बुधवार, 30 अगस्त 2023

आभीर लोग चातुर्य वर्ण व्यवस्था से अलग वैष्णवी सृष्टि- प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार रोहि-

"गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग- तथा शक्ति" भक्ति" "सौन्दर्य और ज्ञान" की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म लेने का वर्णन- शास्त्रों में वर्णित है।

"स्वयं भगवान विष्णु आभीर जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए, इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - राधा" दुर्गा "गायत्री" और उर्वशी आदि को भी इन अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। ये विशेषण  शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धरके अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले।

विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं।

कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
 (ऋग्वेद १/२२/१८)
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को  (धारयन्) धारण करता हुआ ।  (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही  (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥

विशेष:- गोपों को  ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है । भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर  लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही  सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। 

वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
भले ही विभिन्न भाष्य कारों ने उसके अर्थ बदलने की कोशिश की हो।
लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो 
"पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक विशेष विचारणीय हैं।
१- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है !
इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर अहीरो को दिव्य लोको में निवास करने का अधिकारी बनाकर  तृतीय श्लोक में  विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों  को दी गयी है।
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"आभीर लोग पूर्वकाल में भी धर्मतत्व वेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल  कहकर सम्बोधित किए गये हैं।

तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन श्लोकों में निर्दशित है।

(क)"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
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(ख)"अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

(ग)अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा ! मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नाम की कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। 
विशेष:-
इसका कारण यही था (कि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का प्राचीन काल में पालन करती थीं।
 भगवान् विष्णु बोले !  हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब  दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं  ) और वहीं मेरी लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
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  और पुराण शास्त्रों में यह भी लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है। 
इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।
 ऋग्वेद के प्रथम मण्डल निम्न ऋचा में 
विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है।
 
त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।       अतो धर्माणि धारयन्”

ऋग्वेद 1.22.18

"सायण भाष्य पर आधारित अर्थ-
.विष्णु जगत् के रक्षक हैं, उनको आघात करनेवाला कोई नहीं है। उन्होंने समस्त धर्मों का धारण कर तीन पैरों का परिक्रमा किया।18।
अर्थात्-
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इसमें भी कहा गया है कि किसी के द्वारा जिसकी हिंसा नहीं हो सकती, उस सर्वजगत के रक्षक विष्णु ने अग्निहोत्रादि कर्मों का पोषण करते हुए पृथिव्यादि स्थानों में अपने तीन पदों से क्रमण (गमन) किया।

इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है।
"विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान माना गया है -

"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः।            दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान  (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह  विष्णु के परम पद में  अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं।

ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) का ऋचा संख्या (6)
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि"
ऋग्वेद-१/१५४/६।

सायण- भाष्य-"हे यजमान और उसकी पत्नी !  तुम दोनों के लिए जाने योग्य उन प्रसिद्ध सुखपूर्वक निवास करने योग्य स्थानों पर हम  कामना करते हैं। 
अर्थात तुम्हारे जाने के लिए विष्णु से प्रार्थना करते हैं। जिन स्थानों पर किरणें अत्यन्त उन्नत और बहुतों के द्वारा आश्रयवाली होकर अति विस्तृत हैं। अथवा न जाने वाली अर्थात् अत्यन्त प्रकाशवाली हैं। 
उन निवास स्थानों के आधारभूत  द्युलोक में बहुत से महात्माओं के  द्वारा स्तुति करने योग्य और कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु का गन्तव्य रूप में प्रसिद्ध निरतिशय स्थान अपनी महिमा से अत्यधिक स्फुरित होता है।६।

हे पत्नीयजमानौ १-“वां =युष्मदर्थं। २-“ता= तानि {गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धानि}३- “वास्तूनि =सुखनिवासयोग्यानि स्थानानि ४- “गमध्यै युवयोः = गमनाय ।५-“उश्मसि= कामयामहे । तदर्थं विष्णुं प्रार्थयाम इत्यर्थः । ६- तानीत्युक्तं =कानीत्याह । “यत्र येषु वास्तुषु ७-"गावः धेनव: । ८-भूरिशृङ्गाः = वृहच्छ्रंगा । ९-“अयासः = 

यासो गन्तारः । अतादृशाः । अत्यन्तप्रकाशयुक्ता इत्यर्थः । “अत्राह अत्र खलु वास्त्वाधारभूतं द्युलोके 
१०-“उरुगायस्य= बहुभिर्महात्मभिर्गातव्यस्य स्तुत्यस्य ।
११-“वृष्णः = कामानां वर्षितुर्विष्णु:।
 १२-“पदं= स्थानं “भूरि =अतिप्रभूतम् स्वर्णं वा“
१३-अव “भाति  = प्रकाशयति। 
अयं ऋचायां  गोशब्दो धेनु वाचक इति 

ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 154 के मन्त्र
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि ॥

पदों का अर्थ:-(यत्र) जहाँ (अयासः) प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः) स्वर्ण युक्त सींगों वाली  (गावः) गायें हैं (ता) उन ।(वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम को  (गमध्यै) जाने को लिए   (उश्मसि)तुम चाहते हो।  (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्) उत्कृष्ट (पदम्) स्थान   (भूरिः) अत्यन्त (अव भाति) उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६॥

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उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है।
जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें हैं।  और वे
विष्णु गोप रूप में अहिंस्य ( अवध्य) है)।

'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि     नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।  
  
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया - 'यज्ञो वै विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें  त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है।

"एवं पुरा विष्णुरभूच्च वामनो धुन्धुं विजेतुं च त्रिविक्रमोऽभूत्।
यस्मिन् स दैत्येन्द्रसुतो जगाम महाश्रमे पुण्ययुतो महर्षे।।( ७८/९०)
इति श्रीवामनपुराण अध्याय।52।
___________ 
विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु के इन छै: गुणों से युक्त होने के कारण 
भगवत् - संज्ञा है।

 १-अनन्त ऐश्वर्य, २-वीर्य, ३-यश, ४-श्री, ५-ज्ञान और ६-वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण परमात्मा को भगवान् या  भगवत्   कहा  जाता है।     
"इस कारण वैष्णवों को भागवत नाम से भी    जाना जाता है - भगवत्+अण्=भागवत।

जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत् है।          श्रीमद् -वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत में 'भगवान्' कहा गया है।

उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है वल्लभाचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ में वर्णन है।
श्रीमद्वल्लभाचार्य लिखित -सिद्धान्त मुक्तावलि "

 वैष्णव धर्म मूलत: भक्तिमार्ग है।
"भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य भक्ति को  ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं  और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।

"वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ और वहीं से दक्षिण भारत में मधुरा शब्द ही चैन्नई का पुराना नाम मदुरैई है।। 

तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार  पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध. ये चार व्यूह माने गये हैं।                                
राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं। 

और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। 

विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह  दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं।

इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में  वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं।

अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्रों में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहा करती हैं।
यह उसी परम्परा भी उसी का अवशेष हैं। 


गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। 

इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है। 
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे 


 इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी 
 के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं। 

उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से  सम्बन्धित रहीं हैं ।
मानवीय रूप में इस महाशक्ति ने अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की  कन्या के रूप में जन्म लिया और कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से जिन्हें सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद मिला और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी हुईं । 

विष्णु अथवा नारायण के उर( जंघा ) अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण कारण भी इन्हें उर्वशी कहा गया ।

प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं। जैसे किसी पुष्प में समाहित गन्ध पराग और मकरन्द( पुष्प -रस) होता है।

कहीं कहीं पुराणों में उर्वशी को नारायण अथवा विष्णु" के जंघा से उत्पन्न बताकर भी उसकी वैष्णवी सृष्टि का समर्थन किया गया है।

"नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी । ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
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सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है   इसी कारण स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को अप्सराओं की स्वामिनी के रूप में नियुक्त हुईं।

"अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।

"ततो गान्धर्वलोकश्च यत्र गन्धर्वचारणाः ।
ततो वैद्याधरो लोको विद्याध्रा यत्र सन्ति हि ।८३।

ततो धर्मपुरी रम्या धार्मिकाः स्वर्गवासिनः।
ततः स्वर्गं महत्पुण्यभाजां स्थानं सदासुखम् ।८४।

ततश्चाऽप्सरसां लोकः स्वर्गे चोर्ध्वे व्यवस्थितः ।
अप्सरसो महासत्यो यज्ञभाजां प्रियंकराः ।८५।

वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।
युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः ।८६।

दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।
दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।

कामकेलिकलाभिज्ञा द्यूतविद्याविशारदाः ।
रसज्ञा भाववेदिन्यश्चतुराश्चोचितोक्तिषु ।८८।

नानाऽऽदेशविशेषज्ञा नानाभाषासुकोविदा ।
संकेतोदन्तनिपूणाः स्वतन्त्रा देवतोषिकाः ।८९।

लीलानर्मसु साभिज्ञाः सुप्रलापेषु पण्डिताः ।
क्षीरोदस्य सुताः सर्वा नारायणेन निर्मिताः ।1.456.९०।
"स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्यायः 9 पर देखें-
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अध्याय 9 - दिव्य देवियों और सूर्य का क्षेत्र का वर्णन-

शिवशर्मन ने कहा :

-1. सौंदर्य, तेज और दांपत्य आनंद की भंडार, दिव्य आभूषण पहनने वाली और दिव्य सुखों का आनंद लेने वाली ये महिलाएं कौन हैं ?

शिव शर्मा ने कहा ! रूप -लावण्य से युक्त सौभाग्य शालिनी दिव्य अलंकार धारिणी दिव्य भोगों से युक्त ये स्त्रीयाँ कौन हैं?

परिचारकों ने कहा :

-2. ये सुन्दरी अप्सराऐं हैं  जो देवताओं के लिए प्रिय हैं। । वे संगीत की जानकार, नृत्य में विशेषज्ञ और संगीत वाद्ययंत्र बजाने की कला में बहुत कुशल होती हैं।

तभी विष्णु भगवान् के पार्षदों कहते हैं ! ये अप्सराऐं हैं। ये अप्सराऐं इन्द्र आदि  देवों की प्रियकारिणी और वारविलासिनी हैं।

-3. ये प्रेम करने की कला में माहिर और पासे के खेल में बहुत चतुर होती हैं।. वे चीज़ों की सुंदरता की सराहना करती हैं। वे दूसरों की अंतरतम भावनाओं को समझती हैं। वे उपयुक्त प्रत्युत्तर देने में बहुत चतुर होती हैं। अर्थात ्

रसिकता मनोविज्ञान हाव-भाव की विशेषज्ञा और समय और प्रसंग के अनुसार वाणीप्रयोग इनका मौलिक गुण है। अनेक देशों की विशेष जानकार अनेक भाषाओं की जानकार तथा रहस्य कथन करने में ये पारंगता हैं। ये अप्सराऐं आनन्द युक्त हो दल दल में विचरण करती हैं।ये अकेले कभी नहीं रहती हैं। हाव-भाव  प्रकाशन में चतुर और मधुरा आलाप करने में तो विदुषी ही हैं। ये अप्सराऐं अपने हावभाव से पुरुषों का मन हर लेती हैं।

ये संगीत गीत, नृत्य और वाद्य वादन में पारंगत है। और साथ ही काम कला की विषशज्ञा भी होती हैं। और दूतविद्या में पारदर्शिता  इनकी विशेषता है। 

-4. वे विभिन्न देशों की विशेषताओं को जानने में विशेषज्ञ होती हैं और विभिन्न देशों में बोली जाने वाली भाषाओं पर महारत रखती हैं। ये गुप्त समाचारों की जांच करने में कुशल होती हैं। वे अकेले नहीं बल्कि समूहों में अपनी इच्छानुसार आनंदपूर्वक विचरण करती हैं।

-5. वे कामुक इशारों, रोमांचक कामुक भावनाओं और प्रेम की अभिव्यक्ति और कामुक खेलों की विशेषज्ञ हैं। ये लगातार मधुर बातें करने में माहिर होते हैं। वे हमेशा अपने आकर्षक हाव-भाव और मोहक आकर्षण के माध्यम से युवाओं के मन को हरण करती हैं।

-6. पूर्व में ये दिव्य देवियाँ क्षीर-सागर से तब निकली थीं जब उसका मंथन किया जा रहा था। वे ये तीनों लोकों के विजेता, मन से उत्पन्न प्रेम के देवता (कामदेव) के आकर्षक हथियार हैं ।

7-12. वे हैं: उर्वशी , मेनका , रंभा, चंद्रलेखा , तिलोत्तमा, वपुष्मती, कांतिमती , लीलावती , उत्पलावती , अलंबुषा , गुणवती , स्थुलाकेशी, कलावती , कलानिधि, गुणनिधि, कर्पूरतिलका, उर्वरा, अनंगलाटिका , मदनमोहिनी ,चकोराक्षी , चंद्रकला , मुनिमनोहर, ग्रायद्रावा, तपोद्वेष्टि , चारुणसा, सुकर्णिका, दारुसंजीविनी, सुश्री , ( शुभानना).सुन्दर मुख वाली - क्रतुशुल्का, उपश्शुल्का, तीर्थशुद्धा, हिमावती पञ्चाश्वमेधा- राजसूखार्थिनी, अष्टाग्निहोमिका, वाजपेयश्शतोद्भवा  इत्यादि. इन अप्सराओं की संख्या साठ हजार है।७-१२।

13. अप्सराओं की इस दुनिया में अन्य महिलाएं भी रहती हैं। उनकी चमक कभी फीकी या क्षीण नहीं होती। उनकी जवानी भी कभी कम नहीं होती.

14. उनके वस्त्र दिव्य हैं; उनकी मालाएँ दिव्य हैं;  गंध दिव्य हैं; वे आनंद के स्वर्गीय साधनों से प्रचुर मात्रा में संपन्न हैं; वे अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। अर्थात्- इस अप्सरा लोक में स्थिरयौवना स्थिरलावण्या और भी अनेक  स्त्रियाँ निवास करती हैं। वे भी दिव्यवस्त्र दिव्यगन्ध और दिव्यगन्ध के अनुलेप  से युक्त हैं।

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इन देवीयो को पुराकाल में वैष्णवी शक्ति के नाम से जाना जाता था। विभिन्न ग्रंथों में इन देवीयों के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म आभीर जाति में हुआ है जहाँ स्वयं विष्णु अवतरण करते हैं।। 

"विचारणीय है कि भारतीय संस्कृति में ये चार परम शक्तियाँ अपने नाम के अनुरूप कर्म करने वाली" विधाता की सार्थक परियोजना का अवयव सिद्ध हुईं ।
राधा:-राध्नोति साधयति पराणि कार्य्याणीति ।
जो दूसरे के अर्थात भक्त के कार्यों को सफल करती है।
राधा:-  राध + अच् ।  टाप् = राधा ) राध् धातु = संसिद्धौ/वृद्धौ 
राध्= भक्ति करना और प्रेम करना।


गायत्री:- गाय= ज्ञान + त्री= त्राण (रक्षा) करने वाली अर्थात जो ज्ञान से ही संसार का त्राण( रक्षा) गायन्तंत्रायतेइति। गायत्  + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः।)

विशेष:-

"दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री  नाद ब्राह्म ( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।

"न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं 
काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।

एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९।।
 

स्कन्दपुराणम्-खण्डः ६ (नागरखण्डः)-अध्यायः १९३-

यह दुष्टा( विगर्हिता) आभीर सुता जिसकारण से मेरे स्थान पर आयी है।इसके भविष्य में  कभी सन्तान नहीं होगी।५९।
तो फिर गायत्री को ब्राह्मणप्रसु कहना शास्त्रीय विरोध होने से प्रक्षेप है।

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एतत्पुनर्महद्दुःखं यदाभीरी विगर्हिता॥
वेश्येव नष्टचारित्रा त्वयोढा बहुभर्तृका ॥ ५४ ॥

तस्मादहं प्रयास्यामि यत्र नाम न ते विधे ॥
श्रूयते कामलुब्धस्य ह्रिया परिहृतस्य च ॥ ५५ ॥

अहं विडंबिता यस्मादत्रानीय त्वया विधे ॥
पुरतो देवपत्नीनां देवानां च द्विजन्मनाम् ॥
तस्मात्पूजां न ते कश्चित्सांप्रतं प्रकरिष्यति ॥ ५६।

अद्य प्रभृति यः पूजां मंत्रपूजां करिष्यति ॥
तव मर्त्यो धरापृष्ठे यथान्येषां दिवौकसाम् ॥ ५७ ॥

भविष्यति च तद्वंशो दरिद्रो दुःखसंयुतः ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोपि चालये ।५८ ।

"एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९।
 " 

न पूजां लप्स्यते लोके यथान्या देवयोषितः ॥ ६.१९२.६० ॥

करिष्यति च या नारी पूजा यस्या अपि क्वचित् ॥
सा भविष्यति दुःखाढ्या वंध्या दौर्भाग्यसंयुता॥ ६१॥

अनुवाद:-
सावित्री ने कहा:-
हे कामलुब्ध निर्लज्ज ब्रह्मा ! मैं ऐसे स्थान पर जा रही हूँ। जहाँ आपका कामलुब्ध नाम भी सुनायी न पड़ सके ! हे ब्रह्मा ! देवपत्नी, द्विज और देव गणों के समक्ष आपने मुझे विडम्बित किया ।
इस लिए आप किसी से भी पूजित नहीं होगें । 
आज से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कोई भी व्यक्ति  यदि अन्य देव गणों के समान तुम्हारी पूजा करेंगे तब वे और उनके आश्रित जन दरिद्र और दु:ख युक्त हो जाऐंगे- "यह निन्दिता आभीर कन्या गायत्री जिसने मेरा स्थान छीन लिया है इसके सन्तान नहीं होगी।" 

यह मेरा वचन है यह भी अन्य देव स्त्रीयों समान पूजित नहीं होगी इसकी पूजा करने वाली स्त्रीयाँ बाँझ और दुर्भगा( दूषित योनि) हो जाऐंगी। ५४-६१।।
निम्न श्लोक इस उपर्युक्त कारण से प्रक्षिप्त है। कि जब गायत्री के सन्तान ही नहीं होगीं तो ब्राह्मण कहाँ से पैदा कर दिए-
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गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्ताने उत्पन्न होती हैं। यह अर्थ किया जाना चाहिए-
गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई। 
(पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति “ पुरूरवाः । “ 
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समाधान:-
"गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि  गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। ये मरण धर्मा सन्तानों का प्रसव नहीं करती हैं । सन्तान जनन और प्रजनन सांसारिक प्राणीयों का कर्म है।
 देवी भागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा राधा गायत्री के ही नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्द पुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री नाम को सार्थक करता है।  खैर गायत्री शब्द का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही शास्त्र ते अनुरूप है।
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"ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः।
चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से  इन्द्र ने किसी  घूमते हुई  गोप कन्या को  देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली  हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
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युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
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परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
अनुवाद:- यदि तुम तक्र ग्रहण करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा ।


गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा !  हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।।

गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।

अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे  दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक  स्थान पर रहता है।।
गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् 
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
अनुवाद:- वह गाय के पेट से निकाली और ब्राह्मणों के पास लाई गई। उसका हाथ पकड़कर यज्ञा का सम्पादन करो।

रुद्रःप्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा।५१।
अनुवाद:- रूद्र ने कहा, "फिर  गाय-यन्त्र से बाहर होने से यह निश्चय ही गायत्री नाम से इस यज्ञ में सदा तुम्हारी पत्नी होगी "

निष्कर्ष:- 
"गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति - गायन्तं त्रायते त्रै+क, अथवा गीयतेऽनेन गै--घञ् यण् नि० ह्रस्वः गयः प्राणस्त त्रायते त्रै- क वा)
गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत  त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति 

"प्रातर्न तु तथा स्नायाद्धोमकाले विगर्हितः ।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥१०॥
अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने  स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।

गायन्तं त्रायते यस्माद्‌गायत्रीत्यभिधीयते।
प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥११॥
अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने  वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
१२.गायन्तं त्रायते यस्माद्-गायत्रीति ततः स्मृता।
(बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः४/३५)
,"अत: स्कन्दपुराण, लक्ष्मी-नारायणीसंहिता नान्दी पुराण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति  पूर्णत: प्रक्षिप्त व काल्पनिक है। जिसका कोई व्याकरणिक आधार नही है।

ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
अनुवाद:- तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो।

"ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।

शास्त्रीय तथा वैदिक सिद्धान्तो के विपरीत होने से तथा परस्पर विरोधाभास होने से स्कन्द पुराण के नागर खण्ड से उद्धृत निम्नश्लोक प्रक्षिप्त हैं।

"युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।।४५।।
परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः ।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।

गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।।४९।।

गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् 
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।

लक्ष्मी नारायण संहिता अध्याय 509 ने भी यही बात है।।

निष्कर्ष:- गायों और गायत्री को ब्राह्मण बनाने के लिए पुरोहितों ने शास्त्रीय सिद्धान्तों को नजर-अंदाज करके स्वयं दलदल में फँसने
जैसा कार्य कर डाला। 

और कृष्ण के मुखारविन्द कहलवाया की गाय और ब्राह्मण एक ही कुल के हैं। जबकि यह बातें भी शास्त्रीय सिद्धान्त के पूर्णत विपरीत ही हैं।

            "श्रीवासुदेव उवाच"
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम्॥
एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥६७॥

धेनूदराद्विनिष्क्रांता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये ॥६८।।
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः ॥६९॥
                " रुद्र उवाच" 
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
                 " ब्रह्मोवाच" 
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि॥
संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥७१॥
                "ब्राह्मणा ऊचुः" 
एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥
 _________
इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥१८१॥
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दुर्गा:-  विराटपर्व-8 महाभारतम्

       महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति" करना-

           वैशंपायन उवाच।

विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।

दुर्गात्तारयसे दुर्गे तत्त्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।
कान्तारेष्ववसन्नानां मग्रानां च महार्णवे।
दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।21।

षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-

विराटपर्व-8 महाभारतम्

            महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति"

           "वैशंपायन उवाच।

विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम्।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।
युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ । 
‘पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी ! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कह तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’। तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है।

महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35
षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद:-
देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कही

जाती हो। जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पडत्र गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय

उनके लिए बता दें कि दुर्गा के यादवी अर्थात् यादव कन्या होने के पौराणिक सन्दर्भ हैं
परन्तु महिषासुर के अहीर या यादव होने का कोई पौराणिक सन्दर्भ नहीं !

देवी भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा ही नंदकुल में अवतरित होती है--

हम आपको  मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण  से कुछ सन्दर्भ देते हैं जो दुर्गा को यादव या अहीर कन्या के रूप में वर्णन करते हैं...

देखें निम्न श्लोक ...

 नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका ।
 नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया ॥ ८१ ॥
~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

उपर्युक्त श्लोक में नन्द जी की प्रिय पुत्री होने से नन्द प्रिया दुर्गा का ही विशेषण है ...

नन्दजा नवरत्‍नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।
 नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिःस्वना ॥८६
 ~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

उपर्युक्त श्लोक में भी नन्द की पुत्री होने से दुर्गा को नन्दजा (नन्देन सह यशोदायाञ् जायते  इति नन्दजा) कहा गया है ..

यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी ।
 यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्‍भवा॥१३१॥
 ~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६

उपर्युक्त श्लोक में दुर्गा देवी यदुवंश में नन्द आभीर के  घर  यदुवंश में जन्म लेने से (यदुवंशसमुद्भवा) कहा है जो यदुवंश में अवतार लेती हैं 

नीचे मार्कण्डेय पुराण से श्लोक उद्धृत हैं
जिनमे दुर्गा को यादवी कन्या कहा है:-

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥३८॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥३९॥
~मार्कण्डेयपुराणम्/अध्यायः ९१

अट्ठाईसवें युग में वैवस्वत मन्वन्तर के प्रगट होने पर जब दूसरे शुम्भ निशुम्भ दैत्य उत्पन्न होंगे तब मैं नन्द गोप के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर उन दोनों(शुम्भ और निशुम्भ) का नाश करूँगी और विन्ध्याचल पर्वत पर रहूंगी।

मार्कण्डेय पुराण के मूर्ति रहस्य प्रकरण में आदि शक्ति की छः अंगभूत देवियों का वर्णन है उसमे से एक नाम नंदा का भी है:-
इस देवी की अंगभूता छ: देवियाँ हैं –१- नन्दा, २-रक्तदन्तिका, ३-शाकम्भरी, ४-दुर्गा, ५-भीमा और ६-भ्रामरी. ये देवियों की साक्षात मूर्तियाँ हैं, इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने से इस प्रकरण को मूर्तिरहस्य कहते हैं...

दुर्गा सप्तशती में देवी दुर्गा को स्थान स्थान पर नंदा और नंदजा कहकर संबोधित किया है जिसमे की नंद आभीर की पुत्री होने से देवी को नंदजा कहा है-
 "नन्द आभीरेण जायते इति देवी नन्दा विख्यातम्"
                  ऋषिरुवाच
'नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा।
सा स्तुता पूजिता ध्याता वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥१॥
~श्रीमार्कण्डेय पुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मूर्तिरहस्यं

अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् ! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली है, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं|

आप को बता दें गर्ग संहिता, पद्म पुराण आदि ग्रन्थों में नन्द को आभीर कह कर सम्बोधित किया है:-

महाभारत के विराट पर्व में दुर्गा को शक्ति की अधिष्ठात्री देवता कह कर सम्बोधित तिया गया है।
 
महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14
(पाण्डवप्रवेश पर्व)
श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-
युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधिष्ठात्री दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।
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उर्वशी कश्यप ऋषि और अरिष्टा की सन्तान नहीं है। अपितु यह नारायण के शरीर से उत्पन्न वैष्णवी सृष्टि है।
वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।
उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।।
अनुवाद :- नन्दजी  को कृष्ण अपने वैष्णव विभूतियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि  छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, मेरी विभूति हैं। 
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इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनां नन्दादि-
णोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।

उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।  "उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है।
कवि पुरुरवा है रोहि !
     कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
        संवेदन लहरों में विकसी।।
प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी ही है।
क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में  सबसे प्राचीन प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गयी हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का बस उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (घोष) के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं।

इसी प्रकार गायत्री को ब्राह्मण कन्या सिद्ध करने के लिए कहीं उन्हें गाय के मुख में डालकर पिछबाड़े ( गुदाद्वार) से निकालने की काल्पनिक कथा बनायी गयी तो कहीं गोविल और गोविला के नाम से उनके माता पिता को अहीरों के वेष में रहने वाला ब्राह्मण दम्पति बनाने की काल्पनिक कथा बनायी गयी ।
लक्ष्मीनारायण संहिता में गायत्री के विषय में उपर्युक्त काल्पनिक कथा को बनाया गया है कि उनके माता पिता अभीर वेष में ब्राह्मण ही थे।
इसी क्रम में "लक्ष्मी-नारायणसंहिता कार नें  अहीरों की कन्या उर्वशी की एक काल्पनिक कथा उसके पूर्व जन्म में "कुतिया" की यौनि में जन्म लेने से सम्बन्धित लिखकर जोड़ दी।
जबकि उर्वशी को मत्स्य पुराण में कठिन व्रतों का अनुष्ठान करनी वाली अहीर कन्या लिखा जो स्वर्ग और पृथ्वी लोक में सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बनी ।
इसी सन्दर्भ में हम यादव योगेश कुमार रोहि उर्वशी का मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं।
_____________________________________                    "कृष्ण उवाच"
"त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।५८।
अनुवाद:- भगवान कृष्ण ने भीम से कहा:-
वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८। बात उस समय की है जब 
एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्तु स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है। 

"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते।
त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।५९।
अनुवाद:-प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में  इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।

यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६०।
अनुवाद:-इसका स्मरण और कीर्तन मात्र करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मनुष्य देवों के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त करता है।६०।
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कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।

जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
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मत्स्यपुराण अध्याय-★
   (भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
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अनुवाद-
जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस  (कल्याणनी )व्रत का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की  देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।

इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।

इस समस्त सृष्टि में व्रत तपस्या का एक कठिन रूपान्तरण है। तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है।

भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में तप के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा-

                  मूल श्लोकः
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।
अनुवाद:-मनकी प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मनका निग्रह और भावोंकी शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
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"अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।17.15।
जो वचन किसी प्राणी के अन्तःकरण में उद्वेग दुःख उत्पन्न करने वाले नहीं हैं ? तथा जो सत्य ? प्रिय और हितकारक हैं अर्थात् इस लोक और परलोकमें सर्वत्र हित करने वाले हैं ? यहाँ उद्वेग न करने वाले इत्यादि लक्षणों से वाक्य को विशेषित किया गया है और "च" पद सब लक्षणों का समुच्चय बतलाने के लिये है (अतः समझना चाहिये कि ) दूसरेको किसी बात का ज्ञान कराने के लिये कहे हुए वाक्य में यदि सत्यता? प्रियता? हितकारिता और अनुद्विग्नता -- इन सबका अथवा इनमें से किसी एक? दो या तीनका अभाव हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है। जैसे सत्य वाक्य यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है? वैसे ही प्रिय वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है? तथा हितकारक वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है। 
"उद्वेग को जन्म न देनेवाले, यथार्थ, प्रिय और हितकारक वचन (बोलना), (शास्त्रों का) स्वाध्याय और अभ्यास करना, यह वाङमयीन तप है ।
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अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।10/5।
अहिंसा -- प्राणियोंको किसी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना? समता -- चित्तका समभाव ? संतोष -- जो कुछ मिले उसी को यथेष्ट समझना? तप -- इन्द्रियसंयमपूर्वक शरीर को सुखाना( पवित्र करना ? दान -- अपनी शक्तिके अनुसार धनका विभाग करना ( दूसरोंको बाँटना ) जो वास्तव में दीन और हीन हैं।? यश -- धर्मके निमित्तसे होनेवाली कीर्ति? अपयश -- अधर्मके निमित्तसे होनेवाली अपकीर्ति। इस प्रकार जो प्राणियोंके अपने अपने कर्मों के अनुसार होने वाले बुद्धि आदि नाना प्रकारके भाव हैं ? वे सब मुझ ईश्वर से ही होते हैं।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।17/14।
अनुवाद:-
अब तीन प्रकार का तप कहा जाता है --, देव? द्विज ? गुरु और बुद्धिमान्ज्ञानी इन सबका पूजन ? शौच -- पवित्रता ? आर्जव -- सरलता? ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह सब शरीरसम्बन्धी -- शरीर द्वारा किये जानेवाले तप कहे जाते हैं ।

आभीर  लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही भगवान् विष्णु द्वारा सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक  हैं जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति के उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरोम को दी है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा( अवतारं करिष्येहं  ) और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
 शास्त्र में लिखा है कि  वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है। 
सम्पूर्ण गोप अथवा यादव विष्णु अथवा कृष्ण के अंश अथवा उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हुए है।
गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह वर्णन है।

"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्‍ण की पूजा करके, उन्‍हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा। 
उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्‍ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्‍य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे। 

 तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोको में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
क्योंकि सभी यादव मेरे ही अंश है।
शब्दार्थ:-१- ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न) २-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले। ४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले।५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में +सन् भावे  अ प्रत्यय ।= जयेच्छायां  ।६- जित्वा= जीतकर।७-अरीन्= शत्रुओ को।८- आगमिष्यन्ति =  लौट आयेंगे। ९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।
१०-बलिं = भेंट /उपहार।११- दिशाम् = दिशाओं में।
अनुवाद:-
समस्‍त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं।
वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
                 अध्याय २-)   
  
____ 

जब ब्राह्मण स्वयं को ब्राह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन हो सकते हैं।

और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् विष्णु के शरीर से उत्पन्न हैं।
इस लिए गोप अथवा यादव ब्राह्मणों से श्रेष्ठ हैं। पूज्य हैं। 
पकन्तु उन्हें इसके अनुरूप चरित्र स्थापित करने की आवश्यकता है।
देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के द्वादश सूक्त की यह नब्बे वी ऋचा।

"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।

(ऋग्वेद 10/90/12)
श्लोक का अनुवाद:- इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के  मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से  क्षत्रिय लोग हुए एवं  उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
 इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं।

 परन्तु हम इन  शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं ।

तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।
इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।
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"कृष्णस्य  लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
"आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।

(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में  यथावत् वर्णित है।
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"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥  
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२॥

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इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
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शास्त्रों में  वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।
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ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में  वैष्णव नाम से है  और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।

अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही होने से रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं  हैं।
     

गायत्री  ज्ञान की अधिष्ठात्री हुईं तो इनके अतिरिक्त सौन्दर्य की अधिष्ठात्री उर्वशी जो अप्सराओं की अधिकारिणी थी।
आभीर कन्या हीं थी यह भी मत्स्यपुराण में वर्णन है।

"ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥
सायण-भाष्य"-
अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति= उस निषंग से वाण फैकने के लिए मैं समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं  (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् = नहीं होसकता। तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति  “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्।

पुरुरवा : हे उर्वशी ! कहीं बिछड़ने से मुझे इतना दु:ख होता है कि तरकश से एक तीर भी छूटता नहीं है। मैं अब सैकड़ों गायों की सेवा अथवा पालन के लिए सक्षम नहीं हूं। मैं राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया हूं और इसलिए मेरे योद्धाओं के पास भी अब कोई काम नहीं रहा।
विशेष: गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवक" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।

"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः ।
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥

सायण-भाष्य"-
“इत्था= इत्थं = इस प्रकार  इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह । हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि । "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।

                "मत्स्य उवाच।
शृणु कर्म्मविपाकेन येन राजा पुरूरवाः।
अवाप ताद्रृशं रूपं सौभाग्यमपि चोत्तमम्। ११५.६।

"अतीते जन्मनि पुरा योऽयं राजा पुरूरवाः।
पुरूरवा इति ख्यातो मद्रदेशाधिपो हि सः।११५.७।

चाक्षुषस्यान्वये राजा चाक्षुषस्यान्तरे मनोः।
स वै नृपगुणैर्युक्तः केवलं रूपवर्जितः।११५.८ ।

पुरूरवा मद्रपतिः कर्म्मणा केन पार्थिवः।
बभूव कर्म्मणा केन रूपवांश्चैव सूतज!। ११५.९।
अनुवाद:-
शास्त्रों में पुरुरवा के जन्म की विभिन्न कथाऐं हैं
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्। राजा पुरुरवाको जिस कर्मके फलस्वरूप वैसे सुन्दर रूप और उत्तम सौभाग्यकी प्राप्ति हुई थी, वह बतला रहा हूँ, सुनो। यह राजा पुरूरवा पूर्वजन्ममें भी पुरूरवा नामसे ही विख्यात था। यह चाक्षुष मन्वन्तरमें चाक्षुष मनुके वंशमें उत्पन्न होकर मद्र देश (पंजाबका पश्चिमोत्तर भाग) का अधिपति था (जहाँका राजा शल्य तथा पाण्डुपत्त्री माद्री थी। उस समय इसमें राजाओंके सभी गुण तो विद्यमान थे, पर वह केवल रूपरहित अर्थात् कुरूप था (मत्स्यभगवान्द्वारा आगे कहे जानेवाले प्रसङ्गको ऋषियोंके पूछने पर सूतजीने वर्णन किया है, अतः इसके आगे पुनः वही प्रसङ्ग चलाया गया है।) ।6-8 ।
(मत्स्यपुराण अध्याय-115)
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सतयुग में वर्णव्यवस्था नहीं थी परन्तु एक ही वर्ण था । जिसे हंस नाम से शास्त्रों में वर्णन किया गया है। परन्तु आभीर लोग सतयुग में भी विद्यमान थे 
जब ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ था । तब आभीर जाति के लोग उपस्थित थे।
कालान्तर में भी वर्णव्यवस्था का आधार गुण और मनुष्य का कर्म ही था।
गुणकर्मानुसार वर्णविभाग ही भगवान का जाननेका मार्ग है-
"चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।         तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥१६॥
( श्रीमद्भगवद्गीता- ४/१३)
अनुवाद:-
गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं। मैं सृष्टि आदिका कर्त्ता होने पर भी मुझे अकर्ता और अव्यय ही जानना अर्थात् वर्ण और आश्रम धर्म की रचना  मेरी बहिरङ्गा प्रकृति के द्वारा ही हुई है। मैं अपने आपमें इन सब कार्यों से तटस्थ रहता हूँ॥१६॥
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प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।
"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥

"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी।       विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥

विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।      वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)
अनुवाद:-
(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है।  हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों  के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥

पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से  ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-

महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥

साहित्य और पुराण में उर्वशी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति रही है। स्वर्ग की इस अप्सरा की उत्पत्ति नारायण की जंघा से मानी जाती है। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह स्वर्ग की सर्वसुंदर अप्सरा थी। एक बार इंद्र की राजसभा में नाचते समय वह राजा पुरुरवा के प्रति क्षण भर के लिए आकृष्ट हो गई। 
इस कारण उनके नृत्य का ताल बिगड़ गया। इस अपराध के कारण राजा इंद्र ने रुष्ट होकर उसे मृत्युलोक में रहने का अभिशाप दे दिया।
 मर्त्य लोक में उसने पुरु को अपना पति चुना किंतु शर्त यह रखी कि वह पुरु को नग्न अवस्था में देख ले या पुरुरवा उसकी इच्छा के प्रतिकूल समागम करे अथवा उसके दो मेष स्थानांतरित कर दिए जाएं तो वह उनसे संबंध विच्छेद कर स्वर्ग जाने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी। 
ऊर्वशी और पुरुरवा बहुत समय तक पति पत्नी के रूप में साथ-साथ रहे। 
इनके नौ पुत्र आयु, अमावसु, श्रुतायु, दृढ़ायु, विश्वायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए। 
दीर्घ अवधि बीतने पर गंधर्वों को ऊर्वशी की अनुपस्थिति अप्रिय प्रतीत होने लगी। गंधर्वों ने विश्वावसु को उसके मेष चुराने के लिए भेजा। उस समय पुरुरवा नग्नावस्था में थे।
आहट पाकर वे उसी अवस्था में विश्वाबसु को पकड़ने दौड़े। अवसर का लाभ उठाकर गंधर्वों ने उसी समय प्रकाश कर दिया।
 जिससे उर्वशी ने पुरुरवा को नंगा देख लिया। आरोपित प्रतिबंधों के टूट जाने पर ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा को छोड़कर स्वर्ग लोक चली गई।
महाकवि कालीदास के संस्कृत महाकाव्य विक्रमोर्वशीय नाटक की कथा का आधार यही प्रसंग है। 
कालान्तर में इन कथाओं में कवियों का पूर्वाग्रह और कल्पना का भी समावेश हुआ।

उर्वशी और पुरुरवा।
ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 41 सूक्त के 21वीं ऋचा में इस प्रकार वर्णन है
 -अभि न इला यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु । 
उर्वशी वा बृहदिवा गृणानाभ्यूण्वाना प्रभूथस्यायो: ॥१९ ॥ 

अर्थ - गौ समूह की पोषणकत्री इला और उर्वशी,  नदियों की गर्जना से संयुक्त होती है वे हमारी स्तुतियों को सुनें । अत्यन्त दीप्तिमती उर्वशी हमारी स्तुतियों से प्रशंसित होकर हमारे यज्ञादि कर्म को सम्यक्रूप से आच्छदित कर हमारी हवियों को ग्रहण करें।
 जिसमे इला और उर्वशी को अभि ( संस्कृत में अभीर का स्त्रीलिंग ) कहकर कर उच्चारित किया है। इस अभि शब्द का अनुवाद डॉ गंगा सहाय शर्मा और ऋग्वेद संहिता  ने गौ समूह को पालने वाली बताया है।
सन्दर्भ
हिंदी साहित्य कोश, भाग-२, पृष्ठ- ५५
पुराणों में उर्वशी के आभीर कन्या होने के सन्दर्भ हैं। यद्यपि पूर्व में हम सन्दर्भ दे चुके हैं 
परन्तु प्रासंगिक रूप से यहाँ भी प्रस्तुत है।
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"कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।

"जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
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मत्स्यपुराण अध्याय-★
   (भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
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   अनुवाद-
जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत ( कठिन आचरण) का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की  देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी ( स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।
इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ में स्पष्ट वर्णन है। इस पुराण मेंप्राचीन भारतीय समाज, परम्पराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थयात्राओं के पवित्र स्थानों अर्थात्‌ (तीर्थों) का विवरण दिया गया है।  पद्म पुराण के सृष्टि-खण्ड का सोलहवाँ अध्याय प्रस्तुत है।, 
"गायत्री माता के विवाह काल में सप्तर्षि  अत्रि, पुलस्त्य आदि तथा उनकी पत्नियां भी उपस्थित थीं।  अत्रि मरीचि के साथ उद्गाता के रूप में सहायक थे ।  जब सावित्री ने सभी देवताओं और देवपत्नीयों को शाप दिया था तब सप्तर्षि गण और उनकी पत्नीयाँ भी सावित्री के शाप का भाजन बनी थी तभी सावित्री द्वारा प्रदत्त शाप का निवारण  आभीर कन्या गायत्री माता ने किया था । और सबको इसके प्रतिकार में  वरदान भी दिया था।

अर्थात् शाप को वरदान में बदल दिया था।इसी दौरान गायत्री ने अत्रि को भी वरदान दिया कि वे यह आभीर जाति के गोत्रप्रवर्तक सिद्ध हों। गायत्री विवाह में उपस्थित सभी सभासद गायत्री के कृपा पात्र हुए थे यह शास्त्रों प्रसिद्ध ही है। 
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अत्रि गोत्र अहीरों का गायत्री माता को वरदान स्वरूप प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि अति से चन्द्रमा और चन्द्रमा से बुध के उत्पन्न होने की परिकल्पना परवर्ती है । जो प्रक्षेप होने से प्रमाणित नहीं है।
यद्यपि अत्रि की उत्पत्ति किन्हीं ग्रन्थों में दोनों कानों से (श्रोत्राभ्यामत्रिं ।5।-श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।)
"सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायःका द्वितीय- तृतीय श्लोक)
अनुवाद:- ब्रह्मा से अत्रि उत्पन्न हुए और उनके दौनों नेत्रों से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ।
चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों कई सिद्धान्त हैं।
अत्रि की पत्नी  कर्दममुनिकन्या अनसूया थी ।
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श्लोक  9.14.3  भागवतपुराण-
"तस्य द‍ृग्भ्योऽभवत् पुत्र: सोमोऽमृतमय: किल ।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पित: पति: ॥३॥
 
शब्दार्थ:-तस्य—उस अत्रि के; दृग्भ्य:—नेत्रों से; अभवत्—उत्पन्न हुआ; पुत्र:—पुत्र; सोम:—चन्द्रमा; अमृत-मय:—अमृत से युक्त ; किल—निस्सन्देह; विप्र—ब्राह्मणों का; ओषधि—दवाओं का; और उडु-गणानाम्—तारों का; ब्रह्मणा—ब्रह्मा द्वारा; कल्पित:—नियुक्त किया गया; पति:—परम निदेशक, संचालक स्वामी( रक्षक) "पा--डति पाति रक्षयति इति पति- । १ भर्त्तरि ३ स्वामिनि ।.

अनुवाद:-अत्रि के नेत्रों से सोम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो अमृतयुक्त था । ब्रह्माजी ने उसे ब्राह्मणों, ओषधियों तथा नक्षत्रों (तारों) का पति  नियुक्त किया।
तात्पर्य:- वेदों के अनुसार सोम या चन्द्रदेव की उत्पत्ति भगवान् के मन से हुई (चन्द्रमा मनसोजात: ), किन्तु यहाँ पर सोम को अत्रि के अश्रुओं से उत्पन्न बतलाया गया है। यह वैदिक सिद्धान्त के विपरीत प्रतीत होता है,
"अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ् जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मसम्भवान् ।
इस श्लोक से पता चलता है कि अत्रि-पत्नी अनसूया के गर्भ से तीन पुत्र उत्पन्न हुए—सोम, दुर्वासा तथा दत्तात्रेय।
 
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वैश्वास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्भ्यां समुद्गताः ।
आक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ॥ १,१२.६२ ॥ 
विष्णुपुराण (प्रथमाञ्श बारहवाँ अध्याय-)
विष्णु पुराण में चन्द्रमा की उत्पत्ति ब्रह्मा के मन से बतायी है।
पद्मपुराण में ही वर्णन है कि चन्द्रमा का  जन्म  समुद्र से हुआ। 
ततः शीतांशुरभवद्देवानां प्रीतिदायकः।
ययाचे शंकरो देवो जटाभूषणकृन्मम।५२।
भविष्यति न संदेहो गृहीतोयं मया शशी।
अनुमेने च तं ब्रह्मा भूषणाय हरस्य तु।५३।

श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखण्डे लक्ष्म्युत्पत्तिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः४।

अक्ष्णोः सूर्योनिलः श्रोत्राच्चंद्रमा मनसस्तव।
प्राणोंतः सुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत।११९।

नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्त्तत।
दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम्।१२०। 
सन्दर्भ:- (पद्मपुराण प्रथमसृष्टिखण्ड अध्याय चतुर्थ) और 
विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १२ -में भी यही श्लोक 119-120 संख्या पर हैं।
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अनुवाद:-
तब देवताओं को प्रसन्न करने वाला चन्द्रमा उत्पन्न होकर ऊपर आ गया। भगवान शंकर ने याचना की: “(यह) चंद्रमा निस्संदेह मेरे जटाओं का आभूषण होगा; मैंने उसे ले लिया है''। ब्रह्मा ने उन का आभूषण होने पर सहमति व्यक्त की । ५२-५३।
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ततः शतसहस्रांशुर्मथ्यमानात्तु सागरात्।
प्रसन्नात्मा समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वलः।।48।
अनुवाद :-फिर तो उस महासागर से अनन्त किरणों बाले सूर्य के समान तेजस्वी, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेत वर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ।48।
श्रीमन्महाबारते आदिपर्वणि
आस्तीकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।।18 ।।
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शशिसूर्यनेत्रं इत्यपि अहं क्रतुः [9।16] 
इत्यादिवत्। तदङ्गजाः सर्वसुरादयोऽपि तस्मात्तदङ्गेत्यृषिभिः स्तुतास्ते इत्यृग्वेदखिलेषु।
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ऋग्वेद 10.90.13

