विष्णुस्वामीमध्वाचार्यवर्णनम्
इत्युक्त्वा भगवाञ्जीवो देवमाहात्म्यमुत्तमम्।स्वमुखात्स्वांशमुत्पाद्य ब्रह्मयोनौ बभूव ह।१।
इष्टिका नगरी रम्या गुरुदत्तस्य वै सुतः। रोपणो नाम विख्यातो ब्रह्ममार्गप्रदर्शकः।२।
सूत्रग्रन्थमयीं मालां तिलकं जलनिर्मितम् ।वासुदेवेति तन्मन्त्रे कलौ कृत्वा जनेजने ।३।
अनुवाद:-इस प्रकार उत्तम देव -महात्म्य का वर्णन करने के पश्चात् बृहस्पति ने अपने मुख से अपना अंश ब्राह्मण की यौनि में उत्पन्न होने के लिए प्रक्षेपित किया। उस अंश से वे रमणीक इष्टिकानगर निवासी गुरुदत्त के यहाँ रोपण" नाम से पुत्र रूप में उत्पन्न हो गये। ब्राह्मणों के मार्गदर्शक रोपण ने सूत्र ग्रन्थ मयी माला" जल से बना तिलक" और वासुदेव मन्त्र अनेक लोगों में प्रचारित किया ।१-३।
कृष्णचैतन्यमागम्य कम्बलं च तदाज्ञया । गृहीत्वा स्वपुरीं प्राप्य कृष्णध्यानपरोभवत् ।४।
अतः परं शृणु मुने चरित्रं च हरेर्मुदा । यच्छ्रुत्वा च कलौ घोरे जनो नैव भयं व्रजेत् ।५।
पञ्चाब्दे कृष्णचैतन्ये यज्ञांशे यज्ञकारिणि ।वङ्गदेशभवो विप्र ईश्वरः शारदाप्रियः।६।
प्राप्तः शान्तिपुरे ग्रामे वाग्देवीवरदर्पितः । सतां दिग्विजयं कृत्वा सर्वशास्त्रविशारदः।७।
अनुवाद:-रोपण ने कृष्ण चैतन्य के पास आकर उनकी आज्ञा से कम्बल धारण किया वे और अपने नगर आकर कृष्ण ध्यान में संलग्न हो गये।
सूत जी बोले :-हे मुने! और भी भगवान चैतन्य के चरित्र कहता हूँ । उन्हें सुनो ! उनका श्रवण करने वाला घोर कलियुग में भी निर्भीक (निडर) होकर रहता है। जब यज्ञाञ्श यज्ञकर्ता ( चैतन्य महाप्रभु) पाँच वर्ष के थे। तब उस समय बंगाल का शारदा ( सरस्वती) का भक्त ईश्वर नामक ब्राह्मण उनके पास आया। वह ब्राह्मण सुन्दर शान्तिपुर नामक गाँव में ज्ञान की देवी सरस्वती द्वारा प्रदत्त वरदान से गर्वित होकर आया। वह ब्राह्मण सभी शास्त्रों का ज्ञाता और दिग्विजयी था।।४-७।।
गङ्गाकूले स्तवं दिव्यं रचित्वा सोऽपठद्द्विजः।एतस्मिन्नन्तरे तत्र यज्ञांशस्समुपागतः। उवाच वचनं रम्यमीश्वरं स्तुतिकारिणम्।८।
सुकृतं पूर्तमर्णं च श्रुतीनां सारमेव हि । इत्युक्तं भवता स्तोत्रे दूषणं भूषणं वद ।९।
तथाह चेश्वरो धीमान्दूषणं नैव दृश्यते। इत्युक्त्या प्राह भगवान्भूषणं नैव दृश्यते। 3.4.19.१०।
अनुवाद:- वह ईश्वर नामक ब्राह्मण गंगा के किनारे अपने द्वारा निर्मित श्लोक से कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की आराधना कर रहा था। तभी यज्ञांश देव ने उस ईश्वर नामक ब्राह्मण से सौम्य वाणी में कहा- सुकृत, पूर्त, और अर्ण को श्रुतिसार कहा गया है। इसलिए वह आपके स्तोत्र (स्तुति-श्लोक) का दोष है। इसमें भूषण क्या है ? कहें।
तब ईश्वर ने कहा इसमें दोष लक्षित नहीं होता। अर्ण- वीर्य को कहते हैं सुकृत -धर्म को और पूर्त चैतन्य को कहा गया है यही श्रुति(वेद) का सार तत्व हैं। जो गंगाजल में दूषण है वही देह में भूषण है।
