इरानी भाषा में लोधी पठानों की एक जाति।
ये यौद्धा वर्ग है ।
परन्तु पशु पक्षियों को लालच दिखाकर पकड़ लेनेवाला। व्याध अथवा बहेलिया या शिकारी जनजाति को लोध व्रज के कवियों ने लिखा जैसे सूरदास लिखते हैं।
"प्रभु सों मेरी गति जनु लोधक कर मीन तरयो।
— सूरसाहित्य ।
सबको लुब्ध करने वाला, सम्मोहनकारी
उ०— जाके पदकमल लुब्ध मुनि मधुकर निकर परम सुगति हू लोभ नाहिन।—(तुलसीदास)
उदाहरण- घालि नैन ओहि राखिय, पल नहिं कीजिय ओट।
पेम क लुबुधा पाव ओ ह, काह सो बड़ का छोट।—जायसी पद्मावत।
लोधी (या लोधा, लोध) भारत में पायी जाने वाली एक किसान जाति है जो सब्जी आदि का उत्पादन करती ये प्राय लोहित अथवा लोह रंग के होते हैं जो इनके जंगल या ताप युक्त क्षेत्र में रहने का जैनेटिक परिणाम है ।
ये मध्य प्रदेश में बहुतायत में पाये जाते हैं, जहां यह लोग उत्तर प्रदेश से विस्थापित होकर आ बसे है ऐसी समाज शास्त्रीयों की मान्यता है ।
लोधी 'अन्य पिछड़े वर्ग' की एक जाति है, परन्तु इस जाति के लोग राजपूतो से संबधित होने का दावा करते हैं तथा 'लोधी-राजपूत' कहलाना पसंद करते हैं।
जबकि, इनके राजपूत मूल से उद्धृत होने का कोई भी साक्ष्य नहीं है और न ही इन लोगो में राजपूत परंपराए प्रचलित है।
पुराणों में एक स्थान पर राजपुत्र जातिसूचक शब्द के रूप में आया है जो कि इस प्रकार है-👇
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् खण्डः प्रथम
(ब्रह्मखण्डः)अध्यायः(१०) का श्लोकसंख्या-( ११०)
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे जातिसम्बन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।।
भावार्थ:- क्षत्रिय से करण-कन्या(वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से ) में राजपुत्र और राजपुत्र की कन्या में करण द्वारा 'आगरी' उत्पन्न हुआ।
राजपुत्र के क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या के गर्भ में उत्पन्न होने का वर्णन (शब्दकल्पद्रुम) में भी आया है- "करणकन्यायां क्षत्त्रियाज्जातश्च इति पुराणम् ॥"
अर्थात:- क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या में उतपन्न संतान...
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स्कन्द पुराण सह्याद्री खण्ड में राजपूत उत्पत्ति-
उपर्युक्त सन्दर्भ:-(स्कन्दपुराण- आदिरहस्य सह्याद्रि-खण्ड- व्यास देव व सनत्कुमार का संकर जाति विषयक संवाद नामक २६ वाँ अध्याय-श्लोक संख्या- ४७,४८,४९ पर राजपूतों की उत्पत्ति वर्णसंकर के रूप में है ।
"भावार्थ:-:-क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र- वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।
यद्यपि राजपूतों को भी भारतीय पुराणों तथा स्मृतियों में शूद्र धर्मी और वर्णसंकर वर्णित किया गया है।
ये शारीरिक बल में उच्च तथा श्यामल छवि के होते हैं ।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टिकोण से ये प्राचीनत्तम यौद्धा जन-जाति है । जो लोहवर्ण की होती थी ।
ब्रिटिश शासन के एक प्रशासक, रोबर्ट वेन रुसेल ने लोधी शब्द के कई सम्भव शाब्दिक अर्थों का जिक्र किया है; उदहरणार्थ लोध वृक्ष के पत्तों से रंगो का निर्माण करने का कार्य करने के कारण ये लोग लोधी कहलाए।
