शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णन व्यवस्था में शामिल नहीं -
आभीरों का वर्ण विष्णु से उत्पन्न होने के कारण वैष्णव है।
वर्ण व्यवस्था पर सारगर्भित आलेख-
प्रस्तुतिकरण:-
मूल लेखक-यादव योगेश कुमार रोहि -( अलीगढ़)
सह- लेखक- इ० माता प्रसाद यादव -( लखनऊ)
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देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के नब्बे वें सूक्त की यह बारहवीं ऋचा कहती है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए क्षत्रिय बाहों से वैश्य उरू( नाभि और जंघा ते मध्य भाग) से और शूद्र दोनों पैरों से उत्पन्न हुए।
"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
स्पष्टीकरण व अनुवाद:-
उपर्युक्त ऋचा ब्राह्मण आदि वर्णों की उत्पत्ति से सम्बन्धित है। 'ब्राह्मण' ब्रह्मा की सन्तान होने से ही ब्राह्मण कहलाते हैं।
"ब्रह्मणो जाताविति ब्राह्मण= पाणिनीय अष्टाध्यायी न टिलोपः ब्रह्मणो मुखजातत्वात् ब्रह्मणोऽपत्यम् वा अण् ।
अर्थ:- ब्रह्मा से उत्पन्न होने से ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न ब्रह्मा की सन्तान - ब्रह्मन्- पुल्लिंग शब्द में सन्तान वाची 'अण्' प्रत्यय करने पर ब्राह्मण शब्द बनता है।
इस लिए उपर्युक्त ऋचा ब्रह्मा से सम्बन्धित है जबकि ब्रह्मा विराट पुरुष की नाभि से उत्पन्न होने से विराट् पुरुष नहीं हैं।
(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। जबकि विराट-विष्णु स्वयं निराकार ईश्वर का अविनाशी साकार रूप हैं।
परन्तु हम आभीर लोग यदि इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं ।
तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम-कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
दौंनों के उत्पत्ति-श्रोत और उत्पत्ति अंगों में भेद है।
इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।
इसका साक्ष्य पद्मपुराण उत्तर-खण्ड, गर्गसंहिता विश्वजित्-खण्ड आदि हैं।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड के निम्न श्लोक देखें !।
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"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
"आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक -41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।
वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है।
पद्मपुराण उत्तरखण्ड में इसका प्रमाण निम्न श्लोकों में है।
जिनका आहार ( भोजन ) अत्यन्त पवित्र सकाहारी होता है।
उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।
उन वैष्णवों के दर्शन मात्र से पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगा रहता है।५।
विशेष:-
विष्णु के रूप कृष्ण ने देवों के लिए सम्पन्न होने वाली हिंसा मूलक यज्ञे बन्द कराईं।
जो सदा संख गदा चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।
प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७।
जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
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पद्मपुराण- उत्तर खण्ड अध्याय (68)
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प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।
अनुवाद:-(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है। हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥
पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-
महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बाद में कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी ( अच्छे व्रत का पालन करने वाले!
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।
विष्णु भगवान की अवधारणा प्राचीन मेसोपोटामिया की संस्कृतियों में भी है।
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है। जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुई है।
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका कि अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को जिम्बाब्वे मेें था।
"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे सभी पशुपालक व चरावाहे थे।
भारतीय संस्कृत भाषा ग्रन्थों में अमीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं परन्तु अमीर का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।
परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: वर्णन किया है। देखें नीचे क्रमश: विवरण-
१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोश कार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।
" अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुखकरके चारो-ओर गायें चराता है उन्हें घेरता है। वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय ( profation) को अभिव्यक्त करती है । और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति( व्यवसाय-)से निर्मित होती है। जैसे सभी "वकालत करने वाले अधिक बोलने वाले तथा अपने मुवक्किल की पहल-(lead the way) करने में वाणीकुशल होते हैं। जैसे डॉक्टर ,ड्राइवर आदि - अत: किसी भी समाज के दोचार व्यक्तियों सम्पूर्ण जाति या समाज की प्रवृति का आकलन करना बुद्धिसंगत नहीं है।
"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का प्रभाव-"
क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे यह वीरता इनकी पशुचारण अथवा गोचारण वृत्ति से पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी जातियों में समाविष्ट हो गयी !
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है यह पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं। ।
जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ; जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।
इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही कालान्तर अधिक रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्-नहुष' और ययाति आदि का भी नाम नहीं था।
तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है । वही अहीर जाति का ही रूप है। वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है ।
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।
वैवाहिक मर्यादा के लिए समाज में गोत्र अवधारणा सुनिश्चित की गयी ताकि सन्निकट रक्त सम्बन्धी पति पत्नी न बन सकें क्योंकि इससे तो भाई बहिन की मर्यादा ही दूषित हो जाएगी।
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण- तथा "शक्ति" भक्ति" "सौन्दर्य" और क्रमश: "ज्ञान" की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म लेने का वर्णन भारतीय शास्त्रों में वर्णित हुआ है। दर- असल ये शास्त्र संस्कृत भाषा में थे और संस्कृत भाषा आज अधिक प्रचलित नहीं हैं। आधिकारिक रूप से इस भाषा के विशेषज्ञ भी बहुत कम हैं। कुछ पुरोहित वर्ग के जाति विशेष लोगों ने संस्कृत के उन उन अँशों का अनुवाद करना और समाज में उनका विज्ञापन करना उचित नहीं समझा जिससे उनकी प्रतिष्ठा अथवा वर्चस्व किसी अन्य जाति से कम आकलन हो -
शास्त्रों के हवाले से हम आपको बता दें कि "स्वयं भगवान विष्णु 'आभीर' जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - "राधा" "दुर्गा" "गायत्री" और "उर्वशी" आदि को भी इन्हीं अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।
ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषण-पद गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
विष्णु भगवान् का गोपों से अभिन्न सम्बन्ध रहा है। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी भगवान्- विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स (श्रोत) और भूरिश्रृंगा-(अनेक सींगों वाली गायों ) के होने का भाव सूचित करता है। कदाचित इन गायों के पालक होने के नाते से ही भगवान्- विष्णु को गोप कहा गया है।
"त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
भावार्थ-(अदाभ्यः) -सोमरस अथवा अन्न आदि रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्)- धारण करता हुआ । (गोपाः)- गोपालकों के रूप, (विष्णुः)- संसार के अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि)- तीन (पदानि)- क़दमो से (विचक्रमे)- गमन करते हैं। और ये ही (धर्माणि)- धर्मों को धारण करते हैं॥18॥
विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ ( अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट ( included ) किया गया है।
वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू- पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
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"ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-
ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
"तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।। दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-
(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम (गमध्यै) जाने के लिए (उश्मसि) इच्छा करते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) बैल हैं (परमम्) जो उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अवभाति) प्रकाशमान होता है (तत्) उस स्थान को (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥ ६ ॥
(गोपाः)गायों के पालक (अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा:) कदम अथवा लोक [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) गमन किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों काे (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥१८॥
तात्पर्य:- तीनों लोकों में गमन करने वाले भगवान विष्णु हिंसा से रहित और धर्म को धारण करने वाले हैं।
'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया यह यज्ञ हिंसा रहित है। - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या भगवत् कहा जाता है।
इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी जाना जाता है - जो भगवत् का भक्त है वह भागवत्। श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है 'परब्रह्म तु कृष्णो हि'(सिद्धान्त मुक्तावलली-( ३ )वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।
भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम. से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।
वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ।
तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध.ये चार व्यूह( समूह) माने गये हैं।
लौकिक मान्यताओं में राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं।
और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है।
यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिएस्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया।संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी
के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं । उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से सम्बन्धित रहीं हैं ।
मानवीय रूप में यह महाशक्ति अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की कन्या के रूप में जन्म लेती हैं। और कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से जिन्हें सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद मिला और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी हुईं ।
विष्णु अथवा नारायण के उर जंघा अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण भी इन्हें उर्वशी कहा गया। प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं।
अत: उर्वशी इन तीनों मानवीय गुणों की अधिष्ठाठात्री हैं।
नारायण विष्णु का ही नामान्तरण है। और विष्णु से उत्पन्न होने से वैष्णव हैं।
सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है इसी कारण स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को अप्सराओं की स्वामिनी के रूप में नियुक्त हुईं।
"अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।
इन देवीयो को पुराकाल में वैष्णवी शक्ति के नाम से जाना जाता था। विभिन्न ग्रंथों में इन देवीयो के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म आभीर जाति में हुआ है।
विचारणीय है कि भारतीय संस्कृति में ये चार परम शक्तियाँ अपने नाम के अनुरूप कर्म करने वाली" विधाता की सार्थक परियोजना का अवयव सिद्ध हुईं ।
राधा:-राध्नोति साधयति पराणि कार्य्याणीति ।
जो दूसरे के अर्थात भक्त के कार्यों को सफल करती है।
गायत्री:- गाय= ज्ञान + त्री= त्राण (रक्षा) करने वाली अर्थात जो ज्ञान से ही संसार का त्राण( रक्षा) गायन्तंत्रायतेइति। गायत् + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः।)
विशेष:-
"दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री नाद ब्राह्म ( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।
"न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं
काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।
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गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्ताने उत्पन्न होती हैं।
गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।
सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा। पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्रयातः पुरूरवाः ।19। महाभारत वन पर्व -/88/19
इति महाभारतोक्तवचनात् पुरौ पर्व्वते रौतीति वा ।पुरु + रु +“ पुरूरवाः ।“ उणादिकोश ४ । २३१ । इति असिप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।) बुधस्य पुत्त्रः । स तु चन्द्रवंशीयादिराजः।
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समाधान:-
"गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। ये मरण धर्मा सन्तानों का प्रसव नहीं करती हैं । सन्तान जनन और प्रजनन सांसारिक प्राणीयों का कर्म है।
देवी भागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा राधा गायत्री के ही नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है।गायत्री शब्द की स्कन्द पुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री नाम को सार्थक करता है। खैर गायत्री शब्द का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही शास्त्र ते अनुरूप है।
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"ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः।
चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से इन्द्र ने किसी घूमते हुई गोप कन्या को देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
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युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
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परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
अनुवाद:- यदि तुम तक्र ग्रहण करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा ।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर।
अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा ! हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।।
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।
अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक स्थान पर रहता है।।
अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।
गायन्तं त्रायते यस्माद्गायत्रीत्यभिधीयते।
प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥११॥
अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
१२.गायन्तं त्रायते यस्माद्-गायत्रीति ततः स्मृता।
(बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः४/३५)
,"अत: स्कन्दपुराण, लक्ष्मी-नारायणीसंहिता नान्दी पुराण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति पूर्णत: प्रक्षिप्त व काल्पनिक है। जिसका कोई व्याकरणिक आधार नही है।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
अनुवाद तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो।
ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।
शास्त्रीय तथा वैदिक सिद्धान्तो के विपरीत होने से तथा परस्पर विरोधाभास होने से स्कन्द पुराण के नागर खण्ड से उद्धृत निम्नश्लोक प्रक्षिप्त हैं।
"युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।।४५।।
परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः ।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
निष्कर्ष:- गायों और गायत्री को ब्राह्मण बनाने के लिए पुरोहितों ने शास्त्रीय सिद्धान्तो नजर-अंदाज करके स्वयं दलदल में फँस न
जैसा कार्य कर डाला। और कृष्ण के मुखारविन्द कहलवाया की गाय और ब्राह्मण एक ही कुल के हैं। जबकि यह बातें शास्त्रीय सिद्धान्त के पूर्णत विपरीत ही हैं कि गाय और ब्राह्मण एक कुल के हैं।
महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-
विराटपर्व-8 महाभारतम्
महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति"
"वैशंपायन उवाच।
विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम्।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।
युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।
‘पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी ! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कह तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’। तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है।
महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35
षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद:-
‘देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कहीजाती हो।
जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पड़ गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो-इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय
उनके लिए बता दें कि दुर्गा के यादवी अर्थात् यादव कन्या होने के पौराणिक सन्दर्भ हैं
परन्तु महिषासुर के अहीर या यादव होने का कोई पौराणिक सन्दर्भ नहीं !
देवी भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा ही नंदकुल में अवतरित होती है--
हम आपको मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण से कुछ सन्दर्भ देते हैं जो दुर्गा को यादव या अहीर कन्या के रूप में वर्णन करते हैं...
देखें निम्न श्लोक ...
"नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका ।
नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया ॥ ८१ ॥
~देवीभागवतपुराण/स्कन्धः१२/अध्यायः-६
उपर्युक्त श्लोक में नन्द जी की प्रिय पुत्री होने से नन्द प्रिया दुर्गा का ही विशेषण है ...
नन्दजा नवरत्नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।
नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिःस्वना॥८६
~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६
उपर्युक्त श्लोक में भी नन्द की पुत्री होने से दुर्गा को नन्दजा (नन्देन सह यशोदायाञ् जायते इति नन्दजा) कहा गया है ..
यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी ।
यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्भवा॥१३१॥
~देवीभागवतपुराण/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६
उपर्युक्त श्लोक में दुर्गा देवी यदुवंश में नन्द आभीर के घर यदुवंश में जन्म लेने से (यदुवंशसमुद्भवा) कहा गया है जो यदुवंश में अवतार लेती हैं
नीचे मार्कण्डेय पुराण से श्लोक उद्धृत हैं
जिनमे दुर्गा को यादवी कन्या कहा है:-
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥३८॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥३९॥
~मार्कण्डेयपुराणम्/अध्यायः ९१
अट्ठाईसवें युग में वैवस्वत मन्वन्तर के प्रगट होने पर जब दूसरे शुम्भ निशुम्भ दैत्य उत्पन्न होंगे तब मैं नन्द गोप के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर उन दोनों(शुम्भ और निशुम्भ) का नाश करूँगी और विन्ध्याचल पर्वत पर रहूंगी।
मार्कण्डेय पुराण के मूर्ति रहस्य प्रकरण में आदि शक्ति की छः अंगभूत देवियों का वर्णन है उसमे से एक नाम नंदा का भी है:-
इस देवी की अंगभूता छ: देवियाँ हैं –१- नन्दा, २-रक्तदन्तिका, ३-शाकम्भरी, ४-दुर्गा, ५-भीमा और ६-भ्रामरी. ये देवियों की साक्षात मूर्तियाँ हैं, इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने से इस प्रकरण को मूर्तिरहस्य कहते हैं...
दुर्गा सप्तशती में देवी दुर्गा को स्थान स्थान पर नंदा और नंदजा कहकर संबोधित किया है जिसमे की नंद आभीर की पुत्री होने से देवी को नंदजा कहा है-
अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् ! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली है, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं|
आप को बता दें गर्ग संहिता, पद्मपुराण आदि ग्रन्थों में नन्द को आभीर कह कर सम्बोधित किया है:-
महाभारत के विराट पर्व में दुर्गा को शक्ति की अधिष्ठात्री देवता कह कर सम्बोधित तिया गया है।
महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14
(पाण्डवप्रवेश पर्व)
श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-
युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधिष्ठात्री दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।
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उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।
"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है वह उर्वशी है।।
कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उर वसी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी ही है।
क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में सबसे प्राचीन प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गयी हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का बस उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक ( गोष:-घोष) के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं। यही शास्त्रों के प्रक्षेप हैं।
इसी प्रकार गायत्री को ब्राह्मण कन्या सिद्ध करने के लिए कहीं उन्हें गाय के मुख में डालकर पिछबाड़े (गुदाद्वार) से निकालने की काल्पनिक कथा बनायी गयी तो कहीं गोविल और गोविला के नाम से उनके माता पिता को अहीरों के वेष में रहने वाला ब्राह्मण दम्पति बनाने की काल्पनिक कथा बनायी गयी।
लक्ष्मीनारायण संहिता में गायत्री के विषय में उपर्युक्त काल्पनिक कथा को बनाया गया है कि उनके माता पिता अभीर वेष में ब्राह्मण ही थे।
इसी क्रम में "लक्ष्मी-नारायणसंहिता कार ने अथवा किसी द्वेषवादी ने अहीरों की कन्या उर्वशी की एक काल्पनिक कथा उसके पूर्व जन्म में "कुतिया" की यौनि में जन्म लेने से सम्बन्धित लिखकर जोड़ दी।
जबकि उर्वशी को मत्स्य पुराण में कठिन व्रतों का अनुष्ठान करनी वाली अहीर कन्या लिखा जो स्वर्ग और पृथ्वी लोक में सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बनी ।
इसी सन्दर्भ में हम यादव योगेश कुमार रोहि उर्वशी का मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं।
वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८। बात उस समय की है जब
एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक्- प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्तु स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है।
अनुवाद:-प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।
जन्मान्तरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस (कल्याणनी )व्रत अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई और वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।
इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।
इस समस्त सृष्टि में व्रत तपस्या का एक कठिन रूपान्तरण है। तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है।तप ही सर्व सिद्धियों का कारक है।
भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में तप के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा-
मूल श्लोकः
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।
अनुवाद:-मनकी प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मनका निग्रह और भावोंकी शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
________
"अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।17.15।
अनुवाद:-
जो वचन किसी प्राणी के अन्तःकरण में उद्वेग दुःख उत्पन्न करने वाले नहीं हैं ? तथा जो सत्य ? प्रिय और हितकारक हैं अर्थात् इस लोक और परलोकमें सर्वत्र हित करने वाले हैं ? यहाँ उद्वेग न करने वाले इत्यादि लक्षणों से वाक्य को विशेषित किया गया है और "च" पद सब लक्षणों का समुच्चय बतलाने के लिये है (अतः समझना चाहिये कि ) दूसरे को किसी बात का ज्ञान कराने के लिये कहे हुए वाक्य में यदि सत्यता? प्रियता? हितकारिता और अनुद्विग्नता -- इन सबका अथवा इनमें से किसी एक? दो या तीनका अभाव हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है। जैसे सत्य वाक्य यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है? वैसे ही प्रिय वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है? तथा हितकारक वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है।
"उद्वेग को जन्म न देनेवाले, यथार्थ, प्रिय और हितकारक वचन (बोलना), (शास्त्रों का) स्वाध्याय और अभ्यास करना, यह वाङमयीन तप है ।
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अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।10/5।
अनुवाद:-
अहिंसा -- प्राणियोंको किसी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना? समता -- चित्तका समभाव ? संतोष -- जो कुछ मिले उसी को यथेष्ट समझना? तप -- इन्द्रियसंयमपूर्वक शरीर को सुखाना( पवित्र करना ? दान -- अपनी शक्तिके अनुसार धनका विभाग करना ( दूसरोंको बाँटना ) जो वास्तव में दीन और हीन हैं।? यश -- धर्मके निमित्तसे होनेवाली कीर्ति? अपयश -- अधर्मके निमित्तसे होनेवाली अपकीर्ति। इस प्रकार जो प्राणियोंके अपने अपने कर्मों के अनुसार होने वाले बुद्धि आदि नाना प्रकारके भाव हैं ? वे सब मुझ ईश्वर से ही होते हैं।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।17/14।
अनुवाद:-
अब तीन प्रकार का तप कहा जाता है --, देव? द्विज ? गुरु और बुद्धिमान्ज्ञानी इन सबका पूजन ? शौच -- पवित्रता ? आर्जव -- सरलता? ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह सब शरीरसम्बन्धी -- शरीर द्वारा किये जानेवाले तप कहे जाते हैं ।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही भगवान् विष्णु द्वारा सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक हैं जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति के उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरोम को दी है।
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
शास्त्र में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
गायत्री ज्ञान की अधिष्ठात्री हुईं तो इनके अतिरिक्त सौन्दर्य की अधिष्ठात्री उर्वशी जो अप्सराओं की अधिकारिणी थी।
आभीर कन्या हीं थी यह भी मत्स्यपुराण में वर्णन है।
"ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥
सायण-भाष्य"-
अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति= उस निषंग से वाण फैकने के लिए मैं समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् = नहीं होसकता। तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्।
पुरुरवा : हे उर्वशी ! कहीं बिछड़ने से मुझे इतना दु:ख होता है कि तरकश से एक तीर भी छूटता नहीं है। मैं अब सैकड़ों गायों की सेवा अथवा पालन के लिए सक्षम नहीं हूं। मैं राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया हूं और इसलिए मेरे योद्धाओं के पास भी अब कोई काम नहीं रहा।
वैदिक ऋचाओं में उपलब्ध गोष: शब्द (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवक" गोपाल आदि-- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः ।
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥
गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं। मैं सृष्टि आदिका कर्त्ता होने पर भी मुझे अकर्ता और अव्यय ही जानना अर्थात् वर्ण और आश्रम धर्म की रचना मेरी बहिरङ्गा प्रकृति के द्वारा ही हुई है। मैं अपने आपमें इन सब कार्यों से तटस्थ रहता हूँ॥१६॥
गुण कर्म( वृत्ति) और स्वभाव( प्रवृत्ति)परस्पर विकसित जैविक सम्पदाऐं हैं।
व्यक्ति जो समान व्यवसाओं व्यस्त होतो हैं उनकी प्रवृत्ति भी उसी व्यवसाय के अनुरूप बन जाती है। इसमें जन्म से कोई सम्बन्ध नही होता है। जैसे सभी प्राइमरी के अध्यापक प्राय: कँजूस होते हैं। अथवा डॉक्टर समान प्रवृत्ति के होते है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात है। कि प्रवृत्तियों से ही प्राणी की यौनि (शरीर ) का निर्धारण होता है।कि उसे कुत्ता बनना हैं अथवा सूकर !
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प्राचीन युग का वर्णधर्म;
सत्ययुग में मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।
(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है। हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥
विशेष:-
विदित हो की वर्ण-व्यवस्था ब्राह्मी- व्यवस्था है। और ब्रह्मा विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हैं।
परन्तु गोप अथवा आभीर लोग स्वयं विष्णु के रोम कूप अथवा शरीर से उत्पन्न हैं।
पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-
महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
साहित्य और पुराण में उर्वशी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति रही है। स्वर्ग की इस अप्सरा की उत्पत्ति नारायण की जंघा से मानी जाती है।श्रीमद्भागवत के अनुसार यह स्वर्ग की सर्वसुंदर अप्सरा थी। एक बार इंद्र की राजसभा में नाचते समय वह राजा पुरुरवा के प्रति क्षण भर के लिए आकृष्ट हो गई।
इस कारण उनके नृत्य का ताल बिगड़ गया। इस अपराध के कारण राजा इंद्र ने रुष्ट होकर उसे मृत्युलोक में रहने का अभिशाप दे दिया।
मर्त्य लोक में उसने पुरु को अपना पति चुना किंतु शर्त यह रखी कि वह पुरु को नग्न अवस्था में देख ले या पुरुरवा उसकी इच्छा के प्रतिकूल समागम करे अथवा उसके दो मेष स्थानांतरित कर दिए जाएं तो वह उनसे संबंध विच्छेद कर स्वर्ग जाने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी।
ऊर्वशी और पुरुरवा बहुत समय तक पति पत्नी के रूप में साथ-साथ रहे।
इनके नौ पुत्र आयु, अमावसु, श्रुतायु, दृढ़ायु, विश्वायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए।
दीर्घ अवधि बीतने पर गंधर्वों को ऊर्वशी की अनुपस्थिति अप्रिय प्रतीत होने लगी। गंधर्वों ने विश्वावसु को उसके मेष चुराने के लिए भेजा। उस समय पुरुरवा नग्नावस्था में थे।
आहट पाकर वे उसी अवस्था में विश्वाबसु को पकड़ने दौड़े। अवसर का लाभ उठाकर गंधर्वों ने उसी समय प्रकाश कर दिया।
जिससे उर्वशी ने पुरुरवा को नंगा देख लिया। आरोपित प्रतिबंधों के टूट जाने पर ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा को छोड़कर स्वर्ग लोक चली गई।
महाकवि कालीदास के संस्कृत महाकाव्य विक्रमोर्वशीय नाटक की कथा का आधार यही प्रसंग है।
कालान्तर में इन कथाओं में कवियों का पूर्वाग्रह और कल्पना का भी समावेश हुआ।
उर्वशी और पुरुरवा।
ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 41 सूक्त के 21वीं ऋचा में इस प्रकार वर्णन है
-अभि न इला यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु ।
उर्वशी वा बृहदिवा गृणानाभ्यूण्वाना प्रभूथस्यायो: ॥१९ ॥
अर्थ - गौ समूह की पोषणकत्री आभीर स्त्री इला और उर्वशी, नदियों की गर्जना से संयुक्त होती हैं वे हमारी स्तुतियों को सुनें । अत्यन्त दीप्तिमती उर्वशी हमारी स्तुतियों से प्रशंसित होकर हमारे यज्ञादि कर्म को सम्यक्रूप से आच्छदित कर हमारी हवियों को ग्रहण करें।
जिसमे इला और उर्वशी को अभि ( संस्कृत में अभीर का स्त्रीलिंग ) कहकर कर उच्चारित किया है। इस अभि शब्द का अनुवाद डॉ गंगा सहाय शर्मा और ऋग्वेद संहिता ने गौ समूह को पालने वाली बताया है।
सन्दर्भ:-
हिंदी साहित्य कोश, भाग-२, पृष्ठ- ५५
पुराणों में उर्वशी के आभीर कन्या होने के सन्दर्भ हैं। यद्यपि पूर्व में हम सन्दर्भ दे चुके हैं
परन्तु प्रासंगिक रूप से यहाँ भी प्रस्तुत है।
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"कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत ( कठिन आचरण) का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी ( स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।
इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ में स्पष्ट वर्णन है। इस पुराण में प्राचीन भारतीय समाज, परम्पराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थयात्राओं के पवित्र स्थानों अर्थात् (तीर्थों) का विवरण दिया गया है। पद्म पुराण के सृष्टि-खण्ड का सोलहवाँ अध्याय प्रस्तुत है।,
"गायत्री माता के विवाह काल में सप्तर्षि अत्रि, पुलस्त्य आदि तथा उनकी पत्नियां भी उपस्थित थीं।अत्रि मरीचि के साथ उद्गाता के रूप में सहायक थे । जब सावित्री ने सभी देवताओं और देवपत्नीयों को शाप दिया था तब सप्तर्षि गण और उनकी पत्नीयाँ भी सावित्री के शाप का भाजन बनी थी तभी सावित्री द्वारा प्रदत्त शाप का निवारण आभीर कन्या गायत्री माता ने किया था । और सबको इसके प्रतिकार में वरदान भी दिया था।
अर्थात् शाप को वरदान में बदल दिया था।इसी दौरान गायत्री ने अत्रि को भी वरदान दिया कि वे यह आभीर जाति के गोत्रप्रवर्तक सिद्ध हों। गायत्री विवाह में उपस्थित सभी सभासद गायत्री के कृपा पात्र हुए थे यह शास्त्रों प्रसिद्ध ही है।
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अत्रि गोत्र अहीरों का गायत्री माता को वरदान स्वरूप प्रसिद्ध हुआ था। क्योंकि अत्रि से चन्द्रमा और चन्द्रमा से बुध के उत्पन्न होने की परिकल्पना परवर्ती है । जो प्रक्षेप होने से प्रमाणित नहीं है।
यद्यपि अत्रि की उत्पत्ति किन्हीं ग्रन्थों में विराट-पुरुष के दोनों कानों से हुई बतायी है। (श्रोत्राभ्यामत्रिं ।5।-श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।)
अनुवाद:- ब्रह्मा से अत्रि उत्पन्न हुए और उनके दौनों नेत्रों से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ।
चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों में कई सिद्धान्त हैं।
अत्रि की पत्नी कर्दममुनिकन्या अनसूया थी ।
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श्लोक 9.14.3 भागवतपुराण-
"तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्र: सोमोऽमृतमय:किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पित: पति:॥३॥
शब्दार्थ:-तस्य—उस अत्रि के; दृग्भ्य:—नेत्रों से; अभवत्—उत्पन्न हुआ; पुत्र:—पुत्र; सोम:—चन्द्रमा; अमृत-मय:—अमृत से युक्त ; किल—निस्सन्देह; विप्र—ब्राह्मणों का; ओषधि—दवाओं का; और उडु-गणानाम्—तारों का; ब्रह्मणा—ब्रह्मा द्वारा; कल्पित:—नियुक्त किया गया; पति:—परम निदेशक, संचालक स्वामी( रक्षक) "पा--डति पाति रक्षयति इति पति- । १ भर्त्तरि ३ स्वामिनि ।.
अनुवाद:-अत्रि के नेत्रों से सोम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो अमृतयुक्त था । ब्रह्माजी ने उसे ब्राह्मणों, ओषधियों तथा नक्षत्रों (तारों) का पति नियुक्त किया।
तात्पर्य:- वेदों के अनुसार सोम या चन्द्रदेव की उत्पत्ति भगवान् के मन से हुई (चन्द्रमा मनसोजात: ), किन्तु यहाँ पर सोम को अत्रि के अश्रुओं से उत्पन्न बतलाया गया है। यह वैदिक सिद्धान्त के विपरीत प्रतीत होता है,
"अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ् जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मसम्भवान् ।
इस श्लोक से पता चलता है कि अत्रि-पत्नी अनसूया के गर्भ से तीन पुत्र उत्पन्न हुए—सोम, दुर्वासा तथा दत्तात्रेय।
तब देवताओं को प्रसन्न करने वाला चन्द्रमा उत्पन्न होकर ऊपर आ गया। भगवान शंकर ने याचना की: “(यह) चंद्रमा निस्संदेह मेरे जटाओं का आभूषण होगा; मैंने उसे ले लिया है''। ब्रह्मा ने उन का आभूषण होने पर सहमति व्यक्त की । ५२-५३।
अर्थात् परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से अन्य सूर्य जैसे प्रकाश-युक्त तारागण, दो चरणों से भूमि, श्रोत्र से दिशाएं, और इसी प्रकार सब लोक उत्पन्न हुए।
यहां एक बात विशेष है - श्रोत्र को तो बार कहा गया है ।
पहले मन्त्र में उससे वायु और प्राण की उत्पत्ति कही गयी है; दूसरे मन्त्र में उससे दिशाओं की उत्पत्ति बताई गयी है । यह एक संकेत है, कि यह उपमा केवल परमात्मा का आलंकारिक चित्र खींचने के लिए नहीं है, अपितु उससे कुछ महत्त्वपूर्ण विषय बताया जा रहा है
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परन्तु गायत्री माता का गोत्र अत्रि नहीं था ये भी आभीर कन्या थीं ।
सभी अहीरों ने जब विष्णु भगवान से अपनी जाति में अवतरित होने का वरदान माँगा था तब विष्णु तथास्तु कह कर उनके स्वीकृति की पुष्टि की -
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पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।
इस लिए अत्रि ऋषि के विषय में अवान्तर कथाऐं सृजन की गयी ं।
"गायत्री के विवाह काल में सप्तर्षियों में अत्रि आदि ऋषियों और उनकी पत्नी अनुसूया आदि की उपस्थिति से सम्बन्धित कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत करना अपेक्षित है।
अत्रि और चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों में ही भिन्न भिन्न सन्दर्भ और प्रकरण हैं। इस लिये उपर्युक्त तीनों प्रक्षिप्त प्रकरण हैं।
इस लिए यादवों के प्रमाणभूत पूर्वज पुरुरवा को माना जाता है। जिनका वर्णन ऋग्वेद में है। यद्यपि गायत्री सबसे प्रचीन आभीर कन्या है।
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जब एक बार महात्मा (ब्रह्मा) ने भी यज्ञ के संचालन के लिए पुरोहितों को चुना। तो भृगु को ऋग्वेद की ऋचाओं को पढ़ने वाले आधिकारिक पुजारी के रूप में चयनित किया गया था ; पुलस्त्य को सर्वश्रेष्ठ अध्वर्यु पुरोहित के रूप में चुना गया था। और मरीचि को उद्गाता के रूप में चुना गया था जो सामवेद के ऋचाओं का जाप करने वाला ) और नारद को चुना गया था ब्रह्मा( वेदविहित कर्मों का सम्पादक एक ऋत्विक ।
सनत्कुमार और अन्य सदस्य यज्ञ सभा के सदस्य थे।
इसलिए दक्ष जैसे प्रजापति और ब्राह्मणों से पहले की जातियाँ (यज्ञ में शामिल हुए); ब्रह्मा के पास पुजारियों के (बैठने की) व्यवस्था की गई थी।
कुबेर ने उन्हें वस्त्र और आभूषणों से विभूषित किया. ब्राह्मणों को कंगन और पट्टिका के साथ-साथ अंगूठियों से सजाया गया था। ब्राह्मण चार, दो और दस (इस प्रकार कुल मिलाकर) सोलह थे।
उन सभी को ब्रह्मा ने नमस्कार के साथ पूजा की थी। (उन्होंने उनसे कहा): “हे ब्राह्मणों, इस यज्ञ के दौरान तुम्हें मुझ पर अनुग्रह करना चाहिए; यह मेरी पत्नी गायत्री है; तुम मेरी शरण हो।
विश्वकर्मन को बुलाकर , ब्राह्मणों ने ब्रह्मा का सिर मुंडवा दिया, जैसा कि एक यज्ञ में (प्रारंभिक रूप में) निर्धारित किया गया था। ब्राह्मणों ने युगल (अर्थात् ब्रह्मा और गायत्री) के लिए चर्म के कपड़े भी (सुरक्षित) किए। ब्राह्मण वहीं रह गए (अर्थात् ब्राह्मणों ने वेदों के उच्चारण से) आकाश को गुञ्जायमान कर दिया; क्षत्रिय इस संसार की रक्षा करने वाले शस्त्रों के साथ वहीं उपस्थित हो गये ; वैश्य _विभिन्न प्रकार के भोजन तैयार किए उपस्थित हो गये।;
उत्तम स्वाद से भरपूर भोजन और खाने की वस्तुएँ भी तब बनती थीं; जिसे पहले अनसुना और अनदेखा माना जाता था उसे सुनकर और देखकर, ब्रह्मा प्रसन्न हुए; भगवान, निर्माता, ने वैश्यों को प्रागवाट नाम दिया। (ब्रह्मा ने इसे नीचे रखा:) 'यहाँ शूद्रों को हमेशा ब्राह्मणों के चरणों की सेवा करनी पड़ती है;।
उन्हें अपने पैर धोने होंगे, उनके द्वारा (अर्थात् ब्राह्मणों) से जो कुछ बचा है उसे खाना होगा और (जमीन आदि) को साफ करना होगा। उन्होंने भी वहाँ (ये बातें) कीं; फिर उनसे फिर कहा, “मैंने आपको ब्राह्मणों, क्षत्रिय भाइयों और आप जैसे (अन्य) भाइयों की सेवा के लिए चौथे स्थान पर रखा है ; आपको तीनों की सेवा करनी है ”। ऐसा कहकर ब्रह्मा ने शंकर को और इन्द्र को द्वार-अधीक्षक के रूप में, भी नियुक्त किया । पानी देने के लिए वरुण, धन बांटने के लिए कुबेर, सुगंध देने के लिए पवन , प्रकाश के लिए सूर्य और विष्णु (मुख्य) अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए ।
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(सोम के दाता चंद्रमा ने बाईं ओर के मार्ग का सहारा लिया।
112-125। सावित्री, उनकी खूबसूरत पत्नी, जो अच्छी तरह से सम्मानित थीं, को अध्वर्यु ने आमंत्रित किया था : "श्रीमती, जल्दी आओ, सभी आग उगल चुकी हैं (अर्थात् अच्छी तरह से जल चुकी हैं), दीक्षा का समय आ गया है।" परन्तु किसी काम में मग्न वह फुर्ती से नहीं आई, जैसा कि आमतौर पर महिलाओं के साथ होता ही है। “ सावित्री ने कहा:- मैंने यहाँ, द्वार पर कोई साज-सज्जा नहीं की है; मैंने दीवारों पर चित्र भी नहीं बनाए हैं; मैंने प्रांगण में स्वस्तिक नहीं बनाया है और यहां बर्तनों की सफाई तक नहीं की गई है।
लक्ष्मी , जो नारायण की पत्नी हैं, वह भी अभी तक नहीं आई हैं। और अग्नि की पत्नी स्वाहा धूम्रोर्णा, यम की पत्नी; वरुण की पत्नी गौरी; ऋद्धि जोकि कुबेर की पत्नी; गौरी, शंभु की पत्नी, अभी तक कोई नहीं आयी है। इसी तरह मेधा , श्रद्धा , विभूति , अनसूया , धृति , क्षमा और गंगा तथा सरस्वती नदियाँ भी अभी तक नहीं आई हैं। इन्द्र पत्नी इन्द्राणी( शचि) , और चंद्रमा की पत्नी रोहिणी ,जो चंद्रमा को प्रिय है।
इसी तरह अरुंधती, वशिष्ठ की पत्नी; इसी तरह सात ऋषियों की पत्नियां,और अनसूया, अत्रि की पत्नी और अन्य स्त्रियाँ, बहुएँ, बेटियाँ, सहेलियाँ, बहनें अभी तक नहीं आई हैं।
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मैं अकेला ही बहुत दिनों से यहां (उनकी प्रतीक्षा में) पड़ी हूं। मैं अकेली तब तक न जाऊँगी जब तक वे स्त्रियाँ न आ जाएँ। जाओ और ब्रह्मा से थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कहो।
मैं सब (उन देवियों) को लेकर शीघ्रता से आऊँगी ; हे उच्च बुद्धि वाले, आप देवताओं से घिरे हुए हैं, महान कृपा प्राप्त करेंगे; तो मैं भी करूंगी; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।" उसे इस तरह बात करते हुए छोड़कर अध्वर्यु वहाँ से ब्रह्मा के पास पुन: आया।
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यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह।
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।
अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना।
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।
अनुवाद:-जैसे यह देवता, देवों का स्वामी, जो निश्चय ही अजर और अमर है, वैसे ही स्वर्ग भी उसके लिए अक्षय है। महान ने अन्य देवताओं को भी स्वर्ग (में स्थान) प्रदान किया है। वेद और जड़ी-बूटियाँ अग्नि में आहुति देने के लिए आई हैं।
तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्।
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।
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ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्।
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।
अनुवाद:-
वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि पृथ्वी पर जो भी अन्य जानवर हैं (देखे गए हैं) वे सभी इस भगवान द्वारा बलिदान ( यज्ञ) के लिए बनाए गए हैं।
आपके इन वचनों को सुनकर मुझे इस विषय में एक जिज्ञासा हुई है। किस इच्छा, किस फल और किस विचार से उसने यज्ञ किया, वह सब मुझे बताओ।
यहाँ कहा गया है कि सौ रूपों वाली शतरूपा- महिला और सावित्री उन्हें ब्रह्मा की पत्नी और ऋषियों की माता कहा जाता है।
सावित्री ने पुलस्त्य और अन्य जैसे सात ऋषियों को जन्म दिया और सृजित प्राणियों के स्वामी जैसे दक्ष को भी जन्म दिया ।
नीचे शिवपुराण का वर्णन है कि
शिवपुराणम् संहिता २ -(रुद्रसंहिता) | खण्डः १- (सृष्टिखण्डः)
"ब्रह्मोवाच"
शब्दादीनि च भूतानि पंचीकृत्वाहमात्मना ।।
तेभ्यः स्थूलं नभो वायुं वह्निं चैव जलं महीम् ।१ ।
पर्वतांश्च समुद्रांश्च वृक्षादीनपि नारद।।
कलादियुगपर्येतान्कालानन्यानवासृजम् ।।२।।
सृष्ट्यंतानपरांश्चापि नाहं तुष्टोऽभव न्मुने ।।
ततो ध्यात्वा शिवं साम्बं साधकानसृजं मुने।३।
मरीचिं च स्वनेत्राभ्यां हृदयाद्भृगुमेव च ।।
शिरसोऽगिरसं व्यानात्पुलहं मुनिसत्तमम् ।४।
अनुवाद:- ब्रह्मा ने कहा कि मेैंने मरीचि को अपने दोनों नेत्रों से भृगु को हृदय से अंगिरस को शिर से पुलह को व्यान ( नामक प्राण) से
उदानाच्च पुलस्त्यं हि वसिष्ठञ्च समानतः ।।
क्रतुं त्वपानाच्छ्रोत्राभ्यामत्रिं दक्षं च प्राणतः।५।
अनुवाद:- उदान( वायु ) से पुलस्त्य और वशिष्ठ को समान वायु से उत्पन्न किया है। और क्रतु को अपान वायु (पाद) से दोनों कानों से अत्रि ऋषि को उत्पन्न किया और प्राणों से दक्षप्रजापति-।
असृजं त्वां तदोत्संगाच्छायायाः कर्दमं मुनिम् ।।
संकल्पादसृजं धर्मं सर्वसाधनसाधनम् ।।६।।
अनुवाद:- उत्संग ( गोद ) की छाया से कर्दममुनि संकल्प से धर्म और सब साधन उत्पन्न किए ।
एवमेतानहं सृष्ट्वा कृतार्थस्साधकोत्तमान् ।।
अभवं मुनिशार्दूल महादेवप्रसादतः ।।७।।
अनुवाद:- इस मैंने उत्तम- साधकों को यह सब रचकर उन्हें कृतार्थ किया। हे मुनि श्रेष्ठ यह सब महादेव की कृपा से हुआ।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद:-
सोम वंश का वर्णन
श्रीशुकदेव जी कहते हैं-
परीक्षित! अब मैं तुम्हें सोम के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंश में पुरुरवा आदि बड़े-बड़े पवित्र कीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है।
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सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात्।
जातस्यासीत् "सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
अनुवाद:-
सहस्रों सिर वाले विराट् पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया।
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उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानवों में घोर संग्राम छिड़ गया।
शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।
तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ‘दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे।
डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’। अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाये। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा- ‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमा का।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया।
परीक्षित! ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।
एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरुरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरुरवा के पास चली आयी।
ऋग्वेद में भी पुरुरवा उर्वशी का मिलन और संवाद है ।
(एता वाचा) इस वाणी से (किं कृणव) क्या करें-क्या करेंगे (तव-अहम्) तेरी मैं हूँ (उषसाम्) प्रभात ज्योतियों की (अग्रिया-इव) पूर्व ज्योति जैसी (प्र अक्रमिषम्) चली जाती हूँ-तेरे शासन में चलती हूँ (पुरूरवः) हे बहुत प्रकार से उपदेश करने वाले पति (पुनः-अस्तम्-परा इहि) विशिष्ट सदन या शासन को प्राप्त कर (वातः-इव) वायु के समान (दुरापना) अन्य से दुष्प्राप्य (अहम्-अस्मि) मैं प्राप्त हूँ ॥२॥
इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः । अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥
पदार्थ
(इषुधेः) इषु कोश से (असना) फेंकने-योग्य-फेंका जानेवाला (इषुः) बाण (श्रिये न) विजयलक्ष्मी गृहशोभा के लिए समर्थ नहीं होता है, तुझ भार्या तुझ प्रजा के सहयोग के बिना, (रंहिः-न) मैं वेगवान् बलवान् भी नहीं बिना तेरे सहयोग के (गोषाः-शतसाः)सैकड़ो गायों का सेवक (अवीरे) तुझ वीर पति से रहित अबले! (उरा क्रतौ) विस्तृत यज्ञकर्म में (न विदविद्युतत्) मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता बिना तेरे सहयोग के (धुनयः) शत्रुओं को कंपानेवाले हमारे सैनिक (मायुम्) हमारे आदेश को (न चिन्तयन्त) नहीं मानते हैं बिना तेरे सहयोग के।३।
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।
वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है ।
ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा (१.२.४३)
अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है।
परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश:
१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार
२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
तो तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे !
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है
क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।
अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ। अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को जिम्बाब्वे नें था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे ।
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।
जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।
इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा।
और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्
नहुष' और ययाति आदि का नाम नहीं था।
तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।
वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है ।
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है।
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।
परन्तु वैवाहिक विधानों के सम्यक् निर्वहन हेतु गोत्र की महती आवश्यकता है ।
पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है ।
गोत्र की अवधारणा-
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं,।
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यद्यपि गायत्री वैष्णवी शक्ति का अवतार हैं ।
दुर्गा भी इन्हीं का रूप है जब ये नन्द की पुत्री बनती हैं तब इनका नाम.एकानंशा अथवा यदुवंश समुद्भवा भी होता है ।।
पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माता सावित्री है।
इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं।
कहा जाता है एक बार पुष्कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया।
लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया। तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया और सभी शापित देवों तथा देवीयों को वरदान देकर प्रसन्न किया ये ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।
स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।
तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
देवी भागवत पुराण मे सहस्रनाम प्रकरण में यदुवंशसमद्भवा गायत्री सा ही नाम है।
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -
-भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।
- भीष्म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्ठ ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्म जी ने कहा–
भरतश्रेष्ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।
एकमात्र सनातन भगवान स्वयम्भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
स्वयम्भू ब्रह्मा के सात महात्मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्ठ।
ये सभी स्वयम्भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्त प्रजापतियों का वर्णन आरम्भ करता हूँ।
अत्रिकुल मे उत्पन्न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीनबर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्पन्न हुए।
पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।
उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं।
उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’ मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
कुछ लोग उन्हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्हें कश्यप के नाम से जानते हैं।
अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्होंने सहस्त्र दिव्य युगों तक भगवान की उपासना की थी।
प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्तम स्रष्टा) कहे गये हैं।
धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्दु के दस हजार स्त्रियाँ थी।
तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -
इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।
उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे।
इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।
फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।
इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति।
छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ।
विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
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उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।
‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं।
ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।
जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है।
जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है।
इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
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तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है।
एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ।
इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।
इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
(भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
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उनमें से प्रत्येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार उन महात्मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्छा नहीं करते थे।
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प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्पत्ति शशबिन्दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्पादक हुआ।
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संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र ।
यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।
गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश)
तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
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गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।
तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।
इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।
तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका एक अर्थ छतरी( छत्र भी है।
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क्योंकि उस वैदिक समय में गोत्र नहीं थे ।
गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर 14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।
यमी अपने सगे भाई यम से संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है।
परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋग्वेद-10/10/2
अनुवाद:-(“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)
"न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः। वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।
सन्दर्भ:-(पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १६)
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यादव योगेश कुमार रोहि-
सन्दर्भ :- आभीरसंहिता-
"प्रस्तावना"👇
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(प्रथम- चरण)👇
प्रचीन ऋषियों के ग्रन्थों में पूर्व काल में जो सत्य प्रतिष्ठित था ; जिससे समाज चारित्रिक रूप से सकारात्मक और स्वस्थ था ; पहले जैसा आज कुछ भी नहीं रहा है। पूर्वकाल में जब वह सत्य का युग था । लोग आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत और संयमी प्रवृत्तियों से समन्वित रहते थे ; जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों को आत्मसात् करना ही मनुष्यों का परम ध्येय और श्रेय कर्म था। परन्तु काल के सतत्-प्रवाह में आध्यात्मिक गंगाजल की स्वच्छ धाराओं के साथ धार्मिक कर्मकाण्ड जनित दम्भमयी गन्दगी भी प्रवाहित होती चली गयी, और उस गन्दिगी की बढ़ोतरी मिलाबट के जोड़-तोड़ के रूप में तब्दील होकर ; मिथकों की मिथ्या गाथा बनकर धर्म-शास्त्रों में विरोधाभास और कल्पनाओं का आभास कराने लगी। ऐसा इसलिये भी हुआ, क्यों कि संयम और आध्यात्मिक भावों के लोप होने से तत्कालीन पुरोहितों में भौतिकवाद की वृद्धि,भोग-लिप्सा, स्वार्थ,झूँठी शान-शौकत और समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की महत्वाकाँक्षा के रूप में उत्पन्न होकर लम्बे समय तक विद्यमान रही ! इसी लिए धर्म-शास्त्रों में भविष्यत् (आगे होने वाली) घटनाओं का मनीषीयों द्वारा कलियुग के प्रसंग-रूप में आनुमानिक वर्णन किया गया है : क्यों कि जिस समय ये शास्त्र लिपिबद्ध किये जा रहे थे तब तक इन घटनाओं का सूत्रपात( आगाज) हो गया था। और वर्तमान परिस्थितियों और घटना- क्रमों का आकलन करके ही कोई भी बुद्धि-जीवी भविष्य में होने वाली घटनीओं का सहज वर्णन कर सकता है । परन्तु पुराणों को लिखने वाले तो साधक, तपस्वी और आध्यात्मिक व्यक्ति रहे होंगे- इसी लिए उन्होंने आज की चारित्रिक और नैतिक पतन होने वाली बाते शास्त्रों में वर्णन कर दीं है। देवीभागवतपुराण स्कन्ध 6/11 में सत्य ही कहा है ।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् तेकलौब्राह्मणाःस्मृताः।४२।
अनुवाद:-उस सत्ययुगमें सभी वर्णों के लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे। उसके बाद, त्रेतायुग में धर्म की स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुग में जो धर्म की स्थिति थी, वह स्थिति द्वापर में विशेष रूप से और कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुग में ब्राह्मण माने जाते हैं।41-42।और आज सभी वर्णों के मनुष्य लगभग समान आचरण के हो गये हैं। किसी भी वर्ण का व्यक्ति कोई भी कार्य कर सकता है।
(अध्याय-191-के महाभारत वनपर्व के निम्न श्लोक निर्णयसागर प्रेसमुम्बई संस्करण पर 191 अध्याय पर है। तथा गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण में यह 188 वें अध्याय पर है।
अर्थ- निवृत्तयज्ञस्वाध्याया दण्डाजिनविवर्जिताः।
ब्राह्मणा सर्वभक्षाश्च भविष्यन्ति कलौयुगे।३२।
अर्थ- कलियुग में ब्राह्मण यज्ञ, स्वाध्याय, दण्ड़ और मृगचर्मका त्याग कर देंगे और ( भक्ष्याभक्ष्यका विचार छोड़कर )सब कुछ खानेवाले हो जायंगे।३२।
अजपा ब्राह्मणास्तात शूद्रा जपपरायणा:।
विपरीते तदा लोके पूर्वरूपं क्षयस्य तत् ।३३।
अर्थ- तात ! ब्राह्मण तो ईश्वर का जप न करने वाले और शूद्र कहे जाने लोग ईश्वर के मंत्रों के जप करने वाले होंगे। नरेश्वर ! इस प्रकार जब लोगोंके विचार और व्यवहार विपरीत हो जाते हैं, तब प्रलय का पूर्वरूप आरम्भ हो जाता है।३३।
बहवो म्लेच्छराजानः पृथिव्यां मनुजाधिप।
मृषानुशासिनः पापा मृषावादपरायणा:।३४।
अर्थ-बहुत-से म्लेच्छ राजा उस समय इस पृथ्वी पर राज्य करने वाले होंगे । झूँठ बोलकर शासन करने वाले, पापी और असत्यवादी होगे।।३४।।
आन्ध्राःशकाः पुलिन्दाश्च यवनाश्च नराधिपाः।
काम्भोजा बाह्लिकाः शूरास्तथाऽऽभीरा नरोत्तमा।३५।
अर्थ-आन्ध्र, शक, पुलिन्द, यवन, काम्बोज, बाहीक तथा शूरता से सम्पन्न आभीर लोग इस देश के शासक होंगे।३५।
न तदा ब्राह्मणः कश्चित्स्वधर्ममुपजीवति।
क्षत्रियाश्चापि वैश्याश्च विकर्मस्था नराधिप।३६।
अर्थ- नरश्रेष्ठ! उस समय कोई ब्राह्मण अपने धर्मके अनुसार जीविका चलानेवाला न होगा। नरेश्वर! क्षत्रिय और वैश्य भी अपना-अपना धर्म छोड़कर दूसरे वर्णोंके कर्म करने लगेंगे।
कैवर्त आभीर शबर और अन्य म्लेच्छों के वंशज होंगे ।मैं उन राजाओं का नाम सहित विस्तार से वर्णन करूँगा ।50.76।
वास्तव में ब्राह्मण जिसके प्रधान कर्तव्य पठन -पाठन, यज्ञ, ज्ञानोपदेश ,यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ये छह कहे गए हैं। इसीलिए उन ब्राह्मणों को षट्कर्मा भी कहा जाता था। परन्तु अब सभी ब्राह्मण उपाधिधारक ऐसे नहीं रहे ब्राह्मण शब्द- ब्रह्मन् शब्द से उत्पन्न हुआ है। और ब्रह्मन् शब्द के शास्त्रों तीन प्रथान अर्थ हैं ब्र(व्र)ह्मन्' नपंसक (वृंह- मनिन्)= ब्रह्मन्।वृंहेर्नोऽच्चेति” उणा॰ नकारस्याकारे ऋतो रत्वम्।
बृंह् अथवा वृंह् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं :- १- वृद्धि होना। २-शब्दकरना। ३- और उद्यम करना। ईश्वरीय सत्ता का वाचक ब्रह्मन् शब्द नपुंसक लिंग में वृद्धि मूलक है । और (ब्रह्मन्+अण्) से निर्मित ब्राह्मण ध्वनिसत्ता मूलक है। अत: भृङ्ग के समान निरन्तर मन्त्र का उच्चारण करने वाला ब्राह्मण होता है। :- ब्रह्म= वेदं शुद्धं चैतन्यं वा वेत्त्यधीते वा अण् ब्रह्मणो) अर्थात् ब्राह्मण जो ब्रह्म (परम चैतन्य सत्ता) को जानता अथवा अध्ययन करता है। अथवा "ब्रह्मणो जातो इति ब्राह्मण- ब्रह्मा जी सन्तान भी ब्राह्मण है। पाणिनीय सूत्र से न टिलोपः (ब्रह्मन्+अण्=ब्राह्मण)अमरकोश में भी ब्रह्मन् शब्द के नपुंसक रूप में अर्थ-वेदतत्त्व (मन्त्र और तप आदि हैं अर्थात् 3/3/114/2/1 ब्राह्मण- ब्रह्म को जानने वाला, तप करने वाला,और वेदमन्त्रों का वक्ता, इन अर्थों का वाचक शब्द है। परन्तु अब सब ब्राह्मण उपाधि धारण करने वाले ऐसे नहीं हैं अब ये अपने वर्णगत कर्मों को छोड़कर अन्य कर्म भी करने लगे हैं। अत: "कर्तव्यविहीनस्य किं अधिकारम्" अर्थात् जिसके कर्तव्य नहीं हैं तो उसके अधिकार कहाँ होगे इसी प्रकार स्वयं को क्षत्रिय कहने वाले भी आज शास्त्र-विहित क्षत्रिय के गुण धर्मों से रहित होकर अन्य वर्णगत कर्मों में रत हैं। क्षत्रिय शब्द भी व्युत्पत्ति कालिदास ने रघुवंशमहाकाव्य मे की है:- क्षतात् किल त्रायते इत्युग्रः क्षत्त्रस्य शब्दोभुवनेषु रूढः”= विनाश से रक्षा करता है जो वह क्षत्रिय है " संसार में इसका यह अर्थ रूढ़ (प्रचलित)है।- रघुःवंशमहाकाव्यम्) शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।18.43।(श्रीमद्भगवद्गीता) = शौर्य, तेज, धृति (धैर्य), दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) - ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। परन्तु जो अब स्वयं को क्षत्रिय अधिकतर लोग कहते हैं उनमें ये गुण और कर्म अनिवार्यत: नहीं होते हैं। अत: कर्तव्य हीन व्यक्ति के अधिकार नहीं होते है "कर्त्तव्यविहीनस्य किं अधिकारम्" अर्थात् इसी क्रम में वैश्य वर्ण की विवेचना भी अपेक्षित है। वैश्य शब्द संस्कृत की विश् धातु से निष्पन्न है। जिसका अर्थ :- प्रवेश करना अर्थात् वैश्य= जो अपने बलबुद्धि से कृषि और पशुपालन कर्म में प्रवेश करे" स्वयोर्बलबुद्धिभ्याम् कृषिपशुपालनेषु कर्मेषु" विशति-निविशति )विश--क्विप् -स्वार्थे ष्यञ् =वैश्य कृषि पशुपालन आदि कर्मों में अपनी बल-बुद्धि का (निवेश-investment ) करने वाला होता है । इसके अतिरिक्त मनुस्मृति 9/327-328 तथा महाभारत -शान्तिपर्व-60/23/26 में वैश्य के कर्तव्य बताते हुए उसे पशुपालक कहा है । पशु ही प्रत्येक राष्ट्र की सम्पत्ति होते थे
वैश्य का जो सनातन धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हुं। दान, अध्ययन, यज्ञ और पवित्रतापूर्वक धन का संग्रह ये वैश्य के कर्म हैं। वैश्यवर्ण का सदा उद्योगशील रहकर पुत्रों की रक्षा करने वाले पिता के समान सब प्रकार के पशुओं का पालन करे। इन कर्मों के सिवा वह और जो कुछ भी करेगा, वह उसके लिये विपरीत कर्म होगा। पशुओं के पालन से वैश्य को महान सुख की प्राप्ति हो सकती है। प्रजापति ने पशुओं की सृष्टि करके उनके पालन का भार वैश्य को सौंप दिया था।
महाभारत के निम्न श्लोकों का उपर्युक्त भावानुवाद है।
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्।ब्राह्मणायच राज्ञे च सर्वाःपरिददे प्रजाः।२३।
न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति। वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याःकथंचन।२६। वैश्य वर्ण के लिए चार जीविका के आधार हैं।
वैश्यों के जीविका उपार्जन व कर्तव्य शास्त्रों में चार कहे गये हैं। जैसे कृषि(खेती-बाड़ी) गोरक्षण (पशुपालन) व्यापार और (कुशीद-व्याज का लेन-देन) अब वैश्य शब्द आज केवल वणिक( बनिया) के अर्थ में प्रचलित (रूढ़) हो गया है। जो कि सार्थक नहीं है क्यों कि वणिक लोग आज पशुपालन और कृषि-वृत्ति से पूर्णत: रहित ही हैं। अत: बनिया लोगों को आजकल कभी भी कहीं भी हल चलाते अथवा पशुओं का पालन करते नहीं देखा जाता है। ये कार्य तो बल और पौरुषसे ही किए जा सकते हैं। जोकि क्षत्रिय का गुण है। विदित हो कि वणिक शब्द के पूर्वज वेदों में वर्णित "पणि शब्द है । ये पणि लोग समुद्री व्यापारी होते थे। फिनीशियन लोगों ने जहाँ बसेरा किया वह फिनीशिया कहलाया। वेदों मे इन्हें पणि कहा है । ये लोग सीरियनों के समकालिक तथा असीरियनों के मित्र जाति के लोग थे ।
फ़रात के समीप वर्ती आधुनिक लेवनान में ये निवास करते थे । ऋग्वेद के "पणि" लोग "फोनेशियन" लोगों का रूपान्तरण है। रोमनों ने इन्हें प्यूनिक कहा विदित हो कि ये प्राय व्यापार ही करते थे पशुपालन ये नहीं करते थे जबकि आर्य पशु पालक और कृषक थे । यद्यपि इनके और देवसंस्कृतियों के लोगों के देवता कुछ भिन्न थे पणियों का देवता "बल" था जोकि देवों का शत्रु था पणि लोग केवल "व्यापारी" थे और विश्व इतिहास में इन्हें फॉनिशिसन कहा गया फोनेशियन लोगों की भाषा " भारोपीय व सैमेटिक -हैमेटिक शब्दों से युक्त थी। इन्होंने ही दुनियाँ को भाषा और लिपियाँ प्रदान कीं इनका व्यापर भूमध्यसागर तक फैला होता था। ऋग्वेद के दशम् मण्डल के १०८ वें सूक्त में एक से लेकर ग्यारह छन्दों तक इनका वर्णन है । कि इन्द्र की दूतिका देव शुनी( कुतिया) सरमा दजला-फरात के जल प्रदेशों में पणियो को खोजती हुई पहुँचती है । तथा पणियों से इन्द्र की महान शक्ति का वर्णन करके भयाक्रान्त करने के उद्देश्य से बहुत सी गायों इन्द्र को देने के लिए बाध्य करती है । यह आख्यान एक काव्यात्मक वर्णन है । वणिज् अथवा वणिक् शब्द का मूल वैदिक पणि शब्द है। जिसे विश्व इतिहास में फोनिशिय अथवा प्यूनिक कहा गया ये पणि समुद्री व्यापारी हुआ करते थे जो "लेवनान "इजरायल और कनान में रहते थे। यह घटना ईसापूर्व 1500 के समकालिक है। अमर कोश में वणिक के पर्याय इस प्रकार से हैं।वैदेहकः सार्थवाहो नैगमो वाणिजो वणिक्। पण्याजीवो ह्यापणिकः क्रयविक्रयिकश्च सः॥
अत: वैश्य वृत्ति के अन्तर्गत पशुपालन और कृषि के अतिरिक्त वाणिज्य ( व्यापार) तथा कुशीद वृत्तियाँ हैं। अब वाणिज्य और कुशीद( व्याज) वणिक वृत्ति हैं और पहले वाली दो कृषक वृति ही हैं अब चारों वैश्यवृत्ति के अन्तर्गत होकर भी परस्पर विपरीत हैं। क्योंकि कृषि और पशुपालन का काम तो वीर और क्षत्रियों का ही हो सकता है। वैदिक काल में कृषि और पशुपालन करने वाले को ही "आर्य कहा जाता था। और आर्य शब्द केवल कृषक का वाचक हुआ करता था आर्य शब्द की व्युत्पत्ति ऋ(अर्) धातु मूलक है आर-हल का आला( फाल) उसे धारण करने वाला आर्य- (आर्य शब्द की व्युत्पत्ति के लिए देखें सप्तदश अध्याय)
इस प्रकार वर्ण व्यवस्था गुण कर्म के आधार पर व्यवसायपरक न होकर, जाति आधारित हो गयी और ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के लोगों द्वारा अपने मूल गुणधर्म को छोड़कर स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों कीआपूर्ति के लिए नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों को तिलाञ्जलि देदी गयी !! परिणाम स्वरूप भारतीय समाज में विश्रृँखलता आयी पहले जैसी कर्मविभाजन व्यवस्था कुछ भी नहीं रही यह सामाजिक उपक्रम ईसा पूर्व सप्तम सदी के समकक्ष घटित हुआ।
शूद्र भी एक जाति विशेष का वाचक था परन्तु पुराणों के प्रकाशन काल में और लेखन काल में भी शूद्र वर्ण-विशेष का वाचक हो गया ।
अब शूद्र शब्द का पौराणिक व्युपत्ति पर बात करते हैं ।
भारतीय पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार शूद्र शब्द का व्युपत्ति पर वायुपुराण का कथन है कि
" शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति को शूद्र कहते हैं ।
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"तो भविष्यपुराण में कहा गया कि " श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए"
सेवक शब्द का मूल अर्थ भी देखें:--- सीव्यति सिव--ण्वुल् (अक) । १ सीवनकर्त्तरि (दरजी) सेव--ण्वुल् । २ भृत्ये ३ दासे ४ अनुचरे च त्रि० मेदिनी कोश ।
यद्यपि शुच् धातु का एक अर्थ शूचिकर्मणि भी है
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*syu- syū-, also sū:-,(सू) Proto-Indo-European root meaning "to bind, sew."
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit sivyati सीव्यति "sews," sutram "thread, string;" Greek hymen "thin skin, membrane," hymnos "song;"
Latin suere स्वेयर-"to sew, sew together;" Old Church Slavonic šijo सीजो "to sew," šivu "seam;" Lettish siuviu, siuti "to sew," siuvikis "tailor;" Russian švec- "tailor;" Old English- siwian "to stitch, sew, mend, patch, knit together .. ___________________शुट्र लोग गॉल अथवा ड्रयूडों की ही एक शाखा थी जो परम्परागत से चर्म के द्वार वस्त्रों का निर्माण और व्यवसाय करती थी ।
(.Shouter a race who had sewed Shoes and Vestriarium..for nordic Germen tribes is called Souter or shouter . souter souter "maker or mender of shoes, _______
" O.E. sutere, from L. sutor "shoemaker," from suere "to sew, stitch" (see SEW (Cf. sew)). souteneursouth Look at other dictionaries: Souter — is a surname, and may refer to:* Alexander Souter, Scottish biblical scholar * Brian Souter, Scottish businessman * Camille Souter, Irish painter * David Souter, Associate Justice of the Supreme Court of the United States * David Henry Souter,… … Wikipedia souter — ● souter verbe transitif (de soute) Fournir ou recevoir à bord le combustible nécessaire aux chaudières ou aux moteurs d un navire. _______
⇒SOUTER, verbe trans. Souter — Sou ter, n. [AS. s?t?re, fr. It. sutor, fr. suere to sew.] A shoemaker; a cobbler. [Obs.] Chaucer. [1913 Webster] There is no work better than another to please God: .
to wash dishes, to be a souter, or an apostle, all is one. Tyndale. [1913…
… The Collaborative International Dictionary of English … English World dictionary Souter — This unusual and interesting name is of Anglo Saxon origin, and is an occupational surname for a shoemaker or a cobbler. The name derives from the Old English pre 7th Century word sutere , from the Latin sutor , shoemaker, a derivative of suere … Surnames reference souter — noun Etymology: Middle English, from Old English sūtere, from Latin sutor, from suere to sew more at sew Date: before 12th century chiefly Scottish shoemaker … New Collegiate Dictionary Souter — biographical name David 1939 American jurist … New Collegiate Dictionary souter — /sooh teuhrdd/, n. Scot. and North Eng. a person who makes or repairs shoes; cobbler; shoemaker. Also, soutter. [bef. 1000; ME sutor, OE sutere < L sutor, equiv. to su , var. s. of su(ere) to SEW1 tor TOR] * * * … Universalium Souter — /sooh teuhr/, , MODx. *eu-(vest) _________
संस्कृत भाषा में वस्त्र शब्द का विकास - इयु (उ) व का सम्प्रसारण रूप है । Proto-Indo-European root meaning "to dress," with extended form *wes- (2) "to clothe." It forms all or part of: divest; exuviae; invest; revetment; transvestite; travesty; vest; vestry; wear.
संस्कृत भाषा में भृ धारण करना । It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Hittite washshush "garments," washanzi "they dress;" Sanskrit vaste "he puts on," vasanam "garment;" Avestan vah-;
वह (वस) Greek esthes "clothing," hennymi "to clothe," eima "garment;" Latin vestire "to clothe;" Welsh gwisgo, Breton gwiska; Old English werian "to clothe, put on, cover up," wæstling "sheet, blanket." ..... ...
यूरोप की संस्कृति में वस्त्र बहुत बड़ी अवश्यकता और बहु- मूल्य सम्पत्ति थे .।़क्यों कि शीत का प्रभाव ही यहाँ अत्यधिक था।
उधर उत्तरी-जर्मन के नार्वे आदि संस्कृतियों में इन्हें सुटारी (Sutari ) के रूप में सम्बोधित किया जाता था । यहाँ की संस्कृति में इनकी महानता सर्व विदित है यूरोप की प्राचीन सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह शब्द ...सुटॉर.(Sutor ) के रूप में है ।
तथा पुरानी अंग्रेजी (एंग्लो-सेक्शन) में यही शब्द सुटेयर -Sutere -के रूप में है ।
जर्मनों की प्राचीनत्तम शाखा गॉथिक भाषा में यही शब्द सूतर (Sooter )के रूप में है... विदित हो कि गॉथ जर्मन आर्यों का एक प्राचीन राष्ट्र है । जो विशेषतः बाल्टिक सागर के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है ।
जब धर्म के व्याख्याताओं ने अपने स्वार्थ के अनुरूप धर्म शास्त्रों के विधान पारित किए तो धर्म में विकृति आयी दूसरी बात यह भी रही कि - इस समय यह वह दौर था ;जब धर्म के नाम पर देश में जुल्म घनघोर था । गिरने वाले उठ रहे थे; और उठने वाले गिर रहे थे । ऊँच-नीच और मानवीय भेद भाव अपनी पराकाष्ठाओं पर हर ओर व्याप्त हो गया था । और जो कालान्तरण में धर्मशास्त्रों स्मृति आदि ग्रन्थों में इतिहास की गाथाऐं सत्यरूप लिपिबद्ध की गयीं थीं ; उन पर अपने स्वार्थ के अनुकूल कल्पनाओं की परतें भी पुरोहित वर्ग द्वार निरन्तर चढ़ाईं गयीं और सत्य कल्पनाओं की इन परतों कि सघनता में विलुप्त ही हो गया। ____________________________________
भारतीय पौराणिक इतिहास ईसापूर्व-पञ्चम् सदी से ही स्पष्ट प्रकाशित होता है । जो विगत सहस्राब्दीयों के इतिहास को जन-श्रुतियों और किंवदन्तियों के रूप में संजोए हुए था।
यह महावीर और बुद्ध के जन्म का समय था । "बुद्ध" "महावीर" से प्रभावित हुए और यही 'बुद्ध भारतीय इतिहास के एक उत्स- बिन्दु के रूप में प्रतिष्ठित हुए। बुद्ध तथा बुद्ध के समकालीन राजाओं का वर्णन प्राय: पुराणों, महाभारत और रामायण आदि ग्रन्थों में भी भी यत्र-तत्र मिलता है। चन्द्र गुप्त मौर्य के समय सिकन्दर ईसा पूर्व (323) के आस-पास भारत में सिन्धु क्षेत्र से प्रवेश करता हुआ पहुँचता है। परन्तु भारत को पूर्ण फ़तह नही कर पाता है। और अन्त में जख्मी होकर मिश्र के रास्ते निकल गया कुछ काल पश्चात् "शतधन्वन का पुत्र 'बृहद्रथ मौर्य साम्राज्य का अन्तिम शासक बनता है। जिसका शासन काल 187 ईसापूर्व से 180 ईसापूर्व तक स्थापित रहता है। बृहद्रथ बौद्ध धर्म का अनुयायी था। पुष्य मित्र द्वारा बृहद्रथ की मौत के बाद ! पुन: पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ही बौद्धों, जैनों और अन्य"भागवत" आदि धर्म संगठनों के विरोध स्वरूप फिर एक बार पुन: ब्राह्मणीय वर्चस्व के पुनरुत्थान के लिए "पतञ्जलि आदि पुरोहितों के साथ वैदिक कर्म काण्डों की यथावत् प्रतिष्ठा हुई पाणिनि-व्याकरण के भाष्यकार पतञ्जलि ही थे जिन्होंने योगशास्त्र पर सूत्र लिखे ये ही पुष्यमित्रसुँग के पुरोहित थे । महात्मा बुद्ध इतिहास में शाक्य मुनि नाम से प्रसिद्ध हुए ; और वे (563) ईसा पूर्व से (483) ईसा-पूर्व लगभग 80 वर्ष की अवस्था तक जीवित रहे। महावीर तथा बुद्ध ने उस समय हिंसापूर्ण यज्ञों का विरोध दृढ़ता से तर्ककी कषौटी पर किया । अत: सभी पुराणों, महाभारत ,वाल्मीकि रामायण आदि में भी "तथागत बुद्ध" का वर्णन कहीं विष्णु अवतारों के रूप में है तो कहीं रामायण में वेद मार्ग के विध्वंसक के रूप में हुआ है । परन्तु 'वाल्मीकि रामायण और 'भविष्य पुराण में तथा कुछ अन्य पुराणों में प्राय: बुद्ध की वेदमार्ग के विध्वन्सक के रूप में निन्दा ही की गयी है। यद्यपि पुरोहितों का एक धड़ा जो आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों का स्थापन अपने तप और साधना की परिणति के रूप में कर रहा था ; और जो आध्यात्मिक पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुए उपनिषदों के रूप में ईश्वरीय सत्ताओं का सैद्धान्तिक विवेचन कर रहे था। जिनके लिए वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद तथा 'कर्म'काण्ड मूलक याज्ञिक -विधियों से कोई अधिक प्रयोजन नहीं था ! इनके लिए सदाचरण व तप ही और मन की शुद्धता के प्रतिमान के रूप में ही प्रतिष्ठित थे। और दूसरी ओर इसके विपरीत कुछ पुरोहित ऐसे भी थे जिन्हें धर्म में यह परिवर्तन और किसी अन्यवर्ण का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं था उन्होंने वर्णव्यवस्था को जातिमूलक बना दिया था। जिन्होंने इस व्यवस्था के न मानने वाले जैैैन , बौद्ध और भागवत आदि धर्म के अनुयायीयों से अपने -अपने स्तर से मुकाबला करने के लिए द्वेषवाद को आत्मसात् कर अनेेक धर्म- ग्रन्थों का लेखन पूूूूर्व्व -दुुराग्रह से युुुक्त होकर भी किया, और परिणाम स्वरूप सत्य में असत्य की मिलाबट पूर्वदुराग्रह युक्त होकर एक सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुई और इस प्रकार प्राय: ग्रन्थों की रचना की गयी तथा कुछ धार्मिक ग्रन्थ उपन्यासात्मक रूप में भी लिखे गये। जिनकी रचना-काव्यशैली में अलंकारों की सजावटों से समन्वित होकर सत्य का आभास मात्र ही रह गया और परिणाम स्वरूप अर्थ- दुर्बोध्य और भ्रान्तिमूलक हो गये और अन्य कारण ये भी थे कि जो तथ्य पूर्व कल में सत्य थे; "उनमें पूर्वाग्रह एक निष्कर्ष के तौर पर समाविष्ट होकर विपरीतार्थक हो गया जिन्हें शास्त्रों में सिद्धान्त की संज्ञा दे दी गयी सत्य की धारा विपरीत गामी हुई वे तथ्य यथावत ही नहीं बने रहे अपितु उनमें कितनी जोड़-तोड़ हुई और कितनी आलंकारिता का प्राधान्य भी हुआ अब ये सब वक्त के खण्डरों में दफन हो गये है। जैसे कोई नवीन वस्त्र अपनी प्रारम्भिक क्रियाओं की अवस्थाओं में नवीन और अन्तिम क्रिया- अवस्था में जीर्ण और शीर्ण हो जाता ठीक इसी प्रकार का उपक्रम भारतीय पुराण ग्रन्थों में भी हुआ 'परन्तु मिलाबट के बावजूद भी बहुत सी बाते सत्य ही बनी रहीं ; जो केवल आध्यात्मिक मूल्यों पर प्रतिष्ठित थीं। छल-कपट का समावेश उनमें नहीं हुआ।और हमने उनको ही स्वीकार किया है ! क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपनी कुत्सित निशानियाँ छोड़ने के उपरान्त भी कुछ सार-तथ्य तो छोड़ती ही है। "मधुमक्खीयाँ पुष्पों से सहजता से ही मधु (रस) निकाल कर पराग और मधु (रस)से उत्शिष्ट(उच्छिष्ट) मधूच्छिष्ट (मोम) को पृथक कर देती हैं ठीक उसी प्रवृत्ति का आश्रय लेकर हमने भी पुराणों, वेदों और अन्य स्मृति ग्रन्थों से सत्यानकूल तथ्य नि:सृत किए हैं
"जैसे किसी वस्तु की अच्छाइयों और बुराईयों को प्रस्तुत करना समीक्षात्मक शैली है। और केवल किसी की बुराई या माहिमा बखान करना क्रमश: खण्डन-मण्डन प्रवृत्ति हैं । हमने उसके मध्यम-मार्ग को ग्रहण करते हुए समीक्षात्मक शैली को प्रस्तुत किया है। परन्तु "हमने कभी भी कोई भी निर्णय या निष्कर्ष स्थापित नहीं किया क्योंकि निर्णय की मौलिकताओं मेंं केवल पूर्वाग्रह का समायोजन होता है । अधिकतर हमारे लेख इसी प्रकार विना-पूर्वाग्रह के होते हैं क्योंकि पूर्वाग्रह ऐतिहासिक दृष्टि का मानक नहीं है। कारण यह भी है कि हम निर्णय पाठकों से आमन्त्रित करते हैं। इसी लिए कुछ पाठक- वृन्द प्राय: हमसे शिकायत करते हैं कि आपकी पोष्टों के कोई निष्कर्ष नहीं होते हैं।
और वे पाठक हमारी पोष्ट( सन्देश) पढ़कर कन्फ्यूज होते हैं और कोई -कोई तो बैचारा फ्यूज ही हो जाता है क्योंकि पोष्ट दीर्घ-काय और पूर्णत्व से युक्त होती हैं। और इतना परिश्रम कोई करना नहीं चाहता , वास्तव में हमारी पोष्ट सब के लिए नहीं होती क्योंकि जिसका जैसा बौद्धिक स्तर है वह वहीं तक उसको ग्राह्य है और वह वहीं तक पहँच भी पाता है।
____________________________________ "ज्ञात्याभीरम्महावीरम्"नामक शीर्षक से हम आज इस अभियान का आगाज कर रहे हैं । इस अभियान को हमने लगभग (पच्चीस अध्यायों ) चरणों में पूर्ण किया है; जो एक अपवाद ही है "भारतीय समाज की यह सदीयों पुरानी विडम्बना ही रही कि धर्म और संस्कृति के कुछ तथाकथित के 'ठेकेदार , कुछ रूढ़िवादी पुरोहितों ने धर्म के नाम भारतीय समाज पर कुछ प्रवञ्चनाऐं कालान्तरण में आरोपित कीं "जिसके दुष्परिणाम स्वरूप भारतीयसमाज टूटा और परिणामत: विभाजित मानवता परस्पर विरोधी संस्कृतियों और मानवीय द्वेषों के रूप में दृष्टि-गोचर हुई !यदुवंश के इतिहास के सन्दर्भ में हम इन्हीं तथ्यों का व्याख्यान कर रहे हैं; जिसकी समाज के बहुसंख्यक लोगों को जानकारी नहीं है । और पिष्टपेषण करना हम्हें अपेक्षित नहीं है।
-(प्राचीन -काल में विश्व सभ्यताओं में राजतन्त्र की लोक-परम्परा के अनुसार किसी राजा का बड़ा पुत्र ही उसके राज्य अथवा रियासत की-विरासत का वैध उत्तराधिकारी होता था।
अर्थात् कामी स्वय को ही दृष्टिगत करता है अथवा कहें कामी स्व-केन्द्रित ही होता है।
वासनाओं के वशीभूत होने के कारण कामान्ध होकर कुपित ययाति ने यदु को राज-पद के उत्तराधिकार से वञ्चित कर दिया और ययाति
अपने जिस-जिस पुत्र पर यौवन न देने के कारण क्रुद्ध हुए उसी-उसी पुत्र के ये विरुद्ध भी हुए।
परन्तु पत्नी देवयानी के साथ दासी रूप में आयी शर्मिष्ठा के कनिष्ठ (सबसे छोटे ) पुत्र 'पुरु' द्वारा ययाति को यौवन देने के कारण ही उसे ही राजपद का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया।
यद्यपि महाभारत के आदिपर्व के अन्तर्गत एक आख्यान का वर्णन है जिसमें उपरिचर के पुत्र एक यदु का वर्णन है जो ययाति पुत्र न होने से वर्तमान यादवों के पूर्वज नहीं हैं। यह घटना तो बहुत बाद की है।
आगे हम महाभारत के उस उपाख्यान को भी मूल संस्कृत-पाठ सहित उद्धृत करते हैं ।
महाभारत के आदिपर्व के "अंशावतरण नामक उपपर्व में उपरिचर वसु जो चेदि-देश के राजा थे उनके एक पुत्र का नाम यदु है।
उपरिचरकुरुवंश के एक प्रतापी राजा थे। इनका वास्तविक नाम 'वसु' था और 'उपरिचर' इनकी उपाधि थी। ये चंद्रवंशी सुधन्वा की शाखा में उत्पन्न कृती (मतांतर से कृतयज्ञ, कृतक) के ये पुत्र थे। इन्हें मृगया का व्यसन था, लेकिन बाद में यह व्यसन छूट गया और ये तपश्चर्या के प्रति विशेष अनुरक्त हो गए। इंद्र की आज्ञा से इन्होंने चेदि देश पर विजय प्राप्त की_
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत्।127।
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(निर्णय सागर प्रेस संस्करण में आदिपर्व चतुष्षष्टितमोऽध्याय: 64)परन्तु
(गीताप्रेस संस्करण में आदिपर्व त्रिषष्टितमोऽध्याय: ।63।)
एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।
न्यस्तोद्वीपेयद्बालस्तस्माद्द्वैपायनःस्मृतः।128।
पादापसारिणं धर्मं स तु विद्वान्युगे युगे।
आयुः शक्तिं च मर्त्यानां युगावस्थामवेक्ष्यच।129।
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाङ्क्षया।
विव्यासवेदान्यस्मत्सतस्माद्व्यासइति स्मृतः।130।
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान्।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम्।131।
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिताः।132।
"इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि"
अंशावतरणपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः।64।
"उपरिचर का चरित्र"
महाभारत आदि पर्व के ‘अंशावतरण पर्व’ के अन्तर्गत अध्याय 64 के अनुसार उपरिचर का चरित्र का वर्णन इस प्रकार है।
_________हिन्दी अनुवाद-★
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय पहले उपरिचर नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं, जो नित्य-निरन्तर धर्म में ही लगे रहते थे।
साथ ही सदा हिंसक पशुओं के शिकार के लिये वन में जाने का उनका नियम था।
पौरवनन्दन! राजा उपरिचर वसु ने इन्द्र के कहने से अत्यन्त रमणीय चेदिदेश का राज्य स्वीकार किया था। एक समय की बात है, राजा वसु अस्त्र-शस्त्रों का त्याग करके आश्रम में निवास करने लगे। उन्होंने बड़ा भारी तप किया जिससे वे तपोनिधि माने जाने लगे। उस समय इन्द्र आदि देवता यह सोचकर कि यह राजा तपस्या के द्वारा इन्द्र पद प्राप्त करना चाहता है, उनके समीप गये। देवताओं ने राजा को प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें शांतिपूर्वक समझाया और तपस्या से निवृत्त कर दिया। देवता बोले- पृथ्वीपते ! तुम्हें ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये जिससे इस भूमि पर वर्ण-संकरता न फैलने पावे (तुम्हारे न रहने से अराजकता फैलने का भय है जिससे प्रजा स्वधर्म में स्थिर नहीं रह सकेगी।
अत: तुम्हें तपस्या न करके इस वसुधा का संरक्षण करना चाहिये । राजन् ! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित धर्म ही सम्पूर्ण जगत को धारण कर रहा है।इन्द्र ने कहा - राजन तुम इस लोक में सदा सावधान और प्रयत्नशील रहकर धर्म का पालन करो। धर्मयुक्त रहने पर तुम सनातन पुण्य लोकों को प्राप्त कर सकोगे। यद्यपि मैं स्वर्ग में रहता हूँ और तुम भूमिपर; तथापि आज से तुम मेरे प्रिय सखा हो गये। नरेश्वर इस पृथ्वी पर जो सबसे सुन्दर एवं रमणीय देश हो, उसी में तुम निवास करो। इस समय चेदिदेश पशुओं के लिये हितकर, पुण्यजनक, पुण्य धन-धान्य से सम्पन्न, स्वर्ग के समान सुखद होने के कारण रक्षणीय, सौम्य तथा भोग्य पदार्थों और भूमि सम्बन्धी उत्तम गुणों से युक्त हैं। यह देश अनेक पदार्थों से युक्त और धन रत्न आदि सम्पन्न है। यहाँ की वसुधा वास्तव में वसु (धन-संपत्ति) से भूरी-पूरी है। अत: तुम चेदि देश के पालक होकर उसी में निवास करो। यहाँ के जनपद धर्मशील, संतोषी और साधु हैं।
यहाँ हास-परिहास में भी कोई झूठ नहीं बोलता, फिर अन्य अवसरों पर तो बोल ही कैसे सकता है ? पुत्र सदा गुरुजनों के हित में लगे रहते हैं, पिता अपने जीते-जी उनका बंटवारा नहीं करते।
यहाँ के लोग बैलों को भार ढ़ोने में नहीं लगाते और दीनों एवं अनाथों का पोषण करते हैं।
मानद ! चेदिदेश में सब वर्णों के लोग सदा अपने-अपने धर्म में स्थित रहते हैं। तीनों लोकों में जो कोई घटना होगी, वह सब यहाँ रहते हुए भी तुमसे छिपी न रहेगी- तुम सर्वज्ञ बने रहोगे। जो देवताओं के उपभोग में आने योग्य हैं, ऐसा स्फटिक मणि का बना हुआ एक दिव्य, आकाशचारी एवं विशाल विमान मैंने तुम्हें भेंट किया है।
वह आकाश में तुम्हारी सेवा के लिये सदा उपस्थित रहेगा। सम्पूर्ण मनुष्यों में एक तुम्हीं इस श्रेष्ट विमान पर बैठकर मूर्तिमान देवता की भाँति सबके ऊपर-ऊपर बिचरोगे। मैं तुम्हें यह वैजयन्ती माला देता हूं, जिसमें पिरोये हुए कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं। इसे धारण कर लेने पर यह माला संग्राम में तुम्हें अस्त्र-शस्त्रों के आघात से बचायेगी। नरेश्वर यह माला ही इन्द्रमाला के नाम से विख्यात होकर इस जगत् में तुम्हारी पहचान कराने के लिए परम-धन्य एवं अनुपम चिह्न होगी। ऐसा कहकर वृत्रासुर का नाश करने वाले इन्द्र ने राजा को प्रमोपहार स्वरुप बांस की एक छड़ी दी, जो शिष्ट पुरुषों की रक्षा करने वाली थी। तदनन्तर एक वर्ष बीतने पर भूपाल उपरिचरवसु ने इन्द्र की पूजा के लिये उस छड़ी को भूमि में गाड़ दिया। राजन् ! तब से लेकर आज तक श्रेष्ठ राजाओं द्वारा छड़ी धरती में गाड़ी जाती है। वसु ने जो प्रथा चलयी थी, वह अब तक चली आती है। दूसरे दिन अर्थात नवीन संवत्सर के प्रथम दिन प्रतिपदा को वह छड़ी निकालकर बहुत ऊंचे स्थान में रखी जाती है; फिर कपड़े की पेटी, चन्दन, माला और आभूषणों से उसको सजाया जाता है। उसमें विधि पूर्वक फूलों के हार और सूत लपेटे जाते हैं।
तत्पश्चात् उसी छड़ी पर देवेश्वर भगवान इन्द्र का हंस रुप से पूजन किया जाता है।
इन्द्र ने महात्मा वसु के प्रेम वश स्वंय हंस का रुप धारण करके वह पूजा ग्रहण की। नृपश्रेष्ठ ! वसु के द्वारा की हुइ उस शुभ पूजा को देखकर प्रभावशाली भगवान महेन्द्र प्रसन्न हो गये और इस प्रकार बोले-‘चेदिदेश के अधिपति उपरिचर वसु जिस प्रकार मेरी पूजा करेंगे और मेरे इस उत्सव को रचायेंगे, उनको और उनके समूचे राष्ट्र को लक्ष्मी एवं विजय की प्राप्ति होगी।
इतना ही नहीं, उनका सारा जनपद ही उत्तरोत्तर उन्नति शील और प्रसन्न होगा’ राजन ! इस प्रकार महात्मा महेन्द्र ने, जिन्हें मघवा भी कहते हैं, प्रेम पूर्वक महाराज वसु का भली- भाँति सत्कार किया।जो मनुष्य भूमि तथा रत्न आदि का दान करते हुए सदा देवराज इन्द्र का उत्सव रचायेंगे, वे इन्द्रोत्सव द्वारा इन्द्र का वरदान पाकर उसी उत्तम गति को प्राप्त करेंगे, जिसे भूमिदान आदि के पुण्यों से युक्त मानव प्राप्त करते हैं। इन्द्र के द्वारा उपर्युक्त रुप से सम्मानित चेदिराज वसु ने चेदि देश में ही रहकर इस पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया किया। इन्द्र की प्रसन्नता के लिये चेदिराज वसु प्रति वर्ष इन्द्रोत्सव मनाया करते थे। उनके अनन्त बलशाली महापराक्रमी पाँच पुत्र थे। सम्राट वसु ने विभिन्न राज्यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया।
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उनमें महारथी 'बृहद्रथ मगध देश का विख्यात राजा हुआ। दूसरे पुत्र का नाम 'प्रत्यग्रह था, तीसरा 'कुशाम्ब था, जिसे 'मणिवाहन भी कहते हैं। चौथा 'मावेल्ल था। पाँचवा राजकुमार 'यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था। राजा जनमेजय! महातेजस्वी राजर्षि वसु के इन पुत्रों ने अपने-अपने नाम से देश और नगर बसाये। पाँचो वसु पुत्र भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे और उन्होंने पृथक- पृथक अपनी सनातन वंश परम्परा चलायी चेदिराज वसु के इन्द्र के दिये हुए स्फटिक मणिमय विमान में रहते हुए आकाश में ही निवास करते थे। उस समय उन महात्मा नरेश की सेवा में गन्धर्व और अप्सराएं उपस्थित होती थीं। सदा ऊपर-ही-ऊपर चलने के कारण उनका नाम ‘राजा उपरिचर’ के रुप में विख्यात हो गया। उनकी राजधानी के समीप शुक्तिमती नदी बहती थी। एक समय कोलाहल नामक सचेतन पर्वत ने कामवश दिव्यरुप धारिणी नदी को रोक लिया। उसके रोकने से नदी की धारा रुक गयी।यह देख उपरिचर वसु ने कोलाहल पर्वत पर अपने पैर से प्रहार किया यह करते ही पर्वत में दरार पड़ गयी, जिससे निकल कर वह नदी पहले के समान बहने लगी। पर्वत ने नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या, जुड़वी संतान उत्पन्न की थी। उसके अवरोध से मुक्त करने के कारण प्रसन्न हुई नदी ने राजा उपीरचर को अपनी दोनों संतानें समर्पित कर दीं। उनमें जो पुरुष था, उसे शत्रुओं का दमन करने वाले धनदाता राजर्षिप्रवर वसु ने अपना सेनापति बना लिया। और जो कन्या थी उसे राजा ने अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम था "गिरिका" था ! बुद्धिमानों में श्रेष्ठ जनमेजय ! एक दिन ॠतुकाल को प्राप्त हो स्नान के पश्चात् शुद्ध हुई वसु पत्नी गिरिका ने पुत्र उत्पन्न होने योग्य समय में राजा से समागम की इच्छा प्रकट की उसी दिन पितरों ने राजाओं में श्रेष्ठ वसु पर प्रसन्न हो उन्हें आज्ञा दी तुम हिंसक पशुओं का वध करो। तब राजा पितरों की आज्ञा का उल्लघंन न करके कामनावश साक्षात् दूसरी लक्ष्मी के समान अत्यन्त रुप और सौन्दर्य के वैभव से सम्पन्न गिरिका का ही चिन्तन करते हुए हिंसक पशुओं को मारने के लिये वन में गये। राजा का वह वन देवताओं के चैत्ररथ नामक वन के समान शोभा पा रही थी।वसन्त का समय था, अशोक, चम्पा, आम अतिमुक्तक अर्थात् माधवी कीलता), पुन्नाग (नागकेसर), कनेर, मौलसिरी, दिव्यपाटल, पाटल, नारियल, चन्दन तथा अर्जुन –ये स्वादिष्ट फलों से युक्त, रमणीय तथा पवित्र महावृक्ष उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। कोकिलाओं के कल-कूजन से समस्त वन गूंज उठा था। चारों ओर मतवाले भौंरे कल-कल नाद कर रहे थे। यह उद्दीपन-सामग्री पाकर राजा का हृदय काम वेदना से पीड़ित हो उठा। उस समय उन्हें अपनी रानी गिरीका का दर्शन नहीं हुआ। उसे न देखकर कामाग्नि से संतप्त हो वे इच्छानुसार इधर-उधर घूमने लगे। घूमते-घूमते उन्होंने एक रमणीय अशोक का वृक्ष देखा, जो पल्लवों से सुशोभित और पुष्प के गुच्छों से आच्छादित था। उसकी शाखाओं के अग्रभाग फूलों से ढके हुए थे। राजा उसी वृक्ष के नीचे उसकी छाया में सुखपूर्वक बैठ गये। वह वृक्ष मकरन्द और सुगन्ध से भरा था। फूलों की गंध से वह बरबस मन को मोह लेता था। उस समय कामोद्दीपक वायु से प्रेरित हो राजा के मन में रति के लिये स्त्रीविषयक प्रीति उत्पन्न हुईं " इस प्रकार वन में विचरने वाले राजा उपरिचर का वीर्य स्खलित हो गया। उसके स्खलित होते ही राजा ने यह सोचकर कि मेरा वीर्य व्यर्थ न जाय, उसे वृक्ष के पत्ते पर उठा लिया। उन्होंने विचार किया ‘मेरा यह स्खलित वीर्य व्यर्थ न हो साथ ही मेरी पत्नी गिरिका का ॠतुकाल भी व्यर्थ न जाये’ इस प्रकार बारम्बार विचार कर राजाओं में श्रेष्ठ वसु ने उस वीर्य को अमोघ बनाने का ही निश्चय किया।तदनन्तर रानी के पास अपना वीर्य भेजने का उपयुक्त अवसर देख उन्होंने उस वीर्य को पुत्रोत्पत्तिकारक मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित किया। राजा वसु धर्म और अर्थ के सूक्ष्म तत्व को जानने वाले थे। उन्होंने अपने विमान के समीप ही बैठे हुए शीघ्रगामी श्वेन पक्षी (बाज) के पास जाकर कहा-‘सौम्य ! तुम मेरा प्रिय करने के लिये यह वीर्य मेरे घर ले जाओ और महारानी गिरका को शीघ्र दे दो; क्योंकि आज ही उनका ॠतु काल है। ‘बाज वह वीर्य लेकर बड़े वेग के साथ तुरन्त वहाँ से उड़ गया। वह आकाशचारी पक्षी सर्वोत्तम वेग का आश्रय लेकर उड़ा जा रहा था, इतने में एक दूसरे बाज ने उसे आते देखा।उस बाज को देखते ही उसके पास मांस होने की आशंका से दूसरा बाज तत्काल उस पर टूट पड़ा। फिर वे दोनों पक्षी आकाश में एक दूसरे को चोंच मारते हुए युद्ध करने लगे। उन दोनों के युद्ध करते समय वह वीर्य यमुना के जल में गिर पड़ा। वहाँ "अद्रिका" नाम से विख्यात एक सुन्दरी अप्सरा ब्रह्मा के शाप से मछली होकर वहीं यमुना के जल में रहती थी। बाज के पंजे से छूटकर गिरे हुए वसु सम्बन्धी उस वीर्य को मत्स्यरुपधारिणी अद्रिका ने वेग पूर्वक आकर निगल लिया। भरतश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् दसवां मास( महीना) आने पर मत्स्यजीवी मल्लाहों ने उस मछली को जाल में बांध लिया और उसके उदर को चीर कर एक कन्या और एक पुरुष निकाला। यह आश्चर्यजन घटना देखकर मछेरों ने राजा के पास जाकर निवेदन किया- ‘महाराज मछली के पेट से ये दो मानवीय सन्तानें उत्पन्न हुई हैं। मछेरों की बात सुनकर राजा उपरिचर ने उस समय उन दोनों बालकों में से जो पुरुष था, उसे स्वयं ग्रहण कर लिया। वही मत्स्य नामक धर्मात्मा एवं सत्यपतिज्ञ राजा ( सायद-मीणा जाति का पूर्वपुरुष)हुआ इधर वह शुभलक्षणा अप्सरा अद्रिका क्षण भर में शापमुक्त हो गयी। भगवान ब्रह्माजी ने पहले ही उससे कह दिया था कि तिर्यग् योनि में पड़ी हुई तुम दो मानव-संतानों को जन्म देकर शाप से छूट जाओगी। अत:मछली मारने वाले मल्लाह ने जब उसे काटा तो वह मानव-बालकों को जन्म देकर मछली का रुप छोड़ दिव्य रुप को प्राप्त हो गयी। इस प्रकार वह सुन्दरी अप्सरा सिद्ध महर्षि और चारणों के पथ से स्वर्गलोक चली गयी। उन जुड़वाँ संतानों में जो कन्या थी, मछली की पुत्री होने से उसके शरीर से मछली की गन्ध आती थी। अत: राजा ने उसे मल्लाह को सौंप दिया और कहा- ‘यह तेरी पुत्री होकर रहे।’ वह रुप और सत्व (सत्य) से संयुक्त तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न होने के कारण ‘सत्यवती’ नाम से प्रसिद्ध हुई। मछेरों के आश्रय में रहने के कारण वह पवित्र मुस्कान वाली कन्या कुछ काल तक मत्स्यगन्धा नाम से ही विख्यात रही। वह पिता की सेवा के लिये यमुना के जल में नाव चलाया करती थी। एक दिन तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से सब ओर विचरने वाले महर्षि पराशर ने उसे देखा। वह अतिशय रुप सौन्दर्य से सुशोभित थी। सिद्धों के हृदय में भी उसे पाने की अभिलाषा जाग उठती थी। उसकी हंसी बड़ी मोहक थी, उसकी जांघें कदली की सी शोभा धारण करती थीं। उस दिव्य वसुकुमारी को देखकर परम बुद्धिमान मुनिवर पराशर ने उसके साथ समागम की इच्छा प्रकट की। और कहा- कल्याणी ! मेरे साथ संगम करो। वह बोली- भगवन! देखिये नदी के आर-पार दोनों तटों पर बहुत से ऋषि खड़े हैं। ‘और हम दोनों को देख रहे हैं। ऐसी दशा में हमारा समागम कैसे हो सकता है ?’
उसके ऐसा कहने पर शक्तिशाली पराशर ने कुहरे की सृष्टि की। जिससे वहाँ का सारा प्रदेश अंधकार से आच्छादित-सा हो गया। महर्षि द्वारा कुहरे की सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्या आश्चर्यचकित एवं लज्जित हो गयी सत्यवती ने कहा- भगवन् ! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिता के अधीन रहने वाली कुमारी कन्या हूं । निष्पाप महर्षे ! आपके संयोग से मेरा कन्याभाग (कुमारीपन) दूषित हो जायेगा। द्विजश्रेष्ठ ! कन्याभाग दूषित हो जाने पर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूं। बुद्विमान मुनीश्वर ! अपने कन्यापन के कलंकित हो जाने पर मैं जीवित रहना नहीं चाहती। भगवन् ! इस बात पर भलिभांति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये । सत्यवती के ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले- ‘भीरु ! मेरा प्रिय कार्य करके भी तुम कन्या ही रहोगी। भामिनी ! तुम जो चाहो, वह मुझसे वर मांग लो। शुचिस्मिते ! आज से पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्यर्थ नहीं गया है’ । महर्षि के ऐसा कहने पर सत्यवती ने अपने शरीर में उत्तम सुगन्ध होने का वरदान मांगा। भगवान् पराशर ने उसे इस भूतल पर वह मनोवाञ्छित वर दे दिया ।
निष्कर्ष-यद्यपि इन कथाओं में कल्पनाओं का पुट है शास्त्रीय मर्यादाओं से रहित ये कथाऐं समाज को दूषित करती हैं।
महाभारत: आदिपर्व: का (अंशावतरण नामक उपपर्व) त्रिषष्टितम 63 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद-★तदनन्तर वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्यवती नारीपन के समागमोचित गुण (सद्य: ॠतुस्नान आदि) से विभूषित हो गयी और उसने अद्भुतकर्मा महर्षि पराशर के साथ समागम( मैथुन) किया। उसके शरीर से उत्तम गन्ध फैलने के कारण पृथ्वी पर उसका"गन्धवती" नाम विख्यात हो गया। इस पृथ्वी पर एक योजन दूर के मनुष्य भी उसी दिव्य सुगन्ध का अनुभव करते थे इस कारण उसका दूसरा नाम "योजनगन्धा" हो गया। इस प्रकार परम उत्तम वर पाकर हर्षोल्लास के भरी हुई सत्यवती ने महर्षि पराशर का संयोग प्राप्त किया और तत्काल ही एक शिशु को जन्म दिया। यमुना के द्वीप में अत्यन्त शक्तिशाली पराशरनन्दन व्यास प्रकट हुए। उन्होंने माता से यह कहा-आवश्यकता पड़ने पर तुम मेरा स्मरण करना। मैं अवश्य दर्शन दूंगा।’ इतना कहकर माता की आज्ञा ले व्यासजी ने तपस्या में ही मन लगाया। इस प्रकार महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से द्वैपायन व्यासजी का जन्म हुआ। वे बाल्यावस्था में ही यमुना के द्वीप में छोड़ दिये गये, इसलिये द्वैपायन’ नाम से प्रसिद्व हुए। तदनन्तर सत्यवती प्रसन्नता पूर्वक अपने घर पर गयी। उस दिन से भूमण्डल के मनुष्य एक योजन दूर से ही उसकी दिव्य गन्ध का अनुभव करने लगे। उसका पिता दाशराज भी उसकी गन्ध सूंघकर बहुत प्रसन्न हुआ । दाशराज ने पूछा. बेटी ! तेरे शरीर से मछली की-सी दुर्गन्ध आने के कारण लोग तुझे ‘मत्स्यगन्धा’ कहा करते थे, फिर तुझमें यह सुगन्ध कहां से आ गयी? किसने यह मछली की दुर्गन्ध दूर कर तेरे शरीर को सुगन्ध प्रदान की है? सत्यवती बोली- पिताजी ! महर्षि शक्ति के पुत्र महाज्ञानी पराशर हैं, (वे यमुनाजी के तट पर आये थे; उस समय) मैं नाव खे रही थी। उन्होंने मेरी दुर्गन्धता की ओर लक्ष्य करके मुझ पर कृपा की और मेरे शरीर से मछली की गन्ध दूर करके ऐसी सुगन्ध दे दी, जो एक योजन दूर तक अपना प्रभाव रखती है। महर्षि का यह कृपा प्रसाद देखकर सब लोक बड़े प्रसन्न हुए। विद्वान द्वैपायनजी ने देखा कि प्रत्येक युग में धर्म का एक-एक पाद लुप्त होता जा रहा हैं। मनुष्यों की आयु और शक्ति क्षीण हो चली है और युग की ऐसी दुरवस्था हो गयी है। यह सब सुनकर उन्होंने वेद और ब्राम्हणों पर अनुग्रह करने की इच्छा से वेदों का व्यास (विस्तार) किया। इसलिये वे व्यास नाम से विख्यात हुए। सर्वश्रेष्ठ वरदायक भगवान व्यास ने चारों वेदों तथा पांचवे वेद महाभारत का अध्ययन सुमन्तु, जैमिनी, पैल, अपने पुत्र शुकदेव तथा मुझ वैशम्पायन को कराया। फिर उन सबने पृथक-पृथक महाभारत की संहिताऐं प्रकाशित की। "महाभारत की उपर्युक्त कथा यद्यपि कल्पाओं से रञ्जित है। जिनमें कोई शास्त्रीय मर्यादा का आदर्श रूप स्थापित नहीं हुआ है। और यह कथाऐं स्वाभाविक न होकर बनावटी भाव तारतम्य पर अवलम्बित हैं। यहाँ व्यभिचार को भी धर्मसंगत बनाने का उपक्रम तत्कालीन पुरोहित वर्ग द्वारा किया गया है विदित हो की "कामवासना ही सभी पापों की जननी है।
उपरिचर वसु के एक पुत्र को यदु बताना और एक पुत्र वृहद्रथ के पुत्र जरासन्ध के कुल में दमघोष को बताना अनेक विरोधाभासों की अभिव्यक्ति है। क्यों कि भारतकोश के अन्तर्गत दमघोष( सुनीथ) चेदिनरेश हैहयवंश के यादव और कृष्ण के फूफा थे।
यादवों के पूर्वपुरुष यदु का चरित्र यद्यपि बहुत पवित्र था इसी लिए पुराणशास्त्रों और वेदों में यदु और तुर्वसु का वर्णन बहुतायत से हुआ है।
पुराणों में एक यदु को हीतीन रूपों में परवर्ती कथा कारों ने वर्णन किया ययातिपुत्र- यदु - हर्यश्वपुत्र- यदु और उपरिचर -पुत्र यदु
यद्यपि वेदों में ययाति पुत्र यदु की प्रशंसा की एक ही ऋचा है। अन्यथा यदु और तुर्वसु को जीतने के लिए पुरोहित इन्द्र से प्रार्थना करते हैं।
यज्=देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु१-(यज्ञ करना २-संगतिकरना(न्याय करना) ३-दान करना। यज धातु के ये प्रधान अर्थ माधवीयधातुवत्ति धातुप्रदीप और क्षीरतरंगिणी में वर्णित है। यदु दानशील प्रवृति और सदैव न्यायसंगतबात करते थे । यद्यपि ये इन्द्र के आराधक नहीं थे परन्तु वरुण का यजन करते थे ।
सुदासे- सुदासके लिए। दस्रा-दौनों अश्विनी कुमारों ने ।वसु -धन विभ्रता-भरने वाले।पृक्षे- संग्रामे । रयिम्-धन। समुद्रात्- समुद्र से । उत् और । दिव:- स्वर्गात् । अस्मे-इसके लिए । बहुभि: स्पृहणीयं- बहुत सा इच्छित रयिम् -धन ।धत्तम्- धारण किया। इति -इस प्रकार।
हे नासत्या( अश्वनीद्वय) यत् ( जो) परावति (पारदेशे- समुद्र पार के देश में) आस्थ:( वर्तेथे) रहते हैं । यदुतर्वुशे ( यदु और तुर्वशु दोनों को) अधि-अधीन करो । अत: अस्मात्- इसलिए ।सूर्य रश्मिभि:साकं -सूर्य की किरणों के साथ तुमने रथ में आकर हमको सुवृत कर दिया ।।
हे ! उग्रकर्मा अश्वनि-द्वय तुमने रथ में धन धारण कर सुदास के लिए वहाँ वहन किया। उसी प्रकार यदु और तुर्वशु से उन्हें अधीन कर हम्हें उनका धन दो !
परन्तु यदु और तुर्वशु का अर्थ रूढ़िवादी पुरोहितों ने अन्तरिक्ष या आकाश किया है ।
वस्तुत यहाँं पुरोहित प्रार्थना करता है ;
वस्तुत यहाँं पुरोहित प्रार्थना करता है ; कि यदु और तुर्वशु जो दूर सुरक्षित रहते हैं उन्हें हमारे अधीन कर उनसे बहुत सा इच्छित धन हम्हें प्राप्त कराओ।
ऋग्वेद के मण्डल एक अध्याय नौ सूक्त सैंतालीस ऋग्वेद-(1/47/7)
तुर्वशु और यदु को पार करने के लिए अग्नि के द्वारा हम उग्रदेव को आह्वान करते हैं ।
अग्नि ले जाते हुए रक्षा करे तुमको रक्षा करे ब्रहद्रथ और तुर्वीति को दस्युओं के लिए दमन करे वह उग्रदेव ।ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 36 ऋचा 18/ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है । अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक--इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है। वह भी "दास अथवा "असुर रूप में दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है। परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं । अत: दास शब्द दाता और त्राता का वाचक भी है। ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। वह भी गोपों को रूप में प्रशंसा करते हुए दास की प्रशंसा होना असुर अर्थ में असंगत है जब असुर देवों के प्रतिद्वन्द्वी हों! अत: दास का अर्थ इस ऋचा में ही दानी है।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत:है।
गो-पालक ही गोप होते हैं ।
लक्ष्मी-नारायणी संहिता में यदु और यदु के वंशजों को पशुपालक होने का ययाति द्वारा शाप का वर्णन है। और पशु पालक का अर्थ गोप ही है।
एवं शप्त्वा तुरुं चापि निष्कास्य राज्यमण्डलात् ।
यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।।७२।।
यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप ।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।।७३।।
कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम् ।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।।७४।।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम ।
इत्युक्त्वा च कुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः ।।७६।।
"अनुवाद:-★इस प्रकार शाप देकर उसने तुरु को राज्य से निकाल दिया !
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उन्होंने यदु से कहा कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का आनंद लो।
यदु ने उत्तर दिया: हे राजा, मैं तुम्हें अपनी जवानी नहीं दे सकता।
वृद्धावस्था के पांच कारण *चिंता और वृद्ध महिलाएं हैं।*
खराब खानाखान (कदन्न )और रोजाना शराब पीने से पेट में (शीतजाठर की पीडा) होती है।(कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्
मुझे वह बुढ़ापा पसंद है और यह मेरे लिए इसका आनंद लेने का समय नहीं है।
यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपना राज्य और अपने वंश को खो दिया ।
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वह वैभव से रहित है और एक क्षत्रिय के कर्तव्यों से रहित है और एक चरवाहा ( अहीर)पशुपालक) है।
*निस्संदेह तुम राजा बनोगे,* मेरे राज्य से बाहर निकलो।
यह कहकर राजा ने शर्मिष्ठा के पुत्र कुरु से कहा।
(माघवन) हे धनवान इन्द्र ! (अभिष्टौ) सभी प्रकार की वांछनीययों में (नरः ) नेता ( ते इत्) केवल आपके (प्रियासः) प्रिय (सखायः) मित्रगण (शरणे) शरण में / घर में (मदेम) प्रसन्न हुए (शंस्यं) प्रशंसनीय कार्य ( कर्मिष्यन्) करते हुए तूर्वशं (तुर्वशु को) (याद्वम्) यादवों को (अतिथिग्वाय) दिवोदासाय (नि) निश्चयपूर्वक (नि ) नित्य (शिशिहि) कमजोर करें ।8।.
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले दिवोदास को सुखी करो । और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो। और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है।८।−(प्रियासः) प्रीताः (इत्) एव (ते) तव (मघवन्) महाधनिन् इन्द्र: (अभिष्टौ) पररूपम्। अभित इष्टसिद्धौ (नरः) नेतारः (मदेम) आनन्देम (शरणे) शरणागतपालने कर्मणि गृहे वा (सखायः) सुहृदः सन्तः (नि) निश्चयेन (तुर्वशम्) (नि) नित्यम् (याद्वम्) यदुम् (शिशीहि) अ०।२।७। शो तनूकरणे-श्यनः श्लुः, लोट्लकार बहुलं छन्दसि। पाणिनी सूत्र ७।४।७८। अभ्यासस्य इत्वम्। ई हल्यघोः। पा०६।४।११३। आत ईत्वम्। तीक्ष्णीकुरु (अतिथिग्वाय) दिवोदासाय (शंस्यम्) प्रशंसनीयं कर्म (करिष्यन्) कुर्वन् ॥
अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इन्दो॒ मदे॒ष्वा । अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥1॥ भाष्य-(इन्दो) सोम ! (यः) जो (ते) तुम्हारे (मदेषु) मदों में (आ) विघ्न करे, उसको (अया वीती परिस्रव) अपनी क्रियाओं से बहाओ और (अवाहन् नवतीः नव) निन्यानवे प्रकार के दुर्गों का भी ध्वंसन करो ॥१॥
पुर॑: स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शम्ब॑रम् । अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदु॑म् ॥2॥ भाष्य-(इत्थाधिये दिवोदासाय) सत्य बुद्धिवाले (शम्बरम्) शत्रु हैं (त्यम् तुर्वशम् यदुम्) इन तुर्वशु यदु को (अध) नीचे गिराओ (पुरः) पुर को
(ऋग्वेद 9-61-2 की ऋचा 2) तथा सामवेद » - उत्तरार्चिकः » में ऋचा संख्या - 1211 | (कौथोम) 5 » 1 » 6 » 2 | (रानायाणीय) 9 » 5 » 1 » 2
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हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ।1। शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन (वश) में किया।2।
ये उपर्युक्त ऋचाऐं काफी हैं यह बताने के लिए कि वैदिक काल में यदु और तुर्वशु की गिनती इन्द्रोपासक पुरोहित असुरों के साथ करते थे।
परन्तु लौकिक पुराण साहित्य में यदु के वंश को बहुत ही पवित्र और पापों का नाश करने वाला बताया है।(श्रीमद्भागवत पुराण सकन्ध 9 अध्याय 23)
अनुवाद-यदु का वंश परम पवित्र (पुण्यमयी) और मनुष्यों के समस्त पापों को हरण करने वाला है। जो मनुष्य इस यदुवंश का श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा।१९। इस वंश में स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु ऐसा सुना जाता है।२०। पुराणों में यदुवंश और कृष्ण की महिमा बहुतायत से है। जबकि इन्द्र को एक कामुकऔर चरित्रहीन देवता के रूप में वर्णित किया गया है।
इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थीं। तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए।उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नी समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।
भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे। भूपाल! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे। गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय ! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा। उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे।राजन ! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ ! ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे।
ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे।महाभारत:अनुशासन
पर्व:सप्तचत्वारिंशअध्याय: इस सिद्धान्त के विपरीत है-देखें श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद★-ब्राह्मण आदि वर्णों की (दायभाग)-वह पैतृक या संबंधी का धन जिसका उत्तराधिकारियों में विभाग हो सके अथवा वारिसों में बाँटा जानेवाला धन) उसकी विधि का वर्णन
भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मास्य जायते| आनुपूर्व्याद्द्वयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयतः (महाभारत-|13/48/4)युधिष्ठिर ने पूछा- संपूर्ण शास्त्रों के विधान के ज्ञाता तथा राजधर्म के विद्वानों में श्रेष्ठ पितामह। आप इस भूमण्डल में सम्पूर्ण संशयों का सर्वथा निवारण करने के लिये प्रसिद्ध हैं।मेरे हृदय में एक संशय और है, उसका मेरे लिये समाधान कीजिये। राजन ! इस उत्पन्न हुए संशय के विषय में मैं दूसरे किसी से नहीं पूछूँगा।महाबाहो! धर्म मार्ग का अनुसरण करने वाले मनुष्य का इस विषय में जैसा कर्तव्य हो, इस सब की आप स्पष्ट रूप से व्याख्या करें। पितामह ! ब्राह्मण के लिये चार स्त्रियाँ शास्त्र-विहित हैं- ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा। इनमें से शूद्रा केवल रति की इच्छा वाले कामी पुरुष के लिये विहित है। कुरुश्रेष्ठ! किस पुत्र को पिता के धन में से कौन-सा भाग मिलना चाहिये ? उनके लिये जो भाग नियत किया गया है, उसका वर्णन मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ। भीष्म जी ने कहा युधिष्ठिर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीनों वर्ण द्विजाति( द्विज) कहलाते हैं, अत: इन तीन वर्णों में ही ब्राह्मण का विवाह धर्मत: विहित है। परन्तप नरेश ! अन्याय से, लोभ से अथवा कामना से शूद्र जाति की कन्या भी ब्राह्मण की भार्या हेाती है, परंतु शास्त्रों में इसका कहीं विधान नहीं मिलता है। शूद्र जाति की स्त्री को अपनी शय्या पर सुलाकर ब्राह्मण अधोगति को प्राप्त होता है।
साथ ही शास्त्रीय विधि के अनुसार वह प्रायश्चित का भागी होता है। युधिष्ठिर! शूद्रा के गर्भ से संतान उत्पन्न करने पर ब्राह्मण को दूना पाप लगता है और उसे दूने प्रायश्चित का भागी होना पड़ता है। भरतनन्दन ! अब मैं ब्राह्मण आदि वर्णों की कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न होने वाले पुत्रों को पैतृक धन का जो भाग प्राप्त होता है, उसका वर्णन करूँगा। ब्राह्मण की ब्राह्मणी पत्नी से जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह उत्तम लक्षणों से सम्पन्न गृह आदि, बैल, सवारी तथा अन्य जो-जो श्रेष्ठतम पदार्थ हों, उन सबको ग्रहण करता है।
इसी सन्दर्भ में महाभारत अनुशासन पर्व में अध्याय 48 का अध्ययन करें !
भीष्म का संवाद:-भीष्म ने कहा- बेटा ! पूर्वकाल में प्रजापति ने यज्ञ के लिये केवल चार वर्णों और उनके पृथक-पृथक कर्मों की ही रचना की थी। ब्राह्मण की जो चार भार्याएँ बतायी गयी हैं, उनमें से दो स्त्रियाँ-ब्राह्मणी और क्षत्रिया के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होता है।और शेष दो वैश्या और शूद्र स्त्रियों के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होते हैं, वे ब्राह्मण से हीन क्रमश: माता की जाति के समझे जाते हैं। परन्तु परशुराम द्वारा जो 21बार हनन की कथाऐं रचीं गयी वे इस सिद्धान्त के विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही हैं। "आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः। वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रपः॥१४। गर्गसंहिता -(विश्वजित्खण्डः)/अध्यायः७ इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्व- जित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गुर्जरराष्ट्रा चेदिदेशगमनं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७। नारद और बहुलाक्ष ( मिथिला) के राजा में संवाद चलता है तब नारद बहुलाक्ष से शिशुपाल और उद्धव के संवाद का वर्णन करते हैं ।अर्थात् यहाँ संवाद में ही संवाद है।तथा द्वारिका खण्ड में यदुवंश के गोपों को आभीर कहा है। गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालों में और गुरु माता द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में "कृष्ण" आपको बारम्बार नमस्कार है ! ऐसा वर्णन है। "यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे।गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः।१६।।
अर्थ:- दमघोष पुत्र शिशुपाल उद्धव जी से कहता हैं कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है।और जब वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी तब भी आभीर जाति उपस्थित थी।
"वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू तथा कहीं यादवी भी कहा है। ★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप "आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है । प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया-परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा ! तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया !यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्द में कहा कि तू गोप,आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घकालीन वियोग हो जाय विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्रनाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम मैं गायत्री को यादवी, माधवी और गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक सन्दर्भ है।"यादव" गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है । "वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च । कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च।।10/23 (मनुस्मृति अध्याय १०।
अर्थ- वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और "सात्वत" कहते हैं। अर्थात् वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न व्रात्य पुत्र को सुधनवाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।जबकि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में सात्वत यदु के पुत्र माधव के "सत्त्व" नामक पुत्र की सन्तानें थी। "स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे । त्रिविष्टपंगतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।36।बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतोराजाराजगुणेस्थित:।37।सत्त्वतस्य सुतो राजाभीमो नाम महानभूत् येन भैमा: सुसंवृत्ता:सत्त्वतात् सात्त्वता:स्मृता:।38।राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति। शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।39।।तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्। निवेशयामास विभु:सुमित्रानन्दवर्धन:।40। जब वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये। माधव का पराक्रमी पुत्र "सत्त्व नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्व सत आदि राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे।सत्त्व के पुत्र महान राजा "भीम" हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।"सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गयाहै। जब राजा भीम आनर्त देश के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे। अत: अहीर लोग त्रेतायुग में भी थे । और सतयुग में जब अन्य जातियाँ नहीं थीं तब गायत्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी हुई है और ब्रह्मा की पत्नी रूप में वेद शक्ति है। तो फिर आभीरजाति ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में कैसे उत्पन्न हो गयी ?वास्तव में अहीरों को मनुस्मृति कार ने वर्णसंकर इसी लिए वर्णित किया ताकि इन्हें हेय सिद्ध करके इन पर शासन किया जा सके। कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु कहलाते थे। इतिहास-वेत्ता श्री श्रीराम साठे ने लिखा है कि हैहयवंशी राजा दुर्दम से लेकर सहस्त्रार्जुन हैहय लोग काठियावाड से काशी तक के प्रदेश में उदण्ड बनकर रहते थे। राजा दुर्दम के समय से ही उनका अपने भार्गव पुरोहितों से किसी कारण झगड़ा हुआ। इन पुरोहितों में से एक की पत्नी ने विन्ध्य वन में और्व को जन्म दिया। और्व का वंश इस प्रकार. चला - और्व --> ऋचिक --> जमदग्नि --> परशुराम। कार्तवीर्य अर्जुन ने इन्ही जमदग्नि की हत्या कर दी थी। तब जामदग्न्य परशुराम के नेतृत्व में वशिष्ठ और भार्गव पुरोहितों ने इक्कीस बार हैहयों को पराजित किया।अंततः सहस्त्रार्जुन की मृत्यु हुई। प्राचीन भारतीय इतिहास का यह प्रथम महायुद्ध था। श्री साठे ने ही लिखा है कि परशुराम का समय महाभारत युद्ध पूर्व 17 वीं पीढ़ी का है। धरती को क्षत्रियविहीन करने के संकल्प के साथ परशुराम के लगातार 21 आक्रमणों से भयत्रस्त होकर अनेक क्षत्रिय पुरुष व स्त्रियाँ यत्र-तत्र छिप कर रहने लगी थी। यद्यपि साठे का यह मत भी अर्ध-सत्य है। "जातं-जातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान कांश्चित तदा क्षत्रिययोषितः।63।"
परशुराम, एक-एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकी थी। -पृथिव्युवाच-सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपुङ्गवाः।हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।८१।(बम्बई संस्करण)
"सन्ति ब्रह्मन मया स्त्रीषु क्षत्रियपुंगवा।। हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।७४। (गीताप्रेस संस्करण) पृथ्वी बोली - ब्रह्मन! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियपुंगव छिपा रखे हैं। मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए हैं जो मेरी रक्षा कर सकते हैं।
प्रभो ! उनके अलावा पुरुवंशी विदुरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान पर्वत पर रीक्षों ने पालकर बड़ा किया है
"तथानुकम्पमानेन यज्वनाथमितौजसा ।76। पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः। सर्वकर्माणिकुरुते शूद्रवत तस्य सद्विजः।77। सर्वकर्मेत्यभिख्यातःस मां रक्षतु पार्थिवः।77। 1/2। -इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रवत सब कर्म करता है, इसलिए 'सर्वकर्मा' नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करें।"वृह्द्रथों महातेजा भूरिभूतिपरिष्कृतः। गोलांगूलैर्महाभागो गृध्रकूटे अभिरक्षितः।८१।- महातेजस्वी वृहद्रथ महान ऐश्वर्य से संपन्न हैं। उन्हें गृध्रकूट पर्वत पर गोलांगूलों ने बचाया था। मरुत्तस्यान्ववाये च रक्षिता:क्षत्रियात्मजा:। मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिता:।८२। -राजा मरुत के वंश के भी कई बालक सुरक्षित हैं, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है।उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है।
एते क्षत्रियदायादास्तत्र तत्र परिश्रुता:।द्योकारहेमकारादिजातिंनित्यंसमाश्रिता:।83 1/2 -ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात हैं। वे शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते हैं।महाभारत के उसी प्रसंग में यह भी लिखा है की जब पृथ्वी ने कश्यपजी से राजाओं को बुलानो को कहा, तब-"ततःपृथिव्या निर्दिष्टास्तान समानीय कश्यप:।अभ्यषीन्चन्मही पालां क्षत्रियां वीर्यसम्मतान। -अर्थात् तब पृथ्वी को बताये हुए पराक्रमी राजाओं को बुलाकर कश्यपजी ने उन महाबली राजाओं को फिर से राज्यों में अभिषिक्त किया।"कर्म आधारित भारतीय संस्कृति की रचना होने के कारण सहज ही, क्रियालोप होने के आधार पर क्षत्रियों के पतन का उल्लेख मनुस्मृति में भी किया गया है परन्तु मनुस्मृति की प्राचीनता सन्दिग्ध है-
शनकैस्तुक्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातिय:। वृषलत्वं गता जाके ब्रह्मणादर्शनेन च ।मनुस्मृति10/43.
अर्थात्, "पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दारद और खश - ये क्षत्रिय जातियाँ (उपनयनादि) क्रियालोप होने से एवं ब्राह्मण का दर्शन न होने के कारण (अध्ययन आदि के अभाव में) इस लोक में शूद्रत्व को प्राप्त होती हैं। - इससे क्षत्रियों के अधोपतन की बात सिद्ध होती है। यद्यपि असंख्य जनजातियों द्वारा स्वयं को क्षत्रिय घोषित किये जाने के प्रमाण मिलते हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा ।परन्तु, अत्यंत कालातीत होने के बावजूद कतिपय जातियाँ अपने को 'हैहयवंशी' भी कहती हैं| डा. बी. पी. केसरी ने घासीराम कृत 'नागवंशावली झूमर' के अध्याय 4, पृष्ठ 82 से संदर्भित निम्न दोहे के अनुसार कोराम्बे (राँची) के रक्सेल राजाओं को हैहयवंशी कहा है ।ब्रह्मवैवर्त पुराण( गणपति खण्ड) अध्याय (३५)
तुम स्वयं विद्वान हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ? तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ?जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक-संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी। भूपाल! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी? यह सारा संसार तो कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल की बूँद की तरह मिथ्या ही है। सुयश को अथवा अपयश, इसकी को कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है। अहो! सत्पुरुषों की दुष्कीर्ति हो, इससे बढ़कर और क्या विडम्बना होगी? कपिला कहाँ गयी, तुम कहाँ गये, विवाद कहाँ गया और मुनि कहाँ चले गये; परंतु एक विद्वान राजा ने जो कर्म कर डाला, वह हलवाहा भी नहीं कर सकता। मेरे धर्मात्मा पिता ने तो तुम-जैसे नरेश को उपवास करते देखकर भोजन कराया और तुमने उन्हें वैसा फल दिया! राजन? तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया है, तुम प्रतिदिन ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देते हो और तुम्हारे यश से सारा जगत व्याप्त है। फिर बुढ़ापे में तुम्हारी अपकीर्ति कैसे हुई ? (प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। जो पुराणों में विख्यात है, उसकी ऐसी अपकीर्ति! आश्चर्य है। राजन! प्राणियों के लिये दुर्वाक्य तीखे अस्त्र से भी बढ़कर दुस्सह होता है; इसीलिये संकट-काल में भी सत्पुरुषों के मुख से दुर्वचन नहीं निकलते। राजेन्द्र! मैं तुम पर दोषारोपण नहीं कर रहा हूँ, बल्कि सच्ची बात कह रहा हूँ; अतः इस राजसभा में तुम मुझे उत्तर दो। इस सभा में सूर्य, चन्द्र और मनु के वंशज विद्यमान हैं; अतः सभा में तुम ठीक-ठीक बतलाओ, जिसे तुम्हारे पितर और देवगण भी सुनें। साथ ही सत-असत को कहने में समर्थ ये सारे नरेश भी श्रवण करें; क्योंकि समदृष्टि रखने वाले सत्पुरुष लोग पक्षपात की बात नहीं कहते। युद्धस्थल में इतना कहकर परशुराम चुप हो गये। तब बृहस्पति के समान बुद्धिमान राजा ने कहना आरम्भ किया। कार्तवीर्यार्जुन ने कहा– हे राम! आप श्रीहरि के अंश, हरि के भक्त और जितेन्द्रिय हैं। मैंने जिनके मुख से धर्म श्रवण किया है, आप उनके गुरु के भी गुरु हैं। जो कर्मवश ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म-चिन्तन करता है और अपने धर्म में तत्पर एवं शुद्ध है, इसीलिये वह ब्राह्मण कहलाता है। जो मनन करने के कारण नित्य बाहर-भीतर कर्म करता रहता है, सदा मौन धारण किये रहता है और समय आने पर बोलता है, वह मुनि कहलाता है। जिसकी सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में, घर और जंगल में तथा कीचड़ और अत्यन्त चिकने चन्दन में समता की भावना है, वह योगी कहा जाता है।जो सम्पूर्ण जीवों में समत्व-बुद्धि से विष्णु के भावना करता है और श्रीहरि की भक्ति करता है, वह हरिभक्त कहा जाता है।
ब्राह्मणों का धन तप है। चूँकि तपस्या कल्पतरु और कामधेनु के समान है, इसीलिये उनकी निरन्तर तप में इच्छा लगी रहती है। रजोगुणी पुरुष कर्मों के रागवश राजसिक कार्य करता है और रागान्ध होकर रजोगुणी कार्यों में लगा रहता है; इसी कारण वह राजा कहा जाता है। मुने! रागवश मैंने कामधेनु की याचना की थी; अतः मुझ अनुरागी क्षत्रिय का इसमें कौन-सा अपराध हुआ? फिर भी, आपके पिता ने महान बल-पराक्रम से सम्पन्न बहुत-से भूपालों का वध कर डाला।इस समय यहाँ शिशु-अवस्था वाले राजकुमार ही आये हैं। आपने सम्पूर्ण पृथ्वी को इक्कीस बार भूपालों से शून्य कर देने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसका पालन कीजिये।
युद्ध करना तो क्षत्रियों का धर्म ही है। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो जाना उनके लिये निन्दित नहीं है; परंतु ब्राह्मणों की रण-स्पृहा लोक और वेद– दोनों में विडम्बना की पात्र है। वाणी ही जिनका बल और तप ही जिनका धन है, उन ब्राह्मणों की शान्ति ही प्रत्येक युग में स्वस्तिकारक कर्म है। युद्ध करना ब्राह्मण का धर्म नहीं है।
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शान्तिपरायण ब्राह्मण युद्ध के लिये उद्योगशील हो, ऐसा तो न देखने में ही आया है और न सुना ही गया है। भगवान नारायण के विद्यमान रहते यह दूसरी तरह का उलट-फेर कैसे हो गया? रणांगण में यों कहकर राजेन्द्र कार्तवीर्य शान्त हो गया। उसके उस वचन को सुनकर सभी लोग मौन हो गये। तदनन्तर परशुराम के सभी भाई, जो बड़े शूरवीर तथा हाथों में अत्यन्त तीखे शस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आज्ञा से युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। तब जो स्वयं मंगलस्वरूप तथा मंगलों का आश्रयस्थान था, उस महाबली मत्स्यराज ने भी उन सबको युद्धोन्मुख देखकर युद्ध करना आरम्भ किया। उस राजेन्द्र ने बाणों का जाल बिछाकर उन सभी को रोक दिया। तब जमदग्नि पुत्रों ने उस बाण-समूह को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुने! राजा ने सैकड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान दिव्यास्त्र चलाया; परंतु मुनियों ने माहेश्वर-अस्त्र के द्वारा खेल-ही-खेल में उसे काट दिया।एक स्थान पर ब्रह्मवैवर्तपुराण खणपति खण्ड में वर्णन है की सहस्रबाहु के आघात से परशुराम मूर्च्छित होकर रणभूमि में गिर पड़े-इसके साक्ष्य निम्न श्लोक हैं।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप स भृगुःपपात च हरिं स्मरन्।१८।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप स भृगुःपपात च हरिं स्मरन् ।१८।
उस सैकड़ों सूर्यों के समान प्रभाशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।
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कार्तवीर्यार्जुन ने कहा– हे राम! आप श्रीहरि के अंश, हरि के भक्त और जितेन्द्रिय हैं। मैंने जिनके मुख से धर्म श्रवण किया है, आप उनके गुरु के भी गुरु हैं। जो कर्मवश ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म-चिन्तन करता है और अपने धर्म में तत्पर एवं शुद्ध है, इसीलिये वह ब्राह्मण कहलाता है। जो मनन करने के कारण नित्य बाहर-भीतर कर्म करता रहता है, सदा मौन धारण किये रहता है और समय आने पर बोलता है, वह मुनि कहलाता है। जिसकी सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में, घर और जंगल में तथा कीचड़ और अत्यन्त चिकने चन्दन में समता की भावना है, वह योगी कहा जाता है।
जो सम्पूर्ण जीवों में समत्व-बुद्धि से विष्णु के भावना करता है और श्रीहरि की भक्ति करता है, वह हरिभक्त कहा जाता है। ब्राह्मणों का धन तप है। चूँकि तपस्या कल्पतरु और कामधेनु के समान है, इसीलिये उनकी निरन्तर तप में इच्छा लगी रहती है। रजोगुणी पुरुष कर्मों के रागवश राजसिक कार्य करता है और रागान्ध होकर रजोगुणी कार्यों में लगा रहता है; इसी कारण वह राजा कहा जाता है। मुने! रागवश मैंने कामधेनु की याचना की थी; अतः मुझ अनुरागी क्षत्रिय का इसमें कौन-सा अपराध हुआ ? फिर भी, आपके पिता ने महान बल-पराक्रम से सम्पन्न बहुत-से भूपालों का वध कर डाला।
इस समय यहाँ शिशु-अवस्था वाले राजकुमार ही आये हैं। आपने सम्पूर्ण पृथ्वी को इक्कीस बार भूपालों से शून्य कर देने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसका पालन कीजिये। युद्ध करना तो क्षत्रियों का धर्म ही है। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो जाना उनके लिये निन्दित नहीं है; परंतु ब्राह्मणों की रण-स्पृहा लोक और वेद– दोनों में विडम्बना की पात्र है।
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वाणी ही जिनका बल और तप ही जिनका धन है, उन ब्राह्मणों की शान्ति ही प्रत्येक युग में स्वस्तिकारक कर्म है। युद्ध करना ब्राह्मण का धर्म नहीं है।शान्तिपरायण ब्राह्मण युद्ध के लिये उद्योगशील हो, ऐसा तो न देखने में ही आया है और न सुना ही गया है। भगवान नारायण के विद्यमान रहते यह दूसरी तरह का उलट-फेर कैसे हो गया? रणांगण में यों कहकर राजेन्द्र कार्तवीर्य शान्त हो गया। उसके उस वचन को सुनकर सभी लोग मौन हो गये। तदनन्तर परशुराम के सभी भाई, जो बड़े शूरवीर तथा हाथों में अत्यन्त तीखे शस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आज्ञा से युद्ध करने के लिए आगे बढ़े।तब जो स्वयंमंगल स्वरूप तथा मंगलों का आश्रयस्थान था, उस महाबली मत्स्यराज ने भी उन सबको युद्धोन्मुख देखकर युद्ध करना आरम्भ किया। उस राजेन्द्र ने बाणों का जाल बिछाकर उन सभी को रोक दिया। तब जमदग्नि पुत्रों ने उस बाण-समूह को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुने! राजा ने सैकड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान दिव्यास्त्र चलाया; परंतु मुनियों ने माहेश्वर-अस्त्र के द्वारा खेल-ही-खेल में उसे काट दिया।ब्रह्मवैवर्तपुराणम् (गणपतिखण्डः)
ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।१५। दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे।१६।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद।
मूर्च्छामवाप सभृगुःपपात च हरिं स्मरन् ।१८।
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पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।१९ ।
शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया।२०।
भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान्।
प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः। २१।
राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।
प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान्।२२।
तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।
शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः।२३।
भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः।
दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः।२४।
ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।
नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ।२५।
सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।
सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः।२६।
गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा।
नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।२७।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।
दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः।२८।
राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम् ।
गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ।२९ ।
तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद।
श्रुत्वाऽशरीरिणींवाणींशङ्करोद्विजरूपधृक्।३०।
भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च।
शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ।३१।
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एतस्मिन्नन्तरे देवा जग्मुः स्वस्थानमुत्तमम् ।।
प्रत्युवाचापि परशुरामो वै समरे नृपम् ।३२।
अनुवाद-
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।१७।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप सभृगुःपपात च हरिं स्मरन् ।१८ ।
उस सैकड़ों सूर्यों के समान प्रभाशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।
तदनन्तर भगवान शिव ने वहाँ आकर परशुराम को पुनर्जीवन दान दिया।
इसी समय वहाँ युद्धस्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय शिष्य की रक्षा करने के लिये आ पहुँचे। फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया; परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वे रणभूमि में स्तम्भित हो गये।
तब रण के मुहाने पर स्तम्भित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कान्ति नूतन जलधर के सदृश है; जो हाथ में वंशी लिये बजा रहे हैं; सैकड़ों गोप जिनके साथ हैं; जो मुस्कराते हुए प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं और अनेकों पार्षदों से घिरे हुए हैं एवं ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं; वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्धक्षेत्र में राजा की रक्षा कर रहे हैं।
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इसी समय वहाँ यों आकाशवाणी हुई– ‘दत्तात्रेय द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्रीकृष्ण कवच उत्तम रत्न की गुटिका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बँधा हुआ है, अतःयोगियों के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को माँग लेंगे, तभी परशुराम राजा का वध करने में समर्थ हो सकेंगे। नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर ब्राह्मण का रूप धारण करके गये और राजा से याचना करके उसका कवच माँग लाये। फिर शम्भु ने श्रीकृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया।इसके बाद देवगण अपने-अपने उत्तम स्थान को चले गये। तब परशुराम ने राजा सहस्रबाहु को युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए कहा।
"परशुराम उवाच"
राजेन्द्रोत्तिष्ठ समरं कुरु साहसपूर्वकम् ।
कालभेदे जयो नृणां कालभेदे पराजयः।३३।
अधीतं विधिवद्दत्तं कृत्स्ना पृथ्वी सुशासिता ।।
सम्यक्कृतश्चसंग्रामस्त्वयाऽहं मूर्च्छितोऽधुना।३४।जिताः सर्वे च राजेन्द्रा लीलया रावणो जितः।
जितोऽहंदत्तशूलेन शम्भुनाजीवितःपुनः।३५।
रामस्य वचनं श्रुत्वा राजा परमधार्मिकः।
मूर्ध्नाप्रणम्यतं भक्त्या यथार्थोक्तिमुवाच ह।३६।
"राजोवाच।
किमधीतं तथा दत्तं का वा पृथ्वी सुशासिता ।
गताः कतिविधा भूपा मादृशा धरणीतले ।३७ ।
बुद्धिस्तेजो विक्रमश्च विविधा रणमन्त्रणा ।।
श्रीरैश्वर्यं तथा ज्ञानं दानशक्तिश्च लौकिकम्। ३८।
आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा परमं तपः।
सर्वं मनोरमासंगे गतमेव मम प्रभो।३९।
सा च स्त्री प्राणतुल्या मे साध्वी पद्मांशसम्भवा ।
यज्ञेषु पत्नी मातेव स्नेहे क्रीडति संगिनी।४०।
आबाल्यात्संगिनी शश्वच्छयने भोजने रणे ।।
तां विना प्राणहीनोऽहं विषहीनो यथोरगः ।४१।
त्वया न दृष्टं युद्धं मे पुरेयं शोचना स्थिता ।
द्वितीया शोचना विप्र हतोऽहं ब्राह्मणेन च ।४२।
काले सिंहः सृगालं च सृगालः सिंहमेव च ।
काले व्याघ्रं हन्ति मृगो गजेन्द्रं हरिणस्तथा। ४३।
महिषं मक्षिका काले गरुडं च तथोरगः।
किङ्करःस्तौति राजेन्द्रं काले राजा च किंकरम्। ४४।इन्द्रं च मानवः काले काले ब्रह्मा मरिष्यति ।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते तृतीये गणेशखण्डे नारदनारायणसंवादेभृगोःकैलासगमनोपदेशो नाम चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः।४०।
अनुवाद- श्रीनारायण कहते हैं–नारद! जब भगवान विष्णु महालक्ष्मी-कवच तथा दुर्गा-कवच को लेकर वैकुण्ठ को चले गये, तब भृगुनन्दन परशुराम ने पुत्रसहित राजा सहस्राक्ष पर प्रहार किया। यद्यपि राजा कवच-हीन था तथापि वह प्रयत्नपूर्वक ब्रह्मास्त्र द्वारा एक सप्ताह तक युद्ध करता रहा। अन्ततोगत्वा पुत्रसहित धराशायी हो गया। सहस्राक्ष के गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिये आया। वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथ पर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया। परशुराम ने राजराजेश्वर कार्तवीर्य को समरभूमि में उपस्थित देखा। वह रत्ननिर्मित आभूषणों से सुशोभित करोड़ों राजाओं से घिरा हुआ था। रत्ननिर्मित छत्र उसकी शोभा बढ़ा रहा था। वह रत्नों के गहनों से विभूषित था। उसके सर्वांग में चन्दन की खौर लगी हुई थी। उसका रूप अत्यन्त मनोहर था और वह मन्द-मन्द मुस्करा रहा था। राजा मुनिवर परशुराम को देखकर रथ से उतर पड़ा और उन्हें प्रणाम करके पुनः रथ पर सवार हो राज-समुदाय के साथ सामने खड़ा हुआ। तब परशुराम ने राजा को समयोचित शुभाशीर्वाद दिया और पुनः यों कहा– ‘अनुयायियोंसहित तुम स्वर्ग में जाओ।’
नारद! इसके बाद वहाँ दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा। तब परशुराम के शिष्य तथा उनके महाबली भाई कार्तवीर्य से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए। उस समय उनके सारे अंग घायल हो गये थे। राजा के बाण समूह से आच्छादित होने के कारण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना ही नहीं दीख रही थी। फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अन्त में राजा ने दत्तात्रेय के दिये हुए अमोघ शूल को यथाविधि मन्त्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।
अनुवाद-गणपतिखण्ड: अध्याय 36 मत्स्यराज के वध के पश्चात अनेकों राजाओं का आना और परशुराम द्वारा मारा जाना, पुनः राजा सुचन्द्र और परशुराम का युद्ध, परशुराम द्वारा कालीस्तवन, ब्रह्मा का आकर परशुराम को युक्ति बताना, परशुराम का राजा सुचन्द्र से मन्त्र और कवच माँगकर उसका वध करना श्री नारायण कहते हैं– नारद ! युद्ध में मत्स्यराज के गिर जाने पर महाराज कार्तवीर्य के भेजे हुए बृहद्बल, सोमदत्त, विदर्भ, मिथिलेश्वर, निषधराज, मगधाधिपति एवं कान्यकुब्ज, सौराष्ट्र, राढीय, वारेन्द्र, सौम्य बंगीय, महाराष्ट्र,(गुर्जरजातीय )और कलिंग आदि के सैकड़ों-सैकड़ों राजा बारह अक्षौहिणी सेना के साथ आये; परन्तु परशुराम जी ने सबको रणभूमि में सुला डाला। यह देखकर एक लाख नरपतियों के साथ बारह अक्षौहिणी सेना लेकर राजा सुचन्द्र रणस्थल में आये। सुचन्द्र के साथ भयानक युद्ध हुआ, पर वे परशुराम परास्त न हो सके
यादवों के मूल पुरुष वैदिक ययाति पुत्र यदु ही हैं परन्तु उपरिचर वसु के एक पुत्र का भी नाम यदु था। १- उपरिचर वसु का पुत्र बृहद्रथ जिसे मगध का राजा नियुक्त किया और दूसरे पुत्र कि नाम 'प्रत्यग्रह तीसरा 'कुशाम्ब जिसे (मणिवाहन) भी कहा गया , चतुर्थ पुत्र मावेल्स और पञ्चम पुत्र का नाम 'यदु था ।
"पद्मपुराण में वर्णन है कि (अस्सी हजार) वर्षो तक ययाति ने शासन किया और उनके चार पुत्र थे। जिनमें ज्येष्ठ पुत्र ( रूरू:/तुरूरु:) और पुरु: उससे छोटा कुरु: तीसरे क्रम का और चतुर्थ क्रम में "यदु था। नीचे श्लोक संख्या ११-१२-१३ पर देखें-
पुरुर्नामद्वितीयोऽभूत्कुरुश्चान्यस्तृतीयकः। यदुर्नाम स धर्मात्मा चतुर्थो नृपतेःसुतः।१३।
एवं चत्वारःपुत्राश्च ययातेस्तु महात्मनः। तेजसा पौरुषेणापि पितृतुल्यपराक्रमाः।१४।
एवं राज्यं कृतं तेन धर्मेणापि ययातिना। तस्य कीर्तिर्यशो भावस्त्रैलोक्ये प्रचुरोभवत्।१५।
अनुवाद-अध्याय 64 -वृद्धावस्था पर मातलि का प्रवचन
पिप्पल ने कहा :
पिता की कृपा से यदु ने किस प्रकार सुख प्राप्त किया और किस प्रकार सुख भोगा , यह विस्तारपूर्वक बताओ । हे कुण्डल के पुत्र ! , मुझे यह भी विस्तार से बताओ कि रुरु को अपने पाप का फल कैसे भुगतना पड़ा, हे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण !
सुकर्मन ने कहा :सुनो, मैं तुम्हें अत्यंत मेधावी नहुष और श्रेष्ठ ययाति का वृत्तान्त सुनाता हूँ , जो पाप का नाश करने वाला है। नहुष, पृथ्वी के स्वामी सोम वंश से उत्पन्न हुए उसने कई अतुलनीय उपहार दिए। उन्होंने अश्वमेध यज्ञों का एक उत्कृष्ट सत्र किया (अर्थात् एक सौ उत्कृष्ट अश्वमेध यज्ञ किए)। उन्होंने सौ वाजपेय यज्ञ और अनेक प्रकार के (अन्य) यज्ञ भी किए। अपनी धार्मिक योग्यता के बल पर उसने इन्द्र पद को प्राप्त किया ।उन्होंने अपने अत्यंत बुद्धिमान पुत्र ययाति को, सत्यवादिता से संपन्न, अपनी वीरता के रूप में धर्मपरायण, अपनी प्रजा राजा का रक्षक राजा बनाया (नहुष) इंद्र के पद पर ) गए।उनका पुत्र ययाति सत्यवादिता से संपन्न था, जिसने (अर्थात् सिंहासन पर) अधिग्रहण कर लिया था, वह धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करेगा। वह स्वयं अपनी प्रजा और संबंधित कर्तव्यों की देखभाल करेगा। श्रेष्ठ कर्तव्य को जानकर धर्म को जानने वाले ने यज्ञ करवाए। उन्होंने यज्ञ करना, (पवित्र स्थानों पर जाना), उपहार देना (धार्मिक पुण्य देना) जैसा सब कुछ किया। राजा नहुष के बुद्धिमान पुत्र (ययाति) ने उन दिनों अस्सी हजार वर्षों तक सच्चाई से शासन किया। प्रतापी ययाति ने इतना समय (सच्चाई से अपनी प्रजा पर शासन करने में) व्यतीत किया। उसके चार पुत्र हुए जो उसके समान पराक्रमी और पराक्रमी थे। मैं (आपको) उनके नाम बताऊंगा। एकाग्रचित्त (अर्थात चौकस) मन से सुनो। उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम रुरु था, जो बहुत शक्तिशाली था। दूसरे पुत्र का नाम पुरु रखा गया ; तीसरा कुरु था ; राजा के चौथे पुत्र का नाम यदु था, जो धार्मिक प्रवृत्ति का था अर्थात् ( यजन करने वाला था)। इस प्रकार कुलीन ययाति के चार पुत्र हुए। वे अपने तेज और पुरुषार्थ से वीरता में अपने पिता के तुल्य थे। इस प्रकार ययाति ने अपने राज्य का न्यायपूर्वक शासन किया। तीनों लोकों में उनकी कीर्ति और ख्याति महान थी।
विष्णु ने कहा :
एक बार महानतम ब्राह्मण, ब्रह्मा के पुत्र नारद , इंद्र के लोक में इंद्र को देखने के लिए गए, हे राजा! हजार आंखों वाले भगवान इंद्र ने ब्राह्मण नारद को देखा जो सर्वज्ञ थे, जो (सभी प्रकार के) ज्ञान में निपुण थे, जिनकी चमक आग की तरह थी, (जब) वे वहां आए तो इन्द्र ने झुकी हुई गर्दन (अर्थात् भक्ति में झुककर) के साथ, उन्होंने एक शुभ आसन पर आदरणीय प्रसाद से सम्मानित सर्वश्रेष्ठ ऋषि को बिठाया, और उनसे पूछा:
इन्द्र ने कहा :
19. आज तुम कहाँ से आए हो ? तुम यहाँ किस प्रयोजन से आए हो ? हे ब्राह्मण, हे महान मुनि, आज मैं आपको क्या प्रिय करूँ ?
नारद ने कहा :
20-21। हे देवताओं के राजा, हे अति बुद्धिमान, जो कुछ तू ने भक्तिपूर्वक किया और जो कुछ तूने कहा उससे मैं प्रसन्न हूँ। मैं आपके सवालों का जवाब दूंगा। मैं अब पृथ्वी से सुरक्षित रूप से आपके घर आ गया हूं। नहुष के पुत्र (ययाति) को देखने के बाद, मैं तुम्हें खोजने आया हूँ।
इंद्र ने कहा :
22-23। कौन सा राजा विद्वान, बुद्धिमान, और सदाचारी होने के कारण अपनी प्रजा की सच्चाई से रक्षा करता है? पृथ्वी पर कौन राजा है, जो वेदों को जानता है, जो ब्राह्मणों को प्रिय है, जो पवित्र है, जो वेदों का ज्ञाता है, जो यज्ञकर्ता है, जो दानी है, और जो महान भक्त है ?
