रविवार, 27 जून 2021

कण्व की व्याख्या-

कण्व

काशकृत्स्नधातुपाठे (१.२०६) कण, क्वणादि धातवः शब्दे भवन्ति। अस्याः चन्नवीरकृतटीकायां कणः – लघुद्रव्यम्, कणिमा गिरिपर्व(घाटी), कणुः – चक्षुः इत्याद्यर्थेषु भवति। क्वण धातु प्रतिध्वनि अर्थे अस्ति। उणादिसूत्राणि १.१५१ (१.१४९) अनुसारेण अशूप्रुषिलटिकणिखटिविशिभ्यः क्वन् । अशू- व्याप्तौ, प्रुष – प्रोक्षणे, .....। अत्र क्वन् प्रत्ययः महत्वपूर्णमस्ति। किं अयं क्वन्, क्वण आधुनिकविज्ञानस्य क्वाण्टा(quantum) अस्ति, अयं विचारणीयः। आधुनिकविज्ञानुसारेण क्वाण्टा कणः अपि अस्ति, तरंगः अपि। तस्य स्वरूपस्य निर्धारणं शक्यं नास्ति। उणादिसूत्रे क्वनशब्दस्य ये विशेषणाः अशू, प्रुषादि सन्ति, किं ते सर्वाणि क्वणशब्दस्य गुणाः सन्ति, अयं अन्वेषणीयः।

 पौराणिक एवं लौकिकसाहित्ये कण्वाश्रमे शकुन्तला – दुष्यन्त मेलनम् एवं भरतस्य जन्मकथा प्रसिद्धा अस्ति।                        पुराणेषु अस्याः कथायाः रूपान्तराः अपि सन्ति – यथा – कथासरित्सागरे १२.३४.३६ एका अतिरूपसम्पन्ना मन्दारवती युवती अस्ति यस्याः निवासं हंसद्वीपे अस्ति। 

तस्याः मेलनम् सर्वेषां विघ्नानां मध्ये राजसुतेन सुन्दरसेनेन सह भवति।                                एते कथानकाः पुराणेषु गंगासागरविषयकाः ये कथानकाः सन्ति, तेभ्यः तुलनीयाः सन्ति। गङ्गासागरकथानकेषु हंसद्वीपे या युवती निवसति, तस्याः विवाहे विघ्नाः उपद्रवन्ति।                    तदा विघ्नानि पारयितुं सा कन्या पुरुषवेशं धारयति इत्यादि।                                        अत्र संकेतमस्ति यत् विशिष्टतमा स्थितिः सा भवति यत्र पुरुष – प्रकृतिमध्ये श्रेष्ठतायाः भेदः समाप्तः भवति। प्रकृतिरेव पुरुषं भवितुं शक्यते।

स्कन्दपुराणे २.७.१९.७३  कण्वऋषिणा गुरुघातीभवनस्य शापप्राप्तेः कथनमस्ति। तदनन्तरं कण्वः सूर्यतः शिक्षां गृह्णाति।     गुरुघातस्य कथनं याज्ञवल्क्य  - गुरु वैशम्पायन कथायाः संदर्भे अपि कथितमस्ति।          याज्ञवल्क्य एवं कण्वमध्ये कः अन्तरं अस्ति, अयं अन्वेषणीयः।

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टिप्पणी : कण्व का शब्दार्थ कण वाला कर सकते हैं । कण क्या होता है, इस सन्दर्भ में अथर्ववेद ११.३.५ में धान्य को उलूखल में कूट कर साफ  करने के संदर्भ में कहा गया है कि धान्य को कूटने से प्राप्त कण ( टूटे हुए चावल ) अश्व का रूप हैं, जो तण्डुल ( पूरे चावल ) हैं, वह गायों का रूप हैं तथा भूसी मशक ( मच्छरों, प्राणों ? ) का रूप हैं 

 इस कथन को समझने के लिए हमें विपश्यना आदि ध्यान साधनाओं की विधि को समझना होगा ।

 ध्यान में साधकों को निर्देश दिया जाता है कि यदि शरीर में कहीं कोई पीडा का अनुभव हो रहा हो, कहीं खुजली हो रही हो, कहीं भूख लग रही हो, तो उसे ध्यान का शुभारम्भ समझना चाहिए । यह अपेक्षित है कि जो घटना स्थानिक रूप में हो रही है, वह सारे शरीर में फैल जाए । यही कण का अश्व बनना हो सकता है । साधना में अन्य कोई घटना भी घटित हो सकती है - कोई प्रकाश कहीं दिखाई पड सकता है, किसी शीतल द्रव का क्षरण हो सकता है आदि । पुराणों में कण की घटना को शकुन्तला की कथा के माध्यम से शकुन द्वारा समझाया गया है । शकुन भी स्थानिक घटना हैं ।                              

