बुधवार, 12 अप्रैल 2023

जयदेव गीत गोविन्द-


 
 उड़ीसा के एक कवि जयदेव  ने कामशास्त्रीय पद्धति को आधार बनाकर   चौदहवीं सदी के आरम्भ मे  "गीत-गोविन्द" नाम की एक पुस्तक लिखी।

भारत के दूसरे राज्यों मे इस पुस्तक को कम ही लोग जानते हैं, पर उड़ीसा मे इसके महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पुरी के जगन्नाथ धाम मे इसी के श्लोकों का पाठ होता है।

इस किताब का एक महत्व और भी है, राधा जी का अश्लील वर्णन पहली बार इसी पुस्तक में राधा जी का अश्लील वर्णन किया गया है। 

ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी ने भी राधा का अश्लील चित्रण संलग्न कर दिया है।



जयदेव इस किताब के तीसरे अध्याय के श्लोक-5 मे लिखते हैं- "राधा ने कृष्ण के साथ अपने रतिभोग के बारे मे अपनी सखी को बताया कि हे सखी ! जब कृष्ण मेरे साथ रतिभोग कर रहे थे, तब मेरे मुँह से सी-सी की आवाज निकल रही थी, और मेरा जूड़ा भी ढ़ीला होकर बिखर गया था!"

इसके अगले श्लोक मे राधा ने कहा कि रतिभोग के झटकों से मेरे घुघरूँ बज रहे थे, और मेरी करधनी भी ढ़ीली हो गयी थी।

 आगे जयदेव अध्याय-12 श्लोक-3/4 मे लिखा हैं कि- "कृष्ण ने राधा के स्तनों पर पड़े कपड़े हटा दिये और राधा से कहा कि तुम अब कलश के सामान अपने स्तनों को मेरी छाती से चिपका दो, और रतिविलास का आनन्द लो।"

इसी अध्याय मे जयदेव आगे लिखा हैं कि "राधा ने लज्जावश अपने स्तनों को भुजाओं मे छिपा लिया था, श्रीकृष्ण ने राधा की भुजाओं को हटाकर उसके स्तनों को खूब मर्दन (मसला) किया। इसके बाद राधा की कमर पर थपकी दी और अधरों को जोर-जोर से चूसा, फिर अपना भार उसके ऊपर डाल दिया।"

जयदेव ने अपने भगवान की इस पुस्तक मे इतनी खूबसूरती के साथ इज्जत उतारी है, जिसे हम अधिक लिख भी नही सकते। ये छद्म ब्राह्मण वाद के पोषक और इन्द्र - द्रोही कृष्ण के चरित्र का हनन करने वाले छद्म पुरोहित थे।






गीत - गोविन्दम (प्रथम सर्ग)
श्रीजयदेव  विरचित
श्रीगीतगोविन्दम्

गीतगोविन्द 12 अध्यायों वाला एक गीतिकाव्य है जिसे प्रबंध कहे जाने वाले चौबीस भागों में विभाजित किया गया है। 
इसके रचयिता 12वीं शताब्दी के कवि जयदेव हैं। 
इस कृति में रचयिता ने धार्मिक उत्साह के साथ श्रृंगारिकता का संयोजन प्रस्तुत किया है।

यह मध्यकालीन वैष्णव संप्रदाय से संबंधित है और इसमें राधा और कृष्ण की प्रेम लीला और उनके अलगाव के दुःख (विरह-वेदना) का काव्यात्मक कल्पनारञ्जित  वर्णन किया गया है।
जोकि कृष्ण के आध्यात्मिक चरित्र को दूषित करता है।
श्रृंगार तथा काम-शास्त्र के प्रति अपनी मनोवृत्ति को राधाकृष्ण को आधार मानकर  चित्रण किया है। 




ग्यारहवें गीत में कवि ने  विप्रालम्भ श्रृंगार की अभिव्यक्ति में कृष्ण को प्रेम के देवता रूप में प्रस्तुत कर दिया है।
यमुना नदी के तट पर राधा की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
कवि राधा और कृष्ण के आलिंगन की तुलना आकाशीय बिजली और काले बादलों तथा सारस और काले बादलों से करते हैं।


