शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

महाभारत में दस्युओं के चरित्र की प्रशंसा *

 भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति दस्युभावेऽपि शास्त्रमर्यादानुसारिणः परलोकप्राप्तौ दृष्टान्ततया कापच्यचरितोपन्यासः।।

     ।भीष्म उवाच।‌
अत्राप्युदाहन्तीममितिहासं पुरातनम्।
यथा दस्युः समर्यादो दस्युत्वात्सिद्धिमाप्तवान्।।
12-135-1

प्रहर्ता मतिमाञ्शूरः श्रुतवान्सुनृशंसवान्।
अक्षन्नाश्रमिणां धर्मं ब्रह्मण्यो गुरुपूजकः।।
12-135-2

अनिषाद्यां क्षत्रियाज्जातः क्षत्रधर्मानुपालकः।
कापच्यो नाम नैषादिर्दस्युत्वात्सिद्धिमाप्तवान्।।
12-135-3

अरण्ये सायं पूर्वाह्णे मृगयूथप्रकोपिता।
वेधिज्ञो मृगजातीनां नैषादानां च कोविदः।। 12-135-4

सर्वकाननदेशज्ञः पारियात्रचरः सदा।
धर्मज्ञः सर्ववर्णानाममोघेषुर्दृढायुधः।।
12-135-5

अप्यनेकशतां सेनामेक एव जिगाय सः।
स वृद्धावम्बपितरौ महारण्येऽभ्यपूजयत्।।
12-135-6

मधुमांसैर्मूलफलैरन्नैरुच्चावचैरपि।
सत्कृत्य भोजयामास सम्यक्परिचचार ह।।
12-135-7

आरण्यकान्प्रव्रजितान्ब्राह्मणान्परिपालयन्।
अपि तेभ्यो मृगान्हत्वा निनाय सततं वने।।
12-135-8

येऽस्मान्न प्रतिगृह्णन्ति दस्युभोजनशङ्कया।
तेषामासज्य गेहेषु कल्य एव स गच्छति।
12-135-9

तं बहूनि सहस्राणि ग्रामणीत्वेऽभिवव्रिरे।
निर्मर्यादानि दस्यूनां निरनुक्रोशवर्तिनाम्।।
12-135-10

दस्यव ऊचुः। 12-135-11x
मुहूर्तदेशकालज्ञः प्राज्ञः शूरो दृढव्रतः।
ग्रामणीर्भव नो मुख्यः सर्वेपामेव संमतः।।
12-135-11

यथायथा वक्ष्यसि नः करिष्यामस्तथातथा।
पालयास्मान्यथान्यायं यथा माता यथा पिता।।
12-135-12

कापच्य उवाच। 12-135-13x
मा वधीस्त्वं स्त्रियं भीरुं मा शिशुं मा तपस्विनम्।
नायुध्यमानो हन्तव्यो न च ग्राह्या बलात्स्त्रियः।।
12-135-13

सर्वथा स्त्री न हन्तव्या सर्वसत्वेषु बुध्यत।
नित्यं गोब्राह्मणे स्वस्ति योद्धव्यं च तदर्थतः।।
12-135-14

सत्यं च नापि हर्तव्यं सारविघ्नं च मा कृथाः।
पूज्यन्ते यत्र देवाश्च पितरोऽतिथयश्च ह।।
12-135-15

सर्वभूतेष्वपि वरो ब्राह्मणो मोक्षमर्हति।
कार्या चापचितिस्तेषां सर्वस्वेनापि भावयेत्।।
12-135-16

यस्य त्वेते संप्रदुष्टास्तस्य विद्यात्पराभवम्।
न तस्य त्रिषु लोकेषु त्राता भवति कस्चन।।
12-135-17

यो ब्राह्मणान्परिभवेद्विनाशं चापि रोचयेत्।
सूर्योदय इव ध्वान्ते ध्रुवं तस्य पराभवः।।
12-135-18

इहैव फलमासीनः प्रत्याकाङ्क्षेत सर्वशः।
येये नो न प्रदास्यन्ति तांस्तांस्तेनाभियास्यसि।।
12-135-19

शिष्ट्यर्थं विहितो दण्डो न वधार्थं विधीयते।
ये च शिष्टान्प्रबाधन्ते धर्मस्तेषां वधः स्मृतः।।
12-135-20

