटिट्टु) बनाता है। पानी से भरी तोलुनाई नदी के दूर-दूर तक फैले रेत वाले चौड़े घाट के [किनारों पर] ग्वालों अंतर- (आयर) समुदाय की युवा महिलाओं (मकलिर) को ठंड  लगती है।

      और डॉ. ज़्वेलेबिल के अनुसार, किंवदंती का यह संस्करण किसी भी संस्कृत स्रोत को ज्ञात नहीं है। सबसे पहला संस्कृत स्रोत या तो भागवतपुराण या विष्णुपुराण प्रतीत होता है


       इसलिए ऐसा लगता है कि "मटुरै मरुतानिलनकन" की यह अकाम 59 कविता भारत में कृष्ण की आकृति और यमुना नदी के तट पर अहीरो का उल्लेख करने वाली सबसे पुरानी कविता प्रतीत होती है।


      साइन्स जर्नी चैनल का यूट्यूबर  कृष्ण शब्द को सातवीं आठवीं सताब्दी का मानता है । जबकि
      कृष्ण का सबसे पहला उल्लेख वेद में हैं और ऋग्वेद का समय  ईसा पूर्व नवम सदी से पन्द्रह वीं सदी है।
      _________________________________
      ऋग्वेद की सबसे पुरानी प्रति भोजपत्र पर लिखी हुई है, जिसे पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट (BORI) में रखा गया.
      इनमें से एक पांडुलिपि शारदा स्क्रिप्ट ( लिपि) में लिखी हुई है, जबकि बाकी 29  मेनुस्क्रिप्ट (पाण्डुलिपि) देवनागरी लिपि  में हैं.

       इनमें बहुत से ऐसे फीचर हैं, शब्दों के ऐसे उच्चारण हैं, जो फिलहाल आधुनिक प्रतियों में कहीं नहीं दिखते हैं।.
      शारदा लिपि का व्यवहार ईसा की दसवीं शताब्दी से उत्तर-पूर्वी पंजाब और कश्मीर में देखने को मिलता है

      ब्यूह्लर का मत था कि शारदा लिपि की उत्पत्ति गुप्त लिपि की पश्चिमी शैली से हुई है, और उसके प्राचीनतम लेख 8वीं शताब्दी से मिलते हैं।

      ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोत-

      एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण का विस्तृत विवरण सबसे पहले ऋग्वेद और उसके बाद छान्दोग्योपनिषद में मिलता है।

       फिर बहुत बाद में  महाकाव्य महाभारत में कृष्ण के विषय में लिखा गया है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है। महाकाव्य की मुख्य कहानियों में से कई कृष्ण केंद्रीय हैं श्री भगवत गीता का निर्माण करने वाले महाकाव्य के छठे पर्व ( भीष्म पर्व ) के अठारहवे अध्याय में युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान देते हैं।भले ही ज्ञान संक्षेप में रहा होगा जिसे बाद में विस्तार कर दिया गया।

       महाभारत के बाद के परिशिष्ट हरिवंशपुराण में कृष्ण के बचपन और युवावस्था का एक विस्तृत संस्करण है। 

      इसके अतिरिक्त 

      भारतीय-यूनानी मुद्रण में भी कृष्ण चरित्र अंकित हैं।-

      180  ईसा पूर्व लगभग इंडो-ग्रीक राजा एगैथोकल्स ने देवताओं की छवियों पर आधारित कुछ सिक्के जारी किये थे। 

      भारत में अब उन सिक्को को वैष्णव दर्शन से संबंधित माना जाता है।   सिक्कों पर प्रदर्शित देवताओं को विष्णु के अवतार बलराम -( संकर्षण) के रूप में देखा जाता है जिसमें गदा और हल और वासुदेव-कृष्ण , शंख और सुदर्शन चक्र दर्शाये हुए हैं।

      प्राचीन संस्कृत व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भारतीय ग्रंथों के देवता कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई संदर्भों का उल्लेख किया है।

       पाणिनी की श्लोक ३.१.२६ पर अपनी टिप्पणी में, वह कंसवध अथवा कंस की हत्या का भी उल्लेख करते हैं, जो कि कृष्ण से सम्बन्धित किंवदंतियों का एक महत्वपूर्ण अंग है। 

      पाणिनि का समय भी ईसा पूर्व 800 से 400 के मध्य है, विद्वान् पाणिनि का समय भगवान बुद्ध से पूर्व बताते हैं,। पाणिनी पणि ( फोनीशियन ) जाति से सम्बन्धित थे जिन्होंने भाषा और लिपि पर कार्य किया।

      दुनिया की प्रथम लिपि फोनेशियन पति लोगो की देन है  जिससे कालांतर में दुनियाभर की अन्य लिपियाँ विकसित हुई ।

      ___________________

      बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं। 

      ब्राह्मी लिपि के विषय में नीचे कुछ विश्लेषण है। जिसमें कृष्ण चरित्र को लिखा गया है।

      हेलीडियोरस स्तंभ और अन्य शिलालेख-

      मध्य भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में औपनिवेशिक काल के पुरातत्वविदों ने एक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख के साथ एक स्तंभ की खोज की थी। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए, इसे १२५ और १०० ईसा पूर्व के बीच का घोषित किया गया है और ये निष्कर्ष निकाला गया कि यह एक इंडो-ग्रीक प्रतिनिधि द्वारा एक क्षेत्रीय भारतीय राजा के लिए बनवाया गया था जो ग्रीक राजा एंटिलासिडास के एक राजदूत के रूप में उनका प्रतिनिधि था। इसी इंडो-ग्रीक के नाम अब इसे हेलेडियोरस स्तंभ के रूप में जाना जाता है। इसका शिलालेख "वासुदेव" के लिए समर्पण है जो भारतीय परंपरा में कृष्ण का दूसरा नाम है। कई विद्वानों का मत है कि इसमें "वासुदेव" नामक देवता का उल्लेख है, क्योंकि इस शिलालेख में कहा गया है कि यह " भागवत हेलियोडोरस" द्वारा बनाया गया था और यह " गरुड़ स्तंभ" (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)।

      इसके अतिरिक्त, शिलालेख के एक अध्याय में कृष्ण से संबंधित कविता भी शामिल हैं महाभारत के अध्याय ११/७ का सन्दर्भ देते हुए बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम ( दमः ), उदारता ( त्याग ) और सतर्कता ( अप्रामदाह )

      हेलियोडोरस शिलालेख एकमात्र प्रमाण नहीं है। तीन हाथीबाड़ा शिलालेख और एक घोसूंडी शिलालेख,जो कि राजस्थान राज्य में स्थित हैं  और आधुनिक कार्यप्रणाली के अनुसार जिनका समयकाल 19 वीं  सदी ईसा पूर्व है उनमें भी कृष्ण का उल्लेख किया गया है। पहली सदी ईसा पूर्व , संकर्षण (बलराम का एक नाम ) और वासुदेव का उल्लेख करते हुए, उनकी पूजा के लिए एक संरचना का निर्माण किया गया था। ये चार शिलालेख प्राचीनतम ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से एक है 

      हाथीबाड़ा घोसुण्डी शिलालेख (या, घोसुंडी शिलालेख, या हाथीबाड़ा शिलालेख), राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के पास प्राप्त शिलालेख हैं जिनकी भाषा संस्कृत है और लिपि ब्राह्मी है। ये ब्राह्मी लिपि में, संस्कृत के प्राचीनतम शिलालेख हैं। हाथीबाड़ा शिलालेख, नगरी गाँव से प्राप्त हुए थे जो चित्तौड़गढ़ से 8 किलोमीटर उत्तर में है।

      घोसुंडी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)

      यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है।

      घोसुंडी का शिलालेख नगरी चित्तौड़ के निकट घोसुण्डी गांव में प्राप्त हुआ था इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। घोसुंडी का शिलालेख सर्वप्रथम डॉक्टर डी आर भंडारकर द्वारा पढ़ा गया यह राजस्थान में वैष्णव या भागवत संप्रदाय से संबंधित सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख है इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि उस समय तक राजस्थान में भागवत धर्म लोकप्रिय हो चुका था इसमें भागवत की पूजा के निमित्त शिला प्राकार बनाए जाने का वर्णन है

      इस लेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्शण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन आदि में है।

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      कई पुराणों में कृष्ण की जीवन कथा को बताया या कुछ इस पर प्रकाश डाला गया है । दो पुराण, भागवत पुराण और विष्णु पुराण में कृष्ण की कहानी की सबसे विस्तृत जानकारी है  , लेकिन इन और अन्य ग्रंथों में कृष्ण की जीवन कथाएं अलग-अलग हैं और इसमें महत्वपूर्ण असंगतियां हैं। भागवत पुराण में बारह पुस्तकें उप-विभाजित हैं जिनमें ३३२ अध्याय, संस्करण के आधार पर १६,००० और १८,००० छंदो के बीच संचित हैं  । पाठ की दसवीं पुस्तक, जिसमें लगभग ४००० छंद (~ २५ %) शामिल हैं और कृष्ण के बारे में किंवदंतियों को समर्पित है, इस पाठ का सबसे लोकप्रिय और व्यापक रूप से अध्ययन किया जाने वाला अध्याय है।

      • ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक (असोक) द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। नये अनुसंधानों के आधार 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के लेख भी मिले है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी।
      • अशोक ने अपने लेखों की लिपि को 'धम्मलिपि' का नाम दिया है; उसके लेखों में कहीं भी इस लिपि के लिए 'ब्राह्मी' नाम नहीं मिलता। लेकिन बौद्धोंजैनों तथा ब्राह्मण-धर्म के ग्रंथों के अनेक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' लिपि ही रहा होगा।
      • बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर' में 64 लिपियों के नाम दिए गए हैं। इनमें पहला नाम 'ब्राह्मी' है और दूसरा 'खरोष्ठी' है । 
      • जैनों के 'पण्णवणासूत्र' तथा 'समवायांगसूत्र' में 16 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें से पहला नाम 'बंभी' (ब्राह्मी) का है।
      • 'भगवतीसूत्र' में सर्वप्रथम 'बंभी' (ब्राह्मी) लिपि को नमस्कार करके (नमो बंभीए लिविए) सूत्र का आरंभ किया गया है।
      • 668 ई. में लिखित एक चीनी बौद्ध विश्वकोश 'फा-शु-लिन्' में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उल्लेख मिलता है। इसमें लिखा है कि, 'लिखने की कला का शोध दैवी शक्ति वाले तीन आचार्यों ने किया है; उनमें सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा है, जिसकी लिपि बाईं ओर से दाहिनी ओर को पढ़ी जाती है।'
      • इससे यही जान पड़ता है कि ब्राह्मी भारत की सार्वदेशिक लिपि थी और उसका जन्म भारत में ही हुआ किंतु बहुत-से विदेशी पुराविद मानते हैं कि किसी बाहरी वर्णमालात्मक लिपि के आधार पर ही ब्राह्मी वर्णमाला का निर्माण किया गया था।
      • ब्यूह्लर जैसे प्रसिद्ध पुरालिपिविद की मान्यता रही कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण फिनीशियन लिपि के आधार पर हुआ। इसके लिए उन्होंने एरण के एक सिक्के का प्रमाण भी दिया था।
      • एरण (सागर ज़िला, म.प्र.) से तांबे के कुछ सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक पर 'धमपालस' शब्द के अक्षर दाईं ओर से बाईं ओर को लिखे हुए मिलते हैं। चूंकि, सेमेटिक लिपियां भी दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थीं, इसलिए ब्यूह्लर ने इस अकेले सिक्के के आधार पर यह कल्पना कर ली कि आरंभ में ब्राह्मी लिपि भी सेमेटिक लिपियों की तरह दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। ओझा जी तथा अन्य अनेक पुरालिपिविदों ने ब्यूह्लर की इस मान्यता का तर्कयुक्त खंडन किया है। उस समय ओझा जी ने लिखा था, 'किसी सिक्के पर लेख का उलटा आ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि सिक्के पर उभरे हुए अक्षर सीधे आने के लिए सिक्के के ठप्पे में अक्षर उलटे खोदने पड़ते हैं, अर्थात् जो लिपियां बाईं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती हैं उनके ठप्पों में सिक्कों की इबारत की पंक्ति का आरंभ दाहिनी ओर से करके प्रत्येक अक्षर उलटा खोदना पड़ता है, परंतु खोदनेवाला इसमें चूक जाए और ठप्पे पर बाईं ओर से खोदने लग जाए तो सिक्के पर सारा लेख उलटा आ जाता है, जैसा कि एरण के सिक्के पर पाया जाता है।' साथ ही, ओझा जी ने लिखा था, 'अब तक कोई शिलालेख इस देश में ऐसा नहीं मिला है कि जिसमें ब्राह्मी लिपि फ़ारसी की नाईं उलटी लिखी हुई मिली हो।'
      • यह 1918 के पहले की बात है।


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      पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। 

      यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है। 

      पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु उसका उत्पत्ति मिलान वेदों की भाषा से बैठता है।

       उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं।

      अकारान्त संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेभिर्, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।

      वैदिक भाषा में देवेभिर्- और दैवै: दोनों शब्द प्रचलन में रहे परन्तु पूर्व शब्द देवेभिर् ही है परन्तु लौकिक भाषा संस्कृत में देवै: ही प्रचलित है।

      अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उत्पन्न मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं।

      पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई। 

      पालि के कच्चानमोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।

      पालि भाषा का उद्भव:-

      पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाहरी देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्री लंकाबर्मा तिब्बत आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।

      ‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रंथारूढ न हो जाय। 

      इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारंभ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई। ‘पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है। परन्तु अश्व घोष ने बुद्ध चरित संस्कृत भाषा में लिखा-

       वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा संबंधी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने पालि शब्द -दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल टिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।

      ‘पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद(थेरवाद)-बौद्धधर्म का तिपिटक और उसका संपूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया। पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। मगध आधुनिक समय में विहार का दक्षिणी भाग ही पहले मगध था "अधुना वेहाराख्यदेशस्य दक्षिण- भागः"

      वा हार की पालि भाषा के  उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं। 

      मागधी ही मूल भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चोल वंश के परिच्छेद 37 की 244 वीं गाथा में कहा गया है “सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि। निश्चय ही सिंहली परंपरा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परंपरा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है।

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      पालि भाषा ब्राह्मी लिपि में है जिस लिपि की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।-

      • यह बाँये से दाँये की तरफ लिखी जाती है।
      • यह मात्रात्मक लिपि है। व्यंजनों पर मात्रा लगाकर लिखी जाती है।
      • कुछ व्यंजनों के संयुक्त होने पर उनके लिये 'संयुक्ताक्षर' का प्रयोग (जैसे प्र= प् + र)
      • वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय लिपियों में है।

      ब्राह्मी लिपि के अभिलेख-

      सम्राट अशोक के ब्राह्मी लिपि में अंकित प्रमुख अभिलेख
      • रुम्मिनदेई - स्तम्भलेख
      • गिरनार - शिलालेख
      • बराबर - गृहालेख
      • मानसेहरा - शिलालेख
      • शाहबाजगद्री - शिलालेख
      • दिल्ली - स्तम्भलेख
      • गुर्जर - लघु-शिलालेख
      • मस्की- शिलालेख
      • कान्धार - द्विभाषी शिलालेख

      ब्राह्मी की संतति-

      ब्राह्मी लिपि से उद्गम हुई कुछ लिपियाँ और उनकी आकृति एवं ध्वनि में समानताएं स्पष्टतया देखी जा सकती हैं। इनमें से कई लिपियाँ ईसा के समय के आसपास विकसित हुई थीं। इन में से कुछ इस प्रकार हैं-

      १-देवनागरी, २-बांग्ला लिपि, ३-उड़िया लिपि, ४-गुजराती लिपि, ५-गुरुमुखी, ६-तमिल लिपि, ७-मलयालम लिपि, ८-सिंहल लिपि, ९-कन्नड़ लिपितेलुगु लिपि, १०तिब्बती लिपि, ११-रंजना, प्रचलित १२-नेपाल, १३-भुंजिमोल, १४-कोरियाली, १५-थाई, १६-बर्मेली, १७-लाओ, १८-ख़मेर, १९-जावानीज़, २०-खुदाबादी लिपि आदि।

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       जबकि वेद शब्द भारोपीय होने अनेक भाषाओ में  है जिसका कुछ विवरण नीचे है।
      परन्तु यह वैदिक शब्द ही है जो संस्कृत में  विद धातु में + ल्युट्( अन.) + टाप्) प्रत्यय जोड़ने से बनता है  जिसका रूप अर्थ- ज्ञान - तथा  सुख-दुःख का अनुभव ( बोध) और विवाह है ।
       
      विद -धातु भारोपीय परिवार ही नही अपितु सैमेटिक और हैमेटिक भाषाओं में भी है ।

      It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: 
      १-Vedic language- veda "I know;" 
      २-Avestan vaeda "I know;"
      ३-Greek oida,
      ४- Doric woida "I know,"
       ५-idein "to see;"

       ६-Old Irish fis "vision," find "white," i.e. "clearly seen," fiuss "knowledge;" 

      ७-Welsh gwyn,

       ८-Gaulish vindos,

       ९-Breton gwenn "white;"

       १०-Gothic, 

      ११-Old Swedish, Old English witan "to know;"

       १२-Gothic weitan "to see;" 

      १३-English wise, German wissen "to know;"

      १४- Lithuanian vysti "to see;" 

      १५-Bulgarian vidya "I see;" 

      १६-Polish widzieć "to see," wiedzieć "to know;" 

      १७-Russian videt' "to see," vest' "news
      १८- Old Russian vedat' "to know."

      wed (v.)
      Old English weddian "to pledge oneself, covenant to do something, vow; betroth, marry,"
       also "unite (two other people) in a marriage, conduct the marriage ceremony," from Proto-Germanic *wadja (source also of Old Norse veðja, Danish vedde "to bet, wager," Old Frisian weddia "to promise," Gothic ga-wadjon "to betroth"), from PIE root *wadh- (1) "to pledge, to redeem a pledge" (source also of Latin vas, genitive vadis "bail, security," 
      Lithuanian vaduoti "to redeem a pledge"), which is of uncertain origin.

      पुरानी अंग्रेजी विवाह wed- "स्वयं को प्रतिज्ञा करना, कुछ करने की प्रतिज्ञा करना, प्रतिज्ञा करना; सगाई करना, विवाह करना,इसके अलावा "एक विवाह में (दो अन्य लोगों को) एकजुट करें, विवाह समारोह का संचालन करें," प्रोटो-जर्मनिक *वाडजा (पुराने नॉर्स वेजा का भी स्रोत, डेनिश वेड्डे "शर्त लगाना, दांव लगाना," ओल्ड फ़्रिसियाई वेडिया "वादा करना," गोथिक) गा-वाडजॉन "टू बीट्रोथ"), पीआईई रूट से *वाध- (1) "प्रतिज्ञा करना, प्रतिज्ञा चुकाना" (स्रोत)लैटिन का भी वास, जननेटिव वादीस "जमानत, सुरक्षा,"लिथुआनियाई वाडुओटी "प्रतिज्ञा भुनाने के लिए"), जो अनिश्चित मूल का है।
       _______________

      The sense has remained closer to "pledge" in other Germanic languages (such as German Wette "a bet, wager"); development to "marry" is unique to English. "Originally 'make a woman one's wife by giving a pledge or earnest money', then used of either party" [Buck]. Passively, of two people, "to be joined as husband and wife," from c. 1200. Related: Wedded; wedding.
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      वेदाना (वेदना)। अर्थ भारतीय पुराणों में—एक देवी जो जीवित प्राणियों को पीड़ा पहुँचाती थी। अधर्म ने हिंसा से विवाह किया। उनकी नृता और निऋति नाम की दो बेटियाँ पैदा हुईं। उनसे भय, नरक, माया और वेदना का जन्म हुआ। मृत्यु माया की पुत्री थी। दुख वेदना का पुत्रब॒छपनव था। (अग्नि पुराण, अध्याय 20)।
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      बौद्ध धर्म में
      थेरवाद (बौद्ध धर्म की प्रमुख शाखा)
      थेरवाद शब्दावली में वेदना
      स्रोत : विज्डम लाइब्रेरी: धम्मसंगनी
      वेदना बहुत सामान्य अर्थ वाला शब्द है, जिसका अर्थ है संपर्क या प्रभाव पर शारीरिक या मानसिक, भावना या प्रतिक्रिया। अनुभूति शायद ही भावना के रूप में इतनी वफादार प्रस्तुति है,!

       हालांकि वेदना को अक्सर इंद्रिय-गतिविधि में "संपर्क से पैदा हुआ" के रूप में जाना जाता है, इसे हमेशा आम तौर पर तीन प्रजातियों से मिलकर परिभाषित किया जाता है -

      आनंद (ख़ुशी),दर्द (बीमार),और तटस्थ भावना
      - एक सुखवादी पहलू जिसके लिए 'भावना' शब्द ही पर्याप्त है। इसके अलावा, यह प्रतिनिधि भावना को समाहित करता है।

      वेदना का यह सामान्य मानसिक पहलू, शारीरिक रूप से स्थानीय संवेदनाओं से अलग है - उदाहरण के लिए, दांत दर्द - संभवतः उत्तर में "मानसिक" (सीटासिकम) शब्द द्वारा जोर दिया गया है। साइ. बताते हैं कि इस अभिव्यक्ति (= सीतानिसिटट्टम) से "शारीरिक सुख समाप्त हो जाता है" (असल. 139)।

      (ऋग्वेद 1.176.4)
      असुन्वन्तं समं जहि दूणाशं यो न ते मयः ।
      अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदोहते ॥४॥

      अनुवाद:-
      हे इन्द्र ! सोमरस न निचोड़ ने वाले दु: साध्य विनाश वालों और सुख न पहुँचाने वालों का विनाश करो। ऐसे लोगों का धन हमें दो । तुम्हारी स्तुति करने वाला ही धन पाता है ।४। ऋग्वेद-(१/१७६/४)
      वेदनं= धनम्।vedanaṃ < vedanam < vedana[noun], accusative, singular, neuter “property; marriage; obtainment.”
      = अनुवाद:

       (असुन्वन्तम्)= अभिषवादिनिष्पादनपुरुषार्थरहितम् (समम्)= सर्वम् (जहि)= मारो- हन् धातु लोटलकार । (दूणाशम्)= दुःखेन नाशनीयम् (यः)=जो (न)= निषेधे (ते)= तव (मयः)= सुखम् (अस्मभ्यम्) (अस्य) (वेदनम्)= धनम् (दद्धि) धर । अत्र दध धारण इत्यस्माद्बहुलं छन्दसीति शपो लुक् व्यस्ययेन परत्मैपदञ्च । (सूरिः) =विद्वान् (चित्) इव (ओहते) व्यवहारान् वहति । अत्र वाच्छन्दसीति संप्रसारणं लघूपधगुणः ॥ ४ ।

      (असुन्वन्तम्) पदार्थों के सार खींचने आदि पुरुषार्थ से रहित (दूणाशम्) दुःख से विनाशने योग्य (समम्) समस्त को (जहि) मारो (यः) जो (सूरिः) विद्वान्  (चित्) समान (ओहते) व्यवहारों की प्राप्ति करता है (ते) तुम्हारे (मयः) सुख को (न) नही (अस्य) इसके (वेदनम्) धन को (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (दद्धि) याच्ञायाम् निघण्टुः । अयं धातुरित्यन्ये । दे दो ॥ ४ ।

      (ऋग्वेद 4.30.13)

      उत शुष्णस्य धृष्णुया प्र मृक्षो अभि वेदनम्। पुरो यदस्य सम्पिणक् ॥१३॥

       अनुवाद:-
      "तूने वीरता से शूष्ण का धन छीन लिया , जब तुमने उसके नगरों को ध्वस्त कर दिया था।"

      अक्सर बौद्धवादी अपने पूर्वदुराग्रह द्वारा कहा करते हैं।

      कि पालि भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात भाषा है। जिसे भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात लिपि धम्म लिपि में लिखा जाता था। जिसका प्रमाण सम्राट अशोक के शिलालेख और स्तंभ से प्राप्त होता है।पाली भाषा भारत के जनमानस की भाषा थी।

       कुछ इतिहासकार संस्कृत को सबसे प्राचीन भाषा मानते है पर ये प्रमाणित नहीं है क्योंकि पाली भाषा में ऋ, क्ष, त्र, ज्ञ, ऐ, औ अक्षर नही है। इन अक्षरों की उत्पत्ति बाद के समय में हुई।

       संस्कृत का सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में ऋ से ये आसानी से समझा जा सकता है की पाली भाषा ही भारत की सबसे प्राचीन भाषा है। 
      पालि की प्रवृति साधारण जन के अनुरूप है अत: (ऋ) वर्ण का उच्चारण (र) रूप में ही होता है।

      "पालि व्याकरण परंपरा-पालि व्याकरण में पाच व्याकरण परंपरा प्रसिद्ध है –

      1.बोधिसत्त

      2.सब्बगुणाकार

      3.कच्चान

      4.मोग्गल्लान

      5.सद्दनीति

      बोधिसत्त  और  सब्बगुणाकार अधिक प्राचीन व्याकरण है, जो  वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।

      पालि भाषा में कच्चायन  व्याकरण में अक्खरापादयो एकचत्तालिसं अर्थात  41 वर्ण माने गए है तथा मोग्गल्लान

      व्याकरण में तेचत्तालीस-क्खरा वण्णा अर्थात  43 वर्ण माने जाते है। पाली भाषा में मोग्गल्लान व्याकरण

