रविवार, 4 जुलाई 2021

बुद्ध एक काल विभेदक मानव- महाभारत शान्ति पर्व और रामायण अयोध्या काण्ड तथा सभी पुराणों में बुद्ध का वर्णन-


भारतीय इतिहास का सम्यक् काल निर्धारण बुद्ध की स्थिति से होता है।
भागवत आदि समस्त  पुराणों में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि ये भागवतपुराण आदि बुद्ध के बहुत बाद तक लिखे जाते हैं ।

"दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर वर्णन है कि 👇

"अर्थानुवाद-

दैत्य और दानवों को  मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।                                    और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे !     मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।


"महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व के  भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में स्वयं भीष्म पितामह भगवान कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में ही उनके भविष्य में होने वाले अन्य अवतारों बुद्ध और कल्कि की स्तुति भी करते हैं ।  

भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇


भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार का स्तुति करते हैं ।

जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -

👇अब बुद्ध का समय ई०पू० (566)वर्ष है । फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं ? 

नि:सन्देह सत्य के दर्शन के लिए  हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।


पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है ।

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा  बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।

इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।

नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन  इस प्रकार है। देखें👇
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👇

दानवांस्तु  वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।          सर्गस्य  रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।

अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन:  बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।

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हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्‍छांस्तुरगवाहन:।धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।


जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्‍छों का वध करेंगे उन कल्कि  रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

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( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।

                ।भीष्म उवाच।
नारदः परिप्रपच्छ भगवन्तं जनार्दनम्।
एकार्णवे महाघोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे।१।

        "श्रीगवानुवाच"

    शृणु नारद तत्वेन                    प्रादुर्भावान्महामुने।

     मत्स्यः कूर्मो वराहश्च               नरसिंहोऽथ वामनः।

  रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः            कल्कीति ते दश।।२।

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ततः कलियुगस्यादौ द्विजराजतरुं श्रितः।
भीषया मागधेनैव धर्मराजगृहे वसन्।।४२।

काषायवस्रसंवीतो मुण्डितः शुक्लदन्तवान्।
शुद्धोदनसुतो बुद्धो मोहयिष्यामि मानवान्।।४३।

शूद्राः सुद्धेषु भुज्यन्ते मयि बुद्धत्वमागते।
भविष्यन्ति नराः सर्वे बुद्धाः काषायसंवृताः।।४४।

अनध्याया भविष्यन्ति विप्रा यागविवर्जिताः।
अग्निहोत्राणि सीदन्ति गुरुपूजा च नश्यति।।४५।

न शृण्वन्ति पितुः पुत्रा न स्नुषा नैव भ्रातरः।
न पौत्रा न कलत्रा वा वर्तन्तेऽप्यधमोत्तमाः।।४६।

एवंभूतं जगत्सर्वं श्रुतिस्मृतिविवर्जितम्।
भविष्यति कलौ पूर्णे ह्यशुद्धो धर्मसंकरः।।४७।

तेषां सकाशाद्धर्मज्ञा देवब्रह्मविदो नराः।
भविष्यन्ति ह्यशुद्धाश्च न्यायच्छलविभाषिणः।।४८।

ये नष्टधर्मश्रोतारस्ते समाः पापनिश्चये।
तस्मादेता न संभाष्या न स्पृश्या च हितार्थिभिः।
उपवासत्रयं कुर्यात्तत्संसर्गविशुद्धये।।४९।

ततः कलियुगस्यान्ते ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः।
कल्किर्विष्णुयशःपुत्रो याज्ञवल्क्यःपुरोहितः।५०।

तस्मिन्नाशे वनग्रामे तिष्ठेत्सोन्नासिमो हयः।
सहया ब्राह्मणाः सर्वे तैरहं सहितः पुनः।
म्लेच्छानुत्सादयिष्यामि पाषण्‍डांश्चैव सर्वशः।।५१।

पाषण्डश्च कलौ तत्र माययैव विनश्यते।
पाषण्‍डकांश्चैव हत्वा तत्रान्तं प्रलये ह्यहम्।।५२।
     
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ही कुछ श्लोक जो वाल्मीकि रामायण के ‘आयोध्या-काण्ड’ में आये है ।
यहाँ पर वाल्मीकि रामायण के  लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने की नीयत से  ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध (सम्बोधन) करते हुए,
राम के मुँह से चोर, धर्मच्युत नास्तिक और अपमान-जनक अपमानजनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहैं हैं , जिनकी पुष्टि आप ‘वाल्मिकी रामायण से कर सकते हैं ।
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 उग्र तेज वाले नृपनन्दन श्रीरामचन्द्र, जावालि ऋषि के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए उनसे फिर बोले :- 

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“निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्।बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।३३।”

– अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33।। 
• सरलार्थ :- हे जावालि! 
मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ।
कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।।

 क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक - मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं ।
     देखें राम बुद्ध के विषय में क्या कहते हैं ? 
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“यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्धस्तथागतं। नास्तिकमत्र  विद्धि तस्माद्धियः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम् ।।

” -(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / पृष्ठों संख्या 
गीता प्रेस गोरखपुर :1678)

सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है ।
‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। 
इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे। ...

इससे स्पष्ट है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है न कि बुद्ध से पहले की 

भारत की प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक राजधानी मगध थी ।
जो आधुनिक विहार है ।



यथा हि चोरः स तथाहि बुद्धः?--- एक अन्वेषण।

हमारे सनातन-वैदिक-हिन्दु-धर्मग्रन्थोंकी छविको धूल-धूसरित करने हेतु विधर्मियोंद्वारा अनेकों कुत्सित प्रयास किये गये हैं परन्तु शास्त्रोंमे आस्तिकबुद्धि रखनेवाले, यह मानते हुए कि शास्त्रोंमें परस्पर विरोध न ढूंढ़कर समन्वयका ही प्रयास करना चाहिये, इसे बिना विचारे मान लेते हैं और समन्वयकारी समाधानका प्रयास करते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि हमारे शास्त्र अमल हैं और उनमें अप्रासङ्गिक, मल-प्रक्षेपका कोई स्थान नहीं। अन्वेषणकी परम्परा भी तो हमें यह सिखाती है कि अन्वेषकको विश्लेष्य पदार्थसे निरपेक्ष रहकर ही विश्लेषण करना चाहिये, अन्यथा निष्कर्षमें शैथिल्यकी संभावना बढ़ जाती है।
वाल्मीकि रामायणके अयोध्याकाण्डमें एक प्रसङ्ग आता है जब जाबालिने रामको लौटानेके लिये धर्मविरुद्ध नास्तिकों जैसी बातें करते हुये कहा - "कौन किसका बंधु है। किससे किसको क्या लेना है। व्रत-दानादि सब प्रपञ्च वैदिकाचार करनेवाले शास्त्रादिका निर्माण मेधावियोंने दानादि प्राप्त करनेहेतु किया है ....... इत्यादि।" तब इसका अनेकों भाँतिसे खण्डन करते हुए रामने कहा- "मैं पिताजीके उस कर्मकी निन्दा करता हूँ जिसमें उन्होंने धर्मविमुख विषमबुद्धिवाले आप सरिस नास्तिकको अपने यहाँ रखा था।" उसके आगे कहते हैं- "यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्॥ (वा. रा. २।१०९।३४)" अर्थात् जैसे चोर है वैसे ही बुद्ध है, और तथागत (बुद्धतुल्य) तथा नास्तिक भी। प्रजापर अनुग्रहहेतु राजाद्वारा बुद्ध, तथागत तथा नास्तिकको चोरके समान दण्ड दिलाया ही जाय और यदि दण्ड देना अशक्य हो तो ऐसे नास्तिकोंसे विद्वान् ब्राह्मण कभी वार्तालाप न करे।
यहाँपर स्वामी करपात्रीजी महाराज कहते हैं-"बुद्धादि नास्तिक भी प्राचीन हैं। कई लोग बुद्ध और तथागत का नाम देखकर वाल्मीकिरामायण का निर्माण गौतम बुद्ध के पश्चात्‌कालीन मानते हैं, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि अवतार बुद्ध गौतम बुद्ध से भिन्न ही हैं। जैसे मुख्यलक्ष्मी गृहलक्ष्मी से भिन्न होती हैं वसे ही बुद्ध भी गौतम बुद्ध से भिन्न हैं। बौद्धों के जातकों का भी यही मत है।" (देखें रामायण मीमांसा, तृ. संस्करण,पृ. १०७)
बुद्धादि नास्तिक भी प्राचीन हैं, यह तो मान्य है; परन्तु क्या यह स्वीकार्य है कि रामायणकालमें, अर्थात् त्रेतायुगमें, बुद्धादि नास्तिक भी थे? निश्चयेन इसका उत्तर नकारात्मक होगा और यह उत्तर ही हमें श्लोककी प्रक्षिप्तता अथवा बुद्ध शब्दकी अप्रामाणिकताको प्रमाणित करता है।

