विश्वजित खण्ड : अध्याय 1
राजा मरुत्त का उपाख्यान
नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय साक्षिणे ।
प्रद्युम्रायानिरुद्धाय नम: संकर्षणाय च॥1॥
सबके हृदय में वास करने वाले सर्वसाक्षी वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध– चतुर्व्यूहस्वरूप आप भगवान को नमस्कार है।
अज्ञानतिमिरन्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकय।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥2॥
मैं अज्ञानरुपी रतौंधी के रोग से अंधा हो रहा था। जिन्होंने ज्ञानांजन की शलाका से मेरी दिव्य दृष्टि खोल दी है, उन श्रीगुरुदेव को मेरा नमस्कार है।
श्रीगर्गजी ने कहा- मुने ! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र मैंने तुमसे कह सुनाया, जो मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों का देने वाला है। अब और क्या सुनना चाहते हो ?
शौनक ने कहा- तपोधन ! श्रीकृष्ण के प्रिय भक्त तथा श्रीहरि में प्रगाढ़ प्रीति रखने वाले मैथिलराज बहुलाश्व ने फिर देवर्षि नारद से क्या पूछा, वही प्रसंग मुझे सुनाइये।
श्रीगर्गजी बोले- मुने ! भगवान श्रीकृष्ण ने उग्रसेन को यादवों का राजा बनाया, यह सुनकर मिथिला नरेश बहुलाश्व को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने नारदजी से प्रश्न किया।
बहुलाश्व बोले- देवर्ष ! ये मरुत्त कौन थे ? ये किस पुण्य से भूतल पर यदुवंशियों के राजा उग्रसेन हो गये ? जिनके स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र भी सहायक हुए, उनकी महिमा अद्भुत है। देवर्षि-शिरोमणे ! उनकी महता क्या थी ? यह मुझे बताइये।
श्रीनारदजी ने कहा- राजन् ! सत्ययुग में सूर्यवंशी राजा मरुत्त चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्होंने विधिपूर्वक विश्वजित्यज्ञ का अनुष्ठान किया था। वे हिमालय के उतर भाग में बहुत बड़ी सामग्री एकत्र करके, मुनिश्रेष्ठ संवर्त को आचार्य बनाकर यज्ञ के लिये दीक्षित हुए। उनके यज्ञ में पांच योजन विस्तृत कुण्ड बना था। एक योजन का तो ब्रह्मकुण्ड था और दो- दो कोस के पांच कुण्ड और बने थे। कुण्ड के गर्त का जो विस्तार था, तदनुसार वेदियों से दस मेखलाएं बनी थीं। उस यज्ञमण्डप में जो स्तम्भ बड़ी शोभा पाता था। उसमें सोने का यज्ञमण्डप बना था, जिसका विस्तार बीस योजन था। चँदोवों, बंदनवारों और कदलीखण्ड से सह यज्ञमण्डप मण्डित था। उस यज्ञ में ब्रह्मा-रुद्र आदि देवता अपने गणों के साथ पधारे थे। उस यज्ञ में दस लाख होता, दस लाख दीक्षित, पांच लाख अध्वर्यु और उदाता अलग थे। वहाँ चारों वेदों के विद्वान ब्राह्मण बुलाये गये थे, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थतत्व के ज्ञाता थे। उस यज्ञ में हाथी की सूँड़ के समान घी की मोटी घृत-धाराओं की आहुति दी गयी थी, जिसको खाकर अग्निदेव को अजीर्ण का रोग हो गया। मिथिलेश्वर ! उस यज्ञ के विषय में ऐसा होना कोई विचित्र बात न जानो। उस यज्ञ में विश्वदेवगण सभासद थे। वे जिन जिनके लिये भाग देना आवश्यक बताते थे, उन उनके लिये भाग का परिवेषण स्वयं मरुद्गण करते थे। उस यज्ञ के समय त्रिलोकी में कोई भी ऐसे जीव नहीं नहीं थे, जो भूखे रह गये हों। सम्पूर्ण देवताओं को सोमरस पीते-पीते अजीर्ण हो गया था।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 1
यजमान राजा मरुत ने उस यज्ञ में आचार्य ने उस यज्ञ में आचार्य संवर्त को जम्बूद्वीप का राज्य दे दिया। इसके सिवा चौदह लाख हाथी, चौदह लाख भार सुवर्ण, सौ अरबी घोड़े तथा नौ करोड़ बहुमूल्य रत्न भी यज्ञान्त में महात्मा आचार्य को दक्षिणा के रूप में दिये। प्रत्येक ब्राह्मण को उन्होंने पांच–पांच हजार घोडे़, सौ-सौ हाथी और सौ-सौ भार सुवर्ण के बने हुए थे, जो अत्यन्त उद्दीप्त दिखायी देते थे। उनमें भोजन करके सब ब्राह्मण संतुष्ट होकर विदा हुए। ब्राह्मणों के फेंके हुए उच्छिष्ट स्वर्णपात्रों से हिमालय के पार्श्व में सौ योजन का सुवर्णमय पर्वत बन गया था, जो आज भी देखा जा सकता है।
राजा मरुत का जैसा यज्ञ हुआ, वैसा दूसरे किसी राजा का कभी नहीं हुआ। राजेन्द्र ! सुनो, त्रिलोकी में वेसा यज्ञ न हुआ है न होगा। उस यज्ञकुण्ड में साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर महात्मा राजा मरुत को अपने स्वरूप का दर्शन कराया था। उन श्रीहरि का दर्शन करके, उनके चरणों में माथानवाकर, राजा मरुत दोनों हाथ जोडे़, खडे़ रहे; कुछ बोल न सके। उनके शरीर में रोमांच हो आया और वे प्रेम से विह्वल हो गये। इस तरह न उन प्रेमपूरित नरेश को अपने चरणों में प्रणत हुआ देख साक्षात भगवान श्रीकृष्ण मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोले।
श्रीभगवान ने कहा- राजन् ! तुमने अपने विनय से मुझे संतुष्ट किया है। निष्काम भाव से सम्पादित उत्तम यज्ञों द्वारा मेरी पूजा की है। महामते ! तुम मुझसे कोई उत्तम वर मांग लो। मैं तुम्हें वह वरदान दूँगा, जो स्वर्ग के देवताओं के लिये भी दुर्लभ हैं।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! राजा मरुत ने भगवान का उपर्युक्त वचन सुनकर, हाथ जोड़ परिक्रमा करके, उन परमेश्वर हरि का परम भक्ति भाव से विशद उपचारों द्वारा पूजन किया और प्रणाम करके अत्यन्त गद्गद वाणी में कहा।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 1
मरुत बोले- श्रीपुरुषोतम ! आपके चरणारविन्दों से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम वर मैं नहीं जानता। जैसे प्यास लगने पर दुर्बुद्धि नरपशु गंगाजी के तट पर पहुँचकर भी प्यास बुझाने के लिये कुआं खोदते हैं (उसी प्रकार आपके चरणारविन्दों को पाकर दूसरे किसी वर की इच्छा करना दुर्बुद्धि का ही परिचय देना है) तथापि हे व्रजेश्वर ! आपकी आज्ञा का गौरव रखने के लिये मैं यही वर मांगता हूँ कि मेरे हृदय-कमल से आपका चरणारविन्द कदापि दूर न जाय; क्योंकि वही चारों पुरुषार्थों तथा अर्थ-सम्पदाओं का मूल कहा गया है।
श्रीभगवान बोले- राजन्! तुम्हारी निर्मल मति धन्य है। तुम्हें वरदान का लोभ दिये जाने पर भी तुम्हारी बुद्धि में किसी कामना का उदय नहीं हुआ है। तथापि तुम मुझ से कोई अभीष्ट वर मांग लो; क्योंकि फल देकर भक्त को सुखी किये बिना मुझे सुख नहीं मिलता।
श्री भगवान बोले- राजन् ! जब तक इस मन्वन्तर के अट्ठाईस युग बीतेंगे, जब तक तुम स्वर्ग का सुख भोगकर अट्ठाईसवें द्वापर में मेरे साथ पृथ्वी पर आकर अपने मनोरथ के समुद्र को गोवत्सव की खुरी के समान बना लोगे। अर्थात उस समय तुम्हारा यह सारा मनोरथ अनायास ही पूर्ण हो जायगा।
श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! यों कहकर साक्षात भगवान श्रीकृष्ण वहीं अन्तर्धान हो गये। वे ही ये राजा मरुत उग्रसेन हुए। श्रीहरि ने स्वयं उनके राजसूय-यज्ञ करवाया। मैथिलेश्वर ! त्रिलोकी में कौन सी एसी वस्तु है, जो भगवत भक्तों के लिये दुर्लभ हो ? नृपोतम ! जो मनुष्य मरुत के इस चरित्र को सुनता है, उसे भक्तियुक्त ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘श्रीमरूत्त का उपाख्यान’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ।
गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड : अध्याय 2
राजा उग्रसेन के राजसूय-यज्ञ का उपक्रम, प्रद्युम्न का दिग्विजय के लिये बीड़ा उठाना और उनका विजयाभिषेक बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! राजा उग्रसेन ने श्रीकृष्ण की सहायता से रासूय-यज्ञ का किसा प्रकार विधिवत अनुष्ठान किया, यह मुझे बताइये। श्रीनारदजी ने कहा- एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्ण की पूजा करके, उन्हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा। उग्रसेन बोले- भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे। श्रीभगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोको में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये। समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हें। वे लोक, परलोक-दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर इन्द्र के दिये सिंहासन पर विराजमान राजा उग्रसेन ने अन्धक आदि यादवों को सुधर्मा सभा में बुलवाया और परन का बीड़ा रखकर कहा। उग्रसेन बोले- जो समरांगण में जम्बूद्वीप निवासी समस्त नरेशों को जीत सके, वह इन्द्र के समान धनुर्धर मनस्वी वीर यह पान का बीड़ा चबाये। श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! यह सुनकर अन्य सब राजा तो चुपचाप बैठे रह गये, किंतु शम्बर शत्रु रुक्मिणी नन्दन महात्मा प्रद्युम्न ही सबसे पहले राजा को प्रणाम करके वह पान का बीड़ा उठा लिया। प्रद्युम्न बोले- मैं समरभूमि में जम्बूद्वीप निवासी समस्त राजाओं को जीतकर और उनसे बलपूर्वक भेंट लेकर लौट आऊँगा। यदि मैं यह कार्य न कर सकुं तो मुझे अगम्या स्त्री साथ गमन का, कपिला गौ, ब्रह्मण, गुरु तथा गर्भस्थ शिशु के वध का पाप लगे।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 2
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! शम्बरारि प्रद्युम्न का यह वचन सुनकर समस्त यूथपति ‘बहुत अच्छा’ कहकर साधुवाद देने लगे और उन सबके सामने ही यदुकुल-तिलक प्रद्युम्न ने ही दिग्विजय का बीड़ा उठाया। यदुकुल के आचार्य गर्गजी से यत्नपूर्वक मुहूर्त पूछकर मुनियों द्वारा वैदिक मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक राजा ने प्रद्युम्न को स्नान करवाया। स्वयं उग्रसेन ने प्रद्युम्न के भाल में तिलक लगाया तथा भेंट देकर समस्त यादव यूथपतियों ने उनको नमस्कार किया। उग्रसेन ने महात्मा प्रद्युम्न को खड्ग दिया। साक्षात्महाबली बलदेवजी ने कवच प्रदान किया। श्रीहरि ने अपने तूणीर में से खींचकर अक्षय बाणों से भारे हुए दो तरकस दिये तथा अपने शंकधनुष से धनुष उत्पन्न करके उनके हाथ में दिया।
वृद्ध शूरसेन ने किरीट, दो दिव्य कुण्डल, मनोहर पीताम्बर तथा छत्र और चंवर दिये। महामनस्वी वसुदेव ने उन्हें शतचन्द्र नामक ढाल दी। साक्षात उद्धव ने सुन्दर किञ्जल्किनी (केसरयुक्त) माला भेंट की। अक्रूर ने विजय नामक दक्षिणावर्त शंक दिया और मुनिवर गर्गाचार्य ने श्रीकृष्ण-कवच नामक यन्त्र दिया। उसी समय लोकपालों सहित देवराज इन्द्र मन में कौतुक लिये आ गये। ब्रह्मा, शिव तथा देवर्षिगण भी वहाँ पधारे। शूलधारी शिव ने प्रद्युम्न को अग्नि के समान तेजस्वी त्रिशूल दिया।
महाराज ! ब्रह्माजी ने पद्मराग नामक मस्तक में धारण करने योग्य मणि दी। वरुण पाश, शक्तिधारी स्कन्द ने शत्रु-विनाशिनी शक्ति, वायु ने सूर्य ने बड़ी भारी गदा, कुबेर ने रत्नों की माला, चन्द्रमा ने चन्द्र कान्तमणि तथा अग्निदेव ने परिघ प्रदान किये। पृथ्वी ने दो योगमयी दिव्य पादुकाएं दीं तथा वे नेगशालिनी भद्रकाली ने प्रद्युम्न को माला भेंट की। इन्द्र ने महात्मा प्रद्युम्न को सहस्त्रों ध्वजों से सुशोभित महादिव्य रत्नमय विजय दिलाने वाला रथ प्रदान किया।
ताल और वीणा आदि के शब्द होने लगे। जय-जयकार की ध्वनि से युक्त मृदंग और वेणुओं के उत्तम नाद से तथा वेद-मन्त्रों के घोष से वहाँ का स्थान गूँज उठा। मोतियों की वर्षां के साथ खील और फूलों की वृष्टि होने लगी। देवताओं ने प्रद्युम्न के ऊपर पुष्पों की झड़ी लगा दी।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘प्रद्युम्न का विजयाभिषेक’
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 3।
प्रद्युम्न के नेतृत्व में दिग्विजय के लिये प्रस्थित हुई यादवों की गजसेना, अश्वसेना तथा योद्धाओं का वर्णन
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण, राजा उग्रसेन, बलरामजी तथा गुरु गर्गाचार्य को नमस्कार करके, उनकी आज्ञा ले, प्रद्युम्न रथ पर आरुढ़ हो कुशस्थली पुरी से बाहर निकले। फिर उनके पीछे समस्त उद्धव आदि यादव, भोजवंशी, मधुवंशी, शूरवंशी और दशाहावंश में उत्पन्न वीर चले। फिर श्रीकृष्ण के भाई गद आदि सब वीर श्रीकृष्ण की अनुमति ले पुत्रों और सेनाओं के साथ चल दिये। साम्ब आदि महारथी भी प्रद्युम्न के साथ गये।
वे सभी यादव-वीर किरीट, कुण्डल तथा लोहे के बने हुए कवच से अलंकृत थे। उनके साथ करोड़ों की संख्या में चतुरंगिणी सेना थी। वे सब द्वारकापुरी से बाहर निकले। उनके रथ मोर, हंस, गरुड़, मीन और ताल के चिंह से युक्त ध्वजों से सुशोभित थे, सूर्य मण्डल के समान तेजोमय थे और चंचल अश्व उन में जोते गये थे। उन रथों के कलश और शिखर सोने के बने थे, मोतियों की बन्दन वारें उनकी शोभा बढा़ती थीं। वे सभी रथ वायु वेग का अनुकरण करते थे। उनमें दिव्य चँवर डुलाये जा रहे थे। वे वीरें के समुदाय से सुशोभित तथा सुनहरे देव-विमानों के समान प्रकाशमान थे, ऐसे रथों द्वारा उन मनोहर वीरों की बड़ी शोभा हो रही थी। उस सेना में अत्यन्त उद्भट ऊँचे-ऊँचे गजराज थे, जिनके गण्डस्थल से मद झर रहे थे। उनके मुखमण्डल पर चित्र-विचित्र पत्र-रचना की गयी थी।
वे सुनहरे कवच से सुशोभित थे। उनकी पीठ पर लाल रंग की झूल पड़ी थी और उनके उभय पार्श्व के हाथी गिरिराज के शिखर- जैसे जान पड़ते थे। वे भद्रजातीय गजेन्द विभिन्न दिशाओं में विद्यमान गजराजों- दिनग्गजों की नकल करते दिखायी देते थे। कोई भद्र-जातीय थे, कुछ हाथी विन्ध्याचल पर्वत में उत्पन्न हुए थे और कुछ कश्मीरी थे। कितने ही मलयाचल में उत्पन्न थे। बहुत-से हिमालय में पैदा हुए थे। कुछ मुरण्ड देश में उत्पन्न हुए थे और कितने ही कैलास पर्वत के जंगलों में पैदा हुए थे। कितनों के जन्म ऐरावत-कुल में हुए थे, जिनके चार दांत थे और उनकी गर्दनों में जंजीर(गरदनी या गिराँव) सुशोभित थीं। उनके ऊर्ध्वभाग में तीन-तीन सूँडें थीं और वे भूतल पर तथा आकाश में भी चल सकते थे। करोड़ों हाथी ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित थे। उन पर करोड़ों दुन्दुभियाँ रखी गयी थीं। उस सेना के भीतर करोड़ों
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 3
गर्जना करते हुए, मेघों की घटाक समान काले तथा नीले रंग की झूल से आच्छादित वे गजराज उस सैन्य सागर में इधर-उधर मगरमच्छों के समान शोभा पाते थे। वे अपनी सूँडों से लता- झाड़ियों को उखाड़कर सूर्यमण्डल की ओर फेंकते, पैरों के आघात से धरती को कम्पित करते और मद की वर्षा से पर्वतों को आर्द्र किये देते थे। वे अपने कुम्भ स्थलों की टक्कर से दुर्ग, शैल और शिलाखण्डों को भी गिराने तथा शत्रुसेना को खण्डित करने की शक्ति रखते थे। उस यादव-सेना में ऐसे-ऐसे हाथी विद्यमान थे।
राजन् ! गजसेना के पीछे घोड़ों की सेना निकली। उन घोड़ों कुछ मत्स्य देश के, कुछ कोसल, विदर्भ और कुरुजांगल देश के थे। कोई काम्बोजीय (काबुली) कोई सृंजयदेशीय, कोई केकय और कुन्ति देशों के पैदा हुए थे। कोई दरद, केरल, अंग, वंग और विकट जनपदों में पैदा हुए थे। कितने ही कोंकण, कोटक, कर्नाटक तथा गुजरात मे पैदा हुए घोडे़ थे। कोई सौवीर देश के और कोई सिंधी थे। कितने ही कच्छी घोडे़ थे। कुछ आनर्त, गन्धार और मालव देश के अश्व थे। कुछ महाराष्ट्र में उत्पन्न, कुछ तैलंग देश में पैदा हुए और कुछ दरियाई घोडे़ थे।
परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण की अश्वशालाओं मे जो घोडे़ विद्यमान थे वे भी सब-के-सब उस दिग्विजय-यात्राओं में निकल पडे़। कुछ श्वेतद्वीप से आये थे। कुछ जो वैकुण्ठ, अजितपद तथा रमा वैकुण्ठलोक से प्राप्त हुए अश्व थे, वे भी उस सेना के साथ निकल गये। वे सोने के हारों से सुशोभित और मोतियों की मालाओं से मनोहर दिखायी देते थे। उनकी शिखा में मणि पहिनायी गयी थी, जिसकी सुदूर तक फैली हुई किरणें उन अश्वों की शोभा बढा़ती थीं। और उनके साज-सामान भी बहुत सुन्दर थे। गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 3
चामर से अलंकृत हुए उन घोड़ों की पूँछ, मुख और पैरों से प्रभा-सी छिटक रही थी। यादवों की उस विशाल सेना में ऐेसे-ऐसे घोडे़ दृष्टिगोचर होते थे, जो वायु और मन के समान वेगशाली थे। वे अपने पैरों से धरती का तो स्पर्श ही नहीं करते थे- उड़ते-से चलते थे। मिथिलेश्वर ! उनकी गति ऐसी हलकी थी कि वे कच्चे सूतों पर और बुदबुदों पर भी चल सकते थे। पारे पर, मकड़ी के जालों पर और परनी के फुहारों पर भी वे निराधार चलते दिखायी देते थे। वे चंचल अश्व पर्वतों की घाटियों, नदियों, दुर्गम स्थानों, गड्ढों और ऊंचे-ऊँचे प्रासादों को भी निरन्तर लांघते जा रहे थे।
मैथिलेन्द्र ! वे इधर-उधर मोर, तीतर, क्रौञ्च, हंस और खंजरीट की गति का अनुकरण करते हुए पृथ्वी पर नाचते चलते थे। कई अश्व पांखवाले थे। उनके शरीर दिव्य थे, कान श्यामवर्ण के थे, आकृति मनोहर थी। पूँछ के बाल पीले रंग के थे और शरीर की कान्ति चन्द्रमा के समान श्वेत थी। वे भी श्रीकृष्ण की अश्वशाला से निकले थे। कुछ घोडे़ उच्चै:श्रवा के कुल में उत्पन्न हुए थे, कुछ सूर्यदेव के घोड़ों से पैदा हुए थे। कितने के रंग अश्विनी पुष्पक के समान पीले थे। बहुत-से अश्व सुनहरी तथा हरी कान्ति से उद्भासित थे।
कितने ही अश्व पद्मराग-मणि की–सी कान्ति वाले थे। वे सभी समस्त शुभ लक्षणों युक्त दिखायी देते थे। राजन् ! इनके सिवा और भी कोटि-कोटि अश्व कुशस्थली पुरी से बाहर निकले। सेना के धनुर्धर वीर ऐसे थे जिन्हें कई युद्धों में अपने शौर्य के लिये कीर्ति प्राप्त हो चुकी थी। उन सबने शक्ति, त्रिशूल, तलवान, गदा, कवच और पाश धारण कर रखे थे। नरेश्वर ! वे शस्त्र-धाराओं की वर्षा करते हुए प्रलयकाल के महासागर के समन प्रतीत होत थे। रणभूमि में दिग्गजों की भाँति शत्रुओं को रौंदते और कुचलते दिखायी देते थे। राजन्! इस प्रकार यादवों की वह विशाल सेना निकली, जो अत्यन्त अद्भुत थे। उसे देखकर देवता और असुर-सभी विस्मित हो उठे।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘यादवसेवा का प्रयाण’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।
गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड : अध्याय 4
सेना सहित यादव-वीरों की दिग्विजय के लिये यात्रा श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार सेना से घिरे हुए धनुर्धारियों में श्रेष्ठ वीर प्रद्युम्न से श्रीकृष्ण बलेदव सहित उग्रसेन ने कहा। उग्रसेन बोले- हे महाप्राज्ञ प्रद्युम्न ! तुम श्रीकृष्ण की समस्त राजाओं पर विजय प्राप्त करके शीघ्र की द्वारका में लौट आओगे। इस बात को ध्यान में रखो कि धर्मज्ञ पुरुष मतवाले, असावधान, उन्मत, सोये हुए बालक, जड़, नारी, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को नहीं मारते। संकट में पडे़ हुए प्राणियों की पीड़ा निवारण तथा कुमार्ग में चलने वालों का वध राजा के लिये परम धर्म है। इस प्रकार जो आततायी है (अर्थात् दूसरों को विष देने वाला, पराये घरों में आग लगाने वाला, क्षेत्र और नारी का अपहरण करने वाला है) वह अवश्य वध के योग्य है। स्त्री, पुरुष या नपुसंक कोई भी क्यों न हो, जो अपने-आपको ही महत्व देने वाले, अधम तथा समस्त प्राणियों के प्रति निर्दय हैं, ऐसे लोगों का वध करना राजाओं के लिये वध न करने के ही बराबर है। अर्थात् दुष्टों के वध से राजाओं को दोष नहीं लगता। धर्मयुद्ध में शत्रुओं का वध करना प्रजापालक राजा के लिये पाप नहीं है। आदिराजा स्वासम्भुव मनु ने पूर्वकाल में राजाओं से कहा था कि ‘जो रण में निर्भय होकर आगे पांव बढ़ाते हुए प्राण त्याग देता है, वह सूर्य-मण्डल का भेदन करके परमधाम में जाता है। जो योद्धा क्षत्रिय होकर भी भय के कारण युद्ध से पीठ दिखाकर रणभूमि में स्वामी को अकेला छोड़कर पलायन कर जाता है, वह महारौरव नरक में पड़ता है। राजा का कर्तव्य है कि वह सेना की रक्षा करे और सेना कर्तव्य है कि वह राजा की रक्षा करे। सूत को चाहिये कि वह संकट में पडे़ हुए रथी का प्राण बचाये और रथी सारथि की रक्षा करे। तुम समस्त यादव सामर्थ्यशाली सेना अैर वाहन से सम्पन्न हो; अत: तुम सब मिलकर प्रद्युम्न की ही रक्षा करना और प्रद्युम्न तुम लोगों की रक्षा करें। गौ, ब्राह्मण, देवता, धर्म, वेद और साधु पुरुष इस भूतल पर मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले सभी मनुष्यों के लिये सदा पूजनीय है। वेद भगवान विष्णु की वाणी हैं, ब्राह्मण उनका मुख हैं, गौऍं श्रीहरि का शरीर हैं, देवता अंग हैं और साधुपुरुष साक्षात उनके प्राण माने गये हैं। ये साक्षात परिपूर्ण तक भगवान श्रीकृष्ण हरि भक्ति के वशीभूत हो जिनके चित में निवास करते हैं, उन वीरों की सदा विजय होती है।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 4
श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! समस्त यादवों ने राजा उग्रसेन के इस आदेश को सिर झुकाकर स्वीकार किया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तत्पश्चात् प्रद्युम्न ने मस्तक झुकाकर राजा उग्रसेन, शूर, वसुदेव, बलभद्र, श्रीकृष्ण तथा महामुनि गर्गाचार्य को प्रणाम किया। नृपेश्वर ! तदनन्तर श्रीकृष्ण और बलेदव के साथ राजा उग्रसने यदुपुरी में चले गये और दिग्विजय की इच्छा वाले श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न ने यादव-सेना के साथ आगे के लिये प्रस्थान किया। मैथिलेश्वर ! उस सेना के समस्त सुवर्णमय शिविरों से चार योजन लम्बा राजमार्ग भी आच्छादित एवं सुशोभित होता था। सेना के आगे विशाल वाहिनी से युक्त महाबली कृतवर्मा थे और उनके पीछे धनुर्धरों में श्रेष्ठ अक्रूर अपने सैन्यदल के साथ चल रहे थे। तत्पश्चात मन्त्री उद्धव पांच प्रतिमाओं के साथ चल रहे थे।
राजन् ! उनके पीछे अठारह महारथी नाम इस प्रकार हैं- प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान, भानु, साम्ब, मधु, बृहभानु, चित्राभानु, वृक, अरुण,पुष्कर, देवबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्राभानु, विरूप, कवि और न्यग्रोध। तत्पश्चात श्रीकृष्ण प्रेरित गद आदि समस्त वीर चल रहे थे। भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन तथा दशार्ह के वंशज वीर उस सेना में सम्मिलित थे। समस्त यादवों की संख्या छप्पन कोटि बतायी जाती है। नरेश्वर ! उस यादव-सेना की गणना भला, इस भूतल पर कौन करेगा। इस प्रकार विशाल सेना को साथ लिये जाते हुए यादव नरेशों के धनुष के टंकार के साथ पीटे जाते हुए नगारों का महान घोष भूण्डल में व्याप्त हो रहा था। गजेन्द्रों का चीत्कार, हयेन्द्रों की हिनहिनाहट, दगती हुई भुशुण्डी की आवाज, दृढता रखने वाले वीरों की गर्जना और डंकों की गम्भीर ध्वनियों से वे यादव वीर बिजली की गड़गड़ाहट से युक्त प्रचण्ड मेघों का सा दृश्य उपस्थित करते थे। सारा भूमण्डल ही उस सेना से शोभित हो रहा था।
पृथ्वी पर चलते हुए उन महात्मा वीरों के तुमुलनाद से दिग्गजों के कान भी बहरे-से हो गये थे तथा शत्रुगण साहस छोड़कर तत्काल अपने दुर्ग की ओर भागने लगे थे। पानी में रहने वाले कच्छप ‘पृथ्वी पर यह क्या हो रहा है ? यों कहते तथा ‘हम कहाँ से कहाँ जायँ ! यों बोलते हुए भागने लगे। वे मन-ही-मन सोचते थे- ‘हे विधाता ! यह उपद्रव कहाँ जा रहा है, जिससे समस्त लोकों सहित यह अचला पृथ्वी भी विचलित हो गयी है ?। विदेहराज ! यज्ञ तो एक बहाना था। उसकी आड़ लेकर परमेश्वर श्रीहरि भूतल का भार उतार रहे थे। जो यदुकुल में चतुर्व्यूह रूप धारण करके विराजमान हैं, उन अनन्त गुणशाली पृथ्वीपालक भगवान को नमस्कार है।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खंड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘प्रद्युम्न की दिग्विजयार्थ यात्रा’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 5
यादव-सेना की कच्छ और कलिंग देश पर विजय
श्रीबहुलाश्व ने पूछा- देवर्षि शिरोमणे ! श्रीहरि के पुत्र प्रद्युम्न क्रमश: किन-किन देशों को जीतने के लिये गये, उनके उदार कर्मों का मेरे समक्ष वर्णन कीजिये। अहो ! भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की अपने भक्तों पर ऐसी कृपा है, जो श्रवण और जाने पर पापीजनों को उनके कुल सहित पवित्र कर देती है।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तुमने बहुत अच्छ बात पूछी है। तुम्हारी विमल बुद्धि को साधुवाद ! श्रीकृष्ण के भक्तों का चरित्र तीनों लोकों को पवित्र कर देता है। राजन्! वर्षाकाल में बादलों से बरसती हुई जलधाराओं को तथा भूमि के समस्त धूलिकणों को कोई विद्वान पुरुष भले ही गिन डाले, किंतु महान श्रीहरि गुणों को कोई नहीं गिन सकता। रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न उस श्वेत छत्र से सुशोभित थे, जिसकी छाया चार योजन तक दिखायी देती थी। वे इन्द्र के दिये हुए रथ पर आरुढ़ हो अपनी सेना के साथ पहले कच्छ देशों को जीतने के लिये उसी प्रकार गये, जैसे पूर्वकाल में भगवान शंकर ने त्रिपुरों को जीतने के लिये रथ से यात्रा की थी।
कच्छ देश का राजा शुभ्र शिकार खेलने के लिये निकला था। वह यादवों की सेना को आयी हुई जान अपनी राजधानी हालापुरी को लौट गया। प्रद्युम्न की आयी हुई सेना हाथियों के पदाघात से वृक्षों को चूर-चूर करती और विभिन्न देशों के भवनों को गिराती हुई चल रही थी। उससे उठे हुए धूलिसमूहों से आकाश अन्धकाराच्छन्न हो गया और कच्छ देश के सभी निवासी भयभीत हो गये। उस समय राजा शुभ्र अत्यंत हर्षित हो तत्काल सोने की मालाओं से अलंकृत पांच सौ हाथी, दस हजार घोड़े और बीस भार सुवर्ण लेकर सामने आया। उसने भेंट देकर पुष्पहार से अपने हाथ बांधकर प्रद्युम्न को प्रणाम किया। इससे प्रसन्न होकर शम्बरारि प्रद्युम्न ने राजा शुभ्र को रत्नौं की बनी हुए एक माला पुरस्कार के रूप में दी और उसके राज्य पर पुन: उसी को प्रतिष्ठित कर दिया।
राजन् ! साधु पुरुषों का ऐसा ही स्वभाव होता है। तदनन्तर बलवान रुक्मिणी नन्दन कलिंग देश को जीतने के लिये गये। उनके साथ फहराती पताकाओं से सुशोभित उत्तम सेनाएं थीं। उन्हें देखकर ऐसा लगता था, मानो मेघों की मण्डली के साथ देवराज इन्द्र यात्रा कर रहे हों। कलिंगराज अपनी सेना तथा शक्तिशाली हाथी-सवारों के साथ महात्मा प्रद्युम्न के सामने युद्ध करने के लिये निकला। कलिंग को आया देख धुनर्धरों में श्रेष्ठ अनिरुद्ध एकमात्र रथ लेकर यादव सेना के आगे खडे़ हो उसकी सेनाओं के साथ युद्ध करने लगे।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 5
अपने धनुष की बार-बार टंकार करते हुए वीर अनिरुद्ध ने सौ बाणों से कलिंगराज को, दस-दस बाणों से उसके रथियों और हाथियों को घायल कर दिया। यह देख उनके अपने और शत्रुपक्ष के सभी याद्धओं ने ‘साधु-साधु’ कहकर उन्हें शाबाशी दी। प्रद्युम्न के देखते हएु ही अनिरुद्ध युद्ध करे लगे। नरेश्वर ! उनके बाण-समुहों से कितने ही वीरों के दो टुकडे़ हो गये, हाथियों के मस्तक विदीर्ण हो गये और घोड़ों के पैर कट गये। रथों के पहिये चूर-चुर हो गये, घोडे़ और उनके साथ-साथ चलने वाले काल के गाल में चले गये, रथी और सारथि आंधी के उखाडे़ हुए वृक्षों के समान धराशायी हो गये।
मैथिल ! शत्रु की सेना भागने लगी। अपनी सेना को भागती देख हाथी पर बैठा हुआ कलिंगराज बडे़ रोष से आगे बढ़ा। उसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया था। उसने तुरंत ही बहतर भार लोहे की बनी हुई भारी गदा चलायी और अपने हाथी के द्वारा बड़े-बड़े वीरों को गिराता हुआ बलवान कलिंगराज मेघ के समान गर्जना करने लगा। उस गदा के प्रहार से किंचित व्याकुलचित्त होकर अनिरुद्ध युद्धस्थल में ही रथ पर गिर पडे़। यह देख यादवों के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने तत्काल तीखे और चमकीले बाणों द्वारा कलिंगराज को उसी प्रकार चोट पहुँचाना आरम्भ किया, जैसे मांसयुक्त बाज को कुरर पक्षी अपनी चोंचों से पीड़ा देते हों। कलिंगराज ने भी उस समय कुपित हो अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी और बार-बार उसकी टंकार करते हुए अपने बाणों से शत्रुओं के बाणों को चूर-चूर कर दिया।
मैथिलेश्वर ! तब बलदेव के छोटे भाई बलवान गद ने गदा लेकर बायें हाथ से उसके हाथी पर प्रहार किया, फिर अर्धचन्द्राकार बाण से उसको चोट पहुँचायी। नरेश्वर ! उस प्रहार से वह हाथी छिन्न-भिन्न होकर इस प्रकार बिखर गया, मानो इन्द्र के वज्र की चोट से कोई शैलखण्ड बिखर गया हो। कलिंगराज हाथी से गिर पड़ा और विशाल गदा लेकर उसने गद को मारा और गद ने भी तत्काल कलिंगराज पर गदा से आघात किया। कलिंगराज और गद में वहाँ घोर युद्ध होने लगा। उनकी दोनों गदाएँ आग की चिनगारियां बिखेरती हुई चूर-चूर हो रही थीं। वह महात्मा प्रद्युम्न की शरण में आ गया। उसने भेंट देकर कहा- ‘आप देवताओं के भी देवता परमेश्वर हैं। कुपित हुए दण्डधर यमराज की भाँति आप के आक्रमण को पृथ्वी पर कौन सह सकता है ? आपको नमस्कार है।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘कच्छ और कलिंगदेश पर विजय’ नामक पांचवा अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 6
प्रद्युम्न मरुधन्व देश के राजा गय को हराकर मालव नरेश तथा माहिष्मती पुरी के राजा से बिना युद्ध किये ही भेंट प्राप्त करना
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार कलिंगराज पर विजय पाकर यादवेश्वर प्रद्युम्न मरुधन्व (मारवाड़) देश में इस प्रकार गये, मानो अग्नि ने जल पर आक्रमण किया हो। धन्वदेश का राजा गया पर्वतीय दुर्ग में गये और राज सभा में प्रवेश करके गय से बोले- ‘महामते नरेश ! मेरी बात सुनिये। यादवों के स्वामी महान राज-राजेश्वर उग्रसेन जम्बूद्वीप के राजाओं को जीतकर राजसूययज्ञ करेंगे। साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण जो असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति हैं, उन महाराज के मन्त्री हुए हैं। उन्होंने ही धनुर्धरों श्रेष्ठ साक्षात प्रद्युम्न को यहाँ भेजा हैं। आप यदि अपने कुल का कुशल-क्षेम चाहें तो शीघ्र भेंट लेकर उनके पास चलें ।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर शौर्य और पराक्रम के मद से उत्मत रहने वाले महाबली राज गय ने कुछ कुपित होकर उद्धव से कहा ।
गय बोले- महामते ! मैं युद्ध किये बिना उनके लिये भेंट नहीं दूँगा। आप जैसे यादव लोग अभी थोडे़ ही दिनों से वृद्धि को प्राप्त हुए हैं- नये धनी हैं ।
राजन् ! उसके यों कहने पर उद्धवजी ने प्रद्युम्न के पास आकर समस्त यादवों के सामने राजा गय की हुई बात दुहरा दी। फिर ते उसी समय रुक्मिणी पुत्र ने गिरिदुर्ग पर आक्रमण किया। गय के सैनिकों का यादवों के साथ घोर युद्ध हुआ। हाथियों के पैरों से नागरिकों तथा भूमि पर लेने वाले लोगों को कुचलता ओर वृक्षों को रौंदवाता हुआ राजा गय दो अक्षौहिणी सेना के साथ युद्ध के लिये निकला। रथी रथियों के साथ, बड़े-बड़े़ गज गजराजाओं के साथ, घुड़सवार घुड़सवारों के साथ तथा वीरों के साथ परस्पर युद्ध करने लगे। तीखे बाण-समूहों, ढाल, तलवार, गदा, ऋर्षि, पाश, फरसे, शतघ्री, और भुशुण्डी आदि अस्त्र–शस्त्रों की मार से भयातुर हो गये के सैनिक यादवों से परास्त हो अपना-अपना रथ छोड़कर सब-के-सब दसों दिशाओं में भाग चले। अपनी सेना के पलायन करने पर महाबली गय बार-बार धनुष की टंकार करता हुआ अकेला ही युद्ध के लिये आगे बढ़ा।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 6
तेजस्वी श्रीकृष्णपुत्र दीप्तिमान ने धनुष से छोड़ हुए बाणों से शत्रु के घोड़ों को मार डाला। एक बाण से सारथि को नष्ट करके दो बाणों से उसकी ऊँची ध्वजा काट डाली। बीस बाणों से रथ को तोड़-फोड़कर पांच बाणों से उसके कवच को छिन्न-भिन्न कर दिया। फिर महाबली दीप्तिमान ने सौ बाण से मारकर गय के धनुष को भी खण्डित कर दिया।
गय ने दूसरे धनुष को लेकर बीस बाणों द्वारा श्रीकृष्णपुत्र दीप्तिमान को घायल कर दिया। फिर वह बलवान वीर मेघ के समान गर्जना करने लगा। समरांगण में उसके प्रहार से दीप्तिमान के हृदय में कुछ व्याकुलता हुई, तथापि उन्होंने एक ज्योतिर्मयी सुदृढ़ शक्ति हाथ में ली और उसे घुमाकर महात्मा गय के ऊपर चलाया। उस शक्ति ने राजा के हृदय को विदीर्ण करके उसका बहुत मूर्च्छित हो गया। दीप्तिमान अपने धनुष की कोटि शत्रु के गले में डालकर उसे घसीटते हुए प्रद्युम्न के सामने उसी प्रकार ले आये, जैसे गरुड़ किसी नाग को खींच लाया हो। उस समय मानवों तथा देवताओं की दुन्दुभियां एक साथ ही बज उठीं। देवता आकाश से और पार्थिव नरेश भूतल से फूलों की वर्षा करने लगे। राजन् ! तब गय ने भी शम्बरारि श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न के चरणों का पूजन किया ।
वहाँ से महात्मा प्रद्युम्न अवन्तिकापुर को गये, उसी प्रकार जैसे भ्रमर सुनहरी कर्णिका पर टूट पडे़। उनका आगमन सुनकर मालवनरेश जयसेन ने उनकी भली-भाँति पूजा की। मिथिलेश्वर ! वे प्रद्युम्न के प्रभाव को जानते थे, अत: उनके अपनी पराजय स्वीकार करके उन्होंने बडे़-बूढों को बुलवाया और उनके द्वारा महात्मा प्रद्युम्न को उत्तम भेंट-सामग्री अर्पित की। वहाँ अपने पिता की बुआ राजाधिदेवी को प्रणाम करके महामनस्वी प्रद्युम्न ने अपने फुफेरे भाई विन्द और अनुविन्द को गले से लगाया और मालवदेश के योद्धाओं से सादर घिरकर वे बड़ी शोभा को प्राप्त हुए । वहाँ से धनुर्धारियों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न माहिष्मती पुरी को गये और यादवों तथा अपने सैनिकों के साथ वहाँ उन्होंने नर्मदा नदी का दर्शन किया।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 6
जल के कल्लोलों से सुशोभित नर्मदा मानो श्रृंगार-तिलक धारण किये हुए थी और छपी हुई पगड़ी की भाँति पुष्पसमूहों को बहा रही थी। बेंत, बॉस तथा अन्य वृक्षों से फूले हुए माधव-तरुओं से घिरी हुई नर्मदा मूर्तिमान तेजस्वी देवताओं से घिरी हुई आकाश गंगा की–सी शोभा पाती थी। उसके तट पर छावनी डालकर यादवेश्वर प्रद्युम्न यादवों के साथ इस प्रकार विराजमान हुए, मानो देवताओं के साथ देवराज इन्द्र शोभा पा रहे हों। महाराज ! माहिष्मती पुरी के स्वामी इन्द्रनील बडे़ ज्ञानी थे, उन्होंने महात्मा प्रद्युम्न के पास अपना दूत भेजा। दूत ने प्रद्युम्नराज के शिबिर में आकर हाथ जोड़ प्रणाम किया और सबके सुनते हुए वहाँ बात कही।
दूत बोला- प्रभो ! हस्तिनापुर के राजा बुद्धिमान धृतराष्ट्र ने इन अत्यन्त बलवान वीर इन्द्रनील को माहिष्मती पुरी के राज्य पर स्थापित किया है, अत: ये किसी को बलि या भेंट नहीं देंगे। दुर्योधन को स्वेच्छा से ही ये द्रव्यराशि भेंट करते हैं, परंतु यहाँ युद्ध से कोई लाभ नहीं होगा।
श्रीप्रद्युम्न ने कहा- दूत ! जैसे राजा गय और कलिंगराज ने अपमानित होने पर भेंट दी, उसी तरह यहाँ के राजा भी पराजित होकर भेंट देंगे। माहिष्मती के राजा बडे़ राजाधिराज बने हैं, परंतु ये महाराज उग्रसेन को नहीं जानते ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! यों कहने पर दूत ने तत्काल जाकर राजसभा में माहिष्मतीपति से प्रद्युम्न की कही हुई बात कह सुनायी। माहिष्मती के राजा ने देखा कि यादवों की सेना बड़ी उदंड है (अत: उससे युद्ध करना ठीक न होगा) इसलिये वे पांच हजार हाथी, एक लाख घोड़े और दस हजार विजयशील रथ लेकर निकले ओर महात्मा प्रद्युम्न से मिलकर वह सब कुछ उन्हें भेंट कर दिया।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजीत खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘माहिष्मतीपुरी पर विजय’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 7
गुजरात-नरेश ऋष्य पर विजयप्राप्त करके यादव-सेना का चेदिदेश के स्वामी दमघोष के यहाँ जाना; राजा का यादवों से प्रेमपूर्ण बर्ताव करने का निश्चय, किंतु शिशुपाल का माता-पिता के विरुद्ध यादवों से युद्ध का आग्रह
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! महापराक्रमी प्रद्युम्न माहिष्मती के राजा को जीतकर अपनी विशाल सेना लिये गुजरात के राजा के यहाँ गये। जैसे पक्षिराज गरुड़ अपनी चोंच से सर्प को पकड़ लेती हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न ने गुर्जरदेश के अधिपति महाबली वीर ऋष्य को सेना द्वारा जा पकड़ा। उनके तत्काल भेंट वसूल करके महाबली यादवेन्द्र अपनी विशाल वाहिनी साथ लिये हुए चेदिदेश में जा पहुँचे। चेदिराज दमघोष वसुदेवजी के बहनोई थे; किंतु उनका पुत्र शिशुपाल श्रीकृष्ण का पक्का शत्रु कहा गया है। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ और उनको प्रणाम करके बोले
उद्धव ने कहा- राजन ! महाराज उग्रसेन को बलि दीजिये। वे समस्त राजाओं को जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे।
श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! उद्धवजी का यह वचन सुनकर दमघोष के दुष्ट पुत्र शिशुपाल के ओष्ठ फड़कने लगे। वह अत्यनत कुपित हो राजसभा में तुरंत इस प्रकार बोला ।
शिशुपाल ने कहा- अहो ! काल की गति दुर्लंघय है। यह संसार कैसा विचित्र है ! कालात्मा विधाता के प्राजापत्य पर भी कलह या विवाद खड़ा हो गया है (अर्थात लोक विधाता ब्रह्मा और घट-निर्माता कुम्भकार में झगड़ा हो रहा है कि प्रजापति कौन हैं) कहाँ राजहंस और कहाँ कौआ ! कहाँ पण्डित तथा कहाँ मूर्ख ! जो सेवक है, वे चक्रवर्ती राजा को अपने स्वामी को जीतने की इच्छा रखते हैं।
राजा ययाति के शाप से यदुवंशी राज्य-पद से भ्रष्ट हो चुके हैं; किंतु वे छोटे–राज्य पाकर उसी तरह इतरा उठे हैं, जैसे छोटी नदियां थोड़ा सा जल पाकर उमड़ने लगती हैं- उच्छलित होने लगती हैं। जो हीनवंश का होकर राजा हो जाता है, अथवा जो सदा का निर्धन कभी धन पा जाता है, वह घमंड से भरकर सारे जगत को तृणवत मारने लगता है। उग्रसेन कितने दिनों से राजपदवी को प्राप्त हुआ है ?