      अधिक प्रचलित है। प्रस्ततु  लेख में  मोग्गल्लान व्याकरण का  आधार लिया गया है।

      स्वर

      पालि भाषा में दसादो सरा अर्थात 10 स्वर है।

      अ,आ, इ, ई, उ, ऊ, एँ, ऐ , ओँ, ओ।

          द्वेद्वे सवण्णा  अर्थात दो-दो स्वर सवर्ण कहे गए है। पुब्बो रस्सो  अर्थात पूर्व स्वर र्हस्व माना जाता है और परो

      दीघो  अर्थात बाद का स्वर दीर्घ  माना जाता है।

      व्यञ्जन

          पालि भाषा में  33  व्यञ्जन है।

      ङ्
      अं

          

      पञ्‍च पञ्‍चका वग्गा का तात्पर्य  पाच- पाच वण्ण के  पाच वग्ग  है-जसे कवग्ग, चवग्ग, टवग्ग,तवग्ग,पवग्ग. बिन्दु  निग्गहीतं अर्थात ‘अं’ को निग्गहित (अनुस्वार) कहते है।

      जो वर्ण पालि भाषा में नहीं है उसके लिए प्रयुक्त वर्ण

      • लृ ऐ, औ पालि भाषा में नहीं है.
      • रेफ भी पालि भाषा में नहीं है। कभी कभी रेफ का लोप होता है तो कभी  कभी ‘र’ होता है।

      जैसे-

      कर्म = कम्म

      महार्ह = महारहो

      •  के स्थान पर अ, इ ,उ का प्रयोग करते है।

      जैसे-

      गृहं= गहं

      ऋणं= इणं

      ऋतु= उतु

      •  के स्थान पर ए, इ, ई का प्रयोग करते है।

      जैसे-

      ऐरावण = एरावण

      ग्रैवेयं = गीवेय्यं

      सैन्धव = सिन्धव

      •  के स्थान पर ओ, उ का प्रयोग करते है।

      जैसे-

      दौवारीक =दोवारीक

      मौक्तिक =मुत्तिकं

      • श,ष के स्थान पर  का प्रयोग करते है।

      जैसे-

      ऋषि =इसि

      शाखा=साखा

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      तथागत बुद्ध ने अपने उपदेश पाली में ही दिए है। धम्म ग्रंथ त्रिपिटक की भाषा भी पाली ही हैl

      संस्कृत में 13 स्वर, पालि भाषा में 10 स्वर, प्राकृत में 10 स्वर, अपभ्रंश में 8 तथा हिन्दी में 11 स्वर होते है।

      'पालि' शब्द का निरुक्त:-
      पालि शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों के नाना मत पाए जाते हैं। किसी ने इसे पाठ शब्द से तथा किसी ने पायड (प्राकृत) से उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। एक जर्मन विद्वान् मैक्स वैलेसर ने पालि को 'पाटलि' का संक्षिप्त रूप बताकर यह मत व्यक्त किया है कि उसका अर्थ पाटलिपुत्र की प्राचीन भाषा से है।
      इन व्युत्पत्तियों की अपेक्षा जिन दो मतों की ओर विद्वानों का अधिक झुकाव है, उनमें से एक तो है पं॰ विधुशेखर भट्टाचार्य का मत, जिसके अनुसार पालि, पंक्ति शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। पंक्ति को मराठी में पाळी बोलते है और मराठी में और संस्कृत में पालन शब्द भी है जिसका अर्थ है जिसको लोग पाल पोसकर बड़ा करते है या पालन का अर्थ जिसका नियम के अनुसार अवलंब या प्रयोग किया जाता है। इस मत का प्रबल समर्थन एक प्राचीन पालि कोश अभिधानप्पदीपिका (12वीं शती ई.) से होता है,

      क्योंकि उसमें तंति (तंत्र), बुद्धवचन, पंति (पंक्ति) और पालि इन शब्दों मे भी स्पष्ट ही पालि का अर्थ पंक्ति ही है। पूर्वोक्त दो अर्थों में पालि के जो प्रयोग मिलते हैं, उनकी भी इस अर्थ से सार्थकता सिद्ध हो जाती है। 
      बुद्धवचनों की पंक्ति या पाठ की पंक्ति का अर्थ बुद्धघोष के प्रयोगों में बैठ जाता है। तथापि ध्वनिविज्ञान के अनुसार पंक्ति शब्द से पालि की व्युत्पत्ति नहीं बैठाई जा सकती। उसकी अपेक्षा पंक्ति के अर्थ में प्रचलित देशी शब्द पालि, पाठ्ठ, पाडू से ही इस शब्द का सबंध जोड़ना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है पालि शब्द पीछे संस्कृत में भी प्रचलित हुआ पाया जाता है। अभिधानप्पदीपिका में जो पालि की व्युत्पत्ति "पालेति रक्खतीति पालि", इस प्रकार बतलाई गई है उससे भी इस मत का समर्थन होता है। किंतु "पालि महाव्याकरण" के कर्ता भिक्षु जगदीश कश्यप ने पालि को पंक्ति के अर्थ में लेने के विषय में कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं और उसे मूल त्रिपिटक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर प्रयुक्त 'परीयाय' (पर्याय) शब्द से व्युत्पन्न बतलाने का प्रयत्न किया है। सम्राट् अशोक के भाब्रू शिलालेख में त्रिपिटक के 'धम्मपरियाय' शब्द स्थान पर मागधी प्रवृत्ति के अनुसार 'धम्म पलियाय' शब्द का प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ बुद्ध-उपदेश या वचन होता है। कश्यप जी के अनुसार इसी पलियाय शरण से पालि की व्युत्पत्ति हुई।


      भाषा की दृष्टि से पालि उस मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा का एक रूप है जिसका विकास लगभग ई.पू. छठी शती से माना जाता है। उससे पूर्व की आदियुगीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप वेदों तथा ब्राह्मणों, उपनिषदों एवं रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में प्राप्त होता है, जिन्हें 'वैदिक भाषा' एवं 'संस्कृत भाषा' कहते हैं। वैदिक भाषा एवं संस्कृत की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं का भेद प्रमुखता से निम्न बातों में पाया जाता है :
      _____
      ध्वनियों में ऋ, लृ, ऐ, औ - इन स्वरों का अभाव,
      ए और ओ की ह्रस्व ध्वनियों का विकास,
      श्, ष्, स् इन तीनों ऊष्मों के स्थान पर किसी एकमात्र का प्रयोग (सामान्यतः स का प्रयोग)
      विसर्ग ( ः ) का सर्वथा अभाव तथा असवर्णसंयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने अथवा सवर्ण संयोग में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति।
      व्याकरण की दृष्टि से
      _______
      संज्ञा एवं क्रिया के रूपों में द्विवचन का अभाव,
      पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में अभेद और व्यत्यय,
      कारकों एवं क्रियारूपों में संकोच,
      हलन्त रूपों का अभाव,
      कियाओं में परस्मैपद, आत्मनेपद तथा भवादि, अदादि गणों के भेद का लोप।
      ये विशेषताएँ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के सामान्य लक्षण हैं और देश की उन लोकभाषाओं में पाए जाते हैं !

      जिनका सुप्रचार उक्त अवधि से कोई दो हजार वर्ष तक रहा और जिनका बहुत-सा साहित्य भी उपलब्ध है।

      काल के आधार पर प्राकृत भाषाओं के भेद
      उक्त सामान्य लक्षणों के अतिरिक्त इन भाषाओं में अपने-अपने देश और काल की अपेक्षा अनेक भेद पाए जाते हैं। काल की दृष्टि से उनके तीन स्तर माने गए हैं -
      ___________
      पाली भाषा का इतिहास-
      प्राक्मध्यकालीन (ई.पू. 600 से ई. सन् 100 तक),
      अन्तर मध्यकालीन (ई. सन् 100 से 600 तक), तथा
      उत्तर मध्यकालीन (ई.सन् 600 से 1000 तक)।
      _________
      इन सब युगों की भाषाओं को एक सामान्य नाम प्राकृत दिया गया है। इसके प्रथम स्तर को भाषाओं का स्वरूप अशोक की प्रशस्तियों तथा पालि साहित्य में प्राप्त होता है।
       द्वितीय स्तर की भाषाओं में मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री प्राकृत भाषाएँ है जिनका विपुल साहित्य उपलब्ध है। तृतीय स्तर की भाषाओं को अपभ्रंश एव अवहट्ठ नाम दिए गए हैं।

      देशभेद की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के भेद
      देशभेद की दृष्टि से मध्यकालीन भाषाओं के भेद का सर्वप्राचीन परिचय मौर्य सम्राट् अशोक (ई.पू. तृतीय शती) की धर्मलिपियों( ब्राह्मी) में प्राप्त होता है। इनमें तीन प्रदेशभेद स्पष्ट हैं - पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी। 
      पूर्वी भाषा का स्वरूप धौली और जौगढ़ की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें (र) वर्ण के स्थान पर (ल ) तथा आकारांत शब्दों के कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति (ए )सुप्रतिष्ठित है। प्राकृत के वैयाकरणों ने इन प्रवृत्तियों को मागधी प्राकृत के विशेष लक्षणों में गिनाया है। वैयाकरणों के मतानुसार इस मागधी प्राकृत का तीसरा विशेष लक्षण तीनों ऊष्म वर्णों के स्थान पर (श्) का प्रयोग है। किन्तु अशोक के उक्त लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि यहाँ तीनों ऊष्मों के स्थान पर (स् )ही प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण अशोक की इस पूर्वी प्राकृत को मागधी न कहकर अर्धमागधी का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त है।

      पश्चिमी भाषा भेद का प्रतिनिधित्व करनेवालों में गिरनार की प्रशस्तियाँ हैं। इनमें (र) और (ल) का भेद सुरक्षित है। ऊष्मों के स्थान पर (स् )का प्रयोग है तथा अकारान्त कर्ता कारक एकवचन रूप ओ में अन्त होता है। इन प्रवृत्तियों से स्पष्ट है कि यह भाषा शौरसेनी का प्राचीन रूप है।
      पालि शब्द भी पल्लि शब्द से विकसित हुआ - पल्ली का अर्थ गाँव होता है ।
      यानि पाली ग्रामीणों की स्वाभाविक भाषा-
       
      पश्चिमोत्तर की भाषा का रूप शहबाजगढ़ी और मानसेरा की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें प्राय: (श्, ष्, स्) ये तीनों ऊष्म वर्ण अपने स्थान पर सुरक्षित हैं। कहीं-कहीं कुछ व्यत्यय दृष्टिगोचर होता है। रकारयुक्त संयुक्तवर्ण भी दिखाई देते हैं, तथा ज्ञ और न्य के स्थान पर रंञ, का प्रयोग (जैसे रंञो ) पाया जाता है। ये प्रवृत्तियाँ उस भाषा को पैशाची प्राकृत का पूर्व रूप इंगित करती हैं।

      पालि त्रिपिटक का कुछ भाग अवश्य ही अशोक के काल में साहित्यिक रूप धारण कर चुका था क्योंकि उसके लाहुलोवाद, मोनेय्यसुत्त आदि सात प्रकरणों का उल्लेख उनकी भाब्रू की प्रशस्ति में हुआ है। किंतु उपलब्ध साहित्य की भाषा में अशोक के पूर्वी शिलालेख की भाषा संबंधी विशेषताओं का प्राय: सर्वथा अभाव है। व्यापक रूप से पालि भाषा का स्वरूप गिरनार प्रशस्ति की भाषा से सर्वाधिक मेल खाता है और इसी कारण पालि मूलतः पूर्वदेशीय नहीं, किन्तु मध्यदेशीय है। जिस विशेषता के कारण पालि मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के प्रथम स्तर की गिनी जाती है (द्वितीय स्तर की नही), वह है उसमें मध्यवर्ती अघोष व्यंजनों के लोप तथा महाप्राण वर्णों के स्थान पर ह् के आदेश का अभाव। ये प्रवृत्तियाँ द्वितीय स्तर की भाषाओं के सामान्य लक्षण हैं। हाँ, कहीं कहीं क् त् जैसे अघोष वर्णों के स्थान पर ग् द् आदि सघोष वर्णों का आदेश दिखाई देता है। किंतु यह एक तो अल्पमात्रा में ही है और दूसरे वह प्रथम स्तर की उक्त मर्यादा के भीतर अपेक्षाकृत पश्चात्काल की प्रवृत्ति का द्योतक है।
      ____________________
      पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय- आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है।

      पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु वेदों की भाषा से बैठता है। उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं। अकारांत संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेर्भि, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।
      अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उद्भूत मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं। पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई।
       पालि के कच्चान, मोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।
      वैदिक भाषा का वह रूप जिसको संस्कार अथवा सुधार कर नगरीय व्यवस्था के वाग्व्यवहार सञ्चालन हेतु निश्चित किया गया था वही भाषा संस्कृत थी।
      जबकि पालि सीधे वैदिक रूपों को स्वाभाविक रूप में ग्रहण करती है जो जन साधारण के अनुरूप थे।
      पालि एक नदी के समान प्रवाहित हुई तो संस्कृत नहर के समान - 
      यही क्रिया दोनों के भिन्न भिन्न होने का कारण बनी-
      जबकि पालि और संस्कृत दौंनो का एक ही श्रोत है वैदिक भाषा!

      पालि भाषा का उद्भव-
      पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाह्य देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्री लंका, बर्मा आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।

      ‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रंथारूढ न हो जाय। इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारंभ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई। ‘पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है। वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा संबंधी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल टिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।

      ‘पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद बौद्धधर्म का त्रिपिटक और उसका संपूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया। पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। इसके उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं। 
      मागधी ही मूल भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चूल वंश के परिच्छेद 37की 244 वीं गाथा में कहा गया है “सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि।

       निश्चय ही सिंहली परंपरा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परंपरा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है। यह बाते हम पूर्व में कह चुके हैं। पालि भाषा की लिपि का विकास वेदों में वर्णित पणियों की लिपि फोनेशियन( प्यूनिक) लिपि से हुआ है।

       


      फेनिशिया (1200-500 ईसा पूर्व) पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में आधुनिक लेबनान और सीरिया के तट पर रहने वाले सेमिटिक-भाषी कनानियों की सभ्यता थी। टायर और सिडोन जैसे प्रमुख शहरों से , फोनीशियन व्यापारियों और नाविकों ने भूमध्य सागर की खोज की , व्यापक वाणिज्य में लगे, और पश्चिमी भूमध्य सागर में कार्थेज और अन्य उपनिवेशों की स्थापना की।

      इतिहास :-जब इसराइली एक संयुक्त राज्य का गठन कर रहे थे,तब  फोनीशियन (जो खुद को "कैनानी"/कनानी कहते थे) 1200 ईसा पूर्व में सीरिया-फिलिस्तीन के क्षेत्र में बस गए थे। 1100 ईसा पूर्व तक कनानी क्षेत्र सिकुड़ कर पहाड़ों और समुद्र के बीच वर्तमान लेबनान की एक संकीर्ण पट्टी में सिमट गया था, क्योंकि इस्राएलियों और पलिश्तियों ने उनकी भूमि पर विजय प्राप्त कर ली थी। फोनीशियनों ने तट पर छोटे शहर-राज्य ,बाइब्लोस , बेरिटस , सिडोन और टायर बसाए। 
      1000 ईसा पूर्व से पहले, बाइब्लोस सबसे महत्वपूर्ण फोनीशियन शहर-राज्य था, जो माउंट लेबनान की ढलानों से देवदार की लकड़ी और पपीरस का वितरण केंद्र था। मिस्र से . राजा हीराम , जो 969 ईसा पूर्व में सत्ता में आए थे, टायर की प्रमुखता में वृद्धि के लिए जिम्मेदार थे, उन्होंने राजा सोलोमन के साथ घनिष्ठ गठबंधन बनाया और यरूशलेम में पहले मंदिर के निर्माण के लिए कुशल फोनीशियन कारीगरों और देवदार की लकड़ी प्रदान की । 800 ईसा पूर्व में टायर ने पास के सिडोन पर कब्ज़ा कर लिया और भूमध्यसागरीय तटीय व्यापार पर हावी हो गया। टायर व्यावहारिक रूप से अभेद्य था, जिसमें एक नहर से जुड़े दो बंदरगाह, एक बड़ा बाज़ार, राजकोष और अभिलेखागार के साथ एक शानदार महल, और देवताओं मेलकार्ट और एस्टार्ट के मंदिर थे । 30,000 निवासियों में से कुछ मुख्य भूमि पर उपनगरों में रहते थे।

      900 ईसा पूर्व के बाद टायर ने अपना ध्यान पश्चिम की ओर लगाया और सीरियाई तट से 100 मील दूर तांबे से समृद्ध द्वीप साइप्रस पर उपनिवेश स्थापित किए । 700 ईसा पूर्व तक पश्चिमी भूमध्य सागर में बस्तियों की एक श्रृंखला ने एक " फोनीशियन त्रिभुज " का निर्माण किया, जो पश्चिमी लीबिया से मोरक्को तक उत्तरी अफ्रीकी तट , स्पेन के दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी तट से बना था, जिसमें जिब्राल्टर जलडमरूमध्य पर गेड्स (आधुनिक कैडिज़) शामिल थे , जो नियंत्रित करते थे । भूमध्य सागर और अटलांटिक महासागर के बीच का मार्ग ; और सार्डिनिया , सिसिली और माल्टा के तट से दूर द्वीप इटली . टायर ने असीरियन( असुर) राजाओं को श्रद्धांजलि देकर 701 ईसा पूर्व तक अपनी स्वायत्तता बनाए रखी। उस वर्ष अंततः यह असीरियन सेना के हाथों गिर गया जिसने इसके अधिकांश क्षेत्र और आबादी को छीन लिया, जिससे सिडोन फोनीशिया में अग्रणी शहर बन गया।

      को श्रद्धांजलि देकर 701 ईसा पूर्व तक अपनी स्वायत्तता बनाए रखी। उस वर्ष अंततः यह असीरियन सेना के हाथों गिर गया जिसने इसके अधिकांश क्षेत्र और आबादी को छीन लिया, जिससे सिडोन फोनीशिया में अग्रणी शहर बन गया।
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      तूनिशिया से मिली फ़ोनीशियाई में लिखी
      (बाल हम्मोन) और तनित नामक देवताओं की प्रार्थना का प्रमाणित दस्तावेज है।

      बाल ऋग्वेद में वर्णित बल है जो इन्द्र और बृहस्पति का प्रतिद्वन्

      तूनिसीया उत्तरी अफ़्रीक़ा महाद्वीप में एक अरब राष्ट्र है जिसका अरबी भाषा में नाम अल्जम्हूरीयाह अत्तूनिसीयाह (الجمهرية التونسية) या तूनिस है। यह भूमध्यसागर के किनारे स्थित है, इसके पूर्व में लीबिया और पश्चिम मे अल्जीरिया देश हैं। देश की पैंतालीस प्रतिशत ज़मीन सहारा रेगिस्तान में है जबकि बाक़ी तटीय जमीन खेती के लिए इस्तमाल होती है। रोमन इतिहास मे तूनिस का शहर कारथिज एक आवश्यक जगह रखता है और इस प्रान्त को बाद में रोमीय राज्य का एक प्रदेश बना दीया गया जिस का नाम अफ़्रीका यानी गरम प्रान्त रखा गया जो अब पूरे महाद्वीप का नाम है।

      तूनीशियाई वर्णमाला फ़ोनीशिया की सभ्यता द्वारा अविष्कृत वर्णमाला थी !

      जिसमें हर वर्ण एक व्यंजन की ध्वनि बनता था। क्योंकि फ़ोनीशियाई लोग समुद्री सौदागर थे।

       इसलिए उन्होंने इस अक्षरमाला को दूर-दूर तक फैला दिया और उनकी देखा-देखी और सभ्यताएँ भी अपनी भाषाओँ के लिए इसमें फेर-बदल करके इसका प्रयोग करने लगीं। और फिर अनेक समानान्तर लिपियों का विकास हुआ।

      माना जाता है के आधुनिक युग की सभी मुख्य अक्षरमालाएँ( लिपियाँ) इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं। 

       "ब्राह्मी , देवनागरी सहित, भारत की सभी वर्णमालाएँ भी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की वंशज हैं।


      इसका विकास लगभग (1050) ईसा-पूर्व में आरम्भ हुआ था । 

      और प्राचीन यूनानी सभ्यता के उदय के साथ-साथ अंत हो गया। परन्तु यूनानी लिपि भी फोनेशियन लिपि से विकसित हुई।

       वर्णमाला की दृष्टि से-फ़ोनीशियाई वर्णमाला के हर अक्षर का नाम फ़ोनीशियाई भाषा में किसी वस्तु के नाम पर रखा गया है। 

      __________

      अंग्रेज़ी में वर्णमाला को "ऐल्फ़ाबॅट" बोलते हैं जो नाम फ़ोनीशियाई वर्णमाला के पहले दो अक्षरों ("अल्फ़" यानि "बैल" और "बॅत" यानि "घर") से आया है।

      पहले हम अलिफ की कुण्डली निकालते हैं

      Aleph-First letter of many Semitic abjads

      "Alef" redirects here. For other uses, see Aleph (disambiguation) and Alef (disambiguation).

      Aleph (or alef or alif, transliterated ʾ) is the first letter of the Semitic abjads, including Phoenician ʾālep 𐤀, Hebrew ʾālef א, Aramaic ʾālap 𐡀, Syriac ʾālap̄ ܐ, Arabic ʾalif ا, and North Arabian 𐪑. It also appears as South Arabian 𐩱 and Ge'ez ʾälef አ.

      Quick Facts Bet →, Phoenician ...

      These letters are believed to have derived from an Egyptian hieroglyph depicting an ox's head to describe the initial sound of *ʾalp, the West Semitic word for ox (compare Biblical Hebrew אֶלֶף‎ ʾelef, "ox"). 


      संस्कृत में अलीक: का अर्थ मस्तक है।

      _______

      The Phoenician variant gave rise to the Greek alpha (Α), being re-interpreted to express not the glottal consonant but the accompanying vowel, and hence the Latin A and Cyrillic А.

      Phonetically, aleph originally represented the onset of a vowel at the glottis. 

      In Semitic languages, this functions as a prosthetic weak consonant, allowing roots with only two true consonants to be conjugated in the manner of a standard three consonant Semitic root. In most Hebrew dialects as well as Syriac, the aleph is an absence of a true consonant, a glottal stop ([ʔ]), the sound found in the catch in uh-oh. In Arabic, the alif represents the glottal stop pronunciation when it is the initial letter of a word. In texts with diacritical marks, the pronunciation of an aleph as a consonant is rarely indicated by a special marking, hamza in Arabic and mappiq in Tiberian Hebrew. In later Semitic languages, aleph could sometimes function as a mater lectionis indicating the presence of a vowel elsewhere (usually long). When this practice began is the subject of some controversy, though it had become well established by the late stage of Old Aramaic (ca. 200 BCE). Aleph is often transliterated as U+02BE ʾ , based on the Greek spiritus lenis ʼ; for example, in the transliteration of the letter name itself, ʾāleph.

      Origin-The name aleph is derived from the West Semitic word for "ox" (as in the Biblical Hebrew word Eleph (אֶלֶף) 'ox'), and the shape of the letter derives from a Proto-Sinaitic glyph that may have been based on an Egyptian hieroglyph, which depicts an ox's head.

      More information Hieroglyph, Proto-Sinaitic ...

      In Modern Standard Arabic, the word أليف /ʔaliːf/ literally means 'tamed' or 'familiar', derived from the root ʔ-L-F, from which the verb ألِف /ʔalifa/ means 'to be acquainted with; to be on intimate terms with'. In modern Hebrew, the same root ʔ-L-P (alef-lamed-peh) gives me’ulaf, the passive participle of the verb le’alef, meaning 'trained' (when referring to pets) or 'tamed' (when referring to wild animals).

      Ancient Egyptian

      Further information: Transliteration of Ancient Egyptian § alef

      More information "Aleph" in hieroglyphs ...

      The Egyptian "vulture" hieroglyph (Gardiner G1), by convention pronounced [a]) is also referred to as aleph, on grounds that it has traditionally been taken to represent a glottal stop ([ʔ]), although some recent suggestions tend towards an alveolar approximant ([ɹ]) sound instead. Despite the name it does not correspond to an aleph in cognate Semitic words, where the single "reed" hieroglyph is found instead.

      The phoneme is commonly transliterated by a symbol composed of two half-rings, in Unicode (as of version 5.1, in the Latin Extended-D range) encoded at U+A722 Ꜣ LATIN CAPITAL LETTER EGYPTOLOGICAL ALEF and U+A723 ꜣ LATIN SMALL LETTER EGYPTOLOGICAL ALEF. A fallback representation is the numeral 3, or the Middle English character ȝ Yogh; neither are to be preferred to the genuine Egyptological characters.

      Aramaic-

      The Aramaic reflex of the letter is conventionally represented with the Hebrew א in typography for convenience, but the actual graphic form varied significantly over the long history and wide geographic extent of the language. Maraqten identifies three different aleph traditions in East Arabian coins: a lapidary Aramaic form that realizes it as a combination of a V-shape and a straight stroke attached to the apex, much like a Latin K; a cursive Aramaic form he calls the "elaborated X-form", essentially the same tradition as the Hebrew reflex; and an extremely cursive form of two crossed oblique lines, much like a simple Latin X.

      More information Cursive Aramaic, Lapidary Aramaic ...

      Hebrew

      "א" redirects here. For the Biblical manuscript, see Codex Sinaiticus.

      Hebrew spelling: אָלֶף ‎

      ____________

      In Modern Israeli Hebrew, the letter either represents a glottal stop ([ʔ]) or indicates a hiatus (the separation of two adjacent vowels into distinct syllables, with no intervening consonant). It is sometimes silent (word-finally always, word-medially sometimes: הוּא‎ [hu] "he", רָאשִׁי‎ [ʁaˈʃi] "main", רֹאשׁ‎ [ʁoʃ] "head", רִאשׁוֹן‎ [ʁiˈʃon] "first"). The pronunciation varies in different Jewish ethnic divisions.