यूँ तो इस विषयपर अनेको मत इस प्रतिपादनके समर्थन अथवा विरोधमें आये रहे होंगे, परन्तु आज मैं एक ऐसे बहुमुखी शेमुषीके धनी प्रो. (डॉ.) रामतवक्या शर्माके वह शोध-प्रबंधकी चर्चा कर रहा हूँ जिसके सम्बन्धमें सम्पादकने लिखा है- "छात्र के रूप में हमलोग सुना करते थे कि यह शोध-प्रबन्ध उन्होंने पी.एच.डी. के लिए प्रस्तुत किया था; किन्तु इसपर इन्हें डी. लिट्. की उपाधि मिली थी और एक परीक्षक ने शायद मन्तव्य दिया था कि डी. लिट्. से भी बड़ी कोई उपाधि होती तो इस शोध-प्रबन्ध पर दिया जा सकता था। परीक्षकों में हिन्दी-साहित्य के वरेण्य, मूर्द्धन्य विद्वान थे, अतः इस प्रकार के सम्मति का विशिष्ट महत्त्व था।" यह शोध-प्रबन्ध था- ’तुलसी-साहित्य पर संस्कृत के अनार्ष प्रबन्धों की छाया’, जो सन् १९६४ में पटना विश्वविद्यालयको पी.एच.डी. के लिए प्रस्तुत किया गया था। प्रो. (डॉ.) रामतवक्या शर्माका हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि अनेक भाषाओंपर असाधारण अधिकार था। प्रतिपाद्य विषयको प्रमाणित करने हेतु उनके भगीरथ- प्रयत्नको देखकर आप अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते।
अब उपरोक्त विषयपर प्रो. (डॉ.) रामतवक्या शर्माका अभिमत उन्हींके शब्दोंमें उनके ही शोध-प्रबन्ध (पृ. ३८१)से साभार उद्धृत करता हूँ ---
"यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्॥ (अयोध्या: १०९.३४)
’जैसे चोर दण्डनीय होता है उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलम्बी) भी दण्डनीय है। तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिये। इसलिये प्रजा पर अनुग्रह करने के लिये राजा द्वारा जिस नास्तिक को दण्ड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दण्ड दिलाया ही जाय; परन्तु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो- उससे वार्तालाप न करे।’
यह श्लोक रामायण में नहीं था; लाहौर, बंगाल (गोरेसियो), नेपाल, कश्मीर आदि संस्करणों में यह श्लोक नहीं मिलता; अतः स्पष्ट है कि किसी पाण्डुलिपिकार या विद्वान् ने यह श्लोक रामायण में बाद में जोड़ दिया और दुर्भाग्यवश गीता-प्रेस संस्करण में प्रकाशित होने के कारण यह अधिक प्रसिद्ध हो गया। किन्तु जिन क्षेत्रों में यह श्लोक जुड़ा, उन क्षेत्रों में भी इस श्लोक के विभिन्न रूप इस प्रकार हैं। यहाँ द्रष्टव्य है कि इतनी पाण्डुलिपियों में से केवल एक में बुद्ध शब्द का व्यवहार हुआ है। वह भी लुब्धः का भ्रमवशात् पाठ हो सकता है।
यथा हि चोरः स तथार्थलुब्धस्तथा वयं नास्तिकमुग्रबुद्धिं। तस्माद्धि यः शक्यतमः द्विजानां स नास्तिको योप्यसुखी बुधः स्यात्॥D2॥ स्थान-गुजरात, देवनागरीलिपि, काल-१७७३ ई.
यथा हि चोरः स तथार्थलुब्धस्तथागतं नास्तिकमत्रसिद्धं। न स्याद्धि तत्कांततरं प्रजानां स नास्तिको नास्ति सुखी बुधः स्यात्॥D4॥ स्थान-राजस्थान, देवनागरीलिपि, १८वीं शताब्दी
यथा हि चोरः स तथार्थलुब्धः दंड्यस्तथा नास्तिकयुक्तबुद्धिः। तस्मान्न कांतारतरं द्विजानां स नास्तिको नाप्यसुखी नरः स्यात्॥D5॥ स्थान-गुजरात, १८४८ ई.
यथा हि चोरः स तथार्थलुब्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। न स्याद्धि तत्कांततरं प्रजानां स नास्तिको नाथ सुखी बुधः स्यात्॥D7॥ स्थान-राजस्थान, १६४०ई.
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागता नास्तिकमंत्रसिद्धिः। तस्माद्धि या शक्यमतः प्रजानां स नास्तिकेनाभिमुखो बुधः स्यात्॥M4॥ मलयालम लिपि, १६वीं शताब्दी लगभग
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिकेनाभिमुखो बुधः स्यात्॥G2॥ ग्रन्थ लिपि, १४वीं शताब्दी
यथा हि चोरः स तथा हि लोकस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिकेनाभिमुखो बुधः स्यात्॥T1॥ तेलगु लिपि, १७वीं शताब्दी
यहाँ ध्यातव्य यह है कि D2, D4, D5 तथा D7 में लुब्धः पाठ ही है जो प्रमादवशात् बुद्धः हो गया होगा क्योंकि लुब्धः भी तो चोरवत् पापियों की श्रेणी में आता है (अतः दण्डनीय है), यथा-
यो लुब्धः पिशुनः क्रूरो दांभिको विषयात्मकः।।
सर्वतीर्थेष्वपि स्नातः पापो मलिन एव सः ।। स्क. पु. काशी खं.(४).६.३४ ।।
अर्थात् जो लोभी है, चुगलखोर है, क्रूर है, दम्भी है और विषयात्मक है वह सभी तीर्थोंमें स्नान करके भी पापी और मलिन ही रह जाता है।
अतः श्लोक हुआ -
"यथा हि चोरः स तथा हि लुब्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्॥


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"मगध से विहार बनने के सन्दर्भ में ये तथ्य विदित हैं कि महात्मा बुद्ध  के नवीनत्तम सम्प्रदाय पाषण्ड  में जो नव दीक्षित श्रमण थे उनके आश्रमों को विहार कहा गया था ।


पाषण्ड शब्द का प्रयोग महात्मा बुद्ध के समय ईसा० पूर्व 500 के  समकक्ष हुई ।
पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति बुद्ध के अनुसार -( पाषम् बन्धनम् अण्डयति खण्डयति इति पाषण्ड अर्थात्‌ जो वैदिक विधानों के नाम पर प्राकृत जनों पर आरोपित पाशों का खण्डन करता है वह पाषण्ड है । 
वैदिक विधानों का प्रारूप ब्राह्मण हितों को सर्वेपरि रखकर बनाया गया था ।

यद्यपि ब्राह्मण पुरोहितों'ने पाषण्ड शब्द  की काल्पनिक व्युत्पत्ति

 (पा-पाति रक्षति दुरितेभ्यः पा--क्विप् = पाः वेदधर्मस्तं षण्डयति  खण्डयति निष्फलं करोति । 

“पालनाच्च त्रयी- धर्मः पाशब्देन निगद्यते ।"षण्डयन्ति तु तं यस्मात् पाषण्डस्तेन कीर्त्तित” इत्युक्ते वेदाचारत्यागिनि के रूप में की है ।


उसी में दीक्षित नव बौद्ध श्रमणों के लिए जो विहार ( आश्रम) बहुतायत रूप से बनाए गये तभी  से मगध का नाम विहार हो गया ।
'परन्तु पाटलिपुत्र का रूप पटना हो गया ।

महाभारत की कथाऐं जन- किंवदंतियों पर आधारित आख्यानकों का बृहद् संकलन है ।

जिसे महर्षि व्यास के नाम पर सम्पादित किया गया ।

और इसे जय संहिता का नाम दिया गया ।
कोई भा मानवीय ग्रन्थ पूर्व दुराग्रह से रहित नहीं होता है ।
दुराग्रह कहीं न कहीं मोह और हठों से समन्वित रूप से प्रेरित होते हैं ।

और हठों और मोह अज्ञानता से प्रेरित होते हैं ।
इसके विपरीत संकल्प अथवा  प्रतिज्ञा  ज्ञान से प्रेरित मनश्चेष्टाऐं हैं ।

महाभारत कथाओं का अवसान इन आख्यानकों से हुआ की जब रोते हुआ अर्जुन व्यास जी से अपनी मनोव्यथा कहता है ।

"सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन । सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।। 

"अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि ।२०।


वह मैं राजा जो पुरुषोत्त कृष्ण से रहित हो गया! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; 
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 

परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!

( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---

उस समय युधिष्ठिर प्रस्थान का विचार करके ब्रजनाभ जो श्रीकृष्ण का प्रपोत्र थे उनको यादवो का राजा बनाते और इह लोक जीवन से अवसान कर चले गए अब श्रीकृष्ण प्रपोत्र थे यादव थे तभी तो यादवों के राजा बने ।

वस्तुतः राजा बनने से तात्पर्य केवल अवशिष्ट यादवों को संरक्षण देना और उनका रञ्जन करना है ।
यद्यपि ऋग्वेद-४ के दशम मण्डल के बासठ वें सूक्त की दशवीं ऋचा में दास और गोप शब्द  यदु के लिए प्रयुक्त हैं ।                                    और वैदिक सन्दर्भ में दास असुर अथवा अदेव का वाचक है ।
कृष्ण 'ने कब देव 'संस्कृति'की प्रतिष्ठा की ? आपको इन्द्र और कृष्ण का युद्ध याद है ।

'परन्तु वर्ण व्यवस्था वादी और देव 'संस्कृति' का यादवों से संयोजन अतिश्योक्ति पूर्ण हैं ।
सब मिथ्या है ।

ऋग्वेद में  यादवों को परास्त करने और उनके अनिष्ट की कामना करने वाले पुरोहित यादवों को शूद्र या म्लेच्छ ही कहेंगे ।
उनके सम्मान और गरिमा को कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे ।

इसी लिए क्षत्रिय लोग कृत्रिम वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मणों को सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार करेंगे ।

 यद्यपि हरिवशं पुराण में विष्णु पर्व में कई स्थानों पर कृष्ण क्षत्रियों की निन्दा करते हैं ।
और यदि कहीं  श्रीकृष्ण को क्षत्रिय भी कहा गया है ।
तो वह अतिरञ्जना पूर्ण है।

यदि कहा भी गया है तो यह सब पराभव वादीयों का कुटिल समझौता है ।

जिसका परिणाम केवल दोखा या प्रवञ्चना ही है 

वासुदेव को क्षत्रिय कहा गया है कहा यदु को क्षत्रिय कहा गया है।
ऐसा राग अलापने वाले वर्ण संकर जनजातियों के संघ राजपूतों को ही यदुवंशी बना रहे हैं ।

क्योंकि ब्राह्मणों की वर्तमान धर्म संहिता स्मृति आदि ग्रन्थों में अहीर गोपों' को शूद्र रूप में वर्णित किया गया है।

जो यादव आज अपने मन की झूँठी तसल्ली के लिए खुद को वैदिक क्षत्रिय कह रहे हैं ।

उनके पास कोई प्रमाण नही है
वितण्डावाद है।

एसे 'लोग' दो विपरीत दिशा में चलने वाली नावों पर सवारी करना चाहते हैं ।। 

"यदि आप'कहें'कि जब यादव क्षत्रिय नहीं हैं तो शूद्र हुए तो यह कहना भी मूर्खता पूर्ण है । क्योंकि यादवों 'ने कभी वर्ण व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं किया। इनका नवीन धर्म भागवत था । जिसमें ब्राह्मण वाद के वर्चस्व विषयक किसी भी सिद्धान्तों का समायोजन नहीं था ।

कुछ लोग सहत्रबाहु को लेके यादवों का क्षत्रिय इतिहास बताते है ।

 ‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎ ‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎सहस्रबाहु अर्जुन जिसे हैहय वंश का यादव माना जाता है ।
 परशुराम का युद्ध सहस्रबाहु से हुआ ।
और पुराणों में उसे चक्रवर्ती सम्राट वर्णित किया गया है।
और ब्राह्मणों 'ने यह भी वर्णित कर दिया कि क्षत्रियों की 
विधवाऐं ऋतुकाल में ब्राह्मणों के पास गयीं 
तब उनसे क्षत्रिय हुए  ।

'परन्तु यह कथा कल्पना प्रसूत व मनगडन्त है ।
क्योंकि महाभारत आदिपर्व  अंशावतरण नामक उपपर्व का  (चतुःषष्टितम )(64) अध्‍याय: 
में वर्ण व्यवस्था का जो विधान किया है परशुराम की क्षत्रिय संहार की कथा उसके अनुकूल नहीं है देखें निम्न सन्दर्भों में एक विश्लेषण-

महाभारत: आदि पर्व: चतुःषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद :-
जिसमें ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समय के धार्मिक राज्य का वर्णन है ; 
असुरों का जन्म और उनके भार से पीड़ित पृथ्वी का ब्रह्मा जी की शरण में जाना तथा ब्रह्मा जी का देवताओं को अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश का वर्णन है ।

जनमेजय बोले- ब्रह्मन् ! आपने यहाँ जिन राजाओं के नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशों के नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओं का मैं भलि-भाँति परिचय सुनना चाहता हूँ। महाभाग!

वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वी पर जिस उद्देश्‍य की सिद्धि के लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत वर्णन कीजिये।

वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! यह देवताओं का रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है। 
स्वयंभू ब्रह्मा जी  को नमस्कार करके आज उसी रहस्य का तुमने वर्णन करूंगा। 
____________   
पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। 
उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 

नररत्न ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; ! राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों के द्वार गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। 

इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। 
वे सब संतानें दीर्घायु होती थी।
तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। 
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उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नी समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।

भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।

भूपाल ! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।

गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय ! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। 

जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। 
उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। 

इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा। 

उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। 

राजन ! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ! 

ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। १- से १९ तक का अनुवाद -
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"अब प्रश्न यह उठता है;  कि जब धर्म शास्त्रों जैसे मनुस्मृति आदि स्मृतियों और महाभारत में भी विधान वर्णित है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती हैं उनमें दो पत्नीयों क्रमश: ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है वह वर्ण से ब्राह्मण ही होती है तो परशुराम द्वारा मारे गये क्षत्रियों की विधवाऐं जब ऋतुकाल में सन्तान की इच्छा से आयीं तो वे सन्तानें क्षत्रिय क्यों हुई उन्हें तो ब्राह्मण होना चाहिए जैसे की शास्त्रों का वर्ण-व्यवस्था के विषय में सिद्धान्त भी है । देखें निम्न सन्दर्भों में

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"भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते । आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।।

(महाभारत -अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)

अब प्रश्न यह भी उठता है कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं कि  जैसा कि मनुस्मृति आदि में और   
 

इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक(अड़तालीसवाँ अध्याय) में वर्णन है ।



जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी नाईं उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।(मनुस्मृति)

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तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति: ।।७।।

अर्थ:-क्षत्रिय से  क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का होता है ।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।

(महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)

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ये श्लोक महाभारत के आदिपर्व के हैं ये क्या यह दावा कर सकते हैं कि ब्राह्मणों से क्षत्रियों की पत्नीयों में  क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? किस सिद्धांत के अनुसार  क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य है ?

"तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति। ब्राह्मणान्क्षत्रिया राजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।1-65-5

ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः। ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।।1-65-6

तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः। ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।।1-65-7


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मनुस्‍मृति का सबसे ज्‍यादा आपत्तिजनक अध्याय

मनुस्‍मृति का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसके अध्याय 10 के श्‍लोक संख्‍या 11 से 50 के बीच समस्‍त द्विज को छोड़कर समस्‍त हिन्‍दू जाति को नाजायज संतान बताया गया है। मनु के अनुसार नाजायज जाति दो प्रकार की होती है।

  1. अनुलोम संतान – उच्‍च वर्णीय पुरूष का निम्‍न वर्णीय महिला से संभोग होने पर उत्‍पन्‍न संतान
  2. प्रतिलाेम संतान – उच्‍च वर्णीय महिला का निम्‍न वर्णीय पुरूष से संभोग होने पर उत्‍पन्‍न संतान

मनुस्‍मति के अनुसार कुछ जाति की उत्‍पत्ति आप इस तालिका से समझ सकते हैं।

पुरुष की जातिमहिला की जातिसंतान की जाति
ब्राम्‍हणक्षत्रियमुर्धवस्तिका १
क्षत्रियवैश्‍यमहिश्‍वा २
वैश्‍यशूद्रकायस्‍थ ३
ब्राम्‍हणवैश्‍यअम्‍बष्‍ठ ४
क्षत्रियब्राम्‍हणसूत ५
वैश्‍यक्षत्रियमगध ६
शूद्रक्षत्रियछत्‍ता ७
वैश्‍यब्राम्‍हणवैदह ८
शूद्रब्राम्‍हणचाण्‍डाल९
निषादशूद्रपुक्‍कस१०
शूद्रनिषादकुक्‍कट११
छत्‍ताउग्रश्‍वपाक१२
वैदहअम्‍बष्‍ठवेण१३
ब्राम्‍हणउग्रआवृत१४
ब्राम्‍हणअम्‍बष्‍ठ
आभीर१५

