शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

गोवर्धन पूजा हरिवंश पुराण और भागवत पुराण-


श्रीकृष्णेन गिरियज्ञ एवं गोपूजनस्य प्रस्तावं, शरद् ऋतु वर्णनम्

              षोडशोऽध्यायः

              वैशम्पायन उवाच
गोपवृद्धस्य वचनं श्रुत्वा शक्रपरिग्रहे ।
प्रभावज्ञोऽपि शक्रस्य वाक्यं दामोदरोऽब्रवीत्।१।

वयं वनचरा गोपाः सदा गोधनजीविनः।
गावोऽस्मद्दैवतं विद्धि गिरयश्च वनानि च ।२।

कर्षुकाणां कृषिर्वृत्तिः पण्यं विपणिजीविनाम्।
गावोऽस्माकं परा वृत्तिरेतत् त्रैविद्यमुच्यते।३।

विद्यया यो यया युक्तस्तस्य सा दैवतं परम्।
सैव पूज्यार्चनीया च सैव तस्योपकारिणी ।४ ।
योऽन्यस्य फलमश्नानः करोत्यन्यस्य सत्क्रियाम्।
द्वावनर्थौ स लभते प्रेत्य चेह च मानवः ।५।।
कृष्यन्ता प्रथिता सीमा सीमान्तं श्रूयते वनम्।
वनान्ता गिरयः सर्वे ते चास्माकं गतिर्ध्रुवा ।६ ।
श्रूयन्ते गिरयश्चापि वनेऽस्मिन् कामरूपिणः।
प्रविश्य तास्तास्तनवो रमन्ते स्वेषु सानुषु ।७ ।
भूत्वा केसरिणः सिंहा व्याघ्राश्च नखिनां वराः ।
वनानि स्वानि रक्षन्ति त्रासयन्तो वनच्छिदः।८ ।
यदा चैषां विकुर्वन्ति ते वनालयजीविनः ।
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तान् पौरुषादेन कर्मणा ।९ ।
मन्त्रयज्ञपरा विप्राः सीतायज्ञाश्च कर्षुकाः।
गिरियज्ञास्तथा गोपा इज्योऽस्माभिर्गिरिर्वने । 2.16.१०।।
तन्मह्यं रोचते गोपा गिरियज्ञः प्रवर्तताम् ।
कर्म कृत्वा सुखस्थाने पादपेष्वथवा गिरौ ।११।
तत्र हत्वा पशून् मेध्यान् वितत्यायतने शुभे ।
सर्वघोषस्य संदोहः क्रियतां किं विचार्यते ।। १२।

श्लोक  10.57.6  
 विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत् 
हत्वा पशून् सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ:-
स्त्रीणाम्—स्त्रियों के; विक्रोशमानानाम्—चीखती; क्रन्दन्तीनाम्—तथा चिल्लाती; अनाथ—जिनके कोई रक्षक न हो, ऐसे व्यक्ति; वत्—सदृश; हत्वा—मार कर; पशून्—पशुओं को; सौनिक—कसाई; वत्—सदृश; मणिम्—मणि को; आदाय— लेकर; जग्मिवान्—चला गया ।.
अनुवाद:-
जब सत्राजित के महल की स्त्रियाँ चीख रही थीं और असहाय की तरह रो रही थीं तब शतधन्वा ने वह मणि ले लिया और वहाँ से चलता बना जैसे कुछ पशुओं का वध करने के बाद कोई कसाई करता है।