नारद ने कहा :
24-30। इन गुणों से नहुष का बलशाली पुत्र संपन्न हुआ, जिसकी सत्यता और वीरता के कारण सभी लोग प्रसन्न थे। नहुष के पुत्र ययाति पृथ्वी पर तुम्हारे समान हैं। जैसे आप स्वर्ग में हैं, (अपनी प्रजा की) समृद्धि को बढ़ा रहे हैं, वैसे ही वह पृथ्वी पर (अपनी प्रजा की) समृद्धि को बढ़ा रहे हैं। हे महान राजा, उस राजा ययाति ने, जो अपने पिता से श्रेष्ठ था, सौ अश्वमेध यज्ञ और सौ वाजपेय यज्ञ भक्तिपूर्वक किए उन्होंने हजारों लाखों और सैकड़ों करोड़ गायों जैसे कई रूपों में उपहार दिए। इसी प्रकार उन्होंने एक करोड़ यज्ञ किए, इसी प्रकार लाखों यज्ञ भी किए।उसने ब्राह्मणों को भूमि के अनुदान जैसे उपहार भी दिए। उन्होंने धर्म की रक्षा की है अपने पूर्ण रूप में। जैसा कि आप यहाँ स्वर्ग में शासन कर रहे हैं, इसलिए ययाति, नहुष के पुत्र, सर्वश्रेष्ठ राजा, जो इन गुणों से संपन्न थे, ने अस्सी हजार वर्षों तक सच्चाई से शासन किया।
बुद्धिमान सुकर्मण ने कहा :
31-47। श्रेष्ठ मुनियों से ऐसा सुनकर देवताओं के स्वामी इन्द्र ने विचार किया और वे ययाति के धर्म की रक्षा करने से डरते थे। (उन्होंने सोचा:) 'पूर्व में, सौ यज्ञों के बल पर, बहादुर नहुष मेरे इंद्र के पद को प्राप्त कर गये और देवताओं के राजा बन गए। परन्तु शची की बुद्धि के कारण वह स्वर्ग से नीचे गिर गया । यह महान राजा जो वीरता में अपने पिता के समान है, निस्संदेह इन्द्र के पद को प्राप्त होगा। इसमें तो कोई शक ही नहीं है। इसे जिस किसी उपाय से ( येन केनाप्युपायेन तं भूपं दिवमानये उस राजा को मैं राजा को स्वर्ग में लाऊंगा।' उससे भयभीत देवराज ने ऐसा विचार किया। तब देवताओं के राजा, इन्द्र ने उस राजा ययाति के महान भय के कारण उसे स्वर्ग लाने के लिए अपना दूत (मातलि)भेजा। नहुष का विमान सभी सुखों से संपन्न है, और उनके सारथी मातलि विमान के साथ था। मातलि, जिसे देवताओं के स्वामी ने अत्यंत बुद्धिमान (ययाति) को लाने के लिए भेजा था, वह वहाँ गए जहाँ नहुष के पुत्र (ययाति) रुके हुए थे। जैसे इन्द्र अपनी सभा में चमकते हैं, वैसे ही धर्म-चित्त (राजा) ययाति अपनी सभा में चमकते हैं। देवताओं के राजा के सारथी ने उस उदार राजा से कहा:सत्य ही जिसका आभूषण था,“हे राजा, मेरी बात सुनो! अब मुझे देवताओं के राजा ने तुम्हारे पास भेजा है। देवताओं के राजा जो कुछ भी कहते हैं, उसे सुनकर अच्छे (अर्थात् समर्पित) मन से करो। हे स्वामी, आपको इंद्र के लोक में आना चाहिए; अपना राज्य अपने बेटे को सौंपकर, और सबसे अच्छा और अंतिम बलिदान करने के बाद। हे नहुष के पुत्र, अत्यंत तेजस्वी राजा वहाँ स्वर्ग में रहते हैं।
इला, पुरुरवा, विप्रचिति, शिबि ,इक्ष्वाकु, सगर ऋतवीर्य ,नहुष, शन्तनु ,भरत ,युवनाश्व , कार्तवीर्य ,यज्ञों का सम्पादन करके बहु प्रकार से आनन्द करते हुए स्वर्ग में रहते हैं ।
पुरुरवा , एक महान शक्ति का, नेक दिमाग वाला था।विप्रचित्ती (वहाँ भी रहते हैं)। शिबि वहाँ वह भी रहते हैं, मनु , राजा इक्ष्वाकु , सगर नाम के बुद्धिमान (राजा) ,और तुम्हारे पिता नहुष भी वहाँ रहते हैं । कृतज्ञ ऋतवीर्य , और कुलीन शांतनु , और भरत , युवानाश्व , राजा कार्तवीर्य - (ये सभी) राजा, विभिन्न यज्ञों का सम्पादन करने के बाद स्वर्ग में आनन्दित होकर रहते हैं। कई अन्य राजा भी, जो यज्ञों के प्रदर्शन के लिए बहुत समर्पित व तत्पर थे, वे सभी इन्द्र के साथ स्वर्ग में अपने यज्ञ- कार्यों के परिणामस्वरूप आनंदित हैं; और आप फिर से सभी धर्मों को जानते हैं और धर्म में अच्छी तरह से स्थापित हैं।(इसलिए) हे राजन्! इन्द्र के साथ आनंद मनाते हुए तुम स्वर्ग में रहो।
ययाति ने कहा :
48. मैंने ऐसा कौन-सा कर्म किया है जिसके कारण आपने और देवताओं के स्वामी इन्द्र ने मुझसे यह निवेदन किया है? मुझे वह सब बताओ।
मातलि ने कहा :
49-52. चूँकि, हे राजा, आपने दान देने जैसे पुण्य कार्य किए, और अस्सी हज़ार वर्षों तक यज्ञ किए, (अतः) अपने कर्मों के कारण हे पृथ्वी के स्वामी,! तुम स्वर्ग में जाओ। देवताओं के स्वामी से दोस्ती करो। देवताओं के धाम (अर्थात् स्वर्ग) में जाओ। तुम परम बुद्धिमान, अपने शरीर को पाँच (तत्वों) के अवयवों के रूप में, पृथ्वी पर छोड़ दो; और एक दिव्य रूप धारण करके, अपने मन चाहे सुखों का आनंद लें (अर्थात जैसा आप चाहें)। हे पुरुषों के स्वामी, आपके द्वारा किए गए (यज्ञों) के अनुसार, या आपके द्वारा दिए गए उपहारों या तपस्या जो आपके द्वारा पृथ्वी पर की जाती है, उसके अनुसार स्वर्ग में सुख मांगते हैं (अर्थात् प्रतीक्षा करें)।
ययाति ने कहा :
53. हे मातलि, जिस शरीर से अच्छे या बुरे कर्म पृथ्वी पर होते हैं (अर्थात् होते हैं) उस शरीर को त्याग कर (कर्मों के अनुसार) प्राप्त लोक में कैसे जाना चाहिए ?
मातलि ने कहा :
54-55। हे राजन, मनुष्य वहाँ (अर्थात् पृथ्वी पर) शरीर त्याग कर दैवीय (कर्मों के कारण) उसके पास जाते हैं, जहाँ उन्हें यह पाँच (तत्वों) प्रकृति का शरीर प्राप्त हुआ है। अन्य सभी पुरुष भी, जो पुण्य या अवगुण प्राप्त करते हैं, वे (यहाँ) शरीर त्याग कर नीचे (अर्थात् नरक में) या ऊपर (अर्थात् स्वर्ग में) जाते हैं।
ययाति ने कहा :
56-60। हे मातलि, पाँच (तत्वों) प्रकृति के शरीर के साथ गुण या अवगुण उत्पन्न करके, अन्य सभी पुरुष ऊपर या नीचे जाते हैं। क्या फर्क है जिसके कारण कोई शरीर को पृथ्वी पर छोड़ देगा (अर्थात् छोड़ देता है), हे नैतिक गुणों को जानने वाले ? (आप कैसे कहते हैं कि) शरीर (किसी के) पाप या धार्मिक योग्यता के परिणामस्वरूप गिरता -उठताहै)? इस नश्वर क्षेत्र में, हे इन्द्र- सारथी (मातलि), एक उदाहरण प्रत्यक्ष देखा जाता है। मैं, (इसलिए), पाप या पुण्य कर्मों के बीच अधिक अंतर नहीं देखता। मनुष्य, एक नश्वर, शरीर क्यों छोड़ता है जिसके साथ वह सत्य व्यवहार जैसे कर्म करता है ? आत्मा और शरीर दोनों एक दूसरे के मित्र ) हैं। सुहृद आत्मा अपने मित्र शरीर को छोड़कर चली जाती है।
मातलि ने कहा :
61-65। हे राजा, आपने सच कहा है। जब प्राणी शरीर त्याग कर जाता है। उस शरीर के साथ आत्मा का (तब) कोई संबंध नहीं है। चूँकि यह पंचतत्व प्रकृति का (शरीर) जोड़ों में हमेशा घिस जाता है, बुढ़ापे से परेशान रहता है, और हमेशा बीमारियों से ग्रस्त रहता है, वह आत्मा यहाँ इसमें रहने की इच्छा नहीं करता है। व्याकुल और व्याकुल होकर जीवात्मा उस शरीर को छोड़कर चला जाता है। सुपुण्यैः सुकृतैश्चान्यैर्जरा नैव प्रधार्यते पातकैश्च महाराज द्रवते कायमेव सा ।६५। सत्य, धार्मिक कर्म, दान, धर्मपालन और संयम, अश्वमेध जैसे यज्ञ, तीर्थों के दर्शन और संयम के साथ-साथ महान धार्मिक पुण्य के अच्छे कर्मों के कारण भी बुढ़ापा नहीं आता है। सब कुछ हुआ। (दूसरी ओर,) हे महान राजा, यह बुढ़ापा तो पापों के माध्यम से ही शरीर पर आक्रमण करता है।
ययाति ने कहा :
66. हे श्रेष्ठ, आप मुझे विस्तार से बताइये कि कौन-सा बुढ़ापा उत्पन्न हुआ है और यह शरीर को क्यों सताता है।
मातलि ने कहा :
67-95। मैं तुम्हें वृद्धावस्था का कारण बताऊँगा; और यह शरीर में क्यों उग आया है, हे श्रेष्ठ राजा। पाँच तत्वों की प्रकृति का शरीर, इन्द्रियों की पाँच वस्तुओं द्वारा सहारा लिया जाता है। हे राजा, जब आत्मा शरीर छोड़ती है, तो वह शरीर जल जाता है। हे राजन, अग्नि से प्रज्वलित होने पर द्रव्यों सहित शरीर भी जल जाता है।उससे धुआँ उत्पन्न होता है, और धुएँ से बादल उत्पन्न होते हैं। पानी बादलों से ही निकलता है; पृथ्वी जल के लिए वैसे ही तैयार हो जाती है,जैसे पवित्र स्त्री अपने मासिक धर्म के समय जल ( वीर्य) की याचना करती है। उसी पृथ्वी से गन्ध उत्पन्न होती है, और गन्ध से द्रव उत्पन्न होता है, हे श्रेष्ठ राजा। द्रव से भोजन उत्पन्न होता है, और भोजन से वीर्य उत्पन्न होता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है। वीर्य से शरीर उत्पन्न होता है; और शरीर निश्चय ही कुरूप है। जैसे पृथ्वी (तत्व) गंध उत्पन्न करेगी और वह द्रव्यों के द्वारा पृथ्वी पर गति करती है, वैसे ही शरीर सदैव गति करता रहेगा। यह सर्वत्र द्रव्यों का आधार है।उससे गंध उत्पन्न होती है और फिर गंध से द्रव (उत्पन्न) होता है। उससे बड़ी अग्नि उत्पन्न होती है; हे राजा, उपमा को चिन्हित करें। कि जिस प्रकार लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है और लकड़ी को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार शरीर में द्रव से अग्नि उत्पन्न होती है। यह वहाँ (शरीर में) चलता है और, हे राजा, यह हमेशा शरीर का पोषण करता है। जब तक (शरीर में) द्रव की प्रधानता है तब तक आत्मा शान्त है। अग्नि (शरीर में) इस प्रकार चलती है जैसे भूख के रूप में रहती है। तीक्ष्ण होने के कारण यह जल के साथ भोजन की इच्छा करता है; हे राजा, यह उपहार-भोजन और पानी भी प्राप्त करता है। अग्नि रक्त को भस्म करती है और वीर्य को भी वैसे ही; इसमें कोई शक नहीं है।
उसके कारण पूरे शरीर को नष्ट करने वाला यह अग्नि उपभोक्ता होगा। हे राजा, जब द्रव की प्रधानता होती है, तब आग बुझा दी जाती है। द्रव से परेशान होकर, यह बुखार (ज्वर) के रूप में उत्पन्न होता है। अग्नि ने गर्दन, पीठ, कमर, गुदा सभी जोड़ों में जमा कर रखा है।
(इस प्रकार) शरीर में आग चलती रहती है। इसकी प्रधानता सदैव विद्यमान रहती है, और शरीर को सब ओर से पोषित करती है। (जब) द्रव को संयमित किया जाता है तो वह शक्तिशाली हो जाता है। शक्ति की अधिकता होने के कारण यह वीर्य के द्वारा शरीर के महत्वपूर्ण अंगों का संचालन कराता है। उससे कामवासना पैदा होती है; और हे राजा, यह एक तीर की प्रकृति का हो जाएगा। हे राजन्, इसे काम की अग्नि कहते हैं, जो बल का नाश करती है।
सहवास की लत के कारण शरीर का विनाश हो जाता है। वह वासना की अग्नि से पीड़ित एक स्त्री का सहारा लेगा। कामवासना के व्यसन के कारण जिस शरीर को कामवासना ने हिंसक और क्षीण बना दिया है, वह कान्तिहीन हो जाता है और उस शरीर की शक्ति का नाश हो जाता है।(पहले से ही) दुर्बल शरीर अग्नि द्वारा आकृष्ट किये जाने पर और(अधिक) दुर्बल हो जाता है।वह अग्नि शरीर में रक्त और वीर्य को भी भस्म कर देगी। वीर्य और रक्त के क्षय होने से शरीर शिथिल हो जाता है। एक भयानक रूप की प्रचंड हवा उत्पन्न होती है; और फिर वह पीला पड़ जाएगा, दु: ख से तड़पेगा और खाली दिमाग का होगा। वह अपने मन में उस स्त्री को लेकर चलता है जिसे उसने देखा है या जिसके बारे में उसने सुना है। जब मन की गति लालची होती है,तो शरीर में संतोष नहीं होता। जब कुरूप या रूपवान मनुष्य सोच-विचार और मांस और खून की कमी के कारण कमजोर हो जाता है, तो कामवासना की आग से भस्म होने वाले शरीर में बुढ़ापा आ जाता है। उसके कारण वह कामी होकर दिन-ब-दिन बूढ़ा होता जाता है। जैसा कि सूदखोर पैसे के बारे में सोचता है, इसलिए वह सहवास में एक महिला के बारे में सोचता है; वैसे ही, हे मनुष्यों के स्वामी, उसकी चमक खो जाती है। उसी से शरीर उत्पन्न होता है और वह नष्ट हो जाता है। तब निश्चय ही वृद्धावस्था रूपी अग्नि फिर उत्पन्न होती है; और तब प्राणियों में सेवन की प्रकृति रूपी भयानक ज्वर होता है। ज्वर तथा अन्य अनेक कष्टों से पीड़ित सभी अचल और चलायमान नष्ट हो जाते हैं। यह सब मैंने तुम से कह दिया है; मुझे और क्या कहना चाहिए ?
उपर्युक्त पुराण में (रुरु) ययाति का ज्येष्ठ पुत्र है।परन्तु "महाभारत "भागवत पुराण और देवी "भागवत पुराण आदि में यदु ही ययाति के ज्येष्ठ पुत्र हैं। पद्म पुराण के उपरोक्त श्लोक प्रक्षिप्त ही हैं । यद्यपि पद्मपुराण का सृष्टिखण्ड सब पुराणों से प्राचीन है। "क्योंकि वर्तमान पुराण आदि ग्रन्थों का लेखन किंवदन्तीयों पर ही हुआ है। जिन्हें विभिन्न ऋषियों के नाम पर सम्पादित किया गया।__________________________
अब विष्णु पुराण में देखें यदुवंश का वर्णन (विष्णुपुराण चतुर्थांश अध्याय दश) 👇
"पूरोः सकाशादादाय जरां दत्त्वा च यौवनम् ।
राज्येऽभिषिच्य पूरुञ्च प्रययौ तपसे वनम् ।४-१०-१६।
अर्थ-अपने छोटे पुत्र जो शर्मिष्ठा से उत्पन्न था उस पुरु को पुन: वृद्धावस्था लेकर और यौवन देकर राज्य पद पर अभिषिक्त कर ययाति वन को तप करे चले गये ।४-१०-१६।
अर्थ •- और उत्तर दिशा में अनु को माण्डलिक राजा बना कर सम्पूर्ण पृथ्वी को पुरु को राज्य अभिषिक्त कर ययाति वन को चले गये।४-१०-१८।__________________________________
भागवत पुराण में ययाति पुत्रों के निर्वासन का कुछ भिन्न वर्णन है कि
अर्थ •- दक्षिणपूर्व दिशा में द्रुह्यु' दक्षिण दिशा में यदु' को पश्चिम दिशा में तुर्वसु' को और उत्तर दिशा में अनु' को राजा किया किया ।२२।-
(भागवत पुराण 9/19/12) परन्तु ब्रह्मपुराण के बारहवें अध्याय में 'यदु और तुर्वसु' की निर्वासित दिशाओं का वर्णन भिन्न है। कि ययाति ने पूर्व दिशा में ज्येष्ठ पुत्र यदु को निर्वासित होने का शाप दिया और दक्षिणपूर्व में तुर्वसु को -👇
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ब्रह्मपुराण द्वादश अध्याय में यदु-आख्यान से सम्बंधित श्लोक निम्नलिखित हैं।
इति श्रीब्राह्मेमहापुराणे सोमवंशे ययातिचरितनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥ १२ ॥
ब्रह्मपुराणकार ने महाभारत से निम्न श्लोक उद्धृत कर लिया है ।
अन्तर केवल इतना है की क्रिया पद "नार्हन्ति के स्थान पर ब्रह्म पुराण में "नार्हतः क्रिया पद है।अर्हत: =(लट्लकार का परस्मैपदीय द्विवचन रूप है जबकि अर्हन्ति बहुवचन रूप है। अत: महाभारत का श्लोक सही है।
(मुम्बई संस्करण)"अर्थ"-सांसारिक काम अर्थात् वासना की तृप्ति होने से जो सुख होता है और जो सुख स्वर्ग में मिलता है, उन दोनों सुखों की योग्यता, तृष्णा के क्षय से होने वाले सुख के सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है’’
(गीताप्रेस संस्करण शान्ति पर्व.174.48
/177.49)
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इसी ब्रह्मपुराण में आगे वर्णन है कि यदु के पाँच पुत्र हुए 1-सहस्राद 2-पयोद 3- क्रोष्टा 4-नील और 5-अञ्जिक।
सहस्राद के तीन पुत्र हुए 'हैहय' 'हय' और वेणुहय और इसी हैहय वंश में कृतवीर्य का पुत्र सहस्रार्जुन हुआ •👇
•-यदु के ऐसा कहने पर (अर्थात् यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले !
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"क आश्रय: तव अन्योऽस्ति को वा धर्मो विधीयते।माम् अनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक:।।28।
•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है। मैं तो तेरा (देशिक)गुरु हूँ (फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।28।
किंतु महाराज ययाति ने भी परंपरा के विरुद्ध जाकर अपने बड़े पुत्र यदु को राजा न बनाकर अपने सबसे छोटे पुरु को राजा बना दिया।
और अन्त नें ज्येष्ठ पुत्र यदु को दक्षिण दिशा में जाकर रहने और राज्य हीन होने का ययाति द्वारा शाप दे दिया गया जैसा कि आगामी श्लोक वर्णन करता है।
लगभग सभी पुराणों में कुछ अन्तर से यह प्रचीन आख्यान समान ही है ।
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निम्नलिखित रूप में देखें भागवत पुराण से ययाति प्रसंग में यदुवंश वर्णन-
अनुवाद-★ ययाति-चरित्र -श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जैसे शरीरधारियों के छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति,आयति, वियति और कृति। नहुष अपने बड़े पुत्र यति को राज्य देना चाहते थे। परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया;क्योंकि वह राज्य पाने का परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदि में भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूप को नहीं समझ सकता।
जब इन्द्र पत्नी शची से सहवास करने की चेष्टा करने के कारण नहुष को ब्राह्मणों ने इन्द्रपद से गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजा के पद पर ययाति बैठे। ययाति ने अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगा। राजा परीक्षित ने पूछा- 'भगवन्! भगवान् शुक्राचार्य जी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वर का प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ ? श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन! दानवराज वृषपर्वा की एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ अपनी राजधानी के श्रेष्ठ उद्यान में टहल रही थी। उस उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवर में कमल खिले हुए थे और उन पर बड़े ही मधुर स्वर से भौंरे गुंजार कर रहे थे। उसकी ध्वनि से सरोवर का तट गूँज रहा था। जलाशय के पास पहुँचने पर उन सुन्दरी कन्याओं ने अपने-अपने वस्त्र तो घाट पर रख दिये और उस तालाब में प्रवेश करके वे एक-दूसरे पर जल उलीच-उलीचकर क्रीड़ा करने लगीं।उसी समय उधर से पार्वती जी के साथ बैल पर चढ़े हुए भगवान् शंकर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवर से निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। शीघ्रता के कारण शर्मिष्ठा ने अनजान में देवयानी के वस्त्र को अपना समझकर पहन लिया। इस पर देवयानी क्रोध के मारे आग-बबूला हो गयी। उसने कहा- अरे, देखो तो सही, इस दासी ने कितना अनुचित काम कर डाला! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञ का हविष्य उठा ले जाये, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं। जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है, जो परमपुरुष परमात्मा के मुखरूप हैं, जो अपने हृदय में निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्मा को धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिये वैदिक मार्ग का निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र-ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना और सेवा करते हैं-और तो क्या, लक्ष्मी जी के एकमात्र आश्रय परापावन विश्वात्मा भगवान् भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं-उन्हीं ब्राह्मणों में हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इस पर भी इस दुष्टा ने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ों को पहन लिया है’ जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिन के समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतों से होठ दबाकर कहा- 'भिखारिन! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बात का भी पता है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ों के लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरों की ओर नहीं ताकती रहतीं’। शर्मिष्ठा ने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानी का तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कुऐं में ढकेल दिया।शर्मिष्ठा के चले जाने के बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जल की आवश्यकता थी, इसलिये कुएँ में पड़ी हुई देवयानी को उन्होंने देख लिया। उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया। देवयानी ने प्रेम भरी वाणी से वीर ययाति से कहा- ‘वीरशिरोमणे राजन् ! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीर श्रेष्ठ ! कूएँ में गिर जाने पर मुझे जो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान् का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हम लोगों की या और किसी मनुष्य की कोई चेष्टा नहीं है। वीरश्रेष्ठ! पहले मैंने बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दे दिया था, इस पर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’।ययाति को शास्त्र प्रतिकूल होने के कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परन्तु उन्होंने देखा कि प्रारब्ध ने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है और मेरा मन भी इसकी ओर खिंच रहा है। इसलिये ययाति ने उसकी बात मान ली। वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्य के पास पहुँची और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया। शर्मिष्ठा के व्यवहार से भगवान् शुक्राचार्य जी का भी मन उचट गया। वे पुरोहिताई की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजार में से कबूतर की तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अतः अपनी कन्या देवयानी को साथ लेकर वे नगर से निकल पड़े। जब वृषपर्वा को यह मालूम हुआ तो उनके मन में यह शंका हुई कि गुरु जी कहीं शत्रुओं की जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करने के लिये पीछे-पीछे गये और रास्ते में उनके चरणों पर सिर के बल गिर गये। भगवान शुक्राचार्य जी का क्रोध तो आधे ही क्षण का था। उन्होंने वृषपर्वा से कहा- ‘राजन्! मैं अपनी पुत्री देवयानी को नहीं छोड़ सकता।
इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलने में कोई आपत्ति न होगी’। जब वृषपर्वा ने ‘ठीक है’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानी ने अपने मन की बात कही। उसने कहा- ‘पिताजी मुझे जिस किसी को दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों के साथ मेरी सेवा के लिये वहीं चले’। शर्मिष्ठा ने अपने परिवार वालों का संकट और उनके कार्य का गौरव देखकर देवयानी की बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियों के साथ दासी के समान उसकी सेवा करने लगी। शुक्राचार्य जी ने देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया और शर्मिष्ठा को दासी के रूप में देकर उनसे कह दिया- ‘राजन! इसको अपनी सेज पर कभी न आने देना’।
परीक्षित! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठा ने भी अपने ऋतुकाल में देवयानी के पति ययाति से एकान्त में सहवास की याचना की। शर्मिष्ठा की पुत्र के लिये प्रार्थना धर्म संगत है- यह देखकर धर्मज्ञ राजा ययाति ने शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी यही निश्चय किया कि समय पर प्रारब्ध के अनुसार जो होना होगा, हो जायेगा।देवयानी के दो पुत्र हुए- यदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए- द्रुह्यु, अनु और पूरु। जब मानिनी देवयानी को यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठा को भी मेरे पति के द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोध से बेसुध होकर अपने पिता के घर चली गयी। कामी ययाति ने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदि के द्वारा देवयानी को मनाने की चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँ तक गये भी; परन्तु मना न सके। शुक्राचार्य जी ने भी क्रोध में भरकर ययाति से कहा- ‘तू अत्यन्त स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीर में वह बुढ़ापा आ जाये, जो मनुष्यों को कुरूप कर देता है’। ययाति ने कहा- ‘ब्रह्मन् ! आपकी पुत्री के साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप से तो आपकी पुत्री का भी अनिष्ट ही है।’ इस पर शुक्राचार्य जी ने कहा- ‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नता से तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो’। शुक्राचार्य ने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानी में आकर ययाति ने अपने बड़े पुत्र यदु से कहा- ‘बेटा! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नाना का दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र! मैं अभी विषयों से तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षों तक और आनन्द भोगूँगा’।यदु ने कहा- ‘पिताजी! बिना समय के ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जब तक विषय-सुख का अनुभव नहीं कर लेता, तब तक उसे उससे वैराग्य नहीं होता’।परीक्षित! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु ने भी पिता की आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रों को धर्म का तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीर को ही नित्य मान बैठे थे। अब ययाति ने अवस्था में सबसे छोटे किन्तु गुणों में बड़े अपने पुत्र पूरु को बुलाकर पूछा और कहा- ‘बेटा! अपने बड़े भाइयों के समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये’। पूरु ने कहा- ‘पिताजी! पिता की कृपा से मनुष्य को परम पद की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में पुत्र का शरीर पिता का ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्था में ऐसा कौन है, जो इस संसार में पिता के उपकारों का बदला चुका सके? उत्तम पुत्र तो वह है जो पिता के मन की बात बिना कहे ही कर दे। कहने पर श्रद्धा के साथ आज्ञा पालन करने वाले पुत्र को मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होने पर भी अश्रद्धा से उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है और जो किसी प्रकार भी पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिता का मल-मूत्र ही है।परीक्षित! इस प्रकार कहकर पूरु ने बड़े आनन्द से अपने पिता का बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयों का सेवन करने लगे। वे सातों द्वीपों के एकच्छत्र सम्राट् थे। पिता के समान भलीभाँति प्रजा का पालन करते थे। उनकी इन्द्रियों में पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयों का यथेच्छ उपभोग करते थे।देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययाति को अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओं के द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्त में सुख देने लगी। राजा ययाति ने समस्त वेदों के प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान श्रीहरि का बहुत-से बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से यजन किया। जैसे आकाश में दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्मा के स्वरूप में यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्य के समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपों के रूप में प्रतीत होता है और कभी नहीं भी।वे परमात्मा सबके हृदय में विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान् श्रीनारायण को अपने हृदय में स्थापित करके राजा ययाति ने निष्काम भाव से उनका यजन किया। इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उन्होंने अपनी उच्छ्रंखल इन्द्रियों के साथ मन को जोड़कर उसके प्रिय विषयों को भोगा। परन्तु इतने पर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययाति की भोगों की तृप्ति न हो सकी।
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इस प्रकार यादवों के वंश प्रवर्तक यदु का वर्णन पुराणों में कुछ अस्त-व्यस्त सा होगया है।
२५-स्तन्यपान करानेवाली धात्रियाँ—अम्बिका तथा किलिम्बा (अम्बा), धनिष्ठा आदि।
२६-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम(रोहिणीजी के पुत्र) ।२७-ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
(१) सुहृद्वर्ग के सखा—सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं । ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।
(२)सखावर्ग के सखा—सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं।
ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे।
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।
(३)प्रियसखावर्ग के सखा—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।
ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
इन सबमें मुख्य हैं —श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं।
इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण( छोटा कन्हैया)भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।
स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं।
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
विदूषक सखा – मधुमंगल, पुष्पांक, हासांक, हंस आदि श्रीकृष्णके विदूषक सखा हैं।
विट—कडार, भारतीबन्धु, गन्ध, वेद, वेध आदि श्रीकृष्ण के विट (प्रणय में सहायक सेवक) हैं। आयुध धारण करानेवाले सेवक—रक्तक, पत्रक, पत्री, मधुकण्ठ, मधुव्रत, शालिक, तालिक, माली, मान, मालाधर आदि श्रीकृष्ण के वेणु, श्रृंग, मुरली, यष्टि, पाश आदि की रचना करनेवाले एवं इन्हें धारण करानेवाले तथा श्रृंगारोचित विविध वनधातु जुटानेवाले दास हैं।
वेश-विन्यास की सेवा —प्रेमकन्द, महागन्ध, दय,मकरन्द प्रभृति श्रीकृष्ण को नाना वेशों में सजाने की अन्तरंग सेवामें नियुक्त हैं। ये पुष्परससार (इत्र)—से श्रीकृष्ण के वस्त्रों को सुरभित रखते हैं। इनकी सैरन्ध्री (केश सँवारनेवाली का)-का नाम है।
—मधुकन्दला।
वस्त्र-संस्कारसेवा — सारंग, बकुल आदि श्रीकृष्ण के वस्त्र-संस्कार की सेवा में नियुक्त रजक हैं। अंगराग तथा पुष्पालंकरण की सेवा —सुमना, कुसुमोल्लास, पुष्पहास, हर आदि तथा सुबन्ध, सुगन्ध आदि श्रीकृष्णचन्द्र की गन्ध, अंगराग, पुष्पाभरण आदि की सेवा करते रहते हैं।
भोजन-पात्र, आसनादि की सेवा —विमल, कमल आदि श्रीकृष्ण के भोजनपात्र, आसन (पीढ़ा) आदि की सँभाल रखनेवाले परिचारक हैं।
जल की सेवा – पयोद तथा वारिद आदि श्रीकृष्णचन्द्र के यहाँ जल छानने की सेवामें निरत रहते हैं।
ताम्बूल की सेवा — श्रीकृष्णचन्द्र लिये सुरभित ताम्बूल का बीड़ा सजानेवाले हैं —सुविलास, विशालाक्ष, रसाल, जम्बुल, रसशाली, पल्लव, मंगल, फुल्ल, कोमल, कपिल आदि।
ये ताम्बूल का बीड़ा बाँधने में अत्यन्त निपुण हैं।
ये सब श्रीकृष्ण के पास रहनेवाले, विविध विचित्र चेष्टा करके, नाच—कूदकर, मीठी चर्चा सुनाकर मनोरंजन करनेवाले सखा हैं।
चेट—भंगुर, भृंगार, सान्धिक, ग्रहिल आदि श्रीकृष्ण के चेट (नियत काम करनेवाले सेवक) हैं। चेटी—कुरंगी, भृंगारी, सुलम्बा, लम्बिका आदि श्रीकृष्ण की चेटियाँ हैं।
प्रमुख परिचारिकाएँ – नन्द—भवन की प्रमुख परिचारिकाएँ हैं—धनिष्ठा, चन्दनकला, गुणमाला, रतिप्रभा, तड़ित्प्रभा, तरुणी, इन्दुप्रभा, शोभा, रम्भा आदि। धनिष्ठा तो श्रीकृष्णचन्द की धात्री तथा व्रजरानी की अत्यन्त विश्वासपात्री भी हैं।
उपर्युक्त सभी पानी छिड़कने, गोबर से आँगन आदि लीपने, दूध औटाने आदि अन्तःपुर के कार्यों में अत्यन्त कुशला हैं। गुप्तचर और भीड़
खराग -चर—चतुर, चारण, धीमान्, पेशल आदि इनके उत्तम चर हैं। ये नानावेश बनाकर गोप—गोपियों में विचरण करते रहते हैं।
दूत—केलि तथा विवाद में कुशल विशारद, तुंग, वावदूक, मनोरम, नीतिसार आदि इनके कुंज–सम्मेलन के उपयोगी दूत हैं।
दूतिकाएँ — पौर्णमासी, वीरा, वृन्दा, वंशी, नान्दीमुखी, वृन्दारिका, मेना, सुबला तथा मुरली प्रभृति इनकी दूतिकाएँ हैं।
ये सब—की—सब कुशला, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन कराने में दक्षा तथा कुंजादि को स्वच्छ रखने आदि में निपुणा हैं। ये वृक्षायुर्वेद का ज्ञान रखती हैं तथा प्रिया—प्रियतम के स्नेहसे पूर्ण हैं। इनमें वृन्दा सर्वश्रेष्ठ हैं।
वृन्दा तपाये हुए सोने की कान्ति के समान परम मनोहरा हैं। नील वस्त्र का परिधान धारण करती हैं तथा मुक्ताहार एवं पुष्पों से सुसज्जित रहती हैं।
ये सदा वृन्दावन में निवास करती हैं, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन चाहनेवाली हैं तथा उनके प्रेम से परिप्लुता हैं।
वंदीगण — नन्द-दरबार के वन्दीगणों में सुविचित्र — रव और मधुररव श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं। नर्तक —(नन्द-सभा के) इनके प्रिय नर्तक हैं — चन्द्रहास, इन्दुहास, चन्द्रमुख आदि। नट — (अभिनय करनेवाले) — इनके प्रिय नट हैं — सारंग, रसद, विलास आदि। गायक — इनके प्रिय गायक हैं — सुकण्ठ, सुधाकण्ठ आदि।
रसज्ञ तालधारी — भारत, सारद, विद्याविलास सरस आदि सर्व प्रकार की व्यवस्था में निपुण इनके तालधारी समाजीगण हैं।
मृदंग-वादक — सुधाकर, सुधानाद एवं सानन्द — ये इनके गुणी मृदंग—वादक हैं।
गृहनापित — क्षौरकर्म, तैल-मर्दन, पाद-संवाहन, दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहनापित।
सौचिक (दर्जी) — इनके कुल के निपुण दर्जी का नाम है — रौचिक।
रजक (धोबी) — सुमुख, दुर्लभ, रंजन आदि इनके परिवार के धोबी हैं। हड्डिप ( मेहतर) — पुण्यपुंज तथा भाग्यराशि इनके परिवार के भंगी हैं। स्वर्णकार ( सुनार) — इनके तथा इनके परिवार के लिये विविध अलंकार-आभूषण आदि बनानेवाले रंगण तथा रंकण नामक दो सुनार हैं।
कुम्भकार (कुम्हार) — पवन तथा कर्मठ नाम से इनके दो कुम्हार हैं, जो इनके परिवार के लिये प्रयुक्त होनेवाले कलश, गागर, दधिभाण्डादि बनाते हैं।
काष्ठशिल्पी ( बढ़ई) — वर्द्धक तथा वर्द्धमान नाम के इनके दो कुल—बढ़ई हैं, जो इनके लिये शकट, खाट आदि लकड़ी की चीजों का निर्माण करते हैं। अन्य निजी शिल्पी एवं कारुगण — कारव, कुण्ड, कण्ठोल, करण्ड, कटुल आदि ऐसे घरेलू शिल्पी कारुगण हैं, जो इनके गृह में काम आनेवाला — जेवड़ी, मथनिया, कुठार, पेटी आदि सामान बनाते रहते हैं।
चित्रकार — सुचित्र एवं विचित्र नाम के दो पटु चित्र—शिल्पी इनके प्रिय पात्र हैं।
गायें — इनकी प्रिय गायों के नाम हैं-मंगला, पिंगेक्षणा, गंगा, पिशंगी, प्रपातशृंगी, मृदंगमुखी, धूमला, शबला, मणिकस्तनी, हंसी, वंशी—प्रिया आदि।
बलीवर्द (बैल) — पद्यगन्ध तथा पिशंगाक्ष आदि इनके प्रिय बैल हैं।
हरिण ( मृग)-इनके प्रिय मृग का नाम है सुरंग । मर्कट — इनका एक प्रिय बन्दर भी है, उसका नाम है — दधिलोभ। श्वान — व्याघ्र और भ्रमरक नाम के दो कुत्ते भी श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं।
हंस — इनके पास एक अत्यन्त सुमनोहर हंस भी है, जिसका नाम है — कलस्वन।
मयूर — इनके प्रिय मयूरों के नाम हैं शिखी और ताण्डविक।
तोते — इनके दक्ष और विचक्षण नाम के दो प्रिय तोते हैं।
महोद्यान — साक्षात् कल्याणरूप श्रीवृन्दावन ही इनका परम मांगलिक महोद्यान है।
क्रीड़ापर्वत — श्रीगोवर्धनपर्वत इनकी रमणीय क्रीड़ास्थली है।
घाट — इनका प्रिय घाट नीलमण्डपिका नाम से विख्यात है। मानसगंगा का पारंगघाट भी इन्हें अतिशय प्रिय है।
इस घाट पर सुविलसतरा नाम की एक नौका श्रीकृष्णचन्द्र के लिये सदा प्रस्तुत रहती है।
निभृत गुहा — ‘मणिकन्दली’ नामक कन्दरा इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
मण्डप — शुभ्र, उज्ज्वल शिलाखण्डों से जटित एवं विविध सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित ‘आमोदवर्धन’ नाम का इनका निज-मण्डप है। सरोवर – इनके निज—सरोवर का नाम ‘पावन सरोवर’ है, जिसके किनारे इनके अनेक क्रीड़ाकुंज शोभायमान हैं।
कुंज — इनके प्रिय कुंज का नाम ‘काममहातीर्थ’ है। लीलापुलिन — इनके लीलापुलिन का नाम ‘अनंग-रंगभूमि’ है।
निज-मन्दिर — नन्दीश्वरपर्वत पर ‘स्फुरदिन्दिर’ नामक इनका निज-मन्दिर है।
दर्पण — इनके दर्पण का नाम ‘शरदिन्दु’ है।
पंखा (व्यञ्जन) — इनके पंखे को ‘मधुमारुत’ कहा जाता है।
लीला — कमल तथा गेंद — इनके पवित्र लीला—कमल का नाम ‘सदास्मेर’ है एवं गेंद का नाम ‘चित्र—कोरक’ है।
धनुष—बाण — ‘विलासकार्म्मण’ नामक स्वर्ण से मण्डित इनका धनुष है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है।
राग — गौड़ी तथा गुर्जरी नामकी रागिनियाँ श्रीकृष्णको अतिशय प्रिय हैं।
दण्ड ( वेत्र या यष्टिक) — इनके अंत (वेत्र या लड़ी) का नाम ‘मण्डन’ है।
दोहनी — इनकी दोहनी का नाम ‘ अमृत दोहनी’ है। आभूषण — श्रीकृष्णचन्द्र के नित्य प्रयोग में आनेवाले आभूषणों में से कुछ नाम निम्नोक्त हैं — (१) नौ रत्नों से जटित ‘महारक्षा’ नामक रक्षायन्त्र इनकी भुजा में बँधा रहता है। (२) कंकण — चंकन। (३) मुद्रिका – रत्नमुखी। (४) पीताम्बर — निगमशोभन। (५) किंकिणी — कलझंकारा। (६) मंजीर — हंसगंजन। (७) हार — तारावली। (८) मणिमाला — तड़ित्प्रभा। (९) पदक — हृदयमोहन (इसपर श्रीराधा की छवि अंकित है)। (१०) मणि — कौस्तुभ। (११) कुण्डल – रत्यधिदेव और रागाधिदेव (मकराकृत)। (१२) किरीट – रत्नपार। (१३) चूड़ा — चामरडामरी। (१४) मयूरमुकुट — नवरत्न-विडम्ब। (१५) गुंजाली – रागवल्ली। (१६) माला — दृष्टिमोहिनी। (१७) तिलक — दृष्टिमोहन। चरणों में चिह्न दाहिना चरण — अँगूठे के बीच में जौ, उसके बगल में ऊध्वरेखा, मध्यमा उँगली के नीचे कमल, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, जौ के नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, कमल के नीचे ध्वजा, अंकुश के नीचे वज्र, एड़ी के मध्यभाग में अष्टकोण, उसकी चारों दिशाओं में चार सथिये (स्वस्तिक) और उनके बीच में चारों कोनों में चार जामुन के फल — इस प्रकार कुल ग्यारह चिह्न हैं। बायाँ चरण —अँगूठे के नीचे शंख, उसके बगल में मध्यमा उँगली के नीचे दो घेरों का दूसरा शंख, उन दोनों के नीचे चरण के दोनों पार्श्व को छूता हुआ बिना डोरी का धनुष, धनुष के नीचे तलवे के ठीक मध्यम गाय का खुर, खुर के नीचे त्रिकोण, त्रिकोण के नीचे अर्धचन्द्र (जिसका मुख ऊपरकी ओर है), एड़ी में मत्स्य तथा खुर एवं मत्स्य के बीच चार कलश (जिनमें से दो त्रिकोण के आसपास और दो चन्द्रमा के नीचे अगल—बगल में स्थित हैं) —
(१) सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(२) नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।
(३) प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।
(४) प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।
(५) परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं।
विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं।
ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं।
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।
वनवासिनी सखियाँ — मल्ली, भृंगी तथा मतल्ली नामकी पुलिन्द—कन्यकाएँ श्रीराधारानी की वनवासिनी सखियाँ हैं। चित्र बनानेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी के लिये भाँति-भाँति के चित्र बनाकर प्रस्तुत करनेवाली सखी का नाम चित्रिणी है।
कलाकार सखियाँ — रसोल्लासा, गुणतुंगा, स्मरोद्धरा आदि श्रीराधारानी की कला—मर्मज्ञ सखियाँ हैं।
वनादिकों में साथ जानेवाली सखियाँ — वृन्दा,कुन्दलता आदि सहचरियाँ श्रीराधा के साथ वनादिकों में आती—जाती हैं।
व्रजराज के घर पर रहनेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रियपात्री धनिष्ठा, गुणमाला आदि सखियाँ हैं, जो व्रजराज के घर पर ही रहती हैं।
मंजरियाँ — अनंगमंजरी, रूपमंजरी, रतिमंजरी, लवंगमंजरी, रागमंजरी, रसमंजरी, विलासमंजरी, प्रेममंजरी, मणिमंजरी, सुवर्णमंजरी, काममंजरी, रत्नमंजरी, कस्तूरीमंजरी, गन्धमंजरी, नेत्रमंजरी, पद्ममंजरी, लीलामंजरी, हेममंजरी आदि श्रीराधारानी की मंजरियाँ हैं।
इनमें रतिमंजरी श्रीराधाजी को अत्यन्त प्रिय हैं तथा वे रूप में भी इनके ही समान हैं।
धात्रीपुत्री — कामदा है।
यह श्रीराधारानी के प्रति सखीभाव से युक्त है। सदा साथ रहनेवाली बालिकाएँ — तुंगी, पिशंगी, कलकन्दला, मंजुला, बिन्दुला, सन्धा, मृदुला आदि बालिकाएँ सदा सर्वदा इनके साथ रहती हैं।
मन्त्र—तन्त्र—परामर्शदात्री सखियाँ — श्रीराधारानी को यन्त्र—मन्त्र—तन्त्र क्रिया के सम्बन्ध में परामर्श देनेवाली सखियों का नाम है — दैवज्ञा एवं दैवतारिणी।
राधा के घर आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — गार्गी आदि।
वृद्धादूती — कात्यायनी आदि।
मुख्यदूती — महीसूर्या।
चेटीगण — (बँधा काम करनेवाली दासिकाएँ)—श्रृंगारिका आदि। मालाकार-कन्याएँ — माणिकी, नर्मदा एवं प्रेमवती, नामकी मालाकार कन्याएँ श्रीराधारानी की सेवामें नियुक्त रहती हैं।
ये सुन्दर, सुरभित कुसुमों एवं पद्मों का संचयन करके प्रतिदिन प्रात:काल श्रीराधारानी को भेंट करती हैं। श्रीराधारानी प्रायः इन्हें हृदयसे लगाकर इनकी भेंट स्वीकार करती हैं। सैरन्ध्री — पालिन्द्री। दासीगण—रागलेखा, कलाकेलि, मंजुला, भूरिदा आदि इनकी दासियाँ हैं।
गृह-स्नापित-कन्याएँ — श्रीराधारानी के उबटन (अंगराग), अलक्तकदान एवं केश—विन्यास की सेवा सुगन्धा एवं नलिनी नाम की दो स्नापित—कन्याएँ करती हैं।यही इनको स्नान कराती हैं। अत: इस कारण से स्नापिता संज्ञा इनकी सार्थक है। ये दोनों ही श्रीराधारानी को अतिशय प्यारी हैं।
गृह-रजक-कन्याएँ — मंजिष्ठा एवं रंगरागा श्रीराधारानी के वस्त्रों का प्रक्षालन करती हैं।
इन्हें श्रीराधारानी अत्यधिक प्यार करती हैं।
हड्डिप-कन्याएँ — भाग्यवती एवं पुण्यपुंजा श्रीराधारानी के घर की मेहतर—कन्याएँ हैं।
विटगण — सुबल, उज्ज्वल, गन्धर्व, मधुमंगल, रक्तक, विजय, रसाल, पयोद आदि इनके विट (श्रीकृष्ण से मिलन कराने में सहायक) हैं।
कुल-उपास्यदेव — भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं। परन्तु सूर्यदेव को सृष्टि का प्रकाशक होने से उनकी भी अर्चना ये करती हैं।
गायें — सुनन्दा, यमुना, बहुला आदि इनकी प्रिय गायें हैं।
गोवत्सा — तुंगी नाम की गोवत्सा इन्हें अत्यन् प्रिय है।
हरिणी — रंगिणी। चकोरी — चारुचन्द्रिका। हंसिनी — तुण्डीकेरी (यह श्रीराधाकुण्ड में सदा विचरण करती रहती है)।
सारिकाएँ – सूक्ष्मधी और शुभा —ये इनकी प्रिय सारिकाएँ हैं।
मयूरी — तुण्डिका। वृद्धा मर्कटी — कक्खटी। आभूषण — श्रीराधारानी के निम्नोक्त आभूषणों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त भी भाँति—भाँति के अनेक आभूषण उनके प्रयोग में आते हैं — तिलक — स्मरयन्त्र।
मुद्रिका — विपक्षमर्दिनी (इस पर श्रीराधा का नाम उत्कीर्ण है)। करधनी (कांची) — कांचनचित्रांगी। नूपुर-जोड़ी — रत्नगोपुर — इनकी शब्द—मंजरी से श्रीकृष्ण व्यामोहित—से हो जाते हैं।
मणि — सौभाग्यमणि — यह मणि शंखचूड के मस्तक से छीनी गयी थी ।
यह एक साथ ही सूर्य एवं चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त है।
वस्त्र — मेघाम्बर तथा कुरुविन्दनिभ नाम के दो वस्त्र इन्हें अत्यन्त प्रिय हैं।
मेघाम्बर मेघकान्ति के सदृश है, वह श्रीराधारानी को अत्यन्त प्रिय है।
कुरुविन्दनिभ रक्तवर्ण है तथा श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है। दर्पण — मणिबान्धव (इसकी शोभा चन्द्रमा को भी लजाती है)। रत्नकंकती (कंघी) — स्वस्तिदा। सुवर्णशलाका — नर्मदा।
श्रीराधा की प्रिय सुवर्णयूथी (सोनजुही का पेड़) — तडिद्वल्ली।
वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
(नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।
रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
चरणों में चिह्न — बायाँ पैर — अंगुष्ठ—मूल में जौ, उसके नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, छत्र के नीचे कंकण, अंगुष्ठ के बगल में ऊर्ध्वरेखा, मध्यमा के नीचे कमल का फूल, कमल के फूल के नीचे फहराती हुई ध्वजा, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, एड़ी में अर्धचन्द्र–मुँह उँगलियों की ओर। अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा के ऊपर दायीं ओर पुष्प एवं बायीं ओर लता — इस प्रकार कुल ११ चिह्न हैं। दाहिना पैर —अँगूठे के नीचे शंख, अँगूठे के पार्श्व की दो उँगलियों के नीचे पर्वत, अन्तिम दो उँगलियों के नीचे यज्ञवेदी, शंख के नीचे गदा, यज्ञवेदी के नीचे कुण्डल, कुण्डल के नीचे शक्ति, एड़ी में मत्स्य और मत्स्य के ऊपर मध्यभाग में रथ — इस प्रकार कुल ८ चिह्न हैं।
हाथों के चिह्न बायाँ हाथ —तीन रेखाएँ हैं।
पाँचों अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच नद्यावर्त, अनामिका के नीचे हाथी, ऊपर की दो रेखाओं के बीच में अनामिका के नीचे सीध में घोड़ा, जिसके पैर अँगुलियों की ओर हैं,
उसके नीचे दूसरी और तीसरी रेखाओं के बीच में वृषभ, दूसरी रेखा के बगल में कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, अँगूठे के नीचे ताड़ का पंखा, हाथी और अंकुश के बीच में बेल का पेड़, अँगूठे के सामने पंखे के बगल में बाण, अंकुश के नीचे तोमर, वृषभ के नीचे माला। दाहिना हाथ — तीन रेखा वैसी ही।अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच शंख, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, तर्जनी के नीचे चँवर, हथेली के मध्य में महल, उसके नीचे नगाड़ा, अंकुश के नीचे वज्र, महल के आसपास दो छकड़े, नगाड़े के नीचे धनुष, धनुष के नीचे तलवार, अँगूठे के नीचे झारी है ।।
एक और स्मृतियों तथा कहीं कहीं पुराणों रामायण तथा महाभारत मूसलपर्व आदि में अहीर जाति को शूद्र " महाशूद्र ,अशुभदर्शी वर्णसङ्कर और विदेशी आदि तो दूसरी तरफ़ ही स्वयं महाभारत के द्रोणपर्व और सभापर्व आदि में अहीरों को ,आर्य ,शूराभीर, ईश्वरीय सत्ताओं के अंश रूप में वर्णित किया है। तथा जिसके चरणों की धूल लेने के लिए देवत्रयी के तीनों देवता ब्रह्मा " विष्णु और महेश चरण धूलि लेने के लिए व्याकुल रहते हैं।
विदित हो कि पद्म पुराण " स्कन्द पुराण और नान्दी पुराण आदि में अहीरों की जाति में ही यदुवंश का प्रादुर्भाव होने कि वर्णन है और उसी यदुवंश के वृष्णि कुल( खानदान) में कृष्ण के अवतरण का वर्णन हैं। यह सत्य है कि पुराणों में परस्पर विराधाभासी वर्णन ही है ।वस्तुत: ये वैदिक साहित्य के इतर प्राचीन से लेकर आजतक जिस किसी ने अहिरों पर लिख दिया-वह कृति अमर और कालजयी बन गई। संस्कृत के महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग के ४५ वें श्लोक में अहीरों को घोष कह उन्हें घी-दूध से सम्पन्न बताया है ।
निकाला हुआ मक्खन( हैयंगवीन)लेकर राजा को भैंट करने के लिए आगे आते थे।
उनसे बाते करते हुए राजा और रानी मार्ग के आसपास के वनों और उनमें उत्पन्न वृक्षों के नाम आदि उनसे पूछते हुए जाते थे।१/४५
कालिदास ने अहीरों को घोष रूप में वर्णन करते हुए उन्हें पशुधन से सम्पन्न तथा हैयंग (नवनीत)राजा के लिए उपहार रूप में
देने वाला बताया।हिन्दी पद्य सहित्य के भक्ति काल में तुलसीदास,सूरदास,मीराबाई सहित तथा अष्टछाप के अन्य भक्त-कवियों ने तथा राजस्थान के लोक कवि "ईसरदास" ने भी अहीर जाति में भगवान के अवतरण कि बात कही है।
भारतीय हिंदी साहित्याकाश के सूर्य सूरदास का
सम्पूर्ण साहित्य ही अहीर जाति के रंग में सराबोर है। वे अहीर कृष्ण का परिचय इस प्रकार देते है-
मीराबाई का जन्म सन 1498 ईस्वी में पाली के कुड़की गांव में में दूदा जी के चौथे पुत्र रतनसिंह के घर हुआ।ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। उदयपुर के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो में वाड़के महाराणा सांगा के पुत्र थे। मीराबाई ने अपनी पदावली में कहा है कृष्ण के विषय में कृष्ण की अनन्य साधिका राजस्थान को राजपूत घराने की कृष्ण-भक्ति साधिका "मीराबाई लिखती है-
(मीराँ प्रकाशन समिति भीलबाड़़ा राजस्थान)
"मीरा सुधा सिन्धु" पृष्ठ संख्या- (९५८)
(मुरली के पद १५-)
व्रजभाव-प्रभाव-
मुरलिया कैसे धरे जिया धीर।०।
मधुवन बाज वृन्दावन वाजी तट जमुना के तीर।
बैठ कदंब पर वंशी बजाई , फिर भयो जमुना नीर।१।
'मीराँ के प्रभू गिरिधर-नागर आखिर जात अहीर।
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राजस्थान के लोक कवि-भक्तकविमहात्मा- ईसरदास प्रणीत)महात्मा" इसरदास" १६वीं सदी के हिंदू संत-कवि थे, जिनकी पूजा पूरे गुजरात और भारत के राजस्थान राज्यों में की जाती है।
वह चमत्कारी कार्य करने से जुड़े हैं, इसलिए इसे 'इसारा सो परमेसर' कहा जाता है।
देवियां और हरिरास और हला-झालारा कुंडलिया जैसी लोकप्रिय कृतियों का श्रेय इसरदास को दिया जाता है।ईसरदास ने कृष्ण को अहीर कहते हुए वर्णन किया
"नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूँ चारण हरिगुण चवां , सागर भरियो क्षीर।।
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गोस्वामी तुलसी दास भी अहिरो के निर्मल मन ,स्वतंत्र व्यक्तित्व,मनमौजी प्रवृति का बताया ।
जो तुलसीदास उत्तर काण्ड में एक स्थान पर अहीरों को पाप रूप कहते हैं।
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 129से आगे छंद चोपाई:
भावार्थ: अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं,!
उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।
वहीं तुलसीदास उत्तर काण्ड में अन्यत्र अहीरों के विषय में कहते हैं।
भावार्थ-उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे।
निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है॥6॥
(राम चरित मानस-उत्तर काण्ड)
उन्हें अहीरों की सरलता,सहजता ने इस कदर आकर्षित किया कि उन्हें निर्मल मन का प्रतीक बनाना पड़ा।
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गोप "आभीर "यादव और "घोष जैसे शब्द प्राचीन काल से एक ही मानव-जाति के विभिन्न गुणों के आधार पर विशेषण व पर्याय हैं।
वृन्दावन के कुँज में चन्द्रमा की किरणों से प्लावित रात्रि में नन्दपुत्र श्रीकृष्ण ने गोपीगण के साथ रास-नृत्य मूलक(हल्लीशम्) आनन्दक्रीड़ा की थी ; भला उन गोपी गण के भाग्य का गायन मैं कैसे कर सकता हूँ ?
उन गोपी गण की चरण-रज लेने के लिए इन्द्र आदि देवता ही नहीं अपितु स्वयं देवत्रयी के प्रतिनिधि ब्रह्मा,विष्णु और महेश भी व्यग्र रहते हैं
वृन्दावन के तृण ,मृग पक्षी और कृमि पर्यन्त प्राणीगण भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पूज्यत्तम हैं । वृन्दावन में जो कोई भी प्राणी भक्तिभाव से इन अद्वैत ब्रह्म की उपासना करेगा वह आनन्द-सिन्धु में प्लावित हो जायेगा ।
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यहाँ एक बात विचारणीय है कि ,साधारण देव इन्द्र आदि की तो बात ही छोड़ो बल्कि सृष्टि के तीन काल और तीन गुणों ( सत,रज और तम के प्रतिनिथि ईश्वर के प्रतिरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गोप- गोपिकाओं के पैरों की धूल लेने के आकाँक्षी हैं। गोप गोपिकाओं की महानता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ?
सन्दर्भ:बृहद् नारद पुराण बृहद उपाख्यान में उत्तर-भागका वसु महिनीसंवाद के अन्तर्गत वृन्दावन महात्म्य नामक अस्सीवाँ अध्याय।
पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणामन्तः समुत्थकलिना युधि भूपचम्वः
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ।६७।____________________________________
हिन्दी अर्थ-•नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद:- विदर्भ के वंश का वर्णन:-
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित !
राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद। रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का पुत्र चेदि हुआ। राजन ! इस चेदि के वंश में ही दमघोष और शिशुपाल आदि हुए। क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि,धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम और व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ औरदशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से जन्म हुआ। परीक्षित ! मधु
सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य,( सात्वत-पुत्र वृष्णि प्रथम), देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।
सात्वत पाँचवें पुत्र देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं। बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है।
इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर (चौदह हजार पैंसठ) मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं।’
सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए। परीक्षित !
वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के ( युधाजित् पुत्र शिनि प्रथम) और अनमित्र-ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ । सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी "निम्न" के ही पुत्र थे।
अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था (अनमित्र पुत्र शिनि द्वितीय) शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए।
सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम ( अनमित्र-पुत्र वृष्णि द्वितीय ) था। इन्हीं वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र और उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु।इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव।श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं। सात्वत के पुत्र (अन्धक प्रथम) के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का ( कपोतरोमा पुत्र अनु द्वितीय) हुआ। तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र (अन्धक द्वितीय), अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इन चारों की सात बहिनें भी थीं- धृतदेवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव ने इन सबके साथ विवाह किया था।
परन्तु पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १३ में वसुदेव की देवक द्वारा प्रदत्ता कन्याओं का पत्नियों के रूप में वर्णन भिन्न है। देखें निम्न श्लोकों को-
देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा। श्रीदेवा चोपद देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा।श्रीदेवा चोपदेवा च सुरूपा चेति सप्तमी।५७।।
नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद:-उग्रसेन के नौ पुुत्र थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान और उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं
-कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था।
चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से (भजमान पुत्र शिनि तृतीय), शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए। हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और (नौबत) मंगलसूचक वाद्य जो पहर पहर भर पर देवमंदिरों, राजप्रसादों था बड़े आदमियों के द्वार पर बजता है।) वे स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए।
वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी । वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी।
पृथा ने दुर्वासा ऋषि को प्रसन्न करके उनसे देवताओं को बुलाने की विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्या के प्रभाव की परीक्षा लेने के लिये पृथा ने परम पवित्र भगवान् सूर्य का आवाहन किया।उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्ती का हृदय विस्मय से भर गया।उसने कहा- ‘भगवन! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करने के लिये ही इस विद्या का प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’। सूर्यदेव ने कहा- ‘देवि! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिय हे सुन्दरी! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा।' यह कहकर भगवान सूर्य ने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखने में दूसरे सूर्य के समान जान पड़ता था। पृथा लोकनिन्दा से डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःख से उस बालक को नदी के जल में छोड़ दिया। परीक्षित! उसी पृथा का विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डु से हुआ था, जो वास्तव में बड़े सच्चे वीर थे। परीक्षित! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था।उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए।
चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्ध में) कर चुका हूँ।
वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए।
आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित।
नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध:
चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद)-सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये।शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।आनकदुन्दुभि वसुदेव की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं।रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम,गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि। नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए वसुदेव के पुत्र थे। कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था।उसका नाम था केशी; उसने रोचना
से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया। परीक्षित ! वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए। देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए. तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये। परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से
भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के
नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी।
उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।
प्रवर—प्रवर या पौवर; श्रुत—श्रुत; मुख्यान्—प्रमुख, इत्यादि; च—तथा; साक्षात्—साक्षात्; धर्म:—धर्म रूप; वसून् इव—स्वर्ग लोक के प्रमुख वसुओं की तरह; वसुदेव:—कृष्ण के पिता वसुदेव ने; तु—निस्सन्देह; देवक्याम्—देवकी के गर्भ से; अष्ट—आठ; पुत्रान्—पुत्रों को; अजीजनत्—उत्पन्न किया; कीर्तिमन्तम्—कीर्तिमान को; सुषेणम् च—तथा सुषेण को; भद्रसेनम्—भद्रसेन को; उदार-धी:—सभी योग्य; ऋजुम्—ऋजु को; सम्मर्दनम्—सम्मर्दन को; भद्रम्—भद्र को; सङ्कर्षणम्—संकर्षण को; अहि-ईश्वरम्— परम नियन्ता एवं नाग के अवतार; अष्टम:—आठवाँ; तु—लेकिन; तयो:—दोनों के (देवकी तथा वसुदेव के); आसीत्—प्रकट हुए; स्वयम् एव—साक्षात्; हरि:—भगवान्; किल—क्या कहा जाय; सुभद्रा—सुभद्रा बहिन; च—तथा; महाभागा—सौभाग्यशालिनी; तव—तुम्हारी; राजन्—हे महाराज परीक्षित; पितामही—दादी ।.
सहदेवा से उत्पन्न प्रवर और श्रुत इत्यादि आठों पुत्र स्वर्ग के आठों वसुओं के हूबहू अवतार थे। वसुदेव ने देवकी के गर्भ से भी आठ योग्य पुत्र उत्पन्न किये। इनमें कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, सम्मर्दन, भद्र तथा शेषावतार संकर्षण सम्मिलित हैं। आठवें पुत्र साक्षात् भगवान् कृष्ण थे। परम सौभाग्यवती सुभद्रा एकमात्र कन्या तुम्हारी दादी थी।
५५ वें श्लोक में कहा गया है—स्वयमेव हरि: किल, जिससे सूचित होता है कि देवकी का आठवाँ पुत्र कृष्ण भगवान् हैं। कृष्ण अवतार नहीं हैं। यद्यपि भगवान् हरि एवं उनके अवतार में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु कृष्ण आदि परम पुरुष हैं, वे पूर्ण ईश्वर हैं। अवतारों में ईश्वर की कुछ ही प्रतिशत शक्तियाँ पाई जाती हैं, किन्तु कृष्ण तो स्वयं पूर्ण ईश्वर हैं जो देवकी के आठवें पुत्र के रूप में प्रकट हुए।
(परन्तु हरिवंशपुराण हरिवंशपर्व अध्याय -(३५) तथा महाभारत के अनुसार भी सुभद्रा रोहिणी की पुत्री है।
पौरवी रोहिणी नाम बाह्लिकस्यात्मजाभवत्। ज्येष्ठा पत्नी महाराज दयिताऽऽनकदुन्दुभेः।४। लेभे ज्येष्ठं सुतं रामं सारणं शठमेव च। दुर्दमं दमनं श्वभ्रं पिण्डारकमुशीनरम् ।५। चित्रां नाम कुमारीं च रोहिणीतनया दश। चित्रा सुभद्रेति पुनर्विख्याता कुरुनन्दन।६। पुरुवंश की रोहिणी वाल्हिका की पुत्री थी । हे राजा वह वसुदेव की पहली और सबसे प्यारी पत्नी थी।४-।
वासुदेव ने रोहिणी से अपने ज्येष्ठ पुत्र बलराम, शारण , शठ , दुर्दम, दमन , स्वभ्र, पिंडारक , उशीनारा और चित्रा नाम की एक पुत्री को जन्म दिया। हे कुरु-वंशज, यह चित्रा थी जो सुभद्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई। ५-६। जब संसार में धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं।परीक्षित! भगवान् सब के द्रष्टा और वास्तव में असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का और कोई भी कारण नहीं है। (उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है)। और उनका अनुग्रह ही माया को अलग करके आत्मस्वरूप को प्राप्त करने वाला है। जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वी को रौंदने लगे, तब पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान् मधुसूदन बलराम के साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध में बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकते-शरीर से करने की बात तो अलग रही। पृथ्वी का भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुग में पैदा होने वाले भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान् ने ऐसे परम पवित्र यश का विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे।नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 62-67 का अनुवाद- उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करने वाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतों के कानों के लिये तो वहसाक्षात् -अमृत ही है। एक बार भी यदि कान की अंजलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं।
परीक्षित ! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे। उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोहर विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्य लोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था। भगवान् के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे।उनकी आभा से कपोलों का सौन्दर्य और भी खिल उठता था।
जब वे विलास के साथ हँस देते, तो उनके मुख पर निरन्तर रहने वाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरने से उनके गिराने वाले निमि पर खीझते भी।
लीला पुरुषोत्तम भगवान अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेव जी के घर, परन्तु वहाँ वे रहे नहीं, वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन-जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था-पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया। बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया। कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हलका कर दिया और युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया।फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधाम को सिधार गये। इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायःइति नवमः स्कन्धः समाप्तः
अर्थ •-दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय (पूर्वार्ध) श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय:
श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद भगवान का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति
विश्वात्मा भगवान ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाले यदुवंशी कंस के द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को यह आदेश दिया - 'देवि ! कल्याणी ! तुम ब्रज में जाओ ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओं से सुशोभित है। वहाँ नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी निवास करती है। उसकी और भी पत्नियाँ कंस से डरकर गुप्त स्थानों में रह रहीं हैं।
इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकी के उदर में गर्भ रूप से स्थित है।
उसे वहाँ से निकालकर तुम रोहिणी के पेट में रख दो, कल्याणी ! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना। तुम लोगों को मुँह माँगे वरदान देने में समर्थ हो ओगी।मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजाकरेंगे। पृथ्वी में लोग तुम्हारे लिए बहुत से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत से नामों से पुकारेंगे।
देवकी के गर्भ से खींचे जाने के कारण शेष जी को लोग संसार में ‘संकर्षण’ कहेंगे, लोकरंजन करने के कारण ‘राम’ कहेंगे और बलवानों में श्रेष्ठ होने कारण ‘बलभद्र’ भी कहेंगे।' जब भगवान ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमाया ने ‘जो आज्ञा’, ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वी-लोक में चली आयीं तथा भगवान ने जैसा कहा था वैसे ही किया। जब योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणी के उदर में रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःख के साथ आपस में कहने लगे - 'हाय ! बेचारी देवकी का यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया।' भगवान भक्तों को अभय करने वाले हैं। वे सर्वत्र सब रूप में हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिए वे वसुदेव जी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गय।
👇-👇 "दशम स्कन्ध के पैंतालीसवें अध्याय में एक स्थान पर भागवत पुराणकार ने ययाति के यदु को दिए गये शाप का वर्णन तो किया परन्तु भागवतपुराणकार की बातों का समन्वयपरक प्रस्तुतिकरण संगत नहीं किया है। जो श्लोकों के प्रक्षिप्त होने का प्रमाण है । कदाचित् ये मिलाबटें कालान्तरण में हुईं क्यों कि यदुवंशी उग्रसेन भी थे और कृष्ण भी; परन्तु कृष्ण यदुवंशी होने से राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं परन्तु उग्रसेन यदुवंश के होने पर क्यों बैठते हैं जैसा कि भागवत के इन श्लोकों में दर्शाया है। देखिए निम्न श्लोकों को
अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए !"क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।१३।अब ---मैं पूँछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ? यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह शाप उन पर क्यों लागू नहीं हुआ ? यद्यपि यह श्लोक गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड अध्याय षष्ठम् में वर्णन है कि ।👇-
•-यादवेन्द्र उग्रसेन ने जम्बूदीप के अनेक राजाओं को जीत कर राजसूय यज्ञ करेंगे । फिर तो यह तथ्य असंगत ही है ;कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। यही बात भागवत पुराण के समान ब्रह्म पुराण अध्याय १९४ में भी है 👇-
अर्थात् ययाति का शाप होने से हम राज्य पद के योग्य नहीं हैं ।
( ब्रह्म पुराण अध्याय १९४)
"अत्रावतीर्णयोःकृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतःकस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।३२।
दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्। तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।३३।
यद्यपि कालान्तरण में ग्रन्थों के प्रकाशन काल में भी अनेक मिलाबटों के रूप में जोड़ -तोड़ हो जाने पर भी अनेक प्रक्षेप व विरोधाभासी श्लोक देखने को मिलते हैं । जैसे भागवत पुराण में देखें ये कुछ विरोधाभासी श्लोक •👇
भगवन् आपने बताया कि बलराम रोहिणी के पुत्र थे ।इसके बाद देवकी के पुत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ? दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है ? ।८।
तब द्वित्तीय अध्याय के श्लोक संख्या (८) में शुकदेव परिक्षित् को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।👇-
अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सबकुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को आदेश दिया।6।
"कि देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है ।वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं ।उनकी और भी अन्य पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7। इस समय मेरा अंश जिसे 'शेष' कहते हैं।देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है ! उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8। कल्याणि !अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से पुत्री बन कर जन्म लेना ।9।
अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं देखिए -👇
"गर्भ संकर्षणात् तं वै प्राहु: संकर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13।
अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच जाने के कारण से (संकर्षणात्) शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे । चलो ! ये संकर्षण की व्युत्पत्ति तो कुछ सही है ।👇-
(जैसा कि धातुपाठ क्षीरतरंगिणी आदि में 'कृष्' धातु का अर्थ है- खुरचना खींचना तथा हल-चलाना है और जो कृषि करता है वह कृष्ण या संकर्षण है - (कृष्- विलेखने हलोत्किरणम् कर्षति इति कृष्ण संकर्षण वा )
कृष्ण और संकर्षण दोनों शब्द कृषक और कृषि मूलक हैं। देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में संकृष्ट करने का आख्यान अनेक पुराणों में है परन्तु जो शब्द व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि से तो सही है परन्तु एक गर्भ से खींचकर दूसरे के गर्भ में स्थापित करना अतिरञ्जना पूर्ण है जो पूर्णत: प्रकृति के नियमों के विरुद्ध ही है ।।
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अब भागवत पुराण के दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में ही गर्गाचार्य संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण (Etymological Analization) दूूूसरी प्रकार से ही करते हैं; जो वस्तुत: व्याकरण सम्मत नहीं है। 👇
यह श्लोक परवर्ती काल में कुछ द्वेष वादीयों ने भागवत में जोड़ दिया है जो तथ्यों के विपरीत ही है। देखें वह श्लोक
-१-अयं हि रोहिणी पुत्रो २-रमयन् सुहृदो गुणै:आख्यास्यते राम इति !३बलाधिक्याद् बलं विदु: ४-("यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत")।12)
गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा। यह अपने सगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा ! इसलिए इसका नाम राम भी होगा। इसके बल की कोई सीमा नहीं है इस लिए इसका नाम बल भी होगा।
यहाँ तक तो रौहिणेय ,राम और बल शब्दों की व्युत्पत्ति सही हैं।परन्तु संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-ही यहाँ पूर्ण रूपेण काल्पनिक व असंगत है। -जो भागवतपुराण की प्रमाणिकता व प्राचीनता को संदिग्ध करती है ।👇
संकर्षण व्युत्पत्ति-के सन्दर्भों में भागवतपुराणकार ने दूसरी बार कहा कि इसका नाम संकर्षण इस लिए होगा कि "यह यादवों और गोपों में कोई भेदभाव नहीं करेगा ! और लोगों में फूट पड़ने पर मेल कराएगा इसीलिए इसका नाम संकर्षण भी होगा (👈)यहाँ संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरण सम्मत नहीं है । यद्यपि इस श्लोक का सही अर्थ भी इस प्रकार है।
कि 'यादवानाम्(यादवों में ही )अपृथग्भावात्-अपृथक के भाव से अर्थात एकीकरण करने से-यह संकर्षण कह लाएगा) परन्तु गीताप्रेस के अनुवादक ने गोप शब्द अनुवाद में कहाँ से उत्पन्न किया है यह पता नहीं।
जबकि पूर्व में देवकी के गर्भ से संकृष्ट (खीचें जाने होने से)संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति सही की गयी है।और दूसरा इस श्लोक के प्रक्षिप्त(नकली) होने का कारण गोप शब्द का अर्थ है ।
(यद्यपि यहाँ गोप शब्द वाच्य नही है फिर भी गीता प्रेस के अनुवादकों ने यह अर्थ अपने और से अर्थ में समाहित कर लिया है ।अत: यह श्लोक भी प्रक्षिप्त ही है। जबकि गोप भी गोपालक यादव ही थे जैसा कि गोपाल चम्पू में वर्णित है । गोपाल चम्पू भागवत पुराण का ही प्राचीन भाष्य है।
हे नन्द ! आप यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गण के पूज्य हैं। और मातृवंश का सम्बन्ध रहने के कारण जो समस्त ब्राह्मण वैश्य गण के गुरु हैं। वे ही आपके इस संस्कार कर्म को सम्पादित करेंगे न कि मैं गर्गाचार्य ! ।।६०।।
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"गर्गसंहिता-गोलोकखण्ड" में वर्णन है कि एक बार जब मथुरा नगरी में शूरसेन के राजभवन में अचानक गर्गाचार्य पधारे तो लोगों द्वारा जब उनके विषय में ज्ञात हुआ कि गर्गाचार्य ज्योतिष शास्त्र के प्रमाणित विद्वान हैं उसी समय शूरसेन सभा के सभी यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें उसी समय अपने पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित किया। गर्ग संहिता गोलोकखण्ड अध्याय (नवम)
"गर्गसंहिता | खण्डः (१) (गोलोकखण्डः) इससे पहले ये यादवों के कुल गुरु नहीं थे।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! एक समय की बात है, श्रेष्ठ मथुरा पुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्गजी पधारे।वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े प्रामाणिक विद्वान थे ; सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें उसी समय अपने पुरोहित के पद पर प्रतिष्ठित किया था। गर्गसंहिता गोलोकखण्ड अध्याय(नवम) गर्ग -आचार्य का शूरसैन के पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित होना सूचित करता है कि की ये गर्गाचार्य शूरसेन के पिता देवमीढ के पुरोहित नहीं रहे थे
जिस कंस से देव भी डरते थे उस कंस को एक गोप बालक ने मार डाला ।५२।
ततः सुरास्तेन निहन्यमाना
विदुद्रुवुर्लीनधियो दिशान्ते ।
केचिद्रणे मुक्तशिखा बभूवु-
र्भीताः स्म इत्थं युधि वादिनस्ते ॥५३॥
•-कंस की मार पड़ने से देवताओं के होश उड़ गये और वे चारों दिशाओं में भागने लगे।
कुछ देवताओं ने रणभूमि में अपनी शिखाएँ खोल दीं और ‘हम डरे हुए हैं (हमें न मारो)’- इस प्रकार कहने लगे। ५३।
केचित्तथा प्रांजलयोऽतिदीनव-
त्संन्यस्तशस्त्रा युधि मुक्तकच्छाः ।
स्थातुं रणे कंसनृदेवसंमुखे
गतेप्सिताः केचिदतीव विह्वलाः ॥ ५४ ॥
•-कुछ देवगण हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन की भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्र की (लाँग) भी खोल डाली। कुछ लोग अत्यंत व्याकुल हो युद्धस्थल में राजा कंस के सम्मुख खड़े होने तक का साहस न कर सके।५४। उसी महान योद्धा को गोपाल कृष्ण ने कम प्रयास में ही मार डला-
"गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च गंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः।२२।
अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।
इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं। इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
बलराम के गुणों का वर्णन करते हुए विष्णु पुराण हरिवंश पुराण और ब्रह्मपुराण में समान श्लोकों के द्वारा गोपालों के द्वारा ही डूबे हुए यदुवंश के जहाज का उद्धार करने का वर्णन बलराम को लक्ष्य करके हुआ है । देखें क्रमश: निम्न श्लोकों में यही तथ्य -
"दास शब्द का अर्थ "भक्त तो आज कई उतार-चढ़ावों के बाद हुआ है वह भी भक्तिकाल की बारहवीं तेरहवीं सदी से मात्र यदि सायण के अनुसार वैदिक सन्दर्भों में "दास का अर्थ "भक्त ही है तो वेदों की इन ऋचाओं में भी "शम्बर और "वृत्र के लिए भी "दास शब्द का अर्थ "भक्त ही होना चाहिए जिनका देवों के नेता इन्द्र से युद्ध हुआ था । परन्तु वहाँ दास का अर्थ विनाशक कैसे हुआ ? महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी वेदो को ईश्वरीय रचना मानते हैं ऋषियों के द्वारा प्रकट और ये वेदों में इतिहास नहीं मानते हैं ।
'परन्तु ये सब अनर्थ ही है । क्योंकि प्रत्येक प्राचीन तथ्य स्वयं में इतिहास का मानक ही है ।
सबसे नीचे महर्षि दयान्द की -विचार धारा के अनुयायी पं० हरिश्चन्द्र सिद्धान्तालंकार दास का अर्थ:-ऋग्वेद के दशम मण्डल की बासठवें सूक्त की दशवीं ऋचा में "भक्त" बता रहे हैं ।
जो कि पूर्ण रूप से असंगत अप्रासंगिक है ।
यह सब भाषा विज्ञान की जानकारी न होना ही है। उनका अनुवाद भी सायण के भाष्य-पर आधरितहै।
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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
"गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।(ऋग्वेद १०/६२/१०)
सायण ने इस ऋचा का अर्थ किया " कल्याण कारी बात करने वाले गायें से युक्त "यदु और "तुर्वसु नामक राजा मनु के भोजन के लिए पशु देतें हैं (सायण अर्थ१०/६२)१०)
उपर्युक्त ऋचा में दास असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को "दास" कह कर ही वर्णित किया गया है । ____________________________________
कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे
अर्थात् कुलितर यो कोलों की सन्तान होने से कौलितर
“उत दासं कौलितरं वृहतः पर्व्वतादधि ।
अवाहान्निन्द्र” शम्बरम्” ऋ० ४ । ३०। १४
कुलितरनाम्नोऽपत्यं शम्बरमसुरम्”
अर्थात् इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए "कौलितर शम्बर" को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया ।
विदित हो कि असुर संस्कृति में 'दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ तथा 'कुशल' होता है ।
ईरानी आर्यों ने "दास' शब्द का उच्चारण "दाहे" के रूप में किया है ।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे
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"क्षत्रिय गोपालक और क्षेत्रपालक( खेती करने वाले) होते थे। जैसा कि सहस्रबाहू अर्जुन को बताया गया है।
"स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव हिस एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोभवत्।११७।
इस प्रकार आर्य शब्द भी कृषि से सम्बन्धित था। जैसा कि वैदिक सन्दर्भों में अब भी है।
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परन्तु राजपूतों को कभी भी पशुपालन और खेती से सम्बन्धित नहीं माना गया ये तो युद्धों में वेतन पर लड़ने का काम करते थे ।
आधुनिक राजपूत शब्द एक जाति से अब संघ का वाचक बन गया है। जबकि क्षत्रिय आज भी एक वर्णव्यवस्था का अंग है।"आभीर शब्द वीरता प्रवृत्ति का सूचक है।जो कि अपने पूर्व रूप में "वीर" रूप में प्रतिष्ठित है। और जातियों का निर्धारण भी प्रवृत्तियों से ही होता है।अत: आभीर एक जातिगत विशेषण है और जाति में वंश हुआ जैसा कि यदुवंश और वंश में कुल (खानदान) होते हैं। आभीर मूलक वीर शब्द आर्य शब्द का ही सम्प्रसारित रूप है।वेदों में आर्य शब्द भी मूलत: कृषक का वाचक है।आर्य शब्द संस्कृत की अर् (ऋ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन सर्वमान्य अर्थ संस्कृत धातु पाठ में उल्लिखित हैं । १–गमन करना Togo २– मारना tokill ३– हल (अरम् Harrow ) चलाना मध्य इंग्लिश में—रूप Harwe कृषि कार्य करना प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य चरावाहे ही थे इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं।पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व काशकृत्स्न धातुपाठ में ऋृ (अर्) धातु तीन अर्थ "कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ ३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) के रूप में उद्धृत है।वास्तव में संस्कृत की "अर्" धातु का तादात्म्य (मेल) "identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर "Errare =to go से प्रस्तावित है। जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः(Araval)तथा (Aravalis) हैं । यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं। अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है =आर्य एक पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने "वैैश्यों का समूह " किया है। संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी । २. ईश्वर और ३. वैश्य है। संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है। समानार्थक:ऊरव्य,ऊरुज,अर्य,वैश्य,भूमिस्पृश्-विश् ।2।9।1।1।3
अर्थ- (मानुषाय)- मनुष्यों के (क्षयाय) रोग के लिए (चिकित्सन्ती) -उपचार करती हुई (विहायः) -आकाश में उषा उसी प्रकार व्यवहार करती है जैसे (अर्या) -कृषक की कन्या (कृष्णात्)- कृषि कार्य करने के उद्देश्य से (उदस्थात्)- सुबह ही उठती है । (अयोजि)-अकेली (दक्षिणायाः)- कुशलता से (एनम्)- इस उषा को (पृथुः) -विशाल(रथः)- रथ(अमृतास:)-अमरता के साथ (देवासः)-देवगण(आ,अस्थुः)उपस्थित करते हैं।
देवों के विशाल रथ पर उपस्थित होकर मनुष्यों के रोगों का उपचार करती हुई उषा आकाश में उसी प्रकार का स्वाभाविक व्यवहार करती है। जिस प्रकार कोई कृषक ललना( पुत्री) कृषि कार्य के उद्देश्य से अकेली सुबह उठ जाती है।१।
मन्त्र -भागवत के लेखक नीलकण्ठ सूरि ऋग्वेद में कृष्ण विषयक घटनाओं के सन्दर्भ में वर्णन करते हैं। आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर ही थे ! उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि और गो -पालन था । जबकि ब्राह्मण कहता है "हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है। फिर ब्राह्मण आर्य्य किस प्रकार हुए।संस्कृत भाषा मे "आरा" और "आरि" शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है।
सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण,"अर" है ।(और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् सम्प्रसारण होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" है।
यह भी सम्भव है कि 'हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो
"ऋ" धातु के पश्चात् "यत्" प्रत्यय करने से कृदन्त शब्द "अर्य्य और आर्य बनते हैं ।आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से सिद्धि होता है। विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ "कृषि मूलक ही है। इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
अर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है। फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में भाष्य पाया जाता है। और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है। फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं। प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि- कार्य) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नहीं। कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं !गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण ( बलराम) दौनों नाम इस बात के प्रमाण हैं। ये दोनों ही युगपुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे ।कालान्तरण में कृषि और गोपालन वृत्ति को पुरोहित वर्ग द्वार महत्व हीन मान लिया गया।
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं ! कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।मनुस्मृति में वर्णन है कि "वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणःक्सत्रियोऽपि वा।हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।10/83 अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है।"परन्तु यही मनुस्मृति ब्राह्मणों हिंसा करके मांस खाने की आज्ञा देती है।मनुस्मृति के अध्याय तीन में श्लोक संख्या 122 से लेकर श्लोक संख्या 283 तक, यानी 162 श्लोकों में 'पितर श्राद्ध' से संबन्धित कर्मकाण्ड का विधान है।
जिनमें ब्राह्मणों को सादर आमंत्रित करके, उनकी पूजा अर्चना के बाद उन्हें जिमाने की व्यवस्था है। जिसमें बताया गया है कि, ब्राह्मणों को क्या-क्या खिलाने से, पितरों को कितने-कितने समय तक की तृप्ति मिलती है
प्रस्तुत हैं, उन्हीं में से अर्थ सहित कुछ चुने हुए श्लोक...
पित्रणां मासिकं
श्राद्धमन्वाहार्यं विदुर्बुधा।
तच्चामिषेण कर्तव्यं
प्रशस्तेन प्रयत्नतः।।
मनुस्मृति 3/123
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भावार्थ- पितरों के मासिक श्राद्ध को, विद्वान 'पिण्डान्वाहार्यक' नामक श्राद्ध कहते हैं। और इसे यत्नपूर्वक उत्तम 'मांस' के द्वारा सम्पन्न करना चाहिए।
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पूर्वेद्युरपरेद्युर्वा
श्राद्धकर्मण्युपस्थिते।निमन्त्रयेत त्र्यवरान्
सम्यक् विप्रान् यथोदितान्।मनुस्मृति-3/187
भावार्थ- श्राद्ध का समय आने पर, पहले दिन अथवा अगले दिन उपरोक्त कथनानुसार कम से कम तीन ब्राह्मणों को अवश्य निमन्त्रण दे।
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उपवेश्य तु तान्विप्रान्
आसनेष्वजुगुप्सितान्।
गन्धमाल्यैः सुरभिभिः
अर्चयेत् देवपूर्वकम्।।
(मनुस्मृति 3/209)
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भावार्थ- उन अनिन्दित ब्राह्मणों को आसनों पर बिठाकर सुगंधियों से युक्त चन्दन, केशर आदि पदार्थों तथा मालाओं से देवताओं की तरह उनका पूजन करे।
पाणिभ्यां तूपसंगृह्यस्वयमन्नस्य वर्धितम्।
विप्रान्तिके पित्रन्ध्यायन् शनकैरुपनिक्षिपेत्।।
मनुस्मृति 3/224
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भावार्थ- अन्न से भरे पात्रों को स्वयं पकड़कर, पितरों का ध्यान करते हुए धीरे से ब्राह्मणों के पास रखे।
भक्ष्यं भोज्यं च विविधं
मूलानि च फलानि च।
ह्रद्यानि चैव मांसानि
पानानि सुरभीणि च।।
(मनुस्मृति 3/227)
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भावार्थ- विविध प्रकार के भोज्य पदार्थ, मूल और फल, उत्तम प्रकार के मांस तथा सुगन्धित पेय पदार्थ उनके सामने रखे।
हर्षयेद्ब्राह्मणांस्तुष्टो
भोजयेच्च शनैः शनैः।
अन्नाद्येनासकृच्चैतान्गुणैश्च
परिचोदयेत्।। (मनुस्मृति 3/233)
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भावार्थ- हर्ष पूर्वक, ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करते हुए उन्हें खिलावे। खाद्य पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए बार-बार और लेने का आग्रह करे।
या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।
अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।
योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।।
( मनुस्मृति-५.४४-४५)
भावार्थ –जिस हिंसा का वेदों में विधान किया गया है, वह हिंसा न होकर अहिंसा ही है, क्योंकि हिंसा, अहिंसा का निर्णय वेद करता है।
श्वभिर्हतस्य यन्मांसं शुचि तन्मनुरब्रवीत् । क्रव्याद्भिश्च हतस्यान्यैश्चण्डालाद्यैश्च दस्युभिः। ५.१३१[१२९ं] ।भावार्थ- मनु के अनुसार, कुत्तों द्वारा पकड़े गए मृग, ‘शेरों द्वारा खाया गया कच्चा मांस, चांडाल व चोरों द्वारा मारे गए मृग का मांस शुद्ध है।
अर्थात् ब्राह्मण यज्ञ के लिए बडे़ मृग (चौपाए) पशु और पक्षियों का वध करें ! और ब्राह्मण अपनी इच्छा के अनुसार धुले हुए मांस को खाएं ।
परन्तु कृषि करने में जीवों की हिंसा है। जीवों की हिंसा करके माँस खाने में हिंसा नहीं-
अर्थात् कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वाद का समर्थक वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है। महाभाष्यकार आर्यों के निवास का विधान करता हुआ कहता है।
ग्राम (ग्रास- क्षेत्र) घोष नगर आदि में आर्य निवास करें विदित हो कि घोष-अहीरों की वस्ती को कहते हैं जहाँ गायों का निवास होता है। देखें -( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है । जैसा कि नृसिंह पुराण में वर्णन करते विधान निश्चित किया है।
सायद यही कारण है । किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
दृढ़ता और धैर्य पूर्वक वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है ।
किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद दूसरा कोई नहीं इस संसार में
परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !और कोई मूल्य नहीं ! फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिकगतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक दोनों को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान तक बना डाले और अन्तत: वणिक को शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है । पणि: अथवा फनीशी जिसके पूर्वज थे यह आश्चर्य ही है। किसानों के विधान बनाने वाले भी किसान की रोटी से ही पेट भरते हैं ।परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में वर्ण-व्यवस्था के मूल में नहीं हैं ऐसी व्राह्मण वर्ण-व्यवस्था निराधार ही थी ।
किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।"रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है
वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।
१-व्यवहर्त्ता २- वार्त्तिकः ३- वणिकः ४- पणिकः । इति राजनिर्घण्टः में ये वैश्य के पर्याय हैं ।
ऋषि पत्नी कहती है ! कि सभी अन्य देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम)
परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम ) यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् ) और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )
प्रस्तुत सूक्त में अरि: युद्ध के देव वाचक है । परन्तु यहाँ सभी देवताओं से है।
आर्य ईश्वरपुत्रः। निरुक्त(६\२६ )
(विश्वः अन्यः अरिः= सर्वोऽन्य ईश्वरः हि =निश्चय) “ईश्वरोऽप्यरिः” [ निरु० ५।७] “प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो
The name Abir is one of the titles of the Living God. For some reason it's usually translated (for some reason all God's names are usually translated and usually not very accurate), and the translation of choice is usually Mighty One, which isn't very accurate. Our name occurs six times in the Bible but never alone; five times it's coupled with the name Jacob and once with Israel.
In Isaiah 1:24 we find four names of the Lord in rapid succession as Isaiah reports: "Therefore AdonYHWHSabaoth Abir Israel declares..". Another full cord occurs in Isaiah 49:26: "All flesh will know that I, the Lord, am your Savior and your Redeemer, the Abir Jacob," and the identical is noted in Isaiah 60:16.
The full name Abir Jacob was first spoken by Jacob himself. At the end of his life, Jacob blessed his sons, and when it was Joseph's turn he spoke to him of blessings from the hands of Abir Jacob (Genesis 49:24). Many years later, the Psalmist remembered king David, who swore by Abir Jacob that he would not sleep until he had found a place for YHWH; a dwelling place for Abir Jacob (Psalm 132:2-5).
अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है जैसे भगवान के नामों का आमतौर पर अनुवाद किया जाता है और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होता है। और पसंद का अनुवाद आमतौर पर रक्षक ही होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। हमारा यह अबीर नाम बाइबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले कभी नहीं; पांच बार इसे याकूब और एक बार इस्राएल के नाम से जोड़ा जाता है ।
यशायाह 1:24 में हम यशायाह की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम पाते हैं : "इसलिए अदोन यह्व (YHWH) सबाथ और अबीर" इज़राइल घोषित करता है ..."। यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी होती है: "सभी मनुष्य जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा छुड़ानेवाला, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।
अबीर जैकब का पूरा नाम सबसे पहले खुद जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीष दी, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति 49:24)। कई वर्षों बाद, भजन लिखने वाले को राजा दाऊद की याद आई , जिसने अबीर याकूब की शपथ खाई थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक उसे यहोवा के लिए जगह नहीं मिल जाती; वही "अबीर" याकूब का निवास स्थान या शरण है।(भजन संहिता 132:2-5)।
उसे कई बार अबीर इज़राइल (यशायाह 1:24) या अबीर जैकब (उत्पत्ति 49:24, भजन 132:2 और 132:5, यशायाह 49:26 और 60:16) के रूप में जाना जाता है।
†-हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :---- (१)----अबीर (२)----अदॉन (३)---सबॉथ (४)--याह्व्ह्
तथा (५)----(इलॉही) अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से सभी भगवान के नामों का आमतौर पर अनुवाद किया जाता है और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होता है), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर एक शक्तिशाली/ रक्षक (माइटी वन) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। अबीर नाम बाइबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले कभी नहीं; पांच बार इसे याकूब और एक बार इस्राएल के नाम से जोड़ा जाता है ।
यशायाह 1:24 में हम यशायाह की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम पाते हैं : "इसलिए अदोन YHWH सबाथ अबीर इज़राइल घोषित करता है "। यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी होती है: "सभी मनुष्य जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा छुड़ानेवाला, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।
अबीर जैकब का पूरा नाम सबसे पहले स्वयं जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीष दी, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति खण्ड- 49:24)। कई वर्षों बाद, भजन लिखने वाले को राजा दाऊद की याद आई , जिसने अबीर याकूब की शपथ खाई थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक उसे यहोवा के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब का निवास स्थान (भजन संहिता- 132:2-5)।
अबीर नाम אבר ( 'br ) धातु से आया है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर मजबूत होना होता है:
स्वयं बाइबिल में क्रिया के रूप में नहीं आती है, लेकिन असीरियन भाषा में इसका अर्थ मजबूत या दृढ़ होना होता है। स्पष्ट रूप से इब्रानी भाषा में ऐसे कई शब्द हैं जिनका संबंध शक्ति से है, लेकिन यह एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति को दर्शाता है जो केवल अहीर जाति में होती है। इजराएल की यहूदीयों का अबीर कबीला मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ है जिसने दुनियाँ में यह कला प्रचारित और प्रसारित की अहीरों की लाठी आज भी उनके हाथ में सशक्त है। यहूदीयों का सम्बन्ध यादवों से है इसमें कोई सन्देह नहीं प्राचीन यहूदीयों में गाय और बैल की मूर्ति बनाकर पूजा होती थी।
देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी ।
सैमेटिक संस्कृति में “एल ” एलोहिम तथा इलाह इसी के विकसित है जो मूलत: कनानी देवता है।
यूनानी पुराणों में अरीज् युद्ध का ही देवता है ।
हिब्रूू बाइबिल में यहुदह् “Yahuda” के पिता को अबीर कहा गया है और अबीर शब्द ईश्वर का बाचक है हिब्रूू बाइबिल में भी …
असीरियन लोग वेदों में वर्णित असुर ही हैं । संस्कृत भाषा में " र" वर्ण की प्रवृति असुरों की भाषा मे "ल" वर्ण के रूप में होती है ... "अरे अरे सम्बोधनं रूपं अले अले कुर्वन्त: तेsसुरा: पराबभूवु: " -----(यास्क निरुक्त ) -------------------ऋग्वेद १०/१३/८,३,४, तथा शतपथ ब्राह्मण में वर्णित किया गया है कि असुर देवताओं की वाणी का भिन्न रूप में उच्चारण करते थे । अर्थात् असीरियन लोग "र" वर्ण का उच्चारण "ल" के रूप में करते थे । शतपथ ब्राह्मण में वर्णित है " तेऽसुरा हे अलयो ! हे अलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु: पतञ्जलि ने महाभाष्य के पस्पशाह्निक अध्याय में शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ के इस वाक्य को उद्धृत किया है । ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के १२६वें सूक्त का पञ्चम छन्द में अरि शब्द आर्यों के सर्वोपरि ईश्वरीय सत्ता का वाचक है:।
ऋग्वेद---२/१२६/५ तारानाथ वाचस्पति ने वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में सन्दर्भित करते हुए.. वर्णित किया है--अरिभिरीश्वरे:धार्य्यतेधा ---असुन् पृ० युट् च । ईश्वरधार्य्ये ।" अष्टौ अरि धायसो गा: " ऋग्वेद १/१२६/ ५/ अरिधायस: " अर्थात् अरिभिरीश्वरै: धार्य्यमाणा "भाष्य । ____________________________________ अरि शब्द के लौकिक संस्कृत मे कालान्तरण में अनेक अर्थ रूढ़ हुए --- अरि :---१---पहिए का अरा २---शत्रु ३-- विटखदिर ४-- छ: की संख्या ५--ईश्वर वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में अरि धामश्शब्दे ईश्वरे उ० विट्खरि अरिमेद:।" सितासितौ चन्द्रमसो न कश्चित बुध:शशी सौम्यसितौ रवीन्दु । रवीन्दुभौमा रविस्त्वमित्रा" इति ज्योतिषोक्तेषु रव्यादीनां ______________________________________ हिब्रू से पूर्व इस भू-भाग में फॉनिशियन और कनानी संस्कृति थी , जिनके सबसे बड़े देवता का नाम हिब्रू में "एल - אל " था । जिसे अरबी में ("इल -إل "या इलाह إله-" )भी कहा जाता था , और अक्कादियन लोग उसे "इलु - Ilu "कहते थे , इन सभी शब्दों का अर्थ "देवता -god " होता है । इस "एल " देवता को मानव जाति ,और सृष्टि को पैदा करने वाला और "अशेरा -" देवी का पति माना जाता था।
(El or Il was a god also known as the Father of humanity and all creatures, and the husband of the goddess Asherah (בעלה של אלת האשרה) .सीरिया के वर्तमान प्रमुख स्थलों में " रास अस शम -رأس, "शाम की जगह) करीब 2200 साल ईसा पूर्व एक मिटटी की तख्ती मिली थी , जिसने इलाह देवता और उसकी पत्नी. . अशेरा के बारे में लिखा था , पूरी कुरान में 269 बार इलाह - إله-" " शब्द का प्रयोग किया गया है , और इस्लाम के बाद उसी इलाह शब्द के पहले अरबी का डेफ़िनिट आर्टिकल "अल - ال" लगा कर अल्लाह ( ال+اله ) शब्द गढ़ लिया गया है , जो आज मुसलमानों का अल्लाह बना हुआ है ।
Abir in Biblical Hebrew
אביר
अबीर ईश्वर का नाम है ।
परस्पर सम्मूलक है । दौनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
_______________________
व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि कोण से आर्य शब्द हिब्रू बाइबिल में वर्णित "एबर से भी सम्बद्ध है ।
और जिसका मूल है 'बर / बीर आर्य तथा वीर दौनों शब्द भारत, ईरान तथा समस्त जर्मन वर्ग की भाषाओं में और सेमैेटिक और हेमेटिक वर्ग की भाषाओं में भी कुछ अल्प भिन्न रूपों में विद्यमान है ।
तथा नगर संस्कृति के जनक द्रविड अथवा ड्रयूड (Druids) लोग थे।तो द्रविडों की भी वन्य संस्कृति रही है । नगर संस्कृतियों का विकास द्रविडों ने ही किया उस के विषय में हम कुछ तथ्यों को उद्धृत करते हैं । विदित हो कि यह समग्र तथ्य भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ(primordial- Meaning) आरम् धारण करने वाला वीर या यौद्धा (आरं धारयते येन सोऽऽर्य -) संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् (Arrown = अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology)पुरानी अंग्रेजी से (arwan)पहले (earh) "तीर," संभवतः पुराने नॉर्स से उधार लिया गया था ।____________________________________
मध्य इंग्लिश में—रूप "Harwe कृषि कार्य करना _______________________________
प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य चरावाहे ही थे ।
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व कार्त्स्न्यायन धातुपाठ में "ऋृ (अर्) धातु तीन अर्थ कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) उद्धृत है।
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य (मेल) identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है ! इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis हैं ।
यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं । ___________________________________
'अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है = आर्य एक पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने "वैैश्यों का समूह " किया है
संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी २. ईश्वर और ३. वैश्य है।संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है। संस्कृत भाषा मे आरा और आरि शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है। सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, " अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हलचलाना" हो।
यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है। पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः"सूत्र इस बात का प्रमाण है। फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
फिर, वाजसनेय (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मन्, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण ही था ।इन्ही का नाम "आर्य" है ।
गोप गो -चारण करते थे' और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास भी हुआ। ये आर्य चरावाहे ही थे ।अर्थात् कृषि कार्य.भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है। ये ड्रयूड दक्षिण भारत में द्रविड ( द्रव-विद) रूप में विद्यमान रहे और भगवद्-भक्ति के प्रसारक भी यही थे।
'अरि' के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवनमूलक है और कृषि मूलक थी इस विद्या के जनक आर्य थे। परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का भी था।यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्धता सर्वविदित ही है। इस देव संस्कृति के उपासकों ने असीरियन( असुर) संस्कृति से यह प्रेरणा ग्रहण की। सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य-एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था। ऐसा भी नहीं है । भारत देश में भी यह कार्य होने लगा था। देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे। घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे । परन्तु इनका मुकाविला सेमैेटिक असीरियन जन जाति से मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में परिलक्षित है ।
असीरियन जन-जाति के बान्धव यहूदीयों का जीवन चरावाहों का जीवन था। अत: आर्य शब्द का विकास "अरि" शब्द से हुआ जो सैमेटिक हिब्रू आदि भाषाओं में "एल" रूप में विकसित है। अत: आर्य जाति मूलक विशेषण नहीं रहा परन्तु सैमेटिक जन जातियाँ पशुपालक रहीं हैं।
यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न व हेय ही है ।इस आधार पर हिन्दू धर्म( ब्राह्मण-धर्म) की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ? विचार कर ले श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है कि-
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवारूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
Pracheen Bharat Ka Rajneetik Aur Sanskritik Itihas - Page 23 पर वर्णन है 'ऋ' धातु में ण्यत' प्रत्यय जोडने से 'आर्य' शब्द की उत्पत्ति होती है ऋ="जोतना', अत: आर्यों को कृषक ही माना जाता है । पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ "आरि" धारण करने वाला है । वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया परन्तु फिर भी आर्य का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति समन्वित होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में रूढ़ होकर "कर्मवीर और "धर्मवीर' आदि रूपों में परिभाषित हुआ।दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही आज भी मौलिक गुण(प्रवृत्ति) है।श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत:—स्वामी, गुरु और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस शब्द का व्यवहार होने लगा । छोटे लोग बड़े को जैसे, —स्त्री पति को, छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं । नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को "आर्य या आर्यपुत्र कहती है । पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में "हीरो (Hero) आर्य का ही रूपान्तरण है । आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और "हल" दोनों का श्रोत ऋ-अर् धातु है जो हिंसा और गति में -हिंसागतियो: अर्थ में प्रसिद्ध ही है। पूर्व वैदिक काल का "अरि" का एक रूपान्तरण हरि भी हुआ। अत: वेदों का "अरि" पुराणों में हरि होकर विकास- क्रम को प्राप्त हुआ। (harry-भारोपीय शब्द है)
in Old English "hergian "make war, lay waste, ravage, " the word used in the Anglo-Saxon Chronicle for what the Vikings did to England, It word comes from Proto-Germanic *harjon (source also of Old Frisian urheria "lay waste, ravage,,"
________
Old Norse herja "to make a raid, to plunder,"
__________
Old Saxon and Old High German herion,
_______
German verheeren "to destroy, lay waste, devastate").
This is literally "to overrun with an army," from Proto-Germanic *harjan "an armed force"
(source also of Old English here, ______
Old Norse herr ", great number; army, troop,"
__________
Old Saxon and Old Frisian heri,
Dutch heir,
_______________
Old High German har
,________________
German Heer
,__________________
Gothic harjis "a host, army").
_______________
The Germanic words come from PIE root *korio- "war" also "war-band, host, army"
It word too comes From(source also of Lithuanian -(karas) "war, quarrel,"( karias) "host, army;"
__________
Old Church
______________
Slavonic kara "strife;"
_____________
Middle Irish cuire "troop;"
______________
Old Persian kara "host, people, army;"
___________
Greek koiranos "ruler, leader, commander"). Weakened sense of "worry, goad, harass" is from c. 1400. Related: Harried; harrying.
पुरानी अंग्रेजी में "युद्ध करो, बर्बादी करो, तबाह करो,"
वाइकिंग्स( समुद्री-लुटेरों ने इंग्लैंड को क्या किया, इसके लिए एंग्लो-सैक्सन क्रॉनिकल में प्रयुक्त शब्द देखें।
यह शब्द प्रोटो-जर्मेनिक के * हर्जोन से आया है (स्रोत भी -ओल्डन वेस्टर्न उहेरिया "ले वेस्ट, रैवेट
________
ओल्ड नॉर्स हर्जा "छापा मारने के लिए, लूटने के लिए,"
पुराने सैक्सन और पुराने उच्च जर्मन "हेरियन,
_______
जर्मन (verheeren) " नष्ट करना, बर्बाद करना, विनाशक")।आदि अर्थों का ग्राहक है।
यह वस्तुतः "एक सेना के साथ आगे बढ़ने के लिए रूढ़ हुआ है," प्रोटो-जर्मनिक * हरजन से तात्पर्य "एक सशस्त्र बल"
(पुरानी अंग्रेज़ी का स्रोत भी यही जर्मन है,
______
ओल्ड नॉर्स -हेर ", बड़ी संख्या; सेना, टुकड़ी,"
ओल्ड सैक्सन और ओल्डन -हेरी,
________
डच -वारिस,
_______________
पुराने उच्च जर्मन- हान,
________
जर्मन- हीर,
__________________
गॉथिक- हर्जिस "एक मेजबान, सेना")।
_______________
जर्मन के शब्द कोरियो- "युद्ध" से भी सम्बद्ध है, "युद्ध-बैंड, मेजबान, सेना"
रूसी परिवार की (लिथुआनियाई का स्रोत भी - (करस) "युद्ध, झगड़ा," (करियास) "मेजबान, सेना;" है।
______________
पुराना चर्च स्लावोनिक -करा "संघर्ष;"
_____________
मध्य आयरिश- क्यूयर "टुकड़ी;"
______________
पुरानी फ़ारसी -करा "मेजबान, लोग, सेना;"
___________
ग्रीक कोरोरानोस "शासक, नेता, कमांडर")। ", उत्पीड़न" की कमजोर भावना से है। संस्कृत भाषा में इसका साम्य कृष्- क्लष् से देखें
निम्नलिखित श्लोक भी गोपालों की इसी वीरता मूलक प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करता है ।
•- गोविन्द बोले ! हे गोपालों तुम्हारा भयभीत होने का कोई प्रयोजन नहीं है; केशी से भयभीत होकर तुम लोग "गोप जाति के बल-पराक्रम" को क्यों विलुप्त करते हो।५।
•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ !
तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति-कृषि और गोपालन) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे" उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! ये (शूरसेन और अग्रसेन दौंनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए ) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था। सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
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अथाष्टादशोऽध्यायः 10/18/11
गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणौ
ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप ।११।
गोप जाति में छुपे हुए कृष्ण और बलराम की देवगण "गोपालों के रूप में उसी प्रकार स्तुति करते हैं जैसे नट लोग अपने नायक की स्तुति करते हैं । ११।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रलम्बवधो नामाष्टादशोऽध्यायः -भागवत पुराण के उपर्युक्त श्लोक में गोपों को देव रूप कहा है ।परन्तु भागवत पुराण के प्रकाशन काल में द्वेषवश कुछ धूर्तों ने यादवों और गोपों को अलग दिखाने के लिए भी इन प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना की इसका प्रमाण दशम स्कन्ध के आठवें अध्याय का उपरोक्त बारहवाँ श्लोक है तथा इसके अतिरिक्त और भी अन्य श्लोक हैं । जिनका हम प्रसंग के अनुसार उल्लेख करेंगे।कुछ राजपूत समाज के लोग इन्हीं प्रक्षिप्त श्लोकों से भ्रान्त होकर गोपों(अहीरों) को यादवों से अलग करने की कोशिश करते हैं।इसी सन्दर्भ में भागवत पुराण में कुछ प्रक्षिप्त श्लोक हैं जिनको हम उद्धृत कर रहे हैं।भागवतपुराण में इसी प्रकार एक स्थान पर पूर्व में ही (पहले ही ) गोविन्द शब्द का प्रयोग है। दशम् स्कन्ध अध्याय( 6 ) के श्लोक 25 में 👇परन्तु उसकी व्युत्पत्ति और कृष्ण के लिए सम्बोधन होने की बात बाद में कही गयी है। जो कथा क्रमभंग दोष उत्पन्न करती है।
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धि मात्मानं भगवान् पर:।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द:शयानं पातु माधव ।25।
पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की,परमात्मा भगवान् तेरे अहंकार (मान) की रक्षा करे । खेलते समय गोविन्द रक्षा करें ! लेटते समय माधव रक्षा करे !
भागवत पुराण स्कन्ध 10: अध्याय 6: पूतना वध -श्लोक 25-26श्लोक:-
शब्दार्थ:-पृश्निगर्भ:—भगवान् पृश्निगर्भ; तु—निस्सन्देह; ते—तुम्हारी; बुद्धिम्—बुद्धि को; आत्मानम्—आत्मा को; भगवान्—भगवान; पर:—दिव्य; क्रीडन्तम्—खेलते हुए; पातु—रक्षा करें; गोविन्द:—गोविन्द; शयानम्—सोते समय; पातु—रक्षा करें; माधव:— भगवान् माधव; व्रजन्तम्—चलते हुए; अव्यात्—रक्षा करें; वैकुण्ठ:—भगवान् वैकुण्ठ; आसीनम्—बैठे हुए; त्वाम्—तुमको; श्रिय: पति:—लक्ष्मीपति, नारायण; भुञ्जानम्—जीवन का भोग करते हुए; यज्ञभुक्—यज्ञभुक; पातु—रक्षा करें; सर्व-ग्रह भयम्-कर:—जो सारे दुष्ट ग्रहों को भय देने वाले ।
अनुवाद-★भगवान् प्रश्निगर्भ तुम्हारी बुद्धि की तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तुम्हारे आत्मा की रक्षा करें। तुम्हारे खेलते समय गोविन्द तथा तुम्हारे सोते समय माधव तुम्हारी रक्षा करें। भगवान् वैकुण्ठ तुम्हारे चलते समय तथा लक्ष्मीपति नारायण तुम्हारे बैठते समय तुम्हारी रक्षा करें। इसी तरह भगवान् यज्ञभुक, जिनसे सारे दुष्टग्रह भयभीत रहते हैं तुम्हारे भोग के समय सदैव तुम्हारी रक्षा करें।परन्तु गोवर्धन पर्वत के प्रकरण में इन्द्र द्वारा गोविन्द शब्द का प्रथम सम्बोधन कृष्ण को देना बताया है जो इससे बहुत बाद की घटना है ।अब प्रश्न यह भी उठता है कि कृष्ण को गोविन्द नाम का प्रथम सम्बोधन किस प्रकार इन्द्र ने दिया ? जैसा कि भागवत पुराण में वर्णित है , जबकि ऋग्वेद- खिलभाग में भी गोविन्द शब्द आया है । क्योंकि दशम् स्कन्ध के अध्याय (28) में वर्णन है कि• 👇
-(शुकोवाच)-
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभि:पयसाऽऽत्मन:।जलैराकाशगंगाया एरावतकरोद्धृतै: ।22।
इन्द्र: सुरषिर्भि:साकं नोदितो देवमातृभि:।अभ्यषिञ्चितदाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात्।23।अर्थात्:- शुकदेव जी कहते हैं हे राजन् परिक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु ने अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणाओं से देव राज इन्द्र ने एरावत की सूँड़ के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उनको (गोविन्द) नाम प्रदान किया !
भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर वर्णन है कि 👇
•-अर्थात् श्रीकृष्ण ने --जो कंस के भय से व्याकुल होकर इधर उधर भाग गये थे; उन यदुवंशी, वृष्णिवंशी, अन्धकवंशी, मधुवंशी, दाशार्हंवंशी और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर बुलाया ! अब यहाँ भी विचारणीय तथ्य यह है कि क्या , वृष्णि, अन्धक ,मधु, दाशार्हं ,और कुकुर वंशी क्या यादव नहीं थे? अर्थात् अवश्य थे। अधिकतर परवर्ती पुराणों में कृष्ण को द्वेष वश ही मर्यादा विध्वंसक के रूप में भी वर्णित किया गया है। अन्यथा श्रीमद्भगवद् गीता तो उन्हें आध्यात्मिक पुरुष के रूप में सिद्ध करती है एक स्थान पर काल्पनिक रूप से भागवतपुराणकार ने वर्णित किया है ; कि श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ श्रुतकीर्ति --जो वास्तव में केकय देश में ब्याही थी ; उनकी पुत्री 'भद्रा' थी उसका भाई सन्तर्दन आदि ने स्वयं ही कृष्ण के साथ भद्रा का विवाह कर दिया।ऐसी बातें नहीं लिखी जाती जबकि यादवों में यह परम्परा नहीं है।- 👇श्लोक
श्रुतकीर्ते:—श्रुतकीर्ति की; सुताम्—पुत्री; भद्राम्—भद्रा को; उपयेमे—ब्याहा; पितृ-स्वसु:—अपने पिता की बहन बुआ की; कैकेयीम्—कैकेय की राजकुमारी; भ्रातृभि:—उसके भाइयों द्वारा; दत्ताम्—दी हुई; कृष्ण:—कृष्ण; सन्तर्दन-आदिभि:— सन्तर्दन इत्यादि द्वारा ।.
"भद्रा" कैकेय राज्य की राजकुमारी तथा कृष्ण की बुआ श्रुतकीर्ति की पुत्री थी। जब सन्तर्दन इत्यादि उसके भाइयों ने उसे कृष्ण को भेंट किया, तो उन्होंने भद्रा से विवाह कर लिया।
भागवतपुराण में एकादश स्कन्ध के (31)वें अध्याय के (24) वें श्लोक में वर्णन है कि
स्त्री बाल वृद्धानाय हतशेषान् धनञ्जय: ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ।।24।
अर्थात् पिण्डदान के अनन्तर बची कुची स्त्रीयों बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्र प्रस्थ आया। वहाँ सबको यथास्थान बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक करके हिमालय की ओर यात्रा की ! कदाचित यहाँ गोपिकाओं को लूटने का प्रकरण नहीं है कदाचित् इसका वर्णन प्रथम स्कन्ध के पन्द्रह वें अध्याय के बीसवें श्लोक मेंं हो ही गया है । जिस पर विस्तृत विवेचन यथाक्रम आगे किया जाएगाा । वास्तव में भागवत पुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है; अथवा ये श्लोक प्रक्षिप्त ही हैं। वह कहता है कि" ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। तो फिर उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैं ! हरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं। दोेैंनों ही क्रोष्टावंश के यादव थे। परन्तु भागवत पुराण के प्रक्षेपों की कोई सीमा नहीं है। भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व असंगत बातें और भी हैं ।
भागवतपुराण के बारहवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में कहा गया है कि👇___________________________________
•-मगध ( आधुनिक विहार) का राजा विश्वस्फूर्ति पुरुञ्जय होगा ; यह द्वित्तीय पुरञ्जय होगा ---जो ब्राह्मण आदि उच्च वर्णों को पुलिन्द ,यदु (यादव) और मद्र आदि म्लेच्छप्राय: जातियों में बदल देगा ।३६। क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ या शूद्र थे ? जैसा कि यादवों के प्रति आज तक यह व्यवहार किया जाता है।
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देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं । जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में वर्णित है ही और ये निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में
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श्रीगर्ग उवाच
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वदा ।
सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम् ॥७॥
शब्दार्थ-श्री-गर्ग:उवाच—गर्गमुनि ने कहा; यदूनाम्—यदुकुल का; अहम्—मैं हूँ; आचार्य:—पुरोहित; ख्यात: च—पहले से यह ज्ञात है; भुवि—सर्वत्र; सर्वदा—सदैव; सुतम्—पुत्र को; मया—मेरे द्वारा; संस्कृतम्—संस्कार सम्पन्न; ते—तुम्हारे; मन्यते—माना जायेगा; देवकी-सुतम्—देवकी-पुत्र
अनुवाद- गर्गमुनि ने कहा : हे नन्द महाराज, मैं यदुकुल का पुरोहित हूँ। यह सर्वविदित है। अत: यदि मैं आपके पुत्रों का संस्कार सम्पन्न कराता हूँ तो कंस समझेगा कि वे देवकी के पुत्र हैं।
आशय-गर्गमुनि ने अप्रत्यक्ष रूप से बतला दिया कि कृष्ण यशोदा के नहीं बल्कि देवकी के पुत्र हैं। चूँकि कंस पहले से ही कृष्ण की खोज में था, अत: यदि गर्गमुनि संस्कार कराते तो कंस को पता चल सकता था और इससे महान् संकट उत्पन्न हो जाता। यह तर्क किया जा सकता है कि यद्यपि गर्गमुनि यदुवंश के पुरोहित थे और नन्द महाराज भी यदुवंशी थे किन्तु नन्द महाराज क्षत्रिय कर्म नहीं कर रहे थे। इसीलिए गर्गमुनि ने कहा, “यदि मैं आपके पुरोहित के रूप में कर्म करूँ तो इससे पुष्टि होगी कि कृष्ण देवकी-पुत्र हैं।”यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है। अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर ही चुके हैं ।
और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है। अत: दौनों ही नन्द-वसुदेव एक ही परिवार के और यादव थे।परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में इस प्रकार का वर्णन है ।
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९। वसुदेव ने गर्गाचार्य को गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा विदित हो कि गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी करते थे निम्न श्लोकों में यही तथ्य है। गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम् -श्रीनारद उवाच -
श्री नारदजी कहते हैं–साक्षात् ! श्रीनन्दनन्दन की यह बात सुनकर श्रीनन्द और सन्नन्द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होनें पहले का निश्चय त्यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया। मिथिलेश्वर ! नन्दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्कण्ठित हो प्रसन्नातापूर्वक गये। उन बलराम और कृष्ण के साथ गर्गजी भी थे।
गोपान्—ग्वालों को; गोकुल-रक्षायाम्—गोकुल मण्डल की रक्षा के लिए; निरूप्य—नियुक्त करके; मथुराम्—मथुरा; गत:— गए; नन्द:—नन्द महाराज; कंसस्य—कंस का; वार्षिक्यम्—वार्षिक कर; करम्—लाभांश; दातुम्—भुगतान करने के लिए; कुरु-उद्वह—हे कुरु वंश के रक्षक, महाराज परीक्षित ।
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंश के सर्वश्रेष्ठ रक्षक, उसके बाद नन्द महाराज ने स्थानीय ग्वालों को गोकुल की रक्षा के लिए नियुक्त किया और स्वयं राजा कंस को वार्षिक कर देने मथुरा चले गए।
चूँकि बालकों का वध किया जा रहा था और यह सबको ज्ञात हो चुका था अत: नन्द महाराज अपने नवजात शिशु के लिए अत्यधिक डरे हुए थे। इसलिए उन्होंने अपने घर तथा शिशु की रक्षा के लिए स्थानीय ग्वालों को नियुक्त कर दिया। वे तुरन्त ही मथुरा जाकर कर भुगतान करना चाह रहे थे और अपने नवजात शिशु के उपलक्ष्य में कुछ भेंट भी देना चाहते थे। वे शिशु के संरक्षण के लिए विभिन्न देवताओं तथा पितरों की पूजा कर चुके थे और सब को जी भर कर दान भी दे चुके थे। इसी तरह नन्द महाराज कंस को न केवल वार्षिक कर चुकता करना चाह रहे थे अपितु कुछ भेंट भी देना चाह रहे थे जिससे कंस भी तुष्ट हो जाए। उनकी एकमात्र चिन्ता यही थी कि अपने दिव्य शिशु कृष्ण की किस तरह रक्षा करें।
वसुदेव:—वसुदेव; उपश्रुत्य—सुनकर; भ्रातरम्—अपने मित्र तथा भाई; नन्दम्—नन्द महाराज को; आगतम्—मथुरा आया हुआ; ज्ञात्वा—जानकर; दत्त-करम्—पहले ही कर चुकता किया जा चुका था; राज्ञे—राजा के पास; ययौ—गया; तत्- अवमोचनम्—नन्द महाराज के डेरे तक ।
अनुवाद-जब वसुदेव ने सुना कि उनके अत्यन्त प्रिय मित्र तथा भाई नन्द महाराज मथुरा पधारे हैं और वे कंस को कर भुगतान कर चुके हैं, तो वे नन्द महाराज के डेरे में गए।
वसुदेव तथा नन्द महाराज का सम्बन्ध भाइयों के थे। यही नहीं, श्रीपादमध्वाचार्य की टिप्पणियों से ज्ञात होता है कि वसुदेव तथा नन्द महाराज सौतेले भाई थे। वसुदेव के पिता शूरसेन ने एक वैश्य वर्णा कन्या से विवाह किया जिससे नन्द महाराज उत्पन्न हुए। बाद में स्वयं नन्द महाराज ने भी एक वैश्य लडक़ी यशोदा से शादी की। इसलिए उनका परिवार वैश्य परिवार के नाम से विख्यात है। कृष्ण ने उनके पुत्र के रूप में वैश्य कर्मों को सँभाला (कृषि गोरक्ष्य वाणिज्यम् )। बलराम कृषि के लिए भूमि जोतने का प्रतिनिधित्व करते हैं इसीलिए वे अपने हाथ में सदैव हल लिए रहते हैं। कृष्ण गौवें चराते हैं अतएव वे अपने हाथ में बाँसुरी लिए रहते हैं। इस तरह दोनों भाई कृषिरक्ष्य तथा गोरक्ष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस समय वर्ण-व्यवस्था जाति अथवा जन्मगत नहीं थी अपितु व्यवसायगत ही थी स्वयं वसुदेव का कृषिकार्य और गोपालन इसका साक्ष्य है।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे ,तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण आदि में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। और कृष्ण का जन्म होना भी गोप (आभीर)के घर में बताया है ।
हरिवंश पुराण के सन्दर्भ से पहले हम इस बात को बता चुके हैं उसे यहाँ पुन: प्रस्तुत करना अपेक्षित है। 👇प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है। यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है।
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर विशेषत: देखें---अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय। उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१।
कि हे कश्यप आपने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीर (गोप) का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता 'अदिति' और 'सुरभि' तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों (ग्वालों) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे । हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं। मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ --)
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
विदित हो कि गायत्री परिवार के पुराणों के अध्याय और श्लोक संख्या में गोरखपुर गीता प्रेस के पुराणों के अध्याय और श्लोक संख्या में भेद है। अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत:।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ?
अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९। हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक (१९)वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (१४४) (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य | तथा
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी 'वराहोत्पत्ति' वर्णन"नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है; गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत ,हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।
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"गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड अध्याय तृृृृृृृृत्तीय में नन्द और वसुदेव आदि रूपों में यदुकुलमें देवताओं को अपने साथ अवतार लेने के लिए विष्णु का आदेश एवं निर्देश" श्रीब्रह्मोवाच
अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि। एते कुत्र भविष्यन्ति कैर्गृहैः कैश्च नामभिः॥३५॥श्रीभगवानुवाच वसुदेवस्य देवक्यांभविष्यामि परः स्वयम्।रोहिण्यांमत्कलाशेषोभविष्यति नसंशयः।३६। श्री साक्षाद्रुक्मिणी भैष्मी शिवा जांबवती तथा।सत्या च तुलसी भूमौ सत्यभामा वसुंधरा ॥३७॥
दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा। भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवीपापनाशिनी।३८। रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः।भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि।३९ ॥नन्दोद्रोणो वसुःसाक्षाद्यशोदा सा धरा स्मृता ।वृषभानुःसुचन्द्रश्च तस्य भार्याकलावती॥४०। भूमौ कीर्तिरिति ख्याता तस्या राधा भविष्यति ।सदा रासं करिष्यामि गोपीभिर्व्रजमण्डले ॥ ४१ ॥इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥ गर्गसहिता गोलोकखण्ड में नन्द और वसुदेव रूप में देवों को यदुवंश में अवतरित होने का विष्णु भगवान् आदेश देते हैं। अत: इससे यही सिद्ध होता कि समस्त व्रजवासी अहीर (गोप) यादव ही थे। नीचे इन श्लोकों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है।
"श्रीनारद उवाच।
इत्युक्तो भवान् साक्षाच्छ्रीकृष्णो गोकुलेश्वरः।
प्रत्याह प्रणतान्देवान्मेघगंभीरया गिरा॥२३॥
अर्थ-नारदजी कहते है- इस प्रकार स्तुति करने पर गोकुलेश्वर भगवान श्रीकृष्ण प्रणाम करते हुए देवताओं को सम्बोधित करके मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोले-।
"श्रीभगवानुवाच।
"हे सुरज्येष्ठ हे शम्भो देवा: श्रृणुतु मदवच: यादवेषुजनध्वम्अंशै:स्त्रीभिर्मदाज्ञया।।२४।।
अर्थ :- श्री भगवान ने कहा- ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य) देवताओं ! तुम सब मेरी बात सुनो।
मेरे आदेशानुसार तुम लोग अपने अंशों से देवियों के साथ यदुकुल में जन्म धारण करो।
अर्थ:-मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वी का भार दूर होगा। मेरा वह अवतार यदुवंश के एक कुल वृष्णिकुल में होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा।
"श्रीब्रह्मोवाच।।
अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि। एते कुत्रभविष्यन्तिकैर्गृहैःकैश्चनामभिः॥३५॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा- भगवन ! मेरे लिये कौन स्थान होगा ? आप कहाँ पधारेंगे ? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहों में रहेंगे और किन-किन नामों से इनकी प्रसिद्धि होगी ?
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।।श्रीभगवानुवाच ।।
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यामि परः स्वयम् ।रोहिण्यांमत्कला शेषोभविष्यति न संशयः!३६।
श्रीभगवान ने कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकी के यहाँ प्रकट होऊँगा। मेरे कला स्वरूप ये ‘शेष’ रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे- इसमें संशय नहीं है।
श्रीसाक्षाद्रुक्मिणीभैष्मीशिवाजाम्बवती तथा सत्या च तुलसीभूमौसत्यभामा वसुंधरा।३७॥
अर्थ:-साक्षात ‘लक्ष्मी’ राजा भीष्म के घर पुत्री रूप से उत्पन्न होंगी। इनका नाम ‘रुक्मणी’ हगा और ‘पार्वती’ ‘जाम्बवती’ के नाम से प्रकट होंगी।
दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा ।
भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवीपापनाशिनी।३८।
अर्थ:- यज्ञ पुरुष की पत्नी ‘दक्षिणा देवी’ वहाँ ‘लक्ष्मणा’ नाम धारण करेंगी। यहाँ जो ‘विरजा’ नाम की नदी है, वही ‘कालिन्दी’ नाम से विख्यात होगी। भगवती ‘लज्जा’ का नाम ‘भद्रा’ होगा। समस्त पापों का प्रशमन करने वाली ‘गंगा’ ‘मित्रविन्दा’ नाम धारण करेगी।
रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः ।
भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि।३९।
अर्थ:- जो इस समय ‘कामदेव’ हैं, वे ही रुक्मणी के गर्भ से ‘प्रद्युम्न’ रूप में उत्पन्न होंगे।
प्रद्युम्न के घर तुम्हारा अवतार होगा।
उस समय तुम्हें ‘अनिरूद्ध’ कहा जायेगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। इसी उपर्युक्त तथ्य के पुष्टिकरण हेतु हम गोपालचम्पू व भागवत पुराण के टीका ग्रन्थ वंशीधरी" टीका से साक्ष्य उद्धृत करते हैं।"👇"
"अर्थ- नन्दगोपकुलभी यदुकुल ही है वैसे ही सभी वेदोंपुराणों आदि में यदुकुल की प्रशंसा है यदुकुल शिरोमणि(अवतंस)श्रीदेवमीढ जो मधुरा नगरी के मध्य प्रतिष्ठित थे।उनकी दो पत्नीयाँ थीं। _____________________________
अर्थ –पहली पत्नी दूसरे वर्ण की, और दूसरी पत्नी तीसरे वर्ण की थी। देवमीढ के दो पुत्र थे; पहली पत्नी से शूर और दूसरी से पर्जन्य ।
वहाँ शूर के वसुदेव आदि हुए । इसी लिए मुनि द्वारा कहा गया- (वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं)" वसुदेव यह सुनकर की भाई नन्द आये हुए हैं"। इस प्रकार पर्जन्य के पुत्र नन्द आदि मातामही (दादी) के वर्ण को प्राप्त हैं।
और ब्राह्मण न्याय के द्वारा वे वर्णसंकर हुए । और सभी भाई को मातामही के शरीर का प्राप्त होने से इस ब्राह्मण न्याय से भी वे वैश्यता को प्राप्त होकर गोवृत्ति पालन से "वृहदवनं" में रहने लगे।
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"स च बाल्यादेव ब्राह्मणदर्शै पूजयति। मनोरथ पूरं देयानि वर्षति । वैष्णववेदं स्नह्यति । यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वैशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशामवतंसतया परमशंसनीय एवमेव च गोपवशोपीति पाद्येसृष्टिखण्डे स्पष्टीकृत:। स च श्रीमान्पर्जन्यो वैश्यांतर साधारण्यं निजैश्वर्येणातीयाय । यस्य भार्या नाम्ना वरीयस्यासीत् यस्य च श्री उपनन्दादय: पञ्चात्मजा जगदेवनन्ददयामासु: तथा च वन्दिन उपमान्ति स्म" उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:। इति तस्य पुत्र सम्पत्तिस्तु परमरमणीयतामवाप मध्यमसुत सम्पत्तिस्तु सुतराम्। तदेव (सुमुखनाम्ना)केनचिद् गोपमुख्येन श्रीपर्जन्यमध्यंसुताय श्रीनन्दाय परमधन्या कन्या दत्ता। "
अर्थ- और वह बालकपन से ही ब्राह्मणों का दर्शन के द्वारा सम्मान करते थे । और सभी याचको का मनोरथ पूरा करते थे। वैष्णव जनों और वेदों को स्नेह करते थे । और जीवनपर्यन्त हरि की अर्चना करते थे। और माता के पक्ष का व्यवसाय करने से उनकी ख्याति सभी दिशाओं हो गयी । ( गोप वेष में वे प्रसिद्ध हो गये "पद्मपुराण सृष्टि खण्ड भी उनके इस व्यवसाय की पुष्टि का स्पष्टी करण करता है । कि इनकी पत्नी भी वैश्य वर्ण की थी। जिनका नाम "वरीयसी" था और उससे उत्पन्न इनके नन्द आदि पाँच पुत्र थे। मध्यम पुत्र इनको अधिक प्रिय था और सभी की सहमति से उनका विवाह "सुमुख नामके किसी मुख्य गोप की पुत्री यशोदा से कर दिया। जो परम धन्या और सुन्दर कन्या थी
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या खलु स्वगुणवशीकृत स्वजना यशांसि ददाति श्रण्वद्भय: पश्यद्भय: किमुततराम् भक्तिमद्भय:
स च ज्यायांस्तत्र सदसि मध्यं निजानुजं नन्दनामानं पितुराज्ञया कृतकृत्य: सन् गोकुलराजतया सभाजयामास अत्र संकुचिते तत्रानुजे सविस्मये सर्वजने पितरिक्षेत्रमानलोचने स च चोवास स्नेहसद्गुणपराधीनेनाचरितमिति राजायमास्माकम्। ततो देवेैस्तदोपरि पुष्पवृष्टिकारि सदस्यैश्च ततोऽसौ पर्जन्य: श्रीगोविन्दमाराधियतुं सभार्यो वृन्दावनं प्रविवेश
अर्थ –( जो निश्चय ही अपने गुणों से स्वजनों को वश में करने वाली और यश देने वाली थीं। सुनने वालों के द्वारा देखने वालों के द्वारा और भक्ति करने वालों द्वारा उसकी क्या कहने ! आदि शब्दों से प्रशंसा सी जाती थी)( तब पर्जन्य की सभी सन्तानों( अपत्यों) में ही सुख सम्पदा उत्पन्न हुई थी और पिता के लिए क्या चाहिए! तब सब लोग आनन्दित थे और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके प्रभु के चरण-कमलों ध्यान लगाने वाले थे और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को सभा में आमन्त्रित किया )(और वहाँ सभा में बड़ों के द्वारा मझले अपनेसे छोटे भाई जिनका नन्द नाम था उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति सभा में नियुक्त कर दिया संकुचित नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये । स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं। तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की और तत्पश्चात पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए सभा को सम्पन्न कर वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
यादवों में अंश रूप में उत्पन्न अपनी पत्नीयों के साथ प्रभु आज्ञा से ‘वसु’ जो ‘द्रोण’ के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे व्रज में ‘नन्द’ होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया ‘धरा देवी’ ‘यशोदा’ नाम धारण करेंगी। सुचन्द्र’ ‘वृषभानु’ बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी ‘कलावती’ धराधाम पर ‘कीर्ति’ के नाम से प्रसिद्ध होंगी। "विशेष-- यदि नन्द बाबा वृषभानु और यशोदा एवं राधा की माता कीर्ति और स्वयं राधा को यदुवंश के अन्तर्गत अवतरित होने का निर्देश श्री भगवान के द्वारा नहीं मिलता ! तो गर्गसंहिता/खण्डः १ (गोलोकखण्डः)-अध्यायः ०३ मेें यह वर्णन नही होता।
अर्थ:-फिर उन्हीं वृषभानु और कीर्ति के यहाँ इन श्रीराधिकाजी का प्राकट्य होगा। मैं व्रजमण्डल में गोपियों के साथ सदा रासविहार करूँगा।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘भूतल पर अवतीर्ण होने अथवा आगमन-उदयोग वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।
भगवन ! आप वृन्दावन के स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रज के अधिनायक हैं,
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गोपाल के रूप में अवतार धारण करके अनेक प्रकार की नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं।
श्रीराधिकाजी प्राणवल्ल्भ एवं श्रुतिधरों के भी आप स्वामी हैं।आप ही गोर्वधन धारी हैं, अब आप धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें॥ सभी देवता मेरे अंग हैं। साधुपुरुष तो हृदय में वास करने वाले मेरे प्राण ही हैं। अत: प्रत्येक युग में जब दम्भपूर्ण दुष्टों द्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ तथा दया पर भी भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको भूतल पर प्रकट करता हूँ। श्रीनारदजी कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी क्षण ‘अब प्राणनाथ से मेरा वियोग हो जायेगा’ यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानल से दग्ध लता की भाँतिमूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उनके शरीर में अश्रु, कम्प, रोमांच आदि सात्त्विक भावों का उदय हो गया।
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गर्ग संहिता गोलोक खण्ड:अध्याय।3।
श्रीराधिका जी ने कहा- आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये भूमण्डल पर अवश्य पधारें; परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन लें- प्राणनाथ !
आपके चले जाने पर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी। यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञा पर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ। अब मेरे प्राण अधर तक पहुँचने को अत्यंत विह्वल हैं। ये इस शरीर से वैसे ही उड़ जायँगे, जैसे कपूर के धूलिकण।श्रीभगवान बोले- राधिके ! तुम विषाद मत करो। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और पृथ्वी का भार दूर करूँगा। मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी। श्रीराधिकाजी ने कहा- (परंतु) प्रभो ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मन को सुख नहीं मिलता। नारदजी कहते हैं- (श्रीराधिकाजी के इस प्रकार कहने पर) भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा। उस समय सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजी ने परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार प्रणाम करके कहा। वसु देवताओं का ही एक गण है जिसके अन्तर्गत आठ देवता हैं। विशेष—वेदों में वसु शब्द का प्रयोग अग्नि, मरुद् गण, इंद्र, उषा, अश्वी, रुद्र और वायु के लिये मिलता है। वसु को आदित्य भी कहा है। बृहदारणयक में इस गण में पृथिवी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, द्यौ, अग्नि, चंद्रमा और नक्षत्र माने गए हैं।महाभारत के अनुसार आठ वसु ये हैं—घर, ध्रुव, सोम, विष्णु, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास।श्रीमद् भागवत में ये नाम हैं—द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष वास्तु और विभावसु।
अग्नि- पुराण में आप, घ्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास वसु कहे गए हैं।
भागवत के असुसार दक्ष प्रजापति की कन्या 'वसु' ने, जो धर्म को ब्याही थी, वसुओं को उत्पन्न किया। देवीभागवत में कथा है कि एक बार वसुओं ने वसिष्ठ की नंदिनी गाय चुरा ली थी; जिससे वसिष्ठ ने शाप दिया था कि तुम लोग मनुष्य योनि में जन्म लोगे। उसी शाप के अनुसार वसुओं का जन्म शान्तनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ, जिनमें सात को तो गंगा जनमते ही गंगा में फेंक आई, पर अंतिम भीष्म बचा लिए गए। इसी से भीष्म वसु के अवतार माने जाते हैं।वसुश्रेष्ठ द्रोण और उनकी पत्नी धरा ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की -'देव! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें तो भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अविचल भक्ति हो।' ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहकर उन्हें वर दिया। इसी वर के प्रभाव से व्रज में सुमुख नामक गोप की पत्नी पाटला के गर्भ से धरा का जन्म यशोदा के रूप में हुआ।और उनका विवाह नन्द से हुआ। नन्द पूर्व जन्म के द्रोण नामक वसु थे।
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान करना श्री जनकजी ने पूछा-मुने ! परात्पर महात्मा भगवान का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये।
उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये।
इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे।वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में सीता और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी। उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये। फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे।देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।(गोलोकखण्ड-अध्याय 3)
उनका दीप्तिमण्डल सब ओर उद्भासित हो रहा था। दिव्य मुनीन्द्रमण्डलों से मण्डित वे भगवान नारायण अपने अखण्डित ब्रह्मचर्य से शोभा पाते थे। राजन ! सभी देवता आश्चर्ययुक्त मन से उनकी ओर देख रहे थे। किंतु वे भी श्याम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण में तत्काल लीन हो गये।इस प्रकार के विलक्षण दिव्य दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं को महान आश्चर्य हुआ। उन सबको यह भली-भाँति ज्ञात हो गया कि परमात्मा श्रीकृष्ण चन्द्र स्वयं परिपूर्णतम भगवान हैं। तब वे उन परमप्रभु की स्तुति करने लगे। देवता बोले- जो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र पूर्ण पुरुष, परसे भी पर, यज्ञों के स्वामी, कारण के भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात गोलोकधाम के अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं। योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप परम तेज:पुंज हैं; शुद्ध अंत:करण वाले भक्तजन ऐसा मानते हैं कि आप लीला विग्रह धारण करने वाले अवतारी पुरुष हैं; परंतु हम लोगों ने आज आपके जिस स्वरूप को जाना है, वह अद्वैत सबसे अभिन्न एक अद्वितीय है; अत: आप महत्तम तत्त्वों एवं महात्माओं के भी अधिपति हैं; आप परब्रह्म परमेश्वर को हमारा नमस्कार है। कितने विद्वानों ने व्यंजना, लक्षणा और स्फोट द्वारा आपको जानना चाहा; किंतु फिर भी वे आपको पहचान न सके; क्योंकि आप निर्दिष्ट भाव से रहित हैं। अत: माया से निर्लेप आप निर्गुण ब्रह्म की हम शरण ग्रहण करते हैं। किन्हीं ने आपको ‘ब्रह्म’ माना है, कुछ दूसरे लोग आपके लिये ‘काल’ शब्द का व्यवहार करते हैं।
कितनों की ऐसी धारणा है कि आप शुद्ध ‘प्रशांत’ स्वरूप हैं तथा कतिपय मीमांसक लोगों ने तो यह मान रखा है कि पृथ्वी पर आप ‘कर्म’ रूप से विराजमान हैं। कुछ प्राचीनों ने ‘योग’ नाम से तथा कुछ ने ‘कर्ता’ के रूप में आपको स्वीकार किया है।इस प्रकार सबकी परस्पर विभिन्न ही उक्तियाँ हैं। अतएव कोई भी आपको वस्तुत: नहीं जान सका। (कोई भी यह नहीं कह सकता कि आप यही हैं, ‘ऐसे ही’ हैं।) अत: आप (अनिर्देश्य, अचिंत्य, अनिर्वचनीय) भगवान की हमने शरण ग्रहण की है।भगवन ! आपके चरणों की सेवा अनेक कल्याणों के देने वाली है। उसे छोड़कर जो तीर्थ, यज्ञ और तप का आचरण करते हैं, अथवा ज्ञान के द्वारा जो प्रसिद्ध होगये हैं; उन्हें बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ता है; वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते।"गोलोक खण्ड :अध्याय 3
भगवन ! अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्र के भीतर विद्यमान हैं।
जो शुद्ध अंत:करण वाले एवं देह बन्धन से मुक्त हैं, वे (हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को हमारा प्रणाम है। जो श्रीराधिकाजी के हृदय को सुशोभित करने वाले चन्द्रहार हैं, गोपियों के नेत्र और जीवन के मूल आधार हैं तथा ध्वजा की भाँति गोलोकधाम को अलंकृत कर रहे हैं, आदिदेव भगवान आप संकट में पड़े हुए हम देवताओं की रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन ! आप वृन्दावन के स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रज के अधिनायक हैं, गोपाल के रूप में अवतार धारण करके अनेक प्रकार की नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजी प्राणवल्ल्भ एवं श्रुतिधरों के भी आप स्वामी हैं। आप ही गोर्वधन धारी हैं, अब आप धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें।
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इसके अतिरिक्त"देवीभागवत पुराण में वर्णन है। "कश्यप और उनकी पत्नी अदिति 'सुरभि आदि का वसुदेव 'देवकी और रोहिणी आदि का गोप -गोपिका रूप में अंश-अवतरण भी "अहीर "गोप और "यादव रूपों की अभिन्नता का परिचायक है।
अनुवाद- -परीक्षित! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप कर , वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९। जब वसुदेवजी को यह सुनकर मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये।२०। वसुदेवजी को देखकर ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा कर प्रेम से विह्वल होगये।२१।
राजन् परीक्षित! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत से -सत्कृत होकर अनामय शब्द से कुशल क्षेम पूछ कर वे आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्र में लग रहा था।२२।
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इस प्रसंग में भागवत पुराण दशम स्कन्ध के १०/५/१९-२०-२१-२२
निम्न श्लोक में विचारणीय है कि "अनामय" शब्द का प्रयोग क्षत्रिय की (कुशलता) पूछने में प्रयोग होता था ।
पूजितःसुखमासीनःपृष्ट्वा अनामयमादृतः।
प्रसक्तधीःस्वात्मजयोःइदमाह विशांपते।२२॥
यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार (अनामयं) शब्द से कुशल-क्षेम 'क्षत्रिय' जाति से ही पूछी जाती है । और नन्द से वसुदेव 'अनामय' शब्द से कुशल-क्षेम पूछते हैं ।
अनुवाद-परीक्षित! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप कर वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।जब वसुदेवजी को यह सुनकर मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये।२०।वसुदेवजी को देखकर ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा कर प्रेम से विह्वल होगये।२१।
राजन् परीक्षित ! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत से -सत्कृत होकर अनामय शब्द से कुशल क्षेम पूछ कर वे आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्र में लग रहा था। -भागवत पुराण दशम स्कन्ध १०/५/१९-२०-२१-२२ अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका में भी इस तथ्य का वर्णन किया है। भागवत के इस- (६२)वें श्लोक को देखे- "भारत ! (हे भरत वंशज जनमेजय -) कंसव्रजे (कंस के अधीन इस व्रज क्षेत्र में ) याश्च आमीषां गोपानां योषित: यशोदाद्या:) नन्द आदि गोप और उनकी गोपीका रूप में जो स्त्रियाँ यशोदा आदि हैं ) (ये च वसुदेवाद्या: वृष्णय: देवक्याद्या यदुस्त्रिय: सन्ति )-और ये वसुदेव आदि की स्त्रीयाँ हैं ये सभी यदुवंश के हैं। (सर्व इति ये च उभयोर् नन्दवसुदेवकुलयो: ज्ञातय: सकुल्या: बन्धव: सुहृदश्च )- ये सभी दोनों कुल यदुवंश के होने से जाति कुल से परस्पर बान्धव और सुहृद हैं। (ये च कसंम् अनुव्रता: ते निश्चितिम् देवताप्राय: प्रायेण देवताँशा:)- ये सब कंस की आज्ञा के अधीन रहने वाले निश्चित ही देवताओं के अँश हैं ! (प्रायग्रहणात् कंसादीनाम् दैत्याँशत्वम् ।-और कंस आदि दैत्यों के अँश हैं (६३)
वर्णानुसार कुशल प्रश्नविधि-मिलने पर अभिवादन अथवा, नमस्कार के बाद ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् अर्थात ब्राह्मण से कुशलता पूँछे – क्षत्रबन्धुम् (अनामयम्) से क्षत्रिय से बल आदि की दृष्टि से स्वास्थ के विषय में और वैश्य से (क्षेमम् )शब्द से क्षेम–धन आदि की सुरक्षा के विषय में (च) और शूद्रम् आरोग्यम् एव शूद्र के स्वस्थता के विषय में (पृच्छेत्) -पूछे । अभिप्राय यह है कि वर्णानुसार उनके मुख्य उद्देश्यसाधक व्यवहारों की निर्विघ्नता के विषय में प्रधानता से पूँछे ।
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(ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्मखण्ड अध्याय )
"श्रीगर्ग उवाच।
"सुधामयं ते वचनं लौकिकं च कुलोचितम् ।
यस्य यत्र कुले जन्म स एव तादृशो भवेत्।३७।
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती।३८।
तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी। बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नंदश्च वल्लभः।३९।।
नंदो यस्त्वं च या भद्रे बालो यो येन वा गतः। जानामि निर्जने सर्वं वक्ष्यामि नंदसन्निधिम्।
अनुवाद - •-जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है।
और माता का नाम पद्मावती सती हैैं तुम नन्द जी को पति रूप में पाकर कृतकृत्य हो गईं हो !
(ब्रह्म वैवर्त पुराण 4.13.४०)
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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 2 श्लोक 31-35
("सप्तमो देवकीगर्भो यांऽश: सौम्यो ममाग्रज:। स संक्रामयितव्यस्ते सप्तमे मासि रोहिणीम्।31।
संकर्षणात्तु गर्भस्य स तु संकर्षणो युवा।भविष्यत्यग्रजो भ्राता मम शीतांशुदर्शन:।32।।
देवि ! तुम्हारा भला हो, इस समय भूतल पर ‘यशोदा’ नाम से विख्यात जो नन्द गोप की प्यारी पत्नी हैं, वे गोकुल की स्वामिनी हैं।
तुम उन्हीं के नवम गर्भ के रूप में हमारे कुल में उत्पन्न होगी।अर्थात नन्द और कृष्ण के पिता वसुदेव का (एक ही कुल वृष्णि-कुल था इसीलिए कृष्ण ने हमारे कुल में उत्पन्न होगी। ऐसा कहा)
कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को ही तुम्हारा जन्म होगा। परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेषभाव को ही इंगित करता है ।परन्तु स्वयं वही संस्कृत -ग्रन्थों महाभारत आदि में गोपों को परम यौद्धा अथवा वीर के रूप में भागवत पुराण १०/४३/३४ में वर्णन किया है ।
हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसम्मतौ । नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाहूतौ दिदृक्षुणा।३२।
हे नन्द-सूनो—अरे नन्द के पुत्र; हे राम—हे राम; भवन्तौ—तुम दोनों को; वीर—वीरों से; सम्मतौ—आदरित; नियुद्ध—कुश्ती में; कुशलौ—दक्ष; श्रुत्वा—सुनकर; राज्ञा—राजा द्वारा; आहूतौ—बुलाये गये; दिदृक्षुणा—देखने का इच्छुक ।.
