भविष्यपुराण-पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व-३)खण्डःचतुर्थ-अध्यायः२२
(गुरुण्डमौनराज्यवर्णनम्)
★सूतोवाच-
इति श्रुत्वा बलिर्दैत्यो देवानां विजयं महत् ।
रोषणं नाम दैत्येन्द्रं समाहूय वचोऽब्रवीत् ।१।
सुतस्तिमिरलिङ्गस्य सरुषो नाम विश्रुतः।
त्वं हि तत्र समागम्य दैत्यकार्यं महत्कुरु।२।
ऐतिहासिक टिप्पणी-
तैमूरलंग जिसे 'तैमूर', 'तिमूर' या 'तीमूर' भी कहते हैं, (8 अप्रैल 1336 –से 18 फरवरी 1405) अर्थात चौदहवी शताब्दी का एक शासक था जिसने तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी। उसका राज्य पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक फैला था। वह बरलस तुर्क खानदान में पैदा हुआ था। उसका पिता तुरगाई बरलस तुर्कों का लोहार थे। भारत के मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर तिमूर का ही वंशज था।
इति श्रुत्वा स वै दैत्यो हृदि विप्राप्तरोषणः।
ननाश वेदमार्गस्थान्देहलीदेशमास्थितः।३।
पञ्चवर्षं कृतं राज्यं तत्सुतो बाबरोभवत् ।विंशदब्दं कृत राज्यं होमायुस्तत्सुतोऽभवत्।४।
होमायुषा मदान्धेन देवताश्च निराकृताः। ते सुराः कृष्णचैतन्यं नदीहोपवने स्थितम् ।५।
तुष्टुवुर्बहुधा तत्र श्रुत्वा क्रुद्धो हरिः स्वयम्।स्वतेजसा च तद्राज्यं विघ्नभूतं चकार ह।६।
भगवान हरि को प्रसन्न करने लगे। तब यह सुनकर हरि सुनकर स्वयं क्रोधित हो गये उन्होंने अपने तेज से हुमायूँ के राज्य में बहुत से विघ्नों का संचार कर दिया।६।
चैतन्य महाप्रभु- (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं।
चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन १४८६ की फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है। इनका जन्म संध्याकाल में सिंह लग्न में चंद्र ग्रहण के समय हुआ था। उस समय बहुत से लोग शुद्धि की कामना से हरिनाम जपते हुए गंगा स्नान को जा रहे थे। तब विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी जन्मकुण्डली के ग्रहों और उस समय उपस्थित शगुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की, कि यह बालक जीवन पर्यन्त हरिनाम का प्रचार करेगा। यद्यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे, क्योंकि कहते हैं, कि ये नीम के पेड़ के नीचे मिले थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे।
इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शची देवी था। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम आयु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। १५-१६ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन १५०५ में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।
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तत्सैन्यजनितैर्लोकैर्होमायुश्च निराकृतः।महाराष्ट्रैस्तदा तत्र शेषशाकः समास्थितः।७।
वहाँ की जनता जो सैनिक पदासीन थी उसने हुमायूँ को परास्त कर भगा दिया। तब मराठीयों की सहायता से शेष शाक(शेरशाह ) ने म्लेच्छों के राज्य दिल्ली पर अधिकार कर लिया।७।
देहलीनगरे रम्ये म्लेच्छो राज्यं चकार ह । धर्मकार्यं कृतं तेन तद्राज्यं पञ्चहायनम् ।८।
उन्होंने पाँच वर्ष शासन करने के उपरान्त धर्म कार्य बढ़ा दिया।८।
ब्रह्मचारी मुकुन्दश्च शङ्कराचार्यगोत्रजः। प्रयागे च तपः कुर्वन्विंशच्छिष्यैर्युतःस्थितः।९।
तभी ब्रह्मचारी मुकुन्द जो शंकराचार्य का सगौत्री था बीस शिष्यों के साथ प्रयाग में तपोरत था। ९।