 अध्याय-१
सामोद दामोदरम्

मेघैः मेदुरम् अंबरम् वन भुवः श्यामाः तमाल द्रुमैः
नक्तम् भीरुः अयम् त्वम् एव तत् इमम् राधे गृहम् प्रापय।
इत्थम् नन्द निदेशितः चलितयोः प्रति अध्व  कुंज द्रुमम्
राधा माधवयोः जयन्ति यमुना कूले रहः केलयः।१-१।।
अनुवाद:-
हे राधे ! समस्त दिशाएँ घनघोर घटाओं से आच्छादित हो गई हैं। वन वसुन्धरा श्यामल तमाल विटपावली की प्रतिच्छाया से तिमिरयुक्ता हो गई है। भीरु स्वभाव वाले कृष्ण इस निशीथ में एकाकी नहीं जा सकेंगे – अतः तुम इन्हें अपने साथ ही लेकर सदन में पहुँचो। श्रीराधाजी, सखी द्वारा उच्चरित इस वचनका समादर करती हुईं आनन्दातिशयता से विमुग्ध हो, पथके पार्श्व में स्थित कुञ्ज-तरुवरों की ओर अभिमुख हुई और कालिन्दी के किनारे उपस्थित होकर एकान्त में केलि करने लगीं। श्रीयुगल माधुरीकी यह रहस्यमयी लीला भक्तोंके हृदयमें स्फुरित होकर विजयी हो।१-१।।


वाक् देवता चरित चित्रित चित्त सद्मा पद्मावती चरण – चारण चक्रवर्ती |
श्री वासुदेव रति केलि कथा समेतम् एतम् करोति जयदेव कविः प्रबन्धम् ।।१-२।।
अनुवाद:-
जिनके चित्त-सदनमें समस्त वाणियोंके नियन्ता श्रीकृष्ण की चरितावली सुचारु रूपसे चित्रित हो रही है, जो श्रीराधाजीके चरणयुगल प्राप्तिकी लालसामें निरन्तर नृत्यविधिके अनुसार निमग्न हो रहे हैं, ऐसे महाकवि जयदेव गोस्वामी श्रीकृष्णकी कुञ्ज-विहारादि सुरत लीला समन्वित इस गीतगोविन्द नामके ग्रन्थका प्रणयन कर भावग्राही भक्तजनोंके उज्ज्वल भक्तिरसको उच्छलित कर रहे हैं ।१-२।।

यदि हरि स्मरणे सरसम् मनः यदि विलास कलासु कुतूहलम् ।
मधुर कोमल कांत पद आवलीम् शृणु तदा जयदेव सरस्वतीम् ।।१-३।।
अनुवाद:-
हे श्रोताओं! यदि श्रीहरि के चरित्र का चिन्तन करते हुए आप लोगों का मन सरस अनुरागमय होता है तथा उनकी रास-विहारादि विलास-कलाओंकी सुचारु चातुर्यमयी चेष्टाके विषयमें आपके हृदयमें कुतूहल होता है तो मनोहर सुमधुर मृदुल तथा कमनीय कान्तिगुण वाले पदसमूह युक्त कवि जयदेवकी इस गीतावली को भक्ति-भावसे श्रवणकर आनन्दमें निमग्न हो जाएँ ।१-३।

वाचः पल्लवयति उमापतिधरः संदर्भ शुद्धिम् गिराम्।
जानीते जयदेव एव शरणः श्लाघ्यः दुर् ऊह द्रुते।।
शृंगार उत्तर  सत् प्रमेय रचनैः आचार्य गोवर्धन
स्पर्धी कः अपि न विश्रुतः श्रुतिधरः धोयी कवि क्ष्मा पतिः।१-४।।
अनुवाद:-
उमापति धर नामक कोई विख्यात कवि अपनी वाणीको अनुप्रासादि अलंकार के द्वारा सुसज्जित करते हैं | शरण नाम के कवि अत्यंत क्लिष्ट पदों में कविता का विन्यास कर प्रशंसा के पात्र हुए हैं | सामान्य नायक-नायिका के वर्णन में केवल श्रृंगार रस का उत्कर्ष वर्णन करने में गोवर्द्धन के सामान दूसरा कोई कवि श्रुति गोचर नहीं हुआ है | कविराज धोयी तो श्रुतिधर हैं। वे जो कुछ भी सुनते हैं, कंठस्थ कर लेते हैं | 
जब ऐसे-ऐसे महान कवि सर्वगुणसंपन्न नहीं हो सके, फिर जयदेव कविका काव्य किसप्रकार सर्वगुणसंपन्न हो सकता है ? ।१-४।

अष्ट पदि पदि-दशावतार कीर्ति धवलम्
प्रलय पयोधि जले धृतवान् असि वेदम् ।
विहित वहित्र चरित्रम् अखेदम् ।।
केशव धृत मीन शरीर जय जगत् ईश हरे ।
 अ प १-१ ||
अनुवाद:-
हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेद के सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तुका उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रम के निर्मल चरित्र के समान प्रलय जलधि में मत्स्यरूपमें अवतीर्ण होकर वेदों को धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान्! आपकी जय हो। अ प १-१।

