शनिवार, 12 जून 2021

मूर्खो के कुतर्कों का शास्त्रीय निदान-

मूर्खो के  कुतर्कों का शास्त्रीय निदान-

प्रश्न - क्या गोप देवता हैं ? नन्दबाबा का वर्ण क्या था ? गोपों को वैश्य कहते हैं परन्तु सम्वर्तस्मृति में उन्हे शूद्र कहा गया है, क्यों ?  और महाभारत में नारायणी सेना के योद्धा होने से क्षत्रिय ।

गोप आभीर और यादव आदि शब्दों  की समानार्थकता को लेकर समाज में कुछ भ्रांतियाँ भीं हैं जिनको दूर करने की आवश्यकता है। ध्यान दें, यह लेख निष्पक्ष है। 

बाबा नन्द भगवान् श्रीकृष्ण के परंप्रिय  ही नहीं अपितु उन्हीं के  वृष्णि  कुल के थे  देवमीढ़ के पौत्र थे ।।
जैसा की वैष्णव ग्रन्थ गोपाल चम्पू वर्णन करता है ।

यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य  वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास ।

 तस्य चार्याणां  शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति ।

तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं  पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति । 

तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म ।श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार । 

स चार्य  बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं 

व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशां वतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।।

अर्थ-• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; 

उन्हीं  क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो पत्नीयाँ  थीं , पहली  (पत्नी) क्षत्रिय वर्ण की,  दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ;

उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो  (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो- प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे ।

और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे; वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; 

जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था।  

विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे; इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।


भगवान् की अवतरणलीला तो श्रीवसुदेव देवकी से हुई परंतु उनका लालन नंदराय और मैया यशोदा ने किया। श्री नन्द जी  ही नहीं अपितु वसुदेव को भी पुराणों में गोप रूप में जन्म लेने का वर्णन है ।
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और देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में वसुदेव को  गोपालन और कृषि करने वाला अर्थात्  वैश्य वृत्ति को धारण करने वाला बताया देखें निम्न श्लोकों को ।👇

शूरसेनाभिधःशूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥६१॥

•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा  शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।

उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  ये (शूरसेन और अग्रसेन दौंनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए ) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।

  

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हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व में कश्यप का ब्रह्मा के आदेश से व्रज में वसुदेव गोप के रूप में अवतरण-

                    (ब्रह्मोवाच)
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।। १८ ।।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।। १९ ।।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।।   ________________________

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।। २१ ।।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।। २२ ।।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।। २३ ।।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः ।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।। २४ ।।

 मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।। २५ ।।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।। २६ ।।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः ।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।। २७ ।।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम् ।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।। २८ ।।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः ।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।। २९ ।।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।। ३१ ।।

इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः ।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः ।।३४।।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते ।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः ।।३५।।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः ।। ३६।।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः ।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।।३७।।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।। ३८।।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।। ३९ ।।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया ।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन ।। 1.55.४० ।।

उपर्युक्त श्लोकों में वर्णन है कि जब एक वार कश्यप ऋषि अपन पुत्र वरुण की गायों उससे लेकर भी गायों के अत्यधिक दुग्ध देने से कश्यप की नीयत में आयी खोट के कारण वरुण की गायें पुन: वापस नहीं करते तब ब्रह्मा क्लास आकर वरुण कश्यप और उनकी पत्नीयो अदिति और सुरभि की गायों को इन देने की शिकायत करते हैं ।

तब ब्रह्मा कश्यप और उनकी पत्नीयों को गोप गोपी रूप में व्रज में  गोपालन करते रहने के लिए जन्म लेने का शाप देते हैं । 

जो वसुदेव और उनकी दो पत्नी अदिति और सुरभि ही  क्रमश देवकी और रोहिणी बनती हैं । और वसुदेव कश्यप के अंश हैं ।

तो गोप तो वसुदेव भी थे नन्द ही नहीं ये यादवों के गोपालन वृत्ति परक विशेषण थे ।

 (हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व 55वाँ अध्याय)

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गो रूपी पृथ्वी के पालक अर्थात् राजा को भी गोप संज्ञा आदर सूचक लगती थी तथापि मुख्यतः गोप का उपयोग एक विशेष समुदाय हेतु होता था। 

गोप वह समुदाय था  जो गोपालन करता था । गो ही वह प्रथम पशु है ।

जिससे पैसा शब्द का विकास पेकुस ( pekus) रूप में हुआ।

 गोप गौ के अविशिष्ट  दुग्ध का व्यापार कर धनार्जन भी करते थे । अतः वे  इस आधार पर ही विक्रय कर्ता ( वैश्य ) नहीं कहे जा सकते थे। 
क्यों की तब केवल विनिमय प्रणाली ही थी जिसे हम वस्तुओं का आदान -प्रदान कह सकते हैं ।
और यह तो सभी राजा ऋषि और मुनि भी करते थे।
पशु शब्द से ही पैसा और फीस जैसे शब्दों का विकास मुद्रा के लिए सर्वप्रथम हुआ है ।

पुरानी यूरोपीय संस्कृतियों में भी पशु ही शुल्क( फीस) का आधार था।

पुराना अंग्रेजी शब्द है (feoh)= "पशुधन, मवेशी; चल संपत्ति; माल या धन में संपत्ति; धन, खजाना, धनवि-निमय या भुगतान के माध्यम के रूप में पैसा," प्रोटो-जर्मेनिक में ये (fehu) (ओल्ड सैक्सन का स्रोत भी) fehu, है । जो  ओल्ड हाई जर्मन भााा मेें (fihu)है । जर्मन में (Vieh)= "मवेशी,"  तो गोथिक (faihu)="पैसा, भाग्य")।