      _____

      In gematria, aleph represents the number 1, and when used at the beginning of Hebrew years, it means 1000 (e.g. א'תשנ"ד‎ in numbers would be the Hebrew date 1754, not to be confused with 1754 CE).

      Aleph, along with ayin, resh, he and heth, cannot receive a dagesh. (However, there are few very rare examples of the Masoretes adding a dagesh or mappiq to an aleph or resh. The verses of the Hebrew Bible for which an aleph with a mappiq or dagesh appears are Genesis 43:26, Leviticus 23:17, Job 33:21 and Ezra 8:18.)

      In Modern Hebrew, the frequency of the usage of alef, out of all the letters, is 4.94%.

      Aleph is sometimes used as a mater lectionis to denote a vowel, usually /a/. That use is more common in words of Aramaic and Arabic origin, in foreign names, and some other borrowed words.

      More information Orthographic variants, Various Print Fonts ...

      Rabbinic Judaism–

      Aleph is the subject of a midrash that praises its humility in not demanding to start the Bible. (In Hebrew, the Bible begins with the second letter of the alphabet, bet.) In the story, aleph is rewarded by being allowed to start the Ten Commandments. (In Hebrew, the first word is אָנֹכִי‎, which starts with an aleph.)

      In the Sefer Yetzirah, the letter aleph is king over breath, formed air in the universe, temperate in the year, and the chest in the soul.

      Aleph is also the first letter of the Hebrew word emet (אֶמֶת‎), which means truth. In Judaism, it was the letter aleph that was carved into the head of the golem that ultimately gave it life.

      Aleph also begins the three words that make up God's name in Exodus, I Am who I Am (in Hebrew, Ehyeh Asher Ehyeh אהיה אשר אהיה), and aleph is an important part of mystical amulets and formulas.

      Aleph represents the oneness of God. The letter can be seen as being composed of an upper yud, a lower yud, and a vav leaning on a diagonal. The upper yud represents the hidden and ineffable aspects of God while the lower yud represents God's revelation and presence in the world. The vav ("hook") connects the two realms.

      Judaism relates aleph to the element of air, and the Scintillating Intelligence (#11) of the path between Kether and Chokmah in the Tree of the Sephiroth [citation needed].

      Yiddish–

      In Yiddish, aleph is used for several orthographic purposes in native words, usually with different diacritical marks borrowed from Hebrew niqqud:

      With no diacritics, aleph is silent; it is written at the beginning of words before vowels spelled with the letter vov or yud. For instance, oykh 'also' is spelled אויך. The digraph וי represents the initial diphthong [oj], but that digraph is not permitted at the beginning of a word in Yiddish orthography, so it is preceded by a silent aleph. Some publications use a silent aleph adjacent to such vowels in the middle of a word as well when necessary to avoid ambiguity.

      An aleph with the diacritic pasekh, אַ, represents the vowel [a] in standard Yiddish.

      An aleph with the diacritic komets, אָ, represents the vowel [ɔ] in standard Yiddish.

      Loanwords from Hebrew or Aramaic in Yiddish are spelled as they are in their language of origin.

      Syriac–

      More information Alaph ...

      In the Syriac alphabet, the first letter is ܐ, Classical Syriac: ܐܵܠܲܦ, alap (in eastern dialects) or olaph (in western dialects). It is used in word-initial position to mark a word beginning with a vowel, but some words beginning with i or u do not need its help, and sometimes, an initial alap/olaph is elided. For example, when the Syriac first-person singular pronoun ܐܸܢܵܐ is in enclitic positions, it is pronounced no/na (again west/east), rather than the full form eno/ana. The letter occurs very regularly at the end of words, where it represents the long final vowels o/a or e. In the middle of the word, the letter represents either a glottal stop between vowels (but West Syriac pronunciation often makes it a palatal approximant), a long i/e (less commonly o/a) or is silent.

      South Arabian/Ge'ez

      In the Ancient South Arabian alphabet, 𐩱 appears as the seventeenth letter of the South Arabian abjad. The letter is used to render a glottal stop /ʔ/.

      In the Ge'ez alphabet, ʾälef አ appears as the thirteenth letter of its abjad. This letter is also used to render a glottal stop /ʔ/.

      More information South Arabian, Ge'ez ...

      Arabic–

      Written as ا or 𐪑, spelled as ألف or 𐪑𐪁𐪐 and transliterated as alif, it is the first letter in Arabic and North Arabian. Together with Hebrew aleph, Greek alpha and Latin A, it is descended from Phoenician ʾāleph, from a reconstructed Proto-Canaanite ʾalp "ox".

      Alif is written in one of the following ways depending on its position in the word:

      More information Position in word, Isolated ...

      More information North Arabian ...

      Arabic variants

      Alif mahmūza: أ and إ

      Main article: Hamza

      The Arabic letter was used to render either a long /aː/ or a glottal stop /ʔ/. That led to orthographical confusion and to the introduction of the additional marking hamzat qaṭ‘ ﺀ to fix the problem. Hamza is not considered a full letter in Arabic orthography: in most cases, it appears on a carrier, either a wāw (ؤ), a dotless yā’ (ئ), or an alif.

      More information Position in word, Isolated ...

      The choice of carrier depends on complicated orthographic rules. Alif إ أ is generally the carrier if the only adjacent vowel is fatḥah. It is the only possible carrier if hamza is the first phoneme of a word. Where alif acts as a carrier for hamza, hamza is added above the alif, or, for initial alif-kasrah, below it and indicates that the letter so modified is indeed a glottal stop, not a long vowel.

      A second type of hamza, hamzat waṣl (همزة وصل) whose diacritic is normally omitted outside of sacred texts, occurs only as the initial letter of the definite article and in some related cases. It differs from hamzat qaṭ‘ in that it is elided after a preceding vowel. Alif is always the carrier.

      More information Position in word, Isolated ...

      Alif mamdūda: آ

      The alif maddah is a double alif, expressing both a glottal stop and a long vowel. Essentially, it is the same as a أا sequence: آ (final ـآ) ’ā /ʔaː/, for example in آخر ākhir /ʔaːxir/ 'last'.

      More information Position in word, Isolated ...

      "It has become standard for a hamza followed by a long ā to be written as two alifs, one vertical and one horizontal." (the "horizontal" alif being the maddah sign).

      Alif maqṣūrah: ى

      The ى ('limited/restricted alif', alif maqṣūrah), commonly known in Egypt as alif layyinah (ألف لينة, 'flexible alif'), may appear only at the end of a word. Although it looks different from a regular alif, it represents the same sound /aː/, often realized as a short vowel. When it is written, alif maqṣūrah is indistinguishable from final Persian ye or Arabic yā’ as it is written in Egypt, Sudan and sometimes elsewhere.

      The letter is transliterated as y in Kazakh, representing the vowel /ə/. Alif maqsurah is transliterated as á in ALA-LC, ā in DIN 31635, à in ISO 233-2, and ỳ in ISO 233.

      In Arabic, alif maqsurah ى is not used initially or medially, and it is not joinable initially or medially in any font. However, the letter is used initially and medially in the Uyghur Arabic alphabet and the Arabic-based Kyrgyz alphabet, representing the vowel /ɯ/: (ىـ ـىـ‎).

      More information Position in word, Isolated ...

      Numeral As a numeral, alif stands for the number one. It may be modified as follows to represent other numbers.[citation needed]

      More information Modification to alif, Number represented ...

      Other uses

      Mathematics

      In set theory, the Hebrew aleph glyph is used as the symbol to denote the aleph numbers, which represent the cardinality of infinite sets. This notation was introduced by mathematician Georg Cantor. In older mathematics books, the letter aleph is often printed upside down by accident, partly because a Monotype matrix for aleph was mistakenly constructed the wrong way up.

      Aleph

      कई सेमेटिक( अबजदों  वर्णमालाओं)का पहला अक्षर-

      एलेफ़ (या एलेफ़ या अलिफ़, लिप्यंतरित ʾ) सेमेटिक अबजादों का पहला अक्षर है, जिसमें 

      1-फ़ोनीशियन ʾalep 𐤀, 

      2-हिब्रू ʾalef א, 

      3-अरामी ʾalap 𐡀, 

      4-सिरिएक ʾalap̄ ̄, 

      5-अरबी ʾalif ا, और 

      6-उत्तरी अरब 𐪑 शामिल हैं। 

      यह साउथ अरेबियन 𐩱 और गीज़ ʾälef አ के रूप में भी दिखाई देता है।

      त्वरित तथ्य शर्त →, फोनीशियन ...

      ऐसा माना जाता है कि ये अक्षर मिस्र के एक चित्रलिपि से लिए गए हैं, जिसमें एक बैल के सिर को दर्शाया गया है, जो बैल के लिए पश्चिमी सेमिटिक शब्द *ʾalp की प्रारंभिक ध्वनि का वर्णन करता है (बाइबिल के हिब्रू אֶלֶף‎ ʾelef, "बैल" की तुलना करें)।


      _______

      फोनीशियन संस्करण ने ग्रीक अल्फा (Α) को जन्म दिया, जिसे ग्लोटल व्यंजन नहीं बल्कि साथ वाले स्वर को व्यक्त करने के लिए दोबारा व्याख्या की गई, और इसलिए लैटिन ए और सिरिलिक ए।

      ध्वन्यात्मक रूप से, एलेफ़ मूल रूप से ग्लोटिस पर एक स्वर की शुरुआत का प्रतिनिधित्व करता था।

      सेमिटिक भाषाओं में, यह एक कृत्रिम कमजोर व्यंजन के रूप में कार्य करता है, जिससे केवल दो सच्चे व्यंजन वाली जड़ों को मानक तीन व्यंजन सेमिटिक रूट (धातु)के तरीके से संयुग्मित किया जा सकता है। अधिकांश हिब्रू बोलियों के साथ-साथ सिरिएक में, एलेफ एक सच्चे व्यंजन, एक ग्लोटल स्टॉप ([ʔ]) की अनुपस्थिति है, जो ध्वनि उह-ओह में पकड़ में पाई जाती है।

      अरबी में, अलिफ़ ग्लोटल स्टॉप उच्चारण का प्रतिनिधित्व करता है जब यह किसी शब्द का प्रारंभिक अक्षर होता है। 

      विशेषक चिह्नों वाले ग्रंथों में, व्यंजन के रूप में एलेफ़ का उच्चारण शायद ही कभी एक विशेष चिह्न द्वारा दर्शाया जाता है, अरबी में हम्ज़ा और तिबेरियन हिब्रू में मप्पिक। बाद की सेमेटिक भाषाओं में, एलेफ़ कभी-कभी मेटर लेक्शनिस के रूप में कार्य कर सकता है जो कहीं और स्वर की उपस्थिति (आमतौर पर लंबा) का संकेत देता है।

       यह प्रथा कब शुरू हुई यह कुछ विवाद का विषय है, हालाँकि यह पुराने अरामाइक के अंतिम चरण (लगभग 200 ईसा पूर्व) तक अच्छी तरह से स्थापित हो गई थी। 

      एलेफ़ को अक्सर ग्रीक स्पिरिटस लेनिस ʼ के आधार पर U+02BE ʾ के रूप में लिप्यंतरित किया जाता है; उदाहरण के लिए, अक्षर नाम के लिप्यंतरण में ही, āleph.

      मूल

      एलेफ नाम पश्चिमी सेमिटिक शब्द "बैल" से लिया गया है (जैसा कि बाइबिल के हिब्रू शब्द एलीफ (אֶלֶף) 'बैल') में है, और अक्षर का आकार एक प्रोटो-सिनाईटिक ग्लिफ़ से लिया गया है जो शायद एक पर आधारित हो सकता है मिस्र का चित्रलिपि, जो एक बैल के सिर को दर्शाता है।

      आधुनिक मानक अरबी में, शब्द أليف /ʔaliːf/ का शाब्दिक अर्थ है 'पालित' या 'परिचित', है।

      जो मूल ʔ-L-F से लिया गया है, जिससे क्रिया ألِف /ʔalifa/ का अर्थ है 'परिचित होना; 'के साथ घनिष्ठ संबंध रखना।प्रेमी-आदि 

       आधुनिक हिब्रू में, वही मूल ʔ-L-P (एलेफ़-लैमेड-पेह) मी'उलाफ़ देता है, जो क्रिया ले 'एलेफ़ का निष्क्रिय कृदन्त है, जिसका अर्थ है 'प्रशिक्षित' (पालतू जानवरों का संदर्भ देते समय) या 'पालतू' (जब सन्दर्भित किया जाता है) जंगली जानवर)।

      पौराणिक मिश्र:-

      अधिक जानकारी: प्राचीन मिस्र का लिप्यंतरण § एलेफ़

      इब्रानी:-

      सुविधा के लिए टाइपोग्राफी में अक्षर के अरामी रिफ्लेक्स को पारंपरिक रूप से हिब्रू א के साथ दर्शाया जाता है, लेकिन वास्तविक ग्राफिक रूप भाषा के लंबे इतिहास और व्यापक भौगोलिक विस्तार के कारण काफी भिन्न होता है। 

      मराकटेन पूर्वी अरब के सिक्कों में तीन अलग-अलग एलेफ़ परंपराओं की पहचान करता है: एक लैपिडरी अरामी रूप जो इसे वी-आकार के संयोजन और शीर्ष से जुड़े एक सीधे स्ट्रोक के रूप में महसूस करता है, लैटिन के की तरह; एक घसीट अरामी रूप को वह "विस्तृत एक्स-फॉर्म" कहते हैं, मूलतः वही परंपरा हिब्रू प्रतिवर्त के रूप में; और दो पार की गई तिरछी रेखाओं का एक अत्यंत घसीट रूप, एक साधारण लैटिन एक्स की तरह।


      यहूदी

      "א" यहां पुनर्निर्देश करता है। बाइबिल पांडुलिपि के लिए, कोडेक्स साइनेटिकस देखें।

      हिब्रू वर्तनी: אָלֶף ‎

      आधुनिक इज़राइली हिब्रू में, अक्षर या तो एक ग्लोटल स्टॉप ([ʔ]) का प्रतिनिधित्व करता है या एक अंतराल को इंगित करता है (दो आसन्न स्वरों को अलग-अलग अक्षरों में अलग करना, बिना किसी हस्तक्षेप वाले व्यंजन के)।

      यह कभी-कभी मौन होता है (शब्द-अंततः हमेशा, शब्द-मध्यवर्ती रूप से कभी-कभी: הוּא‎ [hu] "he", רָאשִׁי‎ [ʁaˈʃi] "main", רֹאשׁ‎ [ʁoʃ] "head", רִאשׁוֹן‎ [ʁiˈʃon] "first " ). विभिन्न यहूदी जातीय प्रभागों में उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है।

      जेमट्रिया में, एलेफ संख्या 1 का प्रतिनिधित्व करता है, और जब हिब्रू वर्षों की शुरुआत में उपयोग किया जाता है, तो इसका मतलब 1000 होता है (उदाहरण के लिए א'תשנ"ד‎ संख्या में हिब्रू तारीख 1754 होगी, 1754 सीई के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए)।

      अलेफ, अयिन, रेश, हे और हेथ के साथ, दागेश प्राप्त नहीं कर सकता। (हालाँकि, मासोरेट्स द्वारा अलेफ या रेश में दागेश या मप्पिक जोड़ने के कुछ बहुत ही दुर्लभ उदाहरण हैं। 

      हिब्रू बाइबिल के छंद जिनके लिए मप्पिक या दागेश के साथ अलेफ दिखाई देता है, उत्पत्ति 43:26, लेविटस 23:17 हैं, अय्यूब 33:21 और एज्रा 8:18.)

      आधुनिक हिब्रू में, सभी अक्षरों में से, एलेफ़ के उपयोग की आवृत्ति 4.94% है।

      एलेफ का उपयोग कभी-कभी स्वर को दर्शाने के लिए मेटर लेक्शनिस के रूप में किया जाता है, आमतौर पर /ए/। यह प्रयोग अरामी और अरबी मूल के शब्दों, विदेशी नामों और कुछ अन्य उधार लिए गए शब्दों में अधिक आम है।

      रब्बीनिक यहूदी धर्म:-

      एलेफ एक मिड्रैश का विषय है जो बाइबिल शुरू करने की मांग न करने की अपनी विनम्रता की प्रशंसा करता है। (हिब्रू में, बाइबल वर्णमाला के दूसरे अक्षर से शुरू होती है।कहानी में, एलेफ़ को दस आज्ञाएँ शुरू करने की अनुमति देकर पुरस्कृत किया जाता है। (हिब्रू में, पहला शब्द אָנֹכִי‎ है, जो एलेफ से शुरू होता है।)

      सेफ़र यत्ज़िराह में, अक्षर एलेफ़ सांस पर राजा है, ब्रह्मांड में वायु का निर्माण होता है, वर्ष में शीतोष्ण होता है, और आत्मा में छाती होती है।

      एलेफ़ हिब्रू शब्द एमेट (אֶמֶת‎) का पहला अक्षर भी है, जिसका अर्थ सत्य है। यहूदी धर्म में, यह अक्षर एलेफ़ था जिसे गोलेम के सिर में उकेरा गया था जिसने अंततः इसे जीवन दिया।

      एलेफ उन तीन शब्दों की भी शुरुआत करता है जो निर्गमन में भगवान का नाम बनाते हैं, मैं वही हूं जो मैं हूं (हिब्रू में, एहयेह आशेर एहयेह אהיה אשר אהיה), और एलेफ रहस्यमय ताबीज और सूत्रों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

      ___                  

      अलेफ ईश्वर की एकता का प्रतिनिधित्व करता है। पत्र को एक ऊपरी युद, एक निचले युद और एक विकर्ण पर झुके हुए वाव से बना देखा जा सकता है। 

      ऊपरी युद ईश्वर के छिपे और अवर्णनीय पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है जबकि निचला युद दुनिया में ईश्वर के रहस्योद्घाटन और उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करता है। वाव ("हुक") दो क्षेत्रों को जोड़ता है।

      यहूदी धर्म एलेफ को हवा के तत्व से जोड़ता है, और सेफिरोथ के पेड़ में केथर और चोकमा के बीच के पथ की स्किंटिलेटिंग इंटेलिजेंस (#11) [उद्धरण वांछित]।

      यहूदी

      यिडिश में, एलेफ़ का उपयोग मूल शब्दों में कई वर्तनी संबंधी उद्देश्यों के लिए किया जाता है, आमतौर पर हिब्रू निक्कुड से उधार लिए गए विभिन्न विशेषक चिह्नों के साथ:

      बिना किसी विशेषक चिह्न के, एलेफ़ चुप है; यह शब्दों की शुरुआत में वोव या युड अक्षर से लिखे गए स्वरों से पहले लिखा जाता है। उदाहरण के लिए, oykh 'भी' को אויך लिखा जाता है। डिग्राफ וי प्रारंभिक डिप्थॉन्ग [ओजे] का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यिडिश ऑर्थोग्राफी में किसी शब्द की शुरुआत में उस डिग्राफ की अनुमति नहीं है, इसलिए यह एक साइलेंट एलेफ से पहले होता है। कुछ प्रकाशन अस्पष्टता से बचने के लिए आवश्यक होने पर शब्द के बीच में ऐसे स्वरों से सटे एक साइलेंट एलेफ़ का भी उपयोग करते हैं।

      विशेषक पसेख,( אַ )के साथ एक एलेफ, मानक यिडिश में स्वर [ए] का प्रतिनिधित्व करता है।

      विशेषक कोमेट्स, אָ के साथ एक एलेफ़, मानक यिडिश में स्वर [ɔ] का प्रतिनिधित्व करता है।

      यिडिश में हिब्रू या अरामी भाषा के ऋणशब्दों की वर्तनी वैसे ही की जाती है जैसे वे उनकी मूल भाषा में हैं।

      ______

      सिरिएक

      अधिक जानकारी अलफ़...

      सिरिएक वर्णमाला में, पहला अक्षर Ԑ है, शास्त्रीय सिरिएक: ԐֵԵԠֲ֦, अलाप (पूर्वी बोलियों में) या ओलाफ़ (पश्चिमी बोलियों में)। इसका उपयोग स्वर से शुरू होने वाले शब्द को चिह्नित करने के लिए शब्द-प्रारंभिक स्थिति में किया जाता है, लेकिन i या u से शुरू होने वाले कुछ शब्दों को इसकी सहायता की आवश्यकता नहीं होती है, और कभी-कभी, प्रारंभिक अलाप/ओलाफ हटा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, जब सिरिएक प्रथम-व्यक्ति एकवचन सर्वनाम ԐԸԢԵԐ enclitic स्थिति में होता है, तो इसका उच्चारण पूर्ण रूप eno/ana के बजाय no/na (फिर से पश्चिम/पूर्व) किया जाता है। यह अक्षर शब्दों के अंत में बहुत नियमित रूप से आता है, जहां यह लंबे अंतिम स्वरों ओ/ए या ई का प्रतिनिधित्व करता है। शब्द के मध्य में, अक्षर या तो स्वरों के बीच एक ग्लोटल स्टॉप का प्रतिनिधित्व करता है (लेकिन पश्चिम सिरिएक उच्चारण अक्सर इसे एक तालव्य सन्निकटन बनाता है), एक लंबा आई/ई (कम सामान्यतः ओ/ए) या मौन होता है।

      साउथ अरेबियन/गीज़

      प्राचीन दक्षिण अरब वर्णमाला में, 𐩱 दक्षिण अरब अबजद के सत्रहवें अक्षर के रूप में प्रकट होता है। अक्षर का उपयोग ग्लोटल स्टॉप /ʔ/ प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है।

      गीज़ वर्णमाला में, ʾälef አ इसके अबजद के तेरहवें अक्षर के रूप में प्रकट होता है। इस अक्षर का उपयोग ग्लोटल स्टॉप /ʔ/ प्रस्तुत करने के लिए भी किया जाता है।

      अधिक जानकारी साउथ अरेबियन, गीज़...