बाबरेण च धूर्तेन म्लेच्छराजेन देवताः । भ्रंशिता स तदा ज्ञात्वा वह्नौ देहं जुहाव वै। 3.4.22.१०।
जब उसने धूर्त म्लेच्छ राजा बाबर द्वारा देवों को भ्रष्ट करते सुना तब वह प्रदीप्त अग्नि में भष्म हो गया। १०।
तस्य शिष्या गता वह्नौ म्लेच्छनाशनहेतुना ।
गोदुग्धे च स्थितं रोमं पीत्वा स पयसा मुनिः।११।
उनके शिष्यों ने भी म्लेच्छ नाशार्थ अपना शरीर अग्नि में जला दिया एक बार गलती से मुकुन्द ने दूध के साथ रोम पी लिया ।११।
मुकुन्दस्तस्य दोषेण म्लेच्छयोनौ बभूव ह ।
होमायुषश्च काश्मीरे संस्थितस्यैव पुत्रकः।१२।
इसी कारण उनका जन्म म्लेच्छ योनि में हुआ तब हुमायूँ कश्मीर में था।१२।
जातमात्रे सुते तस्मिन्वागुवाचाशरीरिणी ।
अकस्माच्च वरो जातः पुत्रोऽयं सर्वभाग्यवान्।१३।
उसी के पुत्र रूप में मुकुन्द का पुनर्जन्म होगया। उसके जन्मकाल में आकाशवाणी सुनी गयी थी कि यह पुत्र अकस्मात् जन्मा उत्तम और सर्वभाग्युक्त है।१३।
पैशाचे दारुणे मार्गे न भूतो न भविष्यति ।
अतः सोऽकबरो नाम होमायुस्तनयस्तव।१४।
ऐसा पुत्र इन पिशाचों में न हुआ न होगा इस लिए इस हुमायूँ पुत्र का नाम अकबर होगा।।१४।।
श्रीधरः श्रीपतिः शम्भुर्वरेण्यश्च मधुव्रती ।
विमलो देववान्सोमो वर्द्धनो वर्तको रुचिः।१५।
जिस तपशील मुकुन्द (अकबर) के श्रीधर श्रीपति शम्भु वरेण्य मधव्रती विमल देववान सोम वर्द्धन वर्तक रुचि।१५।
मान्धाता मानकारी च केशवो माधवो मधुः ।
देवापिः सोमपाः शूरो मदनो यस्य शिष्यकाः।१६।
मान्धाता मानकारी केशव माधव मधु देवापि सोमपा शूर मदन शिष्य हैं।१६।
स मुकुन्दो द्विजः श्रीमान्दैवात्त्वद्गेहमागतः ।
इत्याकाशवचः श्रुत्वा होमायुश्च प्रसन्नधीः।१७।
वही श्रीमान् मुकुन्द द्विज तुम्हारे जहाँ जन्मा है। यह आकाशवाणी सुनकर हुमायूँ प्रसन्न हो गया।।१७।
ददौ दानं क्षुधार्तेभ्यः प्रेम्णा पुत्रमपालयत् ।
दशाब्दे तनये जाते देहलीदेशमागतः।१८।
उसने भूखों को भोजन देकर प्रेम से पुत्र का पालन किया। वह बालक दश वर्ष की आयु में दिल्ली आया ।१८।
शेषशाङ्कं पराजित्य स च राजा बभूव ह ।
अब्दं तेन कृतं राज्यं तत्पुत्रश्च नृपोऽभवत् ।१९।
और शेरशाह को हराकर राज्य अपने अधीन कर लिया। हुमायूँ के एक वर्ष शासन करने के बाद अकबर ने राज्य प्रारम्भ किया।१९।
सम्प्राप्तेऽकबरे राज्यं सप्तशिष्याश्च तत्प्रियाः।
पूर्वजन्मनि ये मुख्यास्ते प्राप्ता भूपतिं प्रति। 3.4.22.२०।
जब अकबर राज्य पद प्रतिष्ठित हो गया तब उसके पूर्व जन्म के सात शिष्यों ने भी( जन्म लेकर) अपने अपने गुणानुरूप उन पदों को सुशोभित किया। २०।
केशवो गानसेनश्च वैजवाक्स तु माधवः ।
म्लेच्छास्ते च स्मृतास्तत्र हरिदासो मधुस्तथा।२१।
केशव गानसैन वैजवाक् तथा माधव म्लेच्छ योनि में जन्में- हरिदास तथा मधु।२१।
मध्वाचार्य ( = मध्व + आचार्य ; तुलु : ಶ್ರೀ ಮಧ್ವಾಚಾರ್ಯರು) (1238-1317) भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे पूर्णप्रज्ञ व आनन्दतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वे तत्ववाद के प्रवर्तक थे जिसे द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है। द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में एक है। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है (हनुमान और भीम क्रमशः प्रथम व द्वितीय अवतार थे)।
