शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

भागवतपुराण नवम स्कन्ध प्रथम अध्याय-

नवम स्कन्ध: प्रथमोऽध्याय: अध्याय





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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद
श्लोक  9.1.29  
श्रीशुक उवाच
एकदा गिरिशं द्रष्टुमृषयस्तत्र सुव्रता: ।
दिशो वितिमिराभासा: कुर्वन्त: समुपागमन् ॥२९॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव  ने कहा; एकदा—एक बार; गिरिशम्—शिवजी को; द्रष्टुम्—देखने के लिए; ऋषय:— ऋषिगण; तत्र—उस स्थान पर; सु-व्रता:—अच्छे व्रतों वाले।  दिश:—सारी दिशाएँ; वितिमिर-आभासा:—सारे अंधकार के साफ हो जाने पर; कुर्वन्त:—करते हुए; समुपागमन्—आये ।.
 
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार आध्यात्मिक अनुष्ठानों का कठोरता से पालन करने वाले बड़े-बड़े साधु पुरुष उस जंगल में शिवजी का दर्शन करने आये। उन सबके तेज से सारी दिशाओं का सारा अंधकार दूर हो गया।

श्लोक  9.1.30  
तान् विलोक्याम्बिका देवी विवासा व्रीडिता भृशम् ।
भर्तुरङ्कात् समुत्थाय नीवीमाश्वथ पर्यधात् ॥ ३० ॥
शब्दार्थ
तान्—उन ऋषियों को; विलोक्य—देखकर; अम्बिका—पार्वती देवी—देवी; विवासा—वस्त्रहीना ; व्रीडिता— लज्जिता; भृशम्—अत्यधिक; भर्तु:- पति की; अङ्कात्—गोद से; समुत्थाय—उठकर; नीवीम्— अधोवस्त्र ; आशु अथ—तुरन्त ही; पर्यधात्—वस्त्र से ढक लिया ।.
 
अनुवाद
जब देवी अम्बिका ने इन साधु पुरुषों को देखा तो वे अत्यधिक लज्जित हुईं क्योंकि उस समय वे नग्न थीं। वे तुरन्त अपने पति की गोद से उठ गईं और अपने नीवि को ढकने का प्रयास करने लगीं।

कमर में लपेटी हुई धोती की वह गाँठ जिसे स्त्रियाँ पेट के नीचे सूत की डोरी से या यों ही बाँधती हैं। कटिवस्त्रबंध। फुफुँदी। नारा। ३. लहंगे में पड़ी हुई वह डोरी जिससे लहँगा कमर में बाँधा जाता है। इजारबंद। ४. साड़ी। धोती। ५. कौटिल्य के अनुसार वह धन जिसके ब्याज आदि की आय किसी काम में खर्च की जाय और जो सदा रक्षित रहे। स्थायी कोश। ६. खर्च करने के बाद बची हुई पूँजी। (कौटि०)।
परीक्षित! परमयशस्वी भगवान वसिष्ठ ने ऐसा निश्चय करके उस इला नाम की कन्या को ही पुरुष बना देने के लिये पुरुषोत्तम नारायण की स्तुति की। सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि ने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुँहमाँगा वर दिया, जिसके प्रभाव से वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी।

महाराज! एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलने के लिये सिन्धु देश के घोड़े पर सवार होकर कुछ मन्त्रियों के साथ वन में गये। वीर सुद्युम्न कवच पहकर और हाथ में सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत बाण लेकर हरिनों का पीछा करते हुए उत्तर दिशा में बहुत आगे बढ़ गये। अन्त में सुद्युम्न मेरु पर्वत की तलहटी के एक वन में चले गये। उस वन में भगवान शंकर पार्वती के साथ विहार करते रहते हैं। उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्न ने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है। परीक्षित! साथ ही उनके सब अनुचरों ने भी अपने को स्त्रीरूप में देखा। वे सब एक-दूसरे के मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! उस भूखण्ड में ऐसा विचित्र गुण कैसे आ गया? किसने उसे ऐसा बना दिया था? आप कृपा कर हमारे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये; क्योंकि हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है।

