भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व ३)खण्डः ४ अध्यायः द्वित्तीय-(२)
"सूत उवाच"
वयहानिर्महीपालो मध्यदेशे स्वकं पदम्। गृहीत्वा ब्रह्मरचितमजमेरमवासयत्।१।
"अनुवाद:-सूत जी ने कहा :-मध्यदेश वासी राजा वयहानि सिंहासन आरूढ़ होकर ब्रह्मारचित अजमेर में निवास करने लगा।१।
अजस्य ब्रह्मणो मा च लक्ष्मीस्तत्र रमा गता। तया च नगरं रम्यमजमेरमजं स्मृतम् ।२।
"अनुवाद:-अजन्मा ब्रह्मा तथा लक्ष्मी रमा यहाँ गये और नगर निर्माण किया था। तभी से वह सुन्दर नगर अज+ रमा=अजमेर कहलाया।२।
विशेष:-
यद्यपि अजमेर का पुराना नाम अजमीढ़ सं० अजमीढ़] -अजमेर का पुराना नाम ।
अजमेर (Ajmer) भारत के राजस्थान राज्य का एक प्रमुख व ऐतिहासिक नगर है। यह अजमेर ज़िले का मुख्यालय भी है। अजमेर अरावली पर्वत श्रेणी की तारागढ़ पहाड़ी की ढाल पर स्थित है। यह नगर सातवीं शताब्दी में अजयराज सिंह नामक एक चौहान राजा द्वारा बसाया गया था। इस नगर का मूल नाम 'अजयमेरु' था। सन् 1365 में मेवाड़ के शासक, 1556 में अकबर और 1770 से 1880 तक मेवाड़ तथा मारवाड़ के अनेक शासकों द्वारा शासित होकर अंत में 1881 में यह अंग्रेजों के आधिपत्य में चला गया।
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दशवर्षं कृतं राज्यं तोमरस्तत्सुतोऽभवत्। पार्थिवैः पूजयामास वर्षमात्रं महेश्वरम् ।३।
"अनुवाद:-उनके दश वर्ष राज्य करने के उपरान्त तोमर नाम का एक पुत्र हुआ। उसने राजा ने वर्ष तक करके महेश्वर की पूजा की।३।
इंद्रप्रस्थं ददौ तस्मै प्रसन्नो नगरं शिवः। तदन्वये च ये जातास्तोमराः क्षत्रियाः स्मृताः।४।
"अनुवाद:-इस पूजा से प्रसन्न शिव ने उसे इन्द्रप्रस्थ नगर प्रदान किया तभी से उसके वंशज तोमर वंश वाले क्षत्रिय प्रसिद्ध हो गये।४।
तोमरावरजश्चैव चयहानिसुतः शुभः ।। नाम्ना सामलदेवश्च प्रश्रितोऽभून्महीतले।५।
"अनुवाद:-तोमर के सबसे छोटे भाई चयहानि का पुत्र था सामलदेव जो प्रसिद्ध राजा हुआ।५।
सप्तवर्षं कृतं राज्यं महादेवस्ततोऽभवत् ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यमजयश्च ततो भवत् ।। ६ ।।
"अनुवाद:-सात वर्ष शासन किया शासन करने के उपरान्त उसे महादेव नामक पुत्र की प्राप्ति हुई पिता के समान उसने भी राज्य किया महादेव का पुत्र हुआ अजय हुआ।६।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं वीरसिंहस्ततोऽभवत् ।।शतार्द्धाब्दं कृतं राज्यं ततो बिंदुसुरोऽभवत् ।।७।
"अनुवाद:- जिसने पिता के समान राज्य किया। उसका पुत्र वीरसिंह हुआ जिसने ५० वर्ष राज्य किया तब उसका पुत्र बिन्दुसुर हुआ।८।
पितुरर्द्धं कृतं राज्यं मध्यदेशे महात्मना । तस्माच्च मिथुनं जातं वीरा वीरविहात्तकः।८।।
"अनुवाद:-विन्दुसुर ने मध्यदेश में पच्चीस वर्ष राज्य किया इसकी जुँड़वा सन्तान उत्पन्न हुई कन्या का नाम वीरा तथा पुत्र की नाम वीर था।८।
विक्रमाय ददौ वीरां पिता वेदविधानतः। स्वपुत्राय स्वकं राज्यं मध्यदेशान्तरं मुदा।९।
"अनुवाद:-वीरा का पाणिग्रहण बिन्दुसुर ने विधिसहित विक्रम के साथ कराया और उस बिन्दु सुर ने सिंहासन पर अपने पुत्र वीर को प्रसन्नता से आसीन किया।९।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं माणिक्यस्तत्सुतोभवत् ।।शतार्द्धाब्दं कृतं राज्यं महासिंहस्ततोऽभवत् ।। 3.4.2.१० ।।
"अनुवाद:-वीर का पुत्र हुआ माणिक्य उसने पचास वर्ष राज्य किया उसका पुत्र हुआ महासिंह १०।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं चंद्रगुप्तस्ततोऽभवत्।।पितुर्द्धं कृतं राज्यं तत्सुतश्च प्रतापवान् ।११।।
"अनुवाद:-उसने भी पिता के समान पचास वर्ष राज्य किया। उसका पुत्र हुआ चन्द्र गुप्त उसने (२५)पच्चीस वर्ष राज्य किया और उसका भी पुत्र हुआ प्रतापवान् हुआ।११।।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं मोहनस्तत्सुतोऽभवत् ।।त्रिंशदब्दं कृतं राज्यं श्वेतरायस्ततोऽभवत् ।।१२।।