चाणूर ने कहा हे नन्दपुत्र, हे राम, तुम दोनों ही साहसी पुरुषों द्वारा समादरित हो और दोनों ही कुश्ती लडऩे में दक्ष हो। तुम्हारे पराक्रम को सुनकर राजा ने स्वत: देखने के उद्देश्य से तुम दोनों को यहाँ बुलाया है।
भागवत पुराण » स्कन्ध 10: पूर्वाद्ध » अध्याय 43: कृष्ण द्वारा कुवलयापीड हाथी का वध के एक प्रसंग में » श्लोक 34। गोपबालकों की मल्लप्रवृति का वर्णन किया गया है।
नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथास्फुटम् ।
वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गा:।३४॥
शब्दार्थ:-नित्यम्—सदैव; प्रमुदिता:—अत्यन्त सुखी; गोपा:—ग्वाले; वत्सपाला:—बछड़े पालने वाले। चराते; यथा-स्फुटम्—स्पष्टत:; वनेषु—जंगलों में; मल्ल-युद्धेन—कुश्ती से; क्रीडन्त:—खेलते हुए; चारयन्ति—चराते हैं; गा:—गायें ।.यह सर्वविदित है कि अहीरों के बालक अपने गाय और बछड़ों को चराते हुए सदैव प्रमुदित रहते हैं और अनेक जंगलों में अपने पशुओं को चराते हुए खेल खेल में कुश्ती भी लड़ते रहते हैं। तात्पर्य-यहाँ चाणूर बतलाता है कि किस तरह दोनों भाई कुश्ती (मल्लयुद्ध) में दक्ष बने। इति श्रीमद्भागवते महापुराणे । संहितायांदशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥
भागवत पुराण का यह श्लोक भी प्रक्षिप्त है।
हरिवंश पुराण में भी ययाति द्वारा यदु को दिये गये शाप का वर्णन इस प्रकार से है।
स एवम् उक्तो यदुना राजा कोप समन्वित: उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर् गर्हयन् सुतम्।27।
•-यदु के ऐसा कहने पर (अर्थात् यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।27।।
तो ययाति का शाप उग्रसेन पर लागू क्यों नहीं हुआ ? देखें--- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं ! इसका प्रमाण भी प्रस्तुत है ।
👇हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व अध्याय सैंतीसवाँ पर है कि
(अन्धकं च महाबाहु वृष्णिं च यदु नन्दनम् ,तेषां विसर्गाश्चत्वारो विस्तरेणेह ताञ्छृणु।२।
वैशम्पायन जी कहते हैं ---जनमेजय ! सत्वान् उपनाम वाले सत्तवत से कौशल्या ने १-भजिन , २-भजमान, ३-(दिव्य राजा देवावृध) ४-महाबाहु अन्धक और ५- यदुनन्दन वृष्णि नामक पाँच सत्व-संपन्न पुत्रों को उत्पन्न किया उनके चार के वंश चले उनको आप विस्तार पूर्वक सुनिए !१-२ यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च अन्धकात्। काश्यदुहिता चतुरोऽलभतात्मजान्। कुकुरं भजमानं च शमिं कम्बलबर्हिषम्।।१७।
अन्धक से काशिराज (दृढाश्वव) की पुत्री द्वारा कुकुर ,भजमान,शमि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए ।१७।
तैत्तिरीय के पुत्र पुनर्वसु हुए पुनर्वसु के अभिजित् हुए और अभिजित के एक पुत्र और एक पुत्री ये दो सन्तानें जुड़वाँ रूप में हुईं ऐसी बात सुनी जाती है ।१९।
देव कुमारों के समान सुन्दर देवक और उग्रसेन नाम के पुत्रों के दौरान उत्पन्न हुए देवक के देव- कुमारों जैसे १-देववान ,२-उपदेव ३-वसुदेव, और ४-देवरक्षित नामक के चार पुत्र उत्पन्न हुए ।।२७।
नवोग्रसेनस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजःन्यग्रोधश्च सुनामा च कंक: शंकु:सुभूमिप।।३०।
उग्रसेन के नौ पुत्र थे उनमें कंस सबसे बड़ा (पूर्वज) पूर्व में जन्म लेने वाला था
शेष के नाम इस प्रकार हैं १-न्यग्रोध , २-सुनामा, ३-कंक, ४-शंकु ,५-सुभूमिप ,६-राष्ट्रपाल, ७-सुतनु,, ८अनाधृष्टि,और ९-पुष्टिमान
(हरिवंश हरिवंश पर्व ३८ अध्याय) (पृष्ठ संख्या १७३ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)
यादवानां कुलकरान् स्थविरान् दश तत्र वै ।मतिमान् स्थापयामास सर्वकार्येष्वनन्तरान् ।८१।
विदित हो कि जहाँ "शूरसेन के पुरोहित गर्गाचार्य थे तो उग्रसेन के पुरोहित "काश्य सन्दीपन नाम के ऋषि थे (उग्रसेनं नरपतिं काश्यं चापि पुरोहितम्)। निश्चित रूप से ये गर्गाचार्य से भिन्न थे । परन्तु शूरसेन और उग्रसेन दौनों ही राजा यादव थे।
विष्णुपुराण पञ्चमाञ्श 21 वाँ अध्याय तथा 19-20वाँ श्लोक।
तदनन्तर समस्त विज्ञानोंको जानते हुए और सर्वज्ञान-सम्पन्न होते हुए भी वीरवर कृष्ण और बलराम गुरु-शिष्य सम्बन्ध को प्रकाशित करनेके लिये उपनयन-संस्कारके अनन्तर विद्यो पार्जनके लिये काशीमें उत्पन्न हुए अवन्तिपुर वासी सान्दीपनि मुनि के यहाँ गये ।१८-१९।
वीर संकर्षण और जनार्दन सान्दीपनि का शिष्यत्व स्वीकार कर वेदाभ्यासपरायण हो यथायोग्य गुरु शुश्रूषादिमें प्रवृत्त रह सम्पूर्ण लोकोंको यथोचित शिष्टाचार प्रदर्शित करने लगे।२०।
गते चतुर्दशाब्दे तु कंसभीतेश्छलेन च ।। व जगाम गोकुलं कृष्णः शिशुरूपी जगत्पतिः। 2.49.४०।
कृष्णमाता यशोदा या रायाणस्तत्सहोदरः। गोलोके गोपकृष्णांशः सम्बन्धात्कृष्णमातुलः।४१।
परन्तु अन्य वैष्णव ग्रन्थों में यशोदा चार भाई थे रायाण नाम का कोई भाई नहीं था (यशोदा के चार भाई थे)—यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव। कहीं अभिमन्यु नाम का कोई अहीर जो जटिला नाम की गोपी का पुत्र था राधा जी का सांसारिक पति बताया जाता है। जो सत्य नहीं है।
(उग्रा सेना यस्य स उग्रसेन) मथुरादेशस्य राजविशेषः स च आहुकपुत्त्रः । कंसराजपिता च इति श्रीभागवतम पुराणम् --इस प्रकार यदु के पुत्र क्रोष्टा के वंश में कृष्ण और उग्रसेन का भी जन्म होने से दोनों यादव ही थे ।
हरिवंश पुराण में वर्णन है कि -एवमुक्त्वा यदुं तात शशाप ऐनं स मन्युमान्। अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९।
•-तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया–मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।
अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।वस्तुत:ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था जहाँ कामना होगी वहाँ काम का आवेग भी होगा कामनाऐं साँसारिक उपभोग की पिपासा या प्यास ही हैं कामनाओं के आवेग ही संसार रूपी सिन्धु की उद्वेलित लहरें हैं ; इनके आवेगों से उत्पन्न मोह के भँवर और लोभ के गोते भी मनुष्य को अपने आगोश में समेटते और अन्त में मेटते ही हैं ! कामनाओं की वशीभूत ययाति अपने साथ यही किया ।
अन्त:करण चतुष्टय में अहंकार का शुद्धिकरण होने का अर्थ है उसका स्व के रूप में परिवर्तन स्व ही आत्मसत्ता की विश्व व्यापी अनुभूति है। और जब यही सीमित और एकाकी हो जाती है तो इसे ही अहंकार कहा जाता है। और यही अहंकार क्रोधभाव से समन्वित होकर संकल्प को उत्पन्न करता है और संकल्प से इच्छा का जन्म होता है ।यही इच्छा अज्ञानता से प्रेरित संसार का उपभोग करने के लिए उतावली होकर जीव को अनेक अच्छे बुरे कर्म करने को वाध्य करती है ! यही प्रवृत्तियों के साँचे में इच्छाऐं अपने को ढाल लेती हैं अहंकार से संकल्प की उत्पत्ति और यही संकल्प संवेगित होकर इच्छा का रूप धारण करता है। और इच्छाऐं अनन्त होकर कभी तृप्त न होने वाली हैं ।आध्यात्मिक वैचारिकों ने धर्म का व्याख्या संसार रूपी दरिया में पतवार या तैरने की क्रिया के रूप में स्वीकार किया ।
क्यों कि स्वाभाविता के वेग में मानवीय प्रवृत्ततियाँ जल हैं । अपराध के बुलबले तो उठते ही हैं । तैरने के मानिंद है धर्म और स्वाभाविकता का दमन करना ही तो संयम है। और संयम करना तो अल्पज्ञानीयों की सामर्थ्य नहीं । सुमेरियन माइथॉलॉजी में भी धर्म के लिए,(तरमा) शब्द है जिसका अर्थ है दृढ़ता एकाग्रता स्थिरता आदि शील धर्म का वाचक इसलिए है कि उसमे जमाव या संयमन का भाव है । हिम जिस प्रकार स्थिरता अथवा एकाग्रता को अभिव्यक्त करता है ।
शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार शाप भी वही दे सकता है; जो पीड़ित है और उसकेे द्वारा शाप उसी को दिया जा सकता है जो वस्तुत: पीड़क है
परन्तु अनुचित कर्म करने वाला राजा ययाति ही जो वास्तव दोषी ही था ; जो अपने पुत्र के यौवन से ही पुत्र की माता का उपभोग करना चाहता है ।
और बात करता था धर्म कि अत: राजा ययातिका यौवन प्रस्ताव पुत्र की दृष्टि में धर्म विरुद्ध ही था ।अतः वह पिता के लिए अदेय ही था ।
परन्तु मिथकों में ययाति की बात नैतिक बताकर शाप देने और पाने के पात्र होने के सिद्धान्त की भी हवा निकाल दी गयी यदु का इस अन्याय पूर्ण राजतन्त्र व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह होने से ही कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को ही बदलकर लोक तन्त्र की व्यवस्था की अपने समाज में स्थापना की ये ही यदुवंशी कालान्तर में आभीर रूप में इतिहास में उदय हुए
"वेदों में यदु और तुर्वसु का वर्णन एवं "असुर और "दास शव्दों व्याख्या वैदिक सन्दर्भों अनुरूप"वेदों के पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करना ही इस बात का प्रमाण अथवा साक्ष्य है कि यादव देव संस्कृति और ययाति समर्थक पुरोहितों की समाज शोषक व्यवस्थाओं के खिलाफ थे।वैदिक ऋचाओं में पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना ...
पदों का हिन्दी अन्वयार्थ -बहुत सा धन देनेवाले इन्द्र मित्र होते हुए प्रसन्न हुए हम लोग आपके लिए सब ओर से प्रिय आपकी सङ्गति में व शरणागत में आनन्दित हों।
हे इन्द्र ! आप (तुर्वशम्). तुरवसु को (नि, शिशीहि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (याद्वम्) यादवों को भी (नि) (शिशीहि )निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (अतिथिग्वाय) अतिथिगु के लिए(शंस्यम्) प्रशंसनीय को (इत्) ही (करिष्यन्) कार्य करते हुए बनिए ॥८॥
यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७ पर है
हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमानअपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो । और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! पण्डित श्रीरामशर्मा आचार्य ने इसका अर्थ सायण सम्मत इस प्रकार किया है ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना आज की ही नहीं अपितु वैदिक काल में भी थी इसी प्रकार की यह ऋचा भी है ।
अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ । अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥ (ऋग्वेद 9/61/1)अन्वायार्थ -(इन्दो) हे सेनापते ! (यः) जो शत्रु (ते) तुम्हारे (मदेषु) सर्वसुखकारक प्रजापालन में (आ) विघ्न करे, उसको (अया वीती परिस्रव) अपनी क्रियाओं से अभिभूत करो और (अवाहन् नवतीः नव) निन्यानवे प्रकार के दुर्गों का भी ध्वंसन करो ॥१॥ हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्”
(ऋ० ८, ४५, २७ )
यदु को दास अथवा असुर कहना भी सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सैमेटिक यहूदीयों के पूर्वज यहुदह् ही थे अथवा यहुद्ह इन्हीं का रूपान्तरण था।
क्योंकि असुर और दास जैसे शब्द देवों से भिन्न संस्कृतियों के उपासकों के वाहक थे । यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है । ईरानी असुर संस्कृति में "दाहे" शब्द दाहिस्तान के सैमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है। अब इसी लिए देवोपासक पुरोहितों ने यदु और तुरवसु के विरोध में और इनके वंश को विश्रृंखल करने के लिए अनेक काल्पनिक प्रसंग जोड़ दिये जैसे और यह हमारे व्वहार जगत में सत्य ही है -कि
तुम्हारे शत्रु और विद्रोही तुम्हारे लिए कभी अच्छी कामनाऐं नहीं करेंगे । भारतीय पुराणों में वर्णित यदु को भी वेदों में गोप और गोपालक के रूप में वर्णन किया है। कालान्तरण में यदु के वंशज ही इतिहास में आभीर गोप अथवा गोपालकों के रूप में दृष्टिगोचर हुए।गायों का चारण और वन-विहारण और दुर्व्यवस्थाओं के पोषकों से निर्भीकता से रण ही इन आभीर वीरों के संकल्प में समाहित थे । जिन लोगों ने इन पुरोहितों के समाजविरोधी कार्यों का विरोध किया वे ही इनके लिए विद्रोही कहलाए और जिन्होंने अनुरोध किया वे इनकी वर्ण व्यवस्था के निर्धारण में उच्च पायदान पर रखा गये । जब यदु को ही वेदों में दास कहा है। सायद तब तक दास का अर्थ पतित हो रहा था । और फिर कालान्तरण में जब दास शब्द का दाता और दानी से पतित होते हुए गुलाम अर्थ हुआ तो शूद्रों को दास विशेषण का अधिकारी बना दिया ।और इसी लिए रूढ़िवादी पुरोहित यादवों असली रूप अहीर अथवा गोपों को शूद्र या दास के रूप में मान्य करते हैं।परन्तु यह दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाह" शब्द के रूप में उच्च अर्थों का ही द्योतक है ! परन्तु यह सब द्वेष की पराकाष्ठा या चरम-सीमा ही है ।कि अर्थ का अनर्थ कर कर दिया जाय ऋग्वेद में यदु के गोप होने के विषय में लिखा है कि
"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी। गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं । हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;गो-पालक ही गोप होते हैं।उपरोक्त ऋचा में यदु और तुरवसु के लिए (मह्- पूजायाम् ) धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।क्योंकि कि देव- संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
परन्तु सम्भवतः दास का एक अर्थ दाता भी था वैदिक निघण्टु में यह निर्देश है ।
“उत अपि च "स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ “गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ “दासा दासवत् प्रेष्यवत् स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् । वैदिक सन्दर्भों में दास का अर्थ सेवक( प्रेष्यवत्) नहीं है ।
असुर शब्द का अर्थ भी दास शब्द की शैली में किया गया। ऋग्वेद में प्राचीनतम ऋचाओं में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान भी है ऋग्वेद में ही वरुण को महद् असुर कहा ।
इन्द्र को भी असुर कहा है इन्द्र सूर्य और अग्नि भी असुर है और कृष्ण को भी असुर कहा गया है।
यह विशेषण उनके असु( प्राण) सम्पन्न होने से ही हुआ।ऋग्वेद में असुर का अर्थ "प्रज्ञावान और "बलवान भी है।ऋग्वेद में ही वरुण को महद् असुर कहा इन्द्र को भी असुर कहा है।
"मह् पूजायाम् धातु से महत् शब्द विकसित हुआवह जो पूजा के योग्य है।
फारसी जो वैदिक भाषा की सहोदरा है वहाँ महत् का रूप मज्दा हो गया है। (मह्-पूजायाम्)
सूर्य को उसके प्रकाश और ऊर्जा के लिए वेदों में असुर कहा गया। कृष्ण भी प्रज्ञावान थे और बलवान भी और फिर इन्द्र और कृष्ण का पौराणिक सन्दर्भ भी है तो वैदिक सन्दर्भ भी है।
वेदों की रचना ईसा पूर्व बारहवीं सदी से लेकर ईसा पूर्व सप्तम सदी तक होती रही है
ऋग्वेद के कुछ मण्डल प्राचीन तो कुछ अर्वाचीन भी हैं। असुर शब्द एक रूप में न होकर दो रूपों में व्युपन्न है।
यज्=देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु१-(यज्ञ करना २-संगतिकरना(न्याय करना) ३-दान करना। यज धातु के ये प्रधान अर्थ माधवीयधातुवत्ति धातुप्रदीप और क्षीरतरंगिणी में वर्णित है। यदु दानशील प्रवृति और सदैव न्यायसंगतबात करते थे ।यद्यपि ये इन्द्र के आराधक नहीं थे परन्तु वरुण का यजन करते थे ।
अर्थात् जो सुर के विरोध में है अथवा जिसकी सुरा नहीं है वह असुर है (वाल्मीकि रामायण बाल काण्ड )में देवों (सुरों) को सुरापायी बताया गया है देखें निम्न सन्दर्भों को- सुराप्रतिग्रहाद्देवाःसुरा इत्यभिश्रुताः ।अप्रतिग्रहणाच्चास्या दैतेयाश्चासुराःस्मृताः
कृष्ण का समय पुरातत्व -वेत्ता और संस्कृतियों के विशेषज्ञ (अरनेस्त मैके) ने ईसा पूर्व नवम सदी निश्चित की महाभारत भी तभी हुआ महाभारत में शक हूण और यवन आदि ईरानी यूनानी जातियों का वर्णन हुआ है। वेदों के पूर्ववर्ती सन्दर्भों में असुर और देव गुण वाची शब्द थे जाति वाची कदापि नहीं इसी लिए वृत्र को ऋग्वेद में एक स्थान पर देव कहा गया है। परन्तु असुर संज्ञा के धारक असुर फरात नदी के दु-आव में भी रहते थे जिसे प्रचीन ईराक और ईरान में मैसोपाटामिया के नाम से जाना जाता है ।भारतीय पुराणों में इन्हें असुर कहा गया देव उत्तरी ध्रुव के समीपवर्ती स्वीडन के हेमरपास्त में रहते थे। समय अन्तराल से तथ्यों के अवबोधन में भेद होना स्वाभाविक है
अब ऋग्वेद में के चतुर्थ मण्डल में वरुण को महद् असुर कहा है जो ईरानीयों के धर्म ग्रन्थ में अहुर मज्दा हो गया है । असुर का प्रारम्भिक वैदिक अर्थ प्रज्ञावान् और बलवान ही है परन्तु कालान्तरण में सुर के विपरीत व्यक्तियों के लिए भी असुर का प्रचलन हुआ अत: असुर नाम से दो शब्द थे निम्न ऋचा में असुर शब्द प्राचेतस् वरुण के अर्थ में है।पारसी ग्रंथ "शातीर" में व्यास जी का उल्लेख है-ये ईसापूर्व अष्टम सदी जुरथुस्त्र" के समकालीन थे। उनके जीवन काल का अनुमान विभिन्न विद्वानों द्वारा १४०० से ६०० ई.पू. है।
पद का अर्थान्वय - हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (सवितुः) वृष्टि आदि की उत्पत्ति करने वाले सूर्य का (देवस्य) निरन्तर प्रकाशमान देव का (प्रचेतसः) जनानेवाले (असुरस्य) बलवान के (महत्) बड़े (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों वा जलों में उत्पन्न (छर्दिः) गृह का (वृणीमहे) वरण करते हैं। (तत्) उसका (येन) जिस कारण से विद्वान् जन (त्मना) आत्मा से (दाशुषे) दाता जन के लिये स्वीकार करने योग्यों वा जलों में उत्पन्न हुए बड़े गृह को (यच्छति) देता है (तत्) उसको (महान्) बड़ा (देवः) प्रकाशमान होता हुआ (अक्तुभिः) रात्रियों से (नः) हम लोगों के लिये (उत्, अयान्) उत्कृष्टता प्रदान करे ॥१॥
(त्वम्) आप (सत्पतिः) सज्जनों को पालनेवाले (मघवा) धनवान् (नः) हम लोगों को (तरुत्रः) दुःखरूपी समुद्र से पार उतारनेवाले पतवार हैं (त्वम्) आप (सत्यः) सज्जनों में उत्तम (वसवानः)धन प्राप्ति कराने और (सहोदाः) बल के देनेवाले हैं तथा (त्वम्) आप (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा हैं इससे हे (असुर) शक्तिशाली (त्वम्) आप (अस्मान्) हम (नॄन्) मनुष्यों को (पाहि) पालो रक्षा करो (ये, च) और जो (देवाः) देवगण की (रक्ष) रक्षा करो॥१॥
पदार्थान्वय- हे मनुष्यो ! (विश्वरूपः) सम्पूर्ण रूप हैं जिससे वा जो (श्रियः) धनों वा पदार्थों की शोभाओं को (वसानः)ग्रहण करता हुआ या वसता हुआ और (स्वरोचिः) अपना प्रकाश जिसमें विद्यमान वह (कृष्णः)(असुरस्य) असुर का(अमृतानि) अमृतस्वरूप (नामा) नाम वाला (आ, तस्थौ) स्थित होता वा उसके समान जो (महत्) बड़ा है (तत्) उसको (चरति) प्राप्त होता है उस (आतिष्ठन्तम्) चारों ओर से स्थिर हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण(परि)सब प्रकार(अभूषन्) शोभित करैं।४।
ऋग्वेद की प्रचीन पाण्डु लिपियों में कृष्ण पद ही है परन्तु वर्तमान में वृष्ण पद कर दिया है !
उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण या वृष्ण को असुर कहा गया है।क्यों कि वे सुरा पान भी नहीं करते और प्रज्ञावान् भी हैं।अत: कृष्ण के असुरत्व को समझो
पदार्थान्वय:-हे राजन् ! जो (इमे) ये (अङ्गिरसः) अंगिरा (भोजाः) भोग करने वाले (विरूपाः) अनेक प्रकार के रूप वा विकारयुक्त रूपवाले और (दिवः) प्रकाशस्वरूप (असुरस्य) वरुण के (पुत्रासः) पुत्र के समान बलिष्ठ (वीराः) युद्धविद्या में परिपूर्ण (सहस्रसावे) संख्यारहित धन की उत्पत्ति जिसमें उस संग्राम में (विश्वामित्राय) संपूर्ण संसार मित्र है जिसका उन विश्वामित्र के लिये (मघानि) अतिश्रेष्ठ धनों को (ददतः) देते हुए जन (आयुः) जीवन का (प्र, तिरन्ते) उल्लङ्घन करते हैं वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा करने योग्य हैं।७|अर्थात्-हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं । देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्वमेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।
पदार्थान्वय -(यत्) जो (उषसः) प्रातःकाल से (पूर्वाः) प्रथम हुए (व्यूषुः) विशेष करके वसते हैं वह (महत्) बड़ा (अक्षरम्) नहीं नाश होनेवाला (महत्) बड़ा तत्त्वनामक (गोः) पृथिवी के (पदे) स्थान में (वि, जज्ञे) उत्पन्न हुआ जो (एकम्) अद्वितीय और सहायरहित (देवानाम्) पृथिवी आदिकों में बड़े (असुरत्वम्) प्राणों में रमनेवाले को (प्र, भूषन्) शोभित करता हुआ (अध) उसके अनन्तर (देवानाम्) देवों को (व्रता) नियम में (उप) समीप में (नु) शीघ्र उत्पन्न हुए, उसको आप लोग जानिये ॥१॥
पदार्थान्वय: -हे मनुष्यो ! आप लोगों के (सबदुर्घाः) सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली (शशयाः) शयन करती सी हुई (अप्रदुग्धाः) नहीं किसी करके भी बहुत दुही गई (धेनवः) गायें (अशिश्वीः) बालाओं से भिन्न (नव्यानव्याः) नवीन -नवीन (भवन्तीः) होती हुईं (युवतयः) यौवनावस्था को प्राप्त (देवानाम्) में महद् बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) असुरता को (आ, धुनयन्ताम्) अच्छे प्रकार अनुभव किया रोमांचित किया ॥१६॥
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उपर्युक्त ऋचा में असुरत्व भाव वाचक शब्द है।
संस्कृत कोशों में असुर के अनेक अर्थ और सन्दर्भ उपलब्ध हैं। 👇
असुरः, पुल्लिंग (अस्यति देवान् क्षिपति इति ।
असं उरन् । यद्वा न सुरः विरोधे नञ्तत्- पुरुषः । यद्वा नास्ति सुरा यस्य सः ।
सूर्य्यपक्षे असति दीप्यते इति उरन् ।) सुर विरोधी । स तु कश्यपात् दितिगर्भजातः । तत्पर्य्यायः । दैत्यः २ दैत्येयः ३ दनुजः ४ इन्द्रारिः ५ दानवः ६ शुक्रशिष्यः ७ दितिसुतः ८ पूर्ब्बदेवः ९ सुरद्विट् १० देवरिपुः ११ देवारिः १२ इत्यमरः ॥
परन्तु ऋग्वेद की प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।दास शब्द का यहांँ उच्चतम अर्थ दाता अथवा उदार भी है। समय के अन्तराल में अनुचित व्यवहार का विरोध करने वाले अथवा अपने मान्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वालों को समाज के रूढ़िवादी लोगों ने कहीं विद्रोही तो ; कहीं क्रान्तिकारी, तो कहीं आन्दोलन -कारी तो कहीं कहीं आतंकवादी या दस्यु ,डकैत भी कहा है ।
क्योंकि जिन्होंने रूढ़िवादी लोगों की दासता को स्वीकार नहीं किया वही विद्रोही ही दस्यु कहलाए थे । वैदिक काल में दास और दस्यु शब्द समानार्थी ही थे और इनके अर्थ आज के गुलाम के अर्थो में नहीं थे 👇
यादवों से घृणा रूढ़िवादी पुरोहित- समाज की अर्वाचीन (आजकल की ही सोच या दृष्टिकोण ही नहीं अपितु चिर-प्रचीन है। वैदिक ऋचाओं में इसके साक्ष्य विद्यमान हैं ही
ययाति पुत्र यदु को ही सूर्यवंशी इक्ष्वाकु पुत्र राजा हर्यश्व की पत्नी मधुमती में योग बल से पुन:जन्म देने कि प्रकरण भी पुरोहित वर्ग ने निर्मित किया
परन्तु लिंगपुराण के पूर्व भाग में शिव भक्त पुरुरवा को यमुना के तटवर्ती प्रयाग के समीप प्रतिष्ठान पुर(झूँसी )का राजा बताया है ;जिसके सात पुत्र थे आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य:ये सात पुत्र थे । आयुष् के पाँच पुत्र थे नहुष इनका ज्येष्ठ पुत्र था ।नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति (विजाति)और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए ।
(लिंग पुराण के अनुसार यदुवंश के पूर्वजों से लेकर यदु तक का वर्णन है इस प्रकार है ) 👇
पुराणों में नहुषः पुरुरवा के पुत्र आयुष् का पुत्र होने से सोमवंशी (चन्द्र वंशी) हैं )।
तो वाल्मीकि-रामायण में नहुषः सूर्यवंशी अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा थे
जैसे (प्रशुश्रक के पुत्र अंबरीष का पुत्र का नाम नहुष और नहुष का पुत्र ययाति था) ।
वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड के सत्तर वें सर्ग के तीन श्लोकों में वर्णन है कि 👇
(वाल्मकि रामायण बाल-काण्ड के सत्तर वें सर्ग में श्लोक संख्या ४१-४२-४३ पर देखें ) ____________________________________
अनुवाद :--अग्निवर्ण ये शीघ्रग हुए ,शीघ्रग को मरु हुए और मरु को प्रशुश्रक से अम्बरीष उत्पन्न हुए ।और अम्बरीष के पुत्र का नाम ही नहुष था।नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये राम और लक्ष्मण पुत्र हैं।
यदु नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को भी दो अवतरणों में स्थापित करने की चेष्टा की ।उपरोक्त श्लोकों में नभगपुत्र नाभाग का वर्णन है ।
मनु पुत्र नभग के पुत्र नाभाग का वर्णन है । जब वह दीर्घ काल तक ब्रह्म चर्च का पालन करके लोटे थे ।(भागवतपुराण ९/४/१)
(परन्तु पुराणों में एक दिष्ट के पुत्र नाभाग भी हुए थे ) क्यों कि यदुवंश उस समय विश्व में बहुत प्रभाव शाली था यदुवंश में ईश्वरीय सत्ता के अवतरण से ही तत्कालीन पुरोहित वर्ग की प्रतिष्ठा और वर्चस्व धूमिल होने लगा था ।
कृष्ण से लेकर जीजस कृीष्ट तक के लोग धर्म के नवीन संशोधित रूपों की व्याख्या करने के लिए प्रमाण पुरुष के रूप में आप्त पुरुष की भूमिका में प्रतिष्ठित हो गये थे। इसी लिए पुरोहितों ने इनके इतिहास के सम्पादन में घाल- मेल कर डाला ।यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ इस लिए उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है।दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी निरन्तर सक्रिय रहे ।
विश्व- इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित होकर समाजवाद पर आधारित ही थी ।द्वापर युग में कृष्ण ने कभी सूत बनकर शूद्र की भूमिका का निर्वहन किया जैसा कि शास्त्रों में सूत को शूद्र धर्मी बताया गया है । तो गोपाल रूप में वैश्य तथा क्षत्रिय वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया और श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया
शास्त्रों में सूत को वर्णसंकर के रूप मे शूद्र-वर्ण कहा है जैसे कि मनुस्मृति में वर्णन है ।
(मनु स्मृति 10/47 )महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 48 में वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन हुआ है। जो पुष्यमित्र सुँग के समय सम्पादित हुआ । अर्थात् सूत सारथि का कर्म करें अम्बष्ठ चिकित्सा का कार्य करें और वैदहक स्त्रियों के श्रृंगार (प्रसाधन का कार्य करें और मागध वाणिज्य का कार्य करें )परन्तु मनुस्मृति में अन्यत्र यह एक प्राचीन जाति वैश्य के वीर्य से क्षत्रिय कन्या के गर्भ से उत्पन्न है।इस जाति के लोग वंशक्रम से विरुदावली का वर्णन करते हैं और प्रायः 'भाट' कहलाते हैं । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कृष्ण ने लोगों की उच्छिष्ठ पत्तल उठा कर भी एक सफाई कर्मचारी का कार्य किया ।
यह भी शूद्र की भूमिका थी ;यह सब उपक्रम कृष्ण का वर्ण व्यवस्था को न मानने का ही कारण था । जिसके वंशजों ने कभी भी वर्ण व्यवस्था का पालन नहीं किया जैसे कि कृष्ण ने भी स्वयं सारथी (सूत )की भूमिका से शूद्र वर्ण की भूमिका कि पालन किया तो गोपालन से वैश्य वर्ण का था। परन्तु नारायणी सेना में भी गोप रूप में क्षत्रिय वर्ण का पालन किया ।और श्रीमद् भगवद् गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ।क्योंकि वर्ण- व्यवस्था का पालन तो जीवन पर्यन्त एक ही वर्ण में रहकर उसके अन्तर्गत विधान किये हुए कर्मों को ही करना सम्भव होता है ।परन्तु कृष्ण ने इस वर्ण-व्यवस्था परक विधान का पालन कभी नहीं किया।परन्तु श्रीमद भगवद् गीता के चतुर्थ अध्याय का यह तैरहवाँ श्लोक प्रक्षेप ही है ।
चारों वर्ण मेरे द्वारा गुण कर्म के विभाग से सृजित किए हुए हैं;उसमें मैं अकर्ता के रूप में अव्यय हूं ऐसा मुझको जान (4/13)
वस्तुत: यहाँ इस श्लोक का मन्तव्य वर्ग या व्यवसाय व्यवस्था से ही है नकि जन्मजात मूलक वर्ण व्यवस्था से अन्यथा गोप यदि वैश्य होते तो नारायणी सेना के योद्धा क्यों हुए ? क्योंकि वैश्य का युद्ध करना तथा शस्त्र लेना भी शास्त्र- विरुद्ध ही है । ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों की उत्पत्ति कृष्ण के रोम कूपों से है। अत: ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण-व्यवस्था में समाविष्ट न होकर ये गोपगण (अहीर) ब्रह्मा का उत्पादन नहीं थे। गोप वैष्णवी सृष्टि थे। और ये ब्राह्मणों के भी पूज्य थे।
तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः । आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।1.5.४०।।
जैसा कि पुराणों में राजा नाभाग के वैश्य होने के विषय में वर्णन है:-(विशेष नाभाग सूर्यवंशी राजा दिष्ट के पुत्र थे)
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"मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक- 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए वर्णित है:- कि एक बार ( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है।30।
अत: इस प्रकार गोपों को वैश्य वर्ण सम्मलित करना शास्त्र विरुद्ध व पूर्व- दुराग्रह पूर्ण ही है।
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उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता ।अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है ।तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे तो वे वैश्य कहाँ हुए ? और इसके अतिरिक्त भी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपना पुरुषार्थ परिचय देते हुए कहा था जब
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;
तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
परन्तु आज कृष्ण से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया । ये भूत या पिशाच जनजाति के लोग थे
यही आज भूटानी कहे जाते हैं । वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था । ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे । क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ? 'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय देते हुए कहा कि शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय होने से मैं क्षत्रिय हूँ । तब पिशाच और जिज्ञासा पूर्वक पूँछता है ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद । एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः
3/80/ 9।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
•-मैं तीनों लोगों का पालक तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं राजाओं के समक्ष उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद:सदा।
गोप्तासर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ ,और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक (पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
"अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।१८५.३२।
दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।। १८५.३३(ब्रह्मपुराण अध्याय १८५)
यदि कृष्ण शास्त्रों को आधार मानकर चलते तो गोपों की 'नारायणीसेना' का निर्माण क्यों करते ?____________________________________
महाभारत के द्रोण पर्व के उन्नीसवें अध्याय में वर्णन है नारायणी सेना के( शूरसेन वंशी आभीर ) और शूरसेन राज्य के अन्य योद्धा अर्जुन के विरुद्ध लड़ रहे थे ।
महाभारत के द्रोण पर्व के संशप्तक वध नामक उपपर्व के उन्नीस वें अध्याय तथा बीसवे अध्याय में यह वर्णन है ।
और इस अध्याय के श्लोक सात में गोपों की नारायणी सेना के योद्धा गोपों को अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए वर्णन किया है ।
अर्थ:-तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।
और आगे के श्लोक में वर्णन है कि
अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।
कृष्णेन सहितंयुद्धे कुन्ती पुत्रं धनञ्जय।८।।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।। और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छ:और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ;जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं।
(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय। अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।६-७ ।
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और१९ पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है।
मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों के क्षत्रियत्व को प्रमाणित भी करती हैं । इनकी वीरता की कोई समानता अथवा उपमा नहीं थी।
विदित हो कि नरायणी सेना और बलराम दुर्योधन के पक्ष में थे और तो क्या बलराम स्वयं दुर्योधन के गुरु ही थे । जैसा कि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड में वर्णन है।
अथ कदाचित्प्राड्विपाको नाम मुनींद्रो।
योगीन्द्रो दुर्योधनगुरुर्गजाह्वयं नाम पुरमाजगाम ॥६॥
प्राय: कुछ रूढ़िवादी कर्म-काण्डी पुरोहित अथवा भ्रान्त-मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए ! अहीरों द्वारा अर्जुन द्वारा लेजायी जा रही यदुवंश की स्त्रीयों को लूटने की बात करते रहते हैं। परन्तु ये सब इस प्रकार से नहीं हैं। गोप चोर या लुटेरे नहीं थे शास्त्रों में वर्णन है कि।
गोप सम्राट भी बनते थे।
गोपःकश्चिदमावास्यां दीपं प्रज्वाल्य शार्ङ्गिणः।
मुहुर्जयजयेत्युक्त्वा स च राजेश्वरोऽभवत्। १३४।
किसी गोप ने कार्तिक अमावस्या में दीप जलाकर शारङ्गिण भगवान विष्णु की बार-बार जय जय बोलने के द्वारा राजेश्वर ( सम्राट) पद को प्राप्त किया था।
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राजेश्वर=राजाओं का राजा। राजेंद्र। महाराज। सम्राट ।
अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध पन्द्रह वें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है इसे भी देखें---____________________________________
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०।
(भागवत पुराण 1/15/20)
शब्दार्थ:-स:—वह; अहम्—मैं; नृपेन्द्र—हे सम्राट; रहित:—विहीन; पुरुषोत्तमेन—परमेश्वर द्वारा; सख्या—अपने सखा द्वारा; प्रियेण—अपने प्रिय के द्वारा; सुहृदा—शुभचिन्तक द्वारा; हृदयेन—हृदय से ; शून्य:– रहित; अध्वनि— मार्ग में; उरुक्रम-परिग्रहम्—सर्वशक्तिमान विष्णु रूप कृष्ण की पत्नियाँ; अङ्ग—शरीर; रक्षन्—रक्षा करते हुए; गोपै:—ग्वालों द्वारा; असद्भि:— जो वास्तव में सद् नहीं थे उनके द्वारा; अबला इव—निर्बला स्त्री की तरह; विनिर्जित: अस्मि—पराजित हो चुका हूँ।.
अनुवाद:-हे राजन्, अब मैं अपने मित्र तथा सर्वाधिक प्रिय शुभचिन्तक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से विलग हो गया हूँ, अतएव मेरा हृदय हर तरह से शून्य-सा प्रतीत हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति में, जब मैं कृष्ण की तमाम पत्नियों की रखवाली कर रहा था, तो अनेक अविश्वस्त ग्वालों ने मुझे हरा दिया।
(युद्ध काण्ड - अध्याय 88 का श्लोक 24) में जब रावण जब लक्ष्मण को अनार्य और अधम क्षत्रिय कहता है तब क्या लक्ष्मण वास्तव में अनार्य थे ? वास्तव में इस प्रकार के अपशब्द अथवा गालि क्रोध में युद्ध की भाषा हैगोपों अथवा अहीरों को अर्जुन के द्वारा दुष्ट और पापी कहना भी इसी प्रकार क्रोध और विरोध की भाषा थी यथार्थ परक नहीं ।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में अर्थात् पञ्चनद या पंजाब प्रदेश में दुष्ट नारायणी सेना के गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया। और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका !
(श्रीमद्भगवद् पुराण प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह वाँ श्लोक संख्या (२० १/१५/२० )
शब्दार्थ :-स:—वह; अहम्—मैं; नृप-इन्द्र !—हे सम्राट; रहित:—विहीन; पुरुष-उत्तमेन— पुरुषों में उत्तम कृष्ण द्वारा; सख्या— मित्र द्वारा; प्रियेण—अपने सर्वाधिक प्रिय द्वारा; सुहृदा—शुभचिन्तक द्वारा; हृदयेन—हृदय तथा आत्मा के द्वारा/ से; शून्य:—शून्य, रहित; अध्वनि—हाल ही में; उरुक्रम-परिग्रहम्—सर्वशक्तिमान की पत्नियाँ; अङ्ग—शरीर; रक्षन्—रक्षा करते हुए; गोपै:—ग्वालों अथवा अहीरों द्वारा; असद्भि:—असदों , दुष्टों द्वारा; अबला इव—निर्बल स्त्री की तरह; विनिर्जित: अस्मि—पराजित हो चुका हूँ।
अनुवाद:- हे राजन्, अब मैं अपने मित्र तथा सर्वाधिक प्रिय शुभचिन्तक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से विलग हो गया हूँ, अतएव मेरा हृदय हर तरह से शून्य-सा प्रतीत हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति में, जब मैं कृष्ण की तमाम पत्नियों की रखवाली कर रहा था, तो अनेक दुष्ट ग्वालों ने मुझे हरा दिया।
इस श्लोक की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्जुन किस तरह ग्वालों द्वारा हरा दिये गये , जिनकी रखवाली अर्जुन कर रहे थे।
विदित हो कि महाभारत के मूसल पर्व में "गोप के स्थान पर 'आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है।और फिर यादव जो वृष्णिवंशी थे उन्हें यादवों के अतिरिक्त कौन वश में कर सकता है ?
गान्धारी जब कृष्ण को शाप देती हैं तब कृष्ण उनके शाप को स्वीकार करते हुए कहते हैं
शुभे ! वृष्णि कुल का संहार करने वाला मेरे सिवा दूसरा दुनियाँ में नहीं है ! ये यादव दूसरे मनुष्यों तथा देवताओं के लिए भी और दानवों के लिए भी अबध्य है ; इसी लिए ये आपस में ही लड़़कर नष्ट होंगे ।49 1/2।।
"अर्जुन और वृष्णि वंश के गोपों(यादवों) की शत्रुता" अर्जुन भी महान योद्धा था उन्हें नारायण सेना के यादव गोपों के अतिरिक्त कौन परास्त कर सकता था ?और जब वृष्णिकुल की कन्या सुभद्रा का अर्जुन ने काम पीडित होकर अपहरण किया था तब कृष्ण नें भी अर्जुन को इन शब्दों में धिक्कारा था
जब अर्जुन और कृष्ण रैवतक पर्वत पर वहाँ समायोजित उत्सव की शोभा के अवसर पर टहल रहे थे।तभी वहाँ अपनी सहेलीयों के साथ आयी हुई।सुभद्रा को देखकर अर्जुन में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी "दृष्टिवा एव तामर्जुनस्य कन्दर्प: समजायत। तं तदैकाग्रमनसं कृष्ण: पार्थमलक्षयत्।।१५।
उसे देखते ही अर्जुन के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी उनका चित्त उसी के चिन्तन में एकाग्र हो गया कृष्ण ने अर्जुन की कामुकता को भाँप लिया।।१५। फिर वे पुरुषों में बाघ के समान कृष्ण हंसते हुए से बोले -अर्जुन यह क्या ?
तुम जैसे वन वासी के मन भी काम से उन्मथित हो रहा है ? ।।१६।
(महाभारत आदिपर्वसुभद्राहरणपर्व दो सौ अठारहवाँ अध्याय)तब अर्जुन सुभद्रा का करके ले जाता है तब वृष्णि कुल योद्धा उसको धिक्कारते हुए कहते हैं ।
को हि तत्रैवभुक्त्वान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति।मन्यमान:कुलेजातमात्मानं पुरुष:क्वचित्।२७।
अपने को कुलीन मानने वाला कौन ऐसा मनुष्य है जो जिस बर्तन में खाये ,उसी में छेद करे ।।२७।
(महाभारत आदिपर्व हरणपर्व दो सो उन्सीवाँ अध्याय) कहीं बारहवाँ अध्याय
सुभद्रा के अपहरण की खबर सुनते ही युद्धोन्माद से लाल नेत्रों वाले वृष्णिवंशी वीर अर्जुन के प्रति क्रोध से भर गये और गर्व से उछल पड़े ।।१६।
वृष्णि सत्वत कुल के यादव थे ।
तच्छ्रुत्वा वृष्णिवीरा: ते मदसंरक्तलोचना:।अमृष्यमाणा: पार्थस्य समुत्पेतुरहंकृता:।।१६।
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विदित हो कि सुभद्रा वृष्णि कुल की कन्या थी और वसुदेव की बड़ी पत्नी रोहिणी की पुत्री थी और स्वयं रोहिणी पुरुवंशी भीष्म के पिता शन्तुनु के बड़े भाई बह्लीक की पुत्री थीं । और अर्जुन भी स्वयं पुरुवंशी था ।
इस लिए भी सुभद्रा अर्जुन के लिए मानपक्ष की थी परन्तु कामुकता वश वह उसे अपहरण कर के ले गया । इसी लिए वृष्णिवंशी गोप योद्धाओं ने (पंचनद) पंजाब प्रदेश में वृष्णि वंश की अन्य हजारों स्त्रियों को द्वारका से इन्द्र प्रस्थान ले जाते हुए अर्जुन को अपने यादव कुल की स्त्रियों को अपने साथ लेने के लिए परास्त किया था।
यह बात भागवत पुराण के सन्दर्भ से उपरोक्त रूप में कह चुके हैं । सुभद्रा गोप कन्या के रूप में थी जैसा की अन्य गोप कन्याऐं उस काल में रहती थीं महाभारत के इस श्लोक में यही भाव -बोध है।
(महाभारत आदिपर्व हरणाहरण पर्व दोसौ बीसवाँ अध्याय)-यह सुभद्रा रोहिणी की पुत्री और हद व सारण की सगी बहिन थी। देखें-(हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के श्रीकृष्णजन्म विषयअपहरणक पैंतीसवाँ अध्याय)के चतुर्थ श्लोक में देखें रोहिणी के पिता और वंश का वर्णन करते हुए लिखा हुआ है कि रोहिणी के ज्येष्ठ पुत्र बलराम और (उनसे छोटे) सारण, शठ दुर्दम ,दमन श्वभ्र,पिण्डारक,और उशीनर हुए और चित्रा नाम की पुत्री हुई ( यह चित्रा एक अप्सरा थी जो रोहिणी के गर्भ में उत्पन्न होते ही मर गयी ।मरते समय उसने धिक्कारा था स्वयं को कि मैं यादव कुल में जन्म धारण करके भी यदुवंश में उत्पन्न होने वाले भगवान की लीला न देख सकी इसी इच्छा के कारण ) यह चित्रा ही दूसरी वार सुभद्रा बनकर उत्पन्न हुई । इस प्रकार रोहिणी की दश सन्तानें उत्पन्न हुईं । वसुदेव की चौदह तो कहीं अठारह रानी वर्णित हैं ।जिनमें रोहिणी उनसे छोटी इन्दिरा वैशाखी भद्रा और पाँचवीं सुनामि। ये पाँचों पुरुवंश की थीं रोहिणी महाराज शान्तनु के बड़े भाई बाह्लीक की बड़ी पुत्री थी ये दोनों भाई प्रतीप के पुत्र थे ;यही रोहिणी वसुदेव की बड़ी पत्नी थीं।
पौरवी रोहिणी नाम बाह्लीकस्यात्मजाभवत्। ज्येष्ठा पत्नी महाराज दयिताऽऽनकदुन्दुभे:।४।
चित्रां नाम कुमारीं च रोहिणीतनया दश। चित्रा सुभद्रा इति पुनर्विख्याता कुरु नन्दन।६।
हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व का पैंतीस वे ं अध्याय के चतुर्थ पञ्चम और षष्ठ श्लोक उपरोक्त रूप में वर्णित हैं।परन्तु भागवत पुराण के अनुसार सुभद्रा देवकी की पुत्री है।भागवत पुराण नवम स्कन्ध के अनुसार सुभद्रा देवकी की पुत्री है। (२४)वें अध्याय के ५५वें श्लोक में वर्णन है कि >•
अष्टमस्तु तयोरासीत् स्वयमेव हरि:किल।सुभद्रा च महाभागा तव राजन् पितामही।५५।
अर्थ:-दौंनों के आठवें पुत्र स्वयं हरि ही थे परीक्षित् ! तुम्हारी सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की कन्या थीं ।५५।
वस्तुत भागवत पुराण में वर्णित श्लोक हरिवंश पुराण के विरोधी व प्रक्षिप्त है। हरिवंश पुराण का कथन ही सही है कि सुभद्रा रोहिणी की पुत्री है ।
परस्पर गोत्र- विवाह सम्बन्ध पर समाधान करते हुए कहा-विशेष:- टिप्पणी:-हरिवंश पुराण में वर्णन है कि कृष्ण और उनकी पत्नी सत्यभामा क्रोष्टा के वंश में उत्पन्न थे।परन्तु पुराण की इस पहेली का हल करते हुए कहा कि क्षत्रियों के एक कुल होने पर भी सात पीढ़ीयाँ बीत जाने के बाद पुरोहित के गोत्र से यजमान क्षत्रिय का भी गोत्र बदल जाता है।
और इस प्रकार गोत्र भेद से उनमें विवाह हो जाता है ;इसी क्रोष्टा के वंश में रुक्मिणी जी का जन्म भी हुआ था । आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।
आवर्ततां कार्मुकवेगवाता। हलायुधप्रग्रणा (मधूनाम्)। सेना तवार्थेषु नरेन्द्र यत्ता।ससादिपत्त्यश्वरथा सनागा।33।
अर्थ:- राजन् ! जिसके धनुष का वेग वायु-वेग के समान है वह सवारों सहित हाथी ,घोड़े रथ और पैदल सैनिकों से भरी हुई मथुरा-प्रान्त वासी नारायणी यादव गोपों की सेना सदा युद्ध के लिए तैयार हो आपकी अभीष्ट सिद्धि के लिए निरन्तर तत्पर रहती है !
(वनपर्व-3-185-33)(मुम्बई निर्णय सागर प्रेस में १८५वाँ अध्याय है )तथा
गीताप्रेस की महाभारत प्रति में वनपर्व का मार्कण्डेय समस्या नामक उपपर्व का यह (१८३)वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (१४६३)-है।
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान थे। इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग- पर्व में वर्णन अर्जुन और यादव गोपों की शत्रुता का है। यह शत्रुता अर्जुन द्वारा सुभद्रा के अपहरण करने के कारण ही थी ।👇.
यादवों को गो पालक होंने से ही गोप कहा गया है और यही गोप संसार मेें कृषि संस्कृति के जनक हुए। गर्ग संहिता में वर्णन है कि
श्रीगिरिराजपूजाविधिवर्णनम् नामक अध्याय में नारद बहुलाश्व से गोपों को ही कृषि उत्पादन करने वाला कहते हैं ।
"श्रीनारद उवाच !-
वार्षिकं हि करं राज्ञे यथा शक्राय वै तथा । बलिं ददुः प्रावृडन्ते गोपाः सर्वे कृषीवलाः।३।
; भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर स्पष्ट वर्णित है। ये आभीर या गोप यादवों की शाखा नन्द बाबा आदि के भी वृष्णि कुल से सम्बंधित कहा है।
नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषित:। वृष्णयोवसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रिय:।६२। सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत। ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रता:।६३।
नन्द-आद्या:—नन्द आदि अन्य लोग; ये—ये सभी; व्रजे—वृन्दावन में; गोपा:—ग्वाले; या:—जो; च—तथा; अमीषाम्—उन सबका (वृन्दावनवासियों का); च— और । योषित:—स्त्रियाँ; वृष्णय:—वृष्णिवंश के सदस्य; वसुदेव-आद्या:— वसुदेव इत्यादि; देवकी-आद्या:—देवकी इत्यादि; यदु-स्त्रिय:—यदुवंश की स्त्रियाँ; सर्वे—सभी; वै—निस्सन्देह; देवता प्राया:— देवता थे; उभयो:—नन्द महाराज तथा वसुदेव दोनों के; अपि—निस्सन्देह; भारत—हे महाराज परीक्षित; ज्ञातय:— सजातिसम्बन्धीगण; बन्धु—सारे मित्र; सुहृद:—शुभेच्छु जन; ये—जो; च—तथा; कंसम् अनुव्रता:—कंस के अनुयायी होते हुए भी हैं ।.
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित, नन्द महाराज तथा उनके संगी ग्वाले तथा उनकी स्त्रियाँ देव- देवियाँ थीं। इसी तरह वसुदेव आदि वृष्णिवंशी तथा देवकी एवं यदुवंश की अन्य स्त्रियाँ भी थीं। ये परस्पर सजातीय नन्द तथा वसुदेव थे इनके मित्र, सम्बन्धी, शुभचिन्तक तथा ऊपर से कंस के अनुयायी लगने वाले व्यक्ति सभी देवता ही थे।
जैसा पहले बतलाया जा चुका है, भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी को बतला दिया था कि धरती का कष्ट हरने के लिए कृष्ण स्वयं यादववंश के वृष्णिकुल अवतरित होंगे। भगवान् ने स्वर्ग लोंको के समस्त निवासियों को आदेश दिया था कि वे यदु तथा वृष्णि वंश के विभिन्न परिवारों में जन्म लें। इस श्लोक से पता चलता है कि यदुवंश, वृष्णिवंश, नन्द महाराज के सारे मित्र तथा गोप भगवान् की लीलाओं को देखने के लिए स्वर्गलोक से अवतरित हुए थे और ये सभी एक जाति के थे ।
👇 ______
नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः।वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः।62।
●☆• नन्द आदि यदुवंशीयों की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी देवकी आदि स्त्रीयाँ ।62।
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत|ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रता:।63||
हे भरत के वंशज जनमेजय ! ये सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63||
( गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109).. ज्ञाति शब्द से ही जाति शब्द का विकास हुआ है; जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है।
अर्थ •-भाई के पुत्र के पुत्र आदि को पुन: ज्ञाति कहा जाता है गुरुपुत्र तथा भ्राता पोषण करने योग्य और परम बान्धव हैं ।१५८।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड) अमर-कोश में भी वर्णन है।अमरकोशः ज्ञाति पुल्लिंग। सगोत्रःसमानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन, दायाद -2।6।34।2।3
अर्थ:-(अरि वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द उत्पन्न हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर हुआ उससे "आवीर और आवीर से ही "आभीर "शब्द हुआ।।७।
"ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति । भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत । अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है। देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा,विश्वगर्भो महायशा:।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए
सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
"देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना।५२।
नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतांगत: । तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य हुआ जो गोकुल का रहने वाला था ।
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुःद्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।
सन्दर्भ-:-
वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।
अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। यह बात हम पूर्व में अनेक बार लिख चुके हैं। परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है। स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक ही था। निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
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श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०। में प्रस्तुत है वह वर्णन -
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशंगतः। करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥
अर्थ•अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली॥५४ ॥अर्थ •-प्राचीन समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्। वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६।अर्थ•(उसके पिता का नाम मधु था ) वह वरदान पाकर पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई।
स तत्र पुष्कराक्षौद्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्यराज्येमतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ।५८ ॥अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८। ____________________________________
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०। अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।६२।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥६३॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तुसुतःश्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति।६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥
यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में "गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेनेवाला होने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं । फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?आर्य शब्द मूलतः योद्धा अथवा वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में प्रचलित हुआ तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया !
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है। और जातियों का निर्धारण जीवविज्ञान में प्रवृतियों से ही होता आर्य शब्द परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे;इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकर ही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है जो वास्तव में वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
पुराणों का लेखन कार्य काव्यात्मक शैली में पद्य के रूप में हुआ एक स्थान पर श्लेष अलंकार के माध्यम से लेखक ने पर्जन्य ' देवमीढ और वर्षीयसी जैसे द्वि-अर्थक शब्दों को वर्षा कालिक अवयवों सूर्य ,मेघ ,और घनघोर वर्षा के साथ साथ यदुवंश के वृष्णि कुल के पात्र जो कृष्ण के पूर्वज भी हैं उनका भी वर्णन कर दिया है । यद्यपि महिला पात्र वर्षीयसी का वाचक शब्द का वर्षा से कोई अर्थ व्युत्पत्ति सिद्ध नहीं होता है ...
फिर भी यह वर्षा का ही वाचक है यहाँ पर्जन्य की पत्नी वरीयसी थीं ..
भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के बीसवें अध्याय के ये क्रमश: 5 ,6,7, वें श्लोक द्वयर्थक अर्थों से समन्वित हैं अर्थात् ये दोहरे अर्थों को समेटे हुए हैं
पर्जन्य, देवमीढ के पुत्र और वर्षीयसी (वरीयसी) उनकी पत्नी हैं पर्जन्य शब्द पृज् सम्पर्के धातु से पर्जन्य शब्द बना है
मिलनसार और सहयोग की भावना रखने के कारण देवमीढ के पुत्र पर्जन्य नाम भी हुआ
वरीयसी इनकी पत्नी का नाम था परन्तु ये परिवार और प्रतिष्ठा में बड़ी तो थी हीं नामान्तरण से वर्षीयसी भी नाम है !
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अतिशयेन वृद्धः वृद्ध + इयसुन् वर्षादेशः ।
अतिवृद्धे अमरः स्त्रियां ङीप् । वस्तुत: वर्षीयसी शब्द का वर्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु यह वर्षामूलक आभासी है। जबकि यह शब्द "वृद्धतरा" का वाचक है मह् -पूजायाम् "या महति प्रतिष्ठायाम् इति मही वा महिला" ! महिला पूज्या स्त्रीयों का वाचक है। श्लोकों का व्यक्ति मूलक अर्थ:- राजा पर्जन्य भूमि वासी प्रजा से आठ महीने तक ही कर लेते हैं ;वसु भी अपनी गायों को बन्धन मुक्तकर देते हैं प्रजा के हित में समय आने पर प्रजा से कर भी बसूलते हैं।
और प्रजा को गलत दिशा में जाने पर ताडित भी करते हैं |5||
जैसे दयालु राजा जब देखते हैं कि भूमि की प्रजा बहुत पीडित हो रही है तो राजा अपने प्राणों को भी प्रजाहित में निसर्ग कर देता है
जैसे बिजली गड़गड़ाहत और चमक से शोभित महामेघ प्रचण्ड हवाओं से प्रेरित स्वयं को तृषित प्राणीयों के लिए समर्पित कर देते हैं ||6||
तप से कृश शरीर वाले राजा देवमीढ के पुत्र पर्जन्य की वर्षीयसी नाम की पूजनीया रानी थीं उसी प्रकार जो कामना और तपस्या के शरीर से युक्त होकर तत्काल फल को पाप्त कर लेती थीं ।
जैसे देव =बादल । मीढ= जल। देवमीढ -बादलों का जल । ज्येष्ठ -आषाढ में ताप षे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी कृश हो गये ।
अब देवमीढ के द्वारा वह फिर से हरी फरी होगयी है । जैसे तपस्या करते समय पहले तो तपस्वी का शरीर दुर्बल हो जाता है। परन्तु जब इच्छित फल मिल जाता है ; तो वह हृष्ट-पुष्ट हो जाता है |
और सत्य भी है कि "सुन्दरता से काव्य का जन्म हुआ "वस्तुत यह एक आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है जिसकी भी हम्हें जितनी जरूरत है ; 'वह वस्तु हमारे लिए उसी अनुपात में ख़ूबसूरत भी होती जाती है।
परन्तु ये जरूरतें कभी भी पूर्णत: समाप्त नहीं होती हैं । जो भाव हमारे व्यक्तित्व में नहीं होता हम उसकी ही तो इच्छा करते हैं ; वही तो हमारे लिए ख़ूबसूरत है ।इसी सौन्दर्य प्रेरणा ने ही काव्य की सृष्टि की । जैसे कि अपना उद्गार प्रकट हुआ
अर्थ –वृष्णि कुलशिरोमणि देवमीढ की पहली पत्नी दूसरे वर्ण की अर्थात क्षत्रियवर्णा , और दूसरी पत्नी तीसरे वर्ण की अर्थात् वैश्यवर्णा थीं। देवमीढ के दो पुत्र थे; पहली पत्नी से शूर और दूसरी से पर्जन्य । वहाँ शूर के वसुदेव आदि पुत्र हुए । इसी लिए मुनि(गर्गाचार्य) द्वारा भागवत में कहा गया " वसुदेव यह सुनकर की भाई नन्द आये हुए हैं":–अत एवोक्तं श्रीमुनिना "वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं" )
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इस प्रकार पर्जन्य मातामही (दादी) के वर्ण को प्राप्त हैं ; और ब्राह्मण स्मृति ग्रन्थों के– न्याय के द्वारा वे वर्णसंकर हुए। और सभी भाई इस प्रकार मातामही( दादी) के शरीर को प्राप्त होने से इस न्याय से गोवृत्ति पालन से भी वे वैश्यवर्ण के को प्राप्त होकर "वृहदवनं"(महावनम्/ गोकुलम्) में ही स्थापित हुए ।
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(स च बाल्यादेव ब्राह्मणदर्शै पूजयति। मनोरथ पूरं देयानि वर्षति । वैष्णववेदं स्नह्यति । यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वैशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशामवतंसतया परमशंसनीय एवमेव च गोपवशोपीति पाद्येसृष्टिखण्डे स्पष्टीकृत:। स च श्रीमान्पर्जन्यो वैश्यांतर साधारण्यं निजैश्वर्येणातीयाय । यस्य भार्या नाम्ना वरीयस्यासीत् यस्य च श्री उपनन्दादय: पञ्चात्मजा जगदेवनन्ददयामासु: तथा च वन्दिन उपमान्ति स्म" उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।इति तस्य पुत्र सम्पत्तिस्तु परमरमणीयतामवाप मध्यमसुत सम्पत्तिस्तु सुतराम्। तदेव (सुमुखनाम्ना) केनचिद् गोपमुख्येन श्रीपर्जन्यमध्यंसुताय श्रीनन्दाय परमधन्या कन्या दत्ता।) "अर्थ"-और वह बालकपन से ही ब्राह्मणों का दर्शन और सम्मान करते थे । और सभी याचकों का मनोरथ भी पूरा करते थे।
ये वैष्णव जनों और वेदों का भी सम्मान करते थे। और जीवन पर्यन्त हरि की अर्चना करते थे। और माता के पक्ष का व्यवसाय ( गोपालन )करने से उनकी ख्याति सभी दिशाओं में हो गयी ।
गोपवेश( व्यवसाय) में वे प्रसिद्ध हो गये ।
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में भी उनके इस व्यवसाय की पुष्टि की गयी है।
कि इनकी पत्नी भी वैश्य वर्ण की थी; जिनका नाम "वरीयसी" था।
और वरीयसी में उत्पन्न इनके नन्द आदि पाँच पुत्र थे। मध्यम पुत्र इनको अधिक प्रिय था ; और सभी की सहमति से उनका विवाह "सुमुख नामके किसी मुख्य गोप की पुत्री यशोदा से हुआ था; जो परम धन्या और सुन्दर कन्या थी।
स च ज्यायांस्तत्र सदसि मध्यं निजानुजं नन्दनामानं पितुराज्ञया कृतकृत्य: सन् गोकुलराजतया सभाजयामास अत्र संकुचिते तत्रानुजे सविस्मये सर्वजने पितरिक्षेत्रमानलोचने स च चोवास स्नेहसद्गुणपराधीनेनाचरितमिति राजायमास्माकम्। ततो देवेैस्तदोपरि पुष्पवृष्टिकारि सदस्यैश्च ततोऽसौ पर्जन्य: श्रीगोविन्दमाराधियतुं सभार्यो वृन्दावनं प्रविवेश ।
"अर्थ"-"जो निश्चय ही अपने गुणों से स्वजनों को वश में करने वाली, और यश देने वाली थीं।
सुनने वालों के द्वारा और देखने वालों के द्वारा और भक्ति करनेवालों के द्वारा उसके क्या कहने! दूसरे शब्दों देखने सुनने वालों के द्वारा यशोदा की नाम और गुण के आधार सार्थकता सिद्ध हेतु इन लोगों द्वारा प्रशंसा की गयी । जब यशोदा का आगमन पर्जन्य के घर पुत्रवधू के रूप में हुआ; तो पर्जन्य की सभी सन्तानों (अपत्यों) में ही सुख सम्पदा वृद्धि हुई थी। (और एक पिता के लिए इससे बढ़़कर क्या उपलब्धि थी अर्थात् यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी।यशोदा नन्द के घर आने पर सब लोग आनन्दित थे।और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके प्रभु के चरण-कमलों में ध्यान लगाने वाले हो गये और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढ़ाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को सभा में आमन्त्रित किया ।उस सभा में उपनन्द के द्वारा मझले अर्थात् अपने से छोटे भाई जिनका नन्द नाम था ; उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति सभा में ही नियुक्त कर दिया। तब संकोच करते हुए नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये। अर्थात राजपद करते समय नन्द थोड़ा संकोच करने लगे। स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं ; यह कहते हुए तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की ।और उसके बाद पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए उस सभा को सम्पन्न कर; वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
"अर्थ"- उस काल में ही शास्त्रों के सार का पर्जन्य ने अपने सभी पुत्रों को उपदेश दिया ।
जीवन में भय का मूल कौनसा अदृश्य तत्व है; हरि के भक्त किसकी प्रार्थना अथवा भक्ति करे कि उनका संसार भय से निवारण हो- है । और सुखी होने के लिए किस प्रकार प्रेम भाव की तत्परता है हो । आदि आध्यात्मिक और भक्ति मूलक सिद्धान्तों की पर्जन्य जी द्वारा व्याख्या की गयी। इस प्रकार का पर्जन्य के द्वारा उपदेश - काल में श्रीमान उपनन्द और "श्रीमान नन्द आदि सभी व्रज मण्डल की सभा में मन्त्रियों के साथ खड़े हुए थे । और उस नन्द के राज्य में गोलोक के स्वामी अर्थात श्रीकृष्ण के मूलरूप विष्णु ने पर्जन्य के द्वादशी व्रत की चर्या (साधना) से प्रसन्न होकर पर्जन्य को पुत्ररत्न के रूप में इन उपनन्द' नन्द आदि पुत्रों को प्राप्त कराया।
इस प्रकार यह नन्द का सम्पूर्ण परिवार ( समुदाय/ कुल ) वास्तव में यदुवंश का ही रूप है।
दूसरे शब्दों नन्द का कुल यदुवश से सम्बन्धित था ।(इत्थं नन्दगोपकुलं यदुकुलमिति)।
संक्षेप में नन्द गोप कृष्ण को रक्तसम्बन्धी थे। अथवा सनाभि थे -एक ही पूर्वज से उत्पन्न पुरुष। सपिंड पुरुष
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सन्दर्भ:-(श्रीमद्भागवत पर आधारित वंशीधरी टीका दशम् स्कन्द पूर्वार्द्ध प्रथम अध्याय- पृष्ठ संख्या -१६२५)
अग्रलिखित सन्दर्भों में हम चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य " श्री गोपालचम्पू" में वर्णित नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन प्रस्तुत करेंगे।
यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है । निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-____________________________________
अर्थ-• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; उन्हीं क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो मुख्य पत्नीयाँ थीं , पहली (पत्नी) क्षत्रिय वर्ण की,और दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ; उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन( स्वीकार) कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो- प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे ।
और वे बाल्यकाल से ही ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे; वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था।
★-अवतन्स= (अव--तन्स--घञ् )। १ कर्णपूरे, २ शिरोभूषाभेदे च । अवतन्स एक आभूषण भेद है यह शिरोमणि का वाचक है।
विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे; इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।
यद्यपि चम्पूकार मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों को उद्धृत करते हैं जिनका खण्डन हम पूर्व में ही शास्त्रीय पद्धति से कर चुके हैं।
अर्थ•-इस विषय में मनुस्मृति भी कहती है। यथा (10/15) कि क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अम्बष्ठा के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं।
उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ होता है ।
अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ में स्वयं हरि भगवान विष्णु ने अहीरों के कुल में अवतरण होने का वरदान दिया जिसका ब्रह्मा जी ने भी समर्थन किया। इस बात को चम्पूकार ने उद्धृत नहीं किया।★
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ताचैषा विरञ्चये।१५। अनया आभीरकन्याया तारितोगच्छ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६। अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति। यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७। करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः। युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८। तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः। करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
अनुवाद-भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
_______________ऊं________________
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।
_______________ऊं________________
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।
_______________ऊं________________
उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।
अनुवाद-हे सखी तुम यहाँ किस के द्वारा लायी गयी हो और महावर ( लाक्षा) के द्वारा अंकित सुन्दर साड़ी से सजा दी गयी हो और तुम्हारी कम्बली को किसके द्वारा हटा दिया गया है ।
____________________________________
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
अनुवाद-किस के द्वारा तुम्हारी यह चोटी लाल धागे में बाँधी गयी है; इस प्रकार के उन आये हुए अहीरों के विधान वाक्यों को सुनकर स्वयं हरि भगवान विष्णु बोले-
(स्वयं हरिर् उवाच)
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
अनुवाद-स्वयं भगवान विष्णु ने कहा ! यहाँ यह कन्या हमारे द्वारा लायी गयी है ! ब्रह्मा की पत्नी बनाने के लिए , यह बाला अब ब्रह्मा पर आश्रिता है इसलिए यहाँ अब तुम सब कोई प्रलाप ( दुःखपूर्ण रुदन) मत करो ।११।
अनुवाद-यह कन्या पुण्यों वाली ,सौभाग्य वती और सब प्रकार से कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यों वाली न होती तो यह कैसे इस ब्रह्मा की सभा में आती ।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
अनुवाद-इस प्रकार जानकर महाभाग ! तुम सब शोक करने के योग्य नहीं हो यह कन्या महाभाग्यवती है इसने देव ब्रह्मा को पति रूप में प्राप्त किया है ।१३।
"योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
अनुवाद- हे आभीरों ! इस कन्या ने वह गति प्राप्त की है ; जिसे ,योग में लगे हुए योगी, वेदों के पारंगत ब्राह्मण भी प्रार्थना करते हुए प्राप्त नहीं करते हैं ।
अनुवाद-धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल इस कन्या और आप सबको जानकर ही मैने ब्रह्मा को पत्नी रूप में इस कन्या का दान किया है ।१५।
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इसी क्रम में विष्णु का गोपों को' उनके यदु के वृष्णि कुल में अवतार लेने का वचन देना-
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अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अनुवाद –इस कन्या के द्वारा स्वर्ग को गये हुए महोदयगण तार दिए गये हैं । (युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये)= और तुम्हारे कुल में भी देव कार्य की सिद्धि के लिए (अवतारं करिष्येहं)=मैं अवतरण करुँगा।
तेन-=उस कृष्ण रूप के द्वारा अकृत्येऽपि- =( विना कुछ करते हुए भी) अर्थात न करने पर भी रक्तास्ते-=तेरे रक्त( जाति)वाले गोपा=- गोपगण.यास्यंति श्लाघ्यताम् =-प्रशंसा को प्राप्त करेंगे सर्वेषामेव लोकानां =-समस्त लोकों में, देवानां च विशेषतः-= विशेषकर देवताओं में भी।१४।
इस प्रकार वे गोप कुछ न करते हुए भी = (अकृत्येऽपि) तेरी जाति वाले =(रक्तास्ते) प्रशंसा को प्राप्त करेंगे= यास्यंति श्लाघ्यताम् ।१४।
यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवा नराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति।१५॥
और जहाँ जहाँ भी मेरे गोप वंश में मनुष्य निवास करेंगे वहाँ वहाँ लक्ष्मी का निवास होगा भले ही वह जंगल क्यों ही नहों।१५।
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः।१७।
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इसी प्रकार स्कन्दपुराण नागर खण्ड में विष्णु का गोपों में अवतार लेने का वर्णन है।
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥ तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति॥११॥ तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि॥ यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः॥ तत्र त्वं पावनार्थायचिरं वृद्धिमवाप्स्यसि॥१२॥ एकःकृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥ तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्यसारथ्यंत्वं करिष्यसि।१३। तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥ सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः॥१४ ॥ च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवानराः॥ तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५।
-तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।अनुवाद-वहाँ कोई दोष नहीं होगा और ना ही द्वेष और ईर्ष्या कोई करेगें वहाँ गोप मनुष्य भी कोई भय नहीं करेंगे-।१९।
अनुवाद-हे प्रभु ! आपके दर्शन से ही हम सब लोग । स्वर्ग केेेे निवासी हुए हैं ; और शुभ ही शुुभ देेेेने वाली ये कन्या , साथ ही हम अहीरों के कुल (वंश) का भी तारण करने वाली हुई।२२।
अनुवाद- देवों के ईश्वर विभो ! तुम्हारा वरदान ऐसा ही हो ! (अनुनीता:- कृतानुनये यस्य सान्त्वनार्थं विनयादिकं क्रियते तस्मिन् अनुनीता:) अर्थात् गोपों को सान्त्वना देते हुए विनययुक्त स्वयं देव विष्णु के द्वारा इसका अनुमोदन किया गया।२३।
अनुवाद-ब्रह्मा जी के द्वारा भी ऐसा ऐसा ही हो ! अपने बायें हाथ के द्वारा सूचित करते हुए कहा ; वह उत्तम कन्या अपने बान्धवों को देखने पर लज्जा युक्त होगयी।२४।
गोपालचम्पूकार के अनुसार- इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा-आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।
यद्यपि न तो अम्बष्ठ ही वैश्य होते हैं और न ही अभी गोपों की उत्पत्ति ब्राह्मणपुरुष और अम्बष्ठा स्त्री से ही हुई है । ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ जो वेदों की अधिष्ठात्री देवता है । यह सतयुग की घटना है जब कोई वर्णसंकर जाति नहीं थी।गोपों की उत्पत्ति विष्णु भगवान के रोमकूपों से हुई है । यह भी शास्त्रों में ही वर्णित है। और गायत्री का जन्म मनु से पूर्व सप्तर्षियों से पूर्व हुआ था। यह भी पद्मपुराण सृष्टिखण्ड'स्कन्दपुराण लक्ष्मीनारायणी संहिता और नान्दि आदि पुराणों में वर्णित ही है।
गायत्री माता को देवीभागवतपुराण में यदुवंश-समुद्भवा कहा गया है ।
हम आपको मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण से कुछ सन्दर्भ देते हैं जो दुर्गा को यादव या अहीर कन्या के रूप में वर्णन करते हैं...
देखें निम्न श्लोक ...
नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका ।
नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया।८१।
देवीभागवतपुराण-स्कन्धः १२-अध्यायः६
उपर्युक्त श्लोक में नन्द जी की प्रिय पुत्री होने से नन्दप्रिया दुर्गा का ही विशेषण है ...
नन्दजा नवरत्नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।
नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिःस्वना।८६।
उपर्युक्त श्लोक में भी नन्द की पुत्री होने से दुर्गा को नन्दजा (नन्देन सह यशोदायाञ्जायते इति नन्दजा) कहा गया है ..
यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी।
यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्भवा॥१३१॥
श्रोत-:- इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे गायत्रीसहस्रनामस्तोत्रवर्णनं नाम अध्यायः।६।
~देवीभागवतपुराणम्-स्कन्धः१२ अध्यायः६।
उपर्युक्त श्लोक में दुर्गा देवी यदुवंश में नन्द आभीर के घर यदुवंश में जन्म लेने से (यदुवंशसमुद्भवा) कहा है जो यदुवंश में अवतार लेती हैं
नीचे मार्कण्डेय पुराण से भी श्लोक उद्धृत हैं
जिनमे दुर्गा को यादवी कन्या कहा है:-
यद्यपि गायत्री और दुर्गा वैष्णवी शक्तियाँ हैं जो आलौकिक दृष्टि से अभिन्न हैं।
अट्ठाईसवें युग में वैवस्वत मन्वन्तर के प्रगट होने पर जब दूसरे शुम्भ -निशुम्भ दैत्य उत्पन्न होंगे तब मैं नन्द गोप के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर उन दोनों(शुम्भ और निशुम्भ) का नाश करूँगी और विन्ध्याचल पर्वत पर रहूंगी।
मार्कण्डेय पुराण के मूर्ति रहस्य प्रकरण में आदि शक्ति की छः अंगभूत देवियों का वर्णन है उसमें से एक नाम नंदा का भी है:-
इस देवी की अंगभूता छ: देवियाँ हैं –१- नन्दा, २-रक्तदन्तिका, ३-शाकम्भरी, ४-दुर्गा, ५-भीमा और ६-भ्रामरी. ये देवियों की साक्षात मूर्तियाँ हैं, इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने से इस प्रकरण को मूर्तिरहस्य कहते हैं...
दुर्गा सप्तशती में देवी दुर्गा को स्थान- स्थान पर नंदा और नंदजा कहकर संबोधित किया है जिसमे की नंद -आभीर की पुत्री होने से देवी को नंदजा कहा है-"नन्द आभीरेण जायते इति देवी नन्दा विख्यातम्"
अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् ! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली है, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं|
"जिसे पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में गोप" आभीर और और यदुवंश समुद्भवा कहा गया है । फिर तो यहाँ गोपालचम्पू की बातें अधूरी और असंगत ही हैं। कि गोप वैश्य होते हैं।
अर्थ-• तदनंतर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि ,वाणिज्य ,गोरक्षा और कुसीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री शुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है !
इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज पद में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।
संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।
अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।। अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई ! मधुकण्ठ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।
मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा:सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों को आप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर' गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।
अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी अधिक नाना(मातामह) के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी उपाध्याय के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे। उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।
अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)
अन्यस्तु जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु। सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।
अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर भूतल पर देखा जाता है ।
किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।
अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९।
अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ? तदनंतर उन दोनों के सुयोग्य दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्तिका कौन वर्णन कर सकता है।३६।
अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ
उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।।
अर्थ•-पश्चात उन श्री उपनन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।।
योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।
अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है । दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो ।
तात्पर्य- ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।६५।।
गर्ग उवाच–भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।
अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।
गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।।
अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है।
अत:आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेषहित कर कार्य कर देंगे।६७।
(श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय) कोश-ग्रन्थों में अम्बष्ठ का अर्थ-
अम्बष्ठ] [स्त्री० अम्बष्ठा] १. एक देश का नाम पंजाब के मध्य भाग का पुराना नाम था अंबष्ठ देश में बसनेवाला मनुष्य। ३. ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न एक जाति। इस जाति के लोग चिकित्सक होते थे। ४. महावत। हाथीवान। फीलवान। हस्तिपक। ५. कायस्थों का एक भेद।
अम्बष्ठ गण (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व) चिनाब और सिन्धु नदी के आस-पास रहते थे। इनका निवास विशेष रूप से भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र था। सिकंदर ने जब पंजाब पर आक्रमण किया, तब अम्बष्ठ गण अपना क़बाइली जीवन सुचारु रूप से जी रहे थे। इनका, चिनाब और सिन्धु के उत्तरी हिस्से में रहने का उल्लेख सिकंदर के आक्रमण के समय का ही मिलता है। यह वह स्थान था, जो इन नदियों के संगम स्थल से उत्तर में पड़ता था।इनका उल्लेख 'अम्बष्ठनोई' भी मिलता है किन्तु यह नाम यूनानी इतिहासकारों का दिया हुआ है। यूनानियों द्वारा संस्कृत भाषा के अम्बष्ठ को ज्यों का त्यों लिख-बोल न पाने के कारण यह नाम बदल गया। संस्कृत भाषा के जिन ग्रंथों में इनका उल्लेख मिलता है, उनमें प्रमुख हैं-"ऐतरेय ब्राह्मण"महाभारत"बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र आदि ।'बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र' (टॉमस, पृ. २१) में अंबष्ठों के राष्ट्र का वर्णन कश्मीर, हूण देश और सिन्ध के साथ है।अलक्षेन्द्र के आक्रमण के समय अंबष्ठनिवासियों के पास शक्तिशाली सेना थी। टॉलमी ने इनको अंबुटाई कहा है। सिकन्दर के इतिहास से सम्बन्धित कतिपय ग्रीक और रोमन लेखकों की रचनाओं में भी अंबष्ठ जाति का वर्णन हुआ है। दिओदोरस, कुर्तियस, जुस्तिन तथा तालेमी ने विभिन्न उच्चारणों के साथ इस शब्द का प्रयोग किया है। प्रारम्भ में अंबष्ठ जाति युद्धोपजीवी थी। सिकन्दर के समय (३२७ ई. पू.) उसका एक गणतन्त्र था और वह चिनाब के दक्षिणी तट पर निवास करती थी। आगे चलकर अंबष्ठों ने सम्भवत चिकित्साशास्त्र को अपना लिया, जिसका परिज्ञान हमें 'मनुस्मृति' से होता है। परन्तु मनुस्मृति प्रमाणित ग्रन्थ नहीं है। महाभारत में अम्बष्ठों का वर्णन-
"पृष्ठे कलिङ्गा:साम्बष्ठा मागधा: पौण्ड्रमद्रास: । गान्धारा:शकुना:प्राच्या: पर्वतीयावसातय:। अर्थ •-पृष्ठभाग में कलिंग ,अम्बष्ठ ,मगध, पौण्ड्र, मद्रास, गन्धारा: शकुन वीर तथा पूर्वदेश के और वसाति' आदि देशों के वीर थे।।१०-१/२।।
(द्रोण पर्व बीसवाँ अध्याय)
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वशातय: शाल्वका: केकयाश्च. तथाम्बष्ठा ये त्रिगर्ताश्च मुख्या:।।२३।।
अर्थ•- दुर्योधन ने हम पाण्डवों के साथ युद्ध करने के लिए जिन जिन राजाओं को बुलाया है वे ,वशाति, शाल्व ,केकय ,अम्बष्ठ, यौद्धा तथा त्रिगर्तदेश के ये प्रधान वीर ही हैं पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशा के शौर्य सम्पन्न योद्धा तथा समस्त पर्वतीय राजा वहाँ उपस्थित हैं वे लोग दयालु और शील तथा सदाचार से सम्पन्न हैं। संजय ! तुम मेरी ओर से उन सबका कुशल-मंगल पूछना।।२३-२४।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराटं मत्स्यमार्च्छताम्।
सहसैन्यौसहानीकंयथेन्द्राग्नी पुरा बलिम।20।
अर्थ•- अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द ने अपनी सेनाओं को साथलेकर विशाल वाहिनी सहितमत्स्यराज विराटपर उसी प्रकार आक्रमण किया।जैसे पूूूूव काल में अग्नि और इन्द्र ने बलि पर किया था
तदुत्पिञ्जलकं युद्धमासीद्देवासुरोपमम्।
मत्स्यानांकेकयैःसार्धमभीताश्वरथद्विपम्।21।
अर्थ •-उस समय मत्स्यदेशीय सैनिकोंं ये कैकयीदेशीय यौद्धाओं के साथ देवासुर संग्राम के समान अत्यन्त घमासान युद्ध हुआ उसमें सभी निर्भीक होकर हाथी ,घोड़े रथसे युक्त एक दूसरे से लड़रहे थे।
श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि
द्वादशदिवसयुद्धे पञ्चविंशोऽध्यायः||25||
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आगे द्रोण पर्व में आभीर शूरमाओं का वर्णन किया गया है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे ।
महाभारत के सभापर्व के (३१)वें अध्याय में मत्स्य ( मीना) क्षत्रियों का वर्णन भी हुआ है ।
सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम् । तथैवापर मत्स्यांश्च व्यजयत् स पटच्चरान् ।४। अर्थ•- इसके बाद राजा सुकुमार और सुमित्र को (सहदेव) ने वश में किया। इसी प्रकार मत्स्यों और पटच्चरों पर भी विजय प्राप्त की।४।
अर्थ •- तत्पश्चात दशार्ण देशों पर विजय प्राप्त करके पाण्डुनन्दन नकुल ने शिबि ,त्रिगर्त, अम्बष्ठ मालव,पञ्चकर्पट ,एवं माध्यमिक देशों को प्रस्थान किया और उन सबको जीतकर वाटधानदेशके क्षत्रियों को भी हराया ।७-१/२(महाभारत सभापर्व)
गीताप्रेस के संस्करण में( ३२)वाँ अध्याय का सप्तम श्लोक
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शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम्। वर्तयन्तिच ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः।2-35-10
अर्थ•-समुद्र के किनारे पर रहने वाले महाबली ग्रामीण सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले शूर -आभीर गण मत्यस्यगण (मीणा) के पास रहने वाले और पर्वतवासी इन सबको नकुल ने वश में कर लिया ।९-१०। वर्तमान प्रतियों में किस प्रकार शूर को शूद्र बना दिया गया है। ____________________________________
त्रीणि सादिसहस्राणि दुर्योधनपुरोगमाः।
शककाम्भोजबालह्लीका यवनाःपारदास्तथा।१३।
कुलिन्दास्तङ्कण अम्बष्ठाः पैशाचाश्च सबर्बराः।
पार्वतीयाश्च राजेन्द्र क्रुद्धाः पाषाणपाणयः।१४।
अभ्यद्रवन्त शैनेयं शलभाः पावकं यथा।।
(द्रोणपर्व का १२१वाँ अध्याय)
अम्बष्ठ गण (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व) चिनाब और सिन्धु नदी के आस-पास रहते थे।
इनका निवास विशेष रूप से भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र था। सिकन्दर ने जब पंजाब पर आक्रमण किया, तब अम्बष्ठगण अपना क़बाइली जीवन सुचारु रूप से जी रहे थे। इनका, चिनाब और सिन्धु के उत्तरी हिस्से में रहने का उल्लेख सिकन्दर के आक्रमण के समय का ही मिलता है। यह वह स्थान था, जो इन नदियों के संगम स्थल से उत्तर में पड़ता था।
इनका उल्लेख 'अम्बष्ठनोई' भी मिलता है किन्तु यह नाम यूनानी इतिहासकारों का दिया हुआ है।
यूनानियों द्वारा संस्कृत भाषा के अम्बष्ठ को ज्यों का त्यों लिख-बोल न पाने के कारण यह नाम बदल गया। संस्कृत भाषा के जिन ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है, उनमें प्रमुख हैं-
ऐतरेयब्राह्मण, महाभारत और बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र।आदि हैं ।
अम्बष्ठ गण प्रारम्भिक समय में अपनी जीविका के लिए युद्धों पर निर्भर थे। इसलिए इन्हें एक युद्ध-प्रिय जाति माना गया है । कालान्तर में इन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों को अपनाया। धीरे-धीरे खेती को अपना कर इन्होंने स्वयम् को कृषक जाति के रूप में भी पारंगत कर लिया। वैद्यों के उल्लेख भी अम्बष्ठों के पाए जाते हैं। अम्बष्ठों ने जिस प्रकार समय-समय पर अपनी जीवन शैली को बदला वह बहुत विचित्र लगता है। लेखक का मत है कि देवमीढ़ की दो पत्नियाँ विशेष थीं एक चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती और दूसरी अशमक की पुत्री अश्मिका और गुणवती के पर्जन्य आदि तीन पुत्र हुए ।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का ही होता है ।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या( ५६२४) गीता प्रेस का संस्करण)
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अब प्रश्न यह भी उठता है !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं ।कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।
(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व) वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि
तिस्र:क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है । तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
गोपों को गर्गसंहिता और ब्रह्मवैवर्तपुराण में विष्णु के शरीर से उत्पन्न बताया।
जैसा कि पुराणों में वर्णन है:-राजा नाभाग के वैश्य होने के विषय में (विशेष नाभाग सूर्यवंशी राजा दिष्ट के पुत्र थे)
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"मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए । वर्णित है अर्थात् ( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।
"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।तवापि वैश्येनसह न युद्धं धर्मवन्नृप।30।
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उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता ।अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है ।
तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे तो वे वैश्य कहाँ हुए ? और इसके अतिरिक्त भी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपना पुरुषार्थ परिचय देते हुए कहा था जब
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;
तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
परन्तु आज कृष्ण से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया । ये भूत या पिशाच जनजाति के लोग थे
यही आज भूटानी कहे जाते हैं ।वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था। ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे।क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय देते हुए कहा कि शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय होने से मैं क्षत्रिय हूँ । तब पिशाच और जिज्ञासा पूर्वक पूँछता है ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टःपिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः।9।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ । उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं राजाओं के समक्ष उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ ,और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
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अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
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"अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।१८५.३२।
दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।१८५.३३
(ब्रह्मपुराण अध्याय १८५)
यदि कृष्ण शास्त्रों को आधार मानकर चलते तो गोपों की 'नारायणीसेना' का निर्माण क्यों करते ?____________________________________
महाभारत के द्रोण पर्व के उन्नीसवें अध्याय में वर्णन है नारायणी सेना के( शूरसेन वंशी आभीर ) और शूरसेन राज्य के अन्य योद्धा अर्जुन के विरुद्ध लड़ रहे थे। महाभारत के द्रोण पर्व के संशप्तक वध नामक उपपर्व के उन्नीस वें अध्याय तथा बीसवे अध्याय में यह वर्णन है । और इस अध्याय के श्लोक सात में गोपों की नारायणी सेना के योद्धा गोपों को अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए वर्णन किया है ।
अर्थ:-तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।।
और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छ: और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ;जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं।
(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय) अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।६-७ ।
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)
महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और१९ पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है।
मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों के क्षत्रियत्व को प्रमाणित भी करती हैं ।
विदित हो कि नरायणी सेना और बलराम दुर्योधन के पक्ष में थे और तो क्या बलराम स्वयं दुर्योधन के गुरु ही थे । जैसा कि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड में वर्णन है
अथ कदाचित्प्राड्विपाको नाम मुनींद्रो।
योगीन्द्रो दुर्योधनगुरुर्गजाह्वयं नाम पुरमाजगाम ॥६॥
अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७।
अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध पन्द्रह वें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है इसे भी देखें---____________________________________
ब्रह्म पुराण में इसी प्रकरण के लिए आभीर और गोपाल शब्दों का समानार्थक प्रयोग है।अचिन्तयत्तु कौन्तेय कृष्णस्यैव हि तद्बलम्।यन्मया शरसङ्घातै: सबला भूभृतो जिता:।२५।
उनके अभाव में मुझे यह धरती विगतयौवना" श्रीहीन, और कान्तिहीन प्रतीत हो रही है। जिन कृष्ण के प्रभावप्रताप से भीष्म आदि परमवीर मुझ अग्नि रूप में पतंगों जैसे प्रतीत हो गये थे । उन कृष्ण के न रहने पर गोपालों से मैं पराजित हो गया ।।४९।
(युद्ध काण्ड - अध्याय 88 का श्लोक 24) में जब रावण जब लक्ष्मण को अनार्य और अधम क्षत्रिय कहता है तब क्या लक्ष्मण वास्तव में अनार्य थे ?
वास्तव में इस प्रकार के अपशब्द अथवा गालि क्रोध में युद्ध की भाषा है गोपों अथवा अहीरों को अर्जुन के द्वारा दुष्ट और पापी कहना भी इसी प्रकार क्रोध और विरोध की भाषा थी यथार्थ परक नहीं आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।
आवर्ततां कार्मुकवेगवाता हलायुधप्रग्रणा मधूनाम्। सेना तवार्थेषु नरेन्द्र यत्ता ससादिपत्त्यश्वरथासनागा।३३।
अर्थ:- राजन् ! जिसके धनुष का वेग वायु-वेग के समान है वह सवारों सहित हाथी ,घोड़े रथ और पैदल सैनिकों से भरी हुई मथुरा-प्रान्त वासी नारायणी यादव गोपों की सेना सदा युद्ध के लिए तैयार हो आपकी अभीष्ट सिद्धि के लिए निरन्तर तत्पर रहती है !
( वनपर्व-3-185-33)(मुम्बई निर्णय सागर प्रेस में १८५वाँ अध्याय है )
गीताप्रेस की महाभारत प्रति में वनपर्व का मार्कण्डेय समस्या नामक उपपर्व का यह (१८३)वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (१४६३)-
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान था।इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
"देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना।५२।
नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतांगत: । तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
दिष्ट का पुत्र नाभाग हुआ। यह नाभाग जो आगे वर्णित होने वाले नाभाग से भिन्न था, वृत्ति से वैश्य बन गया। नाभाग का पुत्र भलन्दन हुआ, भलन्दन का पुत्र वत्सप्रीति हुआ और उसका पुत्र प्रांशु था। प्रांशु का पुत्र प्रमति था, प्रमति का पुत्र खनित्र और खनित्र का पुत्र चाक्षुष था जिसका पुत्र विविंशति हुआ।
मनु का एक पुत्र ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय और तीसरा वैश्य बना। इससे नारद मुनि के इस कथन की पुष्टि होती है—यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यंजकम् (भागवत ७.११.३५)। यह कभी नहीं मानना चाहिए कि ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जन्मजात हैं। ब्राह्मण क्षत्रिय बन सकता है और क्षत्रिय ब्राह्मण। इसी प्रकार ब्राह्मण या क्षत्रिय वैश्य बन सकता है और वैश्य ब्राह्मण या क्षत्रिय में बदल सकता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है (चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: )। अतएव कोई जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य नहीं बनता अपितु गुण से बनता है। चूँकि ब्राह्मणों की नितान्त आवश्यकता है अतएव हम कृष्णभावनामृत आन्दोलन में कुछ ब्राह्मणों को मानव समाज का मार्गदर्शन कराने के लिए प्रशिक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। चूँकि इस समय ब्राह्मणों की कमी है इसलिए मानव समाज का मस्तिष्क नष्ट हो चुका है। अब ब्राह्मणों के रूप में पूर्वकाल के राक्षस ही अधिक हैं। चूँकि व्यावहारिक रूप में प्रत्येक व्यक्ति शूद्र है अतएव इस समय समाज को सही पथ का मार्गदर्शन कराने वाला कोई नहीं है जिससे जीवन की सिद्धि प्राप्त की जा सके।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०। में वर्णन है।-
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुःशापवशंगतः। करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२ ॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥
अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥ अर्थ •-प्राचीन समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदःपापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्। वासिता (मथुरा) नाम पुरी
•(उसके पिता का नाम मधु था ) वह वरदान पाकर पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।
स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्य राज्येमतिमान्कालेप्राप्ते दिवंगतः।५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयःपुरा ।५८ ॥अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।। ____________________________________
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०। अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥६३॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति॥ ६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
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वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है । यह उपर्युक्त रूप में वर्णित है। पण्डित वल्देव शास्त्री ने भागवत- टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१।
-अनुवाद:-इस प्रकार कृष्णचन्द्रने उपाय-पूर्वक शत्रुको कंस को नष्टकर फिर मथुरा में आ उसकी हाथी, घोड़े और रथादिसे सुशोभित सेनाको अपने वशीभूत किया और उसे द्वारका में लाकर राजा उग्रसेन को अर्पण कर दिया । तबसे यदुवंश शत्रुओंके दमनसे निःशंक हो गया ।६-७॥
हे मैत्रेय ! इस सम्पूर्ण विग्रह के शांत हो जानेपर बलदेवजी अपने जाति-बान्धवोंके दर्शनकी उत्कण्ठासे नन्दजीके गोकुलको गये ।८॥
ययातिशापाद् वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नुपैः।
५-२१-१२।
ययाति का शाप होनेसे यद्यपि हमारा यदु-वंश राज्यका अधिकारी नहीं है तथापि इस समय मुझ दास के रहते हुए राजाओं को तो क्या, आप देवताओं को भी आज्ञा दे सकते हैं।१२॥
भागवतपुराण में भी इसी प्रकार का श्लोक है।
विष्णुपुराण पञ्चमाञ्श 21 वाँ अध्याय का 12वाँ श्लोक।
आह चास्मान् महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि । ययातिशापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने।१३।
आह—उसने (कृष्ण ने) कहा; च—तथा; अस्मान्—हमको; महाराज—हे महान् राजा; प्रजा:—आपकी प्रजा; च—भी; आज्ञप्तुम् अर्हसि—आदेश दें; ययाति—प्राचीन राजा ययाति द्वारा; शापात्—शाप से; यदुभि:—यदुओं के द्वारा; न आसितव्यम्— नहीं बैठना चाहिए; नृप:- राज; आसने—सिंहासन पर ।.
भगवान् ने उनसे कहा : हे महाराज, हम आपकी प्रजा हैं, अत: आप हमें आदेश दें। दरअसल, ययाति के शाप के कारण कोई भी यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकता।
उग्रसेन ने भगवान् से कहा होगा, “हे प्रभु! सिंहासन पर तो आपको बैठना चाहिए।” ऐसे कथन का अनुमान करते हुए ही भगवान् कृष्ण ने उग्रसेन से कहा होगा कि ययाति के पहले के शाप के कारण वैधानिक रूप से कोई यदुवंशी राजकुमार राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकता, अत: कृष्ण तथा बलराम उसके अयोग्य थे। वस्तुत:, उग्रसेन को भी यदुवंश का ही अंग माना जा सकता था किन्तु पुराणकारों की यह बात सत्यविरुद्ध है। क्योंकि इसी क्रोष्टाकुल में शशबिन्दु और सहस्रबाहु जैसे सम्राट भी हुए हैं। हरिवंश
वैशम्पायन कहते हैं - मैं तुम्हें क्रोष्टा के कुल का दूसरा पहलू बताता हूँ। इस क्रोष्टा का वृजिनिवाण नाम का एक महान पुत्र था। इस पुत्र का भी एक पुत्र हुआ, उसका नाम स्वाही था।आत्मत्याग का अध्ययन करने वालों में वह सर्वश्रेष्ठ थे। यह स्वाही रुषद्गु नामक एक महान वक्ता का पुत्र था। सूक्त प्राप्त करने की इच्छा से इन यादव- ऋषियों ने अनेक यज्ञ किए जिनमें ब्राह्मणों को भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ। उस योग से उन्हें चित्ररथ नाम का एक प्रतापी पुत्र हुआ। वह एक शानदार काम था। उसके बाद उनका शशबिन्दु नाम का एक उदार पुत्र हुआ जो एक महान वीर और उदार दक्षिणा का हिस्सेदार था।
राज्यों में आने वाले महान संतों में उनका आचरण सबसे प्रमुख था। शशबिन्दु के पृथुश्रवा नाम का एक पुत्र था जो एक महापुरुष था।४। इसके अतिरिक्त यदु के पुत्र और क्रोष्टा बड़े भाई सहस्रजित की शाखा में सम्राट सहस्रबाहु अर्जुन हुआ था।
नन्द और वसुदेव सजातीय थे यह बात हम पूर्ववर्ती अध्याययों में सिद्ध कर चुके हैं।
संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇
परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया । और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं अहीर द्वेषीयों द्वारा सृजित की गयीं । अहीर शब्द ंसंस्कृत अभीर का प्राकृतरूप है आभीर इसीका तथा समूहवाची रूप है।
जैसे - अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
"आभीर "अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। हरिवंश पुराण से हमने पूर्व में सन्दर्भ दिए हैं । अब देवीभागवत पुराण से पुष्टिकरण हेतु सन्दर्भ प्रस्तुत हैं।
देवीभागवतपुराण– स्कन्धः४ अध्याय द्वितीय-(२)
कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणम्।
सूत उवाच
एवं पृष्टः पुराणज्ञो व्यासः सत्यवतीसुतः ।
परीक्षितसुतं शान्तं ततो वै जनमेजयम् ॥१॥
सूत जी बोले – हे मुनियों पुराणवेत्ता वाणीविशारद सत्यवतीपुत्र महर्षि व्यास ने शान्त स्वभाव वाले परीक्षित्- पुत्र जनमेजय से उनके सन्देहों को दूर करने वाले वचन बोले ।।१=१/२।।
उवाच संशयच्छेत्तृ वाक्यं वाक्यविशारदः ।
व्यास उवाच !
राजन् किमेतद्वक्तव्यं कर्मणां गहना गतिः॥२॥
दुर्ज्ञेया किल देवानां मानवानां च का कथा।
यदा समुत्थितं चैतद्ब्रह्माण्डं त्रिगुणात्मकम् ॥३॥
कर्मणैव समुत्पत्तिः सर्वेषां नात्र संशयः ।
अनादिनिधना जीवाःकर्मबीजसमुद्भवाः।४।
नानायोनिषु जायन्ते म्रियन्ते च पुनः पुनः।
कर्मणा रहितो देहसंयोगो न कदाचन ॥ ५॥
व्यास जी बोले- हे राजन इस विषय में क्या कहा जाय ! कर्मों की बड़ी गहन गति होती है। कर्मों की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं । तो मानवों की तो बात ही क्या! जब इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती चली आ रही है ।।
विशेष-★
( एक बार सबको एक समान स्थिति बिन्दु से गुजरना होता है - इस के पश्चात जो अपनी स्वाभिकता रूपी प्रवृत्तियों का दमन कर संयम से आचरण करता उसको सद्गति और दुराचरण करता है उसको दुर्गति मिलती है।) यही ईश्वर का समतामूलक विधान है। इस विषय में कोई सन्देह नहीं है। आदि-(प्रारम्भ) और अन्त से रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्म रूपी बीज से संसार में जनमते- मरते हैं । वे प्राणी अनेक प्रकार की योनियों( शरीरों) में बार+बार पैंदा होते और मरते हैं । कर्म से रहित जीव या देह संयोग कभी भी सम्भव नहीं है।।२-५।।
शुभ- अशुभ और मिश्र - इन कर्मों से यह संसार सदैव व्याप्त रहता है। तत्वों के ज्ञाता जो विद्वान हैं उन्होंने संचित प्रारब्ध और क्रियमाण(वर्तमान में किए गये कर्म) ये तीन प्रकार के कर्म हैं। इन कर्मों का त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है।६-७।।
ब्रह्मादीनां च सर्वेषां तद्वशत्वं नराधिप ।
सुखं दुःखं जरामृत्युहर्षशोकादयस्तथा ॥ ८ ॥
कामक्रोधौ च लोभश्च सर्वे देहगता गुणाः ।
दैवाधीनाश्च सर्वेषां प्रभवन्ति नराधिप ॥ ९ ॥
हे राजन् ! –ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्म के वशवती होते हैं । सुख-दु:ख और वृद्धावस्था मृत्यु हर्ष शोक काम( स्त्री मिलन की कामना) क्रोध लोभ आदि ये सभी शारीरिक गुण हैं। हे राजन् ! ये भाग्य के अधीन होकर सभी प्राणीयों को प्राप्त होते हैं ।८-९।।
रागद्वेषादयो भावाःस्वर्गेऽपि प्रभवन्ति हि ।
देवानां मानवानाञ्चतिरश्चां च तथापुनः॥१०॥
विकाराः सर्व एवैते देहेन सह सङ्गताः ।
पूर्ववैरानुयोगेन स्नेहयोगेन वै पुनः ॥११॥
उत्पत्तिःसर्वजन्तूनां विनाकर्म न विद्यते।
कर्मणाभ्रमते सूर्यःशशाङ्कःक्षयरोगवान्१२॥
राग-द्वेष भाव स्वर्ग में भी होते हैं ।
और इस प्रकार के भाव देवों मनुष्यों और पशु- पक्षीयों में भी विद्यमान रहते हैं ।१०।
पूर्वजन्म में किए गये वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार सदा ही शरीर के साथ लगे रहते हैं ।११। सभी जीवों की उत्पत्ति कर्म के विना तो हो ही नहीं सकती है। कर्म से ही सूर्य नियमित रूप से परिभ्रमण करता है।( विदित हो कि सूर्य भी आकाश गंगा का परिक्रमण करता है) चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त रहता है। १२।।
कपाली च तथा रुद्रः कर्मणैव न संशयः।
अनादिनिधनं चैतत्कारणं कर्म विद्यते ॥१३॥
तेनेह शाश्वतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
नित्यानित्यविचारेऽत्र निमग्ना मुनयः सदा॥१४॥
न जानन्ति किमेतद्वै नित्यं वानित्यमेव च ।
मायायां विद्यमानायां जगन्नित्यं प्रतीयते॥१५॥
कार्याभावः कथं वाच्यः कारणे सति सर्वथा।
माया नित्या कारणञ्च सर्वेषां सर्वदा किल॥१६॥
कर्मबीजं ततोऽनित्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः।
भ्रमत्येव जगत्सर्वं राजन्कर्मनियन्त्रितम् ॥१७॥
उपनिषदों में वर्णन है कि उस निराकार परम- ब्रह्म ने एक बहुत होने की इच्छा प्रकट की
मैं एक अनेक रूप में हो जाऊँ उस एक परब्रह्म ने यह संकल्प किया-।
इस पृथक करण काल में अपने अस्तित्व का बोध अहंकार के रूप में उसे हुआ -( अहंकार से संकल्प उत्पन्न हुआ और इस संकल्प से इच्छा उत्पन्न हुई और यह इच्छा ही कर्म की जननी है।) संसार में सकाम( इच्छा समन्वित कर्म ही ) फल दायक होता है। अपने कर्मो के प्रभाव से ही रूद्र को नरमुण्डों की माला धारण करनी पड़ती है। इसमें कोई सन्देह नहीं !!
आदि अन्त रहित वह कर्म ही जगत की उत्पत्ति का कारण है।१३।। (देवीभागवत)
स्थावर( अचल) और जंगम( चलायवान्) यह सम्पूर्ण शाश्वत जगत् उसी कर्म के प्रभाव में नियन्त्रित है। सभी मुनिगण इस कर्म मय जगत कि नित्यता और अनित्यता के विचार में सदैव डूबे रहते हैं ।।१४।फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत नित्य है अथवा अनित्य। जब तक माया ( अज्ञान) विद्यमान रहती है तब तक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है।१५।।
"कारण की सर्वथा सत्ता रहने पर "कार्य का अभाव कैसे कहा जा सकता है ?
यह माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है।१६।।
इसलिए ही कर्म-बीज की अनित्यता पर विद्वान पुरुषों को सदैव विचार करना चाहिए!
हे राजन्! सम्पूर्ण जगत कर्म के द्वारा नियन्त्रित होकर परिवर्तित होता रहता है।१७।।
आगे देवीभागवतपुराण में कर्म की गति का व्याख्यान करते हुए वर्णन है।
विदित हो कि समय परिवर्तन का कारण है और परिवर्तन का घनीभूत व स्थूल रूप कर्म है।
हे राजन् असीमित तेज वाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से पृथ्वी पर जन्म लेने में स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार की योनियों में अनेक प्रकार धर्म कर्म के अनुसार युगों में तथा अनेक प्रकार की। निम्न योनियों में जन्म क्यों लेते ? अनेक प्रकार के सुखभोगों तथा वैकुण्ठपुरी का निवास त्याग कर मल मूत्र वाले स्थान ( उदर ) में भला कौन रहना चाहेगा ? फूल चुनने की। क्रीडा जल विहार और सुख दायक आसन का त्याग कर कौन बुद्धिमान गर्भगृह में वास करना चाहेगा ? कोमल रुई से निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्या को छोड़कर गर्भ में औंधे-(ऊर्ध्व-मुख) पड़ा रहना भला कौन विद्वान पुरुष पसन्द कर सकता है ? अनेक प्रकार के भावों से युक्त गीत वाद्य तथा नृत्य या परित्याग करके गर्भ रूपी नरक में रहने का मन में विचार तक भला कौन कर सकता है ? ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी के अद्भुत भावों के " अत्यंत कठिनाई से त्याग करने योग्य रस को छोड़कर मलमूत्र का कीचड़ ( दूषित रस) पीने की। इच्छा करेगा। इसलिए तीनों लोकों में गर्भवास से बढ़कर नरक रूप अन्य कोई स्थल नहीं है। गर्भ वास ( जन्ममरण) से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी जिस गर्भवास से डरकर राज्य और सुख कि परित्याग करके वन को चले जाते थे। ऐसा कौन मूर्ख होगा ? जो इसके सेवन की। इच्छा करेगा।।१८–२५=१/२।।
अनुवाद-गर्भ में कीड़े काटते हैं और नीचे से जठराग्नि कराती है। हे राजन् ! उस समय शरीर में अत्यंत दुर्गन्धयुक्त मज्जा( Marrow) लगा रहता है तो फिर वह कौनसा सुख है ? कारागार में रहना और बेड़ीयों में बँधे रहना अच्छा है किन्तु एक क्षण के अल्पकाल तक गर्भ में रहना कभी भी शुभ नहीं होता गर्भ वास में जीव को अत्यधिक पीड़ा होती है।वहाँ दस महीने तक रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अत्यंत दारुण( भयंकर) योनियन्त्र से बाहर आने पर महान यातना प्राप्त होती है। तत्पश्चात् बाल्यावस्था में अज्ञान का तथा बोल न पाने के कारण बहुत कष्ट प्राप्त होता है ।
दूसरे के अधीन अत्यंत भयभीत बालक भूख-और प्यास की। पीड़ा के कारण बालक कमजोर रहता है। भूखे बालकों को रोता हुआ देखकर माता ( रोने काम कारण जानने के लिए) चिन्ता ग्रस्त हो उठती है।और पुन: किसी बड़े रोगजनित कष्ट कि अनुभव करके उसे औषधि पिलाने की। इच्छा करती है। इस प्रकार बाल्यकाल में अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं ।तब विवेकी पुरुष किस दु:ख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा करते हैं।२६-३१=१/२।।
कौन ऐसा मूर्ख होगा जो देवताओं के साथ रहते हुए सुख भोग का त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करने कि इच्छा करेगा। हे श्रेष्ठ राजन्! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी अपने किए हुए कर्मों के परिणाम स्वरूप दु:ख-सुख प्राप्त करते हैं। हे श्रेष्ठ राजन्! सभी देहधारी जीव चाहें वे मनुष्य देवता अथवा पशु पक्षी अपने अपने कर्मों का शुभ-अशुभ पाते हैं।।३२-३४।।
मनुष्य तप यज्ञ तथा दान के द्वारा इन्द्र पद को प्राप्त हो जाता है। और पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्र कि भी स्वर्ग से पतन हो जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं!३५।।
रामावतार के समय देवता कर्म बन्धन के कारण वानर. बन्दर/ वन के नर बने और कृष्णावतार में कृष्ण की सहायता के लिए देवता यादव बने थे।★३६।।
इस प्रकार प्रत्येक युग में धर्म सी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु ब्रह्मा जी अत्यंत प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं।।३७।।
हे राजन् ! इस प्रकार रथ चक्र की भाँति विविध प्रकार की योनियों में भगवान् विष्णु के अद्भुत अवतार बार-बार होते रहते हैं।३८।।
महात्मा भगवान विष्णु अपने अंशांश से पृथ्वी पक अवतार ग्रहण करके दैत्यों या वध रूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।इसलिए अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म कि पवित्र कथा मैं कह रहा हूँ; वे साक्षात् विष्णु ही यदुवंश में अवतरित हुए थे।३९-४०।।
हे राजन् ! कश्यप जी के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने पूर्वजन्म के शापवश इस जन्म में गोप बनकर गोपालन का कार्य किया।४१।।★-हे राजन् हे पृथ्वीपति ! उन्हीं कश्यप मुनि की दो पत्नियाँ अदित और सुरसा ने भी शाप वश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया । हे भरत श्रेष्ठ! उन दौनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहिनों के रूप में जन्म लिया। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने ही उन्हें यह शाप दिया था।।४२-४३।।राजा बोला! हे महामते! महर्षि कश्यप ने ऐसा कौनसा अपराध किया था। जिस कारण उन्हें स्त्रीयों सहित शाप मिला था।मुझे यह बताइए!४४।वैकुण्ठवासी अविनाशी रमापति भगवान् विष्णु को गोपकुल ( गोकुल) में क्यों अवतार लेना पड़ा?।। ४५।।भगवान विष्णु मानव शरीर धारण करके इस हीन मनुष्य शरीर में अनेक प्रकार की। लीलाऐं दिखाते हुए। और अनेक प्रपञ्च क्यों करते हैं?
काम- क्रोध अमर्ष शोक वैर प्रेम दु:ख-सुख भय दीनता सरलता पाप पुण्य वचन मारण पोषण चलन ताप विमर्श ताप आत्मश्लाघा लोभ दम्भ मोह कपट चिन्ता– ये तथा अन्य नाना प्रकार के भाव मनुष्य -जन्म में विद्यमान रहते हैं।४९-५१।।
वे भगवान विष्णु शाश्वत सुख या त्याग करके इन भावों से ग्रस्त मनुष्य जन्म धारण किस लिए करते हैं। हे मुनीश्वर इस पृथ्वी पर मानव जन्म पाकर कौन सा अक्षय सुख प्राप्त होता है। वे साक्षात् - विष्णु किस कारण गर्भवास करते हैं ?।५२-५३।।गर्भवास में दु:ख जन्म ग्रहण में दुःख बाल्यावस्था में दुःख यौवनावस्था में कामवासना जनित दुःख और गृहस्थ जीवन में तो बहुत बड़ा दुःख होता है।५४।।हे विप्र अनेक कष्ट मानव जीवन में प्राप्त होते हैं। तो वे भगवान विष्णु अवतार क्यों लेते हैं पृथ्वी पर।५५।।ब्रह्म योनि भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करते हुए अत्यंत दारुण वनवास काल में घोर कष्ट प्राप्त हुआ था। उन्हें माता सीता वियोग से उत्पन्न महान कष्ट हुआ था। तथा अनेक बार राक्षसों से युद्ध करना पड़ा अन्त में महान आभा वाले उन श्री राम को पत्नी आ त्याग कि असीम वेदना भी साहनी पड़ी।।५६-५७।। उसी प्रकार कृष्णावतार में भी बन्धीग्रह में जन्म गोकुल गमन गोचारण ,कंस वध और पुन: कष्ट पूर्वक द्वारिका के लिए प्रस्थान -इन अनेक विधि सांसारिक कष्टों को भगवान कृष्ण ने क्यों भोगा ?।।५८-५९।।ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छा से इन दु:खों की प्रतीक्षा करेगा? हे सर्वज्ञ मेरे मन की। शान्ति के लिए इस सन्देह का निवारण कीजिए!!।।६०।।
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इस प्रकार देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के द्वितीय अध्याय या समापन।।
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और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; ऐसा वर्णन है ।
अब देखें देवी भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। परन्तु कृषि और गोपालन तो क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप
स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक था
निम्न रूप में -
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २०॥
इसमें प्रस्तुत है वह वर्णन -
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥
•-प्राचीन समय की बात है यमुना नदी के सुंदर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौमहाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै॥५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६
•(उसके पिता का नाम मधु ) वरदान पाकर वह पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।
स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७॥
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा।५८॥
•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।____________________________________
•तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ !
•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेैश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से गोप (आभीर रूप में ) अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।
•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था। उग्रसेन के पुरोहित काशी में रहने वाले काश्य नाम से थे। और शूरसेन के पुरोहित उसी काल में एक बार सभी शूर के सभासदों द्वारा ज्योतिष् के जानकार गर्गाचार्य नियुक्त किए गये।
अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥
•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश कहकर वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।गोप कृषि, गो पालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है नकि वैश्य वृत्ति ; वैश्य वृत्ति तो केवल व्यापार तथा वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपित विपरीत ही हैं ।फिर सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है ये गोपालक के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं । परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में में प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प लाने का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करते थे आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे ; जो दोनों के गोप और यादवों के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।
देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें
अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०। अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया ।
जिसका यथावत् प्रस्तुति करण करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।
निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य- ____________________________________
अर्थ-•★ समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; उन्हीं क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो मुख्य पत्नीयाँ थीं , पहली क्षत्रिय वर्ण की, दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ; उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे;
जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था। विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।
इस विषय में मनुस्मृति कहती है यथा 10/15 क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अवस्था के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में
उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ होता है अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्णश्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा -आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।
अर्थ-• तदनंतर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य ! का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि वाणिज्य गोरक्षा और कुशीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री सुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।
अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।।
अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई ! मधुकण्ठ ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।
मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा: सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।।
मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों कोआप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी अधिक नाना (मातामह) के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी उपाध्याय(वेद वेदांग का पढ़ानेवाला ) के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे। उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।
अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)
अन्यस्तु जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु। सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।
अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर भूतल पर देखा जाता है ।
किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।
अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९।
अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ? तदनंतर उन दोनों के सुयोग्य दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्ति का कौन वर्णनकर सकता है।३६।
अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ
उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।।
अर्थ•-पश्चात उन श्री उप नन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कृत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।।
योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।
अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है ।दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो ।
तात्पर्य-ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।।६५।।
गर्ग उवाच---भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।
अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। ।अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।
गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।।
अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है। अत: आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार । होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेष हित कर कार्य कर देंगे।।६७।
अर्थ-नन्द का इस प्रकार कहना प्रारम्भ करके ब्रज ,धन ,पुत्र और पशु आदि सभी समृद्धिमान् जो कुछ हुआ था जहाँ हरि निवास के कारण जो अपने ब्रज के गुण और सब की प्रियता के पात्र रूप में हरि का रमा ( लक्ष्मी) के साथ लीला करने का वह ब्रज स्थान हुआ ।१८।
गोपों को इस प्रकार यथाकार्य करते हुए कहकर नन्द इस प्रकार श्रीकृष्ण के महोत्सव को सम्पादन करके गोकुल की रक्षा में गोपों को नियुक्त कर और उन्हें आदेश देकर कंस का प्रतिवर्ष दिया जाने वाले वार्षिक कर के रूप में अच्छे अच्छे रत्न आदि उपहार देने के लिए मथुरा गये ।।।१९।
वसुदेव ने इस प्रकार भाई और सन्मित्र (अच्छे मित्र) का आगमन सुनकर और " राजा कंस को जिन्होंने कर दे दिया हो" उन नन्द के आगमन-विषय में जानकर वसुदेव नन्द के पढ़ाव अर्थात् शिविर की ओर चले जहाँ नन्द जी ने अपने शकट ( बैलगाड़ी) आदि ढ़ील दिये थे ।
नन्द वसुदेव के भाई इस प्रकार थे कि "शूरसेन की पत्नी के भाई के पुत्र होने से तथा वैश्यकन्या से उत्पन्न होने से भी" इसीलिए अग्र भ्रातृ इस प्रकार से उन्हें पुन: कहा गया और मध्याचार्य ने नन्द को वैश्यकन्या गुणवती से उत्पन्न (पर्जन्य) का भाई कहा गुणवती जो शूरसैन की सौतेली माता थीं उन गुणवती में उत्पन्न नन्द को पर्जन्य का पुत्र होने से भाई कहा यह ब्रह्मवाक्य है ।
और शूरसेन के पिता के पुत्र का वैश्य वर्ण की स्त्री में उत्पन्न होने से भी गोप इस प्रकार से कहा गया इस प्रकार अन्य मत से गोप यादव विशेष थे जो जो वैश्य कन्या में उत्पन्न होने से वेैश्यता ( कृषि पशुपालन आदि की वृत्ति ) को प्राप्त हुए । इसीलिए भी स्कन्द पुराण के मथुरा खण्ड में कहा गोपों के विषय में " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्र वृष्टि निवारणात् इति = सभी यादवों की रक्षा की इन्द्र का वर्षा के निवारण करने से और हरिवंश पुराण में लिखा है कि यादवों के हित के लिए मेरे द्वारा गोवर्धन पर्वत श्रेष्ठ धारण किया गया यह हरिवंश पुराण में है । गोपों के लिए बलराम का यह कहना भी प्रसिद्ध है कि यादवों में आप (गोप ) मेरे लिए सबसे प्रिय हो "
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सन्दर्भ:-हरिवंशपुराणम्/पर्व २ (विष्णुपर्व)/अध्यायः ०३८।
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना।अर्थ में है अत: पूर्ववर्ती वैदिक संस्कृति में दास्= दाने(दान के अर्थ में) सम्प्रदाने + अच् परक होने से दास: शब्द निष्पन्न हुआ= दाता। अच्' प्रत्यय का 'अ' वर्ण लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।
यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों के सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।
५-स्थितौ= तेनाधिष्ठितौ ।
६-“यदुः च “तुर्वश्च= एतन्नामकौ राजर्षी।
७- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।
८- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।
आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं। आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे क्रियापद बनते हैं अत: महामहे का ही (वेैदिक आत्मनेपदीय रूप "मामहे") है।
सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी ! यह स्तोत्र तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान (सायंकाल) में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।
९-“पशुः। लुप्तमत्वर्थमेतत् । पशुमान् । यद्वा । पशुः पश्यतेः । सूक्ष्मस्य द्रष्टा अथवा यम् पाशेन बधेत( जिसको पाश( रस्सी) में बाँधा जाय वह पशु है) ।
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१०-“यः आसङ्गः “अस्ति विद्यते एष चिकेततीत्यन्वयः ॥
अनुवाद-
हे मेधातिथि ! प्रयोग(प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है । वह तुमको दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
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"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा हैं जो पशुओं( गाय-महिषीआदि) से समन्वित (युक्त) हैं अर्थात् यादव वंश के लोग सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति और रोजीरोटी(( जीविका) के आधार हुआ करते थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार की सभी प्राचीन और प्राचीनत्तम भाषाओं में péḱu (पेकु) शब्द रूप में विद्यमान है ।
पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का विकास हुआ। पशु ही मनुष्यों कि धन ( पैसा) था अत: पशु शब्द से ही "पैसा" शब्द कि विकास हुआ।
(Etymology of pashu-
From Proto-Indo-Iranian *páću, from 1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).
2- Cognate with Avestan 𐬞𐬀𐬯𐬎 (pasu, “livestock”),
3-Latin pecū (“cattle”),
4-Old English feoh (“livestock, cattle”),
5- Gothic 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).
पशु शब्द की व्युत्पत्ति★-
१-प्रोटो-इंडो-ईरानी में पाकु(páću) जोकि, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय *पेकु péḱu ("मवेशी, पशुधन") से।
अवेस्ता में (पसु, "पशुधन"-pasu, “livestock”) के रूप में आया।
लैटिनमें पेकु-pecū (“cattle” ("मवेशी") के अर्थ में तो पुरानी अंग्रेज़ी में यही feoh फीह ("पशुधन, मवेशी"- (“livestock, cattle”) के रूप में जो
(जर्मनी) गोथिक (faihu, "मवेशी") के साथ संगति 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”) स्थापित करता है।
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ऋग्वेद के दशम मण्डल के (62) वें सूक्त की दसवीं ऋचा में "यदु और तुर्वसु" को गायों की परिचर्या करते हुए और गायों से घिरा हुआ " वर्णन करना यादवों के पूर्वजो की पशुपालन जीवन- चर्या को दर्शाता है। और उपर्युक्त ऋचा में यदु और तुर्वसु दोनों भाईयों को द्विवचन में दाता अथवा दानी होने से ही "दासा" विशेषण से सम्बोधित किया गया है। जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में "दासौ" द्विवचन कर्ता और कर्म कारक में विद्यमान है।
प्राचीनतम वैदिक सन्दर्भों में दास: का अर्थ दाता अथवा दानी ही हेै। वैदिक निघण्टु इसका साक्ष्य है। उत्तर वैदिक काल और लौकिक संस्कृत में आते आते दास शब्द का अर्थ दाता से पतित होकर देव संस्कृतियों के विद्रोही अर्थ में रूढ़ होकर धनसम्पन्नशाली असुरों का सम्बोधन होने लगा जैसे कि ऋग्वेद की कुछ परवर्ती ऋचाओं में वृत्र शम्बर और नमुचि आदि असुरो के लिए हुआ भी है। स्वयं असुर शब्द नें भी अपना अर्थ देव विरोधी जनजाति के लिए रूढ़ कर लिया । अत: वैदिक सन्दर्भ में "दास शब्द का अर्थ "सेवा करने वाला गुलाम" या भृत्य नहीं है।👇 जैसा कि कुछ परवर्ती भाष्य कार करते रहते हैं। और दास का अर्थ भक्त भी नहीं था।
जैसे कि आज कल तुलसी दास , कबीरदास अथवा मलूकदास जैसे नामवाची शब्दों में सुनाई देता है। वास्तव में यह तो इस दास शब्द का विकसित अर्थ है। क्योंकि ये "दास के वैदिक कालीन सन्दर्भ प्राचीनत्तम होने से आधुनिक अर्थों से विपरीत ही हैं । अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ जो इन्द्र से युद्ध करता है।👇क्या वह भक्त था ? जैसा कि निम्न ऋचा में वर्णित है।
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"उत दासं कौलितरं बृहतः पर्वतादधि ।
अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥ ऋ० ४/३०/१४।
और वर्जिन दैत्य को लिए भी। दास शब्द का सम्बोधन है 👇क्या वह भी भक्त था ?
उपर्युक्त ऋचा में दास शब्द असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर ही वर्णित किया गया है । ____________________________________
कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे
अर्थात् कुलितर को कोलों की सन्तान होने से कौलितर कहा गया।
अर्थात् इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए दानी- (धन -सम्पन्न) कौलितर शम्बर को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया
विदित हो कि ईरानी संस्कृति में असुर(अहुर) शब्द का अर्थ श्रेष्ठ और ईरानीयों के सर्वोच्च उपास्य का वाचक या सम्बोधन है। ईरानी संस्कृति में "दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ" कुशल और दाता" होता है । विदित हो कि ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण "दाहे के रूप में किया है।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे
जिनका उपास्य अहुर-मज्दा ( असुर -महत्) था ।
फारसी में "स"वर्ण का उच्चारण "ह" वर्ण के रूप में होता है ।
जैसे असुर- अहुर !सोम -होम सप्ताह- हफ्ताह -हुर- हुर सिन्धु -हिन्दु आदि ..
'परन्तु भारतीय पुराणों या वेदों में ईरानी मिथकों के समान अर्थ नहीं है । अपितु इसके विपरीत ही अर्थ है क्योंकि शत्रु कभी भी शत्रुओं की प्रसंशा नहीं करता है भले ही वह कितना भी गुणसम्पन्न ही क्यों न हो।
इसी प्रकार ईरान( फारस) में "असुर शब्द को अहुर के रूप में वर्णित किया है।
असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य और इन्द्र के शक्तिशाली के विशेषण रूप में हुआ है । ___________________________________
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु (प्राण-तत्व) से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है ।
इस प्रकार मेरी स्तुति करो । आसङ्ग मेथातिथि से कहता है। "उस आसङ्ग का चलायवान धन स्वर्ण-चर्म के विस्तर सहित मुझ मेधातिथि लिए हो । वही आसङ्ग शब्दायवान रथ से युक्त होकर शत्रुओं से सम्पूर्ण सौभाग्य- पूर्ण धनों को विजित करे। इस प्रकार हम स्तुति करते हैं ।३२।
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो। निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। सेचन करने में समर्थ वे ओजस्वी दश हजार बैल उक्षण:-(Oxen) आसङ्ग राजा से निकलकर मुझ मेधातिथि में उसी प्रकार समाहित होगये। जिस प्रकार तालाब में उत्पन्न तृणविशेष तालाब से निकल कर तालाब से समूह बद्ध होकर बाहर निकल आते हैं; इन्हीं शब्दों के द्वारा तुम मेरी स्तुति करो ! ऐसा मेधातिथि से कहने वाले राजा आसङ्ग हैं।
इन ३०-से ३३ ऋचाओं में इन चार ऋचाओं के वक्ता आसङ्ग हैं और वही देवता हैं यहाँ यही भाव उत्पन्न होता है ।३०।
{प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
ये आसङ्ग नामक राजा कभी देव- शाप से नपुंसकता को प्राप्त हो गये थे। तब उनकी पत्नी शाश्वती ने पति के नपुंसक होने से दु:खी होकर महान तप किया। उसी तप से उसके पति आसंग ने पुरुषत्व को प्राप्त किया। पुरुषत्व प्राप्त कर रात्रि काल में पति के सानिध्य में इस ऋचा से उसकी स्तुति की तब आसंग के पूर्व भाग ( जननेन्द्रिय) में पुरुषत्व की वृद्धि हुई। अस्थि रहित यह अंग अत्यंत दीर्घ होकर वृद्धि से नीचे की ओर लटक गया (लम्बवान हो गया)
यही शाश्वती आंगिरस ऋषि की सुता (पुत्री) थी। और आसंग की भार्या। रात्रि काल में जब जनन अंग को देखकर कहा –हे ! आर्य ! स्वामी ! बहुत ही कल्याण कारी जननेन्द्रय को आप धारण करते हो।३४।
इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां महाकालज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः।।१७।
अध्याय 17 - ज्योतिर्लिंग महाकाल का माहात्म्य
मुनियों ने कहा :-
1. हे परम बुद्धिमान, कृपया अपने भक्तों के रक्षक ज्योतिर्लिंग महाकाल की महानता का फिर से उल्लेख करें ।
सूत ने कहा :-
2. हे ब्राह्मणों, भक्तों के रक्षक महाकाल की भक्ति वर्धक महिमा को रुचिपूर्वक सुनो।
3.उज्जयिनी में एक राजा चंद्रसेन था , जो शिव का भक्त था , जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था और जो सभी शास्त्रों के सिद्धांतों को जानता था ।
4. हे ब्राह्मणों, गण मणिभद्र , लोगों द्वारा सम्मानित, शिव के गणों के प्रमुख , उस राजा के मित्र थे।
5. एक बार उदार-दिमाग वाले गण-प्रमुखप्रसन्न-मुख मणिभद्र ने, उन्हें महान गहना चिंतामणि दिया।
6. मणि सूर्य के समान तेजस्वी थी। यह कौस्तुभ की तरह चमक रहा थी । ध्यान करने, सुनने या देखने पर यह शुभ फल देती है।
7. बेल-धातु, तांबा, टिन या पत्थर से बनी कोई भी वस्तु उसकी चमकीली सतह से स्पर्श करने पर सोना बन जाती है।
8. उस मणि को अपने गले में धारण करने से शिव पर आश्रित राजा चंद्रसेन देवताओं के बीच में सूर्य की तरह अच्छी तरह से चमकने लगे।
9. श्रेष्ठ राजा चंद्रसेन के गले में चिंतामणि धारण किए हुए सुनकर पृथ्वी के राजा लोभ के मारे हृदय में व्याकुल हो उठे।
10. राजाओं ने अनजाने में उसके साथ प्रतिद्वंद्विता करने की कोशिश की, चंद्रसेन से भीख मांगी, वह गहना जो भगवान से प्राप्त हुआ था। रत्न प्राप्त करने के लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाते थे।
11.हे ब्राह्मणों, शिव के कट्टर भक्त चन्द्रसेन ने राजाओं के आग्रह को व्यर्थ कर दिया।
12. इस प्रकार उसके कारण सब देशोंके राजा निराश और क्रोधित हुए।
13. तब चारों प्रकार की सेनाओं से सुसज्जित राजाओं ने युद्ध में चंद्रसेन को जीतने का प्रयास किया।
14. वे आपस में मिले, सम्मति की, और आपस में षडयंत्र किया। एक विशाल सेना के साथ उन्होंने उज्जयिनी के चार मुख्य द्वारों को घेर लिया।
15. अपने नगर को राजाओं द्वारा इस प्रकार आक्रमण करते देख, राजा चंद्रसेन ने महाकालेश्वर की शरण ली।
16. बिना किसी संदेह और संकोच के, स्थिर संकल्प वाले उस राजा ने बिना किसी और चीज में मन लगाए दिन-रात महाकाल की पूजा की, ।
17. तब भगवान शिव ने, उसके मन में प्रसन्न होकर, उसे बचाने के लिए एक उपाय बनाया। इसे ध्यान से सुनें।
18. हे ब्राह्मणों, उसी समय उस उत्कृष्ट नगर में एक गोप की पत्नी अहीराणी अपने बच्चे के साथ इधर-उधर घूमती हुई महाकाल के पास आई थी।
19. उसने अपने पति को खो दिया था {गतभर्तृका=गतो नष्टः प्रोषितो वा भर्त्ता यस्याः} । उसने अपने पांच साल के बच्चे को गोद में लिया। बड़ी भक्ति के साथ उसने सम्राट द्वारा की जाने वाली महाकाल पूजा को देखा।
20. उसके द्वारा की गई अद्भुत शिव-पूजा को देखकर और झुककर वह अपने शिविर में लौट आई।
21. उस अहीर के पुत्र ने, जिसने सब कुछ कौतुहलवश देखा था, शिव की पूजा इसी प्रकार करने का विचार किया।
22-23. वह कहीं से एक अच्छा कंकड़ ले आया और उसे अपना शिवलिंग समझ लिया । उसने उसे अपने डेरे से दूर एक खाली जगह पर रख दिया। उन्होंने अपनी पूजा के दौरान विभिन्न वस्तुओं की कल्पना मीठी सुगंध, आभूषण, वस्त्र, धूप, दीपक, चावल के दाने और खाद्यान्न के रूप में की।
24. वह रमणीय पत्तों और पुष्पों से बार-बार पूजा करता हुआ नाना प्रकार से नाचता और बार-बार प्रणाम करता है।
25.जैसे ही उस अहीर बालक का मन शिव की पूजा में लीन हुआ, उनकी माता ने उन्हें भोजन करने के लिए बुलाया।
26.जब पूजा में लीन पुत्र को बार-बार बुलाने पर भी भोजन करना अच्छा नहीं लगा तो माता वहाँ चली गई।
27.उसे शिव के सामने आंखें बंद किए बैठे देखकर उसने क्रोध से उसका हाथ पकड़ लिया, उसे घसीट कर पीटा।
28.जब पुत्र घसीटकर मारने पर भी न आया, तब उस ने शिव-मूर्ति को दूर फेंककर उसकी पूजा बिगाड़ दी।
29.अपके पुत्र को जो अत्यन्त दयनीय विलाप करता था उसको, डांटती हुई कुपित गोपिका फिर अपने घर में घुस गई।
30. माता के द्वारा बिगाड़ी गई शिव पूजा को देखकर बालक गिरकर चिल्लाने लगा, हे स्वामी, हे स्वामी।
31.अपने अत्यधिक दु:ख में वह अचानक बेहोश हो गया। कुछ देर बाद होश आने पर उसने आंखें खोलीं।
32.तुरंत शिविर महाकाल का एक सुंदर मंदिर बन गया। शिव के आशीर्वाद से उस बालक ने यह सब देखा।
33.द्वार सोने का बना था द्वार पर उत्तम तोरण थे। मंदिर में कीमती और शुद्ध नीले हीरों से जड़ा एक चमकदार मंच था।
34.मंदिर कई सुनहरे बर्तनों के गुंबदों, चमकते हुए रत्नों से सजे स्तंभों और स्फटिक (क्रिस्टल)-। ईंटों से बने फर्श से सुसज्जित था।
विशेष:-एक प्रकार का सफेद बहुमूल्य पत्थर या रत्न। बिल्लौर
35 बीच में, उस अहीर के बेटे ने पूजा के लिए उपयोग की जाने वाली वस्तुओं के साथ-साथ दया के भंडार शिव का एक रत्न-विहीन लिंग देखा।
36. इन्हें देखकर लड़के के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। वह फौरन उठा। ऐसा लगता था जैसे वे परम आनंद के सागर में डूबे हुए हो।
37. उसन स्तुति की और बार-बार शिव को प्रणाम किया। जब सूरज ढल गया तो लड़का शिव मंदिर से बाहर आया।
38. तब उसको अपनी छावनी, जो इन्द्र के नगर के तुल्य शोभायमान थी, दिखाई पड़ी । यह अचानक सोने की, रंग-बिरंगी प्रकृति और बहुत चमक में तब्दील हो गया थी।
39. वह रात में सब कुछ चमकीला और जगमगाता हुए घर में दाखिल हुआ। जगह-जगह जेवरात और सोने के टुकड़े बिखरे पड़े थे। वह बहुत खुश था।
40. वहां उसने अपनी माता को सोते हुए देखा। वह सभी दिव्य गुणों वाली एक दिव्य महिला की तरह थी। उसके अंग अलंकृत गहनों से दमक रहे थे ।
41. हे ब्राह्मणों, तब उस पुत्र ने, जो शिव के आशीर्वाद का विशेष पात्र था, खुशी से उत्साहित होकर अपनी माँ को तुरन्त जगाया।
42. उठकर और सब कुछ अभूतपूर्व रूप से अद्भुत देखकर, वह मानो महान आनंद में डूबी हुई थी। उसने अपने बेटे को गले से लगा लिया।
43. अपने पुत्र से पार्वती के स्वामी शिव के कृपालु अनुग्रह के बारे में सब कुछ सुनकर उसने इसका संदेश सम्राट को भेजा जो लगातार शिव की पूजा कर रहा था।
44. जिस राजाचंद्रसेन ने रात के दौरान अनुष्ठानों का पालन किया था, वह तुरंत वहाँ आया और उसने शिव को प्रसन्न करने में अहीर के बेटे के प्रभाव को देखा।
45. सब कुछ अपने मन्त्रियों और महापुरोहितों के सानिध्य में देखकर राजा परम आनंद के सागर में डूब गया और उसका साहस बढ़ गया।
46. राजा चंद्रसेन ने प्रेम के आंसू बहाते हुए और आनंद से शिव के नामों को दोहराते हुए लड़के को गले लगा लिया।
47. हे ब्राह्मणों, एक महान और अद्भुत उल्लास था। खुशी से उत्साहित होकर उन्होंने भगवान शिव के गौरवशाली कीर्तनगीत गाए।
48. इस अद्भुत घटना के कारण, शिव की महानता के इस प्रकटीकरण और नागरिकों के बीच घूमाफिरी के कारण, रात ऐसे बीत गई जैसे कि यह केवल एक क्षण हो।
49. जिन राजाओं ने चढ़ाई करने के लिये नगर को घेर रखा था, उन्होंने अपने गुप्तचरों के द्वारा भोर को इस चमत्कारिक घटना का समाचार सुना।
50. यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ कि जो राजा वहां आए थे वे आपस में मिले और आपस में विचार किया।
राजाओं ने कहा :-
51. यह राजा चंद्रसेन शिव का भक्त है और इसलिए अजेय है। महाकाल की नगरी उज्जयिनी के राजा कभी भी व्यथित नहीं होते।
52. राजा चंद्रसेन शिव के बहुत बड़े भक्त हैं क्योंकि उनके शहर के बच्चे भी शिव के संस्कारों का पालन करते हैं।
53. यदि हम उनका अपमान करते हैं तो निश्चित रूप से शिव क्रोधित होंगे। अगर शिव क्रोधित हुए तो हम बर्बाद हो जाएंगे।
54. अत: हम उसके साथ सन्धि कर लें तो उस स्थिति में भगवान शिव हम पर दया करेंगे।
सूत ने कहा :-
55. इस प्रकार निश्चय करके राजाओं ने वैर का परित्याग कर दिया उन्हें मन की पवित्रता प्राप्त हुई वे प्रसन्न हुए उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र रख दिए।
56. चंद्रसेन द्वारा उन राजाओ को अनुमत और प्रोत्साहित किए जाने पर, उन्होंने महाकाल के सुंदर शहर उज्जयिनी में प्रवेश किया और शिव की पूजा की।
57. तब वे सभ राजा अहीर बालक के घर गए।उन्होंने दिव्य आशीर्वाद देने के साथ उसके सौभाग्य की प्रशंसा की।
58. वहां चंद्रसेन द्वारा उनका स्वागत और सम्मान किया गया। एक बहुत योग्य विष्टर (आसन) पर विराजमान होकर उन्होंने उसका अभिनंदन किया और वे चकित रह गए।
69. अब से यह गोप श्रीकर के नाम से पूरे विश्व में गौरव प्राप्त करेगा ।
सूत ने कहा :-
70. ऐसा कहने के बाद, अंजना के पुत्र शिव के रूप में वानरों के स्वामी ने कृपापूर्वक राजाओं और चंद्रसेन पर नज़र डाली।
71. तब उन्होंने भगवान को प्रसन्न करने वाले शिव के संस्कारों में प्रसन्न होकर बुद्धिमान चरवाहे श्रीकर को दीक्षित किया।
72. हे ब्राह्मणों जैसे ही वे सभी चंद्रसेन और श्रीकर को देख रहे थे, प्रसन्न हनुमान् वहीं गायब हो गए।
73. हर्षित राजाओं ने जिनका विधिवत सम्मान किया गया था, चंद्रसेन से विदा ली और जिस तरह से आए थे उसी तरह लौट गए।
74. हनुमत द्वारा दीक्षित तेजस्वी श्रीकर ने पवित्र संस्कारों में पारंगत ब्राह्मणों सहित शिव को प्रसन्न किया।
75. राजा चंद्रसेन और श्रीकर, चरवाहे लड़के, ने बड़ी भक्ति और आनंद के साथ महाकाल की पूजा की।
76. नियत समय में, श्रीकर और चंद्रसेन ने महाकाल को प्रसन्न करते हुए भगवान शिव के महान क्षेत्र को प्राप्त किया।
77. ऐसा शिव महाकाल का लिंग रूप है, जो अच्छे लोगों का लक्ष्य है, हर तरह से दुष्टों का संहार करने वाला है, जो अपने भक्तों के प्रति अनुकूल है।
78. इस प्रकार सब प्रकार के सुखों को देने वाली, स्वर्ग के लिए अनुकूल और शिव की भक्ति को बढ़ाने वाली महान रहस्य, पावन कथा आपको सुनाई गई है।_____________________________________
शिवपुराण संहिता (४)
(कोटिरुद्रसंहिता) अध्यायः (२८)
"सूत उवाच।
रावणः राक्षसश्रेष्ठो मानी मानपरायणः ।।
आरराध हरं भक्त्या कैलासे पर्वतोत्तमे।।१।।
आराधितः कियत्कालं न प्रसन्नो हरो यदा।।
तदा चान्यत्तपश्चक्रे प्रासादार्थे शिवस्य सः।२।।
नतश्चायं हिमवतस्सिद्धिस्थानस्य वै गिरेः।।
पौलस्त्यो रावणश्श्रीमान्दक्षिणे वृक्षखंडके।३।
भूमौ गर्तं वर कृत्वातत्राग्निं स्थाप्य सद्विजाः।।
तत्सन्निधौ शिवं स्थाप्य हवनं स चकार ह।४।।
ग्रीष्मे पंचाग्निमध्यस्थो वर्षासु स्थंडिलेशयः।
शीते जलांतरस्थो हि त्रिधाचक्रे तपश्च सः।५।
चकारैवं बहुतपो न प्रसन्नस्तदापि हि ।
परमात्मा महेशानो दुराराध्यो दुरात्मभिः।६ ।
ततश्शिरांसि छित्त्वा च पूजनं शंकरस्य वै।
प्रारब्धं दैत्यपतिना रावणेन महात्मना ।७।
एकैकं च शिरश्छिन्नं विधिना शिवपूजने ।।
एवं सत्क्रमतस्तेन च्छिन्नानि नव वै यदा ।६ ।।
एकस्मिन्नवशिष्टे तु प्रसन्नश्शंकरस्तदा।।
आविर्बभूव तत्रैव संतुष्टो भक्तवत्सलः।।९।।
_____
जब रावण शिव के आराधना काल में नव वार अपने शिर का छेदन करके शिव को अर्पित करता है ।तब शिव प्रसन्न होकर प्रकट होकर उसकी आराधना से संतुष्ट होते हैं।
_______________________
शिरांसि पूर्ववत्कृत्वा नीरुजानि तथा प्रभुः।
मनोरथं ददौ तस्मादतुलं बलमुत्तमम् । 4.28.१०।
उसके सभी शिरो ं(मस्तकों)को पहले जैसा कर देते हैं और उसे अतुलित बल प्रदान करते हैं
प्रसादं तस्यसंप्राप्य रावणस्स चराक्षसः।
प्रत्युवाचशिवंशम्भुं नतस्कंधःकृतांजलिः।११।
"रावण उवाच ।
प्रसन्नो भव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम् ।
सफलं कुरु मे कामं त्वामहं शरणं गतः।१२।
रावण कहता है हे प्रभु प्रसन्न होइए और मैं तुमको लंका को ले जाऊँगा। मेरी कामना सफल करो मैं तुम्हारी शरण हूँ।
"सूत उवाच ।
इत्युक्तश्च तदा तेन शम्भुर्वै रावणेन सः ।
प्रत्युवाच विचेतस्कःसंकटं परमं गतः।१३।
इस प्रकार शिव कहा तब रावण के द्वारा उत्तर देकर चेतना प्रदान की और उसके सब संकट मिट गये ।
" शिव उवाच ।
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया ।
नीयतांस्वगृहेमे हिसद्भक्त्यालिंगमुत्तमम्।१४।
अर्थ- शिव ने रावण से कहा सुन रावण मेरे श्रेष्ठ वचन सार रूप से अपने घर ये शिव लिंग सद् भक्ति से लेजाकर।
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि तत्र वै ।।
स्थास्यत्यत्र नसंदेहो यथेच्छसि तथा कुरु।१५।
भूमि में जहाँ इसकी स्थापना करेगा जहाँ तेरी इच्छा होगी वह वहीं स्थापित होगा इसमें सन्देह नहीं ।
"सूत उवाच ।
इत्युक्तश्शंभुना तेन रावणो राक्षसेश्वरः।
तथेति तत्समादाय जगाम भवनं निजम्।१६।
इस प्रकार शम्भु के द्वारा रावण के प्रति कहा गया तब वह अपने घर की ओर गया।
____________
आसीन्मूत्रोत्सर्गकामोमार्गे हि शिवमायया।।
तत्स्तंभितुंनशक्तोभूत्पौलस्त्योरावणःप्रभुः१७।
जब मार्ग में शिव की माया से उसे रावण को मूत्र विसर्जन की इच्छा हुई तब वह वहाँ कही शिवलिंग को कहीं रखना नहीं चाहता था।
दृष्ट्वैकं तत्र वै गोपं प्रार्थ्य लिंगं ददौ च तत्।
मुहूर्तके ह्यतिक्रांते गोपोभूद्विकलस्तदा।१८।
तब वहाँ एक गोप वाले से प्रार्थना करके वह शिव लिंग उसे पकड़ा दिया ताकि रावण लघुशंका कर सके और एक मुहूर्त वहीं बीत गया वह गोप है बैचेन हुआ।
भूमौ संस्थापयामास तद्भारेणातिपीडितः।
तत्रैव तत्स्थितं लिंगं वज्रसारसमुद्भवम्।
सर्वकामप्रदं चैव दर्शनात्पापहारकम् ।१९।
तब उसने उसे भूमि पर स्थापित कर दिया उस शिव लिंग के भार से पीड़ित होकर वहाँ ही वह स्थित लिंग वजसार से उत्पन्न सभी कामनाओं को प्रदान करने वाला और दर्शन मात्र सभी पापों का हरण करने वाला हुआ।
2. यद्यपि पूजा लंबे समय तक चलती रही, शिव प्रसन्न नहीं हुए। तब रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए एक और तपस्या की।
3-4 पुलस्त्य के वंश के गौरवशाली रावण ने हिमवत के दक्षिणी किनारे पर पेड़ों के झुरमुटों के बीच एक गहरी खाई खोदी , वह पर्वत जो आमतौर पर सिद्धि का स्थान है । हे ब्राह्मणों, उसने फिर उसके भीतर आग लगा दी। इसके पास उन्होंने शिव की मूर्ति स्थापित की और यज्ञ किया।
5. उन्होंने तीन प्रकार की तपस्या की। ग्रीष्मकाल में वे पाँच अग्नियों के बीच में स्थित रहता था, वर्षा के दिनों में खाली भूमि पर लेट जाता था और शीतकाल में जल के भीतर खड़े होकर तपस्या करता था।
6. इस प्रकार उसने घोर तपस्या की। फिर भी दुष्टों द्वारा प्रसन्न किए जाने वाले परम आत्मा शिव प्रसन्न नहीं हुए।
7. तब महत्वाकांक्षी रावण, दैत्यों का स्वामी , अपने सिर काटकर शिव की पूजा करने लगा।
8-9 पूजा के उचित प्रदर्शन में उसने एक-एक करके अपने सिर काट लिए। इस प्रकार जब उन्होंने अपने नौ सिर काट दिए और एक सिर रह गया, तो अपने भक्तों के प्रति अनुकूल भाव रखते हुए प्रसन्न होकर शिव उसके सामने प्रकट हुए।
10. प्रभु ने बिना किसी कष्ट के कटे हुए सिर को फिर से स्थापित कर दिया और उसे अपनी इच्छा के साथ-साथ अप्रतिम उत्कृष्ट शक्ति प्रदान की।
11. अपनी कृपा प्राप्त करने के लिए, राक्षस रावण ने शिव को उत्तर दिया, जिसमें उसकी दोनों हथेलियाँ श्रद्धा से जुड़ी हुई थीं और कंधे नीचे झुके हुए थे।
रावण ने कहा :-
12. हे देवों के देव, प्रसन्न होइए। मैं आपकी छवि शिवलिंग लंका ले जा रहा हूं ।कृपया मेरी इच्छा को फलीभूत करें मैं आपकी शरण लेता हूँ।
सूत ने कहा :-
13. रावण द्वारा इस प्रकार संबोधित किए जाने पर, शिव असमंजस में थे और थोड़ा अनिच्छुक थे। उन्होंने रावण को जवाब दिया।
शिव ने कहा :-
14. हे राक्षस शिरोमणि रावण ! सुनो ! मेरे शब्द महत्वपूर्ण हैं। मेरी उत्कृष्ट लैंगिक छवि को आप अपने निवास स्थान पर ले जाओ।
15. जहां भी यह लैंगिक छवि जमीन पर रखी जाएगी, वह स्थिर हो जाएगी। इसमें तो कोई शक ही नहीं है। कृपया जैसे चाहे वैसा करो।
सूत ने कहा :-
16. इस प्रकार शिव द्वारा चेतावनी दी गई, राक्षसों के राजा रावण ने यह कहते हुए इसे ले लिया और अपने निवास स्थान की ओर चल दिया।
17. शिव की माया से जब मार्ग में रावण को मूत्र विसर्जन की इच्छा हुई तब वह वहाँ कही शिवलिंग को रखना नहीं चाहता था।१७।
18. वहां उसने एक गोप बालक को देखा, और उस से विनती की, कि वह शिवलिंग की मूर्ति को पकड़े रहे। लगभग एक मुहूर्त बीत गया, जब रावण वापस नहीं आया, तो गोप बालक थक गया।
19-21. वह उसके भारी वजन से परेशान था। उसने इसे जमीन पर रख दिया हीरे के सार से बनी लैंगिक मूर्ति वहीं जमीं रही । हे ऋषियो ! उस लैंगिक छवि को वैद्यनाथेश्वर के नाम से जाना संसार में जाता है। यह सभी इच्छाओं को पूरा करता है और इसके देखते ही यह पापों को दूर कर देता है। यह तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। यह यहाँ सांसारिक सुख और परलोक में मोक्ष प्रदान करता है। यह ज्योतिर्लिंग सबसे श्रेष्ठ है। इसके दर्शन या पूजन से पापों का नाश होता है। यह भोग और मोक्ष के लिए अनुकूल है।
22. यह शिवलिंग दुनिया के लाभ के लिए वहाँ स्थापित होगया। वरदान पाकर रावण अपने घर लौट आया।
तब वहाँ एक गोप बालक से प्रार्थना करके वह शिव लिंग उसे पकड़ा दिया ताकि रावण लघुशंका कर सके और इस प्रकार एक मुहूर्त वहीं बीत गया वह गोप बालक उस शिवलिंग की प्रतिमा को पकड़े पकड़े थक गया।१८। तब उस बालक ने उसे वहीं भूमि पर स्थापित कर दिया उस शिव लिंग के भार से पीड़ित होकर वहाँ ही वह स्थित लिंग वज्रसार( हीरा) से उत्पन्न हुआ सभी कामनाओं को प्रदान करने वाला और दर्शन मात्र से सभीपापों का हरण करनेवाला हुआ।१९।वैद्यनाथेश्वर नाम के द्वारा संसार में उसे पहचान मिली और तीनों लोकों में वह सज्जन पुरुषों क को भुक्ति (भोग) और मुक्ति(मोक्ष) प्रदान करने वाला हुआ।२०। इस श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजन से ही सभी पापों का हरण होता हैं और दिव्य भोगों की उत्तम वृद्धि होती है।२१। उस लिंग वहीं स्थापित छोड़कर सभी लोकों के हित के लिए रावण अपने घर जाकर वर पाकर महा उत्तम सभी प्रिय कार्यों को सम्पादित कर सुख पूर्वक रहता था।२२।
23. यह सुनकर इन्द्र तथा अन्य देवता तथा शिव में स्थिर चित्त वाले पवित्र मुनियों ने आपस में परामर्श किया।
24. हे ऋषियों !, विष्णु , ब्रह्मा और अन्य देवता मौके पर पहुंचे और भक्तिपूर्वक शिव की पूजा की।
25. देवताओं ने व्यक्तिगत रूप से शिव को वहाँ देखा और छवि को प्रतिष्ठित करने के बाद वे वैद्यनाथ कहलाए । इसके बाद उन्होंने प्रतिमा को प्रणाम किया और उसकी स्तुति की फिर वे स्वर्ग लौट गए।
मुनियों ने कहा :-
26. हे प्रिय, जब मूर्ति स्थापित की गई और रावण अपने निवास स्थान पर लौट आया, तो क्या हुआ? कृपया इसे विस्तार से बताएं।
सूत ने कहा :-
27. महान और उत्कृष्ट वरदान प्राप्त करने के बाद, महान असुर रावण अपने निवास पर लौट आया और अपनी प्यारी पत्नी को सब कुछ बताया। वह बहुत खुश हुआ।
28. हे महर्षियों, सब कुछ सुनकर इंद्र और अन्य देवता और ऋषि भी अत्यंत उदास हो गए। उन्होंने एक दूसरे से बात की।
देवताओं और मुनियों ने कहा :-
29. “रावण एक दुष्ट शिव का सेवक है। वह दुष्ट-चित्त और देवताओं से घृणा करने वाला है। शिव से वरदान प्राप्त करने के बाद, वे हमें और अधिक दुखी बना देगा।
30. हम क्या करें? हम कहाँ चलें? अब क्या होगा? यह दुष्ट अधिक कुशल होकर कौन-सा पाप कर्म नहीं करेगा ?”