वैश्य-                व्रात्य-                 सात्वत १६

क्षत्र-                 करणी                  राजपूत १७

क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।  
(ब्रह्मवैवर्तपुराण - ब्रह्मखण्ड1.10.110) 

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जो राजपूत स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं शास्त्रों में उन्हें भी वर्णसंकर और शूद्र धर्मी कहा है ।

विशेष–यद्यपि सात्वत आभीर ही थे जो यदुवंश से सम्बन्धित थे। परन्तु मूर्खता की हद नहीं इन्हें भी वर्णसंकर  बना दिया।

इसी प्रकार औशनस एवं शतपथ ब्राम्‍हण ग्रंथ में भी जाति की उत्‍पत्ति का यही आधार बताया गया है जिसमें चामार, ताम्रकार, सोनार, कुम्‍हार, नाई, दर्जी, बढई धीवर एवं तेली शामिल है।

ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः।10/15 मनुस्मृति अध्याय १०)

अर्थ- ब्राह्मण से उग्र जाति की कन्या में आवृत उत्पन्न होता है । और आभीर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न होता है और आयोगव्या में ब्राह्मण से धिग्वण उत्पन्न होता है ।

विदित हो की भागवत धर्म के सूत्रधार सात्ववत जो यदु के पुत्र माधव के पुत्र सत्वत् (सत्त्व) की सन्तान थे जिन्हें 

इतिहास में आभीर रूप में भी जाना गया ये सभी वृष्णि कुल से सम्बन्धित रहे । जैसा की नन्द को गर्ग सहिता में आभीर रूप में सम्बोधित किया गया है ।

"क्रोष्टा के कुल  में  आगे  चलकर सात्वत का जन्म हुआ। उनके सात पुत्र थे उनमे से एक का  नाम वृष्णि था। वृष्णि से  वृष्णिवंश  चला। इस वंश में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुये।

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"आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः ॥
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रपः॥१४॥

गर्गसंहिता -खण्डः ७(विश्वजित्खण्डः)/अध्यायः ०७
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गुर्जरराष्ट्राचेदिदेशगमनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
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नारद और बहुलाक्ष ( मिथिला) के राजा में संवाद चलता है तब नारद बहुलाक्ष से  शिशुपाल और उद्धव के संवाद का वर्णन करते हैं 
 अर्थात् यहाँ संवाद में ही संवाद है। 👇

तथा द्वारिका खण्ड में यदुवंश के गोलों को आभीर कहा है।
गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि  इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु माता द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है !
 ऐसा वर्णन है

यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे।गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः ।।१६।।

अर्थ:- दमघोष पुत्र  शिशुपाल  उद्धव जी से कहता हैं कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है।

और जब वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी तब भी आभीर जाति उपस्थित थी।

-वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू तथा कहीं यादवी भी कहा है ।

★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड  में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है।  क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे  । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।

प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया - परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी  अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा ! 

तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया !

यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों  ,विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर    उनके प्रति क्रुद्ध होकर  इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्द में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी  

तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।

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विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्रनाम में गायत्री और वेद माता तथा( यदुवंशसमुद्भवा ) कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम मैं गायत्री को यादवी, माधवी और गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक सन्दर्भ है ।

यादव गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है 

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वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च ।     कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च ।।10/23 (मनुस्मृति अध्याय १०)

अर्थ- वैश्य वर्ण के ब्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।

वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न ब्रती पुत्र को सुधनवाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।

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जबकि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में सात्ववत यदु के पुत्र माधव के सत्त्व नामक पुत्र की सन्तानें थी ।

स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।           त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।36।

बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।

सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।    येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।

राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति। शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।

तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।    निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।

जब वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये।

माधव का पराक्रमी पुत्र सत्त्व नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्वसत राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे।

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सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।

सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है।

जब राजा भीम आनर्त देश के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे।

अत: गायत्री वेदों की जब अधिष्ठात्री देवी है और ब्रह्मा की पत्‍नी रूप में वेद शक्ति है ।

तो आभीर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में कैसे उत्पन्न हो गये ?

वास्तव में अहीरों को मनुस्मृति कार ने वर्णसंकर इसी लिए वर्णित किया ताकि इन्हें हेय सिद्ध करके इन पर शासन  किया जा सके ।

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कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु कहलाते थे। श्री श्रीराम साठे ने लिखा है कि हैहयवंशी राजा दुर्दम से लेकर सहस्त्रार्जुन  हैहय लोग काठियावाड  से काशी तक के प्रदेश में उदण्ड  बनकर रहते थे।

राजा दुर्दम के समय से ही उनका अपने भार्गव पुरोहितों से किसी कारण झगड़ा हुआ। 

इन पुरोहितों में से एक की पत्नी ने विन्ध्य वन में और्व को जन्म दिया। 

और्व का वंश इस प्रकार चला - और्व --> ऋचिक --> जमदग्नि --> परशुराम। कार्तवीर्य अर्जुन ने इन्ही जमदग्नि की हत्या कर दी थी।

तब जामदग्न्य परशुराम के नेतृत्व में वशिष्ठ और भार्गव पुरोहितों ने इक्कीस बार हैहयों को पराजित किया। अंततः सहस्त्रार्जुन की मृत्यु हुई। 

प्राचीन भारतीय इतिहास का यह प्रथम महायुद्ध था। श्री साठे ने ही लिखा है कि परशुराम का समय महाभारत युद्ध पूर्व 17 वीं पीढ़ी का है।

धरती को क्षत्रियविहीन करने के संकल्प के साथ परशुराम के लगातार 21 आक्रमणों से भयत्रस्त होकर अनेक क्षत्रिय पुरुष व स्त्रियाँ यत्र-तत्र छिप कर रहने लगी थी।
                   

                मनुस्मृति में लिखा है -

कोचिद्याता मरूस्थल्यां सिन्धुतीरे परंगता।  
महेन्द्रादि रमणकं देशं चानु गता परे ।।1।।

यथ दक्षिणतोभूत्वा विन्ध्य मुल्लंघ्यं सत्वरं।  
ययो रमणकं देशं तत्रव्या क्षत्रिया अपि ।।2।।

सूर्यवंश्या भयो दिव्यानास्तं दृष्टवाभ्यवदन्मिथः।
 समा यातो यमधुनां जीवननः कथं भवेत् ।3।

समेव्य निश्चितं सर्वैर्जीवनं वैश्य धर्मतः। 
 इत्यापणेसु राजन्यास्ते चक्रु क्रय विक्रयम।4।

 अर्थात, "कोई मरुस्थली में, कोई समुद्र के किनारे गए।  कोई महेन्द्र पर्वत पर और कोई रमणक देश में पहुँचे, तब वहाँ के सूर्यवंशी क्षत्रिय भय से व्याकुल होकर बोले कि अब यहाँ भी परशुराम आ गए, अब हमारा जीवन कैसे बचेगा? तब सबों ने घबरा कर तत्काल क्षत्रिय धर्म को छोड़ कर अन्य वैश्य वृत्तियों का अवलंबन किया। "


सामान्यत तर्क से ही इसका स्वत: खण्डन हो सकता है ।
क्या विधवा हुई सभी स्त्रियाँ ब्राह्मणों से ही गर्भवती हुईं
क्या उससे पहले कोई गर्भवती नहीं थी।? 

क्या इक्कीस वार परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया?

सारी थ्योरी निराधार है ।
यद्यपि यादव अपने पराक्रमी और निर्भीकता पूर्ण आचरण के लिए क्षत्रिय हैं ।
क्या सुन्दर स्त्रियों को श्रृंँगार प्रसाधन की आवश्यकता है ?
क्या विद्वान को किसी विद्वता प्रमाण पत्र या डिग्री की आवश्यकता होती है ।
क्या वीरों को क्षत्रिय या यौद्धा के प्रमाण पत्र की आवश्यकता है ।
सायद नहीं 
जो व्यक्ति वास्तविक रूप में नहीं होते हैं वे ही स्वयं को कभी क्षत्रिय या विद्वान या यौद्धा कहते हैं ।
जैसे राज पूत आज कल के ...
अहीर, गूर्जर और जाट सनातन यौद्धा हैं ।

जो अपनी वीरता का परिचय करने के लिए किसी राजपूत या ब्राह्मण के प्रमाण पत्र के मोहताज नहीं ..

