त्वं नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बन्धुश्च नित्यदा।
वयं तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकम्प्याः प्रजा हि वः॥२९॥
श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः ॥३०॥
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ३१ ॥
जिज्ञासार्थं पाण्डवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम् ॥ ३२ ॥
पितर्युपरते बालाः सह मात्रा सुदुःखिताः ।
आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसन्त इति शुश्रुम ॥ ३३ ॥
तेषु राजाम्बिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः ।
समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोऽन्धदृक् ॥ ३४ ॥
गच्छ जानीहि तद्वृत्तं अधुना साध्वसाधु वा ।
विज्ञाय तद् विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत् ॥ ३५ ॥
इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान् हरिरीश्वरः ।
सङ्कर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ ॥ ३६ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
श्रीशुक उवाच -
( अनुष्टुप् )
निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुण्थमेधसः ।
वचो दुरन्वयं विप्राः तूष्णीमासन् भ्रमद्धियः ॥ १४ ॥
चिरं विमृश्य मुनय ईश्वरस्येशितव्यताम् ।
जनसङ्ग्रह इत्यूचुः स्मयन्तस्तं जगद्गुरुम् ॥ १५ ॥
श्रीमुनय ऊचुः -
( मिश्र )
यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं
विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः ।
यदीशितव्यायति गूढ ईहया
अहो विचित्रं भगवद् विचेष्टितम् ॥ १६ ॥
अनीह एतद् बहुधैक आत्मना
सृजत्यवत्यत्ति न बध्यते यथा ।
भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी
अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ १७ ॥
अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये
बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च ।
स्वलीलया वेदपथं सनातनं
वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान् ॥ १८ ॥
( अनुष्टुप् )
ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपःस्वाध्यायसंयमैः ।
यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तं अव्यक्तं च ततः परम् ॥ १९ ॥
तस्माद् ब्रह्मकुलं ब्रह्मन् शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः ।
सभाजयसि सद्धाम तद् ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान् ॥ २० ॥
अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो दृशः ।
त्वया सङ्गम्य सद्गत्या यदन्तः श्रेयसां परः ॥ २१ ॥
नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
स्वयोगमाययाच्छन्न महिम्ने परमात्मने ॥ २२ ॥
न यं विदन्त्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः ।
मायाजवनिकाच्छन्नं आत्मानं कालमीश्वरम् ॥ २३ ॥
यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक् ।
नाममात्रेन्द्रियाभातं न वेद रहितं परम् ॥ २४ ॥
एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विन्द्रियेहया ।
मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात् ॥ २५ ॥
( वसंततिलका )
तस्याद्य ते ददृशिमाङ्घ्रिमघौघमर्ष
तीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः ।
उत्सिक्तभक्त्युपहताशय जीवकोशा
आपुर्भवद्गतिमथानुगृहान भक्तान् ॥ २६ ॥
श्रीशुक उवाच -
( अनुष्टुप् )
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम् ।
राजर्षे स्वाश्रमान् गन्तुं मुनयो दधिरे मनः ॥ २७ ॥
तद् वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः ।
प्रणम्य चोपसङ्गृह्य बभाषेदं सुयन्त्रितः ॥ २८ ॥
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥
अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम् ।
देवानामपि दुष्प्रापं यद् योगेश्वरदर्शनम् ॥ ९ ॥
किं स्वल्पतपसां नॄणां अर्चायां देवचक्षुषाम् ।
दर्शनस्पर्शनप्रश्न प्रह्वपादार्चनादिकम् ॥ १० ॥
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ११ ॥
( मिश्र )
नाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारका
न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्मनः ।
उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघं
विपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया ॥ १२ ॥
स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचित्
जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ॥ १३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रह गये। उनकी बुद्धि चक्कर में पड़ गयी, वे समझ न सके कि भगवान यह क्या कह रहे हैं। उन्होंने बहुत देर तक विचार करने के बाद यह निश्चय किया कि भगवान सर्वेश्वर होने पर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीव की भाँति व्यवहार कर रहे हैं- यह केवल लोक संग्रह के लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे।
मुनियों ने कहा- भगवन्! आपकी माया से प्रजापतियों के अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हम लोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्य की-सी चेष्टाओं से अपने को छिपाये रखकर जीव की भाँति आचरण करते हैं। भगवन्! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है। जैसे पृथ्वी अपने विकारों–वृक्ष, पत्थर, घट आदि के द्वारा बहुत-से नाम और रूपों को ग्रहण कर लेती है, वास्तव में वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होने पर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आप से इस जगत् की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मों से लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है? धन्य है आपकी यह लीला।