मध्वाचार्य कई अर्थों में अपने समय के अग्रदूत थे, वे कई बार प्रचलित रीतियों के विरुद्ध चले गये हैं। उन्होने द्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। इन्होने द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और अपने वेदान्त के व्याख्यान की तार्किक पुष्टि के लिये एक स्वतंत्र ग्रंथ 'अनुव्याख्यान' भी लिखा। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएँ, महाभारत के तात्पर्य की व्याख्या करनेवाला ग्रंथ महाभारततात्पर्यनिर्णय तथा श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका ये इनके अन्य ग्रंथ है। ऋग्वेद के पहले चालीस सूक्तों पर भी एक टीका लिखी और अनेक स्वतंत्र प्रकरणों में अपने मत का प्रतिपादन किया। ऐसा लगता है कि ये अपने मत के समर्थन के लिये प्रस्थानत्रयी की अपेक्षा पुराणों पर अधिक निर्भर हैं।
इनका जन्म दक्षिण कन्नड जिले के उडुपी शिवल्ली नामक स्थान के पास पाजक नामक एक गाँव में सन् १२३८ ई में हुआ। अल्पावस्था में ही ये वेद और वेदांगों के अच्छे ज्ञाता हुए और संन्यास लिया।
पूजा, ध्यान, अध्ययन और शास्त्रचर्चा में इन्होंने संन्यास ले लिया। शंकर मठ के अनुयायी अच्युतप्रेक्ष नामक आचार्य से इन्होंने विद्या ग्रहण की और गुरु के साथ शास्त्रार्थ कर इन्होंने अपना एक अलग मठ बनाया जिसे "द्वैत दर्शन" कहते हैं। इनके अनुसार विष्णु ही परमात्मा हैं।
रामानुज की तरह इन्होंने श्री विष्णु के आयुधों, शंख, चक्र, गदा और पद्म के चिन्हों से अपने अंगों को अंलकृत करने की प्रथा का समर्थन किया। देश के विभिन्न भागों में इन्होंने अपने अनुयायी बनाए।
उडुपी में श्रीकृष्ण के मंदिर का स्थापन किया, जो उनके सारे अनुयायियों के लिये तीर्थस्थान बन गया। यज्ञों में पशुबलि बन्द कराने का सामाजिक सुधार इन्हीं की देन है।
79 वर्ष की अवस्था (सन् 1317 ई) वह अद्रुष्य रूप से बद्री के लिए चले गए और वापस नहीं आए |
मध्वाचार्यकुले जातो वैष्णवः सर्वरागवित् ।
पूर्वजन्मनि देवापिः स च वीरबलोऽभवत्।२२।
मध्वाचार्य के कुल में जन्म लेकर सर्वराग के ज्ञाता वैष्णव हो गये पूर्वजन्म का देवापि ही वीरबल हुआ।२२।
पूर्वजन्म का देवापि ब्राह्मण वंश में जन्म लेकर सरस्वती के वरदान से वीरबल नामक से ख्याति लब्ध मन्त्री के रूप में प्रतिष्ठित हो गया ।२२।
ब्राह्मणः पाश्चिमात्यो वै वाग्देवीवरदर्पितः।
सोमपा मानसिंहश्च गौतमान्वयसम्भवः।२३।
सोमपा तथा मानसिंह क्षत्रिय वंश में जन्म लेकर गौतम कुल में उत्पन्न हुए ।२३।
सेनापतिश्च नृपतेरार्यभूपशिरोमणेः।
सूरश्चैव द्विजो जातो दक्षिणश्चैव पण्डितः।२४।
और राजा के सेनापति बने । सूर ने द्विज कुल में जन्म लिया जो दक्षिण ब्राह्मण थे।
बिल्वमङ्गल एवापि नाम्ना तन्नृपतेः सखा।
नायिकाभेदनिपुणो वेश्यानां स च पारगः।२५।
वे बिल्वमंगल वाले तथा राजा के सखा थे उनको नायिका भेद तथा वेश्याओं का पूर्ण ज्ञान था।२५।
मदनो ब्राह्मणो जातः पौर्वात्यः स च नर्तकः ।
चन्दलो नाम विख्यातो रहः क्रीडाविशारद:।२६।
मदन ब्राह्मण पौर्वात्य में नर्तक रूप में जन्मा वह अब चन्दल नाम से प्रसिद्ध था। वह क्रीडाविशारद था ।२६।
अन्यदेशे गताः शिष्यास्तेषां पूर्वास्त्रयोदश ।
अनपस्य सुतो जातः श्रीधरः शत्रुवेदितः।२७।
उनके बाकी १३ शिष्यगणों ने अन्यत्र जन्म ग्रहण किया।शत्रुमर्मज्ञ श्रीधर अनप का पुत्र होकर जन्मा ।२७।
विख्यातस्तुलसीशर्मा पुराणनिपुणः कविः।
नारीशिक्षां समादाय राघवानन्दमागतः।२८।
उसका इस जन्म का नाम तुलसी शर्मा ( दुबे) था।
शिष्यो भूत्वा स्थितः काश्यां रामानन्दमते स्थितः।
श्रीपतिः स बभूवान्धो मध्वाचार्यमते स्थितः।२९।