क्षितिः अति विपुल तरे तव तिष्ठति पृष्ठे | धरणि धरण किण चक्र गरिष्ठे  ||                            केशव धृत कच्छप रूप जय जगदीश हरे।।अ प १-२।।
अनुवाद:-
हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अंगीकार कर अपने विशाल पृष्ठके एक प्रान्तमें पृथ्वीको धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रणके चिन्होंसे गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो।अ प १-२ ।

वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना | शशिनि कलंक कल इव निमग्ना || केशव धृत सूकर रूप जय जगदीश हरे || अ प १-३ ||

हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंकके सहित सम्मिलित रूपसे दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है || अ प १-३ ||

तव कर कमल वरे नखम् अद्भुत शृंगम् | दलित हिरण्यकशिपु  तनु भृंगम् ||
केशव धृत नर हरि रूप जय जगदीश हरे || अ प १-४ ||

हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशव ! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। आपके श्रेष्ठ करकमलमें नखरूपी अदभुत श्रृंग विद्यमान है, जिससे हिरण्यकशिपुके शरीरको आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्पका विदारण कर देता है, आपकी जय हो || अ प १-४ ||

छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत वामन | पद नख नीर जनित जन पावन ||
केशव धृत वामन रूप जय जगदीश हरे || अ प १-५ ||

हे सम्पूर्ण जगतके स्वामिन् ! हे श्रीहरे ! हे केशव! आप वामन रूप धारणकर तीन पग धरतीकी याचनाकी क्रियासे बलि राजाकी वंचना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिलसे पवित्र हुआ है। हे अदभुत वामन देव ! आपकी जय हो || अ प १-५ ||

क्षत्रिय रुधिरमये जगत् अपगत पापम् | स्नपयसि पयसि शमित भव तापम् ||
केशव धृत भृघु पति रूप जय जगदीश हरे || अ प १-६ ||

हे जगदीश! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारणकर क्षत्रियकुलका विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिलसे जगतको पवित्र कर संसारका सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन् , आपकी जय हो || अ प १-६ ||

वितरसि दिक्षु रणे दिक् पति कमनीयम् | दश मुख मौलि बलिम् रमणीयम् || केशव धृत राम शरीर जय जगदीश हरे || अ प १-७ ||

हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने रामरूप धारण कर संग्राममें इन्द्रादि दिक्पालोंको कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावणके किरीट भूषित शिरोंकी बलि दशदिशाओंमें वितरित कर रहे हैं । हे रामस्वरूप ! आपकी जय हो || अ प १-७ ||

वहसि वपुषि विशदे वसनम् जलद अभम् | हल हति भीति मिलित यमुनआभम् ||
केशव धृत हल धर रूप जय जगदीश हरे || अ प १-८ ||

हे जगत् स्वामिन् ! हे केशिनिसूदन! हे हरे ! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ्र गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघोंकी शोभाके सदृश नील वस्त्रोंको धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुनाजी मानो आपके हलके प्रहारसे भयभीत होकर आपके वस्त्रमें छिपी हुई हैं । हे हलधरस्वरूप ! आपकी जय हो || अ प १-८ ||
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निन्दति यज्ञ विधेः अ ह ह श्रुति जातम् |        सदय हृदय दर्शित पशु  घातम् ||
केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे ||         (अध्याय प्रथम १-९) ||
अनुवाद:-
हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देखकर श्रुति समुदाय की निन्दा की है। आपकी जय हो ||
  १-९ ||

म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम्।          धूम केतुम् इव किम् अपि करालम् ||
केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे ||      अ प १-१० ||
अनुवाद:-
हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || अ प १-१० ||
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श्री जयदेव कवेः इदम् उदितम् उदारम् |          शृणु सुख दम् शुभ दम् भव सारम् ||
केशव धृत दश विध रूप जय जगदीश हरे ||        अ प १-११ ||

हे जगदीश्वर ! हे श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! हे दशबिध रूपोंको धारण करनेवाले भगवन् ! आप मुझ जयदेव कवि की औदार्यमयी, संसारके सारस्वरूप, सुखप्रद एवं कल्याणप्रद स्तुतिको सुनें || अ प १-११ ||

वेदान् उद्धरते जगत् निवहते भू गोलम् उद् बिभ्रते
दैत्यम् दारयते बलिम् च्छलयते क्षत्र क्षयम् कुर्‌वते
पौलस्त्यम् जयते हलम् कलयते कारुण्यम् आतन्वते
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दश अकृति कृते कृष्णाय  तुभ्यम् नमः || १-५ ||

