शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते। 3.4.19.६० कृष्ण द्वारा यज्ञ में बलि पर रोक-


        

इन्द्र उपासक पुरोहित शास्त्रों में विधान बना रहे थे कि यज्ञ विना पशु बलि के पूर्ण नहीं माना जा सकता है। तब उन्होंने निम्नलिखित श्लोक बनाये भविष्य पुराण में स्पष्ट रूप से इनका वर्णन है।

निम्नलिखित श्लोक भविष्यपुराण पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व)/खण्डः ४  अध्याय- (१९) के विष्णुस्वामीमध्वाचार्यवर्णनम् नामक शीर्षक  से उद्घृत हैं।

      

हिंसायज्ञैश्च भगवान्स च तृप्तिमवाप्नुयात् ।
स च यज्ञपशुर्वह्नौ ब्रह्मभूयाय कल्पते । ।
तस्य मोक्षप्रभावेन महत्पुण्यमवाप्नुयात् । ५८।

अनुवाद:- यह  भगवान हिंसायुक्त यज्ञ से तृप्त होते हैं। वह पशु जिनकी अग्नि में आहुति प्रदान की जाति है। वह परम पद गमन करता है उसे मोक्ष मिलता है। इसमें यज्ञ कर्ता का पुण्य ओर भी बढ़ जाता है।५८।

विधिहीनो नरः पापी हिंसायज्ञं करोति यः ।
अन्धतामिस्रनरकं तद्दोषेण वसेच्चिरम् ।
महत्पुण्यं महत्पापं हिंसायज्ञेषु वर्तते ।५९
अनुवाद:-
जो पापी हिंसारहित यज्ञ विधि रहित रूप से करता है। वह उस दोष के कारण अन्धतामिस्र नरक में चिरकाल तक व्यथित होता है। इस लिए हिंसा युक्त यज्ञ विधि सहित करने से महा पुण्य और विधि रहित करने से महा पाप की प्राप्ति होती है। ५९।

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अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे 
समाप्य नवीनमतो विधीयते3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र के यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।

समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके ।
अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले । । ६१।

अनुवाद:-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट का भूतल पर विधान किया।61।

देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः ।
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । ।
प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।

अनुवाद:-इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गये तब उन्होंने व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण को लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।

तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्य चागता । ६३।

अनुवाद:-तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।

तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम् ।
नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह । ६४।

अनुवाद:-तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।__________________________

राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।

अनुवाद:-वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं।वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है। वे सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।

अनुवाद:-यह सुनकर कृष्ण प्रियमध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।-६६।।

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्री भविष्य पुराण को प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त-★

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विचार विश्लेषण-

इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।

जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर  असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा( कत्ल) हो रहे थे और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा को नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञ को समस्त गोप-यादव समाज में  रोक दिया था। 

पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित किया ही है।
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है। कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश ने हंसकर कहा -कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।

वह चौर सर्वभोगी मांसभक्षक पर स्त्री का भाग करने वाला यम गृह करने वाला है। 
जीवहन्ता विशेषतया यम के सदन में जाता है। जो इन सब लक्षणों से परे है वही प्रकृति से परे भगवान् है।।48-53।।
जिसकी बुद्धि ब्रह्मा अहंकार शिव जिसकी शब्द मात्रा गणेश और स्पर्श मात्रा साक्षात् यम है। रूप मात्रा कुमार और रसमात्रा यक्षराज कुबेर है। गन्धमात्रा विश्वकर्मा ।
श्रवण शनि और त्वक्- बुध हैं और चक्षु साक्षात् सूर्य है। जिह्वा शुक्र - और घ्राण अश्विनीकुमार- मुख बृहस्पति हाथ देवेन्द्र और कृष्ण जिनके चरण हैं। जिनका लिंग है दक्ष प्रजापति- तथा मृत्यु जिनका गुदा है। उन भगवान को प्रणाम है ।54-57

यह भगवान हिंसायुक्त यज्ञ से तृप्त होते हैं। वह पशु जिनकी अग्नि में आहुति प्रदान की जाति है। वह परम पद गमन करता है उसे मोक्ष मिलता है। इसमें यज्ञ कर्ता का पुण्य ओर भी बढ़ जाता है।
 जो पापी हिंसारहित यज्ञ विधि रहित रूप से करता है। वह उस दोष के कारण अन्धतामिस्र नरक में चिरकाल तक व्यथित होता है। इस लिए हिंसा युक्त यज्ञ विधि सहित करने से महा पुण्य और विधि रहित करने से महा पाप की प्राप्ति होती है।
 इसी कारण से कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र को यज्ञों पर रोक लगा दी । 

कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर दिया । कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट या विधान किया।58-61।

इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गया तब उसने व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया।
तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति प्रसन्न हो गयीं तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं। तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । 
तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।।62-64।।
निष्कर्ष:-
वस्तुत इस शचीपुत्र यज्ञांश में श्लेष पद द्वारा पुराण कार इन्द्र आदि देवों के कृष्ण द्वारा किए गये निषेध को इंगित कर रहा है। मध्वाचार्य और चैतन्य महाप्रभु के संवाद रूप में है।


श्रीमद्भागवत के प्रचारक भगवान् श्री चैतन्य के जीवन तथा उपदेशों का संक्षिप्त परिचय

ईश्वर-प्रेम के महान् दूत तथा पवित्र भगवन्नाम के सामूहिक कीर्तन के प्रवर्तक, भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु, बंगाल प्रान्त के नवद्वीप नगर के श्रीधाम मायापुर स्थान में फाल्गुन पूर्णिमा की संध्या को १४०७ शकाब्द (तदनुसार फरवरी १४८६ ई.) में अवतीर्ण हुए।