      अरबी

      ا या 𐪑 के रूप में लिखा जाता है, ألف या 𐪑𐪁𐪐 के रूप में लिखा जाता है और अलिफ़ के रूप में लिप्यंतरित किया जाता है, यह अरबी और उत्तरी अरब में पहला अक्षर है। हिब्रू एलेफ़, ग्रीक अल्फ़ा और लैटिन ए के साथ, यह फ़ोनीशियन सेलेफ़ का वंशज है, एक पुनर्निर्मित प्रोटो-कैनानाइट एल्प "बैल" से।

      अलिफ़ को शब्द में उसकी स्थिति के आधार पर निम्नलिखित में से किसी एक तरीके से लिखा जाता है:

      यद्यपि यूरोपीय भाषाओं में "Axe" ( तलवार या कुलाड़ी) के लिए वैदिक तथा संस्कृत में असि: शब्द है।

      असिः, पुंल्लिंग-(असतीति । अस दीप्तौ इनि ।) अस्त्र- भेदः । खा~डा तरवाल इत्यादि भाषा । तत्प- र्य्यायः । खड्गः २ निस्त्रिंशः ३ चन्द्रहासः ४ रिष्टिः ५ कौक्षेयकः ६ मण्डलाग्रः ७ करपालः ८ कृपाणः ९ इत्यमरः ॥ प्रबालकः १० भद्रात्मजः ११ रिष्टः १२ ऋष्टिः १३ धाराविषः १४ कौक्षेयः १५ तरवारिः १६ तरवाजः १७ कृपाणकः १८ करवालः १९ कृपाणी २० शस्त्रः २१ । इति शब्दरत्नावली ॥ विषसनः २२ । इति त्रिकांण्ड- शेषः ॥ (“पर्णशालामथ क्षिप्रं विकृष्टासिः प्रविश्य सः । वैरूप्यपौनरुक्तेन भीषणां तामयोजयत्” ॥ इति रघवंशे १२ । ४० ॥ “स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौद्विपैस्तथा । वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्म्मायुधैः स्थले ॥” इति मनौ ७ । १९२ ॥) तस्य स्तुतिर्यथा । “असिर्व्विषसनः खड्गस्तीक्ष्णधारो दुरासदः । श्रीगर्भो विजयश्चैव धर्म्मपालो नमोऽस्तु ते ॥ इत्यष्टौ तव नामानि स्वयमुक्तानि वेधसा । नक्षत्रं कृत्तिका ते तु गुरुर्देवो महेश्वरः ॥ हिरण्यञ्च शरीरन्ते धाता देवो जनार्द्दनः । पिता पितामहो देवस्त्वं मां पालय सर्व्वदा ॥ नीलजीमूतसङ्काशस्तीक्ष्णदंष्ट्रः कृशोदरः । भावशुद्धोऽमर्षणश्च अतितेजास्तथैव च ॥ इयं येन धृता क्षौणी हतश्च महिषासुरः । तीक्ष्णधाराय शुद्धाय तस्मै खड्गाय ते नमः” ॥ इति वृहन्नन्दिकेश्वरपुराणीयदुर्गोत्सवपद्धतिधृत- वाराहीतन्त्रं ॥

      मा त्वा तपत्प्रिय आत्मापियन्तं मा स्वधितिस्तन्व आ तिष्ठिपत्ते ।
      मा ते गृध्नुरविशस्तातिहाय छिद्रा गात्राणि असिना मिथू कः ॥२०॥( ऋग्वेद  १/१६२/२०)

      अक्रीळन्क्रीळन्हरिरत्तवेऽदन्वि पर्वशश्चकर्त गामिव -असिः ॥६॥( ऋग्वेदः सूक्तं १०/७९/६)



      माहेश्वर सूत्र को संस्कृत व्याकरण का प्रथम आधार माना जाता है।

      • पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात् (अक्षरसमाम्नाय), नाम- (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद- (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , आख्यात-(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।

      अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं । व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में किया है।

      जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।

      तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।

      • विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ यद्यपि संस्कृत की शब्दावली वैदिक भाषा की ही थी। ।
      • तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी । यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई। ये ही भाषाऐं गाँव( पल्लि) से सम्बन्धित होने से पालि और साधारण जन प्रकृति से सम्बन्धित होने से प्राकृत कह लायी गयीं।

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      व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए पाणिनी ने सूत्र शैली की सहायता ली है।

      • पुनः विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का निर्माण करके प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।

      माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति-----माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है। जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है ।

      रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 👇

      • नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान्एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥

      अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।

      इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) रूप में प्रकट हुया। " डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।

      • इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है।
      • वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का ओ३म स्वरूप भी है ।
      • उमा शिव की ही शक्ति का रूप है ।

      उमा शब्द की व्युत्पत्ति -

      • (उ- भो मा तपस्यां कुरुवति -अरे तपस्या मत करो- यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” । जब उमा की माता ने तपस्या का निषेध ( मनाही) की तब इसके बाद इस सुमुॉखी का नाम उमा हुआ।

      इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)।

      • यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव ।उं शिवं माति मिमीते वा । आतोऽनुपसर्गेति कः । अजादित्वात् टाप् ।
      • अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् )
      • दुर्गा का विशेषण ।

      परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण है जिसमें संशोधन और भी अपेक्षित है।

      • यादव योगेश कुमार रोहि ने इसका विश्लेषण किया है।

      • यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश कभी नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल )भी माहेश्वर सूत्र में सम्मिलित न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं मौलिक नहीं।
      • इनकी संरचना के विषय में नीचे विश्लेषण प्रस्तुत है

      ________________________________________

      पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ;जो निम्नलिखित हैं: 👇__________________________________________

      • १. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।

      उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार के क्रम से संयोजित किया गया है।

      • फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों या प्रत्याहारों (एक से अधिक वर्णों) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।
      • माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
      • प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण में उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
      • इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
      • प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है।
      • संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।
      • अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
      • प्रत्याहार की अवधारणा :---प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।

      अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

      आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

      • उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
      • यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।
      • अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
      • इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
      • फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
      • उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण
      • (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है।
      • इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
      • अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।

      ________________________________

      • (अ"इ"उ ऋ"लृ मूल स्वर ।
      • (ए ,ओ ,ऐ,औ) ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
      • जैसे क्रमश: अ+ इ = ए तथा अ + उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।
      • अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
      • । अ" इ" उ" । और ये परवर्ती (इ) तथा (उ) स्वर भी केवल
      • (अ) स्वर के उदात्त( ऊर्ध्वगामी ) उ ।
      • तथा अनुदात्त-(निम्न गामी) इ । के रूप में हैं ।
      • ___________
      • ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है ।
      • जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
      • अब (ह)वर्ण महाप्राण है ।
      • जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।👉👆👇
      • मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
      • परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
      • पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप
      • इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
      • क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25
      • _________________________
      • और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन
      • कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25।
      • तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ )
      • ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ )
      • अनुस्वार तथा विसर्ग अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
      • पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: ।

      स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।

      अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।

      वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇

      _________________________________________

      1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।

      2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :

      क. नासा ग्रसनी (nasopharynx), ख. ग्रसनी (pharynx),

      ग. मुख (mouth),

      घ. स्वरयंत्र (larynx),

      च. श्वासनली और श्वसनी

      (trachea and bronchus)

      छ. फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),

      ज. वक्षगुहा (thoracic cavity)।

      3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :

      क. जिह्वा (tongue),

      ख. दाँत (teeth),

      ग. ओठ (lips),

      घ. कोमल तालु (soft palate),

      च. कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)।

      __________________________________________

      स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :

      जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।

      ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।

      इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि करते हैं।

      इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।

      स्वरयंत्र---

      अवटु (thyroid) उपास्थि

      वलथ (Cricoid) उपास्थि

      स्वर रज्जुऐं

      ये संख्या में चार होती हैं जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।

      यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।

      देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।

      इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।

      इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।

      इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।

      स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)----

      श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।

      श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।

      बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।

      जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है।

      __________________________________________

      स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है।

      स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।

      इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है

      और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है।

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      स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --

      उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।

      यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।

      ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।

      स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇

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      1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।

      2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।

      3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है; और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।

      1. अ" स्वर का उच्चारण तथा ह स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल ।
      2. _________________________________________
      3. नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं।
      4. जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है कहा भी गया है ।
      5. "अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा ।
      6. अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
      7. अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । अ-<हहहहह.... ।
      8. अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
      9. अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।________________________________________
      10. य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
      11. क्यों कि अन्त: का अर्थ मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण
      12. क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
      13. जैसे :- इ+अ = य अ+इ =ए
      14. उ+अ = व अ+उ= ओ ______________________________________
      15. ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।
      16. स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
      17. ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११.
      18. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३.
      19. शषसर्।
      20. उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं ।
      21. जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
      22. यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है।
      23. टवर्ग के साथ मूर्धन्य (ष) उष्म वर्ण है ।
      24. तथा तवर्ग के साथ दन्त्य (स) उष्म वर्ण है ।
      25. ___________________________________👇💭
      26. यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है।
      • अतः त थ द ध तथा स वर्णो को यूरोपीय अंग्रेजी आदि भाषाओं में नहीं लिख सकते हैं ।
      • क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।

      अतः "श्" वर्ण के लिए (Sh) तथा "ष्" वर्ण के (S )वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । यूरोपीय भाषाओं में तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं ।

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      • १४. हल्।
      • तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
      • इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं ।
      • मौलिक रूप में केवल 28 वर्ण हैं ।
      • जो ध्वनि के मुल रूप के द्योतक हैं ।

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      1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)

      2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)

      3. दन्त्य (dental)

      4. वर्त्स्य (alveolar)

      5. पश्च वर्त्स्य (post-alveolar)

      6. प्रतालव्य( prä-palatal )

      7. तालव्य (palatal)

      8. मृदुतालव्य (velar)

      9. अलिजिह्वीय (uvular)

      10.ग्रसनी से (pharyngal)

      11.श्वासद्वारीय (glottal)

      12.उपजिह्वीय (epiglottal)

      13.जिह्वामूलीय (Radical)

      14.पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)

      15.अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)

      16.जिह्वापाग्रीय (laminal)

      17.जिह्वाग्रीय (apical)

      18.उप जिह्विय( sub-laminal)

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      स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में, मुख गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं; जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है।

      उत्पन्न व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है- उच्चारण स्थान, उच्चारण विधि और स्वनन (फोनेशन)।

      मुख गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ (ओठ), तथा श्वाँस -द्वार (ग्लोटिस)आदि हैं।

      व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में वायु अबाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग:-

      (तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरुद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व मार्ग से निकलती है ।

      1. इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है। तब व्यञ्जन ध्वनियाँ प्रादुर्भूत ( उत्पन्न) होती हैं ।
      2. हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण----
      3. व्यञ्जनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है।
      4. व्यञ्जनों के उत्पन्न होने के स्थान से सम्बन्धित व्यञ्जन को आसानी से पहचाना जा सकता है।
      5. इस दृष्टि से हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
      6. उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) उच्चरित ध्वनि--👇
      7. द्वयोष्ठ्य:- ,प , फ, ब, भ, म
      8. दन्त्योष्ठ्य :-, फ़
      9. दन्त्य :-,त, थ, द, ध
      10. वर्त्स्य :-न, स, ज़, र, ल, ळ
      11. मूर्धन्य :-ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष
      12. कठोर :-तालव्य श, च, छ, ज, झ
      13. कोमल तालव्य :-क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़
      14. पश्च-कोमल-तालव्य:- क़ वर्ण है।
      15. स्वरयन्त्रामुखी:-. ह वर्ण है ।
      16. "ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का
      17. जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह" वर्ण हैं।
      18. "ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
      19. काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । २. कंठ की मणि या गले की मणि ।
      20. उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का वर्गीकरण--👇
      21. उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
      22. स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
      23. विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।
      24. क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
      25. च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है।
      26. इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
      27. मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं।
      28. हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म व्यञ्जन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है।
      29. और अनुनासिक भी --
      30. इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
      31. वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं ।
      32. परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में अाकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
      33. जैसे :-
      34. कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
      35. अङ्क , सङ्ख्या अङ्ग , लङ्घ।
      36. चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
      37. चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
      38. टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
      39. कण्टक, कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
      40. तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
      41. तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन, अन्ध ।
      42. पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
      43. पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ ।
      • ________________________________________
      • इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
      • उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है।
      • वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
      • तवर्ग - (त थ द ध न) का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
      • और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है।
      • जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि--
      • इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं।
      • जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि
      • चवर्ग -च छ ज झ ञ का तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।
      • जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि
      • इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
      • उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
      • ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह।
      • _____________________________________
      • पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है।
      • 'ल' ऐसी ही पार्श्विक ध्वनि है।
      • अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
      • हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
      • लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
      • उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं।
      • ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं।
      • जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
      • घोष और अघोष वर्ण---
      • व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
      • इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में
      • विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
      • जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।
      • दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
      • स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।
      • _________________________________________
      • घोष अघोष
      • ग, घ, ङ,क, ख
      • ज,झ, ञ,च, छ
      • ड, द, ण, ड़, ढ़,ट, ठ
      • द, ध, न,त, थ
      • ब, भ, म, प, फ
      • य, र, ल, व, ह ,श, ष, स ।
      • प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
      • प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु।
      • जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
      • पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।
      • हिन्दी के ;- ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
      • वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
      • क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।

      वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है

      परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है ।

      (अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)

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      भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।

      किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।

      शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं।

      उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'।

      यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।

      लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।

      अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।

      यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है ।

      कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')। कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')।

      एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है।

      इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है। व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।

      अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।

      अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।

      उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

      यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा। इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।

      कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

      • अंग्रेजी भाषा में न, र, ल, जैसे एन ,आर,एल, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
      • अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।
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      • ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त-----
      • मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं? -- ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।
      • श्रवण तंत्रिकाएँ, (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है ।
      • भौतिक विज्ञान में -
      • ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है। किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।
      • ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ---
      • ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।
      • ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।
      • निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
      • द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।
      • अनुदैर्घ्य तरंग:---
      • जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!
      • अनुप्रस्थ तरंग:-
      • जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।
      • सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग 343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है।
      • बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।
      • मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है।
      • बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं। जैसे चमकाधड़
      • एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है।
      • माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है।
      • किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:-
      • {\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}}
      • जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है।
      • आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर---
      • अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती,
      • श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है।
      • पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती,
      • अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है।
      • ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है ।
      • ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत -
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      • सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ --
      • ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति----
      • एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं
      • ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है
      • वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे । क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है ।
      • द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव+विद= समाक्षर लोप (Haplology)
      • के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है !
      • ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में द्रूयूद (Druid) रूप में हैं ।
      • कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था !
      • कि उनका विश्वास था ! कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।
      • और उनका मान्यता भी थी..
      • प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है
      • इसके उच्चारण प्रभाव से ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था ।
      • जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं।
      • ..ब. वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है .
      • जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।
      • आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है।
      • सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अोमन् शब्द आमीन के रूप में है ।
      • तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ।
      • मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए
      • .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,।
      • मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !!
      • इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन ?


      पणि कौन थे ? यह जानना भी आवश्यक है क्योंकि पणियों को यूरोपीय ग्रीक, लैटिन और डच इत्यादि पुराणों में वर्णन है।
      राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता।
      इस मत का समर्थन जिमर तथा लुड्विग ने भी किया है।
      लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है।
      ये अपने सार्थ अरब, पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे।

      इनके लिए 
      दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है।
      किन्तु आवश्यक है कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों को धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक व्यापारी कहा जा सकता है।
      ये आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं।
      हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है।
      जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था।
      फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए।

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      पणि के संस्कृत में अर्थ ,
      व्यवहारो द्यूतं स्तुतिर्वा पणः अस्त्यर्थे इनि पणिन्।
      १ क्रयादिव्यवहारयुक्ते
      २ स्तुतियुक्ते च
      ३ ऋषिभेदे पु० । तस्यापत्यम् अण् “गाथिविदथीत्यादि” पाणिनि  ।
      पाणिन तस्यापत्ये यूनि ततः इञ् पाणिनिः ।

      सरमा तथा पणि संवाद–
      सरमा शब्द निर्वचन प्रसंग में उद्धृत ऋग्वेद 10/108/01 के व्याखयान में प्राप्त होता है। आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रहित देवशुनी सरमा ने पणियों से संवाद किया।
      पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी।
      इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण के लिए भेजा था।
      यह एक प्रसिद्ध आख्यान है।

      आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है। वे उसे शीघ्रगामिनी होने से सरमा मानते हैं।
      वस्तुतः मैत्रायणी संहिता के अनुसार भी सरमा वाक् ही है। गाय रश्मियाँ हैं  इस प्रकार यह आख्यान सूर्य रश्मियों के अन्वेषण का आलंकारिक वर्णन है।
      निरुक्त शास्त्र के अनुसार
      ‘‘ऋषेः दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्यायानसंयुक्ता’’
      अर्थात् सब जगत् के प्रेरक परमात्मा अद्रष्ट अर्थों को आख्यान के माध्यम से उपदिष्ट करते हैं।

      क्रमशः एक-एक शब्द पर विचार करते हैं।

      पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है।
      पणि शब्द पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय कर के सिद्ध होता है।
      यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवहियते सा पणिः’’।
      अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं ।

      पणिक भाषा , जिसे कार्थागिनीन  या फोएनिसियो-पूनिक भी कहा जाता है!
      यह सेमेटिक परिवार की कनानी भाषा  , फिनिशियन भाषा की एक विलुप्त विविधतामयी भाषा है।
      यह 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 5 वीं शताब्दी ईस्वी तक, उत्तर पश्चिमी अफ्रीका में कार्तगिनियन साम्राज्य और शास्त्रीय पुरातनता में पणिक लोगों द्वारा कई भूमध्य द्वीपों में बोली जाती थी

      ट्यूनीशिया और (तटीय हिस्सों), जैसे मोरक्को , अल्जीरिया  , दक्षिणी इबेरिया , लीबिया , माल्टा , पश्चिमी सिसिली आदि देशों में यह लोग भ्रमण करते थे
      800 ईसा पूर्व से 500 ईस्वी तक का समय --
      भाषा परिवार-
      अफ्रीकी-एशियाई
      यहूदी
      पश्चिम सेमिटिक
      केंद्रीय सेमिटिक
      नॉर्थवेस्ट सेमिटिक
      कैनेनिटी( कनानी)

      इतिहास के दृष्टि कोण से -
      पेनिक्स या वैदिक सन्दर्भों में वर्णित पणि  146 ईसा पूर्व रोमन गणराज्य द्वारा कार्थेज के विनाश तक फेनेशिया के संपर्क में रहे।
      फोनिशियन नामकरण पणिस् अथवा पणिक से सम्बद्ध है ।

      नियो-पुणिक शब्द को दो इंद्रियों में प्रयोग किया जाता है: एक फीनशियन वर्णमाला से संबंधित है और दूसरा भाषा में ही है।  वर्तमान सन्दर्भ में, नियो-पुणिक ने कार्तेज के पतन के बाद और 146 ईसा पूर्व पूर्व पुणिक क्षेत्रों के रोमन विजय के बाद पूनिक की बोली को संदर्भित किया है।
      बोली पहले की पंचिक भाषा से भिन्न थी, जैसा कि पहले के पंख की तुलना में अलग-अलग वर्तनी से और गैर-सेमिटिक नामों के उपयोग से स्पष्ट रूप से लिबिको-बर्बर मूल के उपयोग से स्पष्ट है।
      अंतर द्विपक्षीय परिवर्तनों के कारण था कि पुणिक उत्तर-अफ्रीकी लोगों के बीच फैल गया था।
      नव-पुणिक कार्यों में लेपिस मैग्ना एन 1 9 (9 2 ईस्वी) शामिल है।

      चौथी शताब्दी ईस्वी तक, पुणिक अभी भी ट्यूनीशिया, उत्तर पश्चिमी अफ्रीका के अन्य हिस्सों और भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में बोली जाती थी।
      नव-पुणिक वर्णमाला भी Punic (प्यूनिक)भाषा से निकली। लगभग 400 ईस्वी  तक, पुणिक का पहला अर्थ मुख्य रूप से स्मारक शिलालेखों के लिए उपयोग किया जाता था, जो कहीं और कर्सर नव-पुणिक वर्णमाला द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
      पुणिक साहित्यिक कार्यों के उदाहरणों में मागो के विषय को शामिल किया गया है, जो महान कुख्यातता के साथ एक पुणिक जनरल है, जिसने लड़ाई के दौरान किताबों के लेखन के माध्यम से कार्थेज के प्रभाव को उतना ही फैलाया।
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      रोमन सीनेट ने इतने कामों की सराहना की कि कार्थेज लेने के बाद, उन्होंने उन्हें बर्बर राजकुमारों को प्रस्तुत किया, जिनके पास पुस्तकालयों का स्वामित्व था।
      मैगो का काम ग्रीक में यूटिका के कैसियस डायनीसियस द्वारा अनुवादित किया गया था।
      लैटिन संस्करण का शायद ग्रीक संस्करण से अनुवाद किया गया था। साहित्य के पुणिक कार्यों के और उदाहरणों में हनो नेविगेटर के काम शामिल हैं, जिन्होंने अफ्रीका के आसपास नौसेना के दौरान और नई उपनिवेशों के निपटारे के दौरान अपने मुठभेड़ों के बारे में लिखा था।

      Punic का एक तीसरा संस्करण लैटिनो-Punic होगा, लैटिन वर्णमाला में लिखा एक Punic, लेकिन सभी वर्तनी उत्तर पश्चिमी अफ्रीकी उच्चारण का पक्ष लिया। लैटिनो-पुनीक को तीसरी और चौथी शताब्दी तक बोली जाती थी और सत्तर बरामद ग्रंथों में दर्ज की गई थी। रोमन शासन के तहत पुणिक का आश्चर्यजनक अस्तित्व इसलिए था क्योंकि बोलने वाले लोगों के पास रोम के साथ बहुत अधिक संपर्क नहीं था, और इसलिए लैटिन सीखने की आवश्यकता नहीं थी।
      सन्दर्भ तालिका -
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      लैटिनो- Punic ग्रंथों में पहली शताब्दी Zliten एलपी 1, या दूसरी शताब्दी Lepcis Magna एलपी 1 शामिल हैं। [ स्पष्टीकरण की आवश्यकता ] उन्हें चौथी शताब्दी के अंत में भी लिखा गया था, बीर एड-ड्रेडर एलपी 2 । शास्त्रीय स्रोत जैसे स्ट्रैबो (63/4 ईसा पूर्व - एडी 24), लिबिया के फोनीशियन विजय का जिक्र करते हैं।

      सलस्ट (86 - 34 ईसा पूर्व) के अनुसार 146 ईसा पूर्व के बाद पुणिक के हर रूप में परिवर्तन हुआ है, जो दावा करते हैं कि पुणिक को " न्यूमिडियन के साथ उनके विवाहों में बदल दिया गया था"। यह खाता पुणिक पर उत्तर-अफ्रीकी प्रभाव का सुझाव देने के लिए पाए गए अन्य सबूतों से सहमत है, जैसे यूनेबियस के ओनोमास्टिक में लिबिको-बर्बर नाम। [ संदिग्ध ] आखिरी ज्ञात साक्ष्य रिपोर्टिंग एक जीवित भाषा के रूप में Punic है हिप्पो के अगस्तिन (डी। 430) की है।
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      पणियों का देवता (ईश्वरीय सत्ता) वल
      का सेमैेटिक पुराणों में रूप -बाल ठीक से Ba'al , पुरातनता के दौरान Levant में बोली जाने वाली उत्तर पश्चिमी सेमेटिक भाषाओं में एक शीर्षक और सम्मानित अर्थ " भगवान " था। लोगों के बीच इसके उपयोग से, यह देवताओं पर लागू किया गया था।  विद्वानों ने पहले सौर संप्रदायों के साथ और विभिन्न असंबद्ध संरक्षक देवताओं के साथ नाम से जुड़ा हुआ था, लेकिन शिलालेखों से पता चला है कि बाल नाम विशेष रूप से तूफान और प्रजनन भगवान हदाद और उनके स्थानीय अभिव्यक्तियों से जुड़ा हुआ था। [8]

      Ba'al
      प्रजनन , मौसम , बारिश , हवा , बिजली , ऋतु , युद्ध , नाविकों के संरक्षक और समुद्री व्यापारियों के देवता , रेफाईम (पैतृक आत्माओं) के नेता
      बाद के विचार: देवताओं के राजा

      उगलिट के खंडहर में पाए गए थंडरबॉल्ट के साथ बाल का स्टील
      प्रतीक
      बुल , भेड़
      क्षेत्र
      कनान के पास और पास
      पास, आसपास और उगारिट में
      मिस्र (मध्य साम्राज्य)
      व्यक्तिगत जानकारी
      पत्नी के
      अनाट , अथतर्ट, आर्से, तलेय, पिड्रे
      माता-पिता
      डगन (सामान्य लोअर) एल  (कुछ उगारिटिक ग्रंथ)
      एक माँ की संताने
      Anat
      सदियों की अवधि में संकलित और क्यूरेटेड हिब्रू बाइबिल में विभिन्न लेवेंटाइन देवताओं के संदर्भ में शब्द का सामान्य उपयोग शामिल है, और आखिरकार हदाद की ओर इशारा करते हुए आवेदन, जिसे झूठे भगवान के रूप में अस्वीकार कर दिया गया था। उस प्रयोग को ईसाई धर्म और इस्लाम में ले जाया गया था, कभी-कभी दानव में बेल्जबूब के अपमानजनक रूप के तहत।

      एटिमोलॉजी -
      अंग्रेजी शब्द "बाल" की वर्तनी ग्रीक बाल ( Βάαλ ) से निकली है, जो नए नियम [9] और सेप्टुआजिंट , [10] में दिखाई देती है और इसके लैटिनयुक्त रूप बाल से , जो वल्गेट में दिखाई देती है। [10] ये रूप स्वर में कम-से-कम नॉर्थवेस्ट सेमेटिक फॉर्म बीएल से निकलते हैं। फोएनशियन देवता और झूठे देवताओं के रूप में शब्द की बाइबिल की  इंद्रियों को आम तौर पर प्रोटेस्टेंट सुधार के दौरान किसी भी मूर्तियों , संतों के प्रतीक , या कैथोलिक चर्च को दर्शाने के लिए बढ़ाया गया था। [11] इस तरह के संदर्भों में, यह anglicized उच्चारण का पालन करता है और आमतौर पर इसके दो As के बीच किसी भी निशान को छोड़ देता है। [1] सेमिटिक नाम के करीबी लिप्यंतरण में, आयन का प्रतिनिधित्व बाल के रूप में किया जाता है।

      नॉर्थवेस्ट सेमेटिक भाषाओं में - यूगारिटिक , फोएनशियन , हिब्रू , एमोरिट , और अरामासिक- शब्द बाल ने " मालिक " और विस्तार से, "भगवान", [10] एक "मास्टर" या "पति" का संकेत दिया। [12] [13] संज्ञेयों में अक्कडियन बेल्लू ( 𒂗 ), [सी] अम्हारिक बाल ( ባል ), [14] और अरबी बाल ( بعل ) शामिल हैं। बाल ( बेथेल ) और बाल अभी भी आधुनिक हिब्रू  और अरबी में "पति" के शब्दों के रूप में कार्य करते हैं। वे चीजों के स्वामित्व या गुणों के कब्जे से संबंधित कुछ संदर्भों में भी दिखाई देते हैं।

      स्त्री का रूप ba'alah है ( हिब्रू : בַּעֲלָה ; [15] अरबी : بعلة  ), जिसका अर्थ है मादा मालिक या घर की महिला [15] के अर्थ में "मालकिन" और अभी भी " पत्नी " के लिए दुर्लभ शब्द के रूप में सेवा करना । [16]

      प्रारंभिक आधुनिक छात्रवृत्ति में सुझावों में सेल्टिक भगवान बेलेनस के साथ तुलना भी शामिल है। [17]

      सेमिटिक धर्म -
      यह भी देखें: प्राचीन निकट पूर्व के धर्म , प्राचीन सेमिटिक धर्म , कनानी धर्म , और कार्थागिनी धर्म

      एक बाल का कांस्य मूर्ति, 14 वीं x 12 वीं शताब्दी ईसा पूर्व, फीनशियन तट के पास रस शमरा (प्राचीन उगारिट ) में पाया गया। Musée du Louvre ।
      जेनेरिक -
      यह भी देखें: बेल , ज़ीउस बेलोस , और बेलस नाम के अन्य आंकड़े
      सुमेरियन में एन की तरह, अक्कडियन बेल्लू और नॉर्थवेस्ट सेमिटिक बाल (साथ ही साथ इसकी स्त्री रूप बालाह ) मेसोपोटामियन और सेमिटिक पैंथियंस में विभिन्न देवताओं के शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता था। केवल एक निश्चित लेख , जननांग या उपकला , या संदर्भ स्थापित कर सकता है कि कौन सा विशेष भगवान था। [18]

