शनिवार, 26 अगस्त 2023

घोष शब्द का इतिहास वैश्विक परिप्रेक्ष्य में"यद्यपि हम घोष हैं क्यों कि सदीयों से हमारे पूर्वज गो पालक रहे हैं ।

  "घोष शब्द का इतिहास वैश्विक परिप्रेक्ष्य में"

यद्यपि हम घोष हैं  क्यों कि सदीयों से  हमारे पूर्वज गो पालक रहे हैं ।

दुर्भाग्य से आज गो की दुर्गति है ;
इसके लिए जन समुदाय और सरकारों की रूढ़िवादी नीतियाँ भी जिम्मेदार हैं ।
गाय की दुर्गति के कारण हैं 👇

कुछ रूढ़िवादी मानसिकता वाले महानुभाव जो गाय को राजनैतिक प्रतीक (Symbol) के रूप में उपयोग में ला रहे हैं।
--जो स्वयं को घोष कहते हैं वे भी कर्तव्य विमुख होकर भौतिकता के चाकचक्य में अन्धे हुए जा रहे हैं।

अज्ञानता जनित दोष से वे पूर्ण रूपेण भ्रान्ति -ज्वर से पीडित हो गये हैं।

घोष शब्द वैदिक काल से गोपों का विशेषण या पर्याय रहा है
और ये गोप वंशगत रूप से यादव ( यदोर्पत्यं) अर्थात्‌ यदु के वंशज हैं।
और इनकी वीरता ने इन्हें अभीर बना दिया ।

ऋग्वेद में यदु और तुर्वशु को प्राचीनत्तम विश्व का सबसे बडा गोप कहा :- जो करोड़ो गायों से घिरा हुआ है ।👇

उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/) 

विशेष:-  व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में "दासा" शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है।

क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है।

परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।

गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों  से घिरा हुआ

यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय  बहुवचन रूप  अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।

गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है।

वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की कुत्सित चेष्टा की।

कदाचित् ब्राह्मणों को ये जन-श्रुतियाँ पश्चिमीय एशिया के मिथकों से प्राप्त हुईं
क्यों कि कनानी संस्कृतियों तथा फोएनशियन सैमेटिक संस्कृतियों में यहुदह् (Yahuda) का वर्णन इसी प्रकार है ।
--जो यहूदियों का आदि पुरुष यदु: है ।
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये उपर्युक्त ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।

ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाहे" शब्द के रूप में विकसित है ।
:-जो  एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है।
---जो वर्तमान में दाहिस्तान "Dagestan" को आबाद करने वाले हैं।

दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
तुर्को के अादि-पूर्वज तुर्वशु थे।

विदित हो कि यहूदी प्राचीन पश्चिमीय एशिया कनान फलिस्तीन सीरिया अराम आदि के सबसे बड़े चरावाहे थे।
पश्चिमीय एशिया के इतिहास कारों ने यहूदियों के रूप में "गुजर" जन-जाति का उल्लेख किया है ।
अब ये लोग भारत में यादवों के रूप में थे ।
ऐसा अनेक विद्वान लिखते हैं।

पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने यहुदह् Yahuda को यदु: से एकरूपता स्थापित की ।
और यह घोष शब्द किसी वंश का सूचक कभी नहीं था
हाँ यह घोष यादवों की गोपालन वृत्ति मूलक उपाधि या विशेषण अवश्य था।

वैदिक काल में ई०पू० सप्तम् सदी में यह गोष:( गौषन् ) के रूप में था ।
और घोष रूप ई०पू० पञ्चम् सदी में हो गया था ।

क्यों कि हैहय वंशी यादव राजा दमघोष से पहले भी घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है ।

इस विषय में वेद प्रमाण हैं; उसमे भी ऋग्वेद और उसमें भी इसके लिए चतुर्थ और षष्ठम मण्डल महत्वपूर्ण श्रोत हैं।

मध्यप्रदेश में "घोष" यद्यपि यादवों का प्राचीनत्तम विशेषण है।

जो गोपालन की प्राचीन वृत्ति ( व्यवसाय) से सम्बद्ध है

परन्तु आज ये लोग संस्कृत भाषा को न जानने के कारण
अपने प्राचीनत्तम इतिहास को भी भूल गये हैं।