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 7
वासुदेव मन्त्री बना है और उग्रसेन उसी के बल से ओर केवल उसी से पूजित होकर राजा बन बैठा है। उसके मन्त्री वासुदेव ने जरासंध के भय से भागकर अपनी पुरी मथुरा को छोड़कर समुद्र की शरण ली है। वह पहले ‘नन्द’ नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वसुदेव लाजहया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। वसुदेव तो गोरे रंग के हैं, उनके उत्पन्न हुआ यह कृष्ण श्यामवर्ण का कैसे हो गया ? केवल पिता ही नहीं, पितामह भी गोरे हैं। उनके कुल की संतति में इस वासुदेव की गणना हो, यह बडे़ दुख सेना सहित जीतकर भूण्मडल को यादवों से शून्य कर देने के लिये कुशस्थली पर चढा़ई करुँगा ।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् यों कहकर धनुष और अक्षय बाणों से भरे दो तरकस लेकर शिशुपाल को युद्ध के लिये जाने को उद्यत देख चेदिराज ने उससे कहा ।
दमघोष बोले- बेटा ! मैं जो कहता हूँ, उस सुनो। क्रोध न करो, न करो। जो सहसा कोई कार्य करता है, उसे सिद्धि नहीं प्राप्त होती। क्षमा के समान धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन दूसरा कोई नहीं है। इसलिये सामनीति से काम लेना चाहिये। साम के तुल्य दूसरा कोई सुखद उपाय नहीं हे। दान से समा की शोभा होती है और समा की सत्कार से। सत्कार की भी तभी शोभा होती है, जब वह यथायोग्य गुण देखकर किया जाय। यादव ओर चेदिप सगे सम्बन्धी माने गये हैं; अत: मैं वास्तव में यही चाहता हूँ कि यादवों तथा चेदियों में कलह न हो ।
श्रीनारदजी कहते हैं- बुद्धिमान दमघोष के समझाने पर भी शिशुपाल अनमना हो गया, कुछ बोला नहीं। वह महाखल चुपचाप बैठा रहा। राजन्! चेदिराज की रानी श्रुतिश्रवा शूरनन्दन वसुदेव की बहिन थी। वे अपने पुत्र शिशुपाल के पास आकर अच्छी तरह विनय युक्त होकर बोली
श्रुतिश्रवा ने कहा- बेटा ! खेद न करो। यादवों तथा चेदिपों में कभी कलह नहीं होना चाहिये। शूरनन्दन वसुदेव तुम्हारे मामा हैं और उनके पुत्र श्रीकृष्ण भी तुम्हारे भाई ही हैं। उनके जो प्रद्युम्न आदि सैकड़ों महावीर पुत्र आये हैं, वे सब मेरे और तुम्हारे द्वारा लाड़-प्यार पाने के योग्य तथा समादरणीय हैं। उनके साथ युद्ध करना उचित नहीं होगा। तात ! मैं तुम्हारे साथ स्वयं स्नेहार्द्रचित होकर उन समागत यादवों को लेने के लिये चलूँगी। चिरकाल से मेरे मन में उन सबको देखने की उत्कण्ठा है। मैं बडे़ उत्सव एवं उत्साह के साथ उनका घर लाऊँगी। ऐसा अवसर फिर कभी नहीं आयेगा ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 7
शिशुपाल बोला- बलराम, कृष्ण तथा समस्त यादव मेरे शत्रु हैं। जिन्होंने मेरा तिरस्कार किया है, उन सबको मैं भी अपने सैनिकों द्वारा मरवा डालूँगा।
पूर्वकाल में कुण्डिनपुर में राम तथा कृष्ण, इन दोनों भाइयों ने मेरी अवहेलना की, मेरा विवाह रोक दिया; अत: वे मेरे भाई नहीं, शत्रु हैं। यदि तुम दोनों (मेरे माता-पिता होकर) यादवों का समर्थ करोगे तो में तुम दोनों माता-पिता को मजबूत बेड़ियों से बांधकर उसी तरह कारागार में डाल दूँगा, जैसे कंस ने अपने मां-बाप को कैद कर लिया था। अन्यथा तुम दोनों का वध भी कर डालूँगा, मेरी शपथ या प्रतिज्ञा बड़ी कठोर होती है (इसे टालना कठिन है) ।
श्रीनारदजी कहते हैं- शिशुपाल की कड़ी बातें सुनकर चेदिराज चुप हो गये। उद्धवजी अपनी सेना में लौट आये और जो कुछ शिशुपाल ने कहा था, वह सब उन्होंने वहाँ कह सुनाया। तदनन्तर वाहिनी, ध्वजिनी, पृतना और अक्षौहिणी– ये चार प्रकार की शिशुपाल की सेनाएं सुसज्जित हुईं ।
बहुलाश्व ने पूछा- प्रभो ! वाहिनी आदि सेना की संख्या मुझे बताइये, क्योंकि ॠषिलोग भूत, वर्तमान और भविष्य-तीनों कालों की बातें जानते हैं ।
श्रीनारदजी ने कहा- राजन ! सौ हाथी, ग्यारह सौ रथी, दस हजार घोड़े और एक लाख पैदल यह ‘सेना’ का लक्षण है। इससे दुगुनी सेना को ‘चतुरंगिणी’ कहते हैं। चार सौ हाथी, दस हजार रथ, चार लाख घोडे़ तथ एक करोड़ पैदल इतने सैनिक लोहे का कवच पहले और शक्तिशाली वल-वाहनों से सम्पन्न, अस्त्रों-शस्त्रों के ज्ञाता शूरवीर जिस सेना में विद्यमान हो, उसे विद्वानों ने ‘ध्वजिनी’ नाम दिया गया है। ध्वजिनी से दुगुनी सेना को पूर्वकाल के विद्वानों ने ‘पृतना’ माना है।
पृतना से दुगुनी सेना ‘अक्षौहिणी’ कही गयी है। जसे साहसी वीर है, उसे ‘शूर’ कहा गया है। जो सौ शूरवीर की रक्षा करता है, उसे ‘सामन्त’ कहते हैं। जो युद्ध में सौ सामन्तों की रक्षा करता है, उसे ‘गजी’ योद्धा कहते हैं। जो समरांगण में सारथि और अश्वों सहित रथ की रक्षा कर सकता है, वह ‘रथी’ कहा गया है। जो अपने बाणों से सेना की रक्षा करता है, उसे ‘महारथी’ कहते हैं। जो अपनी सेना की रक्षा और शत्रुओं का संहार करते हुए रणक्षेत्र में अक्षौहिणी सेना के साथ युद्ध कर सके, उसे सदा ‘अतिरथी’ माना गया है।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘गुर्जर और चेदिदेश में गमन’ नामक सातवां अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 8
शिशुपाल के मित्र द्युमान तथा शक्त का वध
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! शिशुपाल अपनी सेना को साथ ले माता-पिता का तिरस्कार करके चन्द्रिकापुर से बाहर निकला। दुष्टों का ऐसा स्वभाव ही होता है। उसके सात ‘वाहिनी’ और ‘ध्वजिनी’ सेनाओं से युक्त द्युमान और शक्त निकले। शिशुपाल के दो मन्त्रियों के नाम थे, रंग और पिंग। वे दोनों क्रमश: पृतना’ और ‘अक्षौहिणी’ सेना लिये युद्ध के लिये नगर से बाहर आये ।
नरेश्वर ! शिशुपाल की महासेना प्रलयकाल के महासगार के समान उमड़ती हुई आ रही थी। उसे देखकर यदुवंशी वीर भगवान श्रीकृष्ण को ही जहाज बनाये, उस सैन्य सागर से पर होने के लिये सामने आये। महाबली द्युमान शिशुपाल से प्रेरित हो ‘वाहिनी’ सेना सहित आगे बढ़कर योद्धाओं के साथ युद्ध करने लगा। समरांगण में दोनों सेनाओं की बाण-वर्षा से अन्धकार छा गया। घोड़ा की टापों से इतनी धूल उड़ी कि आकाश आच्छादित हो गया। नरेश्वर ! दौड़ते हुए घोड़े उछलकर हाथियों के मस्तक पर पांव रख देते थे और घायल हुए हाथी युद्धभूमि में पैरों से शत्रुओं को गिराते ओर सूँड की फुफकारों से इधर-उधर फेंकते-कुचलते आगे बढ़ रहे थे। उनके मस्तक पर कस्तूरी और सिन्दूर से पत्र-रचना की गयी थी और पीठ पर लाल रंग की ढूल उनकी शोभा बढ़ाती थी। पैदल सैनिक बाणों, गदाओं, तलवारों, शूलों और शक्तियों की मार से अंग-अंग कट जाने के कारण धराशायी हो रहे थे। उनके पैर, घुटने और बाहुदण्ड छिन्न-भिन्न हो गये।
राजन्! कोई अपनी तीखी तलवार से युद्ध में घोड़ों के दो टुकडे़ कर देता था। कितने ही वीर हाथियों के दाँत पकड़कर उनके मस्तों पर चढ़ जाते थे और सिंह की भाँति महावतों तथा हाथी-सवारों को चीर-फाड़ डालते थे। बहुत-से महाबली घुड़सवार योद्धा हाथियों के समूह को फाँदकर शत्रु-सैनिकों पर खड्ग का प्रहार करते और उन्हें घोड़ों की पीठ से उनका स्पर्श ही नहीं होता है। वे नटों की तरह विद्युत-वेग से घोड़ा पर चढ़ते-उतरते रहते थे ।
शत्रुओं की सेना का वेगपूर्वक आक्रमण होता देख अक्रूर सामने आये। वर्षा की वर्षा से दुर्दिन का दृश्य उपस्थित कर दिया। द्युमान ने भी अपने धनुष से छूटे हुए बाण-समूहों की बौछार से अक्रुर को आच्छादित कर दिया- ठीक उसी तरह, जैसे बादल वर्षकाल के सूर्य को ढक देता है।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 8
गान्दिनी पुत्र अक्रूर ने क्रोध से मुर्च्छित हो द्युमान के बाण-समूहों पर विजय पाकर उस वीर के ऊपर शक्ति से प्रहार किया। उस प्रहार से द्युमान का अंग विदीर्ण हो गया। वह दो घड़ी के लिये अपनी चेतना खो बैठा। परंतु युद्ध आरम्भ कर दिया। द्युमान ने लाख भार लोहे की बनी हुई एक भारी गदा हाथ में ली और उसके द्वारा अक्रूर की छाती पर चपेट करके मेघ के समान गर्जना की। उसके प्रहार से अक्रूर मन-ही-मन मन किंचित व्याकुल हो उठे। तब बार-बार अपने धनुष की टंकार करते हुए युयुधान सामने आये। उन्होंने खेल-खेल में एक ही बाण मारकर तुरंत द्युमान का मस्तक काट डाला। द्युमान के गिर जाने पर उसके वीर सैनिक युद्ध का मैदान छोड़कर भाग चले।
उसी समय अपनी सेना को भागती देख शक्त वहाँ आ पहुँचा। उसने बुद्धिमान युयुधान पर सहसा शूल चलाया। युयुधान ने अपने बाण-समूहों से उस शूल क टुकडे़ कर दिये। इतने में ही महाबली वीर कृतवर्मा वहाँ आ पहुँचा। उसने बाण मारकर अश्वसहित शक्त के भी रथ को चूर-चूर कर दिया। तब शक्त ने भी गदा की चोट से कृतवर्मा ने रथ छोड़कर शक्त को रोषपूर्वक पकड़ लिया और उसे गिराकर दोनों भुजाओं से उछालकर एक योजन दूर फेंक दिया। उस युद्धभूमि में शक्त के गिर जाने पर शिशुपाल की आज्ञा से उसके दोनों मन्त्री रंग और पिंग क्रमश: ‘पृतना’ और ‘अक्षौहिणी’ सेनाओं के साथ बाण-वर्षा करते ओर युद्ध में शत्रुओं को कुचलते हुए आये। मैथिलेश्वर ! ऐसा जान पड़ता था, मानो अग्नि और वायु देवता एक साथ पहुँचे हैं। उन दोनों की उन दोंनों की सेना को देख पिता के समान पराक्रमी यादवेन्द्र प्रद्युम्न धनुष हाथ में लेकर भरी सभा में इस प्रकार बोले।
प्रद्युम्न ने कहा- योद्धाओं ! रंग और पिंग के साथ होने वाले युद्ध में अग्रगामी होकर आऊँगा; क्योंकि रंग और पिंग महान बल-पराक्रम से सम्पन्न दिखायी देते हैं ।
श्रीनारदजी कहते हैं- प्रद्युम्न की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण के बलवान पुत्र नीतिवेता महाबाहु भानु सबसे आगे होकर अपने बडे़ भाई से बोले।
भानु ने कहा- जब तीनों लोक एक साथ युद्ध के लिये आपके सम्मुख उपस्थित दिखायी दें, तब आपके धनुष की टंकार होगी, इसमें संशय नहीं हैं। मैं केवल तलवार से ही रंग और पिंग के मस्तक काटकर तरबूज के दो टुकड़ों की भाँति हाथ में लिये यहाँ प्रवेश करुँगा ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘द्युमान और शक्त का वध’ नामक आठवां अध्याय पूरा हुआ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 9
भानु के द्वारा रंग-पिंग का वध; प्रद्युम्न और शिशुपाल का भयंकर युद्ध तथा चेदिदेश पर प्रद्युम्न की विजय
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! यों कहकर शत्रुसूदन भानु ढाल-तलवार लेकर पैदल ही शत्रुसेना में उसी प्रकार घुस गये, भानु ने अपने खड्ग से शत्रु-योद्धाओं की भुजाएं काट डालीं। हाथी और घोड़ों भी जब सामने या आस-पास मिल जाते थे, तब वे अपनी तलवार से उनके दो टुकड़े कर डालते थे। वे उस समरागंण में शत्रुओं का छेदन करते हुए अकेले ही विचरने और शोभा पाने लगे। उनका दूसरा साथी केवल खड्ग था। जैसे कुहा से और बादलों से आच्छादित होने पर भी सूर्य देव अपने तेज से उदासित होत हैं, उसी प्रकार शत्रुओं से आवृत होने पर भी वीरवर भानु अपने विशिष्ट तेज का परिचय दे रहे थे। मिथिलेश्वर ! भानु के खड्ग से जिनके कुम्भस्थल कट गये थे, उन हाथियों के मस्तकों में से मोती रणभूमि में उसी प्रकार गिरते थे, जैसे पुण्यकर्मों के क्षीण हो जाने पर स्वर्गवासी जनों के तारे द्युलोक से भूमि पर गिर पड़ते हैं। उस समारांगण में दृष्टिमात्र से शत्रुसेना को धराशायिनी करके महाबली वीर भानु रंग और पिंग के ऊपर जा चढे़।
भगवान श्रीकृष्ण के दिये हुए खड्ग से रंग और पिंग के रथों को नष्ट करके भानु ने सारथियों के सहित उनके घोड़ों के दो-दो टुकडे़ कर डाले। तब महान उद्भट वीर रंग और पिंग ने भी खड्ग लेकर भानु पर प्रहार किया। परंतु भानु की ढाल तक पहुँचते ही वे दोनों खड्ग टूक-टूक हो गये। भानु की तलवार की चोट से रंग और पिंग के मस्तक एक साथ ही युद्धभूमि में जा गिरे। यह अद्भुत सी बात हुई। विजयी वीर भानु सेनापतियों से प्रशंसित हो रंग और पिंग के मस्तक लेकर प्रद्युम्न के सामने आये। उस समय मानवीय दुन्दुभियों के साथ देव-दुन्दुभियॉ भी बज उठीं। सब ओर जय-जयकार होने लगा। देवताओं ने फूल बरसाये। रंग और पिंग के मारे जाने का समाचार शिशुपाल के रोष की सीमा न रही। वह विजयशील रथ पर आरुढ़ हो यादवों के सामने आ गया। उसके साथ मद की धारा बहने वाले, सोने के हौदे से युक्त और रत्नजटित कम्बल (कालीन या झूल) से अलंकृत बहुत-से विशालकाय गजराज चले, जिनके हिलते हुए घंटों की घनघनाहट दूर-दूर तक फैल रही थी। देवताओं के विमानों की भाँति शोभा पाने वाले रथों, वायु के तुल्य वेगशाली तुरंगमों तथा विद्याधरों के सदृश पराक्रमी वीरों के द्वारा वह पृथ्वी तल को निनादित करता हुआ चल रहा था। नरेश्वर ! शिशुपाल की सेना को आती देख धनुर्धारियों में श्रेष्ठ श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न इन्द्र के दिये हए रथ पर आरुढ़ हो सबके आगे होकर उसका सामना करने के लिये चले। उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओं और आकाश को गुँजाते हएु अपना शंक बजाया।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 9
दूसरों को मान देने वाले नरेश ! उस शंकनाद से शत्रुओं के हृदय में कँपकँपी होने लगी। शिशुपाल की विशाल सेना राजप्रासाद या राजकीय दुर्ग की भाँति दुर्गम थी। उसमें प्रवेश करने के लिये रुक्मणी नन्दन प्रद्युम्न ने सहसा बाणों का सोपान बनाया। दमघोषनन्दन बुद्धिमान शिशुपाल ने बारंबार धनुष की टंकार करते हुए ब्रह्मास्त्र का संधान किया, जिसको उसने दतात्रेयजी से सीखा था। उसके प्रचण्ड तेज को सब ओर फैलता देख युद्ध–भूमि में रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके लीलापूर्वक शत्रु के उस अस्त्र का संहार कर दिया। नरेश्वर ! तब महाबुद्धिमान शिशुपाल ने अंगरास्त्र का प्रयोग किया, जिये जमदग्निनन्दन परशुराम ने महेन्द्र पर्वत पर उसको दिया था। उस अस्त्र के द्वारा अंगारों की वर्षा होने से प्रद्युम्न की सेना अत्यन्त व्याकुल हो उठी। तब श्रीकृष्ण कुमार ने महादिव्य पर्जन्यास्त्र का प्रयोग किया। उससे मेघों द्वारा जल की मोटी धाराऍ गिरायी जाने लगीं, अत: सारे अंगार बुझ गये। तब शिशुपाल ने कुपित होकर गजास्त्र का संधान किया, जिसकी शिक्षा उसे अगस्त्य मुनि ने मलयाचल पर दी थी। उस अस्त्र से अत्यन्त उद्भट करोड़ों विशालकाय गजराज प्रकट होने लगे।
उन्होंने महात्मा प्रद्युम्न की सेना को रणभूमि में गिरना आरम्भ किया। इससे यादवों की सेनाओं में महान हाहाकार मच गया। यह देख युद्ध में होड़ लगाकर आगे बढ़ने वाले प्रद्युम्न ने नृसिंहास्त्र का संधान किया। उससे नृसिंह का प्राकट्य हुआ, जो अपनी गर्जना से भूतल को प्रतिध्वनित कर रहे थे। उनके अयाल चमक रहे थे। उनकी गर्जन और पूँछ के बाल बड़े-बडे़ थे। पंजों के नख हल की फाल के समान बड़े-बड़े़ होने के कारण उनके स्वरूप की भयंकरता को बढ़ा रहे थे। नृसिंह उस समारांगण में उन हाथियों का भक्षण करते हुए हुकार के साथ सिंहनाद करने लगे। उन हाथियों के कुम्भस्थलों को विदीर्ण करके उछलते हुए भगवान नृसिंह समस्त गजसमूहों का मर्दन करके वहीं अन्तर्धान हो गये। तब महाबली शिशुपाल ने रोषपूर्वक परिघ चलाया। परंतु माधव प्रद्युम्न ने यमदण्ड से मारकर उसके दो टुकड़े कर दिये। फिर तो चेदिराज शिशुपाल के रोष की सीमा न रही उसने ढाल और तलवार लेकर प्रद्युम्न पर इस प्रकार धावा किया, जैसे पतंग प्रज्वलित अग्नि की ओर टूटता है। श्रीकृष्ण कुमार ने वेगपूर्वक उसके खड्ग पर यमदण्ड से प्रहार किया, जिससे ढाल सहित उसकी वह तलवार चूर-चूर हो गयी। फिर यादवेश्वर प्रद्युम्न ने सहसा वरुण के दिये हए पाश से दमघोष पुत्र शिशुपाल को बांधकर समरांगण में घसीटना प्रारंभ किया। अब उन्होंने शिशुपाल का काम तमाम करने के लिये। रोषपूर्वक तलवार हाथ में ली। इतने में ही गदने वेग से आगे बढ़कर उनके दोनों हाथ पकड़ लिये ।
गद बोले- रुक्मिणी नन्दन ! परिपूर्णतम महात्मा श्रीकृष्ण के हाथ से इसका वध होने वाला है; इसलिये तुम इसे मारकर देवताओं की बात झूठी न करो। नारदजी कहते हैं- राजन् ! शिशुपाल के बांध लिये जाने पर बड़ा भारी कोलाहल मचा। उस समय चेदिराज दमघोष भेंट लेकर प्रद्युम्न के सामन आये। उन्हें आया देख शीघ्र ही अपने अस्त्र-शस्त्र फेंककर प्रद्युम्न आगे बढे़। उन्होंने चेदिराज के चरणों में महात्मा प्रद्युम्न से मिलकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए गद्गद वाणी में बोले। दमघोष बोले- यादव-शिरोमणे प्रद्युम्न! तुम धन्य हो। दयानिधे! मेरे पुत्र ने जो अपराध किया है, उसे क्षमा कर दो। श्रीप्रद्युम्न बोले- प्रभो ! इसमें ने मेरा दोष है, न आपका और न आपके पुत्र का ही दोष है। जो कुछ भी प्रिय अथवा अप्रिय होता है, वह सब मैं काल का किया हुआ ही मानता हूँ। नारदजी कहते हैं- राजन्! प्रद्युम्न के यों कहने पर राजा दमघोष उनके द्वारा बांधे गये शिशुपाल को छुडाकर उसे साथ ले चन्द्रिकापुरी में गये। साक्षात श्रीकृष्ण के समान तेजस्वी प्रद्युम्न के बल-पराक्रम का समाचार सुनकर प्राय: कोई राजा उनके साथ युद्ध करने को उद्यत नहीं हुए। सबने चुपचाप उनकी सेवा मे भेंट अर्पित कर दी।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘रंग-पिंग का वध, शिशुपाल का युद्ध और चेदिदेश पर विजय’ नामक नवां अध्याय पूरा हुआ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 10
यादव-सेना का कोंकण, कुटक, त्रिगर्त, केरल, तैलंग, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि देशों पर विजय प्राप्त कर करुष देश में जाना तथा वहाँ दन्तवक्र का घोर युद्ध
नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर मनुतीर्थ में स्नान करके प्रद्युम्न बारंबार दुन्दुभि बजवाते हुए यादव सेना के साथ कोंकण देश में गये। कोंकण देश का राजा मेधावी गदायुद्ध में अत्यन्त कुशल था। वह मल्लयुद्ध के द्वारा विपक्षी के बल की परीक्षा करने के लिये अकेला ही आया। उसने सेना सहित प्रद्युम्न से कहा- ‘यादवेश्वर ! मुझे गदा युद्ध प्रदान करो। प्रभो ! मेरे बल का नाश करो’।
प्रद्युम्न बोले- हे मल्ल ! इस भूतल पर एक-से-एक बढ़कर बलवान वीर है; अत: तुम अपने बल पर घमंड न करो। भगवान विष्णु की माया बड़ी दुर्गम है। हम लोग बहुत-से वीर यहाँ एकत्र हैं और तुम अकेले ही हमसे युद्ध करने के लिये आये हो। महामल्ल ! यह अधर्म दिखायी देता है, अत: इस समय लौट जाओ।
मल्ल बोला- जब आप लोग बलशाली वीर होकर भी युद्ध नहीं कर रहे हैं, तो मेरे पैरों के नीचे होकर निकल जाइये तभी अब यहाँ से लौटूँगा।
श्रीनारदजी कहते हैं- मैथिल ! उस मल्ल के यों कहने पर समस्त यादव-पुंगव वीर क्रोध से भर गये। तब उसके देखते- देखते बलदेवजी के छोटे भाई बलवान वीर गदा लेकर सामने खड़े हो गये। फिर वह भी सबके सम्मुख गदा उठाकर खड़ा हो गया। उस महाबली मल्ल ने गद के ऊपर एक बड़ी भारी गदा फेंकी। गद ने उसकी गदा को हाथ में थाम लिया और अपनी गदा उके ऊपर दे मारी। गद की गदा से आहत होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा और मुख से रक्तवमन करने लगा। अब उसने युद्ध की इच्छा त्याग दी। तदनन्तर कोंकण वासी मेधावी ने श्रीहरि के पुत्र प्रद्युम्न को प्रणाम करके कहा- मैंने आप लोगों की परीक्षा के लिये यह कार्य किया था। आप तो साक्षात भगवान ही हैं। कहाँ आप और कहाँ मुझ जैसा प्राकृत मनुष्य ! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। मैं आपकी शरण में आया हूँ’।
श्रीनारदजी कहते हैं– राजन्! ज्यों कहकर, भेंट देकर और श्रीहरि के पुत्र को नमस्कार करके कोंकण देश का राजा क्षत्रिय-शिरोमणी मेधावी अपनी पुरी को चला गया। कुटक देश का स्वामी मौलि शिकार खेलने के लिये नगर से बाहर निकला था। उसे जाम्बवती कुमार महाबाहु साम्बने जा पकड़ा। उससे भेंट लेकर प्रद्युम्न दण्डकारण्य को गये। वहाँ मुनियों के आश्रम देखते हुए सेना सहित श्रीकृष्ण कुमार क्रमश: निर्विध्या, मयोष्णी तथा तापी नदी में स्नान करके महाक्षेत्र शूर्पारक में गये।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 10
वहाँ से आर्या द्वैपायनी देवी का दर्शन करके ऋष्यमूक की शोभा देखते हुए प्रवर्षण गिरि पर गये, जहाँ साक्षात भगवान पर्जन्य नित्य वर्षा करते हैं। वहाँ से गोकर्ण नामक शिवक्षेत्र का दर्शन करते हुए महाबली श्रीकृष्ण कुमार अपने सैनिकों के साथ त्रिगर्त और केरल देशों पर विजय पाने के लिए गये। केरल के राजा अम्बष्ठ ने मेरे मुख से महात्मा प्रद्युम्न के शुभागमन की बात सुनकर शीघ्र ही उन्हें भेंट अर्पित कर दी। तब वे कृष्णावेणी नदी को पार करके अपने सैनिकों की पद-धूलि राशि से आकाश में अन्धकार-सा फैलाते हुए तैलंगदेश में गये।
तैलंग देश के राजा का नाम विशालाक्ष था। वे अपने नगर के उपवन में सुन्दरियों के साथ विहार करते थे।
विशेष:-[सं० त्रिकलिङ्ग] १. दक्षिण भारत का एक प्रचीनदेश जिसका विस्तार श्रीशैल से चोल राज्य से मध्य तक था । इसी देश की भाषा तेलुगु कहलाता है । विशेष—इस देश में कालेश्वर, श्रीशैल और भीमेश्वर नामक तीन पहाड़ हैं जिनपर तीन शिवलिंग हैं । कुछ लोगों का मत है कि इन्हीं तीनों शिवलिंगों के कारण इस देश का नाम त्रिलिंग पडा़ है; इसका नाम पहले त्रिकलिंग था । महाभारत में केवल कलिंग शब्द आया है । पीछे से कलिंग देश के तीन विभाग हो गए थे जिसके कारण इसका नाम त्रिकलिंग पडा़ । उडी़सा के दक्षिण से लेकर मदरास के और आगे तक का समुद्रतटस्थ प्रदेश तैलंग या तिलंगाना कहलाता है ।
मधुर ध्वनियों से व्याप्त मृदंग आदि बाजे बज रहे थे तथा अप्सराएं उत्कृष्ट रागों द्वारा देवेन्द्र के समान उस राजा के सुयश का गान कर रही थी उस समय सुन्दरी रमणी रानी मन्दामालिनी ने धूल से व्याप्त आकाश की ओर देखकर राजा से कहा। रानी के बिम्बोपम अरुण ओष्ठ सूख गये थे।
मन्दार मालिनी बोली- राजन् ! आप सदा विहार में ही रत रहने कारण दूसरी किसी बात को नहीं जानते हैं, दिन-रात अत्यन्त कामावेश के कारण चंचल बने रहते हैं। और मैं भी अपके मुख पर छिटकी हुई अलकों की सुगन्ध पर लुभायी भ्रमरी होकर कभी यह न जान सकी कि दु:ख क्या होता है। परंतु आज द्वारका के राजा उग्रसेन के राजसूय यज्ञ का बीड़ा उठाकर दिग्विजय के लिये निकले हुए वे यदुराज प्रद्युम्न चेदिराज आदि समस्त नरेशों को जीतकर यहाँ आ पहुँचे हैं।
दुन्दुभियों की धुंकार-ध्वनि सुनिये। उसके साथ हाथियों के चीत्कार और फूत्कार की ध्वनि भी मिली हुई है। शत्रुओं के कोदण्ड की टंकार प्रलयकाल के गर्जन-तर्जन का कोलाहल प्रस्तुत कर रही हैं।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 11
दन्तवक्र की पराजय तथा करुष देश पर यादव-सेना की विजय
श्रीनारदजी कहते हैं- तब श्रीकृष्ण के अठारह महारथी पुत्रों ने मिलकर दन्तवक्र को क्षत विक्षत कर दिया। घायल हुआ दन्तवक्र रक्तधारा से रंजित हो उसी प्रकार अत्यन्त शोभा पाने लगा, जैसे महावर क रंग से रँगा हुआ कोई ऊँचा महल से शोभित हो रहा हो। उसने शत्रुओं के प्रहार को कुछ भी नहीं गिना। कृतवर्मा ने समरांगण में उसे बाण-समूहों द्वारा घायल किया, सात्यकि ने तलवार से चोट पहॅुचायी और अक्रूर ने उस महाबली वीर पर शक्ति से प्रहार किया। रोहिणीनन्दन सारण ने उसके ऊपर कुठार से आघात किया। रणदुर्मद दन्तवक्र ने भी सात्यकि के गदा से चोट पहुँचायी, कृतवर्मा को हाथों से और अक्रूर को लात से मारा तथा सारण को भुजाओं के वेगस से आहत कर दिया।
अक्रूर, वृतवर्मा, सात्यकि और सारण ये चारों वीर आँधी के उखाडे़ हुए वृक्षों की भाँति मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पडे़ तदनन्तर जाम्बवती कुमार साम्ब ने उसकी गदा लेकर, गदा के ऊपर अपनी गदा रखकर उससे दन्तवक्र को मारा। दन्तवक्र ने गदा फेंक दी और जाम्बवती कुमार साम्ब को पकड़कर दोनों भुजाओं से रणमण्डल में गिरा दिया। तब साम्ब ने भी उठकर उसके दोनों पैर पकड़कर उसे भूपृष्ठ पर दे मारा। वह एक अद्भुत सी बात हुई। दन्तवक्र उठकर उस समय अट्टहास करने लगा। उसकी आवाज से सात लोकों और पातालों सहित समूचा ब्रह्माण्ड गूँज उठा। सहस्त्रों सूर्यों के समान तेजस्वी और सहस्त्र घोड़ा से जुते हुए पताका-मण्डित दिव्य रथ पर आरुढ़ होकर आये हुए धनुर्धरों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न की ओर देखकर दन्तवक्र ने यह कठोर बात कही
दन्तवक्र बोला- तुम समस्त यादव, वृष्णिवंशी और अन्धकवंशी लोग स्वल्पशक्ति वाले, तुच्छ, रणभूमि से भाग हुए और युद्धभीरु हो। राजा ययाति के शाप तुम्हारा तेज भ्रष्ट हो गया है। तुम राज्य भ्रष्ट और निर्लज्ज हो। मैं अकेला हूँ और तुम बहुसंख्य हो तथापि अधर्म-मार्ग पर चलने वाले तथा धर्मशास्त्र की मर्यादा को विलुप्त करने वाले तुम नराधमों ने मेरे साथ युद्ध किया हैं। तुम्हारा पिता श्रीकृष्ण पहले नन्द के पशुओं का चरवाहा था। वह ग्वालों की जूठन खाता था, किंतु आज वही यादवों का ईश्वर बना बैठा है। उसने गोपियो के घर में माखन, दही, घी, दूध और तक्र आदि गोरस की चोरी की थी।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 11
वह रासमण्डल में रसिया बनकर नाचता था, किंतु अब जरासंध के भय से उसने भी समुद्र की शरण ले ली है। जो कालयवन के सामने डरपोक की तरह भागा था, वही आज ‘यदुनाथ’ बना है। उसके दिये हुए थोड़े से राज्य को पाकर उग्रसेन उस अल्पसार के लिये यज्ञों में श्रेष्ठ राजसूय यज्ञ करेगा ! काल की गतिदुर्लंघय है। अहो ! सारा संसार विचित्र हो गया। अत्यन्त दुर्बल सियार, सिंह और व्याघ्र पर शासन करने चला है।
श्रीप्रद्युम्न ने कहा- ओ निन्दक ! पहिले कुण्डिनपुर में तूने यादवों के बढ़े-चढे़ बल को शायद नहीं देखा था, किंतु आज यहाँं देख लेना। करुषराज ! तुम लोग मेरे सम्बन्धी हो, यह जानकर मैं तुमसे युद्ध नहीं करना चाहता था। किंतु तूने बलपूर्वक युद्ध छेड़ दिया। यह तेरे द्वारा धर्मशास्त्रानुमोदित कार्य ही तो किया गया है। नन्दराज साक्षात द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। गोलोक में जो गोपालगण हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं और गोपियॉं श्रीराधा के रोम से उद्भुत हुई हैं।
वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आयी हैं। कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं, जो पूर्वकृत पुण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्ण को प्राप्त हुई हैं। भगवान श्रीकृष्ण साक्षात परिपूर्णतम परमात्मा हैं, असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति, गोलोक के स्वामी तथा परात्पर ब्रह्म हैं। जिनके अपने तेज में सम्पूर्ण तेज विलीन होते हैं, उन्हें ब्रह्मा आदि उत्कृष्ट देवता साक्षात ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं, पूर्वकाल में जो चक्रवर्ती राज मरुत थे, वे ही श्रीकृष्ण के वरदान से यादवराज उग्रसेन हुए हैं। तू निरंकुश और महामूर्ख है, जो महान गुणशाली महापुरुष की निन्दा कारता है।
खण्ड : अध्याय 11
वह रासमण्डल में रसिया बनकर नाचता था, किंतु अब जरासंध के भय से उसने भी समुद्र की शरण ले ली है। जो कालयवन के सामने डरपोक की तरह भागा था, वही आज ‘यदुनाथ’ बना है। उसके दिये हुए थोड़े से राज्य को पाकर उग्रसेन उस अल्पसार के लिये यज्ञों में श्रेष्ठ राजसूय यज्ञ करेगा ! काल की गतिदुर्लंघय है। अहो ! सारा संसार विचित्र हो गया। अत्यन्त दुर्बल सियार, सिंह और व्याघ्र पर शासन करने चला है।
श्रीप्रद्युम्न ने कहा- ओ निन्दक ! पहिले कुण्डिनपुर में तूने यादवों के बढ़े-चढे़ बल को शायद नहीं देखा था, किंतु आज यहाँं देख लेना। करुषराज ! तुम लोग मेरे सम्बन्धी हो, यह जानकर मैं तुमसे युद्ध नहीं करना चाहता था। किंतु तूने बलपूर्वक युद्ध छेड़ दिया। यह तेरे द्वारा धर्मशास्त्रानुमोदित कार्य ही तो किया गया है। नन्दराज साक्षात द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। गोलोक में जो गोपालगण हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं और गोपियॉं श्रीराधा के रोम से उद्भुत हुई हैं।
वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आयी हैं। कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं, जो पूर्वकृत पुण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्ण को प्राप्त हुई हैं। भगवान श्रीकृष्ण साक्षात परिपूर्णतम परमात्मा हैं, असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति, गोलोक के स्वामी तथा परात्पर ब्रह्म हैं। जिनके अपने तेज में सम्पूर्ण तेज विलीन होते हैं, उन्हें ब्रह्मा आदि उत्कृष्ट देवता साक्षात ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं, पूर्वकाल में जो चक्रवर्ती राज मरुत थे, वे ही श्रीकृष्ण के वरदान से यादवराज उग्रसेन हुए हैं। तू निरंकुश और महामूर्ख है, जो महान गुणशाली महापुरुष की निन्दा कारता है।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 11
जैसे सिंह गीदड़ की आवाज पर ध्यान नहीं देता, उसी प्रकार महाराज उग्रसेन अथवा भगवान अथवा भगवान श्रीकृष्ण तेरी बकवास पर कोई विचार नहीं करेंगे ।
नारदजी कहते हैं- राजन! प्रद्युम्न की ऐसी बात सुनकर मदमत दन्तवक्र एक भारी गदा लेकर उनके रथ पर टूट पड़ा। उसने अपनी गदा से चोट करे उस रथ के सहस्त्र घोड़ा को गिरा दिया और गर्जना करने लगा। उसका भयंकर रूप देखकर सब घोडे़ भाग चले। तब प्रद्युम्न ने भी गदा लेकर उसकी छाती मे बडे़ जोर से प्रहार किया। उस प्रहार से दैत्यराज दन्तवक्र मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। तब उन दोनों में गदा से घोर युद्ध होने लगा। गदाओं से परस्पर प्रहार करते हुए वे दोनों वीर एक-दूसरे को रणभूमि में रौंदने और गर्जने लगे।
राजन् ! उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो पर्वत पर दो सिंह आपस में जूझ रहे हों ।दन्तवक्र ने दोनों हाथों से श्रीकृष्ण कुमार का पकड़कर भूमि पर उसी प्रकार गिरा दिया, जैसे एक सिंह ने दूसरे सिंह को बलपूर्वक पटक दिया हो। प्रद्युम्न ने भी उठकर बलपूर्वक उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और भुजाओं द्वारा घुमाकर उसे पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसकी हडि्डयां चूर-चूर हो गयीं शरीर शिथिल हो गया। उसे मूर्च्छा आ गयी।
वह आकृति से घबराया हुआ प्रतीत होने लगा। दन्तवक्र इन्द्र के वज्र से आहत हुए पर्वत की भाँति भूपृष्ठ पर सुशोभित हो रहा था। उसके शरीर के धक्के से समुद्र सहित पृथ्वी हिलने लगी, दिग्गज विचलित हो उठे, तारे खिसक गये और समुद्र कांपने लगे।
राजेन्द्र ! उसके गिरने के धमाके से तीनों लोकों के कान बहरे हो गये। उसी समय करुषराज महात्मा वृद्धशर्मा रानी श्रुतदेवा के साथ महारंगपुर से वहाँ आ पहुँचे। वे यादवों के साथ सुन्दर ढंग से संधि करना चाहते थे। मिथिलेश्वर ! वे शम्बराशत्रु प्रद्युम्न का भेंट देकर, पुत्र को साथ ले, संधि करके यदुपुंगवों से पूजित हो, पुन: महारंगपुर को चले गये ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘दन्तवक्र के साथ युद्ध में करूष देश पर विजय’ नामक ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड : अध्याय 12 उशीनर आदि देशों पर प्रद्युम्न की विजय तथा उनकी जिज्ञासा पर मुनिवर अगस्त्य द्वारा तत्वज्ञान प्रतिपादन श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! दक्षिण सागर में स्नान करके यादवराज प्रद्युम्न वहाँ से सेना सहित उशीनर देश को जीतने के लिये आये, जहाँ ग्वालों की मण्डली के साथ कोटि-कोटि भव्य मूर्तिवाली गौएं विचरती और चरती हैं। उशीनर देश के लोग दूध पीत और गोरे रंग के मनोहर रूप वाले होते हैं। वे मक्खन की भेंट लेकर प्रद्युम्न के सामने गये। उनसे पूजित होकर प्रद्युम्न ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें हाथी, घोड़े रत्न, वस्त्र और भूषण आदि बहुत धन दिया। उशीनर की राजधानी चम्पावती नामक पुरी मणि और रत्नों से सम्पन्न थी। वह राजाओं से उसी प्रकार शोभा पाती थी, जैसे सर्पों से भोगवतीपुरी। चम्पावती के स्वामी वीर राज हेमांगद शीघ्र ही भेंट लेकर आये। उन्होंने श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न ने उन्हें केसरयुक्त कमलों की माला दी और सहस्त्रदलों की शोभा से सम्पन्न एक दिव्य कमल भी अर्पित किया ।तदनन्तर महाबाहु प्रद्युम्न धनुष धारण किये तथा बार-बार दुन्दुभि बजवाते हुए अपनी सेना के साथ विदर्भ देश को गये। कुण्डिनपुर के राजा भीष्म ने वहाँ पधारे हुए रुक्मिणीपुत्र को अपने घर ले आकर बहत धन दे, सेना सहित उनका पूजन किया। पश्चात नाना को प्रणाम करके बलवान यादवेश्र रुक्मिणीनन्दन कुन्त और दरद देशों को गये। मार्ग में मलचाचल के चन्दन को स्पर्श करता हुआ समीर उनकी सेवा कर रहा था। श्रीखण्ड और केत की पुष्पों की गन्ध से भरे हुए मलचायल पर उन्होंने मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य का दर्शन किया, जो किसी समय महासागर को पी गये थे। श्रीकृष्ण कुमार दोनों हाथ जोड़कर उन महामुनि को नमस्कार करके उनकी पर्णशाला में खडे़ हो गये। मुनि ने शुभाशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया । तब श्रीप्रद्युम्न ने पूछा- मुनिश्रेष्ठ ! यह जगत तो दृश्य पदार्थ होने के कारण मिथ्या है। फिर सत्य की भाँति कैसे स्थित है ? तथा जीव ब्रह्मा का अंश होने के कारण नित्य मुक्त हैं, ऐसा होने पर भी यह गुणों से कैसे बंध जाता है ? यह मेरा प्रश्न है, आप इसका भलीभाँति निरूपण कीजिये क्योंकि आप सर्वज्ञ, दिव्यदृष्टि से सम्पन्न तथा समस्त ब्रह्मवेताओं में श्रेष्ठ हैं
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 12
अगस्त्यजी ने कहा- रुक्मणीनन्दन ! तुम साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के पुत्र हो, तथापि मुझसे प्रश्न करते हो ! तुम्हारा यह प्रश्न पूछना लीलामात्र है (क्योंकि तुम सर्वज्ञ हो)। प्रभो ! जैसे भगवान श्रीहरि लोक-संग्रह के लिये ही कर्म करते हैं, उसी प्रकार तुम भी मनुष्यों का कल्याण करने के लिये विचर रहे हो। जैसे सत्य सूर्य का जल में जो प्रतिबिम्ब दिखायी देता है वह मिथ्या होने पर भी सत्य-सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार प्रकृति और परमात्मा का प्रतिबिम्ब स्वरूप यह दृश्य जगत असत होने पर भी सत्य-सा दृष्टिगोचर होता है। जैसे शीशे में प्रतीति होती है, उसी प्रकार यह सत् परमात्मा देहगत सत्त्वादि गुणों से बद्ध जान पड़ता है- अन्त:करणरुपी दर्पण में सत् का प्रतिबिम्ब ही जीवरूप में प्रतीति गोचर होता है। (शीशे में मुख आबद्ध न होने पर भी बद्ध सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार नित्य मुक्त परमात्मा सत्त्वादि गुणमय अन्त:करण में प्रतिबिम्बित होकर बद्ध सा जान पड़ता है) ।
प्रद्युम्न ने पूछा- ब्रह्मज्ञ- शिरोमणे ! जिस उपास से दृढ़ वैराग्य प्राप्त करके देहधारी जीव कथापि बन्धन में न पडे़ वह मुझे बताइये ।
अगस्त्यजी ने कहा- जो विेवेक का आश्रय लेकर जगत को मानेमय मानकर सनातन ब्रह्म का भजन करता है, वह परमपद को प्राप्त होता है। राजन् ! उस परमात्मा को जन्म, मृत्यु, शोक, मोह, बाल्य, यौवन, जरा, अंता, मद, व्याधि का डर सुख, दु:ख, क्षुधा, रति, मानसिक चिन्ता और भय कभी नहीं प्राप्त होते क्योंकि आत्मा निरीह (चेष्टा रहित), निराकार, सर्वथा अहंकारशून्य, शुद्धस्वरूप, गुणों का आश्रय, साक्षात परमेश्वर, निष्कल तथा आत्मद्रष्टा है। जिसको मुनीश्वरों ने सदा पूर्ण एवं ज्ञानपय जाना है, उस परब्रह्म परमात्मा को जानकर यह जीव सुखपूर्वक विचरे। जो पुरुष इस जगत के सो जाने पर भी जागता है, उस द्रष्टा को यह लोक कभी नहीं देखता, कदापि नहीं जानता। जैसे विभिन्न रंगों से स्फटिकमणि कभी लिप्त नहीं होती तथा जैसे आकाश कोठे से, अग्नि काष्ठ से और वायु उड़ी हुई धूल से लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार ब्रह्म गणों से कभी लिप्त नहीं होता है।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 12
जो लक्षणाओं से, व्यंजना द्वारा व्यक्त होने वाली ध्वनि एवं व्यंगनार्थों से कभी ज्ञान का विषय नहीं होता, वह लौकिक वाक्यों द्वारा कैसे जाना जा सकता हैं ! उस शब्दर्थातीत परब्रह्म को नमस्कार है। कुछ लोग इस परमात्मा को ‘कर्म’ कहते हैं, दूसरे लोग उसे ‘काल’ की संज्ञा देते हैं अन्य विद्वान उसे ‘कर्ता’ एवं योग कहते हैं, दूसरे विचार के उसके ‘सांख्य’ एवं 'ब्रह्म' बताते हैं। कोई ‘परमात्मा’ और ‘वासुदेव’ कहते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, निगमागम तथा आत्मानुभव से उव परब्रह्मा के स्वरूप का विचार करके इस जगत में अनासक्त भाव से विचरे। जैसे जल के चंचल होने उसमें प्रतिबिम्बत वृक्ष भी चंचल से प्रतीत होत हैं और नेत्रों के घूमने से धरती भी घूमती सी दिखायी देते उसी प्रकार गुणों के भ्रमण से मन के भ्रान्त होने पर उसमें स्थित आत्मा भी भ्रान्त-सा जान पड़ता हैं ।
राजन् ! जैसे हाथ से घुमाया जाता हुआ अलात-चक्र मण्डलाकार घूमता जान पड़ता है, उसी प्रकार गुणों द्वारा भ्रान्त मन के द्वारा अज्ञानविमोहित जीव ऐसा कहने और मानने लगता है कि ’मैं करुँगा, मैं कर्ता हूँ , यह मेरा है, वह तुम्हारा है, यह तुम हो, यह में हूँ, मैं सुखी हूँ और मैं दु:खी हूँ’ इत्यादि। सत्त्व, रज और तुम- ये तीनों प्रकृति के गुण हैं, आत्मा के नहीं। उन गुणों द्वारा यह सारा जगत उसी तरह व्याप्त है, जैसे सूत से वस्त्र ओत-प्रोत होता है।
सत्त्वगुण में स्थित जीव ऊपर को जाता हैं, रजोगुणी जीव मध्यवर्ती लोक में रहते हैं तथा तमोगुण की वृति में स्थित तामसजन नीचे (नरकादि में) जाते हैं। श्रीकृष्णकुमार ! जैसे अँधेरे में रखी हुई रस्सी में सर्पबुद्धि होती है, दूर से मरीचिका में जल की भ्रान्ति होती है, उसी अज्ञानमोहित जीव परब्रह्म में इस जगत की भ्रान्तधारणा बना लेता है। सुख को उसी तरह आने-जाने वाला समझो, जैसे मण्डलवर्ती राजाओं का राज्य। मनुष्यों का दु:ख भी उसी प्रकार है, जैसे नरकवासियों का। घनमाला, देह के गुण तथा दिन और रात जैसे स्थिर नहीं होता, उसी तरह सुख-दुख भी स्थिर नहीं है। जैसे तीर्थयात्रियों या व्यापारियों का समुदाय सदा साथ नहीं रहता, उसी तरह यह दृश्य– प्रपंच भी शाश्वत नहीं हैं।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 12
कोई भी वस्तु सदा नहीं रहती। जैसे पंख निकल जाने पर पक्षी को घोंसले से और नदी के पर चले जाने पर ज्ञान प्राप्त हो जाने पर अभिमान उत्पन्न करने वाले लोक से क्या प्रयोजन रहा जाता है। समदर्शी मुनि इसी प्रकार अपने मार्ग का शीघ्र निश्चय करके असंगभाव से विचरे। जैसे अनेक जल पात्रों में एक ही चन्द्रमा प्रतिबिम्ब होता है और जैसे काष्ठ समूह में एक अग्नि व्याप्त है, उसी प्रकार एक ही साक्षात भगवान परमात्मा सर्वत्र विद्यमान है। जैसे महान आकाश घट और मठ के बाहर तथा भीतर भी अलिप्तभाव से विद्यमान उसी प्रकार परमात्मा अपने ही द्वारा उद्भावित देहधारियों के बाहर-भीतर निर्लिप्त रूप से विराजमान है। जो भगवान श्रीकृष्ण का शानतचित्त, ज्ञाननिष्ठ एवं वैराग्यवान भक्त है, उसे गुण उसी प्रकार नहीं छूता, जैसे जल कमलदल को स्पर्श नहीं करता।
ज्ञानी पुरुष सदा आनन्दमग्न हो बालक की भाँति विचरता है। अपने शरीर का ओर उसी प्रकार दृष्टि नहीं रखता, जैसे मदिरा पीकर मतवाला हुआ मनुष्य अपने पहिने हुए वस्त्र की सँभाल नहीं रखता। राजन ! जैसे सूर्योदय होने पर घर की वस्तु दिखायी देने लगती है उसी प्रकार अज्ञान को दूर करके ज्ञानवान पुरुष ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार कर लेता है। जैसे पृथक-पृथक द्वार वाली इन्द्रियों से एक ही विषय अनेक गुणों का आश्रय प्रतीत होता है, उसी प्रकार एक ही ब्रह्म उसके प्रतिपादक शास्त्र मार्गों से अनेक-सा जान पड़ता है।
नरेश्वर ! इस ब्रह्म को कोई परमपद कहते हैं, कोई वैष्ण्वधाम बताते हैं, कोई व्यापक वैकुण्ठ, कोई शानत, कोई परम कैवल्य तथा कोई अविनाशी परमधाम कहते हैं। किनहीं के मत में वह अक्षर पद हैं, कोइ उसे पराकाष्ठा कहते हैं, कोई प्रकृति से परे गोलोकधाम बताते हैं और कोई पुराणवेता उसको विशदनिकुंज कहते हैं। इस लोक में रहने वाला मानव उस पद को ज्ञान, वैराग्य और भक्त से प्राप्त करता है दूसरे किसी साधन से नहीं। परमपुरुष कैवल्यनाथ परात्पर पुरुषोतम भगवान श्रीकृष्णचनद्र के पद को मनुष्य उपर्युक्त साधनों द्वारा उनहीं की कृपा से प्राप्त करता है और उसे प्राप्त करके भक्त पुरुष कभी वहाँ से लौटता नहीं ।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! यह भागवत ज्ञान सुनकर श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न ने दोनों हाथ जोड़, भक्ति भाव से नमस्कार करके महामुनि अगस्त्यजी का पूजन किया ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अनतर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘उशीनर, विदर्भ, कुनत, दरद आदि देशों पर विजय के प्रसंग में अगस्त्य और प्रद्युम्न की ज्ञानचर्चा’ नामक बारहवां अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 13
शाल्व आदि देशों तथा द्विविद वानर पर प्रद्युम्न की विजय; लंका से विभिषण का आना और उनहें भेंट समर्पित करना
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! कृतमाला और ताम्रपर्णी नदियों में स्नान करके श्रीयादवेश्वर प्रद्युम्न अपने यादव सैनिकों के साथ राजपुर को गया। राजपुर का स्वामी राजा शाल्व था। वह मेरे मुँह से यादवों का आगमन सुनकर शीघ्र ही वानरराज द्विविद के पास गया। वीर, द्विविद मित्र की सहायता करने के लिये उद्यत हो यादवों के प्रति मन में अत्यनत क्रोध लेकर प्रद्युम्न की सेना का सामना करने के लिये गया। वह अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को हिला देता था। द्विविद ने अपने नखों और दांतों द्वारा पताका और ध्वजपट्टों को चीर डाला। वे ध्वज कश्मीरी शालों से आवृत, मुद्राकिंत स्वर्णभूषित थे। उसने रथों को ऊपर उछाल दिया, हाथियों पर वेगपूर्वक चढ़कर घोड़ों को भगाया और वह वानरोचित किलकारियों के साथ भौंहे नचाकर सबको भयभीत करने लगा। इस प्रकार कोलाहल मच जाने पर धनुर्धरों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न बारंबार धनुष की टंकार करते हुए रथ पर आरुढ़ हो उसके पास आ गये।
मदमत द्विविद उस रथ के आसपास उछलने लगा और अपनी पूँछ से घोड़ा सहित रथ, ध्वज और छत्र को कम्पित करने लगा। प्रद्युम्न ने अपने धनुष की कोटि से उसका गला पकड़कर खींचा। तब अत्यनत कुपित हुए उस वानर ने उनके ऊपर मुक्के से प्रहार किया। तदननतर प्रद्युम्न ने विधिपूर्वक धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी और कान तक खींचकर छोड़ गये एक बाण से द्विविद को बींध दिया।
राजेन्द्र ! उस बाण ने आकाश में आधे पहर तक द्विविद को घुमाकर सौ योजन दूर लंका में गिरा दिया। वहाँ दो घड़ी तक राक्षसों के साथ उसका युद्ध हुआ और उसने राक्षसों को मार गिराया। राजन ! इधर यदुकुल-तिलक प्रद्युम्न ने दुनदुभिनाद करते हुए विजय प्राप्त करके शाल्व से भेंट ली और दक्षिण-मथुरा का दर्शन करके वे त्रिकूट पर्वत पर जा चढ़ा। उधर वानरराज द्विविद त्रिकूट से मैनाक के शिखर पर गया, मैनाक से सिंहल जाकर वह पुन: भारतवर्ष में आया। धीरे-धीरे वानरेनद्र द्विविद हिमालय पर गया और हिमालय के शिखर से प्राग्ज्योतिषपुर को जा पहुँचा।
यादवेश्वर प्रद्युम्न मल्लारदेश के अधिपति रामकृष्ण पर विजय पाकर महाक्षेत्र सेतुबनध तीर्थ में गये। महावीर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न शतयोजन विस्तृत ठहर गये। वहाँ साम्ब आदि भाइयों और अक्रूर आदि अपने यादवों को बुलाकर योगेश्वर प्रद्युम्न ने सभा में उद्धव से कहा
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 13
प्रद्युम्न बोले- भोजकुलतिलक मन्त्रिवर उद्धवजी ! परम तेजस्वी लोकापति विभीषण इस द्वीप का राजा तथा राक्षस-समूहों का सरदार है। यदि वह शीघ्र भेंट न दे तो बताइये, यहाँ हमें क्या करना चाहिये ?
उद्धवजी ने कहा- प्रभो ! आप देवाधिदेव पुरुषोत्तमोत्तम हैं। आप ही परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र हैं, तथापि आप साधारण लोगों की भाँति मुझ से पूछते हैं। बड़े-बड़े़ योगीश्वर भी आपकी माया का पार नहीं पाते। भूमन ! ब्रह्मा आदि देवता भी सदा पराजित होकर जिनके उत्तम अनुशासन का भार सदा अपने मस्तक पर ढ़ोते हैं, वही साक्षात पुरुषोत्तम आप हैं। मैं तो आपका दासानुदास हूँ, फिर मैं आपको क्या सलाह दूँगा ? ।
श्रीनारदजी कहते है- मैथिलेश्वर ! उद्धव के यों कहने पर श्रीहरिस्वरूप भगवान प्रद्युम्न ने एक ताड़पत्र लेकर उस पर अपना संदेश लिखा- ‘राक्षसराज ! तुम भोजराज उग्रसेन के लिये भेंट दो; यदि बलाभिमानवश तुम मेरी बात नहीं सुनोगे तो मैं धनुष से छोड़े गये बाणों द्वारा समुद्र पर सेतु बांधकर सैन्य समूह के साथ लंका पर चढ़ाई करुँगा। यह लिखकर प्रचण्ड-पराक्रमी प्रद्युम्न ने कोदण्ड हाथ में लिया और अपने पत्र को बाण में लगाकर उस बाण को कान तक खींचा और छोड़ दिया। उस धनुष की प्रत्यंचा को खींचने से बिजली की गड़गड़ाहट के समान टंकारध्वनि प्रकट हुई। उस नाद से पातालों तथा सातों लोको सहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा। प्रद्युम्न के धनुष से छूटा हुआ बाण सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ विद्युत के समान गिरते ही सब राक्षस चकित से होकर उठकर खडे़ हो गये। उन दुष्टों ने बड़े वेग से अपने कवच और शस्त्र ग्रहण कर लिये।
महाबली राक्षसराज विभीषण बाण से पत्र को खींचकर पढ़ गये। सभी में वह पत्र पढ़कर उन्हें बढा़ विस्मय हुआ। उसी समय उस राजसभा में शुक्राचार्य आ पहुँचे। विभीषण ने पाद्य आदि उपचारों द्वारा उनका पूजन किया और हाथ जोड़ प्रणाम करके कहा ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 13
विभीषण बोले- भगवान ! यह किसका बाण है ? भूतल पर भोजराज कौन हैं और उनका बल क्या है ; क्योंकि आप साक्षात दिव्यदृष्टि वाले हैं ।
श्रीशुक्र ने कहा- राक्षसराज ! इस विषय में पुराणवेत्ता विद्वान इस प्राचीन इतिहास का वर्णन किया करते हैं, जिसके सुनने मात्र से पापों का नाश हो जाता है। पूर्वकाल में ब्रह्माजी के पुत्र सनक आदि चार मुनि तीनों लोकों में भ्रमण करते हुए भगवान विष्णु के दिव्यलोक में गये। वे नंगे बालक के रूप में थे। उन्हें शिशु जानकर जय और विजय नामक द्वारपालों ने, जो अन्तपुर में पहरेदार थे, बेंत की छड़ी से रोक दिया। वे श्रीहरि के दर्शन की लालसा लेकर आये थे।
रोके जाने पर उन्हें क्रोध हुआ और उन्होंने उन दोनों द्वारपालों को शाप देते हुए कहा- ‘तुम दोनों दुष्ट हो; इसलिये असुर हो जाओ। तीन जन्मों के पश्चात शुद्ध होओगे। ‘इस प्रकार शाप प्राप्त करके वे दोनों अपने भवन से गिरे और भूमण्डल में आकर दैत्यों तथा दानवों से पूजित दिति पुत्र हुए। उनमें से ज्येष्ठ का नाम हिरण्यकशिपु था और छोटे का नाम हिरण्याक्ष। प्रलय के जल से पृथ्वी का उद्धार करने के लिये श्रीहरि यज्ञ-वाराह के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने महाबली हिरण्याक्ष नामक दैत्य को मुक्के से मार डाला और साक्षात ख्ण्ड-पराक्रमी नृसिंह होकर कयाधू- कुमार प्रहलाद की सहायता करते हुए हिरण्यकशिपु का उदर विदीर्ण कर दिया।
वे ही दोनों भाई फिर केशिनी के गर्भ से विश्रवा के पुत्र होकर उत्पन्न हुए, जो सम्पूर्ण लोकों को एक मात्र ताप देने वाले रावण और कुम्भकरण कहलाये। श्रीरामचन्द्रजी सायकों से घायल होकर वे दोनों युद्धभूमि में सदा के लिये सो गये। वे महान वेगशाली राक्षसराज रावण और कुम्भकर्ण तुम्हारी आंखों के सामने मारे गये थे। अब उनका तीसरा जन्म हुआ। इस जन्म में वे क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हैं। उनका नाम शिशुपाल और दन्तवक्र है। वे इस युग में भी बलवान हैं। उन दोनों के वध के लिये साक्षात परिपूर्णतम भगवान असंख्य-ब्रह्मण्डपति परात्पर गोलोकनाथ श्रीकृष्ण यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेन्द्र बहुत-सी लीलाएं करते हुए इस समय द्वारका में विराजमान हैं। युधिष्ठिर के महायज्ञ में शाल्व के साथ होने वाले युद्ध में माधव शिशुपाल और दन्तवक्र का वध कर डालेंगे, इसमे संशय नहीं है। उन्हीं के पुत्र शम्बरसूदन प्रद्युम्न दिग्विजय के लिये निकले हैं।
गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड : अध्याय 13
वे जम्बूद्वीव के समस्त राजाओं पर विजय प्राप्त करेंगे। उन सबके जीत लिये आने पर यदुकुल-तिलक भोजराज उग्रसेन द्वारा राजसूयज्ञ करेंगे। उन्हीं धनुष से बलपूर्वक छूट हुआ यह प्रचंड वेगशाली बाण यहाँ आया है। इस पर उनके नाम चिन्ह है। यह विद्युत की गड़गड़ाहट से भी अधिक आवाज करने वाला है। राक्षसराज ! सह बाण समस्त दिङमण्डल को उद्भासित करता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा करता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा है। नारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! राक्षसों के सरदार श्रीरामभक्त विभीषण ने यह जानकर कि भगवान श्रीकृष्ण साक्षात श्रीरामचन्द्रजी ही है, भेंट-सामग्री लेकर प्रद्युम्न की सेना के पास गये। उस समय शीघ्र ही आकाश से उतरकर मेघ के समान श्यामकान्ति से प्रकाशित होने वाले विशालकाय विजयदर्शी विभीषण श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न की परिक्रमा करके हाथ जोड़ उनके सामने खडे़ हो गये । विभीषण बोले- प्रभो ! आप साक्षात भगवान वासुदेव तथा सबके स्त्रष्टा हैं, आपको नमस्कार है। आप ही संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध हैं आपको प्रणाम है। मत्स्य, कूर्म और वराहावतार धारण करने वाले आप परमेश्वर को बारंबार नमस्कार है। श्रीरामचन्द्र को नमस्कार है। भृगुकुलभूषण परशुरामजी को बारंबार नमस्कार है। आप भगवान वामन को नमस्कार है। आप ही साक्षात नरसिंह है, आपको बारंबार नमस्कार है। आप शुद्ध-बुद्धदेव को नमस्कार है। सबकी पीड़ा हर लेने वाले कल्किरूप आप भगवान को मेरा नमस्कार है [1]। दूसरे को मान देने वाले विभीषण ने श्रीहरि के पुत्र प्रद्युम्न का बडे़ भक्ति भाव से सोलह उपचारों द्वारा पूजन किया। उस समय उनकी वाणी गद्गद हो रही थी। फिर परम संतुष्ट हुए प्रद्युम्न ने उनको वैराग्यपूर्ण ज्ञान, शान्तिदायिनी भक्ति तथा प्रेमलक्षणा परानुरक्ति प्रदान की। साथ ही ब्रह्माजी की दी हुई परम दिव्य पद्यराग निर्मित मस्तक मणि तथा पुलस्त्य पौत्र कुबेर द्वारा पूर्वकाल में दी हुई रत्नों की दीप्तिमती माला प्रदान की। फिर चन्द्रमा की दी हुई चन्द्रकान्त मणि तथा उत्तम पीताम्बर परम प्रभु प्रद्युम्न ने उन्हें अर्पित किये। तदनन्तर महाबली राक्षसराज विभीषण प्रद्युम्न को प्रणाम करके उन्हें भेंट देकर अपने पार्षदगणों के साथ लंकापुरी को लौट गये । इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘शाल्व, मल्लार एवं लंका पर विजय’ नामक तेरहवां अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 14
सह्यपर्वत के निकट दत्तात्रेय का दर्शन और उपदेश तथा महेन्द्र पर्वत पर परशुरामजी के द्वारा यादव सेना का सत्कार और श्रेष्ठ भक्त के स्वरूप का निरूपण
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्दतर श्रीकृष्णकुमार कामदेव स्वरूप प्रद्युम्न ऋषभ पर्वत का दर्शन करके श्रीरंग क्षेत्र में गये। फिर कांचीपुरी एवं सरिताओं में श्रेष्ठ प्राचीन का दर्शन करके, कावेरी नदी के पार जाकर सह्यगिरि के समीपवर्ती देशों में गये। भगवान प्रद्युम्न हरि के साथ यादवों की विशाल सेना भी थी। मैथिलेश्वर ! उन्होंने देखा कि उनके सैन्य-शिविर की ओर एक खुले केश वाला दिगम्बर अवधूत भागता चला आ रहा हैं। उसका शरीर हष्ट-पुष्ट है और उस पर धूल पड़ी हुई है। बालक उसके पीछे दौड़ रहे हैं और इधर-उधर तालियां पीट रहे हैं, कोलाहल करते हैं और हँसते हैं। उस अवधूत को देखकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न उद्धव से बोले ।
प्रद्युम्न ने कहा- यह हृष्ट–पुष्ट शरीरवाला कौन पुरुष बालक, उन्मत और पिशाच की भाँति भागा आ रहा है ? यह लोगों से तिरस्कृत होने पर भी हँसता है और अत्यन्त आनन्दित है।
उद्धव बोले- ये परमहंस अवधूत श्रीहरि के कलावतार साक्षात महामुनि दत्तात्रेय हैं, जो सदा आनन्दमय देखे जाते हैं। इन्ही के प्रसाद से पूर्ववर्ती उत्कृष्ट नरेश सहस्त्रार्जुन आदि तथा यदु एवं प्रह्लाद आदि ने परम सिद्धि प्राप्त की है।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर यदुकुल-तिलक प्रद्युम्न ने मुनि की पूजा और वन्दना करके दिव्य आसन पर बिठाकर उनसे प्रश्न किया ।
प्रद्युम्न बोले- भगवन् ! मेरे हृदय में एक संदेह है, प्रभो ! उसका नाश कीजिये। जगत का स्वरूप क्या है, ब्रह्म के मार्ग कौन हैं तथा तत्व क्या हैं ? यह सब ठीक-ठीक बताइये ।
दत्तात्रेय ने कहा- जब तक अन्धकार के कारण वस्तु दिखायी नहीं देती, तभी तक उल्का या मशाल की आवश्यकता होती है।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 14
जब महानन्द वश में हो जाय, तब उल्का का क्या प्रयोजन है। साधों ! जगत तभी तक टिका रहता है, जब तक तत्व का ज्ञान नहीं होता। परब्रह्म परमात्मा के ज्ञात या प्राप्त हो जाने पर जगत का क्या प्रयोजन है। जैसे मुख का प्रतिबिम्ब दर्पण में दिखायी देता है, परंतु वास्तविक शरीर उससे भिन्न है, उसी प्रकार प्रधान अर्थात प्रकृति में प्रतिबिम्ब चैतन्य जीव है, परंतु ज्ञान के आलोक में वह परात्पर परमात्मा सिद्ध होता है। जैसे सूर्योंदय होने पर सारी वस्तुएं नेत्र से दिखायी देती हैं। उसी प्रकार ज्ञानोदय होने पर ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार होता है। फिर जीव कहीं नहीं दृष्टिगोचर होता है।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उपेदश सुनकर यादवराज प्रद्युम्न ने उनको नमस्कार किया और सेना के साथ वे द्रविड़ देश में वैकुण्ठाचल के पास गये। द्रविड़ देश के स्वामी धर्मतत्वज्ञ राजर्षि सत्यवाक ने बड़ी भक्ति से प्रद्युम्न का आदर-सत्कार किया। फिर श्रीशैल का दर्शन करके वहाँ के अद्भुत शिवालय तथा स्कन्दस्वामी का दर्शन प्राप्त कर वे पम्पा-सरोवर गये। तदनन्तर श्रीद्वारकानाथ प्रद्युम्न गोदावरी ओर भीमरथी आदि भगवत तीर्थों का दर्शन करते हुए महेन्द्राचल पर गये। उस पर्वत पर क्षत्रियों का अन्त करने वाले भृगवंशी परशुरामजी विराजमान थे। उन्हें नमस्कार और उनकी परिक्रमा करके श्रीकृष्णनन्दन वहाँ खडे़ हो राजेंद्र !