रुसेल ने यह भी कहा है कि 'लोधा' मूल शब्द है जो कि बाद में मध्य प्रदेश में 'लोधी' में रूपान्तरित हो गया।
एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार, लोधी अपने गृह निवास पंजाब के लुधियाना शहर के नाम से लोधी कहलाए।
परन्तु इतिहास में लोदी पठानों ने लुधियाना का किला बनवाया जो हिन्दू लोधी जाति से पृथक होते हैं ।
इतिहास के दृष्टि कोण से लोधियों का विस्थापन--
ब्रिटिश स्रोतो में लोधियों को उत्तर भारत से विस्थापित होना बताया गया है,जहाँ से यह लोग मध्य भारत में आ बसे। ऐसा करने में उनके सामाजिक स्तर उत्थान हुआ, और यह लोग ब्राह्मण, बनिया व राजपूत आदि से नीचे के स्थानीय शासक तथा जमीदार बने।
इनमे से कुछ बड़े जमींदार ' ठाकुर' की पदवी पाने में सक्षम रहे, तथा दमोह व सागर जिलो में कुछ लोधी परिवारो को पन्ना के मुस्लिम शासक द्वारा राजा, दीवान व लंबरदार करार दिया गया।
इस तरह शक्तिशाली बने लोधियों ने बुंदेला उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1857 की क्रांति में सहभागिता--
1857 कि क्रांति मे, लोधी भारत के विभिन्न भागो में अंग्रेज़ो के खिलाफ लड़े।
हिंडोरिया रिसायत के लोधी तालुकदार जिले के मुख्य कार्यालय की तरफ कूच करने व खजाने को लूटने में शामिल थे, जबकि शरपुरा आदि के लोधियों ने स्थानीय पुलिस को खदेड़ दिया व उन्होने घुघरी गाँव को भी लूटा।
20 वी शताब्दी की जातिगत राजनीति-
1911 की भारत कि जनगणना के बाद, लोधी राजनैतिक रूप से एकजुट होना शुरू हुये तथा 1921 कि जनगणना से पूर्व उन्होने 'फतेहगढ़' के एक सम्मेलन में 'लोधी राजपूत' नाम के लिए दावा किया।
1929 के सम्मेलन मे, "
"अखिल भारतीय लोधी क्षत्रिय(राजपूत) महासभा' बनी।
शताब्दी के प्रथम भाग मे लोधीयों के राजपूत या क्षत्रिय दावे के समर्थन मे महासभा द्वारा कई पुस्तके प्रकाशित की गयी, जिनमे 1912 की "महलोधी विवेचना" व 1936 की "लोधी समाज ने स्वयं को राजपूत रूप में वर्णित है।
यद्यपि भ्रान्त होकर कुछ अल्पज्ञान सम्पन्न व्यक्ति ऋग्वेद में लुब्ध: शब्द के अर्थक लोध शब्द को देखकर उसे ही गलत रूप में अर्थान्वित करते हैं ।
प्रथम रूप में देखें की वेद में लोधम् का क्या अर्थ सायण ने किया है ।
"न सायकस्य चिकिते जनासो लोधं नयन्ति पशु मन्यमानाः। नावाजिनं वाजिना हासयन्ति न गर्दभं पुरो अश्वान्नयन्ति ॥२३॥ऋग्वेद ३/५३/२३
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न । सायकस्य । चिकिते । जनासः । लोधम् । नयन्ति । पशु । मन्यमानाः ।
न । अवाजिनम् । वाजिना । हासयन्ति । न । गर्दभम् । पुरः । अश्वात् । नयन्ति ॥२३
पुरा खलु तपसः क्षयो मा प्रापदिति शापान्निवृत्तं मौनिनं विश्वामित्रं वसिष्ठपुरुषा बद्ध्वा आनीतवन्तः ।
तान् प्रति विश्वामित्रो ब्रूते । हे “जनासः जनाः “सायकस्य अवसानकारिणो विश्वामित्रस्य मन्त्रगणसामर्थ्यं “न “चिकिते भवद्भिर्न ज्ञायते ।
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अत एव “लोधं लुब्धं तपसः क्षयो मा भूदिति लोभेन तूष्णीं स्थितमृषिं “पशु “मन्यमानाः ।