श्रीशुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! एक दिन भगवान शंकर का दर्शन करने के लिये बड़े-बड़े व्रतधारी ऋषि अपने तेज से दिशाओं का अन्धकार मिटाते हुए उस वन में गये। उस समय अम्बिका देवी वस्त्रहीन थीं। ऋषियों को सहसा देख वे अत्यन्त लज्जित हो गयीं। झटपट उन्होंने भगवान शंकर की गोद से उठकर वस्त्र धारण कर लिया। ऋषियों ने भी देखा कि भगवान गौरी-शंकर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिये वहाँ से लौटकर वे भगवान नर-नारायण के आश्रम पर चले गये। उसी समय भगवान शंकर ने अपनी प्रिया भगवती अम्बिका को प्रसन्न करने के लिये कहा कि ‘मेरे सिवा जो भी पुरुष इस स्थान में प्रवेश करेगा, वही स्त्री हो जायेगा’।

परीक्षित! तभी से पुरुष उस स्थान में प्रवेश नहीं करते। अब सुद्युम्न स्त्री हो गये थे। इसलिये वे अपने स्त्री बने हुए अनुचरों के साथ एक वन से दूसरे वन में विचरने लगे। उसी समय शक्तिशाली बुध ने देखा कि मेरे आश्रम के पास ही बहुत-सी स्त्रियों से घिरी हुई एक सुन्दरी स्त्री विचर रही है। उन्होंने इच्छा की कि यह मुझे प्राप्त हो जाये। उस सुन्दरी स्त्री ने भी चन्द्रकुमार बुध को पति बनाना चाहा। इस पर बुध ने उसके गर्भ से पुरुरवा नाम का पुत्र उत्पन्न किया। इस प्रकार मनुपुत्र राजा सुद्युम्न स्त्री हो गये। ऐसा सुनते हैं कि उन्होंने उस अवस्था में अपने कुलपुरोहित वसिष्ठ जी का स्मरण किया। सुद्युम्न कि यह दशा देखकर वसिष्ठ जी के हृदय में कृपावश अत्यन्त पीड़ा हुई। उन्होंने सुद्युम्न को पुनः पुरुष बना देने के लिये भगवान शंकर कि आराधना की।

भगवान शंकर वसिष्ठ जी पर प्रसन्न हुए। परीक्षित! उन्होंने उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये अपनी वाणी को सत्य रखते हुए ही यह बात कही- ‘वसिष्ठ! तुम्हारा यह यजमान एक महीने तक पुरुष रहेगा और एक महीने तक स्त्री। इस व्यवस्था से सुद्युम्न इच्छानुसार पृथ्वी का पालन करे’। इस प्रकार वसिष्ठ जी के अनुग्रह से व्यवस्थापूर्वक अभीष्ट पुरुषत्व लाभ करके सुद्युम्न पृथ्वी का पालन करने लगे। परंतु प्रजा उनका अभिनन्दन नहीं करती थी। उनके तीन पुत्र हुए- उत्कल, गय और विमल। परीक्षित! वे सब दक्षिणापथ के राजा हुए। बहुत दिनों के बाद वृद्धावस्था आने पर प्रतिष्ठान नगरी के अधिपति सुद्युम्न ने अपने पुत्र पुरुरवा को राज्य दे दिया और स्वयं तपस्या करने के लिये वन की यात्रा की।

सु कुमातो वनं मेरोः अधस्तात् प्रविवेश ह।
यत्रास्ते भगवान् शर्वो रममाणः सहोमया ।२५।
तस्मिन् प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्नः परवीरहा।
अपश्यत् स्त्रियमात्मानं अश्वं च वडवां नृप ॥२६॥
तथा तदनुगाः सर्वे आत्मलिङ्‌ग विपर्ययम् 
दृष्ट्वा विमनसोऽभूवन् वीक्षमाणाः परस्परम् ॥२७॥


              "श्रीराजोवाच।
कथं एवं गुणो देशः केन वा भगवन् कृतः ।
प्रश्नमेनं समाचक्ष्व परं कौतूहलं हि नः॥ २८॥
             "श्रीशुक उवाच।
 एकदा गिरिशं द्रष्टुं ऋषयस्तत्र सुव्रताः।
 दिशो वितिमिराभासाः कुर्वन्तः समुपागमन् ॥२९॥
तान् विलोक्य अम्बिका देवी विवासा व्रीडिता भृशम् ।
भर्तुरङ्‌गात समुत्थाय नीवीमाश्वथ पर्यधात् ॥३०॥


ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसङ्‌गं रममाणयोः।

निवृत्ताः प्रययुस्तस्मात् नरनारायणाश्रमम्॥३१॥

तदिदं भगवान् आह प्रियायाः प्रियकाम्यया।
स्थानं यः प्रविशेदेतत् स वै योषिद् भवेदिति ॥३२॥
 तत ऊर्ध्वं वनं तद्वै पुरुषा वर्जयन्ति हि ।
सा चानुचरसंयुक्ता विचचार वनाद् वनम् ॥३३॥
अथ तां आश्रमाभ्याशे चरन्तीं प्रमदोत्तमाम् ।
स्त्रीभिः परिवृतां वीक्ष्य चकमे भगवान् बुधः ॥३४॥
सापि तं चकमे सुभ्रूः सोमराजसुतं पतिम् ।


स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम् ॥ ३५ ॥
एवं स्त्रीत्वं अनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः।
 सस्मार स कुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम ॥३६॥
 स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः।
सुद्युम्नस्याशयन् पुंस्त्वं उपाधावत शंकरम् ॥ ३७ ॥
तुष्टस्तस्मै स भगवान् ऋषये प्रियमावहन्।
स्वां च वाचं ऋतां कुर्वन् इदमाह विशाम्पते ॥३८॥
मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥३९॥

श्लोक  9.1.38-39  
तुष्टस्तस्मै स भगवानृषये प्रियमावहन् ।
स्वां च वाचमृतां कुर्वन्निदमाह विशाम्पते ॥३८॥
मासं पुमान् स भविता मासं स्री तव गोत्रज: ।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥३९॥
शब्दार्थ
तुष्ट:—प्रसन्न होकर; तस्मै—उस वसिष्ठ के लिए; स:—उसने (शिवजी ने); भगवान्—अत्यन्त शक्तिशाली; ऋषये—ऋषि के लिए; प्रियम् आवहन्—उसे प्रसन्न करने के लिए; स्वाम् च—अपने; वाचम्—शब्द को; ऋताम्—सत्य को; कुर्वन्—करते हुए ; इदम्—यह; आह—कहा; विशाम्पते—हे राजा परीक्षित; मासम्—एक महीना को; पुमान्—पुरुष; स:—सुद्युम्न ने; भविता—बन जायेगा; मासम्— दूसरे महीने को; स्त्री—स्त्री; तव—तुम्हारी; गोत्र-ज:—तुम्हारी परम्परा में उत्पन्न शिष्य; इत्थम्—इस तरह; व्यवस्थया—व्यवस्था से; कामम्—इच्छानुसार; सुद्युम्न:—राजा सुद्युम्न; अवतु—रक्षा कर सकता है; मेदिनीम्—जगत को  ।.
अनुवाद:-
हे राजा परीक्षित, शिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हो गए। अतएव शिवजी ने उन्हें तुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन रखने के उद्देश्य से उस सन्त पुरुष से कहा, “आपका शिष्य सुद्युम्न एक मास तक नर रहेगा और दूसरे मास स्त्री रहेगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।”
तात्पर्य
इस प्रसंग में गोत्रज: शब्द महत्त्वपूर्ण है। ब्राह्मण लोग सामान्यतया दो कुलों के गुरु होते हैं। एक कुल उनकी शिष्य परम्परा होता है और दूसरा उनके वीर्य से उत्पन्न कुल होता है। दोनों ही वंशज एक ही गोत्र से सम्बन्धित होते हैं। वैदिक प्रणाली में कभी-कभी देखा जाता है कि एक ही ऋषि की शिष्य परम्परा में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों पाये जाते हैं और कभी-कभी तो वैश्य तक पाये जाते हैं। चूँकि गोत्र तथा कुल एक हैं अतएव शिष्य तथा वीर्य से उत्पन्न कुल में कोई अन्तर नहीं होता। आज भी वही प्रणाली भारतीय समाज में चल रही है, विशेष रूप से विवाह में गोत्र की गणना की जाती है। यहाँ पर गोत्रज: शब्द एक ही कुल में उत्पन्न लोगों को बताने वाला है, चाहे वे शिष्य हों या कुल के सदस्य।

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आचार्यानुग्रहात् कामं लब्ध्वा पुंस्त्वं व्यवस्थया ।
पालयामास जगतीं नाभ्यनन्दन् स्म तं प्रजाः ॥ ४० ॥



देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १/अध्यायः १२


< देवीभागवतपुराणम्‎ | स्कन्धः ०१
सुद्युम्नस्तुतिः
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सूत उवाच
एकदा गिरिशं द्रष्टुमृषयः सनकादयः ।
दिशो वितिमिराभासाः कुर्वन्तः समुपागमन् ।१६।
तस्मिंश्च समये तत्र शङ्करः प्रमदायुतः।
क्रीडासक्तो महादेवो विवस्त्रा कामिनी शिवा॥ १७॥

उत्सङ्गे संस्थिता भर्तू रममाणा मनोरमा।
तान्विलोक्याम्बिका देवी विवस्त्रा व्रीडिता भृशम् ॥ १८॥

भर्तुरङ्कात्समुत्थाय वस्त्रमादाय पर्यधात् ।
लज्जाविष्टा स्थिता तत्र वेपमानातिमानिनी ॥१९॥

ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसङ्गं रममाणयोः ।
परिवृत्य ययुस्तूर्णं नरनारायणाश्रमम् ॥२०॥

ह्रीयुतां कामिनीं वीक्ष्य प्रोवाच भगवान्हरः।
कथं लज्जातुरासि त्वं सुखं ते प्रकरोम्यहम् ॥२१॥

अद्यप्रभृति यो मोहात्पुमान्कोऽपि वरानने।
वनं च प्रविशेदेतत्स वै योषिद्‌भविष्यति ॥२२॥

इति शप्तं वनं तेन ये जानन्ति जनाः क्वचित् ।
वर्जयन्तीह ते कामं वनं दोषसमृद्धिमत् ॥२३॥

सुद्युम्नस्तु तदज्ञानात्प्रविष्टः सचिवैः सह।
तथैव स्त्रीत्वमापन्नस्तैः सहेति न संशयः ॥२४॥

चिन्ताविष्टः स राजर्षिर्न जगाम गृहं ह्रिया।
विचचार बहिस्तस्माद्वनदेशादितस्ततः ॥२५॥

इलेति नाम सम्प्राप्तं स्त्रीत्वे तेन महात्मना ।
विचरंस्तत्र सम्प्राप्तो बुधः सोमसुतो युवा ॥२६॥

स्त्रीभिः परिवृतां तां तु दृष्ट्वा कान्तां मनोरमाम् ।
हावभावकलायुक्तां चकमे भगवाम्बुधः ॥२७॥
सापि तं चकमे कान्तं बुधं सोमसुतं पतिम् ।
संयोगस्तत्र सञ्जातस्तयोः प्रेम्णा परस्परम् ॥ २८॥
स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम् ।
इलायां सोमपुत्रस्तु चक्रवर्तिनमुत्तमम् ॥ २९॥
सा प्रासूत सुतं बाला चिन्ताविष्टा वने स्थिता ।
सस्मार स्वकुलाचार्यं वसिष्ठं मुनिसत्तमम् ॥ ३०॥
स तदास्य दशां दृष्ट्वा सुद्युम्नस्य कृपान्वितः ।
अतोषयन्महादेवं शङ्करं लोकशङ्करम् ॥ ३१ ॥
तस्मै स भगवांस्तुष्टः प्रददौ वाञ्छितं वरम् ।
वसिष्ठः प्रार्थयामास पुंस्त्वं राज्ञः प्रियस्य च ॥ ३२ ॥
शङ्करस्तु निजां वाचमृतां कुर्वन्नुवाच ह।
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मासं पुमांस्तु भविता मासं स्त्री भूपतिः किल ॥३३॥
श्लोक  9.1.38-39 
"तुष्टस्तस्मै स भगवानृषये प्रियमावहन् ।
स्वां च वाचमृतां कुर्वन्निदमाह विशाम्पते ॥३८॥
मासं पुमान् स भविता मासं स्री तव गोत्रज: ।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
तुष्ट:—प्रसन्न हुए; तस्मै—उस वसिष्ठ के लिए; स:—उसने (शिवजी ने); भगवान्—अत्यन्त शक्तिशाली; ऋषये—ऋषि के लिए; प्रियम् आवहन्—उसे प्रिय को आहवन करते हुए  ; स्वाम् च— और अपने को; वाचम्—वाणी को; ऋताम्—सत्य को; कुर्वन्—करते हुए ; इदम्—यह; आह—कहा; विशाम्पते—हे राजा परीक्षित; मासम्—एक महीना को; पुमान्—पुरुष; स:—सुद्युम्न; भविता—बन जायेगा; मासम्— दूसरे महीने में; स्त्री—स्त्री; तव—तुम्हारी; गोत्र-ज:—तुम्हारी परम्परा में उत्पन्न शिष्य; इत्थम्—इस तरह; व्यवस्थया—व्यवस्था से; कामम्—इच्छा को; सुद्युम्न:—राजा सुद्युम्न; अवतु—रक्षा करे ; मेदिनीम्—जगत को ।.
 