31. इस प्रकार व्यथित होकर, इंद्र और अन्य देवता, और ऋषियों ने भी नारद को आमंत्रित किया और उनसे पूछा।
देवताओं ने कहा :-
32. हे श्रेष्ठ ऋषि, आप सब कुछ कर सकते हैं। हे देव ऋषि, देवताओं के शोक को दूर करने के लिए कोई उपाय खोजो।
33. अत्यंत दुष्ट रावण कौन-से पाप कर्म नहीं करेगा ? दुराचारी के द्वारा सताए जाने पर हम कहाँ जाएँ?
नारद जी ने कहा :-
34. हे देवताओं, अपना दुख त्याग दो। मैं योजना बनाकर जाऊंगा। शिव की कृपा से, मैं देवताओं का कार्य करूँगा।
सूत ने कहा :-
35. ऐसा कहकर देव ऋषि रावण के घर गए। औपचारिक स्वागत प्राप्त करने के बाद उन्होंने बहुत खुशी के साथ रावण से बात की।
नारद जी ने कहा :-
36. “हे उत्कृष्ट राक्षस, आप एक धन्य ऋषिपुत्र हैं, शिव के एक महान भक्त हैं। आज आपके दर्शन से मन बहुत हर्षित है।
37. कृपया विस्तार से बताएं कि आप शिव को कैसे प्रसन्न किया उनके द्वारा पूछे जाने पर रावण ने उत्तर दिया।
रावण ने कहा :-
38. हे महान ऋषि, तपस्या के लिए कैलास जाने के बाद, मैंने लंबे समय तक घोर तपस्या की।
39. हे ऋषि, जब शिव प्रसन्न नहीं हुए, तो मैं वहां से उपवन में लौट आया और तपस्या शुरू कर दी।
40. मैंने ग्रीष्म काल में पाँच अग्नियों के बीच में खड़े होकर, वर्षा में खाली भूमि पर लेटकर और शीतकाल में जल के अन्दर रहकर त्रिगुणात्मक तपस्या की।
41. हे महान मुनि, इस प्रकार मैंने वहाँ घोर तपस्या की फिर भी शिव मुझ पर रत्ती भर भी प्रसन्न नहीं हुए थे।
42-43. तब मुझे गुस्सा आ गया। मैंने जमीन में खाई खोदी और आग लगा दी। मैंने मिट्टी की मूर्तियाँ बनाईं पूजा के दौरान दीपों को लहराकर मैंने सुगंध, चंदन, धूप और अन्न-प्रसाद से शिव की पूजा की।
44. शिव को प्रणाम, स्तवन, गीत, नृत्य, संगीत वाद्ययंत्र और चेहरे और उंगलियों के रहस्यवादी इशारों द्वारा मेरे द्वारा अनेक प्रकार से प्रसन्न किया गया था।
46. जब भगवान शिव प्रसन्न नहीं हुए और मेरी उपस्थिति में प्रकट नहीं हुए तो मैं व्यथित था क्योंकि मुझे तपस्या का फल नहीं मिला।
47. “मेरे शरीर पर धिक्कार है। मेरे बल पर धिक्कार है। मेरी तपस्या पर धिक्कार है”। यह कहकर मैंने वहां रखी हुई अग्नि में अनेक यज्ञ किए।
48-49.तब मैंने सोचा - "मैं अपने शरीर को आग में झोंक दूँगा"। इसके बाद मैंने एक-एक करके अपने सिरों को काट डाला, उन्हें शुद्ध किया और उन्हें आग में अर्पित कर दिया। इस प्रकार मेरे द्वारा नौ शीश अर्पित किए गए।
50. हे उत्कृष्ट ऋषि, जब मैं अपना दसवां सिर काटने ही वाला था, तब शिव तेज के पुंज के रूप में मेरे सामने प्रकट हुए।
51. भगवान ने अपने भक्तों के प्रति अनुकूल व्यवहार करते हुए तुरंत मुझसे कहा, “मैं प्रसन्न हूं। आप जिस वरदान की कामना करते हैं उसका बताऐ । मैं तुम्हें वही वर दूंगा जो तुम अपने मन में चाहते हो, ”
52. जब भगवान शिव ने यह कहा तो मैंने उनकी स्तुति की और महान भक्ति में हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।
53. तब मैं ने शिव से विनती की, हे देवों के स्वामी, यदि तुम प्रसन्न हो, तो कोई वस्तु मेरी पहुंच से बाहर न होगी ? कृपया मुझे अतुलनीय शक्ति प्रदान करें।
54. जो कुछ मैंने अपने मन में चाहा था, वह सब दयालु और संतुष्ट शिव द्वारा "ऐसा ही हो" शब्दों के साथ प्रदान किया गया था।
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अमोघया सुदृष्ट्या वै वैद्यवद्योजितानि मे।
शिरांसि संधयित्वा तु दृष्टानि परमात्मना।५५।
55. एक वैद्य के रूप में मेरे सिर को फिर से स्थापित करते हुए, वे परम सौम्य दृष्टि वाले परमात्मा शिव देखे गए।५५।
56. जब यह कार्य किया गया, तो मेरे शरीर ने अपनी पूर्व अवस्था को पुनः प्राप्त कर लिया। उनकी कृपा से मुझे सभी लाभ प्राप्त हुए।
57. फिर, मेरे अनुरोध पर, शिव वहां स्थायी रूप से वैद्यनाथेश्वर के नाम से रहने लगे। वह अब तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गया है।
58. ज्योतिर्लिंग के रूप में भगवान शिव उनके दर्शन और पूजा से सांसारिक सुख और मोक्ष प्रदान करते हैं। वह ज्योतिर्लिंग संसार में सबका हितैषी है।
59. मैंने उस ज्योतिर्लिंग की विशेष रूप से पूजा की और उसे प्रणाम किया। मैं घर लौट आया हूं और तीनों लोकों को जीतने का इरादा रखता हूं।
सूत ने कहा :-
तदीयं तद्वचः श्रुत्वा देवर्षिर्जातसंभ्रमः।।
विहस्य च मनस्येव रावणं नारदोऽब्रवीत्।६०
60. उनकी ये बातें सुनकर देवर्षि हर्षित उद्भिग्न हे उठे। मन ही मन हँसते हुए नारद ने रावण से से बोले!।
नारद ने कहा :-
61. इसे सुन ! हे राक्षसशिरोमण, मैं आपको बता दूंगा कि आपके लिए क्या फायदेमंद है। जैसा मैं कहता हूं वैसा ही तुम करो और अन्यथा किसी भी कीमत पर नहीं।
62. आपने अभी जो कहा कि शिव द्वारा प्रदान की गई हर चीज हित कारी है।तो उलको कभी भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
63. अपनी मानसिक विपथन की स्थिति में वह रावण क्या नहीं कहेगा? यह कभी सच नहीं निकलेगा। इसे कैसे सिद्ध किया जा सकता है? रावण तुम मेरे प्रिय हो।
64. अत: तुम फिर जाओ और अपने लाभ के लिए यह करो। आप कैलास को उठाने का प्रयास करो!
65. कैलाश के ऊपर उठने पर ही सब कुछ फलदायी होगा। निस्संदेह ऐसा ही है।
66. आप इसे पहले की तरह बदल दें और खुशी-खुशी लौट आएं। अंततः निर्णय लें और जैसा आप चाहते हैं वैसा करें।
सूत ने कहा :-
67. रावण, विधि (भाग्य) से भ्रमित हो, इस प्रकार सलाह देने पर इसे लाभकारी मानता था। ऋषि की सलाह मानकर वे कैलास चला गया।
68. वहां पहुंचकर उस ने केलास पर्वत को उठा लिया। पहाड़ पर सब कुछ उलटा हो गया और सब एक दूसरे के साथ मिल गया।
69. इसे देखकर, शिव ने कहा "क्या हुआ है ?" पार्वती हँसी और उत्तर दिया।
पार्वती ने कहा :-
70. आपको वास्तव में अपने शिष्य पर कृपा करने का प्रतिफल मिला है। इस शिष्य के माध्यम से कुछ अच्छा हुआ है, अब जब एक शांत आत्मा को एक महान शक्ति प्रदान की गई है जो एक महान नायक है।
सूत ने कहा :-
71. परोक्ष संकेत के साथ पार्वती के शब्दों को सुनकर, भगवान शिव ने रावण को कृतघ्न माना। और उन्होंने उसे अपनी ताकत का अहंकारी होने का श्राप दिया।
भगवान शिव ने कहा :-
72. हे रावण, हे नीच भक्त, हे दुष्ट-चित्त, अहंकारी मत बनो। तेरे पराक्रमी हाथों के अहंकार का नाश करनेवाला शीघ्र ही आएगा।सूत ने कहा :-
73. वहाँ जो कुछ हुआ वह नारद ने भी सुना। मन ही मन प्रसन्न होकर रावण अपने धाम को लौट गया।
74. पराक्रमी रावण ने दृढ़ निर्णय करके, अपने बल से मोहित होकर, अपने शत्रुओं के अहंकार को नष्ट कर दिया और पूरे ब्रह्मांड को अपने अधीन कर लिया।
75. शिव के इशारे पर प्राप्त दिव्य अस्त्रों और महान शक्ति के कारण, युद्ध में रावण का मुकाबला करने वाला कोई नहीं था।
76. भगवान वैद्यनाथ की इस महिमा को सुनने से पापियों के पाप भस्म हो जाते हैं।
सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख प्राप्त किया। एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा। अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया।
लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।
तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।
सूतजी बोले – जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथाकहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।
तदनन्तर सौति ने मुनिश्रेष्ठ बालखिल्यादि, बृहस्पति, उतथ्य, पराशर, विश्रवा, कुबेर, रावण, कुम्भकर्ण, महात्मा विभीषण, वात्स्य, शाण्डिल्य, सावर्णि, कश्यप तथा भरद्वाज आदि की; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अनेकानेक वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति के प्रसंग सुनाकर कहा– अश्विनी कुमार के द्वारा एक ब्राह्मणी के गर्भ से पुत्र की उत्पत्ति हुई।
इससे उस ब्राह्मणी के पति ने पुत्र सहित पत्नी का त्याग कर दिया। ब्राह्मणी दुःखित हो योग के द्वारा देह त्याग कर गोदावरी नाम की नदी हो गयी। सूर्यनन्दन अश्विनी कुमार स्वयं उस पुत्र को यत्नपूर्वक चिकित्सा-शास्त्र, नाना प्रकार के शिल्प तथा मन्त्र पढ़ाये, किंतु वह ब्राह्मण निरन्तर नक्षत्रों की गणना करने और वेतन लेने से वैदिक धर्म से भ्रष्ट हो इस भूतल पर गणक (जोशी )हो गया। उस लोभी ब्राह्मण ने ग्रहण के समय तथा मृतकों के दान लेने के समय शूद्रों से भी अग्रदान ग्रहण किया था; इसलिये ‘अग्रदानी’ हुआ।
एक पुरुष किसी ब्राह्मण यज्ञ में यज्ञकुण्ड से प्रकट हुआ। वह धर्मवक्ता 'सूत' कहलाया। वही हम लोगों का पूर्वपुरुष माना गया है। कृपानिधान ब्रह्मा जी ने उसे पुराण पढ़ाया। इस प्रकार यज्ञकुण्ड से उत्पन्न सूत पुराणों का वक्ता हुआ। सूत के वीर्य और वैश्या के गर्भ से एक पुरुष की उत्पत्ति हुई, जो अत्यन्त वक्ता था। लोक में उसकी भट्ट (भाट) संज्ञा हुई। वह सभी के लिये स्तुति पाठ करता है।
यह मैंने भूतल पर जो जातियाँ हैं, उनके निर्णय के विषय में कुछ बातें बतायी हैं। वर्णसंकर-दोष से और भी बहुत-सी जातियाँ हो गयी हैं। सभी जातियों में जिनका जिनके साथ सर्वथा सम्बन्ध है, उनके विषय में मैं वेदोक्त तत्त्व का वर्णन करता हूँ– जैसा कि पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने कहा था। पिता, तात और जनक – ये शब्द जन्मदाता के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।अम्बा, माता, जननी और प्रसू – इनका प्रयोग गर्भधारिणी के अर्थ में होता है। पिता के पिता को पितामह कहते हैं और पितामह के पिता को प्रपितामह। इनसे ऊपर के जो कुटुम्बीजन हैं, उन्हें सगोत्र कहा गया है। माता के पिता को मातामह कहते हैं, मातामह के पिता की संज्ञा प्रमातामह है और प्रमातामह के पिता को वृद्धप्रमातामह कहा गया है। पिता की माता को पितामही और पितामही की सास को प्रपितामही कहते हैं। प्रपितामही की सास को वृद्धप्रपितामही जानना चाहिये।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 10
माता की माता मातामही कही गयी है। वह माता के समान ही पूजित होती है। प्रमातामह की पत्नी को प्रमातामही समझना चाहिये। प्रमातामह के पिता की स्त्री वृद्धप्रमातामही जानने योग्य है। पिता के भाई को पितृव्य (ताऊ, चाचा) और माता के भाई को मातुल (मामा) कहते हैं। पिता की बहिन पितृष्वसा (फुआ) कही गयी है और माता की बहिन मासुरी (मातृष्वसा या मौसी)। सूनु, तनय, पुत्र, दायाद और आत्मज– ये बेटे के अर्थ में परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं। अपने से उत्पन्न हुए पुरुष (पुत्र) के अर्थ में धनभाक और वीर्यज शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। उत्पन्न की गयी पुत्री के अर्थ में दुहिता, कन्या और आत्मजा शब्द प्रचलित हैं। पुत्र की पत्नी को वधू (बहू) जानना चाहिये और पुत्री के पति को जामाता (दामाद)।प्रियतम पति के अर्थ में पति, प्रिय, भर्ता और स्वामी आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं। पति के भाई को देवर कहा गया है और पति की बहिन को ननान्दा (ननद), पति के पिता को श्वसुर और पति की माता को श्वश्रु (सास) कहते हैं। भार्या, जाया, प्रिया, कान्ता और स्त्री– ये पत्नी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। पत्नी के भाई को श्यालक (साला) और पत्नी की बहिन को श्यालिका (साली) कहते हैं। पत्नी की माता को श्वश्रू (सास) तथा पत्नी के पिता को श्वसुर कहा गया है। सगे भाई को सोदर और सगी बहिन को सोदरा या सहोदरा कहते हैं। बहिन के बेटे को भागिनेय (भगिना या भानजा) कहते हैं और भाई के बेटे को भ्रातृज (भतीजा)बहनोई के अर्थ में आबुत्त (भगिनीकान्त और भगिनीपति) आदि शब्दों का प्रयोग होता है। साली का पति (साढू) भी अपना भाई ही है; क्योंकि दोनों के ससुर एक हैं। मुने! श्वसुर को भी पिता जानना चाहिये। वह जन्मदाता पिता के ही तुल्य है। अन्नदाता, भय से रक्षा करने वाला, पत्नी का पिता, विद्यादाता और जन्मदाता– ये पाँच मनुष्यों के पिता हैं। अन्नदाता की पत्नी, बहिन, गुरु-पत्नी, माता, सौतेली माँ, बेटी, बहू, नानी, दादी, सास, माता की बहिन, पिता की बहिन, चाची और मामी– ये चौदह माताएँ हैं। पुत्र के पुत्र के अर्थ में पौत्र शब्द का प्रयोग होता है तथा उसके भी पुत्र के अर्थ में प्रपौत्र शब्द का। प्रपौत्र के भी जो पुत्र आदि हैं, वे वंशज तथा कुलज कहे गये हैं।
पुत्री के पुत्र को दौहित्र कहते हैं और उसके जो पुत्र आदि हैं, वे बान्धव कहे गये हैं। भानजे के जो पुत्र आदि पुरुष हैं, उनकी भी बान्धव संज्ञा है। भतीजे के जो पुत्र आदि हैं, वे ज्ञाति माने गये हैं। गुरुपुत्र तथा भाई- इन्हें पोष्य एवं परम बान्धव कहा गया है। मुने! गुरुपुत्री और बहिन को भी पोष्या तथा मातृतुल्या माना गया है। पुत्र के गुरु को भी भ्राता मानना चाहिये। वह पोष्य तथा सुस्निग्ध बान्धव कहा गया है। पुत्र के श्वशुर को भी भाई समझना चाहिये।
वह वैवाहिक बन्धु माना गया है। बेटी के श्वशुर के साथ भी यही सम्बन्ध बताया गया है। कन्या का गुरु भी अपना भाई ही है। वह सुस्निग्ध बान्धव माना गया है। गुरु और श्वशुर के भाइयों का भी सम्बन्ध गुरुतुल्य ही कहा गया है। जिसके साथ बन्धुत्व (भाई का-सा व्यवहार) हो, उसे मित्र कहते हैं। जो सुख देने वाला है, उसे मित्र जानना चाहिये और जो दुःख देने वाला है, वह शत्रु कहलाता है। दैववश कभी बान्धव भी दुःख देने वाला हो जाता है और जिससे कोई भी सम्बन्ध नहीं है, वह सुखदायक बन जाता है। विप्रवर! इस भूतल पर विद्याजनित, योनिजनित और प्रीतिजनित–ये तीन प्रकार के सम्बन्ध कहे गये हैं। मित्रता के सम्बन्ध को प्रीतिजनित सम्बन्ध जानना चाहिये। वह सम्बन्ध परम दुर्लभ है। मित्र की माता और मित्र की पत्नी–ये माता के तुल्य हैं,
मित्रमाता मित्रभार्य्या मातृतुल्या न संशयः।
मित्रभ्राता मित्रपिता भ्रातृतातसमौ नृणाम् ।१६५।।
इसमें संशय नहीं है। मित्र के भाई और पिता मनुष्यों के लिये चाचा, ताऊ के समान आदरणीय हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के उपर्युक्त जातिसबन्ध निर्णय अध्याय में आभीर जाति का वर्णन नहीं है जो मनुस्मृति के (१०-१५ )में वर्णित है
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केवल कुछ शातिर व धूर्त पुरोहितों 'ने द्वेष वश आभीर के स्थान पर गोप लिखा और फिर गोप के स्थान पर केवल यादव लिखा ऐसा ग्रन्थों के प्रकाशन काल में हुआ ।
स्मृतियों में द्वेष वश तत्कालीन पुरोहितों'ने गोपों अथवा अहीरों को वर्ण संकर (Hybrid) या शूद्र कहकर भी वर्णित किया है । जो पुराणों तथा महाभारत आदि में जो अहीर शूर थे उन्हें अशुद्ध वर्तनी ओर प्रिंटिग में शूद्र कर दिया । 👇
देखें व्यासस्मृति के निम्नलिखित श्लोकों में गोप को शूद्र कहा गया है।
एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२। ( देखें व्यास स्मृति)
वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , (गोप) , आशाप , कुम्हार ,(वणिक्) ,किरात , (कायस्थ), माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश, श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं । तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते जिनके वंश का ज्ञान है ;ऐसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०।
सन्दर्भ-(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२). स्मृतियों की रचना काशी में हुई ,वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी।
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पुरोहितों के कुछ सिद्धान्त तर्कविहीन और आधारविहीन ही थे। जैसे वे दो स्त्रीयों में एक ही ही सन्तान उत्पन्न कर देते हैं।
तात्पर्यं दो स्त्रीयों में एक ही ब्राह्मण के द्वारा जो एक सन्तान हुई वह आभीर है ।
'परन्तु ये असम्भव है आज तक एक स्त्री में अनेक पुरुषों द्वारा सन्तानें उत्पन्न सुनी थी और सम्भवत भी थीं 'परन्तु यहाँ तो अम्बष्ठ कन्या और माहिष्य कन्या में एक ही सन्तान आभीर उत्पन्न हो गये ।विदित हो की अम्बष्ठ और माहिष्य दौनों ही अलग अलग जनजातियाँ हैं माहिष्यजनजाति स्मृतियों के अनुसार एक संकर जाति है विशेष—याज्ञवल्क्य स्मृति इसे क्षत्रिय पिता और वैश्या माता की औरस संतान मानती है। तो आश्वलायन इसे सुवर्ण नामक जाति से करण जाति की माता खण्डमें उत्पन्न सन्तान मानते है । सह्याद्रि में इसको यज्ञोपवीत आदि संस्कारों का वैश्यों के समान ही अधिकारी कहा हैं; । पर आश्वलायन इसे यज्ञ करने का निषेध करते हैं ।इस जाति के लोग अब तक बालि द्वीप में मिलते हैं और अपने को माहिष्य क्षत्रिय कहते हैं । संभवत: ये लोग किसी समय महिष- मंडल (मैसूर) देश के रहनेवाले रहे होंगे । अब यही गड़बड़ है कि सभी स्मृतियों के विधान भी परस्पर विरोधाभासी व भिन्न-भिन्न हैं ।यद्यपि संस्कृत भाषा में आभीरः, पुल्लिंग विशेषण शब्द है ---जैसे कि वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में उद्धृत किया है। वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में इसकी व्युत्पत्ति- अमर कोश से उद्धृत की गयी है। अमर कोश इस आभीर शब्द की निम्न उत्पत्ति है। (आ समन्तात् भियं राति रा दाने आत् इति कः आभीर:। अर्थात् चारो दिशाओं में भय प्रदान करने वाला है वही आभीर है परन्तु "अभीर अथवा "आभीर शब्द का एक प्रसिद्ध अर्थ है " जो भीरु अथवा कायर न हो वह अभीर है वही वीर अहीर (अभीर ) है ; अभीरस्य समूह इति आभीर: प्रकीर्तता आभीरस्य पर्याय: गोपो गौश्चरश्च इत्यमरः कोश: ॥
आहिर इति भाषा तथा प्राकृत भाषा में अहीर --वस्तुतः अभीरस्य समूह इति आभीर: प्रकीर्तता अर्थात् अभीर: शब्द में अण् प्रत्यय समूह अथवा बाहुल्य प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होता है । और पाणिनीय तद्धिदान्त शब्दों में अण् प्रत्यय सन्तति वाचक भी है ।अतः आभीर और अभीर शब्द मूलत: समूह और व्यक्ति (इकाई) रूप को क्रमश: प्रकट करते हैं ।आभीर जन-जाति का सनातन व्यवसाय गौ - चारण रहा है। और ये चरावाहे ही कालान्तरण में कृषि - वृत्ति के सूत्रधार रहे । अतएव अभीर और आभीर शब्द मूलत: एकवचन और बहुवचन होते हुए भी संस्कृत के परवर्ती विद्वानों ने दो भिन्न रूपों में यादवों की गोपानल वृत्ति ( व्यवसाय) और वीरता प्रवृत्ति (मूलस्वभाव) को दृष्टिगत करते हुए की है दोैनों व्युत्पत्तियाँ प्रस्तुत हैं ।
वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश के अनुसार-- अभीर:–(अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरःअच् गोप: का समानार्थक शब्द ! अर्थ•-सामने मुख करके घेरता है गायें जो वह अभीर है । वस्तुत: यह व्युत्पत्ति केवल आनुमानिक गोपों की गोपालन वृत्ति को आधार पर की गयी है ।
यद्यपि अभीर शब्द की अपेक्षा आभीर शब्द ही संस्कृत ग्रन्थों में बहुतायत रूप में मिलता है । न कि अभीर:
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अभीर शब्द की व्युत्पत्ति:- तारानाथ वाचस्पत्यम् निम्न रूप में करते हैं -अभीर: - (अभि + ईर् +अच् ) और अमरकोशकार अमरसिंह:- ने आभीरः की व्युत्पत्ति:- पुल्लिंग रूप में की ;- (आ -समन्तात् भियं -भयं राति ददाति शत्रुणाम् हृत्सु । रा दाने = देने में आत इति कः प्रत्यय )अर्थ - गोपः । इत्यमरःकोश ॥ प्राकृत भाषा में आहिर रूप । यदि अभीर की इस प्रकार भी व्युत्पत्ति मानी जाये तो भी आभीर: अभीर: का बहुवचन रूप है ।
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१-• अभीर: - अभि + ईर् +अच् (अभि उपसर्ग +ईर् धातु+ तथा अच् कृदन्त प्रत्यय = दीर्घ स्वर सन्धि से अभीर: रूप और इसी अभीर: में तद्धित. अण् प्रत्यय - सन्तान तथा (समूहवाची) परक होकर (अभीर+ अण् ) = आभीर: (बहुवचन अथा समूह
वाची रूप बनता ) अर्थात् अभीर: एकवचन तो आभीर: बहुवचन रूप -
अहीरों को संस्कृत भाषा में अभीरः अथवा आभीरः संज्ञा से इसलिए भी अभिहित किया गया कि संस्कृत भाषा में इस शब्द की व्युपत्ति "
अभित: ईरयति इति अभीरः" अर्थात् चारो तरफ घूमने वाली निर्भीक जनजाति के रूप में इनका प्रवृत्ति मूलक स्वरूप रहा है।
अभि एक धातु ( क्रियामूल ) से पूर्व लगने वाला उपसर्ग (Prifix)..तथा ईर् एक धातु है ।
जिसका अर्थ :- गमन करना (जाना) है इसमें कर्तरिसंज्ञा भावे में "अच् प्रत्यय के द्वारा निर्मित विशेषण -शब्द अभीरः विकसित होता है।
और इस अभीरः शब्द में भी श्लिष्ट अर्थ समाहित है।(जो पूर्णतः भाव सम्पूर्क है। ("अ" निषेधात्मक उपसर्ग तथा भीरः/ भीरु कृदन्त शब्द है जिसका अर्थ है कायर अर्थात् जो भीरः अथवा कायर न हो वीर पुरुष हो वह अभीर है। ईज़राएल के यहूदीयो की भाषा हिब्रू में भी अबीर (Abeer) शब्द का अर्थ वीर तथा सामन्त है । इसके अतिरिक्त ईश्वर का एक नाम भी हिब्रू में अबीर है । तात्पर्य यह कि इजराईल के यहूदी वस्तुतः वीर "यदु की सन्तानें थीं जिनमें अबीर भी एक प्रधान युद्ध कौशल में पारंगत शाखा थी। यद्यपि आभीरः शब्द अभीरः शब्द का ही बहुवचन-( समूह वाचक )रूप है |
अभीरः+ अण् अथवा अञ् प्रत्यय = आभीरः ।
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दर असल आभीर शब्द अपनी -यात्रा के कई पढ़ावों से गुजरा वीर से आवीर: तथा फिर तृतीय चरण में आभीर: हुआ जो अपनी मूल वीरता प्रवृत्ति को ध्वनित करता रहा- वीर का सम्प्रसारण (Propagation) होता है जिसमें (व) का रूप (इ) हो जाता है । वीर का आर्य हो जाता है।
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आभीर एक शूर वीर जनजाति थी यही प्रचीन ग्रन्थों में वर्णन है । गोपालन करने से ये ही गोपाल और गोप भी कहे गये महाभारत में यही वर्णन है
"ततस्ते सन्यवर्तन्त संशप्तकगणा: पुन: । नारायणाश्च गोपालामृत्युं कृत्वानिवर्तनम्।३१।(द्रोणपर्व उन्नीसवाँ अध्याय ) अर्थ •-तब वे समस्त संशप्तकगण और नारायणी सेना के गोपाल(अहीर) मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्ति का अवसर मानकर पुन: युद्ध के लिए लौट आये ।।३१।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप भी है। गोपो की उत्पत्ति के विषय में ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है।👇
अर्थात् कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं की उत्पत्ति हुई है ,जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण के समान थे।
और जब भगवान की नंद राय से बात हुई है तब उन्होनें नन्द से कहा !"
हे वैश्येन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुंधरा ।
पुनः सृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम् ।।३६। (श्रीकृष्णजन्मखण्ड ब्रह्मवैवर्तपुराण )।
हे वैश्यों के मुखिया ! कलि का आरम्भ होने से कलि धर्म प्रचलित होंगेे । पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी । इसमें नन्द जी का वैश्य होना पाया जाता है । परन्तु हरिवंश पुराण में तो 👇
और यह वैश्य श्रेणि की उपाधि पुरोहितों ने गो-पालन वृत्ति के कारण दी थी तो ध्यान रखना चाहिए कि चरावाहे ही किसान हुए। तो क्या किसान क्षत्रिय न होकर वैश्य हुए। क्यों कि गाय-भैंस सभी किसान पालते हैं । क्या वे वैश्य हो गये ? परन्तु पालन रक्षण तो क्षत्रियों की प्रवृत्ति है ।
धूर्त पुरोहितों ने पूर्व दुराग्रह और द्वेष वश यादवों का इतिहास विकृत किया है। अन्यथा विरोधाभास और भिन्नता का सत्य के रूप निर्धारण में स्थान हि कहाँ था ?
क्यों की झूँठ बहुरूपिया तो सत्य हमेशा एक रूप ही होता है। परन्तु कृष्ण जी जब नंद राय के घर थे तब उनके संस्कार को नंद जी के पुरोहित ना आए गर्ग को वसुदेव जी ने भेजा यह बड़े आश्चर्य की बात है ! नन्द के पुरोहित शाण्डिल्य भी गर्ग के शिष्य थे। और गर्ग को शूरसेन ने अपने समयमें पुरोहित पद परनियुक्त किया था जबकि यादव उग्रसेन के पुरोहित सन्दीपनमुनि थे डिनका जन्म काशी में और साधना उज्जैन में होती थी । सांदीपनि मुनिके माता का नाम पूर्णमासी था, जिनके गुरु नारद थे। देवी पूर्णमासीको नन्द महाराज आदर प्रदान करते थे और व्रजभूमीमे उनकी विशेष प्रतिष्ठा थी। सांदीपनि मुनिके पिताका नाम देवऋषिप्रबल है जो दिव्यज अग्निहोत्रके जनक थे। उनके चाचा देवप्रस्थ थे। उनके पितामह अर्थात दादाजी सुरंतदेव थे और पितामही श्रीमती चन्द्रकला थी। सांदीपनि मुनिके पत्नीका नाम श्रीमती सुमुखि देवी था। पुत्र मधुमंगल थे जो कृष्णके बालमित्र थे। बाल कृष्णकी बाललीलाओं में इनका संबोधन कई बार मिलता है। उनका वर्ण नीला है, और उन्हें स्वादिष्ट भोजन बहुत पसंद है। उनकी रोचक हरकतोंसे वह गोपमित्रों और कृष्णको हमेशा आनंदी रखनेका प्रयास करते है। सांदीपनि मुनिके कन्याका नाम नन्दीमुखी है जो राधा तथा ललिताकी सखी है। सांदीपनि मुनि मूलतः काशी से थे और अवंतीनगरी मे निवास करते थे।
शाण्डिल्य कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ के पुरोहित भी थे। तो इसमें भेद निरूपण नहीं होता कि यादवों के पुरोहित गर्गाचाय थे और अहीरों के शाण्डिल्य ! जैसा कि कुछ धूर्त अल्पज्ञानी भौंका करते हैं ।
परन्तु उसी ब्रह्म वैवर्त पुराण में लिखा है कि जब श्रीकृष्ण गोलोक को गए तब सब गोपोंं को साथ लेते गए और अमृत दृष्टि से दूसरे गोपो से गोकुल को पूर्ण किया जाता है। वस्तुत यहाँं सब विकृत पूर्ण कल्पना मात्र है ।👇
हैहयवंश के सहस्रबाहू के पुरोहित भृगु के वंशज और्व शाखा में यमदग्नि थे अंगिरा के वंशज गर्ग भी उसनी सभा में उपस्थित रहते थे। और भीष्मक के पुरोहित कश्यप के वंशज शतानन्द और कंस के पुरोहित तो भृगु के वंशज सान्दीपन का वर्णन पुराणों में वर्णित है।
और शूरसेन की सभा में उपस्थित गर्गाचार्य तत्कालीन पुरोहित नियुक्त हुए।
यादवों का साम्राज्य एक समय काशी में भी रहा
"आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।
अनुवाद:-
महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम प्रतापी यादव राजा थे यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।
गौतम के पुत्र शतानंद वेदों के अच्छे जानकार थे। वह कुल का एक धर्मी वाक्पटु और ज्ञानी पुरोहित थे वह पृथ्वी के सभी सत्यों को जानता थे और सभी प्रकार की गतिविधियों में भी निपुण थे ।18।
"शतानन्द भीष्मक प्रति उवाच"
राजेन्द्र त्वं च धर्मज्ञो धर्मशास्त्रविशारदः। पूर्वाख्यानं च वेदोक्तं कथयामि निशामय ।१९।
शतानंद ने भीष्मक से कहा: हे राजाओं में श्रेष्ठ, आप धार्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता और धार्मिक सिद्धांतों के शास्त्रों के भी विशेषज्ञ हैं। मेरी बात सुनो मैं तुम्हें वेदों में वर्णित पूर्व आख्यान को सुनाता हूँ ।19।
भुवो भारावतरणे स्वयं नारायणो भुवि । वसुदेवसुतः श्रीमान्परिपूर्णतमः प्रभुः।२०।
भगवान नारायण स्वयं पृथ्वी के भार उतारने के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए। वे वासुदेव के पुत्र रूप में इस पृथ्वी पर सबसे समृद्ध और सबसे शक्तिशाली हैं।20।
वह ही निर्देशक और निर्माता हैं और शेष तथा भगवान ब्रह्मा द्वारा उनकी पूजा की जाती है। वह प्रकाश के सर्वोच्च रूप हैं और अपने भक्तों की कृपा के लिए अवतरित हैं।21।
परमात्मा सभी जीवों की प्रकृति से परे है वह निष्कलंक और निष्पाप हैं और समस्त कर्मों का साक्षी हैं ।22।
हे राजाओं में श्रेष्ठ, उसने उसे और उसकी पुत्री को सब से उत्तम वर दिया। उसे देकर तुम अपने सैकड़ों पूर्वजों के साथ गौलोक में जाओगे। 23।।
अपनी पुत्री को देकर और परलोक में समानता और मुक्ति प्राप्त करें। विश्वगुरु के गुरु बनो और यहाँ सबके द्वारा पूजे जाओ।24।
पृथ्वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु -ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।
विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में गुरु के नाम से ही गोत्र का नाम होता था
जैसे पुराणों में राहु केतु का गोत्र पैठिनस पैठिनस ऋषि थे । लेकिन जैमिनी ऋषि के शिष्यत्व में केतु का गोत्र जैमिनी हो गया।
कुछ इतिहासकार मानते हैं गुरु,कुल गुरु या पुरोहित के नाम से ही गोत्र का नाम पड़ जाता था जैसा कि राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी उदयपुर राज्य का इतिहास भाग-१ के क्षत्रियों के गोत्र नामक तृतीय अध्याय की परिशिष्ट संख्या ४ में लिखते हैं कि प्राचीन काल में राजाओं का गोत्र वही माना जाता था जो उनका पुरोहित का होता था.
यादवों कुल अनेक थे । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है। इसी आधार पर उनके कुल पुरोहित भी अनेक गोत्रों से सम्बन्धित थे।
भृगु - एक प्रसिद्ध ऋषि हैं जो शिव के पुत्र माने जाते हैं।
विशेषत:—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की वक्षस्थल में लात मारी थी।
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इन्हीं के वंश में परशुराम हुए , कहते हैं, इन्हीं 'भृगु' 'अंगिरा' तथा 'कश्यप' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है।
ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि वहाँ आई थीं।
जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्या आदि को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया।
सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया।
उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी। अत: भृगु का अर्थ भी अग्नि ही है।
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परशुराम का जन्म इसी भृगु वंश में हुआ। यद्यपि ये शास्त्रीय कथानक काव्य और कल्पना के गुणों से समन्वित होते हुए भी हैं। प्रागैतिहासिक मानवीय अस्तित्व के साक्ष्य है। अवश्य ही इस नाम के व्यक्तियों का अस्तित्व तो रहा ही होगा।
[अंगिरा-अङ्गिरस्]-एक प्राचीन ऋषि जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं।
विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादुर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है।
इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है।
कहीं इनके पिता को (उरु) और माता को (आग्नेयी) कहा कहीं इन्हें ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न भी बतलाया गया है।
स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी चार स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए ।
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इसी अंगिरा की परम्परा में बृहस्पति के पुत्र गौतम के पुत्र शतानन्द भी हुए जो कोष्टाकुल के यादव भीष्मक के कुलगुरु थे।
सान्दीपन ऋषि भी यादवो के पुरोहित थे और ये कश्यप गोत्रीय ऋषि थे जिनका जन्म काशी में हुआ, और जो कालान्तर में ये उज्जैन को चले गये थे।
सान्दीपनि-(सन्दीपनस्यापत्यम् +इञ्)= सान्दीपन सन्दीपन ऋषि के पुत्र थे। जोकि बलराम और कृष्ण के गुरु रहे।
रामकृष्णयोराचार्य्ये अवन्तिपुरवासिनि मुनिभेदे।
और ये उग्रसेन के कुलपुरोहित थे । जबकि इसी समय शूरसेन के गर्गाचार्य पुरोहित थे । उग्रसेन और शूरसेन दोनों ही यादव राजा थे।
विष्णु पुराण में सान्दीपन ऋषि के बारे में लिखा है।
वे दौनों कृष्ण और बलराम सर्वज्ञ माने जाते हैं। फिर भी यदुश्रेष्ठ दोनों वीरों ने अपनी शिष्य परम्परा में गुरुजनों की आज्ञा का भी पालन किया।
फिर उनकी मुलाकात सान्दीपनी, काश्य से हुई, जो काशी में उत्पन्न होकर भी अवन्ती नगर में रहते थे। वीर बलदेव और कृष्ण दौनों शस्त्र ज्ञान के लिए उनके अन्तेवासी हुए। अर्थात
वे दोनों उनके शिष्य बन गए और अपने गुरु के व्यवहार के प्रति समर्पित थे।
उन्होंने सभी लोगों को वीरता का परिचय दिया
(विष्णु पुराण पञ्चमाँश अध्याय 21वाँ)
सबसे पहले ये जानना आवश्यक है कि वसुदेव गोप ही थे। और नन्द तो गोप थे ही यह सब जानते ही हैं।
वसुदेव के गोप जीवन के विषय में कुछ पुराणों में वर्णन मिलता है। कि वे गोपालन और कृषि कार्य करते हुए वैश्य वृत्ति का भी जीवन निर्वहन करते थे।
"वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन का निर्वाह किया ।६१।
शास्त्रों में वसुदेव का गोप रूप में भी वर्णन है।-
परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु वंश का वर्णन द्वेष दृष्टिकोण से लिखा।
उनकी द्वेष दृष्टि में यदु म्लेच्छ भी थे ? जैसा कि भागवत आदि पुराणों में कालान्तर में ये प्रक्षेप जोड़ दिया गया।
इतना ही नहीं एक समाज विशेष के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गोपालक न मानकर भी परम्परागत रूप से कहा करते हैं कि कृष्ण का पालन नन्द गोपों के घर और जन्म वसुदेव आदि क्षत्रिय के घर हुआ। और यादवों के कुल गुरु गर्गाचार्य और गोपों के साण्डिल्य थे।
और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण, विष्णु पुराण आदि में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक भी जोड़ दिए।
परन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों में अध्ययन के पश्चात हमने द्वेष वादियों की मान्यता को खण्डित कर दिया है।
इस लिए कालान्तर में ग्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन काल में जो शास्त्रों में जोड़-तोड़ हआ उसी के परिणाम स्वरूप शास्त्रों में परस्पर विरोधाभास उत्पन्न हुआ।
अत: आज तर्क बुद्धि द्वारा निर्णय करना आवश्यक है ।
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देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।
विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में तथा विष्णु पुराण पञ्चम अंश को 21वें श्लोक में वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में जिनका खण्डन है
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यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।
अनुवाद:-
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा ।
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है।७।
यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है । जो कालान्तर नें संलग्न किया गया है ।
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ययातिशापाद वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नुपैः ।
विष्णु पुराण पञ्चमांश अध्याय इक्कीस का बारहंवाँ श्लोक-(५-२१-१२)
जबकि गर्ग केवल शूरसेन के पुरोहित हुए बहुत बाद में शूरसेन के पिता देवमीढ़ के पुरोहित शाण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मण ही थे जो कश्यप ऋषि की परम्परा से सम्बद्ध हैं।
गर्गाचार्य एक समय भ्रमण करते हुए अपने आश्रय हेतु शूरसेन की सभा में पहुचे थे । तब यादव सभासदों की सम्मति से ये शूरसेन के पुरोहित पद पर आसीन हुए।
वह भी बहुत बाद के समय में जब एक बार सभासदों ने इनका परिचय एक ज्योतिषी के रूप में दिया था।
निराकरण-👇★
अत: यह स्पष्ट ही है कि सम्पूर्ण यादवों के कुल पुरोहित गर्गाचार्य ही नहीं थे।
गर्गाचार्य शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य सभासद लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था।
सहस्रबाहू अर्जुन के कुल पुरोहित यद्यपि भृगु वंश से थे परन्तु उनकी सभा में गर्गाचार्य का भी वर्णन प्राप्त होता है । पुत्र उवाच. गर्गाचार्य वर्णन
तस्य तन्निश्चयं ज्ञात्वा मन्त्रिमध्यस्थितोऽब्रवीत् गर्गो नाम महाबुद्धिर्मुनिश्रेष्ठो वयोऽतिगः॥१८.१०॥
अर्थ:-उसका वह निश्चय जानकर मन्त्रीयों के मध्य स्थित गर्ग नाम के महाबुद्धिमान श्रेेष्ठ। और उम्रदराज मुनि थे बोले ।
यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन यादव भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे सन्दीपन ही थे । और उसी समय सूरसेन को पुरोहित गर्गाचार्य थे ।
यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र (शतानन्द) थे।
ये अंगिरा के वंशज थे।
गोतमपुत्र जो अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और जो जनकराज के पुरोहितः भरद्वाज गोत्र के ही थे।
और सूरसेन के सौतेले भाई पर्जन्य के पुत्र नन्द के पुरोहित साण्डिल्य थे। ये शण्डिल ऋषि के पुत्र थे
अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है। यादवों कई पुरोहित थे।
परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।
अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं ।
और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________
परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में इस प्रकार का वर्णन है ।
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।
वसुदेव ने गर्गाचार्य को
गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा
परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी करते रहते थे निम्न श्लोकों में यह भी स्पष्ट तथ्य है
श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्दनन्दन की यह बात सुनकर श्रीनन्द और सन्नन्द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होनें पहले का निश्चय त्यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया।
मिथिलेश्वर ! नन्दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्कण्ठित हो प्रसन्नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के
अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।। ___________________________________
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।
अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !
वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।
पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है ।
न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?
आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं।
शाण्डिल्य- सा पौराणिक परिचय-
महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।
कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। और बज्रनाभ के भी पुरोहित ये ही बनते देखे हैं।
इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।
कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे। ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं यदु वंशी नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है।
सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान ऋित्विक थे। किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है।
शाण्डिल्य ऋषि की तपस्या करना
इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी।
फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया। विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होता के रूप में वहां विद्यमान थे।
भीष्म की सरसैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे।
शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है।
कश्यप ऋषि के एक पुत्र असित थे। असित के पुत्र देवल हुए, जिनके द्वारा किये गये यज्ञ के यज्ञकुण्ड से ऋषि शाण्डिल्य का जन्म हुआ।
इन्होने अनेकों सूत्रग्रंथों की रचना की है। वेदों में भी इनका नाम आया है।
रघुवंशी राजा दिलीप के समय भी इनका उल्लेख मिलता है। ये राजा जनक को पुरोहित थे
योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: । गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णं चकार स:।।
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः) अध्यायः (१२९)
अथैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः नारायण उवाच श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः । दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम्। १। उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके । ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा ।। २ ।। अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् । योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।। ३ ।। गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः । तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।। ४ ।। गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः । उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम् ।। ५ ।। श्री भगवानुवाच हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव । रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।। ६ ।। तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने । अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ७ ।। तथा जगाम भाण्डीरं विधाता जगतामपि । स्वयं शेषश्च धर्मश्च भवान्या च भवःस्वयम् ।। ८ ।। सूर्यश्चापि महेन्द्रश्च चन्द्रश्चापि हुनाशनः । कुबेरो वरुणश्चैव पवनश्च यमस्तथा ।। ९ ।। ईशानश्चापि देवाश्च वसवोऽष्टौ तथैव च । सर्वे ग्रहाश्च रुद्राश्च मुनयो मनवस्तथा ।। १० ।। त्वरिताश्चाऽऽययुः सर्वे यत्राऽऽस्ते भगवान्प्रभुः । प्रणम्य दण्डवद्भूभौ तमुवाच विधिः स्वयम् ।११ ।। ब्रह्मवाच परिबूर्णतम् ब्रह्मस्वरूप नित्यविग्रह । ज्योतिःस्वरूप परम नमोऽस्तु प्रकृतेः पर । १२ । सुनिर्लिप्त निराकार साकार ध्यानहेतुना । स्वेच्छामय परं धाम परमात्मन्नमोऽस्तु ते ।१३ ।। सर्वकार्यस्वरूपेश कारणानां च कारण । ब्रह्मेशशेषदेवेश सर्वेश ते नo ।। १४ ।। सरस्वतीश पद्मेश पार्वतीश परात्पर । हे सावित्रीश राधेश रासेश्वर नo ।। १५ ।। सर्वेषामादिभूतर्स्त्वं सर्वः सर्वेश्वरस्तथा । सर्वपाता च संहर्ता सृष्टिरूप नo ।। १६ ।। त्वत्पादपद्मरजसा धन्या पूता वसुंधरा । शून्यरूपा त्वयि गते हे नाथ परमं पदम् ।। १७ ।। यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् । त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम्।१८ ।। "महादेव उवाच" ब्रह्मणा प्रार्थितस्त्वं च समागत्य वसुंधराम् । भूभारहरणं कृत्वा प्रयासि स्वपदं विभो ।। १९ ।। त्रैलोक्ये पृथिवी धन्या सद्यः पूता पदाङ्किता । वयं च मुनयो धन्याः साक्षाद्दृष्ट्वा पदाम्बुजम् । २० ध्यानासाध्यो दुराराध्यो मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् । अस्माकमपि यश्चेशः सोऽधुना चाक्षुषो भुवि ।२१। वासुः सर्वनिवासश्च विश्वनि यस्य लोमसु । देवस्तस्य महाविष्णुर्वासुदेवो महीतले । २२। सुचिरं तपसा लब्धं सिद्धेन्द्राणां सुदुर्लभम् । यत्पादपद्ममतुलं चाक्षुषं सर्वजीविनाम् ।२३।। अनन्त उवाच त्वमनन्तो हि भगवन्नाहमेव कलांशकः । विश्वैकस्थे क्षुद्रकूर्मे मशकोऽहं गजे यथा ।२४।।
क्यों कि यदि गोप वैश्य ही होते तो कृष्ण की नारायणी सेना के यौद्धा कैसे बन गये। जिन्होनें अर्जुन-जैसे यौद्धा को परास्त कर दिया।
अब सत्य तो यह है कि जब धूर्त पुरोहितों ने किसी जन-जाति से द्वेष किया तो उनके इतिहास को निम्न व विकृत करने के लिए
कुछ काल्पनिक उनकी वंशमूलक उत्पत्ति कथाऐं ग्रन्थों में लिखा दीं ।क्यों कि जिनका वंश व उत्पत्ति का न ज्ञान होने पर ब्राह्मणों से उनकी गुप्त या अवैध उत्पत्ति कर डाली ।ताकि वे हमेशा हीन बने रहें !-जैसे यूनानीयों की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष और शूद्रा स्त्री ( गौतम-स्मृति)
पोलेण्ड वासी (पुलिन्द) वैश्य पुरुष क्षत्रिय कन्या।(वृहत्पाराशर -स्मृति)
आभीर:- ब्राह्मण पुरुष-अम्बष्ठ कन्या।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायाम्( मनुस्मृति)।- 10/15
अब दूसरी ग्रन्थों में आभीरों की उत्पत्ति का भिन्न जन-जाति की कन्या से है कि
" माहिष्यसत्रयाम् ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम् आभीर ! तथैव च आभीर पत्न्यामाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् (128-130) ( पं० ज्वाला प्रसाद मिश्र - (जातिभास्कर)
•-माहिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो पैदा हो वह आभीर है। तथा ब्राह्मण द्वारा आभीर पत्नी में भी आभीर ही उत्पन्न होता है । अब कल्पना भी मिथकों का आधार है।सत्य सदैव सम और स्थिर होता है जबकि असत्य बहुरूपिया और विषम होता है । यह तो सभी बुद्धिजीवियों को विदित ही है । अत: पं० ज्वाला प्रसाद के जाति भास्कर नें वर्णन एक -स्मृति से है जो कहती है की ब्राह्मण द्वारा माहिष्य स्त्री में आभीर उत्पन्न होता है।और दूसरी -स्मृति कहती है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न आभीर होता है ।
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अब देखिए माहिष्य और अम्बष्ठ अलग अलग जातियाँ हैं स्मृतियों और पुराणों में भी इनका वर्णन है। 👇
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ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठोनाम जायते मनुःस्मृति “-(ब्राह्मण द्वारा वैश्य कन्या में उत्पन्न अम्बष्ठ है ।
क्षत्रेण वैश्यायामुत्पादितेमाहिष्य:-( क्षत्रिय पुरुष और वैश्य कन्या में उत्पन्न माहिष्य है ।वैश्यात्ब्राह्मणीभ्यामुत्पन्नःमाहिष कथ्यते।
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ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15
अमर कोश में आभीर के अन्य पर्याय वाची रूपों में १-गोप २-गोपाल ३-गोसंख्य४-गोदुह ५-आभीर और ६- वल्लव ।५७।
बोपालित कोश कार ने अमर कोश की उपर्युक्त श्लोक की व्याख्या में स्पष्ट किया एवं गोमहिष्यादिकस्य गोमाहिष्यादिकं पादबन्धनम्।
गोमेति।गौश्च महिषी च गोमहिष्यौ आदि यस्य।तत् ।।*।। पादे बन्धनमस्य।।*।। यादवं धनम् इति पाने तु गोमहिष्यादिकं धनम् ।यदूनामिदम् । तस्येदम् ( ४/३/१२०/) यदु इति अण् - यादव गवादि यादवं वित्तम् इति बोपालित: कोश।
(१)में गोप को ही आभीर और यादव कहा और स्पष्ट किया कि गाय आदि यादवों की सम्पत्ति है. जैसा कि बोपालित कोश में वर्णन है ।
"गवादि यादवं वित्तम्" इति बोपालित: कोश। अर्थात् गो आदि यादवों की सम्पत्ति या वित्त है । क्योंकि प्राचीन काल से ही यादव जाति गोसेवक और गोपालक रही है ।
विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश- तृतीय अध्याय- का श्लोक संख्या १६-१७ पर भी शूर आभीरों का वर्णन है यहाँ शूराभीरों तथा अम्बष्ठों का साथ साथ वर्णन है । यहाँ पारिपात्र निवासी वीरों का भी वर्णन है।
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पतञ्जलि महाभाष्य में आभीरों को शूद्रों से विशेष बताया गया है "
सामान्यविशेषवाचिनोश्च द्वन्द्वाऽभावात्सिद्धम्
सामान्य और विशेष वाची में दो शब्द होने पर भी द्वन्द्व समास का अभाव होता है ।
सामान्यविशेषवाचिनोश्च द्वन्द्वो न भवतीति वक्तव्यम्। यदि सामान्यविशेषवाचिनोर्द्वन्द्वो न भवतीत्युच्यते,यदि समान्य और विशेष वाचि हो तो उनमें द्वन्द्व समान की अवधारणा नहीं करनी चाहिए जैसे -शूद्राभीरम् गोबलीवर्दम् तृणोलपम् इति न सिध्यति। शूद्राभीर' गोबलीवर्द' औरतृणोलप में द्वन्द्व समास सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि शूद्र सामान्य है और आभीर विशेष उसी प्रकार 'गो सामान्य पशु हैं और बलीवर्द. वृष बलवान होने से एक विशेष पशु है ।इसी प्रकार तृण ( तिनका जैसे दूर्वा-दूब सामान्य और उलप एक विस्तीर्ण लता होने से विशेष है ।नैष दोषःइह = यहाँ यह दोष नहीं है ।
तावच्छूद्राभीरमिति,- आभीरा जात्यन्तराणि। तबतक शूद्र आभीर को जाति के अन्तर से समझे
"गोबलीवर्दम् इति,- गाव उत्कालितपुंस्का वाहाय च विक्रयाय च, स्त्रिय एवावशिष्यन्ते।
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अर्थ- वृष (साँड) एक सामान्य गो( बैल) की अपेक्षा विशेष पशु ही है जो उत्कलित( छुट्टा या मुक्त होकर वृद्धि को प्राप्त होता है । जबकि बैल अण्डकोश रहित बैल या और कोई पशु जो अडकोश कुचल या लिकालकर' षंड' कर दिया गया हो। नपुसक किया हुआ चोपाया। खस्सी। आख्ता। चौपाया जो आँडू न हो।
विशेष 'गो' शब्द संस्कृत भाषा बहुतायत से पुल्लिंग है। और गौ शब्द स्त्री लिंग में परन्तु अपद रूप रूप में गो - गाय बैल दौंनों का वाचक है ।
अत: यहाँ द्वन्द्व समास का अभाव होता ये द्वन्द्व का अपवाद हैं क्योंकि इसमें समभाव नहीं होते हैं ।
विशेष - यहाँ अहीरों को शूद्रों से विशेष बताया गया है ।आभीरों को शूद्र नहीं बताया गया है । क्योंकि यहाँ शूद्र और आभीर में विशेषण और विशेष्यभाव का सम्बन्ध नहीं है।
महाभाष्य तृतीय आह्निक द्वितीय पाद का प्रथम अध्याय -.2.109>
विष्णु पुराण द्वितीयाँश अध्याय तीन शूराभीर वर्णन
पूर्व्वदेशादिकाश्चैव कालरूपनिवासिनः ।
पुण्ड्राःकलिङ्गामगधा दीक्षिणात्याश्चसर्व्वशः। 15।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभोरास्तथार्ब्बुदाः।
कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः।16।
सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः
मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा।17।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा ह्टष्टपुष्टजनाकुलाः।18 ।
(विष्णु पुराण द्वितीयाँश अध्याय तीन शूराभीर वर्णन) विदित हो कि विष्णुपुराण पाराशर की रचना है । जबकि अन्य पुराण कृष्ण द्वैपायन की रचना हैं मनुस्मृति का १०/१५ पर वर्णित श्लोक जिसमें अभीर जाति को ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न बताया है जबकि विष्णु पुराण में आभीर और अम्बष्ठ का वर्णन यौद्धा वर्ग में सामानान्तर रूप में किया है । फिर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में आभीर कब उत्पन्न हुए ?
कोई पण्डित बता दे !आर्य्य समाजी विद्वान मनुःस्मृति के इस श्लोक को प्रक्षिप्ति मानते हैं
जबकि हम तो सम्पूर्ण मनुःस्मृति को ही प्रक्षिप्त मानते हैं ।क्यों बहुतायत से मनुःस्मृति में प्रक्षिप्त रूप ही है तो शुद्ध रूप कितना है ?
क्यों कि मनुःस्मृति पुष्य-मित्र सुंग के परवर्ती काल खण्ड में जन्मे सुमित भार्गव की रचना है।यदि मनुःस्मृति मनु की रचना होती तो इसकी भाषा शैली केवल उपदेश मूलक विधानात्मक होती ;परन्तु इसमें ऐैतिहासिक शैली का प्रयोग सिद्ध करता है कि यह तत्कालीन उच्च और वीर यौद्धा जन-जातियों को निम्न व हीन या वर्ण संकर बनाने के लिए 'मनु के नाम पर लिखी गयी कृति है।
परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है ।'वह भी कल्पना प्रसूत जैसा कि आर्य्य समाज के कुछ बुद्धिजीवी इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देते रहते हैं 👇—
पुष्यमित्र सुंग कालीन पुरोहितों को जब किसी जन जाति की वंशमूलक उत्पत्ति का ज्ञान 'न होता था तो वे उसे अजीब तरीके से उत्पन्न होने की कथा लिखते हैं। जैसा यह विवरण प्रस्तुत है ।
इतना ही नहीं रूढ़ि वादी अन्ध-विश्वासी ब्राह्मणों ने यूनान वासीयों हूणों,पारसीयों ,पह्लवों ,शकों ,द्रविडो ,सिंहलों तथा पुण्डीरों (पौंड्रों) की उत्पत्ति नन्दनी गाय की यौनि, मूत्र ,गोबर आदि से बता डाली है।👇
यवन,शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व हेयतापूर्ण व्युत्पत्तियाँ अविश्वसनीय हैं ।
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•नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।
•तथा धनों से द्रविड और शकों को।
•यौनि से यूनानीयों को और गोबर से शबर उत्पन्न हुए। कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की सृष्टि ।३७।
ब्राह्मण -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनको विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते । अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇
तैः तैः यवन कांभोजा बर्बराः च अकुली कृताः ॥१-५४-२३॥
इति वाल्मीकि रामायणे आदि काव्ये बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥१-५४॥
•-जब विश्वामित्र का वशिष्ठ की गोै को बलपूर्वक ले जाने के सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण, किरात, शक और यवन आदि जन-जाति उत्पन्न होती हैं । अब इनके इतिहास को यूनान या चीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं।👴
•-उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबल गाय ने पुन: यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई ।20 -21।
यवन,शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व हेयतापूर्ण व्युत्पत्तियाँ अविश्वसनीय हैं ।
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•नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।
•तथा धनों से द्रविड और शकों को।
•यौनि से यूनानीयों को और गोबर से शबर उत्पन्न हुए। कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की सृष्टि ।३७।
पुरोहित -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनको विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते ।
अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇
इति वाल्मीकि रामायणे आदि काव्ये बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥१-५४॥
•-जब विश्वामित्र का वशिष्ठ की गोै को बलपूर्वक ले जाने के सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण, किरात, शक और यवन आदि जन-जाति उत्पन्न होती हैं । अब इनके इतिहास को यूनान या चीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं।
•-उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबल गाय ने पुन: यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई ।।20 -21।।
तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे श्लोक :-23 अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में देखें---कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं और गोबर से शक उत्पन्न हुए।
यौनि देश से यवन, शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए रोम कूपों से म्लेच्छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3।तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे ।23। अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में भी देखें---कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं और गोबर से शक उत्पन्न हुए थे । ऐसी काल्पनिक उत्पत्ति हास्यास्पद
यौनि देश से यवन शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए रोम कूपों म्लेच्छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3।।
यह सर्व विदित है कि बारूद का आविष्कार चीन में हुआ बारूद की खोज के लिए सबसे पहला नाम चीन के एक व्यक्ति ‘वी बोयांग‘ का लिया जाता है। कहते हैं कि सबसे पहले उन्हें ही बारूद बनाने का आईडिया आया.माना जाता है कि चीन के "वी बोयांग" ने अपनी खोज के चलते तीन तत्वों को मिलाया और उसे उसमें से एक जल्दी जलने वाली चीज़ मिली.बाद में इसको ही उन्होंंने ‘बारूद’ का नाम दिया.300 ईसापूर्व में ‘जी हॉन्ग’ ने इस खोज को आगे बढ़ाने का फैसला किया और कोयला, सल्फर और नमक के मिश्रण का प्रयोग बारूद बनाने के लिए किया.
इन तीनों तत्वों में जब उसने पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया तो उसे मिला दुनिया बदल देने वाला ‘गन पाउडर‘ बन गया । बारूद का वर्णन होने से ये मिथक अर्वाचीन हैं ।अब ये काल्पनिक मनगड़न्त कथाऐं किसी का वंश इतिहास हो सकती हैं ।हम एसी नकली ,बेबुनियाद आधार हीन मान्यताओं का शिरे से खण्डन करते हैं ।
पश्चिमीय राजस्थान की भाषा की शैली (डिंगल' भाषा-शैली) का सम्बन्ध चारण बंजारों से था।
जो अब स्वयं को राजपूत कहते हैं।
जैसे जादौन ,भाटी आदि छोटा राठौर और बड़ा राठौर के अन्तर्गत समायोजित बंजारे समुदाय हैं
राजपूतों का जन्म करण कन्या और क्षत्रिय पुरुष के द्वारा हुआ यह ब्रह्मवैवर्त पुराण के दशम् अध्याय में वर्णित है । परन्तु ये मात्र मिथकीय मान्यताऐं हैं जो अतिरञ्जना पूर्ण हैं ।👇
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और करण लिखने का काम करते थे ।ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है । तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति है ।क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं । इसी लिए राजपूत शब्द शास्त्र की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है।
राजपूत संघ बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ। पर चारणों का वृषलत्व कम है ।
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।
चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं । करणी चारणों की कुल देवी है ।
छठी सातवीं ईस्वी में भी अनेक जन-जातीयाँ का भारत में आगमन हुआ। जो या तो ये यहाँ व्यापार करने के लिए आये अथवा इस देश को लूटने के लिए आये। कुछ चले भी गये तो कुछ अन्त में यहीं के होकर यहीं की सरजमीं में रच- बस कर रह गये।
वास्तव में भारतीय प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों के मिथकों के प्राचीनतम होने से उन आगन्तुक मानव जातियों का वर्णन भी नहीं मिलता है । कालान्तर में जब भारतीय संस्कृति में अनेक विजातीय तत्वों का समावेश हुआ तो परिणाम स्वरूप उनकी वंशावली का निर्धारण हुआ ताकि उन्हें किसी प्रकार भारतीयता से सम्बद्ध किया जाये ? अथवा इन वंशों को प्राचीनता का पुट देने के लिए सूर्य और चन्द्र वंश की कल्पना इनके साथ कर दी गयी । जो वास्तविक रूप से हिब्रू संस्कृति के साम और हाम का ही भारतीय रूपान्तरण है क्यों पाश्चात्य हैमेटिक सैमेटिक मिथकों के अनुसार दुनियाँ मेम केवल साम के वंशज हाम के वंशज और याफ्स के वंशज साम और राम भारतीय मिथकों में सोम वंश और सूर्यवंश का रूपान्तरण है। भारतीय धरा पर उभरती नवीन जातियों ने भी राजपूतों के रूप में स्वयं को कभी सूर्यवंश से जोड़ा तो कभी चन्द्रवंश से यद्यपि यादवों को सोमवंश और राम के वंशजो को सूर्यवंश से सम्बन्धित होना तो भारतीय पुराणों में वर्णित ही किया गया है । परन्तु राम का वंश और जीवन चरित्र प्रागैतिहासिकता के गर्त में समाविष्ट है । अत: भले ही जातीय स्वाभिमान के लिए कोई स्वयं को राम से जोड़ ले परन्तु राम का वर्णन अनेक संस्कृतियों में मिथकीय रूप में अल्प भिन्नता के साथ हुआ है।
राम के जीवन " जन्म तथा वंश का कोई कालक्रम भारतीय सन्दर्भ में समीचीन या सम्यक् रूप से उपलब्ध नहीं हैं ।
अनेक पूर्वोत्तर और पश्चिमी देशों की संस्कृति में राम का वर्णन उनकी सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुरूप अवश्य हुआ है ।
मिश्र, थाइलैंड, खेतान, ईरान- ईराक (मेसोपोटामिया) दक्षिणी अमेरिका, इण्डोनेशिया तथा भारत में भी राम कथाओं का विस्तार अनेक रूपों में हुआ है। भले ही भारत में आज कुछ लोग स्वयं को राम का वंशज कह कर सूर्य वंश से जोड़े परन्तु यह सब निराधार ही है। हाँ चन्द्र वंश या कहें सोम वंश जिसके सबसे प्राचीन वंश धारक यादव लोग हैं। भारत में अहीर जाति के रूप में वर्तमान हैं। साम से सोम शब्द का रूपांतरण हुआ जिसे दैवीय रूप देने को लिए सोम ( चन्द्र) बना दिया गया । वे आज भी अहीरों, गोपों और घोष आदि गोपालकों के रूप में अब तक पशुपालन में संलग्न हैं। पौराणिक सन्दर्भों से विशेषत: पद्मपुराण सृष्टि- खण्ड स्कन्दपुराण (नागर-खण्ड ) तथा नान्दीपुराण से प्राप्त जानकारी के अनुसार वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री एक आभीर जाति के परिवार से सम्बन्धित कन्या थी। जिनका अस्तित्व सतयुग में भी था।
टिप्पणी-भू =भूमि + वेञ्--क्त संप्रसारण॰ दीर्घश्च" ऊत+क्विप्=ऊत्= बीज वरन करने वाला- अर्जयति सर्वान् ऋद्धीः स्वपराक्रमेण इति अर्जुन: कथ्यते =जो अपने पराक्रम से सभी ऋद्धियों सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है वह अर्जुन कहा जाता है। वही (सहस्रबाहू) पशुओ का पालक (रक्षक) और भूमि में बीज वपन करने वाला हुआ; वही निश्चित रूप ही खेतों का रक्षक और कृषक था; वह अकेले ही अपने योगबल के माध्यम से वर्षा के लिए बादल बन गया सब कुछ अर्जन करने से अर्जुन बन गया।117.।(पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १२)-इस प्रकार आर्य शब्द भी प्रारम्भिक रूप में कृषि से सम्बन्धित था। जैसा कि वैदिक सन्दर्भों में अब भी है।
आधुनिक राजपूत शब्द एक जाति से अब संघ का वाचक बन गया है। जिसमें अनेक जातियों का समूह है। जबकि क्षत्रिय आज भी एक वर्णव्यवस्था का ही अंग है। पुराणों में राजपूतों का वर्णन होने से ये छठी- सातवीं सदी के तो हैं ही अधिकतर पुराण इस काल तक लिखे जाते रहे हैं। परन्तु पद्मपुराण का सृष्टि खण्ड सबसे प्राचीन है। जिसमें वर्णन है कि अहीर (आभीर) जाति कि कन्या गायत्री का विवाह यज्ञ कार्य हेतु विष्णु भगवान द्वारा पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा से सम्पन्न कराया गया और अन्त में सभी अहीरों को विदाई के समय विष्णु भगवान द्वारा आश्वस्त कर अहीर जाति के यदुवंश में द्वापर युग में अपने अवतरण लेने की बात कहीं गयी। तथा अन्य पुराण देवीभागवत' मार्कण्डेय और हरिवंश पुराण आदि में वरुण प्रेरित ब्रह्मा के आदेश द्वारा कश्यप को वसुदेव गोप के रूप में मथुरा नगरी में जन्म लेने के लिए कहा - देवीभागवत पुराण के द्वादश स्कन्ध में वसुदेव स्वयं पिता कि मृत्यु के पश्चात कृषि और गोपालन से जीविका निर्वहन करते रहे हैं।
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परन्तु आज जो जनजातियाँ पौराणिक सन्दर्भों में वर्णित नहीं हैं । वे स्वयं को कभी सूर्य वंश से जोड़ती हैं तो कभी चन्द्र वंश से और इस प्रकार पतवार विहीन नौका के समान इधर से उधर भटकते हुए किनारों से बहुत दूर ही रहती हैं।
आज ये जनजातियाँ स्वयं को राजपूत मानती हैं। और अहीरों को पशुपालक वैश्औय या शूद्र ये स्वयं को यदुवंश से सम्बन्धित करने के लिए पूरा जोर लगा रहीं हैं । सम्भव है अहीरों से ही इनकी निकासी हुई हो ! परन्तु वे इस बात को मानने के पक्ष में कदापि नहीं हैं। हम आपके संज्ञान में यह तथ्य प्रेषित कर दें कि ययाति के शाप के परिणाम-स्वरूप यादवों में लोकतन्त्र शासन की व्यवस्था का परम्परागत स्थापन हुआ था राजतन्त्र का नहीं ।
इस विषय में हरिवंशपुराण विष्णुपर्व अध्याय ३२। में एक उपाख्यान है।
न चापि राज्यलुब्धेन मया कंसो निपातितः।४८। किं तु लोकहितार्थाय कीर्त्यर्थं च सुतस्तव। व्यङ्गभूतः कुलस्यास्य सानुजो विनिपातितः।४९। अहं स एव गोमध्ये गोपैः सह वनेचरः। प्रीतिमान् विचरिष्यामि कामचारी यथा गजः। 2.32.५०। एतावच्छतशोऽप्येवं सत्येनैतद् ब्रवीमि ते। न मे कार्यं नृपत्वेन विज्ञाप्यं क्रियतामिदम्।५१ । भवान राजास्तु मान्यो मे यदूनामग्रणीः प्रभुः। विजयायाभिषिच्यस्व स्वराज्ये नृपसत्तम ।५२। यदि ते मत्प्रियं कार्यं यदि वा नास्ति ते व्यथा। मया निसृष्टं राज्यं स्वं चिराय प्रतिगृह्यताम् ।५३
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व अध्याय- ३२)
"नरेश्वर ! मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है। न तो मैं राज्य का अभिलाषी हूँ और न राज्य के लोभ से मैंने कंस को मारा ही है। मैंने तो केवल लोकहित के लिये और कीर्ति के लिये भाई सहित तुम्हारे पुत्र को मार गिराया है जो इस कुल का विकृत (सड़ा हुआ) अंग था।
मैं वही वनेचर होकर गोपों के साथ गौओं के बीच प्रसन्नतापूर्वक विचरूंगा, जैसे इच्छानुसार विचरने वाला हाथी वन में स्वच्छन्दक घूमता है मैं सत्य की शपथ खाकर इन बातों को सौ-सौ बार दुहराकर आप से कहता हूं, मुझे राज्य से कोई काम नहीं है, आप इसका विज्ञापन कर दीजिये आप यदुवंशियों के अग्रगण्य स्वामी तथा मेरे लिये भी माननीय हैं, अत: आप ही राजा हो। नृपश्रेष्ठ! अपने राज्यों पर अपना अभिषेक कराइये, आपकी विजय हो यदि आपको मेरा प्रिय कार्य करना हो अथवा आपके मन में मेरी ओर से कोई व्यथा न हो तो मेरे द्वारा लौटाये गये इस राज्य को दीर्घकाल के लिये ग्रहण करें।' ।श्रीमद्भागवतपुराण स्कन्ध १० पूर्वार्धः अध्यायः ४५
यदु वंश में कभी भी कोई पैत्रक या वंशानुगत रूप से राजा नहीं हुआ राजतन्त्र प्रणाली को यादवों ने कभी नही आत्मसात् किया चाहें वह त्रेता युग का सम्राट सहस्रबाहू अर्जुन हो अथवा शशिबिन्दु ये सम्राट अवश्य बने परन्तु लोकतन्त्र प्रणाली से अथवा अपने पौरुषबल से ही बने ।
पिता की विरासत से नही इसी प्रकार वर्ण -व्यवस्था भी यादवों ने कभी नहीं स्वीकार की । अत: राजा सम्बोधन यादवों के लिए कभी नहीं रहा कृष्ण को कब राजा कहा गया ये कोई बताए
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में कई मत प्रचलित हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत संस्कृत के राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है; राजपुत्र शब्द हिन्दू धर्म ग्रंथों में कई स्थानों पर देखने को मिल जायेगा लेकिन वह जातिसूचक के रूप में नही होता अपितु किसी भी राजा के संबोधन सूचक शब्द के रूप में ही होता है । परन्तु अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि पुराणों में कुछ स्थान पर राजपुत्र जातिसूचक शब्द के रूप में आया है जो कि इस प्रकार है-👇
भावार्थ:- क्षत्रिय से करण-कन्या(वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से ) में राजपुत्र उत्पन्न और राजपुत्र की कन्या में करण द्वारा 'आगरी' उत्पन्न हुआ।
राजपुत्र के क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या के गर्भ में उत्पन्न होने का वर्णन (शब्दकल्पद्रुम संस्कृत कोश) में भी आया है- "करणकन्यायां क्षत्त्रियाज्जातश्च इति पुराणम् ॥" अर्थात:- क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या में उत्पन्न संतान राजपूत है। यूरोपीय विश्लेषक एवं संस्कृत भाषा विशेषज्ञ मोनियर विलियमस् ने भी लिखा है कि-
"A rajpoot,the son of a vaisya by an ambashtha or the son of Kshatriya by a karan...
~A Sanskrit English Dictionary:Monier-Williams, page no. 873
वाचस्पत्य में भी पाराशर सहिता का उद्धरण है जो कि इस प्रकार है:-
३- वर्णसङ्करभेदे राजपुत्र “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां
राजपुत्रस्य सम्भवः” इति पराशरः संहिता ।
अर्थात:- वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।
राजपूत सभा के अध्यक्ष श्री गिर्राज सिंह लोटवाड़ा जी के अनुसार राजपूत शब्द रजपूत शब्द से बना है जिसका अर्थ वे मिट्टी का पुत्र बतलाते हैं। थोड़ा अध्ययन करने के बाद ये रजपूत शब्द हमें स्कन्द पुराण के सह्याद्री खण्ड में देखने को मिलता है जो कि इस प्रकार एक वर्णसंकर जाति के अर्थ में है-
-ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः १ (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १० श्लोकः (९९)
भावार्थ:-क्षत्रिय के बीज से राजपुत्र की स्त्री में तीवर उतपन्न हुआ।वह भी व्याभिचार दोष के कारण पतित कहलाया। यदि क्षत्रिय और राजपूत परस्पर पर्यायवाची शब्द होते तो क्षत्रिय पुरुष और राजपूत स्त्री की संतान राजपूत या क्षत्रिय ही होती न कि तीवर या धीवर ! इसके अतिरिक्त शब्दकल्पद्रुम में राजपुत्र को वर्णसंकर जाति लिखा है जबकि क्षत्रिय वर्णसंकर नही हैं।.
Manohar Laxman varadpande(1987). History of Indian theatre: classical theatre. Abhinav Publication. Page number 290
"The word kshatriya is not synonyms with Rajput."अर्थात- क्षत्रिय शब्द राजपूत का पर्यायवाची नहीं है। मराठी इतिहासकार कालकारंजन ने अपनी पुस्तक (प्राचीन- भारताचा इतिहास) के हर्षोत्तर उत्तर भारत नामक विषय के प्रष्ठ संख्या ३३४ में राजपूत और वैदिक क्षत्रिय भिन्न भिन्न बतलाये हैं। वैदिक क्षत्रियों द्वारा पशुपालन करने का उल्लेख धर्म ग्रंथों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है जबकि राजपूत जाति पशुपालन को अत्यंत घृणित दृष्टि से देखती है और पशुपालन के प्रति संकुचित मानसिकता रखती है...
महाभारत में जरासंध पुत्र सहदेव द्वारा गाय भैंस भेड़ बकरी को युधिष्ठिर को भेंट करने का उल्लेख मिलता है;युधिष्ठिर जो कि एक क्षत्रिय थे पशु पालन करते होंगे तभी कोई भेंट में पशु देगा-
~महाभारत सभापर्व(जरासंध वध पर्व)अध्याय: २४श्लोक: ४१-सहदेव ने कहा- प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सवा के लिये आदेश दीजिये। इसके अतिरिक्त कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में क्षत्रिय को भेड़ पालने के लिए कहा गया है।
कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत एक संघ है।
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है-
Brajadulal Chattopadhyay 1994; page number 60- प्रारंभिक मध्ययुगीन साहित्य बताता है कि इस नवगठित राजपूत में कई जातियों के लोग शामिल थे। भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने इस ऐतिहासिक तथ्य का पूर्णतः पता लगा लिया है कि जिस काल में इस जाति का भारत के राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण हुआ था, उस काल में यह एक नवागन्तुक जाति समझती जाती थी। "परन्तु मेरा अपना विचार है कि राजपूत एक जातियों का संघ होते हुए भी भारतीय सरजमीं से उत्पादित हैं जिनके पूर्वज बहुतायत से जाट अहीर और गुर्जर जातियाँ ही हैं और ये भारतीय संस्कृति को सुरक्षित करने में तत्पर रहे हैं । भले ही कुछ लोग मुगलों से समझौता करके राजसत्ता पर आसीन हुए हों"
अहीरों के समान तत्कालीन द्वेषवादी पुरोहितों ने राजपूतों को भी वर्णसंकर और शूद्रधर्मी शास्त्रों लिख दिया ।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व अध्याय (38) में यदु के पाँच पुत्रों का वर्णन है। देखें निम्न श्लोक-
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद★–
विकद्रु द्वारा यदु की संतति का वर्णन तथा मथुरापुरी को जरासंध का आक्रमण सहने के अयोग्य बताना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यदु ने दीर्घकाल के पश्चात उन पांच नागकन्याओं के गर्भ से पांच पराक्रमी एवं कुल का भार वहन करने में समर्थ पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम इस प्रकार हैं- महाबाहु मुचुकुन्द, पद्यवर्ण, माधव, सारस तथा राजा हरित। ये पांचों पुत्र भूतल पर पांचभूतों के समान थे। अतुल पराक्रमी राजा यदु इन्हें देखकर बहुत प्रसन्न होते थे। जब वे वयस्क हुए, तब पांच पर्वतों के समान प्रतीत होने लगे। एक दिन अपने बल और दर्प से प्रोत्साहित होकर वे अपने पिता के सामने खड़े होकर इस प्रकार बोले- ‘तात! अब हम बड़ी अवस्था के हो गये, महान बल में हमारी स्थिति है (हम महान बलवान हैं); अत: शीघ्र आपकी आज्ञा चाहते हैं, बताइये, आपके आदेश से हम कौनसा कार्य करें? नरेशों में सिंह के समान पराक्रमी यदु ने सिंहों की सदृश वेगशाली अपने उन पुत्रों से उनके बल-पराक्रम को जानने की उत्सुक्ता से अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘मेरा पुत्र मुचुकुन्द विन्य और ऋक्षवान पर्वतों के निकट पर्वतीय भूमि का ही आश्रय ले यत्नपूर्वक दो पुरियां बसाये।मेरा बेटा पद्यवर्ण भी दक्षिण दिशा का आश्रय ले सह्य पर्वत के शिखर पर शीघ्र एक नगर बसाये। वहीं पश्चिम दिशा की ओर चम्पा के वृक्षों से सुशोभित मनोरम प्रदेश में बेटा सारस एक रमणीय राजधानी की स्थापना करे। मेरा पुत्र यह महाबाहु माधव ज्येष्ठ तथा धर्मज्ञ है, वह युवराज होकर अपने इसी नगर का (जो रैवत के समीप है) का पालन करेगा।' उन सबको राजलक्ष्मी प्राप्त हुई। सबका विभिन्न राज्यों पर अभिषेक हुआ तथा सभी छत्र-चामर आदि राजोचित चिह्नों से अलंकृत हुए। तत्पश्चात पिता की आज्ञा पाकर लोकपालों के समान वे चारों नृपश्रेष्ठ राजकुमार अपने-अपने घर में गये।फिर उन्होंने क्रमश: सुरम्य राजधानी बनाने के लिये स्थान की खोज प्रारम्भ की। राजर्षि मुचुकुन्द ने विन्य पर्वत के मध्यवर्ती स्थान को पसंद किया। उन्होंने विषम प्रस्तर खण्डों से भरे हुए दुर्गम नर्मदा तट पर अपना स्थान बनाया। उन्होंने उस स्थान का शोधन किया और उसे एकान्तर एवं पवित्र बनाया। समसेतु का निर्माण किया और अथाह जल से भरी हुई खाइयां खुदवाईं। नगर के विभिन्न भागों में बहुत-से देव मन्दिर भी स्थापित किये। सड़कें, गलियां, जन साधारण के मार्ग तथा चौराहे बनवाये और वन भी लगवाये। उन नृपश्रेष्ठ मुचुकुन्द ने उस पुरी को थोड़े ही दिनों में धन-धान्य से सम्पन्न करके इन्द्रपुरी के समान प्रकाशित एवं सुशोभित कर दिया।१-१७।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 38 श्लोक 18-31
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद
देवताओं के समान श्रेष्ठ पराक्रमी नृपवर मुचुकन्द ने उस पुरी का अपने ही तेज से निर्मित शुभ सुन्दर नाम रखा- विन्य-गिरि के शिखर पर बसी हुई यह नगरी महान अश्मसंघात (प्रस्तर समूह) से युक्त है, इसलिये संसार में ‘माहिष्मतिपुरी’ के नाम से विख्यात होगी। राजा मुचुकुन्द ने उत्तम शोभा सम्पत्ति से सम्पन्न उस महापुरी को दोनों विन्य पर्वतों के बीच में बसाया था। तत्पश्चात उन धर्मात्मा नरेश ने एक ‘पुरिका’ नाम वाली पुरी बसायी, जो देवपुरी के समान प्रकाशित होती थी। उसके भीतर सैकड़ों उद्यान बने थे तथा वैभवपूर्ण हाट-बाजार और चौराहे भी उसकी शोभा बढ़ाते थे। ऋक्षवान पर्वत के समीप, रोग-शोक से रहित नर्मदा तट पर राजा ने पुरिका नामक पुरी का निर्माण कराया था। धर्म में स्थित हुए वे धर्मात्मा नरेश देवताओं के उपभोग में आने वाली स्वर्गीय पुरियों के समान उन दो सुन्दर नगरों का निर्माण करके उनका पालन करने लगे।
राजर्षि पद्मवर्ण ने भी सह्यपर्वत के पृष्ठ भाग में वृक्षों और लताओं से व्याप्त वेणा नदी के तट पर एक उत्तम नगर का निर्माण कराया अपनी राज्यभूमि का विस्तार दूसरों की अपेक्षा छोटा जानकर उन्होंने अपने सम्पूर्ण राष्ट्र को ही एक नगर के रूप में बसाया और उसे सब ओर से एक विशाल चहार दिवारी के द्वारा घेर दिया। उस उत्तम राष्ट्र में परकोटे की ही प्रधानता थी। उनका राज्य पद्मावत जनपद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनकी राजधानी का नाम करवीरपुर हुआ। पद्मवर्ण ने शिल्प शास्त्र के नियमों के अनुसार उस नगर का निर्माण कराया था। राजा सारस ने भी क्रौञ्चपुर नामक महान एवं रमणीय नगर का निर्माण कराया, जिसमें चम्पा और अशोक-वृक्षों की बहुलता थी।उसका विस्तार बड़ा था और वहाँ तांबे का कारोबार होता था, जिससे लोगों की जीविका चलती थी उस नगर का महान समृद्धिशाली एवं शोभायमान जनपद ‘वनवासी’ नाम से विख्यात हुआ। वहाँ सभी ॠतुओं में फूलने-फलने वाले वृक्ष सब ओर हरे-भरे दिखाई देते थे। हरित भी रत्न राशि से पूर्ण उस समुद्र-सम्बन्धी द्वीप का पालन करने लगे, जो नारीजनों के लिये मनोहर था (अथवा नारियों के कारण मनोहर प्रतीत होता था)। राजा हरित के द्वारा नियुक्त हुए धीवर, जो वहाँ ‘मद्गुर’ नाम से प्रसिद्ध थे, जल में डूबकर समुद्र के भीतर विचरने वाले शंखों का पकड़ लाते थे। उनके दूसरे-दूसरे मल्लाह सदा सावधान रहकर जल के भीतर होने वाले मूंगों तथा चमकीले मोतियों का संग्रह करते थे।।१८-३१।।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद-
हरित के कार्य-कर्ता निषाद बड़ी-बड़ी नौकाओं को साथ लिये छोटी नौकाओं द्वारा समुद्र में जाते और जल में उत्पन्न होने वाले रत्नों की खोज करते थे। (छोटी नावों से दूर-दूर तक जाकर वे रत्नों को संचय करते और एक जगह खड़ी हुई बड़ी नौका में रखते थे) उस रत्नद्वीप में निवास करने वाले वे मल्लाह जाति के लोग सब प्रकार के रत्नों का संग्रह करते और मछली मांस से जीवन-निर्वाह करते थे। नौकाओं में समुद्र से निकाले गये, जो द्रव्य संचित होते, उनके द्वारा दूर देशों की यात्रा करने वाले व्यवसायी वैश्य व्यापार करते और प्राप्त हुए धन से एकमात्र राजा हरित को ही तृप्त करते थे, जैसे यक्ष केवल कुबेर को ही अपने उपार्जित धन से संतुष्ट किया करते हैं। इस प्रकार यह यदुवंश इक्ष्वाकु वंश से निकला है। फिर यदु के चार छोटे पुत्रों द्वारा यह चार अन्य शाखाओं में विभक्त हुआ है। वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये। माधव का पराक्रमी पुत्र सत्त्व नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्वसत राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे। सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये। सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है।जब राजा भीम आनर्त देश के राज्य पर प्रतिष्ठित थे,
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उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्ड के राज्य का शासन करते थे। उनके राज्यकाल में शत्रुघ्न ने मधुपुत्र लवण को मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला। उसी मधुवन के स्थान में सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले प्रभावशाली शत्रुघ्न ने इस मथुरापुरी को बसाया था। जब श्रीराम के अवतार का उपसंहार हुआ और श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न सभी परमधाम को पधारे, तब भीम ने इस वैष्णव स्थान (मथुरा) को प्राप्त किया; क्योंकि (लवण के) मारे जाने पर अब उस राज्य, से उन्हीं का लगाव रह गया था। (वे ही उत्तराधिकारी होने योग्य थे) भीम ने इस पुरी को अपने वश में किया और वे स्वयं भी यहीं आकर रहने लगे। तदनन्तर जब अयोध्या के राज्य पर कुश प्रतिष्ठित हुए और लव युवराज बन गये, तब मथुरा में भीम के पुत्र अन्धक राज्य करने लगे। अन्धक के पुत्र राजा रेवत हुए इस प्रकार उनसे रैवत (ऋक्ष) की उत्पत्ति हुई। उस समय समुद्र के तट की भूमि पर जो विशाल भूधर था, वह उसी रैवत के नाम पर रैवत पर्वत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।। ३२-४५।।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे। केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं। तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं। उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष। ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।
श्रीकृष्ण! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया। जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं। वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी। कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।
श्रीकृष्ण ! यह मैंने तुमसे अपने यादव वंश की उत्पत्ति बतायी है। इसे मैंने पहले श्रीकृष्णद्वैयापन व्यास जी से सुना था। वंशधारियों में श्रेष्ठ गोविन्द ! इस समय यह वंश नष्ट-सा हो चला था। परंतु तुम स्वयम्भू ब्रह्मा जी के समान इस वंश के उद्भव तथा हमारी विजय के लिये इसमें अवतीर्ण हुए हो। हम लोग तुम्हें साधारण पुरवासी बताकर छिपाने में असमर्थ हैं; क्योंकि तुम देवताओं के गुप्त रहस्यों से भी परिचित, सर्वज्ञ तथा सबको उत्पन्न करने वाले हो। प्रभो! तुम राजा जरासंध से युद्ध करने में समर्थ हो। हम सब लोग योद्धाओं के व्रत में स्थिर रहकर सदा तुम्हारी बुद्धि के वशीभूत रहेंगे। परंतु राजा जरासंध बड़ा बलवान है। वह राजाओं के सिर पर खड़ा है। उसके पास असंख्य सेना है और इधर हम लोगों के पास युद्ध की साधन-सामग्री बहुत थोड़ी है।यह मथुरापुरी शत्रुओं द्वारा किये गये एक दिन के उपरोध (घेरे) को भी नहीं सह सकेगी; क्योंकि यहाँ खाने-पीने की सामग्री बहुत कम है। लकड़ियों का संचय भी स्वल्प ही है तथा यह पुरी विभिन्न प्रकार के दुर्गों से घिरी हुई नहीं है। इसके चारों ओर जो जल भरने के लिये खाइयां बनी हुई हैं, उनकी बहुत दिनों से मरम्मत और सफाई नहीं हुई है तथा नगर के द्वार पर रक्षा के लिये यन्त्र (तोप आदि) भी नहीं लगे हुए हैं। पुरी की रक्षा के लिये चारों ओर से मिट्टी की मोटी दीवारें तथा कई पक्के परकोटे बनवाने की आवश्यकता है, जिनका विस्तार बहुत बड़ा हो। हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 59-66 का हिन्दी अनुवाद:-
नगर के जितने आयुधागार हैं, उन सबका संस्कार (मरम्मत और सफाई) होना चाहिये। जगह-जगह ईंटों के ढेर जुटा लेने की आवश्यकता है। कंस की सेना के उपयोग में आने के कारण इस नगर की रक्षा के लिये लोगों ने पहले से कोई व्यवस्था नहीं रखी है। अभी हाल में कंस मारा गया है, अत: हमारे राज्य का अभी नवोदय (प्रभात) काल है। जैसे राजा के सिपाही कर वसूल करने के लिये गांव को घेर लेते हैं, उसी तरह यदि इस पुरी का भी अवरोध हुआ तो यह उसे सहन न कर सकेगी हमारी सेना अनेक युद्धों का सामना करने के कारण हताश हो गयी है।
शत्रु इसे बार-बार पीड़ा देकर क्षीण कर रहा है, अत: यह राष्ट्र यहाँ के निवासियों के साथ ही नष्ट हो जायगा। इसमें संदेह नहीं है। हम लोगों ने राज्य-प्राप्ति की इच्छा रखकर यादवों का विरोध करने के कारण जिन-जिन लोगों को पराजित किया है, वे सब लोग हममें फूट डालना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में उचित हो सो करो। राजा जरासंध के कारण दूसरे-दूसरे राजा भी हमें धोखा देंगे; क्योंकि वे जरासंध के भय से पीड़ित हैं और अपने राज्य में कोई विप्लव न मच जाय, इस के डर से सब-के-सब उसके पीछे दौड़ते हैं।केशव! यदि इस नगर के सब लोग शत्रुओं के घेरा डालने से अवरुद्ध हो जायेंगे तो ये पीड़ित होकर हमारे लिये यही कहेंगे कि हम यादवों के विरोध से नष्ट हो गये। श्रीकृष्ण! यह मेरा मत है, जिसे तुम पर विश्वास होने के कारण मैंने प्रकट किया है। तुम्हें इस बात की पहले-पहल सूचना दी गयी है। तुम्हें समझाने का प्रयत्न नहीं किया गया है। श्रीकृष्ण! इस परिस्थिति में जो उचित हो, वह करो। तुम इस यादव-सेना के नेता हो और हम तुम्हारे शासन में स्थित हैं। इस विरोध के मूल कारण तुम्हीं हो, इसलिये तुम अपने साथ ही हम लोगों की रक्षा करो।
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इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अंतर्गत विष्णु पर्व में विकद्रु का वाक्यविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
गर्गसंहिता में भी अहीरों या गोपों को यादव ही कहा है । जैसे
अन्वयार्थ ● हे राजन्- (नृपेश्वर)जो -(ये) मनुष्य- (मनुजा) कलियुग में -(कलौयुगे ) वहाँ जाकर- ( गत्वा) उन द्वारकेश को- (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं- (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं- (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।
हे राजन्- जो मनुष्य-कलियुग में वहाँ उन द्वारकेश को कृष्ण को देखते हैं- वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं-।40।।
ने भी अहीरों को यादव और गोप कहा जैसा कि राधा जी के सन्दर्भ में वर्णन है ⬇ आभीरसुतां (सुभ्रुवां ) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी अस्या:शख्यश्चललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।83।
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अर्थ:- अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ; जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ हैं |83||
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गर्ग संहिता का रचना पुष्यमित्र सुँग के समकालीन है क्योंकि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड के त्रयोदश अध्याय में पतञ्जलि का वर्णन है।
शिशुपाल उद्धव से कहता है कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ;उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
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गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु माता' द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है ! ऐसा वर्णन है
यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे। गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः।१६।।
इति श्रीमद्गर्गसंहितायां श्रीद्वारकाखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे शंखोद्धारमाहात्म्यं नाम द्वादशोऽध्यायः ।। १२ ।।
रूप गोस्वामी ने अपने मित्र "श्री सनातन गोस्वामी" के आग्रह पर ही कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का पुराणों से संग्रह किया था"श्रीश्री राधा कृष्णगणोद्देश्यदीपिका" के नाम से परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा जिसमें परवर्ती रूढ़िवादी यदु -द्वेषक पुरोहितों की मान्यता को भी सन्दर्भित करते हुए इस पुरोहित वर्ग के गोपालन वृत्ति के विषय में परवर्ती दृष्टिकोण का समर्थन को बल देते हुए स्मृतियों की मान्यता को ही पुष्ट किया है।
यद्यपि यह रूप स्वामी का अपना कोई मौलिक मत नहीं था परन्तु देव संस्कृति के इन्द्र उपासक पुरोहतों का ही मत था ।
जिसमें गोपों को पूर्व दुराग्रह वश वैश्य और शूद्र वर्ण में घसीटने की निरर्थक चेष्टा की है; परन्तु माना यादव ही है जैसे 👇________________________________
ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: । पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
भाषानुवाद–वे सब व्रजवासी जन ही जो कृष्ण के परिवारी जन हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल (गोपाल), विप्र, तथा बहिष्ठ (बाहर रहने वाले शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।
विप्र का अर्थ गोंड-आभीर ब्राह्मण ही समझना चाहिए। ज्वाला प्रसाद मिश्र ने जाति भास्कर ग्रन्थ में अहीरों को गोड ब्राह्मण ही लिखा है। श्री श्री राधाकृष्णगणोद्देश्यदीपिका" में आगे सातवें श्लोक में रूप स्वामी जी लिखते हैं ।
भाषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से ही हुई है ।
( इसी वणिकों में समाहित बरसाने के बारहसैनी बनिया भी अक्रूर यादव के वंशज हैं जो वस्तुत: वैश्यों की बारहवीं श्रेणि है। फिलहाल अहीरों और बनियों का कोई तालमेल नहीं है।
तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।। सैंतालीसवें परिच्छेद में २०१ पृष्ठ पर अलबरूनी तहकीक ए हिन्द पुस्तक में लिखता है ।
कृष्ण के विषय में " तब उस समय के राजा कंस की बहिन के गर्भ से वसुदेव के यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ वह वसुदेव एक पशुपालने वाला नीच शूद्र जट्ट परिवार था ।
कंस ने अपनी बहिन के विवाह के समय एक आकाशवाणी को सुना था । कि मेरी मृत्यु इसके पुत्र के हाथ से होगी इसलिए उसने आदमी तैनात कर दिये थे ताकि जिस समय उसके कोई सन्तान हो वे उसी समय उसको उठाकर कंस के पास ले आये और वह उसके सभी बच्चों को -क्या लड़के और क्या लड़की - मार डालता था । अन्त में वसुदेव के घर एक बलभद्र उत्पन्न हुआ और नन्द ग्वाले की स्त्री यशोदा उठाकर बालक को अपने घर ले गयी वहाँ उसने उस बालक को कंस के गुप्तचरों से छुपा लिया उसके बाद वसुदेव की पत्नी आठवीं बार गर्भवती हुई और भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के आठवें दिन बरसाती रात को जब चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में चढ़ रहा था ।
वसुदेव के पुत्र वासुदेव को जन्म दिया " (उद्धृत अंश अलबरूनी "तहकीके-हिन्द" २७वाँ परिच्छेद पृष्ठ २०१).
यहाँ यह बात स्पष्ट हुई कि वसुदेव और नन्द दोनों पशुपालक गोप थे । दूसरी बात यह भी स्पष्ट हुई कि जाटों और जट्टों का सम्बन्ध गोप( आभीर) समाज से भी है ।
भाषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है । और ये आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।
विदित हो की पर्जन्य की माता गुणवती वैश्य वर्ण से सम्बद्ध थी जैसा कि (भागवतपुराण के दशम स्कन्द में वर्णन है
जिसका भाष्य श्रीधर ने अपनी श्रीधरीटीका में किया है
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " श्लोकांश की व्याख्या पर श्रीधरीटीका का भाष्य पृष्ठ संख्या 910) पर स्पष्ट किया गया है।"भ्रातरं वैश्य कन्यां शूरवैमात्रेय भ्रातुर् जात्वात् अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति :
गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं परं च ते यादवा एव " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणात् इति स्कान्दे इति ।
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ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबंधुमनामयम्वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ।२९।
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक (नरेन्द्र सैन) आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी ।।।
इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ।
उस के शरीर सौन्दर्य से चकित इन्द्र देखा कि यही कन्या ब्रह्मा जी की यज्ञ सहचारिणी होनी चाहिए ।
और आगे इसी अध्याय में श्लोक संख्या १५६ व १५८ पर गायत्री को गोप कन्या कहा है ।
👇
गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।।१५६।।
गोप कन्या ने कहा वीर मैं यहाँ गोरस बेचने के लिए उपस्थित हूँ यह नवनीत है यह शुद्ध दुग्ध मण्ड से रहित है ।१५६।।निम्न श्लोक में वर्णन है कि विशाल नेत्र वाली गौर वर्ण महान तेज वाली गोप कन्या गायत्री है ।
आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम् ।१६५।निम्न श्लोक में भी देखें ।
एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।।उस गोप कन्या को देख कर जो गौर वर्ण और महान तेज वाली थी वह गोप कन्या अपने पिता की आज्ञा के पराधीन होने से भी चिन्तित थी जब तक वह गोप कन्याअपने पिता से आज्ञा नही लेती है किसी की सहचारिणी नहीं बन सकती है
तब ब्रह्मा ने हरि ( इन्द्र) को कहा की यज्ञ के लिए शीघ्र कहो ।।१८४।
तब इन्द्र नरेन्द्र सेन अहीर के पास उनकी पुत्री कोब्रह्मा के लिए माँगने जाता है।
गायत्री जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं । परन्तु पुराणों गायत्री को आभीर कन्या ही लिखा है ।
गूजर और अहीर दोनों ही गोप हैं यदुवंश से भी उत्पन्न हैं । परन्तु आज गूजर एक संघ ही है जिसमें अनेक जातियों का समावेश है ।
गोपों के विषय में जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या 368 पर वर्णित है।👇
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम- अथवा पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं। आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः का समानार्थक: जैसे १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ।
(2।9।57।2।5)(अमरकोशः)
हरिवंश पुराण में यदुवंश के विषय में यदु को अपनी पुत्रीयाँ को पत्नी रूप में देने वाले नागराज धूम्रवर्ण 'ने भविष्य वाणी करते हुए कहा कि यदु तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇
जैसे १-कुक्कुर, २-भोज, ३-अन्धक, ४-यादव ,५-दाशार्ह ,६-भैम और ७-वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे । अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे क्या यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
क्योंकि ये भी यदु के वंश में जन्में थे ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से यहाँ आ गया सरे आम बकवास है ये तो !
आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।
राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
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परन्तु भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय तैईस के श्लोक संख्या १९ से ३१ तक यदु के पुत्रों का वर्णन भिन्न नामों से और संख्या में भी भिन्न है
जिसमें यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित थे ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु थे
सहस्रजित केे पुुुुुत्र शतजित थे जिनके तीन पुत्र महाहय, वेणुहय और हैहय हुए ।
दुष्यन्त: स पुनर्भेजे स्वंवंशं राज्यकामुक: ।ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८ ॥
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ १९ ॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता२० ॥
चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ॥ २१ ॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्र: कुन्ते: पिता तत: ।सोहञ्जिरभवत् कुन्तेर्महिष्मान् भद्रसेनक:२२।
दुर्मदो भद्रसेनस्य धनक: कृतवीर्यसू: । कृताग्नि: कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजा: ॥ २३ अर्जुन: कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत् ।दत्तात्रेयाद्धरेरंशात् प्राप्तयोगमहागुण: ॥ २४ ॥
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवा: ।यज्ञदानतपोयोगै: श्रुतवीर्यदयादिभि: ॥ २५ ॥
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टो: पुत्रो वृजिनवांस्तत: ।३०।।
स्वाहितोऽतो विषद्गुर्वै तस्य चित्ररथस्तत: ॥
शशबिन्दुर्महायोगी महाभागो महानभूत् ।३१।।
हरिवंश पुराण में आगे वर्णन है कि सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । इनके वंशज भैम कहलाये जब राजा भीम आनर्त देश (गुजरात) पर राज्य करते थे और तब उस समय अयोध्या में राम का शासन था ।अब प्रश्न यह भी उदित होता है कि यदु के पुत्र अत: आभीर ही ययाति पुत्र यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु की सन्तानें कहाँ गये ?
वास्तव में वे आभीर नाम से ही इतिहास में वर्णन किए गये।ये ही यदु की शुद्धत्तम सन्तानें हैं ।
आभीर आज तक गोपालन वृत्ति और कृषि वृत्ति से जीवन यापन कर रहे हैं ।
कृष्ण और बलराम कृषि संस्कृति के सूत्रधार और प्रवर्तक थे । चरावाहों से ही कृषि संस्कृति का विकास हुआ ये ही गोप गोपालन वृत्ति से और आभीर वीरता अथवा निर्भीकता प्रवृत्ति से और यादव वंश मूलक रूप से हुए (यदोर्गोत्रो८पत्यम् ) से यदु में सन्तान वाचक 'अण्' प्रत्यय करने पर यादव बना ,ये मानव जाति यादव कहलायी .
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते। स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।
•–गोप के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।गिरि गोवर्धनो नाम मधुपुरायास्त्वदूरत:।।३६।।
•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात होगोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेगा जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।
•-जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।अदिति और सुरभि नाम की उनकी दौनों पत्नीयाँ होंगी ।३७।
देवकी रोहिणी च इमे वसुदेवस्य धीमत: ।सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।३८।
•–बुद्धिमान वसुदेव की देवकी और रोहिणी दो भार्याऐं होंगी ।उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।
तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृत लक्षण:।वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।
•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये । जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बड़ कर विराट् हो गये थे ।३९।
•–कमल नयन !आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावत:। मज्जतोयमुनायां च रतिंप्राप्स्यन्ति के त्वयि ४६।
•–जब आप वन गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे ,तथा यमुना जी के जल में होते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।।यस्त्वया तात इत्युक्त: स पुत्र इति वक्ष्यति।४७।।
•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा तात कहकविष्णोर पुकारे जाने परआप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथा: कश्यपादृते।
का चधारयितुंशक्तात्वां विष्णो अदितिं विना।४८।
•– विष्णो! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ?देवी अदिति अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।
-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।
"वैश्म्पायन उवाच"
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।जगामविष्णु:स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम्।५०।
•-वैशम्पायन बोले – जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरो:सुदुर्गमा।त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।
•– वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
•– उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।
इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवशंपर्वणि "पितामहवाक्ये" पञ्चपञ्चाशत्तमो८ध्याय:।।५५।
(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
•-कुछ देवगण हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन की भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्र की (लाँग) भी खोल डाली। कुछ लोग अत्यंत व्याकुल हो युद्धस्थल में राजा कंस के सम्मुख खड़े होने तक काका साहस न कर सके।५४।
उसी महान योद्धा को गोपाल कृष्ण ने कम प्रयास में ही मार डला-
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च गंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥२२॥
अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।
इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं। इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः॥ १८॥
बलराम के गुणों का वर्णन करते हुए
विष्णु पुराण ,हरिवंश पुराण और ब्रह्मपुराण में समान श्लोकों के द्वारा गोपालों के द्वारा ही डूबे हुए यदुवंश के जहाज का उद्धार करने का वर्णन बलराम को लक्ष्य करके हुआ है ।
अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थावलोकिभिः ।गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्युद्धरिष्यति ॥३७॥
श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे बालचरितेकंसवधकथनं नाम त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥
गोपाल शब्द "यादवों" का गोपालन वृत्ति ( व्यवसाय) मूलक विशेषण है ।
यह वंश मूलक विशेषण नहीं है वंश मूलक विशेषण तो केवल यादव ही है ।
ये गोपाल अथवा गोप प्राचीन एशिया में वीर और निर्भीक होने से आभीर अथवा अभीर या अभीरु:भी कहे गये परन्तु इस आभीर का उद्भव वीर अथवा आर्य शब्द से हुआ जो कृषक और यौद्धा का वाचक है ।
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निम्नलिखित श्लोक गोपालों इसी वीरता मूलक प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करता है ।
"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: आख्यास्यते राम इति।। बलाधिक्याद् बलं विदु:। यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२।।
विशेष :- वश् =( कान्तौ चमकने में) धातु
लट्लकार के रूप निम्नलिखित हैं
(प्रथमपुरुषः वष्टि उष्टः उशन्ति)
(मध्यमपुरुषः वक्षि उष्टः उष्ट)
(उत्तमपुरुषः वश्मि उश्वः उश्मः)
और कृष् =विलेखने ( खींचने में )
अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है।
इस लिए इसका नाम रौहिणेय होगा यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा।
इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है।।
'परन्तु यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२।
( यह सम्पूर्ण उपर्युक्त संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अंश प्रक्षिप्त है और गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण का यह अनुवाद भी गलत है।
क्यों सङ्कर्षण शब्द की व्युत्पत्ति :-
सम् उपसर्ग में कृष् धातु में ल्युट्(अन) तद्धित करने पर होता है ।जिसका अर्थ है सम्यक् रूप से कर्षण ( जुताई करने वाला )
आपको पता ही है कि बलराम का शस्त्र जुताई का यन्त्र हल ही था और "हलधर नाम प्रसिद्ध ही है। । वस्तुतः कृष्ण और संकृष्ण ( संकर्षण) दौनों ही गोप या चरावाहे थे। और कृषि का विकास भी चरावाहों ने किया ।
सङ्कर्षणात्तु गर्भस्य स तु सङ्कर्षणो युवा ।भविष्यत्यग्रजो भ्राता मम शीतांशुदर्शनः।३२।
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भागवत पुराण में "संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति काल्पनिक व मनगड़न्त रूप से जोड़ी गयी ताकि यादव और गोपों को अलग दर्शाया जा सके दूसरा प्रक्षेपों का निराकरण नीचें देखें 👇
भागवतपुराणकार की बातें इस आधार पर भी संगत नहीं हैं ।
यहाँ देखिए -- 💥
"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:। मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि । ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३।
श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५
वाँ अध्याय:-
अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए ! "क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
अब ---मैं पूछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है।
ऋग्वेद में यदु और तुर्वशु का वर्णन है।त्वमाविथ नर्यं तुर्वशं यदुं त्वं तुर्वीतिं वय्यं शतक्रतो ।
-हे (शतक्रतो) इन्द्र ! (त्वम्) आप (नर्य्यम्) मनुष्यों को आविथ रक्षा करो (तुर्वशम्) (यदुम्) दौनों को और तुर्व- ई- इति तुम हिंसा करों इस (वय्यम्) ज्ञानवान् मनुष्य की रक्षा और (त्वम्) आप (कृत्व्ये) करने योग्य नें (धने) धन में (एतशम्) वेगादि गुणवाले (रथम्) रथ को (आविथ) रक्षा करो और (त्वम्) आप दुष्टों के (नव) नौ संख्या युक्त (नवतिम्) नव्वे अर्थात् निन्नाणवे (पुरः) नगरों को (दम्भयः) नष्ट करते हो, ॥ ६ ॥
यादव सदियों से गोप थे।स्वयं उनके पूर्वज भी गोचारण करते थे।
उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥ (ऋग्वेद १०/६२/१०)
अनुवाद- और दान और रक्षा करने वाले वे दोनों , कल्याण दृष्टि वाले ,गायों से घिरे हुए, हर प्रकार से गायों की परिचर्या करने के लिए यदु और तुर्वसु की हम सब प्रशंसा करते हैं ।१०।
भावार्थ:-
ऋग्वेद ऋचाओं का वेद है जिसमें ईश्वरीय सत्ताओं का विभिन्न प्राकृतिक और दैवीय रूपों में स्तवन किया गया है। यह एक प्रकार से मुक्तक काव्य की शैली है ।
इसमें ऐतिहासिक पात्रों का वर्णन भी कहीं भी प्रबन्धात्मक शैली में नहीं है ।
इस लिए उपर्युक्त सूक्त में सायण द्वारा जो नौवीं (ninth ) ऋचा के सावर्णि मनु का अन्वय( सम्बन्ध) दसवीं ऋचा से को यदु और तुर्वसु सम्बन्धित करके किया गया है; वह भी अर्थ की खींच-तान ही करना है।
कोई भी (व्यक्ति ) अपने कर्म के द्वारा आरम्भ करने के लिए उन सावर्णि मनु को व्याप्त नहीं करता है। अर्थात् जिस प्रकार मनु धन प्रदान करते हैं उस प्रकार धन देने में कोई अन्य समर्थ नहीं होता वह किस प्रकार स्थित है ? वह द्युलोक को ऊँचे भाग में किसी को भी द्वारा पराजित न होने वाले सूर्य के समान स्थित हैं उन सावर्णि मनु की वह गायों आदि की दक्षिणा वहती हुई नदी के समान पृथ्वी पर फैली है ।
और दानी और त्राता वे दोनों चारो और से व्याप्त सौभाग्य शाली स्मयन दृष्टि से देखने वाले सौभाग्य शाली । गायों से घिरे हुए जो यदु और तुर्वसु हैं-(वैदिक 'मामहे' का लौकिक रूप 'महामहे') -हम उनकी स्तुति अथवा पूजा करते हैं ।१०।
It is the hypothetical sourceof/evidence for its existence is provided by:
६-“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय ( परिविष-का अर्थ सायण ने भोजन किया है जबकि विष्- धातु के अन्य प्रसिद्ध अर्थ भी धातु पाठ मैं हैं-
७-"ममहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् जबकि 'मामहे' क्रिया पद मूल ऋचा नें है जो लौकिक संस्कृत को मह-पूजायाम्-धातु से निष्पन्न आत्मनेपदी उत्तम परुष बहुवचन के 'महामहे'' का वैदिक रूप ''मामहे ही है। अत: कहीं कहीं ऋग्वेद या भाष्य सायण द्वारा सम्यक् और अपेक्षित नहीं हुआ है।
और भी कल्याण कारी कार्यों का आदेश देने वाले बहुत सी गायों से युक्त दास के समान (राजर्षि (राजर्षि मनु के) द्वारा अधिकृत (अधीन) यदु और तुर्वसु नामक दोनों इन सावर्णि मनु के लिए भोजन देते हैं।ऋग्वेद १०/६२/१०
उपर्युक्त ऋचा में सायण का भाष्य अन्तर्विरोध प्रकट करता है । दासा शब्द "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास या अर्थ दानी और रक्षक ( त्राता) है ।
सायण ने अन्यत्र इसी दास का अर्थ उसी काल क्रम में दास कि अर्थ उपक्षयितुर– विनाशक किया है -
"य ऋक्षादंहसो मुचद्यो वार्यात्सप्त सिन्धुषु ।वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनमः ॥२७॥ ऋग्वेद ८/२४/२७ दास कि अर्थ "दासस्य= उपक्षपयितुरसुरस्य “ के रूप में उपक्षय= (नाश ) करने वाले असुर से किया है ।
यह भी सत्य नहीं कि असुर कि वैदिक अर्थ विनाशक अथवा नकारात्मक हो ।
(वैदिक निघण्टु में असुर:= १-सोम।२-वरुण।३-मेघ।४-दात्रारिव्याप्त्यम्।५प्रज्ञावान्।६-बलवान्-प्राणवान्। ७-ऋत्विज। अर्थ हैं ।)
तेषु वर्तमानानां आभीराणां ( गंगा के किनारे अहीरों की वस्ती)“ (परन्तु सायण ने घोष या नया अर्थ स्त्रोता कर दिया है) – स्तोतॄणाम् आर्यात् धनादिकं प्रेरयेत् ।' ऋ गतिप्रापणयोः '। आशीर्लिङि ‘गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः' (पा. सू. ७. ४. २९) इति गुणः । ‘बहुलं छन्दसि' इति लिङयप्याडागमः । अथ प्रत्यक्षः। हे "तुविनृम्ण बहुधनेन्द्र ("दासस्य उपक्षपयितुरसुरस्य )
“वधः हननसाधनमायुधं “नीनमः नमय ॥
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सम्यग्भाष्य-
( १-“उत = अत्यर्थेच अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं।
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।
यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों ते सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।
५-स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।
६-“परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।
७- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।
आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैं महामहे का ही(वेैदिक रूप "मामहे" है।)
आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् "
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः महते महेते महन्ते
मध्यमपुरुषः महसे महेथे महध्वे
उत्तमपुरुषः महे महावहे महामहे
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को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। मन्मा॑नि चित्रा अपिवा॒तय॑न्त ए॒षां भू॑त॒ नवे॑दा म ऋ॒ताना॑म्॥(ऋग्वेद-१.१६५.१३)
हे (मरुतः) ! (अत्र) इस स्थान में (वः) तुम लोगों को (कः) कौन (नु) शीघ्र (मामहे) वयं स्तुमहे हम स्तुति करते हैं। हे (सखायः) मित्रो ! तुम (सखीन्) अपने मित्रों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, यातन) प्राप्त होओ। हे (चित्राः) चेतनावानों (मन्मानि) मानों में (अपिवातयन्तः) शीघ्र पहुँचाते हुए तुम (मे) मेरे (एषाम्) इन (ऋतानाम्) सत्य व्यवहारों के बीच (नवेदाः) नवेद अर्थात् जिनमें दुःख नहीं है ऐसे (भूत) हूआ ॥ १३ ॥
दास्(भ्वादिः)
परस्मैपदी
लट्(वर्तमान)
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः दासति दासतः दासन्ति
मध्यमपुरुषः दाससि दासथः दासथ
उत्तमपुरुषः दासामि दासावः दासामः
येना॒व तु॒र्वशं॒ यदुं॒ येन॒ कण्वं॑ धन॒स्पृत॑म् ।
रा॒ये सु तस्य॑ धीमहि ॥१८। ऋग्वेद 8/7/18
(येन) (मरुता)- जिस मरुत के द्वारा (तुर्वशम्) तुर्वशु को (यदुम्) यदु को (आव) रक्षा की गयी = अव् =रक्षणे - धातु का लिट्-लकार प्रथम पुरुष एकवचन) उसकी रक्षा की गयी (येन) जिसके द्वारा (धनस्पृतम्) धनाभिलाषी को (कण्वम्) कण्व को (तस्य) उसका (राये) धन के लिये हम अच्छे प्रकार से उस मरुत का ध्यान करते हैं।१८।
उपर्युक्त ऋचा में वर्णन कि जब यदु और तुर्वसु मरुस्थल में भटक रहे थे तब मरुत ने ही उनकी रक्षा की
धीमहि- यह शब्द "ध्या" धातु के लिङ् लकार का बहुवचन में छान्दस(वैदिक) प्रयोग है।जिसका अर्थ है - ध्यायेमहि= हम सब ध्यान करते हैं।
हम उस मरुत का ध्यान करते हैं जिसके द्वारा (उन्हें धन प्रदान करने के लिए) तुर्वश, यदु और धन-इच्छुक कण्व की रक्षा की गयी
१-"येन =आत्मीयेन रक्षणेन "तुर्वशम् एतत्संज्ञं "यदुम् एतत्संज्ञं च राजर्षिम् २-"आव तम् रक्षितवान् स्थ । अवतेर्लिटि अन्य पुरुष एकवचने रूपमेतत् । “येन च ३- “धनस्पृतं= धनकामं "कण्वम् ऋषिं रक्षितवान् ४-“तस्य= युष्मदीयं रक्षणं ५-“राये धनार्थं ६- “सु “धीमहि= शोभनं ध्यायाम ॥
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मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत।
इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ।१॥
अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम् ।
विद्वेषणं संवननोभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम्।२॥
यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये ।
अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम्।३॥
सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान सायंकाल में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।
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हे मेधातिथि ! प्रयोग( प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं ( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है वह दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा है जो पशुओं से समन्वित हैं अर्थात यादव सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति हुआ करती थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार में प्राचीनत्तम शब्द है । पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का विकास हुआ
( Etymology of pashu-
From Proto-Indo-Iranian *páću, from1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).
पशुपालन और कृषि वैदिक ऋषियों की परम्परा-
क्योंकि जब परिकल्पना सत्यापित होकर सिद्धान्त बन जाये तब
ऐसा ही है यह मानना उचित है।
और यह तब तक के लिए लिखा जा सकता है,जबतक इसे खण्डित करके इसके विरुद्ध कोई नया तथ्य न आ जाय-
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (
अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !
कृषि करना वैश्य का काम है तो
कितने किसान अर्थ में क्षत्रिय है ?
श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
अष्टादश अध्याय पर वर्णित करते हैं ।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
भाष्य -
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः च गौरक्ष्यं च वाणिज्यं च कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः भूमेः विलेखनं गौरक्ष्यं गा रक्षति इति गोरक्षः तद्भावो गौरक्ष्यं पाशुपाल्यं वाणिज्यं वणिक्कर्म क्रयविक्रयादिलक्षणं वैश्यकर्म वैश्यजातेः कर्म वैश्यकर्म स्वभावजम्।
हे अश्विनी कुमारों ! द्युलोक (स्वर्ग) में स्थित प्राचीन जल को मनु नामक राजा को प्रदान करते हुए जिन यज्ञ मार्गों से तुम दोनों ने लांगल (हल) से यव (जौ) नामक धान्य की खेती की थी। और फिर तुम दोनों ने उस मनु नामक राजा के लिए उस बोये हुए की गुड़ाई की (अर्थात् उन्हें खेती करना सिखाया था। हे जल के पालक अश्विनी कुमारों ! उन्हीं पूर्वोक्त लक्षण युक्त तुम दोनों की हम इस यज्ञ दिवस पर सुन्दर स्त्रोतों से स्तुति करते हैं।६।
अन्न ही धन है जिनका ऐसे वह दोनों अश्वनी-कुमार सत्य मार्गों से हमको प्राप्त हों। धन का सेचन (वर्षण) करने वाले हे अश्विनी कुमारों ! त्रसदस्यु के पुत्र तृक्षि नामक राजा को जिन यज्ञ मार्गों से तुम दोनों ने महान धन के लिए प्रसन्न किया था । अर्थात् उसी प्रकार उन यज्ञ मार्गों से धनादि के द्वारा हम्हें प्रसन्न करने के लिए तुम आओ।७।
इत्यादिस्मृतिभ्यः पुराणे च वर्णिनाम् आश्रमिणां च लोकफलभेद विशेषस्मरणात्।
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- आर्यों त कार्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
परन्तु वैदिक सन्दर्भों में प्रथम तीन आर्यो के कार्य थे ।
वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवरूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
क्योंकि ‘अपने कर्मों में तत्पर हुए वर्णाश्रमावलम्बी मरकर, परलोक में कर्मों का फल भोगकर, बचे हुए कर्मफल के अनुसार श्रेष्ठ देश, काल, जाति, कुल, धर्म, आयु, विद्या, आचार, धन, सुख और मेधा आदि से युक्त, जन्म ग्रहण करते हैं’ इत्यादि स्मृति वचन हैं और पुराण में भी वर्णाश्रमियों के लिए अलग-अलग लोक प्राप्तिरूप फलभेद बतलाया गया है।
जब प्रश्न यह बनता है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको मुहय्या कराता है वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?
इसी लिए कोई ब्राह्मण अलावा स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में नही क्योंकि यह अब शूद्र ही है ।
ऋ धातु का वर्तमान कालिक अर्थ गति और प्राप्त करना धातु प्रदीप में उपलब्ध है ।
परन्तु (अर् + इण्) अरि:= (शत्रु) और आर(आरि शस्त्र) शब्द हिंसा मूलक है । संस्कृत भाषा में "अर्" "ऋ" काम सम्प्रसारित रूप है। परन्तु आज अर् धातु लौकिक संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही वैदिक काल में रही हो जैसा कि ऋग्वेद के ६/५३/८ में आरं शब्द (अर्) धातु मूलक है ।
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यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे। तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥८॥
लौकिक संस्कृत में यह अर् धातु पीछे से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तर, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो।
यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो । "ऋ" धातु के उत्तर "यत्" कृत् प्रत्यय करने से "अर्य "और उसमें तद्धित " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य" शब्द की सिद्धि होती है।
विभिन्न भारोपीय भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है। इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
"आर्य" शब्द का एक अर्थ कृषिकार्य करने के कारण वैश्य भी है परन्तु अब वैश्य केवल व्यापार करते देखे जाते हैं।पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" १/१/१०३ सूत्र इस बात का प्रमाण है।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पली लिखा है । फिर, वाजस-नेय (१४-२८) और वैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्षों के नाम-ब्रह्मान, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण (कृषि) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही।
भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ primordial-Meaning .‡
आरम् (आरा )धारण करने वाला वीर …..
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः |
आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology ) संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के धातुपाठ मेंतीन अर्थ सर्व मान्य है ।
१–गमन करना Togo
२– मारना to kill
३– हल (अरम्) चलाना plough….
हल की क्रिया का वाहक हैरॉ (Harrow) शब्द मध्य इंग्लिश में (Harwe) कृषि कार्य करना ..
प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
'परन्तु ये चरावाहे आभीर ,गुज्जर और जाटों के पूर्व पुरुष ही थे । वर्तमान में हिन्दुस्तान के बड़े किसान भी यही लोग हैं । इन्हीं से अन्य राजपूतीय जनजातियों का विकास भी हुआ।
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं !
पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्तसन धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया-रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है ।इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis भी हैं । अर्थात् कृषि कार्य भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है !
देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य थे ।
परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का था।
यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इसदेव संस्कृति के उपासकों ने यह प्रेरणा ग्रहण की। सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था।
कृषि के जनक गोपालक चरावाहे थे।
देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे ।
ब्राह्मण केवल पुरोहित थे आर्य नहीं -आर्य शब्द मूलत: कृषक और पशुपालक का वाचक था।
घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे ।
'परन्तु इज़राएल और फलिस्तीन के यहूदियों के अबीर कबीलों के समानान्तरण ये भी कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे। भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायीयों 'ने गो' का सम्मान करना सुमेरियन लोगों से सीखा सुमेरियन भाषाओं में गु (Gu) गाय को कहते हैं ।यहूदियों के पूर्वज जिन्हें कहीं ब्रह्मा कहीं एब्राहम भी कहा गया सुमेरियन नायक थे ।
विष्णु भी सुमेरियन बैबीलॉनियन देवता हैं ।
यहूदियों का तादात्म्य भारतीय पुराणों में वर्णित यदुवंशीयों से है यहूदियों का वर्णन भी चरावाहों के रूप में मिलता है ।
इसमें अबीर मार्शल आर्ट के जानकार हैं ।
राम कृष्ण गोपाल भण्डारकर जिनका तादात्म्य भारतीय अहीरों से करते हैं ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था
अपनी गायों के साथ साथ विचरण करते हुए जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे कालान्तरण में वही घास के मैदान ग्राम के रूप में रूढ़- (प्रचलित ) हो गया। संस्कृत भाषा में ग्राम शब्द की व्युत्पत्ति इसी व्यवहार मूलक प्रेरणा से हुई।
'आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टः' अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्मरूप वाला जीवात्मा देखा गया है।
३ प्रतोदे च “या पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां विभर्ष्यामृणे” ऋ॰६/५३/८
“उद्यम्यारामग्रकायोत्थितस्य” माघः।
“आरां प्रतोदम्” मल्लिनाथः।
Apte-
आरा [ārā], See under आर.
Monier-Williams-
आरा f. a shoemaker's (awl)आल- or knife आरा आरा-मुख, etc. See. 2. आर.
Vedic Index of Names and Subjects
'''Ārā,''' a word later Hillebrandt,
''Vedische Mythologie,'' 3, 365. n. 1. known as an ‘awl’ or ‘gimlet,’ occurs in the Rigveda vi. 53. 8. only to designate a weapon of Pūṣan, with whose pastoral character its later use for piercing leather is consistent. ''Cf.'' '''[वाशी|Vāśī]].'''
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awl ऑल- (n.)
"pointed instrument for piercing small holes in leather, wood, etc.
,Old English æl "awl, piercer," from Proto-Germanic *ælo (source also of Old Norse alr,
- Dutch aal, –
Middle Low German al, _
Old High German äla,
German Ahle), which is of uncertain origin. संस्कृत "आरा"
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अवल अल- (सं.)"चमड़े, लकड़ी आदि में छोटे-छोटे छेद करने का नुकीला यंत्र।
,"पुरानी अंग्रेज़ी æl" awl, पियर्सर- छेद करने या " प्रोटो-जर्मेनिक * ælo से (पुराने नॉर्स alr का स्रोत भी,- डच आल, -मध्य निम्न जर्मन अल, _
ओल्ड हाई जर्मन अला,जर्मन में अहले), जो अनिश्चित मूल का है।
सारांश यह कि -आर्य का अर्थ कृषक और "आर्य्य" कृषक-सन्तान हैं।
ऋग्वेद में ब्रह्मन् शब्द का एक अर्थ है मन्त्रकर्त्ता। इसी ब्रह्मन् ही से ब्राह्मण शब्द निकला है। ब्रह्मन् अर्थात् मन्त्रकर्त्ता के पुत्र का नाम ब्राह्मण है। जो भ्रमर की तरह मन्त्र उचारण करे वह बाह्मण है ।
विश- शब्द का एक अर्थ है मनुष्य। इसी विश से वैश्य शब्द की उत्पत्ति है, जिसका अर्थ है मनुष्य-सन्तान। इसी नियम के अनुसार "आर्य्य" शब्द का अर्थ "अर्य्य-पुत्र" अर्थात् कृषक-सन्तान होता है। "आर्य्य" शब्द का अर्थ चाहे कृषक हो, चाहे कृषक सन्तान हो, परिणाम एक ही है। अतएव आदि में "आर्य्य" शब्द कृषक-वाची था।
परन्तु इसमें लज्जा की कोई बात नहीं। कोई समाज ऐसा नहीं जिसमे जीवन धारण करने के लिए न मृगयासक्ति छोड़ कर कृषि करने की ज़रूरत न पड़ी हो और समाज के गौरवशाली महात्माओं ने कृषि न की हो। कोई भी नई बात करने के लिए समाज के मुखिया महात्माओं ही को अग्रगन्ता होना पड़ता है।
क्योकि ऐसा किये बिना और लोग पुराने पन्थ को छोड़ कर नये पन्थ से जाते संकोच करते हैं। अतएव जिन्होंने कृषिकार्य की उद्भावना पहले पहले की उनको अपने ही हाथ से हल चलाना पड़ा। यही कारण है जो उन्होंने अर्य्य या आर्य्य नाम ग्रहण किया। वैदिक ऋषि इन्हीं कृषकों के वंशज थे। प्राचीन आर्य्यों की तरह वैदिक मन्त्रकर्त्ता ऋषि भी अपने हाथ से हल चलाते थे। इसके प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में "कृष्टी" शब्द अनेक बार आया है। जो "कृष्" धातु मूलक है ____________________________
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं ।
(अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
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एक ओर मनु स्मृति यज्ञ के नाम पर निर्दोष पशुओं के वध का तो आदेश देती है।
ब्राह्मण व क्षत्रिय भी वैश्य के धर्म से निर्वाह करते हुये जहाँ तक सम्भव हो कृषि (खेती) ही न करें जो कि हल के आधीन है अर्थात् हल आदि के बिना कुछ फल प्राप्त नहीं होता।
अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है । निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के सायद यही कारण है किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।
और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ।वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
उस किसान की शान में भी यह शासन की गुस्ताखी है । किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद दूसरा कोई नहीं इस संसार में परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !
फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाला और अन्तत: शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है ।
यह आश्चर्य ही है । किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान कुी रोटी से पेट भरते हैं ।
परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में निराधार ही थे । किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है । किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है । रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है । वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर । यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही है ।
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले
कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ? विचार कर ले !
श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवा रूपी कर्म स्वाभाविक है।।44।।
पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।परन्तु किसान के लिए यह दुर्भाग्य ही है।
किसान का जीवन आर्थिक रूप से सदैव से संकट में रहा उसकी फसल का मूल्य व्यापारी ही तय करता है ।उसके पास कठिन श्रम करने के उपरान्त भी उनका अभाव ही रहा !
परन्तु खाद और बीज का मूल्य भी व्यापारी उच्च दामों पर तय करता है ; और ऊपर से प्राकृतिक आपदा और ईति, के प्रकोप का भी किसान भाजन होता रहता है । ईति खेती को हानि पहुँचानेवाले वे उपद्रव है ।जो किसान का दुर्भाग्य बनकर आते हैं । इन्हें शास्त्रों में छह प्रकार का बताया गया था :
(अर्थात् अतिवृष्टि,(अधिक वर्षा) अनावृष्टि(सूखा), टिड्डी पड़ना, चूहे लगना, पक्षियों की अधिकता तथा दूसरे राजा की चढ़ाई।)
परन्तु अब ईति का पैटर्न ही बदल गया है। गाय, नीलगाय और सूअर । माऊँ खर पतवार । खेती बाड़ी के चक्कर में कृषक आज बीमार !!यद्यपि गायों के लिए कुछ मूर्ख किसान ही दोषी हैं
जो दूध पीकर गाय दूसरों के नुकसान के लिए छोड़ देते हैं । परन्तु सब किसान नहीं हर समाज वर्ग में कुछ अपवाद होते ही हैं ।
अब प्रश्न यह बनता है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको कहें कि पूरे देश को मुहय्या कराता है; वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?
परन्तु वह शूद्र ही है । फिर भी उसका ही अन्न खाकर पाप नहीं लगता ,?
इसी लिए कोई ब्राह्मण अथवा जो स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में साथ नहीं होता है क्योंकि यह कृषक अब शूद्र ही है ।
और शूद्रों के अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता है । धर्म शास्त्रों के अनुसार !
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ऋग्वेदः मण्डल/सूक्तं ७/१९ ऋग्वेदः
मैत्रावरुणिर्वसिष्ठः।
देवता-. इन्द्रः। छन्द- त्रिष्टुप्।
यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम एकः कृष्टीश्च्यावयति प्र विश्वाः।
और दान और रक्षा करने वाले वे दोनों , कल्याण दृष्टि वाले ,गायों से घिरे हुए, हर प्रकार से गायों की परिचर्या करने के लिए यदु और तुर्वसु की हम सब प्रशंसा करते हैं ।१०।
ऋग्वेद ऋचाओं का वेद है जिसमें ईश्वरीय सत्ताओं का विभिन्न प्राकृतिक और दैवीय रूपों में स्तवन किया गया है। यह एक प्रकार से मुक्तक काव्य की शैली है ।
इसमें ऐतिहासिक पात्रों का वर्णन भी कहीं भी प्रबन्धात्मक शैली में नहीं है ।
इस लिए उपर्युक्त सूक्त में सायण द्वारा जो नौवीं (ninth ) ऋचा के सावर्णि मनु का अन्वय( सम्बन्ध) दसवीं ऋचा से को यदु और तुर्वसु सम्बन्धित करके किया गया है; वह भी अर्थ की खींच-तान ही करना है।
। यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् ।
“दिव इव= द्युलोकस्य
“सानु =समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पाणिनीय. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य
“सावर्ण्यस्य =मनोरियं गवादिदक्षिणा
“सिन्धुरिव =स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां
“पप्रथे= विप्रथते । विस्तीर्णा भवति ॥
सायण का अर्थ-
कोई भी (व्यक्ति ) अपने कर्म के द्वारा आरम्भ करने के लिए उन सावर्णि मनु को व्याप्त नहीं करता है। अर्थात् जिस प्रकार मनु धन प्रदान करते हैं उस प्रकार धन देने में कोई अन्य समर्थ नहीं होता वह किस प्रकार स्थित है ? वह द्युलोक को ऊँचे भाग में किसी को भी द्वारा पराजित न होने वाले सूर्य के समान स्थित हैं उन सावर्णि मनु की वह गायों आदि की दक्षिणा वहती हुई नदी के समान पृथ्वी पर फैली है ।
और दानी और त्राता वे दोनों चारो और से व्याप्त सौभाग्य शाली स्मयन दृष्टि से देखने वाले सौभाग्य शाली । गायों से घिरे हुए जो यदु और तुर्वसु हैं-(वैदिक 'मामहे' का लौकिक रूप 'महामहे') -हम उनकी स्तुति अथवा पूजा करते हैं ।१०।
It is the hypothetical sourceof/evidence for its existence is provided by:
६-“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय ( परिविष-का अर्थ सायण ने भोजन किया है जबकि विष्- धातु के अन्य प्रसिद्ध अर्थ भी धातु पाठ मैं हैं-
७-"ममहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् जबकि 'मामहे' क्रिया पद मूल ऋचा नें है जो लौकिक संस्कृत को मह-पूजायाम्-धातु से निष्पन्न आत्मनेपदी उत्तम परुष बहुवचन के 'महामहे'' का वैदिक रूप ''मामहे ही है। अत: कहीं कहीं ऋग्वेद या भाष्य सायण द्वारा सम्यक् और अपेक्षित नहीं हुआ है।
और भी कल्याण कारी कार्यों का आदेश देने वाले बहुत सी गायों से युक्त दास के समान (राजर्षि (राजर्षि मनु के) द्वारा अधिकृत (अधीन) यदु और तुर्वसु नामक दोनों इन सावर्णि मनु के लिए भोजन देते हैं।ऋग्वेद १०/६२/१०
उपर्युक्त ऋचा में सायण का भाष्य अन्तर्विरोध प्रकट करता है । दासा शब्द "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास या अर्थ दानी और रक्षक ( त्राता) है ।
सायण ने अन्यत्र इसी दास का अर्थ उसी काल क्रम में दास कि अर्थ उपक्षयितुर– विनाशक किया है -
"य ऋक्षादंहसो मुचद्यो वार्यात्सप्त सिन्धुषु ।वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनमः ॥२७॥ ऋग्वेद ८/२४/२७ दास कि अर्थ "दासस्य= उपक्षपयितुरसुरस्य “ के रूप में उपक्षय= (नाश ) करने वाले असुर से किया है ।
यह भी सत्य नहीं कि असुर कि वैदिक अर्थ विनाशक अथवा नकारात्मक हो ।
(वैदिक निघण्टु में असुर:= १-सोम।२-वरुण।३-मेघ।४-दात्रारिव्याप्त्यम्।५प्रज्ञावान्।६-बलवान्-प्राणवान्। ७-ऋत्विज। अर्थ हैं ।
तेषु वर्तमानानां आभीराणां ( गंगा के किनारे अहीरों की वस्ती)“
(परन्तु सायण ने घोष या नया अर्थ स्त्रोता कर अनर्थ ही कर दिया है) – स्तोतॄणाम् आर्यात् धनादिकं प्रेरयेत् ।' ऋ गतिप्रापणयोः '। आशीर्लिङि ‘गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः' (पाणिनीय सू. ७. ४. २९) इति गुणः । ‘बहुलं छन्दसि' इति लिङयप्याडागमः । अथ प्रत्यक्षः। हे "तुविनृम्ण बहुधनेन्द्र ("दासस्य उपक्षपयितुरसुरस्य )
“वधः हननसाधनमायुधं “नीनमः नमय ॥
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सम्यग्भाष्य-
( १-“उत = अत्यर्थेच अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं।
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है । दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।
यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों ते सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।
५-स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।
६- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।
७- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।
आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैंमहामहे का ही(वेैदिक रूप "मामहे" है।)
आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् "
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः महते महेते महन्ते
मध्यमपुरुषः महसे महेथे महध्वे
उत्तमपुरुषः महे महावहे महामहे
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को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। मन्मा॑नि चित्रा अपिवा॒तय॑न्त ए॒षां भू॑त॒ नवे॑दा म ऋ॒ताना॑म्॥(ऋग्वेद-१.१६५.१३)
हे (मरुतः) ! (अत्र) इस स्थान में (वः) तुम लोगों को (कः) कौन (नु) शीघ्र (मामहे) वयं स्तुमहे हम स्तुति करते हैं। हे (सखायः) मित्रो ! तुम (सखीन्) अपने मित्रों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, यातन) प्राप्त होओ। हे (चित्राः) चेतनावानों (मन्मानि) मानों में (अपिवातयन्तः) शीघ्र पहुँचाते हुए तुम (मे) मेरे (एषाम्) इन (ऋतानाम्) सत्य व्यवहारों के बीच (नवेदाः) नवेद अर्थात् जिनमें दुःख नहीं है ऐसे (भूत) हूआ ॥ १३ ॥
दास्(भ्वादिः)
परस्मैपदी
लट्(वर्तमान)
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः दासति दासतः दासन्ति
मध्यमपुरुषः दाससि दासथः दासथ
उत्तमपुरुषः दासामि दासावः दासामः
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मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत ।
इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥१॥
अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम् ।
विद्वेषणं संवननोभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम् ॥२॥
यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये ।
अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम्।३॥
- ऋच्छति । आर । आरतुः । अर्त्ता । अरिष्यति । आरत् (95) । अर्पयति । ''अरित्रं केलिपातकः '' ।।940।।ऋ धातु का वर्तमान कालिक अर्थ गति और प्राप्त करना धातु प्रदीप में उपलब्ध है ।
परन्तु (अर् + इण्) अरि:= (शत्रु) और आर(आरि शस्त्र) शब्द हिंसा मूलक है । संस्कृत भाषा में "अर्" "ऋ" काम सम्प्रसारित रूप है। परन्तु आज अर् धातु लौकिक संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही वैदिक काल में रही हो जैसा कि ऋग्वेद के ६/५३/८ में आरं शब्द (अर्) धातु मूलक है ।
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यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे। तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥८॥
लौकिक संस्कृत में यह अर् धातु पीछे से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तर, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो।
यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो । "ऋ" धातु के उत्तर "यत्" कृत् प्रत्यय करने से "अर्य "और उसमें तद्धित " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य" शब्द की सिद्धि होती है।
विभिन्न भारोपीय भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है। इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
"आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य भी है। पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" १/१/१०३ सूत्र इस बात का प्रमाण है।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पली लिखा है । फिर, वाजस-नेय (१४-२८) और वैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्षों के नाम-ब्रह्मान, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण (कृषि) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही।
भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ primordial-Meaning ..
आरम् (आरा )धारण करने वाला वीर …..
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः |
आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology ) संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के धातुपाठ मेंतीन अर्थ सर्व मान्य है ।
१–गमन करना Togo
२– मारना to kill
३– हल (अरम्) चलाना plough….
हल की क्रिया का वाहक हैरॉ (Harrow) शब्द मध्य इंग्लिश में (Harwe) कृषि कार्य करना ..
प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
'परन्तु ये चरावाहे आभीर ,गुज्जर और जाटों के पूर्व पुरुष ही थे ।वर्तमान में हिन्दुस्तान के बड़े किसान भी यही लोग हैं ।इन्हीं से अन्य राजपूती जनजातियों का विकास भी हुआ। इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्त्स्यायन. धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया-रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है।
इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis भी हैं । परन्तु इसमें लज्जा की कोई बात नहीं। कोई समाज ऐसा नहीं जिसमे जीवन धारण करने के लिए न मृगयासक्ति छोड़ कर कृषि करने की ज़रूरत न पड़ी हो और समाज के गौरवशाली महात्माओं ने कृषि न की हो। कोई भी नई बात करने के लिए समाज के मुखिया महात्माओं ही को अग्रगन्ता होना पड़ता है।
क्योकि ऐसा किये बिना और लोग पुराने पन्थ को छोड़ कर नये पन्थ से जाते संकोच करते हैं। अतएव जिन्होंने कृषिकार्य की उद्भावना पहले पहले की उनको अपने ही हाथ से हल चलाना पड़ा। यही कारण है जो उन्होंने अर्य्य या आर्य्य नाम ग्रहण किया।
वैदिक ऋषि इन्हीं कृषकों के वंशज थे। प्राचीन आर्य्यों की तरह वैदिक मन्त्रकर्त्ता ऋषि भी अपने हाथ से हल चलाते थे।
इसके प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में "कृष्टी" शब्द अनेक बार आया है। जो "कृष्" धातु मूलक है ____________________________
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं ।
(अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
एक ओर मनु स्मृति यज्ञ के नाम पर निर्दोष पशुओं के वध का तो आदेश देती है।
ब्राह्मण व क्षत्रिय भी वैश्य के धर्म से निर्वाह करते हुये जहाँ तक सम्भव हो कृषि (खेती) ही न करें जो कि हल के आधीन है अर्थात् हल आदि के बिना कुछ फल प्राप्त नहीं होता।
"अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के सायद यही कारण है। किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
उस किसान की शान में भी यह शासन की गुस्ताखी है ।किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद दूसरा कोई नहीं इस संसार में परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है। कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाला और अन्तत: शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है ।यह आश्चर्य ही है । किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान कुी रोटी से पेट भरते हैं ।
परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में निराधार ही थे ।किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।
किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।
वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर । यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही है । हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ? विचार कर ले !
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
निष्केवल्यशस्त्रेऽप्येतत्सूक्तम् । सूत्रितं च--’ यस्तिग्मशृङ्गोऽभि त्यं मेषम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ६) इति । महाव्रते निष्केवल्येऽप्येतत् सूक्तम् । सूत्रितं च-’ यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम उग्रो जज्ञे वीर्याय स्वधावान्' (ऐ. आ. ५. २. २ ) इति । आयुष्कामेष्ट्यां ‘मा ते अस्याम्' इतीन्द्रस्य त्रातुर्याज्या । सूत्रितं च – ' मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टौ पाहि नो अग्ने पायुभिः' (आश्व. श्रौ. २. १०) इति ॥
अनंत संहिता एक हाल ही में निर्मित ग्रन्थ है, जिसे गौड़ीय मठ के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वतीठाकुर के शिष्य अनन्त वासुदेव ने लिखा है। यह एक पंचरात्र आगम माना जाता है , जो गौड़ीय वैष्णवों के बीच सामूहिक रूप से " नारद पंचरात्र" के रूप में जाना जाने वाला पंचरात्र कोष का हिस्सा है । जहां सारस्वत गौड़ीय मठ के श्रील श्रीधर देव गोस्वामी पुष्टि करते हैं कि यह पुस्तक उनके गुरु भाई अनंत वासुदेव द्वारा लिखी गई थी।
श्रीपाद अनंत वासुदेव परविद्याभूषण प्रभु
श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के शिष्यों में व्यापक रूप से सबसे प्रतिभाशाली और निस्संदेह सबसे गूढ़ माना जाता है, अनंत वासुदेव परविद्याभूषण प्रभु का जन्म 1895 में हुआ।
अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठाकुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवानकृष्ण के संदर्भ में है। ये संस्कृत भाषा में प्राप्त अठारवीं सदी के उत्तरार्द्ध का विवरण है। ये संहिता बाद की है । इसलिए विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को ठाकुर कहते हैं ठाकुर नाम की उपाधि ब्राह्मण लेखकों की चौदहवीं सदी से हू प्राप्त होती है। परन्तु बाद में उच्च वर्ग के क्षत्रिय की प्राकृत उपाधि ठाकुर भी इसी से निकली है।यद्यपि किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठाकुर या ठक्कुर कहा जा सकता है। __________________________________________ इन्हीं विशेषताओं और सन्दर्भों के रहते भगवान कृष्ण के लिए भक्त ठाकुर जी सम्बोधन का उपयोग करते हैं विशेषकर श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायी द्वारा हुआ। इसी सम्प्रदाय ने कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया । यद्यपि पुराणकारों ने कृष्ण के लिए ठाकुर सम्बोधन कभी प्रयुक्त नहीं किया है। ____________________________________
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है। जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है । पुष्टिमार्गीयसम्प्रदाय का जन्म पन्द्रहवीं सदी में हुआ है ।परन्तु बारहवीं सदी में तक्वुरशब्द का प्रवेश -तुर्कों के माध्यम से भारतीय धरा पर हुआ था । ____________________________________ और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत में आया। बंगाली वैष्णव सन्तों ने भी स्वयं को ठाकुर कहा गया। ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है । न कि जन-जाति विशेष के लिए । कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा प्रमुखत: है।__________________________________
यहां के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है। यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी "हवेली" कहा जाता है। विदित हो कि हवेली (Mansion)और तक्वुर (ठक्कुर) दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है । कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये। पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान को ठाकुर जी ही कहने का परम्परा है। ____________________________________ ईरानी ,आरमेनियन तथा तुर्की भाषा से आयात "तगावोर" शब्द संस्कृत भाषा में तक्वुर: (ठक्कुर) हो गया इस शब्द के जन्म सूत्र- पार्थियन (पहलवी) और आर्मेनियन व तुर्की भाषा में ही प्राप्त हैं ।____________________________________
This Word too From Middle Armenian (թագւոր) (tʿagwor),This Word too from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor, “king”), And This Word too from Parthian *tag(a)-bar (“king”, literally “crown bearing”), borrowed during the existence of the Armenian Kingdom of Cilicia-Cilicia (/sɪˈlɪʃə/) is a geographical region in southern Anatolia in Turkey, extending inland from the northeastern coasts of the Mediterranean Sea.