      हदाद -
      मुख्य लेख: हदाद और अदद
      बायल को तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व द्वारा उचित नाम के रूप में भी इस्तेमाल किया गया था, जब वह अबू सलाबीख  में देवताओं की एक सूची में प्रकट होता है। [10] अधिकांश आधुनिक छात्रवृत्ति का दावा है कि यह बाल-आमतौर पर "भगवान" के रूप में प्रतिष्ठित है ( हे बहेल , हा बाल ) - तूफान और प्रजनन देवता हदाद के समान है; [10] [1 9] [12] यह बाल हडु के रूप में भी प्रकट होता है। [13] [20]विद्वानों ने प्रस्ताव दिया कि, हदाद की पंथ महत्त्व में बढ़ी है, इसलिए उसका सच्चा नाम किसी के लिए बहुत पवित्र माना गया है, लेकिन महायाजक जोर से बोलने के लिए और उपनाम "भगवान" ("बाल") था इसके बजाए, " बेल " का इस्तेमाल बाबुलियों के बीच मर्दुक और इस्राएलियों के बीच यहोवा के  लिए " अदोनी " के लिए किया गया था। एक अल्पसंख्यक प्रस्ताव करता है कि बाल एक देशी कनानी देवता था जिसकी पंथ की पहचान अदद के पहलुओं के साथ की गई थी या अवशोषित की गई थी। [10] पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक , उनके मूल संबंधों के बावजूद, दोनों अलग थे: हदाद की पूजा अरामियों और बाल ने फीनशियनों और अन्य कनानियों  द्वारा की थी। [10]

      एल -
      मुख्य: एल
      फोएनशियन बायल आमतौर पर एल या डगन के साथ पहचाना जाता है। [21]

      Ba'al बाल ( वैदिक -बल)
      Ba'al शिलालेखों में जीवित रहने के लिए अच्छी तरह से प्रमाणित है और लेवेंट [22] में अलौकिक नामों में लोकप्रिय था, लेकिन आमतौर पर अन्य देवताओं के साथ उनका उल्लेख किया जाता है, "कार्रवाई के अपने क्षेत्र को शायद ही कभी परिभाषित किया जा रहा है"। [23] फिर भी, उगारिटिक रिकॉर्ड उन्हें मौसम देवता के रूप में दिखाते हैं, विशेष रूप से बिजली , हवा , बारिश और प्रजनन क्षमता पर शक्ति। [23] [डी] क्षेत्र के सूखे गर्मियों को अंडरवर्ल्ड में बाल के समय के रूप में समझाया गया था और शरद ऋतु में उनकी वापसी ने तूफान का कारण बनने के लिए कहा था। [23] इस प्रकार, कनान में बालल की पूजा - जहां उन्होंने अंततः देवताओं के नेता और राजा के संरक्षक के रूप में एल को आपूर्ति की- मिस्र और मेसोपोटामिया के विपरीत, इसकी खेती के लिए वर्षा पर क्षेत्रों की निर्भरता से जुड़ा हुआ था, जो सिंचाई पर केंद्रित था उनकी प्रमुख नदियों से। फसलों और पेड़ों के लिए पानी की उपलब्धता के बारे में चिंता ने अपनी पंथ के महत्व को बढ़ाया, जिसने वर्षा देवता के रूप में अपनी भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया। [12] युद्ध के दौरान उन्हें भी बुलाया गया था, जिसमें दिखाया गया था कि उन्हें मनुष्यों की दुनिया में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने का विचार किया गया था, [23] एल के अधिक अलगाव के विपरीत। बालाबेक के लेबनानी शहर का नाम बाल के नाम पर रखा गया था। [26]

      उगारिट का बाल हदाद का प्रतीक था, लेकिन समय बीतने के बाद, यह सिद्धांत भगवान का नाम बन गया, जबकि हदाद महाकाव्य बन गया। [27] बायल को आमतौर पर दगान का पुत्र कहा जाता था, लेकिन यूगारिटिक स्रोतों में एल के पुत्रों में से एक के रूप में दिखाई देता है। [22] [13] [ई] बालाल और एल दोनों यगारिटिक ग्रंथों में बैल से जुड़े थे, क्योंकि यह ताकत और प्रजनन दोनों का प्रतीक था। [28] कुंवारी देवी ' अनाथ उसकी बहन थीं और कभी-कभी उसके माध्यम से एक बच्चे के साथ श्रेय दिया जाता था। [ उद्धरण वांछित ] उन्होंने सांपों के खिलाफ विशेष दुश्मन आयोजित किया, दोनों स्वयं और यमू के प्रतिनिधियों ( lit. "सागर"), कनानी समुद्र देवता और नदी देवता के रूप में । [2 9] उन्होंने टैनिन ( तुन्नानु ), "ट्विस्ट सर्प" ( बान'क्लटन ), " लिटन द फ्यूजिटिव सर्पेंट" ( लेट्टन बान ब्र , बाइबिल लीविथान ), [2 9] और " सात प्रमुखों के साथ ताकतवर " ( Šlyṭ D.šb't Rašm )। [30] [एफ] बाम के यमू के साथ संघर्ष अब आम तौर पर बाइबिल की पुस्तक डैनियल के 7 वें अध्याय में दर्ज दृष्टि के प्रोटोटाइप के रूप में माना जाता है। [32] समुद्र के विजेता के रूप में, बालल को कनानी और फोएनशियनों ने नाविकों और समुद्री व्यापारियों के संरक्षक के रूप में माना था। [2 9] मोना के विजेता के रूप में, कनानी मृत्यु देवता , उन्हें बाल रापूमा ( बीएल आरपीयू ) के नाम से जाना जाता था और विशेष रूप से सत्तारूढ़ राजवंशों के पूर्वजों, रेफैम ( आरपीयूएम ) के नेता के रूप में जाना जाता था। [29]

      कनान से, पूर्व साम्राज्य बीसीई में फोएनशियन उपनिवेशवाद  की लहरों के बाद, मध्य साम्राज्य और भूमध्यसागरीय इलाकों  में बाल की पूजा मिस्र में फैल गई। [22] उन्हें विभिन्न उपहासों के साथ वर्णित किया गया था और, यूगारिट को फिर से खोजने से पहले, यह माना जाता था कि इन्हें अलग-अलग स्थानीय देवताओं के लिए संदर्भित किया गया था। हालांकि, जैसा कि दिन द्वारा समझाया गया है, उगारिट के ग्रंथों से पता चला है कि उन्हें "विशेष देवता के स्थानीय अभिव्यक्तियों" के रूप में माना जाता था, जो रोमन कैथोलिक चर्च में वर्जिन मैरी के स्थानीय अभिव्यक्तियों के समान थे। " [1 9] उन शिलालेखों में, उन्हें अक्सर "विक्टोरियस बाल" ( अलीिन या आलिन बाल ) के रूप में वर्णित किया जाता है, [13] [10] "


      Phoenicia में


      सीथियन साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार पश्चिम एशिया एवं पूर्वी यूरोप में था
      एशिया माइनर / अनातोलिया के शास्त्रीय क्षेत्रों के भीतर फेनिशिया का स्थान

      फेनिशिया एक प्राचीन सेमिटिक सभ्यता थी जिसकी उत्पत्ति पूर्वी भूमध्य सागर और उपजाऊ वर्धमान के पश्चिम में हुई थी । उनकी सभ्यता प्राचीन ग्रीस के समान शहर-राज्यों में संगठित थी, जिनमें से सबसे उल्लेखनीय थे टायर , सिडोन , अरवाड , बेरिटस , बायब्लोस , त्रिपोलिस , एको या टॉलेमाइस और कार्थेज ।


      फेनिशिया का स्थान

      विद्वान आम तौर पर इस बात से सहमत हैं कि इसमें आज के लेबनान , उत्तरी इज़राइल और दक्षिणी सीरिया के तटीय क्षेत्र शामिल हैं जो उत्तर में अरवाड तक पहुँचते हैं, लेकिन इस बात पर कुछ विवाद है कि यह दक्षिण में कितनी दूर तक गया, सबसे दूर सुझाया गया क्षेत्र अश्कलोन है । [5] इसके उपनिवेश बाद में पश्चिमी भूमध्य सागर (विशेष रूप से कार्थेज) और यहां तक ​​कि अटलांटिक महासागर तक पहुंच गए। यह सभ्यता 1500 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के बीच भूमध्य सागर में फैली थी ।

      शब्द-साधन(शब्द व्युत्पत्ति

      फोनीशियन नाम , लैटिन पोएनी (विशेषण पोएनिकस, बाद में प्यूनिकस) की तरह, ग्रीक Φοίνικες ( फोनिकेस ) से आया है। शब्द φοῖνιξ फ़ोनिक्स का अर्थ भिन्न-भिन्न रूप से " फोनीशियन व्यक्ति", "टायरियन पर्पल, क्रिमसन" या "खजूर" है और होमर में पहले से ही तीनों अर्थों के साथ प्रमाणित है । [6] (पौराणिक पक्षी फ़ीनिक्स का भी यही नाम है, लेकिन यह अर्थ सदियों बाद तक प्रमाणित नहीं हुआ है।) यह शब्द φόοινός phoinós "रक्त लाल" से लिया गया है, [7] स्वयं संभवतः φόνος फ़ोनोस "हत्या" से संबंधित है . यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन सा अर्थ पहले आया, लेकिन यह समझ में आता है कि यूनानी कैसे थेखजूर और डाई के लाल या बैंगनी रंग का संबंध उन व्यापारियों से हो सकता है जो दोनों उत्पादों का व्यापार करते थे। रॉबर्ट एसपी बीकेस ने जातीय नाम की पूर्व-ग्रीक उत्पत्ति का सुझाव दिया है। [8] ग्रीक में शब्द का सबसे पुराना प्रमाणित रूप माइसेनियन पो-नी-की-जो , पो-नी-की हो सकता है , जो संभवतः मिस्र के fnḫw (फेनखु) से उधार लिया गया है। [9]

      फेनिशिया एक प्राचीन यूनानी शब्द है जिसका उपयोग क्षेत्र के प्रमुख निर्यात को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, म्यूरेक्स मोलस्क से टायरियन बैंगनी रंगे कपड़े, और प्रमुख कनानी बंदरगाह कस्बों को संदर्भित किया जाता है; समग्र रूप से फोनीशियन संस्कृति के अनुरूप नहीं है क्योंकि इसे मूल रूप से समझा गया होगा। उनकी सभ्यता प्राचीन ग्रीस के समान शहर-राज्यों में संगठित थी , [28] शायद उनमें से सबसे उल्लेखनीय थे टायर , सिडोन , अर्वाड , बेरिटस , बायब्लोस और कार्थेज । [29]प्रत्येक शहर-राज्य एक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र इकाई थी, और यह अनिश्चित है कि फोनीशियन किस हद तक खुद को एक राष्ट्रीयता के रूप में देखते थे। पुरातत्व, भाषा, जीवनशैली और धर्म के संदर्भ में फोनीशियनों को अलग करने के लिए कुछ भी नहीं था क्योंकि वे लेवांत के अन्य निवासियों, जैसे उनके करीबी रिश्तेदारों और पड़ोसियों, इज़राइलियों से स्पष्ट रूप से भिन्न थे। [30]

      लगभग 1050 ईसा पूर्व, फोनीशियन भाषा लिखने के लिए फोनीशियन वर्णमाला का उपयोग किया जाता था। [31] यह सबसे व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली लेखन प्रणालियों में से एक बन गई, जिसे फोनीशियन व्यापारियों ने भूमध्यसागरीय दुनिया भर में फैलाया, जहां यह विकसित हुई और कई अन्य संस्कृतियों द्वारा इसे आत्मसात किया 

      अगाथोकल्स के सिक्के पर देवता


      अगाथोकल्स ( लगभग  180 ईसा पूर्व ) के सिक्के में ब्राह्मी लिपि और भारत के कई देवताओं को शामिल किया गया था, जिनकी व्याख्या विष्णु , शिव , वासुदेव , बलराम या बुद्ध के रूप में की गई है । [9] [10]

      1. ज़ीउस देवी हेकेट के साथ खड़ा है । [11] ग्रीक: "किंग अगाथोकल्स"।
      2. देवता सिर पर आयतन के साथ एक लंबा हेमेशन पहने हुए, हाथ आंशिक रूप से मुड़े हुए और कॉन्ट्रापोस्टो मुद्रा में हैं। ग्रीक: "राजा अगाथोकल्स"। [11] यह सिक्का कांसे का है । [12]
      3. हिंदू भगवान बलराम - गुणों के साथ संकर्षण । ग्रीक: "राजा अगाथोकल्स"। [13]
      4. हिंदू भगवान वासुदेव - गुणों के साथ कृष्ण । [13] ब्राह्मी : "राजने अगाथुक्लेयासा", "राजा अगाथोकलेस"।

      5. देवी लक्ष्मी , अपने दाहिने हाथ में कमल धारण करती हैं। [14] ब्राह्मी : "राजने अगाथुक्लेयासा", "राजा अगाथोकलेस"।

      1880 में, इसी तरह का एक सिक्का अगाथोकल्स द्वारा चलाया गया था, लेकिन फिलिप के बेटे अलेक्जेंडर की "स्मृति" में ब्रिटिश संग्रहालय के पर्सी गार्ंडर द्वारा प्रकाशित किया गया था। [4] अगाथोकल्स के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का उप-राजा बनना असंभव था जिसने लगभग दो सौ साल पहले शासन किया था, ड्रॉयसन के स्पष्टीकरण को सैलेट के पक्ष में सरसरी तौर पर खारिज कर दिया गया था। [4] [ई] गार्डनर ने प्रस्तावित किया कि ये सिक्के यूक्रेटाइड्स प्रथम द्वारा (अंततः सफल) चुनौती की पूर्व संध्या पर अपनी जनता को बढ़ाने के लिए जारी किए गए थे । [15] 1900 के मध्य की शुरुआत में, ह्यूग रॉविन्सन और विलियम टार्नएक भव्य हेलेनिस्टिक अतीत के अपने दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए गार्डनर के विचारों का विस्तार करेगा जहां अगाथोकल्स ने अपनी वंशावली को नकली बना दिया था और यूक्रेटाइड्स I सेल्यूसिड नियंत्रण को फिर से स्थापित करने के लिए एंटिओकस IV के आदेशों का पालन कर रहा था । [16] [15] अन्य विद्वान आम तौर पर इन "पूर्वज सिक्कों" को बहुत अधिक महत्व देने से बचते हैं। [17]

      इन सिक्कों की और भी किस्में बाद में खोजी जाएंगी। [4] इनमें डायोडोटस द्वितीय , डेमेट्रियस द्वितीय और डेमेट्रियस का उल्लेख है । [4] [6] [18] [17] पिछले कुछ दशकों में, ऐसे सिक्के अधिक संख्या में खोजे गए हैं लेकिन इन सिक्कों की सटीकता इस तथ्य से प्रभावित है कि ये नियंत्रित उत्खनन से नहीं बल्कि नीलामी नेटवर्क से आए थे। [4] महाद्वीपों की यात्रा करने और कई हाथों से गुजरने के बाद ही विद्वानों द्वारा उनका मूल्यांकन किया गया। [4]

      तब से यह स्वीकार कर लिया गया है कि ये सिक्के वास्तव में अगाथोकल्स के पूर्ववर्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। [19] ढलाई और महत्व का सटीक संदर्भ अभी भी स्पष्ट नहीं है। [6]


      भारत देवताओं के साथ अगाथोकल्स का सिक्का ।
      ओबीवी बलराम - ग्रीक किंवदंती के साथ संकर्षण : ΒΑΣΙΛΕΩΣ ΑΓΑΘΟΚΛΕΟΥΣ ( बेसिलोस अगाथोक्लिअस )। ब्राह्मी कथा के साथ
      रेव वासुदेव-कृष्ण :𑀭𑀚𑀦𑁂 𑀅𑀕𑀣𑀼𑀼𑀓𑁆𑀮𑁂𑀬𑁂𑀲 राजने अगाथुक्लेसा "राजा अगाथोकल्स"।

      3 अक्टूबर 1970 को, फ्रांसीसी पुरातत्वविदों की एक टीम द्वारा एक तीर्थयात्री के पानी के जहाज से ऐ-खानौम के प्रशासनिक क्वार्टर में छह भारतीय-मानक चांदी के ड्रैकमास की खोज की गई थी। [26] ये सिक्के वैदिक देवताओं का पहला मुद्राशास्त्रीय प्रतिनिधित्व हैं और प्रारंभिक भारत में भगवतीवाद के वैष्णववाद का पहला रूप होने के प्रमुख साक्ष्य के रूप में काम करते हैं। [27] [28]

      सिक्के विष्णु के शुरुआती अवतारों को प्रदर्शित करते हैं : बलराम - संकर्षण , पीछे मूसल और हल की विशेषताओं के साथ , और वासुदेव - कृष्ण , सामने शंख और सुदर्शन चक्र की विशेषताओं के साथ । [27] [28] [जी] सिक्कों के आधार पर भारतीय मूर्तिकला के विशिष्ट ट्रेडमार्क - तीन-चौथाई के विपरीत ललाट मुद्रा, पर्दों में कठोर और स्टार्चयुक्त सिलवटें, अनुपात की अनुपस्थिति, और पैरों का बग़ल में स्वभाव - ऑडोइन और बर्नार्ड ने अनुमान लगाया कि नक्काशी भारतीय कलाकारों द्वारा की गई थी। [27]बोपेराच्ची निष्कर्ष पर विवाद करते हैं और वासुदेव-कृष्ण के छत्र के साथ टोपी और ऊंची गर्दन वाले फूलदान के साथ शंख के गलत चित्रण की ओर इशारा करते हैं ; उनका अनुमान है कि एक यूनानी कलाकार ने अब लुप्त हो चुकी (या अनदेखी) मूर्ति से सिक्का उकेरा था। [27]

      अगाथोकल्स के कुछ कांस्य सिक्कों के अग्रभाग पर पाई गई एक नाचती हुई लड़की को सुभद्रा का प्रतिनिधित्व माना जाता है । [27]

      साइन्स जर्नी चैनल का यूट्यूबर  कृष्ण शब्द को पाली  और प्राकृत भाषाओं में  नही   मानता है जबकि वेद शब्द भारोपीय होने अनेक भाषाओ में  है जिसका कुछ विवरण नीचे है।

      प्राकृत- में कृष्ण का रूप (काण्ह) है और पाली की पूर्व लिपि ब्राह्मी थी  ।

      बौद्ध ग्रन्थ तो महावीर स्वामी का वर्ण निगंठ ( निर्ग्रन्थ तथा ज्ञान पुत्र के रूप में वर्णन करते हैं 

       परन्तु जैन ग्रन्थों में किसी भी बुद्ध का वर्णन नहीं है। अत: जैन धर्म बौद्ध धर्म से पुराना   है ।

      सत्य तो यही है कि कृष्ण को ऋग्वेद
      में असुर अर्थात् अदेव कहा है ।
      --- जो यमुना की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करते हैं 
      मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई खोज के अनुसार पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है।
      जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था ।
      जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
      पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। पुराणों का सृजन बुद्ध के परवर्ती काल में हुआ । और कृष्ण की कथाऐं इससे भी ---पुरानी हैं ।

      अथर्ववेद-(20/137/7)
      ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
      देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् - (१३७)
      "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
      (इयानः) चलता हुआ (अंशुमतीम्) विभागवाली [सीमावाली नदी-म० ८]  पर (अव अतिष्ठत्) ठहरा है। (नृमणाः) नरों के समान मनवाले (इन्द्रः) इन्द्र  ने (तम् धमन्तम्) उस हाँफते हुए को (शच्या) शचि के साथ  (आवत्)-
      लङ्(अनद्यतन भूत)
      एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
      प्रथमपुरुषःआवत्=युद्ध किया 
       युद्ध किया  और (स्नेहितीः) स्नेहयुक्त (अप अधत्त) हटा लिया है ॥७॥
      टिप्पणी:-
       (धमन्तम्) उच्छ्वसन्तम्। पराभवेन दीर्घं श्वसन्तम् (स्नेहितीः) स्नेहतिः स्नेहतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। स्वकीया मारणशीलाः सेनाः (नृमणाः) नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) दूरे धारितवान् निवर्तितवान् ॥

      ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित

      ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१
      कुत्स आङ्गिरसः
      दे. इन्द्रः( १ गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

      "प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥

      यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।                                         इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥

      यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः ।                                              यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
      सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्

      सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
      :32
      वैरूपम्.

      वैरूपम्.
      प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना ।
      अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा  ऋग्वेद १/१०१/१

      (३८०।१) ।। वैरूपम् । विरूपो जगतीन्द्रो मरुत्त्वान्।
      प्रमंदाऽ२३४इने ।। पितुमदाऽ३र्च्चाऽ३तावचः । यःकाऽ३ओऽ२३४वा ।
      कृष्णगर्भानिरहन्नृजिश्वनाऽ३ । अवस्याऽ२३४वाः। वृषणंवा । ज्रादक्षाऽ२३४इणाम् ।
      मारौवाओऽ२३४वा ।। त्वन्तꣳसख्यायहुवाऽ५इमहाउ ।। वा ।।
      ( दी ३ । प० १० । मा० ९ )२३ ( णो । ६५१)

      द्र. पञ्चनिधनं वैरूपम्
      वैरूपोपरि वैदिकसंदर्भाः

      अस्मिन् जगति अस्माकं इन्द्रियाणि यत्किंचित् संवेदनं प्राप्नुवन्ति, तत् सर्वं असत्यं तु नैवास्ति, किन्तु विरूपितं अवश्यमस्ति। यदा वयं वैराजपदं प्राप्नुवन्ति, तदा अस्माकं दृष्टिः सत्यस्य दर्शने समर्था भवति।"
      ________
      यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।                        वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
      ___________

      यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।  इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥

      यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।                                                इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥

      रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः ।                                                इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥

      यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥

      त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।                                                अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥

      मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने ।                                              आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥

      मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् ।                                                  तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥

      {सायण-भास्यम्}
      प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥
      ____________________
      प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
      अर्थ-
      अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा  ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

      विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं  होकर अदेव पद है ।
      ____
        . १०९-११५ ) । एतदनार्षत्वेनानादरणीयं भवति । एषोऽर्थः क्रमेणर्क्षु वक्ष्यते । तथा चास्या ऋचोsयमर्थः । 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैरसुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोऽसुरः "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या= कर्मणा प्रज्ञानेन वा 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं यद्वा जगद्भीतिकरं शब्दं कुर्वन्तं “तं =कृष्णमसुरम् “इन्द्रः मरुद्भिः सह 5-“आवत् =प्राप्नोत् । पश्चात्तं कृष्णमसुरं तस्यानुचरांश्च हतवानिति वदति । “नृमणाः नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः । स्नेहतिर्वधकर्मसु पठितः । सर्वस्य हिंसित्रीस्तस्य सेनाः “अप “अधत्त ।6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् ॥
      _________________
      "द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशुमत्या:।
      नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥१४
      द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः ।
      नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४

      तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रुतगामिनं कृष्णमहम् “अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् । “विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे “वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥

      अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।

      अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
      विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।

      1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= असुरसेनाः "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥ 

      त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
      गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
      पद पाठ:-
      त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
      गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६

      हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
      _________________________

      drip (v.)
      c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.

      drip (n.)
      mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

      विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।


      "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
      आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
      द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
      नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
      अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
      विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
      _______________________________________
      क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-

      "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
      आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

      पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

      शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
      २-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
      ३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
      ४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
      ५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
       ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
      ७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
      ८-नृमणां( धनानां) 
      ९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 

      विशेषटिप्पणी-
      १०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
      ११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
      प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
      आवत् =प्राप्त किया । 
      हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।
      भाष्य-
      कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै: परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

      हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।
      ________________________________
      द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
      नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

      पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।

      नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

      हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं चाहूगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो 
      (अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
      _______________    

      शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
      १-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

      २- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

      पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
      “सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
      षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)    'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

      शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

      परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

      विषुण-विभिन्न रूपी।
      ३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
      ४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
      ५-अ॒व॒ = उपसर्ग
      ६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
      ७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
      ८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
      ९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
      १०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
      ११-आजौ= युद्ध में ।
      १२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
      ___________________________________

      अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
      विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
      ______________
      अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
      पदपाठ-विच्छेदन :-
      । द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
      “अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
      यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः=गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार (अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) । शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
       सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

      ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
      अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
      कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे 

      हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
       
      तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
      हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

      १-तस्मिन् -उसमें ।
       २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
      ३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
      स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
      परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

      हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
      तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
      भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
      ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
      भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
      वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
      चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
      विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
      शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
      शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

      कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
      सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते थे। परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
      जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

      वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
      सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
      “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
      सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
      (वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
      उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
      चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
      इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

      परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
      इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
      ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
      परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
      परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
      राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
      सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

      भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
      स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है । जो सरासर कृष्ण चरित्र की धज्जीयाँ पीटना है
      कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
      और करोड़ो देवों की पूजा करना। धर्म के नाम परसुरापान करना  कृष्ण ने नहीं किया।
      ______
      जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
      येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
      तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
      _______________
      श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
      अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
      कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
      श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
      __________
      सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
      अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
      सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

      वेदों में कृष्ण और इन्द्र के युद्ध सम्बन्धी तथ्य-

      भारतीय भाषाओं में इन्द्र" नाम की कोई निश्चित व्युत्पत्ति नहीं है। सबसे प्रशंसनीय रूप से यह एक प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन मूल का शब्द है।

      यूरोपीय भाषाओं में एण्डरो-(andró) शब्द ग्रीक भाषा के Aner से विकसित हुआ है। Aner का सम्बन्ध कारक रूप एण्डरो- है। मूल भरोपीय भाषाओं में (H- Ner) हनर-

      ओस्कैन में  (ner)- "पुरुषों का"), अल्बानियाई में  नजेरी "आदमी, मानव," वेल्स- नर । मितन्नी में  इन-द-र- शब्द है। यद्यपि अवेस्ता में इन्द्र एक दुष्ट शक्ति है। क्योंकि देव शब्द ही अवेस्ता में दुष्ट का वाचक है। पारसी मिथ को के सम्बन्ध में इन्द्र और देव शब्द पर आगे यथा क्रम विचार किया जाएगा ।

      संस्कृत(Sanskrit) एक वैदिक भाषा परिनिष्ठित व संशोधित रूपान्तरण है. कुछ लोगों का मानना है कि ये दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है, जो लगभग 5000 साल पुरानी है. ऋग्वेद जिस भाषा में लिखा गया है वो इसका यानी संस्कृत का प्रथम स्वरूप है, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि संस्कृत ऋग्वेद से भी पहले इस्तेमाल होती थी. इस भाषा का इस्तेमाल आज से लगभग 3500 साल पहले सीरिया का एक राजवंश किया करता था. आज हम उसी राजवंश के बारे में आपको आगे यथाक्रम बताएंगे.