परशुरामजी ने उन्हें आशीर्वाद देकर यादवों की चतुरंगिणी सेना का योगशक्ति से सत्कार किया। दाल, भात, चटनी, दही में भिगोयी हुई भाजी की पकोड़ियां, सिखरन, अवलेह (सिरका या अचार), पालक का साग, इक्षुभिक्षि (राब और चीनी का बना हुआ भोज्य पदार्थ विशेष), शक्कर के मेल से बना हुआ त्रिकोणाकार मिष्टान्न (गुझिया, समोसा आदि), बड़ा, मधुशीर्षक (मधुपर्क या घेवर आदि मिष्टान्न-विशेष) फेणिका (फेनी), उपरिष्ट (पुडीया पूआ आदि), छिद्रयुक्त शतपत्र (एक प्रकार की मिठाई), चक्राभचिह्निका (चक्राकार चिह्नवाली मिठाई, इमिरती आदि), सुधाकुण्डलिका (जलेबी), घृतपूर (घी की बनी हुई पूडी), वायुपूर (मालपूआ), चन्द्रकला, दधिस्थूली (दही में भीगकर फूली हुई बड़ी), कपूर से वासित खांड की बनी मिठाई , गोधूमपरिखा (खाजा), इनके साथ सुन्दर-सुन्दर फल, उत्तम दधि, मोदक शाक-सौधान (विविध शाकों के समुदाय), मण्ड (दूध की मलाई या झाग), खीर, दही, गाय का घी, ताजा मक्खन, मण्डूरी (सपग का रसा), कुम्हड़ा, पापड़, शक्ति का (शक्तिवर्धक पेय, द्राक्षासव आदि) लस्सी, सुवीराम्ल, (खट्टी कॉजी), सुधारस (शहद या मीठा शर्बत) उत्तमोत्तम फल, मिश्री, नाना प्रकार के फल, मोहनभाग (हलुआ), नमकीन पदार्थ, कसैले, मीठे, तीखे, कड़वे और खट्टे अनेक प्रकारके भोज्य पदार्थों इन सबको छप्पन भोग कहा गया है।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 14
भृगुकुल-भूषण परशुरामजी ने अपने योगबल से इन सब पदार्थों के पर्वत जैसे ढेर लगा दिये। सारी सेना भोजन कर चुकी, तब भी वहाँ वे खाद्य पदार्थों के पर्वत हाथ भर भी छोटे नहीं हुए। परशुरामजी का यह वैभव देखकर सब लोग अत्यन्त आश्चर्य चकित हो गये। राजन् ! यादवों सहित श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न ने उस समय परशुरामजी को नमस्कार करके सबके सामने इस प्रकार पूछा ।
प्रद्युम्न बोले- भगवन्! अपने हम सब लोगों को अत्यन्त उत्तम भोजन प्रदान किया। प्रभो ! सारी समृद्धियां और सिद्धियां आपके चरणों में लोटती हैं। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि समस्त हरि भक्तों में श्रीहरि का प्रिय भक्त कौन है ? विप्रेन्द ! यह मुझे बताइये क्योंकि आप परावरवेत्ताओं में सबसे श्रेष्ठ है।
परशुरामजी ने कहा- प्रभो ! आप क्या नहीं जानते, तो भी साधारण लोगों की भाँति पूछते हैं। लोगों को शिक्षा देने के लिये ही आप इस तरह सत्संग करते हुए भूतल पर विचरते हैं। जो अकिंचन है
जिसके पास कोई संग्रह परिग्रह नहीं है, जो केवल श्रीहरि के चरणारविन्दों के पराग पर ही लुब्ध है, श्रीहरि की सुन्दर कथा के श्रवण कीर्तन में ही तत्पर रहता है तथा जिसका चित्त भगवान के रूप सिन्धु की लहरों में ही डूबा रहता है, वही श्रीकृष्णचन्द्र का प्रिय भक्त कहा गया है। परमेश्वर ! जिस महापुरुष ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर रखा है, जो समस्त जंगम प्राणियों के प्रति स्नेह एवं दया का भाव रखता है, जो शान्त, सहनशील, अत्यन्त कारुणिक सबका सुहृद एवं सत्पुरुष है, वही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का प्रिय भक्त कहा गया है।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 14
वह अपने चरणों की धूलि से सम्पूर्ण जगत को पवित्र करता है। जो निरन्तर परमेश्वर श्रीहरि के चरणों की धूलि का आश्रय ले, सम्पूर्ण ब्रह्मपद, इन्द्रपद, चक्रवर्ती सम्राट के पद रसातल के आधिपत्य, योगसिद्धि और मोक्ष की कभी भी इच्छा नहीं करता, वही भगवान का श्रेष्ठ भक्त है। जो अकिंचन है, जिसको अपने किये हुए कर्मों के फल से विरक्ति है तथा जो श्रीहरि की चरणरज में ही आसक्त हैं, वे महामुनि भगवदीय भक्तजन ही भगवान के उस परमपद का सेवन करते हैं।
अन्य लोग उस नैरपेक्ष्य सुख का अनुभव नहीं कर पाते। भगवान पुरुषोत्तम को अपने भक्त से बढ़कर प्रिय कोई नहीं जान पड़ता। न शिव, न ब्रह्मा, न लक्ष्मी और न रोहिणीनन्दन बलरामजी ही उन्हें भक्त से अधिक प्रिय हैं। भक्तों ने उनके मन को बांध रखा है, अत: सकल लोकजनों के चूड़ामणि भगवान श्रीकृष्ण सदा भक्तों के पीछे-पीछे चलते है। अपने भक्तजनों के पीछे चलते हुए भगवान परमात्मा श्रीकृष्ण उनके प्रति अपनी रुचि- अपना अनुराग सूचित करते हैं और समस्त लोको को पवित्र करते हैं। इसीलिये भगवान मुकुन्द अतिशय भजन करने वाले लोगों को मोक्ष तो दे देते हैं, परंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन! यह उपदेश सुनकर यादवेन्द्र प्रद्युम्न ने श्रीभार्गव कुलभूषण परशुरामजी को नमस्कार किया और वहाँ से पूर्व दिशा में विद्यमान गंगासागर-संगम की ओर प्रस्थान किया ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘द्रविड़ देश पर विजय’ नामक चौदहवां अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड : अध्याय 15
उड्डीश-डामर देश के राजा, वंगदश के अधिपति वीर धन्वा तथा असम के नरेश पुण्ड्र पर यादव-सेना की विजय श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! दिग्विजय के बहाने भूभार-हरण करने वाले साक्षात भगवान प्रद्युम्न अंगदेश को गये। अंगदेश का स्वामी केवल अन्त:पुर का अधिपति होकर वन में विहार करता था। वहाँ यादवों ने उसे जा पकड़ा तब उसने महात्मा प्रद्युम्न को पर्याप्त भेंट दी । उड्डीश-डामर (उड़ीसा) देश के राजा महाबली बृहदबाहु ने प्रद्युम्न को भेंट नहीं दी। वह अपने बल के अभिमान से मत्त रहता था। प्रद्युम्न ने जाम्बवती-कुमार वीरवर साम्ब को उसे वश में करने के लिये भेजा। साम्ब सूर्यतुल्य तेजस्वी रथ पर आरुढ़ हो, धनुष हाथ में ले अकेले ही गये। नरेश्वर उन्होंने बाण-समूहों से डामर नगर को उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे मेघ तुषार राशि से किसी पर्वत को चारों से ढक देता है। इस प्रकार धर्षित एवं पराजित हेकर डामराधीश ने तत्काल हाथ जोड़ लिये और महात्मा प्रद्युम्न को नमस्कार करके भेंट अर्पित की । तत्पश्चात् वंगदश के अधिपति मदमत्त एवं वीर राज वीरधन्वा एक अक्षौहिणी सेना के साथ युद्ध के लिये यादव-सेना के सम्मुख आये। वे बडे़ बलवान थे। यादवों की ओर से श्रीहरि के पुत्र चन्द्रभानु ने प्रद्युम्न को देखते-देखते वीरधन्वा की उस सेना को बाणों द्वारा उसी प्रकार विदीर्ण कर दिया, जैसे कोई कटु वचनों द्वारा मित्रता का भेदन कर दे। उनके बाणों से विदीर्ण हुए हाथियों के मस्तक से चमकते हुए मोती भूमि पर इस प्रकार गिरने लगे, मानो रात में आकाश से तारे बिखर रहे हो अनेक रथी वीर धराशायी हो गये। हाथी-घोड़े और पैदल सैनिक उनके बाणों से मस्तक कट जाने कारण कुम्हडे़ के टुकड़ों– जैसे इधर-उधर गिरे दिखायी देते थे। क्षणभर में वीरधन्वा की रक्त की नदी के रूप में परिणत हो गयी, जो मनस्वी वीरों का हर्ष बढ़ाती और डरपोकों को भयभीत करती थी । कटे हुए मस्तक और धड़ किरीट, कुण्डल, केयूर, कंगन और अस्त्र-शस्त्रों सहित दौड़ रहे थे। उनके कारण वहाँ की भूमि महामारी सी प्रतीत होती थी। कूष्माण्ड, उन्माद, वेताल, भैरव तथा ब्रह्मराक्षस बडे़ वेग से आकर शंकरजी के गले की मुंडमाला बनाने के लिये वहाँ पर गिरे हुए मस्तकों को उठा लेते थे।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 15
इस तरह जब सारी सेना मार गिरायी गयी, तब वीरधन्वा सामने आये, उन्होंने तुरंत ही वज्र-सरीखी गदा से चन्द्रभानु पर चोट की। उस गदा के भारी प्रहार से श्रीकृष्णकुमार चन्द्रभानु विचलित नहीं हुए; उन्होंने गदा लेकर तत्काल वीरधन्वा की छाती पर दे मारी। उस गदा के प्रहार से पीड़ित एवं मूर्च्छित हो मुँह से रक्त वमन करते हुए वीरधन्वा कटे हुए वृक्ष की भाँति भूतल पर गिर पडे़। दो घड़ी में उनको फिर चेतना हुई, तब उन वंगदेश के नरेश ने महात्मा प्रद्युम्न की शरण ली ।
राजन् ! जब भेंट देकर वीर धन्वा अपने नगर को चले गये, तब अमित-पराक्रमी प्रद्युम्न ब्रह्मपुत्र नद पर करके असम देश मे गये। वहाँ राजा बिम्ब को पकड़कर यादवेश्वर प्रद्युम्न ने भेंट ली और यादवों के साथ कामरूप देश में गये। कामरूप देश के राजापुण्ड इन्द्रजाल की विद्या में बडे़ निपुण थे। वे अपनी सेना के सारथी प्रद्युम्न के सामने युद्ध के लिये निकले। उस समय असमियों और यादवों में घोर युद्ध हुआ। बाण, कुठार, परिघ, शूल, खड्ग, ॠष्टि तथा शक्तियों से प्रहार किया गया।
मैथिलेश्वर ! तदनन्तर राजा पुण्ड ने पिशाच, नाग तथा राक्षसों की माया प्रकट की फिर तो सब ओर गुह्यक, गन्धर्व तथा कच्चे मांस चबाने वाले पिशाच रणभूमि में दौड़ने तथा बारंबार कोटि-कोटि अंगारों की वृष्टि करने लगे। एक ही क्षण में यादवों की सेना पर मुँह से विष वमन करते और फुंकारते हुए सर्प टूट पडे़।
गधे पर बैठे हुए टेढे़-मेढ़े दाँत और लपलपाती हुई जीभ वाले भयंकर राक्षस युद्ध में मनुष्यों को चबाते तथा भागते दिखायी देने लगे। सिंह के समान मुख वाले यक्ष तथा अश्वमुख किंनर हाथों में शूल लिये ‘मारो-काटो’ कहते हुए इधर-उधर विचरने लगे। क्षणभर में सारा आकाश मेघों की घटा से आच्छादित हो गया।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 15
राजन ! वायु के वेग से उड़ी हुई धूल के कारण सब ओर अन्धकार छा गया। भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन तथा दशार्ह वंश के योद्धा उस माहयुद्ध में भयभीत हो गये। यदुश्रेष्ठ! वीरों ने अपने अस्त्र-शस्त्र नीचे डाल दिये ।
मैथिल ! तब इस भय के निवारण का उपाय जानने वाले श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न ने पिता के दिये हुए धनुष को हाथ मे ले कर बाणों द्वारा सात्त्विक महाविद्या का प्रयोग किया। फिर जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहासे तथा बादलों को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं, उसी प्रकार प्रद्युम्न बाणों द्वारा पिशाचों, नागों, यक्षों, राक्षसों तथा गन्धर्वों को नष्ट कर दिया। जैसे हवा कमल को उड़ाकर पृथ्वी पर फेंक देती है, उसी प्रकर प्रद्युम्न ने बाणों द्वारा रथ और वाहन सहित शत्रुराजा पुण्ड को दो घड़ी तक आकाश में घुमाकर रणभूमि में पटक दिया।
राजा की मूर्च्छा दूर होने पर वे पराजित हो प्रद्युम्न की शरण में गये और तत्काल भेंट देकर उन्होंने श्रीकृष्णकुमार को प्रणाम किया। वहाँ से अपनी सेना द्वारा शोणनद और विपाशा (व्यास) नदी पर करते हुए यदुकुलनन्दन धनुर्धर वीर प्रद्युम्न केकय देश में आ पहुँचे। केकय देश के राजा महाबली धृतकेतु वसुदेव की बहिन साक्षात श्रुतकीर्ति के महान पति थे। उन्होंने यादवों सहित प्रद्युम्न का बडे़ भक्ति-भाव से पूजन किया। राजन् ! वे श्रीकृष्ण के प्रभाव को जानते थे ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘केकय देश पर विजय’ नामक पन्द्रहवां अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 16
मिथिला के राजा धृति द्वारा ब्रह्मचारी के रूप में पधारे हुए प्रद्युम्न का पूजन, उन दोनों का शुभ संवाद; प्रद्युम्न का राजा को प्रत्यक्ष दर्शन दे, उनसे पूजित हो शिविर में जाना
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन! वहाँ से विजय दुन्दुभि बजवाते हुए यदुनन्दन प्रद्युम्न तुम्हारे सुख सम्पन्न मिथिला देश में आये। कलश-शाभित अत्यन्त ऊँचे स्वर्णमय सौधशिखरों से युक्त मिथिलापुरी को दूर से देखकर प्रद्युम्न ने उद्धव से पूछा।
प्रद्युम्न बोले- मन्त्रिवर ! इस समय वह किसकी राजधानी मेरी दृष्टि में आ रही है, जो बहुसंख्यक महलों से भोगवती पुरी की भाँति शोभा पाती है।
उद्धव ने कहा- मानद ! यह राजा जनक की पुरी मिथिला है। इस समय यहाँ मिथलानरेश महाभागवत विद्वान धृति रहते है। वे समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ हैं।
श्रीकृष्ण उनके इष्टदेव हैं और वे स्वयं भी श्रीहरि को बहुत प्रिय हैं। उनके पुत्र का नाम बहुलाश्व है, जो बचपन से ही भगवान ही भक्ति करने वाला है। उसे दर्शन देने के लिये साक्षात भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारेंगे। राजकुमार बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेव को द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण बहुत याद किया करते हैं। प्रभो ! इन्हें देवेन्द्र भी नहीं जीत सकते, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या; क्योंकि धृति ने अपनी परा भक्ति से श्रीकृष्ण को वश में कर लिया है।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन! यह सुनकर भगवान श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न उद्धवजी को अपना शिष्य बनाकर उनके साथ राजा धृति का दर्शन करने के परीक्षा करने के लिये ही मिथिलापुरी को देखा। वहाँ के सभी वीर कवच और शस्त्र धारण करके माला ओर तिलक से सुशोभित थे। वे सब-के-सब माला द्वारा श्रीकृष्ण नामक जप करते थे। मिथिला के लोगों के द्वार-द्वार पर श्री हरि के नाम लिखे थे और श्रीकृष्ण के सुन्दर-सुन्दर चित्र अंकित थे। वहाँ घरों की प्रत्येक दीवार पर गदा, पद्म, दसों अवतार के चित्र और शंक, चक्र अंकित थे। घर-घर के आंगन में तुलसी के मन्दिर दिखायी देते थे ।इस तरह मिथला के महलों को देखते हुए उन्होंने वहाँ के लोगों पर भी दृष्टिपात किया, जो सब-के-सब माला तिलकधारी भगवदभक्त थे। उन्होंने केसर अथवा कुमकुम के बारह-बारह तिलक लगा रखे थे।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 16
वहाँ के ब्राह्मण गोपीचन्द की मुद्राओं से चर्चित, शान्तस्वरूप तथा ऊर्ध्वपुण्डाधारी थे। उनके अंगों पर हरिमन्दिर के चित्र अंकित थे। कितने ही लोगों ने मस्तक पर धनुष और बाण के चित्र तथा हृदय में नन्दक नामक खड्ग, मुसल और हल के चिन्ह धारण कर रखे थे ।
राजन् ! तदनन्तर प्रद्युम्न ने देखा- वहाँ की गली-गली में कुछ मुनष्य भागवत सुन रहे हैं। दूसरे लोग हरिवंश और महाभारत नामक इतिहास श्रवण कर रहे हैं।
कुछ लोग सनत्कुमार संहिता, पराशर संहिता, गर्ग संहिता, पौलस्त्य संहिता और धर्म संहिता आदि का पाठ कर रहे हैं।
ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण, गरुड़पुराण, नारदीयपुराण, भगवतपुराण, अग्निपुराण, वामनपुराण, नारदीयपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्णपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, वामनपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वाराहपुराण, मत्स्यपुण, कूर्म पुराण तथा ब्रह्मण्डपुराण- इन सब पुराणों को गली-गली में, घर-घर में वहाँ के सब लोग सुनते थे।
कुछ लोग श्रीरामचरणामृत से पूर्ण वाल्मीकि के महाकाव्य रामायण का पाठ करते थे। कुछ लोग स्मृतियों के और कुछ ब्राह्मण वेदत्रयी के स्वाध्याय में लगे थे। कुछ लोग मंगलधाम वैष्णव यज्ञ का अनुष्ठान करते थे। कितने ही मनुष्य राधाकृष्ण, कृष्ण-कृष्ण आदि नामों का बारंबार कीर्तन करते थे। कुछा लोग हरिकीर्तन में तत्पर रहकर नाचते और गाते थे। वहाँ के प्रत्येक मन्दिर में मृदंग ताल, झाँझ और वीणा आदि मनोहर वाद्यों के साथ लोगों द्वारा किया जाने वाला हरिकीर्तन सुनायी पड़ता था। राजन् ! मिथिला के घर-घर में वहाँ के निवासी प्रेमलक्षणा नवधाभक्ति करते थे।
इस प्रकार नगरी का दर्शन करके भगवान प्रद्युम्न हरि ने राजद्वार पर पहुँचकर शीघ्र ही मैथिलेश की सभा में वेदव्यास, शुकमुनि, याज्ञवल्क्य, वसिष्ठ, गौतम, मैं और बृहस्पति बैठे थे। दूसरे भी धर्म के वक्ता तथा हरिनिष्ठ मुनि वहाँ मूर्तिमानवेद की भाँति इधर-उधर बैठे दिखायी देते थे। नरेश्वर मैथिलेन्द्र धृति वहाँ भक्तिभाव नतमस्तक होकर बलदेवजी की चरणपादुका की विधिवत पूजा कर रहे थे। वे श्रीकृष्ण और बलदेव के मुक्तिदायक नामों का जप भी करते जाते थे। शिष्य सहित ब्रह्मचारी को आया देख राजा ने उठकर नमस्कार किया। उनकी पाद्य आदि उपचारों से विधिवत पूजा करके मैथिलेश्वर राजा धृति दोनों हाथ जोड़कर उनके आगे खडे़ हो गये ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 16
जनक ने कहा- भगवान ! आपके पदार्पण से आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरा राजभवन शुद्ध एवं परमोज्ज्वल हो गया, देवता, ऋषि और पितर सब संतुष्ट हो गये। भगवान ! आप जैसे निर्भ्रान्त और समदर्शी साधु भूतल पर दीनजनों का कल्याण करने के लिये ही विचरते हैं ।
ब्रह्मचारी बोले- राजसिंह ! आप धन्य हैं, आपकी यह मिथलापुरी धन्य है तथा विष्णु–भक्ति से भरपूर आपकी सारी प्रजा भी धन्य है।
जनक ने कहा- प्रभो ! न तो यह नगरी मेरी है, न प्रजा मेरी है और न गृह तथा धन-धान्य मेरे हैं। स्त्री, पुत्र और पौत्रादि मेरे पास जो कुछ है, वह सब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति होकर गोलोकधाम में विराजते है। वे पुरुषोत्तम एक होकर भी स्वयं ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इन चार व्यूहों के रूप में भूतल पर प्रकट हुए हैं। महामुने ब्राह्मन् ! शरीर, मन, वाणी, बुद्धि अथवा समस्त इन्द्रियों द्वारा मैंने जो भी पुण्यकर्म किया है, वह सब भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है।
ब्रह्मचारी ने कहा- महाभाग, विष्णुभक्त शिरोमणे, विदेहराज ! तुम्हारी भक्ति से संतुष्ट हो भगवान श्रीकृष्ण तुम्हें सायुज्य मोक्ष प्रदान करेंगे ।
जनक बोले- ब्रह्मन ! मैं आप- जैसे श्रीकृष्णभक्त महात्माओं का दास हूँ। मैंने अपने मन में किसी हेतु अथवा कामना को स्थान नहीं दिया है अत: मैं एकत्व या सायुज्यरूपा मुक्ति नहीं पाना चाहता ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 16
ब्रह्मचारी ने कहा- राजन ! तुम हेतु रहित होकर अहैतु की भक्ति करते हो, अत: निर्गुण भक्ति-भाव होकर कारण तुम प्रेम के लक्षणों से सम्पन्न हो। साक्षात भगवान प्रद्युम्न दिग्विजय के लिये निकले हैं। वे आपके घर पर क्यों नहीं आये- इस बात को लेकर मेरे मन में महान संदेह हो गया है।
जनक बोले- भगवान प्रद्युम्न साक्षात अन्तर्यामी स्वयं श्रीहरि है। वे सदा, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं। फिर बताइये तो सही, क्या वे यहाँ नहीं है ? ।
ब्रह्मचारी ने कहा- यदि ज्ञानदृष्टि से भी तुम श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न को यहाँ निरन्तर स्थित मानते हो तो दिव्य दृष्टि वाले प्रह्लाद की भाँति तुम उनका यहाँ प्रत्यक्ष दर्शन कराओ ।
श्रीनारदजी कहते हैं- बहुलाश्व ! यह सुनकर महाभागवत राजा धृति ने अपने मुख पर अश्रुधारा बहाते हुए गद्गद वाणी में कहा ।
जनक बोले- यदि मेरे द्वारा भगवान श्रीहरि की इस भूतल पर अहैतु की भक्ति की गयी है तो श्रीहरि के पुत्र प्रद्युम्न मरे सामने प्रकट हो जायँ। यदि मुझ पर उनकी कृपा हो ओर यदि सर्वत्र मेरी श्रीकृष्णबुद्धि हो तो मेरा यह मनोरथ पूर्ण हो जाय
श्रीनारदजी कहते हैं- बहुलाश्व ! उनके इतना कहते ही श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न तत्काल ब्रह्मचारी का रूप छोड़कर सबके देखते-देखते अपने साक्षात स्वरूप से प्रकट हो गये। हरिभक्तिनिष्ठ शिष्य उद्धव भी गद्गद हो गये। मेघों के समान श्याम कांति, प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल नेत्र, लंबी-लंबी भुजाएं, जगत के लोगों का मन हर लेने वाला रूप सबके सामने प्रकट हो गया। उनके श्री अंगों पर पीताम्बर शोभा दे घुँघराली अलकावलियों से अलंकृत था। शिशिर-ऋतु के बालरवि के समान कान्तिमान किरीट, दिव्य कुण्डल, करधनी और बाजूबंद आदि से उका दिव्य विग्रह उद्भासित हो रहा था। श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न को इस प्रकार देखकर राजा धृति ने उनको हाथ जोड़कर साष्टांग प्रणाम किया ।
जनक बोले- भूमन ! मेरा सौभाग्य महान एवं अत्यंत धन्य है। अहो ! आज आपने मुझे अपने स्वरूप का साक्षात दर्शन कराया। आज मेरी महिमा कयाधू कुमार प्रह्लाद के समान बढ़ गयी। आज मैं अपने कुल सहित कृतार्थ हो गया ।
श्रीप्रद्युम्न ने कहा- नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, मेरे प्रभाव को जानने वाले भक्त हो। मैं इस समय तुम्हारे भक्तिभाव की परीक्षा के लिये ही यहाँ आया था। मैथिलेश्वर ! आज ही तुम्हें मेरा सारुप्य प्राप्त हो जाय और इस लोक में तुम्हारे बल, आयु और कीर्ति का अत्यन्त विस्तार हो ।
नारदजी कहते हैं- राजन ! तुम्हारे पिता धृति से पूजित हो भक्तवत्सल भगवान प्रद्युम्न वहाँ आये हुए संतों के सामने ही अपने शिविर की ओर चले गये ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘जनक का उपाख्यान’ नामक सोलहवां अध्याय पूरा हुआ
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 17
मगध देश पर यादवों की विजय तथा मगधराज जरासंध की पराजय
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर मत्स्य के चिन्ह से सुशोभित ध्वजा फहराते हुए प्रद्युम्न मगधदेश पर विजय पाने के लिये अपनी सेना के साथ तुरंत गिरिवज्र की ओर चल दिये। श्रीहरि के पुत्र प्रद्युम्न को, विशेषत: दिग्विजय के लिये, आया सुनकर मगध राजा जरासंध को बड़ा क्रोध हुआ।
जरासंध बोला- समस्त यादव अत्यन्त तुच्छ और युद्ध से डरने वाले कायर हैं। वे ही आज पृथ्वी पर विजय पाने के लिये निकले हैं। जान पड़ता है, उनकी बुद्धि मारी गयी है। इस दुरात्मा प्रद्युम्न का पिता माधव स्वयं मेरे भय से अपनी पूरी मथुरा छोड़कर समुद्र की शरण में जा छिपा है। प्रवर्षण गिरि पर मैंने बलराम और कृष्ण को बलपूर्वक भस्म कर दिया था, किंतु ये छलपूर्वक वहाँ से भाग निकले और द्वारका में जाकर रहने लगे। अब मैं स्वयं कुशलस्थली पर चढ़ाई करुँगा और उन दोनों भाइयों को उग्रसेन सहित बांध लाऊँगा। समुद्र से घिरी हुई इस पृथ्वी को यादवों से शून्य कर दूँगा।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर बलवान राजा जरासंध तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ गिरिव्रज नगर से बाहर निकला। मगधराज के साथ हाथियों के मुख पर गोमूत्र, सिन्दूर राशि एवं कस्तूरी द्वारा पत्र रचना की गयी थी। वे हाथी ऐरावत-कुल में उत्पन्न होने के कारण चार दांतों से सुशोभित थे और सूँड की फुफकारों से बहुसंख्यक वृक्षों को तोड़कर फेंकते चलते थे। उन गजराजों से मगधराज की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे मेघों से भगवान इन्द्र की होती है।
राजन ! देवताओं के विमानों के समान आकार वाले अगणित रथ उसके साथ चल रहे थे, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे, सारण बैठे थे, चँवर डुल रहे थे और चंचल पहियों से घर्र-घर्र ध्वनि प्रकट हो रही थी। वायु के समान वेगशाली तथा विचित्र वर्ण वाले मदमत अश्व सुनहरे पट्टे और हर आदि से सुशोभित थे। उनकी शिखाओं एवं बागडोरों के ऊपरी भाग में चँवर सुशोभित थे।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 17
कवच धारण किये तथा हाथों में ढाल-तलवार एवं धनुष लिये वीरजन विद्याधरों के समान शोभा पाते थे। उन सबके साथ महाबली मगधराज युद्ध के लिये निकला। दुन्दुभियों की धुंकारों और धनुषों की टंकार से दिशाएं निनादित हो रही थी। धरती डोलने लगी और सैनिकों द्वारा उड़ायी गयी धूल से आकाश छा गया। मैथिल ! जरासंध की वह सेना उमड़ते हुए प्रलयसागर के समान भयंकार थी। उसे देखकर समस्त यादव विस्मित हो गये।
मगधराज के उस सैन्य-सागर को देखकर भगवान प्रद्युम्न ने दक्षिणावर्त शंक बजाया और उसी के द्वारा माने अपने योद्धाओं को अभयदान देते हुए कहा- ‘डरोमत। ‘तदनन्तर महाबाहु साम्ब प्रद्युम्न के सामने ही दस अक्षौहिणी सेना लेकर मगध राज के साथ युद्ध करने लगे। उस रणभूमि में हाथी हाथियों से और रथी रथियों से जूझने लगे। मैथिलेश्वर ! घोडे़ घोड़ों से और पैदल पैदलों से भिड़ गये। मागधों और यादवों में देवताओं और दानवों के समान अद्भुत रोमांचकारी एवं भयंकर युद्ध होने लगा। कुछ घुड़सवार वीर हाथों में भाले लिये इधर-उधर मार-काट मचाते हुए गजारोहियों तथा हाथियों के कुम्भस्थलों पर बैठे हुए महावातों को भी मार गिराते थे। कुछा योद्धा विद्युत के समान दीप्तिमती शक्तियों को लेकर बलपूर्वक शत्रुओं पर फेंकते थे।
वे शक्तियाँ कवचधारी शत्रुओं को भी विदर्ण करके धरती में समा जाती थीं। कितने ही वीर रणभूमि में गरजते हुए रथों के चक्के उठा-उठाकर फेंकते थे और सैनिकों के समूहों को उसी प्रकार छिन्न–भिन्न कर देते थे, जैसे सूर्य कुहासे को नष्ट कर देते हैं। कुछ लोग भिन्दिपालों, मुद्गरों, कुल्हाडियों, तलवारों, पट्टिशों, छुरों, कटारों, रिष्टियों तथ तीखे निस्त्रिशों (खड्गों) से युद्ध करते हैं। तोमरों, गदाओं और बाणों से कटकर वीरों, हाथियों और घोड़ों के मस्तक पृथ्वी पर गिर रहे थे। वहाँ केवल धड़ हाथ में खड्ग लिये संग्राम में दौड़ते हुए बडे़ भयंकर प्रतीत होते थे और घोड़ों तथा मनुष्यों को धराशायी करते हुए उछलते थे। वीरो के ऊपर वीर गिर रहे थे। उनकी भुजाएं छिन्न-भिन्न हो गयी थीं। कितने ही घोड़े बाणों से गर्दन कट जाने के कारण घोड़ों पर ही गिर पड़ते थे।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 17
विद्याधर ओर गन्धर्व के जाति की स्त्रियां वीरगति को प्राप्त हुए योद्धाओं को दिव्य रूप से आकाश में पहुँचने पर उन्हें अपना पति बना लेना चाहती थीं। इसके लिये उन सबों में परस्पर महान कलह होने लगता था। नरेश्वर ! कितने ही क्षत्रिय-धर्म परायण और सदा ही संग्राम में शोभा पाने वाले योद्धा युद्ध में प्राण दे देते थे, किंतु एक पग भी पीछे नहीं हटते थे। वे सूर्यमण्डल का भेदन करके परमपद को प्राप्त हो जाते थे और शिशुमार चक्र में उसी प्रकार नाचते थे, जैसे मण्डलाकार भूमि पर नट।
इस प्रकार साम्ब के महावीर सैनिकों ने मगध सेना को रौंद डाला। वह सेना उनके देखते-देखते उसी प्रकार भाग चली, जैसे भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति से अशुभ नष्ट हो जाता है। किन्हीं के कवच कट गये थे ताथा किन्ही के धनुष कितने ही सैनिक खड्ग और रिष्टियों को हाथ से फेंककर पीठ दिखाते हुए भाग रहे थे।अपनी सेना को पलायन करती देख मगधराज धनुष की टंकार करता हुआ वह आया और सबको अभयदान देते हुए बोला- ‘डरो मत’। जरासंध ने धनुष की प्रत्यंचा द्वारा अपनी सेना को आगे बढ़ने की उसी प्रकार प्रेरणा दी, जैसे कोई महावत अंकुश से हाथी को हांक रहा हो। इसी समय साम्ब भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने धनुष से छा हुए दस बाणों द्वारा महाबली मगध राजा को समरभूमि में घायल कर दिया।
फिर जाम्बवती कुमार साम्ब ने उसके धनुष की प्रत्यंचा को, जो सागर के उत्ताल तरंगों के भयानक संघर्ष की भाँति शब्द करने वाली थी, दस बाणों से छिन्न-भिन्न कर डाला। तदनन्तर महाबली जरासंध ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर दस अग्रगामी बाणों द्वारा साम्ब के धनुष को काट डाला। धनुष के कट जाने पर तथा घोड़ों और सारथि के मारे जाने पर रथहीन हुए महाबली साम्ब दूसरे रथ पर चढ़ गये और अत्यन्त उग्र धनुष पर विधिपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ाकर उन्होंने सौ बाणों द्वारा जरासंध क रथ को चूर-चूर कर दिया। उस समय जरासंध रथ छोड़कर बडे़ वेग से हाथी पर चढ़ गया। उस हाथी पर मागधेन्द्र की वैसी ही शोभा हुई जैसे ऐरावत पर चढ़े हुए इन्द्र की होती है।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 17
जरासंध के मन में अत्यन्त क्रोध भरा हुआ था। उसने साम्ब पर एक मतवाले हाथ को बढ़ाया, जिसके अंग-अंग में विचित्र पत्र-रचना की गयी थी तथा जो देखने में काल, अन्त तक और यम के समान भयंकर थे। उस नागराज ने अपनी सूँड़ से रथसहित साम्ब को उठाकर चीत्कार करते हुए नौ योजन दूर फेंक दिया। मैथिल ! उस समय साम्ब की सेना में बड़ा भारी कोलाहल मच गया। फिर तो प्रद्युम्न के पास से गद वेगपूर्वक उसी प्रकार उसकी सेना के सामने आये।
जैसे सूर्य अन्धकार का नाश करते हुए उदयाचल से उदित हुए हों। जरासंध के उस हाथी को वसुदेवनन्दन गद ने मुक्के से इस प्रकार मारा, जैसे इन्द्र ने ऊँचे पर्वत पर वज्र से प्रहार किया हो। उनके मुष्टि प्रहार से व्याकुल होकर वह हाथी धरती पर गिर पड़ा।
राजन ! वह उसी समय मृत्यु का ग्रास बन गया। वह अद्भुत सी बात हुई। तब जरासंध ने उठकर बडे़ वेग से गदा उठायी और उसे सहसा गद पर दे मारी। उस समय उस बलवान वीर ने घन के समान गर्जना की, किंतु उसके प्रहार से गद समरांगण से तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने तुरंत ही लाख भार की बनी हुई गदा लेकर जरासंध पर प्रहार किया और सिंह के समान गर्जना की।
राजन! उनके उस प्रहार से व्यथित हो बलवान बृहद्रथ कुमार जरासंध ने उठकर गदा सहित गद को पकड़ लिया और बडे़ रोष के साथ आकाश में सौ योजन दूर फेंक दिया। तब महाबली गद ने भी जरासंध को उठाकर घुमाया और आकाश मे एक सहस्त्र योजन दूर फेंक दिया। राजा मगध आकाश से विन्ध्यपर्वत पर गिर पड़ा।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 17
महाबली जरासंध ने पुन: उठकर गद के साथ युद्ध आरम्भ किया। उसी समय साम्ब आ पहुँचे। उन्होंने मगधेश्वर जरासंध को पकड़कर पृथ्वी पर उसी प्रकार पटक दिया, जैसे एक सिंह दूसरे सिंह को बलपूर्वक पछाड़ दे। तब मगध के राजा ने एक मुक्के से साम्ब को और दूसरे मुक्के से गद को मारा और समरांगण में बडे़ जोर से गर्जना की। उसके मुक्के की मार से व्यथित हो गद और साम्ब दोनों मूर्च्छित हो गये। उस समय युद्धभूमि में तत्काल ही महान हाहाकार मच गया।
फिर तो यादवराज प्रद्युम्न ऊँची पताका वाले रथ के द्वारा एक अक्षौहिणी सेना के साथ वहाँ पहुँचे और ‘डरो मत’ यों कहकर सबको अभयदान दिया। उन्हें देख जरासंध ने लाख भार की बनी हुई गदा हाथ में ली और जैसे जंगल में दावानल फैल जाता हैं, उसी प्रकार उसने यादव सेना में प्रवेश किया।
राजेन्द्र ! उसने वीरों सहित रथों, हाथियों तथा बहुत से सिंधी घोड़ा को इस तरह मार गिराया, मानो किसी महान गजराज ने बहुत-से कमलों को उखाड़ फेंका हो। जरासंध की सेना भाग गयी थी, वह भी सारी की सारी लौट आयी। उसने यादव-सेना को चारों ओर से घेरकर तीखे बाणों से मारना आरम्भ किया। यादवराज प्रद्युम्न बारंबार धनुष की टंकार करते हए बाणों द्वारा शत्रुओं को गिराना आरम्भ किया ।उसी समय यदुपुरी से बलदेवजी आ पहुँचे।
वे समस्त सत्पुरुषों के देखते-देखते वहीं प्रकअ हो गयें महाबली बलदेव ने कुपित होकर मगधराज की विशाल सेना को हल के अग्रभाग से खींचकर मुसल से मारना आरम्भ किया। उनके द्वारा मारे गये रथ घोडे़ हाथी और पैदल मस्तक विदीर्ण हो जाने से सौ योजन तक धराशायी हो गये। वे सब-के-सब काल के गाल में चले गये। उस समय देवताओं और मुनष्यों की दुन्दुभियां एक साथ बजने लगीं। देवता लोग बलदेवजी के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। यादवों की अपनी सेना में तत्काल जोर-जोर से जय-जयकार होने लगी। तदनन्तर प्रद्युम्न आदि ने निश्चिंत होकर भगवान कामपाल को नमस्कार किया। राजन् ! इस प्रकार भक्त वत्सल महाबली भगवान बलदेव मगधराज को जीतकर द्वारका को चले गये। जरासंध का बुद्धिमान पुत्र सहदेव भेंट-सामग्री लेकर गिरिदुर्ग से निकला और शम्बरारि प्रद्युम्नजी के सामने उपस्थित हुआ। एक अरब घोड़े, दो लाख रथ और साठ हजार हाथी उसने प्रद्युम्न को नमस्कार करके दिये; क्योंकि वह प्रद्युम्न जी के प्रभाव को जानता था ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘मगध विजय’ नामक सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 18
गया, गोमती, सरयू एवं गंगा के तटवर्ती प्रदेश, काशी, प्रयाग एवं विन्ध्यदेश में यादव-सेना की यात्रा; श्रीकृष्ण के अठारह महारथी पुत्रों का हस्तलाघव तथा विवाह ;मथुरा, शूरसेन जनपदों एवं नन्द–गोकुल में प्रद्युम्न आदि का समादर
श्रीनारदजी कहते है- राजन्! तदनन्तर श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न सैनिकों सहित गया में जाकर फल्गुनदी में स्नान किया। फिर अन्य देशों को जीतने के लिये वहाँ से आगे को प्रस्थान किया। जरासंध को पराजित हुआ सुनकर उस समय अन्य राजा आतंकवश भयार्त हो प्रद्युम्न की शरण में आये और उन सबने उन्हें भेंट दी ।
गोमती तथा पुण्यसलिला सरयू के तट पर होते हुए प्रद्युम्नजी गंगा के किनारे काशीपुरी में आये। वहाँ पार्ष्णिग्रह काशिराज शिकार खेलने के लिये गये थे, जो वहीं पकड़ लिये गये। काशिराज ने भी यह सुनकर कि प्रद्युम्न की सेना विशाल है, उन्हें भेंट अर्पित की ।
राजन् ! तत्पश्चात बलवान प्रद्युम्न अपने सैनिकों के साथ कोसल जनपद में गये और अयोध्या के निकट नन्दिग्राम में उन्होंने अपनी सेना की छावनी डाल दी।
कोसलराज नग्न जितने, जो तत्त्वज्ञानी थे, बहुत से घोड़े, हाथी, रथ और महान् धन देकर शम्बरारि प्रद्युम्न का पूजन किया। उत्तर दिशा के स्वामी दीपतम, नेपाल के राजा गज तथा विशाला नगरी के स्वामी बर्हिण इन सबने उन्हें भेंट दी। नैमिषारण्य के स्वामी बडे़ भगवद् भक्त ओर श्रीकृष्ण के प्रभाव को जानने वाले थे। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रद्युम्न को बलि अर्पित की। इसके बाद श्रीकृष्णकुमार प्रयाग गये और वहाँ पापनाशिनी त्रिवेणी में स्नान करके उन्होंने महान दान किया; क्योंकि वे तीर्थराज के प्रभाव को जानते थे। बीस हजार हाथी, दस लाख घोड़े, चार लाख रथ, सोने की माला तथा सुनहरे वस्त्रों से विभूषित दस अरब गौएं दस भार स्वर्ण, एक लाख मोती, दो लाख वस्त्र तथा दो लाख कश्मीरी शाल एवं नये कम्बल हरिप्रिय तीर्थराज में प्रद्युम्न ने ब्राह्मणों को दिये ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 18
मिथिलेश्वर ! कारुष देश का राजा पौण्ड्रक भगवान श्रीकृष्ण का शत्रु था, तथापि उसने भी शंकित होन के कारण श्रीकृष्णकुमार का पूजन किया। पंचाल और कान्यकुब्ज देश में प्रद्युम्न के आगमन की बात सुनकर वहाँ के समस्त नरेश भयभीत हो गये। सबने अपने-अपने दुर्ग के दरवाजे बंद कर लिये। सब लोग यादवराज से भयातुर हो दुर्ग का आश्रय लेकर रहने ले। कितने ही लोग भाग चले। विन्ध्यदेश के अधिपति महाबली राजा दीर्घबाहु उत्तम संधि करने के लिये शम्बरारि प्रद्युम्न की सेना में आये ।
दीर्घबाहु बोले- आप सब यादवेन्द्र दिग्विजय के लिये आये हैं; अत: मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये। इससे मेरे चित्त में संतोष होगा। जल से भरे हुए कांच के बर्तन को बाण से बेधा जाय किंतु एक बूँद भी पानी न गिरे और बाण उसमें खड़ा रहे, बर्तन फूटे नहीं, ऐसी जिसके हाथ में स्फूर्ति हो, वह अपने इस हस्तलाघव का परिचय दे। जो मेरी इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करेंगे, उन्हें मैं अपनी कन्याएं ब्याह दूँगा। आप समस्त यादवेन्द्रगण धनुर्वेद में कुशल हैं। मैंने भी नारदजी के मुख से पहले सुना था कि यादव लोग बडे़ बलवान हैं ।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! राजा दीर्घबाहु की बात सुनकर सब लोग विस्मित हो गये। उनमें से धनुर्धरों में श्रेष्ठ प्रद्युम्नजी ने भरी सभा में बिन्दुदेश के नरेश को आश्वासन देते हुए कहा- ‘तथास्तु ‘प्रद्युम्नजी ने पृथ्वी पर दो जगह बड़ा-सा बांस गाड़ दिया और उन दोनों के बीच में एक रस्सी तान दी। फिर उस रस्सी में में समस्त सत्पुरुषों के देखते-देखते जल से भरा एक कांच का घड़ा लटका दिया। फिर उन श्रीकृष्णकुमार ने धनुष उठाया और उसे भलीभाँति देखकर उसकी डोरी पर बाण का संधान किया। वह बाण छूटा और कांच के घडे़ मे धँसा हुआ वह बाण बादल में प्रविष्ट सूर्य की किरण के समान सुशोभित होता था। वह एक अद्भुत सा दृश्य था। त्रिकुश के फल की भाँति उस पात्र के न तो टुकड़े हुए, न वह अपने स्थान से विचलित हुआ; न उसमें कम्पन हुआ और न उससे एक बूंद पानी ही गिरा। विदेहराज ! भगवान प्रद्युम्न ने फिर दूसरे बाण का संधान किया। वह भी पहले बाण का स्थान छोड़कर उस घडे़ में उसी की भाँति स्थित हो गया
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 18
तदनन्तर साम्ब ने भी धनुष लेकर पांच बाण छोड़ वे भी कांच-पात्र का भेदन करके उसमें आधे निकले हुए स्थित हो गये। तदनन्तर सात्यकि ने भी धनुष लेकर एक ही बाण मारा, किंतु सबके देखते-देखते वह कांच का पात्र चूर-चूर हो गया। यह देख समस्त यादव तथा दूसरे-दूसरे सैनिक जोर-जोर से हँसने लगे और बोल- ‘बस-बस, तुम्हीं इस भूतल पर कार्तवीर्य अर्जुन के समान महान बाणधारी हो; तुम्हारे सामने अर्जुन, भरत तथा श्रीरामचन्द्रजी भी मात हैं। अथवा तुम त्रिपुरहन्ता रुद्र हो।
द्रोण, भीष्म, कर्ण तथा परशुरामजी भी तुम से हार मान लेंगे ।तदनन्तर दूसरा पात्र लटकाकर धनुर्धारियों में श्रेष्ठ अनिरुद्ध ने उसके नीचे जाकर उसे गौरव से देखकर हल के हाथ से बाण मारा।
वह बाण भी उस पात्र का भेदन करके आधा निकला हुआ उसमें स्थित हो गया। उस पात्र से पांच हाथ ऊपर आकाश में एक पत्थर लटकाकर दीप्तिमान ने धनुष उठाया और उस पर एक बाण का संधान किया। वह बाण भी पात्र भी पात्र के भी निचले भाग को भेदकर अनिरुद्ध वाले बाण को आगे छोड़ता हुआ ऊपर वाले पत्थर से जा टकाराया और फिर वेग से उस पात्र में ही आकर स्थित हो गया। तथापि बाणवेग के काण उस पात्र से एक बूँद भी पानी नीचे नहीं गिरा। बाण जब तक गया-आया, तब तक भी जब पानी की एम बूँद नहीं गिरी, तब यह चमत्कार देखकर सब वीर उन्हें बार-बार साधुवाद देन लगे।
तत्पश्चात भानु ने पात्र को अच्छी तरह देखा-भाला फिर सबके देखते-देखते नेत्र बंद करके धनुष लेकर दूर से बाण चलाया।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 18
उस बाण ने भी उस समय पात्र का भेदन करके उसे अधोमुख कर दिया और फिर तत्काल ही उसका मुख ऊपर की ओर करके वह उसमें आधा निकला हुआ स्थित हो गया तब भी बाण के वेग से एक बूँद भी जल नहीं गिरा और पात्र भी नहीं फूट सका। यह अद्भुत सी बात हुई। इस प्रकार श्रीकृष्ण के जो अठारह महारथी पुत्र थे, उन सबने पात्र का भेदन किया, किंतु जल का स्त्राव नहीं हुआ ।
यह हस्तलाघव देखकर बिन्दु देश के राजा दीर्घबाहु बडे़ विस्मित हुए। उन्होंने उनके हाथ में अपनी अठारह सुलोचना कन्याएं प्रदान कीं। उनके विवाहकाल मे शंक, भेरी और आनक आदि बाज बजे, गन्धर्वों ने गीत गाये तथा अप्सराओं ने नृत्य किया। देवताओं ने उन सबके ऊपर जयध्वनि के साथ फूल बरसाये और स्वर्गवासियों ने उन सबकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजा दीर्घबाहु ने साठ हजार, हाथी, एक अरब घोड़े, दस लाख रथ, एक लाख दासियों तथा चार लाख शिबिकाएं दहेज में दीं। यदुकुल तिलक प्रद्युम्न ने वह सारा दहेज द्वारकापुरी को भेज दिया ।
तत्पश्चात् दीर्घबाहु की अनुमति ले प्रद्युम्न निषध देश को गये। मैथिल ! निषध के राजा का नाम वीरसेन था। उन्होंने भी महात्मा प्रद्युम्न को भेंट दी। इसी प्रकार भद्रदेश के अधपति बृहत्सेन ने, जो श्रीकृष्ण को इष्ट देव माननेवाले तथा श्रीहरि के प्रिय भक्त थे, सैनिकों सहित माथुर, शूरसेन तथा मधु नामक जनपदों में गये। वहाँ स्वागत पूर्वक पूजित हो, वे पुन: मथुरा में आये। तदनन्तर वनों सहित मथुरा की परिक्रमा करके वे व्रज में गये।
राजन्! वहाँ उन्होंने गोप-गोपी, यशोदा, व्रजेश्वर नन्दराज, वृषभानु तथा उपनन्दों को नमस्कार करके बड़ी शोभा पायी। नन्दराज को बारंबार भेंट-उपहार अर्पित करके, उन सबके द्वारा सम्मानित हो वे कई दिनों तक नन्द-गोकुल में टिके रहे ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘मथुरा तथा शूरसेन जनपदों पर विजय’ नामक अठारहवां अध्याय पूरा हुआ ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 19
यादव-सेना का विस्तार; कौरवों के पास उद्धव का दूत के रूप में जाकर प्रद्युम्न का संदेश सुनाना; कौरवों के कटु उत्तर से रुष्ट यादवों की हस्तिनापुर पर चढ़ाई
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! इसके बाद महाबाहु प्रद्युम्न अपनी सेनाओं के साथ उच्च स्वरूप से दुन्दुभिनाद करते हुए बडे़ वेग से कुरुदेश में गये। बीस योजन लंबी भूमि पर उनकी सेना के शिविर लगे थे। उस छावनी का विस्तार भी दस योजन लंबी सड़क थी वहाँ धनाढ्य वैश्यों ने सहस्त्रों दुकानें लगा रखी थी। रत्नों के पारखी वस्त्रों के व्यवसायी, कांच की वस्तुओं के निर्माता, वायक (कपड़े बुनने और सीने वाले), रंगरेज, कुम्हार, कंदकार (मिश्री आदि बनाने वाले हलवाई), तुलकार (कपास में से रुई निकालने वाले), पटकार (वस्त्र निर्माता), टंकार (तार आदि टांकने का काम करने वाले) अथवा ‘टंक’ (नामक औजार बनाने वाले), चित्रकार, पत्रकार, (कागज बनाने वाले), नाई, पटुवे, शस्त्रकार, पर्णकार (दोने बनाने वाले), शिल्पी, लाक्षाकार (लखारे), माली, रजक, (धोबी), तेली, तमोली, पत्थारो पर खुदाई करने या चित्र बनाने वाले, भड़भूज, कांचभेदी, स्थूल-सूक्ष्म मोती आदि का रत्नों का भेदन करने वाले– ये सभी कारीगर वहाँ की सड़क पर दृष्टिगोचर होते थे।
कहीं भानुमती का खेल दिखाने वाले बाजीगर थे, कहीं इन्द्रजाल फैलाने वाले जादूगर। कहीं नट नृत्य करते थे तो कहीं दो भालुओं का युद्ध होता था। कहीं डमरु बजा-बजाकर वानरों के खेल दिखाये जाते थे, कहीं बारह प्रकार के आभूषणों से विभूतिष वारांगनाओं के नृत्य का कार्यक्रम चल रहा था। वे वर-वधुएँ अपने दिव्य सोलह श्रृंगार से अप्सराओं का भी मन हर लेती थीं। यद्यपि कौरवों के लिये यादवों की सेना अपने भाई-बन्धुओं की ही सेना थी, तथापि हस्तिनापुर में उसका बड़ा आंतक फैल गया।
वहाँ के लोग बडे़ वेग से इधर-उधर खिसकने लगे- वे घबराकर कहीं अन्यत्र चले जाने की चेष्टा में लग गये। सब लोग अपने घरों में अरगला (बिलाई, सांकल एवं ताले) लगाकर भागने लगे। घर-घर में और जन-जन में बड़ा भारी कोलाहल होने लगा- सर्वत्र हलचल मच गयी। शौर्य, पराक्रम और बल से सम्पन्न कौरव चक्रवर्ती राजा थे। वे समुद्र तक की पृथ्वी के अधिपति थे, तथापि यादवों की विशाल सेना देखकर वे भी अत्यन्त शंकित हो गये ।प्रद्युम्न ने बुद्धिमानों में श्रेष्ठ उद्धव को दूत बनाकर भेजा। वे कौरवेन्द्र–नगर हस्तिनापुर में जाकर धृतराष्ट्र से मिेले। महाराज धृतराष्ट्र के राजमहल का आंगन मद की धारा बहाने वाले तथा कस्तुरी और कुमकुम से विभूषित गण्डस्थलों से सुशोभित हाथियों की सिन्दूर-रंचित सूँड पर बैठने और उनके कानों से प्रताडित होने वाले भ्रमरों से मण्डित था।
हस्तिनापुर के स्वामी राजाधिराज धृतराष्ट्र की सेवा में भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, बाहलीक, धौम्य, शकुनि, संजय, दुश्शासन, विदुर, लक्ष्मण, दुर्योंधन, अश्वथामा, सोमदत्त, तथा श्रीयज्ञकेतु उपस्थित थे। वे सब-के-सब सोने के सिंहासन पर श्वेत छत्र और चंवर से सुशोभित होकर बैठे थे। उसी समय वहाँ पहुँचकर उद्धव ने प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे कहा ।
उद्धव बोले- राजेन्द्र–शिरोमणे ! प्रद्युम्न ने आपके पास मेरे द्वारा जो संदेश कहलाया है, उसे सुनिये ‘महाबली यादवराज उग्रसेन को जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे। उन्हीं के भेज हुए रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न सेना के साथ जम्बूद्वीप के अत्यन्त उद्भट वीर नरेशों को जीतने के लिये निकले हैं। वे चेदिराज शिशुपाल, शाल्व, जरासंध तथा दन्तवक्र आदि भूपालों पर विजय पाकर यहाँ तक आ पहुँचे हैं। आप उन्हें भेंट दीजिये।
यादव और कौरव एक दूसरे के भाई–बन्धु हैं। इन बन्धुओं में एकता बनी रहे, इसके लिये आपको भेंट और उपहार सामग्री देनी ही चाहिये। ऐसा करने से कौरवों-वृष्णि वंशियों में कलह नहीं होगा। यदि आप भेंट नहीं देंगे तो युद्ध अनिवार्य हो जायेगा। यह उनकी कही हुई बात है, जिसे मैंने आपके सम्मुख प्रस्तुत किया। महाराज ! यदि मुझसे कोई धृष्टता हुई तो उसे क्षमा कीजिये, दूत सर्वथा निर्दोष होता है। अब आप जो उत्तर दें, उसे मैं वहाँ जाकर सुना दूँगा ।
नारदजी कहते हैं- राजन्! उद्धव का वह कथन सुनकर समस्त कौरव क्रोध से तमतमा उठे। वे अपने शौर्य और पराक्रम के मद से उन्मत्त थे। उनके होठ फड़कने लगे और वे बोले ।
कौरवों ने कहा- अहो ! काल की गति दुर्लङघ्य है, यह जगत विचित्र है, दुर्बल सियार भी वन में सिंह के ऊपर धावा बोलने लगे हैं, जिन्हें हमारे सम्बन्ध से ही प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है, जिनको हम लोगों ने ही राज्य सिंहासन दिया है, वे ही यादव अपने दाताओं के प्रतिकूल उसी प्रकार सिर उठा रहे हैं, जैसे सांप दूध पिलाने वाले दाताओं को ही काट लेते हैं।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 19
समस्त वृष्णिवंशी सदा के डरपोक हैं, वे युद्ध का अवसर आते ही व्याकुल चित्त हो जाते हें तथापि वे निर्लज्ज आज हम लोगों पर हुकूमत मत करने चले हैं। उग्रसेन में बल ही कितना है! वह अल्पवीर्य होकर भी, जम्बूद्वीप मे निवास करने वाले समस्त राजाओं को जीतकर, उनसे भेंट लेकर राजसूय यज्ञ करेगा- यह कितने आश्चर्य की बात है ! जहाँ भीष्म, कर्ण, द्रोण, दुर्योधन आदि महापराक्रमी वीर बैठे हैं, वहाँ उस दुर्बुद्धि प्रद्युम्न ने तुमको मन्त्री बनाकर भेजा है ! अत: हमारा यह कहना है कि यदि तुम लोगों की जीवित रहने की इच्छा हो तो अपनी द्वारकापुरी को लौट जाओ। यदि नहीं जाओगे, तो तुम सब लोगों को आज हम यमलोक भेज देंगे ।
नारदजी कहते है- राजन् ! श्रीकृष्ण विरोधी कौरवों को इस प्रकार भाषण सुनकर उद्धव ने प्रद्युम्न के पास जा, सब कुछ सुनाया। कौरवों की बात सुनकर धनुर्धरों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न के होठ रोष के मारे फड़कने लगे। वे शार्गधनुष हाथ में लेकर बोले ।
प्रद्युम्न ने कहा- राजन्! कौरव यद्यपि हमारे बन्धु हैं, तथापि ये मद से उन्मत्त हो गये हैं। इसलिये उनको अपने तीखे बाणों से उसी प्रकार नष्ट कर डालूंगा, जैसे योगी कठोर नियमों द्वारा अपने दैहिक रोगों को नष्ट कर डालता है। यादवों के सैन्य-समूहों में जो कोई भी वीर कौरवों से भेंट दिलवाने का प्रयास नहीं करेगा, वह अपने माता-पिता का औरस पुत्र नहीं माना जायेगा ।
नारदजी कहते हैं राजन् ! उसी क्षण भोज, वृष्णि और अन्धक आदि समसत यादव कुपित हो अपनी सेनाओं के साथ हस्तिनापुर जा चढे़ ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘कौरवों के लिए दूत प्रेषण’ नामक उन्नीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 20