इन्हें नहीं पता कि गोषन् शब्दः ही
पौराणिक काल में  "घोष " बन गया जबकि वैदिक
सन्दर्भों में यह गोष: ही है ।
दरअसल उसमें इनका भी कोई दोष नहीं है
क्यों कि
कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी काल में अपने उसी मूल यथावत्-रूप में नहीं रहपाता है।
परिवर्तन का यह सिद्धान्त संसार की प्रत्येक वस्तु पर लागू है ।

जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है।
  नि:सन्देह वह इसका मूल रूप नहीं होता ।
वह बहुतायत बदला हुआ रूप होता है

क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी,
श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है।
और अल्पज्ञता ही है ।

और इस परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया भी स्वाभाविक ही है ।
देखो ! जैसे👇

आप नवीन वस्त्र और उसीका अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप ! चीथड़ा हो जाता है जानते हो ।
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घोष: शब्द के जिस रूप को लोगों ने सुना तो उन्होनें
(घुष् ध्वनौ धातु की कल्पना कर डाली )

और अर्थ कर दिया कि --जो  गायें को आवाज देकर बुलाता है।
'वह घोष है।
परन्तु -जब घोष शब्द ही अपने इस मूल रूप में नहीं है- तो यह व्युत्पत्ति भी अभाषा-वैज्ञानिक ही है ।

परन्तु घोष शब्द मूलत: गोष: है  --जो ऋग्वेद में  गोष:गोषन् और बहुवचन गोषा रूप में गोपालकों का ही वाचक है ।
देखें--नीचे ऋग्वेद के उद्धरण👇

गोष: (गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु)
अर्थात्‌ --जो गाय की सेवा करता है ।

गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सिद्धान्त कौमुदीय धृता श्रुतिः 👇
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नूनं न इन्द्रापराय च स्या भवा
मृळीक उत नो अभिष्टौ ।
इत्था गृणन्तो महिनस्य
शर्मन्दिवि ष्याम पार्ये गोषतमाः
(ऋग्वेद ६ । ३३ । ५ । )

प्र ते बभ्रू विचक्षण शंसामि गोषणो नपात् ।
माभ्यां गा अनु शिश्रथः ॥२२॥
ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।👇

सायण भाष्य:-प्र ते॑ ब॒भ्रू वि॑चक्षण॒ शंसा॑मि गोषणो नपात्

माभ्यां॒ गा अनु॑ शिश्रथः ॥२२

प्र । ते॒ । ब॒भ्रू इति॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒ण॒ । शंसा॑मि । गो॒ऽस॒नः॒ । न॒पा॒त् ।

मा । आ॒भ्या॒म् । गाः । अनु॑ । शि॒श्र॒थः॒ ॥२२

प्र । ते । बभ्रू इति । विऽचक्षण । शंसामि । गोऽसनः । नपात् ।

मा । आभ्याम् । गाः । अनु । शिश्रथः ॥२२

हे “विचक्षण प्राज्ञेन्द्र “ते त्वदीयौ “बभ्रू बभ्रुवर्णावश्वौ “प्र “शंसामि प्रकर्षेण स्तौमि" ।

हे “गोषनः गवां सनितः हे “नपात् न पातयितः
स्तोतॄनविनाशयितः।

किंतु पालयितरित्यर्थः ।
हे इन्द्र त्वम् “आभ्यां त्वदीयाभ्यामश्वाभ्यां “गा “अनु अस्मदीया गा लक्षीकृत्य “मा “शिश्रथः विनष्टा मा कार्षीः  गावोऽश्वदर्शनात् विश्लिष्यन्ते ।
तन्मा भूदित्यर्थः ।।

उपर्युक्त ऋचा में गोष: शब्द गोपोंं का वाचक है।
जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में वर्णित है।

शब्दों का शारीरिक परिवर्तन भी होता है ।
लौकिक भाषाओं में यह घोष: हो गया।
तब भी इसकी आत्मा (अर्थ) अपरिपर्वतित रहा।
आज कुछ घोष लोग अपने को यादव भले ही न मानें परन्तु इतिहास कारों ने उन्हें यादवों की ही गोपालक जन-जाति स्वीकार किया है।

वैसे भी दमघोष से पहले भी घोष शब्द हैहय वंशी यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है