"अनुवाद:-मोहन" जिसने ३०वर्ष शासन किया मोहन का पुत्र हुआ श्वेतराय हुआ।१२।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं नागवाहस्ततोऽभवत् ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं लोहधारऽस्ततोभवत्।१३।
"अनुवाद:-और श्वेतराय ने पिता के समान राज्य किया उसका पुत्र नागवाहन हुआ उसने पिता के समान राज्य किया उससे लोहधार उत्पन्न हुआ।१३।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं वीरसिंहस्ततोऽभवत्।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं विबुधस्तत्सुतोऽभवत्।१४।
"अनुवाद:-लोहधार का पुत्र वीरसिंह हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया वीरसिंह का पुत्र विबुध हुआ।१४।
शतार्द्धाब्दं कृतं राज्यं चंद्रराय स्ततोभवत् ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं ततो हरिहरोऽभवत् ।।१५।।
"अनुवाद:-यहाँ तक उसने ५० वर्ष शासन किया उसका पुत्र हुआ चन्द्रराय - जिसने पिता के समान राज्य किया और उस चन्द्रराय का पुत्र हरिहर हुआ।१५।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं वसंतस्तस्य चात्मजः ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं बलांग स्तनयोऽभवत्।१६।
"अनुवाद:- पिता के समान राज्य किया और उसका पुत्र वसन्त हुआ जिसने भी पिता के समान राज्य किया उसका पुत्र बलांग हुआ ।१६।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं प्रमथस्तत्सुतोऽभवत् ।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यमंगरायस्ततोऽभवत्।१७।
"अनुवाद:-बलांग का पुत्र प्रमथ हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया । और इसका पुत्र अंगराय हुआ जिसने भी पिता के समान राज्य किया।१७।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं विशालस्तस्य चात्मजः ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं शार्ङ्गदेवस्ततोऽभवत् ।१८।
"अनुवाद:-और इसका पुत्र विशाल हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया और विशाल का पुत्र शारंगदेव जिसने पिता के समान राज्य किया ।१८।
पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं मंत्रदेवस्ततोऽभवत् ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं जयसिंहस्ततोऽभवत्।१९।
"अनुवाद:-शारंगदेव का पुत्र मन्त्रदेव और इनका पुत्र जयसिंह हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया उसका पुत्र जयसिंह हुआ।१९।
आर्यदेशाश्च सकला जितास्तेन महात्मना ।। तद्धनैः कारयामास यज्ञं बहुफलप्रदम् ।। 3.4.2.२०।
"अनुवाद:-जयसिंह ने आर्य देशों पर विजय प्राप्त करके प्राप्त धन द्वारा अधिक फलदायक महान यज्ञ सम्पन्न किया।२०।।
ततश्चानन्द देवो हि जातः पुत्रः शुभाननः ।।शतार्द्धाब्दं कृतं राज्यं जयसिंहेन धीमता ।२१ ।।
"अनुवाद:-उसका पुत्र था आनन्ददेव शुभ मुख वाला उत्पन्न हुआ। जिसने ५० वर्ष तक शासन किया जयसिंह के द्वारा।२१।
तत्सुतेन पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं महीतले ।।सोमेश्वरस्तस्य सुतो महाशूरो बभूव ह ।२२ ।।
"अनुवाद:-और उसका पुत्र हुआ सोमेश्वर हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया सोमेश्वर का पुत्र महाशूर हुआ।२२।
अनंगपालस्य सुतो ज्येष्ठां वै कीर्तिमालिनीम् ।।तामुद्वाह्य विधानेन तस्यां पुत्रानजीजनत् ।। २३।।
"अनुवाद:-अनंगपाल की बड़ी लड़की कीर्तिमालिनी से सोमेश्वर ने विवाह किया जिससे अनेक पुत्रों को जन्म दिया।२३।
धुंधुकारश्च वै ज्येष्ठो मथुराराष्ट्रसंस्थितः ।। मध्यः कुमाराख्यसुतःपितुःपदसमास्थितः।२४।।