वह रथ चन्द्र मण्डल के समान उज्ज्वल तथा चार योजन के घेरे वाले छत्र से अलंकृत हो, अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता थे। वह छत्र उसे राजाओं की ओर से भेंट के रूप में प्राप्त हुआ था। हीरे के बने हुए दण्ड वाले बहुत से व्यंजन चंवर डुलाने वालें के हाथों में सुशोभित हो उस रथ की शोभा बढा़ते थे। उसमें श्वेत रंग के घोड़े जुते हुए थे और उसके ऊपर सिंहध्वज फहरा रहा था। दुर्योधन के अतिरिक्त अन्य धृतराष्ट्र–पुत्र भी अलग-अलग रथ पर बैठे थे। उनके रथों पर भी चार-चार योजन के घेरे वाले छत्र, जिनमें मोती की झालरें लटक रही थीं, शोभा दे रहे थे।
भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, बाहलिक, कर्ण, शल्य, बुद्धिमान सोमदत्त, अश्वत्थामा, धौम्य, धनुर्धर वीर लक्ष्मण, शकुनि, दुश्शासन, संजय, भूरिश्रवा तथा यज्ञकेतु के साथ सुन्दर रथ पर बैठकर आता हुआ राजा दुर्योंधन मरुद्गणों के साथ इन्द्र की भाँति शोभा पा रहा था। राजन! उसी समय इन्द्रप्रस्थ से पाण्डवों की भेजी हुई दो ‘पृतना’ सेना कौरवों की सहायता के लिये आयी। कौरवों की सोलह अक्षौहिणी सेनाओं के चलते से पृथ्वी हिलने लगी, दिशाओं में कोलाहल व्याप्त हो गया और उड़ती हुई धूल से आकाश में अन्धकर छा गया। घोड़े, हाथी तथा रथों की रेणु से व्याप्त आकाश में सूर्य एक तारे के समान प्रतीत होता था। भूतल पर अन्धकार फैल गया। समस्त देवता शंकित हो गये।
यत्र-तत्र हाथियों की टक्कर से वृक्ष टूट-टूटकर गिरने लगे। घुड़सवार वीरों के अश्वचालन से भूखण्ड मण्डल खुद गया। कौरव और वृष्णिवंशियों की सेनाएं परस्पर जूझने लगीं। जैसे प्रलयकाल में सातों समुद्र अपनी तरंगों से टकराने लगते है उसी प्रकार उभय पक्ष की सेनाएं तीखे शस्त्रों से परस्पर प्रहार करने लगीं। जैसे बाज पक्षी मांस के लिये आपस में जूझते हैं, उसी प्रकार उस युद्ध भूमि में घोडे़ से, हाथी हाथियों से, रथी रथियों से और पैदल पैदलों से भिड़ गये। महावत महावतों से, सारथि सारथियों से तथा राजा राजाओं से रोषपूर्वक इस प्रकार युद्ध कर रहे हों। तलवार, भाले, शक्ति, बर्छें, पटि्टश, मुद्गर, गदा, मुसल, चक्र तोमर, भिन्दिपाल, शतघ्री, भुशुण्डी तथा कुठार आदि चमकीले अस्त्र–शस्त्रों एवं बाण-समूहों द्वारा रोषावेश से भरे हुए योद्धा एक-दूसरे के मस्तक काटने लगे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 20
रणभूमि में बाणों द्वारा अन्धकर फैल जाने पर धनुर्धरों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न बारंबार धनुष की आकार करते हुए भीष्म के साथ, दीप्तिमान कृपाचार्य के साथ, भानु द्रोणाचर्य के साथ, साम्ब बाह्लीक के साथ, मधुकर्ण के मैथिल ! श्रीकृष्ण के पुत्र चित्रभानु बुद्धिमान सोमदत्त के साथ वृक अश्वत्थामा के साथ, श्रीहरि के पुत्र श्रुतदेव समरांगण में दुश्शासन के साथ तथा सुनन्दन संजय के साथ युद्ध करने लगे।
राजन् ! गद विदुर के साथ, कृतवर्मा भूरिश्रवा के साथ तथा अक्रूर यज्ञकेतु के साथ संग्राम-भूमि में लड़ने लगे।
इस प्रकार दोनों सेनाओं में परस्पर अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ गया। श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न ने दुर्योधन की विशाल सेना को अपने बाण-समूहों द्वारा उसी प्रकार मथ डाला, जैसे वाराह-अवतारधारी भगवान ने प्रलयकाल के महासागर को अपनी दाढ़ से विक्षुब्ध कर दिया था। बाण से विदीर्ण मस्तक वाले हाथियों के मुक्ताफल आकाश से गिरते समय ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो अपने बाणों से उस महासमर मे सारथि, रथी एवं रथों को उसी तरह मार गिराया, जैसे वायु अपने वेग से बड़े-बडे़ वृक्षों को धराशायी कर देती है।
उस समय दुर्योधन बार-बार अपने धनुष को टंकारता हुआ वहाँ आ पहुँचा। उसने उस युद्ध में दस बाणों को प्रद्युम्न पर छोड़ा, किंतु यादवेश्वर भगवान प्रद्युम्न ने उन बाणों को अपने ऊपर पहुँचने के पहले ही काट गिराया। तब दुर्योधन ने पुन: प्रद्युम्न के कवच को अपना निशाना बनाकर सोने के पंखवाले दस सायक चलाये। वे सायक प्रद्युम्न के कवच को विदीर्ण करके उनके शरीर में समा गये। तत्पश्चात सहस्त्र बाण समूहों द्वारा प्रहार करके धृतराष्ट्र के बलवान पुत्र महावीर दुर्योधन ने प्रद्युम्न के रथ के सहस्त्र घोड़ों को मार डाला। फिर सौ बाणों से प्रत्यंचा सहित उनके उत्तम धनुष को भी खण्डित कर दिया।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 20
प्रद्युम्न उस रथ को त्यागकर दूसरे रथ पर जा बैठे। इसके बाद उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के दिये हुए धनुष को हाथ में लेकर उस पर विधिपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ायी और एक बाण का संधान करके उसे अपने कान तक खींचा फिर बाहुदण्ड के वेग उस बाण को दुर्योंधन के रथ को ले उड़ा और दो घड़ी तक उसे आकाश से घुमाता रहा। तत्पश्चात जैसे छोटा बालक कमण्डलु को फेंक देता है, उसी प्रकार उस बाण ने दुर्योधन के रथ को आकाश से नीचे गिरा दिया।
नीचे गिरने से वह रथ तत्काल चूर-चूर हो गया। उसके सभी घोडे़ सारथि सहित मृत्यु के ग्रास बन गये। महाबली धृतराष्ट्र पुत्र तत्काल दूसरे रथ पर जा बैठा। उसने दस सायकों द्वारा युद्धभूमि में प्रद्युम्न को घायल कर दिया। उन सायकों से आहत होने पर भी श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न फल की माला से मारे गये हाथी की भाँति तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने श्रीकृष्ण के दिये हए को दण्ड पर एक बाण रखा और उसे चला दिया।
वह बाण रथ सहित दुर्धोधन को लेकर ज्यों ही महाकाश में पहुँचा, त्यों ही प्रद्युम्न का छोड़ा हुआ दूसरा बाण भी शीघ्र उसे लेकर और भी आगे बढ़ गया। तब तक तीसरा बाण भी वहाँ पहुँचा। उसने अश्व तथा सारथि सहित उस रथ को लेकर राजमन्दिर के आंगन में आकाश से धृतराष्ट्र के समीप इस प्रकार ला पटका, मानो वायु ने कमलकोष को उडा़कर नीचे डाल दिया हो। उस रथ को वहाँ गिराकर वह बाण रणभूमि में प्रद्युम्न के पास लौट आया। नीचे गिरते ही वह रथ अंगार की भाँति बिखर गया। दुर्योधन मुख से रक्त वमन करता हुआ मूर्च्छित हो गया।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘यादव कौरव युद्ध का वर्णन’ नामक बीसवां अध्याय पूरा हुआ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 21
कौरव तथा यादव वीरों का घमासान युद्ध; बलराम और श्रीकृष्ण का प्रकट होकर उनमें मेल कराना
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! दुर्योधन के चले जाने पर वहाँ बड़ा भारी हाहाकार मचा। तब गंगानन्दन देवव्रत भीष्म तुरंत वहाँ आ पहुँचे और उन यादवों के देखते-देखते बारंबार धनुष टंकारते हुए यादव-सेना को उसी प्रकार भस्म करने लगे, जैसे प्रज्वलित दावानल किसी वन को दग्ध कर देता है।
भीष्मजी समस्त धर्मधारियों में श्रेष्ठ, महान भगवद्भक्त, विद्वान और वीर-समुदाय के अग्रगण्य थे। उन्होंने युद्ध में परशुरामजी के भी छक्के छुड़ा दिये थे। उनके मस्तक पर शिरस्त्राण एवं मुकुट शोभा पाता था। उनकी अंग-कान्ति गौर थी। दाढ़ी-मूँछ के बाल सफेद हो गये थे। वे कौरवों के पितामह थे तो भी बलपूर्वक युद्धभूमि में विचरते हुए सोलह वर्ष के नवयुवक के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने बाणों से अनिरुद्ध की विशाल सेना को मार गिराया। हाथियों में मस्तक कट गये, घोडो़ की गर्दनें उतर गयीं। हाथ में तलवार लिये पैदल योद्धा बाणों की मार खाकर दो-दो टुकडों में विभक्त हो गये। रथों के सारथि, घोड़ों और रथियों को मारकर उन रथों को भी भीष्म ने चूर्ण कर दिया। जिन राजकुमारों के पैर कट गये थे, वे ऊर्ध्वमुख होने पर भी अधोमुख हो गये।
हाथ में खड्ग और धनुष लिये योद्धा बांहें कट जाने के कारण धराशायी हो गये। कुछ सैनिकों के कवच छिन्न-भिन्न हो गये और वे प्राणशून्य होकर भूमि पर गिर पडे़। वहाँ गिरे हुए स्वर्ण भूषित वीरों, घोड़ों, रथों और हाथियों से वह युद्धमण्डल कटे हुए वृक्षों से वन की भाँति शोभा पा रहा था।
राजन ! वह रणभूमि मूर्तिमती महामारी के समान प्रतीत होती थी। अस्त्र-शस्त्र उसके दांत, बाण केश, ध्वज पताका उसके वस्त्र और हाथी उसके स्तन जान पड़ते थे। रथों के पहिये उसके कानों के कुण्डल से प्रतीत होते थे। वहाँ रक्त-स्त्राव से प्रकट हुई नदी तीव्र वेग से प्रवाहित होने लगी। उसमें रथ, घोडे़ और मनुष्य भी बह चले। वह रक्त-सरिता वैतरणी के समान मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्गम हो गयी थी।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 21
कूष्माण्ड, उन्माद और बैतालगण भैरवनाद करते हुए आये और रुद्र की माला बनाने के लिये वहाँ से नरमुण्डों का संग्रह करने लगे। अपनी सेना को रणभूमि में गिरी देख महान धनुर्धर-शिरोमणि अनिरुद्ध बहुत बड़ी पताका वाले रथ पर आरुढ़ हो, भीष्म का सामना करने के लिये आगे बढे़। राजन् ! प्रलयकाल के महासागर से उठी हुई ऊँची-ऊँची भँवरों और तरंगों के भयानक घात प्रतिघात से प्रकट हुई ध्वनि के समान गम्भीर नाद करने वाली भीष्म के धनुष की प्रत्यंचा को प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्ध ने एक ही बाण से काट डाला- ठीक उसी तरह, जैसे गरुड़ ने अपनी तीखी चोंच से किसी नागिन के दो टुकडे़ कर दिये हों। तब मनस्वी भीष्म ने दूसरा धनुष लेकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ायी और युद्धभूमि में सबके देखते-देखते उस पर ब्रह्मास्त्र का संधान किया। उससे बड़ा प्रचण्ड तेज प्रकट हुआ। यह देख माधव अनिरुद्ध ने भी अपनी सेना की रक्षा के लिये स्वयं भी ब्रह्मास्त्र बारह सूर्यों के समान तेजस्वी होकर परस्पर युद्ध करने लगे।
तब अनिरुद्ध ने तीनों लोकों का दहन करने में समर्थ उन दोनों अस्त्रों का उपसंहार कर दिया। साथ ही उन यदुकुल तिलक अनिरुद्ध ने गंगानन्दन भीष्म के विद्युत के समन दीप्तिमान धनुष को भी सायकों द्वारा उसी तरह काट डाला, जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहासे को नष्ट कर देता है। तब भीष्म ने लाख भार की बनी हई सुदृढ़ गदा हाथ में लेकर उसे अनिरुद्ध पर चलाया और सिंह के समान गर्जना की। जैसे गरुड़ किसी नागिन को पंजे से पकड़ ले, उसी प्रकार साक्षात भगवान अनिरुद्ध ने भीष्म की गदा को बायें हाथ से पकड़ लिया और दाहिने हाथ से अपनी गदा उनकी छाती पर दे मारी। उस गदा के प्रहार से व्यथित हो गंगानन्दन भीष्म मूर्च्छित होकर रथ से गिर पडे़। उस युद्ध मण्डल में वे आकाश से गिरे हुए सूर्य के समान जान पड़ते थे। तब वहीं खडे़ हुए महात्मा अनिरुद्ध पर कृपाचार्य ने सहसा शक्ति का प्रहार किया। उस समय रोष से उनके अधर फड़क रहे थे।
नरेश्वर ! उस शक्ति को कृष्ण पुत्र दीप्तिमान ने मार्ग में ही अपनी तीखी धारवाली तलवार से उसी प्रकार काट दिया, जैसे किसी ने कटुवचन से मित्रता खण्डित कर दी हो। तदनन्तर रोष से भरे हुए महाबाहु द्रोणाचार्य ने बारंबार धनुष की टंकार करके भानु के ऊपर पर्वतास्त्र का प्रयोग किया। शत्रु की सेना को चूर्ण करते हुए बड़े-बड़े़ पर्वत आकाश से गिरने लगे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 21
राजेन्द्र ! उन पर्वतों के गिरने से यादव-सेना में महान हाहाकार मच गया। तब श्रीकृष्ण पुत्र भानु ने वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। उससे प्रचण्ड आंधी प्रकट हुई, जिससे सारे पर्वत रणभूमि से उड़ गये। उसी अवसर पर कुपित हुए बाहलीक ने आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया, जिससे दावानल से विशाल वन की भाँति शत्रु की सेना भस्मसात् होने लगी। यह देख उस रणभूमि में जाम्बवती नन्दन साम्ब ने पर्जन्यास्त्र का प्रयोग किया, जिसके द्वारा ज्ञान से अहंकार की भाँति वह अग्नि शान्त हो गयी। तब रोष से भरे हुए कर्ण ने मधु को छोड़कर साम्ब के ऊपर बीस बाण मारे। फिर वह बलवान वीर मेघ के समान गर्जना करने लगा। उसके बाणों से आहत हो रथ सहित साम्ब दो घड़ी तक चक्कर काटते रहे। फिर मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो एक कोस दूर जा गिरे। फिर तो उन्होंने रथ छोड़ दिया और गदा लेकर वे रणभूमि में आ पहुँचे। उस गदा के द्वारा जाम्बवती कुमार साम्ब ने कर्ण को गहरी चोट पहुँचायी।
राजन ! उस चोट से पीड़ित हो महाबली वीरकर्ण पृथ्वी पर गिर पड़ा और समरांगण में मूर्च्छित हो गया। साम्ब भी अपना धनुष लेकर दूसरे रथ पर बडे़ वेग से जा चढे़। उन्होंने बीस बाणों से शूल को और पांच बाणों से सोमदत्त को घायल कर दिया।
राजन ! इतना ही नहीं, उन्होंने दस बाणों से द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को, सोलह बाणों से धौम्य को, दस बाणों से लक्ष्मण को, पांच से शकुनि को, बीस सायको से दुश्शासन को, बीस से ही संजय को, सौ बाणों से भूरिश्रवा को तथा सौ तीखे बाणों से यज्ञकेतु को भी समरांगण मे घायल कर दिया। फिर बलवान वीर साम्ब मेघ के समान गर्जना करने लगे। तदन्तर साम्ब ने दस-दस बाणों से सारथियों को, एक-एक से हाथियों और घोड़ों को और पांच-पांच बाणों से अन्य वीरों को चोट पहुँचायी। जाम्बवती कुमार साम्ब का वह हस्तलाघव देखकर अपने एवं शत्रुपक्ष के सभी सैनिक अत्यन्त विस्मित हो गये। इसी समय भीष्म ने उठकर अपना उत्तम धनुष हाथ में लिया और दस बाण मारकर साम्ब के श्रेष्ठ को दण्ड को खण्डित कर दिया। तदनन्तर महाबली वीर भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कर्ण-तीनों ने यादव-सेना को तत्काल सायकों द्वारा घायल करना उसी प्रकार आरम्भ किया। जैसे तीनों गुण उद्रिक्त होने पर ज्ञान को नष्ट कर देते हैं ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 21
मानद ! दुर्योधन रथ पर आरुढ़ हो पुन: युद्ध के लिये आया। उसके साथ दस अक्षौहिणी सेना थी, जिसका महान कोलाहाल छा रहा था। मिथिलेश्वर ! उस समय पुराणपुरुष देवेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट हो गये। बलराम के रथ तालध्वज और श्रीकृष्ण के रथ पर गरुड़ध्वज शोभा दे रहे थे। वे दोनों भाई अपनी दिव्यकान्ति से सम्पूर्ण दिशाओं को देदीप्यमान कर रहे थे। उस समय देवता जय-जयकार कर उठे।
मुख्य-मुख्य गन्धर्व मनोहर गान करने लगे। देवताओं के आनक और दुन्दुभियों की ध्वनि हरने लगी तथा देवांगनाएं खील और फूल बरसाने लगीं। उसी समय यदुवंशी वीर परेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करने लगे। सभी–शस्त्र रखकर उन्हें उत्तम बलि अर्पित करने लगे। सभी प्रसन्न थे और सबके हाथ जुडे़ हुए थे। परमेश्वर श्रीहरि ने अपने मदोन्मत प्रद्युम्न आदि पुत्रों को डांट बतायी और भीष्म आदि कौरवों को प्रणाम करके, दुर्योधन से मिलकर वे दोनों इस प्रकार बोले ।
श्रीबलराम और श्रीकृष्ण ने कहा- राजन ! इन बाल बुद्धि वाले यादवों ने जो कुछ किया है, उसके लिये क्षमा कर दो; अपने मन में दु:ख न माने। नृपेश्वर ! इन लोगों ने जो भी कठोर बात कही है, वह हम दोनों के प्रति कही गयी मान लो। राजन ! इस भूतल पर यादव और कौरवों में कदापि किंचितमात्र भी कलह नहीं होना चाहिये। ये सब परस्पर सम्बन्धी और ज्ञाति हैं। हम लोग धोती और उत्तरीय की भाँति परस्पर एक-दूसरे का प्रिय करने वाले हैं ।
नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! कौरवों से निरन्तर पूजित और सेवित हो देवेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण प्रद्युम्न आदि यादवों के साथ वहाँ अत्यन्त सुशोभित हुए ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नाद बहुलाश्व संवाद में ‘यादव और कौरवों में मेल’ नामक इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 22
Prev.png
अर्जुन सहित प्रद्युम्न का कालयवन-पुत्र चण्ड को जीतकर भारतवर्ष के बाहर पूर्वोत्तर दिशा की ओर प्रस्थान
नारदजी कहते हैं- राजन् ! भाइयों तथा अन्यान्य कुरुवंशियों के साथ दुर्योधन को शान्त करके यदुकुल तिलक बलराम और श्रीकृष्ण पाण्डवों से मिलने के लिये इन्द्रप्रस्थ को गये। तब अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा स्वजनों के साथ श्रीकृष्ण की अगवानी के लिये इन्द्रप्रस्थ से बाहर आये। उनके साथ इन्द्रप्रस्थ के अन्यान्य निवासी भी शंखध्वनि, दुन्दुभिनाद, वेदमन्त्रों का घोष तथा वेणुवादनपूर्वक पुष्प वर्षा करते हुए आये। बलराम और श्रीकृष्ण को राजा युधिष्ठिर दोनों भुजाओं से खींचकर हृदय से लगा लिया और परमानन्द का अनुभव किया। वे योगी की भाँति आनन्द में डूब गये। प्रद्युम्न आदि श्रीकृष्ण कुमारों ने भी श्री युधिष्ठिर को प्रणाम किया। युधिष्ठिर ने उन सबको दोनों हाथों से पकड़कर आशीर्वाद दिया। श्रीहरि ने स्वयं कुशल समाचार पूछा तथा नकुल और सहदेव ने उनके चरणों में वन्दना की ।
श्रीकृष्ण और बलराम साक्षात परिपूर्णतम श्रीहरि हैं, असंख्य ब्रह्माण्डों के पालक हैं। भगवद्भक्त युधिष्ठिर ने उन दोनों भाइयों का पूर्णतर समादर किया। उन्होंने यदुकुल के मुख्य वीर प्रद्युम्न आदि को सैनिकों सहित दिग्विजय के लिये विधिपूर्वक भेजा और सारी पृथ्वी को जीतने के लिये आज्ञा दी। फिर वे दोनों भक्तवत्सल सर्वेश्वर बन्धु भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर से मिलकर द्वारका को चले गये। राजन् ! गौरे और श्याम वर्ण वाले दोनों भाई, बलराम और श्रीकृष्ण सबके मन को हर लेने वाले हैं। नरेश्वर ! इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्ण का चरित्र कहा। यह मनुष्यों को चारों पदार्थ देने वाला हैं। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ।
बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! बलराम सहित पुरुषोतम श्रीकृष्ण जब कुशस्थली को चले गये, तब साक्षात भगवान् प्रद्युम्न हरि ने क्या किया ? उनका अद्भुत चरित्र श्रवण करने योग्य तथा मनोहर है। जो जीवन्मुक्त ज्ञानी भक्त हैं, उनके लिये भी भगवच्चरित्र सदा श्रवणीय है, फिर जिज्ञासु भक्तों के लिये तो कहना ही क्या। भगवान का चरित्र अर्थार्थी भक्तों को सदा अर्थ देने वाला और आर्त्त भक्तों की पीड़ा को शान्त करने वाला है। इतना ही नहीं, स्थावर आदि चार प्रकार के जो जीव समुदाय हैं, उन सबके पापों का वह नाश करने वाला है। दिग्विजय के इच्छुक श्रीहरि कुमार प्रद्युम्न किस प्रकार सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय प्राप्त करके पुन: सेना सहित द्वारका में लौटे, यह सारा वृतान्त आप मुझे ठीक-ठीक बतलाइये। देवर्षें ! आप ब्रह्माजी के पुत्र और साक्षात सर्वदर्शी भगवान हैं, भगवान श्रीकृष्ण के मन हैं; अत: पहले श्रीहरि के मनस्वरूप आपको मेरा प्रणाम है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 22
नारद जी ने कहा- राजन्! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी। तुम भगवत्प्रभाव के ज्ञाता होने के कारण धन्य हो। इस भूतल पर श्रीकृष्ण चरित्र को सुनने के पात्र तुम्हीं हो। नरेश्वर ! श्रीकृष्ण के चले जाने पर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर ने शत्रुओं से ही प्रद्युम्न की रक्षा करने के लिये स्नेहवश उनके साथ शीघ्र ही अपने भाई अर्जुन को भी जाने की आज्ञा दे दी; क्योंकि उनके मन में बाही शत्रुओं से प्रद्युम्न आदि पर भय आने की आशंका हो गयी थी। मिथिलेश्वर ! तदनन्तर अर्जुन के साथ यदुश्रेष्ठ प्रद्युम्न विशाल सेना को अपने साथ लिये तत्काल त्रिगर्त जनपद में जा पहुँचे। त्रिगर्त के राजा धनुर्धर सुशर्मा ने शंकित होकर महामना प्रद्युम्न को भेंट दी। फिर मत्स्य देश के राजा विराट से पूजित होकर, यादवेश्वर प्रद्युम्न ने सरस्वती नदी में स्नान करके कुरुक्षेत्र तीर्थ का दर्शन किया। फिर पृथूदक, बिन्दु-सरोवर त्रितकूप और सुदर्शन आदि तीर्थों में होते हुए, सरस्वती में स्नान करके, वहाँ अनेक प्रकार के दान दे वे आगे बढ़ गये। कौशाम्बी[1] नगरी में पहुँचने पर सारस्वत प्रदेश के राजा कुशाम्ब ने प्रद्युम्न को भेंट नही दी क्योंकि वे दुर्योधन के वशीभूत होने के कारण उसी के पिछलग्गू थे। तब प्रद्युम्न की आज्ञा पाकर चारुदेष्ण, सुदेष्ण पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु और दसवें चारु- इन दसों रुक्मिणी पुत्रों ने सिंधी घोड़ों पर सवार हो, सबके देखते-देखते कौशाम्बी नगरी को चारों ओर से घेर लिया। उनके बाणों से राजधानी के महलों के शिखर, ध्वज, कलश और तोलिका आदि चूर-चूर होकर उसी प्रकार गिरने लगे, जैसे वानरों के प्रहार से लंका की अट्टालिकाएं टूट-टूटकर गिरने लगीं थीं।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 22
रुक्मिणी कुमारों ने जब इस प्रकार बाणों द्वारा अन्धकार फैला दिया, तब राजा कुशाम्ब हाथ में बहुत-सी भेंट सामग्री लिये नगर से बाहर निकले। उन्होंने हाथ जोड़कर शम्बरारि को नमस्कार किया और बहुत-सी सामग्री देकर भयार्त एवं भयविह्वल राजा ने नगरी की रक्षा की। उसी समय सौवीरराज सुदेव, आभीरराज विचित्र, सिन्धुपति सुमेरु, लाक्षेश्वर धर्मपति और गन्धर्वराज विडौजा इन सबने भी, जो दुर्योधन के वशवर्ती थे, भय के कारण बलि अर्पित करे अत्यन्त विनीत होकर कृष्णकुमार प्रद्युम्न को प्रणाम किया। तदनन्तर अपनी सेना से घिरे हुए महाबाहु प्रद्युम्न वीर कल्कि के समान अर्बुद और म्लेच्छ देशों पर विजयपन के लिये प्रस्तुत हुए ।
कालयवन का महाबली पुत्र यवनेन्द्र चण्ड प्रद्युम्न का आगमन सुनकर अत्यन्त क्रोध से भर गया। ‘आज मैं अपने पिता की हत्या करने वाले शत्रु के पुत्र का वध करके बाप का बदला चुका लूँगा’ मन-ही-मन ऐसा विचार करके दस करोड़ म्लेच्छों की सेना लिये, मद की धारा बहने और गर्जने वाले ऊँचे गजराज पर आरुढ़ हो, आंखें लाल करके, वह महात्मा प्रद्युम्न के सामने निकला। चण्ड की प्रेरणा से तीखे बाणों की वर्षा करने वाली उस विशाल सेना को आयी दख प्रद्युम्न अपने सैनिकों से बोले ।
नारदजी कहते हैं- राजन ! जब प्रद्युम्न पास ही इस प्रकार कह रहे थे, तब गाण्डीवधारी कपिध्वज अर्जुन ने बारंबार धनुष की टंकार करते हुए अकेले ही शत्रु की सेना में प्रवेश किया। रणदुर्मद गाण्डीवधारी ने गाण्डीव धनुष से छूटे हुए विशिखों द्वारा सामने खडे़ हए वीरों, रथों, हाथियों और घोड़ों के दो-दो टुकडे़ कर डाले। हाथों में शक्ति, खड्ग तथा ऋषि (दुधारा खांडा) लिये कितने ही शत्रु-सैनिक भुजाएं कट जाने के कारण पृथ्वी पर गिर पडे़ कितने ही कवचधारी वीरों के पैर कट गये और नख विदीर्ण हो गये। जिनके हौदे छिन्न-भिन्न हो गये और शरीर घायल हो गये थे ऐसे हाथी युद्धभूमि में इधर-उधर भागने लगे। वे अपनी सूँडों से हाथियों को भी गिराते हुए भाग चले।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 22
अर्जुन के बाणों से दो-दो टूक हुए हाथियों और घोड़ों से भरा हुआ वह समरांगण हँसुओं से काटे गये कुम्हड़ों के टुकड़ों से व्याप्त हुए खेत-सा जान पड़ता था। फिर तो म्लेच्छ सैनिक अपने-अपने हथियार फेंक, समरांगण छोड़कर जोर-जोर से भागने लगे- ठीक उसी तरह जैसे सूर्य की किरणों से विदीर्ण हुए कुहासों के समुदाय नष्ट हो जाते हैं ।
मैथिलेन्द्र ! हाथी पर बैठे हुए म्लेच्छराज चण्ड ने एक शक्ति घुमाकर अर्जुन के ऊपर की और सिंह के समान गर्जना की। राजेन्द्र ! बलवान श्रीकृष्ण सखा अर्जुन ने विद्युल्लता के समान अपने ऊपर आती हुई उस शक्ति के गाण्डीव-मुक्त बाणों द्वारा खेल-खेल में ही सौ टुकडे़ कर डाले। महाम्लेच्छ चण्ड रोष से भरकर जब तक धनुष उठाये, तब तक गाण्डीवधारी ने लीलापूर्वक एक बाण मारकर उसके उस धनुष को काट दिया।
तब प्रचण्ड पराक्रमी चण्ड ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर प्रलयकाल के महासागर की बड़ी-बड़ी भँवरों के टकराने की भाँति गम्भीर नाद करने वाले अर्जुन की प्रत्यंचा को उसी तरह काट दिया, जैसे गरुड़ किसी सर्पिणी के टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। तब अर्जुन ने ढाल के साथ चमकती हुई अपनी तलवार ले ली और उससे चण्ड के गजराज की कुम्भस्थली पर इस प्रकार प्रहार किया, मानो इन्द्र ने पर्वत पर वज्र मार दिया हो। अग्निदेव के दिये हुए उस खड्ग से उस हाथी का कुम्भस्थल फट गया। उसने चिग्घाड़ करते हुए धरती पर घुटने टेक दिये। फिर वह अत्यन्त मूर्च्छित हो गया। तब चण्ड ने भी तलवार लेकर पाण्डुनन्दन अर्जुन पर प्रहार किया; परंतु कुरुकुल-तिलक अर्जुन ने उसके खड्ग को ढाल पर रोककर उसके ऊपर अपनी तलवार से वार किया। इससे चण्ड का शिरस्त्राण सहित मस्तक धड़ से अलग हो गया। तदनन्तर अर्जुन ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी और चण्ड के मस्तक को बाण पर रखकर उसे धनुष पर खींचकर चलाया और प्रद्युम्न की सेना में उसे फेंक दिया ।उस समय जय-जयकार के साथ दुन्दुभि बजने लगी और देवता लोग अर्जुन के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे।
फिर श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न ने उसी क्षण विजयध्वज से विभूषित अपनी सेना का अर्जुन को सेनापति बन दिया। उस समय यादव-सेना के मुख्य वीरों ने हाथ में श्वेत चँवर आदि लेकर कपिध्वज अर्जुन के ऊपर हवा ही। फिर तो वेगशाली अर्बुदाधीश ने प्रद्युम्न की शरण ली। उसने डरते हुए हाथ जोड़कर नमस्कार किया और भेंट अर्पित की। मोरंग के राजा मन्दहास ने भयभीत हो महात्मा प्रद्युम्न को दस लाख घोड़े देकर नमस्कार किया। इस प्रकार भरत खण्ड पर विजय पाकर यदुकुल-तिलक श्रीकृष्ण कुमार ने हिमालय को दक्षिण दिशा करके पूर्वोतर दिशा की ओर प्रस्थान किया ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘बहुदिग्विजय नामक बाईसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 23
यादव-सेना का बाणासुर से भेंट लेकर अलकापुरी को प्रस्थान तथा यादवों और यक्षों का युद्ध
नारदजी कहते हैं- राजन् ! नदों, नदियों और समुद्रों ने भी सेना सहित महात्मा प्रद्यु्म्न को उनके तेज से धर्षित हो रथ निकलने के लिये मार्ग दे दिया। कैलास पर्वत के पार्श्वभाग बाणासुर का निवास स्थान शोणितपुर था। वहाँ श्रेष्ठ मानव-वीर यादवेश्वर प्रद्युम्न गये। यदुवंशियों को पुन: आया देख, बाणासुर को बड़ा क्रोध हुआ। उसने बारह अक्षौहिणी सेना के द्वारा उनके साथ युद्ध करने का विचार किया। इसी समय त्रिशूलधारी साक्षात पुराण पुरुष महेश्वरदेव नन्दी वृषभ पर आरुढ़ हो हिमाचल पुत्री उमा के साथ बाणासुर के पास आये और बोले।
शिव ने कहा- असुरराज ! साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण स्वयं असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति, गोलोक के स्वामी तथा परात्पर परमात्मा हैं। हम तीनों- बह्मा, विष्णु और शिव-उन्हीं की कला हैं और उनकी आज्ञा को सदा अपने मस्तक पर धारण करते है; फिर तुम जैसे सामान्य कोटि के जीवों की तो बात ही क्या। उन्हीं के पौत्र अनिरुद्ध को तुमने बांध लिया था, जिसके कारण उन्होंने अपने प्रभाव से संग्राम में तुम्हारी भुजाएँ काट डाली थीं। क्या उन श्रीहरि को तुम नहीं जानते ? अत: तुम दानवों लिये श्रीहरि के पुत्र पूजनीय हैं। अनिरुद्ध तो तुम्हारे दामाद ही हैं; अत: तुम्हारे लिये उनके पूजनीय होने में तो कोई संशय नहीं हैं। असुर पुंगव ! मैं तुम्हें युद्ध के लिये आज्ञा नहीं देता। यदि नहीं मानोगे तो अपने बल से युद्ध करो परंतु तुम्हारे मन का युद्ध-विषय संकल्प मुझे तो व्यर्थ ही दिखायी देता है।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! भगवान शिव के समझाने पर बाणासुर ने अनिरुद्ध को बुलाकर उनका पूजन किया और दहेज दिया। फिर सेना सहित प्रद्युम्न का बन्धु के समान सादर पूजन करके महाबाहु बाण ने उन महात्मा को दस हजार हाथी, पांच लाख रथ तथा एक करोड़ घोडे़ भेंट में दिया ।
महाराज ! तदनन्तर धनुर्धर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न अपने यादव सैनिकों के साथ गुह्यकों से मण्डित अलकापुरी को गये। नन्दा और अलकनन्दा ये दो गंगाऍ परिखा (खाईं) की भाँति उस पुरी को घेरे हुए हैं। वहाँ वे दोनों नदियां रत्नों की बनी हई सीढ़ियों से युक्त हैं। वह पुरी यक्ष वधुओं से सुशोभित हैं।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 23
विद्याधरों और किंनरों की सुन्दरियां सब ओर से उसकी मनोहरता को बढ़ाती हैं। दिव्य–नाग कन्याओं से सुशोभित भोगवती पुरी की भाँति गुह्य कन्याओं से अलकापुरी की शोभा हो रही थी। नरेश्वर ! कुबेर ने प्रद्युम्न को भेंट नही दी। यद्यपि वे श्रीहरि के प्रभाव को जाते थे, तथापि उन्होंने भेंट देना स्वीकार नहीं किया। अहो ! माया का बल कितना अद्भुत हैं ! मैं लोकपाल हूँ इस अज्ञान से वे सदा मोहित रहते थे। अत: बलवान यक्षों से प्रेरित होकर उन्होंने युद्ध करने का ही विचार किया क्योंकि निर्धन को यदि धन मिल जाता है तो वह सारे जगत को तृणवत मानने लगता है। फिर जो भूतल पर नवनिधियों के अधिपति हों, उनके अहंकार का क्या वर्णन हो सकता है ? मानद ! उसी समय कुबेर का भेजा हुआ हेममुकुट प्रद्युम्न के पास आकर सभा में मस्तक झुकाकर उनसे इस प्रकार बोला ।
हेममुकुट ने कहा- राजन् ! यदुकुल-तिलक अलकापुरी के स्वामी धन के अधीश्वर लोकपाल राजराज कुबेर ने जो संदेश दिया है, उसे आप सुनिये- जैसे स्वर्गलोक में प्रभु इन्द्र देवताओं के राजा कहे गये हैं, उसी प्रकार भूतल पर एकमात्र मैं ही राजाओं का महान अधिराज होने के कारण ‘राजराज’ कहा गया हूँ। यद्यपि मेरा धर्म (शील स्वभाव) मनुष्यों के ही समान है, तथापि भूतल पर राजाधिराजों ने सदा मेरा पूजन किया है। इसलिये मैं यदुराज उग्रसेन को कदापि भेंट नहीं दूँगा। यदि तुम नहीं मानोगे तो युद्ध करुंगा, इसमें संशय नहीं हैं’’ ।
नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! दूत की यह बात सुनकर भगवान प्रद्युम्न हरि कुपित हो उठे। रोष से उनकी आंखे लाल हो गयीं और होठ फड़कने लगे ।
प्रद्यम्न बोले- वृष्णिवंशियों के स्वामी उग्रसेन राजराजों के भी इन्द्र हैं। तुम्हारे स्वामी राजराज कुबेर उन्हें अच्छी तरह नहीं जानते; इन्द्रादि देवता भी उनकी चरण-पादुकाओं पर अपने मुकुट रगड़ते हैं। इन्द्र ने भय से ही उनकी सेवा में अपनी सुधर्मा सभा और पारिजात वृक्ष अर्पित कर दिये हैं।
वरुण ने श्याम वर्ण घोडे़ देकर उन्हें प्रणाम किया हैं। इन्हीं डरपोक राजराज ने उनके पास नवों निधियों पहुँचायी हैं। फिर भी उन महाबली महाराज को ये राजराज नहीं जानते। उन यादवराज की सभा में असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति साक्षात् परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण स्वयं विराजते हैं। यह सारा भूमण्डल जिनके एक मस्तक पर तिलक के समान दिखायी देते है, वे सहस्त्र मस्तक वाले अनन्तदेव भी उग्रसेन की सभा में नित्य विराजमान रहते हैं।
महाराज उग्रसेन ने मूझे महात्मा कुबेर के लिये नाराचों की भेंट देने के निमित्त यहाँ भेजा है, अत: इस समय मैं यही करुंगा ।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर प्रचण्ड पराक्रमी प्रद्युम्न ने अपना को दण्ड उठाया और भुजदण्डों से धनुष की डोरी खींचते हुए टंकार-ध्वनि की। प्रत्यंचा के आस्फोटन से की विद्युत की गड़गड़ाहट के समान भयंकर शब्द प्रकट हुआ। उसे सात लोकों तथा पातालों सहित सारा ब्रह्माण्ड गूंज उठा।
राजन ! दिग्गज विचलित हो गये, तारे टूटने लगे और भूखण्ड मण्डल हिल उठा। धनुर्धारियों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न ने तरकस से एक बाण खींचकर उसे अपने धनुष की प्रत्यंचा रखा और उसे छोड़ दिया। बारह सूर्यों के समान तेजस्वी उस बाण ने सम्पूर्ण दिङमण्डल को प्रकाशित करते हुए गुह्यकराज के छत्र और चँवर को काट दिया। यह अत्यन्त विचित्र काण्ड देखकर राजराज कुबेर के क्रोध की सीमा न रही।
वे पुष्पक विमान पर आरुढ़ हो सैनिकों के साथ युद्ध की कामना से पुरी के बाहर निकले। उनके साथ घण्टानाद और पार्श्व मौलि नामक यक्षमन्त्री भी थे। कुबेर के नलकूबर और मणिग्रीव नामक दोनों पुत्र ध्वज के अग्रभाग में सुशोभित हो रहे थे। उनकी सेना के कुछ यक्ष अश्वमुख थे, कितने ही यक्षों के मुख सिंह के समान थे। कुछ सूंस और मगर के समान मुख वाले थे, कोई आधे पीले और आधे काले थे, किन्हीं के केश ऊपर की ओर उठे थे। वे सब-के-सब मद से उन्मत्त थे। टेढे़-मेढ़ दांत, लपलपाती हुई जीभ और विशाल दंष्ट्रा वाले महाबली यक्षों के मुख विकराल दिखायी देते थे। वे कवच तथा ढाल-तलवार धारण किये हुए थे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 23
शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डि और परिघ- ये आयुध उनके हाथों में देखे जाते थे। कुछा यक्षों ने धनुष और बाण ले रखे थे और किन्हीं के हाथों में फरसे चमक रहे थे। युद्ध के लिये निकले हुए हाथी सवार, रथरोही और घुड़सवार यक्षों के सहस्त्रों मण्डल शोभा पाते थे। शंक और दुन्दुभियों की ध्वनि से तथा सूत, मागध और वन्दीजनों के स्तुति-पाठ से भूतल पर कुबेर के वीर सैनिक आकाश में विद्युतगर्जना से युक्त मेघों के समान जान पड़ते थे ।
विदेहराज ! इस प्रकार दिव्य महायोगमय सिद्ध क्षेत्र से करोड़ों मत वाले यक्ष निकल पड़े। उनके आ जाने पर प्रमथों की विशाल सेना उनकी सहायता के लिये आ पहुँची। कितने ही भूत और प्रमथ विकाराल वदन और मदोन्मत्त दिखायी देते थे। उनके साथ डाकिनियों के समुदाय, यातुधान, बैताल, विनायक, कूष्माण्ड, उन्माद, प्रेत, मातृकागण, निशाचर, पिशाच, ब्रह्मराक्षस और भैरव भी थे, जो भीषण गर्जना करते हुए ‘मारो, कोटो, फाड़ो’ की रट लगा रहे थे। इस प्रकार वहाँ करोड़ों भूतावलियां आ पहुँची, जो सांवर्तक मेघों की भाँति पृथ्वी और आकाश आच्छादित किये हुए थीं।
मोर पर बैठे हुए स्वामी कार्तिकेय तथा चूहे पर चढे़ हुए गणेशजी डमरु की ध्वनि के साथ वीरभद्र को लिये सबसे आगे आ पहुँचे। प्रमथगण उन दोनों के यश का गान कर रहे थे। इस प्रकार पुण्यजनों का यादवों के साथ तुमुल युद्ध हुआ अद्भुत और रोमांचकारी था। रथी रथियों से, पैदल पैदलों से, घोड़ों और पैदलों के पैरों से उठी हुई धूल ने सूर्य सहित आकाश मण्डल को ढक दिया ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘यादव सेना की यक्षदेश पर चढ़ाई’ नामक तेईसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 24
यादव सेना और यक्ष सेना का घोर युद्ध
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन! अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा से वहाँ अन्धकार छा जाने पर महाबली मणिग्रीव ने बाणों द्वारा वैरीवाहिनी का उसी प्रकार विध्वंस आरम्भ किया, जैसे कोई कटुवचनों द्वारा मित्रता का नाश करे। मणिग्रीव के बाण-समूहों से क्षत विक्षत हो, हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक आंधी के उखाडे़ हुए वृक्षों की भाँति धराशायी होने लगे। उस समय श्रीकृष्ण और सत्यभामा के बलवान पुत्र चन्द्रभानु ने पांच बाण मारकर मणिग्रीव के कोदण्ड को खण्डित कर किया तथा दस बाणों से उसके रथ का छेदन करके बलवान चन्द्रभानु घन के समान गर्जना करने लगे। यह देख मणिग्रीव ने भी चन्द्रभानु पर अपनी शक्ति चलायी। मैथिल ! वह शक्ति सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करती हुई बड़ी भारी उल्का के समान गिरी, परंतु चन्द्रभानु ने खेल सा करते हुए उसे बांयें हाथ से पकड़ लिया। उन्होंने उसी शक्ति के समारांगण में महाबली मणिग्रीव को घायल कर किया।
तत्पश्चात महाबली चन्द्रभानु उस रणभूमि में पुन: गर्जना करने लगे। उस प्रहार से मणिग्रीव मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। तब नलकूबर की प्रेरणा से असुरों ने बाणों का जाल-सा बिछाकर चन्द्रभानु को उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे बादल वर्षाकाल के सूर्य को ढक देते हैं । तब श्रीकृष्णपुत्र दीप्तिमान खड्ग हाथ में लेकर बडे़ वेग से यक्षों की सेना में इस प्रकार घुस गये मानो सूर्य ने कुहासे के भीतर प्रवेश किया हो। उनके खड्ग प्रहार से कितने ही यक्षों के दो-दो टुकड़े हो गये कितने ही मस्तक, पैर, कंधे, बाहें, हाथ, कान और ओठ छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण युद्ध में पृथ्वी पर गिर पडे़।
किरीट, कुण्डल और शिरस्त्राणों सहित उनके कटे हुए बीभत्स मस्तक रक्त की धारा बहा रहे थे। और उनसे ढकी हुई रणभूमि महामारी सी जान पड़ती थी। मरने से बचे हुए घायल यक्ष भय से विह्वल होकर भाग गये। मिथिलेश्वर ! उस समय यक्ष-सैनिकों में हाहाकार मच गया ।तब कवचधारी नलकूबर धनुष की टंकार करते हुए बहुत ऊँची पताका वाले रथ पर आरुढ़ हो वहाँ आ पहुँचे और ‘डरो मत’- यों कहकर अपने सैनिकों को अभयदान देने लगे। नलकूबर ने पांच बाणों से कृतवर्मा पर, दस बाणों से अर्जुन पर और बीस बाणों से दीप्तिमान पर प्रहार किया।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 24
राजन ! तब महाबाहु कृतवर्मा ने अपने सिंहनाद से सम्पूर्ण दिशाओं को निनादित करते हुए पांच विशिखों द्वारा नलकूबर को करारी चोट पहुँचायी। वे बाण नलकूबर का कवच फाड़कर शरीर को छेदते हुए सबके देखते–देखते धरातल में उसी प्रकार समा गये, जैसे सर्प बाँबी में घुस जाते हैं। कृतवर्मा के बाण से अंग विदीर्ण हो जाने के कारण नलकूबर को मूर्च्छित हुआ देख सारथि हेममाली उन्हें रणभूमि से दूर हटा ले गया। घण्टानाद और पार्श्वमौलि, कुबेर के ये दोनों मन्त्री अपने बाण-समूहों से यादवों की उद्भट सेना को घायल करने लगे। गृध्रपक्ष से युक्त सुनहले पंख और तीखे मुख वाले, मन के समान वेगशाली उन दोनों के बाण सूर्य की किरणों के समान सम्पूर्ण दिशाओं को उदासित कर रहे थे ।
तदनन्तर महावीर अर्जुन ने उन मन्त्रियों के बाणों के उत्तर में बहुत-से बाण चलाना आरम्भ किया। दोनों ओर चलने वाले बाणों के संघर्ष युद्धभूमि में हजारों विस्फुलिंग (अग्निकण) प्रकट होने लगे। नरेश्वर ! आकाश में खद्योतों की भाँति चमकने वाले वे चंचल विस्फुलिंग अलात-चक्र की भाँति शोभा पाने लगे। रण-दुर्मद वीर गाण्डीवधारी अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से छूट हुए विशिखों द्वारा उस समस्त बाण-समूह को क्षणमात्र में काट गिराया। उन्होंने बाणों के समुदाय से दो योजन के घेरे में पिंजरा-सा बना दिया और बलपूर्वक अंदर कर लिया। वे दोनों मारे गये- यह जानकर समस्त पुण्यजन तत्काल युद्ध छोड़कर हाहाकर करते हुए भाग चले। उसी समय करोड़ों भूतवृन्द युद्धभूमि में आ गये।
राजन ! कोटि-कोटि डाकिनियां रणभूमि में हाथियों को उठा-उठाकर फेंकने लगीं। मनुष्यों, घोड़ों तथा रथियों को पृथक-पृथक मुंह में डालकर चबाने लगें। साथ दस भूत दौड़ते दिखायी देते थे। प्रमथ गणों ने खट्वांग से बारंबार लोगों को मारा और गिराया। यातुधानियां रणमण्डल में नरमुण्डों को चबा रही थीं। वेतालगण खप्पर में बहुत-सा रक्त ले-लेकर पी रहे थे, विनायक नाचते और प्रेत गाते थे। कूष्माण्ड और उन्माद उस युद्ध भूमि में गिरे हुए मस्तकों का संग्रह करते थे। स्वर्गगामी वीरों के मस्तकों का उनके द्वारा किया जाने वाला वह संग्रह भगवान शिव की मुण्डमाला बनाने के लिये थे। मातृगण, ब्रह्मराक्षस और भैरव उस युद्ध में कटकर गिरे हुए मस्तकों को गेंद की तरह बारंबार उछालते-फेंकते हुए हँसते, खिलखिलाते और अट्टहास करते थे। विकाराल मुख वाले पिशाच बुरी तरह कूद-फांद रहे थे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 24
पिशाचिनियाँ युद्ध में बच्चों को गरम-गरम रक्त पिलाती थीं और बच्चों को आश्वासन देते हुए कहती थीं- बेटा ! मत रोओ। हम तुम्हें इन लोगों की आँखे भी निकाल-निकालकर देंगी ।इस प्रकार भूतगणों का बल बढ़ाता देख बलदेव के छोटे भाई बलवान गद हाथ में गदा लेकर मेघों के समान गर्जना करने लगे। लाख भार की उस मौर्वी गदा से गदने उस विशाल भूत-सेना को उसी प्रकार मार गिराया, जैसे इन्द्र वज्र से पर्वतों को धराशायी कर देते हैं। गदा की मार से मस्तक फट जाने के कारण बहुत-से कूष्माण्ड, उन्माद, वेताल, पिशाच और ब्रह्मराक्षस मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पडे़। गद ने समरांगण मे डाकिनियों के दांत तोड़ डाले, प्रमथों के कंधे विदीर्ण कर दिये और यातुधानों के मुख छिन्न-भिन्न कर डाले।
राजन ! गदा से रौंदे गये प्रेत दसों दिशाओं में उसी तरह भाग चले, जैस प्रलयकाल के समुद्र में भगवान वाराह की दाढ़ से अंग-भंग होने के कारण दैत्य पलायन कर गये थे ।भूतगणों के भाग जाने पर वीरभ्रद सामने आया। उस बलवान भूतनाथ ने बलदेव के छोट भाई गद को गदा से मारा। गद ने उसकी गदा को अपनी गदा पर रोक लिया और फिर अपनी गदा उसके ऊपर चलायी। मैथिलश्वर ! वीरभद्र और गद में बड़ा भयंकर गदायुद्ध हुआ। वे दोनों ही गदाएँ आग की चिनगारियाँ छोड़ती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। फिर एक-दूसरे को ललकारते हुए उन दोनों मे मल्लयुद्ध छिड़ गया। वे भुजाओं, घुटनों और पैरों के आघात से पर्वतों को गिराते हुए लड़ने लगे।
वीरभद्र ने बलपूर्वक करवीर पर्वत को उखाड़कर अटृहास करते हुए उसको गद के ऊपर फेंका। गद ने उस पर्वत को पकड़ लिया और फिर उसी के ऊपर उसे दे मारा। तब बलवान वीरभद्र ने वीरवर गद को पकड़कर बडे़ वेग से आकाश में लाख योजन दूर फेंक दिया। वहाँ से भूमि पर गिरने पर गद ने वीरभद्र को भी उठा लिया और वेग से घुमाकर शीघ्र ही उसे भी लाख योजना दूर फेंक दिया। वीरभद्र कैलास पर्वतों शिखर पर गिरा। गदा के प्रहार से तो वह पीड़ित था ही, अत: घड़ी तक मूर्च्छा में पड़ा रहा । तदनन्तर शक्ति उठाये स्वामी कार्तिकेय बडे़ वेग से युद्धभूमि में पहुँचे। उन्होंने अनिरुद्ध और साम्ब को लक्ष्य करके शीघ्र ही अपनी शक्ति चलायी।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 24
Prev.png
अनिरुद्ध के रथ का भेदन कर, साम्ब को घायल करके, उनके रथ को भी तोड़ती हुई वह शक्त उस युद्धभूमि में सहस्त्रों हाथियों, रथों और लाखों वीरों को मारकर दसों दिशाओं में चमकती और कड़कती हुई बिजली की तरह फुफकारती सर्पिणी के समान भूमि में समा गयी। तब क्रोध से भरे महाबाहु जाम्बवती कुमार साम्ब ने प्रत्यंचा का घोष करते हुए तरकस से एक बाण के लाख रूप हो गये और लक्ष्यों तक पहुँचते-पहुँचते उसने कोटि रूप धारण कर लिये। इस प्रकार उस अनेक रूपधारी विशिख ने शिखी और शिखिवाहन स्वामि कार्तिकेय को घायल करके समरांगण में कोटि-कोटि वीरों को विदीर्ण कर डाला ।
कार्तिकेय के क्षत-विक्षत होने और कुछ व्याकुल चित हो जाने पर चूहे पर चढे हए गणेश्वर गजानन वहाँ आ पहुँचे। उनके कुम्भस्थल पर गोमूत्र, सिन्दूर और कस्तूरी के द्वारा विचित्र पत्र-रचना की गयी थी। उनका सुन्दर वक्रतुण्ड कुमकुम से आलिप्त था। सिन्दूरपूर्ण कपोलों के कारण उनकी बड़ी मनोहर आभा दिखायी देती थी। कानों का उज्ज्वल वर्ण मानों कपूर की धूल से धवलित किया गया था। उनके कपोलों पर बहती हुई मदधारा से जिनके अंग विह्वल हो रहे थे, वे मतवाले भ्रमर उनके चंचल कर्णतालों से आहत हो, गुंजारव करते हुए मानो संगीत, ताल और वासन्तिक राग की सृष्टि कर रहे थे। उन मधुपों से सेवित भाल-चन्द्रधारी गणपति अनुपम शोभा पा रहे थे। उनकी अंग-कान्ति बाल रवि के समान अरुणोज्ज्वल थी। उनकी अंग-कान्ति बालरवि के समान अरुणोज्ज्वल थी। उनकी बांहों में निर्मल अंगद, गले में हेमनिर्मित हार और हंसुली थी तथा मस्तक पर धारण किये हुए मुकुट की किरणों के द्वारा वे सब ओर से दीप्तिमान दिखायी देते थे वे चूहे पर विराजमान थे। उनके मुख में एक ही दांत था।
गजाकार भव्य मूर्ति शोभा पा रही थी। उन्होंने हाथों में पाश, अंकुश, कमल और कुठार-समूह धारण कर रखे थे। उनका कद ऊंचा था उनके चार भुजाएं थीं। वे घोर संग्राम में प्रवृत्त थे। किन्हीं शस्त्रधारियों को सूंड़ में लपेटकर अपने अंकुश की मार से उनका कचूमर निकाल देते थे। अनेक धारवाले फरसे से समस्त शस्त्रधारियों का संहार करते हुए वे श्रीपरशुरामजी के समान जान पड़ते थे। पैदल वीरों, हाथियों, घोड़ों तथा रथ-समूहों से युक्त चतुरंगिणी सेना को धराशायी करके रथ सहित साम्ब को पकड़कर, वे युद्धस्थल से दूर फेंक रहे थे। उन्हें देखकर यादवगणों सहित प्रद्युम्न के मन में बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने अपने परम बुद्धिमान पुत्र अनिरुद्ध से यह उत्तम बात कही ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘यक्ष युद्ध का वर्णन’ नामक चौबीसवां अध्याय पूरा हुआ
विश्वजित खण्ड : अध्याय 25
प्रद्युम्न का एक युक्ति के द्वारा गणेशजी को रणभूमि से हटाकर गुह्यक सेना पर विजय प्राप्त करना और कुबेर का उनके लिये बहुत-सी भेंट-सामग्री देकर उनकी स्तुति करना; फिर प्राग्ज्योतिषपुर में भेंट लेकर प्रद्युम्न का विरोधी वानर द्विविद को किष्किन्धा में फेंक देना
प्रद्युम्न बोले- बेटा ! ये महाबली गणेश साक्षात भगवान श्रीकृष्ण की कला हैं। इन्हें देवता भी नहीं जीत सकते, फिर भूतल के मनुष्यों तो बात ही क्या है जिनके निकट इनका वास है, उनके पक्ष की पराजय नहीं होती। पूर्वकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने शिवलोक में इन्हें ऐसा ही वर दिया था। यदि ये यहाँ रहेंगे तो हम लोगों की कदापि विजय नहीं हो सकती। भगवान श्रीकृष्ण के वरदान से इनका बल बहुत बढ़ा-चढ़ा है और ये शत्रु पक्ष में चले गये हैं। इसलिये तुम प्रचण्ड मार्जार (बड़ा भारी बिलाव) होकर हुंकार करते हुए युद्धभूमि से बलपूर्वक इनके चूहे को मार भगाओ। इस महायुद्ध में अपने फूत्कारों के द्वारा दसों दिशाओं में उसे खदेड़ो। जब तक मैं शत्रु सेना पर विजय पाता हूँ, तब तक इसे शीघ्र ही दूर भगाने का प्रयास करो।
श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब भगवान अनिरुद्ध प्रचण्ड मार्जार का रूप धारण किया। वे गणेशजी से अलक्षित ही रहे। वैष्णवी माया के प्रभाव से गणेशजी उन्हें पहचान न सके। वह प्रचण्ड मार्जार विकट फुत्कार करता हुआ चूहे के सामने कूद पड़ा। राजन्। वह मुंह फाड़-फाड़कर निरन्तर उसे देखने और तीखे नखों से विशेष चोट पहुँचाने लगा। चूहा उस बिलाव को देखते ही भय से विह्वल हो गया और तुरंत कांपता हुआ रणभूमि से भाग चला। क्रोध से भरा हुआ मार्जार स्थूल रूप धारण करके उसका पीछा करने लगा। गणेशजी बारंबार उस चूहे को युद्ध भूमि की ओर लौटाने का प्रयत्न करने लगे; किंतु प्रचण्ड मार्जार से पीड़ित चूहा युद्ध भूमि की ओर नहीं लौटा, नहीं लौटा। मैथिल ! वह सात द्वीपों, सात समुद्रों, दिशाओं और विदिशाओं तथा ऊपर के सातों लोकों में भागता फिरा; किंतु उसे कहीं भी शान्ति नहीं मिली।
