बुधवार, 9 जून 2021

मिन्हास जाट योद्धा बन्दा वैरागी -

           -जाट योद्धा बन्दा सिंह बैरागी -


बैरागी (बैरागी) या वैरागी (वैरागी) [1] / बरगी (बरागी) एक वैष्णव सैन्य संप्रदाय है जिसके संस्थापक स्वामी बालानंदाचार्य 18वीं शताब्दी में रहते थे। ये मूल रूप से विभिन्न कुलों के जाट हैं। बैरागी पंजाब और हरियाणा और राजस्थान में पाए जाने वाले जाटों का एक गोत्र भी है ।

लश्करी पीठाधीश्वर स्वामी बालंदाचार्य

अंतर्वस्तु

मूल

बैरागी , जिसकी उत्पत्ति मुगल काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों से मुकाबला करने के लिए हुई थी। सनातन धर्म की रक्षा के लिए जाट , राजपूत , ब्राह्मण , खत्री आदि संतों से वैष्णव दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए, वे बैरागी कहलाने लगे । मुख्य रूप से बैरागी संप्रदाय के संस्थापक स्वामी रामानन्दाचार्य थे । जाटों के वंशज जो स्वयं साधु बन गए, बैरागी के नाम से जाने गए, जिसका अर्थ है कि उन्होंने सांसारिक मामलों को त्याग दिया है। [2]

इतिहास

राम सरूप जून [3] लिखते हैं कि अधिकांश बैरागियों के जाट गोत्र भी हैं । ऐसे कई गाँव हैं जिनमें जाट और बैरागी एक ही गोत्र के हैं और उनके पास एक दूसरे के बराबर ज़मीन-जायदाद है। बौद्ध धर्म के पतन और पौराणिक मत के उदय के बाद बड़ी संख्या में जाट साधुओं के अनुयायी बन गए। जाटों के वंशज जो स्वयं साधु बन गए, उन्हें बैरागी के नाम से जाना जाने लगा , जिसका अर्थ है कि उन्होंने सांसारिक मामलों को त्याग दिया है।


राम सरूप जून [4] लिखते हैं कि 3 मार्च 1707 को औरंगजेब की मृत्यु हो गई और उसके तीन बेटे उत्तराधिकार के युद्ध में शामिल हो गए। नवंबर 1708 में, गुरु गोबिंद सिंह ने बहादुर शाह की सेनाओं का डेक्कन की ओर मार्च किया। उन्होंने नांदेर में बंदा बैरागी माधो दास से मुलाकात की । उन्होंने बंदा बैरागी को पंथ का नेतृत्व करने में सक्षम पाया और उन्हें पंजाब आने के लिए राजी किया । पंजाब के रास्ते में, बंदा बैरागी ने दिल्ली से 20 मील पश्चिम में दहिया गोत्र के एक जाट गाँव सेहरी - खंडा में अपनी यात्रा समाप्त की. वहाँ से उन्होंने पंथ के सभी जत्थेदारों को चिट्ठियाँ भेजीं कि वे तुरन्त ध्यान केन्द्रित करें। उसने शाही खजाने पर हमला करने और लूटने की योजना बनाई और सिखों ने पहुंचना शुरू कर दिया और बल की ताकत 14000 तक बढ़ गई। उसने समाना को संलग्न किया , सधौरा , कुंजपुरा आदि पर कब्जा कर लिया और अंत में सरहिंद के शासक वजीर खान को मार डाला और मार डाला। जिन लोगों ने गुरु गोविंद सिंह और उनके पुत्रों के खिलाफ साजिश में सक्रिय भाग लिया था, उन्हें एक-एक करके खोजा गया और सजा सुनाई गई। 1713 तक, वह लाहौर के उत्तर में पूरे पंजाब को अपने अधीन करने में सफल रहा । दिल्ली के सिंहासन के उत्तराधिकार के लिए आंतरिक युद्ध उनके लिए एक वरदान साबित हुआबंदा बैरागी । 1713 तक, चार वर्षों में चार क्रमिक रूप से सिंहासन पर चढ़े, फारुख सियार, और सिंहासन पर चढ़ने पर सिख विद्रोह को दबाने का संकल्प लिया।