      भारतीय वेदों में इन्द्र की सबसे अधिक स्तुति वैदिक ब्राह्मणों ने की है। और इन्द्र को वेदों में सबसे वड़ा देव घोषित किया गया है ।

      परन्तु वैदिक पुरोहित भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र आदि देवताओं का योजन( यज्ञ) आदि किया करते थे। देवताओं की उपासना से आध्यात्मिक ज्ञान अथवा मोक्ष तो मिन नहीं सकता और न ही यज्ञों के सम्पादन से न ईश्वर की अनुभूति हो सकती है और नहीं आत्मज्ञान प्राप्त होता है।

       यज्ञ केवल देवों की प्रसन्नता के लिए किए जाते थे और ये यज्ञ भी निर्दोष पशुओं पक्षीयों की हत्या के बिना सम्पन्न नहीं माने जाते थे। इन्द्र स्वयं यज्ञ में पशुमेध का समर्थ था।

      वेदों में तथा पुराणों में इन्द्र का चरित्र पूर्णतया राजसिक है । वह पुराणों में तो अपनी कामुक प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है। वेदों वनो  भी उसका विलासी चरित्र उभर कर आता है। उसमें सत्व गण का कोई भाव नहीं है। भोग विलास में निरन्तर लगा हुआ इन्द्र आध्यात्मिक ज्ञान से विमुख और परे है।

      ____________

      महाभारत के आदि पर्व में इन्द्र का यज्ञ भूमि में सोम पीकर उन्मत्त होने का वर्णन है।

      सोम एक नशीला पदार्थ था जिसे पारसी धर्म ग्रन्थों में होम कहा गया है क्योंकि फारसी में प्राय: वैदिक भाषा के " स" वर्ण का उच्चारण "ह"वर्ण के रूप में होता है"

      प्राचीन भारत में सुर, सुरा, सोम और मदिरा आदि का बहुत प्रचलन था। कहते हैं कि इंद्र की सभा में सुंदरियों के नृत्य के बीच सुरों के साथ सुरापान होता था। 
      सोम रस : सभी देवता लोग सोमरस का सेवन करते थे। प्रमाण- 'यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्रदेव को प्राप्त हो।-

      सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये ।
      सोमासो दध्याशिरः ॥५॥

      सुतऽपाव्ने । सुताः । इमे । शुचयः । यन्ति । वीतये।सोमासः । दधिऽआशिरः ॥५।

      सायणभाष्य:-

      “इमे "सोमासः अस्मिन् कर्मणि संपादिताः सोमाः "सुतपाव्ने= अभिषुतस्य सोमस्य पानकर्त्रे । षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । तस्य पातुः =“वीतये भक्षणार्थं "यन्ति तमेव प्राप्नुवन्ति । कीदृशाः सोमाः । "सुता:= अभिषुताः । “शुचयः =दशापवित्रेण शोधितत्वात् शुद्धाः । "दध्याशिरः =अवनीयमानं दधि आशीर्दोषघातकं येषां सोमानां ते दध्याशिरः ।। सुतपाव्ने । सुतं पिबतीति सुतपावा । वनिप: पित्त्वात् धातुस्वर एव शिष्यते । समासे द्वितीयापूर्वपदप्रकृतिस्वरं बाधित्वा कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् । शुचयः । शुच दीप्तौ'। ‘इन्' इत्यनुवृत्तौ ‘इगुपधात्कित्' (उ. सू. ४. ५५९) इति इन् । कित्त्वाल्लघूपधगुणाभावः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । वीतये । ‘ वि गतिप्रजनकान्त्यशनखादनेषु' इत्यस्मात् ' मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः ' ( पा. सू. ३, ३. ९६ ) इति क्तिन् उदात्तः । सोमासः । ‘ षुञ् अभिषवे'। ‘ अर्तिस्तुसुहुसृधृक्षि° ' ( उ. सू. १. १३७ ) इत्यादिना मन् । नित्त्वादाद्युदात्तः । ‘ आज्जसेरसुक्' (पा. सू. ७. १. ५० } इत्यसुगागमः । दध्याशिरः । दधाति पुष्णातीति दधि । ‘डुधाञ् धारणपोषणयोः । ‘ आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च ' ( पा. सू. ३. २. १७१ ) इति किन् । लिङ्वद्भावात् द्विर्भावः । कित्त्वादाकारलोपः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ।शॄ ‘हिंसायाम् ' । शृणाति हिनस्ति सोमेऽवनीयमानं सत् सोमस्य स्वाभाविकं रसम् ऋजीषत्वप्रयुक्तं नीरसं दोषं वा इत्याशीः । क्विपि ‘ ऋत इद्धातोः ' ( पा. सू. ७, १. १०० ) इति इत्वं रपरत्वं च । दध्येव आशीर्येषां सोमानां ते दध्याशिरः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ।९ ॥ (ऋग्वेद-1/5/5).

      तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे ।
      वायो तान्प्रस्थितान्पिब ॥१॥

      "शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। 

      (ऋग्वेद-1/23/1).. 

      शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् ।
      एदु निम्नं न रीयते ॥२॥

      (ऋग्वेद-1/30/2) 

      इन्द्रा य गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु” (ऋग्वेद- ८/, ५८,/ ६ )

      इमे त इन्द्र सोमास्तीव्रा अस्मे सुतासः ।
      शुक्रा आशिरं याचन्ते ॥१०॥

      ताँ आशिरं पुरोळाशमिन्द्रेमं सोमं श्रीणीहि ।
      रेवन्तं हि त्वा शृणोमि ॥११॥

      हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
      ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥

      सुरापान : प्राचीन काल में सुरा एक प्रकार से शराब ही थी कहते हैं कि सुरों द्वारा ग्रहण की जाने वाली हृष्ट (बलवर्धक) प्रमुदित (उल्लासमयी) वारुणी (पेय) इसीलिए सुरा कहलाई। कुछ देवता सुरापान करते थे। 

      हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
      ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥ (ऋग्वेदः सूक्तं 8/2/12)

      अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।

      वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,प्रसंग समुद्र मंथन.

      विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
      असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः 
      हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
      ('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये 
      और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
      वारुणी को   ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
      इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"

      धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं।
      धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, असु राति अर्थात् जो प्राण देता है, के रूप में चित्रित किया गया है
      'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है । और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
      'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
      और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
      विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक भी  है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।

      परन्तु लौकिक संस्कृत में सुर के विपरीत असुर हैं।

      वाल्मीकि रामायण को बाल काण्ड नें सुरा पीने वाले को सुर" ( देव) कहा है ।

      वाल्मीकि रामायण-
      बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
       सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- 
      “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
      "सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥ ३८।
      (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड)
      उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. 
      चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। 

      वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,
      प्रसंग ( समुद्र मंथन.) विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं ।
      और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे में बताते हुए कहते हैं ।

      "असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः। (३८)
       ('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई. 

      वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
      इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी" के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिन्द्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है.।
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      ये तो सर्वविदित ही है कि इन्द्र सुरा और सुन्दरियों के रूपरस का  पान करता रहता था। 
      इन्द्र एक व्यभिचारी देव था। कृष्ण ने सर्वप्रथम इन्द्र के इस कुत्सित कर्म को दृष्टिगत करते हुए उसकी पूजा पर रोक लगाई।
      तो इन्द्रोपासक पुरोहितों ने षड्यन्त्र पूर्वक कृष्ण के चरित्र को इन्द्र से भी अधिक दूषित करके चित्रित किया गया। और जो देवसंस्कृति के समर्थन में कृष्ण ने काम नहीं किया उसे भी कृष्ण के नाम पर जोड़कर कृष्ण के विचारों के साथ भी षड्यन्त्र कर दिया।

      इन्द्र सुरापान करके उन्मत्त रहता था । और सुरापान करने वाला ही कामुक और उन्मत्त होकर व्यवहार करता है।

      अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।

      हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो  सुरायाम्  ऊधर्न नग्ना जरन्ते (ऋग्वेद -8/2./12)

      पदान्वय:-सुरायाम्- पीतासो= सुरा पीने वाले।दुर्मदासो= बुरी तरह उन्मत्त होकर। नग्ना हृत्सु:- नंगे होकर छाती या हृदय में स्थित । ऊध: - स्तनो को  । जरन्ते - जारके समान मसलते या जीर्ण करते हैं।

      (न ) जिस प्रकार- (दुर्मदास:- दूषित मद से उन्मत्त लोग। युध्यन्ते-युद्ध करते हैं। हृत्सु- हृदयों में। सुरायाम्- पीतास:- सुरा पीने वाले लोग। नग्ना: - नंगे लोग।ऊध:-स्तन या छाती। जरन्ते- जारों की तरह मसलते रहते हैं। जीर्ण करते रहते हैं।

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      इन्द्र भी इसी प्रकार का चरित्र व्यवहार करता है।

      "व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः ।पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः ।७।

      तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महात्मनि।उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्राः सह महर्षिभिः।८।

      अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः।९।

      महाभारत आदिपर्व- (1/120/ 7-8-9-10)

        "अनुवाद :-एक समय वे महाबाहु धर्मात्‍मा नरेश व्युषिताश्व जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्‍द्र आदि देवता देवर्षियों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। उसमें देवराज इन्‍द्र सोमपान करके उन्‍मत्त हो उठे !थे तथा ब्राह्मण लोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्ष से फूल उठे थे।

      इन्द्रोपासक पुरोहित भी केवल भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए इन्द्र की स्तुति करते हैं। इन्द्र के उपासक केवल स्वर्ग" सुन्दर स्त्री और भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र की उपासना करते है।

      इन्द्र बहुत से बैलों( उक्षण) को खाने वाला और अपनी यज्ञों में पशु बलि माँगता है।

      ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त-(86) जो वृषाकपि के नाम से है   उसकी समस्त ऋचाऐं इन्द्र के विलासी चरित्र का दिग्दर्शन करती हैं।

      ऋग्वेदः सूक्तं १०/८६/

                      " वृषाकपिसूक्तम्

      "तैइस ऋचाओं का यह वृषाकपि सूक्त है जिसमें  वृषाकपि नामक इन्द्र अन्य पत्नू से उत्पन्न एक पुत्र था इन्द्र और इन्द्राणी( शचि) का परस्पर संवाद है

      वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥१॥ 

      "सोम-अभिषव करने के लिए यज्ञ में मुझ इन्द्र द्वारा आज्ञा दिए हुए स्तोताओं ने वृषाकपि का पूजन किया। वहाँ उपस्थित दैदीप्मीन मुझ  इन्द्र की मेरे द्वारा प्रेरित होकर भी उन स्तोताओं ने स्तुति नहीं की किन्तु मेरे पुत्र वृषाकपि की ही स्तुति की जिस सोम से बढ़े हुए यज्ञो में स्वामी वृषाकपि मेरा पुत्र और मेरा मित्र होकर सोमपान में हालांकि हर्षित हुआ। तो भी उन यज्ञों में मैं इन्द्र सम्पूर्ण जगत में श्रेष्ठतर हूँ। आचार्य माधव भट्ट के अनुयायी इस ऋचा को इन्द्राणी का वचन मानते हैं। उनका कहना है कि इन्द्राणी के लिए अर्पित हवि को वृषाकपि के स्थान में विद्यमान किसी अन्य मृग ( पशु ) ने दूषित कर दिया है। वहाँ इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। उस पक्ष में तो इस ऋचा का यह अर्थ है।)सोमाभिषव करने के लिए आज्ञा दिए गये  यजमान सोनाभिषव की प्रक्रिया से अलग हो गये और मेरे पति इन्द्रदेव की   स्तोता उस जनपद में स्तुति नहीं करते हैं। जिस जनपद में बढ़े हुए धनों  में स्वामी वृषाकपि  हर्षित होता है। मेरे मित्र और मेरे प्रिय इन्द्र देव सब जगत् में श्रेष्ठतर हैं।१।

      परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥२॥

        "अनुवाद :- हे इन्द्र तुम अत्यन्त चलकर वृषाकपि के पास जाते हो। अर्थात् अन्यत्र सोम पीने के लिए नहीं जाते हो। वही इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर है।२।

      किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः। यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्रप उत्तरः ॥३॥

        "अनुवाद :-  हे इन्द्र हरित वर्ण वाले वृषाकपि ने तुम्हारा क्या प्रिय कार्य किया ? क्यों कि वृषाकपि मृग पशु) जाति का है। जिस वृषा कपि के तुम इन्द्र उदार होकर पुष्टिकर धन शीघ्र न करते हो। जो इन्द्र समस्त जगति में श्रेष्ठतर है।३।

      यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि । श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

        "अनुवाद :-  हे इन्द्र तुम जिस अभिलाषित   वृषाकपि का पालन करते हो उस वृषाकपि को सूकर  खाने की इच्छाकरने वाला कुत्ता शीघ्र भक्षण करे।और उसके कान को पकड़े । क्योंकि कुत्ता सूअर को खाना चाहता है। इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठतर है।४।

      प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

        "अनुवाद :-  मुझ इन्द्राणी के लिए यजमानों द्रारा अर्पितप्रिय और  विशेषरूप से घृतयुक्त  हवियोंं को वृषाकपि के स्थान में विद्मान किसी कपि ने दूषित कर दिया। तत्पश्चात् मेरी इच्छा गै कि उस कि स्वामी वृषाकपि का शिर शीघ्र काट दूँ। मैं इस दुष्ट कर्म करने वाले वृषाकपि के लिए सुखकर न होऊँ। इस मुझ इन्द्राणी के पति इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर हैं।५।

      न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥६॥

        "अनुवाद :-

      मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।

      "यह बहुत रज वाली रमणी मुझ स्वनय राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में लीन अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्टतर हैं।६।

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      वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

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      इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

      इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

      इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

      उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

       "अनुवाद :-"इस प्रकार इन्द्राणी द्रारा बुरा भला कहा हुआ वृषाकपि कहता है कि हे माता ! सुन्दर लाभभ मे जिस प्रकार से तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाये । तुम्हारे इस प्रेम करने को स्वीकार करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिए तुम्हारी यौनि उपयुक्त हो ।और मेरे पिता के लिए तुम्हीरी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता इन्द्र को आपका शिर प्रेमालाप करने में कोयल आदि पक्षी  की तरह हर्षिकत करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।७।

      इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों में ही जीवन का आनन्द खोजता है । इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

      किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥

       "अनुवाद :- इन्द्र  क्रोधित इन्द्राणी को शान्त करते हुए कहता है कि हे सुन्दर भुजाओं वाली ,सुन्दर अंगुरियों वाली बड़े बालों वाली चौड़ी जाँघो वाली  तथा वीर पत्नी इन्द्राणी! तुम हमारे पुत्र वृषाकपि पर क्यो क्रोध कर रही हो।जिसका पिता मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।८।


      अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥९॥

      संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥

      इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।नह्यस्या अपरं चन साकं मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

      नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेरृते ।यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

      _____________   

      वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे । घसत्ते इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

       "अनुवाद :-

      मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी सौभाग्य शाली नहीं  है । कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल)को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।

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      उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥

       "अनुवाद :-

      इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।


      वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥

       "अनुवाद :- इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।

      न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत् । सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥

       "अनुवाद :- 

      हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग जम्हाई लेता हो । इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

      न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

      अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।

      शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।

      अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमों  वाला अङ्ग लिंग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग लम्बा होता है, वह ही स्त्रीयों पर अधिकार कर पाता है॥१७॥

      अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥

      १८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं=संगृहीतं "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

      बैल पकाने का जिक्र-

      अनुवाद :-

      सायण- भाष्य-−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य- कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः)- पकाने के लिये ईंधन के भरे अन:-छकड़े को (इन हत्या के साधनों को) चयनित कर लिया ॥१८॥


      अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् । पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥

      अनुवाद :-

      तत्पश्चात इन्द्र कहता है। मैं इन्द्र यजमानों को देखता हुआ। दास और आर्य को अलग करता हुआ यज्ञ में जाता हूँ।तथा हवि पकाने वाले औरसोम अभिषव करने वाले यजमान का  परिपक्व मन से सोम अभिषव करने वाले यजमान का सोम पीता हूँ। तथा बुद्धि मान यजमान को मैं इन्द्र देखता हूँ। जो मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१९।

      धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥

      अनुवाद :-जल शून्य और जल विहीन देश धन्व होता है। काटने योग्य वन कृन्तत्र होता है।जो जल शून्य और वन विहीन देश होता है। ऐसा वन मृगों के निर्वासन वाला होता है। किन्तु सघन जल नहीं होता है उस शत्रु गृह और हमारे घर के बीच कितने योजनों की दूरी है। अर्थात वह हमारा घर अत्यन्त दूर नहीं हैं।अत: निकटवर्ती शत्रुगगृह से ही हे वृषाकपि ! तुम हमारे घर में विशेष रूप में चले आओ और आकर यज्ञ गृहों के समीप जाओ । क्योंकि मैं इन्द्र सबसे अधिक श्रेष्ठ हूँ।२०।


      पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै । य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥

      अनुवाद :-आकर वापिस गये हुए वृषाकपि से इन्द्र कहते हैं। हे वृषाकपि तुम फिर हमारी ओर आओ!और तुम्हारे आने पर तुम्हारे चित को प्रसन्न करने वाले कर्मों को इन्द्राणी और मैं इन्द्र हम दोनों  विचार कर पूर्ण करें ! उदय होकर सब प्राणियों की नींद के नाशक जो सूर्य हैं जैसे वे अस्त होते हैं वैसे ही तुम मार्ग में अपने आवास को जाते हो। क्योंकि मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२१।


      यदुदञ्चो वृषाकपे ! गृहमिन्द्राजगन्तन । क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥

      अनुवाद :-जाकर फिर आये हुए वृषाकपि से इन्द्र पूछते हैं। हे परम ऐश्वर्य शाली वृषाकपि ! तुम सीधे खड़े़ होकर मेरे घर में आओ ! एक वृषाकप् के लिए बहुवचन पद पूजा-( सम्मान) के लिए प्रयुक्त है। हे वृषाकपि वहाँ आप से सम्बन्धित बहुत से पाथिक( मार्गसम्बन्धी) रसों का उपभोक्ता वह मृग कहाँ रह गया अथवा मनुष्यों को हर्षित करने वाला मृग किस देश को चला गया। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२२।


      पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥

      अनुवाद :-

      इन्द्र के द्वारा छोड़े जाते हुए वाण से  इस मन्त्र के द्वारा वषाकपि आश करते हैं। कि हे इन्द्र द्वारा छोड़े हुए वाण पर्शु नाम की मृगी थी इस मनु पुत्री पर्ष़शु ने एक साथ बीस पुत्रों को जन्म दिया उसका उदर गर्भ में स्थित बीस पुत्रों से पुष्ट हो गया था। उस पर्शु का कल्याण हो मेरे पिता इन्द्र जगत में सबसे श्रेष्ठ हैं।२३।

      सायणभाष्यम्: - मूल संस्कृत रूप-

      "यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ॥

      अष्टमाष्टकस्य चतुर्थोऽध्याय आरभ्यते । तत्र ‘वि हि ' इति त्रयोविंशत्यृचं द्वितीयं सूक्तम् ।

      _____________________

      वृषाकपिर्नामेन्द्रस्य पुत्रः । स चेन्द्राणीन्द्रश्चैते त्रयः संहताः संविवादं कृतवन्तः । तत्र ‘वि हि सोतोरसृक्षत ' : किं सुबाहो स्वङ्गुरे ' ‘ इन्द्राणीमासु नारिषु ' इति द्वे ‘ उक्ष्णो हि मे ' ' अयमेमि' इति चतस्र इत्येता नवर्च इन्द्रवाक्यानि । अतस्तासामिन्द्र ऋषिः । ‘ पराहीन्द्र ' इति पञ्च ‘ अवीराम् ' इति द्वे ' वृषभो न तिग्मशृङ्गः' इत्याद्याश्चतस्र इत्येकादशर्चं इन्द्राण्या वाक्यानि । अतस्तासामिन्द्राण्यृषिः । ‘ उवे अम्ब ' ‘ वृषाकपायि रेवति ' • पशुर्ह नाम ' इति तिस्रो वृषाकपेर्वाक्यानि । अतस्तासां वृषाकपिर्ऋषिः । सर्वं सूक्तमैन्द्रं पञ्चपदापङ्क्तिच्छन्दस्कम् । तथा चानुक्रान्तं -- वि हि त्र्यधिकैन्द्रो वृषाकपिरिन्द्राणीन्द्रश्च समूदिरे पाङ्तम् ' इति । षष्ठेऽहनि ब्राह्मणाच्छंसिन उक्थ्यशस्त्र एतत्सूक्तम् । सूत्रितं च ---- ‘ अथ वृषाकपिं शंसेद्यथा होताज्याद्यां चतुर्थे ' ( आश्व. श्रौ. ८. ३) इति । यदि षष्ठे:हन्युक्थ्यस्तोत्राणि द्विपदासु न स्तुवीरन् सामगा यदि वेदमहरग्निष्टोमः स्यात्तदानीं ब्राह्मणाच्छंसी माध्यंदिने सवन आरम्भणीयाभ्यः ऊर्ध्वमेतत्सूक्तं शंसेद्विश्वजित्यपि । तथा च सूत्रितं -- सुकीर्तिं ब्राह्मणाच्छंसी वृषाकपिं च पङ्क्तिशंसम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ४) इति ।। 

      "अनुवादभाष्य :-

       ॥१।।सोतोः =सोमाभिषवं कर्तुं "वि "असृक्षत । यागं प्रति मया विसृष्टा अनुज्ञाताः स्तोतारो= वृषाकपेर्यष्टारः । “हि= इति पूरणः । तत्र "देवं= द्योतमानम् "इन्द्रं मां “न “अमंसत । मया प्रेरिताः सन्तोऽपि ते स्तोतारो न स्तुतवन्तः । किंतु मम पुत्रं वृषाकपिमेव स्तुतवन्तः । "यत्र येषु “पुष्टेषु सोमेन प्रवृद्धेषु यागेषु "अर्यः= स्वामी “वृषाकपिः मम पुत्रः मत्सखा मम सखिभूतः सन् “अमदत् सोमपानेन हृष्टोऽभूत् । यद्यप्येवं तथापि “इन्द्रः अहं "विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगतः "उत्तरः =उत्कृष्टतरः। माधवभट्टास्तु वि हि सोतोरित्येषर्गिन्द्राण्या वाक्यमिति मन्यन्ते। तथा च तद्वचनम् । इन्द्राण्यै कल्पितं हविः कश्चिन्मृगोऽदूदुषदिन्द्रपुत्रस्य वृषाकपेर्विषये वर्तमानः । तत्रेन्द्रमिन्द्राणी वदति । तस्मिन्पक्षे त्वस्या ऋचोऽयमर्थः । सोतोः= सोमाभिषवं कर्तुं वि ह्यसृक्षत। उपरतसोमाभिषवा आसन् यजमाना इत्यर्थः । किंच मम पतिमिन्द्रं देवं नामंसत स्तोतारो न स्तुवन्ति । कुत्रेति अत्राह । यत्र यस्मिन् जनपदे पुष्टेषु प्रवृद्धेषु धनेष्वर्यः स्वामी वृषाकपिरमदत् । मत्सखा मत्प्रियश्चेन्द्रो विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगत उत्तरः उत्कृष्टतरः ।।

      "अनुवाद भाष्य :-

      ॥२।हे “इन्द्र त्वम् "अति {अत्यन्तं “व्यथिः= चलितः "वृषाकपेः =वृषाकपिं “परा “धावसि= प्रतिगच्छसि । "अन्यत्र "सोमपीतये सोमपानाय “नो "अह नैव च “प्र “विन्दसि प्रगच्छसीत्यर्थः । सोऽयम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ।

      "अनुवाद भाष्य :-


      ॥३।हे इन्द्र “त्वां प्रति "हरितः= हरितवर्णः "मृगः= मृगभूतः "अयं वृषाकपिः। मृगजातिर्हि =वृषाकपि। "किं प्रियं "चकार अकार्षीत् । "यस्मै वृषाकपये "पुष्टिमत्= पोषयुक्तं "वसु= धनम् "अर्यो “वा उदार इव स त्वं "नु क्षिप्रम् “इरस्यसीत् प्रयच्छस्येव । यः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

      "अनुवाद भाष्य :-


      ५=“मे मह्यमिन्द्राण्यै “तष्टानि यजमानैः कल्पितानि “प्रिया प्रियाणि “व्यक्ता व्यक्तान्याज्यैर्विशेषेणाक्तानि हवींषि कश्चित् वृषाकपेर्विषये वर्तमानः "कपिः “व्यदूदुषत्= दूषयामास । ततोऽहम् “अस्य तत्कपिस्वामिनो वृषाकपेः “शिरो “नु क्षिप्रं "राविषं लुनीयाम् । "दुष्कृते दुष्टस्य कर्मणः कर्त्रे वृषाकपयेऽस्मै {"सुगं= सुखं} न "भुवम् अहं न भवेयम् । अस्मै सुखप्रदात्री न भवामीत्यर्थः । अस्या मम पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१।

      "अनुवाद :-भाष्य

      6-“मत् मत्तोऽन्या "स्त्री नारी "सुभसत्तरा अतिशयेन सुभगा "न "भुवत् न भवति । नास्तीत्यर्थः । किंच मत्तोऽन्या स्त्री "सुयाशुतरा अतिशयेन सुसुखातिशयेन सुपुत्रा वा "न भवति । तथा च मन्त्रान्तरं -- ददाति मह्यं यादुरी =याशूनां =भोज्या शता' (ऋ. सं. १. १२६. ६) इति । किंच “मत् मत्तोऽन्या “प्रतिच्यवीयसी पुमांसं प्रति शरीरस्यात्यन्तं च्यावयित्री “न अस्ति । किंच मत्तोऽन्या स्त्री “सक्थ्युद्यमीयसी संभोगेऽत्यन्तमुत्क्षेप्त्री “न अस्ति । न मत्तोऽन्या काचिदपि नारी मैथुनेऽनुगुणं!

