मंगलवार, 15 जून 2021

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः । ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ३१ ॥

 



 यज्ञ का अर्थ संयोजन है । 

यज्= संगतिकरणे अर्थात् संगति या मेल करने के अर्थ से विकसित होते होते यज् = धातु का अर्थ पुरोहितों ने देवपूजन कर दिया । परन्तु एक अर्थ इसका दान तब किया गया जब केवल ब्राह्मणों को ही दान देने का विधान पारित किया ।

यज्ञ की सारी विधियाँ केवल देवपूजा से सम्बन्धित उनको ही तुष्ट करने की हैं ।

परन्तु कालान्तर में यज्ञ देवानुष्ठान होकर रह गया ।
अर्थात् केवल देवों को तर्पण करना 
कृष्ण देव संस्कृति के इस स्वार्थ पूर्ण उपक्रम के विरुद्ध थे ।

जैसा कि स्वयं भागवत पुराण और देवीभागवत पुराण में तथा अन्य वैष्णव ग्रन्थों में वर्णन है ।

भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः।
 श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः ॥३०॥

आप-जैसे संत देवताओं से भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओं में तो स्वार्थ रहता है, साधुओं में नहीं ।३०।

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
 ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ३१ ॥

परन्तु संतों में नहीं। केवल जल के तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्तिका और शिला आदि की बनी हुई मूर्तियाँ ही देवता नहीं हैं।

(भागवत दशम स्कन्ध पूर्वार्ध ४८ वाँ अध्याय)

कृष्ण ने ईश्वर की मूर्ति बनाकर पूजने और व्यर्थ का धर्म के नाम पर आडम्बर का सदैव निषेध किया है ।


श्री गीता के तीसरे अध्याय में निम्न श्लोकों में यज्ञ के बारे में बताया गया है:

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग्ङ: समाचर ॥9॥

यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिये हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त् ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर ॥9॥

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: । 
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिष्टकामधुक् ॥10॥

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ ( संयोजन) के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो जाओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ॥10॥

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स: ॥12॥

यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है ॥12॥

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव: । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥14॥ कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्मा नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥15॥

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ॥14-15॥


ब्रह्मार्पणं ब्रह्मा हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्माणा हुतम् । ब्रह्मौव तेन गन्तव्यं ब्रह्माकर्मसमाधिना ॥24॥

जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्त्रुवा आदि भी ब्रह्मा है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्मा हैं तथा ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्मा ही हैं ॥24॥
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दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते 
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति ॥25॥

दूसरे योगीजन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का ही भली-भाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन पारब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में अभेद दर्शन रूप यज्ञ संयोजन के द्वारा ही आत्म रूप यज्ञ का हवन किया करते हैं ॥25॥

श्री गीता के नौवें अध्याय में हवन के बारे में बताया

अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम् । मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥16॥

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं ही हूँ ॥16॥

इस प्रकार कृष्ण ने यज्ञ को आध्यात्मिक रूप में परिभाषित किया । 

गीता में कर्मकाण्ड मयी यज्ञ का कोई महत्व नहीं है ।



               "श्रीभगवानुवाच ।
 त्वं नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बन्धुश्च नित्यदा।
 वयं तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकम्प्याः प्रजा हि वः॥२९॥

             भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘तात! 
आप हमारे - गुरु हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंश में अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदा के हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपा के पात्र हैं। 

अपना परम कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को आप-जैसे परम पूज्यनीय और महाभाग्यवान संतों की सर्वदा सेवा करनी चाहिये। 

भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः।
 श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः ॥३०॥

आप-जैसे संत देवताओं से भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओं में तो स्वार्थ रहता है, साधुओं में नहीं ।३०।
(भागवत दशम स्कन्ध पूर्वार्ध ४८ वाँ अध्याय)

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
 ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ३१ ॥


परन्तु संतों में नहीं। केवल जल के तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्तिका और शिला आदि की बनी हुई मूर्तियाँ ही देवता नहीं हैं।

 स भवान्सुहृदां वै नः श्रेयान् श्रेयश्चिकीर्षया ।
 जिज्ञासार्थं पाण्डवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम् ॥ ३२ ॥