वेदोंका उद्धार करनेवाले, चराचर जगतको धारण करनेवाले, भूमण्डलका उद्धार करनेवाले, हिरण्यकशिपुको विदीर्ण करनेवाले, बलिको छलनेवाले, क्षत्रियोंका क्षय करनेवाले, पौलस्त (रावण) पर विजय प्राप्त करनेवाले, हल नामक आयुधको धारण करनेवाले, करुणाका विस्तार करनेवाले, म्लेच्छोंका संहार करनेवाले, इस दश प्रकारके शरीर धारण करनेवाले हे श्रीकृष्ण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ || १-५ ||

अष्ट पदि पदि हरि विजय मंगलाचरण
श्रित कमला कुच मण्डल धृत कुण्डल ए |
कलित ललित वनमाल जय जय देव हरे || अ प २-१ ||
अनुवाद:-
हे श्रीराधाजीके स्तन मण्डलका आश्रय लेनेवाले ! कानोंमें कुण्डल तथा अतिशय मनोहर वनमाला धारण करनेवाले हे हरे ! आपकी जय हो || अ प २-१ ||

दिन मणि मण्डल मण्डन भव खण्डन ए |
मुनि जन मानस हन्स जय जय देव हरे ||           अ प २ -२ ||

हे देव ! हे हरे ! हे सूर्य-मण्डलको विभूषित करनेवाले, भव-बन्धनका छेदन करनेवाले ! मुनिजनोंके मानस सरोवरमें विहार करनेवाले हंस ! आपकी जय हो ! जय हो || अ प २ -२ ||

कालिय विष धर गंजन जन रंजन ए |
यदु कुल नलिन दिन ईश जय जय देव हरे ||       अ प २-३ ||

हे देव! हे हरे ! विषधर कालिय नामके नागका मद चूर्ण करनेवाले, निजजनोंको आह्लादित करनेवाले, हे यदुकुलरूप कमलके प्रभाकर ! आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-३ ||

मधु मुर नरक विनाशन गरुड आसन ए |
सुर कुल केलि निदान जय जय देव हरे || अ प २-४ ||

हे देव ! हे हरे ! हे मधुसूदन ! हे मुरारे ! हे नरकान्तकारी ! हे गरुड़-वाहन ! हे देवताओंके क्रीड़ा-विहार-निदान, आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-४ ||

अमल कमल दल लोचन भव मोचन ए |
त्रि भुवन भवन निधान जय जय देव हरे || अ प २-५ ||

हे देव ! हे हरे ! हे निर्मल कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाले, भव-दुःख मोचन करनेवाले, त्रिभुवनरूप भवनके आधार स्वरूप, आपकी जय हो, जय हो || अ प २-५ ||

जनक सुता कृत भूषण जित दूषण ए |
समर शमित दश खण्ठ जय जय देव हरे || अ प २-६ ||

हे देव ! हे हरे ! श्रीरामावतारमें सीताजीको विभूषित करनेवाले, दूषण नामक राक्षसपर विजय प्राप्त करनेवाले तथा युद्धमें दशानन रावणको वधकर शान्त करनेवाले, आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-६ ||

अभिनव जल धर सुन्दर धृत मन्दर |
श्री मुख चन्द्र चकोर जय जय देव हरे || अ प २-७ ||

हे नवीन जलधरके समान वर्णवाले श्यामसुन्दर ! हे मन्दराचलको धारण करनेवाले ! श्रीराधारूप महालक्ष्मीके मुखचन्द्रपर आसक्त रहनेवाले चकोर-स्वरूप ! हे हरे ! हे देव ! आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-७ ||

तव चरणे प्रणता वयम् इति भावय ए |
कुरु कुशलम् प्रणतेषु जय जय देव हरे || अ प २-८ ||

हे भगवन् ! हम आपके चरणोंमें शरणागत हैं । आप प्रेमभक्ति प्रदानकर अपने प्रति प्रणतजनोंका कुशल विधान करें । हे देव ! हे हरे ! आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-८ ||

श्री जयदेव कवेः इदम् कुरुते मुदम् ए |
मंगलम् उज्ज्वल गीतम् जय जय देव हरे || अ प २-९- ||

श्रीजयदेव कवि प्रणीत यह मनोहर, उज्जवल गीतिमय मंगलाचरण आपका आनंदवर्द्धन करें अथवा आपके गुणों का श्रवण कीर्त्तन करनेवाले भक्तजनोंको आनंद प्रदान करें | आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-९- ||
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पद्मा पयो धर तटी परि रंभ लग्न काश्मीर मुद्रितम् उरः मधु सूदनस्य |
व्यक्त अनुरागम् इव खेलत् अनंग खेद स्वेद अंबु पूरम् अनुपूरयतु प्रियम् वः ||१-६||
अनुवाद:-
पद्मा श्रीराधाजीके कुंकुम छापसे चिन्हित स्तन-युगलका परिरम्भण करनेसे जिन श्रीकृष्णका वक्षःस्थल अनुरंजित हो गया है, मानो हृदयस्थित अनुराग ही रंजित होकर व्यक्त होने लगा है, साथ ही कन्दर्पक्रीड़ाके कारण जात स्वेद-विन्दुओंसे जिनका वक्षःस्थल परिप्लुत हो गया है, ऐसे मधुसूदनका सम्भोगकालीन वक्षःस्थल आप सबका (हम सबका) मनोरथ पूर्ण करें ||१-६||