अनुवाद:-
हे राजा परीक्षित, शिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हो गए। अतएव शिवजी ने उन्हें तुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन रखने के उद्देश्य से उस सन्त पुरुष से कहा, “आपका शिष्य सुद्युम्न एक मास तक नर रहेगा और दूसरे मास स्त्री रहेगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।”
 
तात्पर्य:-
इस प्रसंग में गोत्रज: शब्द महत्त्वपूर्ण है। ब्राह्मण लोग सामान्यतया दो कुलों के गुरु होते हैं। एक कुल उनकी शिष्य परम्परा होता है और दूसरा उनके वीर्य से उत्पन्न कुल होता है। दोनों ही वंशज एक ही गोत्र से सम्बन्धित होते हैं। वैदिक प्रणाली में कभी-कभी देखा जाता है कि एक ही ऋषि की शिष्य परम्परा में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों पाये जाते हैं और कभी-कभी तो वैश्य तक पाये जाते हैं। चूँकि गोत्र तथा कुल एक हैं अतएव शिष्य तथा वीर्य से उत्पन्न कुल में कोई अन्तर नहीं होता। आज भी वही प्रणाली भारतीय समाज में चल रही है, विशेष रूप से विवाह में गोत्र की गणना की जाती है। यहाँ पर गोत्रज: शब्द एक ही कुल में उत्पन्न लोगों को बताने वाला है, चाहे वे शिष्य हों या कुल के सदस्य।
 

इत्थं प्राप्य वरं राजा जगाम स्वगृहं पुनः।

चक्रे राज्यं स धर्मात्मा वसिष्ठस्याप्यनुग्रहात् ॥३४॥

स्त्रीत्वे तिष्ठति हर्म्येषु पुंस्त्वे राज्यं प्रशास्ति च 
प्रजास्तस्मिन्समुद्विग्ना नाभ्यनन्दन्महीपतिम् ॥ ३५ ॥
काले तु यौवनं प्राप्तः पुत्रः पुरूरवास्तदा।
प्रतिष्ठां नृपतिस्तस्मै दत्त्वा राज्यं वनं ययौ ॥३६॥
गत्वा तस्मिन्वने रम्ये नानाद्रुमसमाकुले ।
नारदान्मन्त्रमासाद्य नवाक्षरमनुत्तमम् ॥ ३७ ॥
जजाप मन्त्रमत्यर्थं प्रेमपूरितमानसः ।
परितुष्टा तदा देवी सगुणा तारिणी शिवा ॥३८॥

सिंहारूढा स्थिता चाग्रे दिव्यरूपा मनोरमा ।
वारुणीपानसम्मत्ता मदाघूर्णितलोचना ॥ ३९ ॥
दृष्ट्वा तां दिव्यरूपां च प्रेमाकुलितलोचनः ।
प्रणम्य शिरसा प्रीत्या तुष्टाव जगदम्बिकाम् ॥४०॥

इलोवाच
दिव्यं च ते भगवति प्रथितं स्वरूपं दृष्टं मया सकललोकहितानुरूपम् ।
वन्दे त्वदंघ्रिकमलं सुरसङ्घसेव्यं कामप्रदं जननि चापि विमुक्तिदं च ॥ ४१ ॥
को वेत्ति तेऽम्ब भुवि मर्त्यतनुर्निकामं मुह्यन्ति यत्र मुनयश्च सुराश्च सर्वे ।
ऐश्वर्यमेतदखिलं कृपणे दयां च दृष्ट्वैव देवि सकलं किल विस्मयो मे ॥४२॥

शम्भुर्हरिः कमलजो मघवा रविश्च  वित्तेशवह्निवरुणाः पवनश्च सोमः ।
जानन्ति नैव वसवोऽपि हि ते प्रभावं बुध्येत्कथं तव गुणानगुणो मनुष्यः ॥४३॥