 पितर्युपरते बालाः सह मात्रा सुदुःखिताः ।
 आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसन्त इति शुश्रुम ॥ ३३ ॥

 तेषु राजाम्बिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः ।
 समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोऽन्धदृक् ॥ ३४ ॥

 गच्छ जानीहि तद्‌वृत्तं अधुना साध्वसाधु वा ।
 विज्ञाय तद् विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत् ॥ ३५ ॥

 इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान् हरिरीश्वरः ।
 सङ्‌कर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ ॥ ३६ ॥
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अर्थानुवाद-
 चाचा जी! आप हमारे हितैषी सुहृदों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवों का हित करने के लिये तथा उनका कुशल-मंगल जानने के लिये हस्तिनापुर जाइये। 

हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर पर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुःख में पड़ गये थे। 

अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं। 

आप जानते हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की कमी है।

 उसका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने कर कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्र-जैसा समान व्यवहार नहीं कर पाते। 

इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। 

आपके द्वारा उसका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले।'

 सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण अक्रूर जी को इस प्रकार आदेश देकर बलराम जी और उद्धव जी के साथ वहाँ से अपने घर लौट आये।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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 श्रीशुक उवाच -
( अनुष्टुप् )
निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुण्थमेधसः ।
 वचो दुरन्वयं विप्राः तूष्णीमासन् भ्रमद्धियः ॥ १४ ॥

 चिरं विमृश्य मुनय ईश्वरस्येशितव्यताम् ।
 जनसङ्ग्रह इत्यूचुः स्मयन्तस्तं जगद्‌गुरुम् ॥ १५ ॥

 श्रीमुनय ऊचुः -
( मिश्र )
यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं
     विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः ।
 यदीशितव्यायति गूढ ईहया
     अहो विचित्रं भगवद् विचेष्टितम् ॥ १६ ॥

 अनीह एतद्‌ बहुधैक आत्मना
     सृजत्यवत्यत्ति न बध्यते यथा ।
 भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी
     अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ १७ ॥

 अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये
     बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च ।
 स्वलीलया वेदपथं सनातनं
 वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान् ॥ १८ ॥

( अनुष्टुप् )
ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपःस्वाध्यायसंयमैः ।
 यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तं अव्यक्तं च ततः परम् ॥ १९ ॥

 तस्माद्‌ ब्रह्मकुलं ब्रह्मन् शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः ।
 सभाजयसि सद्धाम तद्‌ ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान् ॥ २० ॥

 अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो दृशः ।
 त्वया सङ्गम्य सद्‌गत्या यदन्तः श्रेयसां परः ॥ २१ ॥

 नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
 स्वयोगमाययाच्छन्न महिम्ने परमात्मने ॥ २२ ॥

 न यं विदन्त्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः ।
 मायाजवनिकाच्छन्नं आत्मानं कालमीश्वरम् ॥ २३ ॥

 यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक् ।
 नाममात्रेन्द्रियाभातं न वेद रहितं परम् ॥ २४ ॥

 एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विन्द्रियेहया ।
 मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात् ॥ २५ ॥

( वसंततिलका )
तस्याद्य ते ददृशिमाङ्‌घ्रिमघौघमर्ष
     तीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः ।
 उत्सिक्तभक्त्युपहताशय जीवकोशा
     आपुर्भवद्‌गतिमथानुगृहान भक्तान् ॥ २६ ॥

 श्रीशुक उवाच -
( अनुष्टुप् )
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम् ।
 राजर्षे स्वाश्रमान् गन्तुं मुनयो दधिरे मनः ॥ २७ ॥

 तद् वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः ।
 प्रणम्य चोपसङ्गृह्य बभाषेदं सुयन्त्रितः ॥ २८ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
 तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥



श्रीभगवानुवाच -
अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम् ।
 देवानामपि दुष्प्रापं यद् योगेश्वरदर्शनम् ॥ ९ ॥

 किं स्वल्पतपसां नॄणां अर्चायां देवचक्षुषाम् ।
 दर्शनस्पर्शनप्रश्न प्रह्वपादार्चनादिकम् ॥ १० ॥