"अनुवाद:-उसके तीन पुत्र थे बड़ा धुन्धुकार यह मथुरा का राज्याधिपति हुआ। मध्यम पुत्र कुमार यह पिता की गद्दी पर आसीन हो गया ।२४।
महीराजस्तु बलवांस्तृतीयो देहलीपतिः ।।सहोद्दीनस्य नृपतेर्वशमाप्य मृतिं गतः ।।२५ ।।
"अनुवाद:-और सबसे छोटा तृतीय पुत्र महीराज(पृथ्वीराज)हुआ यह दिल्ली में सिंहासन आरूढ़ हो गया पृथ्वी राज साहाबुद्दीन के अधीन होकर मारा गया या मृत्यु को प्राप्त हो गया।२५।
चापहानेश्च स कुलं छाययित्वा दिवं ययौ ।। तस्य वंशे तु राजन्यास्तेषां पत्न्यः पिशाचकैः।२६।
"अनुवाद:-यह म्लेच्छ चापहानि वंश का नाश करके स्वर्ग को चला गया चौहान वंश की शेष पत्नीयाँ का भोग म्लेच्छों ने किया। २६।
म्लेच्छैश्च भुक्तवत्यस्ता बभूबुर्वर्णसंकराः।। न वै आर्या न वै म्लेच्छा जट्टा जात्या च मेहनाः। २७।
"अनुवाद:-म्लेच्छ द्वारा भोगी गयी उन स्त्रीयो से वर्णसंकर उत्पन्न हुए वे वर्णसंकर न तो आर्य ही हुए ना ही म्लेच्छ वे जट्टा और मेहना थे।२७।।
मेहना म्लेच्छजातीया जट्टा आर्यमयाः स्मृताः।क्वचित्कचिच्च ये शेषाः क्षत्रियाश्चपहानिजाः।२८।
"अनुवाद:- मेहना म्लेच्छ जातीयों के अन्तर्गत थे और जट्टा आर्यमय कहलाये जो कुछ शेष क्षत्रिय इधर उधर बचे थे वे चौहान (चापहानि) के वंशज थे ।२७-२८।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि कलियुगीयेतिहास समुच्चये प्रमरवंशवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः।।२।।
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इस प्रकार श्रीभविष्यमहापुराण में प्रतिसर्गपर्व में चतुर्युगखण्डापरपर्याय कलियुगीय इतिहास समुच्चय में प्रमर वंश का वर्णन नामक चतुर्थ *खण्ड का द्वितीय अध्याय पूर्ण हुआ।*
(चतुश्चत्वारिंश (44) वाँ अध्याय: कर्णपर्व)
महाभारत: कर्ण पर्व: चतुश्चत्वारिंश (44) वाँ अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद:-
कर्ण के द्वारा मद्र और बाहीक देश वासियों की निन्दा करना-
शल्य बोले- कर्ण ! तुम दूसरों के प्रति जो आक्षेप करते हो, ये तुम्हारा प्रलाप ( बकवास) मात्र हैं। तुम जैसे हजारों कर्ण न रहे तो भी युद्ध स्थल में शत्रुओं पर विजय पायी जा सकती है।
संजय कहते हैं- राजन ! ऐसी कठोर बात बोलते हुए मद्रराज शल्य से कर्ण ने पुनः दूनी कठोरता लिये अप्रिय वचन कहना आरम्भ किया।
कर्ण कहते हैं- मद्र नरेश ! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरी ये बातें सुनो। राजा धृतराष्ट्र के समीप कही जाती हुई इन सब बातों को मैंने सुना था।
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एक दिन महाराज धृतराष्ट्र के घर में बहुत से ब्राह्मण आ-आकर नाना प्रकार के विचित्र देशों तथा पूर्ववर्ती भूपालों के वृतान्त सुना रहे थे।
वहीं किसी वृद्ध एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण ने बाहीक और मद्र देश की निन्दा करते हुए वहाँ की पूर्व घटित बातें कही थीं- जो प्रदेश हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र की सीमा से बाहर हैं तथा जो सतलज, व्यास, रावी, चिनाब, और झेलम- इन पाँचों एवं सिंधु नदी के बीच में स्थित है, उन्हें बाहीक कहते हैं।
उन्हें त्याग देना चाहिये। गोवर्धन नामक वटवृक्ष और सुभद्र नामक चबूतरा- ये दोनों वहाँ के राजभवन के द्वार पर स्थित हैं, जिन्हें मैं बचपन से ही भूल नहीं पाता हूँ। मैं अत्यन्त गुप्त कार्यवश कुछ दिनों तक बाहीक देश में रहा था। इससे वहाँ के निवासियों के सम्पर्क में आकर मैंने उनके आचार-व्यवहार की बहुत सी बातें जान ली थीं। वहाँ शाकल नामक एक नगर और आपगा नाम की एक नदी है, जहाँ जर्तिका नाम वाले बाहीक निवास करते हैं। उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है। वे भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते और गुड़ से बनी हुई मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं।