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तं शरत्कुसुमापीडाः परिवार्य प्रदक्षिणम् ।
गावो गिरिवरं सर्वास्ततो यान्तु पुनर्व्रजम् ।। १३।।
प्राप्ता किलेयं हि गवां स्वादुतोयतृणा गुणैः ।
शरत् प्रमुदिता रम्या गतमेघजलाशया ।। १४ ।।
प्रियकैः पुष्पितैर्गौरं श्याम बाणासनैः क्वचित् ।
कठोरतृणमाभाति निर्मयूररुतं वनम् ।। १५ ।।
विजला विमला व्योम्नि विबलाका विविद्युतः ।
विवर्धन्ते जलधरा विदन्ता इव कुञ्जराः ।। १६ ।।
पटुना मेघवातेन नवतोयानुकर्षिणा ।
पर्णोत्करघनाः सर्वे प्रसादं यान्ति पादपाः ।। १७ ।।
सितवर्णाम्बुदोष्णीषं हंसचामरवीजितम् ।
पूर्णचन्द्रामलच्छत्रं साभिषेकमिवाम्बरम् ।। १८ ।।
हंसैः प्रहसितानीव समुत्कृष्टानि सारसैः ।
सर्वाणि तनुतां यान्ति जलानि जलदक्षये ।। १९ ।।
चक्रवाकस्तनतटाः पुलिनश्रोणिमण्डलाः ।
हंसलक्षणहासिन्यः पतिं यान्ति समुद्रगाः ।। 2.16.२० ।।
कुमुदोत्फुल्लमुदकं ताराभिश्चित्रमम्बरम् ।
सममभ्युत्स्मयन्तीव शर्वरीष्वितरेतरम् ।। २१ ।।
मत्तक्रौञ्चावघुष्टेषु कलमापक्वपाण्डुषु ।
निर्विष्टरमणीयेषु वनेषु रमते मनः ।। २२ ।।
पुष्करिण्यस्तडागानि वाप्यश्च विकचोत्पलाः ।
केदाराः सरितश्चैव सरांसि च श्रियाज्वलन् ।। २३ ।।
पङ्कजानि च ताम्राणि तथान्यानि सितान्यपि ।
उत्पलानि च नीलानि भेजिरे वारिजां श्रियम्।।२४।।
मदं जहुः सितापाङ्गा मन्दं ववृधिरेऽनिलाः ।
अभवद् व्यभ्रमाकाशमभूच्च निभृतोऽर्णवः ।। २५ ।।
ऋतुपर्यायशिथिलैर्वृत्तनृत्यसमुज्झितैः ।
मयूराङ्गरुहैर्भूमिर्बहुनेत्रेव लक्ष्यते २६।।
स्वपङ्कमलिनैस्तीरैः काशपुष्पलताकुलैः ।
हंससारसविन्यासैर्यमुना भाति शोभना ।। २७ ।।
कलमापाकरम्येषु केदारेषु जलेषु च ।
सस्यादा जलजादाश्च मत्ता विरुरुवुः खगाः ।। २८ ।।
सिषिचुर्यानि जलदा जलेन जलदागमे ।
तानि सस्यानि बालानि कठिनत्वं गतानि वै ।। २९ ।।
त्यक्त्वा मेघमयं वासः शरद्गुणविदीपितः ।
एष वै विमले व्योम्नि हृष्टो वसति चन्द्रमाः ।। 2.16.३० ।।
क्षीरिण्यो द्विगुणं गावः प्रमत्ता द्विगुणं वृषाः ।
वनानां द्विगुणा लक्ष्मीः सस्यैर्गुणवती मही ।। ३१ ।।
ज्योतींषि घनमुक्तानि पद्मवन्ति जलानि च ।
मनांसि च मनुष्याणां प्रसादमुपयान्ति वै ।। ३२ ।।
असृजत्सविता व्योम्नि निर्मुक्तो जलदैर्भृशम् ।
शरत्प्रज्वलितं तेजस्तीक्ष्णरश्मिर्विशोषयन् ।। ३३ ।।
नीराजयित्वा सैन्यानि प्रयान्ति विजिगीषवः ।
अन्योन्यराष्ट्राभिमुखाः पार्थिवाः पृथिवीक्षितः ।। ३४ ।।
बन्धुजीवाभिताम्रासु बद्धपङ्कवतीषु च ।
मनस्तिष्ठति कान्तासु चित्रासु वनराजिषु ।। ३५ ।।
वनेषु च विराजन्ते पादपा वनशोभिनः ।
असनाः सप्तपर्णाश्च कोविदाराश्च पुष्पिताः ।। ३६ ।।
इषुसाह्वा निकुम्भाश्च प्रियकाः स्वर्णकास्तथा ।
सृमराः पेचकाश्चैव केतक्यश्च समन्ततः ।। ३७ ।।
व्रजेषु च विशेषेण गर्गरोद्गारहासिषु ।
शरत्प्रकाशयोषेव गोष्ठेष्वटति रूपिणी ।। ३८ ।।
नूनं त्रिदशभूयिष्ठं मेघकालसुखोषितम् ।
पतत्त्रिकेतनं देवं बोधयन्ति दिवौकसः ।। ३९ ।।
शरद्येवं सुसस्यायां प्राप्तायां प्रावृषः क्षये ।
नीलचन्द्रार्कवर्णैश्च रचितं बहुभिर्द्विजैः ।। 2.16.४० ।।
फलैः प्रवालैश्च घनमिन्द्रचापघनोपमम् ।
भवनाकारविटपं लतापरममण्डितम् ।। ४१ ।।
विशालमूलावनतं पवनाभोगमण्डितम् ।
अर्चयामो गिरिं देवं गाश्चैव च विशेषतः ।। ४२ ।।
सावतंसैर्विषाणैश्च बर्हापीडैश्च दंशितैः ।
घण्टाभिश्च प्रलम्बाभिः पुष्पैः शारदिकैस्तथा ।। ४३ ।।
शिवाय गावः पूज्यन्तां गिरियज्ञः प्रवर्त्यताम् ।
पूज्यतां त्रिदशैः शक्रो गिरिरस्माभिरिज्यताम् ।। ४४ ।।
कारयिष्यामि गोयज्ञं बलादपि न संशयः ।
यद्यस्ति मयि वः प्रीतिर्यदि वा सुहृदो वयम् ।
गावो हि पूज्याः सततं सर्वेषां नात्र संशयः ।। ४५ ।।
यदि साम्ना भवेत् प्रीतिर्भवतां वैभवाय च ।
एतन्मम वचस्तथ्यं क्रियतामविचारितम् ।। ४६ ।।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि शरद्वर्णने षोडशोऽध्यायः ।। १६ ।।

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्‍ण के द्वारा गिरियज्ञ एवं गोपूजन का प्रस्‍ताव करते हुए शरद्-ऋतु का वर्णन

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इन्‍द्र-महोत्‍सव को स्‍वीकार करने के सम्‍बन्‍ध में उस बड़े-बूढ़े गोप का वचन सुनकर इन्द्र के प्रभाव को जानते हुए भी श्रीकृष्‍ण ने यह बात कही- 'आर्य! हम लोग वन में रहने वाले गोप हैं और सदा गोधन से अपनी जीविका चलाते हैं; अत: आपको मालूम होना चाहिये कि गौएं, पर्वत और वन- ये ही हमारे देवता हैं। किसानों की जीविका-वृत्ति है खरीद-विक्री और हम लोगों की सर्वोत्तम वृत्ति है गौओं का पालन। ये वार्ता रूप विद्या के तीन भेद कहलाते हैं। जो जिस विद्या से युक्‍त है, उसके लिये वही सर्वोत्तम देवता है, वही पूजा-अर्चा के योग्‍य है और वही उसके लिये उपकारिणी है। जो मनुष्‍य एक व्‍यक्ति से फल पाकर उसे भोगता है और दूसरे की पूजा (आदर-सत्‍कार) करता है, वह इस लोक और परलोक में दो अनर्थों का भागी होता है। जहां-तक खेती होती है, वहाँ तक व्रज की सीमा विख्‍यात है। सीमा के अन्‍त में वन सुना जाता है और वन के अन्‍त में समस्‍त पर्वत हैं। वे पर्वत ही हमारे अविचल आश्रय हैं। सुना जाता है कि इस वन में रहने वाले पर्वत भी इच्‍छानुसार रूप धारण करने वाले हैं। वे भिन्‍न-भिन्‍न शरीरों में प्रवेश करके अपने शिखरों पर मौज से घूमते-फिरते हैं। वे ही अयालों से विभूषित सिंह और नखधारी जन्‍तुओं में श्रेष्ठ व्‍याघ्र बनकर वन को काटने या हानि पहुँचाने वाले लोगों को त्रास देते हुए अपने-अपने वनों की रक्षा करते हैं।