क्षत्रिय यादव वही है जो यादव धर्म का पालन करें
और यादव धर्म भागवत धर्म है ।
 इसलिए श्रीकृष्ण 'ने  कहा जब उनको राजा बनने की बात सभी यादव सामंतों ने कही !
तब उनसे मुखार बिन्दु से कथा कार 'ने कहलवा दिया कि 
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एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२

आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।१३ 

श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय

अर्थात्‌  मैं राजा नही बन सकता कोई यादव राजसिंहासन पर नही बैठ सकता क्यों कि यादवों के पूर्वज यदु ने वचन दिया था अपने पिता ययाति को ।
'परन्तु यहांँ विरोधाभासी स्थिति है क्योंकि जो उग्रसेन स्वयं यादव ही थे ।
वे राजा कैसे बन गये?
ययाति वाला नियम उन पर क्यों लागू नहीं हुआ ।

भागवत पुराण भी मिलाबट पूर्ण हैं इसमें भी जोड़ और तोड़ होने से विरोधाभासी स्थिति है।

 यादव अथवा अहीर केवल  अहीर अथवा यादव ही है । वही क्षत्रिय या शूद्र कभी  नहीं 
उसकी निर्भीकता प्रवृत्ति 'ने उसे आभीर बना दिया ।

और उसकी गोपालन वृत्ति 'ने उन्हें गोप  बना दिया ।
और यदुवंश में जन्म लेने के कारण वह यादव कहलाये ।
अहीर सबसे प्राचीनत्तम और शुद्ध यादव हैं ।

क्योंकि की यदु के पूर्वजों को ही आभीर (अबीर) कहा गया ।

इसी लिए हम्हें अहीर होने पर फक्र है ।
और हमारा भोजन दूध दही और तक्र है।
दुश्मनो के लिए  कभी लाठी तो कभी हमारे पास सुदर्शन चक्र भी है ।

हिन्दू समाज में कुछ समय से " महापुरुष कृष्ण " को लेकर ब्राह्मण तथा ठाकुर समाज में यह भ्रान्त धारणा
रूढ़ (प्रचलित) हो गयी है ।

कि कृष्ण वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय थे । 
कृष्ण का जन्म वसुदेव के यहाँ हुआ , और वसुदेव क्षत्रिय थे ! 
तथा लालन-पालन नन्द के यहाँं और नन्द गोप अर्थात् अहीर थे ।

यदु वंश को भी ये लोग ब्राह्मण वर्ण -व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय ही कहते हैं "

जबकि वस्तु-स्थिति ठीक इसके विपरीत है ।

क्यों कि यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था को नहीं माना ।
और ये किसी के द्वारा परास्त भी नहीं हुए ।

इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।

ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।
क्योंकि यदि इन्हें कृष्ण का वंशज होने से श्रेष्ठता 'न प्राप्त हो जाए ।

वस्तुत --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उस आप नहीं तो क्षत्रिय मान सकते हैं और ना ही शूद्र ।

क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर  किया गया है।

और सारे पुराण परछाँईं के समान वेदों के ही अनुगामी हैं 
---जो वेद में है ; उसी का विस्तार पुराणों में है। 
अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।

विदित हो कि  वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण  को  दास अथवा अदेव अथवा असुर (अदेव) इन समानार्थक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है ।

जो कालान्तरण में लौकिक संस्कृतियों में शूद्र के सम तुल्य ब्राह्मण वाद 'ने किया ।

सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में  यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं । 
जब यदु को ही वेदों में दास और गोप  कहा है । 
और कृष्ण को चरावाहे और अदेव  या असुर रूप में वर्णित किया गया हो ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।  

वह भी गोपों को रूप में 
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।

ऋग्वेद में यदु को विषय में लिखा है कि 
     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं 
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है। वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है। 

प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ; 
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है

गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों  से घिरा हुआ ।

वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वंश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।👇
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ 
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि 
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।

और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी  यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।

और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तमभी है देखें---

अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! 

सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों  (यहूदीयों ) को  शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा।

जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं ।
 
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
क्योंकि सूर्य और चन्द्र के सन्तानें होना मूर्खों की कल्पनाऐं हैं। 
यादव  सेमेटिक जन-जाति से सम्बद्ध हैं ।
ये  असीरियन (असुर) जन-जाति के सहवर्ती तथा उनकी शाखा के लोग हैं ।
असुरों का वर्णन भारतीय पुराणों में है  जो असीरी हैं ।

यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है ।

यद्यपि कृष्ण और पाण्डवों के प्रतिद्वन्द्वीयों में समाहित रहे  जरासन्ध,  दमघोष आदि एक कुल ही हैहयवंश के यादव ही थे 'परन्तु उन्हें यादव कहकर  कितनी बार सम्बोधित किया गया ?
सायद नहीं के बरावर ...

इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है हरिवंशपुराण से यह विश्लेषण ...

और किस प्रकार कालान्तरण में परवर्ती पुराण कारों 'ने यदु को ही एक रहस्यमय विधि से सूर्य वंश में घसीटने की भी कोशिश की ...

दरअसल भारतीय पुरोहित वर्ग 'ने यदु की कथाऐं सैमेटिक जनजातियों  यहूदियों और असीरीयों से ग्रहण की और  श्रुत्यान्तरण से उसमें व्युत्क्रम होना स्वाभाविक ही था।

विदित हो की यहूदी और असीरीयों ( असुर) दौनों' जनजातियाँ ही सैमेटिक लोग थे ।
जिन्हें भारतीय पुराणों ने सोमवंश कहा ..
'परन्तु जब ईसा० पूर्व की सदीयों में  भारतीय मिथकों में यदु और तुर्वशु की कथाऐं समाविष्ट हुईं ।

तो पूर्वाग्रह 'ने कथाओं का स्वरूप ही बदल दिया।

हरिवंशपुराण  हो या भागवत पुराण सभी में एक कृत्रिम विधि से  कुछ बातें जोड़ी और तोड़ी गयी तो परिणाम स्वरूप विरोधाभास और एक क्षेपक उत्पन्न करती हैं ।

किस प्रकार यादवों के आदि पुरुष यदु के वंशजों को ही एक शाखा को यादव तो दूसरी को भोज तीसरी को अन्धक  तो चौथी को वृष्णि भी कहा गया 'परन्तु थे सभी यादव ही 'परन्तु भोज या अन्धक  या भैम को क्यों यादव नहीं कहा गया ?
ये मूर्खता पूर्ण षड्यन्त्र थे ।

'परन्तु आभीर जो यदु के पूर्वजों ययाति की भी उपाधि थी वह भी प्रवृत्ति मूलक विशेषण रूप में जो कालान्तरण में गोप अर्थ में समाहित हो गयी ।

आभीर यादवों का भी विशेषण रहा 
जबकि ये भी यदु के वंशजों में सुमार थे ।🌸

यादव शब्द ही कालान्तरण में केवल कुछ यदुवंशीयों  के लिए रूढ़ हो गया था क्या ? 

जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में भी यादव अलग से कुल बताया गया है ।
जो मूर्खता पूर्ण ही है ।
और यदुवंश का प्रारूप ही बदल दिया गया ।
सोम वंश से यदु को सूर्य या इक्ष्वाकु वंशी में परिवर्तन कर दिया यदु के माता पिता ययाति और देवयानि से हर्यश्व और मधु असुर की पुत्री मधुमती के बना दिया ।

जिसके विषय में हमने पूर्व संकेत किया ।👇
अब एक भविष्य वाणी के माध्यम से नवीनत्तम कथा सृजन की गयी ।
 
यह भविष्य वाणी नागराज धूम्रवर्ण करता है जो हर्यश्व के पुत्र यदु को अपनी पाँच कन्याऐं पत्नी रूप देता है।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 66-70 संस्कृत में श्लोक निम्नलिखित हैं ...
_____
स तस्मै धूम्रवर्णो वै कन्या: कन्याव्रते स्थिता:।
जलपूर्णेन योगेन ददाविन्द्रवसमाय वै।।66।।
 
वरं चास्मै ददौ प्रीत: स वै पन्नगपुंगव:।
श्रावयन् कन्यका: सर्वा यथाक्रममदीनवत्।।67।।

एतासु ते सुता: पंच सुतासु मम मानद।
उत्पस्यन्ते पितुस्तेजो मातुश्चैव समाश्रिता:।।68।।

अस्मत्समयबद्धाश्च सलिलाभ्यन्तरेचरा:।
तव वंशे भविष्यन्ति पार्थिवा: कामरूपिण:।।69।।

स वरं कन्यकाश्चैव लब्ध्वा यदुवरस्तदा।
उदतिष्ठत वेगेन सलिलाच्चन्द्रमा इव।।70।।

____
भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
अर्थ:- जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक ,दाशार्ह ,भैम, यादव,  और वृष्णि नाम  सात वंश वाले शाखा में  प्रसिद्ध होंगे 

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीस वाँ अध्याय

अब हद तो तब हो गयी जब यदु को सैमेटिक या सोमवंश से हाइजैक कर हैम या सूर्य वंश में स्थापित करने की दुष्चेष्टा की गयी 

दरअसल भारतीय पुराणों में यदु के विषय में जो कथाऐं आलेखित की गयीं  वे यहूदियों के आख्यानकों से ली गयीं हैं !

ऋग्वेद में उद्गाता पुरोहित यदु और तुर्वशु को परास्त करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।
इस बात को भी कम 'लोग'जानते हैं ।

क्योंकि जो यहूदियों के आख्यानकों में इश्हाक है वही पात्र पुराणों में इक्ष्वाकु है ।

कहीं सैमेटिक तो कहीं हैमेटिक रूप में इसे माना गया 
भारतीय पुराणों में भी सोम का रूपान्तरण चन्द्र में कर के चन्द्र वंश की कल्पना कर ली गयी ।
______
जैसे हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सप्तत्रिंशो८ध्याय: 
में वर्णित है कि वैवस्वत मनु के वश में इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व राजा हुए ।
जो प्रजा का रञ्जन करते थे इसी राजा कहलाये ।

मधु असुर की पुत्री मधुवती ये हर्यश्व का विवाह हुआ ।
_____
एक दिन हर्यश्व के बड़े भाई 'ने उसे राज्य से निकाल दिया तब हर्यश्व 'ने अयोध्या छोड़ दी ।

तब मधुमती हर्यश्व को मधुवन ले गयी  यही मधपुरी भी था 

मधु असुर 'ने केवल मधुवन को छोड़कर अपना सारा राज्य अपने जामाता हर्यश्व को दे दिया ।
लवण मधु का पुत्र भी हर्यश्व का सहायक बना ।

 यह मधुवन  गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है यहांँ आभीर या गोप जाति ही बहुतायत से रहती था ।
इस प्रकार का वर्णन भी हरिवंशपुराण में है ।
देखें निम्नलिखित श्लोक इस विषय में तथा हिन्दी अनुवाद  विस्तृत रूप में
_____ 
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 16-20 में हर्यश्व और मधुमती के विषय में वर्णित है 👇

सा तमिक्ष्वांकुशार्दूलं कामयामास कामिनी।
स कदाचिन्नरश्रेष्ठो भ्रात्रा ज्येष्ठे्न माधव।।16।।

राज्यान्निरस्तो विश्वस्त: सोऽयोध्यां सम्परित्यजत्।
स तदाल्प‍परीवार: प्रियया सहितो वने।।17।।

रेमे समेत्य कालज्ञ: प्रियया कमलेक्षण:।
भ्रात्रा विनिष्कृतं राज्यात् प्रोवाच कमलेक्षणा।।18।।

एह्यागच्छ नरश्रेष्ठ त्यज राज्यकृतां स्पृहाम्।
गच्छाव: सहितौ वीर मधोर्मम पितुर्गृहम्।।19।।

रम्यं मधुवनं नाम कामपुष्पफलद्रुमम्।
सहितौ तत्र रंस्यावो यथा दिवि गतौ तथा।।20।।

 वह कामिनी होकर इक्ष्वाकु वंश के श्रेष्ठ वीर हर्यश्व को सम्पूर्ण से हृदय चाहती थी।

 माधव! एक दिन बड़े भाई ने उनके विश्वास पर रहने वाले नरश्रेष्ठ हर्यश्व को राज्य से निकाल दिया, 

तब उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और थोड़े से परिवार के साथ अपने प्रिया मधुमती सहित वे वन में रहने लगे काल की महिमा को जानने वाले कमलनयन हर्यश्व अपनी प्यारी पत्नी के साथ मिलकर वहाँ बड़े आनन्द से समय बिताने लगे।

 एक दिन कमलनयनी मधुमती ने भाई द्वारा राज्य से निकाले गये पति से कहा- ‘नरश्रेष्ठ वीर! अयोध्या के राज्य की अभिलाषा छोड़ दो और आओ मेरे साथ चलो।

 हम दोनों मेरे पिता मधु के घर चलें सुरम्य मधुवन नामक वन ही मेरे पिता का निवास स्थान है। 

वहाँ के वृक्ष इच्छानुसार फूल और फल देने वाले हैं।

वहाँ हम दोनों साथ रहकर स्वर्गवासियों के सामने मौज करेंगे।' 

पृथ्वीनाथ! मेरे पिता और माता दोनों को ही तुम बहुत प्रिय हो और मेरा प्रिय करने के लिये मेरा भाई लवणासुर भी तुम्हें अत्यन्त प्रिय मानेगा। 

नरश्रेष्ठ! वहाँ जाकर हम दोनों साथ-साथ रहकर राज्य पर बैठे हुए दम्पत्तियों की भाँति इच्छानुरूप वस्तुओं का उपभोग करते हुए रमण करेंगे। 

जैसे देवपुरी के नन्दवन में देवांगना और देवता विहार करते हैं, उसी प्रकार वहाँ हम दोनों विहार करेंगे। 
_______
हर्यश्व को राज्य देकर मधु तप करने वन में चला गया। ययाति पुत्र महाराज यदु योगबल से पुन: मधुमती के गर्भ में आए। 

इनके वंश में ही मथुरा के सभी यादव हैं। 
जो आभीर रूप में पहले रहते हैं ।

ये महाराज यदु एक बार अपनी पत्नियों सहित समुद्र स्नान करने गए।

 वहाँ सर्पराज धूम्रवर्ण उन्हें खींच कर नाग लोक ले गए और अपनी पाँच कन्याएं उन्होंने विवाह दीं। 
ये पाँचों प्रसिद्ध महाराज यौवनाश्य की बहन की संतति भानजी थीं। 

नाग राज ने साथ ही वरदान दिया–तुमसे सात कुल चलेंगे। 
ये वंश भैम, कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव, दाशार्ह और वृष्णि रूप में होगा ।

नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए– मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित। 
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।

पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
 पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे। हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए। 
________

माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।

पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।

 पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।

 इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
 सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।

युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
 इनके पुत्र भीम।

इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा। 
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे। 

उसी समय श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न कुमार ने लवणासुर को मार कर मधुपुरी बसाई।
____________
'परन्तु भागवत पुराण में यदु के पिता ययाति ही है और यदु के पुत्र चार  थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु 

यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपु: इति श्रुता : ।।२०।

चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयेश्चेति तत्सुता: ।२१।

भागवत पुराण नवम स्कन्द अध्याय चौबीस( पृष्ठ संख्या ९३... गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)

इस वंश में स्वयं भगवान् पर ब्रह्म श्रीकृष्ण 'ने नर रूप में अवतार लिया था - यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु 
सहस्रजित् से  शतजित् का जन्म हुआ - शतजित् के तीन' पुत्र उत्पन्न हुए -महाहय, वेणुहय और हैहय ।।२०-२१।।

अब 'हरि वंश पुराण में यदु के  अन्य माता-पिता हर्यश्व और मधुमती तथा पाँच पुत्र हैं  :- मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।

नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। 
उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए–
 मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित। 
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ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।

पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।

पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे। 
हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए। 
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माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।

पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।

पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।

इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।

युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
 इनके पुत्र भीम।

 इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा। 
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे। 
______
अब ययाति पुत्र यदु के पुत्र सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल और रिपु का वंश कहाँ गया और ये पुत्र कहाँ गये 
 इन बातों को कोई कथा वाचक  बताए ?

'परन्तु यहांँ यह भी क्षेपक है  कि मधुरा शत्रुघ्न ने बसाई क्यों कि उसका नामकरण मधु असुर के आधार पर है ।।

मधुवन का उच्छेद करके यह पुरी बसी।
मथुरा नाम परवर्ती है जबकि मधुपर: पूर्ववर्ती है ।

पुरोहितों 'ने कथाऐं बनाया कि 
 श्री राम के परमधाम जाने पर शत्रुघ्न के पुत्र ने विरक्त होकर राज्य त्याग दिया

 ये बातें भी क्षेपक ही हैं ।
नीचे संस्कृत में सन्दर्भ..
 