पूआ, मांस और वाटी खाने वाले बाहीक देश के लोग शील और आचार शून्य हैं।
वहाँ की स्त्रियाँ बाहर दिखाई देने वाली माला और अंगराग धारण करके मतवाली तथा नंगी होकर नगर एवं घरों की चहारदिवारियों के पास गाती और नाचती हैं।
वे गदहों के रेंकने और ऊँटों के बलबलाने की सी आवाज से मतवाले पन में ही भाँति-भाँति के गीत गाती हैं और मैथुन-काल में भी परदे के भीतर नहीं रहती हैं। वे सब-के-सब सर्वथा स्वेच्छाचारिणी होती हैं।
मद से उनत्त होकर परस्पर सरस विनोद युक्त बातें करती हुई वे एक दूसरे को 'ओ घायल की हुई ! ओ किसी की मारी हुई ! हे पतिमर्दिते ! इत्यादि कहकर पुकारती और नृत्य करती हैं।
पर्वों और त्यौहारों के अवसर पर तो उन संस्कारहीन रमणीयों के संयम का बाँध और भी टूट जाता है।
उन्हीं बाहीक देशी मदमत्त एवं दुष्ट स्त्रियों का कोई सम्बन्धी वहाँ से आकर कुरुजांगल ( ) प्रदेश में निवास करता था। वह अत्यन्त खिन्नचित्त होकर इस प्रकार गुनगुनाया करता था- "निश्चय ही वह लंबी, गोरी और महीन कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी प्रेयसी कुरुजांगल प्रदेश में निवास करने वाले मुझ बाहीक को निरन्तर याद करती हुई सोती होगी।
मैं कब सतलज और उस रमणीय रावी नदी को पार करके अपने देश में पहुँचकर शंख की बनी हुई मोटी-मोटी चूडि़यों को धारण करने वाली वहाँ की सुन्दरी स्त्रियों को देखूँगा।
जिनके नेत्रों के प्रान्त भाग मैनसिल के आलेप से उज्ज्वल हैं, दोनों नेत्र और ललाट अंजन से सुशोभित हैं तथा जिनके सारे अंग कम्बल और मृगचर्म से आवृत हैं, वे गोरे रंगवाली प्रियदर्शना (परम सुन्दरी) रमणियाँ मृदंग, ढोल, शंख और मर्दल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ-साथ कब नृत्य करती दिखायी देंगी।
(चतुश्चत्वारिंश (44) वाँ अध्याय: कर्ण पर्व)
महाभारत: कर्ण पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक संख्या- 20 से 40 का हिन्दी अनुवाद:-
कब हम लोग मदोन्मत्त हो गदहे, ऊँट और खच्चरों की सवारी द्वारा सुखद मार्गाें वाले शमी, पीलु और करीले के जंगलों में सुख से यात्रा करेंगे।" मार्ग में तक्र के साथ पूए और सत्तू के पिण्ड खाकर अत्यन्त प्रबल हो कब चलते हुए बहुत से राहगीरों को उनके कपड़े छीनकर हम अच्छी तरह पीटेंगे।
संस्कारशून्य दुरात्मा बाहीक ऐसे ही स्वभाव के होते हैं। उनके पास कौन सचेत मुनष्य दो घड़ी भी निवास करेगा ? ब्राह्मण ने निरर्थक आचार-विचार वाले बाहीकों को ऐसा ही बताया है, जिनके पुण्य और पाप दोनों का छठा भाग तुम लिया करते हो। शल्य ! उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ये सब बातें बताकर उद्दण्ड बाहीकों के विषय में पुनः जो कुछ कहा था, वह भी बताता हूँ।
उस देश में एक राक्षसी रहती है, जो सदा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को समृद्धशाली शाकल नगर में रात के समय दुन्दुभि बजाकर इस प्रकार गाती है- मैं वस्त्राभूषणों से विभूषित हो गोमांस खाकर और गुड़ की बनी हुई मदिरा पीकर तृप्त हो अंजलि भर प्याज के साथ बहुत सी भेड़ों को खाती हुई गोरे रंग की लंबी युवती स्त्रियों के साथ मिलकर इस शाकल नगर में पुनः कब इस तरह की बाहीक सम्बन्धी गाथाओं का गान करूँगी।
जो सूअर, मुर्गा, गाय, गदहा, ऊँट और भेड़ के मांस नहीं खाते, उनका जन्म व्यर्थ है।