 न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
 ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ११ ॥

                    ( मिश्र )
नाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारका
     न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्‌मनः ।
 उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघं
     विपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया ॥ १२ ॥

 यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके
     स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।
 यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचित्
     जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ॥ १३ ॥


भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- धन्य है! हम लोगों का जीवन सफल हो गया, आज जन्म लेने का हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरों का दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है,
 उन्हीं का दर्शन हमें प्राप्त हुआ है।

 जिन्होंने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेव को समस्त प्राणियों के हृदय में न देखकर केवल मूर्ति विशेष में ही उनका दर्शन करते हैं, 

उन्हें आप लोगों के दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्न, प्रणाम और पादपूजन आदि का सुअवसर भला कब मिल सकता है?

केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत समय तक सेवन किया जाये, तब वे पवित्र हैं; परन्तु संत पुरुष तो दर्शन मात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं।११।

अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मन के अधिष्ठातृ-देवता उपासना करने पर भी पाप का पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासना से भेद-बुद्धि का नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है।

 परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषों की सेवा की जाये तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धि के विनाशक हैं।

 महात्माओ और सभासदो! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ- इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा-अपना, ‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ, आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है- ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में भी नीच गधा ही है।


श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद


श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षितभगवान श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रह गये। उनकी बुद्धि चक्कर में पड़ गयी, वे समझ न सके कि भगवान यह क्या कह रहे हैं। उन्होंने बहुत देर तक विचार करने के बाद यह निश्चय किया कि भगवान सर्वेश्वर होने पर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीव की भाँति व्यवहार कर रहे हैं- यह केवल लोक संग्रह के लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे।

मुनियों ने कहा- भगवन्! आपकी माया से प्रजापतियों के अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हम लोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्य की-सी चेष्टाओं से अपने को छिपाये रखकर जीव की भाँति आचरण करते हैं। भगवन्! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है। जैसे पृथ्वी अपने विकारों–वृक्ष, पत्थर, घट आदि के द्वारा बहुत-से नाम और रूपों को ग्रहण कर लेती है, वास्तव में वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होने पर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आप से इस जगत् की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मों से लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है? धन्य है आपकी यह लीला।

भगवन्! यद्यपि आप प्रकृति से परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं, तथापि समय-समय पर भक्तजनों की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीला के द्वारा सनातन वैदिक मार्गों की रक्षा करते हैं; क्योंकि सभी वर्णों और आश्रमों के रूप में आप स्वयं ही प्रकट हैं। भगवन्! वेद आपका विशुद्ध हृदय हैं; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा उसी में आपके साकार-निराकार रूप और दोनों के अधिष्ठान-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होता है। परमात्मन्! ब्राह्मण ही वेदों के आधारभूत आपके स्वरूप की उपलब्धि के स्थान हैं; इसी से आप ब्राह्मणों का सम्मान करते हैं और इसी से आप ब्राह्मणभक्तों में अग्रगण्य भी हैं। आप सर्वविध कल्याण-साधनों की चरमसीमा हैं और संत पुरुषों की एकमात्र गति हैं। आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तव में सबके परम फल आप ही हैं।

प्रभो! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान हैं। 

आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमाया के द्वारा अपनी महिमा छिपा रखी है, हम आपको नमस्कार करते हैं। ये सभा में बैठे हुए राजा लोग और दूसरों की तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करने वाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तव में नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरूप को- जो सबका आत्मा, जगत् का आदिकारण और नियन्ता है- माया के परदे से ढक रखा है। जब मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्न के मिथ्या पदार्थों को ही सत्य समझ लेता है और नाममात्र की इन्द्रियों से प्रतीत होने वाले अपने स्वप्न शरीर को ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देर के लिये इस बात का बिलकुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्न शरीर के अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्था का शरीर भी है।



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न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्यपि कालेन विष्णुभक्ताः क्षणादहो ॥ ४२ ॥

अर्थात , पानी के तीर्थ नहीं होते तथा मिटटी और पत्थर के देवता नहीं होते | विष्णुभक्त तो क्षण मात्र में पवित्र कर देते हैं | परन्तु वे किसी काल में भी मनुष्य को पवित्र नहीं कर सकते |