भगवन्! यद्यपि आप प्रकृति से परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं, तथापि समय-समय पर भक्तजनों की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीला के द्वारा सनातन वैदिक मार्गों की रक्षा करते हैं; क्योंकि सभी वर्णों और आश्रमों के रूप में आप स्वयं ही प्रकट हैं। भगवन्! वेद आपका विशुद्ध हृदय हैं; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा उसी में आपके साकार-निराकार रूप और दोनों के अधिष्ठान-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होता है। परमात्मन्! ब्राह्मण ही वेदों के आधारभूत आपके स्वरूप की उपलब्धि के स्थान हैं; इसी से आप ब्राह्मणों का सम्मान करते हैं और इसी से आप ब्राह्मणभक्तों में अग्रगण्य भी हैं। आप सर्वविध कल्याण-साधनों की चरमसीमा हैं और संत पुरुषों की एकमात्र गति हैं। आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तव में सबके परम फल आप ही हैं।
प्रभो! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान हैं।
आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमाया के द्वारा अपनी महिमा छिपा रखी है, हम आपको नमस्कार करते हैं। ये सभा में बैठे हुए राजा लोग और दूसरों की तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करने वाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तव में नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरूप को- जो सबका आत्मा, जगत् का आदिकारण और नियन्ता है- माया के परदे से ढक रखा है। जब मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्न के मिथ्या पदार्थों को ही सत्य समझ लेता है और नाममात्र की इन्द्रियों से प्रतीत होने वाले अपने स्वप्न शरीर को ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देर के लिये इस बात का बिलकुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्न शरीर के अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्था का शरीर भी है।
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्यपि कालेन विष्णुभक्ताः क्षणादहो ॥ ४२ ॥
अर्थात , पानी के तीर्थ नहीं होते तथा मिटटी और पत्थर के देवता नहीं होते | विष्णुभक्त तो क्षण मात्र में पवित्र कर देते हैं | परन्तु वे किसी काल में भी मनुष्य को पवित्र नहीं कर सकते |
सूत उवाव
महालक्ष्मीवचः श्रुत्वा लक्ष्मीकान्तश्च सस्मितः ।
निगूढतत्त्वं कथितुमपि श्रेष्ठोपचक्रमे ॥ ४३ ॥
श्रीभगवानुवाच
भक्तानां लक्षणं लक्ष्मि गूढं श्रुतिपुराणयोः ।
पुण्यस्वरूपं पापघ्नं सुखदं भुक्तिमुक्तिदम् ॥ ४४ ॥
सारभूतं गोपनीयं न वक्तव्यं खलेषु च ।
त्वां पवित्रां प्राणतुल्यां कथयामि निशामय ॥ ४५ ॥
गुरुवक्त्राद्विष्णुमन्त्रो यस्य कर्णे पतिष्यति ।
वदन्ति वेदास्तं चापि पवित्रं च नरोत्तमम् ॥ ४६ ॥
पुरुषाणां शतं पूर्वं तथा तज्जन्ममात्रतः ।
स्वर्गस्थं नरकस्थं वा मुक्तिमाप्नोति तत्क्षणात् ॥ ४७ ॥
यैः कैश्चिद्यत्र वा जन्म लब्धं येषु च जन्तुषु ।
जीवन्मुक्तास्तु ते पूता यान्ति काले हरेः पदम् ॥ ४८ ॥
मद्भक्तियुक्तो मर्त्यश्च स मुक्तो मद्गुणान्वितः ।
मद्गुणाधीनवृत्तिर्यः कथाविष्टश्च सन्ततम् ॥ ४९ ॥
मद्गुणश्रुतिमात्रेण सानन्दः पुलकान्वितः ।
सगद्गदः साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृत एव च ॥ ५० ॥
न वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।
ब्रह्मत्वममरत्वं वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥ ५१ ॥
इन्द्रत्वं च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।
स्वर्गराज्यादिभोगं च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥ ५२ ॥
भ्रमन्ति भारते भक्तास्तादृग्जन्म सुदुर्लभम् ।
मद्गुणश्रवणाः श्राव्यगानैर्नित्यं मुदान्विताः ॥ ५३ ॥
ते यान्ति च महीं पूत्वा नरं तीर्थं ममालयम् ।
इत्येवं कथितं सर्वं पद्मे कुरु यथोचितम् ।
तदाज्ञया तास्तच्चक्रुर्हरिस्तस्थौ सुखासने ॥ ५४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापूराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां नवमस्कन्धे गङ्गादीनां शापोद्धारवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् । स्वच्छस्य पाद्यमघर्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ||
निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्पं निर्वसनस्य च । निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम् ||
अर्थात , ईश्वर सर्वत्र परिपूर्ण है फिर उसका आह्वान कैसा ? जो सर्वाधार है उसके लिए आसन कैसा ? जो सर्वथा स्वच्छ एवं पवित्र है उसके लिए पाद्य और अघर्य कैसा ? जो शुद्ध है उसके लिए आचमन की क्या आवश्यकता ?
निर्लेप ईश्वर को चन्दन लगाने से क्या ?
जो सुगंध की इच्छा से रहित है उसे पुष्प क्यों चढाते हो ?
निर्गंध को धूप क्यों जलाते हो ?
जो स्वयं प्रकाशमान है उसके समक्ष दीपक क्यों जलाते हो ?
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यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके । स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ||
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिर्चिज् । जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखारः।। (श्रीमद भागवत १०-८४-१३ )
अर्थात , जो वात , पित और कफ -तीन मलों से बने हुए शरीर में आत्मबुद्धि रखता है , जो स्त्री आदि में स्वबुद्धि रखता है , जो पृथ्वी से बनी हुई पाषाण -मूर्तियों में पूज्य बुद्धि रखता है , ऐसा व्यक्ति गोखर - गौओं का चारा उठाने वाला गधा है|
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