जो शाकल निवासी आबालवृद्ध नरनारी मदिरा से उन्मत्त हो चिल्ला-चिल्लाकर ऐसी गाथाएँ गाया करते हैं, उनमें धर्म कैसे रह सकता है ? शल्य! इस बात को अच्छी तरह समझ लो। हर्ष का विषय है कि इसके सम्बन्ध में मैं तुम्हें कुछ और बातें बता रहा हूँ, जिन्हें दूसरे ब्राह्मण ने कौरव-सभा में हम लोगों से कहा था। जहाँ शतद्रु (सतलज), विपाशा (व्यास), तीसरी इरावती (रावी), चन्द्रभागा (चिनाव) और वितस्ता (झेलम), ये पाँच नदियाँ छठी सिंधु नदी के साथ बहती हैं; जहाँ पीलु नामक वृक्षों के कई जंगल हैं, वे हिमालय की सीमा से बाहर के प्रदेश आरट्ट नाम से विख्यात है। वहाँ का धर्म-कर्म नष्ट हो गया है। उन देशों में कभी भी न जायें। जिनके धर्म-कर्म नष्ट हो गये हैं, वे संस्कारहीन, जारज बाहीक यज्ञ-कर्म से रहित होते हैं।
उनके दिये हुए द्रव्य को देवता, पितर और ब्राह्मण भी ग्रहन नहीं करते हैं, यह बात सुनने में आयी है।
किसी विद्वान ब्राह्मण ने साधु पुरुषों की सभा में यह भी कहा कि बाहीक देश के लोग काठ के कुण्डों में तथा मिट्टी के बर्तन में जहाँ सत्तू और मदिरा लिपटे होते हैं और जिन्हें कुत्ते चाटते रहते हैं, घृणाशून्य होकर भोजन करते हैं।
बाहीक देश के निवासी भेड़, ऊँटनी और गदही के दूध पीते और उसी दूध के बने हुए दही-घी आदि खाते हैं। वे जारज पुत्र उत्पन्न करने वाले नीच आरट्ट नामक बाहीक सबका अन्न खाते और सबका दूध पीते हैं। अतः विद्वान पुरुष को उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिये। शल्य! इस बात को याद कर लो। अभी तुमसे और भी बातें बताऊँगा, जिन्हें किसी दूसरे ब्राह्मण ने कौरव-सभा में स्वयं मुझसे कहा था। युगन्धर नगर में दूध पीकर अच्युत स्थल नामक नगर में एक रात रहकर तथा भूतिलय में स्नान करके मनुष्य कैसे स्वर्ग में जायेगा? जहाँ पर्वत से निकल कर पूर्वोक्त ये पाँच नदियाँ बहती हैं, वे आरट्ट नाम से प्रसिद्ध बाहीक प्रदेश हैं। उनमें श्रेष्ठ पुरुष दो दिन भी निवास न करे।
(चतुश्चत्वारिंश (44)वाँ अध्याय: कर्ण पर्व)
महाभारत: कर्ण पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोकसंख्या:- 41-47 का हिन्दी अनुवाद:-
विपाशा (व्यास) नदी में दो पिशाच रहते हैं। एक का नाम है बहि और दूसरे का नाम है हीक। इन्हीं दोनों की संतानें बाहीक कहलाती हैं। ब्रह्मा जी ने इनकी सृष्टि नहीं की है। वे नीच योनि में उत्पन्न हुए मनुष्य नाना प्रकार के धर्मों को कैसे जानेंगे ? कारस्कर, माहिषक, कुरंड, केरल, कर्कोटक और वीरक- इन देशों के धर्म (आचार-व्यवहार) दूषित हैं; अतः इनका त्याग कर देना चाहिये। विशाल ओखलियों की मेखला (करधनी) धारण करने वाली किसी राक्षसी ने किसी तीर्थयात्री के घर में एक रात रहकर उससे इस प्रकार कहा था। जहाँ ब्रह्मा जी के समकालीन (अत्यन्त प्राचीन) वेद-विरुद्ध आचरण वाले नीच ब्राह्मण निवास करते हैं, वे आरट्ट नामक देश है और वहाँ के जल का नाम बाहीक है।
उन अधम ब्राह्मणों को न तो वेदों का ज्ञान है, न वहाँ यज्ञ की वेदियाँ हैं और न उनके यहाँ यज्ञ-याग ही होते हैं। वे संस्कारहीन एवं दासों से समागम करने वाली कुलटा स्त्रियों की संतानें हैं; अतः देवता उनका अन्न ग्रहण नहीं करते हैं। प्रस्थल,(पश्तो) मद्र, गान्धार, आरट्ट, खस, वसाति, सिंधु तथा सौवीर- ये देश प्रायः अत्यन्त निन्दित हैं।
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इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक चौंवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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कर्णेन सोपहासं शल्यगर्हणम्। ( कर्ण द्वारा उपहास करते हुए शल्य की निन्दा करना-)
महाभारत -कर्णपर्व 44 वाँ अध्याय-
"सञ्जय उवाच।
ततः पुनर्महाराज मद्रराजमरिन्दमः। अभ्यभाषत राधेयः सन्निवार्योत्तरं वचः।1।
निर्भर्त्सनार्थं शल्य त्वं यत्तु जल्पितवानसि। नाहं शक्यस्त्वया वाचा विभीषयितुमाहवे।2।
यदि मां देवताः सर्वा योधयेयुः सवासवाः। तथापि मे भयं न स्यात्किमु पार्थात्सकेशवात्।3।