पशु इति निपातः पशुशब्दसमानार्थः । पशुवन्मन्यमानाः एते “नयन्ति बद्ध्वा स्वकीयं देशं प्रापयन्ति । एवं स्वसामर्थ्यं प्रदर्श्य विसदृशो वसिष्ठो मया सह स्पर्धितुं नार्हतीति धिक्करोति । "नावाजिनम् इति । अवाजिनम् । वाचामिनो वाजिनः सर्वज्ञः । तद्विलक्षणं मूर्खजनं “वाजिना वागीशाः न “हासयन्ति हास्यास्पदं न कुर्वन्ति । तेन सह न स्पर्धन्त इत्यर्थः ।
तथा “गर्दभं रासभम् “अश्वात् “पुरः पुरस्तात् “न “नयन्ति । एवमेव विसदृशो वसिष्ठो न मया स्पर्धितुमीष्ट इत्यर्थः ॥
-हे राजन् ! जो वे (जनासः) मनुष्य (लोधम्) लोभ को प्र (न) नहीं (नयन्ति) वहन करते हैं । (पशु) पशु के सदृश (मन्यमानाः) माने जाते हुए (वाजिना) घोड़े के द्वारा (अवाजिनम्) घोड़े जिसमें नहीं ऐसे सङ्ग्राम को (न) नहीं (हासयन्ति) हराते हैं और (अश्वात्) घोड़े से (पुरः) पूर्व (गर्दभम्) लम्बे कानवाले गदहे को (न) नहीं (नयन्ति) वहन करते हैं उनको (सायकस्य) वाणों का के समान (चिकिते) जानिये ॥२३॥
उपर्युक्त ऋचा में लोध शब्द लोभ का वाचक है
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इन्द्र । ऊतिऽभिः । बहुलाभिः । नः । अद्य । यात्ऽश्रेष्ठाभिः । मघऽवन् । शूर । जिन्व ।
यः । नः । द्वेष्टि । अधरः । सः । पदीष्ट । यम् । ऊं इति । द्विष्मः । तम् । ऊं इति । प्राणः । जहातु ॥२१
परस्य शापं करिष्यन् आदावात्मनो रक्षां कुरुते प्रथमेनार्धर्चेन । हे "शूर शौर्यवन् पराभिभवशक्त हे “मघवन् धनवन् “इन्द्र “अद्य अस्मिन्काले "यात् । यातयतिर्वधकर्मा । यातयतीति यात् । सुपां सुलुक्' इति शसो लुक् । यातः शत्रून् हिंसतः "नः अस्मान् “ऊतिभिः त्वदीयाभी रक्षाभिः "जिन्व प्रीणय । कीदृशीभिः । “बहुलाभिः बह्वीभिः “श्रेष्ठाभिः प्रशस्यतराभिः । अथ शपति । "नः अस्मान् “यः शत्रुर्द्वेष्यः “द्वेष्टि अस्मद्विषयामप्रीतिं करोति “सः “अधरः निकृष्टः सन् "पदीष्ट पततु । वयं च “यमु “द्विष्मस्तमु तं द्वेष्यं “प्राणः देहमध्ये वर्तमानः पञ्चवृत्तिर्वायुः “जहातु परित्यजतु । उशब्दौ पूरकौ ॥
ऋग्वेद-3.53.21
(शूर, मघवन् इंद्र: ) शूरवीर, धनवान इन्द्र ,(अद्य) आज (बहुलाभि: श्रेष्ठाभि: ऊतिभि: ) अनेक श्रेष्ठ रक्षण साधनों (न : द्वेष्टि) हम से द्वेष करने वाले और (यं उ द्विष्म: ) जिन से हम द्वेष करते हैं ( तं अधर: सरप्दीष्ठ) उन्हें नीची गिरा कर (उ प्राणो जहात् ) जिस से उन के प्राण निकल जायें । (यात् ) नष्ट करो |
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परशुम् । चित् । वि । तपति । शिम्बलम् । चित् । वि । वृश्चति ।
उखा । चित् । इन्द्र । येषन्ती । प्रऽयस्ता । फेनम् । अस्यति ॥२२
हे “इन्द्र “परशुं “चित् यथा कुठारं प्राप्य वृक्षः "वि “तपति विशिष्टतापयुक्तो भवति । एवं मदीयो द्वेष्टा वितपतु । “शिम्बलं “चित् शल्मलीकुसुमं यथा अनायासेन वृन्तात् विच्छिद्यते । एवं मद्द्वेष्टा “वि “वृश्चति विच्छिन्नावयवः भवतु । “प्रयस्ता प्रहता “येषन्ती स्रवन्ती “उखा “चित् स्थालीव स द्वेष्टा मदीयमन्त्रसामर्थ्येन प्रहतः सन् “फेनमस्यति फेनं मुखाद्गिरतु ॥
ऋग्वेद-3.53.22
(परशु वि तपति) वह सेनाध्यक्ष अपने शस्त्रों तैयार रखता है ( फेनं अस्यति) क्रोध से अपने मुख से झाग गिराताहै ( ये षन्ति उखा चित् प्रयस्ता )घर की थाली में छेद से चूने वाले आंतरिक हिंसक शत्रुओं को (शिम्बलं चित् वि वृश्चति) अप सुविधाओं और बल का दुरुपयोग करने वाले दुष्टों को काट गिराता है |
