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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
पिण्डारक तीर्थ के अन्तर्गत समुद्र में श्रीकृष्ण तथा अन्य यादवों का जल विहार
जनमेजय बोले- मुने! अन्धक वध का प्रसंग अवश्य सुनने योग्य है। मैंने उसे अच्छी तरह सुना है। अन्धकासुर का वध करके बुद्धिमान महादेव जी ने तीनों लोकों में शान्ति फैला दी। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि चक्रपाणि भगवान श्रीकृष्ण ने निकुम्भ के दूसरे शरीर का किसलिये और किस प्रकार वध किया था। आप उसे बताने की कृपा करें। वैशम्पायन जी कहते हैं- निष्पाप राजेन्द्र! तुम श्रद्धालु हो; इसलिये तुमसे अमित तेजस्वी जगन्नाथ श्रीहरि के चरित्र का वर्णन करना उचित है। नरेश्वर! एक समय की बात है, द्वारका में रहते समय अतुल तेजस्वी श्रीकृष्ण को पिण्डारक तीर्थ में समुद्र यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ। भरतनन्दन! राजा उग्रसेन तथा वसुदेव इन दोनों को नगर का अध्यक्ष बनाकर द्वारकापुरी में ही छोड़ दिया गया। शेष सब लोग यात्रा के लिये निकले। नरदेव! बलराम जी अपने परिवार के साथ अलग थे, सम्पूर्ण जगत के स्वामी बुद्धिमान भगवान जनार्दन का दल अलग था तथा अमित तेजस्वी कुमारों की मण्डलियां भी अलग-अलग थी।
नरेश्वर! वस्त्राभूषणों से अलंकृत तथा रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न वृष्णिवंशी कुमारों के साथ सहस्रों गणिकाएं भी यात्रा के लिये निकलीं। वीर! सुदृढ़ पराक्रमी यादव वीरों ने दैत्यों के निवास-स्थान समुद्र को जीतकर वहाँ द्वारकापुरी में सहस्रों वेश्याओं को बसा दिया था। विविध वेश धारण करने वाली वे युवतियां महामनस्वी यादवकुमारों के लिये सामान्य क्रीड़ा नारियां थीं। वे अपने गुणों द्वारा सभी कुमारों की इच्छा के अनुसार उनके उपभोग में आने वाली थी। राजकुमारों की उपभोग्या होने के कारण वे राजन्या कहलाती थीं। प्रभो! बुद्धिमान श्रीकृष्ण ने भीमवंशी यादवों के लिये ऐसी व्यवस्था कर दी थी, जिससे यादवों में स्त्री के कारण परस्पर वैर न हो। प्रतापी यदुश्रेष्ठ बलराम जी सदा अपने अनुकूल रहने वाली एकमात्र रेवती देवी के साथ चकवा-चकवी के समान परस्पर अनुरागपूर्वक रमण करते थे।
वे कादम्बरी (मधु) का पान करके मस्त रहते थे। वन माला से विभूषित हुए बलराम वहाँ रेवती के साथ समुद्र जल में क्रीड़ा करने लगे। सबके द्रष्टा कमलनयन गोविन्द सर्वरूप से अर्थात् जितनी स्त्रियां थी, उतने ही रूप धारण करके जल में अपनी सोलह हजार स्त्रियों को रमाते थे। उस रात में नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण की वे सारी रानियां यही मानती थी कि मैं ही इन्हें अधिक प्रिय हूँ; अत: केशव मेरे ही साथ जल में विहार कर रहे हैं। सभी के अंगों में सुरत के चिह्न थे। सभी सुरत-सुख का अनुभव करके तृप्त हो गयी थीं; अत: वे सब-की-सब गोविन्द के प्रति बहुमान जनित सम्मान का भाव धारण करती थीं।