यह सुनकर वह सरस्वती प्रिय- ब्राह्मण भिक्षुक विस्मित हो गया । तब सर्वमंगला शारदा (सरस्वती) देवी ने अपने भक्त ईश्वर ब्राह्मण को लज्जित देखकर उससे कहा- वत्स ये स्वयं भगवान् यज्ञांश (चैतन्य महाप्रभु) हैं।
यह सुनकर उस ईश्वर ब्राह्मण ने यज्ञाञ्श चैतन्य महाप्रभु का शिष्यत्व स्वीकार कर कृष्ण मन्त्रोपासना प्रारम्भ कर दी। और वह कृष्ण चैतन्य का उत्तम वैष्णव भक्त हो गया।।१२-१३।।
इति श्रुत्वा स वै भिक्षुर्विस्मितोऽभूच्च गीः प्रियः।लज्जितं स्वजनं दृष्ट्वा शारदा सर्वमङ्गला।विहस्येश्वरमित्याह कृष्णश्चैतन्यसंज्ञकः।१२।
इति श्रुत्वा तु तच्छिष्यः कृष्णमन्त्रउपासकः। बभूव वैष्णवश्रेष्ठः कृष्णचैतन्यसेवकः।१३।
सूत उवाच
श्रीधरो नाम विख्यातो ब्राह्मणःशिवपूजकः। पत्तने नगरे रम्ये तस्य सप्ताहमुत्तमम्।१४।
राज्ञा भागवतं तत्र कारितं सधनं बहु। गृहीत्वा श्रीधरो विप्रो जगाम श्वशुरालये ।१५।
तत्रोष्य मासमात्रं च स्वपत्न्या सह वै द्विजः।स्वगेहमगमन्मार्गे चौराः सप्त तु तं प्रति। शपथं रामदेवस्य कृत्वा सार्द्धमुपाययुः।१६।
अनुवाद:-सूत जी बोले-श्रीधर नामक ब्राह्मण सदैव शिवोपासना किया करता था। एक बार वहाँ के राजा ने सुन्दर पत्तन-नगर- में भागवत का सप्ताह पाठ आयोजित किया। वहाँ से दक्षिणा रूपी धन लेकर वह श्रीधर नामक ब्राह्मण अपनी ससुराल गया। वहाँ एक महीना ठहरने के बाद श्रीधर पत्नी को अपने साथ लेकर अपने घर गया मार्ग में इसे सात चौर मिले। उन सातों ने राम की शपथ ली की हम सज्जन हैं। तथा श्रीधर के साथ होकर चलने लगे।।१२-१६।
समाप्ते विपिने रम्ये हत्वा ते श्रीधरं द्विजम् । गोरथं सधनं तत्र सभार्यं जगृहुस्तदा ।१७।
एतस्मिन्नन्तरे रामः सच्चिदानन्दविग्रहः। सप्त तांश्च शरैर्हत्वा पुनरुज्जीव्य तं द्विजम् ।१८।
प्रेषयामास भगवांस्तदा वृन्दावने प्रभुः । तदा प्रभृति वै विप्रः श्रीधरो वैष्णवोऽभवत् ।१९।
सप्ताब्दे चैव यज्ञांशे गत्वा शान्तिपुरीं शुभाम् ।ब्रह्मज्ञानमुपागम्य यज्ञांशाच्छिष्यतां गतः। टीका भागवतस्यैव कृता तेन महात्मना । 3.4.19.२०।
वे वन के अन्त में श्रीधर को मार कर उसकी बैलगाड़ी तथा धन लेकर जाने की योजना बना रहे थे। तभी सच्चिदानंद राम ने अपने वाणों से उन चोरों का बध कर दिया। और श्रीधर को पुन: जीवित कर दिया। और भगवान् ने उस श्रीधर ब्राह्मण को वृन्दावन भेज दिया। तभी से वह ब्राह्मण वैष्णव हो गया ! उस समय यज्ञाञ्श चैतन्य महाप्रभु की आयु मात्र सात वर्ष की थी। श्रीधर ने कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर वहीं रहकर श्रीधरी नाम से भागवत-टीका लिखी।।१७-२०।।
सूत उवाच
रामशर्मा स्थितः काश्यां शङ्करार्चनतत्परः।शिवरात्रे द्विजो धीमानविमुक्तेश्वरस्थले । एकाकी जागरन्ध्यानी जप्त्वा पञ्चाक्षरं शुभम्। २१।
तदा प्रसन्नो भगवाञ्छङ्करो लोकशङ्करः। वरं ब्रूहीति वचनं तमाह द्विजसत्तमम् ।२२।
रामशर्मा शिवं नत्वा वचनं प्राह नम्रधीः। भवान्यस्य समाधिस्थो ध्याने यस्य परो भवान्।२३।