नाहं भीषयितुं शक्यः शुद्धकर्णा महाहवे।अभिजानीहि शक्तस्त्वमन्यं भीषयितुं रणे।4।
नीचस्य बलमेतावत्पारुष्यं यतत्त्वमात्थ माम्।अशक्तो हि गुणान्वक्तुं वल्गसे बहु दुर्मते।5।
न हि कर्णः समुद्भूतो भयार्थमिह मद्रक।विक्रमार्थमहं जातो यशोर्थं च तथाऽऽत्मनः।6।
सखिभावेन सौहार्दान्मितत्रभावेन चैव हि।कारणैस्त्रिभिरेतैस्त्वं शल्य जीवसि साम्प्रतम्।7।
राज्ञश्च धार्तराष्ट्रस्य कार्यं सुमहदुद्यतम्। मयि तच्चाहितं शल्य तेन जीवसि मे क्षणम्।8।
कृतश्च समयः पूर्वं क्षन्तव्यं विप्रियं तव।` समयः परिपाल्यो मे तेन जीवसि साम्प्रतम्'।9।
ऋते शल्यसहस्रेण विजयेयमहं परान्। मित्रद्रोहस्तु पापीयानिति जीवसि साम्प्रतम्।10।
"शल्य उवाच।
आर्तप्रलापांस्त्वं कर्ण यान्ब्रवीषि परान्प्रति। न ते कर्णसहस्रेण शक्या जेतुं परे युधि।11।
सञ्जय उवाच।
तथा ब्रुवन्तं परुषं कर्णो मद्राधिपं तदा। परुषं द्विगुणं भूयः प्रोवाचाप्रियदर्शनम्।12।
इदं त्वमेकाग्रमनाः शृणु मद्रजनाधिप। सन्निधौ धृतराष्ट्रस्य प्रोच्यमानं मया श्रुतम्।13।
देशांश्च विविधांश्चित्रान्पूर्ववृत्तांश्च पार्थिवान्।ब्राह्मणाः कथयन्ति स्म धृतराष्ट्रनिवेशने।14।
तत्र वृद्धः पुरावृत्ताः कथाः कश्चिद्द्विजोत्तमः।बाह्लीकदेशं मद्रांश्च कुत्सयन्वाक्यमब्रवीत्।15।
बहिष्कृता हिमवतता गङ्गया च तिरस्कृताः।सरस्वत्या यमुनया कुरुक्षेत्रेण चापि ये।16।
पञ्चानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां येऽन्तराश्रिताः।तान्धर्मबाह्यानशुचीन्बाह्लीकानपि वर्जयेत्।17।
गोवर्धनो नाम वटः सुभाण्डं नाम पत्तनम्।एतद्राजन्कलिद्वारमाकुमारात्स्मराम्यहम्।18।
कार्येणात्यर्थगूढेन बाह्लीकेषूषितं मया। तत एषां समाचारः संवासाद्विदितो मया।19।
शाकलं नाम नगरमापगानामनिम्नगा। चाण्डाला नाम बाह्लीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम्।20।
पानं गुडासवं पीत्वा गोमांसं लशुनैः सह।अपूपसक्तुमद्यानामाशिताः शीलवर्जिताः।21।
गायन्त्यथ च नृत्यन्ति स्त्रियो मत्ता विवाससः।नगरापणवेशेषु बहिर्माल्यानुलेपनाः।22।
मत्ताः प्रगीतविरुतैः खरोष्ट्रनिनदोपमैः। अनावृता मैथुने ताः कामचाराश्च सर्वशः।23।
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आहुरन्योन्यसूक्तानि प्रब्रुवाणा मदोत्कxxxः।
हेहतेहेहतेत्येवं स्वामिभर्तृहतेति च।24।
आक्रोशन्त्यः प्रनृत्यन्ति व्रात्याः पर्वस्वसंयताः।
तासां किलावलिप्तानां निवसन्कुरुजाङ्गले।25।
कश्चिद्बाह्लीकदुष्टानां नातिहृष्टमना जगौ।
सा नूनं बृहती गौरी सूक्ष्मकम्बलवासिनी।26।
मामनुस्मरती शेते बाह्लीकं कुरुवासिनम्।
शतद्रुं नु कदा तीर्त्वा तां च रम्यामिरावतीम्।
गत्वा स्वदेशं द्रक्ष्यामि स्थूलजङ्घाः शुभाः स्त्रियः।27।
मनःशिलोज्ज्वलापाङ्ग्यो गौर्यस्ताः काकुकूजिताः।
कम्बलाजिनसंवीता रुदन्त्यः प्रियदर्शनाः।28।
मृदङ्गानकशङ्खानां मर्दलानां च निःस्वनैः।
खरोष्ट्राश्वतरैश्चैव मत्ता यास्यामहे सुखम्।29।
शमीपीलुकरीराणां वनेषु सुखवर्त्मसु।
अपूपान्सक्तुपिण्डांश्च प्राश्नन्तो मथितान्वितान्।30।
पथिषु प्रबलो भूत्वा तथा सम्पततोऽध्वगान्।
चेलापहारं कुर्वाणास्ताडयिष्याम भूयसः।31।
एवंशीलेषु व्रात्येषु बाह्लीकेषु दुरात्मसु।
कश्चेतयानो निवसेन्मुहूर्तमपि मानवः।32।
कर्ण उवाच।
ईदृशा ब्राह्मणेनोक्ता बाह्लीका मोघचारिणः।
येषां षड्भागहर्ता त्वमुभयोः पुण्यपापयोः।33।
इत्युक्त्वा ब्राह्मणः साधुरुत्तरं पुनरुक्तवान्।
बाह्लीकेष्वविनीतेषु प्रोच्यमानं निबोध तत्।34।
ततत्र स्म राक्षसी गाति कृष्णचतुर्दशीम्।
नगरे शाकले स्फीते आहत्य निशि दुन्दुभिम्।35।
कथं वस्तादृशो गाथाः पुनर्गास्यामि शाकले।
गव्यस्य तृप्ता मांसस्य पीत्वा गौडं सुरासवम्।36।
गौरीभिः सह नारीभिर्बृहतीभिः स्वलङ्कृता।
पलाण्डुगण्डूषयुताः खादन्तश्चेशिकान्बहून्।37।