श्रीकृष्ण की वे सभी सुन्दरी रानियां अपने स्नेही परिजनों के समीप प्रसन्नतापूर्वक अपने भाग्य की सराहना करती हुई कहती थीं कि मैं ही अपने प्राणनाथ को अधिक प्रिय हूँ। मैं ही उन्हें अधिक प्यारी हूँ।
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कृष्ण का कामुक वर्णन-
वे कमलनयनी सुन्दरियां दर्पण में अपने कुचों पर श्रीकृष्ण के नखक्षत और अधरों पर दन्तक्षत के चिह्न देख-देखकर हर्ष में भर जाती थीं। श्रीकृष्ण की वे सुन्दर पत्नियां उनके नाम ले-लेकर गीत गाती और अपने नेत्रपुटों से उनके मुखारविन्द का रसपान करती थीं। राजन! उनके मन और नेत्र श्रीकृष्ण में ही लगे रहते थे। नारायण की वे कमनीय भार्याएं अत्यन्त मनोहारिणी और एक निश्चय अटल रहने वाली थीं। नारायणदेव उनके सारे मनोरथ पूर्ण करके उन्हें तृप्त रखते थे; अत: वे अंगनाएं एक को ही अपना हृदय और दृष्टि अर्पित करके भी आपस में कभी ईर्ष्या नहीं करती थीं। वे सारी की सारी मनोहर दृष्टि वाली (अथवा मनोहर दिखायी देने वाली) सुन्दरियां केशव की वल्लभ होने का अथवा केशव को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त करने का सौभाग्य वहन करती हुई अपने सिर को बड़े गर्व से ऊँचा किये रहती थीं।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद
अपने मन को वश में रखने वाले भगवान श्रीकृष्ण समुद्र के निर्मल जल में पूर्वोक्त विश्वरूप विधि से उन सबके साथ क्रीड़ा करते थे। भगवान वासुदेव के शासन से उस समय महासागर समस्त सुगन्धों से युक्त, स्वच्छ, लवण रहित और शुद्ध स्वादिष्ट जल धारण करता था। समुद्र का वह जल कहीं घुट्ठी भर था तो कहीं घुटनों तक, कहीं जांघों तक था तो कहीं स्तनों तक। उन नारियों को इतना ही जल अभीष्ट था। श्रीकृष्ण की वे रानियां उन पर सब ओर से जल उलीचने लगीं, जैसे नदियों की अनेक धाराएं महासागर को सींचती हैं। भगवान गोविन्द भी उन पर जल छिड़कने लगे, मानो मेघ खिली हुई लताओं पर जल बरसा रहा हो। कितनी ही मृगनयनी नारियां श्रीहरि के कण्ठ में अपनी बांहें डालकर कहने लगी- 'वीर! मुझे हृदय से लगा लो, अपनी भुजाओं में कस लो; अन्यथा मैं जल में गिरी जाती हूँ।'
कितनी ही सर्वांग सुन्दरी स्त्रियां क्रोंच, मोर तथा नागों के आकार में बनी हुई काठ की नौकाओं द्वारा जल पर तैरने लगीं।
दूसरी-दूसरी स्त्रियां मगर, मत्स्य तथा अन्यान्य विविध प्राणियों की आकृति धारण करने वाली नौकाओं द्वारा तैरने लगीं। कितनी ही रानियां समुद्र के रमणीय जल में श्रीकृष्ण को हर्ष प्रदान करती हुई घटों के समान अपने स्तन कुम्भों द्वारा तैर रही थीं।
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अमरशिरोमणि श्रीकृष्ण उस जल में आनन्दपूर्वक महारानी रुक्मिणी के साथ रमण करते थे।