वसन्ते वासन्ती कुसुम सुकुमारैः अवयवैः
भ्रमन्तीम् कान्तारे बहु विहित कृष्ण अनुसरणाम् |
अमन्दम् कन्दर्प ज्वर जनित चिन्त आकुलतया
वलद् बाधाम् राधाम् स रसम् इदम् उचे सह चरी ||१-७||
अनुवाद:-
किसी समय वसन्त ऋतूकी सुमधुर बेलामें विरह-वेदनासे अत्यन्त कातर होकर राधिका एक विपिनसे दूसरे विपिनमें श्रीकृष्णका अन्वेषण करने लगी, माधवी लताके पुष्पोंके समान उनके सुकुमार अंग अति क्लान्त हो गये, वे कन्दर्पपीड़ाजनित चिन्ताके कारण अत्यन्त विकल हो उठीं, तभी कोई एक सखी उनको अनुरागभरी बातोंसे सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी ||१-७||

अष्ट पदि ३ माधव उत्सव कमलाकरम्
ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे |
मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे |
विहरति हरिः इह स रस वसन्ते |
नृत्यति युवती जनेन समम् सखि विरहि जनस्य दुरन्ते || अ प ३-१||

प्रिय सखि ! राधे ! हाय ! यह वसन्तकाल विरही जनोंके लिए अतीव दुःखदायी है। देखो न ! इसके आगमनपर मलय समीर सुकोमल मनोज्ञ लताओंको पुनः-पुनः आदरके साथ आलिंगन कर कैसी मनोहर शोभा प्रकट कर रहा है । देखो ! कुञ्ज-कुटीरमें भ्रमरोंके मँडरानेसे उत्पन्न गुंजारसे तथा कोयलोंकी सुमधर कुहुध्वनिसे दिग्दिगन्त परिपूरित हो गये हैं और वे श्रीकृष्ण इस कुञ्ज कुटीरमें किसी भाग्यवती युवतीके साथ विहार कर रहे हैं और प्रेमोत्सवमें मग्न होकर नृत्य भी कर रहे हैं। || अ प ३-१||

उत् मद मदन मनोरथ पथिक वधू जन जनित विलापे
अलि कुल संकुल कुसुम समूह निराकुल बकुल कलापे
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-२ ||

प्रिय सखि ! प्रवासमें गये हुए पतियोंके विरहका अनुभवकर विरहिणियाँ केवल विलाप करती रहती हैं। तुम देखो तो ! इस वसन्त ऋतुमें मालती वृक्षोंमें पुष्पोंको समा लेनेके लिए कोई रिक्त स्थान ही नहीं है। राशि-राशि बकुल पुष्प प्रफुल्लित हो रहे हैं और इनपर श्रेणीबद्ध होकर असंख्य भ्रमर गुँजार कर रहे हैं और उधर श्रीकृष्ण युवतियोंके साथ विहार तथा नृत्य कर रहे हैं। हाय ! कैसे धैर्य धारण करूँ || अ प ३-२ ||

मृग मद सौरभ रभस वशंवद नव दल माल तमाले 
युव जन हृदय विदारण मनसिज नख रुचि किंशुक जाले
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-३ ||

तमाल वृक्षावली नूतन पल्लवोंसे विभूषित हो  मानो कस्तूरीकी भाँति चारों ओर सौरभका विस्तार कर आमोदित हो रही है। देखो, देखो सखी ! इन प्रफुल्लित ढाक (पलाश) के पुष्पोंकी कान्ति कामदेवके नखके समान दिखायी दे रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मदनराजने मानो युवक युवतियोंके वक्षस्थलको विदीर्ण कर दिया है || अ प ३-३ ||

मदन मही पति कनक दण्ड रुचि केसर कुसुम विकासे |
मिलित शिली मुख पाटलि पटल कृत स्मर तूण विलासे
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-४ ||

अब वनके विकसित पुष्प-समुदाय ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो मदनराजके हेमदण्ड हैं और भ्रमरावलिसे परिवेष्टित पाटलि (नागकेशर) पुष्पसमूह ऐसे दिखायी दे रहे हैं, मानो कामदेवके तूणीर हों || अ प ३-४ ||

विगलित लज्जित जगत् अवलोकन तरुण करुण कृत हासे |
विरहि निकृन्तन कुन्त मुख आकृति केतक दन्तुरित अशे
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-५ ||