वाराहं कौक्कुटं मांसं गव्यं गार्दभमौष्ट्रकम्।
धानाश्च ये न खादन्ति तेषां जन्म निरर्थकम्।38।
एवं गायन्ति ये मत्ताः शीधुना पीलुकावने।
सबालवृद्धाः क्रन्दन्ति तेषां धर्मः कथं भवेत्।39।
यत्र लोकेश्वरः कृष्णो देवदेवो जनार्दनः।
विस्मृतः पुरुषैरुग्रैस्तेषां धर्मः कथं भवेत्।40।
इति शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते।
यदन्योप्युक्तवानस्मान्ब्राह्मणः कुरुसंसदि।41।
पञ्चनद्यो वहन्त्येता यत्र पीलुवनान्युत।
शतद्रुश्च विपाशा च तृतीयैरावती तथा।42।
चन्द्रभागा वितस्ता च सिन्धुषष्ठा महानदी।
आरट्टा नाम बह्लीका एतेष्वार्यो हि नो वसेत्।43।
व्रात्यानां दासमीयानां विदेहानामयज्वनाम्।
न देवाः प्रतिगृह्णन्ति पितरो ब्राह्मणास्तथा।44।
तेषां प्रनष्टधर्माणां बाह्लीकानामिति श्रुतिः।
ब्राह्मणेन यथा प्रोक्तं विदुषा साधुसंसदि।45।
काष्ठकुण्डेषु बाह्लीका मृण्मयेषु च भुञ्जते।
सक्तुमद्यावलिप्तेषु श्वावलीढेषु निर्घृणाः।46।
आविकं चौष्ट्रिकं चैव क्षीरं गार्दभमेव च।
तद्विकारांश्च बाह्लीकाः खादन्ति च पिबन्ति च।47।
पात्रसङ्करिणो जाल्माः सर्वान्नक्षीरभोजनाः।
आरट्टा नाम बाह्लीका वर्जनीया विपश्चिता।48।
इति शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते।
यदन्योऽप्युक्तवान्मह्यं ब्राह्मणः कुरुसंसदि।49।
युगन्धरे पयः पीत्वा प्रोष्य चाप्यच्युतस्थले।
तद्वद्भूतिलये स्नात्वा कथं स्वर्गं गमिष्यति।50।
पञ्चनद्यो वहन्त्येता यत्र निःसृत्य पर्वतात्।
आरट्टा नाम बाह्लीका न तेष्वार्यो द्व्यहं वसेत्।51।
बाह्लीका नाम हीकश्च विपाशायां पिशाचकौ।
तयोरपत्यं बाह्लीका नैषा सृष्टिः प्रजापतेः।52।
ते कथं विविधान्धर्माञ्ज्ञास्यन्ते हीनयोनयः।53।
कारस्करान्माहिषकान्करम्भान्कटकालिकान्।
कर्करान्वीरकान्वीरा उन्मत्तांश्च विवर्जयेत्।54।
इति तीर्थानुसञ्चारी राक्षसी काचिदब्रवीत्।
एकरात्रमुषित्वेह महोलूखलमेखला।55।
आरट्टा नाम ते देशा बाह्लीकं नाम तद्वनम्।
वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायोऽतिकुत्सिताः।56।
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इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि चतुश्चत्वारिञ्शोऽध्यायः।44।
यहाँ महाभारतकार क्या कहना चाहते थे और इन श्लोकों का वास्तविक अर्थ क्या है, यह बात अभी तक किसी लेखक ने स्पष्ट नहीं की है। यह ऊपर से तो कर्ण और शल्य की तू-तू मैं-मैं जान पड़ती है,
किन्तु इसके भीतर ठोस ऐतिहासिक तथ्य छिपा हुआ है। बात ऐसी है कि जब इस देश पर सिकन्दर ने आक्रमण किया, तो उसके अन्यायी यवनों को कुछ प्रदेशों पर अधिकार हो गया। पहले यह अधिकार बाल्हीक या बल्ख प्रदेश पर था और वहाँ के यवन शासक बाल्हीक यवन कहलाते थे। मौर्य सम्राटों के युग में तो वे निस्तेज होकर सिकड़ु हुए पड़े रहते थे; किन्तु मौर्य साम्राज्य के बिखरने पर जब पुष्यमित्र सत्तारूढ़ हुआ, उस यवनों गान्धार और पंजाब की ओर अपने पैर फैलाने शुरू किये और उनमें से दिमित्र और मेनन्द्र नामक राजाओं ने पंचनद और पंजाब के उत्तरी प्रदेश में, जिसे मद्र कहते थे, एवं जिसकी राजधानी शालक थी, अपना अधिकार जमाया। मद्रराज शल्य भी वहीं के थे। अतएव उनके ब्याज से जो कुछ मद्रक यवनों के आचार और विचार के प्रति भारतीयों की प्रतिक्रिया थी, वह सब शल्य के सिर मढ़कर यहाँ कही गई है।