वे जिस-जिस कार्य या उपाय से आनन्द मानते, उनकी वे सुन्दरी स्त्रियां प्रशंसापूर्वक वही-वही कार्य या उपाय करती थीं। महीन वस्त्रों से ढकी हुई दूसरी तन्वंगी एवं कमलनयनी स्त्रियां भाँति-भाँति की लीलाएं करती हुई जल में भगवान श्रीकृष्ण के साथ क्रीड़ा करती थीं। जिस-जिस रानी के मन में जो-जो भाव था, सब के भावों को जानने और मन को वश में रखने वाले श्रीकृष्ण उसी-उसी भाव से उस स्त्री के अन्तर में प्रवेश करके उसे अपने वश में कर लेते थे। इन्द्रियों के प्रेरक और सबके स्वामी होकर भी सनातन भगवान हृषीकेश देश-काल के अनुसार अपनी प्रेयसी पत्नियों के वश में हो गये थे। वे समस्त वनिताएं अपने कुल के अनुरूप बर्ताव करने वाले जनार्दन को ऐसा समझती थीं कि ये कुल और शील में समान होने के कारण हमारे ही योग्य हैं। मुस्कराकर बात करने वाले तथा औदार्य-गुण से सम्पन्न उन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण को उस समय उनकी वे पत्नियां हृदय से चाहने लगीं तथा भक्ति एवं अनुराग के कारण उनका बहुत सम्मान करने लगीं।
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यादवकुमारों की गोष्ठियां अलग थीं। वे वीर यादवकुमार उत्तम गुणों की खान थे और प्रकाश रूप से स्त्री समुदायों के साथ समुद्र के जल की शोभा बढ़ा रहे थे।
जनेश्वर! वे स्त्रियां गीत और नृत्य की क्रिया को जानने वाली थीं तथा उन कुमारों के तेज से स्वयं ही उनकी ओर आकृष्ट हुई थीं तो भी वे कुमार उदारता के कारण उनके वश में स्थित थे। उन उत्तम नारियों के मनोहर गीत और वाद्य सुनते तथा उनके सुन्दर अभिनय देखते हुए वे यदुपुंगववीर उन पर लट्टू हो रहे थे। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने विश्वरूप होने के कारण स्वयं ही प्रेरणा देकर पंचचूड़ा नाम वाली अप्सरा को तथा कुबेर भवन और इन्द्र भवन की भी सुन्दरी अप्सराओं को वहाँ बुला मँगाया। अप्रमेय स्वरूप जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने हाथ जोड़कर चरणों में पड़ी हुई उन अप्सराओं को उठाया और सान्त्वना देकर कहा- 'सुन्दरियों! तुम नि:शंक होकर भीमवंशी यादवकुमारों की क्रीड़ा युवतियों में प्रविष्ट हो जाओ और मेरा प्रिय करने के लिये इन यादवों को सुख पहुँचाओ।
नाच, गान, एकान्त–परिचर्या, अभिनय-योग तथा नाना प्रकार के बाजे बजाने की कला में तुम लोगों के पास जितने गुण हों, उन सबको दिखाओ। ऐसा करने पर मैं तुम्हें मनोवांछित कल्याण प्रदान करूँगा; क्योंकि ये सब-के-सब यादव मेरे शरीर के ही समान हैं।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 44-63 का हिन्दी अनुवाद:-
उस समय श्रीहरि की उस आज्ञा को शिरोधार्य करके वे सब श्रेष्ठ अप्सराएं यादवकुमारों की क्रीड़ा-युवतियों में सम्मिलित हो गयीं। निष्पाप नरेश! उनके प्रवेश करते ही वह महासागर दिव्य प्रभा से उद्दीप्त हो उठा। ठीक उसी तरह, जैसे आकाश में मेघों का समुदाय बिजलियों के चमकने से प्रकाशित हो उठता है। वे दिव्य अंगनाएं जल में भी स्थल की ही भाँति खड़ी हो स्वर्गलोक की ही भाँति गीत गाने, बाजे बजाने तथा सुन्दर अभिनय करने लगीं। वे विशाल नेत्रों वाली सुन्दरियां दिव्य गन्ध, माल्य तथा वस्त्रों से सुशोभित हो अपनी विविध लीलाओं तथा हास्ययुक्त हाव-भावों से यादवकुमारों के चित्त चुराने लगीं। कटाक्षों, संकेतों, क्रीड़ाजनित रोषों तथा प्रसन्नतासूचक मनोअनुकूल भावों के द्वारा वे भीमवंशियों के मनमोहन लगीं। वे अप्सराएं उन यादवकुमारों को ऊपर-ऊपर पर आकाश में प्रवाह आदि वायु के मार्गों में ले जाकर उनके साथ विहार करती थीं, अत: वे मदमत्त हुए भीमवंशीकुमार उन सुन्दरी अप्सराओं का बड़ा सम्मान करते थे। भगवान श्रीकृष्ण भी उन यादवों की प्रसन्नता के लिये आकाश में स्थित हो अपनी सोलह हजार स्त्रियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक विहार करते थे।