स देवो हृदये मह्यं वसेत्तव वरात्प्रभो। इत्युक्तवचने तस्मिन्विहस्याह महेश्वरः।२४।
अनुवाद:-सूत जी बोले - एक बार रामशर्मा नामक ब्राह्मण काशीधाम में शिवार्चन में संलग्न था; वह ब्राह्मण शिवरात्रि के समय काशी के अविमुक्तेश्वर मन्दिर में अकेला रहकर रात्रि जागरण करता हुआ। शुभपञ्चाक्षर मन्त्र का जाप कर रहा था। तभी भगवान् लोक-शंकर उस पर प्रसन्न हो गये। उन्होंने उस द्विज-श्रेष्ठ से वर माँगने के लिए कहा। तब नम्रता पूर्वक प्रणाम करने के बाद देवशर्मा ने कहा-प्रभो आप समाधिस्थ होकर जिसका ध्यान एकाग्रता और तन्मयता से करते रहते हैं वही देव मेरे हृदय में निवास करें।उस ब्राह्मण का यह वाक्य सुनकर भगवान् शिव हँसकर कहने लगे।।२१-१४।
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महेश्वर कहते हैं:-वह एक प्रकृति माया ही ब्रह्मस्वरूपा तीन भागों में शून्यभूत अव्यय पुरुष के आधे तेज को ग्रहण करती है। वह लोक जननी पुरुष और नपुंसक ( क्लीब) दो और सन्तानों का सृजन करती है। जो पुरुषांश है वह साक्षात् गौरवर्ण और आठ भुजाओं वाला नारायण है वही विश्वरक्षक नारायण स्वेच्छा से तीन प्रकार से विभाजित हो जाते हैं। वे अपने आधे तेज से विष्णु वनमाली चतुर्भुज होते हैं। जो क्षीरशायी आदित्य स्वयं सद्गुण देव हैं।।२५-२७।।
बाकी आधा तेज नर-नारायण ऋषि के रूप में अवतीर्ण हो गया जो गन्धमादन पर्वत पर विष्णु और जिष्णु रूप हैं। क्लीब ही साक्षात् ब्रह्म रूप संकर्षण हैं। वह तीन प्रकार से विभक्त हो जाता है। पूर्वाद्ध है गौरवर्णी शेषनाग और परार्द्ध है राम और लक्ष्मण। ये गौरवर्ण शेष ही द्वापरान्त कलियुग में बलराम के रूप में अवतार लेते हैं। इसी कारण मैं सदैव राम-लक्ष्मण का ध्यान तथा बलभद्र का पूजन करता हूँ। तुम भी यही करके सुखी हो जाओ ।।२५-३०।।
यह कहने के बाद भगवान शिव तिरोहित(गायब) हो गये। वे रामानन्द के यहाँ जन्म लेकर चैतन्य महाप्रभु के भक्त हो गये और कृष्ण चैतन्य की आज्ञा से अध्यात्म-रामायण की रचना की।३१-३२।।
सूत उवाच
जीवानन्दस्स वै विप्रो रूपानन्दसमन्वितः ।
श्रुत्वा चैतन्यचरितं पुरीं शान्तिमयीं गतः । ३३।
चैतन्ये षोडशाब्दे च नत्वा तं तौ समास्थितौ ।
ऊचतुः कृष्णचैतन्यं भवता किं मतं स्मृतम् ।३४।
विहस्याह स चैतन्यः शाक्तोऽहं शक्तिपूजकः।
शैवोऽहं वै द्विजौ १ नित्यं लोकार्थे शङ्करव्रती।
वैष्णवोऽहं ध्यानपरो देवदेवस्य भक्तिमान् ।३५।
अहं भक्तिमदं पीत्वा पापपुंसो बलिं शुभम् ।
शक्त्यै समर्प्य होमान्ते ज्ञानाग्नौ यज्ञतत्परः ।३६।
इति श्रुत्वा द्विजौ तौ तु तस्य शिष्यत्वमागतौ ।
आचारमार्गमागम्य सर्वपूज्यौ बभूवतुः ।३७।
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उन यज्ञाञ्श (कृष्ण चैतन्य) की आज्ञा पाकर जीवानन्द ने षड्सन्दर्भ ग्रन्थ की रचना की और जीवानन्द प्रभु उपासना में निरत रहते थे तथा महामनीषी रूपानन्द ने भी गुरु की आज्ञा से पुराणांग दस हजार(१००००) श्लोकात्मक कृष्ण खण्ड की रचना की उन्होंने गुरु-सेवा में संलग्न रहकर राधाकृष्ण की उपासना द्वारा अपना जीवन व्यतीत किया।।३८-३९।।
सूतजी बोले:-विप्रवर विष्णु स्वामी ने भी एक बार उस शान्ति पुरी में आकर उन उन्नीस वर्षीय यज्ञाञ्श देव से कहा:- इस ब्रह्माण्ड में कौन देव सभी देवों में पूज्य है।? इसके उत्तर में यज्ञाञ्शदेव ने कहा:-भक्तों पर अनुग्रह करने वाले महादेव ही सर्व पूज्य हैं।वे ही विष्णु रूद्र और ब्रह्मेश हैं। इनका पूजा को बिना सब पदार्थ निष्फल हो जाते हैं।जो विष्णु भक्त नित्य शंकर की पूजा करता है। उसे लोकशंकर भगवान शिव की कृपा से उत्तम वैष्णव भक्ति प्राप्त हो जाती है। वही वैष्णव है।।४०-४४।।
जो कर्मभूमि में जन्म लेकर भगवान शंकर की पूजा नहीं करता है वह नरकगामी है।यह सुनकर विष्णु स्वामी ने उन यज्ञाञ्श देव की शिष्यता स्वीकार करली ।उन्होंने कृष्ण मन्त्र की आराधना द्वारा शिव पूजा में तत्पर होकर जीवन व्यतीत किया गुरु आज्ञा पाकर विष्णु भक्त तथा कृष्ण चैतन्य सेवक विष्णु स्वामी वैष्णवीसंहिता की रचना की।।४५-४७।।
"सूत उवाच"
मध्वाचार्यः कृष्णपरो ज्ञात्वा यज्ञांशमुत्तमम् ।
गत्वा शान्तिपुरीं रम्यां नत्वा तं प्राह स द्विजः।४८।
कृष्ण भक्त मध्वाचार्य ने भगवान् यज्ञाञ्श के अवतरित होने का संवाद पाकर सुन्दर शान्तिपुरी नाम की नगरी जाकर भगवान यज्ञाञ्शदेव को प्रणाम करके पूछा:- ४८।
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कृष्णोऽयं भगवान्साक्षात्तदन्ये विश्वकारकाः ।
देवा धात्रादयो ज्ञेयास्तर्हि तत्पूजनेन किम् ।४९।
अनुवाद:-
कृष्ण ही साक्षात् भगवान् हैं। वे सम्पूर्ण विश्व के निर्माता हैं। अन्य ब्रह्मा आदि देवता तो उनके ही निर्देशन में सृष्टि रचना करते हैं। फिर उनके पूजन का का क्या प्रयोजन ?।४८।
शक्तिमार्गतत्परा विप्रा वृथा हिंसामयैर्मखैः ।
अश्वमेधादिभिर्देवान्पूजयन्ति महीतले ।( 3.4.19.५० भविष्य पुराण )
अनुवाद:-
शक्ति मार्ग पर चलने वाले ब्राह्मण व्यर्थ ही हिंसायुक्त यज्ञों अश्वमेध आदि से देवाताओं का इस नही तल पर पूजन करते हैं।
इति श्रुत्वा विहस्याह यज्ञांशश्च शचीसुतः ।
न कृष्णो भगवान्साक्षात्तामसोऽयं च शक्तिजः । । ५१।
चौरोऽयं सर्वभोगी च हिंसको मांसभक्षकः ।
परस्त्रियं भजेद्यो वै स गच्छेद्यममन्दिरम् ।५२।
अनुवाद:-वह चौर सर्वभोगी मांसभक्षक पर स्त्री का भाग करने वाला और यम गृह में गमन करने वाला है।५२।
चौरो यमालयं गच्छेज्जीवहन्ता विशेषतः ।
एभिश्च लक्षणैर्हीनो भगवान्प्रकृतेः परः । । ५३।
अनुवाद:-"चोर यमालय गामी-जीवहन्ता विशेषतया जो इन सब लक्षणों से परे है वही प्रकृति से परे भगवान् है।53।।
यस्य बुद्धिः स वै ब्रह्माऽहङ्कारो यस्य वै शिवः ।
शब्दमात्रा गणेशश्च स्पर्शमात्रा यमः स्वयम् ।५४।
अनुवाद:-जिसकी बुद्धि ब्रह्मा, अहंकार शिव, जिसकी शब्द मात्रा गणेश, और स्पर्श मात्रा साक्षात् यम है। ५४।