पुराणों में वर्णित हैहय भारत का एक प्राचीन यादव राजवंश था।
जैसे-
यदु के चार पुत्र थे –
(I) सहस्त्रजित, (II) क्रोष्टा,
(III) नल और (IV) रिपु.
हैहय वंश यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के पुत्र का नाम शतजित था।
शतजित के तीन पुत्र थे – महाहय, वेणुहय तथा हैहय.
परन्तु कालान्तरण में
ब्राह्मण वाद की रूढ़िवादी परम्पराओं की विकट छायाओं आच्छादित हैं ।
इन्हें कोई पूछे कि ठाकुर उपाधि तुर्को और मुगलों की उतरन( Used clothes) है

--जो तुर्की आरमेेनियन और फारसी भाषाओं में जमींदारों या सामन्तों की उपाधि थी ।क
संस्कृत भाषा या किसी शास्त्र में तो ठाकुर शब्द है ही नहीं
यह बारहवीं सदी में हिन्दुस्तान की भाषाओं में प्रविष्ट हुआ
जब देश पर तुर्को और मुगलों की शासन था ।
प्रथम तुर्की आक्रान्ता सुबक्तगीन 977 ईस्वी में गजनी से भारत में प्रवेश करता है।
तब अपने सामन्तों की ताक्वुर tekvur उपाधि
किसी भूखण्ड या प्रान्त के संरक्षक या मुखिया के तौर पर निश्चित करता है ।
मध्यप्रदेश के घोष --जो स्वयं को ठाकुर तो मानते हैं परन्तु अहीर या यादव नहीं मानते ।
घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा।
--जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में गोष: के रूप में है जिसका अर्थ है ।

गां सनोति सेवयति इति गोष: --जो गाय की सेवा करता है 'वह गोप !

अब कुछ हमारे घोष समाज के लोग कहने लगे है कि घोष और घोसी अलग होते हैं ।
परन्तु वे निहायत अशिक्षित माने जाऐंगे
जिन्हें भाषा-विज्ञान  ( linguistic) का ज्ञान नहीं
--जो केवल साक्षर मात्र हैं ।

प्रस्तुति-करण :–यादव योगेश कुमार "रोहि"
क्यों कि घोष शब्द ही प्राकृत भाषाओं में घोसी बन गया है
जबकि घोष भी वैदिक गोष: का लौकिक रूपान्तरण है
जिनका अर्थ गोसेवक अथवा गोप ही होता है.
वृष्णि वंशी यादव उद्धव को 'ब्रजभाषा के कवि सूरदास आदि ने घोष कहा ।
यादवों का एक विशेषण है घोष -👇
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आयो घोष बड़ो व्यापारी  लादि खेप
गुन-ज्ञान जोग की, ब्रज में आन उतारी ||
फाटक दैकर हाटक मांगत,
भोरै निपट सुधारी धुर ही तें खोटो खायो है,
लए फिरत सिर भारी ||

इनके कहे कौन डहकावै ,
ऐसी कौन अजानी ।
अपनों दूध छाँड़ि को पीवै,
खार कूप को पानी ||
ऊधो जाहु सबार यहाँ ते, बेगि गहरु जनि लावौ |
मुंह मांग्यो पैहो सूरज प्रभु, साहुहि आनि दिखावौ ||
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वह गोपियाँ  उद्धव नामक घोष की शुष्क ज्ञान चर्चा को अपने लिए निष्प्रयोज्य बताते हुए उनकी व्यापारिक-सम योजना का विरोध करते हुए कहती हैं ।
घोष शब्द यद्यपि गौश्चर: अथवा गोष: का परवर्ती तद्भव रूप है परन्तु इसे भी संस्कृत में मान्य कर दिया गया ।
और इसकी घुष् धातु से व्युत्पत्ति कर दी गयी ।

--जो पूर्ण रूपेण असंगत व अज्ञानता जनित व्याकरणिक और भाषा विज्ञान के नियम के विरुद्ध ही है ।👇
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घोष: (घोषति शब्दायते इति ।

घोषः, पुंल्लिङ्ग (घोषन्ति शब्दायन्ते गावो यस्मिन् ।
घुषिर् विशब्दने + “हलश्च ।” ३ । ३ । १२१। इति घञ् )
आभीरपल्ली (अहीरों का गाँव)
अर्थात् जहाँ गायें रम्हाती या आवाज करती हैं 'वह स्थान घोष है ।
वस्तुत यह काल्पनिक सामयिक व्युत्पत्ति मात्र है ।
(यथा, रघुःवंश महाकाव्य । १ । ४५ ।
“हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ”
द्वितीय व्युत्पत्ति गोप अथवा आभीर के रूप में है 👇
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घोषति शब्दायते इति । घुष् + कर्त्तरि अच् ।)
गोपालः । (घुष् + भावे घञ् ) ध्वनिकारक।

