गुरुवार, 10 अगस्त 2023

अश्वमेध का आयोजन-

ऋग्वेद में ' अश्वमेध ' शब्द अपने तद्धित रूप ' आश्वमेध ' के रूप के साथ पाँच बार आया है , 

"अश्वः प्रधानतया मेध्यते हिंस्यतेऽत्र मेध--हिंसने+ घञ् । यज्ञभेदे स च शतपथ ब्राह्मण १३ काण्डे पञ्चभिर्ध्यायैरुक्तः । यजुर्वेद २४ अध्याय । तदीययूपशुविशेषा विहिता यथा । तत्राद्यमन्त्रोपोद्घाते यजु० वे० दी० उक्तम्            अश्वमेधे एकविंशतिर्यूपा सन्ति तत्र मध्यमोयूपोऽग्नि- ष्ठसंज्ञः तत्र सप्तदश पशवोनियोजनीयाः( वाचस्पत्यम् कोश)

अश्वमेध शब्द का अर्थ है ' अश्वः प्रधानतया मेध्यते हिंस्यतेऽत्र , मेधु हिंसने +घञ् ' अर्थात् जिसमें मुख्य करके धोड़े का वध किया जाए वह अश्वमेध है ; मेध् धातु से , जिसका अर्थ मारना  है , घञ् प्रत्यय लगाने पर मेध शब्द सिद्ध होता है।

शब्दकल्पद्रम के अनुसार अश्वमेध शब्द का विवरण इस प्रकार है -

"यत्र लक्षणविशेषाक्रान्तमश्वं संप्रोक्ष्य कपाले जयपत्रं बद्ध्वा त्यजेत्। 

तद्रक्षार्थ पुरुषविशेषं नियोजयेत् संवत्सरान्ते अश्वे आगते सति अथवा केनापि संवद्धे युद्धं कृत्वा तमानीय यथाविधि वधं कृत्वा तद्वपया होमः कर्तव्यः। कामनानुसारेण तत्फलम् ; मोक्षः , ब्रह्महत्या पापचयः , स्वर्गश्च।

अर्थ - जिस यज्ञ में लक्षण - विशेषों से युक्त घोड़े को , उस पर पवित्र करनेवाले जल को मंत्रोच्चारणपूर्वक छिड़ककर तथा उसके कपाल पर जयपत्र बाँधकर छोड़ दिया जाता है। उसकी रक्षा के लिए पुरुष - विशेषों को नियुक्त कर दिया जाता है । वर्ष के अन्त में घोड़े के लौट आने पर वा यदि किसी ने उस घोड़े को बाँध रखा , तो उस बाँधनेवाले को युद्ध में हराकर घोड़े को वापस लाने पर उसे शास्त्रोक्त विधि के अनुसार मारकर उसकी चर्बी से होम किया जाता है । कामना के अनुसार फल की प्राप्ति होती है ।      मोक्ष , ब्रह्महत्या जनित पाप का नाश , स्वर्ग आदि इसके फल हैं ।

अभिनव गुप्त ने भी अपने तन्त्रसार ग्रन्थ में चतुर्दशाह्निकम् में लिखा है।

"ततोऽग्नौ परमेश्वरं तिलाज्यादिभिः सन्तर्प्य तदग्रेऽन्यं पशुं वपाहोमार्थं कुर्याद्देवताचक्रं तद्वपया तर्पयेत्पुनर्मण्डलं पूजयेत्ततः परमेश्वरं विज्ञप्य सर्वाभिन्नसमस्तषडध्वपरिपूर्णमात्मानं भावयित्वा शिष्यं पुरोऽवस्थितं कुर्यात्। 

वपा= चरबी। मेद। तद्वपया=उस चरबी के द्वारा !

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आश्वलायन श्रौत सूत्र (10। 6। 1) का कथन है कि जो सब पदार्थो को प्राप्त करना चाहता है, सब विजयों का इच्छुक होता है और समस्त समृद्धि पाने की कामना करता है वह इस यज्ञ का अधिकारी है।

 इसलिए सार्वीभौम के अतिरिक्त भी मूर्धाभिषिक्त राजा अश्वमेध कर सकता था (आप.श्रौत. 20। 1। 1।; लाट्यायन 9। 10। 17)। यह अति प्राचीन यज्ञ प्रतीत होता है क्योंकि ऋग्वेद के दो सूक्तों में (1। 162; 1। 163) अश्वमेधीय अश्व तथा उसके हवन का विशेष विवरण दिया गया है। शतपथ (13। 1-5) तथा तैतिरीय ब्राह्मणों (3। 8-9) में इसका बड़ा ही विशद वर्णन उपलब्ध है जिसका अनुसरण श्रौत सूत्रों, वाल्मीकीय रामायण (1। 13), महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में तथा जैमिनीय अश्वमेध में किया गया है।

ऋग्वेद के सूक्त मे आप अश्वमेध का वर्णन देख सकते हैं -


ऋग्वेद १।१६२।१९ मन्त्र में ' ऋतु ' को ' अश्व ' का विशस्ता कहा गया है । ' ऋतु ' का अर्थ सायण ने ' कालात्मा ' किया है । ' तस्यैव सर्वेषामपि पर्यवसितृत्वात् ' । इससे भी प्रतीत होता है कि यहाँ उस अश्वमेध यज्ञ से तात्पर्य नहीं है जिसका गाथाओं में वर्णन है ।

सायण ने ऋग्वेद मंडल १ , सूक्त १६२ के मंत्रों को अश्वमेध यज्ञ से सम्बन्धित किया है । प्रायः बहुत से लोगों का विचार है कि ऋग्वेद के १६२ सूक्त में 'अश्वमेध ' का वर्णन है । परन्तु यदि मंत्रों की अन्तःसाक्षी ली जाय तो किसी मंत्र से घोड़े के यज्ञ में मारने का विधान नहीं मिलता ।

अश्वमेघ शब्द तो समस्त सूक्त में है ही नहीं , ' अश्व ' शब्द अवश्य है । और इस सूक्त का देवता ' अश्व ' मानने में भी कल्पना से काम लिया गया गया है । सायण लिखते हैं - ' या तेनोच्यते सा देवता ' इति न्यायेन अश्व देवता ' । अर्थात् ' अश्व ' की स्तुति होने के कारण इस सूक्त का देवता ' अश्व ' है । ' अनुक्रमणिका ' के आधार पर ' अश्वमेधस्य मध्यमे ऽहनि अध्रिगु प्रैषे ' श्रधि गोशमीध्वम् ' , इति । यह मान लिया कि समस्त सूक्त में अश्वमेध यज्ञ में घोड़ा मारने का उल्लेख है

 'त्रीणि सुत्यानि भवन्ति ' इति खण्डे सूत्रितम् ' अधिगो शर्माध्व मिति शिष्ट्वा षड्विंशतिरस्य वऽक्रय इति वा मानो मित्र इत्यावपेत ( आश्वलायन ० सू ० १०८ ) इति।

अर्थात् वेद के मंत्रों में तो स्पष्ट विधि है नहीं , आश्वलायन श्रौत सूत्र आदि में विस्तार दिया है । उसी के साथ संगति बिठा लेने के लिये समस्त सूक्त का वैसा ही अर्थ किया गया ।

अब रामायण के बाल काण्ड मे अश्वमेध यज्ञ का वर्णन देखे -

श्री रामायण    काण्ड 1: बाल काण्ड  अध्याय 14: महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान श्लोक 30


श्लोक  1.14.30  
नियुक्तास्तत्र पशवस्तत्तदुद्दिश्य दैवतम्।
उरगाः पक्षिणश्चैव यथाशास्त्रं प्रचोदिताः॥३०॥
अनुवाद:-
वहाँ पूर्वोक्त यूपोंमें शास्त्रविहित पशु, सर्प और पक्षी विभिन्न देवताओंके उद्देश्यसे बाँधे गये थे।
श्री रामायण  काण्ड 1: बाल काण्ड   अध्याय 14: महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान  श्लोक 31
 
 
श्लोक  1.14.31  
शामित्रे तु हयस्तत्र तथा जलचराश्च ये।
ऋषिभिः सर्वमेवैतन्नियुक्तं शास्त्रतस्तदा॥३१॥
 
अनुवाद:-
शामित्र कर्म में यज्ञिय अश्व तथा कूर्म आदि जलचर जन्तु जो वहाँ लाये गये थे, ऋषियों ने उन सबको शास्त्रविधिके अनुसार पूर्वोक्त यूपों में बाँध दिया।

श्लोक  1.14.32  
पशूनां त्रिशतं तत्र यूपेषु नियतं तदा।
अश्वरत्नोत्तमं तत्र राज्ञो दशरथस्य ह॥३२॥
 
अनुवाद:-
उस समय उन यूपों में तीन सौ पशु बँधे हुए थे तथा राजा दशरथका वह उत्तम अश्वरत्न भी वहीं बाँधा गया था।

श्लोक  1.14.33  
कौसल्या तं हयं तत्र परिचर्य समन्ततः।
कृपाणैर्विशशारैनं त्रिभिः परमया मदा॥३३॥
 
अनुवाद:-
रानी कौसल्या ने वहाँ प्रोक्षण आदि के द्वारा सब ओरसे उस अश्व का संस्कार करके बड़ी प्रसन्नता के साथ तीन तलवारों से उसका स्पर्श किया।

पतत्त्रिणा तदा सार्धं सुस्थितेन च चेतसा।
अवसद् रजनीमेकां कौसल्या धर्मकाम्यया॥३४॥
अनुवाद
तदनन्तर कौसल्या देवीने सुस्थिर चित्त से धर्मपालन की इच्छा रखकर उस अश्व के निकट एक रात निवास किया।

श्लोक  1.14.35  
होताध्वर्युस्तथोद्गाता हस्तेन समयोजयन्।
महिष्या परिवृत्त्यार्थं वावातामपरां तथा॥३५॥
 
अनुवाद:-
तत्पश्चात् होता, अध्वर्यु और उद्गाता ने राजाकी (क्षत्रियजातीय) महिषी ‘कौसल्या’, (वैश्यजातीय स्त्री) ‘वावाता’ तथा (शूद्रजातीय स्त्री) ‘परिवृत्ति’-इन सबके हाथ से उस अश्वका स्पर्श कराया।

तात्पर्य:-
जाति के अनुसार नाम अलग-अलग होते हैं। दशरथ के तो कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा तीनों क्षत्रिय जाति की ही थीं।
श्लोक  1.14.36  
पतत्त्रिणस्तस्य वपामुद्धृत्य नियतेन्द्रियः।
ऋत्विक्परमसम्पन्नः श्रपयामास शास्त्रतः॥३६॥
अनुवाद:-
इसके बाद परम चतुर जितेन्द्रिय ऋत्विक्ने विधिपूर्वक अश्वकन्द के गूदे को निकालकर शास्त्रोक्त रीतिसे पकाया।

श्लोक  1.14.37  
धूमगन्धं वपायास्तु जिघ्रति स्म नराधिपः।
यथाकालं यथान्यायं निर्णदन् पापमात्मनः॥३७॥
 
अनुवाद:-
तत्पश्चात् उस गूदे की आहुति दी गयी। राजा दशरथ ने अपने पाप को दूर करने के लिये ठीक समय पर आकर विधि पूर्वक उसके धूएँ की गन्ध को सूंघा ।


श्लोक  1.14.38  
हयस्य यानि चांगानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः।
अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत् समस्ताः षोडशर्विजः॥३८॥
 
अनुवाद:-
उस अश्वमेध यज्ञके अंगभूत जो-जो हवनीय पदार्थ थे, उन सबको लेकर समस्त सोलह ऋत्विज् ब्राह्मण अग्निमें विधिवत् आहुति देने लगे।
 
श्लोक  1.14.39  
प्लक्षशाखासु यज्ञानामन्येषां क्रियते हविः।
अश्वमेधस्य यज्ञस्य वैतसो भाग इष्यते॥३९॥
अनुवाद:-
अश्वमेधके अतिरिक्त अन्य यज्ञों में जो हवि दी जाती है, वह पाखर की शाखाओं में रखकर दी जाती है; परंतु अश्वमेध यज्ञका हविष्य बेंत की चटाईमें रखकर देने का नियम है।

श्लोक  1.14.40-41  
"त्र्यहोऽश्वमेधः संख्यातः कल्पसूत्रेण ब्राह्मणैः।
चतुष्टोममहस्तस्य प्रथमं परिकल्पितम्॥४०॥
उक्थ्यं द्वितीयं संख्यातमतिरानं तथोत्तरम्।
कारितास्तत्र बहवो विहिताः शास्त्रदर्शनात्॥४१॥
 
अनुवाद:-
कल्पसूत्र और ब्राह्मणग्रन्थोंके द्वारा अश्वमेध के तीन सवनीय दिन बताये गये हैं। उनमेंसे प्रथम दिन जो सवन होता है, उसे चतुष्टोम (‘अग्निष्टोम’) कहा गया है। द्वितीय दिवस साध्य सवनको ‘उक्थ्य’ नाम दिया गया है तथा तीसरे दिन जिस सवनका अनुष्ठान होता है, उसे ‘अतिरात्र’ कहते हैं। उसमें शास्त्रीय दृष्टिसे विहित बहुत-से दूसरे-दूसरे क्रतु भी सम्पन्न किये गये।

श्लोक  1.14.42  
ज्योतिष्टोमायुषी चैवमतिरात्रौ च निर्मितौ।
अभिजिद्विश्वजिच्चैवमाप्तोर्यामौ महाक्रतुः॥४२॥
 
अनुवाद:-
ज्योतिष्टोम, आयुष्टोम यज्ञ, दो बार अतिरात्र यज्ञ, पाँचवाँ अभिजित् , छठा विश्वजित् तथा सातवें-आठवें आप्तोर्याम—ये सब-के-सब महाक्रतु माने गये हैं, जो अश्वमेधके उत्तर कालमें सम्पादित हुए।

वाल्मीकि रामायण महाभारत , आश्वलायन आदि गृह्य सूत्रों , शतपथ आदि ब्राह्मणों में अश्वमेध यज्ञ का वर्णन कई रूपों से मिलता है  रूप भी भिन्न भिन्न है। 

विधियां भी भिन्न -भिन्न हैं और उन विधियों के आधार रूप गाथायें भी भिन्न - भिन्न हैं कहीं - कहीं तो अप्राकृतिकता और अश्लीलता ने घोर रूप धारण कर लिया है , जैसे महीधर कृत यजुर्वेद भाष्य में देखो यजुर्वेद - भाष्य , अध्याय २३ , मन्त्र १९ आदि इनके विषय में ग्रिफिथ तक को लिखना पड़ा कि यह मंत्र इतने अश्लील हैं कि मैं इनका अनुवाद अंग्रजी भाषा में कर ही नहीं सकता।

पाश्चात्य विद्वान लिखते हैं कि , अश्वमेध यज्ञ का एक आवश्यक हिस्सा यह था कि मेधित (मृत अश्व ) का लिंग यजमान की मुख्य पत्नी की योनि में ब्राह्मणों द्वारा पर्याप्त मंत्रोच्चारण करते हुए डाला जाता था ।

वाजसनेयी संहिता का एक मंत्र- 23 .18 प्रकट करता है कि रानियों के बीच इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा रहा करती थी कि घोड़े से योजित होने का श्रेय किसे प्राप्त होता है। जो इस विषय में और अधिक जानना चाहते हैं , वे यजुर्वेद की महीधर की टीका में ज्यादा विस्तार से पढ़ सकते हैं , जहां वह इस बीभत्स अनुष्ठान का पूरा विवरण देते हैं जो वैदिक धर्म का अंग था ।

इस विषय पर भिक्षु निर्गुणानंद की पुस्तक का ये  उद्धरण पढे़ -

“अश्वमेध यज्ञ में एक घोड़े को विधिवत अभिषिक्त करके अन्य १०० घोड़ों के साथ स्वतन्त्र विचरने के लिए छोड़ दिया जाता था । उसके संरक्षण के लिए सैनिकों की एक टुकड़ी साथ - साथ चलती थी। एक प्रकार से यह घोड़ा दूसरे राजाओं के लिए अपने - अपने बलाबल का परीक्षण करने का चेलेंज था । उसके बाद लगभग एक वर्ष तक राजा अपनी रानी और उसकी बांदियों को साथ लेकर प्रतिदिन यज्ञ करता रहता था। 

वर्ष की समाप्ति पर घोड़ा वापस मंगा लिया जाता था । अनेक क्रिया - कलापों के अनन्तर घोड़े की हत्या कर दी जाती थी और उसका मांस भूना जाता था 

घोड़े का अभिषेक करते समय रानी ( गृह पत्नी ) घोड़े से । कहती थी कि हे अश्व ! तू मेरे पास आ , मैं तेरे वीर्य को अपने अन्दर धारण करूगो , मैं तुम्हारे वीर्य से गभित होना चाहती हूँ ; यही कहते - कहते वह घोड़े की मूत्रन्द्रिय को लेकर अपनी भग में घुसेड़ लेती थी । तब अन्य पत्नियों द्वारा भी इसी प्रकार पूजा की जाती थी। (यजुर्वेद २३ - १६ - २१ ) । ”

  आश्वमेधिकाहुति मन्त्राः


23.1
हिरण्यगर्भः सम् अवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिर् एकऽआसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्याम् उतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

23.2
उपयामगृहीतो ऽसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णामि ।
एष ते योनिः सूर्यस् ते महिमा ।
यस् ते ऽहन्त् संवत्सरे महिमा संबभूव यस् ते वायाव् अन्तरिक्षे महिमा संबभूव यस् ते दिवि सूर्ये महिमा संबभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये स्वाहा देवेभ्यः ॥

23.3
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद् राजा जगतो बभूव ।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश् चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

23.4
उपयामगृहीतो ऽसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णामि ।
एष ते योनिश् चन्द्रस् ते महिमा ।
यस् ते रात्रौ संवत्सरे महिमा संबभूव यस् ते पृथिव्याम् अग्नौ महिमा संबभूव यस् ते नक्षत्रेषु चन्द्रमसि महिमा संबभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यः स्वाहा ॥

23.5
युञ्जन्ति ब्रध्नम् अरुषं चरन्तं परि तस्थुषः ।
रोचन्ते रोचना दिवि ॥

23.6
युञ्जन्त्य् अस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे ।
शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥

23.7
यद् वातो ऽ अपो ऽ अगनीगन् प्रियाम् इन्द्रस्य तन्वम् ।
एतꣳ स्तोतर् अनेन पथा पुनर् अश्वम् आ वर्तयासि नः॥

23.8
वसवस् त्वाञ्जन्तु गायत्रेण छन्दसा ।
रुद्रास् त्वाञ्जन्तु त्रैष्टुभेन छन्दसा ।
आदित्यास् त्वाञ्जन्तु जागतेन छन्दसा ।
भूर् भुवः स्वर् लाजी3ञ् छाची3न् यव्ये गव्यऽ एतद् अन्नम् अत्त देवा ऽ एतद् अन्नम् अद्धि प्रजापते ॥

23.9
कः स्विद् एकाकी चरति क ऽ उ स्विज् जायते पुनः ।
किꣳ स्विद्धिमस्य भेषजं किम् व् आवपनं महत् ॥

23.10
सूर्य ऽ एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः ।
अग्निर् हिमस्य भेषजं भूमिर् आवपनं महत् ॥

23.11
का स्विद् आसीत् पूर्वचित्तिः किꣳ स्विद् आसीद् बृहद् वयः ।
का स्विद् आसीत् पिलिप्पिला का स्विद् आसीत् पिशङ्गिला ॥

23.12
द्यौर् आसीत् पूर्वचित्तिः अश्व ऽ आसीद् बृहद् वयः 
अविर् आसीत् पिलिप्पिला रात्रिर् आसीत् पिशङ्गिला ॥

23.13
वायुष् ट्वा पचतैर् अवतु ।
असितग्रीवश् छागैः ।
न्यग्रोधश् चमसैः ।
शल्मलिर् वृद्ध्या ।
एष स्य राथ्यो वृषा ।
पड्भिश् चतुर्भिर् एद् अगन् ।
ब्रह्माकृष्णश् च नो ऽवतु ।
नमो ऽग्नये ॥

23.14
सꣳशितो रश्मिना रथः सꣳशितो रश्मिना हयः ।
सꣳशितो अप्स्व् अप्सुजा ब्रह्मा सोमपुरोगवः ॥

23.15
स्वयं वाजिꣳस् तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व ।
महिमा ते ऽन्येन न संनशे ॥
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23.16
न वा ऽ उ ऽ एतन् म्रियसे न रिष्यसि देवाꣳ२ऽ इद् एषि पथिभिः सुगेभिः ।
यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययुस् तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥

23.17
अग्निः पशुर् आसीत् तेनायजन्त स ऽ एतं लोकम् अजयद् यस्मिन्न् अग्निः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैता ऽ अपः ।
वायुः पशुर् आसीत् तेनायजन्त स ऽ एतं लोकम् अजयद् यस्मिन् वायुः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैता ऽ अपः ।
सूर्यः पशुर् आसीत् तेनायजन्त स ऽ एतं लोकम् अजयद् यस्मिन्त् सूर्यः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैता ऽ अपः ॥

23.18
प्राणाय स्वाहा ।
अपानाय स्वाहा ।
व्यानाय स्वाहा अम्बे ऽ अम्बिके ऽम्बालिके न मा नयति कश् चन ।
ससस्त्य् अश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम् 

23.19
गणानां त्वा गणपतिꣳ हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिꣳ हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिꣳ हवामहे वसो मम ।
आहम् अजानि गर्भधम् आ त्वम् अजासि गर्भधम् ॥

23.20
ता ऽ उभौ चतुरः पदः सम्प्र सारयाव स्वर्गे लोके प्रोर्णुवाथां वृषा वाजी रेतोधा रेतो दधातु 

23.21
उत्सक्थ्या ऽ अव गुदं धेहि सम् अञ्जिं चारया वृषन् ।
य स्त्रीणां जीवभोजनः ॥

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23.22
यकासकौ शकुन्तिकाहलग् इति वञ्चति ।
आ हन्ति गभे पसो निगल्गलीति धारका ॥

23.23
यको ऽसकौ शकुन्तक ऽ आहलग् इति वञ्चति ।
विवक्षत ऽ इव ते मुखम् अध्वर्यो मा नस् त्वम् अभि भाषथाः ॥

23.24
माता च ते पिता च ते ऽग्रं वृक्षस्य रोहतः ।
प्रतिलामीति ते पिता गभे मुष्टिम् अतꣳसयत् ॥

23.25
माता च ते पिता च ते ऽग्रे वृक्षस्य क्रीडतः ।
विवक्षत ऽइव ते मुखं ब्रह्मन् मा नस् त्वं वदो बहु ॥