Noun-
تَكْفُور • (takfūr)
Armenian king
Declension-
Declension of noun تَكْفُور -(takfūr)
Descendants-
→ Old Catalan:- tafur
Catalan: -tafur
→ Old Portuguese: -tafur, taful
Galician: -tafur
Portuguese: -taful
→ Old Spanish:- tafur
Spanish: -tahúr
→ Persian: تکفور -(takfur)
References-
Ačaṙean, Hračʿeay (1971–1979), “թագ”, in Hayerēn armatakan baṙaran [Armenian Etymological Dictionary] (in Armenian), 2nd edition, a reprint of the original 1926–1935 seven-volume edition, Yerevan: University Press
हिन्दी भाषान्तरण-
यह "तगावोर" शब्द भी मध्य अर्मेनियाई भाषा (թագւոր) (tʿagwor) से है, यह शब्द भी पुराने अर्मेनियाई के (թագաւոր)- (t'agawor, "राजा") से यहाँ आया है, और यह शब्द भी पार्थियन * टैग (ए) -बार (tag(a)-bar )="राजा /शासक", से व्युत्पन्न है शाब्दिक रूप से इसका अर्थ "क्राउन बियरिंग" मुकुटधारी) से है ”), सिलिसिया के अर्मेनियाई साम्राज्य के अस्तित्व के दौरान इसे उधार लिया गया था।
सिलिसिया (/ sɪˈlɪʃə/) तुर्की के दक्षिणी अनातोलिया( एशिया माइनर) में एक भौगोलिक क्षेत्र है, जो भूमध्य सागर के उत्तरपूर्वी तटों से अंतर्देशीय तक फैला हुआ है। यहाँ लोगों की भाषा तुर्की आर्मेनिया और फारसी आदि हैं।
संज्ञा-
تَكْفُور • (तकफूर)
अर्मेनियाई राजा
संज्ञा का अवक्षेपण تَكْفُور (तकफूर)
वंशज-
→ पुराना कैटलन: तफूर।
कैटलन: तफूर
→ पुराने पुर्तगाली: तफूर, तफुल।
गैलिशियन्: तफूर।
पुर्तगाली: तफुल (tafu)
→ पुरानी स्पेनिश: तफूर
स्पेनिश: तहूर
→ फारसी: تکفور (तकफुर)
संदर्भ-
एकेन, ह्रेके (1971-1979), "թագ", हायरेन आर्मटाकन बरन [अर्मेनियाई व्युत्पत्ति संबंधी शब्दकोश] (अर्मेनियाई में), दूसरा संस्करण, मूल 1926-1935 सात-खंड संस्करण का पुनर्मुद्रण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस। ठाकुर शब्द के मूल सूत्र मूल भारोपीय स्थग् धातु में निहित हैं । इसी स्थगित से "ठग" शब्द भी विकसित हुआ है। दरअसल ठग सच्चाई को छुपा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है । और फारसी का तक्वोर शब्द तगा=ताज + वर ( भर)= तगावर= फारसी का "तगा शब्द संस्कृत "स्थग (आवरण) का रूपान्तरण है। तुर्की भाषा में यह "टेक' है। भारोपीय और अन्य संक्रमित भाषाओं में यही संस्कृत का स्थग इन रूपों में है। अब स्थग् धातु भारोपीय और ईरानी वर्ग की है। जिसकी व्युत्पत्ति नीचे है।
From Parthian [script needed] (tāg), attested in 𐫟𐫀𐫡𐫤𐫀𐫃 (xʾrtʾg/xārtāg/, “crown of thorns”), ultimately from Proto-Indo-European*(s)teg-स्थग्=संवरणे स्थगति सकता है / छुपाता है।(“to cover”) Related। अरबी देगा(ठगाई -छुपावशब्द संस्कृत स्थग-ठग का विकसित रूप है) to Arabicتَخْت (taḵt तख्त-, “bed, couch,..” भी इसी से सम्बन्धित है।), also an Iranian borrowing; and to Aramaicתָּגָא (tāḡā).
Bailey, H. W. (1979) Dictionary of Khotan Saka, Cambridge, London, New York, Melbourne: Cambridge University press, page 127
पार्थियन भाषा, जिसे अर्ससिड पहलवी और पहलवानीग के नाम से भी जाना जाता है, एक विलुप्त प्राचीन उत्तर पश्चिमी ईरानी भाषा है। यह एक बार पार्थिया में बोली जाती थी, जो वर्तमान उत्तरपूर्वी ईरान और तुर्कमेनिस्तान में स्थित एक क्षेत्र है। परिणाम स्वरूप यह तुर्की और फारसी शब्दों का भी साझा स्रोत है। पार्थियन अर्ससिड पार्थियन साम्राज्य (248 ईसा पूर्व - 224 ईस्वी)तक की राज्य की भाषा थी, साथ ही अर्मेनिया भी अर्सेसिड वंश की नामांकित शाखाओं की भाषा थी। अत: तुर्की उतर-पश्चिमी ईरानी भाषा का अर्मेनियाई लोगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा,जिसकी शब्दावली का एक बड़ा हिस्सा मुख्य रूप से पार्थियन से उधार लेने से बना था; इसकी व्युत्पन्न आकारिकी और वाक्य रचना भी भाषा संपर्क से प्रभावित थी, लेकिन कुछ हद तक। इसमें कई प्राचीन पार्थियन (पहलवी) शब्द संरक्षित किए गए थे, और अब केवल अर्मेनियाई में ही जीवित हैं। ठाकुर शब्द भी यहीं निकल कर भारतीय भाषाओं ठक्कुर; तो कहीं ठाकुर और कहीं ठाकरे तथा टैंगोर रूप में विस्तारित है।
वर्गीकरण-★
टैक्सोनॉमिक(वर्गीकरण ) रूप से, पार्थियन, एक इंडो-यूरोपीय भाषा, उत्तर-पश्चिमी ईरानी भाषा समूह से संबंधित है, जबकि मध्य फ़ारसी दक्षिण-पश्चिमी ईरानी भाषा समूह से संबंधित है। भारतीय भाषाओं का ठाकुर शब्द का जन्मस्थान यही पार्थियन भाषा है । परन्तु इस शब्द का विकास और विस्तार आर्मेनिया और तुर्की और फारसी में होते हुए हुआ अरबी भाषा तक हुआ।
तुर्किस्तान में यह ठाकुर (तेकुर अथवा टेक्फुर ) के रूप में परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी । यहाँ पर ही इसका विस्तार शासकीय रूप में हुआ। यद्यपि संस्कृत भाषा में इसके जीवन अवयव उपलब्ध थे। परन्तु जन्म तुर्की आरमेनिया और फारसू भाषाओं में हुआ। यदि इसका जन्म संस्कृत में होता तो यह स्थग= आवरण भर=धारण करने वाला=स्थगभर= से (ठगवर) हो जाता । आवरण धारण करने वाला अर्थ देने वाला शब्द पार्थियन भाषा में टगा (मुकुट) अथवा शिरत्राण तथा वर -धारक का वाचक हो गया है।
____________________________________ इसके सन्दर्भ में समीपवर्ती उस्मान खलीफा के समय का उल्लेख किया जा सकता है जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे। ____________________________________ तब निस्संदेह इस्लाम धर्म का आगमन इस समय तक तुर्की में नहीं हो पाया था और मध्य एशिया में वहाँ सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी , केवल जो छोटे ईसाई राजा होते थे। यही स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक जिन्हें तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर) कहा जाता था। वहीं से तुर्कों के साथ भारत में आया । तुर्को का उल्लेख पुराण भी करते है।
इस समय एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी। ____________________________________
तुर्की तैकफुर ओटोमन तुर्की में है जो تكفور , अरबी से تَكْفُور ( तकफुर ) , मध्य अर्मेनियाई में թագւոր ( tʿagwor ) और , पुराने अर्मेनियाई թագաւոր ( t'agawor , “ राजा ” ) है। ये पार्थियन *टैग(ए) -बार ( “ राजा ” ) विकसित हुआ, शाब्दिक रूप से “ जिसकी ताज पेशी की गयी हो ” ) यह उस समय शासकीय शब्दावली में, अर्मेनियाई साम्राज्य के सिलिसिया के दौरान उधार लिया गया । उच्चारण टेकफर संज्ञा टेकफुर ( निश्चित अभियोगात्मक टेकफुरु , बहुवचन टेकफुरलर )
बीजान्टिन युग के दौरान अनातोलिया और थ्रेस में एक ईसाई समान्त का पद नाम
संदर्भ:-Ačaṙean, Hračʿeay (1973), “ թագ ”, Hayeren armatakan baṙaran [ अर्मेनियाई व्युत्पत्ति शब्दकोश ] (अर्मेनियाई में), खंड II, दूसरा संस्करण, मूल 1926-1935 सात-खंड संस्करण का पुनर्मुद्रण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 136
डैंकॉफ़, रॉबर्ट (1995) अर्मेनियाई लोनवर्ड्स इन टर्किश (टरकोलॉजिका; 21), विस्बाडेन: हैरासोवित्ज़ वेरलाग, § 148, पृष्ठ 44
पारलाटिर, इस्माइल एट अल। (1998), “ टेकफुर ”, तुर्की सोज़्लुक में , खंड I, 9वां संस्करण, अंकारा: तुर्क दिल कुरुमु, पृष्ठ 163बी।
Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace. _____________________________________ Origin and meaning - (व्युत्पत्ति- औरअर्थ ) The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown". It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople. The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber". It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and 1291. ____________ From Middle- Armenian –թագւոր (tʿagwor), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor).
Attested in Ibn Bibi's works......(Classical Persian) /tækˈwuɾ/
(Iranian Persian) /tækˈvoɾ/ تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_ हिन्दी उच्चारण ठक्कुरन) (takvorân) or تکورها (takvor-hâ) alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary
_______________________________ tafur on the Anglo-Norman On-Line Hub Old Portuguese ( पुर्तगाल की भाषा)
Alternative forms (क्रमिक रूप ) taful Etymology (शब्द निर्वचन) From Arabic تَكْفُور (takfūr, “Armenian king”), from Middle Armenian թագւոր (tʿagwor, “king”), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor, “king”), from Parthian. ( एक ईरानी भाषा का भेद)
Cognate with Old Spanish tafur (Modern tahúr).
Pronunciation : /ta.ˈfuɾ/ संज्ञा - tafurm gambler 13th century, attributed to Alfonso X of Castile, Cantigas de Santa Maria, E codex, cantiga 154 (facsimile): Como un tafur tirou con hũa baeſta hũa seeta cõtra o ceo con ſanna p̈ q̇ pdera. p̃ q̃ cuidaua q̇ firia a deos o.ſ.M̃. How a gambler shot, with a crossbow, a bolt at the sky, wrathful because he had lost. Because he wanted it to wound God or Holy Mary. Derived terms tafuraria ( तफ़ुरिया ) Descendants Galician: tafur Portuguese: taful Alternative forms թագվոր (tʿagvor) हिन्दी उच्चारण :- टेगुर. बाँग्ला टैंगॉर रूप... թագուոր (tʿaguor) Etymology( व्युत्पत्ति) From Old Armenian թագաւոր (tʿagawor). Noun թագւոր • (tʿagwor), genitive singular թագւորի(tʿagwori) king- bridegroom- (because he carries a crown during the wedding) Derived terms- թագուորանալ(tʿaguoranal) թագւորական(tʿagworakan) թագւորացեղ(tʿagworacʿeł) թագվորորդի(tʿagvorordi) Descendants- Armenian: թագվոր (tʿagvor) References Łazaryan, Ṙ. S.; Avetisyan, H. M. (2009), “թագւոր”, in Miǰin hayereni baṙaran [Dictionary of Middle Armenian] (in Armenian), 2nd edition, Yerevan: University Press !
तेकफुर एक सेलेजुक के उत्तरार्ध में इस्तेमाल किया गया एक शीर्षक था। और ओटोमन (उस्मान) काल के प्रारम्भिक चरण या समय में स्वतंत्रत या अर्ध-स्वतंत्र नाबालिग (वयस्क)ईसाई शासकों या एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बायज़ान्टिन राज्यपालों का पदनाम का तक्वुर (ठक्कुर) रूप में उल्लेख किया गया था। ____________________________________ उत्पत्ति और अर्थ - (व्युत्पत्ति- और अर्थ)
पुरानी अर्मेनियाई թագաւոր (ट'गवायर) रूप से मध्य आर्मीनियाई में թագւոր (t'agwor) स्पष्ट भारती ठक्कुर; शब्द से साम्य रखता है।
यह शब्द इतिहासकार इब्न-बीबी के ऐतिहासिक कार्यो में सत्यापित है। ...
(शास्त्रीय फ़ारसी) में / त्केवुर / (ईरानी फारसी) / टएकवोर/ تکور • (takvor ) (बहुवचन تکورا__n_ हिन्दी उच्चारण थाकुरन) (takvorân) या تکورها (takvor-hâ)
सन्दर्भ:- फ़ारसी (Dehkhoda )शब्दकोश में उद्धृत- ______________________________
taful शब्द भी अरबी में राजा या सामन्त का वाचक है। व्युत्पत्ति (शब्द निर्वचनता) पार्थियन से ओल्ड आर्मेनियाई թագաւոր (ट'गवायर= "राजा") और यहाँ से अरबी तक्कीफुर (takfur, "अर्मेनियाई राजा") का वाचक , मध्य अर्मेनियाई թագւոր (t'agwor, "राजा") , ( आर्मेनियाई भाषा एक इरानी भाषा का ही हिस्सा है।)
पुरानी स्पैनिश में तफ़ूर (आधुनिक रूप तहुर) के साथ संज्ञानात्मक रूप दर्शनीय है। -
उच्चारण : /ta.fuɾ/ संज्ञा - tafurm (जुआरी ) 13 वीं शताब्दी, कैस्टिले के अल्फोंसो एक्स को जिम्मेदार ठहराया गया इस अर्थ रूप के लिए , सन्दर्भ:- कैंटिगास डी सांता मारिया, ई कोडेक्स, कैंटिगा 154 (प्रतिकृति):
तक्वुर शब्द के अर्थ व्यञ्जकता में एक अहंत्ता पूर्ण भाव ध्वनित है। व्युत्पन्न शर्तों के अनुसार- तफ़ूरिया (तफ़ूरिया) वंशज गैलिशियन: तफ़ूर पुर्तगाली: सख्त वैकल्पिक रूप թագվոր (t'agvor) हिन्दी: - टेगुँरु तथा बाँग्ला- टैंगोर रूप ... թագուոր (t'aguor) (व्युत्पत्ति) ओल्ड आर्मीनियाई թագաւոր (टी'गवायर) से संज्ञा । թագւոր • (t'agwor), एकवचन शब्द (t'agwori) राजा के अर्थ में। दुल्हन (क्योंकि वह शादी के दौरान एक मुकुट पहना करती है) ______________________________ թագուորանալ (t'aguoranal) թագւորական (t'agworakan) թագւորացեղ (t'agworac'eł) թագվորորդի (t'agvorordi) वंशज अर्मेनियाई: թագվոր (t'agvor) संदर्भ ----- लज़ारियन, Ṙ एस .; Avetisyan, एच.एम. (200 9), "üyühsur", में Miine hayereni baaran [मध्य अर्मेनियाई के शब्दकोश] (अर्मेनियाई में), 2 संस्करण, येरेवन: विश्वविद्यालय प्रेसआर्मीनिया ! ___________________ टक्फुर (तक्वुर) शब्द एक तुर्की भाषा में रूढ़ माण्डलिक का विशेषण शब्द है. जिसका अर्थ होता है " किसी विशेष स्थान अथवा मण्डल का मालिक अथवा स्वामी । तुर्की भाषा में भी यह ईरानी भाषा से आयात है । इसका जडे़ भी वहीं पार्थीयन में है । ईरानी संस्कृति में ताजपोशी जिसकी की जाती वही तेकुर अथवा टेक्फुर कहलाता था । "A person who wearer of the crown is called Takvor " यह ताज केवल उचित प्रकार से संरक्षित होता था, केवल बाइजेण्टाइन गृह सम्बन्धित उत्सवों के अवसर पर भी पहनकर इसका प्रदर्शन होता था।सास्कृति परम्पराओं के निर्वहन करने हेतु बाइजेण्टाइन गृह सम्बन्धित उत्सवों के उदाहरण- के निमित्त विशेष अवसरों पर इसका प्रदर्शन भी होता था। पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों ने ये प्रमाणित कर दिया की मुकुट धारक की उपाधि ठाकुर होती थी।
उसका सिंहासन कक्ष एक उच्चाट्टालिका के रूप में होता था राजा की मुखाकृति को शौर्य शास्त्रीय प्रतीकों द्वारा. सुसज्जित किया जाता था । और शाही ( राजकीय) पुरालेखों में इस कक्ष को राजा के वंशज व्यक्तियों की धरोहरों से युक्त कर संरक्षित किया जाता था । और इसे पॉरफाइरो जेनेटॉस का कक्ष कह कर पुकारा जाता था । जिसका अर्थ होता है :- बैंगनी कक्ष से उत्पन्न " इसे अनवरत रूप से माइकेल तृतीय के पुत्र द्वारा बनवया गया । यद्यपि व्युत्पत्ति- की दृष्टि से तक्वुर शब्द अज्ञात है परन्तु आरमेनियन ,अरेबियन (अरब़ी) तथा हिब्रू तथा तुर्की आरमेनियन भाषाओं में ही यह प्रारम्भिक चरण में उपस्थिति है। जिसकी निकासी ईरानी भाषा पार्थियन से हुई है। ____________________________________ बताया जा चुका है कि "आरमेनियन" भाषा में यहशब्द "तैगॉर"रूप में वर्णितहै । जिसका अर्थ होता है :- ताज पहनने वाला । The origin of the title is uncertain. It has been suggested that it derives from the Byzantine imperial name Nikephoros, via Arabic Nikfor. It is sometimes also said that it derives from the Armenian taghavor,= "crown-bearer". The term and its variants (tekvur, tekur, tekir, etc. ( History of Asia Minor)📍 ____________________________________ Identityfied of This word with Sanskrit Word Thakkur " ठक्कुर: It Etymological thesis Explored by Yadav Yogesh kumar Rohi - began to be used by historians writing in Persian or Turkish in the 13 th century, to refer to "denote Byzantine lords or governors of towns and fortresses in Anatolia (Bithynia, Pontus) and Thrace. It often denoted Byzantine frontier warfare leaders, commanders of akritai, but also Byzantine princes and emperors themselves", e.g. in the case of the Tekfur Sarayı , the Turkish name of the Palace of the Porphyrogenitus in Constantino (मॉदइस्तानबुल " के सन्दर्भों पर आधारिततथ्य ) Thus Ibn Bibi refers to the Armenian kings of Cilicia as tekvur,(ठक्कुर )while both he and the Dede Korkut epic refer to the rulers of the Empire of Trebizond as "tekvur of Djanit". In the early Ottoman period, the term was used for both the Byzantine governors of fortresses and towns, with whom the Turks fought during the Ottoman expansion in northwestern Anatolia and in Thrace, but also for the Byzantine emperors themselves, interchangeably with malik ("king") and more rarely, fasiliyus (a rendering of the Byzantine title basileus). Hasan Çolak suggests that this use was at least in part a deliberate choice to reflect current political realities and Byzantium's decline, which between ________________________________________ 1371–94 and again between 1424 and the Fall of Constantinople in 1453 made the rump Byzantine state a tributary vassal to the Ottomans. 15th-century Ottoman historian Enveri somewhat uniquely uses the term tekfuralso for the Frankish rulers of southern Greece andthe Aegean islands.
References--( सन्दर्भ तालिका ) ________________________________________ ^ a b c d Savvides 2000, pp. 413–414. ^ a b Çolak 2014, p. 9. ^ Çolak 2014, pp. 13ff.. ^ Çolak 2014, p. 19. ^ Çolak 2014, p. 14.
यद्यपि ठाकुर- शीर्षक का मूल अनिश्चित है । यह सुझाव दिया गया है कि यह बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस से निकला है, अरबी निकफोर के माध्यम से यह कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह अर्मेनियाई तागवर, "मुकुट-धारक" से निकला है। शब्द और इसके विकसित प्रकार (tekvur, tekur, tekir, आदि हैं।) (एशिया माइनर का इतिहास) 📍 ____________________________________ यह शब्द 13 वीं शताब्दी में फ़ारसी या तुर्की में लिख रहे इतिहासकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा था , जिसका अर्थ है "बीजान्टिन प्रभुओं या एनाटोलिया ( तुर्की) के बीथिनीया, पोंटस) और थ्रेस में कस्बों और किले के गवर्नरों (राजपालों )के निरूपण करना से था। यह शब्द प्रायः बीजान्टिन सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अकराति के कमांडरों, तथा बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों को भी निरूपित करता है ", उदाहरण के लिए, कॉन्स्टेंटिनो में पोर्कफिरोजनीटस के पैलेस के तुर्की नाम, "टेक्फुर सराय" के मामले में ( देखें--- तुर्की लेखक "मोद इस्तानबूल "के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य) इस प्रकार इब्न बीबी ने भी सिल्किया के अर्मेनियाई राजाओं को (टेक्विर) के रूप में संदर्भित किया है।
___________________________________
सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ भारत में आकर बसीं। इससे पहले यहाँ से पश्चिम में भारोपीय भाषी (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का पढ़ाब रहा था। विदित हो कि तुर्की में ईसा के लगभग ७५०० वर्ष पहले मानवीय आवास के प्रमाण मिल चुके हैं।अत: यहीं हिट्टी साम्राज्य की स्थापना (१९००-१३००) ईसा पूर्व में हुई थी। ये भारोपीय वर्ग की भाषा बोलते थे । १२५० ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूद (नष्ट) कर दिया और आसपास के क्षेत्रों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। १२०० ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन भी आरम्भ हो गया। छठी-सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस (कुरुष) ने अनातोलिया पर अपना अधिकार कर लिया। इसके करीब २०० वर्षों के पश्चात ३३४ ई० पूर्व में सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया। बस ! ठक्कुर अथवा ठाकुरशब्द का इतिहासभारतीय संस्कृति में यहीं से प्रारम्भहोकरआजतक व्याप्त है । कालान्तरण में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था। तब तुर्की और ईरानी सामन्त तक्वुर का लक़ब उपाधि(title) लगाने लग गये थे ।
भारत में तुर्की शासनकाल में तुर्की शब्दावली से भारतीय शासन शब्दावली में यह तक्वोर शब्द ठक्कुर: ठाकुर शब्द बनकर समाहित हो गया । यहीं से भारतीय राजपूतों ने इसे अपने शाही रुतवे के लिए के ग्रहण किया । ईसापूर्व १३० ईसवी सन् में अनातोलिया (एशिया माइनर अथवा तुर्की ) रोमन साम्राज्य का अंग बन गया था । ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया और सन ३१३ में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया। इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई। सन्त शब्द भी भारोपीय मूल से सम्बद्ध है ।
यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान (Saint) इसका प्रति रूप है । रोमन इतिहास में सन्त की उपाधि उस मिसनरी missionary' को दी जाती है । जिसने कोई आध्यात्मिक चमत्कार कर दिया हो । छठी सदी में बिजेन्टाईनसाम्राज्य अपने चरम पर था पर १०० वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया। बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। सन् १२८८ में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ ,और सन् १४५३ में कस्तुनतुनिया का पतन। इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
विशेष- कोन्स्तान्तीनोपोलिस, बोस्पोरुस जलसन्धि और मारमरा सागर के संगम पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है, जो रोमन, बाइज़ेंटाइन, और उस्मानी साम्राज्य की राजधानी थी। 324 ई. में प्राचीन बाइज़ेंटाइन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम द्वारा रोमन साम्राज्य की नई राजधानी के रूप में इसे पुनर्निर्मित किया गया, जिसके बाद इन्हीं के नाम पर इसे नामित किया गया। ____________________________________ वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे। जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए। लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे। नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियनसागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई।ये सल्जूक़ तुर्क ही जिनकी उपाधि (title) तेगॉरथी भारत में लेकर आये। और ईरानियों में भी तेगुँर उपाधि नामान्तर भेद से प्रचलित थी।
बाँग्ला देश में आज भी "टेंगौर शब्द के रूप में केवल ब्राह्मणों का वाचक है । मिथिला में भी ठाकुर ब्राह्मण समाज की उपाधि है। यद्यपि ठाकरे शब्द महाराष्ट्र के कायस्थों का वाचक है, जिनके पूर्वजों ने कभी मगध अर्थात् वर्तमान विहार से ही प्रस्थान किया था । यद्यपि इस ठाकुर शब्द का साम्य तमिल शब्द (तेगुँर )से भी प्रस्तावित हैै । तमिल की एक बलूच शाखा है बलूच ईरानी और मंगोलों के सानिध्य में भी रहे है । जो वर्तमान बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषी है । संस्कृत स्था धातु का सम्बन्ध भारोपीयमूल के स्था (Sta )धातु से है । संस्कृत भाषा में इस धातु प्रयोग --प्रथमपुरुषएकवचन का रूप तिष्ठति है , तथा ईरानी असुर संस्कृति के उपासक आर्यों की भाषा में हिस्तेति तथा ग्रीक भाषा में हिष्टेमि ( Histemi ) लैटिन -Sistere । तथा रूसी परिवार की लिथुअॉनियन भाषा में -Stojus जर्मन भाषा (Stall) गॉथिक- Standan । स्थग् :--- हिन्दी रूप ढ़कना, आच्छादित करना आदि। भारतीय इतिहास एक वर्ग विशेष के लोगों द्वारा पूर्व-आग्रहों (pre solicitations )से ग्रसित होकर ही लिखा गया । आज आवश्यकता है इसके यथा स्थिति पर पुनर्लेखन की ।
शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वारा अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीर्य के मन्त्रों का आख्यान करता हूँ। जो कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शनचक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदन्तिकः।ऊनविंशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ॥ ४ ॥
अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं – वह्नि (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वह्नि (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् (ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥
विमर्श – ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥
बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥_
ताराद्यान् नवशेषार्णान् मस्तके च ललाटके ।भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंसके॥ १०॥
अब वर्णन्यास कहते हैं – मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम, जठर, नाभि, गुह्य, दाहिने पैर बाँये पैर, दोनों सक्थि दोनों ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥
इस प्रकार न्यास कर – ॐ फ्रों श्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे- से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥८-११॥
उद्यत्सूर्यसहस्रकान्तिरखिलक्षोणीधवैर्वन्दितो
हस्तानां शतपञ्चकेन च दधच्चापानिपूंस्तावता ।
कण्ठे हाटकमालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेःपायात् स्यन्दनगोरुणाभवसनः श्रीकार्तवीर्यो नृपः ॥ १२ ॥
अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं –
उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथों में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥______
विमर्श – कार्तवीर्य की पूजा षट्कोण युक्त यन्त्र में भी कही गई है । यथा – षट्कोणेषु षडङ्गानि… (१७. १६) तथ दशदल युक्त यन्त्र में भी यथा – दिक्पत्रें विलिखेत् (१७. २२) । इसी का निर्देश १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे दशदले’ में ग्रन्थकार करते हैं ।
केसरों में पूर्व आदि ८ दिशाओं में एवं मध्य में वैष्णवी शक्तियों की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए-
ॐ विमलायै नमः, पूर्वे ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, आग्नेये
_______
ॐ ज्ञानायै नमः, दक्षिणे, ॐ क्रियायै नमः, नैऋत्ये,
ॐ भोगायै नमः, पश्चिमे ॐ प्रहव्यै नमः, वायव्ये
ॐ सत्यायै नमः, उत्तरे, ॐ ईशानायै नमः, ऐशान्ये
ॐ अनुग्रहायै नमः, मध्ये
इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्र से आसन दे कर मूल मन्त्र से उस पर कार्तवीर्य की मूर्ति की कल्पना कर आवाहन से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१३-१४॥
मध्येग्नीशासुरमरुत्कोणेषु हृदयादिकान् ।चतुरङ्ग च सम्पूज्य सर्वतोऽस्त्रं ततो यजेत् ॥ १५॥
मध्य में आग्नेय, ईशान, नैऋत्ये, और वायव्यकोणों में हृदयादि चार अंगो की पुनः चारों दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना चाहिए ॥१५॥
खड्गचर्मधराध्येयाश्चन्द्राभा अङ्गमूर्तयः।षट्कोणेषु षडङ्गानि ततो दिक्षु विदिक्षु च ॥ १६ ॥
तदनन्तर ढाल और तलवार लिए हुये चन्द्रमा की आभा वाले षडङ्ग मूर्तियों का ध्यान करते हुये षट्कोणों में षडङ्ग पूजा करनी चाहिए । इसके बाद पूर्वादि चारों दिशाओं में तथा आग्नेयादि चारों कोणो में १. चोरमदविभञ्जन, २. मारीमदविभञ्जन, ३. अरिमदविभञ्जन, ४. दैत्यमदविभञ्जन, ५. दुःख नाशक, ६. दुष्टनाशक, ७. दुरितनाशक, एवं ८. रोगनाशक का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्व आदि ८ दिशाओं में श्वेतकान्ति वाली ८ शक्तियों का पूजन करना चाहिए ॥१६-१८॥
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।आयुष्करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः ॥ १९ ॥
धनकर्यष्टमी परचाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः। एवं संसाधितो मन्त्रः प्रयोगार्हः प्रजायते॥ २०॥
१. क्षेमंकरी, २. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यशस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. विद्याकारे, तथा ८. धनकरी ये ८ शक्तियाँ है । फिर आयुधों के साथ दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की साधना से मन्त्र के सिद्ध जो जाने पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥
विमर्श – आवरण पूजा विधि – सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा – आं फ्रों श्रीं हृदयाय नमः आग्नेये,
फिर अष्टदलों में पूर्वादि चारों दिशाओं में चोरविभञ्जन आदि का, तथा आग्नेयादि चारों कोणो में दुःखनाशक इत्यादि चार नाम मन्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चाहिए – यथा –
ऊष्माढ्यं स्वरकेसरं परिवृतं शेषैः स्वकोणोल्लसद्भूतार्णक्षितिमन्दिरावृतमिदं यन्त्रं धराधीशितुः ॥ २२ ॥
अब कार्तवीय की पूजा के लिए यन्त्र कहता हूँ काम्यप्रयोगों में कार्तवीर्यस्य काम्यप्रयोगार्थ पूजनयन्त्रम् कार्तवीर्यपूजन यन्त्रः –
वृत्ताकार कर्णिका में दशदल बनाकर कर्णिका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज (क्लीं), श्रुतिबीज (ॐ) एवं वाग्बीज (ऐं) लिखे, फिरे प्रणव से ले कर वर्मबीज पर्यन्त मूल मन्त्र के १० बीजों को दश दलों पर लिखना चाहिए । शेष सह सहित १६ स्वरों को केशर में तथा शेष वर्णों से दशदल को वेष्टित करना चाहिए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वर्णों को लिखना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन पूजा का यन्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥
फिर अपनी इन्द्रियों को वश में कर साधक कलश का स्पर्श कर उक्त मुख्य मन्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्तर उस कलश के जल से अपने समस्त अभीष्टों की सिद्धि हेतु अपना तथा अपने प्रियजनों का अभिषेक करे ॥२३-२४॥
शत्रूपद्रवमापन्ने ग्रामे वा पुटभेदने ।संस्थापयेदिदं यन्त्रमरिभीतिनिवृत्तये ॥२६॥
अब उस अभिषेक का फल कहते हैं – इस प्रकार अभिषेक से अभिषिक्त व्यक्ति पुत्र, यश, आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से प्रेम तथा उपद्रव्य होने पर उनके भय को दूर करने के लिए कार्तवीर्य के इस मन्त्र को संस्थापित करना चाहिए ॥२५-२६॥
उच्चाट्यते विभीतस्य समिभिः खदिरस्य च ।कटुतैलमहिष्याज्य:मद्रव्याञ्जनं स्मृतम् ॥ २८॥
यवर्हतैः श्रियः प्राप्तिस्तिलैराज्यैरघक्षयः।दिलतण्डुलसिद्धार्थलाजैर्वश्यो नृपो भवेत् ॥ २९ ॥
विविध कामनाओं में होम द्रव्य इस प्रकार है – सरसों, लहसुन एवं कपास के होम से शत्रु का मारन होता है । धतूर के होम से शत्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर विद्वेषण, कमल के होम से वशीकरण तथा बहेडा एवं खैर की समिधाओं के होम से शत्रु का उच्चाटन होता है । जौ के होम से लक्ष्मी प्राप्ति, तिल एवं घी के होम से पापक्षय तथा तिल तण्डुल सिध्दार्थ (श्वेत सर्षप) एवं लाजाओं के होम से राजा वश में हो जाता है ॥२७-२९॥
अपामार्गार्कदूर्वाणां होमो लक्ष्मीप्रदोऽघनुत् ।स्त्रीवश्यकृत्प्रियंगूणां पुराणां भूतशान्तिदः ॥ ३० ॥
अपामार्ग, आक एवं दूर्वा का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नाशक होता है । प्रियंगु का होम स्त्रियों को वश में करता है । गुग्गुल का होम भूतों को शान्त करता है । पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की समिधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु, धन एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥
साँप की केंचुली, धतूरा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों ) तथा लवण के होम से चोरों का नाश होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम से स्तंभन होता है तथा शालि (धान) के होम से भूमि प्राप्त होती है ॥३२॥
होमसंख्या तु सर्वत्र सहस्रादयुतावधि ।प्रकल्पनीया मन्त्रज्ञैः कार्यगौरवलाघवात् ॥ ३३॥
मन्त्रज्ञ विद्वान् को कार्य की न्यूनाधिकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार तक निश्चित कर लेनी चाहिए । कार्य बाहुल्य में अधिक तथा स्वल्पकार्य में स्वल्प होम करना चाहिए ॥३३॥
विमर्श – सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दश हजार तक कही गई है, विद्वान् जैसा कार्य देखे वैसा होम करे ॥३३॥
दशमन्त्रभेदानां कथनम्
कार्तवीर्यस्य मन्त्राणामुच्यन्ते सिद्धिदाभिदाः।कार्तवीर्यार्जुनं डेन्तमन्ते च नमसान्वितम् ॥ ३४॥
स्वबीजात्यो दशार्णोऽसावन्ये नवशिवाक्षराः।
अब सिद्धियों को देने वाले कार्तवीर्यार्जुन के मन्त्रों के भेद कहे जाते हैं –
अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त कार्तवीर्यार्जुन का चतुर्थ्यन्त, उसके बाद नमः लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है । अन्य मन्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥
उक्त मन्त्र के प्रारम्भ में दो बीज (फ्रों व्रीं) लगाने से यह द्वितीय मन्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा कामबीज (क्लीं) सहित यह तृतीय मन्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सहित नवम मन्त्र और आदि में वर्म (हुं) तथा अन्त में अस्त्र (फट्) सहित दशम मन्त्र बन जाता है ॥३५-३७॥
विमर्श – कार्तवीर्यार्जुन के दश मन्त्र – १, फ्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः २. फ्रों व्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ३. फ्रों क्लीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ४. फ्रों भ्रूं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ५. फ्रों आं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ६. फ्रों ह्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ७. फ्रों क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ८. फ्रों श्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ९. फ्रों ऐं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, १०. हुं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः फट् ॥३४-३७॥
पूर्वोक्त १० मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव लगा देने से प्रथम दशाक्षर मन्त्र एकादश अक्षरों का तथा अन्य ९ द्वादशाक्षर बन जाते है । इस प्रकार कार्तवीर्य मन्त्र के २० प्रकार के भेद बनते है । इनकी साधना पूर्वोक्त मन्त्रों के समान है । उक्त द्वितीय दश संख्यक मन्त्रों में पहले त्रिष्टुप तथा अन्यों का जगती छन्द है । इन मन्त्रों की साधना में षड् दीर्घ सहित स्वबीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४०-४१॥
तार (ॐ), हृत् (नमः), फिर ‘कार्तवीर्यार्जुनाय’ पद, वर्म (हुं), अ (फट्), तथा अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का मन्त्र बनता है इसकी साधना पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥४२॥
विमर्श – चतुर्दशार्ण मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ नमः कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१४) ॥४२॥
भूनेत्र सप्तनेत्राक्षिवणैरस्याङ्गपञ्चकम् ।
मन्त्र के क्रमशः १, २, ७, २, एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४३॥
तार (ॐ), हृत् (नमः), तदनन्तर चतुर्थ्यन्त भगवत् (भगवते), एवं कार्तवीर्यार्जुन (कार्तवीर्यार्जुनाय), फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) उसमें अग्निप्रिया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्य मन्त्र बनता है ॥४३-४४॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ नमो भगवते कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१८) ॥४४॥
इस मन्त्र के क्रमशः ३, ४, ७, २ एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४४॥
नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय, फिर सर्वदुष्टान्तकाय, फिर ‘तपोबल पराक्रम परिपालिलसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सर्वराजन्य चूडामण्ये सर्वशक्तिमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्र बनता हैं , जो स्मरण मात्र से सारे विघ्नों को दूर कर देता है ॥४५-४७॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्वदुष्टान्तकाय तपोबलपराक्रमपरिपालितसप्तद्वीपाय सर्वराजन्यचूडाणये सर्वशक्तिमते सहस्त्रबाहवे हुं फट् (६३) ॥४५-४७॥
राजन्यचक्रवर्ती च वीरः शूरस्तृतीयकः ।माहिष्मतीपतिः पश्चाच्चतुर्थः समुदीरितः ॥ ४८॥
१. राजन्यचक्रवर्ती, २. वीर, ३. शूर, ४. महिष्मपति, ५. रेवाम्बुपरितृप्त एवं, ६. कारागेहप्रबाधितदशास्य – इन ६ पदों के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४८-४९॥
नर्मदा नदी में जलक्रीडा करते समय युवतियों के द्वारा अभिषिच्यमान तथा नर्मदा की जलधारा को अवरुद्ध करने वाले नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान करना चाहिए ॥५०॥
एवं ध्यात्वायुतं मन्त्रं जपेदन्यत्तु पूर्ववत् ।पूर्ववत्सर्वमेतस्य समाराधनमीरितम् ॥ ५१॥
इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए तथा हवन पूजन आदि समस्त कृत्य पूर्वोक्त कथित मन्त्र की विधि से करना चाहिए । इस मन्त्र साधना के सभी कृत्य पूर्वोक्त मन्त्र के समान कहे गये हैं॥५१॥
स्मरणादेववर्णान्ते हृतं नष्टं च सम्पठेत् । लभ्यते मन्त्रवर्योऽयं द्वात्रिंशद्वर्णसंज्ञकः॥५३॥
अब कार्तवीर्यार्जुन के अनुष्टुप मन्त्र का उद्धार कहता हूँ –
‘कार्तवीर्यार्जुनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’ तथा ‘वान्’ कहना चाहिए । फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चाहिए । यह ३२ अक्षर का मन्त्र है ।
इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से, तथा सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए । इसका ध्यान एवं पूजन आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥५२-५३॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है –
कार्तवीर्याजुनो नाम राजा बाहुसहस्त्रवान् ।तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते ॥
‘कार्तवीर्याय’ पद दे बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महावीर्याय’ के बाद ‘धीमहि’ पद कहना चाहिए । फिर ‘तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात्’ बोलना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन का गायत्री मन्त्र है । कार्तवीर्य के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना चाहिए ॥५४-५६॥
रात्रि में इस अनुष्टुप् मन्त्र का जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्र से तर्पण करने पर अथवा इसका उच्चारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥
वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्तिकाश्विनपौषतः ।माघफाल्गुनयोर्मासे दीपारम्भः प्रशस्यते।५८॥अब दीपप्रियः आर्तवीर्यः’ इस विधि के अनुसार कार्तवीर्य को प्रसन्न करने वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक, आश्विन, पौष, माघ एवं फाल्गुन में दीपदान करना प्रशस्त माना गया है ॥५७-५८॥
चौथ, नवमी तथा चतुर्दशी – इन (रिक्ता) तिथियों को छोडकर, दिनों में मङ्गल एवं शनिवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय, आश्विनी, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, स्वाती, विशाखा एवं रोहिणी नक्षत्र में कार्तवीर्य के लिए दीपदान का आरम्भ प्रशस्त कहा गया है ॥५९-६०॥
वैघृति, व्यतिपात, धृति, वृद्धि, सुकर्मा, प्रीति, हर्षण, सौभाग्य, शोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा विष्टि (भद्रा) को छोडकर अन्य करणों में दीपारम्भ करना चाहिए । उक्त योगों में पूर्वाह्ण के समय दीपारम्भ करना प्रशस्त है ॥६०-६२॥
कार्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीवशोभनः ॥६२॥
यदि तत्र रवेर्वारः श्रवणं भं तु दुर्लभम् ।अत्यावश्यककार्येषु मासादीनां न शोधनम्॥ ६३॥
कार्तिक शुक्ल सप्तमी को निशीथ काल में इसका प्रारम्भ शुभ है । यदि उस दिन रविवार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत दुर्लभ है । आवश्यक कार्यो में महीने का विचार नहीं करना चाहिए ॥६२-६३॥
प्राणानायम्य संकल्प्य न्यासान्पूर्वोदितांश्चरेत् ।साधक दीपदान से प्रथम दिन उपवास कर ब्रह्यचर्य का पालन करते हुये पृथ्वी पर शयन करे । फिर दूसरे दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर गोबर और शुद्ध जल से हुई भूमि में प्राणायाम कर, दीपदान का संकल्प एवं पूर्वोक्त न्यासों को करे ॥६४-६५॥
फिर पृथ्वी पर लाल चन्दन मिश्रित चावलों से षट्कोण का निर्माण करे । पुनः उसके भीतर काम बीज (क्लीं) लिख कर षट्कोणों में मन्त्रराज के कामबीज को छोडकर शेष बीजो को (ॐ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं) लिखना चाहिए । सृणि (क्रों) पद्म (श्रीं) वर्म (हुं) तथा अस्त्र (फट्) इन चारों बीजों को पूर्वादि चारों दिशाओं में लिखना चाहिए । फिर ९ वर्णों (कार्तवीर्यार्जुनाय नमः) से उन षड्कोणों को परिवेष्टित कर देना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर एक त्रिकोण निर्माण करना चाहिए ॥६५-६७॥
एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद् दीपभाजनम् ।स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः॥६८॥
इस प्रकार से लिखित मन्त्र पर दीप पात्र को स्थापित करना चाहिए । वह पात्र सोने, चाँदी या ताँबे का होना चाहिए । उसके अभाव में काँसे का अथवा उसके भी अभाव में मिट्टी का या लोहे का होना चाहिए । किन्तु लोहे का और मिट्टी का पात्र कनिष्ठ (अधम) माना गया है ॥६८-६९॥
शान्ति के और पौष्टिक कार्यो के लिए मूँगे के आटे का तथा किसी को मिलाने के लिए गेहूँ के आँटे का दीप-पात्र बनाकर जलाना चाहिए ॥६९॥
सौ पल के भार से बने पात्र में एक हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में १० हजार पल घी, ६० पल के भार से बनाये गये पात्र में ७५ पल घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी, ११५ पल भार से बनाये गये दीप-पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये पात्र में १०० पल घी डालना चाहिए । इस प्रकार जितना घी जलाना हो अनुसार पात्र के भार की कल्पना कर लेनी चाहिए ॥७१-७३॥
एका तिस्रोऽथवा पञ्च सप्ताद्या विषमा अपि तिथिमानाद्य सहस्रं तन्तुसंख्याविनिर्मिताः॥ ७५॥
नित्यदीप में ३ पल के भार का पात्र तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थापित कर सूत की बनी बत्तियाँ डालनी चाहिए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बत्तियाँ डालिनी चाहिए । ऐसे सामान्य नियमानुसार विषम सूतों की बनी बत्तियाँ होनी चाहिए ॥७४-७५॥
दीप-पात्र में शुद्ध-वस्त्र से छना हुआ गो घृत डालना चाहिए । कार्य के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १००० पल परिमाण पर्यन्त घी की मात्रा होनी चाहिए ॥७६॥
सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशांगुलाम् ।तदा वा तदद्धां वा सूक्ष्मायां स्थूलमूलकाम् ॥ ७७॥
सुवर्ण आदि निर्मित्त पात्र के अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८ या ४ अंगुल की एक मनोहर शलाका बनाकार उक्त दीप पात्र के, भीतर दाहिनी ओर से शलाका का अग्रभाग कर डालना चाहिए । पुनः दीप पात्र से दक्षिण दिशा में ४ अंगुल जगह छोडकर भूमि में अधोमुख एक छुरी या चाकू गाडना चाहिए । फिर गणपति का स्मरण करते हुये दीप की जलाना चाहिए ॥७७-७९॥
दीपात् पूर्वे तु दिग्भागे सर्वतोभद्रमण्डले ।तण्डुलाष्टदलेवाऽपिविधिवत्स्थापयेद्धटम्।८०।तत्रावाह्य नृपाधीशं पूर्ववत्पूजयेत् सुधीः।जलाक्षताःसमादाय दीपं संकल्पयेत्ततः।८१।दीपक से पूर्व दिशा में सर्वतोभद्र मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर मिट्टी का घडा विधिवत् स्थापित करना चाहिए । उस घट पर कार्तवीर्य का आवाहन कर साधक को पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन करना चाहिए । इतना कर लेने के बाद हाथ में जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चाहिए॥८०-८१॥
अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प मन्त्र कहते हैं – यह (द्वि २ इषु ५ भूमि १ अंकाना वामतो गतिः) एक सौ बावन अक्षरों का माला मन्त्र है । प्रणव (ॐ), पाश (आं), माया (ह्रीं), शिखा (वषट्), इसके बाद ‘कार्त्त’ इसके बाद ‘वीर्यार्जुनाय’ के बाद ‘माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे’ इन वर्णों के बाद ‘सहस्त्र’ पद बोलना चाहिए । फिर ‘क्रतुदीक्षितहस्त दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय’, फिर वाम कर्ण (ऊ), इन्दु(अनुस्वार) सहित नभ (ह) एवं अग्नि (र्) अर्थात् (हूँ) पाश आं, फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टानाशय नाशय’, फिर २ बार ‘पातय’ और २ बार ‘घातय’ (पातय पातय घातय घातय), ‘शत्रून जहि जहि’, फिर माया (ह्रीं) तार (ॐ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (क्लीं) और फिर वाहिनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर वामनेत्रे (ई), चन्द्र (अनुस्वार) सहित २ बार आकाश (ह) अर्थात् (हीं हीं), शिवा (ह्रीं), वेदादि (ॐ), काम (क्लीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’ फिर सानुस्वर तवर्ग एवं पवर्ग (तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं), फिर प्रणव (ॐ) तथा अग्निप्रिया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का दीपदान मन्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥
दीप संकल्प के पहले कार्तवीर्य का ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्र का उच्चारण कर जल नीचे भूमि पर गिरा देना चाहिए । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥९१॥
नवाक्षर मन्त्र का उद्धार – तार (ॐ), बिन्दु (अनुस्वार) सहित अनन्त (आ) (अर्थात् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र सहित स्वबीज (फ्रीं), फिर शान्ति (ई) और चन्द्र (अनुस्वार) सहित कूर्म (व) और अग्नि (र) अर्थात् (व्रीं), फिर वह्निनारी (स्वाहा), अंकुश (क्रों) तथा अन्त में ध्रुव (ॐ) लगाने से नवाक्षर मन्त्र बनता है । यथा – ॐ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा क्रों ॐ ॥९२॥
इस मन्त्र के पूर्वोक्त दत्तात्रेय ऋषि हैं । अनुष्टुप छन्द है तथा इसके देवता और न्यास पूर्वोक्त मन्त्र के समान है। (द्र० १७. ८९-९०) इस मन्त्र का एक हजार जप कर कवच का पाठ करना चाहिए । (यह कवच डामर तन्त्र में हुं के साथ कहा गया है ) ॥९३॥
अब दीपदान के समय शुभाशुभ शकुन का निर्देश करते हैं –
दीप प्रज्वलित करते समय ब्राह्मण का दर्शन शुभावह है । शूद्रों का दर्शन मध्यम फलदायक तथा म्लेच्छ दर्शन बन्धदायक माना गया है । चूहा और बिल्ली का दर्शन अशुभ तथा गौ एवं अश्व का दर्शन शुभकारक है ॥९४-९६॥
दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो सिद्धि और टेढी मेढी हो तो विनाश करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का शब्द भय कारक होता है । ज्योतिपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कर्ता को सुख प्राप्त होता है । यदि काला हो तो शत्रुभयदायक तथा वमन कर रहा हो तो पशुओं का नाश करता है । दीपदान करन के बाद यदि संयोगवशात् पात्र भग्न हो जावे तो यजमान १५ दिन के भीतर यम लोक का अतिथि बन जाता है ॥९६-९८॥
अब दीपदान के शुभाशुभ कर्तव्य कहते हैं – दीप में दूसरी बत्ती डालने से कार्य सिद्ध में विलम्ब है, उस दीपक से अन्य दीपक जलाने वाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है । अशुद्ध अशुचि अवस्था में दीप का स्पर्श करने से आधि व्याधि उत्पन्न होती है । दीपक के नाश होने पर चोरों से भय तथा कुत्ते, बिल्ली एवं चूहे आदि जन्तुओं के स्पर्श से राजभय उपस्थित होता है ॥९९-१००॥
यात्रा करते समय ८ पल की मात्रा वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूर्ण करता है । इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों से सावधानी पूर्वक दीप की रक्षा करनी चाहिए जिससे विघ्न न हो ॥१०१॥
आ समाप्तेः प्रकुर्वीत ब्रह्मचर्य च भूशयम ।स्त्रीशूद्रपतितादीनां सम्भाषामपि वर्जयेत् ॥ १०२॥
दीप की समाप्ति पर्यन्त कर्ता ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये भूमि पर शयन करे तथा स्त्री, शूद्र और पतितो से संभाषण भी न करे ॥१०२॥
जपेत्सहस्रं प्रत्येक मन्त्रराजं नवाक्षरम ।तोत्रपाठ प्रतिदिन निशीथिन्यां विशेषतः ॥ १०३॥
प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर समाप्ति पर्यन्त प्रतिदिन नवाक्षर मन्त्र (द्र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र का पाठ विशेष रुप से रात्रि के समय करना चाहिए ॥१०३॥
कर्ता साधक अपने गुरु को संतोषदायक एवं पर्याप्त दक्षिणा दे कर उन्हें संतुष्ट करे । गुरु के प्रसन्न हो जाने पर कृतवीर्य पुत्र कार्तवीर्यार्जुन साधक के सभी अभीष्टों को पूर्ण करते हैं ॥१०६॥
गुर्वाज्ञया स्वयं कुर्याद्यदि वा कारयेद् गुरुम् ।कृत्वा रत्नादिदानेन दीपदानं धरापतेः॥१०७ ॥
यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं करना चाहिए अथवा गुरु को रत्नादि दान दे कर उन्हीं से कार्तवीर्याजुन को दीपदान कराना चाहिए । गुरु की आज्ञा लिए बिना जो व्यक्ति अपनी इष्टसिद्धि के लिए इस प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कार्यसिद्धि की बात तो दूर रही, प्रत्युत वह पदे पदे हानि उठाता है ॥१०७-१०८॥
कृतघ्न आदि दुर्जनों को इस दीपदान की विधि नहीं बतानी चाहिए । क्योंकि यह मन्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने वाले को दुःख देता है । दीप जलाने के लिए गौ का घृत उत्तम कहा गया है, भैंस का घी मध्यम तथा तिल का तेल भी मध्यम कहा गया है । बकरी आदि का घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगन्धित तेलों से दीप दान करना चाहिए । शत्रुनाश के लिए श्वेत सर्वप के तेल का दीप दान करना चाहिए । यदि एक हजार पल वाले दीप दान करने से भी कार्य सिद्धि न हो तो विधि पूर्वक तीन दीपों का दान करना चाहिए । ऐसा करने से कठिन से भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाता है ॥१०९-११२॥तदा सुदुर्लभं कार्य सिद्ध्यत्येव न संशयः।यथाकथंचिद्यःकुर्याद् दीपदानं स्ववेश्मनि॥ ११३॥
किसी भी प्रकार से जो व्यक्ति अपने घर में कार्तवीर्य के लिए दीपदान करता है, उसके समस्त विघ्न और समस्त शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव विजय प्राप्त करता है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यश प्राप्त करता है । पात्र, घृत, आदि नियम किए बिना ही जो व्यक्ति किसी प्रकार से प्रतिदिन घर में कार्तवीर्यार्जुन की प्रसन्नता के लिए दीपदान करता है वह अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥११३-११५॥
तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के लिए क्रियमाण कर्तव्य का निर्देश करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं –
कार्तवीर्यार्जुन को दीप अत्यन्त प्रिय है, सूर्य को नमस्कार प्रिय है, महाविष्णु को स्तुति प्रिय है, गणेश को तर्पण, भगवती जगदम्बा को अर्चना तथा शिव को अभिषेक प्रिय है । इसलिए इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका प्रिय संपादन करना चाहिए ॥११६-११७॥
॥इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रकथनं नाम सप्तदशस्तरङ्गः ॥ १७॥
वे भगवान् सहस्रबाहू विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे । और स्वयं दत्तात्रेय ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें स्वेक्षा से वरदान दिया था।
दस वरदान जिन भगवान् दत्तात्रेय ने कार्तवीर्यार्जुन को प्रदान किये थे वे इस प्रकार है।
1- ऐश्वर्य शक्ति प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।
2- दूसरो के मन की बात जानने का ज्ञान हो।
3- युद्ध में कोई सामना न कर सके।
4- युद्ध के समय उनकी सहत्र भुजाये प्राप्त हो, उनका भार न लगे
5- पर्वत 'आकाश" जल" पृथ्वी और पाताल में अविहत गति हो।
6-मेरी मृत्यु अधिक श्रेष्ठ हाथो से हो।
7-कुमार्ग में प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।
8- श्रेष्ठ अतिथि की निरंतर प्राप्ति होती रहे।
9- निरंतर दान से धन न घटे।
10- स्मरण मात्र से धन का आभाव दूर हो जाऐं एवं भक्ति बनी रहे।
मांगे गए वरदानों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि सहस्त्रबाहु-अर्जुन अर्थात् कार्तवीर्यार्जुन-ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार आचरण करने वाले, शत्रु के मन की बात जान लेने वाले, हमेशा सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथि सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने।
पृथ्वी लोक मृत लोक है, यहाँ जन्म लेने वाला कोई भी अमरत्व को प्राप्त नहीं है, यहाँ तक की दुसरे समाज के लोग जो परशुराम को भगवान् की संज्ञा प्रदान करते है और सहस्त्रबाहु को कुछ और की संज्ञा प्रदान कर रहे है, परशुराम द्वारा निसहाय लोगों अथवा क्षत्रियों के अबोध शिशुओ का अनावश्यक बध करना जैसे कृत्यों से ही क्षुब्ध होकर त्रेतायुग में भगवान् राम ने उनसे अमोघ शक्ति वापस ले ली थी।
और उन्हें तपस्या हेतु वन जाना पड़ा, वे भी अमरत्व को प्राप्त नहीं हुए। भगवान् श्री रामचंद्र द्वारा अमोघ शक्ति वापस ले लेना ही सिद्ध करता है की, परशुराम सन्मार्ग पर स्वयं नहीं चल रहे थे। एक समाज द्वारा दुसरे समाज के लोगो की भावनाओं को कुरेदना तथा भड़काना सभ्य समाज के प्राणियों, विद्वानों को शोभा नहीं देता है। महाराज कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हमारे लिए पूज्यनीय थे, पूज्यनीय रहेंगे। परशुराम ने केवल उनकी सहस्र भुजाओं का उच्छेदन भले ही कर दिया हो परन्तु उनका वध कभी नहीं हुआ महाराज सहस्रार्जुन का वध नही हुआ। अन्त समय में उन्होंने समाधि ले ली।
इसकी व्याख्या कई पौराणिक कथाओ में की गयी है। साक्ष्य के रूप मे माहेश्वर स्थित श्री राजराजेश्वर समाधि मन्दिर, प्रामाणिक साक्ष्य है ; जो वर्तमान में है।
"श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन मंदिर" में समाधि पर अनंत काल से (11) अखंड दीपक प्रज्ज्वलित करने की पृथा है। यहाँ शिवलिंग स्थापित है जिसमें श्री कार्तवीर्यार्जुन की आत्म-ज्योति ने प्रवेश किया था। उनके पुत्र जयध्वज के राज्याभिषेक के बाद उन्होने यहाँ योग समाधि ली थी। "मन्त्रमहोदधि" ग्रन्थ के अनुसार श्री कार्तवीर्यार्जुन को दीपकप्रिय हैं इसलिए समाधि के पास 11अखंड दीपक जलाए जाते रहे हैं। दूसरी ओर दीपक जलने से यह भी सिद्ध होता है की यह समाधि श्री कार्तवीर्यार्जुन की है। भारतीय समाज में स्मारक को पूजने की परम्परा नही है परन्तु महेश्वर के मन्दिर में अनंत काल से पूजन परंपरा और अखंड दीपक जलते रहे हैं। अतएव कार्तवीर्यार्जुन के वध की मान्यता निरधार व मन:कल्पित है।
"महाभारत ग्रन्थ और भारतीय पुराणों में वर्णित जिन क्षत्रियों को परशुराम द्वारा मारने की बात हुई है वे मुख्यतः सहस्रबाहू के वंशज हैहय वंश के यादव ही थे । भार्गवों- जमदग्नि, परशुराम आदि और हैहयवंशी यादवों की शत्रुता का कारण बहुत गूढ़ है । जमदग्नि और सहस्रबाहू परस्पर हमजुल्फ( साढू संस्कृत रूप- श्यालिबोढ़्री ) थे। जिनके परिवार सदृश सम्बन्ध थे। ब्रह्मवैवर्त- पुराण में एक प्रसंग के अनुसार सहस्रबाहू अर्जुन से -'परशुराम ने कहा-★ हे ! धर्मिष्ठ राजेन्द्र! तुम तो चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु के अंशभूत बुद्धिमान दत्तात्रेय के शिष्य हो। यद्पि विष्णु का अञ्शभूत" उपर्युक्त श्लोक में दत्तात्रेय का सम्बोधन है।
सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपति खण्ड अध्याय (35) तुम स्वयं विद्वान हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ?
तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ? जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक-संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी। भूपाल! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी ? यह सारा संसार तो कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल की बूँद की तरह मिथ्या ही है। सुयश को अथवा अपयश, उसकी तो कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है। अहो ! सत्पुरुषों की दुष्कीर्ति हो, इससे बढ़कर और क्या विडम्बना होगी ? कपिला कहाँ गयी, तुम कहाँ गये, विवाद कहाँ गया और मुनि कहाँ चले गये; परन्तु एक विद्वान राजा ने जो कर्म कर डाला, वह हलवाहा भी नहीं कर सकता।
मेरे धर्मात्मा पिता ने तो तुम-जैसे नरेश को उपवास करते देखकर भोजन कराया और तुमने उन्हें वैसा फल दिया ? राजन् ! तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया है, तुम प्रतिदिन ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देते हो और तुम्हारे यश से सारा जगत व्याप्त है। फिर बुढ़ापे में तुम्हारी अपकीर्ति कैसे हुई ?
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एक स्थान पर परशुराम - कार्तवीर्य्य अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहते हैं।
(प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। पुराणों अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान कि वर्णन करते हैं। निम्न संहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड को समान ही हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण़्डः प्रथम (कृतयुगसन्तानः).अध्यायः ४५८ में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।
अर्थ-उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म( काला-कवच) प्रदान किया।५८।
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जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप रामकन्धरे।
मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये ।।
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
ब्राह्मणं जीवयामास शंभुर्नारायणाज्ञया ।
चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा।८७।
नारायण की आज्ञा से शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक ब्राह्मण परशुराम को पुन: जीवित कर दिया चेतना पाकर परशुराम ने "पाशुपत" अस्त्र को ग्रहण किया।
दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को कार्तवीर्य ने स्तम्भित( जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण-कवच) को परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।
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वैसे भी परशुराम का स्वभाव ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि से नहीं अपितु सहस्रबाहु से मेल खाता है विज्ञान की भाषा में इसे ही जेनेटिक अथवा आनुवंशिक गुण कहते हैं ।
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विदित हो कि सहस्रबाहु की पत्नी "वेणुका और परशुराम की माता तथा पिता जमदग्नि की पत्नी "रेणुका सगी बहिनें थी।
रेणुका सहस्रबाहू के पौरुष और पराक्रम पर आसक्त और उसकी भक्त थी ।
जबकि जमदग्नि ऋषि निरन्तर साधना में संलग्न रहते थे। वे अपनी पत्नी को कभी पत्नी का सुख नहीं दे पाते थे ।
राजा रेणु की पुत्री होने से रेणुका में रजोगुण की अधिकता होने के कारण से भी वह रजोगुण प्रधान रति- तृष्णा से पीड़ित रहती थी । और सहस्रबाहु से प्रणय निवेदन जब कभी करती रहती थी परन्तु सहस्रबाहू एक धर्मात्मा राजा ही नहीं सम्राट भी था। परन्तु पूर्वज ययाति की कथाओं ने उन्हें भी सहमत कर दिया जब शर्मिष्ठा दासी ने उन ययाति से एकान्त में प्रणय निवेदन किया था और उसे पीड़ा निवारक बताया था । उसी के परिणाम स्वरूप रेणुका का एकान्त प्रणय निवेदन सहस्रबाहू ने भी स्वीकार कर लिया परिणाम स्वरूप परशुराम की उत्पत्ति हुई "इस प्रकार की समभावनामूलक किंवदन्तियाँ भी प्रचलित हैं। परशुराम अपने चार भाईयों सबसे छोटे थे ।
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रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या थीं जो क्षत्रिय राजा था । जो परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थीं, जिनके पाँच पुत्र थे।
"रुमणवान "सुषेण "वसु "विश्वावसु "परशुराम
विशेष—रेणुका विदर्भराज की कन्या और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी। एक बार ये गंगास्नान करने गई। वहा राजा चित्ररथ को स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा करते हुए देख रेणुका ने देख लिए तो रेणुका के मन में रति -पिपासा( मेैंथुन की इच्छा) जाग्रत हो गयी। चित्ररथ भी एक यदुवंश के राजा थे; जो विष्णु पुराण के अनुसार (रुषद्रु) और भागवत के अनुसार (विशदगुरु) के पुत्र थे।
एक बार ऋतु काल में सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने पर जमदग्नि मुनि को रेणुका और चित्ररथ की समस्त घटना ज्ञात हो गयी।
उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ।
अन्त में परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा।
जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह रेणुका (पद्म) कमल से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे। सन्दर्भ- (महाभारत- अरण्यपर्व- अध्याय-११६ )
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"परन्तु उपर्युक्त आख्यानक के कुछ पहलू विचारणीय हैं। जैसे कि रेणुका का कमल से उत्पन्न होना, और जमदग्नि के द्वारा उसका पुनर्जीवित करना ! दोनों ही घटनाऐं प्रकृति के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से काल्पनिक हैं । जैसा की पुराणों में अक्सर किया जाता है ।
और तृतीय आख्यानक यह है कि "भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुराम का उत्पन्न होना है।
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"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करना विष्णु के अवतारी का गुण नहीं हो सकता है।
महाभारत शान्तिपर्व में परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ?
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"मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
"अर्थ- मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये हैं।राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे।
"नरेश्वर! उन्होंने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी।परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे।उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् ( स्रुवा)लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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(ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
में भी वर्णन है कि २१ बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी!
महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद देखे नीचें-
अकृतव्रण के द्वारा युधिष्ठिर से परशुराम जी के उपाख्यान के प्रसंग में ऋचीक मुनि का गाधिकन्या के साथ विवाह और भृगु ऋषि की कृपा से जमदग्नि की उत्पति का वर्णन ।।
वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! उस पर्वत पर एक रात निवास करके भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने तपस्वी मुनियों का बहुत सत्कार किया। लोमश जी ने युधिष्ठिर से उन सभी तपस्वी महात्माओं का परिचय कराया। उनमें भृगु, अंगिरा, वसिष्ठ तथा कश्यप गोत्र के अनेक संत महात्मा थे।
उन सबसे मिलकर राजर्षि युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और परशुराम जी के सेवक वीरवर अकृतव्रण से पूछा- ‘भगवन परशुराम जी इन तपस्वी महात्माओं को कब दर्शन देंगे? उसी निमित्त से मैं भी उन भगवन भार्गव का दर्शन करना चाहता हूँ।' अकृतव्रण ने कहा- राजन! आत्मज्ञानी परशुराम को पहले ही यह ज्ञात हो गया था कि आप आ रहे हैं। आप पर उनका बहुत प्रेम है, अत: वे शीध्र ही आपको दर्शन देंगे। ये तपस्वी लोग प्रत्येक चतुर्दशी ओर अष्टमी को परशुराम जी का दर्शन करते हैं। आज की रात बीत जाने पर कल सबेरे चतुर्दशी हो जायेगी। युधिष्ठिर ने पूछा- मुने ! आप महाबली परशुराम जी के अनुगत भक्त हैं। उन्होंने पहले जो-जो कार्य किये हैं, उन सबको आपने प्रत्यक्ष देखा है। अत: हम आपसे जानना चाहते हैं कि परशुराम जी ने किस प्रकार ओर किस कारण से समस्त क्षत्रियों को युद्ध में पराजित किया था। आप वह वृत्तांत आज मुझे बताइये। अकृतव्रण ने कहा- भरतकुलभुषण नृपश्रेष्ट युधिष्ठिर! भृगुवंशी परशुराम जी की कथा बहुत बड़ी और उत्तम है, मैं आपसे उसका वर्णन करूँगा। भारत ! जमदग्रिकुमार परशुराम तथा हैहयराज कार्तवीर्य का चरित्र देवताओं के तुल्य है। पाण्डुनन्दन! परशुराम ने अर्जुन नाम से प्रसिद्ध जिस हैहयराज कार्तवीर्य का वध किया था, उसके एक हजार भुजाएं थीं। पृथ्वीपते ! श्रीदत्तात्रेय की कृपा से उसे एक सोने का विमान मिला था और भूतल के सभी प्राणीयों पर उसका प्रभुत्व था। महामना कार्तवीर्य के रथ की गति को कोई भी रोक नहीं सकता था। उस रथ और वर के प्रभाव से शक्ति सम्पन्न हुआ कार्तवीर्य अर्जुन सब ओर घूमकर सदा देवताओं, यक्षों तथा ऋषियों को रौंदता फिरता था और सम्पूर्ण प्राणीयों को भी सब प्रकार से पीड़ा देता था।
कार्तवीर्य का ऐसा अत्याचार देख देवता तथा महान व्रत का पालन करने वाले ऋषि मिलकर दैत्यों का विनाश करने वाले सत्यपराक्रमी देवाधिदेव भगवान विष्णु के पास जा इस प्रकार बोले- ‘भगवन! आप समस्त प्राणीयों की रक्षा के लिए कृतवीर्यकुमार अर्जुन का वध कीजिये।‘ एक दिन शक्तिशाली हैहयराज ने दिव्य विमान द्वारा शची के साथ क्रीड़ा करते हुए देवराज इन्द्र पर आक्रमण किया। भारत!
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तब भगवान विष्णु ने कार्तवीर्य अर्जुन का नाश करने के सम्बंध में इन्द्र के साथ विचार-विनिमय किया।
समस्त प्राणीयों के हित के लिये जो कार्य करना आवश्यक था, उसे देवेन्द्र ने बताया। तत्पश्चात विश्ववन्दित भगवान विष्णु ने वह सब कार्य करने की प्रतिज्ञा करके अत्यन्त रमणीय बदरीतीर्थ की यात्रा की जहाँ उनका विशाल आश्रम था।
महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद
इसी समय इस भूतल पर कान्यकुब्ज देश में एक महाबली महाराज शासन करते थे, जो गाधि के नाम से विख्यात थे। वे राजधानी छोड़कर वन में गये और वहीं रहने लगे। उनके वनवास काल में ही एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अप्सरा के समान सुन्दरी थी। भारत! विवाह योग्य होने पर भृगुपुत्र ऋचीक मुनि ने उसका वरण किया। उस समय राजा गाधि ने कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रह्मर्षि ऋचीक से कहा- ‘दिजश्रेष्ठ! हमारे कुल में पूर्वजों ने जो कुछ शुल्क लेने का नियम चला रखा है, उसका पालन करना हम लोगों के लिए भी उचित है। अत: आप यह जान लें, इस कन्या के लिए एक सहस्र वेगशाली अश्व शुल्क रूप में देने पड़ेंगे, जिनके शरीर का रंग तो सफेद और पीला मिला हुआ-सा और कान एक ओर से काले रंग के हों। भृगुनन्दन! आप कोई निन्दनीय तो हैं नहीं, यह शुल्क चुका दीजिये, फिर आप जैसे महात्मा को में अवश्य अपनी कन्या ब्याह दूंगा’।
ऋचीक बोले- राजन! मैं आपको एक ओर से श्याम कर्ण वाले पाण्डु रंग के वेगशाली अश्व एक हजार की संख्या में अर्पित करूँगा। आपकी पुत्री मेरी धर्मपत्नी बने।
अकृतव्रण कहते हैं- राजन! इस प्रकार शुल्क देने की प्रतिज्ञा करके ऋचीक मुनि ने वरुण के पास जाकर कहा- देव! मुझे शुल्क में देने के लिए एक हजार ऐसे अश्व प्रदान करें, जिनके शरीर का रंग पाण्डुर और कान एक ओर से श्याम हों। साथ ही वे सभी अश्व तीव्रगामी होने चाहिये।‘ उस समय वरुण ने उनकी इच्छा के अनुसार एक हजार श्याम कर्ण के घोड़े दे दिये। जहाँ वे श्याम कर्ण के घोड़े प्रकट हुए थे, वह स्थान अश्वतीर्थ नाम से विख्यात हुआ। तत्पश्चात राजा गाधि ने शुल्क रूप में एक हजार श्याम कर्ण घोड़े प्राप्त करके गंगातट पर कान्यकुब्ज नगर में ऋचीक मुनि को अपनी पुत्री सत्यवती ब्याह दी। उस समय देवता बराती बने थे। देवता उन सबको देखकर वहाँ से चले गये।" विप्रवर ऋचीक ने धर्मपूर्वक सत्यवती को पत्नी के रूप में प्राप्त करके उस सुन्दरी के साथ अपनी इच्छा के अनुसार सुखपूर्वक रमण किया।
राजन! विवाह करने के पश्चात पत्नी सहित ऋचीक को देखने के लिए महर्षि भृगु उनके आश्रम पर आये अपने श्रेष्ठ पुत्र को विवाहित देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन दोनों पति-पत्नि ने पवित्र आसन पर विराजमान देववृन्दवन्दित गुरु (पिता एवं श्वसुर) का पूजन किया और उनकी उपासना में संलग्न हो वे हाथ जोड़े खड़े रहे। भगवान भृगु ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपनी पुत्रवधु से कहा- ‘सौभाग्यवती वधु ! कोई वर मांगो, मैं तुम्हारी इच्छा के अनुरूप वर प्रदान करूँगा’। सत्यवती ने श्वसुर को अपने और अपनी माता के लिये पुत्र-प्राप्ति का उद्देश्य रखकर प्रसन्न किया। तब भृगु जी ने उस पर कृपादृष्टि की। भृगु जी बोले- 'वधु ! ऋतुकाल में स्नान करने के पश्चात तुम और तुम्हारी माता पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से दो भिन्न-भिन्न वृक्षों का आलिगंन करो। तुम्हारी माता पीपल का और तुम गूलर का आलिंगन करना।'
महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद-
'भद्रे ! मैंने विराट पुरुष परमात्मा का चिन्तन करके तुम्हारे और तुम्हारी माता के लिये यत्नपूर्वक दो चरु तैयार किये हैं। तुम दोनों प्रयन्तपूर्वक अपने-अपने चरु का भक्षण करना।' ऐसा कहकर भृगु अन्तर्धान हो गये। इधर सत्यवती और उसकी माता ने वृक्षों के आलिंगन और चरु-भक्षण में उलट-फेर कर दिया।
तदनन्तर बहुत दिन बीतने पर भगवान भृगु अपनी दिव्य ज्ञानशक्ति से सब बातें जानकर पुन: वहाँ आये। उस समय महातेजस्वी भृगु अपनी पुत्रवधु सत्यवती से बोले- ‘भद्रे! तुमने चरु-भक्षण और वृक्षों का आलिगंन किया है, उसमें उलट-फेर करके तुम्हारी माता ने तुम्हें ठग लिया। सुभ्र ! इस भूल के कारण तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियोचित आचार-विचार वाला होगा और तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित आचार-विचार का पालन करने वाला होगा।
वह पराक्रमी बालक साधु-महात्माओं के मार्ग का अवलम्बन करेगा’। तब सत्यवती ने बार-बार प्रार्थना करके पुन: अपने श्वसुर को प्रसन्न किया और कहा- ‘भगवन! मेरा पुत्र ऐसा न हो। भले ही, पौत्र क्षत्रिय स्वभाव का हो जाये’।
पाण्डुनन्दन! तब ‘एवमस्तु’ कहकर भृगु ने अपनी पुत्रवधु का अभिनन्दन किया। तत्पश्चात प्रसव का समय आने पर सत्यवती ने जमदग्नि नामक पुत्र को जन्म दिया। भार्गवनन्दन जमदग्रि तेज और ओज (बल) दोनों से सम्पन्न थे।
युधिष्ठिर ! बड़े होने पर महातेजस्वी जमदग्रि मुनि वेदाध्ययन द्वारा अन्य बहुत-से ऋषियों से आगे बढ़ गये। भरतश्रेष्ठ ! सूर्य के समान तेजस्वी जमदग्रि की बुद्धि में सम्पूर्ण धनुर्वेद और चारों प्रकार के अस्त्र स्वत: स्फुरित हो गये।
"इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान विषयक एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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"अकृतव्रण उवाच"
स वेदाध्ययने युक्तो जमदग्निर्महातपाः।
तपस्तेपे ततो देवान्नियमाद्वशमानयत् ।1।
स प्रसेनजितं राजन्नधिगम्य नराधिपम्।
रेणुकां वरयामास स च तस्मै ददौ नृपः।2।
रेणुकां त्वथ संप्राप्य भार्यां भार्गवनन्दनः।
आश्रमस्थस्तया सार्धं तपस्तेपेऽनुकूलया ।।3।
तस्याः कुमाराश्चत्वारो जज्ञिरे रामपञ्चमाः।
सर्वेषामजघन्यस्तु राम आसीञ्जघन्यजः ।4।
फलाहारेषु सर्वेषु गतेष्वथ सुतेषु वै।
रेणुका स्नातुमगमत्कदाचिन्नियतव्रता ।5।
सा तु चित्ररथं नाम मार्तिकावतकं नृपम्।
ददर्श रेणुका राजन्नागच्छन्ती यदृच्छया ।6।
क्रीडन्तं सलिले दृष्ट्वा सभार्यं पद्ममालिनम्।
ऋद्धिमन्तं ततस्तस्य स्पृहयामास रेणुका ।7।
व्यभिचाराच्च तस्मात्सा क्लिन्नाम्भसि विचेतना।
अन्तरिक्षान्निपतिता नर्मदायां महाह्रदे ।8।
उतीर्य चापि सा यत्नाज्जगाम भरतर्षभ'।
प्रविवेशाश्रमं त्रस्ता तां वै भर्तान्वबुध्यत ।9।
स तां दृष्ट्वाच्युतांधैर्याद्ब्राह्म्या लक्ष्म्या विवर्जिताम्।
श्रिक्शब्देन महातेजा गर्हयामास वीर्यवान्।10।
ततो ज्येष्ठो जामदग्न्यो रुमण्वान्नाम नामतः।
आजगाम सुषेणश्च वसुर्विश्वावसुस्तथा ।11।
तानानुपूर्व्याद्भगवान्वधे मातुरचोदयत्।
न च ते जातसंमोहाः किंचिदूचुर्विचेतसः ।12।
ततः शशाप तान्क्रोधात्ते शप्ताश्चैतनां जहुः।
मृगपक्षिसधर्माणः क्षिप्रमासञ्जडोपमाः ।13।
ततो रामोऽभ्ययात्पश्चादाश्रमं परवीरहा।
तमुवाच महामन्युर्जमदग्निर्महातपाः ।14।
जहीमां मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृथाः।
तत आदाय परशुं रामो मातु शिरोऽहरत् ।15।
ततस्तस्य महाराज जमदग्नेर्महात्मनः।
कोपोऽभ्यगच्छत्सहसा प्रसन्नश्चाब्रवीदिदम् ।16।
ममेदं वचनात्तात कृतं ते कर्म दुष्करम्।
वृणीष्व कामान्धर्मज्ञ यावतो वाञ्छसे हृदा ।17।
स वव्रे मातुरुत्थानमस्मृतिं च वधस्य वै।
पापेन तेन चास्पर्शं भ्रातॄणां प्रकृतिं तथा ।18।
अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे दीर्घमायुश्च भारत।
ददौ च सर्वान्कामांस्ताञ्जमदग्निर्महातपाः।19।
कदाचित्तु तथैवास्य विनिष्क्रान्ताः सुताः प्रभो।
अथानूपपतिर्वीरः कार्तवीर्योऽभ्यवर्तत ।20।
तमाश्रमपदं प्राप्तमृषिरर्ध्यात्समार्चयत्।
स युद्धमदसंमत्तो नाभ्यनन्दत्तथाऽर्चनम् ।21।
प्रमथ्य चाश्रमात्तस्माद्धोमधेनोस्ततोबलात्।
जहार वत्सं क्रोशन्त्या बभञ्ज च महाद्रुमान् 22।
आगताय च रामाय तदाचष्ट पिता स्वयम्।
गां च रोरुदतीं दृष्ट्वा कोपो रामं समाविशत्।
स मन्युवशमापन्नः कार्तवीर्यमुपाद्रवत् ।23।
तस्याथ युधि विक्रम्य भार्गवः परवीरहा।
चिच्छेद निशितैर्भल्लैर्बाहून्परिघसंनिभान् ।24।
सहस्रसंमितान्राजन्प्रगृह्य रुचिरं धनुः।
अभिभूतः स रामेण संयुक्तः कालधर्मणा ।25।
अर्जुनस्याथ दायादा रामेण कृतमन्यवः।
आश्रमस्थं विना रामं जमदग्निमुपाद्रवन् ।26।
ते तं जघ्नुर्महावीर्यमयुध्यन्तं तपस्विनम्।
असकृद्रामरामेति विक्रोशन्तमनाथवत् ।27।
कार्तवीर्यस्य पुत्रास्तु जमदग्निं युधिष्ठिर।
घातयित्वा शरैर्जग्मुर्यथागतमरिंदमाः ।28।
अपक्रान्तेषु वै तेषु जमदग्नौ तथा गते।
समित्पाणिरुपागच्छदाश्रमं भृगुनन्दनः ।29।
स दृष्ट्वा पितरं वीरस्तदा मृत्युवशं गतम्।
अनर्हं तं तथाभूतं विललाप सुदुःखितः।30।
इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ।117।
यहाँ कुछ प्रतियों में ‘देवान् कर्मकारक द्वितीया विभक्ति बहुवचन’ की जगह ‘वेदान्पाकर्मकारक द्वितीया विभक्ति बहुवचन’ पाठ मिलता है। उस दशा में यह अर्थ होगा कि ‘वेदों को वश में कर लिया। परंतु वेदों को वश में करने की बात असंगत-सी लगती है।
देवताओं को वश में करना ही सुसंगत जान पड़ता है, इसलिये हमने ‘देवान्’ यही पाठ रखा है। काश्मीर की देवनागरी लिपि वाली हस्त लिखित पुस्तक में यहाँ तीन श्लोक अधिक मिलते हैं। उनसे भी ‘देवान्’ पाठ का ही समर्थन होता है। वे श्लोक इस प्रकार हैं-
तं तप्यमानं ब्रह्मर्षिमूचुर्देवा: सबांधवा:।
किमर्थ तप्य से ब्रह्मन क: काम: प्रार्थितस्तव॥१।
एवमुक्त: प्रत्युवाच देवान् ब्रह्मर्षिसत्तम:।
स्वर्गहेतोस्तपस्तप्ये लोकाश्व स्युर्ममाक्षया:॥२।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य तदा देवास्तमूचिरे।
नासंततेर्भवेल्लोक: कृत्वा धर्मशतान्यपि॥३।
स श्रुत्वा वचनं तेषां त्रिदशानां कुरूद्वह॥
इन श्लोकों द्वारा देवताओं के प्रकट होकर वरदान देने का प्रसंग सूचित होता है, अत: 'ततो देवान् नियनाद् वशमानयत्' वही पाठ ठीक है।
(सन्दर्भ- गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)
महाभारत: वनपर्व: सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद पिता की आज्ञा से परशुराम जी का अपनी माता का मस्तक काटना और उन्हीं के वरदान से पुन: जिलाना, परशुराम जी द्वारा कार्तवीर्य अर्जुन का वध और उसके पुत्रों द्वारा जमदग्नि मुनि की हत्या अकृतव्रण कहते हैं- राजन! महातपस्वी जमदग्नि ने वेदाध्ययन में तत्पर होकर तपस्या आरम्भ की। तदनन्तर शौच-संतोषदि नियमों का पालन करते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं को अपने वश में कर लिया।
युधिष्ठिर ! फिर राजा प्रसेनजित के पास जाकर जमदग्नि मुनि ने उनकी पुत्री रेणुका के लिए याचना की ओर राजा ने मुनि को अपनी कन्या ब्याह दी। भृगुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले जमदग्नि राजकुमारी रेणुका को पत्नी रूप में पाकर आश्रम पर ही रहते हुए उसके साथ तपस्या करने लगे। रेणुका सदा सब प्रकार से पति के अनुकूल चलने वाली स्त्री थी। उसके गर्भ से क्रमश: चार पुत्र हुए, फिर पांचवें पुत्र परशुराम जी का जन्म हुआ। अवस्था की दृष्टि से भाइयों में छोटे होने पर भी वे गुणों में उन सबसे बढ़े-चढ़े थे। एक दिन जब सब पुत्र फल लाने के लिये वन में चले गये, तब नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली रेणुका स्नान करने के लिए नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था। उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की।
उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये। उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की। इसी समय जमदग्नि के ज्येष्ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुशेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे। भगवान जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो', परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया। शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षियों के समान जड़-बुद्धि हो गये।
महाभारत: वनपर्व: अध्याय: ११६ वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
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तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये।उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापीनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला। महाराज! इससे महात्मा जमदग्नि का क्रोध सहसा शान्त हो गया और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- ‘तात ! तुमने मेरे कहने पर वह कार्य किया है, जिसे करना दूसरों के लिये बहुत कठिन है। तुम धर्म के ज्ञाता हो। तुम्हारे मन में जो-जो कामनाऐं हों, उन सबको मांग लो।‘ तब परशुराम ने कहा-‘पिताजी, मेरी माता जीवित हो उठें, उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की बात याद न रहे, वह मानस पाप उनका स्पर्श न कर सके, मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जायें, युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न हो और मैं बड़ी आयु प्राप्त करूँ।‘ भारत ! महातेजस्वी जमदग्नि ने वरदान देकर उनकी वे सभी कामनाएं पूर्ण कर दीं । युधिष्ठिर ! एक दिन इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गये हुए थे। उसी समय (अनूपदेश) का वीर कार्तवीर्य अर्जुन उधर आ निकला। आश्रम में आने पर ऋषि-पत्नी रेणुका ने उसका यथोचित आथित्य सत्कार किया। कार्तवीर्य अर्जुन युद्ध के मद से उन्मत्त हो रहा था। उसने उस सत्कार को आदरपूर्वक ग्रहण नहीं किया। उल्टे मुनि के आश्रम को तहस-नहस करके वहाँ से डकराती हुई होमधेनु के बछड़े को बलपूर्वक हर लिया और आश्रम के बड़े-बड़े वृक्षों को भी तोड़ डाला। जब परशुराम आश्रम में आये, तब स्वयं जमदग्नि ने उनसे सारी बातें कहीं। बारंबार डकराती हुई होम की धेनु पर उनकी दृष्टि पड़ी। इससे वे अत्यन्त कुपित हो उठे और काल के वशीभूत हुए कार्तवीर्य अर्जुन पर धावा बोल दिया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले भृगुनन्दन परशुराम ने अपना सुन्दर धनुष ले युद्ध में महान पराक्रम दिखाकर पैने बाणों द्वारा उसकी परिघ सदृश सहस्र भुजाओं को काट डाला। इस प्रकार परशुराम से परास्त हो कार्तवीर्य अर्जुन काल के गाल में चला गया। पिता के मारे जाने से अर्जुन के पुत्र परशुराम पर कुपित हो उठे और एक दिन परशुराम की अनुपस्थिति में जब आश्रम पर केवल जमदग्नि ही रह गये थे, वे उन्हीं पर चढ़ आये। यद्यपि जमदग्नि महान शक्तिशाली थे तो भी तपस्वी ब्राह्मण होने के कारण युद्ध में प्रवृत्त नहीं हुए। इस दशा में भी कार्तवीर्य के पुत्र उन पर प्रहार करने लगे। युधिष्ठिर! वे महर्षि अनाथ की भाँति ‘राम! राम!‘ की रट लगा रहे थे, उसी अवस्था में कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों ने उन्हें बाणों से घायल करके मार डाला। इस प्रकार मुनि की हत्या करके वे शत्रुसंहारक क्षत्रिय जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। जमदग्नि के इस तरह मारे जाने के बाद वे कार्तवीर्यपुत्र भाग गये। तब भृगुनन्दन परशुराम हाथों में समिधा लिये आश्रम में आये। वहाँ अपने पिता को इस प्रकार दुर्दशापूर्वक मरा देख उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। उनके पिता इस प्रकार मारे जाने के योग्य कदापि नहीं थे, परशुराम उन्हें याद करके विलाप करने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान में जमदग्निवध विषयक एकसौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।117।
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प्रथम स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद-
चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब विष्णु ने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की।
जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया।
बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया।
चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है।
पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी। सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया।
इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति को देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं। अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं।
उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा।
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उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा।
इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे।
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शौनकादि ऋषियों ! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं।
जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं।
भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय-रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है। प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है।
जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं- वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं।
सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया। जैसा कि महाभारत में वर्णित है
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शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
•-उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।6।
•-वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे;।राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया।6।
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।
•-ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से हजारों वीर्यवान् क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। 7।
कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये।
एवं तद्ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः।8।
•-पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया।8।
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः।9।
•-तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। ये सब दीर्घजीवी धर्म पूर्वक बुढ़ापे को प्राप्त करते ।9।
अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतौ तथा।
तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि।10।
•-उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नि समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।
10।
ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तत्तथा भरतर्षभ।
ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः।11।
•-भरतश्रेष्ठ! उस ऋतुकाल में स्त्रीसंभोग समय के अनुरूप धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।11।
ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः।
आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः।12।
•-भूपाल! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।12।
अथेमां सागरोपान्तां गां गजेन्द्रगताखिलाम्।
अध्यतिष्ठत्पुनः क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम्।13।
•-गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। 13।
प्रशासति पुनःक्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्।
ब्राह्मणाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम्।14।
जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। 14।
कामक्रोधोद्भवान्दोषान्निरस्य च नराधिपाः।
धर्मेण दण्डं दण्डेषु प्रणयन्तोऽन्वपालयन्।15।
•-उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। 15।
तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः।
स्वादु देशे च काले च ववर्षाप्याययन्प्रजाः।16।
•-इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा।
उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। 16।
न बाल एव म्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप।
नचस्त्रियंप्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनाम्।17।
•-राजन! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था।17।
एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ।
इयं सागरपर्यन्ता ससापूर्यत मेदिनी।18।
•-ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी।। 18।
ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः।
साङ्गोपनिषदान्वेदान्विप्राश्चाधीयते तदा।19।
•-क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। 19।
महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उपपर्व का(64) वाँ अध्याय:
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अब प्रश्न यह भी उठता है !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते 3/14
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महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही है ।
मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---
कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ?
किस सिद्धांत की अवहेलना करके क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?
पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी।
उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी।
नर- शार्दूल ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; " राजन" उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी। श्लोक - (5-6-7)
प्रधानता बीज की होती है नकि खेत की
क्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--
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प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार रोहि-
सम्पर्क सूत्र :- 8077160219
महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उपपर्व का (चतुःषष्टितम )(64) अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद :-
जिसमें ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समय के धार्मिक राज्य का वर्णन है।असुरों का जन्म और उनके भार से पीड़ित पृथ्वी का ब्रह्मा जी की शरण में जाना तथा ब्रह्मा जी का देवताओं को अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश का वर्णन है ।
जनमेजय बोले- ब्रह्मन् ! आपने यहाँ जिन राजाओं के नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशों के नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओं का मैं भलि-भाँति परिचय सुनना चाहता हूँ। महाभाग! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वी पर जिस उद्देश्य की सिद्धि के लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत वर्णन कीजिये।
वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! यह देवताओं का रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है।
स्वयंभू ब्रह्मा जी को नमस्कार करके आज उसी रहस्य का तुमने वर्णन करूंगा।
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पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी।
उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी।
नररत्न ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; ! राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों के द्वार गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी।तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए।
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उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नी समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे।
इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे। भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।
भूपाल ! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।
गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय ! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया।
जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।
उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे।
इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा।
उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे।
राजन ! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ! ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। १- से १९ तक का अनुवाद
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"अब प्रश्न यह उठता है; कि जब धर्म शास्त्रों जैसे मनुस्मृति आदि स्मृतियों और महाभारत में भी विधान वर्णित है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती हैं उनमें दो पत्नीयों क्रमश: ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है वह वर्ण से ब्राह्मण ही होती है तो परशुराम द्वारा मारे गये क्षत्रियों की विधवाऐं जब ऋतुकाल में सन्तान की इच्छा से आयीं तो वे सन्तानें क्षत्रिय क्यों हुई उन्हें तो ब्राह्मण होना चाहिए जैसे की शास्त्रों का वर्ण-व्यवस्था के विषय में सिद्धान्त भी है । देखें निम्न सन्दर्भों में
"अर्थ:- कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती है उनमें क्रमश ब्राह्मणी और क्षत्राणी से उत्पन्न सन्तान वर्ण से ब्राह्मण ही होती है और शेष दो पत्नीयों क्रमश: वैश्याणी और शूद्राणी से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण तत्व से रहित माता के वर्ण या जाति की जानी जाती हैं "
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महाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दान धर्म नामक उपपर्व-
अब प्रश्न यह भी उठता है कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं कि जैसा कि मनुस्मृति आदि में और इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक(अड़तालीसवाँ अध्याय) में वर्णन है ।
जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी नाईं उत्पन्न होता है उसी तरह अनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।(मनुस्मृति)
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तिस्र:क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का होता है । तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
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ये श्लोक महाभारत के आदिपर्व के हैं ये क्या यह दावा कर सकते हैं कि ब्राह्मणों से क्षत्रियों की पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? किस सिद्धांत के अनुसार क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य है ?
मनुस्मृति का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसके अध्याय 10 के श्लोक संख्या 11 से 50 के बीच समस्त द्विज को छोड़कर समस्त हिन्दू जाति को नाजायज संतान बताया गया है। मनुस्मृति के अनुसार नाजायज जाति दो प्रकार की होती है।
अनुलोम संतान – उच्च वर्णीय पुरूष का निम्न वर्णीय महिला से संभोग होने पर उत्पन्न संतान
प्रतिलाेम संतान – उच्च वर्णीय महिला का निम्न वर्णीय पुरूष से संभोग होने पर उत्पन्न संतान
मनुस्मति के अनुसार कुछ जाति की उत्पत्ति आप इस तालिका से समझ सकते हैं।
जो राजपूत स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं शास्त्रों में उन्हें भी वर्णसंकर और शूद्र धर्मी कहा है ।
विशेष– यद्यपि सात्वत आभीर ही थे जो यदुवंश से सम्बन्धित थे। परन्तु मूर्खता की हद नहीं इन्हें भी वर्णसंकर बना दिया।
इसी प्रकार औशनस एवं शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में भी जाति की उत्पत्ति का यही आधार बताया गया है जिसमें चामार, ताम्रकार, सोनार, कुम्हार, नाई, दर्जी, बढई धीवर एवं तेली शामिल है।
अर्थ- ब्राह्मण से उग्र जाति की कन्या में आवृत उत्पन्न होता है। और आभीर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न होता है और आयोगव्या में ब्राह्मण से धिग्वण उत्पन्न होता है ।
विदित हो की भागवत धर्म के सूत्रधार सात्ववत जो यदु के पुत्र माधव के पुत्र सत्वत् (सत्त्व) की सन्तान थे जिन्हें
इतिहास में आभीर रूप में भी जाना गया ये सभी वृष्णि कुल से सम्बन्धित रहे जैसा की नन्द को गर्ग सहिता में आभीर रूप में सम्बोधित किया गया है ।
"क्रोष्टा के कुल में आगे चलकर सात्वत का जन्म हुआ। उनके सात पुत्र थे उनमे से एक का नाम वृष्णि था। वृष्णि से वृष्णिकुल चला इस कुल में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुये।
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"आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रःप्रकीर्तितः ॥
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रपः॥१४॥
गर्गसंहिता -खण्डः ७ (विश्वजित्खण्डः)-अध्यायः ७
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गुर्जरराष्ट्राचेदिदेशगमनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
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नारद और बहुलाक्ष(मिथिला) के राजा में संवाद चलता है तब नारद बहुलाक्ष से शिशुपाल और उद्धव के संवाद का वर्णन करते हैं
अर्थात् यहाँ संवाद में ही संवाद है। 👇
तथा द्वारिका खण्ड में यदुवंश के गोलों को आभीर कहा है।
गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु- माता द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है !
ऐसा वर्णन है
यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे। गुरुमातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः।।१६।।
अर्थ:- दमघोष पुत्र शिशुपाल उद्धव जी से कहता हैं कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है । उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज (त्रप) नहीं आती है। और जब वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी तब भी आभीर जाति उपस्थित थी। -वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू तथा कहीं यादवी भी कहा है ।
★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया - परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा ! तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया ! यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों ,विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्द में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।
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विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्रनाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम में गायत्री को "यादवी, "माधवी और "गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक साक्ष्य व सन्दर्भ हैं ।
'यादव 'गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है ___________________
सात्वतों को शूद्र व वर्णसंकर बनाने के लिए शास्त्रों में प्रक्षिप्त श्लोकों को समाविष्ट किया गया।
अर्थ- वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष (करूष देश का निवासी तथा एक वर्णसंकर जाति जिसका पिता व्रात्य वैश्य और माता वैश्यवर्ण हो) " विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न व्रती पुत्र को सुधन्वाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।
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विशेष-वह जिसके दस संस्कार न हुए हों। संस्कार-हीन। अथर्ववेद में मगध के निवासियों को व्रात्य कहा गाय हो तथा हिन्दुसभ्यता, पृष्ठ ९६। वह जिसका उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो। विशेष—ऐसा मनुष्य पतित और अनार्य समझा जाता है और उसे वैदिक कृत्य आदि करने का अधिकार नहीं होता। शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति के लिये प्रायाश्चित्त का विधान किया गया है।
प्राचीन वैदिक काल में 'व्रात्य' शब्द प्रायः परब्रह्म का वाचक माना जाता था; और अथर्ववेद में 'व्रात्य' की बहुत अधिक माहिमा कही गई है। उसमें वह वैदिक कार्यो का अधिकारी, देवप्रिय, ब्राह्मणों और क्षत्रियों का पूज्य, यहाँ तक की स्वयं देवाधिदेव कहा गया है।
परंतु परवर्ती काल में यह शब्द संस्कारभ्रष्ट, पतित और निकृष्ट व्यक्ति का वाचक हो गया है।
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जबकि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में सात्वत -यदु के पुत्र माधव के 'सत्त्व' नामक पुत्र की सन्तानें थी अर्थात यदु के प्रपौत्र थे सात्वत लोग-।
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे। त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।36।।
बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्। येन भैमा:सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति। शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।39।।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्। निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
भावार्थ-
जब वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये। तब माधव का पराक्रमी पुत्र "सत्त्व" नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्व(सत) राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे।
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सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।
सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है।
जब राजा भीम आनर्त देश ( द्वारिका - वर्तमान गुजरात)के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे।
अत: इसके अतिरिक्त भी गायत्री वेदों की जब अधिष्ठात्री देवी है और ब्रह्मा की पत्नी रूप में वेद शक्ति है।
तो आभीर लोग ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में कैसे उत्पन्न हो गये ?
वास्तव में अहीरों को मनुस्मृति कार ने वर्णसंकर इसी लिए वर्णित किया ताकि इन्हें हेय सिद्ध करके वर्णसंकर बनाकर इन पर शासन किया जा सके।
कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु कहलाते थे। श्री श्रीराम साठे ने लिखा है कि हैहयवंशी राजा दुर्दम से लेकर सहस्त्रार्जुन हैहय लोग काठियावाड से काशी तक के प्रदेश में उदण्ड बनकर रहते थे।
राजा दुर्दम के समय से ही उनका अपने भार्गव पुरोहितों से किसी कारण झगड़ा हुआ।
इन पुरोहितों में से एक की पत्नी ने विन्ध्यवन में और्व को जन्म दिया।
और्व का वंश इस प्रकार चला - और्व --> ऋचिक --> जमदग्नि --> परशुराम। कार्तवीर्य अर्जुन ने इन्ही जमदग्नि की हत्या कर दी थी।
तब जामदग्न्य परशुराम के नेतृत्व में वशिष्ठ और भार्गव पुरोहितों ने इक्कीस बार हैहयों को पराजित किया। अंततः सहस्त्रार्जुन की मृत्यु हुई।
प्राचीन भारतीय इतिहास का यह प्रथम महायुद्ध था। श्री साठे ने ही लिखा है कि परशुराम का समय महाभारत युद्ध के पूर्व 17 वीं पीढ़ी का है।
धरती को क्षत्रियविहीन करने के संकल्प के साथ परशुराम के लगातार 21 आक्रमणों से भयत्रस्त होकर अनेक क्षत्रिय पुरुष व स्त्रियाँ यत्र-तत्र छिप कर रहने लगी थी।
मनुस्मृति में लिखा है -
कोचिद्याता मरूस्थल्यां सिन्धुतीरे परंगता।
महेन्द्रादि रमणकं देशं चानु गता परे ।1।।
यथ दक्षिणतोभूत्वा विन्ध्य मुल्लंघ्यं सत्वरं।
ययो रमणकं देशं तत्रव्या क्षत्रिया अपि ।।2।।
सूर्यवंश्या भयो दिव्यानास्तं दृष्टवाभ्यवदन्मिथः।
समा यातो यमधुनां जीवननः कथं भवेत् ।3।
समेव्य निश्चितं सर्वैर्जीवनं वैश्य धर्मतः।
इत्यापणेसु राजन्यास्ते चक्रु क्रय विक्रयम।4।
अर्थात, "कोई मरुस्थली में, कोई समुद्र के किनारे गए। कोई महेन्द्र पर्वत पर और कोई रमणक देश में पहुँचे, तब वहाँ के सूर्यवंशी क्षत्रिय भय से व्याकुल होकर बोले कि अब यहाँ भी परशुराम आ गए, अब हमारा जीवन कैसे बचेगा ? तब सबों ने घबरा कर तत्काल क्षत्रिय धर्म को छोड़ कर अन्य वैश्य वृत्तियों का अवलंबन किया। "
परशुराम के भय के कारण क्षत्रियों के पतन का विवरण महाभारत में भी उपलब्ध है -
जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषित:।63।"
परशुराम, एक-एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकी थी।
-इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रवत सब कर्म करता है, इसलिए 'सर्वकर्मा' नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करें।
अर्थात्, "पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दारद और खश ये क्षत्रिय जातियाँ (उपनयनादि) क्रियालोप होने से एवं ब्राह्मण का दर्शन न होने के कारण (अध्ययन आदि के अभाव में) इस लोक में शूद्रत्व को प्राप्त होती हैं" - इससे क्षत्रियों के अधोपतन की बात सिद्ध होती है।
यद्यपि असंख्य जनजातियों द्वारा स्वयं को क्षत्रिय घोषित किये जाने के प्रमाण मिलते हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा । परन्तु, अत्यंत कालातीत होने के बावजूद कतिपय जातियाँ अपने को 'हैहयवंशी' भी कहती हैं|
डा. बी. पी. केसरी ने घासीराम कृत 'नागवंशावली झूमर' के अध्याय 4, पृष्ठ 82 से संदर्भित निम्न दोहे के अनुसार कोराम्बे (राँची) के रक्सेल राजाओं को हैहयवंशी कहा है -
हे नारद ! अनन्तर दोनों ओर के सैनिको में भयंकर युद्ध. आरम्भ हुआ जिसमें परशुराम के शिष्यगण और महावली भ्राता गण भगवान कार्तवीर्य से अतिपीडित एवं छिन्नभिन्न होकर भाग निकले ।९।
राजा कार्तवीर्य के बाणजाल से आछन्न होने के कारण परशुराम अपनी सेना और राजा कार्तवीर्य की सेना को नही देख सके।१०।
पश्चात परशुराम ने युद्ध में आग्नेय बाण का प्रयोग किया , जिसमें सब कुछ अग्निमय हो गया , राजा कार्तवीर्य ने वारुणबाण द्वारा उसे लीला की भाँति
शान्त कर दिया ।११। परशुराम ने पर्वत-सर्प युक्त गांन्धर्व अस्त्र का प्रयोग किया जिसे कार्तवीर्य अर्जुन ने वायव्य बाण द्वारा समाप्त कर दिया ।१२। फिर परशुराम ने अनिवार्य एंव भयंकर नागास्त्र का प्रयोग किया , जिसे महाराजा सहस्रबाहु ने गरुडास्त्र द्वारा बिना यत्न के ही नष्ट कर दिया ।१३।भृगु नन्दन परशुराम ने माहेश्वर अस्त्र का प्रयोग किया जिसे महाराजा ने वैष्णव अस्त्र द्वारा लीलापूर्बक समाप्त कर दिया ।१४। हे नारद !! अनन्तर परशुराम ने कार्तवीर्य के विनाशार्थ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया , कार्तवीर्य महाराजा ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर उस प्राणनाशक को भी युद्ध में शान्त कर दिया ।१५। तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था ।१६। परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा।१७। हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये ।१८।
विशेष-
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये ,उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
नारायण की आज्ञा से शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक परशुराम को पुन: जीवित कर दिया ।२०।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-16अष्टचत्वारिंश(48)अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद-
परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में राजा युधिष्ठिर का प्रश्न
वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण, राजा युधिष्ठिर, कृपाचार्य आदि सब लोग तथा शेष चारों पाण्डव ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित एवं शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा संचालित नगराकार विशाल रथों से शीघ्रतापूर्वक कुरुक्षेत्र की ओर बढ़े। वे सब लोग केश, मज्जा और हड्डियों से भरे हुए करुक्षेत्र में उतरे, जहाँ महामनस्वी क्षत्रियवीरों ने अपने शरीर का त्याग किया था। वहाँ हाथियों और घोड़ों के शरीरों तथा हड्डियों के अनेकानेक पहाड़ों जैसे ढेर लगे हुए थे। सब ओर शंख के समान सफेद नरमुण्डों की खोपडि़याँ फैली हुई थीं। उस भूमि में सहस्रों चिताएँ जली थीं, कवच और अस्त्र-शस्त्रों से वह स्थान ढका हुआ था। देखने पर ऐसा जान पड़ता था, मानों वह काल के खान-पान की भूमि हो और काल ने वहाँ खान-पान करके उच्छिष्ट करके छोड़ दिया हो। जहाँ झुंड-के-झुंड भूत विचर रहे थे और राक्षसगण निवास करते थे, उस कुरुक्षेत्र को देखते हुए वे सभी महारथी शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में चलते-चलते ही महाबाहु भगवान् यादवनन्दन श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को जमदग्निकुमार परशुरामजी का पराक्रम सुनाने लगे-। ‘कुन्तीनन्दन ! ये जो पाँच सरोवर कुछ दूर से दिखायी देते हैं, ‘राम-ह्रद’ के नाम से प्रसिद्ध हैं इन्हीं में उन्होंने क्षत्रियों के रक्त से अपने पितरों का तर्पण किया था। ‘शक्तिशाली परशुरामजी इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य करके यहीं आने के पश्चात् अब उस कर्म से विरक्त हो गये हैं’। युधिष्ठिर ने पूछा - प्रभो ! आपने यह बताया है कि पहले परशुराम ने इक्कीस बार यह पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी थी, इस विषय में मुझे बहुत बड़ा संदेह हो गया है। अमित पराक्रमी यदुनाथ! जब परशुराम ने क्षत्रियों का बीज तक दग्ध कर दिया, तब फिर क्षत्रिय जाति की उत्पति कैसे हुई ? यदुपुगंव ! महात्मा भगवान् परशुराम ने क्षत्रियों का संहार किस लिये किया और उसके बाद इस जाति की वृद्धि कैसे हुई? वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! महारथयुद्ध के द्वारा जब करोड़ो क्षत्रिय मारे गये होंगे, उस समय उनकी लाशों से यह सारी पृथ्वी ढक गयी होगी। यदुसिंह! भृगुवंशी महात्मा परशुराम ने पूर्वकाल में कुरुक्षेत्र में यह क्षत्रियों का संहार किस लिये किया? गरुड़ध्वज श्रीकृष्ण! इन्द्र के छोटे भाईउपेन्द्र ! आप मेरे संदेह का निवारण कीजिये; क्योंकि कोई भी शास्त्र आपसे बढ़कर नहीं हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर गदाग्रज भगवान् श्रीकृष्ण ने अप्रतिम तेजस्वी युधिष्ठिर से वह सारा वृत्तांत यथार्थ रूप से कह सुनाया कि किस प्रकार यह सारी पृथ्वी क्षत्रियों की लाशों से ढक गयी थी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में परशुराम के उपाख्यान का आरम्भविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद-
परशुराम जी के उपाख्यान में क्षत्रियों के विनाश और पुनः उत्पन्न होने की कथा भगवान श्रीकृष्ण बोले-कुन्तीनन्दन! मैंने महर्षियो के मुख से परशुराम के प्रभाव, पराक्रम तथा जन्म की कथा जिस प्रकार सुनी है, वह सब आपको बताता हूँ, सुनिये। जिस प्रकार जमदग्निन्दन परशुराम ने करोड़ों क्षत्रियों का संहार किया था, पुनः जो क्षत्रिय राजवंशों में उत्पन्न हुए, वे अब फिर भारतयुद्ध में मारे गये। प्राचीन काल में जह्नुनामक एक राजा हो गये हैं, उनके पुत्र का नाम था अज। पृथ्वीनाथ! अज से बलाकाश्व नामक पुत्र का जन्म हुआ। बलाकाश्व के कुशिक नामक पुत्र हुआ। कुशिक बड़े धर्मज्ञ थे। वे इस भूतल पर सहनेत्रधारी इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैं एक ऐसा पुत्र प्राप्त करूँ, जो तीनों लोकों का शासक होने के साथ ही किसी से पराजित न हो, उत्तम तपस्या आरम्भ की। उनकी भयंकर तपस्या देखकर और उन्हें शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करनें में समर्थ जानकर "लोकपालों के स्वामी सहस्र नेत्रों( हजार-आँख) वाले पाकशासन इन्द्र स्वयं ही उनके पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए।राजन् ! कुशिक का वह पुत्र गाधि नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रभो! गाधि के एक कन्या थी, जिसका नाम था सत्यवती। राजा गाधि ने अपनी इस कन्या का विवाह भृगुपुत्र ऋचीक के साथ कर दिया।कुरुनन्दन! सत्यवती बड़े शुद्ध आचार-विचार से रहती थी। उसकी शुद्धता से प्रसन्न हो ऋचीक मुनि ने उसे तथा राजा गाधि को भी पुत्र देने के लिये चरू तैयार किया।भृगुवंशी ऋचीक ने उस समय अपनी पत्नी सत्यवती को बुलाकर कहा- यह चरू तो तुम खा लेना और यह दूसरा अपनी माँ को खिला देना। तुम्हारी माता के जो पुत्र होगा, वह अत्यन्त तेजस्वी एवं क्षत्रियशिरोमणि होगा। इस जगत् के क्षत्रिय उसे जीत नहीं सकेंगे।
वह बडे-बडे क्षत्रियों का संहार करने वाला होगा। कल्याणि! तुम्हारे लिये जो यह चरू तैयार किया है, यह तुम्हें धैर्यवान, शान्त एवं तपस्यापरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण पुत्र प्रदान करेगा। अपनी पत्नी से ऐसा कहकर भृगुनन्दन श्रीमान् ऋचीक मुनि तपस्या में तत्पर हो जंगल में चले गये। इसी समय तीर्थयात्रा करते हुए राजा गाधि अपनी पत्नी के साथ ऋचीक के मुनि के आश्रम पर आये। राजन्! उस समय सत्यवती वह दोनों चरू लेकर शान्तभाव से माता के पास गयी और बड़े हर्ष के साथ पति की कही हुई बात को उससे निवेदित किया। कुन्तीकुमार ! सत्यवती की माता ने अज्ञानवश अपना चरू तो पुत्री को दे दिया और उसका चरू लेकर भोजन द्वारा अपने में स्थित कर लिया। तदनन्तर सत्यवती ने अपने तेजस्वी शरीर से एक ऐसा गर्भ धारण किया, जो क्षत्रियों का विनाश करने वाला था और देखने में बडा भयंकर जान पड़ता था। सत्यवती के गर्भपात बालक को देखकर भृगुश्रेष्ठ ऋचीक ने अपनी उस देवरूपिणी पत्नी से कहा- भद्रे! तुम्हारी माता ने चुरू बदलकर तुम्हें ठग लिया। तुम्हारा पुत्र अत्यन्त क्रोधी और क्रूरकर्म करने वाला होगा। परंतु तुम्हारा भाई ब्राह्मणस्वरूप एवं तपस्या परायण होगा। तुम्हारे चरू में मैने सम्पूर्ण महान् तेज ब्रह्म की प्रतिष्ठा की थी और तुम्हारी माता के लिये जो चरू था, उसमें सम्पूर्ण क्षत्रियोचित बल पराक्रम का समावेश किया गया था, परंतु कल्याणि। चरू के बदल देने से अब ऐसा नहीं होगा। तुम्हारी माता का पुत्र तो ब्राह्मण होगा और तुम्हारा क्षत्रिय।
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद-
पति के ऐसा कहने पर महाभागा सत्यवती उनके चरणों में सिर रखकर गिर पड़ी और काँपती हुई बोली- प्रभो! भगवन् !आज आप मुझसे ऐसी बात न कहें कि तुम ब्राह्मणाधम पुत्र उत्पन्न करोगी। ऋचीक बोले- कल्याणि! मैंने यह सकंल्प नहीं किया था कि तुम्हारे गर्भ से ऐसा पुत्र उत्पन्न हो। परंतु चरू बदल जाने के कारण तुम्हें भयंकर कर्म करने वाले पुत्र को जन्म देना पड़ रहा है। सत्यवती बोली- मुने! आप चाहें तो सम्पूर्ण लोकों की नयी सृष्टि कर सकते है; फिर इच्छानुसार पुत्र उत्पन्न करने की तो बात ही क्या है? अतः प्रभो! मुझे तो शान्त एवं सरल स्वभाव वाला पुत्र ही प्रदान कीजिये। ऋचीक बोले - भद्रे! मैंने कभी हास-परिहास में भी झूठी बात नहीं कही है; फिर अग्नि की स्थापना करके मन्त्रयुक्त चरू तैयार करते समय मैंने जो संकल्प किया है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है? कल्याणि! मैंने तपस्या द्वारा पहले ही यह बात देख और जान ली है कि तुम्हारे पिता का समस्त कुल ब्राह्मण होगा। सत्यवती बोली - प्रभो! आप जप करने वाले ब्राह्मणों में सबसे श्रेष्ठ है, आपका और मेरा पौत्र भले ही उग्र स्वभाग हो जायः परंतु पुत्र तो मुझे शान्तस्वभाव का ही मिलना चाहिये।
ऋचीक बोले -सुन्दरी !मेरे लिये पुत्र और पौत्र में कोई अन्तर नहीं है। भद्रे! तुमने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। श्रीकृष्ण बोले- राजन् !तदन्तर सत्यवती ने शान्त, संयमपरायण और तपस्वी भृगुवंशी जमदग्रि को पुत्र के रूप में उत्पन्न किया। कुशिकनन्दन गाधि ने विश्वामित्र नामक पुत्र प्राप्त किया, जो सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों से सम्पन्न थे" और ब्रह्मर्षि पदवी को प्राप्त हुए। ऋचीक ने तपस्या के भंडार जमदग्नि को जन्म दिया और जमदग्न ने अत्यन्त उग्र स्वभाव वाले जिस पुत्र को उत्पन्न किया, वहीं ये सम्पूर्ण विद्याओं तथा धनुर्वेद के पारंगत विद्वान प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी क्षत्रियहन्ता परशुराम है। परशुराम ने गन्धमादन पर्वत पर महादेव जी को संतुष्ट करके उनसे अनेक प्रकार के अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये। उस कुठार की धार कभी कुण्ठित नहीं होती थीं। वह जलती हुई आग के समान उद्दीप्त दिखायी देता था। उस अप्रमेय शक्तिशाली कुठार के कारण परशुराम सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिम वीर हो गये। इसी समय राजा कृतवीर्य का बलवान पुत्र अर्जुन हैहयवंश का राजा हुआ, जो एक तेजस्वी क्षत्रिय था। दत्तात्रेयजी की कृपा से राजा अर्जुन ने एक हजार भुजाएँ प्राप्त की थीं। वह महातेजस्वी चक्रवर्ती नरेश था। उस परम धर्मज्ञ नरेश ने अपने बाहुबल से पर्वतों और द्वीपों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को युद्ध में जीतकर अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दिया था।
कुन्तीनन्दन! एक समय भूखे-प्यासे हुए अग्निदेव ने पराक्रमी सहस्रबाहु अर्जुन से भिक्षा माँगी और अर्जुन ने अग्नि को वह भिक्षा दे दी। तत्पश्चात् बलशाली अग्निदेव कार्तवीर्य अर्जुन के बाणों के अग्रभाग से गाँवों, गोष्ठों, नगरों और राष्ट्रों को भस्म कर डालने की इच्छा से प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने उस महापराक्रमी नरेश कार्तवीर्य के प्रभाव से पर्वतों और वनस्पतियों को जलाना आरम्भ किया। हवा का सहारा पाकर उत्तरोत्तर प्रज्वलित होते हुए अग्निदेव ने हैहयराज को साथ लेकर महात्मा आपव के सूने एवं सुरम्य आश्रम को जलाकर भस्म कर दिया।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 श्लोक 42-65एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 42-65 का हिन्दी अनुवाद-महाबाहु अच्युत! कार्तवीर्य के द्वारा अपने आश्रम को जला दिये जाने पर शक्तिशाली आपव मुनि को बड़ा रोष हुआ। उन्होंने कृतवीर्य पुत्र अर्जुन को शाप देते हुए कहा। अर्जुन! तुमने मेरे इस विशाल वन को भी जलाये बिना नहीं छोडा, इसलिये संग्राम में तुम्हारी इन भुजाओं को परशुराम काट डालेंगे। भारत ! अर्जुन महातेजस्वी, बलवान, नित्य शान्ति परायण, ब्राह्मण भक्त शरणागतों को शरण देने वाला, दानी और शूरवीर था। अतः उसने उस समय उन महात्मा के दिये हुए शाप पर कोई ध्यान नहीं दिया। शापवश उसके बलवान पुत्र ही पिता के वध में कारण बन गये। भरतश्रेष्ठ !उस शाप के कारण सदा क्रूरकर्म करने वाले वे घमंडी राजकुमार एक दिन जमदग्नि मुनि की होमधेनु के बछडे को चुरा ले आये। उस बछडे के लाये जाने की बात बुद्धिमान हैहयराज कार्तवीर्य को मालूम नहीं थी, तथापि उसी के लिये महात्मा परशुराम का उसके साथ घोर युद्ध छिड गया। राजेन्द्र! तब रोष में भरे हुए प्रभावशालीजमदग्निनन्दन परशुराम ने अर्जुन की उन भुजाओं को काट डाला और इधर-उधर घूमते हुए उस बछडे को वे हैहयों के अन्तःपुर से निकालकर अपने आश्रम में ले आये। नरेश्वर! अर्जुन के पुत्र बुद्धिहीन और मुर्ख थे। उन्होंने संगठित हो महात्मा जगदग्नि के आश्रम पर जाकर भल्लों के अग्रभाग से उनके मस्तक को धड़ से काट गिराया। उस समय यशस्वी परशुराम समिधा और कुशा लाने के लिये आश्रम से दूर चले गये थे। पिता के इस प्रकार मारे जाने से परशुराम के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने इस पृथ्वी को क्षत्रियों से सूनी कर देने की भीष्म प्रतिज्ञा करके हथियार उठाया। भृगुकुल के सिंह पराक्रमी परशुराम ने सहस्रों हैहयों का वध करके इस पृथ्वी पर रक्त की कीच मचा दी। इस प्रकार शीघ्र ही पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन करके महातेजस्वी परशुराम अत्यन्त दया से द्रवित हो वन में ही चले गये। तदनन्तर कई हजार वर्ष बीत जाने पर एक दिन वहाँ स्वभावतः क्रोधी परशुराम पर आक्षेप किया गया। महाराज! विश्वामित्र के पौत्र तथा रैभ्य के पुत्र महातेजस्वी परावसु ने भरी सभा में आक्षेप करते हुए कहा- राम! राजा ययाति के स्वर्ग से गिरने के समय जो प्रतर्दन आदि सज्जन पुरुष यज्ञ में एकत्र हुए थे, क्या वे क्षत्रिय नहीं थे ? तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी है।तुम व्यर्थ ही जनता की सभा में डींग हाँका करते हो कि मैंने क्षत्रियों का अन्त कर दिया। मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये है।राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। नरेश्वर! उन्होंने पुनः उन सबके छोटे छोटे बच्चों तक को शीघ्र ही मार डाला। जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुरामजी एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी। राजन्! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्त्रुक लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- महामुने! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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महाभारतशान्तिपर्व अध्याय49श्लोक66-89
एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 66-89 का हिन्दी अनुवाद-
(यह सुनकर परशुराम चले गये ) समुद्र ने सहसा जमदग्निकुमार परशुराम के लिये जगह ख़ाली करके शूर्पारक देश का निर्माण किया; जिसे अपरान्त भूमि भी कहते है। महाराज! कश्यप ने पृथ्वी को दान में लेकर उसे ब्राह्मणों के अधीन कर दिया और वे स्वयं विशाल वन के भीतर चले गये। भरतश्रेष्ठ ! फिरतो स्वेच्छाचारी वैश्य और शूद्र श्रेष्ठ द्विजों की स्त्रियों के साथ अनाचार करने लगे। सारे जीवनजगत में अराजकता फैल गयी। बलवान मनुष्य दुर्बलों को पीडा देने लगे। उस समय ब्राह्मणों में से किसी की प्रभुता कायम न रही। कालक्रम से दुरात्मा मनुष्य अपने अत्याचारों से पृथ्वी को पीडित करने लगे। इस उलट फेर से पृथ्वी शीघ्र ही रसातल में प्रवेश करने लगी; क्योंकि उस समय धर्मरक्षक क्षत्रियों द्वारा विधिपूर्वक पृथ्वी की रक्षा नहीं की जा रही थी। भय के मारे पृथ्वी को रसातल की ओर भागती देख महामनस्वी कश्यप ने अपने ऊरूओं का सहारा देकर उसे रोक दिया।
"कश्यपजी ने ऊरू से इस पृथ्वी को धारण किया था; इसलिये यह उर्वी नाम से प्रसिद्ध हुई। उस समय पृथ्वी देवी ने कश्यपजी को प्रसन्न करके अपनी रक्षा के लिये यह वर माँगा कि मुझे भूपाल दीजिये।
पृथ्वी बोली- ब्राह्मण! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियशिरोमणियों को छिपा रखा है। मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए है, जो मेरी रक्षा कर सकते है। प्रभो! उनके सिवा पुरूवंशी विदूरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान् पर्वत पर रीछों ने पालकर बडा किया है। इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रों के समान सब कर्म करता है, इसलिये सर्वकर्मा नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करे। राजा शिबिका एक महातेजस्वी पुत्र बचा हुआ है, जिसका नाम है गोपति।उसे वन में गौओं ने पाल पोसकर बड़ा किया है। मुने! आपकी आज्ञा हो तो वही मेरी रक्षा करे। प्रतर्दनका महाबली पुत्र वत्स भी राजा होकर मेरी रक्षा कर सकता है। उसे गोशाला में बछडों ने पाला था, इसलिये उसका नाम वत्स हुआ है। दधिवाहन का पौत्र और दिविरथ का पुत्र भी गंगातट पर महर्षि गौतम के द्वारा सुरक्षित है। महातेजस्वी महाभाग बृहद्रथ महान ऐश्वर्य से सम्पन्न है। उसे गृध्रकूट पर्वत पर लंगूरों ने बचाया था।
राजा मरुत के वंश में भी कई क्षत्रिय बालक सुरक्षित है, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है। उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है। ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात है। वे सदा शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते है। यदि वे क्षत्रिय मेरी रक्षा करें तो मैं अविचल भाव से स्थिर हो सकूँगी। इन बेचारों के बाप दादे मेरे ही लिये युद्ध अनायास ही महान् कर्म करने वाले परशुराम के द्वारा मारे गये है। महामुने! मुझे उन राजाओं से उऋण होने के लिये उनके इन वंशजों का सत्कार करना चाहिये। मै धर्म की मर्यादा को लाँघने वाले क्षत्रिय के द्वारा कदापि अपनी रक्षा नहीं चाहती। जो अपने धर्म में स्थित हो, उसी के संरक्षण में रहूँ, यही मेरी इच्छा है; अतः आप इसकी शीघ्र व्यवस्था करें।
श्रीकृष्ण कहते हैं-राजन्! तदनन्तर पृथ्वी के बताये हुए उन सब पराक्रमी क्षत्रिय भूपालों को बुलाकर कश्यपजी ने उनका भिन्न-भिन्न राज्यों पर अभिषेक कर दिया। उन्हीं के पुत्र-पौत्र बढे़, जिनके वंश इस समय प्रतिष्ठित हैं। पाण्डुनन्दन! तुमने जिसके विषय में मुझसे पूछा था, वह पुरातन वृतांत ऐसा ही हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं-राजन्! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से इस प्रकार वार्तालाप करते हुए यदुकुल-तिलक महात्मा श्रीकृष्ण उस रथ के द्वारा भगवान सूर्य के समान सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फैलाते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ते चले गये।
निष्कर्ष- यद्यपि उपर्युक्त कथा भी स्वयं कृष्ण के द्वारा नहीं कही गयी परन्तु परवर्ती पुरोहितों इसका सृजन कर इसे कृष्ण पर आरोपित कर दिया । इसका साक्ष्य ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड का निम्न श्लोक है।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थात् स्वयं श्रीकृष्ण( विष्णु) जिस सहस्र बाहू की रक्षा में तत्पर हों और सुदर्शन जिसकी रक्षा में तत्पर हो उसे कौन मार सकता है ?
