शनिवार, 15 अप्रैल 2023

यादव योगेश कुमार रोहि

मजबूरियाँ हालातों के जब से  साथ हैं।
सफर में सैकड़ों  हजारों   फुटपाथ हैं।।

सम्हल रहा हूँ जिन्दगी की दौड़ में गिर कर !
किस्मतों को तराशने वाले भी कुछ हाथ हैं।

 

"यादव योगेश कुमार रोहि- ( जन्म -10 मार्च 1983 ईस्वी- जन्म-भूमि:- ग्राम दभारा-फरिहा-जिला फिरोजाबाद ) परन्तु कर्मभूमि ननिहाल में रही - ननिहाल का ग्राम आजादपुर पत्राल़य- पहाड़ीपुर ज़िला अलीगढ़) है पिता श्री पुरुषोत्तम सिंह" एक प्राइमरी जूनियर अध्यापक रहे; जो इतिहास" साहित्य और  वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समन्वित थे।  उन्हीं के  सभी शैक्षिक संस्कार बीज रूप में बचपन में ही प्राप्त इन्हें हो गये थे ।  और इसके अतिरिक्त माता राजेश्वरी देवी एक निर्भीक परन्तु धार्मिक स्वभाव की कारुणिकता आप्लावित महिला थीं। परन्तु उनका साहस भी अतीव प्रभावी था जिनके आनुवंशिक संस्कार साहस" उत्साह और स्वाभिमानी जिजीविषा के रूप में योगेश जी को सहज प्राप्त हुए।

बचपन में जब एक बार भटकाव की हालातों में कहीं से  श्रीमद्भगवद्गीता गीताप्रेस की पुस्तक पढ़ने को अचानक प्राप्त हो गयी थी तब ऐसा लगा कि जीवन की सभी समस्याओं का निदान और असली ज्ञान मिल गया  यद्यपि श्रीमद्भगवद्गीता के कुछ श्लोक प्रक्षिप्त हो गये हैं।

परन्तु श्रीमद्भगवद्गीता का सांख्य योग और भक्तियोग की व्याख्या तथा मन बुद्धि और आत्मा के स्वरूप की अर्थ समन्वित व्याख्या- यथार्थ के सन्निकट प्रतीत हुई। 

 बस तभी से श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति जाग्रत हुई और कृष्ण की ऐतिहासिकता जानने की इच्छा ने यादव योगेश कुमार रोहि को सम्पूर्ण पौराणिक अध्ययन तथा व्रज की संस्कृति की प्राचीनता जानने के लिए प्रेरित किया।

प्राचीन भारतीय संस्कृति के अन्वेषक, अध्येता होने के साथ साथ भारतीय शास्त्रों में विशेषत: भारतीय दर्शन - वैशेषिक, सांख्य, तथा योग और वेदान्त के सैद्धान्तिक विवेचक के रूप में तथा भारतीय पुराणों का सम्यक् अनुशीलन करने वाले रोहि जी ने  महाभारत" वाल्मीकि-रामायण के अतिरिक्त भारतीय आध्यात्मिकता के दिग्दर्शन उपनिषदों के अध्येता के रूप में जीवन का अधिकांश व्यतीत किया है। "यादव योगेश कुमार रोहि" ने दीर्घ काल तक अपने गृह क्षेत्र में ही रहकर भारतीय संस्कृति के अतिरिक्त विश्व की भारोपीय संस्कृतियों का सतत् अध्ययन कार्य किया है। 

समय-समय पर संगीत के साथ साथ कविता, गीत-लेखन" गायन और चित्रकारी पर भी अपनी मौलिक अभिव्यक्ति की है‌। जब बचपन में कबूतरवाजी का शौक पारिवैशिकता के अनुरूप व्यक्तित्व को संस्कार रूप में प्राप्त हुआ।

तब इस कारण से जंगल, वृक्षों तथा गाँव के समीपवर्ती काली नदी का प्राकृतिक परिदृश्य के गहन  दृष्टिगोचर करने का अवसर प्राप्त  हुआ तभी से जीवन में आध्यात्मिक विचारों का सहज प्रादुर्भाव हो गया। 

परम्परागत एकादिमिक शिक्षा ग्रहण करते हुए संस्कृत भाषा को जानने की इच्छा एक बार मन में उत्पन्‍न हुई तब रोही जी "माध्यमिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश से  इण्टमीडिएट की पढ़ाई कर रहे थे ।

इसके बाद स्नातक तथा परास्नातक की पढ़ाई आगरा-विश्वविद्यालय से की परास्नातक के रूप में संस्कृत भाषा- से (Master of Arts) एम.ए की शिक्षा आगरा-विश्वविद्यालय से रेगूलरिटी ग्रहण की इसी समय ही पाणिनि व्याकरण सूत्र - अष्टाध्यायी "पातञ्जल- महाभाष्य तथा भाषाविज्ञान का गहन अनुशीलन करने का सु-अवसर भी  प्राप्त हुआ।   

सम्पूर्ण चारो वेदों का गहन अनुशीलन करने पश्चात यदु और तुर्वसु का वैदिक कालीन विवरण प्रस्तुत किया गया। 

इसी दौरान भारोपीय परिवार की अनेक भाषाओं जैसे ग्रीक, लैटिन, फ्रॉस, तथा जर्मन वर्ग की अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की शब्द- व्युत्पत्ति पर एक सैद्धान्तिक दृष्टि प्राप्त हुई।

फारसी भाषा के प्राचीन रूप पहलवी (अवेस्ता ए जेन्द) और वैदिक भाषाओं के अनेक शब्दों की जीवन- कुण्डली लिखने का अवसर भी प्राप्त हुआ। इस शब्दों की संख्या तीन हजार के लगभग थी

संस्कृत "हिन्दी और अंग्रेज़ी आदि वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठितइन तीनों भाषाओं का सरल व्याकरण अपने ब्लॉग पर लिखने का उत्साह भी भाषाविज्ञान के गहन अध्ययन के दौरान उत्पन्न हुआ था।

इनकी सबसे अधिक रुचि संस्कृत भाषा के विशद ज्ञान का अर्जन करने की ही थी क्योंकि भारती संस्कृति का प्राचीन रूप तो पुराणों में ही संरक्षित है जो संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध थे ।

पुराणों के वृहद् अध्ययन काल में आभीर जाति के बिखरे पड़े इतिहास को भी संकलित करने का मन में एक संकल्प उत्पन्न हुआ- क्योंकि भारत जैसे देश में जातीय अस्तित्व सदैव से सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं को प्रभावित करता रहा है। इसी संकल्प के परिणाम स्वरूप "यदुवंशसंहिता" ग्रन्थ अपने विशाल कलेवर में प्राप्त हुआ। 

उत्कृष्ट समाजसेवी तथा "राधाकृष्ण के युगल स्वरूप के अनन्य उपासक इ० "श्री माताप्रसाद" जी ने  यदुवंशसंहिता को समाज के समक्ष प्रस्तुत कराने में अतीव योगदान ही नहीं अपितु सम्पूर्ण कार्यभार को अपने ही जैविक बल पर निर्वहन किया है।

इन्हीं के भौतिक प्रयास से यह ग्रन्थ यादव इतिहास के शोध-श्रृँखला की प्रथम कड़ी के रूप में प्रस्तुत है।


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