ये च राष्ट्रोपरोधेन वृद्धिं कुर्वन्ति केचन।
तानेवानुम्रियेरंस्ते कुणपं कृमयो यथा।।
12-135-21

ये पुनर्धर्मशास्त्रेण वर्तेरन्निह दस्यवः।
अपि ते दस्यवो भूत्वा क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयुः।12-135-22।






भीष्म उवाच। 
ते सर्वमेवानुचक्रुः कापच्यस्यानुशासनम्। 
वृद्धिं च लेभिरे सर्वे पापेभ्यश्चाप्युपारमन्॥ 
12-135-23

कापच्यः कर्मणा तेन महतीं सिद्धिमाप्तवान्। साधूनामाचरन्क्षेमं दस्यून्पापान्निवर्तयन्॥ 
12-135-24

इदं कापच्यचरितं यो नित्यमनुचिन्तयेत्। नारण्येभ्योऽपि भूतेभ्यो भयमृच्छेत्कथंचन॥ 
12-135-25

न भयं तस्य मर्त्येभ्यो नामर्त्येभ्यः कथंचन। 
न सतो नासतो राजन्स ह्यरण्येषु गोपतिः॥ ॥ 12-135-26


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महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 135 श्लोक 1-26 पञ्चत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय:  (आपद्धर्म पर्व) महाभारत: शान्ति पर्व: 
 हिन्दी अनुवाद मर्यादा का पालन करने–कराने वाले कायव्‍य नामक दस्‍यु की सद्गगतिका वर्णन भीष्‍म जी करते हुए कहते हैं– युधिष्ठिर! जो दस्‍यु (डाकू) मर्यादा का पालन करता है, वह मरने के बाद दुर्गती में नहीं पड़ता।
 इस विषय में विद्वान पुरुष एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। कायव्‍य नाम से प्रसिद्ध एक निषाद पुत्र ने दस्‍यु होने पर भी सिद्धि प्राप्‍त कर ली थी। 
वह प्रहारकुशल, शूरवीर, बुद्धिमान्, शास्‍त्रज्ञ, क्रूरतारहित, आश्रमवासियों के धर्म की रक्षा करने वाला, ब्राह्मणभक्‍त और गुरुपूजक था। 
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वह क्षत्रिय पिता से एक निषादजाति की स्‍त्री के गर्भ से उत्‍पन्‍न हुआ था, अत: क्षत्रिय धर्म का निरन्‍तर पालन करता था।

 कायव्‍य प्रतिदिन प्रात:काल और सायंकाल के समय वन में जाकर मृगों की टोलियों को उत्‍तेजित कर देता था। वह मृगों की विभिन्‍न जातियों के स्‍वभाव से परिचित तथा उन्‍हें काबू में करने की कला को जानने वाला था।

 निषादों में व‍ह सबसे निपुण था। उसे वन के सम्‍पूर्ण प्रदेशों का ज्ञान था। वह सदा पारियात्र पर्वत पर विचरने वाला तथा समस्‍त प्राणियों के धर्मों का ज्ञाता था।

 उसका बाण लक्ष्‍य बेधने में अचूक था। उसके सारे अस्‍त्र–शस्‍त्र सुदृढ़ थे। 
वह सैकड़ों मनुष्‍यों की सेना को अकेले ही जीत लेता था ।

और उस महान वन में रहकर अपने अन्‍धे और बहरे माता-पिता की सेवा-पूजा किया करता था। 
वह निषाद मधु, मांस, फल, मूल तथा नाना प्रकार के अन्‍नों दारा माता–पिता को सत्‍कारपूर्वक भोजन कराता था ।

तथा दूसरे–दूसरे माननीय पुरुषों की भी सेवा-पूजा किया करता था। वह वन में रहने वाले वानप्रस्‍थ और संन्‍यासी ब्राह्मणों की पूजा करता और प्रतिदिन उनके घर में जाकर उनके लिए अन्‍न आदि वस्‍तुएं पहुँचा देता था। 
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जो लोग लुटेरे के घर का भोजन होने की आशंका से उसके हाथ से अन्‍न नहीं ग्रहण करते थे, उनके घरों में वह बड़े सबेरे ही अन्‍न और फल-मूल आदि भोजन–सामग्री रख जाता था। 

एक दिन मर्यादा का अतिक्रमण और भाँति–भाँति के क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाले कई हजार डाकूओं ने उससे अपना सरदार बनने के लिए प्रार्थना की।