                   सूत उवाव
महालक्ष्मीवचः श्रुत्वा लक्ष्मीकान्तश्च सस्मितः ।
निगूढतत्त्वं कथितुमपि श्रेष्ठोपचक्रमे ॥ ४३ ॥
                 श्रीभगवानुवाच
भक्तानां लक्षणं लक्ष्मि गूढं श्रुतिपुराणयोः ।
पुण्यस्वरूपं पापघ्नं सुखदं भुक्तिमुक्तिदम् ॥ ४४ ॥

सारभूतं गोपनीयं न वक्तव्यं खलेषु च ।
त्वां पवित्रां प्राणतुल्यां कथयामि निशामय ॥ ४५ ॥


गुरुवक्त्राद्विष्णुमन्त्रो यस्य कर्णे पतिष्यति ।
वदन्ति वेदास्तं चापि पवित्रं च नरोत्तमम् ॥ ४६ ॥

पुरुषाणां शतं पूर्वं तथा तज्जन्ममात्रतः ।
स्वर्गस्थं नरकस्थं वा मुक्तिमाप्नोति तत्क्षणात् ॥ ४७ ॥

यैः कैश्चिद्यत्र वा जन्म लब्धं येषु च जन्तुषु ।
जीवन्मुक्तास्तु ते पूता यान्ति काले हरेः पदम् ॥ ४८ ॥

मद्‍भक्तियुक्तो मर्त्यश्च स मुक्तो मद्‌गुणान्वितः ।
मद्‌गुणाधीनवृत्तिर्यः कथाविष्टश्च सन्ततम् ॥ ४९ ॥

मद्‌गुणश्रुतिमात्रेण सानन्दः पुलकान्वितः ।
सगद्‌गदः साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृत एव च ॥ ५० ॥

न वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।
ब्रह्मत्वममरत्वं वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥ ५१ ॥

इन्द्रत्वं च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।
स्वर्गराज्यादिभोगं च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥ ५२ ॥

भ्रमन्ति भारते भक्तास्तादृग्जन्म सुदुर्लभम् ।
मद्‌गुणश्रवणाः श्राव्यगानैर्नित्यं मुदान्विताः ॥ ५३ ॥

ते यान्ति च महीं पूत्वा नरं तीर्थं ममालयम् ।
इत्येवं कथितं सर्वं पद्मे कुरु यथोचितम् ।
तदाज्ञया तास्तच्चक्रुर्हरिस्तस्थौ सुखासने ॥ ५४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापूराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां नवमस्कन्धे गङ्‌गादीनां शापोद्धारवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

पूर्णस्यावाहनं  कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् ।     स्वच्छस्य पाद्यमघर्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ||

निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्पं निर्वसनस्य च ।     निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम् ||

अर्थात , ईश्वर सर्वत्र परिपूर्ण है फिर उसका आह्वान कैसा ? जो सर्वाधार है उसके लिए आसन कैसा ? जो सर्वथा स्वच्छ एवं पवित्र है उसके लिए पाद्य और अघर्य कैसा ? जो शुद्ध है उसके लिए आचमन की क्या आवश्यकता ?

निर्लेप ईश्वर को चन्दन लगाने से क्या ? 

जो सुगंध की इच्छा से रहित है उसे पुष्प क्यों चढाते हो ? 

निर्गंध को धूप क्यों जलाते हो ? 

जो स्वयं प्रकाशमान है उसके समक्ष दीपक क्यों जलाते हो ?

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यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके ।                     स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः  ||

यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिर्चिज् ।          जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखारः।। (श्रीमद भागवत  १०-८४-१३ )

अर्थात , जो वात , पित और कफ -तीन मलों से बने हुए शरीर में आत्मबुद्धि रखता है , जो स्त्री आदि में स्वबुद्धि रखता है , जो पृथ्वी से बनी हुई पाषाण -मूर्तियों में पूज्य बुद्धि रखता है , ऐसा व्यक्ति गोखर - गौओं का चारा उठाने वाला गधा है|





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