राजन ! गणेशजी को पीठ पर लिये वह चूहा जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ प्रचण्ड पराक्रमी मार्जार भी उसका पीछा करता रहा। इस प्रकार चूहे सहित गणेश जी जब सुदूर दिशाओं में चले गये और अपने पक्ष के सभी प्रमथगण विस्मित हो गये, तब पुष्पक विमान पर बैठे हुए कुबेर ने अपनी गुह्मक-सम्बन्धिनी माया फैलायी। अपना दिव्य धनुष लेकर, महेशवर को नमस्कार करके उन्होंने मन्त्र सहित कवच धारण किया और बाण-समूहों का संधान किया। उसी समय आकाश में प्रलय-कालिक मेघ छा गये। बिजलियों की गड़गड़ाहट और महा भयंकर मेघों की घटा से अन्धकार फैल गया। हाथी के समान मोटे-मोटे जल बिन्दु और ओले गिरने लगे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 25
बादल अत्यन्त भयंकर जल-धाराओं की वृष्टि करने लगे। क्षण भर में समस्त समुद्रों ने भूतल को आप्लावित कर लिया। ण रमण्डल में सजीव पर्वत दिखायी पड़ने लगे। प्राकृत प्रलय हुआ जान यादव भय से विह्वल हो गये। वे अस्त्र-शस्त्र त्यागकर बारंबार 'श्री कृष्णा–श्री कृष्णा’ पुकारने लगे। गुह्यकों की उस माया को जानकर भगवान श्री प्रद्युम्न हरि ने अपनी सत्त्वात्मिका विद्या को, जो समस्त मायाओं को नष्ट करने वाली है, जप कर बाण के बीच में काम बीज (क्लीं) की स्थापना की। फिर उसके मुख पर प्रणव तथा श्री बीज (ॐ) श्रीं का आधान करके उसे कान तक खींचा और चतुर्भुज श्री कृष्ण का स्मरण करके विद्युत के समान टंकार-ध्वनि करने वाले धनुष से भुजदण्डों द्वारा उस विशिख को चलाया। कोदण्ड–दण्ड से छूटे हुए उस विशिख ने दिड़्मण्डल को उद्योतित करते हुए उस गुह्यक सम्बन्धिनी माया को उसी तरह नष्ट कर दिया, जैसे सूर्यदेव अन्धकार को ध्वंस कर देते हैं।
यह देख पुष्पक पर बैठे हुए राजराज कुबेर भयभीत हो कांप उठे और यक्षों के साथ समरांगण से भागकर अपनी पुरी को चले गये। देवता लोग प्रद्युम्न के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। समस्त यादव जय-जयकार करते हुए हर्ष के साथ हंसने लगे। राजन् ! उस समय अत्यन्त हर्षित हो राजराज कुबेर हाथ जोड़, भेंट लेकर शीघ्र ही प्रद्युम्न के सामने गये। राजन् ! दो सूंडों से सुशोभित और चार दाँतों से युक्त, ऊंचाई में पर्वतों से भी होड़ लेने वाले दो लाख मदवर्षी हाथी, मोती की बंदनवारों से सुशोभित, सुवर्ण निर्मित, सूर्य तुल्य तेजस्वी एवं सौ घोड़ों खिंचे हुए दस लाख रथ, चन्द्रमा के समान श्रेवत कान्ति वाले दस अरब घोड़े, माणिक्य जटित चार लाख चमकीली शिबिकाएं तथा पिंजरों में बंद दो लाख सिंह कुबेर ने प्रद्युम्न को भेंट किये।
विदेहराज ! चीते, मृग, गवय और शिकारी कुत्ते एक-एक करोड़ की संख्या दिये। नृपेश्वर ! पिंजरों में विराजमान तोता, मैना, कोकिल, सुनहरे हंस और अन्यान्य विचित्र पक्षी राजराज ने लाख-लाख की संख्या में अर्पित किये। कुबेर ने विश्वकर्मा का बनाया हुआ विष्णुदत्त नामक एक विमान भी दिया, जिसमें मोती की झालरें लटक रही थीं। उसकी ऊँचाई आठ योजन और लंबाई चौड़ाई नौ योजन की थी। वह इच्छानुसार चलने वाला विमान सुवर्ण मय शिखरों से सुशोभित तथा सहस्त्रों सूर्यों के समान तेजस्वी था।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 25
मैथिल ! उसके अतिरिक्त सहस्त्रों कल्पवृक्ष, सैकड़ों कामधेनुएँ, सौ चिन्तामणियाँ तथा सौ दिव्य पारस पत्थर भी कुबेर ने दिये, जिन के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है। छत्र, चँवर और सोने के सिंहासन भी सौ-सौ की संख्या में भेंट किये। दिव्य पद्मों की सुन्दर केसरों से युक्त माला दी। सौ द्रोण अमृत, नाना प्रकार के फल, रत्न जटित सोने के आभूषण, दिव्य वस्त्र, दिव्य कालीन, सोने-चांदी के करोड़ों सुन्दर पात्र, अमोघ शस्त्र तथा कोटि सुवर्ण मुद्राएँ भी भेंट कीं। बोझ ढोने वाले हाथियों और मनुष्यों द्वारा सब सामान भेजकर कुबेर ने नौ निधियाँ प्रदान कीं। इस प्रकार महात्मा प्रद्युम्न को भेंट-सामग्री अर्पित करके राज राज ने उनकी परिक्रमा की और हर्ष से भरकर प्रणाम पूर्वक उनसे कहा ।
कुबेर बोले- आप भगवान महात्मा पुरुष हैं; आपको नमस्कार है। आप अनादि, सर्वज्ञ, निर्गुण एवं परमात्मा हैं। प्रधान और पुरुष-दोनों के नियन्ता और प्रत्यक-चैतन्यधाम हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। स्वयंज्योति; स्वरूप और श्यामल अंगवाले आपको नमस्कार है। आप वासुदेव को नमस्कार, संकर्षण को नमस्कार, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध एवं सात्वत-भक्तों के प्रतिपालक आपको नमस्कार है। आप ही ‘मदन’ ‘मार’ और ‘कंदर्प’ आदि नामों से प्रसिद्ध हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। दर्पक, काम, पंचबाण, अनंग तथा शम्बरासुर के शत्रु भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। हे मन्मथ ! आपको नमस्कार है।
हे मीनकेतन ! आपको नमस्कार है। आप मनोभव देव तथा कुसुमेषु ( फूलों के बाण धारण करने वाले ) हैं; आपको नमस्कार है। अनन्यज ! आपको नमस्कार है। रतिपते ! आपको बारंबार नमस्कार है। आप पुष्प धन्वा और मकर ध्वज को नमस्कार है। प्रभु स्मर ! आपको नित्य नमस्कार है। जगद्विजयी आप कामदेव को सादर प्रणाम है। भूमन् ! 'मैं यह करुँगा, यह करता हूँ’, यह मेरा है, यह तुम्हारा है’ ‘मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ’, ‘ये मेरे सुहद् लोग हैं’- इत्यादि बातें कहता हुआ यह सारा जगत अहंकार से मोहित हो रहा है। प्रधान, काल, अन्त:करण और शरीर जनित गुणों द्वारा शास्त्र विरुद्ध कर्म करने वाला जन समुदाय बन्धन में पड़ता है। वह कांच में बालक को, वालु का राशि में जल को और रस्सी में सर्प को अपनी आंखों से देखता है, भ्रम को ही सत्य मानताम है यही दशा मेरी है। मैंने मूढ़ता वश आपकी अवहेलना की है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 25
प्रभो ! आपकी माया से मेरा चित्त मोहित था, इसीलिये मुझ से ऐसा अपराध बन गया। परंतु जैसे पिता बालक के अपराध को अपने मन में स्थान नहीं देता, उसी प्रकार आप भी मेरे अपराध को भुला देंगे। आपकी कृपा से फिर मेरी ऐसी बुद्धि कभी न हो। आपके चरणारविन्दों में सदा मेरी परा भक्ति बनी रहे, जिसे सर्वोत्कृष्ट माना गया है। आप मुझे वैराग्य युक्त जान, जो परम कल्याण का आधार है, प्रदान करें और अपने भक्तजनों के प्रशस्त सत्संग का अवसर देते रहें।
श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! जो प्रात:काल उठकर प्रद्युम्न के कल्याणमय स्तोत्र का पाठ करेगा, उसके संकट काल में साक्षात श्री हरि सदा सहायक होंगे।
राजन् ! इस प्रकार स्तुति करने वाले यक्षराज कुबेर से भगवान प्रद्युम्न हरि ने कहा- ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा। फिर उन्होंने सिर पर धारण करने योग्य पद्वराग मणि दी। 'डरो मत'- यों कहकर, अभयदान दे, यादवेश्वर प्रद्युम्न ने कुबेर को लीला-छत्र, चंवर और मणिमय सिंहासन प्रीति-पुरुस्कार के रूप में प्रदान किये। तदनन्तर प्रद्युम्न की परिक्रमा करके धनेश्वर राजराज चले गये। महात्मा प्रद्युम्न के द्वारा राजराज कुबेर की पराजय हुई सुनकर किन्हीं राजाओं ने भी उनके साथ युद्ध नहीं किया। सब ने सादर भेंट अर्पित की।
तत्पश्चात् महाबाहु प्रद्युम्न बहुत-सी दुन्दुभियों का घोष फैलाते हुए सारी सेना के साथ प्राग्ज्योतिषपुर को गये। वहाँ भौमासुर के पुत्र नील ने उनके तेज से तिरस्कृत हो तत्काल उन महात्मा प्रद्युम्न के लिये उपहार सामग्री अर्पित कर दी। प्राग्ज्योतिषपुर के द्वार पर द्विविद नामक महाबली वानर रहता था, जिसे पहले प्रद्युम्न ने बाण मारा था। उसने रोष के आवेश में उठकर अपने दांतों और तीखे नखों से बहुत से वीरों और घोड़ों को विदीर्ण कर दिया और भौंहें टेढ़ी करके वह जोर-जोर से गर्जना करने लगा। उसने बहुत से रथों को अपनी पूंछ में बांधकर खारे पानी के समुद्र में फेंक दिया और दोनों हाथों से हाथियों को पकड़कर बलपूर्वक आकाश में उछाल दिया। श्री कृष्णकुमार प्रद्युम्न ने उस वानर को शत्रुता के भाव से युक्त जानकर उसके विरुद्ध र्शाग्ड धनुष द्वारा एक बाण चलाया। उस बाण ने उसे सहसा उठाकर बलपूर्वक आकाश में घुमाया और पूर्ववत उस महाकपि को किष्किन्धा में ले जाकर पटक दिया। फिर वह प्रकाशमान बाण प्रद्युम्न के तरकस में लौट आया ।
_____________________
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘यक्ष-देश पर विजय’ नामक पचीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 27
प्रद्युम्न द्वारा गरुडास्त्र का प्रयोग होने पर गीधों के आक्रमण से यादव-सेना की रक्षा; दशार्ण देश पर विजय तथा दशार्ण मोचन तीर्थ में स्न्नान
श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! हरिवर्ष नामक खण्ड सम्पूर्ण सम्पदाओं से सम्पन्न है। मिथिलेश्वर ! उसकी सीमा साक्षात निषध पर्वत है। वीरों के को दण्डों की टंकार ध्वनि से वहाँ का वन्य प्रान्त व्याप्त हो जाने पर, वहाँ से एक-एक कोस के लंबे शरीर और तीखी चोंच वाले महागृध्र तथा गरुड़ पक्षी उड़े। नरेश्वर ! खण्ड सम्पूर्ण सम्पदाओं से सम्पन्न है। मिथिलेश्वर ! उसकी सीमा साक्षात निषध पर्वत है। वीरों के कोदण्ड़ों टंकार-ध्वनि से वहाँ का वन्य प्रान्त व्याप्त हो जाने पर, वहाँ से एक-एक कोस के लंबे शरीर और तीखी चोंच वाले महागृध तथा गरुड़ पक्षी उड़े।
नरेश्वर ! वे सब-के-सब दीर्घायु और भूखे थे। उन्होंने यादव सैनिकों, हाथियों और घोड़ों को भी अपना ग्रास बनाना आरम्भ किया। आकाश पक्षियों से व्याप्त हो गया। उनकी पांखों की हवा से आंधी-सी उठने लगी।
सेना में अन्धकार छा गया और महान हाहाकार होने लगा। तब महाबाहु श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न ने गरुड़ास्त्र का संधान किया। उस अस्त्र से साक्षात विनतानन्दन पक्षिराज गरुड़ प्रकट हो गये। अन्धकार से भरी हुई उस सेना में पहुँचकर पक्षिराज ने अपनी चोंच और चमकीले पंखों की मार से कितने ही गीधों, कुलिग्ड़ों और गरुड़ों को धराशायी कर दिया। उन सबका घमंड चूर हो गया, पंख कट गये और वे सब पक्षी क्षत विक्षत हो गरुड़ के भय से घबराकर दसों दिशाओं में भाग गये ।
तदनन्तर महाबाहु श्रीकृष्ण कुमार दशार्ण जनपद में गये। दशार्ण देश के राजा शुभांग सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। युद्ध में उनका बल दस हजार हाथियों के समान हो जाता था। वे निष्कौशाम्बपुरी के अधिपति थे। वेदव्यास के मुख से प्रद्युम्न का प्रचण्ड पौरुष सुनकर वे दशार्णा नदी पार करके आ गये थे। शुभांग ने हाथ जोड़कर किरीट सहित अपना मस्तक झुका दिया और महात्मा प्रद्युम्न को उत्तम रत्नों की भेंट दी। सर्वत्र व्यापक और सर्वदर्शी साक्षात भगवान प्रद्युम्न ने शुभांग से लोक संग्रह की इच्छा से इस प्रकार पूछा ।
प्रद्युम्न ने कहा- निष्कौशाम्बीपुरी के अधीश्वर राजन् ! यह देश 'दशार्ण' क्यों कहलाता है किसके नाम पर इसका ऐसा नाम हुआ है, यह मुझे बताइये ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 27
शुभांग ने कहा- पूर्वकाल में भगवान नृसिंह हिरण्यकशिपु को मारकर प्रह्लाद के साथ यहाँ आये और हरि वर्ष में बस गये। भक्तवत्सल भगवन नृसिंह ने प्रह्लाद से कहा ।
नृसिंह बोले- पुत्र ! तुम मेरे शान्त–भक्त हो, तथापि तुम्हारे पिता का मेरे द्वारा वध हुआ है; अत: महामते ! मैं तुम्हारे वंश में अब और किसी को नहीं मारूँगा ।
शुभांग कहते हैं- रुकिमणीनन्दन ! इस प्रकार कहते हुए भगवान नृसिंह के दोनों नेत्रों से आनन्दजनित जल बिन्दु पृथ्वी पर गिरे। उन बिन्दुओं से ‘मंगलायन सरोवर’ प्रकट हो गया। तब वर प्राप्त धर्मात्मा प्रह्लाद हर्ष विह्वल हो दोनों हाथ जोड़कर भगवान नृसिंह से बोले ।
प्रह्लाद ने कहा- भक्तजन प्रति पालक परमेश्वर ! मैंने माता-पिता की सेवा नहीं की; अत: मैं उनके ऋण से कैसे मुक्त होऊँगा ।
नृसिंह बोले- महाभाग ! तुम मेरे नेत्र जल से प्रकट हुए इस मंगलायन तीर्थ में स्नान करो। इससे तुम दस प्रकार के ऋणों से छुटकारा पा जाओगे। माता, पिता, पत्नी, पुत्र, गुरु, देवता, ब्राह्मण, शरणागत, ऋषि तथा पितरों का ऋण ‘दशार्ण’ कहलाता है। जो इस महातीर्थ में स्नान कर लेगा, वह सबकी अवहेलना में तत्पर हो तो भी दस प्रकार के ऋणों से छुटकारा पा जायगा- इसमें संशय नहीं है।
शुभांग कहते हैं- कयाधू-कुमार प्रह्लाद इस ‘दशार्ण मोचन तीर्थ’ में सन्नान करके सब ऋणों से मुक्त हो गये। वे आज भी निषधगिरि से यहाँ इस तीर्थ में नहाने के लिये आया करते हैं। दशार्ण मोचन तीर्थ के निकट का देश ‘दशार्ण’ कहलाता है। उसी के स्त्रोत से प्रकट हुई यह नदी ‘दशार्णा’ कहलाती है।
नारद जी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर भगवान प्रद्युम्न ने समस्त परिकरों के साथ दशार्ण मोचन तीर्थ में स्न्नान और दान किया। नरेश्वर ! जो दशार्ण मोचन की कथा भी सुन लेगा, वह दस ऋणों से मुक्त हो जायगा और मोक्ष का भागी होगा ।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘दशार्ण देश पर विजय’ नामक सत्ताईसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 28
उत्तर कुरु वर्ष पर यादवों की विजय; वाराहीपुरी में राजा गुणाकर द्वारा प्रद्युम्न का समादर
श्रीनारद जी कहते हैं- राजन् ! इसके बाद महाबाहु प्रद्युम्न सुमेरु के उत्तरवर्ती और श्रृंगवान पर्वत के पास बसे हुए विचित्र समृद्धिशाली ‘उत्तर कुरु’ नामक देश में गये। वहाँ ‘भद्रा’ नाम की गंगा में स्नान करके वे वाराही नगरी में जा पहूंचे, जहाँ कुरु वर्ष के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट गुणाकर राज्य करते थे। राजा गुणा करने बड़ी भारी सामग्री का संचय करके देवर्षि गणों से घिरे रहकर दसवें अश्व मेध यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया था। उन्होंने एक मनोहर श्रेतवर्ण श्याम कर्ण अश्व छोड़ा था और उनके पुत्र वीर धन्वा उस अश्व की रक्षा के लिये निकले थे। प्रचण्ड-पराक्रमी महावीर वीर धन्वा उस घोड़े की देख-भाल करते हुए दस अक्षौहिणी सेना के साथ विचर रहे थे।
वीर, चन्द्र, सेन, चित्रगु, वेगवान, आम, शकु्ड वसु, श्रीमान और कुन्ति-नाग्रजिती के इन दस पुत्रों ने सब ओर से शुभ्र घोड़े को घेरकर पकड़ लिया और हर्ष से भरे हुए वे ‘यह किसका छोड़ा हुआ घोड़ा है- यों कहते हुए प्रद्युम्न की सेना के पास आये। उसके ललाट में बंधे हुए पत्र को पढ़कर प्रद्युम्न को बड़ा विस्मय हुआ। समस्त यादव हाथों में उत्तम आयुध लिये विस्मय में पड़े हुए थे ।
नरेश्वर ! इतने में ही उस घोड़े को खोजती हुई वीरधन्वा की सेना वहाँ आ पहुँची। उसकी सेना के लोग यादव वाहिनी से उड़ती हुई धूल को देखकर आश्चर्य चकित हो दूर ही खड़े रह गये। वे मन-ही-मन सोचने लगे-‘प्रचण्ड पराक्रमी राजा गुणाकर के शासन-काल में कुरु खण्ड मण्डल में दस्यु किंवा लुटेरे कहीं नहीं हैं। गौओं के चरकर लौटने का भी समय नहीं हुआ है। कहीं से बवण्डर उठा हो, यह भी नहीं जान पड़ता। फिर यह सूर्य मण्डल को आच्छादित कर लेने वाला धूल-समूह कहाँ से आया दूसरी सेना के लोग जब इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी समय धनुष की टंकार, हाथियों की चिग्घाड़, गजराजों की चीत्कार, घोड़ों की हिनहिनाहट तथा रणवाद्यों की ध्वनि- इन सबकी मिली-जुली आवाज सुनायी दी।
तब श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न की प्रेरणा से उद्धवजी तुरंत ही वीर धन्वा की सेना में पहुँचकर, रथ पर बैठे हुए गुणाकर के औरस-पुत्र सूर्य तुल्य तेजस्वी वीरधन्वा को प्रणाम करके उनसे इस प्रकार बोले- ‘राजन् ! भूपालों के इन्द्र द्वारकाधीश, यदुकुल-भूषण महाराज उग्रसेन जम्बू द्वीप के राजाओं को जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे। उनकी प्रेरणा से धनुर्धरों में श्रेष्ठ वीर प्रद्युम्न भारत वर्ष, किम्पुरुष वर्ष तथा हरिवर्ष को जीतकर उत्तर कुरुवर्ष में पधारे हैं। उत्तर कुरु वर्ष के स्वामी भी महात्मा प्रद्युम्न को अवश्य भेंट देंगे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 28
दस अक्षौहिणी सेना के साथ आये हुए प्रद्युम्न का कुबेर ने भी पूजन किया है, अत: तुम्हें भी महात्मा प्रद्युम्न को उपहार देना चाहिये। उनके द्वारा बांधे गये यज्ञ पशु को लौटा लेने की शक्ति इस भूतल पर और किसमें है साक्षात भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र उनके सहायक हैं। यदि उपहार-दान और सम्मान करो, तब तो भला होगा; अन्यथा युद्ध होना अनिवार्य है।
वीरधन्वा ने कहा- राजाधिराज गुणाकर का पूजन तो देवराज इन्द्र ने भी किया है, अत: वे महात्मा प्रद्युम्न को भेंट नहीं देंगे। रमणीय श्रृंगवान पर्वत पर भगवान वराह विद्यमान हैं, जिनकी सेवा भूमि देवी सदा अत्यन्त आदर के साथ करती हैं। उन्हीं के क्षैत्र में राजा गुणा करने भगवान वराह के ध्यान पूर्वक तपस्या की है। दस हजार वर्ष पूर्ण होने पर वाराह रूप धारी भगवान हरि ने संतुष्ट होकर अपने भक्त राजा से कहा- 'वर मांगो ! राजा ने श्रीहरि को नमस्कार करके पुलकित और प्रेम से विह्वल होकर कहा- 'भगवान् ! आपको छोड़कर दूसरा कोई देवता, असुर अथवा मनुष्य मुझे भूतल पर जीतने वाला न हो, यही मेरा अभीष्ट वर है। तब 'तथास्तु' कहकर भगवान वहीं अन्तर्धान हो गये। इसलिये महाराज गुणाकर के यश: स्वरूप अश्व को आप लोग स्वत: छोड़ दें। नहीं तो, मैं आप लोगों के साथ युद्ध करूँगा, इसमें संशय नहीं है।
श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! वीरधन्वा के यों कहने पर उद्धव ने वहाँ से शीघ्र अपनी सेना में आकर वहाँ जो बात हुई, वह सब यादवों की सभा में सुना दी। तब श्रुतकर्मा, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, एकल, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सोमक कालिन्दी के ये दस पुत्र प्रद्युम्न के देखते-देखते दस अक्षौहिणी सेना के साथ युद्ध के लिये आगे आ गये। फिर तो प्रचण्ड पराक्रमी उत्तर कुरुवासियों के साथ यादव-वीरों का इस प्रकार तुमूल युद्ध होने लगा, जैसे दो समुद्र आपस में टकरा गये हों। चमकते हुए तीखे अस्त्र शस्त्रों से वीर शिरोमणियों की बड़ी शोभा होने लगी। क्षणमात्र में रक्त की बड़ी शोभा होने लगी। क्षणमात्र में रक्त की बड़ी भयंकर नदी बह चली। राजेन्द्र। वह रुधिर की नदी सौ योजन तक फैल गयी। तब मरने से बचे हुए उत्तर कुरु के लोग भाग चले-ठीक उसी तरह जैसे शरतकाल आने पर बादलों के समूह छिन्न भिन्न हो जाते हैं ।
कालिन्दी के बलवान पुत्र महावीर पूर्णमास ने अपने बाण-समूहों द्वारा वीरधन्वा के रथ को चूर-चूर कर दिया। वीरधन्वा ने रथहीन हो जाने पर भी बारंबार धनुष की टंकार करते हुए महाबली पूर्ण मास पर बीस बाणों से प्रहार किया, परंतु पूर्णमास ने स्वयं भी बाण मारकर उन बीसों बाणों के बीच से दो-दो टुकड़े कर दिये।
राजेन्द्र ! वीरधन्वा ने भी एक बाण मारकर पूर्ण मास की गम्भीर ध्वनि करने वाली प्रत्यंचा को उसी तरह काट दिया, जैसे कोई कटुवचन से मित्रता को खण्डित कर देता है। तब महाबली पूर्णमास ने लाख भार की बनी हुई भारी गदा हाथ में ले तुरंत ही वीरधन्वा ने दे मारी। गदा के प्रहार से व्यथित हो मदोत्कट योद्धा वीरधन्वा ने श्रीकृष्ण पुत्र पूर्णमास पर परिघ से प्रहार किया। तब पूर्णमास ने उठकर पवन नामक पर्वत को उखाड़ लिया। फिर उन श्री हरिकुमार ने दोनों हाथों से उस पर्वत को उखाड़ लिया। फिर उन श्री हरिकुमार ने दोनों हाथों से उस पर्वत को घुमाकर वाराहीपुरी में वेग पूर्वक फेंक दिया। वीरधन्वा उस पर्वत पर ही थे, उत: वे भी उसके साथ गुणाकर के यज्ञ स्थल में जा गिरे और मुंह से रक्त वमन करते हुए मूर्च्छित हो गये। उनका युद्ध विषयक वेग नष्ट हो गया था ।
उस समय वाराहीपुरी में महान हाहाकार मच गया। देवताओं और मनुष्यों की दुन्दुभियां बज उठीं। देवताओं ने पूर्ण मास के ऊपर फूलों की वर्षा की। अपने पुत्र को मूर्चिछत हुआ देख राजा गुणाकर यज्ञ स्थल से उठकर खड़े हो गये और उन्होंने अपना दिव्य को दण्ड लेकर युद्ध करने का विचार किया। धर्मज्ञों में श्रेष्ठ और सर्वज्ञ विद्वान मुनीन्द्र वामदेव उस यज्ञ में होता थे। उन्हें युद्ध में जाने के लिये उद्यत देख वामदेवजी ने उनसे कहा
वामदेवजी बोले- राजन् ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतारने और भक्तों की रक्षा करने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्रीकृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिये सम्पूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 28
गुणाकर ने कहा- ब्रह्मन ! आप परावर वेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं; अत: मुझे परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण का लक्षण बताइये ।
वामदेवजी बोले-जिनके अपने तेज में अन्य सारे तेज लीन हो जाते हैं, उन्हें साक्षात परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि कहते हैं। अंशांश, अंश, आवेश, कला तथा पूर्ण अवतार के ये पांच भेद हैं। व्यास आदि महर्षियों ने छठा परिपूर्णतम तत्व कहा है। दूसरा नहीं: क्योंकि उन्होंने एक कार्य के लिये आकर करोड़ों कार्य सिद्ध किये हैं।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! श्रीकृष्ण का माहात्म्य सुनकर राजा गुणाकर ने वैर छोड़ दिया और भेंट उपहार लेकर वे प्रद्युम्न का दर्शन करने के लिए आये। श्रीकृष्ण कुमार की परिक्रमा करके राजा ने उन्हें नमस्कार किया और भेंट देकर नेत्रों से अश्रु बहाते हुए वे गदगद वाणी में बोले।
गुणाकर ने कहा- प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज के दिन मेरा कुल पवित्र हआ। आज मेरे सारे क्रतु और सम्पूर्ण क्रियाएँ आपके दर्शन से सफल हो गयीं। परेश ! भूमन ! आपके चरणों की भक्ति ही परमार्थरुपा हैं। साधु पुरुषों के संग से आपकी वह परा भक्ति हमें सदा प्राप्त हो। आप ही अपने भक्तों पर कृपा करने वाले साक्षात भक्तवत्सल भगवान हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।
प्रद्युम्न ने कहा- राजन् ! आपको ज्ञान और वैराग्य से युक्त प्रेम लक्षणा भक्ति तो प्राप्त ही है, मेरे भक्तों का संग भी आपको मिलता रहे। आपके यहाँ भागवती श्री सदा बनी रहे।
श्री नारद जी हैं- राजन् ! यों कहकर प्रसन्न हुए भक्तवत्सल श्रीकृष्ण कुमार भगवान प्रद्युम्न ने राजा को अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा लौटा दिया।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘उत्तरकुरु वर्ष पर यादवों की विजय’ नामक अट्ठाईसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 29
प्रद्युम्न की हिरण्मयवर्ष पर विजय; मधुमक्खियों और वानरों के आक्रमण से छुटकारा; राजा देवसख से भेंट की प्राप्ति तथा चन्द्रकान्ता नदी में स्नान किया।
श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! महाबाहु श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न उत्तरकुरुवर्ष पर विजय पाकर ‘हिरण्मय’ नामक वर्ष को जीतने के लिये गये, जहाँ ‘स्त्रोत’ नाम का विशाल एवं दीप्तिमान सीमा पर्वत शोभा पाता है। वहाँ कूर्मावतारधारी साक्षात भगवान श्रीहरि विराजते हैं और अर्यमा उनकी आराधना में रहते हैं। हिरण्मय वर्ष में ‘पुष्पमाला’ नदी के तट पर ‘चित्रवन’ नाम से प्रसिद्ध एक विशाल वन है, जो फूलों और फलों के भार से लदा रहता है। कंद और मूल की तो वह स्वत: निधि ही है। मैथिलेश्वर ! वहाँ नल और नील के वंशज वानर रहते हैं, जिन्हें त्रेतायुग में भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने स्थापित किया था। सेना का कोलाहल सुनकर वे युद्ध की कामना से बाहर निकले और भौंहें टेढ़ी किये, क्रोध के वशीभूत हो, उछलते हुए प्रद्युम्न की सेना पर टूट पड़े। नरेश्वर ! वे नखों, दाँतों और पूँछों से घोड़ों, हाथियों और मनुष्यों को घायल करने लगे। रथों को अपनी पूँछों में बाँधकर वे बलपूर्वक आकाश में फेंक देते थे। कुछ वानर विजय-ध्वजनाथ के विजय रथ को और अर्जुन के कपिध्वज रथ को लागु्डल में बांधकर आकाश में उड़ गये।
कपिध्वज अर्जुन की ध्वजा पर साक्षात भगवान कपीन्द्र हनुमान निवास करते थे। वे अर्जुन के सखा थे। उन्होंने कुपित हो सम्पूर्ण दिशाओं में अपनी पूंछ घुमाकर उन आक्रमणकारी वानरों को बांध-बांधकर पृथ्वी पर पटकना आरम्भ किया। तब उन्हें पहचानकर समस्त श्रीराम किंकर वानर हर्ष से भर गये। राजन् ! उन वानरों ने हाथ जोड़कर धीरे-धीरे सब ओर से आकर पवनपुत्र को प्रणाम किया। कुछ आलिंगन करने लगे, कुछ वेग से उछलने लगे और कुछ वानर उनकी पूंछ और पैरों को चूमने लगे। महावीर अंजनी कुमार ने उन्हें हृदय से लगाकर उनके शरीर पर हाथ फेरा और उन्हें आशीर्वाद देकर उनका कुशल-समाचार पूछा। नरेश्वर ! उन्हें प्रणाम करके सब वानर चित्र वन में चले गये और हनुमानजी अर्जुन के ध्वजा में अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर मीनध्वज प्रद्युम्न मकर नामक देश से होते हुए वृष्णिवंशियों के साथ बार-बार दुन्दुभि बजवाते हुए आगे बढ़े। मकरगिरि के पास उनकी दुन्दुभियों की ध्वनि सुनकर मधु भक्षण करने वाली करोड़ों मधुमक्खियाँ उड़कर आ गयीं। उन्होंने सारी सेना को डँसना आरम्भ किया। उस समय हाथी भी चीत्कार कर उठे। तब महाबाहु श्रीकृष्णकुमार ने वायव्यास्त्र का संधान किया। राजन् ! उस अस्त्र से उठी हुई वायु से प्रताडित हो वे सब मधुमक्खियाँ दसों दिशाओं में उड़ गयीं। मिथिलेश्वर ! उस देश के सभी मनुष्यों के मुख मगर-से थे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 29
उसके बाद डिण्डिभ देश आया, जहाँ हाथियों के समान मुख वाले लोग दिखायी दिये। इस प्रकार अनेक देशों का दर्शन करते हुए श्रीकृष्णकुमार त्रिश्रृंग देश में गये। वहाँ भी उन्होंने श्रृंगधारी मनुष्य देखे। जिसमें सोने के पास स्वर्ण चर्चिका नाम की नगरी थी। जिसमें सोने के महल शोभा पाते थे। वह दिव्यपुरी रत्न निर्मित परकोटों से सुशोभित थी। मंगल की निवासभूता वह नगरी चन्द्रकान्ता नदी के तट पर विराजमान थी।
राजन् ! जैसे इन्द्र अमरावतीपुरी में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार प्रद्युम्न ने उस पुरी में पदार्पण किया। जैसे नागों और नागकन्याओं से भोगवतीपुरी की शोभा होती है, उसी प्रकार विद्युत की-सी दीप्ति वाले सुवर्ण सदृश गौरवर्ण के स्त्री पुरुषों से वह स्वर्ण चर्चित का नगरी सुशोभित थी। वहाँ के बलवान राजा महावीर देवसख नाम से प्रसिद्ध थे। उन्होंने मेरे मुंह से यादव-सेना के बल का वृत्तान्त सुनकर भेंट की सुवर्णमय सामग्री ले, बड़े भक्ति भाव से प्रद्युम्न का पूजन किया। महाबाहु भगवान प्रद्युम्न हरि ने उनसे पूछा-‘आप सब लोगों की शोभा चन्द्रमा के समान है यह मुझे शीघ्र बताइये।
देवसख बोले- यदूत्तम ! पितरों के स्वामी अर्यमा ने कूर्मरूपधारी भगवान लक्ष्मीपति के दोनों चरणों का जिस जल से प्रक्षालन किया, उस चरणोदक से एक महानदी प्रकट हो गयी, जो श्वेत-पर्वत के शिखर से नीचे को उतरती है। एक समय की बात है- मनु के पुत्र प्रमेधा को उनके गुरु ने गौओं की रक्षा का कार्य सौंपा था। उन्होंने रात्रि के समय सिंह की आशक्ड़ा से तलवार चलाकर बिना जाने एक कपिला गौ का वध कर दिया। तब गुरुवार वसिष्ठ के शाप से वे शूद्रत्व को प्राप्त हो गये और उनका शरीर कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गया। तब वे तीर्थों में विचरने लगे। इस नदी में स्न्नान करके वे मनु पुत्र गलित कुष्ठ रोग से मुक्त हो गये और उनके शरीर की कान्ति चन्द्रमा के समान हो गयी। तभी से हिरण्मय वर्ष के भीतर यह नदी ‘चन्द्रकान्ता’ नाम से प्रसिद्ध हुई। जब से भीतर यह नदी ‘चन्द्रकान्ता नदी में स्न्नान करके गलित-कुष्ठ से मुक्त हुए, तब से हम सब लोग नियमपूर्वक इस नदी में स्न्नान करने लगे। नृपोत्तम ! यही कारण है कि इस पृथ्वी पर हम लोग चन्द्रमा के तुल्य रूप वाले हैं, इसमें संशय नहीं है।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर महाबाहु प्रद्युम्न ने यादवों के साथ चन्द्रकान्ता नदी में स्न्नान करके अनेक प्रकार के दान दिये।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘हिरण्मय वर्ष पर विजय’ नामक उन्तीसवां अध्याय पूरा हुआ।
गर्ग संहिता विश्वजित खण्ड : अध्याय 30
रम्यक वर्ष में कलंक राक्षस पर विजय; नै:श्रेयसवन, मानवी नगरी तथा मानव गिरि का दर्शन; श्राद्धदेव मनु द्वारा प्रद्युम्न की स्तुति श्री नारदजी कहते हैं- राजन ! इस प्रकार हिरण्मयखण्ड पर विजय पाकर महाबली प्रद्युम्न देवलोक की भाँति प्रकाशित होने वाले रम्यक वर्ष में गये। उसका सीमा-पर्वत साक्षात गिरिराज ‘नील’ है। उसके उत्तरवर्ती काले देश में भयंकर नाद से परिपूर्ण ‘भीमनादिनी’ नाम की नगरी है। वहाँ कालनेमि का पुत्र कलंक नाम का राक्षस रहता था, जो त्रेतायुग में श्रीरामचन्द्रजी से डरकर युद्ध भूमि से भाग आया था। वह लंकापुरी से यहाँ आकर राक्षसों के साथ निवास करता था। उसने दस हजार राक्षसों के साथ यादवों से युद्ध करने का निश्चय किया। काले रंग का वह राक्षसराज गधे पर आरुढ़ हो यादव सेना के सामने आया। यादवों और राक्षसों में घोर युद्ध होने लगा। प्रघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, सह, ओज, महाशक्ति तथा अपराजित-लक्ष्मणा के गर्भ से उत्पन्न हुए श्रीकृष्ण के ये दस कल्याण स्वरूप पुत्र तीखे और चमकीले बाणों की वर्षा करते हुए सबसे आगे आ गये। जैसे वायु के वेग से बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार उन्होंने बाण समूहों द्वारा राक्षस सेना को तहस नहस कर दिया। उनके बाणों से अंग छिन्न-भिन्न हो जाने पर वे रणदुर्मद राक्षस मदमत्त हो यादव सेना पर त्रिशूलों और मुद्ररों की वर्षा करने लगे। उस समय राक्षसराज कलंक हाथियों तथा रथियों को चबाता हुआ आगे बढ़ा। वह घोड़ों और अस्त्र–शस्त्रों सहित मनुष्यों को तत्काल मुंह में डाल लेता था। हौदों, रत्नजटित झूलों तथा घण्टानाद से युक्त हाथियों को पैरों की ओर से उठाकर बलपूर्वक आकाश में फेंक देता था। तब श्रीहरि के पुत्र प्रघोष ने कपीन्द्रास्त्र का संधान किया। उस बाण से साक्षात वायुपुत्र बलवान हनुमान प्रकट हुए। उन्होंने जैसे वायु रुई को उड़ा देती है, उसी प्रकार उस राक्षस को आकाश में सौ योजन दूर फेंक दिया। तब हनुमानजी को पहचान कर राक्षसराज कलंक ने गर्जना करते हुए लाख भार की बनी हुई भारी गदा उनके ऊपर फेंकी। हनुमानजी वेग से उछले और वह गदा भूमि पर गिर पड़ी। उछलते हुए वानरराज ने, बार-बार भौहें टेढ़ी करते हुए कलंक को एक मुक्का मारा और उसका किरीट ले लिया। तब कलंक को एक मुक्का मारा और उसका किरीट ले लिया। तब कलंक ने भी उस समय उन्हें मरने के लिये अपना त्रिशुल हाथ में लिया; किंतु वे कपीन्द्र हनुमान वेग से उछलकर उसकी पीठ पर कूद पड़े और दोनों हाथों से पकड़कर उसे भूमि पर गिरा दिया। फिर वैदूर्य पर्वत को ले जाकर उसके ऊपर डाल दिया। पर्वत के गिरने से उसका कचूमर निकल गया, उसके सारे अंग चूर-चूर हो गये और वह मृत्यु का ग्रास बन गया
विश्वजित खण्ड : अध्याय 30
उस समय शंख ध्वनि के साथ जय-जयकार होने लगी और साक्षात भगवान वहीं अन्तर्धान हो गये। देवताओं ने प्रद्युम्न पर फूलों की वर्षा की। फिर अपनी सेना से घिरे हुए महाबाहु प्रद्युम्न मनु की स्वर्णमयी मनोहारिणी नगरी में गये। वहाँ नै:श्रेयस नामक वन था, जो कल्पवृक्षों तथा कल्पलताओं से घिरा हुआ था। हरिचन्दन, मन्दार और पारिजात उस वन की शोभा बढ़ाते थे। संतान वृक्ष के पुष्पों की सुगन्ध से मिश्रित वायु उस वन में सुवास फैला रही थी। केतकी, चम्पालता और कुटज पुष्पों से परिसेवित वह वन माधवी लताओं के पुष्प फल समन्वित समूह से व्याप्त था। कलरव करते हुए विहंगमों के वृन्द से वह वन वैकुण्ठलोक सा सुन्दर प्रतीत होता था। वहाँ चारुधि नाम से प्रसिद्ध एक पर्वत था, जिसकी लंबाई पांच सौ योजन थी। राजन् ! उस पर्वत के निचले भाग का विस्तार सौ योजन का था। नरकोकिल, कोकिलाएं, मोर, सारस, तोते, चकवे, चकोर, हंस और दात्यूह (पपीहा) नामक पक्षी वहाँ कलरव करते थे। सभी ऋतुओं के फूलों की शोभा से सम्पन्न वह नै:श्रेयसवन नन्दन वन को तिरस्कृत करता था। मिथिलेश्वर ! वहाँ मृगों के बच्चे सिंहों के साथ खेलते थे। नेवले सर्पों के साथ वैर विहीन होकर रहते थे। वहाँ भ्रमरों के गुज्जारव से युक्त दस हजार सरोवर थे, जिसमें दीप्तिमान शतदल और सहस्रदल कमल शोभा दे रहे थे। इधर-उधर सब ओर वर्तमान वह सुन्दर वन मूर्तिमान आनन्द–सा जान पड़ता था। सर्वज्ञ विद्वान प्रद्युम्न ने उस वन की शोभा देखकर निकले हुए नागरिकों से यह अभीष्ट प्रश्न पूछा।
प्रद्युम्न बोले- हे पवित्र शासन में रहने वाले लोगों ! यह रमणीय नगरी किसकी है और यह अद्भुत वन भी किसका है आप लोग विस्तारपूर्वक सब बात बतायें।
उन लोगों ने कहा- नरेश्वर ! वैवस्वत मनु, जो इस समय रमणीय मानव पर्वत पर मत्स्यावतारधारी भगवान नारायण हरि की आराधना में लगे हैं और यहाँ सदा निवास करने वाले मत्स्य भगवान की वन्दनापूर्वक बड़ी भारी तपस्या करते हैं, उन्हीं की यह रमणीय नगरी है और उन्हीं का यह नै: श्रेयसवन है। यहाँ की भूमि और यह पर्वत दोनों वैकुण्ठलोक से लाये गये हैं। आप सब राजा, जो इस पृथ्वी पर विराजमान हैं, इन्हीं वैवस्वत मनु के वंशज हैं, चाहे वे सूर्यवंश के हों या चन्द्रवंश के ।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन् ! समस्त क्षत्रियों के उन वृद्ध प्रपितामह श्राद्धदेव मनु का परिचय पाकर श्री कृष्णकुमार प्रद्युम्न बड़े विस्मित हुए। लोगों की बात सुनकर तत्काल भाइयों से तथा अन्य यादवों से घिरे हुए प्रद्युम्न ने मानव गिरि पर चढ़कर भगवान श्राद्धदेव का दर्शन किया। वे सौ सूर्यों के समान तेजस्वी जान पड़ते थे और अपनी कान्ति से दसों दिशाओं का प्रकाशित कर रहे थे। वे महायोगमय राजेन्द्र शान्त रूप थे। महाराज ! वे वेदव्यास और शुक आदि से तथा वसिष्ठ और बृहस्पति आदि से परस्पर श्रीहरि का यश सुनते थे। यादवों के साथ प्रद्युम्न ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और वे उनके सामने खड़े हो गये। श्रीहरि के प्रभाव को जानने वाले मनु ने उन्हें उठकर आसन दिया और गद्गदवाणी में इस प्रकार कहा ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 30
मनु बोले- वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध रूप से प्रकट आप भक्तजन-प्रतिपालक प्रभु को नमस्कार है। आप ही अनादि, आत्मा तथा अन्तर्यामी पुरुष हैं। आप प्रकृति से परे होने के कारण सत्त्वादी तीनों गुणों से अतीत है। प्रकृति को अपनी शक्ति से वश में करके गुणों द्वारा श्रेष्ठ विश्व की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। अत: अज्ञानकल्पित इस प्रपच्च को सब ओर से छोड़कर इस सम्पूर्ण जगत को मन का संकल्प मात्र जानकर माया से परे जो निर्गुण आदि पुरुष, सर्वज्ञ, सबके आदि कारण, अन्तर्यामी एवं सनातन परमात्मा है, उन्हीं आपका मैं आश्रय लेता हूँ। जो इस विश्व सो जाने पर भी जागते हैं; जिन्हें जगत के लोग नहीं जानते; जो सत से परे, सर्वद्रष्टा एवं आदि पुरुष हैं; जिन्हें अज्ञानीजन नहीं देख पाते; जो सर्वथा स्वच्छ-शुद्ध-बुद्ध स्वरूप हैं, उन आप परमात्मा का मैं भजन करता हूँ। जैसे आकाश घट से, अग्नि काष्ठ से तथा वायु अपने ऊपर छाये हुए धूलकणों से लिप्त नहीं होते, उसी प्रकार आप समस्त गुणों से निर्लिप्त हैं। जैसे स्फटिक मणि दूसरे-दूसरे रंगों के सम्पर्क से उस रंग की दिखायी देने पर भी स्वरूपत: परम उज्ज्वल हैं, उसी प्रकार आप भी परम विशुद्ध हैं। व्यंजना, लक्षणा अथवा अभिधा शक्ति से, वाणी के विभिन्न मार्गों से तथा स्फोटपरायण वैयाकरणों द्वारा भी परमार्थ-पद का सम्यग्ज्ञान नहीं प्राप्त किया जाता। साधु वाच्यार्थ एवं उत्तम ध्वनि के द्वारा भी जिसका बोध नहीं हो पाता, वही ब्रह्म लौकिक वाक्यों द्वारा कैसे जाना जा सकता है। जिसे इस पृथ्वी पर कुछ लोग (मीमांसक) ‘कर्म’ कहते हैं, कुछ लोग (नैयायिक) ‘कर्ता’ कहते हैं, कोई ‘काल’ कोई ‘परमयोग’ और कोई ‘विचार’ बताते हैं, उसे ही वेदान्त वेत्ताज्ञानी ‘ब्रह्म’ कहते हैं। जिसे इस लोक में कालज गुण, ज्ञानेन्द्रियां, चित्त, मन और बुद्धि नहीं छू पाती है तथा वेद भी जिसका वर्णन नहीं कर पाते, वह ‘परब्रह्म’ है। जैसे चिनगारियाँ अग्नि में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार सारे तत्व उस परब्रह्म में ही विलीन होते हैं। जिसे संतलोग ‘हिरण्यगर्भ’ ‘परमात्म तत्व‘ और ‘वासुदेव’ कहते हैं, ऐसे ब्रह्मस्वरूप आप ही ‘पुरुषोत्तमोत्तम’ हैं- यह जानकर मैं सदा असंग भाव से विचरण करता हूँ।[1] श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! मनु का यह वचन सुनकर उस समय भगवान प्रद्युम्न हरि मन्द-मन्द मुस्कराते हुए गम्भीर वाणी द्वारा उन्हें मोहित करते हुए से बोले । प्रद्युम्न ने कहा- महाराज् ! आप हम क्षत्रियों के आदिराजा, पितामह, वृद्ध श्लाघनीय तथा धर्म धुरंधर हैं। राजन् ! हम लोग आपके द्वारा रक्षणीय तथा सर्वत: पालनीय प्रजा हैं। आप जो दिव्य तप करते हैं, उससे जगत को सुख मिलता है। आप जैसे साधुपुरुष परमात्मा श्री हरि के स्वरूप हैं; अत: वे ही सदा ढूंढने योग्य हैं। साधु पुरुष ही मनुष्यों के अन्त:करण में छाये हुए मोहान्धकार का हरण करते हैं, सूर्यदेव नहीं। श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! यो कहकर मनु को प्रणाम करके, उनकी अनुमति ले, परिक्रमा करके, भगवान श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न स्वयं नीचे की भूमि पर उतर गये।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘मानव देश पर विजय’ नामक तीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 31
उन्होंने बलवान धेनुकासुर को बलपूर्वक ताड़ के वृक्ष पर दे मारा और ताड़-फल लेकर चले आये। फिर यमुना के जल में कूदकर सहसा कालियानाग को जा पकड़ा और उसके फनों पर नृत्य करके उसे जल से बाहर निकाल दिया। तदनन्तर वे दावानल को पी गये और बलरामजी के सहयोग से शीघ्र ही सुदृढ़ मुष्टि का प्रहार करके उन्होंने प्रलम्बासुर को मौत के घाट उतार दिया। वन में मधुर स्वर से वेणु बजाकर उन्होंने व्रज-बधुओं को वहाँ बुला लिया और उनके मुख से अपनी कीर्ति का गान सुना। यमुना में नग्न स्नान करने वाली गोप-किशोरियों के दिव्य वस्त्र चुराये और वन में ब्राह्मण-पत्नियों के दिये हुए भात का ग्वाल बालों के साथ भरपेट भोजन किया। इन्द्र पूजा बंद करके गोवर्धन पूजा चालू करने पर जब पर्जन्य देव घोर वर्षा करने लगे, तब कृपापूर्वक उन्होंने पशुओं की रक्षा करने के लिये गोवर्धन पर्वत को छन्न की भाँति उठा लिया-ठीक उसी तरह जैसे साधारण बालक गोबर छत्ता उठा ले। जैसे गजराज अनायास कमल का फूल उठा लेता हैं, उसी प्रकार एक हाथ पर पर्वत उठाये भगवान को देखकर शचीपति इन्द्र ने इनकी स्तुति की। वरुण लोक में जाकर वहाँ से नन्दजी को सुरक्षित ले आये तथा स्वजनों को भगवान ने अन्धकार से परे अपने दिव्य परमधाम गोलोक का दर्शन कराया। श्री रास मण्डल में उपस्थित हो भगवान ने व्रज सुन्दरियों के साथ रास-क्रीड़ा की और यमुना-पुलिन पर गोपांगनाओं के साथ विहार किया।
व्रज सुन्दरियों को अपने मादक यौवन पर अभिमान करते देख उनके उस मान का अपहरण करने के लिये भगवान उनके बीच से अन्तर्धान हो गये। तब उनके दर्शन के लिये व्याकुल हुई व्रजांगनाएँ उन्हीं की कीर्ति का गान करने लगीं। तदनन्तर विरह से व्याकुल हुई उन व्रजबालाओं के बीच फूलों के हार धारण किये, मनोहर रूपधारी साक्षात मदन मोहन श्रीहरि पुन: प्रकट हो गये। वृन्दावन में श्याम सुन्दर ने शबर राज की परम सुन्दरी किशोरियों के साथ उसी प्रकार रमण किया, जैसे आदिदेव भगवान विष्णु अपनी विभूतियों के साथ रमण करते हैं। उस समय बड़े-बड़े देवताओं ने उनकी स्तुति की। उन माधव ने रास-रंगस्थली में केयूर, कुण्डल और किरीट आदि आभूषणों से मनोहर वेष धारण करके रमण किया। भगवान ने अम्बिका वन में नन्दराज को अजगर के मुख से छुड़ाकर उस सर्प को भी मोक्ष प्रदान किया। शंखचूड़ यक्ष से उसकी मणि ले ली। गोपों ने उनकी स्तुति की और उन्होंने वृषभरूप धारी अरिष्टासुर का एक ही हाथ से उसे मार डाला। कंस को बड़ा भय हो गया था, इसलिये उसने केशी को भेजा। वह मेघ के समान काला एवं प्रचण्ड शक्तिशाली दानव था। भगवान ने उसे एक बार पकड़कर छोड़ दिया। तब श्रीकृष्ण ने उसके मुंह के भीतर अपनी बाँह डाल दी और इस युक्ति से उसे मार डाला।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 31
भगवान नारद ने जिनकी सौभाग्य-लक्ष्मी का अनेक प्रकार से वर्णन किया है, उन परमात्मा श्रीहरि ने व्योमासुर को भी प्राणहीन कर दिया। अक्रूर के द्वारा उन आदिदेव के महान ऐश्वर्य का वर्णन किया गया। वे गोपीजनों के अत्यन्त विरहातुर चित्त को भी चुराने वाले हैं। उन्होंने अपने हितकारी श्र्वफल्कपुत्र अक्रूर को जल के भीतर अपना दिव्य रूप दिखाकर फिर समेट लिया। उनके साथ वे परमेश्वर मथुरा के उपवन में पहुँचे और ग्वाल-बालों तथा बलरामजी के साथ उन्होंने मथुरापुरी का दर्शन किया। स्वच्छन्दतापूर्वक मधुपुरी में विचरते हुए श्रीहरि ने कटुवादी रजक को मौत के घाट उतार दिया। अपने प्रेमी दर्जी को उत्तम वर दिये, फूलों की माला अर्पित करने वाले माली पर कृपा की, कुब्जा को सीधी करके सुन्दरी बनाया और कंस की यज्ञशाला में रखे हुए धनुष को नवाते हुए सहसा उसे तोड़ डाला। रंगशाला के द्वार पर कुवलयापीड हाथी का वध करके दो राजकीय पहलवानों को रंगभूमि में पछाड़कर कंस को भी जा पकड़ा और उसे अखाड़े में गिराकर प्राणशून्य कर दिया। फिर माता-पिता को कैद से छुड़ाकर महान शक्तिशाली उग्रसेन को मथुरापुरी का राजा बना दिया। नन्दजी को प्रसन्न करके बहुत भेंट दी; गोपों को बुलाकर उन सब को धन से तृप्त करके बहुत कुछ निवेदन किया और उन्हें व्रज को लौटाकर वे गुरु के घर में विद्या पढ़ने के लिये गये। वहाँ अध्ययन समाप्त करके श्रीकृष्ण ने समुद्रवासी पंचजन नामक दानव का वध करने के पश्चात् गुरु के मरे हुए पुत्र को यमलोक से लाकर दक्षिणा के रूप में उन्हें अर्पित किया। उद्धव को भेजकर अपने प्रेम संदेश से गोपीजनों को अनुगृहीत किया और अक्रूर को हस्तिनापुर भेजकर पाण्डवों का समाचार जाना। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने बलवान जरासंध को पराजित करके मुचुकुन्द दृष्टि से प्रकट हुई अग्नि के द्वारा कालयवन को भस्म कर दिया ।
इसके बाद अपने रहने के लिये श्रीहरि ने अद्भुत पुरी कुशस्थली का निर्माण कराके कुण्डिनपुर से भीष्मक-कन्या रुक्मिणी का अपहरण किया। अपने पुत्र के द्वारा शत्रु शम्बरासुर का वध कराया तथा युद्ध में ऋक्षराज जाम्बवान को जीतकर उनसे प्राप्त हुई मणि राजा उग्रसेन को दे दी। तत्पश्चात परमेश्वर श्री कृष्णा सत्यभामा के पति हुए। उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित का वध करने वाले शतधन्वा का सिर काट लिया और कुछ काल के बाद सूर्य पुत्री यमुना के साथ विवाह किया। इसके बाद उन्होंने अवन्ति राजकुमारी मित्रवृन्दा का हरण किया तथा स्वयंवर-ग्रह में सात वृषभों का दमन करके श्रीकृष्ण ने कोसलराज नग्रजित की पुत्री सत्या का पाण्रिहण किया। तत्पश्चात् केकयराज कन्या भद्रा का हरण किया और सम्पूर्ण मद्र देश के राजा की पुत्री लक्ष्मणा को स्वयंवर में जीता। युद्ध-भूमि में शस्त्र समूहों द्वारा सेना सहित भौमासुर को जीतकर सोलह सहस्त्र सुन्दरियों को वे ब्याह लाये। सत्यभामा की इच्छा से उन्होंने केवल पत्नी को साथ लेकर स्वर्ग में इन्द्र को परास्त किया और वहाँ से पारिजात वृक्ष तथा सुधर्मा सभा को वे उठा लाये। उन्होंने द्युत-सभा में बलरामजी के द्वारा दुष्ट रुक्मी को मरवा डाला और बाणासुर की सहस्त्र भुजाओं में से दो को छोड़कर शेष सबके सौ-सौ टुकड़े कर डाले। उन परमात्मा ने राजा उग्रसेन के राज सूययज्ञ की सिद्धि के निमित्त सम्पूर्ण जगत को भेजा, जो भूमण्डल के समस्त राजाओं को जीतकर यहाँ केतुमाल पति पर विजय पाने के लिये आये हैं। उनको हमारा नमस्कार है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 31
श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सब सुनकर प्रसन्न हो महामनस्वी श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न हरि ने उन लोगों को कुण्डल, कड़े, हीरा, मणि, हाथी और घोड़े पुरस्कार के रूप में दिये। उस मन्मथशालिनी पुरी में महान प्रजापति व्यति संवत्सर ने प्रद्युम्न को नमस्कार करके भेंट अर्पित की। तदनन्तर महाबाहु प्रद्युम्न दिव्य कामवन में गये, जो अन्य साधारण लोगों के लिये अगम्य था; केवल प्रजापति की पुत्रियाँ उसमें जा सकती थीं। वह सुन्दर वन साक्षात कामदेव का क्रीड़ास्थल था और कामास्त्र के तेज से चारों ओर से सुरक्षित था। वहाँ नारियों का गर्भ प्राणशून्य होकर गिर पड़ता था, वर्ष भर भी टिक नहीं पाता था।
राजन् ! उस समय उस उत्कृष्ट कामवन से फूलों के पाँच बाण लिये पुष्पधन्वा कामदेव निकले। उनके श्याम शरीर पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। उनका रूप अत्यन्त मनोहर था। उन्होंने अपने धनुष की प्रत्यंचा का गम्भीर घोष फैलाया। उनके बाण का स्पर्श होते ही यादव-वीर अपने सैनिकों, घोड़ों हाथियों और पैदलों के साथ स्वत: काम मोहित होकर गिर पड़े। उनके बाण के वेग का वर्णन नहीं हो सकता। तदनन्तर मिल जाता है। नरेश्वर ! सैनिकों सहित समस्त यादव जगदीश्वरों के भी ईश्वर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न उसी समय काम देव के स्वरूप में विलीन हो गये, जैसे पानी पानी में मिल जाता है। नरेश्वर ! सैनिकों सहित समस्त यादव रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न को कामदेव का पूर्ण स्वरूप कामदेव के स्वरूप में विलीन हो गये, जैसे पानी-पानी में जानकर तत्काल चकित हो गये।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘मन्मथ देश पर विजय’ नामक इकतीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 32
भद्राश्व वर्ष में भद्रश्रवा के द्वारा प्रद्युम्न का पूजन तथा स्तवन; यादव-सेना की चन्द्रावती पुरी पर चढ़ाई; श्री कृष्ण कुमार वृक के द्वारा हिरण्याक्ष-पुत्र हृष्ट का वध