अरी सखि ! वसन्तके प्रतापसे ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण जगत निर्लज्ज हो गया है। यह देखकर तरुण करुण पादपसमूह (वृक्षराजि) प्रफुल्लित सुमनोंके व्याजसे हँस रहे हैं। देखो, विरहीजनोंके हृदयको विदीर्ण करनेके लिए बरछीकी नोकके समान आकारवाले केतकी (केवड़ा) प्रसून चहुँदिशि प्रफुल्लित विलसित विकसित हो रहे हैं। इनके संयोगसे दिशाएँ भी प्रसन्न हो रही हैं || अ प ३-५ ||

माधविका परिमल ललिते नव मालिक जाति सुगन्धौ
मुनि मनसाम् अपि मोहन कारिणि तरुण अ कारण बन्धौ
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-६||

यह वसन्त मास वासन्ती पुष्पोंके मकरन्दसे अतिशय ललित एवं मनोहर हो रहा है तथा नवमालिका (जूही) पुष्पोंकी सुगन्धसे सुगन्धित हो रहा है। इसकालमें तो मुनियोंके मनमें भी विकार उत्पन्न हो जाता है, वे मुग्ध हो उठते हैं। यह वसन्त युवावर्गका अकारण बन्धु है || अ प ३-६||

स्फुरत् अतिमुक्त लता परि रंभण मुकुलित पुलकित चूते |
बृंदावन विपिने परि सर परि गत यमुना जल पूते
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-७||

हे सखि! चपल मुक्तालताके आलिंगनसे युक्त मुकुलित (मन्जरियोंसे पूर्ण) तथा रोमान्चित आम्रवृक्षोंसे युक्त वृन्दाविपिनके सन्निाकट प्रवाहमाना यमुनाके पावन जलमें
श्रीहरि युवतियोंके साथ परस्पर मिलित होकर विहार कर रहे हैं || अ प ३-७||

श्री जयदेव भणितम् इदम् उदयति हरि चरण स्मृति सारम् |
सरस वसन्त समय वन वर्णनम् अनु गत मदन विकारम्
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-८ ||

श्रीजयदेव कवि द्वारा वखणत श्रीकृष्ण-विरहजनित उत्कण्ठिता श्रीराधाके मदनविकारसे सम्वलित इस वसन्त समयकी वनशोभाका चित्रणरूप यह सरस मंगलगीत अति उत्कृष्ट रूपसे प्रकाशित हुआ है । यह वासन्तिक काल कामविकारोंसे अनुस्यूत है जो श्रीहरिके चरणकमलकी स्मृतिको उदित कराता है || अ प ३-८ ||

दर विदलित मल्ली वल्लि चंचत् पराग प्रकटित पटवासैः वासयन् काननानि |
इह हि दहति चेतः केतकी गन्ध बन्धुः प्रसरत् असम बाण प्राण वत् गन्ध वाहः ||१-८||

हे सखि ! देखो, अर्द्ध प्रस्फुटित मल्लिकालताके मकरन्दके श्वेतचूर्णसे वनस्थली श्वेत पटवास द्वारा समाच्छादित हो गयी है | केतकी कुसुमोंके सुगन्धसे मलयपवन आमोदित हो रहा है, यह पवन काम्देवे बाणके समान उसका प्राणसखा बन विरहीजनोंके हृदयको दग्ध कर रहा है ||१-८||

उन्मीलत् मधु गन्ध लुब्ध मधुप व्याधूत चूत अंकुर
क्रीडत् कोकिल काकली कल कलैः उद्गीर्ण कर्ण ज्वराः |
नीयन्ते पथिकैः कथम् कथम् अपि ध्यान अनुधान अवधान क्षण
प्राप्त प्राण समा समागम रस उल्लासैः अमी वासराः ||१-९||

हे सखि! देखो! उन्मीलित आम्र मुकुलके पुष्प किन्जल्कके मधुगन्धके लुब्ध भ्रमरोंसे प्रकाशित म´जरियों पर कोयलें क्रीड़ा करती हुई कुहु-कुहु रवसे मधुर ध्वनि कर रही हैं और इस कोलाहलसे विरहीजनोंको कर्णज्वर हो रहा है। वसन्त ऋतुके वासरोंमें विरहीजन अतिशय कठोर विरह यातनाके कारण प्राणसम प्रेयसियोंका चिन्तन करने लगते हैं। तब उनके मुखमण्डलके ध्यानसे, उनके समागम जनित आनन्दके आविर्भूत हो जानेसे क्षणिक सुख लाभ करते हुए वे अति कष्टपूर्वक समयको अतिवाहित करते हैं ||१-९||