(यथा, मनुः । ७ । २२५ । “तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः ।

कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः ।
(यथा, कुलदीपिकायाम् “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुज
महाकृती )

अमरकोशः व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका ।
गोपिका ।
बंगाल में कायस्थों का एक समुदाय घोष कहलाता है ।
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👇
'ब्रजभाषा के कवियों ने घोष या अहीर यादवों को ही कहा है ।👇
उदाहरण —प्रात समै हरि को जस गावत
उठि घर घर सब घोषकुमारी ।
(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ )
संज्ञा पुंल्लिङ्ग [संज्ञा] [ आभीर] १. अहीर । ग्वाल 

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रसखान ने  अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं । 👇
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या लकुटी अरु कामरिया पर,
      राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

  आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख,
           नन्द की धेनु चराय बिसारौं॥

रसखान कबौं इन आँखिन सों,
            ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

कोटिक हू कलधौत के धाम,
                करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस,
                   सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,
                              अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे,
                          पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,
                           छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
नीचे देखें---👇
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ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।

अर्थात् उस वृदावन में सभी गौएें गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
(उद्धृत अंश)👇
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक ४१वाँ अध्याय।
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ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर
रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ;
क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
और घोष भी गोपों का प्राचीन विशेषण है ।👇

द्रोण नन्दो८भवद् भूमौ, यशोदा साधरा स्मृता ।
कृष्ण ब्रह्म वच: कर्तु, प्राप्त घोषं पितु: पुरात् ।
____________________________________
वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः
शापेन गोपालत्वमापतुः। यथाह
(हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )

गोषा -गां सनोति सन--विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषाशब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।

गोषन् (गोष: )गां सनोति सन--विच् ६ त० “सनोतेरनः” पा० नान्तस्य नित्यषत्वनिषेधेऽपि पूर्बपदात् वा षत्वम् । गोदातरि “शंसामि गोषणो नपात्” ऋ० ४ । ३२ । २२ ।

अहीरों की वस्ती या अहीरों को ही घोष कहा जाता है ।
आभीरपल्ली । (यथा, रघुःवंश । १ । ४५ । “हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥


घोष= गोपालः ।
(यथा, मनुः । ७ । २२५ ।
“तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः )

कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः । (यथा, कुलदीपिकायाम् “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुजमहाकृती ॥”) अमरकोशः
व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं ।
संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका ।
गोपिका ।
उ०—प्रात समै हरि को जस गावत उठि घर घर सब घोषकुमारी ।—(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ )
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आभीरी] १. अहीर । ग्वाल । गोप — आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे । (राम चरित मानस । ७ । १३० )
तुलसी दास ने अहीरों का वर्णन भी विरोधाभासी रूप में किया है ।
कभी अहीरों को निर्मल मन बताते हैं तो कभी अघ ( पाप )रूप देखें -
"नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा ।
निर्मल मन अहीर निज दासा-
(राम चरित मानस, ७ ।११७ )
विशेष—इतिहासकारों के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्ध यादव जाति जो कुछ लोगों के मत से बाहर से आई थी।इस जातिवालों का विशेष ऐतिहसिक महत्व माना जाता है ।
कहा जाता है कि उनकी संस्कृति का प्रभाव भी भारतीय संस्कृति पर पड़ा ।
वे आगे चलकर आर्यों में घुलमिल गए ।
इनके नाम पर आभीरी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृत) भाषा भी थी । य़ौ०—आभीरपल्ली= अहीरों का गाँव । ग्वालों की बस्ती ।
२. एक देश का नाम ।
३. एत छन्द जिसमें ११ ।
मात्राएँ होती है और अन्तत में जगण होता है ।
जैसे—यहि बिधि श्री रघुनाथ ।
गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार । ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है ।
संज्ञा पुं० [सं० आभीर] [स्त्री० अहीरिन] एक जाति जिसका काम गाय भैंस रखना और दूध बेचना है । ग्वाला ।

रसखान अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं ।
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नन्द की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।
अर्थात् उस वृदावन में सभी गौएें गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक ४१वाँ अध्याय।

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यादव योगेश कुमार "रोहि"

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