वे वीर यादव अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण का प्रभाव जानते थे; अत: आकाश में क्रीड़ा करने के कारण उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे उस दशा में भी अत्यन्त गम्भीर बने रहे।
शत्रुमर्दन! भरतनन्दन! कुछ यादव रैवतक पर्वत पर जाकर फिर लौट आते थे। दूसरे घरों में जाकर आ जाते तथा अन्य लोग अभिलषित वनों में घूम-फिरकर लौटते थे। उस समय अतुल तेजस्वी लोकनाथ भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) की आज्ञा से अपेय समुद्र का जल भी पीने योग्य हो गया था। वे कमलनयनी नारियां जब इच्छा होती, तब जल में भी स्थल की भाँति दौड़ती थीं और जब चाहती परस्पर हाथ पकड़कर एक साथ ही गोता लगा लेती थीं। यादवों के मन से चिन्तन करते ही उनके लिये नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, पेय, चोष्य और लेह्य पदार्थ प्रस्तुत हो जाते थे। जो कभी कुम्हलाती नहीं थी, ऐसी माला धारण करने वाली वे दिव्य अप्सराएं स्वर्ग में देवताओं के साथ की गयी रति क्रीड़ा का अनसुरण करती हुई उन श्रेष्ठ यादवकुमारों को एकान्त में रमण का अवसर देती थीं। किसी से पराजित न होने वाले अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सायंकाल में स्नान के पश्चात अनुलेपन धारण करके आनन्द मग्न हो गृहाकार बनी हुई नौकाओं द्वारा क्रीड़ा करने लगे।
कुरुनन्दन! विश्वकर्मा ने नौकाओं में अनेक प्रकार के महल बनाये थे, जिनमें से कुछ लम्बे थे और कुछ चौकोर। कुछ गोलकार थे और कुछ स्वस्तिकाकार। वे महल कैलास, मन्दराचल और मेरु पर्वत की भाँति इच्छानुसार रूप धारण कर लेते थे। कई नाना प्रकार के पक्षियों और ईहामृगों (भेड़ियों) के समान रूप धारण करने वाले थे। उनमें वैदूर्यमणि के तोरण लगे थे, जिनसे उन महलों की विचित्र शोभा होती थी। वे विचित्र मणिमय शय्याओं से सुसज्जित थे। मरकत, चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणिमय विचित्र रागों से वे रंजित थे तथा नाना प्रकार के सैकड़ों आस्तरण (बिस्तर) उनकी शोभा बढ़ाते थे। खेल के लिये बनाये गये गरुड़ के समान भी उन भवनों की आकृति थी। वे विचित्र भवन सुवर्ण की धाराओं से शोभा पाते थे। कोई क्रोंच के समान, कोई तोते के तुल्य और कितने ही भवन हाथियों की सी आकृति धारण करते थे। सुवर्ण से प्रकाशित होने वाली वे नौकाएं कर्णधारों के नियंत्रण में रहकर उत्ताल तरंगों से युक्त सागर की जलराशि को सुशोभित कर रही थीं। सफेद जलपोतों, यात्रोपयोगी बड़ी-बड़ी नावों, वगवती नौकाओं और महल आदि से युक्त विशाल जहाजों से उस वरुणालय (समुद्र) की बड़ी शोभा हो रही थी।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 64-81 का हिन्दी अनुवाद:-