बैरागी सैनिक का एक चित्र

बाबा बंदा बैरागी ने भी अब तक एक "सन्यासी" होने के नाते अपने मार्ग को बदल दिया था, एक 1712 में और दूसरा 1714 में बहुविवाह में लिप्त हो गया था। इन विवाहों के परिणामस्वरूप, वह सांसारिक मामलों में तल्लीन हो गया। बल्कि गुरिल्ला युद्ध छेड़ने के लिए। उन्होंने गुरदासपुर के पास गढ़ी नंगला में एक किले का निर्माण किया और उसमें अपनी सेना इकट्ठी की। शाही सेना ने गढ़ी को घेर लिया और सभी संचार और आपूर्ति काट दी। भोजन की कमी के कारण गढ़ी के रहने वाले कंकालों में सिमट गए। शाही सेना बिना किसी प्रतिरोध के किले में प्रवेश कर गई। बंदा बैरागी को उसकी पत्नी, 3 साल के बेटे कंवर अजीत सिंह और 700 अन्य अनुयायियों के साथ पकड़ लिया गया और उन सभी को जंजीरों में जकड़ कर दिल्ली लाया गया।, जहां उन्हें 1716 में बेरहमी से मार डाला गया था। उसके बाद एक शाही फ़रमान जारी किया गया था जिसके अनुसार दाढ़ी रखने वाले किसी भी व्यक्ति को बिना किसी कारण के मार दिया जाएगा। सिख बिखरे हुए थे और उनके कार्य 40 वर्षों तक "जत्था 'दस्यु" द्वारा खुद का बचाव करने तक सीमित थे। इस बीच मुगल सरकार प्रतिकूल घटनाओं का सामना कर रही थी।


जाटों का इतिहास , पृष्ठ-181 का अंत


हा रोज द्वारा बैरागी संप्रदाय

हा रोज [5] ने बैरागी संप्रदाय का वर्णन इस प्रकार किया है:

बैरागी (बैरागी)। - बैरागी ( वैरागी , अधिक सही ढंग से, संस्कृत वैराग्य से , 'जुनून से रहित') विष्णु के भक्त हैं। बैरगी शायद भारतीय धर्म में एक बहुत पुराने तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, संप्रदाय के लोग जो तेंदुए की खाल पहनते हैं, निस्संदेह ऐसा नर सिंह, विष्णु के तेंदुए के अवतार के रूप में करते हैं, जैसे भगौती पोशाक, †† नृत्य आदि की नकल करते हैं । कृष्ण की. पुजारी जो उस देवता का प्रतिरूपण करता है जिसकी वह पूजा करता है, लगभग हर असभ्य धर्म में पाया जाता है, जबकि बाद के पंथों में पुराने संस्कार कम से कम जानवरों के मुखौटे के धार्मिक उपयोग में जीवित रहते हैं, '


  1. राम सरूप जून : जाटों का इतिहास/अध्याय VI , पृष्ठ 123
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बन्दा वैरागी ब्राह्मण नही अपितु मिन्हास जाट योद्धा थे ।
जाटों को जाट ही रहने दो ब्राह्मण मत बनाओ 
जाट अन्न देव हैं। जाट प्रसन्न देव है।

  ★-"इतिहास के बिखरे हुए पन्ने"-★
शुक्रवार 9 जून 2023
मिन्हास जाट योद्धा बन्दा वैरागी -
           -जाट योद्धा बन्दा सिंह बैरागी -
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बन्दा सिंह बहादुर जो कालांतर में बन्दा बैरागी के नाम से प्रसिद्ध हुए ये गुरु गोविन्द सिंह  की सेना में  एक  जाट सैनिक थे ।
बन्दा सिंह बैरागी एक महान सेनानायक थे।
उन्हें बन्दा बहादुर, लक्ष्मण देव, माधो दास बैरागी, और वीर बन्दा बैरागी आदि नामों से भी पुकारते  हैं।

उनका मूल नाम लक्ष्मण देव था। वे पहले ऐसे व्यक्तिव हुए, जिन्होंने मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा, छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और इन्हीं की सहभागिता में गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्ता सम्पन्न सिक्ख लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में स्वराज की नींव रखी। 

यही नहीं, उन्होंने गुरु नानक देव और गुरू गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहरें जारी करके, निम्न वर्ग के लोगों की उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मज़दूरों को ज़मीन का मालिक बनाया।

क्यों की ये अपने जाट समाज के कृषि कार्य की कठिनता से पूर्ण परिचित थे ।

सरदार बन्दा सिंह बैरागी का जन्म
27 अक्टूबर 1670 राजौरी, जम्मू कश्मीर में हुआ था ।और इनकी मृत्यु जून 9, 1716 ( 45 वर्ष की अवस्था में हुई )

मुग़लों से मुकाबला  करने के लिये ये  प्रसिद्ध हैं
ज़मींदारी प्रथा समाप्त करने, सरहिन्द के नवाब वज़ीर ख़ान को  इन्होंने ही मारा, पंजाब और भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य इलाक़ों में स्वराज और स्वराज की स्थापना का श्रेय गुरु गोविन्द सिंह के साथ इनका नाम भी संलग्न है ।