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न । सायकस्य । चिकिते । जनासः । लोधम् । नयन्ति । पशु । मन्यमानाः ।
न । अवाजिनम् । वाजिना । हासयन्ति । न । गर्दभम् । पुरः । अश्वात् । नयन्ति ॥२३
पुरा खलु तपसः क्षयो मा प्रापदिति शापान्निवृत्तं मौनिनं विश्वामित्रं वसिष्ठपुरुषा बद्ध्वा आनीतवन्तः । तान् प्रति विश्वामित्रो ब्रूते । हे “जनासः जनाः “सायकस्य अवसानकारिणो विश्वामित्रस्य मन्त्रगणसामर्थ्यं “न “चिकिते भवद्भिर्न ज्ञायते । अत एव “लोधं लुब्धं तपसः क्षयो मा भूदिति लोभेन तूष्णीं स्थितमृषिं “पशु “मन्यमानाः । पशु इति निपातः पशुशब्दसमानार्थः । पशुवन्मन्यमानाः एते “नयन्ति बद्ध्वा स्वकीयं देशं प्रापयन्ति । एवं स्वसामर्थ्यं प्रदर्श्य विसदृशो वसिष्ठो मया सह स्पर्धितुं नार्हतीति धिक्करोति । "नावाजिनम् इति । अवाजिनम् । वाचामिनो वाजिनः सर्वज्ञः । तद्विलक्षणं मूर्खजनं “वाजिना वागीशाः न “हासयन्ति हास्यास्पदं न कुर्वन्ति । तेन सह न स्पर्धन्त इत्यर्थः । तथा “गर्दभं रासभम् “अश्वात् “पुरः पुरस्तात् “न “नयन्ति । एवमेव विसदृशो वसिष्ठो न मया स्पर्धितुमीष्ट इत्यर्थः ॥
ऋग्वेद- 3.53.23
(जनास: ) वे शरवीर सैनिक (सायकस्य न चिकिते) बाणों शस्त्रास्त्रों के अपने दु:ख को कुछ भी नहीं समझते , वे (लोधं) नीच लोभी शत्रु को( पशु मन्यमाना) पशु मान कर (नयन्ति ) जहां चाहें ले जाते हैं , वे (वाजिन: ) अपने बल सामर्थ्य के अभिमान से (अवाजिन: न हासयन्ति ) निर्बल की हंसी नहीं उड़ाते ( गर्दभं पुर: अश्वान् न नयन्ति) और गधों के सामने घोड़ों को नहीं ले जाते |
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इमे । इन्द्र । भरतस्य । पुत्राः । अपऽपित्वम् । चिकितुः । न । प्रऽपित्वम् ।
हिन्वन्ति । अश्वम् । अरणम् । न । नित्यम् । ज्याऽवाजम् । परि । नयन्ति । आजौ ॥२४
हे “इन्द्र “भरतस्य “पुत्राः भरतवंश्याः “इमे विश्वामित्राः “अपपित्वम् अपगमनं वसिष्ठेभ्यः “चिकितुः जानन्ति । “प्रपित्वं प्रगमनं “न जानन्ति । शिष्टैः सह तेषां संगतिर्नास्ति । बाह्याः एव त इत्यर्थः । अपि च "आजौ संग्रामे “नित्यं सहजम् “अरणं “न अरिमिव वसिष्ठान् प्रति “अश्वं “हिन्वन्ति प्रेरयन्ति । ततश्च “ज्यावाजं बलं धनुः “परि “णयन्ति । वसिष्ठान् हन्तुं शरसंधानेन चरन्ति ।। ॥ २४॥
ऋग्वेद -3.53.24
( इम इन्द्र भरतस्य पुत्रा: ) इस भारत के सपूत सैनिक ( नित्यं आजौ अश्वं अरणं न
हिन्वति ) सदैव युद्ध में अपने घोड़ों शस्र वाहनों को ऐसे युद्ध क्षेत्र में ऐसे दौड़ाते है कि
जैसे साफ मैदान है और (ज्यावाजं परि नयन्ति ) अपने धनुष की डोरी की ध्वनि से सब
को कम्पित कर देते हैं
(रुणद्धीति । रुध + अच् । रस्य लः । ) स्वनामख्यातवृक्षः । रक्तवर्णस्य तस्य पर्य्यायः । तिरीटः २ मार्ज्जनः ३ रक्तः ४ लोध्रः ५तिन्दुकः ६ । श्वेतस्य तस्य पर्य्यायः । शुक्लः २शवरलोध्रः ३ महालोध्रः ४ शावरः ५ । इति रत्नमाला ॥ अस्य गुणाः । अस्रकफवातनाशित्वम् । चक्षुष्यत्वम् । शोथजित्त्वम् । सरत्वञ्च । इति राजवल्लभः