जानाति विष्णुरमितद्युतिरम्ब साक्षा- त्त्वां सात्त्विकीमुदधिजां सकलार्थदां च ।
को राजसीं हर उमां किल तामसीं त्वां
 वेदाम्बिके न तु पुनः खलु निर्गुणां त्वाम् ॥ ४४ ॥

क्वाहं सुमन्दमतिरप्रतिमप्रभावः
क्वायं तवातिनिपुणो मयि सुप्रसादः ।
जाने भवानि चरितं करुणासमेतं
यत्सेवकांश्च दयसे त्वयि भावयुक्तान् ॥ ४५ ॥

वृत्तस्त्वया हरिरसौ वनजेशयापि
नैवाचरत्यपि मुदं मधुसूदनश्च ।
पादौ तवादिपुरुषः किल पावकेन
कृत्वा करोति च करेण शुभौ पवित्रौ ॥ ४६ ॥
वाञ्छत्यहो हरिरशोक इवातिकामं
पादाहतिं प्रमुदितः पुरुषः पुराणः ।
तां त्वं करोषि रुषिता प्रणतं च पादे
दृष्ट्वा पतिं सकलदेवनुतं स्मरार्तम् ॥ ४७ ॥
वक्षःस्थले वससि देवि सदैव तस्य
पर्यङ्कवत्सुचरिते विपुलेऽतिशान्ते ।
सौदामिनीव सुघने सुविभूषिते च
किं ते न वाहनमसौ जगदीश्वरोऽपि ॥ ४८ ॥
त्वं चेज्जहासि मधुसूदनमम्ब कोपा-
न्नैवार्चितोऽपि स भवेत्किल शक्तिहीनः ।
प्रत्यक्षमेव पुरुषं स्वजनास्त्वजन्ति
शान्तं श्रियोज्झितमतीव गुणैर्वियुक्तम् ॥ ४९ ॥
ब्रह्मादयः सुरगणा न तु किं युवत्यो
ये त्वत्पदाम्बुजमहर्निशमाश्रयन्ति ।
मन्ये त्वयैव विहिताः खलु ते पुमांसः
किं वर्णयामि तव शक्तिमनन्तवीर्ये ॥ ५० ॥
त्वं नापुमान्न च पुमानिति मे विकल्पो
याकासि देवि सगुणा ननु निर्गुणा वा ।
तां त्वां नमामि सततं किल भावयुक्तो
 वाञ्छामि भक्तिमचलां त्वयि मातरं तु ॥ ५१ ॥
सूत उवाच
इति स्तुत्वा महीपालो जगाम शरणं तदा ।
परितुष्टा ददौ देवी तत्र सायुज्यमात्मनि।५२।
सुद्युम्नस्तु ततः प्राप पदं परमकं स्थिरम् ।
तस्या देव्याः प्रसादेन मुनीनामपि दुर्लभम् ॥ ५३।

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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥
प्रथमस्कन्धे सुद्युम्नस्तुतिर्नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
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श्लोक  9.1.40  
आचार्यानुग्रहात् कामं लब्ध्वा पुंस्त्वं व्यवस्थया ।
पालयामास जगतीं नाभ्यनन्दन् स्म तं प्रजा:॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
आचार्य-अनुग्रहात्—आचार्य की  कृपा से; कामम्—इच्छित को; लब्ध्वा—प्राप्त करके; पुंस्त्वम्—पुरुषत्व को; व्यवस्थया—शिव की इस व्यवस्था से; पालयाम् आस—उसने शासन चलाया; जगतीम्—सारे जगत को; न अभ्यनन्दन् स्म—संतुष्ट नहीं थे; तम्—उस राजा को; प्रजा:—नागरिक गण ।.
 
अनुवाद
इस प्रकार गुरु की कृपा पाकर शिवजी के वचनों के अनुसार सुद्युम्न को प्रति दूसरे मास में उसका इच्छित पुरुषत्व फिर से प्राप्त हो जाता था और इस तरह उसने राज्य पर शासन चलाया यद्यपि नागरिक इससे सन्तुष्ट नहीं थे।
 
तात्पर्य:-
नागरिक जान गये थे कि राजा हर दूसरे मास स्त्री में परिणत हो जाता है अतएव वह अपने राजसी कर्तव्यों को निभा नहीं सकता था। फलस्वरूप नागरिक अत्यधिक असन्तुष्ट थे।
 

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