भविष्यपुराणम् | पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व)/खण्डः ४अध्याय (19)
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अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।
अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी क्यों कि यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।
समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।
अनुवाद:- ★-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का विधान किया।61
विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।
देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-★ कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।
तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।
अनुवाद:- ★तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-★ वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।
वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।
शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:- ★यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।
इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★
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विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है।
जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही थी और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
तब ऐसे कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।
पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में रोककर निषिद्ध दिया था।
पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।
कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:- कि कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।
वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।
वह चौर, सर्वभोगी ,मांसभक्षक और पराई स्त्री का भोग करने वाला यम गृह जाने वाला है।
जीवहन्ता तो विशेषतया यम के सदन में जाता ही है। और जो इन सब लक्षणों से दूर है वही प्रकृति से परे भगवान् है।48-53।
रूढ़िवादी ब्राह्मण "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का विधान बनाते हैं । मनुस्मृति के पञ्चम अध्याय में पशुबलि के विधान पारित रूढ़िवादी पुरोहितों द्वारा किए गये हैं । विस्तार भय से यहाँ देने उचित नहीं है।
वही बात रूढ़िवादी पुरोहित मध्वाचार्य और चैतन्य के बहाने से रूढ़िवादी पुरोहित यहाँ यज्ञाञ्श के द्वारा कृष्ण भक्त मध्वाचार्य के प्रति कर रहे हैं।
उन शचिपुत्र यज्ञाञ्श के अनुसार-
यह भगवान हिंसायुक्त यज्ञ से तृप्त होते हैं।
वह पशु जिनकी अग्नि में आहुति प्रदान की जाती है। शीघ्र ही परम पद को गमन करता है उसे मोक्ष मिलता है। इसमें यज्ञ कर्ता का पुण्य ओर भी बढ़ जाता है।
जो पापी मनुष्य हिंसा से रहित यज्ञ को विधिरहित रूप से करता है। वह उस दोष के कारण अन्धतामिस्र नरक में चिरकाल तक व्यथित होता है। इस लिए हिंसा युक्त यज्ञ-विधि सहित करने से महा पुण्य और विधि रहित करने से महापाप की प्राप्ति होती है।
परन्तु कृष्ण इस हिंसक देव यज्ञ को सदैव विरोधी थे।इसी कारण से कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र के यज्ञों पर रोक लगा दी।
कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर दिया ।
और उसके स्थानपर कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि को प्राकृतिक उत्सव के आयोजन पर अन्नकूट( अन्नमय ईश्वरी यजन का विधान किया।58-61।
इस अन्नकूट के विधान से क्रोधित होकर ही देवराज इन्द्र व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने दुष्प्रयास किया था।
तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति प्रसन्न हो गयीं तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं।
तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया ।
तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।।62-64।।
निष्कर्ष:-
वस्तुत इस शचीपुत्र यज्ञांश में श्लेष पद द्वारा पुराण कार इन्द्र आदि देवों के कृष्ण द्वारा किए गये निषेध को इंगित कर रहा है।
कृष्ण को आध्यात्मिक चरित्र पर रास और श्रृँगार की कीचड़ उछाल ने वाले भी यही पुरोहित और इनके अनुयायी ही थे। ब्राह्मण से प्रथक् भागवत अथवा वैष्णव अथवा सात्वत गोपो का धर्म अथवा मत था। जिसमें वर्ण व्यवस्था और यज्ञ मूलक कर्मकाण्ड त्याज्य थे । केवल भाव शुद्धि और सम बुद्धि ही मान्य थी।
श्रीमद्भगवद्गीता में कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर देव पूजा तथा वर्णव्यवस्था और पुरोहित वाद का जोरदार खण्डन बड़े ही दार्शनिक अन्दाज में किया गया है।
मध्वाचार्य और चैतन्य महाप्रभु ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं।
श्रीचैतन्य महाप्रभु, बंगाल प्रान्त के नवद्वीप नगर के श्रीधाम मायापुर स्थान में फाल्गुन पूर्णिमा की संध्या को १४०७ शकाब्द (तदनुसार फरवरी १४८६ ई.) में जन्मे थे ।
उनके पिता श्री जगन्नाथ मिश्र सिल्हट जिले के एक विद्वान् ब्राह्मण थे जो विद्यार्थी के रूप में नवद्वीप आये थे क्योंकि उस समय नवद्वीप शिक्षा तथा संस्कृति का क्रेन्द्र माना जाता था।
वे नवद्वीप के महान् विद्वान् श्रील नीलाम्बर चक्रवर्ती की पुत्री श्रीमती शचीदेवी से विवाह करने के पश्चात् गंगानदी के तट पर निवास करने लगे।
श्री जगन्नाथ मिश्र को उनकी पत्नी श्रीमती शचीदेवी से कई पुत्रियाँ हुईं, जिनमें से अधिकांश की मृत्यु कच्ची आयु में ही हो गई।
उनके दो पुत्र बचे रहे, जिनके नाम श्री विश्वरूप तथा श्री विश्वम्भर थे, जिन्हें उनके माता-पिता का प्यार प्राप्त हो सका।
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विश्वम्भर उनकी दसवीं तथा सबसे छोटी सन्तान थे, जो आगे चलकर निमाई पण्डित के नाम से विख्यात हुए और संन्यास आश्रम ग्रहण करने के बाद भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु कहलाए।
भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु ४८ वर्षों तक अपनी दिव्य लीलाओं को प्रदर्शित करने के बाद १४५५ शकाब्द में पुरी में देह त्याग कर गये।
वे अपने प्रथम चौबीस वर्षों तक विद्यार्थी तथा गृहस्थ के रूप में नवद्वीप में रहे।
उनकी पहली पत्नी श्रीमती लक्ष्मीप्रिया थीं, जिनकी मृत्यु अल्पायु में हो गई जब महाप्रभु अपने नगर से बाहर गये हुए थे।
जब वे पूर्वी बंगाल से लौट कर आये, तो उनकी माता ने दूसरा ब्याह करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने मान लिया। उनकी दूसरी पत्नी का नाम विष्णुप्रिया देवी था, जिन्हें आजीवन अपने स्वामी का वियोग सहना पड़ा, क्योंकि उन्होंने चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया, जब श्रीमती विष्णुप्रिया मुश्किल से सोलह वर्ष की थीं।
संन्यास ग्रहण करने के बाद महाप्रभु ने अपनी माता श्रीमती शचीदेवी के आग्रह पर जगन्नाथपुरी को अपनी कर्मभूमि बना लिया।
भगवान् वहाँ पर चौबीस वर्षों तक रहे। इनमें से उन्होंने छह वर्ष भारत (विशेष रूप से संपूर्ण दक्षिण भारत) में श्रीमद्भागवत का उपदेश देते हुए निरन्तर भ्रमण करने में बिताये।
भगवान् चैतन्य ने न केवल श्रीमद्भागवत का उपदेश दिया, अपितु भगवद्गीता का भी अत्यन्त व्यावहारिक ढंग से प्रचार किया।
भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण को परम भगवान् के रूप में अंकित किया गया है।
अत: चैतन्य जी कृष्ण ते अनन्य भक्त थे।
यादव योगेश कुमार रोहि-
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