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! तदनन्तर महाबाहु श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न केतुमाल वर्ष पर विजय पाकर, धनुष धारण किये, योग समृद्धियों से युक्त ‘भद्राश्व वर्ष’ में गये, जिसकी सीमा का पर्वत साक्षात ‘गन्धमादन’ बड़ी शोभा पाता है, जहाँ से पापनाशिनी गंगा ‘सीता’ नाम से प्रवाहित होती हैं। वहाँ सर्व पापनाशक ‘वेद क्षैत्र’ नामक महातीर्थ है, जहाँ महाबाहु हयग्रीव हरि का निवास है। धर्म पुत्र भद्रश्रवा उनकी सेवा करते हैं। सीता-गंगा के पुलिन पर महात्मा प्रद्युम्न की सेना के शिविर पड़ गये, जो सुनहरे वस्त्रों के कारण बड़े मनोहर जान पड़ते थे। भद्राश्व देश के अधिपति धर्मपुत्र महाबली महात्मा भद्रश्रवा ने भक्ति भाव से परिक्रमा करके श्रीकृष्ण कुमार को प्रणाम किया और उन्हें भेंट अर्पित की। फिर वे उनसे बोले।
भद्रश्रवा ने कहा- प्रभो ! आप साक्षात पूर्ण परिपूर्णतम भगवान हैं। साधु पुरुषों की रक्षा के निमित्त ही दिग्विजय के लिये निकले हैं। भगवन् ! आप ने पूर्व काल में शम्बर नामक दैत्य को परास्त किया था। उसका छोटा भाई उत्कच बड़ा दुष्ट था, जो गोकुल में छकड़े पर जा बैठा था। वह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारा मारा गया; परंतु उसका बड़ा भाई महादुष्ट बलवान शकुनि अभी जीवित है। देव ! वह आप से ही परास्त होने योग्य है, दूसरा कोई कदापि उसे जीत नहीं सकता।
प्रद्युम्न ने पूछा- धर्मनन्दन ! दैत्यराज शकुनि किसके वंश में उत्पन्न हुआ हैं, उसका निवास किस नगर में है और उसका बल क्या है- यह बताइये।
भद्रश्रवा ने कहा- भगवन् ! कश्यप मुनि के द्वारा दिति के गर्भ से दो आदि दैत्य उत्पन्न हुए, जिसमें बड़े का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे का नाम हिरण्याक्ष था। हिरण्याक्ष के भी नौ पुत्र हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं- शकुनि, शम्बर हष्ट, भूत-संतापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु तथा उत्कच। देव कूट से दक्षिण दिशा में जठरगिरि की तराई में चन्द्रावती नामक पुरी है, जो दैत्यों के दुर्ग से सुशोभित है। वहाँ छ: भाइयों से घिरा हुआ शकुनि निवास करता है। वहाँ छ: भाइयों से घिरा हुआ शकुनि निवास करता हैं, तब-तब वह उनके इन्द्र आदि देवता भी उद्विग्न हो उठे हैं। देव ! वह देवद्रोही दैत्यराज आप से ही जीते जाने योग्य है; क्योंकि आपने भक्तों की शान्ति के लिये सम्पूर्ण जगत को जीता है। आप भगवान प्रद्युम्न को नमस्कार है। चतुर्व्यूह रूप आपको प्रणाम है। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु तथा वेदों के प्रतिपालक है। आपको नमस्कार है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 32
नारदजी कहते हैं- राजन् इस प्रकार प्रार्थना करने पर साक्षात भगवान प्रद्युम्न हरि ने राजा भद्रश्रवा को ‘डरिये मत’ यों कहकर अभयदान दिया। तदनन्तर महाबाहु प्रद्युम्न ने अपनी सेना के साथ चद्रावतीपुरी में पहुँचने के लिये वहाँ से तत्काल प्रस्थान किया। शकुनि को मेरे मुँह से यह समाचार मिल गया कि ‘तुम्हें मारने के लिये यदुकुल तिलक प्रद्युम्न आ रहे हैं। यह सुनकर उस दैत्यराज ने दैत्यों की सभा में शूल उठाकर कहा।
शकुनि बोला- बड़े सौभाग्य और प्रसन्नता की बात है कि मेरा शत्रु प्रद्युम्न स्वयं यहाँ आ रहा है। दैत्यों ! मुझे उस परास्त करना है; क्योंकि मुझ पर मेरे भाई का ऋण पहले से ही चढ़ा हुआ है। जिसने पूर्व काल में यादवों सहित उस प्रद्युम्न को मार डालूँगा। इसलिये असुरों ! तुम लोग जाओ प्रद्युम्न को मार डालूँगा। इसलिये असुरों ! तुम लोग जाओ और उसकी सेना का विध्वंस करो। तत्पश्चात् मैं उसका, देवराज इन्द्र का और देवताओं का भी वध करूँगा।
नारद जी कहते हैं- राजन् ! शकुनि की आवाज सुनकर महाबली दैत्य हृष्ट एक करोड़ दैत्यों की सेना साथ लिये यादव-सेना के सम्मुख युद्ध के लिये आया। लीला से ही मानव-शरीर धारण करने वाले भगवान प्रद्युम्न ने अपनी सम्पूर्ण सेना का गृधव्यूह बनाया, अर्थात् गृध्र की आकृति में अपनी सेना को खड़ा किया। गृधव्यूह में चोंच के स्थान पर धनुर्धर शिरोमणि अनिरुद्ध खड़े हुए, ग्रीवा-भाग में अर्जुन तथा पृष्ठ भाग में जाम्बवती कुमार साम्ब विराजमान हुए। राजन् ! दोनों पैरों की जगह दीप्तिमान् और गद खड़े हुए, उदर भाग में पार्षिण और पुच्छ भाग में श्रीकृष्ण कुमार भानु थे। नरेश्वर ! सीता गंगा के तट पर यादवों के साथ दैत्यों का उसी प्रकार घोर युद्ध हुआ, जैसे समुद्र समुद्रों से टकरा रहे हों। जैसे बादल जल की धारा बरसाते हैं, उसी प्रकार दानव यादवों बाण, त्रिशूल, मुसल, मुदर, तोमर तथा ऋष्टियों की वृष्टि करने लगे।
राजन् ! सेनाओं के पैरों से उड़ी हुई अपार धूल ने सूर्य और आकाश को आच्छांदित कर दिया। किसी को अपना बाण भी नहीं दिखायी देता था। जैसे वर्षा के बादल सूर्य को आच्छादित करके अन्धकार फैला देते हैं, वही दशा उस समय हुई थी। वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महाश, पावन, वहि और दसवें क्षुधि-मित्र वृन्दा के दस पुत्र दानवों के साथ युद्ध करने लगे। जब बाणों से अन्धकार छा गया, तब श्रीहरि कुमार वृक बारंबार धनुष की टंकार करते हुए सबसे आगे आ गये। वे बाण-समूहों से दैत्यों को विदीर्ण करने लगे, जैसे कोई कटूवचनों से मित्रता तो खण्डित करे। उन्होंने दैत्य-सेना के हाथियों, रथों और पैदल वीरों को धराशायी कर दिया। वे कवच और धनुष कट जाने के कारण समरांगण में गिर पड़े।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 32
Prev.png
वृक के बाणों से जिनके पैर कट गये थे, वे आंधी के उखाड़े हुए वृक्षों की भाँति धरती पर गिर गये। किन्हीं के मुंह नीचे की ओर थे और किन्हीं के ऊपर की ओर। राजन् ! बाण समूहों से भुजाओं के छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण वे रणभूमि में फूटे हुए बर्तनों के ढेर-से शोभित होते थे। उस रणमण्डल में हाथी बाणों की मार से दो टूक होकर पड़े थे और छुरी से काटे गये कूष्माण्ड के टुकड़ों के समान प्रतीत होते थे। इसी समय महाबली हृष्ट सिंह पर चढ़कर आया। उसने दस बाण मारकर वृक के कवच और धनुष की प्रत्यच्चा को काट डाला। फिर चार बाणों से चारों घोड़े, दो बाणों से सारथि और तीन बाणों से ध्वज खण्डित कर दिये। फिर बीस बाण मारकर उस दानवराज ने वृक के रथ को नष्ट कर दिया। धनुष कट गया, घोड़े और सारथि मार डाले गये, तब वृक दूसरे रथ पर जा चढ़े तथा रोष पूर्वक धनुष हाथ में लिया। इतने में ही असुर हष्ट ने वृक के उस धनुष को भी काट डाला। तब यादव पुंगव वृक ने गदा हाथ में लेकर सिंह के मस्तक पर तथा उसकी पीठ पर बैठे हुए दैत्य पर भी प्रहार किया। तब क्रोध से भरे हुए सिंह ने समरांगण में उछलकर अपने नखों, दाँतों और पंजों से अनेक योधाओं को मार गिराया। उसकी जीभ लपलपा रही थी, अयाल चमक रहे थे। उसने भीषण हुंकार करके वृक को उसी भाँति गिरा दिया, जैसे हाथी केले के तने को धराशायी कर दे।
नरेश्वर ! वृक ने उस सिंह को दोनों हाथों से पकड़कर पृथ्वी पर दे मारा। फिर वे उसके ऊपर चढ़कर वैसे ही गर्जने लगे, जैसे एक पहलवान दूसरे पहलवान को पटककर उसकी छाती पर चढ़ बैठै और गर्जने लगे। जब वह सिंह पुन: उछलने और उनके शरीर को बलपूर्वक चबाने लगा, तब बलवान मित्र वृन्दाकुमार ने उसके ऊपर एक मुक्का मारा। उनके मुक्के की मार से सिंह ने दम तोड़ दिया। तब कुपित हुए दैत्यप्रवर हृष्ट ने उनके ऊपर शीघ्र ही शूल फेंका। किंतु बड़ी भारी उल्का के समान तेजस्वी उस शूल को वृक ने तलवार से उसी प्रकार टूक-टूक कर दिया, जैसे गरुड़ अपनी तीखी चोंच के प्रहार से किसी सर्प के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। हृष्ट ने भी अपनी तलवार लेकर गर्जना की और भूतल को कंपाते हुए उसने महाबली वृक के मस्तक पर उसके द्वारा प्रहार किया। तब बलवान वृक ने तलवार की म्यान पर दैत्य के वार को रोका तथा अपने खड्ग के द्वारा दैत्य के कंधे पर चोट पहुँचायी। उस खड्ग से दैत्य का सिर कटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। किरीट और कुण्डलों से युक्त वह मस्तक गिरे हुए कमण्डलु के समान शोभा पाता था।। महाराज ! हृष्ट के मारे जाने पर शेष दैत्य भय से व्याकुल हो भागकर चन्द्रावतीपुरी को चले गये। उस समय देवताओं और मनुष्यों की दुन्दुभियाँ बज उठीं और देवता लोग वृक के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित -खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'हृष्ट दैत्य का वध' नामक बत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 33
संग्रामजित के हाथ से भूत-संतापन का वध
नारदजी कहते हैं- राजन् ! हृष्ट को मारा गया सुनकर शकुनि के क्रोध की सीमा न रही। उसने देवताओं को भी भय देने वाले अपने भाइयों को भेजा। भूत-संतापन नामक दैत्य हाथी पर चढ़कर निकला। वृक दैत्य गधे पर और कालनाभ सूअर पर चढ़कर आया। महानाभ मतवाले ऊंट पर तथा हरिशमश्रु तिमिंगिल (अतिकाय मगरमच्छ) पर बैठकर निकला। मयासुर का बनाया हुआ एक विजय शील रथ था, जिस पर वैजयन्ती पताका फहराती थी। इसलिये वह ‘वैजयन्त’ और ‘जैत्र’ कहलाता था। उसका विस्तार पाँच योजन का था और उसमें एक हजार घोड़े जुते हुए थे। वह मायामय रथ इच्छानुसार चलने वाला तथा सैकड़ों पताकाओं से सुशोभित था। उसमें एक हजार कलश लगे थे और मोती की झालरें लटक रही थीं। वह रत्नमय आभूषणों से विभूषित तथा सौ चन्द्रमाओं के समान उज्जवल था। उसमें एक हजार पहिये लगे थे तथा उसमें लटकाये गये बहुत-से घंटे उसकी शोभा बढ़ाते थे। शकुनि उसी रथ पर आरुढ़ हो सबसे पीछे युद्ध की इच्छा से निकला। मैथिलेश्वर ! उसके साथ बारह अक्षौहिणी दैत्यों की सेना थी। धनुषों की टंकार, वीरों के सिंहनाद, घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों की घरघराहट तथा हाथियों की चीत्कारों से मानो समस्त दिड्मण्डल गर्जना कर रहा था। दैत्य सेना के अभियान से समस्त भूमण्डल कांप ने लगा। नरेश्वर ! अनेकानेक पर्वत धराशायी हो गये। समुद्र विक्षुब्ध हो उठे और अपनी मर्यादा को लांघ गये। देवताओं ने तुरंत ही अमरावतीपुरी के दरवाजे बंद कर लिये और वहाँ अर्गला डाल दी। उस भीषण सेना को देखकर धनुर्धारियों में श्रेष्ठ, बलवान तथा धैर्यशाली वीर श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न यदुकुल के श्रेष्ठ वीरों से इस प्रकार बोले।
प्रद्युम्न ने कहा- वीरो ! भूतल पर जो हमारा यह शरीर है, पांच भूतों का बना हुआ है, फेन के समान क्षणभंगुर है, कर्म और गुण आदि से इसका निर्माण हुआ है। इसका आना-जाना लगा रहता है तथा यह काल के अधीन है। यह जगत बालकों के रचे हुए खिलवाड़ के समान है। विद्वान पुरुष इसके लिये कभी शोक नहीं करते। सात्त्विक पुरुष ऊर्ध्वलोक में गमन करते हैं, राजस मनुष्य मध्यलोक में स्थित होते हैं और तामस जीव नीचे के नरक लोकों में जाते हैं। इन तीनों से जो भिन्न हैं, वे बारंबार कर्मानुसार विचरते हुए नाना योनियों में जन्मते-मरते रहते है। यह लोक सब ओर से भयगस्त है; जैसे नेत्रों के घूमने से धरती व्यर्थ ही घूमती-सी प्रतीत होती है, उसी प्रकार यह मन: कल्पित सम्पूर्ण जगत भ्रान्त होता है। जैसे कांच (दर्पण आदि) में प्रतिबिम्बित अपने ही स्वरूप को देखकर बालक मुग्ध होता है, उसी प्रकार यहाँ सब कुछ भ्रान्ति पूर्ण है। जैसे मण्डलवर्ती जनों का सुख अस्थिर होता है, उसी प्रकार पाताल निवासियों का भी सुख अचल नहीं है। यज्ञों द्वारा उपलब्ध देवताओं के सुख को भी इसी प्रकार चंचल समझना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष यही सोचकर समस्त सांसारिक सुख को तिनके के समान त्याग देते हैं।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 33
ऋतु के गुण, देह के गुण और स्वभाव प्रतिदिन जाते परिवर्तित होते रहते हैं; उसी प्रकार मनुष्यों का भी आवागमन लगा रहता है। यहाँ जो-जो दृश्यमान वस्तु है, वह कोई भी सत्य नहीं है। जैसे यात्रा में राहगीरों का समागम होता है और फिर सब-के सब जहाँ-तहाँ चले जाते हैं, उसी प्रकार यहाँ सब आगमापायी है, कुछ भी स्थिर नहीं है। जैसे इस लोक में देखी हुई वस्तु उल्का या विद्युविलास के समान अस्थिर है, उसी प्रकार पारलौकिक वस्तु के विषय में भी समझना चाहिये। उन दोनों से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है अत: सर्वत्र परमेश्वर श्रीहरि को देखते हुए कल्याण मार्ग का निश्चय करके सदा उसी पर चलना चाहिये। जैसे जल पात्रों के समूह में सर्वत्र एक ही चन्द्रमा प्रतिबिम्बित होता है तथा जैसे समिधाओं के समदाय में एक ही अग्नि तत्व का बोध होता है, उसी प्रकार एक ही परमात्मा भगवान स्वयं निर्मित देहधारियों के भीतर और बाहर अनेक-सा जान पड़ता है। जो ज्ञाननिष्ठ है, अत्यन्त वैराग्य का आश्रय ले चुका है, भगवान श्रीकृष्ण का भक्त है और किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता, वह तपोवन में निवास करे या घर में, उसे तीनों गुण सर्वथा स्पर्श नहीं करते। इसीलिये संन्यासी, जिसने परात्पर ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, सदा सुखी एवं आनन्दमय हो बालक की तरह विचरता है।
जैसे मदिरा के मद से अन्धा हुआ मनुष्य यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर है या गिर गया, उसी प्रकार सिद्ध पुरुष समस्त सिद्धियों के कारण भूत शरीर के विषय में यह नहीं देखता कि वह प्रारब्ध वश है या गिर गया अथवा कहीं आता है या जाता है। जैसे सूर्योदय होने पर सारा अन्धकार नष्ट हो जाता है और घर में रखी हुई वस्तु लोगों को यथा वस्थित रूप से दिखायी देने लगती है, उसी प्रकार ज्ञानोदय होने पर अज्ञानान्धकार मिट जाता है और अपने शरीर के भीतर ही परब्रह्म प्रकाशित होने लगता है। जैसे इन्द्रियों के पृथक-पृथक मार्ग से तीनों गुणों के आश्रय भूत परमार्थ वस्तु का उन्नयन (सम्यग्ज्ञान) नहीं हो सकता, उसी प्रकार अनन्त परमात्मा का एक मात्र अद्वितीय धाम मुनियों के बताये विभिन्न शास्त्र मार्गों द्वारा पूर्णत: नहीं जाना जा सकता। कुछ लोग वैष्णव धाम को ‘परम पद’ कहते हैं, कोई वैकुण्ठ को परमेश्वर का ‘परम धाम’ बताते हैं, कोई अज्ञानान्धकार से परे जो शान्त स्वरूप परम ब्रह्म है, उसे ‘परम पद’ मानते हैं और कुछ लोग कैवल्य मोक्ष को ही ‘परम धाम’ मानते हैं और कुछ लोग कैवल्य मोक्ष को ही ‘परमधाम’ की संज्ञा देते हैं। कोई अक्षरतत्व की उत्कृष्टता का प्रतिपादन करते हैं, कोई गोलोकधाम को ही सब का आदि कारण कहते हैं तथा कुछ लोग भगवान की निज लीलाओं से परिपूर्ण निकुज्ज को ही ‘सर्वोत्कृष्ट पद’ बताते हैं। मननशील मुनि इन सबके रूप में श्रीकृष्ण पद को ही प्राप्त करता है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 33
नारद जी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न की यह बात सुनकर, धैर्यवर्धक ज्ञान प्राप्त करके, हर्ष और उत्साह से भरे हुए समस्त यादव-श्रेष्ठ वीरों ने शस्त्र ग्रहण कर लिये। फिर तो सीता-गंगा के तट पर यादवों के साथ दैत्यों का तुमुल युद्ध हुआ-वैसे ही, जैसे समुद्र के तट पर वानरों के साथ राक्षसों का हुआ था। रथी रथियों से, पैदल पैदलों से, घुड़सवार घुड़सवारों से गजारोही गजाहियों से जूझने लगे। महावतों से प्रेरित हुए, हौदों से सुशोभित कुछ उन्मत्त गजराज मेघाडम्बर से युक्त गिरि राजों के समान दिखायी देते थे। राजन् ! वे समरांगण में रथियों, घुड़सवारों तथा पैदल वीरों को धराशायी करते हुए विचर रहे थे। वे घोड़ों और सारथियों सहित रथों को सूंड़ में लपेट कर भूमि पर पटक देते और बलपूर्वक पुन: उठाकर आकाश में फेंक देते थे। राजन् ! उस युद्धभूमि में सब ओर दौड़ते हुए क्षत-विक्षत गजराज कुछ लोगों को सुदृढ़ द्वारा विदीर्ण करके उन्हें पैरों से मसल देते थे। महाराज ! घुड़सवारों द्वारा प्रेरित पंखयुक्त घोड़े रथों को लांघकर हाथियों के कुम्भस्थल पर चढ़ जाते थे। कुछ महावीर घुड़सवार युद्ध के मद से उन्मत्त हो, हाथ में शक्ति लिये घोड़ों के द्वारा हाथियों के कुम्भस्थल पर पहुँचकर गजारोही नरेशों को उसी प्रकार मार डालते थे, जैसे सिंह यूथपति गजराजों को मार गिराते हैं। कुछ घुड़सवार योद्धा तलवारों के वेग से सामने की सेना को विदीर्ण करते हुए उसी प्रकार सकुशल आगे निकल जाते थे, जैसे वायु अपने वेग से लीलापूर्वक कमल वन को रौंदकर आगे बढ़ जाती है। कुछ घुड़सवार समरांगण में उछलते हुए खड्गों द्वारा उसी प्रकार आपस में ही आघात प्रत्यघात करने लगते थे, जैसे आकाश में पक्षी किसी मांस के टुकड़े के लिये एक दूसरे को चोंच से मारने लगते हैं। कुछ पैदल योद्धा खड्गों से, कुछ फरसों और चक्रों से तथा कुछ योद्धा तीखे भालों से फलों की तरह विपक्षियों के मस्तक काट लेते थे।
संग्रामजित, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, विजत्, जय, सुभद्र, वाम, सत्यक तथा अश्वयु-भद्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए ये दैत्य पुंगवों के साथ युद्ध करने लगे। महाराज। हाथी पर चढ़े हुए महान असुर भूत-संतापन ने अपने नाराचों की वर्षा से दुर्दिन का दृश्य उपस्थित कर दिया। भूत-संताप के बाणों द्वारा अन्धकार फैला दिये जाने पर श्रीकृष्ण के बलवान पुत्र संग्रामजित उसका सामना करने के लिये आये। उन्होंने रणभूमि में सैकड़ों बाण मारकर भूत-संतापन ने घायल कर दिया। तब बलवान भूत संतापन ने प्रलय काल के समुद्रों के संघर्ष से प्रकट होने वाले भयंकर घोष के समान टंकार-ध्वनि करने वाली संग्रामजित ने विद्युत के समान दीप्तिमान अपना दूसरा धनुष लेकर उस पर विधिपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ायी, फिर सौ बाण छोड़े। वे बाण भूत-संतापन के धनुष की प्रत्यंचा, लोहनिर्मित् कवच, शरीर और हाथी का छेदन-भेदन करते हुए धरती में समा गये। बाणों के उस प्रहार से पीड़ित हो भूत-संतापन मन ही मन कुछ घबराया, फिर उस बलवान वीर ने अपने हाथी को आगे बढ़ाया। काल और यम के समान भयानक उस हाथी को आक्रमण करते देख, बलवान संग्रामजित ने अपना दिव्य खड्ग लेकर रणभूमि में उसके ऊपर प्रहार किया।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 33
उस खडग प्रहार से उसकी सूंड़ के दो टुकड़े हो गये और वह भयानक चीत्कार करता था गण्डस्थल से मद बहाता हुआ भूत संतापन को छोड़कर जगत को कम्पित करता हुआ भागा। बड़े बड़े वीरों को धराशायी करता हुआ बारंबार घंटे बजाता हुआ सीधे दैत्यपुरी चन्द्रावती को चला गया। कोई भी बलपूर्वक उसे रोक न सका। इस प्रकार हाथी के संग्राम भूमि से भाग जाने पर वहाँ महान कोलाहल मच गया।
तब भूत संतापन ने श्रीकृष्ण पुत्र के ऊपर तीखी धारवाल चक्र चलाया, जो ग्रीष्म ऋतु के सूर्य की भाँति उद्भासित हो रहा था। महाराज ! उस घूमते चक्र को अपने ऊपर आया देख बलवान भद्राकुमार ने अपने चक्र द्वारा लीलापूर्वक उसके सौ टुकड़े कर डाले। तब उस महान असुर ने जठगिरि का एक शिखर उखाड़कर आकाश मण्डल को निनादित करते हुए श्रीकृष्ण पुत्र पर फेंका। राजेन्द्र संग्रामजित ने उस शिखर को बलपूर्वक दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसी के द्वारा रणभूमि में भूत संतापन समूचे जठगिरि को उखाड़कर उसे हाथ में ले, संग्राम भूमि में खड़ा हुआ ‘अब मैं इसी पर्वत से संग्राम में तुम्हारा काम तमाम कर दूँगा’ इस प्रकार मुख से कहने लगा। यह देख श्रीहरि के पुत्र संग्रामजित ने भी देवकूट नामक पहाड़ उखाड़ लिया और मुख से कहा-‘मैं भी इसी से युद्ध भूमि में तेरे प्राण ले लूंगा। राजन् यों कहकर वे उसके सामने खड़े हो गये। वह अद्भुत सी घटना हुई। नरेश्वर ! पर्वत फेंकते हुए भूत संताप पर बलवान संग्रामजित ने संग्राम में अपने
हाथ के पर्वत से प्रहार किया। भारी बोझ से युक्त जठर और देवकूट दोनों पर्वत दैत्य के मस्तक पर गिरे। उनसे दो वज्रों के टकराने का सा भयानक शब्द हुआ। विदेहराज ! दोनों की चोट से गिरकर भूत-संतापन मृत्यु का ग्रास बन गया और उसकी ज्योति संग्रामजित में विलीन हो गयी। संग्रामजित की सेना में विजय सूचक दुन्दुभियाँ बजने लगीं और देवता उन भद्राकुमार के ऊपर फूल बरसाने लगे।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वाजित-खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘भूत संतापन दैत्य का वध नामक’ तैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 34
अनिरुद्ध के हाथ से वृक दैत्य का वध
श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! संग्रामजित के द्वारा उस महायुद्ध में भूत-संतापन के मारे जाने पर दैत्य सेनाओं में महान हाहाकार मच गया। तब शकुनि, वृक, कालनाभ और महानाभ तथा हरिशमश्रु ये पांच वीर रण भूमि में उतरे। श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न शकुनि के साथ युद्ध करने लगे और अनिरुद्ध वृक के साथ। साम्बकाल नाभ से और दीप्तिमान महानाभ से भिड़ गये। बलवान वीर श्रीकृष्णकुमार भानु हरिशमश्रु नामक असुर के साथ लड़ने लगे। सबके आगे थे धनुर्धरों में श्रेष्ठ अनिरुद्ध। वे अपने बाणों द्वारा दैत्यों को उसी प्रकार विदीर्ण करने लगे, जैसे इन्द्र वज्र से पर्वतों का भेदन करते हैं। अनिरुद्ध के बाणों से दैत्यों के पैर, कंधे और घुटने कट गये। वे सब के सब मूर्च्छित हो तेज हवा के उखाड़े हुए वृक्षों की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े। अनिरुद्ध के तीखे बाणों से जिनके मेघडम्बर (हौदे), कुम्भ स्थल और सूंड़े छिन्न-भिन्न हो गयी थीं, दाँत टूट गये और कक्ष कट गये थे, वे हाथी रणभूमि में उसी प्रकार गिरे, जैसे वज्र के आघात से पर्वत ढह जाते हैं।
हाथियों के दो टुकड़े होकर पड़े थे और उनके ऊपर कशमीरी झूल चमक रही थी। हाथियों के विदीर्ण कुम्भस्थलों से इधर-उधर बिखरे हुए मोती चमक रहे थे। राजेन्द्र ! वे बाणजन्य अन्धकार में उसी प्रकार उदीप्त हो रहे थे, जैसे रात में तारे चमचमाते हैं। अनिरुद्ध के बाणों से प्रधर्षित कितने ही वीर मूर्च्छित होकर भूमि पर पड़े थे। वह दृश्य अद्भुत-सा प्रतीत होता था। कितने ही रथी भूमि पर गिरे थे और उनके रथ सूने खड़े थे। कुछ योद्धाओं के कटे हुए मस्तक ऐसे दिखायी देते थे जैसे हाथी के पेट मैं कैथ के फल। राजेन्द्र ! एक ही क्षण में उस संग्राम के भीतर दैत्यों की सेनाओं में इतना अधिक रक्त गिरा कि उसकी भयानक नदी बह चली। हाथी उसमें ग्राह के समान जान पड़ते थे; ऊँटों एवं गधों के धड़ एवं मुख आदि कच्छप जान पड़ते थे; रथ सूंस के समान प्रतीत होते थे, केश सेवार का भ्रम उत्पन्न करते थे और कटी हुई भुजाएँ सर्पिणी सी जान पड़ती थीं। कटे हाथ उस में मछलियां थे और मुकुट, रत्न हार एवं कुण्डल कंकड़ पत्थर का स्थान ले रहे थे। शस्त्र, शक्ति, छत्र, शंख चंवर और ध्वज वालु का राशि के समान थे, रथों के चक्के भंवर का भ्रम पैदा करते थे। दोनों ओर की सेनाएँ ही उस रक्त-सरिता के दोनों तट थीं। नृपेश्वर ! सौ योजन तक फैली हुई वह खून की नदी वैतरणी के समान भयंकर जान पड़ती थी। प्रमथ, भैरव, भूत, बेताल और योगिनीगण उस रण मंडल में अट्टहास करते, नाचते और निरन्तर खप्पर में खून लेकर पीते थे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 34
वे भगवान रुद्र की मुण्डमाला बनाने के लिये नरमुण्डों का संग्रह भी करते थे। सिंह पर चढ़ी हुई भद्रकाली सैकड़ों डाकिनियों के साथ आकर उस समरांगण में दैत्यों को अपना ग्रास बनाती और अट्टहास करती थीं। विमान पर बैठी हुई विद्याधरियाँ, गन्धर्व कन्याएं और अप्सराएँ क्षत्रिय धर्म में स्थित रहकर वीर गति को प्राप्त हुए देव स्वरूप वीरों का पति रूप में वरण करती थीं।
आकाश में उन वीरों को पति रूप में चुनते समय वे सुन्दरियाँ परस्पर कलह कर बैठती थीं। कोई कहतीं ‘ये मेरे योग्य हैं, तुम लोगों के योग्य नहीं। इस तरह वे विह्वल चित्त हो विवाद कर रही थीं। कुछ वीर धर्म में तत्पर रहकर समर की रंगभूमि से तनिक भी विचलित नहीं हुए, इसलिये वे सूर्यमण्डल का भेदन करके दिव्य विष्णुपद को जा पहुँचे। कुछ दैत्य अनिरुद्ध को अपने शत्रु के रूप में देखकर भाग खड़े हुए। कुछ असुर अपना-अपना युद्ध छोड़कर दसों दिशाओं में पलायन कर गये। उसी समय गधे पर चढ़ा हुआ भयंकर महादैत्य वृक गर्जना करता तथा बार-बार धनुष टंकारता हुआ युद्ध करने आया। उस रणदुर्मद दैत्य ने भी दस बाण मारकर अनिरुद्ध के प्रत्यंचा सहित धनुष को काट दिया। धनुष कट जाने पर महाबली अनिरुद्ध ने दूसरा धनुष हाथ लिया और दस बाण मारकर वृक के कोदण्ड को भी खण्डित कर दिया। इस पर वृक के होठ रोष से फड़क उठे। उसने त्रिशुल उठाकर जीभ लपलपाते हुए धनुर्धरों में श्रेष्ठ अनिरुद्ध कहा।
दैत्य बोला- तू पराक्रमी क्षत्रिय है और तूने आज मेरी सेना का विनाश किया है, इसलिये मैं अभी तुझे मारे डालता हूँ। तू मेरा अद्भुत पराक्रम देख ले।
अनिरुद्ध ने कहा- दैत्य ! जो लोग मुँह से बढ़ बढ़कर बातें बनाते हैं, वे यहाँ कुछ नहीं कर पाते। मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा। तुम मेरा उत्तम पराक्रम देखो। यदि मैं युद्ध में तुम्हें नहीं मार सकूँ तो मेरी शपथ सुन लो मुझे ब्राह्मण, गौ, गर्भस्थ शिशु और बालकों की हत्या का सदा ही पाप लगे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 34
नारदजी कहते हैं- राजन् ! गधे पर बैठै हुए महादुष्ट वृक ने भी शपथ खाकर धनुर्धरों में श्रेष्ठ अनिरुद्ध पर त्रिशुल से प्रहार किया। परंतु राजन् ! प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्ध ने उस त्रिशूल को बायें हाथ से पकड़ लिया और सहसा उसी से महाबली दैत्य वृक को घायल कर दिया। तब तो वह असुर क्रोध से भर गया। उसने एक भारी गदा चलाकर सहसा अनिरुद्ध के रथ को बलपूर्वक चूर-चूर कर डाला। तब प्रद्युम्न कुमार ने तीखी धार वाली तलवार से शत्रु की दोनों भुजाएँ उसी तरह काट डालीं, जैसे इन्द्र ने वज्र से शीघ्र ही पर्वतों की दोनों पांखें काट दी थीं। तब वह बाहु विहीन दैत्य पैरों से पृथ्वी को कँपाता हुआ लपलपाती जीभ से युक्त भयंकर मुंह फैलाकर ऐसा दिखायी देने लगा, मानो वह सारे आकाश को ही पी जायगा। फिर विकराल दाढ़ों वाले उस दैत्यराज ने, जैसे मगर मच्छ किसी बड़े मत्स्य को निगल जाय, उसी प्रकार प्रद्युम्न कुमार अनिरुद्ध को अपना ग्रास बना लिया।
महाराज ! वे श्रीकृष्ण के पौत्र थे, इसलिये दैत्य के पेट में जाने पर भी श्रीकृष्ण की कृपा से मरे नहीं, मछली के पेट में पड़े हुए प्रद्युम्न की भाँति बच गये। जैसे अघासुर के पेट में जाकर भी श्री कृष्ण और ग्वाल-बाल बच गये थे, जैसे वकासुर के उदर में स्वयं श्रीकृष्ण नहीं मरे थे और जैसे वृत्रासुर के उदर में जाकर भी इन्द्र बच गये थे,, उसी प्रकार वृकासुर के पेट में अनिरुद्ध की प्राण-रक्षा हो गयी।
विदेहराज ! उस समय यादवों की सेना में हाहाकार मच गया। तब बलदेव के छोटे भाई बलवान गद ने गदा लेकर उसे महाबली वृक दैत्य के मस्तक पर माया दैत्य का सिर फट गया और उससे रक्त की बूंदें टपकने लगीं। रक्त की धारा से उस विशालकाय दैत्य की उसी तरह शोभा हुई, जैसे गेरुमिश्रित जल की धारा से विन्ध्याचल सुशोभित होता है। तदनन्तर अर्जुन ने अपनी तलवार लेकर अनायास ही उसके दोनों पैर काट डाले। पैर कट जाने पर वह पंख कटे पर्वत की भाँति धरती पर गिर पड़ा। अनिरुद्ध अपनी तलवार से उसका पेट फाड़कर बाहर निकल आये। जैसे इन्द्र ने वज्र से वृत्रासुर को मारा था, उसी प्रकार अनिरुद्ध ने अपनी तलवार से उसका मस्तक काट डाला। उस समय यादव-सेना में जय-जयकार होने लगी तथा देवताओं और मनुष्यों की दुन्दुभियाँ बज उठीं। देवता लोग अनिरुद्ध के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। राजन् ! यह अद्भुत वृत्तान्त मैंने तुम से कह सुनाया; अब और क्या सुनना चाहते हो।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित्खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘वृक दैत्य का वध’ नामक चौंतीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 35
साम्ब द्वारा कालनाभ दैत्य का वध
बहुलाश्व बोले- मुने ! आश्चर्य है, प्रद्युम्न कुमार ने बड़ा अद्भुत युद्ध किया। महादैत्य वृक के मारे जाने पर उस समरांगण में क्या हुआ।
नारद जी ने कहा- राजन् ! वृक को मारा गया देख महान असुर कालनाभ बार बार धनुष टंकारता हुआ सूअर पर चढ़कर रणभूमि में आया। उस असुर ने समरांगण में अक्रूर को बीस, गद को दस, अर्जुन को दस, सात्यकि को पाँच, कृतवर्मा को दस, प्रद्युम्न को सौ, अनिरुद्ध को बीस, दीप्तिमान को पाँच और साम्ब को सौ बाण मारकर उन सबको घायल कर दिया। उसके बाणों की चोट से दो घड़ी के लिये वे सभी वीर व्याकुल हो गये। उन सबके घोड़े भी मारे गये तथा रथ रणभूमि में चूर-चूर हो गये। उसके हाथ की फुर्ती देखकर रुक्मिणीनन्दन प्रसन्न हो गये। उन्होंने कालनाभ को समरांगण में साधुवाद देकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। तत्पश्चात् प्रद्युम्न ने अपना धनुष लेकर उस पर एक बाण रखा। कोदण्ड से छूटे हुए उस बाण ने उस दैत्य के विशालकाय सूअर को ऊपर उठाकर लाख योजन दूर स्वर्गलोक की सीमा तक ले जाकर घुमाते हुए आकाश से भयंकर गर्जना करने वाले समुद्र में गिरा दिया। तत्पश्चात् साक्षात भगवान प्रद्युम्न ने दूसरे बाण का संधान किया। उस बाण ने भी महाबली कालनाभ को ऊपर ले जाकर घुमाते हुए बलपूर्वक चन्द्रावतीपुरी में पटक दिया। वहाँ गिरने पर कालनाभ के मन में कुछ घबराहट हुर्इ।
वह दैत्यराज लाख भार की बनी हुई भारी गदा हाथ में लेकर पुन: रणभूमि में आ पहुँचा और यादव-सेना का विनाश करने लगा। वज्र सदृश गदा से हाथी, रथ, घोड़े और पैदल वीरों को वह बड़े वेग से उसी प्रकार धराशायी करने लगा, जैसे आँधी वृक्षों को गिरा देती है; किन्हीं को दोनों हाथों से उठाकर वह बलपूर्वक आकाश में फेंक देता था। राजन् ! वे आकाश से पृथ्वी पर वर्षा के ओलों की भाँति गिरते थे। तब जाम्बवती कुमार साम्ब ने गदा लेकर महान असुर कालनाभ के मस्तक पर गहरी चोट पहुँचायी। रणमण्डल के भीतर गदाओं द्वारा उन दोनों वीरों में घोर युद्ध होने लगा। वे दोनों ही गदाएँ आग की चिनगारियाँ छोड़ती हुई परस्पर टकराकर चूर चूर हो गयीं। फिर वे दोनों वीर दूसरी गदाएँ लेकर युद्ध के लिये खड़े हुए। उस समय कालनाभ ने जाम्बवती कुमार साम्ब से कहा 'मैं एक प्रहार से तुम्हारा काम तमाम कर सकता हूँ, इसमें संशय नहीं है। तब उस रणभूमि में साम्ब बोले- 'पहले तुम मेरे ऊपर प्रहार करो। तब कालनाभ ने साम्ब के मस्तक पर गदा से चोट की, किंतु जाम्बवती नन्दन साम्ब ने गदा के ऊपर गदा रोक ली और अपनी गदा से कालनाभ दैत्य की छाती में आघात किया। उस गदा की चोट से दैत्य की छाती फट गयी और वह मुंह से रक्त वमन करता हुआ प्राणशुन्य हो वज्र के मारे हुए पर्वत की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। नरेश्वर ! तब तो जय-जयकार होने लगी और सत्पुरुष साम्ब को साधुवाद देने लगे। देवताओं और मनुष्यों की दुन्दुभियाँ एक साथ ही बज उठी। देवता लोग साम्ब की सेना के ऊपर फूल बरसाने लगे, विद्याधरियां नाचने लगीं और गन्धर्वगण सानन्द गीत गाने लगे।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘कालनाभ दैत्य का वध’ नामक पैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय(36)
दीप्तिमान द्वारा महानाभ का वध
नारदजी कहते हैं- राजन् ! कालनाभ दैत्य के गिर जाने पर दैत्य सेना में बड़ा भारी कोलाहल मचा। तब महानाभ नामक दैत्य ऊँट पर चढ़कर समरांगण में आया। वह मायावी दैत्यराज मुँह से आग उगलने लगा। उस आग से दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं और धरती के वृक्ष जलने लगे। महाराज् ! वीरों के कवच, पगड़ी, कटिबन्ध और अँगरखा आदि मूँज के फूल (भुआड़ी) तथा रुई के समान जल उठे। राजन् ! समुद्र तटवर्ती नगरों के बने हुए पीले, लाल, सफेद, काले, चितकबरे और सूक्ष्म झूलों तथा हेम-रत्न खचित कशमीरी कालीनों सहित बहुत से हाथी उस समरांगण में दावा नलसे दग्ध होने वाली वृक्षों सहित पर्वतों की भाँति जल रहे थे। मस्तक पर धारण कराये गये रत्नों, चामरों, हारों और सुनहरे साजबाजों के साथ जलते हुए घोड़े उस युद्धभूमि में दावाग्नि से दग्ध होने वाले हरिणों की भाँति उछलते और चौकड़ी भरते थे। अपनी सेना को भय से व्याकुल देख श्रीकृष्ण कुमार दीप्तिमान ने उस मायामयी आग को बुझाने के लिये पार्जन्यास्त्र का संधान किया।
फिर तो उस बाण से प्रलयकाल के मेघों की भाँति नील जलधर प्रकट हुए और भयंकर गर्जना करते हुए जल की धाराएं बरसाने लगे। महाराज ! उस धारा सम्पात से भूतल पर पावस ऋतु प्रकट हो गयी। नर कोकिल, मादा कोकिल, मोर और सारस आदि पक्षी अपनी मधुर बोलियाँ बोलने लगे। मेंढक भी टर-टर करने लगे। इन्द्र गोप (वीर बहूटी) नामक लाल रंग के झुंड के झुंड कीट जहाँ-तहाँ शोभित होने लगे। मैथिलेन्द्र इन्द्र धनुष और विद्युन्माला से आकाश उदीप्त दिखायी देने लगा। महानाभ ने दीप्ति मान् के ऊपर बड़े रोष से अपना तीखा त्रिशुल चलाया। सर्प की भाँति अपनी और आते हुए उस त्रिशुल को रोहिणी पुत्र दीप्तिमान ने युद्धभूमि में तलवार से उसी प्रकार काट डाला, जैसे गरुड़ ने अपनी चोंच से किसी नाग के दो टुकड़े कर दिये हों। महानाभ का वाहन उद्भट ऊँट उन्हें दाँत से काटने के लिये आगे बढ़ा। तब दीप्तिमान ने समरांगण में उसके ऊपर अपनी तलवार से चोट की। खड्ग से उसकी गर्दन कट गयी और वह टूक हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। महानाभ के देखते-देखते उस ऊंट के प्राण पखेरु उड़ गये। तब दैत्य महानाभ बड़े वेग से हाथी पर जा चढ़ा और हाथ मे शूल लेकर व्योममण्डल को अपनी गर्जना से गुंजाता हुआ फिर युद्ध के लिये आ गया।
श्रीकृष्णनन्दन दीप्तिमान चंचल और काले रंग के सिंधी घोड़े पर चढ़कर विधुत के समान कान्तिमान खड्ग से अद्भुत शोभा पाने लगे। उन्होंने घोड़े के पेट में एड़ लगायी और वह भूतल से उछलकर हाथी के कुम्भस्थल पर इस प्रकार जा चढ़ा मानो कोई सिंह पर्वत के शिखर पर बड़े वेग से चढ़ गया हो। फिर श्रीकृष्ण कुमार दीप्तिमान ने तीखी धार वाले खड्ग से महानाभ के मस्तक को सहसा धड़ से अलग कर दिया। वाणवर्षा करती हुई उस दुरात्मा की सेना का दीप्तिमान ने अपनी तलवार से उसी तरह संहार कर डाला, जैसे सिंह हाथियों के झुंड को रौंद डालता है। कुछ दैत्य खड्ग से मारे गये, शेष रणभूमि से पलायन कर गये। किंनर और गन्धर्व गाने लगे तथा अप्सराओं के समुदाय नृत्य करने लगे। ऋषियों, मुनियों और देवताओं ने श्रीहरि के पुत्र का स्तवन किया।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘महानाभ का वध’ नामक छत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 37
श्रीकृष्ण-पुत्र भानु के हाथ से हरिश्मश्रु दैत्य का वध
नारदजी कहते हैं- राजन् ! महानाभ मारा गया, यह सुनकर तथा दैत्य सेना पलायन कर गयी यह देखकर, मगरमच्छ पर चढ़ा हुआ दैत्य हरिश्मश्रु समरभूमि में आया। उस समय हरिश्मश्रु दैत्य के ओठ फड़क रहे थे, उसने यादवों के सुनते हुए अत्यन्त कठोर वचन कहा ।
हरिश्मश्रु बोला- अरे ! तुम सब लोग मेरे शक्ति के सामने क्या हो स्वल्प–पराक्रमी मनुष्य ही तो हो। दीनहीन होने पर केवल अस्त्र शस्त्रों के बल पर जीतते हो। तुम जैसे लोगों में पुरुषार्थ ही क्या है यदि तुम्हारे दल में कोई भी बलवान हो तो मेरे साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के मल्ल युद्ध करे, जिससे तुम्हारे पौरुष का पता लगे।
नारद जी कहते हैं- दैत्य की ऐसी बात सुनकर और उसके अत्यन्त उद्भट शरीर को देखकर सब लोग परस्पर उसकी प्रशंसा करते हुए मौन रह गये-उसे कोई उत्तर न दे सके। तब सत्यभामा के बलवान पुत्र भानु मन ही मन भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए रणभूमि में अस्त्र शस्त्र त्यागकर सहसा उसके सामने खड़े हो गये। राजन् ! महाबली हरिश्मश्रु तिमिंगिल (मगरमच्छ) की पीठ से उतरकर भुजाओं पर ताल ठोंकता हुआ सयत्न होकर सामने खड़ा हो गया। जैसे ठोंकता हुआ सयत्न होकर सामने खड़ा हो गया। जैसे दो हाथी वन में दांतों द्वारा परस्पर प्रहार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों वीर बाँहों से बाँह मिलाकर एक दूसरे को बलपूर्वक ढकेलने लगे। राज राजेन्द्र ! उस दैत्य ने भानु को अपनी भुजाओं से सौ योजन पीछे प्रकार ढकेल दिया, जैसे एक सिंह दूसरे सिंह को बलपूर्वक पछाड़ देता है। तब पुन: श्रीकृष्ण कुमार ने महान असुर हरिश्मश्रु को बलपूर्वक सहसा सहस्त्र योजन पीछे ढकेल दिया। तत्पश्चात् दैत्यराज हरिश्मश्रु ने अपनी बाँह को भानु के कंधे में फंसाकर उन्हें अपनी कमर पर ले लिया और फिर घुटना पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर पटक दिया।
तब भानु ने अपने बाहुबल से उसे पीठ पर ले लिया और उसकी जाँघें पकड़कर उस दैत्य को धरती पर दे मारा। तदनन्तर वे दोनों पुन: उठकर भुजाओं पर ताल ठोंकते हुए खड़े हो गये। राजन् ! वे दोनों फुर्ती दिखाते हुए गरुड़ और सर्प की भाँति एक-दूसरे से लड़ने लगे। दैत्य ने अपने बाहुबल से श्रीकृष्णनन्दन भानु के पैर पकड़कर उन्हें आकाश में लाख योजन दूर फेंक दिया। आकाश से गिरने पर भानु को मन ही मन कुछ व्याकुलता हुई; किंतु जैसे शैल शिखर से गिरकर प्रहलाद बच गये थे, उसी प्रकार श्रीहरि की कृपा से भानु की भी रक्षा हो गयी। तब श्रीकृष्ण कुमार ने हरिश्मश्रु की लंबी दाढ़ी पकड़कर उसे घुमाया और आकाश में लाख योजन दूर फेंक दिया। आकाश से गिरने पर उसके मन में भी कुछ व्याकुलता हुई। फिर उसने दाढ़ी को अपने मुँह पर सँभालकर भानु को एक मुक्का मारा ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 37
राजन् ! फिर दो घड़ी तक उन दोनों में मुक्का मुक्का युद्ध चलता रहा। हरिश्मश्रुका अंग अंग पिस उठा। तब उसने भानु के मस्तक पर बड़े वेग से पत्थर मारा। तब तो भानु के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने लाल आँखें करके एक वृक्ष उखाड़ा और उसे दैत्य के मस्तक पर दे मारा। हरिश्मश्रु ने भी एक वृक्ष लेकर उसे भानु के मस्तक पर चलाया। उस समय उस महादैत्य के नेत्र लाल हो गये थे और वह क्रोध से मूर्चिछत होकर अपना विवेक खो बैठा था। उसने एक हाथी की सूंड़ पकड़कर उस हाथी के द्वारा ही भानुपर प्रहार किया। भानु ने एक दूसरा हाथी लेकर उसके चलाये हुए हाथी को हाथ में पकड़ लिया और महादैत्य हरिश्मश्रु पर दृढ़तापूर्वक हाथी से ही प्रहार किया। वह हाथी चीत्कार कर उठा। दैत्य ने उस हाथी को लेकर धरती पर पटक दिया और उसके दोनों दाँत उखाड़कर उन्हीं भानु को चोट पहुँचायी। इसी समय भानु को सम्बोधित करके आकाशवाणी हुई ‘इस दैत्य की मृत्यु इसकी दाढ़ी में ही है। यह महान असुर भगवान शिव के दिये हुए वरदान से अत्यन्त प्रबल हो गया है।
महाराज ! आकाशवाणी का यह कथन सुनकर भानु क्रोध से भरकर दौड़े। उन्होंने दोनों हाथों से दैत्य के पांव पकड़कर बारंबार गर्जना करते हुए उसे घुमाया और सबके देखते-देखते भूपृष्ठ पर उसी तरह पटक दिया, जैसे बालक कमण्डलु को गिरा देता है। फिर हाथों से बल लगाकर उसके मुँह से दाढ़ी उखाड़ ली और महान असुर के मस्तक पर एक मुक्का मारा। नृपेश्वर ! फिर तो दैत्य हरिश्मश्रु की तत्काल मृत्यु हो गयी और मनुष्यों तथा देवताओं के विजय सूचक नगारे एक साथ ही बजने लगे। जय जयकार की ध्वनि सब ओर व्याप्त हो उठी और देव नायक नाचने लगे। राजन् ! देवता प्रसन्न हो पुष्पवर्षा करने लगे। इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्ण के पुत्रों के परम अद्भुत पराक्रम का वर्णन किया है। अब और क्या सुनना चाहते हो।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘हरिश्मश्रु दैत्य का वध’ नामक सैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय (38)
प्रद्युम्न और शकुनि के घोर युद्ध का वर्णन
बहुलाश्व ने पूछा- मुनि श्रेष्ठ ! हरिश्मश्रु आदि भाइयों को मारा गया जानकर महान असुर शकुनि ने आगे क्या किया।
नारदजी कहा- राजन् ! हरिश्मश्रु के मारे जाने पर शकुनि क्रोध से अचेत सा हो गया। भ्राताओं की मृत्यु से उत्पन्न हुए शोक में डूबकर समरांगण में दैत्यों को सम्बोधित करके उसने कहा।
शकुनि बोला- हे पौलोम और कालकेयगण ! तुम सब लोग मेरी बात सुनो। अहो ! दैव का बल अद्भुत है, उसके कारण क्या उलट-फेर नहीं हो सकता मेरे भार्इ कालनाभ ने पूर्वकाल में समुद्र मन्थन के अवसर पर यमराज को जीत लिया था, परंतु दैववश वह भी यहाँ मनुष्यों के हाथ से मारा गया। शम्बर ने साक्षात सूर्य देव को परास्त किया था, किंतु वह बालक श्रीकृष्णकुमार के हाथ से पराजित हुआ। उत्कच महाबलियों में महाबली था और इन्द्र पर भी विजय पा चुका था, परंतु वह भी बालकृष्ण के हाथों मारा गया, यह बात मैंने नारदजी के मुख से सुनी थी। पहले समुद्र मन्थन के समय जिसने समस्त असुरों के समक्ष अग्निदेव को पराजित किया था, वह मेरा भाई हृष्ट भी एक मनुष्य द्वारा मार गिराया गया। जिसके सामने से पूर्वकाल में वरुण देवता भी भयभीत हो युद्ध से पीठ दिखाकर भाग गये थे, उस भुत संतापन को भी तुच्छ पराक्रम वाले मनुष्यों ने मार डाला।
जिसने पहले महायुद्ध में अपने पराक्रम द्वारा भगवान शिव को संतुष्ट किया था, उस वृक को यहाँ युद्ध में तुच्छ वृष्णिवंशियों ने मार गिराया। मेरे भाई महानाभ ने देवलोक में वायु को भी परास्त किया था, किंतु यहाँ इस समय उसको भी यदुकुल के मनुष्यों ने मार डाला। हा दैव ! जिसने स्वर्ग लोक में बलवान् इन्द्रपुत्र को परास्त किया था, उस हरिश्मश्रु को भी यहाँ मानवों ने मार गिराया। इसलिये मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि इस पृथ्वी को मैं यादवों से शून्य कर दूँगा। जरासंध, शाल्व, बद्विमान् दन्तवक्र तथा शिशुपाल ये मेरे मित्र हैं। सुतललोक से प्रचण्ड पराक्रमी दानवों को बुलाकर इन मित्रों तथा आप लोगों के साथ मैं देवताओं को जीतने के लिये जाऊँगा और उस युद्ध में बाणासुर भी हमारे साथ होगा। प्रद्युम्न आदि जो उद्भट यादव हैं, उन दुरात्माओं को जीतकर और स्त्रियों सहित देवताओं को बांधकर मैं मेरु पर्वत की गुफा के मुंह में डाल दूँगा। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, तपस्वी, यज्ञ श्राद्धा, तितिक्षु तथा नाना तीर्थों का सेवन करने वाले धर्मात्माओं को भी मैं निस्संदेह मार डालूँगा। फिर सुखपूर्वक विचरूँगा। देवताओं पर विजय पाने वाला महाबली पराक्रमी राजा कंस धन्य था। वह मेरा मित्र और परम सुहद था। खेद की बात है कि आज वह इस भूतल पर विद्यमान नहीं है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 38
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर महाबली दानवराज दैत्य शकुनि युद्ध में सहसा प्रद्युम्न के सामने आ गया। लाख भार लोहे के समान सुदृढ़ एवं विशाल धनुष लेकर उसने प्रत्यंचा को टंकारित किया। उसका वह धनुष मयासुर का बनाया हुआ था। उस धनुष की टंकार ध्वनि से दिग्गजों के कान बहरे हो गये, अनेक पर्वत ढह गये और समुद्र अपनी मर्यादा से विचलित हो उठे। नरेश्वर ! सारा ब्रह्माण्ड गूंज उठा और भूमण्डल कांप ने लगा। उसकी प्रत्यंचा के घोर शब्द से विह्वल हो योद्धाओं के ऊपर योद्धा गिर पड़े। हाथी रणभूमि छोड़कर भागने लगे और घोड़े युद्ध भूमि में उछलने कूदने लगे। इस प्रकार सब लोग अचानक भय से घबराकर भागने लगे। तब महान बल पराक्रम से युक्त गद आदि वीर रथ पर बैठकर धनुष की टंकार करते हुए वहाँ आये। शकुनि ने संग्राम भूमि में अर्जुन को दस बाण मारे। इससे रथ सहित गाण्डीवधारी अर्जुन चार कोस दूर जाकर गिरे। रणदुर्मद शकुनि ने गद के ऊपर बीस बाणों से प्रहार किया। राजन् ! उसने गद को रथ सहित व्योममण्डल में फेंक दिया और जोर जोर से गर्जना करने लगा। राजन् ! उस वीर ने रथ सहित धनुर्धरों में श्रेष्ठ अनिरुद्ध को चालीस बाणों से बींध डाला और अपने सिंहनाद से आकाश मण्डल को निनादित कर दिया।
अनिरुद्ध का घोड़ों सहित रथ सोलह कोस दूर जा गिरा। विदेहराज ! शकुनि ने समरांगण में साम्बको सौ बाण मारे। राजन् ! साम्ब भी रथ सहित आकाश में जा समर भूमि से बत्तीस योजन दूर मार्ग पर जा गिरे। तत्पश्चात् प्रद्युम्न को सामने आया देख शकुनि क्रोध से भर गया तथा उसने रणक्षैत्र में सहसा बाण समूहों से उन्हें घायल कर दिया। राजन् ! प्रद्युम्न का रथ दो घड़ी तक चक्कर काटता हुआ सौ कोस दूर पृथ्वी पर इस प्रकार जा गिरा, मानो किसी के द्वारा कमण्डलु फेंक दिया गया हो। शकुनि का बल देखकर समस्त यादव चकित हो उठे। जैसे हाथी पहाड़ से सिर टकराते हैं, उसी प्रकार समस्त यादव नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्रों द्वारा उस दैत्य को घायल करने लगे। गद, अर्जुन, अनिरुद्ध एवं जाम्बवती कुमार साम्ब अपने धनुष की टंकार करते हुए पुन: युद्ध भूमि में आ गये। राजन् ! तदनन्तर महाबाहु प्रद्युम्न वायु के समान वेगशाली रथ पर बैठकर धनुष की टंकार करते हुए युद्ध मण्डल में आ पहुँचे। शकुनि के धनुष की प्रत्यंचा प्रलयकाल के समुद्रों के टकराने के शब्द जैसी भयंकर टंकार करती थी। श्रीकृष्ण कुमार ने दस बाण मारकर उसे काट दिया। फिर सहस्त्र बाणों से उसके सहस्त्र घोड़ों को, सौ विशिखों द्वारा उसके रथ को और बीस बाण मारकर उसके सारथि को पृथ्वी पर गिरा दिया। तब उसने रथ को उठाकर उसमें दूसरे घोड़े जोते और दूसरा सारथि बैठाकर वह दैत्यराज पुन: रथ पर आरुढ़ हुआ। राजन् ! तत्पश्चात् चढ़ायी इसके बाद पीठ पर पड़े हुए तरकस से सौ बाण खींचकर उसने धनुष पर रखे और कान तक खींचकर प्रद्युम्न से कहा।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 38
शकुनि बोला- तुम सब लोगों में मेरे मुख्य शत्रु तथा मदमत्त योद्धा हो, अत: पहले तुम्हारा ही वध करूँगा। तत्पश्चात् स्वस्थ तेजवाले यादवों की सारी सेना का संहार कर डालूँगा।
प्रद्युम्न ने कहा- असुर ! प्राणियों की आयु सदाकाल के बल से नष्ट होती या बीतती है। वह बारंबार छाया की तरह आती जाती है। जैसे बादलों की पंक्ति आकाश में वायु की शक्ति से आती जाती है, उसी तरह सुख दु:ख भी काल की प्रेरणा से आता जाता रहता है। जैसे किसान बोयी हुई खेती को सींचता है और जब वह पक जाती है, तब स्वयं उसे हँसुए से सब ओर से काट लेता है, उसकी प्रकार दुर्जयकाल अपनी ही रची हुई देहधारियों की श्रेणी को अपने गुणों द्वारा पालता है और फिर समय आने पर उसका संहार कर डालता है। जीव तो अहंकार से मोहित होकर ही ऐसा मानता है कि मैं यह करूँगा, मैं यह करता हूँ; यह मेरा और वह तेरा है; मैं सुखी हूँ, दु:खी हूँ और ये मेरे सुहृद् हैं इत्यादि।
शकुनि बोला- नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, जो अपनी वाणी द्वारा ऋषि मुनियों का अनुकरण करते हो। तीन गुणों के अनुसार पृथक-पृथक जो प्राणियों का स्वभाव है, उसका उनके लिये त्याग करना कठिन होता है।