स्पष्ट ज्ञात होता है कि मद्रक यवनों का रहन-सहन भारतीयों के आचार-विचार और सामाजिक संगठन से भिन्न था। उनमें खान-पान, नाच, रंग, सुरा और मद, नग्न-नृत्य आदि बहुत-सी कुटिल प्रथाएं ऐसी थीं, जिनकी चर्चा मध्य देश में रहने वाले भारतीयों के कानों में आने लगी। तभी ऐसा हुआ कि मध्य देश में ऐसी धारणा फैली कि पांच नदियों वाला वाहीक देश पृथ्वी का मल है, वहाँ किसी को नहीं जाना चाहिए। यहाँ तक बात बढ़ी कि जो कुरुक्षेत्र, सरस्वती और दृशद्वती के बीच का प्रदेश, पृथ्वी का सबसे पवित्र स्थान माना जाता था, उसके लिए भी कहा गया है कि “तीर्थ यात्रा के लिए वहाँ दिन में ही जाना चाहिए और रात्रि में न ठहरकर उसी दिन वापस चले आना चाहिए।” यह बात कुरुक्षेत्र की यात्रा के सम्बन्ध में कही गई है और उसकी भी संगति यही है।
अध्याय : 27-29
मद्रक यवनों के विषय में ये किंवदन्तियां चलते-चलते ही गाथाओं के रूप में लोक में फैल गई थीं, यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है। लगभग एक जैसा वर्णन कुछ हेरफेर से 10 या 11 बार दुहराया गया है और उसका ढंग यही है कि एक किसी ब्राह्मण ने ऐसा कहा था, किसी दूसरे ब्राह्मण ने ऐसा कहा था। मैंने धृतराष्ट्र की सभा में ऐसा सुना था, इत्यादि। इन वर्णनों की तालिका इस प्रकार हैः 1. ”मद्र देश कुदेश या पाप का देश है। वहाँ की स्त्रियां, बालक, बूढ़े और तरुण प्रायः खेल में मस्त रहते हैं और वे इन गाथाओं को ऐसे गाते हैं, मानो अध्ययन कर रहे हों। मद्रक दुरात्मा हैं। उनकी तरह की गाथाओं को, जैसा पहले ब्राह्मणों ने राज-सभा में सुनाया था, वे इस प्रकार हैः मद्रक बड़ा मित्र-द्रोही होता है। जो हमारे साथ नित्य शत्रुता का व्यवहार करता है, वही मद्रक है। मद्रक के साथ कभी दोस्ती नहीं हो सकती, क्योंकि वह झूठा, कुटिल और दुरात्मा होता है। दुष्टता की जितनी हद है, वह सब मद्रकों में समझो। उनकी विचित्र प्रथा है कि मां, बाप, बेटे, बेटी, सास और ससुर, भाई, जमाई, पोते और धेवते, मित्र-अतिथि, दास-दासी, जान-पहचान के और अनजान स्त्री और पुरुष सब एक-दूसरे के साथ मिलकर संगत करते हैं। वे शिष्ट व्यक्तियों के घर में इकट्ठे होकर सत्तू की पिण्डियां और उसका घोल पीते हैं और गोमांस के साथ शराब पीकर हंसते और चिल्लाते हैं एवं कामवश होकर स्वेच्छाचार बरतते हैं। उनकी काम से भरी बातें सुनकर जान पड़ता है कि उनमें धर्म का सर्वथा लोप हो गया है। मद्रक के साथ न वैर और न मैत्री करना चाहिए। वह अत्यन्त चलप होता है। उसमें शौच का भाव नहीं, उसे स्पर्श और अस्पर्श का ज्ञान भी नहीं होता। बिच्छू जैसे विष-बुझा डंक मारता है, वैसे ही मद्रक का मेल है। उनकी स्त्रियां शराब के नशे में बुत्त होकर कपड़े फेंककर नाचती हैं, यहाँ तक की असंयत कामाचार से भी नहीं चूकती हैं। हे मद्रक, तू उन्हीं का बेटा है, तू धर्म क्या जाने? जैसे ऊंटनी खड़ी होकर मूतती है, वैसे ही उनकी स्त्रियां भी। वहाँ कांजी (सुमिरक) पीने का बेहद रिवाज है। कांजी की शौकीन स्त्री कहती है कि मैं पुत्र दे दूंगी, पर कोई मुझसे कांजी न मांगे। वहाँ की स्त्रियां लम्बे-चौड़े शरीर वाली, ऊनी वस्त्र पहनने वाली, डटकर भोजन करने वाली, निर्लज्ज और अपवित्र होती हैं, ऐसा मैंने सुना है। उनके विषय में और भी कुछ कहा जा सकता है। मद्रक धर्म को क्या जानें? वे पापी देश में उत्पन्न हुए म्लेच्छ हैं। हे मद्रराज, फिर यदि तुमने कुछ कहा तो मैं गदा से तुम्हारा सिर तोड़ दूंगा।” कर्ण के उत्तर में शल्य ने कौवे और हंस की एक कहानी सुनाई, जिसमें कौवा कुजात होकर भी अपनी बड़ाई हांकता है। अन्त में वह अपनी उड़ान के करतब दिखाता हुआ समुद्र में डूबने लगा तो उसके माफी मांगने पर हंस ने उसे उठाकर किनारे पर रख दिया। इसके उत्तर में अध्याय 29 में कर्ण ने पहले तो सच्चे मित्र के विषय में कुछ सुन्दर श्लोक सुनाए, किन्तु इतना अंश यहाँ स्पष्ट जोड़ा गया है और 30वें अध्याय का मेल पूर्व के 27वें अध्याय से मिल जाता है। फिर मद्रकों के विषय की गाथाओं का तांता शुरू हो जाता है, जो इस प्रकार हैः |
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