      अयं शरारु:) यह घातक  (माम्) मुझको (अवीराम् इव) अबला की भाँति (अभि मन्यते) मानता है ।(वीरिणी अस्मि) वीराङ्गना हूँ (इन्द्रपत्नी) मैं इन्द्र की पत्नी हूँ (मरुत् सखा)  मरुत जिनके मित्र है। (इन्द्रः)  (विश्वस्मात् उत्तर:) संसार में सबसे श्रेष्ठ है।

      "अनुवाद :-भाष्य

      मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।

      "यह बहुत रज वाली रमणी मुझ सुना राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्ट हैं।६।

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      वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

      ______________


      "इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है!

      इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

      इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

      इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

      "नाहमिन्द्राणि शरण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते।‘‘

      _________________________ 

      ब्याज पर उधार में दिए जाने वाली वस्तुओं में स्वर्ण, अन्न और गायों के साथ स्त्रियों का भी उल्लेख आता है। 

      सम्भवतः इसी कारण पी0वी0 काणे जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेद (1.109.12) गलत सन्दर्भ), मैत्रायाणी संहिता (1.10.1), निरूक्त (6.9,1.3) तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.7,10) आदि के अवलोकन से यह विदित होता है कि प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था।‘‘ 

      अथर्ववेदः/ काण्डं २०/सूक्तम् १२६-


      अथर्ववेदः - काण्डं २०
      सूक्तं २०.१२६
      वृषाकपिरिन्द्राणी च।

      दे. इन्द्रः। छ. पङ्क्तिः
      वृषाकपिसूक्तम्

                (अथर्ववेद  20/126)
      वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
      यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१॥

      परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
      नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२॥

      किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
      यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥३॥

      यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
      श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

      प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्।
      शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

      न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्।
      न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥६॥

      उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्गं भविष्यति ।
      भसन् मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

      किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
      किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥

      अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
      उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥९॥

      संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
      वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥

      इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
      नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

      ____________________________________
      नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते ।
      यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

      वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
      घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

      उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंसतिम् ।
      उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥

      वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्।
      मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥

      न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्।
      सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥

      न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
      सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

      अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्।
      असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥

      अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन् दासमार्यम् ।
      पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥

      धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
      नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहामुप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥

      पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
      य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥

      यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
      क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥

      पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
      भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥

      _________    

      ॥७-एवमिन्द्राण्या शप्तो वृषाकपिर्ब्रवीति । “उवे इति संबोधनार्थो निपातः । हे "अम्ब= मातः “सुलाभिके= शोभनलाभे त्वया "यथैव येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव तत् "अङ्ग क्षिप्रं "भविष्यति भवतु । किमनेन त्वदनुप्रीतिकारिणा ग्रहेण मम प्रयोजनम् । किंच "मे मम पितुः त्वदीयो “भसत् भग उपयुज्यताम्। किंच मम पितुस्त्वदीयं "सक्थि चोपयुज्यताम् । किंच "मे मम पितरमिन्द्रं त्वदीयं "शिरः च प्रियालापेन “वीव यथा कोकिलादिः पक्षी तद्वत् “हृष्यति हर्षयतु । मम पिता “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः ॥

      "अनुवाद :-

      इस प्रकार इन्द्राणी के द्वारा बुरा भला कहा गया वृषाकपि कहता है। हे माता ! सुन्दर लाभ में जिस प्रकार तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाए तुम्हारे इस प्रेम करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिये तुम्हारी यौनि  उपयुक्त हो। और मेरे पिता के लिए तुम्हारी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता को तुम्हारा सिर प्रेमालाप से कोयल आदि पक्षीयों की भाँति  हर्षित करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में उत्तम है।७।

       ।८-क्रुद्धामिन्द्र उपशमयति । हे “सुबाहो हे =शोभनबाहो{ "स्वङ्गुरे= शोभनाङ्गुलिके} “पृथुष्टो पृथुकेशसंघाते “पृथुजघने विस्तीर्णजघने "शूरपत्नि वीरभार्ये हे इन्द्राणि “त्वं "नः अस्मदीयं “वृषाकपिं “किं किमर्थम् "अभ्यमीषि अभिक्रुध्यसि । एकः किंशब्दः पूरणः । यस्य पिता “इन्द्रः अहं “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

      "अनुवाद :-

      ॥९-पुनरिन्द्रमिन्द्राणी ब्रवीति ।“शरारुः= घातुको मृगः “अयं वृषाकपिः “माम् इन्द्राणीम् “अवीरामिव "अभि "मन्यते विजानाति । "उत अपि च “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्या "अहम् इन्द्राणी “वीरिणी पुत्रवती " *मरुत्सखा मरुद्भिर्युक्ता च "अस्मि भवामि ।*

      अंग्रेजी अनुवाद:

      “[ इंद्राणी बोलती है]: यह क्रूर जानवर ( वृशाकापि ) मुझे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में तुच्छ जानता है जिसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं , मरुतों की मित्र  ; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।”

      सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य (ऋग्वेद 10/86/9)

      [इंद्राणी बोलती है]: यह जंगली जानवर (वृषाकपि) मुझे ऐसे तुच्छ समझता है जैसे कि उसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं, मरुतों की मित्र हूं; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।

      "अनुवाद :-

      १०-नारी= स्त्री “ऋतस्य= सत्यस्य "वेधाः= विधात्री “वीरिणी= पुत्रवती “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्येन्द्राणी “संहोत्रं स्म समीचीनं यज्ञं खलु “समनं= संग्रामं “वा। समितिः समनम्' इति संग्रामनामसु पाठात् । "अव प्रति “पुरा “गच्छति । “महीयते स्तोतृभिः स्तूयते च । तस्या मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ २ ॥

      "अनुवाद :-

       ॥११-अथेन्द्राणीमिन्द्रः स्तौति । "आसु सौभाग्यवत्तया प्रसिद्धासु "नारिषु स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये “इन्द्राणीं “सुभगां सौभाग्यवतीम् "अहम् इन्द्रः “अश्रवम् अश्रौषम्। किंच “अस्याः इन्द्राण्याः “पतिः पालकः "विश्वस्मात् "उत्तरः उत्कृष्टतरः "इन्द्रः “अपरं “चन अन्यद्भूतजातमिव "जरसा =वयोहान्या ("नहि "मरते न खलु म्रियते )

      । यद्वा । इदं वृषाकपेर्वाक्यम् । तस्मिन् पक्षे त्वहमिति शब्दो वृषाकपिपरतया योज्यः । अन्यत्समानम् ॥

      "अनुवाद :-

      ______________________

      १३-हे वृषाकपायि । कामानां वर्षकत्वादभीष्टदेशगमनाच्चेन्द्रो वृषाकपिः । तस्य पत्नि । यद्वा । वृषाकपेर्मम मातरित्यर्थः । “रेवति धनवति "सुपुत्रे शोभनपुत्रे "सुस्नुषे शोभनस्नुषे हे इन्द्राणि "ते तवायम्

      ___________________

      "इन्द्रः {"उक्षणः= Oxen सेचन समर्थान् “आदु= अद् भक्षणे) अनन्तरमेव । शीघ्रमेवेत्यर्थः । पशून्- “घसत्= प्राश्नातु । किंच “काचित्करम् । कं= सुखम् । तस्याचित् संघः । तस्करं हविः "प्रियम् इष्टं कुर्विति शेषः । किंच ते पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् “उतरः । तथा च यास्कः - ‘ वृषाकपायि रेवति सुपुत्रे मध्यमेन {सुस्नुषे}  पुत्रवधू-

      माध्यमिकया वाचा । स्नुषा साधुसादिनीति वा साधुसानिनीति वा । प्रियं कुरुष्व सुखाचयकरं हविः सर्वस्माद्य इन्द्र उत्तरः' (निरु. १२, ९) इति

      "अनुवाद :-कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल) को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।

      ॥१४-अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे =मदर्थं “पञ्चदश पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं= विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः= वृषभान् "साकं= सह मम भार्ययेन्द्राण्या। प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति =। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव =“इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा= उभौ “कुक्षी “पृणन्ति= सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥

      इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।

      १५-अथेन्द्राणी ब्रवीति ।"{तिग्मशृङ्गः =तीक्ष्णशृङ्गः शेप: वा} "वृषभो "न यथा वृषभः "यूथेषु गोसंघेषु “अन्तः =मध्ये “रोरुवत्= शब्दं कुर्वन् गा अभिरमयति- (मैथुन करोति) तथा हे इन्द्र त्वं मामभिरमय इति शेषः । किंच “हे इन्द्र "ते =तव "हृदे हृदयाय "मन्थः =दध्नो मथनवेलायां शब्दं कुर्वन् “शं शंकरो भवत्विति शेषः । किंच "ते तुभ्यं "यं सोमं “भावयुः भावमिच्छन्तीन्द्राणी “सुनीति अभिषुणोति सोऽपि शंकरो भववित्यर्थः । मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१५ ॥

      "अनुवाद :-

      इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।

      १६- हे इन्द्र "सः जनः “न “ईशे मैथुनं कर्तुं नेष्टे न शक्नोति "यस्य जनस्य “कपृत् =शेपः “सक्थ्या= सक्थिनी “अन्तरा "रम्बते= लम्बते । "सेत् स एव स्त्रीजने “ईशे =मैथुनं कर्तुं शक्नोति “यस्य जनस्य “निषेदुषः शयानस्य "रोमशम् उपस्थं "=विज़म्भते विवृतं भवति । यस्य च पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् “उत्तरः ॥

      अश्लील अर्थ-

      "अनुवाद :-

      हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग विस्तृत हो जाता है। इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

      न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

      (अथर्ववेद में भी  - काण्ड » 20; सूक्त » 126; ऋचा » 16 है।

      सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) लिंग (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जंघाओं के बीच (रम्बते) नीचे लटकता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए  हुए]पुरुष का (रोमशम्) रोमवाला लिंग।(विजृम्भते) जम्हाई लेता है फैलता है, (इन्द्रः) इन्द्र (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१६॥

      सक्थि= उरु( जाँघ) (सज्यते इति । सन्ज सङ्गे + “ असिसञ्जिभ्यां क्थिन् ।  “ उणा० ३ । १५४ । क्थिन् । )  ऊरुः ।  इत्यमरः कोश ॥  (यथा   मार्कण्डेये ।  १८ ।  ४९ । “ नृणां पदे स्थिता लक्ष्मीर्निलयं संप्रयच्छति । सक्थ्नोश्च संस्थिता वस्त्रं तथा नानाविधं वसु ॥ ) शकटावयवविशेषः । इत्युणादिकोषः ॥

      सक्थि शब्द यूरोपीय तथा ईरानी ईराकी भाषाओं में भी है।

      Etymology-

      From Proto-Indo-Iranian *sáktʰiš,(सक्थि) from Proto-Indo-European *sokʷHt-i-s (thigh). Cognate with Avestan 𐬵𐬀𐬑𐬙𐬌‎ (haxtithigh)Old Armenian ազդր (azdr)Middle Persian [script needed] (h(ʾ)ht' /⁠haxt⁠/thigh)Ossetian агъд (aǧd)Hittite [Term?] (/⁠šakuttai⁠/).

      Noun-

      सक्थि  (sákthin

      1. the thigh, thigh-bone quotations 
      2. the pole or shafts of a cart
      3. (euphemistic, in the dual) the female genitals quotations 

      Declension-

      Neuter i-stem declension of सक्थि (sákthi)

      Further reading

      कपृत्- लिंग![संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "लिंग।"
       < रोमश[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, नपुंसकलिंग"वल्व =गर्भे (उल्व- यौनि भग)
      "अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।

      शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।

      अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग विजृम्भित होता है, वह ही स्त्रीयोंपर अधिकार कर पाता  है ॥१७॥

      शृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृङ्गार इष्यते ॥

      शृङ्ग= न॰ शॄ--गन् पृषो॰ मुम् ह्रस्वश्च।
      १ पर्वतोपरिभागेसातौ अमरः कोश।
      २ प्रभुत्वे
      ३ चिह्ने
      ४ जलक्रीडार्थयन्त्रभेदे(पिचकारी) लिङ्गे च। यूरोपीय  रूप सिरञ्ज- syringe से साम्य-
      ५ पश्वादीनां विषाणे (शृङ्गा)
      ६ उत्कर्षे चमेदि॰।
      ७ ऊर्ये
      ८ तीक्ष्णे
      ९ पद्मे च शब्दर॰
      १० महिष- शृङ्गनिर्मितवाद्यभेदे (शिङ्ग)
      ११ कामोद्रेके साहित्यदर्पण- शृङ्गार शब्दे दृश्यम्।
      १२ कूर्चशीर्षकवृक्षे पु॰ मेदिनीकोश।

      syringe (noun) (latin-suringa)  (Greek-syringa,)

      सिरिंज (संज्ञा) संकीर्ण ट्यूब," जो"तरल  धारा इंजेक्ट करने के लिए 15-वीं सदी की शुरुआत में.प्रयोग होता था (पहले यह  सुरिंगा, 14वीं सदी के अंत में था), जो लेट लैटिन के (सिरिंज,)(श्रृंगा-) से ग्रीक के  (सिरिंज,) सिरिंक्स से आया।

      "ट्यूब, होल, चैनल, शेफर्ड पाइप," सिरिजिन से संबंधित "पाइप, सीटी, फुसफुसाहट के लिए" ,'' श्रृँग - सींग -से सम्बन्धित हैं।

      १८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं पूर्णम् "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

      बैल पकाने का जिक्र-

      −(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः) जलाने के लिये ईंधन के भरे शकट-छकड़े को इन हत्या के साधनों को अपने अधीन कर लिया, ॥१८॥

      ______________________

      "अनुवाद : भाष्य-

       ॥१९-अथेन्द्रो ब्रवीति । "विचाकशत् पश्यन् यजमानान् “दासम्= उपक्षपयितारम् {सुरम्= "आर्यम् }अपि च "विचिन्वन् = पृथक्कुर्वन् "अयम् अहमिन्द्रः “एमि= यज्ञं प्रति गच्छामि। यज्ञं गत्वा च “पाकसुत्वनः । पचतीति =पाकः । सुनोतीति =सुत्वा । हविषां पक्तुः सोमस्याभिषोतुर्यजमानस्य पाकेन विपक्वेन मनसा सोमस्याभिषोतुर्वा यजमानस्य संबन्धिनं सोमं "पिबामि । तथा “धीरं धीमन्तं यजमानम् "अभि "अचाकशम्= अभिपश्यामि । योऽहम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः॥

      "अनुवाद :-भाष्य-

      ॥२०"धन्व निरुदकोऽरण्यरहितो देशः । "कृन्तत्रं कर्तनीयमरण्यम् । "यत् यत् "च “धन्व "च कृन्तत्रं च भवति । मृगोद्वासमरण्यमेवंविधं भवति न त्वत्यन्तविपिनम् । तस्य शत्रुनिलयस्यास्मदीयगृहस्य च मध्ये "कति "स्वित् “ता तानि “योजना योजनानि स्थितानि । नात्यन्तदूरे तद्भवतीत्यर्थः । अतः "नेदीयसः अतिशयेन समीपस्थाच्छत्रुनिलयात् हे "वृषाकपे त्वम् "अस्तम् अस्माकं गृहं “वि “एहि विशेषेणागच्छ । आगत्य च "गृहान् यज्ञगृहान् "उप गच्छ । यतोऽहम् "इन्द्रः सर्वस्मादुत्कृष्टः ॥

      "अनुवाद :-भाष्य-

      २१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥

      "अनुवाद :-भाष्य-

      २२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।

      एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः-- ‘यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥

      "अनुवाद :-भाष्य-

      २३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या

       "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

      "अनुवाद :-भाष्य-

      Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.


      Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.

      Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.

      Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.

      Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.

      Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.

      Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.

      Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


      २१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥

      "अनुवाद :-भाष्य-

      २२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।

      एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः---- ‘ यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥

      "अनुवाद :-भाष्य-

      २३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या

       "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

      "अनुवाद :-भाष्य-

      Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.


      Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.

      Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.

      Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.

      Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.

      Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.

      Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.

      Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


       
       हित्ती पौराणिक कथा - , हुर्रियन और हित्ती प्रभावों का मिश्रण है । मेसोपोटामिया( ईरान ईराॐ और कनानी प्रभाव हुर्रियन पौराणिक कथाओं के माध्यम से अनातोलिया की पौराणिक कथाओं में प्रवेश करता हैं। हित्ती निर्माण मिथक क्या रहा होगा, इसका कोई ज्ञात विवरण नहीं है, लेकिन विद्वानों का अनुमान है कि हिट्टियन मातृ देवी, जिसे नवपाषाण स्थल कैटालहोयुक से ज्ञात "महान देवी" अवधारणा से जुड़ा माना जाता है , अनातोलियन तूफान की पत्नी हो सकती है। भगवान (जो थोर , इंद्र और ज़ीउस जैसी अन्य परंपराओं के तुलनीय देवताओं से संबंधित माना जाता है )।

      यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को "एण्ड्रीज" (Andreas) के रूप में वर्णन किया गया है । जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।

        🌅⛵ 

      Andreas - son of the river god peneus and founder of orchomenos in Boeotia।

      Andreas Ancient Greek - German was the son of river god peneus in Thessaly from whom the district About orchomenos in Boeotia was called Andreas in Another passage pousanias speaks of Andreas( it is , however uncertain whether he means the same man as the former) as The person who colonized the island of Andros .... 

      अर्थात् इन्द्र थेसिली में एक नदी देव पेनियस का पुत्र था । जिससे एण्ड्रस नामक द्वीप नामित हुआ 

      पेनिस - लिंगेन्द्रीय का वाचक है। _____________________________

      "डायोडॉरस के अनुसार .." ग्रीक पुरातन कथाओं के अनुसार एण्ड्रीज (Andreas) रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था । रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था । 

      ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus) के नाम से एण्ड्रीज प्रायद्वीप का नामकरण करता है।

      जो अपॉलो का पुजारी था  परन्तु पूर्व कथन सत्य है । ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द का अर्थ शक्ति-शाली पुरुष है । जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner) शब्द से हुई है ।

      जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है। संस्कृत भाषा में{ अन् =श्वसने प्राणेषु च }के रूप में  वैदिक कालीन धातु विद्यमान है ।

      जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ है।

      कालान्तरण में वैदिक  भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ .... वेल्स भाषा में भी नर व्यक्ति का वाचक है । फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।

      परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है  इनदर है। वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है।यह सर्व विदित है।

      वृत्र को केल्टिक माइथॉलॉजी मे (ए-बरटा) ( Abarta ) कहा है । जो वहाँ दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है । 

      इन्द्रस् देवों का नायक अथवा यौद्धा था ।

      भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है।

       शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु का पुत्र कहा है । जिसे इन्द्र मारता है । ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं । यद्यपि कालान्तरण में सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ।

      अत: कालान्तरण में भी जब देवोपासक  भू- मध्य रेखीय भारत भूमि में आये ... जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी।

       भारत में भी यूरोप से आगत सुरों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है । और नरक दक्षिण में है ।

      स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ... और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ।

      नॉर्स माइथॉलॉजी के ग्रन्थ प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है। 

      यमीर यम ही यूरोपीय रूपान्तरण है । हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim) शब्द हिम के लिए आज भी यथावत है। 

      नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir) Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives" _______________________________

       (Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए .. ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी । वहाँ यम को यम रूप में ही नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है। 

      जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी 

      बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाऐं करते रहे .

      पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था । आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ।

      मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे ! मेन्नुस mannus( थौथा) (त्वष्टा)--(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे ! 

      मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस (tacitus) के अनुसार---- Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones .... ____________________________________ in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations- Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-__and that those names are genuine and Ancient Germania ____________________________________________

      Chapter 2 ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था । जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch) था । जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव ही है ।

       टेकिटिस लिखता है , कि Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples...... ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto--- The Core meaning -- double अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में  मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था । ____________________________________

      आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे । यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए 

      इन्हीं की उपशाखाऐं  वेल्स (wels) केल्ट (celt )तथा ब्रिटॉन (Briton )के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र  का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है। जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .

      Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।

       वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।

      जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।

       क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है । यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है । 

      बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ । 

      आर्यों के ही कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ।

      भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है। 

      और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के ऐंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।

      इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे। जिसके नाम से भारत शब्द बना।

      इस लिए द्रविड और शूद्र शब्द भी यूरोपीय मूल के हैं।

      आर्य द्रविड और शूद्र थ्योरी सत्यनिष्ठ नहीं है।

      दिया. इसलिए अधिकतर लोग संस्कृत भाषा बोलने लगे.