तीर्थङ्कर महावीर अपने साधना काल में शकुनों के अनुसार कार्य करते थे । अपेक्षित यह है कि शकुन की घटना सातत्य में बदल जाए ।

 यह सातत्य कण्व - पुत्र मेधातिथि हो सकता है । मेधातिथि अर्थात् जिसकी मेधा अतिथि है । चन्द्रमा तिथियों के अनुसार बदलता है । लेकिन अतिथि रूप स्थिर रहता है ।

 अतिथि का दूसरा अर्थ अकस्मात् आने वाला भी लिया जाता है । अतः कण्व - पुत्र मेधातिथि के संदर्भ में कौन सा अर्थ उपयुक्त होगा, यह विचारणीय है ।

 कण्व के उपरोक्त शब्दार्थ की पुष्टि अथर्ववेद ७.१६.१ के सार्वत्रिक मन्त्र से होती है जिसमें कण्व सुमति रूपी गौ का सहस्रधारा के रूप में दोहन करता है । 

ऋग्वेद १.३६ से १.४३ तथा ९.९४ सूक्तों का ऋषि घोर - पुत्र कण्व है । ऋग्वेद के ८वें मण्डल में प्रायः कण्व के पुत्रों - पौत्रों आदि के सूक्त हैं । उणादि कोश १.१५१ के अनुसार कणि धातु में क्वन् प्रत्यय होने से कण्व शब्द का निर्माण होता है, वैसे ही जैसे अशि से अश्व, विशि से विश्व आदि । 

जो कण से व्यवहार करता हो, वह कण्व है । कण धातु शब्दे, गतौ, निमीलने आदि अर्थों में प्रयुक्त होती है । इसके अतिरिक्त कण शब्द की निरुक्ति शब्दकल्पद्रुम में कणति अतिसूक्ष्मत्वं गच्छति द्वारा की गई है ।

कनि धातु व्याप्ति आदि के अर्थ में है जिससे कनक, स्वर्ण शब्द बनता है । कण्व को समझने की एक संभावना कण्व को घोर का पुत्र कहने से खुलती है । घोर में चेतन व अचेतन मन दोनों का समावेश हो सकता है ।

ऋग्वेद के आठवें मण्डल के ऋषियों में बहुतों के नाम अतिथि प्रत्यय वाले हैं, जैसे मेधातिथि, मेध्यातिथि, देवातिथि, ब्रह्मातिथि, नीपातिथि । डा. फतहसिंह मेधातिथि की व्याख्या ऐसे करते हैं कि मेधा अतिथि है जिसकी, अर्थात् उसको अतिथि की भांति कभी - कभी मेधा प्राप्त हो जाती है। 

अतः यह विचारणीय है कि कण्व के पुत्रों के नामों में अतिथि प्रत्यय क्यों है ? अथर्ववेद ११.३.५ सूक्त का प्रसंग धान को कूटकर उसे शूर्प द्वारा साफ करने का है । 

कहा गया है कि जो तण्डुल हैं, वह गौ हैं, जो कण हैं, वह अश्व हैं । एक स्थान पर तण्डुल को मेधा भी कहा गया है । अतः यह कहा जा सकता है कि कण्व की साधना अश्व की साधना है जो तण्डुल के रूप में, गौ के रूप में चरमोत्कर्ष पर पहुंचती है ।

 ब्रह्मपुराण में दी गई कथा में कहा गया है कि क्षुधा की प्राप्ति होने पर कण्व ने गौतम के आश्रम का आश्रय नहीं लिया जहां अन्न सुलभ था । अपितु उसने गङ्गा का आह्वान किया जो उसके सामने दो रूपों में प्रकट हुई - एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । 

कण्व ने अशुद्ध गङ्गा की स्तुति करके उसे भी शुद्ध किया । यही लक्ष्य अश्वमेध का भी है - सारे जीवन से पापों का नाश ।

पुराणों में कण्व द्वारा शकुन्तला के पालन के संदर्भ में, वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप में तो ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता । कण धातु शब्दे अर्थ में भी है और यह पुराणों में कण्व व शकुन्तला की कथा का आधार बन सकता है । लेकिन अभी इसका व्यावहारिक रूप स्पष्ट नहीं है । 

