शनिवार, 26 अगस्त 2023

घोष शब्द का इतिहास क्रम-


राजादमघोष का परिचय 'घोष शब्द और उनका इतिहास-

रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भावमयी आख्यानकों का संग्रह किया।  
"श्रीश्रीराधाकृष्ण- गणोद्देश्य दीपिका" के नाम से  ...
लेखक ने एक स्थान परश्रीश्रीराधाकृष्ण- गणोद्देश्य दीपिका" में  लिखा है। .

"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन:।
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।

भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ ( शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।

पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप' वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर तीन प्रकार के हैं  गोप और   पल्लव    सभी पर्याय हैं।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है । तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।

"प्रायो गोवृत्तयो मुख्या गोपाला: इति समारिता: ।
वीरेण प्रवृत्या लोकेषु 
 आभीरा इति विश्रुता:।८।

भाषानुवाद– गोपाल प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं।
वीर प्रवृत्ति के कारण संसार में  गोपों अथवा गोपालों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।

आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: वैष्णव वर्णा गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो समतां गता: ।।९।।

भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्य  के समान जाने जाते हैं । ये वैष्णव वर्णा हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित गोपलको के  समान माने जाते हैं ।९।।

किञ्चिदाभीरतो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टाङ्गा गुर्जरा: स्मृता :।१०।

भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले  तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं ।  ये प्राय: हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।

वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी गोपालन करने से  वैश्य वृत्ति धारक हैं ।

वेदों कीअधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं जिसे गूजर और अहीर और जाट भी तीनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।

जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है ।
"हिन्दू जाट जाति में और गुर्जर जाति में भी घोसी उपजाति पायी जाती है।

मध्यम काल में दिल्ली व निकटतम इलाकों मे घोसी शब्द ऐतिहासिक रूप से हिन्दू और मुस्लिम गद्दी समुदायों के दुग्ध-व्यवसायियों से संबन्धित रहा है।जो मूलत: आभीर जाति से सम्बन्धित थे ।

परन्तु, मध्य भारत मे लगभग सभी घोसी हिन्दू होते हैं जो स्वयं को घोसी ठाकुर अथवा आहीर  भी कहते हैं।

घोसी शब्द पशुपालन के कारण हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्म के लोग प्रयोग करते है अतः इससे 
घोषी शब्द के पारिभाषिक भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है।

"इस संदर्भ मे इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सन् (1918) मे दायर कानूनी प्रकरण ("50 Ind Cas 424") में यह निर्णय लेकर यह प्राविधान पारित किया गया कि 

"हिन्दू समुदाय में घोसी शब्द का प्रयोग एक वास्तविक कृषक जाति के लिए किया जाएगा जो कि हिन्दू अहीर जाति का ही अंग है। 

हिन्दू घोसी समुदाय की सामाजिक परम्पराएँ हिन्दू अहिरों के समान होती हैं उत्तर प्रदेश के कुछ पश्चिमी जिलों में घोसी अहीरों को शेष अहीर समुदाय से जनसंख्या व प्रतिष्ठा में बेहतर समझा जाता है, जिससे वर्तमान राजनैतिक दल इनकी तरफ आकर्षित रहते हैं।

राजनेता प्रायः विभिन्न अहीर उप-समुदायों के मध्य- विशेष रूप से घोसी व कमरिया समुदायों के मध्य दरार डालने के लिए योजनाए भी बनाते रहते थे परन्तु आज कमरिया और  घोषीयों में  परस्पर वैवाहिक व सजातीय सम्बन्ध स्थापित हो गये हैं।

मध्य प्रदेश के घोषी समुदाय को यह बोध नहीं था कि घोष शब्द जो लौकिक संस्कृत भाषा में प्रचलित है। प्राचीन काल से आभीर जाति का वाचक है।

वह भी मूलत: वैदिक गोष: शब्द का विकसित रूप है। गोष: शब्द की व्युत्पत्ति गोष:= (गां सनोति सेवयति वा + सन् (षण् )प्रत्यय धातु)
अर्थात्‌ --जो गाय की सेवा करता है । गोष: गो पद और सन्( षण्) - १-भक्ति करना २-पूजा करना और ३-दान करना  इन तीन अर्थों में रूढ़ है। सन्त और सनत तथा सनत्कुमार जैसे शब्द भी इसी सन् (षण्) धातु से व्युत्पन्न हैं।
सम्पूर्ण आभीर जाति के प्रथम  ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा को ऋग्वेद में गोष: पद से सम्बोधित किया गया है।
उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की 18 ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- है। अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥
सायण-भाष्य"-
अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति= उस निषंग से वाण फैकने के लिए मैं समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं  (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् = नहीं होसकता। तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति  “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्।

पुरुरवा : हे उर्वशी ! कहीं बिछड़ने से मुझे इतना दु:ख होता है कि तरकश से एक तीर भी छूटता नहीं है। मैं अब सैकड़ों गायों की सेवा अथवा पालन के लिए सक्षम नहीं हूं। मैं राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया हूं और इसलिए मेरे योद्धाओं के पास भी अब कोई काम नहीं रहा।
विशेष: गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवक" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।

"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः ।
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥

सायण-भाष्य"-
“इत्था= इत्थं = इस प्रकार  इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह । हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि । "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।          

ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 41 सूक्त के 21वीं ऋचा में इस प्रकार वर्णन है
 -अभि न इला यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु । 
उर्वशी वा बृहदिवा गृणानाभ्यूण्वाना प्रभूथस्यायो: ॥१९ ॥ 

अर्थ - गौ समूह की पोषणकत्री आभीर स्त्री  इला और उर्वशी,  नदियों की गर्जना से संयुक्त होती हैं वे हमारी स्तुतियों को सुनें । अत्यन्त दीप्तिमती उर्वशी हमारी स्तुतियों से प्रशंसित होकर हमारे यज्ञादि कर्म को सम्यक्रूप से आच्छदित कर हमारी हवियों को ग्रहण करें।
 जिसमे इला और उर्वशी को अभि ( संस्कृत में अभीर का स्त्रीलिंग ) कहकर कर उच्चारित किया है। इस अभि शब्द का अनुवाद डॉ गंगा सहाय शर्मा और ऋग्वेद संहिता  ने गौ समूह को पालने वाली बताया है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के 95 वें सूक्त में उर्वशी के लिए अवीरे ! सम्बोधन निस्सन्देह अमीर का एक पूर्व रूप अवीर- ही है। वैदिक शब्द उपसर्ग रहित ही होते थे। 
वैदिक काल में एक शब्द के कई रूपान्तरण प्रचलित हुआ करते थे। लौकिक  /अभीर /आभीर / के अभीरु: अवीरे तथा अभि: स्त्रीलिंग रूप में ऋग्वेद के दशम मण्डल के 95 वें सूक्त में गोपीथ- शब्द गोपी- ईथ का योगिक रूप ही है।
जो आभीर कन्या उर्वशी के ही सम्बोधन में है।
 सन्दर्भ:-
हिंदी साहित्य कोश, भाग-२, पृष्ठ- ५५
पुराणों में उर्वशी के आभीर कन्या होने के सन्दर्भ हैं।
 यद्यपि पूर्व में हम सन्दर्भ दे चुके हैं 
परन्तु प्रासंगिक रूप से यहाँ भी प्रस्तुत है।
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"कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।

"जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
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मत्स्यपुराण अध्याय-★
   (भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
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   अनुवाद-
जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत ( कठिन आचरण) का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की  देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी ( स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।
इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।

पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे ।

इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के  गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है। परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्ण आभीर तथा गोष( घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है। 
इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए ।
अहीर अथवा गोप ही आज के किसान हैं।
  • गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण- तथा "शक्ति" भक्ति" "सौन्दर्य" और क्रमश: "ज्ञान" की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म लेने का वर्णन भारतीय शास्त्रों में वर्णित हुआ है।

दर-असल ये भारतीय प्राचीन शास्त्र संस्कृत भाषा में लिखे हुए थे और संस्कृत भाषा आज को दौर में अधिक प्रचलित नहीं हैं।

आधिकारिक रूप से इस भाषा के विशेषज्ञ भी बहुत कम हैं। कुछ पुरोहित वर्गीय जाति विशेष लोगों ने संस्कृत के उन उन अँशों का अनुवाद करना और समाज में उनका विज्ञापन करना उचित नहीं समझा जिससे आभीर जाति की महिमा का वर्णन था।

पुरोहित वर्ग को अनुमान था कि कहीं उनकी प्रतिष्ठा अथवा वर्चस्व किसी अन्य जाति से कम आकलन हो -

शास्त्रों के हवाले से हम आपको बता दें कि "स्वयं भगवान विष्णु 'आभीर' जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - "राधा" "दुर्गा" "गायत्री" और "उर्वशी" आदि को भी इन्हीं अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषण-पद गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

विष्णु भगवान् का गोपों से अभिन्न सम्बन्ध रहा है। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी भगवान्- विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स (श्रोत) और भूरिश्रृंगा-(अनेक सींगों वाली गायों ) के होने का भाव सूचित करता है। कदाचित इन गायों के पालक होने के नाते से ही भगवान्- विष्णु को गोप कहा गया है।

  • "त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)

भावार्थ-(अदाभ्यः) -सोमरस अथवा अन्न आदि रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्)- धारण करता हुआ । (गोपाः)- गोपालकों के रूप, (विष्णुः)- संसार के अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि)- तीन (पदानि)- क़दमो से (विचक्रमे)- गमन करते हैं। और ये ही (धर्माणि)- धर्मों को धारण करते हैं॥18॥

विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।

आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।

और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।

  • ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।

पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।

  1. "धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।

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  1. "अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
  2. युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
  3. "अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
  • अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।

हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।

निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ ( अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।

गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।

गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट ( included ) किया गया है।

  1. "पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे । त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।

अनुवाद:-

तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो सृष्टि का निर्माण किया।

ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।

  1. "सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे । उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
  2. तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
  3. कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।
  4. त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
  5. कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।। नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
  6. श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।

अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।

मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।

  1. ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)

निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू- पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

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  1. "ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
  • अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।

उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।

विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥

देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः

(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।

इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।

  1. तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
    दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।

पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।

इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।

उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥

अर्थानुवाद:-

(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥

ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥

(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम (गमध्यै) जाने के लिए (उश्मसि) इच्छा करते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) बैल हैं (परमम्) जो उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अवभाति) प्रकाशमान होता है (तत्) उस स्थान को (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥ ६ ॥

ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.१५४/५-६

(गोपाः)गायों के पालक (अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा:) कदम अथवा लोक [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) गमन किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों काे (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥१८॥

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। इतो धर्माणि धारयन् ॥

' (ऋग्वेद १/२२/१८) अथर्वेद-७/२६/५

तात्पर्य:- तीनों लोकों में गमन करने वाले भगवान विष्णु हिंसा से रहित और धर्म को धारण करने वाले हैं।

'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।

ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया यह यज्ञ हिंसा रहित है। - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या भगवत् कहा जाता है।

इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी जाना जाता है - जो भगवत् का भक्त है वह भागवत्। श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है 'परब्रह्म तु कृष्णो हि'(सिद्धान्त मुक्तावलली-( ३ )वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।

भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम. से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।

वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ।

तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध.ये चार व्यूह( समूह) माने गये हैं।

लौकिक मान्यताओं में राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं।

और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है।

  1. तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।

भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।

  1. गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।

गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे

  1. मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।

"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं‌। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।

  1. किसी के द्वारा दिए गये शाप को समाप्त कर समान्य करना और समान्य को फिर वरदान में बदल देना अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा ही सम्भव हो सका ।  

अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।

  1. अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।

"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विप्रादि वर्णों के मन्त्र का पुर: सर( अगुआ) ब्रह्मा ही हैं।