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40

स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।

बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।

सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।
येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।

राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।

तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।

✍✍✍✍
तब मधुपुरी–मथुरा पर भीम ने अधिकार कर लिया। अयोध्या में जब कुश राजा थे–मथुरा सिंहासन पर भीम के पुत्र अंधक का अभिषेक हुआ।
ये अन्धक के पिता भीम यादव थे ।
अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।
___
अन्धकस्या सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।

ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके।
नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।

अन्धक के पुत्र रैवत थे। 
इनकी पत्नी ने पुत्र ऋक्ष को पर्वत शिखर पर जन्म दिया था। 
_______
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 46-50

रैवतस्यात्माजो राजा विश्वागर्भो महायशा:।
बभूव पृथिवीपाल: पृथिव्यां प्रथित: प्रभु:।।46।।

तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यारूपासु केशव।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालापमा: शुभा:।।47।।

वसुर्बभ्रु: सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान्।
यदुप्रवीरा: प्रख्याता लोकपाला इवापरे।।48।।

तैरये यादवो वंश: पार्थिवैर्बहुलीकृत:।
यै: साकं कृष्णर लोकेऽस्मिन् प्रजावन्त: प्रजेश्वरा:।।49।।

वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेव: सुतो विभु:।
तत: स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके।।50।।
_______
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद--
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे।
केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं। 

तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं। 
उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे।

उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष। 
ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।

श्रीकृष्ण! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया।

जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं।

वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी।

कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।

___
रैवत के पुत्र विश्वगर्भ हुए जिनका दूसरा नाम देवमीढ था 
इस ऋक्ष का दूसरा नाम रैवत था।
 इन महाराज रैवत के पुत्र विश्वगर्भ को देवमीढ़ कहा जाता है। 
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उनकी तीन रानियों से चार पुत्र हुए– वसु, वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष।
 ज्येष्ठ पुत्र वसु का ही दूसरा नाम शूरसेन है।
वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष ये ही क्रमश अर्जन्य पर्जन्य और राजन्य थे ।
 शूरसेन की संतान ही वसुदेव  हैं।
और पर्जन्य के पुत्र नन्द थे।
🌸
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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 26-30

ततो मधुपुरं राजा हर्यश्व: स जगाम च।
भार्यया सह कामिन्या कामी पुरुषपुंगव:।।26।।

मधुना दानवेन्द्रेण स साम्न समुदाहृत:।
स्वागतं वत्स हर्यश्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात्।।27।।

यदेतन्मम राज्यं वै सर्वं मधुवनं विना।
ददामि तव राजेन्द्र वासश्च प्रतिगृह्यताम्।।28।।

वनेऽस्मिल्लँवणश्चायं सहायस्ते भविष्यति।
अमित्रनिग्रहे चैव कर्णधारत्ववमेष्यति।।29।।
हरिवशं पुराणों में अन्य जनजातियों की उत्पत्ति भी प्रक्षिप्त ही है ।
प्रस्तुत हैं ये प्रमाण ....👇

हरिवंशपुराण हरिवशंपर्व पञ्चम अध्याय में एक स्थान पर वर्णन है कि 
निषादवंशकर्तासौ बभूव वदतां वर ।
धीवरानसृजच्चाथ वेनकल्मषसम्भवान्।।१९।

•--वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय ! वह निषादों के वंश को चलाने वाला हुआ और उसने धीवरों को जन्म दिया  वे  निषाद , धीवर वेन के पाप से उत्पन्न हुए थे ।१९।
( क्या यह सत्य कथन है ?)

ये चान्ये विन्ध्यनिलय तुषार तुम्बरास्तथा ।
अधर्म रुचयो ये च विद्धि तान्  वेनसम्भवान् ।२०।

धीवरों के अतिरिक्त तुषार (तोखारी)
•--तुम्बर ( तोमर) तथा अधर्म से प्रेम करने वाले वन वासी ( गोण्ड- कोल आदि )हैं इन सबको तुम वेन के पाप से उत्पन्न हुआ समझो !

( तोमर जन-जाति राजपूत संघ गुर्जर संघ और जाट संघ में भी समायोजित है ।
'परन्तु हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में ये 
 वनवासी के रूप में हैं । 

हरिवंशपुराण हरिवशं पर्व इकतालीसवाँ अध्याय में श्रीमद्भगवदगीता के एक श्लोक का पूर्वार्द्ध हरिवंशपुराण में भी यथावत है ।👇
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
धर्म संस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभु ।।१७।

यह श्लोक श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक से साम्य रखता है 

भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में वर्णन हरिवंशपुराण में है ।
इतनी ही नहीं ...
भागवत धर्म के विषय में ही एक श्लोक है ।👇
जिसके उद्गाता अक्रूर नामक यादव हैं
_______
अक्रूर ने श्रीकृष्‍ण से कहा- 'भैया! रथ को यहीं खड़ा रखो और घोड़ों को काबू में रखने का प्रयत्‍न करो। तात!

 घोड़ों को दाना-घास देकर, इनके पात्र और रथ की विशेष यत्नपूर्वक देखभाल करते हुए एक क्षण तक मेरी प्रतीक्षा करो।

 तब तक मैं यमुना जी के इस कुण्‍ड में प्रवेश करके दिव्‍य भागवत मन्‍त्रों द्वारा सम्‍पूर्ण जगत के स्‍वामी नागराज अनन्‍त की स्‍तुति कर लूँ। 

वे गुहरास्‍वरूप भागवत देवता हैं, सम्‍पूर्ण लोकों के उत्‍पादक एवं उन्नायक हैं।

 उनका मस्तिक कान्तिमान स्‍वस्तिक चिह्न से अलंकृत है। वे सर्प-विग्रहधारी भगवान अनन्‍त देव सहस्र सिरों से सुशोभित तथा नील वस्‍त्र धारण करने वाले हैं। मैं उन्‍हें प्रणाम करूँगा।

यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं ।
दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२।

तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल
 में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२।

गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् ।
श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् ।
सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३।

वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । 
सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं ।

 उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है  वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देव सहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 
'मैं उन्हें प्रणाम करुँगा ।४३।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है ।

 कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे ।
ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया ।

'परन्तु इसका तथ्य को पुराणों में दबाया- गया ।..

यह श्लोक गुप्त काल की धर्म मूलक अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है ।

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यहीं तीसवें श्लोक में आभीर वर्णन है ।👇

पालयैनं शुभं राष्ट्रं समुद्रानूपभूषितम्।
गोसमृद्धं श्रिया जुष्टम् आभीर प्रायमानुषम्।।30।।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में सैंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या ३० पर 

वस्तुतः ये ययाति पुत्र यदु के वंशजों में सुमार आभीर हैं जिन्होंने ही व्रज क्षेत्र की प्रतिष्ठा की 
यह आभीर नामक यादव जाति का ही वर्णन है ।

तीसवें श्लोक का अर्थ है 👇
अर्थात्‌ तुम समुद्र के जलप्राय प्रदेश से विभूषित इस सुराष्ट्र (सूरत ) का पालन करो ! 

यह गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है तथा यहीं अधिकतर अहीर ( आभीर ) निवास करते हैं।३०।
गुजरात नामकरण आभीर की उपशाखा गौश्चर गौज्जर गूर्जर से है ।

 हरिवंशपुराण के इसी अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में वर्णन है कि

ययातमपि वंशस्ते समेष्यति च यादववम्।
अनुवंशं च वंशस्ते सोमस्य भविता किल ।।३४।

•--अर्थात्‌ तुम्हारा यह वंश ययाति पुत्र यदु के वंश में मिल जाएगा । जो सोम वंश का रूप है ।३४।
 
 विदित हो कि हर्यश्व का राज्य आनर्त (गुजरात)था ।
वहीं सुराष्ट्र( सूरत )है ।


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•--सर्पराज 'ने कहा कि तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇

 " भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: 
दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )

जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव ,दाशार्ह ,भैम  और वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे ।

अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि  कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे ? 
यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से आगया ।
सरे आम बकवास है ये तो !

आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि
इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा 
राजा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।

राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।

माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।

सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । 
इनके वंशज भैम कहलाये  
जब राजा भीम आनर्त देश पर राज्य करते थे और तब अयोध्या मे राम का शासन था । 

तब इसके समय पर ही मधु के पुत्र लवण को शत्रुघ्न 'ने मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला था।३९।

 और उसी मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न' ने मधुपुरी को बसाया ।।४०।

तस्मिन् मधुवन स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन: ।।४०।।

'परन्तु प्रश्न यहांँ भी है कि मधु के नाम पर ही मधु पुर या मधुपुरी( मथुरा) शत्रुघ्न'ने क्यों बसाई अपने पूर्वजों के नाम ये अपने नाम से क्यों नहीं?
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'परन्तु जब शत्रुघ्न परलोक पधारे तो पुन: यादव राजा भीम ने इस वैष्णव स्थान मथुरा को पुन: प्राप्त किया ।क्यों कि यह भी उनके नाना मधु की नगरी थी ।

कालान्तरण भीम के पुत्र अन्धक मथुरा के राजा हुए और अन्धक के पुत्र रैवत ( ऋक्ष) के पुत्र विश्वगर्भ ( देवमीढ) हुए मथुरा के राजा हुए  ।

विश्वगर्भ का नामान्तरण ही देवमीढ है ।

 ये देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पूर्वजों में थे ।
पर्जन्य और शूरसेन के पिता देवमीढ थे ।

यद्यपि भागवत पुराण में एक प्रसंग के अनुसार जब अर्जुन को  द्वारिका गये हुए कई महीने हो जाते हैं तब युधिष्ठर भीम को वहाँ यह जानने के लिए भेजते हैं कि 
क्या कारण है अर्जुन को वहाँ इतना समय क्यों हो गया ?