23.26
ऊर्ध्वम् एनाम् उच्छ्रापय गिरौ भारꣳ हरन्न् इव ।
अथास्यै मध्यम् एधताꣳ शीते वाते पुनन्न् इव ॥

23.27
ऊर्ध्वम् एनम् उच्छ्रापय गिरौ भारꣳ हरन्न् इव ।
अथास्य मध्यम् एजतु शीते वाते पुनन्न् इव ॥

23.28
यद् अस्या ऽ अꣳहुभेद्याः कृधु स्थूलम् उपातसत् ।
मुष्काविदस्या ऽ एजतो गोशफे शकुलाव् इव ॥

23.29
यद् देवासो ललामगुं प्र विष्टीमिनम् आविषुः ।
सक्थ्ना देदिश्यते नारी सत्यस्याक्षिभुवो यथा ॥

23.30
यद्धरिणो यवम् अत्ति न पुष्टं पशु मन्यते ।
शूद्रा यद् अर्यजारा न पोषाय धनायति ॥

23.31
यद्धरिणो यवम् अत्ति न पुष्टं बहु मन्यते ।
शूद्रो यद् अर्यायै जारो न पोषम् अनु मन्यते ॥

23.32
दधिक्राव्णो ऽ अकारिषं जिष्णोर् अश्वस्य वाजिनः 
सुरभि नो मुखा करत् प्र ण ऽ आयूꣳषि तारिषत् ॥

23.33
गायत्री त्रिष्टुब् जगत्य् अनुष्टुप् पङ्क्त्या सह ।
बृहत्य् उष्णिहा ककुप् सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥

23.34
द्विपदा याश् चतुष्पदास् त्रिपदा याश् च षट्पदाः ।
विच्छन्दा याश् च सच्छन्दाः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा 

23.35
महानाम्न्यो रेवत्यो विश्वा आशाः प्रभूवरीः ।
मैघीर् विद्युतो वाचः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥

23.36
नार्यस् ते पत्न्यो लोम विचिन्वन्तु मनीषया ।
देवानां पत्न्यो दिशः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥

23.37
रजता हरिणीः सीसा युजो युज्यन्ते कर्मभिः ।
अश्वस्य वाजिनस् त्वचि सिमाः शम्यन्तु शम्यन्तीः 

23.38
कुविद् अङ्ग यवमन्तो यवं चिद् यथा दान्त्य् अनुपूर्वं वियूय ।
इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नम ऽ उक्तिं यजन्ति ॥

23.39
कस् त्वा छ्यति कस् त्वा वि शास्ति कस् ते गात्राणि शम्यति ।
क ऽ उ ते शमिता कविः ॥

23.40
ऋतवस्त ऽ ऋतुथा पर्व शमितारो वि शासतु ।
संवत्सरस्य तेजसा शमीभिः शम्यन्तु त्वा ॥

23.41
अर्धमासाः परूꣳषि ते मासा ऽ आ च्छ्यन्तु शम्यन्तः ।
अहोरात्राणि मरुतो विलिष्टꣳ सूदयन्तु ते ॥

23.42
दैव्या ऽ अध्वर्यवस् त्वा छ्यन्तु वि च आसतु ।
गात्राणि पर्वशस् ते सिमाः कृण्वन्तु शम्यन्तीः ॥

23.43
द्यौस् ते पृथिव्यन्तरिक्षं वायुश् छिद्रं पृणातु ते ।
सूयस् ते नक्षत्रैः सह लोकं कृणोतु साधुया ॥

23.44
शं ते परेभ्यो गात्रेभ्यः शम् अस्त्व् अवरेभ्यः ।
शम् अस्थभ्यो मज्जभ्यः शम् व् अस्तु तन्वै तव ॥

23.45
कः स्विद् एकाकी चरति क ऽ उ स्विज् जायते पुनः ।
किꣳ स्विद्धिमस्य भेषजं किम् व् आवपनं महत् ॥

23.46
सूर्य ऽ एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः ।
अग्निर् हिमस्य भेषजं भूमिर् आवपनं महत् ॥

23.47
किꣳ स्वित् सूर्यसमं ज्योतिः किꣳ समुद्रसमꣳ सरः 
किꣳ स्वित् पृथिव्यै वर्षीयः कस्य मात्रा न विद्यते ॥

23.48
ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिर् द्यौः समुद्रसमꣳ सरः ।
इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान् गोस् तु मात्रा न विद्यते ॥

23.49
पृच्छामि त्वा चितये देवसख यदि त्वम् अत्र मनसा जगन्थ ।
येषु विष्णुस् त्रिषु पदेष्व् एष्टस् तेषु विश्वं भुवनम् आ विवेशाꣳ३ऽ ॥

23.50
अपि तेषु त्रिषु पदेष्व् अस्मि येषु विश्वं भुवनम् आविवेश ।
सद्यः पर्य् एमि पृथिवीम् उत द्याम् एकेनाङ्गेन दिवो ऽ अस्य पृष्ठम् ॥

23.51
केष्व् अन्तः पुरुष ऽ आ विवेश कान्य् अन्तः पुरुषे ऽ अर्पितानि ।
एतद् ब्रह्मन्न् उपवल्हामसि त्वा किꣳ स्विन् नः प्रति वोचास्य् अत्र ॥

23.52
पञ्चस्व् अन्तः पुरुष ऽ आ विवेश तान्य् अन्तः पुरुषे ऽ अर्पितानि ।
एतत् त्वात्र प्रतिमन्वानो ऽ अस्मि न मायया भवस्य् उत्तरो मत् ॥

23.53
का स्विद् आसीत् पूर्वचित्तिः किꣳ स्विद् आसीद् बृहद् वयः ।
का स्विद् आसीत् पिलिप्पिला का स्विद् आसीत् पिशङ्गिला ॥

23.54
द्यौर् आसीत् पूर्वचित्तिः अश्वऽ आसीद् बृहद् वयः 
अविर् आसीत् पिलिप्पिला रात्रिर् आसीत् पिशङ्गिला ॥

23.55
का ऽ ईमरे पिशंगिला का ऽ ईं कुरुपिशंगिला ।
क ऽ ईम् आस्कन्दम् अर्षति क ऽ ईं पन्थां वि सर्पति ॥

23.56
अजारे पिशंगिला श्वावित् कुरुपिशंगिला ।
शश आस्कन्दम् अर्षत्य् अहिः पन्थां वि सर्पति ॥

23.57
कत्य् अस्य विष्ठाः कत्य् अक्षराणि कति होमासः कतिधा समिद्धः ।
यज्ञस्य त्वा विदथा पृच्छम् अत्र कति होतार ऽ ऋतुशो यजन्ति ॥

23.58
षड् अस्य विष्ठाः शतम् अक्षराण्य् अशीतिर् होमाः समिधो ह तिस्रः ।
यज्ञस्य ते विदथा प्र ब्रवीमि सप्त होतार ऋतुशो यजन्ति ॥

23.59
को ऽ अस्य वेद भुवनस्य नाभिं को द्यावापृथिवी ऽ अन्तरिक्षम् ।
कः सूर्यस्य वेद बृहतो जनित्रं को वेद चन्द्रमसं यतोजाः ॥

23.60
वेदाहम् अस्य भुवनस्य नाभिं वेद द्यावापृथिवी ऽ अन्तरिक्षम् ।
वेद सूर्यस्य बृहतो जनित्रं अथो वेद चन्द्रमसं यतोजाः ॥

23.61
पृच्छामि त्वा परम् अन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः ।
पृच्छामि त्वा वृष्णो ऽ अश्वस्य रेतः पृच्छामि वाचः परमं व्योम ॥

23.62
इयं वेदिः परो ऽ अन्तः पृथिव्या ऽ अयं यज्ञो यत्र भुवनस्य नाभिः ।
अयꣳ सोमो वृष्णो ऽ अश्वस्य रेतः ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥

23.63
सुभूः स्वयम्भूः प्रथमो ऽन्तर् महत्य् अर्णवे ।
दधे ह गर्भम् ऋत्वियं यतो जातः प्रजापतिः ॥

23.64
होता यक्षत् प्रजापतिꣳ सोमस्य महिम्नः ।
जुषतां पिबतु सोमꣳ होतर् यज ॥

23.65
प्रजापते न त्वद् एतान्य् अन्यो विश्वा रूपाणि परि ता बभूव ।
यत्कामास् ते जुहुमस् तन् नो ऽ अस्तु । वयꣳ स्याम पतयो रयीणाम्॥

भाष्यम्(उवट-महीधर)

त्रयोविंशोऽध्यायः।
 
तत्र प्रथमा।
हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत् ।
स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ।। १ ।।
उ०. हिरण्यगर्भः सम् । महिम्नः पुरोरुक् । व्याख्यातम् ॥ १॥
म०. द्वाविंशे होममन्त्रास्त्रयोविंशेऽध्याये शिष्टं कर्मोच्यते । 'प्रातरुक्थ्यो महिमानौ गृह्णाति सौवर्णेन पूर्व ᳪं᳭ हिरण्यगर्भ इति' (का० । २० । ५। १-२)। प्रातर्द्वितीयेऽहनि उक्थ्यसंस्थमहर्भवति तत्र महिमसंज्ञौ द्वौ ग्रहौ गृह्णाति आगन्तुत्वादाग्रयणोक्थ्ययोर्मध्ये तौ गृह्णाति 'अन्तराग्रयणोक्थ्यावागन्स्थातुं ग्रहाणाम्' इति वचनात् द्वयोर्मध्ये पूर्वं महिमानं सौवर्णेनोलूखलेन गृह्णाति । व्याख्याता (अ० १३ । क० ४) ॥१॥

द्वितीया ।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि प्र॒जाप॑तये त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒: सूर्य॑स्ते महि॒मा ।
यस्तेऽह॑न्त्संवत्स॒रे म॑हि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ यस्ते॑ वा॒याव॒न्तरि॑क्षे महि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ यस्ते॑ दि॒वि सूर्ये॑ महि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ तस्मै॑ ते महि॒म्ने प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑ दे॒वेभ्य॑: ।। २ ।।
उ० उपयामगृहीतोसि । प्रजापतये त्वा जुष्टमभिरुचितं गृह्णामि । सादयति । एष ते तव योनिः स्थानं सूर्यस्तव महिमा महाभाग्यं शक्तिः दीपस्येव प्रभा । जुहोति । यस्तेऽहन् यस्तव अहनि संवत्सरे च महिमा संबभूव संभूत उत्पनः । अहनि निमित्तभूते सर्वाण्येव भूतानि संपद्यन्ते । निमित्तसप्तम्यश्चैताः । 'चर्मणि द्वीपिनं हन्ति दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम्' इति यथा । यः ते वायौ अन्तरिक्षे च महिमा संबभूव । यस्ते दिवि सूर्ये च महिमा संबभूव । तस्मै ते तव महिम्ने प्रजापतये च स्वाहा देवेभ्यश्च ॥ २ ॥
म० उपयाम० प्रजापतये जुष्टं रुचितं त्वां हे ग्रह, अहं गृह्णामि । 'एष ते योनिरिति ग्रहसादनम्' (का० ९ । ५ । २५) । एष ते योनिः स्थानं ते तव महिमा शक्तिः सूर्यः दीपस्येव प्रभा । 'यस्तेऽहन्निति जुहोति' (का० २० । ७ । १६) । पूर्वमहिमानं ग्रहं जुहोति वषट्कृते सर्वहुतम् । देवदेवत्यं यजुः द्व्यधिका शक्वरी । हे महिमन् , यः ते तव महिमा अहन् अह्नि दिवसे संवत्सरे च निमित्ते संबभूव उत्पन्नः, वायौ अन्तरिक्षे च यः तव महिमा संबभूव, दिवि सूर्ये च यस्ते महिमा संबभूव ते तव तस्मै महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यश्च स्वाहा सुहुतमस्तु ॥ २ ॥

तृतीया।
यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक॒ इद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑ ।
य ईशे॑ अ॒स्य द्वि॒पद॒श्चतु॑ष्पदः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ।। ३ ।।
उ० द्वितीयं गृह्णाति तस्य पुरोरुक्यः प्राणतः कायी प्राजापत्या । यः कः प्रजापतिः प्राणतः प्राणनं कुर्वतः भूतग्रामस्य निमिषतः निमेषणं कुर्वतः क्रियावत इत्यर्थान्तरम् महित्वा स्वकीयेन महाभाग्येन । एकइत् । इच्छब्द एवार्थे । एकएव समस्तस्य जगतो राजा बभूव संवृत्तः । यश्च ईशे ईष्टे अस्य द्विपदः प्राणिजातस्य यश्च चतुष्पदः ईष्टे प्राणिजातस्य । तस्मै कस्मै देवाय प्रजापतये हविषा विधेम । विदधातिर्दानकर्मा । हविरिति विभक्तिव्यत्ययो द्वितीयान्तः । हविर्दद्मः ॥३॥
म०. 'द्वितीयᳪं᳭ राजतेन यः प्राणत इति' (का० २० । ५।२)। द्वितीयं महिमानं ग्रहं राजतेनोलूखलेन गृह्णाति । हिरण्यगर्भदृष्टा कदेवत्या त्रिष्टुप् । तस्मै कस्मै प्रजापतये देवाय वयं हविर्विधेम हविर्दद्मः । विधृतिर्दानार्थः। तृतीया द्वितीयार्थे। तस्मै कस्मै । यः प्रजापतिः प्राणतः प्राणनं जीवनं कुर्वतो निमिषतो निमेषणं कुर्वतः । उपलक्षणमेतत् दृगादीन्द्रियव्यापारं कुर्वतः सचेतनस्य जगतः । विश्वस्य एक एव राजा बभूव । केन । महित्वा महेर्महिम्नो भावो महित्वं तेन महित्वेन । विभक्तेः पूर्वसवर्णः । महाभाग्येनेत्यर्थः । यश्चास्य द्विपदः द्वौ पादौ यस्य स द्विपात् तस्य ‘पादः पत्' (पा० ६।४। १३०) | इति पदादेशः। द्विपादस्य मनुष्यपक्ष्यादेः चतुष्पदः हस्तिगवादेः प्राणिजातस्य ईशे ईष्टे ऐश्वर्यं करोति । 'लोपस्त आत्मनेपदेषु' (पा० ७ । १ । ४१) इति तकारलोपे ईशे इति रूपम् । 'अधीगर्थदयेशां कर्मणि' (पा० २।३ । ५२) कर्मणि | षष्ठी ॥३॥

चतुर्थी।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि प्र॒जाप॑तये त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॑श्च॒न्द्रमा॑स्ते महि॒मा ।
यस्ते॒ रात्रौ॑ संवत्स॒रे म॑हि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ यस्ते॑ पृथि॒व्याम॒ग्नौ म॑हि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ यस्ते॒ नक्ष॑त्रेषु च॒न्द्रम॑सि महि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ तस्मै॑ ते महि॒म्ने प्र॒जाप॑तये दे॒वेभ्य॒: स्वाहा॑ ।। ४ ।।
उ० उपयामगृहीतोऽसि प्रजापतये त्वां जुष्टं गृह्णामि । सादयति । एष ते योनिः चन्द्रमास्ते महिमा । जुहोति यस्ते रात्रौ संवत्सरे पृथिव्यामग्नौ च नक्षत्रेषु चन्द्रमसि च महिमा संबभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यः स्वाहा ॥४॥
म० उपयामपात्रेण गृहीतोऽसि प्रजापतये जुष्टं त्वां गृह्णामि । सादयति । एष ते । चन्द्रमास्ते तव महिमा दीप्तिः । 'वपान्ते द्वितीयेन पूर्ववद् यस्ते रात्राविति जुहोति' (का० २० । ७ । २६ )। वपायागान्ते द्वितीयेन महिम्ना पूर्ववदिति सर्वहुतं महिमानं जुहोति । अष्टिः हे महिमन् , रात्रौ संवत्सरे च यस्ते तव महिमा संबभूव पृथिव्यामग्नौ च यस्ते महिमा संबभूव नक्षत्रेषु चन्द्रमसि च यस्तव महिमा संबभूव सर्वव्यापकस्तव यो महिमा तस्मै महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यश्च स्वाहा सुहुतमस्तु ॥ ४॥

पञ्चमी।
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुष॑: । रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ।। ५ 
उ० अश्वं युनक्ति । युञ्जन्ति ब्रध्नम् । अश्वोऽत्रादित्यवत्स्तूयते उत्तरोर्धर्चः प्रथमं व्याख्यायते । यस्य भासा रोचन्ते देदीप्यन्ते रोचनाः रोचनानि दीप्तानि चन्द्रग्रहतारकादीनि। दिवि द्युलोके । तं युञ्जन्ति रथे बध्नन्ति । कथंभूतम् । ब्रध्नम् परिवृढं आदित्यम् अरुषमरोषणम् । चरन्तं गच्छन्तं वैदिककर्मसिध्यर्थम् । के युञ्जन्ति परितस्थुषः सर्वतः स्थिता ऋत्विग्यजमानाः ॥५॥
म० 'युनक्त्येनं युञ्जन्ति ब्रध्नमिति' (का० २० । ५ । ११)। अश्वं रथे युनक्ति । मधुच्छन्दोदृष्टा आदित्यदेवत्या गायत्री । तस्थुषः । विभक्तेर्व्यत्ययः । तस्थिवांसः कर्मार्थं स्थिता ऋत्विजः ब्रध्नमादित्यं युञ्जन्ति रथे योजयन्ति । अश्व आदित्यत्वेन स्तूयते । 'असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवास्या आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै (१३ । २ ६।१) इति श्रुतेः । किंभूतं ब्रध्नम् । अरुषं रोषति क्रुध्यति रुषः 'इगुपध-' (पा० ३ । १ । १३५) इति कः । न रुषः अरुषः तं क्रोधरहितम् । परिचरन्तं वैदिककर्मसिद्ध्यर्थं सर्वत्र गच्छन्तम् । यस्य ब्रध्नस्य रोचना । विभक्तिलोपः । दीप्तयो दिवि आकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते । यद्वा रोचनानि दीप्तानि चन्द्रग्रहतारकादीनि ब्रध्नस्य भासा रोचन्ते 'तेजसां गोलकः सूर्यो नक्षत्राण्यम्बुगोलकाः' इति ज्योतिःशास्त्रोक्तेः ॥ ५॥

षष्ठी।
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑ । शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ।। ६ ।।
उ० इतराश्वं युनक्ति । युञ्जन्त्यस्य । गायत्री । युञ्जन्ति रथे अस्थाश्वमेधिकस्याश्वस्य काम्या काम्यौ कामसंपादिनौ । नह्येको रथं वोढुं शक्तः । हरी हरितवर्णावश्वौ हरिणौ वा वेगवन्तौ विपक्षसा । विविधाः पक्षसः पक्षा ययोस्तौ विपक्षसौ विविधपक्षावस्थितौ । यद्वा विरिति शकुनिनाम वेतेर्गतिकर्मणः । वेः शकुनेरिव पक्षौ ययोस्तौ शोणा शोणौ। शोणशब्दोऽत्र वर्णवचनः । रक्तो वर्णो धूम्रभासः शोण इत्युच्यते । धृष्णू प्रसहनौ । नृवाहसा नृणां मनुष्याणां वोढारौ ॥६॥
म०. 'इतरांश्च युञ्जन्त्यस्येति' (का० २० । ५ । ११) इतरान्त्रीनश्वान्रथे युनक्ति । गायत्री अश्वस्तुतिः । ऋत्विजो हरी अश्वौ रथे युञ्जन्ति । कीदृशौ । अस्याश्वमेधिकाश्वस्य काम्या काम्यौ काम्येते तौ काम्यौ कामसंपादिनौ न त्वेको वोढुं शक्त इति तौ काम्यौ । विपक्षसा 'पक्ष परिग्रहे' असुन्प्रत्ययः । पक्षयन्ति शरीरं गृह्णन्ति पक्षसः पक्षाः विविधाः पक्षसः पक्षाः ययोस्तौ विपक्षसौ । यद्वा विरिति शकुनिनाम 'वेतेर्गतिकर्मणः' (निरु० २।६) इति यास्कः । वेः पक्षिण इव पक्षसो ययोस्तौ । शोणा शोणौ रक्तौ धृष्णू प्रगल्भौ 'ञिधृषा प्रागल्भ्ये' कुप्रत्ययः । नृवाहसा नॄन् वहतस्तौ । वहेरसुन्प्रत्ययः सर्वत्र विभक्तेराकारः । नृणां वोढारौ॥ ६।

सप्तमी।
यद्वातो॑ अ॒पो अ॑गनीगन्प्रि॒यामिन्द्र॑स्य त॒न्व॒म् । ए॒तᳪं᳭ स्तो॑तर॒नेन॑ प॒था पुन॒रश्व॒माव॑र्तयासि नः ।। ७ ।।
उ० अपो यात्वावगाढेषु वाचयति । यद्वातः बृहती। | अश्वदेवत्या । यत् यस्मात् वातः वातवेगोऽश्वः अपः प्रति अगनीगन् अत्यर्थं गतः । प्रियांच इन्द्रस्य तन्वं शरीरम् अगनीगन् । अतो ब्रवीमि । एतम् अश्वम् हे स्तोतः अध्वर्यो, अनेन पथा येन गतः पुनः अश्वम् आवर्तयासि आवर्तय आनय नोऽस्माकम् ॥ ७ ॥
म० 'अपो यात्वावगाढेषु वाचयति यद्वात इति' (का. २० । ५। १४) । चतुर्भिरश्वैर्युक्तं रथमध्वर्युयजमानावारुह्य तडागादिजलं गत्वा जलं प्रविष्टेष्वश्वेषु यजमानं वाचयति । बृहती अश्वस्तुतिः । सिंहो माणवक इति वत् वातः वातसमानवेगोऽश्वः यत् यस्मात् अपो जलानि अगनीगन् इन्द्रस्य प्रियं तन्वं शरीरं चागनीगन् अत्यर्थं गतः 'दाधर्तिदर्धर्ति-' | (पा० ७ । ४ । ६५) इत्यादिना यङ्लुगन्तो निपातः । अतो हे स्तोतः अध्वर्यो, एतं नोऽस्माकमश्वमनेन पथा मार्गेण येन गतस्तेन पुनरावर्तयासि आवर्तय आनय । 'लेटोऽडाटौं' पुरुषव्यत्ययः ॥ ७ ॥

अष्टमी।
वस॑वस्त्वाञ्जन्तु गाय॒त्रेण॒ छन्द॑सा रु॒द्रास्त्वा॑ञ्जन्तु॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑सा ऽऽदि॒त्यास्त्वा॑ञ्जन्तु॒ जाग॑तेन॒ छन्द॑सा ।
भूर्भुव॒: स्वर्ला॒जी३ञ्छा॒ची३न्यव्ये॒ गव्य॑ ए॒तदन्न॑मत्त देवा ए॒तदन्न॑मद्धि प्रजापते ।। ८ ।।
उ० 'आगतमश्वं महिषी वावाता परिवृक्ता आज्येनाभ्यञ्जयन्ति वसवस्त्वेति प्रतिमन्त्रम् । वसवस्त्वाञ्जन्तु । निगदव्याख्यातम् । सौवर्णान्मणीनेकशतमश्वकेसरपुच्छेषु प्रवयन्ति पत्न्यः । भूर्भुवः स्वः । व्याख्यातम् । अश्वाय रात्रिहुतशेषं प्रयच्छति । लाजीन् शाचीन् । योयं लाजानां समूहो लाजीनित्युक्तः । योयं सक्तूनां समूहः शाचीनित्युक्तः । सक्तवो हि अतितरां शच्या कर्मणा निष्पद्यन्त इति शाचीनित्युक्ताः। यश्चायं यव्ये यवमयः समूह उक्तो धानाः । यश्चायं गोर्विकारसमूह उक्तो गव्य इति । एतदन्नम् अत्त भक्षयत हे देवाः । एतदन्नमद्धि भक्षय हे प्रजापते । येभ्योऽश्वः प्रोक्षितः तद्देवतत्वादेतद्देवत्य इति ॥ ८॥
म०. 'आयाय विमुक्तमश्वं महिषी वावाता परिवृक्ताज्येनाभ्यञ्जन्ति पूर्वकायमध्यापरकायान्यथादेशं वसवस्त्वेति प्रतिमन्त्रम्' (का० २।५।१५) । आयाय जलप्रदेशाद्देवयजनमागत्य रथाद्विमुक्तमश्वं महिष्याद्यास्तिस्रः पत्न्यो यथाक्रममश्वस्य पूर्वादिकानभ्यञ्जन्ति घृतेन महिषी पूर्वकायं वसव इति वावाता देहमध्यं रुद्रा इति परिवृक्ता पश्चाद्भागमादित्या इति मन्त्रेणेति सूत्रार्थः । त्रीणि यजूंषि लिङ्गोक्तदेवतानि । हे अश्व, वसवोऽष्टौ देवा गायत्रेण छन्दसा त्वा त्वामञ्जन्तु स्निग्धं कुर्वन्तु । रुद्रा एकादश त्रैष्टुभेन छन्दसा त्वामञ्जन्तु । आदित्या द्वादश जागतेन छन्दसा त्वामञ्जन्तु । 'अभ्रᳪं᳭श्यमानान्मणीन् सौवर्णानेकशतमेकशतं केसरापुच्छेष्वावयन्ति भूर्भुवः स्वरिति प्रतिमहाव्याहृति' (का० २० ।५।१६)। महिष्याद्यास्तिस्रः पत्न्यः एकाधिकं शतं सुवर्णमयमणीन् यथा न पतन्ति तथा केसरयोः शिरःस्कन्धस्थयोः पुच्छे चाबध्नन्ति महिष्यश्वशिरोरोमसु भूरिति एकशतं मणीन्प्रवयति वावाता ग्रीवारोमसु भुव इति परिवृक्ता पुच्छरोमसु स्वरिति वयतीति सूत्रार्थः । भूर्भुवः स्वः व्याख्याताः । 'अश्वाय रात्रिहुतशेषं प्रयच्छति लाजीञ्छाचीनिति' (का० २० । ५। १८)। सक्तुधानालाजारूपं रात्रिहुतशेषमश्वाय ददाति भक्ष्याय । अश्वो नात्ति चेत् जले प्रक्षेपः । लाजीन् अश्वदेवत्यं यजुः । लाजानां समूहो लाजीनित्युक्तः सक्तूनां समूहः । शाचीन् यश्चायं यव्ये यव्यः यवसमूहः गव्ये गव्यः गोर्विकारसमूहो दध्यादिः हे देवाः, एतदन्नमत्त भक्षयत । हे प्रजापते, एतदन्नमद्धि भक्षय । येभ्योऽश्वः प्रोक्षितस्तद्रूपोऽश्वः संबोध्यते ॥ ८॥

नवमी।
कः स्वि॑देका॒की च॑रति॒ क उ॑ स्विज्जायते॒ पुन॑: । किᳪं᳭ स्वि॑द्धि॒मस्य॑ भेष॒जं किम्वा॒वप॑नं म॒हत् ।। ९ ।।
उ० ब्रह्मा पृच्छति होतारं यूपमभितः । कः स्वित् । चतस्रोऽनुष्टुभः प्रश्नप्रतिप्रश्नरूपाः । कः पुनरेकाकी असहायः चरति गच्छति । कउ स्वित् को नु विनष्टः सन् जायते। पुनः उकारः पादपूरणः । किं पुनः हिमस्य शीतस्य भेषजम् । किंच आवपनं महत् । उप्यते निक्षिप्यतेऽस्मिन्नित्यावपनम् ॥९॥
म० 'ब्रह्मा पृच्छति होतारं यूपमभितः कः स्विदेकाकीति' (का० २० । ५ । २०)। यूपस्य दक्षिणत उदङ्मुखो ब्रह्मा यूपोत्तरतो दक्षिणामुखं होतारं पृच्छति । ब्रह्मोद्ये कर्मणि होतुर्ब्रह्मणश्च प्रश्नप्रतिप्रश्नभूताश्चतस्रोऽनुष्टुभः। स्विदिति वितर्के। एकः असहायः कः चरति गच्छति । उ पादपूरणः । कःस्वित् विनष्टः सन् पुनर्जायते उत्पद्यते । किंस्वित् हिमस्य शीतस्य भेषजमौषधम् । किंस्वित् महत् आवपनम् आ समन्तादुप्यते यस्मिंस्तद्वपनस्थानम् ॥ ९॥

दशमी।
सूर्य॑ एका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुन॑: । अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत् ।। १० ।।
उ० होता प्रत्याह । सूर्य एकाकी चरति । चन्द्रमा जायते पुनः । अग्निश्च हिमस्य शीतस्य भेषजम् । भूमिः अयं लोकः आवपनं महत् ॥ १०॥
म० 'सूर्य इत्याचष्टे होता ब्रह्माणं प्रति वक्ति' (का २०।५।२१)। सूर्योऽसहायो गच्छति । अनेन होतृब्रह्माणौ यजमाने ब्रह्मवर्चसं धत्तः । 'असौ वा आदित्य एकाकी चरत्येष ब्रह्मवर्चसं ब्रह्मवर्चसमेवास्मिंस्तद्धत्ते' (१३ । २ । ६ ।१०) इति श्रुतेः । चन्द्रमाः क्षीणः पुनर्जायते वर्धते अनेनायुर्धत्तः । 'चन्द्रमा वै जायते पुनरायुरेवास्मिंस्तद्धत्ते' (१३।२। ६। ११) इति श्रुतेः । हिमस्य भेषजमग्निः अनेन तेजो धत्तः । 'अग्निर्वै हिमस्य भेषजं तेज एवास्मिंस्तद्धत्ते' (१३।२।६।१२) इति श्रुतेः । भूमिरयं लोको महदावपनम् अनेनास्मिन् प्रतिष्ठां धत्तः । 'अयं वै लोक आवपनं महदस्मिन्नेव लोके प्रतितिष्ठति' (१३ । २ । ६ । १३) इति श्रुतेः ॥ १० ॥

एकादशी।
का स्वि॑दासीत्पू॒र्वचि॑त्ति॒: किᳪं᳭ स्वि॑दासीद् बृ॒हद्वय॑: ।
का स्वि॑दासीत्पिलिप्पि॒ला का स्वि॑दासीत्पिशङ्गि॒ला ।। ११ ।।
उ० होता ब्रह्माणं पृच्छति । का स्वित् । का पुनः आसीत् पूर्वचित्तिः । किं पुनरासीत् बृहत् महत् वयः पक्षी। का पुनरासीत् पिलिप्पिला । का पुनरासीत् पिशङ्गिला ॥११॥
म० 'होता ब्रह्माणं का स्विदासीदिति' (का० २० ।५। २२) होता ब्रह्माणं पृच्छति । पूर्वं चिन्त्यत इति पूर्वचित्तिः सर्वेषां प्रथमस्मृतिविषया का स्वित् बृहत् महत् । वयः पक्षी किं स्वित् आसीत् । पिलिप्पिला का स्वित् पिशङ्गिला च का स्विदासीत् ॥ ११ 

द्वादशी।
द्यौरा॑सीत्पू॒र्वचि॑त्ति॒रश्व॑ आसीद् बृ॒हद्वय॑: ।
अवि॑रासीत्पिलिप्पि॒ला रात्रि॑रासीत्पिशङ्गि॒ला ।। १२ ।।
उ० ब्रह्मा प्रश्नान् व्याकरोति । द्यौरासीत् । द्युग्रहणेनात्र वृष्टिर्लक्ष्यते । सा हि पूर्वं सर्वैः प्राणिभिश्चित्यते अश्व आसीद्बृहद्वयः अश्वशब्देनाश्वमेधो लक्ष्यते । वयसा इव ह्यनेनाश्वमेधेन स्वर्गं लोकमारोहन्ति । अविरासीत् अविः पृथिव्यभिधीयते सा आसीत् पिलिप्पिला । वृष्ट्या हि क्लिद्यमाना पृथिवी पिलिप्पिला भवति । श्रीरिति श्रुत्या पृथिव्युक्ता च । रात्रिरासीत्पिशङ्गिला । पिशमिति रूपनाम । रात्रिर्हि सर्वाणि रूपाणि गिलति अदृश्यानि करोति ॥ १२ ॥
म० 'द्यौरिति प्रत्याह' ( का० २० । ५। २३)। ब्रह्मा होतारं प्रति वक्ति । पूर्वचित्तिः पूर्वस्मरणविषया द्यौर्वृष्टिरासीत् । द्योशब्देन वृष्टिर्लक्ष्यते सर्वप्राणिनामिष्टत्वात् । तथाच श्रुतिः 'द्यौः वृष्टिः पूर्वचित्तिर्दिवमेव वृष्टिमवरुन्द्धे' (१३ । २।। १४) इति । अश्वः बृहद्वयः आसीत् । अश्वशब्देनाश्वमेधो लक्ष्यते । अश्वमेधेन वयसेव स्वर्गमारोहतीत्यश्वमेधो वयः। अवतीत्यविः पृथिवी पिलिप्पिलासीत् । वृष्ट्या भूः पिलिप्पिला चिक्कणा भवति । 'श्रीवै पिलिप्पिला' (१३ । २ । ६।१६) इति श्रुत्या श्रयन्त एनामिति श्रीशब्देन भूरेव । रात्रिः पिशङ्गिला आसीत् । पिशमिति रूपनाम पिशं रूपं गिलतीति पिशङ्गिला रात्रौ सर्वाणि रूपाण्यन्तर्भवन्ति ॥ १२ ॥

त्रयोदशी।
वा॒युष्ट्वा॑ पच॒तैर॑व॒त्वसि॑तग्रीव॒श्छागै॑र्न्य॒ग्रोध॑श्चम॒सैः श॑ल्म॒लिर्वृद्ध्या॑ ।
ए॒ष स्य रा॒थ्यो वृषा॑ प॒ड्भिश्च॒तुर्भि॒रेद॑गन्ब्र॒ह्मा कृ॑ष्णश्च नोऽवतु॒ नमो॒ऽग्नये॑ ।। १३ ।।
उ० प्रोक्षत्यश्वम् । वायुष्ट्वा वायुः त्वा पचतैः पाकैः अवतु । वाय्वग्निसंयोगाद्धि द्रव्याणि पच्यन्ते । असितग्रीवः छागैः असितग्रीवोऽग्निः धूमसंयोगात् । छागैः अवतु कृष्णग्रीवादिभिः पर्यङ्गैः । अश्वाङ्गेष्वालभ्यमाना अश्वायोपकुर्वन्ति अदृष्टेनोपकारेण । न्यग्रोधश्चमसैः अवतु सोमसंबन्धेन । शल्मलिः स्वकीयया वृद्ध्या त्वां अवतु पालयतु । एष स्यः एष सः राथ्यः रथे साधू राथ्यः । वृषा सेक्ता । पद्भिश्चतुर्भिः आ इत् आगन् आगतः । चतुर्ग्रहणं किम् । 'तस्मादश्वस्त्रिभिस्तिष्ठति अथ युक्तः सर्वैः सममायुत' इति श्रुतिः । ब्रह्माऽकृष्णश्च । ब्रह्मा परिवृढः अकृष्णः न विद्यते कृष्णमस्येत्यकृष्णश्चन्द्रमाः । स च नोऽस्माकम् अश्वम् अवतु । नमः अग्नये अग्निं नमस्करोत्यविघ्नाय ॥ १३ ॥
म० 'अश्वप्रोक्षणमद्भ्यस्त्वा वायुष्ट्वेति' (का० २० । ६ । ७)। अद्भ्यस्त्वोषधीभ्य इति प्राकृतमन्त्रेण ( ६ । ९) वायुष्ट्वेत्यारभ्य देवः सविता दधात्वित्यन्तेन (१६) कण्डिकाचतुष्टयेनाश्वमेधिकेन चाश्वप्रोक्षणं करोतीति सूत्रार्थः । चत्वारि यजूंष्यश्वदेवत्यानि । हे अश्व, वायुः पचतैः पाकैः त्वा त्वामवतु । वायुसंयोगादग्निः शीघ्रं पचति । असिता ग्रीवा यस्य धूमेनेत्यसितग्रीवोऽग्निः छागैः त्वामवतु । 'अग्निर्वा असितग्रीवः' (१३ । २ । ७।२) इति श्रुतेः । 'कृष्णग्रीव आग्नेयो रराटे' ( २४ । १) इति वक्ष्यमाणत्वादश्वाङ्गेषु कृष्णग्रीवादयः पञ्चदश पर्यङ्ग्याः पशवः सन्ति तैरग्निरवत्वित्यर्थः । न्यग्रोधः चमसैः सोमपात्रैः त्वामवतु । शल्मलिः वृक्षविशेषो वृद्ध्या त्वामवतु 'शल्मलिर्वनस्पतीनां वर्षिष्ठं वर्धते' (१३ । २ । ७।४) इति श्रुतेः । किंच स्यः स एष वृषा सेक्ताश्वः राथ्यः रथे साधुः पद्भिः पादैः चतुर्भिरेव आ अगन् आगतः आ इदगन्निति पदच्छेदः । अश्वस्त्रिभिः पादैस्तिष्ठति चतुर्भिश्च गच्छतीति चतुर्ग्रहणम् । तथाच श्रुतिः 'तस्मादश्वस्त्रिभिस्तिष्ठत्यथ युक्तः सर्वैः पद्भिः सममायुत' (१३ । २ । ७ । ५) इति । पदशब्दस्य डान्तत्वं छान्दसम् । किंच अकृष्णः नास्ति कृष्णं लाञ्छनं यस्मिन् स ब्रह्मा चन्द्रो नोऽस्मानवतु । 'चन्द्रमा वै ब्रह्मा कृष्णश्चन्द्रमस एनं परिददाति' (१३ । २ । ७ । ७) इति श्रुतेः । नोऽस्माकमश्वमवत्विति वा । अग्नये नमः नमस्कारोऽस्तु विघ्नाभावायाग्नेर्नतिः क्रियते ॥ १३ ॥

चतुर्दशी।
सᳪं᳭शि॑तो र॒श्मिना॒ रथ॒: सᳪं᳭शि॑तो र॒श्मिना॒ हय॑: ।
सᳪं᳭शि॑तो अ॒प्स्व॒प्सु॒जा ब्र॒ह्मा सोम॑पुरोगवः ।। १४ ।।
उ० सᳪं᳭ शितो रश्मिना । तिस्रोऽनुष्टुब्विराट्रि।यष्टुभः । प्रोक्षणे एव अश्वदेवत्याः । संपूर्वः श्यतिः शोभने वर्तते । संदर्शितः यथा दर्शनीयतमः रश्मिना रथो भवति । यथाच संशितः रश्मिना हयोऽश्वः । एवमयं संशितः । अप्सु । अद्भिः । अप्सुजाः अप्सु जातोऽश्वः । 'अप्सुजाता अश्वा' इति श्रुतिः । किंभूतः ब्रह्मा। विभर्ता परिवृढो वा । सोमपुरोगवः सोमसंस्कारान्पुरस्कृत्य स्वर्गं लोकं गच्छतीति सोमपुरोगवः । सोमार्था हि पशवः । स यत्पशुमालभते रसमेवास्मिन्दधाति' इति श्रुतिः ॥ १४ ॥
म० अश्वदेवत्यानुष्टुप् । संपूर्वः श्यतिः शोभनार्थः । रथः रश्मिना कृत्वा संशितः दर्शनीयो भवति 'तस्माद्रथः पर्युतो ।' दर्शनीयतमो भवति' (१३ । २ । ७ । ८) इति श्रुतेः । हयोऽश्वो रश्मिना संशितः शोभितः । अप्सु जायते अप्सुजा अश्वः अप्सु अद्भिः संशितः । विभक्तिव्यत्ययः । 'अप्सुयोनिर्वा अश्वः' (१३ । २ । ७ । ९) इति श्रुतेः । कीदृशः ब्रह्मा । परिवृढः सोमपुरोगमः सोमः पुरोगमोऽग्रगामी यस्य सः सोमं पुरस्कृत्य स्वर्गं लोकं गच्छति । 'सोमपुरोगममेवैनᳪं᳭ स्वर्गं लोकं गमयति' (१३ । २ । ७ । १०) इति श्रुतेः ॥१४॥

पञ्चदशी।
स्व॒यं वा॑जिँस्त॒न्वं॒ कल्पयस्व स्व॒यं य॑जस्व स्व॒यं जु॑षस्व । म॒हि॒मा ते॒ऽन्येन॒ न स॒न्नशे॑ ।। १५ ।।
उ० किंच । स्वयं वाजिन् । स्वयमेव हे वाजिन्, तन्वं , शरीरं कल्पयस्व । स्वराज्यं तवास्तीत्यर्थः । अतएव स्वयमेव यजस्व । तेन्यो यष्टा नास्तीति भावः । स्वयं च जुषस्व । स्वयमेवाभिरुचितं स्थानं कुरुष्व । किमर्थमिदमुच्यतेऽस्माभिरितिचेत् । महिमा ते तव संबन्धी अन्येन महिम्ना न संनशे। नशिरदर्शनार्थः । वेदे तु व्याप्त्यर्थोऽपि भवति न संव्याप्यते ॥ १५॥
म० आश्वी विराट् । हे वाजिन् , स्वयं तन्वं शरीरं त्वं कल्पयस्व 'स्वयं रूपं कुरुष्व यादृशमिच्छसि' (१३ । २ । ७ । ११) इति श्रुतेः । स्वाराज्यं तवास्तीति भावः । अतः स्वयं यजस्व न तवान्यो यष्टास्ति । स्वयं जुषस्व इष्टस्थानं सेवस्व । यतस्ते तव महिमा अन्येन न संनश्यते महिम्ना न संनशे न व्याप्यते । नशिरदर्शनार्थोऽत्र तु व्याप्त्यर्थः । यलोपे नशे रूपम् ॥ १५ ॥

षोडशी।
न वा उ॑ ए॒तन्म्रि॑यसे॒ न रि॑ष्यसि दे॒वाँ२ इदे॑षि प॒थिभि॑: सु॒गेभि॑: ।
यत्रास॑ते सु॒कृतो॒ यत्र॒ ते य॒युस्तत्र॑ त्वा दे॒वः स॑वि॒ता द॑धातु ।। १६ ।।
उ० नवै ।वै उ पादपूरणौ । न एतत् म्रियसे यत् संज्ञप्यसे। न च रिष्यसि विनश्यसि विशस्यमानः । किमिति । यत् देवान् इत्प्रति एषि गच्छसि । पथिभिः सुगेभिः साधुगमनैर्देवयानैरित्यर्थः । किंच । यत्र आसते सुकृतः साधुकारिणः । यत्र च ते ययुः गताः तत्र त्वां देवः सविता दधातु ॥१६॥
म० आश्वी त्रिष्टुप् । हे अश्व, अस्माभिर्यत्त्वं संज्ञप्यसे एतत्त्वं न म्रियसे मरणं नाप्नोषि नच रिष्यसे न विनश्यसि विशस्यमानः । वै उ निपातौ पादपूरणौ । यत्सुगेभिः सुगैः 'सुदुरोरधिकरणे' (पा० ३ । १ । ४८) इति गमेर्डप्रत्ययः । साधुगमनैः पथिभिः देवयानमार्गैः देवानित् देवान्प्रति एषि गच्छसि । किंच सुकृतः साधुकारिणो नरा यत्र लोके आसते तिष्ठन्ति । यत्र च ते सुकृतो ययुर्गताः तत्र लोके सविता देवः त्वा त्वां दधातु स्थापयतु । 'सवितैवैनᳪं᳭ स्वर्गे लोके दधाति' (१३ । २ । ७ । १२) इति श्रुतेः ॥ १६ ॥

सप्तदशी।
अ॒ग्निः प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॑न्न॒ग्निः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः ।
वा॒युः प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॑न्वा॒युः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः ।
सूर्य॑: प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॒न्त्सूर्य॒: स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः ।। १७ ।।
उ० उपगृह्णात्यपः । अग्निः पशुः सृष्टियज्ञे देवानामासीत् । तेनाग्निना ते अयजन्त । स चाग्निस्तत्र साधनभावमुपगतः सन् । एतं पृथिवीलोकम् अजयत् । यस्मिन् लोके अग्निः । अतः स ते लोको भविष्यति तं च जेष्यसि । पिब एताः प्रोक्षणीः अपः। वायुः सूर्यः पशुः । व्याख्यातमन्यत् ॥ १७ ॥
म० 'उपगृह्णात्यपां पेरुरग्निः पशुरिति' (का० २० । ६ । ८)। अपां पेरुरिति (अ० ६ । क० १०) प्राकृतेन मन्त्रेणाग्निः पशुरिति वैकृतेन च प्रोक्षणीरश्वास्ये उपगृह्णातीति सूत्रार्थः । अश्वदेवत्यानि त्रीणि यजूंषि । सृष्टिदेवानामग्निः पशुरासीत् तेनाग्निरूपेण पशुना देवा अयजन्त ईजिरे । स पशुभावमुपगतोऽग्निः एतं लोकं पृथ्वीलोकमजयत् यस्मिन् लोकेऽग्निः हे अश्व, स लोकः ते तव भविष्यति तं लोकं त्वं जेष्यसि एताः प्रोक्षणीरपः पिब । तथाच श्रुतिः ‘यावानग्नेर्विजयो यावांल्लोको यावदैश्वर्यं तावांस्ते विजयस्तावांल्लोकस्तावदैश्वर्यं भविष्यतीत्येवैनं तदाह' (१३ । २ । ७ । १३) इति ।
वायुः पशुरासीत् सूर्यः पशुरासीत् वायुलोकोऽन्तरिक्षं सूर्यलोकः स्वर्गः तावपि ते भविष्यत इत्यर्थः ॥ १७ ॥

अष्टादशी।
प्रा॒णाय॒ स्वाहा॑ ऽपा॒नाय॒ स्वाहा॑ व्या॒नाय॒ स्वाहा॑ ।
अम्बे॒ अम्बि॒केऽम्बा॑लिके॒ न मा॑ नयति॒ कश्च॒न ।
सस॑स्त्यश्व॒कः सुभ॑द्रिकां काम्पीलवा॒सिनी॑म् ।। १८ ।।
उ० परिपशव्ये हुत्वा प्राणाय स्वाहेति । तिस्रोऽपराः वाचयति पत्नीर्नयन् । अम्बे । अनुष्टुप् । अश्वस्तुतिः। पत्न्यः परस्परमामन्त्रयन्ते । हे अम्बे, हे अम्बिके, हे अम्बाले, न मां नयति अश्वं प्रति प्रापयति कश्चन कश्चिदपि मदगमनेन च । ससस्ति 'सस् स्वप्ने' । यः अन्यां परिगृह्य शेते । कुत्सितोऽश्वः अश्वकः । अकुत्सितोऽपीर्ष्यया कुत्स्यते । सुभद्रिकाम् कुत्सिता सुभद्रा सुभद्रिका । इयमपीर्ष्यया कुत्स्यते । काम्पीलवासिनीम् । काम्पीलनगरे हि सुभगा सुरूपा विदग्धा विनीताश्च स्त्रियो भवन्ति ॥ १८ ॥
म० 'परिपशव्ये हुत्वा प्राणाय स्वाहेति तिस्रोऽपराः' (का० २० । ६ । ११)। 'परिपशव्ये खाहा देवेभ्यः स्वाहेति' (२० । ६ । ११) द्वे आहुती हुत्वा प्राणायेत्याद्यास्तिस्र आहुतीर्जुहोति एकामश्वसंज्ञपनादौ चतस्रोऽन्ते इति सूत्रार्थः । त्रीणि यजूंषि । प्राणाय अपानाय व्यानाय आभिराहुतिभिरश्वं प्राणवन्तं करोति । तथाच श्रुतिः 'प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति तथो हास्यैतेन जीवतैव पशुनेष्टं भवति' (१३ । २। ८ । २)। 'वाचयति पत्नीर्नयन्नमस्तेऽन्व इति' (का०२०।६।१२)। 'सर्वाः पत्नीः पशुशोधनाय पान्नेजनीहस्ताः पशून् प्रति नयन्नमस्ते आतानेति' (२० । ६ । १२) प्राकृतं मन्त्रमम्बे इत्याश्वमेधिकं च वाचयतीति सूत्रार्थः । अश्वदेवत्यानुष्टुप् । पत्न्यः परस्परं वदन्ति हे अम्बे, हे अम्बिके, हे अम्बालिके, नामान्येतानि । कश्चन नरो मां न नयति अश्वं प्रति न प्रापयति । तर्हि किमर्थं गम्यते तत्राह । अश्वकः कुत्सितोऽश्वोऽश्वकः अकु त्सितोऽपीर्ष्यया कुत्स्यते । सुभद्रिकां कुत्सिता सुभद्रा सुभद्रिका ईर्ष्यया कुत्स्यते तां नारीमादाय ससस्ति शेते 'सस् स्वप्ने' ह्वादिः । मदगमनेऽश्वोऽन्यामादाय शयिष्यत इति मया गम्यते न तु मां कश्चिन्नयतीति भावः । किंभूतां सुभद्रिकाम् । काम्पीलवासिनीं काम्पीले नगरे वसतीति काम्पीलवासिनी ताम् । तत्र हि विदग्धाः सुरूपाः कामिन्यो भवन्ति । 'आपो जुषाणो वृष्णो वर्षिष्ठेऽम्बेऽम्बालेऽम्बिके पूर्वे' (पा० ६।१।११८) इति प्रकृतिभावः ॥ १८ ॥

एकोनविंशी।
ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिᳪं᳭ हवामहे प्रि॒याणां॑ त्वा प्रि॒यप॑तिᳪं᳭ हवामहे नि॒धीनां॑ त्वा॑ निधि॒पति॑ᳪं᳭ हवामहे वसो मम ।
आहम॑जानि गर्भ॒धमा त्वम॑जासि गर्भ॒धम् ।। १९ ।।
उ० पत्न्यः त्रिः परियन्त्यश्वम् । [१]गणानां त्वा स्त्रीगणानां मध्ये त्वां युगपत् गणपतिं हवामहे आह्वयामः । एवमेव । प्रियाणां मनुष्याणां मध्ये त्वामेव प्रियपतिं प्रियं भर्तारं हवामहे । एवमेव निधीनां सुखनिधीनां मध्ये त्वामेव निधिपतिं हवामहे । कथं कृत्वा । हे वसो अश्व, मम त्वं पतिर्भूयाः इति । महिषी अश्वमुप संविशति । आहमजानि । आकृष्य अहम् अजानि 'अज गतिक्षेपणयोः' । क्षिपामि । गर्भधं गर्भस्य धारयितृ रेतः । आत्वमजासि गर्भधम् । आकृष्य च त्वं हे अश्व, अजासि क्षिपसि गर्भधं रेतः ॥१९॥
म० अश्वं त्रिस्त्रिः परियन्ति पितृवन्मध्ये गणानां प्रियाणां निधीनामिति' (का० २० । ६ । १३)। सर्वाः पत्न्यः पान्नेजनहस्ता एव प्राणशोधनात्प्राक् अश्वं त्रिस्त्रिः परियन्ति मध्ये पितृवत् अप्रदक्षिणं परियन्ति त्रिः त्रिभिर्मन्त्रैः । वसो ममेति त्रिष्वप्यनुषङ्गः । ततश्चैवं प्रथमं गणानामिति त्रिः प्रदक्षिणं परियन्ति । तत्र सकृन्मन्त्रेण द्विस्तूष्णीम् । ततः प्रियाणामित्यप्रदक्षिणं त्रिः निधीनामिति प्रदक्षिणं त्रिः एवं नवकृत्व इति सूत्रार्थः । त्रीणि यजूंषि लिङ्गोक्तदेवत्यानि । हे अश्व, वयं त्वां हवामहे आह्वयामः । कीदृशं त्वाम् । गणपतिं गणानां मध्ये गणपतिं गणरूपेण पालकम् । प्रियाणां वल्लभानां मध्ये प्रियपतिं प्रियस्य पालकम् । निधीनां सुखनिधीनां मध्ये निधिपतिं सुखनिधेः पालकं त्वां हवामहे । हे वसुरूप अश्व, मम पतिस्त्वं भूया इति शेषः । 'प्रक्षालितेषु महिष्यश्वमुपसंविशत्याहमजानीति' (का० २०।६।१४)। प्रक्षालितेषु शोधितेषु पशूनां प्राणेषु पत्नीभिरध्वर्युणा यजमानेन प्राणशोधने कृते महिषी अश्वसमीपे शेते । अश्वदेवत्यम् । हे अश्व, गर्भधं गर्भं दधाति गर्भधं गर्भधारकं रेतः अहम् आ अजानि आकृष्य क्षिपामि । 'अज गतिक्षेपणयोः' लोट् । तं च गर्भधं रेतः आ अजासि आकृष्य क्षिपसि ॥ १९॥

विंशी।
ता उ॒भौ च॒तुर॑: प॒दः सं॒प्रसा॑रयाव स्व॒र्गे लो॒के प्रोर्णु॑वाथां॒ वृषा॑ वा॒जी रे॑तो॒धा रेतो॑ दधातु ।। २० ।।
उ० ता उभौ । यो आवां कृतसंकेतौ तौ उभौ त्वं चाहं च । चतुरः पदः पादान् । द्वौ तव संबन्धिनौ द्वौ च मम संबन्धिनौ । संप्रसारयाव । एवं हि संबन्धे संवेशप्रकार इत्यभिप्रायः । अधीवासेन प्रच्छादयति । स्वर्गे लोके । 'एष वै स्वर्गो लोको यत्र पशुᳪं᳭ संज्ञपयन्ति' । प्रोर्णुवाथाम् । उर्णोतिराच्छादने । प्रोर्णुवनं कुरुतमित्यध्वर्युराह । अश्वशिश्नमुपस्थे कुरुते । वृषा वाजी वृषा सेक्ता वाजी अश्वः रेतोधा रेतसः धारयिता रेतो दधातु आसिञ्चतु ॥ २०॥
म० पूर्वमन्त्रशेषः । तौ त्वमहं च उभौ चतुरः पदः पादा नावां संप्रसारयाव तव द्वौ मम द्वौ एवं संवेशनप्रकारः । 'अधीवासेन प्रच्छादयति स्वर्गे लोक इति' ( का० २० । ६ ।१४) । अधीवासेनाश्वमहिष्यौ छादयति अध उपरिष्टाच्चाच्छादनक्षमं वासोऽधीवासः । अश्वदेवत्यम् । अध्वर्युर्वदति । हे अश्वमहिष्यौ, युवां स्वर्गे लोकेऽस्यां यज्ञभूमौ प्रोर्णुवाथां वास आच्छादयतम् । 'ऊर्णुञ् आच्छादने' 'एष वै स्वर्गों लोको यत्र पशुᳪं᳭ संज्ञपयन्ति' (१३ । २ । ८ । ५) इति श्रुतेः। 'अश्वशिश्नमुपस्थे कुरुते वृषा वाजीति' (का० २० । ६ । १६)। महिषी स्वयमेवाश्वशिश्नमाकृष्य स्वयोनौ स्थापयति । अश्वदेवत्यम् । वाजी अश्वो रेतो दधातु मयि वीर्यं स्थापयतु । कीदृशोऽश्वः । वृषा सेक्ता रेतोधाः रेतो दधातीति रेतोधाः वीर्यस्य धारयिता ॥ २०॥

एकविंशी।
उत्स॑क्थ्या॒ अव॑ गु॒दं धे॑हि॒ सम॒ञ्जिं चा॑रया वृषन् । यः स्त्री॒णां जी॑व॒भोज॑नः ।। २१ ।।
उ० उत्सक्थ्या । गायत्र्याऽश्वं यजमानोऽभिमन्त्रयते । उद्गते सक्थिनी यस्याः सा उत्सक्थी तस्या उत्सक्थ्या महिष्याः। अवगुदं धेहि अवाचीनं गुदम् रेतो धेहि सिञ्च । कथमितिचेत् । समञ्जिं चारया वृषन् संचारय अञ्जिम् । अनक्ति व्यनक्ति पुंस्त्वमित्यञ्जिः पुंस्त्वजननमुक्तम् । हे वृषन् सेक्तः । कथंभूतोऽञ्जिः । यः स्त्रीणां जीवभोजनः यस्मिन्सति स्त्रियो जीवन्तीत्युच्यन्ते । यस्मिंश्च सति भोजनादीन् भोगान् लभ्यते । स जीवभोजनः ॥ २१ ॥
म० 'उत्सक्थ्या इत्यश्वं यजमानोऽभिमन्त्रयते' (का० २० । ६ । १७)। अश्वदेवत्या गायत्री । हे वृषन् सेक्तः अश्व, महिष्या गुदमव गुदोपरि रेतो धेहि वीर्यं धारय । कीदृश्याः । उत्सक्थ्याः उत् ऊर्ध्वे सक्थिनी ऊरू यस्याः सा उत्सक्थी तस्याः । कथं तदाह । अञ्जिं लिङ्गं संचारय । अनक्ति व्यनक्ति पुंस्त्वमित्यञ्जिर्लिङ्गम् । लिङ्गं योनौ प्रवेशय । योऽञ्जिः स्त्रीणां जीवभोजनः जीवयति जीवः भोजयति भोजनः जीवश्चासौ भोजनश्च जीवभोजनः । यस्मिन् लिङ्गे योनौ प्रविष्टे स्त्रियो जीवन्ति भोगांश्च लभन्ते तं प्रवेशय ॥ २१ ॥

द्वाविंशी।
य॒कास॒कौ श॑कुन्ति॒काऽऽहल॒गिति॒ वञ्च॑ति । आह॑न्ति ग॒भे पसो॒ निग॑ल्गलीति॒ धार॑का ।। २२ ।।
उ० इत उत्तरं दशानुष्टुभोऽभिमेथिन्यः । पुंस्त्वजननमुक्तम् । द्वितीयोपरिष्टाद्बृहती । अत्र च यो यत्र भण्यते स तत्र देवतात्वमुपगच्छति । अध्वर्युः कुमारीमभिमेथयति । | यकासकौ । अकच्प्रत्ययोऽत्र कुत्सायाम् । अङ्गुल्या प्रदर्शयन्नाह । यकाऽसकौ शकुन्तिका । अल्पे कन् प्रत्ययः । अल्पीयसी पक्षिणीव । आहलक् इति प्रकारवचनम् । हलेहले इति ब्रुवन्ती । वञ्चति त्वरितं गच्छति । चपलेत्यर्थः । तस्या अपि आहन्ति । हन्तिर्गत्यर्थः। आगच्छति । अन्तर्भावितण्यर्थो वा । आगमयति प्रवेशयति । अत्यर्थं वाहन्ति । गभे पसः गभ इति आद्यन्तवर्णविपर्ययः । पसः पसतेः स्पृशतिकर्मणः । भगे शिश्नमाहन्तीत्यर्थः । अथ तदा निगल्गलीति अत्यर्थं शुक्रं मुञ्चति धारका योनिः । यद्वा शब्दानुकरणम् निगल्गलीति गिरते वा । निगिरति शिश्नं योनिः ॥ २२ ॥
म० 'अध्वर्युब्रह्मोद्गातृहोतृक्षत्तारः कुमारीपत्नीभिः संवदन्ते यकासकाविति दशर्चस्य द्वाभ्यां द्वाभ्याᳪं᳭ हये-हयेऽसावित्यामन्त्र्यामन्त्र्य' ( का० २० । १।१८) । अध्वर्य्वादयः पञ्च हये हयेऽसाविति संबुद्ध्यन्तनामोच्चारणपूर्वकं संमुखीकृत्य यकासकाविति दशर्चसंबन्धिनीभ्यां द्वाभ्यामृग्भ्यां कुमारीपत्नीभिः सहसोपहासं संवदन्ते । तत्र प्रथममध्वर्युः कुमारीं पृच्छति कुमारि हये हये कुमारि यकासकौ शकुन्तिकेत्यर्थः । कुमार्यादिदेवत्या दश तन्मध्ये द्वितीयोपरिष्टाद्बृहती अन्या नवानुष्टुभः । 'अव्ययसर्वनाम्नामकच्प्राक्टेः' (पा० ५। ३ । ७१) इति अकच् कुत्सायाम् । अल्पा शकुन्तिः शकुन्तिका 'अल्प' (पा० ५। ३ । ८५) इति कन् । अङ्गुल्या योनिं प्रदर्शयन्नाह । यका या असकौ असौ शकुन्तिका अल्पपक्षिणीव आहलक् शब्दानुकरणम् । हले हले इति शब्दयन्ती वञ्चति गच्छति । स्त्रीणां शीघ्रगमने योनौ हलहलाशब्दो भवतीत्यर्थः । गभे वर्णविपर्यय आर्षः । भगे योनौ शकुनिसदृश्यां यदा पसो लिङ्गमाहन्ति आगच्छति । 'पस इति पसतेः स्पृशतिकर्मणः' (निरु. ५। १६) इति यास्कः । पुंस्प्रजननस्य नाम । हन्तिर्गत्यर्थः । यदा भगे शिश्नमागच्छति तदाधारका धरति लिङ्गमिति धारका योनिर्निगल्गलीति नितरां गलति वीर्यं क्षरति । यद्वानुकरणम् । गल्गलेति शब्द करोति ॥ २२ ॥

त्रयोविंशी।
य॒को॒ऽस॒कौ श॑कुन्त॒क आ॒हल॒गिति॒ वञ्च॑ति । विव॑क्षत इव ते॒ मुख॒मध्व॑र्यो॒ मा न॒स्त्वम॒भि भा॑षथाः ।। २३ ।।
उ० अध्वर्युं प्रत्याह कुमारी। यकोऽसकौ । यकः असकौ यः असौ शकुन्तक इव आहलगिति वञ्चति । तस्याश्लीलं भाषिणः किमन्यत् ब्रवीमि । विवक्षत इव ते मुखम् । असाधु वक्तुमिच्छत इव ते मुखं पश्यामि अतो हे अध्वर्यो, मा नः अस्मान् त्वमभिभाषथाः ॥ २३ ॥
म० कुमारी अध्वर्युं प्रत्याह । अङ्गुल्या शिश्नं प्रदर्शयन्त्याह । हे अध्वर्यो, यकः यः असकौ असौ शकुन्तकः पक्षीव विवक्षतः वक्तुमिच्छतस्ते तव मुखमिव आहलगिति वञ्चति इतस्ततश्चलति अग्रभागे सच्छिदं लिङ्गं तव मुखमिव भासते । अतो नोऽस्मान्प्रति मा अभिभाषथाः मा वद तुल्यत्वात् ॥ २३ ॥

चतुर्विशी।
मा॒ता च॑ ते पि॒ता च॒ तेऽग्रं॑ वृ॒क्षस्य॑ रोहतः । प्रति॑ला॒मीति॑ ते पि॒ता ग॒भे मु॒ष्टिम॑तᳪं᳭सयत् ।। २४ ।।
उ० ब्रह्मा महिषीमभिमेथति । माता च ते । हे महिषि, यदा माता च तव पिता च तव । अग्रं वृक्षस्य । वार्क्ष्यस्येति तद्धितलोपः । वार्क्ष्यस्य पर्यङ्कस्य उपरितनं भागं रोहतः मैथुनार्थमेकं पर्यङ्कमारोहत इति अश्लीलाभिप्रायं वचनम् तदा प्रतिलामीति 'तिल स्नेहने' । स्नेहाम्यहमनेन कर्मणा इति एवमिति प्रकारवचनं वदन् । तव पिता गभे भगे मुष्टिं मुष्ट्याकारं शिश्नम् अतंसयत् अक्षिपत् । एवं तवोत्पत्तिः ॥ २४ ॥
म० ब्रह्मा महिषीमाह । महिषि हे महिषि, ते तव माता च पुनस्ते तव पिता यदा वृक्षस्य वृक्षजस्य काष्ठमयस्य मञ्चकस्याग्रमुपरिभागं रोहतः आरोहतः तदा ते पिता गभे भगे मुष्टिं मुष्टितुल्यं लिङ्गमतंसयत् तंसयति प्रक्षिपति एवं तवोत्पत्तिरित्यश्लीलम् । 'तसि अलंकृतौ' चुरादिः । लिङ्गमुत्थानेनालंकरोति वा । किं कुर्वन् । प्रतिलामीति वदन्निति शेषः । 'तिल स्नेहने' तव भोगेन स्निह्यामीति वदन् । एवं तवोत्पत्तिः ॥ २४ ॥

पञ्चविंशी।
मा॒ता च॑ ते पि॒ता च॒ तेऽग्रे॑ वृ॒क्षस्य॑ क्रीडतः । विव॑क्षत इव ते॒ मुखं॒ ब्रह्म॒न्मा त्वं व॑दो ब॒हु ।। २५ ।।
उ० महिषी प्रत्याह । माता च ते। हे ब्रह्मन् , यदा माता च ते पिता च ते अग्रे वृक्षस्य पर्यङ्कस्य क्रीडतः । तदा त्वमुत्पन्नः । तुल्योत्पत्तिरावयोः। यश्चोभयोर्दोषो न तमेकश्चोदयितुमर्हति । एवं सति यदसाधु वदितुमिच्छत इव ते मुखं पश्यामि तत् हे ब्रह्मन्, मा त्वं वदो बहु ॥ २५॥
म० सानुचरी महिषी ब्रह्माणं प्रत्याह । हे ब्रह्मन् , ते तव माता ते पिता च यदि वृक्षस्य वृक्षविकारस्य मञ्चकस्याग्रे क्रीडतः रमेते तदा तवोत्पत्तिरिति तवापि तुल्यम् । 'यत्रोभयोः समो दोषः परिहारोऽपि वा समः । नैकः पर्यनयोक्तव्यस्तादृगर्थविचारणे' इति न्यायात्त्वयेदं न वक्तव्यमिति भावः । एवं सत्यपि विवक्षतः वक्तुमिच्छोरिव ते तव मुखं लक्ष्यत इति शेषः । हे ब्रह्मन् , त्वं मा बहु वदः मा ब्रूहि ॥ २५ ॥

षड्विंशी।
ऊ॒र्ध्वमे॑ना॒मुच्छ्रा॑पय गि॒रौ भा॒रᳪं᳭ हर॑न्निव । अथा॑स्यै॒ मध्य॑मेधताᳪं᳭ शी॒ते वाते॑ पु॒नन्नि॑व ।। २६ ।।
उ० उद्गाता वावातामभिमेथयति ऊर्ध्वामेनाम् कंचित्पुरुषमाह । ऊर्ध्वामेनां वावाताम् उच्छ्रितां कुरु । कथमिव । गिरौ भारं मध्ये निगृह्य हरेत् एवमेनां मध्ये निगृह्य ऊर्ध्वामुच्छ्रापय । अथ यथेत्येतस्य स्थाने । तथाच उच्छ्रापय यथा अस्या वावाताया मध्यं योनिप्रदेशः एधताम् । 'एध वृद्धौ' वृद्धिं यायात् अथैनां गृह्णीयाः । शीते वाते पुनन्निव । यथा कृषीवलः धान्यं वाते शुद्धं कुर्वन् ग्रहणमोक्षौ झटिति करोति ॥ २६ ॥
म० उद्गाता वावातामाह । कंचिन्नरं प्रत्याह । हे नर, एनां वावातामूर्ध्वमुच्छ्रापय उच्छ्रितां कुरु । कथमिव । गिरौ भारं हरन्निव । यथा कश्चित् गिरौ पर्वते भारं हरन् पर्वतोपरि भारमारोपयन् यथा तमुच्छ्रयति तथैनामूर्ध्वां कुरु । कथमूर्ध्वा कार्या तदाह । अथेति निपातो यथार्थः । यथा अस्यै अस्या वावाताया मध्यमेधतां योनिप्रदेशो वृद्धिं यायात् । यथा योनिर्विशाला भवति तथा मध्ये गृहीत्वोच्छ्रापयेत्यर्थः । दृष्टान्तान्तरमाह । शीते वाते पुनन्निव । यथा शीतले वायौ वाति पुनन्धान्यपवनं कुर्वाणः कृषीवलो धान्यपात्रं यथा ऊर्ध्वं करोति तथेत्यर्थः ॥ २६ ॥

सप्तत्रिंशी।
ऊ॒र्ध्वमे॑न॒मुच्छ्र॑यताद्गि॒रौ भा॒रᳪं᳭ हर॑न्निव । अथा॑स्य॒ मध्य॑मेजतु शी॒ते वाते॑ पु॒नन्नि॑व ।। २७ ।।
उ० वावाता प्रत्याहोद्गातारम् । भवतोप्येतदेवम् । ऊर्ध्वमेनम् । उद्गातारमुच्छ्रयतात् उच्छ्रापय । अत्र स्त्री पुरुषायते । गिरौ भारं हरन्निव । अथैवं क्रियमाणस्यास्य मध्यं प्रजननम् एजतु चलतु । अथैनं निगृहीष्व शीते वाते पुनन्निव यवान् ॥ २७ ॥
म० वावातोद्गातारं प्रत्याह । भवतोऽप्येतत्समानम् । हे नर, एनमुद्गातारमूर्ध्वमुच्छ्रयतात् ऊर्ध्वं कुरु । गिरौ भारमिति पूर्ववत् । अथ यथास्य उद्गातुर्मध्यं लिङ्गमेजत् कम्पताम् ‘एजृकम्पने' लोट् । शीते वाते उक्तम् ॥ २७ ॥

अष्टाविंशी।
यद॑स्या अᳪं᳭हु॒भेद्या॑: कृ॒धु स्थू॒लमु॒पात॑सत् । मु॒ष्काविद॑स्या एजतो गोश॒फे श॑कु॒लावि॑व ।। २८ ।।
उ० होता परिवृक्तामभिमेथयति । यदस्याः । यत् यदा अस्याः परिवृक्तायाः । अंहुभेद्याः अल्पयोनेः । अंहुः हन्तव्यः भेद्यप्रदेशः प्रजननमस्या इति अंहुभेदी तस्याः अंहुभेद्याः । कृधु इति ह्रस्वनाम । ह्रस्वं शिश्नम् स्थूलं च उपातसत् उपसङ्गच्छेत् । अथ तदा अल्पत्वात् योनेः स्थूलत्वात् ह्रस्वत्वाच्च दुःप्रजननस्य । मुष्कौ वृषणौ इत् एवम् अस्याः प्रजननस्योपरि एजतः । 'एजृ कम्पने' कम्पनं कुरुतः । कथमिव गोशफे गोष्पदे उदकपूर्णे । शकुलाविव मत्स्याविव ॥२८॥
म० होता परिवृक्तामाह । यत् यदा अस्याः परिवृक्तायाः कृधु ह्रस्वं स्थूलं च शिश्नमुपातसत् उपगच्छेत् योनिं प्रति गच्छेत् 'तंस उपक्षये' तदा मुष्कौ वृषणौ इत् एव अस्याः योनेरुपरि एजतः कम्पेते । लिङ्गस्य स्थूलत्वाद्योनेरल्पत्वाद्वृषणौ बहिस्तिष्ठत इत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तः । गोशफे जलपूर्णे गोः खुरे शकुलौ मत्स्याविव यथा उदकपूर्णे गोः पदे मत्स्यौ कम्पेते । कृध्विति ह्रस्वनाम । कीदृश्या अस्याः । अंहुभेद्याः अंहु भगं भेद्यं विदार्यं यस्याः सा अंहुभेदी तस्याः, अंहुर्भिद्यते यस्या वा ॥ २८ ॥

एकोनत्रिंशी।
यद्दे॒वासो॑ ल॒लाम॑गुं॒ प्र वि॑ष्टी॒मिन॒मावि॑षुः । स॒क्थ्ना दे॑दिश्यते॒ नारी॑ स॒त्यस्या॑क्षि॒भुवो॒ यथा॑ ।। २९ ।।
उ० परिवृक्ता प्रत्याह । यद्देवासः । होतृप्रमुखान् सर्वानेव ऋत्विजः परिवदति । यदा एते देवासः शिश्नदेवाः शिश्नक्रीडनाः । ललामगुम् । ललामेति सुखमभिधीयते । सुखं कर्तुं गच्छतीति ललामगुः शिश्नम् । यद्वा ललामेति पौण्ड्रमभिधीयते । शिश्नं हि योनिं प्रविशत् पौण्ड्रं भवति । प्रविष्टीमिनम् प्रवेश्य विष्टभ्य च । आविषुः आलिङ्गनचुम्बनादिभिर्निगृह्णीयुर्नारीम् । अथ तदा सक्थ्ना देदिश्यते नारी सक्थिकृतेन कुटिलगमनेन निर्दिश्यते लक्ष्यते नारी । नहि तस्याः किंचिदव्याप्तं पुरुषेण भवति अन्यत्र सक्थ्न इत्यभिप्रायः । कथमिव सत्यस्याक्षिभुवो यथा। द्विप्रकारं सत्यम् अक्षिप्रभवमनक्षिप्रभवं चेति । | अक्षिग्राह्यमक्षिप्रभवम् । तत्र हि सर्वं व्याप्तं भवति । अनक्षिप्रभवं श्रोत्रग्राह्यम् । तत्तु साकाङ्क्षं वक्तुराप्ततामपेक्षते । अतो विशिनष्टि अक्षिभुव इति । सत्यस्य अक्षिभुवो यथा अवितथत्वं तथेति ॥ २९॥
म० परिवृक्ता होतारमाह । यत् यदा देवासः देवाः दीव्यन्ति क्रीडन्ति देवा होत्रादय ऋत्विजो ललामगुं लिङ्गं प्र आविषुः योनौ प्रवेशयन्ति । 'अव रक्षे गतौ कान्तौ तृप्तौ ' प्रीतौ द्युतौ श्रुतौ । प्राप्तौ श्लेषेऽर्पणे वेशे भागे वृद्धौ गृहे वधे ॥'इत्युक्तेरत्रावधातुः प्रवेशनार्थः । लुङ् 'छन्दसि लुङ्लङ्लिटः' (पा० ३ । ४ । ६ ) इति वर्तमाने लुङ् 'व्यवहिताश्च' (पा. १।४। ८२) इति प्रोपसर्गेण व्यवधानम् । ललामेति सुखनाम । ललाम सुखं गच्छति प्राप्नोति ललामगुः शिश्नः । यद्वा 'ललामं पुण्ड्रं गच्छति ललामगुः लिङ्गं योनिं प्रविशदुत्थितं पुड्राकारं भवतीत्यर्थः । कीदृशं ललामगुम् । विष्टीमिनं 'ष्टीम क्लेदे' विशेषेण स्तीमनं क्लेदनं विष्टीमः घञ्प्रत्ययः विष्टीमः क्लेदोऽस्यास्ति विष्टीमी तम् 'अत इनिठनौ' (पा० ५।२। । ११५) इत्यस्त्यर्थे इनिप्रत्ययः । शिश्नस्य योनिप्रवेशे क्लेदनं भवतीत्यर्थः । यदा देवाः शिश्नक्रीडिनो भवन्तो ललामगुं योनौ प्रवेशयन्ति तदा नारी सक्थ्ना ऊरुणा ऊरुभ्यां देदिश्यते
निर्दिश्यते अत्यन्तं लक्ष्यते । दिश्यतेर्यङ्प्रत्ययः । भोगसमये सर्वस्य नार्यङ्गस्य नरेण व्याप्तत्वादूरुमात्रं लक्ष्यते इयं नारीत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तः । सत्यस्याक्षिभुवो यथेति । सत्यं द्विविधम् अक्षिभ्यां भवतीत्यक्षिभु प्रत्यक्षं । एकं च श्रोत्रग्राह्यम् । षष्ठ्यौ तृतीयार्थे । भवति यथा कश्चिदक्षिभुवा प्रत्यक्षेण सत्येन निर्दिश्यते तत्र विश्वासो भवति तथा उरुणा दृष्टेन नारीति लक्ष्यत इत्यर्थः । श्रोत्रग्राह्ये तु सत्ये वक्तुराप्ततमत्वमपेक्षितम् ॥ २९ ॥

त्रिंशी।
यद्ध॑रि॒णो यव॒मत्ति॒ न पु॒ष्टं प॒शु मन्य॑ते । शू॒द्रा यदर्य॑जारा॒ न पोषा॑य धनायति ।। ३० ।।
उ० क्षत्ता पालागलीमभिमेथयति । यद्धरिणः । यदा हरिणो मृगः यवं सस्यम् अत्ति भक्षयति । अथ तदा क्षेत्री। न पुष्टं पशु । पशुमिति प्राप्ते विभक्तिलोपः । पुष्टं पशुम् मन्यते अवगच्छति । मम क्षेत्रं भक्षितमिति यथा । एवं शूद्रा यत् यस्य शूद्रस्य भर्तुः । अर्यजारा अर्यः वैश्यः जारो यस्याः सा अर्यजारा भवेत् तदा स शूद्रः क्षेत्री । न पोषाय ममैतदिति मन्यते । नच तस्यां धनायति धनमिव च तां न मन्यते परस्योपभोग्यत्वात् ॥ ३०॥
म० क्षत्ता पालागलीमाह । यत् यदा हरिणो यवमत्ति मृगो यदा क्षेत्रस्थं धान्यं भक्षयति तदा क्षेत्री पशु पशुं हरिणं पुष्टं न मन्यते मम धान्यभक्षणेन पशुः पुष्टो जातः सम्यगिति न जानाति किंतु मदीयं क्षेत्रं भक्षितमिति दुःखी भवतीत्यर्थः । पशुशब्दात् 'सुपां सुलुक्' इत्यमो लुक् । एवं शूद्रा शूद्रजातिः स्त्री यदा अर्यजारा भवति 'अर्यः स्वामिवैश्ययोः' (पा० ३।१।१०३) इति निपातनादर्यो वैश्यो जार उपपतिर्यस्याः सा अर्यजारा । 'शूद्रा चामहत्पूर्वा जातिः' (पा. ४।१।४) इति शूद्राज्जात्यर्थे टाप् । वैश्यो यदा शूद्रां गच्छति तदा शूद्रः पोषाय न धनायते पुष्टिं न गच्छति मद्भार्या वैश्येन भुक्ता सती पुष्टा जातेति न मन्यते किंतु व्यभिचारिणी जातेति दुःखितो भवतीत्यर्थः । 'अशनायोदन्य-' (पा. ७ । ४ ।। ३४) इति क्यचि धनायतीति इच्छार्थे निपातः ॥ ३० ॥

एकत्रिंशी।
यद्ध॑रि॒णो यव॒मत्ति॒ न पु॒ष्टं ब॒हु मन्य॑ते । शू॒द्रो यदर्या॑यै जा॒रो न पोष॒मनु॑ मन्यते ।। ३१ ।।
उ० पालागली प्रत्याह । यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टं बहु मन्यते क्षेत्रीति । यदुक्तं भवतोप्येतदेवमिति सोल्लुण्ठमाह ।' इयांस्तु विशेषः । शूद्र यत् अर्यायै अर्यायाः वैश्यायाः जारः जारयिता । तदा क्षेत्री वैश्यः आत्मनः पोषं नानुमन्यते । नहि सा तस्य पोष्या निकृष्टश्च शूद्रः उत्कृष्टा वैश्या इति । समाप्तमश्लीलभाषणम् ॥ ३१ ॥
म० पालागली क्षत्तारमाह । यदा हरिणो यवमत्ति तदा बहु यथा तथा पशुं पुष्टं न मन्यते । इदं भवतोऽपि तुल्यम् । इयान् विशेषः । यत् यदा शूद्रः अर्यायै अर्याया वैश्याया जारो भवति तदा वैश्यः पोषं पुष्टिं नानुमन्यते मम स्त्री पुष्टा जातेति नानुमन्यते किंतु शूद्रेण नीचेन भुक्तेति क्लिश्यतीत्यर्थः । अश्लीलभाषणं समाप्तम् ॥ ३१ ॥

द्वात्रिंशी।
द॒धि॒क्राव्णो॑ अकारिषं जि॒ष्णोरश्व॑स्य वा॒जिन॑: ।
सु॒र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्प्र ण॒ आयू॑ᳪं᳭षि तारिषत् ।। ३२ ।।
उ० ऋत्विजो यजमानश्च सुरभिमतीमृचमन्तत आहुः वाचमेवं पुनन्ति । दधिक्राव्णः । अनुष्टुब्वैश्वदेवत्या । यत् दधिक्राव्णः अश्वस्य संस्कारार्थमश्लीलभाषणं अकारिषं अकार्षम् अकार्ष्म कृतवन्तः । वचनव्यत्ययः एकवचनस्य स्थाने बहुवचनं बोध्यम् । उपरिष्टाद्बहूनि पदानि बहुवचनान्तानि दृश्यन्ते । किंभूतस्य दधिक्राव्णः । जिष्णोः जेतुः अश्वस्य अशनस्य व्यापिनः वाजिनः। 'ओविजी भयचलनयोः' वेजनवतः तत्र सुरभीणि सुगन्धीनि । अश्लीलभाषणेन हि दुर्गन्धीनि मुखानि भवन्ति पापहेतुत्वात् । नः अस्माकं मुखानि । निकारलोपश्छान्दसः । करत् करोतु यज्ञ इत्यध्याहारः । किंच । प्राणः आयूंषि तारिषत् । प्रतारिषत् प्रवर्धयतु च नः अस्माकम् । बहुवचनं बालयौवनवृद्धवयोपेक्षम् ॥३२॥
म० 'महिषीमुत्थाप्य पुरुषा दधिक्राव्ण इत्याहुः' ( का० २० । ६ । २१)। महिषीं यजमानस्य प्रथमपरिणीतां पत्नीमश्वसमीपसुप्तामुत्थाप्य पुरुषा अध्वर्युब्रह्मोद्गातृहोतृक्षत्तारो मन्त्रं पठेयुरिति सूत्रार्थः । वामदेवात्मजदधिक्रावदृष्टाश्वदेवत्यानुष्टुप् । वयमध्वर्यादयः अकारिषमकार्ष्म कृतवन्तः । वचनव्यत्ययः । अश्लीलभाषणमिति शेषः । किमर्थम् । अश्वस्य संस्कारायेति शेषः । अश्वसंस्कारायाश्लीलभाषणं कृतवन्त इत्यर्थः । कीदृशस्याश्वस्य । दधिक्राव्णः दधाति धारयति नरमिति दधिः 'आदृगमहन-' (पा० ३।२ । १७१) इति किप्रत्ययः । । दधिः सन् क्रामतीति दधिक्रावा । तस्य 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते' (पा० ३ । २ । ७५) इति वनिप्प्रत्ययः 'विड्वनोरनुनासिकस्यात्-' (पा० ६ । ४ । ४१) इति धातोराकारः । जिष्णोः जयनशीलस्य । वाजिनः वजति गच्छतीति वाजी वाजोऽस्यास्तीति वा वाजी तस्य च नोऽस्माकं मुखा मुखानि सुरभि सुरभीणि करत् करोतु यज्ञ इति शेषः । अश्लीलभाषणेन दुर्गन्धं प्राप्तानि 'मुखानि सुरभीणि यज्ञः करोत्वित्यर्थः । तथाच श्रुतिः 'सुरभिमतीमृचमन्ततोऽन्वाहुर्वाचमेव पुनन्तः (१३ । २ । ९ । ९) इति । सुरभिशब्दाद्विभक्तिलोपः । किंच नोऽस्माकमायूंषि जीवनानि बाल्ययौवनवार्धकानि प्रतारिषत् प्रतारयतु प्रवर्धयतु । लेटि रूपम् ॥ ३२॥

त्रयस्त्रिंशी।
गा॒य॒त्री त्रि॒ष्टुब्जग॑त्यनु॒ष्टुप्प॒ङ्क्त्या स॒ह । बृ॒ह॒त्युष्णिहा॑ क॒कुप्सू॒चीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ३३ ।।
उ० पत्न्योसि पथं कल्पयन्ति । [२]गायत्री त्रिष्टुप् षड्भिर्ऋग्भिः । तत्राद्या उष्णिक् चतस्रोऽनुष्टुभः परा त्रिष्टुप् । गायत्री च त्रिष्टुप् च जगती च अनुष्टुप् च पङ्क्याषड सह बृहती च । उष्णिहा सह ककुप् च । सूचीभिः शम्यन्तु त्वाम् हे अश्व, मनमगानामभेदेन (?) वर्त्मनि दर्शनं सूचीभिः क्रियते तेन पथा असिः प्रवर्तते ॥ ३३ ॥
म० 'तिस्रः पत्न्योऽसि पथान्कल्पयन्त्यश्वस्य' सूचीभिर्लौहराजतसौवर्णीभिर्मणिसंख्याभिर्गायत्रीत्रिष्टुबिति द्वाभ्यां द्वाभ्याम् (का० २० । ७।१)। गायत्री त्रिष्टुबिति षडृचे द्वाभ्यां द्वाभ्यामृग्भ्यां महिष्याद्यास्तिस्रः पत्न्यः ताम्ररूप्यस्वर्णमयीभिः प्रत्येकमेकाधिकशतसंख्याभिः सूचीभिरश्वाङ्गेऽसेः शासस्य मार्गान्कुर्वन्ति । शासस्य सुखप्रवेशाय सूचीभिर्वितुद्य वितुद्याश्वत्वचं जर्जरीकुर्वन्तीति सूत्रार्थः । अश्वदेवत्याः षड़ृचः आद्योष्णिक् । हे अश्व, गायत्री त्रिष्टुप् जगती अनुष्टुप् पङ्क्यारा सह बृहती उष्णिहा सह ककुप् एतानि छन्दांसि सूचीभिरेताभिः त्वां शम्यन्तु संस्कुर्वन्तु । विकरणव्यत्ययः । असिपथार्थं त्वग्भेदनं संस्कारः ॥ ३३ ॥

चतुस्त्रिंशी।
द्विप॑दा॒ याश्चतु॑ष्पदा॒स्त्रिप॑दा॒ याश्च॒ षट्प॑दाः ।
विच्छ॑न्दा॒ याश्च॒ सच्छ॑न्दाः सू॒चीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ३४ ।।
उ० द्विपदा याः । याः द्विपदाः याश्च चतुष्पदाः याश्च त्रिपदाः याश्च षट्पदाः । याश्च विच्छन्दाः विगतं छन्दो याभ्यस्ताः । विषमाक्षराः विषमपदाः छन्दोलक्षणेनानभिसंबद्धाः । याश्च सच्छन्दाः अन्यूनातिरिक्ताक्षराश्छन्दसां जातयः ताः सर्वाः सूचीभिः शम्यन्तु त्वाम् ॥ ३४ ॥
म० चतस्रोऽनुष्टुभः । द्वे पदे यासां ता द्विपदाः याः चतुप्पदाः याः त्रिपदाः याः षट्पदाः याः विच्छन्दाः विगतं छन्दो याभ्यस्ताः छन्दोलक्षणहीनाः याः सच्छन्दाः छन्दोलक्षणयुताः ताः सर्वाः छन्दोजातयः हे अश्व, सूचीभिः त्वां शम्यन्तु ॥ ३४ ॥

पञ्चत्रिंशी।
म॒हाना॑म्न्यो रे॒वत्यो॒ विश्वा॒ आशा॑: प्र॒भूव॑रीः ।
मैघी॑र्वि॒द्युतो॒ वाच॑: सू॒चीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ३५ ।।
उ० महानाम्न्यो रेवत्यः । महानाम्न्य ऋचः शाक्वर्य इति या भण्यन्ते । रेवत्य एता अपि रेवत्यः । रेवतं तासु साम भवति । विश्वाः सर्वाः आशा दिशः । प्रभूवरीः प्रभूततमाः । मैघीः मेघे भवाः विद्युतः तदुत्पन्ना याश्च वाचः ताः सर्वाः सूचीभिः शम्यन्तु । शमनेन हविः कुर्वन्तु त्वाम् ॥ ३५॥
म० महत् नाम यासां ता महानाम्न्यः शक्वर्य ऋचः। रेवत्यः ऋचः यस्यामृचि रैवतं साम गीयते सा रेवती । विश्वाः सर्वाः आशा दिशः। कीदृश्य आशाः । प्रभूवरीः प्रभवन्ति सर्वभूतानि धारयितुं समर्था भवन्ति प्रभूवर्यः 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते' (पा० ३ । २ । ७५) इति वनिप् 'ऋन्नेभ्यः-' (पा. ४। १ । ५) इति ङीप् 'वनो र च-' (पा० ४ । १।७) इति तस्य रेफः पूर्वसवर्णदीर्घत्वम् । मेघे भवा मैघ्यः । पूर्वसवर्णः । मेघोत्था विद्युतः वाचो वेदलक्षणा अन्या अपि । एताः सर्वाः सूचीभिः हे अश्व, त्वां शम्यन्तु हविः कुर्वन्तु ॥ ३५ ॥

षट्त्रिंशी।
नार्य॑स्ते॒ पत्न्यो॒ लोम॒ विचि॑न्वन्तु मनी॒षया॑ ।
दे॒वानां॒ पत्न्यो॒ दिश॑: सू॒चीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ३६ ।।
उ० नार्यस्ते । नृणामपत्यानि बहूनि स्त्रीलक्षणानि नार्यः। ते तव । पत्न्यः यजमानस्य पत्न्यः । लोम लोमानि विचिन्वन्तु पृथक्कुर्वन्तु । मनीषया मनस इच्छया मनसः पर्यालोचनेन । देवानां च याः पत्न्यः दिशः ताः सर्वाः सूचीभिः शम्यन्तु शमनेन हविष्कुर्वन्तु त्वाम् ॥ ३६ ॥
म०. हे अश्व, नार्यः नृणामपत्यानि स्त्रियः ते तव लोम रोमाणि मनीषया मनसः इच्छया विचार्य विचिन्वन्तु पृथक्कुर्वन्तु । रोमेत्यत्र जातावेकवचनं विभक्तिलोपो वा । कीदृश्यो नार्यः । पत्न्यः ‘पत्युर्नो यज्ञसंयोगे' (पा. ४।१।३३) । इति नकारः । यजमानभार्या महिष्याद्या इत्यर्थः । किंच | देवानामिन्द्रादीनां पत्न्यः दिशः प्राच्याद्याः सूचीभिः त्वां शम्यन्तु ॥ ३६॥

सप्तत्रिंशी।
र॒ज॒ता हरि॑णी॒: सीसा॒ युजो॑ युज्यन्ते॒ कर्म॑भिः ।
अश्व॑स्य वा॒जिन॑स्त्व॒चि सिमा॑: शम्यन्तु॒ शम्य॑न्तीः ।। ३७ ।।
उ० रजता हरिणीः । रजतसुवर्णसीसमय्यः सूच्यः । युजः सहयोजनाः। युज्यन्ते कर्मभिः सीमालक्षणैः याः ताः अश्वस्य वाजिनः वेजनवतः त्वचि रोमसु सीमाः। सिमाशब्दः सीमपर्यायो मर्यादावचनः । सीमानं कुर्वाणाः शम्यन्तु हविः कुर्वन्तु । शम्यन्तीः हविष्कुर्वाणाः अश्वम् ॥३०॥ ।
म० रजताः रजतमय्यः हरिणीः हरिण्यः सुवर्णमय्यः सीसाः सीसं ताम्रं तन्मय्यः । 'त्रय्यः सूच्यो भवन्ति लोहमय्यो रजता हरिण्यः दिशो वै लोहमय्योऽवान्तरदिशो रजता ऊर्ध्वा हरिण्यस्ताभिरेवैनं कल्पयन्ति' (१३ । २।१०।६) इति श्रुतेः । सूचीनां दिग्रूपत्वादश्वसंस्कारक्षमत्वम् । ताः सूच्यः कर्मभिः अश्वदेहे सीमाकरणलक्षणैः युज्यन्ते योगं प्राप्नुवन्ति । सीमाकरणयोग्या भवन्तीत्यर्थः । कीदृश्यस्ताः । युजः युज्यन्ते ता युजः संयुताः । एकीभूता इत्यर्थः । ताः सूच्यो वाजिनो वेगवतोऽश्वस्य त्वचि सिमाः सीमारेखाः शम्यन्तु सम्यक् कुर्वन्तु। सिमाशब्दः सीमापर्यायः । कीदृश्यस्ताः । शम्यन्तीः शम्यन्त्यः संस्कारं कुर्वाणाः ॥ ३७ ॥

अष्टत्रिंशी।
कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यव॑ञ्चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑ ।
इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ उक्तिं॒ यज॑न्ति ।। ३८ ।।
उ० कुविदङ्गेति व्याख्यातम् ॥ ३८ ॥
म० इयं व्याख्याता (अ० १० । क० ३२ ) ॥ ३८ ॥

एकोनचत्वारिंशी।
कस्त्वाऽऽच्छ्य॑ति॒ कस्त्वा॒ विशा॑स्ति॒ कस्ते॒ गात्रा॑णि शम्यति । क उ॑ ते शमि॒ता क॒विः ।। ३९ ।।
उ० अश्वं विशास्ति अनुवाकेन षडृचेन । तत्राद्या गायत्री परा अनुष्टुभः । कस्त्वा । कः प्रजापतिः त्वाम् आच्छ्यति । 'छो छेदने' । आच्छिनत्ति त्वचः । कश्च प्रजापतिः त्वां विशास्ति त्वचा वियोजयति । कश्च प्रजापतिः ते तव गात्राणि शरीराणि शम्यति शमनेन हविर्भावमापादयति । क उ ते प्रजापतिरेव ते शमिता कविः मेधावी क्रान्तदर्शनः । यद्वा प्रश्नरूपोऽयं मन्त्रः । कोऽयं मनुष्यः त्वाम् आच्छ्यति कश्च त्वां विशास्ति कश्च ते गात्राणि शम्यति । कश्च उ ते शमिता कविः । न कश्चिदपीत्यभिप्रायः । उः पादपूरणः ॥ ३९ ॥
म० 'अश्वं विशास्त्यनुवाकेन कस्त्वाऽऽच्छ्यतीति' ( का. २०। ७ । ६)। षडृचेनानुवाकेनाश्वं विशास्ति अश्वोदरं पाटयति मेदस उद्धरणाय । वपाया अभावात् उदरमध्यस्थं स्त्यानं घृताभं घनं श्वेतं मांसं मेद इति सूत्रार्थः । अश्वदेवत्याः षडृचः। आद्या गायत्री । हे अश्व, कः प्रजापतिः त्वा त्वामाच्छ्यति छिनत्ति । 'छो छेदने' लट् 'ओतः श्यनि' (पा० ७ । ३ । ७१ ) इति ओकारलोपः । हे अश्व, कः त्वां विशास्ति त्वचा वियोजयति । ते तव गात्राणि कः शम्यति शमनेन हविः करोति । कः उ कश्च प्रजापतिरेव कविर्मेधावी ते तव शमिता शमयिता । प्रजापतिरेव सर्वं करोति नाहमित्यर्थः ॥ ३९॥

चत्वारिंशी।
ऋ॒तव॑स्त ऋतु॒था पर्व॑ शमि॒तारो॒ वि शा॑सतु । सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तेज॑सा श॒मीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ४० ।।
उ० यस्मिन् पक्षे कस्त्वा प्रजापतिस्त्वेति व्याख्यातं तस्मिन्पक्षे प्रतार्यते । ऋतवस्ते । ऋतवश्च तव शमितारः ऋतुथा ऋतावृतै काले काले पर्व पर्वणि । संवत्सरस्य च तेजसा । शमीभिः कर्मभिः शम्यन्तु शमनेन हविर्भावमापादयन्तु त्वां । हे अश्व, यदा तु कः त्वां विशासितुं समर्थों मनुष्य एवं व्याख्यातं तदा ऋतवो देवाः ते शमितार इत्येवं व्याख्येयम् ॥ ४० ॥
म० पञ्चानुष्टुभः । हे अश्व, ऋतवः शमितारः ऋतुथा ऋतौ ऋतौ काले काले ते तव पर्वणि पर्वणि अस्थिग्रन्थीन् शमीभिः कर्मभिः विशासतु भिन्नानि कुर्वन्तु । केन संवत्सरस्य संवत्सरात्मकस्य कालस्य तेजसा । किंच ऋतवः त्वा त्वां शम्यन्तु पर्वविशासनेन हविः कुर्वन्तु ॥ ४० ॥

एकचत्वारिंशी।
अ॒र्ध॒मा॒साः परू॑ᳪं᳭षि ते॒ मासा॒ आच्छ्य॑न्तु॒ शम्य॑न्तः । अ॒हो॒रा॒त्राणि॑ म॒रुतो॒ विलि॑ष्टᳪं᳭ सूदयन्तु ते ।। ४१ ।।
उ० अर्धमासाः पक्षाः मासाश्च ते तव परूंषि पर्वाणि आच्छ्यन्तु आच्छिन्दन्तु । शम्यन्तः शमनेन हविर्भावमापादयन्तः । किंच । अहोरात्राणि मरुतश्च विलिष्टं दुःश्लिष्टं सूदयन्तु । 'षूद क्षरणे' पठितोऽपीह संधाने वर्तते वाक्ययोगात् । संदधन्तु ते तव ॥ ४१ ॥
म० अर्धमासाः पक्षाः मासाश्च तदभिमानिनो देवाः शम्यन्तः संस्कुर्वन्तः सन्तो हे अश्व, ते तव परूंषि पर्वाणि आच्छ्यन्तु समन्ताच्छिन्दन्तु । 'ग्रन्थिर्ना पर्वपरुषी' इति कोशः । किंच अहोरात्राणि अहोरात्राभिमानिदेवा मरुतश्च देवाः ते तव विलिष्टं 'लिश अल्पीभावे' विशेषेणाल्पमङ्गम् तत् सूदयन्तु संदधतु 'सूद क्षरणे' अत्र सन्धानार्थः व्यर्थं मास्तु ॥४१॥

द्विचत्वारिंशी।
दैव्या॑ अध्व॒र्यव॒स्त्वाच्छ्य॑न्तु॒ वि च॑ शासतु । गात्रा॑णि पर्व॒शस्ते॒ सिमा॑: कृण्वन्तु॒ शम्य॑न्तीः ।। ४२ ।।
उ०. दैव्या अध्वर्यवः । ये च दैव्या दिव्या अध्वर्यवः अश्विप्रभृतयः ते च त्वा त्वाम् आच्छ्यन्तु विच शासतु चकारो भिन्नक्रमः । विशासतु च । किंच गात्राणि पर्वशः ते तव सिमाः मर्यादाः कृण्वन्तु कुर्वन्तु । शम्यन्तीः मर्यादादर्शनेन शमनं कुर्वाणाः ॥ ४२ ॥
म०. देवानामिमे दैव्याः अश्विनौ देवानामध्वर्यू इत्युक्तत्वात् अश्विप्रमृतयो देवसंबन्धिनोऽध्वर्यवः हे अश्व, त्वा त्वामाच्छ्यन्तु आच्छिन्दन्तु विशासतु च । चकारो भिन्नक्रमः । हविः कुर्वन्तु । किंच ते तव गात्राणि । विभक्तिव्यत्ययः । गात्रेषु शरीरेषु पर्वशः पर्वणि पर्वणि सिमाः सीमा मर्यादाः कृण्वन्तु कुर्वन्तु । 'कॄ करणे' स्वादिः । कीदृशीः सीमाः । शम्यन्तीः संस्कुर्वाणाः ॥ ४२ ॥

त्रिचत्वारिंशी।
द्यौ॑स्ते पृथि॒व्यन्तरि॑क्षं वा॒युश्छि॒द्रं पृ॑णातु ते । सूर्य॑स्ते॒ नक्ष॑त्रैः स॒ह लो॒कं कृ॑णोतु साधु॒या ।। ४३ ।।
उ० द्यौस्ते द्यौश्च ते तव पृथिवी च अन्तरिक्षं च वायुश्च छिद्रं पृणातु पूरयतु ते । किंच । सूर्यश्च ते तव नक्षत्रैः सह लोकं स्थानं कृणोतु । साधुया साधुम् । द्वितीयार्थे या छान्दसः ॥ ४३ ॥
म० द्यौः स्वर्गः पृथिवी अन्तरिक्षं लोकत्रयाभिमानिनो देवाः अग्निवायुसूर्याः वायुरन्योऽपि शरीरस्थः प्राणादिः हे अश्व, ते तव छिद्रं पृणातु । वचनव्यत्ययः पृणन्तु पूरयन्तु । यत् न्यूनं तत् पूरयन्तु । किंच नक्षत्रैः सह नक्षत्रयुक्तः सूर्यः ते तव साधुया साधुं समीचीनं लोकं कृणोतु करोतु । 'सुपां सुलुक्' इत्यादिना साधुशब्दात्परस्यामो यादेशः । सूर्यस्ते उत्तमं लोकं ददात्वित्यर्थः ॥ ४३ ॥

चतुश्चत्वारिंशी ।
शं ते॒ परे॑भ्यो॒ गात्रे॑भ्य॒: शम॒स्त्वव॑रेभ्यः । शम॒स्थभ्यो॑ म॒ज्जभ्य॒: शम्व॑स्तु त॒न्वै तव॑ ।। ४४ ।।
उ० शं ते सुखं ते तव अस्तु । हे अश्व, परेभ्यः गात्रेभ्यः । शं सुखम् अवरेभ्यः अस्तु । शम् अस्थभ्यः अस्थिभ्यः मज्जभ्यश्च अस्तु । शं चास्तु तन्वै शरीराय । षष्ठ्यर्थे छन्दसि चतुर्थी वक्तव्येति षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । तन्वाः तव ॥४४॥
म० हे अश्व, ते तव परेभ्योऽवयवेभ्य उच्चेभ्यः शिरआदिभ्यः शं सुखमस्तु । अवरेभ्यः अधःस्थेभ्यश्च पादादिभ्यो गात्रेभ्यः शमस्तु । अस्थभ्यः तवास्थिभ्यश्च शमस्तु । 'अस्थिदधि-' (पा. ७ । १ । ७५) इत्यस्यानुवृत्तौ 'छन्दस्यपि दृश्यते' (पा० ७ । १ । ७६ ) इति सूत्रेण हलादावप्यस्थिशब्दस्यानङादेशः । मज्जभ्यः पृष्ठधातुभ्योऽपि शमस्तु । किंबहुना तव तन्वै तन्वाः सर्वस्यापि शरीरस्य शमु सुखमेवास्तु ।। षष्ठी चतुर्थ्यर्थे । आशिषि वा चतुर्थी । उ एवार्थे ॥ ४४ ॥

पञ्चचत्वारिंशी।
कः स्वि॑देका॒की च॑रति॒ क उ॑ स्विज्जायते॒ पुन॑: । किᳪं᳭ स्वि॑द्धि॒मस्य॑ भेष॒जं किम्वा॒वप॑नं म॒हत् ।। ४५ ।।
उ० इत उत्तरं ब्रह्मोद्यमष्टादशर्चम् (उत्तरप्रत्युत्तरैः परस्परं संवादो ब्रह्मोद्यम्) । तत्राद्याश्चतस्रोऽनुष्टुभः कास्विदासीत्पूर्वचित्तिरित्याद्याश्च चतस्रोऽनुष्टुभः त्रिष्टुभोऽन्याः । होताध्वर्युं पृच्छति कः स्विदेकाकी इति ॥४५॥
म० 'प्राग्वपाहोमाद्धोताध्वर्युश्च सदसि संवदेते चतसृभिः' (का २० । ७ । १०)। कः स्विदेकाकीति पूर्ववत् । वपाहोमात्प्राक् च चतुर्ऋग्भिः पूर्ववदुक्तिप्रत्युक्त्या सदोमध्ये गत्वा होता अध्वर्युश्च संवादं कुरुतः । अष्टादश ऋचो ब्रह्मोद्यसंज्ञाः । ब्रह्मोद्यं परस्परं संवादः । आद्याश्चतस्रोऽनुष्टुभः का स्विदित्याद्याश्च (५३) अनुष्टुभः । होताध्वर्युं पृच्छति । व्याख्याता ॥४५॥

षट्चत्वारिंशी।
सूर्य॑ एका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुन॑: । अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत् ।। ४६ ।।
उ० तं प्रत्याह । सूर्य एकाकी चरति । अग्रे व्याख्यातौ ॥ ४६॥
म० व्याख्याता ॥ ४६ ॥

सप्तचत्वारिंशी।
किᳪं᳭ स्वि॒त्सूर्य॑समं॒ ज्योति॒: किᳪं᳭ स॑मु॒द्रस॑म॒ᳪं᳭ सर॑: । किᳪं᳭ स्वि॑त्पृथि॒व्यै वर्षी॑य॒: कस्य॒ मात्रा॒ न वि॑द्यते ।। ४७ ।।
उ० अध्वर्युर्होतारं पृच्छति । किᳪं᳭ स्वित्सूर्यसमं ज्योतिः । किंच समुद्रसमं सरः । किंस्वित्पृथिव्यै पृथिव्याः वर्षीयः महत्तरम् । कस्य च मात्रा परिमाणं न विद्यते नास्ति ॥ ४७ ॥
म० अध्वर्युर्होतारं पृच्छति । हे होतः, स्विदिति तर्के । सूर्यसमं सूर्यमण्डलतुल्यं ज्योतिः तेजः किं तत् ब्रूहि । समुद्रसमं सरः किं स्वित् । पृथिव्यै पृथिव्याः सकाशात् वर्षीयः महत्तरं किं स्वित् । 'प्रियस्थिर-' (पा० ६ । ४ । १५७) इत्यादिना वृद्धस्य वर्षादेशः । कस्य मात्रा परिमाणं न विद्यते ॥ ४७ ॥

अष्टचत्वारिंशी।
ब्रह्म॒ सूर्य॑समं॒ ज्योति॒र्द्यौः स॑मु॒द्रस॑म॒ᳪं᳭ सर॑: । इन्द्र॑: पृथिव्यै॒ वर्षी॑या॒न् गोस्तु मात्रा॒ न वि॑द्यते ।। ४८ ।।
उ० तं प्रत्याह । ब्रह्म सूर्यसमम् । ब्रह्म त्रयीलक्षणं परं वा सूर्यसमं ज्योतिः। द्यौः समुद्रसमं सरः। इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान् महत्तरः । गोस्तु मात्रा न विद्यते । गवा हि यज्ञो धार्यते । स जातः कारणं भवतीत्येतदभिप्रायम् । पृथिवी वा गौः ॥४८॥
म०. होता प्रत्याह सूर्यसमं ज्योतिर्ब्रह्म त्रयीलक्षणं परं च । समुद्रसमं सरो द्यौरन्तरिक्षं यतो वृष्टिर्भवति । पृथिव्यै पृथिव्याः सकाशात् इन्द्रः वर्षीयान् वृद्धतरः । तु पुनः गोः धेनोः मात्रा न विद्यते यज्ञधारकत्वात् ॥ ४८ ॥

एकोनपञ्चाशी।
पृ॒च्छामि॑ त्वा चि॒तये॑ देवसख॒ यदि॒ त्वमत्र॒ मन॑सा ज॒गन्थ॑ ।
येषु॒ विष्णु॑स्त्रि॒षु प॒देष्वेष्ट॒स्तेषु॒ विश्वं॒ भुव॑न॒मा वि॑वेशा३ ।। ४९ ।।
उ० ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति । पृच्छामि त्वा भवन्तं चितये । 'चिती संज्ञाने' परिज्ञानाय । हे देवसख उद्गातः । यदि त्वम् अत्र पृष्टः सन्मनसा प्रश्नविवेचनाय सूक्ष्मानर्थान् जगन्थ अवगच्छसि । येषु विष्णुः यज्ञः त्रिषु पदेषु गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निषु आ इष्टः । यजेरेतद्रूपम् । तेषु विश्वं भुवनं भूतजातम् । आविवेश उत नेति प्रश्ने प्लुतः ॥ ४९ ॥
म० 'ब्रह्मोद्गातारौ च पृच्छामि त्वेति' ( का० २० । ७ । ११)। ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति पृच्छामीति । चकाराच्चतुर्ऋग्भिः सदसि ब्रह्मोद्गातारौ संवदेते । ब्रह्मा उद्गातारं पृच्छति । पृच्छामि । देवानां सखा देवसखः 'राजाहःसखिभ्यष्टच्' हे देवसख देवानां मित्र उद्गातः, त्वा त्वां चितये ज्ञानायाहं पृच्छामि । अत्र मत्कृते प्रश्ने यदि त्वं मनसा जगन्थ जनासि गमेर्लिट् । ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः । किं पृच्छसीत्यत आह । विष्णुः यज्ञो येषु त्रिषु पदेषु गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निषु एष्टः आ इष्टः यागेन तर्पितः । यजेः क्तः । तेषु त्रिषु पदेषु विश्वं सर्वं भुवनमाविवेश प्रविष्टमुत नेति प्रश्ने प्लुतः ॥ ४९ ॥

पञ्चाशी।
अपि॒ तेषु॑ त्रि॒षु प॒देष्व॑स्मि॒ येषु॒ विश्वं॒ भुव॑नमा वि॒वेश॑ ।
स॒द्यः पर्ये॑मि पृथि॒वीमु॒त द्यामेके॒नाङ्गे॑न दि॒वो अ॒स्य पृ॒ष्ठम् ।। ५० ।।
उ० प्रत्याह । अपि तेषु तेषु अहमस्मि अपि त्वं चेत्यपिशब्दः । तेषु गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निषु त्रिषु पदेषु । अहमस्मि त्वं च । केषु येषु । विश्वं भूतजातम् । आविवेश आविष्टम् । यत्पुनरेतदुक्तं भवता यदि त्वमत्र मनसा जगन्थेति । अत्र ब्रूमः । सद्यः एककालमेव । पर्येमि परिगच्छामि पृथिवीम् । उत अपिच द्याम् एकेन अङ्गेन मनसा अस्य दिवः पृष्ठं च किमुत भूतानि तत्राविष्टानीति ॥५०॥
म० उद्गाता प्रत्याह । येषु त्रिषु पदेषु विश्वं भुवनमाविवेशेति यत्त्वया पृष्टम् तेषु त्रिषु पदेषु गार्हपत्यादिषु अहमस्मि अहमपि तत्रैव स्थितोऽस्मि । अपिशब्दात् त्वं च तत्रैवासि । किमेतावदेव जानामि किंतु पृथिवीमुतापि च द्यां स्वर्गं दिवः स्वर्गस्य पृष्ठमुपरिभागमपि सद्यः तत्क्षणमेव एकेनाङ्गेन मनसा पर्येमि परिगच्छामि सर्वं जानामि किंपुनर्भूतानि प्रविष्टानीति भावः ॥ ५० ॥

एकपञ्चाशी।
केष्व॒न्तः पुरु॑ष॒ आ वि॑वेश॒ कान्य॒न्तः पुरु॑षे॒ अर्पि॑तानि ।
ए॒तद्ब्र॑ह्म॒न्नुप॑ वल्हामसि त्वा॒ किᳪं᳭ स्वि॑न्न॒: प्रति॑ वोचा॒स्यत्र॑ ।। ५१ ।।
उ० उद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति । केष्वन्तः । केषु अन्तर्मध्ये पुरुषः आविवेश आविष्टः प्रविष्टः । कानि चान्तः : मध्ये पुरुषे अर्पितानि । एतत् हे ब्रह्मन् उपवल्हामसि । • 'वल्ह प्राधान्ये' । इह तु आह्वानपूर्वे संहर्षे वर्तते । उपसङ्गम्याहूयोत्क्षिप्य बाहू पृच्छामि भवन्तम् किंस्विन्नः किं पुनरस्माकं प्रति वोचासि मध्ये पुरुष आविवेश । किंच तानि प्राणाधीनानि करणानि अन्तः पुरुषे अर्पितानि । : एतत् त्वा भवन्तं प्रति मन्वानः प्रतिजानानः अस्मि अवस्थितः । नच मायया प्रज्ञया भवसि उत्तरः उद्गातृतरः मत् प्रति ब्रवीपि अत्र प्रश्ने ॥ ५१ ॥
म० उद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति । हे ब्रह्मन् , पुरुषः केषु ' पदार्थेषु अन्तर्मध्ये आविवेश प्रविष्टः । पुरुषे अन्तः पुरुषमध्ये कानि वस्तूनि अर्पितानि स्थापितानि । एतत् त्वा त्वां वयमुपवल्हामसि उपवल्हामः स्पर्धया पृच्छामः 'वल्ह प्राधान्यपरिभाषणहिंसादानेषु' लट् 'इदन्तो मसि' अत्र प्रश्ने । किं स्वित् त्वं प्रतिवोचासि प्रतिवदसि । 'वच उम्' (पा० ७ । ४ । २० ) इति लेटि छान्दस उम् । 'लेटोऽडाटौ' (पा० ३ । । ४ । ९४) इत्याडागमः ॥५१॥

द्विपञ्चाशी। ।
प॒ञ्चस्व॒न्तः पुरु॑ष॒ आ वि॑वेश॒ तान्य॒न्तः पुरु॑षे॒ अर्पि॑तानि ।
ए॒तत्त्वात्र॑ प्रतिमन्वा॒नो अ॑स्मि॒ न मा॒यया॑ भव॒स्युत्त॑रो॒ मत् ।। ५२ ।।
उ० प्रत्याह । पञ्चस्वन्तः पञ्चस्विति प्राणाः ख्यायन्ते । पञ्चसु प्राणेषु मत्तः मामपेक्ष्य ॥ ५२ ॥
म० ब्रह्मा प्रत्याह । पुरुषः आत्मा पञ्चसु प्राणेषु अन्तः प्राणमध्ये आविवेश प्रविष्टः तानि प्रसिद्धानि श्रोत्राधिकरणानि पुरुषे अन्तः मध्ये अर्पितानि । प्राणात्मनामन्योन्यापेक्षासिद्धिरित्यर्थः । नचात्मानमन्तरेण प्राणाः ख्यायन्ते 'न प्राणानन्तरेणात्मेति' बह्वृचश्रुतेः । यद्वा पञ्चसु भूतेषु भूम्यादिषु आत्मा प्रविष्टस्तानि चात्मनि प्रविष्टानि 'तानि सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्' इति श्रुतेः । उद्गातः, अहमत्र प्रश्ने । त्वा त्वां प्रति एतदुत्तरं प्रतिमन्वानः प्रतिजानानोऽस्मि । एवमुत्तरं ददामीत्यर्थः । किंच मायया बुद्ध्या मत् मत्तः उत्तरोऽधिकस्वं न भवसि । मत्तो बुद्धिमान्नासीत्यर्थः ॥ ५२ ॥

त्रिपञ्चाशी।
का स्वि॑दासीत्पू॒र्वचि॑त्ति॒: किᳪं᳭ स्वि॑दासीद् बृ॒हद्वय॑: ।
का स्वि॑दासीत्पिलिप्पि॒ला का स्वि॑दासीत्पिशङ्गि॒ला ।। ५३ ।।
उ० होताध्वर्युं पृच्छति । कास्विदासीत् ॥ ५३ ॥
म० 'पुनः पूर्वावपरेणोत्तरवेदिं का स्विदिति' (का. । २० । ७ । १२)। ततः सदसो निष्क्रम्य हविर्धानस्य पुर उत्तरवेदेः पश्चादुपविश्य पूर्वौ पूर्वोक्तौ होत्रध्वर्यू चतुर्ऋग्भिः संवदेते इति सूत्रार्थः । होताध्वर्युं पृच्छति । व्याख्याता (११) ॥ ५३ ॥

चतुःपञ्चाशी।
द्यौ॑रासीत्पू॒र्वचि॑त्ति॒रश्व॑ आसीद् बृ॒हद्वय॑: ।
अवि॑रासीत्पिलिप्पि॒ला रात्रि॑रासीत्पिशङ्गि॒ला ।। ५४ ।।
उ० प्रत्याह । द्यौरासीत् व्याख्यातौ ॥ ५४ ॥
म० व्याख्याता (१२) ॥ ५४ ॥

पञ्चपञ्चाशी।
का ई॑मरे पिशङ्गि॒ला का ईं॑ कुरुपिशङ्गि॒ला ।
क ई॑मा॒स्कन्द॑मर्षति॒ क ईं॒ पन्थां॒ वि स॑र्पति ।। ५५ ।।
उ० अध्वर्युर्होतारं पृच्छति । का ईमरे । ईमिति चकारार्थे । अरे इत्यामन्त्रितविषयः । उभावपि निपातौ । का च अरे होतः, पिशङ्गिला । का च कुरुपिशङ्गिला। कश्च आस्कन्दम् अर्षति कश्च पन्थां विसर्पति ॥ ५५ ॥
म० अध्वर्युर्होतारं पृच्छति । ईमिति निपातश्चार्थः । अरे होतः, का च पिशंगिला का च कुरुपिशंगिला कश्च आस्कन्दं णमुलन्तः । आस्कद्य उत्प्लुत्य अर्षति गच्छति 'ऋष गतौ' तुदादिः व्यत्ययेन शप् । कश्च पन्थां पन्थानं मार्गं प्रति विसर्पति विविधं गच्छति ॥ ५५ ॥

षट्पञ्चाशी।
अ॒जारे॑ पिशङ्गि॒ला श्वा॒वित्कु॑रुपिशङ्गि॒ला ।
श॒श आ॒स्कन्द॑मर्ष॒त्यहि॒: पन्थां॒ वि स॑र्पति ।। ५६ ।।
उ० प्रत्याह अजारे अजा नित्यारात्रिः अरे अध्वर्यो, पिशङ्गिला । सा हि पिशं रूपं गिलति भक्षयति । स हि तस्याः प्रभावः । श्वावित् सेधा उच्यते । कुरुपिशंगिला । कृत्वा उपलभ्योपलभ्य पिशं रूपं गिलति भक्षयति सा कुरुपिशंगिला । सा हि शतं मूलानां श्वोभक्षणाय कुक्षौ स्थापयति शतं च भक्षयति स हि तस्याः स्वभावः । शशश्च आस्कन्दं आस्कन्द्यास्कन्द्य अर्षति गच्छति स हि तस्य स्वभावः । अहिश्च स्वकीयं पन्थानम् विसर्पति विकुर्वन् गच्छति ॥ ५६ ॥
म० अरे अध्वर्यो, अजा पिशंगिला अजा नित्या माया रात्रिर्वा पिशंगिला पिशं रूपं गिलति भक्षयति पिशंगिला माया विश्वं ग्रसते । रात्रावपि रूपाणि न प्रतीयन्ते तमसा । श्वावित् सेधा कुरुपिशंगिला कुरुशब्दोऽनुकरणे ‘पिश अवयवे' इति धातोरिगुपधेति कप्रत्ययः । कुरु इति शब्दमनुकुर्वाणा पिशान् मूलाद्यवयवान् गिलति पिशंगिला । मूलानां शतं कुक्षौ स्थापयति शतं च भक्षयतीति सेधायाः स्वभावः । शशः वन्यो जीवविशेषः आस्कन्दमास्कन्द्यास्कन्द्य अर्षति स तस्य स्वभावः । अहिः सर्पः पन्थां पन्थानं विसर्पति विशेषेण | गच्छति ॥ ५६ ॥

सप्तपञ्चाशी।
कत्य॑स्य वि॒ष्ठाः कत्य॒क्षरा॑णि॒ कति॒ होमा॑सः कति॒धा समि॑द्धः ।
य॒ज्ञस्य॑ त्वा वि॒दथा॑ पृच्छ॒मत्र॒ कति॒ होता॑र ऋतु॒शो य॑जन्ति ।। ५७ ।।
उ० ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति । कत्यस्य अस्य यज्ञस्य कति विष्ठाः विशेषेण तिष्ठति यज्ञो यासु ता विष्ठा अन्नानि । कति च अक्षराणि कति च होमाः कतिधा च समिद्धः समिधः यज्ञस्य त्वा भवन्तम् विदथा आवेदनेन हेतुना पृच्छं पृच्छामि । अत्र च यज्ञे कति होतारः ऋतुशः ऋतुयाज्यान् यजन्ति ॥ ५७ ॥ |
म० 'उत्तरौ च कत्यस्येति' ( का० २० । ७ । १३)। । उत्तरौ पश्चादुक्तौ ब्रह्मोद्गातारौ चतुर्ऋग्भिः संवदेते । ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति । अस्य कति विष्टाः कियन्ति अन्नानि । का संख्या यासां ताः कति । विशेषेण तिष्ठति यज्ञो यासु ताः विष्ठाः अन्नानि कियत्प्रकाराणि यज्ञे । अक्षराणि च कति । होमासः होमाः कति । समिद्धः समिधः कतिप्रकाराः । धकारस्य द्वित्वमार्षम् । यज्ञस्य विदथा वेत्तीति विदः विदस्य भावो विदथा यज्ञावेदितृत्वेन हेतुना अत्र स्थले त्वा त्वामहं पृच्छमपृच्छं पृच्छामि । पृच्छतेर्लङ् । अडभाव आर्षः । ऋतुशः ऋतौ ऋतौ कति होतारः यजन्ति ॥ ५७ ॥

अष्टपञ्चाशी।
षड॑स्य वि॒ष्ठाः श॒तम॒क्षरा॑ण्यशी॒तिर्होमा॑: स॒मिधो॑ ह ति॒स्रः ।
य॒ज्ञस्य॑ ते वि॒दथा॒ प्र ब्र॑वीमि स॒प्त होता॑र ऋतु॒शो य॑जन्ति ।। ५८ ।।
उ० प्रत्याह । षडस्य । रससंख्ययोपसंजिहीर्षुराह । अस्य यज्ञस्य षड्विष्ठाः अन्नानि सर्वान्नानां पड्रसात्मकत्वात् शतमक्षराणि । छन्दसामुद्धारेणोपसंजिहीर्षुराह । चतुर्दश छन्दांसि गायत्रीप्रभृतीनि चतुर्विंशत्यक्षरादीनि । चतुरुत्तराणि अतिधृतिपर्यन्तानि । अतिधृतिस्तु षट्सप्तत्या भवति । एतैः प्रायशो यज्ञस्तायते । तत्र गायत्री अतिधृतिश्च शतम्। एवमुष्णिक् धृतिश्च शतम् । एवमन्येष्वपि छन्दस्सु इत्येतदभिप्रायम् । अशीतिर्होमाः । एकविंशतिरश्वमेधे यूपाः । । तत्राग्निष्टे अश्वस्तूपरो गोमृगान् नियुनक्ति । इतरेषु षोडशषोडश । तत्र विंशतियूपैः चतस्रोऽशीतयो भवन्ति तदभिप्रायमेतत् । कतिधा समिद्ध इति यदुक्तम् अत्र ब्रूमः । समिधो ह तिस्रः याभिः समिद्भिः संदीप्तो यज्ञः तास्तिस्रः अश्वस्तूपरो गोमृगाः प्राजापत्याः पशवः यज्ञस्य ते तव विदथा वेदनेन । ब्रवीमि सप्तहोतारः वषट्कर्तारः ऋतुशः । ऋतुयागेषु यजन्ति ॥ ५८ ॥
म० उद्गाता प्रत्याह । रससंख्यया अन्नसंख्यामाह । अस्य यज्ञस्य षट् विष्ठाः अन्नानि । सर्वेषामन्नानां षड्रसात्मकत्वात्षडेवान्नानीत्यर्थः । अस्य यज्ञस्य शतमक्षराणि छन्दोभिर्यज्ञो निष्पाद्यते तानि च छन्दांसि गायत्र्यादीन्यतिधृत्यन्तानि चतुर्दश चतुर्विशत्यक्षरादीनि चतुर्वर्णान्तराणि तेषां क्रमोत्क्रमगत्या द्वाभ्यां शतमक्षराणि भवन्ति । तथा हि । गायत्री चतुर्विंशतिवर्णा । अतिधृतिः षट्सप्तत्यक्षरा एवं द्वे मिलित्वा शतमक्षराणि उष्णिक् २८ धृतिः ७२ एवं शतम् । अनुष्टुप् ३२ अत्यष्टिः ६८ एवं शतम् । अष्टिः ६४ बृहती ३६ एवं शतम् । अतिशक्वरी ६० पङ्क्तिः ४० एवं शतम् । शक्वरी ५६ त्रिष्टुप् ४४ एवं शतम् । अतिजगती ५२ जगती ४८ एवं शतमक्षराणि । अनेनाभिप्रायेण शतमक्षराणीत्युक्तम् । होमाः अशीतिः अश्वमेध एकविंशतिर्यूपाः तत्राग्निष्टे मध्यमयूपेऽश्वतूपरगोमृगान्नियुनक्ति इतरेषु षोडश पशून् तत्र विंशतियूपेषु चतस्रोऽशीतयः पशवो भवन्तीत्यभिप्रायेणोक्तम् । अशीतिर्होमाः ह स्फुटम् । तिस्रः समिधः अश्वतूपरगोमृगाः प्राजापत्याः पशवः तद्रूपाभिः समिद्भिर्यज्ञो दीप्त इति तिस्रः समिध उक्ताः । यज्ञस्य विदथा वेदनेन हेतुना ते तुभ्यं प्रव्रवीमि प्रवदामि । किंच सप्त होतारो वषट्कर्तारः ऋतुशः ऋतुयाजेषु यजन्ति ॥ ५८ ॥

एकोनषष्टी।
को अ॒स्य वे॑द॒ भुव॑नस्य॒ नाभिं॒ को द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षम् ।
कः सूर्य॑स्य वेद बृह॒तो ज॒नित्रं॒ को वे॑द च॒न्द्रम॑सं यतो॒जाः ।। ५९ ।।
उ० उद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति । को अस्य । कः अस्य वेद जानाति । कश्च द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं च वेद । कश्च सूर्यस्य वेद जानाति । बृहतः महतः जनित्रं जन्म । कश्च वेद चन्द्रमसम् । चन्द्रमसः इति विभक्तिव्यत्ययः । यतोजाः यतो जन्म ॥ ५९ ॥
म० उद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति । हे ब्रह्मन् , अस्य भुवनस्य जातस्य नाभिं नभ्यते यत्र स नाभिर्बन्धनस्थानं कारणमिति यावत् । नाभौ हि सर्वा नाड्यो बध्यन्ते 'नभ हिंसायाम्' अत्र बन्धनार्थः । औणादिक इप्रत्ययः । भूतजातस्य कारणं को वेद जानाति । द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ अन्तरिक्षं च को वेद । बृहतो महतो जनित्रं जन्म को वेद । सूर्यस्योत्पत्तिः कस्मादित्यर्थः । जनेस्त्रल्प्रत्ययः। यतो जायते उत्पद्यते इति यतोजाः यत इत्युपपदे 'जनसनखनक्रमगमो विट्' (पा० ३। २।६७) इति विट्प्रत्ययः । 'विड्वनोरनुनासिकस्य' (पा० ६। ४ । ४१) इति नकारस्यात्वम् । प्रथमा द्वितीयार्था । यतोजाः यत उत्पन्नं चन्द्रमसमिन्दुं को वेद । यतश्चन्द्रस्योत्पत्तिस्तं को वेदेत्यर्थः ॥ ५९॥

षष्टी।
वेदा॒हम॒स्य भुव॑नस्य॒ नाभिं॒ वेद॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षम् ।
वेद॒ सूर्य॑स्य बृह॒तो ज॒नित्र॒मथो॑ वेद च॒न्द्रम॑सं यतो॒जाः ।। ६० ।।
उ० प्रत्याह । वेदाहम् । वेद जानामि अहम् । अस्य भुवनस्य नाभिं नहनं बन्धनं परं ब्रह्म । वेद च द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं च ब्रह्मणो विकारभूतम् । वेद च सूर्यस्य बृहतः जनित्रं परमात्मलक्षणम् । अथो अपिच वेद जानामि चन्द्रमसं यतोजाः चन्द्रमसः यतो जन्म परमात्मनः यज्ञाद्वा ॥ ६०॥
म० ब्रह्मा प्रत्याह । अस्य भुवनस्य नाभिं कारणमहं वेद जानामि विदो लटो वा' (पा० ३।४। ८३ ) परब्रह्मव जगकारणं जानामीत्यर्थः । द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं च वेद ब्रह्मणो विकारभूतं जानामि । वृहतः सूर्यस्य जनित्रमुत्पत्तिकारणं ब्रह्मैव वेद । अथो अपिच यतोजाः चन्द्रमसमहं वेद परमात्मनो जातं चन्द्रमहं वेमीत्यर्थः ॥ ६० ॥

एकषष्टी।
पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ पर॒मन्तं॑ पृथि॒व्याः पृ॒च्छामि॒ यत्र॒ भुव॑नस्य॒ नाभि॑: ।
पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेत॑: पृ॒च्छामि॑ वा॒चः प॑र॒मं व्यो॑म ।। ६१ ।।
उ० अध्वर्युं यजमानः पृच्छति पृच्छामि त्वा । पृच्छामि त्वां भवन्तम् परम् अन्तं पृथिव्याः । पृच्छामि च यत्र भुवनस्य नाभिः नहनम् । पृच्छामि च भवन्तम् वृष्णः सेक्तुः अश्वस्य रेतः । पृच्छामि च वाचः परमं व्योम व्यवनं स्थानम् ॥ ६१ ॥
म० 'यजमानोऽध्वर्यु पृच्छामि बेति' (का० २० । ७ । १४) । यजमानोऽध्वर्यु पृच्छति । हे अध्वर्यो, पृथिव्याः परमन्तमवधिभूतं पर्यन्तं त्वा त्वामहं पृच्छामि । द्विकर्मकः । यत्र यस्मिन्स्थले भुवनस्य भूतजातस्य नाभिः कारणं तदपि त्वां पृच्छामि । वृष्णः सेक्तुः अश्वस्य रेतः वीर्यं त्वां पृच्छामि । वाचो वाण्याः त्रयीलक्षणायाः परममुत्कृष्टं व्योम स्थानं त्वां पृच्छामि ॥ ६१ ॥

द्विषष्टी।
इ॒यं वेदि॒: परो॒ अन्त॑: पृथि॒व्या अ॒यं य॒ज्ञो भुव॑नस्य॒ नाभि॑: ।
अ॒यᳪं᳭ सोमो॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतो॑ ब्र॒ह्मायं वा॒चः प॑र॒मं व्यो॑म ।। ६२ ।।
उ० प्रत्याह इयं वेदिः । इयं वेदिः परः अन्तः पृथिव्याः। वेदिर्हि सर्वा पृथिवीरूपा भवति । अयं च यज्ञः भुवनस्य नाभिः नहनम् 'यज्ञाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते' इति श्रुतेः । अयं च सोमः चन्द्रमाः लता सोमो वा वृष्णः सेक्तुः अश्वस्य रेतः । अयं च ब्रह्मा ऋत्विक् वाचः परमं व्योम व्यवनं स्थानम् त्रिवेदयोगात् । समाप्तं ब्रह्मोद्यम् ॥ ६२ ॥
म०. 'इयं वेदिरित्यध्वर्युः' (का० २० । ७ । १५) । अध्वर्युः यजमानं प्रत्याह । इयं वेदिः उत्तरवेदिः पृथिव्याः परः अन्तोऽवधिः । वेदेः सर्वपृथ्वीरूपत्वादित्यर्थः । भुवनस्य नाभिः कारणम् । अयं यज्ञोऽश्वमेधः भुवनस्य प्राणिजातस्य नाभिः कारणम् । 'यज्ञाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते' इति श्रुतेः । वृष्णः अश्वस्य रेतः अयं सोमः सोमलताश्वस्य वीर्याज्जातेत्यर्थः । अयं ब्रह्मा ऋत्विक् वाचः त्रयीरूपायाः परमं व्योम स्थानम् । ब्रह्मणस्त्रिवेदसंयोगादित्यर्थः । ब्रह्मोद्यं समाप्तम् ॥ ६२ ॥

त्रिषष्टी।
सु॒भूः स्व॑य॒म्भूः प्र॑थ॒मोऽन्तर्म॑ह॒त्य॒र्ण॒वे । द॒धे ह॒ गर्भ॑मृ॒त्वियं॒ यतो॑ जा॒तः प्र॒जाप॑तिः ।। ६३ ।।
उ० महिम्नः पुरोनुवाक्या । सुभूः स्वयंभूः । अनुष्टुप् प्राजापत्या । साधुभवनः स्वयंभूः स्वेच्छया गृहीतशरीरः। प्रथमः अनादिनिधनः पुरुषः । किमकरोदित्याह । अन्तर्महत्यर्णवे दधेह । अन्तर्महतोऽर्णवस्य । हेति निपातः पुराकल्पद्योतनार्थः । किं दधे । गर्भं ऋत्वियं प्राप्तकालम् । कथंभूतं गर्भम् । यतो जातः प्रजापतिः । यस्माद्गर्भात् जातः प्रजापतिः अनन्योपमः ॥ ६३ ॥
म०. सुभूरिति पूर्वस्य महिम्नः पुरोऽनुवाक्या उत्तरस्य याज्या च । 'उदिते ब्रह्मोद्यं संप्रपद्याध्वर्युर्हिरण्मयेन पात्रेण प्राजापत्यं महिमानं ग्रहं गृह्णाति तस्य पुरोरुग्घिरण्यगर्भः समवर्तताग्र इत्यथास्य पुरोऽनुवाक्याः सुभूः स्वयंभूः' (१३ । ५ । २।२३) इति श्रुतेः । प्रजापतिदेवत्यानुष्टुप् । ह इति प्रसिद्धम् । प्रथमः सर्वस्य आदिः अनादिनिधनः पुरुषः महति अर्णवे कल्पान्तकालीने समुद्रे अन्तर्मध्ये गर्भं दधे स्थापितवान् । कीदृशः । सुष्ठू भूरुत्पत्तिर्यस्मात्स सुभूः विश्वोत्पादकः । खयं भवतीति स्वयंभूः स्वेच्छाधृतशरीरः । कीदृशं गर्भम् । ऋत्वियम् ऋतुः प्राप्तो यस्य । घस्प्रत्ययः । प्राप्तकालम् । यतो गर्भात् प्रजापतिः ब्रह्मा जातः उत्पन्नः ॥ ६३ ॥

चतुःषष्टी।
होता॑ यक्षत्प्र॒जाप॑ति॒ᳪं᳭ सोम॑स्य महि॒म्नः । जु॒षतां॒ पिब॑तु॒ सोम॒ᳪं᳭ होत॒र्यज॑ ।। ६४ ।।
उ० प्रैषः । होता यक्षत् । दैव्यो होता यजतु । प्रजापतिम् सोमस्य महिम्नः संबन्धिनम् । स चेज्यमानः सन् जुषतां प्रीत्या परिगृह्णातु पिबतु च सोमम् । त्वमपि च हे मनुष्यहोतः, यज ॥ ६४ ॥
म० महिम्नः प्रैषः । 'होता यक्षत्प्रजापतिमिति प्रैषः' ( १३ । ५।२।२३) इति श्रुतेः । आर्षी गायत्री । महिम्नः सोमस्य महिमसंज्ञस्य सोमग्रहस्य संबन्धिनं प्रजापतिं होता दैव्यो यक्षत् यजतु । इज्यमानः स प्रजापतिः जुषतां सोमं महिमग्रहं पिबतु च । हे मनुष्यहोतः, त्वमपि यज ॥ ६४ ॥

पञ्चषष्टी ।
प्रजा॑पते॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ रू॒पाणि॒ परि॒ ता ब॑भूव ।
यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यᳪं᳭ स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ।। ६ ५ ।।
इति माध्यन्दिनीयायां वाजसनेयसंहितायां त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
उ० प्रजापते न । व्याख्यातो मन्त्रः ॥ ६५॥
इति उवटकृतौ मन्त्रभाष्ये त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
म० पूर्वस्य महिम्नो याज्या । 'प्रजापते न त्वदेतान्यन्य इति होता यजतीति' (१३ । ५ । २ । २३) इति श्रुतेः । व्याख्याता (१० । २०)॥६५॥
श्रीमन्महीधरकृते वेददीपे मनोहरे।
त्रयोविंशोऽयमध्यायो व्यरंसीदाश्वमेधिकः ॥ २३ ॥

  1. कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है - ' कोपाज्जनमेजयो बाह्मणेषु विक्रांतः ' - अर्थात् ब्राह्मणों के प्रति कोपजनित अत्याचार से जनमेजय पराभव को प्राप्त हुआ ।