अनुवाद:-सावित्री ने कहा कि किसी वर्ण का मनुष्य मन्त्र विधि से ब्रह्मा का पूजन कभी न करे।८।

  1. ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु समये धरणीतले ॥ न ब्रह्मणा विना किंचित्कृत्यं सिद्धिमुपैष्यति ॥९॥

"अनुवाद:-फिर भी मैं गायत्री कहती हूँ। सम्पूर्ण पृथ्वी पर ब्रह्मा के बिना ब्राह्मण आदि वर्णों का कोई कार्य सिद्ध नहीं होगा।

  • कृष्णार्चने च यत्पुण्यं यत्पुण्यं लिंग पूजने॥ तत्फलं कोटिगुणितं सदा वै ब्रह्मदर्शनात्॥ भविष्यति न सन्देहो विशेषात्सर्वपर्वसु।१०।

"अनुवाद:-कृष्ण ( विष्णु) अर्चना और लिंगार्चना से जो पुण्य मिलता है। ब्रह्मा के दर्शन मात्र से उसका करोड़ों गुना फल मिलेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है। विशेष कर पर्वों पर तो दर्शन जनित अत्यधिक फल लाभ होगा।१०।

  1. त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥ तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति ॥११॥

"अनुवाद:-हे विष्णु आपको जो उस सावित्री के द्वारा यह शाप दिया कि मृत्युलोक में जन्म लेकर अन्य के दास होंगे ।११।

  1. तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि॥ यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः।

"अनुवाद:- तो इस सम्बन्ध में आपको सावित्री द्वारा जो यह शाप दिया है उसका मैं निवारण करती हूँ।

कि आपके दो रूप होंगे ! मुझ गायत्री को सावित्री ने गोप कुल में उत्पन्न कहा है इस सन्दर्भ में मेरा यह कथन है। कि हे विष्णु आप भी गोप कुल को पवित्र करने के लिए मेरे ही गोपकुल में जन्म लेंगे।८-१२।

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  1. एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥

"अनुवाद:- तब पृथ्वी पर जन्म लेने वाले आपके एक शरीर का नाम कृष्ण तथा दूसरे शरीर का नाम अर्जुन होगा। अपने उस दूसरे अर्जुन शरीर के लिए तुम सारथि बनोगे।

विशेष :- अहीर अथवा गोप जाति प्राचीनतम है मत्स्य पुराण में उर्वशी अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित पद्मसेन आभीर की पुत्री है । जिसने कल्याणनी नामक कठोर व्रत का सम्पादन किया और जो अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बन गयी यही कल्याणनि व्रत का फल था।

  1. उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की 18 ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष: (घोष- गोप) तथा गोपीथ- है। अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
  • पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे ।

इसी लिए रूद्रयामलतन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

  • अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है।
  • परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्णन आभीर तथा गोष(घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है।
  • इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए ।

अहीर अथवा गोप ही आज के किसान हैं। जिसमें कुछ कबीला जाटों में समाहित हुए कुछ गुर्जरों में भी समाहित हुए है।

राजपूत भी एक जातीयों का संघ है। जिसका विकास बहुत बाद में भारत में ६०६ ई से ६४७ ईस्वी के समय से हुआ। और चरम विकास १६ वीं सदी तक हुआ ।

सम्भवत: इनमें भी अहीरों जाटों और गुर्जरो से निकल कर कुछ शाखाएं आज समाहित हो गयीं है।

जैसे अहीरों से निकले राजपूत जादौन, चुडासमा , और जड़ेजा भाटी आदि - परन्तु ये राजपूत अब स्वयं को अहीरों से अलग मानने का राग आलाप रहे हैं।

अहीर अथवा गोप शब्द कई उतार-चढ़ावों के बाद आज तक समाज में यदुवंश को समाहित किए हुए है। यदुवंश के मूल प्रवर्तक यदु एक गोप अथवा पशपालक होकर भी लोकतान्त्रिक राजा थे।

यद्यपि यदु के अन्य भाई जैसे तुर्वसु और पुरु को भी शास्त्र पशु पालक के रूप में वर्णित करते हैं।

भारतीय पौराणिक कथा-कोश लक्षीनारायण संहिता में कुरुक्षेत्र का वर्णन करते हुए पुरु के वंशज कुरु को पशु पालक कहा है ।

गायत्री द्वारा विष्णु को गोप रूप में दो शरीर (कृष्ण और अर्जुन ) के रूप में उत्पन्न होने को कहना भी अर्जुन का गोपालक रूप है।

कौसललिया अहीर स्वयं को पाण्डु का वंशज मानते हैं। परन्तु शास्त्र तथा समाज में आभीर शब्द केवल यदुवंश के गोपों के ही लिए रूढ़ हो गया।

अर्जुन को पञ्चनद प्रदेश ( पंजाब) में परास्त करने वाले नारायणी सेना से सम्बन्धित वृष्णि कुल के आभीर थे । जिन्हें नारायणी सेना के गोप कहा गया है।

यादवों के लिए ही आभीर शब्द रूढ़ हो गया दरअसल आभीर एक जाति है जिसमें यदु वंश पुरु वंश और तुर्वशु वंश भी समाहित थे।

इस स्थान पर हम यह सिद्ध करेंगे कि जाट "गूजर और अहीरों का रक्त सम्बन्ध अधिक सन्निकट है ।

यद्यपि गूजर और जाटों के कुछ कबीले सपना सम्बन्ध सूर्यवंश से भी जोड़ रहे हैं।

फिर भी इनमें स्वयं को यदुवंश से जोड़ने वाले कबीलों का जैनेटिक मिलान अहीरों से है।

तीनों ही जातियों में गोत्र भी बहुत से समान हैं। सबसे बड़ी बात इनका ( डी॰ एन॰ ए॰)-जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तन्तुनुमा अणु हैं जिनको( डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल) या डी॰ एन॰ ए॰ कहते हैं।

इसमें अनुवांशिक कूट( कोड) निबद्ध रहता है। इसी लिए गूजर जाट और अहीरों की प्रवृत्ति समान होती है ।

परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए की अहीर जाति सबसे प्राचीनतम है। जब गुर्जर और जाट जैसे शब्द भी नहीं थे तब आभीर थे ।

इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं।

कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं

तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।

  • "यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।

अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।

  1. यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप। जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।
  2. कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्। सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।

"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने के पांच कारण होते हैं १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा ( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।

  • श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः। तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।

"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।

  1. भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम। इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।

"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

  1. देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम।
  2. कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा।७७। 

"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा मैं हरि का सदैव भजन करूँगा।७७।

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  1. कः पिता कोऽत्र वै माता सर्वे स्वार्थपरा भुवि। न कांक्षे तव राज्यं वै न दास्ये यौवनं मम ।७८।

"अनुवाद:-कौन पिता है कौन माता है यहाँ सब स्वार्थ में रत हैं इस संसार में न मैं अब तुम्हारे राज्य की इच्छा करता हूँ और ना ही अपने यौवन की ही इच्छा करता हूँ यह बात पुरु ने अपने पिता ययाति से कही ।७८।

  1. इत्युक्त्वा पितरं नत्वा हिमालयवनं ययौ।तत्र तेपे तपश्चापि वैष्णवो धर्मभक्तिमान् ।७९।

"अनुवाद:- इस प्रकार कहकर पिता को नमन कर पुरु हिमालय के वन को चला गया और वहाँ तप किया और वैष्णव धर्म का अनुयायी बन भक्ति को प्राप्त किया।७९।

  • कृषिं चकार धर्मात्मा सप्तक्रोशमितक्षितेः । हलेन कर्षयामास महिषेण वृषेण च ।८०।

"अनुवाद:-उस धर्मात्मा ने पृथ्वी को सात कोश नाप कर वहाँ हल के द्वारा कृषि कार्य भैंसा और बैल के द्वारा भी किया।८०।

आतिथ्यं सर्वदा चक्रे नूत्नधान्यादिभिः सदा ।विष्णुर्विप्रस्वरूपेण ययौ कुरोः कृषिं प्रति ।८१।

"अनुवाद:-:- नवीन धन धान्य से वह सब प्रकार से अतिथियों का सत्कार करता तभी एक बार विष्णु भगवान विप्र के रूप धारण कर कुरु के पास गये और उन्हें कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया। ८१।

  1. आतिथ्यं च गृहीत्वैव मोक्षपदं ददौ ततः कुरुक्षेत्रं च तन्नाम्ना कृतं नारायणेन ह ।।८२।।

"अनुवाद:-तब भगवान् विष्णु ने कुरु का आतिथ्य सत्कार ग्रहण कर उसे मोक्ष पद प्रदान किया उस क्षेत्र का नाम नारायण के द्वारा कुरुक्षेत्र कर दिया गया।८२।

कुरुक्षेत्र के समीपवर्ती लोग सदीयों से कृषि और पशुपालन कार्य करते चले आ रहे हैं। आज कल ये लोग जाट " गूजर और अहीरों के रूप में वर्तमान में भी इस कृषि और पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।८२।

  • ""सन्दर्भ:-

श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने ययातेः स्वर्गतः पृथिव्यामधिकभक्त्यादिलाभ इति तस्य पृथिव्यास्त्यागार्थमिन्द्रकृतबिन्दुमत्याः प्रदानं पुत्रतो यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७३ ।।

  • जाट इतिहास के महान अध्येता

राम स्वरूपजून (झज्जर , हरियाणा के प्रतिष्ठित जाट इतिहासकार थे । वह जाटों के इतिहास नामक पुस्तक के लेखक हैं ।

उनका जन्म हरियाणा के झज्जर जिले के नूना मजरा गांव में हुआ था ।

राम सरूप जून लिखते हैं कि ....

" उन्होंने 1900 ईस्वी में अपना पाठ शुरू किया जब वह उस क्षेत्र में पढ़ने वाले पहले स्कूलों में एक दशक में थे।

राम स्वरूप जून जाटों का रक्त सम्बन्ध अहीरों से निश्चित करते हैं।

वे लिखते हैं कि आज के अहीर ययाति की यदु शाखा के हैं । वे यदु के दूसरे पुत्र सत्जित के वंशज हैं जबकि सभी गोत्र, अहीरों के जाटों में भी पाए जाते हैं । दूसरे शब्दों में जाट और अहीर बहुत निकट संबंधी हैं।

उनके गोत्रों को मिलाकर, जाट गोत्रों की कुल संख्या बढ़कर 700 हो जाती है। उत्तर पश्चिमी अहीरों में केवल 97 गोत्र हैं जिनमें 20 प्रतिशत जाट गोत्र भी शामिल हैं ।

  • अलवरूनी ने तहकीके हिन्द में वसुदेव को पशुपालक जाट कहकर वर्णित किया है।

वर्तमान में जाट और गुर्जर संघ हैं जिनमें अनेक देशी विदेशी जातियों का समावेश है। जो स्वयं को सूर्य वंशी या चन्द्र वंशी लिखते कुछ स्वयं को अग्नि वंशी भी लिखते हैं।

परन्तु अहीर आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान हैं अहीरों के विषय में गोप रूप में यह वर्णन समीचीन ही है।

स्कन्दपुराण- (नागरखण्डः) के अध्यायः 193 में वर्णन है कि

  • "यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः॥ तत्र त्वं पावनार्थाय चिरं वृद्धिमवाप्स्यसि ॥१२॥
  • एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥
  • "तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम्॥सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

"अनुवाद:-उनके द्वारा किए गये कार्यों में तुम्हारे रक्त सम्बन्धी सजातीय ये गोप प्रशंसा को प्राप्त करेंगे।१४।

  • यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वं शप्रभवानराः ॥ तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥

विशेषत :- सावित्री के शाप का निवारण करते हुए आभीर कन्या गायत्री ने कहा था।

सभी लोकों और देवों में भी

जहाँ जहाँ मेरे वंश जाति के अहीर लोग निवास करेंगे वहीं वहीं लक्ष्मी निवास करेगी चाहें वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१३-१४-१५।

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इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः।

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पुष्यमित्र सुंग ई०पू० (184) के समय में लिखित सुमित भार्गव के द्वारा मनु-स्मृति में अहीरों का जन्म ब्राह्मण के द्वारा अम्बष्ठ कन्या से वर्णित किया गया। क्योंकि अहीर तो ब्राह्मणों से भी अधि पूज्य हुए जा रहे हैं। और यह व्यभिचार में संलग्न पुष्यमित्र सुंग ई०पू० (184) के अनुयायी ब्राह्मणों को सहन नही था।

तब उन्होंने मनु का विधान बता कर मनु-स्मृति में अहीरों का जन्म इस प्रकार दर्शाया।

"ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः।10/15 ( मनुस्मृति )

यद्यपि शैलीगत-आधार पर मनुस्मृति में विधानात्मकता होना चाहिए। परन्तु यहाँ ऐतिहासिक शैली को अपनाया जा रहा है। यहाँ पर जो मनु-स्मृति के श्लोक हैं वे ऐैतिहासिक शैली में होने से प्रक्षिप्त है ।

इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए— "कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।(10/34)

शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43) पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)

द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)

अतः इस ऐतिहासिक शैली में वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल अर्थात् -ई०पू० (184) के समकक्ष पुष्यमित्र सुंग के द्वारा संरक्षित ब्राह्मणों के ये श्लोक है!

  • अवान्तरविरोध होने से ये प्रक्षिप्त( नकली) श्लोक हैं। 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है मनु-स्मृति कार ने 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिख डाले हैं ।
  • 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है ।
  • 33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है
  • और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है ।
  • 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है।
  • जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।
  • 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्भोग से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है ।
  • यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनु के कथन कदापि नही हो सकते हैं ।

स्मृतियों में काल्पनिक मनगड़न्त जाति-उत्पत्ति पूर्ववर्ती शास्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं।

लक्ष्मीनारायणी संहिता, गर्गसंहिता और ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों की उत्पत्ति चातुर्यवर्णव्यवस्था से पृथक विष्णु से बतायी गयी है।

  1. कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
    आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव -च तत्सम: ।।41।
    (ब्रह्म- वैवर्त पुराण अध्याय- 5)
    कृष्ण के लोम- रूपों से गोपों की उत्पत्ति हुई , --जो रूप और वेश में कृष्ण के समान थे ।

योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: ।
गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णे चकार स: ।।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण)
भगवान् जब गोलोेक को गये तो अपने साथ गोप - गोपियाँ को ले जाने लगे तब अमृत दृष्टि द्वारा दूसरे गोपों से गोकुल पूर्ण किया ।।

  • जाति-भाष्कर का ब्राह्मण लेखक ज्वालाप्रसाद मिश्र
    स्मृतियों के हबाले से आभीर जनजाति की उत्पत्ति का काल्पनिक व शास्त्रीय सिद्धान्त विहीन विधि से लिखता है ।👇

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  1. महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम्।
    आभीर पत्न्यमाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् ।।128।।
  2. तेषां संघो वसेद् घोषे बहुशस्यजलाशये।।
    आविकं गोमहिष्यादि पोषयेत् तृण वारिणा ।।129।
  3. दुग्धं दधि घृतं तक्रं विक्रयीत धनाय च ।
    विशूद्रेभ्यो न्यूनतो धर्मे तस्य सर्वस्य विश्रुता ।।130।
  • अनुवादित रूप:- महिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है 'वह आभीर है ।
  1. और ब्राह्मण द्वारा आभीर की स्त्री में आभीर
  2. ही उत्पन्न होता है ।
  3. इनका समूह घोष (गो-आवास) में 
  4. रहता है ।  
  5. जहाँ 'बहुत सी घास तृण हो
  6. तथा समीप में जल हो वहाँ निवास होता है
  7. भेड़ ,बकरी ,गो ,भैंस आदि को चराना
  8. इनका काम है । तथा दूध, दही मट्ठा ये
  9. धन के लिए बैचें यह धर्म में शूद्रों से
  10. कुछ हीन हैं। 

मनु-स्मृति कार अब इस सिद्धान्त के विपरीत लिखता है कि "अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण से आभीर की उत्पत्ति मानते हैं ।👇

  1. ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।
  2. आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यांतु धिग्वणः।।10/15 
  • अहीर जाति सतयुग के प्रारम्भ में थी जब आभीर कन्या गायत्री से ब्रह्मा का विवाह भगवान विष्णु यज्ञ सत्र के सम्पादन हेतु करते हैं।
  • उस समय मनु आदि प्रजापति भी सावित्री द्वारा उत्पन्न नहीं हुए थे।

शैलीगत-आधार द्वारा प्रमाण -👇

मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक होनी चाहिए! परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है विधानात्मक नहीं।
इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—

कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।

  1. वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
    पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)
  2. द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)

अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक
समायोजित किए गये हैं।
5. अवान्तरविरोध- ही इनके प्रक्षिप्त होने को प्रमाणित करता है 👇

(1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे हैं ।
(2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है तो
33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है ।

किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है

(3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है ।
जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।

(4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है । यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता ।

अतः दौनों परस्पर विरोधाभासी होने से काल्पनिक व मनगड़न्त हैं'' अत: अहीरों की उत्पत्ति केवल वैष्णवी ही है।

  1. लेखक:- यादव योगेश कुमार रोहि-अठारह पुराण एक सौ आठ उपनिद स्मृतियाँ षड्दर्शन महाभारत वाल्मीकि रामायण श्रीमद्भगवद्गीता तथा चारो वेद ब्राह्मण आरण्यक आदि ग्रन्थों को अध्येता भाषावैज्ञानिक व्याकरणविद् - तथा

परास्नातक- संस्कृत हिन्दी तथा अंग्रेज़ी

सम्पर्क सूत्र:- 8077160219



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"यदूनां प्रथमो बन्धुस्त्वं हि सर्व महीक्षिताम् ।
अत: प्रभृति संग्रामान् द्रक्ष्यसे चेदिसत्तम।।93। 
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व)
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प्रस्तुत उपर्युक्त श्लोक  में श्रीकृष्ण राजा दम  घोष से कहते हैं।  समस्त राजाओं में आप ही यादवों में प्रथम बन्धु हैं;  जिन्हें  हम बहुत से संग्रामों में देंखेगे ।।93।
अतएव घोष यादवों का अंग हैं ।
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घोष आभीर यादवों का पुरातन विशेषण है ।
हमारे ऐतिहासिक पुरुष दादा  दमघोष जी हैहय वंश के यादव थे। 

कविता कोश में अहीर कन्याओं के लिए उद्धृत घोषकुमारी विशेषण पद  है।
बहुत नारि सुहाग-सुंदरि और घोष कुमारी / सूरदास
 सूरदास »
राग गौरी
"बहुत नारि सुहाग-सुंदरि और घोष कुमारी ।
सजन-प्रीतम-नाम लै-लै, दै परसपर गारि ॥

अनँद अतिसै भयौ घर-घर, नृत्य ठावँहि ठाँव ।
नंद-द्वारैं भेंट लै-लै उमह्यौ गोकुल गावँ ॥

चौक चंदन लीपि कै, धरि आरती संजोइ ।
कहति घोष-कुमारि, ऐसौ अनंद जौ नित होइ ॥

द्वार सथिया देति स्यामा, सात सींक बनाइ ।
नव किसोरी मुदित ह्वै-ह्वै गहति जसुदा-पाइ ॥

करि अलिंगन गोपिका, पहिरैं अभूषन-चीर ।
गाइ-बच्छ सँवारि ल्याए, भई ग्वारनि भीर ॥

मुदित मंगल सहित लीला करैं गोपी-ग्वाल ।
हरद, अच्छत, दूब, दधि लै, तिलक करैं ब्रजबाल।

एक एक न गनत काहूँ, इक खिलावत गाइ ।
एक हेरी देहिं, गावहिं, एक भेंटहिं धाइ ॥

एक बिरध-किसोर-बालक, एक जोबन जोग ।
कृष्न-जन्म सु प्रेम-सागर, क्रीड़ैं सब ब्रज-लोग ॥

प्रभु मुकुन्द कै हेत नूतन होहिं घोष-बिलास ।
देखि ब्रज की संपदा कौं, फूलै सूरदास ॥

भावार्थ:--बहुत सी सौभाग्यवती सुन्दरी स्त्रियाँ और गोषकुमारियाँ (अहीर कन्याओ )एक-दूसरी के प्यारे पति का नाम ले-लेकर परस्पर गाली गा गा रही हैं ।

(गोकुल के) घर-घर में अतिशय आनन्द हो रहा है। स्थान-स्थान पर नृत्य हो रहा है ।                  पूरा गोकुल नगर ही भेंट ले-लेकर श्रीनन्द जी के द्वार पर उमड़ पड़ा है ।                              आँगन को चंदन से लीपकर आरती सजाकर रखी गयी है ।                                        गोपकुमारियाँ कहती हैं-`यदि ऐसा आनन्द नित्य हुआ करे--' युवतियाँ सात सींकों से सजाकर द्वार पर स्वस्तिक चिह्न बना रही हैं । नवकिशोरियाँ आनन्दित होकर बार-बार श्रीयशोदा जी के पैर पकड़ लेती हैं । गोपिकाओं ने (श्रीयशोदा जी को) आलिंगन करके (उनसे उपहार में मिले) आभूषण तथा वस्त्र पहिन लिये ।

 (दूसरी ओर) गायों तथा बछड़ों को सजाकर ले आये । गोपों की भीड़ एकत्र हो गयी । सभी गोपियाँ और गोप प्रमुदित हैं, अनेक प्रकार की मंगल-क्रीड़ा कर रहे हैं ।
 गोपियाँ एक-दूसरी को हल्दी, अक्षत, दूर्वा और दही लेकर तिलक लगा रही हैं । (आज) कोई किसी की भी परवा नहीं करता है, कोई गायों को खिला रहे हैं, कोई `हेरी-हेरी' कहकर पुकारते हैं, कोई गाते हैं, कोई गाते हैं, कोई दौड़कर दूसरे को भेंट रहे हैं--क्या वृद्ध, क्या युवक, क्या बालक और क्या तरुण, सभी व्रज के लोग श्रीकृष्णजन्म से प्रेम-सागर में ही मग्न क्रीड़ा कर रहे हैं । 

प्रभु मुकुन्द के जन्मोपलक्ष्य में गोपों में होने वाले नये-नये क्रीड़ा कौतुक हो रहे हैं । व्रज की यह सम्पत्ति देखकर सूरदास प्रफुल्लित हो रहे हैं ।
सूरदास- दशम स्कन्ध★— रागविलावल

"अरुन सेत सित सुंदर तारे।                         पीत रंग पीतांबर धारे।।
नाना रंग स्याम गुनकारी। '.                          सूर' स्याम रँग घोषकुमारी।।1912।।


आयो घोष बड़ो व्यापारी  लादि खेप गुन-ज्ञान जोग की, ब्रज में आन उतारी||
 फाटक दैकर हाटक मांगत, भोरै निपट सुधारी धुर ही तें खोटो खायो है, लए फिरत सिर भारी ||
इनके कहे कौन डहकावै ,ऐसी कौन अजानी ।अपनों दूध छाँड़ि को पीवै, खार कूप को पानी ||
ऊधो जाहु सबार यहाँ ते, बेगि गहरु जनि लावौ|
मुंह मांग्यो पैहो सूरज प्रभु, साहुहि आनि दिखावौ ||

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वह गोपियाँ  उद्धव नामक घोष की शुष्क ज्ञान चर्चा को अपने लिए निष्प्रयोज्य बताते हुए उनकी व्यापारिक-सम योजना का विरोध करते हुए कहती हैं ।

घोष शब्द यद्यपि गौश्चर: अथवा गोष: का परवर्ती तद्भव रूप है परन्तु इसे भी संस्कृत में मान्य कर दिया गया ।
और इसकी घुष् धातु से व्युत्पत्ति कर दी गयी ।

--जो पूर्ण रूपेण असंगत व अज्ञानता जनित व्याकरणिक और भाषा विज्ञान के नियम के विरुद्ध ही है ।👇
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घोष: (घोषति शब्दायते इति ।

घोषः, पुंल्लिङ्ग (घोषन्ति शब्दायन्ते गावो यस्मिन् ।
घुषिर् विशब्दने + “हलश्च ।” ३ । ३ । १२१। इति घञ् )
आभीरपल्ली (अहीरों का गाँव) 
अर्थात् जहाँ गायें रम्हाती या आवाज करती हैं 'वह स्थान घोष है । 

👇
'ब्रजभाषा के कवियों ने घोष या अहीर यादवों को ही कहा है ।👇
उदाहरण —प्रात समै हरि को जस गावत
उठि घर घर सब घोषकुमारी।
(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ ) 
संज्ञा पुंल्लिङ्ग [संज्ञा] [ आभीर] १. अहीर । ग्वाल 

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पुराणों में वर्णित हैहय भारत का एक प्राचीन यादव राजवंश था।
जिसमें चेदि सम्राट सहस्रबाहु हुए और उसी परम्परा में दम घोष आदि चेदि नरेश हुए ।

जैसे-
"यदु के चार पुत्र थे "
(I) सहस्त्रजित, (II) क्रोष्टा, (III) नल और (IV) रिपु.
"हैहय-वंश" -
यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के पुत्र का नाम शतजित था। 
और शतजित के तीन पुत्र थे – महाहय, वेणुहय तथा हैहय.

1.सहस्त्रजित से शतजित का जन्म हुआ। 
 और शतजित के भी तीन पुत्र थे-
1.महाहय
2.वेणुहय और
3.हैहय
इन्हीं हैहय से हैहयवंश चला। 
जो वस्तुत यदुवंश ही था।
हैहय के  वंशज  हैहयवंशी यादव  कहलाए।  

हैहय के हजारों पुत्र थे। 
उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे बाकी सब युद्ध करते हुए परशुराम के हाथों मारे गए। 
ऐसा पुराणों में लिखा है ।
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बचे हुए पुत्रों के नाम थे- शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित। 

हैहय का धर्म,धर्म का नेत्र,नेत्र का कुन्ति,कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ। 

भद्रसेन के बाद धनक और कीर्तीकिर्य और अर्जुन 

हैहयपति महाराज भद्रसेन के दो पुत्र थे-
1.दुर्मद और
2.धनक।

धनक के चार पुत्र हुए-
1.कृतवीर्य,
2.कृताग्नि,
3.कृतवर्मा व
4.कृतौजा।
कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था।
जिन्हे हैहयराज क्रतवीर्य अर्जुन के नाम से जाना जाता हैँ। वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट था।उसने भगवान के अंशावतार श्री दत्तात्रेयजी से योगविद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।

इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट यज्ञ,दान,तपस्या,योग, शास्त्रज्ञान,पराक्रम और विजय आदि गुणों में कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।
सहस्त्रबाहु अर्जुन पचासों हज़ार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा।
उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है। उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था।
उसके हज़ारों पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये।

अर्जुन के बचे हुए पुत्रों के नाम थे-
1.जयध्वज
2.शूरसेन
3.वृषभ
4.मधु और
5.ऊर्जित।

अर्जुन के पुत्र जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे 'तालजंघ' नामक क्षत्रिय कहलाये।महर्षि और्व की शक्ति से सुर्यवंशी राजा सगर ने उनका संहार कर डाला। 
उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र था । वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ।
मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यदुनन्दन  पुत्र :–
क्रोष्टु के पुत्र का नाम था  वृजिनवान था । और वृजिनवान का पुत्र  .श्वाहि, श्वाहि का.रूशेकु,रूशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु जो अपने समय का महान धर्मात्मा सम्राट था ।

ये शाशिबंदु परम योगी महान भोगैश्वर्य सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी सम्राट था।
वह चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था । परम यशस्वी शशबिन्दु के दस हज़ार पत्नियाँ थीं। 
उनमें से एक एक के लाख लाख सन्तान हुई थीं। 
इस प्रकार उसके सौ करोड़ एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। 
उनमें पृथुश्रवा आदि छ: पुत्र प्रधान थे। 
.पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था . 
धर्म। और धर्म का पुत्र 
उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। 
उशना का पुत्र हुआ . 
रूचक और रूचक के पाँच पुत्र हुए उनके नाम क्रमश: थे-

1.पुरूजित, 2.रूक्म, 3.रूक्मेषु, 4.पृथु और 5.ज्यामघ।
__________
.ज्यामघ :- 
ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान हुई। परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। 
एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्य नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली कपटी मेरी बैठने की जगह पर आज किसे बैठा कर लिये आ रहे हो ज्यामघ ने कहायह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।शैब्या ने मुस्कुराकर अपने पति से कहा। मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है।ज्यामघ ने कहा रानी तुम को जो पुत्र होगा उसकी यह पत्नी बनेगी। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया।फिर क्या था समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भराज।उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।
________   
पुराणों में यह वर्णित ही है कि हैहय वंश में राजा दमघोष हुए ।
महिष्मती जो इन्द्र पुर( इन्दौर )के पास  थी मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर स्थित महेश्वर नगर और उसके आस पास के क्षेत्र तक फ़ैली थी  जो हैहय वंश के राजा महिष्मत ने बसाई।

22.विदर्भ :-विदर्भ के कश, क्रथ  और रोमपाद नामक  तीन पुत्र  थे।  
विदर्भ के तीसरे वंशज  रोमपाद के  पुत्र का नाम था  बभ्रु -बभ्रु के कृति, कृति के  उशिक और उशिक के  चेदि नामक पुत्र हुआ।
चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। 
इसी चेदिवंश में दमघोष  उत्पन्न हुए।

भागवत पुराण में राजा दम घोष के पूर्वजों का वर्णन है
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 ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८ ॥
 वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
 यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९ ॥

 यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः।
 यदोःसहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः॥ २०॥

 चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मजः ।
 महाहयो रेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः ॥ २१ ॥

 धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
 सोहञ्जिरभवत् कुन्तेः महिष्मान् भद्रसेनकः ॥ २२॥

 दुर्मदो भद्रसेनस्य धनकः कृतवीर्यसूः ।
 कृताग्निः कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजाः ॥२३॥

 अर्जुनः कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत् ।
 दत्तात्रेयात् हरेरंशात् प्राप्तयोगमहागुणः ॥ २४ ॥

 न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवाः ।
 यज्ञदानतपोयोग श्रुतवीर्यदयादिभिः ॥ २५ ॥

 पञ्चाशीति सहस्राणि ह्यव्याहतबलः समाः ।
 अनष्टवित्तस्मरणो बुभुजेऽक्षय्यषड्वसु ॥ २६ ॥

 तस्य पुत्रसहस्रेषु पञ्चैवोर्वरिता मृधे ।
 जयध्वजः शूरसेनो वृषभो मधुरूर्जितः ॥ २७ ॥

 जयध्वजात् तालजंघ तस्य पुत्रशतं त्वभूत् ।
 क्षत्रं यत् तालजंघाख्यं और्वतेजोपसंहृतम् ।२८॥

 तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णिः पुत्रो मधोः स्मृतः।
 तस्य पुत्रशतं त्वासीत् वृष्णिज्येष्ठं यतः कुलम्॥ २९ ॥

 माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः ।
 यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः ॥ ३० ॥

 स्वाहितोऽतो रुशेकुर्वै तस्य चित्ररथस्ततः ।
 शशबिन्दुर्महायोगी महाभागो महानभूत् ॥ ३१ ॥

 चतुर्दशमहारत्‍नः चक्रवर्ति अपराजितः ।
 तस्य पत्‍नीसहस्राणां दशानां सुमहायशाः ॥ ३२ ॥

 दशलक्षसहस्राणि पुत्राणां तास्वजीजनत् ।
 तेषां तु षट्प्रधानानां पृथुश्रवस आत्मजः ॥ ३३ ॥

 धर्मो नामोशना तस्य हयमेधशतस्य याट् ।
 तत्सुतो रुचकस्तस्य पञ्चासन्नात्मजाः श्रृणु।३४।

 पुरुजित् रुक्म रुक्मेषु पृथु ज्यामघ संज्ञिताः ।
 ज्यामघस्त्वप्रजोऽप्यन्यां भार्यां शैब्यापतिर्भयात् ॥ ३५ ॥

 नाविन्दत् शत्रुभवनाद् भोज्यां कन्यामहारषीत् ।
 रथस्थां तां निरीक्ष्याह शैब्या पतिममर्षिता।३६॥

 केयं कुहक मत्स्थानं रथमारोपितेति वै ।
 स्नुषा तवेत्यभिहिते स्मयन्ती पतिमब्रवीत्।३७॥

 अहं बन्ध्यासपत्‍नी च स्नुषा मे युज्यते कथम् ।
 जनयिष्यसि यं राज्ञि तस्येयमुपयुज्यते ॥३८॥

 अन्वमोदन्त तद्विश्वे देवाः पितर एव च ।
 शैब्या गर्भं अधात्काले कुमारं सुषुवे शुभम् ।
 स विदर्भ इति प्रोक्त उपयेमे स्नुषां सतीम् ॥३९ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः।२३॥
 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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अनुवाद और अर्थ:-
ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ। परीक्षित! महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। 
जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा। इस वंश में स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के-से रूप में अवतार लिया था।
यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु। 
सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ।
शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय।
हैहय का पुत्र धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।
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नवम स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-

भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। 
वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। 
इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा। 
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सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था। 
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उसके हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम जी की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये। 
बचे हुए पुत्रों के नाम थे- जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।
जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’ नामक यादव-क्षत्रिय कहलाये।

महर्षि और्व की शक्ति से राजा सगर ने उन तालजंघ यादवों का संहार कर डाला। 
उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र थे।
 उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि। परीक्षित! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह  शशिबिन्दु परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती सम्राट् और युद्ध में अजेय था।
परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। 
उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। 
उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम भी सुनो।
पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। 
ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी ! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो ?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’
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शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी ! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। 
फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। 
उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।

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                  श्रीशुक उवाच
तस्यां विदर्भोऽजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ
तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम् ।१।

रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोः कृतिरजायत
उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृपाः ।२।

क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्वृष्णिस्तस्याथ निर्वृतिः
ततो दशार्हो नाम्नाभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः ।३।

जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः
ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः ।४।

करम्भिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः
देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः ।५।

पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः
भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः ।६।

सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष
भजमानस्य निम्लोचिः किङ्कणो धृष्टिरेव च ।७।

एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः
शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो ।८।

बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठन्त्यमू
यथैव शृणुमो दूरात्सम्पश्यामस्तथान्तिकात् ।९।

बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः
पुरुषाः पञ्चषष्टिश्च षट्सहस्राणि चाष्ट च ।१०।

येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि
महाभोजोऽतिधर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये ।११।

वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परन्तप
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निघ्नोऽभूदनमित्रतः ।१२।

सत्राजितः प्रसेनश्च निघ्नस्याथासतुः सुतौ
अनमित्रसुतो योऽन्यः शिनिस्तस्य च सत्यकः।१३।

युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः
युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः ।१४।

श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः
अक्रूरप्रमुखा आसन्पुत्रा द्वादश विश्रुताः ।१५।

आसङ्गः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्गिरिः
धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः ।१६।

शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश
तेषां स्वसा सुचाराख्या द्वावक्रूरसुतावपि ।१७।

देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः
पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः ।१८।

कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः
कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः ।१९।

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ।२०।  

             (अरिद्योतः पाठभेदः)
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः ।२१।

देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप ।२२।

शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः ।२३।

_____________________   
कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथाराष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः।२४।

कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ।२५।

शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः
शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः ।२६।

देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ।२७।

तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ।२८।

सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम्
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि ।२९।

वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः ।३०।

राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः
कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात् ।३१।

शाप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात्
तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिः ।३२।

तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा
प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे ।३३।

अमोघं देवसन्दर्शमादधे त्वयि चात्मजम्
योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे ।३४।

इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः
सद्यः कुमारः सञ्जज्ञे द्वितीय इव भास्करः ।३५।

तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती
प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः ।३६।

श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्
यस्यामभूद्दन्तवक्र ऋषिशप्तो दितेः सुतः ।३७।

कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविन्दत
सन्तर्दनादयस्तस्यां पञ्चासन्कैकयाः सुताः ।३८।

राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह
दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत् ।३९।

शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य सम्भवः
देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद्बलौ ।४०।

कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा
बकः कङ्कात्तु कङ्कायां सत्यजित्पुरुजित्तथा ।४१।

सृञ्जयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्
हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः ।४२।

मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन्वत्सकस्तथा
तक्षपुष्करशालादीन्दुर्वाक्ष्यां वृक आदधे ।४३।

सुमित्रार्जुनपालादीन्समीकात्तु सुदामनी
आनकः कर्णिकायां वै ऋतधामाजयावपि ।४४।

पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला
देवकीप्रमुखाश्चासन्पत्न्य आनकदुन्दुभेः ।४५।

__________    

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः इति नवमः स्कन्धः समाप्तः

नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद:-

विदर्भ के वंश का वर्णन :- श्रीशुकदेव जी कहते हैं-  राजन्प रीक्षित ! राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद। 
रोमपाद यादवों के विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए हैं। इन्हीं रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि हुए। 
राजन! इन्हीं चेदि के वंश में ही दमघोष और शिशुपाल आदि हुए।
क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम। व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ। दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए। 
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सात्वत- 
अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ। परीक्षित ! सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य,( द्वितीय वृष्णि) , देवावृध, अन्धक और महाभोज।
भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि।
_________    
दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित। देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं।
बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं।’
______________    
सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए।
परीक्षित! वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के शिनि और अनमित्र-ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ। सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे। 

अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम (तृतीयवृष्णि) था। 
वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। 
उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु। 

इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव।
श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।
_______________________________________
सात्वत के पुत्र अन्धक नामक पुत्र के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। 
उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का( द्वितीय अनु) हुआ। तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। 
अनु का पुत्र  (द्वितीय अन्धक), अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। 
आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन।

देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन।
इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।

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नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद

सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।

आनकदुन्दुभि वसुदेव जी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं।
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यादव योगेश कुमार रोहि" घोषी समाज उत्तर प्रदेश  से-
"वैदिक कालीन गोष: ही लौकिक संस्कृत में घोष: रूप में उद्भाषित हुआ है।
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हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां
 मार्गशाखिनाम् ॥१-४५॥
अहीरों का इतिहास- आभीर घोष समाज से ...
राजा दमघोष और घोषी आभीर-
"श्रीकृष्ण  राजा दम  घोष से कहते हैं समस्त राजाओं में आप ही यादवों में प्रथम बन्धु हैं;  जिन्हें  हम बहुत से संग्रामों में और भी देंखेगे ।।93। 
अतएव घोष समाज यादवों का ही अंग हैं ।
यदूनां प्रथमो बन्धुस्त्वं हि सर्व महीक्षिताम् ।
अत: प्रभृति संग्रामान् द्रक्ष्यसे चेदिसत्तम।।93। 
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व)
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संस्कृत के महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग के (४५)वें श्लोक में अहीरों को  ही घोष कहा है 
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"हैयंगवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् । नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम्।।१/४५।।
अनुवाद:-
 नवनीत लेेेकर उन उपस्थित वयोवृद्ध घोषों  (आभीरों) से राजा मार्ग वन और विविध वृक्षों के विषय  में पूछते हुए आगे बढ़ता है ।४५।
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हैयङ्गवीन= एक दिन पहले के दूध के मक्खन से बनाया हुआ ताजा घी होता है (मक्खन)
पूर्व में उनका मूल नाम केवल  दम: था ; 
क्यों कि उनके पिता ने इच्छा प्रकट की कि पुत्र शत्रुओं का दमन करने वाला हो !
हैयङ्गवीनमिति =ह्यस्तनगोदोहोद्भवं घृतं हैयङ्गवीनम् – ह्यः पूर्वेद्युर्भवम्  तत्तु हैयङ्गवीनं यद्ध्यो गोदोहोद्भवं घृतम् इत्यमरः ।
हैयङ्गवीनं संज्ञायाम् इति निपातः ।
 तत् सद्योघृतमादाय उपस्थितान् घोषवृद्धान्, आभीरवृद्धान् ( घोष: आभीर:)
 वन्यानां मार्गशाखिनां नामधेयानि पृच्छन्तौ । 
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श्रुतं श्रवो यशोऽस्य इति श्रुतश्रवसः    शिशुपालपितरि दमघोष: इतर नाम निर्वर्त्यतेऽरिः क्रियया स श्रुतश्रवसः सुतः” इति (माघःकवि)।
_____________________________________________
जब यह घोष शब्द किसी वंश का सूचक पहले कभी नहीं था ; तब  कालान्तरण  में हमारे दादा दमघोष भी हुए पूर्व में उनका मूल नाम केवल  दम: था ;  क्यों कि उनके पिता ने इच्छा प्रकट की कि पुत्र शत्रुओं का दमन करने वाला हो !
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जब यह घोष शब्द किसी वंश का सूचक पहले कभी नहीं था ; तब  कालान्तरण में हमारे दादा दमघोष भी हुए बाद में हैहयवंश के यादव होने के कारण उनके नाम के साथ परम्परागत गत रूप से आयात "गोपालन वृत्ति मूलक गोष: शब्द सम्पृक्त हो गया जो लौकिक संस्कृत में घोष: रूप में विकसित हुआ "
गोपालन करने के कारण ही वृत्ति मूलक विशेषण के रूप में यादवों को गोप अथवा घोष: कहते हैं ।
दादा जी का दूसरा लोक- प्रसिद्ध नाम हुआ -
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"श्रुतश्रवस्"
श्रुतं श्रवो यशोऽस्य श्रुतश्रवस् शिशुपालपितरि “निर्वर्त्यतेऽरिः क्रियया स श्रुतश्रवसः सुतः” इति माघः ।
और श्रुतश्रवा दमघोष की पत्नी का नाम भी था श्रुतश्रवस् श्रुतश्रवा का पुल्लिंग रूप है।
क्यों की लोक- में उनका यश: सबके द्वारा सुना गया था ।

सहस्रबाहु जो हैहय वंश के यादव सम्राट थे उन्होंने भी पूर्वजों से आगत गोपालन वृत्ति को श्रद्धान्वित होकर किया ।

सोमवंशसमुत्पन्नो ययातिर्नाम पार्थिवः ।।
तस्यापि( संहतः ) पुत्रो बभूव पृथिवीपतिः ।। ८ ।।

सहस्रजित्सुतस्तस्य नभजित्तस्य चात्मजः।
तस्यापि हैहयः पुत्रः कुन्तिस्तस्यापि चात्मजः।९ ।

तस्यापि संहतः पुत्रो महिष्मांऽस्तस्य चात्मजः ।।
माहिष्मती कृता येन नगरी सुमनोहरा ।। 1.23.१० ।।

भद्रश्रेण्यः सुतस्तस्य दुर्मदस्तस्य चात्मजः।
कनकस्तत्सुतो राजा कृतवीर्यस्तदात्मजः।१ १।।

अर्जुनस्तनयस्तस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत्।।
दत्तात्रेयोऽथ भगवान्विष्णुरूपानुरूपधृक्।।१२।।

__       (पशुपाल सहस्र बाहु)
___________
देशाननुचरन्योगात्सदा पश्यति तस्करान्।।
स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव च।१८।

स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोऽभवत् ।।
स तु बाहुसहस्रेण ज्याघातकठिनत्वचा ।। १९ ।।

भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनेव भास्करः ।।
राक्षसा निर्जितास्तेन तेन बद्धश्च रावणः ।। 1.23.२० 

जित्वा भोगवती तेन कर्कोटकसुता हृता ।।
तस्य बाहुसहस्रेण क्षोभ्यमाणे महोदधौ ।।
भवन्ति लीना निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः ।। २१ ।।

मन्दरक्षोभचकिता अमृतोत्पादशङ्किताः ।।
नतनिश्चलमूर्धानो भवन्ति च महोरगाः ।। २२ ।।

दशयज्ञसहस्राणि तेनेष्टानि महीक्षिता ।।
द्वीपे द्वीपे महाराज धर्मज्ञेन महात्मना ।। २३ ।।

सर्वे यज्ञा महाराज तस्यासन्भूरिदक्षिणाः।
सर्वे काञ्चनवेदीकाः सर्वे यूपैश्च काञ्चनैः।२४।।

द्विजानां परिवेष्टारस्तस्य यज्ञेषु देवताः ।।
स्वयमासन्महाराज स्वयं भागहरास्तथा ।२५।।

तस्य यज्ञे जगौ गाथा नारदस्सुमहत्तपाः ।।
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवाः।२६ ।।

यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा विक्रमेण श्रुतेन वा ।। २७ ।।
___________________________________
पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स महीपतिः ।।
सप्तद्वीपेश्वरः सम्राट् चक्रवर्त्ती बभूव ह ।।२८।।

तस्य राज्ञस्तु वसुधा बहुपार्थिवसङ्कुला ।।
भाराक्रान्ता विलुलिता बभूव पृथिवीपते।।२९।।

तस्य राज्ञो गतातङ्कैर्बहुपुत्रैर्नरोत्तम ।।
तेजोयुक्तैः समाकीर्णा वसुधा वसुधाधिप ।। 1.23.३० ।।

बहुनागाश्वसंकीर्णा बहुगोकुलसङ्कुला ।।
न शक्ता नृपते सोढुं तेजस्तदतिमानुषम् ।। ३१ ।।

ज्वालावलिवपुः श्रान्ता खिन्ना नाकमुपागता।३२।।
एवं प्रभावे नरदेवनाथे पृथ्वीं समग्रां परिपाल्यमाने।
भारेण सन्ना पृथिवी जगाम महेन्द्रलोकं मुनिदेवजुष्टम् ।३३।
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देखें- श्रीविष्णुधर्मोत्तरे प्रथमखण्डे मार्कण्डेयवज्रसंवादेऽर्जुनोपाख्यानं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।। २३ ।।

रावण को विजित करने वाला भी सहस्र बाहु था !

भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनेव भास्करः ।।
राक्षसा निर्जितास्तेन तेन बद्धश्च रावणः ।1.23.२० ।
इति श्रीविष्णुधर्मोत्तरे प्रथमखण्डे मार्कण्डेयवज्रसंवादेऽर्जुनोपाख्यानं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।। २३ ।।

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अन्य पुराणों ब्रह्म पुराण आदि में भी वर्णन है।
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इसी ब्रह्म पुराण में आगे वर्णन है कि यदु के पाँच पुत्र हुए !
1-सहस्राद 2-पयोद 3- क्रोष्टा 4-नील और 5-अञ्जिक सहस्राद के तीन पुत्र हुए 'हैहय' 'हय' और वेणुहय और इसी हैहय वंश में कृतवीर्य का पुत्र सहस्रार्जुन हुआ •👇
प्रचेतसः सुचेतास्तु कीर्त्तितास्तुर्वसोर्मया।
बभूवुस्ते यदोः पुत्राः पञ्च देवसुतोपमाः॥ १३.१५३ ॥

सहस्रादः पयोदश्च क्रोष्टा नीलोऽञ्जिकस्तथा।
सहस्रादस्य दायादास्त्रयःपरमधार्म्मिकाः।१३/१५४

हैहयस्च हयश्चैव राजा वेणुहयस्तथा।
हैहयस्याभवत् पुत्रो धर्म्मनेत्र इति श्रुतः॥ १३.१५५

धर्म्मनेत्रस्य कार्त्तस्तु साहञ्जस्तस्य चात्मजः।
साहञ्जनी नाम पुरी तेन राज्ञा निवेशिताः॥ १३.१५६ ॥

आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।
भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम विश्रुतः॥१३.१५७॥

दुर्दमस्य सुतो धीमान्कनको नाम नामतः।
कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः॥१३.१५८॥

कुतवीर्य्यः कृतौजाश्च कृतधन्वा तथैव च।
कृताग्निस्तु चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यादथार्ज्जुनः।१३.१५९॥

योऽसौ बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेस्वरोऽभवत्।
जिगाय पृथिवीमेको रथेनादित्यवर्च्चसा॥ १३.१६० ॥

स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः पमदुश्चरम्।
दत्तमाराधयामास कार्त्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्॥ १३.१६१ ॥

तस्मै दत्तो वरन् प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः।
पूर्व्वं बाहुसहस्रं तु प्रार्थितं सु महद्वरम्॥१३.१६२॥

अधर्म्मोऽधीयमानस्य सद्भिस्तत्र निवारणम्।
उग्रेण पृथिवीं जित्वा धर्म्मेणैवानुरञ्जनम्॥ १३.१६३ ॥

संग्रामात् सुबहून् जित्वा हत्वा चारीन् सहस्रशः।
संग्रामे वर्त्तमानस्य वधं चाभ्यधिकाद्रणे॥१३.१६४॥

तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल भो द्विजाः।
योगाद्योगीश्वरस्येव प्रादुर्भवति मायया॥१३.१६५॥

तनेयं पृथिवी सर्र्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।
ससमुद्रा सनगरा उग्रेण विधिना जिता॥ १३.१६६ 

___________________   
बाद में  हैहय-वंश के यादव होने के कारण उनके नाम के पश्चात् घोष विशेषण भी संपृक्त हो गया 
तब नाम हुआ दम घोष !
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घोष शब्द वैदिक काल से गोपों का विशेषण या पर्याय रहा है।
पुराणों में कृष्ण और बलराम आदि को भी घोष कहा गया है ।
गर्ग संहिता में कृष्ण को घोष कहा है  ।
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रथारुढस्ततोऽक्रूरः क्षणान्नन्दपुरं गतः।          घोषेषु सबलं कृष्णमागच्छंतं ददर्श ह ॥१०॥
 (गर्ग संहिता -मथुरा खण्ड -तृतीय अध्याय)
अनुवाद:-
रथ पर सवार अक्रूर  उसके बाद नन्द गाँव गये कुछ क्षणों में ही उन्होंने घोषों में बलवान कृष्ण को आते हुए देखा !
सबल पद के साथ कृष्ण या प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ बल (बलभद्र) के साथ कृष्ण अर्थ हो सकता था परन्तु क्रिया पद आगच्छतं=आते हुए को । एक वचन रूप में शतृ प्रत्ययान्त है ।

घोषयोषिदनुगीतवैभवं कोमलस्वरितवेणुनिःस्वनम्।
सारभूतमभिरामसंपदां धाम तामरसलोचनं भजे॥११॥
उपरोक्त श्लोक में घोष युवतियों का वर्णन किया है|

इति श्रीगर्गसंहितायां (हय )अश्वमेधखण्डे
रासक्रीडायां पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४५॥

शैलानां भूषणं घोषो घोषाणां भूषणं वनम् ।
वनानां भूषणं गावस्ताश्चास्माकं परा गतिः।१७।।

श्लेष युक्त - शैलों का भूषण घोष(गायों का गोष्ठ और गोप है ) और घोषों का श्रृंगार वन हैं ।और वन की भूषण गायें वे गायें ही हम लोगों की परम गति हैं ।१७। 

हरिवंश पुराण  विष्णु पर्व के अष्टम अध्याय का 17वाँ श्लोक-

और ये गोप वंशगत रूप से यादव
 ( यदोर्गोत्रापत्यमण्   इति यादव:) 
अर्थात्‌ यदु के वंशज यादव हैं।

और इनकी वीरता ने इन्हें अभीर बना दिया ।
और यह आभीर शब्द भी वीर शब्द से 
विकसित होता है ।
दादा जी का दूसरा लोक- प्रसिद्ध नाम हुआ "श्रुतश्रवस्"
क्यों लोक- में उनका यश: सबको द्वारा सुना गया था ।
वैदिक शब्द कोश में  श्रवस् शब्द का अर्थ  धनम्  इति निघण्टुः ।२। १०॥
और भागवत पुराण में  यशः भी किया गया है । यथा भागवते । ४ । १७ । ६ 
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ऋग्वेद में यदु और तुर्वशु को प्राचीनत्तम विश्व का सबसे बडा गोप कहा :- जो करोड़ो गायों से घिरे हुए हैं ।👇
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"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा । यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(ऋ०10/62/10)
अनुवाद:-
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/) 
विशेष:-  व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में "दासा" शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है।
क्योंकि वैदिक भाषा(छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों  से घिरा हुआ
यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप -
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय  बहुवचन रूप अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं
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गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है।

वैदिक काल में ही यदु को "दास" सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की कुत्सित चेष्टा की।
और वैदिक सन्दर्भ में " दास " का अर्थ असुर अथवा देव संस्कृति का विद्रोही ही है ।
सेवक या भक्त नहीं जैसा कि आधुनिक समय में हुआ है 

कदाचित् ब्राह्मणों को ये जन-श्रुतियाँ पश्चिमीय एशिया के मिथकों से प्राप्त हुईं !

क्यों कि कनानी संस्कृतियों तथा फोएनशियन सैमेटिक संस्कृतियों में यहुदह् (Yahuda)
 का वर्णन इसी प्रकार हुआ है ।

--जो यहूदियों का आदि पुरुष यदु: है ।
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये उपर्युक्त ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।

ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
प्रशंसात्मक रूप में कभी नहीं हुआ 
एक दो ऋचाओं में बाद में यदुवंशीयों के वर्चस्व को जान कर यदु और तुरवसु की प्रशंसात्मक कर दी गयी है ।

दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाहे" शब्द के रूप में विकसित है ।
:-जो  एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है। 
---जो वर्तमान में दाहिस्तान "Dagestan" को आबाद करने वाले हैं।

दाहिस्तान( Dagestan) वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
तुर्को के आदि-पूर्वज तुर्वशु थे।

विदित हो कि यहूदी प्राचीन पश्चिमीय एशिया में कनान ,फलिस्तीन, सीरिया, अराम आदि देशों के ये सबसे बड़े चरावाहे थे। 
और चरावाहे आर्य्य ही थे जिसमें अबीर, बीर, अवर ,अफर, आयबेरिया, आभीर ,वीर नाम ध्वनित हैं ।

पश्चिमीय एशिया के इतिहास कारों ने यहूदियों के रूप में "गुजर" जन-जाति का भी उल्लेख किया है।
सैमेटिक तथा सुमेरियन संस्कृति में "गु" गाय को ही कहा गया है ।

इसी से पश्चिमी एशिया में  गोर्सी, गोर्जी तथा वैदिक रूप गोषन् लौकिक घोष: आदि रूप विकसित हुए ।

"गा चारयति इति गौश्चर: जश्त्व सन्धि विधान से गौश्चर से गुर्जर शब्द विकसित हुआ ।

अब ये लोग भारत में यादवों के रूप में थे ।
ऐसा अनेक विद्वान लिखते हैं।

पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने यहुदह् "Yahuda" को यदु: से एकरूपता स्थापित की ।

और यह घोष शब्द किसी वंश का सूचक पहले कभी नहीं था केवल गोप का वाचक था ।
हाँ यह घोष यादवों की गोपालन वृत्ति मूलक उपाधि या विशेषण अवश्य था।

वैदिक काल में ई०पू० सप्तम् सदी में यह गोष:( गौषन् ) के रूप में था ।
और घोष रूप ई०पू० पञ्चम् सदी में हो गया था।
यादवों ने वर्ण व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं किया 
यह वैदिक ऋचाओं में प्रतिध्वनित ही है ।
यद्यपि यादवों की निर्भीक यौद्धा प्रवृत्ति के कारण ईसा० पूर्व द्वितीय सदी के ग्रन्थों में ( आ-समन्तात् भियं-भयं रीति ददाति इति आभीर ...
आभीरः, पुं, (आ समन्तात् भियं राति । रा दाने आत इति कः ।) गोपः । इत्यमरः ॥ आहिर इति भाषा ।

अमरकोशः
आभीर पुं। 
गोपालः 
समानार्थक:गोप,गोपाल,गोसङ्ख्य,गोधुक्,आभीर,वल्लव,गोविन्द,गोप , गौश्चर, गोषन्, घोष: ।
2।9।57।2।5 

"कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥ 

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जैसे राजा के पुत्र होने से हम राजपुत्र तो हो सकते हैं 
और राजकुमार ही राजा की वैध सन्तानें मानी जाती थीं 
यदु का वंश सदीयों से पश्चिमी एशिया में शासन करता रहा 'परन्तु भारतीय पुरोहितों ने भले ही यदु को क्षत्रिय वर्ण में समाहित 'न किया हो तो भी हम स्वयं को राजा यदु की सन्तति मानने के कारण से राजपुत्र या राजकुमार मानते हैं।
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'परन्तु बात राजपूत समाज की बात आती है तो हम राजपूत इस लिए नहीं बन सकते क्यों कि राजपूत शब्द ही पञ्चम- षष्ठम सदी की पैदाइश है ।
और यह शब्द राजपुत्र या राजकुमार की अपेक्षा हेय है ।
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राजपूत को पुराणों में करणी जाति की कन्या से उत्पन्न राजा की अवैध सन्तान माना गया है ।

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिनकी स्‍मृति में राजपूतों ने करणी सेना का गठन कर लिया है ।
करणी एक चारण कन्या थी 
और चारण और भाट जनजातियाँ ही बहुतायत से राजपूत हो गये हैं ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
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शूद्रायां क्षत्रियादुभ: क्रूरकर्मो प्रजायते ।
शास्त्रविद्यासु कुशल संग्रामे कुशलो भवेत् ।
तथा वृत्या सजीवैद्य शूद्र धर्मां प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद : ।
हिन्दी अनुवाद:-👇
क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है ।
यह भयानक शस्त्र-विद्या और रण में चतुर और शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र-वृत्ति से अपनी जीविका चलाने वाला होता है ।
(सह्याद्रि खण्ड स्कन्द पुराण अध्याय- 26 )
 दूसरे ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार वर्णन है।👇

 ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः 1 -(ब्रह्मखण्डः)
 (अध्यायः 10  श्लोक 111
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10/111
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति भी है ।
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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हम घोष 'लोग' यादव हैं अहीर है गोपाल है  वीर हैं 
शत्रु का दमन करने वाला होने से हमारे दादा का मूल नाम दम था ;और घोष वे इसलिए कहलाए क्यों कि 
वे गोपालक थे और वंशमूलक रूप में यादव थे । 

हाँ यह घोष शब्द सनातन काल से यादवों की गोपालन वृत्ति मूलक उपाधि या विशेषण अवश्य था।
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वैदिक काल में ई०पू० सप्तम् सदी में यह गोष:( गौषन् ) के रूप में था ।
और घोष रूप में तो यह ई०पू० पञ्चम् सदी में हो गया था ।

क्यों कि हैहय वंशी यादव राजा दमघोष से पहले भी घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है ।

इस विषय में वेद प्रमाण हैं; उसमे भी ऋग्वेद और उसमें भी इसके लिए चतुर्थ और षष्ठम मण्डल महत्वपूर्ण श्रोत हैं।

मध्यप्रदेश में "घोष" यद्यपि यादवों का प्राचीनत्तम विशेषण है।
जो गोपालन की प्राचीन वृत्ति ( व्यवसाय) से सम्बद्ध है

परन्तु आज ये लोग दुर्भाग्य संस्कृत भाषा को न जानने के कारण अपने प्राचीनत्तम इतिहास को भी भूल गये हैं।
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घोषी यदुवंशी अहीरों का एक प्रसिद्ध और स्वतंत्र खानदान(शाखा)है जिनका ठिकाना मुख्यतः पश्चिमी यूपी का ब्रज क्षेत्र, मध्यप्रदेश, अफ़ग़ानिस्तान, पंजाब, सिंध है।
घोषी यादवों में लगभग 225 से ज़्यादा गोत्र आते हैं।

घोषी अहीरों की ब्रज क्षेत्र में कई ज़मीदारी और रियासतें 
रही हैं।
'घोषी' शब्द की उत्पत्ति पर विस्तृत रूप से प्रकाशन हो चुका है।
यदुवंशियों के प्रसिद्ध चेदि राजवंश के महाराजा  दमघोष भगवान कृष्ण के बुआ के पुत्र  युवराज शिशुपाल के पिता थे।

चेदि जनपद आज के बुंदेलखंड के इलाके को कहा जाता था।

घोषी अहीरों को ठाकुर, संवाई आदि की भी पदवी है और ये "घोषी ठाकुर" नाम से प्रसिद्ध हैं।

ब्रज के घोषी अहीरों की परम्परा है ;
घोषी यादवों ने अपनी क्षत्रिय परम्परा आज भी बरकरार रखी है एवं इनकी  विवाह कार्यक्रमों मे गौड़ ब्राह्मण फेरों की रस्म सम्पन्न करवाते है।

घोषियों मे खाप प्रथा व वंशानुगत चौधरी प्रथा का भी प्रचलन है, यदि किसी चौधरी का कोई वैध उत्तराधिकारी नही होता है तो उसके मरणोपतरान्त  उसकी विधवा किसी दत्तक पुत्र को उसका वंशज घोषित करती है, 

दत्तक पुत्र न चुने जाने की स्थिति मे पंचों द्वारा योग्य उत्तराधिकारी का चयन होता है। 
यह यहूदियों में भी विद्यमान थी।

मध्य प्रदेश में  घोसी अहीरों के गोत्र-
चंदेल गोत्र, मेहर गोत्र , पोहिया गोत्र, भृगुदेव गोत्र, रोहिणी गोत्र( बलराम जी के वंशज), गुरेलवंशी अही,
पंवार गोत्र, गढवाल गोत्र, राधेय गोत्र(राधारानी के वंशज),
अत्रि गोत्र, नागवंशी गोत्र, अत्रेय, पंवार गोत्र, सिकेरा गोत्र,
बाबरिया गोत्र (पांडू पुत्र अर्जुन के प्रपौत्र राजा जनमेजय के वंशज), रौंधेला गोत्र, सौंधेले, हवेलिया,
वितिहोत्र गोत्र ( सम्राट सहस्त्रार्जुन के वंशज), प्रद्यौत गोत्र,  बिलौन गोत्र, वेद, फाटक गोत्र (मथुरा नरेश ) आदि प्रसिद्ध हैं ।

 यदुवंशी अहीर राजा दिगपाल के वंशज जिन्होंने (शिकोहाबाद जिला फीरोजाबाद उत्तर प्रदेश) में सम्मोहन चौरासी जागीर स्थापित करी थी।), 
धूमर आदि 200 से ज्यादा गोत्र पाए जाते हैं घोषियों में।
लेकिन मध्यप्रदेश के घोषी अब यादव संघ से दूर होने लगे हैं एवं इसका मुख्य कारण है।
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भारत के  यादव समाज के संगठनों द्वारा मध्यप्रदेश के घोषी अहीर भाईयों की उपेक्षा ।

ऐसे ही राजस्थान के जोधपुर के आसपास कई चंद्रवंशी घोषी अहीरों के ठिकाने आबाद थे लेकिन अब ये अग्निवंशी चौहानों और राठौड़ों में सम्मिलित हो गए हैं।
अहीर एक शुद्ध आर्य चंद्रवंशी क्षत्रिय नस्ल है ।
चौहान गुर्जरों का गौत्र था ।

लेकिन लगता है राजनीति के चक्कर में ये नेता दुसरी बिरादरी के लोगों को हमसे जोड़ हमारी शुद्ध आर्य क्षत्रिय नस्ल को बरबाद करके ही मानेंगे।

यद्यपि गूजर और जाटों जैसे संघों में भी हमारे घोसी 'लोग' समायोजित हैं ।
जो अब अपने को गुर्जर या जाट लिखते हैं ।
घोष शब्द गोसेवा से सम्बद्ध है ।

इन्हें नहीं पता कि गोषन्(गोष:) शब्दः ही
पौराणिक काल में  "घोष " बन गया जबकि वैदिक सन्दर्भों में यह गोष: ही है ।

दर-असल उसमें इनका भी कोई दोष नहीं है 
क्यों कि
कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी काल में अपने उसी मूल यथावत्-रूप में नहीं रह पाता है।

परिवर्तन का यह सिद्धान्त संसार की प्रत्येक वस्तु पर लागू है ।

जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है।

नि:सन्देह वह इसका मूल रूप नहीं होता ।
वह बहुतायत बदला हुआ रूप होता है

क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, 
श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है।
और अल्पज्ञता ही है ।

और इस परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया भी स्वाभाविक ही है ।
देखो ! जैसे👇

आप नवीन वस्त्र और उसीका अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप ! चीथड़ा हो जाता है जानते हो ।
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घोष: शब्द के जिस रूप को लोगों ने सुना तो उन्होनें 
(घुष् ध्वनौ धातु की कल्पना कर डाली )

और अर्थ कर दिया कि --जो  गायें को आवाज देकर बुलाता है 'वह घोष है।

परन्तु -जब घोष शब्द ही अपने इस मूल रूप में नहीं है- तो यह व्युत्पत्ति भी अभाषा-वैज्ञानिक ही है ।

परन्तु घोष शब्द मूलत: गोष: है  --जो ऋग्वेद में  गोष:गोषन् और बहुवचन गोषा रूप में गोपालकों का ही वाचक है ।
देखें--नीचे ऋग्वेद के उद्धरण👇

गोष: (गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु)
अर्थात्‌ --जो गाय की सेवा करता है ।

गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सिद्धान्त कौमुदीय धृता श्रुतिः 👇 
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(ऋग्वेद मण्डल:6 सूक्त:33 ऋचा 5 ) 
अन्वय -हे (इन्द्र) !  (नः) =हम लोगों के (मृळीकः) सुखकारक (भवा) बनिए  और (उत) भी (अपराय) अन्य के लिये (नूनम्) निश्चय कर सुखकारक (स्याः) होइए- और (नः) हम लोगों के (अभिष्टौ) अपेक्षितौं (च) भी प्रवृत्त हूजिये (इत्था) इस कारण से (गृणन्तः) स्तुति करते हुए (गोषतमाः) गायों को अत्यन्त सेवनेवाले हम लोग (महिनस्य) बड़े आप के (पार्ये) पूर्ण करने के लिए  (दिवि) स्वर्ग  के  (शर्मन्) गृह में (स्याम) होवें ॥५॥
(ऋग्वेद ६ । ३३ । ५ । )

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देवता: इन्द्र: ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
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"प्र ते॑ ब॒भ्रू वि॑चक्षण॒ शंसा॑मि गोषणो नपात्। माभ्यां॒ गा अनु॑ शिश्रथः ॥२२॥

ऋग्वेद - मण्डल:-4 सूक्त:-32 ऋचा:22 |

अन्वयार्थ -हे (गोषणः) =गां सनोति सेवयति पूजयति वा गो+सन् =गोषन्+अच् कर्तरि गोष:– गौ की पूजा करने वाले (विचक्षण)=  दृष्टा /ज्ञाता ! जो (बभ्रू) कपिला गो   की मैं (प्र, शंसामि) प्रशंसा करता हूँ वे (ते) आपके शिक्षक होवें (आभ्याम्) इनके साथ आप (नपात्) नहीं गिरनेवाले होते हुए (गाः)   गायों को (मा) मत (अनु, शिश्रथः) शिथिल करते हैं ॥२२॥

प्र ते बभ्रू विचक्षण शंसामि गोषणो नपात् ।
माभ्यां गा अनु शिश्रथः ॥२२॥
ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।👇

सायण भाष्य:-
हे “विचक्षण प्राज्ञेन्द्र “ते त्वदीयौ “बभ्रू बभ्रुवर्णावश्वौ “प्र “शंसामि प्रकर्षेण स्तौमि" ।
हे “गोषनः गवां सनितः हे “नपात् न पातयितः
स्तोतॄनविनाशयितः।

किंतु पालयितरित्यर्थः । 
हे इन्द्र त्वम् “आभ्यां त्वदीयाभ्यामश्वाभ्यां “गा “अनु अस्मदीया गा लक्षीकृत्य “मा “शिश्रथः विनष्टा मा कार्षीः  गावोऽश्वदर्शनात् विश्लिष्यन्ते । 
तन्मा भूदित्यर्थः ।।
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उपर्युक्त ऋचा में गोष: शब्द गोपोंं का वाचक है।
जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में वर्णित है।

शब्दों का शारीरिक परिवर्तन भी होता है ।
लौकिक भाषाओं में यह घोष: हो गया।

तब भी इसकी आत्मा (अर्थ) अपरिपर्वतित रहा।
आज कुछ घोष लोग अपने को यादव भले ही न मानें परन्तु इतिहास कारों ने उन्हें यादवों की ही गोपालक जन-जाति स्वीकार किया है।

वैसे भी दमघोष से पहले भी घोष शब्द हैहय वंशी यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है
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पुराणों में वर्णित हैहय भारत का एक प्राचीन यादव राजवंश था।
जैसे-
यदु के चार पुत्र थे – 
(I) सहस्त्रजित, (II) क्रोष्टा, 
(III) नल और (IV) रिपु.
हैहय वंश यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के पुत्र का नाम शतजित था। 

शतजित के तीन पुत्र थे – महाहय, वेणुहय तथा हैहय.
और इस हैहय वंश में राजा दमघोष हुए ।

परन्तु कालान्तरण में 
ब्राह्मण वाद की रूढ़िवादी परम्पराओं की विकट छायाओं आच्छादित होकर हम अपना इतिहास भूल गये।

इन्हें अपने घोसी लोगों को  कोई पूछे कि ठाकुर उपाधि तुर्को और मुगलों की उतरन( Used clothes) है।

--जो तुर्की आरमेेनियन और फारसी भाषाओं में जमींदारों या सामन्तों की उपाधि थी ।

संस्कृत भाषा या किसी शास्त्र में तो ठाकुर शब्द है ही नहीं 
यह  नवम सदी से बारहवीं सदी में हिन्दुस्तान की भाषाओं में प्रविष्ट हुआ 
जब देश पर तुर्को और मुगलों का शासन था ।
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हम राजपूत भी नहीं बनना चाहते हैं क्यों कि राजपूत करणी कन्या के अवैध सम्बन्धों से उत्पन्न राजा की सन्तानें है ।

--जो तुर्की आरमेेनियन और फारसी भाषाओं में जमींदारों या सामन्तों की उपाधि थी ।

संस्कृत भाषा या किसी शास्त्र में तो ठाकुर शब्द है ही नहीं यह बारहवीं सदी में हिन्दुस्तान की भाषाओं में प्रविष्ट हुआ 
जब देश पर तुर्को और मुगलों की शासन था ।

प्रथम तुर्की आक्रान्ता सुबक्तगीन 977 ईस्वी में गजनी से भारत में प्रवेश करता है।

तब अपने सामन्तों की ताक्वुर tekvur उपाधि 
किसी भूखण्ड या प्रान्त के संरक्षक या मुखिया के तौर पर निश्चित करता है ।

मध्यप्रदेश के घोष --जो स्वयं को ठाकुर तो मानते हैं परन्तु अहीर या यादव नहीं मानते ।

घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा।
--जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में गोष: के रूप में है जिसका अर्थ है ।

गां सनोति सेवयति इति गोष: --जो गाय की सेवा पूजा करता है 'वह गोप !
अब कुछ हमारे घोष समाज के लोग कहने लगे है कि घोष और घोसी अलग हैं 
जो कि अज्ञानता जनक है ।
पुनरावलोकन करें ...
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घोष यादव उपसमुदाय है ।
वे अपने पराक्रम से क्षत्रिय तो हैं और मजूमदार होने से ठाकुर भी 'परन्तु राजपूत नहीं हैं ।
क्योंकि कि इस लिए 👇
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।

जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया कि ब्रह्मवैवर्तपुराणम् ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः१० ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
श्लोक संख्या १११
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10।।111
 ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।

तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ; और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।👇
( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
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और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।

आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।

विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
चारण, भाट , लोधी (लुब्धक( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

 ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः) ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १० श्लोक संख्या १११।
"क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
(ब्रह्मवैवर्तपुराणम्-1/10/१११)

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और उत्तराधिकार में  जिन्हें कुछ जाती लें प्राप्त हुईं । 
उत्तर प्रदेश के जो अहीर जाति से सम्बन्धित  घोसी जो स्वयं को यादव लिखते हैं।
यादव एक वंश मूलक विशेषण है ।  जबकि  अहीर एक जनजाति या नस्ल(phylum)  से सम्बन्धित नाम है। और यादव  एक वंश (clan) है।
 घोषी ही यादवों का गोपी समानार्थक विशेषण है  उत्तर प्रदेश में यादवो का इतना जलवा है तीन तीन बार मुलायम सिंह को  बनवाया और पिछडे वर्ग का भारत भर में शंखनाद किया बिहार में भी घोसी है वहां राय मंडल यादव घोसी है पर वहां के बड़े-बड़े नेताओं ने एक राय होकर यादव लिखने का निर्णय किया हरियाणा में राव लिखते हैं यादव लिखते हैराजस्थान में भी यादव लिखते हैं दिल्ली में भी यादव लिखते है छत्तीसगढ़ में यादव सबसे पिछड़े हैं यादव शब्द  बड़ा ब्रांड यादवो में जब संपर्क करें कब पता चलता है कि कौन है यदुवंशी है चंद्रवंशी है नंदवंशी है कमरिया है डढोर 
है नेपाल मैं यादव लिखती है पर उसमें कुछ घोषी भी है असम में जो घोषी है उसमें कुछ कायस्थ कुछ यादव घोषी है इंदौर मिनी मुंबई है वहां यादवो से जब संपर्क किया तो उसमें विवाद है कुछ दिल्ली वाले यादव है कुछ हरियाणा से आए हुए हैं कुछ बिहार से आये हुई है और मध्य प्रदेश के और जब संपर्क किया गया तो यादव भी नहीं थे वह एस सी थे करण था दबगई हम लोग  त्रिशंकु की तरह फसे भोपाल होशंगाबाद शाजापुर सीहोर में अग्निवंशी है वह घोसी राजपूत लिखते  ग्रुप को बड़े ढेर धैर्य संयम से चलाना होगा धीरे धीरे जहां-जहां भी घोसी है वह निकल कर बाहर आएंगे।

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स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड मे अध्याय २६ में 
वर्णित है ।
"शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।47।
तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते । राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद:।।48।
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कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है 
जो क्रूरकर्मा शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।

ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर राजपूतों की उत्पत्ति का ऐसा वर्णन किया है ।
स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) 
"वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” इति  (पराशरःस्मृति )
अर्थ- पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
पर चारणों का वृषलत्व कम है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।

 चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं;  कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
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"सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता  नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है कि जब राजा, अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे।[7][8]-
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सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...
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7 "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009

[8] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.

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विशेष:- 
उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है ।
कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गयी 
जिसमें कुछ चारण भाट तथा विदेशी जातियों का समावेश हो गया।
और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
जैसे
चारण, भाट , लोधी( लुब्धी–लुब्धक) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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 'परन्तु बहुतायत से चारण और भाट या भाटी बंजारों का समूह ही राजपूतों में विभाजित है ।
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घोष शब्द ही प्राकृत भाषाओं में घोसी बन गया है_। जबकि घोष भी वैदिक गोष: का लौकिक रूपान्तरण है 
जिनका अर्थ गोसेवक अथवा गोप ही होता है. 
वृष्णि वंशी यादव उद्धव को 'ब्रजभाषा के कवि सूरदास आदि ने घोष कहा ।
यादवों का एक विशेषण है घोष -👇
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"
वस्तुत यह काल्पनिक सामयिक व्युत्पत्ति मात्र है ।
(यथा, रघुःवंश महाकाव्य । १ । ४५ ।
“हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ” 
द्वितीय व्युत्पत्ति गोप अथवा आभीर के रूप में है 👇
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घोषति शब्दायते इति । घुष् + कर्त्तरि अच् ।) 
गोपालः । (घुष् + भावे घञ् ) ध्वनिकारक।

(यथा, मनुः । ७ । २२५ । “तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः ।

कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः । 
(यथा, कुलदीपिकायाम् “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुज
महाकृती )

अमरकोशः व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका । 
गोपिका ।
बंगाल में कायस्थों का एक समुदाय घोष कहलाता है ।
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रसखान ने  अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं । 👇
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या लकुटी अरु कामरिया पर, 
      राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

  आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, 
           नन्द की धेनु चराय बिसारौं॥

रसखान कबौं इन आँखिन सों, 
            ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

कोटिक हू कलधौत के धाम, 
                करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस, 
                   सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, 
                  अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥ 
नारद से सुक व्यास रहे, 
              पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं। 
ताहि अहीर की छोहरियाँ, 
               छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
नीचे देखें---👇
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"ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा। 
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।
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अर्थात् उस वृदावन में सभी गौऐं गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
(उद्धृत अंश)👇
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक नवम अध्याय।
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आयो
तत: क्रमेण घोष: स प्राप्त वृन्दावनं वनम्।
निवेश विपुल चक्र वहां चैव हि चाय च ।।२०।
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तदनंर क्रमशः आगे बढ़ता हुआ वह घोष ( गोपसमूह और गायों का वाडा़ )वृन्दावन आ पहुँचा और गायों के हित के लिए बहुत दूर तक फैलकर वास गया ।२०।
    (हरिवंश पुराण विष्णु पर्व नवम्बर अध्याय )
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ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर 
रूप में ही वर्णन करता है ।

यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; 
क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
और घोष भी गोपों का प्राचीन विशेषण है ।👇

द्रोण नन्दो८भवद् भूमौ, यशोदा साधरा स्मृता ।
कृष्ण ब्रह्म वच: कर्तु, प्राप्त घोषं पितु: पुरात् ।

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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। 
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः 
शापेन गोपालत्वमापतुः। यथाह
(हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )

गोषा -गां सनोति सन--विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । 
अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषाशब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।

गोषन् (गोष: )गां सनोति सन--विच् ६ त० “सनोतेरनः” पा० नान्तस्य नित्यषत्वनिषेधेऽपि पूर्बपदात् वा षत्वम् । गोदातरि “शंसामि गोषणो नपात्” ऋ० ४ । ३२ । २२ ।

अहीरों की वस्ती या अहीरों को ही घोष कहा जाता है ।
आभीरपल्ली । (यथा, रघुःवंश । १ । ४५ । “हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् । 
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥ 
घोष= गोपालः । 
(यथा, मनुः । ७ । २२५ । 
“तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः )

कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः ।(यथा, कुलदीपिकायाम् “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । 
घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुजमहाकृती ॥”) 
अमरकोशः
व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं ।
संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका ।
गोपिका ।
वस्तुत: ये कायस्थ जो आज घोष लिखते हैं पश्चिमी बंगाल की गोपों की शाखा थी जिसे किसी कार्यमें स्थित होने से कायस्थ कहा ऐसा समाजशास्त्रीयों  का विचार है। 
उ०—प्रात समै हरि को जस गावत उठि घर घर सब घोषकुमारी ।—(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ )
संज्ञा पुं० [सं०] [ आभीर]
 अहीर । ग्वाल । गोप — आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे (राम चरित मानस । ७ । १३० )

तुलसी दास ने अहीरों का वर्णन भी विरोधाभासी रूप में किया है ।
कभी अहीरों को निर्मल मन बताते हैं तो कभी अघ 
( पाप )रूप देखें -
"नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा ।
निर्मल मन अहीर निज दासा- 
(राम चरित मानस, ७ ।११७ )
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विशेष—इतिहासकारों के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्ध यादव जाति जो कुछ लोगों के मत से बाहर से आई थी। 
इस जातिवालों का विशेष ऐतिहसिक महत्व माना जाता है ।
कहा जाता है कि उनकी संस्कृति का प्रभाव भी भारतीय संस्कृति पर पड़ा ।
वे आगे चलकर आर्यों में घुलमिल गए । 
इनके नाम पर आभीरी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृत) भाषा भी थी ।
 य़ौ०—आभीरपल्ली= अहीरों का गाँव । 
ग्वालों की बस्ती ।
२. एक देश का नाम ।
३. एत छन्द जिसमें ११ ।
मात्राएँ होती है और अन्तत में जगण होता है ।
जैसे—यहि बिधि श्री रघुनाथ ।
गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार ।
गए राज दरबार । ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है ।

संज्ञा पुं० [सं० आभीर] [स्त्री० अहीरिन] एक जाति जिसका काम गाय भैंस रखना और दूध बेचना है । ग्वाला ।
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"रसखान अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं । 
"या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नन्द की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥ 
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
सूरदास : भ्रमगीत 

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हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व) में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
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"ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।
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अर्थात् उस वृदावन में सभी गौऐं गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक नवम  अध्याय।

जाट संघ जिसमे भी कुछ यदुवंशीयों का समावेश है ।
और गुज्जर लोगों में भी संघ है ।
जिसमें कुछ यदुवंशी और कुछ रघुवंशी और कुछ हूण और कुषाण तुषार भी अपने को कहते  हैं 

गूजरों और जाटों तथा अहीरों मे घोसी गोत्र केवल यदुवंशीयों का है ।

दमघोष संज्ञा पुं० [सं०] चोदि देश के प्रसिद्ध राजा शिशुपाल के पिता का चाम जो दमयंती के भाई थे । इनका दूसरा नाम श्रुतश्रुवा भी है ।

राजा शिशुपाल - चेदि गोत्री जाट, जिसने बुन्देलखण्ड पर राज किया था ।
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सन्दर्भ ↑ Hawa Singh Sangwan: Asli Lutere Koun/Part-I,p.61। 

चेदि जनपद बुन्देलखण्ड में था चेदि जाट गोत्र भी है। 
उस समय वहां पर चन्द्रवंशी शिशुपाल राज्य करता था। ययातिपुत्र यदु के पुत्र करोक्षत्री की परम्परा में शूरसेन राजा हुआ। 

उसकी पुत्री श्रुतश्रवा का विवाह चेदिराज दमघोष से हुआ जिनसे शिशुपाल नामक पुत्र हुआ।

नकुल ने चेदि नरेश की पुत्री करेणुमती से विवाह किया था ।
References
↑ Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter III, Page 290
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यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम - आज़ादपुर-पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० दूरभाष 8077160219

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