ऋग्वेद ८.६.४३ का कथन है कि कण्वों ने उक्थ के द्वारा उस पूर्व्य धी का वर्धन किया जो मधु व घृत द्वारा पोषण करने वाली है । यहां पूर्व्य धी पुराणों की शकुन्तला हो सकती है । शौनकीय अथर्ववेद ७.१६.१( ७.१५.१), तैत्तिरीय संहिता ४.६.५.४ व ५.४.७.५ में सविता देवता से उस सुमति की कामना की गई है जिसे कण्व ने सहस्रधारा के रूप में दुहा । अथर्ववेद २०.११५.२ में प्रत्न मन्म द्वारा कण्व की भांति गिराओं के शुम्भन का उल्लेख है ।

पुराणों में प्रायः उल्लेख आता है कि जब सूर्य का तेज बहुत प्रचण्ड हो गया तब त्वष्टा ने उसे अपने चक्र पर घुमा कर उसके तेज का कर्तन किया । कर्तित तेज से देवताओं के अस्त्रों आदि का निर्माण हुआ । 

इसके अतिरिक्त, हस्ती का निर्माण भी सूर्य के कर्तित तेज से कहा गया है । 

सोमयाग के पूर्व प्रवर्ग्य इष्टि का अनुष्ठान किया जाता है जिसमें तप्त आज्य में पयः का प्रक्षेप करके अत्यन्त प्रखर ज्वाला का निर्माण किया जाता है । 

इस इष्टि को आरम्भ करने से पूर्व सोम का क्रय किया जाता है और प्रवर्ग्य इष्टि के अनुष्ठान काल में यह सोम अतिथि रूप में प्रतिष्ठित रहता है - इस सोम का यज्ञ कार्य में आहुति रूप में उपयोग नहीं किया जाता ।

कथासरित्सागर में भद्र व शुभ द्वारा वराह व हस्ती का रूप धारण करके कण्व को त्रास देने , कण्व द्वारा शाप तथा अन्त में सूकर के कण्ठ व हस्ती के पृष्ठ का स्पर्श करने से वराह व हस्ती के कृपाण व चर्म में रूपान्तरित होने की कथा के संदर्भ में, ऋग्वेद २.४३.२ में शकुन से प्रार्थना की गई है कि वह सर्व से मेरे लिए भद्र बोले तथा विश्व से पुण्य बोले ( सर्वतो मे भद्रमावद विश्वतो मे पुण्यमावद ) । 

भद्र और शुभ का आगे विश्लेषण अन्वेषणीय है । पुराणों में एक कथा कण्व - कन्या द्वारा अग्नि में पांच बदरों के पाचन की है जिसके प्रयत्न में उसने सारा इंधन समाप्त कर दिया और फिर अपनी देह को ही इंधन के रूप में प्रस्तुत किया । इस कथा में बदर भी भद्र का रूप हो सकते हैं । हो सकता है कि कथा में हस्ती के जिस पृष्ठ का स्पर्श करने का उल्लेख है, वह भद्र का पूर्व रूप हो । 

अचेतन मन भी पृष्ठ रूप होता है । पृष्ठ को स्पर्श करने का अर्थ होगा उसे चेतन बनाना (लेकिन कठिनाई यह है कि कथा में वराह को भद्र कहा गया है ) । यह कथा इंगित करती है कि कण्व का कार्य अचेतन को चेतन में रूपान्तरित करना हो सकता है।

 पुराण कथा में प्राण द्वारा हल से कर्षण पर कण्व को त्रास पहुंचने व कण्व द्वारा प्राण को अप्रतिष्ठा के शाप के संदर्भ में, इस कथा में हल का प्रयोग किया जा रहा है जो अक्ष रूप है ।

 अक्ष ब्रह्माण्ड की ऊर्जा को एकत्रित करने का एक साधन है ।

 लेकिन अक्ष में द्यूत की, चांस की संभावना विद्यमान है । 

अक्ष के विपरीत अश्व है । यह कण्व की साधना है ।

जैसा कि पिष्ट के संदर्भ में पहले कहा जा चुका है, वर्तमान काल में विकसित की जा रही टेक्नालाजी में यह प्रयत्न किया जाता है कि किस प्रकार एक पदार्थ को उसके छोटे से छोटे कणों में पीस दिया जाए । पीसने के पश्चात् फिर उस चूर्ण को परिष्कृत करके, उसमें अशुद्धियां मिलाने के पश्चात् एक ठोस का रूप दिया जाता है जिसके गुण पूर्व में लिए गए पदार्थ से भिन्न होते हैं । इसी प्रक्रिया का अनुसरण वैदिक साहित्य में भी किया गया है । यज्ञ कार्य में पहले अन्न को पीसकर उसका चूर्ण बनाया जाता है और फिर उसमें दिव्य जल आदि मिलाकर उसे गूंथकर उससे पुरोडाश का निर्माण किया जाता है जो मस्तिष्क आदि का प्रतीक है । यही कण्व का पुत्र मेधातिथि हो सकता है । चूर्ण से ठोस का निर्माण करने का अर्थ होगा कि जो चेतना पहले चूर्ण रूप में बिखरी हुई थी, अब वह परस्पर मिल कर एकीकृत हो गई है ।

 ऋग्वेद १.३६.१९ में ऐसी अग्नि का उल्लेख है जो शुद्ध होने पर कण्व में ज्योति के रूप में चमकी । 

इस अग्नि को कृष्टियां ( डा. फतहसिंह के शब्दों में हमारी इन्द्रियां ) नमन करती हैं । 

ऋग्वेद १.११८.७ में उल्लेख है कि अश्विनौ ने कण्व में चक्षु का प्रतिस्थापन किया ।

 इस ऋचा के सायण भाष्य में कहा गया है कि असुरों ने कण्व को एक अंधेरे कक्ष में बंद कर दिया और कण्व से कहा कि  बताओ उषाकाल कब हुआ है ।

 इस समय अश्विनौ ने कण्व में चक्षु का प्रतिस्थापन किया । 

जैमिनीय ब्राह्मण १.२१६ में नृषद - पुत्र कण्व के साम का उल्लेख है । इस साम का निधन रन्ताया शब्द से होता है ।

 कहा गया है कि अरति अप्रतिष्ठा है जबकि रात्रि ही रति है, रन्ति है, प्रतिष्ठा है । ऋग्वेद १०.३१.११ व अथर्ववेद ४.१९.२ में भी कण्व के नृषद - पुत्र होने का उल्लेख है ।

 ऋग्वेद १०.११५.५ में अग्नि को कण्वतम, कण्वसखा कहा गया है । दूसरी ओर, अथर्ववेद २.२५.३ में पृश्निपर्णी ओषधि से गर्भ को खाने वाले कण्व का हनन करने की प्रार्थना की गई है ।

ऋग्वेद १.३६ से १.४३ तक के सूक्त घोर - पुत्र कण्व ऋषि के हैं । घोर का अर्थ है जिसमें अभी दोष विद्यमान हैं । ऋग्वेद अष्टम् मण्डल कण्व के मेधातिथि, प्रस्कण्व काण्व, वत्स काण्व, नैपातिथि काण्व आदि पुत्रों व पौत्रों का है । ऋग्वेद १०.३१.११ में कण्व को नृषद् - पुत्र कहा गया है तथा जैमिनीय ब्राह्मण १.२१६, ३.४६, ३.७२ आदि में इसकी पुनरावृत्ति की गई है । इसके विपरीत पुराणों में कण्व ऋषि त्रिलोचन, कश्यप, अप्रतिरथ आदि का पुत्र है । व्याख्या अपेक्षित है ।

वैदिक साहित्य में कण्व के अन्य महत्त्वपूर्ण संदर्भों में द्वादशाह यज्ञ में तृतीय दिन के माध्यन्दिन सवन में कण्व द्वारा द्रष्ट आष्कारनिधन नामक ब्रह्म साम का गान होता है ( ताण्ड्य ब्राह्मण ८.२.१ ) । प्रायः रथन्तर साम में अस निधन होता है तथा बृहत् साम में हस । लेकिन इस साम में आष् शब्द द्वारा साम का निधन ( अन्त ) होता है जिसकी व्याख्या के लिए ताण्ड्य ब्राह्मण आदि में क्षुवन् ( छींक ) सम्बन्धी आख्यान दिया गया है । इसके अतिरिक्त द्वादशाह यज्ञ के सप्तम दिन, जिसे छन्दोम कहते हैं, कण्वरथन्तर साम का गान होता है ( ताण्ड्य ब्राह्मण १४.३.१७) जिसका स्पष्टीकरण किया गया है । ऋग्वेद १०.११५.५ में अग्नि को कण्वतम और कण्वसखा कहा गया है । क्या कण्व स्थिति की पराकाष्ठा अग्नि बन जाने में है ? पुराणों में कण्व का प्रायश्चित्त रूप में अग्नि में जल जाना इसका प्रमाण प्रतीत होता है । अथर्ववेद २.२५.३ में गर्भ को खाने वाले कण्व का नाश करने की प्रार्थना की गई है । अन्यत्र कण्व को पाप कहा गया है । कण की जो स्थिति अश्व का रूप नहीं ले पाई है, वह पाप हो सकता है ।

          ब्रह्म पुराण में प्राण द्वारा कर्षण पर कण्व के प्रकट होने तथा शापादि की कथा में प्राण द्वारा कर्षण पर कण्व का प्रकट होना तो स्पष्ट है, लेकिन प्राण द्वारा कण्व को गुरुद्रोही होने तथा कण्व द्वारा गुरु का नाश कर सूर्य से शिक्षा प्राप्त करने का तथ्य विश्लेषणीय है । डा. फतहसिंह के अनुसार विज्ञानमय कोश गुरु है । इससे ऊपर हिरण्मय कोश सूर्य की स्थिति हो सकती है । अन्त में, यह उल्लेखनीय है कि कण धातु पीसने तथा गति के अर्थों में है ।

प्रथम लेखनः- ७.५.२००६ ई.

Kanva can be taken as one who deals with Kana, the particle. There is a hymn in Atharvaveda which states that when rice is pounded, then it break ups in three parts – full rice, particle and husk. Full rice is equivalent to cow, particle is  equivalent to horse and husk is equivalent to mosquito. In the present context, we are concerned how a particle can become equivalent to a horse. In Vipashyanaa meditation etc., there are complaints that nothing has happened to them during the whole session. Then it is is instructed that if any type of etching etc. gets developed, it should be considered as start of meditation. How it can be? The answer is that whatever sensation has developed by itself, it should spread throughout the body. This will be relation between a particle and a horse.  And this is also the secret behind the story of sage Kanva bringing up Shakuntalaa. Shakuntalaa is connected with shakuna, the omens. Omen is a form of a disconnected event, a particle. This has to be given a continuity.

    Kanva happens to be the seer of several hymns in the first canto of Rigveda. The eighth canto of Rigveda contains hymns mainly of the progeny of seer Kanva. In order to understand the utterings of a sage, it is considered essential to understand the characteristics of the seer himself. Saayana has stated that Kanva is the son of Ghora, the terrific/horrible( a mixtue of unconscious and conscious minds?). Therfore, in order to understand Kanva, one has to understand what is terrific in vedic literature. One terrific state is when the light developing like a sun in one’s self gets unbearable. This is the time when this has to be given a proper shape by discarding non – usable parts, just like the cutting of the luster  of sun by Twashtaa on his wheel in puraanic stories. The redundant part of the luster was used for making weapons of gods. The vedic equivalent of this story seems to be the removing of husk from the rice by pounding. During this process, some grains are recovered full, some are broken. In vedic mythology, the unbroken and broken parts have been assigned  quite separate meanings. The unbroken ones are related with cow while the broken ones are related with horse. This indicates that the penances of sage Kanva are of the nature of horse, not of a cow. A cow sits at one place and attracts the energy of the universe, while a horse revolves around the whole earth. A cow is equivalent to a magnet.  This fact forms the basis to unravel the mystery behind the story of Brahma puraana where sage Kanva refuses to partake food in the hermitage of Gautama to satisfy his hunger and he himself worships Gangaa which appears in two forms before him : the pious one and the impure one.  He is able to convert the impure one into pure one.

            It seems that in order to understand the mystery of Kanva, one will have to go deeply into the science of making powder. A part of the esoteric aspect of this science is already available on the internet. In brief, a substance is converted into fine powder, impurities are mixed with it and then again converted into a solid whose properties are different from the earlier solid. The vedic equivalent of it seems to be preparation of purodaasha in a somayaaga where the cereals are ground and then divine waters etc. are added to make a dough and then this is roasted to form a double bread which may be symbolic of brain. This may be the reason why Medhaatithi etc. have been mentioned as the sons of Kanva. The powder represents the divided consciousness while the bread represents an integrated consciousness.

            There is no direct reference in vedic literature to support the story of Kanva and Shakuntalaa in puraanic texts. One vedic verse indicates that those who are Kanvas, they can attract that earlier intellect which nourishes with honey and butter. This earlier intellect can be the Shakuntalaa of puraanic texts. Another verse states that Kanva wants that wisdom from god Savitaa which he is able to milk in the form of a thousand streams. Here thousand streams are symbolic of continuity, in opposition to non – continuity in case of cow.

There is a story about Kanva where a boar and an elephant trouble him and he curses both. The real form of boar is auspicious and the real form of elephant is shining, beautiful. One has to be cultivated from the outer universe, the other from the inner universe. The story indicates that the elephant may be connected with unconscious mind also. Therefore, the job of Kanva may be to convert the unconscious mind into conscious mind. 


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