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में कई मत प्रचलित हैं।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत संस्कृत के राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है; राजपुत्र शब्द हिन्दू धर्म ग्रंथों में कई स्थानों पर देखने को मिल जायेगा लेकिन वह जातिसूचक के रूप में नही होता अपितु किसी भी राजा के संबोधन सूचक शब्द के रूप में होता है ।
परन्तु अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि पुराणों में एक स्थान पर राजपुत्र जातिसूचक शब्द के रूप में आया है जो कि इस प्रकार है-👇
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् खण्डः प्रथम
(ब्रह्मखण्डः)अध्यायः(१०) का श्लोकसंख्या-( ११०)
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे जातिसम्बन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।।
भावार्थ:- क्षत्रिय से करण-कन्या(वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से ) में राजपुत्र और राजपुत्र की कन्या में करण द्वारा 'आगरी' उत्पन्न हुआ।
राजपुत्र के क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या के गर्भ में उत्पन्न होने का वर्णन (शब्दकल्पद्रुम) में भी आया है- "करणकन्यायां क्षत्त्रियाज्जातश्च इति पुराणम् ॥"
अर्थात:- क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या में उतपन्न संतान...
यूरोपीय विश्लेषक मोनियर विलियमस् ने भी लिखा है कि-
A rajpoot,the son of a vaisya by an ambashtha or the son of Kshatriya by a karan...
~A Sanskrit English Dictionary:Monier-Williams, page no. 873
शब्दकल्पद्रुम व वाचस्पत्य में भी एक अन्य स्थान पर भी राजपुत्र शब्द जातिसूचक शब्द के रूप में आया है; जो कि इस प्रकार है:-
३- वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां
राजपुत्रस्य सम्भवः” इति पराशरः ।
अर्थात:- वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उतपन्न होता है।
राजपूत सभा के अध्यक्ष श्री गिर्राज सिंह लोटवाड़ा जी के अनुसार राजपूत शब्द रजपूत शब्द से बना है जिसका अर्थ वे मिट्टी का पुत्र बतलाते हैं...
थोड़ा अध्ययन करने के बाद ये रजपूत शब्द हमें स्कंद पुराण के सह्याद्री खण्ड में देखने को मिलता है जो कि इस प्रकार एक वर्णसंकर जाति के अर्थ में है-
शय्या विभूषा सुरतं भोगाष्टकमुदाहृतम्।
शूद्रायां क्षत्रियादुग्रः क्रूरकर्मा प्रजायते।।४७।।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्रामकुशलो भवेत्।
तया वृत्त्या स जीवेद्यो शूद्रधर्मा प्रजायते।।४८।।
राजपूत इति ख्यातो युद्धकर्मविशारदः।
वैश्य धर्मेण शूद्रायां ज्ञात वैतालिकाभिध:।४९
उपर्युक्त सन्दर्भ:-
(स्कन्दपुराण- आदिरहस्य सह्याद्रि-खण्ड- व्यास देव व सनत्कुमार का संकर जाति विषयक संवाद नामक २६ वाँ अध्याय-श्लोक संख्या- ४७,४८,४९ पर राजपूतों की उत्पत्ति वर्णसंकर के रूप में है ।
भावार्थ:-क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र- वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।
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कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है...
लेकिन अमरकोष में राजपूत और क्षत्रिय शब्द को परस्पर पर्यायवाची नही बतलाया है;स्वयं देखें-
मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो क्षत्रियो बाहुजो विराट्।
राजा राट् पार्थिवक्ष्मा भृन्नृपभूपमहीक्षित:।।
-अमरकोष
अर्थात:- मूर्धाभिषिक्त,राजन्य,बाहुज,क्षत्रिय,विराट्,राजा,राट्,पार्थिव,क्ष्माभृत्,नृप,भूप,और महिक्षित ये क्षत्रिय शब्द के पर्याय है।
इसमें 'राजपूत' शब्द या तदर्थक कोई अन्य शब्द नहीं आया है।
पुराणों के निम्न श्लोक को पढ़ें-
सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति।
बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः।।
-ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः १ (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १०/श्लोकः (९९)
भावार्थ:-क्षत्रिय के बीज से राजपुत्र की स्त्री में तीवर उतपन्न हुआ।वह भी व्याभिचार दोष के कारण पतित कहलाया।
यदि क्षत्रिय और राजपूत परस्पर पर्यायवाची शब्द होते तो क्षत्रिय पुरुष और राजपूत स्त्री की संतान राजपूत या क्षत्रिय ही होती न कि तीवर या धीवर!!
इसके अतिरिक्त शब्दकल्पद्रुम में राजपुत्र को वर्णसंकर जाति लिखा है जबकि क्षत्रिय वर्णसंकर नही...
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Manohar Laxman varadpande(1987). History of Indian theatre: classical theatre. Abhinav Publication. Page number 290
"The word kshatriya is not synonyms with Rajput."
अर्थात- क्षत्रिय शब्द राजपूत का पर्यायवाची नहीं है।
मराठी इतिहासकार कालकारंजन ने अपनी पुस्तक (प्राचीन- भारताचा इतिहास) के हर्षोत्तर उत्तर भारत नामक विषय के प्रष्ठ संख्या ३३४ में राजपूत और वैदिक क्षत्रिय भिन्न भिन्न बतलाये हैं।
वैदिक क्षत्रियों द्वारा पशुपालन करने का उल्लेख धर्म ग्रंथों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है जबकि राजपूत जाति पशुपालन को अत्यंत घृणित दृष्टि से देखती है और पशुपालन के प्रति संकुचित मानसिकता रखती है...
महाभारत में जरासंध पुत्र सहदेव द्वारा गाय भैंस भेड़ बकरी को युधिष्ठिर को भेंट करने का उल्लेख मिलता है;युधिष्ठिर जो कि एक क्षत्रिय थे पशु पालन करते होंगे तभी कोई भेंट में पशु देगा-
सहदेव उवाच।
इमे रत्नानि भूरिणी गोजाविमहिषादयः।।
हस्तिनोऽश्वाश्च गोविन्द वासांसि विविधानि च।
दीयतां धर्मराजाय यथा वा मन्यते भवान्।।
~महाभारतम्/ सभापर्व(जरासंध वध पर्व)/अध्याय: २४/ श्लोक: ४१
सहदेव ने कहा- प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सवा के लिये आदेश दीजिये।।
इसके अतिरिक्त कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में क्षत्रिय को भेड़ पालने के लिए कहा गया है
कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत एक संघ है
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है-
Brajadulal Chattopadhyay 1994; page number 60-
प्रारंभिक मध्ययुगीन साहित्य बताता है कि इस नवगठित राजपूत में कई जातियों के लोग शामिल थे।
भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने इस ऐतिहासिक तथ्य का पूर्णतः पता लगा लिया है कि जिस काल में इस जाति का भारत के राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण हुआ था,उस काल में यह एक नवागन्तुक जाति समझती जाती थी।
बंगाल के अद्वितीय विद्वान स्वर्गीय श्री रमेशचंद्र दत्त महोदय अपने(Civilization in Ancient India) नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के भाग-२ , प्रष्ठ १६४ में लिखते है-
आठवीं शताब्दी के पूर्व राजपूत जाति हिंदू आर्य नहीं समझी जाती थी।देश के साहित्य तथा विदेशी पर्यटकों के भृमण वृत्तान्तों में उनके नाम का उल्लेख हम लोगों को नहीं मिलता और न उनकी किसी पूर्व संस्कृति के चिन्ह देखने में आते हैं।डॉक्टर एच० एच० विल्सन् ने यह निर्णय किया है कि ये(राजपूत)उन शक आदि विदेशियों के वंशधर है जो विक्रमादित्य से पहले,सदियों तक भारत में झुंड के झुंड आये थे।
विदेशी जातियां शीघ्र ही हिंदू बन गयी।वे जातियाँ अथवा कुटुम्ब जो शासक पद को प्राप्त करने में सफल हुए हिंदुओं की राज्यशासन पद्धति में क्षत्रिय बनकर तुरन्त प्रवेश कर गए।इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तर के परिहार तथा अनेक अन्य राजपूत जातियों का विकास उन बर्बर विदेशियों से हुआ है, जिनकी बाढ़ पाँचवीं तथा छठी शताब्दीयों में भारत में आई थी।
इतिहास-विशारद स्मिथ साहब अपने Early History of India including Alexander's Compaigns, second edition,page no. 303 and 304 में लिखते हैं-
आगे दक्षिण की ओर से बहुत सी आदिम अनार्य जातियों ने भी हिन्दू बनकर यही सामाजिक उन्नति प्राप्त कर ली,जिसके प्रभाव से सूर्य और चंद्र के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाली वंशावलियों से सुसज्जित होकर गोड़, भर,खरवार आदि क्रमशः चन्देल, राठौर,गहरवार तथा अन्य राजपूत जातियाँ बनकर निकल पड़े।
इसके अतिरिक्त स्मिथ साहब अपने The Oxford student's history of India, Eighth Edition, page number 91 and 92 में लिखते हैं-
उदाहरण के लिए अवध की प्रसिद्ध राजपूत जाति जैसों को लीजिये।ये भरों के समीपी सम्बन्धी अथवा अन्य इन्हीं की संतान हैं।आजकल इन भरों की प्रतिनिधि, अति ही नीची श्रेणी की एक बहुसंख्यक जाति है।
जस्टिस कैम्पबेल साहब ने लिखा है कि प्राचीन-काल की रीति-रिवाजों (आर्यों की) को मानने वाले जाट, नवीन हिन्दू-धर्म के रिवाजों को मानने पर राजपूत हैं। जाटों से राजपूत बने हैं न कि राजपूतों से जाट।
जबकि स्व० प्रसिद्ध इतिहासकार शूरवीर पँवार ने अपने एक शोध आलेख में गुर्जरों को राजपूतों का पूर्वज माना है।
मुहम्मद कासिम फरिश्ता ने भी राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में फ़ारसी में अपनी पुस्तक
"तारीक ऐ फरिश्ता" में अपना मत प्रस्तुत किया है इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया Lt Colonel John Briggs ने जो मद्रास आर्मी में थे, किताब के पहले वॉल्यूम ( Volume - 1 ) के Introductory Chapter On The Hindoos में पेज नंबर 15 पर लिखा है-
The origion of Rajpoots is thus related The rajas not satisfied with their wives, had frequently children by their female slaves who although not legitimate successors to the throne ,were Rajpoots or the children of the rajas
अर्थात:- राजा अपनी पत्नियों से संतुष्ट नहीं थे, उनकी महिला दासियो द्वारा अक्सर बच्चे होते थे, जो सिंहासन के लिए वैध उत्तराधिकारी नहीं थे, लेकिन इनको राजपूत या राजा के बच्चे या राज पुत्र कहा जाता था ।
प्रसिद्ध इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद जी ने अपनी पुस्तक
"A Short History Of Muslim Rule In India" के पेज नंबर 19 पर बताया है की राजपुताना में किसको बोला जाता है राजपूत-
The word Rajput in comman paralance,in certain states of Rajputana is used to denote the illegitimate sons of a Ksatriya chief or a jagirdar.
अर्थात:-राजपुताना के कुछ राज्यों में आम बोल चाल में राजपूत शब्द का प्रयोग एक क्षत्रिय मुखिया या जागीरदार के नाजायज बेटों को सम्बोधित करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
विद्याधर महाजन जी ने अपनी पुस्तक "Ancient India" जो की 1960 से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढाई जा रही है , के पेज 479 पर लिखा है:-
The word Rajput is used in certain parts of Rajasthan to denote the illegitimate sons of a Kshatriya Chief ar Jagirdar. अर्थात:- राजपूत शब्द राजस्थान के कुछ हिस्सों में एक क्षत्रिय प्रमुख या जागीरदार के नाजायज बेटों को निरूपित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
History of Rise of Mohammadan power in India, volume 1, chapter 8
The Rajas, not satisfied with their wives, had frequently children by their female slaves, who, although not legitimate successors to the throne,were styled rajpoots, or the children of the rajas. The muslim Invaders took full advantage of this realy bad and immoral practice popular among indian kings, to find a good alley among hindoos and to also satisfy their own lust and appointed those son of kings as their Governors.
During mugal period this community became so powerful that they started abusing their own people motherland.
History of Rajsthan book "He was son of king but not from the queen."
राजस्थान का इतिहास भाग-1:-गोला का अर्थ दास अथवा गुलाम होता है। भीषण दुर्भिक्षों के कारण राजस्थान में गुलामों की उत्पत्ति हुई थी। इन अकालों के दिनों में हजारों की संख्या में मनुष्य बाजारों में दास बनाकर बेचे जाते थे। पहाड़ों पर रहने वाली पिंडारी और दूसरी जंगली जातियों के अत्याचार बहुत दिनों तक चलते रहे और उन्हीं जातियों के लोगों के द्वारा बाजारों में दासों की बिक्री होती थी, वे लोग असहाय राजपूतों को पकड़कर अपने यहाँ ले जाते थे और उसके बाद बाजारों में उनको बेच आते थे। इस प्रकार जो निर्धन और असहाय राजपूत खरीदे और बेचे जाते थे, उनकी संख्या राजस्थान में बहुत अधिक हो गयी थी और उन लोगों की जो संतान पैदा होती थी, वह गोला के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन गुलाम राजपूतों को गोला और उनकी स्त्रियों तथा लड़कियों को गोली कहा जाता था।
इन गोला लोगों में राजपूत, मुसलमान और अनेक दूसरी जातियों के लोग पाये जाते हैं। बाजारों में उन सबका क्रय और विक्रय होता है। बहुत से राजपूत सामन्त इन गोला लोगों की अच्छी लड़कियों को अपनी उपपत्नी बना लेते हैं और उनसे जो लड़के पैदा होते हैं, वे सामन्तों के राज्य में अच्छे पदों पर काम करने हेतु नियुक्त कर दिये जाते हैं। देवगढ़ का स्वर्गीय सामन्त जब उदयपुर राजधानी में आया करता था तो उसके साथ तीन सौ अश्वारोही गोला सैनिक आया करते थे। उन सैनिकों के बायें हाथ एक-एक साने का कडा होता था
जैसा कि राजस्थान का इतिहास नामक पुस्तक में लिखा है कि इन्हें अच्छे पदों पर काम करने के हेतु नियुक्त किया जाता था और history of Rise of Mohammadan में भी लिखा कि मुगल काल में ये शक्तिशाली होने लगे तब इन्होंने सत्ता के लिए लड़ना प्रारम्भ कर दिया जैसा कि ऐतिहासिक ग्रंथो में ऐसे राजाओं के प्रमाण मिल जायेंगे जो जीवन भर सत्ता के लिए लड़ते रहे
जैसा कि कर्नल टॉड की किताब राजस्थान का इतिहास में कन्नौज और अनहिलवाडा के राजाओं ने सत्ता के लिए पृथ्वीराज चौहान को शक्तिहीन करने के लिए गजनी के शाहबुद्दीन को आमंत्रित किया!!
और अजीत सिंह ने सत्ता के लिए राजा दुर्गादास राठौर को राज्य से निष्कासित करवा दिया।
राणा सांगा के बड़े भाई पृथ्वीराज के दासी पुत्र बनवीर ने सत्ता के लिए विक्रमादित्य की हत्या करवाई...
इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा की एक पुस्तक में प्रताप सिंह द्वारा सत्ता के लिए जगपाल को मारने का उल्लेख मिलता है।
पृथ्वीराज उड़ाना और राणा सांगा के मध्य सत्ता के लिए खुनी झगड़ा होने का ऐतिहासिक पुस्तको में जिक्र मिलता है और इसी झगड़े में राणा सांगा अपनी एक आँख और हाथ खो देते है और पृथ्वीराज उड़ाना को मरवा देते है।
कैसे सत्ता के लिए राजकुमार रणमल राठौर राणा मोकल को रेकय से निकलवा देता है और राणा राघव देव की हत्या करवा देता है!!
ऐसे करके ये सत्ता में बने रहे और इनकी वित्तीय स्थिति काफी मजबूत हो गयी...
वित्तमेव कलौ नृणां जन्माचारगुणोदयः। धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि।।
~श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध द्वितीय अध्याय श्लोक संख्या २
भावार्थ:-कलयुग में जिसके पास धन होगा,उसी को लोग कुलीन,सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे।जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा।
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