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इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में परशुरामोपाख्यानविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।
शतानीक ! राजा ने शौनक से यह जब श्रवण किया था तो वह विस्मित हो गया था और परम प्रीति से पूर्ण चन्द्र की भाँति प्रकाशमान हो गया था ।१ ।
फिर उस राजा ने पूर्ण विधान के साथ शौनक का पूजन किया था। पूजन के उपचारों में बहुमूल्य रत्न , गौ , सुवर्ण और अनेक भाँति के वस्त्र आदि सभी थे ।२ ।
जो भी राजा के द्वारा धन प्रहित किया था उस सबका प्रतिग्रहण करके और ब्राह्मणों को दान करके फिर महर्षि शौनक वहीं पर अन्तर्हित हो गये थे ।३ ।
विशेष- प्रहित= १. प्रेरित। २. फेंका हुआ। क्षिप्त। ३. फटका हुआ। निष्कासित। ४. उपयुक्त। ठीक (को०)। नियुक्त (को०)। आदि अर्थ हैं परन्तु यहाँ प्रसंगानुसार सारयुक्तधन" अर्थ ग्राह्य है।(श्लोक संख्या-३)
ऋषियों ने कहा -
हे भगवन् ! अब हम सब लोग राजा ययाति के वंश का विस्तारपूर्वक श्रवण करना चाहते हैं । आप परमानुकम्पा करके उसका सविस्तृत वर्णन कीजिये जिस समय में वह इस लोक में यदु प्रभृति पुत्रों से समन्वित होकर प्रतिष्ठित हुआ था ।४।
श्री सूतजी ने कहा -
सबसे ज्येष्ठ और उत्तम तेज वाले यदु के वंश का मैं वर्णन करूंगा और विस्तार तथा आनुपूर्वी (क्रमानुसार) के साथ ही कहूंगा । आप लोग तब वक्ता-( कहने वाले) मुझसे सब कुछ समझ लीजिए ।५॥
पाँच पुत्रों के नाम:- महाराज यदु के देवताओं के समान पाँच पुत्र सुमुत्पन्न हुए । ये पांचों ही महारथी और महान धुनुर्धर थे इनमें सबसे बड़ा जो था।
सबसे बड़ा सहस्रजित था और सबसे छोटा जो अन्तिम पुत्र था वह लघु था(सहस्रजित क्रोष्टा नील अन्तिक और लघुः) । सहस्रजित का दायाद शतजितपार्थिव समुद्भूत हआ था ॥७ ॥
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विशेष- संयुक्त रूप महेष्वास ( महा+ इषु+आस)का अर्थ है- इषवोऽस्यन्तेऽनेन अस्-=क्षेपे करणे घञ् ( मह+इष्वास) महान शरक्षेपक( वाण चलाने वाला) क्रमश: गुण और यण् सन्धि द्वारा निष्पन्न सन्धिपद-महेष्वास= महान वाणों की बौछार करने वाला)
शतजित नाम वाले पुत्र के भी दायाद( पुत्र) परम कीर्ति वाले तीन हुए थे जिनके शुभ नाम १-हैहय - २-हय और ३-वेणुहय थे । हैहय का जो दायाद उत्पन्न हुआ था वह धर्मनेत्र इसशुभ नाम से विख्यात हुआ था ।
धर्मनेत्र का दायाद कुन्ति हुआ और कुन्ति का आत्मज "संहत नाम वाला हुआ था ।६ ।
संहत का पुत्र महिष्मान् नाम वाला पार्थिव हुआ था । महिष्मान् का पुत्र परम प्रतापधारी रुद्रश्रेण्य ने जन्म ग्रहण किया था । १०।
यह वाराणसी में राजा हुआ था जिसका वर्णन पूर्व में ही किया जा चुका है रुद्रश्रेण्य का पुत्र दुर्दम नाम वाला राजा हुआ था ।११॥
फिर इस दुर्दम का पुत्र परम बुद्धिमान और बल वीर्य से संयुक्त कनक नामवाला हुआ था । इस कनक के चार दायाद लोक में परम-प्रसिद्ध हुए थे।१२।
इन चारों के नाम कृतवीर्य-कृताग्नि-कृतवर्मा और चौथा कृतौजा थे। कृतवीर्य से ही अर्जुन समुत्पन्न हुआ था।१३।
इसके एक संहस्रहाथ थे यह सातों द्वीपोंका राजा हुआ था इस राजा ने दश हजार(सहस्र)वर्ष तक परम दुश्चर तपस्या की थी ।१४
कार्तवीर्य का अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय से वरदान प्राप्त करना:-
इस कार्तवीर्य ने अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय की समाराधना की थी। हे पुरुषोत्तम ! उसके द्वारा इसको चार वरदान दिये गये थे ।१५ ॥
सबसे प्रथम उस राजश्रेष्ठ ने एक सहस्र बाहु प्राप्त करने का वरदान मांगा था । अधर्म का समाचरण करने वाले का सत्पुरुषों से निवारण करने का वरदान प्राप्त किया था ।१६ ।
युद्ध के द्वारा सम्पूर्ण भूमण्डल पर विजय प्राप्त करके धर्म के ही द्वारा सब पृथिवी का अनुपालन करना प्राप्त किया था । सग्राम में वर्तमान का वध भी हो ती किसी अधिक से ही होवे ।१७ ।
उस सहस्रबाहु ने इस पृथिबी को जो सम्पूर्ण सात द्वीपों से युक्त पर्वतों के सहित और समुद्र से घिरी हुई थी उस सबको क्षात्र -विधि के द्वारा ही जीत लिया था ।१८ ।
उस धीमान् की जैसी इच्छा थी उसी के अनुसार एक सहस्रबाहु समुत्पन्न हो गई थीं । रथ और ध्वज भी समुत्पन्न हुए थे ऐसा ही अनुश्रवण करते हैं ।१९ ।
उस राजा के द्वारा द्वीपों में दश सहस्र यज्ञ निर्गल(अवरोध रहित) होकर उस धीमान् के निवृत्त हुए थे ऐसा भी सुना जाता है।२० ।
उस महान् राजा के सभी यज्ञ अत्यधिक दक्षिणा वाले सम्पन्न हुए थे ।उन सभी यज्ञों में सुवर्ण के युप थे और सभी सुवर्ण की वेदियों वाले थे।२१ ।
सब विमानों में स्थित देवों के साथ प्राप्त हुए गन्धर्व और अप्सराओं से समलंकृत नित्य ही उपशमित =(जिसका उपशमन कर दिया गया हो अथवा निवारित)रहा करते थे ।२२ ।
उससे यज्ञ में गन्धर्व तथा नारद ने कातवीर्य राजर्षि की महिमा को देखकर उनकी गाथा का गायन किया था ।२३ ।
निश्चय ही क्षत्रिय गण कातवीर्य की गति को नहीं प्राप्त होंगे जिस प्रकार के इसके यज्ञ - दान - तप विक्रम और श्रुतेन (सुने हुए कथनों के द्वारा)आदि हैं इस तरह के सभी विधान अन्य क्षत्रियों के सर्वथा है ही नहीं ।२४ ।
वह सहस्रबाहु राजा खड्ग धारण करने वाला तथा शरासन ग्रहण किए हुए रथी होकर" सातो द्वीपों में अनुचरण करते हुए योगी होकर तस्करों को देखा करता था ।२५ "वह नराधिपति पिचासी सहस्र वर्षों ( 85 हजार वर्ष)तक सम्पूर्ण रत्नों से सम्पन्न होता हुआ इस भूमण्डल का चक्रवर्ती सम्राट हुआ था ।२६ । वही पशुओं के पालन करने वाला (गोपाल)- हुआ था और वह ही क्षेत्रपाल( कृषक) भी हुआ था । बह वृष्टि के द्वारा पर्जन्य हुआ था और योगी होने के कारण से वही अर्जुन हो गया था।२७ ।
यह सम्राट एकसहस्र(हजार) बाहुओं के द्वारा धनुष की डोरी के घातों से कठिन त्वचा से युक्त हो गया था जैसे शरदकाल का एकसहस्र रश्मियों से सम्पन्न सूर्य हो जाता है।२८।
महान् मति वाले इसने महिष्मती पुरी में मनुष्यों के मध्य में कर्कोटक के पुत्र नाग को जीतकर उसी पुरी को निवेशित कर दिया था।२६।
यह प्रावट् काल( वर्षाकाल ) में भी समुद्र के वेग का सेवन किया करता था । यह महामति प्रतिस्रोतों को सुख से (उद्भिन्न) करता हुआ क्रीडा(खेल)करता हुआ विचरण किया करता था।३० ।
खेलते -उछलते उसके द्वारा जल में लहरों से माला बना दी जाती थीं ।(स्रग्दाममालिनी] (वह माला जिसका दाम(सूत) फूलों का गुच्छा हो ) तब अपनी भृकुटी में भय लेकर नर्मदा चकित होकर राजा के समीप में आ गई ।३१।
वह अपनी सहस्रबाहुओं से महार्णव( जलसमूह) के अवगाहन करने पर उद्याम वेग वाली नर्मदा को प्रावृड कालीन ( वर्षाकालीन) कर देता है ।३२ ॥
उसकी सहस्रबाहुओं से महोदधि के क्षोम्यमान होने पर पाताल में संस्थित महासुर अत्यन्त ही निश्चेष्ट हो जाते है ।३३ ।
सहस्र हाथों में सागर का आलोड़न करता हुआ ही उसके द्वारा तोड़ी हुई महान् तरङ्गों में विलीन मीन ( मछली) और महातिमि( समुद्र में रहनेवाला मछली )के आकार का एक बड़ा भारी जंतु ) को मारुत से आबिद्ध फेनों के ओघ( धारा) वाला तथा आवर्तो (भवरों )वाली नदी को समक्षिप्त होने से दुःसह करता है । जिस समय में मन्दार पर्वत के क्षोभ से चकित अमृत के उत्पादन को शङ्का वाले महान सर्प निश्चल मुख वाले हो जाते हैं । जिस प्रकार से सायंकाल में निर्वात से स्तिमित ( भीगे हुए) कदली खण्डों की दशा होती है वैसी दशा उन महान जलीय सर्पों की होती थी ।३४- ३६ ।
विशेष-महातिमि( समुद्र में रहनेवाला मछली )के आकार का एक बड़ा भारी जंतु । विशेष—लोगों का अनुमान है कि यह जंतु ह्वेल है।
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।३७।
और धनुष् की डोरी मेंबाँधकर पाँच वाणों उत्सिक्त(जिसका उत्सेक हुआ हो)कर लंका में मोहित करके बलवान् रावण को जीत कर बाँधकर महिष्मती नगरी को लाया और उसे वहीं नगर में बाँध दिया। तब वहाँ जाकर पुलस्त्य ने अर्जुन को प्रसन्न किया।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।३८।
लङ्कापुरी में बलवान् रावण को बलपूर्वक मोहित करके पांच शरों से उत्सिक्त करके धनुष की ज्या से इस प्रकार से बांध दिया था और उसको जीत करके तथा बाँध करके माहिष्मती अपनी पुरी में ले आया था तथा बाँधकर रख छोड़ा था। इसके अनन्तर पुलस्त्य ऋषि वहाँ आये थे और उन्होने सहस्रार्जुन को प्रसन्न किया था।३७-३८ ।
पुलस्त्य ऋषि ने यहाँ पर सान्त्वना दी थी और फिर पौलस्त्य ( रावण ) को छोड़ दिया था । उसकी सहस्र बाहुओं में ज्यातल का महान शब्द हुआ था ।३९।
यह घोष उसी भांति हुआ था जैसा कि युगान्त के समय में होने वाले सहस्रों मेघों के आस्फोट से अग्नि का घोष हुआ करता है । अहोवत ! (बड़े ही आश्चर्य की बात) कि विधाता की वीरता को भार्गवने छिन्न कर दिया ।४०।
जिस समय में भार्गव प्रभु ने इसकी ' सहस्रबाहुओं का छेदन हेमताल वन की भांति किया था और जहाँ पर आप प्रभु ने सक्रुद्ध होकर अर्जुन को शाप दिया था-हे अर्जुन ! क्योंकि मेरा परम प्रसिद्ध वन तुमने जला दिया इसलिए इस दुस्तर किए गये कर्म को अहंकार ही हरण करेगा।४१-४२।
बलवान तपस्वी और ब्राह्मण भार्गव पहिले वेग के साथ तेरी सहस्रबाहुओं का छेदन करके फिर तेरा वही वध भी कर देंगे।४३ ।
सूतजी ने कहा - उस समय में उसकी मृत्यु शाप के द्वारा राम ही थे । धीमान ने राजर्षि से पहिले ही इस प्रकार का वरदान स्वयं ही वरण कर लिया था ।४४।
उसके एक सौपुत्र हुए थे उनमें पांच तो महारथी थे । ये सब कृतास्त्र-(अस्त्र के प्रयोग में कुशल) बलशाली ,शूरवीर ,धर्मात्मा और महान् बलशाली थे ।४५।
हे विशाम्पते ! शूरसेन,शूर,धृष्ट,क्रोष्टा , जयध्वज,वैकर्ता और अवन्ति ये उनके नाम थे ।४६ ।
जयध्वज का पुत्र महान बलवान तालजंघ हुआ था उसके भी एकसौ पुत्र थे जो पुत्र थे वो सर्व तालजंघ नाम से प्रसिद्ध थे ।४७ ।
उन हैहय महात्माओं के पांच कुल विख्यात थे । वीतिहोत्र - शरयात - भोज - अवन्ति - कुण्डिकेरा विक्रान्त और तालजंध थे । वीतिहोत्र का पुत्र भी आनर्त नाम वाला महान् वीर्यवान् हुआ था उसका पुत्र दुर्जेय था जो शत्रुओं का कर्शन(दुर्बल) करने वाला था।४८-४६ ।
सद्भावेन महाराज ! प्रजा धर्मेण पालयन्।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।५०।
हे महाराज ! कातवीर्यार्जुन नाम वाला राजा एक सहस्रबाहुओं से समन्वित था और सद्भावना से धर्म के साथ प्रजा का परिपालन किया करता था ।५० । _________________
येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
यस्तस्य कीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थाय मानवः।५१।
न तस्य वित्तनाशः स्यान्नष्टञ्च लभते पुनः।
कार्त्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदिह धीमतः।।
यथावत् स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महीयते।५२।
वह ऐसा प्रतापी राजा हुआ था जिसने अपने धनुष के द्वारा सागर पर्यन्त भूमि को जीत लिया था । जो मानव प्रात: काल में ही उठकर उसके शुभ नाम का कीर्तन किया करता है उसके वित्त( धन) का कभी भी नाश नहीं होता है और जो किसी का वित्त नष्ट भी हो गया हो तो यह नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त हो जाया करता है ।
परम धीमान् कीर्तवीर्य के जन्म की गाथा को कोई मनुष्य कहता है तो वह मानव यथावत् स्विष्ट पूतात्मा होकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त किया करता है।५१-५२।"
इस प्रकार मत्स्य पुराण के ४३ वाँ अध्यायः के अन्तर्गत "यदुवंशवर्णनम्नामक" अध्याय समाप्त हुआ
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इसी प्रकार का वर्णन लिंग पुराण में है देखे निम्न श्लोकों को-
ऋषियों! (अब) आप लोग राजर्षि क्रोष्टु के उस उत्तम बल-पौरुष से सम्पन्न वंश का वर्णन सुनिये, जिस वंश में वृष्णिवंशावतंस भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) अवतीर्ण हुए थे। क्रोष्टु के पुत्र महारथी वृजिनीवान हुए। वृजिनीवान के स्वाह (पद्मपुराण में स्वाति) नामक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ। राजन्! वक्ताओं में श्रेष्ठ रुषंगु स्वाह के पुत्ररूप में पैदा हुए। रुषंगु ने संतान की इच्छा से सौम्य स्वभाव वाले पुत्र की कामना की। तब उनके सत्कर्मों से समन्वित एवं चित्र-विचित्र रथ से युक्त चित्ररथ नामक पुत्र हुआ। चित्ररथ के एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ जो शशबिन्दु नाम से विख्यात था। वह आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट हुआ। वह यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देने वाला था। पूर्वकाल में इस शशबिन्दु के विषय में वंशानुक्रमणिकारूप यह श्लोक गाया जाता रहा है कि शशबिन्दु के सौ पुत्र हुए। उनमें भी प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। वे सभी प्रचुर धन-सम्पत्ति एवं तेज़ से परिपूर्ण, सौन्दर्यशाली एवं बुद्धिमान थे। उन पुत्रों के नाम के अग्रभाग में 'पृथु' शब्द से संयुक्त छ: महाबली पुत्र हुए। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं- पृथुश्रवा, पृथुयशा, पृथुधर्मा, पृथुंजय, पृथुकीर्ति और पृथुमनां ये शशबिन्दु के वंश में उत्पन्न हुए राजा थे। पुराणों के ज्ञाता विद्वान् लोग इनमें सबसे ज्येष्ठ पृथुश्रवा की विशेष प्रशंसा करते हैं। उत्तम यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पृथुश्रवाका पुत्र सुयज्ञ हुआ। सुयज्ञ का पुत्र उशना हुआ, जो सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा था। उसने इस पृथ्वी की रक्षा करते हुए सौ अश्वमेध-यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उशना का पुत्र तितिक्षु हुआ जो शत्रुओं को संतप्त कर देने वाला था। राजर्षियों में सर्वश्रेष्ठ मरूत्त तितिक्षु के पुत्र हुए। मरूत्त का पुत्र वीरवर कम्बलवर्हिष था। कम्बलबर्हिष का पुत्र विद्वान् रूक्मकवच हुआ। रूक्मकवच ने अपने अनेकों प्रकार के बाणों के प्रहार से धनुर्धारी एवं कवच से सुसज्जित शत्रुओं को मारकर इस पृथ्वी को प्राप्त किया था। शत्रुवीरों का संहार करने वाले राजा रूक्मकवच ने एक बार बड़े (भारी) अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा प्रदान की थी ॥14-27॥
इन (राजा रूक्मकवच)- के रूक्मेषु, पृथुरूक्म, ज्यामघ, परिघ और हरिनामक पाँच पुत्र हुए, जो महान् पराक्रमी एवं श्रेष्ठ धनुर्धर थे। पिता रूक्मकवच ने इनमें से परिघ और हरि- इन दोनों को विदेह देश के राज-पद पर नियुक्त कर दिया। रूक्मेषु प्रधान राजा हुआ और पृथुरूक्म उसका आश्रित बन गया। उन लोगों ने ज्यामघ को राज्य से निकल दिया। वहाँ एकत्र ब्राह्मण द्वारा समझाये- बुझाये जाने पर वह प्रशान्त-चित्त होकर वानप्रस्थीरूप से आश्रमों में स्थिररूप से रहने लगा। कुछ दिनों के पश्चात् वह (एक ब्राह्मण की शिक्षा से) ध्वजायुक्त रथ पर सवार हो हाथ में धनुष धारण कर दूसरे देश की ओर चल पड़ा। वह केवल जीविकोपार्जन की कामना से अकेले ही नर्मदातट पर जा पहुँचा। वहाँ दूसरों द्वारा उपभुक्त- ऋक्षवान् गिरि (शतपुरा पर्वत-श्रेणी)- पर जाकर निश्चितरूप से निवास करने लगा। ज्यामघकी सती-साध्वी पत्नी शैव्या प्रौढ़ा हो गयी थीं (उसके गर्भ से) कोई पुत्र न उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यद्यपि राजा ज्यामघ पुत्रहीन अवस्था में ही जीवनयापन कर रहे थे, तथापि उन्होंने दूसरी पत्नी नहीं स्वीकार की। एक बार किसी युद्ध में राजा ज्यामघ की विजय हुईं वहाँ उन्हें (विवाहार्थ) एक कन्या प्राप्त हुई। (पर) उसे लाकर पत्नी को देते हुए राजा ने उससे भयपूर्वक कहा- 'शुचिस्मिते ! यह (मेरी स्त्री नहीं,) तुम्हारी स्नुषा (पुत्रबधू) है।' इस प्रकार कहे जाने पर उसने राजा से पूछा- 'यह किसकी स्नुषा है?॥28-34॥
शैव्या।प्राय: अठारह पुराणों तथा उपपुराणों में एवं भागवतादि की टीकाओं में 'ज्यामघ' की पत्नी शैव्या ही कही गयी है। कुछ मत्स्यपुराण की प्रतियों में 'चैत्रा' नाम भी आया है, परंतु यह अनुकृति में भ्रान्तिका ही परिणाम है। तब राजा ने कहा-(प्रिये) तुम्हारे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसी की यह पत्नी होगी। (यह आश्चर्य देख-सुनकर वह कन्या तप करने लगी।) तत्पश्चात् उस कन्या की उग्र तपस्या के परिणामस्वरूप वृद्धा प्राय: बूढ़ी होने पर भी शैव्याने (गर्भ धारण किया और) विदर्भ नामक एक पुत्र को जन्म दिया। उस विद्वान् विदर्भ ने स्त्रुषाभूता उस राजकुमारी के गर्भ से क्रथ, कैशिक तथा तीसरे परम धर्मात्मा लोमपाद नामक पुत्रों को उत्पन्न किया। ये सभी पुत्र शूरवीर एवं युद्धकुशल थे। इनमें लोमपाद से मनु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा मनु का पुत्र ज्ञाति हुआ। कैशिक का पुत्र चिदि हुआ, उससे उत्पन्न हुए नरेश चैद्य नाम से प्रख्यात हुए। विदर्भ-पुत्र क्रथ के कुन्ति नामक पुत्र पैदा हुआ। कुन्ति से धृष्ट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो परम प्रतापी एवं रणविशारद था। धृष्टका पुत्र निर्वृति हुआ जो धर्मात्मा एवं शत्रु-वीरों का संहारक था। निर्वृति के एक ही पुत्र था जो विदूरथ नाम से प्रसिद्ध था। विदूरथ का पुत्र दशार्ह और दशार्ह का पुत्र व्योम बतलाया जाता है। दशार्हवंशी व्योम से पैदा हुए पुत्र को जीमूत नाम से कहा जाता है।35-40।
तत्पश्चात् राजा देवावृध का जन्म हुआ, जो बन्धुओं के साथ सुदृढ़ मैत्री के प्रवर्धक थे। परंतु राजा (देवावृध) को कोई पुत्र न थां उन्होंने 'मुझे सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न पुत्र पैदा हो 'ऐसी अभिलाषा से युक्त हो अत्यन्त घोर तप किया। अन्त में उन्होंने मन्त्र को संयुक्त कर पर्णाशा नदी के जल का स्पर्श किया। इस प्रकार स्पर्श करने के कारण पर्णाशा नदी राजा का प्रिय करने का विचार करने लगी। वह श्रेष्ठ नदी उस राजा के कल्याण की चिन्ता से व्याकुल हो उठी। अन्त में वह इस निश्चय पर पहुँची कि मैं ऐसी किसी दूसरी स्त्री को नहीं देख पा रही हूँ, जिसके गर्भ से इस प्रकार का (राजा की अभिलाषा के अनुसार) पुत्र पैदा हो सके, इसलिये आज मैं स्वयं ही हज़ारों प्रकार का रूप धारण करूँगी। तत्पश्चात् पर्णाशा ने परम सुन्दर शरीर धारण करके कुमारी रूप में प्रकट होकर राजा को सूचित किया। तब महान् व्रतशाली राजा ने उसे (पत्नीरूप से) स्वीकार कर लिया तदुपरान्त नदियों में श्रेष्ठ पर्णाशा ने राजा देवावृध के संयोग से नवें महीने में सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न बभ्रु नामक पुत्र को जन्म दिया। पुराणों के ज्ञाता विद्वान्लोगवंशानुकीर्तनप्रसंग में महात्मा देवावृध के गुणों का कीर्तन करते हुए ऐसी गाथा गाते हैं- उद्गार प्रकट करते हैं- 'इन (बभ्रु)- के विषय में हमलोग जैसा (दूर से) सुन रहे थे, उसी प्रकार (इन्हें) निकट आकर भी देख रहे हैं। बभ्रु तो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं और देवावृध (साक्षात्) देवताओं के समान हैं। राजन् बभ्रु और देवावृध के प्रभाव से इनके छिहत्तर हज़ार पूर्वज अमरत्व को प्राप्त हो गयें राजा बभ्रु यज्ञानुष्ठानी, दानशील, शूरवीर, ब्राह्मणभक्त, सुदृढ़व्रती, सौन्दर्यशाली, महान् तेजस्वी तथा विख्यात बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। तदनन्तर (बभ्रु के संयोग से) कंक की कन्या ने कुकुर, भजमान, शशि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्रों को जन्म दिया। कुकुर का पुत्र वृष्णि, वृष्णि का पुत्र धृति, उसका पुत्र कपोतरोमा, उसका पुत्र तैत्तिरि, उसका पुत्र सर्प, उसका पुत्र विद्वान् नल था। नल का पुत्र दरदुन्दुभि नाम से कहा जाता था ॥51-63॥ नरश्रेष्ठ दरदुन्दुभि पुत्रप्राप्ति के लिये अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे उस विशाल यज्ञ में पुनर्वसु नामक पुत्र प्रादुर्भूत हुआ। पुनर्वसु अतिरात्र के मध्य में सभा के बीच प्रकट हुआ था, इसलिये वह विदान्, शुभाशुभ कर्मों का ज्ञाता, यज्ञपरायण और दानी था। वसुदेव-देवकी-बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजन् पुनर्वसु के आहुक नामक पुत्र और आहुकी नाम की कन्या- ये जुड़वीं संतान पैदा हुई। इनमें आहुक अजेय और लोकप्रसिद्ध था। उन आहुक के प्रति विद्वान् लोग इन श्लोकों को गाया करते हैं- 'राजा आहुक के पास दस हज़ार ऐसे रथ रहते थे, जिनमें सुदृढ़ उपासंग (कूबर) एवं अनुकर्ष (धूरे) लगे रहते थे, जिन पर ध्वजाएँ फहराती रहती थीं, जो कवच से सुसज्जित रहते थे तथा जिनसे मेघ की घरघराहट के सदृश शब्द निकलते थे। उस भोजवंश में ऐसा कोई राजा नहीं पैदा हुआ जो असत्यवादी, निस्तेज, यज्ञविमुख, सहस्त्रों की दक्षिणा देने में असमर्थ, अपवित्र और मूर्ख हो।' राजा आहुक से भरण-पोषण की वृत्ति पाने वाले लोग ऐसा कहा करते थे। आहुक ने अपनी बहन आहुकी को अवन्ती-नरेश को प्रदान किया था। आहुक के संयोग से काश्य की कन्या ने देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। वे दोनों देव-पुत्रों के सदृश कान्तिमान एवं पराक्रमी चार शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम हैं- देववान, उपदेव, सुदेव और देवरक्षित। इनके सात बहनें भी थीं, जिन्हें देवक ने वसुदेव को समर्पित किया था। उनके नाम हैं- देवकी, श्रुतदेवी, मित्रदेवी, यशोधरा, श्रीदेवी, सत्यदेवी और सातवीं सुतापी ॥64-73॥
कंस उग्रसेन के नौ पुत्र थे, उनमें कंस ज्येष्ठ था। उनके नाम हैं- न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद। उनके कंसा, कंसवती, सतन्तू, राष्ट्रपाली और कंका नाम की पाँच बहनें थीं, जो परम सुन्दरी थीं। अपनी संतानों सहित उग्रसेन कुकुर-वंश में उत्पन्न हुए कहे जाते हैं भजमान का पुत्र महारथी विदूरथ और शूरवीर राजाधिदेव विदूरथ का पुत्र हुआ। राजाधिदेव के शोणाश्व और श्वेतवाहन नामक दो पुत्र हुए, जो देवों के सदृश कान्तिमान और नियम एवं व्रत के पालन में तत्पर रहने वाले थे। शोणाश्व के शमी, देवशर्मा, निकुन्त, शक्र और शत्रुजित नामक पाँच शूरवीर एवं युद्धनिपुण पुत्र हुए। शमी का पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र का पुत्र प्रतिक्षत्र, उसका पुत्र भोज और उसका पुत्र हृदीक हुआ। हृदीक के दस अनुपम पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें कृतवर्मा ज्येष्ठ और शतधन्वा मँझला था। शेष के नाम (इस प्रकार) हैं- देवार्ह, नाभ, धिषण, महाबल, अजात, वनजात, कनीयक और करम्भक। देवार्ह के कम्बलबर्हिष नामक विद्वान् पुत्र हुआ। उसका पुत्र असोमजा और असोमजा का पुत्र तमोजा हुआ। इसके बाद सुदंष्ट, सुनाभ और कृष्ण नाम के तीन राजा और हुए जो परम पराक्रमी और उत्तम कीर्तिवाले थे। इनके कोई संतान नहीं हुई। ये सभी अन्धकवंशी माने गये हैं। जो मनुष्य अन्धकों के इस वंश का नित्य कीर्तन करता है वह स्वयं पुत्रवान होकर अपने वंश की वृद्धि करता है।74-85।
टीका टिप्पणी और संदर्भ-
↑ भागवत 9।23।31 तथा विष्णु पुराण4।12।2 में 'रूशंगु' एवं पद्म पुराण 1।13।4 में 'कुशंग' पाठ है।
↑ अन्यत्र शिमेयु, रूचक या शितपु पाठ भी मिलता है।
↑ इन्हीं से श्रीकृष्ण आदि दाशार्हवंशीरूप में प्रसिद्ध हुए हैं।
↑ भारत में पर्णाशा नाम की दो नदियाँ हैं ये दोनों राजस्थान की पूर्वी सीमापर स्थित हैं और पारियात्र पर्वत से निकली हैं। (द्रष्टव्य मत्स्य0 12।50 तथा वायुपुराण 38।176
↑ अधिकांश अन्य पुराणसम्मत यहाँ 'धृष्णु' पाठ मानना चाहिये, या इन्हें द्वितीय वृष्णि मानना चाहिये।
श्री कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र-प्रयोग आज के धन-प्रधान युग में यदि किसी का परिश्रम से कमाया हुआ धन किसी जगह फँस जाए तथा उसकी पुनः प्राप्ति की सम्भावना भी दिखाई न पड़े, तो श्रीकार्तवीर्यार्जुन का प्रयोग अचूक तथा सद्यः फल-दायी होता है ।
श्रीकार्तवीर्यार्जुन का प्रयोग ‘तन्त्र’-शास्त्र की दृष्टि से बड़े गुप्त बताए जाते हैं । इस प्रयोग से साधक गत-नष्ट धन को तो प्राप्त कर ही सकता है, साथ ही षट्-कर्म-साधन यहाँ तक कि प्रत्येक अभिलषित-प्राप्ति में भी सफल हो सकता है । पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार भगवान् विष्णु के अमित तेजस्वी ‘सुदर्शन चक्र’ अथवा विष्णु के अवतार – हैहय-वंशी राजा कार्तवीर्यार्जुन को हजार भुजाएँ होने के कारण ‘सहस्रार्जुन’ भी कहा जाता था ।
प्रयोग हेतु आवश्यक निर्देश
१॰ प्रयोग की सफलता एवं निर्विघ्नता हेतु सर्व-प्रथम भू-शुद्धि, आसन-शुद्धि, भूत-शुद्धि, भूतोपसंहार, स्व-प्राण-प्रतिष्ठा आदि आवश्यक कर्म कर ‘श्रीविघ्न-विनाशक’ गणेश का पूजन एवं ‘कलश-स्थापन’ करें ।
स्वयं न कर सकें, तो विद्वान ब्राह्मण का सहयोग प्राप्त करें ।
२॰ फिर वैष्णव अष्ट-गन्ध (चन्दन, अगर, कर्पूर, चोर, कुंकुम, रोचना, जटामांसी तथा मुर) से कार्तवीर्य-यन्त्र की रचना करें ।
३॰ यन्त्र में प्राण-प्रतिष्ठा कर आवरण पूजा करें ।
४॰ कामना-भेद के अनुसार निश्चित संख्या में जप करें । जप पूरा होने पर दशांश ‘हवन‘, तद्दशांश ‘तर्पण, मार्जन व ब्राह्मण-भोज करावें ।
५॰ प्रयोग की सफलता के लिए दस सहस्र ‘गायत्री-जप’ परमावश्यक है ।
६॰ जप की पूर्ण-संख्या को इस प्रकार बाँटें कि वह सम-संख्या के आधार पर प्रतिदिन किया जा सके । किसी दिन कम और किसी दिन अधिक ‘जप’ नहीं किया जाना चाहिए ।
७॰ प्रतिदिन जितनी देर जप चले, उतने समय तक अखण्ड-दीपक अवश्य ही प्रज्जवलित रहना आवश्यक है । ८॰ जब तक प्रयोग चले, तब तक शास्त्रोक्त नियमों का पालन करें । ९॰ प्रयोग करने से पूर्व मन्त्र को पुरश्चरण द्वारा सिद्ध कर लेना चाहिए । साधना-क्रम १॰ शुद्ध होकर, संकल्प करें – देश-कालौ सङ्कीर्त्य अमुक-कामना सिद्धयर्थं मम श्रीकार्तवीर्यार्जुन-देवता-प्रीति-पुरस्सरं क्षिप्रममुक-जनस्य बुद्धि-हरण-पूर्वकं स्व-धन-प्राप्तये मनोऽभिलषित-कार्य-सिद्धये वा दीप-दान-पूर्वकं अमुकामुक-संख्यात्मकं जप-रुप-प्रयोगमहं करिष्यामि । – इस प्रकार सङ्कल्प करने के बाद श्रीगणेशादि-पूजन करें । २॰ गोबर से लेपन कर शुद्ध स्थान (पक्का फर्श हो, तो धोकर पञ्च-गव्य से प्रोक्षण करें) पर ताँबे का बर्तन रखें तथा उसमें लाल चन्दन अथवा रोली से षट्-कोण बनाकर, उसके बीच में “ॐ फ्रों” लिखें । फिर उसमें एक ताँबे का दीप-पात्र (सरसों के तेल, मौली या लाल रंग से रँगी रुई की बत्ती सहित) निम्न मन्त्र पढ़ते हुए स्थापित करें – शुद्ध तैल-दीपमयं, स्थापयामि जगत्पते ! कार्तवीर्य, महा-वीर्य ! कार्यं सिद्धयतु मे हि तत् ।। ३॰ दीप-पात्र के दाहिने भाग में (अर्थात् साधक के बाँई ओर) एक नई छुरी – निम्न मन्त्र पढ़कर स्थापित करें । छुरी की धार ‘दक्षिण’- दिशा की ओर रहे और उसकी नोक (अग्र-भाग) साधक की ओर रहे – “ॐ नमः सुदर्शनास्त्राय फट् ।” ४॰ ‘दीपक’ का मुख पश्चिम की ओर या साधक की ओर रखें । निम्न मन्त्र से उसे प्रज्जवलित करें – “ॐ कार्तवीर्य नृपाधीश ! योग-ज्वलित-विग्रह ! भव सन्निहितो देव ! ज्वाला-रुपेण दीपके ।।” ५॰ मन्त्रोच्चार-पूर्वक ‘दीपक’ की ज्योति में प्राण-प्रतिष्ठा करें । यथा – पहले प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र का विनियोग पढ़ें – विनियोगः- ॐ अस्य श्रीप्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्रस्य अजेश-पद्मजाः ऋषयः, ऋग्-यजुः-सामानि छन्दांसि, प्राण-शक्तिर्देवता, आं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्रों कीलकं, श्रीकार्तवीर्यार्जुन-देव-दीपे प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः । ‘श्रीकार्तवीर्यार्जुन-दीप-देवतायै नमः’ से लाल चन्दन एवं पुष्पादि से दीपक की पूजा करें । पूजा करने के बाद निम्न मन्त्र पढ़कर ‘दीप-समर्पण’ करें – कार्तवीर्य महावीर्य ! भक्तानामभयं-कर ! दीपं गृहाण मद्-दत्तं, कल्याणं कुरु सर्वदा ।। अनेन दीप-दानेन, ममाभीष्टं प्रयच्छ च । फिर ‘दीपक’ की सन्निधि में निम्न-लिखित मन्त्र ‘प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र’ का जप करें – मन्त्रः- “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ हंसः ।” फिर श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र का विनियोगादि कर जप करें – श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र का विनियोगः- ॐ अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुन (स्तोत्रस्य) मन्त्रस्य दत्तात्रेय ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीकार्तवीर्यार्जुनो देवता, फ्रों बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- दत्तात्रेय ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीकार्तवीर्यार्जुनो देवतायै नमः हृदि, फ्रों बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, क्लीं कीलकाय नमः नाभौ ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । कर-न्यासः- ॐ आं फ्रों ब्रीं अंगुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ईं क्लीं भ्रूं तर्जनीभ्यां नमः, ॐ हुं आं ह्रीं मध्यमाभ्यां नमः, ॐ क्रैं क्रौं श्रीं अनामिकाभ्यां नमः, ॐ हुं फट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ कार्तवीर्यार्जुनाय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । हृदयादि-न्यासः- ॐ आं फ्रों ब्रीं हृदयाय नमः, ॐ ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, ॐ हुं आं ह्रीं शिखायै वषट्, ॐ क्रैं क्रौं श्रीं कवचाय हुम्, ॐ हुं फट् अस्त्राय फट्, ॐ कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे । टिप्पणी – नेत्रों का ‘न्यास’ नहीं होगा अर्थात् षडङ्ग के स्थान पर ‘पञ्चाङ्ग-न्यास’ का ही विधान है । मन्त्र-न्यासः- ॐ फ्रों ॐ हृदये । ॐ ब्रीं ॐ जठरे । ॐ क्लीं ॐ नाभौ । ॐ भ्रूं ॐ जठरे । ॐ आं ॐ गुह्ये । ॐ ह्रीं ॐ दक्ष-चरणे । ॐ क्रों ॐ वाम-चरणे । ॐ श्रीं ॐ ऊर्वोः । ॐ हुं ॐ जानुनो । ॐ फट् ॐ जङ्घयोः । ॐ कां मस्तके । ॐ तं ललाटे । ॐ वीं भ्रुवोः । ॐ यां कर्णयो । ॐ जुं नेत्रयोः । ॐ नां नासिकायां । ॐ यं मुखे । ॐ नं गले । ॐ मः स्कन्धयोः । व्यापक-न्यासः- मूल-मन्त्र से सर्वाङ्ग-न्यास करें । ध्यानः- उद्यत्-सूर्य-सहस्र्कान्तिरखिल-क्षोणी-धवैर्वन्दितः । हस्तानां शत-पञ्चकेन च दधच्चापानिषूंस्तावता ।। कण्ठे हाटक-मालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेः । पायात् स्यन्दनगोऽरुणाभ-वसनाः श्रीकार्तवीर्यो नृपः ।। मूल-मन्त्रः- “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ।” जप-संख्या एवं हवनादि – एक लाख । तद्दशांश हवन, तर्पण, मार्जन या अभिषेक, ब्राह्मण-भोजन । हवन-सामग्री- चावल, खीर तथा तिल-मिश्रित घृत । कामना-भेद से हवन-सामग्री – सरसों-रीठा-लहसुन-कपास —मारण । धतूरा या गोरोचन-गोबर —स्तम्भन । नीम-पत्र —विद्वेषण । कमल या कमल-बीज —आकर्षण । हल्दी या चम्पा-चमेली —वशीकरण । बहेड़ा व खैर-समिधा —उच्चाटन । कस्तूरी-गोरोचन —घर से भागे व्यक्ति की वापसी । कमल-मक्खन-कस्तूरी —गत धन की प्राप्ति । यव (जौ) —लक्ष्मी-प्राप्ति । तिल-घी —पाप-नाश । तिल-चावल-साँवक-लाजा —राज-वशीकरण । अपामार्ग-आक-दूर्वा —पाप-नाश व लक्ष्मी-प्राप्ति । गुग्गुल —प्रेत-शान्ति । पीपल-गूलर-पाकड़-बड़-बेल-समिधा –क्रमशः सन्तान, आयु, धन, सुख, शान्ति । साँप की केँचुली-धतूरा-पीली सरसों-नमक —चोर-नाश । धान —भूमि-प्राप्ति । टिप्पणी – सामान्य रुप से किसी भी काम्य कर्म की सफलता के लिए, जितनी संख्या ‘जप’ की होगी, उसका दशांश ‘हवन’ होगा, परन्तु जब कार्य-समस्या जटिल हो या सद्यः फल-प्राप्ति की इच्छा हो, तो हवन-संख्या एक सहस्र से दस सहस्र तक । कामना-भेद से जप-संख्याः- बन्दी-मोक्ष- १२०००, वाद-विवाद (मुकदमे में) जय- १५०००, दबे या नष्ट-धन की पुनः प्राप्ति- १३०००, वाणी-स्तम्भन-मुख-मुद्रण- १००००, राज-वशीकरण- १००००, शत्रु-पराजय- १००००, नपुंसकता-नाश/पुनः पुरुषत्व-प्राप्ति- १७०००, भूत-प्रेत-बाधा-नाश- ३७०००, सर्व-सिद्धि- ५१०००, सम्पूर्ण साफल्य हेतु- १२५००० । प्रत्येक प्रयोग में “दीप-दान” परमावश्यक है । हवन के पश्चात् ‘तर्पण’ करना होता है । वैसे तो तर्पण हवन का दशांश होता है, किन्तु कार्य की आवश्यकतानुसार हवन के अनुसार ही तर्पण भी एक हजार से दस हजार तक किया जा सकता है । कामना-भेद से तर्पणीय जल में हवन-सम्बन्धी सामग्री को आंशिक रुप में मिश्रित कर सकते हैं । तर्पण-विधिः- ताम्र-पात्र में कार्तवीर्यार्जुन-यन्त्र या ‘फ्रों’ बीज लिखें । उसी पात्र में निम्न मन्त्र से तर्पण करें – “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः कार्तवीर्यार्जुनं तर्पयामि नमः ।” अभिषेक-विधिः- ‘अभिषेक’ के सम्बन्ध में दो मत हैं – (१) देवता का मार्जन तथा (२) यजमान का मार्जन । दोनों के मन्त्र निम्न प्रकार हैं – (१) “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः कार्तवीर्यार्जुनं अभिषिञ्चामि ।” (२) “ॐ फ्रों ब्रीं क्लीं भ्रुं आं ह्रीं क्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः आत्मानं अमुकं वा अभिषिञ्चामि ।” ‘कार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र-प्रयोग’ में यजमान के मार्जन/अभिषेक की एक विशिष्ट विधि निम्न प्रकार है – शुद्ध भूमि पर गोबर/पञ्च-गव्य का लेपन/प्रोक्षण करें । उस पर अष्ट-गन्ध या लाल चन्दन से कार्तवीर्यार्जुन-यन्त्र बनावें । उस यन्त्र पर विधि-पूर्वक कलश स्थापित करें । कलश में कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर यथा-विधि पूजन करें । पूर्वोक्त विधि के अनुसार दीपक जलावें । बाँएँ हाथ से कुम्भ को स्पर्श करते हुए मूल-मन्त्र की दस माला जप करें । इस अभिमन्त्रित जल से स्वयं तथा स्व-जनों का अभिषेक करें । ऐसा करने से पुत्र, यश, आयु, स्व-जन-प्रेम, वाक-सिद्धि, गृहस्थ-सुख की प्राप्ति होती है तथा जटिल रोगों से मुक्ति मिलती है । मारण/कृत्यादि अभिचार-कर्म से प्रभावित तथा पीड़ित व्यक्ति को उस प्रभाव से मुक्ति मिलती है । श्रीकार्तवीर्यार्जुन-मन्त्र के जपानुष्ठान में आसन आदि लाल रंग के होते हैं । शङ्ख की माला सर्वोत्तम, रक्त-चन्दन की मध्यम तथा अन्य मालाएँ भी ठीक मानी गई है । अनुष्ठान की सफलता हेतु मूल-मन्त्र के आवश्यक जप के साथ दस गायत्री जप आवश्यक बतलाया गया है । कुछ विद्वानों का मत है कि जिस देवता के मन्त्र का जप किया जाए, उसी देवता की ‘गायत्री’ का ही जप होना चाहिए । अस्तु “श्रीकार्तवीर्यार्जुन-गायत्री” इस प्रकार है –
मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रों का समावेश है, जो आद्य माना जाता है। इसमें सहस्रबाहू का मन्त्र भी है।
मंत्रमन्त्रमहोदधि
सप्तदश तरङ्ग
भाषांतरण-अरित्र-शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वार अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीय के मन्त्रों का आख्यान करत हूँ । जे कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥
अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं - वहिन (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी; पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वहिन (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् )(ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥
विमर्श - ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥
इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥
बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः - से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥
इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥
अब वर्णन्यास कहते हैं - मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम, जठर, नाभि, गुह्य, दाहिने पैर बाँये पैर, दोनो सक्थि दोनो ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥
तदनन्तर सभी अङ्गो पर मन्त्र के सभी वर्णों का व्यापक न्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की सिद्धि हेतु राज कार्तवीर्य का ध्यान करना चाहिए ॥११॥
इस प्रकार न्यास कर - ॐ फ्रों श्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे- से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥८-११॥
अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं -
उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथो में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥
विमर्श - कार्तवीर्य की पूजा षट्कोण युक्त यन्त्र में भी कही गई है । यथा - षट्कोणेषु षडङ्गानि... (१७. १६) तथ दशदल युक्त यन्त्र में भी यथा - दिक्पत्रें विलिखेत् (१७. २२) । इसी का निर्देश १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे दशदले’ में ग्रन्थकार करते हैं ।
केसरों में पूर्व आदि ८ दिशाओं में एवं मध्य में वैष्णवी शक्तियोम की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए-
ॐ विमलायै नमः, पूर्वे ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, आग्नेये
ॐ ज्ञानायै नमः, दक्षिणे, ॐ क्रियायै नमः, नैऋत्ये,
ॐ भोगायै नमः, पश्चिमे ॐ प्रहव्यै नमः, वायव्ये
ॐ सत्यायै नमः, उत्तरे, ॐ ईशानायै नमः, ऐशान्ये
ॐ अनुग्रहायै नमः, मध्ये
इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्र से आसन दे कर मूल मन्त्र से उस पर कार्तवीर्य की मूर्ति की कल्पना कर आवाहन से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१३-१४॥
मध्य में आग्नेय, ईशान, नैऋत्ये, और वायव्यकोणों में हृदयादि चार अंगो की पुनः चारों दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना चाहिए ॥१५॥
तदनन्तर ढाल और तलवार लिए हुये चन्द्रमा की आभा वाले षडङ्ग मूर्तियों का ध्यान करते हुये षट्कोणों में षडङ पूजा करनी चाहिए ।
इसके बाद पूर्वादि चारोम दिशाओं में तथा आग्नेयादि चारों कोणो में १. चोरमदविभञ्जन, २. मारीमदविभञ्जन, ३. अरिमदविभञ्जन, ४. दैत्यमदविभञ्जन, ५. दुःख नाशक, ६. दुष्टनाशक, ७. दुरितनाशक, एवं ८. रोगनाशक का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्व आदि ८ दिशाओं में श्वेतकान्ति वाली ८ शक्तियोम का पूजन करना चाहिए ॥१६-१८॥
१. क्षेमंकरी, २. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यशस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. विद्याकारे, तथा ८. धनकरी ये ८ शक्तियाँ है । फिर आयुधों के साथ दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की साधना से मन्त्र के सिद्ध जो जाने पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥
विमर्श - आवरण पूजा विधि - सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा - आं फ्रों श्रीं हृदयाय नमः आग्नेये,
फिर अष्टदलों में पूर्वादि चारों दिशाओं में चोरविभञ्जन आदि का, तथा आग्नेयादि चारों कोणो में दुःखनाशक इत्यादि चार नाम मन्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चाहिए - यथा -
इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद धूप, दीप एवं नैवेद्यादि उपचारों से विधिवत् कार्तवीर्य का पूजन करना चाहिए ॥१५-२०॥
अब कार्तवीय की पूजा के लिए यन्त्र कहता हूँ । काम्यप्रयोगों में कार्तवीर्यस्य काम्यप्रयोगार्थ पूजनयन्त्रम् कार्तवीर्यपूजन यन्त्रः -
वृत्ताकार कर्णिका में दशदल बनाकर कर्णिका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज (क्लीं), श्रुतिबीज (ॐ) एवं वाग्बीज (ऐं) लिखे, फिरे प्रणव से ले कर वर्मबीज पर्यन्त मूल मन्त्र के १० बीजों को दश दलों पर लिखना चाहिए । शेष सह सहित १६ स्वरों को केशर में तथा शेष वर्णों से दशदल को वेष्टित करना चाहिए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वर्णों को लिखना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन पूजा का यन्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥
अब काम्य प्रयोग में अभिषेक विधि कहते है :-
शुद्ध भूमि में श्रद्धा सहित अष्टगन्ध से उक्त यन्त्र लिखकर उस पर कुभ की प्रतिष्ठा कर उसमें कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर विधिवत् पूजन करना चाहिए ॥२३॥
फिर अपनी इन्द्रियों ओ वश में कर साधक कलश का स्पर्श कर उक्त मुख्य मन्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्तर उस कलश के जल से अपने समस्त अभीष्टों की सिद्धि हेतु अपना तथा अपने प्रियजनों का अभिषेक करे ॥२३-२४॥
अब उस अभिषेक का फल कहते हैं - इस प्रकार अभिषेक से अभिषिक्त व्यक्ति पुत्र, यथ, आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से प्रेम तथा उपद्रव्य होने पर उनके भय को दूर करने के लिए कार्तवीर्य के इस मन्त्र को संस्थापित करना चाहिए ॥२५-२६॥
विविध कामनाओं में होम द्रव्य इस प्रकार है - सरसों, लहसुन एवं कपास के होम से शत्रु का मारन होता है । धतूर के होम से शत्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर विद्वेषण, कमल के होम से वशीकरण तथा बहेडा एवं खैर की समिधाओं के होम से शत्रु का उच्चाटन होता है । जौ के होम से लक्ष्मी प्राप्ति, तिल एवं घी के होम से पापक्षय तथा तिल तण्डुल सिध्दार्थ (श्वेत सर्षप) एवं लाजाओं के होम से राजा वश में हो जाता है ॥२७-२९॥
अपामार्ग, आक एवं दूर्वा का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नाशक होता है । प्रियंतु का होम स्त्रियों को वश में करता है । गुग्गुल का होम भूतों को शान्त करता है । पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की समिधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु, धन एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥
साँप की केंचुली, धतूरा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों ) तथा लवण के होम से चोरों का नाश होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम से स्तंभन होता है तथा शालि (धान) के होम से भूमि प्राप्त होती है ॥३२॥
मन्त्रज्ञ विद्वान् को कार्य की न्यूनाधिकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार तक निश्चित कर लेनी चाहिए । कार्य बाहुल्य में अधिक तथा स्वल्पकार्य में स्वल्प होम करना चाहिए ॥३३॥
विमर्श - सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दश हजार तक कही गई है, विद्वान् जैसा कार्य देखे वैसा होम करे ॥३३॥
अब सिद्धियों को देने वाले कार्तवीर्यार्जुन के मन्त्रों के भेद कहे जाते हैं -
अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त कार्तवीर्यार्जुन का चतुर्थ्यन्त, उसके बाद नमः लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है । अन्य मन्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥
उक्त मन्त्र के प्रारम्भ में दो बीज (फ्रों व्रीं) लगाने से यह द्वितीय मन्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा कामबीज (क्लीं) सहित यह तृतीय मन्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सहित नवम मन्त्र और आदि में वर्म (हुं) तथा अन्त में अस्त्र (फट्) सहित दशम मन्त्र बन जाता है ॥३४-३७॥
विमर्श - कार्तवीर्यार्जुन के दश मन्त्र - १, फ्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः २. फ्रों व्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ३. फ्रों क्लीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ४. फ्रों भ्रूं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ५. फ्रों आं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ६. फ्रों ह्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ७. फ्रों क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ८. फ्रों श्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ९. फ्रों ऐं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, १०. हुं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः फट् ॥३४-३७॥
द्वितीय मन्त्र से लेकर नौवें मन्त्र तक बीजों का व्युत्क्रम से कथ है और दसवें मन्त्र में वर्म (हुं) और अस्त्र (फट्) के मध्य नौ वर्ण रख्खे गए हैं ॥३८॥
इन मन्त्रों मे से जो भी सिद्धादि शोधन की रिति से अपने अनुकूल मालूम पडे उसी मन्त्र की साधना करनी चाहिए ॥३९॥
इन मन्त्रों में प्रथम दशाक्षर का विराट् छन्द है तथा अन्यों का त्रिष्टुप छन्द है ॥३९॥
पूर्वोक्त १० मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव लगा देने से प्रथम दशाक्षर मन्त्र एकादश अक्षरों का तथा अन्य ९ द्वादशाक्षर बन जाते है । इस प्रकार कार्तवीर्य मन्त्र के २० प्रकार के भेद बनते है । इनकी साधना पूर्वोक्त मन्त्रों के समान है । उक्त द्वितीय दश संख्यक मन्त्रों में पहले त्रिष्टुप तथा अन्यों का जगती छन्द है । इन मन्त्रों की साधना में षड् दीर्घ सहित स्वबीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४०-४१॥
तार (ॐ), हृत् (नमः), फिर ‘कार्तवीर्यार्जुनाय’ पद, वर्म (हुं), अ (फट्), तथा अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का मन्त्र बनता है इसकी साधना पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥४२॥
विमर्श - चतुर्दशार्ण मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमः कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१४) ॥४२॥
मन्त्र के क्रमशः १, २, ७, २, एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४३॥
तार (ॐ), हृत् (नमः), तदनन्तर चतुर्थ्यन्त भगवत् (भगवते), एवं कार्तवीर्यार्जुन (कार्तवीर्यार्जुनाय), फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) उसमें अग्निप्रिया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्य मात्र बनता है ॥४३-४४॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमो भगवते कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१८) ॥४४॥
इस मन्त्र के क्रमशः ३, ४, ७, २ एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४४॥
नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय, फिर सर्वदुष्टान्तकाय, फिर ‘तपोबल पराक्रम परिपालिलसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सर्वराजन्य चूडामण्ये सर्वशक्तिमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्र बनता हैं , जो स्मरण मात्र से सारे विध्नों को दूर कर देता है ॥४५-४७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्वदुष्टान्तकाय तपोबलपराक्रमपरिपालितसप्तद्वीपाय सर्वराजन्यचूडाणये सर्वशक्तिमते सहस्त्रबाहवे हुं फट् (६३) ॥४५-४७॥
१. राजन्यचक्रवर्ती, २. वीर, ३. शूर, ४. महिष्मपति, ५. रेवाम्बुपरितृप्त एवं, ६. कारागेहप्रबाधितदशास्य - इन ६ पदों के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४८-४९॥
नर्मदा नदी में जलक्रीडा करते समय युवतियों के द्वारा अभिषिच्यमान तथा नर्मदा की जलधारा को अवरुद्ध करने वाले नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान करना चाहिए ॥५०॥
इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए तथा हवन पूजन आदि समस्त कृत्य पूर्वोक्त कथित मन्त्र की विधि से करना चाहिए । इस मन्त्र साधना के सभी कृत्य पूर्वोक्त मन्त्र के समान कहे गये हैं ॥५१॥
अब कार्तवीर्यार्जुन के अनुष्टुप मन्त्र का उद्धार कहता हूँ -‘कार्तवीर्यार्जुनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’ तथा ‘वान्’ कहना चाहिए । फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चाहिए । यह ३२ अक्षर का मन्त्र है ।
इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से, तथा सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए । इसका ध्यान एवं पूजन आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥५२-५३॥
पञ्चाङ्गन्यास - कार्तवीर्यार्जुनो नाम हृदयाय नमः, राजा बाहुसहस्त्रवान् शिरसे स्वाहा, तस्य संस्मरणणादेव शिखायै वषट्, हृतं नष्टं च लभ्यते कवचाय हुम्, कार्तवीर्यार्जुनी० अस्त्राय फट् ॥५२-५३॥
‘कार्तवीर्याय’ पद दे बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महावीर्याय’ के बाद ‘धीमहि’ पद कहना चाहिए । फिर ‘तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात्’ बोलना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन का गायत्री मन्त्र है । कार्तवीर्य के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना चाहिए ॥५४-५६॥
रात्रि में इस अनुष्टुप् मन्त्र का जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्र से तर्पण करने पर अथवा इसका उच्चारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥
अब दीपप्रियः आर्तवीर्यः’ इस विधि के अनुसार कार्तवीर्य को प्रसन्न करने वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक, आश्विन, पौष, माघ एवं फाल्गुन में दीपदान करना प्रशस्त माना गया है ॥५७-५८॥
चौथ, नवमी तथा चतुर्दशी - इन (रिक्ता) तिथियों को छोडकर, दिनों में मङ्गल एवं शनिवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय, आश्विनी, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, स्वाती, विशाखा एवं रोहिणी नक्षत्र में कार्तवीर्य के लिए दीपदान का आरम्भ प्रशस्त कहा गया है ॥५९-६०॥
वैघृति, व्यतिपात, धृति, वृद्धि, सुकर्मा, प्रीति, हर्षण, सौभाग्य, शोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा विष्टि (भद्रा) को छोडकर अन्य करणों में दीपारम्भ करना चाहिए । उक्त योगों में पूर्वाहण के समय दीपारम्भ करना प्रशस्त है ॥६०-६२॥
कार्तिक शुक्ल सप्तमी को निशीथ काल में इसका प्रारम्भ शुभ है । यदि उस दिन रविवार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत दुर्लभ है । आवश्यक कार्यो में महीने का विचार नहीं करना चाहिए ॥६२-६३॥
साधक दीपदान से प्रथम दिन उपवास कर ब्रह्यचर्य का पालन करते हुये पृथ्वी पर शयन करे । फिर दूसरे दिन प्रातः काल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर गोबर और शुद्ध जल से हुई भूमि में प्राणायाम कर, दीपदान का संकल्प एवं पूर्वोक्त न्यासोम को करे ॥६४-६५॥
फिर पृथ्वी पर लाल चन्दन मिश्रित चावलों से षट्कोण का निर्माण करे । पुनः उसके भीतर काम बीज (क्लीं) लिख कर षट्कोणों में मन्त्रराज के कामबीज को छोडकर शेष बीजो को (ॐ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं) लिखना चाहिए । सृणि (क्रों) पद्म (श्रीं) वर्म (हुं) तथा अस्त्र (फट्) इन चारों बीजों को पूर्वादि चारों दिशाओं में लिखना चाहिए । फिर ९ वर्णों (कार्तवीर्यार्जुनाय नमः) से उन षड्कोणों को परिवेष्टित कर देना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर एक त्रिकोण निर्माण करना चाहिए ॥६५-६७॥
अब दीपस्थापन एवं पूजन का प्रकार कहते हैं -
इस प्रकार से लिखित मन्त्र पर दीप पात्र को स्थापित करना चाहिए । वह पात्र सोने, चाँदी या ताँबे का होना चाहिए । उसके अभाव में काँसे का अथवा उसके भी अभाव में मिट्टी का या लोहे का होना चाहिए । किन्तु लोहे का और मिट्टी का पात्र कनिष्ठ (अधम) माना गया है ॥६८-६९॥
शान्ति के और पौष्टिक कार्यो के लिए मूँगे के आटे का तथा किसी को मिलाने के लिए गेहूँ के आँटे का दीप-पात्र बनाकर जलाना चाहिए ॥६९॥
ध्यान रहे कि दीपक का निचला भाग (मूल) एवं ऊपरी भाग आकृति में समान रुप का रहे । पात्र का परिमाण १२, १०, ८, ६, ५, या ४ अंगुल का होना चाहिए ॥७०॥
सौ पल के भार से बने पात्र में एक हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में १० हजार पल घी, ६० पल के भार से बनाये गये पात्र में ७५ पल घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी, ११५ पल भार से बनाये गये दीप-पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये पात्र में १०० पल घी डालना चाहिए । इस प्रकार जितना घी जलाना हो अनुसार पात्र के भार की कल्पना कर लेनी चाहिए ॥७१-७३॥
नित्यदीप में ३ पल के भार का पात्र तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थापित कर सूत की बनी बत्तियाँ डालनी चाहिए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बत्तियाँ डालिनी चाहिए । ऐसे सामान्य नियमानुसार विषम सूतों की बनी बत्तियाँ होनी चाहिए ॥७४-७५॥
दीप-पात्र में शुद्ध-वस्त्र से छना हुआ गो घृत डालना चाहिए । कार्य के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १००० पल परिमाण पर्यन्त घी की मात्रा होनी चाहिए ॥७६॥
सुवर्ण आदि निर्मित्त पात्र के अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८ या ४ अंगुल की एक मनोहर शलाका बनाकार उक्त दीप पात्र के, भीतर दाहिनी ओर से शलाका का अग्रभाग कर डालना चाहिए । पुनः दीप पात्र से दक्षिण दिशा में ४ अंगुल जगह छोडकर भूमि में अधोमुख एक छुरी या चाकू गाडना चाहिए । फिर गणपति का स्मरण करते हुये दीप की जलाना चाहिए ॥७७-७९॥
दीपक से पूर्व दिशा में सर्वतोभद्र मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर मिट्टी का घडा विधिवत् स्थापित करना चाहिए । उस घट पर कार्तवीर्य का आवाहन कर साधक को पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन करना चाहिए । इतना कर लेने के बाद हाथ में जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चाहिए ॥८०-८१॥
अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प मन्त्र कहते हैं - यह (द्वि २ इषु ५ भूमि १ अंकाना वामतो गतिः) एक सौ बावन अक्षरों का माला मन्त्र है ।
प्रणव (ॐ), पाश (आं), माया (ह्रीं), शिखा (वषट्), इसके बाद ‘कार्त्त’ इसके बाद ‘वीर्यार्जुनाय’ के बाद ‘माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे’ इन वर्णों के बाद ‘सहस्त्र’ पद बोलना चाहिए । फिर ‘क्रतुदीक्षितहस्त दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय’, फिर वाम कर्ण (ऊ), इन्दु(अनुस्वार) सहित नभ (ह) एवं अग्नि (र्) अर्थात् (हूँ) पाश आं, फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टानाशय नाशय’, फिर २ बार ‘पातय’ और २ बार ‘घातय’ (पातय पातय घातय घातय), ‘शत्रून जहि जहि’, फिर माया (ह्रीं) तार (ॐ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (क्लीं) और फिर वाहिनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर वामनेत्रे (ई), चन्द्र (अनुस्वार) सहित २ बार आकाश (ह) अर्थात् (हीं हीं), शिवा (ह्रीं), वेदादि (ॐ), काम (क्लीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’ फिर सानुस्वर तवर्ग एवं पवर्ग (तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं), फिर प्रणव (ॐ) तथा अग्निप्रिया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का दीपदान मन्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥
दीप संकल्प के पहले कार्तवीर्य का ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्र का उच्चारण कर जल नीचे भूमि पर गिरा देना चाहिए । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥९१॥
नवाक्षर मन्त्र का उद्धार - तार (ॐ), बिन्दु (अनुस्वार) सहित अनन्त (आ) (अर्थात् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र सहित स्वबीज (फ्रीं), फिर शान्ति (ई) और चन्द्र (अनुस्वार) सहित कूर्म (व) और अग्नि (र) अर्थात् (व्रीं), फिर वहिननारी (स्वाहा), अंकुश (क्रों) तथा अन्त में ध्रुव (ॐ) लगाने से नवाक्षर मन्त्र बनता है । यथा - ॐ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा क्रों ॐ ॥९२॥
इस मन्त्र के पूर्वोक्त दत्तानेत्र ऋषि हैं । अनुष्टुप् छन्द है तथा इसके देवता और न्यास पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ।(द्र० १७. ८९-९०) इस मन्त्र का एक हजार ज्प कर कवच का पाठ करना चाहिए । (यह कवच डामर तन्त्र में हुं के साथ कहा गया है ) ॥९३॥
इस प्रकर दीपदान करने वाला व्यक्ति अपना सारा अभीष्ट पूर्ण कर लेता है । दीप प्रज्वलित करते समय अमाङ्गलिक शब्दों का उच्चारण वर्जित है ॥९४॥
अब दीपदान के समय शुभाशुभ शकुन का निर्देश करते हैं -दीप प्रज्वलित करते समय ब्राह्मण का दर्शन शुभावह है । शूद्रों का दर्शन मध्यम फलदायक तथा म्लेच्छ दर्शन बन्धदायक माना गया है । चूहा और बिल्ली का दर्शन अशुभ तथा गौ एवं अश्व का दर्शन शुभकारक है ॥८४-८६॥
दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो सिद्धि और टेढी मेढी हो तो विनाश करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का शब्द भय कारक होता है । ज्योतिपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कर्ता को सुख प्राप्त होता है । यदि काला हो तो शत्रुभयदायक तथा वमन कर रहा हो तो पशुओं का नाश करता है । दीपदान करन के बाद यदि संयोगवशात् पात्र भग्न हो जावे तो यजमान १५ दिन के भीतर यमलोक का अतिथि बन जाता है ॥९६-९८॥
अब दीपदान के शुभाशुभ कर्तव्य कहते हैं - दीप में दूसरी बत्ती डालने से कार्य सिद्ध में विलम्ब है, उस दीपक से अन्य दीपक जलाने वाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है । अशुद्ध अशुचि अवस्था में दीप का स्पर्श करने से आधि व्याधि उत्पन्न होती है । दीपक के नाश होने पर चोरों से भय तथा कुत्ते, बिल्ली एवं चूहि आदि जन्तुओं के स्पर्श से राजभय उपस्थित होता है ॥९९-१००॥
यात्रा करत समय ८ पल की मात्रा वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूर्ण करता है । इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों से सावधानी पूर्वक दीप की रक्षा करनी चाहिए जिससे विघ्न न हो ॥१०१॥
दीप की समाप्ति पर्यन्त कर्ता ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये भूमि पर शयन करे तथा स्त्री, शूद्र और पतितो से संभाषण भी न करे ॥१०२॥
प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर समाप्ति पर्यन्त प्रतिदिन नवाक्षर मन्त्र (द्र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र का पाठ विशेष रुप से रात्रि के समय करना चाहिए ॥१०३॥
निशीथ काल में एक पैर से खडा हो कर दीप के संमुख जो व्यक्ति इस मन्त्रराज का १ हजार जप करता है वह शीघ्र ही अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥
इस प्रयोग को उत्तम दिन में समाप्त कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद कुम्भ के जल से मूलमन्त्रद्वारा कर्ता का अभिषेक करना चाहिए।।१०५।
कर्ता साधक अपने गुरु को संतोषदायक एवं पर्याप्त दक्षिणा दे कर उन्हें संतुष्ट करे । गुरु के प्रसन्न हो जाने पर कृतवीर्य पुत्र कार्तवीर्यार्जुन साधक के सभी अभीष्टों को पूर्ण करते हैं॥१०६॥
यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं करना चाहिए अथवा गुरु को रत्नादि दान दे कर उन्हीं से कार्तवीर्याजुन को दीपदान कराना चाहिए । गुरु की आज्ञा लिए बिना जो व्यक्ति अपनी इष्टसिद्धि के लिए इस प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कार्यसिद्धि की बात तो दूर रही, प्रत्युत वह पदे पदे हानि उठाता है ॥१०७-१०८॥
कृतघ्न आदि दुर्जनों को इस दीपदान की विधि नहीं बतानी चाहिए । क्योंकि यह मन्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने वाले को दुःख देता है । दीप जलाने के लिए गौ का घृत उत्तम कहा गया है, भैंस का घी मध्यम तथा तिल का तेल भी मध्यम कहा गया है । बकरी आदि का घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगन्धित तेलों से दीप दान करना चाहिए । शत्रुनाश के लिए श्वेत सर्वप के तेल का दीप दान करना चाहिए । यदि एक हजार पल वाले दीओ दान करने से भी कार्य सिद्धि न हो तो विधि पूर्वक तीन दीपों का दान करना चाहिए । ऐसा करने से कठिन से भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाता है ॥१०९-११२॥
जिस किसी भी प्रकार से जो व्यक्ति अपने घर में कार्तवीर्य के लिए दीपदान करता है, उसके समस्त विघ्न और समस्त शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव विजय प्राप्त करता है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यश प्राप्त करता है । पात्र, घृत, आदि नियम किए बिना ही जो व्यक्ति किसी प्रकार से प्रतिदिन घर में कार्तवीर्यार्जुन की प्रसन्नता के लिए दीपदान करता है वह अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है॥११३-११५॥
तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के लिए क्रियमाण कर्तव्य का निर्देश करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं -
कार्तवीर्यार्जुन को दीप अत्यन्त प्रिय है, सूर्य को नमस्कार प्रिय है, महाविष्णु को स्तुति प्रिय है, गणेश को तर्पण, भगवती जगदम्बा को अर्चना तथा शिव को अभिषेक प्रिय है । इसलिए इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका प्रिय संपादन करना चाहिए ॥११६-११७॥
वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति॥१७॥
(मैत्रेय्युपनिषत्)
सरलार्थ:-वर्ण एवं आश्रम धर्म का पालन करने वाले अज्ञानी जन ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं; लेकिन वर्ण आदि के धर्मों को त्यागकर आत्मा में ही स्थिर रहने वाले मनुष्य अन्तः के आनन्द से ही पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं।।
इसी लिए भगवान कृष्ण ने कहा "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आजा "
कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन है जिसमें विराट पुरुष के विभिन्न अंगों से सृष्टि हुई है।
एक वैदिक श्रोता- ऋषि से प्रश्न किया " यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ? मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादा उच्येते ?
(ऋग्वेद▪10/90/11 )जिस पुरुष का विधान किया गया ? उसका कितने प्रकार विकल्पन( रचना) की गयी अर्थात् प्रजापति द्वारा जिस समय पुरुष विभक्त हुए तो उनको कितने भागों में विभक्त किया गया, इनके मुख ,बाहू उरु और चरण क्या कहे गये ? तो ऋषि ने इस प्रकार 👇 उत्तर दिया
उत्तर–इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण जाति भुजा से क्षत्रिय जाति,और वैश्य जाति ऊरु से तथा शूद्र जाति दौनों पैरों से उत्पन्न हुई।
पुरुष सूक्त में जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण है ।
इस लिए यहाँ कल्पना शब्द से उत्पत्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाएगा नकि अलंकार की कल्पना का अर्थ । क्योंकि अन्यत्र भी अकल्पयत् क्रियापद रचना करने के अर्थ में है।
"सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" ऋग्वेद- १०/ १९१/३ अर्थात् सूर्य चन्द्र विधाता ने पूर्व रचना में बनाए थे वैसे ही अन्य इस रचना में बनाए हैं । सृष्टि उत्पत्ति के विषय में कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में वर्णन है कि
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प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत ।
(6)अन्व् असृज्यत वैराजꣳ साम शूद्रो मनुष्याणाम् अश्वः पशूनाम् । तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः । न हि देवता अन्व् असृज्यत तस्मात् पादाव् उप जीवतः पत्तो ह्य् असृज्येताम् प्राणा वै त्रिवृत् । अर्धमासाः पञ्चदशः प्रजापतिः सप्तदशस् त्रय इमे लोकाः । असाव् आदित्य एकविꣳशः । एतस्मिन् वा एते श्रिता एतस्मिन् प्रतिष्ठिताः । य एवं वेदैतस्मिन्न् एव श्रयत एतस्मिन् प्रति तिष्ठति॥____________________________________
अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं ।
( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए ।
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हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ। (भेढ़ क्षत्रियों की सजातीय है। इन्हें भेढ़ पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए। इसी लिए मेढ्र ( सिंचन करने वाला / गर्भाधान करने वाला ) कहा जाता है मेढ़े को । मेढ्रः, पुल्लिंग (मेहत्यनेनेति । मिह सेचने + “दाम्नी- शसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः करणे ।”३।२।१८२। इति ष्ट्रन् ) =शिश्नः । (यथा, मनौ । ८ । २८२ । “अवमूत्रयतो मेढ्रमवशर्द्धयतो गुदम् ।) स तु गर्भस्थस्य सप्तभिर्मासैर्भवति । इति सुख- बोधः ॥
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मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये। उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य और पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए।
इनकी संख्या बहुत है ।
कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए।
उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।
पीछे अनुष्टुप छन्द, वैराज, साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए । यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है । क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ। प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण "अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए।
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ब्राह्मण बकरे के सजातीय और वैश्य गाय के सजातीय क्षत्रिय भेड़े (मेढ़ा)के तथा शूद्र घोड़े के सजातीय है । अब बताओ सबसे श्रेष्ठ पशु कौन सा है ?
कृष्ण यजुर्वेद ७/१/१/ में भी इस वैदिक उत्पत्ति का वर्णन है। छन्द 5- साम राजन्यो मनुष्याणाम् अविः पशूनाम् । तस्मात् ते वीर्यावन्तः । वीर्याद् ध्य् असृज्यन्त मध्यतः सप्तदशं निर् अमिमीत तं विश्वे देवा देवता अन्व् असृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपम्साम वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् । तस्मात् त आद्याः । अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त तस्माद् भूयाम्सोम ऽन्येभ्यः । भूयिष्ठा हि देवता अन्व् असृज्यन्त पत्त एकविंश निर् अमिमीत तम् अनुष्टुप् छन्दः छन्द-6- अन्व् असृज्यत वैराजम् साम शूद्रो मनुष्याणाम् अश्वः पशूनाम् । तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः । न हि देवता अन्व् असृज्यत तस्मात् पादाव् उप जीवतः पत्तो ह्य् असृज्येताम् प्राणा वै त्रिवृत् । अर्धमासाः पञ्चदशः प्रजापतिः सप्तदशस् त्रय इमे लोकाः । असाव् आदित्य एकविंशः । एतस्मिन् वा एते श्रिता एतस्मिन् प्रतिष्ठिताः । य एवं वेदैतस्मिन्न् एव श्रयत एतस्मिन् प्रति तिष्ठति।
तैत्तिरीय संहिता ७.१.१.४ में उल्लेख आता है कि प्रजापति के मुख से अजा ( बकरी)उत्पन्न हुई, उर से अवि (भेड़), उदर से गौ तथा पैर से अश्व । अज गायत्र है । जैमिनीय ब्राह्मण १.६८ में यह उल्लेख थोडे भिन्न रूप में मिलता है । वहां उर से अश्व की उत्पत्ति और पद से अवि की उत्पत्ति का उल्लेख है जो कि प्रक्षेप ही है। प्रश्न उठता है कि मुख से अजा उत्पन्न होने का क्या निहितार्थ हो सकता है ?जैसा कि गौ शब्द की टिप्पणी में छान्दोग्य उपनिषद २.१०-२.२० के आधार पर कहा गया है, अज अवस्था सूर्य के उदित होने से पहले की, तप की अवस्था हो सकती है । अवि अवस्था सूर्य उदय के समय की अवस्था है, गौ अवस्था मध्याह्न काल की अवस्था है जब पृथिवी सूर्य की ऊर्जा को अधिकतम रूप में ग्रहण करने में सक्षम होती है । अपराह्न काल की अवस्था अश्व की और सूर्यास्त की अवस्था पुरुष की अवस्था होती है । सामों की भक्तियों के संदर्भ में अज को हिंकार, अवि को प्रस्ताव, गौ को उद्गीथ, अश्व को प्रतिहार और पुरुष को निधन कह सकते हैं( रैवत पृष्ठ्य साम के संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद २.१८ ) ।
शतपथ ब्राह्मण ४.५.५.२ में अजा आदि पशुओं के लिए पात्रों का निर्धारण किया गया है । अजा उपांशु पात्र के अनुदिश उत्पन्न होती हैं, अवि अन्तर्याम पात्र के, गौ आग्रयण, उक्थ्य व आदित्य पात्रों के, अश्व आदि एकशफ पशु ऋतु पात्र के और मनुष्य शुक्र पात्र के अनुदिश उत्पन्न होते हैं । अजा के उपांशु पात्र से सम्बन्ध को इस प्रकार उचित ठहराया गया है कि यज्ञ में प्राण उपांशु होते हैं( शतपथ ब्राह्मण ४.१.१.१), बिना शरीर के, तिर: प्रकार के होते हैं( ऐतरेय आरण्यक २.३.६) । अतः इन पात्रों को उपांशु या चुपचाप रहकर ग्रहण किया जाता है । इस कथन को अजा के इस गुण के आधार पर समझा जा सकता है कि अजा के तप से शरीर के अविकसित अङ्गों का, ज्ञानेन्द्रियों का क्रमशः विकास होता है । मुख तक विकास होने पर ही वह व्यक्त हो पाते हैं । कहा गया है कि अजा की प्रवृति ऊपर की ओर मुख करके गमन करने की होती है जबकि अवि की नीचे की ओर, भूमि का खनन करते हुए चलने जैसी । अवि के साथ अन्तर्याम पात्र सम्बद्ध करने का न्याय यह है कि उदान अन्तरात्मा है जिसके द्वारा यह प्रजाएं नियन्त्रित होती हैं, यमित होती हैं । अतः इस पात्र का नाम अन्तर्याम है ( शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.२) । यह अवि के नीचा मुख करके चलने की व्याख्या भी हो सकती है क्योंकि उदान अधोमुखी होने पर ही प्रजाओं का नियन्त्रण हो पाता है । मनुष्य के शुक्र पात्र के संदर्भ में शुक्र श्वेत ज्योति को कहते हैं । अश्व और गौ के संदर्भ में पात्रों की प्रकृति के निहितार्थ अन्वेषणीय हैं ।
परन्तु ब्राह्मण गाय पाले तों उनके लिए हेय ही है क्यों की गाय ब्रह्मा के उदर से ही उत्पन्न हुई थी
और बकरी (अजा) ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण के साथ उनके यज्ञों के साधन रूप में उत्पन्न हुई स्वयं अग्नि देव ने अज( बकरे ) को अपना वाहन स्वीकार किया।
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अब ऋग्वेद में मनुष्यों की उत्पत्ति विराट पुरुष के इन अंगों से हुई।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः॥
(ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)
(ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ) अर्थात ब्राह्मण इस विराट पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए। बाहों से क्षत्रिय ,उरू से वैश्य और दौनों पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ।
यदि दूसरे शब्दों के अनुसार कहे तो इस ऋचा का अर्थ इस प्रकार समझा जा सकता है। सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्म के मुख से ब्राह्मण हुए, बाहु क्षत्रिय का कारण बने, उसकी जंघाएं वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
वर्ण-व्यवस्था मानने वाले ब्राह्मण लोग वैदिक
विधानों के अनुसार गाय के स्थान पर बकरी ही पालें यही वेदों का विधान है। क्यों गाय वैश्य वर्ण के साथ ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुई।
अत: गाय को वैश्य से सम्बन्धित कर दिया गया -
जैसा कि पुराणों तथा वेदों का कथन है । पुराण भी वेदों के ही लौकिक व्याख्याता हैं ।
पुराणों में और वेदान्त ग्रन्थों (तैत्तिरीय संहिता, सतपथ ब्राह्मण आदि) में वर्णन है कि -
सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा ने अपने मुख से बकरियाँ उत्पन्न कीं और वक्ष से भेड़ों को तथा उदर से गायों को उत्पन्न किया तथा पैरों से घोड़ा उत्पन्न हुआ था ।
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ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने को कारण ही बकरियाँ पशुओं में मुख्या =(मुख+यत्+टाप्) मुख से उत्पन्न हैं । मुख्य शब्द मुख से व्युत्पन्न तद्धितान्त पद है जो अब श्रेष्ठ अर्थ का सूचक है।
"मुखे आदौ भवः यत् प्रथमकल्पे अमरःकोश -श्रेष्ठे च ।
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श्रीविष्णुधर्मोत्तर पुराण प्रथमखण्ड ग्रहर्क्षादिसंभवाध्यायो नाम(107)वाँ अध्याय इस वैदिक सन्दर्भ पर प्रकाश डालता है। देखें नीचे ये दो श्लोक-
मुखतोऽजाःसृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत्।
गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पुनरन्याँश्च निर्ममे।३०।
उस जगत्सृष्टा ब्रह्मा ने मुख से अजा (बकरी) और वक्ष से अवि( भेड़) उत्पन्न की और गायें को उस ब्रह्मा ने उदर से पैदा किया और पुन: भी ये इसी प्रकार उत्पन्न हुए।३०।
पादतोऽश्वांस्तुरङ्गांश्च रासभान्गवयान्मृगान् ।
उष्ट्रांश्चैव वराहांश्च श्वानानन्यांश्च जातयः।३१।
पैरों से अश्व और तुरंग ,रासभ ,गवय ,मृग, ऊँट वराह ( सूकर) ,कुत्ता ,और अन्य अन्य जो जाति के जीव है वे उत्पन्न किए।३१।
अष्टास्वेतासु सृष्टासु देवयोनिषु स प्रभुः ।
छन्दतश्चैवछन्दासि वयांसि वयसासृजत्।४२।
पक्षिणस्तु स सृष्ट्वा वै ततःपशुगणान्सृजन् ।
मुखतोऽजाऽसृजन्सोऽथ वक्षसश्चाप्यवीःसृजन् ४३।
गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्यां च विनिर्ममे ।
पादतोऽश्वान्समातङ्गान् रासभान्गवयान्मृगान्।४४।
अनुवाद:- इन आठ दिव्य प्राणियों को बनाने के बाद, उस सृष्टा ने इच्छा करते हुए *छन्दों का सृजन किया । उन्होंने अपनी वयस् (बल - यौवन ) के माध्यम से पक्षियों का निर्माण किया।42।
. पक्षियों को बनाने के बाद उसने पशुओं के समूह बनाए। उसने अपने मुँह से बकरियाँ और अपनी छाती से भेड़ें पैदा कीं।43
ब्रह्मा ने अपने उदर(पेट)से गायों और पैरों से घोड़ों, गदहों, गवयों (नील गाय की एक प्रजाति), हिरण, ऊँट, सूअर और कुत्तों के साथ-साथ हाथियों को भी पैरों से पैदा किया। ब्रह्मा द्वारा जानवरों की अन्य प्रजातियाँ भी बनाई गईं।44-45
श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते पूर्वभागे द्वितीयेऽनुषङ्गपादे मानससृष्टिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः में भी यही वर्णन
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और उस विराट ने दोनों पैरों से घोड़े और तुरंगो, गदहों और नील गवय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार सूकर(वराह),कुत्ता जैसी अन्य जानवरों की जातियाँ उत्पन्न की ।
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"बकरी ब्राह्मणों की सजातीय इसीलिए है कि ब्राह्मण भी ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुए और बकरा -बकरी भी मुख से उत्पन्न हुए हैं।अग्नि, इन्द्र ,ब्राह्मण और अजा ये सभी पहले उत्पन्न हुए और विराट पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए इसी लिए इन्हें लोक में मुख्य कहा गया।
"अग्रजायते ब्रह्मण:मुखात् इति अजा।
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(ऋग्वेद मण्डल दश सूक्त नवति और ऋचा एक से द्वादश) (१०/९०/ १ से १२ )पर्यन्त ऋग्वेद में सृष्टि रचना का वर्णन है कि
तस्मात्) उस विराट पुरुष ब्रह्मा से (अश्वाः-अजायन्त) अश्व (घोड़े) उत्पन्न हुए (ये के च उभयादतः) और जो कोई ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँतवाले हैं, वे भी उत्पन्न हुए (तस्मात्-गावः-ह जज्ञिरे) उस परमात्मा से गाय उत्पन्न हुईं (तस्मात्-अजा-अवयः-जाताः) और उसी विराटपुरुष से बकरियाँ और भेड़ें उत्पन्न हुईं।१०।
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यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते।११।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यःपद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१२॥
विष्णु धर्मोत्तरपुराण में निम्न श्लोक विचारणीय हैं।
वक्ष से भेड़ों को और उदर से गायों को उत्पन्न किया ।३०।
और दोनों पैरों से घोड़ो और तुरंगो , गदहों और नील-गाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार ब्रह्मा द्वारा सूकर (वराह) कुत्ता जैसी अन्य जातियाँ उत्पन्न की गयीं ।३१। यह तथ्य विष्णुधर्मोत्तर पुराण खण्ड प्रथम अध्याय (१०७) में भी है। और अन्य बहुतायत पुराणों में भी वेदों के इन्हीं सन्दर्भों का ही हवाला दिया गया है।
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"अवयो वक्षसश्चक्रे मुखत: अजाःस सृष्टवान्।
सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वभ्यां च प्रजापतिः।४८।
पद्भ्यां चाश्वान्समातङ्गान्रासभान्गवयान्मृगान्।
उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कूनन्याश्च जातयः।४९।
(विष्णुपुराण प्रथमाञ्श पञ्चमोऽध्याय (५)
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विष्णु पुराण पञ्चमाञ्श पञ्चम् अध्याय में भी वर्णन है कि अवि (भेढ़) ब्रह्मा नें वक्ष से। और विराट-पुरुष( ब्रह्मा) के मुख से अजा बकरी) उत्पन्न हुई हैं । उदर से गौ और अगल-बगल से प्रजापति उत्पन्न हुए ।
श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे सृष्टिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः।4।
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★-सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः
( साम्य विष्णु पुराण प्रथमाँश पञ्चम् अध्याय)
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बकरी को शास्त्रों में सर्वाधिक श्रेष्ठ पशु माना गया है ब्राह्मण भी प्रारम्भिक काल में बकरी ही पालते थे। बकरी ही उनके यजन का साधन थीं ।
क्यों कि सृष्टि रचना में बकरी ब्रह्मा के मुख से निकली है जो ब्राह्मणों की सजातीय है।
परन्तु वैश्य वर्ण की गाय को ब्राह्मण द्वारा पाला जाना वेदशास्त्रों के विधान की तौहीन है। वैसे भी यादवों (गोपों)को गोपालन के कारण ही वैश्य वर्ण में करने के विधान बनाए गये ।
गाय वैश्य वर्णा पशु है इसी लिए आज तक शंकराचार्य गण अहीरों को मात्र गोपालन करने के कारण वैश्य ही मानते हैं ।
परन्तु अपने ऊपर ये ब्राह्मण कोई विधान लागू ही नहीं होने देते यही इनकी शास्त्रीय तानाशाही है। जैसा ब्राह्मण अनुवादक ने वराह पुराण में वर्णित सूकर महात्म्य के एक प्रसंगकथा में "अभीराणां जनेश्वर" इस पद का अर्थ "वेैश्यों का नेता" या राजा कर दिया है।
गतः स पद्मपत्राक्ष आभीराणां जनेश्वरः।
गावो विंशसहस्राणि प्रेषयत्यग्रतो द्रुतम् ।५६।
अर्थ:- अभीरों (वैश्यों) का राजा पद्मपत्राक्ष" चला गया और वह जल्दी में बीस हजार गायें आगे भेज देता है। 56।
पद्म पुराण में गाय को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न कराना और ब्राह्मण की सजातीय बनाकर ब्राह्मण को धर्म और वर्ण संकट में डालना ही है। क्यों कि गाय पालने मात्र से अहीर वैश्य हो गये और अधिकतर पुराणों शास्त्रों में गो विराट पुरुष के उदर से उत्पन्न होने से वैश्यवर्णा पशु है।
अत: पद्म पुराण सृष्टि खण्ड का 48 वाँ अध्याय नवीनतर है क्यों इस अध्याप में ब्राह्मण को कृषि करवाने का भी शास्त्र विरोधी विधान पारित करते जाना गया है।
कदाचित इसी विधान की आढ़ में स्कन्द पुराण की गोमुख से गायत्री उत्पादन की कथा कल्पित की गयी ।
अहीरों को ही गोपालन वृत्ति (व्यवसाय) के कारण ही समाज में गोप नाम से सम्बोधित किया गया है। गोप सनातन हैं। और ये गोप सदैव गोपों में ही जन्म लेते हैं। जबकि ब्राह्मी सृष्टि क्रमानुसार जातीय व्युत्क्रम भी होता है । यद्यपि कर्म सिद्धांत के अधीन तो गोप भी संसार में होतो हैं। और इसके मूल में उनकी मनोवृत्ति ( इच्छा ऐ ही कारण होती है । परन्तु केवल अहीर या गोपों की जाति में ही इस कर्मानुसार उनके जन्म उच्च निम्न और मध्य सांस्कारिक स्तरों के अनुरूप ही होतो हैं। अहीर कभी ब्राह्मण अथवा वैश्य अथवा क्षत्रिय अथवा शूद्र होने की नहीं करेगा जो गोपों की सर्वश्रेष्ठता को जान लेगा। और गोपो की उत्पत्ति के विषय में भी ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्गसंहिता में लिखा है कि वे विष्णु अथवा कृष्ण के रोमकूपों से (क्लोनविधि) द्वारा कृष्ण के समान रूप वाले उत्पन्न हुए थे। परन्तु संसार में कर्म प्रभाव से उनके स्वरूप और स्तर बदलते रहे।
यद्यपि उतन्न होने की प्राणी जगत में अनेक विधियाँ हैं प्राचीन काल में भी विज्ञान रहा होगा -जिसके अनेक साक्ष्य परोक्ष रूप से प्राप्त होते हैं।
यह समग्र संसार स्वयं में पूर्ण की इकाई (समष्टि) रूप है। जैसी उपनिषद का वचन है ।
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्ण मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा वशिष्यते।
शब्दार्थ - अदः = वह परब्रह्म। पूर्णम् = सब प्रकार से पूर्ण है। इदम = यह (जगत् भी) पूर्णम् = पूर्ण (ही) है। पूर्णात् = उस पूर्ण (परम्ब्रह्म ) से । पूर्णम् =यह पूर्ण। उदच्यते = उत्पन्न होता है। पूर्णस्य = पूर्ण से। पूर्णम् = पूर्ण को। आदाय = निकाल देने पर । पूर्णम् = पूर्ण। एव = ही। अवशिष्यते = शेष रहता है। अर्थ - वह (परब्रह्म ) सब प्रकार से पूर्ण है। यह (जगत् ) भी पूर्ण ही है ; क्योंकि यह उस पूर्ण (परब्रह्म ) से ही उत्पन्न हुआ है। पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। जैसे गणित में शून्य से शून्य निकलने पर केवल शून्य ही रह जाता है।
परमात्मा ने अपनी लीलाओं के लिए कर्म सिद्धान्त का विधान संसार में किया जिनके मूल में इच्छाऐं व्याप्त हैं।
गोपों की उत्पत्ति ब्रह्मा से नहीं अपितु गोप रूप सनातन विष्णु या नारायण अथवा कृष्ण से गी हुई है। गोलोक में कर्मफल के प्रभाव से रहित गोप कृष्ण के ही समान हैं परन्तु संसार में कर्म फल के प्रभाव से विभिन्न रूप और छोटे बड़े स्तरों वाले हैं।
किसी मनुष्य अथवा प्राणी के समान रूप की उत्पन्न होने की जैविक विधि का एक प्रकार क्लोन( Clon) प्रतिरूप-भी है।
क्लोनिंग एक जैविक उत्पादन (विधि) अथवा तकनीक है जिसका उपयोग वैज्ञानिक प्राणीयों की सटीक अनुवांशिक प्रतियां बनाने के लिए आज करते हैं। जीन, कोशिकाओं, ऊतकों और यहां तक कि पूरे प्राणी को भी क्लोन विधि द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है। परन्तु स्वभाव और और प्रवृत्ति स्तर भिन्न हो सकते हैं क्लोन के केवल शारीरिक रूप ही समान होता है।
कुछ क्लोन पहले से ही इस प्रकृति में उपस्थित हैं। बैक्टीरिया जैसे एकल-कोशिका वाले जीव हर बार पुनरुत्पादन करते समय अपनी सटीक ( यथावत सम प्रतिरूप बनाते हैं।
मनुष्यों में, समान जुड़वाँ क्लोन के समान ही होते हैं। वे लगभग समान जीन साझा करते हैं। जब एक निषेचित अण्ड दो रूप में विभाजित होता है तो समान जुड़वाँ (यमन) पैदा होते हैं।
वैज्ञानिक लैब में क्लोन भी बनाते हैं। वे अक्सर जीन का अध्ययन करने और उन्हें बेहतर ढंग से समझने के लिए क्लोन करते हैं।
एक जीन को क्लोन करने के लिए, शोधकर्ता एक जीवित प्राणी से डी.एनए लेते हैं और इसे बैक्टीरिया या खमीर जैसे वाहक में डालते हैं।डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल
DNA
डी॰ एन॰ ए॰ जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तंतुनुमा अणु को डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल या डी॰ एन॰ ए॰ कहते हैं। इसमें अनुवांशिक कूट निबद्ध रहता है। डी एन ए अणु की संरचना घुमावदार सीढ़ी की तरह होती है।
हर बार जब वह वाहक प्रजनन करता है। तो जीन की एक नई प्रति बनाई जाती है। यह भी एक जैविक उत्पादन विधि है।
प्राणीयो को दो तरीकों में से एक में क्लोन किया जाता है। पहले को एम्ब्रियो ट्विनिंग ( द्वितीयकरण) कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने पहले एक भ्रूण को आधे में विभाजित किया। इसके बाद उन दोनों हिस्सों को मां के गर्भाशय में स्थापित किया जाता है। भ्रूण का प्रत्येक भाग एक अद्वितीय जानवर के रूप में विकसित होता है।
और दोनों जानवर एक ही जीन साझा करते हैं। दूसरी विधि को सोमैटिक सेल ( कायिक- कोशिका)] न्यूक्लियर ट्रांसफर कहा जाता है। दैहिक कोशिकाएं वे सभी कोशिकाएं हैं जो एक जीव को बनाती हैं, लेकिन यह शुक्राणु या अंडाणु नहीं हैं।
शुक्राणु और अंडे की कोशिकाओं में गुणसूत्रों का केवल एक सेट होता है ! जो मैथुनी सृष्टि के कारक है और प्रेरक हैं। और जब वे निषेचन के दौरान जुड़ते हैं, तो माता के गुणसूत्र पिता के साथ मिल जाते हैं। _______ दूसरी ओर, दैहिक कोशिकाओं में पहले से ही गुणसूत्रों के दो पूर्ण सेट होते हैं।
एक क्लोन बनाने के लिए, वैज्ञानिक एक जानवर के दैहिक कोशिका से डीएनए को एक अंडे की कोशिका में स्थानांतरित करते हैं जिसका नाभिक और डीएनए हटा दिया गया है। अंडा एक भ्रूण में विकसित होता है जिसमें कोशिका दाता के समान जीन होते हैं। फिर भ्रूण को बढ़ने के लिए एक वयस्क महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है।
क्लोन का अर्थ होता है जैविक प्रतिरूप जीवविज्ञान में क्लोन का अपना एक स्वतन्त्र इतिहास है । गोरों की विष्णु से उत्पत्ति समझने के लिए क्लोन पद्धति को भी स्थूल दृष्टि से समझ लें _____________________________________
1996 में, स्कॉटिश वैज्ञानिकों ने पहले जानवर, एक भेड़ का क्लोन बनाया, जिसका नाम उन्होंने डॉली रखा। एक वयस्क भेड़ से ली गई उदर कोशिका का उपयोग करके उसे क्लोन किया गया था। तब से, वैज्ञानिकों ने क्लोन किए हैं- गाय, बिल्ली, हिरण, घोड़े और खरगोश।
हालांकि, उन्होंने अभी भी एक मानव का क्लोन नहीं बनाया है। आंशिक रूप से, इसका कारण यह है कि एक व्यवहार्य क्लोन का उत्पादन करना मुश्किल है। प्रत्येक प्रयास में, आनुवंशिक गलतियाँ हो सकती हैं जो क्लोन को जीवित रहने से रोकती हैं।
डॉली को सही साबित करने में वैज्ञानिकों को 276 कोशिशें करनी पड़ीं। मानव की क्लोनिंग के बारे में नैतिक चिंताएँ भी हैं।
शोधकर्ता कई तरह से क्लोन का उपयोग कर सकते हैं। क्लोनिंग से बने भ्रूण को स्टेम सेल फैक्ट्री में बदला जा सकता है। स्टेम कोशिकाएँ कोशिकाओं का एक प्रारंभिक रूप हैं जो कई अलग-अलग में विकसित हो सकती हैं। कोशिकाओं और ऊतकों के प्रकार।
मधुमेह के इलाज के लिए क्षतिग्रस्त रीढ़ की हड्डी या इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं को ठीक करने के लिए वैज्ञानिक उन्हें तंत्रिका कोशिकाओं में बदल सकते हैं। जानवरों के क्लोनिंग का उपयोग कई अलग-अलग अनुप्रयोगों में किया गया है।
जानवरों को जीन म्यूटेशन के लिए क्लोन किया गया है जो वैज्ञानिकों को जानवरों में विकसित होने वाली बीमारियों का अध्ययन करने में मदद करता है। अधिक दूध उत्पादन के लिए गायों और सूअरों जैसे पशुओं का क्लोन बनाया गया है। क्लोन एक प्यारे पालतू जानवर को "पुनर्जीवित" भी कर सकते हैं जो मर चुका है।
2001 में, सीसी नाम की एक बिल्ली क्लोनिंग के माध्यम से बनाई जाने वाली पहली पालतू जानवर थी। क्लोनिंग एक दिन ऊनी मैमथ या जायंट पांडा जैसी विलुप्त प्रजातियों को वापस ला सकती है। __________
1-गुणसूत्र संज्ञा:- कोशिकाओं के केंद्रक में डीएनए और संबद्ध प्रोटीन की लड़ी जो जीव की आनुवंशिक जानकारी को वहन करती है। ________ 2-क्लोन संज्ञा:-कोशिका या कोशिकाओं का समूह जो आनुवंशिक रूप से अपने पूर्वज कोशिका या कोशिकाओं के समूह के समान है। ___________
3-डीएनए संज्ञा:-(डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) प्रत्येक जीवित जीव में अणु जिसमें उस जीव पर विशिष्ट आनुवंशिक जानकारी होती है। __________
4-भ्रूणसंज्ञा:-विकास के प्रारंभिक चरण में अजन्मा जानवर। 5-जीनसंज्ञा:-डीएनए का वह भाग जो आनुवंशिकता की मूल इकाई है। _________ 6-प्रतिकृतिसंज्ञा:- एक सटीक समानप्रति या प्रजनन। _______
7-दैहिक कोशिकासंज्ञा:-कोशिकाएं जो जीव के हर हिस्से को बनाती हैं; शुक्राणु या अंडाणु नहीं 8-स्टेम सेलसंज्ञा:-प्रारंभिक कोशिका जो शरीर में किसी भी प्रकार की कोशिका या ऊतक में विकसित हो सकती है।
गोप केवल विष्णु के क्लोन उत्पादन हो सकते हैं जबकि चातुर्वर्ण का उत्पादन क्लोन विधि नही है। क्योंकि शास्त्रो में गोपों को प्रारम्भ नें विष्णु रूप में वर्णित किया गया ।
Cloning is a technique scientists use to make exact genetic copies of living things.
Genes, cells, tissues, and even whole animals can all be cloned.
Some clones already exist in nature. Single-celled organisms like bacteria make exact copies of themselves each time they reproduce. In humans, identical twins are similar to clones. They share almost the exact same genes. Identical twins are created when a fertilized egg splits in two.
Scientists also make clones in the lab. They often clone genes in order to study and better understand them. To clone a gene, researchers take DNA from a living creature and insert it into a carrier like bacteria or yeast. Every time that carrier reproduces, a new copy of the gene is made.
Animals are cloned in one of two ways. The first is called embryo twinning. Scientists first split an embryo in half. Those two halves are then placed in a mother’s uterus. Each part of the embryo develops into a unique animal, and the two animals share the same genes. The second method is called somatic cell nuclear transfer. Somatic cells are all the cells that make up an organism, but that are not sperm or egg cells.
Sperm and egg cells contain only one set of chromosomes ! and when they join during fertilization, the mother’s chromosomes merge with the father’s. _______ Somatic cells, on the other hand, already contain two full sets of chromosomes.
To make a clone, scientists transfer the DNA from an animal’s somatic cell into an egg cell that has had its nucleus and DNA removed. The egg develops into an embryo that contains the same genes as the cell donor. Then the embryo is implanted into an adult female’s uterus to grow.
In 1996, Scottish scientists cloned the first animal, a sheep they named Dolly. She was cloned using an udder cell taken from an adult sheep. Since then, scientists have cloned- cows, cats, deer, horses, and rabbits.
They still have not cloned a human, though. In part, this is because it is difficult to produce a viable clone. In each attempt, there can be genetic mistakes that prevent the clone from surviving.
It took scientists 276 attempts to get Dolly right. There are also ethical concerns about cloning a human being. Researchers can use clones in many ways. An embryo made by cloning can be turned into a stem cell factory. Stem cells are an early form of cells that can grow into many different. types of cells and tissues.
Scientists can turn them into nerve cells to fix a damaged spinal cord or insulin-making cells to treat diabetes. The cloning of animals has been used in a number of different applications. Animals have been cloned to have gene mutations that help scientists study diseases that develop in the animals. Livestock like cows and pigs have been cloned to produce more milk . Clones can even “resurrect” a beloved pet that has died. In 2001, a cat named CC was the first pet to be created through cloning. Cloning might one day bring back extinct species like the woolly mammoth or giant panda. __________
1-chromosome Noun strand of DNA and associated proteins in the nucleus of cells that carries the organism's genetic information. ________
2-clone Noun cell or group of cells that is genetically identical to its ancestor cell or group of cells. ___________
3-DNA Noun (deoxyribonucleic acid) molecule in every living organism that contains specific genetic information on that organism. __________
4-embryo Noun unborn animal in the early stages of development.
5-gene Noun part of DNA that is the basic unit of heredity. _________
6-replica(प्रतिकृति)
Noun an exact copy or reproduction. replica is an exact copy of an object, made out of the same raw materials, whether a molecule, a work of art, or a commercial product.
The term is also used for copies that closely resemble the original, without claiming to be identical.
Also has the same weight and size as original.
प्रतिकृति किसी वस्तु की एक सटीक प्रति है, जो एक ही कच्चे माल से बनी है, चाहे वह अणु हो, कला का काम हो या व्यावसायिक उत्पाद हो।
इस शब्द का प्रयोग उन प्रतियों के लिए भी किया जाता है जो समान होने का दावा किए बिना मूल के समान दिखती हैं।इसका वजन और आकार मूल के समान ही है।
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7-somatic cell Noun cells that make up every part of an organism; not a sperm or egg cell
8-stem cell Noun early cell that can develop into any type of cell or tissue in the body
_____________ और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि- यही ऋचा यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है. _________________________________________ ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12) श्लोक का अनुवाद:- इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12) अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं ।जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं । इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूजय हैं। 👇 "कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: "आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१। (ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41) अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है। यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है। "नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपिसः॥ गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१। "राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥ काश्चित्पुण्यैःकृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैःपरैः॥२२॥ इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥ _______________ शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे। _________ ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।। ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह) अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३) उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं। _____ जैसे ब्राह्मा की शारीरिक सृष्टि को ब्राह्मण कहा गया उसी प्रकार विष्णु की शारीरिक सृष्टि को वैष्णव कहा गया । जिस प्रकार शास्त्रों में ब्राह्मण वर्ण है उसी प्रकार वैष्णव भी ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्ण लिखा गया है । अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप है। अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है। वेदों में इसी लिए विष्णु भगवान को गोप कहा गया है। _______ त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८) (अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करता है । और ये ही (धर्माणि) धर्मों को धारण करता है ॥18॥ गोप ही इस लौकिक जगत् में सबसे पवित्र और धर्म के प्रवर्तक तथा धारक थे। और इस लिए गोपों अथवानआभीरों की सृष्टि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था से पूर्णत: पृथक है।
अत: ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के माननेवालों ने अहीरों को शूद्र तो कहीं वैश्य वर्णन कर उनके व्यक्तित्व का निर्धारण न करें । परन्तु इनके कार्य सभी चारों वर्णों के होने पर भी ये वैष्णव वर्ण के थे। वैष्णव के अन्य नाम शास्त्रों में भागवत, सात्वत, और पाञ्चरात्र, भी है। वैष्णवों की महानता का वर्णन तो शास्त्र भी करते हैं। ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ ।४४।। अनुवाद:-वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।[४४]
वे पेशे से गोपालक थे। तथा गोप नाम से प्रसिद्ध थे। लेकिन साथ ही उन्होंने कुरुक्षेत्र की लड़ाई में भाग लेते हुए क्षत्रियों का दर्जा हासिल किया। इसका प्रमाण निम्न श्लोक है। ____________________________________ "मत्सहननं तुल्यानाँ , गोपानामर्बुद महत् । नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107। ____________________________________ संग्राम में गोप यौद्धा नारायणी सेना के रूप में अरबों की महान संख्या में हैं ---जो शत्रुओं का तीव्रता से हनन करने वाले हैं । ____________________________________ "नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु । सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि ।108। (स्वनाम- ख्याता श्रीकृष्णसम्बन्धिनी सेना । इयं हि भारतयुद्धे दुर्य्योधनपक्षमाश्रितवती" महाभारत के उद्योगपर्व अध्याय 7,18,22,में वर्तमान ये गोप अहीर भी वैष्णव वर्ण के हैं।
अहीर या यादव महान योद्धा हैं, अहीर नारायणी/यादव सेना में थे। द्वारका साम्राज्य के भगवान कृष्ण की यादव सेना को सर्वकालिक सर्वोच्च सेना कहा जाता है। महाभारत में इस पूरी नारायणी सेना को अहीर जाति के रूप में वर्णित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि अहीर, गोप और यादव अलग अलग लोग नहीं थे, अपितु सभी पर्यायवाची हैं।
यद्यपि ब्रह्मवैवर्त पुराण में गायों और भैंसों की आदि जननी सुरभि के अतिरिक्त कृष्ण के रोपकूपों से गोप और गोपिकाओं को भी उत्पन्न दर्शाया है। वस्तुत:यह उस समय की की क्लोन विधि थी यह एक ऐसी जैविक रचना है जो एकमात्र जनक (माता अथवा पिता) से अलैंगिक विधि द्वारा उत्पन्न होता है. उत्पादित 'क्लोन' अपने जनक से शारीरिक और आनुवंशिक रूप से पूर्णत: समरूप होता है. यानी क्लोन के DNA का हर एक भाग मूल प्रति के बिलकुल समान होता है. इस प्रकार किसी भी जीव का प्रतिरूप बनाना ही क्लोनिंग कहलाता है. सभी गोप और गोपिकाऐं स्वरूप में राधा और कृष्ण( विष्णु) के समान
महाभारत के अनुशासन पर्व में भी गायों की माता सुरभि को प्रजापति के मुख से बताकर गाय को ब्राह्मण वर्ण की तो बना दिया परन्तु उसी दक्ष प्रजापति की उत्पत्ति ब्रह्मा के दाहिने पैर के अंगूठे से हुई और इस कारण वे शूद्र वर्णीय प्रजापति हुए।
भागवत पुराण / तृतीय स्कन्ध /बारहवाँ अध्याय।
सृष्टिका विस्तार
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे। भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः।२१। मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः।२२। उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः। प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३। पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयो: ऋषिः। अङ्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत्।२४। धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् । अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५। हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् । आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्ऋतिः पायोरघाश्रयः।२६। छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः। मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत्।२७। अनुवाद:- इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्माजी ने सृष्टि के लिये सङ्कल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। _________________ उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई ।२१।उनके नाम मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे ।२२। इनमें नारद जी प्रजापति ब्रह्माजी की गोद से, (दक्ष अँगूठे से,उत्पन्न हुए) वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अङ्गिरा मुख से, अत्रि नेत्रोंसे और मरीचि मन से उत्पन्न हुए ।२३-२४।फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिसकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करनेवाला मृत्यु उत्पन्न हुआ ।२५। इसी प्रकार ब्रह्माजीके हृदयसे काम, भौंहों से क्रोध, नीचे के होठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिङ्ग से समुद्र, गुदा से पापका निवासस्थान (राक्षसोंका अधिपति) निर्ऋति।२६।छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दम जी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्-कर्ता ब्रह्माजी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ।२७।
श्रीमैत्रेय उवाच अङ्गुष्ठाद्दक्षिणाद्दक्षः पूर्वं जातो मया श्रुतः। कथं प्राचेतसो भूयः समुत्पन्नो महामुने। १,१५.८०। (विष्णुपुराण-1/15/80)
अङ्गुष्ठाद् ब्रह्मणो जातो दक्षःप्रोक्तस्त्वयानघ। वामाङ्गुष्ठात् तथा चैव तस्य पत्नी व्यजायत।५२। (हरिवंशपर्व द्वितीय अध्याय)
अंगूठा पैर का ही अंग है और इस आधार पर दक्ष शूद्र वर्ण के हुए । और दक्ष के मुख से सुरभि की उत्पत्ति बतलाने से भी गाय को ब्राह्मण कुल का होने की बात सिद्ध नहीं होती क्यों कृष्ण के रोमकूपों से गोपों के साथ सुरभि की उत्पत्ति भी ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्गसंहिता में प्रमाण हैं । कि गाय आभीर कुल का पशु है और इसी लिए गोपालक होने से गोपों को वैश्य वर्ण में परिगणित किया गये। परन्तु ये भी सिद्धान्त विहीन बात ही है। वास्तव में महाभारत के श्लोक ही अन्य ग्रन्थों में उद्धृत किया गया है । अब सुरभि गाय ब्रह्मा के मुख से प्रत्यक्ष तो उत्पन्न नहीं हुई। फिर गाय और ब्राह्मण का कुल एक कैसे हुआ।
बम्बई संस्करण अध्याय 112 परन्तु गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-18 तक
महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 77 में कपिला गौओं की उत्पत्ति का वर्णन हुआ है। - युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर वैशम्पायन देते हुए कहते हैं- जनमेजय! तदन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः शान्तनुनन्दन भीष्म से गोदान की विस्तृत विधि तथा तत्सम्बन्धी धर्मों के विषय में विनय पर्वूक जिज्ञासा की।
युधिष्ठिर बाले- भारत। आप गोदान के उत्तम गुणों का भलीभाँति पुनः मुझ से वर्णन कीजिये। वीर ऐसा अमृतमय उपदेश सुनकर मैं तृप्त नहीं हो रहा हूँ। वैशम्पायन कहते हैं- राजन्। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म केवल गोदान-सम्बन्धी गुणों का भलिभाँति (विधिवत) वर्णन करने लगे। भीष्म द्वारा गोदान-सम्बन्धी गुणों का भीष्म ने कहा- पुत्र। वात्सल्य भाव से युक्त, गुणवती और जवान गाय को वस्त्र उढ़ाकर उसका दान करें। ब्राह्मण को ऐसी गाय का दान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। असुर्य नाम के जो अन्धकारमय लोक (नरक) हैं उनमें गोदान करने वाले पुरुष को नहीं जाना पड़ता, जिसका घास खाना और पानी पीना प्रायः समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया है, जिसकी इन्द्रियाँ का न दे सकती हों, जो बुढ़ापा और रोग से आक्रान्त होने के कारण शरीर से जीर्ण-षीर्ण हो बिना पानी की बावड़ी समान व्यर्थ हो गयी हो, ऐसी गौ का दान करके मनुष्य ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है और स्वयं भी घोर नरक में पड़ता है। जो क्रोध करने वाली दुष्टा, रोगिनी और दुबली-पतली हो तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौ का दान करना कदापि उचित नहीं है। जो इस तरह की गाय देकर ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है उसे निर्बल और निष्फल लोक ही प्राप्त होते हैं। हुष्ट-पुष्ट, सुलक्षणा, जवान तथा उत्तम गन्ध वाली गाय की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही गौओं में कपिला गौ उत्तम मानी गयी है। _____________________ कपिला गौओं की उत्पत्ति का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। किसी भी रंग की गाय का दान किया जाये, गोदान तो एक-सा ही होगा ? फिर सत्पुरुषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है ? मैं कपिला के महान प्रभाव को विशेष रूप से सुनना चाहता हूँ। मैं सुनने में समर्थ हूँ और आप कहने में। भीष्म ने कहा- बेटा। मैंने बड़े-बूढ़ों के मुंह से रोहिणी (कपिला) की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृतान्त सुना है, वह सब तुम्हे बता रहा हूँ। सृष्टि के प्रारंभ में स्वयम्भू *ब्रह्मा जी ने प्रजापति दक्ष को यह आज्ञा दी ‘तुम प्रजा की सृष्टि करो किंतु प्रजापति दक्ष ने प्रजा के हित की इच्छा से सर्वप्रथम उनकी आजीविका का ही निर्माण किया।* प्रभु। जैसे देवता अमृत का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा आजीविका के सहारे जीवन धारण करती है। *स्थावर प्राणियों से जंगम प्राणी सदा श्रेष्ठ हैं।* *उनमें भी मनुष्य और मनुष्यों में भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है; क्यांकि उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित है। यज्ञ से सोम की प्राप्ति होती है और वह यज्ञ गौओं में प्रतिष्ठित है,* जिससे देवता आनन्दित होते हैं अतः पहले पहले आजीविका है फिर प्रजा। समस्त प्राणी उत्पन्न होते ही जीविका के लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने मां-बाप के पास जाते हैं, *उसी प्रकार समस्त जीव जीविका दाता दक्ष के पास गये। प्रजाजनों की इस स्थिति पर मन-ही-मन विचार करके भगवान प्रजापति ने प्रजावर्ग की आजीविका के लिये उस समय अमृत का पान किया। अमृत पीकर जब वे पुर्ण तृप्त हो गये, तब उनके मुख से सुरभि (मनोहर) गंध निकलने लगी। सुरभि गंध के निकलने के साथ ही ‘सुरभि’ नामक गौ प्रकट हो गयी जिसे प्रजापति ने अपने मुख से प्रकट हुई* *पुत्री के रूप में देखा। उस सुरभि ने बहुत-सी ‘सौरभेयी’ नाम वाली गौओं को उत्पन्न किया, जो सम्पूर्ण जगत के लिये माता समान थी। उन सब का रंग सुवर्ण के समान उद्दीप्त हो रहा था।* वे कपिला गौऐं प्रजाजनों के लिये आजीविका रूप दूध देने वाली थी।
उस परम् ब्रह्म विष्णु के रोम रूपों से गोप और गाय भैंस की आदि जननी सुरभि भी उत्पन्न हुई। यह सन्दर्भ -ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्म खण्ड पञ्चम अध्याय में देखें
123. हे निर्दोष, तुमने मुझे बताया था कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण का जन्म हुआ है । हे भगवान, हे निर्माता, फिर वह गाय के बराबर कैसे है ? मुझे सन्देह है।
ब्रह्मा ने कहा :
124-125। हे नारद! ब्राह्मणों और गायों के बारे में सत्य सुनो। पूर्व में पुरुषों ने उन्हें अंतिम संस्कार के लिए चावल की गेंद भेंट करके (दोनों के बीच) एकता लाई। पूर्व में ब्रह्मा के मुख से एक महान तेजोमय पुंज उत्पन्न हुआ। यह पुँज चार भागों में विभाजित हो गया: वेद, अग्नि , गाय और ब्राह्मण।
126. तेज से वेद पहले उठे, और अग्नि भी। तब ब्राह्मण और बैल अलग-अलग उत्पन्न हुए।
128. अग्नि, और ब्राह्मण को भी देवताओं के लिए हव्य का आनंद लेना चाहिए। जान लें कि घी गाय का उत्पाद है। इसलिए वे (एक ही स्रोत से) उत्पन्न हुए हैं।
परन्तु स्वयं इसी पद्म पुराण में गाय के ब्रह्मा के उदर से उत्पन्न होने का कथन होने से यह तथ्य सत्य के विपरीत ही है।अत: उपर्युक्त श्लोक क्षेपक है।
राजा नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना, मुनि के द्वारा गौओं का महात्म्य कथन तथा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति
भीष्म जी कहते हैं- भरतनन्दन! च्यवन मुनि को ऐसी अवस्था में अपने नगर के निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियों को साथ ले शीघ्र वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने पवित्रभाव से हाथ जोड़कर मन को एकाग्र रखते हुए न्यायोचित रीति से महात्मा च्यवन को अपना परिचय दिया। प्रजानाथ! राजा के पुरोहित ने देवताओं के समान तेजस्वी सत्यव्रती महात्मा च्यवन मुनि का विधिपूर्वक पूजन किया। तत्पश्चात राजा नहुष बोले- द्विजश्रेष्ठ! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? भगवन! आपकी आज्ञा से कितना ही कठिन कार्य क्यों न हो, मैं सब पूरा करूँगा। च्यवन ने कहा- राजन! मछलियों से जीविका चलाने वाले इन मल्लाहों ने बड़े परिश्रम से मुझे अपने जाल में फँसाकर निकाला है, अत: आप इन्हें इन मछलियों के साथ-साथ मेरा भी मूल्य चुका दीजिये। तब नहुष ने अपने पुरोहित से कहा- पुरोहित जी! भृगुनन्दन च्यवन जी जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्यपाद महर्षि के मूल्य के रूप में मल्लाहों को एक हज़ार अशर्फियाँ दे दीजिये। च्यवन ने कहा- नरेश्वर! मैं एक हज़ार मुद्राओं पर बेचने योग्य नहीं हूँ। क्या आप मेरा इतना ही मूल्य समझते हैं, मेरे योग्य मूल्य दीजिये और वह मूल्य कितना होना चाहिये, वह अपनी ही बुद्धि से विचार करके निश्चित कीजिये। नहुष बोले- व्रिपवर! इन निषादों को एक लाख मुद्रा दीजिये। यों पुरोहित को आज्ञा देकर वे मुनि से बोले- भगवन! क्या यह आपका उचित मूल्य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चाहते हैं? च्यवन ने कहा- नृपश्रेष्ठ! मुझे एक लाख रुपये के मूल्य में ही सीमित मत कीजिये। उचित मूल्य चुकाइये। इस विषय में अपने मन्त्रियों के साथ विचार कीजिये। नहुष ने कहा- पुरोहित जी! आप इन विषादों को एक करोड़ मुद्रा के रूप में दीजिये और यदि यह भी ठीक मूल्य न हो तो और अधिक दीजिये। च्यवन ने कहा- महातेजस्वी नरेश! मैं एक करोड़ या उससे भी अधक मुद्राओं में बेचने योग्य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्य दीजिये और इस विषय में ब्राह्मणों के साथ विचार कीजिये। नहुष बोले- ब्रह्मन! यदि ऐसी बात है तो इन मल्लाहों को मेरा आधा या सारा राज्य दे दिया जाये। इसे ही मैं आपके लिए उचित मूल्य मानता हूँ। आप इसके अतिरिक्त और क्या चाहते हैं। च्यवन ने कहा- पृथ्वीनाथ! आपका आधा या सारा राज्य भी मेरा उचित मूल्य नहीं है। आप उचित मूल्य दीजिये और वह मूल्य आपके ध्यान में न आता हो तो ऋषियों के साथ विचार कीजिये। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! महर्षि का यह वचन सुनकर राजा दु:ख से कातर हो उठे और मंत्री तथा पुरोहित के साथ इस विषय में विचार करने लगे। इतने ही में फल-मूल का भोजन करने वाले एक वनवासी मुनि, जिनका जन्म गाय के पेट से हुआ था, राजा नहुष के समीप आये और वे द्विजश्रेष्ठ उन्हें सम्बोधित करके कहने लगे- 'राजन! ये मुनि कैसे संतुष्ट होंगे, इस बात को मैं जानता हूँ। मैं इन्हें शीघ्र संतुष्ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहास में भी झूठ नहीं कहा है, फिर ऐसे समय मे असत्य कैसे बोल सकता हूँ? मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको नि:शंक होकर करना चाहिये।' नहुष ने कहा- भगवन! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्यवन का मूल्य, जो इनके योग्य हो बता दीजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुल का तथा समस्त राज्य का संकट से उद्धार कीजिये। वे भगवान च्यवन मुनि यदि कुपित हो जायें तो तीनों लोकों को जलाकर भस्म कर सकते हैं, फिर मुझ जैसे तपोबल शून्य केवल बाहुबल का भरोसा रखने वाले नरेश को नष्ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है? महर्षे! मैं अपने मन्त्री और पुरोहित के साथ संकट के अगाध महासागर में डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्य मूल्य का निर्णय कर दीजिये।
भीष्म जी कहते हैं-राजन! नहुष की बात सुनकर गाय के पेट से उत्पन्न हुए वे प्रतापी महर्षि राजा तथा उनके समस्त मन्त्रियों को आनन्दित करते हुए बोले- ‘महाराज! ब्राह्मणों और गौओं का एक कुल है, पर ये दो रूपों में विभक्त हो गये हैं। एक जगह मन्त्र स्थित होते हैं और दूसरी जगह हविष्य। ब्राह्मण सब प्राणियों में उत्तम है। उनका और गौओं का कोई मूल्य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमत में एक गौ प्रदान कीजिये।'
नरेश्वर! महर्षि का यह वचन सुनकर मन्त्री और पुरोहित सहित राजा नहुष को बड़ी प्रसन्नता हुई। राजन! वे कठोर व्रत का पालन करने वाले भृगुपुत्र महर्षि च्यवन के पास जाकर उन्हें अपनी वाणी द्वारा तृप्त करते हुए-से बोले। नहुष ने कहा- धर्मात्माओं में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षे! भृगुनन्दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया, अत: उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्य मानता हूँ।
च्यवन ने कहा- निष्पाप राजेन्द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्य देकर मुझे खरीदा है। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले नरेश! मैं इस संसार में गौओं के सामन दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ। वीर भूपाल! गौओं के नाम और गुणों का कीर्तन तथा श्रवण करना, गौओें का दान देना और उनका दर्शन करना- इनकी शास्त्रों में बड़ी प्रशंसा की गयी है। ये सब कार्य सम्पूर्ण पापों को दूर करके परम कल्याण की प्राप्ति कराने वाले हैं। गौएँ सदा लक्ष्मी जी की जड़ हैं। उनमें पाप का लेशमात्र भी नहीं है। गौएँ ही मनुष्यों को सर्वदा अन्न और देवताओं को हविष्य देने वाली हैं। स्वाहा और वषट्कार सदा गौओं में ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञ का संचालन करने वाली तथा उसका मुख हैं। वे विकार रहित दिव्य अमृत धारण करती और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत की आधारभूत हैं। सारा संसार उनके सामने नतमस्तक होता है। इस पृथ्वी पर गौएँ अपनी काया और कान्ति से अग्नि के समान हैं। वे महान तेज की राशि और समस्त प्राणियों को सुख देने वाली हैं। गौओं का समुदाय जहाँं बैठकर निर्भयतापूर्वक साँस लेता है, उस स्थान की शोभा बढ़ा देता है और वहाँ के सारे पापों को खींच लेता है। गौएँ स्वर्ग की सीढ़ी हैं। गौएँ स्वर्ग में भी पूजी जाती हैं। गौएँ समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवियाँ हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है।
भरतश्रेष्ठ! यह मैंने गौओं का माहात्म्य बताया है। इसमें उनके गुणों का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। गौओं के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो कोई कर नहीं सकता। इसके बाद निषादों ने कहा- मुने! सज्जनों के साथ सात पग चलने मात्र से मित्रता हो जाती है। हमने तो आपका दर्शन किया और हमारे साथ आपकी इतनी देर तक बातचीत भी हुई; अत: प्रभो! आप हम लोगों पर कृपा कीजिये। धर्मात्मन! जैसे अग्निदेव सम्पूर्ण हविष्यों को आत्मसात कर लेते हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे दोष-दुगुर्णों को दग्ध करने वाले प्रतापी अग्निरूप हैं।
विद्वन! हम आपके चरणों में मस्तक झुकाकर आपको प्रसन्न करना चाहते हैं। आप हम लोगों पर अनुग्रह करने के लिये हमारी दी हुई यह गौ स्वीकार कीजिये। अत्यन्त आपत्ति में डूबे हुए जीवों का उद्धार करने वाले पुरुषों को जो उत्तम गति प्राप्त होती है, वह आपको विदित है। हम लोग नरक में डूबे हुए हैं। आज आप ही हमें शरण देने वाले हैं।
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बम्बई संस्करण- और गीताप्रेसगोरखपुर संस्करण " दोनों में अध्याय भेद ही है।
नहुषस्य वचःश्रुत्वा गविजातः प्रतापवान्।
उवाच हर्षयन्सर्वानमात्यान्पार्थिवं च तम्।86-22।
ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।86-23।
(गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 51 श्लोक (1-20)
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नहुष का एक गौ के मूल्य पर च्यवन मुनि को खरीदना
महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय (51) में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
नहुष की च्यवन ऋषि से भेट
भीष्म कहते हैं- भरतनन्दन ! च्यवन मुनि को ऐसी अवस्था में अपने नगर के निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियों को साथ ले शीघ्र वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने पवित्रभाव से हाथ जोड़कर मन को एकाग्र रखते हुए न्यायोचित रीति से महात्मा च्यवन को अपना परिचय दिया। प्रजानाथ! राजा के पुरोहित ने देवताओं के समान तेजस्वी सत्यव्रती महात्मा च्यवनमुनि का विधिपूर्वक पूजन किया। तत्पश्चात राजा नहुष बोले- द्विजश्रेष्ठ! बताइये, मैं आपको कौन-सा प्रिय कार्य करुँ? भगवन! आपकी आज्ञा से कितना ही कठिन कार्य क्यों न हो, मैं सब पूरा करुँगा। च्यवन ने कहा- राजन! मछलियों से जीविका चलाने वाले इन मल्लाहों ने बड़े परिश्रम से मुझे अपने जाल में फँसाकर निकाला है, अत: आप इन्हें इन मछलियों के साथ-साथ मेरा भी मूल्य चुका दीजिये। तब नहुष ने अपने पुरोहित से कहा- पुरोहित भृगुनन्दन च्यवन जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्यपाद महर्षि के मूल्य के रुप में मल्लाहों को एक हजार अशफियॉ दे दीजिये।
च्यवन द्वारा नहुष से मल्लाहों को मुल्य देने का अनुरोध
च्यवन ने कहा- नरेश्वर! मैं एक हजार मुद्राओं पर बेचने योग्य नहीं हूँ। क्या आप मेरा इतना ही मूल्य समझते है, मेरे योग्य मूल्य दीजिये और वह मूल्य कितना होना चाहिये- वह अपनी ही बुद्धि से विचार करके निश्चित कीजिये। नहुष बोले- व्रिपवर! इन निषादों को एक लाख मुद्रा दीजिये। (यों पुरोहितको आज्ञा देकर वे मुनि से बोले-) भगवन्! क्या यह आपका उचित मूल्य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चाहते हैं? च्यवन ने कहा- नृपश्रेष्ठ! मुझे एक लाख रुपये के मूल्य में ही सिमित मत कीजिये। उचित मूल्य चुकाइये। इस विषय में अपने मन्त्रियों के साथ विचार कीजिये। नहुष ने कहा- पुरोहित आप इन विषादों को एक करोड़ मुद्रा के रुप में दीजिये और यदि यह भी यह भी ठीक मूल्य न हो तो और अधिक दीजिये। च्यवन ने कहा- महातेजस्वी नरेश! मैं एक करोड़ या उससे भी अधक मुद्राओं में बेचने योग्य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्य दीजिये और इस विषय में ब्राह्मणों के साथ विचार कीजिये।
नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना
नहुष बोले- ब्रहान! यदि ऐसी बात है तो इन मल्लाहों को मेरा आधा या सारा राज्य दे दिया जाय! इस ही मैं आपके लिए उचित मूल्य मानता हूँ। आप इसके अतिरिक्त और क्या चाहते हैं। च्यवन ने कहा- पृथ्वीनाथ! आपका आधा या सारा राज्य भी मेरा उचित मूल्य नही है। आप उचित मूल्य दीजिये और वह मूल्य आपके ध्यान में न आता हो तो ऋषियों के साथ विचार कीजिये।
भीष्म कहते हैं- युधिष्ठिर! महर्षि का यह वचन सुनकर राजा दु:ख से कातर हो उठे और मंत्री तथा पुरोहित के साथ इस विषय में विचार करने लगे। इतने ही में फल-मूल का भोजन करने वाले एक वनवासी मुनि, जिनका जन्म गाय के पेट से हुआ था, राजा नहुष के समीप आये और वे द्विज श्रेष्ठ उन्हें सम्बोधित करके कहने लगे- ‘राजन! ये मुनि कैसे संतुष्ट होंगे- इस बात को मैं जानता हूँ। मैं इन्हें शीघ्र संतुष्ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहास में भी झूठ नहीं कहा हैं, फिर ऐसे समय मे असत्य कैसे बोल सकता हूँ? मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको नि:शंक होकर करना चाहिये।’
नहुष ने कहा- भगवन! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्यवन का मूल्य, जो इनके योग्य हो बता दिजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुल का तथा समस्त राज्य का संकट से उद्धार कीजिये। वे भगवान च्यवन मुनि यदि कुपित हो जायँ तो तीनों लोकों को जलाकर भस्म कर सकते हैं, फिर मुझ- जैसे तपोबल शून्य केवल बाहुबल का भरोसा रखने वाले नरेश को नष्ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है?। महर्षे! मैं अपने मन्त्री और पुरोहित के साथ संकट के अगाध महासागर मे डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्य मूल्य का निर्णय कर दीजिये।
महाराज! ब्राह्मणों और गौओं का एक कुल है, पर ये दो रुपों में विभक्त हो गये हैं। एक जगह मन्त्र स्थित होते हैं। और दूसरी जगह हविष्य ! ब्राह्मण सब प्राणियों में उत्तम है। उनका और गौओं का कोई मूल्य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमत में एक गौ प्रदान कीजिये।’
‘नरेश्वर! महर्षि का यह वचन सुनकर मन्त्री और पुरोहित सहित राजा नहुष को बडी प्रसन्नता हुई। राजन! वे कठोर व्रत का पालन करने वाले भृगुपुत्र महर्षि च्यवन के पास जाकर उन्हें अपनी वाणी द्वारा तृप्त करते हुए-से बोले। नहुष ने कहा- धर्मात्माओं में श्रेष्ठ ब्रहार्षे! भृगुनन्दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया, अत: उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्य मानता हूँ। च्यवन ने कहा- निष्पाप राजेन्द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्य देकर मुझे खरीदा हैं। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले नरेश! मैं इस संसार में गौओं के सामन दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ।
105-114- उसने अपनी वक्ष (छाती) से भेड़ें, और अपने मुंह से बकरी उत्पन्न की। उसने अपने उदर (पेट) से गायों और भैंसों को बनाया; और अपने पैरों से (उसने ) हाथियों, गधों, गवय , हिरण, ऊंट, खच्चर, मृग और अन्य प्रजातियों के साथ घोड़े; आदि अन्य अन्य जातियाँ को बनाया। और उसके रोमों (बालों)से फल और जड़ वाली जड़ी-बूटियाँ (औषधियाँ) और फल मूल उत्पन्न हुए । कल्प की शुरुआत में ,और त्रेता युग के मुख में ब्रह्मा ने जानवरों और जड़ी-बूटियों को विधिवत बनाया, स्वयं को यज्ञ में लगा दिया। गाय, बकरा भैंस, भेड़, घोड़े, खच्चर और गधे- इन्हें पालतू जानवर कहा जाता है। हे नारद ! मुझसे जंगली जानवरों को सुनो :श्वापद:- शुन इवापदस्मात् हिंसपशौ )हिंसक जानवर, दो खुर वाले जानवर, हाथी, बंदर, पक्षी, पाँचवीं (प्रजाति), ऊंट जैसे जानवर छठे के रूप में, और साँप सातवें के रूप में। अपने पहले मुख से (अर्थात् पूर्व की ओर मुख करके) उन्होंने यज्ञों की गायत्रों , ऋचा , त्रिवृत्सोम और रथान्तर रथन्तर( रथङ्कर] के तीन अर्थ हैं -एक कल्प का नाम। एक प्रकार का साम। एक प्रकार की अग्नि। परन्तु यहाँ प्रसंग के अनुसार साम अर्थ ग्राह्य है और अग्निष्टोम की रचना की। दक्षिण की ओर मुँह करके उन्होंने यजुस-सूत्र, त्रिष्टुभ छन्द , और पंचदशा (पन्द्रह) स्तोम , और बृहत्साम की रचना की। और उत्तर -पश्चिम की ओर मुंह करके उन्होंने साम , जगती छंद, सप्तदश स्तोम , वैरूप और अतिरात्र की रचना की । उत्तर दिशा की ओर मुख करके उन्होंने एकविंश अथर्व , आप्तोर्याम , अनुष्टुभ और वैराज की रचना की । उसके शरीर के अंगों से ऊँचे-नीचे भूत उत्पन्न हुए।
115-116 देवताओं, राक्षसों, पितरों और मनुष्यों को बनाने के बाद, सृष्टिकर्ता ने फिर से कल्प के प्रारम्भ में आत्माओं, भूतों, गन्धवों और आकाशीय अप्सराओं, सिद्धों , किन्नरों , राक्षसों, शेरों, पक्षियों, जानवरों और सरीसृपों के समूहों का निर्माण किया।
117. तब ब्रह्मा, सर्वोच्च शासक, प्राथमिक कारण, ने जो कुछ भी अपरिवर्तनीय और परिवर्तनशील, जंगम और अचल है, उसे बनाया।
118. वे प्राणी बार-बार उत्पन्न होकर उन कर्मों में प्रवेश करते हैं जो उन्होंने (इस) सृष्टि से पहले (अर्थात् पिछली सृष्टि में) किए थे उस प्रारब्ध के प्रभाव से।
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लक्ष्मीनारायण-संहिता-खण्डः(१) (कृतयुगसन्तानः)-अध्यायः (५०९) में भी कुछ वैदिक सिदान्तों के विपरीत क्षेपक (नकली तथ्य) संलग्न कर दिए गये हैं जो स्कन्द पुराण नागर खण्ड के समान ही जिन्हें निम्न श्लोकों प्रस्तुत करते हैं ।
-श्रीनारायण उवाच-
शृणु लक्ष्म्यैकदा सत्ये ब्रह्माणं प्रति नारदः।
दर्शनार्थं ययौ भ्रान्त्वा लोकत्रयं ननाम तम् ।१।
ब्रह्मा पप्रच्छ च कुतः पुत्र आगम्यते, वद ।
नारदःप्राह मर्त्यानां मण्डलानि विलोक्य च ।२।
तव पूजाविधानाय विज्ञापयितुं हृद्गतम्।
समागतोऽस्मि च पितःश्रुत्वा कुरु यथोचितम्।३।
अनुवाद:-सुनो लक्ष्मी ! एकबार सत्युग में तीनों लोकों में घूमकर ब्रह्मा के दर्शन के लिए नारद उनके पास गये और उनको नमस्कार किया।१।
और ब्रह्मा ने पूछा पुत्र कहाँ से आपका आगमन हुआ है। कहो ! तब नारद ने कहा मनुष्य मण्डल में देखकर तुम्हारे पूजा विधान के लिए विज्ञापन करने को लिए हृदय में गये हुए समागत हूँ। पिता यह सुनकर जो भी उचित हो करो!
दैत्यानां हि बलं लोके सर्वत्राऽस्ति प्रवर्तितम् ।
यज्ञाश्च सत्यधर्माश्च सत्कर्माणि च सर्वथा।४।
सह्य तैर्विनाश्यन्ते देवा भक्ताश्च दुःखिनः।
तस्माद् यथेष्टं भगवन् कल्याणं कर्तुमर्हसि।५।
अनुवाद:-
दैत्यों का बल संसार में सब जगह विद्यमान है।यज्ञ सत्यधर्म और सतकर्म सब प्रकार से दबाकर उनके द्वारा विनाश किया जाता है। देव और भगतगण दु:खी हैं इसलिए यथेष्ट कल्याण करने में भगवन आप सर्वसमर्थ हो ।
इत्येवं विनिवेद्यैव नत्वा सम्पूज्य संययौ ।
ब्रह्मा वै चिन्तयामास यज्ञार्थं शुभभूतलम् ।६।
अनुवाद:-
इस प्रकार नारद ब्रह्मा से निवेदन" नमस्कार और पूजा करके गये तब ब्रह्मा ने निश्चय ही भूतल पर यज्ञ के लिए चिन्तन किया।
यज्ञ करने के लिए यहाँ आओ सभी सजावट की सामग्रीयों को जुटाओ। और उन योग्य ब्राह्मणों को भी यहाँ बुलाओ।
इन्द्रस्तानानयामास संभाराँश्च द्विजोत्तमान् ।
आरेभे च ततो यज्ञं विधिवत् प्रपितामहः ।१४।
अनुवाद:-
तब इन्द्र ने उत्तम ब्राह्मणो को बुलाया और सभ यज्ञ सामग्री जुटाकर ब्रह्मा ने विधिवत् यज्ञ प्रारम्भ कर दिया
शम्भुर्देवगणैः सार्ध तत्र यज्ञे समागतः ।
देवान् ब्रह्मा समुवाच स्वस्वस्थानेषु तिष्ठत।१५।
अनुवाद:-
वहाँ शम्भु भी देवगणों के साथ लेकर यज्ञ में पधारे सभी देवों को ब्रह्मा जी ने सम्बोधित करते हुए कहा सभी देवगण अपने अपने स्थान पर खड़े हो जाऐं ।
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विश्वकर्मन् कुरु यज्ञमण्डपं यज्ञवेदिकाः।
पत्नीशालाःसदश्चापि कुण्डान्यावश्यकानि च।
।६६।
अनुवाद:-
हे विश्व कर्मा ! यज्ञ मण्डप, यज्ञवेदी, पत्नीशाला और आसनों तथा आवश्यक कुण्डों का भी निर्माण करो !
यज्ञपात्राणि च गृहान् चमसाँश्च चषालकान् ।
यूपान् शयनगर्तांश्च स्थण्डिलानि प्रकारय ।१७।
"अनुवादऔर यज्ञपात्र, यज्ञगृह, चमस(सोमपान करने का चम्मच के आकार का एक यज्ञपात्र जो पलाश आदि की लकड़ी का बनता था ) चषाल-यज्ञ के यूप में लगी हुई पशु बाँधने की गराड़ी । यूप- ( यज्ञ में वह खंभा जिसमें बलि का पशु बाँधा जाता है। शयनगर्त स्थण्डिल-यज्ञ के लिये साफ की हुई भूमि आदि प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करो।
अनुवाद:- शीघ्रता के द्वारा विधि-विधान से कार्य करो ! क्या करने योग्य है और क्या न करने योग्य है। इसका भलीभाँति परीक्षण करो। लोकपाल दिशाओं की रक्षा करें ।
भूतप्रेतपिशाचानां प्रवेशो दैत्यरक्षसाम् ।
मा भूदित्यथ यज्ञेन दीयतां दानमुत्तमम् ।२१।
अनुवाद:- भूतप्रेत, पिशाचों, दैत्यों और राक्षसों का इस यज्ञ में प्रवेश निषिद्ध हो और इस यज्ञ के द्वारा उत्तम दान दिया जाए।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।
भवन्तु परिवेष्टारो भोक्तुकामजनस्य तु ।२२।
अनुवाद:- इस यज्ञ में जैसी -जैसी जिसकी भोजन करने की इच्छा है उन सबके लिए आदित्य, वसु रूद्र, विश्वदेवा, और मरुद्गण ये सभी भोजन परोसने वाले नियुक्त हों ।
अनुवाद:-घर को नारद भेजे और पत्नी को लाने के लिए कहा वह भी जाकर कहों कि मैं पिता जी ने मुझको माते ! आपको बुलाने के लिए भेजा है।
आगच्छ मण्डपं देवि यज्ञकार्यं प्रवर्तते ।
परमेकाकिनी कीदृग्रूपा सदसि दृश्यसे ।३३।
अनुवाद:-आप मण्डप को चलो देवि यज्ञ कार्य प्रारम्भ हो गया है। यहाँ अकेली किस रूप रहोगीं तुम सभा में दिखाई दो।
आनीयन्तां ततो देव्यस्ताभिर्वृत्ता प्रयास्यसि
इत्युक्त्वा प्रययौ यज्ञे नारदोऽजमुवाच ह ।३४।
अनुवाद:-उन्हें आने दो। तब तुम उनके साथ हम पहँचेगे हे देवी। यह कहकर नारद यज्ञ में चले गए और नारद ने ब्रह्मा से कहा।
देवीभिः सह सावित्री समायास्यति सुक्षणम् ।
पुनस्तं प्रेषयामास ब्रह्माऽथ नारदो ययौ ।३५।
अनुवाद:-सावित्री जल्द ही देवीयों के साथ पहुंचेंगी तब ब्रह्मा ने नारद को फिर भेज दिया और नारद चले गए।
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मातः शीघ्रं समायाहि देवीभिः परिवारिता ।
सावित्र्यपि तदा प्राह यामि केशान्प्रसाध्य वै ।३६।
अनुवाद:-माँ, जल्दी आओ, देवियों के साथ। सावित्री ने भी तब कहा कि मैं अपने केशों को संवारकर जाऊँगी।
नारदोऽजं प्राह केशान् प्रसाध्याऽऽयाति वै ततः ।
सोमपानमुहूर्तस्याऽवशेषे सत्वरं तदा ।३७।
अनुवाद:-नारद ने तब ब्रह्मा से कहा ! केशों को संवार कर वे निश्चित ही आती हैं अभी सोमपान कि समय शेष है शीघ्र ।37।
पुलस्त्यश्च ययौ तत्र सावित्री त्वेकलाऽस्ति हि ।
किं देवि सालसा भासि गच्छ शीघ्रं क्रतोःस्थलम्।३८।
अनुवाद:-पुलस्त्य भी उस स्थान पर गए जहाँ सावित्री अकेली थीं। हे देवी आप आलसी प्रतीत होती हो जल्दी से यज्ञस्थल में चलो !
सावित्र्युवाच तं ब्रूहि मुहूर्तं परिपाल्यताम्
यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथाऽपराः ।३९।
अनुवाद:-सावित्री ने कहा: उन्हें (ब्रह्मा को) एक मुहूर्त (१२ क्षण का समय) प्रतीक्षा करने को कहो। जब तक इंद्राणी, गौरी ,लक्ष्मी, और अन्य देवियों भी पास आती हैं ।
विशेष:-अमरकोश के अनुसार तीस कला या मुहूर्त के बारहवें भाग का एक क्षण होता है। और इस प्रकार १२ क्षण का समय एक मुहूर्त हुआ।देवकन्याः समाजेऽत्र ताभिरेष्यामि संहिता ।
अनुवाद:-यह सुनकर ब्रह्मा इन्द्र से कहा ! वह आलसी है वह यहाँ नहीं आएगी इसलिए अन्य पत्नी के द्वारा यज्ञ कार्य होगा ।
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ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः ।
चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
अनुवाद:-ब्रह्मा की आज्ञा से इन्द्र ने किसी घूमते हुई गोप कन्या को देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
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युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
अनुवाद:-इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
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परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
अनुवाद:-यदि तुम तक्र करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा
अनुवाद:-उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा ! हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।।
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् । एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।
अनुवाद:-हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे दो भागों में विभाजित किया गया।मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक स्थान पर रहता है।।
अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
अनुवाद:-यज्ञ स्थल अशुद्ध हो जाय, शीघ्र यहां से बाहर चले जाओ। जालिम बोला ! कि मैं व्रत रखने वाला भिक्षुक अशुद्ध कैसे हूँ ?
विशेष:- उपर्युक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं क्योंकि जब शिव गायत्री कि नाम करण करते है वह भी व्याकरण सम्मत न होकर नियम विरुद्ध होता है । और वही शिव कपाली भी हैं फिर वे दूसरे रूप में कैसे आ गये ?
अनुवाद:-सुनो, मुझे पता है कि क्या हुआ, लेकिन कोई और नहीं जानता कि क्या हुआ।
अतीत में भगवान कृष्ण द्वारा सर्वोच्च आत्मा द्वारा सृष्टि की शुरुआत में।
स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता । अथ द्वितीया कन्या च पतिव्रताऽभिधा कृता ।।६६।।
अनुवाद:-सावित्री, ने स्वयं को अपने रूप में प्रकट किया है। और दूसरी को पतिव्रता नाम से है।। कुमारश्च कृतः पत्नीव्रताख्यो ब्राह्मणस्ततः । ब्रह्मा वैराजदेहाच्च कृतस्तस्मै समर्पिता ।।६७।।
अनुवाद:-जिसके कारण कृष्ण थे तब उनके द्वारा उस सावित्री को आज्ञा दी गयी कि अपने दूसरे रूप के द्वारा तुम्हें पृथ्वी पर जाना चाहिए। प्रागेव भूतले कन्यारूपेण ब्रह्मणः कृते। सावित्री श्रीकृष्णमाह कौ तत्र पितरौ मम।७१।
अनुवाद:-पहले से ही ब्रह्मा के लिए कन्या के रूप में पृथ्वी पर। सावित्री ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि वहां मेरे माता पिता कौन हैं ?
अनुवाद:-वे दोनों मेरे अंश और मेरे रूप हैं वे दौनों गर्भ से उत्पन्न नहीं हुए हैं। इनके दिव्य शरीर हैं। धरती केसर से भर गई थी अश्वपट्टसारस में खेतों में ।
"विशेष:-इस प्रकार एक ब्राह्मणी की पुत्री गायत्री का जन्म हुआ। जो एक चरवाहे (अहीर)के वेष में व्यवहार करती है और इस लिए वह (गोपकन्या न होने के कारण) जन्म से अशुद्ध नहीं होती है।
गोपों को अशुद्ध मानना लेखक की पूर्वदाराग्रह से उतपन्न भ्रान्ति ही है।
उपर्युक्त श्लोक भी प्रक्षिप्त ही है। लक्ष्मीनारायण संहिता के लेखक कोई श्वेतायन व्यास हैं परन्तु सम्भव है कि ये श्लोक प्रकाशन काल में बाद संलग्न कर दिए हों क्योंकि पुराण शास्त्रों में गायत्री के ब्राह्मण कुल में जन्म लेने की कहीं पर चर्चा नहीं है केवल इसे अहीरों के कुल को पवित्र करने वाली और यदुवंशसमुद्भवा ही बताया है । और यदि गायत्री ब्राह्मण कुल में जन्मी कन्या थी तो गाय के मुख में डालकर गुदा( मलद्वार) से बाहर निकाला भी मूर्खता ही है। और गाय भी तो वैश्यवर्णा पशु है। जैसा की वेदों तथा पुराणों में वर्णन है ।
एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा ।
तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा ।।८५।।
अनुवाद: तब भगवान कृष्ण ने जाल्मा को इस प्रकार उत्तर दिया। तबतक इस बीच गोभिला और गोभिल खुशी-खुशी वहां आ पहुंचे।
अस्मत्पुत्र्या महद्भाग्यं ब्रह्मणा या विवाहिता ।
आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते ।।८६।।
अनुवाद:-हमारी पुत्री बहुत भाग्यशाली है कि उसका विवाह भगवान ब्रह्मा से हुआ है।
यह हम दोनों का महा सौभाग्य है कि दैत्य के द्वारा हुए कष्टों को हमारी पुत्री द्वारा रोका गया है।
अनुवाद:-यज्ञ द्वारा देवताओं, ब्राह्मणों और पुण्यात्माओं की रक्षा होती है। ऐसा कहकर वे दोनों (पति- पत्नी) ग्वालों का वेश छोड़कर ब्राह्मण का रूप धारण कर गए।
पितामहौ हि विप्राणां परिचितौ महात्मनाम् ।
सर्वेषां पूर्वजौ तत्र जातौ दिव्यौ च भूसुरौ।८८।
अनुवाद:-महात्मा ब्राह्मणों के दौनों दादा -दादी अच्छी तरह से सब ब्राह्मणों के परिचित उन दोनों के दिव्य रूप हो गये ।
उन सभी के पूर्वज वहाँ दिव्य और सांसारिक
दोनों तरह से पैदा हुए थे।
ब्रह्माद्याश्च तदा नेमुश्चक्रुः सत्कारमादरात् ।
यज्ञे च स्थापयामासुः सर्वं हृष्टाःसुरादयः ।८९।
अनुवाद:-तब ब्रह्मा और अन्य लोगों ने उन दौनों को नतमस्तक होकर उनका आदरपूर्वक आतिथ्य सत्कार किया।और देवताओं तथा अन्य लोगों ने प्रसन्न होकर सब कुछ यज्ञ में अर्पित कर दिया।
अनुवाद:-अन्यथा आपके द्वारा किया गया यह यज्ञ भी विनाश के लिए ही होगा।
अन्न के बिना राष्ट्र जलेगा और मन्त्रों के बिना ऋत्विज (पुरोहित)।
याज्ञिकं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।
श्रीकृष्णश्च तदा प्राह जाल्मे ददतु भोजनम्।९५।
अनुवाद:-याज्ञिक( यजमान) की यज्ञ बिना दान-दक्षिणा के नहीं मानी जाती और ये सब शत्रु के समान बन जाते हैं।विरीत फल देने वाले -तब भगवान कृष्ण ने कहा, "जल्मा को भोजन दो।
विप्राः प्राहुः खप्परं ते त्वशुद्धं विद्यते ततः ।
बहिर्निःसर दास्यामो भिक्षां पार्श्वमहानसे ।।९६।।
एतस्यामन्नशालायां भुञ्जन्ति यत्र तापसाः।
दीनान्धाः कृपणाश्चैव तथा क्षुत्क्षामका द्विजाः।९७।
"विशेष:- अग्निष्टोम-एक यज्ञ जो ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का रूपान्तर है । विशेष—इसका काल वसंत है । इसके करने का अधिकार अग्निहोत्री ब्राह्मण को है और द्रव्य इसका सोम है देवता इसके इन्द्र और वायु आदि हैं और इसमें ऋत्विजों की संख्या १६ है । यह यज्ञ पाँच दिन में समाप्त होता है ।
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ब्रह्मा( यज्ञ का एक ऋत्विज। ) नारद हों और गर्ग यज्ञ के दृष्टा हों ।25।
"विशेष:-ऋत्विज- यज्ञ करनेवाला वह जिसका यज्ञ में वरण किया जाय । विशेषत:—ऋत्विजों की संख्या(16) होती है जिसमें चार मुख्य हैं—(क) होतृ-होता:- (ऋग्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ख) अध्वर्यु:- (यजुर्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ग) उद्गाता:- (सामवेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (घ) ब्रह्मा:- (चार वेदों का जाननेवाला और पूरे यजन-कर्म का निरीक्षण करनेवाला । इनके अतिरिक्त बारह और ऋत्विजों के नाम ये हैं— मैत्रावरुण, प्रतिप्रस्थाता, ब्राह्मणच्छंसी, प्रस्तोता, अच्छावाक्, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रतिहर्त्ता, ग्रवस्तुत्, उन्नेता, पोता और सुब्रह्मण्य ।
होता- भरद्वाज अग्नीध्र और पराशर बनें बृहस्पति आचार्य बने और गोभिल उद्गाता बने ।२६।
मैत्रावरुण च्यवन अथर्वा और गालव ये यज्ञ में समर्थ ब्राह्मण धन लेकर यज्ञमण्डप में खड़े हो। २३।
अनुवाद:- इस बीच, सभी उत्कृष्ट नागर ब्राह्मणों द्वारा गर्तातीर्थ एक मध्यस्थ को भेजा गया ।१।
रेरे मध्यग गत्वा त्वं ब्रूहि तं कुपितामहम्॥
विप्रवृत्ति प्रहन्तारं नीतिमार्गविवर्जितम्॥२॥
अनुवाद:- "हे मध्यम जाओ और बताओ कि कुपितामह (दुष्ट पितामह ) जिसने हम ब्राह्मणों की जीविका के साधनों को नष्ट कर दिया है। और जिन्होंने न्याय और निष्पक्षता के मार्ग को त्याग दिया है।२।
एतत्क्षेत्रं प्रदत्तं नःपूर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥
महेश्वरेण तुष्टेन पूरिते सर्पजे बिले॥३॥
अनुवाद:-यह क्षेत्र महेश्वर द्वारा हमारे पूर्वजों ब्राह्मणों को दिया गया था -नागों से उत्पन्न विल में।३।
तस्य दत्तस्य चाद्यैव पितामहशतं गतम्॥
पंचोत्तरमसन्दिग्धं यावत्त्वं कुपितामह ॥४॥
अनुवाद:-तुम्हारे साथ समाप्त, हे दुष्ट पितामह, एक सौ पांच अलग -अलग पितामह उस महेश्वर द्वारा दिए गये क्षेत्र के समय से चले गए हैं। इसमें तो कोई शक ही नहीं है।४।
न केनापि कृतोऽस्माकं तिरस्कारो यथाऽधुना॥
त्वां मुक्त्वा पापकर्माणं न्यायमार्गविवर्जितम्॥५॥
अनुवाद:-किसी के भी द्वारा आजतक हमारा तिरस्कार नहीं किया गया तुम्हें छोड़कर तुम पापकर्म करते हुए न्याय मार्ग से हटे हुए हो।५।
नागरैर्ब्राह्मणैर्बाह्यं योऽत्र यज्ञं समाचरेत्॥
श्राद्धं वा स हि वध्यःस्यात्सर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥६॥
अनुवाद:-वह जो नागर (गुजरात में रहने वाले ब्राह्मणों की एक जाति।) के वंश से बाहर है और यहाँ श्राद्ध या यज्ञ करता है, उसे अन्य सभी ब्राह्मणों द्वारा मार दिया जाना चाहिए।६।
न तस्य जायते श्रेयस्तत्समुत्थं कथञ्चन।
एतत्प्रोक्तं तदा तेन यदा स्थानं ददौ हि नः।७।
अनुवाद:-जब शिव ने हमें यह पवित्र स्थान प्रदान किया तो उनके द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि उन्हें (बाहरी व्यक्ति) को इस क्षेत्र से बिल्कुल भी लाभ नहीं मिलेगा।७।
अनुवाद:-इसलिए, आप जो भी यज्ञ करते हैं, वही नागर ब्राह्मणों से करवाएं ; अन्यथा, जब तक नागर ब्राह्मण जीवित हैं, आपको इसे करने का अवसर नहीं मिलेगा।८।
एवमुक्तस्ततो गत्वा मध्यगो यत्र पद्मजः॥
यज्ञमण्डपदूरस्थो ब्राह्मणैः परिवारितः॥९॥
अनुवाद:-इस प्रकार कहने पर, मध्यग यज्ञ मंडप से कुछ दूर, ब्राह्मणों से घिरे उस स्थान पर गए, जहाँ ब्रह्मा जी थे।९।
यत्प्रोक्तं नागरैः सर्वैः सविशेषं तदा हि सः॥
तच्छ्रुत्वा पद्मजः प्राह सांत्वपूर्वमिदं वचः॥
अनुवाद:-उन सब नागरों ने जो कहा, वह विशेष बल देकर उसे कह सुनाया। यह सुनकर ब्रह्मा ने मैत्रीपूर्ण स्वर में ये शब्द कहे:।१०।
(स्कन्द पुराण अध्याय-।१८१.१०॥
मानुषं भावमापन्न ऋत्विग्भिः परिवारितः॥
त्वया सत्यमिदं प्रोक्तं सर्वं मध्यगसत्तम॥११॥
अनुवाद:-ब्रह्मा ने मानव रूप धारण किया था और ऋत्विकों से घिरे हुए थे।(उन्होंने कहा:) "हे उत्कृष्ट मध्यग ,आपके द्वारा कही गई सभी बातें सत्य हैं।११।
किं करोमि वृताः सर्वे मया ते यज्ञकर्मणि॥
ऋत्विजोऽध्वर्यु पूर्वा ये प्रमादेन न काम्यया॥१२॥
अनुवाद:-मैं क्या करूँगा ? इन सभी को मेरे द्वारा पहले से ही यज्ञ संस्कारों के प्रदर्शन के लिए चुना गया है - ये सभी ऋत्विक, अध्वर्यु और अन्य। उन्हें जानबूझकर नहीं गलती से चुने गये है।१२।
तस्मादानय तान्सर्वानत्र स्थाने द्विजोत्तमान्॥
अनुज्ञातस्तु तैर्येन गच्छामि मखमण्डपे॥१३॥
अनुवाद:-इसलिए उन सभी उत्कृष्ट ब्राह्मणों को यहाँ इस पवित्र स्थान पर ले आओ, ताकि उनकी अनुमति से मैं यज्ञ-मण्डप में जा सकूँ ।१३।
"मध्यग उवाच॥
त्वं देवत्वं परित्यज्य मानुषं भावमाश्रितः॥
तत्कथं ते द्विजश्रेष्ठाःसमागच्छंति तेंऽतिकम्॥ १४॥
मध्यग ने कहा-
अनुवाद:-तूमने अपनी दिव्यता को त्यागकर मनुष्य भाव (भेष और रूप) अपना लिया है। अतएव वे श्रेष्ठ ब्राह्मण तुम्हारे निकट कैसे आ सकते हैं ?१४।
श्रेष्ठा गावः पशूनां च यथा पद्मसमुद्भव॥
विप्राणामिह सर्वेषां तथा श्रेष्ठा हि नागराः॥१५॥
अनुवाद:-हे ब्रह्मा ! जैसे गाय सभी जानवरों में सबसे उत्कृष्ट हैं, वैसे ही ब्राह्मणों में नागर भी सबसे उत्कृष्ट हैं।१५।
तत्माच्चेद्वांछसि प्राप्तिं त्वमेतां यज्ञसंभवाम्॥
तद्भक्त्यानागरान्सर्वान्प्रसादय पितामह॥१६॥
अनुवाद:-इसलिए, यदि आप इस यज्ञ से उत्पन्न होने वाले लाभ की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, तो हे पितामह, सभी नागरों को उनकी भक्ति के साथ प्रसन्न करें।१६।
"सूत उवाच॥
★-तच्छ्रुत्वा पद्मजो भीत ऋत्विग्भिः परिवारितः ॥
जगाम तत्र यत्रस्था नागराः कुपिता द्विजाः॥१७॥
सूत ने कहा :
अनुवाद:-यह सुनकर कमल में उत्पन्न ब्रह्मा डर गए। ऋत्विकों से घिरे हुए वे उस स्थान पर गए जहाँ क्रुद्ध नागर ब्राह्मण उपस्थित थे।१७।
प्रणिपत्य ततः सर्वान्विनयेन समन्वितः॥
प्रोवाच वचनं श्रुत्वा कृताञ्जलिपुटःस्थित:॥१८॥
अनुवाद:-ब्रह्मा ने बड़ी दीनता से उन सभों को दण्डवत किया। अनुनय-विनय पूर्वक हाथ जोड़कर खड़े होकर उन्होंने नागर ब्राह्मणों से ये शब्द कहे:।१८।
अनुवाद:-हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, मुझे पता है कि हाटकेश्वर के इस पवित्र स्थान में आप सभी को छोड़कर अन्य व्यक्ति द्वारा किए गए श्राद्ध और यज्ञ अनुष्ठान व्यर्थ हैं।१९।
कलिभीत्या मयाऽऽनीतं स्थानेऽस्मिन्पुष्करं निजम्॥
तीर्थं च युष्मदीयं च निक्षेपोऽयंसमर्पितः॥२०॥
अनुवाद:-कलि के भय से मेरे तीर्थ पुष्कर को मेरे द्वारा इस पवित्र स्थान पर लाया गया है। यह आप सभी को यह यह पुष्कर और तुम्हारा हाटकेशवर मेरे द्वारा समर्पित किया गया है।२०।
ऋत्विजोऽमी समानीता गुरुणा यज्ञसिद्धये ॥
अजानता द्विजश्रेष्ठा आधिक्यं नागरात्मकम्॥ २१॥
अनुवाद:-ये ऋत्विक बृहस्पति के साथ यज्ञ की सिद्धि के लिए लाये गये नागरों की श्रेष्ठता को जाने बिना ।२१।
तस्माच्च क्षम्यतां मह्यं यतश्च वरणं कृतम् ॥
एतेषामेव विप्राणामग्निष्टोमकृते मया ॥२२॥
अनुवाद:-इसलिए, अग्निष्टोम के प्रदर्शन के लिए, मेरे द्वारा इन ब्राह्मणों को चुने जाने के लिए मुझे क्षमा करो !।२२।
एतच्च मामकं तीर्थं युष्माकं पापनाशनम्॥
भविष्यति न सन्देहःकलिकालेऽपि संस्थिते॥२३॥
अनुवाद:-मेरा यह तीर्थ निस्संदेह कलियुग के आगमन के दौरान भी आपके पापों का नाश करने वाला होगा।२३।
"ब्राह्मणा ऊचुः॥
यदि त्वं नागरैर्बाह्यं यज्ञं चात्र करिष्यसि॥
तदन्येऽपि सुराः सर्वे तव मार्गानुयायिनः॥
भविष्यन्ति तथा भूपास्तत्कार्यो न मखस्त्वया॥
२४॥
ब्राह्मणों ने कहा !
अनुवाद:-यदि आप नागरों को छोड़कर यहां यज्ञ करते हैं, तो अन्य सुरों के भी आपके मार्ग का अनुसरण करने की संभावना है। वैसे ही पृथ्वी के राजा भी। इसलिए आपको यज्ञ नहीं करना चाहिए।२४।
यद्येवमपि देवेश यज्ञकर्म करिष्यसि॥
अवमन्य द्विजान्सर्वाक्षिप्रं गच्छास्मदंतिकात्॥२५।
अनुवाद:-इसके बावजूद, हे देवों के देव , यदि आप हम सभी ब्राह्मणों की अवहेलना करते हुए यज्ञ अनुष्ठान करने पर तुले हुए हैं, तो हमारे क्षेत्र से दूर चले जाइए।२५।
॥ब्रह्मोवाच॥
अद्यप्रभृति य: कश्चिद्यज्ञमत्र करिष्यति॥
श्राद्धं वा नागरैर्बाह्यं वृथा तत्संभविष्यति॥२६॥
ब्रह्मा ने कहा :
अनुवाद:-अब से यदि कोई नागरों को छोड़कर यहां यज्ञ या श्राद्ध करता है, तो वह व्यर्थ हो जाएगा।२६।
नागरोऽपि च योऽन्यत्र कश्चिद्यज्ञं करिष्यति॥
एतत्क्षेत्रं परित्यज्य वृथा तत्संभविष्यति॥२७॥
अनुवाद:-और नागर भी दूसरी जगह कोई यज्ञ करेगा इस क्षेत्र को छोड़कर तो वह सब व्यरथ ही हो जाएगा।२७।
मर्यादेयं कृता विप्रा नागराणां मयाऽधुना॥
कृत्वा प्रसादमस्माकं यज्ञार्थं दातुमर्हथ॥
अनुज्ञां विधिवद्विप्रा येन यज्ञं करोम्यहम् ॥२८॥
अनुवाद:-हे ब्राह्मणों, यह सीमांकन की रेखा( मर्यादा) नगरों के लिए बनाई गई है। इसलिए, हे ब्राह्मणों, हमें उचित अनुमति देने की कृपा करें, ताकि मैं विधिवत् यज्ञ कर सकूँ।२८।
॥सूत उवाच ॥
ततस्तैर्ब्राह्मणैस्तुष्टैरनुज्ञातः पितामहः॥
चकार विधिवद्यज्ञं ये वृता ब्राह्मणाश्च तैः॥२९॥
सूत ने कहा
अनुवाद:-तत्पश्चात, प्रसन्न हुए उन ब्राह्मणों द्वारा पितामह को अनुमति दी गई तब ब्रह्मा ने पहले से ही चुने गए ब्राह्मणों के माध्यम से विधिवत यज्ञ किया ।२९।
विश्वकर्मा समागत्य ततो मस्तकमण्डनम्॥
चकार ब्राह्मणश्रेष्ठा नागराणां मते स्थितः॥ ६.१८१.३०॥
अनुवाद:-हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! और विश्वकर्मा ने वहाँ आकर(ब्रह्मा के सिर को अलंकृत किया जो नागरों के निर्णय के साथ खड़ा था ।३०।
ब्रह्मापि परमं तोषं गत्वा नारदमब्रवीत्॥
सावित्रीमानय क्षिप्रं येन गच्छामि मण्डपे ॥३१॥
अनुवाद:-ब्रह्मा अत्यंत प्रसन्न होकर नारद से बोले : "सावित्री को जल्दी लाओ ताकि मैं यज्ञ के मंडप में जा सकूं।"३१।
वाद्यमानेषु वाद्येषु सिद्धकिन्नरगुह्यकैः॥
गन्धर्वैर्गीतसंसक्तैर्वेदोच्चारपरैर्द्विजैः॥
अरणिं समुपादाय पुलस्त्यो वाक्यमब्रवीत्।३२॥
अनुवाद:-जैसे ही सिद्ध, किन्नर और गुह्यकों द्वारा वाद्य यंत्र बजाए जाते थे , जब गंधर्व अपने गीतों में लीन थे और ब्राह्मण वेदों के जाप में लगे हुए थे , तब पुलस्त्य ने अरणि को उठाकर और जोर से ये शब्द बोले:।३२।
काष्ठ( लकड़ी) का बना हुआ एक यन्त्र जो यज्ञों में अग्नि उत्पन्न करने के काम आता है-अग्निमन्थ।
विशेष—इसके दो भाग होते हैं— अधरारणि और उत्तरारणि । यह शमीगर्भ अश्वत्थ से बनाया जाता है । अधराराणि नीचे होती है और इसमें एक छेद होता है । इस छेद पर उत्तरारणि खड़ी करके रस्सों से मथानी के समान मथी जाती है । छेद के नीचे कुश या कपास रख देते हैं जिसमें आग लग जाती है । इसके मथने के समय वैदिक मन्त्र पढ़ते हैं और ऋत्विक् लोग ही इसके मथने आदि का काम करते हैं । यज्ञ में प्रायः अरणि से निकली हुई आग ही काम में लाई जाती हैं ।
“पत्नी ? पत्नी ? पत्नी ” (यजमान की पत्नी कहाँ है ?) और प्रमुख ब्राह्मण अपने-अपने स्थान पर विराजमान थे।३३।
एतस्मिन्नंतरे ब्रह्मा नारदं मुनिसत्तमम्॥
संज्ञया प्रेषयामास पत्नी चानीयतामिति ॥३४॥
अनुवाद-इस बीच, ब्रह्मा ने इशारे से उत्कृष्ट ऋषि नारद को सुझाव दिया कि उनकी पत्नी को वहाँ लाया जाए।३४।
सोऽपि मंदं समागत्य सावित्रीं प्राह लीलया॥
युद्धप्रियोंऽतरं वांछन्सावित्र्या सह वेधसः॥३५॥
नारद (स्वभाव से) कलह प्रिय थे। वह सावित्री और भगवान ब्रह्मा के बीच संबंधों में एक अंतर पैदा करना चाहते हुए । तो वह धीरे-धीरे (इत्मीनान से) सावित्री के पास आकर सावित्री से बोले।३५।
अहं संप्रेषितः पित्रा तव पार्श्वे सुरेश्वरि ॥
आगच्छ प्रस्थितःस्नातःसांप्रतं यज्ञमण्डपे॥३६॥
“हे देवों की स्वामिनी मुझे पिता ने आपके पास भेजा है कि आप माता चलो; पिता ने स्नान कर लिया है और यज्ञ के मंडप में जा रहा हूँ ऐसा कह कर चले गयें हैं।३६।
परमेकाकिनी तत्र गच्छमाना सुरेश्वरि॥
कीदृग्रूपा सदसि वै दृश्यसे त्वमनाथवत्॥३७॥
लेकिन, हे देवों की स्वामिनी, यदि आप वहां अकेले जाती हैं, तो आप वहां कैसे सभा में दिखोगीं ? निश्चय ही आप एक अनाथ के समान महिला की तरह दिखाई देंगी।३७।
तस्मादानीयतां सर्वा याः काश्चिद्देवयोषितः॥
याभिः परिवृता देवि यास्यसि त्वं महामखे॥३८॥
इसलिए सभी देवियों को बुलाया जाए। हे देवी, आप उन देवियों से घिरी हुई महा यज्ञ में जाओगीं।३८।
एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठो नारदो मुनिसत्तमः ॥
अब्रवीत्पितरं गत्वा तातांबाऽऽकारिता मया॥ ३९॥
यह कहकर श्रेष्ठ मुनि नारद अपने पिता के पास गए और बोले: “पिताजी, माता को मैंने बुलाया गया है।३९।
परं तस्याः स्थिरो भावः किंचित्संलक्षितो मया ॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा ततो मन्युसमन्वितः॥६.१८१.४०॥
लेकिन मैंने उसकी मानसिक प्रवृत्ति को थोड़ा ध्यान से देखा है कि वह स्थिर सी रहती है। नारद के वह वचन सुनकर पिता क्रोधित हो गये।४०।
पुलस्त्यं प्रेषयामास सावित्र्या सन्निधौ ततः॥
गच्छ वत्स त्वमानीहि स्थानं सा शिथिलात्मिका॥
सोमभारपरिश्रांतं पश्य मामूर्ध्वसंस्थितम्॥४१॥
उन्होंने पुलस्त्य को सावित्री के पास भेजा: "प्रिय पुत्र, जाओ वह स्वभाव से शिथिल(धीमी) है। उसे इस स्थान पर ले आओ। देखो, मैं अपने ऊपर रखे हुए सोम के भार को सहते-सहते कितना थक गया हूँ।४१।
एष कालात्ययो भावि यज्ञकर्मणि सांप्रतम्॥
यज्ञपानमुहूर्तोऽयं सावशेषो व्यवस्थितः॥४२॥
अब यज्ञ अनुष्ठान करने में बहुत अधिक विलंब होगा। यज्ञपान (यज्ञ की प्रक्रिया) के लिए मुहूर्त (शुभघड़ी) के लिए अब बहुत कम समय बचा है।४२।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पुलस्त्यः सत्वरं ययौ॥
सावित्री तिष्ठते यत्र गीतनृत्यसमाकुला॥४३॥
उनके शब्दों को सुनकर पुलस्त्य उस स्थान पर पहुँचे जहाँ सावित्री समाकुला हो गीत और नृत्य में तल्लीन थी।४३।
समाकुला=जिसकी अक्ल ठिकाने न हो।
ततः प्रोवाच किं देवि त्वं तिष्ठसि निराकुला॥
यज्ञयानोचितः कालःसोऽयं शेषस्तु तिष्ठति॥४४॥
उन्होंने तब कहा: "हे देवी, तुम इस प्रकार स्थिर क्यों खड़ी हो? यज्ञयान की प्रक्रिया के लिए उचित मुहूर्त में बहुत कम समय बचा है।४४।
तस्मादागच्छ गच्छामस्तातः कृच्छ्रेण तिष्ठति॥
सोमभारार्द्दितश्चोर्ध्वं सर्वैर्देवैः समावृतः॥४५॥
इसलिए आओ (जल्दी करो)।हम जाएंगे। सिर पर रखे सोम के भार से पिता अत्यधिक व्याकुल और पीड़ित हैं। वह सभी देवों से घिरा हुए हैं।४५।
॥सावित्र्युवाच॥
सर्वदेववृतस्तात तव तातो व्यवस्थितः॥
एकाकिनी कथं तत्र गच्छाम्यहमनाथवत्॥४६॥
सावित्री ने कहा !
प्रिय पुत्र, तुम्हारे पिता सभी देवताओं से घिरे होने के कारण अच्छी तरह से बसे हुए हैं। मैं एक अनाथ की तरह अकेले वहां कैसे जाऊँगी ? ।४६।
तद्ब्रूहि पितरं गत्वा मुहूर्तं परिपाल्यताम्॥४७॥
जाकर पिता जी से कहना कि थोड़ी देर धैर्य रखें।४७।
यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथा पराः॥
देवकन्याःसमाजेऽत्र ताभिरेष्याम्यहऽद्रुतम्॥ ४८॥
(वह प्रतीक्षा करने में प्रसन्न हो सकते हैं) जब तक कि इन्द्राणी, गौरी , लक्ष्मी और अन्य देव-पत्नियाँ आती हैं।देव कन्या हमारी सभा में एकत्रित हो जाएं। तब मैं उनके साथ शीघ्र आऊँगी।४८।
सर्वासां प्रेषितो वायुनिमन्त्रेण कृते मया॥
आगमिष्यन्ति ताःशीघ्रमेवं वाच्यःपिता त्वया।४९।
तुम्हारे पिता को सूचित किया जाए कि वायु को मेरे द्वारा उन सभी को आमंत्रित करने के लिए भेजा गया है। वे इसी समय आएंगीं।४९।
"सूत उवाच॥
सोऽपि गत्वा द्रुतं प्राह सोमभारार्दितं विधिम्॥
नैषाभ्येति जगन्नाथ प्रसक्ता गृहकर्मणि॥६.१८१.५०॥
सा मां प्राह च देवानां पत्नीभिः सहिता मखे॥
अहं यास्यामि तासां च नैकाद्यापि प्रदृश्यते॥५१॥
वह मुझसे कहती है, 'मैं देवों की पत्नियों के साथ यज्ञ में जाऊँगी। लेकिन अभी तक इनमें से कोई भी नजर नहीं आया है.।५१।
एवं ज्ञात्वा सुरश्रेष्ठ कुरु यत्ते सुरोचते॥
अतिक्रामति कालोऽयं यज्ञयानसमुद्रवः॥
तिष्ठते च गृहव्यग्रा सापि स्त्री शिथिलात्मिका॥
५२।
इस प्रकार जानकर, हे सुरों में सबसे उत्कृष्ट, और वही करो जो तुम्हें अच्छा लगे । यज्ञ- अनुष्ठान की प्रक्रिया के लिए बहुत देर हो रही है। वह स्त्री आलसी है अपने घरेलू कामों में लगी है।५२।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य पुलस्त्यस्य पितामहः॥
समीपस्थं तदा शक्रं प्रोवाच वचनं द्विजाः॥५३॥
पुलस्त्य के वचन को सुनकर, पितामह ने पास में खड़े हुए इन्द्र और ब्राह्मणो से कहा।५३।
॥ब्रह्मोवाच॥
शक्र नायाति सावित्री सापि स्त्री शिथिलात्मिका॥
अनया भार्यया यज्ञो मया कार्योऽयमेव तु॥५४॥
ब्रह्मा ने कहा !