यादवों के वे जलयान समुद्र के जल में सब ओर चक्कर लगा रहे थे। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो गन्धर्वों के नगर आकाश में विचर रहे हों। भारत! नन्दन वन की आकृति और समृद्धियों से युक्त यान पात्रों में विश्वकर्मा ने सब कुछ नन्दन-जैसा ही बना दिया था। उद्यान, सभा, वृक्ष, झील और झरने (या फौवारे) आदि शिल्प सर्वथा वैसे ही उनमें समाविष्ट किये गये थे। वीर! स्वर्ग- जैसे बने हुए दूसरे जलयानों में विश्वकर्मा ने भगवान नारायण की आज्ञा से स्वर्ग की-सी सारी वस्तुएं संक्षेप से रच दी थीं। वहाँ के वनों में पक्षी हृदय को प्रिय लगने वाली मधुर बोली बोलते थे। उनकी वह बोली उन अत्यन्त तेजस्वी यादवों को बहुत ही मनोहर प्रति होती थी। देवलोक में उत्पन्न हुए सफेद कोकिल उस समय यादव वीरों की इच्छा के अनुसार विचित्र एवं मधुर आलाप छेड़ रहे थे। चन्द्रमा की किरणों के समान रूपवाली श्वेत अट्टालिकाओं पर मीठी बोली बोलने वाले मोर दूसरे मोरों से घिरकर नृत्य करते थे। विशाल जलयानों पर लगी हुई सारी पताकाओं की लड़ियाँ बँधी थीं, उन पर आसक्त होकर रहने वाले भ्रमर वहाँ गुंजारव फैला रहे थे। नारायण (श्रीकृष्ण) की आज्ञा से वृक्ष तथा ऋतुएं आकाश में स्थित हो मनोहर रूप वाले पुष्पों की अधिक वर्षा करने लगीं। रति जनित खेद अथवा श्रम को हर लेने वाली मनोहर एवं सुखदायिनी हवा चलने लगी, जो सब प्रकार के फूलों के पराग से संयुक्त तथा चन्दन की शीतलता को धारण करने वाली थी।
पृथ्वीपते! क्रीड़ा में तत्पर होकर सर्दी-गर्मी की इच्छा रखने वाले यादवों को उस समय वहाँ भगवान वासुदेव की कृपा से वह सब उनकी रुचि के अनुकूल प्राप्त होती थी। भगवान चक्रपाणि के प्रभाव से उस समय उन भीम-वंशियों के भीतर न तो भूख-प्यास, न ग्लानि, न चिन्ता और न शोक का ही प्रवेश होता था। अत्यन्त तेजस्वी यादवों की समुद्र के जल में होने वाली क्रीड़ाएं निरन्तर चल रही थीं। उनमें बड़े-बड़े वाद्यों की ध्वनि शान्त नहीं होती थी तथा गीत और नृत्य उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित वे इन्द्रतुल्य तेजस्वी यादव अनेक योजन विस्तृत समद्र के जलाशय को रोककर क्रीड़ा कर रहे थे। विश्वकर्मा ने महात्मा भगवान नारायण देव के लिये उनके विशाल परिवार (सोलह हजार रानियों के समुदाय) के अनुरूप ही जहाज बना रखा था। प्रजानाथ! तीनों लोकों में जो विशिष्ट रत्न थे, वे सभी अत्यन्त तेजस्वी श्रीकृष्ण के उस यानपात्र में लगे थे। भारत! श्रीकृष्ण की स्त्रियों के लिये उसमें पृथक-पृथक निवास स्थान बने थे, जो मणि और वैदूर्य से जटित होने के कारण विचित्र शोभा से सम्पन्न तथा सुवर्ण से विभूषित थे। उन गृहों में सभी ऋतुओं में खिलने वाले फूल लगाये थे। वहाँ सभी तरह के उत्तम सुगन्ध फैलकर उन भवनों को सुवासित कर रहे थे। श्रेष्ठ यादव-वीर तथा स्वर्गवासी पक्षी उन निवास स्थानों का सेवन करते थे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में भानुमतीहरण विषयक अट्ठासीवां अध्याय पूरा हुआ।
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