शिष्य होकर काशी में रामानन्द मत का आलम्बन लिया श्रीपति इस जन्म में अन्धे होकर जन्में और मध्वाचार्य के मतालम्बी हो गये।२९।
सूरदास इति ज्ञेयः कृष्णलीलाकरः कविः। शम्भुर्वै चन्द्रभट्टस्य कुले जातो हरिप्रियः। 3.4.22.३०।
ये ही सूरदास नाम से कृष्ण लीला का गान करने वाले कवि हो गये शम्भू ने चन्दभट्ट के कुल में जन्म लिया इनका नाम था हरि प्रिय था।३०।
रामानन्दमते संस्थो भक्तकीर्तिपरायणः।
वरेण्यः सोग्रभुङ्नामा रामानन्दमते स्थितः।३१।
ये रमानन्द के शिष्य होकर भक्त कीर्ति के गायक हो गये वरेण्य इस जन्म में सोग्रभुंग नाम वाले होकर प्रसिद्ध हुए । ये भी रामानन्द मतावलम्बी थे।३१।
ज्ञानध्यानपरो नित्यं भाषाछन्दकरः कविः।
मधुव्रती स वै जातो कीलको नाम विश्रुतः।३२।
ये ज्ञान-ध्यान में रत तथा भाषा छन्द के रचियता थे। मधु जो व्रत करने वाले थे इस जन्म में कीलक नाम वाले हुए।३२।
रामलीलाकरो धीमान्रामानन्दमते स्थितः।
विमलश्च स वै जातः स नाम्नैव दिवाकरः।३३।
ये रामलीला का आयोजन करने वाले तथा रामानन्द के अनुयायी थे विमल नाम से वे सूर्य ही जन्मे थे।३३।
सीतालीलाकरो धीमान्रामानन्दमते स्थितः ।
देववान्केशवो जातो विष्णुस्वामिमते स्थितः।३४।
सीता की लाला करने वे वाले रामानन्द के अनुयायी देववान् केशव के रूप में विष्णु स्वामी के मत के अनुयायी हुए।३४।
कविप्रियादिरचनां कृत्वा प्रेतत्वमागतः।
रामज्योत्स्नामयं ग्रन्थं कृत्वा स्वर्गमुपाययौ।३५।
अर्थात् देववान् ने इस जन्म में केशव के रूप में जन्म लेकर विष्णु स्वामी के मत को अपना कर कविप्रिया- ग्रन्थ की रचना करके प्रेतयोनि को प्राप्त हुए। राम जयोत्स्ना ग्रन्थ भी उनका ही लिखा हुआ है जिसे रचकर ये स्वर्ग को चले गये।३५।
सोमो जातः स वै व्यासो निम्बादित्यमते स्थितः।
रहः क्रीडामयं ग्रन्थं कृत्वा स्वर्गमुपाययौ।३६।
सोम ने व्यास नाम से यह जन्म लिया तथा निम्बादित्य के पन्थ को अपनाकर एकान्त क्रीड़ा सम्बन्धी ग्रन्थ रचना करके स्वर्ग गमन किया।३६।
वर्द्धनश्च स वै जातो नाम्ना चरणदासकः।
ज्ञानमालामयं कृत्वा ग्रन्थं रैदासमार्गगः।३७।
वर्द्धन ने चरण दास के नाम से जन्म लेकर रैदास(रविदास) मतावलम्ब द्वारा ज्ञानमाला- ग्रन्थ की रचना की।३७।
वर्तकः स च वै जातो रोपणस्य मते स्थितः ।
रत्नभानुरिति ज्ञेयो भाषाकर्ता च जैमिनेः।३८।
वर्तक ने रोपण का मत ग्रहण किया और रत्नभानु कहलाए तथा उन्होंने जैमिनी पर भाष्य लिखा ।।३८।।
रुचिरुचिश्च रोचनो जातो मध्वाचार्यमते स्थितः ।नानागानमयीं लीलां कृत्वा स्वर्गमुपाययौ।३९।
रुचिने रोचक नाम से जन्म लिया मध्वाचार्य मत के अवलम्बन तथा नाना ज्ञानात्मक लीलाओं की रचना करके स्वर्ग गमन किया।३९।
मान्धाता भूपतिर्नाम कायस्थः स बभूव ह ।
मध्वाचार्यो भागवतं चक्रे भाषामयं शुभम्। 3.4.22.४०।
मान्धाता नाम से राजा वह कायस्थ कुल में जन्मा ये मध्वाचार्य ने शुभभाषामय भागवत रचा ।४०।
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मानकारो नारिभावान्नारीदेहमुपागतः।
मीरानामेति विख्याता भूपतेस्तनया शुभा।४१।
मानकार ने नारीभाव होने के कारण नारी शरीर को पाया जो मीरा नाम से विख्यात राजा की पुत्री हुआ।४१।
मा शोभा च तनौ यस्या गतिर्गजसमा किल ।
सा मीरा च बुधैः प्रोक्ता मध्वाचार्यमते स्थिता।४२।
लक्ष्मी के समान शोभा और शरीर तथा चाल जिसकी हाथी के समान है निश्चय ही वह विद्वानों द्वारा मीरा कही गयी वह मध्वाचार्य के मत की अनुयायी थी।४२।
एवं ते कथितं विप्र भाषाग्रन्थप्रकारणम् ।
प्रबन्धं मङ्गलकरं कलिकाले भयङ्करे।४३।
यह उस विप्र के द्वारा कहा गया भाषा ग्रन्थ प्र कारण( प्रबन्ध )है तथा भयंकर कलिकाल में मंगलप्रद है।४३।
स भूपोऽकबरो नाम कृत्वा राज्यमकण्टकम्।
शतार्द्धेन च शिष्यैश्च वैकुण्ठभवनं ययौ।४४।
उस अकबर राजा निष्कण्टक राज्य किया तथा पचास शिष्यों सहित स्वर्ग गमन किया।४४।
सलोमा तनयस्तस्य कृतं राज्यं पितुः समम्।
खुर्दकस्तनयस्तस्य दशाब्दं च कृतं पदम्।४५।
उसके सलोमा( सलीम- जहाँगीर) नामक पुत्र ने पिता के समान समान राज्य किया। सलीम का पुत्र खुर्दक खुर्रम-शाहजहाँ) जिसने दश वर्ष पर्यन्त शासन किया।४५।
चत्वारस्तनयास्तस्य नवरङ्गो हि मध्यमः।
पितरं च तथा भ्रातॄञ्जित्वा राज्यमचीकरत्।४६।
उसके चार पुत्रों में नवरंग-औरंगजेब मध्यम पुत्र था। उसने पिता और भाइयों पर विजय प्राप्त शासन किया ।४६।
पूर्वजन्मनि दैत्योऽयमन्धको नाम विश्रुतः।
कर्मभूम्यां तदंशेन दैत्यराजाज्ञया ययौ।४७।
वह पूर्वजन्म अन्धक नामक दैत्य था। दैत्य राज बलि की आज्ञा से उसने कर्मभूमि भारत में जन्म लेकर आया ।४७।
तेनैव बहुधा मूर्तीर्भ्रंशिताश्च समन्ततः।
दृष्ट्वा देवास्तदागत्य कृष्णचैतन्यमब्रुवन्।४८।
अनेक देव प्रतिमाओं को नष्ट कर दिया तब देव गणों ने कृष्ण चैतन्य से कहा।४८।
भगवन्दैत्यराजांशः स जातश्च महीपतिः ।
भ्रंशयित्वा सुरान्वेदान्दैत्यपक्षं विवर्द्धते।४९।
हे भगवन् यह दैत्य अश से जन्म लेकर राजा हो गया । वह देवताओं और वेदों का नाश करके दैत्य पक्ष का वर्द्धन कर रहा है।४९।
इति श्रुत्वा स यज्ञांशो नदीहोपवने स्थितः।
शशाप तं दुराचारं यथा वंशक्षयो भवेत्। 3.4.22.५०।
यह सुनकर नदीहा के उपवन में स्थित यज्ञाञ्श ने उस दुर्जन को वंशनाशार्थ का शाप दे दिया।५०।
राज्यमेकोनपञ्चाशत्कृतं तेन दुरात्मना।
सेवाजयो नाम नृपो देवपक्षविवर्द्धनः।५१।
इस दुष्ट ने ४९ वर्ष पर्यन्त राज्य किया। देवपक्ष वर्द्धनकारी। महाराष्ट्रीय द्विज कुलोत्पन्न शेवाजय नामक राजा ने नैपुण्य प्राप्त किया।५१।
महाराष्ट्रद्विजस्तस्य युद्धविद्याविशारदः।
हत्वा तं च दुराचारं तत्पुत्राय च तत्पदम्।५२।
शिवाजी ने दुराचारी नवरंग का वध करके उसके पुत्र को राज्य पद पर अभिषिक्त कर दिया।५२।
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दत्वा ययौ दाक्षिणात्ये देशे देवविवर्द्धनः।
अलोमा नाम तनयः पञ्चाब्दं तत्पदं कृतम्।५३।
तथा दक्षिण देश की यात्रा पर चले गये। हे मुने उसके अलोमा नामक पुत्र ने पाँच वर्ष तक शासन किया।५३।
तत्पश्चान्मरणं प्राप्तो विद्रधेन रुजा मुने।
विक्रमस्य गते राज्ये सप्तत्युत्तरकं शतम् ।५४।
तथा भगन्दर रोग से पीड़ित होकर मर गया । हे मुने विक्रम राज्य के १७७० वर्ष बीतने का समय ही अलोमा की मृत्यु का समय था।५४।
ज्ञेयं सप्त दशं विप्र यदालोमा मृतिं गतः।
तालनस्य कुले जातो म्लेच्छः फलरुषो बली।५५।
१७ ब्राह्मण यह जानने के लिए गये कि अलोमा मृत्यु को प्राप्त हे गया है। तालन के कुल में फलरुष नामक बली म्लेच्छ का जन्म हुआ।५५।
मुकुलस्य कुलं हत्वा स्वयं राज्यं चकार ह।
दशाब्दं च कृतं राज्यं तेन भूपेन भूतले।५६।
उस म्लेच्छ मुकुल( मुगल) कुल को समाप्त कर राज्य पर अधिकार स्थापित किया उसने भूमण्डल पर दश वर्ष राज्य किया।५६।
शत्रुभिर्मरणं प्राप्तो दैत्यलोकमुपागमत्।
महामदस्तत्तनयो विंशत्यब्दं कृतं पदम्।५७।
शत्रु द्वारा मृत होकर उसने दैत्य लोक को गमन किया। उसके पुत्र महामद ने बीस वर्ष पर्यन्त राज्य किया।५७।
तद्राष्ट्रे नादरो नाम दैत्यो देश उपागमत् ।
हत्वार्यांश्च सुराञ्जित्वा देशं खुरजमाययौ।५८।
उसके राज्यकाल में नादर (नादिरशाह)नामक दैत्य आर्यों तथा देवों पर विजय पाकर खुरज( खुरासान) तक आ पहुँचा।५८।
महामत्स्यो हि मदस्य तनयस्तत्पितुः पदम्।
गृहीत्वा पञ्चवर्षान्तं स च राज्यं चकार ह।५९।
उसके पुत्र महामत्स्य ने अपने पिता का पद स्वाधीन किया तथा पाँच वर्ष शासन किया ।५९।
महाराष्ट्रैर्हतो दुष्टस्तालनान्वयसम्भवः।
देहलीनगरे राज्यं दशाब्दं माधवेन वै।3.4.22.६०।
महाराष्ट्र वालों (मराठों) ने उस लालनवंशीय दुष्ट का वध किया। दिल्ली सिंहासन पर माधव ने दशवर्ष शासन किया।६०।
कृतं तत्र तदा म्लेच्छ आलोमा राज्यमाप्तवान् ।
तद्राष्ट्रे बहवो जाता राजानो निजदेशजाः।६१।
इसने अलोमा के सम्पूर्ण राज्य पर अपना अधिकार कर लिया उसके राज्य में अनेक राजा थे वे अपने देश में जन्मे थे।६१।
ग्रामपा बहवो भूपा देशे देशे बभूविरे ।
मण्डलीकपदं तत्राक्षयं जातं महीतले ।६२।
तब मण्डलीक पद का नाश हो जाने के कारण प्रत्येक ग्रमाधिपति ही राजा कहा जाने लगा जो गाँव पर राज्य करते थे।६२।
त्रिंशदब्दमतो जातं ग्रामे ग्रामे नृपे नृपे ।
तदा तु सकला देवाः कृष्णचैतन्यमाययुः।६३।
ऐसा 30 वर्ष तक होते रहने पर सभी देवता यज्ञाञ्श कृष्ण चैतन्य के पास गये तथा समस्त वृत्तान्त उनसे कहा-।६०-६३।
यज्ञांशश्च हरिः साक्षाज्ज्ञात्वा दुःखं महीतले ।
मुहूर्तं ध्यानमागम्य देवान्वचनमब्रवीत् ।६४।
विष्णु के अवतार ( रूप ) यज्ञाञ्श ने पृथ्वी का दु:ख देखकर एक मुहूर्त ध्यान कर देव गण से कहा-।६४।
पुरा तु राघवो धीमाञ्जित्वा रावणराक्षसम् ।
कपीनुज्जीवयामास सुधावर्षैस्समन्ततः।६५।
पूर्व काल में धीमान् राघव ने रावण पर विजय प्राप्त कर चारो दिशाओं में अमृत की वर्षा करके वानरों को जीवित किया ।६५।
विकटो वृजिलो जालो वरलीनो हि सिंहलः ।
जवस्सुमात्रश्च तथा नाम्ना ते क्षुद्रवानराः।६६।
वहाँ उपस्थित विकट, वृजिल, जाल, वरलीन सिंहल जव तथा सुमात्र नामक वे सब क्षुद्र वानर गण ने कहा। ६६।
रामचन्द्रं वचः प्राहुर्देहि नो वाच्छितं प्रभो।
रामो दाशरथिःश्रीमाञ्ज्ञात्वा तेषां मनोरथम्।६७।
हम्हें वाँछित वर दीजिये-तब भगवान ने यह जानकर उनकी इच्छा के अनुसार ।६७।
देवाङ्गनोद्भवाः कन्या रावणाल्लोकरावणात्।
दत्त्वा तेभ्यो हरिस्साक्षाद्वचनं प्राह हर्षितः।६८।
रावण द्वारा देवांगनागण में उत्पन्न की गयी कन्याओं को प्रदान किया भगवान ने तब वानरों से कहा ।६८।
भवन्नाम्ना च ये द्वीपा जालन्धरविनिर्मिताः।
तेषु राज्ञो भविष्यन्ति भवन्तो हितकारिणः।६९।
तुम लोगों के नाम के अनुसार जिन द्वीपों का निर्माण जालन्धर ने किया था तुम लोग वहाँ के राजा हो जाओ तथा अपना हित साधन करो।६९।
नन्दिन्या गोश्च रुण्डाद्वै जाता म्लेच्छा भयानकाः।
गुरुण्डा जातयस्तेषां तास्तु तेषु सदा स्थिताः। 3.4.22.७०।
नन्दिनी गाय के शरीर(रुण्ड) से भीषण म्लेच्छ उत्पन्न हुए थे उनसे ही गुरुण्ड ( अंग्रेज़) जाति की उत्पत्ति हुई वे वहाँ सदा स्थित रहते हैं।७०।
सं० रुण्ड] १. बिना सिर का धड़। कबन्ध। वह शरीर जिसके हाथ पैर कटे हों
जित्वा तांश्च गुरुण्डान्वै कुरुध्वं राज्यमुत्तमम् ।
इति श्रुत्वा हरिं नत्वा द्वीपेषु प्रययुर्मुदा।७१।
उन पर विजय प्राप्त करके तुम उनका राज्य अधीन करो यह सुनकर वे वानर प्रसन्न मन से उन द्वीपों में चले गये।७१।
विकटान्वयसम्भूता गुरुण्डा वानराननाः।
वाणिज्यार्थमिहायाता गौरुण्डा बौद्धमार्गिणः।७२।
विकटवंश में उत्पन्न गुरुण्ड लोग वानर मुख थे। तथा व्यवसाय हेतु उन्होंने वहाँ पदार्पण किया वे बौद्ध मतावलम्बी थे।७२।
ईशपुत्रमते संस्थास्तेषां हृदयमुत्तमम् ।
सत्यव्रतं कामजितमक्रोधं सूर्यतत्परम्।७३।
उनके उत्तम हृदय में ईसा का मत स्थित है। वे सत्यव्रत कामजित् और सूर्य भक्त थे। ७३।
यूयं तत्रोष्य कार्यं च नृणां कुरुत मा चिरम् ।
इति श्रुत्वा तु ते देवाः कुर्युरार्चिकमादरात् ।७४।
लेकिन तुम देवगण वहाँ शीघ्रता से पहुँचो तथा मनुष्यों का हित साधन करो -यह सुनकर उन देवगण ने भगवान की सादर अर्चना सम्पन्न की।७४।
महारानी विक्टोरिया, यूनाइटेड किंगडम की महारानी और भारत की साम्राज्ञी थीं।
विक्टोरिया का जन्म सन् (1819 )के मई मास में हुआ था। वे आठ महीने की थीं तभी उनके पिता का देहांत हो गया।
विक्टोरिया के मामा ने उनकी शिक्षा-दीक्षा का कार्य बड़ी निपुणता से संभाला। वे स्वयं भी बड़े योग्य और अनुभवी व्यक्ति थे। साथ ही वे पुरानी सभ्यता के पक्षपाती थे। विक्टोरिया को किसी भी पुरुष से एकांत में मिलने नहीं दिया गया। यहाँ तक कि बड़ी उम्र के नौकर-चाकर भी उनके पास नहीं आ सकते थे। जितनी देर वे शिक्षकों से पढ़तीं, उनकी माँ या।
अठारह वर्ष की अवस्था में विक्टोरिया गद्दी पर बैठीं। वे लिखती हैं कि मंत्रियों की रोज इतनी रिपोर्टें आती हैं तथा इतने अधिक कागजों पर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं कि मुझे बहुत श्रम करना पड़ता है। किंतु इसमें मुझे सुख मिलता है। राज्य के कामों के प्रति उनका यह भाव अंत तक बना रहा। इन कामों में वे अपना एकछत्र अधिकार मानती थीं। उनमें वे मामा और माँ तक का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करती थी। 'पत्नी, माँ और रानी - तीनों रूपों में उन्होंने अपना कर्तव्य अत्यंत ईमानदारी से निभाया। घर के नौकरों तक से उनका व्यवहार बड़ा सुंदर होता था'
नगर्य्या कलिकातायां स्थापयामासुरुद्यताः।
विकटे पश्चिमे द्वीपे तत्पत्नी विकटावती।७५।
यह सुनकर उन लोगों ने कलकत्ता नगर की स्थापना की विकट नामक पश्चिम द्वीप की रानी विकटावती (विक्टोरिया) थी ।७५।
अष्टकौशलमार्गेण राजमन्त्रं चकार ह।
तत्पतिस्तु पुलोमार्चिः कलिकातां पुरीं स्थितः।७६।
उसने आठ प्रकार के कुशल मार्ग से वहाँ का राज्य शासन किया उसका पति पुलोमार्चि कलकत्ता में रहता था। ७६।
विक्रमस्य गते राज्ये शतमष्टादशं कलौ ।
चत्वारिंशं तथाब्दं च तदा राजा बभूव ह।७७।
तब विक्रमादित्य के समय का १८४० वाँ वर्ष व्यतीत हो जाने पर वह वहाँ राजा बना ।७७।
तदन्वये सप्तनृपा गुरुण्डाश्च बभूविरे।
चतुष्षष्टिमितं वर्षं राज्यं कृत्वा लयं गताः।७८।
उस गुरुण्ड( गो-रुण्ड)कुल में सात राजा हुए वे ६४ वर्ष शासन करके विलीन होगये।७८।
गुरुण्डे चाष्टमे भूपे प्राप्ते न्यायेन शासति।
कलिपक्षो बलिर्दैत्यो मुरं नाम महासुरम् ।७९।
गुरुण्ड का आठवाँ राजा न्याय से शासन कर रहा था तभी कलि पक्ष का समर्थन करने वाले बलि ने मुर नामक असुर को बुलाया ।७९।
आरुह्य प्रेषयामास देवदेशे महोत्तमे।
स मुरो वार्डिलं भूपं वशीकृत्य हृदि स्थितः। 3.4.22.८०।
उसे महान और उत्तम देवदेश में भेजा वह मुर दैत्य वहाँ वर्डिल नामक राजा को वश में करके उसके हृदय में स्थित हो गया।८०।
आर्यधर्मविनाशाय तस्य बुद्धिं चकार ह ।
मूर्तिसंस्थास्तदा देवा गत्वा यज्ञांशयोगिनम् ।८१।
उसने राजा वर्डिल की बुद्धि आर्य धर्म के नाश के लिए तैयार की । तब मूर्तियों में स्थित देवगण यज्ञाञ्श नामक उन योगी के पास गये ।८१।
नमस्कृत्याब्रुवन्सर्वे यथा प्राप्तो मुरोऽसुरः।
ज्ञात्वा शशाप कृष्णांशो गुरुण्डान्बौद्धमार्गिणः।८२।