नारदजी कहते हैं- मैथिलेन्द्र ! युद्ध स्थल में इस प्रकार परस्पर संत्सग की बातें करते हुए प्रद्युम्न और शकुनि इन्द्र और वृत्रासुर की भाँति युद्ध करने लगे। शकुनि इन्द्र और वृत्रासुर की भाँति युद्ध करने लगे। शकुनि के धनुष से छुटे हुए विशिख सूर्य की किरणों के समान चमक उठे, परंतु श्रीकृष्णकुमार ने एक ही बाण से उन सबको काट दिया- ठीक उसी तरह, जैसे एक ही कटुवचन से मनुष्य पुरानी मित्रता को भी खण्डित कर देता है। तब रणदुर्मद शकुनि ने लाख भार की बनी भारी और विशाल गदा हाथ में लेकर प्रद्युम्न के मस्तक पर दे मारी। साक्षात भगवान प्रद्युम्न ने अपने वज्र सरीखी गदा से उसकी गदा के सौ टुकड़े कर दिये उसी प्रकार जैसे कोई डंडा मारकर काँच के बर्तन टूक टूक कर दे। तब रोष के आवेश से युक्त हुए उस दैत्य ने एक चमचमाता हुआ त्रिशुल हाथ में लिया और उच्च स्वर से गर्जना करते हुए उसके द्वारा प्रद्युम्न के मस्तक पर प्रहार किया। श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न ने भी त्रिशुल मारकर दैत्य के त्रिशूल के सौ टुकड़े कर डाले। इसके बाद रुक्मिणीनन्द ने एक तीखी बरछी लेकर शकुनि के ऊपर चलायी।
बरछी से उसकी छाती छिद गयी। इससे उसके मन में कुछ घबराहट हुई, तथापि उसने समरांगण में प्रद्युम्न को परिघ से पीट दिया। तब बलवान रुक्मिणी कुमार ने यमदण्ड लेकर दैत्य के उस अद्भुत परिघ को उसे द्वारा चूर चूर कर डाला। इतना ही नहीं, वेगपूर्वक चलाये हुए उस यमदण्ड से सहसा उसके घोड़ों को, सारथि को उस दिव्यरथ को भी धराशायी कर दिया। नरेश्वर ! सारथि के मर जाने पर और घोड़े सहित रथ एवं परिघ के भी चूर चूर हो जाने पर उस महादैत्य ने रोष पूर्वक खड्ग हाथ में लिया। मैथिल ! जैसे गरुड़ किसी सर्प के दो टुकड़े कर दे, उसी प्रकार महावीर प्रद्युम्न ने यमदण्ड के द्वारा उसके खड्ग हाथ में लिया। मैथिल ! जैसे गरुड़ किसी सर्प के दो टुकड़े कर दे, उसी प्रकार महावीर प्रद्युम्न ने यमदण्ड के द्वारा उसके खड्ग के दो टुकड़े कर डाले। इसके बाद श्रीकृष्णकुमार ने उसी यमदण्ड से दैत्य के कंधे पर प्रहार किया। उसके आघात से शकुनि को तत्काल मूर्च्छा आ गयी। तदनन्तर क्रोध से भरे हुए प्रद्युम्न ने उस यमदण्ड के द्वारा यमराज की भाँति हाथियों, घोड़ों, रथों और उन आततायी दैत्यों को मार गिराया। दैत्यों के पैर, मुख, अंग और भुजाएँ छिन्न भिन्न हो गयीं। वे समस्त दैत्य और दानव काल के गाल में चले गये। भीम पराक्रमी प्रद्युम्न को यमराज का रूप धारण किये देख कितने ही दैत्य युद्ध भूमि में भाग गये।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘शकुनि और प्रद्युम्न के युद्ध का वर्णन’ नामक अड़तीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 39
शकुनि के मायामय अस्त्रों का प्रद्युम्न द्वारा निवारण तथा उनके चलाये हुए श्रीकृष्णास्त्र से युद्धस्थल में भगवान श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव
नारद जी कहते हैं- महाराज् ! शकुनि ने फिर उठकर जब अपनी सेना का विनाश हुआ देख, तब उसने लाख भार के समान भारी धनुष हाथ में लिया। राजन्! उस प्रचण्ड विक्रमशाली को दण्ड पर तीखा बाण रखकर बलवान दैत्यराज शकुनि ने रणभूमि में प्रद्युम्न से कहा।
शकुनि बोला- राजन् ! इस भूतल पर कर्म ही प्रधान हैं। महत् कर्म ही साक्षात गुरु तथा सामर्थ्यशाली ईश्वर है। यहाँ कर्म से ही उच्चता और नीचता प्रकट होती है तथा उस कर्म से ही विजय और पराजय होती है। जैसे सहस्त्रों गौओं के बीच में छोड़ा हुआ बछड़ा सत्पुरुषों के देखते-देखते अपनी माता को ढूंढ़ लेता है, वैसे ही जिसने भी शुभाशुभ कर्म किया है, उसके द्वारा किया हुआ कर्म सहस्त्रों मनुष्यों के होने पर भी उस कर्ता को ही प्राप्त होता है। इसके अनुसार मैं सुदृढ़ कर्म करके उसके द्वारा अपने शत्रु स्वरूप तुम को अवश्य जीत लूँगा। इसके लिये मैंने शपथ खायी है। तुम भी शीघ्र ही इसका प्रतीकार करो, जिससे इस भूमि पर पराजय न हो।
प्रद्युम्न ने कहा- दैत्यराज ! यदि तुम कर्म को प्रधान मानते हो तो यह भी जान लो कि काल के बिना उसका कोई फल नहीं होता। कर्म करने पर भी उसके पाक या परिणाम में कभी-कभी विघ्न उपस्थित हो जाता है, अत: श्रेष्ठ विद्वान पुरुषों ने सदा काल या समय को ही बलिष्ठ माना है। दैत्यराज ! सुनो, कर्म के परिपाक का अवसर आने पर भी कर्ता के बिना उसका फल कदापि नहीं प्राप्त होता। इसलिये श्रेष्ठ पुरुष कर्ता को ही प्रधान मानते हैं, कर्म और काल को नहीं। कुछ लोग योग (उपाय) को ही प्रधान मानते है; क्योंकि उसके बिना भूतल पर कोई भी कर्म और उसके फल की सिद्धि नहीं हो सकती। काल, कर्म और कर्ता के रहते हुए भी योग के बिना सब व्यर्थ हो जाता है। योग, कर्म, कर्ता और काल के होते हुए भी विधि ज्ञान के बिना सब व्यर्थ हो जाता है, जैसे परिणाम के प्रकार आदि का विचार किये बिना फल का यथावत साधन नहीं होता। योग, कर्म, कर्ता, काल और विधिज्ञान के होने पर भी ब्रह्म पुरुष के बिना कुछ भी नहीं होता। इसलिये मैं उन परिपूर्णतम भगवान को नमस्कार करता हूं, जिनसे अखिल विश्व का ज्ञान होता है।
शकुनि बोला- हे महाबाहु प्रद्युम्न ! तुम तो साक्षात ज्ञान के निधि हो, जो तुम्हारा दर्शन मात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। जो तुम्हारा संग पाकर प्रतिदिन तुम से वार्तालाप करते हैं, उनकी महिमा का वर्णन करने में तो चार मुख वाले ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 39
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर मायावी और बलवान दैत्यराज शकुनि ने मयासुर से सीखे हुए रौरवास्त्र का संधान किया। राजन् ! उस अस्त्र से बड़े बड़े भाग, दंदशूक और विषैले बिच्छू करोड़ों की संख्या में निकले। वे सब के सब बड़े विकराल और रौद्र रूपधारी थे। उनके द्वारा डसी हुई सारी सेना उनके फुफकारों से मतवाली हो गयी। यह देख परम बुद्धिमान प्रद्युम्न ने गरुडास्त्र का संधान किया। उस अस्त्र से कोटि कोटि गरुड़, नीलकण्ठ, मोर तथा अन्य भयानक पक्षी उस दैत्य के देखते देखते प्रकट हुए। उन पक्षियों ने उस युद्ध में नागों, दंदशूकों तथा बिच्छुओं को निगल लिया। फिर वे तीखी चोंच और बड़ी पांख वाले पक्षी क्षणभर में अदृशय हो गये। राजन् ! तब उस रणदुर्मद दैत्य शकुनि ने भी राक्षसी, गान्धर्वी, गौहा की और पैशाची माया का संधान किया। उन बाणों से निकले हुए विकराल और काले रूप वाले करोड़ों भूत और प्रेत वहाँ अंगारों की वर्षा करने लगे। उस तामसी और पैशाची माया को जानकर युद्धाभिलाषी श्रीकृष्ण कुमार मीनध्वज प्रद्युम्न ने सत्त्वास्त्र का संधान किया।
राजन् ! उस बाण से करोड़ों विष्णु पार्षद प्रकट हुए, जिन्होंने उस पैशाची माया को वैसे ही नष्ट कर दिया, जैसे गरुड़ नागिन को नष्ट कर दे। तब उस मायावी दैत्य ने पुन: गौह्म की माया का संधान किया, जिससे गर्जन-तर्जन करते हुए करोड़ों भयानक मेघ प्रकट हुए। ये मल, मूत्र, रक्त, मेदा, मज्जा और हड्डी की वर्षा करने लगे। महाराज ! उस गौह्म की माया को जानकर भगवान् प्रद्युम्न हरि ने उसके विनाश के लिये बाण पर घर्घर ध्वनि करने वाले भगवान यज्ञ वाराह का प्राकट्य हुआ। वे वेग से अपनी दाढ़ से बादलों को विदीर्ण करते हुए उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे मत्त गजराज बांस के वृक्षों को तोड़ता-फोड़ता शोभा पाता है। तदनन्तर उस दैत्य ने रणमण्डल में गान्धर्वी माया प्रकट की। युद्ध अदृश्य हो गया और वहाँ सोने के करोड़ों महल खड़े हो गये।
सत्पुरुषों के देखते-देखते वे स्वर्णमय भवन वस्त्रों और अलंकारों से सज गये। वहाँ विद्याधरियां और गन्धर्व नाचने-गाने लगे। नरेश्वर ! मृदंग, ताल और वाद्यों के मोहक शब्दों तथा रागयुक्त हाव-भाव और कटाक्षों द्वारा लोगों को संतुष्ट करती हुई सोलह वर्ष की सी अवस्था वाली कमल नयनी, मनोमोहिनी, सुन्दरी रमणियाँ वहाँ प्रकट हो गयीं। उनके रूप-लावण्य तथा राग से जब समस्त वृष्णिवंशी पुरुष मोहित हो गये, तब उस मोहिनी गान्धर्वी माया को जानकर उसके निवारण के लिये महाबली प्रद्युम्न ने रणभूमि में ज्ञानास्त्र का संधान किया।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 39
नृपेश्वर ! उस समय ज्ञानोदय होने पर सबके मोह का नाश हो गया। उस माया के नष्ट हो जाने पर क्रोध से भरे हुए मायावी दैत्यराज शकुनि ने राक्षसी माया का संधान किया। राजन् ! फिर तो क्षण भर में सारा आकाश पंखधारी पर्वतों से आच्छादित हो गया। पृथ्वी पर घोर अन्धकार छा गया, मानो प्रलय काल में मेघों की घोर घटा घिर आयी हो। आकाश से चारों ओर जल वृक्ष, प्रस्तर-खण्ड हड्डियाँ, धड़, रक्त, गदाएं, परिघ, खड़ग और मुसल आदि बरसने लगे। विदेहराज ! पर्वत मेघों के समान आकाश में घूमने लगे। हाथियों और घोड़ों को अपना भक्ष्य बनाते हुए सैकड़ों राक्षस और यातुधान हाथों में शूल लिये 'काट डालो, फाड़ डालो' इत्यादि कहते हुए दृष्टिगोचर होने लगे। रणमण्डल में बहुत-से सिंह, व्याघ्र और वाराह दिखायी देने लगे, जो अपने नखों द्वारा हाथियों को विदीर्ण करते हुए उनके शरीरों को चबा रहे थे। अपनी सेना को पलायन करती देख महाबली प्रद्युम्न ने उस राक्षसी माया को जीतने के लिये नरसिंहास्त्र संधान किया। इससे साक्षात रौद्र रूपधारी भगवान नरसिंह हरि प्रकट हो गये, जिनके अयाल चमक रहे थे। जीभ लपलपा रही थी तथा बड़े-बड़े नख और पूंछ उनकी शोभा बढ़ाते थे। बाल हिल रहे थे, मुंह डरावना दिखायी देता था और वे हुंकार से अत्यन्त भीषण प्रतीत होते थे। रण्मण्डल में सिंहनाद करते हुए वे खड़े हो गये। उनके दस सिंहनाद से सप्त पाताल और सातों लोकों सहित सारा ब्रह्माण्ड गूंज उठा, दिग्गज विचलित हो गये, तारे खिसक गये और भूखण्ड-मण्डल कांपने लगा। वे अपने तीखे नखों से दैत्यों के देखते-देखते वृक्षों सहित पर्वतों को आकाश में उठाकर उनकी सेना के बीच भूपृष्ठ पर पटक देते थे। उन नरहरि ने युद्ध स्थल में यातुधानों को अपने पैरों से मसल डाला। सिंहों, व्याघ्रों और वाराहों को तीखे नखों से विदीर्ण करके आकाश में फेंक दिया। फिर वे भगवान विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये।
इस प्रकार राक्षसी माया के नष्ट हो जाने पर रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न ने समरांगण में विजय दायक मौलेन्द्र नामक शंख बजाया। उस समय दुन्दुभियों की ध्वनि से मिश्रित जय-जय घोष होने लगा। प्रद्युम्न के ऊपर देवता लोग फूल बरसाने लगे। अपनी माया के नष्ट हो जाने पर दैत्यराज शकुनि रथ और सैनिकों के साथ वहीं अदृश्य हो गया। इसके बाद उसने मय नामक दैत्य द्वारा सिखायी हुई दैतेयी माया प्रकट की। उस समय बिजली की कड़क के साथ हाथी की सूंड़ के समान मोटी जलधाराएँ बरसाते हुए सांवर्तक मेघगण सत्पुरुषों के देखते-देखते आकाश में छा गये। एक ही क्षण में सारे समुद्र प्रचण्ड आंधी से कम्पित और क्षुभित हो परस्पर टकराते हुए अपने भंवरों से समस्त भूमण्डल को आपावित करने लगे। उसमें यादवों के आत्मीयजनों सहित सारे वृक्ष डूब गये। यह देख समस्त यादव बहुत भयभीत हो गये तथा राम-कृष्ण के नामों का कीर्तन करते हुए अपना सारा पराक्रम भूल गये। राजेन्द्र ! एक ही क्षण में वे सब लोग चुपचाप पराजित हो गये। तब महाबाहु प्रद्युम्न ने प्रचण्ड पराक्रम के आश्रय भूत कोदण्ड पर बाण रखकर उनके ऊपर सहसा श्रीकृष्णास्त्र का संधान किया।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 39
मिथिलेश्वर ! उस समय वहाँ कुशस्थलीपुर के प्रात:कालीन करोड़ों सूर्यों के समान कान्तिमान उत्कृष्ट तेज:पुज्ज स्वयं इस प्रकार प्रकट हुआ, मानो वह अपने अभीष्ट अर्थ का मूर्तिमान रूप हो। वह तेज दसों दिशाओं का अनुरज्जन कर रहा था। उस परम तेज के भीतर नूतन जलधर के समान श्याम छवि से सुशोभित, सुवर्णमय कमल की रेणु के सदृश पीत वसन से समलंकृत, भ्रमरों के गुज्जारव से निनादित, कुन्तल राशिधारी, वैजयन्ती माला पहने, श्री वत्सचिह एवं उत्तम कौस्तु भरत्न से सुशोभित वक्ष वाले, प्रफुल्ल पंकज के तुल्य विशाल लोचन, चार भुजाधारी श्रीकृष्ण दुष्टिगोचर हुए। उनके मस्तक पर सुन्दर किरीट, कण्ठ में मनोहर हार तथा चरणों में नवल नूपुर शोभा दे रहे थे। कानों में नूतन सूर्य की सी कान्ति वाले सोने के कुण्डल झलमला रहे थे।
इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण को देखकर यदुवंशी अत्यन्त हर्ष से खिल उठे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर उन परमेश्वर को प्रणाम किया। मिथिलेश्वर ! उस समय देवता लोग सब ओर से फूल बरसाकर जोर-जोर से जय-जयकार करने लगे। तत्काल आये हुए शांर्ग धनुषधारी भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शांर्ग धनुष से छूटे हुए एक ही बाण से लीलापूर्वक शकुनि के प्रत्यंचा सहित कोदण्ड को रोषपूर्वक खण्डित कर दिया। धनुष कट जाने पर तिरस्कृत हुआ शकुनि युद्ध छोड़कर अपने अस्त्र शस्त्रों का समूह ले आने के लिये चन्द्रावतीपुरी को चला गया।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘श्रीकृष्ण का आगमन’ नामक उनतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 40
शकुनि के जीव स्वरूप शुक का निधन
नारद जी कहते हैं- राजन् ! शकुनि के चले जाने पर कमल नयन भगवान श्रीकृष्ण ने प्रद्युम्न आदि समस्त यादवों को बुलाकर इस प्रकार कहा।
श्री भगवान बोले- पूर्वकाल में सुमेरु पर्वत के उत्तर भाग में इस शकुनि नामक दैत्य ने चार युगों तक निराहार रहकर तपस्या द्वार भगवान शिव को संतुष्ट किया। चार युग व्यतीत हो जाने पर साक्षात महेश्वरदेव ने प्रसन्न होकर दर्शन दिया और कहा- ‘वर मांगो। दैत्य शकुनि ने उनको प्रणाम किया। उसका रोम-रोम खिल उठा और नेत्रों में प्रेम के आंसू छलक आये। उसने दोनों हाथ जोड़कर गद्गद वाणी में धीरे से कहा- ‘प्रभो ! यदि मैं मरूँ तो भूतल का स्पर्श होते ही फिर जी जाऊँ और आकाश में भी हे देव ! दो घड़ी तक मेरी मृत्यु न हो। दैत्य के इस प्रकार कहने पर भगवान हर ने दोनों वर दे दिये और पिंजरे में रखे हुए एक तोते को देखकर उस नतमस्तक दैत्य से कहा- 'निष्पाप दैत्य ! यह तोता तुम्हारे जीव के तुल्य है। तुम इसकी सदा रक्षा करना। असुर ! इसके मर जाने पर तुम्हें यह जानना चाहिये कि मेरी ही मृत्यु हो गयी है। उसे इस प्रकार वर देकर रुद्रदेव अन्तर्धान हो गये। इसलिये दुर्ग में तोते की मृत्यु हो जाने पर शकुनि का वध होगा।
नारद जी कहते हैं- यह कहकर वीरों की उस सभा में भगवान देवकीनन्दन ने गरुड़ को शीघ्र बुलाकर हंसते हुए मुख से कहा।
श्री भगवान बोले- परम बुद्धिमान गरुड़ ! मेरी बात सुनो, तुम चन्द्रावतीपुरी को जाओ। वह पुरी सौ योजन विस्तृत है और दैत्यों की सेना से घिरी हुई है। सुवर्ण और रत्नों से मनोहर प्रतीत होने वाली गगनचुम्बी महलों तथा विचित्र उपवनों एवं उद्यानों से सुशोभित है। बड़े-बड़े दैत्य उसकी शोभा बढ़ाते हैं। उसके प्रत्येक दुर्ग में और दरवाजों पर दैत्य पुंगव उसकी रक्षा करते हैं (उस पुरी में जाकर तुम शकुनि के महल के भीतर पिंजरे में सुरक्षित तोते को मार डालो)।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस पुरी को देखने के लिये गरुड़ ने सूक्ष्म रूप धारण कर लिया। वे दैत्यों से अलक्षित रहकर, अट्टालिकाओं तथा तोलिकाओं का निरीक्षण करते हुए, उड़-उड़कर एक महल से दूसरे महल में होते हुए शकुनि के भवन में जा पहुँचे। दैत्य के जीवस्वरूप शुक की खोज करते हुए गरुड़जी क्षण भर वहाँ खड़े रहे। उस समय दैत्यराज शकुनि वहाँ युद्ध के लिये कवच धारण किये भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र ले रहा था। उस वीर का हृदय क्रोध से भरा हुआ था। राजन् ! उसकी स्त्री मदालसा उसकी कमर में दोनों हाथ डालकर बोली।
मदालसा ने कहा- राजन् ! प्राणनाथ ! तुम्हारे सारे सुहद, अनुकूल चलने वाले भाई तथा उद्भट दैत्यप्रवर युद्ध में मारे गये। यादवों के साथ युद्ध करने के लिये न जाओ; क्योंकि उनके पक्ष में साक्षात भगवान श्रीहरि आ गये हैं। उन्हें तत्काल भेंट अर्पित करो, जिससे कल्याण की प्राप्ति हो।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 40
शकुनि बोला- प्रिये ! यादवों ने बलपूर्वक मेरे भाइयों का वध किया है, अत: मैं अपनी सेनाओं द्वारा उन्हें अवशय मारूँगा। भगवान शिव के वरदान से भूतल पर मेरी मृत्यु नहीं होगी। प्रिये ! चन्द्र नामक उप द्वीप में सुन्दर पतंग पर्वत पर इस समय मेरा जीव रूपी शुक विद्यमान है। शंखचूड़ नामक सर्प दिन-रात उसकी रक्षा करता है। इस बात को कोई नहीं जानता। फिर मेरी मृत्यु कैसे हो सकती है।
नारदजी कहते है- राजन् ! शुक विषयक वृत्तान्त सुनकर दिव्य वाहन गरूड़ ने वहाँ से चन्द्र नामक उप द्वीप में जाने का विचार किया। वेग से उड़ते हुए गरूड़ समुद्र के तट पर जा पहुँचे और चन्द्रद्वीप की खोज करते हुए आकाश में विचरने लगे। शत योजन विस्तृत एवं भयंकर गर्जना करने वाले समुद्र पर दृष्टिपात करते हुए पक्षिराज गरूड़ लतावृन्द से मनोरम सिंहल द्वीप में पहुँच गये। वहाँ के लोगों से गरूड़ ने पूछा- ‘इस स्थान का क्या नाम है उत्तर मिला- ‘सिंहल द्वीप। तब वहाँ से उड़ते हुए गरूड़ बड़े वेग से त्रिकूट पर्वत के शिखर पर बसी हुई लंका में जा पहुँचे। लंका जाकर वहाँ से भी उड़े और पाच्चजन्य द्वीप में चले गये। पाच्चजन्य सागर के निकट पहुँचने पर बलवान पक्षिराज गरूड़ को बड़ी भूख लगी। इन्होंने हठात तीखी चोंच द्वारा बहुत से मत्स्य पकड़ लिये। उन्हीं मत्स्यों में एक बड़ा भारी मगर भी आ गया, जो दो योजन लंबा था उसने गरूड़ का एक पैर पकड़ लिया और पानी के भीतर खींचने लगा। गरुड़ अपना बल लगाकर उसे किनारे की ओर खींचने लगे। राजन् ! उस समय दो घड़ी तक उन दोनों में खींचातानी चलती रही। गरूड़ का वेग बड़ा प्रचण्ड था। उन्होंने अपनी तीखी चोंच से उस मगर की पीठ पर इस प्रकार चोट की, मानो यमराज ने यम दण्ड से प्रहार किया हो। उसी समय वह मगर का रूप छोड़कर तत्काल एक महान विद्याधर हो गया। उसने साक्षात गरूड़ को मस्तक झुकाया और हंसते हुए कहा।
विद्याधर बोला- मैं पूर्वकाल में हेमकुण्डल नामक प्रसिद्ध विद्याधर था। एक दिन देवमण्डल में सम्मिलित हो मैं आकाश गंगा में स्न्नान कर रहे थे। हंसी-हंसी में उनका पैर पकड़कर मैं उन्हें जल के भीतर खींच ले गया। तब ककुत्स्थन ने मुझे शाप देते हुए कहा- ‘दुर्बुद्धे ! तू मगर हो जा। तब मैंने उन्हें अनुनय-विनय से प्रसन्न किया। वे शीघ्र ही प्रसन्न हो गये और वर देते हुए बोले- ‘गरुड़ की चोंच का प्रहार होने पर तुम मगर की योनि से छूट जाओगे। सुव्रत ! आज आपकी कृपा से मैं ककुत्स्थ मुनि के शाप से छुटकारा पा गया।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 40
नारदजी कहते हैं- यों कहकर जब हेमकुण्डल नामक विद्याधर स्वर्गलोक को चला गया, तब गरुड़ दोनों पांखों से उड़कर वहाँ से व्योममण्डल में पहुँच गये। वहाँ से वेगपूर्वक उड़ते हुए वे हरिण नामक उपद्वीप में गये। वहाँ अपान्तरतमा नामक मुनि बड़ी भारी तपस्या करते थे। उनके आश्रम में जाने पर पक्षिराज गरूड़ की एक पांख टूटकर गिर गयी। उसे देखकर अपान्तरतमा नामक मुनि गरूड़ से बोले ‘पक्षिन् ! मेरे मस्तक पर अपनी पांख रखकर तुम सुखपूर्वक चले जाओ। तब गरुड़ उनके मस्तक पर पांख रखकर आगे बढ़ गये। अपने ही समान अनेका नेक चन्द्रोपम पंख गरुड़ ने उनके सिर पर देखे। इससे उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। तब अपान्तरतमा मुनि गरूड़ से बोले- ‘पक्षिराज जब-जब श्रीकृष्ण का अवतार होता है, तब-तब सदा गरूड़ की एक पांख यहाँ गिरती है। कल्प-कल्प में श्रीकृष्णचन्द्र का अवतार होता है और तब-तब मेरे मस्तक पर गरुड़ का पंख गिरता है। इस प्रकार यहाँ अनन्त पंख पड़े हैं। जो सबके आदि अन्त बताये जाते हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
नारदजी कहते हैं- यह सुनकर गरूड़ आश्चर्यचकित हो उठे। उन्होंने उन मुनिवर को प्रणाम करके फिर अपनी उड़ान भरी और आकाशमण्डल में होते हुए वे रमणक द्वीप में चले गये। वहाँ सर्पों से बलि लेकर वे आवर्तक द्वीप में गये और वहाँ के शुक्ल द्वीप में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने मुझसे चन्द्रद्वीप का पता पूछा। फिर मेरे कहने से पक्षी गरूड़ उत्तर दिशा की ओर गये। इस तरह वे खगेश्वर चन्द्रद्वीप के पर्वत पर जा पहुँचे। वहाँ विनतानन्दन ने जलदुर्ग और अग्निदुर्ग देखा। मिथिलेश्वर ! बलवान पक्षिराज ने सारे जलदुर्ग को अपनी चोंच में लेकर उसी से अग्निदुर्ग को बुझा दिया। वहाँ पर्वतीय कन्दरा के द्वार पर जो लाखों दैत्य सोये थे, वे उठ खड़े हुए। उनके साथ दो घड़ी तक गरूड़ का युद्ध चलता रहा। पक्षिराज ने युद्ध में अपने पंजों से कितने ही राक्षसों को विदीर्ण कर डाला, किन्ही को पांखों से मारकर धराशायी कर दिया। कुछ दैत्यों को चोंच से पकड़कर बलवान पक्षिराज ने पर्वत के पृष्ठ भाग पर पटक दिया और फिर उठाकर बलपूर्वक आकाश में फेंक दिया। कुछ मर गये और शेष दैत्य दसों दिशाओं में भाग गये। इस तरह दैत्यों का संहार करके पक्षिराज गुफ़ा में घुस गये। वहाँ शंखचूड़ नामक सर्प के मस्तक पर उन्होंने अपने चमकीले पैर से आघात किया। शंखचूड़ गरुड़ को देखकर अत्यन्त तिरस्कृत हो पिंजरे के तोते को पानी में फेंककर शीघ्र ही वहाँ से पलायन कर गया। राजन् ! गरूड़ ने पिंजरे सहित शुक को तत्काल अपनी चोंच में लेकर आकाश में उड़ते हुए युद्धस्थल में जाने का विचार किया।
तब तक भागे हुए दैत्यों का महान कोलाहल आरम्भ हुआ। नरेश्वर ! तोता ले गया, तोता ले गया इस प्रकार चिल्लाते हुए उन असुरों की आवाज आकाश में और सम्पूर्ण दिशाओं में फैल गयी और दैत्य की सेनाओं के लोगों ने भी इस बात को सुना। स्वर्ग, भूतल एवं समस्त ब्रह्माण्ड में ‘तोता ले गया, तोता ले गया’ की आवाज गूंज उठी। उसे सुनकर असुरों सहित शकुनि सशंक हो गया। वह शूल लेकर तत्काल चन्द्रावतीपुरी से उठा और ‘गरूड़ तोते को ले गये है- यह सुनकर रोषपूर्वक उनका पीछा करने लगा। उसने गरूड़ को अपने शूल से मारा, तो भी उन्होंने मुख से तोते को नहीं छोड़ा। वे सातों समुद्र और सातों द्वीपों का निरीक्षण करते हुए आगे बढ़ते गये। दैत्यराज शकुनि ने प्रत्येक दिशा में और आकाश के भीतर भी उनका पीछा किया। राजन् ! नागान्तक गरूड़ आकाश में भ्रमण करते हुए कोटि योजन तक चले गये। दैत्य के त्रिशूल की मार से वे क्षत विक्षत हो गये, तथापि मुख से तोते को छोड़ नहीं सके। राजन् ! लाख योजन ऊँचे आकाश में जाने पर पिंजरे सहित शुक पत्थर की भाँति सुमेरु पर्वत के शिखर पर बड़े वेग से गिरा। पिंजरा टूट गया और तोते के प्राण-पखेरु उड़ गये। तदनन्तर गरूड़ उस महायुद्ध में श्रीकृष्ण के पास चले गये। राजन ! दैत्य शकुनि खिन्नचित्त हो चन्द्रावतीपुरी में लौट गया।
*इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘गरूड़ का आगमन’ नामक चालीसवां अध्याय पूरा हुआ।*
विश्वजित खण्ड : अध्याय 41
शकुनि का घोर युद्ध, सात बार मारे जाने पर भी उसका भूमि के स्पर्श से पुन: जी उठना; अन्त में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युक्तिपूर्वक उसका वध
नारदजी कहते हैं- राजन् ! शेष दैत्यों को लेकर नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र धारण किये बलवान वीर शकुनि, दिव्य मनोहर अश्व उच्चै:श्रवा पर आरुढ़ हो, क्रोध से अचेत-सा होकर, धनुष की टंकार करता हुआ भगवान श्रीकृष्ण के भी सम्मुख युद्ध करने के लिये आ गया। रणदुर्मद दैत्य शकुनि तथा उसकी सेना का पुन: आगमन देख समस्त वृष्णिवंशियों ने अपने अपने आयुध उठा लिये। उस समय दैत्यों का यादवों के साथ घोर युद्ध हुआ। वीरों के साथ वीर इस तरह जूझने लगे, जैसे सिंहों के साथ सिंह लड़ रहे हों। राजन् ! मेघ की गर्जना के समान बारंबार कोदण्ड की टंकार करता हुआ शकुनि सबके आगे था। उसने नाराचों द्वारा दुर्दिन उपस्थित कर दिया। बाणों का अन्धकार छा जाने पर शांर्ग धनुष धारण करने वाले भगवान् गरूड़ ध्वज अपने उस धनुष उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे इन्द्रधनुष से मेघ की शोभा होती है। साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ने अपने एक ही बाण से लीलापूर्वक असुर शकुनि के बाण-समूहों को काट डाला।
मिथिलेश्वर ! युद्ध में अपने कोदण्ड को कान तक खींचकर शकुनि ने भगवान श्रीकृष्ण के हृदय में दस बाण मारे। तब प्रलय समुद्र के महान आवर्तो के भीषण संघर्ष के समान गम्भीर नाद करने वाली शकुनि के धनुष की प्रत्यंचा को श्रीकृष्ण ने दस बाणों से काट डाला। नरेश्वर ! मायावी दैत्य शकुनि सबके देखते देखते सौ रूप धारण करके श्रीहरि के साथ युद्ध करने लगा। तब साक्षात भगवान श्रीकृष्ण एक सहस्त्र रूप धारण करके उस दैत्य के साथ युद्ध करने लगे, वह अद्भुत-सी बात हुई। बलवान दैत्यराज शकुनि ने मयासुर के बनाये हुए अग्नितुल्य तेजस्वी त्रिशूल को घुमाकर उसे श्रीहरि के ऊपर चला दिया। तब कुपित हुए परिपूर्णतम महाबाहु श्रीहरि ने उस त्रिशूल को वैसे ही काट दिया, जैसे तीखी चोंच वाला गरूड़ किसी सर्प को टूक-टूक कर डाले। तदनन्तर क्रोध से भरे हुए महाबाहु श्रीहरि ने शकुनि के मस्तक पर अपनी गदा चलायी तथा उस वज्रतुल्य
गदा की चोट से पीडित हुआ दैत्य क्षणभर के लिये मूर्च्छित हो गया। फिर युद्धस्थल में अपनी गदा लेकर वह माधव के साथ युद्ध करने लगा।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 41
उस समय रणमंडल में गदाओं द्वारा उन दोनों के बीच घोर युद्ध हुआ। गदाओं के टकराने का चट-चट शब्द वज्र के टकराने की भाँति सुनायी पड़ता था। श्रीकृष्ण की गदा से चूर-चूर होकर शकुनि की गदा पृथ्वी पर गिर पड़ी। वह युद्ध में सबके देखते-देखते अंगार की भाँति दहकने लगी। जैसे पर्वत की कन्दरा में दो सिंह लड़ते हों, जैसे वन में दो मतवाले हाथी जुझते हों, उसी प्रकार समरांगण में वे दोनों श्रीकृष्ण और शकुनि परस्पर युद्ध करने लगे। शकुनि ने श्रीकृष्ण को सौ योजन पीछे कर दिया और श्रीकृष्ण ने उसे भूतल पर सहस्त्र योजन पीछे ढकेल दिया। तब त्रिभुवन नाथ श्रीहरि ने उसे दोनों भुजाओं में पकड़कर जांघों के धक्के से जमीन पर वैसे ही पटक दिया हो। जैसे किसी बालक ने कमण्डलु फेंक दिया हो। इससे उस दैत्य को कुछ व्यथा हुई। फिर उस युद्धदुर्मद दुराचारी शकुनि ने जारुधि पर्वत को पकड़कर उसे श्रीकृष्ण पर चला दिया। पर्वत को अपने ऊपर आता देख कमल नयन भगवान श्रीकृष्ण ने पुन: उसे उसी की ओर लौटा दिया। इस प्रकार जय शब्द का उच्चारण करते हुए वे दोनों एक दूसरे पर उसी पर्वत के द्वारा प्रहार करते रहे। राजन् ! उस पर्वत के आघात से उन दोनों ने चन्द्रावतीपुरी को भी चूर्ण कर दिया। उस समय दैत्य शकुनि ने अत्यन्त कुपित हो ढाल तलवार उठा ली और महात्मा श्रीकृष्ण के सामने वह युद्ध के लिये आ गया। तब भगवान शांर्गधर ने अपना शांर्गधनुष लेकर उसके ऊपर सहसा अर्धचन्द्रमुख बाण का संधान किया, जो युद्धस्थल में ग्रीष्मऋतु के सूर्य के समान उद्भासित हो उठा। शांर्ग धनुष से छूटा हुआ वह दिव्य बाण दिड्मण्डल को विद्योतित करता हुआ शकुनि का मस्तक काटकर भूमि का भेदन करके तल लोक में चला गया। उस समय दैत्य शकुनि प्राण शून्य होकर युद्ध स्थल में गिर पड़ा।
मिथिलेश्वर ! भूमि का स्पर्श होते ही वह क्षणभर में पुन: जीवित हो उठा। अपने कटे हुए मस्तक को अपने ही हाथ से धड़ पर रखकर वह युद्ध करने के लिये पुन: उठ खड़ा हुआ, वह अद्भुत सी घटना हुई। इस प्रकार श्रीकृष्ण के हाथ से सात बार मारे जाने पर भी वह महान असुर भूमि के स्पर्श से जी उठा तथा राहु की भाँति फिर खड़ा हुआ। अब वह अकेले ही यादवकुल का संहार करने के लिये उद्यत हुआ। वन में दावानल की भाँति उस शक्तिशाली महादैत्य ने तत्काल यादव सेना में प्रवेश किया। उसने घोड़ों और अस्त्र-शस्त्रों सहित महावीर घुड़सवारों को तथा मदमत्त हाथियों को भुजाओं से पकड़कर आकाश में लाख योजन दूर फेंक दिया। किन्हीं हाथियों का मुँह, किन्हीं के दोनों कंधे तथा किन्हीं के दोनों कक्ष पकड़कर फेंकता हुआ वह दैत्य कालाग्नि रुद्र के समान जान पड़ता था। उस दैत्य के दोनों पैरों और हाथों ने उस महासमर में जब भारी आतंक उत्पन्न कर दिया और महात्मा श्रीकृष्ण सेना में जोर से हाहाकार होने लगा, तब विश्वरक्षक साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ने साधु पुरुषों की रक्षा के लिये अपने अस्त्र सुदर्शन चक्र प्रलयकाल के कोटि सूर्यों की दीप्तिमती प्रभा से प्रज्वलित हो उठा। उसने उस महायुद्ध में शकुनि के सुदृढ़ मस्तक को उसी तरह काट लिया, जैसे वज्र ने वृत्रासुर का मस्तक काटा था। तब तक भगवान श्रीकृष्ण ने महासमर में मरे हुए शकुनि को बलपूर्वक आकाश में फेंक दिया। फिर श्रीपति ने यादवों से कहा- 'तुम लोग इसके शरीर को बाणों से ऊपर ही ऊपर फेंकते रहो।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 41
नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीहरि की ऐसी बात सुनकर समस्त यादव श्रेष्ठ वीर आकाश से गिरते हुए उस दैत्य को चमकीले बाणों से ताड़ित करने लगे। राजन् ! दीप्तिमान के बाणों से आहत हो वह दैत्य लोगों के देखते-देखते गेंद की भाँति सौ योजन ऊपर चला गया। फिर साम्ब के बाण का धक्का पाकर वह एक सहस्त्र योजन ऊपर चला गया। जब वह पुन: आकाश से नीचे गिरने लगा, तब अर्जुन ने अपने बाण से उस पर चोट की। उस बाण से वह दैत्यराज दस हजार योजन ऊपर चला गया। तदनन्तर जब वह नीचे आने लगा, तब अनिरुद्ध के बाण ने उसे लाख योजन ऊपर उछाल दिया। इसके बाद प्रद्युम्न के बाण से वह दस लाख योजन ऊपर उठ गया। तत्पश्चात् उसे पुन: आकाश से नीचे गिरते देख योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण उस पर बाण मारा, जिससे वह कोटि योजन ऊपर चला गया। इस प्रकार दो पहर तक वह दैत्य आकाश में ही स्थित रह गया, उसे नीचे नहीं गिरने दिया।
तदनन्तर साक्षात श्रीहरि ने उसके ऊपर दूसरा बाण मारा। उस बाण ने सम्पूर्ण दिशाओं में उसको कोटि योजन तक घुमाकर समुद्र में वैसे ही ला पटका, जैसे हवा ने कमल के फूल को उड़ाकर नीचे डाल दिया हो। राजन् ! इस प्रकार जब उस दैत्य की मृत्यु हो गयी, तब उसके शरीर से एक प्रकाशमान ज्योति निकली और वह चारों ओर से परिक्रमा कदेर भगवान श्रीकृष्ण में विलीन हो गयी। उस समय भूतल और आकाश में जय जयकार होने लगी। विद्याधरियाँ और गन्धर्व कन्याएँ आनन्दमग्न हो आकाश में नृत्य करने लगीं, किंनर और गन्धर्व यश गाने लगे तथा सिद्ध और चारण स्तुति सुनाने लगे। समस्त ऋषियों और मुनियों ने श्रीहरि की पुरी-पुरी प्रशंसा की। ब्रह्म, रुद्र, इन्द्र और सूर्य आदि सब देवता वहाँ आ गये और श्रीकृष्ण के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'शकुनि दैत्य का वध' नामक इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 42
श्रीकृष्ण का यादवों के साथ चन्द्रावतीपुरी में जाकर शकुनि-पुत्र को वहाँ का राज्य देना तथा शकुनि आदि के पूर्व जन्मों का परिचय नारदजी कहते हैं- राजन् ! बचे हुए दैत्य रणभूमि से भाग गये। यादवेन्द्र भगवान श्रीहरि वीणा, वेणु, मृदंग और दुन्दुभि आदि बाजे बजवाते और सूत, मागध एवं वन्दीजनों के मुख से अपने यश का गान सुनते हुए, पुत्रों तथा अन्य यादवों के साथ सेना से घिरकर शंख, चक्र गदा, कमल और शागर्ड धनुष से सुशोभित हो, देवताओं सहित चन्द्रावतीपुरी में गये। वहाँ अपने पति के मारे जाने के कारण रानी मदालसा शकुनि के पुत्र को गोद में लिये दु:ख से आतुर हो अत्यन्त करुणा जनक विलाप कर रही थी। उसके मुख पर अश्रुधारा बह रही थी और वह अत्यन्त दीन हो गयी थी। उसने तुरंत ही हाथ जोड़कर अपने बच्चे को श्रीकृष्ण के चरणों में डाल दिया और भगवान को नमस्कार करके कहा। मदालसा बोली- प्रभो ! आदिदेव ! आप भूतल का भार उतारने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। आप ही संसार के स्त्रष्टा हैं और प्रलयकाल आने पर आप ही इसका संहार करेंगे; किंतु कभी आप गुणों से लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिये आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ। मेरा बेटा बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिये। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिये। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने आपका जो अपराध किया है, उसे क्षमा कीजिये। नारदजी कहते हैं- राजन् ! मदालसा के यों कहने पर महामति भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के मस्तक पर अपने दोनों हाथ रखकर चन्द्रावती का सारा राज्य उसे दे दिया। फिर कल्पपर्यन्त की लंबी आयु देकर वैराग्य पूर्णज्ञान एवं अपनी शक्ति प्रदान की। तदनन्तर वैराग्य पूर्णज्ञान एवं अपनी भक्ति प्रदान की। तदनन्तर उस शकुनि कुमार को श्रीकृष्ण ने अपने गले की सुन्दर माला उतारकर दे दी। शकुनि ने पहले युद्ध में इन्द्र से जो उच्चै:श्रवा घोड़ा, चिन्तामणि रत्न, कामधेनु और कल्पवृक्ष छीन लिये थे, वे सब श्रीजनार्दन ने प्रयत्नपूर्वक देवेन्द्र को लौटा दिये: क्योंकि भगवान स्वयं ही गौओं, ब्राह्मणों, देवताओं, साधुओं तथा वेदों के प्रति पालक हैं। बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! पूर्वकाल में ये महाबली शकुनि आदि दैत्य कौन थे और कैसे इन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई इस बात को लेकर मेरे मन में बड़ा आश्चर्य हो रहा था। नारदजी कहते हैं- राजन् ! पूर्वकाल के ब्रह्मकल्प की बात है, परावसु गन्धर्वों का राजा था। उसके बड़े सुन्दर नौ औरस पुत्र हुए। वे सभी कामदेव के समान रूप सौन्दर्यशाली, दिव्यभूषणों से विभूषित और गीत-वाद्य विशारद थे तथा प्रतिदिन ब्रह्मलोक में गान किया करते थे। उनके नाम थे- मन्दार, मन्दर, मन्द, मन्दहास, महाबल, सुदेव, सुघन, सौध और श्रीभानु। एक समय ब्रह्माजी ने अपनी पुत्री वाग्देवता सरस्वती को मोहपूर्वक देखा। विधाता के इस व्यवहार को लक्ष्य करके परावसु के पुत्र मन ही मन हंसने लगे। सुरश्रेष्ठ ब्रह्म के प्रति अपराध करने के कारण उन्हें तामसी योनि में जाना पड़ा। श्वेतवाराह कल्प आने पर वे नवों गन्धर्व हिरण्याक्ष की पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुए। उस समय उनके नाम इस प्रकार हुए शकुनि, शम्बर, हष्ट, भूत-संतापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिशमश्रु तथा उत्कच। एक दिन की बात है, अपने घर पर आये हुए अपान्तरतमा मुनि को नमस्कार करके उनकी विधिवत पूजा करने के पश्चात् उन सब ने आदरपूर्वक इस प्रकार पूछा।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 42
Prev.png
दैत्य बोले- ब्रह्मन् ! सुनिये ! आप अपने मुँह से कहते हैं कि कैवल्य के स्वामी साक्षात भगवान श्रीहरि हैं, वे भक्त वत्सल भगवान भक्तों को मोक्ष प्रदान करते हैं; परंतु हम लोग आसुरी योनि में पड़कर सदा कुसंग में तत्पर रहने वाले और दुष्ट हैं, हमने कभी भगवान की भक्ति नहीं की। अत: इस जन्म में हमारा मोक्ष कैसे होगा। ब्रह्मान हमें परम कल्याण का उपाय बताइये; क्योंकि प्रभो। आप दीनजनों के कल्याण के लिये ही जगत में विचरते रहते हैं।
अपान्तरतमा ने कहा- दैत्यकुमारों ! गुण पृथक-पृथक नहीं रहते, वे सब मिले जुले होते हैं। अथवा जिसके जो गुण हैं, वे उससे विलग नहीं होते। अत: उन्हीं गुणों के द्वारा जो गुणातीत मोक्षाधीश्वर परमात्मा श्रीहरि का भजन करते रहे हैं, वे दैत्य उन परमात्मा प्राप्त हो चुके हैं। ऐक्य सम्बन्ध, सौहार्द, स्नेह, भय, क्रोध तथा स्मय (अभिमान) इन भावों या गुणों को सदा श्रीकृष्ण के प्रति प्रयुक्त करके वे दैत्यगण उन्हीं में लीन हो गये। उदाहरणत: भगवान पृशिनगर्भ के साथ एकता (एक कुल, कुटुम्ब या गोत्र) का सम्बन्ध मानने के कारण प्रजापतिगण मुक्त हो गये। भगवान के प्रति सौहार्द स्थापित करने से कयाधू पुत्र प्रह्लाद ने भगवान को पा लिया। श्रीहरि के प्रति स्नेह से सुतपा मुनि, भय से हिरण्यकशिपु, क्रोध से तुम्हारे पिता हिरण्याक्ष तथा स्मय (अभिमान) से श्रुतियों ने लिये भी परम दुर्लभ पद को प्राप्त कर लिया। जिस किसी भाव से सम्भव हो, श्रीकृष्ण में मन को लगाये। ये देवता लोग भक्तियोग के द्वारा ही भगवान में मन लगाकर उनका धाम प्राप्त करते हैं।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर अपान्तरतमा मुनि अन्तर्धान हो गये। तब से शकुनि आदि ने परिपूर्णतम श्रीहरि में वैरभाव स्थापित किया। उन्होंने वैरभाव से ही परमेश्वर श्रीकृष्ण को पा लिया। राजेन्द्र ! इसमें कोई आश्चर्य न मानो। जैसे कीड़ा भ्रम का चिन्तन करने से तद्रूप हो जाता है, उसी प्रकार भगवच्चिन्तन करने वाला जीव भगवान सारुप्य प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ’शकुनि पुत्र पर कृपा’ नामक बयालीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 43
इलावृत वर्ष में राजा शोभन से भेंट की प्राप्ति; स्वायम्भुव मनु की तपोभूमि में मूर्तिमती सिद्धियों का निवास; लीलावतीपुरी में अग्निदेव से उपायन की उपलब्धि; वेदनगर में मूर्तिमान वेद, राग, ताल, स्वर, ग्राम और नृत्य के भेदों का वर्णन
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार भद्राश्व वर्ष पर विजय पाकर श्री यादवेश्वर हरि यादव सैनिकों के साथ इलावृत वर्ष को गये। मिथिलेश्वर ! इलावृत वर्ष में ही रत्नमय शिखरों से सुशोभित, देवताओं का निवास स्थान, दीप्तिमान स्वर्णमय पर्वतगिरि राजाधिराज ‘सुमेरु’ है, जो भूमण्डरुपी कमल की कर्णिका के समान शोभा पाता है। उसके चारों ओर मन्दर, मेरु-मन्दर, सुपार्श्व तथा कुमुद- ये चार पर्वत शोभा पाते हैं। इन चारों से घिरा हुआ वह एक गिरिराज सुमेरु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पदार्थों से युक्त मनोरथ की भाँति शोभा पाता है। उस इलावृत वर्ष में जम्बूफल के रस से उत्पन्न होने वाला जाम्बूनद नामक स्वत: स्वर्ण उपलब्ध होता है। वहाँ जम्बूरस से ‘अरुणोदा’ नाम की नदी प्रकट हुई है, जिसका जल पीने से इस भूतल पर कोई रोग नहीं होता। राजन् ! वहाँ कदम्ब वृक्ष से उत्पन्न ‘कदम्ब’ नामक मधु की पाँच धाराएँ प्रवाहित होती हैं, जिनके पीने से मनुष्यों को कभी सर्दी-गरमी, विवर्णता (कान्ति का फीका पड़ना), थकावट तथा दुर्गन्ध आदि दोष नहीं प्राप्त होते। उन मधु-धाराओं से काम पूरक नद प्रकट हुए हैं, जो मनुष्यों की इच्छा के अनुसार रत्न, अन्न, वस्त्र, सुन्दर आभूषण, शय्या तथा आसन आदि जो-जो दिव्य फल हैं, उन सबको अर्पित करते हैं।
इस प्रकार वहाँ सुप्रसिद्ध ‘ऊर्ध्ववन’ है, जहाँ भगवान संकर्षण विराजते हैं, जिस वन में भगवन शिव स्वत: अपनी प्रेयसी ज्योतियों के साथ रमण करते हैं तथा जिसमें गये हुए पुरुष तत्काल स्त्री पुरुष में परिणत हो जाते हैं। स्वर्णमय कमल, शीतल वसन्त वायु, केसर के वृक्ष, लवंग लताओं के समूह तथा देववृक्षों की सुगन्ध के सेवन से मदान्ध भ्रमर- ये सब इलावृत वर्ष की अत्यन्त शोभा बढ़ाते हैं। वैदूर्यमणि के अकुंरों से विचित्र लगने वाली वहाँ की मनोहर स्वर्णमयी भूमि को देखते हुए भगवन श्रीहरि ने अलंकार मण्डित देवताओं से पूर्ण इलावृत वर्ष को जीतकर वहाँ से भेंट ग्रहण की। पूर्वकाल के सत्ययुग में राजा मुचुकुन्द के जामाता शोभन ने भारतवर्ष में एकादशी का व्रत करके जो पुण्य अर्जन किया, उसके फलस्वरूप देवताओं ने उन्हें मन्दराचल पर निवास दे दिया। आज भी वह राजकुमार कुबेर की भाँति रानी चन्द्राभागा के साथ वहाँ राज्य करता है। मिथिलेश्वर ! वह परम सुन्दर शोभन भेंट लेकर देवप्रवर भगवान श्रीकृष्ण के सामने आया। यदुकुलतिलक श्रीहरि की परिक्रमा करके शोभन उनके चरणारविन्दों में पड़ गया और भक्तिपूर्वक प्रणाम करके, उन परमात्मा को शीघ्र ही भेंट देकर पुन: मन्दराचल को चला गया।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 43
बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षि प्रवर ! राजा शोभन के चले जाने पर भगवान मधुसूदन ने आगे कौन सा कार्य किया, यह बतलाइये। श्रीनारदजी ने कहा- राजन् ! उस मन्दराचल के शिखर पर एक परम दिव्य सरोवर है, उसमें स्वर्णमय कमल खिलते हैं। यह देखकर किरीटधारी अर्जुन ने माधव श्रीकृष्ण से पूछा- ‘देवकीनन्दन ! सुवर्णमयी लताओं और स्वर्णमयी कमलों से व्याप्त यह अद्भुत कुण्ड किसका है मुझे बताइये। श्रीभगवान ने कहा- स्वायम्भुव मनु के कुल में उत्पन्न आदि राजाधिराज पृथु ने यहाँ दिव्य तप किया था। उन्हीं का यह अद्भुत दिव्य कुण्ड है। पार्थ ! इसका जल पीकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा इसमें स्न्नान करके नरेतर प्राणी भी मेरे परम धाम में पहुँच जाता है। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यहीं साक्षात भगवान ने एक तपोभूमि में पदार्पण किया, जहाँ सदा आठों सिद्धियाँ मूर्तिमती होकर नृत्य करती हैं। उन सिद्धियों को देखकर उद्धव ने सनातन भगवान से पूछा। उद्धव बोले- भगवन् ! मन्दराचल के समीप यह किसकी तपोभूमि है प्रभो ! यहाँ कौनसी स्त्रियाँ मूर्तिमति होकर विराज रही हैं- कृपया यह बतायें। श्रीभगवान ने कहा-उद्धव ! यहाँ पूर्वकाल में स्वायम्भुव मनु ने तपस्या की थी। उन्हीं की यह सुन्दर तपोभूमि है, जो आज भी परम कल्याण कारिणी है। यहीं नारीरूप धारिणी आठ सिद्धियाँ सदा विद्यमान रहती हैं। यहाँ जो कोई भी आ जाय, उसे भी आठों सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। यहाँ एक क्षण भी तपस्या करके मानव देवत्व प्राप्त कर लेता है। चतुर्मुख ब्रह्म भी इस तपोभूमि के माहात्म्य का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी सेना से घिरे हुए और बारंबार दुन्दुभि बजवाते हुए उन अत्यन्त उत्कट प्रदेशों में गये, जहाँ लीलावती नाम की एक स्वर्णमयी नगरी है। उस लीलावती के स्वामी साक्षात वीतिहोत्र नामधारी अग्नि हैं, जो उत्तम व्रत का पालन करते हुए नित्य मूर्तिमान होकर राज्य करते हैं। उन धनंजय देव ने भी परम पुरुष परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र को भेंट देकर उनकी उत्तम स्तुति की। इस प्रकार सारे इलावृतवर्ष का दर्शन करते हुए देवाधिदेव भगवान श्रीकृष्ण वेदनगर में गये, जो जम्बूद्विप एक मनोरम स्थान है। उस नगर में भगवान निगम (वेद) सदा मूर्तिमान होकर दिखायी देते हैं। उनकी सभा में सदा वीणा पुस्तक धारिणी वाग्देवता वाणी (सरस्वती) सुन्दर एवं मंगल के अधिष्ठानभुत श्रीकृष्ण चरित का गान करती है। नरेश्वर ! उर्वशी और विप्रचिति आदि अप्सराएँ वहाँ नृत्य करती हैं और अपने हावभाव ताथ कटाक्षों द्वारा वेदेश्चर को रिझाती रहती हैं। मैं, विश्वावसु, तुम्बुरु, सुदर्शन तथा चित्ररथ- ये सब लोग वेणु, वीणा, मृदंग मुरुयष्टि आदि वाद्यों को खड़ताल एवं दुन्दुभि के साथ विधिवत बजाया करते हैं। नरेश्वर ! वहाँ हस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित तथा सानु नासिक और निरनु नासिक- इस अठारह[1]भेदों के साथ स्तुतियाँ गायी जाती हैं। नरेश्वर ! वेदपुर में आठों ताल, सातों स्वर और तीनों ग्राम मूर्तिमान होकर विराजते हैं।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 43
वेदनगर में राग-रागिनियाँ भी मूर्तिमती होकर निवास करती हैं। भैरव, मेघमल्लार, दीपक, मालकोश, श्री राग और हिन्दोल- ये सब राग बताये गये हैं। इनकी पाँच-पाँच स्त्रियाँ- रागिनियाँ हैं और आठ-आठ पुत्र हैं। नरेश्वर ! वे सब वहाँ मूर्तिमान होकर विचरते हैं। ‘भैरव’ भूरे रंग का है, ‘मालकोश’ का रंग तोते के समान हरा है, ‘मेघमल्लार’ की कान्ति मोर के समान है। ‘दीपक’ का रंग सुवर्ण के समान है और ‘श्रीराग’ अरुण रंग का है। मिथिलेश्वर ! ‘हिन्दोल’ का रंग दिव्य हंस के समान शोभा पाता है।
बहुलाश्व ने पूछा- मुनिश्रेष्ठ ताल, स्वर, ग्राम और नृत्य’ इनके कितने कितने भेद हैं इन सब का नामोल्लेख पूर्वक वर्णन कीजिये ।
नारदजी ने कहा- राजन् ! रूपक, चर्चरीक, परमठ, विराट, कमठ, मल्लक, झटित और जुटा- ये आठ ताल हैं। राजन् ! निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत तथा पच्चम- ये सात स्वर कहे गये हैं। माधुर्य, गान्धार और ध्रौव्य- ये सात स्वर कहे गये हैं। माधुर्य, गान्धार और ध्रौव्य– ये तीन ग्राम माने गये हैं। रास, ताण्डव, नाट्य, गान्धर्व, कैंनर, वैद्याधर, गौहाक और आप्सरस-ये आठ नृत्य के भेद हैं। ये सभी दस-दस हाव भाव और अनुभावों से युक्त हैं। स्वरों का बोध कराने वाला पद ‘सा रे ग म प ध नि’- और क्या सुनना चाहते हो।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘वेद नगर का वर्णन’ नामक तैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।
गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 44
रागिनियों तथा राग पुत्रों के नाम और वेद आदि के द्वारा भगवान का स्तवन
बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! रागिनियों और रागपुत्रों के नाम मुझे बताइये; क्योंकि परावरवेत्ता विद्वानों में आप सबसे श्रेष्ठ हैं।
नारदजी ने कहा- राजन् ! कालभेद, देशभेद और स्वरमिश्रित क्रिया के भेद से विद्वानों ने गीत के छप्पन करोड़ भेद बताये हैं। नृपेश्वर ! इन सब के अन्तर्भेद तो अन्नत हैं। नृपेश्वर ! इन सब के अन्तर्भेद तो अनन्त हैं। आनन्द स्वरूप जो शब्द ब्रह्ममय श्रीहरि हैं, इन्हीं को तुम-राग समझो। इसलिये भूतल पर इन सबके जो मुख्य–मुख्य भेद हैं, उन्हीं का मैं तुम्हारे सामने वर्णन करूँगा। भैरवी, पिंगला, शंकी, लीलावती और आगरी- ये भैरवराग की पाँच रागिनियाँ बतलायी गयी हैं। महर्षि, समृद्ध, पिंगला, मागध, बिलाबल, वैशाख, ललित और पंचम- ये भैरव राग के भिन्न-भिन्न आठ पुत्र बतलाये गये हैं। मिथिलेश्वर ! चित्रा, जय जयवन्ती, विचित्रा, व्रजमल्लारी, अन्धकारी- ये मेघमल्लार राग की पाँच मनोहारिणी रागिनियाँ कही गयी हैं। श्यामकार, सोरठ, नट, उड्डायन, केदार, व्रजरहस्य, जल धार और विहाग- ये मल्लारराग के आठ पुत्र प्राचीन विद्वानों ने बताये हैं। कज्जु की, मंचरी, टोडी, गुर्जरी और शाबरी- ये दीपक राग की पाँच रागिनियाँ विख्यात हैं।
विदेहराज ! कल्याण, शुभकाम, गौड़ कल्याण, कामरूप, कान्हरा, राम संजीवन, सुखनामा और मन्दहास- ये विद्वानों द्वारा दीपक राग के आठ पुत्र कहे गये हैं। मिथिलेश्वर ! गान्धारी, वेद गान्धारी, धनाश्री, स्वर्मणि तथा गुणागरी ये पांच रागमण्डल में मालकोशराग की रागिनियाँ कही गयी हैं। मेघ, मचल, मारु माचार, कौशिक, चन्द्रहार, घुंघट, विहार तथा नन्द- ये मालकोश राग के आठ पुत्र बतलाये गये हैं। राजेन्द्र ! बैराटी, कर्णाटी, गौरी, गौरावटी तथा चतुश्चन्द्र काला- ये पुरातन पण्डितों द्वारा कही गयी श्रीराग की विख्यात पाँच रागिनियाँ हैं। महाराज ! सारंग, सागर, गौर, मरुत, पंचशर, गोविन्द, हमीर तथा गीर्भीर- ये श्रीराग के आठ मनोहर पुत्र हैं। वसन्ती, परजा, हेरी, तैलग्ड़ी और सुन्दरी ये हिन्दोल राग की पांच रागिनियाँ प्रसिद्ध हैं। मैथिलेन्द्र ! मंगल, वसन्त, विनोद, कुमुद, वीहित, विभास, स्वर तथा मण्डल विद्वानों द्वारा ये आठ हिन्दोल राग के पुत्र कहे गये हैं।