यह आद्य भारोपीय शब्द है (peku)- "मवेशी" (संस्कृत का भी स्रोत pasu (पशु) लिथुआनियाई भाषाओं में (pekus) "पशु;" तथा लैटिन (pecu) "पशु," से ही pecunia "पैसा, संपत्ति") आदि शब्दों का विकास हुआ।

दूसरा शब्द एंग्लो-फ्रेंच है (fee) जो पुरानी फ़्रेंच के ( fieu, शब्द से सम्बद्ध है।। 

एक प्रकार fief "कब्जा, होल्डिंग, डोमेन; सामंती कर्तव्य, भुगतान"  के लिए प्रयुक्त है ।। 

fief), जो जाहिर तौर पर एक जर्मनिक यौगिक है जिसमें पहला तत्व पुरानी अंग्रेज़ी के साथ संगत है -(feoh)

तो गायें ऋषि मुनि और देवता तक की सम्पत्ति होती थीं।

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गोप को कोश गन्थों  में आभीर का समानार्थी भी बताया गया है। अमर कोश- "गोपेगोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः
बाद में यह आभीर शब्द ही अभीर और अहीर हो गया, ऐसा विद्वानों का मत है। 

अभीर का अर्थ । संस्कृत कोशकारों ने अनेक प्रकार से अहीरों की वृत्ति ( व्यवसाय) या प्रवृत्ति ( जन्मजात गुण) को दृष्टिगत करके की।
तारानाथ वाचस्पति ने वाचस्पत्यम् कोश में उपसर्ग धातु और प्रत्यय का विन्यास करते हुए इस प्रकार की (अभि+इर्+णिच्+अच् ) - "आभीरयति गा अभिमुखीकृत्य गोष्ठं नयति।
"अर्थात् जो सदैव गौवंश के समक्ष होकर उनका संरक्षण करते हो अथवा उन्हें गोष्ठ की ओर ले जाता हो  या उनसे आवृत्त रहते हों वे अभीर हैं। 
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बाबा नन्द के पिता पर्जन्य की माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती  थी  जिनमें देवमीढ़ के द्वारा  पुत्र पर जन्य हुए थे। गुणवती गोकुल के वैश्य चन्द्र गुप्त की कन्या थीं ।
ये चन्द्रगुप्त सूर्यवंशी राजा थे किसी कारण से वैश्य वृत्ति को करने लगे और वैश्य हुए ।
👇-
 देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।
चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना ।।५२।

नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यताँगत: ।
तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
(यदुवंश दर्पण)

भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था । और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य वर्ग को प्राप्त हुआ  इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य गोकुल में हुआ जो देवमीढ़ की पत्नी गुणवती के पिता  थे । 👇

श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुः द्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:। 
(वनमाली दास कृत -"भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।
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परन्तु गोपाल चम्पू में भी गुणवती को आभीर कन्या बताया गया । 
इसके वाबजूद भी कुछ व्यक्ति पर्जन्य को माहिष्य जाति का बताकर अपनी मूर्खता का ही परिचय
देते हैं । 
माहिष्य भी यद्यपि महाभारत आदि ग्रन्थों में क्षत्रिय है 
परन्तु स्मृति कारों ने माहिष्य को वर्णसंकर बताया है ।परन्तु जिसका अर्थ होता है क्षत्रिय पुरुष और वैश्याणी भार्या से उत्पन्न संतान। यह एक अनुलोम संकर वर्ण होता है।

तदुपरि शास्त्रोचित कर्म हेतु उन्होंने मातृधर्म अपनाया। अतः वे पर्जन्य वैश्य हुए। 

वृष्णिवंशी राजा देवमीढ़ की दो पत्नियाँ थीं। एक मदिषा जो क्षत्राणी थीं और दूसरी वैश्यवर्णा जो  गुणवती थीं। मदिषा से सूरसेन हुए और उनसे वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, अनाधृष्टि, कनवक, वत्सावान्, गृज्जिम, श्याम, शमीक और गंडूष ये दस पुत्र तथा पुत्री पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतश्रवा, राजाधिदेवी आदि पुत्रियाँ हुयीं।
 इनके विस्तृत चरित्र पुराणों में वर्णित हैं। 

 देवमीढ़ की दूसरी पत्नि वैश्यवर्णा से पर्जन्य और पर्जन्य से  वरीयसी रानी में धरानन्द, ध्रुवनन्द, अभिनन्द, उपनन्द, सुनन्द, कर्मानन्द, धर्मानन्द, नन्द और वल्लभ।
 ये सभी गोप हुए। 

बात आई, गोपों को तो शास्त्रों में इनको देवता कहा गया है, क्या वे देवता हैं ? निस्संदेह उन्हें देवता कहा गया है 
 
"यावद्वत्सपवत्सकाल्पकवपुर्यावत् कराङ्घ्र्यादिकः यावद्यष्टिविषाणवेणुबलशिग्यावद्विभूषाम्बरम्। यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकं सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदजः सर्वस्वरूपो वभौ।।भागवत पुराण-१०।१३।१९। 

  ब्रजमण्डल के लीलागोपों की उत्पत्ति भी राधाकृष्णयुगल के अंगों से ही हुई ऐसा हरिवंश और ब्रह्मवैवर्त मत है। 
अतः वे देवतुल्य थे। 

अब बात करते हैं गोपों के वर्ण की तो कई लोग निम्नोक्त श्लोक से यह सिद्ध करते हैं कि आभीर या गोप तो क्षत्रिय हैं। 

"अस्त्र हस्ताश्च धन्वानः संग्रामे सर्वसम्मुखे। 
प्रारम्भे विजिता येन स गोप क्षत्रियोच्यते।।" 

 

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