रूपमात्रा कुमारो वै रसमात्रा च यक्षराट् ।
गन्धमात्रा विश्वकर्मा श्रवणं भगवाञ्छनिः । ५५।
अनुवाद:-रूप मात्रा कुमार और रसमात्रा यक्षराज कुबेर है। गन्धमात्रा विश्वकर्मा और श्रवण शनि है।५५।
यस्य त्वक्स बुधो ज्ञेयश्चक्षुस्सूर्यः सनातनः ।
यज्जित्वा भगवाञ्छुक्रो घ्राणस्तस्याश्विनीसुतौ । ५६।
अनुवाद:-और त्वक्- बुध हैं और चक्षु साक्षात् सूर्य है। जिह्वा शुक्र - और घ्राण अश्विनीकुमार-।।५६।
यन्मुखं भगवाञ्जीवो यस्य हस्तस्तु देवराट् ।
कृष्णोऽयं तस्य चरणौ लिङ्गं दक्षः प्रजापतिः । ।
गुदं तद्भगवान्मृत्युस्तस्मै भगवते नमः । । ५७।
अनुवाद:-मुख बृहस्पति हाथ देवेन्द्र और कृष्ण जिनके चरण हैं। जिनका लिंग है दक्ष प्रजापति- तथा मृत्यु जिनका गुदा है। उन भगवान को प्रणाम है।57।
हिंसायज्ञैश्च भगवान्स च तृप्तिमवाप्नुयात् ।
स च यज्ञपशुर्वह्नौ ब्रह्मभूयाय कल्पते । ।
तस्य मोक्षप्रभावेन महत्पुण्यमवाप्नुयात् । ५८।
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अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।
अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र के यज्ञों पर रोक लगा दी क्यों कि यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।
समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके ।
अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले । । ६१।
अनुवाद:-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट का भूतल पर विधान किया।61।
देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः ।
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । ।
प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गये तब उन्होंने व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण को लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।
तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्य चागता । ६३।
अनुवाद:-तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम् ।
नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह । ६४।
अनुवाद:-तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।__________________________
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं।वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है। वे सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः। शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:-यह सुनकर कृष्ण प्रियमध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।-६६।।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।
इस प्रकार श्री भविष्य पुराण को प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त-★
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विचार विश्लेषण-
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