इनके पूर्वाधिकारीयों में सिक्खों के दशम गुरू 
गुरू गोबिन्द सिंह जी थे जिन्होंने इनका मार्गदर्शन किया 

छज्जा सिंह ढिल्लों जाट बन्दा बैरागी जी के उत्तराधिकारी हुए सिख धर्म को देशभक्ति और स्वाभिमान का पाठ पढ़ाने वालों में इनका नाम दर्ज है ।

 ( अजय सिंह जाट ) इनका पुत्र हुआ  
कालांतर में बहुत से जाट जिनसे राजपूतों का उदय हुआ मिन्हास गोत्र के जाटों के कुछ कबीले राजपूत लिखने लगे । ये मिन्हास जाट राजपूत थे।

सन्दर्भ-
मिन्हास (मिनहास)  (मिन्हास) जाट गोत्र पंजाब , भारत और पाकिस्तान में पाया जाता है । पश्चिमी पंजाब में विर्क को माहे वंश का माना जाता है , और मिन्हास को विर्क का भाई माना जाता है ।
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विदित हो की कुछ लोग  इन्हें ब्राह्मण भी बता सकते हैं।
परन्तु सिख धर्म ब्राह्मण वाद के आडम्बरों की प्रतिक्रियाओं का परिणाम था । जिसमें बहुतायत से जाट गूजर अहीर और राजपूत तथा नीची समझी जाने वाली जाति के लोग समावेशित थे ।


सिख धर्म को हिन्दुओं से खतरा है और जो गुट इस प्रचार में लगा हुआ है वह इतिहास को बिगाड़ कर इस ढंग से पेश कर रहा है जिससे उनका तर्क वजनदार बन सके।
 जब कोई विद्वान या प्रचारक इस विषय पर बोलता है तो स्पष्ट शब्दों में हिन्दू कौम को सिखों का दुश्मन करार देता है। पहले जब यह बात आरंभ हुई थी तो ब्राह्मणवाद को लक्ष्य बनाया गया था।

 ब्राह्मणवाद को ही सिखी के सिद्धांतों का विरोधी माना गया था। कई बार तो ये प्रवक्ता ब्राह्मणों को ही बुरा-भला कहते हैं।

सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक के बारे में एक प्रसिद्ध कहानी है कि वो 11 साल की उम्र में ही ब्राह्मण वाद की रूढ़ियोके प्रति विद्रोही हो गए थे. 
इस उम्र में लड़के पवित्र जनेऊ पहनना शुरू करते हैं, लेकिन गुरु नानक ने इसे पहनने से इनकार कर दिया था.
उन्होंने कहा था कि लोगों को जनेऊ पहनने के मुक़ाबले अपने व्यक्तिगत गुणों को बढ़ाना चाहिए.

नानक ने एक विद्रोही आध्यात्मिक पंक्ति को खींचना जारी रखा.

 उन्होंने स्थानीय साधुओं और मौलवियों पर सवाल खड़ा करना शुरू किया. वो समान रूप से हिन्दू और मुसलमानों पर सवाल खड़ा कर रहे थे.

नानक का ज़ोर आंतरिक बदलाव पर था. उन्हें बाहरी दिखावा बिल्कुल पसंद नहीं था.

गुरु नानक ने कुछ वक़्त के लिए मुंशी के तौर पर भी काम किया था, लेकिन कम उम्र में ही ख़ुद को आध्यात्मिक विषयों के अध्ययन में लगा दिया.

 नानक आध्यात्मिक अनुभव से काफ़ी प्रभावित थे और वो प्रकृति में ही ईश्वर की तलाश करते थे.

उन्हीं इन विचार धाराओं प्रवाहित किया उनके अनुयायी बाबा बन्दा सिंह बैरागी ने -
बाबा बन्दा सिंह बैरागी का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के तहसील राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (1670 ई.) को हुआ था। जम्मू कश्मीर में इस क्षेत्र में कुछ जाट समुदाय भी रहते थे 

उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव भारद्वाज था। भरद्वाज गोत्र के पुरोहित इनका पाण्डित्य कर्म करते थे अत: पुरोहित गोत्र ये ये भी भरद्वाज गोत्र के कहलाए -
वे मिन्हास जाट कबीले से सम्बन्धित थे।

लक्ष्मण देव के भाग्य में विद्या नहीं थी, लेकिन छोटी सी उम्र में पहाड़ी जवानों की भांति कुश्ती और शिकार आदि का बहुत शौक़ था।
जैसा कि जाटों की एक सांस्कृतिक विरासत है ।

वह अभी 15 वर्ष की उम्र के ही थे कि एक गर्भवती हिरणी के उनके हाथों हुए शिकार ने उने अत्यंत शोक में डाल दिया। 

इस घटना का उनके मन में गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपना घर-बार छोड़कर बैरागी बन गये। 

वह जानकी दास नाम बैरागी के एक साधु के शिष्य हो गए और उनका नाम माधोदास बैरागी पड़ा। तदन्तर उन्होंने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहे।
वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चले गए जहाँ गोदावरी के तट पर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की।

गुरु गोबिन्द सिंह से प्रेरणा पाकर ये उनके अनुयायी हो गये ।
3 सितम्बर 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने इस आश्रम में पहुंचकर माधोदास को उपदेेेेश दिया और तभी से इनका नाम माध दास से बन्दा बैरागी हो गया | 
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पंजाब और शेष अन्य राज्यों के हिन्दुओं के प्रति दारुण यातना झेल रहे तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष के उन महान बच्चों की सरहिंद के नवाब वज़ीर ख़ान के द्ववारा निर्मम हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए रवाना किया।

गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वे पंजाब आये और सिक्खों के सहयोग से मुग़ल अधिकारियों को पराजित करने में सफल हुए। 

मई, 1710 में उन्होंने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उन्होंने ख़ालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।

राज्य-स्थापना हेतु आत्मबलिदान संपादित करें
बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 
1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फ़र्रुख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समद ख़ाँ के नेतृत्व में उन्हें गुरुदासपुर ज़िले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा।

खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन्होंने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। 

फ़रवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए जहाँ 5 मार्च से 12 मार्च तक सात दिनों में 100 की संख्या में सिक्खों की बलि दी जाती रही । 

16 जून को बादशाह फ़ार्रुख़शियार के आदेश से बन्दा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये।

मरने से पूर्व बन्दा सिंह बहादुर जी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों और ज़मींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे थे। 

मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था।

पाँच हज़ार मुसलमान भी उनकी सेना में थे।

बन्दा सिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगे और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ पढ़ने और खुतवा करवाने में स्वतन्त्र होंगे।

बाबा बन्दा सिंह के 300वें शहीदी दिवस के अवसर पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल
सिख सैनिकों की वीरता और नायकत्व को याद रखने के उद्देश्य से एक युद्ध स्मारक बनाया गया है।

यह उसी स्थान पर बना है जहाँ छप्पर चीरी का युद्ध हुआ था। इस परियोजना का आरम्भ 30 नवम्बर 2011 को पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने किया था।

सन्दर्भ --
 Sagoo, Harbans (2001). Banda Singh Bahadur and Sikh Sovereignty. Deep & Deep Publications. मूल से 4 अप्रैल 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 अप्रैल 2016.
Rajmohan Gandhi, Revenge and Reconciliation, पपृ॰ 117–118, मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 24 अप्रैल 2016
 Ganda Singh. "Banda Singh Bahadur". Encyclopaedia of Sikhism. Punjabi University Patiala. मूल से 17 फ़रवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 January 2014.
 "Banda Singh Bahadur". Encyclopedia Britannica. मूल से 14 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 May 2013.।
खत्री जाट गोत्र का इतिहास
पंडित अमीचन्द्र शर्मा ने लिखा है - लव खत्री गोत्र के जाटों के दो गाँव हैं ।
बनेरा और बांकनेर जो जिला दिल्ली में पड़ते हैं। इनके ओर भी कई गाँव हैं।
 इनके बड़े का नाम लव था। वह खत्री संघ में था खत्री क्षत्री शब्द का तद्भव अथवा अपभ्रंश रूप है । खत्री जाट अहीर और गूजर क्षत्रियों का एक संघ था । 
जिसमें जाट बहुतायत से थे ।
ये संघ से अलग हो गये। उसकी संतान लव खत्री कहलाई। 

कुछ इतिहासकार इन्हें खत्री भी लिखते हैं तो स्पष्ट कर दें कि खत्री कोई जाति नहीं है । यह गुर्जर  अहीर और जाट योद्धाओं का एक संघ था जिसे सिख धर्म मैं खत्री कहा गया जो संस्कृत के क्षत्री शब्द का तद्भव अथवा अपभ्रंश रूप है। बहुतायत से खत्री शीर्षक जाटों का एक गोत्र हो गया ।
भलेराम बेनीवाल लिखते हैं कि खत्री जाट गोत्र के बारे में एक कथा प्रचलित है.
" जसवंत सिंह नाम क एक वीर पुरुष व्यापार के लिये राजपुरा रूका हुआ था. 
वहं एक भैंस खुन्टा उखाड़ कर भाग रही थी. पीछे से एक लड़की ने आवाज लगाई - भैंस पकड़ियो ! वीर पुरुष ने रस्से पर पैर रख कर भैंस को रोका और उस लड़की को सौंप दी. 
लड़की युवक की वीरता से प्रभावित हुई और विवाह का प्रस्ताव जसवन्त सिंह के सामने रखा. 