जनमेजय के अश्वमेध यज्ञ के बारे में श्री इच्छाराम देसाई बताते हैं कि अश्व के वध के बाद अश्व की आहुति देते समय उसकी पत्नी के हाथ में घोड़े का लिंग था तब ब्राह्मण पुरोहितों ने उपहास किया। इस विषय पर क्रोधित हो कर जनमेजय ने उन ब्राह्मणों की हत्या की जिससे उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगा। इस पूरे प्रकरण को आप उनकी वेदान्त पर लिखी गई ग्रंथमाला ' चंद्रकांत ' मे देख सकते हैं।

' ऐतरेय ब्राहमण ' में ( 8 / 21 ) कहा गया है कि जनमेजय के पुरोहित " तुर कावषेय ने जनमेजय पारीक्षित का ऐंद्र महाभिषेक से अभिषेक किया । इसलिए जनमेजय चारों दिशाओं में पृथ्वी की विजय करते हुए विचरे और उन्होंने मेध्य अश्व से यजन किया । इस विषय में यह यज्ञीय गाथा गाईजाती है - ' आसंदीवति धान्यादंरुक्मिणं हरितम्रजम् । अबध्नात् अश्वं सारंगदेवेभ्यो जनमेजयः । ' आसंदीवत् में जनमेजय ने धान्य खाने वाला . स्वर्ण से मंडित , हरितस्रज से अलंकृत शबलित रंग का एक घोड़ा देवों के लिए यूप में बाँधा । "

यूप की आवश्यकता बताने के अनन्तर ऐतरेय ब्राह्मण में इसका तात्पर्य दिया है :

" यूप एक शस्त्र है । इसके सिर के आठ छोर होने चाहिएं । क्योंकि एक शस्त्र ( लोहे के वल्लभ ) के आठ कोने होते हैं । जब भी वह उससे किसी शत्रु या विरोधी पर प्रहार करता है तो उसे मार डालता है । यह शस्त्र जिसे अभिभूत करना हो उसे अभिभूत कर देता है । यूप एक शस्त्र है जो पशु विनाश के लिए सीधा खड़ा रहता है । इससे यज्ञकर्ता का शत्रु जो ( यज्ञ में ) उपस्थित हो सकता है उस यूप को देख कर संकट ग्रस्त हो जाता है । "

यूप के लिए लकड़ी यज्ञकर्ता के यज्ञ करने के उद्देश्य के अनुसार भिन्न - भिन्न प्रकार की चुनी जाती है । ऐतरेय ब्राह्मण ( ऐतरेय ब्राह्मण ( मार्टिन हग ) - II , पृष्ठ 74 - 78) का कथन है :

" जो स्वर्ग चाहता है उसे अपनी यूप खादिर की लकड़ी से बनानी चाहिए क्योंकि देवताओं ने खादिर की लकड़ी के यूप से ही दिव्य लोक को जीता । उसी प्रकार यज्ञकर्ता खादिर की लकड़ी से बने हुए यूप से दिव्यलोक को जीतता है । "

" जो भोजन चाहता है और स्थूलता चाहता है उसे अपना यूप बेल ( बिल्व ) की लकड़ी से बनाना चाहिए । बेल के पेड़ पर प्रतिवर्ष फल लगते हैं । यह उर्वरता का प्रतीक है क्योंकि यह जड़ से शाखाओं तक ( प्रतिवर्ष ) आकार में बढ़ता रहता है । इसलिए यह मोटापे का प्रतीक है । जो यह जानता है और इसलिए अपना यूप बेल की लकड़ी का बनाता है उसके बच्चे और पशु मोटे होते हैं । "

" बेल की लकड़ी से बने यूप के बारे में इतना और कहना है जो बिल्व को बार - बार प्रकाश कहता है और ऐसा जानता है वह अपने स्वयं में प्रकाश बन जाता है और स्वयं में सबसे श्रेष्ठ । "

" जो सौंदर्य और पवित्र विद्या चाहता है उसे अपना यूप पलाश की लकड़ी का बनाना चाहिए क्योंकि ढाक सौंदर्य और पवित्र विद्या का वृक्ष है । जो यह जानता है और इसलिए अपना यूप पलाश की लकड़ी का बनाता है वह सुंदर हो जाता है और पवित्र विद्या प्राप्त करता है । "

पलाश की लकड़ी से बने यूप के बारे में इतना और कहा गया है कि पलाश सब वृक्षों का गर्भ है । इसीलिए वे उस पलाश के वृक्ष की बात करते हैं । जो यह जानता है उसकी सभी इच्छाएं चाहे किसी पेड़ से भी क्यों न हों , पूरी होती है । उसके बाद यूप के अभिषेक का संस्कार होता है । '

" अध्वर्यु कहता है हम यूप को अभिषेक कहते हैं । अपेक्षित मंत्र पढ़ो । होता मंत्र पढ़ता है अंजतित्वां अध्वरे ( 3 , 8 , 1 . ) अर्थात् हे वृक्ष ! पुरोहित दिव्य मधु से तेरा स्वागत करते हैं । यदि तू यहां सीधा खड़ा है अथवा यदि तू अपनी माता ( पृथ्वी ) पर लेटा हुआ है तो हमें धन दे । “ दिव्य मधु " पिघला हुआ मक्खन है जिससे पुरोहित यूप का अभिषेक करते हैं । दूसरे आधे मंत्र हमें दे आदि का अर्थ है " चाहे तुम खड़े हो चाहे लेटे हो हमें धन दो । "

" तब होता दोहराता है . जातो जायते सुदिनत्वे ( 3 , 8 , 5 ) अर्थात् उत्पत्ति के बाद वह ( यूप ) अपने जीवन के मध्यकाल में मरणशील मनुष्यों के यज्ञ के उपयोग में आता है । बुद्धिमान लोग उसे यूप ( को ) सजाने में संलग्न हैं । वह देवताओं के व्याख्यान पटु दूत की तरह अपना स्वर ऊंचा करता है कि देवता उसे सन सकें । वह ( यूप ) जात अर्थात् उत्पन्न कहलाता है क्योंकि वह इस श्लोक के पहले चरण के उच्चारण से पैदा होता है । वर्धमान ( शब्दों से ) अर्थात् बढ़ना से वे उसे ( यूप को ) इस प्रकार बढ़ाते हैं । पुनन्ति ( शब्द से ) अर्थात् पवित्र करना , सजाना , वे उसे इस प्रकार पवित्र करते हैं । वह एक व्याख्यान पटु दूत शब्दों से देवताओं को यूप के अस्तित्व की सूचना देता है । "

" होता यत् स्तंभ अभिषेक के संस्कार को समाप्त करता है । उस समय वह पढ़ता है : - युवा सुवासा परिविता : ( 3 , 8 , 4 ) अर्थात् बंदनवार सज्जित यूप आ पहुंचा है वह उन सब वृक्षों से जो कभी भी उत्पन्न हुए हों बढ़ कर बुद्धिमान पुरोहित अपने मन के सुव्यवस्थित विचारों के मंत्र पाठ द्वारा उसे उठाते हैं । पट्टी से ( सजा हुआ ) यूप जीवनदायिनी वायु ( आत्मा ) है जो शरीर के अंगों द्वारा ढका है । वह श्रेष्ठ है इत्यादि शब्दों से उसका अर्थ है कि वह ( यूप ) बढ़िया होता जा रहा है ( अधिक श्रेष्ठ सुंदर ) इस मंत्र के बल से । "

अगला संस्कार आग से यज्ञ स्तंभ की परिक्रमा करना है । इस संबंध में ऐतरेय ब्राह्मण ( ऐतरेय ब्राह्मण ( मार्टिन हग ) II , पृ . 84 - 86) का कथन है :

" जब ( पशु ) के चारों ओर आग घुमाई जाती है तो अध्वर्यु होता से कहता है - अपना मंत्र पाठ करो । तब होता को संबोधित करके गायत्री छंद में रचे गए तीन मंत्रों का पाठ करता है । अग्नि होता वा अध्वरे ( 4 , 15 , 1 - 3 ) अर्थात् ( 1 ) हमारा पुरोहित , अग्नि , एक घोड़े की तरह घुमाया जा रहा है । यह देवताओं में यज्ञ का देवता है । ( 2 ) एक रथी की तरह अग्नि यज्ञ के पास से तीन बार गुजरता है । वह देवताओं के पास आहुति ले जाता है । ( 3 ) भोजन का अधिष्ठाता अग्नि ऋषि आहुति के गिर्द घूमा , यह यज्ञकर्ता को धन देता है । "

" जब पशु के चहु ओर अग्नि लेकर घूमा जाता है तो उसे अपने देवता और अपने छन्द के द्वारा यशस्वी बनाता है । वह एक घोड़े की तरह ले जाया जाता है का अर्थ है कि वह उसे घुमाते हैं मानो वह कोई घोड़ा हो , एक रथी की तरह अग्नि तीन बार यज्ञ के पास से गुजरती है का अर्थ है कि वह एक रथी की तरह ( शीघ्रता ) से यज्ञ के चारों ओर वह वाजपति ( भोजन अधिष्ठाता ) कहलाता है , क्योंकि वह तरह - तरह के भोजनों का अधिष्ठाता है । "

" अध्वर्यु कहता है : हे होता ! देवताओं को आहुति देने के लिए अतिरिक्त आज्ञा दो । " तब होत ( बधिकों को ) आदेश देता है - " हे दिव्य बधिकों । ( अपना कार्य ) आरंभ करो और जो मानवीय बधिक हो वह भी । इसका अर्थ है कि वह सभी बधिकों को चाहे वे देवताओं में हों चाहे मानवों में आज्ञा देता है कि ( आरंभ करो ) । "

" वध करने के शस्त्र यहां लाओ , तुम लोग जो यज्ञ के दोनों स्वामियों की ओर से यज्ञ का आदेश दे रहे हो । " पशु आहुति है , यज्ञकर्ता आहुति का स्वामी है । इस प्रकार होतृ यज्ञ कर्ता को उसकी अपनी आहुति से यशस्वी बनाता है । इसलिए वे सत्य कहते हैं - जिस देवता के लिए भी पशु का वध किया जाता है वही उसका स्वामी है । यदि एक ही देवता के लिए पशु की बलि दी जाती है तो पुरोहित को कहना चाहिए मेधपतये अर्थात ! यज्ञ के स्वामी के लिए ( एक वचन ) , यदि देवताओं के लिए तो उसे द्विवचन का प्रयोग करना चाहिए यज्ञ के दोनों स्वामियों के लिए । यदि अनेक देवताओं के लिए है तो उसे बहुवचन का प्रयोग करना चाहिए यज्ञ के स्वामियों के लिए । यही निश्चित धर्म है । " तुम उसके लिए अग्नि लाओ । जब पशु को वध स्थान की ओर ले जाया गया , तो उसने अपने सामने मृत्यु को देखा । वह देवताओं के पास नहीं जाना चाहता था , तब देवताओं ने उससे कहा - आओ हम तुम्हें स्वर्ग पहुंचाएंगे । पशु मान गया और बोला : तुम में से एक को मेरे आगे - आगे चलना चाहिए । देवताओं ने स्वीकार किया । तब अग्नि पशु के आगे - आगे चला और पशु उसके पीछे - पीछे । इसी से वे कहते हैं कि हर पशु पर अग्नि का अधिकार है , क्य ंकि पशु अग्नि के पीछे - पीछे चला । इसीलिए वे पशु के आगे - आगे अग्नि ले जाते हैं । "

" पवित्र दूब बिखेर दो । पशु वनस्पति पर ही जीता है । होता इस प्रकार पशु को उसकी समस्त आत्मा देता है । ( क्योंकि वनस्पति उसका भाग समझी जाती है ) । " पशु को चारों ओर आग घुमाने के बाद यज्ञ के लिए पुरोहित को दिया जाता है । यज्ञ के लिए पशु का समर्पण कौन करे ? इस विषय में ऐतरेय ब्राह्मण ' की आज्ञा हैं

" मां , पिता , भाई , बहन , मित्र और साथियों को चाहिए कि वे वध करने के लिए पशु का समर्पण करें । ( जिस समय ये शब्द कहे जाते हैं वे उस पशु को पकड़ लेते हैं जिसके बारे में यह माना जाता है कि वह माता - पिता आदि के द्वारा सर्वथा परित्यक्त है ) । "

इस निर्देश को पढ़ कर आश्चर्य होता है कि लगभग हर किसी के लिए इसकी क्या आवश्यकता है कि वह पशु को यज्ञ के लिए समर्पित करने के संस्कार में हिस्सा ले । कारण स्पष्ट है । यज्ञ में हिस्सा लेने के अधिकारी पुरोहितों की कुल संख्या सत्रह थी । स्वाभाविक तौर पर वे मृत पशु की पूरी की पूरी लाश अपने ही लिए ले लेना चाहते थे ।

वास्तव में यदि उन्हें सारी देह अपने ही लिए न मिले तो वे सत्रह पुरोहितों में कुछ ठीक - ठीक बांट भी नहीं सकते थे । विधानानुसार ब्राह्मण उस पशु पर किसी प्रकार का अधिकार तब तक नहीं जता सकते थे जब तक हर आदमी पशु के मांस के अपने अधिकार को सर्वथा छोड़ न दे । इसीलिए उक्त निर्देश में जो आदमी पशु के साथ आया हो उसे भी अपना अधिकार छोड़ देने का आदेश है ।

ऐतरेय ब्राह्मण में आगे पशु हत्या करने का तरीका और उसके मास का किस किस तरह बटवारा किया जाय उसका तक वर्णन है। इन सारी बातों को आप विस्तार से यहा देख सकते हैं -

क्या हिन्दू धर्म ग्रंथ पशुबलि की आज्ञा देता है? के लिए Mayur Patel का जवाब

ऐसे भी लोग हैं इतने सारे सबूतों पर यकीन नहीं करेगे और वाद विवाद करेगे । इन प्रतिवादीओ के बारे में रजनीकांत शास्त्री ( हिन्दू जाती का उत्थान और पतन ) बताते हैं कि,

“ इस पर एक प्रतिवादी कहता है कि अजी ऐसे - ऐसे श्लोक जिनके द्वारा हमारे अहिंसा व्रतधारी , शुद्धाहार विहारी तथा प्राणिमात्र पर दया दृष्टि रखनेवाले पूज्य पूर्वजों पर मद्य - मांस - सेवन बाममागियों पर तथा यज्ञादि धार्मिक कृयों के सम्पादनार्थ पशु - हत्या कलंक बगाना करने का अभियोग लगाया जाता है , हमारे पवित्र म्यर्थ है प्रन्थों में वाममागियों के घुसेड़े हुए हैं , जिसमें वे इन श्लाकों के प्रमाण दिखा - दिखाकर अपने पंचमकारी मत को पुष्ट कर सकें । इस पर मुझे ऐसा थाथी तथा लचर दलील करनेवालों से केवल इतना ही पूछना है कि क्या वे सभी प्रन्थ जिनमें ऐसजाली कहे जानेवाले श्लोक वाममार्मियों के द्वारा प्रक्षिप्त बताए जाते हैं , केवल उनके ही घर थे जिनमें चुपके से उन्होंने ऐसो जाल साजी कर दी ? और ग्रन्थों को थोड़ी देर के लिए छोड़कर केवल वाल्मीकीय रामायण का ही उदाहरण लीजिये । प्राचीन काल में मुद्रण यंत्रों के अभाव से पुस्तकें हाथ से लिखी जाती थीं । अतः इतना मान लिया जा सकता है कि उक्त रामायण की जो हस्तलिखित प्रति जिसके घर में थी , उसमें उसका जाल कर देना एक अति ही सकर तथा निरापद काये था ; क्योंकि उस काल में मुद्रण के अभाव के कारण उसको इस बात का तनिक भी डर न था कि उसकी जालो प्रति को किसी प्रेस में छपकर प्रकाशित हो जाने पर उसकी चोरी सर्वसाधारण द्वारा पकड़ ली जाएगी । पर उक्त रामायण की जो प्रतियाँ दूसरों के घर ( जिन्हें हम तकशैली की सगमता के लिए दक्षिण - मार्गी कह सकते है ) थीं , उनमें तो वाममागियों की चोंच अवश्य ही नहीं लगी होंगी । पर प्रत्यक्ष देखने में आता है कि उक्त रामायण के सभी संस्करणों तथा प्रतियों में ही , जो प्राचीन काल की हस्तलिखित और वर्तमान काल की मुद्रित उपलब्ध हैं , राजा दशरथ का अश्वमेध यज्ञ , रामचन्द्र का किया हुआ जटायू का श्राद्ध तथा उनका मद्य - मांस - सेवन पूर्वक उपवन - विहार , ये सभी निंद्य घटनायें न केवल वर्णित मिलनी ही हैं , बल्कि एक ही प्रकार से और ठीक उन्हीं श्लोकों के द्वारा वर्णित प्राचीन हिन्दुओं का खान - पान मिलती हैं जिनका उद्धरण मैं कर चुका हूँ । तो क्या मैं इससे यही मान लूँ कि वाल्मीकीय रामायण की सभी प्रतियाँ वाममार्गियों के ही अधिकार में थीं ; दक्षिण - मार्गियों के अधिकार में एक भी नहीं ; क्योंकि यदि होती तो उसका भी संस्करण वाममार्गीय संस्करण के साथ - साथ आज भी प्रचलित देख पड़ता , जिसमें अश्वमेध यज्ञादि के पूर्वोक्त वीभत्स वर्णन हमें देखने को नहीं मिलते ? उक्त प्रन्थ के दक्षिण मार्गीय संस्करण के नितान्त प्रदर्शन होने से क्या मैं यही मानकर सन्तोष कर लूँ कि दक्षिण - मागियों की सभी प्रतियाँ दोमक चाट गई , अथवा नहीं तो विधर्मियों ने उन्हें भस्म कर दिया ? पर ऐसा मान लेने पर एक दूसरा प्रश्न उठ खड़ा होता है कि वाममार्गियों की प्रतियों ने अपने प्राक्तन जन्म में कौन - सा पुण्य - कर्म किया था जिसके फलस्वरूप वे उक्त उपद्रव से बाल - बाल बच गई । हमारे पवित्र ग्रन्थों में पाए जानेवाले आपत्ति - जनक श्लोकों को वाममार्गियों द्वारा प्रक्षिप्त मान लेने पर हमारे सम्मुख ऐसे ही कितने प्रश्न हठात् उठ खड़े हो जाते हैं जिनका संतोषजनक उत्तर मिलना नितान्त कठिन ही नहीं , वरन् पूर्णतः असंभव है । अत : सच्ची बात यही है कि भ्रमवश वा स्वार्थवश प्रक्षिप्त माने वा कहे जानेवाले श्लोक किसी के द्वारा प्रक्षिप्त न होकर मूल ग्रंथकारों को ही रचनाएँ हैं , और उन्होंने उनके द्वारा तत्कालीन हिन्दू - समाज का एक सच्चा चित्र आंकत किया है । प्रक्षेपों का गुजारा केवल वहीं हो सकता है जहाँ उनके कोई विरोधी न हों वा कम से कम उनके प्रति अन्य लोग उदासीन हों । आश्चर्य तो इस बात पर है कि इन ग्रन्थों को बने आज कई सहस्राब्दियाँ बीत गई और तब से आज तक इस देश में धर्मशास्त्रों के अनेक धुरन्धर विद्वान् उत्पन्न हुए ; पर उनमें से किसी को भी प्रक्षेप नहीं सूझ पड़ा जो सभा - शास्त्रार्थ द्वारा ठीक करके निकाल दिया जाता और जो इस बीसवीं शताब्दी में बरसाती कीड़ों की तरह फुदकने . वाले विद्वन्मन्यों को प्रस्फुरित हुमा । इसके अतिरिक्त प्रक्षेप मानने का अधिकार सब को है । यदि एक के मत में मांस - भक्षण प्रक्षेप है तो दूसरे के मत में नियोग । इस तरह हमारा सारा धर्मशास्त्र प्रक्षेपों का आगार होकर मिट्टी में मिल जाएगा ।

पुनः एक दूसरा प्रतिवादी कहता है कि ' अश्वमेध ' शब्द में जो ' अश्व ' शब्द है उसका अर्थ घोड़ा नामक पशु - विशेष नहीं है जैसा कि सामान्यत : प्रचलित है । बल्कि अश्वगन्धा नामक औषधि ( जड़ी ) विशेष है और वही जड़ी ऋषभ , मेष ( मेषपणी ) , अजा ( राजशृङ्गी ) , मृग ( सहदेई ) आदि पशु - नाम - धारिणी जड़ियों के साथ अश्वमेध के अवसर पर हवन - कुंड में डाली जाती थी , जिनकी सुगन्ध से देवता लोग प्रसन्न होते थे और जिनके धूएँ से विविध रोगों के कीटाणु ( Germ ) नष्ट हो जाते थे , जिसमे प्रजा स्वस्थ और सुखी रहतो थी । क्या मैं इन लालबुझक्कड़ों से नम्रतापूर्वक पूछ सकता हूँ कि अश्वमेध यज्ञ सम्पाद नार्थ सम्राटपद प्राप्ति रूप महत्त्वाकांक्षी राजाओं के द्वारा दिग्विजयार्थ सैनिकों के साथ जो ' अश्व ' छोड़ा जाता था वह सचमुच घोड़ा न होकर अश्वगन्धा नाम की जड़ी थी जिसे किसी भृत्य के माथे पर एक टोकरी में रखकर सर्वत्र घुमाया जाता था और वही अश्वगन्धा जड़ी सब ओर से घुमा - फिराकर वापस लाई जाती और हवनकुण्ड में काट . काटकर डाल दी जाती थी ? पर वाल्मीकीय रामायण में वर्णित राजा दशरथ के अश्वमेध यज्ञ - सम्बन्धी कतिपय श्लोकों का उद्धृतकर पहले बता आया हूँ कि रानी कौशल्या ने जिस आश्वमेधिक ' अश्व ' का वध अपनी तलवार के तीन प्रहारों से पूर्ण किया था वह यज्ञ - यूप में बँधा था । यज्ञ में वध होनेवाले पशुओं को यूपों में इसलिए बाँधते हैं कि वे प्रहार करते समय भाग न जाएँ । अतः अश्वमेध यज्ञ में वध किए जानेवाले ' अश्व ' से घोड़ा नामक जंगम प्राणी को ही ग्रहण करना बुद्धिसंगत प्रतीत होता है ; न कि अश्वगन्धा नामक औषधि - विशेष को ; क्योंकि यदि अश्वगन्धा जड़ी होती तो उस किसी यूप में , उसके जड़ तथा स्थावर होने के कारण , बांधने की आवश्यकता न होती श्रीर न तो मे तलवार से काटने की ही आवश्यकता हाती ; बल्कि वह ता यों ही इंधन की तरह हवन - कुण्ड में झोंक दी जाती और यदि वह जलाने योग्य लकड़ी के बड़े - बड़े कुन्दों की तरह होती तो उसे कुल्हाड़े से हवन - कुण्ड में डालने के पूर्व फाड़ देने की आवश्यकता होती । ”

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