श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद श्रीकृष्ण के संकेतों को समझने वाले भीमवंशी यादव सुदृढ़ अभिमान से युक्त होने पर भी उस जल युद्ध के प्रसंग से निवृत्त हो गये। तदनन्तर उन प्रिय पुरुषों को नित्य आनन्द देने वाली उनकी प्यारी वारवनिताएं विश्वस्त होकर नृत्य करने लगीं। नृत्य के अन्त में बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण ने जलक्रीड़ा के प्रसंग त्याग दिये।
उन्होंने जल से ऊपर आकर मुनिवर नारद जी को अनुकूल चन्दन का लेप देकर फिर स्वयं भी उसे ग्रहण किया। भगवान् श्रीकृष्ण को जल से बाहर निकला देख अन्य यादवों ने भी जलक्रीड़ा त्याग दी। फिर वे अप्रमेय शक्तिशाली यादव शुद्ध शरीर हो श्रीकृष्ण की आज्ञा से पानभूमि (रसोई के स्थान) में गये। वहाँ वे क्रमश: अवस्था और सम्बन्ध के अनुसार उस समय भोजन के लिये बैठे।
तदनन्तर उन प्रख्यात वीरों ने अपनी रुचि के अनुकूल अन्न खाये और पेय रसों का पान किया।
पके फलों के गूदे, खट्टे फल, अधिक खट्टे अनार के साथ शूल में गूँथकर सेके गये कन्द या फलों के टुकड़े, पोषक[1]
तत्त्व (अन्न)- ये सब पदार्थ पवित्र रसोईयों ने उनके लिये परोसे।
शूल में गूँथकर पकाये गये भैंसाकन्द तथा अन्यान्य कन्द या मूल-फल, नारियल, तपे हुए घी में तले गये अन्यान्य खाद्य पदार्थ, अमलवेंत, काला नमक और चूक के मेल से बने हुए लेह्य पदार्थ (चटनी)- ये सब वस्तुएं पाकशालाध्यक्ष के कहने से रसोईयों ने इन यादवों के लिये प्रस्तुत कीं।
पाकशालाध्यक्ष के बताये अनुसार विधिवत तैयार किये गये मृगनामक कन्द विशेष के मोटे-मोटे गूदे, आम की खटाई डालकर बनाये गये नाना प्रकार के विशुद्ध व्यंजन भी इनके लिये परोसे गये।
दूसरे रसोईयों ने पास रखे हुए पोषक शाकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें घी में तल दिये और उनमें नमक तथा मिर्च के चूर्ण मिलाकर खाने वालों को परोस दिये। मूली, अनार बिजौरा, नीबू, तुलसी, हींग और भूतृण नामक शाक विशेष के साथ सुन्दर मुख वाले पानपात्र लेकर उन अप्रमेय शक्तिशाली यादवों ने बड़े हर्ष के साथ पेय रस का पान किया।
कट्वांक अर्थात कटुक परवल, शूलहर (हींग) तथा नमक-खटाई मिलाकर घी और तेल में सेके गये लकुच या बड़हर[2]
के साथ मैरेय, माध्वीक, सुरासव नामक मधु का उन यादवों ने अपनी प्रियतमाओं से घिरे रहकर पान किया।
नरेश्वर! श्वेत रंग के खाद्य पदार्थ मिश्री आदि तथा लाल रंग के फल के साथ नाना प्रकार के सुगन्धित एवं नमकीन भोजन एवं आद्र (रसदार साग), किलाद (भैंस के दूध में पकाये गये खीर आदि), घी से भरे हुए पदार्थ (पुआ-हलुआ आदि) तथा भाँति-भाँति के खण्ड-खाद्य (खाँड़ आदि) उन्होंने खाये।
राजन ! उद्धव, भोज आदि श्रेष्ठ यादव वीरों ने जो मादक रसों का पान नहीं करते थे, बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार के साग, दाल, पेय-पदार्थ तथा दही-दूध आदि के साथ उत्तम अन्न का भोजन किया।
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उन्होंने प्यालों में अनेक प्रकार के सुगन्धित आरनाल (कांजीरस) का पान किया। चीनी मिलाये हुए गरम-गरम दूध पीया और भाँति-भाँति के फल भी खाये।
खा-पीकर तृप्त होने के पश्चात वे मुख्य-मुख्य यदुवंशी वीर पुन: स्त्रियों को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ रमणीय एवं मनोहर गीत गाने लगे।
उनकी प्रेयसी कामिनियाँ अपने हाव-भाव द्वारा उन गीतों के अर्थ का अभिनय करती जाती हैं। तदनन्तर हर्ष में भरे हुए भगवान् उपेन्द्र ने उस रात में बहुसंख्यक मनुष्यों द्वारा सम्पन्न होने वाले उस छालिक्य गान के लिये आज्ञा दी, जिसे गान्धर्व कहते हैं।
उस समय नारद जी ने अपनी वीणा सँभाली, जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र कर देने वाली थी।
नरदेव! साक्षात् श्रीकृष्ण ने वंशी बजाकर हृल्लीसक[4] (रास) नामक नृत्य का आयोजन किया।
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कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मृदंग वाद्य ग्रहण किया। अन्य वाद्यों को श्रेष्ठ अप्सराओं ने ग्रहण किया जो उनके वादन कला में प्रख्यात थीं। आसारित[5] (प्रथम आसारनर्त की-प्रवेश) के बाद अभिनय के अर्थतत्त्व का ज्ञान रखने वाली रम्भा नामक अप्सरा उठी, जो अपनी अभिनय कला के लिये विख्यात थी।
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