जसवन्त सिंह ने मान लिया और शादी कर लड़की को घर ले गया.
जसवन्त सिंह के घरवालो ने कहा कि या तो इस लड़की को छोड़ो या घर छोड़ो. इस पर जसवन्त सिंह ने घर छोड़ दिया और राजा जयचन्द के यहां नौकरी कर ली. राजा को उसकी रानियों ने मरवा डाला व स्वयं शासक बन गयी. 
उन रानियों को जसवन्त सिंह ने मरवा डाला और स्वयं राजा बन गया. लौर और खत्री एक ही गोत्र है

 इसलिए दोनों गोत्र में शादी नही होती है । इस प्रकार जसवन्त सिंह से आगे के वंशज खत्री गोत्र कहलाये.

खत्री गोत्र के गांव
खत्री गोत्र के गांव हैं:

दिल्ली में - नरेला, सिंघोला, शाहपुर गढ़ी, बकनेर, टीकरी,
जिन्द में - बनू, भूड़ा, कसान,
रोहतक में - इसमायला, कोलासी, गढ़ी ब्राह्मण व चरया
उत्तर प्रदेश मेरठ - भैसा, मनफ़ोड़ा

खत्री Khatri भी शब्दोँ के अपभ्रंश के कारण ही प्रचलन मेँ आया । जो जाट आज अपने को खत्री Khatri लिखते हैं वो भी लववंशी क्षत्रिय जाट ही हैं । खत्री जाट पहले अपने आप को लववंशी क्षत्रीय जाट होने के कारण अपने को लोरस क्षत्रिय लिखते थे जो समय के साथ भाषा/बोली और शब्दों के अपभ्रंश के कारण लौरस क्षत्रिय (Loras Kshatri) से खत्री Khatri लिखने लग गए या युँ कहो कि खत्री Khatri लिखना प्रचलन मेँ आ गया 
लौरस क्षत्रिय (Loras Kshatri) का अपभ्रंश ही खत्री/Khatri है ।

बड़गोती (Badgoti) गोत्र, जो लौर (Laur) गोत्र का ही सब गोत्र है । बड़गोती Badgoti अर्थ है "बड़े गोत्र का" । बड़गोती Badgoti जाट गोत्र भी लौर Laur/Lor के रूप में जाना जाता है या हम कह सकते हैं कि सही विवरण Badgotis लिए Laur/Lor होना चाहिए जिसके द्वारा वे आम तौर पर बुलंदशहर में जाने जाते हैँ । बड़गोती मूल रूप से बहुत अमीर, बड़ी भूमि होने वाली जाट की पीढ़ी के हैं ।
 बड़गोती जाट राष्ट्र के प्रति समर्पित रहे हैँ । ये मुसलमानों और अंग्रेजों के खिलाफ अपने स्वयं के द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए लड़े ।
आज के समय मेँ हम इन्हें रक्षा और पुलिस सेवाओं में अधिकतम पा सकते हैं । ये ईमानदार, बहादुर और अपने काम के प्रति जिम्मेदार रहे हैँ । ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उच्च प्रतिष्ठित जाट हैं ।

दलीप सिंह अहलावत  के अनुसार महाभारतकाल में इस जाटवंश का राज्य कश्मीर एवं ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में था। पाण्डवों की दिग्विजय में उत्तर की ओर अर्जुन ने सब जनपद जीत लिए।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-295

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प्रस्तुति करण  - 
 यादव योगेश कुमार "रोहि"





1 टिप्पणी:

  1. तुम लाख कोशिश कर लो,शूद्र के शूद्र ही रहोगे।राजपूतों से तुम्हारी खुन्नस की कोई वज़ह तो होगी।राजपूत तो वैदिक क्षत्रिय हैं,और तुम अपना फर्जी इतिहास बनाकर क्षत्रिय बनने की असफल कोशिश कर रहे हो।सिखों के इतिहास में उन्हें राजपूत माना गया है, तुम्हारी जलन के लिए यही काफी है।

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