हे इन्द्र ! सावित्री नहीं आती है। वह एक आलसी स्त्री है। लेकिन, क्या मुझे ऐसी पत्नी के साथ यह यज्ञ करना चाहिए ?।५४।
गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः॥
यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥५५॥
हे शक्र( इन्द्र) जाओ और जल्दी से किसी दूसरी कन्या को ले आओ ताकि यज्ञ के लिए शुभ मुहूर्त निकल न जाए।५५।
पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः।
५६।
हे ब्राह्मणों, पितामह के वचनों को सुनकर, इन्द्र - उनके लिए कन्या की खोज में गये । जल्द ही वह उससे मिले, क्योंकि वह पास में घूम रही थी ।५६।
अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता॥
कन्यका गोपजा तन्वी चन्द्रास्या पद्मलोचना।५७।
सिर पर मट्ठे का घड़ा रखे इन्द्र द्वारा एक कन्या देखी गयी जो एक दुबली-पतली अहीर की कन्या, कमलनयन और चंद्रमुखी थी। ५७।
सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता॥
सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने ॥५८॥
वह यौवन की दहलीज पर थी। वह सभी शुभ गुणों पूर्ण थी। उनसे इन्द्र! ने पूछा: "हे कमल-नेत्री, तुम कौन हो ?।५८।
कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि नः॥५९॥
क्या आप कुंवारी हैं या विवाहित हो ? बताओ हमको तुम किसकी पुत्री हो ?”।५९।
"कन्योवाच ॥
गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता॥
यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम्॥ ६.१८१.६०॥
कन्या ने कहा :
मैं एक अहीर की बेटी हूँ। आपका कल्याण हो। मैं यहां छाछ बेचने आयी हूं। यदि आप इसे चाहते हैं, तो मुझे इसकी लागत का मूल्य भुगतान करें। देरी ना करें।६०।
इस प्रकार यज्ञ के योग्य करके और बड़े कुण्ड के शुभ जलों से से स्नान कराकर सुन्दर वस्त्र पहनाकर।६३।
ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे॥६४॥
तब उसने प्रसन्नतापूर्वक चतुर्भुज से कहा जो उसके पास जाकर और उसे सभी देवों की सभा के सामने खड़ा कर दिया:।६४।
कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना॥
तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता॥६५॥
हे सुरों में श्रेष्ठ, यह कन्या अब मेरे द्वारा आपके लिए लाई गई है। वह सुन्दर अंगों वाली है और सभी शुभ लक्षणों से चिह्नित है।६५।
गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख॥६६॥
हे चतुर्भुज ब्रह्मा ! गोप कन्या जानकर और इसको गाय के मुख से प्रवेश कराके तथा पवित्र करने के लिए गाय के गुदा द्वार से निकाला गया है ।६६।
हे चतुर्भुज, यह जानकर कि वह एक अहीर की बेटी है, उसे पवित्र करने के उद्देश्य से एक गाय के मुंह में प्रवेश करा दिया किया गया और फिर गुदा( मलद्वार) से बाहर निकाला गया।
॥श्रीवासुदेव उवाच॥
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ॥
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥ ६७ ॥
श्री वासुदेव ने कहा !
गाय और ब्राह्मण एक ही कुल के हैं। यह दो भागों में विभक्त है, जैसे एक में मन्त्रों का वास है, जबकि दूसरे में हवि का वास है।६७।
धेनूदराद्विनिष्क्रान्ता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये॥६८
गाय के पेट से निकलकर यह कन्या ब्राह्मणों की कन्या बनी है। मख ( यज्ञ)की पूर्ति के लिए, हे भगवान आप इसका हाथ पकड़ लो।६८।
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥६९॥
इससे यज्ञ के प्रदर्शन के लिए शुभ मुहूर्त से पहले ही पाणि ग्रहण करो ।६९।
★ ॥रुद्र -उवाच॥
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता ॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति ॥ ६.१८१.७०॥
रुद्र ने कहा :
वह गाय के मुख में प्रविष्ट होकर गुदाद्वार से बाहर निकाली गई। इसलिए इनका नाम गायत्री रखा गया है । वह तुम्हारी पत्नी बनेगी।७०।
॥ब्रह्मोवाच॥
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि ॥
संभूय ब्राह्मणी श्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम॥७१॥
ब्रह्मा ने कहा :
सभी ब्राह्मण सामूहिक रूप से कहें कि यद्यपि वह एक अहीर की बेटी है, अब वह एक उत्कृष्ट ब्राह्मण लड़की बन गई है ताकि वह मेरी पत्नी बन सके।७१।
यह स्कंद पुराण के नागर-खंड के तीर्थ-महात्म्य का एक सौ इकयासी अध्याय है।
अध्याय 181 - गायत्री तीर्थ की महिमा
माता-पिता: खंड 1 - गर्तातीर्थ-महात्म्य
सूत ने कहा!
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैःशुभैः।४७।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।४८।
यह श्लोक जो गोप कन्या को गोमुख मे प्रवेश कराकर गुह्य मार्ग से निकालने पर शुद्धि करण बताने वाले हैं तो ये वस्तुत: वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध ही है क्योंकि गाय विराट पुरुष के ऊरु अथवा उदर से उत्पन्न होने को कारण वैश्य वर्णा है ऊरु घुटनों से उपर को भाग को कहते हैं जैसा कि ऊरु शब्द कि व्युत्पत्ति की गयी है ।
(ऊर्णूयते आच्छाद्यते ऊर्णु--कर्मणि कु नुलोपश्च।जानूपरिभागे तस्य वस्त्रादिभिराच्छादनीयत्वात् तथात्वम् ( घुटनों का ऊपरी और नाभि के नीचे का भाग- अर्थात् उदर इसके अन्तर्गत ही है)
_____
अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्
सृष्टवानुदराद्गाश्च महिषांश्च प्रजापतिः।१०५।
भेड़ विराट पुरुष के वक्ष से और अजा( बकरी) की उत्पत्ति मुख से तथा विराट पुरुष के उदर से गाय और भैंस की सृष्टि हुई ।
(पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अध्याय-३)
___________________
सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा।
सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चितम्।१७।पक्षीयों कि माता विनिता
सर्पों कि माता कद्रु- और सुरभि- गाय और भैंस दोनों कि माता है।
(ब्रह्मवैवर्त-पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय-9)
_______________
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।४९।
अर्थ:-ब्राह्मण और गाय एक ही कुल के दो भाग हैं। एक में सभी मन्त्र विद्यमान हैं तो दूसरे में हवि( घृत) स्थित है।
परन्तु-चतुराई करते हुए ब्राह्मण भूल कर दी और कि वसुदेव के पुत्र वासुदेव के मुखार-बिन्दु से यह कहलवाने में वे भूल ही गये कि वसुदेव द्वापर युग में हुए और उनका पुत्र होने से कृष्ण का ही नाम वासुदेव है। ( वसुदेवस्यापत्यमिति । (वसुदेव + अण्)=वासुदेव- ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च । ४ । १ ।११४ । इति अण्। और गायत्री सतयुग में ।
ब्राह्मण और गाय एक ही कुल के दो भाग हैं ; यह बात वैदिक सिद्धान्त के विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही है। यह कन्या गाय के उदर से निकलने या जनमने के कारण यह इसका दूसरा जन्म होने से यह द्विजा है।
हे देव यज्ञ मुहूर्त बीतने से पहले ही आप इससे पाणि- ग्रहण करलें-।६७-६९।
और सबसे बड़ी गलती इन लोगों से गायत्री शब्द कि व्युत्पत्ति करते समय हुई जिसको (गा+यन्त्र) से कर दिया यन्त्र का अर्थ यौनि तो होता नहीं हैं। जबकि गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति -गायत्रं स्तोत्रमस्त्यास्ति इनि।१। रूप से हुई अर्थात् जिसके स्तोत्र हैं वह गायत्री है। उद्गाता= सामगायक -
हे (शतक्रतो) इन्द्र! (ब्रह्माणः) जैसे वेदों के मन्त्रों से (वंशम्) वंश को (उद्येमिरे) उद्यमवान् करते हैं, वैसे ही (गायत्रिणः) जो गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य पुरुष (त्वा) आपकी (गायन्ति) सामवेदादि के गानों से प्रशंसा करते हैं, तथा (अर्किणः) अर्क अर्थात् जो कि वेद के मन्त्र (ऋचा) पढ़ने वाले। (त्वा) आपको (अर्चन्ति) नित्य पूजन करते हैं॥१॥
अन्यत्र भी गायत्री शब्द
गायन्तं त्रायते इति। अर्थात गाते हुए को जो त्राण करती है वह देवी गायत्री हैं।( गायत् + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः)
_____
परन्तु मूर्खों ने पता नहीं किस प्रकार गोमुख में प्रवेश कराके अपान ( गुह्यदेश-) से निकाल कर गायत्री शब्द कि व्युत्पत्ति कर डाली। जैसे नीचे उद्धृत वह श्लोकाँश है
प्रविष्टा गोमुखे यस्माद् अपानेन विनिर्गता। गायत्री नाम ते पत्नी तस्माद् एषा भविष्यति-।।
परन्तु इन्द्र को अपना परिचय देते समय भी गोप कन्या ने अपना नाम गायत्री ही बताया था।
अनुवाद:-गाय के उदर से निकली ये कन्या अब ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो गयी । इसलिए हे ब्रह्मा इसका पाणिग्रहणकरो और यज्ञ का समाचरण करो !
रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।
__________
ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।२३।
यह श्लोक अनेक पुराणों में बनाकर जोड़ा गया जैसे नान्दी उपपुराण- महाभारत -अनुशासनपर्व, स्कन्दपुराणनागर -खण्ड ,लक्ष्मी नारायण संहिता आदि परन्तु पद्मपुराण में यह गाय और ब्राह्मण एक कुल हैं ऐसा नहीं कहा गया है।
कालान्तरण में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों नें वैश्यवर्णीय गाय को ब्राह्मण कुल की बताने के लिए वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध विना विचारे ही उपर्युक्त श्लोक को तो रच दिया परन्तु वर्णव्यवस्था के उद्घोषक यह भूल गये कि वेदों में गो विराट पुरुष के उदर अथवा ऊरु से उत्पन्न होने के कारण वैश्य की सजातीय वैश्य वर्णा है।
मैं इस स्थल पर ऋग्वेद की उस ऋचा का उल्लेख कर रहा हूं जिसमें चारों वर्णों की बात की गई है:
शाब्दिक अर्थ: समाज की वृद्धि के उद्येश्य से उसने (ब्रह्म ने) मुख, बाहुओं, जंघाओं एवं पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का निर्माण किया ।
(महाभारत अनुशासन पर्व (86) वाँ अध्याय)
ब्रह्मा के मुख से बकरी और ब्राह्मण उत्पन्न होने से दौनों सजातीय ही हैं। परन्तु नीचे विष्णु धर्मोत्तर इसके विपरीत ही कहता है।
यह उपर्युक्त श्लोक वस्तुत: वैदिक सिद्धान्त के विरुद्ध ही है क्योंकि गाय विराट पुरुष के ऊरु से उत्पन्न है जो उदर-भाग ही है । ऊरु-(ऊर्णूयते आच्छाद्यते ऊर्णु--कर्मणि कु नुलोपश्च । जानूपरिभागे तस्य वस्त्रादिभिराच्छादनीयत्वात् तथात्वम् ( घुटनों का ऊपरी भाग- जिसे वस्त्रों से आच्छादित करना होता है।)
_____
अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्।
सृष्टवानुदराद्गाश्च महिषांश्च प्रजापतिः।१०५।
(पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अध्याय-३)
सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा।
सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चितम्।१७।
(ब्रह्मवैवर्त-पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय -9)
_______________
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।४९।
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गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्।
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।1.509.५०।
रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।५१ ।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु।५२।
ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।५३।
वाद्यमानेषु वाद्येषु सम्प्राप्ता यज्ञमण्डपम् ।
विधिश्चक्रे स्वकेशानां क्षौरकर्म ततः परम् ।५४।
विश्वकर्मा तु गायत्रीनखच्छेदं चकार ह ।
औदुम्बरं ततो दण्डं पौलस्त्यो ब्रह्मणे ददौ ।५५।
एणशृंगान्वितं चर्म समन्त्रं प्रददौ तथा ।
पत्नीं शालां गृहीत्वा च गायत्रीं मौनधारिणीम्।५६।
मेखलां निदधे त्वन्यां कट्यां मौञ्जीमयीं शुभाम् ।
ततो ब्रह्मा च ऋत्विग्भिः सह चक्रे क्रतुक्रियाम्।५७।
कर्मणि जायमाने च तत्राऽऽश्चर्यमभून्महत् ।
जाल्मरूपधरःकश्चिद् दिग्वासा विकृताननः।५८।
कपालपाणिरायातो भोजनं दीयतामिति ।
निषिध्यमानोऽपि विप्रैः प्रविष्टो यज्ञमण्डपम्।५९।
सदस्यास्तु तिरश्चक्रुः कस्त्वं पापः समागतः ।
कपाली नग्नरूपश्चाऽपवित्रखर्परान्वितः।६०।
यज्ञभूमिरशुद्धा स्याद् गच्छ शीघ्रमितो बहिः ।
जाल्मः प्राह कथं चास्मि ह्यशुद्धो भिक्षुको व्रती ।६१ ।
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ब्रह्मयज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः ।
गोपालकन्या नित्यं या शूद्री त्वशुद्धजातिका।६२।
स्थापिताऽत्र नु सा शुद्धा विप्रोऽहं पावनो न किम् ।
इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने नामको नवाऽधिकपञ्चशततमोऽध्यायः।५०९।
ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।२३।
यह श्लोक अनेक पुराणों तथा ग्रन्थो में बनाकर जोड़ा गया जैसे नान्दी-उपपुराण- महाभारत -अनुशासनपर्व, स्कन्दपुराणनागर-खण्ड ,लक्ष्मी नारायणीसंहिता ़तथा पाराशर स्मृति और भविष्यपुराण में "ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।५। श्लोक बनाकर संलग्न कर दिया।
कालान्तरण में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों नें वैश्यवर्णीया गाय को ब्राह्मण कुल की बताने के लिए वैदिक सिद्धान्त के विरुद्ध विना विचारे ही उपर्युक्त श्लोकों को तो रच दिया परन्तु वर्णव्यवस्था के उद्घोषक वेद में वर्णित विधान भूल ही गये ।
मैं इस स्थल पर ऋग्वेद की उस ऋचा का उल्लेख कर रहा हूं जिसमें चारों वर्णों की उत्पत्ति की बात की गई है:
कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामित विक्रम। दावाग्निना दह्यमानान् प्रपन्नान् त्रातुमर्हथः॥९॥नूनं त्वद्बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसीदितुम्। वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथाः त्वत्परायणाः॥१०॥
श्रीशुक उवाच। वचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः। निमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत॥११॥ तथेति मीलिताक्षेषु भगवान् अग्निमुल्बणम् ।पीत्वामुखेनतान्कृच्छ्राद्योगाधीशोव्यमोचयत्।१२।ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः। निशाम्यविस्मितासन्-आत्मानं गाश्चमोचिताः।१३।
कृष्णस्य योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम्। दावाग्नेरात्मनःक्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम्।१४।
श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित ! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूद में लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गयीं। ____________________________________
उसकी बकरियाँ, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्त में डकराती हुई मुंजाटवी में घुस गयीं। जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके।
- महर्षि पुलस्त्य भीष्म को सतयुग के प्राचीन इतिहास की बात बताते हैं । इसी ऐतिहासिक संवाद को सूत जी राजा जनमेजय को सुनाते हैं । अतः यहाँ नृपते ! इस पद का सम्बोधन कारक में प्रयोग हुआ है -और इस श्लोक मेंं गाय के साथ महिषी शब्द भी विचारणीय है कि सतयुग में भी आभीर जनजाति के लोग गाय-भैंस दोनों ही सजातीय पशुओं को पालते थे ।
अर्थ– गाय भैंस जो कुछ भी है वह सब वस्त्रादि से सुसज्जित करके तोरण के बाहर स्थित करें –अर्थात् तोरण- (बहिर्द्वार) विशेषतः वह द्वार जिसका ऊपरी भाग मंडपाकार तथा मालओं और पताकाओं आदि से सजाया गया हो ।
प्राय: शोभा या सजावट के लिए बनाए जाने वाला अस्थायी स्वागत-द्वार होते थे।
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का दो सौ पचासवाँ श्लोक ) गाय और भैंस की समान रूप से प्रशंसा करता है ।
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गाय और भैंस सदैव यादवों की पाल्या थीं और भारतीय पुराणों में दोैनों पशुओं को सजातीय और सुरभि गाय की सन्तान कहा गया है जो सुरभि भगवान कृष्ण के वाम भाग से ही गोलोकधाम उत्पन्न हुई थीं ।
महाभारत का खिलभाग (हरिवंशपुराण) में भी गोवर्धन प्रकरण में गोवर्धन- यजन समारोह के अवसर पर जो पशु महिषी आदि भोजन करने योग्य थे उनका पूजन किया और समस्त गोप समुदाय को उनकी पूजा में जुट जने का आदेश कृष्ण के द्वारा दिया गया था । देखें हरिवंश पुराण का निम्न श्लोक-
अर्थ-भोजन कराने योग्य जो भैंस-गाय आदि व्रज के पशु हैं, उनकी बड़ी अभ्यर्चना करे और साथ ही उत्तमोत्तम पदार्थ खिलाये जायँ और इस प्रकार समस्त गोपों के सहयोग से सम्पन्न होने वाले इस यज्ञ का आरम्भ किया जाये।१५।
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महिषी की कभी पूज्या रही होगी इसी कारण से प्राचीन काल में पौराणिक ऋषियों ने इसको "महिषी" संज्ञा दी होगी -क्योंकि "महिषी" "महिला" 'महिमा" और 'महिमान्य' जैसे शब्द (मह्=पूजा करना)धातु से व्युत्पन्न हैं।
मंहति पूजयति लोका तस्या: इति महिषी शब्द की व्युत्पत्ति ( महि + “ अधिमह्योष्टिषच् / ड़ीष् ) “ उणादि सूत्र से मह्=पूजायाम् धातु में "टिषच्" और स्त्रीलिंग में "ड़ीष्" प्रत्यय लगाने से सिद्ध होती है । १ । ४६ ।
इति टिषच् । ) स्वनामख्यातपशुविशेषः । सन्दर्भ•(हरिवंशपुराण हरिवंशपर्व के १७ वाँ अध्याय )
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और अन्यत्र भी ब्रह्मपुराण के अध्याय(190) के अन्तर्गत कंस -अक्रूर संवाद में कंस अक्रूर जी को गोकुल में नन्द के पास कृष्ण और बलराम को अपने साथ लाने के लिए तथा गोपों से महिषी ( भैंस) के उत्तम घृत और दधि को उपहार स्वरूप पाने की बात कहता है ।
अनुवाद:-आपके बिना ये यादव मेरे लिए दुष्ट हैं, हे दानपति अक्रूर! और मैं इन लोगों को एक के बाद एक करके मारने की कोशिश करूंगा।190.17।
तब यह सारा राज्य कांटों से मुक्त हो जाएगा। मैं तुम्हारे द्वारा इन्हें मारने की व्यवस्था करूंगा हे वीर इसलिए मेरी प्रीति के लिए जाओ।190.18। जैसे भैंस के घी(अर्चि) और दही के साथ उपहार भी लेते आना है । जैसे तुम कहोगे वैसे ही गोपाल लोग शीघ्र ही तुमको उपहार देंगे ।190.19।
विष्णु पुराण के निम्न श्लोक भी विचारणीय हैं।
त्वामृते यादवाश्चैते द्विषो दानपते मम। एतेषां च वधायाहं यतिष्येऽनुक्रमात्ततः।२०।
अनुवाद:-तुम्हारे बिना, ये यादव मेरे दुश्मन हैं, हे दानपति अक्रूर। मैं एक के बाद एक इन को मारने का प्रयास करूंगा।20।
उस समय सारा राज्य संकट से मुक्त हो जाएगा मैं तुम्हारे लिए व्यवस्था करूंगा, इसलिए हे वीर, कृपया मुझे प्रसन्न करने के लिए मेरे पास जाओ। 21। भैंस के घी(अर्चि) और दही के साथ उपहार भी लेते आना है । जैसे तुम कहोगे वैसे ही गोपाल लोग शीघ्र ही तुमको उपहार देंगे।22।
श्री पराशर ने कहा ! हे ब्राह्मण, जब महान भक्त अक्रूर को इस प्रकार आदेश दिया गया तो वह बहुत प्रसन्न हुए और कल भगवान कृष्ण को देखुँगा यह विचार कर शीघ्रता की।23। ऐसा कहकर अक्रूर जी अपने सुन्दर रथ पर आरूढ़ हो गये फिर वह मधु के प्रिय मथुरा नगर की ओर चल पड़े।24। यह श्रीविष्णु महापुराण के पांचवें भाग का पन्द्रहवां अध्याय (15) है।
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ये ही श्लोक ब्रह्म पुराण के १९०वें अध्याय में कुछ अन्तर के साथ हैं ।
अर्थ-तत्पश्चात आपके अतिरिक्त ( अक्रूर) समस्त गोकुल वासी यादवों के वध का उपक्रम करुँगा । तब सम्पूर्ण राज्य का शासन आप की कृपा से निष्कण्टक होकर कर भोग सकुँगा । हे वीर मेरी प्रसन्नता के लिए आप गोकुल जायें और वे गोप जल्दी ही भैंस का सर्पि (घी) और दहि आदि उपहार स्वरूप लेकर आयें आप उनसे ऐसा कहना।१९।
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विष्णु पुराण में पाराशर वक्ता हैं तो ब्रह्म पुराण में व्यास जी को वक्ता बना दया गया है ।
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ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय नवम का १७ वें श्लोक में गाय और भैंस दौनों बहिनों की उत्पत्ति एक ही माता से हुई है। अत: गाय और भैंस परस्पर बहिने हैं ।
ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय नवम का १७ वाँ श्लोक तथा इसी अध्याय नवम का ४६ वाँ श्लोक भी है इसी तथ्य को सूचित करता है।
कश्यपस्य प्रियाणां च नामानि शृणु धार्मिक । अदितिर्देवमाता वै दैत्यमाता दितिस्तथा।१६।
अनुवाद:-ये गाय-भैंस सुरभि की श्रेष्ठा पुत्री यहा हैं । वे सभी सरमेयस और सरमा ( देवों की कुतिया) के पुत्र बने।46।
ब्रह्मवैवर्तपुराण अध्याय-(9) श्लोक 46-
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और चमत्कार तो तब हुआ जब भैंस की प्रतिष्ठा गाय से भी बढ़कर हुई नारद पुराण का निम्न श्लोक यही प्रकाशित करता है ।
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महिषीदो जयत्येव ह्यपमृत्युं न संशयः
गवां तृणप्रदानेन रुद्र
लोकमवाप्नुयात्।११२।
(नारद पुराण पूर्वार्ध १३ वाँ अध्याय)
अर्थ-:महिषी दान करने से अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है इसमें कोई संशय नहीं और गाय को चारा देने से रूद्र(शिव) लोक की प्राप्ति होती है ।
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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् (प्रकृतिखण्डः) अध्यायः ४६ में वर्णन है कि सुरभि गाय जो विश्व की समस्त गाय और गैसों की माता है उसका प्रादुर्भाव ( जन्म) भी कृष्ण के गो लोक धाम में कृष्ण के वामांग (बायें अंग ) से हुई है विस्तृत जानकारी के लिए देखें निम्न सभी श्लोक-
का वा सा सुरभी देवी गोलोका दागता च या ।। तज्जन्मचरितं ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।१। नारायण उवाच ।। गवामधिष्ठातृदेवी गवामाद्या गवां प्रसूः। गवां प्रधाना सुरभी गोलोके च समुद्भवा।२।
सर्वादिसृष्टेः कथनं कथयामि निशामय ।। बभूव तेन तज्जन्म पुरा वृन्दावने वने ।। ३ ।।
एकदा राधिकानाथो राधया सह कौतुकात् ।। गोपांगनापरिवृतः पुण्यं वृन्दावनं ययौ ।। ४ ।।
सहसा तत्र रहसि विजहार च कौतुकात् ।। बभूव क्षीरपानेच्छा तदा स्वेच्छापरस्य च।। ५ ।।
ससृजे सुरभीं देवीं लीलया वामपार्श्वतः ।। वत्सयुक्तां दुग्धवतीं वत्सानां च मनोरमाम् ।। ६ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय (47). आदि गौ सुरभी देवी का उपाख्यान।
हिन्दी अनुवाद:-नारद जी ने पूछा– ब्रह्मन् ! वह सुरभी देवी कौन थी, जो गोलोक से आयी थी ? *मैं उसके जन्म और चरित्र सुनना चाहता हूँ।*
भगवान नारायण बोले– नारद! देवी सुरभी गोलोक में प्रकट हुई है । वह गौओं की अधिष्ठात्री देवी, गौओं की आदि, गौओं की जननी तथा सम्पूर्ण गौओं में प्रमुख है। मुने! मैं सबसे पहली सृष्टि का प्रसंग सुना रहा हूँ, जिसके अनुसार *पूर्वकाल में वृन्दावन में उस सुरभी का ही जन्म हुआ था।* एक समय की बात है। गोपांगनाओं से घिरे हुए राधापति भगवान श्रीकृष्ण कौतूहलवश श्रीराधा के साथ पुण्य-वृन्दावन में गये। वहाँ वे विहार करने लगे। उस समय कौतुकवश उन स्वेच्छामय प्रभु के मन में सहसा दूध पीने की इच्छा जाग उठी। *तब भगवान ने अपने वामपार्श्व से लीलापूर्वक सुरभी गौ को प्रकट किया।* उसके साथ बछड़ा भी था। वह दुग्धवती थी। उस सवत्सा गौ को सामने देख सुदामा ने एक रत्नमय पात्र में उसका दूध दुहा। वह दूध सुधा से भी अधिक मधुर तथा जन्म और मृत्यु को दूर करने वाला था। स्वयं गोपीपति भगवान श्रीकृष्ण ने उस गरम-गरम स्वादिष्ट दूध को पीया। फिर हाथ से छूटकर वह पात्र गिर पड़ा और दूध धरती पर फैल गया। उस दूध से वहाँ एक सरोवर बन गया। उसकी लंबाई और चौड़ाई सब ओर से सौ-सौ योजन थी। गोलोक में वह सरोवर ‘क्षीरसरोवर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ है। गोपिकाओं और श्रीराधा के लिये वह क्रीड़ा-सरोवर बन गया। भगवान की इच्छा से उस क्रीड़ावापी के घाट तत्काल अमूल्य दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित हो गये। उसी समय अकस्मात असंख्य कामधेनु प्रकट हो गयीं। जितनी वे गौएँ थीं, उतने ही बछड़े भी उस सुरभी गौ के रोमकूप से निकल आये। फिर उन गौओं के बहुत-से पुत्र-पौत्र भी हुए, जिनकी संख्या नहीं की जा सकती। यों उस सुरभी देवी से गौओं की सृष्टि कही गयी, जिससे सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। मुने! *पूर्वकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने देवी सुरभी की पूजा की थी। तत्पश्चात् त्रिलोकी में उस देवी की दुर्लभ पूजा का प्रचार हो गया।* दीपावली के दूसरे दिन भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से देवी सुरभी की पूजा सम्पन्न हुई थी। *यह प्रसंग मैं अपने पिता धर्म के मुख से सुन चुका हूँ।* महाभाग! देवी सुरभी का ध्यान, स्तोत्र, मूलमन्त्र तथा पूजा की विधि वेदोक्त क्रम मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो। ‘ऊँ सुरभै नमः’ सुरभी देवी का यह षडक्षर-मन्त्र है। एक लाख जप करने पर मन्त्र सिद्ध होकर भक्तों के लिये कल्पवृक्ष का काम करता है। ध्यान और पूजन यजुर्वेद में सम्यक प्रकार से वर्णित हैं। जो ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति और सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली हैं; जो लक्ष्मीस्वरूपा, श्रीराधा की सहचरी, गौओं की अधिष्ठात्री, गौओं की आदि जननी, पवित्ररूपा, पूजनीया, भक्तों के अखिल मनोरथ सिद्ध करने वाली हैं तथा जिनसे यह सारा विश्व पावन है उन भगवती सुरभि की मैं उपासना करता हूँ।
कलश, गाय के मस्तक, गौओं के बाँधने के खंभे, शालग्राम की मूर्ति, जल अथवा अग्नि में देवी सुरभी की भावना करके द्विज इनकी पूजा करें। जो दीपमालिका के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में भक्तिपूर्वक भगवती सुरभी की पूजा करेगा, वह जगत में पूज्य हो जाएगा।
एक बार वाराहकल्प में देवी सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय त्रिलोकी में दूध का अभाव हो गया था। तब देवता अत्यन्त चिन्तित होकर ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्मा जी की स्तुति करने लगे। तदनन्तर ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर इन्द्र ने देवी सुरभी की स्तुति आरम्भ की।
अनुवाद:-इन्द्र ने कहा– देवी एवं महादेवी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। जगदम्बिके! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो; तुम्हें नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हें बार-बार नमस्कार है। श्रीकृष्ण-प्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है। जो सबके लिये कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी देवी को बार-बार नमस्कार है। यश और कीर्ति प्रदान करने वाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है। इस प्रकार स्तुति सुनते ही सनातनी जगज्जननी भगवती सुरभी संतुष्ट और प्रसन्न हो उस ब्रह्मलोक में ही प्रकट हो गयीं। देवराज इन्द्र को परम दुर्लभ मनोवांछित वर देकर वे पुनः गोलोक को चली गयीं। देवता भी अपने-अपने स्थानों को चले गये। नारद! फिर तो सारा विश्व सहसा दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ सम्पन्न होने लगे तथा उनसे देवता संतुष्ट हुए। जो मानव इस महान पवित्र स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करेगा, वह गोधन से सम्पन्न, प्रचुर सम्पत्ति वाला, परम यशस्वी और पुत्रवान हो जाएगा।यही श्लोक यथावत देवीभागवत पुराण में भी यथा रूप में में प्राप्त होते हैं देखें निम्न श्लोक
एकदा राधिकानाथो राधया सह कौतुकी । गोपाङ्गनापरिवृतः पुण्यं वृन्दावनं ययौ ॥४॥सहसा तत्र रहसि विजहार स कौतुकात् । बभूव क्षीरपानेच्छा तस्य स्वेच्छामयस्य च ॥ ५ ॥ससृजे सुरभिं देवीं लीलया वामपार्श्वतः । वत्सयुक्तां दुग्धवतीं वत्सो नाम मनोरथः ॥ ६ ॥दृष्ट्वा सवत्सां श्रीदामा नवभाण्डे दुदोह च । क्षीरं सुधातिरिक्तं च जन्ममृत्युजराहरम् ॥ ७ ॥तदुत्थं च पयः स्वादु पपौ गोपीपतिः स्वयम् । सरो बभूव पयसां भाण्डविस्रंसनेन च ॥ ८ ॥ दीर्घं च विस्तृतं चैव परितः शतयोजनम् ।गोलोकेऽयं प्रसिद्धश्च सोऽपि क्षीरसरोवरः ॥९॥गोपिकानां च राधायाः क्रीडावापी बभूव सा ।रत्नेन्द्ररचिता पूर्णं भूता चापीश्वरेच्छया ।।१०।। (देवीभागवतपुराणनवम स्कन्ध उनपचास वाँ अध्याय)
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ततः सर्वदशार्हाणामाहुकस्य
च याः स्त्रियः।
नन्दगोपस्य महिषी यशोदा लोकविश्रुता।।
इतना ही नहीं नन्द की पत्नी का भी नाम यशोदा था और उनकी एक भैंस का नाम भी यशोदा था जो संसार में प्रसिद्ध थी इसका यह अर्थ भी हो सकता है।
(2-59-1 महाभारत सभापर्व )
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जघान सहितान्सर्वानङ्गराजं च माधवः।।
एष चैव शतं हत्वा रथेन क्षत्रपुङ्गवान्।
गान्धारीमवहत्कृष्णो महिषीं यादवर्षभः।।
गाँधारी ने कृष्ण को शाप दिया कदाचित् श्लिष्ट अर्थ में भैसों और उनकी मुख्य रानीयों को लक्ष्य करके महिषी शब्द का प्रयोग किया-
( 2-61-13 महाभारत सभापर्व इकसठवाँ अध्याय)
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महिष्या वासुदेवस्य भूषणं सर्ववेश्मनाम्।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र विहितः सर्वशिल्पिभिः।।
(2-57-31)महाभारत सभापर्व
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महिष्या वासुदेवस्य केतुमानिति विश्रुतः।
प्रसादो विरजो नाम विरजस्को महात्मनः।।
(2-57-32 ) महाभारत सभापर्व
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वासुदेव राजा अवश्य थे परन्तु लोकतान्त्रिक प्रणाली से इसी लिए राजा शब्द का प्रयोग उनके लिए हुआ अन्यथा ययाति के शाप के परिणाम स्वरूप यदु वंश में कभी किसी ने पैत्रिक राजसत्ताको अधिग्रहण किया हो ? अत: राजा शब्द यदुवंश के शासकों को एक दो बार ही प्रयुक्त है देखें वराह पुराण का ४६ वाँ अध्याय का छठवाँ श्लोक-
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वसुदेवोऽभवद् राजा यदुवंशविवर्द्धनः।
देवकी तस्य भार्या तु समानव्रतधारिणी ।४६.६।
अनुवाद:-राजा वासुदेव यदु वंश के राजा बने। उनकी पत्नी देवकी भी उनके समान व्रत करने वाली थीं। 46.6।।
श्रीवराह-पुराण में भगवत्-शास्त्र का छियालीसवाँ अध्याय है। 46।।
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द्वारिका में भैंसें पालने का वर्णन
महाभारत के सभापर्व के प्रथम अध्याय में दक्षिणात्य प्रति में एक श्लोक है जो द्वारिका में यादवों द्वारा गाय-भैंस पालने का विवरण देता है ।
उस गृहोद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अँशत: संग्रहीत हुए हैं ।
वहाँ हाथियों यूथ तथा गाय भैंसों के समूह भी रहते हैं वहीं वराह और मृग तथा पक्षियों के रहने योग्य निवास भी बनाये गये ।
तत्रैव गजयूथानि तत्र गोमहिषास्तथा।
निवासाश्च कृतास्तत्र वराहा मृगपक्षिणाम्।61।
(महाभारत सभापर्व 57 _वाँ अध्याय)
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तथा हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (98)
"तत्रैव गजयूथानि पुरे गोमहिषास्तथा ।
निवासश्च कृतस्तत्र वराहमृगपक्षिभिः।७४।
अनुवाद:-
उस द्वारकापुरी में ही हाथियों के यूथ और गाय-भैंसों के झुंड भी रहते थे। वराहों, मृगों और पक्षियों ने भी वहाँ अपना निवास बना रखा था।
श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में द्वारका का विशेष रूप से निर्माण विषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय।
वास्तव में वराह सूकर से भिन्न होता है इसे विष्णु का रूप मानकर पूजा भी की जाती है ।
परन्तु सूकर पूजा का कहीं विधान नहीं हैं
देखे वरापुराण-
और ये उद्यान को रखाने के लिए रखे जाते थे ।
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नारद पुराण में वर्णन है कि पात्र व्यक्ति को महिषी( भैंस) दान करने से मृत्यु काम संकट टल जाता है।
महिषीदो जयत्येव ह्यपमृत्युं न संशयः
गवां तृणप्रदानेन रुद्र
लोकमवाप्नुयात्।११२।
नारद पुराण पूर्वार्ध १३ वाँ अध्याय
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महिषी दान करने से अकाल मृत्यु ( कुसमय मुत्यु जैसे, बिजली के गिरने, बिष खाने, साँप आदि के काटने से मरना) पर विजय मिलती है इसमें कोई संशय नहीं और गाय को चारा देने से रूद्र लोक की प्राप्ति होती है ।। यह तथ्य पूर्व में वर्णन कर चुके ही हैं
नारद पुराण पूर्वार्ध १३ वाँ अध्याय
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महाभारत के सभापर्व के प्रथम अध्याय में दक्षिणात्य प्रति में श्लोक है ।
उस गृहोद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अँशत: संग्रहीत हुए हैं । वहाँ हाथियों यूथ तथा गाय भैंसों के समूह भी रहते हैं वहीं वराह और मृग तथा पक्षियों के रहने योग्य निवास भी बनाये गये ।
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वास्तव में वराह सूकर से भिन्न होता है इसे विष्णु का रूप मानकर वराह की पूजा भी की जाती है
परन्तु सूकर पूजा का कहीं विधान नहीं हैं
देखे वरापुराण-
और ये उद्यान को रखाने के लिए ही रखे जाते थे ।
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अब लक्ष्मीनारायणसंहिता
खण्डः १(सतयुगसन्तानः)अध्यायः ४३१ में वर्णन है कि - श्रीनारायण उवाच-
गोमहिष्यादि यच्छ्रेष्ठं नष्टं पशुधनं हि तत् ।
अजाविकं समस्तं च वन्यं मृगादिकं तथा ।५।
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गाय- महिषी आदि जो श्रेष्ठ पशु धन है । उसमें बकरी भेड़ और हिरण आदि भी थे । वह सब लुप्त हो गये
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भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में भी गाय और भैंस की पूजा करते हुए वर्णन किया गया है ।
दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशनम् ।
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं भूषयेन्नृप ।२५।
(भविष्य पुराण ब्रह्म पर्व का अठारह वाँ अध्याय)
राजन् ! गाय भैंस को सज्जित करके तथा दिव्य- दीप-आरती करने से जो कुछ भी रोग आदि है वह सब नष्ट हो जाता है ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में वर्णन है।
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(पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का 250वाँ श्लोक)
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप
तेन वस्त्रादिभिःसर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत्।२५०।
अनुवाद:-गाय ,भैंस (महिषी) जो कुछ भी है वह सब ले चलना चाहिए हे राजन् ! उसे तोरण के बाहर रखना या स्थापित करना चाहिए उसके द्वारा तोरण को सभी वस्त्र आदि से उसे सजाना चाहिए ।। (1.17.250 पद्म पुराण सृष्टि खण्ड)
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ब्राह्मण अजा के सजातीय और सहजन्मा होने से बकरी परिवार के ही हैं इसी लिए प्राचीनतम ग्रन्थों में ब्राह्मण बकरी ही पालते थे गाय तो वैश्य वर्ण के लोग पालते थे
___________ रूद्रोवाच-
तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासम् अजा अविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
उन ब्राह्मणों के यहाँ धन' पुत्र' दासी' दास' बकरी भेड़ आदि पशु हों मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४।
महिषी - महिषी शब्द संस्कृत भाषा में मह् = पूजायाम् (पूजन के अर्थ में) है धातु पाठ में (१/४८५ तथा १०/२९२ यह धातु उभयपदीय है ।
उ० महयति अर्थात् मह् धातु में संज्ञा भाव में "टिषच् " प्रत्यय तथा स्त्री लिड़्ग भाव में "टाप् "प्रत्यय लगाने से बनता है ।
जिसकी पूजा या महिमा सर्वत्र है अर्थात्
( महयति पूजयति यस्माय सा महिषी )और हम सब आज भी भैंस का सबसे अधिक दूध पीते हैं ! और हमने जिसका एक बार दूध पी लिया वह हमारी वस्तुतः माता ही है। इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं क्योंकि "माता निर्माता भवति "भैंस दूध से ही शरीर का पोषण होता है । हमने रूढ़िवादी लोगों की कुसंगति करके सत्य का कभी मूल्यांकन ही नहीं किया
सरे आम हम एहसान फरामोश और आँखों पर परदा डाले खामोश बने रहे ।
परन्तु तेरा सत्यानाश हो ! स्वार्थ
आज भौतिकता की चकाचोंध अन्धा व स्वार्थ प्रवण होकर हम कितने भ्रान्त,क्लान्त अशान्त व ,रोगी और अल्प आयु होते चले आ रहे हैं !
क्योंकि अब भैंस के मस्तिष्क वर्धक मस्तुम( मट्ठा) को सेवन नहीं कर पाते हैं ।
परन्तु फिर भी हमने कभी एक क्षण भी रुक कर,धैर्य पूर्वक अपने इस जीवन की विकृत प्रवृत्तियों का तनिक भी निश्पक्ष दृष्टि से आत्म कल्याण की भावना से ,निरीक्षण नहीं किया है ? और हम अपनी अन्तरात्मा की सात्विकता के साथ निरन्तर व्यभिचार करते रहे ,जीवन के समग्र नैतिक मूल्यों का भौतिकता की ध्वान्त वेदी पर हमने हवन कर दिया है ,और आज भी" " अज्ञान की दीर्घ कालिक तमस् निशा में समय के पथ पर कभी मूर्छित हो और कभी ठोकरें खाकर जीवन की गाड़ी को घसीट रहे हैं !
हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतनाऐं " " अन्धविश्वास और रूढि वादिता की गिरफ्त में आज दम तोड़ रहीं है ।
आज हम धनवान् होते हुए भी निर्धन हैं क्यों ? कि हमारी संस्कृति की फ़सल उजड़ गयी ,हमारा चरित्र रूपी वित्त(धन)भी लुट गया ,हमारे पास अब कोई अक्षय सम्पत्ति नहीं बची है।
हमने अपने आप को लुटने दिया ,मिटने दिया !! इतना ही नहीं हमने अपनी उस माता को भी नीलाम कर दिया ,जिसने हम्हें जीवन दिया था।
वह माता जो निर्माण करती है ,जीवन के हर पक्ष का "माता निर्माता भवति" के पवित्र भाव को हम विस्मृत कर बैठे , गो और भैंस हमारी माताएें हैं माता (माँ) माननीय ,सम्माननीय ही नहीं,हमारे जीवन का सर्वथा आधार भी है |
प्राचीन काल में गौ (cow ) विश्व संस्कृति की आत्मा थी प्राचीन मैसो-पोटामिया अर्थात् आज का ईराक की सुमेरियन संस्कृति में (गौ) एक पवित्र पशु था और सुमेरियन गाय की पूजा करते थे | आर्य संस्कृति की सम्वाहक भी गाय थी ; परन्तु गौ की महानता को आधार मानकर आर्यों मैं ही पश्चिमीय एशिया के धरातल पर एक विभेदक रेखा खिंच गयी यद्यपि पवित्र तो गाय को दौनों शाखाऔं ने माना ,परन्तु पवित्रता के मानक भिन्न भिन्न थे |
भारतीय ऋषियो के ग्रन्थ ऋग्वेद (rigved ) १०/८६/१४ पर तथा १०/९१/१४पर भी तथा १०/७२/०६ पर भी देवों की वलि के लिए गौ वध के उद्धरण हैं वाजसनेयी संहित्ता तथा तैत्तीरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में ब्राह्मणों के द्वारा गौ-मेध के पश्चात् गौ मांस भक्षण का उल्लेख भी है इतना ही नहीं बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये ग्रन्थ मनुस्मृति में भी ब्राह्मणों द्वारा बलि के पश्चात् बहुतायत से मांस खाने का उल्लेख है |
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याःप्रशस्ता मृगपक्षिणाः मनुस्मृति (५/२३ ) अर्थात् ब्राह्मण यज्ञ के लिए बडे़ मृग (चौपाए) पशु और पक्षियों का वध करें ! और ब्राह्मण अपनी इच्छा के अनुसार धुले हुए मांस को खाएं!
अतःमनुस्मृति में ब्राह्मणों द्वारा पशुओ का वध करके मांस खाने का जिक्र बहुत से स्थलों पर है | परन्तु फिर भी ब्राह्मणों में ही परस्पर पशुओं की बलि (मेध) को लेकर वैचारिक भिन्नताऐं थी उपनिषद कालीन ब्राह्मण यज्ञ के नाम पर पशु वध के सशक्त विरोधी भी थे ।
वस्तुतः वह गौः ही थी जो हमारे जीवन के भौतिक (सभ्यता परक )और आध्यात्मिक व सांस्कृतिक दौनो ही पक्षौं को गति प्रदान करने बाली थी और आज भी है!
यह तथ्य अब भी प्रासंगिक है स्वयं गौः शब्द का व्युत्पत्ति परक ( etymologically) विश्लेषण इसी तथ्य का प्रकासन करता है "गच्छति निर्भयेन अनेन इति गौः " गम् धातु में संज्ञा करण में " डो" प्रत्यय करने पर गौः शब्द बनता है ।
गाय प्राचीन काल मैं निर्भय होकर गमन करती थी आज गाय की इस प्रवृत्ति के अनुकूल परिस्थतियाँ नहीं रह गयीं हैं ।
आज गाय का जीवन संकट ग्रस्त है।
महाभारत के आश्वमेधिकपर्व में वृषभ को संसार का पिता और गाय को माता माना गया है।
पितरो वृषभा ज्ञेयो गावो लोकस्य मातरः।
तासां तु पूजया राजन्पूजिताःपितृदेवताः।109-28
श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधर्मपर्वणि नवाधिकशततमोऽध्यायः। 109।
आज विपत्ति में भटक रही है गौः सृष्टि का प्रथम पाल्य पशु है !!
भारोपीय ( भारत और यूरोप ) वर्ग की सभी भाषाओं में गौः शब्द अल्प परिवर्तन के साथ विद्यमान् है।
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संस्कृत गौः ईरानी भाषा में "गाव" के रूप में है तो जर्मन भाषा में यह कुह (kuh) पुरानी अंग्रेजी में कु( ku )जिसका बहुवचन रूप काइ (cy) या काँइनस्( coins) है = सिक्के को भी फ्राँस भाषा में काँइन coin कहते हैं कॉइन = बिल्ला - वेज़ जिससे सटाम्प मनी( money )को रंगा जाता था यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में क्वनियस् ( cuneus) = wedge बिल्ला , जर्मन भाषा से निकली हुई मध्य इंग्लिश में भी यह शब्द क्येन( kyen) है और आयर्लेण्ड की भाषा में यह शब्द बहुवचन रूप में काँइन है।
अर्थात् बहुत सी गायें काँइन coin शब्द आज धन ,मुद्रा पैसा आदि के अर्थ में रूढ़ है।
Coin कॉइन अंग्रेजी शब्द पाइस ( piece) समान अर्थक है ।
और यह इतिहास का एक प्रमाणित तथ्य है कि प्राचीन विश्व में हमारी व्यापारिक गतिविधियों का माध्यम प्रत्यक्ष वस्तु प्रणाली थी अर्थात् वस्तुओं की आपस में अदला -बदली (विनिमय) प्रणाली थी। यह गौः नामक पशु ही हमारी धन सम्पदा थी 🐃🐂 संस्कृत पशु शब्द का ग्रीक (यूनानी) भाषा में पाउस ( pouch) रूप है पुरानी अंग्रेजी में यह शब्द फ्यू ( feoh) पोए है जर्मन भाषा में यह शब्द वीह( vieh) है पुरानी नॉर्स में ,फी, रूप है जो बाद में फ़ीस ( शुल्क) होगया थी वास्तव में गाय और भैंस दूर के रिश्ते में सगी वहिनें थी अतः दौनो ही पूज्या मौसी और माताऐं है यह कोई उपहास नहीं वल्कि सत्य कथन है।
यह शोध भाषा विज्ञान ( philology) और प्राचीन विश्व संस्कृति के विशेषज्ञ योगेश कुमार रोहि के द्वारा किया गया है जो कि प्रमाणौं के दायरे में है उन्होने प्रमाणित किया कि भूमध्य रेखीय दक्षिणा वर्ती भूस्थलों में जब आर्यों का स्कैण्डीनेविया ( बाल्टिक सागर) की ओर से प्रथम आगमन हुआ तब उन्होने गाय के समान जिस काले विशाल पशु को देखा उसे महिषः🐃कहा अर्थात् महि = गाय क्यों कि गाय पूजनीया थी मह् = पूजा करना धातु मूलक शब्द है महि और महि के समान होने से भैंस भी महिषी कह लायी थी महिषी रूप प्राचीन मैसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा असीरी संस्कृति का सम्वाहक था जिसे पुराणों में असुर कहा है |
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ग्रीक ( यूनान) के आर्यों ने महिषी ( भैंस को बॉबेलॉस ( Boubalos) कहा ,तथा इटालियन भाषा में यह शब्द बुफैलॉ ( buffalo) है जिसका अर्थ होता है गाय के समान ग्रीक भाषा में बॉस्
( bous ) का अर्थ है गौः भारोपीय भाषा ओं म, "ब," वर्ण कभी कभी " ग" रूप म में परिवर्तित होता है ,जैसे जर्मन में वॉडेन woden से गॉडेन शब्द बना और फिर गॉडेन से गॉड god शब्द बना है। सांस्कृतिक द्वेष के कारण भी गौः शब्द का अर्थ पूज्य व भगवती के रूप में रूढ़ भी हुआ। और महिषी का भोग परक अर्थ हुआ जैसे राजा की पटरानी, दासी ,सैरन्ध्री तथा व्यभि चारिणी स्त्रीयों को महिषी की संज्ञा दी गयी इतिहास में प्रमाण है कि पुराने समय में पारसी जरत्उष्ट्रः के अनुयायी भी गाय की पूजा करते थे
इतना ही नही इस्लामीय शरीयत में भी गाय के पूज्य व महान होने का प्रमाण है।
...देखें बुख़ारी की हदीसकंसुलअम्बिया पृष्ठ १५/ हदीसी व़ाकयात इस प्रकार है ।
कि जिब्राईल फरिश्ता ख़लीक़ सलल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत मोहम्मद बताते हैं कि फिरदौस( paradise )
जिसे वेदों में प्रद्यौस् भी कहा है उस फिरदौस में एक गाय जिसके सत्तर हजार सींग हैं ,जिसके सींग ज़मीन में गढे हुए हैं और वह गाय( वकर) मछली की पीठ पर खड़ी है अगर वह तनिक हिल जाय तो सारी का़यनात नेस्तनाबूद हो जाय।
भारतीय पौराणिक मान्यता के अनुसार पाताल के जल पर खडी़ हुई जिस गौ के सींग पर पृथ्वी खण्ड टिका है वस्तुतः यह वर्णन प्रतीकात्मक ही है। और इन धारणाओं का श्रोत प्राचीन सुमेरियन संस्कृति है। इस्लामीय शरीयत मैं जो ""व़कर ईद़"" शब्द है वह सुमेरियन है जैसे आदम ,तथा नूह और नवी शब्द भी है अरबी भाषा में पहले बक़र ईद़ का अर्थ गाय की पूजा था अरबी में वक़र शब्द का एक अर्थ है "" महान "" संस्कृत भाषा में वर्करः गाय तथा बकरी का वाचक है।
कृष्ण हों, अथवा ईसा या ,फिर मोहम्मद गाय की महानता का सभी ने वख़ान किया है परन्तु प्राक् इतिहास के कुछ काले पन्ने भी थे गौ की महत्ता को आधार मान कर पश्चिमीय एशिया में आर्यों की दो विरोधी संस्कृतियाँ अस्तित्व में आयीं त्र-टग् वेद अतिथि का वाचक गौघ्न =गां हन्ति तस्मै उसके लिए गाय मारी जाय जो अतिथि आया हुआ है।
आरे ते गौघ्नयुत पुरूषघ्नं क्षयत्वीरं सुम्न भस्मेते अस्तु त्रग्वेद ० १/११४/१० इतना ही नहीं वेद में अतिथि का वाचक गविष्टः शब्द भी आया है प्रचिकित्सा गविषटौः (ऋग्वेग ६/३१/३) तथा युध्यं कुयवं गविष्टोः अग्रेजी में यही शब्द गैष्ट ( guest) बन गया है।
अर्थात् गाय जिसके लिए इष्ट (इच्छित) वास्तव में शब्द संस्कृतियों के सम्प्रेषक होते हैं।
अथर्ववेद में गौ वध करने बालों को कि यदि गौ हन्ता कहीं मिलजाय तो उसे मार दो ! यदि नो "गाम् हंसि तम् त्वा सीसेन वध्यामो (ऋग्वेद-१/१५/५ )
"कलि काल देखकर हँसा गौमाता की दुर्दशा व्याकुल क्षुदा से"
(तैत्तिरीयसंहिता--७/१/१/४/) में सृष्टि रचना का वर्णन है ।👇
प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत ।
अनुवाद:-अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं।
( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए । ये उनके पारिवारिक सदस्य हैं।
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हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ। (भेड़ क्षत्रियों की सजातीय है इन्हें भेढ़ पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए। इसी लिए भेड़ मेढ्र कहा जाता है मेढ़े को ।
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मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए इनकी संख्या बहुत है ।
कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए।
उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।
पीछे अनुष्टुप छन्द वैराज साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए ।
यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है ।
क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए।
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ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१) में चारों वर्णों से अलग वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति है।
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ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं और वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति भी है इस संसार में है ।४३।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है ।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है। गोपों को ही पुराणों में आभीर और यादव कहा गया है परन्तु आभीर एक जनजातीय नाम है अहीर जाति का वर्णन सतयुग त्रेता और द्वापर तथा कलियुग तक मिलता है सबसे बड़े और प्राचीन पुराण पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में अध्याय द्वादश से लेकर सप्तदश अध्याय तक यदुवंश का वर्णन है परन्तु अध्याय सप्तदश में उस प्राचीन काल का वर्णन है जब जातीयों का भी प्रादुर्भाव नहीं हुआ था परन्तु वेदों की अधिष्ठात्री देवी माता गायत्री को आभीर या गोप कन्या के रूप में वर्णन किया गया है तथा जब इसी समय ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री विवाह यज्ञ के आयोजन कर्ता देवता शिव विष्णु और देवताओं की पत्नियों को क्रोधित होकर शाप देती है तो इन्द्र की पत्नी शचि को पुरुरवा के पौत्र आयुस् के पुत्र नहुष की पत्नी बन जाने का शाप देती हैं तो इसका कारण तो यही है कि उस समय तो नहुष के पुत्र ययाति के पुत्र यदु भी जन्म नहीं होता है और ये भविष्य के गर्त में समाहित है। परन्तु आभीर जाति उस समय भी अच्छे व्रत और आचरणो की ज्ञाता( सुवृतज्ञ) रूप में वर्णित है और विष्णु गायत्री का कन्या दान करने वाले हैं ।
तभी सभी अहीरों को वरदान देते हैं कि मैं देव कार्य की सिद्धि के लिए तुम्हारी जाति के यदुवंश में नन्दा दि के अवतरण ते समय जन्म लुँगा और इसी कारण से योगमाया को यादवी तथा गायत्री माता को यदुवंशसमुद्भवा ( यदुवंश में उत्पन्न होने वाली) कहा गया है देवीभागवतपुराण में गायत्रीसहस्र नामों में वास्तव में दुर्गा गायत्री राधा आदि सभी वैष्णव शक्तियाँ ही थी।
वेदों में विष्णु को गोप ' गोविद / गोविन्द रूप में वर्णन यही सिद्ध करता है कि विष्णु गोपों के ही सनातन देवता हैं और इनका अवतरण भी गोपों के उद्धार के लिए ही होता है ।
और फिर गोपों की किसी से तुलना वर्चस्व के स्तर पर कदापि नहीं क्यों कि नारद पुराण में वर्णन है कि ब्रह्मा विष्णु और महेश जैसे देव त्रयी के देवता भी गोपों की चरणधूलि को प्राप्त करना अपना सौभाग्य मानते हैं ।
क्या ब्राह्मण की चरणधूलि भी ये देवता लेते हैं सायद नहीं ! गाय भैंस सजातीय पशु हैं जिन्हें आदि काल से आभीर लोग पालते रहे हैं ।
भागवत धर्म वैष्णव धर्म का अत्यन्त प्रख्यात तथा लोकप्रिय स्वरूप है।'भागवत धर्म' का तात्पर्य उस धर्म से है जिसके उपास्य स्वयं भगवान् श्री कृष्ण हों ; वासुदेव कृष्ण ही 'भगवान्' शब्द के वाच्य हैं "कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् (भागवत पुराण-1/3/28 ) अत: भागवत धर्म में कृष्ण ही परमोपास्य तत्व हैं; जिनकी आराधना भक्ति के द्वारा सिद्ध होकर भक्तों को भगवान् का सान्निध्य तथा तद्रूपता ( -ब्रह्म स्वरूपत्व) प्राप्त कराती है। सामान्यत: यह नाम वैष्णव सम्प्रदायों के लिए व्यवहृत होता है, परन्तु यथार्थत: यह उनमें एक विशिष्ट सम्प्रदाय का बोधक है। भागवतों का महामन्त्र है । 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' जो द्वादशाक्षर मन्त्र की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। पाञ्चरात्र तथा वैखानसमत 'नारायण' को ही परम तत्व मानते हैं। परन्तु इनसे विपरीत भागवत मत कृष्ण वासुदेव को ही परमाराध्य मानता है। ______________________________
भागवत धर्म की प्राचीनता एवं उद्भव श्रोत के लिए द्रविड़ो के आध्यात्मिक सिद्धान्तों का दिग्दर्शन आवश्यक है । भागवत धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद् गीता थी --जो अब अधिकांशत: प्रक्षिप्त रूप में महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित है। क्यों कि वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की पुन:सम्पादित रचना है । 👇
श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय- 18 के 70 वें श्लोक विवेचनीय हैं -- जिसकाअर्थ है " "जो हम दौनों के इस धर्म-संवाद को पढ़ेगा "यह पाठ है। इसके स्थान पर यहाँं यदि कृष्ण अर्जुुन को उपदेश देते ; तो इस प्रकार श्लोकाँश होता -- "श्रोष्यति च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:" जो हमारे इस संवाद को सुनेगा ! सत्य तो यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता के तथ्य विस्थापित हुए हैं। दूसरा प्रमाण यह भी है कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्र के पदों का उद्धरण है । जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है । योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और "वसुबन्धु" नामक बौद्ध भाईयों ने किया । और -ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं ईस्वी सदी में हुई। अत: आज मूल श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ आध्यात्मिक श्लोकों के रूप ही प्राचीन हैं । बाद में ब्राह्मणवाद के अनुमोदन हेतु अनेक प्रक्षिप्त श्लोक तो अलग से समायोजित है । यद्यपि कालान्तरण में वर्ण- व्यवस्था वादी ब्राह्मणों ने इसमें वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का समायोजन भी कर दिया है ; जो कि भागवत धर्म के सिद्धान्तों के विपरीत है।
भागवत धर्म के सस्थापक मूलत: बलराम ही थे और कृष्ण ने उसका सैद्धान्तिक विकास किया। भागवत धर्म का विकास क्रम रूढिवादिता और पुरोहितवाद और इन्द्रवाद के विरुद्ध ही था कृष्ण और इन्द्र का युद्ध पुराणों में ही नहीं अपितु वेदों में भी दृष्टिगोचर है।👇 __________________________________
श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं । जिनका सम्बन्ध कहीं न कहीं क्यों कि आत्मा और परमात्मा तथा सृष्टि रचना पर जो दार्शनिक सूत्र श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित हैं वे द्रविडों और असीरियन लोगों के भी थे। असीरियन ही भारतीय पुराणों में असुर के रूप में वर्णित हैं ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में कृष्ण को यमुना की तलहटी में गाय के साथ विचरण करते हुए (अदेव )विशेषण से सम्बोधित किया गया है।
और द्रविड (तमिल) रूप अय्यर अहीर से विकसित रूप है। अहीर शब्द संस्कृत अभीर से तद्भूत है । तथा अभीर का सम्बन्ध हिब्रू बाइबिल में वर्णित अबीर( Abeer)शब्द से है; और इसका भी सम्बन्ध सैमेटिक शब्द " बर " से और बर का अर्थ हिब्रू भाषा में शक्ति-शाली होता है। वस्तुत यह "बर" इण्डो-ईरानी और इण्डो- यूरोपीयन शब्द वीर (vir)से सम्बद्ध है और वीर सम्प्रसारित रूप है आर्य । अब आय्यर वस्तुत:आर्य्य: ही है । इस लिए कुछ निश्पक्ष इतिहास विदों ने अहीरों का मिलान आदि आर्य्य चरावाहों के रूप में किया --जो बाद में कृषि के जनक माने गये । ___________________________________
यद्यपि कुछ इतिहास कार अपने पूर्व दुराग्रहों से आर्य्य: शब्द को देव संस्कृति के अनुयायीयों के विशेषण रूप में मान्य करने पर तुले हैं । आर्य शब्द का अर्थ है अरि: से सम्बद्ध । वैदिक सन्दर्भों में अरि ईश्वर वाची है । मेसोपोटेमिया की पुरालिपियों में "अलि" "एल" अथवा "इलु" से है असीरियन असुर लोग थे । सैमेटिक जन-जातियों का सबसे बड़ा युद्ध का अधिष्ठात्री देवता "एल" है जिसके अवशेष ई०पू० 800 में यूनानीयों के पुराणों में "एरीज़" युद्ध देवता के रूप में सुरक्षित हैं । परन्तु आर्य्य शब्द असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का इतिहास में प्रथम प्रमाणित वाचक है ईरनीयों ने देव ( दएव ) शब्द का अर्थ "दुष्ट " और व्यभिचारी" किया है । आर्य, आयर जो केवल अहीरों का मूल रूप है । विश्व की सभी संस्कृतियों में प्राप्त है । ऋग्वेद-- में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं ।
(ऋग्वेद 8।85।1-9) आ मे हवं नासत्याश्विना गच्छतं युवम् । मध्व: सोमस्य पीतये॥ ऋग्वेद मण्डल 8; सूक्त 85; ऋचा 1
पद का अर्थ -(नासत्या).द्विवचन । नास्ति असत्यं यस्य नभ्राडित्यादिना पा० नञः प्रकृतिभावः । अश्विनीकुमार द्वय:) (युवम्) दोनों (अश्विनौ) अश्विनीकुमार द्वय: ) (मध्वः) मधु का (सोमस्य) सोम का (पीतये) पीने के ल्ए (मे) मेरे (हवम्) हवन को (आ गच्छतम्) दोनों आयें।१।
और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती (जमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। परन्तु पराभूत होने में अतिरञ्जना व पूर्व दुराग्रह है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की ऋचा संख्या (13,14,15,)पर असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ऐसी वर्णित है ।
जिस पर हम सम्यक् विवेचना व्याकरणीय आधार करेगे-
सायण ने इंस ऋचा पर भाष्य करते हुए कृष्ण को असुर माना है ।
विवाद द्रप्स शब्द पर भी है परन्तु यह शब्द भारोपीय शब्दावली से सम्बन्धित है।
drip द्रप-drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.
drip (n.)
mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).
"विषुण--अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।
शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण- १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर मध्यम पुरुष एकवचन।
२-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में ।
३- अंशुमतीम् = यमुनाम् –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
४-अवतिष्ठत् = अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश लङ्लकार रूप) स्थित हुए।
५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को। (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है ।
७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
८-नृमणां( धनानां)
९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने)
११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
आवत् =प्राप्त किया ।
हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप धन दिया।
हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।________________________________
हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा और यह साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं चाहूगा ।अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़ कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा। जहाँ जल( नभ) बादल भी न हो (अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
"षत्व विधान सन्धि- :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•) 'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न कोई स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्' के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है। परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________
विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्= चरते हुए साँड को।
४-आजौ = संग्रामे युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है ।तस्थिवस्= स्था--क्वसु स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
२-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
स्त्रीभि:= तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।
हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण ,बिजायठ बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं आदि के द्वारा ।
तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति कर्म कारक पद रूप ।
कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
सुर संस्कृति से प्रभावित कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते थे। परन्तु सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में
वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
उपर्युक्त श्लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
इस कारण देवोपासक पुरोहितों के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।
परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिकअर्थ "प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है । परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है । भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।
कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा करना।
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जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66।
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।
__________________________________ उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋग्वेद-१०/ ६२ /१०) ____________________________________ असुर शब्द दास का पर्याय वाची है। क्योंकि ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के २/३/६ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर वर्णित किया गया है । ____________________________________ उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् (ऋग्वेद-२ /३ /६)
____________________________________ असुर संस्कृति में "दास शब्द का अर्थ-- दाता श्रेष्ठ तथा कुशल होता है । ईरानी आर्यों ने "दास शब्द का उच्चारण दाहे के रूप में किया है । इसी प्रकार "असुर" शब्द को "अहुर" के रूप में वर्णित किया है। असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है । पाणिनीय ने असुर शब्द की व्युपत्ति की है ।👇 _________________________________ पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु :-(प्राण-तत्व) से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है
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परन्तु ये लोग असीरियन ही थे । जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन सभ्यताओं के निर्माता थे । मिश्र की पुरातन संस्कृति से भी असुर (असीरियन ) प्रभावित रहे हैं । 👇दास अथवा दस्यु तथा दक्ष जैसे शब्द परस्पर एक ही मूल से व्युत्पन्न हैं । ईरानी असुर संस्कृति के उपासक थे । और यहूदीयों के ये सहवर्ती थे । यहूदी जन-जाति प्राचीन पश्चिमीय एशिया की एक महान जन-जाति रही है । कृष्ट (Christ) अर्थात् यीशु मसीह का जन्म भी यहूदीयों की जन-जाति में हुआ था । अनेक स्तरों पर कृष्ट और कृष्ण के आध्यात्मिक चरित्र में साम्य परिलक्षित होता है ।👇 ____________________________________ जैसे दौनों का जन्म गोपालक परिवार में गायों के सानिध्य में होना ... यीशु मसीह को एञ्जिल (Angelus) फ़रिश्ता द्वारा ईश्वरीय ज्ञान प्रदान करना । तथा कृष्ण के गुरु घोर-आंगीरस होना कमसे कम उन दौनों के कुछ चरित्र गत समान बिन्दुओं को सूचित करता है। ____________________________________ आंगीरस तथा एञ्जिल (Angelus) शब्द भी मूलत:एक ही शब्द के रूपान्तरण हैं । यहुदह् और तुरबजु के रूप में वर्णित बाइबिल में पुरुष पात्र निश्चित रूप से यदु: और तुर्वसु नामक वैदिक पात्र हैं। यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति हिब्रू शब्दकोश में यद् क्रिया से दर्शायी है :-जिसका अर्थ है --धन्यवाद देना, स्तुति करना । संस्कृत भाषा में भी यदु शब्द यज् धातु से व्युत्पन्न है । जिसका अर्थ है --यज्ञ करना , ईश्वर स्तुति करना आदि। ____________________________________ अवेस्ता ए जेन्द़ में असुर शब्द का अर्थ = श्रेष्ठ तथा देव का अर्थ = दुष्ट है । ____________________________________ ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में प्रस्तुत है । कि यदु स्वयं गोप अथवा चरावाहे का जीवन व्यतीत कर रहे थे कृष्ण और कृष्ट दौनों का सम्बन्ध क्रमश: अभीर और अबीर जन-जातियों से रहा और --जो मूलत: एक ही थीं दौनों ने ईश्वर की एकरूपता तथा दुखीयों को एक सम्बल प्रदान किया। उपनिषदों का वर्ण्य- विषय श्रीमद्भगवद् गीता के सादृश्य ही भक्ति मूलक है । ____________________________________ कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 👇 ____________________________________ छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 )कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्ते:👇 उपर्युक्त गद्यांश में कहा गया है कि " देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप भक्ति- उपासना की शिक्षा दी थी ! जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था ; और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। परन्तु वर्तमान में प्राप्त महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित श्रीमद्भगवद् गीता कृष्ण के सिद्धान्तों का आंशिक दिग्दर्शन तो है ही। परन्तु श्रीमद्भगवत् गीता का समायोजन शान्ति पर्व में होना चाहिए --जो तथ्यों अध्यात्म मूलक हैं वही कृष्ण के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन अवश्य करते हैं । परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण- वाद के समर्थन में कुछ बातें श्रीमद्भगवद् गीता में इस प्रकार से समायोजित की हैं या जोड़ दी हैं ; कि श्रृद्धा प्रवण भक्त उन्हें भी सहज स्वीकार कर लेता है । भक्ति सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव भागवत धर्म से हुआ है । और भक्ति की भी अनेक धाराऐं प्रस्फुटित हुईं 👇 ____________________________________ भक्तों के अनुसार भक्ति नौ प्रकार की होती है जिसे नवधा भक्ति कहते हैं। वे नौ प्रकार ये हैं— श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। १४. जैन मतानुसार वह ज्ञान जिसमें निरतिशय आनन्द हो और जो सर्वप्रिय, अनन्य, प्रयोजन विशिष्ट तथा वितृष्णा का उदयकारक हो भक्ति है । 👇 भागवत धर्म वस्तुत: निष्काम भक्ति का ही प्रतिपादन करने वाला प्रथम धर्म है । अर्थात् अहंकार शून्य होकर भगवान् के प्रति समर्पण भाव ही भक्ति है । दक्षिण भारत में द्रविड़ो के द्वारा भक्ति का प्रादुर्भाव निश्चित रूप से हुआ है । दक्षिण भारत के अय्यर सन्तों ने भक्ति को जन्म दिया और आलावार सन्तों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया आलवार शब्द का तमिल अर्थ:- भगवान में लीन 'आलावार तमिल भक्त-कवि एवं सन्त थे। इनका काल छठवीं से नौवीं शताब्दी के बीच रहा। उनके पदों का संग्रह "दिव्य प्रबन्ध" कहलाता है जो 'वेदों' के तुल्य माना जाता है। आलवार सन्त भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। विष्णु या नारायण की उपासना करने वाले भक्त 'आलवार' कहलाते हैं। इनकी संख्या 12 हैं। उनके नाम इस प्रकार है -👇👑 ____________________________________ (1) पोरगे आलवार (2) भूतत्तालवार (3) मैयालवार (4) तिरुमालिसै आलवार (5) नम्मालवार (6) मधुरकवि आलवार (7) कुलशेखरालवार (8) पेरियालवार (9) आण्डाल (10) तांण्डरडिप्पोड़ियालवार (11) तिरुरपाणोलवार (12) तिरुमगैयालवार। इन बारह आलवारों ने घोषणा की कि भगवान की भक्ति करने का सबको समान रूप से अधिकार प्राप्त है। ____________________________________ इन सन्तों द्वारा वर्ण-व्यवस्था और कर्मकाण्ड परक विधानों का निषेध कर दिया गया क्यों कि 'वह अनन्त आदि और अन्त से परे ईश्वर के भावों की शुद्धता और आत्म - समर्पण से अन्त:करण के स्वच्छ होने पर अनुभूति गम्य होता है । नकि कृत्रिम रूप से बनायी वर्ण-व्यवस्था के द्वारा यज्ञ , हवन ,कर्म काण्डों से स्वर्ग की प्राप्ति का प्रयत्न है । और भागवत धर्म स्वर्ग से भी उच्चत्तम स्थिति का प्रतिपादन करने वाला है । और तो और ब्राह्मणों की दृष्टि में निम्न समझी जाने वाली कतिपय जातियों के लोग भी इसमें स्वीकार हैं ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था गत मान्यताओं का खण्डन करते हुए इन आलावार सन्तों ने समस्त तमिल प्रदेश में पदयात्रा कर भक्ति का प्रचार किया। इनके भावपूर्ण लगभग 4000 गीत मालायिर दिव्य प्रबन्ध में संग्रहित हैं। दिव्य प्रबन्ध भक्ति तथा ज्ञान का अनमोल भण्डार है। ____________________________________ अनेक पुष्ट प्रमाणों के द्वारा प्रतिष्ठित है कि गुप्त सम्राट् अपने को 'परम भागवत' की उपाधि से विभूषित करने में गौरव का अनुभव करते थे। फलत: उनके शिला लेखों में यह उपाधि उनके नामों के साथ अनिवार्य रूप से उल्लिखित है। कृष्ण की मूर्तियों का निर्माण भी गुप्त काल में सबसे अधिक हुआ । विक्रमपूर्व प्रथम तथा द्वितीय शताब्दियों में भागवत धर्म की व्यापकता तथा लोकप्रियता शिलालेखों के साक्ष्य पर निर्विवाद सिद्ध होती है। ____________________________________ और ये कर्म-वाद में भी विश्वास करते थे । भारत में इस कर्म-वाद मूलक भागवत धर्म का उल्लेख सर्वप्रथम छठी ई.पू. के आस-पास के उपनिषदों में मिलता है। वासुदेव द्वारा प्रतिपादित यह धर्म व्यक्तिगत उपासना को महत्व देता है। महाभारत काल में कृष्ण का तादात्म्य विष्णु से कर दिये जाने के कारण भागवत धर्म वैष्णव धर्म भी कहलाया। वस्तुत विष्णु भी सुमेरियन माइथॉलॉजी में वर्णित " Pisk-nu=पिस्क- नु ) (Pisk-nu=पिस्क- नु ( से है ।👇 ____________________________________
भारतीय तथा सुमेरियन महरों ( उत्कीर्ण )तथ्यों पर अर्थ-वत्ता पूर्ण विश्लेषण) 👇 ____________________________________ डैगन ( फॉनीशियन भाषा में का शब्द है । तो दागुन ; हिब्रू : भाषा में और डेओजोगोन तिब्बती भाषा में रूपान्तरण है। देगन वस्तुत यह एक मेसोपोटामियन (सुमेरियन) और प्राचीन कनानी देवता है। ऐसा लगता है कि इसे एब्ला , अश्शूर (असुर), उगारिट और एमोरियों (मरुद्गण) जन-जातियों में से एक ने प्रजनन देवता के रूप में इसकी मान्यता की है। देगन का प्रारम्भिक क्षेत्र प्राचीन मेसोपोटामिया और प्राचीन कनान देश ही है । इसकी माता को शाला या अशेरा और पिता एल के रूप में स्वीकृत किया गया हैं।👇 शाला अनाज की प्राचीन सुमेरियन देवी और करुणा की भावना की प्रति मूर्ति थी। अनाज और करुणा के प्रतीकों ने सुमेर की पौराणिक कथाओं में कृषि के महत्व को प्रतिबिंबित करने के लिए गठबंधन किया है ! और यह विश्वास व्यक्त किया है । कि एक प्रचुर मात्रा में फसल देवताओं से करुणा का कार्य नि:सृत होता था। कुछ परम्पराऐं शाला, शिला या (श्री वैदिक रूप) को प्रजनन देवता देगन (विक्सनु )की पत्नी के रूप में पहचानती हैं! या तूफान देवता हदाद( हैड )के पत्नी को इश्तर भी कहा जाता है। प्राचीन चित्रणों में, वह शेर के सिर से सजाए गए डबल-हेड मैस या स्किमिटार रखती है। कभी-कभी उसे एक या दो शेरों के ऊपर पैदा होने के रूप में चित्रित किया जाता है। बहुत शुरुआती समय से, वह नक्षत्र कन्या से जुड़ी हुई है ;और उसके साथ जुड़े प्रतीकवाद के निवासी, वर्तमान समय के लिए नक्षत्र के प्रतिनिधित्व में बनते हैं। जैसे अनाज के कान देवता के नाम को संस्कृति में बदल गया हो। भारतीय पुराणों में श्री कृषि की अधिष्ठात्री देवी और विष्णु की पत्नी के रूप में वर्णित है । ( शिल्-क-टाप् ) = शिला । गृहीतशस्यात् क्षेत्रात्कणशोमञ्जर्य्या दानरूपायां । १ वृत्तौ उञ्छशब्दे १०७० पृष्ठ दृश्यम् । २ पाषाणे ३ द्वाराधःस्थितकाष्ठखण्डे च (गोवराट) स्त्री अमरः । ४ स्तम्भशीर्षे ५ मनःशिलायां स्त्री मेदिनी कोश । अर्थात् शिला का अर्थ अन्न जो खेतों में से बीना जाता है । वीनस पर एक पर्वत शाला मॉन्स का नाम उसके नाम पर रखा गया है। सुमेरियन माइथॉलॉजी में एल और अशेरा अथवा ईष्टर ( ईश्तर) जो कि वैदिक शब्द अरि-(ईश्वर) तथा स्त्री के प्रतिरूप हैं यद्यपि स्त्री ही कालान्तरण में श्री के रूप में उदित हुआ ____________________________________ जिसे ईसाईयों तथा यहूदियों में ईष्टर भी कहा गया। अथिरत एष्ट्रो (सम्भवतः) हिब्रू बाइबल में उन्हें अश्दोद और गाजा में कहीं और मन्दिरों के साथ पलिश्तियों या फलिस्तीनियों के राष्ट्रीय देवता के रूप में उल्लेख किया गया है। श्री' स्त्री या अशेरा प्रजनन , कृषि प्रेम आदि की अधिष्ठात्री देवी हैं । और अरि लौकिक संस्कृत भाषा में हरि तो कहीं अलि के रूप में प्रकट हुआ । "मछली" के लिए एक कनानी शब्द के साथ एक लम्बे समय से चलने वाला संगठन (जैसा कि हिब्रू में : दाग , तिब्ब । / Dɔːg / ), शायद लौह युग में वापस जा रहा है। इस शब्द ने "मछली-देवता" के रूप में एक व्याख्या की है। --जो विष्णु की मत्स्य अवतार की परिकल्पना का जन्म - सूत्र है । और अश्शूर कला में " मर्मन (मत्स्य -मानव) के " प्रारूपों का सहयोग (जैसे 1840 के दशक में ऑस्टेन हेनरी लेर्ड द्वारा पाया गया "डैगन" राहत से है ) यद्यपि, भगवान का नाम "अनाज (सेरियस)" के लिए एक शब्द से अधिक सम्भवतः प्राप्त हुआ हैं , जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि वह प्रजनन और कृषि से जुड़ा हुआ था। ____________________________________ इस प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन "पिस्क-नु" के बराबर माना जाता है, और " जल कीे बड़ी मछली (-गोड) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप के पाए जाने पर खोजा जाएगा।
"और ऐसा प्रतीत होता है कि "शुरुआती अवतार" के लिए विष्णु के इस शुरुआती "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी मत्स्य अवतार के रूप में ग्रहण किया। सूर्य-देवता को स्वर्ग में (पिक्स-नु)के रूप में लागू किया है।। वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल रूप पीश या पीस अभी भी संस्कृत में पिसीर "(मछली) के रूप में जीवित है। --जो यूरोपीय भाषाओं में फिश (Fish) से साम्य रखता है । "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है ! ) इस संकेत को" बड़ी हुई मछली "(कुआ-गनु, अर्थात, खाद-गनू, बी, (6925) कहा जाता है! जिसमें उल्लेखनीय रूप से सुमेरियन व्याकरणिक शब्द बंदू जिसका अर्थ है "वृद्धि" जैसा कि संयुक्त संकेतों पर लागू होता है, इसका साम्य संस्कृत व्याकरणिक शब्दों के साथ समान रूप से होता है। विसारः, पुंल्लिंग रूप (विशेषेण सरतीति विसार। सृ गतौ “व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् ”३।३।१७। इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् ) मत्स्यः (मछली)। इति अमर कोश ॥ ____________________________________ विसार शब्द ऋग्वेद में आया है । जो मत्स्य का वाचक है ।👇 ऋग्वेदे ।१।७९।१। “हिरण्यकेशो रजसो विसारेऽर्हिर्धुनिर्वात इव ध्रजीमान् ॥ “रजस उदकस्य विसारे विसरणे मेघार्न्निर्गमने ।” इति तद्भाष्ये - वासुदेव कृष्ण का सर्वप्रथम उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद् में देवकी के पुत्र एवं आंगिरस के शिष्य के रूप में हुआ। मेगस्थनीज ने कृष्ण को हेराक्लीज "हरिकृष्ण"नाम से उल्लेख किया है। 👇 विदित होना चाहिए कि जीजस क्राइष्ट को ज्ञान देने वाले फरिश्ते को बाइबिल में एञ्जीलस(Angelus) के रूप में वर्णित किया है । और बाइबिल नाम तो लैटिन और यूनानी है । अञ्जील नाम यहूदियों का- यह एञ्जीलस Angelus वस्तुत: वैदिक आंगीरस् का रूपान्तरण है । “येऽस्याङ्गाराआसंस्तेऽङ्गिरसोऽभवन्निति” (ऐतरेय ब्राह्मण) ____________________________________ भागवत धर्म भक्ति मूलक धर्म है । जहाँ वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मणों के क्लिष्ट रूढ़िवादी कर्म काण्डों को कोई स्थान नहीं है। गुप्त काल में इस धर्म की प्रतिष्ठा हुई गुप्त वस्तुत मिश्र में आवासित कॉप्ट (Copt) जन-जाति से सम्बद्ध हैं --जो यहूदियों की एक सोने-चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है। और विदित होना चाहिए कि गुप्त "गुप्ता" वणिकों का व्यवसाय गत विशेषण है । --जो गोप मूलक है । गुप्त या गुप्ता वणिकों का व्यवसाय गत विशेषण है। ये वणिक वैदिक पणियों से सम्बद्ध है । वैदिक धातु पाठ में पण् स्तुतौ व्यवहारे च पणित विशेषण स्तुतम् 👇 समानार्थक: रूप में निम्न रूप में अनेक शब्द हैं । ईलित,शस्त,पणायित,पनायित,प्रणुत,पणित, पनित,गीर्ण,वर्णित,अभिष्टुत,ईडित,स्तुत ।3।1।109।2।6 सङ्गीर्णविदितसंश्रुतसमाहितोपश्रुतोपगतम्. ईलितशस्तपणायितपनायितप्रणुतपणितपनितानि -- जो फोनेशियन थे वही द्रविड़ो के रूप में भी प्रकट हुए पणि का बहुवचन रूप - पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है। ऋग्वेद में पणि नाम से ऐसे व्यक्ति अथवा समूह का बोध होता है, जो कि धनी है किन्तु देवताओं का यज्ञ नहीं करते तथा पुरोहितों को दक्षिणा नहीं देता। देव संस्कृति के विरोधी हैं। पणियों के इष्ट "वल " तथा "मृलीक" थे । --जो देवों के प्रतिद्वन्द्वीयों मे परिगणित हैं। अतएव यह वेदमार्गियों की घृणा का पात्र है। देवों को पणियों के ऊपर आक्रमण करने के लिए कहा गया है। ऋग्वेद में दस्यु, मृधवाक् एवं ग्रथिन के रूप में भी इनका वर्णन है। पणि कौन थे इसको लिए फॉनिशियन जन-जाति की इतिहास बोध अपेक्षित है । राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता। इस मत का समर्थन "जिमर" तथा "लुड्विग" ने भी किया है। लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है। ये अपने समुद्रीय पोत अरब, पश्चिमी एशिया, तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे। लेबनान तथा कार्थेज में इनके उपनिवेष स्थापित थे । दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है। कि --जो दास या दस्यु ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था में निम्न व हेय माने गये वही दास शब्द भागवत धर्म में भक्त का वाचक बन गया । भागवत धर्म के अनेक सन्तों ने अपने नाम के साथ दास शब्द लगा लिया ____________________________________
द्रविड़ अथवा पणि एक थे ! आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं। वास्तव में आर्य और अनार्य कभी भी जन-जाति गत विशेषण नहीं रहे हैं। अत: आर्य किसी जन को मानना बड़ी भूल ही है। हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है। जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था। फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए। कुछ भी सही परन्तु भाषा लिपि और भक्ति का प्रादुर्भाव इन्हीं पणियों के द्वारा हुआ । इसी लिए भारत में वणिक समाज द्वारा कृष्ण की अत्यधिक मान्यताऐं हैं । विशेषत: वार्ष्णेय समाज --जो बरसाने से सम्बद्ध वैश्य वर्ग है। अत: बारहसैनी नाम भी बरसाने से सम्बद्ध होने के कारण पड़ा। वर्तमान में कृष्ण के चरित्र-उपक्रमों का वर्णन करने वाले ग्रन्थ भागवतपुराण में 👇 ____________________________________ एकादश स्कन्ध में (5.38-40) कावेरी, ताम्रपर्णी, कृतमाला आदि द्रविड़ देशीय नदियों के जल पीनेवाले व्यक्तियों को भगवान् वासुदेव का अमलाशय भक्त बतलाया गया है। इसे विद्वान् लोग तमिल देश के आलवारों (वैष्णवभक्तों) का स्पष्ट संकेत मानते हैं।
भागवत में दक्षिण देश के वैष्णव तीर्थों, नदियों तथा पर्वतों के विशिष्ट संकेत होने से कतिपय विद्वान् तमिलदेश को भागवत और भक्ति के उदय का स्थान मानते हैं। --जो यथार्थ की मीमांसा है । यद्यपि भागवतपुराण में 'बहुत से प्रक्षिप्त व विरोधाभासी तथ्यों का समायोजन इसकी प्रमाणिकता व प्राचीनता को सन्दिग्ध करता है । काल के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है। इतना निश्चित है कि बोपदेव (13वीं शताब्दी का उत्तरार्ध, जिन्होंने भागवत से संबद्ध 'हरिलीलामृत', 'मुक्ताफल' तथा 'परमहंसप्रिया' का प्रणयन किया तथा जिनके आश्रयदाता, देवगिरि के यादव राजा थे ), महादेव (सन् 1260-71) तथा राजा रामचन्द्र (सन् 1271-1309) के करणाधिपति तथा मंत्री, प्रख्यात धर्मशास्त्री हेमाद्रि ने अपने 'चतुर्वर्ग चिन्तामणि' में भागवत के अनेक वचन उधृत किए हैं।👇 ____________________________________
शंकराचार्य के दादा गुरु गौड़पादाचार्य ने अपने 'पञ्चीकरणव्याख्या' ग्रन्थ में 'जगृहे पौरुषं रूपम्' (भागवतपुराण 1.3.1) तथा 'उत्तरगीता टीका' में 'श्रेय: स्रुतिं भक्ति मुदस्य ते विभो' (भागवतपुराण 10.14.4) भागवत पुराण के दो श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत की रचना सप्तम शती से अर्वाचीन (बाद की) नहीं मानी जा सकती। 👇
महर्षि दयान्द सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया है, पर अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी का ग्रन्थ मानते हैं। इसे किसी दक्षिणात्य सन्त विद्वान की रचना माना जाता है। भागवत धर्म भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था और यह विदेशी यूनानियों के द्वारा समादृत होता था। पातञ्जल महाभाष्य से प्राचीनतर महर्षि पाणिनि के सूत्रों की समीक्षा भागवत धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए नि:संदिग्ध प्रमाण है। भागवत धर्म के संस्थापक आभीर जन-जाति के लोग हैं । जिन्हें दक्षिणी भारत में द्रविड़ो के रूप में अय्यर अथवा आयर नाम से जाना जाता है । अय्यर उपनाम का उद्भव तमिल के अय्या शब्द से हुआ है, और यह शब्द संस्कृत के आर्य से निकला है। आर्य का अर्थ होता है :- वीर अथवा यौद्धा परवर्ती अर्थ श्रेष्ठता को ध्वनित करने वाला हुआ । स्वयं आर्य शब्द संस्कृत भाषा के अतिरिक्त हिब्रू बाइबिल में भी अबर और बर से सम्बद्ध है।👇 आर्य और वीर शब्दों का विकास परस्पर सम्मूलक है । और पश्चिमीय एशिया तथा यूरोप की समस्त भाषाओं में ये दौनों शब्द प्राप्त हैं । परन्तु आर्य शब्द वीर शब्द का ही सम्प्रसारित रूप है । अत: शब्द ही प्रारम्भिक है । आभीर शब्द हिब्रू बाइबिल में अबीर (ईश्वरीय शक्ति) के रूप में है 👇
बाइबिल में अबीर नाम की उत्पत्ति मूलक अवधारणा । अबीर नाम जीवित अथवा अस्तित्वमान् ईश्वर के खिताब में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है (किसी कारण से सभी भगवान के नाम आमतौर पर अनुवादित होते हैं । और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होते हैं। और कुछ अपनी पसन्द का अनुवाद आमतौर पर ताकतवर होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। अवर (our )नाम बाइबिल में छह बार होता है लेकिन कभी अकेला नहीं होता; पांच बार यह जैकब नाम और एक बार इज़राइल के साथ मिलकर है। ____________________________________ यशायाह 1:24 में हमें तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम मिलते हैं क्योंकि यशायाह ने रिपोर्ट की: "इसलिए 1-अदन, 2-(यह्व )YHWH , 3-सबाथ , 4-अबीर इज़राइल घोषित करता है । यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण कॉर्ड होता है: सभी माँश (आदमी )यह जान लेंगे कि मैं, हे प्रभु, आपका उद्धारकर्ता और आपका उद्धारक, अबीर याकूब हूं, "और जैसा यशायाह 60:16 में समान है। पूरा नाम अबीर याकूब स्वयं पहली बार याकूब द्वारा बोला जाता था। अपने जीवन के अन्त में, याकूब ने अपने बेटों को आशीर्वाद दिया और जब यूसुफ की बारी थी तो उसने अबीर याकूब (उत्पत्ति खण्ड बाइबिल अध्याय 49:24) के हाथों से आशीर्वादों से बात की। कई सालों बाद, स्तोत्रवादियों ने राजा दाऊद को याद किया, जिन्होंने अबीर जैकब द्वारा शपथ ली थी कि वह तब तक सोएगा जब तक कि उसे (YHWH )के लिए जगह नहीं मिली; अबीर याकूब के लिए एक निवास स्थान (भजन 132: 2-5)। ____________________________________ अबीर नाम की भाषिक व्युपत्ति अबीर नाम हिब्रू धातु बर ('बर ) से आता है, जिसका मोटे तौर पर अर्थ होता है मजबूत सन्दर्भ:- देखें- बाइबिल हिब्रू शब्दकोश:-אבר रूट אבר ('br) एक उल्लेखनीय जड़ है ! जो सभी सेमिटिक भाषा स्पेक्ट्रम पर होती है। मूल रूप से बाइबल में क्रिया के रूप में नहीं होता है लेकिन अश्शूर (असीरियन भाषा )में इसका अर्थ मजबूत या दृढ़ होना है। हिब्रू में स्पष्ट रूप से कई शब्द हैं जिन्हें ताकत के साथ प्रयोग करना हुआ है, लेकिन यह एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति को दर्शाता है। ___________________________________
साध्य पक्ष :- कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है । ---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze) कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये । द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है । एक साम्य दौनों का कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।। जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है | (6) यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। 7।। किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।। उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18।
आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं । जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे । जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean ____________________________________ The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है ,
-------------------------------------------- Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. __________________________________ कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis " Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say , which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 आत्मा के बारे में द्रुडों का दर्शन)👇 अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रविडों को दार्शनिकों के रूप में संदर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म या (मेटाम्प्सीकोसिस ) "पायथागॉरियन" की अमरता के अपने सिद्धान्त को कहा: "गौल्स (कोल)के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं । ____________________________________ कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।" सीज़र टिप्पणी: "उनके सिद्धांत का मुख्य बिन्दु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" अर्थात् नवीन शरीर धारण करती है ।( मेटेमस्पर्शिसिस)। सीज़र ने लिखा: अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के संबंध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशी होने में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है, जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है । जैसे एक मकान से दूसर मकान में; केवल इस तरह के सिद्धान्त द्वारा वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों की मृत्यु को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित किया जा सकता है । इस मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यान और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं। - जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, VI, 13 इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic) थे । ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे । जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है । परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी ईश्वर को एक मानते थे । तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है । और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है । सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत .
वस--निवासे आच्छादने वा आधारकर्मादौ घञ् । १ गृहे २ वस्त्रे ३ अवस्थाने हेमचन्द्र कोश। ____________________________________ भारतीय पुराणों की कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन् हुआ था । परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना है सम्भवतः इस समय कृष्ण का वर्णन भोज पत्रों आदि पर हुआ हो । परन्तु कृष्ण का युद्ध आर्यों के नेता इन्द्र से हुआ ऐसा ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९०वें सूक्त का वर्णन कहता है । और महाभारत में कृष्ण के दार्शिनिक तथा राजनैतिक रूप का वर्णन है। महाभारत का लेखन बुद्ध के बाद में हुआ है । क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है। ____________________________________ अब कृष्ण और 'द्रविड दर्शन का एक अद्भुत साम्य ____________________________________
एक साम्य दौनों का तुलनात्मक रूप से -- आत्मा शाश्वत तत्व है ; इस बात को ड्रयूड (Druids) अथवा द्रविड तत्व दर्शी भी कहते हैं ! और कृष्ण भी .. श्रीमद्भगवत् गीता में कठोपोनिषद भी कृष्ण विचार धारा से अनुप्रेरित कुछ साम्य के साथ यही उद्घोष करता है ।👇
"न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।(श्रीमद्भागवत् गीता तथा कठोपनिषद। वास्तव में सृष्टि का १/४ भाग ही दृश्यमान् ३/४ पौन भाग तो अदृश्य है । परिवर्तन शरीर और मन के स्तर पर निरन्तर होते रहते हैं, परन्तु आत्मा सर्व -व्यापक व अपरिवर्तनीय है । ऐसा कृष्ण और द्रविडों की मान्यताओं का दिग्दर्शन है। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करती है ।
"न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4। मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है ,और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है (4)
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है | प्राणी की श्वाँसों का चलना हृदय का धड़कना भी एक सतत् कर्मों का रूप ही तो है।
वस्तुत कर्म की ऐसा सुन्दर व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ ही है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)👇
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7 किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |7 नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।8।।उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है; और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |(8) आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं । जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)कहते थे। वही यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे ____________________________________ यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ; कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की रही है । आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं। जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)कहते थे। वही यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ; कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की कुछ एेसी ही मान्यताऐं हैं । जिसके कुछ उद्धरण जूलियस सीज़र के ग्रन्थ से निम्न उद्धृत हैं।👇 Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean " The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है , Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ____________________________________ Philosophy of Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death.. अलेक्जेंडर कुरनेलियस पॉलिहाइस्टर ने ड्रुइड्स (द्रविडों)को दार्शनिकों के रूप में सन्दर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म की शाश्वतता के सिद्धान्तों को "पायथागोरियन" कहा। यूनानी विद्वान् पाइथागोरस ने भी ये सिद्धान्त द्रविड (ड्रयूड- Druids) पुरोहितों से प्राप्त किये। पाथ्योगोरियन सिद्धान्त लक्ष्य के बीच में प्रचलित होकर यह सिखा रहा है कि पुरुषों की आत्माएं अमर हैं और एक निश्चित संख्या के बाद वे एक और शरीर में प्रवेश करेंगे " इसी सन्दर्भों को उद्धृत करते हुए ज्युलियस सीज़र आगे लिखता है। कि वास्तविक रूप में मृत्यु के बाद भी आत्माऐं मरती नहीं है । जूलियस सीज़र, डी बेल्लो ग्लॉलिक, Vl, 13 .. अब देखिए कृष्ण का यह उपदेश---👇 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करता है । संस्कृत भाषा में वास शब्द का अर्थ घर से भी और वस्त्रों से भी । यहाँ भी हम दौनों अर्थों में इसे सन्दर्भित कर सकते हैं। धर्म शब्द का प्रवेश हुआ मूल भारोपीय संस्कृतियों से मेसोपोटेमिया की पुरालिपियों में (तरेम) तथा दरिम के रूप में । और जिसका भी श्रोत कैल्टिक संस्कृति में सर्वमान्य द्रविड़ो के द्रुमा से है । जो संस्कृत भाषा में द्रुद्रुम: के रूप में वृक्ष का वाचक है वन्य संस्कृतियों के परिपोषक ये -द्रविड ही थे । जिन्होंने दुनियाँ को सर्वप्रथम धर्म की जीवन में उपादेयताऐं प्रतिपादित की । दुनियाँ को सर्वप्रथम जीवन और जगत् का ज्ञान देने वाले ये लोग थे वृक्ष स्थिर रहते हुए किस प्रकार सर्दी ,गर्मी और बरसात को सहन करता है । उसकी यह सहनशीलता उसकी तितिक्षा एक आदर्श है । धर्म का चोला रहने वालों के लिए । वृक्ष के इसी स्वभाव जन्य गुण से धर्म का विकास हुआ जिसको मूल में संयम का भाव सर्वोपरि था । वैदिक भाषाओं में धृ, ,दृ ,तृ परस्पर विकसित धातु रूप हैं धाञ् धारणपोषणयो: धृड्./धृञ् संयमे च १।६४१ उ० धरति धरते / धारयति धारयते । धरति लोकान् ध्रियते पुण्यात्मभिरिति वा । (धृ मन् )“अर्त्तिस्तुहुस्रिति ।” उणां १। १३९ । तत्पर्य्यायः ।१ पुण्यम् २ श्रेयः ३ सुकृतम् ४ वृषः ५ संयम इत्यमरः कोश। १ । ४ । २४ ॥ ६-न्यायः । ७-स्वभावः । ८-आचारः । ९- उपमा । १०क्रतुः । (यथा महाभारते । १४ । ८८ । २१ । “कृत्वा प्रवर्ग्यं धर्म्माख्यं यथावत् द्विजसत्तमाः । चक्रुस्ते विधिवद्राजंस्तथैवाभिषवं द्बिजाः) ११-अहिंसा । उपनिषत् । इति मेदिनी कोश। (यथा योगसार वेदान्त ग्रन्थ में धर्म का अर्थ👇 “प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोऽथ धारणा । स्मरणञ्चैव योगेऽस्मिन् पञ्च धर्म्माः प्रकीर्त्तिताः ।। और ओ३म् शब्द भी इन्हीं द्रविड़ो की अवधारणा थी जिसे भारतीय संस्कृति में संस्कृति के आधार स्तम्भ रूप में ग्रहण किया गया । द्रविड़ो की विरासत को रोमन तथा ग्रीस संस्कृतियों ने भी समानान्तरण ग्रहण किया । रोमन संस्कृति में पुरानी लैटिन में धर्मण /धर्म Latin (terminus) के रूप में है जिसका बहुवचन रूप termini) है । यह धर्म का ही प्रतिरूप है । यूरोपीय भाषाओं में टर्म "Term" शब्द के इतने अर्थ प्रचलित हैं ।👇 -1अवधि -2पद -3समय -4शर्त -5सत्र -6पारिभाषिक शब्द -7संबंध -8पारिभाषिक पद -9ढांचा -10सीमाएं -11बेला -12मेहनताना -13फ़ीस -14मित्रता अर्थ और भी हो सकते हैं । जो मूल ,आधार अथवा मर्यादा का भाव -बोधक है । यद्यपि संस्कृत भाषा में धृड्.(धृ ) धातु अवस्थाने - अर्थात् स्थिर करने में - तथा तॄ :- तारयति( तरति) आदि क्रिया-पद धर्म की कहीं न कहीं व्याख्या ही करते हैं ।👇 ________________________________________________
. आध्यात्मिक वैचारिकों ने धर्म का व्याख्या संसार रूपी दरिया में पतवार या तैरने की क्रिया के रूप में स्वीकार किया । क्यों कि स्वाभाविता के वेग में मानवीय प्रवृत्ततियाँ जल हैं । अपराध के बुलबले तो उठते ही हैं । तैरने के मानिंद है धर्म और स्वाभाविकता का दमन करना ही तो संयम है । और संयम करना तो अल्पज्ञानीयों की सामर्थ्य नहीं । सुमेरियन माइथॉलॉजी में भी धर्म के लिए तरमा शब्द है जिसका अर्थ है । दृढ़ता एकाग्रता स्थिरता आदि शील धर्म का वाचक इसलिए है कि उसमे जमाव या संयमन का भाव है । हिम जिस प्रकार स्थिरता अथवा एकाग्रता को अभिव्यक्त करता है । हिम ये यम और यम से यह्व अथवा यहोवा का सैमेटिक विकास हुआ । Hittite tarma- शीलक tarmaizzi "he limits; 'वह मर्यादित होता है "👇 ग्रीक भाषा में terma "boundary, end-point, limit," termon "border;" Gothic þairh, धैर्ह Old English þurh "through;" धरॉ Old English þyrel "hole;" Old Norse þrömr ध्रॉम "edge-धार chip -टुकड़ा splinter-किरच. "The Hittite noun and the usage in Latin suggest that the PIE word denoted a concrete object which came to refer to a boundary-stone."( आधार -शिला ) In ancient Rome, Terminus was the name of the deity who presided over boundaries and landmarks, focus of the important Roman festival of Terminalia ... singular of termer (“thermae, Roman baths”) (a facility for bathing in ancient Rome) रोमन धर्म में, टर्मिनस वह देवता था। जिसने सीमाओं की रक्षा की है । इसका प्रतिष्ठापन प्रत्येक सीमा पत्थर को पवित्र करने के लिए किया गया था। प्रारम्भिक अर्थों में धर्म शब्द का प्रयोग क्षेत्रीय सीमाओं के निर्धारित करने वाली दैवीय सत्ता के लिये किया गया । रोमन संस्कृति में धर्म या टर्म 'वह शिला है --जो सदैव एक स्थान पर स्थिर रहती है । धर्म को सदीयों से न्याय का प्रतिनिधि माना जाता रहा । सम्भवत इसकी प्रेरणा रोमनों ने ईसाईयों से ली । हजरत मूसा के दश-आदेशों की शिला से .. रोमन ओविद रोम से लॉरेंटिना के साथ छठे मील के पत्थर पर टर्मिनलिया के दिन एक भेड़ के बलिदान को संदर्भित करता है। सम्भावना है कि यह लॉरेंटम में प्रारम्भिक रोमनों और उनके पड़ोसियों के बीच सीमा को चिह्नित करने के लिए यह शब्द प्रयुक्त करने को सोचा गया था। और रेमुलस के समय दैवीय प्रतिष्ठान से विभूषित कर दिया गया इसके अलावा, टर्मिनस का एक पत्थर या वेदी रोम के कैपिटोलिन हिल पर बृहस्पति ऑप्टिमस मैक्सिमस के मंदिर में स्थित था। इस धारणा के कारण कि इस पत्थर को आकाश के संपर्क में आना था, इसके ठीक ऊपर की छत में एक छोटा सा छेद था। इस अवसर पर जुपिटर के साथ टर्मिनस के संबंध में उस देवता के एक पहलू के रूप में टर्मिनस के बारे में विस्तार किया गया; हैलिकार्नासस के डायोनिसियस का तात्पर्य "बृहस्पति टर्मिनलिस" से है, और एक शिलालेख में एक देवता का नाम "ज्यूपिटर टेर" है । यद्यपि रोमन मिथकों में ये परिकल्पनाऐं धर्म को लेकर अनेक प्रकार से की गयीं । प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस की पूजा सबीन मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के 753-17 ई०पू० के समकक्ष परम्परागत शासनकाल के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए। या रोमुलस के उत्तराधिकारी नुमा पोम्पिलियस के लिए थी। जिन लेखकों ने नुमा को श्रेय दिया, उन्होंने अपनी प्रेरणा को संपत्ति पर हिंसक विवादों की रोकथाम के रूप में समझाया। प्लूटार्क आगे कहते हैं कि शांति के गारंटर के रूप में टर्मिनस के चरित्र को ध्यान में रखते हुए, उनकी प्रारंभिक पूजा में रक्त बलिदान नहीं हुआ था। 19 वीं शताब्दी के अंत और 20 वीं सदी के अधिकांश समय के दौरान प्रमुख विद्वानों के अनुसार, रोमन धर्म मूल रूप से एनिमिस्टिक था, जो विशिष्ट वस्तुओं या गतिविधियों से जुड़ी आत्माओं की ओर निर्देशित था, जिन्हें बाद में स्वतंत्र व्यक्तिगत अस्तित्व वाले देवताओं के रूप में माना जाता था। टर्मिनस, पौराणिक कथाओं की कमी और एक भौतिक वस्तु के साथ उनके घनिष्ठ संबंध के साथ, एक ऐसे देवता का स्पष्ट उदाहरण प्रतीत होता है, जो इस तरह के मंच से बहुत कम विकसित हुए थे। टर्मिनस का यह दृश्य कुछ हालिया अनुयायियों को बनाए रखता है। लेकिन अन्य विद्वानों ने इण्डो यूरोपीयन समानता से यह तर्क दिया है कि रोमन धर्म के व्यक्तिगत देवता शहर की नींव से पहले रहे होंगे। जॉर्जेस डुमेज़िल ने वैदिक मित्र, अर्यमन् और भग के रूप में क्रमशः रोमन देवताओं की तुलना करते हुए बृहस्पति, जुवेंटस और टर्मिनस को एक प्रोटो-इंडो-यूरोपीय ट्रायड का रोमन रूप माना। इस दृष्टि से संप्रभु देवता (बृहस्पति / मित्र) दो नाबालिग देवताओं से जुड़ा था, एक का सम्बन्ध समाज में पुरुषों (जुवेंटस / आर्यमन) से था और दूसरा उनके सामान (टर्मिनेट / भगा) के उचित विभाजन से था। प्राचीन रोम में, टर्मिनस (टर्मिनल) और स्थलों की अध्यक्षता करने वाले देवता का नाम था, जो टर्मिनल के महत्वपूर्ण रोमन त्योहार का ध्यान केंद्रित करता है। ________________________________________________
धर्म वस्तुत: जीवन जीने की उद्देश्य पूर्ण केवल 'वह पद्धति है । जो मानवता का चिर-शाश्वत आश्रय अथवा -आवास ! इस धर्म की आधार-शिलाऐं स्थित होती हैं । आध्यात्मिक के धरातलों पर ! जिसमें नैतिकता की ईंटैं संयम की सीमेण्ट और सदाचरण की बालू भी है । इन सबसे मिलकर बनती है । कर्तव्यों की एक सुदृढ़ (भित्ति) सत्य ही इस धर्म के आवास की छत है । समग्र मानवता का चिर-शाश्वत बसेरा है धर्म । दस धर्मादेश या दस फ़रमान जिनको अंग्रेज़ी अनुवादकों ने Ten Commandments, भी कहा इस्लाम धर्म,यहूदी धर्म और ईसाई धर्म के वह दस नियम हैं । वस्तुत यह यहूदियों के लिए जीवन- की पवित्र पद्धति के निमित्त ये दश व्रत या आदेश थे । जिस पर मजहब की नींब रखी गयी । मजहब जहोवा से सम्बद्ध है । परन्तु विद्वानों ने मदहव या "धाव" रास्ते से सम्बद्ध कर दिया । संस्कृत में धाव: रास्ता का वाचक है । यहोवा द्वारा प्रदत्त इन दश लक्षणों के बारे में उन धार्मिक परम्पराओं में यह माना जाता है कि वे धार्मिक नेता मूसा को ईश्वर ने स्वयं दिए थे। इन धर्मों के अनुयायिओं की मान्यता है; कि यह मूसा को सीनाई पर्वत के ऊपर दिए गए थे; जलती हुई झाड़ी में यहोवा ने ! पश्चिमी संस्कृति में अक्सर इन दस धर्मादेशों का ज़िक्र किया जाता है या इनके सन्दर्भ में बात की जाती है। कुछ परिवर्तित रूपों में ये नैतिक मूल्यों के आधार-स्तम्भ भी हैं 👇 हजरत मूसा के दस धर्मादेश---- ईसाई धर्मपुस्तक बाइबिल और इस्लाम की धर्मपुस्तक कुरान के अनुसार यह दस आदेश इस प्रकार थे👇 __________________________________________ 1. Thou shalt have no other Gods before me 2. Thou shalt not make unto thee any graven image 3. Thou shalt not take the name of the Lord thy God in vain 4. Remember the Sabbath day, to keep it holy 5. Honor thy father and thy mother 6. Thou shalt not kill 7. Thou shalt not commit adultery 8. Thou shalt not steal 9. Thou shalt not bear false witness 10. Thou shalt not covet __________________________________________ १. तुम मेरे अलावा किसी अन्य देवता को नहीं मानोगे २. तुम मेरी किसी तस्वीर या मूर्ती को नहीं पूजोगे ३. तुम अपने ईश्वर का नाम अकारण नहीं लोगे ४. सैबथ ( शनिवार) का दिन याद रखना, उसे पवित्र रखना ५. अपने माता और पिता का आदर करो ६. तुम हत्या नहीं करोगे ७. तुम किसी से नाजायज़ शारीरिक सम्बन्ध नहीं रखोगे ८. तुम चोरी नहीं करोगे ९. तुम झूठी गवाही नहीं दोगे १०. तुम दूसरे की चीज़ें ईर्ष्या से नहीं देखोगे टिपण्णी १ - हफ़्ते के सातवे दिन को सैबथ कहा जाता था जो यहूदी मान्यता में आधुनिक सप्ताह का शनिवार का दिन है। धर्म की कुछ ऐसी ही मान्यताऐं भारतीय ग्रन्थों में हैं । यम को विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में धर्म का प्रतिरूप माना गया है । यम कैनानायटी संस्कृतियों में एल ( El )या इलु का पुत्र है । जो सैमेटिक संस्कृतियों में अल-इलाह या इलॉही के रूप में विद्यमान है । यहूदियों की प्राचीनत्त लेखों में यम का भी वर्णन है परन ्तु बाद में यम से यहोवा का विकास हुआ --जो धर्म का मूल है । असुरों या असीरियन जन-जाति की भाषाओं में अरि: शब्द अलि अथवा इलु हो गया है । परन्तु इसका सर्व मान्य रूप एलॉह (elaoh) तथा एल (el) ही हो गया है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है । ____________________________________ "यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि:। तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:।९। ____________________________________ अर्थात्-- जो अरि इस सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है , जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है , वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है । ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१) देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है । ____________________________________विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम । जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।। ऋग्वेद--१०/२८/१ ____________________________________ ऋषि पत्नी कहती है ! कि सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,) परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम )यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ) प्रस्तुत सूक्त में अरि: देव वाचक है । देव संस्कृति के उपासकआर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के पूर्वजों के रूप में ड्रयूड (Druids )अथवा द्रविड संस्कृति से सम्बद्धता है । जिन्हें हिब्रू बाइबिल में द्रुज़ कैल्डीयन आदि भी कहा है ये असीरियन लोगों से ही सम्बद्ध है। ____________________________________ हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम को मानने वाली धार्मिक परम्पराओं में मान्यता है ,कि कुरान से पहले भी अल्लाह की तीन और किताबें थीं , जिनके नाम तौरेत , जबूर और इञ्जील हैं । इस्लामी मान्यता के अनुसार अल्लाह ने जैसे मुहम्मद साहब पर कुरान नाज़िल की थी ,उसी तरह हजरत मूसा को तौरेत , दाऊद को जबूर और ईसा को इञ्जील नाज़िल की थी . यहूदी सिर्फ तौरेत और जबूर को और ईसाई इन तीनों में आस्था रखते हैं ,क्योंकि स्वयं कुरान में कहा है , ------------------------------------------------------------1-कुरान और तौरेत का अल्लाह एक है:
"कहो हम ईमान लाये उस चीज पर जो ,जो हम पर भी उतारी गयी है , और तुम पर भी उतारी गयी है , और हमारा इलाह और तुम्हारा इलाह एक ही है . हम उसी के मुस्लिम हैं " (सूरा -अल अनकबूत 29:46) ""We believe in that which has been revealed to us and revealed to you. And our God and your God is one; and we are Muslims [in submission] to Him."(Sura -al ankabut 29;46 )"وَإِلَـٰهُنَا وَإِلَـٰهُكُمْ وَاحِدٌ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ " इलाहुना व् इलाहकुम वाहिद , व् नहनु लहु मुस्लिमून " ____________________________________ यही नहीं कुरान के अलावा अल्लाह की किताबों में तौरेत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कुरान में तौरेत शब्द 18 बार और उसके रसूल मूसा का नाम 136 बार आया है ! , यही नहीं मुहम्मद साहब भी तौरेत और उसके लाने वाले मूसा पर ईमान रखते थे , जैसा की इस हदीस में कहा है , "अब्दुल्लाह इब्न उमर ने कहा कि एक बार यहूदियों ने रसूल को अपने मदरसे में बुलाया और ,अबुल कासिम नामक व्यक्ति का फैसला करने को कहा , जिसने एक औरत के साथ व्यभिचार किया था . लोगों ने रसूल को बैठने के लिए एक गद्दी दी , लेकिन रसूल ने उस पर तौरेत रख दी । और कहा मैं तुझ पर और उस पर ईमान रखता हूँ और जिस पर तू नाजिल की गयी है , फिर रसूल ने कहा तुम लोग वाही करो जो तौरेत में लिखाहै . यानी व्यभिचारि को पत्थर मार कर मौत की सजा , (महम्मद साहब ने अरबी में कहा "आमन्तु बिक व् मन अंजलक - آمَنْتُ بِكِ وَبِمَنْ أَنْزَلَكِ " . " _____________________________________ I believed in thee and in Him Who revealed thee. सुन्नन अबी दाऊद -किताब 39 हदीस 4434 इन कुरान और हदीस के हवालों से सिद्ध होता है कि यहूदियों और मुसलमानों का अल्लाह एक ही है और तौरेत भी कुरान की तरह प्रामाणिक है . चूँकि लेख अल्लाह और उसकी पत्नी के बारे में है इसलिए हमें यहूदी धर्म से काफी पहले के धर्म और उनकी संस्कृति के बारे में जानना भी जरूरी है . लगे , और यहोवा यहूदियों के ईश्वर की तरह यरूशलेम में पूजा जाने लगा । यहोवा यह्व अथवा यम का रूपान्तरण है । भारतीय धरा पर महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित यम के पाँच रूप हैं 👇 1-अहिंसा 2-सत्य 3-अस्तेय 4-ब्रह्मचर्य 5-अपरिग्रह तो कुछ उपनिषदों में जैसे शाण्डिल्य उपनिषद में स्वात्माराम द्वारा वर्णित दश यम हैं 1-अहिंसा 2-सत्य 3-अस्तेय 4-ब्रह्मचर्य 5-क्षमा 6-धृति 7-दया 8-आर्जव 9-मितहार 10-शौच मनु स्मृति कार सुमित भार्गव ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं: ____________________________________ धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनु:स्मृति ६.९२) अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना ) याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं: अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।। (याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२) (अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति) श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं : सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:। अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।। संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:। नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।। अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:। तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।। श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:। सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।। नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:। त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ ) महाभारत में महात्मा विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं - महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग - इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ। उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है। ब्राह्मण पद्म-पुराण में _________________________________ ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते। दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।। अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते। एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।। (अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।) धर्मसर्वस्वम् नामक ग्रन्थ में जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल' या 'एथिक ऑफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब कुछ) कहा गया है: श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। (पद्म-पुराण, श्रृष्टि -खण्ड 19/357-358) (अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।) परन्तु क्या धर्म आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अपने इन सब प्रतिमानों पर मूल्यांकित है ? क्या इन मानते के अनुकूल है ? सायद नहीं परन्तु जहाँ सदाचरण न हो केवल भेद भाव और दुराचरण हो तब ! धर्म के ठेकेदार धर्म को केवल व्यभिचार संगत बनाकर भावुक और अल्पज्ञानीयों के सर्वांग शोषण का माध्यम बनाते हैं । आज धर्म के नाम पर दुश्मनी , हत्या, वैमनस्य ,भदभाव ऊँच-नीच अपने चरम पर है । सत्य तो यह है कि सदीयों से केवल कुछ विशेष वर्गों के लोगों ने समाज में अपने आपको अपने निज स्वार्थों से प्रेरित होकर धर्म को अपने स्वार्थों की ढा़ल बनाया । कुछ निश्चल जनजातियों के प्रति तथा कथित कुछ ब्राह्मणों के द्वारा द्वेष भाव का कपट पूर्ण नीति निर्वहन किया गया जाता रहा ।
पूजा - स्थलों को तब अपने धनोपार्जन का आरक्षित पीढ़ी दर पीढ़ी प्रतिष्ठान बनाया जाने लगा । कुछ भोली -भाली जन-जातियों को शूद्र वर्ण में प्रतिष्ठित कर उनके लिए शिक्षा और संस्कारों के द्वार भी पूर्ण रूप से बन्द कर दिए गये . . जैसा कि परिष्कार - दर्पण में वेणिमाधव शुक्ल लिखते हैं ।👇 ____________________________________ अत्रेदमुसन्धेयम्, निषादस्य संकरजातिविशेषस्य शूद्रान्तर्गततया "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्" इत्यनेन निषिद्धत्त्वाद् वेदसामान्यानधिकारेsपि "निषादस्थपतिं याजयेत्" इति विशेषश्रुतियाजनान्यथानुपपत्त्यैव यागमात्रोपयुक्तमध्ययनं निषादस्य कल्पयते । " अर्थात् स्त्री और शूद्र ज्ञान प्राप्त न करें यह कह कर उनके लिए वैदिक विधान का परिधान पहना कर इसे ईश्वरीय विधान भी सिद्ध किया गया । जबकि ईश्वरीय अनुभूति से ये लोग कोशों दूर थे । ये कर्मकाण्ड परक भूमिका का निर्वहन करते थे स्वर्ग की प्राप्ति के लिए ताकि सुन्दर सुन्दर अप्सराओं का काम उपभोग कर सकें यही रूढ़िवादी हिन्दुस्तान के पतन की इबारत अपने काल्पनिक असामाजिक व जाति-व्यवस्था के पोषक ग्रन्थों में लिखते हैं । क्यों कि वह तथाकथित समाज के स्वमभू अधिपति जानते थे ; कि शिक्षा अथवा ज्ञान के द्वारा संस्कारों से युक्त होकर ये लोग अपना उत्थान कर सकते हैं ! अतः इनके शिक्षा के द्वार ही बन्द कर दो । क्यों कि शिक्षा से वञ्चित व्यक्ति सदीयों तक गुलाम रहता है । और जब लोग धर्म से लाभान्वित होगये तो हमारी गुलामी कौन करेगा। इसीलिए हम्हें शिक्षित और जागरूक होकर देश की उन्नति और अपनी सद्गति के विषय में विचार करना चाहिए .. ..शिक्षा हमारी प्रवृत्तिगत स्वाभाविकतओं का संयम पूर्वक दमन करती है; अतः दमन संयम है और संयम यम अथवा धर्म है । यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता एक बहुतायत रूप में आध्यात्मिक सिद्धान्तों का दिग्दर्शन करने वाला ग्रन्थ है । परन्तु फिर भी उसकी प्रमाणिकता सन्दिग्ध है । इसके लिए यह श्लोक एक नमूना है ।👇 ____________________________________
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥ व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है। आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है। जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है। कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है। इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है। सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है। ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो। अब उपर्युक्त श्लोक पूर्ण-रूपेण वर्ण-व्यवस्था का अनुमोदन दृढ़ता पूर्वक करता है ।
--जो भागवत धर्म के सिद्धान्तों के पूर्णत: विपरीत है । क्यों कि यदु हम धर्म शब्द का अर्थ स्वभाव( प्रवृत्ति-मूलक) करते हैं तो इसका अर्थ अन्वय असंग हो जाता है । क्यों कि स्वभाव का कुल धर्म से क्या तात्पर्य ? क्यों कि एक ही कुल परिवार में भिन्न भिन्न स्वभाव के व्यक्ति पाए जाते हैं । और स्वभाव वस्तुत व्यक्ति के पूर्व जन्मों की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध होते हैं । और प्रवृत्ततियाँ यौनि अथवा प्राणी जाति मूलक जैसे सभी कुत्ते पश्चपाद उठाकर किसी वस्तु पर मित्र विसर्जित करते हैं । कौए काली वस्तु से प्रतिक्रिया करते हैं ये सभी प्रवृत्तयाँ प्राणीयों की श्रेणी या जाती गत होती हैं । धर्म शब्द का प्रयोग प्राचीनत्तम सन्दर्भों में धर्म पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग रूपों में भी हुआ है । जैसे गुप्त काल में रचित अमरकोश में धर्म के अर्थ हैं । 👇
धर्मःसमानार्थक:धर्म,पुण्य,श्रेयस्,सुकृत,वृष,उपनिषद्,उष्ण 1।4।24।1।1 स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः। मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः॥ धर्म पुं। आचारः समानार्थक:धर्म,समय 3।3।139।1।1 वस्तुत धर्म का अर्थ घर्म के संक्रमण से उष्ण या गर्म भी हुआ । समय भी धर्म का एक अर्थ है । न्याय तथा मर्यादा भी धर्म के अर्थ हैं। अमरकोश में धर्म पुंल्लिङ्ग रूप में कर्मकाण्डीय नियमों की वाचक है । भा.श्रौ.सू. 7.6.7 (ये उपभृतो धर्मापृषदाज्यधान्यामपि क्रियेरन्); रोमन संस्कृतियों में मर्यादा या क्षेत्रीय सीमाओं के अधिष्ठात्री देवता को तर्म "Term" तथा तरमिनस् " Terminus" कहा जाता है । तर्मन् नपुंसकलिङ्ग रूप है । यूपाग्रम् ( यज्ञ को प्राय इण्डो-यूरोपीय संस्कृतियों में धर्म मूलक अनुष्ठान माना गया । समानार्थक:यूपाग्र,तर्मन् 2।7।19।1।2 यूपाग्रं तर्म निर्मन्थ्यदारुणि त्वरणिर्द्वयोः। दक्षिणाग्निर्गार्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः॥ परन्तु परवर्ती साहित्य में धर्म का अर्थ स्वभाव ही निर्धारित किया गया । अर्थात् 👇 किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । प्रकृति । स्वभाव,। जैसे, आँख का धर्म देखना, सर्प का धर्म काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना । विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में ही आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है कि यज्ञ परक आचरण धर्म है। -- यज्ञ को प्राय इण्डो-यूरोपीय संस्कृतियों में धर्म मूलक अनुष्ठान माना गया । जो विशेषत:—मीमांसा के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान ही धर्म है । जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है । संहिता से लेकर सूत्र ग्रन्थों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । कर्मकाण्ड का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।
यद्यपि श्रुतियों में "'न हिस्यात्सर्वभूतानि'" आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड की ओर ही था । वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो । वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिये करना चाहिए । किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार ही भारतीय स्मृतियों में वर्णित धर्म है । 👇 जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म वैश्य का धर्म आदि विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिय़े पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना आदि क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद्र के लिये तीनों वणों की केवल नि:शुल्क सेवा करना ही धर्म है । जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्वारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद्धर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार केवल शूद्र को छोड़कर किसी भी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है, जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय— वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर ब्राह्मण को छोड़कर दूसरे वर्ग के लोग अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का उपक्रम नहीं कर सकते यह आपत्काल में भी निषेध है । यहाँं ब्राह्मण स्वत्रन्त्र है । कालान्तरण में धर्म को परिभाषित करने में कुछ उदात्त बिन्दुओं को दृष्टि गत रखा गया । "वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो । वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शान्ति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले । कल्याणकारी कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म । परन्तु रूढ़िवादी अन्ध-भक्तों ने विशेष—स्मृतिकारौ के द्वारा वर्ण आश्रम, गुण और निमित्त धर्म को ही धर्म माना जैसे समाज में किसी जाति, कुल, वर्ग आदि के लिए उचित ठहराया हुआ व्यवसाय, कर्त्तव्य; बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म के उदात्त रूप को शील कहा गया है । जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है ।
वस्तुत यह भागवत धर्म का प्रभाव रहा कि जिस "दास शब्द को असुर अथवा दस्यु का पर्याय मानकर अर्थ पतित कर दिया था । वह उच्चत्तम शिखर पर प्रतिष्ठित हो गया । ____________________________________
वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण हैं।
हरि बोल! हरि बोल! हरि बोल!
राधा ,दुर्गा और गायत्री जिनका अवतरण आभीर जाति में हुआ
शुद्ध आदि वैष्णवी शक्तियाँ थीं जिनकी कोई भौतिक सन्तान नहीं थी यह भी शास्त्रीय प्रमाण है।
सन्तानें तो मानवीय उत्पादन है फिर जो शद्ध वैष्णवीय आदि शक्तियाँ हैं। वह कभी भी प्रजनन आदि क्रियाओं से समन्वित नहीं होती हैं।
अहीरों को ही गोपालन वृत्ति ( व्यवसाय) के कारण समाज में गोप नाम से सम्बोधित किया गया है।
और गोपो की उत्पत्ति के विषय में भी ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्गसंहिता में लिखा है कि वे विष्णु के रोमकूपों से (क्लोनविधि) द्वारा उत्पन्न हुए थे।
क्लोनिंग एक तकनीक है जिसका उपयोग वैज्ञानिक जीवित चीजों की सटीक अनुवांशिक प्रतियां बनाने के लिए करते हैं।
जीन, कोशिकाओं, ऊतकों और यहां तक कि पूरे जानवरों को भी क्लोन किया जा सकता है।
कुछ क्लोन पहले से ही प्रकृति में मौजूद हैं। बैक्टीरिया जैसे एकल-कोशिका वाले जीव हर बार पुनरुत्पादन करते समय अपनी सटीक प्रतियां बनाते हैं।
मनुष्यों में, समान जुड़वाँ क्लोन के समान होते हैं।
वे लगभग समान जीन साझा करते हैं। जब एक निषेचित अंडा दो में विभाजित होता है तो समान जुड़वाँ पैदा होते हैं।
वैज्ञानिक लैब में क्लोन भी बनाते हैं। वे अक्सर जीन का अध्ययन करने और उन्हें बेहतर ढंग से समझने के लिए क्लोन करते हैं।
एक जीन को क्लोन करने के लिए, शोधकर्ता एक जीवित प्राणी से डीएनए लेते हैं और इसे बैक्टीरिया या खमीर जैसे वाहक में डालते हैं। हर बार जब वह वाहक प्रजनन करता है, तो जीन की एक नई प्रति बनाई जाती है।
जानवरों को दो तरीकों में से एक में क्लोन किया जाता है।
पहले को एम्ब्रियो ट्विनिंग कहा जाता है।
वैज्ञानिकों ने पहले एक भ्रूण को आधे में विभाजित किया।
इसके बाद उन दोनों हिस्सों को मां के गर्भाशय में रख दिया जाता है।
भ्रूण का प्रत्येक भाग एक अद्वितीय जानवर के रूप में विकसित होता है, और दोनों जानवर एक ही जीन साझा करते हैं।
दूसरी विधि को सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर कहा जाता है। दैहिक कोशिकाएं वे सभी कोशिकाएं हैं जो एक जीव को बनाती हैं, लेकिन यह शुक्राणु या अंडाणु नहीं हैं।
शुक्राणु और अंडे की कोशिकाओं में गुणसूत्रों का केवल एक सेट होता है!
और जब वे निषेचन के दौरान जुड़ते हैं, तो माता के गुणसूत्र पिता के साथ मिल जाते हैं।
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दूसरी ओर, दैहिक कोशिकाओं में पहले से ही गुणसूत्रों के दो पूर्ण सेट होते हैं।
एक क्लोन बनाने के लिए, वैज्ञानिक एक जानवर के दैहिक कोशिका से डीएनए को एक अंडे की कोशिका में स्थानांतरित करते हैं जिसका नाभिक और डीएनए हटा दिया गया है।
अंडा एक भ्रूण में विकसित होता है जिसमें कोशिका दाता के समान जीन होते हैं।
फिर भ्रूण को बढ़ने के लिए एक वयस्क महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है।
1996 में, स्कॉटिश वैज्ञानिकों ने पहले जानवर, एक भेड़ का क्लोन बनाया, जिसका नाम उन्होंने डॉली रखा। एक वयस्क भेड़ से ली गई उदर कोशिका का उपयोग करके उसे क्लोन किया गया था। तब से, वैज्ञानिकों ने क्लोन किए हैं- गाय, बिल्ली, हिरण, घोड़े और खरगोश।
हालांकि, उन्होंने अभी भी एक मानव का क्लोन नहीं बनाया है। आंशिक रूप से, इसका कारण यह है कि एक व्यवहार्य क्लोन का उत्पादन करना मुश्किल है।
प्रत्येक प्रयास में, आनुवंशिक गलतियाँ हो सकती हैं जो क्लोन को जीवित रहने से रोकती हैं।
डॉली को सही साबित करने में वैज्ञानिकों को 276 कोशिशें करनी पड़ीं।
मानव की क्लोनिंग के बारे में नैतिक चिंताएँ भी हैं।
शोधकर्ता कई तरह से क्लोन का उपयोग कर सकते हैं।
क्लोनिंग से बने भ्रूण को स्टेम सेल फैक्ट्री में बदला जा सकता है।
स्टेम कोशिकाएँ कोशिकाओं का एक प्रारंभिक रूप हैं जो कई अलग-अलग में विकसित हो सकती हैं। कोशिकाओं और ऊतकों के प्रकार।
मधुमेह के इलाज के लिए क्षतिग्रस्त रीढ़ की हड्डी या इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं को ठीक करने के लिए वैज्ञानिक उन्हें तंत्रिका कोशिकाओं में बदल सकते हैं।
जानवरों के क्लोनिंग का उपयोग कई अलग-अलग अनुप्रयोगों में किया गया है।
जानवरों को जीन म्यूटेशन के लिए क्लोन किया गया है जो वैज्ञानिकों को जानवरों में विकसित होने वाली बीमारियों का अध्ययन करने में मदद करता है। अधिक दूध उत्पादन के लिए गायों और सूअरों जैसे पशुओं का क्लोन बनाया गया है।
क्लोन एक प्यारे पालतू जानवर को "पुनर्जीवित" भी कर सकते हैं जो मर चुका है। 2001 में, सीसी नाम की एक बिल्ली क्लोनिंग के माध्यम से बनाई जाने वाली पहली पालतू जानवर थी। क्लोनिंग एक दिन ऊनी मैमथ या जायंट पांडा जैसी विलुप्त प्रजातियों को वापस ला सकती है।
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1-गुणसूत्र
संज्ञा
कोशिकाओं के केंद्रक में डीएनए और संबद्ध प्रोटीन की लड़ी जो जीव की आनुवंशिक जानकारी को वहन करती है।
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2-क्लोन
संज्ञा
कोशिका या कोशिकाओं का समूह जो आनुवंशिक रूप से अपने पूर्वज कोशिका या कोशिकाओं के समूह के समान है।
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3-डीएनए
संज्ञा
(डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) प्रत्येक जीवित जीव में अणु जिसमें उस जीव पर विशिष्ट आनुवंशिक जानकारी होती है।
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4-भ्रूण
संज्ञा
विकास के प्रारंभिक चरण में अजन्मा जानवर।
5-जीन
संज्ञा
डीएनए का वह भाग जो आनुवंशिकता की मूल इकाई है।
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6-प्रतिकृति
संज्ञा
एक सटीक प्रति या प्रजनन।
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7-दैहिक कोशिका
संज्ञा
कोशिकाएं जो जीव के हर हिस्से को बनाती हैं; शुक्राणु या अंडाणु नहीं
8-स्टेम सेल
संज्ञा
प्रारंभिक कोशिका जो शरीर में किसी भी प्रकार की कोशिका या ऊतक में विकसित हो सकती है
Cloning is a technique scientists use to make exact genetic copies of living things.
Genes, cells, tissues, and even whole animals can all be cloned.
Some clones already exist in nature. Single-celled organisms like bacteria make exact copies of themselves each time they reproduce.
In humans, identical twins are similar to clones.
They share almost the exact same genes. Identical twins are created when a fertilized egg splits in two.
Scientists also make clones in the lab. They often clone genes in order to study and better understand them.
To clone a gene, researchers take DNA from a living creature and insert it into a carrier like bacteria or yeast. Every time that carrier reproduces, a new copy of the gene is made.
Animals are cloned in one of two ways.
The first is called embryo twinning.
Scientists first split an embryo in half.
Those two halves are then placed in a mother’s uterus.
Each part of the embryo develops into a unique animal, and the two animals share the same genes.
The second method is called somatic cell nuclear transfer. Somatic cells are all the cells that make up an organism, but that are not sperm or egg cells.
Sperm and egg cells contain only one set of chromosomes !
and when they join during fertilization, the mother’s chromosomes merge with the father’s.
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Somatic cells, on the other hand, already contain two full sets of chromosomes.
To make a clone, scientists transfer the DNA from an animal’s somatic cell into an egg cell that has had its nucleus and DNA removed.
The egg develops into an embryo that contains the same genes as the cell donor.
Then the embryo is implanted into an adult female’s uterus to grow.
In 1996, Scottish scientists cloned the first animal, a sheep they named Dolly. She was cloned using an udder cell taken from an adult sheep. Since then, scientists have cloned- cows, cats, deer, horses, and rabbits.
They still have not cloned a human, though. In part, this is because it is difficult to produce a viable clone.
In each attempt, there can be genetic mistakes that prevent the clone from surviving.
It took scientists 276 attempts to get Dolly right.
There are also ethical concerns about cloning a human being.
Researchers can use clones in many ways.
An embryo made by cloning can be turned into a stem cell factory.
Stem cells are an early form of cells that can grow into many different. types of cells and tissues.
Scientists can turn them into nerve cells to fix a damaged spinal cord or insulin-making cells to treat diabetes.
The cloning of animals has been used in a number of different applications.
Animals have been cloned to have gene mutations that help scientists study diseases that develop in the animals. Livestock like cows and pigs have been cloned to produce more milk .
Clones can even “resurrect” a beloved pet that has died. In 2001, a cat named CC was the first pet to be created through cloning. Cloning might one day bring back extinct species like the woolly mammoth or giant panda.
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1-chromosome
Noun
strand of DNA and associated proteins in the nucleus of cells that carries the organism's genetic information.
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2-clone
Noun
cell or group of cells that is genetically identical to its ancestor cell or group of cells.
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3-DNA
Noun
(deoxyribonucleic acid) molecule in every living organism that contains specific genetic information on that organism.
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4-embryo
Noun
unborn animal in the early stages of development.
5-gene
Noun
part of DNA that is the basic unit of heredity.
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6-replica
Noun
an exact copy or reproduction.
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7-somatic cell
Noun
cells that make up every part of an organism; not a sperm or egg cell
8-stem cell
Noun
early cell that can develop into any type of cell or tissue in the body
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और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि- यही ऋचा यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है. _________________________________________ ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12)
श्लोक का अनुवाद इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं ।
जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूजय हैं।
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"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
"आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।
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जैसे ब्राह्मा की शारीरिक सृष्टि को ब्राह्मण कहा गया उसी प्रकार विष्णु की शारीरिक सृष्टि को वैष्णव कहा गया ।
जिस प्रकार शास्त्रों में ब्राह्मण वर्ण है उसी प्रकार वैष्णव भी ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्ण लिखा गया है ।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप है।
अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है। वेदों में इसी लिए विष्णु भगवान को गोप कहा गया है।
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त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
(अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करता है । और ये ही
(धर्माणि) धर्मों को धारण करता है ॥18॥
गोप ही इस लौकिक जगत् में सबसे पवित्र और धर्म के प्रवर्तक तथा धारक थे। और इस लिए गोपों अथवानआभीरों की सृष्टि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था से पूर्णत: पृथक है।
अत: ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के माननेवालों ने अहीरों को शूद्र तो कहीं वैश्य वर्णन कर उनके व्यक्तित्व का निर्धारण न करें ।
परन्तु इनके कार्य सभी चारों वर्णों के होने पर भी ये वैष्णव वर्ण के थे। वैष्णव के अन्य नाम शास्त्रों में भागवत, सात्वत, और पाञ्चरात्र, भी है।
वैष्णवों की महानता का वर्णन तो शास्त्र भी करते हैं।
ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ ।४४।।
अनुवाद:-वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।[४४]
वे पेशे से गोपालक थे। तथा गोप नाम से प्रसिद्ध थे। लेकिन साथ ही उन्होंने कुरुक्षेत्र की लड़ाई में भाग लेते हुए क्षत्रियों का दर्जा हासिल किया। इसका प्रमाण निम्न श्लोक है।
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"मत्सहननं तुल्यानाँ , गोपानामर्बुद महत् ।
नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107।
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संग्राम में गोप यौद्धा नारायणी सेना के रूप में अरबों की महान संख्या में हैं ---जो शत्रुओं का तीव्रता से हनन करने वाले हैं ।
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"नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु ।
सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि ।108।
(स्वनाम- ख्याता श्रीकृष्णसम्बन्धिनी सेना । इयं हि भारतयुद्धे दुर्य्योधनपक्षमाश्रितवती"
महाभारत के उद्योगपर्व अध्याय 7,18,22,में
वर्तमान ये गोप अहीर भी वैष्णव वर्ण के हैं।
अहीर या यादव महान योद्धा हैं, अहीर नारायणी/यादव सेना में थे।
द्वारका साम्राज्य के भगवान कृष्ण की यादव सेना को सर्वकालिक सर्वोच्च सेना कहा जाता है। महाभारत में इस पूरी नारायणी सेना को अहीर जाति के रूप में वर्णित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि अहीर, गोप और यादव अलग अलग लोग नहीं थे, अपितु सभी पर्यायवाची हैं।
मिथकीय घटनाओं का पारस्परिक व्युत्क्रम होते हुए भी ऐतिहासिक घटनाओं की पुष्टि तो करता ही है। अत: हमने सटीक व सप्रमाण विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए समस्त मिथकीय पूर्वाग्रहों का क्रमागत ढंग से बहुत ही तर्कसंगत, स्पष्ट व व्यवस्थित और शास्त्रीय शैली में समाधान प्रस्तुत किया है। हमारा यह शोध-ग्रन्थ आभीर जाति की उत्पत्ति के साथ भाषा-विज्ञान प्राचीन-इतिहास व धर्म शास्त्र का अध्ययन करने वाले जिज्ञासु पाठकों, शोधार्थियों और भाषाशास्त्रियों के लिए निश्चित ही एक महत्त्वपूर्ण अवदान सिद्ध होगा ऐसा हमारा विश्वास है।
ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के अतिरिक्त चौथे वेद अथर्ववेद में भगवान कृष्ण का वर्णन केशी नामक दैत्य का वध करने वाला बताकर वर्णन किया गया है।
अत: वेदों में भी कृष्ण होने की बात सिद्ध होती है।
नीचे स्पष्ट रूप से शौनक संहिता ,अथर्ववेद और सामवेद आदि में कृष्ण का स्पष्ट उल्लेख है।
१. ( यः कृष्ण:) = जो कृष्ण,२-(केशी) = केशी नामक ३- (असुरः) =दैत्य ४-(स्तम्बजः) जिसके केश गुच्छेदार हैं = ५-(उत) = और ६- (तुण्डिक:) = कुत्सित मुखवाला है / थूथनवाला है। ७-(अरायान्) = निर्धन पुरुषों को ८-(अस्याः) = इस के ९-(मुष्काभ्याम्) = मुष्को से-अण्डकोषों से तथा १०-(भंसस:)भसत् कटिदेशः पृषो० । उपचारात् तत्सम्बन्धिनि पायौ ऋ० १० । १६३ । = कटिसन्धिप्रदेश से ११- (अपहन्मसि) = दूर करते हैं।
"अनुवाद:- जो कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख उसके अण्डकोशों तथा इसकी कटि ( कमर)आदि भागों को निर्धन लोग दूर करते हैं।
उपर्युक्त ऋचा में वर्णन है कि कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख और अण्डकोशों तथा कटि प्रदेश (कमर,)आदि के स्पर्श से गरीब अथवा निर्धन लोगों को तथा स्वयं को भी कृष्ण दूर करते हैं।
भागवत पुराण में वर्णन है कि कृष्ण-भगवान का अत्यन्त कोमल कर(हाथ) कमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो।
उसका स्पर्श होते ही केशी के दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देने पर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण का भुजदण्ड उसके मुँह में बढ़ने लगा।
अचिन्त्यशक्ति भगवान श्रीकृष्ण का हाथ उसके मुँह में इतना बढ़ गया कि उसकी साँस के भी आने-जाने का मार्ग न रहा।
अथर्ववेद (दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व) में संकलित है जिसमें , केशी,= "बालों (केशों )वाले", दैत्य का पहली बार वर्णन किया गया है
अर्जुन द्वारा भगवत गीता में भी कृष्ण को तीन बार केशी का हत्यारा कहा गया है- केशव (1.30 और 3.1) और केशी-निषूदन (18.1)। पहले अध्याय (1.30) में, कृष्ण को केशी के हत्यारे के रूप में संबोधित करते हुए, अर्जुन युद्ध के बारे में अपना संदेह व्यक्त करते हैं।
ऋग्वेद १/१०/३/ तथा यजुर्वेद ८/३४ में केशिन् का वर्णन है ।
युक्ष्वा हि= संयुक्त ही होओ। केशिना= केशी दैत्य के संहारक अथवा सुन्दर केशों वाले के द्वारा । हरी = हरि भगवान कृष्ण के द्वारा। वृषणा= वृषणों के द्वारा। कक्ष्यप्रा= काँछ के साथ। अथा= और। इन्द्र= इन्द्र। सोमपा= सोमपा। नः= हमारी।गिरामुप॑श्रुतिं= सुनी हुई वाणी को । चर = दूत ।
"अनुवाद:- केशी दैत्य का बध करने वाले हरि के साथा जुड़ जाओ ! जिसने केशी दैत्य के अण्डकोष और काँख पकड़ कर फैंक दिया। हे सोमपान करने वाले इन्द्र ! हमारी सुनी हुई स्तुतिगीत को कृष्ण तक दूत के रूप में पहुचाऐं।३।
पदों का अर्थ और अन्वय:- हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस से (पुरा) पहिले (किम्, चन) कुछ भी (न जातम्) नहीं उत्पन्न हुआ, (यः) जो (आबभूव) हुआ जिसमें (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक वर्त्तमान हैं, (सः एव) वही (षोडशी) सोलह कलावाला (प्रजया) प्रजा के साथ (सम्, रराणः) सम्यक् रमता हुआ (प्रजापतिः) प्रजा का पालक अधिष्ठाता (त्रीणि) तीन (ज्योतीषिं)ज्योतियों को (सचते) संयुक्त करता है ॥५ ॥
"अनुवाद:- हे मनुष्यों जिससे पहले कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ। जिससे सम्पूर्ण विश्व और सभी लेक उत्पन्न हुए वही ईश्वर ! सोलह कलाओं से युक्त प्रजा के साथ आनन्द करता हुआ। प्रजा पालक रूप में तीन ज्योतियों में जुड़ता है।
उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण के सौलह कलाओं से सम्पन्न होने का वर्णन है। उस कृष्ण के परम् -ब्रह्म रूप का वर्णन है जो संसार के सृजक पालक और संहारक तीन रूपों की ज्योतियों समाहित होते हैं। और आगे इसी क्रम में
निम्न ऋचा में भी वृष्णि नन्दन कृष्ण के चरित्र का अद्भुत वर्णन है।
जो एक पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर बहुत सी चढ़ाई चढ़ते हुए इन्द्र को सावधान करने के लिए अथवा उसे चेताने के लिए या कहें चैलेंज करने के लिए वृष्णि शिरोमणि कृष्ण अपने यूथ (गोप समूह ) के साथ वहाँ पहुँचते हैं।२।
बकरा आदि की बलि से रहित इन्द्रदेव जल रहित हो गया। । तेरे द्वारा दिया गया जल अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो गया जिसमें गायों के बाड़े और आभीर वस्ती वृद्धि रहित हो गये , ( हे राधा तुम इन्द्र को जल रहित करती हो। (इन्द्र) इन्द्र। गायों को ,व्रज को क्षीण करके बड़े बड़े विवरों में जल को कर रहा है।॥७॥
(अद्रिवः) जल रहित। (इन्द्रः) इन्द्र देव।(सुनिरजम्) सु+ निर्+अजम्= बकरा आदि की बलि से रहित इन्द्र को । (त्वादातम्) तु + आदातम्= अथवा त्वा- दातम्। तेरे द्वारा दिया गया । (यशः) जल । (सुविवृतम्) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो (गवाम्)= गायों के (व्रजम्) आभीर वस्ती को (अपवृधि) वृद्धि रहित करता है , (राधः) राधा (कृणुष्व) करती हैं, (अद्रिवः) जल रहित (इन्द्र) इन्द्र। (गवाम्) गायों को । (व्रजम्) गायों के बाड़े को (अपावृधि) क्षीण करके (सुविवृतम्) बड़े बड़े विवरों में। (सुनिरजम्) सु+ निर्+ अजम् = (यशः) जल को
अर्थात् :-हे प्रभो! गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करो । जन्म से ही नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो तुम अग्नि के समान सर्वत्र विस्तार को प्राप्त हो ।२।
अर्थात् हे वृषभानु ! तुम मनुष्यों को देखो पूर्व काल में कृष्ण अग्नि के सदृश्- उद्भासित होने वाले है । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे !
इस दोनों ऋचाओं में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है । जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है , क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं।
१- (गिर्वणः) स्तुति किये हुए२- (राधानाम्) राधा के षष्ठी विभक्ति बहुवचन सम्बन्ध कारक रूप में ३-(पते) पति ! सम्बोधन रूप में हे राधा के पति। ४-(ओजसा) = बल के द्वारा ५-(अस्य) इसके ६-(इदम्) इस ७-(सुतम्) सु + क्त = निचोड़ा हुआ। ८- (पिब)- पीजिए ९-(हि) निश्चय ही ॥१०॥
अनुवाद:- हे प्रभु परमात्मन् ! तुम सभी धर्मों के स्वरूप हो। यज्ञ में "होता- यज्ञ में आहुति देनेवाला अथवा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालनेवाला। जैसे तमस से घृतधाराओं से होमाग्नि को सिञ्चित करता है। उसी प्रकार वह परमात्मा आनन्द में निमग्न होकर सान्त्वना सम्पदा लेकर बोलने की इच्छा से अथवा वाणी की शक्ति से विश्व कल्याण के लिए लोक का आश्रय करते हैं।
(त्वे) हे प्रभो ! परमात्मन् ! (धर्माणः-आसते) तुम सभी धर्मों के स्वरूप हो (जुहूभिः-सिञ्चतीः-इव) होता- होम के चम्मच( चमस) से जैसे घृत-धाराएँ सींची जाती हुई होमाग्नि में आश्रय लेती हैं, उसी भाँति (कृष्णा अर्जुना रूपाणि) तुम कृष्ण और अर्जुन आदि रूपों में (मदे) आनन्द में (वः) और सान्त्वना सम्पदा के लिए उतरते हो (विश्वाः श्रियः-अधि धिषे)विश्व - कल्याण के लिए । (विवक्षसे) बोलने की इच्छा से वाणी की शक्ति से॥३।।
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श्रीमद्भगवदगीता में भगवान कृष्ण इस प्रकार कहते हैं:
"वेदैश्च च सर्वैर अहं एव वेद्यो
"सभी वेदों के द्वारा, मुझे जाना जाएगा।" (गीता 15.15)
कृष्ण और राधा जी का वर्णन ऋक्-परिशिष्ट-श्रुति के निम्नलिखित कथन में किया गया है:
"राधाय माधवो देवो, माधवेन च राधिका, विभ्रजन्ते जनेसु च
श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
परिशिष्ट
श्रीराधा, श्रीराधा-नाम और राधा-उपासना सनातन है
इसके अतिरिक्त दक्षिण के बहुत-से प्राचीन ग्रन्थों में राधा का उल्लेख है। भक्त कवि बिल्वमगंल का ‘कृष्णकर्णामृत’ तो श्रीराधा-कृष्णलीला से ही ओतप्रात है।
वेद में ‘राधम्’ आदि शब्द बहुत जगह आये हैं। इसके विभिन्न अर्थ किये गये हैं। हो सकता है कि वेद के कोई विशिष्ट विद्वान इसका स्पष्ट ‘राधा’ ही अर्थ करें।
महाभारत के प्रसिद्ध टीकाकार महान् श्रीनीलकण्ठजी ने ऋग्वेद के बहुत-से मन्त्रों के भगवान श्रीकृष्ण के लीला परक अर्थ किये हैं। उनका इस विषय पर एक ग्रन्थ ही है- जिसका नाम है ‘मन्त्रभागवत’। इसमें नीलकण्ठ जी ने निम्रलिखित मन्त्र में राधा के दर्शन किये हैं- मन्त्र है-
प्रपिन्वध्वभिषयन्ती सुराधा आवक्षाणाः पृणध्वं यात शीभम्।।
(गव्यवः) गायों का (भरताः) भरण करने वाली (सुराधाः) हे सुन्दर राधा जी (नदीनाम्) नदियों को (अतारिषुः) तारण करें (विप्रः) विद्याया: वपति इति विप्र- (सुमतिम्) उत्तम मति को (सम -भक्त) समान भक्ति करने वाले। (इषयन्तीः) इच्छा करती हुई
"अनुवाद:- गायों का भरण करने वाली हे सुन्दर राधे ! शीघ्र हम्हें प्रसन्न करो ।
जैसे गायें बछड़ों को अपने मातृत्व से प्रसन्न करती हैं। जैसे नदियाँ अपने जल से भक्तों को समान जल प्रदान करती हैं। उन्हें तृप्त करती हैं।
राधा गोपागंनाओं में सर्वोपरि महत्त्व रखती हैं- इसलिये यहाँ उन्हें ‘सुराधा’ कहा गया है। इस मन्त्र का नीलकण्ठ जी कृत अर्थ मन्त्र-भागवत में देखना चाहिये।
ऋग्वेद 3/33/12
↑यह "मन्त्र भागवत" ग्रन्थ खेमराज श्रीकृष्णदास के वेकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित है।
इसके अतिरिक्त ऋक्-परिशिष्ट के नाम से निम्रलिखित श्रुति निम्बार्क-सम्प्रदाय के उदुम्बरसंहिता, वेदान्तरत्नमंजूषा, सिद्धान्तरत्न आदि ग्रन्थों में तथा श्रीश्रीजीवगोस्वामी के प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीकृष्णसंदर्भ अनुच्छेद (189) में उद्धत की हुई मिलती है-
‘राधया माधवो देवो माधवेन च राधिका। विभ्राजते जनेषु। योऽनयोर्भेदं पश्यति स मुक्तः स्यान्न संसृतेः।’
अर्थात् ‘भगवान श्रीमाधव श्रीराधा के साथ और श्रीराधा श्रीमाधव के साथ सुशोभित रहती हैं। मनुष्यों में जो कोई इनमें अन्तर देखता है तो वह संसार से मुक्त नहीं होता।’
"पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, भविष्यपुराण, श्रीमद्देवीभागवत, मत्स्यपुराण, आदिपुराण, वायु पुराण, वराह पुराण, नारदीय पुराण, गर्गसंहिता, सनत्कुमारसंहिता, नारदपाच्चरात्र, राधातन्त्र आदि अनेकों ग्रन्थों में ‘राधा-महिमा’ का स्पष्ट उल्लेख है।
गोपाम्) गोपाल कृष्ण को। अनिपद्यमानम्) न गिरनेवाले [अचल], (पथिभिः) मार्गों से (आ, च) आगे और (परा, च) पीछे (चरन्तम्) - आ चरन्तम्) समीप आते हुए को (अपश्यम्) देखता हूँ (सः) वह गोप (सध्रीचीः) साथी रूप में (सः) (विषूचीः) अनेक प्रकार की गतियों में स्वयं को (वसानः) ढाँपता हुआ (भुवनेषु) लोकलोकान्तरों के (अन्तः) बीच में (आ, वरीवर्त्ति) निरन्तर प्रकार वर्त्तमान है ॥ ३१
“मैंने एक गोपाल ( गोप ) को देखा। वह कभी अपने पद से नहीं गिरता; कभी वह निकट होता है, कभी दूर, विभिन्न पथों पर गमन करता रहता है। वह मित्र साथी है, नाना प्रकार के वस्त्रों से सुसज्जित है। वह बार-बार भौतिक दुनिया के मध्य में आता है।
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उपर्युक्त श्लोक में सभी गोपों में सबसे प्रमुख कृष्ण का वर्णन किया गया है। इसमें कृष्ण को अवतारी पुरुष और सर्वोच्च भगवान के रूप में भी वर्णित किया गया है।
प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि (अलीगढ़) एवम् इ० माताप्रसाद सिंह यादव (
छान्दोग्य उपनिषद में कृष्ण का वर्णन-
छांदोग्य उपनिषद्सामवेदीय छान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। यह उपनिषद ब्रह्मज्ञान के लिये प्रसिद्ध है।
6. घोरअंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र कृष्ण को यह सत्य सिखाया था । परिणामस्वरूप, कृष्ण सभी इच्छाओं से मुक्त हो गए। तब घोर ने कहा: 'मृत्यु के समय व्यक्ति को ये तीन मंत्र दोहराने चाहिए: आत्मा का कभी नाश नहीं होता, आत्मा कभी नहीं बदलता, और आत्मा जीवन का स्वरूप हैं।" इस संबंध में यहां दो ऋक मंत्र दिए गए हैं:
राधाय माधवो देवो, माधवेन च राधिका, विभ्रजन्ते जनेसु च
पद्म पुराण:
पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
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पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
यस्तन्नो वेद किमृचा करिष्यति ये तद्विदुस्त इमे समासते ।६७।
अनुवाद:-
जो अक्षर { अविनाशी) तथा वेद में गोपनीय है। जिसमें सम्पूर्ण देव निवास करते हैं। वे देव ही यदि उसको नहीं जानते तो इसमें वेद की ऋचा क्या करेगी? जो लोग इसके जानते हैं वे उसी को में रहते हैं।६७।
तद्विष्णोः परमं धाम सदा पश्यन्ति सूरयः ।
अक्षरं शाश्वतं दिव्यं देवि चक्षुरिवाततम् ।६८।
अनुवाद:-उन विष्णु के परम धाम का सूरजन(साधक-ज्ञानी ) सदा दर्शन करते हैं। अक्षर शाश्वत तथा दिव्य वह नेत्र के समान विस्तृत है।६८।
तत्प्रवेष्टुमशक्यं च ब्रह्मरुद्रादिदैवतैः।
ज्ञानेन शास्त्रमार्गेण वीक्ष्यते योगिपुंगवैः ।६९।
अनुवाद:-उसमे प्रवेश करने के लिए ब्रह्मा रूद्र आदि देवगण भी असमर्थ हैं। ज्ञान और शास्त्रीय पद्धति से श्रेष्ठ योगी उनका दर्शन करते हैं।६९।
अहं ब्रह्मा च देवाश्च न जानन्ति महर्षयः ।
सर्वोपनिषदामर्थं दृष्ट्वा वक्ष्यामि सुव्रते ।७०।
अनुवाद:-हे सुव्रते! मैं ( शंकर) ,ब्रह्मा और देवगण और महर्षि लोग भी उसे नहीं जानते । मैं तो सभी उपनिषदों के अर्थ को देखकर ही कहता हूँ।७०।
विष्णोः पदे हि परमे पदे तत्सशुभाह्वयेः ।
यत्र गावो भूरिशृंगा आसते सुसुखाः प्रजाः ।७१।
अनुवाद:- भगवान विष्णु के परम पद में शुभ आह्वान है । वहाँ पर बहुत अधिक सींगो वाली गायें तथा प्रजाऐं सुखपूर्वक रहती हैं।७१।
अत्राह तत्परं धाम गोपवेषस्य शार्ङ्गिणः ।
तद्भाति परमं धाम गोभिर्गोपैस्सुखाह्वयैः ।७२।
अनुवाद:- अब परम धाम का वर्णन करता हूँ। जहाँ सुख से सम्पन्न गायें तथा वह लोक गोपों से युक्त है।७२।
सामान्या विभिते भूमिन्तेऽस्मिन्शाश्वते पदे ।
तस्थतुर्जागरूकेस्मिन्युवानौ श्रीसनातनौ ७४।
अनुवाद:-इस शाश्वत धाम में सामान्य भूमि है। इसमें सदा जवान रहने वाले भदेवी और नीला देवी के साथ सनातन भगवान रहते हैं।७४।
यतः स्वसारौ युवती भू-नीले विष्णुवल्लभे ।
अत्र पूर्वे ये च साध्या विश्वेदेवास्सनातनाः ।७५।
यतः स्वसारौ युवती भू-नीले विष्णुवल्लभे ।
अत्र पूर्वे ये च साध्या विश्वेदेवास्सनातनाः ।७५।
अनुवाद:-जहाँ से दौनो बहिनें इसमें सदा जवान रहने वाले भूदेवी और नीला देवी के साथ सनातन भगवान रहते हैं।७५।
''गोलोक के निवास में, बड़े-उत्कृष्ट सींगों वाली कई गायें हैं और जहां सभी निवासी अत्यंत आनंद में रहते हैं।'' -पद्म पुराण उत्तर खंड अध्याय-( 227) में इसी प्रकार का वर्णन है।
इसके अलावा, पद्म पुराण, भूमि खंड, अध्याय 4.1 में वर्णन है - गतेषु तेषु गोलोकं वैष्णवं तमसः परम्
शिवशर्मा महाप्राज्ञः कनिष्ठं वाक्यमब्रवीत् १।
'सोम शर्मा की पितृ भक्ति' वाला अध्याय - गोलोक का वर्णन फिर से सुत गोस्वामी द्वारा इस प्रकार किया गया है:
4. ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खंड, अध्याय 54.15-16 में इस प्रकार बताया गया है
ऊर्ध्वं वैकुण्ठ लोक च पञ्चशत कोटि योजनात्
गोलोक वर्तुलकारो वृद्ध स सर्वलोकः
"गोलोक का सर्वोच्च निवास वैकुंठ के निवास से करोड़ योजन (1 योजन-8 किमी) ऊपर स्थित है। यह सभी लोकों में सबसे ऊंचा है।"- ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खंड 54.15-16
इसके अलावा, गोलोक वृन्दावन की श्रेष्ठ स्थिति का वर्णन ब्रह्म वैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खंड, अध्याय 4.188 में भी इस प्रकार है:
ब्रह्माण्ड बहिर ऊर्ध्वं च न अस्ति लोकास्ता ऊर्ध्वकः
ऊर्ध्वं सूर्यमयं सर्वं तदन्त सृस्तिर एव च
''गोलोक का यह निवास ब्रह्माण्ड के बाहर स्थित है। यह सबसे ऊँचा स्थान है. इससे कोई दूसरा लोक नहीं है। इसका पूर्ण शून्यता (अनन्त शून्यता एवं अंधकार) है। वास्तव में, यह गोलोक राक्षसी राक्षस का अंत है।''- ब्रह्म वैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खंड 4.188
वैकुण्ठ च शिवलोक च गोलोक च तयो परः
''गोलोक शिवलोक और वैकुंठ लोक के ऊपर स्थित है।'' - ब्रह्म वैवर्त पुराण 1.7.20
5. बृहत् ब्रह्म संहिता (पंचरात्र)
बृहत् ब्रह्म संहिता- 3.1.122 में इस प्रकार कहा गया है:
उर्ध्वं तु सर्वलोकेभ्यो गोलोके प्रकृतिः परे
“गोलोक का निवास सभी स्थानों के ऊपर स्थित है। यह पूरी तरह से पदार्थ से परे (अनुवांशिक) है।" बृहत् ब्रह्म संहिता 3.1.122
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6. वायु पुराण:-
वायु पुराण में, गोलोक का सर्वोच्च निवास, जिसमें भगवान कृष्ण और श्रीमती राधारानी शाश्वत रूप से निवास करते हैं, का वर्णन इस प्रकार किया गया है।
पश्यामि न जगत्यस्मिन्सर्वज्ञं सर्वदर्शनम्। अज्ञात्वाऽन्यतमं लोके सन्देहविनिवर्त्तकम् । ४२.६० ।
सन्दर्भ :-वायुपुराण 104(42) वें अध्याय के ( 42-60 ) तक के श्लोक-
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“भगवान कृष्ण, जो पत्नी राधा जी के प्रेमी हैं, वेदों में सर्वोच्च पुरुष कहलाते हैं।” जिनसे यह सारा संसार प्रकट होता है। उन्होंने वास्तविक वेदों में अद्वैत निर्गुण ब्रह्म का वर्णन किया है, जो गोलोक के अपने शाश्वत निवास में रहता है। “-वायु पुराण 104 ( 42).52-55
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श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे/
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके राधिकाश्रमे । रासमण्डल-मध्ये च मह्यं वृन्दावने वने ॥ ९॥ श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे/नारद-नारायणसंवादे परशुरामाय श्रीकृष्णकवच-प्रदानं नाम एकत्रिंशत्तमोऽध्ययः ॥ _____________
8. स्कंद पुराण
स्कंद पुराण के वासुदेव महात्म्य (वैश्व खंड) के प्रसिद्ध खंड में भगवान कृष्ण के गोलोक निवास का विस्तृत वर्णन है।
"वासुदेवस्याङ्गतया भावयित्वा सुरान्पितॄन् ।।
अहिंसपूजाविधिना यजन्ते चान्वहं हि ते ।। ३१ ।।
अहिंसया च तपसा स्वधर्मेण विरागतः ।। वासुदेवस्य माहात्म्यज्ञानेनैवात्मनिष्ठया ।। २५।।
संमानिता सुरगणैः पाद्यार्घ्यस्वागतादिभिः ।।
ते बृहन्मुनयोऽपश्यन्मेध्यांस्तान्क्रोशतः पशून् ।७।
सात्त्विकानामपि च तं देवानां यज्ञविस्तरम् ।।
हिंसामयं समालोक्य तेऽत्याश्चर्यं हि लेभिरे ।। ८ ।
धर्मव्यतिक्रमं दृष्ट्वा कृपया ते द्विजोत्तमाः ।।
महेन्द्रप्रमुखानूचुर्देवान्धर्मधियस्ततः ।। ९ ।।
सात्त्विकानां हि वो देवः साक्षाद्विष्णू रमापतिः ।।
अहिंसयज्ञेऽस्ति ततोऽधिकारस्तस्य तुष्टये ।१९ ।
प्रत्यक्षपशुमालभ्य यज्ञस्याचरणं तु यत् ।।
धर्मः स विपरीतो वै युष्माकं सुरसत्तमाः ।। 2.9.6.२० ।।
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सन्दर्भ:- स्कन्दपुराणम् - खण्डः २ (वैष्णवखण्डः) वासुदेवमाहात्म्यम्
" सावर्णिरुवाच ।।
स हि भक्तो भगवत आसीद्राजा महान्वसुः ।।
किं मिथ्याऽभ्यवदद्येन दिवो भूविवरं गतः ।। १ ।।
केनोद्धृतः पुनर्भूमेः शप्तोऽसौ पितृभिः कुतः ।।
कथं मुक्तस्ततो भूप इत्येतत्स्कन्द मे वद् ।। २ ।।
"स्कन्द उवाच ।।
शृणु ब्रह्मन्कथामेतां वसोर्वास वरोचिषः ।।
यस्याः श्रवणतः सद्यः सर्वपापक्षयो भवेत् ।। ३ ।।
स्वायम्भुवान्तरे पूर्वमिन्द्रो विश्वजिदाह्वयः ।।
आररम्भे महायज्ञमश्वमेधाभिधं मुने ।। ४ ।।
निबद्धाः पशवोऽजाद्याः क्रोशन्तस्तत्र भूरिशः ।।
सर्वे देवगणाश्चापि रसलुब्धास्तदासत ।। ५ ।।
क्षेमाय सर्वलोकानां विचरन्तो यदृच्छया ।।
महर्षय उपाजग्मुस्तत्र भास्करवर्च्चसः ।। ६।।
संमानिता सुरगणैः पाद्यार्घ्यस्वागतादिभिः ।।
ते बृहन्मुनयोऽपश्यन्मेध्यांस्तान्क्रोशतः पशून् ।७।
सात्त्विकानामपि च तं देवानां यज्ञविस्तरम् ।।
हिंसामयं समालोक्य तेऽत्याश्चर्यं हि लेभिरे ।। ८ ।।
धर्मव्यतिक्रमं दृष्ट्वा कृपया ते द्विजोत्तमाः ।।
महेन्द्रप्रमुखानूचुर्देवान्धर्मधियस्ततः ।। ९ ।।
"महर्षय ऊचुः ।।
देवैश्च ऋषिभिः साकं महेन्द्राऽस्मद्वचः शृणु ।।
यथास्थितं धर्मतत्त्वं वदामो हि सनातनम् ।। 2.9.6.१० ।।
स्कंद देव (कार्तिकेय) ने नारद मुनि की श्वेतद्वीप से गोलोक तक की संपूर्ण यात्रा का वर्णन किया है। मैं इसमें से केवल कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हूैं।
''पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ब्रह्मा, महत और प्रकृति के क्षेत्रों (कोशों) को एक के बाद एक पार करते गए, जिनमें से हर पिछले एक से दस गुना बड़ा है, नारद अखिल दिव्य निवास तक पहुँचते हैं। गोलोक का. यह भगवान हरि का एक जीवंत निवास है, जिसे केवल भगवान हरि की प्रति समर्पित शुद्ध भक्तों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।'' - विष्णु खंड, वासुदेव महात्म्य, स्कंद पुराण 16.12-13
''हर ब्रह्मांड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड पाताल से ब्रह्मलोक तक फैला हुआ है। वैकुण्ठ का धाम उससे भी ऊँचा है (अर्थात् ब्रह्माण्ड के बाहर स्थित है)। पुनः गोलोक का निवास वैकुण्ठ से पचास करोड़ योजन ऊँचा है।''- (देवी भागवत 9.3.8-9)
17. सनतकुमार संहिता
यमुनायन निमग्न प्रकाश सं गोकुलस्य च
गोलोकं प्राप्य तत्रभूत संयोग-रस-पेजल
''उसे (श्री राधा ने) यमुना में डूबकर अपना जीवन त्याग दिया (सांसारिक लीलाओं से लापता हो गई)। इस प्रकार वह आध्यात्मिक दुनिया में गोलोक लौट आए जहां उन्होंने फिर से भगवान कृष्ण की सती का आनंद लिया।'' - सनतकुमार संहिता, पाठ 309
"शास्त्रों में प्रक्षेप तब से हुआ जब शास्त्रों के प्रकाशन काल में कुछ जोड़- तोड़, द्वेष वश किया गया और ऐसा हो जाने तथा परम्परागत ज्ञान और आचरण से विमुख होने से नव पीढ़ी के युवकों के मन में विशेषत: आर्य समाज से प्रभावित व्यक्तियों के मन में निर्णायकता समाप्त हुई और परवर्ती संस्कृत कवियों द्वारा कृष्ण चरित्र में श्रृँगारिकता का व्यतिरेक करने से कृष्ण आराधिका और सहचरी एक महान गोपी के अस्तित्व को नकारा जाने लगा उस आराधिका का नाम राधिका था।
सत्य पूछा जाए तो वह आराधिका और आराध्या भी थी।
इसका प्रमाण स्वयं शास्त्र व पौराणिक उद्धरण हैं।
कृष्ण का आध्यात्मिक सम्बन्ध पुराणों में जिस गोपी के साथ बताया गया है। वह देवत्रयी के देव ब्रह्मा विष्णु और महेश की पत्नीयों की भी आराध्या हैं।
"दुर्गाराध्या रमाराध्या विश्वाराध्या चिदात्मिका।
देवाराध्या पराराध्या ब्रह्माराध्या परात्मिका।१५१। अनुवाद:- जो दुर्गा और लक्ष्मी के द्वारा आराधना करने योग्य ,तथा जो सम्पूर्ण विश्व की आराध्या चेतना की अधिष्ठात्री और देवों की परम -आराध्या हैं। और जगत्-सृष्टा ब्रह्मा भी जिसकी आराधना करते है वही परमात्मा स्वरूपा ईश्वरीय सत्ता राधा जी हैं। "शिवाराध्या प्रेमसाध्या भक्ताराध्या रसात्मिका। कृष्णप्राणार्पिणी भामा शुद्धप्रेमविलासिनी।१५२। अनुवाद:- जो शिव जी द्वारा आराधना करने योग्य हैं जिन्हें केवल प्रेम (भक्ति) द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है जो सभी भक्तों के लिए आराधना करने योग्य हैं परम-रस की आत्मा हैं। और कृष्ण जिनके प्रति अपने प्राणों का अर्पण करते हैं तथा दुष्टों के लिए जो क्रोध रूप हैं। जो शुद्ध प्रेम का विलास (लीला) करने वाली हैं। वही राधा हैं। "कृष्णाराध्या भक्तिसाध्या भक्तवृन्दनिषेविता। विश्वाधारा कृपाधारा जीवधारातिनायिका। १५३।
अनुवाद:- कृष्ण की जो आराध्या एवं भक्ति द्वारा ही साध्य हैं भक्त-समुदाय नित्य जिनके भक्ति रस का सेवन करते ,और सेवा करते हैं जो विश्व रूपी समुद्र की धारा है। जो कृपा की धारा हैं जो जीवन की धारा तथा संसार की नायिका हैं। वही ईश्वरीय सत्ता राधा जी हैं।
सन्दर्भ-स्रोत-★
बृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहपाख्याने तृतीयपदे राधाकृष्ण सहस्त्रनामकथनं नाम द्वाशीतितमोऽध्यायः॥८२॥
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साधकों की सिद्धि और भक्ति की अधिष्ठात्री राधा जी हैं। जो मलिन हृदय और सांसारिक वासनाओं में परिवेष्टित (बँधे हुए) व्यक्ति हैं वे मूढमति राधा नाम के महत्व से सदैव अनभिज्ञ ही रहते हैं। मनुष्य के जन्म- जन्मान्तरों का संचित अहंकार ही नास्तिकता का रूपान्तरण है। नास्तिक व्यक्ति संवेदना हीन नीरस होता है जिसे कभी शान्ति नहीं मिलती है।
कामी मनोवृत्ति के व्यक्तियों ने राधा और कृष्ण के चरित्रों पर अपनी उन्मुक्त वासनाओं की अभिव्यक्ति का आरोपण किया । और राधाकृष्ण के युगल रूप को अपने श्रृँगार परक काव्य का आधार बनाया है। बस इसी वासना मूलक परिदृश्य को देखकर
आर्य-समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द तथा उन के अनुयायी कहने लगे कि राधा के चरित्र की कृष्ण के साथ कल्पना बाद के कवियों या विधर्मियों ने श्रीकृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए की है।
इस कुतर्क के पक्ष में वे यह कहते हैं भी कि यदि राधा का कोई अस्तित्व होता तो क्या श्रीमद्भागवत जैसे महत्वपूर्ण वैष्णव ग्रन्थ में उनका उल्लेख नहीं होता ? परन्तु वस्तुतः आर्यसमाजीयों का यह कहना भी उनका वितण्डावाद ही है ! कोई सैद्धान्तिक तर्क नहीं है। क्योंकि भागवत पुराण के भी कई प्रकरण प्रक्षिप्त व परस्पर विरुद्ध हैं। अत: भागवत पुराण भी जोड़-तोड़ के अपवाद से रहित नहीं है।
भागवत पुराण के दशम स्कन्ध में ही जब कृष्ण के यौगिक चरित्र को रासलीला की आड़ में व्यभिचार मूलक रूप में प्रस्तुत करते समय राधा जी भागवत पुराण में राधा जी का वर्णन न होना भी अच्छा ही है।
समाधान- के रूप में हम भागवत पुराण के कुछ असंगत श्लोक प्रक्षेपों को प्रमाण सहित लिखते हैं। जबकि
भागवतपुराण में भी अनेक प्रक्षेप हैं। प्रथम तो वह श्लोकांश जिसमें संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति भिन्न रूपों में वर्णित है। वैसे भी विकल्प अनुमान का ही आधेय होता है । सत्य का तो कदापि नहीं। देखें भागवत पुराण के स्कन्ध/अध्याय/श्लोक 10/8/12 में निम्नलिखित श्लोक का तृतीयाञ्श
श्री-गर्ग: उवाच—गर्गमुनि ने कहा; अयम्—यह; हि—निस्सन्देह; रोहिणी-पुत्र:—रोहिणी का पुत्र; रमयन्—प्रसन्न करते हुए; सुहृद:—अपने सारे मित्रों तथा सम्बन्धियों को; गुणै:— गुणों से; आख्यास्यते—कहलायेगा; राम:—रमण करने वाला, राम नाम से; इति—इस तरह; बल-आधिक्यात्—असाधारण बल होने से; बलम् विदु:—बलराम नाम से विख्यात होगा; यदूनाम्—यदुवंश का; अपृथक्-भावात्— पृथक् न हो सकने के कारण; (एक जुटता) के कारण सङ्कर्षणम्—संकर्षण नाम से । उशन्ति- कामना करते हैं; उशन्ति वश धातु या सन् प्रसारित लट्लकार अन्य पुरूष बहुवचन रूप है। धातुः √वश् (वशँ= कान्तौ, अदादि-गणः, धातु-पाठः २. ७५) अपि—भी ।.
गर्गमुनि ने कहा : यह रोहिणी-पुत्र अपने दिव्य गुणों से अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों को सभी तरह का सुख प्रदान करेगा। अत: यह राम कहलायेगा। और असाधारण शारीरिक बल का प्रदर्शन करने के कारण यह बलराम भी कहलायेगा। यहाँ तक तो श्लोक सही हैं परन्तु
चूँकि यह दो परिवारों—वसुदेव तथा नन्द महाराज के परिवारों—को जोडऩे वाला है, अत: यह संकर्षण भी कहलायेगा। इन श्लोकांश में संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरणीय सिद्धान्तों के विपरीत होने से तथा भागवत पुराण के अनुवादको द्वारा पूर्वदुराग्रहसे ग्रस्त अर्थ करने से यह श्लोकाँश प्रक्षिप्त ही है।
जबकि भागवत पुराण में अन्यत्र संकर्षण की व्युत्पत्ति से सम्बद्ध श्लोक इसके विपरीत है। 10.2.13
गर्भसङ्कर्षणात् तं वै प्राहु:सङ्कर्षणं भुवि।
रामेति लोकरमणाद् बलभद्रं बलोच्छ्रयात् ॥१३।
शब्दार्थ:-गर्भ-सङ्कर्षणात्—देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाये जाने के कारण; तम्—उसको (रोहिणीनन्दन को); वै—निस्सन्देह; प्राहु:—लोग कहेंगे; सङ्कर्षणम्—संकर्षण को; भुवि—संसार में; राम इति—राम इस प्रकार; लोक-रमणात्— लोक आनन्द कराने से; बलभद्रम्—बलभद्र कहलाएगा; बल-उच्छ्रयात्—प्रचुर बल के कारण।
अनुवाद:-देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में भेजे जाने के कारण रोहिणी का पुत्र संकर्षण भी कहलाएगा।
वह गोकुल के सारे निवासियों को प्रसन्न रखने की क्षमता होने के कारण राम कहलाएगा और अपनी प्रचुर शारीरिक शक्ति के कारण बलभद्र कहलाएगा।
समाधान:-
नन्द और वसुदेव दोनों का कुल वृष्णि ही था दोनों एक पितामह देवमीढ़ के पौत्र (नाती) थे। और
हरिवंश पुराण और अन्य पुराणों में संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति समान और व्याकरण संगत है।
सम्यक् कर्षतीति इति सङ्कर्षण-(सम् + कृष् +ल्युट्।हरिवंश विष्णु पर्व अध्याय-4 श्लोक-6) में संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति समीचीन है।
अनुवाद:- निद्रा ने उससे कहा- ‘शुभे ! तुम्हारे उदर में स्थापित हुआ जो यह गर्भ है, इसका आकर्षण हुआ है, इस कारण यह पुत्र संकर्षण नाम से प्रसिद्ध होगा।
बुद्धिमान वसुदेव की पत्नी रोहिणी चन्द्रमा की प्यारी भार्या रोहिणी के समान दिखायी देती थी। वह उस गर्भ के लिये उद्विग्नि हो रही थी। उस समय उस समय की निद्रा की अधिष्ठात्री देवी ने उनसे यह कहा था।
"त्रिदेवजननी चण्डी शिवा सर्वार्तिनाशिनी।।
सर्वमाता महानिद्रा सर्वस्वजनतारिणी ।।५।।
सन्दर्भ:-
श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखंडे देवसान्त्वनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ।।४।।
उसी को उपर्युक्त श्लोक में वर्णित किया गया है।
__________
विष्णु पुराण में भी इससे प्रकरण से सम्बन्धित श्लोक हरिवंश पुराण के समान हैं।
गर्गजी ने कहा- ये जो रोहिणी के पुत्र हैं, इनका नाम बताता हूँ- सुनो। इनमें योगीजन रमण करते हैं अथवा ये सब में रमते हैं या अपने गुणों द्वारा भक्त जनों के मन को रमाया करते हैं, इन कारणों से उत्कृष्ट ज्ञानीजन इन्हें ‘राम’ नाम से जानते हैं।
योगमाया द्वारा गर्भ का संकर्षण होने से इनका प्रादुर्भाव हुआ है, अत: ये ‘संकर्षण’ नाम से प्रसिद्ध होंगे।
अशेष जगत का संहार होने पर भी ये शेष रह जाते हैं, अत: इन्हें लोग ‘शेष’ नाम से जानते हैं। सबसे अधिक बलवान होने से ये ‘बल’ नाम से भी विख्यात होंगे।
नीचे गर्गसंहिता में भी यह समानता हरिवंश पुराण के समान है।
एक श्लोक भागवतपुराण दशम स्कन्ध में अष्टम अध्याय का सप्तम श्लोक जिसे अन्य ग्रन्थों में भी जोड़ा गया है। शास्त्रीय सिद्धान्त से पूर्णत: रहित और प्रक्षिप्त ही है। जिसका प्रस्तुति करण हम नीचे खण्डन सहित कर रहे हैं।
शब्दार्थ:-श्री-गर्ग:उवाच—गर्गमुनि ने कहा; यदूनाम्—यादवों का; अहम्—मैं हूँ; आचार्य:—पुरोहित; ख्यात: च—पहले से यह ज्ञात है; भुवि—सर्वत्र; सर्वदा—सदैव; सुतम्—पुत्र को; मया—मेरे द्वारा; संस्कृतम्—संस्कार सम्पन्न; ते—तुम्हारे; मन्यते—माना जायेगा; देवकी-सुतम्—देवकी-पुत्र।
अनुवाद:- गर्गमुनि ने कहा : हे नन्द महाराज, मैं यदुकुल का पुरोहित हूँ।
यह सर्वविदित है। अत: यदि मैं आपके पुत्रों का संस्कार सम्पन्न कराता हूँ तो कंस समझेगा कि वे देवकी के पुत्र हैं।
तात्पर्य:-
रूढिवादी भागवत टीकाकार भी उपर्युक्त श्लोक को सही मानकर उसकी टीका इस प्रकार कर देते हैं।" गर्गमुनि ने अप्रत्यक्ष रूप से बतला दिया कि कृष्ण यशोदा के नहीं बल्कि देवकी के पुत्र हैं। चूँकि कंस पहले से ही कृष्ण की खोज में था, अत: यदि गर्गमुनि संस्कार कराते तो कंस को पता चल सकता था और इससे महान् संकट उत्पन्न हो जाता। यह तर्क किया जा सकता है कि यद्यपि गर्गमुनि यदुवंश के पुरोहित थेऔर नन्दमहाराज भी यदुवंशी थे किन्तु नन्द महाराज क्षत्रिय कर्म नहीं कर रहे थे। इसीलिए गर्गमुनि ने कहा, “यदि मैं आपके पुरोहित के रूप में कर्म करूँ तो इससे पुष्टि होगी कि कृष्ण देवकी-पुत्र हैं।”
समाधान:-यादवों के गर्गाचार्य के अतिरिक्त भी अनेक कुल पुरोहित थे - विशेषत: जो भृगु ,कश्यप और अंगिरा वंश के ऋषि थे -
ये यादवों के पुरोहित रहे हैं ! कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर-आंगिरस भी अंगिरा वंश के थे। और यादवों पुरोहित कुछ भृगु वंश के भी थे। भृगु-एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र माने जाते हैं। अत: ये शैव हैं नकि ब्रह्मा के पुत्र होने से ब्राह्मण -
विशेष—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की छाती में लात मारी थी।
इन्हीं के वंश में परशुराम जी हुए थे। कहते हैं, इन्हीं 'भृगु' और 'अगिरा' तथा 'कश्यप' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है।
ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि वहाँ आई थीं।
जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्या आदि को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया।
सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया।
उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी। यद्यपि भृगु की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक ही है।
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परशुराम जन्म इसी भृगु वंश में हुआ। यद्यपि ये कथानक काव्य और कल्पना के गुणों से समन्वित हैं । परन्तु इस नाम के व्यक्तियों का अस्तित्व तो रहा ही होगा । भले ही कथानक में व्यतिक्रमण ही क्यों न हो।
अंगिरा-अङ्गिरस् ]-एक प्राचीन ऋषि जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं।
विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादुर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है।
इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है।
कहीं इनके पिता को उरु और माता को आग्नेयी लिखा है । और कहीं इनको ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न बतलाया गया है।
स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए ।
वृहस्पति के पुत्र गौतम और उनके पुत्र शतानन्द भी "कोष्टाकुल" के यादव "भीष्मक" के कुलगुरु थे।
सान्दीपन ऋषि भी यादवो के पुरोहित थे और ये कश्यप गोत्रीय ऋषि थे जिनका जन्म काशी में हुआ। और जो कालान्तर में ये उज्जैन चले गये थे। काशी में उत्पन्न होने से इन्हें काश्य भी कहा जाता था।
उग्रसेन का पुन: राज्याभिषेक भी सान्दीपन ऋषि ने किया । अत: उग्रसेन के कुल पुरोहित सान्दीपन मुनि ही थे न कि गर्गाचार्य।
सन्दर्भ:-(विष्णु पुराण पञ्चमाँश अध्याय 21वाँ)
सबसे पहले ये जानना भी आवश्यक है कि वसुदेव भी गोप ही थे। और नन्द तो गोप थे ही यह सब जानते ही हैं। वसुदेव को गोप जीवन के विषय में पुराणों लिखा है।
निम्नलिखित श्लोक देवीभागवत पुराण से उद्धृत हैं।
"वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव भी वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
शास्त्रों मैं वसुदेव का गोप रूप में वर्णन है भी इसका उद्धरण हम यथास्थान आगे करेंगे।-
यादवों को पतित दर्शाने के लिए यदु को भी पतित और म्लेच्छ तक बताया गया।
क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ भी थे ? जैसा कि भागवत आदि पुराणों में कालान्तर में एक श्लोर जोड़ दिया गया।
यद्यपि म्लेच्छ शब्द वैदिक म्रेच्छम्लिष्ट''' न॰ म्लेच्छ--क्त नि॰।
१ अविस्पष्टवाक्ये २ तद्वाक्ययुक्ते ३ म्लाने च त्रि॰ मेदिनीकोश।
अपशब्दे वा चु० उभ० पक्षे भ्वा० पर० अक० सेट् म्लेच्छयति ते म्लेच्छति अमम्लेच्छत् त अम्लेच्छीत्- मल्का (संस्कृत: म्लेक, "गैर-वैदिक") विदेशियों के लिए एक प्राचीन भारतीय शब्द है, मूल रूप से यह विदेशियों के अनजान भाषणों को इंगित करता है, उनके अपरिचित और अनगिनत व्यवहार को बढ़ाया जाता है, और " अशुद्ध या अवर "लोग
भारतीयों ने सभी विदेशी संस्कृतियों का उल्लेख किया, जिन्हें प्राचीन काल में मल्का के रूप में कम सभ्य माना जाता था।
इसका इस्तेमाल आमतौर पर "किसी भी जाति या रंग के बाहरी बड़ों" के लिए किया गया था और प्राचीन भारतीय राज्यों द्वारा विदेशियों को विशेषकर विशेष रूप से फारसियों को लागू किया गया था। अन्य समूहों में कहा जाता है कि मल, साक, हुन, यावानस, कामबोज, पहलवा, बहलिक और ऋषिकस थे।
अमरकोष ने किरता और पुलिंदों को म्चचा-जातियों के रूप में वर्णित किया। इंडो-ग्रीक, सिथियन, भी म्लेकैस थे। म्लेच्छ का शुद्ध रूप म्रक्ष है। माधवीयधातुवृत्ति तथा क्षीरतरंगिणी में म्रक्ष धातु य उल्लेख है।
शब्दार्थ:-मागधानाम्—मगध प्रान्त के; तु—तो ; भविता—होंगे; विश्वस्फूर्जि:—विश्वस्फूर्जि; पुरञ्जय:—राजा पुरञ्जय; करिष्यति— बनायेगा /करेगा; अपर:—दूसरे; वर्णान्— सभी वर्णों ( जातियों) को पुलिन्द-यदु-मद्रकान्—पुलिन्द, यदु तथा मद्रक जैसे अछूतों में।
अनुवाद:- तब मागधों का राजा विश्वस्फूर्जि प्रकट होगा जो दूसरे पुरञ्जय के समान होगा।
वह समस्त सभ्य वर्णों को निम्न श्रेणी के असभ्य मनुष्यों में बदल देगा, जिस तरह पुलिन्द, यदु तथा मद्रक होते हैं।
इतना ही नहीं एक समाज विशेष के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गोपालक न मानकर भी परम्परागत रूप से कहा करते हैं कि कृष्ण का पालन नन्द गोपों के घर और जन्म वसुदेव आदि क्षत्रिय के घर हुआ।
और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण "विष्णु पुराण में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक जोड़ दिए भी।
परन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों में द्वेष वादियों की इस विभेदक मान्यता को खण्डित ही कर दिया।
इस लिए कालान्तर में ग्रन्थों को सम्पादन और प्रकाशन काल में जोड़ तोड़ तो होता ही रहा है। अत: तर्क बुद्धि तथा प्रकरण द्वारा निर्णय करना आवश्यक है ।
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देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं।
विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में तथा विष्णु पुराण पञ्चम अंश को 21वें श्लोक में वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में जिनका खण्डन है
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यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।
अनुवाद:-
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा ।
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है।७।
यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है। जो कालान्तर नें संलग्न किया गया है ।
परन्तु ये श्लोक शास्त्रीय सिद्धान्त को विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही हैं।
जबकि गर्ग केवल शूरसेन के पुरोहित थे वह भी बहुत बाद के समय में जब एक बार शूरसेन की सभा लगी थी तभी ये घूमते हुए कहीं से आये और सभासदों ने इनका परिचय एक ज्योतिषी के रूप में दिया था।
नास्यास्तु ते देव भयं कदाचि-द्यद्देववाण्या कथितं च तच्छृणु ।
पुत्रान् ददामीति यतो भयं स्यान्मा ते व्यथाऽस्याः प्रसवप्रजातात् ॥२०॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा स निश्चित्य वचोऽथ शौरेः
कंसः प्रशंस्याऽऽशु गृहं गतोऽभूत् ।
शौरिस्तदा देवकराजपुत्र्याभयावृतः सन् गृहमाजगाम ॥ २१ ॥
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे वसुदेवविवाहवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
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अनुवाद:-गोलोक खण्ड : अध्याय 9
गर्गजी की आज्ञा से देवक का वसुदेव जी के साथ देवकी का विवाह करना; विदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत होना और वसुदेव जी की शर्त पर जीवित छोड़ना
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श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! एक समय की बात है, श्रेष्ठ मथुरा पुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्ग जी प्रथम बार पधारे। वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े प्रामाणिक विद्वान थे। सम्पूर्ण श्रेष्ठ शूरसेन के सभासद यादवों की इच्छा से शूरसेन ने उन्हें अपने पुरोहित के पद पर प्रतिष्ठित किया था।
मथुरा से उस राजभवन में सोने के किवाड़ लगे थे, उन किवाड़ों में हीरे भी जड़े गये थे। राजद्वार पर बड़े-बड़े गजराज झूमते थे। उनके मस्तक पर झुंड़-के-झुंड़ भौंरें आते और उन हाथियों के बड़े-बड़े कानों से आहत होकर गुंजारव करते हुए उड़ जाते थे।
इस प्रकार वह राजद्वार उन भ्रमरों के नाद से कोलाहल पूर्ण हो रहा था।
गजराजों के गण्ड स्थल से निर्झर की भाँति झरते हुए मद की धारा से वह स्थान समावृत था। अनेक मण्डप समूह उस राजमन्दिर की शोभा बढ़ाते थे। बड़े-बड़े उद्भट वीर कवच, धनुष, ढ़ाल और तलवार धारण किये राजभवन की सुरक्षा में तत्पर थे। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल- इस चतुरंगिणी सेना तथा माण्डलिकों की मण्डली द्वारा भी वह राजमन्दिर सुरक्षित था।
मुनिवर गर्ग ने उस राजभवन में प्रवेश करके इन्द्र के सदृश उत्तम और ऊँचे सिन्हासन पर विराजमान राजा उग्रसेन को देखा।
अक्रूर, देवक तथा कंस उनकी सेवा में खड़े थे और राजा छत्र चँदोवे से सुशोभित थे तथा उन पर चँवर ढुलाये जा रहे थे। मुनि को उपस्थित देख राजा उग्रसेन सहसा सिन्हासन से उठकर खड़े हो गये।
उन्होंने अन्यान्य यादवों के साथ उन्हें प्रणाम किया और सुभद्र पीठ पर बिठाकर उनकी सम्यक प्रकार से पूजा की।
फिर स्तुति और परिक्रमा करके वे उनके सामने विनीत भाव से खड़े हो गये। गर्ग मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर समस्त राज परिवार का कुशल-मंगल पूछा। फिर उन महामना महर्षि ने नीतिवेत्ता यदुश्रेष्ठ देवक से कहा।
श्री गर्गजी बोले- राजन ! मैंने बहुत दिनों तक इधर-उधर ढूँढ़ा और सोचा-विचारा है। मेरी दृष्टि में वसुदेवजी को छोड़कर भूमण्डल के नरेशों में दूसरा कोई देवकी के योग्य वर नहीं है। इसलिये नरदेव ! वसुदेव को ही वर बनाकर उन्हें अपनी पुत्री देवकी को सौंप दो और विधिपूर्वक दोनों का विवाह कर दो।
निराकरण-👇★
विदित हो कि गर्ग आचार्य शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य सभासद लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था। उससे पहले तो घोर आंगिरस कुल के पुरोहित थे।
यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन यादव भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे सन्दीपन ही थे । और उसी समय सूरसेन को पुरोहित गर्गाचार्य थे ।
यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र (शतानन्द) थे। ये अंगिरा को वंशज थे।
गोतमपुत्र जो अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और जो जनकराज के पुरोहितः भरद्वाज गोत्र के ही थे। और सूरसेन के सौतेले भाई पर्जन्य के पुत्र नन्द के पुरोहित साण्डिल्य थे। ये शण्डिल ऋषि के पुत्र थे।
अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है। यादवों कई पुरोहित थे।
परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।
अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं ।
और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________
परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४ वें) अध्याय में इस प्रकार का वर्णन है ।
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।
वसुदेव ने गर्गाचार्य को
गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा
परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी करते रहते थे निम्न श्लोकों में यह भी स्पष्ट तथ्य है
श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्दनन्दन की यह बात सुनकर श्रीनन्द और सन्नन्द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होनें पहले का निश्चय त्यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया।
मिथिलेश्वर ! नन्दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्कण्ठित हो प्रसन्नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
अनुवाद:- कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
देवीभागवत "गर्गसंहिता और महाभारत के
अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति-पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८। ___________________________________
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।
अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
अर्थ •और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !
वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
_____________
यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं। जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है। राजा दिलीप ने नन्दिनी गाय की नित्य सेवा और पालन किया क्या वे वैश्य हो गये। न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद" व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं।
फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?
आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं।
शाण्डिल्य- का पौराणिक परिचय-
महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।
कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। और बज्रनाभ के भी पुरोहित ये ही बनते देखे हैं।
इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।
कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे।
ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है।
कहीं-कहीं यदु वंशी नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है। सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान ऋित्विक थे।
किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है।
शाण्डिल्य ऋषि की तपस्या करना
इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी।
फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया।
विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होता के रूप में वहां विद्यमान थे। भीष्म की सर-सैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे।
शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है।
कश्यप ऋषि के एक पुत्र असित थे। असित के पुत्र देवल हुए, जिनके द्वारा किये गये यज्ञ के यज्ञकुण्ड से ऋषि शाण्डिल्य का जन्म हुआ।
इन्होने अनेकों सूत्रग्रंथों की रचना की है। वेदों में भी इनका नाम आया है।
रघुवंशी राजा दिलीप के समय भी इनका उल्लेख मिलता है। ये राजा जनक को पुरोहित थे।वायुपुराण , मार्कण्डेय और हरिवंश पुराण में यादवों के कुल और कुलपुरोहित- भी अनेक हैं।हैहय-वंश के सहस्रबाहू के पुरोहित अंगिरा के वंशज गर्ग और भीष्मक के पुरोहित कश्यप के वंशज शतानन्द और कंस के पुरोहित भृगु के वंशज सान्दीपन का वर्णन पुराणों में वर्णित है।
यादवों के महाभारत काल में हीं एक सौ एक कुल थे ; और प्रत्येक कुल के पृथक पृथक ही कुल गुरू थे। इस प्रकार यादवों के एक सौ एक कुल गुरू होते हैं। जिनमें से दो- चार नाम ऊपर लिखित हैं।
गौतम के पुत्र शतानन्द वेदों के अच्छे जानकार थे। वह कुल का एक धर्मी वाक्पटु और ज्ञानी पुरोहित थे वह पृथ्वी के सभी सत्यों को जानते थे और सभी प्रकार की गतिविधियों में भी निपुण थे ।18।
"शतानन्द भीष्मक प्रति उवाच"
राजेन्द्र त्वं च धर्मज्ञो धर्मशास्त्रविशारदः। पूर्वाख्यानं च वेदोक्तं कथयामि निशामय ।१९।
"शतानंद ने भीष्मक से कहा:" हे राजाओं में श्रेष्ठ, आप धार्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता और धार्मिक सिद्धांतों के शास्त्रों के भी विशेषज्ञ हैं। मेरी बात सुनो मैं तुम्हें वेदों में वर्णित पूर्व आख्यान को सुनाता हूँ ।19।
भुवो भारावतरणे स्वयं नारायणो भुवि । वसुदेवसुतः श्रीमान्परिपूर्णतमः प्रभुः।२०।
भगवान नारायण स्वयं पृथ्वी के भार उतारने के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए। वे वासुदेव के पुत्र रूप में इस पृथ्वी पर सबसे समृद्ध और सबसे शक्तिशाली हैं।20।
वह ही निर्देशक और निर्माता हैं और शेष तथा भगवान ब्रह्मा द्वारा उनकी पूजा की जाती है। वह प्रकाश के सर्वोच्च रूप हैं और अपने भक्तों की कृपा के लिए अवतरित हैं।21। परमात्मा सभी जीवों की प्रकृति से परे है वह निष्कलंक और निष्पाप हैं और समस्त कर्मों का साक्षी हैं ।22। हे राजाओं में श्रेष्ठ, उसने उसे और उसकी पुत्री को सब से उत्तम वर दिया। उसे देकर तुम अपने सैकड़ों पूर्वजों के साथ गौलोक में जाओगे। 23।। अपनी पुत्री को देकर और परलोक में समानता और मुक्ति प्राप्त करें। विश्वगुरु के गुरु बनो और यहाँ सबके द्वारा पूजे जाओ।24।
अनुवाद:-पृथ्वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु -ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधु-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।
विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में गुरु के नाम से ही गोत्र का नाम होता था
जैसे पुराणों में राहु केतु का गोत्र पैठिनस पैठिनस ऋषि थे । लेकिन जैमिनी ऋषि के शिष्यत्व में केतु का गोत्र जैमिनी हो गया।
कुछ इतिहासकार मानते हैं गुरु, कुलगुरु या पुरोहित के नाम से ही गोत्र का नाम पड़ जाता था जैसा कि राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा उदयपुर राज्य का इतिहास भाग-१ के क्षत्रियों के गोत्र नामक तृतीय अध्याय की परिशिष्ट संख्या ४ में लिखते हैं कि प्राचीन काल में राजाओं का गोत्र वही माना जाता था जो उनका पुरोहित का होता था.
यादवों कुल अनेक थे । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है। इसी आधार पर उनके कुल पुरोहित भी अनेक गोत्रों से सम्बन्धित थे। केवल एक गर्गाचार्य को ही सम्पूर्ण यादव कुलों का गुरू मानना क्षेपक है।
तिस्रः कोट्यस्तु पौत्राणां यादवानां महात्मनाम् । सर्वमेव कुलं यच्च वर्त्तन्ते चैव ये कुले ॥ २,७१.२६१ ॥ विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः । निदेशस्थायिभिस्तस्य बध्यन्ते सुरमानुषाः ॥ २,७१.२६२ ॥ देवासुराहवहता असुरा ये महाबलाः। इहोत्पन्ना मनुष्येषु बाधन्ते ते तु मानवान्॥ २,७१.२६३॥ तेषामुत्सादनार्थाय उत्पन्ना यादवे कुले। समुत्पन्नं कुलशतं यादवानां महात्मनाम्॥ २,७१.२६४॥ इति प्रसूतिर्वृष्णीनां समासव्यासयोगतः । कीर्त्तिता कीर्त्तनीया स कीर्त्तिसिद्धिमभीप्सता॥ २,७१.२६५॥ इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमभागे तृतीय उपोद्धातपदे वृष्णिवंशानुकीर्त्तनं नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ॥७१॥
यादवों के गर्गाचार्य के अतिरिक्त भी अनेक कुल पुरोहित थे - विशेषत: जो भृगु कश्यप और अंगिरा वंश के ऋषि थे -
ये यादवों के पुरोहित रहे हैं ! कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर आंगिरस भी अंगिरा वंश के थे।और यादवों पुरोहित कुछ भृगु वंश को भी थे। भृगु - एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र माने जाते हैं।
विशेष—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की छाती में लात मारी थी।
इन्हीं के वंश में परशुराम जी हुए थे। कहते हैं, इन्हीं 'भृगु' और 'अगिरा' तथा 'कश्यप' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है।
ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि वहाँ आई थीं।
जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्या आदि को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया।
सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया।
उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी।
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परशुराम जन्म इसी भृगु वंश में हुआ। यद्यपि ये कथानक काव्य और कल्पना के गुणों से समन्वित हैं।
परन्तु इस नाम के व्यक्तियों का अस्तित्व तो रहा ही हुए थे।
अंगिरा-अङ्गिरस्]-एक प्राचीन ऋषि जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं।
विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादुर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है।
इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है।
कहीं इनके पिता को उरु और माता को आग्नेयी लिखा है । और कहीं इनको ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न बतलाया गया है।
स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए ।
वृहस्पति के पुत्र गौतम के शतानन्द भी कोष्टाकुल के यादव भीष्मक के कुलगुरु थे।
सान्दीपन ऋषि भी यादवो के पुरोहित थे और ये कश्यप गोत्रीय ऋषि थे जिनका जन्म काशी में हुआ। और जो कालान्तर में ये उज्जैन चले गये थे।
उग्रसेन का पुन: राज्याभिषेक भी सान्दीपन ऋषि ने किया । अत: उग्रसेन के कुल परोहित सान्दीपन मुनि ही थे।
(विष्णु पुराण पञ्चमाँश अध्याय 21 वाँ)
सबसे पहले ये जानना आवश्यक है कि वसुदेव गोप ही थे। और नन्द तो गोप थे ही यह सब जानते ही हैं।
वसुदेव को गोप जीवन के विषय में पुराणों लिखा है।
"वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
शास्त्रों मैं वसुदेव का गोप रूप में भी वर्णन है।-
क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ या शूद्र भी थे ? जैसा कि भागवत आदि पुराणों मैं कालान्तर में जोड़ दिया गया।
इतना ही नहीं एक समाज विशेष के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गोपालक न मानकर भी परम्परागत रूप से कहा करते हैं कि कृष्ण का पालन नन्द गोपों के घर और जन्म वसुदेव आदि क्षत्रिय के घर हुआ।
और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण विष्णु पुराण में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक जोड़ दिए भी।
परन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों में द्वेष वादियों की मान्यता को खण्डित ही कर दिया।
इस लिए कालान्तर में ग्रन्थों को सम्पादन और प्रकाशन काल में जोड़ तोड़ तो होता ही रहा है।
अत: तर्क बुद्धि द्वारा निर्णय करना आवश्यक है ।
___________________________________
देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।
विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में तथा विष्णु पुराण पञ्चम अंश को 21वें श्लोक में वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में जिनका खण्डन है
____________________________________ 👇
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा ।
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है।७।
यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है । जो कालान्तर नें संलग्न किया गया है ।
परन्तु ये श्लोक शास्त्रीय सिद्धान्त को विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही हैं।
जबकि गर्ग केवल शूरसेन के पुरोहित थे वह भी बहुत बाद के समय में जब एक बार शूरसेन की। सभा लगी थी तभी ये घूमते हुए कहीं से आये और सभासदों ने इनका परिचय एक ज्योतिषी के रूप में दिया था।
निराकरण-👇★
विदित हो कि गर्ग आचार्य शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य सभासद लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था। उससे पहले तो घोर आंगिरस कुल के पुरोहित थे।
यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन यादव भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे सन्दीपन ही थे । और उसी समय सूरसेन को पुरोहित गर्गाचार्य थे ।
यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र (शतानन्द) थे। ये अंगिरा को वंशज थे।
गोतमपुत्र जो अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और जो जनकराज के पुरोहितः भरद्वाज गोत्र के ही थे। और सूरसेन के सौतेले भाई पर्जन्य के पुत्र नन्द के पुरोहित साण्डिल्य थे। ये शण्डिल ऋषि के पुत्र थे।
अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है। यादवों कई पुरोहित थे।
परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।
अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं ।
और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________
परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में इस प्रकार का वर्णन है ।
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।
वसुदेव ने गर्गाचार्य को
गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा
परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी करते रहते थे निम्न श्लोकों में यह भी स्पष्ट तथ्य है
श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्दनन्दन की यह बात सुनकर श्रीनन्द और सन्नन्द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होनें पहले का निश्चय त्यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया।
मिथिलेश्वर ! नन्दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्कण्ठित हो प्रसन्नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के
अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।। ___________________________________
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।
अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !
वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।
पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है ।
न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?
आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं।
शाण्डिल्य- का पौराणिक परिचय-
महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।
कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। और बज्रनाभ के भी पुरोहित ये ही बनते देखे हैं।
इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।
कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे। ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं यदु वंशी नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है।
सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान ऋित्विक थे। किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है।
शाण्डिल्य ऋषि की तपस्या करना
इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी।
फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया।
विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होता के रूप में वहां विद्यमान थे।
भीष्म की सर-सैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है।
शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे।
शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है।
कश्यप ऋषि के एक पुत्र असित थे। असित के पुत्र देवल हुए, जिनके द्वारा किये गये यज्ञ के यज्ञकुण्ड से ऋषि शाण्डिल्य का जन्म हुआ।
इन्होने अनेकों सूत्रग्रंथों की रचना की है। वेदों में भी इनका नाम आया है।
रघुवंशी राजा दिलीप के समय भी इनका उल्लेख मिलता है। ये राजा जनक को पुरोहित थे।
वायुपुराण , मार्कण्डेय और हरिवंश पुराण में यादवों के कुल और कुलपुरोहित- भी अनेक हैं ।
हैहयवंश के सहस्रबाहू के पुरोहित अंगिरा के वंशज गर्ग और भीष्मक के पुरोहित कश्यप के वंशज शतानन्द और कंस के पुरोहित भृगु के वंशज सान्दीपन का वर्णन पुराणों में वर्णित है।
यादवों के महाभारत काल में हीं एक सौ एक कुल थे ; और प्रत्येक कुल के पृथक पृथक ही कुल गुरू थे। इस प्रकार यादवों के एक सौ एक कुल गुरू होते हैं। जिनमें से दो- चार नाम ऊपर लिखित हैं।
"आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।
अनुवाद:-महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम प्रतापी यादव राजा थे यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।
अनुवाद:-गौतम के पुत्र शतानंद वेदों के अच्छे जानकार थे। वह कुल का एक धर्मी वाक्पटु और ज्ञानी पुरोहित थे
वह पृथ्वी के सभी सत्यों को जानता थे और सभी प्रकार की गतिविधियों में भी निपुण थे ।18।
"शतानन्द भीष्मक प्रति उवाच"
राजेन्द्र त्वं च धर्मज्ञो धर्मशास्त्रविशारदः। पूर्वाख्यानं च वेदोक्तं कथयामि निशामय ।१९।
शतानंद ने भीष्मक से कहा: हे राजाओं में श्रेष्ठ, आप धार्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता और धार्मिक सिद्धांतों के शास्त्रों के भी विशेषज्ञ हैं। मेरी बात सुनो मैं तुम्हें वेदों में वर्णित पूर्व आख्यान को सुनाता हूँ।19।
भुवो भारावतरणे स्वयं नारायणो भुवि । वसुदेवसुतः श्रीमान्परिपूर्णतमः प्रभुः।२०।
भगवान नारायण स्वयं पृथ्वी के भार उतारने के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए। वे वासुदेव के पुत्र रूप में इस पृथ्वी पर सबसे समृद्ध और सबसे शक्तिशाली हैं।20।
वह ही निर्देशक और निर्माता हैं और शेष तथा भगवान ब्रह्मा द्वारा उनकी पूजा की जाती है। वह प्रकाश के सर्वोच्च रूप हैं और अपने भक्तों की कृपा के लिए अवतरित हैं।21। परमात्मा सभी जीवों की प्रकृति से परे है वह निष्कलंक और निष्पाप हैं और समस्त कर्मों का साक्षी हैं ।22। हे राजाओं में श्रेष्ठ, उसने उसे और उसकी पुत्री को सब से उत्तम वर दिया। उसे देकर तुम अपने सैकड़ों पूर्वजों के साथ गौलोक में जाओगे। 23।। अपनी पुत्री को देकर और परलोक में समानता और मुक्ति प्राप्त करें। विश्वगुरु के गुरु बनो और यहाँ सबके द्वारा पूजे जाओ।24।
आसीन्महिष्मतःपुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।
अनुवाद:-महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम प्रतापी यादव राजा थे ! यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।वायुपुराण-उत्तरार्धम् -अध्यायः (३२)
पृथ्वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु -ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।
विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में गुरु के नाम से ही गोत्र का नाम होता था
जैसे पुराणों में राहु केतु का गोत्र पैठिनस पैठिनस ऋषि थे । लेकिन जैमिनी ऋषि के शिष्यत्व में केतु का गोत्र जैमिनी हो गया।
कुछ इतिहासकार मानते हैं गुरु,कुल गुरु या पुरोहित के नाम से ही गोत्र का नाम पड़ जाता था जैसा कि राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी उदयपुर राज्य का इतिहास भाग-१ के क्षत्रियों के गोत्र नामक तृतीय अध्याय की परिशिष्ट संख्या ४ में लिखते हैं कि प्राचीन काल में राजाओं का गोत्र वही माना जाता था जो उनका पुरोहित का होता था.
यादवों कुल अनेक थे । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है। इसी आधार पर उनके कुल पुरोहित भी अनेक गोत्रों से सम्बन्धित थे।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
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रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का संग्रह किया श्री श्री राधा कृष्ण गणोद्देश्य दीपिका के नाम से परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा .
"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: ।
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ ( शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।
पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।
भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।
प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता:।
अन्येऽनुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।८।
भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।
आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।
भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।
भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं ये प्राय: हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।
वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं।
शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।
जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है। यद्यपि लक्ष्मीनारायणीसंहिता में गायात्री के माता पिता गोविल-गोविला नाम से हैं जो कि संहिताकार की नवीन कल्पना ही है।
जब शास्त्रों में ये बात है तो फिर
अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं ।
पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग से ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।
पद्म पुराण को निम्न श्लोक ही इनकी प्राचीनता और महानता को साक्ष्य हैं ।
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरो ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य-सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला(क्रीडा) होगी जब उसी समय धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा।
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इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः१७।
हरिवंश पुराण हरिवंशपर्व में कश्यप का ब्रह्मा के आदेश से व्रज में वसुदेव गोप के रूप में अवतरण होना भी वसुदेव के गोप रूप को सूचित करता है।-यद्यपि कश्यप का यह प्रकरण गर्गसंहिता,मार्कण्डेय पुराण,गर्गसंहिता,ब्रह्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण तथा देवीभागवत पुराण आदि में भी आया है। संक्षेप में -
(ब्रह्मोवाच) नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो । भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।१८।
उपर्युक्त श्लोकों में वर्णन है कि जब एक बार कश्यप ऋषि अपने पुत्र वरुण की गायों को उससे लेकर भी गायों के अत्यधिक दुग्ध देने से कश्यप की नीयत में आयी खोट के कारण वरुण की गायें पुन: वापस नहीं करते तब ब्रह्मा के पास आकर वरुण कश्यप और उनकी पत्नीयो अदिति और सुरभि की गायों को इन देने की शिकायत करते हैं।
तब ब्रह्मा कश्यप और उनकी पत्नीयों को गोप गोपी रूप में व्रज में गोपालन करते रहने के लिए जन्म लेने का शाप देते हैं ।
जो वसुदेव और उनकी दो पत्नी अदिति और सुरभि ही क्रमश देवकी और रोहिणी बनती हैं ।और वसुदेव कश्यप के अंश हैं ।
तो गोप तो वसुदेव भी थे नन्द ही नहीं ये यादवों के गोपालन वृत्ति परक विशेषण थे ।
(हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व- 55वाँ अध्याय
इतना विस्तृत प्रमाण भागवत के प्रक्षिप्त श्लोकों के खण्डन हेतु प्रस्तुत किया गया। ये प्रमाण- यादव योगेश कुमार रोहि के शोधो पर आधारित हैं।
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भागवत पुराण में राधा या वर्णन न होना उचित ही है क्यों कि कृष्ण चरित्र का सबसे अधिक हनन तो भागवत पुराण कार ने भी कसर नहीं छोड़ी
"गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी "
कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे. कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं।ऐसा लगता कि कृष्ण को रमण काल में ये कागज और कलम लेकर उनके साथ चलते थे।
भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं – कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे. जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीडा ‘विषय भोग’ किया. भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :-
नद्या:—नदी के; पुलिनम्—तट पर; आविश्य—प्रवेश करके; गोपीभि:—गोपियों के साथ; हिम—शीतल; वालुकम्—बालू को ; जुष्टम्—सेवा की; तत्—उसका; तरल—लहरों से; आनन्दि—आनन्दित बनाया; कुमुद—कमलों की; आमोद— सुगन्ध लिये हुए; वायुना—वायु के द्वारा; बाहु—अपनी भुजाओं का; प्रसार—फैलाना; परिरम्भ—आलिंगन कर ; कर—उनके हाथों के; अलक—बाल; ऊरु—जाँघें; नीवी— नारा सूतनी ;निव्ययंति निवीयते वा नि + व्ये--इन् यलोप दोर्घौ डिच्च वा ङीप् । १- बणिजा मूलधन २ स्त्रीकटीवस्त्र-बन्ध अमरःकोश।
स्तन—तथा स्तन; आलभन—स्पर्श से; नर्म—खेल में; नख—अँगुलियों के नाखूनों की; अग्र-पातै:—चिऊँटी से; क्ष्वेल्या—विनोद, खेलवाड़ से भरी बातचीत; अवलोक—चितवन; हसितै:—तथा हँसी से; व्रज-सुन्दरीणाम्—व्रज की सुन्दरियों की; उत्तम्भयन्—उत्तेजित करते हुए; रति-पतिम्—कामदेव को; रमयाम् चकार—आनन्दित किया ।.
अनुवाद:- श्रीकृष्ण गोपियों समेत यमुना के किनारे गये जहाँ बालू ठंडी पड़ रही थी और नदी की तरंगों के स्पर्श से वायु में कमलों की महक थी। वहाँ कृष्ण ने गोपियों को अपनी बाँहों में समेट लिया और उनका आलिंगन किया। उन्होंने लावण्यमयी व्रज-बालाओं के हाथ, बाल, जाँघें, नाभि एवं स्तन छू छू कर तथा खेल खेल में अपने नाखूनों से चिकोटते हुए उनके साथ विनोद करते, उन्हें तिरछी नजर से देखते और उनके साथ हँसते हुए उनमें कामदेव जागृत कर दिया। इस तरह भगवान् ने अपनी लीलाओं का आनन्द लूटा।
अनुवाद:-पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा विशेष आदर पाकर गोपियाँ अपने पर गर्वित हो उठीं और उनमें से हरएक ने अपने को पृथ्वी की सर्वश्रेष्ठ स्त्री समझा।
श्लोक 10.33.18
कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहु: खेचरस्त्रिय: ।
कामार्दिता: शशाङ्कश्च सगणो विस्मितोऽभवत् ॥ १८ ॥
शब्दार्थ:-कृष्ण-विक्रीडितम्—कृष्ण की क्रीड़ा; वीक्ष्य—देखकर; मुमुहु:—मोहित हो गईं; खे-चर—आकाश में यात्रा करतीं; स्त्रिय:— स्त्रियाँ (देवियाँ); काम—काम वासना से; अर्दिता:—चलायमान; शशाङ्क:—चन्द्रमा; च—भी; स-गण:—अपने अनुचर तारों सहित; विस्मित:—चकित; अभवत्—हुआ ।.
अनुवाद:- देवताओं की पत्नियाँ अपने विमानों से कृष्ण की क्रीड़ाएँ देखकर सम्मोहित हो गईं और कामवासना से विचलित हो उठीं। वस्तुत: चन्द्रमा तक भी अपने पार्षद तारों समेत चकित हो उठा।
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यह अच्छा ही हुआ कि भागवत पुराण में राधा जी का वर्णन प्रत्यक्ष नहीं हैं।
इतना ही नही चीरहरणलीला की आड़ में भी भागवत कार ने अपनी कामुक प्रवृत्तियों का प्रदर्शन किया है।
कुछ विवेचना इस पर भी उल्लेखनीय है।
श्लोक 10.22.9
तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वर: ।
हसद्भि: प्रहसन् बालै: परिहासमुवाच ह ॥ ९ ॥
शब्दार्थ:-तासाम्—उन कन्याओं के; वासांसि—वस्त्रों को; उपादाय—लेकर; नीपम्—कदम्ब वृक्ष में; आरुह्य—चढक़र; सत्वर:—फुर्ती से; हसद्भि:—हँसते हुए; प्रहसन्—स्वयं जोर से हँसते; बालै:—बालकों के साथ; परिहासम्—मजाक में; उवाच ह—कहा ।.
अनुवाद:-लड़कियों के वस्त्र उठाकर वे तेजी से कदम्ब वृक्ष की चोटी पर चढ़ गये। तत्पश्चात् जब वे जोर से हँसे तो उनके साथी भी हँस पड़े और उन्होंने उन लड़कियों से ठिठोली करते हुए कहा।
श्लोक 10.22.10
अत्रागत्याबला: कामं स्वं स्वं वास: प्रगृह्यताम्।
सत्यं ब्रुवाणि नो नर्म यद् यूयं व्रतकर्शिता: ॥ १० ॥
व्रीडिता: प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययु:।१२।
शब्दार्थ:-तस्य—उसका; तत्—वह; क्ष्वेलितम्—मजाकिया व्यवहार; दृष्ट्वा—देखकर; गोप्य:—गोपियाँ; प्रेम-परिप्लुता:—भगवत्प्रेम में पूरी तरह निमग्न; व्रीडिता:—सकुचाई; प्रेक्ष्य—देखकर; च—तथा; अन्योन्यम्—एक-दूसरे को; जात-हासा:—हँसी आने के कारण; न निर्ययु:—नहीं निकलीं ।.
अनुवाद:-यह देखकर कि कृष्ण उनसे किस तरह ठिठोली कर रहे हैं, गोपियाँ उनके प्रेम में पूरी तरह निमग्न हो गईं और उलझन में होते हुए भी एक दूसरे की ओर देख-देखकर हँसने तथा परस्पर परिहास करने लगीं। लेकिन तो भी वे जल से बाहर नहीं आईं।
श्लोक 10.22.16
"श्रीभगवानुवाच"
भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ ।
अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छत शुचिस्मिता: ।
नो चेन्नाहं प्रदास्ये किं क्रुद्धो राजा करिष्यति॥१६।
अनुवाद:-भगवान् ने कहा : यदि तुम सचमुच मेरी दासियाँ हो और मैं जो कहता हूँ उसे वास्तव में करोगी तो फिर अपनी अबोध भाव से मुस्कान भरकर यहाँ आओ और अपने अपने वस्त्र चुन लो। यदि तुम मेरे कहने के अनुसार नहीं करोगी तो मैं तुम्हारे वस्त्र वापस नहीं दूँगा। और यदि राजा नाराज भी हो जाये तो वह मेरा क्या बिगाड़ सकता है?
शब्दार्थ:-तत:—तत्पश्चात्; जल-आशयात्—नदी में से बाहर; सर्वा:—सभी; दारिका:—युवतियाँ; शीत-वेपिता:—जाड़े से काँपती; पाणिभ्याम्—अपने हाथों से; योनिम्—अपने गुप्त अंग को; आच्छाद्य—ढककर; प्रोत्तेरु:—बाहर आगईं; शीत-कर्शिता:— जाड़े से पीड़ित.
अनुवाद:-तत्पश्चात् कड़ाके की शीत से काँपती सारी युवतियाँ अपने अपने हाथों से अपने गुप्तांग ढके हुए जल के बाहर निकलीं।
पुराणकार ने कामशास्त्रीय विवेचना का आरोपण कृष्ण के चरित्र पर करके स्वयं अपनी मनोवृत्ति की तुष्टि की है। अत: उपर्युक्त श्लोक प्रक्षिप्त है।
श्लोक 10.22.19
यूयं विवस्त्रा यदपो धृतव्रता
व्यगाहतैतत्तदु देवहेलनम् ।
बद्ध्वाञ्जलिं मूध्र्न्यपनुत्तयेऽहस:
कृत्वा नमोऽधोवसनं प्रगृह्यताम् ॥१९॥
शब्दार्थ:-यूयम्—तुम लोगों ने; विवस्त्रा:—नंगी; यत्—क्योंकि; अप:—जल में; धृत-व्रता:—वैदिक अनुष्ठान करते हुए; व्यगाहत— स्नान किया; एतत् तत्—यह; उ—निस्सन्देह; देव-हेलनम्—वरुण तथा अन्य देवताओं के प्रतिअपराध; बद्ध्वा अञ्जलिम्— हाथ जोडक़र; मूर्ध्नि—अपने अपने सिरों पर; अपनुत्तये—निराकरण के लिए; अंहस:—अपने अपने पाप कर्म के; कृत्वा नम:—नमस्कार करके; अध:-वसनम्—अपने अपने अधोवस्त्र; प्रगृह्यताम्—वापस लेलो ।.
अनुवाद:- [भगवान् कृष्ण ने कहा]: तुम सबों ने अपना व्रत रखते हुए नग्न होकर स्नान किया है, जो कि देवताओं के प्रति अपराध है। अत: अपने पाप के निराकरण के लिए तुम सबों को अपने अपने सिर के ऊपर हाथ जोडक़र नमस्कार करना चाहिए। तभी तुम अपने अधोवस्त्र वापस ले सकती हो।
अब इस बात का उत्तर देने के चक्कर में आज के कुछ अभिनव कथावाचक बिना सम्प्रदायानुगमन के ही श्रीमद्भागवत में कहीं भी (र) और (ध) शब्द की संगति देखकर वहीं हठपूर्वक राधा को सिद्ध करने बैठ जाते हैं।
राधा को भागवत पुराण में सिद्ध करने के लिए कुछ रूढिवादी कथावाचकअनिरुद्धाचार्य जैसे
वर्तमान में आधावन्तः/राधावन्तः शब्द में वितण्डापूर्वक राधा शब्द को सिद्ध करने का कुप्रयास करते हैं।
वे राधावन्त और राधावान् शब्द के अर्थ करते हैं जो राधा से युक्त है अथवा राधा का भक्त !
और राधावान् बताया भी किसे जा रहा है ? कबन्धों (शिर रहित धड़) को।
देवता तो अमृतपान कर चुके थे, सो उनका कबन्धीकरण सम्भव नहीं, वैसे भी कबन्ध तो सुरों के नहीं, असुरों के ही बने हैं
-कबन्धा युयुधुर्देव्याः। तो कुछ महानुभाव कबन्धों को ही राधाभक्त सिद्ध करने लग गए।
व्याकरण से राधावन्तः शब्द तो बन जाएगा। शब्द बनने पर भी उस शब्द को प्रसङ्ग( प्रकरण) का समर्थन मिलना चाहिए और यहाँ शब्द को प्रसङ्ग का समर्थन नहीं है।
सिद्ध अर्थ मात्र व्याकरणव्यवहार से नहीं, अपितु प्रसङ्गानुरूप से भी होना चाहिए
ऐसे तो सभी अर्थ सिद्ध ही हो जाएंगे। जहाँ रावण के लिए वाल्मीकिजी या विश्वामित्रजी ने श्रीमान् शब्द का प्रयोग किया है, वहाँ श्री का अर्थ लक्ष्मी लेने से व्याकरण उसे सिद्ध करके लक्ष्मीपति बना देगा किन्तु प्रसङ्गविरोध उस शब्दसिद्धि के साधु होने पर भी अग्राह्य बताएगा, वहाँ श्रीमान् शब्द का अर्थ ऐश्वर्यसम्पन्न ही लगाएंगे।
तात शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ पिता होगा और कहाँ पुत्र, यह प्रसङ्ग ही बताएगा।
तातः= पुंल्लिंग (तनोति विस्तारयति गोत्रादिकमिति । तन + “दुतनिभ्यां दीर्घश्च ।” उणादि सूत्र ।३ ।९० । इति क्तः दीर्घश्च। अनुदात्तेति नलोपः) पिता पुत्र चाचा दादा आदि पारिवारिक जन ।
हरि शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ विष्णु होगा और कहाँ बन्दर, यह प्रकरण द्वारा ही बताया जाएगा।
पञ्चानन शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ शिव होगा और कहाँ सिंह, यह भी प्रकरण ही बताएगा। पञ्चं विस्तीर्णमाननमस्य पञ्चानन:- पाँच मुख वाला सिंह के चार मुख तो पंजे ही होते है और पाँचवाँ उसका स्वयं का मुख-
राधावन्तः शब्द को सिद्ध कर सकते हैं किन्तु प्रसङ्गसम्मत न होने से शब्द की वृषभानुजा राधा के सन्दर्भ में अर्थसिद्धि नहीं हो सकती।
प्रसिद्धहानिः शब्दानामप्रसिद्धे च कल्पना।
न कार्या वृत्तिकारेण सति सिद्धार्थसम्भवे॥
(श्लोकवार्त्तिक, प्रतिज्ञासूत्र, श्लोक ३५)
परम्परालब्ध प्रसङ्गसम्मत सिद्ध अर्थ के उपलब्ध होने पर भी अपारम्परिक प्रसङ्गविरुद्ध अर्थग्रहण सैन्धवं आनय के समान विभ्रमकारक और दोषपूर्ण है। पर्याय और लक्षण भी प्रसङ्ग से सम्मत ही होकर ग्राह्य होते हैं, विरुद्ध जाकर नहीं।
श्रीराधाजी के भजनप्रताप से वे लोग खड़े होकर बिना मस्तक के ही लड़ते थे, यह अर्थ है।
आश्चर्य है कि इतना अद्भुत विशेषण जो कि इतना महत्वपूर्ण है कि मस्तक कटने पर भी श्रीराधाप्रताप से वे कबन्धरूप से पुनः उठ खड़े हुए, फिर भी पूर्व के तत्ववेत्ता श्रीधराचार्य, श्रीवल्लभाचार्य, श्रीवीराघवाचार्य, श्रीवंशीधराचार्य, श्रीजीवगोस्वामीजीप्रभृति, श्रीविश्वनाथचक्रवर्ती आदि सबों ने इसमें कहीं श्रीराधाजी की इस अद्भुत महिमा का उल्लेख तक करना उचित नहीं समझा, अपितु धावन्तो आदि ही अर्थ किया।
श्रीराधाजी के इस अप्रकाशित माहात्म्य को अब जाकर इस विवाद के बाद प्रकाशित करने हेतु आप सभी गुरुजनों का आभार।
श्रीवेदव्यास के नाम से लिखने वाले धन्य हैं कि उन्होंने पूरे दशम स्कन्ध के पूर्वार्द्ध में जहाँ कदम कदम पर श्रीराधाजी का प्रत्यक्ष नाम आ सकता था, रासपञ्चाध्यायी आदि में, वहाँ लिखा ही नहीं और अष्टम स्कन्ध के देवासुरसंग्राम में जाकर लिख दिया।
भागवत में राधा नाम न आने पर भक्तों द्वारा यह अनुमान किया गया कि
स्वयं श्रीकृष्णरूप होने से शुकदेवजी ब्रह्मभावावेश के कारण 'राधा' शब्द के उच्चारणमात्र से छः महीनों के लिए मूर्च्छित हो जाते थे, और परीक्षित् की आयु सप्तदिनावधि ही शेष थी, अतः उनके हित की कामना से शुकदेवजी ने राधाजी का प्रत्यक्ष नाम नहीं लिया है।
कौशिकी संहिता के प्रमाण से गुरुजन कहते हैं
-कौशिकी संहिता मे भी आया है -
"अवैष्णव मुखाद् गाथा न श्रोतव्या कदाचन्।
शुक शास्त्र विशेषेण न श्रोतव्य वैष्णवात्।।वैष्णवोऽत्र सविज्ञेयो यौ विष्णोर्मुखमुच्यते।ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीत श्रुतेः ब्राह्मण एव सः।।(कौशिकी-संहिता -6/19-30)।
मुख्यतः पुराणों की कथा भागवत् की कथा किसी वैष्णववर्ण अथवा ब्राहमण वर्ण के मुख से ही सुनना चाहिए। वे वैष्णव जो भगवान् विष्णु के रोमकूपों से निर्गत हुए हैं, आभीर गोप वैष्णव लोग हैं। भगवान् विष्णु के मुख ब्राह्मण भी हैं।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि-
यही ऋचा यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
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ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
श्लोक का अनुवाद:- इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं। परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं ।जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूजय हैं।
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"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
"आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।
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जैसे ब्रह्मा की शारीरिक सृष्टि को ब्राह्मण कहा गया उसी प्रकार विष्णु की शारीरिक सृष्टि को वैष्णव कहा गया ।
जिस प्रकार शास्त्रों में ब्राह्मण वर्ण है उसी प्रकार वैष्णव भी ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्ण लिखा गया है ।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप है।
अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है। वेदों में इसी लिए विष्णु भगवान को गोप कहा गया है।
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ऋग्वेद में एक ऋचा व्रज के सम्बन्ध में मिलती है जो इस प्रकार है –
अर्थात इन्द्र स्तुति करते हैं कि ‘हे भगवन् श्री बलराम और श्रीकृष्ण ! आपके वे अति रमणीक स्थान हैं। उनमें हम जाने की इच्छा करते हैं, पर जा नहीं सकते (कारण, ‘अहो मधुपुरी धन्या वैकुण्ठाच्च गरीयसी।
विना कृष्ण प्रसादेन क्षणमेकं न तिष्ठति’ ।। यानी यह मधुपुरी धन्य और वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वैकुण्ठ में तो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से पहुँच सकता है, पर यहाँ श्रीकृष्ण की कृपा के बिना कोई एक क्षण भी नहीं ठहर सकता।)
यदुकुल में अवतार लेने वाले, उरुगाय (यानी बहुत प्रकार से गाये जाने वाले) भगवान वृष्णि का गोलोक नामक वह परमपद (व्रज) निश्चित ही भूलोक में प्रकाशित हो रहा है’।
तब फिर बतलाइये व्रजभूमि की बराबरी कौन स्थान कर सकता है ?
ॠग्वेद में विष्णु-सम्बन्धी जो ऋचनाएँ मिलती हैं, उनमें उनका अत्यन्त भव्य वर्णन हुआ है।
वे त्रिविक्रम है तीन पाद-प्रक्षेपों में समग्र संसार को नाप लेते हैं ऋग्वेद- १/१५४/५-६/
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
इसीलिए वे उरूगाय (विस्तीर्ण ) और उरूक्रम(विस्तीर्णपाद-प्रक्षेप वाले) कहे गये हैं। उनका तीसरा पद-क्रम सबसे ऊँचा है। उनके परमपद में मधु का उत्स है (मधुपुरी) है।
विष्णु पृथ्वी पर लोकों के निर्माता हैं, ऊर्ध्वलोक में आकाश को स्थिर करने वाले हैं तथा तीन डगों से सर्वस्व नापने वाले है। ऋग्वेद में विष्णु को अजेय "गोप विष्णुर्गोपा अदाभ्य: " ऋग्वेद (1 / 22/ 18) भी कहा गया है। उनके परमपद में भूरिश्रृंगा चंचल गायों का निवास है। ऋग्वेद(1 / 154 / 6)" उनका वह सर्वोच्च लोक गोलोक कहलाता है।
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
(अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करता है । और ये ही
(धर्माणि) धर्मों को धारण करता है ॥18॥
गोप ही इस लौकिक जगत् में सबसे पवित्र और धर्म के प्रवर्तक तथा धारक थे।
और इस लिए गोपों की सृष्टि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था से पूर्णत: पृथक है।
अत: ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के मानने वालों ने अहीरों को शूद्र तो कहीं वैश्य वर्णन कर उनके व्यक्तित्व का निर्धारण करने का प्रयास किया है।
परन्तु इनके कार्य सभी चारों वर्णों के होने पर भी ये वैष्णव वर्ण के थे। वैष्णव के अन्य नाम शास्त्रों में भागवत, सात्वत, और पाञ्चरात्र, भी है।वैष्णवों की महानता का वर्णन तो शास्त्र भी करते हैं।
ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ ।४४।।
अनुवाद:- वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।४४।
आगे कौशिकी-संहिता में वर्णन है कि
श्रीराधानाममात्रेण मूर्च्छा षाण्मासिकी भवेत्।
अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षित्हितकृन्मुनिः॥
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उपर्युक्त श्लोक का तृतीय और चतुर्थ पाद विचारणीय है -
"परीक्षित्हितकृन्मुनि: नोच्चारितं"। यहां परीक्षित्हितकृन्मुनिना स्पष्टं (श्रीराधानाम) नोच्चारितम् - ऐसा प्रयोग न करके "अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षित्हितकृन्मुनि:" यह प्रथमान्त प्रयोग कैसे ?
तो आप कहना होगा कि आधावन्तः को राधावन्तः और उसका अन्वय कबन्धाः के साथ करके असिद्ध को सिद्ध करने वाले महानुभाव "अतो नोच्चारितं स्पष्टं, (यस्मात्स) मुनिः परीक्षित्हितकृत्" ऐसा अर्थाध्याहार क्यों नहीं करते, जबकि ऐसे श्लोकप्रयोग बहुतायत से उपलब्ध भी हैं।
वैसे भी स्पष्ट कर ही दिया -
यथा प्रियङ्गुपत्रेषु गूढमारुण्यमिष्यते।
श्रीमद्भागवते शास्त्रे राधिकातत्त्वमीदृशम्॥
जैसे मेहन्दी के पत्तों में (बाहर से हरा होने पर भी) लालिमा अन्दर छिपी हुई, सर्वत्र व्याप्त रहती है वैसे ही श्रीमद्भागवत में राधिकातत्त्व बाहर से न दिखने पर भी अन्दर सर्वत्र निहित है।
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श्रीमद्भागवत क्या है ? श्रीकृष्ण की साक्षात् वाङ्मयी मूर्ति है। पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कहा - तेनेयं वाङ्मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः। और स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में भगवती कालिन्दी ने कहा है - आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका।
आत्माराम कृष्ण की आत्मा निश्चय ही राधिकाजी हैं।
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तो देह में आत्मा होती हुई भी, जैसे नहीं दिखती है, अदृश्यभाव से निहित होती है, मेहन्दी के पत्तों में लालिमा छिपी होती है, वैसे ही श्रीकृष्णरूपी शब्दकलेवर श्रीमद्भागवत में आत्मारूपी राधिका अदृश्यरूप से निहित हैं।
उनका प्रत्यक्ष नहीं, सांकेतिक वर्णन शुकदेवजी ने किया है।
"यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने।
सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम्॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय - ३०) उसी अध्याय में यह भी कहा - देखे नीचे-
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"अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः॥
इस श्लोक में श्रीराधिकाजी का संकेत है जो उचित भी है। रासक्रीड़ा के मध्य अन्य गोपियों को छोड़कर एक वरिष्ठ गोपी को भगवान् ले गए थे।
वेदों ने कहा कि वे गोपिका श्रीराधाजी ही तो हैं। ऋग्वेद के राधोपनिषत् ने कहा - वृषभानुसुता गोपी मूलप्रकृतिरीश्वरी। वह गोपी मूलप्रकृति, ईश्वरी, वृषभानु की पुत्री हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि दूसरे स्कन्ध में निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः, इस श्लोक से भी राधाजी का संकेत होता है। अन्यजन कहते हैं कि 'एवं पुरा धारणयात्मयोनिः' श्लोक में पु'रा-धा'रणया शब्द को जोड़ने से राधाजी दिखती हैं। किन्तु अनयाराधितो वाले श्लोक के समान इनमें प्रसङ्गबल प्राप्त नहीं होता।
अब हम इसपर चर्चा करते हैं कि श्रीराधाजी का जन्म जिन वृषभानुगोप और माता कलावती/कीर्तिदा/कीर्ति के घर हुआ, वे कौन हैं ? पूरा प्रसङ्ग तो बताना विस्तारभय से सम्भव नहीं, मात्र प्रधान घटनाक्रम और श्लोकों को सन्दर्भित करते हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण एवं गर्गसंहिता-से उद्धृत श्लोक-
"श्रीबहुलाश्व उवाच
वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत्।
कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि॥
"श्रीनारद उवाच
नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः।
चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः॥
पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः।
कलावती रत्नमाला मेनका नाम नामतः॥
कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते।
वैदेहाय रत्नमालां मेनकां च हिमाद्रये॥
पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः।
सीताभूद्रत्नमालायां मेनकायां च पार्वती॥
द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते।
अनुवाद:-
राजा बहुलाश्व ने पूछा - वृषभानु का कितना बड़ा सौभाग्य था कि राधाजी उनकी बेटी के रूप में आयीं। कलावती और सुचन्द्र ने पिछले जन्म में ऐसा क्या पुण्य किया था ? देवर्षि नारद बोले - महाराज नृग ने पुत्र के सुचन्द्र हुए जो विष्णु भगवान् के ही अंश और अत्यन्त सुन्दर थे।
पितरों की तीन मनोहर मानस पुत्रियाँ थीं - रत्नमाला, मेनका और कलावती। इसमें कलावती का विवाह बुद्धिमान् सुचन्द्र से हुआ। रत्नमाला का विवाह विदेहराज जनक से और मेनका का हिमालय से हुआ।
इसमें रत्नमाला की पुत्री के रूप में सीताजी और मेनका की पुत्री पार्वती हुईं जिनका चरित्र विस्तार से पुराणों में बताया गया है।
फिर इतनी बात कहकर नारद जी ने सुचन्द्र और कलावती की तपस्या का वर्णन किया और बताया कि कैसे ब्रह्मदेव उन्हें वरदान देने आए।
उन्होंने प्रसन्न होकर मात्र सुचन्द्र को मोक्ष देने का प्रस्ताव रखा तो कलावती ने कहा कि मेरे पति का मोक्ष हो जाएगा तो मेरा क्या होगा ?
तब ब्रह्मदेव ने कहा कि मोक्ष का कोई दूसरा उपाय देखते हैं -
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युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया ।
भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः॥
"श्रीनारद उवाच -
इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा।
कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः॥
कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च।
जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्भवा॥
सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत्।
जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः॥
सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः।
तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः॥
वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात्॥
(गर्गसंहिताखण्ड, गोलोकखण्ड, अध्याय -8)
अनुवाद:-
ब्रह्मदेव ने कहा - परिपूर्णत्तम श्रीकृष्ण की प्रिया राधा जब तुम्हारी पुत्री के रूप में आएंगी तब तुम दोनों मोक्ष को प्राप्त कर जाओगे। नारद मुनि कहते हैं - ब्रह्मदेव के दिव्य और अमोघरूपी वरदान के कारण सुचन्द्र और कलावती ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया।
इसमें कन्नौज के राजा भलन्दन के यज्ञ में अग्निकुण्ड से कलावती (कीर्तिदा के नाम से) दिव्यरूप से प्रकट हुईं और सुरभानु के यहाँ सुचन्द्र ने वृषभानु के नाम से जन्म लिया।
तात्पर्य यह कि यज्ञ करते समय इनका जन्म हुआ।
वे दूसरे कामदेव के समान सुन्दर थे और उन दोनों को अपने पूर्वजन्म की बातें जातिस्मरसिद्धि के कारण स्मरण थीं। इन दोनों से बुद्धिमान् नन्दराय जी ने अपना रिश्ता जोड़ लिया।
वृषभानु और कलावती का यह आख्यान सुनने वाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त होकर श्रीकृष्ण के सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।
"सनत्कुमार उवाच"
पितॄणां तनयास्तिस्रःशृणुत प्रीतमानसाः।
वचनं मम शोकघ्नं सुखदं सर्वदैव वः ।।२७।।
विष्णोरंशस्य शैलस्य हिमाधारस्य कामिनी ।।
ज्येष्ठा भवतु तत्कन्या भविष्यत्येव पार्वती ।।२८।
धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च ।।
तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति।। २९।।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखंडे पूर्वगतिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।
(शिवपुराण, रुद्रसंहिता, पार्वतीखण्ड, अध्याय - २)
अनुवाद:-
यह वृत्तान्त शिवपुराण में निम्न प्रकार से वर्णित है। जो सबसे बड़ी मेनका है, वह विष्णु के अंशभूत हिमालय(हिमवत) की पत्नी बनेगी, जिसकी पुत्री पार्वती होंगी। जो दूसरी धन्या नाम की योगसम्पन्न कन्या है, वह सीरध्वज जनक की पत्नी बनेगी जिसकी पुत्री के रूप में महालक्ष्मी सीताजी का रूप धारण करके आएंगी।
जो सबसे छोटी कन्या कलावती है, वह वृषभानु वैश्य (गोप) की पत्नी बनेगी और द्वापरयुग के अन्त में उसकी पुत्री राधा बनेगी।
पार्वती के वरदान से मेनका अपने पति के साथ सदेह परमधाम कैलास जाएगी। धन्या के साथ महायोगी विदेह जनक अपनी पुत्री सीता के कारण जीवन्मुक्त होकर वैकुण्ठलोक को जाएंगे।अपनी पुत्री राधा के साथ वृषभान और कलावती गोलोक जाएंगे, इसमें संशय नहीं है।
श्रीराधाजी के जन्म का एक सुन्दर वृत्तान्त पद्मपुराण में वर्णित राधाष्टमी व्रतकथा के अन्तर्गत भी मिलता है।
1. हे परम ज्ञानी, हे अति बुद्धिमान, मुझे बताओ कि मनुष्य किस कर्म के कारण संसार रूपी समुद्र से, जिसे पार करना मुश्किल है, गायों की दुनिया( गोलोक) में जाता है और, हे सूत, राधाष्टमी और उसके उत्कृष्ट महत्व के बारे में बताऐं ।
" सूत ने कहा :
2. हे ब्राह्मण , हे महान ऋषि, पूर्व में नारद ने ब्रह्मा से यह पूछा था । संक्षेप में सुनिए, उसने उससे क्या पूछा था।
" नारद ने कहा :
3-5। हे प्रपौत्र, हे परम ज्ञानी, हे सर्व पवित्र ग्रंथों को जानने वालों में श्रेष्ठ, हे प्रिय, मुझे (के बारे में) राधाजन्माष्टमी बताओ। हे स्वामी इसका धर्म फल क्या है ?
पुराने दिनों में इसे किसने देखा ?
हे ब्राह्मण , जो लोग इसका पालन नहीं करते हैं उनका क्या पाप होगा ?
व्रत का पालन किस प्रकार करना चाहिए ?
इसे कब मनाया जाना है ? मुझे (सब) बताओ कि आदि से, जिससे राधा का जन्म हुआ।
ब्रह्मा ने कहा :
6-12। हे बालक, राधाजन्माष्टमी (के व्रत का वर्णन) को बहुत ध्यान से सुनो। सारा हिसाब संक्षेप में बताता हूँ।
हे नारद, विष्णु के अतिरिक्त इसके पुण्य फल के बारे में बताना (किसी के लिए) संभव नहीं है। वह ब्राह्मण की हत्या जैसा पाप, जिन्होंने इसे एक करोड़ जन्मों के माध्यम से अर्जित किया है, एक क्षण में नष्ट हो जाता है, (जब) वे भक्तिपूर्वक (यानी व्रत) का पालन करते हैं। राधाजन्माष्टमी का धार्मिक फल उस फल से सौ गुना अधिक है जो मनुष्य एक हजार एकादशी (दिनों का व्रत) रखने से प्राप्त करता है। राधाष्टमी का पुण्य एक बार करने से जो फल मिलता है, वह मेरु के बराबर सोना देने से सौ गुना अधिक होता है।(पर्वत)। लोग राधाष्टमी से वह फल प्राप्त करते हैं, जो (पुण्य) वे एक हजार कन्याओं (विवाह में) देकर प्राप्त करते हैं। मनुष्य को कृष्ण की प्रिय अष्टमी (अर्थात् राधाष्टमी) का वह फल प्राप्त होता है, जो उसे गंगा जैसे पवित्र स्थानों में स्नान करने से प्राप्त होता है । (यहाँ तक कि) एक पापी जो इस व्रत का आकस्मिक रूप से या श्रद्धापूर्वक पालन करता है, वह अपने परिवार के एक करोड़ सदस्यों के साथ विष्णु के स्वर्ग में जाएगा।
13-20। हे बालक, पूर्व में कृतयुग में एक उत्कृष्ट, बहुत सुंदर स्त्री, एक सुंदर (यानी पतली) कमर वाली, एक मादा हिरण की तरह आँखें वाली, एक सुंदर रूप वाली, सुंदर केश वाली, सुंदर कान वाली, लीलावती के नाम से जानी जाती थी. उसने बहुत घोर पाप किया था। एक बार वह धन की लालसा में अपने नगर से निकलकर दूसरे नगर में चली गई। वहाँ, एक सुंदर मंदिर में, उसने कई बुद्धिमान लोगों को राधाष्टमी व्रत का पालन करते हुए देखा।
वे चंदन, पुष्प, धूप, दीप, वस्त्र के टुकड़े और नाना प्रकार के फलों से राधा की उत्कृष्ट प्रतिमा की भक्तिपूर्वक पूजा कर रहे थे। कुछ ने गाया, नृत्य किया, स्तुति के उत्कृष्ट भजन का पाठ किया।
कुछ (अन्य) खुशी से वीणा बजाते थे और ढोल पीटते थे।
उन्हें इस प्रकार देखकर कौतूहल से भरी हुई वह उनके पास गई और विनयपूर्वक उनसे बोलीः “हे धार्मिक मनवालो, तुम आनंद से भरे हुए क्या कर रहे हो? हे गुणवानों, मुझे बताओ कि कौन विनम्रता से भरा हुआ है (जो तुम कर रहे हो)।
21-24। वे भक्त व्रत का पालन करने वाले और दूसरों को उपकार करने और उनका भला करने में रुचि रखते हुए बोलने लगे।
जिन लोगों ने राधा (-अष्टमी) व्रत का पालन किया था, उन्होंने कहा: "आज वह आठवां दिन आया है - यानी शुक्ल पक्ष के आठवें दिन - राधा का जन्म हुआ था।
हम इसे ध्यान से देख रहे हैं। गाय की हत्या, चोरी या ब्राह्मण की हत्या से उत्पन्न पाप या किसी दूसरे की पत्नी को हरण करने से उत्पन्न होने वाले पाप के समान यह अष्टमी (इस प्रकार) मनुष्य के पापों को शीघ्र नष्ट कर देती है।
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व्यक्ति, या (एक पुरुष के) अपने शिक्षक के बिस्तर (यानी पत्नी) का उल्लंघन करने के कारण।
25-42। उनकी बातें सुनकर और बार-बार मन ही मन सोचती हुई, 'मैं (इस व्रत का) पालन करूँगी, जो सभी पापों को नष्ट कर देता है' उसने वहाँ उपस्थित लोगों के साथ उस उत्तम व्रत का पालन किया। उस पवित्र स्त्री की मृत्यु सर्प द्वारा चोट लगने (अर्थात् डसने) के कारण हुई। तब ( यम के) दूत हाथों में पाश और हथौड़े लिए हुए यम की आज्ञा से वहाँ आए और उसे बहुत ही दर्दनाक तरीके से बाँध दिया।
जब उन्होंने उसे यम के निवास पर ले जाने का फैसला किया, तो विष्णु के दूत शंख और गदा लेकर आए (वहाँ)। (वे अपने साथ लाए थे) सोने का बना हुआ एक शुभ वायुयान, जिसमें राजकीय हंस जुते हुए थे। उन्होंने शीघ्र ही चक्रों के किनारों को काटकर उस स्त्री को जिसका पाप दूर हो गया था, रथ पर बिठा दिया।
वे उसे विष्णु के आकर्षक नगर गोलोक में ले गए, जहाँ वह मन्नत की अनुकूलता के कारण कृष्ण और राधा के साथ रही।
हे प्रिय, जो मूर्ख राधाष्टमी के व्रत का पालन नहीं करता है, उसे सैकड़ों करोड़ कल्पों के लिए भी नरक से मुक्ति नहीं मिलती है ।
वे स्त्रियाँ भी जो कल्याणकारी, राधा और विष्णु को प्रसन्न करने वाले, समस्त पापों का नाश करने वाले इस व्रत का पालन नहीं करतीं, वे अंत में यम के नगर में जाती हैं
और दीर्घकाल के लिए नरक में गिरती हैं।
यदि वे संयोग से पृथ्वी पर जन्म लेते हैं, तो वे निश्चित रूप से विधवा हो जाती हैं। हे बालक, एक बार (इस) पृथ्वी पर दुष्टों के दल ने आक्रमण कर दिया।
वह अत्यंत असहाय होकर गाय बन गई और मेरे पास आ गई। वह बार-बार रो-रोकर अपनी व्यथा मुझसे कह रही थी। उसकी बातें सुनकर मैं विष्णु के सान्निध्य में गया।
मैंने जल्दी से कृष्ण (अर्थात् विष्णु) को उसके दुःख की तीव्रता बता दी। उसने (मुझसे) कहा: "हे ब्राह्मण, देवताओं के साथ पृथ्वी पर जाओ।
बाद में मैं भी अपने सेवकों के साथ वहाँ जाऊँगा।” यह सुनकर मैं देवताओं सहित पृथ्वी पर आ गया।
तब कृष्ण ने राधा (जो उनके लिए थीं) को अपने प्राणों से भी बड़ा बताते हुए (ये) शब्द (उन्हें) कहे; “हे देवी, मैं पृथ्वी के बोझ को नष्ट करने के लिए पृथ्वी पर जा रहा हूँ। तुम (भी) पृथ्वी पर जाओ। उन (शब्दों) को सुनकर, राधा भी तब पृथ्वी पर चली गईं।
वह राधिका भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में अष्टमी नामक दिन को वृषभानु की यज्ञ भूमि पर दिन के समय प्रकट हुईं ।
यज्ञ के लिए शुद्ध होने पर वह दिव्य रूप धारण करके (वहाँ) प्रकट हुई।
राजा ने मन ही मन प्रसन्न होकर उसे अपने घर ले जाकर अपनी रानी को सौंप दिया।
उसने उसका पालन-पोषण भी किया।
43. इस प्रकार हे बालक, जो बातें मैं ने तुझ से कही हैं वे गुप्त रहें, गुप्त रहें, और सावधानी से गुप्त रहें।
सूता ने कहा :
44. जो मनुष्य (मनुष्य जीवन के) चारों लक्ष्यों का फल देने वाले इस (व्रत का लेखा-जोखा) श्रद्धापूर्वक सुनेगा, वह सब पापों से मुक्त होकर अन्त में विष्णु के घर जाता है।
श्रीदामशापाद्दैवेन गोपी राधा च गोकुले ।। वृषभानुसुता सा च माता तस्याः कलावती ।९२। कृष्णस्यार्द्धांगसंभूता नाथस्य सदृशी सती । गोलोकवासिनी सेयमत्र कृष्णाज्ञयाऽधुना ।९३। अयोनिसंभवा देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी । मातुर्गर्भं वायुपूर्णं कृत्वा च मायया सती ।। ९४। वायुनिःसरणे काले धृत्वा च शिशुविग्रहम् ।। आविर्बभूव मायेयं पृथ्व्यां कृष्णोपदेशतः।९५। वर्धतेसा व्रजे राधा शुक्ले चंद्रकला यथा। श्रीकृष्णतेजसोऽर्द्धेन सा च मृर्तिमती सती।९६। एका मूर्तिर्द्विधाभूता भेदो वेदे निरूपितः । इयं स्त्री सा पुमान् किंवा सा वा कांता पुमानयम्।९७।।(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)
अनुवाद:- अर्थ यह है कि मूलप्रकृति राधाजी अयोनिजा हैं। माता के गर्भवती अवस्था में मात्र वायु से उनका उदर बढ़ रहा था। प्रसव के समय बस योनि से वायु का ही निःसरण हुआ, उसके बाद श्रीकृष्ण भगवान् के (गोलोक में) कहे अनुसार बाहर ही शिशु के रूप में तत्काल राधिका प्रकट हो गयी थीं।
शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन वे बढ़ने लगीं। श्रीकृष्ण की मूर्ति ही दो रूपों में राधा-कृष्णमय है।
एक का ही दो होना, यह मूर्तिभेद वेदों में वर्णित है। (वैदिक प्रमाण आगे दृष्टव्य है।)
भगवान् श्रीकृष्ण ने भी बताया है कि राधा और उनकी माता, सीता और उनकी माता, दुर्गा (पार्वती) और उनकी माता, यह सब अयोनिजा ही हैं।
सनत्कुमारीय योगरहस्योपनिषत् में सनकादि कुमारों ने श्रीनारदजी को कहा था कि राधा के साथ स्वामी श्रीकृष्ण की तीनों काल में पूजा करनी चाहिए - त्रिकालं पूजयेत्कृष्णं राधया सहितं विभुम्।
नारदजी के पूछने पर सनत्कुमारों ने श्रीराधाजी का जो तात्त्विक परिचय दिया था, वह इस प्रकार है -
प्रेमभक्त्युपदेशाय राधाख्यो वै हरिः स्वयम्।
वेदे निरूपितं तत्त्वं तत्सर्वं कथयामि ते॥
उत्सर्जने तु रा शब्दो धारणे पोषणे च धा।
विश्वोत्पत्तिस्थितिलयहेतू राधा प्रकीर्तिता॥
वृषभं त्वादिपुरुषं सूयते या तु लीलया।
वृषभानुसुता तेन नाम चक्रे श्रुतिः स्वयम्॥
गोपनादुच्यते गोपी गो भूवेदेन्द्रियार्थके।
तत्पालने तु या दक्षा तेन गोपी प्रकीर्तिता॥
गोविन्दराधयोरेवं भेदो नार्थेन रूपतः।
श्रीकृष्णो वै स्वयं राधा या राधा स जनार्दनः॥
(सनत्कुमारीय योगरहस्योपनिषत् ०७/४-८)
आदर्श प्रेम तथा भक्ति का अपनी जीवन के माध्यम से उपदेश देने के लिये श्रीहरि स्वयं ही 'राधा' नामसे प्रसिद्ध हुए।
वेद में इनके तत्त्व का जिस प्रकार निरूपण हुआ है, वह सब प्रस्तुत करते हैं। 'रा' शब्द समर्पण या त्याग के अर्थ में प्रयुक्त होता है और 'धा' शब्द धारण एवं पोषण के अर्थ में।
इसके अनुसार राधा इस विश्व की उत्पत्ति, पालन तथा लय की हेतुभूता कही गयी गयी हैं।
आदिपुरुष विराट् ही वृषभ है, उसको निश्चय ही वे लीलापूर्वक उत्पन्न करती हैं; अतः स्वयं श्रुतिने उनका नाम 'वृषभानुसुता' रख दिया है। वे सबका गोपन (रक्षण) करनेसे 'गोपी' कहलाती हैं।
'गो' शब्द गौ, भूमि, वेद तथा इन्द्रियों के अर्थ में प्रसिद्ध है। राधा इन 'गो' शब्दवाच्य सभी का श्लिष्टार्थ में पालन करने में सक्षम हैं, इसलिये भी 'गोपी' कही गयी हैं। इस प्रकार गोविन्द तथा श्रीराधामें केवल बाह्य रूप का अन्तर है, अर्थ की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है।
श्रीकृष्ण स्वयं राधा हैं और जो राधा हैं, वे साक्षात् श्रीकृष्ण हैं। अब हम राधाकृष्ण शब्द के शास्त्रोक्त अर्थ पर विचार करेंगे।
"राशब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम्।
धाशब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम्॥
कृष्णवामांशसम्भूता राधा रासेश्वरी पुरा।
तस्याश्चांशांशकलया बभूवुर्देवयोषितः॥
रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचकः।
ततोऽवाप्नोति मुक्तिं च तेन राधा प्रकीर्तिता॥
बभूव गोपीसङ्घश्च राधाया लोमकूपतः।
श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ४८)
अनुवाद:-
रा शब्द के उच्चारणमात्र से भक्त अत्यन्त दुर्लभ मुक्ति को प्राप्त करता है और धा शब्द के उच्चारण होने पर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के धाम की ओर वह बढ़ने लगता है। पूर्वकाल में रासेश्वरी राधाजी श्रीकृष्ण के बाएं भाग से प्रकट हुई थीं और उनके अंशों के अंश से अन्य देवताओं की स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं।
रा शब्द का अर्थ आदान है, धा शब्द का अर्थ मुक्ति है। उनके माध्यम से व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होती है, अतः उन्हें राधा कहते है। श्रीराधाजी के रोमकूप से समस्त गोपियाँ और श्रीकृष्ण के रोमकूप से सभी गोपजन उत्पन्न हुए हैं, ऐसा समझना चाहिए।
इस पूरे ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण रहस्य मैं जानता हूँ, ब्रह्माजी जानते हैं, शेषनाग जानते हैं, भगवान् शिव जानते हैं, धर्मराज जानते हैं, सनत्कुमार और नरनारायण ऋषि जानते हैं, कपिलदेव और भगवान् गणेश जानते हैं, देवी दुर्गा जानती हैं, लक्ष्मीजी और देवी सरस्वती जानती हैं, सभी वेद जानते हैं, वेदमाता गायत्री और सर्वज्ञा राधिका जानती हैं। ये सब विश्व को सम्पूर्णता से जानते हैं, इनके अतिरिक्त कोई नहीं।
पुनः आगे कहा -
"रासे सम्भूय रामा सा दधार पुरतो मम।
तेन राधा समाख्याता पुरा विद्भिः प्रपूजिता॥
प्रहृष्टा प्रकृतिश्चास्यास्तेन प्रकृतिरीश्वरी।
शक्ता स्यात्सर्वकार्येषु तेन शक्तिः प्रकीर्तिता॥
अनुवाद:-
रास में आकर उन्होंने मुझे पकड़ लिया, धारण कर लिया था, अतः उन्हें विद्वानों ने राधा कहकर पूजन किया। उनका स्वभाव प्रसन्न रहने का है, अतः प्रकृति और ईश्वरी कहते हैं। सभी कार्यों में समर्थ होने के कारण शक्ति कहलाती हैं।
"गोपनादुच्यते गोपी राधिका कृष्णवल्लभा।
देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ८१)
अनुवाद:-
सबों की रक्षा करने से कृष्ण की वल्लभा राधा को गोपी कहते हैं। वह परम देवता राधा कृष्णमयी हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में सामवेद की परम्परा के अनुसार राधा शब्द का अर्थ ब्रह्मदेव को भगवान् नारायण ने बताया है।
'र'कार करोड़ों जन्मों के पापसमूह और शुभाशुभ कर्मभोग को कहते हैं। 'आ'कार गर्भवास और मृत्यु आदि को व्यक्त करता है। 'ध'कार आयु की हानि और 'आ'कार संसाररूपी बन्धन को दर्शाता है। राधानाम के श्रवण और स्मरण से यह सब अर्थ और विकार नष्ट हो जाते हैं और नवीन अर्थ हो जाता है।
'र'कार से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में निश्चल भक्ति और सेवाभाव की उपलब्धि हो जाती है। सभी प्रकार के आनन्द और सिद्धियों का समूह द्योतित होता है। 'ध'कार से श्रीकृष्ण के साथ नित्य रहना होता है और उनके सायुज्य तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है।
आ'कार से उनके ही समान तेजस्विता और दानशक्ति का बोध होता है। योगबल और सदैव श्रीकृष्णचिन्तन प्राप्त होता है।
अब श्रीकृष्ण कौन हैं ?
ककारः कमलाकान्त ऋकारो राम इत्यपि।
षकारः षड्गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत्॥
णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक्।
विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी॥
सम्प्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छुद्धे महात्मनि।
परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः॥
(गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड, अध्याय - १५)
अनुवाद:-
'कृष्णः' शब्द में 'क्' का अर्थ है, कमला अर्थात् लक्ष्मीदेवी का स्वामी। 'ऋ' का अर्थ है सबों को चित्त को अपने मे रमण कराने वाले राम। 'ष्' का अर्थ है श्वेतद्वीप में निवास करने वाले बल, तेज, ज्ञानादि षडैश्वर्य के अधिपति विष्णु। 'ण्' का अर्थ है, सभी नरसंज्ञक जीवों में सिंह के समान अग्रणी नरसिंह। 'अ' का अर्थ कभी नष्ट न होने वाला अक्षरपुरुष, जो अग्निभोजी (सर्वयज्ञानां भोक्ता) है। कृष्ण शब्द में प्राणसञ्चारक विसर्ग साक्षात् जीवात्मा एवं परमात्मारूपी नर एवं नारायण ऋषि हैं। जिस शुद्धस्वरूप महान् आत्मा (चेतन) में यह छः अर्थ पूर्ण रूप से लीन हैं, उस परिपूर्णतम तत्त्व को 'कृष्ण' कहा जाता है।
श्रीधरस्वामी महाभारत के आश्रय से व्यक्त करते हैं -
कृषि शब्द से पृथ्वी (जगत्) का वाचन होता है और ण अक्षर निर्वृत्ति का वाचक है। इस प्रकार से सत्वगुण का विस्तार करने वाले विष्णु संसार से मुक्त करने के कारण कृष्ण कहलाते हैं। आकृष्ट करने से भी कृष्ण हैं - कर्षणात्कृष्णः। और कृष् विलेखने- से कृषक और पशुपालक भी कृष्ण को श्लेषमयी अर्थ हैं ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
जगन्माता च प्रकृतिः पुरुषश्च जगत्पिता।
गरीयसीति जगतां माता शतगुणैःपितुः॥
राधाकृष्णेति गौरीशेत्येवं शब्दःश्रुतौ श्रुतः।
कृष्णराधेशगौरीति लोके न च कदा श्रुतः॥
अनुवाद:-
प्रकृति संसार की माता है और पुरुष संसार का पिता है। जगत्पिता की अपेक्षा जगन्माता सौ गुणा महान् है। वेदों में राधाकृष्ण, गौरीश आदि शब्द ही सुनने में आते हैं, कृष्णराधा या ईशगौरी नहीं। फिर आगे स्पष्ट कहा -
जो पहले पुरुष का नाम लेकर बाद में प्रकृति का नाम लेता है, हे नारद ! उसे वेद की मर्यादा का अतिक्रमण करने के कारण माता से सम्भोग करने का पाप लगता है। एक और प्रमाण देखें -
गौरतेजो विना यस्तु श्यामतेजस्समर्चयेत्।
जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत्पातकी शिवे॥
सन्दर्भ-ग्रन्थ:-(सम्मोहनतन्त्र)
भगवान् शिव भी कहते हैं - हे शिवे ! गौरतेज (श्रीराधा) के बिना जो श्यामतेज (श्रीकृष्ण) की पूजा, जप अथवा ध्यान करता है, वह पातकी होता है।
श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये शाण्डील्योपदिष्ट व्रजभूमिमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथोमोऽध्यायः॥१॥
अनुवाद:-
उन श्रीकृष्ण की आत्मा राधिका हैं और उनके साथ ही रमण करने से इस रहस्य को जानने वाले बुद्धिमान् उन्हें आत्माराम कहते हैं। आत्मा से युक्त होकर ही देह सार्थक है। शक्ति से युक्त शक्तिमान् की सार्थकता है, अतः कहा -
बुद्धिमान् को चाहिए कि पहले राधा और फिर कृष्ण का उच्चारण करे। विपरीत करने से उसे ब्रह्महत्या लगती है, इसमें संशय नहीं है।
कथाविस्तार के भय से वृत्तान्त का सार ही प्रस्तुत है । वैष्णव परम्परा में शुकदेव-परीक्षित् संवादात्मक श्रीमद्भागवत और उपपुराणभूत अनुभागवत है जिसे आदिपुराण अथवा सनत्कुमार पुराण भी कहते हैं।
शाक्त परम्परा में वेदव्यास-जनमेजय संवादात्मक देवीभागवत और उसका उपपुराणभूत महाभागवत है, जिसे देवीपुराण भी कहते हैं। इस दौनों के अतिरिक्त एक अन्य देवीपुराण भी है। हेमाद्रि आदि के वचनों से कालिकापुराण की मूलभागवत संज्ञा है।
श्रीशुकदेवजी के निजी भाववश श्रीमद्भागवत में राधानाम प्रत्यक्ष नहीं आया है किन्तु जहाँ ऐसी परिस्थिति नहीं थी, ऐसे देवीभागवत और महाभागवत आदि में श्रीराधाजी का प्रत्यक्ष नाम और चरित्र वर्णित है।
तान्त्रिक परम्परा में तो कहते हैं कि जहाँ श्रीराधाजी का नाम आ जाए और गायत्री का आख्यान हो, वही ग्रन्थ श्रीमद्भागवतसंज्ञक हो जाता है। पञ्चभागवतों का सङ्केत यहाँ भी प्राप्त है -
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एतद्धि पद्मिनीतन्त्रं श्रीमद्भागवतं स्मृतम्।
येषु येषु च शास्त्रेषु गायत्री वर्तते प्रिये॥
पञ्चविष्णोरुपाख्यानं यत्र तन्त्रेषु दृश्यते।
पद्मिन्याश्च गुणाख्यानं तद्धि भागवतं स्मृतम्॥
(वासुदेवरहस्य, राधातन्त्र, अष्टादश पटल)
अनुवाद:-
राधातन्त्र के इसी पटल में कात्यायनी देवी का व्रत करने वाली कृष्ण की कामना करने वाली कन्याओं को कृष्णप्राप्ति का वरदान मिलने का वर्णन है -
"कात्यायन्युवाच
मा भयं कुरुषे पुत्रि कृष्णं प्राप्स्यसि साम्प्रतम्।
आगे कहते हैं -
संस्थिता पद्मिनी राधा यावत्कृष्णसमागमः।
अन्याभिर्गोपकन्याभिर्वर्द्धमाना गृहे गृहे॥
अनुवाद:-
राधातन्त्र में श्रीकृष्ण को कालिकारूप भी कहा है।
कृष्णस्तु कालिका साक्षात् राधाप्रकृतिपद्मिनी।
हे कृष्ण राधे गोविन्द इदमुच्चार्य यत्नतः॥
(वासुदेवरहस्य, राधातन्त्र, उनतीस -(29)पटल)
महाभागवत में भी श्रीशिव का राधावतार और देवी का श्रीकृष्णावतार सन्दर्भित है -
कदाचिद्राधिका शम्भुश्चारुपञ्चमुखाम्बुजः।
कृष्णो भूत्वा स्वयं गौरी चक्रे विहरणं मुने॥
(महाभागवत उपपुराण, अध्याय - ५३, श्लोक - १५)
मुण्डमाला तन्त्र में भगवती कहती हैं -
गोलोके चैव राधाहं वैकुण्ठे कमलात्मिका।
ब्रह्मलोके च सावित्री भारती वाक्स्वरूपिणी॥
(मुण्डमालातन्त्र, सप्तम पटल, श्लोक - ७४)
अनुवाद:-
मैं गोलोक में राधा हूँ, वैकुण्ठ में लक्ष्मी हूँ, ब्रह्मलोक में सावित्री, भारती और सरस्वती के रूप से रहती हूँ।
नारदपुराण का भी यही मत है -
कृष्णो वा मूलप्रकृतिः शिवो वा राधिका स्वयम्।
एवं वा मिथुनं वापि न केनापीति निश्चितम्॥
(नारदपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ५९)
"पुरा सृष्टिक्रमे जाताः समुद्राः सप्त मोहिनि।
राधिका गर्भसम्भूता दिव्यदेहाः पृथग्विधाः॥
ते सप्त सागरा बालाः स्तन्यपानकृतक्षणाः।
ततस्ते सर्वतो दृष्ट्वा मातरं तां जगत्प्रसूम्॥
मा भैष्ट पुत्रास्तिष्ठामि समीपे भवतामहम्।
द्रवरूपा भवन्तस्तु पृथग्रूपचराः सदा॥
वर्तध्वं क्षारतां यातु कनिष्ठोऽभ्यन्तरे स्थितः।
एवमुक्त्वा जगन्नाथो बालकान्विससर्ज ह॥
तेषां तु सान्त्वनोर्थाय समीपस्थः सदाभवत्॥
यः प्रविष्टो रतिगृहं स क्षारोदो बभूव ह।
अन्ये तु द्रवरूपा वै क्षीरोदाद्याः पृथक् स्थिताः॥
(नारदपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ५८)
शिवपुराण, देवीभागवत आदि के अनुसार राधाजी के शाप के कारण सुदामा गोप को दैत्ययोनि में शङ्खचूड के रूप में जन्म लेना पड़ा था अतः बदले में राधाजी को उन्होंने शाप दिया कि आपको सौ वर्षों का श्रीकृष्णवियोग होगा। अतः संसार की दृष्टि से श्रीराधाकृष्ण का प्रत्यक्ष मिलन नहीं हुआ। उनका गुप्त विवाह ब्रह्मा जी ने भाण्डीरवट के समीप कराया था।
प्रधान श्लोक प्रस्तुत हैं पूरा प्रसङ्ग सम्बन्धित ग्रन्थ के प्रकरण में स्वयं परिश्रम करके पढ़ें। श्लोक २१ देखें, ब्रह्मदेव ने विवाह कराने से पूर्व कहा -
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे श्रीराधिकाविवाहवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः।१६।
अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१ ॥
अनुवाद:-
जो अनादि हैं, सबके आदि हैं, पुरुषोत्तमों के भी पुरुषोत्तम हैं, अपने भक्तों पर कृपा करने वाले ऐसे परात्पर ब्रह्म, असंख्य ब्रह्माण्डों के स्वामी, राधा के पति आप श्रीकृष्णचन्द्र की मैं शरण में जाता हूँ। फिर आगे बहुत लम्बी स्तुति है, विवाह के विधानों का वर्णन करने के बाद श्लोक ३४ में देखें -
संवासयामास सुपीठयोश्च तौ
कृताञ्जली मौनयुतौ पितामहः।
तौ पाठयामास तु पञ्चमन्त्रकं
समर्प्य राधां च पितेव कन्यकाम्॥
अनुवाद:-
मौन होकर पितामह ब्रह्माजी ने उन दोनों को उत्तम आसन पर बैठाकर हाथ जोड़कर विवाहसम्बन्धी पांच मन्त्र पढ़वाकर, पिता के समान राधाजी का कन्यादान करके उन्हें श्रीकृष्ण को सौंप दिया।
इस समय राधाकृष्ण का शरीर किशोरावस्था के समान था। विवाह के बाद उनकी दाम्पत्यलीला का वर्णन है, फिर श्लोक ५० में देखें -
"हरेश्च शृङ्गारमलं प्रकर्तुं
समुद्यता तत्र यदा हि राधा।
तदैव कृष्णस्तु बभूव बालो
विहाय कैशोरवपुः स्वयं हि॥
अनुवाद:-
जब श्रीहरि की शृङ्गारलीला पूर्ण हुई तो श्रीराधाजी ने विश्राम का विचार किया और श्रीकृष्ण अपने किशोरस्वरूप को छोड़कर छोटे बच्चे बन गए। इसके बाद उनके बालकों के समान भूमि पर लोटने और रोने का वर्णन है, जिससे वियोगवश राधाजी व्यथित हो गयीं किन्तु शाप को स्मरण करके उन्होंने श्रीकृष्ण को गोद मे उठाया और वन से उनके घर ले गयीं। तब श्रीकृष्ण को सकुशल देखकर यशोदाजी ने कहा -
"उवाच राधां नृप नन्दगेहिनी
धन्यासि राधे वृषभानुकन्यके
त्वया शिशुर्मे परिरक्षितो भया-
न्मेघावृते व्योम्नि भयातुरो वने॥
(गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड, अध्याय - १६, श्लोक - ५४)
अनुवाद:-नन्दपत्नी यशोदाजी ने अपने पुत्र को देखकर राधाजी से कहा - हे वृषभानु की पुत्री राधिके ! तुम धन्य हो। आज बहुत तेज वर्षा होने वाली है और मेरा बालक वन की ओर चला गया था, सो तुमने उसे यहाँ वापस लाकर बड़े भय से उसकी रक्षा की।
राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र,यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है।
अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं..
परन्तु यदि शास्त्रीय आधार पर ही राधा जी के अस्तित्व का विवेचन किया जा तो राधा जी का वर्णन सभी प्रसिद्ध वैष्णव पुराणों में है। भागवत पुराण और महाभारत में वर्णन एक इन ग्रन्थों का प्रक्षेप ही है। नन्द के पिता पर्जन्य और माता वरीयसी(वर्षीयसी) का वर्णन भी पुराणों मे नहीं है परन्तु भविष्य पुराण में वर्णित चैतन्य महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वीमी के वैष्णव ग्रन्थों में वर्णित है।
तो क्या नन्द की वंशावली और उनके माता पिता के अस्तित्व को नकारा जा सकता है।
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। जो कि व्रज का ऐतिहासिक गाँव है। यहाँ राधा का मंदिर भी है।
राधारानी का विश्वप्रसिद्ध मंदिरबरसाना( बहत्सानु) ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। जहाँ बृषभानु आभीर गोप मुखिया रहते थे।
यह आश्चर्य की बात हे कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता, यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य है।
भागवत और महाभारत का सम्पादन महात्मा तथागत बुद्ध के परवर्ती काल तक हुआ
इसी लिए दौनों ग्रन्थों में महात्मा बुद्ध का वर्णन है।
शब्दार्थ:-नम:—नमस्कार; बुद्धाय—बुद्ध को; शुद्धाय—शुद्ध; दैत्य-दानव—दिति तथा दानु की सन्तानों के; मोहिने—मोहने वाले को; म्लेच्छ—मांस-भक्षक अछूत के; प्राय—समान; क्षत्र—राजाओं; हन्त्रे—मारने वाले को; नम:—नमस्कार; ते—तुम्हें; कल्कि- रूपिणे—कल्कि के रूप में ।.
अनुवाद:-आपके शुद्ध रूप भगवान् तथागत बुद्ध को नमस्कार है, जो दैत्यों तथा दानवों को मोह लेगें। आपके कल्कि रूप को नमस्कार है, जो राजा बनने वाले अशुद्ध बोलने वालों का संहार करने वाले होंगे।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर वर्णन है कि 👇
दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ । और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे ! मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।
"महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व के भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में स्वयं भीष्म पितामह भगवान कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में ही उनके भविष्य में होने वाले अन्य अवतारों बुद्ध और कल्कि की स्तुति भी करते हैं ।
भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇
भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार का स्तुति करते हैं ।
जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -
👇अब बुद्ध का समय ई०पू० (566)वर्ष है । फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं ?
नि:सन्देह सत्य के दर्शन के लिए हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।
पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है ।
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।
इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।
नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन इस प्रकार है। देखें👇
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्छों का वध करेंगे उन कल्कि रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।
इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
राजधर्मपर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः।।
👇
आशय यह कि
"जो सृष्टि की रक्षा के लिये दानवों को अपने अधीन करके पुनः बुद्धभाव को प्राप्त हो गये, उन बुद्धस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिये म्लेच्छों का वध करेंगे, उन कल्किरूप श्रीहरि को नमस्कार है।
( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है।
"इसके अतिरिक्त इसी शान्ति पर्व अध्याय -(348) निर्णय सागर प्रेस मुम्बई के महाभारत में हैं भी हैं। बुद्ध भीष्म से बहुत बाद में हुए परन्तु भीष्म से बुद्ध की स्तुति कराकर महाभारत के क्षेपक(बाद में मिलाया हुआ मिश्रित श्लोक) को स्वयं प्रमाणित कर दिया है।
जय देव ने गीतगोविन्द श्रृँगारिक गीत् काव्य द्वारा राधा और कृष्ण को काम शास्त्री नायिका और नायक बना कर उनके चरित्र का हनन ही किया है।
वसन्ते वासन्ती कुसुम सुकुमारैः अवयवैः
भ्रमन्तीम् कान्तारे बहु विहित कृष्ण अनुसरणाम् |
अमन्दम् कन्दर्प ज्वर जनित चिन्त आकुलतया
वलद् बाधाम् राधाम् स रसम् इदम् उचे सह चरी ||१-७||
अनुवाद:-
किसी समय वसन्त ऋतूकी सुमधुर बेलामें विरह-वेदनासे अत्यन्त कातर होकर राधिका एक विपिनसे दूसरे विपिनमें श्रीकृष्णका अन्वेषण करने लगी, माधवी लताके पुष्पोंके समान उनके सुकुमार अंग अति क्लान्त हो गये, वे कन्दर्पपीड़ाजनित चिन्ताके कारण अत्यन्त विकल हो उठीं, तभी कोई एक सखी उनको अनुरागभरी बातोंसे सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी ||१-७||
केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे || (अध्याय प्रथम १-९) ||
अनुवाद:-
हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देखकर श्रुति समुदाय की निन्दा की है। आपकी जय हो ||
हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || अ प १-१० ||
श्रृंगार-रसकी लालसामें श्रीकृष्ण कहीं किसी रमणीका आलिंगन करते हैं, किसीका चुम्बन करते हैं, किसीके साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधाका अवलोकन कर किसीको निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनीके पीछे-पीछे चल रहे हैं ॥अ प ४-७ ||
(सन्दर्भ:- गीत-गोविन्द)
"भीष्म उवाच"
नारदः परिप्रपच्छ भगवन्तं जनार्दनम्।
एकार्णवे महाघोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे।१।
"श्रीगवानुवाच"
शृणु नारद तत्वेन प्रादुर्भावान्महामुने।
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्कीति ते दश।।२।
__________________
ततःकलियुगस्यादौ द्विजराजतरुं श्रितः।
भीषया मागधेनैव धर्मराजगृहे वसन्।४२।
काषायवस्रसंवीतो मुण्डितः शुक्लदन्तवान्।
शुद्धोदनसुतो बुद्धो मोहयिष्यामि मानवान्।४३।
शूद्राः सुद्धेषु भुज्यन्ते मयि बुद्धत्वमागते।
भविष्यन्ति नराः सर्वे बुद्धाः काषायसंवृताः।४४।
अनध्याया भविष्यन्ति विप्रा यागविवर्जिताः।
अग्निहोत्राणि सीदन्ति गुरुपूजा च नश्यति।४५।
न शृण्वन्ति पितुः पुत्रा न स्नुषा नैव भ्रातरः।
न पौत्रा न कलत्रा वा वर्तन्तेऽप्यधमोत्तमाः।४६।
एवंभूतं जगत्सर्वं श्रुतिस्मृतिविवर्जितम्।
भविष्यति कलौ पूर्णे ह्यशुद्धो धर्मसंकरः।४७।
तेषां सकाशाद्धर्मज्ञा देवब्रह्मविदो नराः।
भविष्यन्ति ह्यशुद्धाश्च न्यायच्छलविभाषिणः।४८।
ये नष्टधर्मश्रोतारस्ते समाः पापनिश्चये।
तस्मादेता न संभाष्या न स्पृश्या च हितार्थिभिः।
उपवासत्रयं कुर्यात्तत्संसर्गविशुद्धये।४९।
ततः कलियुगस्यान्ते ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः।
कल्किर्विष्णुयशःपुत्रो याज्ञवल्क्यःपुरोहितः।५०।
तस्मिन्नाशे वनग्रामे तिष्ठेत्सोन्नासिमो हयः।
सहया ब्राह्मणाः सर्वे तैरहं सहितः पुनः।
म्लेच्छानुत्सादयिष्यामि पाषण्डांश्चैव सर्वशः।५१।
पाषण्डश्च कलौ तत्र माययैव विनश्यते।
पाषण्डकांश्चैव हत्वा तत्रान्तं प्रलये ह्यहम्।५२।
("शान्ति पर्व अध्याय-348
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राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया।
कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है।
जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे।
यहाँ पर हम वस्तुतः राधा शब्द व चरित्र कहाँ से आया इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
यद्यपि यह भी एक धृष्टता ही है क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण व श्री राधाजी दोनों अभिन्न स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं।
राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता वेद-उपनिषद में तो राधा का उल्लेख है परन्तु आर्यसमाजीयों के यौगिक धातुज अर्थ ही इण्टनेट वेवसाइटों पर अपलोड हैं।
राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है परन्तु श्रँगारपरक रूप में ही है।
राधिकातापनीयोपनिषत्} में वर्णन है कि "यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरणे मूर्ध्नि रहसि प्रेमयुक्तः। यस्या अङ्के विलुण्ठन् कृष्णदेवो गोलोकाख्यं नैव सस्मार धामपदं सांशा कमला शैलपुत्री तां राधिकां शक्तिधात्रीं नमाम:।
अनुवाद:- जिनकी चरणधूलि भगवान अपने शिर पर धारण करते हैं। जिनके अंक में लेट ने पर भगवान अपने गोलोक को भूल जाते हैं जिन राधा सी ही अंश हैं करोड़ो लक्ष्मी करोड़ो ब्रह्माणी और करोड़ो पार्वती वह हैं राधा।
राधा शब्द के दो अर्थ सम्पूरक व श्लिष्ट है-- 1--आराधिका( कृष्ण की आराधना करने वाली सा राधा ) 2--आराध्या ( जिसकी सब आराधना करे सा राधा) --- जब भगवान रास के समय अंतर्धान हो गये थे तो तब गोपियो ने देखा की भगवान अकेले ही अंतर्धान नही हुए थे बल्कि साथ मे एक गोपी को भी लेकर चले गये थे -- तब गोपियो ने कहा था की-- अन्यान् आराधितो नूनम् भगवान हरिर्रिश्वर:-- अर्थात् जिस गोपी को कृष्ण लेकर चले गये है उस गोपी ने जरुर हमसे ज्यादा आराधना की होगी तभी तो हमे छोड गये ओर उसे ले गये-- जिस गोपी को भगवान लेकर गये वही राधा थी-- पहला अर्थ आराधिका स्पष्ट हुआ-- दुसरा अर्थ आराध्या यानि जिसकी कृष्ण भी भक्ति करते है वो राधा-- राधैवाराध्यते मया--ब्रह्मवैवर्त पुराण-- इसलिए राधा शब्द के दोनो अर्थ है-- कृष्ण की आराधना करने वाली ओर कृष्ण की आराध्या यानि कृष्ण जिसकी आराधना करते है--- ब्रह्म वैवर्त पुराण मे भगवान किशोरी जी से क्षमा मांगते है की राधे सर्वापराधम् क्षमस्व सर्वेश्वरी--- उपनिषदो मे प्रश्न किया गया की कस्मात् राधिकाम् उपासते अर्थात् राधा रानी की उपासना क्यो की जाती है ?? तब उत्तर दिया गया की-- यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त--- अर्थात् जिसकी चरण धुलि को कृष्ण अपने सिर पर रखते है ओर जिसकी गोद मे सिर रखकर कृष्ण अपने गोलोक को भी भुल जाते है वो राधा है--(सामवेदीय राधोपनीषद्)-- उसके बाद फिर राधा उपनिषद कहता है की वृषभानु सुता देवी मुलप्रकृतिश्वरी:-- वृषभानु की राधा ही मुल प्रकृति है-- ये भी कहा गया है की राधा ओर कृष्ण दोनो एक है --इनमें भेद करने वाला कालसुत्र नर्क मे जाता है ईसलिए भेद मत करना पर रस की दृष्टि से ओर हास परिहास मे श्री राधा ही सर्वश्रेष्ठ है लेकिन भेदभाव नही करना---
वह अनादि पुरुष एक ही है, पर अनादि काल से ही वह अपने को दो रूपों में बनाकर अपनी ही आराधना के लिये तत्पर है। इसलिये वेदज्ञ पुरुष श्रीराधा को रसिकानन्दरूपा बतलाते हैं।
"राधातापनी-उपनिषद् में आता है—ये यं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहश्चैक क्रीडनार्थ द्विधाभूत।
अनुवाद:-
‘जो ये राधा और जो ये कृष्ण रस के सागर हैं वे एक ही हैं, पर खेल के लिये दो रूप बने हुए हैं।
‘राधा की आत्मा सदा मैं श्रीकृष्ण हूँ और मेरी (श्रीकृष्ण की) आत्मा निश्चय ही राधा है। श्रीराधा वृन्दावन की ईश्वरी हैं, इस कारण मैं राधा की ही आराधना करता हूँ।’
श्रीराधा माधव चिन्तन पृष्ठ संख्या- 84
श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
की प्रेम-साधना और उनका अनिर्वचनीय स्वरूप
यः कृष्णः सापि राधा च या राधाकृष्ण एव सः।
एकं ज्योतिर्द्विधा भिन्नं राधामाधवरूपकम।।
‘जो श्रीकृष्ण हैं, वही श्रीराधा हैं और जो श्रीराधा हैं, वही श्रीकृष्ण हैं; श्रीराधा-माधव के रूप में एक ही ज्योति दो प्रकार से प्रकट है।’
ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान के वचन हैं—
"आवयोर्बुद्धिभेदं च यः करोति नराधमः। तस्य वासः कालसूत्रे यावच्चन्द्रदिवाकरौ।।
‘मुझमें (श्रीकृष्ण में) और तुम में (श्रीराधा में) जो अधम मनुष्य भेद मानता है, वह जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, तब तक ‘कालसूत्र’ नामक नरक में रहेगा।’ भगवान श्रीकृष्ण ने राधा से कहा है— ‘प्राणाधिके राधिके! वास्तव में हम-तुम दो नहीं हैं; जो तुम हो, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही तुम हो। जैसे दूध में धवलता है, अग्नि में दाहिका शक्ति है, पृथ्वी में गन्ध है, उसी प्रकार मेरा-तुम्हारा अभिन्न सम्बन्ध है।
सृष्टि की रचना में भी तुम्हीं उपादान बनकर मेरे साथ रहती हो। मिट्टी न हो तो कुम्हार घड़ा कैसे बनाये; सोना न हो तो सुनार गहना कैसे बनाये। वैसे ही यदि तुम न रहो तो मैं सृष्टिरचना नहीं कर सकता। तुम सृष्टि की आधार रूपा हो और मैं उसका अच्युत बीज हूँ।
अन्य पुराणो से भी राधा जी के प्रमाण देखिये-- यथा राधाप्रियाविष्णो : (पद्म पुराण ) राधा वामांशसंभूतामहालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण ) तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण )
अनुवाद:- शिवकुण्ड में सुनन्दा तो नन्दिनी नाम देविका तट पर रुक्मणि नाम द्वारिका में है तो वृन्दावन में यही राधा जी हैं।। देवकी मथुरायान्तु पाताले परमेश्वरी। चित्रकूटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्यनिवासिनी॥ १३.३९ ॥
अनुवाद:-मथुरा में देवकी तो पालाल में परमेश्वरी। चित्रकूट में सीता तो विन्ध्याँचल पर
तमिलनाडू की गाथा के अनुसार–दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह,उत्तर के यादव के समकक्ष हैं| एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे| उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया -श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था| तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का२.
अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्रीय संहिता के अनुसार-विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति–दिशाओं की देवी भी कहते हैं| नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं–अदिति | श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है जो दक्षिण की राधा है| एक कथा के अनुसार राधा के कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी |
पुराणों में श्रीराधा : वेदव्यास जी ने श्रीमदभागवतम के अलावा १७ और पुराण रचे हैं इनमें से छ:में श्री राधारानी का उल्लेख है।
–श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर हो गए। महारास से विलग हो गए। गोपी राधा का ही एक नाम है |
अन्याअ अराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर:-(श्रीमद भागवतम )
–इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है। इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं ) संग ले गए, इसीलिये वह आराधिका …राधिका है | वस्तुतः ऋग्वेदिक व यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति = रयि (संसार, ऐश्वर्य, श्री, वैभव) +धा (धारक, धारण करने वालीशक्ति) से हुई है; अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तोब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तो तो समस्त संसार की धारक चितशक्ति, ह्लादिनी शक्ति, परमेश्वरीराधा का आविर्भाव हुआ|
भविष्य पुराण में–जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा गया तो उनकी मूल कृतित्व – काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए—कालरूप- कृष्ण व उनकी सहोदरी (साथ-साथ उदभूत) राधा-परमेश्वरी, कर्म रूप – ब्रह्मा व नियति (सहोदरी) , धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा (सहोदरी) एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ( सहोदरी ) इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी, चिच्छित-शक्ति है (ब्रह्मसंहिता)। वही परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण का लीला-रमण व लौकिक रूप के अविर्भाव के साथ उनकी साथी, प्रेमिका, पत्नी हुई व ब्रजबासिनी रूप में जन-नेत्री।
भागवत पुराण में-एक अराधिता नाम की गोपी का उल्लेख है, किसी एक प्रिय गोपी को भग्वान श्री कृष्ण महारास के मध्य में लोप होते समय साथ ले गये थे ,जिसे ’मान ’ होने पर छोडकर अन्तर्ध्यान हुए थे; संभवतः यह वही गोपी रही होगी जिसे गीत-गोविन्द के रचयिता , विद्यापति,व सूरदास आदि परवर्ती कवियों, भक्तों ने श्रंगारभूति श्री कृष्ण (पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) रूप में कल्पित व प्रतिष्ठित किया।
वस्तुतः गीत गोविन्द व भक्ति काल के समय स्त्रियों के सामाज़िक(१ से १० वीं शताब्दी) अधिकारों में कटौती होचुकी थी, उनकी स्वतंत्रता ,स्वेच्छा, कामेच्छा अदि पर अंकुश था। अत राधा का चरित्र महिला उत्थान व उन्मुक्ति के लिये रचित हुआ। पुरुष-प्रधान समाज में कृष्ण उनके अपने हैं,जो उनकी उंगली पर नाचते है, स्त्रियों के प्रति जवाब देह हैं,नारी उन्मुक्ति ,उत्थान के देवता हैं। इस प्रकार बृन्दावन-अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री राधाजी का ब्रज में , जन-जन में, घर-घर में ,मन-मन में, विश्व में, जगत में प्राधान्य हुआ। वे मातृ-शक्ति हैं, भगवान श्रीकृष्ण के साथ सदा-सर्वदा संलग्न, उपस्थित, अभिन्न–परमात्म-अद्यात्म-शक्ति; | अतः वे लौकिक-पत्नी नहीं होसकतीं, उन्हें बिछुडना ही होता है, गोलोक के नियमन के लिये । अथर्ववेदीय राधोपनिषद में श्री राधा रानी के २८ नामों का उल्लेख है। गोपी ,रमा तथा “श्री “राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं।
३. श्रीमद्भागवत में –कृष्ण की रानियाँ का कथन है —
कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरज: श्रिय: कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत: (श्रीमदभागवतम् ) —हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसका कुंकुम श्रीकृष्ण के पैरों से चस्पां है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ). यहाँ “श्री “राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है महालक्ष्मी के लिए नहीं। क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेळ हैं। वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी।
महाभारत में राधा का उल्लेख उस समय आ सकता था जब शिशुपाल श्रीकृष्ण की लम्पटता का बखान कर रहा था। परन्तु भागवतकार निश्चय ही राधा जैसे पावन चरित्र को इसमें घसीटना नहीं चाहता होगा, अतः शिशुपाल से केवल सांकेतिक भाषा में कहलवाया गया, अनर्गल बात नहीं कहलवाई गयी|
कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत में तत्व रूप में राधा का नाम सर्वत्र है क्योंकि उसमें कृष्ण को सदैव श्रीकृष्ण कहा गया है। श्री का अर्थ राधा ही है जो आत्मतत्व की भांति सर्वत्र अन्तर्गुन्थित है, श्रीकृष्ण = राधाकृष्ण |
श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए ‘वृषभानु पत्नी‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। राधा वृषभानु की पुत्री थी। पद्म पुराणने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। यह भी कथा मिलती है कि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेते समय अपने परिवार के सभी देवताओं से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा। तभी राधा भी जो चतुर्भुज विष्णु की अर्धांगिनी और लक्ष्मी के रूप में वैकुंठलोक में निवास करती थीं, राधा बनकर पृथ्वी पर आई।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उसका विवाह रापाण अथवा रायाण नामक व्यक्ति के साथ हुआ था। अन्यत्र राधा और कृष्ण के विवाह का भी उल्लेख मिलता है। कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी।
यह भी किम्बदन्ती है कि जन्म के समय राधा अन्धी थी और यमुना में नहाते समय जाते हुए राजा वृषभानु को सरोवर में कमल के पुष्प पर खेलती हुई मिली। शिशु अवस्था में ही श्री कृष्ण की माता यशोदा के साथ बरसाना में प्रथम मुलाक़ात हुई, पालने में सोते हुए राधा को कृष्ण द्वारा झांक कर देखते ही जन्मांध राधा की आँखें खुल गईं ।
महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी। दे भी क्यूँ न ? राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें, वृन्दावन की वे कुंज गलियाँ वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी। राधा जो वनों में भटकती, कृष्ण कृष्ण पुकारती, अपने प्रेम को अमर बनाती, उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नहीदेखा, तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए ।
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। यहाँ राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ की लट्ठामार होली सारी दुनियाँ में मशहूर है।
४.
श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए ‘वृषभानु पत्नी‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। पद्मपुराण ने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया।
राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया।
कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे।
किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना।स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात मन की बात सुन सकें। जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास–क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब ‘जरा’ के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई। उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए ‘राधा’ शब्द का उच्चारण किया। जिसे ‘जरा’ ने सुना और ‘उद्धव’ को जो उसी समय वहां पहुंचे उन्हें सुनाया। उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे। सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद जब उद्धव राधा के पास पहुँचे तो वे केवल इतना ही कह सके राधा- कान्हा तो सारे संसार के थे | किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी…कान्हा के ह्रदय में केवल राधा थीं
समस्त भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को शाश्वत प्रेम की श्रेणी में रखते हैं।
इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।
बरसाना के श्रीजी के मंदिर में ठाकुर जी भी रहते हैं। भले ही चूनर ओढ़ा देते हैं सखी वेष में रहते हैं ताकि कोई जान न पाये | महात्माओं से सुनते हैं कि ऐसा संसार में कहीं नहीं है जहाँ कृष्ण सखी वेश में रहते हैं।
जो पूर्ण पुरुषोत्तम पुरुष सखी बने ऐसा केवल बरसाने में है ।
अति सरस्यौ बरसानो जू | राजत रमणीक रवानों जू || जहाँ मनिमय मंदिर सोहै जू |
वस्तुतः गीत गोविन्द व भक्ति काल के समय स्त्रियों के सामाज़िक(१ से १० वीं शताब्दी) अधिकारों में कटौती होचुकी थी, उनकी स्वतंत्रता ,स्वेच्छा, कामेच्छा अदि पर अंकुश था। अत राधा का चरित्र महिला उत्थान व उन्मुक्ति के लिये रचित हुआ।
पुरुष-प्रधान समाज में कृष्ण उनके अपने हैं, जो उनकी उंगली पर नाचते है, स्त्रियों के प्रति जवाब देह हैं, नारी उन्मुक्ति, उत्थान के देवता हैं। इस प्रकार बृन्दावन-अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री राधाजी का ब्रज में, जन-जन में, घर-घर में ,मन-मन में, विश्व में, जगत में प्राधान्य हुआ। वे मातृ-शक्ति हैं, भगवान श्रीकृष्ण के साथ सदा-सर्वदा संलग्न, उपस्थित, अभिन्न–परमात्म-अद्यात्म-शक्ति; अतः वे लौकिक-पत्नी नहीं होसकतीं, उन्हें बिछुडना ही होता है, गोलोक के नियमन के लिये ।
"राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी ।
यह शब्द वेदों में भी आया है ।
वैसे भी व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा शब्द - स्त्रीलिंग रूप में है जैसे- (राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् +अच्+ टाप् ):- राधा ।
अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है । वह शक्ति राधा है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है । और कृष्ण राधा के पति हैं । __________________
"इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो।
___________________
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ .२ २. ७) ___________________
सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! जो राधा को गोपियों मध्य में से ले गए ; वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें। ___________________
अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें । जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो ।
अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण अग्नि के सदृश् गमन करने वाले हैं । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं ,
ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे ।
इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है ।
जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही तो राधा के पिता थे। वेदों के अतिरिक्त उपनिषदों में राधा और कृष्ण का पवित्र वर्णन है । यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : -(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद ) राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत् चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं।
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में वासुदेव कृष्ण का वर्णन:- ___________________
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल अध्याय दश सूक्त चौउवन 1/54/ 6-7-8-9- वी ऋचाओं तक यदु और तुर्वशु का वर्णन है ।
और इसी सूक्त में राधा तथा वासुदेव कृष्ण आदि का वर्णन है ।
परन्तु यहाँ भी परम्परागत रूप से देव संस्कृतियों के पुरोहितों ने गलत भाष्य किया है ।
अन्वय:- त्वं नर्यं आविथ शतक्रतो ; त्वं यदु और तुर्वशु को मारने वाले (तुर्वी ) (इति :- इस प्रकार हो वय्यं (गति को) । त्वं रथमेतशं (तुम रथ को गति देने वाले )शम् ( कल्याण) कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव अर्थ:- हे सौ कर्म करने वाले इन्द्र ! तुम नरौं के रक्षक हो तुम तुर्वशु और यदु का तुर्वन ( दमन ) करने वाले तुर्वी इति - इस प्रकार से हो ! तुम वय्यं ( गति को ) भी दमन करने वाले हो । तुम रथ और एतश ( अश्व) को बचाने वाले हो तुम शम्बर के निन्यानवै पुरो को नष्ट करने वाले हो ।6।
"स घा राजा सत्पति : शूशुवज्जनो रातहव्य: प्रति य: शासमिन्वति।
साहसी राजा सत् का स्वामी होता है । वह राधा मेरे उरस् (हृदय में ) ज्ञान देती हैं (अभिगृणाति- ज्ञान देती हैं ।
सा- वह राधा । (दान - उरस् -मा ) तब ऊपर प्रकाश पिनहता है । विशेष:- यहाँं राधस्-अन्न अर्थ न होकर राधा सा रूप है (वह राधा) असमं क्षत्रमसमा मनीषा प्र सोमपा अपसा सन्तु नेमे । ये त इन्द्र ददुषो वर्धयन्ति मही क्षत्रं स्थविरं वृष्ण्यं च ।8।
सोम पायी इन्द्र हमारे पास सीमा रहित -बल और बुद्धि हो हम तुम्हें नमन करते हैं ।
हे इन्द्र उषा काल में जो दान देते हैं वे बढ़ते हैं । उनकी पृथ्वी और शक्ति बढ़ती है।
जैसे वृद्ध वृष्णि वंशीयों की शक्ति और बल बढ़ा था । तुभ्येत् एते बहुला अद्रि दुग्धाश्च चमूषदश्चमसा इन्द्रपाना: व्यश्नुहि तर्पया काममेषा मथा मनो वसुदेवाय कृष्व(वासुदेवाय कृष्ण)।।8।
हे वासुदेव कृष्ण ! पाषाणों से कूटकर और छानकर यह पेय सोम इन्द्र के लिए था । परन्तु हे कृष्ण इसका भोग आप करो यह तुम्हारे ही निमित्त हैं !
अपनी इच्छा तृप्त करने के पश्चात् फिर हमको देने की बात सोचो।8।
विशेष :-यद्यपि कृष्ण सोम पान नहीं करते थे । परन्तु मन्त्रकार कृष्ण के शक्ति प्रभाव से प्रभावित होकर उन्हें भी इन्द्र के समान सोम समर्पण करना प्रलोभित करना चाहता है।
अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र के यज्ञों पर रोक लगा दी क्यों कि यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।
अनुवाद:-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट का भूतल पर विधान किया।61।
देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः । वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । । प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गये तब उन्होंने व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण को लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।
अनुवाद:-तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।__________________________
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः। अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं।वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है। वे सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इस प्रकार श्री भविष्य पुराण को प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त-★
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