      संस्कृत बोलने वाले सीरिया के इस साम्राज्य के बारे में पहले जानते थे।

      इंडो-आर्यन परम्परा में . इन्द्र नाम की सबसे पुरानी तारीख़ी घटना 14-वीं सदी ईसापूर्व की बोगाज़कोय की प्रसिद्ध हित्ती-मितानी संधि में है। हां मितन्नी( मितज्ञु) दैवीय गवाहों के रूप में मित्र-वरुण, इंद्र और नासत्य का आह्वान करते हैं 

      यह सन्देश कीलाक्षर लिपि में है। जो उस समय सुमेर की लिपि थी।

      मितन्नी "एमोराइट-(मरुत) तथा हित्ती ये सुमेरियन जातियाँ थी।

      यदु और तुर्वसु को जब पुरोहितों ने नहीं छोड़ा तो उनके वंशज कृष्ण को कैसे छोड़ के।

      वेदों में यदु और तुर्वसु का नकारात्मक वर्णन-
      स॒त्यं तत्तु॒र्वशे॒ यदौ॒ विदा॑नो अह्नवा॒य्यं ।  व्या॑नट् तु॒र्वणे॒ शमि॑ ॥२७।
      (ऋग्वेद 8/45/27) 
      (पद-पाठ)
      स॒त्यम् । तत् । तु॒र्वशे॑ । यदौ॑ । विदा॑नः । अ॒ह्न॒वा॒य्यम् ।
      वि । आ॒न॒ट् । तु॒र्वणे॑ । शमि॑ ॥२७।।
      (सायण-भाष्य)
      “तुर्वशे राज्ञि “यदौ च यदुनामके च राज्ञि “तत् प्रसिद्धं यागादिलक्षणं “शमि कर्म  शची शमी' इति कर्मनामसु पाठात् । "सत्यं परमार्थं "विदानः जानंस्तयोः प्रीत्यर्थम् अह्नवाय्यम् अह्नवाय्यनामकं तयोः शत्रुं 
      “तुर्वणे= संग्रामे “व्यानट्= व्याप्तवान् ।।
      (पद का अर्थान्वय)
      _________
      अग्निना । तुर्वशम् । यदुम् । पराऽवतः । उग्रऽदेवम् । हवामहे ।   अग्निः । नयत् । नवऽवास्त्वम् । बृहत्ऽरथम् । तुर्वीतिम् । दस्यवे । सहः ॥१८।।
      (सायण-भाष्य)
      “अग्निना सहावस्थितान् तुर्वशनामकं यदुनामकम् उग्रदेवनामकं च राजर्षीन् "परावतः =दूरदेशात् "हवामहे =आह्वयामः ।                                  स च "अग्निः नववास्तुनामकं बृहद्रथनामकं तुर्वीतिनामकं च राजर्षीन् "नयत्= इहानयतु । कीदृशोऽग्निः ।                                       "दस्यवे "सहः अस्मदुपद्रवहेतोश्चोरस्याभिभविता ॥{ नयत् । ‘णीञ् प्रापणे'। लेटि अडागमः  इतश्च लोपः' इति इकारलोपः  } नववास्त्वम् । नवं वास्तु यस्यासौ नववास्तुः । ‘ वा छन्दसि' इत्यनुवृत्तेः अमि पूर्वत्वाभावे यणादेशः । बृहद्रथम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥
      ________________________________
      प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः । नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८।
      अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
       हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
      अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
      और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण  करने वाले उनका नाश करने  बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
      (ऋग्वेद-7/19 /8)

      हे "मघवन्= धनवन्निन्द्र “ते =तव "अभिष्टौ =अभ्येषणे "नरः =स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः =प्रियाश्च सन्तः “शरणे ="इत् गृह एव “मदेम= मोदेम ।                    किञ्च “अतिथिग्वाय । पूजयातिथीन् गच्छतीत्यतिथिग्वः । 

      तस्मै सुदासे दिवोदासाय= वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं= शंसनीयं सुखं "करिष्यन् =कुर्वन् 
      "तुर्वशं राजानं "नि "शिशीहि =वशं कुरु । "याद्वं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥

      सायण-भाष्यम् :-
      तृतीयेऽनुवाके सप्त सूक्तानि । तत्र ‘अया वीती' इति त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अमहीयुर्नामाङ्गिरस ऋषिः । गायत्री छन्दः । पवमानः सोमो देवता । तथा चानुक्रान्तम्- अया वीती त्रिंशदमहीयुः' इति । उक्तो विनियोगः ॥

      अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इंदो॒ मदे॒ष्वा ।अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥१।।
      पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
      (ऋग्वेद9/61/1-2)

      हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।

      शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।
      पदपाठ-
      अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ ।
      अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥१।।

      (सायण-भाष्य)
      हे “इन्दो= सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते= तव “यः रसः “मदेषु= संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन =जघान  अमुं सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥

      _____________________________________
      पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
      शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।

      पुरः॑ । स॒द्यः । इ॒त्थाऽधि॑ये । दिवः॑ऽदासाय । शम्ब॑रम् ।
      अध॑ । त्यम् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥२।
      (पद का अर्थान्वय)
       (इत्थाधिये दिवोदासाय) दिवोदास के लिए(शम्बरम्) शम्बर को (त्यम् तुर्वशम् यदुम्) और यदु और तुर्वसु को (अध) (पुरः) पुर को ध्वंसन करो ॥२॥

      (ऋग्वेद9/61/1-2)

      “सद्यः एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम् "अध अथ =“त्यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । 

      अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥

      ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।  वह भी गोपों के रूप में सम्भवत: वैदिक सन्दर्भ में दास - दाता का वाचक रहा परन्तु लोकिक संस्कृत में दास पराधीन और गुलाम का वाचक रहा जो शूद्र वर्ण में सम्मिलित किए गये।

      " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी   " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 

      (ऋग्वेद १०/६२/१०)

      यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।

      प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ   नरो मदेम शरणे सखाय:।
      नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि   अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
      (ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा

      सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
      व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७

      हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन (शमन) कर डाला ।

      अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
      निह्नवाकर्त्तरि ।

      “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है 

      किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
      अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/

      हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
      तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 
      तुम मुझे क्षीण न करो 

      _____________________________

      शतमहं तिरिन्दिरे सहस्रं पर्शावा ददे ।
      राधांसि याद्वानाम् ॥४६॥(ऋग्वेद ८/६/४६)

      (सायण-भाष्य)
      इदमादिकेन तृचेन तिरिन्दिरस्य राज्ञो दानं स्तूयते । “पर्शौ परशुनाम्नः पुत्रे । उपचारज्जन्ये जनकशब्दः । “तिरिन्दिरे एतत्संज्ञे राजनि “याद्वानाम् । यदुरिति मनुष्यनाम । यदव एव याद्वाः । स्वार्थिकस्तद्धितः । तेषां मध्ये “अहं “शतं शतसंख्याकानि “सहस्रं सहस्रसंख्याकानि च “राधांसि धनानि “आ “ददे स्वीकरोमि । यद्वा । याद्वानां यदुकुलजानामन्येषां राज्ञां स्वभूतानि राधांसि बलादपहृतानि तिरिन्दिरे वर्तमानान्यहं प्राप्नोमि ।।

      त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ।
      ददुष्पज्राय साम्ने ॥४७॥ऋग्वेद ८/६/
      _______________________________
      त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ।
      द॒दुष्प॒ज्राय॒ साम्ने॑ ॥४७।।

      सायण-भाष्य-
      पूर्वस्यामृचि स्वसंप्रदानकं दानमुक्तम् । अधुनान्येभ्योऽप्यृषिभ्यस्तिरिन्दिरो बहु धनं दत्तवानित्याह । 

      “अर्वतां गन्तॄणामश्वानां “त्रीणि "शतानि "गोनां गवां “दश दशगुणितानि "सहस्रा सहस्राणि च "पज्राय स्तुतीनां प्रार्जकाय “साम्ने एतत्संज्ञायर्षये । यद्वा । साम्ने । साम स्तोत्रम् । तद्वते पज्राय पज्रकुलजाताय कक्षीवते । “ददुः तिरिन्दिराख्या राजानो दत्तवन्तः ।।

      उदानट् ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत् ।
      श्रवसा याद्वं जनम् ॥४८॥(ऋग्वेद ८/६/४८)

      उत् । आ॒न॒ट् । क॒कु॒हः । दिव॑म् । उष्ट्रा॑न् । च॒तुः॒ऽयुजः॑ । दद॑त् ।
      श्रव॑सा । याद्व॑म् । जन॑म् ॥४८।।
      सायण-भाष्य-
      अयं राजा “ककुहः उच्छ्रितः सन् “श्रवसा कीर्त्या “दिवं स्वर्गम् "उदानट् उत्कृष्टतरं व्याप्नोत् । किं कुर्वन् । "चतुर्युजः चतुर्भिः स्वर्णभारैर्युक्तान् “उष्ट्रान् “ददत् प्रयच्छन् । तथा “याद्वं “जनं च द्रासत्वेन प्रयच्छन् ॥ ॥ १७ ॥
      __________   

      यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
      ऋग्वेद ८/६/४६
      ___________________________________
      त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीरृ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः ।
      प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥१२।।

      पदपाठ-
      त्वम् । धुनिः । इन्द्र । धुनिऽमतीः । ऋणोः । अपः । सीराः । न । स्रवन्तीः ।
      प्र । यत् । समुद्रम् । अति । शूर । पर्षि । पारय । तुर्वशम् । यदुम् । स्वस्ति ॥१२

      हे "इन्द्र “धुनिः शत्रूणां कम्पयिता “त्वं “धुनिमतीः धुनिर्नामासुरो यासु निरोधकतया विद्यते ताः “अपः उदकानि "सीरा “न नदीरिव “स्रवन्तीः प्रवहन्तीः “ऋणोः अगमयः ।
      धुनिं हत्वा तेन निरोधितान्युदकानि प्रवाहयतीत्यर्थः ।
      ______________________
       हे “शूर वीरेन्द्र “यत् यदा “समुद्रम् “अति अतिक्रम्य “प्र “पर्षि प्रतीर्णो भवसि तदा समुद्रपारे तिष्ठन्तौ “तुर्वशं “यदुं च "स्वस्ति क्षेमेण “पारय अपारयः । समुद्रमतारयः ।।
      अनुवाद:-
      हमारे कल्याण के लिए यदु और तुर्वसु को समुद्र के दूसरी पार करते हो। अर्थात्  क्यों पुरोहितों को आशंका है कि ये दौंनों कहीं आँखों के सामने न रहें।

      __________________________________

      "य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम् ।
      इन्द्रः स नो युवा सखा ॥१॥

       (ऋग्वेद-6/45/1)
      इन्द्रः॑। सः। नः॒ । युवा॑। सखा॑ ॥१
      यः । आ । अनयत् । पराऽवतः । सुऽनीती । तुर्वशम् । यदुम् ।
      यः इन्द्रः "तुर्वशं “यदुं चैतत्संज्ञौ राजानौ शत्रुभिर्दूरदेशे प्रक्षिप्तौ “सुनीती सुनीत्या शोभनेन नयनेन “परावतः तस्माद्दूरदेशात् “आनयत् अनीतवान् “युवा तरुणः “सः “इन्द्रः “नः अस्माकं “सखा भवतु ।।

      पदों का अर्थ:-(यः) जो (युवा) जवानी युक्त (इन्द्रः) इन्द्र देव (सुनीती) सुन्दर न्याय से (परावतः)- दूरदेशात्  दूर देश से भी  -परा+अव--वा० अति । १ दूरदेशे निघण्टुः (तुर्वशम्)  तुर्वसु को  (यदुम्) यदु को (आ) सब प्रकार से (अनयत्) लङ्(अनद्यतन भूत) वह इन्द्र ले गया । (सः) वह (नः) हम लोगों का (सखा) मित्र हो ॥१॥

      ऋग्वेद 6.45.1 व्याकरण का अंग्रेजी विश्लेषण]

      य < यः < यद्[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"
      अनयत ्<  < √ नी [क्रिया], एकवचन, अपूर्ण" वापस करना; निकालना; निकालना।"

      परावतः < परवत्[संज्ञा], विभक्ति, एकवचन, स्त्रीलिंग"दूरी; ।"
      सुनीति < सुनीति [संज्ञा], अच्छी नीति, एकवचन, स्त्रीलिंग“सुनीति।”
      तुर्वश< तुर्वशुम्< 

      [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

      यदुम् < यदु

      [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

      “यदु; यदु।” इंद्रः < इंद्र

      [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

      सा < तद् [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

      "यह; वह, वह, यह (निरर्थक सर्वनाम); संबंधित(ए); वह; कर्तावाचक; तब; विशेष(ए); संबंधकारक; वाद्य; आरोपवाचक; वहाँ; बालक [शब्द]; संप्रदान कारक; एक बार; वही।"

      नहीं < नः <हमको

      [संज्ञा], संबंधवाचक, बहुवचन"मैं; मेरा।"

      युवा < युवान[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "युवा; युवा।”
      सखा < सखी

      [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग; साथी; सखी [शब्द]।”

      "उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः ।
      इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥
      हे इन्द्र ! उन दौंनों यदु और तुर्वसु को तुमने बन्धी बनाया और दूर समुद्र पार कर दिया। विद्वान इसे जानते हैं।१७।
      पदों के अर्थ:-
      उत अपि च "अस्नातारा= अस्नातारौ।  इन्द्रेण परिबद्धौ "त्या =त्यौ तौ= तौ द्वे । “तुर्वशायदू तुर्वशनामानं यदुनामकं च राजानौ “शचीपतिः= शचीन्द्रस्य भार्या । 
      तस्याः पतिर्भर्ता "विद्वान् -सकलमपि जानन् “इन्द्रः "अपारयत्=  पारे दूरे अकरोत् - पार दूर कर दिया।
      ____________________
      ऋग्वेदः सूक्तं ४,/३०/१७

      ष्णै- धातु के रूप द्विवचन वैदिक रूप अस्ना तारा- दौंनों  को बाँध दिया।
      जबकि ष्ना- स्ना धातु का भी यही समान  अनद्यतन भूत काल का रूप  सेना धातु का वैदिक है।
      अत: अनुवादक भ्रमित हैं कि स्नातारा- स्नान अर्थ में है। जबकि ष्णै- बन्धने वेष्टने वा। वेष्टन= घेरने या लपेटने की क्रिया या भाव है।

      क्यों कि पूर्वी ऋचाओं में यदु और तुर्वसु को अपने वश में करने लिए ब्राह्मण पुरोहित इन्द्र से निरन्तर प्रार्थना करते हैं ।
      फिर इन्द्र कि द्वारा यदु और तुर्वशु में एक का ही राज्याभिषेक होना चाहिए । परन्तु यहाँ यदु-तुर्वसु दौंनों का राज्याभिषेक कैसे हो सकता है ? अत: अस्नातारा= ष्णै = वैष्टने धातु का  लङ्(अनद्यतन भूत)का वैदिक द्विवचन रूप है। जिसका अर्थ है दौंनों को बाँध लिया लपेट लिया।

      लुट्(अनद्यतन भविष्यत् ष्णै=बन्धने वेष्टने वा" )
      एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
      प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
      मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
      उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

      दोनों धातुओं के समान रूप होने से अर्थ भ्रान्ति होना स्वाभाविक ही है।
      लुट्(अनद्यतन भविष्यत् - ष्ना= शुचौ स्नाने वा" )
      एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
      प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
      मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
      उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

      कृष्ण की अवधारणा भारत है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के मोहन -जोदारो में कृष्ण की बाल लीला सम्बन्धी भित्ति चित्र है।

      वेदों में इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णित है।

      अथर्ववेद-(20/137/7)
      ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
      देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् - (१३७)
      "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
      (इयानः) =चलता हुआ (अंशुमतीम्)=  यमुना नदी को । अव अतिष्ठत्= ठहरा है। (नृमणाः= नर  के समान मन वाले (इन्द्रः) इन्द्र  ने (तम् धमन्तम्) उस हाँफते हुए को (शच्या) शचि के साथ  (आवत्)-युद्ध किया ।
      लङ्(अनद्यतन भूत)
      एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
      प्रथमपुरुषःआवत्=युद्ध किया 
      (स्नेहितीः) स्नेहयुक्त (अप अधत्त) हटा लिया है ॥७॥
      टिप्पणी:-
      (धमन्तम्) =उच्छ्वसन्तम्।  पराभवेन दीर्घंश्वसन्तम्- उसास लेते हुए को।  (स्नेहितीः) स्नेहतिः स्नेहतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। स्वकीया मारणशीलाः सेनाः (नृमणाः) नेता के समान मन वाले- नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) -दूर हटा दिया-दूरे धारितवान् -निवर्तितवान् ॥

      ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित-

      ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१
      कुत्स आङ्गिरसः
      देवता- इन्द्रः( १ गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

      "प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥(ऋ०१/१०१/१)
      _________________________________
      सायण का अर्थ-
      हे ऋत्विजो ! स्तुति योग्य उन इन्द्र के लिए हवि रूप अन्न से युक्त स्तुति रूप वचन का उत्कृष्टता से उच्चारण करो !  जिन इन्द्र ने ऋजिश्वा नामक मित्र राजा के साथ कृष्ण नानक असुर के द्वारा गर्भवती उसकी स्त्रीयों का वध  किया था। अर्थात् कृष्ण नामक असुर को मारकर  उसके पुत्रों का जन्म न होने देने के लिए ही उसकी गर्भवती स्त्रियों का भी इन्द्र ने बध कर दिया था । रक्षा पाने के इच्छुक हम कामनाओं की वर्षा करने वाले और वज्र युक्त दक्षिण हाथ वाले मरुतों से युक्त उन इन्द्र का मित्रता के लिए आह्वान करते हैं।यहाँ मूल ऋचा में कृष्ण के लिए असुर शब्द नहीं है परन्तु सायण ने असुर विशेषण अपनी तरफ से जोड़ दिया है।

      आंध्र " को " इंद्र " से लिया जाना चाहिए, जैसा कि फ़्रेंच में " आंद्रेई " है।
      वह वज्र के नाम से जाना जाने वाला बिजली का वज्र धारण करता है और ऐरावत नामक सफेद हाथी पर सवार होता है। इंद्र सर्वोच्च देवता हैं और अग्नि के जुड़वां भाई हैं और उनका उल्लेख अदिति के पुत्र आदित्य के रूप में भी किया गया है। उनका घर स्वर्ग में मेरु पर्वत पर स्थित है।

      इंद्र पारसी धर्म में एक देवता के नाम के रूप में प्रकट होता है । उन्हें बर्मीज़ में ðadʑá mɪ́ɴ , थाई में พระอินทร์ (Phra In), मलय में Indera, तेलुगु में ఇంద్రుడు (Indrudu), तमिल में இந்தி के नाम से जाना जाता है। ரன் (इंथिरन), चीनी में 帝释天 (दिशितिआन), और में जापानी के रूप में 帝釈天 (ताईशाकुटेन)।
      वह वज्रपाणि से जुड़े हैं - मुख्य धर्मपाल या बुद्ध, धर्म और संघ के रक्षक और रक्षक जो पांच ध्यानी बुद्ध की शक्ति का प्रतीक हैं।

      एक देवता के रूप में इंद्र अन्य इंडो-यूरोपीय देवताओं के सजातीय हैं; वे या तो थोर, पेरुन और ज़ीउस जैसे गरजने वाले देवता हैं, या डायोनिसस जैसे नशीले पेय के देवता हैं। मितन्नी के देवताओं में इंद्र (इंदारा) के नाम का भी उल्लेख किया गया है, जो एक हुरियन-भाषी लोग थे जिन्होंने लगभग 1500BC-1300BC तक उत्तरी सीरिया पर शासन किया था।

      ऋग्वेद संहिता की ऋचाएँ वैदिक साहित्य के सबसे पुराने और जटिल साहित्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। 
      (ऋग्वेद 1.101.1)

      "प्र मंदिने पितुमद अर्चता वाको यः कृष्णगर्भा निर्हन्न ऋषिस्वना | अवस्यावो विष्वाणं वज्रदक्षिणं मारुतवन्तं सख्यय हवामहे। (ऋग्वेद १/१०१/१)
      अनुवाद:-
      “जो प्रसन्न है (प्रशंसा के साथ), उसे आहुतियों के साथ प्रणाम करो, जिसने ऋषिस्वन के साथ, कृष्ण की मूर्ति को नष्ट कर दिया ; सुरक्षा की इच्छा से, हम अपने मित्र बनने के लिए उसकी मांग करते हैं, जो (लाभों का) दाता है, जो अपने दाहिने हाथ में वज्र रखता है , उसकी देखभाल मारुति करता है।

      सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य-
      ऋजिश्वान एक राजा और इंद्र का मित्र था ; कृष्ण एक असुर थे, जिनमें उनके स्त्रियों की भी हत्या कर दी गई थी, ताकि उनका कोई भी संतान जीवित न रह सके। 

      व्याकरणिक टिप्पणी:-
       प्र=
      [विशेषक्रिया]
      "की ओर; आगे।"
      मंदिने=
      [संज्ञा], मूलवाचक, एकवचन, पुल्लिंग
      “नशीला पदार्थ; ताज़ा करने वाला।”

      पितुमद < पितुमत्
      [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग
      "आहार।"

      अर्चता= अर्च्-स्तुतौ-
      [क्रिया], बहुवचन, वर्तमान अनिवार्यता

      "गाओ; पूजा करना; सम्मान; प्रशंसा; स्वागत।"

      वचो < वाचः < वचस्
      [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

      "कथन; आज्ञा; भाषण; शब्द; सलाह; शब्द; आवाज़।"

      यः < यद्
      [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग
      "कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"

      कृष्ण < कृष्ण
      [संज्ञा]

      कृष्णगर्भ < गर्भः < गर्भ
      [संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन, स्त्रीलिंग

      “भ्रूण; गर्भ; अंदर; गुला; भ्रूण; गर्भ; बच्चा; ; गर्भाद्रुति; उत्तर; गर्भावस्था; यार; पेट; निशेचन; अंदर; उधेड़; बच्चा; द्रवपुंज; बीच" स्त्री

      निर्हन्न < निर्हन्न < निर्हन्न < √हन्
      [क्रिया], एकवचन, मूल सिद्धांतकार (इंड.)

      ऋजिस्वान < ऋजिस्वान
      [संज्ञा], वाद्य, एकवचन, पुल्लिंग

      ऋजिस्वान्।”

      अवस्यावो < अवस्यावः < अवस्यु
      [संज्ञा], कर्तावाचक, बहुवचन, पुल्लिंग

      “सुरक्षा की मांग करना; मजबूरन

      विश्णम् < विश्णम् < विश्णम्
      [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

      "साँड़; इंद्र; घोड़ा; विश्णु; आदमी।"

      वज्रदक्षिणम् < वज्र
      [संज्ञा], पुल्लिंग

      “वज्र; वज्र; वज्र; वज्र; बिजली चमकाना; अभ्र; वज्रमुषा; हीरा; वज्र [शब्द]; वज्रकपात; वज्र; वैक्रान्त।"

      वज्रदक्षिणम् < दक्षिणम् < दक्षिणा
      [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

      “दक्षिणी; सही; दक्षिण; दक्षिण दिशा में; दक्षिणा [शब्द]; ईमानदार; दक्षिणवर्त; चतुर्।"

      मरुतवंतं < मरुतवंतम् < मारुतवंत
      [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

      “इंद्र; मेरुवंत [शब्द]।"

      साख्य < साख्य
      [संज्ञा], संपुष्टकारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

      "दोस्ती; सहायता; कंपनी।"

      हवामहे < ह्वा
      [क्रिया], बहुवचन, वर्तमान सूचक
      "उठाना; अपील करना; बुलाना; बुलाओ।"

      यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।                                        इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥

      यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः ।                                              यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
      सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्

      सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
      :32 वैरूपम्.-
      प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना ।
      अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा  ऋग्वेद १/१०१/१

      (३८०।१) ।। वैरूपम् । विरूपो जगतीन्द्रो मरुत्त्वान्।
      प्रमंदाऽ२३४इने ।। पितुमदाऽ३र्च्चाऽ३तावचः । यःकाऽ३ओऽ२३४वा ।
      कृष्णगर्भानिरहन्नृजिश्वनाऽ३ । अवस्याऽ२३४वाः। वृषणंवा । ज्रादक्षाऽ२३४इणाम् ।
      मारौवाओऽ२३४वा ।। त्वन्तꣳसख्यायहुवाऽ५इमहाउ ।। वा ।।
      ( दी ३ । प० १० । मा० ९ )२३ ( णो । ६५१)

      द्र. पञ्चनिधनं वैरूपम्
      वैरूपोपरि वैदिकसंदर्भाः

      अस्मिन् जगति अस्माकं इन्द्रियाणि यत्किंचित् संवेदनं प्राप्नुवन्ति, तत् सर्वं असत्यं तु नैवास्ति, किन्तु विरूपितं अवश्यमस्ति। यदा वयं वैराजपदं प्राप्नुवन्ति, तदा अस्माकं दृष्टिः सत्यस्य दर्शने समर्था भवति।"
      ________
      यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।                        वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
      ___________

      यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।  इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥

      यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।                                                इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥

      रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः ।                                                इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥

      यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥

      त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।                                                अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥

      मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने ।                                              आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥

      मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् ।                                                  तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥

      {सायण-भास्यम्}
      प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥
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      प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
      अर्थ-
      अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा   ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

      विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं  होकर अदेव पद है ।
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        . १०९-११५ ) । एतदनार्षत्वेनानादरणीयं भवति । एषोऽर्थः क्रमेणर्क्षु वक्ष्यते । तथा चास्या ऋचोsयमर्थः । 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैरसुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोऽसुरः "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या= कर्मणा प्रज्ञानेन वा 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं यद्वा जगद्भीतिकरं शब्दं कुर्वन्तं “तं =कृष्णमसुरम् “इन्द्रः मरुद्भिः सह 5-“आवत् =प्राप्नोत् । पश्चात्तं कृष्णमसुरं तस्यानुचरांश्च हतवानिति वदति । “नृमणाः नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः । स्नेहतिर्वधकर्मसु पठितः । सर्वस्य हिंसित्रीस्तस्य सेनाः “अप “अधत्त ।6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् ॥
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      "द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशुमत्या:।
      नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥१४
      द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः ।
      नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४

      तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रुतगामिनं कृष्णमहम् “अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् । “विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे “वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥

      अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
      विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।

      1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= असुरसेनाः "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥ 

      त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
      गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
      पद पाठ:-
      त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
      गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६

      हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
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      drip (v.)
      c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.

      drip (n.)
      mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

      विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।

      अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
      आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
      द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
      नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
      अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
      विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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      क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-

      "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
      आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

      पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

      शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
      २-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
      ३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
      ४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
      ५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
       ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
      ७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
      ८-नृमणां( धनानां) 
      ९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 
      विशेषटिप्पणी-
      १०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
      ११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
      प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
      आवत् =प्राप्त किया । 
      हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।
      भाष्य-
      कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै:परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य  जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

      हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।

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      द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
      नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

      पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।
      नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

      हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं देखना चाहूँगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं देखना चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो ऐसे स्थान पर-
      (अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
      _______________    
      शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
      १-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

      २- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

      पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
      “सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
      षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)     'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

      शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

      परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

      विषुण-विभिन्न रूपी।
      ३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
      ४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
      ५-अ॒व॒ = उपसर्ग
      ६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
      ७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
      ८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
      ९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
      १०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
      ११-आजौ= युद्ध में ।
      १२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
      ___________________________________

      "अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
      विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
      ______________
      अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
      पदपाठ-विच्छेदन :-
      । द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
      “अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
      यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः= गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
       सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

      ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
      अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
      कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
       
      तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
      हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

      १-तस्मिन् -उसमें ।
       २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
      ३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
      स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
      परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

      हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
      तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
      भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
      ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
      भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
      वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
      चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
      विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
      शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
      शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

      कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
      सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते रहे होंगे । परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
      जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

      वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
      सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
      “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
      सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
      (वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
      उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
      चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
      इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

      परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
      इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
      ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव"  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
      परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
      परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
      राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
      सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते (सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

      भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
      स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।
      कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
      और करोड़ो देवों की पूजा करना। ये कृष्ण ने नहीं किया।
      ______
      जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
      येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
      तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
      _______________
      श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
      अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
      कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
      श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
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      सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
      अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
      सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
       कृष्ण के सन्दर्भ में कुछ तथाकथित नव बौद्ध कहते हैं कि कृष्ण शब्द संस्कृत का है और पाली भाषा में नहीं है।

      परन्तु उनको पता होना चाहिए कि( र) वर्ण पाली भाषा में है।
      जो कि (ऋ+ अ = र) का सन्ध्यक्षर संक्रमण का नवीन रूप है।
      ___________    

      यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम - आज़ादपुर-पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० दूरभाष 807716029




         

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