इसी सन्दर्भ में समस्त ननिहाल के लोगों का कुशल क्षेम पूछने के लिए युधिष्ठर सबको पूछने के क्रम में सुनन्द और नन्द जो दूसरे अन्य यदुकुल के हैं उनका भी कुशल क्षेम पूछते हैं 
अब प्रश्न यह बनता है कि ये सुनन्द और नन्द कौन दूसरे अन्य यदुकुल 'लोग' हैं ?

वास्तव में ये नौ नन्द ही हैं 

धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद,नन्द,सुनंद अभिनंद,  ., कर्मानन्द , धर्मानंद ,  और वल्लभ। 
 नन्द से  नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। 

श्रीमद्भागवत पुराण में प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह में ही श्लोक संख्या ३२ पर तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवाय: सुनन्द नन्द शीर्षण्या ये चान्ये  सात्वतर्षभा: ।।३२।

अर्थ-  भगवान् कृष्ण के सेवक  श्रुतदेव ,उद्धव , तथा दूसरे अन्य सुनन्द नन्द आदि शीर्ष यदुकुल के कृष्ण और बलराम के बाहुबल से संरक्षित हैं ।
सब के सब सकुशल हैं 'न?
हमसे अत्यंत प्रेमकरने वाले वे 'लोग' कभी हमारा कुशल-मंगल पूछते हैं ?३२-३३
नन्द उपनन्द कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
'परन्तु सुनन्द और नन्द और उपनन्द ये पर्जन्य के पुत्रों में समविष्ट थे ।

नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजा:।

कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।।४८।

अर्थ:- नन्द ,उपनन्द, कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।

और वसुदेव की कौसल्या नामकी पत्नी 'ने एक ही वंश- उजागर पुत्र उत्पन्न किया उसका नाम केशी था ।४८। ( भागवत पुराण नवम् स्कन्द अध्याय चौबीस पृष्ठ संख्या १००(गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)

इसलिए उपर्युक्त श्लोक में नौ नन्द सुनन्द, नन्द और उपनन्द आदि नव गोपों' का अर्थ ग्रहण करना चाहिए ..

आनर्त देश के विषय में कतिपय जानकारी करें 👇 --+-

आनर्त प्राचीन भारत में गुजरात के उत्तर भाग को कहा जाता था। 
द्वारावती आधुनिक द्वारका इसकी प्रधान नगरी थी।

महाभारत के अनुसार अर्जुन ने पश्चिम दिशा की विजय-यात्रा में आनर्तों को जीता था।

महाभारत के सभापर्व के एक अन्य वर्णन से ज्ञात होता है कि आनर्त का राजा शाल्व था, जिसकी राजधानी सौभनगर में थी। 

श्री कृष्ण ने इस देश को शाल्व से जीत लिया था।
विष्णु पुराण में आनर्त की राजधानी कुशस्थली 
बताई गई है-
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'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रो जज्ञे, योऽसावनर्तविशयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास।'

इस उद्धरण से यह भी सूचित होता है कि आनर्त के राजा रेवत के पिता का नाम आनर्त था। 
इसी के नाम से इस देश का नाम आनर्त हुआ होगा।

रेवत बलराम की पत्नी रेवती के पिता थे।

महाभारत से भी विदित होता है कि आनर्त नगरी, द्वारका का नाम था-
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'तमेव दिवसं चापि कौन्तेय: पांडुनंदन:, आनर्त नगरीं रम्यां जगामाशु धनंजय:।'

गिरनार के प्रसिद्ध अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन आभीर ने 150 ई. के लगभग अपने पहलव अमात्य सुविशाख को आनर्त और सौराष्ट्र आदि जनपदों का शासक नियुक्त किया था-
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'कृत्स्नानामानर्त सौराष्ट्राणां पालनार्थं नियुक्तेन पह्लवे कुलैप पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन।'

रुद्रदामन ने आनर्त को सिंधु-सौवीर आदि जनपदों के साथ विजित किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली | 
पृष्ठ संख्या= 63-64| विजयेन्द्र कुमार माथुर |
 वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | 
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार 

( यादव योगेश कुमार'रोहि'अलीगढ़ -
-8077160219)


हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 59 श्लोक 16-20

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पृथ्वी पति राजा जरासन्ध 'ने चेदिराज सुनीथ के पुत्र शिशुपाल के लिए भयानक पराक्रमी भीष्मक  से उनकी कन्या रुक्मणि को माँगा था ।१९।

क्योंकि जरासन्ध दमघोष का वंशज था ।
विदित हो की चेदिराज उपरिचर वसु के एक पुत्र का नाम बृहद्रथ था जिसने मगध में पहले गिरिव्रज नामक नगर का निर्माण किया था उसी के वंश में जरासन्ध उत्पन्न हुए। उपरिचर वसु के ही वंश में उन्हीं दिनों दमघोष (सुनीथ) उत्पन्न हुए जो चेदि देश के राजा थे । 

दमघोष के पाँच पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए शिशुपाल, दशग्रीव ,रैभ्य,उपदिश,और बली ।

जरासन्ध दमघोष का वंशज या कुटुम्बी था और समान वंश में उत्पन्न हुआ इसलिए दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल जरासन्ध को सौंप दिया था ।

रुक्मिणी त्वयभवद् राजन् रूपेणासदशी भूवि।
चकमे वासुदेवस्तां श्रवादेव महाद्युति:।।16।।

स तया चाभिलषित: श्रवादेव जनार्दन:।
तेजोवीर्यबलोपेत: स मे भर्ता भवेदिति।।17।।

तां ददौ न च कृष्णाय द्वेषाद् रुक्मीि महाबल:।
कंसस्यौ वधसंतापात् कृष्णाययामिततेजसे।।18।।
याचमानाय कंसस्य द्वेष्योदयमिति चिन्तययन्।

चैद्यस्याकर्थे सुनीथस्य जरासंधस्तु् भूमिप:।
वरयामास तां राजा भीष्म कं भीमव्रिकमम्।।19।।

चेदिराजस्यं तु वसोरासीत् पुत्रो बृहद्रथ:।
मगधेषु पुरा येन निर्मितोऽसौ गिरिव्रज:।।20।।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 58 श्लोक 21-25

तस्यान्वावाये जज्ञेऽसौ जरासंधो :।
वसोरेव तदा वंशे दमघोषोऽपि चेदिराट्।।21।।

दमघोष पुत्रास्तु पंच भीमपराक्रमा:।
भगिन्यां वसुदेवस्य श्रुतश्रवसि जज्ञिरे।।22।।

शिशुपालो दशग्रीवो रैभ्योयऽथोपदिशो बली।
सर्वास्त्रकुशला वीरा वीर्यवन्तो महाबला:।।23।।

निम्नलिखित श्लोक दमघोष जरासन्ध समान कुल वंशञ् समानवंशस्य सुनीथ: प्रददौ सुतम्।
जरासंधस्तु सुतवद् ददर्शैनं जुगोप च।।24।।

जरासंधं पुरस्कृत्य वृष्णिशत्रुं महाबलम्।
कृतान्यागांसि चैद्येन वृष्णीनां चाप्रियौषिणा।।25।।

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इसी पुराण में  पृथ्वी के प्रथम राजा पृथु का वर्णन यूनानी-माइथॉलॉजी के प्रोटियस् से ग्राह्य है ।
हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में पृथु की पुत्री है पृथ्वी ।👇

तत८भयुपगमाद् राज्ञ्य: पृथोर्वैन्यस्य भारत ।
दुहितृत्वमनुप्राप्ता देवी पृथ्वीति चोच्यते ।।
पृथुना प्रविभक्ता च शोधिता च वसुंधरा ।।४६।

अर्थात्‌ भरत वंशी राजन्य ! फिर वेनपुत्र राजा पृथु के पुत्री रूप में  स्वीकार करने पर यह देवी उसकी पुत्री बनगयी और पृथ्वी कहलाया । 
इस प्रकार पृथु 'ने पृथ्वी को अनेक
भागों 'ने विभक्ति किया और शुद्ध किया ।४६।

यदु जब दो हैं । 
तो फिर अहीर कौन से यादव हैं ?
ब्राह्मणों 'ने ये पेच फाँस दिया ।

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यादव योगेश कुमार 'रोहि' 8077160219

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