श्रीकृष्णेन गिरियज्ञ एवं गोपूजनस्य प्रस्तावं, शरद् ऋतु वर्णनम् |
षोडशोऽध्यायः
वैशम्पायन उवाच
गोपवृद्धस्य वचनं श्रुत्वा शक्रपरिग्रहे ।
प्रभावज्ञोऽपि शक्रस्य वाक्यं दामोदरोऽब्रवीत्।१।
वयं वनचरा गोपाः सदा गोधनजीविनः।
गावोऽस्मद्दैवतं विद्धि गिरयश्च वनानि च ।२।
कर्षुकाणां कृषिर्वृत्तिः पण्यं विपणिजीविनाम्।
गावोऽस्माकं परा वृत्तिरेतत् त्रैविद्यमुच्यते।३।
विद्यया यो यया युक्तस्तस्य सा दैवतं परम्।
सैव पूज्यार्चनीया च सैव तस्योपकारिणी ।४ ।
योऽन्यस्य फलमश्नानः करोत्यन्यस्य सत्क्रियाम्।
द्वावनर्थौ स लभते प्रेत्य चेह च मानवः ।५।।
कृष्यन्ता प्रथिता सीमा सीमान्तं श्रूयते वनम्।
वनान्ता गिरयः सर्वे ते चास्माकं गतिर्ध्रुवा ।६ ।
श्रूयन्ते गिरयश्चापि वनेऽस्मिन् कामरूपिणः।
प्रविश्य तास्तास्तनवो रमन्ते स्वेषु सानुषु ।७ ।
भूत्वा केसरिणः सिंहा व्याघ्राश्च नखिनां वराः ।
वनानि स्वानि रक्षन्ति त्रासयन्तो वनच्छिदः।८ ।
यदा चैषां विकुर्वन्ति ते वनालयजीविनः ।
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तान् पौरुषादेन कर्मणा ।९ ।
मन्त्रयज्ञपरा विप्राः सीतायज्ञाश्च कर्षुकाः।
गिरियज्ञास्तथा गोपा इज्योऽस्माभिर्गिरिर्वने । 2.16.१०।।
तन्मह्यं रोचते गोपा गिरियज्ञः प्रवर्तताम् ।
कर्म कृत्वा सुखस्थाने पादपेष्वथवा गिरौ ।११।
तत्र हत्वा पशून् मेध्यान् वितत्यायतने शुभे ।
सर्वघोषस्य संदोहः क्रियतां किं विचार्यते ।। १२।
श्लोक 10.57.6 |
विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत् हत्वा पशून् सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान् ॥ ६ ॥ |
शब्दार्थ:- |
स्त्रीणाम्—स्त्रियों के; विक्रोशमानानाम्—चीखती; क्रन्दन्तीनाम्—तथा चिल्लाती; अनाथ—जिनके कोई रक्षक न हो, ऐसे व्यक्ति; वत्—सदृश; हत्वा—मार कर; पशून्—पशुओं को; सौनिक—कसाई; वत्—सदृश; मणिम्—मणि को; आदाय— लेकर; जग्मिवान्—चला गया ।. |
अनुवाद:- |
जब सत्राजित के महल की स्त्रियाँ चीख रही थीं और असहाय की तरह रो रही थीं तब शतधन्वा ने वह मणि ले लिया और वहाँ से चलता बना जैसे कुछ पशुओं का वध करने के बाद कोई कसाई करता है। |
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तं शरत्कुसुमापीडाः परिवार्य प्रदक्षिणम् ।
गावो गिरिवरं सर्वास्ततो यान्तु पुनर्व्रजम् ।। १३।।
प्राप्ता किलेयं हि गवां स्वादुतोयतृणा गुणैः ।
शरत् प्रमुदिता रम्या गतमेघजलाशया ।। १४ ।।
प्रियकैः पुष्पितैर्गौरं श्याम बाणासनैः क्वचित् ।
कठोरतृणमाभाति निर्मयूररुतं वनम् ।। १५ ।।
विजला विमला व्योम्नि विबलाका विविद्युतः ।
विवर्धन्ते जलधरा विदन्ता इव कुञ्जराः ।। १६ ।।
पटुना मेघवातेन नवतोयानुकर्षिणा ।
पर्णोत्करघनाः सर्वे प्रसादं यान्ति पादपाः ।। १७ ।।
सितवर्णाम्बुदोष्णीषं हंसचामरवीजितम् ।
पूर्णचन्द्रामलच्छत्रं साभिषेकमिवाम्बरम् ।। १८ ।।
हंसैः प्रहसितानीव समुत्कृष्टानि सारसैः ।
सर्वाणि तनुतां यान्ति जलानि जलदक्षये ।। १९ ।।
चक्रवाकस्तनतटाः पुलिनश्रोणिमण्डलाः ।
हंसलक्षणहासिन्यः पतिं यान्ति समुद्रगाः ।। 2.16.२० ।।
कुमुदोत्फुल्लमुदकं ताराभिश्चित्रमम्बरम् ।
सममभ्युत्स्मयन्तीव शर्वरीष्वितरेतरम् ।। २१ ।।
मत्तक्रौञ्चावघुष्टेषु कलमापक्वपाण्डुषु ।
निर्विष्टरमणीयेषु वनेषु रमते मनः ।। २२ ।।
पुष्करिण्यस्तडागानि वाप्यश्च विकचोत्पलाः ।
केदाराः सरितश्चैव सरांसि च श्रियाज्वलन् ।। २३ ।।
पङ्कजानि च ताम्राणि तथान्यानि सितान्यपि ।
उत्पलानि च नीलानि भेजिरे वारिजां श्रियम्।।२४।।
मदं जहुः सितापाङ्गा मन्दं ववृधिरेऽनिलाः ।
अभवद् व्यभ्रमाकाशमभूच्च निभृतोऽर्णवः ।। २५ ।।
ऋतुपर्यायशिथिलैर्वृत्तनृत्यसमुज्झितैः ।
मयूराङ्गरुहैर्भूमिर्बहुनेत्रेव लक्ष्यते २६।।
स्वपङ्कमलिनैस्तीरैः काशपुष्पलताकुलैः ।
हंससारसविन्यासैर्यमुना भाति शोभना ।। २७ ।।
कलमापाकरम्येषु केदारेषु जलेषु च ।
सस्यादा जलजादाश्च मत्ता विरुरुवुः खगाः ।। २८ ।।
सिषिचुर्यानि जलदा जलेन जलदागमे ।
तानि सस्यानि बालानि कठिनत्वं गतानि वै ।। २९ ।।
त्यक्त्वा मेघमयं वासः शरद्गुणविदीपितः ।
एष वै विमले व्योम्नि हृष्टो वसति चन्द्रमाः ।। 2.16.३० ।।
क्षीरिण्यो द्विगुणं गावः प्रमत्ता द्विगुणं वृषाः ।
वनानां द्विगुणा लक्ष्मीः सस्यैर्गुणवती मही ।। ३१ ।।
ज्योतींषि घनमुक्तानि पद्मवन्ति जलानि च ।
मनांसि च मनुष्याणां प्रसादमुपयान्ति वै ।। ३२ ।।
असृजत्सविता व्योम्नि निर्मुक्तो जलदैर्भृशम् ।
शरत्प्रज्वलितं तेजस्तीक्ष्णरश्मिर्विशोषयन् ।। ३३ ।।
नीराजयित्वा सैन्यानि प्रयान्ति विजिगीषवः ।
अन्योन्यराष्ट्राभिमुखाः पार्थिवाः पृथिवीक्षितः ।। ३४ ।।
बन्धुजीवाभिताम्रासु बद्धपङ्कवतीषु च ।
मनस्तिष्ठति कान्तासु चित्रासु वनराजिषु ।। ३५ ।।
वनेषु च विराजन्ते पादपा वनशोभिनः ।
असनाः सप्तपर्णाश्च कोविदाराश्च पुष्पिताः ।। ३६ ।।
इषुसाह्वा निकुम्भाश्च प्रियकाः स्वर्णकास्तथा ।
सृमराः पेचकाश्चैव केतक्यश्च समन्ततः ।। ३७ ।।
व्रजेषु च विशेषेण गर्गरोद्गारहासिषु ।
शरत्प्रकाशयोषेव गोष्ठेष्वटति रूपिणी ।। ३८ ।।
नूनं त्रिदशभूयिष्ठं मेघकालसुखोषितम् ।
पतत्त्रिकेतनं देवं बोधयन्ति दिवौकसः ।। ३९ ।।
शरद्येवं सुसस्यायां प्राप्तायां प्रावृषः क्षये ।
नीलचन्द्रार्कवर्णैश्च रचितं बहुभिर्द्विजैः ।। 2.16.४० ।।
फलैः प्रवालैश्च घनमिन्द्रचापघनोपमम् ।
भवनाकारविटपं लतापरममण्डितम् ।। ४१ ।।
विशालमूलावनतं पवनाभोगमण्डितम् ।
अर्चयामो गिरिं देवं गाश्चैव च विशेषतः ।। ४२ ।।
सावतंसैर्विषाणैश्च बर्हापीडैश्च दंशितैः ।
घण्टाभिश्च प्रलम्बाभिः पुष्पैः शारदिकैस्तथा ।। ४३ ।।
शिवाय गावः पूज्यन्तां गिरियज्ञः प्रवर्त्यताम् ।
पूज्यतां त्रिदशैः शक्रो गिरिरस्माभिरिज्यताम् ।। ४४ ।।
कारयिष्यामि गोयज्ञं बलादपि न संशयः ।
यद्यस्ति मयि वः प्रीतिर्यदि वा सुहृदो वयम् ।
गावो हि पूज्याः सततं सर्वेषां नात्र संशयः ।। ४५ ।।
यदि साम्ना भवेत् प्रीतिर्भवतां वैभवाय च ।
एतन्मम वचस्तथ्यं क्रियतामविचारितम् ।। ४६ ।।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि शरद्वर्णने षोडशोऽध्यायः ।। १६ ।।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इन्द्र-महोत्सव को स्वीकार करने के सम्बन्ध में उस बड़े-बूढ़े गोप का वचन सुनकर इन्द्र के प्रभाव को जानते हुए भी श्रीकृष्ण ने यह बात कही- 'आर्य! हम लोग वन में रहने वाले गोप हैं और सदा गोधन से अपनी जीविका चलाते हैं; अत: आपको मालूम होना चाहिये कि गौएं, पर्वत और वन- ये ही हमारे देवता हैं। किसानों की जीविका-वृत्ति है खरीद-विक्री और हम लोगों की सर्वोत्तम वृत्ति है गौओं का पालन। ये वार्ता रूप विद्या के तीन भेद कहलाते हैं। जो जिस विद्या से युक्त है, उसके लिये वही सर्वोत्तम देवता है, वही पूजा-अर्चा के योग्य है और वही उसके लिये उपकारिणी है। जो मनुष्य एक व्यक्ति से फल पाकर उसे भोगता है और दूसरे की पूजा (आदर-सत्कार) करता है, वह इस लोक और परलोक में दो अनर्थों का भागी होता है। जहां-तक खेती होती है, वहाँ तक व्रज की सीमा विख्यात है। सीमा के अन्त में वन सुना जाता है और वन के अन्त में समस्त पर्वत हैं। वे पर्वत ही हमारे अविचल आश्रय हैं। सुना जाता है कि इस वन में रहने वाले पर्वत भी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले हैं। वे भिन्न-भिन्न शरीरों में प्रवेश करके अपने शिखरों पर मौज से घूमते-फिरते हैं। वे ही अयालों से विभूषित सिंह और नखधारी जन्तुओं में श्रेष्ठ व्याघ्र बनकर वन को काटने या हानि पहुँचाने वाले लोगों को त्रास देते हुए अपने-अपने वनों की रक्षा करते हैं। जब वन के आश्रय में रहकर जीवन निर्वाह करने वाले लोग इन वनों या वन देवताओं को हानि पहुँचाते हैं, तब वे कामरूपी देवता राक्षसोचित हिंसा-कर्म के द्वारा उन दुराचारी मनुष्यों को निश्चय ही मार डालते हैं। ब्राह्मण लोग मन्त्र यज्ञ में तत्पर रहते हैं, किसान सीतायज्ञ करते हैं अर्थात खेतों को अच्छी तरह जोतते और हल जोतने से जो रेखा बन जाती है, उसकी तथा हल की पूजा करते हैं तथा गोपगण गिरियज्ञ करते हैं; अत: हम लोगों को इस वन में गिरियज्ञ करना चाहिये। गोपगण! मुझे तो यही अच्छा लगता है कि गिरियज्ञ का आरम्भ हो। स्वस्तिवाचन आदि कर्म करके वृक्षों के नीचे अथवा पर्वत के समीप किसी सुखद स्थान पर पवित्र पशुओं को एकत्र करके उनके पास जाकर उनका विस्तारपूर्वक पूजन किया जाय और एक शुभ मन्दिर में सारे व्रज के दूध का संग्रह कर लिया जाय। इस विषय में आप लोग क्या विचार कर रहे हैं। फिर शरद्-ऋतु के फूलों से जिनके मस्तक का श्रृंगार किया गया हो ऐसी समस्त गौएं गिरिवर गोवर्धन की दक्षिणावर्त परिक्रमा करके पुन: व्रज में जायँ। इस समय प्रमोद पूर्ण रमणीय शरद्-ऋतु आ गयी है, जबकि जल और घास गौओं के लिये स्वादुता के गुणों से सम्पन्न जाते हैं। अब जलाशयों में पानी बरसाने वाले बादल छँट गये। खिले हुए कदम्ब-पुष्पों के कारण वन गौरवर्ण का प्रतीत होता है। कहीं-कहीं बाणासनों-झाड़-झंखाड़ों के कारण वह श्याम रंग का दिखायी देता है। अब घासें कोमल नहीं रहीं- कुछ कठोर हो गयी हैं। वन में मोरों की मधुर वाणी नहीं सुनायी देती है। आकाश में जल, मल, बलाका और विद्युत से रहित बादल दन्तहीन हाथियों के समान बढ़ रहे हैं। (वर्षा-ऋतु में) नूतन जल को खींच लाने वाले शक्तिशाली मेघयुक्त वायु से अभिषिक्त होने के कारण जो पत्तों के बाहुल्य से घने दिखायी देते थे, वे सभी वृक्ष अब पत्तों के बिरल हो जाने से प्रसाद को प्राप्त हो रहे हैं (पहले वहाँ अन्धकार छाया रहता था अब प्रकाश हो गया है)।' |
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