 डाकू बोले– तुम देश, काल और मुहूर्त के ज्ञाता, विद्वान, शूरवीर और दृढ़प्रतिज्ञ हो, इसलिये हम सब लोगों की सम्‍मति से तुम हमारे सरदार हो जाओ। 

तुम हमें जैसी–जैसी आज्ञा दोगे, वैसा–ही-वैसा हम करेंगे। तुम माता-पिता के समान हमारी यथोचित रीति से रक्षा करो। 
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कायव्‍य ने कहा- प्रिय बन्‍धुओं! तुम कभी स्‍त्री, डरपोक, बालक और तपस्‍वी की हत्‍या न करना। जो तुमसे युद्ध न कर रहा हो, उसका भी वध न करना स्‍त्रियों को कभी बलपूर्वक न पकड़ना।

 तुममें से कोई भी सभी प्राणियों के स्त्री वर्ग की किसी तरह भी हत्‍या न करे। ब्राह्मणों के हित का सदा ध्‍यान रखना। आवश्‍यकता हो तो उनकी रक्षा के लिये युद्ध भी करना।

 खेत की फसल न उखाड़ लाना, वि‍वाह आदि उत्‍सवों में विध्‍न न डालना, जहाँ देवता, पितर और अतिथियों की पूजा होती हो, वहा कोई उपद्रव न खड़ा करना। 

समस्‍त प्राणियों में ब्राह्मण विशेष रूप से डाकूओं के हाथ से छुटकारा पाने का अधिकारी है।

 अपना सर्वस्‍व लगाकर भी तुम्‍हें उनकी सेवा-पूजा करनी चाहिये।



महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद

देखो, ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मण लोग कुपित होकर जिसके पराभव का चिन्‍तन करने लगते हैं, उसका तीनों लोकों में कोई रक्षक नहीं होता।
 जो ब्राह्मणों की निन्‍दा करता है और उनका विनाश चाहता है, जैसे सूर्योदय होने पर अन्‍धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार अवश्‍य ही पतन हो जाता है। 

तुम लोग यही बैठे–बैठे लुटेरे पन का जो फल है, उसे पाने की अभिलाषा रखो। 

जो-जो व्‍यापारी हमें स्‍वेच्‍छा से धन नहीं देंगे, उन्‍हीं–उन्‍हीं पर तुम दल बाँधकर आक्रमण करोगे। दण्‍ड का विधान दुष्‍टों के दमन के लिये है , अपना धन बढा़नें के लिए नहीं। जो शिष्‍ट पुरुषों को सताते हैं, उनका वध ही उनके लिये दण्‍ड माना गया है। जो लोग राष्‍ट्र को हानि पहुँचाकर अपनी उन्‍नति के लिये प्रयत्‍न करते हैं, वे मुर्दों में पड़े हुए कीड़ों के समान उसी क्षण नष्‍ट हो जाते हैं। जो दस्‍युजाति में उत्‍पन्‍न होकर भी धर्मशास्‍त्र के अनुसार आचरण करते हैं, वे लुटेरे होने पर भी शीघ्र ही ‍सि‍द्धि प्राप्‍त कर लेते हैं (ये सब बातें तुम्‍हें स्‍वीकार हो तो मैं तुम्‍हारा सरदार बन सकता हूँ )।

भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! यह सुनकर उन दस्‍युओं ने कायव्‍य की सारी आज्ञा मान ली और सदा उसका अनुसरण किया।

 इससे उन सभी की उन्‍नति हुई और वे पाप-कर्मों से हट गये। 

कायव्‍य ने उस पुण्‍यकर्म से बड़ी भारी सिद्धि प्राप्‍त कर ली; क्‍योंकि उसने साधु पुरुषों का कल्‍याण करते हुए डाकुओं को पाप से बचा लिया था।

 जो प्रतिदिन कायव्‍य के इस चरित्र का चिन्‍तन करता है, उसे वनवासी प्राणियों से किंचिंत मात्र भी भय नहीं प्राप्‍त होता।

 भारत! उसे सम्‍पूर्ण भूतों से भी भय नहीं होता। राजन्! किसी दुष्‍टात्‍मा से भी उसको डर नहीं लगता। वह तो वन का अधिपति हो जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व में कायव्‍य का चरित्रविषयक एक सौ पैं‍तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।
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