जब वन के आश्रय में रहकर जीवन निर्वाह करने वाले लोग इन वनों या वन देवताओं को हानि पहुँचाते हैं, तब वे कामरूपी देवता राक्षसोचित हिंसा-कर्म के द्वारा उन दुराचारी मनुष्‍यों को निश्चय ही मार डालते हैं। ब्राह्मण लोग मन्‍त्र यज्ञ में तत्‍पर रहते हैं, किसान सीतायज्ञ करते हैं अर्थात खेतों को अच्‍छी तरह जोतते और हल जोतने से जो रेखा बन जाती है, उसकी तथा हल की पूजा करते हैं तथा गोपगण गिरियज्ञ करते हैं; अत: हम लोगों को इस वन में गिरियज्ञ करना चाहिये। गोपगण! मुझे तो यही अच्‍छा लगता है कि गिरियज्ञ का आरम्‍भ हो। स्‍वस्तिवाचन आदि कर्म करके वृक्षों के नीचे अथवा पर्वत के समीप किसी सुखद स्‍थान पर पवित्र पशुओं को एकत्र करके उनके पास जाकर उनका विस्‍तारपूर्वक पूजन किया जाय और एक शुभ मन्दिर में सारे व्रज के दूध का संग्रह कर लिया जाय। इस विषय में आप लोग क्‍या विचार कर रहे हैं। फिर शरद्-ऋतु के फूलों से जिनके मस्‍तक का श्रृंगार किया गया हो ऐसी समस्‍त गौएं गिरिवर गोवर्धन की दक्षिणावर्त परिक्रमा करके पुन: व्रज में जायँ। इस समय प्रमोद पूर्ण रमणीय शरद्-ऋतु आ गयी है, जबकि जल और घास गौओं के लिये स्‍वादुता के गुणों से सम्‍पन्‍न जाते हैं। अब जलाशयों में पानी बरसाने वाले बादल छँट गये। खिले हुए कदम्‍ब-पुष्‍पों के कारण वन गौरवर्ण का प्रतीत होता है। कहीं-कहीं बाणासनों-झाड़-झंखाड़ों के कारण वह श्‍याम रंग का दिखायी देता है। अब घासें कोमल नहीं रहीं- कुछ कठोर हो गयी हैं। वन में मोरों की मधुर वाणी नहीं सुनायी देती है। आकाश में जल, मल, बलाका और विद्युत से रहित बादल दन्‍तहीन हाथियों के समान बढ़ रहे हैं। (वर्षा-ऋतु में) नूतन जल को खींच लाने वाले शक्तिशाली मेघयुक्‍त वायु से अभिषिक्‍त होने के कारण जो पत्तों के बाहुल्‍य से घने दिखायी देते थे, वे सभी वृक्ष अब पत्तों के बिरल हो जाने से प्रसाद को प्राप्‍त हो रहे हैं (पहले वहाँ अन्‍धकार छाया रहता था अब प्रकाश हो गया है)।'

अंतिम 

 
संक्षेप विवरण
इस अध्याय में कृष्ण द्वारा इन्द्र के निमित्त किये जाने वाले यज्ञ को रोक कर उसके बदले गोवर्धन-पूजा के यज्ञ का शुभारम्भ कराकर इन्द्र के गर्व को चूर करने का वर्णन हुआ है।
जब श्रीकृष्ण ने देखा कि सारे ग्वाले इन्द्र के लिए यज्ञ करने की तैयारी में लगे हैं, तो उनके राजा नन्द से उन्होंने इसके विषय में पूछा। नन्द ने बतलाया कि इन्द्र द्वारा प्रदत्त वर्षा से सारे प्राणी अपना जीवन-पालन करते हैं इसलिए यह यज्ञ उन्हें प्रसन्न रखने के लिए किया जाएगा। कृष्ण ने कहा, “सारे जीव कर्मवश ही एक विशेष शरीर लेकर जन्म लेते हैं, वे इस शरीर में तरह-तरह के सुख तथा दुख भोगते हैं और जब कर्म क्षीण हो जाते हैं, तो वे इस शरीर को त्याग देते हैं। इस प्रकार कर्म ही हमारा शत्रु, मित्र, गुरु तथा स्वामी है और इन्द्र किसी के सुख तथा दुख को नहीं बदल सकते क्योंकि हर व्यक्ति अपने कर्मफल से जकड़ा हुआ है। सतो, रजो तथा तमोगुण इस जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार के लिए उत्तरदायी हैं। रजोगुण से उद्दीप्त होकर बादल वर्षा करते हैं और गोप-जन अपनी गौवों की रक्षा करके सम्पन्न होते हैं। गौवों का असली वासस्थान जंगल तथा पर्वत में है। अतएव आपको गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए।”

यह कहकर कृष्ण ने गोपजनों को एकत्र किया और इन्द्र का यज्ञ करने के लिए एकत्रित सामग्री से गोवर्धन-पूजा की तैयारी की। तत्पश्चात् उन्होंने विराट अद्वितीय दिव्य स्वरूप धारण किया और गोवर्धन पर्वत कर चढ़ाये गये सारे भोजन तथा उपहारों को निगल लिया। ऐसा करते समय उन्होंने घोषणा की कि यद्यपि आज तक ग्वालजाति ने इन्द्र की पूजा की है, किन्तु वह साकार होकर कभी प्रकट नहीं हुआ जबकि गोवर्धन ने उनकी आँखों के समक्ष प्रकट होकर उनके द्वारा चढ़ाया गया सारा भोजन खा लिया है। अतएव उन्हें चाहिए कि वे सब अब गोवर्धन पर्वत को नमस्कार करें। तत्पश्चात् उन्होंने अपने द्वारा धारण किये गये नवीन स्वरूप को ग्वालों के साथ मिलकर नमस्कार किया।


श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः २४


इंद्रमखभङ्ग -


श्रीशुक उवाच -

( अनुष्टुप् )

भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः ।

 अपश्यत् निवसन् गोपान् इन्द्रयागकृतोद्यमान् ॥१॥

 तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।

 प्रश्रयावनतोऽपृच्छत् वृद्धान् नन्दपुरोगमान्॥२ ॥

 कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः ।

 किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः ॥ ३॥

 एतद्‍ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः ।

 न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ॥ ४॥

 अस्त्यस्व-परदृष्टीनां अमित्रोदास्तविद्विषाम् ।

 उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥ ५॥

 ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।

 विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात् तथा नाविदुषो भवेत् ॥६ ॥

 तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः ।

 अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम्॥७॥

 श्रीनन्द उवाच -

पर्जन्यो भगवान् इन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः ।

 तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः ॥ ८ ॥

 तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् ।

 द्रव्यैस्तद् रेतसा सिद्धैः यजन्ते क्रतुभिर्नराः ॥ ९ ॥

 तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।

 पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः ॥ १० ॥

 य एनं विसृजेत् धर्मं परम्पर्यागतं नरः ।

 कामाल्लोभात् भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम् ॥ ११ ॥

 श्रीशुक उवाच -

वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।

 इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः ॥ १२ ॥

 श्रीभगवानुवाच -

कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते ।

 सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥ १३ ॥

 अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।

 कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः ॥ १४ ॥

 किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम् ।

 अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम् ॥ १५ ॥

 स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते ।

 स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ १६ ॥

 देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत् सृजति कर्मणा ।

 शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः ॥ १७ ॥

 तस्मात् संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत् ।

 अन्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम् ॥१८ ॥

 आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति ।

 न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारान्नार्यसती यथा ॥१९ ॥

 वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः ।

 वैश्यस्तु वार्तया जीवेत् शूद्रस्तु द्विजसेवया ॥ २० ॥

 कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते ।

 वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम् ॥ २१ ॥

 सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।

 रजसोत्पद्यते विश्वं अन्योन्यं विविधं जगत् ॥ २२ ॥

 रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः ।

 प्रजास्तैरेव सिध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति ॥ २३ ॥

 न नः पुरोजनपदा न ग्रामा न गृहा वयम् ।

 नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः ॥ ॥

 तस्माद्‍गवां ब्राह्मणानां अद्रेश्चारभ्यतां मखः ।

 य इंद्रयागसंभाराः तैरयं साध्यतां मखः ॥ २५ ॥

 पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः ।

 संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम् ॥२६ ॥

 हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ।

 अन्नं बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः ॥ २७ ॥

 अन्येभ्यश्चाश्वचाण्डाल पतितेभ्यो यथार्हतः ।

 यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः ॥ २८ ॥

 स्वलङ्‌कृता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ताः सुवाससः ।

 प्रदक्षिणां च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान्॥ २९ ॥

 एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते ।

 अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्यं च दयितो मखः ॥ ३० ॥

 श्रीशुक उवाच -

कालात्मना भगवता शक्रदर्पं जिघांसता ।

 प्रोक्तं निशम्य नन्दाद्याः साध्वगृह्णन्त तद्वचः॥ ३१ ॥

 तथा च व्यदधुः सर्वं यथाऽऽह मधुसूदनः ।

 वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद् द्रव्येण गिरिद्विजान् ॥३२ ॥

 उपहृत्य बलीन् सम्यग् सर्वान् आदृता यवसं गवाम् ।

 गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम् ॥ ३३ ॥

 अनांस्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलङ्‌कृताः ।

 गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायन्त्यः सद्विजाशिषः ॥ ३४ ॥

 कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः ।

 शैलोऽस्मीति ब्रुवन् भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः ॥ ३५ ॥

 तस्मै नमो व्रजजनैः सह चक्रेऽऽत्मनाऽऽत्मने ।

 अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात् ॥ ३६ ॥

 एषोऽवजानतो मर्त्यान् कामरूपी वनौकसः ।

 हन्ति ह्यस्मै नमस्यामः शर्मणे आत्मनो गवाम् ॥ ३७ ॥

 इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रचोदिताः।

 यथा विधाय ते गोपा सहकृष्णा व्रजं ययुः॥ ३८ ॥


इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


अध्याय 24: गोवर्धन-पूजा

इस अध्याय में कृष्ण द्वारा इन्द्र के निमित्त किये जाने वाले यज्ञ को रोक कर उसके बदले गोवर्धन-पूजा के यज्ञ का शुभारम्भ कराकर इन्द्र के गर्व को चूर करने का वर्णन...

 हिन्दी अनुवाद;-

श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : उस स्थान पर ही अपने भाई बलदेव के साथ रहते हुए कृष्ण ने ग्वालों को इन्द्र-यज्ञ की जोर-शोर से तैयारी करते देखा।

श्लोक 2:  सर्वज्ञ परमात्मा होने से भगवान् कृष्ण पहले से ही सारी स्थिति जानते थे फिर भी विनीत भाव से उन्होंने अपने पिता नन्द महाराज इत्यादि गुरुजनों से पूछा।

 

श्लोक 3:  [भगवान् कृष्ण ने कहा]: हे पिताश्री, आप कृपा करके मुझे बतलायें कि आप इतना सारा महत् प्रयास किसलिए कर रहे हैं? आप क्या करना चाह रहे हैं? यदि यह कर्मकाण्डी यज्ञ है, तो यह किसकी तुष्टि हेतु किया जा रहा है और यह किन साधनों से सम्पन्न किया जायेगा?

 

श्लोक 4:  हे पिताश्री, कृपा करके इसके विषय में मुझे बतलायें। मुझे जानने की बड़ी इच्छा है और मैं श्रद्धापूर्वक सुनने को तैयार हूँ। जो अन्यों को अपने तुल्य मानते हैं, जिनमें अपनी तथा पराये का भेदभाव नहीं है और जो यह नहीं विचार करते कि कौन मित्र है, कौन शत्रु है और कौन उदासीन है ऐसे सन्त पुरुषों को कुछ भी छिपाकर नहीं रखना चाहिए।

 

श्लोक 5:  जो उदासीन (निरपेक्ष) होता है उससे शत्रु की तरह बचना चाहिए, किन्तु मित्र को अपने ही समान समझना चाहिए।

 

श्लोक 6:  जब इस जगत में लोग कर्म करते हैं, तो कभी तो वे समझते हैं कि वे क्या कर रहे हैं और कभी नहीं समझते। जो लोग यह जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं उन्हें अपने कार्य में सफलता प्राप्त होती है, जबकि अज्ञानी लोगों को सफलता नहीं मिलती।

 

श्लोक 7:  ऐसा होने से, आप मुझे स्पष्ट रूप से अपने इस अनुष्ठान विषयक उद्योग को बतला दें। क्या यह उत्सव शास्त्रसम्मत है या केवल समाज की एक साधारण रीति?

 

श्लोक 8:  नन्द महाराज ने उत्तर दिया: महान् ईश्वर इन्द्र वर्षा के नियंत्रक हैं। ये बादल उन्हीं के साक्षात् प्रतिनिधि हैं और वे ही वर्षा करते हैं जिससे समस्त प्राणियों को सुख और जीवनदान मिलता है।

 

श्लोक 9:  हे पुत्र, केवल हम ही नहीं अपितु अन्य लोग भी वर्षा करने वाले इन बादलों के स्वामी की पूजा करते हैं। हम उन्हें अन्न तथा अन्य पूजा-सामग्री भेंट करते हैं, जो वर्षा रूपी उन्हीं के वीर्य से उत्पन्न होती है।

 

श्लोक 10:  इन्द्र के लिए सम्पन्न यज्ञों से बचे जूठन को ग्रहण करके लोग अपना जीवन-पालन करते हैं तथा धर्म, अर्थ और काम रूपी तीन लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भगवान् इन्द्र उद्यमी पुरुषों की सकाम सफलता के लिए उत्तरदायी अभिकर्ता हैं।

 

श्लोक 11:  यह धर्म स्वस्थ परम्परा पर आश्रित है। जो कोई काम, शत्रुता, भय या लोभ वश इसका बहिष्कार करता है उसे निश्चय ही सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सकेगा।

 

श्लोक 12:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान् केशव [कृष्ण] ने अपने पिता नन्द तथा व्रज के अन्य गुरुजनों के कथनों को सुना तो इन्द्र के प्रति क्रोध उत्पन्न करने के उद्देश्य से उन्होंने अपने पिता को इस प्रकार सम्बोधित किया।

 

श्लोक 13:  भगवान् कृष्ण ने कहा : कर्म से ही जीव जन्म लेता है और कर्म से ही उसका विनाश होता है। उसके सुख, दुख, भय तथा सुरक्षा की भावना का उदय कर्म के प्रभावों के रूप में होता है।

 

श्लोक 14:  यदि कोई परम नियन्ता हो भी, जो अन्यों को उनके कर्मों का फल प्रदान करता हो तो उसे भी कर्म करने वाले पर आश्रित रहना होगा। वस्तुत: जब तक सकाम कर्म सम्पन्न न हो ले तब तक सकाम कर्मफलों के प्रदाता के अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता।

 

श्लोक 15:  इस जगत में जीवों को अपने किसी विशेष पूर्व कर्म के परिणामों का अनुभव करने के लिए बाध्य किया जाता है। चूँकि भगवान् इन्द्र किसी तरह भी मनुष्यों के भाग्य को बदल नहीं सकते जो उनके स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, तो फिर लोग उनकी पूजा क्यों करें?

 

श्लोक 16:  प्रत्येक व्यक्ति अपने ही बद्ध स्वभाव के अधीन है और उसे उस स्वभाव का ही पालन करना चाहिए। देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों से युक्त यह सम्पूर्ण जगत जीवों के बद्ध स्वभाव पर आश्रित है।

 

श्लोक 17:  चूँकि कर्म के ही फलस्वरूप बद्धजीव उच्च तथा निम्न श्रेणी के विविध शरीरों को स्वीकार करता है और फिर त्याग देता है अतएव यह कर्म उसका शत्रु, मित्र तथा निरपेक्ष साक्षी है, उसका गुरु तथा ईश्वर है।

 

श्लोक 18:  अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह कर्म की ही ठीक से पूजा करे। मनुष्य को अपने स्वभाव के अनुरूप स्थिति में बने रहना चाहिए और अपने ही कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए। निस्सन्देह जिससे हम अच्छी तरह रह सकते हैं वही वास्तव में हमारा पूज्य अर्चाविग्रह है।

 

श्लोक 19:  जो वस्तु वास्तव में हमारे जीवन का निर्वाह करती है यदि हम उसे छोडक़र अन्य वस्तु की शरण ग्रहण करते हैं, तो भला हमें असली लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है? हम उस कृतघ्न स्त्री की भाँति होंगे जो जारपति के साथ प्रेमालाप करके कभी भी असली लाभ नहीं उठा पाती।

 

श्लोक 20:  ब्राह्मण वेदों का अध्ययन और अध्यापन करके, शासक वर्ग का सदस्य पृथ्वी की रक्षा करके, वैश्य व्यापार करके तथा शूद्र अपने से ऊँची श्रेणी के द्विजों की सेवा करके अपना जीवन-निर्वाह करता है।

 

श्लोक 21:  वैश्य के वृत्तिपरक कार्य चार प्रकार के माने गये हैं—कृषि, व्यापार, गोरक्षा तथा धन का लेन-देन। हम इनमें से केवल गोरक्षा में ही सदैव लगे रहे हैं।

 

श्लोक 22:  सृजन, पालन तथा संहार का कारण प्रकृति के तीन गुण—सतो, रजो तथा तमोगुण—हैं। विशिष्टत: रजोगुण इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करता है और संभोग के द्वारा यह विविधता से पूर्ण बनता है।

 

श्लोक 23:  रजोगुण द्वारा प्रेरित बादल सर्वत्र अपने जल की वर्षा करते हैं और इस वर्षा से ही सारे प्राणियों की जीविका चलती है। इस व्यवस्था से भला इन्द्र को क्या लेना-देना?

 

श्लोक 24:  हे पिताश्री, हमारे घर न तो नगरों में हैं, न कस्बों या गाँवों में हैं। वनवासी होने से हम सदैव जंगल में तथा पर्वतों पर रहते हैं।

 

श्लोक 25:  अत: गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत के आनन्द हेतु यज्ञ का शुभारम्भ हो। इन्द्र के पूजन के लिए जितनी सामग्री एकत्र की गई है उससे यह यज्ञ सम्पन्न किया जाय।

 

श्लोक 26:  खीर से लेकर तरकारी के शोरवे तक के विविध पकवान तैयार किये जायँ। अनेक प्रकार के बढिय़ा पापड़ तल लिए जायँ या सेंक लिए जायें तथा दूध के जितने भी पदार्थ बन सकें उन्हें इस यज्ञ के लिए एकत्र कर लिया जाय।

 

श्लोक 27:  वैदिक मंत्रों में पटु-ब्राह्मणों को चाहिए कि यज्ञ की अग्नियों का ठीक से आवाहन करें। तत्पश्चात् तुम लोग पुरोहितों को उत्तम भोजन कराओ और उन्हें गौवें तथा अन्य भेंटें दान में दो।

 

श्लोक 28:  कुत्तों तथा चाण्डालों जैसे पतितात्माओं समेत हर एक को उपयुक्त भोजन देने के बाद तुम सबों को चाहिए कि गौवों को घास दो और तब गोवर्धन पर्वत को अपनी सादर भेंटें चढ़ाओ।

 

श्लोक 29:  भरपेट भोजन करने के बाद तुममें से हरएक को वस्त्र तथा आभूषण से खूब सजना चाहिए, अपने शरीर में चन्दनलेप करना चाहिए और तत्पश्चात् गौवों, ब्राह्मणों, यज्ञ की अग्नियों तथा गोवर्धन पर्वत की प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

 

श्लोक 30:  हे पिताश्री, यह मेरा विचार है और यदि आपको अच्छा लगे तो आप इसे कीजिये। ऐसा यज्ञ गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत को एवं मुझको भी अत्यन्त प्रिय होगा।

 

श्लोक 31:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : शक्तिमान काल स्वरूप भगवान् कृष्ण इन्द्र के मिथ्या गर्व को नष्ट करना चाहते थे। जब नन्द तथा वृन्दावन के अन्य वृद्धजनों ने श्रीकृष्ण का वचन सुना तो उन्होंने इसे उचित मान लिया।

 

श्लोक 32-33:  तत्पश्चात् ग्वाल समुदाय ने मधुसूदन द्वारा प्रस्तावित सब कुछ पूरा किया। उन्होंने शुभ वैदिक मंत्रों का वाचन करने के लिए ब्राह्मणों की व्यवस्था की और इन्द्र-यज्ञ के निमित्त संग्रहीत सारी सामग्री को उपयोग में लाते हुए गोवर्धन पर्वत तथा ब्राह्मणों को सादर भेंटें दीं। उन्होंने गौवों को भी घास दिया। तत्पश्चात् गौवों, साँड़ों तथा बछड़ों को आगे करके गोवर्धन पर्वत की प्रदक्षिणा की।

 

श्लोक 34:  बैलों द्वारा खींचे जा रहे छकड़ों में चढक़र सुन्दर आभूषणों से अलंकृत गोपियाँ भी साथ हो लीं और कृष्ण की महिमा का गान करने लगीं और उनके गीत ब्राह्मणों के आशीष के साथ समामेलित हो गये।

 

श्लोक 35:  तत्पश्चात् कृष्ण ने गोपों में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए अभूतपूर्व विराट रूप धारण कर लिया और यह घोषणा करते हुए कि “मैं गोवर्धन पर्वत हूँ” प्रचुर भेंटें खा लीं।

 

श्लोक 36:  कृष्ण ने व्रजवासियों समेत गोवर्धन पर्वत के इस स्वरूप को नमन किया और इस तरह वास्तव में अपने को ही नमस्कार किया। तत्पश्चात् उन्होंने कहा, “जरा देखो तो, यह पर्वत किस तरह पुरुष रूप में प्रकट हुआ है और इसने हम पर कृपा की है।”

 

श्लोक 37:  यह गोवर्धन पर्वत इच्छानुसार रूप धारण करके अपनी उपेक्षा करने वाले वन के किसी भी निवासी को मार डालेगा। अत: अपनी तथा गौवों की सुरक्षा के लिए हम उसको नमस्कार करें।

 

श्लोक 38:  इस प्रकार भगवान् वासुदेव द्वारा समुचित ढंग से गोवर्धन-यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किये गये गोपजन गौवें तथा ब्राह्मण कृष्ण के साथ अपने गाँव व्रज लौट आये।

 


((श्लोक  10.24.26  भागवत पुराण)

पच्यन्तां विविधा: पाका: सूपान्ता: पायसादय: ।

संयावापूपशष्कुल्य: सर्वदोहश्च गृह्यताम् ।२६॥

 

शब्दार्थ:-

पच्यन्ताम्—लोग पकावें; विविधा:—नाना प्रकार के; पाका:—पकवान्न से लेकर; सूप-अन्ता:—शोरबा तक; पायस- आदय:—खीर इत्यादि; संयाव-आपूप—तले हुए पापड़; शष्कुल्य:—पूडिय़ाँ; सर्व—सब; दोह:—गौवों के दुहने से प्राप्तव्य; च—तथा; गृह्यताम्—ले लिया जाय ।.

 

अनुवाद:- खीर से लेकर तरकारी के शोरवे तक के विविध पकवान तैयार किये जायँ। अनेक प्रकार के बढिय़ा पापड़ तल लिए जायँ या सेंक लिए जायें तथा दूध के जितने भी पदार्थ बन सकें उन्हें इस यज्ञ के लिए एकत्र कर लिया जाय।

 

तात्पर्य:-सूप शब्द छीमियों के शोरवे तथा रसदार तरकारियों का सूचक है। इस तरह गोवर्धन पूजा के लिए भगवान् कृष्ण ने शोरबा जैसा गर्म पकवान, खीर जैसा ठंडा व्यंजन तथा सभी प्रकार की दूध की वस्तुएँ एकत्र करने के लिए कहा।

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श्रीमद्भागवतपुराण /स्कन्धः १०/पूर्वाद्ध/अध्यायः २५


कोपान् मुसलधारावर्षं वर्षतीन्द्रे व्रजौकसां रक्षणार्थं गोवर्धनधारणम् -



श्रीशुक उवाच -

( अनुष्टुप् )

इन्द्रस्तदाऽऽत्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप ।

 गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप ह ॥१ ॥

 गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चान्तकारिणाम् ।

 इन्द्रः प्रचोदयत् क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमान्युत ॥ २ ॥

 अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम् ।

 कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम् ॥३॥

 यथादृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नामनौनिभैः ।

 विद्यां आन्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम् ॥४ ॥

 वाचालं बालिशं स्तब्धं अज्ञं पण्डितमानिनम् ।

 कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ॥ ५ ॥

 एषां श्रियावलिप्तानां कृष्णेनाध्मापितात्मनाम् ।

 धुनुत श्रीमदस्तम्भं पशून् नयत सङ्‌क्षयम् ॥ ६ ॥

 अहं चैरावतं नागं आरुह्यानुव्रजे व्रजम् ।

 मरुद्‍गणैर्महावेगैः नन्दगोष्ठजिघांसया ॥ ७ ॥

 श्रीशुक उवाच -

इत्थं मघवताऽऽज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबन्धनाः ।

 नन्दगोकुलमासारैः पीडयामासुरोजसा ॥ ८ ॥

 विद्योतमाना विद्युद्‌भिः स्तनन्तः स्तनयित्‍नुभिः ।

 तीव्रैर्मरुद्‍गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्कराः ॥ ९ ॥

 स्थूणास्थूला वर्षधारा मुञ्चत्स्वभ्रेष्व-भीक्ष्णशः ।

 जलौघैः प्लाव्यमाना भूः नादृश्यत नतोन्नतम् ॥१० ॥

 अत्यासारातिवातेन पशवो जातवेपनाः ।

 गोपा गोप्यश्च शीतार्ता गोविन्दं शरणं ययुः ॥११ ॥

 शिरः सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्या सारपीडिताः ।

 वेपमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः ॥ १२ ॥

 कृष्ण कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो ।

 त्रातुमर्हसि देवान्नः कुपिताद् भक्तवत्सल ॥१३ ॥

 शिलावर्षानिपातेन हन्यमानमचेतनम् ।

 निरीक्ष्य भगवान् मेने कुपितेन्द्रकृतं हरिः ॥ १४ ॥

 अपर्त्त्वत्युल्बणं वर्षं अतिवातं शिलामयम् ।

 स्वयागे विहतेऽस्माभिः इन्द्रो नाशाय वर्षति ॥१५ ॥

 तत्र प्रतिविधिं सम्यग् आत्मयोगेन साधये ।

 लोकेशमानिनां मौढ्याद् हनिष्ये श्रीमदं तमः ॥ १६ ॥

 न हि सद्‍भावयुक्तानां सुराणामीशविस्मयः ।

 मत्तोऽसतां मानभङ्‌गः प्रशमायोपकल्पते ॥ १७ ॥

 तस्मात् मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम् ।

 गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः ॥ १८ ॥

 इत्युक्त्वैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम् ।

 दधार लीलया कृष्णः छत्राकमिव बालकः ॥१९ ॥

 अथाह भगवान् गोपान् हेऽम्ब तात व्रजौकसः ।

 यथोपजोषं विशत गिरिगर्तं सगोधनाः ॥ २० ॥

 न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्रिनिपातने ।

 वातवर्षभयेनालं तत्त्राणं विहितं हि वः ॥ २१ ॥

 तथा निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसः ।

 यथावकाशं सधनाः सव्रजाः सोपजीविनः ॥ २२ ॥

 क्षुत्तृड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः ।

 वीक्ष्यमाणो दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत् पदात् ॥ २३ ॥

 कृष्णयोगानुभावं तं निशम्येन्द्रोऽतिविस्मितः ।

 निःस्तम्भो भ्रष्टसङ्‌कल्पः स्वान् मेघान् संन्यवारयत् ॥ २४ ॥

 खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम् ।

 निशम्योपरतं गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत् ॥ ॥

 निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः ।

 उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः॥२६ ॥

 ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वं स्वमादाय गोधनम् ।

 शकटोढोपकरणं स्त्रीबालस्थविराः शनैः ॥ २७ ॥

 भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत्प्रभुः ।

 पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया ॥ २८ ॥

( मिश्र )

तं प्रेमवेगान् निभृता व्रजौकसो

 यथा समीयुः परिरम्भणादिभिः ।

 गोप्यश्च सस्नेहमपूजयन् मुदा

 दध्यक्षताद्‌भिर्युयुजुः सदाशिषः ॥ २९ ॥

( अनुष्टुप् )

यशोदा रोहिणी नन्दो रामश्च बलिनां वरः ।

 कृष्णमालिङ्‌ग्य युयुजुः आशिषः स्नेहकातराः ॥ ३० ॥

 दिवि देवगणाः सिद्धाः साध्या गन्धर्वचारणाः ।

 तुष्टुवुर्मुमुचुस्तुष्टाः पुष्पवर्षाणि पार्थिव।३१ ॥

 शङ्‌खदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रचोदिताः ।

 जगुर्गन्धर्वपतयः तुंबुरुप्रमुखा नृप ॥ ३२ ॥

( मिश्र )

ततोऽनुरक्तैः पशुपैः परिश्रितो

 राजन् स्वगोष्ठं सबलोऽव्रजद्धरिः ।

 तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिका

गायन्त्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः ॥ ३३ ॥

________

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


श्रीमद् भागवतम

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अध्याय 25: कृष्ण द्वारा गोवर्धन-धारण


संक्षेप विवरण:  

इस अध्याय में वर्णन हुआ है कि जब व्रजवासियों ने इन्द्र-यज्ञ निरस्त कर दिया तो इन्द्र किस तरह क्रोधित हुआ, उसने किस तरह वृन्दावन में प्रलयंकारी वर्षा करके उन्हें...

श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, जब इन्द्र को पता चला कि उसका यज्ञ सम्पन्न नहीं हुआ तो वह नन्द महाराज तथा अन्य गोपजनों पर क्रुद्ध हो गया क्योंकि वे सब कृष्ण को अपना स्वामी मान रहे थे।

श्लोक 2:  क्रुद्ध इन्द्र ने ब्रह्माण्ड का विनाश करने वाले बादलों के समूह को भेजा जो सांवर्तक कहलाते हैं। वह अपने को सर्वोच्च नियन्ता मानते हुए इस प्रकार बोला।

श्लोक 3:  [इन्द्र ने कहा]: जरा देखो तो सही कि जंगल में वास करने वाले ये ग्वाले अपने वैभव से किस तरह इतने उन्मत्त हो गये हैं! उन्होंने एक सामान्य मनुष्य कृष्ण की शरण ग्रहण की है और इस तरह उन्होंने देवताओं का अपमान किया है।

श्लोक 4:  उनके द्वारा कृष्ण की शरण ग्रहण करना वैसा ही है जैसा कि लोगों द्वारा दिव्य आत्म-ज्ञान को त्यागकर सकाम कर्ममय यज्ञों की मिथ्या नावों में चढक़र इस महान् भवसागर को पार करने का मूर्खतापूर्ण प्रयास होता है।

श्लोक 5:  इन ग्वालों ने इस सामान्य मनुष्य कृष्ण की शरण ग्रहण करके मेरे प्रति शत्रुतापूर्ण कार्य किया है क्योंकि कृष्ण अपने को अत्यन्त चतुर मानता है किन्तु है, वह निरा मूर्ख, अकडू तथा बातूनी बालक।

श्लोक 6:  [इन्द्र ने सांवर्तक मेघों से कहा]: इन लोगों की सम्पन्नता ने इन्हें मदोन्मत्त बना दिया है और इनका अक्खड़पन कृष्ण द्वारा समर्थित है। अब तुम जाओ और उनके गर्व को चूर कर दो और उनके पशुओं का विनाश कर डालो।

श्लोक 7:  मैं अपने हाथी ऐरावत पर चढक़र तथा अपने साथ वेगवान एवं शक्तिशाली वायुदेवों को लेकर नन्द महाराज के ग्वालों के ग्राम को विध्वंस करने के लिए तुम लोगों के पीछे रहूँगा।

श्लोक 8:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इन्द्र के आदेश से प्रलयंकारी मेघ समय से पूर्व अपने बन्धनों से मुक्त होकर नन्द महाराज के चरागाहों पर गये। वहाँ वे व्रजवासियों पर मूसलाधार वर्षा करके उन्हें सताने लगे।

श्लोक 9:  भयानक वायुदेवों द्वारा उत्प्रेरित बादल बिजलियों की चमक से प्रज्ज्वलित हो उठे और ओलों की वर्षा करते हुए कडक़ड़ाहट के साथ गरजने लगे।

श्लोक 10:  जब बादलों ने बड़े-बड़े ख भों जैसी मोटी वर्षा की धाराएँ गिराईं तो पृथ्वी बाढ़ से जलमग्न हो गई और ऊँची या नीची भूमि का पता नहीं चल पा रहा था।

श्लोक 11:  अत्यधिक वर्षा तथा हवा के कारण काँपती हुई गौवें तथा अन्य पशु और शीत से पीडि़त ग्वाले तथा गोपियाँ—ये सभी शरण के लिए गोविन्द के पास पहुँचे।

श्लोक 12:  भीषण वर्षा से उत्पन्न पीड़ा से काँपती तथा अपने सिरों और अपने बछड़ों को अपने शरीरों से ढकने का प्रयास करती हुईं गौवें भगवान् के चरणकमलों में जा पहुँचीं।

श्लोक 13:  [गोपों तथा गोपियों ने भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा]: हे कृष्ण, हे भाग्यशाली कृष्ण, आप इन्द्र के क्रोध से इन गौवों को उबारें। हे प्रभु, आप अपने भक्तों पर इतने वत्सल हैं। कृपया आप हमें भी बचा लें।