उनके पिता श्री जगन्नाथ मिश्र सिल्हट जिले के एक विद्वान् ब्राह्मण थे जो विद्यार्थी के रूप में नवद्वीप आये थे क्योंकि उस समय नवद्वीप शिक्षा तथा संस्कृति का क्रेन्द्र माना जाता था। वे नवद्वीप के महान् विद्वान् श्रील नीलाम्बर चक्रवर्ती की पुत्री श्रीमती शची देवी से विवाह करने के पश्चात् गंगानदी के तट पर निवास करने लगे।

श्री जगन्नाथ मिश्र को उनकी पत्नी श्रीमती शचीदेवी से कई पुत्रियाँ हुईं, जिनमें से अधिकांश की मृत्यु कच्ची आयु में ही हो गई। उनके दो पुत्र बचे रहे, जिनके नाम श्री विश्वरूप तथा श्री विश्वम्भर थे, जिन्हें उनके माता-पिता का प्यार प्राप्त हो सका। विश्वम्भर उनकी दसवीं तथा सबसे छोटी सन्तान थे, जो आगे चलकर निमाई पण्डित के नाम से विख्यात हुए और संन्यास आश्रम ग्रहण करने के बाद भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु कहलाए।

भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु ४८ वर्षों तक अपनी दिव्य लीलाओं को प्रदर्शित करने के बाद १४५५ शकाब्द में पुरी में अन्तर्धान हो गये।

वे अपने प्रथम चौबीस वर्षों तक विद्यार्थी तथा गृहस्थ के रूप में नवद्वीप में रहे। उनकी पहली पत्नी श्रीमती लक्ष्मीप्रिया थीं, जिनकी मृत्यु अल्पायु में हो गई जब महाप्रभु अपने नगर से बाहर गये हुए थे। जब वे पूर्वी बंगाल से लौट कर आये, तो उनकी माता ने दूसरा ब्याह करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने मान लिया। उनकी दूसरी पत्नी का नाम विष्णुप्रिया देवी था, जिन्हें आजीवन अपने स्वामी का वियोग सहना पड़ा, क्योंकि उन्होंने चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया, जब श्रीमती विष्णुप्रिया मुश्किल से सोलह वर्ष की थीं।

संन्यास ग्रहण करने के बाद महाप्रभु ने अपनी माता श्रीमती शचीदेवी के आग्रह पर जगन्नाथपुरी को अपनी कर्मभूमि बना लिया। भगवान् वहाँ पर चौबीस वर्षों तक रहे। इनमें से उन्होंने छह वर्ष भारत (विशेष रूप से संपूर्ण दक्षिण भारत) में श्रीमद्भागवत का उपदेश देते हुए निरन्तर भ्रमण करने में बिताये।

भगवान् चैतन्य ने न केवल श्रीमद्भागवत का उपदेश दिया, अपितु भगवद्गीता का भी अत्यन्त व्यावहारिक ढंग से प्रचार किया। भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण को परम भगवान् के रूप में अंकित किया गया है। दिव्य ज्ञान के इस महान् ग्रन्थ में उनका अन्तिम उपदेश यह है कि मनुष्य को चाहिए कि वह समस्त धार्मिक कृत्यों की सारी विधियों को त्याग कर उन्हें (भगवान् श्रीकृष्ण को) ही एकमात्र पूजनीय स्वामी के रूप में स्वीकार करे। फिर उन्होंने अपने सभी भक्तों को आश्वस्त किया कि वे समस्त पापों से उनकी रक्षा करेंगे, अतः उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए।

दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश तथा भगवद्गीता के उपदेशों के बावजूद, अल्पज्ञानी लोग भ्रमवश उन्हें केवल एक महान् ऐतिहासिक व्यक्ति मान लेते हैं, अतएव वे उन्हें आदि भगवान् के रूप में स्वीकार नहीं सकते। ऐसे अल्पज्ञ लोग अनेक अभक्तों द्वारा गुमराह किये जाते हैं। इस प्रकार बड़े-बड़े विद्वानों तक ने भगवद्गीता के उपदेशों की गलत व्याख्याएँ कीं। भगवान् श्रीकृष्ण के तिरोधान के बाद अनेक उद्भट विद्वानों ने भगवद्गीता पर सैकड़ों टीकाएँ की हैं और इनमें से प्रायः प्रत्येक टीका खुद के कुछ स्वार्थ से प्रेरित है।

भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण हैं, किन्तु इस बार वे जन-सामान्य को तथा साथ ही धर्मविदों एवं दार्शनिकों को, समस्त कारणों के कारण आदि भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य स्थिति के विषय में उपदेश देने के लिए, एक महान् भगवद्भक्त के रूप में प्रकट हुए। उनके उपदेश का सार यह है कि व्रजभूमि (वृन्दावन) में व्रज के राजा (नन्द महाराज) के पुत्र के रूप में प्रकट होने वाले भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् परमेश्वर हैं और सबों के द्वारा पूज्य हैं। वृन्दावन धाम भगवान् से अभिन्न है, क्योंकि भगवान् के नाम, यश, रूप तथा उनकी आविर्भाव-स्थली परम ज्ञान के रूप में भगवान् से अभिन्न हैं। अतएव वृन्दावन धाम भगवान् के ही समान पूज्य है। भगवान् की दिव्य पूजा का सर्वोच्च रूप व्रजभूमि की गोपिकाओं द्वारा प्रदर्शित भगवत्-प्रेम के रूप में प्रकट हुआ। भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु इस विशुद्ध प्रक्रिया की संस्तुति पूजा की सर्वोत्तम विधि के रूप में इस प्रक्रिया की संस्तुति करते हैं। वे भगवान् को समझने के लिए श्रीमद्भागवत पुराण को निष्कलंक साहित्य मानते हैं और वे उपदेश देते हैं


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