(माता प्रसाद यादव जी का जन्म- (ईस्वी सन् - 20 मार्च -1981 को जनपद लखनऊ के ग्राम डालौना पोष्ट- मोहन लाल गंज में हुआ है।
बचपन से ही माता प्रसाद जी निर्भीक (निडर) और स्वाभिमानी प्रवृत्ति के सदाचरण सम्पन्न एक असाधारण बालक थे। इनके अध्ययन काल में ही राधा-कृष्ण की युगल छवि की निष्काम भक्ति का बीज हृदय तल पर सहज अंकुरित हो गया था। भारतीय शास्त्रों के अध्ययन के प्रति रुचि भी इसी उपरान्त जाग्रत हुई। तत्पश्चात् इनके जीवन में साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को एक नवीन दिशा और दृष्टिकोण प्राप्त हुआ।
जीवन परिचय-★
नाम - माता प्रसाद यादव
पिता -श्री खुशीराम यादव
माता -श्रीमती फूलकुमारी यादव
पालक माता- सरजू देवी
पत्नी -श्रीमती सुनीता यादव (अध्यापिका)
पुत्रगण- योजित सिंह यादव" माणिक्य सिंह यादव तथा पुत्री "योग्यता सिंह यादव हैं।
माताप्रसाद जी की प्रारम्भिक शिक्षा अर्जुनगंज लखनऊ में बुआ जी के सानिध्य में संपन्न हुई । बुआ जी से इन्हें माता के समान प्यार और दुलार मिला और उनकी ममतामयी छाया सदैव इनके जीवन के तापों का मोचन करती रही। माता प्रसाद जी इसी कारण अपनी बुआ जी को श्रद्धा और आत्मीयता से आप्लावित होकर "अम्मा" कह कर सम्बोधित करने लगे ।
माताप्रसाद जी की उच्च शिक्षा लखनऊ विश्व विद्यालय एवम् राजस्थान विश्व विद्यालय से सम्पन्न हुई।
इनके पिता श्रीखुशीराम यादव एक साधारण किसान थे; परन्तु विकट परिस्थितियों में भी वे परिवार में आर्थिक सामञ्जस्य व संतुलन बनाऐ रखने में सक्षम सिद्ध हुए।
समाज में व्याप्त ऊँच -नीच परक जातिवाद ने माताप्रसाद जी को अधिक प्रभावित किया।
जातीयता की विद्वेष में आदर्शवाद और राष्ट्रवाद के मूल्य निरन्तर धूमिल हो रहे थे। पशु पालक और कृषक- अहीर जाति के प्रति दूसरी अन्य कुछ जातियों का दृष्टिकोण सदैव से संकुचित व नकारात्मक ही था। इस अपमान और हेयता का सामना माता प्रसाद जी ने भी किया। यद्यपि इन सामाजिक परिस्थितियों का आकलन तो माता प्रसाद जी को बचपन में ही हो गया था परन्तु उच्च शिक्षा के ग्रहण करने के काल में इसका व्यवहारिक ज्ञान भी हुआ।
उसी समय माता- प्रसाद जी ने अपने जातीय अस्तित्व मूलक इतिहास को जानने और उसे संकलित करने का संकल्प लिया- यादव समाज को उसके नैतिक कर्तव्य और उसके सामाजिक और संवैधानिक अधिकार का बोध कराते कराते - उसको एकजुट करने का भी बीड़ा माता- प्रसाद ने साहस के साथ उठा लिया।
राधा जी के प्रति माताप्रसाद जी के हृदय में अतीव भक्ति और सात्विक श्रद्धा उत्पन्न हो गयी थी। एक समय मन में संकल्प ले ये वर्षा काल में पत्नी और पारिवारिक जनों के मना करने पर भी राधा रानी के दर्शनों के लिए मथुरा- वृन्दावन की ओर चल दिए इन्हें राधा जी पर पूर्ण आस्था -और विश्वास था।
इसी समय लखनऊ से वृन्दावन की यात्रा करते समय इनके सिर में तीव्र वेदना (पीड़ा) हुई सम्भवतः माइग्रेन की असह्य पीड़ा थी; माता प्रसाद ने दवा की उम्मीद छोड़कर राधा जी का भक्ति-भाव से स्मरण किया तो कुछ देर बाद ही शिर का दर्द शान्त हो गया। राधा नाम का यह चमत्कार ही राधा जी के दर्शनों के लिए उत्साहित कर गया।
माता प्रसाद जी समाज के दबे -कुचले और गिरे लोगों को उठाने और उनकी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं ।
यदुवंशसंहिता के प्रकाशन और समाज के समक्ष उसका प्रस्तुतिकरण कराने में अपने जातीय स्वाभिमान और समाज की सेवा के प्रति समर्पण का यह भाव इनके अद्भुत चरित्र का ही दिग्दर्शन है।
जब जब यादवों के पौराणिक और प्रचीन इतिहास की बात होगी तब तब माता प्रसाद यादव और यादव योगेश कुमार रोहि को याद किया जाएगा ।
दौंनो ही साधकों का मिलन पूर्वजन्म के सुकृतों का परिणाम है। सदीयों से बारे हुए यादव समाज को एक सूत्र में बाँधने के लिए दोनों बन्धओं की युगलबन्धी सार्थक हुई-
जातीय स्वाभिमान और जातीय हीनता दोनों ही विपरीत पहलु हैं।
हीन जातियाँ कभी भी अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण नहीं कर सकती वे निष्क्रिय उदास और हताश होकर अपना नाश ही कर लेती हैं। परन्तु स्वाभिमान से सम्पृक्त जातियाँ एक उज्ज्वल और महान भविष्य की आधारशिला का स्थापन कर देती हैं।
अत: यादवो के स्वाभिमान का ज्योतिर्मय- स्तम्भ यह यदुवंश संहिता सिद्ध होगी ऐसा हमार पूर्ण विश्वास है।
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