शुक्रवार, 11 जून 2021

वंशीधरी टीका-

वादारभ्य नन्दस्य व्रजो धनपुत्रपश्वादि सर्वसमृद्धिमान् जात:।  यत: हरेर्निवासेन हेतुना ये आत्मनो व्रजस्य गुणा: सर्वप्रियत्वादयस्तै: रमाया: आक्रीडं विहारस्थानमभूत् ।।१८।

गोपान् इति । हे कुरुद्वह ! नन्द: एवं  श्रीकृष्णमहोत्सवं कृत्वा गोकुलरक्षायां गोपान् निरुप्य आदिश्य कंसस्य वार्षिक्यं प्रतिवर्षं देयं करं स्वामिग्राह्यं भागं वार्षिकं तत्र साधुरत्नाद्युपायनयुक्त दातुं मथुरां गत: ।।१९।।  

वसुदेव: इति वसुदेव: भ्रातरं  सन्मित्रं नन्दं आगतमुपश्रुत्य "राज्ञे करो दत्त येन " तथाभूतं ज्ञात्वा च तस्य नन्दस्यावमोचनं  अवमुच्यते शकटादि यत्र तत् स्थान ययौ ।
 भ्रातरमित्यत्र वैश्यकन्यायां शूरपत्नीभ्रातृजातत्वेन मातुलपुत्रत्वात् । अतएवाग्रे भ्रातरिति मुहुरुक्ति: । मध्वाचार्यश्च वैश्यकन्यायां शूरवैमात्रेय भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च । तस्मै मया स वर: सन्निसृष्ट: स चास नन्दाख्य उतास्य भार्या ।। नाम्ना यशोदा स च शूरतातसुतस्य  वैश्यप्रभवोऽथ गोप:  ।। इति प्राहु: एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेषा एव वैश्यकन्या उद्भवत्वाद् परं वैश्यत्वं । अतएव स्कान्दे मथुराखण्डे ।" रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणार्थ " इति । यादवानां  हितार्थाय धृतो गोवर्द्धनो  मया " इति च हरिवंशेऽपि " । " यादवेष्वपि सर्वेषु भवन्तो मम बान्धवा: " इति रामवाक्यम् ।२०।।

भावार्थ-
नन्द की इस प्रकार बात प्रारम्भ कर कथाकार कहता है कि  "ब्रज में ,धन ,पुत्र और पशु आदि सभी समृद्धि से युक्त जो कुछ हुआ था ।

उन सबका कारण श्रीहरि (भगवान कृष्ण) निवास करना ही था ।

ब्रज के गुणों में वृद्धि और उसकी सर्व-प्रियता के पात्र रूप में  हरि का रमा (लक्ष्मी) के साथ लीला करना ही था  ।१८। 

गोपों को इस प्रकार यथाकार्य करने का निर्देश देकर नन्द जी श्रीकृष्ण के महोत्सव को सम्पादन करके  गोकुल की रक्षा में उन गोपों को नियुक्त कर इस प्रकार कंस का प्रतिवर्ष दिया जाने वाले वार्षिक कर( टैक्स) रूप में अच्छे- अच्छे रत्न आदि उपहार में देने के लिए  मथुरा गये ।।।१९। 

वसुदेव ने इस प्रकार अपने भाई और सन्मित्र (अच्छे मित्र) नन्द का आगमन सुनकर और " राजा कंस  को जिन्होंने कर दे दिया हो" उन्हीं नन्द जी के आगमन-विषय में जानकर हर्षयुक्त हो वसुदेव जी नन्दजी के पढ़ाव अर्थात् शिविर की ओर चल पड़े ।
जहाँ नन्द जी ने अपने शकट अर्थात् (छकड़े या बैलगाड़ी ) आदि ढ़ील दिये थे।

कुछ टीकाकारों के अनुसार भी 
ये नन्दजी वसुदेव के भाई इस प्रकार थे कि "शूरसेन की पत्नी के भाई के पुत्र होने से भी तथा वणिक-कन्या वरीयसी से उत्पन्न होने से भी " इसीलिए प्रस्तुत टीका में नन्द को अग्रभ्रातृ (अग्रज) अथवा बड़ा भाई कहकर इस प्रकार से उन्हें पुन: पुन: कहा गया ( परन्तु वाद ( मत) यह प्रस्तुत किया है कि इनकी जाति मातृवत् - माता के समान होने से वैश्य हुई  । इस विषय में मध्याचार्य ने भी यह मत अथवा (वाद) प्रस्तुत किया कि "देवमीढ़ के द्वारा  वैश्यकन्या गुणवती में उत्पन्न (पर्जन्य) के पुत्र नन्द थे । 
अत: वसुदेव और नन्द दौनों के पितामह ( बाबा) एक ही देवमीढ थे इस लिए भी नन्द को वसुदेव ने बड़ा भाई कहा ।
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विशेष- कुछ पुराण वसुदेव को उम्र में बड़ा वर्णन करते हैं।

क्यों कि वसुदेव के पिता सूरसेन की सौतेली माता  गुणवती जिनसे देवमीढ़ के द्वारा पर्जन्य का जन्म हुआ और पर्जन्य के पुत्र नन्द जी थे ।
अत: एक पितामह के पौत्र ( नाती) होने से नन्द और वसुदेव परस्पर भाई ही थे  जो क्रमश: देवमीढ़ के पुत्र पर्जन्य और सूरसेन के पुत्र थे ।  

कुछ टीकाकार नन्द के गोप होने का एक तर्क यह भी प्रस्तुत करते हैं!
जो पूर्णत: असंगत और सिद्धान्त(वाद )विरुद्ध ही है कि  शूरसेन के पिता देवमीढ़ के पुत्र पर्जन्य का वैश्य वर्ण की स्त्री में उत्पन्न होने  से भी पर्जन्य की गोप संज्ञा गोपालन की वैश्य वृत्ति के कारण हुई थी।

इस प्रकार अन्य मत से ये गोप देवमीढ़ की सन्त क  होने से यादव विशेष ही थे जो वैश्य कन्या में उत्पन्न होने से तथा वैश्य वृत्ति ( गोपालन आदि ) के कारण वेैश्यता ( वैश्य वर्ण ) को प्राप्त हुए । 
परन्तु वंशगत रूप से ये गोप यादव ही थे।

इसीलिए भी स्कन्द पुराण के मथुरा खण्ड में गोपों के विषय वर्णन करते हुए उन्हें यादव सम्बोधित किया गया है।

"रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणात् इति = इन्द्र का वर्षा के निवारण करने से श्रीहरि ने
सभी यादवों की रक्षा की  और हरिवंश पुराण में लिखा है कि यादवों के हित के लिए मेरे ( कृष्ण के)  द्वारा श्रेष्ठ गोवर्द्धन पर्वत धारण किया गया था।
 यह तथ्य  हरिवंश पुराण में भी वर्णित है।

गोपों के लिए बलराम का यह कहना भी प्रसिद्ध है कि यादवों में आप (गोप ) मेरे लिए सबसे प्रिय हो "

ये बाते तो भागवत पर टीकाकारों की थीं परन्तु देवीभागवत में वसुदेव को गोप रूप में गोपालन वृत्ति को धारण कर जीवन निर्वाह करते हुए वर्णन किया गया है । इसमें तो टीकाकारों की टीकाऐं भी धूमिल पड़ जाती हैं ।

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