श्लोक 14:  ओलों तथा तेज वायु के प्रहार से अचेत हुए जैसे गोकुलवासियों को देखकर भगवान् हरि समझ गये कि यह कुपित इन्द्र की करतूत है।

श्लोक 15:  [श्रीकृष्ण ने अपने आप कहा]: चूँकि हमने उसका यज्ञ रोक दिया है, अत: इन्द्र अति प्रचण्ड हवा और ओलों के साथ घनघोर एवं बिना ऋतु की वर्षा कर रहा है।

श्लोक 16:  मैं अपनी योगशक्ति से इन्द्र द्वारा उत्पन्न इस उत्पात का पूरी तरह सामना करूँगा। इन्द्र जैसे देवता अपने ऐश्वर्य का घमंड करते हैं और मूर्खतावश वे झूठे ही अपने को ब्रह्माण्ड का स्वामी समझने लगते हैं। मैं अब ऐसे अज्ञान को नष्ट कर दूँगा।

श्लोक 17:  चूँकि देवता सतोगुण से युक्त होते हैं अत: अपने को स्वामी मानने का मिथ्या अभिमान उनमें बिल्कुल नहीं आना चाहिए। जब मैं सतोगुण से विहीन उनके मिथ्या अभिमान को भंग करता हूँ तो मेरा उद्देश्य उन्हें राहत दिलाना होता है।

श्लोक 18:  अतएव मुझे अपनी दिव्यशक्ति से गोप समुदाय की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि मैं ही उनका आश्रय हूँ, मैं ही उनका स्वामी हूँ और वे मेरे अपने परिवार के ही हैं। मैंने अपने भक्तों की रक्षा का व्रत जो ले रखा है।

श्लोक 19:  यह कहकर साक्षात् विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण ने एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को ऊपर उठा लिया जिस तरह कि कोई बालक कुकुरमुत्ते को उखाडक़र हाथ में ले लेता है।

श्लोक 20:  तत्पश्चात् भगवान् ने गोप समुदाय को सम्बोधित किया: हे मैया, हे पिताश्री, हे व्रजवासियो, यदि चाहो तो अपनी गौवों समेत तुम अब इस पर्वत के नीचे आ जाओ।

श्लोक 21:  तुम्हें डरना नहीं चाहिए कि यह पर्वत मेरे हाथ से छूटकर गिर जायेगा। न ही तुम लोग हवा तथा वर्षा से भयभीत होओ क्योंकि इन कष्टों से तुम्हारे छुटकारे की व्यवस्था पहले ही की जा चुकी है।

श्लोक 22:  इस प्रकार भगवान् कृष्ण द्वारा उनके मन आश्वस्त किये गये और वे सभी पर्वत के नीचे प्रविष्ट हुए जहाँ उन्हें अपने लिए तथा अपनी गौवों, छकड़ों, सेवकों तथा पुरोहितों के लिए और साथ ही साथ समुदाय के अन्य सदस्यों के लिए पर्याप्त स्थान मिल गया।

श्लोक 23:  भूख तथा प्यास भूलकर और अपनी सारी व्यक्तिगत सुविधाओं को ताक पर रखकर भगवान् कृष्ण पर्वत को धारण किये हुए सात दिनों तक वहीं पर खड़े रहे और सारे व्रजवासी उन्हें निहारते रहे।

श्लोक 24:  जब इन्द्र ने कृष्ण की योगशक्ति के इस प्रदर्शन को देखा तो वह आश्चर्यचकित हो उठा। अपने मिथ्या गर्व के चूर होने से तथा अपने संकल्पों के नष्ट होने से उसने अपने बादलों को थम जाने का आदेश दिया।

श्लोक 25:  यह देखकर कि अब भीषण हवा तथा वर्षा बन्द हो गई है, आकाश बादलों से रहित हो चुका है और सूर्य उदित हो आया है, गोवर्धनधारी कृष्ण ग्वाल समुदाय से इस प्रकार बोले।

श्लोक 26:  [भगवान् कृष्ण ने कहा]: हे गोपजनो, अब अपनी पत्नियों, बच्चों तथा सम्पदाओं समेत बाहर निकल जाओ। अपना भय त्याग दो। तेज हवा तथा वर्षा रुक गई है और नदियों की बाढ़ का पानी उतर गया है।

श्लोक 27:  अपनी अपनी गौवें समेट कर तथा अपनी सारी साज-सामग्री अपने छकड़ों में लाद कर सारे गोपजन बाहर चले आये। स्त्रियाँ, बच्चे तथा वृद्ध पुरुष धीरे धीरे उनके पीछे पीछे चल पड़े।

श्लोक 28:  सारे प्राणियों के देखते देखते भगवान् ने पर्वत को उसके मूल स्थान में रख दिया जिस तरह कि वह पहले खड़ा था।

श्लोक 29:  वृन्दावन के सारे निवासी प्रेम से अभिभूत थे। उन्होंने आगे बढक़र अपने अपने रिश्ते के अनुसार श्रीकृष्ण को बधाई दी—किसी ने उनको गले लगाया, तो कोई उनके समक्ष नतमस्तक हुआ इत्यादि-इत्यादि। गोपियों ने सम्मान के प्रतीकस्वरूप उन्हें दही तथा अक्षत, जौ मिलाया हुआ जल अर्पित किया। उन्होंने कृष्ण पर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी।

श्लोक 30:  माता यशोदा, रोहिणी, नन्द महाराज तथा बलिष्टों में सर्वश्रेष्ठ बलराम ने कृष्ण को गले लगाया। स्नेहाभिभूत होकर उन सबों ने कृष्ण को अपने अपने आशीर्वाद दिये।

श्लोक 31:  हे राजन्, स्वर्ग में सिद्धों, साध्यों, गन्धर्वों तथा चारणों समेत सारे देवताओं ने भगवान् कृष्ण का यशोगान किया और अतीव संतोषपूर्वक उन पर फूलों की वर्षा की।

श्लोक 32:  हे परीक्षित, देवताओं ने स्वर्ग में जोर-जोर से शंख तथा दुन्दुभियाँ बजाईं और तुम्बुरु इत्यादि श्रेष्ठ गन्धर्व गीत गाने लगे।

श्लोक 33:  अपने प्रेमी ग्वालमित्रों तथा भगवान् बलराम से घिरे कृष्ण उस स्थान पर गये जहाँ वे अपनी गौवें चरा रहे थे। अपने हृदयों को स्पर्श करने वाले श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत के उठाये जाने तथा उनके द्वारा सम्पन्न किये गये यशस्वी कार्यों के विषय में सारी गोपियाँ प्रसन्नतापूर्वक गीत गाती अपने घरों को लौट गईं।

 





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