च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षो॒: सूर्यो॑ अजायत । मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत॥

पद पाठ:-चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥

अनुवाद:

“चंद्रमा उनके मन से पैदा हुआ था; सूरज उसकी आँख से पैदा हुआ था; इन्द्र और अग्नि उसके मुख से उत्पन्न हुए, वायु उसकी श्वास से।"

च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षोः॒ सूर्यो॑ अजायत। मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥ अथर्ववेद- 9/6/7

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकान् अकल्पयन् ॥ यजुर्वेद- ३१।१२-१३ ॥

अर्थात् परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से अन्य सूर्य जैसे प्रकाश-युक्त तारागण, दो चरणों से भूमि, श्रोत्र से दिशाएं, और इसी प्रकार सब लोक उत्पन्न हुए।
 यहां एक बात विशेष है - श्रोत्र को तो बार कहा गया है । 
पहले मन्त्र में उससे वायु और प्राण की उत्पत्ति कही गयी है; दूसरे मन्त्र में उससे दिशाओं की उत्पत्ति बताई गयी है । यह एक संकेत है, कि यह उपमा केवल परमात्मा का आलंकारिक चित्र खींचने के लिए नहीं है, अपितु उससे कुछ महत्त्वपूर्ण विषय बताया जा रहा है

परन्तु गायत्री माता का गोत्र अत्रि नहीं था ये भी आभीर कन्या थीं ।
सभी अहीरों ने जब विष्णु भगवान से अपनी जाति में अवतरित होने का वरदान माँगा था तब विष्णु तथास्तु कह कर उनके स्वीकृति की पुष्टि की -
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पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।

इस लिए अत्रि ऋषि के विषय में अवान्तर कथाऐं सृजन की गयी ं।

"गायत्री के विवाह काल में सप्तर्षि में अत्रि आदि ऋषियों और उनकी पत्नी अनुसूया आदि की उपस्थिति से सम्बन्धित कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत करना अपेक्षित है। 
अत्रि और चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों में ही भिन्न भिन्न सन्दर्भ और प्रकरण हैं । इस लिए यादवों के प्रमाणभूत पूर्वज पुरुरवा  को माना जाता है। जिनका वर्णन ऋग्वेद में है।

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जब एक बार महात्मा (ब्रह्मा) ने भी यज्ञ के संचालन के लिए पुरोहितों को चुना। तो भृगु को ऋग्वेद की ऋचाओं को पढ़ने वाले आधिकारिक पुजारी के रूप में चयनित किया गया था ; पुलस्त्य को सर्वश्रेष्ठ अध्वर्यु  पुरोहित के रूप में चुना गया था। और मरीचि को उद्गाता के रूप में चुना गया था जो सामवेद के ऋचाओं का जाप करने वाला ) और नारद को चुना गया था ब्रह्मा( वेदविहित कर्मों का सम्पादक एक ऋत्विक ।
सनत्कुमार और अन्य सदस्य यज्ञ सभा के सदस्य थे। 
इसलिए दक्ष जैसे प्रजापति और ब्राह्मणों से पहले की जातियाँ (यज्ञ में शामिल हुए); ब्रह्मा के पास पुजारियों के (बैठने की) व्यवस्था की गई थी।
कुबेर ने उन्हें वस्त्र और आभूषणों से विभूषित किया. ब्राह्मणों को कंगन और पट्टिका के साथ-साथ अंगूठियों से सजाया गया था। ब्राह्मण चार, दो और दस (इस प्रकार कुल मिलाकर) सोलह थे। 

उन सभी को ब्रह्मा ने नमस्कार के साथ पूजा की थी। (उन्होंने उनसे कहा): “हे ब्राह्मणों, इस यज्ञ के दौरान तुम्हें मुझ पर अनुग्रह करना चाहिए; यह मेरी पत्नी गायत्री है; तुम मेरी शरण हो।
 विश्वकर्मन को बुलाकर , ब्राह्मणों ने ब्रह्मा का सिर मुंडवा दिया, जैसा कि एक यज्ञ में (प्रारंभिक रूप में) निर्धारित किया गया था। ब्राह्मणों ने युगल (अर्थात् ब्रह्मा और गायत्री) के लिए चर्म के कपड़े भी (सुरक्षित) किए। ब्राह्मण वहीं रह गए (अर्थात् ब्राह्मणों ने वेदों के उच्चारण से) आकाश को गुञ्जायमान कर दिया; क्षत्रिय इस संसार की रक्षा करने वाले शस्त्रों के साथ वहीं उपस्थित हो गये ; वैश्य _विभिन्न प्रकार के भोजन तैयार किए उपस्थित हो गये।;
 उत्तम स्वाद से भरपूर भोजन और खाने की वस्तुएँ भी तब बनती थीं; जिसे  पहले अनसुना और अनदेखा माना जाता था उसे सुनकर और देखकर, ब्रह्मा प्रसन्न हुए; भगवान, निर्माता, ने वैश्यों को प्रागवाट नाम दिया। (ब्रह्मा ने इसे नीचे रखा:) 'यहाँ शूद्रों को हमेशा ब्राह्मणों के चरणों की सेवा करनी पड़ती है;।
उन्हें अपने पैर धोने होंगे, उनके द्वारा (अर्थात् ब्राह्मणों) से जो कुछ बचा है उसे खाना होगा और (जमीन आदि) को साफ करना होगा। उन्होंने भी वहाँ (ये बातें) कीं; फिर उनसे फिर कहा, “मैंने आपको ब्राह्मणों, क्षत्रिय भाइयों और आप जैसे (अन्य) भाइयों की सेवा के लिए चौथे स्थान पर रखा है ; आपको तीनों की सेवा करनी है ”। ऐसा कहकर ब्रह्मा ने शंकर को और इन्द्र को द्वार-अधीक्षक के रूप में, भी नियुक्त किया । पानी देने के लिए वरुण, धन बांटने के लिए कुबेर, सुगंध देने के लिए पवन , प्रकाश के लिए सूर्य और विष्णु (मुख्य) अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए ।
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(सोम के दाता चंद्रमा ने बाईं ओर के मार्ग का सहारा लिया।
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उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।
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गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुन्धती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।
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वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।
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अनुवाद:-
112-125। सावित्री, उनकी खूबसूरत पत्नी, जो अच्छी तरह से सम्मानित थीं, को अध्वर्यु ने आमंत्रित किया था : "श्रीमती, जल्दी आओ, सभी आग उगल चुकी हैं (अर्थात् अच्छी तरह से जल चुकी हैं), दीक्षा का समय आ गया है।" परन्तु किसी काम में मग्न वह फुर्ती से नहीं आई, जैसा कि आमतौर पर महिलाओं के साथ होता ही है। “ सावित्री ने कहा:- मैंने यहाँ, द्वार पर कोई साज-सज्जा नहीं की है; मैंने दीवारों पर चित्र भी नहीं बनाए हैं; मैंने प्रांगण में स्वस्तिक  नहीं बनाया है और यहां बर्तनों की सफाई तक नहीं की गई है।
 लक्ष्मी , जो नारायण की पत्नी हैं, वह भी अभी तक नहीं आई हैं। और अग्नि की पत्नी स्वाहा  धूम्रोर्णा, यम की पत्नी; वरुण की पत्नी गौरी; ऋद्धि जोकि कुबेर की पत्नी; गौरी, शंभु की पत्नी, अभी तक कोई नहीं आयी है।  इसी तरह मेधा , श्रद्धा , विभूति , अनसूया , धृति , क्षमा और गंगा तथा सरस्वती नदियाँ भी अभी तक नहीं आई हैं। इन्द्र पत्नी इन्द्राणी( शचि) , और चंद्रमा की पत्नी रोहिणी ,जो  चंद्रमा को प्रिय है।
 इसी तरह अरुंधती, वशिष्ठ की पत्नी; इसी तरह सात ऋषियों की पत्नियां, और अनसूया, अत्रिकी पत्नी और अन्य स्त्रियाँ, बहुएँ, बेटियाँ, सहेलियाँ, बहनें अभी तक नहीं आई हैं। 
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मैं अकेला ही बहुत दिनों से यहां (उनकी प्रतीक्षा में) पड़ी हूं। मैं अकेली तब तक न जाऊँगी जब तक वे स्त्रियाँ न आ जाएँ।  जाओ और ब्रह्मा से थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कहो।

 मैं सब (उन देवियों) को लेकर शीघ्रता से आऊँगी ; हे उच्च बुद्धि वाले, आप देवताओं से घिरे हुए हैं, महान कृपा प्राप्त करेंगे; तो मैं भी करूंगी; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।" उसे इस तरह बात करते हुए छोड़कर अध्वर्यु वहाँ से  ब्रह्मा के पास पुन: आया।

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यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह।
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।
अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना।
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।
अनुवाद:-जैसे यह देवता, देवों का स्वामी, जो निश्चय ही अजर और अमर है, वैसे ही स्वर्ग भी उसके लिए अक्षय है। महान ने अन्य देवताओं को भी स्वर्ग (में स्थान) प्रदान किया है। वेद और जड़ी-बूटियाँ अग्नि में आहुति देने के लिए आई हैं।

तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्।
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।
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ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्।
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।
अनुवाद:-
वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि पृथ्वी पर जो भी अन्य जानवर हैं (देखे गए हैं) वे सभी इस भगवान द्वारा बलिदान ( यज्ञ) के लिए बनाए गए हैं। 
आपके इन वचनों को सुनकर मुझे इस विषय में एक जिज्ञासा हुई है। किस इच्छा, किस फल और किस विचार से उसने यज्ञ किया, वह सब मुझे बताओ।
कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि।
शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते।१०।
भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा।
पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापतीन्।११।
अनुवाद:-
यहाँ कहा गया है कि सौ रूपों वाली शतरूपा- महिला और  सावित्री उन्हें ब्रह्मा की पत्नी और ऋषियों की माता कहा जाता है।
 सावित्री ने पुलस्त्य और अन्य जैसे सात ऋषियों को जन्म दिया और सृजित प्राणियों के स्वामी जैसे दक्ष को भी जन्म दिया ।
नीचे शिवपुराण का वर्णन है कि

शिवपुराणम्‎  संहिता २ -(रुद्रसंहिता)‎ | खण्डः १- (सृष्टिखण्डः)
                   "ब्रह्मोवाच"
शब्दादीनि च भूतानि पंचीकृत्वाहमात्मना ।।
तेभ्यः स्थूलं नभो वायुं वह्निं चैव जलं महीम् ।१ ।

पर्वतांश्च समुद्रांश्च वृक्षादीनपि नारद।।
कलादियुगपर्येतान्कालानन्यानवासृजम् ।।२।।

सृष्ट्यंतानपरांश्चापि नाहं तुष्टोऽभव न्मुने ।।
ततो ध्यात्वा शिवं साम्बं साधकानसृजं मुने।३।

मरीचिं च स्वनेत्राभ्यां हृदयाद्भृगुमेव च ।।
शिरसोऽगिरसं व्यानात्पुलहं मुनिसत्तमम् ।४।
अनुवाद:-  ब्रहमा ने कहा कि मेैंने मरीचि को अपने दोनों नेत्रों से भृगु को हृदय से अंगिरस को शिर से पुलह को व्यान ( नामक प्राण) से 
उदानाच्च पुलस्त्यं हि वसिष्ठञ्च समानतः ।।
क्रतुं त्वपानाच्छ्रोत्राभ्यामत्रिं दक्षं च प्राणतः।५।
अनुवाद:- उदान( वायु ) से पुलस्त्य और वशिष्ठ को समान वायु से उत्पन्न किया है। और क्रतु को अपान वायु (पाद) से दोनों कानों से अत्रि ऋषि को उत्पन्न किया और प्राणों से दक्षप्रजापति-।
असृजं त्वां तदोत्संगाच्छायायाः कर्दमं मुनिम् ।।
संकल्पादसृजं धर्मं सर्वसाधनसाधनम् ।।६।।
अनुवाद:- उत्संग ( गोद ) की छाया से कर्दममुनि संकल्प से धर्म और सब साधन उत्पन्न किए ।
एवमेतानहं सृष्ट्वा कृतार्थस्साधकोत्तमान् ।।
अभवं मुनिशार्दूल महादेवप्रसादतः ।।७।।
अनुवाद:- इस मैंने उत्तम- साधकों को यह सब रचकर उन्हें कृतार्थ किया। हे मुनि श्रेष्ठ यह सब महादेव की कृपा से हुआ।

ततो मदाज्ञया तात धर्मः संकल्पसंभवः ।।
मानवं रूपमापन्नस्साधकैस्तु प्रवर्तितः ।।८।।
तत्पश्चात मेरी आज्ञा से धर्म संकल्प उत्पन्न हुआ। और मानव रूप को प्राप्त साधक प्रवर्त हो गये 
ततोऽसृजं स्वगात्रेभ्यो विविधेभ्योऽमितान्सुतान् 
सुरासुरादिकांस्तेभ्यो दत्त्वा तां तां तनुं मुने ।९।
तत्पश्चात् अपने शरीर से विभिन्न सन्तानें उत्पन्न की सुर और असुर आदि को विभिन्न शरीर प्रदान किए गये ।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।
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परन्तु महाभारत के आदिपर्व के 66वें अध्याय में वर्णन है 
ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा विदिताः षण्महर्षयः।
मरीचिरत्र्यह्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।1-66-10
अनुवाद:-कि ब्रह्मा के मन से छ: महर्षि पुत्र रूप में उत्पन्न हुए १-मरीचि २-अत्रि ३-अंगीरस ४-पुलस्त्य ५-पुलह और ६-क्रतु ।
मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः।
प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश।1-66-11
अनुवाद:- मरीचि से कश्यप पुत्र रूप में उत्पन्न हुए और कश्यप से ये सम्पूर्ण प्रजा उनकी तैरह पत्नीयों (दक्ष की पुत्रीयों ) से उत्पन्न हुई ।
महाभारत आदिपर्व 66 वाँ अध्याय-

 
ऋग्वेद में भी पुरुरवा उर्वशी का मिलन और संवाद है ।

ऋग्वेदः सूक्तं १०.९५
 ऋग्वेदः - मण्डल 10- सूक्त 95  एल- पुरुरवा और उर्वशी का मिलन की कथा- -१०

हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु ।
न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन् ॥१॥

किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
पुरूरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि॥२॥

पदार्थ:-(एता वाचा) इस मन्त्रणा वाणी से (किं कृणव) क्या करें-क्या करेंगे (तव-अहम्) तेरी मैं हूँ (उषसाम्) प्रभात ज्योतियों की (अग्रिया-इव) पूर्व ज्योति जैसी (प्र अक्रमिषम्) चली जाती हूँ-तेरे शासन में चलती हूँ (पुरूरवः) हे बहुत प्रकार से उपदेश करनेवाले पति (पुनः-अस्तम्-परा इहि) विशिष्ट सदन या शासन को प्राप्त कर (वातः-इव) वायु के समान (दुरापना) अन्य से दुष्प्राप्य (अहम्-अस्मि) मैं प्राप्त हूँ ॥२॥

इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥

पदार्थ

(इषुधेः) इषु कोश से (असना) फेंकने-योग्य-फेंका जानेवाला (इषुः) बाण (श्रिये न) विजयलक्ष्मी गृहशोभा के लिए समर्थ नहीं होता है, तुझ भार्या तुझ प्रजा के सहयोग के बिना, (रंहिः-न) मैं वेगवान् बलवान् भी नहीं बिना तेरे सहयोग के (गोषाः-शतसाः)सैकड़ो गायों का सेवक  (अवीरे) तुझ वीर पति से रहित  अबले! (उरा क्रतौ) विस्तृत यज्ञकर्म में (न विदविद्युतत्) मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता बिना तेरे सहयोग के (धुनयः) शत्रुओं को कंपानेवाले हमारे सैनिक (मायुम्) हमारे आदेश को (न चिन्तयन्त) नहीं मानते हैं बिना तेरे सहयोग के।३।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है  ।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।

वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है । 
ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा (१.२.४३) 
ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)

अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व  वैष्णव नाम से है  और  उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
विष्णु का  गोप के रूप में वेदों में वर्णन है।
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः । अतो॒ धर्मा॑णि ध॒रय॑न् ॥
त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥
तृणि पदा वि चक्रमे विष्णुर गोपा अदाभ्य:। अतो धर्माणि धारायं।।
ऋग्वेद 1/22/18

वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
विदित हो की  "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है।  
परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: 
१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है 
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार 

२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के  रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।

तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे ! 
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के  जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
क्योंकि अबीर का  मूल रूप  "बर / बीर"  है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 

अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।

अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि अफर"  जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को  जिम्बाब्वे नें था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में  यही लोग "अवर"  और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में  अफोर- आदि नामों  से विद्यमान थे ।
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।

जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।

अत: ययाति के पूर्व पुरुषों  की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। 

और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्
नहुष' और  ययाति आदि का नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है  है ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।
वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है । 
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। 
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं 
पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है ।

गोत्र की अवधारणा-
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं,।
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यद्यपि गायत्री वैष्णवी शक्ति  का अवतार हैं ।
दुर्गा भी इन्हीं का रूप है  जब ये नन्द की पुत्री बनती हैं तब इनका नाम.एकानंशा अथवा यदुवंश समुद्भवा भी होता है ।।

पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माता सावित्री है। 

इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं। 

कहा जाता है एक बार पुष्‍कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया। 

लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया। तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया और सभी शापित देवों तथा देवीयों को वरदान देकर प्रसन्न किया ये ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।
 
स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।

तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
देवी भागवत पुराण मे सहस्रनाम प्रकरण में यदुवंशसमद्भवा गायत्री सा ही नाम है।
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -
                -भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
             *-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।
रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
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गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
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पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

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धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।
अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
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अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
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तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
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भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
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ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५
वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
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बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
 ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।
- भीष्‍म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्‍ठ ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्‍येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्‍म जी ने कहा– 

भरतश्रेष्‍ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।

एकमात्र सनातन भगवान स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के सात महात्‍मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्‍ठ।

ये सभी स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्‍त प्रजापतियों का वर्णन आरम्‍भ करता हूँ।

अत्रिकुल मे उत्‍पन्‍न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्‍पन्‍न हूँ।
पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था  दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।

उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं। 

उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’ मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
कुछ लोग उन्‍हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्‍हें कश्यप के नाम से जानते हैं। 
अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्‍होंने सहस्‍त्र दिव्‍य युगों तक भगवान की उपासना की थी।
 प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्‍तम स्रष्टा) कहे गये हैं। 
धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्‍दु के दस हजार स्त्रियाँ थी। 
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अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥
मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥
धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।
यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥
कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ 
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।
                   ।।विदुर उवाच ।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।
                 ।।मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।

उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। 
इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।
फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। 

छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। 

विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
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उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।

पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। 

ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।

जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। 

जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। 

इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
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 तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
 वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। 

एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ।
इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।
इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
(भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
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उनमें से प्रत्‍येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। इस प्रकार उन महात्‍मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्‍छा नहीं करते थे।
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प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्‍पत्ति शशबिन्‍दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्‍पादक हुआ।
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संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे  १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र । 
६. समूह । जत्था । गरोह । ७. वृद्धि । बढ़ती । ८. संपत्ति । धन । दौलत । ९. पहाड़ । 
१०. बंधु । भाई । 
११. एक प्रकार का जातिविभाग । १२. वंश । कुल । खानदान । 
१३. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है । 
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विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषयों के नामों के अनुसार है ।
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सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा में यम के समय से निषिद्ध माना जाता है।
यम ने ही संसार में धर्म की स्थापना की यम का वर्णन विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में हुआ है 
जैसे कनानी संस्कृति ,नॉर्स संस्कृति ,मिश्र संस्कृति ,तथा फारस की संस्कृति और भारतीय संस्कृति आदि-में यम का वर्णन है ।
 
यम से पूर्व स्त्री और पुरुष जुड़वाँ  बहिन भाई के रूप में जन्म लेते थे ।
 
परन्तु यम ने इस विधान को मनुष्यों के लिए निषिद्ध कर दिया ।
केवल पक्षियों और कुछ अन्य जीवों में ही यह रहा । यही कारण है कि मनु और श्रद्धा भाई बहिन भी थे और पतिपत्नी भी ।

मनुष्यों के युगल स्तन ग्रन्थियाँ इसका प्रमाण हैं । 
ऋग्वेद में यम-यमी संवाद भी यम से पूर्व की दाम्पत्य व्यवस्था का प्रमाण है ।
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एक ही गोत्र के लड़का लड़की का भाई -बहन होने से  विवाह भी निषिद्ध ही है।
यद्यपि  गोत्र शब्द का प्रयोग वंश के अर्थ में  वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

ऋग्वेद में गोत्र शब्द का प्रयोग गायों को रखने के स्थान के एवं मेघ के अर्थ में हुआ है।
गोसमूह के अर्थ में गोत्र-
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त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् ।
ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥
— ऋग्वेद १/५१/३॥
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मेघ के अर्थ में ऋग्वेद में "गोत्र" के प्रयोग का भी उदाहरण :

'यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि ।
यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम् 
— ऋग्वेद ८/५०/१०॥

इसके अर्थ में समय के साथ विस्तार हुआ है।
गौशाला एक बाड़ अथवा परिसीमा में निहित स्थान है।
इस शब्द का क्रमिक विकास गौशाला से उसके साथ रहने वाले परिवार अथवा कुल  के रूप में हुआ।

इसमें विस्तार से गोत्र को विस्तार, वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।
गोत्र का अर्थ पौत्र तथा उनकी सन्तान के अर्थ में भी है । इस आधार पर यह वंश तथा उससे बने कुल-प्रवर की भी द्योतक है।
यह किसी व्यक्ति की पहचान, उसके नाम को भी बताती है तथा गोत्र के आधार पर कुल तथा कुलनाम बने हैं।

इसे समयोपरांत विभिन्न गुरुओं के कुलों (यथा कश्यप, षाण्डिल्य, भरद्वाज आदि) को पहचानने के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा। 

क्योंकि शिक्षणकाल में सभी शिष्य एक ही गुरु के आश्रम एवं गोत्र में ही रहते थे, अतः सगोत्र हुए।
यह इसकी कल्पद्रुम में दी गई व्याख्या से स्पष्ट होता है :

गोत्रम्, क्ली, गवते शब्दयति पूर्ब्बपुरुषान् यत् । इति भरतः ॥ (गु + “गुधृवीपतीति ।” उणादि । ४ । १६६ । इति त्रः ) तत्पर्य्यायः । सन्ततिः २ जननम् ३ कुलम् ४ अभिजनः ५ अन्वयः ६ वंशः ७ अन्ववायः ८ सन्तानः ९ । इत्यमरः । २ । ७ । १ ॥ आख्या । (यथा, कुमारे । ४ । ८ । “स्मरसि स्मरमेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् ॥”) सम्भावनीयबोधः । काननम् । क्षेत्रम् । वर्त्म । इति मेदिनी कोश । २६ ॥

छत्रम् । इति हेमचन्द्रःकोश ॥ संघः । वृद्धिः । इति शब्दचन्द्रिका ॥ वित्तम् । इति विश्वः ॥
यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।

गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश) 

तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
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गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।

तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।

इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।

तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका  एक अर्थ  छतरी( छत्र भी है।
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क्योंकि उस वैदिक समय  में गोत्र नहीं थे ।
गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर  14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में  उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।

यमी अपने सगे भाई यम से  संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। 
परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌
सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌
न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
पदान्वय-
न । वै । ऊं इति । ते । तन्वा । तन्वम् । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहुः । यः । स्वसारम् । निऽगच्छात् ।
अन्येन । मत् । प्रऽमुदः । कल्पयस्व । न । ते । भ्राता । सुऽभगे । वष्टि । एतत् ॥१२।
सायण-भाष्य★-
यमो यमीं प्रत्युक्तवान् । हे यमि “ते तव “तन्वा शरीरेण “तन्वम् आत्मीयं शरीरं “न “वै “सं पपृच्यां नैव संपर्चयामि । नैवाहं त्वां संभोक्तुमिच्छामीत्यर्थः । “यः भ्राता “स्वसारं भगिनीं “निगच्छात् नियमेनोपगच्छति । संभुङ्त्श इत्यर्थः । तं “पापं पापकारिणम् “आहुः । शिष्टा वदन्ति । एतज्ज्ञात्वा हे “सुभगे सुष्ठु भजनीये हे यमि त्वं “मत् मत्तः “अन्येन त्वद्योग्येन पुरुषेण सह “प्रमुदः संभोगलक्षणान् प्रहर्षान् “कल्पयस्व समर्थय । “ते तव “भ्राता यमः “एतत् ईदृशं त्वया सह मैथुनं कर्तुं “न “वष्टि न कामयते । नेच्छति ॥

“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)

इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “ एक पुर्वज अथवा पूर्वपुरुष  के पौत्र परपौत्र आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !! “
मनु स्मृति –5/60
(सपिण्डता) सहोदरता (सप्तमे पुरुषे) सातवीं पुरुष में (पीढ़ी में ) (विनिवर्तते) छूट जाती है।
(जन्म नाम्नोः) जन्म और नाम दोनों के (आवेदने)  जानने  से, (समान-उदक भावः तु) आपस में  (जलदान)का व्यवहार भी छूट जाता है।
इसलिये सूतक में सम्मिलित होना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
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सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) गुण - मानव के ।
गोत्र निर्धारण की व्याख्या करता है ।।

जीवविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता -उत्तराधिकारिता ( जेनेटिक्स हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है।

आनुवंशिकता के अध्ययन में' ग्रेगर जॉन मेंडेल "जैसे यूरोपीय जीववैज्ञानिकों  की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। 

विज्ञान की भाषा में प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। अत: कोशिका जीवन की शुक्ष्म इकाई है।

इन कोशिकाओं में कुछ  गुणसूूूूूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। 

इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ (डी .एन. ए .) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। 

यद्यपि  डी.एन.ए और आर.एन.ए दोनों ही न्यूक्लिक एसिड होते हैं।

इन दोनों की रचना "न्यूक्लिओटाइड्स"   से होती है जिनके निर्माण में कार्बन शुगर, फॉस्फेट और नाइट्रोजन बेस (आधार) की मुख्य भूमिका होती है।
डीएनए जहाँ आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है और कोशिकीय कार्यों के संपादन के लिए कोड प्रदान करता है वहीँ आर.एन.ए की भूमिका उस कोड  (संकेतावली)
को प्रोटीन में परिवर्तित करना होता है। दोेैनों ही तत्व जैनेटिक संरचना में अवयव हैं ।
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आनुवंशिक कोड (Genetic Code) डी.एन.ए और बाद में ट्रांसक्रिप्शन द्वारा बने (M–RNA पर नाइट्रोजन क्षार का विशिष्ट अनुक्रम (Sequence) है,

जिनका अनुवाद प्रोटीन के संश्लेषण के लिए एमीनो अम्ल के रूप में किया जाता है। 

एक एमिनो अम्ल निर्दिष्ट करने वाले तीन नाइट्रोजन क्षारों के समूह को कोडन, कोड या प्रकुट (Codon) कहा जाता है।

और ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए  होते हैं।
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भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः।
तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः।९८।

सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्।
प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः।९९।

ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना।
वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते।१००। 1.16.100।

अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः।
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्।
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।

पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः।
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं।१०३

यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः।
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः।१०४।

ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्।
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः।१०५।

भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे।
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः।१०६।

अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः।
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः।१०७।

द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह।
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं।१०८।

तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः।
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः।१०९।

द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः।
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्।११०।

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्।
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्।१११।

उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः।
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना।
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः।
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया।
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह।
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु।
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया।
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः।
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः।
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।

वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा।
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः।
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता।
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः।
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।

सन्दर्भ:-(पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १६)
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यादव  योगेश कुमार रोहि-

सन्दर्भ :- आभीरसंहिता-

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