बहुलाश्व ने पूछा- शब्द ब्रह्मरूप श्रीहरि के साक्षात स्वरूप महात्मा निगम (भेद्) के, जो रागमण्डल में हिन्दोल के नाम से विख्यात हैं, पृथक-पृथक अंग इस भूतल पर कौन-कौन से हैं यह मुझे बताइये।
श्रीनारदजी ने कहा- राजन् ! वेदस्वरूप श्रीहरि का मुख ‘व्याकरण’ कहा गया है, पिंगल कथित ‘छन्द:शास्त्र’ उनका पैर बताया जाता है, ‘मीमांसाशास्त्र’ (कर्मकाण्ड) हाथ है, ‘ज्योतिष शास्त्र’ को नेत्र बताया गया है। ‘आयुर्वेद’ पृष्ठ देश, ‘धनुर्वेद’ वक्ष:स्थल, ‘गान्धर्ववेद’ रसना और ‘वैशेषिक शास्त्र’ मन है। सांख्य बुद्धि, न्यायवाद अहंकार और वेदान्त महात्मा वेद का चित्त है। मिथिलेश्वर ! रागरूप जो शास्त्र है, उसे वेदराज का विहार स्थल समझो। राजन् ! ये सब बातें तुम्हें बतायीं। अब और क्या सुनना चाहते हो।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 44
बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! उस वेदपुर में जाकर साक्षात श्रीहरि ने क्या किया, यह मुझे बताइये; क्योंकि आप साक्षात् दिव्यदर्शी हैं । श्रीनारदजी ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर श्रीकृष्ण जब वेदपुरी में आये, तब निगम (वेद) भी सरस्वती के साथ भेंट लेकर आये। गन्धर्व, अप्सरा, ग्राम, ताल, स्वर तथा भेदों सहित राग भी उनके साथ थे। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम किया। देवताओं के भी देवता साक्षात भगवान जनार्दन वेद पर प्रसन्न हो समस्त यादवों के समक्ष उन से बोले। श्रीभगवान ने कहा- निगम ! तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर मांगो। मेरे प्रसन्न होने पर तीनों लोकों में भक्तों के लिये कौन सी वस्तु दुर्लभ है। वेद बोले- देव ! परमेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं तो यहाँ मेरे जो ये उत्तम पार्षद हैं, उन सबको अपने दिव्य रूप का दर्शन कराइये। अत्यन्त उदीप्त तेज वाले अपने निजधाम गोलोक में आपका जो स्वरूप है तथा वृन्दावन में और वहाँ के रासमण्डल में आपका जो रूप प्रकट होता है, उसी का ये सब लोग दर्शन करना चाहते हैं। श्रीनारदजी कहते हैं- मैथिलेश्वर ! वेद का कथन सुनकर साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के साथ अपने परम दिव्य रूप का उन्हें दर्शन कराया। उस अनुपम सुन्दर रूप को देखकर सब लोग मूर्च्छित हो गये। अपना शरीर तथा सुख भुलाकर वे सभी सात्त्विक भावों से पूरित हो गये। राजन् ! उस समय अत्यन्त हर्ष से उत्फुल्ल हो वे वाद्यों के मधुर शब्दों के साथ सत्पुरुषों के देखते-देखते भगवान के समक्ष नाचने और गान करने लगे। मैथिलेश्वर ! भगवान का माधुर्यमय अद्भुत रूप जैसा सुना गया था, वैसा ही देखा गया और उसी प्रकार वेद आदि ने (उसका नीचे दिये शब्दों में) वर्णन किया। वेद ने कहा- देव ! आप सत्स्वरूप, ज्ञानमात्र, सत्-असत् से परे, व्यापक, सनातन, प्रशान्तरूप, विभवात्मक, सम, महत्, प्रकाशरूप, परम दुर्गम, परात्पर तथा अपने धाम (चिन्मय प्रकाश) द्वारा भ्रम एवं अज्ञान के अन्धकार को निरस्त करने वाले ‘ब्रह्म’ है; आपको मैं प्रणाम करता हूँ
विश्वजित खण्ड : अध्याय 44
सरस्वती बोलीं- भगवन् ! योगीलोग आपको परम ज्योति:स्वरूप जानते हैं, वहीं भक्तजन आपको चिन्मय विग्रह से युक्त बताते हैं। इस समय जो आपके चरणारविन्द युगल देखे गये हैं, वे समस्त ज्योतियों के अधीश्वर हैं। वे सदा मेरे लिये कल्याणकारी हों[1]
गन्धर्व बोले- प्रभो ! श्याम और गौर तेज के रूप में अपने ही प्रकाश से प्रकाशित जो आपका तेजोमय स्वरूप है, वह आपने अपनी इच्छा से प्रकट किया है। उन्हीं युगल धामों (स्वरूपों) से आप नित्य उसी प्रकार पूर्णतया विराजित रहते हैं, जैसे मेघ श्याम वर्ण तथा बिजली से शोभा पाता है।
अप्सराओं ने कहा- जैसे तमाल सुवर्णमयी लता से, मेघ विद्युन्माला से तथा जैसे नील गिरिराज सोने की खान से सुशोभित होता है, उसी प्रकार आप आदि पुरुष श्याम सुन्दर अपनी प्रेयसी श्रीराधा रानी के नित्य साहचर्य से शोभा पाते हैं।
तीनों ग्राम बोले- जिनके चरणार विन्दों के पावन पराग को शिव, रमा (लक्ष्मी), ज्ञानी पुरुष तथा देवताओं सहित श्रीराधा अपने चित्त में धारण करना चाहती हैं, माधव के उन चरण-कमलों का सदा भजन करो।
तालों ने कहा- जिनके कारण राजा बलि सत्स्वरूप होकर प्रतिष्ठित हुए, उन्हीं भगवान को बलि अर्पित करनी चाहिये। अपने संतप्त चित्तरुपी गुफा में श्री हरि के उस चरण को ही प्रतिष्ठित करके उसकी सेवा करो[5]।
गान (लय) बोले- संतजन जिनकी शरण लेकर दु:ख शोक को निकाल फेंकते हैं, श्रीराधा माधव उन दिव्य चरण कमलों को हम सदा हृदय में धारण करें।
स्वर बोले- जो शरद्-ऋतु के प्रफुल्ल पंकज की शोभा अत्यन्त तिरस्कृत कर देते हैं, मुनिरुपी भ्रमर जिनका आस्वादन करते हैं, जो व्रज, कमल और शंख आदि के चिह्नों से सुशोभित हैं, जिन पर सोने के नूपुर चमक रहे हैं तथा जिन्होंने भक्तों के त्रिविध तापों का उन्मूलन कर दिया है, श्री राधावल्लभ के उन चंचल द्युतिशाली युगल चरणारविन्दों को मैं हृदय में धारण करता हूँ
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘वेदादि के द्वारा की गयी स्तुति का वर्णन’ नामक चौवालीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 45
रागिनियों तथा राग-पुत्रों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण का स्तवन और उनका द्वारकापुरी के लिये प्रस्थान
श्रीनारदजी कहते है- राजन ! तदनन्तर भैरव आदि रागगण भगवान श्रीहरि के सामने उपस्थित हुए और रूप के अनुरूप उनके प्रत्येक अवयव का दर्शन करके अत्यन्त हर्षित हुए। श्रीहरि के विग्रह में जिस जिस अंग पर उनकी दृष्टि पड़ती थी, वहीं वहीं वह ठहर जाती थी। लवणीय विशेष का अनुभव करके वह वहाँ से हटने में समर्थ नहीं होती थी। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के उस अत्यन्त अद्भुत रूप का दर्शन करके वे भी पृथक-पृथक उसका गुणगान करने लगे।
भैरव बोला- श्रीहरि के दोनों घुटनों का चिन्तन करो, जिन्हें सदा अंक में लेकर कमला अपने कमलोपम करों से उनकी सेवा करती हैं।
मेघमल्लार ने कहा- सर्वव्यापी भगवान श्रीकृष्ण की दोनों जांघें, मानो कदली खण्ड हैं, सोने के खंभे हैं, तेज से पूर्ण हैं, अनुपम शोभा से सम्पन्न हैं तथा पीताम्बर से ढकी हुई हैं। उन दोनों वन्दनीय ऊरु युगल का मैं ध्यान करता हूँ।
दीपक राग ने कहा- भगवान के कटिभाग से नीचे जो सम्पूर्ण चरण हैं, वे समस्त सुखों को देने वाले हैं तथा सुवर्ण की सी कान्ति धारण करते हैं, उन सुप्रसिद्ध चरणों का भजन करो।
मालकोश बोला- भगवान श्रीहरि की जो कमर है, वह केश के समान अत्यन्त पतली है और वह मनुष्यों की दृष्टि का मान हर लेती है, अर्थात उस कटि को देखने में दृष्टि समर्थ नहीं हो पाती; वह मन्द-मन्द समीर के चलने पर भी अत्यन्त कम्पित होने या लचकने लगती है। इस प्रकार वह सब के चित्त को हर लेने वाली है। मैं विनम्र मस्तक से उसकी वन्दना करता हूँ।
श्रीराग बोला- राधिकावल्लभ का जो नाभि सरोवर है, उसका मैं अपने हृदय में प्रतिदिन ध्यान करता हूँ। वह पुष्करकुण्ड के समान शोभा पाता है। त्रिवलीपुर लहरों से उसकी मनोहरता बढ़ गयी है और वहाँ की रोमावली ने कामदेव के क्रीडा-कानन को तिरस्कृत कर दिया हैं।
हिन्दोल राग ने कहा- उदर में जो त्रिवली की पंक्ति है, वह क्या अक्षरों की पंक्ति (वर्णमाला) है अथवा पीपल के पत्ते पर मोहन-माला दिखायी देती है क्या कमल दल पर कोई श्याम रेखा है या उदर में यह रोमावलि फैली है।
भैरवराग की रागिनियाँ बोलीं- श्रीकृष्णहरि का जो पीताम्बर है, वह दीप्तिमान इन्द्र धनुष तो नहीं है सोने के तारों की शिल्पकला द्वारा वह मनोहर ढंग से टंका हुआ है। उसका ही भजन करो, वह मनुष्यों का दु:ख हर लेने वाला है।
भैरव के पुत्रों ने कहा- भगवान ! आपकी चारों भुजाएँ चारों समुद्रों के समान सम्पूर्ण विश्व को परिपूर्ण करने वाली हैं, चार पदार्थों के समान आनन्ददायिनी हैं, लोकरुपी चंदोवा के वितान में दण्ड का काम देती हैं तथा भूमि को धारण करने में दिग्गजों के समान प्रतीत होती हैं।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 45
मेघमल्लार की रागिनियाँ बोलीं- सर्ववल्लभ भूमिपति भगवान श्रीहरि के मधुर अधर का, हे मन ! तू सदा चिन्तन कर ! वह लाल रंग के बिम्बफल की सी कान्ति से मण्डित है तथा नूतन जपाकुसुम के लाल दलों की भाँति उसका सुन्दर स्वरूप है।
मेघमल्ला बेटे बोले- परमेश्वर ! श्रीकृष्ण की जो निर्मल दन्त-पंक्ति है, उसका सदा ध्यान करो। उसने कपूर, केवड़े के फूल, मोती, हीरे, श्रीखण्ड चन्दन, चन्द्रमा, चपला, अमृत तथा मल्लिका पुष्पों की कान्ति को पहले से ही तिरस्कृत कर दिया है।
दीपक राग की रागिनियों ने कहा- भगवन् ! निजजनों की रक्षा करने में समर्थ तथा अभिष्ट वस्तु देने में दक्ष जो आपके युगल नयनों का कृपाकटाक्ष है, वह रात-दिन हमारी रक्षा करो। वह कटाक्ष कामदेव के बाणों का परीक्षक है उससे भी तीव्र शक्तिशाली है। उसने सम्पूर्ण लावण्य की दीक्षा ले ली है, अर्थात वह समस्त लावण्य की राशि है। उसने अपनी उदारता के सामने कल्पवृक्ष को भी तिरस्कृत कर दिया है तथा उसके एक दो नहीं, करोड़ों लक्ष्य हैं।
दीप के पुत्र बोले- क्या ये नूतन कमल के बीच दो कुलिंग (गौरेया) पक्षी बैठे हैं या तीनों लोकों के दु:खों का नाश करने के लिये दो तीखी तलवारें हैं या कामदेव के दो विजयशील धनुष हैं, अथवा परमात्मा श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र में युगल भ्रूमण्डल शोभा पा रहे हैं।
मालकोश की रागिनियों ने कहा- सुन्दर कपोलमण्डल पर दो चंचल कुण्डल नृत्य कर रहे है, मानो चन्द्रमण्डल में दो नागिनें नाच रही हो, अथवा मकरन्द से परिपूर्ण कमल पर भ्रमरावली मंडरा रही हो।
मालकोश के पुत्र बोले- आकाश मण्डल में सूर्यदेव उदित हुए हैं या मेघमाला में बिजली चमक रही है अथवा यदुपति भगवान श्रीकृष्ण के गण्डमण्डल (कपोलद्वय) पर ज्योति के खण्ड सा कनक निर्मित कुण्डल झलमला रहा है।
श्रीराग की रागिनियाँ बोलीं- दो कुलिंग किंवा दो खज्जन पक्षियों की पंक्तियों का परस्पर युद्ध हुआ। उनके मध्यम में बीच-बचाव करने के लिये प्रफुल्ल कमल पर एक तोता निकट आ गया है, जो अरुण बिम्बफल को प्राप्त करने की इच्छा से वहाँ बैठा शोभा पाता है ( यहाँ कुलिंग या खंजन पक्षी भगवान के दोनों नेत्र हैं, उनके बीच में बैठा हुआ तोता नासिका है, प्रफुल्ल कमल मुख है और अरुण बिम्बफल अधर है)।
श्रीराग के पुत्र बोले- जिन्होंने अपनी कमर में पीताम्बर बाँध रखा है, मस्तक पर मोर-मुकुट धारण किया है और ग्रीवा को एक ओर झुका दिया है, जो हाथ में लकुटी और वंशी लिये हैं तथा जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, उन पटुतर नटवर वेषधारी श्रीहरि का मैं भजन करता हूँ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 45
हिन्दोल राग की रागिनियाँ बोलीं- जिनकी श्याम कान्ति की अलसी के फूल से उपमा दी जाती है, जो यमुना के तट पर कदम्ब-कानन के मध्य भाग में विराजमान हैं तथा नयी अवस्था की गोप सुन्दरियों के साथ विहार करते हुए शोभा पाते हैं, वे वनमाली हम सबके मंगल का विस्तार करें
हिन्दलराग के पुत्रों ने कहा- हरे ! भूतल पर मेरे समान पात की नहीं है और आपके समान कोई पापाहारी भी नहीं है। इसलिये आपको जगन्नाथदेव मानकर मैं शरण में आया हूँ। आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा मेरे प्रति कीजिये।
नारदजी ने कहा- राजन् ! रागों द्वारा किये गये उपर्युक्त ध्यान को सदा सुनता अथवा पढ़ता है, भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उसके नेत्रों के समक्ष प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार वेद आदि को अपने स्वरूप का दर्शन करा के साक्षात श्रीहरि उन सब के देखते-देखते चतुर्भुज शांर्गपाणि बन गये। इस प्रकार श्रीकृष्ण का दर्शन करके जब देवता लोग अपने गणों के साथ चले गये, तब सेना में अपने परात्पर भगवान श्रीहरि ने अपनी द्वारकापुरी में जाने का विचार किया। मिथिलेश्वर ! उनके रथ पर मंजीर, घंटा और किंकिणी की मधुर ध्वनि होने लगी। सुन्दर कांस्य पात्र (झांझ) की आवाज भी उसमें मिल गयी। दारुक ने उस रथ में सुग्रीव आदि चंचल घोड़े जोत दिये। वह उत्तम रत्नयुक्त आभूषणों से सजाया गया था, उसके आगे वेद-मन्त्रों का घोष भी होता था और उसके ऊपर का गरूड़ ध्वज प्रभज्जन के वेग से फहरा रहा था। ऐसे रथ के द्वारा वेदपुरी को छोड़कर परमात्मा श्रीहरि यादव वृंद से मण्डित द्वारकापुरी को चले गये।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वतिज खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘श्रीकृष्ण के ध्यान’ का वर्णन नामक पैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 46
यादवों और गन्धर्वों का युद्ध, बलभद्रजी का प्राकट्य, उनके द्वारा गन्धर्व सेना का संहार, गन्धर्वराज की पराजय, वसन्तमालती नगरी का हल द्वारा कर्षण; गन्धर्वराज का भेंट लेकर शरण में आना और उन पर बलरामजी की कृपा नारदजी कहते हैं- राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण के द्वारकापुरी को चले जाने पर प्रद्युम्न अपने सैनिकों के साथ कामदुघनद के समीप गये। वहाँ गन्धर्वों की मनोहारिणी हेमरत्नमयी वसन्त मालती नाम की नगरी है, जिसका विस्तार सौ योजन का है। लवंग लताओं के समूह, इलायची, केसर, जायफल, जावित्री, श्रीखण्ड चन्दन और पारिजात के वृक्ष उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे। मतवाले भ्रमरों के गज्जारव से निनादित, विचित्र पक्षियों के कलरव से मुखरित तथा गन्धर्वों से सुशोभित वह नगरी नागों से युक्त भोगवतीपुरी के समान शोभा पाती थी। वहीं पतंग नाम से प्रसिद्ध महाबली गन्धर्वराज राज्य करते थे, जो बड़े पुण्यात्मा थे और जिनका बल-पौरुष देवराज इन्द्र के समान था। उन्होंने सुना कि दिग्विजय के लिये निकले हुए प्रद्युम्न आ रहे हैं, तब उन गन्धर्वराज ने उद्भट गन्धर्वों से युक्त होकर युद्ध करने का निश्चय किया। रथ, घोड़े, हाथी और पैदल दस करोड़ गन्धर्वों के साथ राजा पतंग प्रद्युम्न के सामने युद्ध के लिये आये। गन्धर्वों और यादवों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। भालों, गदाओं, परिघों, मुद्ररों, तोमरों तथा ऋष्टियों की मार होने लगी। बाणों से अन्धकार फैल जाने पर अतिरथी बलवान वीर पतंग धनुष को टंकारते हुए आगे बढ़े और मेघ के समान गर्जना करने लगे। बलदेवजी के बलवान अनुज गद ने गदा लेकर गन्धर्वों की सेना को वैसे ही धराशायी करना आरम्भ किया, जैसे देवराज इन्द्र वज्र से पर्वतों को ढहा देते हैं। गद की गदा के प्रहार से कितने ही गन्धर्व युद्धभूमि में गिर गये, उनके रथ चूर-चूर हो गये और समस्त हाथियों के कुम्भस्थल फट गये। कितने ही घुड़सवार वीर भी युद्ध के मुहाने पर प्राण शून्य होकर पड़ गये। भुजाएं कट जाने से कितने ही गन्धर्व उत्तान मुख और औंधे मुख पड़े दिखायी देते थे। क्षणमात्र में गन्धर्वों की सेना में खून की नदी बह चली। प्रमथगण भगवान रुद्र की मुण्डमाला बनाने के लिये युद्धभूमि में नरमुण्डों का संग्रह करने लगे। सिंह पर चढ़ी हुई भद्रकाली सैकड़ों डाकिनियों के साथ युद्धभूमि में आकर खप्पर में खून भर-भरकर पीती दिखायी देने लगीं।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 46
इस तरह गद के द्वारा किये गये युद्ध में जब गन्धर्व गण पलायन करने लगे, तब गंधर्वों के राजा पतंग एक लाख गज सेना के साथ वहाँ आ पहुँचे। मिथिलेश्वर ! पतंग ने आते ही गद की छाती में गदा मारी। गद ने भी अपनी गदा से पतंग के वक्ष पर बलपूर्वक चोट पहुँचायी। उन दोनों में दो घड़ी तक गदा युद्ध चलता रहा। उनकी दोनों गदाएँ आग की चिनगारियाँ बिखेरती हुई चूर-चूर हो गयीं। रणदुर्मद पतंग ने लाख भार की भारी गदा लेकर तुरंत ही गद के मस्तक पर मारी। गदा के उस प्रहार से गद क्षणभर के लिये मूर्च्छित हो गये। इस प्रकार महामना पतंग ने जब घोर युद्ध किया, तब उसी समय द्वारकापुरी से एक तेजपुंज आ पहुँचा। समस्त यादवों ने करोड़ों सूर्यों के तुल्य तेजस्वी उस तेजपुंज को देखा। उसके भीतर से गोरे अंग वाले महाबली भक्तवत्सल भगवान बलदेव सहसा प्रकट हो गये। नीलाम्बधारी बलशाली बलराम ने कुपित हो गन्धर्वों की सारी सेना को हल से खींचकर मुसल से मारना आरम्भ किया। बहुत से रथों, हाथियों और घोड़ों उन्होंने काल के गाल में पहुँचा दिया। शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ वीर सब के सब चूर चूर हुए पत्थरों की भाँति एक साथ ही भूतल पर बिखर गये। पतंग भी रथहीन हो भारी भय के कारण वहाँ से वसन्त मालतीपुरी में चले गये और पुन: यादवों युद्ध करने के लिये सेना का व्यूह बनाने लगे। नरेश्वर ! सौ योजन विस्तृत गन्धर्वों की सम्पूर्ण वसन्त मालती नाम की महापुरी को हल से उपाटकर कुपित हुए बलदेवजी ने कामदुघनद में गिराने के लिये खींचा। उस नगरी के भवन धड़ाधड़ धराशायी होने लगे। फिर तो तत्काल वहाँ हाहाकार मच गया।
अपनी नगरी को टेढ़ी या करवट लेती हुई नौका की भाँति डगमगाती देख पतंग सर्वथा पराभूत हो, तत्काल समस्त गन्धर्वों के साथ हाथ जोड़, भेंट सामग्री के साथ वहाँ आ पहुँचा। उसने दो लाख ऐसे विमान बलदेवजी को भेंट किये, जो सुवर्ण के समान कान्ति वाले तथा विविध रत्नों जटित थे। मोती की बंदनवारें उनकी शोभा बढ़ाती थीं। विश्वकर्मा ने उन विमानों को दस-दस योजन विस्तृत बनाया था। वे सभी विमान इच्छानुसार चलने वाले तथा कोटि-कोटि कलशों एवं पताकाओं से सुशोभित थे। उनसे सहस्त्रों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था। चार लाख गौएँ, दस अरब घोड़े इलाइची, लवंग, केसर और जायफलों के साथ दिव्य अमृतफलों से भरे करोड़ों पात्र उपहार के रूप में लाकर उन्होंने दिये। फिर वे नमस्कार करके तिरस्कृत की भाँति हाथ जोड़कर बलरामजी से बोले, उन्हें बलभद्रजी के प्रभाव का पूरा परिचय मिल गया था।
पतंग ने कहा- राम ! महापराक्रमी बलराम मैंने आपके पराक्रम को पहले नहीं जाना था, इसलिये अपराध कर बैठा। जिनके एक फन पर सारा भूमण्डल तिल के समान दिखायी देता है, उनके सामने कौन ठहर सकता है। भगवन् ! कामपाल ! देवाधिदेव ! आपको नमस्कार है। साक्षात अनन्त एवं शेषस्वरूप आप बलराम को बारंबार प्रणाम है। अच्युतदेव ! आपकी जय हो, जय हो। परात्पर ! साक्षात् अनन्त ! आपकी कीर्ति दिगन्त तक फैली हुई है। आप समस्त देवताओं, मुनीन्द्रों और फणीन्द्रों से श्रेष्ठ हैं। मुसलीधारी ! आप बलवान हलधर को नमस्कार है।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! पतंग के इस प्रकार स्तुति करने पर महाबली बलभद्रजी का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने गन्धर्व को ‘अब तुम मत डरो’- यों कहकर अभयदान दिया। तदनन्तर यादवेश्वर बलदेव अपने चरणों में पड़े हुए प्रद्युम्न को सेना के संचालक पद पर स्थापित करके, यादवों से प्रशंसित हो शीघ्र ही द्वारकापुरी को चले गये।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व संवाद में वसन्त मालती नगरी का कर्षण नामक छियालीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 47
यादव सेना के साथ शक्रसख का युद्ध और उसकी पराजय
नारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर महावीर प्रद्युम्न अपनी विजय दुन्दुभि बजवाते हुए यादव सैनिकों के साथ मधुधारा नदी के तट पर गये। सुवर्णगिरि के किनारे कुबेर के सुन्दर वन में, जो सुनहरे हंसों और कांचनी लतिकाओं से सम्पन्न है, पहुँचे ! मिथिलेश्वर ! हिमालय की गुफाएँ देवताओं के लिये दुर्ग का काम देती हैं। वहाँ दानवों की पहुँच नहीं हो पाती। वहाँ गंगा तटवर्ती बेंत की झाडियाँ छायी रहती हैं। कभी-कभी दानवों से डरकर स्वर्ग से भागे हुए आठों लोकपालों की निधियां वहाँ निवास करती है। शक्रसख नामक देव शिरोमणि उस प्रान्त के अधिपति हैं। प्रद्युम्न का आगमन सुनकर उन्होंने उनके साथ युद्ध करने का विचार किया। प्रद्युम्न के भेजे हुए बृद्धिमानों में श्रेष्ठ साक्षात उद्धव मार्गदर्शी लोगों से रास्ता पूछते हुए शक्रसख की नगरी में गये। सभा में पहुँचकर मन्त्रिप्रवर प्रभु उद्धव ने राजा इन्द्र सख को नमस्कार करके प्रद्युम्न की कही हुई बातें विस्तार के साथ कह सुनायीं।
उद्धव बोले- यादवों के इन्द्र, द्वारकापुरी के स्वामी राजाधिराज उग्रसेन जम्बूद्वीप के नरेशों को जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे। उनके द्वारा दिग्विजय के लिये भेजे गये बलवान रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न अपने तेज से भारत आदि वर्षों को जीतकर आज ही इलावृत वर्ष पर विजय पाने के लिये आये हैं। उन श्रीकृष्णकुमार का बल महान है। यदि आप अपने कुल की कुशल चाहते हों तो शीघ्र ही उन्हें भेंट दीजिये। सर्वज्ञों में श्रेष्ठ नरेश ! यदि आप भेंट नहीं देंगे तो आपके साथ युद्ध अनिवार्य होगा।
शक्रसख बोले- दूत ! सुनो ! देवता लोग भी सदा मेरी पूजा करते हैं फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है। मैं सिद्ध हूँ, और एक लाख हाथियों के समान बलवान हूँ। आठों लोकपालों के आधिपत्य का रक्षक हूँ। कुबेर के समान कोश से सम्पन्न तथा इन्द्र के समान उद्भट शक्तिशाली हूँ। उग्रसेन को ही मुझे उत्तम उपायन भेंट करना चाहिये, मैंने पहले कभी किसी को भेंट नहीं दी है, इसलिये मैं तुम्हारे यदुराज को भी भेंट नहीं दूँगा।
उद्धव बोले- यादवों के तेज से जैसे कुबेर को तिरस्कार प्राप्त हुआ है और उन्हें भेंट देनी पड़ी है; जैसे चैत्र देश के बलवान राजा श्रृंगार तिलक ने भेंट दी है; हरिवर्ष के राजा शुभांग उत्तराखण्ड के स्वामी गुणाकर, दैत्यों के सखा राक्षसराज लकड़ापति संवत्सर, केतुमाल और शकुनि आदि बड़े-बड़े असुरों ने जैसे भेंट दी है, राजन् ! उसी तरह उन्हीं की सी दुर्दशा में पड़ने पर आप भी प्रद्युम्न को भेंट देंगे।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 47
नारदजी कहते हैं- राजन् ! उद्धव की उपर्युक्त बात सुनकर बलवान शक्रसख ने कुपित हो उद्धव को इस प्रकार उत्तर दिया-‘भगवद्भक्त शिरोमणे ! सुनो ! जब तक मैं भेंट दूँ, तब तक तुम यही ठहरो। अन्यथा तुम जाने नहीं पाओगे। महामते ! मेरी यह बात सत्य है।
उद्धव बोले- हम मन्त्रियों में श्रेष्ठ और श्रेष्ठ ज्ञान प्रदान करने वाले हैं। जो हमारी शिक्षा नहीं मानते, उनका मंगल नहीं होता।
नारदजी कहते है- राजन् ! इस प्रकार शक्रसख ने उद्धव को वहाँ नजर बंद कर लिया। उद्धव के नहीं लौटने से यदुवंशी लोग चिन्तित हो गये। उन्हें देखे बिना ! उन सबके कई दिन बीत गये। तब मेरे मुख से उद्धवजी के अवरोध का समाचार सुनकर भगवान प्रद्युम्न हरि त्रिपुरासुर को जीतने के लिये यात्रा करने वाले महादेवजी के समान शक्रसख पर विजय पाने के लिये चले। उनके साथ समस्त यादवबन्धु और सारी सेना थी। प्रद्युम्न जी सुवर्णादि की गुफा के द्वार पर जा पहुँचे। दुन्दुभियों की ध्वनि से मिश्रित वीर योद्धाओं के कोदण्डों की टंकारों, घोड़ों के हिनहिनाहट की आवाजों तथा हाथियों की चिग्घाड़ों दसों दिशाएँ गूंज उठीं। सैनिकों के पैरों से उड़ी हुई धूल भी सब ओर व्याप्त हो गयी। शक्रसख की सेना यादवों से युद्ध करने लगी। भयंकर युद्ध होने लगा, व्योममण्डल अस्त्र शस्त्रों से आच्छादित हो गया। नृपेश्वर ! यह सब देखकर मेरुपर्वत के निवासी समस्त देवता भयभीत हो उठे। इसी समय क्रोध से भरा और रथ पर चढ़ा महाबली शक्रसख दस अक्षौहिणी सेना के साथ आगे बढ़कर यादवों के साथ युद्ध करने लगा। देवताओं का यादवों के साथ तुमुल युद्ध छिड़ गया।
राजन् ! प्राकृत प्रलय के समय चारों समुद्रों के टकराने से जैसी भीषण ध्वनि होती है, वैसा ही महान कोलाहल वहाँ होने लगा। अस्त्र-शस्त्रों से वहाँ अन्धकार सा छा गया। उस समय बलदेव के छोटे भाई रोहिणीनन्दन वीर सारण कवच धारण किये, हाथी पर बैठकर, बारंबार धनुष की टंकार करते हुए सबसे आगे आ गये और अपने कोदण्ड से छूटे हुए बाणों द्वारा शक्रसख की सेना का संहार करने लगे। सारण के बाण समूहों से कितने ही वीरों के दो-दो टुकड़े हो गये। युद्धभूमि में बहुत से रथ करवट लेकर वृक्षों के समान धराशायी हो गये। उस समय जिनके कुम्भस्थल फट गये थे, उन हाथियों के मोती इधर-उधर गिर रहे थे, बाणों के अन्धकार में बिखरे हुए मोती रात्रिकाल में तारागणों के समान चमकने लगे। कटते हुए घोड़ों, पैदल यौद्धाओं तथा हाथियों से वह समरांगण भूतगणों से युक्त भूतनाथ के क्रीड़ास्थल महाशमशान सा जान पड़ता था। सारण का बल देखकर सब देवता भाग चले। उनके कोदण्ड छिन्न-भिन्न हो गये, कवच चारों ओर से फट गये।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 47
अपनी सेना को पलायन करती देख बलवान शक्रसख धनुष टंकारता हुआ वहाँ आ पहुँचा और बड़े जोर से मेघ की भाँति गर्जना करने लगा। वीर धनुर्धर बलवान शक्रसख ने समरांगण में अर्जुन को दस, साम्ब और अनिरुद्ध को सौ सौ गद को दो सौ तथा सारण को एक सहस्त्र बाण मारे। उसके बाणों की मार से रथी वीर दो-दो घड़ी तक उसी प्रकार चक्कर काटने लगे, जैसे कुम्हार के चाक घूम रहे हों। वह अद्भुत सी बात हुई। उस तरह चक्कर काटने से घोड़े मृत्यु के ग्रास बन गये, रथों के बन्धन ढीले पड़ गये, रथियों के मन में खेद होने लगा और सारथि भी युद्ध में मूर्च्छित हो गये। राजेन्द्र ! उस समय जाम्बवती नन्दन साम्ब दूसरे रथ पर आरुढ़ हो बलपूर्वक धनुष टंकारते हुए आये। उन्होंने शक्रसख के धनुष को दस बाणों से छिन्न-भिन्न कर डाला। दो बाणों से उसके सारथि को और सौ बाणों से घोड़ों को यमलोक भेजकर सहस्त्र बाणों द्वारा उसके रथ को भी चूर-चूर कर दिया। धनुष के कट जाने तथा घोड़ों और सारथि के मारे जाने पर रथहीन हुए शक्रसख ने मतवाले गजराज पर आरुढ़ हो रोषपूर्वक शूल हाथ में ले लिया। बलवान शक्रसख ने उस शूल से साम्ब की छाती में चोट की। उस आघात से साम्ब का मन कुछ व्याकुल हो गया।
शक्रसख का हाथी एक-एक योजन का डग भरता था। उसका रंग कज्जलगिरि के समान काला था। उसकी ऊँचाई चार योजन की थी। उसकी दो दाँत आधे योजन तक आगे निकले हुए थे। वह बड़े जोर से चिग्घाड़ता था। उसके चार-चार योजन विस्तृत तीन सूँड़ें थीं। उनके द्वारा वह सांक लोंकों को गिराता, हाथियों और वीरों को कुचलता था रथों और घोड़ों को इधर-उधर दाँतों और पैरों से विनष्ट करता हुआ काल, अन्तक और यम के समान दिखायी देता था। शत्रु से प्रेरित उस महान गजराज को आते और विचरते हुए देख यादव सैनिक भयभीत हो युद्ध से भाग चले। उस समय बलदेवजी के छोटे भाई बलवान गद ने गदा लेकर उस वज्र सरीखी गदा से उक्त गजराज के कुम्भस्थल पर बड़े जोर से आघात किया। उस आघात से उसका कुम्भस्थल फट गया और वह हाथी युद्धस्थल में पंख कटे हुए पर्वत के समान ढह गया। वह अद्भुत सी पंख कटे हुए पर्वत के समान ढह गया। वह अद्भुत-सी बात हुई। तदनन्तर शक्रसख ज्यों ही रोषपूर्वक गदा उठाने की चेष्टा की, त्यों ही गद ने अपनी गदा से उसकी छाती में चोट पहुँचायी। उस आघात से वह हाथी सहित गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया। फिर उठकर उसने युद्धस्थल में दोनों हाथों से गदा उठायी। गद और शक्रसख दोनों हाथों से गदा उठायी। गद और शक्रसख दोनों इस प्रकार परस्पर गदा युद्ध करने लगे, जैसे रंगशाला में दो मल्ल और जंगल में दो हाथी लड़ रहे हों। तब बलदेव के छोटे भाई बलवान गद ने अपनी दोनों भुजाओं से उस वीर को उठा लिया और बलपूर्वक उसे सौ योजन ऊपर उसके नगर में फेंक दिया। उस समय यादव सेना में जय-जयकार होने लगी, विजय की दुन्दुभियाँ बज उठीं और सब लोग बारंबार गद की प्रशंसा करने लगे।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘शक्रसख का युद्ध’ नामक सैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 48
शक्रसख का प्रद्युम्न को भेंट अर्पण, प्रद्युम्न का लीलावतीपुरी के स्वयंवर में सुन्दरी को प्राप्त करना तथा इलावृत वर्ष से लौटकर भारत एवं द्वारकापुरी में आना
श्रीनारदजी कहते है- राजन् ! अपने नगर में गिरकर शक्रसख अत्यन्त मूर्च्छित हो गया। फिर उस मूर्च्छा से वह उठा। उठने पर भी एक क्षण तक उसे बड़ी घबराहट रही। तदनन्तर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न को परब्रह्म जानकर शक्रसख बड़ी उतावली के साथ अपनी भेंट-सामग्री लेकर यादव सेना के समीप गया। ऐरावतकुल में उत्पन्न हुए तीन सूँड़ और चार दांत वाले श्वेत रंग के एक हजार मदवर्षी हाथी, सुवर्ण गिरि पर उत्पन्न हुए दो योजन विस्तृत शरीर वाले दिग्गजों के समान उन्मत्त पर्वताकार एक करोड़ हाथी, जिनके मुख दिव्य थे और जिनकी गति भी दिव्य थी, करोड़ों की संख्या में उपस्थित किये गये। राजन् ! इन सबके साथ सोने के बने हुए उत्तम दिव्य रथ भी थे, जिनकी संख्या सौ अरब थी। दस हजार विमान भेंट के लिये लाये गये, जो दो-दो योजन विस्तार से सुशोभित थे।
दस लाख कामधेनु गौएँ और एक हजार पारिजात वृक्ष प्रस्तुत किये गये। तड़ागों में परिपुष्ट हुए सीप के मोती, जो यन्त्र पर चढ़ाकर चमकाये गये थे तथा चमेली के इत्र से आर्द्र से, शिरीष कुसुमों से सज्जित तथा दूध के फेन की तरह सफेद करोड़ों शय्याएँ लायी गयीं, जिन पर सुन्दर तकिये भी रखे गये थे। विचित्र वितान (चंदोवे) और दीवारों पर लगाये जाने वाले वस्त्र करोड़ों की संख्या में भेंट किये गये। छूने में कोमल एवं चितकबरे आसन तथा विश्वकर्मा द्वारा रचित बड़े-बड़े तकिये दिये गये, जो मोतियों के गुच्छों और सुवर्ण रत्न आदि के द्वारा खचित थे। वे सब सहस्त्रों संख्या में थे। हजारों परदे, करोड़ों पालकियाँ, छत्र, चंवर और दिव्य सिंहासनों के साथ करोड़ों व्यजन, जो राजलक्ष्मी के भूषण थे, प्रस्तुत किये गये। कोटि द्रोण अमृत, सुधर्मा सभा, सर्वतो भद्रमण्डल, सहस्त्र दल कमल, हीरे, पन्ने और मोती दिये गये। कोटि भार गोमेद और नीलम दिये गये, सहस्त्रों भार सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त और वैदूर्य मणियों के थे। कोटि भार स्यमन्तक मणियों के लाये गये थे। नरेश्वर ! पद्वाराग मणि के भारों की संख्या एक अरब थी। जाम्बूनद सुवर्ण, हाटक सुवर्ण तथा सुवर्णगिरि से प्राप्त सुवर्णां के भी कोटि-कोटि भार प्रस्तुत किये गये।
मैथिलेश्वर ! आठ लोकपालों के आधिपत्य की रक्षा करने वाला शक्रसख अपना राज्य तथा देवताओं की सम्पूर्ण निधियों को भेंट के लिये लेकर उद्धवजी के साथ यादव सेना के पास गया और कुशलता के लिये वह अद्भुत भेंट अर्पित करके उसने प्रद्युम्न को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। शम्बर शत्रु प्रद्युम्न ने संतुष्ट होकर उसे रत्नमाला अर्पित की और उस राज्य पर उसी को पुन: स्थापित कर दिया। राजन् ! सत्पुरुषों का ऐसा ही स्वभाव होता है।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 48
इस प्रकार जिसने प्रद्युम्न को भेंट दी थी, उस शक्रसख को जीतकर वे सेना सहित आगे गये। अब उनके सैनिकों की छावनी अरुणोदा नदी के तट पर पड़ी। महामूल्य रत्नों से जटित चँदोवे सौ योजन तक तन गये। वहाँ दिव्य पताकाएँ फहराने लगीं और वहाँ की भूमि पर विजय-ध्वज की स्थापना हो गयी। उन ध्वजा-पताकाओं के कारण वह शिविर समूह उत्ताल तरंगों से युक्त महासागर की भाँति शोभा पाने लगा।
राजन् ! इसी समय आकाश से ऐरावत पर चढ़े हुए देवराज इन्द्र सहसा सेना सहित वहाँ उतर आये। देवताओं की दुन्दुभियाँ भी उनके साथ-साथ बजती आयीं। यह देख सम्पूर्ण यादव-वीरों ने बड़े वेग से अपने अस्त्र-शस्त्र उठा लिये। पुन: देवराज इन्द्र को पहचानकर समस्त नरेश बड़े प्रसन्न हुए। उस समय इन्द्र ने भरी सभा में प्रद्युम्न से कहा- ‘महाबाहु नरेश ! तुम परावरवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो, अत: मेरी बात सुनो। सुवर्ण गिरि के शिखरों पर लीलावती नाम से प्रसिद्ध एक सुन्दरपुरी है। वहाँ विद्याधरों के राजा सुकृति राज्य करते हैं। उनकी एक सुन्दरी नाम वाली कन्या है, जो सौ चन्द्रमाओं के समान रूप-लावण्य से सुशोभित और परम सुन्दरी है। राजन् ! उसके स्वयंवर में समस्त लोकपाल और देवता दिव्य रूप धारण करके आये है; किंतु वह राज कन्या कहती है कि ‘जिसको देखकर मैं मूर्च्छित हो जाऊँगी, वही मेरा पति होगा। यह बात कहकर वह सुन्दर वर पाने की इच्छा रखती है। तुम उस उत्सव में भी अपने समस्त भाइयों के साथ सहसा चलो और देववृन्द से मण्डित उस सुन्दर स्वयंवर को देखो।
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर भगवान प्रद्युम्न अपने यदुवंशी भाइयों सहित देवेन्द्र के साथ सहसा लीलावतीपुरी में गये। जहाँ स्वयंवर हो रहा था, वहाँ का प्रांगण बड़ा विशाल था। जड़े गये रत्नों के कारण उसकी मनोहरता बढ़ गयी थी। उस स्थान पर चन्दन, अगर, कस्तुरी और केसर के द्रव का छिड़काव किया गया था। मोती की बंदनवारों, बहुमूल्य वितानों और जाम्बूनद सुवर्ण के आसनों से वह स्वयंवर भवन साक्षात दूसरे इन्द्रलोक सा शोभा पाता था।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 48
नरेश्वर ! प्रद्युम्न उस स्वयंवर में गये और सिंह जैसे किसी पर्वत के शिखर पर बैठता है, उसी प्रकार सब के देखते-देखते एक दिव्य आसन पर विराजमान हुए। मैथिल ! वहाँ जितने प्रजापति, मुनि, देवता, रुद्रगण, मरुद्रण, आदित्यगण, वसुगण, अग्नि, दोनों अश्विनी कुमार, यम, वरुण, सोम, कुबेर, इन्द्र, सिद्ध, विद्याधर, गन्धर्व, किंनर तथा अन्यान्य सभी समागत एवं रत्नाभरणों से विभूषित देव थे, उन्होंने प्रद्युम्न को आया देख अपने विवाह की आशा छोड़ दी। इसी समय सुन्दरी हाथ में रत्नमाला लिये अपने रूपलावण्य से रति और रम्भा को भी तिरस्कृत करती हुई सी निकली। वह वरांगी अंगना सरस्वती, लक्ष्मी तथा रूपवती शची की विडम्बना करती हुई-सी जान पड़ती थी।
मैथिल ! जिसे देखकर सब और समस्त सभासद मोह को प्राप्त हो गये, वह लक्ष्मी के समान राजकुमारी सुन्दरी सब लोगों के सामने अपने लिये योग्य वर की इस प्रकार खोज करने लगी, मानो चपला नूतन जल धर को ढूँढ़ रही हो। दिव्याम्बरधारी तथा प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल लोचन वाले नरलोक सुन्दर वीर प्रद्युम्न के पास पहुँचकर वह सुन्दरी विद्याधरी मूर्च्छित हो गयी। फिर थोड़ी ही देर में चेत हुआ। वह उठी और आनन्द विभोर होकर प्रद्युम्न के गले में सुन्दर माला डालकर खड़ी रह गयी। मिथिलेश्वर ! विद्याधरों के राजा सुकृति ने अपनी पुत्री सुन्दरी को प्रद्युम्न के हाथ में दे दिया। सब ओर मांगलिक वाद्य बज उठे, किंतु इस इस वैवाहिक मंगल को देखकर देवता लोग सहन न कर सके। उन लोगों ने उस स्वयंवर को चारों ओर से उसी प्रकार घेर लिया, जैसे प्रचण्ड मेघों ने सूर्यदेव को आच्छादित कर लिया हो। उन देवताओं को क्रोध के वशीभूत हो धनुष लिया हो। उन देवताओं को क्रोध के वशीभूत हो धनुष उठाये और युद्ध के मद से उद्धत हुए देख साक्षात प्रद्युम्न हरि ने भगवान श्रीकृष्ण के दिये हुए बाण सहित श्रेष्ठ धनुष को हाथ में लेकर यादवों के साथ सिंहनाद किया। मिथिलेश्वर ! उनके धनुष से छूटे हुए चमकीले बाणों द्वारा देवताओं की धज्जियाँ उड़ गयीं। जैसे सूर्य की किरणों से कुहा के बादल फट जाते हैं, उसी प्रकार वे देवता दसों दिशाओं में भाग खड़े हुए।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 48
इस प्रकार साक्षात भगवान प्रद्युम्न स्वयंवर जीतकर और इलावृतखण्ड पर विजय पाकर भारत वर्ष को जाने के लिये उद्यत हुए। भाइयों, यादवों, सैनिकों तथा समस्त मन्त्रीजनों के साथ विजय-दुन्दुभि बजवाते हुए वे भारत खण्ड में आये। अनेक देशों को देखते हुए जम्बूद्वीप विजयी बलवान वीर श्रीकृष्ण कुमार क्रमश: आनर्त प्रदेश में और द्वार का के देशों में आये। प्रद्युम्न के द्वारा भेजे गये बुद्धिमानों में देशों में आये। प्रद्युम्न के द्वारा भेजे गये बुद्धिमानों में श्रेष्ठ साक्षात उद्धव ने राजसभा में पहुँचकर राजा उग्रसेन को तथा भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। प्रत्येक वर्ष में क्या-क्या हुआ और जम्बूद्वीप पर किस तरह विजय मिली, वह सारा वृतान्त उद्धवजी ने यथोचित रूप से कह सुनाया। तब राजा उग्रसेन श्रीकृष्ण बलदेव एवं सम्पूर्ण वृद्धजनों के साथ प्रद्युम्न को लाने के लिये निकले। गीत वाद्यों की ध्वनि तथा वेद-मन्त्रों के गम्भीर घोष के साथ मोतियां, खीलों और फूलों की वर्षा पूर्वक मंगल पाठ करते हुए लोग उनकी अगवानी के लिये आये। नरेश्वर ! एक गजराज को आगे करके सोने के कलश, गन्धर्व, अप्सराएं, शंख, दुन्दुभि, वेणु, गन्ध, अक्षत, सोने के पात्र, फूल, धूप तथा जौ के अंकुर साथ लिये राजा उग्रसेन प्रद्युम्न के सम्मुख आये।
मैथिल ! श्रीकृष्णकुमार ने यादव बन्धुओं के साथ खड्ग ले जाकर महाराज उग्रसेन के सामने रख दिया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। मीन केतन प्रद्युम्न ने श्रीकृष्ण बलराम को मस्तक झुकाकर समस्त वृद्धजनों को प्रणाम करने के अनन्तर शीघ्र जाकर श्रीगर्गाचार्य के चरणों में नमस्कार किया। राजा उग्रसेन भूरी-भूरी प्रशंसा करके, वैदिक मन्त्रों तथा ब्राह्मणों के सहयोग से विधिवत् पूजन करके, प्रद्युम्न को हाथी पर बिठाकर द्वारकापुरी में गये। द्वारका में सर्वत्र-घर घर में मंगल उत्सव हुआ। नरेश्वर ! इस प्रकार मैंने तुम्हारी पूछी हुई सब बातें कहीं, अब और क्या सुनना चाहते हो।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘प्रद्युम्न का द्वार का गमन’ नामक अड़तालीसवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 49
राजसूय यज्ञ में ऋषियों, ब्राह्मणों, राजाओं, तीर्थों, क्षेत्रों, देवगणों तथा सुहृद् सम्बन्धियों का शुभागमन
बहुलाश्व ने पूछा- विप्रवर ! आप परावरवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं; अत: मुझे यह बताइये कि राजा उग्रसेन ने किस प्रकार राजसूययज्ञ का विधिपूर्वक अनुष्ठान किया ।।1।।
नारदजी ने कहा- राजन् ! तदनन्तर समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा उग्रसेन ने भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से क्रतुराज राजसूय का सम्पादन किया। यदुकुल के आचार्य गर्गजी से यत्नपूर्वक मुहूर्त पूछकर भाई बन्धुओं तथा सुहृदों को निमन्त्रण दिया। अत्यन्त भक्ति भाव से बुलाये जाने पर ऋषि, मुनि तथा ब्राह्मण सब लोग अपने पुत्रों और शिष्यों के साथ द्वारका में आये। राजन् ! साक्षात् वेदव्यास, पराशर, मैत्रेय, पैल, सुमन्तु, दुर्वासा, वैशम्पायन, जैमिनि, भार्गव परशुराम, दत्तात्रेय, असित, अंगिरा, वामदेव, अन्नि, वसिष्ठ, कण्व, विश्वामित्र, शतानन्द, भारद्वाज, गौतम, कपिल, सनकादि, विभाण्ड, पतंजलि, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, प्राडविपाक, मुनिश्रेष्ठ शाण्डिल्य तथा दूसरे-दूसरे मुनि वहाँ शिष्यों सहित पधारे। ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, देवगण, रुद्रगण, आदित्यगण, मरुद्रण, समस्त वसुगण, अग्नि, दोनों अश्विनीकुमार, यम, वरुण, सोम, कुबेर, गणेश, सिद्ध, विद्याधर, गन्धर्व तथा किंनर आदि का शुभागमन हुआ। गन्धर्व सुन्दरियाँ, अप्सराएँ और समस्त विद्याधरियां वहाँ आयीं। वेताल, दानव, दैत्य, प्रह्लाद, बलि, भीषण राक्षसों के साथ लंकापति विभीषण तथा समस्त वानरों के साथ वायुनन्दन हनुमान पधारे।
ऋक्षों और दाढ़वाले वन्य पशुओं के साथ बलवान ऋक्षराज जाम्बवान का आगमन हुआ। समस्त पक्षियों के साथ बलवान पक्षिराज गरुड़ आये। समस्त सर्पगणों को साथ लिये बलवान नागराज वासुकि पधारे। सम्पूर्ण कामधेनुओं के साथ गोरूपधारिणी पृथ्वी का आगमन हुआ। समस्त मूर्तिमान पर्वतों के साथ मेरु और हिमालय पधारे। गुल्मों, वृक्षों और लताओं के साथ प्रयाग के वृक्षराज अक्षयवट का शुभागमन हुआ।
महानदियों के साथ श्रीगंगा और यमुना नदी आयीं। रत्नों की भेंट के साथ सातों समुद्र पधारे। ये सब के सब उगसेन के राजसूय यज्ञ में सहर्ष आये। सात स्वर, तीन ग्राम, नौ अरण्य, महीतल में नौ ऊसर, सिद्धाश्रम, कुण्डों और समस्त सरोवरों सहित विनशन (कुरु क्षैत्र), समस्त उपवनों के साथ दण्डक आदि वन ये सब के सब समग्र विमल क्षेत्रों के साथ वहाँ उपस्थित हुए। व्रज से श्रीमान गिरिराज गोवर्धन, वृन्दावन, दूसरे दूसरे वन, सरोवर तथा कुण्ड भी पधारे। रानी कीर्तिदा और गोपियों के साथ गोपिकेश्वरी यशोदा साक्षात पधारीं। अपने करोड़ों सखी समूहों के साथ शिबि कारुढ़ा श्रीराधा का भी शुभागमन हुआ। गोपियों के सौ यूथ भी द्वार का में सानन्द पधारे। जहाँ आजकल गोपी भूमि है, वहीं उन्हें ठहराया गया। उन्हीं के अंगराग से वहाँ गोपीचन्दन प्रकट हुआ। जिसके अंग में गोपीचन्दन लग जाता है, वह मनुष्य नर से नारायण हो जाता है। चारों वर्णों के सभी लोग उस यज्ञ में उपस्थित हुए थे। प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्र, कलिका अवतार साक्षात दुर्योधन, शाल्व, भीष्म, कर्ण, कुन्तीपुत्र युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, दमघोष, वृद्ध शर्मा, महाराज जयसेन, धृष्टकेतु, भीष्मक, कोसलराज नग्नजित्, बृहत्सेन तथा तुम्हारे पितामह, साक्षात मिथिलेश्वर धृति तथा अन्य राजा, सुहृद-सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव अपनी रानियों तथा पुत्र-पौत्रों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘स्वजन-शुभागमन’ नामक उनचासवां अध्याय पूरा हुआ।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 50
राजसूय यज्ञ का मंगलमय उत्सव; देवताओं, ब्राह्मणों तथा अतिथियों का दान-मान से सत्कार
नारदजी कहते हैं- राजन् ! अर्थ सिद्धि के द्वारभूत पिण्डारक क्षेत्र में, जो रैवतक पर्वत और समुद्र के बीच में स्थित है, यज्ञ का आरम्भ हुआ। उस यज्ञ में जो कुण्ड बना, उसका विस्तार पाँच योजन का था। ब्रह्मकुण्ड एक योजन का और पाँच कुण्ड दो कोस में बनाये गये। वे सभी कुण्ड मेखला, गर्त, विस्तार और वेदियों के साथ सुन्दर ढंग से निर्मित हुए थे। वहाँ का महान यज्ञमण्डप का विस्तार पाँच योजन था, जो चँदोवों और बंदनवारों से सुशोभित था। केले के खंभे उसकी शोभा बढ़ाते थे। भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन तथा दाशार्ह कुल के यादवों से घिरे हुए राजा उग्रसेन देवताओं से युक्त इन्द्र की भाँति उस यज्ञमण्डप में शोभा पाते थे। जैसे परमात्मा अपनी विभूतियों से शोभा पाता है, उसी प्रकार परिपूर्णतम भगवान यज्ञावतार श्रीकृष्ण उस यज्ञ में अपने पुत्रों और पौत्रों से सुशोभित होते थे।
महान सम्भार का संचय करके, गर्गाचार्य को गुरु बनाकर यदुराज उग्रसेन ने क्रतुश्रेष्ठ राजसूय यज्ञ की दीक्षा ली। मैथिल ! उस यज्ञ में दस लाख होता, दस लाख दीक्षित अध्वर्यु और पाँच लाख उद्गगाता थे। अग्नि कुण्ड में हाथी की सूँड़ के समान मोटी घृत की धारा गिरायी जाती थी, जिसे खा पीकर अग्नि देवता अजीर्ण रोग के शिकार हो गये। उस दिनों तीनों लोकों में कोई भी जीव भूखे नहीं रह गये। सब देवता सोमपान करके अजीर्ण के रोगी हो गये। अपनी धर्मपत्नी रुचिमती के साथ बलवान यादव राज उग्रसेन ने पिण्डार तीर्थ में यज्ञ का अवभृथ-स्नान किया। वे व्यास आदि मुनीश्वरों के साथ वेदमन्त्रों के द्वारा विधिपूर्वक नहाये। जैसे दक्षिणा से यज्ञ की शोभा होती है, उसी तरह रानी रुचिमती के साथ राजा उग्रसेन की शोभा हुई। देवताओं तथा मनुष्यों की दुन्दुभियाँ बजने लगीं और देवता उग्रसेन के ऊपर फूल बरसाने लगे। सोने के हार से विभूषित चौदह लाख हाथी उग्रसेन ने दान किये। सौ अरब घोड़े उन्होंने यज्ञान्त में दक्षिणा के रूप में दिये। बहुमूल्य हारों और वस्त्रों के साथ करोड़ों नवरत्न मुनिवर गर्गाचार्य को भेंट किये। साथ ही उन्हें घर गृहस्थी के उपकरण भी अर्पित किये।
विश्वजित खण्ड : अध्याय 50
महामनस्वी यादवेन्द्र राजा उग्रसेन ने उस यज्ञ में एक हजार हाथी, दस हजार घोड़े और बीस भार सुवर्ण ब्रह्म बने हुए ब्राह्मण को दिये। जैसे राजा मरुत्त के यज्ञ में ब्राह्मण लोग दक्षिणा से इतने संतुष्ट हुए थे कि अपने-अपने सुवर्णमय पात्र भी छोड़कर चल दिये थे, उसी प्रकार महाराज उग्रसेन के इस यज्ञ में भी ब्राह्मण संतुष्ट तथा हर्षोत्फुल्ल होकर अपने घर लौटे। अपने अपने भाग को पाकर संतुष्ट हुए सब देवता स्वर्गलोक को चले गये। वंदीजनों को भी बहुत द्रव्य दिया गया, जिससे जय-जयकार करते हुए वे अपने घर गये। राक्षस, दैत्य, वानर, दाढ़ वाले पशु पक्षी भी संतुष्ट होकर गये। समस्त नाग भी संतुष्ट चित होकर अपने अपने घर पधारे। गौएं, पर्वत, वृक्ष-समुदाय, नदियाँ, तीर्थ तथा समुद्र-सबको अपना-अपना भाग प्राप्त हुआ और वे सब संतुष्ट होकर अपने-अपने स्थान को पधारे।
जो राजा आमन्त्रित किये गये थे, उन्हें भी बहुत भेंट देकर दान मान के द्वारा उनकी पूजा की गयी और वे सब संतुष्ट होकर अपने-अपने घर गये। नन्द आदि मुख्य मुख्य गोपों को पूजन स्वयं श्री कृष्ण ने किया। वे सब लोग प्रेम और दान से प्रसन्न हो व्रज को लौटे। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम से राजसूय महायज्ञ के मंगलमय उत्सव का वर्णन किया। जहाँ साक्षात भगवान श्रीकृष्ण हैं, वहाँ कौन-सा कार्य सफल नहीं होगा जो मनुष्य सदा इस कथा को पढ़ते और सुनते हैं, उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पदार्थों की प्राप्ति होती है। भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण परेश, परमेश्वर और पुराण पुरुष हैं; वे तुमको पवित्र करें। जो मनुष्य उनकी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे अपने कुल को पवित्र कर देते हैं। विदेहराज ! परमेश्वर श्रीहरि ने यज्ञ के बहाने समस्त भूतल का भार उतार दिया। जो यदुकुल में चतुर्व्यूह रूप धारण करके प्रकट हुए, उन अनन्त गुणशाली भुवनपालक परमेश्वर को नमस्कार है।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में उग्रसेन के महान अभ्युदय के प्रसंग में ‘राजसूय-यज्ञोत्सव का वर्णन’ नामक पचासवां अध्याय पूरा हुआ।
।विश्वजित खण्ड सम्पूर्ण
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें