गर्गसंहिता -खण्डः प्रथम-(गोलोकखण्डः)अध्यायः तृतीय
"आगमनोद्योग वर्णनम्
मुने देवा महात्मानं कृष्णं दृष्ट्वा परात्परम् ।
अग्रे किं चक्रिरे तत्र तन्मे ब्रूहि कृपां कुरु ॥ १॥
नारद उवाच -
सर्वेषां पश्यतां तेषां वैकुंठोऽपि हरिस्ततः ।
उत्थायाष्टभुजः साक्षाल्लीनोऽभूत्कृष्णविग्रहे ॥२॥
तदैव चागतः पूर्णो नृसिंहश्चण्डविक्रमः ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशो लीनोऽभूत्कृष्णतेजसि ॥३॥
रथे लक्षहये शुभ्रे स्थितश्चागतवांस्ततः ।
श्वेतद्वीपाधिपो भूमा सहस्रभुजमंडितः ॥४॥
श्रिया युक्तः स्वायुधाढ्यः पार्षदैः परिसेवितः ।
संप्रलीनो बभूवाशु सोऽपि श्रीकृष्णविग्रहे ॥५॥
तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः ।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥६॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे ।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥७॥
लक्षध्वजे लक्षहये शातकौंभे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः संप्रलीनो बभूव ह ॥८॥
तदैव चागतः साक्षाद्यज्ञो नारायणो हरिः ।
प्रस्फुरत्प्रलयाटोपज्वलदग्निशिखोपमः ॥९॥
रथे ज्योतिर्मये दृश्यो दक्षिणाढ्यः सुरेश्वरः ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामविग्रहे॥१०॥
तदा चागतवान् साक्षान्नरनारायणः प्रभुः ।
चतुर्भुजो विशालाक्षो मुनिवेषो घनद्युतिः ॥११॥
तडित्कोटिजटाजूटः प्रस्फुरद्दीप्तिमंडलः।
मुनीन्द्रमण्डलैर्दिव्यैर्मण्डितोऽखण्डितव्रतः ॥१२॥
सर्वेषां पश्यतां तेषामाश्चर्य मनसा नृप ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामसुंदरे ॥१३॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं च स्वयं प्रभुम् ।
ज्ञात्वा देवाः स्तुतिं चक्रुः परं विस्मयमागताः ॥१४॥
।।देवा ऊचुः।।
कृष्णाय पूर्णपुरुषाय परात्पराय
यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय ।
राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षा-
द्गोलोकधाम धिषणाय नमः परस्मै ॥१५॥
योगेश्वराः किल वदन्ति महः परं त्वां
तत्रैव सात्वतमनाः कृतविग्रहं च ।
अस्माभिरद्य विदितं यददोऽद्वयं ते
तस्मै नमोऽस्तु महसां पतये परस्मै ॥१६॥
व्यङ्गेन वा न न हि लक्षणया कदापि
स्फोटेन यच्च कवयो न विशंति मुख्याः ।
निर्देश्यभावरहितः प्रकृतेः परं च
त्वां ब्रह्म निर्गुणमलं शरणं व्रजामः ॥१७॥
त्वां ब्रह्म केचिदवयंति परे च कालं
केचित्प्रशांतमपरे भुवि कर्मरूपम् ।
पूर्वे च योगमपरे किल कर्तृभाव-
मन्योक्तिभिर्न विदितं शरणं गताः स्मः ॥१८॥
श्रेयस्करीं भगवतस्तवपादसेवां
हित्वाथ तीर्थयजनादि तपश्चरन्ति ।
ज्ञानेन ये च विदिता बहुविघ्नसङ्घैः
सन्ताडिताः किमु भवन्ति न ते कृतार्थाः ॥१९॥
विज्ञाप्यमद्य किमु देव अशेषसाक्षी
यः सर्वभूतहृदयेषु विराजमानः ।
देवैर्नमद्भिरमलाशयमुक्त देहै-
स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥२०॥
यो राधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहारः
श्रीगोपिकानयनजीवनमूलहारः ।
गोलोकधामधिषणध्वज आदिदेवः
स त्वं विपत्सु विबुधान् परिपाहि पाहि ॥२१॥
वृन्दावनेश गिरिराजपते व्रजेश
गोपालवेषकृतनित्यविहारलील ।
राधापते श्रुतिधराधिपते धरां त्वं
गोवर्द्धनोद्धरण उद्धर धर्मधाराम् ॥२२॥
हिन्दी अनुवाद सहित-
गर्ग संहिता गोलोक खण्ड : अध्याय 3
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान श्री जनकजी ने पूछा-
मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये।
उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये।
इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं।
वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे।
वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे।
उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।
उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी। उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था।
उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये। फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे।
देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे।
उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
गोलोक खण्ड : अध्याय 3
उनका दीप्तिमण्डल सब ओर उद्भासित हो रहा था। दिव्य मुनीन्द्रमण्डलों से मण्डित वे भगवान नारायण अपने अखण्डित ब्रह्मचर्य से शोभा पाते थे।
राजन ! सभी देवता आश्चर्ययुक्त मन से उनकी ओर देख रहे थे। किंतु वे भी श्याम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण में तत्काल लीन हो गये।
इस प्रकार के विलक्षण दिव्य दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं को महान आश्चर्य हुआ।
उन सबको यह भली-भाँति ज्ञात हो गया कि परमात्मा श्रीकृष्ण चन्द्र स्वयं परिपूर्णतम भगवान हैं। तब वे उन परमप्रभु की स्तुति करने लगे।
देवता बोले- जो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र पूर्ण पुरुष, परसे भी पर, यज्ञों के स्वामी, कारण के भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात गोलोकधाम के अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं।
योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप परम तेज:पुंज हैं; शुद्ध अंत:करण वाले भक्तजन ऐसा मानते हैं कि आप लीला विग्रह धारण करने वाले अवतारी पुरुष हैं; परंतु हम लोगों ने आज आपके जिस स्वरूप को जाना है, वह अद्वैत सबसे अभिन्न एक अद्वितीय है; अत: आप महत्तम तत्त्वों एवं महात्माओं के भी अधिपति हैं;
आप परब्रह्म परमेश्वर को हमारा नमस्कार है। कितने विद्वानों ने व्यंजना, लक्षणा और स्फोटद्वारा आपको जानना चाहा; किंतु फिर भी वे आपको पहचान न सके; क्योंकि आप निर्दिष्ट भाव से रहित हैं।
अत: माया से निर्लेप आप निर्गुण ब्रह्म की हम शरण ग्रहण करते हैं। किन्हीं ने आपको ‘ब्रह्म’ माना है, कुछ दूसरे लोग आपके लिये ‘काल’ शब्द का व्यवहार करते हैं।
कितनों की ऐसी धारणा है कि आप शुद्ध ‘प्रशांत’ स्वरूप हैं तथा कतिपय मीमांसक लोगों ने तो यह मान रखा है कि पृथ्वी पर आप ‘कर्म’ रूप से विराजमान हैं। कुछ प्राचीनों ने ‘योग’ नाम से तथा कुछ ने ‘कर्ता’ के रूप में आपको स्वीकार किया है।
इस प्रकार सबकी परस्पर विभिन्न ही उक्तियाँ हैं। अतएव कोई भी आपको वस्तुत: नहीं जान सका। (कोई भी यह नहीं कह सकता कि आप यही हैं, ‘ऐसे ही’ हैं।) अत: आप (अनिर्देश्य, अचिंत्य, अनिर्वचनीय) भगवान की हमने शरण ग्रहण की है।
भगवन ! आपके चरणों की सेवा अनेक कल्याणों के देने वाली है। उसे छोड़कर जो तीर्थ, यज्ञ और तप का आचरण करते हैं, अथवा ज्ञान के द्वारा जो प्रसिद्ध हो गये हैं; उन्हें बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ता है; वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते।
गोलोक खण्ड : अध्याय 3
भगवन ! अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्र के भीतर विद्यमान हैं। जो शुद्ध अंत:करण वाले एवं देह बन्धन से मुक्त हैं, वे (हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को हमारा प्रणाम है। जो श्रीराधिकाजी के हृदय को सुशोभित करने वाले चन्द्रहार हैं, गोपियों के नेत्र और जीवन के मूल आधार हैं तथा ध्वजा की भाँति गोलोकधाम को अलंकृत कर रहे हैं, आदिदेव भगवान आप संकट में पड़े हुए हम देवताओं की रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन ! आप वृन्दावन के स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रज के अधिनायक हैं, गोपाल के रूप में अवतार धारण करके अनेक प्रकार की नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजी प्राणवल्ल्भ एवं श्रुतिधरों के भी आप स्वामी हैं। आप ही गोर्वधन धारी हैं, अब आप धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें। |
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।।श्रीनारद उवाच ।।
इत्युक्तो भवान् साक्षाच्छ्रीकृष्णो गोकुलेश्वरः ।
प्रत्याह प्रणतान्देवान्मेघगंभीरया गिरा ॥ २३ ॥
।।श्रीभगवानुवाच।।
हे सुरज्येष्ठ हे शंभो देवाः शृणुत मद्वचः ।
यादवेषु च जन्यध्वमंशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥ २४ ॥
अहं च अवतरिष्यामि हरिष्यामि भुवो भरम् ।
करिष्यामि च वः कार्यं भविष्यामि यदोः कुले ॥२५॥
वेदा मे वचनं विप्रा मुखं गावस्तनुर्मम ।
अंगानि देवता यूयं साधवो ह्यसवो हृदि ॥२६॥
युगे युगे च बाध्येत यदा पाखंडिभिर्जनैः ।
धर्मः क्रतुर्दया साक्षात्तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥२७॥
।।श्रीनारद उवाच।।
इत्युक्तवन्तं जगदीश्वरं हरिं
राधा पतिप्राणवियोगविह्वला ।
दावाग्निना दुःखलतेव मूर्छिता-
श्रुकंपरोमांचितभावसंवृता ॥२८॥
।।श्रीराधोवाच ।।
भुवो भरं हर्तुमलं व्रजेर्भुवं
कृतं परं मे शपथं शृणोत्वतः ।
गते त्वयि प्राणपते च विग्रहं
कदाचिदत्रैव न धारयाम्यहम् ॥२९॥
यदा त्वमेवं शपथं न मन्यसे
द्वितीयवारं प्रददामि वाक्पथम् ।
प्राणोऽधरे गन्तुमतीव विह्वलः
कर्पूरधूमः कणवद्गमिष्यति ॥ ३०॥
।।श्रीभगवानुवाच ।।
त्वया सह गमिष्यामि मा शोकं कुरु राधिके ।
हरिष्यामि भुवो भारं करिष्यामि वचस्तव ॥३१॥
।।श्रीराधिकोवाच।।
यत्र वृन्दावनं नास्ति यत्र नो यमुना नदी ।
यत्र गोवर्द्धनो नास्ति तत्र मे न मनःसुखम् ॥३२॥
।।श्रीनारद उवाच ।।
वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
गोवर्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥३३॥
तदा ब्रह्मा देवगणैर्नत्वा नत्वा पुनः पुनः ।
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं समुवाच ह ॥३४॥
नारदजी कहते है- इस प्रकार स्तुति करने पर गोकुलेश्वर भगवान श्रीकृष्ण प्रणाम करते हुए देवताओं को सम्बोधित करके मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोले-।
श्रीकृष्ण भगवान ने कहा- ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य) देवताओं ! तुम सब मेरी बात सुनो। मेरे आदेशानुसार तुम लोग अपने अंशों से देवियों के साथ यदुकुल में जन्म धारण करो।
मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वी का भार दूर होगा। मेरा वह अवतार यदुकुल में होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा।
वेद मेरी वाणी, ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है। सभी देवता मेरे अंग हैं। साधुपुरुष तो हृदय में वास करने वाले मेरे प्राण ही हैं।
अत: प्रत्येक युग में जब दम्भपूर्ण दुष्टों द्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ तथा दयापर भी भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको भूतल पर प्रकट करता हूँ।
श्रीनारदजी कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी क्षण ‘अब प्राणनाथ से मेरा वियोग हो जायेगा’ यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानल से दग्ध लता की भाँति मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं।
उनके शरीर में अश्रु, कम्प, रोमांच आदि सात्त्विक भावों का उदय हो गया।
गोलोक खण्ड : अध्याय 3
श्रीराधिकाजी ने कहा- आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये भूमण्डल पर अवश्य पधारें; परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन लें- प्राणनाथ ! आपके चले जाने पर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी।
यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञा पर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ। अब मेरे प्राण अधर तक पहुँचने को अत्यंत विह्वल हैं।
ये इस शरीर से वैसे ही उड़ जायँगे, जैसे कपूर के धूलिकण। श्रीभगवान बोले- राधिके ! तुम विषाद मत करो। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और पृथ्वी का भार दूर करूँगा। मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी।
श्रीराधिकाजी ने कहा- (परंतु) प्रभो ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मन को सुख नहीं मिलता।
नारदजी कहते हैं- (श्रीराधिकाजी के इस प्रकार कहने पर) भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा।
उस समय सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजी ने परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार प्रणाम करके कहा।
श्रीब्रह्माजी ने कहा- भगवन ! मेरे लिये कौन स्थान होगा ? आप कहाँ पधारेंगे ? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहों में रहेंगे और किन-किन नामों से इनकी प्रसिद्धि होगी?
श्रीभगवान ने कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकी के यहाँ प्रकट होऊँगा। मेरे कला स्वरूप ये ‘शेष’ रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे- इसमें संशय नहीं है।
साक्षात ‘लक्ष्मी’ राजा भीष्म के घर पुत्री रूप से उत्पन्न होंगी। इनका नाम ‘रुक्मणी’ होगा और ‘पार्वती’ ‘जाम्बवती’ के नाम से प्रकट होंगी।
यज्ञ पुरुष की पत्नि ‘दक्षिणा देवी’ वहाँ ‘लक्ष्मणा’ नाम धारण करेंगी। यहाँ जो ‘विरजा’ नाम की नदी है, वही ‘कालिन्दी’ नाम से विख्यात होगी। भगवती ‘लज्जा’ का नाम ‘भ्रदा’ होगा।
समस्त पापों का प्रशमन करने वाली ‘गंगा’ ‘मित्रविन्दा’ नाम धारण करेगी। जो इस समय ‘कामदेव’ हैं, वे ही रुक्मणी के गर्भ से ‘प्रद्युम्न’ रूप में उत्पन्न होंगे।
प्रद्युम्न के घर तुम्हारा अवतार होगा। उस समय तुम्हें ‘अनिरूद्ध’ कहा जायेगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
ये ‘वसु’ जो ‘द्रोण’ के नाम से प्रसिद्ध हैं, व्रज में ‘नन्द’ होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया ‘धरा देवी’ ‘यशोदा’ नाम धारण करेंगी। ‘सुचन्द्र’ ‘वृषभानु’ बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी ‘कलावती’ धराधाम पर ‘कीर्ति’ के नाम से प्रसिद्ध होंगी।
फिर उन्हीं के यहाँ इन श्रीराधिकाजी का प्राकट्य होगा। मैं व्रजमण्डल में गोपियों के साथ सदा रासविहार करूँगा।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोक खण्डा के अंतर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘भूतल पर आगमन(अवतीर्ण) होने के उद्योग का वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।
।।श्रीनारद उवाच ।।
इत्युक्तो भवान् साक्षाच्छ्रीकृष्णो गोकुलेश्वरः ।
प्रत्याह प्रणतान्देवान्मेघगंभीरया गिरा ॥ २३ ॥
।।श्रीभगवानुवाच।।
हे सुरज्येष्ठ हे शंभो देवाः शृणुत मद्वचः ।
यादवेषु च जन्यध्वमंशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥ २४ ॥
अहं च अवतरिष्यामि हरिष्यामि भुवो भरम् ।
करिष्यामि च वः कार्यं भविष्यामि यदोः कुले ॥२५॥
।।श्रीब्रह्मोवाच।। -
अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि ।
एते कुत्र भविष्यन्ति कैर्गृहैः कैश्च नामभिः ॥ ३५ ॥
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।।श्रीभगवानुवाच ।।-
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यामि परः स्वयम् ।
रोहिण्यां मत्कला शेषो भविष्यति न संशयः ॥ ३६ ॥
श्री साक्षाद्रुक्मिणी भैष्मी शिवा जांबवती तथा ।
सत्या च तुलसी भूमौ सत्यभामा वसुंधरा ॥३७॥
दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा ।
भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवी पापनाशिनी ॥३८॥
रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः ।
भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि ॥३९॥
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नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाद्यशोदा सा धरा स्मृता ।
वृषभानुः सुचन्द्रश्च तस्य भार्या कलावती ॥ ४०॥
भूमौ कीर्तिरिति ख्याता तस्या राधा भविष्यति ।
सदा रासं करिष्यामि गोपीभिर्व्रजमण्डले ॥ ४१ ॥
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इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
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