अनेक नारी परि रंभ संभ्रम स्फुरत् मनोहारि विलास लालसम् |
मुर अरिम् आरात् उप दर्शयन्ति असौ सखी समक्षम् पुनः आह राधिकाम् ||१-१०||

अनन्तर श्रीराधिकाजीकी सखीने बड़ी चतुरतासे श्रीकृष्णका अनुसन्धान कर लिया। सखीने देखा कि अति सान्निध्यमें ही श्रीकृष्ण गोप-युवतियोंके साथ प्रमोद विलासमें निमग्न आदरातिशयताको प्राप्त कर रहे हैं । उन रमणियोंके द्वारा आलिंगनकी उत्सुकता दिखाये जाने पर श्रीकृष्णके मनमें मनोज्ञ मनोहर विलासकी लालसा जाग उठी है । सखी अन्तरालसे (आड़में छिपकर) राधाजीको दिखलाती हुई पुनःयह बोली -- ||१-१०||

अष्ट पदि ४ सामोद दामोदर भ्रमर पदम्
चन्दन चर्चित नील कलेवर पीत वसन वनमाली |
केलि चलत् मणि कुण्डल मण्डित गण्ड युग स्मित शाली |
हरिः इह मुग्ध वधू निकरे विलासिनि विलसति केलि परे || अ प ४-१||

हे विलासिनी श्रीराधे ! देखो ! पीतवसन धारण किये हुए, अपने तमाल-श्यामल-अंगोंमें चन्दनका विलेपन करते हुए, केलिविलासपरायण श्रीकृष्ण इस वृन्दाविपिनमें मुग्ध वधुटियोंके साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं, जिसके कारण दोनों कानोंमें कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, उनके कपोलद्वयकी शोभा अति अदभुत है। मधुमय हासविलासके द्वारा मुखमण्डल अदभुत माधुर्यको प्रकट कर रहा है || अ प ४-१||

पीन पयोधर भार भरेण हरिम् परि रभ्य रम्य सरागम् |
गोप वधूःअनु गायति काचित् उदंचित पंचम रागम् |
हरिरिह केलिपरे || अ प ४-२ ||

देखो सखि ! वह एक गोपांगना अपने पीनतर पयोधर-युगलके विपुल भारको श्रीकृष्णके वक्षस्थलपर सन्निविष्टकर प्रगाढ़ अनुरागके साथ सुदृढ़रूपसे आलिंगन करती हुई उनके साथ पञ्चम स्वरमें गाने लगती है || अ प ४-२ ||

का अपि विलास विलोल विलोचन खेलन जनित मनोजम् |
ध्यायति मुग्ध वधूः अधिकम् मधु सूदन वदन सरोजम् |
हरिरिह केलिपरे || अ प ४-३ ||

देखो सखि ! श्रीकृष्ण जिस प्रकार निज अभिराम मुखमण्डलकी श्रृंगार रस भरी चंचल नेत्रोंकी कुटिल दृष्टिसे कामिनियोंके चित्तमें मदन विकार करते हैं, उसी प्रकार यह एक वरांगना भी उस वदनकमलमें अश्लिष्ट (संसक्त) मकरन्द पानकी अभिलाषासे लसान्वित होकर उन श्रीकृष्णका ध्यान कर रही है || अ प ४-३ ||

का अपि कपोल तले मिलिता लपितुम् किम् अपि
श्रुति मूले चारु चुचुंब नितंबवती दयितम् पुलकैः अनुकूले |
हरिरिह केलिपरे || अ प ४-४ ||

वह देखो सखि! एक नितम्बिनी (गोपी) ने अपने प्राणवल्लभ श्रीड्डष्णके कर्ण (श्रुतिमूल) में कोई रहस्यपूर्ण बात करनेके बहाने जैसे ही गण्डस्थलपर मुँह लगाया तभी श्रीकृष्ण उसके सरस अभिप्रायको समझ गये और रोमांचित हो उठे। पुलकांचित श्रीकृष्णको देख वह रसिका नायिका अपनी मनोवान्छाको पूर्ण करने हेतु अनुकूल अवसर प्राप्त करके उनके कपोलको परमानन्दमें निमग्न हो चुम्बन करने लगी || अ प ४-४ ||

केलि कला कुतुकेन च काचित् अमुम् यमुना जल। 
कूले मंजुल वंजुल कुंज गतम् विचकर्ष करेण दुकूले |
हरिरिह केलिपरे || अ प ४-५ ||

सखि ! देखो, यमुना पुलिनपर मनोहर वेतसी (वंजुल या वेंत) कुञ्जमें किसी गोपीने एकान्त पाकर काम रस वशवर्त्तिनी हो क्रीड़ाकला कौतूहलसे उनके वस्त्रयुगलको अपने हाथोंसे पकड़कर खींच लिया || अ प ४-५ ||

कर तल ताल तरल वलय आवलि कलित कल स्वन
वंशे रास रसे सह नृत्य परा हरिणा युवतिः प्रशशंसे।
हरिरिह केलिपरे ॥ अ प ४-६ ||

हाथोंकी तालीके तानके कारण चंचल कंगण-समूहसे अनुगत वंशीनादसे युक्त अदभुत स्वरको देखकर श्रीहरि रासरसमें आनन्दित नृत्य-परायणा किसी युवतीकी प्रशंसा करने लगे ॥ अ प ४-६ ||
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श्लिष्यति काम् अपि चुंबति काम् अपि काम् अपि रमयति रामाम् |
पश्यति सः स्मित चारु तराम् अपराम् अनु गच्छति वामाम् |
हरिरिह केलिपरे ॥ अ प ४-७ ||
अनुवाद:-
श्रृंगार-रसकी लालसामें श्रीकृष्ण कहीं किसी रमणीका आलिंगन करते हैं, किसीका चुम्बन करते हैं, किसीके साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधाका अवलोकन कर किसीको निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनीके पीछे-पीछे चल रहे हैं ॥ अ प ४-७ ||

श्री जयदेव भणितम् इदम् अद्भुत केशव केलि रहस्यम् |
वृन्दावन विपिने ललितम् वितनोतु शुभानि यशस्यम् |
हरिरिह केलिपरे ॥ अ प ४-८ ||

श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित यह अदभुत मंगलमय ललित गीत सभीके यशका विस्तार करे । यह शुभद गीत श्रीवृन्दावनके विपिन विहारमें श्रीराधाजीके विलास परीक्षण एवं श्रीकृष्णके द्वारा की गयी  अदभुत कामक्रीड़ाके रहस्यसे सम्बन्धित है। यह गान वन बिहारजनित सौष्ठवको अभिवर्धित करनेवाला है ॥ अ प ४-८ ||
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विश्वेषाम् अनुरंजनेन जनयन् आनानंदम् इन्दीवर
श्रेणी श्यामल कोमलैः उपनयन् अन्गैः अनंग उत्सवम् |
स्वच्छंदम् व्रज सुन्दरीभिः अभितः प्रति अंगम् आलिंगितः 
शृंगारः सखि मूर्तिमान् इव मधौ मुग्धो हरिः क्रीडति || १-११ ||

हे सखि ! इस वसन्तकालमें विलास-रसमें उन्मत्त श्रीकृष्ण मूर्त्तिमान श्रृंगार रसस्वरूप होकर विहार कर रहे हैं। वे इन्दीवर कमलसे भी अतीव अभिराम कोमल श्यामल अंगोंसे कन्दर्प महोत्सवका सम्पादन कर रहे हैं। गोपियोंकी जितनी भी अभिलाषा है, उससे भी कहीं अधिक उनकी उन्मत्त लालसाओंको अति अनुरागके साथ तृप्त कर रहे हैं। परन्तु व्रजसुन्दरियाँ विपरीत रतिरसमें आविष्ट हो विवश होकर उनके प्रत्येक अंगप्रत्यंगको सम्यक् एवं स्वतन्त्र रूपसे आलिंगित कर रही हैं || १-११ ||

रास उल्लास भरेण विभ्रम भृताम् आभीर वाम भ्रुवाम्
अभ्यर्णम् परिरभ्य निर्भरम् उरः प्रेम अन्धया राधया
साधु त्वत् वदनम् सुधामयम् इति व्याहृत्य गीत स्तुती
व्याजात् उत्कट चुम्बित स्मित मनोहरी हरिः पातु वः || १-१२ ||

जिस श्रीकृष्णके प्रेममें अन्धी होकर विमुग्धा श्रीराधा लज्जाशून्य होकर रासलीलाके प्रेममें विह्नला शुभ्रा गोपांगनाओंके समक्ष ही उनके वक्षःस्थलका सुदृढ़रूपसे आलिंगन कर ‘अहा नाथ’ तुम्हारा वदनकमल कितना सुन्दर है, कैसी अनुपम सुधाराशिका आकार है - इस प्रकार स्तुति-गान करती हुई सुचारु रूपसे चुम्बन करने लगी तथा श्रीराधाकी ऐसी प्रेमासक्ति देखकर हृदयमें स्वतःस्फूर्त्त आनन्दके कारण जिस श्रीकृष्णका खकमल मनोहर हास्यभूषणसे विभूषित होने लगा, ऐसे हे श्रीकृष्ण ! आप सबका मंगलविधान करें || १-१२ ||

इति श्री जयदेव कृतौ गीतगोविन्दे सामोददामोदरो नाम प्रथमः सर्गः

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