उन्होंने यज्ञाञ्श देव को प्रणाम करके उस मुर दैत्य का समस्त वृत्तान्त उनसे कहा- यह जानकर कृष्णांश यज्ञाञ्श ने उन बौद्ध मार्गी गुरुण्डों को शाप दिया।८२।
क्षयं यास्यन्ति ते सर्वे ये मुरस्य वशं गताः।
इत्युक्ते वचने तस्मिन्गुरुण्डा कालनोदिताः।८३।
उन्होंने शाप दिया कि मुर राक्षस के प्रभाव वाले सभी गुरुण्ड नष्ट होंगे।८३।
स्वसैन्यैश्च क्षयं जग्मुर्वर्षमात्रान्तरे खलाः।
सर्वे त्रिंशत्सहस्राश्च प्रययुर्यममन्दिरे।८४।
उनके शाप के कारण वे ३०००० तीस हजार गुरुण्ड मृत होकर यम लोक पहुँच गये। ८४।
थॉमस बबिंगटन मैकाले (1800-1859), बैरन मैकाले, साथी, इतिहासकार, निबंधकार, कवि और सांसद
फ्रांसिस ग्रांट (1803-1878)
वाग्दण्डैस्स च भूपालो वार्डिलो नाशमाप्तवान्।
गुरुण्डो नवमः प्राप्तो भेकलो नाम वीर्यवान्।८५।
उस वाक्दण्ड रूपी (शाप) से वर्डिल राजा भी मृत हो गया महाशक्तिशाली भेकल( मैकाले) नाम वाले नवम गुरुण्ड राजा ने।८७।
न्यायेन कृतवान्राज्य द्वादशाब्दं प्रयत्नतः।
आर्यदेशे च तद्राज्यं बभूव न्यायशासति।८६।
प्रयत्नपूर्वक १२ वर्ष तक प्रयत्न से न्यायपूर्वक आर्य देश में राज्य शासन किया।८६।
लडिलो नाम विख्यातो गुरुण्डो दशमोहितः।
द्वात्रिंशाब्दं च तद्राज्यं कृतं तेनैव धर्मिणा।८७।
इसके बाद लार्डल नामक दशम गुरुण्ड राजा ने ३२ वर्ष धर्मपूर्वक राज्य किया।८७।
लडिले स्वर्गते प्राप्ते मकरन्दकुलोद्भवाः।
आर्याः प्राप्तास्तदा मौना हिमतुङ्गनिवासिनः।८८।
लॉर्डल के मरने के बाद मकरन्द कुल में उत्पन्न हिमालय शिखरवासी मौन ।८८।
बभ्रुवर्णाः सूक्ष्मनसो वर्तुला दीर्घमस्तकाः। एवं लक्षाश्च सम्प्राप्ता देहल्यां बौद्धमार्गिण:।८९।तस्य पुत्रो देवकणो गङ्गोत्रगिरिमूर्द्धनि।3.4.22.९०।
द्वादशाब्दं तपो घोरं तेपे राज्यविवृद्धये।
तदा भगवती गङ्गा तपसा तस्य धीमतः।९१।
१२ वर्ष राज्य वृद्धि के लिए घोर तप किया तब भगवती गंगा ने तप द्वारा उस बुद्धि मान का
स्वरूपं स्वेच्छया प्राप्य ब्रह्मलोकं जगाम ह।
कुबेरश्च तदागत्य दत्त्वा तस्मै महत्पदम् ।९२।
अपने रूप) स्वरूप) में स्थित हो स्वेच्छा से ब्रह्मलोक गमन किया तब कुबेर ने वहाँ आकर उसे महान पद प्रदान किया।।९२।।
आर्याणां मण्डलीकं च तत्रैवान्तरधीयत।
मण्डलीको देवकर्णो बभूव जनपालकः।९३।
वह आर्य जनों का पालक हो गया तभी से वह देवकर्ण मण्डलीक कहलाया।९३।
षष्ट्यब्दं च कृतं राज्यं तेन राज्ञा महीतले।
तदन्वयेऽष्टभूपाश्च बभूवुर्देवपूजकाः।९४।
६० वर्ष राज्य पृथ्वी पर उस राजा केवद्वारा किया गया उसके वंश में आठ राजा देवपूजक हुए।९३।
द्विशताब्दं पदं कृत्वा स्वर्गलोकमुपाययुः।
एकादशश्च यो मौनः पन्नगारिरिति श्रुतः।९५।
क्रमशः इस राज पद को २०० वर्ष राज्य करके स्वर्ग लोक गमन किया वे सभी देव पूजक थे ग्यारह (११) पन्नगारि नामक मौन प्रसिद्ध हुए।९५।
चत्वारिंशच्च वर्षाणि राज्यं कृत्वा प्रयत्नतः।
स्वर्गलोकं गतो राजा पन्नगैर्मरणं गतः।९६।
राजा ४० वर्ष प्रयत्न से राज्य किया पन्नगों द्वारा उसका वध किया गया तब वह स्वर्ग चला गया।९६।
एवं च मौर्यजातीयैः कृतं राज्यं महीतले।९७।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये गुरुण्डमौनराज्यवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः।२२।
श्री भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व में चतुर्खण्डापर्याय में कलियुगीय इतिहास समुच्चय में गुरुण्डराज्य का वर्णन नामक बाइसवाँ(२२) अध्याय पूर्ण हुआ।।के
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